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“અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૬૦
બાલભારત
: દ્રવ્ય સહાયક : અધ્યાત્મયોગી પૂ. આચાર્ય ભગવંત શ્રી વિજયે કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા. ના શિષ્યરત્ન પૂ. ગણિવર્ય શ્રી તીર્થભદ્રવિજયજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી પાલિતાણામાં થયેલ સં. ૨૦૬૮ ના ભવ્ય ઉપધાન તપ તથા ૯૯ યાત્રા થયેલ. તેના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સોમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
ક્રમાંક
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ र्त्ता-टीडाडार - संपाह पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
પૃષ્ઠ
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
003
004
005
006
007
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017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
019
020
021
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023
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027
028
029
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
238
286
84
18
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54
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850
322
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226
640
452
500
454
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214
414
192
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824
288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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138
296
(04)
210
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286
216
532
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४
- - -
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम
भाषा प्रकाशक
कर्त्ता / संपादक साराभाई नवाब
महाप्रभाविक नवस्मरण
गुज.
साराभाई नवाब
गुज.
हीरालाल हंसराज
गुज.
पी. पीटरसन
अंग्रेजी
कुंवरजी आनंदजी
शील खंड
133 करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह यशोदेवसूरिजी
135 भौगोलिक कोश- १
डाह्याभाई पीतांवरदास
136 भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास जिनविजयजी
137 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक - १, २
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
क्रम
127
128 जैन चित्र कल्पलता
129 जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग - २
130 ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
131 जैन गणित विचार
132 | दैवज्ञ कामधेनु ( प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
138 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक ३, ४
139 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक - १, २
140 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक-३, ४
४
141 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-१, 142 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-३, 143 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ 144 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
145 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ 146 भाषवति
147 जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
148 मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
149 फक्कीका रत्नमंजूषा- १, २
150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
151 सारावलि
152 ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
153
१
२
ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
नूतन संकलन
आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
श्री गुजराती श्वे. मू. जैन संघ हस्तप्रत भंडार कलकत्ता
सोमविजयजी
सोमविजयजी
सोमविजयजी
शतानंद मारछता
रनचंद्र स्वामी
जयदयाल शर्मा
कनकलाल ठाकूर
मेघविजयजी
कल्याण वर्धन विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी
रामव्यास पान्डेय
हस्तप्रत सूचीपत्र
हस्तप्रत सूचीपत्र
गुज.
सं.
सं./अं.
गुज.
गुज.
गुज.
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
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गुज.
गुज.
गुज.
सं./हि
प्रा./सं.
हिन्दी
सं.
सं./ गुज सं. सं.
सं.
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हिन्दी
साराभाई नवाब
साराभाई नवाब
हीरालाल हंसराज
एशियाटीक सोसायटी
जैन धर्म प्रसारक सभा
व्रज. बी. दास बनारस
सुधाकर द्विवेदि
यशोभारती प्रकाशन
गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी
गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
शाह बाबुलाल सवचंद
शाह बाबुलाल सवचंद
शाह बाबुलाल सवचंद
एच. बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस
भैरोदान सेठीया
जयदयाल शर्मा
हरिकृष्ण निबंध
महावीर ग्रंथमाळा
पांडुरंग जीवाजी बीजभूषणदास जैन सिद्धांत भवन
बनारस
श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
754
84
194
171
90
310
276
69
100
136
266
244
274
168
282
182
384
376
387
174
320
286
272
142
260
232
160
Page #8
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार
क्रम
विषय
संपादक/प्रकाशक
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति
कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य
पू. हेमचंद्राचार्य
156 प्राकृत प्रकाश-सटीक
157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति
158 आरम्भसिध्धि सटीक
159 खंडहरो का वैभव
160 बालभारत
161 गिरनार माहात्म्य
162 | गिरनार गल्प
163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
164 भारतिय संपादन शास्त्र
165 विभक्त्यर्थ निर्णय
166 व्योम वती - १
167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक
176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत
179 मुहूर्त संग्रह
180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी
भामाह
ठक्कर फेरू
पू. उदयप्रभदेवसूरिजी
पू. कान्तीसागरजी
पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास
पू. ललितविजयजी
पू. क्षमाकल्याणविजयजी
मूलराज जैन
गिरिधर झा
शिवाचार्य
शिवाचार्य
संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५
- -
यशोविजयजी
व्याकरण
व्याकरण
व्याकरण
धातु
ज्योतीष
शील्प
प्रकरण
साहित्य
न्याय
न्याय
न्याय
उपा.
न्याय
भाव मिश्र
आयुर्वेद
पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
आयुर्वेद
ज्योतिष
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
ज्योतिष
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज
ज्योतिष
ज्योतिष
पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भगवानदास जैन
ज्योतिष
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष
काव्य
तीर्थ
तीर्थ
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत / गुजराती
संस्कृत/ गुजराती
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत / हिन्दी
गुजराती
गुजराती
जोहन क्रिष्टे
पू. मनोहरविजयजी
जय कृष्णदास गुप्ता
भंवरलाल नाहटा
पू. जितेन्द्रविजयजी
भारतीय ज्ञानपीठ
पं. शीवदत्त
जैन पत्र
हंसकविजय फ्री लायब्रेरी
साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी
जैन विद्याभवन, लाहोर
चौखम्बा प्रकाशन
संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय
बद्रीनाथ शुक्ल
शीव शर्मा
लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस
खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी
आनंद आश्रम
मेघजी हीरजी
अनूप मिश्र
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
भगवानदास जैन
शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता
पृष्ठ
304
122
208
70
310
462
512
264
144
256
75
488
226
365
190
480
352
596
250
391
114
238
166
368
88
356
168
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
विषय
भाषा
पृष्ठ
क्रम
पुस्तक नाम 181 | काव्यप्रकाश भाग-१
- संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
संस्कृत
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
संस्कृत
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
संस्कृत
156
कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
संस्कृत
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२ 186 |
| नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
504
पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति 330 श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल
248 श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
448 | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
632 श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला | | 244
संस्कृत /हिन्दी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक
नारद
श्री हीरालाल कापडीया
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक 190 संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196 | शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
गुजराती संस्कृत हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी । पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच.डी. वेलनकर
446
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
409
476
संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
संस्कृत
200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
444
श्री डी. एस शाह
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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KÂVYAMÂLÂ. 45.
THE
BÂLABHARATA
OF
AMARACHANDRA SÛRI.
EDITED BY
PANDIT S'IVADATTA
Head Pandit and Superintendent, Sanskrit Department, Oriental College, Lahore,
AND
KAS'ÎNATH PANDURANG PARAB.
PRINTED AND PUBLISHED
BY
TUKÂRÂM JAVAJÎ,
PROPRIETOR OF JAVAJI DADAJI's "NIRNAYA-SAGAR" PRESS
BOMBAY.
1894.
Price 31 Rupees.
Aho! Shrutgyanam
Page #12
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(Registered according to act XXV of 1867.)
[ All rights reserved by the publisher.]
Aho! Shrutgyanam
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काव्यमाला. ४५.
श्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचितं । बालभारतम् ।
जयपुरमहाराजाश्रितमहामहोपाध्यायपण्डितदुर्गाप्रसाददारक• केदारनाथकृपाङ्गीकृतशोधनकर्मणा शिवदत्तशर्मणा, मुम्बापुरवासिपरबोपाबपाण्डुरङ्गात्मजकाशीनाथ
शर्मणा च संशोधितः ।
तच्च
मुम्बय्यां निर्णयसागराख्ययन्त्रालये तदधिपतिना मुद्राक्षरैरङ्कयित्वा
प्राकाश्यं नीतम् ।
१८९४
(अस्य प्रन्थस्य पुनर्मुद्रणादिविषये सर्वथा निर्णयसागरमुद्रायन्त्रालयाधिपते
रेवाधिकारः ।)
मूल्यं सपादं रूप्यकत्रयम् ।
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Aho ! Shrutgyanam
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भूमिका ।
अयं हि बालभारतमहाकाव्यकर्ता श्रीमदमरचन्द्रः कस्मिन्काले कतमं भूमिमण्डलं मण्डयामासेति मीमांसायां जैनराजशेखरसूरिणा १३४८ ख्रिस्ताब्दे विरचिते प्रबन्धकोषे "अणहिल्लपत्तनासन्नं वाघटं नाम महास्थानमास्ते चतुरशीतिमहास्थानानामन्यतमत्(म्) । तत्र परपुरप्रवेशविद्यासंपन्नश्रीजीवदेवसूरिसंताने श्रीजिनदत्तसूरयो जगर्जुः । तेषां शिष्योऽमरो नाम प्रज्ञालचूडामणिः । स श्रीजिनदत्तसूरिभक्तात्कविराजादमरसिंहात्सिद्धसारखतं मन्त्रमग्रहीत् । तद्गच्छमहाभक्तस्य विवेकनिधेः कौष्टागारिकस्य पद्मस्य विशालतमे सदनैकदेशे विजने एकविंशत्या वाग्लै()निद्राजयास(श)नजयकषायजयादिदत्तावधानस्तं मन्त्रमजपत् । विस्तरेण होमं च चक्रे । एकविंशतितम्यां रात्रौ मध्यप्राप्तायां नभस्युदिताचन्द्रबिम्बानिर्गत्य स्वरूपेणागत्यामरं भारती करकमण्डलुजलमपीप्यत् , वरं च प्रादात्-'सिद्धकविर्भव, निःशेषनरपतिपूजागौरवितश्वैधि' इति । वरं दत्त्वा गता भगवती । जातः कविपतिरमरः। रचिता काव्यकल्पलता नाम कविशिक्षा, छन्दोरत्नावली, मुक्तावली च । कलाकलापाख्यं च शास्त्रं निबद्धम्, बालभारतं च । बालभारते च प्रभातवर्णने
'दधिमथनविलोलल्लोलदृग्वेणिदम्भा
दयमदयमनङ्गो विश्वविश्वकजेता। भवपरिभवकोपत्यक्तबाणः कृपाणश्रममिव दिवसादौ व्यक्तशक्तिर्व्यनक्ति ॥'
(आदिपर्व-स० ११ श्लो०६) इत्यत्र वेण्याः कृपाणत्वेन वर्णनात् 'वेणीकृपाणोऽमरः' इति विरुदं कविवृन्दाल्लब्धम्, दीपिकाकालिदासवत् घण्टामाघवच्च । कवित्वप्रसिद्धेश्च महाराष्ट्रादिनरेन्द्राणां पूजा उपतस्थिरे । तदा वीसलदेवो राजा गुर्जराधिपतिर्धवलकके राज्यं प्रशास्ति । तेनामरकवर्गुणग्रामः श्रुतः । ठक्कुरं वइजलं(?) प्रधानं प्रेष्य प्रातराहूतः कवीन्द्रः । आ. सनादिप्रतिपत्तिः कृता । सभा महती। अमरेण पठितम्
'वीक्ष्यैतद्भुजविक्रमक्रमचमत्कारं निकारं मयि
प्रेम्णो नूनमियं करिष्यति गुणग्रामैकगृह्याशया । १. 'वायटनाम्नि' इति बालभारतपाठः. २. 'पुरं शरीरे' इति हैमः. ३. संतानवर्णनं चरमसर्गे. ४. तथा च हम्मीरमहाकाव्ये वर्णितम्-'वाणीनामधिदेवता स्वयमसौ ख्याता कुमारी ततः प्रायो ब्रह्मवर्ता स्फुरन्ति सरसा वाचां विलासा ध्रुवम् । कुकोकः सुकृती जितेन्द्रियचयो हर्षः स वात्स्यायनो ब्रह्मज्ञप्रवरो महाव्रतधरो वेणीकृपाणो. ऽमरः ॥ इति.
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श्रीमद्वीसलदेव देवरमणीवृन्दे त्वदायोधन
प्रेक्षाप्रक्षुभिते विमुञ्चति परीरम्भान्न रम्भा हरिः ॥ त्वत्प्रारब्धप्रचण्डप्रधननिधनितारातिवीरातिरेक
क्रीडत्कीलालकुल्यावलिभिरलभत स्पदसा(१)कन्दमुर्वी । दम्भोलिस्तम्भभास्वद्भुजभुजग"..."द्भर्तुरामतुरेनां
तेनायः(१) मूर्ति रत्नातिततिमिषतः शोभते शोणभावः ॥' रञ्जिता सभा । प्रीणित: पृथ्वीपालः । ततो राज्ञा प्रोक्तम्-'यूयं कवीन्द्राः श्रूयध्वे ।' अमरोऽभिधत्ते–'सत्यमेव यदि गवेषयति देवः ।' ततो नृपेण सोमेश्वरदेवे दृष्टिः संचारिता । ततः सोमेश्वरेण समस्यार्पिता । यथा--'शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवति
१. अयं सोमेश्वरदेव एव वीरधवले राजनि, वस्तुपाले चामात्ये सति गुजरेश्वरपुराोहतपदभाक् कीर्तिकौमुदीकाव्यं सुरथोत्सवं काव्यं चे निर्मितवान्. तथा च सुरथोत्सवे कविप्रशस्तिवर्णनात्मकः पञ्चदशः सर्गः
'अस्ति प्रशस्ताचरणप्रधानं स्थानं द्विजानां नगराभिधानम् । कर्तुं न शक्नोति कदापि यस्य त्रेतापवित्रस्य कलिः कलङ्कम् ॥ १॥ सत्तीर्थस्य सुराश्रितेन जगता यस्योपमा स्यात्कथं
स्वाध्यायैकनिधेतेश्रुतिवृतेनोर्वीतलेनापि वा । यत्सौधेषु विशुद्धिवर्जितवपुर्बालोऽपि नालोक्यते
वन्दे श्रीनगरं तदेतदखिलस्थानातिरिक्तोदयम् ॥ २॥ हृतनयनसुखैर्मखाधिधूमैः श्रुतिकटुभिर्वटुवृन्दवेदपाठः। कलिरकलितसंमदः प्रदत्ते न खलु पदं विदुषां गृहेषु यत्र ॥ ३ ॥
चश्चत्पश्चमखाग्निभमतमसि स्थाने त्रिनेत्रानल__ ज्वालाप्रज्वलितप्रसूनधनुषा देवेन दत्तोदये। श्रीमत्तां च पवित्रतां च परमामालोकयन्तः सुराः
स्वर्वासेऽप्यरसा रसामरजनव्याजेन भेजुः स्थितिम् ॥ ४ ॥ तस्मै संयमिनामिनाय मुनये नित्यं नमस्कुर्महे __यन्माहात्म्यमसह्यमाह स मुहुर्मुह्यन्मनाः कौशिकः । आविर्भूतमभूतपूर्वचरितश्रेष्ठाद्वसिष्ठात्ततः
सत्कर्मोद्धरमध्वरस्थितिविदां स्थानेऽत्र गोत्रं महत् ॥ ५ ॥ १. इदं तु प्रोफेसर-आबाजी-विष्णु-काथवटे-महाशयैः संशोध्य प्रकाशितमेव. २. काव्यप्रकाशटीका, काव्यादर्शः, रामशतकम्, इति ग्रन्थत्रयमपि सोमश्वरदेवकृतं Catalogus Catalogorum पुस्तके डॉक्टर-थिओडोर-ऑफेक्ट-महाशयैः प्रदर्शितम्. ३. 'आनन्दपुरम्' इति टिप्पणी. ४. देवाः, मदिरा च. ५. सर्पाः, वेदभ्रष्टाश्च. ६. भूदेवाः. ७. स्वामिने, सूर्याय च. ८. विश्वामित्रः, उलूकश्च.
Aho! Shrutgyanam
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-
रमूल्लोचनानामशीतिः।' अमरेण सद्यः समस्या पूरिता
येषामशेषाधिपतिः प्रसन्नः संनद्धपाणिः फणिकङ्कणेन । त एव संभूतिमिहाश्नुवन्ति कुले गुलेवाभिधया प्रसिद्ध ॥ ६॥ श्रीसोलशर्मा विमले कुलेऽत्र जन्म द्विजन्मप्रवरः प्रपेदे ।
यः स्वर्गिणः सोमरसेन यागे पितॄश्च पिण्डैरपृणत्प्रयागे ॥ ७ ॥ सोलः सलीलमवनीमवतामसौ वः सौवस्तिकोऽस्त्विति वरं स्मरता स्मरारेः। श्रीगुर्जरक्षितिभृता किल मूलराजदेवेन दूरमुपरुध्य पुरोदधे यः ॥ ८॥
यथा प्रतिष्ठां महती वसिष्ठस्तिग्मांशुवंशे भगवानवाप। निजेन सौवैस्तिकतागुणेन चौलुक्यभूपालकुले तथासौ ॥९॥ _ विधिवद्वाजपेयं यः कलिकालेऽप्यकल्पयत् ।
कियती वा जपेयं तच्चरिताद्भुतसंहिताम् ॥१०॥ ऋग्वेदवेदी च कृतक्रतुश्च दत्तान्नदानश्च जितेन्द्रियश्च । तिरोहिते तत्र पुरोहितेन्द्रे तदङ्गजन्माजनि लल्लशर्मा ॥११॥
यः करोति स्म चामुण्डराजाख्यं नृपमाशिषा । हेतिप्रतापसंपन्नं हविषा च हविर्भुजम् ॥ १२ ॥ श्रीमुञ्जनामा तनुजस्तदीयः स्वयं स्वयंभूरिव भूतलेऽभूत् । ब्राह्मण्यलाभाय तथाहि सद्भिरभाजि मौजीरशनेव वृत्तिः ॥ १३ ॥ सद्वंशजातेन गुणान्वितेन शरासनेनेव पुरोहितेन । एतेन मेने भुवने न किंचिन्न दुर्लभं दुर्लभराजदेवः ॥ १४ ॥ संतापशान्ति जगतोऽपि सोमस्तनन्दनश्चन्दनवच्चकार । पीयूषहारी हरिणाङ्कितश्च सत्यां बभाज द्विजराजतां यः॥१५॥ यस्याशी:प्रतिपादितोदययुजा श्रीभीमभूमीभुजा
क्षीरक्षालितशालितण्डुलसितं साक्षात्कृतं तद्यशः। येनाशाक्रमणक्षमेण त इमे मूर्तिप्रभेदाः प्रभो
भस्मोलनमन्तरेण धवलाः सर्वेऽपि निर्वर्तिताः॥ १६ ॥ भित्त्वा भानुं तत्र ताते प्रयाते पुत्रः श्रीमानामशर्मा बभूव ।
कृत्वा सम्यक्सप्त संस्थाः क्रतूनां क्रीता काम्या येन सम्राडभिख्या ॥१७॥ १. 'गुलेवा इति स्थानाचारेण गोत्रस्सावटङ्कनाम' इति टिप्पणी. डॉक्टर-रामकृष्णगोपाल-भाण्डारकर-महाशयैस्तु १८८३.८४वर्षीय रिपोर्ट पुस्तके 'गुलेचा' इति पाठ आश्रितः. २. 'अयं मूलराजमहाराजो वि० सं० ९९३-१०५३ वर्षेषु राज्यमकृत' इति Indian Antiquary-Vol. XI. p. 213. ३. पुरोहितता. ४. चामुण्डराजस्य राज्यम्-वि० सं० १०५३-६६. ५. दुर्लभराजराज्यम्-वि० सं० १०६६-७८.६. विष्णुना, मृगेण च. ७. ब्राह्मण्यम् , चन्द्रत्वं च. ८. भीमराजराज्यम्वि० सं० १०७८-११२०.
Aho! Shrutgyanam
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४
""कैषा
भूषा शिरोक्षणां तव भुजगपते रेखयामास भूत्या द्यूते मन्मूर्ध्नि शंभुः एक्शनवशता (९१०) नक्षपातान्विजित्य |
सदा यदाशीः परिपूर्णकर्णः श्रीकणनामा नृपतिप्रकाण्डम् | वसुंधरामण्डलमर्णवान्तं वान्तारिनारीनयनाम्बु चक्रे ॥ १८ ॥ दानानि तानि सदनानि च तानि शंभोरम्भोजराजिरुचिराणि सशंसितानि । येनामुना मुनिजनानुकृता कृतानि वित्तैश्चलुक्यकुलसंभवभूपदत्तैः ॥ १९ ॥ धाराधीशपुरोधसा निजनृपक्षोणीं विलोक्याखिलां चौलुक्याकुलितां तदत्ययकृते कृत्या किलोत्पादिता । मन्त्रैर्यस्य तपस्यतः प्रतिहता तत्रैव तं मान्त्रिकं
सा संहृत्य तडिलता तरुमिव क्षिप्रं प्रयाता क्वचित् ॥ २० ॥ तस्मात्कुमारः सुकुमारमूर्तिर्मूर्तस्तपोराशिरिवोजगाम । स्वयाज्यराज्योदयदायिनी वागुवास शक्रेरिव यस्य वक्रे ॥ २१ ॥ बद्धः सिन्धुवसुंधरापतिरतिप्रौढप्रतापोऽपि य
नीतः स्फीतबलोsपि मालवपतिः कारां च दारान्वितः । तः सोऽपि सपादलक्षनृपतिः पादानतिं शिक्षितः
श्री सिद्धक्षितिपेन सैष विभवः सर्वोऽपि यस्याशिषाम् ॥ २२ ॥ कुशोपशोभितैर्यागैस्तडागैश्च परश्शतैः ।
इष्टं पूर्त च यश्चक्रे चक्रवर्तिपुरोहितः ॥ २३ ॥ ऋजुरोहितभृत्पुरोहितत्वस्पृहयेव त्रिदिवं गतस्य तस्य । तनुभूर्मनुभूपतिप्रणीतस्मृतिसर्वस्वमवाप सर्वदेवः ॥ २४ ॥ मध्वरेर्व्यधित साधु सपर्यामध्वरेषु जयति स्म सुरेशम् । मानवानविदितापरयाच्ञो मानवानकृत चैष कृतार्थान् ॥ २५ ॥ अर्चिषामयनमीयुषि तत्र क्षत्रसत्रमनमस्करणीये । अध्यगामि विधिरामिगनाम्ना वैदिकस्तदनु तत्तनुजेन ॥ २६ ॥ सत्कर्मनिर्माणरतेरमुष्य व्रीडानिदानं द्वयमेतदासीत् । स्ववर्णाकर्णनमुत्तमेभ्यः संसारकारान्तरवस्थितिश्च ॥ २७ ॥ ज्येष्ठः श्रेष्ठतमः समस्त विदुषां श्रीसर्वदेवाद्वयः श्रेयःसंपदपास्तदुस्तरतपाः श्रीमान्कुमारोऽनुजः ।
१. श्रीकर्णराजराज्यम् - वि० सं० ११२०-५०. २. 'मालवाधिपयशोवर्मणः पुरोहितेन स्वदेशभूमिं गुर्जरराजश्री सिद्धराजापरनामजयसिंहेन व्याकुलीकृतां वीक्ष्य तद्वधार्थमभिचारेण कृत्योत्पादिता. सा च आमशर्मणः पुरोधसः शान्तिमन्त्रैः प्रतिषिद्धा सती तमेव मालवाधीशपुरोहितं संहृत्य तिरोहितेति श्रूयते' इति टिप्पणी. ३. सिद्धराजराज्यम् - वि० सं० ११५० - ९९.
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गौरी त्वानञ्ज दृष्टीर्जितनखनवभू(१९२०)स्तद्विशेषात्तदित्थं
शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवति(९०)रभूलोचनानामशीतिः(८०)॥' मुओऽथ द्विजकुअरस्तदनुजो न्यायाजडो नाहड
श्चत्वारस्तनयास्ततः समभवन्वेदा इव ब्रह्मणः ।। २८ ।। कुमारपालस्य चुलुक्यभर्तुरङ्गानि गङ्गासलिले निधाय । श्रीसर्वदेवेन गयाप्रयागविप्राः प्रदानेन कृताः कृतार्थाः ।। २९ ॥
स्थाने स्थाने तडागानि शिवपूजा दिने दिने । विप्रे विप्रे च सत्कारः श्लाघा यस्य गृहे गृहे ॥ ३० ॥ राही गृहीतोष्णकरे कुमारः कुमारपालस्य सुतेन राज्ञा । __ कृतोपरोधोऽपि परं पुरोधाः प्रत्यग्रहीत्तस्य न रत्नराशिम् ॥ ३१ ॥ यः शौचसंयमपटुः कटुकेश्वराख्यमाराध्य भूधरसुताघटितार्धदेहम् । तां दारुणामपि रणाङ्गणजातघातव्रातव्यथामजयपालनृपादपास्थत् ॥ ३२॥ विलोक्य दुष्कालवशेन लोकं कङ्कालशेष सविशेषशू(शो)कः ।
श्रीमूलराजं दलितारिराजमचीकरत्तत्करमोचनं यः॥ ३३ ॥ दुष्टारिकोटिकदनोत्कटराष्ट्रकुटकुल्येन शिल्पितरणाङ्गणकौङ्कणेन ।। सर्वप्रधानपुरुषाधिपतिः प्रतापमल्लेन भूपतिमतल्लिकया कृतो यः ॥ ३४ ॥
सेनानीर्विदधे कुमार इति यः शङ्के चुलुक्येन्दुना __ जित्वा सोऽथ जवादवार्यतरसः प्रत्यर्थिपृथ्वीपतीन् । इष्टां तद्विषद्धिमाशिषमिव प्रादात्पुरोधाः स्वयं
तस्मै याज्यमहीभुजे निजचमूवीरव्रजैरक्षतैः ॥ ३५ ॥ धाराधीशे विन्ध्यवर्मण्यवन्ध्यक्रोधाध्मातेऽप्याजिमुत्सृज्य याते । गोगस्थानं पत्तनं तस्य भङ्क्त्वा सौधस्थाने खानितो येन कूपः ॥ ३६॥
गृहीतं कुप्यता कुप्यं मालवेश्वरदेशतः ।
दत्तं पुनर्गयाश्राद्धे येनाकुप्यमकुप्यता ॥ ३७ ॥ जित्वा म्लेच्छपतेर्बलं तदतुलं राज्ञीसरःसंनिधौ
स्वःसिन्धोः सलिलैविधाय विधिवत्प्रीति पितणामपि । दानी मोक्षमनुक्षितक्षितितले कृत्वाब्दमब्दबजे
राजार्थे रचयांचकार चतुरः स्वार्थ प्रजार्थ च यः॥ ३८ ॥ यः कर्माणि च षड्गुणांश्च तनुते तद्भर्भवःस्वस्त्रयं ।
कीर्तिर्यस्य च यश्च निर्मलरुचिों जातुचिन्मुश्चति । शास्त्राविष्कृतिरध्वरे च युधि च श्लाघ्योज्जिहीते(?) यतः
सूत्रं यस्य हृदि स्फुरत्यविरतं ब्राह्मं च राज्यस्य च ॥ ३९ ॥ १. कुमारपालराज्यम्-वि० सं० ११९९-१२३०. २. अजयपालराज्यम्-वि० सं० १२३०.३३. ३. मूलराजराज्यम्-वि० सं० १२३३-३५.
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iti area faraनवभू (१९२०) स्तद्विशेषात्तदित्थं शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवति (९०) र भूलोचनानामशीतिः (८०) ॥ मुञ्जोऽथ द्विजकुञ्जरस्तदनुजो न्यायाजडो नाहङ
श्चत्वारस्तनयास्ततः समभवन्वेदा इव ब्रह्मणः ॥ २८ ॥ कुमारपालस्य चुलुक्यभर्तुरङ्गानि गङ्गासलिले निधाय । श्रीसर्वदेवेन गयाप्रयागविप्राः प्रदानेन कृताः कृतार्थाः ॥ २९ ॥ स्थाने स्थाने तडागानि शिवपूजा दिने दिने । विप्रे विप्रे च सत्कारः श्लाघा यस्य गृहे गृहे ॥ ३० ॥ राह गृहीतोष्णकरे कुमारः कुमारपालस्य सुतेन राज्ञा । कृतोपरोधोऽपि परं पुरोधाः प्रत्यग्रहीत्तस्य न रत्नराशिम् ॥ ३१ ॥ यः शौचसंयमपटुः कटुकेश्वराख्यमाराध्य भूधरसुताघटितार्घदेहम् । तां दारुणामपि रणाङ्गणजातघातत्रातव्यथामंजय पालनृपादपास्थित् ॥ ३२ ॥ विलोक्य दुष्कालवशेन लोकं कङ्कालशेषं सविशेषशू ( शो ) कः । श्रीमूलराजं दलितारिराजमचीकरत्तत्करमोचनं यः ॥ ३३ ॥ दुष्टारिकोटिकदनोत्कटराष्ट्रकूटकुल्येन शिल्पितरणाङ्गणकौङ्कणेन । सर्वप्रधानपुरुषाधिपतिः प्रतापमल्लेन भूपतिमतल्लिकया कृतो यः ॥ ३४ ॥ सेनानीविंद कुमार इति यः शङ्के चुलुक्येन्दुना जित्वा सोऽथ जवादवार्यतरसः प्रत्यर्थिपृथ्वीपतीन् । इष्टां तद्विषयर्द्धिमाशिषमिव प्रादात्पुरोधाः स्वयं तस्मै याज्यमहीभुजे निजचमूवीरव्रजैरक्षतैः धाराधीशे विन्ध्यवर्मण्यवन्ध्यक्रोधाध्मातेऽप्याजिमुत्सृज्य याते । गोगस्थानं पत्तनं तस्य भक्त्वा सौधस्थाने खानितो येन कूपः ॥ ३६ ॥ गृहीतं कुप्यता कुप्यं मालवेश्वरदेशतः । दत्तं पुनर्गया श्राद्धे येनाकुप्यमकुप्यता ॥ ३७ ॥ जित्वा म्लेच्छपतेर्बलं तदतुलं राज्ञीसरः संनिधौ
३५ ॥
स्वःसिन्धोः सलिलैर्विधाय विधिवत्प्रीतिं पितॄणामपि । दानी मोक्षमनुक्षितक्षितितले कृत्वाब्दमब्दत्रजे
राजार्थे रचयांचकार चतुरः स्वार्थ प्रजार्थे च यः ॥ ३८ ॥ यः कर्माणि च षड्गुणांश्च तनुते तद्धर्भवःस्वस्त्रयं
कीर्तिर्यस्य च यश्च निर्मलरुचिर्नो जातुचिन्मुञ्चति । शास्त्राविष्कृतिरध्वरे च युधि च श्लाघ्योज्जिही ते (?) यत:
सूत्रं यस्य हृदि स्फुरत्यविरतं ब्राह्मं च राज्यस्य च ॥ ३९ ॥ १. कुमारपालराज्यम् - वि० सं० ११९९ १२३० २. अजयपालराज्यम् - वि०
सं० १२३०-३३. ३. मूलराजराज्यम् - वि० सं० १२३३-३५.
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(अंत्र शिरोक्ष्णामिति शिरसा युक्तानामक्ष्णामिति मध्यमपदलोपी समासः कार्यः । द्वन्द्वे तु प्राण्यङ्गत्वादेकत्वं प्राप्नोति । )
अरुन्धतीव कान्तास्य पत्युराज्ञामरुन्धती ।
अभूदभिधया लक्ष्मीः साक्षालक्ष्मीरिव क्षितौ ॥ ४० ॥ आदिमः प्रशममन्दिरं महादेव इत्यभिधया तदङ्गभूः । येन पाणिनिहितेन पङ्कजेनेव तुष्यति परं सरस्वती ॥ ४१ ॥ सोमेश्वरदेव इति क्षितिदेवस्यास्य बन्धुरनुजन्मा | अनि कनिष्ठस्तस्य भ्राता ख्यातान्वयो विजयः ॥ ४२ ॥ तैस्त्रिभिः प्रथममध्यमोत्तमैः स्वे पदे च पुरुषैर्व्यवस्थितैः । शब्दशास्त्रमिव गोत्रमुच्चकैः सत्क्रियं समजनिष्ट विष्टपे ॥ ४३ ॥ सोमेश्वर देवकवेरवेत्य लोकंपूणं गुणग्रामम् । हेरिहरसुभटप्रभृतिभिरभिहितमेवं कविप्रवरैः ॥ ४४ ॥ श्री सोमेश्वरदेवस्य कवितुः सवितुश्च गौः । सटणाभ्यवहारस्य निरासेऽपि रसप्रदा ॥ ४५ ॥ वाग्देवतावतंसस्य कवेः श्री सोमशर्मणः । धुनोति विबुधान्सूक्तिः साहित्याम्भोनिधेः सुधा ॥ ४६ ॥ तव वक्रं शतपत्रं सद्वर्ण सर्वशास्त्रसंपूर्णम् । अवतु निजं पुस्तकमिव सोमेश्वरदेव वाग्देवी ॥ ४७ ॥ वसिष्ठा निष्ठायाः पदमिति जगत्यस्ति पटहः प्रकृष्टास्त्वषामप्यजनिषत मुञ्जप्रभृतयः ।
कुले जातोऽप्येषां शतधृतिदुहित्रा पुनरयं स्वयं पुत्रीच नवकविगुणप्रीणितहृदा ॥ ४८ ॥ काव्येन नव्यपदपाकरसास्पदेन यामार्धमात्रघटितेन च नाटकेन ।
श्री भीमभूमिपतिसंसदि सभ्यलोकमस्तोकसंमदवशंवदमादधे यः ॥ ४९ ॥ कवीन्द्रपदवीस्पृहामद्दह तेऽपि तन्वन्ति य
द्वचः क्रकचकर्कशं प्रथयति व्यथां कर्णयोः ।
कविः स विरलः पुनर्भुवि भवादृशो दृश्यते सुधाभिरभिषेचनं रचयतीव यः सूक्तिभिः ॥ ५० ॥
१. अयं पाठष्टिप्पणीस्थो ग्रन्थमध्ये प्रक्षिप्तो भवेत. २. 'अयं श्रीहर्षवंश्यो हरिहरो वीरधवलराजसमीपे नैषधपुस्तकं प्रथमं वस्तुपालेऽमात्ये सत्यानयत् - इति हरिहरप्रबन्धे प्रबन्धकोशे स्फुटम् ३. भीमदेवराज्यम् - वि० सं० १२३५-९८. एतत्पुत्रत्रिभुवनपालराज्यम् - वि० सं० १२९८ - १३००.
