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________________ ४ पंचसंग्रह : ५ अवस्थितोदय - यह पूर्व में बतलाया जा चुका है कि अवस्थितोदय उदयस्थान के तुल्य जानना चाहिये । अतः नामकर्म के जितने उदयस्थान हैं उतने ही अवस्थितोदय हैं। यानि नामकर्म के उदयस्थान बारह होने से बारह ही अवस्थितोदय होते हैं । अवक्तव्योदय - यह सर्वथा असंभव है। क्योंकि नामकर्म की सभी उत्तरप्रकृतियों का उदयविच्छेद होने के पश्चात् पुनः उदय होता नहीं है और सभी उत्तरप्रकृतियों का उदयविच्छेद अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में होता है और वहाँ से प्रतिपात नहीं होने से पुनः उदय संभव नहीं । इसलिये अवक्तव्योदय घटित नहीं होता है । इस प्रकार से ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों में भूयस्कार आदि प्रकारों को जानना चाहिये । अव सामान्यतः सभी उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों में भूयस्कार आदि का निरूपण करने के लिये उनके उदयस्थानों को बतलाते हैं । नहीं होता है । इसीलिए इकतीस तथा पच्चीस ओर चौबोस के उदय बिना नौ उदयस्थान के नौ अल्पतरोदय बताये, वे केवली की अपेक्षा तो बराबर हैं, परन्तु लब्धिसंपन्न मनुष्य या तियंच वैक्रियशरीर बनाते हैं तब तीस के उदयस्थान से पच्चीस के उदयस्थान में और लब्धिसंपन्न छब्बीस के उदय में वर्तमान वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर बनायें तब छब्बीस के उदयस्थान से चौबीस के उदयस्थान में जाते हैं । अथवा यथासंभव इकतीस से छब्बीस तक के उदयस्थान से पंचेन्द्रिय तियंच आदि काल कर के ऋजुश्रेणि द्वारा देव, नारक में उत्पन्न हों तब पच्चीस के और एकेन्द्रिय में उत्पन्न हों तब चौबीस के उदयस्थानों में जाते हैं । जिससे पच्चीस और चौबीस प्रकृति के उदय रूप दोनों अल्पतर संसारी जीवों में घट सकते हैं । जिससे नौ की बजाय ग्यारह अल्पतरोदय मानना चाहिए। किन्तु मलयगिरिसूरि ने नो अल्पतरोदय बताये हैं । स्वोपज्ञवृत्ति से भी कारण ज्ञात नहीं होता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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