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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० १०६ उदय में जाये तब चौंतीस का उदयरूप अल्पतर सम्भव है तो फिर चौंतीस के अल्पतर का निषेध क्यों किया है ? उत्तर-चौंतीस प्रकृतिक उदयस्थान को अल्पतरोदय रूप न होने का निषेध इसलिए किया कि सभी जीव केवली-अवस्था गुणस्थान के क्रम से प्राप्त करते हैं, किन्तु कोई भी जीव चौथे, पांचवें से सीधा तेरहवें गुणस्थान में नहीं जा सकता है । अर्थात् छठे, सातवें से आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान को कम से प्राप्त करके और उसके बाद बारहवें गुणस्थान का स्पर्श करके ही तेरहवें गुणस्थान-केवली-अवस्था को प्राप्त करता है। बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान में तेतीस प्रकृति का उदय रूप एक ही उदयस्थान होता है, किन्तु अन्य कोई उदयस्थान नहीं होता है। उन तेतीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार है मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीति, तैजस, कार्मण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क, "अगुरुलघु, निर्माण, औदारिकद्विक, प्रत्येक, उपघात, अन्यतर विहायोगति, पराघात, सुस्वर-दुःस्वर में से कोई एक, उच्छवास, छह संस्थान में से कोई एक संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, साता-असाता में से कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु और उच्चगोत्र । १ इस कथन का स्पष्टीकरण अपेक्षित है क्योंकि चार अघाति कर्मों की ही तेतीस प्रकृतियां होती हैं। उनमें ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों को मिलाने से बारहवें गुणस्थान में सैंतालीस का उदयस्थान होता है। क्योंकि वहाँ तीन घातिकर्मों का भी उदय है। जिससे उस सैंतालीस के उदयस्थान से घातिकर्म क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर चौंतीस के उदय में जाने पर चौंतीस का अल्पतर भी सम्भवित हो सकता है तो फिर उसका निषेध क्यों किया? यानि बारहवें गुणस्थान में तेतीस का उदयस्थान ही क्यों कहा और चौंतीस का अल्पतर क्यों नहीं बताया ? www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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