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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३८-३६ ___ इस प्रकार से आयुकर्म की स्थिति में उसके अबाधाकाल को न जोड़ने के कारण को स्पष्ट करने के अनन्तर अब भुज्यमान आयु के दो भाग जाने के बाद तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु बंध होने को आधार बनाकर प्रस्तुत की गई एक शंका का समाधान करते हैं। आयुबंध विषयक शंका-समाधान
वोलीणेसु दोसू भागेसू आउयस्स जो बंधो । भणिओ असंभवाओ न घडइ सो गइचउक्केवि ॥३८॥ पलियासंखेज्जसे बंधंति न साहिए नरतिरिच्छा। छम्मासे पुण इयरा तदाउतंसो बहुं होइ ॥ ३६ ॥ शब्दार्थ-बोलीणेसु-बीतने पर, दोसु भागेसु-दो भागों के, आउयस्स --आयकर्म के, जो-जो, बंधो-बंध, भणिओ-कहा है, असंमवाओअसंभव होने से, न--नहीं, घडइ-घटित होता है, सो-वह, गइचउक्के वि -चारों गतियों में भी।
पलियासंखेज्ज से-पल्य के असंख्यातवें भाग, बंधंति-बांधते हैं, ननहीं, साहिए-साधिक, नरतिरिच्छा-मनुष्य तिर्यंच, छम्मासे-छह मास, पुण- पुन: और, इयरा-इतर-देव, नारक, तदाउतंसो-उनकी आयु का तृतीय अंश, बहुं-बहुत बड़ा, होइ-होता है । ___ गाथार्थ-भुज्यमान आयु के दो भागों के बीतने पर शेष रहे तीसरे भाग में जो परभव की आयु का बंध होना कहा है वह असंभव होने से चारों गतियों में घटित नहीं होता है। क्योंकि युगलिक मनुष्य साधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग के शेष
मात्र सागरोपमों में होने से सम्भवतः आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बंधने में उसका अबाधाकाल न जोड़ा हो । विज्ञजन इस दृष्टिकोण पर विचार
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