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________________ ३६४ पंचसंग्रह : ५ बाद के समयों में गुणश्र ेणि द्वारा स्थापित अधिक दलिकों का अनुभव होने से जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है । इस प्रकार से जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व का विचार करने के साथ उदयाधिकार का विवेचन पूर्ण हुआ । सत्ताधिकार अब क्रमप्राप्त सत्ताधिकार का विवेचन प्रारम्भ करते हैं । सत्तासत्कर्म के चार प्रकार हैं- प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म । इन चारों में से पहले प्रकृतिसत्कर्म की प्ररूपणा करते हैं । प्रकृतिसत्ता के विषय में दो अनुयोगद्वार हैंसादि-अनादि प्ररूपणा और स्वामित्व । इनमें से सादि-अनादि प्ररूपणा के दो प्रकार हैं— मूलप्रकृतिविषयक, उत्तरप्रकृतिविषयक | अल्प वक्तव्य होने से पहले मूलप्रकृतिसम्बन्धी सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं मूलप्रकृतियों की सत्ता के अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार हैं । इसका कारण यह है कि सदैव सद्भाव होने से मूलकर्म की सत्ता अनादि है, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव है । इस प्रकार से मूल प्रकृतियों सम्बन्धी सादि आदि भंगों का विचार जानना चाहिये | अब उत्तरप्रकृतियों के सादि आदि भंगों का विचार करते है | उत्तरप्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा पढम कसाया चउहा तिहा धुवं साई अद्ध्रुवं संतं । शब्दार्थ- पढमकसाया - प्रथमकषाय, चउहा- चार प्रकार की, तिहा - तीन प्रकार की, ध्रुवं- ध्र ुव प्रकृतियों की, साइ–सादि, अद्ध्रुवं - अध्र ुव, संतं -- सत्ता 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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