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ततो वामनस्थलीयकविसोमादित्येन समस्या दत्ता-'धनुष्कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ।' अमरेणोक्तम्
मन्दश्छन्दसि कोऽपि कोऽपि विकलः सालंकृतौ व्याकृता
वर्थे कोऽपि वृथाश्रमो रसनिधावन्धश्च कोऽप्यध्वनि । वक्रान्तविहरद्विरश्चितनयामञ्जीरमञ्जुस्वर___ स्पर्धाबन्धुभिरेक एव कवते काव्यैः कुमारात्मजः ॥५१॥ [वैदुष्यं विगताश्रयं श्रितवति श्रीहेमचन्द्रे दिवं
श्रीप्रेलादनमन्तरेण विरतं विश्वोपकारव्रतम् । दृष्ट्वा तद्वयमत्र मन्त्रिमुकुटे.श्रीवस्तुपाले कवि.
स्तत्कीर्तिस्तुतिकैतवादिति मुदामुद्रारमारब्धवान् ॥ ५२ ॥ प्राग्वाटान्वयवारिधौ विधुरिव श्रीचण्डपः प्रागभू
त्संभूतोऽद्भुतसत्यशौचसदनं चण्डप्रसादस्ततः। सोमस्तत्तनयो नयोज्ज्वलमतिस्तस्याश्वराजः सुतः
पूतात्माथ तदङ्गभूः सुकृतभूः श्रीवस्तुपालोऽभवत् ॥ ५३ ॥ उत्फुल्लमल्लीप्रतिमल्लकीर्तिः श्रीमल्लदेवोऽभवदप्रजन्मा। बभूव तस्यावरजश्व तेजःपालाभिधानः सचिवप्रधानम् ॥ ५४॥ श्रीवस्तुपालः स चिरायुरस्तु दिशां प्रकाशं दिशते सदा यः । कर्पूरकिर्मीरितकेरलश्रीरदावदातद्युतिभिर्यशोभिः ॥ ५५ ॥ क्षीणे चक्षुषि भेषजं भगवती कालीश्वरी देहिनां
देहे श्वित्रविचित्रभाजि शरणं श्रीवैद्यनाथः प्रभुः । संसारज्वरजर्जरे हृदि सदा विष्णु विष्णुर्मुदे
दौर्गत्ये च जिघांसिते गतिरसौ श्रीवस्तुपालः पुनः ॥ ५६ ॥ न वदति परुषा रुषापि वाचः स्पृशति परस्य न मर्म नर्मणापि । विरमति मतिमानमान्यचन्द्रः क्वचन च नार्थिकदर्थितोऽपि दानात् ॥ ५७॥ घनमनवरतक्षितीन्द्रसेवाश्रमसमवाप्तमयत्नतोऽपि दत्ते।
अपरमपि परोपकारकं यद्विमृशति वस्तु तदेव वस्तुपालः ।। ५८॥ १. धनुचिहान्तर्गताः श्लोकाः डॉक्टर-पीटर्-पीटर्सन-महाशयप्रेषिते मथुरास्थपुस्तके संवत् १६७८ लिखिते नोपलभ्यन्ते, किंतु डॉक्टर-रामकृष्ण-गोपाल-भाण्डारकर-महाशयप्रकाशित १८८३-८४ ख्रिस्तवत्सरीय रिपोर्ट'तो लिखिताः.२. अयं च प्रहादनःसोमेश्वरदेवपितुः कुमारस्य गुरुः. तथाहि Indian Antiquary-Vol. XI. p. 221-22 मुद्रितप्रशस्ति:-'xxx संवत् १२६५ वर्षे वैशाख शु १५भौमे चौ. लुक्योद्धरणपरमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीमद्भीमदेवप्रवर्धमानविजयिराज्येxxxषड्दर्शनावलम्बनस्तम्भसकलकलाकोविदकुमारगुरुश्रीप्रह्लादनदेवे यौवराज्ये सति' इति.
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'भवस्याभूद्भाले हिमकरकलाग्रे गिरिसुता
ललाटस्याश्लेषे हरिणमदपुण्ड्रप्रतिकृतिः। कपर्दस्तत्प्रान्ते यदमरसरित्तत्र तदहो
धनुष्कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥' ततः कृष्णनगरवास्तव्येन कमलादित्येन समस्या वितीर्णा-'मशकगलकरन्ध्रे हस्तियूथं प्रविष्टम् ।' अमरेण पुपूरे
'तटविपिनविहारोच्छृङ्खलं यत्र यादो
मशकगलकरन्ध्रे हस्तियूथं प्रविष्टम् । सत्यं ब्रुवे भवतु मा क्षतिरत्र काचिद्रूत्वा खलप्रकृतिनापि मयातिमात्रम् । मन्त्री समे च विषमे च परीक्षितोऽसौ दृष्टं न दुष्टमिह किंचन सच्चरित्रे ॥ ५९॥
अयमनुदिनदानोत्कर्षितप्राना(ण)पर्ष
त्परि[चरित] चरित्रः स्वस्तिमानस्तु मत्री। तुहिनकरसमानैर्यस्य कीर्तिप्रतान
रजनिषत रजन्यः प्राप्तराकाविपाकाः ॥ ६० ॥ लभन्ते लोकतः पापाः शापानन्ये नियोगिनः । अधिकारमधिकारममात्यः शास्त्यसौ पुनः ॥ ६१ ॥ त एव स्तूयन्ते नृपतिपशुभिर्धीवरतया
प्रजानामानायः सपदि खलु येभ्यः प्रपतति । तदित्थं सुस्थानां चिकित चकितं क्वापि वसतां
सतां संप्रत्येकः सचिवशिवतातिर्भुवि भवान् ॥ ६२॥ अर्थिदानदलितार्थिदुस्थितिं त्वां विना विनयनम्र संप्रति । मृज्यते जगति केनचित्सतां वस्तुपाल न कपालदुलिपिः ॥ ६३ ॥ गोमयरसानुलिप्ते कीर्तिसुधाधवलिते च भवनगृहे । श्रीवस्तुपाल भवतश्चकास्ति चित्रं चरित्रमिह ॥ ६४ ॥ पीयूषैः प्रणता हिमैः प्रणिहिता ताराभिराराधिता ___ गङ्गावीचिभिरचिंता परिचिता दिग्दन्तिदन्तांशुभिः । कर्पूरैः परिशीलिता मलयजैरावर्जिता मण्डिता
डिण्डीरस्तबकैर्बकैरनुसृता मन्त्रीश कीर्तिस्तव ॥ ६५ ॥ प्रवर्तमानेऽत्र कवित्वसत्रे सत्कृत्य सत्पात्रममात्यमेवम् । कृतार्थमात्मानमसावमस्त सौवस्तिको गुर्जरनिर्जराणाम् ॥ ६६ ॥] कुमारपुत्रेण कुमारमातुः काव्यं तदेतज्जगदेकदेव्याः ।
श्रुतिस्मृतिव्याकृतियज्ञविद्याविशारदेन क्रियते स्म तेन ॥ ६७ ॥ इति गुर्जरेश्वरपुरोहितश्रीसोमेश्वरदेवविरचिते सुरथोत्सवनानि महाकाव्य कविप्रशस्तिवर्णनो नाम पञ्चदशः सर्गः । इति.
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बत बक न कदाचितिक श्रुतोऽप्येष वाधिः
प्रतनुतिमिनि तल्ले क्वापि गच्छ क्षणेन ॥' अथ वीसलनगरीयेण नानाकेन समस्या विश्राणिता-'गीतं न गायतितरां युव
कीर्तिकौमुदीकाव्यस्य नरेन्द्रवंशवर्णनात्मकद्वितीयसर्गे तु मूलराजादिभीमदेवान्तं चौलुक्यवंशं वर्णयित्वा स्वयमेव सोमेश्वरदेवः
'अथ तत्रैव चौलुक्यवंशे शाखान्तरोद्गतः। अर्णोराजः स राजर्षिस्तन्नामर्षत विप्लवम् ॥ ६२ ॥ तत्पुत्रः प्रसरत्कीर्तिपताकाचुम्बिताम्बरः। श्रीलावण्यप्रसादोऽस्ति प्रासादः शौर्यसंपदः ॥ ६ ॥ श्रीवीरधवलस्तस्य सूनुर्वीरशिरोमणिः ।
युद्धे जयश्रियं धन्वज्यारावैराजुहाव यः ॥ ७६ ॥' इत्याद्यधिकं वर्णयामास. ___ एवं च भीमदेवसमये,१२१९-३९(१)खिस्तवर्षात्मकवीरधवलसमये, १२४३-६२ खिस्तवर्षात्मकवीसलदेवसमये च सोमेश्वरस्य सत्त्वं स्पष्टमेव.
१. अयं च नानाकपण्डितो सोमेश्वरो वीसलनरपतेराश्रित इत्यत्र प्रमाणभूताभ्याम्
'यन्नो गोचरयन्ति लोचनरुचो वाचो निवृत्ता यत
श्वेतो मुह्यति यत्र यच्च न मतेः पन्थानमालम्बते । तनिष्कैतवभक्तियोगसुलभं सोमेशलिङ्गस्थलं
___स्पष्टीभूतमभिष्टुवीमहितमां किंचिन्महश्चिन्मयम् ॥ १ ॥ दन्तांशुमारितहस्तलताभिरामः सिन्दूरचारुसुभगो मदनिर्झरादयः।। देवः स कोऽपि नरसिन्धुरमूर्तिमाली शर्माणि वो दिशतु सिद्धिविलासशैलः ॥ २ ॥ __ अघानि वो हन्तु विहंगमोदकं सरखतीसागरसंगमोदकम् ।
यदोघकूले परमक्षमालया जपन्ति सन्तः परमक्षमालयाः ॥ ३ ॥ सेयं शिवानि वितनोतु सरस्वती वः प्रीता हराच्युतविरश्चनयाचनाभिः । और्व प्रतापमिव सर्वतरङ्गिणीनां वाक्पाशबन्धविधुरं पिदधेऽम्बुधौ या ॥४॥ तं मेघमेदुरमहोमहनीयमूर्ति तापत्रयव्यपनयाय वयं श्रयामः । यः शातकुम्भनिभया विभया स्फुरन्तीमङ्केन विद्युतमिव श्रियमाबिभर्ति ॥ ५ ॥
क्रीताभिः प्रधनेन मालवनृपान्निधूतमुक्तामणि
श्रेणीश्रीभिरमण्डयत्प्रियतमां यः कीर्तिभिर्मेदिनीम् । तस्येयं नयविक्रमैकवसतेः श्रीवीसलक्ष्माभुजो
मूर्तिमण्डनतां दधातु सुचिरं धाम्नीह सारस्वते ॥ ६ ॥ त्रेताधूमपवित्रितो(?)म्बरचरं खाध्यायघोषोत्तरं ___ स्थानं तीर्थमनोहरं नगरमित्यास्ते किलानश्वरम् ।
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तिर्निशासु ।' अमरेण पूरिता
१०
आर्योपासनया वृषप्रियतया यच्च द्विजेन्द्रश्रिया
व्यक्तं वक्ति फणीन्द्रभूषणभृतो देवस्य संस्थापनम् ॥ ७ ॥ गुञ्जा नाम ग्रामस्तदन्तिके वैजवापगोत्राणाम् । श्रीकरणव्यापारात्प्रीणित चौलुक्य नृपदत्तः ॥ ८ ॥ तस्मिन्समुज्ज्वलकपिष्ठलगोत्रजन्मा सोमेश्वरः समजनि द्विजमौलिरत्नम् । यस्योपचर्य चरणाविव वेदवाचामाचार्यकेषु कृतिनः कति न प्रवृत्ताः ॥ ९ ॥ प्रभव महसां पत्युर्ज्योत्स्नेवामृतदीधितेः ।
तस्यासीद्वितमस्तापा सीतेति सहचारिणी ॥ १० ॥ अध्वरविधौ पटीयानामटनामा ततोऽभवत्तनयः । विश्वक्सेनानुगतः कलिनापि न बाधितो बलिना ॥ ११ ॥ सननीतिगृहिणी गुणाम्बुधेस्तस्य भूरिगुणरत्नभूषणा । सर्वकालमवलोकते स्म या भर्तृपादनखदर्पणे मुखम् ॥ १२ ॥
गोविन्द इत्यभिधया तनयस्तदीयो वृत्तेन चन्द्रशुचिना तु विरश्चिकल्पः । सर्वज्ञतामपि कलाकलितेन तन्वन्देवत्रयीमय इवावतरत्सरोजे ॥ १३ ॥ गृहालंकृतिरस्यास्तां पत्नीरत्ने तयोः पुनः ।
जुगूह सूहवा वृत्तलाक्तिरासीदलाञ्छना (?) ॥ १४ ॥ कथमेकया रसनया जडो जनः सूहवां सहः स्तोतुम् । यदिह प्रशस्तिकर्तुर्मम रसनाकोटिरपि मूका ॥ १५ ॥ तया समं साधयतोऽस्य धर्ममृणत्रयापाकृति निर्वृतस्य । स्नातस्य रेवाम्बुनि देहशुद्धयै जातं षडव्दव्रत पौनरुक्त्यम् ॥ १६ ॥ यास्यन्दण्डावलम्बेन विषमां मोक्षपद्धतिम् ।
असौ शमवतां धुर्यस्तुर्यमाश्रयदाश्रमम् ॥ १७ ॥
त्रेता हुताशमहसो महेशमुरजिद्विरश्चिमहिमानः । सुरसरिदोघपवित्रा जयन्ति पुत्रास्त्रयस्तस्य ॥ १८ ॥
ज्येष्ठः सुतोऽस्य भगवान्पुरुषोत्तमच नाना श्रिया द्विजपतिप्रथया च तुल्यः । भेदस्तु सोऽयमुभयोर्मुखवारिजेऽस्य ब्राह्मी स्थितिर्यदपरस्य च नाभिपद्मे ॥ १९ ॥ क्रीडागारं सुमतिवसतेः साङ्गऋग्वेदकण्ठो गङ्गास्नानक्षपितकलुषो मल्हणस्तत्कनिष्ठः ।
अध्यारोहन्महिमवलभी भाग्यनिःश्रेणियोगा
द्योगात्ख्यातिं सदसि नृपतेः षड्गुणन्यासनिष्ठः ॥ २० ॥
Mast कमनीयगुणः कनीयान्नानाकभूत्यभिधया सुधियां धुरीणः । प्राचीनसत्कविकृतव्ययतापशान्त्यै वाग्देवता स्थितिमुपैति यदानन्दौ ॥ २१ ॥
१. 'सर्वज्ञस्तु जिनेन्द्रे स्यात्सुगते शंकरेऽपि च' इति हैमः .
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'श्रुत्वा ध्वनेर्मधुरतां सहसावतीर्णे भूमौ मृगे विगतलाञ्छन एष चन्द्रः । मागान्मदीयवदनस्य तुलामितीव गीतं न गायतितरां युवतिनिशासु ॥'
लक्ष्मीरमुष्य पत्नी द्वितीयमङ्गं बहिश्चराः प्राणाः । विमलकुलद्वयभूषा प्रत्यूषाम्भोजमझुमुखी ॥ २२ ॥ नयनिपुणः प्रथितगुणः संयतकरणः समुज्ज्वलाचरणः । कस्य वयस्यो न स्यान्नानाको नागरोत्तंसः ॥ २३ ॥ श्रौतस्मार्तसमाजमण्डनमणिः कातन्त्रनिधौतधी
श्छेकछन्दसि नाटकेषु निपुणोऽलंकारसर्वस्वभाक् । श्रीरामायणभारतामृतकथाम्भोराशिपारंगमः
केषां नैष कवित्वकेलिरसिको वर्ण्यः सवर्णाग्रणीः ॥ २४ ।। पुरमथनपुरेऽस्मिन्नात्मनः स्थापनायां
मतिगरिमविराजद्वेश्मनि ब्रह्मपुर्याम् । मुदितमदित यस्मै साधवे सौधमेक
तदमलगुणदृश्वा विश्व(वीस)लक्षोणिपालः ॥ २५ ॥ सोमेशमनुदिनं यः प्रमोदयशालितण्डुलार्चनया। सफलयति वीसलोवीपतिदत्तवगसराग्रामम् ॥ २६ ॥ यः पौराणैर्वचनमधुभिः प्रौढपीयूषपाक
प्रेयोभिः प्रागधिकमधिनोद्विश्व(वीस)लक्षोणिपालः । तृप्तिं तस्य त्रिदशसुहृदः पिण्डदानैरिदानी
दर्श दर्शे रचयति च यः शेखरः श्रोत्रियाणाम् ।। २७ ॥ तीर्थाम्बुशतपत्रालिशालिनैवेद्यवन्दनैः।
यः प्रीणयति नानाकः पिनाकभृतमन्वहम् ॥ २८ ॥ संतुष्यता यदुरुभक्तिगुणेन गण्डश्रीवीरभद्रवपुषि स्वकलां निवेश्य । यः शंकरण निरमीयत मङ्गलाख्यग्रामाभिरामतमसप्तमभागभोगी ॥ २९ ॥
सरस्वत्यामत्यादरजनितनित्याह्निकविधि
महायज्ञैः पूतः सततमतिथीन्भोजयति यः । स नन्द्यान्नानाकश्चिरसमयमानाकविकस___ द्यशःस्तोमः सोमेश्वरचरणचिन्ताचतुरधीः ॥ ३० ॥ यो मुख्यः सुधियां यमाहुरनघं येनार्जिताः कीर्तयो ___ यस्मै वेश्म दिदेश विश्व(वीस)लनृपो यस्मान दोषोदयः । यस्य श्रेयास वासनातिमहती यस्मिन्नमन्ते गुणाः
सोऽयं सप्तपदीनमेतु सुकृतै नाकनामा कृती ॥ ३१ ॥ मानुष्ये द्विजता दुरासदतरा तत्राप्यसौ नागर
ज्ञातिः ख्यातिमती श्रुतौ परिचयस्तावानयोत्थाः श्रियः।
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भाग्यैरेतदवाप्य यौवनगृहस्वर्णादिपण्याङ्गना
चेतश्चञ्चलमप्यवेत्य सुकृतं नानाक एवार्जति ॥ ३२॥ श्रीमद्वीसलमेदिनीपरिवृढप्रक्षालिताङ्गिद्वयः
सोऽयं नागरनीरजाकररवि नाकनामा कविः । तीर्थोत्तुङ्गसरस्वतीकृतपरिष्वङ्गस्य सारस्वतं
क्रीडाकेतनमेतदत्र विदधे वारांनिधे रोधसि ॥ ३३ ॥ श्रीसोमनाथमहिमा भुवनेषु यावद्यावनिहन्ति दुरितानि सतां कपर्दी । यावच्च गर्जति पयोनिधिरेष तावत्सारस्वतं सदनमक्षयमेतदस्तु ॥ ३४ ॥ नानाक एष जयताद्दयितास्य लक्ष्मीः शश्वत्कुसुम्भवसनैव जरामुपेतु । किंचैनयोः सुतनयोऽपि नयोपसङ्गी गङ्गाधरः सुचरितेन कुलं पुनातु ॥ ३५ ।। अष्टावधानपरितुष्टहृदा जनेन यः कीर्तितो जगति बालसरस्वतीति । पुत्रः कविः कुवलयाश्वचरित्रधातुः कृष्णःप्रशस्तिमिह रत्नसुतः स तेने ॥३६॥ सो. पाल्हणेन प्रशस्तिरालिख्योत्कीर्णा ॥' इति Indian AntiquaryVol. XI. p. 102-3.
'अस्त्यानन्दपुरे गरीयसि कुलं कापिष्ठलं निर्मलं
धर्मोद्धारधुरंधरोऽभवदुपाध्यायोऽत्र सोमेश्वरः। तस्माद्दीक्षित आमठः श्रुतिमठः पुत्रः पवित्रद्युति
गोविन्दोऽस्य च नन्दनः सहृदयश्रेणीमनोनन्दनः ॥ १ ॥ मिथोविरोधोपशमाय सिद्धः श्रमः श्रियः शारदयास्य(?) सूनुः । नानाविधानामवधिव॒धानां नानाकनामा सुकृतैकधामा ॥ २ ॥ यो वेद ऋग्वेदमखण्डमेव बभूव च व्याकरणप्रवीणः । साहित्यसौहित्यमवापदन्तर्वाणिः पुराणस्मृतिपारगोऽभूत् ॥ ३ ॥
धौरेयो धवलान्वयेऽत्र समये श्रीसिद्धराजोपमो
धाम्नां धाम बभूव वीरधवलाद्राजा विभुर्वीसलः। यस्योच्चैरभिषेणनव्यतिकरोज्वालज्वलन्मालवो
न्मीलझूमपरंपराभिरभवद्धोरान्धकारं नमः ॥ ४ ॥ राज्ञोऽस्य सभ्यान्सुकृतैकसभ्यानभ्येत्य नानाक उदारबुद्धिः । धौर्येक(?)धुर्यो विबुधप्रतीक्षां वेदादिशास्त्रेषु ददौ परीक्षाम् ॥५॥ अथैकदा वीसलचक्रवर्ती वीरावलीमानसमध्यवर्ती । पवित्रगोत्रो नियमविचित्रैश्चकार सोमेश्वरदेवयात्राम् ॥ ६ ॥ सरस्वतीसागरसंगमेऽसौ स्नात्वाथ सोमेश्वरमर्चयित्वा । विद्याविशेषं परिभाव्य विप्र (2) विशेषवित्कल्पितपुण्यवेषः ॥ ७ ॥ १. अनेन रत्नकविनैव कुवलयाश्वचरित्रकाव्यमपि प्रणीतं भवेत्.
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एवमष्टोत्तरं शतं बहुकविदत्ताः पूरिताः समस्याः श्रीअमरेण ।।
ततो राज्ञाभिहितम्-'सत्यं कविसार्वभौमः श्रीअमरः।' तत्र दिने संध्यावधि सभा निषण्णा स्थिता । राजा लचितः सभ्यलोकोऽपि ।
रसावेशे हि कालोऽर्गच्छन्नपि न लक्ष्यते । द्वितीयदिने सद्यः काव्यमयैः प्रमाणोपन्यासैः प्रमाणिका जिताः । तृतीयदिने राज्ञा पृष्टम् – 'अस्माकं संप्रति का चिन्तास्ति' इति कथ्यताम् । अमरेण भणितम्-'देव,
क्षेत्रे प्रभासे सुकृताधिवासे स्वकारिता(?) ब्रह्मपुरीगृहेषु । प्रक्षाल्य पादौ प्रददौ ससौघं नानाकनाम्ने कविपण्डिताय ॥ ८॥ (युग्मम्) उपेयुषा वेदपुराणशाणनिघर्षणं संश्रितहारलक्ष्मीः । विभाति येन द्विजनायकेन श्रीवीसलब्रह्मपुरी पुरेऽस्मिन् ॥ ९॥
वन्ये विश्वजनेन मूर्धनि सरस्वत्या दधानः पदं
प्राप्याब्धि किल वाडवः परमभदात्मभरिर्भार्गवः । नानाकः पुनरेष तां भगवती मूर्धा नमन्नागरो वर्यो विप्रशतोदरंभरिरहो तीरे वसन्वारिधः ॥ १० ॥ गोविन्दतनयः सोऽयं प्रद्युम्नोऽभूत्किमद्भुतम् । चित्रमेतद्यदेतस्य कान्तः शान्तरसोऽधिकम् ॥ ११ ॥ नानं यस्य सरस्वतीशुचिजले पूजा च सोमेश्वरे ___ व्यर्थे नातिथयो व्रजन्ति सुकृतश्रीसंग्रहाद्यगृहात् । वित्तं यस्य च साधुबन्धुसुहृदां साधारणं सर्वदा
नानाको धरणीतले समधिकं धन्यः स मान्यः सताम् ॥ १२ ॥ स्वस्योच्चैः प्रतिपर्व शालिकणिकापिण्डेन सुश्रद्धया
सार्धे वेदपुराणपाठनिपुणैः पुण्यापणैाह्मणैः । श्राद्धं तेन विधीयमानमतुलं सारस्वते सैकते
दर्श दर्शमतीव हृष्यति दिवि श्रीवीसलक्ष्मापतिः ॥ १३ ॥ मुखे यदीये विमलं कवित्वं बुद्धौ च तत्त्वं हृदि यस्य सत्त्वम् । करे सदा दानमयावदानं पादे च सारस्वततीर्थयानम् ॥ १४ ॥ काव्येषु नव्येषु ददाति कर्ण प्राप्नोति यः संसदि साधुवर्णम् । विभूषणं यस्य सदा सुवर्ण प्राप्ते तु पात्रे न मुखं विकर्णम् ।। १५॥
रचित उचित उच्चैर्यस्य भक्त्यार्चनाय
द्युतिजितकुमुदालिः शालिजस्तण्डुलौघः । नयति सुमनसः श्रीसोमनाथस्य कामं
शिरसि शशिकलायाः कौमुदीर्मेदुरत्वम् ॥ १६ ॥ १. एतत्प्रशस्तिनिर्माणसमयात्प्रागेव वीसलनरपतिः स्वर्ग जगामेत्यनेन प्रतीयते.
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कथं दूरं गता, स्वर्गे ऐरावणस्य दक्षिणकर्णे लुकिता । भूपतिः स्वरग्वा ( ? ) दमोदत, शिरोधुनोत् । नित्यं गमनागमने [न] जिनधर्मासन्नः कृतो राजा चैत्येषु पूजाः कारयति । एकदा नृपेण पृष्टम् -' भवतां कः कलागुरुः ।' अमरेण गदितम् — 'अमरसिंहः कविराजः' इति । राजाह - ' तर्हि प्रातरानेयः ।' अमरचन्द्रेणानीतः प्रातः कविराज उपराजम् । तदा राजा खङ्गेन श्रमयन्नास्ते । राज्ञा पृष्टम् -'अयं कविराजः ।' कविराजेन व्याजहे — 'ओम्' इति । राजाह - ' तर्हि वद कालोचितं किंचित् ।' अमरसिंहः कवयति'त्वत्कृपाण विनिर्माणशेषद्रव्येण वेधसा ।
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कृतः कृतान्तसर्पस्तु करोद्वर्तनवर्तिभिः ॥ १ ॥ अच्छाच्छाभ्यधिकार्पणं किमपि यः पाणेः कृपाणे गुणः चक्राम सयौ पदवीं प्रत्यर्थिषु क्ष्मार्थिषु । तत्सङ्गान्न स बद्धमुष्टिरभवद्येनारिपृथ्वीभुजां
पृष्ठेषु स्वमपि प्रकाममुदितप्रोद्दामरोमोद्गमः ॥ २ ॥ कलयसि किमिह कृपाणं वीसल बलवन्ति शत्रुषु तृणानि । यानि मुखगानि तेषां न चैष लङ्कयितुमसमर्थः ॥ ३ ॥ देव त्वं मलयाचलोऽसि भवतः श्रीखण्डशाखी भुज
स्तत्र क्रीडति कज्जलाकृतिरसिद्धा (घ) राद्विजिह्नः फणी । एष स्वाङ्गमनर्गलं रिपुतरस्कन्धेषु संवेष्टय-
दीर्घ व्योमविशा (सा) रि निर्मलयशोनिर्मोकमुन्मुञ्चति ॥ ४ ॥ '
अद्भुतकवित्तादर्शनात्कविराजो राजेन्द्रेण नित्यसेवकः कृतः । ग्रासो महान्प्रत्यष्ठापि । एकदा श्रीवीसलदेवेन भोजनान्ते तृणं करे धृत्वाऽमरसिंहोऽभिदधे - 'इदं तृणं
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श्रीवसलब्रह्मपुरीद्वितीयावासवासिना ।
तेन नानाकनाम्नेदं तेने सारस्वतं सरः ॥ १७ ॥ मार्तण्डप्रतिमप्रतापवसतेः श्रीवीसलक्ष्मापते
धराध्वंसमहाप्रबन्धमधुरोन्मीलद्यशोवैभवः । एता (तां) सत्कविसंगतिर्गणपतिव्यासः प्रयासं विना
चक्रे निर्मलचित्रकाव्यरचनाभित्ति प्रशस्ति नवाम् ॥ १८ ॥ समुल्लसन्मौलिरुहद्विरेफः प्रपन्नकेदारपदारविन्दः । लिलेख चोदृङ्कितवान्कलादः प्रह्लाद्गोविन्दसुतः प्रशस्तिम् ॥ १९ ॥ जागर्ति पातूतनयस्य यस्य सावित्रिभर्तुर्महिमा स कोऽपि । यस्यानुजो (?) पाल्हणनामधेयश्चकार केदारसुवर्णपूजाम् ॥ २० ॥ संवत् १३२८xxx श्रीअभयसिंहप्रतिपत्तौ प्रशस्तिरुद्धाटिता ॥ इति Indian Antiquary-Vol. XI. p. 206-7 पृष्ठयोश्च एच्. एच्. ध्रुव बी. ए. एल्. एल. बी. प्रकाशिताभ्यां प्रशस्तिभ्यां त्रयोदशस्त्रिस्तशतके समये नानाकवीसलदेवयोः सत्त्वं प्रतीयते.
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सद्यो वर्णय । यदि रुचितभङ्गया वर्णयसि, तदा ग्रासद्वैगुण्यम् । अन्यथा सर्वप्रासत्याजनम् ।' इत्युक्तिसमकालमेवाहतप्रतिभतया स ऊंचे
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'क्षारोsब्धिः शिखिनो मखा विषमयं श्वभ्रं क्षयीन्दुर्मुधा
प्राहुस्तत्र सुधामियं तु देवतु जैत्रस्ते (?) वलीलारणे । पीयूषप्रसवो गवां यदशनाब्द (६) त्वा यदास्ये निजे
देव त्वत्करवालकालमुखतो निर्याति जातिर्द्विषाम् ॥'
ध्वनितो (?) भूपालः । प्रासद्वैगुण्यं कृतम् । कालान्तरे अमरेण कौष्ठागारिपद्मानन्दाख्यं शास्त्रं रचितम् । एवं कविताकल्लोलसाम्राज्यं प्रतिदिनम् ॥ इत्यमरचन्द्रकवि - प्रबन्धः ॥” इत्यमरचन्द्र प्रबन्धतो वीसलदेव नरपतिराज्येऽमरचन्द्रसत्ता निश्चीयते.
वीसलभूपालराज्यसमयस्तु - 'स्वस्ति श्रीमद्विक्रमकालातीत सप्तदशाधिकत्रयोदशशतिक (१३१७)संवत्सरे लौकिकज्येष्ठमासस्य कृष्णपक्षचतुर्थ्या तिथौ गुरावयेह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीविराजितपरमेश्वर परमभट्टारक - उमापतिवरलब्धप्रसाद प्रौढप्रतापचौलुक्य कुलकमलिनीकलिकाविकासमार्तण्ड - सिङ्घणसैन्यसमुद्रसंशोषणवडवानल - मालवाधीशमानमर्दन - मेदपाटकदेशकलुषराज्यवल्लीकन्दोच्छेदनकुद्दालकल्प- कर्णाटराजजलधितनयास्वयंवरपुरुषोत्तम - भुजबलभीम - अभिनव सिद्धराज - अपरार्जुन - इत्यादिसकलबिरुदावली समलंकृतमहाराजाधिराजश्रीमद्वी सलकल्याणविजयिराज्ये तदनुशासनानुवर्तिनि महामात्यश्रीनागडे श्रीश्रीकरणादिसमस्तमुद्राव्यापारान्परिपन्थयतीत्येवंकाले प्रवर्तमानेऽस्यैव परमप्रभोः श्रीमहाराजस्य प्रसादपत्तलायां वर्धिपथके भुज्यमानमण्डल्यां जयश्रीनिर्भरालिङ्गितशरीरो महामण्डलेश्वरराणकश्रीसामन्तसिंहदेवो नगरपौरानन्यानपि सर्वानधिकृत्य सर्वेषां विदितं पशासनं प्रयच्छति । यथा -- यन्मया महादानोदकप्रक्षालितवामेतरकरतलेन परमधामिंकेण भूत्वा तीर्थपुण्योदकैः स्नात्वा शुक्रवाससी परिधाय चराचरत्रिभुवनगुरुं भगवन्तं भवानीपतिं समभ्यर्च्य संसारासारतां विचिन्त्य नलिनीदलगत जलवत्तरलतरं जीवितव्यमी (मैश्वर्य चावगम्य ऐहिकं पारत्रिकं च फलमङ्गीकृत्य - ' इति डॉक्टर जी. बूल्हर सी. आय्. ई. महाशयै: Indian Antiquary – Vol. VI. p. 210-12 प्रदर्शितदानपत्रतः श्रीमद्वीसलनरपतिराज्यं त्रयोदशस्त्रिस्तशत के निश्चीयते. तत्रापि १२४३-४४-१२६१-६२ ख्रिस्ताब्दे (वि० सं० १३०० - १८) वीसलनरपते राज्यमिति डॉक्टर- जी. वूल्हर - महाशय सिद्धान्तः. डॉक्टर-रामकृष्ण - गोपालभाण्डारकरीय- १८८३-८४ तमवर्षीय 'रिपोर्ट' पुस्तके तु ३१८ पृष्ठे ४५७ पृष्ठे च, '१३०२ (विक्रम) वर्षे वीसलदेवस्थाप्य वर्ष १८ राज्यं कृतम्' इति दृश्यते.
१. अब्धि-यज्ञ-पाताल - चन्द्रेषु शास्त्रवणितस्यापि सुधास्थानत्वस्य विशेषणैर्मुधात्वं वर्णयित्वा हस्तस्थतृणेऽमृतत्वं वर्णयति. २. 'दधते हस्तेऽत्र लीलां तृणे' इति पाठो भवेतू.
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एवं च त्रयोदशख्रिस्त शतकनिश्चितस्थितिवीसलदेवराज्ये अमरचन्द्रस्य स्थितिनिश्च यात्रयोदशस्त्रिस्ततके बालभारत निर्माणनिश्चयः.
