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स्वामित्व प्ररूपणा
असुभधुवाण जहण्णं बंधग चरमा कुणंति सुविसुद्धा | समयं परिवडमाणा अजहणणं साइया दोवि ॥६७॥ शब्दार्थ --- असुमध वाण - अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का, जहणंजघन्य अनुभागबंध, बंधग - बंधक, चरमा - चरमसमय में, कुणंति - करता है, सुविसुद्धा - सुविशुद्ध, समयं - समय, परिवडमाणा - गिरने पर अजहणं--- अजघन्य, साइया -- सादि, दोवि—दोनों ही ।
पंचसंग्रह ५
गाथार्थ - अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध सुविशुद्ध परिणाम वाला बंधक बंध के चरम समय में रहते एक समय मात्र करता है और वहाँ से गिरने पर अजघन्य अनुभाग बंघ करता है | जिससे वे दोनों ही सादि हैं।
विशेषार्थ - गाथा में अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के स्वामित्व का निर्देश किया है
पूर्व में कही गई अशुभ ध्रुवबंधिनी तेतालीस प्रकृतियों का अत्यंत विशुद्ध परिणाम वाला बंघ के चरम समय में वर्तमान यानी जिस-जिस गुणस्थान में जिस-जिस समय उनका बंधविच्छेद होता है, उस समय में वर्तमान क्षपक एक समय मात्र जघन्य अनुभागबंध करता है और उपशमश्र ेणि में उपशमक उस उस प्रकृति का बंधविच्छेद करके आगे उपशांतमोगुणस्थान में जाकर वहाँ से गिरता है, तब अजघन्य अनुभागबंध करता है । इसलिये जघन्य और अजघन्य ये दोनों सादि हैं तथा अजघन्य अनुभागबंध समस्त संसारी जीवों को होता है, इस लिये जो बंध विच्छेदस्थान को प्राप्त नहीं करते है, उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य को ध्रुव और भव्य को अध्रुव जानना चाहिये ।
इस प्रकार से अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबंध के स्वामियों को जानना चाहिये । अब शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का निर्देश करते हैं ।
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