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________________ ४१० पंचसंग्रह : ५ सद्भाव है । ध्रुव अभव्य की अपेक्षा और अध्रुव भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये । यद्यपि अनन्तानुबंध कषाय भी ध्रुवबन्धिनी हैं, किन्तु विसंयोजना होने के बाद पुनः बन्ध सम्भव होने से वे सत्ता को प्राप्त कर लेती हैं । इसलिये उनकी अजघन्य स्थितिसत्ता में चार भंग घटित होते हैं । परन्तु उनके सिवाय शेष ध्रुवसत्ता वाली कोई भी प्रकृति सत्ता से दूर होने के बाद पुनः सत्ता को प्राप्त ही नहीं करती है। इसलिये उनकी अजघन्य स्थितिसत्ता में सादि के सिवाय शेष तीन भंग ही घट सकते हैं । अनन्तानुबन्धि कषायों और शेष सभी ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों के शेष उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य ये तीनों विकल्प सादि और अध्रुव हैं। इनमें से जघन्य स्थितिसत्ता के सादि और अध्रुव भंगों का विचार ऊपर किया जा चुका है और उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट इन दोनों प्रकार की सत्ता क्रमशः अनेक बार होती है, अतः वे दोनों सादि और अध्रुव हैं। देवद्विक, नरकद्विक, उच्चगोत्र, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, वैक्रिय सप्तक, आहारकसप्तक, मनुष्यद्विक, ये उद्वलनयोग्य तेईस प्रकृतियां तथा चार आयु और तीर्थंकरनाम इस प्रकार अट्ठाईस अध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों की जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट इस तरह चारों प्रकार की स्थितिसत्ता उन प्रकृतियों के अध्रुवसत्ता वाली होने से सादि और अध्रुव है । क्योंकि जिनकी सत्ता सर्वदा हो या जो सदा रहने वाली हों उनमें ही अनादि और ध्रुव भंग घट सकते हैं । परन्तु जिनकी सत्ता का ही नियम न हो, कादाचित् सत्ता हो उनमें सादि और अध्रुव के सिवाय अन्य सभी भंग सम्भव नहीं हैं । इस प्रकार से मूल और उत्तर प्रकृतियों विषयक सादि आदि भंगों का विचार जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only W www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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