SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४२ १७१ असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्यों की पल्योपम का असंख्यातवां भाग परभवायु की अबाधा है। उनके मत से पल्योपम का असंख्यातवां भाग शेष रहे, तब परभव की आयु का बंध होता है । इस प्रकार से आयुचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति और तत्सम्बन्धी अबाधाकाल का विचार करने के पश्चात् अब तीर्थंकरनाम, आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण बताते हैं। तीर्थकरनाम, आहारकद्विक को उत्कृष्ट स्थिति अंतोकोडाकोडी तित्थयराहार तीए संखाओ। तेत्तीसपलियसंखं निकाइयाणं तु उक्कोसा ॥४२॥ शब्दार्थ- अंतोकोडाकोडी-अन्तःकोडाकोडी सागरोपम, तित्थयराहारतीर्थंकरनाम और आहारकद्विक की, तीए-उसके, संखाओ-संख्यातवें भाग, तेत्तीसपलियसंखं-तेतीस सागरोपम और पल्योपम का असंख्यात वां भाग, निकाइयाणं-निकाचित की, तु-और, उक्कोसा-उत्कृष्ट । गाथार्थ-तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम है और इन दोनों की निका. चित उत्कृष्ट स्थिति अनुक्रम से अन्तःकोडाकोडी के संख्यातवें भाग से लेकर तेतीस सागरोपम और पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण है। विशेषार्थ-यहाँ तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक की सामान्य से और निकाचित अवस्था की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है____ अनिकाचित अवस्था की अपेक्षा तो तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक-आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोडाकोडी सागरोपम की है, अन्तमुहूर्त अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन निषेकरचनाकाल है। लेकिन निकाचितापेक्षा इन दोनों की उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार जानना चाहिये कि तीर्थंकरनामकर्म की www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy