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पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५
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करोड़ों बालाग्र ठूंस-ठूस कर इस प्रकार भरे जायें कि उन बालानों को न अग्नि जला सके, न हवा उड़ा सके एवं वे बालाग्र दुर्गन्धित न हों और न सड़ा सकें । इस तरह से पल्य भर दिया जाये ।
इसके पश्चात् इस प्रकार के बालाग्रों से ठसाठस भरे हुए उस पल्य में से प्रतिसमय एक-एक बालाग्र को निकाला जाये । इस क्रम से जितने काल में वह पल्य क्षीण हो अर्थात् उन भरे हुए बालानों में से एक भी शेष न रहे, नीरज हो, निर्मल हो, निष्ठित हो, निर्लेप हो, अपहरित हो और विशुद्ध हो, उतने काल को एक पल्योपम काल कहते हैं ।
सागरोपम - पल्योपम का ऊपर जो प्रमाण बताया है, वैसे दस कोटा-कोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है ।
(क्रमशः )
सात बार आठ-आठ खण्ड करना चाहिए। अर्थात् उस रोम के आठ खण्ड करके पुनः एक-एक खण्ड के आठ आठ खण्ड करना चाहिए | उन खण्डों में से भी प्रत्येक खण्ड के आठ-आठ खण्ड करना चाहिए । ऐसा करतेकरते उस रोम के बीस लाख सत्तानवे हजार एक सौ बावन (२०,६७, १५२) खण्ड होते हैं । इस प्रकार के खण्डों से उस पल्य को भरना चाहिए ।
दिगम्बर साहित्य में 'एकादिसप्ताहोरात्रिजाता वि बालाग्राणि' लिखकर एक दिन से सात दिन तक के जन्मे हुए मेष के बालाग्र ही लिये हैं ।
१ - द्रव्यलोकप्रकाश ( सर्ग १ ) में इसके बारे में इतना और विशेष लिखा है
तथा च चक्रिसैन्येन तमाक्रम्य प्रसर्पता ।
न मनाक् क्रियते नीचैरेवं निविडता गतात् ।।
अर्थात् वे केशाग्र इतने सघन भरे हों कि चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाये तब भी वे जरा भी नीचे न हो सकें, इधर-उधर
बिखरें नहीं ।
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