नयचन्द्र कविकृतयोर्हम्मीर महाकाव्य- रम्भामञ्जरीनाटकयो:'कार्यात्कारणसंविदं विदधते नैकान्तमुत्सृज्य यत्ततेषामिव नोऽपि कर्हिचन किं चेतश्चमत्कारवान् । नैवं चेन्नयचन्द्रसूरि सुगुरोर्वाणी विधायामृतं श्रीहर्ष तमथामरं तमपि तत्कि संस्मरेयुर्बुधाः ॥ नयचन्द्रकवेः काव्यं रसायनमिहाद्भुतम् । सन्तः स्वदन्ते जीवन्ति श्रीहर्षायाः कवीश्वराः ॥ लालित्यममरस्येह श्रीहर्षस्येह वक्रिमा ।
नयचन्द्रकवेः काव्ये दृष्टं लोकोत्तरं द्वयम् ॥'
इत्यत्र 'स्वदन्ते', जीवन्ति' इति वर्तमानप्रयोगाच्छ्रीहर्षामरचन्द्रयोरपि नयचन्द्रसमकालकत्वं वर्णयन्ति. परंतु चतुर्दशशतकमृतहम्मीर महाराजवर्णकनयचन्द्रकवैश्वतुर्दशशतकपूर्व कालकत्वाभावेन द्वादशख्रिस्त शतकोत्पन्ननैषधीयचरितकर्तृश्रीहर्षस्य त्रयोदशस्त्रिस्तशतकोत्पन्नबालभारतमहाकाव्य कर्त्र मरचन्द्रस्य च नयचन्द्रसमानकालकत्वाभावादेतत्समानसमयौ श्रीहर्षामरौ कौचिद्भिन्नावेव भवेताम्
तदेतस्य बालभारतमहाकाव्यस्य परममनोहरस्य यद्यपि काशीविद्यासुधानिधि ( The Pandit ) पत्रे मुद्रणं जातम्, तथापि तस्य सर्वासुलभत्वं बहुत्र पाठस्य खण्डितत्वं चावलोक्य पुनर्मुद्रणेच्छा जाता. तत्र पुनर्मुद्रणसमये महामहोपाध्यायपण्डितश्रीदुर्गाप्रसाद शर्मभिः
क-संज्ञकं द्विचत्वारिंशत्सर्गात्मकं चरमसर्गद्वयरहितं जयपुरराजगुरुभश्रीलक्ष्मीदत्ततनयश्रीदत्तशर्मभिः संवत् १७२४ वैशाख वदि ४ भौमवासरे लिखितं प्रहितम्. ख-संज्ञकं समग्रं ३०७ पत्रात्मकं जोधपुरपाठशालाध्यापकरमानाथशास्त्रिभिजोधपुरनगरतो यतिवरश्रीगणेशपुरीसाधूनां प्रेषितम्.
ग-संज्ञकं काशीविद्यासुधानिधिपत्रे मुद्रितम्.
इत्येवं पुस्तकत्रयमाश्रित्य समारब्ध संशोधने तत्स्वर्गवासोत्तरमस्माभिः समापित संशोधनेStयस्मिन्महाकाव्ये यत्रास्मद्दोषादक्षरयोजकदोषाद्वाशुद्धिः स्थिता जाता वा तां सुधियः सौहार्देन शोधयन्तु यतः
गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ||
इति निवेदयत: -
पण्डितशिवदत्तकाशीनाथौ.
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काव्यमाला।
महाकविश्रीमदमरचन्द्रसूरिप्रणीतं बालभारतम् ।
आदिपर्व ।
प्रथमः सर्गः । सतां परब्रह्मविलोकमार्गमपङ्किलं दूरितकण्टकं यः । श्रीभारत ब्रह्म ततान शाब्दं स श्रेयसे सत्यवतीसुतोऽस्तु ॥ १ ॥ शश्वत्प्रभावैर्भुवनं पुनाते बैटू यदीयाविव पुष्पवन्तौ । जनः समस्तोऽप्ययमस्तु तस्मिन्महोमये ब्रह्मणि लीनचित्तः ॥ २ ॥ अयं पयोधिप्रभवः प्रभावी प्रभाविनिद्रेण सुधारसेन । सैदाभिषेकं जगतां विधत्ते विधुर्वपुष्मानिव पुण्यराशिः ॥ ३ ॥ किरन्सुधां यो वसुधान्तराले महामहा हन्तितमां तमांसि । हुताशतीव्रः किमनेन साम्यं समं समायातु सहस्ररश्मिः ॥ ४ ॥ अवाप कीर्तिं त्रिजगज्जयीति ध्रुवामनङ्गः कुसुमायुधोऽपि । स येन सख्या जयसुन्दरेण कंदर्पजिन्मौलिमिलत्पदेन ॥ ५ ॥ वयं स्वयंभूभुवनस्रवन्तीस्रोतःपवित्रेऽपि निजोत्तमाङ्गे । अधारि बालोऽपि कुतोऽपि हेतोर्महेश्वरेणापि निरन्तरं यः ॥ ६ ॥ तस्य प्रिया कामशरव्रणैकसंरोहिणी स्निह्यति रोहिणीति । ध्यायन्यदास्यं किल तन्मयेन ध्यानेन तद्रूपमवाप सोऽपि ॥ ७ ॥ तन्नन्दनस्तन्मिथुनानुरूपरूपोऽस्ति चिद्रूपतया बुधाख्यः । यद्योगभाजं न विधुतुदोऽपि विधुं तुदत्युग्रविरोधबोधः ॥ ८॥ १. 'प्रभावौ' ग. २. बालको. ३. सूर्याचन्द्रमसौ. ४. 'प्रभावि' क. ५. 'महाभिषेकं' ग. ६. 'जनसुन्दरेण' क. ७. 'स्वयंभूर्भुवन' ग. ८. 'सिध्यति' क.
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२
काव्यमाला |
उष्णांशुरासन्नचरस्य शश्वद्यस्येव सेवातिशयेन तुष्टः । स्वलोकको काजरिपोरपीन्दोः कलां पुनर्वृद्धिकलां ददाति ॥ ९ ॥ मदान्धर्गन्धेभमरालबालसमानयानेन विभासमानः । स्वेच्छाविलासैकरसः प्रसर्पत्कंदर्पदर्पव्ययकारिकान्तिः ॥ १० ॥ समं स मित्रै समदः कदाचिच्चचाल चूलासु हिमाचलस्य । नेत्रं विचित्रासु वनावलीषु रोलम्बलोलं बहुधा दधानः ॥ ११ ॥ ( युग्मम् ) एकामयं कामपुरं कुरङ्गदृशं दृशोः पुण्यसुधानिधानम् । एकाकिनीमत्र वनीषु चित्रक्रमं भ्रमन्तीं सहसा ददर्श ॥ १२ ॥ लीलावलोकक्षणदूषणीयमपीक्षणं मुक्तनिमेषमेषः ।
तदा तदालोकन कौतुकेन बहुकृतात्मा बहु मन्यते स्म ॥ १३ ॥ तस्याः पिबन्नास्यसुधांशुधामसुधां दृशैवोत्पलिनीपुटेन । जगाम सौहित्यमसौ न सद्यश्चकार कम्पं शिरसस्तथापि ॥ १४ ॥ तदङ्गसौभाग्यविलोकभाग्यमहोदयानन्दनिलीननेत्रः ।
स्मरस्मैयस्मेरमथायमित्थमचिन्तयच्चेतसि चन्द्रसूनुः ॥ १९ ॥ क संभवोsस्या भुवि भोगिनीनां न स्यादिति श्रीर्विषदिग्धभासाम् । र्दृट्टैव सृष्टिः सुरसुन्दरीणां तुरीयमास्ते न जगत्कुतोपि ॥ १६ ॥ देवस्य पद्मप्रभवस्य पद्मनाभस्य वा देहविभागहत्रम् | असूत गौरीं गिरिराजपत्नी मेना किमेनामपरामिहैव ॥ १७ ॥ विरञ्चिरस्या नितमाममान्तमङ्गेषु शृङ्गाररसं सुकेश्याः । स्निग्धोल्लसकुन्तलकैतवेन निधाय मूर्ध्नि स्तबकीचकार ॥ १८ ॥ अस्मिन्नमुष्या जगदग्र्यकृष्णजयेन लक्ष्मीमभिसूचयन्ती । चकास्ति विस्तारिणि केशहस्ते सीमन्तवेषादियमूर्ध्वरेखा ॥ १९ ॥ विधोः कलैका हरमूर्ध्नि भालमस्या वितेने विधिरेकया च । इति द्वितीयादिनिशासु दृश्या वृद्धौ कलास्तस्य चतुर्दशैव ॥ २० ॥
१. 'गन्धेन' ग. २. 'चूडासु' क- ख. ३. 'स्मयतू' ग. ४. 'दृष्द्दैव' क-ग. ५. 'असौ' क.ग. ६. 'अस्यातितमां ' ग. ७. 'विधाय' ख.
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१आदिपर्व-सर्गः
बालभारतम् ।
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भ्रूवल्लिरस्या हृदयालयस्य द्वारायमाणे नयनद्वयेऽस्मिन् । कस्यापि धन्यस्य नवप्रवेशे नन्दत्यसौ वन्दनमालिकेव ॥ २१ ॥ उत्तंसितं भाति मुखप्रभासु न किंचिदलं यदहो तदस्याः । युक्तं दृशावेव विधिविधिज्ञः कर्णद्वयालंकरणं चकार ॥ २२ ॥ माहग्गेणद्वयबन्धनाय पाशद्वयं कर्णमिषादमुष्याः । दृग्दम्भविश्रम्भमृगोपसेव्यं सज्जीकृतं मन्मथयौवनाभ्याम् ॥ २३ ॥ कपोलयोरिन्दुजितोरमुष्याः प्रसर्पतोरेव मिथो जयाय । स्वयं स्वयंभूः कृतरोधमन्तळधत्त नासामिह मध्यदण्डम् ॥ २४ ॥ मुखेन्दुपीतेन्दुयशःप्रवाहप्रसृत्वरोद्गारनिभा विभाति ।
अस्याः स्मितश्री रसनाग्रदोलाविलोलवाणीवसनान्तकान्ता ॥ २५ ॥ मुखेन्दुना दीधितिधोरणोनामाधिक्यतोऽस्या गलहस्तितोऽपि । श्वासातिसौरभ्यचरविरेफच्छलात्किलाङ्को न विमुञ्चतेऽग्रम् ॥ २६ ॥ अस्या विभाति मितरश्मिपूरश्लिष्टोऽधरः पाटलतापटीयान् । अन्तर्मनोभूरसदुग्धसिन्धुवीचीमुखप्रेलितविद्रुमाभः ॥ २७ ॥ अस्याः स्मितैः सूक्तसुधानिधानजिह्वाग्रनिःस्यन्दनिभैः समन्तात् । सिक्तोऽधरः प्रोप्नुत माधुरी यां तां वेत्तु कः स्वादुरसेन धन्यः ॥ २८ ॥ मुदं ददाति त्रिजगज्जयाय प्रयाणशङ्खो मकरध्वजस्य । कण्ठोऽयमस्या मृदुमध्यतारस्वरत्रयाधार इति त्रिरेखः ॥ २९ ॥ अनन्यलावण्यभरातिपूर्णकपोलनिःस्यन्दकदम्बकाभ्याम् । रसातिशैत्यस्तबकीकृताभ्यामिव स्तनाभ्यां हृदि दीप्यतेऽसौ ॥ ३० ॥ अस्याः स्फुरत्कान्तकपोलकान्तिसरित्प्रवाहाकृति बाहुयुग्मम् । अन्योन्यसंभेदि ददातु हर्षमाकण्ठमन्तः पतिताय कस्मै ॥ ३१ ॥ कराविमौ चालयता नखाचिच्छटार्चितौ चामरवत्किलेयम् । दष्टेऽधरे धन्यतमस्य कस्य गतस्य शृङ्गारिषु राज्यलक्ष्मीम् ॥ ३२ ॥ १ 'मुखप्रभाभिः' ख. २. 'तादृग्' ग. ३. 'साम्यदण्डम्' क-ग. ४. 'चलद्विरेफ' ख. ५. 'प्राप्यत' क-ख. ६. 'सौख्यं क. ७. 'अचिःशब्द इकारान्तोऽपि' इति ग-पुस्तकटिप्पणम्.
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काव्यमाला।
हरत्सु दैत्येषु विधिः किमस्याः सर्गे दधौ मुष्टिबलेन मध्यम् । ततो नितम्बस्तनवृद्धिहेतुच्युतोत्थितद्रव्यमिदं कशीयः ॥ ३३ ॥ किं रोमराजी यमुनातटेऽस्या वलित्रिदण्डी कलयन्ननङ्गः । कस्यापि रूपेण जितस्तपस्वी तमेव जेतुं तनुते तपांसि ॥ ३४ ।। अस्या ध्रुवं नाभिह्रदे पपात मरो हरक्रोधकृशानुतप्तः । रोमावली भाति तदत्र मूर्तोद्वत्तेव शृङ्गाररसस्य धारा ॥ ३५ ॥ अभ्यस्य शश्वज्जघने घनेऽस्याः सौभाग्यसिन्धोः पुलिने पुलिन्दः । वेध्यं शराणां कुरुते न कस्य चलं च सूक्ष्मं च मनो मनोभूः ॥ ३६॥ विधातुमेतां खलु सज्जयित्वा लावण्यलेपं प्रचुरं विरश्चिः । नितम्बबिम्बे कृशचारुमूर्तिनिर्माणशेषं न्यदधादशेषम् ॥ ३७ ॥ ऊरुद्वयस्य द्विपहस्तजेतुर्भवेद्भुवं स्थौल्यमतोऽपि तुष्टया । यद्येतदस्याः करभावभीक्ष्णं साम्येन हीनावपि न स्पृशेताम् ॥ ३८ ॥ जङ्घाद्वयं यौवनकामदेवलजयस्तम्भयुगानुकारम् । अस्या विभात्युन्मुखसंमुखीननखप्रतिच्छन्दयशःप्रशस्तिः ॥ ३९ ॥ अङ्गैरधः क्षिप्तमिदं समग्रैर्नखावलिव्याजधृताक्षमालम् । मन्त्राञ्जपत्यम्बुजबुद्धिलोलरोलम्बनादैः पदयुग्ममस्याः ॥ ४० ॥ सेवागताभिर्दशदिक्पतीनां कान्ताभिरङ्गद्युतिनिजिताभिः । अस्याः पदद्वन्द्वमपूनि चूडारत्नैर्नखश्रेणिमिषेण मन्ये ॥ ४१ ॥ विनिर्जितोऽस्या गतिविभ्रमेण रोषादिवारक्तमुखो मरालः । दुःखादिवेभः शितिकान्तिरेतत्क्रमभ्रमान्मर्दयतेऽम्बुजानि ॥ ४२ ॥ इदं हृदन्तःस्मरतः स्मरैकरसस्य तस्यापि पतन्मुखेन्दौ । लीलावनीकेलिचलोऽप्यलोलस्तन्नेत्रसारङ्गशिशुर्बभासे ॥ ४३ ॥ प्रवेशयन्तौ हृदयं हृदैव दृग्भ्यां दृशावेव मिथः पिबन्तौ । स्नातौ महानन्दरसोमिपूरैः स्थितौ चिरं तावथ भावभिन्नौ ॥ ४४ ॥ अथो मिथोऽपि प्रथमानुरागभृतोस्तयोरीक्षणमात्रतोऽपि । तदात्वजातत्रपमेणनेत्रा चक्षुर्वलत्कण्ठमितश्चकर्ष ॥ ४५ ॥ १. 'मूतौ वृत्तेव' क. २. 'मूर्तेः' क. ३. 'व्यदधात्' ख. ४. 'चलज्जय' ग, ५. क्रमशब्दश्चरणवाचकः. ६. 'हृदीव' क. ७. 'पूरे' क. ८. 'चलत्' ग.
पा
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१आदिपर्व-१सर्गः]
बालभारतम् ।
तयानुरागमयमानलज्जातिर्यग्वलत्कण्ठचलदृशैव । वीक्षागुणेनेव निबध्य कृष्टः समीपमाप द्रुतमग्रतोऽसौ ॥ ४६ ॥ त्वमुत्तमे कासि विकासिशक्तिस्मरत्रिलोकीजयवैजयन्ती । कुतः समेतासि च लोलदृष्ट कृष्टेव मन्नेत्रयुगस्य भाग्यैः ॥ ४७ ॥ इति स्मरामोदवितन्द्रवाचि चन्द्रात्मजे मन्द्रमुवाच सा च । सदा सुधापानरसां रसज्ञामस्य श्रुतिभ्यां परिहासयन्ती ॥४८॥ (युग्मम्) सहाग्रजैर्बन्धुभिरुज्जगाम मनोर्महायज्ञकृशानुकुण्डात् । इडाख्ययास्मिन्गहनेऽभ्युपेत्य त्वां वीक्ष्य मन्ये सफलं खजन्म ॥ ४९॥ श्रुत्वेति शीतांशुसुतोऽप्युवाच वाचं स्मितस्नानविशुद्धवर्णाम् । तदाननद्योतसुधोर्मिपानात्सद्यः कृतोद्गारभराभिरामाम् ॥ ५० ॥ सुधामयीमाहुतिमाप्य शैत्यं स्तम्भं च भेजे शिखिनः शिखैव । इति युति यद्भवती दधाति स्थिरस्फुरद्धूमलताभवेणि ॥ ५१ ॥ त्वमुग्रदीप्तेर्दहनस्य पुत्री पुत्रोऽहमिन्दोस्तुहिनैकमूतेः । इति द्रुतं नौ ददतां समत्वं मिथः परीरम्भमहौषधानि ॥ १२ ॥ इत्थं मिथो जातकथाप्रथाभिः स्थिरीकृतप्रेमरसैकचित्तौ। . चिराय चिक्रीडतुरङ्गरगदनङ्गशृङ्गारितसंगती तौ ।। ५३ ॥ अथाभवच्चन्द्रकुलाधिराजः पुरूरवा नाम तयोस्तनूजः । यशःश्रियां धाम महामहस्वी मुनीश्वराणामपि माननीयः ॥ १४ ॥ कृष्णेऽप्यतृष्णा मदनेऽप्यदीना रामेऽप्यकामा कमनीयकान्तिः । दोःक्रीतचित्ताभवदुर्वशीति नृपस्य तस्याप्सरसः कलत्रम् ॥ ५५ ॥ अहीन्महीभृद्विवराध्वपातात्पातालयातै रिपुवक्रवातैः । यज्ञैः सुरानाज्यनयैर्मनुष्यान्पुष्यन्दधौ यस्त्रिजगत्पतित्वम् ॥ १६ ॥ तुल्येषु को गेय इतीशविष्णुपोकसां संसदि संशयानाः । वाक्पाणिवीणार्पितमस्य गीतं जगुस्त्रयस्यापि निजं हयास्याः ॥ १७ ॥ १. 'विकाश' क. २. सुधातोऽपि तस्या वाणी मधुरेति भावः. ३. 'वेणी' क, 'वेणिः' ग. ४. 'रिङ्गदनङ्ग' ग. ५. 'ऽप्यरामा' क. ६. प्रथमाबहुवचनम्. ७. 'वीणार्थित' ग.
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काव्यमाला।
प्रविश्य यं दिक्पतयोऽष्ट यद्दोश्छायामधो विश्वविभुः प्रपद्य । नभोमणियन्महसः सुहृत्त्वमाश्रित्य याति स्म सुखं दिशः स्वाः ॥१८॥ अतीव बाह्यारिगणादुदग्रान्वदन्ति युक्तं मुनयोऽन्तरारीन् । चिराय मात्राधिकशास्त्रयोगादृशं यतोऽनेन विजिग्यिरेऽमी ॥ ५९॥ पातालवैतालिकवृन्ददत्तां बलिः समाकर्ण्य विलोलमौलिः । विलज्जमानोऽद्भुतदानशक्तेर्यस्योपमामात्मनि किं न्यषेधत् ॥ ६ ॥ व्यधाद्दयालुः सुरशाखिरत्नगवीषु काष्ठाश्मपशुत्वमीशः । ह्रिया न दीर्ण यदमूभिरुच्चैनिशम्य यद्दानममर्त्यगीतैः ॥ ६१ ॥ न चक्षुषारज्यत नाधरेण व्यकम्पि भालेन च नो विचक्रे । रागास्पदस्याप्यमितेङ्गितस्य प्रियाभिषङ्गेऽपि रणेऽपि यस्य ॥ ६२॥ रेमे स धर्मैकधुरंधरोऽपि पत्न्यां धरोद्धारकृते सुताय । पूतो जनः शंकरपूजनाय न पङ्कजार्थ किमु पङ्कमेति ॥ ६३ ॥ खर्भानवीशः क्षितिपस्ततोऽरिपयोमुचां वायुरिवायुरासीत् । विनिर्मिता निर्मलशास्त्रकोटिमहारहस्यैरिव यस्य बुद्धिः॥ ६४ ॥ युवा विनिद्रः खलु मोहनिद्रां कुतूहलेनाभिनयञ्शनैर्यः । दृढाङ्गबन्धेन नवोढयापि सुस्निग्धयालिङ्गयत राजलक्ष्म्या ॥ ६५ ।। हर्षोल्लसल्लोलविलोचनश्रीविलोकने चन्द्रमुखीमुखस्य । यश्चन्द्रचूडस्मरणप्रनष्टस्मरो न रोद्धं व्यसनेन शक्यः ॥ ६६ ॥ धाम्नैव कामं दहतो विपक्षांलक्ष्मैव तस्याजनि खण्डदण्डः । ज्वालोज्ज्वलस्य ज्वलतोऽनलस्य दग्धव्यदाहाय न धूमलेखा ॥ ६७ ॥ अभूद्भुवोऽपि प्रियवाससोऽपि प्रियः सुतः श्रीनहुषो नरेन्द्रः । द्विषां यदीयाङ्गिनखा नतानां नृपत्वदीक्षामुकुटत्वमीयुः ॥ ६८ ॥ यद्दानगानव्यसनैकतानस्वर्भीरुभावाश्रुजलौघयोगात् । शङ्के पशुप्रस्तरपादपानामप्यद्भुताभूदिवि दानबुद्धिः ॥ ६९॥ १. 'दिक्पालक' ख. २. 'पत्नी' क. ३. 'स्वर्भानवीशः' ग. ४. 'आविरासीत्' ख-ग. आयुरिति नृपस्य नाम. ५. 'वासवोऽपि' ख. ६. 'ततः' ख.७. 'श्रीनघुषो' क. ८. 'यदीयांहि' क-ख.
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१ आदिपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
पुण्यं निरूप्याद्भुतभोगयोगैः प्रक्षीयमाणं क्रमतः पुराणम् । शक्रादयो दिक्पतयोऽप्रमेयश्रेयोंशलोभादविशंस्तमंशैः ॥ ७० ॥ भुवं भुजे योऽधित याचकेभ्यो दिक्कुञ्जरान्दातुमना मनखी । तदेकयुग्यं भजतां प्रभुत्वं न दिक्पतीनां कृपयाहरत्तान् ॥ ७१ ॥ अथावनीभारमुरीचकार जयातिरेकप्रवरो ययातिः । गीतं दिगन्तेषु यशो यदीयं श्रोतुं दधेऽष्टश्रुतितां विधाता ॥ ७२ ॥ सुदुस्तरन्यायपयोधिमध्यविलासतस्तुच्छभरां भृशं यः । मृणालिनीनालनिभेऽपि बाहौ सुखेन भूमिं बिभरांबभूव ॥ ७३ ॥ यत्साम्यचिन्ताभिरभूनिमेषोन्मेषोर्मिशून्यं नयनं सुराणाम् । यच्छक्तिहीनै रहिभिर्मुखात्तविषैर्मृतं नामृतमारुतार्थैः ॥ ७४ ॥ गीतानि चिन्तामणिकामधेनुकल्पद्रुमाणामधिदेवताभिः । शृण्वन्ति सिद्धाचलसंधिरन्यैर्बलिस्त्रियो दानयशांसि यस्य ॥ ७५ ॥ वनं मृगव्याय गतः स भूपः कूपं जलार्थी कमपि प्रपन्नः । तंत्राप तोये पतितां नताङ्गीमालोक्य कासीति जगाद कांचित् ॥७६॥ ऊचे नृदेवं प्रति सापि देवयानीति देवारिगुरोः सुताहम् । शर्मिष्ठया श्रीवृषपर्वदैत्यपुत्र्या वनेऽस्मिन्नुदितास्मि रन्तुम् ॥ ७७ ॥ अस्माकमाकस्मिकतः समीर विवर्ततश्वीरविपर्ययोऽभूत् । तदा तदर्थं प्रथिते मिथोऽपि वादे विदुष्टा दनुजेन्द्रपुत्री ॥ ७८ ॥ त्वं पुत्रिका मत्पितृयाचकस्य मूढाशये मामवमन्यसे हा । इत्थं सखीलक्षसमक्षमुक्त्वा कोपेन कूपेऽक्षिपदत्र सा माम् ॥ ७९ ॥ युग्मम्) इत्युक्तिपतेः श्रवणाध्वगायाः ससंभ्रमाभ्युत्थितमानसस्ताम् । पातालकन्यामिव कान्तिधन्या मिलाविलासी स चकर्ष कूपात् ॥ ८० ॥ गत्वा गृहं साथ पितुः पुरस्तान्यवेदयदुःखवृता स्ववृत्तम् । शुक्रोऽवदन्मे दनुजैर्विरोधं केतु तदेन्द्रः पवनत्वमाप ॥ ८१ ॥ तत्पुत्रि मा पूरय वैरिवारमनोरथं वारय रोषदोषम् ।
रोषः शिशूनां हि सखित्वभाजां रेखेव सौजन्यजले क्षणं स्यात् ॥ ८२ ॥
१. 'तत्रापि' ख. २. 'विलोक्य' क. ३. 'वादेऽतिदुष्टा' ग. ४. 'भृता क. ५० 'दातुं' क-ख.
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काव्यमाला ।
उक्तेति पित्रा वददुग्रमन्युः कन्याथ सा बाष्पजलार्द्रनेत्रा । भिक्षोः सुतासीत्यवमानितास्मि तया न तज्जीवितुमुत्सहेऽहम् ॥ ८३ ॥ इत्यङ्गजां मृत्युमुखी निरीक्ष्य रुषा सुरारिप्रभुमाह शुक्रः । त्वन्नन्दिनी केलिषु नन्दिनीं मे व्यमानयत्कि करवै भवद्भिः ॥ ८४ ॥ इत्युक्तवान्दर्पवशोऽपसर्पन्दैत्याधिपेन क्रमलग्नमूर्धा । आर्द्राकृतः स्माह स नाहमस्मि क्रुद्धः क्रुधा दीव्यति देवयानी ॥८६॥ अथ स्वपुत्रीमपराधकर्ती प्रदाय दासी दनुजेश्वरेण । प्रसादिता शुक्रसुतार्थसूतेर्दासी ममासीत्यहसीदसौ ताम् ॥ ८६ ॥ गतापरेधुर्विपिनं तदेव सा देवयानी स्मरराजधानी । तदैव तत्रोपगतं ययाति भवद्वशास्मीत्यवदन्मदान्धा ॥ ८७ ॥ लोलेक्षणे क्षत्रकुलोद्भवोऽहं महर्षिपुत्री कथमर्थये त्वाम् । तेनेथमुक्ताथ पितुः पुरस्तादार्ता स्वसंकल्पमियं जजल्प ॥ ८८॥ शुक्रोऽथ पुत्र्या नृपरागहेतुं ध्यायन्हृदि ध्यानदृशेत्यपश्यत् । यन्नाकिवर्गः समरे पुरासौ सुरारिवर्गः समरे समग्रः ॥ ८९ ॥ संजीविनी नाम नियोज्य विद्यां तज्जीवितास्ते दनुजा मयामी । बार्हस्पतीयस्तनयोऽथ विद्यां तां ज्ञातुमागादिह मां कचाख्यः ॥९०॥
(युग्मम्) ममाकरोद्वर्षसहस्रिकं स सेवाव्रतं देवपतिप्रणुन्नः । संजीविनीं लिप्सुरसावितीमं गोरक्षणस्थं दनुजा निजनुः ॥ ९१ ॥ विना कचेनैव गँवां गणेऽथ गृहाद्गणे रङ्गति सायमत्र । तत्सेवया स्नेहमयी ममेयं दुःखात्सुता मामवदत्तदेदम् ॥ ९२ ॥ तात प्रयातः सवितायमस्तं नाद्यापि नेत्रोत्सवतां कचस्तु । शङ्के विशकै निहतः स दैत्यैर्जीवामि नैवाद्य तु तं विनाहम् ॥ ९३ ॥ इत्युद्विलापां तनयां विलोक्य संजीवनीसंस्मरणात्क्षणात्तम् । अजीवयं प्रेषयति स्म चैषा वनं प्रसूनाहृतये ततस्तम् ॥ ९४ ॥ १. 'सुतार्थिसूतेः' ख-ग. २. 'तेनेदं' ख. ३. क-ख-पुस्तकयो स्ति. ४. 'गृहाङ्गणेऽथ गवाङ्गणे' क. ५. 'तदैवम्' क. ६. 'नायाति' इत्युचितः पाठः. ७. 'निरीक्ष्य' ग.
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१आदिपर्व-१सर्गः]
बालभारतम् ।
दैत्याः पुनस्तत्र रहो निहत्य तं दग्धमुत्पिष्य सुराविमिश्रम् । अपाययन्मां तवयार्थितोऽहमजीजिवं कुक्षिगमेव तत्तम् ॥ ९५॥ मयोपनीतां प्रतिपद्य विद्यां मत्कुक्षिमुद्भिद्य विनिर्गतोऽसौ । मां जीवयामास मयेत्यथोचे प्राप्स्यन्ति विप्रा निरयं सुरापाः ॥९६ ॥ पृष्ट्वाथ मां यातुमनाः सविद्यस्त्वं मां भजेत्युक्तवतीमतीव । स्वसासि मे त्वं गुरुकुक्षिवासान्निराचकारेति स देवयानीम् ॥ ९७ ॥ मदीहितध्वंसकृतोऽफलास्तु विद्या तवेत्युद्वचसं कचोऽमूम् । ऊचे न शापो मयि धर्मिणि स्यादास्तां तव न्यूनकुलस्तु भर्ता ॥९८॥ तच्छापतः क्षमापरतेयमासीज्ज्ञात्वेति दोषो न तवेत्युदीर्य । शर्मिष्ठया संजनितानुचर्या शुक्रो ददाति स्म ययातये ताम् ॥ ९९ ॥ क्रमाप्रसूते स्म सुतौ यदुं च सा तुर्वसुं चाथ कवेस्तनूजा । दैत्यात्मना गुप्तरता त्वसूत द्रुह्याणुपूरून्नृपतेः कुमारान् ॥ १० ॥ तदैत्यनावृत्तमवेत्य देवयानी पितुर्धाम रुषा जगाम । तत्सान्त्वनायानुगतं ययाति क्रुधा सुधाभुनिपुसूरिरूचे ॥ १०१ ॥ इमा कुमारी ददता सुरारिसुता न सेव्येति मया निषिद्धः । त्वं मूढ तारुण्यमदात्तदेव व्यधा निधानं भव तजरायाः ॥ १०२ ॥ प्रसादितः क्षमापतिनाथ शुक्रो जगौ जरां क्वापि सुते निधाय । तारुण्यशाली परिभुज्य भोगांस्तृप्तः पुनस्तां तपसे भजेथाः ॥ १०३ ॥ गतोऽथ राजा जरसश्चतुर्पु त्रस्तेषु यद्वादिषु नन्दनेषु । वितीर्णतारुण्यभरेऽथ पूरौ पौराङ्गनादृक्कुमुदेन्दुरासीत् ॥ १०४ ॥ क्ष्मापस्य शापेन ततश्चतुर्भिः सुतैरपावित्र्यमुपार्जि पूर्वैः । तद्यादवम्लेच्छशकैरिलायां ख्यातान्वयास्ते यवनैश्च जाताः ॥ १०५॥ सैंमाः सहस्रं विषयोपभोगी ततः स योगी भवितुं प्रवृत्तः । पुनर्युवानं च नृपं च चक्रे पूरुं समादाय जरां ययातिः ॥ १०६ ॥ योगाप्तागतिः पतेति हरिणा शप्तः स्वयं संस्तुव
सत्सङ्गोऽस्तु ममेति याचितवरो यज्ञप्रवीरेषु सः । १. 'प्रसौति' क. २. 'उपगतं नृपं च' ग. ३. यदुप्रभृतिषु. ४. 'समासहस्रं' क.
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काव्यमाला।
दौहित्रेषु पतञ्छिविप्रभृतिषु ख्यातस्ववृत्तो दिवे
तद्दत्तं सुकृतं तु नादित ततः सत्त्वात्पुनः स्वर्ग्यभूत् ॥ १०७ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के आदिपर्वण्यादिवंशावतरणे पुरूरवप्रभृतिराजचतुष्टयवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः।
द्वितीयः सर्गः । द्वैपायनः पातु जगन्ति दूरमुद्यत्पुराणामृतबिन्दुवृन्दः । यन्मानसज्ञानसुधासमुद्रे वाग्देवताया जलकेलिरासीत् ॥ १ ॥ कौशल्यया वल्लभया सहाथ भुवं भुनक्ति म स पूरुभूपः । द्विषो यदीयासिनदीरयाभिमुखाधिरोहेनिमिषा बभूवुः ॥ २ ॥ भुजावहंपूर्विकया प्रवेष्टुं मुखैकमार्गादुदरे दरेण । दन्ताङ्गुलिग्राहमिषादरीणां पराङ्मुखौ वीक्ष्य शमं ययौ यः ॥ ३ ॥ चकार निर्विघ्नचिकीर्षितस्य यत्तेजसो द्रव्यलवेन वेधाः । महेशितुर्य तिलकं तमेव भालस्पृशं वदिशं दिशन्ति ॥ ४ ॥ यं शङ्कया प्राप कयापि कम्पं रते स धर्मज्ञमतेऽपि वीरः । अस्त्रेषु तेनापि वधूविलासान्मूढः स्मरः स्मार्चति वीरमानी ॥५॥ भूपोऽथ जज्ञे जनमेजयाख्योऽनन्तापतिर्मण्डलितं यदस्त्रम् । दधौ मुखेन्दोः परिवेषभावं युधीषुधाराद्भुतवृष्टिहेतुम् ॥ ६ ॥ प्रतापदग्धाखिलकण्टकायां यशोजलैः शान्तिमुपागतायाम् । लघूभवद्भूभृति सैन्यनागैः क्षितौ यदाज्ञा सुखिनी चचार ॥ ७ ॥ संहारशक्तिं यदसेनिशम्य कृतान्तजिह्वाञ्चलतो हरेण । न कम्पितो यः किल कालकूटग्रासेऽपि स स्वैरमकम्पि मूर्धा ॥ ८॥ लोभेन केनापि नितम्बिनीषु रक्तास्वरक्तोऽपि रसीव खेलन् । यं दोषमाहुर्गणिकासु धीराः स्वसिन्नसौ तं गुणतां निनाय ॥ ९ ॥ तुरंगमेधत्रितयस्य कर्ता त्रिनेत्रसेवारसिकोऽन्वहं यः । जगत्रयख्यातनयस्त्रिमार्गात्रयीतनुस्पर्धियशःप्रतापः ॥ १० ॥ १. 'दिवि' ग, २. 'वृन्दा' ग. ३. 'यन्मानसें क. ४. 'कौसल्यया' ख. ५. मत्स्या देवाश्च. ६. 'पास' ग. ७. 'भवत्रय' ख. ८. 'ख्यातिमयः' क-ग.
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१आदिपर्व-२सर्गः] बालभारतम् । प्राचीनभूपोऽभवदश्मकीशस्ततः सरादप्यधिकेन येन । भृशं यशोभिः कुसुमावदातळलोपि सोऽपि प्रसभं त्रिनेत्रः ॥ ११ ॥ सदा मदारम्भविजृम्भिणोऽपि रणेषु वीक्ष्य त्रसतोऽरिवीरान् । स्मितं सुरौधैर्यदकारि यस्य तदेव दिव्यानि यशांसि जातम् ॥ १२ ॥ चौराङ्गनालोचनवारिपूरैरन्यायवह्निः शमितो यदुव्म् । निःश्वासवातैरभिसृत्वरीणा भस्मापि कुत्रापि निरासि तस्य ॥ १३ ॥ वृथाप्रयासो बलिजिकिमासीच्चतुर्दुमोऽभूदथ नाकलोकः । रसैव रत्नं सुषुवेऽप्यवेदमित्यूचिरे दातरि यत्र लोकाः ॥ १४ ॥ . रराज संयातिरिति क्षितीन्दुर्वरो वराङ्गया यदसिप्रणुन्नौ । विवर्धितस्पर्धमुदारवेगौ दिवं यशोवैरिगणावयाताम् ॥ १५ ॥ जानन्युगान्तेऽप्यवियुक्तमिन्दुगङ्गाभुजंगेशवृषादिभिः स्वम् । मन्ये मुदा नृत्तपरो हरोऽपि भावी विविक्तेषु यशःसु यस्य ॥ १६ ॥ कर्तुं न यस्मिन्किमपि प्रगल्भा द्विप्राणपानात्ययवायुवल्माः । ब्रीडादिवाधो विषभृन्मिषेण द्विषन्नृपाणामगमन्कृपाणाः ॥ १७ ॥ ईष्या परित्यज्य कृती यदीयमाधाय रूपं नलकूबरोऽपि । येदेकचित्तां परचित्तवेदी बँभाज रम्भा विरहज्वरार्ताम् ॥ १८ ॥ तस्मादहंयातिरंभुक्त भानुमतीप्रियः क्ष्मां यदसौ प्रवेष्टुम् । अवीविशहिम्बमिषादरातिः स्वमेव मूर्त्यन्तरमग्रतोऽपि ॥ १९ ॥ विधाय वैरं सह येन वीराः प्रकाममज्ञानतयैव गावः । चतुष्पदाः क्षोणिमिलत्करत्वान्नतास्तृणं युक्तमधुर्मुखेषु ॥ २० ॥ एकोऽपि येन व्यतिषक्तकण्ठः श्रीकण्ठ एव प्रथितः खलूनः । यस्यासिरुत्कृत्तबहूग्रकण्ठस्तेनोपमेयः क्व हलाहलेन ॥ २१ ॥ एभिर्विमानैरुपरि स्फुरद्भिर्मा ग्राहि नः श्रीरिति जाग्रति स्म । अहर्निशं यद्भुवि निर्निमेषकपाटपक्ष्माणि निकेतनानि ॥ २२ ॥
१. 'ईक्' क. २. 'ऽथ' ३. 'प्रभाविविक्तेषु' ग. ४. वायुभोजनाः. ५. 'मदेक' ग. ६. 'परिचित्त' क-ख. ७. 'वभार' क. ८. 'अधत्त' ग. ९. 'भ्रमद्भिः ' ग.
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काव्यमाला।
बभार भूमीमथ सार्वभौमो नृपः सुनन्दाहृदयाधिनाथः । चकर्ष जीवां युधि संमुखानां शरासनानामिव वैरिणां यः ॥ २३ ॥ अपि प्रभिन्ना रुधिरैररीणां तदङ्गनारपि जातसेका । स्वसैन्यभारेण च दुर्धरापि धरा करे येन सुखेन दधे ॥ २४ ॥ विद्याधरीणां निवहो वयस्याः स्मरातुराः स्मेरयितुं सयत्नः । छलादहार्यस्य शुभैकवृत्तेर्न रूपमप्यस्य शशाक धर्तुम् ॥ २५॥ अजानता यस्य तनुत्विषैव छायां वियत्येव भृशं विशीर्णाम् । इतस्ततश्चालयतार्कधाम्नि च्छत्रं मुहुश्छत्रधरेण खिन्नम् ॥ २६ ॥ ततो जयत्सेन इति क्षितीशो जिगाय शत्रून्सुषुवाधिनाथः । अलचि धीरैर्भुवि सर्पिणीयं चिरं नरेन्द्रैरपि नो यदाज्ञा ॥ २७ ॥ ध्रुवेव भङ्गानसिनेव कम्पाञ्शरासनेनेव नतीरतीव । प्रपाठिता यस्य युधि द्विषन्तो मुखे तृणं तु स्वधियैव चक्रुः ॥ २८ ॥ खेरूलिकाखेलनपुष्पलावस्नानादिलीलाः सुभगस्य यस्य । ऐच्छन्न किं स्वस्वपदेषु कामचलाः स्थलारामजलाधिदेव्यः ॥ २९ ॥ यद्रूपशेषां तनुमारचय्य श्रीविश्वरूपो रमते श्रियं किम् । यदद्भुताकारधरश्च विश्वत्रयीजयी चास्य सुतः स्मरोऽभूत् ॥ ३० ॥ मर्यादयोा च विभुर्द्विभार्यो रोचीननामा नृपतिस्ततोऽभूत् । विकम्प्य यस्यासिररीभमूर्ध्नि पपात कान्ताकुचशङ्कयेव ॥ ३१ ॥ रणे मणिव्याप्तकिरीटकुम्भतटोर्ध्वदोर्दण्डकृतप्रतिष्ठाम् । पटीपताकां भ्रमयन्प्रपेदे प्रासादलीलां विजयश्रियो यः ॥ ३२॥ यस्य प्रतापं सृजता हरेण करेण सस्वेदममार्जि मालम् । लग्नेन तद्रव्यलवेन तेन तेनेऽत्र नेत्रं ज्वलनाभिधानम् ॥ ३३ ॥ कार्येच्छया यद्रिपुदुर्यशोयत्प्रतापयत्कीर्तिवितानगानैः । ध्वान्तोच्छूयं वा दिवसोदयं वा ज्योत्स्नाचयं वा रचयन्तु लोकाः॥३४॥ १. 'कर्तुम्' क. २. 'अथावनीशो जयसेननामा रिपून्सुपर्वादयितो जिगाय' इति क. पुस्तकोपरि पाठान्तरम्. ३. 'वीरैः' क. ४. 'भुवेव' ग. ५. 'खरूचिका' इति हरविजयस्थः (२७।४) पाठः. 'खरूचिका धनुष्मतामभ्यासोपयोग्यानि शरव्यानि' इति तटीका. ६. 'प्राचीन' क,.'ऽर्वाचीन' ख. ७. 'च' क.
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१आदिपर्व-२सर्गः] बालभारतम् । ततः सुयज्ञाधिपतिः पतंगमहा महाभौममहीधवोऽभूत् । अस्त्रैरसिञ्चन्त मुहुः स्वदेहं यद्वैरिणस्खासगतेषु तप्ताः ॥ ३५ ॥ निपीय पीयूषरुचिं रुचैव कृतस्थितिः कल्पशतानि यावत् । जगत्रयेऽप्यस्खलितं चलन्ती यदीयकीर्तिर्विरराज सिद्धा ॥ ३६ ॥ विशिष्यमाणप्रमदं यदङ्गप्रवेशशोभासुभगीकृताङ्गैः। दिक्पालवध्वो दयितै रसेन परं परीरम्भमरं भजन्ति ॥ ३७ ॥ जानन्विभावं भवनाटकेऽस्मिन्मायामयं सर्वमखर्वबोधः । रसैरभिन्नोऽभिनिनाय तोषरोषादिभावान्समयोचितान्यः ॥ ३८ ॥ जज्ञेऽथ राजायुतयाजिसंज्ञोऽसूयापतिर्य स्मृतिभूनिमाल्य । अमुं रतिर्मा च निरीक्ष्य मा भूदियं विषण्णाभवदित्यनङ्गः ॥ ३९ ॥ सदाप्यहस्यन्त सुरप्रियाभिः स्त्रियः प्रियालोकनविघ्ननिद्राः । स्वप्ने तु यं प्राप्य मुदा तदाभिस्ताः प्रत्यहस्यन्त मुहुर्विलक्षाः ॥ ४०॥ घनारिनारीनयनाश्रुनीरैर्यशोलता यस्य विभातु युक्तम् । प्रतापवद्विवलितो यदेतैर्जगच्चमत्कारकरं तदेव ॥ ४१ ॥ फलन्ति जन्मान्तर एव देवाः सेवाकृतामित्यतुलं कलङ्कम् । भेत्तुं भवन्ति स्म दिशामधीशाः सद्यः फलस्मेरितसेवको यः ॥ ४२ ॥ करेणुकाजानिरिलाप्रबोधमक्रोधनो नाम ततस्ततान । भुजंगमीगीतिषु यस्य दानं निशम्य मुक्तो बलिनापि दर्पः ॥ ४३ ॥ नभोङ्गणे यस्य यशःप्रतापौ विलेसतुर्भावरगोलकाभ्याम् । पातालगान्निहितोद्धताभ्यामिवान्वहं चन्द्ररविच्छलाभ्याम् ॥ ४४ ॥ निरन्तरं त्र्यम्बकपादपूजापुण्यात्मनां संयति निर्जितानाम् । न येन जढे परमार्थवृत्तिः स्वसेवकानां द्विषतामपि श्रीः ॥ ४५ ॥ अहो महीभारमहीयसा यः क्लेशेन रीणोऽह्नि निशि प्रहृष्टः । आत्मानमालोकत योगनिद्रास्वप्नेष्वसंभाव्यपदप्रतिष्ठम् ॥ ४६ ॥ १. 'महीधरो' क. २. 'ऽपि निनाय रोषतोषात्' क. ३. 'तपस्यतिः' ख, 'भासां पतिः' ग. ४. 'विखिन्ना' ग. ५. 'प्रियं' ख. ६. 'फलापूरित' ख. ७. निहतोद्गताभ्यां ख.
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काव्यमाला।
भासाहया वल्लभया ततोऽस्माद्देवातिथि विबुरुद्वभासे । स्पर्धा दधाना इव येन युद्धे द्विषोऽपि देवातिथयो बभूवुः ॥ ४७ ॥ ययौ गलश्यामलता किमद्य तवेति देव्याभिहितो महेशः । व्यलोकत खं फणिराजमौलिमणौ मुंदा यद्यशसि प्रकीर्णे ॥ ४८ ॥ दिक्पालपूजाविधिभिस्त्वमेव मया प्रयाणावसरेऽचितोऽसि । तत्कि निहंसीति गिरा निरासि परेण युद्धापदि यत्प्रकोपः ॥ ४९ ॥ रजोजलाचिकणतारकाणू-क्ष्माब्धित्रितेजोम्बरवायुमूर्तिः । संख्याय सर्वज्ञविभुर्गुणालीं यस्यास्तसंख्यां जगदेऽष्टमूर्तिः ॥ ५० ॥ देवापतिः श्रीरुच इत्यथासीत्तदीयसिंहासनशैलसिंहः । विदारयन्वैरिगजब यो यशांसि मुक्ताविशदानि तेने ॥ ११ ॥ निजाश्रुनीरैः स्नपिता द्विषद्भिः प्रदीपिता मौलिमणीमृजाभिः । दशापि यत्पादनखाः प्रेतेनुर्दिशां दशानामपि दर्पणत्वम् ॥ १२॥ आविश्य नारीरमरीगणेन नेत्रानिमेषानुमितेन दृष्टः। पातालबालाभिरनायि रूपश्रुत्यैव यो लोचनगोचरत्वम् ॥ ५३ ॥ यस्य प्रतापस्तपनो नवीनः सर्वत्रलब्धाभ्युदयोऽस्तहीनः । यो यः क्षितीशोऽत्यजदातपत्रं तापं तनोति स्म न तस्य तस्य ॥ ५४॥ ज्वालापतिरिवनेऽथ शौर्यज्वालालिमज्वालयदृक्षराजः । वृतः सितैर्यस्य यशोभिरिन्दुरवाप दुग्धोदधिवाससौख्यम् ॥ ५५ ॥ तटस्थकान्ताकुचदर्शनेन प्रधावितान्कुञ्जरकुम्भबुद्ध्या । वने विनास्त्रैर्भुजलीलयैव जिगाय सिंहानपि यद्विपक्षः ॥ १६ ॥ सामस्त्यभावाद्धृतं वधूत्वं त्रिलोचनः शोचति चेतसि स्वम् । स्त्रीत्वं गृहीत्वोज्झितमेव विश्वरूपस्तु यदूपनिरूपणेन ॥ १७ ॥ यद्भूतले सच्चरितोदयानामविश्रुतादृष्टरुजां प्रजानाम् । अमीलयद्वन्धुसुखोक्तिभाजां निद्रेव मृत्युनयनानि काले ॥ १८ ॥ १. 'व्यलोकयत्' क. २. 'यदा' ख. ३. 'क्षमाम्भोधितेजो' ख, 'क्षमाब्धितेजो' ग. ४. 'यस्यास्ति संख्यान्' ख, 'यस्यास्त संख्यान्' ग. ५. 'वितेनुः' ग. ६. 'रूप' ग. ७. 'दधतं' क. ८. 'त्रिलोचनं' क. ९. 'अर्जितमेव' क.
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१ आदिपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
सरस्वतीशो मतिनारभूपस्ततोऽभवत्पादनखेषु यस्य । अपाति बिम्बेन नृपैर्दशाशाक्षितीशताखेलनपल्वलेषु ॥ ५९ ॥ विकम्पतेऽसौ युधि पृष्ठमेतद्विरोधिनां दर्शयतीति येन । असौ च चापे च निरादरेण विजिग्यिरे भूमिभुजो भ्रुवैव ॥ ६० ॥ गुणैः स्थितं 'यं हृदि कामुकस्य न का मुहुः कामवशालिलिङ्ग । नकाधिकं येद्गुणगानगर्भमुपांशु चित्तेशमुखं चुचुम्ब ॥ ६१ ॥ स्वयं कृतानामपि कीर्तनानां संख्यां स नाबुध्यत बुद्धसर्वः । जगत्पवित्रीकरणोल्वणानां यस्मिन्गुणानामिव पद्मयोनिः ॥ ६२ ॥ नृपस्त्रसुर्नाम कलिन्दकन्यापतिस्ततो भूषयति स्म भूमिम् । त्रैलोक्यदीपत्विषि यत्प्रतापे पतंगवद्भाति पतन्पतंगः ॥ ६३ ॥ विधाय पूजां रणमण्डलस्य क्षतेभकुम्भच्युतरत्नपुष्पैः । द्विषां ज्वलन्तीरगिल प्रतापप्रदीपिका यत्करवालयोगी ॥ ६४ ॥ वामाविनोदावसरेऽपि विश्वजयज्वलन्मोहजयोज्ज्वलस्य । पपात यस्योपरि पुष्पवृष्टिरिवाभितो मन्मथवाणवृष्टिः ॥ ६९ ॥ इयद्वियस्य पदं वदन्ति शिरोरुहं यैस्य च तस्य ताभ्याम् । आदायि यद्दानपयोनिदानयशोम्बुजाङ्केऽलिमरालकेलिः ॥ ६६ ॥ रथन्तरीजानिरथो पृथुश्रीरिलाधिपोऽभूदलिनाभिधानः । महाहवे यत्प्रतिघाग्निधूमकृपाणसङ्गो द्विषतां दिवेऽभूत् ॥ ६७ ॥ केनापि भन्नं शिशुना पिनाकं वास्ते गुणश्रीरपि रोहितस्य । संभाव्यते शार्ङ्गपूतमेव केनोपमेयं तदमुष्य चापम् ॥ ६८ ॥ स्निग्धा युवानस्तरुणीषु ताभिर्यदात्मकत्वेन रहः स्मृतास्ते । इति त्रिलोकीमिथुनानि तुल्यप्रीत्यैव किं तुल्यरतानि नासन् ॥ ६९ ॥ भिन्नोऽपि सत्कर्मरसेन सप्तद्वीपावनीभारभरेण तप्तः । खेदापनोदाय पपावमुह्यन्मना वधूनांमधरामृतोमः ॥ ७० ॥
११
१. 'यद्धृदि' ग. २. 'यदण' ख. ३. 'शिशु' ख, 'त्वसु' ग. ४. विष्णोः. ५. शि. वस्य व्योमकेशत्वात्. ६. 'अपूर्वमेव' ग. ७. 'अमृताधरोर्मी : ग.
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काव्यमाला।
ततो रिपुक्ष्मापचमूनिकारं चकार दुष्कन्त इति क्षितीशः । चतुर्मिराभादनुजैर्भुजैर्वा चतुर्भुजः श्रीपरिरम्भणे यः ॥ ७१॥ खयं कनिष्ठाङ्गुलिकोटिदत्तप्रसूनपत्रार्पितपूर्वशोभम् । पाणिद्वयं मूर्ध्नि निधाय चक्रे स्तवक्रियां यस्य विरोधिवर्गः ॥ ७२ ॥
चित्रेषु वर्गेषु पुरः स्फुरत्सु यत्कार्मुके संगररङ्गभाजि ।
द्विषद्धटापाटननाटकैक टेयमभ्रूरनटन्नटीव ॥ ७३ ॥ पातालयात्रासु गतस्य वाचामगोचरं किंचन यस्य रूपम् । पातुं प्रमोदाय भुजंगमानामगामि कामं नयनेषु कर्णैः ॥ ७४ ॥ विश्वत्रयीधवलनव्यसनेन यस्य
दामोदरोदरमपि प्रविवेश कीर्तिः । तस्या बभौ पदमदः कथमन्यथास्मि
न्नाभीपथे सितकुशेशयकैतवेन ॥ ७९ ॥ चक्रे कल्पतरुनिरुञ्छनविधि चेलाञ्चलैश्चञ्चलै
स्तेने चामरकर्म चामरगवी लीलोल्लसद्वालधिः। उद्गीतस्य यदीयदानयशसो रेजे च नीराजना
प्रायः प्रीतिविकम्पितासु दिविषचूलासु चिन्तामणिः ॥७६ ॥ निःशेषप्रतिपन्थिपार्थिवचमूपाथोधिमन्थोद्धरः
साम्राज्यश्रियमाप्य यः समतनोच्चक्रं क्रतूनां तथा । मन्ये येन तदुत्थधूमलहरीसंपातसंपादिता
मद्यापि ऋतुपूरुषो न वपुषि श्यामां रूंचं मुञ्चति ॥ ७७ ॥ उदन्वानुन्मीलद्वेहुलहरिमजप्रवहणः , परिभ्रश्यचूलाशिखरविषमान्ताः क्षितिभृतः । अटव्यः संघट्टज्वलिततरवो यद्दलभरैविलोले भूगोले श्रित इति विपक्षैः सपदि यः॥७८ ॥
. १. 'दुष्यन्त' ग. २. 'विधाय' ग. ३. 'नटोपमभू' ग. ४. 'रुचि' क. ५. 'बहलहरि' ग. ६. 'परिभ्राम्यत्' ख.
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१आदिपर्व-२सर्गः]
बालभारतम् ।
चन्द्रक्षीरसमुद्ररुद्रशिखरिव्यालेन्द्रमन्दाकिनी
मन्दारद्रुमहारतारकमुखाः सर्वेऽप्यखर्वत्विषः । वीरश्रीनिलयस्य यस्य यशसि त्रैलोक्यकुक्षिभरौ
नेक्ष्यन्ते यदवश्यमस्य तदमी निर्माणकर्माणवः ॥ ७९ ॥ श्यामश्रीके किमपि विपुले स्वर्गदण्डप्रणाली
पालीलीलाभृति विधुसुधाकूपरुंडीरसिक्ते । स्फारा ताराततिरतितरामम्बरक्षेत्रदेशे
दृश्या यस्य प्रतिगुणयशोवल्लिबीजावलीव ॥ ८० ॥ प्रेमातिरेकरसमग्नहृदोऽप्युपांशु___ लीलावतीललितवेणिविलोकनेन । आसन्रणोग्रयदसिस्मरणाद्विलीन
__ कामाः परे कृपणमीलितकातराक्षाः ॥ ८१ ॥ फूत्कारैः फणिपुंगवं फणिगणो गङ्गां तरङ्गखनै
धर्मी मन्द्ररवैरवैति तमपि स्वःकुम्भिनं जम्भजित् । अस्माभिर्बत बुध्यतां कथमयं स्वामीति तारा व्यधु
श्चन्द्रे चिह्नमिवाञ्जनैस्त्रिभुवनभ्रान्तासु यत्कीर्तिषु ॥ ८२ ॥ लीलावापीसरसिजवने भद्रकुम्भीन्द्रकुम्भ__ क्रोडे कान्तावदनशशिनि द्वारवीरासिदण्डे । खेलं खेलं स्वयमिह मुहुर्यद्वितीर्णा स्थिरत्वं
लोलापि श्रीरभजत गृहे मार्गणानां गणस्य ॥ ८३ ॥ वीरोत्तंसस्य यस्याभिनवशशिसितैकातपत्रं प्रताप
क्ष्मापालं सुप्रतिष्ठं नयनशिखिमिषाद्भालपट्टे भवस्य । नागेन्द्रोऽद्यापि नीराजयति मणियुतैर्यद्गुणग्रामगीत
प्रीतः कम्प्रैः शिरोभिः स्फुरति सुरतटिन्यम्बुकम्बुप्रणादे ॥ ८४ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये
वीराङ्के आदिपर्वणि पूरुप्रमुखाष्टादशराजवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः ।
१. 'रुन्नीर' ख, 'रुत्कीर' क.
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१८
काव्यमाला।
तृतीयः सर्गः। सुकृतस्य खड्गमिव तारतीव्रताव्रतधारमाश्रयत कृष्णयोगिनम् । यदि वो दिवानिशपराभवोद्यतभ्रमदन्तरारिभयभङ्गुरं मनः ॥ १ ॥ नृपसिंहसंहतिषु संगरक्रियाविमुखीषु विक्रमविलासकौतुकी । स कदाचिदाचितशरासनो वनं मृगराजराजिमृगयेच्छया ययौ ॥ २ ॥ अवनीधवः स मृगमित्रलोचनाजनलोचनप्रियतनुर्धनुर्धरः । उचितं यदेणरिपुवारदारणोद्यमदारुणोऽजनि तदारुणो रुषा ॥ ३ ॥ प्रहरन्हरीनथ चमूपृथक्चरः श्रितमालिनीसरिदुपान्तकाननः । स ददर्श कण्वमुनिभर्तुराश्रमे रुचिधाम कामपि कुमारिकामयम् ॥ ४ ॥ सुमगुच्छचक्रयुगसंनिभस्तनी मृगपोतनीलनलिनाभलोचना । नवपल्लवाम्बुजसदृक्करक्रमा गजराजहंससमयानविभ्रमा ॥ ५ ॥ वनचारिणीयमिह वाहिनीतटे वनदेवता किमुत वारिदेवता । इति तद्विलोकनकुतूहलोल्लसन्नयनद्वयश्विरमचिन्तयन्नृपः ॥ ६ ॥ (युग्मम्) अथ भूपमप्रतिमरूपभासुरं रभसान्निरूप्य विकसद्विलोचना । अपि गोचरीकृतरतिप्रियेण सा मनसा रसाधिकमुवाह विस्मयम् ॥ ७ ॥ परिकल्पितातिथिजनोचितक्रियामथ तामुवाच विनिविश्य पार्थिवः । क्क मृगाक्षि कण्वमुनिपुंगवोऽधुना नमनाय तस्य तरलं हि मन्मनः ॥ ८ ॥ अथ तद्विलोकरसभावजत्रपावशकर्णकोटरविशद्विलोचना । विपिनं गतः फलकृते समेष्यति त्वरितं मुनिर्मम पितेति साभ्यधात्॥९॥ अपि शैशवायेथितमन्मथः स किं सविता तवेत्युदितवाचि पौरवे । निजगाद सा दशनदीप्तिमण्डलच्छलसेवकीकृतसुधाचयं वचः ॥ १० ॥ कुशिकात्मजस्य नृपतेस्तपस्यतस्तपसोऽन्तरायकृतये पुरा हरिः । विषमास्त्रवीरपरमास्त्रमप्सरोजनमौलिमण्डनमयुत मेनकाम् ॥ ११ ॥ नलिनानि पानमधुभाजनानि नः पिदधाति यः स विधुरेष गोचरः । इति रोषणैरिव मधुव्रतैधुतं दधती मुखं सुरभिचारुमारुतम् ॥ १२ ॥ .. १. 'अवाप' ग. २. 'वशित' क. ३ ‘स पिता' क.
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१ आदिपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
अथ तस्य पार्थिवमुनेस्तपोवने विललास सालसगतिः कृशाङ्गिका । जयिना स्मितेन कुसुमायुधायुधावलिजन्मजङ्गमलतेव पुष्पिता ॥ १३ ॥
( युग्मम् )
१९
शतमन्युनुन्नपवमानडम्बराद्गलदम्बरां नतिमतीं विलज्जया । जलदोज्झितामिव कलावतः कलामवलोक्य तामभवदुन्मना मुनिः ॥ १४ ॥ इयमर्थिता स्मरवशेन वाक्सुधारसवर्षिणा तदनु पार्थिवर्षिणा । अधिकं समाशतमसेवि चांशुमान्ददृशे कदापि च दिनान्तपाटलः ॥ १५ ॥ अथ तत्र सांध्यविधिसोद्यमेऽद्य ते प्रिय को विशेष इति सा प्रहासिनी । स्मृतभूरिकृत्यपरिलोपकोपने चकितात्रसत्तडिदिवाशु मेनका ॥ १६ ॥ अवलोकितापि न भयेन गर्भतो गलिता तयाहमिह मालिनीतटे । विधृता शकुन्तततिभिः शकुन्तलेत्यभिधाय कण्वमुनिनास्मि लालिता ॥ १७ ॥ इति वेद्मि कण्ववचसेति तद्वचः स निशय्य संमदवशंवदोऽवदत् । नृपनन्दिनि त्वमुचितासि मे वशस्तव चास्मि तद्भव मुदा मदीश्वरी ॥१८॥ भविता भुवो वरयिता भवत्सुतः सुतरामिति क्षितिपतिः प्रमोद्य ताम् । FE देवगायन विवाहलीलया सपदि व्युवाह मुदितः शकुन्तलाम् ॥ १९ ॥ अथ तां चुचुम्ब मदमन्दघूर्णनो रसतोऽर्धमीलितविलोचनां नृपः । मधुरं रसन्नलियुवा नवाजिनीमिव किंचिदुन्मिषतपद्मकुङमलाम् ॥ २० ॥ मलयानिलो विलुलितालिकुन्तलां नवमाधवीमिव शनैः शकुन्तलाम् । रसभासुरां सुरभिशीतलस्तदा मृदुवेपमानतनुमालिलिङ्ग सः ॥ २१ ॥ नति स्म सज्जनगौरवावं पृथुतन्नितम्बभुवि कामवर्हिणः । इह तेन तच्चरणचौरचिह्नतां प्रियदत्तपाणिजपदानि तेनिरे ॥ २२ ॥ अथ स त्वदानयनहेतवे द्रुतं प्रहिणोमि वाहनमिति प्रजल्प्यताम् । नृपतिर्जगाम पुरि तन्मनः पुनर्विधृतं तयैव तदधीश्वरी हि सा ॥ २३ ॥ मुनिरागतो नृपतिरागतोषिणीमवलोक्य तामथ समन्मथश्रियम् । परया शोचितसमागमां विदन्नजनिष्ट हृष्टहृदयो दयोदधिः || २४ ॥
१. 'समाः' ख-ग. २. 'विधुता' ख ग ३ पालिता' क. ४. गान्धर्वविवाहेन. 'चारु' ख.ग.
ཏ.
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२०
काव्यमाला ।
अथ पार्थिवाय स तयार्थितो ददौ वरमिन्दुधामधवलाशयो मुनिः । शुचिधर्मकर्मघटना कटाक्षितं क्षितिपत्वमस्खलितमस्तु तत्कुले ॥ २९ ॥ इति तद्वरे सति वरेण्यलक्षणं क्षणदाहृदीशमिव वासवी हरित् । समयेऽद्भुतं सुतमसूत सूतिकागृहदी पदैन्यर्जनकं शकुन्तला ॥ २६ ॥ स चकार कण्ववनभूविभूषणः करिणः क्रमेण गमने कलागुरून् । इति सिंहपोत मनोद्यमाद्ददौ मुदमेष तेषु गुरुदक्षिणामिव ॥ २७ ॥ अथ तेन रोचितनृपोचितव्रतस्थितिना सुतेन सह राजपत्तनम् । श्रयति स्म कण्वमुनिना कथंचन प्रहिता स्वशिष्यसहिता शकुन्तला ॥२८॥ नृपमेत्य सत्यवददेष मद्भवस्तव नन्दनः कुलवनैकचन्दनः ।
प्रिय मालिनीपुलिनसाक्षि तद्वचः प्रतिपन्नमद्य नरनाथ पालय ॥ २९ ॥ अथ स स्मरन्नपि नृपोऽभ्यधान्मम स्मृतिमेषि न त्वमपि तत्कुतः सुतः । इति तद्वचःप्रचितकोपकम्पिनी गिरमाकुलाम कलयच्छकुन्तला ॥ ३० ॥ परिषज्जनस्य नयनाय नन्दनं ननु भूपरूपमहसैनमभ्यधाः । अनृतं वदन्निह तदस्य हस्यसे श्रवसा यतः सहचरोऽक्षसंचयः ॥ ३१ ॥ यदि वा दिवाकरसमोऽप्यपह्नुतस्तनयस्त्वया मयि चिराद्विरागिणा । तदियं गताहममुमङ्कवर्तिनं रचयेति दीनवदना रुरोद सा ॥ ३२ ॥ अवनीश सूनुजननी पतिव्रता दयिता किमद्य कुतुकेन खेद्यते । इति दिव्यगीःश्रुतिचमत्कृतः प्रियां सदमानयन्नयन कौमुदीं नृपः ॥ ३३ ॥ भरतप्रभुत्वकरलक्ष्यलक्षणं क्षितिपः सुतं तु भरताभिधं व्यधात् । समये शैमी समभिषिच्य तं पुनर्विपिनावनीमगमदङ्गनासखः ॥ ३४ ॥ इलिनान्ववायनलिनाहिमद्युतिः प्रतिपक्षकक्षशमनाशुशुक्षणिः । तुलितत्रिविक्रमपराक्रमस्ततो भरतोऽभवद्भरतवर्ष भूषणम् ॥ ३५ ॥ स्फुरदङ्गचङ्गिमजुषा दधानया परितः परं प्रतिभयोद्गमं हृदि । प्रमदं मनो दयितया सुनन्दया कलयांचकार नयलीलयापि यः ॥ ३६ ॥
१. 'जननं' क. २. 'भूमिभूषणः ' क. ३. 'दमनोद्यनो' क. ४. 'वशी' क. ५. 'इति सोऽन्ववाय' ख. ६. ‘भूषणः ' ख.
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१ आदिपर्व - ३ सर्गः ]
नवखण्डमण्डनधरावराङ्गनामुकुटीकृताङ्घ्रिनखरत्नदीधितिः । विभबभूव किल चक्रवर्तितामपवर्तितारिनिकरो रणेषु यः ॥ ३७ ॥ कुलपूर्वजेन्दुरुचिहारिणं रविं भुवि यो व्यधान्निजनिदेशकारिणम् । व्यसनात्कृशैरैरसहस्रमूर्तिभिः किरणैर्वृतं स्फुरितचक्र कैतवात् ॥ ३८ ॥ लसता तदीययशसा जनार्दनं विशदं विमुच्य मतिविभ्रमेण यः । तरुणीकटाक्षचयमेचकच्छविर्भुवि चक्रवान्सपदि शिश्रिये श्रिया ॥ ३९ ॥ युधि यस्य चक्रवलयेन पातिता रिपवः क्रुधेव दिवि भानुमण्डलम् । निजकण्ठकर्तनपरायुधभ्रमाद्विभिदुर्जवेन परलोकगामिनः ॥ ४० ॥ यशसापि यस्य सुरशैलनाभिभृत्तटिनीचयारनिंचिताम्बुधिप्रधि | भुजगाधिनाथभुजगामि विभ्रता क्षितिचक्रमाप्यत महत्सु चक्रिता ॥ ४१ ॥ नितरामनङ्गपदवीविरागतो रचितावतार इव भूतले स्मरः । विततान यः कमपि तं पराक्रमं हृदि येन सोऽपि चकितस्त्रिलोचनः ॥ ४२ ॥ अधिरोपितां भ्रुवमवेक्ष्य सुभ्रुवः सरुषो यदीयनतकार्मुकभ्रमात् । भयकर्तिताङ्गुलिदलाः स्म विद्विषोऽभिनयन्ति तां प्रति वशंवदात्मताम् ४३ अखिलैक वेदितुरनन्तयद्गुणग्रहणोद्यतस्य दैयितामनोमुदे । वियदेव शब्दगुणमूलमीशितुः शितितानुमेयमजनिष्ट कॅण्ठगम् ॥ ४४ ॥ विबुधाङ्गनाधरसुधानिपानयोरथ तत्र तन्वति विचारचातुरीम् । नृपतिर्भुमन्युरिति भूरिमन्युभूर्भ्रमरीचकार करकैरवे भुवम् ॥ ४६ ॥ स्मयमानमारविभवां विभातिनीं तनुसंपदा विशदकान्तिधारया | उदुवाह संगरसकौतुकाशयो दयितां जयामसिलतां च यो मुदा ॥ ४६ ॥ यदसिद्विषां कवलयन्महो महद्वियदङ्गणे कवलमाद्यमक्षिपत् । तमहो महोष्णमहिमच्छविच्छलादधुनापि लालयति कालवायसः ॥ ४७ ॥ पतितं कुतोऽपि विजनेऽपि कानने शनकैरुदस्य शयिताहिकौतुकात् । अवगम्य नीलमणिदाम यद्भुवि द्रुतमाहितुण्डिकजनेन तत्यजे ॥ ४८ ॥
बालभारतम् ।
२१
१. 'कृतांह्नि' क. २. 'कर' क. ३. 'गिरिजा' ख. ४. 'कण्ठकम्' ख. ५. 'विभाविनीं' क . ६. 'तदहो' क.
