________________
पंचसंग्रह : ५
जब उदय न हो, तब संक्रम द्वारा जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति होती है, वे अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियां कहलाती हैं । उन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
४१८
देवगति, देवानुपूर्वी, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, आहारकसप्तक, मनुष्यापूर्वी, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त और तीर्थंकरनाम । इन अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट अठारह प्रकृतियों की दो आवलिका न्यून उत्कृष्ट स्थिति का जो संक्रम होता है उसे समय न्यून उदयावलिका सहित करने पर प्राप्त स्थिति उनकी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहलाती है । वह इस प्रकार जानना चाहिये
किसी एक मनुष्य ने उत्कृष्ट संक्लेशवशात् नरकगति का बंध करके परिणामों का परावर्तन होने से देवगति का बंध करना प्रारम्भ किया । तत्पश्चात् बध्यमान देवगति में जिसकी बंधावलिका व्यतीत हो गई है, उस नरकगति की उदयावलिका से ऊपर की दो आवलिका न्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति को उसकी ( देवगति की) उदयावलिका से ऊपर संक्रांत करता है । जिस समय देवगति में नरकगति की स्थिति को संक्रमित करता है, वह समय मात्र प्रथम स्थिति वेद्यमान मनुष्यगति में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत करता है । क्योंकि देवगति का अनुभागोदय नहीं होने से उस समय प्रमाण स्थिति से न्यून आवलिका से अधिक दो आवलिका न्यून जो नरकगति की स्थिति का आगम हुआ है उसे देवगति की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता समना चाहिए ।
इसी प्रकार देवानुपूर्वी आदि प्रकृतियों के विषय में भी समझना चाहिये । मात्र मिश्रमोहनीय की अन्तर्मुहूर्त न्यून मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति का जो सक्रम होता है, उसे समयन्यून आवलिका से अधिक करने पर जो प्रमाण होता है उसे उत्कृष्ट स्थितिउत्ता जानना चाहिये। जिसका विचार पूर्वोक्त सम्यक्त्वमोहनीय के अनुरूप कर लेना चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org