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________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०३ ३४३ प्रकृतियों का तो सत्तागत स्थिति के अनुसार जानना चाहिए । परन्तु उनमें भी उक्त न्यायानुसार एक स्थितिस्थान से अधिक समझना चाहिए । इस प्रकार से उत्कृष्ट स्थिति - उदय विषयक विशेषता को बतलाने के बाद अब जघन्य स्थिति के उदय के सम्बन्ध में विशेष कहते हैंहस्सुदओ एगठिईणं निणा एगियालाए ॥ १०३॥ - - शब्दार्थ –हस्सुबओ – जयन्य उदय, एगठिईणं - एक स्थिति का निद्दूणा -निद्राओं के बिना, एगियालाए - इकतालीस प्रकृतियों का । १. शेष प्रकृतियों का अर्थात् उदयसंक्रमोत्कृष्टा तीस प्रकृतियां । इनके नाम तीसरे अधिकार की ६२वीं गाथा में बतलाये हैं । इनमें से सम्यक्त्वमोहनीय के सिवाय उनतीस प्रकृतियों की अपने-अपने उदयकाल में अन्य प्रकृतियों के संक्रम से एक आवलिका न्यून अपने मूलकर्म की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति सत्ता होती है और उस आवलिकान्यून हुई उत्कृष्ट स्थितिसत्ता में से संक्रमावलिका व्यतीत होने के बाद उदयावलिका के ऊपर के सर्व स्थितिस्थानगत दलिक उदीरणायोग्य होने से तीन आवलिका न्यून ( बंध, संक्रम, उदय आवलिका न्यून) अपने मूलकर्म के उत्कृष्ट स्थिति बंध प्रमाण उत्कृष्ट उदीरणा योग्य स्थितियाँ होती हैं । अनुदयबंधोत्कृष्टा नरकगति आदि बीस एवं तीर्थंकरनाम और आहार सप्तक के बिना अनुदय संक्रमोत्कृष्टा मनुष्यानुपूर्वी आदि दस प्रकृतियों की उत्कृष्ट उदीरणायोग्य स्थितियां अन्तर्मुहूर्त न्यून अपने-अपने मूलकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध के समान हैं । आहारकसप्तक की अंतर्मुहूर्त - न्यून अंत: कोडाकोडी सागरोपम और जिन नाम की पत्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट उदीरणायोग्य स्थितियां हैं। विस्तार से विवेचन आगे उदीरणाकरण अधिकार में किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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