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२२
काव्यमाला।
पिदधे हरिः करयुगेण मत्सरी श्रवणौ गुणस्तुतिषु यस्य सश्रियः । अपि गर्भविश्वनिनदं निशम्य तन्मयमेव नूनमयमाप कृष्णताम् ॥ ४९॥ चलयञ्चमूचयरजोभिरुद्धतैषुधुनीजलेऽप्यतुलपङ्कसंकटे । न बभूव शंभुविभुमूर्ध्नि शाश्वतः किमु पङ्कजप्रकरपूजनोत्सवः ॥ ५० ॥ सं पुराणपूरुषपुराणवेदिनां वदनादिदं स्वपनवद्विदञ्जगत् । स्वपनेऽप्यनेकसुकृतैककृत्कृती न बभार जागरणनिद्रयोर्भिदाम् ॥ ११ ॥ अथ तत्र पत्रलतिकां मरुद्वधूकुचयोलिखत्यसुरराजमार्जिताम् । नृपतिः सुहोत्र इति गोत्रभृद्जाश्रयिणीरिवाकृत दिशो यशोभरैः ॥ १२ ॥ समदीपि यः क्षितिधवः सुवर्णया प्रिययाद्भुतद्रुतसुवर्णवर्णया । विकसत्कुशेशयमुखश्रियान्वहं विभया गभस्तिरिव लोकशोकभित् ॥ ५३॥ अपि सिन्धुरोचितगुणोऽपि संत्यजन्कमलामपि स्फुटरथाङ्गवर्जितः । परिमुक्ततार्थ्यगमनोऽपि दूरतो युधि कृष्ण एव यदरिजनोऽभवत् ॥ १४ ॥ रिपुयोषिदाननविलोचनोच्छृसत्पवनाम्बुपूरमखधूमतेजसाम् ।। पटलेन मेधैकरणीदलेन यः सततं सुभिक्षमकरोत्किल क्षितौ ॥ ५५ ॥ परितर्पयन्मखभुजो मखननैर्यशसैव राहुमपि विप्रतारयन् । विततान यः किल विभावरीविभोनिनपूर्वजस्य परिरक्षणोद्यमम् ॥ ५६ ॥ अमुमजनालविवरालिसूक्ष्मतागलितेन नाभिपदतः प्रसारिणा । क्रतुपूरुषस्य परमात्मतेजसा ध्रुवमद्भुताद्भुतविधि विधिय॑धात् ॥ १७ ॥ यदधीतवान्गुणकदम्बमेष तद्गणनेऽपि खेदमवहहहस्पतिः । प्रविभिद्य तद्गणनमालिकामणीक्षिपति स्म तारकनिभान्नभोङ्गणे ॥ १८ ॥ अथ तत्र कल्पतरुपल्लवैः करं रमयत्यहो समगुणानुरागिभिः । अवनिर्दधेऽवनिधवेन हस्तिना नवमेन विष्टपधुरीणहस्तिनाम् ॥ ५९॥ घनपत्रवल्लरिविशेषकाननप्रभया समाविषयाग्रिमश्रिया । प्रिययान्वहं करगृहीतया यशोधरया रराज धरया च यः प्रभुः ॥ १० ॥
१. क-पुस्तकेऽस्य श्लोकस्याग्रिमस्य च पौर्वापर्यमस्ति. २. 'विकसत्कुशेशयमुखश्रियान्वहम् । विभया गभस्तिरिव लोकशोकभित्प्रिययाद्भुतद्रुतसुवर्णवर्णया ॥' ग. ३. 'मेघकरणाद्वलेन' ग.
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१आदिपर्व-३सर्गः] बालभारतम् ।
२३ मणिक्लप्तकुट्टिममरीचिवीचिकासतताभिरुद्धकुलटामलिम्लुचम् । विफलीकृतेन्दुरविकर्म निर्ममे भुवि येन हास्तिनपुरं पुरं महत् ॥ ६१ ॥ बहुहेतिदुर्धरसमिद्विकस्वरे ज्वलति प्रतापदहने जुहाव यः । पशुवद्विपक्षनिकरं यशोजलैरथ पूर्तवद्गगनमण्डलं व्यधात् ।। ६२ ॥ नवकीर्तिदत्तसततामृतप्लवः परिलूनदानववितानविप्लवः । अधुनापि केन कुसुमैन पूज्यते यदसिधृतः शिरसि वेणिमूर्तिभिः ॥६३॥ यदुरुप्रतापपरितापताडितं निभृतं निभाल्य भुवनं सुखैकभूः । खरधामनामनिजधामगर्भतो निरगाबहिर्नहि पुरातनः पुमान् ॥ ६४ ॥ परदेशसंचलितदुःस्थयाचकप्रकरार्थमेव यदिलातले जनैः । अभिभूषिता विविधभूषणाशनैर्वनशाखिनोऽदधत कल्पशाखिताम् ॥६५॥ दिवि तत्र भानुजयिनाङ्गतेजसा प्रविलुम्पति ग्रुपतिलोचनस्रजम् । प्रतिपक्षपार्थिवचमूविकुञ्चनस्तदभूद्विकुश्चन इति क्षमापतिः ॥ ६६ ॥ मृदुमन्दमञ्जुलपदप्रपञ्चया सुविलासया दयितया सुदेवया । अतिशुद्धपक्षयुगया रराज यः पृथिवी विभुर्वरटयेव पल्वलः ॥ ६७ ॥ असिरेव यस्य दलितेभकुम्भतः प्रहतिस्फुलिङ्गयुतमौक्तिकत्रजात् । परिकुट्टिताहितमहामहोयशःकणसंचयानिव दिवि व्यकासयत् ॥ १८ ॥ न कथं गुणैर्मदधिकोऽयमेति भूरखिलाप्यमुष्य सुकृतैरियं दिवि । इति विस्मयं रजसि यद्दलोद्गते युगपत्तनाकृत भृशं त्रिशङ्कुभूः ॥ ६९ ॥ गिरिशस्य गर्भभवनेऽपि तेन यः प्रबलः प्रतापदहनः प्रदीपितः । उदितं तदनशिखया जगत्प्रभोध्रुवमस्य भालमभिभिद्य दृमिषात् ॥ ७० ॥ जगुरीगम्बरकदम्बडम्बरस्फुटरोम यद्वपुरपारमीशितुः । स्फटिकावनीध्रवृषशेषयामिनीपतिजाह्नवीजलति तत्र यद्यशः ॥ ७१ ॥ स्वपरप्रभेदरहितेन दुयं दधतो दयामयहृदैव देहिनः । उचितेन दण्डरचनेन मोचिता महतोऽपि येन परलोककष्टतः ॥ ७२ ॥ अनिमेषलोचनकरालताशुचं सुरसुध्रुवां हरति तत्र हारिणि । अजमीढ इत्यथ भुजे भुवो भरं बिभरांबभूव भुवनकभास्करः ॥ ७३ ॥ १. 'विकुञ्चनादभवत्' ख.
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काव्यमाला ।
रुधिरापगाभिरपवाह्यते स्म तद्विषतां यदान्तरमहो महो महत् । अधुनापि तज्ज्वलति वाडवानलच्छलधारिवारिनिधिवारिमध्यगम् ॥ ७४ ॥ यदनीकिनीहरिखुरस्फुरद्रनःपटलस्थलेऽर्णवजले जलेशयः । यदरिप्रियाश्रुझरसंभवे स्वपन्नुदधौ दधौ किमयमाञ्जनं महः ॥ ७९ ॥ अभिपूज्य शंभुमपि भालदृयिषात्स्वतनूलवेन नियतं तनूनपात् । कृतयत्प्रतापविजयोद्यमो दिशां वदने दिशत्ययश एव धूम्यया ॥ ७६ ॥ किममुष्य दानमुपरिष्ठमत्पदोऽप्यधुनापि शंभुरजिनास्थिमण्डनः । इति निर्विवेकमवधार्य यं कुले किल हृद्दधाति कलुषं सुधाकरः ॥ ७७ ॥ रिपुमेदिनीदयितदुर्यशोमषीकलुषीकृते गगनपट्टिकातले । व्यधित प्रशस्तिमिव तारकाक्षरां निजकीर्तिकैतवखटीरसेन यः ॥ ७८ ॥ शतमस्य साग्रमवनीशतक्रतोस्तनया व्यराजिषत वल्लभात्रयात् ।। अथ तेषु संवरणसंज्ञया बभौ गुणसंकुलः कुलधरो धराधिपः ॥ ७९ ॥ सुकृतानि तानि सततं वितन्वता भुवनेषु तेन तदुपार्जितं यशः।। निजपूर्वजस्य रजनीपतेर्यथाद्भुतलाञ्छनव्यतिकरोऽपि लोपितः ॥ ८० ॥ अवचः पथानि चरितानि तन्वतो भुवि यस्य साहसविकासशालिनः । अपि शास्त्रकोटिमनसां मनीषिणां मुखमौनमेव भवतु स्तवक्रिया ॥ ८१ ॥ मृगयामगच्छदरिमुक्तसंयुगः स महाप्रहारकुतुकी कदाचन । असमश्रमव्यसुतरंगमः कमप्यचलं क्रमैरधिरुरोह सिंहवत् ॥ ८२ ॥ अयमिन्दुसुन्दरमुखी पयोनवार्णववर्णनीयदशनालिदीधितिम् । अमृतायिताधरदलामलोकयत्रिजगद्रहस्यमिव कन्यकामिह ॥ ८३ ॥ अथ बाणयष्टिरिव चाम्पकी तनुश्रुतिधूतनूतनसुवर्णवर्णका । मुखदत्तपद्ममहिमेयमाहिता मदनेन तस्य हृदि रूपमत्सरात् ॥ ८४ ।।
अभिसृत्य भूमिविभुरभ्यधत्त तामथ मन्मथव्यथितमानसो रसात् । तनयासि कस्य चरसीह तन्वि किं कुरु मां हृदि स्मरवशं स्मराश्रिते ॥८॥ इति रूपचाटुवचनेषु भूपतेस्त्रपिता स्थिता क्षणमवागवाङ्मुखी । तडिदुत्प्लवेन रभसा ददर्श तं गगनं जगाम मृगवामदृक्ततः ॥ ८६ ॥ . १. 'उपरिस्थ' ख. २. 'धौत' ख. ३. 'मुखपद्मदत्त' क.
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१आदिपर्व-३सर्गः]
बालभारतम् ।
क गतासि तन्वि सहसेत्युदीर्णवाग्दशदिग्वलत्तरलकातरेक्षणः। अनिरीक्ष्य तामथ स तापविह्वलः प्रलपन्हहेति भुवि मूर्छितोऽपतत् ॥७॥ नृपति तथाविधमथावलोक्य सा वियतोऽवतीर्य मदनैकवीर्यभूः । गदति स गत्वरतदीयजीवितस्थिरतापरीक्षितसुधागुणं वचः ॥ ८८॥ तपनात्मजास्मि तपतीत्यहं जगन्नुतकीर्तिरिन्दुकुलसंभवो भवान् । उचितो विवाहविधिरत्र किं तु मे पितृवश्यतैव बत याति विघ्नताम्।।८९॥ इतिवागियं वियदगादिलापतिः स तु मूर्छितप्रमुदितातिमूर्छितः । तपतापतप्तजलवृष्टिहृष्टिमत्पविपातकातरतरूपमामधात् ॥ ९ ॥ इह चानुपत्य सचिवश्वमूवृतः शिशिरक्रियाभिरुदतिष्ठिपन्नृपम् । वचसा च तस्य मततत्कथस्य स व्यसनी समारभत भानुसेवनम् ॥ ९१ ॥ स गुरुं वसिष्ठमनुचिन्त्य चेतसा विततोर्ध्वबाहुकृतसिद्धितोरणः । इह पञ्च सप्त च दिनान्युपोषितस्तपतीकृते तपनसेवनं व्यधात् ।। ९२ ॥ तदवेत्य दिव्यदृगरुन्धतीपतिः स्वयमभ्युपेत्य तपनं येयाच च । अयमाशयोऽजनि ममाप्यदो वदन्स ददौ च संवरणभूभृते सुताम् ॥९३॥ प्रथमानमानसविकासयोरथ क्षितिकान्तकान्तिपतिकन्ययोस्तयोः । मदनव्यथाविपदि मजतोरभूदुभयोमिथो गुरुगिरा करग्रहः ॥ ९४ ॥ स च पञ्च सप्त च समाः समं तया विललास वासवविलासभूमिषु । स्वपुरीमवृष्टिगुणकष्टितां विशन्विदधेऽथ तत्क्षणसुभिक्षभासुराम् ॥ ९५ ॥ गुरुहारनिर्झरविलासभासुरा स्तनशैलकेलिपरकामकुञ्जरा । धृतगौरवेव तपती प्रियाथ सा विततान तस्य जगतीसपत्नताम् ॥ ९६ ॥ प्रभुरप्रभोर्भव मम प्रभूचिता त्वयि मूर्तिरित्यरिजनः कृपालुना। वननव्यकारितपुरीजनार्थनैः श्रियमापि येन गिरिकूटकुट्टिमः ॥ ९७ ॥ हरिगर्भविश्वहरिगर्भविश्वतत्क्रमतो विभाव्य जगतामनन्तताम् । मुदितं जगद्धवलनैकतानताव्यसनातिपूरणरसेन यद्यशः ॥९८॥ द्युपतेः पुरा गुणकृतार्थितश्रुतेर्नयनानि तत्र सफलानि तन्वति । अपुषत्कुरुक्षितिपतिर्भृशं वशामवनीं विनीतवनितामिवाज्ञया ॥ ९९ ॥ १. 'चलत् क. २. 'ननाथ' ग. ३. परिग्रहः' क. ४. 'गौरवैव' ग. ५. 'आप' ख,
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काव्यमाला। अनृतं यदीयमहसामहःपतिप्रतिमत्वमेष तनुते जनो जडः । सति यत्र शत्रुधरणीभृतामहो परिवर्धते तिमिरहारि दुर्यशः ॥ १०० ॥ कृतवर्षणो विपुलकीर्तिवारिणाद्भुततेजसा जनितविधुदुद्गमः । परवाहिनीषु मुखपद्मखण्डनैर्यदसिर्नवाब्द इव हंसनाशकृत् ॥ १०१ ॥ दिवि तत्र दैवतपतेरपि त्रपां सहसा स्वरूपमहसा प्रतन्वति । नृपतिस्ततो विततविक्रमोदधिर्धरणी मैरुण्वदभिधोऽभ्यधारयत् ॥ १०२ ॥ गुरुकुम्भिकुम्भयुगलस्तनी बैलत्तरवारिवेणिरुरुवाजिलोचना । प्रमदाय कामकलिकेलिभिर्बभावमृतेति यस्य पृतनेव वल्लभा ॥ १०३ ॥ यदरातिभूरमणभूरिदुर्यशोविसरेण वारिधरौरहारिणा । अभितो भृते निखिलरोदसीतले विरराज कीटमणिवन्नभोमणिः ॥ १०४ ॥ पतता ध्रुवं त्रिजगतीनितम्बिनीनयनेन यन्महसि दुःसहावधौ । अमुना व्यमोचि यमुनापदेशतस्तपनेन कजलमलीमसं पयः ॥ १०५ ॥ निजमुन्नतैर्मतिकलङ्कशङ्कया पथिपाति रत्नमपि नाददे जनैः । अजनि ध्रुवं रजनिषु प्रभाभरैः प्रहतासतीगति तदेव यद्भुवि ।। १०६ ॥ तरलत्वनीलिमनृशंसतागुणैः कृतविग्रहो यदसिना सहोरगः। अभजत्पराजयपदेषु शृङ्खलाग्रहरूढभीरिव निगूढपादताम् ॥ १०७ ॥ प्रथमं व्यधत्त वशगां जगत्रयीमथ विस्तृताम्बरमयालयाश्रयाम् । प्रथितप्रयाणमिव यद्यशोऽग्रहीदपि दुर्ग्रहं सपदि योगिनां मनः ॥१०८ ॥ दिवि कान्तकान्तिभिरनङ्गताशुचं मदनस्य तत्र हरति त्रपावतः । क्षितिपः परीक्षिदिति विद्विषविपव्ययकेलिकेसरिकिशोरकोऽभवत् ॥१०९।। अतिरागिणी गुरुसमृद्धिवर्धितप्रबलप्रतापशिखिहेतिसाक्षिकम् । नृपमण्डलीमिव सुविग्रहोऽग्रहीत्सुयशां विलोलनयनां करेण यः ॥११०॥ यदसिन्नत रुधिरासवं रणे परिपीय भिन्नकरिकुम्भमण्डलात् । स्फुटदन्तपतिरिव लग्नमौक्तिकैः सविकासहास इव कीर्तिकान्तिभिः।।१११॥ प्रतिपक्षपक्षघनकक्षमण्डले नवरोषपावककणं परिक्षिपन् । भुवि यः प्रतापदहनं तथातनोच्छुशुभे स्फुलिङ्ग इव पावको यथा ॥११२॥ १. 'महसो महः' ग. २. 'अरुण्वत्' ग. ३. 'चलत् क. ४. 'वारि' क.
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१ आदिपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
गुरुरोदसीवनचरिष्णुयद्यशो व्यपदेश केसरि किशोर के लिभिः । किमिव ब्रुवे विधुमृगो यदत्रसद्यदलक्ष्य एव सुरदन्तिनो मदः ॥ ११३ ॥ उदयोग्रपातमृदुदण्डताडनासुभगैव यस्य परिणामपावनी ।
कृतदुर्नयेऽजनि जने जनेशितुः पितुरङ्गजन्मनि यथा मुधा क्रुधा ॥ ११४ ॥ प्रभविष्यदस्य भुवि दुःसहं महः प्रविषोढुमभ्यसनतत्पराविव । अविशत्खरांशुमसुरारिरादितस्त्रिपुरारिरादित हुताशनं दृशा ॥ ११९ ॥ अथ तत्र पल्लवयति द्युकामिनी कुचयोर्विलासरसकुम्भयोः करौ । अभवद्विभिन्नरिपुवैभवो विभुर्भुवनस्य भीम इति भीमविक्रमः ॥ ११६ ॥ प्रियया तिरोहिततमोविकारया रुचिमान्तराज सुकुमारिकाख्यया । घनतारकाञ्चनमनोज्ञयेव यः स्फुटलक्षणः क्षणदयेव चन्द्रमाः ॥ ११७ ॥ असिदण्डविस्फुरितरोषपौरुषद्वयपेषयन्त्रवशतो द्विषद्यशः ।
२७
कणशश्चकार युधि यः पराहतद्विपकुम्भमुक्तनवमौक्तिकच्छलात् ॥ ११८ ॥ द्रुहिणोऽपि भालफलके तनूभृतामपि पूर्वजन्मसुकृतैरुपार्जिताम् । अलिखद्यदीयपदपद्मसेवया यदि राज्यलब्धिलिपिमन्यथा भयात् ॥ ११९ ॥ युधि जीवितव्यपवनं विरोधिनां नवकीर्तिदुग्धमपि पातुमुद्यतः । शमयन्प्रतापगृहरत्नमग्रतो भुजगो यदीयतरवारिराबभौ ॥ १२० ॥ अवलोक्य यं विधिवशाद्धनुर्धरं स्वपनेषु नैद्ररसनिर्भरो रिपुः । सहसोत्थितः सदनभित्तिचित्रितस्मरवीक्षणां न कुरुते स्म किं भिया ॥ १२१ ॥ श्रियमत्यजच्चलतरां नयेन यां परमन्दिरे सुतमसूत सा यशः । इति यः शृणोति नहि तस्य संकथामपि सत्यमेतदुचितं महात्मनाम् १२२ महसः सपत्नमथ तीव्रतेजसं परिभिद्य तत्र परमं पदं गते । व्यधितः प्रतीपनृपतिद्रुमानलः पृथिवीं प्रतीपनृपतिः पतिव्रताम् ॥ १२३ ॥ गुणरुद्धया विबुधसिन्धुशुद्धया सुरसद्मकेतुरिव यः पताकया । सुमदाया प्रमदया प्रमोदभृद्विरराज राजशत सेवितक्रमः ॥ १२४ ॥ प्रतिनृपतियशोजलानि क्लृप्तप्रसृतिरपादनपायमस्य खङ्गः । इति समितिहतेभकुम्भमुक्ताततिरधित च्युतविन्दुवृन्दशोभाम् ॥ १२९ ॥ १. 'अविशत्खरांशुमखरांशुरंशुकैः' क. २. 'पुरोहत' क. ३. गृहरत्नं दीप:.
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काव्यमाला।
रणारम्भस्तम्भायितभुजनमत्कार्मुकलता
लसद्वाणश्रेणीहतिविहितगीर्वाणनिवहैः । स्फुरत्कोपाटोपं दनुतनुजपक्षक्षयकृता
कृता सेना येनामरपरिवृढस्यापि विपुला ॥ १२६ ॥ लाटश्चाटुविधिं व्यधत्त मगधो मौग्ध्यानि बुद्धेर्दधा
वङ्गान्यङ्गनृपोऽमुचत्कृशलसदेहो विदेहोऽजनि । वङ्गः संगरभङ्गुरः समभवत्कश्मीरवीरो रस__ स्मेरं न स्मरमस्मरद्विसमरक्रोधेऽत्र धात्रीधवे ॥ १२७ ॥ देवेन्द्रोपवनैकसीनि पवनैौलिं दधाने मुदा
मन्ये कल्पतरौ मधुव्रतरवैः स्थानप्रदानोद्यते । सानन्दं पैविलक्ष्मपक्ष्मलदृशां वन्दैर्यशो दान
शश्वद्यस्य विभावरीविभुविभाभङ्गीनिभं गीयते ॥ १२८ ॥ खदानैर्दीनेभ्यः प्रकृतिकृतिना येन निकृतं
विनिद्रं दारिद्यं रिपुनृपतिभिमैत्र्यमकरोत् । प्रसत्त्या तेभ्योऽपि प्रसभमथ निष्कासितमथो
गतं स्वस्मिन्नेव प्रलयमिदमाधारविवशम् ॥ १२९ ॥ आकाकर्ण्य पूर्णक्रतुशतजनितं यद्यशो गीयमानं
सानन्दं सुन्दरीभिः कति कति जगति प्रीतिमन्तो न जाताः। ऐश्वर्यभ्रंशभीत्याभजत शतमुखः किं तु दैन्यानि दीनः
स्वैरं वैरोचनोऽभून्मनसि किसलयन्विघ्नमिन्द्रत्वलाभे ॥ १३०॥ लोकायं क्रतुभोजिनां क्रतुशतं तन्वन्पयोजीविनां
विश्वाय द्विषदङ्गनाश्रुसलिलाः स्रोतखिनीः संसृजन् । वीरेन्दुर्जगते समीरणभुजां वाहाभिघातैर्मरु
न्मार्ग च प्रथयन्न कुत्र विदधे दक्षः सुभिक्षोत्सवम् ॥ १३१॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महा__ काव्ये वीराङ्के आदिपर्वण्यादिवंशावतरणे भरतप्रभृतिद्वादशराज
वर्णनो नाम तृतीयः सर्गः । १.'युद्ध' क. २. प्रस्थानदानोद्यते' क. ३.इन्द्रवामदृशाम्. ४.बलिः. ५. सकलयन् ग. ६. 'लोकार्थ' ख-ग.
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१ आदिपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
चतुर्थः सर्गः ।
पाराशरमकूपारमिव पुंरूपिणं स्तुमः । येनोद्गीर्णाः सुधासिक्तमुक्तावद्भारतोक्तयः ॥ १ ॥ इक्ष्वाकु कुलकोटीरः पुरा भूपो महाभिषः । पुण्यं निर्माय निर्माय निर्मायः स्वर्गितां गतः ॥ २ ॥ घुसद्भिः सममन्येद्युः प्राप्तः पद्मभुवः सभाम् । त्रिमार्गामागतां तत्र मरुतापहृताम्बराम् ॥ ३ ॥ साकाङ्कं वीक्षमाणो न्यङ्मुखेष्वनिमिषेष्वपि । ब्रह्मशापादवाप्यायमपायं च्यवनं दिवैः || ४ || अहं प्रतीपभूपस्य भूयासं तनुभूरिति । चिन्तयन्स च्युतः स्वर्गात्सुमदागर्भमाविशत् ||१|| (विशेषकम् ) सोऽयं महाप्रभावोऽभूत्प्रतीपपृथिवीपतेः । शशिवंशसरोहंसः शंतनुर्नाम नन्दनः ॥ ६ ॥ प्रतीपे शान्ततारुण्ये श्रितारण्ये तपःस्पृशि | तनुतां शंतनुः क्ष्मापः शत्रुसंतानमानयत् ॥ ७ ॥ विना नाशेन जीवन्तः पुरतो यस्य पत्रिणाम् । अच्छुटन्नोत्तमर्णानामधमर्णा इव द्विषः ॥ ८ ॥ यस्याद्भुतप्रभावेन पाणिस्पर्शेन यौवनम् । जीर्णास्तूर्णमयन्ति स्म मधुनेव महीरुहाः ॥ ९ ॥ अष्टौ वसिष्ठकान्तारं कान्तारङ्गपराः पुरा । रन्तुं मेरुभुवि स्मेरवसवो वसवो ययुः ॥ १० ॥ तत्रावलोक्य गां स्पष्टमष्टमस्य वसोः प्रिया ।
२९
स्माह माहात्म्यमेतस्यास्तथ्यं मे नाथ कथ्यताम् ॥ ११ ॥ गिरा मधुकरावोचदथ द्यौरेंष्टमो वसुः ।
वासिष्ठी नन्दिनी विश्वानन्दिनी गौरि गौरीयम् ॥ १२ ॥
१. 'अवापाय' क. २. 'दिवः' अस्मादनन्तरं ख- पुस्तके 'युग्मम्' इत्यधिकमस्ति . ३. 'सुमुदा' ग. ४. 'घुरष्टमो' ग.
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काव्यमाला।
पीत्वा प्रशस्यमौधस्यमस्या मानिनि मानवः । दशवर्षसहस्राणि यावज्जीवति निर्जरः ॥ १३ ॥ उशीनरोशिसुतां खसखीमजिनावतीम् । पयः पाययितुं साथ गां भी तामहारयत् ॥ १४ ॥ तामवीक्ष्य वने धेनुं ज्ञात्वा च ज्ञानतो मुनिः । वसन्तु गर्भवासेऽमी वसूनिति स शप्तवान् ॥ १५ ॥ अथ भक्तिभराभुग्नभाला भूवासभीरवः ।। अनीनमन्नमी दीनाः सापदः शापदं मुनिम् ॥ १६ ॥ तानुवाच मुदा वाचं वाचंयमशिरोमणिः । वस्था गच्छत हे वत्साः प्रार्थयध्वं मरुद्भुनीम् ॥ १७ ॥ एषा यथा वधूवेषा नृपमाश्रित्य शंतनुम् । जातानेव स्वयं गङ्गा स्ववाहे वः प्रवाहयेत् ॥ १८ ॥ सुरोऽप्यसुरवल्लोभभासुरः सुरभिं मम । यो जहार विहारं स द्यौश्चिरं सृजतु क्षितौ ॥ १९ ॥ अथ तैरर्थिता गङ्गा मृगीदृशमदीदृशत् । आत्मानमात्मनस्तीरे खेलतस्तस्य शंतनोः ॥ २० ॥
(एकादशभिः कुलकम्) मान्मथैर्मथितो बाणैरथ तां रथिनां वरः। ययाचे पार्थिवोत्तंसः कंसशत्रुरिव श्रियम् ॥ २१ ॥ अहं कृत्यमकृत्यं वा निषिद्धा यदि तन्वती । तद्यास्यामीति निर्बन्धवती तेनेयमाहता ॥ २२ ॥ जातमात्रान्सुताशापैरवतीर्णान्क्रमाद्वसून् । गङ्गासौ सप्त गङ्गान्तः क्षित्वा शापादमूमुचत् ॥ २३ ॥
तनुजं मनुजेन्द्रेण कष्टतः स्पष्टमष्टमम् । . क्षिपन्ती वारिता वारि सपुत्रा खयमप्यगात् ॥ २४ ॥ १. 'भर्तारमहारयत्' ग. २. 'तमुवाच' ख, 'तदोवाच' ग. ३. 'स्वच्छाः ' ख-ग. ४. 'दुश्चिरं' ग.
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१ आदिपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
तया विरहितो राजा निशयेव निशाकरः । म्लानिं संप्राप तापेन तेजसेव विवस्वतः ॥ २९ ॥ अपि स्त्रीभ्रूणहत्याभिर्न शोषं याति जाह्नवी । कर्मसाक्षी न किं भानुरेनां शोषयते न यत् ॥ २६ ॥ बिभर्तु शिरसा शंभुरेनां भस्मास्थिभूषणः ।
पा तव क्रमेणापि स्पृशतः पुरुषोत्तम ॥ २७ ॥ जलस्पर्शेन लोकानां पातकं याति दूरतः । अस्याः स्वयं कृतैः पापैरद्भुतैरभितो जितम् ॥ २८ ॥ ईदृक्पापकृतः स्थानं नरकेऽपि न विद्यते । एतत्तमृतं जन्तुं कालस्तद्ब्रह्मणेऽर्पयेत् ॥ २९ ॥ किमेषा न विशेषेण पातकस्तोमकारिणी । यमुनापि समुद्रोऽपि श्यामौ यदभिषङ्गतः ॥ ३० ॥ स दूषयन्नदीमेतामेतादृग्दुःखभागिति । सचिवैः शुचिवैदग्ध्यप्रतिभैरिति भाषितः ॥ ३१ ॥ मापतः पातके वन्द्यां जाह्नवीमिति दूषयन् । स्वेच्छारोधेन यातासौ प्राच्यं तद्वचनं स्मर ॥ ३२ ॥ प्रतिबुद्ध्येति शुद्धात्मा सचिवानां वचोभरैः । क्षमस्वेत्याशु संभाष्य गङ्गां धाम जगाम सः ॥ ३३ ॥ कालेन विरहनेष रथी भागीरथीतटे । ददर्श दर्शनीयाङ्गमेकमेकः कुमारकम् || ३४ || मूर्त दर्प ने सर्पन्तं धीरं वीरं नु वा रसम् । तृणाय त्रिजगद्वीर्यं मन्यमानं दृशा भृशम् ॥ २५ ॥ जितेन गौरवायोम्ना किलोपचरितं चिरात् । ताडङ्कचन्द्रचण्डांशुहारमौक्तिकतारकैः ॥ ३६ ॥ कर्णान्ताकृष्टकोदण्डकराङ्गुलिनखावलौ ।
प्रतिबिम्बमुखं गङ्गासमीपे किल षण्मुखम् || ३७ ॥
१. 'तु' ग.
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काव्यमाला।
वेगादलक्ष्यसंधानाकर्षमोक्षविधि शरैः। पातालगामिभिः कर्णकुञ्जोत्थभुजगैरिव ॥ ३८ ॥ एकान्ते वपुषा कान्तमभ्यसन्तमिति स्वयम् । सदर्पमिव कंदर्प विजयाय पिनाकिनः ॥ ३९ ॥
. (पंडिरादिकुलकम्) चिन्तामथ चकारायं कारायन्त्रितशात्रवः । ईदृक्पुत्रैविना राज्ञां वृद्धानां दुर्धरा धरा ॥ ४० ॥ अपि बालोऽयमालोक्य पृथिवीपालमग्रतः । प्रविवेश द्रुतं गाङ्गे जलमानुषवज्जले ॥ ४१ ॥ किमेतदिति संभ्रान्तः सन्निहैव महीपतिः । नद्यामुद्यप्रियावक्रपद्मं दृषट्पदैः पपौ ॥ ४२ ॥ समं तेन कुमारेण निःससार नदी रयात् । बालासौ बालसूर्येण दिनश्रीरिव वारिधेः ॥ ४३ ॥ लब्धचिन्तामणि दुःस्थं सद्यः प्राप्तामृतं मृतम् । जातपुत्रमपुत्रं तां दृष्ट्वा तुष्ला जिगाय सः ॥ ४४ ॥ अश्रुवेपथुरोमाञ्चस्वेदानभिनिनाय सा । अप्रेमापि नृपं प्रेक्ष्य नदी जलकणाश्चिता ॥ ४५ ॥ अथाचख्यौ मृगाक्षीयं प्रीतं प्रति निजं प्रियम् । मयासौ जननीपाल्याद्वाल्यादुत्तारितः सुतः ॥ ४६ ॥ शास्त्राणि गुरुशुक्राभ्यां शस्त्राणि भृगुसूनुना । साङ्गान्वेदान्वसिष्ठेन शिक्षितोऽयं तवात्मजः ॥ ४७ ॥ देवैः कृतव्रत इति श्रुतो देवव्रताख्यया । मयायं गङ्गया जातः ख्यातो गाङ्गेय इत्यपि ॥ ४८ ॥ असौ शास्त्रधनुर्वेदवेदज्ञो राजधर्मवित् ।
गृह्यतामष्टमः सूनुरित्युक्त्वान्तरधत्त सा ॥ ४९ ॥ १. 'कुण्डोत्थ' क, 'कुम्भोत्थ' ख. २. षड्डिरादि' इति क-ख-पुस्तकयो स्ति. ३. 'त' ग. ४. 'जलकणाङ्किता' क. ५. 'आचचक्षे' ग. ६. 'जननीपाल्यां बाल्यां' क.
