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________________ २६० पंचसंग्रह : ५ क्रम प्रकृतियां उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी जघन्य अनुभागबंध के स्वामी १८ देवद्विक, वैक्रियद्विक क्षपक अपूर्वकरण में अति संक्लिष्ट मिथ्यास्वबंधविच्छेद समय- | त्वी पर्याप्त मनुष्य, वर्ती पंचेन्द्रिय तिर्यच १६ | मनुष्य द्विक अतिविशुद्ध सम्यग्दृष्टि देव परावर्तमान मध्यम परिणामी मिथ्यात्वी २० । तिर्यंचद्विक अति संक्लिष्ट मिथ्यात्वी नारक तथा सहस्रारांत देव उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करने वाला मिथ्यात्व चरमसमयवर्ती सप्तमपृथ्वी नारक २१ । नरकद्विक अति संक्लिष्ट मिथ्या- | तत्प्रायोग्य विशुद्ध . त्वी पर्याप्त मनुष्य, मिथ्य त्वी पर्याप्त तियंच मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच २२ आहारकद्विक क्षपक अपूर्वकरण में | प्रमत्ताभिमुख अप्रमबंधविच्छेद के समय । त यति २३ | औदारिकद्विक अतिविशुद्ध सम्यग्दृष्टि देव अति संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि देव, नारक २४ ! तेजस, कार्मण, शुभ | क्षपक अपूर्वकरणवर्ती | अति संक्लिष्ट चारों वर्ण चतुष्क, पंचेन्द्रिय- J स्वबंधविच्छेद के | गति के मिथ्यादृष्टि जाति, पराघात, उच्छ्- | समय वास, अगुरुतघु, निर्माण, सचतुष्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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