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________________ बंध विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, तीर्थंकरनाम, पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क, ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, उच्चगोत्र, सातावेदनीय और यशः कीर्तिनाम इन तेतीस प्रकृतियों को छोड़कर शेष सतासी (८७) प्रकृतियों की जघन्य स्थिति तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम वाले एकेन्द्रिय पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव बांधते हैं तथा उक्त देवत्रिक आदि तेतीस प्रकृतियों में से देवत्रिक, नरकत्रिक और वैक्रियद्विक इन आठ प्रकृतियों की असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव जघन्य स्थिति बांधते हैं । आहारकशरीर, आहारकअंगोपांग और तीर्थंकरनाम की जघन्य स्थिति क्षपक अपूर्वकरणवर्ती जीव बांधते हैं तथा संज्वलनक्रोधादिचतुष्क और पुरुषवेद की क्षपक अनिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थानवर्ती जीव और ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और यशः - कीर्तिनाम इन सत्रह प्रकृतियों की जघन्य स्थिति क्षपक सूक्ष्मसंप रायगुणस्थानवर्ती जीव बांधते हैं। जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में जघन्य बंधप्रकार के प्रसंग में विशेषता के साथ किया जा चुका है । 2 २२५. १ सतासी प्रकृतियों में मनुष्यायु और तिर्यंचायु इन दोनों आयुओं का भी ग्रहण है । परन्तु उन दो आयु का दो सौ छप्पन आवलिका प्रमाण जघन्य बंध तो तत्प्रायोग्य संक्लेश में वर्तमान देव और नारक को छोड़कर एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव कर सकते हैं, यह संभव है । दिगम्बर पंचसंग्रह पेज २५६ पर आयु के जघन्य स्थितिबंधक के लिये लिखा है - आयुषां चतुर्णां जघन्यस्थिति संज्ञी वा असंज्ञी वा बध्नाति । जिसका आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है देवायु और नरकायु का जघन्य स्थितिबंध कोई एक संज्ञी या असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव करता है। मनुष्यायु और तिर्यंचायु का जघन्य स्थितिबंध कर्मभूमिज मनुष्य या तिर्यंच करते हैं । २ दिगम्बर कर्मग्रथों में भी कुछ भिन्नता और अधिकतम समानता के साथ इसी प्रकार जघन्य स्थितिबंधस्वामित्व का वर्णन किया है। देखिये पंच संग्रह शतक अधिकार गाथा ४३३ से ४४० तक । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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