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१ आदिपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
गते दत्ताङ्गजे तत्र कलत्रे तोषदुःखभाक् । अभूद्भूपो द्वितीयेन्दुमुचि भानौ यथा जनः ॥ ५० ॥ रिपुकालेन बालेन सह साहसिनामुना । विरराज तदा राजा दिनेनेव दिनेश्वरः ॥ ११ ॥ न्यस्य भारं भुवस्तस्य भुजे भूमिभुजां वरः । विष्णुः शेष इवाशेषमेष चिक्रीड केलिभिः ॥ १२ ॥ पुरा वशी वसुर्नाम चेदिपो मृगयां गतः । वीर्य मुमोच गिरिकां स्मरन्नृतुमतीं प्रियाम् ॥ १३ ॥ श्येनः पत्रपुटीबद्धमेतद्वेतो नृपाज्ञया ।
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गृहीत्वा गिरिकाहेतोरुत्पपात विहंगमः ॥ ५४ ॥ श्येनान्येन रुद्धस्य योद्धुं तस्य पलभ्रमात् । मुखतः पतिता रेतःपुटी सा यमुनाम्बुनि ॥ ५५ ॥ अद्रिकाख्या तिमीभूता पद्मभूशापतोऽप्सराः । तदेत्य दूरतो रेतः पपौ पुट्याः परिच्युतम् || १६ || तिमिस्त्री सान्यदा दाशैर्जानाकृष्य दारिता । तैः प्रापि तत्र तद्वीजभवं पुंस्त्रीशिशुद्वयम् ॥ १७ ॥ शापान्मुक्ताथ सा मत्सी देवीभूय दिवं ययौ । अदर्शि वसुभूपाय दाशैस्तन्मिथुनं ततः ॥ १८ ॥ नृपोऽग्रहीत्सुतं योऽभून्मत्स्याहो मत्स्यदेशकृत् । दाशेन्द्रायाद्भागे मत्स्यगन्धां सुतां पुनः ॥ ९९ ॥ नाम्नासौ गन्धकालीति श्रुता सत्यवतीति सा । कलयामास कंदर्पोज्जीवनं यौवनं शनैः ॥ ६० ॥ तीर्थयात्राचरोऽन्येद्युः कालिन्द्याः पुलिने मुनिः । पराशराभिधोऽम्यायाद्बहुभिर्मुनिभिर्वृतः ॥ ६१ ॥ नावोत्तार्य ऋषीनन्यान्खिन्ने स्वपितरि स्थिते । एकं पराशरं सत्यवत्युत्तारयितुं ततः ॥ ६२ ॥ १. 'भूयो' ग. २. 'राट्र' क.
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काव्यमाला।
एका प्रववृते नावं वाहयन्ती नदीजले । तां तत्रेक्ष्य मरार्तोऽभून्मुनिर्भाव्यर्थभावतः ॥ ६३ ॥ (युग्मम्) स्तनस्तबकिनी पाणिपदपल्लविनी मुनेः । । वेणिस्फुरदलिश्रेणी मोहवल्लीव साभवत् ॥ ६४ ॥ तीरस्थिता निरीक्षन्ते मुनिपित्रादयः प्रमो। आवयोः सङ्गमित्युक्ते व्यक्तमर्थितया तया ॥६५॥ विधाय धूमरी दिक्षु मुनिस्तां नावि सोऽभजत् । मत्स्यगन्धामपि सृजन्योजनोत्पलगन्धिकाम् ॥६६ ॥ (युग्मम्) सद्योऽप्यसूत सा कृष्णं वेदविद्यायुतं सुतम् । यमुनाद्वीपजातत्वाज्जातद्वैपायनाभिधम् ॥ १७ ॥ विपदि स्मरणीयोऽहमित्युक्त्वा जननीमसौ । कृती बालोऽपि तत्कालं तपसे विपिनं ययौ ॥ ६८ ॥ जातपुत्रापि कन्याभूप्रसादैः सा मुनेः पुनः । अचिन्त्यो हि प्रभावः स्यात्तपःपात्रस्य मन्त्रवत् ॥ १९॥ पुत्रिणीमपि तां कन्यां सोऽन्येयुः शंतनुर्नृपः । निरूप्प दाशवाटेषु दाशराजमयाचत ॥ ७० ॥ अथोचे दाशभूपस्तं ददे तुभ्यमिमां ततः । यदि स्यान्नुप जातोऽस्यां तनयस्तव राज्यभाक् ॥ ७१ ॥ राजापि राज्यधौरेयं ध्यात्वा देवव्रतं सुतम् । तस्य वाक्यमनाहत्य व्यावृत्य स्वपुरं ययौ ।। ७२ ॥ नृपः सदर्पकंदर्पशरैर्विधुरितस्ततः । स्मरन्सत्यवतीं स्वान्ते न निद्रामपि भेजिनान् ॥ ७३ ॥ ततो मन्त्रिगिरा मत्वा तद्वृत्तं तटिनीजनिः । जनकाय ययाचे तां कन्यां धन्याशयः स्वयम् ॥ ७४ ॥ अथैनं यमुनाकूलवासी दाशेश्वरोऽवदत् ।
कथं स्यान्मम दौहित्रो राजा राज्यधरे त्वयि ॥ ७५ ॥ १. 'श्रेणि:' क. २. 'दास' ग. ३. 'अस्याः ' ग.
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१ आदिपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
सेवे नृपश्रियं नैव सत्योऽयं समयो मम । इति सत्यत्रतेनोक्ते पुनर्दाशपतिर्जगौ ॥ ७६ ॥ कथंचित्पितृभक्त्या त्वं भविता न प्रियः श्रियः । क्रुद्धास्तु केन रुध्यन्ते गजा इव तवाङ्गजाः ॥ ७७ ॥ ततः शान्तनवः स्माह साहसी दाशवासवम् । आजन्मापि समाचर्यं ब्रह्मचर्यं मया व्रतम् ॥ ७८ ॥ इत्युक्ते तेन गगनाद्गीर्वाणाः पुष्पवर्षिणः । अहो भीष्मप्रतिज्ञोऽयमिति भीष्मममुं जगुः ॥ ७९ ॥ तत्तां दाशपतिप्रत्तां स नृपाय मुदार्पयत् । भीष्मः पित्राप्ययं स्वेच्छाहूतमृत्युवरः कृतः ॥ ८०॥ उदूढया तया राजा रराज गुणनद्धया । सदा हृदयवर्तिन्या जिन्येव पल्वलः ॥ ८१ ॥ सेवमानः सतां क्ष्मापः क्रमात्पुत्रावजीजनत् । तपःश्रियं श्रयन्साधुर्यशोधर्माविवोज्ज्वलौ ॥ ८२ ॥ आद्यश्चित्राङ्गदोऽन्यस्तु विचित्रवीर्य इत्यपि । स गाङ्गेयेन ताभ्यां च राजाप्यासीत्रयीतनुः ॥ ८३ ॥ भूपे रूपेण साफल्यं सृजत्यनिमिषीदृशाम् । प्रभूचित्राङ्गदो भीष्माभिषिक्तो रिपुभीषणः ॥ ८४ ॥ येन निष्ठापितस्तत्रैः प्रतापै रिपुसागरः । अपार इव संसारस्तपोभारैस्तपस्विना ॥ ८५ ॥ चित्राङ्गदो मदोत्सेकाद्भीष्ममन्त्रावमानकृत् । चक्रे चित्राङ्गदाख्येन गन्धर्वेण महारणम् ॥ ८६ ॥ नाम साम्यधेवाथ गन्धर्वेण स मायया । हतो हिरण्मयी तीरे वीरो वर्षत्रयीयुधा ॥ ८७ ॥ अथ भागीरथीसूनुश्चक्रे भूचक्रभूषणम् । विचित्रवीर्यनामानं शत्रुशाखिद्विपं नृपम् ॥ ८८ ॥
१. 'कृती' ग. ३. 'दाशपतिः' ग. ३. 'हिरण्मती' क.
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काव्यमाला |
आज्ञा यस्य महीभर्तुः कीर्तिश्च स्पर्धया मिथः । आरुरोह शिरोदेशमशेषपृथिवीभृताम् ॥ ८९ ॥ ततो विचित्रवीर्याय तिस्रः सत्यत्रतोऽहरत् । अम्बाम्बालाम्बिका बालाः काशिराजस्वयंवरात् ॥ ९० ॥ अथ धन्वानि धुन्वाना लोला: कोलाहलोद्धुराः । स्वयंवरनृपा वव्रुः प्रधनाय धुनीजनिम् ॥ ९१ ॥ नक्षत्राणीव तीत्रांशुभित्त्वा क्षत्राणि सिन्धुजः । राजानमिव राजानं शाल्वं कोपी लुलोप सः ॥ ९२ ॥ इत्यादित्यायमानौजा रथी त्रिपथगात्मजः । अवधूय वधूलुब्धानाजगाम स्ववेश्मनि ॥ ९३ ॥ चित्ते चित्तेश्वरः शाल्वो मां पीडयति शल्यवत् । अम्बाभिधा वदन्तीदं प्रैषि शंतनुसूनुना ॥ ९४ ॥ द्वे कन्ये तदसौ धन्ये मदवानुदवाहयत् । विचित्रवभृता चित्तभुवा प्रीतिरती इव ॥ ९९ ॥ प्राणद्यूते पणीभूता हारिता भवती मया । अङ्गीकरोमि नैव त्वां जेतारं भज भामिनि ॥ ९६ ॥ इत्थमम्बापि शाल्वेन न्यक्कृता धिक्कृताशया । पुनर्धुनीसुतं प्राप स्वसृसापत्न्यकाङ्क्षया ॥ ९७ ॥ ( युग्मम् ) आसक्तापि कुरङ्गाक्षी शङ्कनीया विचक्षणैः ।
अन्यासक्ता न वक्तव्या भीष्मेणेति न्यकारि सा ॥ ९८ ॥ नाग्रतश्च न पश्चाच्च संदिग्धा दग्धधीरगात् । तदाम्बा चटिकाचचुचरिष्णुवेदरोपमाम् ॥ ९९ ॥ दैवादुभयतो भ्रष्टा कष्टाद्गत्वा वनं मुनीन् । तं निवेद्य स्ववृत्तान्तं प्रव्रज्यां याचते स्म सा ॥ १०० ॥ होत्रवाहननामात्र तस्या मातामहः स्थितः । राजर्षिस्तत्कथां श्रुत्वा तां जगाद विषादभाक् ॥ १०१ ॥
१. चन्द्रमिव. २. 'बदरोपमा' ग.
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१आदिपर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
पशुरामं महेन्द्राद्रौ पुत्रि त्वं शरणं श्रय । शिष्यस्तस्य गिरा स त्वां गाङ्गेयः स्वीकरिष्यति ॥ १०२ ॥ तस्मिन्निदं वदत्येव रामशिष्योऽकृतव्रणः । तत्र स्वेच्छागतो ज्ञातकन्यावृत्तोऽब्रवीदिति ॥ १०३ ॥ एतत्तपोवनं प्रातः स्वयं रामः समेष्यति । इत्युक्ते तेन रामोत्का कन्या तस्थौ तथैव सा ॥ १०४ ॥ स्वयं प्रातः समायातमथ तं मुनिपूजितम् । नृपात्मजा कृपारामं सा रामं शरणं ययौ ॥ १०५ ॥ श्रुत्वाथ तत्कथां रामो रामां तामिदमब्रवीत् । शिष्यो भीष्मः शुभेन त्वां निराकर्ता गिरा मम ॥ १०६ ॥ त्वत्कामसिद्धये यामः कौरवं क्षेत्रमित्यसौ । गदित्वा तां समादाय कुरुक्षेत्राय चेलिवान् । १०७ ॥ प्राप्तो गुरुः कुरुक्षेत्रं रामो भीष्मेण पूजितः । जल्पन्नम्बाविवाहार्थं निराकारि गिरां भरैः ॥ १०८॥ रामो रथमथारूढः क्रोधनः प्रधनेच्छया । गुरुरप्याततायीति संनद्धः सिन्धुभूरपि ॥ १०९॥ क्षत्रान्तकेन रामेण समरं पुत्र मा कृथाः । इत्येवं गङ्गयाप्युक्तो भीष्मो नौज्झद्भियायुधम् ॥ ११ ॥ क्षोभयन्तौ भिया लोकं लोभयन्तौ च नारदम् । शोभयन्तौ दिवं बाणैर्युयुधाते क्रुधाथ तौ ॥ १११ ॥ जाह्नव्या वसुभिर्विप्राकारै रामास्त्रमूर्छितः । आश्वासितो धृतोत्साहश्चक्रे भीष्मो मुहुर्मुधम् ॥ ११२ ॥ युद्धं कृत्वाद्भुतं क्रुद्धौ त्रयोविंशतिवासरान् । तौ ब्रह्मास्त्रग्रहोदयौ वारितौ चातुरैः सुरैः ॥ ११३ ॥ रामेऽपि निष्फलीभूते पराभूतेति कन्यका ।
धुनीसूनुवधध्यानात्तपस्तप्तुं वनं ययौ ॥ ११४ ॥ १. 'उदित्वा' क. २. 'धृतोत्साहौ' ख.
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काव्यमाला।
इयमासाद्य कालिन्दीमिन्दीवरविलोचना । तेपे द्वादश वर्षाणि सामर्षा दुस्तरं तपः ॥ ११५ ॥ जन्मान्तरे त्वदिच्छेयं फलतादिति भाषिणि । पुरो भूत्वा तिरोभूते भूतेशे साग्निमाविशत् ॥ ११६ ॥ प्राक्पुत्री सैव पुत्रोऽस्तु तवेति वरदे हरे । सा पुत्रार्थोग्रतपसो द्रुपदस्य सुताभवत् ॥ ११७ ॥ पित्रा पुत्रोऽयमित्येषा ख्यापिता नरवेषभाक् । हिरण्यवर्मणः पुत्री दशार्णेन्दोळवाहयत् ॥ ११८ ॥ मत्वा कालेन तत्कूटं विग्रहोगे दशार्णपे । पित्रोर्दुःखितयोराप सारण्यं मरणेच्छया ॥ ११९ ॥ क्लिश्यन्त्यै मर्तुमेतस्यै विग्रहोपशमावधि । स्थूणस्तदटवीयक्षः स्खं पुंस्त्वं दयया ददौ ॥ १२० ॥ गत्वाथ ज्ञापयामास तद्वत्तं पितरावसौ। ततो हिरण्यवर्मापि ययौ संहृत्य विग्रहम् ॥ १२१ ॥ स्त्रीचिह्नं तु स्वयं तस्या बिभ्रत्प्रासादगर्भगः । श्रीदेऽप्यभ्यागते नाभ्युत्थानं स्थूणो हियाकैरोत् ॥ १२२ ॥ त्वं स्त्री सास्तु पुमानेव यावज्जीवं धनाधिपः । तत्स्वरूपरिज्ञातकोपोत्तापः शशाप तम् ॥ १२३ ॥ इत्यादातुं न यक्षोऽभूत्क्षमः पुंस्त्वं तैयार्पितम् । शिखण्ड्याख्योऽभवद्भीष्मभिदे सा द्रौपंदिस्ततः ॥ १२४ ॥ इतश्चारिच्छिदाभीष्मे भीष्मे ग्रीष्मातेजसि । प्रियाभ्यां सममक्रीडद्विचित्रनृपतिः सुखम् ॥ १२५ ॥ अतिस्त्रीसङ्गतो राजा पीडितो राजयक्ष्मणा ।
द्रष्टुं रम्भादिरम्भोरूरिव कामी दिवं ययौ ॥ १२६ ॥ १. 'स्त्रीवेषं ग. २. 'तस्य' ग. ३. 'व्यधात्' क-ख. ४. 'सा तु' ग. ५. 'तस्य रूप' ग. ६. 'परिज्ञान' क'प्रतिज्ञात' ख. ७. 'तथा' ग. ८. द्रुपदापत्यम्. ९. 'भीमार्क' ग.
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१आदिपर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
सचिवैः सत्यवत्या च बोधितोऽथ धुनीसुतः । प्रतिज्ञामङ्गभीर्भजे न भुवं न च सुभ्रुवम् ॥ १२७ ॥ बन्धूनां वा द्विजानां वा वीर्यादुद्भियते कुलम् । इति श्रुतिगिरा भीष्मः सत्यवत्या न्यवेदयत् ॥ १२८ ॥ द्विजं निजसुतं व्यासं तत्र निश्चित्य कर्मणि । सती यदा हृदा दध्यौ स तदैवाभवत्पुरः ॥ १२९ ॥ स मातुरातुरैर्वाक्यैरपि भीष्मस्य भाषितैः । शीलमाधुर्यधुर्योऽपि तत्कर्म प्रतिपन्नवान् ॥ १३० ॥ राज्ञी विचित्रवीर्यस्य भेजिवानम्बिकामथ । एष दुर्वेषभाक्शूकसंकोचितविलोचनाम् ॥ १३१ ॥ अन्धः सुतोऽस्या भावीति जल्पन्मातृगिरा पुनः । व्यासोऽम्बालां द्वितीयां स्त्री शूकपाण्डुमथाभजत् ।। १३२ ॥ अस्याः पाण्डुः सुतो भावीत्याख्यन्मातुः पुरो मुनिः । ततोऽन्धं धृतराष्ट्राख्यं सुषुवे सुतमम्बिका ॥ १३३ ॥ अम्बालाप्यङ्गजं पाण्डुपिण्डं पाण्डुमजीजनत् । अम्बिकाभावभोगार्थ पुनर्मात्रार्थितो मुनिः ॥ १३४ ॥ सोऽम्बिकाशूकसंदिष्टां हृष्टां शूद्रीमथाभ्यगात् । साप्यसूत सुतं धर्मविदुरं विदुराभिधम् ॥ १३५ ॥ अणीमाण्डव्यशापेन धर्मोऽयं शूद्रतां श्रितः । विदुरो धर्मविद्धीमान्भावीत्युक्त्वागमन्मुनिः ॥ १३६ ॥ धृतराष्ट्रो धियां धाम नागायुतबलोऽजनि । समस्तशास्त्रसंदोहच्छिदुरो विदुरोऽप्यभूत् ।। १३७ ॥ पुनषियशोम्भोधिशोषकुम्भोद्भवोऽभवत् । इलाविलासिनीजानिः पाण्डुरुद्दण्डचण्डिमा ॥ १३८ ।। यशःसुधाकरो यस्य वचसां कस्य गोचरे।
ब्रह्मणोऽपि निशा येन नूनं ज्योत्स्नी भविष्यति ॥ १३९ ॥ १. "विदुर' ग. २. 'गोचरः' क.
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काव्यमाला।
उदूढा धृतराष्ट्रेण गान्धारी सुबलाङ्गजा । उग्राराधनलब्धोग्रशतपुत्रवरा वरा ॥ १४ ॥ विष्णोः पितामहः शूरः पितृष्वस्रयबन्धवे । प्राक्पुत्रीं कुन्तिभोजाय धर्मपुत्रीमदात्पृथाम् ॥ १४१ ॥ भोज्यादिभक्तितुष्टेन तस्यै दुर्वाससान्यदा। मन्त्रो ददे मुदाहूतदेवसंपर्कपुत्रदः ॥ १४२ ॥ अथाहूय रवि मत्रप्रत्ययाय कुमारिका । नन्दनं तत्प्रसादेनासूत कन्यैव चाभवत् ॥ १४३ ॥ बालं सहोत्थताडङ्कवज्रसंनाहमक्षिपत् । सा तं बन्धुतिया पेटोन्यस्तमाशु नदीजले ॥ १४४ ॥ चरित्रमषडक्षीणमित्यसौ बिभ्रती शुभम् । कन्या पाण्डुनरेन्द्रेण पर्यणायि स्वयंवरे ॥ १४५ ॥
(पञ्चभिः कुलकम्) परां पर्यणयन्माद्रीमद्रीश इव मेनकाम् । पाण्डुभूपः स्फुरद्रूपः संपदा विश्वविश्रुताम् ॥ १४६ ॥ द्युतिं दधार धाराभ्यामिवासिर्भूमिवासवः । ताभ्यां लक्ष्मीनटीनित्यनृत्यरङ्गेण रङ्गितः ॥ १४७ ॥ विदुरो देवकक्ष्मापसुतां पारशवी श्रुताम् । परिणीय परप्रेमा सुषुवे शतशः सुतान् ॥ १४८ ॥ एकदानेकदावाग्निप्रतापः पाण्डुभूपतिः । आखेटकविधानाय सुभटान्समनीनहत् ॥ १४९ ॥ वाताभयानलीलेषु नीलेषु ययुषु स्थिताः । नीलीचीरधरा वत्रुर्धराधीशं धनुर्धराः ॥ १५० ॥ पापद्धिवर्धितोत्साहाश्वेलर्मेचकरोचिषः ।
अशुभध्यानसंजातपातकैरिव वेष्टिताः ॥ १५१ ॥ १. 'सूरः पितृष्वस्रीय' क. २. 'पेटी' क. ३. अश्वेषु.
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१आदिपर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
तेषां हेषां विशेषेण हयानामुपकर्णयन् । अभूद्वनावनीजीवकुलं सकलमाकुलम् ॥ १५२ ॥ केऽपि त्रस्ता भयग्रस्ताः क्रुद्धा युद्धाश्च केचन । वनेचरा हरीणां तु न भियो न रुषोऽभवन् ॥ १५३ ॥ विभिन्नयुग्यवाहेन वराहेण सहापरः । पातदूरगलद्भल्लो नययुद्धं रदैर्व्यधात् ॥ १५४ ॥ मुखे प्रविश्य सिंहस्य प्राणत्यागेन कश्चन । गृहन्प्राणांश्च कीर्तिं च लाभव्यवहृतिं व्यधात् ॥ १५५ ॥ सिंहं क्रोधितमायान्तं कश्चिदोष्ठपुटीधृतम् । शुद्धमूर्ध्वशरीरेण चक्रे खण्डद्वयं रयात् ॥ १५६ ॥ वञ्चयन्पञ्चवक्रस्य वक्रमन्यो महाबलः । प्रौढपृष्ठं समारूढो गौरीकृतगुणोऽभवत् ॥ १५७ ॥ सह सिंहेन संग्रामं कुर्वन्कोऽपि महाभटः । मध्यं पस्पर्श तस्यैव संकल्पान्निजसुभ्रवः ॥ १५८ ॥ कलया कलयामास मध्ये वध्यं हरिं परः। मुट्या तथा यथाग्रावनिष्पन्न इव सोऽभवत् ॥ १५९ ॥ चपेटापाटनक्रूर दूरं शूरः परो हरिम् । चण्डदोर्दण्डघातेन चूर्णिताक्षमलूलुठत् ॥ १६० ॥ नृसिंहेषु तथा सिंहसंघातपरिघातिषु । शङ्के स्वसिंहरक्षायै कैलासं शैलजा ययौ ॥ १६१ ॥ तदाभवबलाभोगभयभङ्गुरचेतसाम् । नश्यतां सह सारङ्गैर्मृगेन्द्राणां मृगेन्द्रता ॥ १६२॥ आश्चर्य तत्र शार्दूलविक्रीडितमहो मैहत् । सेनाभिर्यदिदं बाणस्रग्धराभिरधः कृतम् ॥ १६३ ॥ चन्द्रपातालचण्डीषु बीजं निक्षिप्य रक्षितम् ।
मृगकोलमृगेन्द्राणां धात्रा तत्र क्षयक्षणे ॥ १६४ ॥ १. 'द्वेषां' ग. २. 'अभवत्' क.
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४२
काव्यमाला |
रत्नैः कुम्भिशिरोयुक्तमुक्तैरुपरि दोष्मताम् । पुष्पवृष्टिरभूत्खङ्गोत्क्षिप्तसिंहोदरच्युतैः ॥ १६९ ॥ बूत्कारैश्च मृगेन्द्राणां हुंकारैश्च भुजाभृताम् । शङ्के भयं भयस्यापि तत्र प्रविशतोऽभवत् ॥ १६६ ॥ वीरभार नमद्भूमी भुग्नशेषग्रहाकुलः । तदा पाताललोकोऽपि धनुर्धर इवाबभौ ॥ १६७ ॥ कुम्भिकुम्भमणीनुत्वा सिंहैः कृषिरकारि या । असिलावैर्भटा भूरि जगृहुस्तद्यशःफलम् ॥ १६८ ॥ कम्पितः शङ्कया शङ्के सोऽपि पातालसूकरः । तत्र व्यतिकरे धात्री चकम्पे कथमन्यथा ॥ १६९ ॥ मृगेन्द्रघातिनां मूर्ध्नि निपेतुः पुष्पवृष्टयः । त्रस्यन्मृगधृतौ खिद्यमानेन्दुस्खेदविन्दुवत् ॥ १७० ॥ इति निर्जित्य गर्जन्तो निर्ययुस्ते भुजाभृतः । समदा मेदिनीनाथं मोदयन्तो मिथः स्तवैः ॥ १७१ ॥ मृगो जीवन्नपि मृगः सिंहः सिंहो मृतोऽपि सन् । नासन्नोऽपि स तस्य स्यात्परासोर्विरते रणे ॥ १७२ ॥ इति कौतुक केलीभिर्वितीर्णव्यसनो नृपः । नाभवत्तद्दिनं यत्र न पापर्धिविधिं व्यधात् ॥ १७३ ॥ अन्यदा किंदम नाम वने स्त्रीं रमयन्मुनिः । ह्रीवशान्मृगरूपस्थः पाण्डुना पीडितः शरैः ॥ १७४ ॥ मृत्युस्ते स्त्रीरसादेवं दत्तेन मुनिनामुना । दृष्टपापेन शापेन क्ष्मापस्तापमवाप सः ॥ १७९ ॥ प्रियाद्वयान्वितो भीष्मे भारं न्यस्य ततो नृपः । अनुशायी वनं प्राप हिमाद्रेर्गन्धमादनम् ॥ १७६ ॥ तत्र संतोषपीपूषसिक्तस्वान्तस्तपश्चरन् । सोऽस्थान्महर्षिसाहाय्यैः शतशृङ्गाह्वये गिरौ ॥ १७७ ॥
१. 'भुक्ति' ख. २. 'भूमि' क- ग. ३. 'शतशृङ्गमुनीन्द्रस्य साहाय्यात्तत्र तस्थिवान्' क.
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१आदिपर्व-४सर्गः]..
बालभारतम् ।
कुन्ती पाण्डूपरोधेन दुर्वासोदत्तमन्त्रतः । निर्मला धर्ममाहूय तत्रासूत सुतं सती ॥ १७८ ॥ धर्मोऽयं मूर्तिमान्भावी नृपो नाम्ना युधिष्ठिरः । इत्यवोचत्तदा तस्मिञ्जातेऽम्बरसरस्वती ॥ १७९ ॥ ईडिशम्य तज्जन्म गान्धारी विधुरध्वनिः । गर्भादपातयद्धातैरपूर्णा पुत्रपेशिकाम् ॥ १८० ॥ व्यासादेशात्ततो राज्ञी सुतामेकां शतं सुतान् । सूक्ष्मान्पेशीथग्भूतान्घृतकुम्भेष्वजीवयत् ॥ १८१ ॥ इतः कुन्त्या पुनर्मन्त्रसंडूतान्मरुतस्ततः । भीमः सहनभीमश्रीरजायत गजायतः ॥ १८२ ॥ भ्रातृभक्तो बली शूरो दूरमेष भविष्यति । इत्यस्मिञ्जातमात्रेऽपि चचार व्योमभारती ॥ १८३ ॥ सोऽन्यदा व्याघ्रभीतायाः क्रोडान्मातुः पपात च । चूर्णीचकार च शिलां ख्यातो भीमाख्यया ततः ॥ १८४ ॥ जातोऽयं तनयो यस्मिन्नहि देहिमहा महान् । तस्मिन्नजनि पूर्णाङ्गो गान्धार्याः प्रथमोऽङ्गजः ॥ १८५ ॥ सम्यङ्मत्रसमाहूतात्पुरहूतादथो पृथा । तीव्रपाण्डतपस्तुष्टादसूत सुतमर्जुनम् ॥ १८६ ॥ बालस्यास्य मुखं वीक्ष्य निजवल्लभविभ्रमात् । प्रापुस्तदा दिवस्ताराः पुष्पवृष्टिच्छलादिलाम् ॥ १८७ ॥ तेजसा तस्य बालस्य निता इव दिवौकसः । तदाजग्मुर्महेन्द्राद्याः परितः स्फुरितोत्सवाः ॥ १८८ ॥ जयी नयी बली बालो रिपुजेम्बालभास्करः ।
भविष्यत्ययमित्यासीत्तदा गगनभारती ॥ १८९ ॥ १. 'सती सुतम्' ख. २. 'संजातेऽम्बरभारती' ग. ३. 'समुद्भूतान' ग. ४. पावकतेजाः , ५. पङ्क.
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४.४
काव्यमाला |
स्पर्धा वर्धयित्वामुं प्रमदोद्भासुराः सुराः । सद्योऽपि दिवमुत्पेतुः पातोत्पातितडित्त्वराः ॥ १९० ॥ मादी चाय नासत्यौ पृथाप्रथितमन्त्रतः । नकुलं सहदेवं च सुषुवे विश्रुतौ सुतौ ॥ १९९ ॥ द्विषद्य यमौ सत्त्वोतावेतावतिद्युती । भविष्यतः स्रुतौ सत्यं तदाभूदिति दिव्यगीः ॥ ९९२ ॥ स्फुरिता मूर्तिमन्तोऽमी खेलन्तो गन्धमादने । पञ्चाग्नय इव व्यक्तास्तपसेव तपखिनाम् ॥ १९३॥ अथैकदा मदाविष्टो वसन्ते पाण्डुपार्थिवः । उपांशु कामयन्माद्रीं प्राप शापफलं मुनेः ॥ १९४ ॥ प्रियमन्वेम्यहं त्वं तु पञ्चैतान्पालयात्मजान् । इत्युक्तिकलितां कुन्तीं ततो माद्रीत्यभाषत ॥ १९५ ॥ अतृप्त इव कामानां मन्मुखे निहितेक्षणः ।
प्रियः प्राप्तो दिवं तन्मां विना तस्य कुतः सुखम् ॥ १९६ ॥ प्राणेशमनुयास्यामि तदहं विरहासहा । पालनीयाविमौ किंतु सुतौ स्वसुतवत्त्वया ॥ १९७ ॥ इत्युक्त्वा साविशन्मादी परलोकशि प्रिये । वह्निं जगत्रयीने रवाविव जवाछविः ॥ १९८ ॥ ते' ततः शतशृङ्गाद्रितापसास्त्वापदां पदम् । त्रयोदशेऽहि भीष्मा निन्युः कुन्तीं सुतान्विताम् ॥ १९९ ॥ विज्ञातपाण्डुवृत्तान्तः प्रवृत्तान्तः शुचातुरः । भीष्मो जनैः सहाक्रन्दशब्दाद्वैतमवर्तयत् ॥ २०० ॥ दृग्भरस्रुच्छलादादौ चक्षुध्याय जलं ददौ ।
तस्मै स्पर्शैकयोग्याय कुटुम्बस्य करैस्ततः ॥ २०९ ॥ प्रथिते प्रेतकार्येऽथे तस्य सत्यवती तदा । सवधूका तपो भेजे व्यासोक्तेर्दुःखमागता || २०२ ॥
१. 'शतशृङ्गतपोराशेस्तापसास्ता पशालिनीम्' क. २. 'च' क- ख. ३. 'व्यासोक्ते दुःखमागमे' ग.
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आदिपर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
अन्धस्य धृतराष्ट्रस्य पुत्रान्पाण्डोम॑तस्य च । शतं च पञ्च चाभेदाद्भुनीसूनुरवीवृधत् ॥ २०३ ॥ प्राक्तपस्तप्यमानस्य तपोराशेः शरद्वतः । जानपद्यप्सरोदर्शाद्वीर्यमस्त्रं च विच्युतम् ॥ २०४ ॥ गतोऽन्यतो मुनौ तत्र प्राप शंतनुपार्थिवः । पुंस्त्रीशिशू शरद्वेधाभूततद्वीर्यसंभवौ ॥ २०५ ॥ कृपः कृपीति तौ ख्यातौ कृपया वर्धिताविव । धनुर्विद्यां कृपोऽशिक्षि नित्यमेत्य शरद्वता ॥ २०६ ॥ चापविद्याविदग्धस्य कृपस्येति धुनीसुतः । अभ्यासाय सुतानेतानर्पयामास दुःसहान् ॥ २०७ ।।
(चतुर्भिः कालापकम्) आस्फालयन्मियो मौलौ वृक्षारूढानपातयत् । पादे धृत्वा मुदाकर्षभीमः क्रीडासु कौरवान् ॥ २०८ ॥ गङ्गातीरेऽन्यदा क्रीडागृहं तैः कौरवैः कृतम् । हन्तुं छलवशाभीममतिभीमविरोधतः ॥ २०९ ॥ भीमो भोज्ये विषं दत्तं तैः शंभुरिव जीर्णवान् । सुप्तः क्षिप्तो लताबद्धः सिन्धोस्तल्पादिवोत्थितः ॥ २१० ॥ सुप्तः प्रमाणकोट्याख्ये भागीरथ्यास्तटे पुनः । कुरुसारथिना सपँरदश्यत वृकोदरः ॥ २११॥ प्रतिबुद्धस्ततः क्रुद्धः सर्पान्ददिकोदरः । क्रीडयापीडयच्चण्डसारः सारथिमप्यहन् ॥ २१२ ॥ इति हन्तुमशक्येऽस्मिञ्छलादपि बलादपि । अन्तःस्खलितशल्याभे लेभे दुःखं सुयोधनः ॥ २१३ ॥ इत्थं परस्परामर्षादुत्कर्षेण वितेनिरे ।
शस्त्राभ्यासं कृपाभ्यासे वीराः पञ्च शतं च ते ॥ २१४ ॥ १. 'सुतान्' क. २. 'गङ्गातटे' क-ख.
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काव्यमाला ।
भरद्वाजमुने/जं घृताचीदर्शनच्युतम् । द्रोणान्तर्निदधे द्रोणस्तेन सूनुः पुराभवत् ।। २१५ ॥ अवैदयं स्वयं वेदवेदाङ्गानि पितुः पठन् । शिवप्रत्तं भरद्वाजादस्त्रं चाशेषमग्रहीत् ॥ २१६ ॥ कृपी कृपस्वसारं स व्युवाह तदिहाभवत् । उच्चैःश्रवा इव नदन्नश्वत्थामेति नन्दनः ॥ २१७ ॥ भारद्वाजोऽथ वित्तार्थी स भार्गवममार्गयत् । निःस्वेनास्मै धनुर्वेदः सरहस्योऽमुना ददे ॥ २१८ ॥ द्रुपदन्यकृतेनाथ नगरे नागसाह्वये । वितन्वता महस्तेन सहस्तेनाश्रितः कृपः ॥ २१९ ॥ अविज्ञातः कृपेणासौ कुमारेभ्योऽन्तरान्तरा । नित्यं ददौ धनुर्विद्यामनवद्यां विदांवरः ।। २२० ॥ कूपेऽन्यदा कुमाराणां क्रीडतां कन्दुकश्श्युतः । ऐषीकैरन्वनुक्षेपविद्धैराकर्षि तेन सः ॥ २२१ ॥ कलामिति परिज्ञाय द्रोणाय तैटिनीसुतः । तनयानर्पयामास धनुरम्यासहेतवे ।। २२२ ॥
(अष्टभिः कुलकम्) नद्यां यः प्रापि सूतेन राधया पालितो मुदा । कुन्तीसूनुः स कानीनः कर्णोऽभ्यासमिह व्यधात् ॥ २२३ ॥ अभ्यास्यदिह वैश्याभूयुयुत्सुद्धृतराष्ट्रजः । भूरयोऽन्येऽपि भूपालाश्चक्रुर्वैदेशिकाः श्रमम् ॥ २२४ ॥ एकस्तेषु बभौ कर्णो नक्षत्रेष्विव चन्द्रमाः । अपि तस्मादशोभिष्ट दीप्त्या रविरिवार्जुनः ॥ २२५ ॥ चिन्तयन्कवलं ध्वान्तेऽप्यभ्यासाद्वगं नरः ।
अभ्यस्यन्नक्तमप्यासीच्छब्दवेधी गुरुप्रियः ॥ २२६ ।। १. 'आग्नेयम्' क. २. 'अपकृतेन' ख. ३. 'सुहृत्त्वेन' ग. सहस्तेन सामिना. ४. 'तटिनीजनिः' क. ५. 'कुन्तीसुतः' क.
