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________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४ क्रम १० ११ १३ प्रकृतियां भय, जुगुप्सा १२ पुरुषवेद १६ नपुंसकवेद १७ स्त्रीवेद १४ सातावेदनीय १५ देवायु असातावेदनीय मनुष्यायु, तिर्यंचायु नरकायु Jain Education International उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी अति सक्लिष्ट मिथ्यावी पर्याप्त संज्ञी 17 तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यात्वी पर्याप्त संज्ञी 12 सूक्ष्मसपराय चरम समयवर्ती क्षपक तद्योग्य विशुद्ध अप्रमत्त यति जघन्य अनुभागबंध के स्वामी क्षपक अपूर्व करण चरम समयवर्ती For Private & Personal Use Only तद्योग्य विशुद्ध मिथ्या दृष्टि 11 अति संक्लिष्ट मिथ्या - परावर्तमान मध्यम त्वी पर्याप्त संज्ञी परिणामी २५६ अनिवृत्तिबादरसंप रायी क्षपक बंधविच्छेद के समय "3 तत्प्रायोग्य सं. मिथ्यात्वी पर्याप्त पचे. तिर्यंच, मनुष्य तत्प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि पर्याप्त मनुष्य, तिच त्वी तियंच, मनुष्य तत्प्रायोग्य सं. मिथ्या । तत्प्रायोग्य त्वां पर्याप्त मनुष्य, मिथ्यात्वी तिर्यंच तत्प्रायोग्य सं. मिथ्या मनुष्य तथा तिर्यंच विशुद्ध पर्याप्त पंचे. www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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