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पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ८
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अपनी उत्कृष्ट स्थिति को सत्तर कोडाकोडी सागर से भाग देने पर जो आये वह निद्रा आदि प्रकृतियों की जघन्य स्थिति है और पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक उत्कृष्ट स्थिति है । यह व्याख्यान पंचसंग्रह के अभिप्रायानुसार समझना चाहिए ।
इस सम्बन्ध में उपाध्याय यशोविजय जी ने कर्मप्रकृति पृ. ७७ में इस प्रकार संकेत किया है
'पंचसंग्रह में वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति भाजित करना नहीं माना है, परन्तु अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने पर जो आये वही जघन्य स्थिति का प्रमाण कहा है। वह इस प्रकार - - निद्रापंचक और असातावेदनीय की उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम स्थिति को सत्तर कोडाकोडी से भाग देने पर ३/७ लब्ध आता है, उतनी उनकी जघन्य स्थिति है । "
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यहाँ पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने का नहीं कहा है, परन्तु उक्त जघन्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग बढ़ाने पर जो आये वह उत्कृष्ट है, जो द्वीन्द्रियादि के जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध को बताने के प्रसंग पर स्पष्ट हो जाता है । द्वीन्द्रियादि की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति बताने के लिए लिखा है
पंचसंग्रह में ३/७ भाग आदि एकेन्द्रिय की जो जघन्य स्थिति कही है, उसमें पत्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाकर और उसे पच्चीस आदि से गुणा करने पर जो आये वह द्वीन्द्रियादि की उत्कृष्ट स्थिति है और एकेन्द्रिय
१ पंचसंग्रहे तु वर्गोत्कृष्ट स्थितिर्विभजनीयतया नाभिप्रेता किन्तु 'सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिइए जं लद्धं' इति ग्रन्थेन स्वस्वोत्कृष्ट स्थिते मिथ्यात्वस्थित्या भागे हृते यल्लभ्यते तदेव जघन्यस्थिति परिमाणमुक्तम् । तत्र निद्रा पंचकस्यासातावेदनीयस्य च प्रत्येकमुत्कृष्टा स्थितिस्त्रिशत् सागरोपम कोटाकोटी रिति, तस्या मिथ्यात्वोत्कृष्ट स्थित्या भागे हियमाणे शून्यं शून्येन पातयेदिति वचनाल्लब्धास्त्रयसागरोपमस्य सप्तभागाः इयती निद्रापंचकासात वेदनीययोर्जघन्या स्थितिः ।
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