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४७
१आदिपर्व-५सर्गः]
बालभारतम् । । अर्जुनं च स्वपुत्रं च वविद्याभारधारणे । वामदक्षिणधौरेयौ मेनेऽसौ मनसा गुरुः ॥ २२७ ॥ भीमोऽभवद्गदायुद्धे धुर्यो दुर्योधनस्तथा । कृपाणे नकुलोऽश्वेषु सहदेवयुधिष्ठिरौ ॥ २२८ ।। आगच्छदेकदा द्रोणमेकलव्यो निषादराट् । अस्त्राभ्यासमतिर्दास इत्यनेन न्यषेधि च ॥ २२९ ॥ व्यावृत्तोऽथ गुरुं कृत्वा मृन्मयं चिन्मयाशयः । चापाभ्यासं चकारासौ जातश्च धुरि धन्विनाम् ॥ २३० ।। द्रोणशिष्यगणोऽन्येधुरभ्यासाय वनं गतः । श्वानं खानविदीर्णास्यक्षिप्तसप्तेषुमैक्षत ॥ २३१ ॥ कस्येदं लाघवमिति ध्यात्वा तत्पदमार्गगाः । एकलव्यं व्यलोकन्त तेऽभ्यस्यन्तमिषुवजैः ॥ २३२ ॥ कस्त्वमित्येष तैः पृष्टो निजगाद निषादराट् । हिरण्यधन्वा तातो मे द्रोणो धनुषि मे गुरुः ।। २३३ ॥ द्रोणोऽथ ज्ञाततद्वृत्तः स मा भूदधिकोऽर्जुनात् । इति तद्दक्षिणाङ्गुष्ठं गुरुदक्षिणयाग्रहीत् ॥ २३४ ॥ लक्षीकृते तरुस्थायिभासपक्षिगलेऽन्यदा ।
दृष्टिमुष्टिलयात्पार्थः सर्वेभ्योऽधिकतां गतः ॥ २३५ ॥ स्नानं गाङ्गजले गुरुर्विरचन्नन्येधुरभिग्रहो
दनं ग्राहमहो शरैः क्षितवते प्रीतः पृथासूनवे । वीरः कोऽपि धनुर्धरो न भवतः कल्पोऽस्ति जल्पन्निदं
शस्त्रं ब्रह्मशिरोभिधानमसमद्वेषिप्रयोज्यं ददौ ॥ २३६ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के आदिपर्वणि पाण्डवकौरवसंभवो नाम चतुर्थः सर्गः ।
पश्चमः सर्गः। पाराशरो मुनिपतिः स मुदे हृदायं
लक्ष्मच्छलेन कलयन्हरशेखरोऽपि । १. 'अपि' क.
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काव्यमाला।
तद्रव्यमानजगदिष्टपुराणवाणी
गर्भाद्रलद्भिरमृतैरमृतांशुरासीत् ॥ १ ॥ विस्तारशालिनि कुमारकुलश्रमेक्षा
हेतोः कृती विदुरदर्शितभूमिभागे । भीष्मोऽन्यदा गुरुगिरा नगरस्य बाह्ये
प्रापञ्चयत्किमपि मञ्चकचक्रवालम् ॥ २ ॥ भीष्मादिकेषु धृतराष्ट्रपुरोगमेषु __भूपेषु भूरिषु विभूषितमञ्चकेषु । रङ्गं प्रविश्य गुरुरुज्ज्वलवेषधारी
पुत्रान्वितो बलिविधि विधिवद्यधत्त ॥ ३ ॥ नानाविधप्रहरणग्रहणप्रवीणा ___ वीणामृदङ्गपटहादिषु वादितेषु । पादाङ्गुलिस्थितनतोन्नतलोकदृष्टा
हृष्टास्ततोऽङ्कमविशन्वशिनः कुमाराः ।। ४ ॥ आज्ञां गुरोर्गुणगुरोरधिगम्य वीरा
धर्माङ्गजप्रभृतयोऽथ पृथुप्रभावाः । तत्रास्त्रविस्तृतिकलातनुलाघवानि
भूजानिमण्डलमुदे कलयांबभूवुः ॥ ५ ॥ उद्यद्गदौ कृतमदौ तदनु प्रवीरौ
वन्यद्विपाविव विकखरचण्डशुण्डौ । विक्षोभिताखिलसभौ रभसेन भीम
दुर्योधनौ निजमदर्शयतां विरोधम् ॥ ६ ॥ दुर्वारवैरघनयोरनयोरिदानी
क्षोभेण मा भवतु भेदभयं सभायाः । अन्तस्तयोर्गुरुगिरेति निरोद्धुमश्व
स्थाम्ना स्थितं गिरिवरेण गरीयसेव ॥ ७ ॥ १. 'गद्यमान' ग. २. 'स्थिति' ग.
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१आदिपर्व-६सर्गः] बालभारतम् ।
द्रोणाज्ञयाथ विदितां मुदितोऽस्त्रविद्यां
विद्योतमानविनयस्तनयः पृथायाः । भूपेषु विस्मयरसप्रसरेण चित्र
रूपेष्वदीदृशदनीदृशविक्रमश्रीः ॥ ८ ॥ धीरैर्गुणध्वनिभिरर्जुनकार्मुकस्य
त्रस्तस्तदा दिनपतेर्बुवमष्टमोऽश्वः। तन्मुक्तमार्गणगणप्रभवैरदायि _भ्रान्तिस्तदैव दिवि गन्धवहेभ्यः ॥ ९ ॥ आसीत्तदार्जुनधनुर्गुणमुक्तबाण__पक्षोद्भवो नभसि कोऽपि भृशं स वायुः । उन्मूलितारिकुलमानमहीरुहेण
येनाघटि क्षितिभृतामपि मौलिकम्पः ॥ १० ॥ आसीद्गुरुर्गिरिरिवाणुरिवातिसूक्ष्मो
दृश्यस्तडिल्लव इव द्रुतमप्यदृश्यः । सोऽभ्युत्पपात पतगेन्द्र इवान्तरिक्ष
सारस्वतौघ इव भूमितलं विवेश ॥ ११ ॥ नीरं यशो निजमिव स्वमिव प्रताप___ मग्निं स्वकीयमिव गौरवमद्रिजालम् । तन्वन्निति क्षितिपभूर्विभवद्विभावो
दिव्यास्त्रदर्शनरसः स तदा मुदेऽभूत् ॥ १२ ॥ सर्वास्त्रकौशलकलाकलितेऽथ तस्मि
नित्थं स्थिते भुजभुजिष्यभुजंगराजे ।। लोकस्तदाननविलोकरसस्तदाभू
हृद्धश्चमत्कृतिगुणैरिव निश्चलाङ्गः ॥ १३ ॥ दासीकृतक्षयपयोधितरङ्गभङ्गः
किंकारिताद्रिभरभैरववज्रपातः । १. 'मुनितः' ग. २. सरस्वतीप्रवाहः.
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काव्यमाला।
रङ्गाबहिर्बहु बभूव कुतोऽपि दोष्णो
रास्फालनध्वनिरथ ध्वनितान्तरिक्षः ॥ १४ ॥ मत्तद्विपेन्द्र इव सान्द्रमदः पुरस्ता
द्वेधावघट्टितपुरोजनदत्तवा । रङ्गेऽविशत्सहनकाञ्चनकर्णिकावा
कर्णस्ततः कवचवत्त्वचमेव बिभ्रत् ॥ १५ ॥ कोऽयं महाभट इति क्षितिपैरशेषै
रालोक्यमानवदनः सदनं मदस्य । द्रोणं कृपं च सपदि प्रणिपत्य पार्थ__स्पर्धी व्यधत्त सकलास्त्रकलाः किलासौ ॥ १६ ॥ इत्यर्जुनप्रतिभटाय भटाय तस्मै
चम्पां ददौ कुरुपतिः कृतसौहृदाय । अत्रान्तरे च नृपसारथिराजगाम
कर्णो नमाम तमतः पितृगौरवेण ॥ १७ ॥ दत्ता त्वया किमिव सूतसुताय चम्पा
लम्पाकपाकरिपुसूनुरिति ब्रुवाणः । भीमेन साकमथ चापमवाप्य कर्ण
दुर्योधनावपि धनुर्दधतुः क्रुधातौ ॥ १८ ॥ यावत्कुलक्षयकर कलयन्ति नाङ्के
शङ्काकुले सकलराजकुले कलिं ते ।। तेषां प्रतापदहनैरिव तप्तमूर्ति
स्तावत्पपात तपनोऽप्यपराम्बुराशौ ॥ १९ ॥ अग्रस्फुरनिजबलप्रबलप्रताप
श्रीभिस्तदस्ततमसो नवदीपिकाभिः । ते कौरवा गृहमगुर्मदगौरवाढ्या
स्ते पाण्डवाः कलितविक्रमताण्डवाश्च ॥ २० ॥ १. 'विघटित' ग. २. लम्पाको लम्पट इति ग-पुस्तकटिप्पणी.
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१आदिपर्व-पसर्गः] बालभारतम् ।
मत्वा स्पृहामथ गुरोर्गुरुदक्षिणायां
जित्वा नियन्त्रितमदुर्दुपदं कुमाराः । तं चाह साहसरसेन हसन्विरोधं
मुक्त्वा कृपीपतिरवाप्तकृपः पुरस्तात् ॥ २१ ॥ प्राग्बालकेलिसुहृदा प्रतिपन्नमर्धे
लब्धस्य राज्यविभवस्य किल त्वया मे । आसाद्य तं द्रुपद यन्मदतो न्यकार्षी
रोषेण मां तदिदमद्य फलं तवाभूत् ॥ २२ ॥ मित्रं ममासि पितृमित्रसुतोऽसि तस्मा
दुक्तं स्वमेव परिपालय भूमिपाल । उक्त्वेति राज्यविषयार्धमपि प्रदाय
प्रैषीद्गुरुर्दुपदमाहतगुप्तवरम् ॥ २३ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम्) तस्मिञ्जये पृषतपार्थिवनन्दनस्य
विश्वाधिकौ हरिसुतौ सततं विचिन्त्य ।। धर्माङ्ग जनितपौरजनानुरागं
मत्त्वा च कौरवपतिः पितरं जगाद ॥ २४ ॥ तात व तावककुलस्य कथापि पार्था
येनानुरञ्जितजनाश्च जेयोज्ज्वलाश्च । एतान्विवासय निवासय तत्र दूरे __ श्रीवारणावतपुरे छलजः कुतोऽपि ॥ २५ ॥ श्रुत्वेति सूनुवचनानि युधिष्ठिराय
तां वारणावतपुरीमदित प्रसादात् । एषा क्षितौ सुरपुरीव सुरैरिवैषा ___ लोकैर्वृतेति कथयन्नथ सर्वथान्धः ॥ २६ ॥ भावं विदन्भृशममुष्य महासहायं
मत्त्वा तदङ्गजगणं सहजद्विषन्तम् । १. भीमार्जुनौ. २. 'जयोल्बणाः' क. ३. 'विनाशय' इति क-पुस्तके टिप्पणीभूतः पाठः.
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५२
काव्यमाला ।
नत्वा नृपः कृपकृपीपतिभीष्ममुख्याश्री वारणावतपुराय ततः प्रतस्थे ॥ २७ ॥ पौरान्विसृज्य सकलान्स कलाभिरामः
शिक्षाप्रदानविदुरं विदुरं च नत्वा । कुन्तीयुतः सह सहोदर मण्डलेन
तत्पत्तनं विदितहर्षपदं प्रपेदे ॥ २८ ॥ तन्नागसाह्वयमभूदपभूति तस्मिं
स्तद्वारणावतपुरं त्वतिभूति याते । यन्मुञ्चते दिनकरः किल तत्र रात्रि -
दीव्यति विभुर्दिवसो हि तत्र ॥ २९ ॥
कूटाशयेन सचिवेन पुरोचनेन प्राक्प्रेषितेन रिपुभिर्धृतराष्ट्रपुत्रैः । निर्मार्पितं जतुगृहं दहनैकयोग्यं
नीतश्छलेन दशमेऽह्नि पृथातनूजः ॥ ३० ॥ तन्मुञ्जसर्जरसयावकवंशकाश
सर्पिः शणप्रभृतिभिर्द्रविणैः प्रक्लृप्तम् । आग्नेयमेतदिति सद्म विभाव्य गन्धै
धर्माङ्गभूरिदमभाषत भीममुख्यान् ॥ ३१ ॥ शङ्कयं सदा हुतवहाच विषाच्च दिक्षु
युष्माकमस्त्यविदितो न च कोऽपि पन्थाः । शिक्षामिमामदित मे विदुरस्तदानी
मागच्छतः पथि वचोभिरमूढमूढैः ॥ ३२ ॥ शिक्षेयमद्य विदिता सदनेऽत्र नेत्रमार्ग गते हुतवहर्द्रविणैकक्कॢप्ते । मन्ये पुरोचनममुं च सुयोधनार्थे विश्वासघातिनमिति प्रथितप्रपञ्चम् ॥ ३३ ॥
१. 'प्रेरितेन' ख. २. 'द्रविणावकृप्ते' ग.
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१ आदिपर्व - ५ सर्गः ]
बालभारतम् ।
विश्वस्तवद्भृशमिहैव गृहे सुरङ्गां निर्माय नाशकृतये सततं वसामः ।
दाहक्षणे खलु मृता इति वञ्चयित्वा दुर्योधनं च सचिवं च सुखं चरामः ॥ ३४ ॥ एवं प्रकाश्य नृपमत्र वसन्तमेत्य
कोऽप्याह गुप्तखनको विदुरप्रयुक्तः । वर्षोषितान्निशि शठः सचिवोऽत्र कृष्णपक्षे स यहि बताति चतुर्दशे वा ॥ ३५ ॥ यत्फाल्गुनाष्टमदिने पुरमेतदेतत्स्वामिन्भवांस्तदवधारयतां दिनं तत् ।
मित्रं स्वमेव खनकं विदुरः सुरङ्गां निर्मातुमातुरतया खलु मां न्ययुङ्क्त ॥ ३६ ॥ मत्त्वेति राज्ञि सहसा रहसि प्रपन्ने
तेन व्यधायि खनकेन गृहे सुरङ्गा ।
तद्दाहकर्मणि शठः स पुरोचनोऽपि
चक्रे मतिं जतुगृहाग्रगृहाधिवासी ॥ ३७ ॥ पञ्चाङ्गजामशनदानमिषान्निषादीमत्राधिवास्य सुमतिर्नृपतिर्निशीथे ॥
भीमेन मन्त्रि भवने च विमोच्य वह्नि
-
कुन्त्या युतो विवरेण ययौ सबन्धुः ॥ ३८ ॥ धूमैर्मुहुर्मलिनयञ्जगदन्तरालं
दुर्योधनस्य विदितैरिव दुर्यशोभिः ।
साकं शठेन सचिवेन पुरोचनेन दूरादथो जतुगृहं दहनो ददाह ॥ ३९ ॥
दिया ययौ स जगदेकसुहृत्पृथाभूः लष्टो मयाधमतमश्च पुरोचनोऽपि ।
१. ग - पुस्तके सर्वत्र 'सुरुङ्गा' इति दृश्यते. २. 'अथ' क. ३. 'अपि' क.
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५४
काव्यमाला |
इत्यट्टहासमिव यं गृहवंशदा है
वह्निश्वकार मिलितस्तत एव लोकः ॥ ४० ॥
धिक्त्वां मुखं मखभुजां धिगपि द्विजास्त्वामर्चन्ति धिक्च शुचितां तव येन दग्धः । दैत्यावतारधृतराष्ट्रसुतप्रियार्थं
देवद्विजप्रियतमश्च शुचिश्च राजा ॥ ४१ ॥
इत्यात्मनः किल कलङ्कमलीकमेव
यच्छन्तमुच्छ लितशोकमतीव लोकम् । कान्त्या हसन्निव शिखी पथि गच्छतस्ता
नालोकताम्बर निखातशिखातरङ्गः ॥ ४२ ॥ ( युग्मम् )
सौभाग्यभाग्यशुचितादिगुणैर्न केषां
नेत्रप्रियाः समभवन्भुवि पाण्डवास्ते ।
तद्दाहनिश्वयवशादिति नागराणां
नेत्रैरमोचि जलमग्निशमाय मन्ये ॥ ४३ ॥
हा धर्म कर्मपर हा निजबान्धवैकप्राकार हा कलशयोनिकुलैकधुर्य । हा रूपसंभ्रमनिधी व गता भवन्तो
लोकारवैरिति निशाप्यसुखाद्विलिल्ये ॥ ४४ ॥ दुर्योधनस्य सुहृदेष युधिष्ठिरादिव्यापादने व्यवसितोऽयमिति क्रुधार्तः ।
प्रातः प्रदग्धवपुषोऽपि पुरोचनस्य लोकः कपालमपिषदृढपादघातैः ॥ ४१ ॥ तां वीक्ष्य पञ्चतनयां च पुरो निषादीं चक्रन्द मातृयुतवीरधियैव लोकः । तच्चाङ्घ्रिचारितरजः प्रसरैः सुरङ्गा
द्वारं चकार खनकः स लसन्नलक्ष्यम् ॥ ४६ ॥
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१आदिपर्व-५सर्गः] बालभारतम् ।
आसीत्तवेप्सितमगुर्दिवि पाण्डुपुत्रा__ स्त्वद्दीपिताग्निजतुमन्दिरकंदरस्थाः । राज्यं चिरं कुरु पुरीपुरुषप्रयुक्तां
श्रुत्वा कथामिति रुरोद भृशं नृपोऽन्धः ॥ ४७ ॥ मन्त्रज्ञभूपतनुभूविदुरादिवजे
लोकेऽखिलेऽपि खलु निर्भरजातशोके । सर्वोर्ध्वदैहिकविधानविधीनमीषा__ मेष स्वयं क्षितिधवो रचयांचकार ॥ ४८ ॥ तेऽप्यग्निदग्धसदनादिशि दक्षिणस्यां
कुन्तीसुता ययुरहर्निशमप्रमत्ताः । गङ्गां कदाचन विलङ्घय निदाघकाले
सायं स्थिता गहनसीम्नि वटस्य मूले ॥ १९ ॥ भीमोऽथ सारसरवानुपसृत्य तूर्ण
तृष्णार्तबन्धुकृतये ह्रदसीम्नि यातः । पीत्वा पयः स्नपनमप्ययमारचय्य
धीरः पुटीरचितनीरभरः समेतः ॥ ५० ॥ बालप्रवालशयनीयविलासयोग्या
न्बन्धून्विलोक्य जननी च भुवि प्रसुप्ताम् । धिग्दुर्विधेविलसितानि बलं च धिने
ध्यायन्निदं हृदि सरोद वृकोदरोऽसौ ॥ ११ ॥ दृष्ट्वा च तानिह वने क्षुधितो न्ययुत ___ हन्तुं हिडम्बपलभुग्भगिनी हिडम्बाम् । तस्यां पुनः स्ववशताजुषि स प्रकुप्य
भीमेन हन्त निहतो हरिणेव दन्ती ॥ १२ ॥ कामार्तिदीनवचनामथ तां हिडम्बां
मातुनूपस्य च गिरा भजति स भीमः । १. 'अथ' ख-ग.
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काव्यमाला।
नित्यं तया सह विलस्य च सर्वदिक्षु
सायं स्वबान्धवसमीपमुपाययौ च ॥ ५३ ॥ जज्ञे तयोरथ घटोत्कचनामधेयः __ सूनुर्बली विपुलशस्त्रभृतां वरेण्यः । पृष्ट्वाथ भीममगमद्विपिनं हिडम्बा
स्मार्योऽस्मि कार्यत इतीरितगीः सुतोऽपि ॥ १४ ॥ श्रान्तान्वहन्वपुषि वल्कजटाभृतोऽथ
बन्धून्गुरुक्षितिरुहानिव जङ्गमोऽद्रिः। अध्वेक्षितार्चितपराशरसूनुदिष्ट्या
भीमो जगाम तरलः पुरमेकचक्राम् ॥ ५५ ॥ विप्रस्य कस्यचिदुपाश्रयमाप्य तस्थु___ स्ते भैक्ष्यभोजन जो भुजशालिनोऽपि । अस्मिन्पुरे सरसि वा बकवारभुज्य___ मानप्रजातिमिकुले विधुरत्वभाजि ॥ १६ ॥ वारे द्विजस्य निजवासपदप्रदस्य ___ कर्तु चिरादुपकृति प्रहितो जनन्या । भीमो बकाय बहुभोज्यभरं गृहीत्वा ___ संकेतपर्वतशिलाशिखरं जगाम ॥ १७ ॥ आहूय भोजनकृते बकदैत्यमन्न__मश्नन्नयं स्वयमयन्त्रितशौर्यलक्ष्मीः । साटोपकोपममुमद्भुतसंगरेण
भीमो जघान घननालमिवोरुवातः ॥ १८ ॥ मदैवतेन करुणां मयि तन्वतासौ
भिन्नो निवेद्यमिदमित्यनुशिष्य विप्रम् । एकत्र न स्थितिरपि त्रसतां शुभेति
पाञ्चालदेशमभिचेलुरमी कुमाराः ॥ ५९॥ १. 'दृष्टः' ख. २. 'पराः' ख. ३. इवार्थको वाकारः. ४. क्रम. ५. 'संगसेऽथ' ख.
सामना
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१आदिपर्व-५सर्गः] बालभारतम् ।
तेषां यतां वनमहीषु पुरो महीयः___पुण्येन मूर्त इव धर्मरसो बभूव । द्वैपायनो मुनिपतिर्भवतोयराशि
द्वीपायनं शमरसप्रसरप्रंशस्यः ॥ ६ ॥ अग्रे कलापिन इवाभिनवं पयोदं
चक्राभिधा इव दिनाधिपतिं नवीनम् । द्वैपायनं समवलोक्य मुदामुदाराः .. पात्रं बभूवुरथ पाण्डुनरेन्द्रपुत्राः ॥ ६१ ॥ नीलीविलीनतनवः सततभ्रमेण
हर्षप्रकर्षपरिपूर्णमदास्तदानीम् । व्यास:माम्बुजयुगे नतबाहुपक्षा
स्ते षट्पदद्युतिभृतोऽतिभृतं निपेतुः ॥ १२ ॥ दत्त्वाशिषं निखिलभूतभवद्भविष्य
द्विज्ञोऽभ्यधादिति मुदा मुनिपुंगवस्तान् । . यात द्रुतं द्रुपदराजपुरे कुमारी
राधाव्यधैकपणितां परिणेतुमेव ॥ ६३ ॥ पीत्वा द्रुतं द्रुतमधुच्छविमस्य वाचं
वाचंयमस्य वदनाम्बुजतस्ततोऽमी। आनन्दकन्दलर्पदं द्रुपदाय चेलु
भृङ्गा इवोज्ज्वलयशस्ततिपुष्पिताय ।। ६४ ॥ एतान्यतो रजनियामयुगे त्रिमार्गा
तीरे ततोऽर्जुनधृतोल्मुकदृष्टमार्गान् । अङ्गारपर्ण इति तत्र जले विलासी
गन्धर्वमण्डलपतिः कुपितो रुरोध ॥ ६५ ॥ इन्द्राङ्गजः प्रथितपावकमार्गणेन
दग्ध्वा रथं विधुरितः स तदा विरोधी । १. 'परः' ख. २. 'द्वैपायनः' ख-ग. ३. 'प्रगल्भः' ख. ४. 'क्रमावत्र पादौ विवक्षितौ' इति ग-पुस्तकटिप्पणी. ५. 'अद्भुता' ख. ६. 'पदाः' ग.
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५८
काव्यमाला |
कुम्भीनसी तदबलाथ पृथां नृपं च दैन्यान्ननाम तदमुच्यत सोऽर्जुनेन ॥ ६६ ॥
मैत्र्यं चकार सह तेन पृथातनूजस्तस्मै ददौ दहनमन्त्रमयं च शस्त्रम् । पार्थाय सोऽप्यदित विश्वदृशं च विद्यां
मेने युधे च हयपञ्चशतीमभेद्याम् ॥ ६७ ॥
उत्कोचकाख्यशुचितीर्थपतिं विधाय
धौम्यं पुरोहितमभी सुहृदोऽथ वाचा | वाचस्पतिव्यतिकरप्रहतोपसर्गा
न्स्वर्गौकसोऽप्यजगणन्न तृणाय पार्थाः ॥ ६८ ॥
गत्वा पुरे द्रुपदभूमिधवस्य मात्रां मात्रा समं किल कुलालगृहं विमुच्य । ते जम्मुराशु रमणीपणभूतराधा
वेधव्यधाय नृपसंसदि षोडशेऽह्नि ॥ ६९ ॥ वीक्ष्य स्वयंवरणमण्डलमग्रतोऽथ
व्याचष्ट धर्मतनुजोऽनुजमण्डलाय । स्वर्गोऽवतारित इव द्रुपदेन सोऽयं
न्यक्कुर्वता पुरुषकारवशेन दैवम् ॥ ७० ॥ तस्यास्ततेषु निजकुण्डभुवो विवाह
यज्ञेषु रत्नमयमञ्चचयच्छलेन ।
आश्चर्यमग्नहृदयः स्वयमत्र चित्र -
विन्यस्तमूर्तिरिव पश्यति पावकोऽपि ॥ ७१ ॥
आकारितासु चलचन्दनमालयैव
भ्रूसंज्ञया नृपतिपङ्क्तिषु मण्डपोऽयम् ।
कन्यानुरूपमिह भूपमवीक्ष्य कंचि
दुच्चैः समाह्वयति केतुकरैः सुरेन्द्रान् ॥ ७२ ॥
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१ आदिपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
सूर्यात्मजामिलितजहु सुता सहस्रभ्रान्त्या सहर्षवरसप्तमहर्षिदृष्टाः ।
वेलन्ति धूप नधूमघटाभिराभि
रुद्भासिता नभसि वाततताः पताकाः ॥ ७३ ॥
आसन्नदर्शननरेन्द्रसुताननेन्दु
प्रोज्जागरस्य नृपसंमदसागरस्य ।
वेलातरङ्गरवराशिरिवान्तरिक्ष
कुक्षिंभरिः करटिगर्जिततूर्यनादः ॥ ७४ ॥
अस्मत्पतेः सितरुचेरपि चारुरूपमाहुर्विदों द्रुपदराजसुतोमुखेन्दुम् । इत्येत्य पुष्पगृहपुष्पमिषेण तारा
स्तद्वीक्ष्य जग्मुरलिभिर्मलिनाननत्वम् ॥ ७९ ॥ इत्युन्मदः कृतगिरो धृतविप्रवेषा
स्ते शिश्रियुर्द्विज समाजविराजितं यम् । मञ्चः स पञ्चभिरमीभिररातिजातिदर्पद्विपप्रलयपञ्चमुखश्चकासे ॥ ७६ ॥ दास्यान्पृथातनुभुवे द्रुपदः कुमारी
ज्ञातुं च तं धनुरचीकरदत्युदारम् । वैहायसाख्यकृतयन्त्रगतं च लक्ष्यं
पुत्रीविवाहपणमत्र कृती ततान ॥ ७७ ॥ आबिभ्रती कुसुमकार्मुक कार्मुकाभं
पाणी स्वयंवरणमाल्यमथो कुमारी ।
शृङ्गारसागरतरङ्गकरङ्गदम्बु
बिन्दूपमा भ्रमरराशिरवाप रङ्गम् ॥ ७८ ॥ मुक्तावलीमय किरीटमरीचिवारगुच्छानुकारविमलातपवारणश्रीः ।
१. 'घट' क ख २. 'आनन' क.
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६०
काव्यमाला ।
लीलाविलासचलनिर्मलकर्णिकाग्रजाग्रद्विभानिभचलाचलचामरोमिंः ॥ ७९ ॥
पाणिद्वयीकलितनिर्मलमुग्धपुष्प
मालाकृतप्रतिकृतिप्रतिमल्लहारा ।
अग्रेसरस्मरधनुर्गुणनादमञ्जु
शिञ्जानकंकणकलापकनूपुरालिः ॥ ८० ॥
क्षीराम्बुराशिविहरलहरीनिभासु संभ्रान्तभूमिविभुवृन्ददृगन्तभासु ।
लक्ष्मीरिव स्वयमराजत राजपुत्री
कस्मैचन प्रगुणिता पुरुषोत्तमाय ॥ ८१ ॥
भूमीभृतः श्रितमुदो मदिरेक्षणाया
वीक्षणादपि तदा मदमत्तचित्ताः ।
स्मेरस्मरस्मयविकारविसंस्थूलानि
चक्रुश्चिराय विविधानि विचेष्टितानि ॥ ८२ ॥
लीलापरः कररुहाग्रपरम्पराभिः
केशानमार्जयदनङ्गकृताभिषङ्गः ।
भारं न मे सृजति तन्वि शिरः स्थितापि
संज्ञामिमां विरचयन्निव कोऽपि भूपः ॥ ८३ ॥
कश्चिद्व्यलोकत विलासविसंस्थुलात्मा स्वं पाणिकंकणमणौ वदनारविन्दम् ।
(त्रिभिर्विशेषकम् )
१. 'बाल' क.
द्रष्टुं ललाटफलके ध्रुवमेतदीय
लाभाक्षराणि विधिना विनिवेशितानि ॥ ८४ ॥
एतामनङ्गनृपजङ्गमराजधानी
दृष्ट्वा विलासनलिने नयनं न्ययुङ्क |
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१ आदिपर्व - ५ सर्गः ]
बालभारतम् ।
देवी सरोजवसतिर्लसतीतिरूपा
नो वेति वीक्षितुमिवातिरसेन कश्चित् ॥ ८१ ॥
सद्यस्तदीयकुचदर्शनजातभावसंभाव्यमानमृदुपाणिजविभ्रमाभिः । कोऽप्येकपाणिपरिमीलितपत्रपङ्कि
पस्पर्श नीररुहमन्यकराङ्गुलीभिः ॥ ८६ ॥
संमार्जयन्क्रमुकलेशनिवेशभाञ्जि कश्चित्तॄणाग्रलसनैर्दशनान्तराणि ।
दास्यं तवैव तरलाक्षि वहामि सोऽह -
मित्थं मुखे किल तृणं कलयांचकार ॥ ८७ ॥ शुभ्रप्रभोर्मिपुनरुक्तविलोलहोरे
नेत्रं ददौ हृदि परः स्मरभावभिन्नः । व्यक्तां वधूमनवलोक्य पुरोऽतिदूरे साक्षाद्विलोकितुमिवेह कृतप्रवेशाम् ॥ ८८ ॥ तस्यामनादरमना इव कश्चिदग्रे
नीचासनस्थितमभाषत यद्वयस्यम् ।
तेनैव नम्रतशिराः स रराज कामं
सामप्रविष्ट इव कामधराधिपस्य ॥ ८९ ॥
कोsप्युलिलेख मृदुवामकराङ्गुलीभि
र्भावाद्भुतो विततदक्षिणपाणिमध्यम् ।
अत्युत्सुकं नृपसुताकुचकुम्भयुग्म
स्पर्शोत्सवे स्थिरयमाण इवात्तधैर्यः ॥ ९० ॥
एका विलोचनयुगेन हृदा च तन्वी सर्वैरपि क्षितिधरैर्विधृता स्मरार्तेः । एषा पुनर्धनुरलोकत हमयुगेन चित्तेन दोर्युगमचिन्तयदर्जुनस्य ॥ ९१ ॥
१. 'पति' ग. २. 'हार' क.
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काव्यमाला।
अभ्यर्च्य चापमथ वाचमुवाच धृष्ट
द्युम्नः कराम्बुजमुदश्श्य मुदा सदोऽन्तः । यः कश्चन स्पृहयति द्रुपदात्मजायै
राधां स विध्यतु धनुर्धरधैर्यधुर्यः ॥ ९२ ॥ इत्युक्तिभाजि पृषतान्वयमौलिरत्ने
यत्नं न के क्षितिभुजो विदधुर्भुजालाः । तत्राधिरोपणविधावपि कोऽपि किंतु
दी धनुर्निबिडितानिकषो न जातः ॥ ९३ ॥ केचिद्धनुःप्रगुणनेऽप्यभवन्विलक्षा
न प्राग्यशः क्षयभिया किलकेऽप्युदस्थुः । मञ्चाच्चचाल तदनु द्विजवेषधारी
भीमानुजो गजगतिः सममग्रजेन ॥ ९४ ॥ मूर्त्या त्विषा च गमनेन च लीलया च
राजन्यकस्य हृदि दत्तपदौ तदानीम् । एतौ समीरसुरराजसुताविति श्री. चित्तेशभीष्मगुरुभिर्विनियम्यमानौ ॥ ९५॥ किं भूचरौ तरणिशीतरुची किमन्यौ . रामाच्युतौ किमु गणेशगुहाविहैतौ । एतौ पुनः किमुदितौ रघुराँजपुत्रा_ वित्याकुलैर्नुपकुलैः सहसैव दृष्टौ ॥ ९६ ॥ आश्लिष्यतामथ भुजाविव विक्रमस्य
मूर्ती सभाग्रभुवमेकधनुर्भुवं तौ । नत्वा कृते धनुषि सज्जगुणेऽर्जुनेन . भीमो मदादिदमुवाच अवामधीशान् ॥ ९७ ॥
(त्रिभिर्विशेषकम्) १. 'सभासदोऽन्तः' क. २. 'निकषः परीक्षकः' इति ग-पुस्तकटिप्पणी. ३. बलभद्रकृष्णौ. ४. 'नाथ' क. ५. 'दिशा' क.
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१ आदिपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
रे' भूभुजो यदि भुजोल्लसितं न किंचि - af स्पृहानि सुतां प्रति पार्षतस्य ।
जज्ञे स्पृहाथ कथमागतमागतं वा
प्राणाधिके धनुषि तत्कथमाग्रहोऽभूत् ॥ ९८ ॥
आरम्भमेतमयथाबलमाकलय्य
युष्मान्न कोsपि निषिषेध मिषेण मन्त्री ।
चापाधिरोपणविधावपि निष्फलानां
वक्षोऽपि न स्फुटितमद्य भुजाभृतां वः ॥ ९९ ॥ कान्तापणेऽत्र गुरुभीष्महृदि त्रपैव कृष्णस्तु षोडशसहस्रवधूवशात्मा । रे कौरवा धृतभुजा मदगौरवाणां
किं वो मनःशमगुरुर्धनुरेतदेव ॥ १०० ॥ रे कर्ण कुण्डलित एष न किं त्वयापि चापः पृथुप्रथितदोर्युगपाशभाजा ।
किं दुर्यशः कुवलयेन तवावतंस
श्रद्धा बभूव भुवनावधि शाश्वतेन ॥ १०१ ॥ विप्रोऽप्ययं द्रुतमहीनमहीन कीर्तिलुण्ठाकशक्तिरपसादगुरुप्रसादः ।
वेध्यं प्रपातयति पश्यत रे नरेन्द्राः
कीर्ति स्मरन्मनसि गौररुचं न कृष्णाम् ॥ १०२ ॥ इत्यैब्दशब्दजयशालिनि तस्य वाक्ये -
satarयमेकमिव चेतसि चिन्तयत्सु ।
क्षत्रद्विजेषु निखिलेष्वपि तेषु सद्यो
मौनावलम्बिनि नमद्वदनाम्बुजेषु ॥ १०३ ॥
उग्रस्वधैर्यगजगर्जिनदं कुमारी
६३
चेतोमयूरनवनृत्तपयोदनादम् ।
१. 'भूमीभुजः' क. २. ' कुवलयं नीलोत्पलमिति राजनिघण्टुः' इति ग-पुस्तकटिप्पणी. ३. अब्दो मेघः.
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६४
काव्यमाला ।
राजन्यगर्वगिरिवज्ररवं चकार टंकारमिन्द्रतनुजोऽथ धनुर्गुणस्य ॥ १०४ ॥
रोगास्पदद्रुपदराजसुतावलोकपीयूषकन्दलितसान्द्रभुजाबलेन । पार्थेन पार्षतचमत्कृतविक्रमेण
वेध्यं व्यपाति भुवि मार्गणलीलयैव ॥ १०५ ॥ उत्तालतालतरलेषु तदा जनेषु
खे दुन्दुभिध्वनिपरेषु च दैवतेषु ।
कृष्णाननेषु च नृपेषु पितुर्गिराथ
कृष्णार्जुनस्य वरमाल्यमयुङ्क्त कण्ठे ॥ १०६ ॥ अस्मान्व्यडम्बयदसौ बटुमात्रकाय
पुत्रीं ददाविति तदा द्रुपदाय दूनाः ।
तत्र स्वयंवरसभाभुवि भूभुजंगाः
क्षोभास्पदं सपदि शस्त्रभृतोऽभ्यधावन् ॥ १०७ ॥ भीमार्जुनौ तदिह संनिहितौ हिताय तेनाश्रितौ हरिहराविव दुर्निरीक्षौ । उत्पाट्य पादपमुदारमदातिभीमो
भीमोऽथ पार्थिवचमूरुदमूलत्ताः ॥ १०८ ॥ हारानपि स्वकुसुमप्रतिमान्स्वकीय
शाखासमानपि भुजानसमञ्जसेऽस्मिन् ।
( युग्मम्)
मौलीनपि स्वफलजालसमान्नृपाणां
चिच्छेद भीमकलितः स तरुः क्रुधेव ॥ १०९ ॥ उर्वीरुहस्य कुसुमानि यशांसि राज्ञां
तस्य च्छदानि पुनराभरणानि तेषाम् ।
भीमाहवव्यतिकरे जगलुः सहैव
किंतु स्वयं निपतितो न स ते तु पेतुः ॥ ११० ॥
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१आदिपर्व-सर्गः]
बालभारतम् ।
वेगादमूर्नुपसमूहचमूर्विमूल्य __ भीमो जिगाय समरप्रसरेण शल्यम् । चापं तमेव युधि देवपतेः सुतोऽय
मासाद्य कर्णमपवर्णमथ व्यधत्त ॥ १११ ॥ नायं नयो भुजभृतामिति ते निकामं
दामोदरेण युधि तत्त्वविदा निषिद्धाः ।। जग्मुर्नृपा निजपदान्यथ तेऽपि पाण्डु
पुत्राः कुलालकुलसीनि समं कुमार्या ॥ ११२ ।। तानागतानथ जगाद पृथाद्य भिक्षा
भोज्यैव पञ्चभिरभेदपरैमिलित्वा । मा भूदसत्यवचना जननीति तेऽपि
पञ्चापि तत्परिणये समयं वितेनुः ॥ ११३ ॥ आलोक्य भूपतनयामथ किं मयोक्त
मित्याकुलां स्वजननी प्रतिबोध्य धीराः। स्नेहादुपेत्य हरिसीरियुगे प्रयाते
भिक्षार्थिनः पुरि गताश्च समागताश्च ॥ ११४ ॥ मातुः पुरस्तदनु धर्मसुतान्विताया
मिक्षां तदा निजनिजाममुचन्दिनान्ते । दृष्टापदो द्रुपदभूपसुता न ताप
मन्तस्तदाप किमु वच्मि मनः सतीनाम् ॥ ११५ ॥ कृत्वा बलिं द्विजजनाय वितीर्य भिक्षां
दत्वाथ याचककुलाय ततः कुलीनाः । कुन्तीगिरा द्रुपदसूरदितान्नमर्धं
भीमाय शेषमकरोन्मुदिता षडंशम् ॥ ११६ ॥ सुप्तास्ततो निशि भटा दिशि दक्षिणस्यां
कृत्वा शिरांसि कुशकल्पिततल्पभाजः ।
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काव्यमाला ।
तेषां स्थिता शिरसि भोजसुता पदान्ते
कृष्णा च क्लृप्तसमरायुधशौर्यवाचाम् ॥ ११७ ॥ तेषां नृपोचितवचांसि निशम्य धृष्ट
द्युम्नः कुलालगृहसीमनि कुड्यगुप्तः । प्रातर्त्यवेदयदिति द्रुपदाय सर्व
सर्वसहापतिसुताः किल केचिदेते ॥ ११८ ॥ क्षत्राणि तानथ पुरोहितयोजनेन
निश्चित्य पाण्डुनृपनन्दनविभ्रमेण । आनीय सद्मनि रथैरथ भोजयित्वा
पृष्टो यथातथमुवाच युधिष्ठिरोऽमै ॥ ११९ ।। चण्डांशूज्ज्वलदुज्ज्वलोज्ज्वलमहःस्तोमाय सोमायित
क्रीडत्कीर्तिभराय वासवभुवे देया मुदेयं सुता । एवं जल्पति पार्षते निजगदे धर्मात्मनासौ प्रिया
पञ्चानामपि नो भविष्यति मनःश्रीरिन्द्रियाणामिव ॥ १२० ॥ पञ्चानामपि किमिव प्रिया भवित्री
मैत्पुत्री वदति च धर्मसूः किमित्थम् । संदेहाम्बुधिविधुरात्मवृत्तिरित्थं
वीरोऽपि द्रुपदनृपस्तदाप मौग्ध्यम् ॥ १२१ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के आदिपर्वणि द्रौपदीस्वयंवरो नाम पञ्चमः सर्गः ।
षष्ठः सर्गः । अन्तधुतानाममलेन धाम्ना बहिर्महाभारतजैर्यशोभिः । तमस्त्विषां येन तनुत्वगेव पदं ददे कृष्णमुनिर्मदेऽसौ ॥ १ ॥ अथ क्षितीशं द्रुपदं तदा किंकर्तव्यतामूढमुदूढचिन्तम् । उपेत्य क्लप्तप्रणति जगाद व्यासो रहः सर्वरहस्यवेदी ॥ २ ॥
१. 'पुत्री मे' ग.
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१आदिपर्व-६सर्गः] बालभारतम् ।
पुरा पुरारौ वरदे तपोभिदौर्भाग्यभाक् क्वापि मुनीन्द्रकन्या । पतिं प्रयच्छेति जगाद पञ्चवारं वरालाभवितीर्णरोषा ॥ ३ ॥ भवान्तरे पञ्च भवन्तु वीराः परस्परप्रीतिपरा वरास्ते । तदा प्रदायेति वरं वराङ्गयास्तस्यास्तिरोधत्त पुरां विरोधी ॥ ४ ॥ धवा भविष्यन्ति भवान्तरे मे ध्यात्वेति रेमे तपसैव सेयम् । आयुःक्षये पुण्यचयेन नाकश्रीरित्युपान्ते समभूद्भवस्य ॥ ५ ॥ इतश्च यज्ञं रचयांचकार प्राङ्गैमिषारण्यगतः कृतान्तः । अनिघ्नति प्राप्तकृपे तदस्मिन्मत्यैरमत्यैरिव भूरभूषि ॥ ६ ॥ बुडिष्यति क्षमाद्भुतमर्त्यभारा मत्र्येष्वमर्येष्वपि नो विशेषः । सुराः पुरस्कृत्य हरि विरिश्चौ खेदादुपालम्भमिति प्रतेनुः ॥ ७ ॥ अथावदत्पद्मभवो यदायं कर्ता मखान्तस्नपनं कृतान्तः । तदा निपातः क्रमतः प्रजानां पूर्णायुषां पक्कफलावलीवत् ॥ ८॥ निशम्य सम्यग्वचनं विरिञ्चरेवं प्रमोदेन गतः सुरेन्द्रः। सुरापगायां विलसन्नपश्यदब्देवतास्यद्युति हेमपद्मम् ॥९॥ इदं कुतो जातमिति प्रमोदादादातुमन्तःसलिलं विवेश । ततोऽग्रतस्तां रुदतीं ददर्श स्वर्गश्रियं भर्गकृतच्छलेन ॥ १० ॥ तदश्रुभिर्गाङ्गजले गलद्भिस्तूर्ण सुवर्णाम्बुरुहीभवद्भिः। चमत्कृतस्तावदिति बुभर्ता मेरैस्तदास्येन्दुपुरो विशेषात् ॥ ११ ॥ वरोरु किं रोदिषि कासि नाकभषेति पृष्टा रुदती चचाल । जगाम तत्तामनु वासवोऽपि प्रत्यूषसंध्यामिव शीतभानुः ॥ १२ ॥ गिरिगिरीन्द्रं हरिणीदृशेति नीतो युवानं किल वीक्ष्य कंचित् । स्थिरासने स्वप्रतिपत्तिमूढं स्त्रिया समं शारिरसं चुकोप ॥ १३ ॥ अनेन यूना कुपितो हरेण दृष्ट्या हतो दृग्विषभोगिनेव । हिमाद्रिमौलौ हरिराससाद स्तम्भीकृतो नूतनशृङ्गभङ्गिः॥ १४ ॥ समाप्तशारिव्यसनस्य विश्वनाथस्य वाग्भिस्त्रिदशश्रियाथ । करेण संस्पृष्टवपुः पपात शीर्णासनः स्तम्भ इव धुभा ॥ १५ ॥ १. 'वलद्भिः ख.
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काव्यमाला।
अथावदद्विश्वगुरुः सुरेन्द्रमदेरिदं कंदरमाविश त्वम् । भवन्निभैरग्रगतैश्चतुर्भिः पञ्चेन्द्रियो वा गिरिरेष भातु ॥ १६ ॥ गतो गुहायामथ तैश्चतुर्भिः साकं स पाकस्य रिपुः सपीडः। . उपेत्य पादप्रणतः पुरारेः किं किं करोमीति जगाद दीनः ॥ १७ ॥ अथाह नाथः प्रथिता चिराय हत्या मम ब्रह्मशिरश्छिदोत्था । निवर्ततेऽष्टादशसंमितानामक्षौहिणीनां रुधिराणि पीत्वा ॥ १८ ॥ अतो यतन्तां निभृतं भवन्तो मल्लग्नहत्याशमनाय शकाः । कृतावतारैरवनी भवद्भिराभातु पञ्चाननकामिनीव ॥ १९ ॥ असौ रणारम्भविजृम्भितार्थ सार्थ नृपाणां प्रगुणीकरोतु । कृतावतारा भुवि नाकलक्ष्मीर्युष्मासु पञ्चवपि वल्लभैका ॥ २० ॥ इहावतारं विरचय्य देव्यां सा ब्रह्महत्या मम कापि कृत्या । भुजाभृतामलमधूनि पीत्वा तृप्ता मदान्मोक्ष्यति मां क्षणेन ॥ २१ ॥ तथेति निश्चित्य कृतप्रतिज्ञैरिन्दैश्चतुर्मिर्जगदे विभुस्तैः।। नरान्न कार्य ननु धर्मवातनासत्यतो जन्म विधीयतां नः ॥ २२ ॥ उवाच वाचं स च पञ्चमेन्द्रो नाहं करिष्ये वसुधावतारम् । पुमान्मदंशप्रभवोऽस्तु भूमौ भूरिप्रभावैर्भुवि कार्यहेतुः ।। २३ ॥ अथेति हत्याशमके समाप्तप्राये स्वकार्ये समदप्रमोदः। जगाद नाथो जगतामितीदमस्त्वेव विश्वे जयिनश्च यूयम् ॥ २४ ॥ किं त्वेतु वैवस्वतवासवस्य नरः सुतत्वं बदरीवनर्षिः। साहाय्यहेतोः सुहृदस्य भूमौ नारायणोऽप्यस्तु कृतावतारः ।। २५ ॥ स विश्वभुङ्काम किलान्तरस्य स्वायंभुवस्य त्रिदशाधिनाथः ।। युधिष्ठिराङ्गेन कृतावतारो धर्माङ्गजन्मा भुवनप्रियोऽभूत् ॥ २६ ॥ पतिः सुराणामृतधामनामा खारोचिषस्य स्वयमन्तरस्य । बभूव भीमाङ्गकृतावतारो वाताङ्गजोऽसौ गजसैन्यजेता ॥ २७ ॥ पुनस्तनूजोऽजनि वर्तमानवैवस्वताहान्तरसंभवस्य । सुरेशितुर्दुर्धरधन्वधारी तेजस्विनाम्नः स्वयमर्जुनोऽभूत् ॥ २८ ॥
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१आदिपर्व-६सर्गः]
बालभारतम् ।
सुरेश्वरावौत्तमतामसाख्यख्यातान्तरस्फारतरप्रभावौ । श्रुतिश्रुतौ शान्तिशिबी च यौ तौ नासत्यपुत्रौ यमलावभूताम् ॥२९॥ इतस्त्वया द्रोणवधाय साधू याजोपयाजावनुकूल्य वर्षम् । अकारि यज्ञः सुरसिन्धुतीरे पुत्रार्थिना ध्यातपराभवेन ॥ ३० ॥ अथोपयाजे ऋतुकर्मनिष्ठे याजे पुनातमखाधिदैवे । रथी धृतास्त्रः कवची च धृष्टद्युम्नोऽग्निकुण्डेऽजनि पाककांशः ॥३१॥ तदा कुमारी तव सैव नाकश्रीर्वेदिमध्यादिह वेदिमध्या । अभूदियं भूप यया पुरारिः प्राक्प्रीणितः पञ्चवरी च लब्धा ॥ ३२ ॥ अमी च वीरास्तव चाङ्गजेयमीहक्चरित्राय चिरं चरन्तु । मुनिनिवेद्येति स पार्षताग्रे प्रत्यक्षयामास च दिव्यदृश्या ॥ ३३ ॥ इदं गदित्वाथ गते यतीन्द्रे प्रौढप्रमोदं द्रुपदेन राज्ञा। विवाहिताः पाण्डुसुताः स्वपुत्री कन्यां मुहुः पञ्चदिनक्रमेण ॥ ३४ ॥ जयन्ति कुन्तीतनया नयाच्या वार्तेत्यनार्ताथ बभूव भूमौ । स्वयंवरायातनृपाश्च जग्मुः स्वं स्वं पुरं पाण्डवकाण्डभीत्या ॥ ३५ ॥ सुयोधनेनाथ हठेन हन्तुं कुन्तीसुतान्दुर्ललितेन पृष्टः । अलोचनो भूमिपतिश्चकार द्रोणेन भीष्मेण समं स मन्त्रम् ॥ ३६ ॥ धुनीतनूजोऽपि जगाद केन शक्या विजेतुं भुवि पाण्डुपुत्राः । भटीभवद्यादवपार्षतेषु भीमार्जुनौ येषु रणप्रवीरौ ॥ ३७॥ ततः पतङ्गप्रतिमप्रतापानाकार्य कुन्तीतनयान्भुजालान् । स्वयं रयादर्हसि तात दातुं राज्यार्धमुन्मार्जय दुर्यशोऽत्र्यम् ॥ ३८ ॥ मते मतेर्वासगृहेण भारद्वाजेन तस्मिन्नथ भीष्ममन्त्रे । न्ययुक्त राजा विदुरं तदानीं युधिष्ठिराकारणकारणेन ॥ ३९ ॥ रथैरथैष द्रुपदस्य पुर्या धुर्यो गुणानां विदुरः प्रयातः । समेतकृष्णान्पुरमानिनाय पाण्डोः सुतान्पार्षतसैन्यधन्यान् ॥ ४० ॥ कृतप्रणामाय गुरुक्रमेषु धर्माङ्गजायाथ सबान्धवाय । कुले विरोधः पुनरस्तु मेति तत्खाण्डवप्रस्थमदात्तदान्धः ॥ ४१ ॥
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७०
काव्यमाला।
स खाण्डवप्रस्थमथो पृथायाः सूनुर्ययौ गर्जिततर्जितारिः। तत्र व्यधादिन्द्रपुराममिन्द्रप्रस्थाभिधानं नगरं नरेशः ॥ ४२ ॥ इदं मनःकल्पितपूर्णपूर्णवाञ्छाभरैरप्यमरैरलभ्यम् । पुरं प्रपन्नाय पुरंदरोऽपि तस्मै नृपाय स्पृहयांबभूव ॥ ४३ ॥ निवेश्य वैश्वानरतुल्यभासस्तान्पाण्डवानत्र गते मुरारौ । समाभुवं प्राप युधिष्ठिरस्य श्रीनारदः स्फारदयामयात्मा ॥ ४४ ॥ सुन्दोपसुन्दावजयौ वरेण तिलोत्तमाकारि सुरैस्तदर्थे । सहोदरौ प्रीतिपरौ प्रियार्थ परस्परं युद्धपरौ विनष्टौ ॥ ४५ ॥ अथास्य वाचा महितस्य चक्रुः पञ्चापि वीराः समयं किलेति । उपैति कृष्णाजुषि यो द्वितीयः स स्यात्समा द्वादश तीर्थसेवी ॥४६॥ इति प्रतिज्ञाय कृतप्रणामाः कामप्रचारे व्रतिनि प्रयाते । समृद्धराज्याः समयेन तेन ते द्रौपदीभोगभृतो बभूवुः ॥ ४७ ॥ अथैकदा कश्चन चौरचक्रैर्गोचक्रवालेषु हृतेषु विप्रः । पृथाभुवो धावत धावतेति क्रन्दन्मुहुस्तत्पुरमाससाद ॥ ४८ ॥ प्रियायुतक्ष्मापतिरुद्धसौधगुप्ते तदास्त्रे विधुरे च विप्रे। स्मरन्मनोऽन्तः समयं किरीटी किं किं करोमीति मुहुर्मुमोह ॥ ४९ ॥ रणैर्द्विजार्थ सुकृतं विशेषात्तद्वादशाब्दैश्च वने मुनित्वात् । तदार्जुनो दुर्जनमौलिशूलं ध्यात्वेति चापं गृहतश्चकर्ष ॥ ५० ॥ विजित्य चौरानथ सव्यसाची विप्राय दत्त्वा सुरभीरभीरुः । तदा निषिद्धोऽपि नृपेण धीरोऽरण्यं ययौ विप्रगणेन साकम् ॥५१॥ द्विर्द्विरेफैरिव पीयमानदानः स नागेन्द्र इवेन्द्रसूनुः । भ्रमन्नरण्येषु जगाम गङ्गाद्वारेऽथ भास्वद्भवतापमित्त्यै ॥ १२ ॥ इहाग्निहोत्राणि तथा कथंचिच्चकुर्द्विजाः पाण्डुसुतानुयाताः। यथा त्रिमार्गा तनुते तरङ्गैरद्यापि तप्तेव विवर्तनानि ॥ ५३ ॥ अथाग्निकृत्याभिषवाय गङ्गागर्भप्रविष्टं रसभादुलूपी । जहार कौरव्यभुजंगपुत्री कौरव्यमेनं मदनाभितप्ता ॥ १४ ॥ १. अयं श्लोकः ख-ग-पुस्तकयो स्ति.
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१ आदिपर्व - ६ सर्गः ]
बालभारतम् ।
तयाथ नीतः फणिपत्तनान्तस्तत्राग्निमालोक्य समाहितं सः ।
कृती चकाराखिलमग्निकार्य श्रेयः स्पृशां कुत्र न कार्यसिद्धिः ॥ १५ ॥ अतीवरक्तां भजतः कृशाङ्गीं न ब्रह्मचर्यव्रतभङ्गमाहुः । विना तदालिङ्गनसंभवेन यस्मादसून्धर्तुमसौ न शक्ता ॥ १६ ॥ चिरं विचिन्त्येति कृती निकामं कामार्तिलोलार्दितकातराक्षीम् । दयामयो दीनगिरं किरीटी कौरव्यकन्यामभजद्भुजंगीम् ॥ १७ ॥
( युग्मम्)
७१
निशोषितस्तामयमात्तगर्भामापृच्छ्य याति स्म पुनर्निवेशम् । निवेद्य सद्यश्चरितं द्विजेभ्यः प्रालेयशैलोपतरं प्रपेदे ॥ ५८ ॥ ततो गतोऽगस्त्यवटाद्वसिष्ठशैलेऽभिषिक्तो भृगुतुङ्गतीर्थे । विलोक्य तीर्थं स हिरण्यबिन्दोस्तं पर्वतश्रेष्ठमपि प्रपेदे ॥ १९ ॥ व्रजन्नथ प्राग्दिशि स प्रपेदे नन्दीं नदीं नैमिषकाननं तत् । तटानि नन्दापरनन्दयोस्तां श्रीकौशिकीं ते च गयात्रिमार्गे ॥ ६० ॥ स सागरं वीक्ष्य कृती कलिङ्गदेशान्महेन्द्रं च महामहीघ्रम् | तटेन सिन्धोर्मणिपूरमाप्य तीर्थानि पार्थो निखिलान्युपास्त ॥ ६१ ॥ ततोऽत्र दृष्ट्वा मणिपूरभर्तुश्चित्राङ्गदां चित्रनृपस्य पुत्रीम् । रूपे रतिं स्वैरविहारशीलां तां प्रत्यभूत्पाण्डुसुतः सकामः ॥ ६२ ॥ प्रेभंकराह्वेन ममान्वये प्रागपुत्रिणोवपतिना तपोभिः । आराधितो दत्त वरं हरोऽस्मै वंशे तवैकैकमपत्यमस्तु ॥ ६३ ॥ मा यावदासंस्तनुजा ममेयं सुता भवद्वंशकरी तु पार्थ । जातस्ततोऽस्यां तनयस्तवास्तु मद्रूपताभागिह संविदेति ॥ ६४ ॥ पित्रार्थितेनाथ वितीर्णयास्थात्तया समं तत्र नरस्त्रिवर्षीम् । ततोऽभवद्बभ्रुरिति प्रतीतः सूनुर्द्विषद्रूपभुजंगभ्रुः ॥ ६५ ॥
(त्रिभिर्विशेषकम् )
स दक्षिणाम्भोनिधितीर तीर्थसार्थाय पार्थस्तदितश्चचाल । महर्षिभिस्तत्र निवारितोऽपि सौभद्रतीर्थे सवनं च सक्रे ॥ ६६ ॥ १. ‘प्रभंकराख्येन' ख. २ ' दत्तवरः' ख. ३ 'असौ' ख. ४ बभ्रुर्नकुलः.
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७२
काव्यमाला |
पदग्रहव्यग्रमिहोग्रमग्रे जग्राह स ग्राहमुदग्रबाहुः | विपक्षपक्षक्षयदीक्षिणस्तं चिक्षेप साक्षेपमथान्तरिक्षे ॥ ६७ ॥ व्यलोकयद्वाहपदे तदेष नभोऽन्तरा देशमिवोत्पलाक्षीम् । उवाच सा वाचमिति प्रतीतां पार्थ प्रति प्रीतिसुधोर्मधौताम् ॥ ६८ ॥ प्रवीर पञ्चाप्सरसः प्रसिद्धाः सिद्धालिगोष्ठीषु वयं वयस्याः । इहास्मि धर्माथ च सौरभेयी सामीरिका बुद्बुदिका लता च ॥ ६९ ॥ द्विजेन केनापि तपः स्थितेन शप्ता वयं विघ्नविधाननिघ्नाः । अभूम धीमन्निह पञ्चतीर्थ्यां पञ्चापि यादांस्यतिनिष्ठुराणि ॥ ७० ॥ यदा नरः क्षेप्स्यति खे समर्थः कश्चित्तदा वः खलु शापमुक्तिः । अनुग्रहोऽस्माकमभूत्तदायमित्यस्मि मुक्तार्जुन मोचयान्याः ॥ ७१ ॥ इदं निशम्यापि परेषु पार्थस्तीर्थेषु ता मोचयति स्म शापात् । तदादि संप्रत्यपि पञ्चनारीतीर्थान्यमूनीति ययुः प्रसिद्धिम् ॥ ७२ ॥ अथार्जुनस्तीर्थशतानि पश्यन्गोकर्णमुख्यानि दिशि प्रतीच्याम् । पृथुप्रभावप्रसरं प्रभासक्षेत्रं ययौ क्षत्रियसार्वभौमः ॥ ७३ ॥ रोमाञ्चितो मारकतप्रभाभिर्यः पद्मरागै रचितानुरागः । तरङ्गिणीसङ्गरसो बभार स्वेदोदबिन्दूनिव मौक्तिकानि ॥ ७४ ॥ सुधास्य पुत्री पतिरौषधीनामस्याङ्गभूरेष पदं मणीनाम् । उदेत्यतो मन्त्रमयोऽर्यमेति यस्मिन्न सर्पत्यपि कालसर्पः ॥ ७९ ॥ कुवैस्तपो नक्तमिति श्रुतं यः क्षयक्षपायां भुवनानि भुक्त्वा । विष्णुं हृदि न्यस्य महेशभालहग्दीपभृज्जागरणं करोति ॥ ७६ ॥ पितृद्विषं कुम्भभवं विभाव्य यत्संभवाः कुम्भधियेव मुक्ताः । पदं ददत्याहृतहाररूपा भूपालकान्ताकुचमण्डलेषु ॥ ७७ ॥ कृष्णस्य कुक्षौ स्थितमब्धिनेति हसनोक्तीः स्फुटफेनभाभिः । यो वक्ति कृष्णं निजकुक्षिभाजं स्वभावशुद्धोदककृष्णभाभिः ॥ ७८ ॥ अस्ताचलाग्रच्युतभग्नमग्नचण्डांशुखण्डानि तमीषु यस्मिन् । वीचीचयोत्थज्वलनस्फुलिङ्गावलिच्छलेनाधिकमुच्छलन्ति ॥ ७९ ॥
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१ आदिपर्व - ६ सर्गः ]
बालभारतम् ।
ब्रह्माण्डमादौ सृजति स्वयं यस्ततोऽभितः पाति पयोदवृन्दैः । वीचीचयैः संहरतीदमन्ते त्रिंशंभुहासी मणिदन्तदीया ॥ ८० ॥ कल्पद्रुचिन्तामणिकामगव्यो यस्यैकदानं हृदि यस्य विष्णुः । ररक्ष शक्रादपि भूभृतो यस्तं वीक्ष्य वार्षि मुमुदेऽत्र पार्थः ॥ ८१ ॥ (अष्टभिः कुलकम् )
७३
अथैतमायातमिहावगम्य स्फारस्मयं द्वारवतीक्षितीशः । समं समग्रैरपि यादवेन्द्रैरभ्याययौ रैवतकाद्रिसीनि ॥ ८२ ॥ यथोचितं चक्रुरथ क्रमेण पार्थाय सर्वेऽपि यदुप्रवीराः । नदीप्रवाहैरिव तीरजोऽयं शाखीव निन्ये खपुरं प्रवाह्य ॥ ८३ ॥ महोत्सवे रैवतकोपकण्ठं ययुः कदाचिद्यदवः प्रमत्ताः । अथात्र भद्रावयवा सुभद्रा विष्णोः स्वसा जिष्णुमनश्चकर्ष ॥ ८४ ॥ स्वयंवरे वा हरणे हठाद्वा वीरस्य माहात्म्यवहो विवाहः । इयं स्वयं वा वृणुयान्न वा त्वां ततस्त्वमेतां हठतो हरेति ॥ ८५ ॥ विष्णुर्मनस्तस्य विदन्यदूनां दैव्यप्रियत्वं च जगाद जिष्णुम् । अथेति विज्ञाप्य युधिष्ठिराय पार्थः सुभद्राहरणोद्यतोऽभूत् ॥ ८६ ॥ अथैकदा रैवतकप्रयातां मत्त्वा सुभद्रां तनयः पृथायाः । अनुप्रयातो मृगयामिषेण जित्वाङ्गरक्षान्किल तामहार्षीत् ॥ ८७ ॥ कृष्णः क्रुधार्तेषु बलादिकेषु सर्वैरजय्योऽयमिति प्रजल्पन् । नरैः प्रसाद्यागमितेन शक्रभुवा सुभद्रामुदवीवहत्ताम् ॥ ८८ ॥ पुरे यदूनामथ पुष्करेषु निर्वाह्य कालं तमशेषमेषः । अथाययौ कृष्णयुतस्तमिन्द्रप्रस्थं सुभद्रासहितः किरीटी ॥ ८९ ॥ विशन्पुरान्तः स्थविराङ्गनाभिश्चेलाञ्चलोच्चालनतत्पराभिः । तदाश्रमवारिविन्दुच्छेदप्रवीणाभिरिवैष वीरः ॥ ९० ॥
१. शंभवोऽत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा अपेक्षिता: २. 'तैरथायं' ग. ३. 'यदवोऽधिकद्रव्यवते कन्यां ददतीति द्रव्यप्रियत्वसंभावना यदुषु कृष्णेन कृतेति तत्त्वम्' इति ग-पुस्त - कस्था टिप्पणी. ४. इतोऽग्रे ग- पुस्तके 'युग्मम्' इति पाठ: ५. 'चोल' क.
१०
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७४
काव्यमाला ।
अथो यथौचित्यमयं महौजाश्चक्रे चतुर्णामपि बान्धवानाम् । नत्वा पृथां पार्षतनन्दिनीं तां तवास्मि दासीत्यवदत्सुभद्रा ॥ ९१ ॥ शुभं सुभद्रा सुतं सुषाव धन्याभिमन्युं दलितारिमन्युम् । जवेन यस्मिन्पितृमातुलीयं सामर्थ्यमेकत्र समाजगाम ॥ ९२ ॥ कलाकलापं सकलं किरीटी संयोजयामास निजे सुतेऽस्मिन् । हरिश्च बाल्यादपि भागिनेयेऽमुष्मन्नुभाभ्यामिति सक्षमोऽभूत् ॥ ९३ ॥ क्रमेण पञ्चालसुता च पञ्च पञ्चप्रियेभ्यस्तनयानस्त । कलावधूकेलिगृहाणि वर्षवर्षान्तरेणाग्निसमानभासः ॥ ९४ ॥ अबन्ध्यधामप्रतिबन्ध्यनामा सोमाभकीर्तिः श्रुतसोमसंज्ञः । रणोकर्मा श्रुतकर्मनामधेयः शतानीक इति श्रुतश्च ॥ ९९ ॥ हतारिसेनः श्रुतसेनसंज्ञः कुन्तीसुतानामिति ते तनूजाः । अदादमिषामपि सव्यसाची सर्वाः कला धौम्यकृतक्रियाणाम् ॥ ९६ ॥ (विशेषकम् )
वितन्वता षण्मुखतां कुमारवीरव्रजेन प्रतिभासमानः । नमस्यतां पञ्चमुखः स पाण्डुनरेन्द्रवंशो नहि कस्य जातः ॥ ९७ ॥ गोवामनस्य क्षितिशासनस्य शैब्यस्य पुत्री तपसः सुतेन । स्वयंवरे प्राप्यतं देविकाख्या जातोऽस्य यौधेयसुतस्ततोऽस्याम् ॥९८ ॥ काश्यां बकस्यान्तकरो बलैकशुल्कां बलाग्रस्थधरां व्युवाह | तस्यां ततस्तेन पतङ्गधामा सर्वाङ्गनामा जनितोऽङ्गजन्मा ॥ ९९ ॥ जग्राह चैद्यां नकुलः करेणुवतीं करेणाप्रतिरूपरूपाम् । ततोऽस्य तस्यामजनिष्ट सूनुरमित्रमैत्रो निरमित्रनामा ॥ १०० ॥ स्वयंवरे तु द्युतिमत्तनूजामवाप माद्रीं नकुलानुजन्मा । ततः स तस्यां विजयाह्वयायां सुहोत्रमुत्पादयति स्म पुत्रम् ॥ १०१ ॥ चत्वारोऽमी यौधेयकसर्वाङ्गनिरमित्रकसुहोत्राः ।
पाण्डुजतनुजा याता मातामहराज्यराजत्वम् ॥ १०२ ॥
चिराय चिक्रीडुरमी समीप श्रीजानयः पाण्डुसुताः पुरेऽस्मिन् । जितेव येषां महसार्कपङ्किः सेवां व्यधात्कुण्डलकैतवेन ॥ १०३ ॥ १. श्रीजानिः कृष्णः.
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१आदिपर्व-७सर्गः] बालभारतम् ।
नयविनयविवेकादभ्रविभ्राजितश्री
स्तदवनिवनिताया वल्लभो धर्मवीरः । घनधनजनपूर्ण पालयित्वा समन्ता
दकृत सुकृतदृश्यं तत्पुरं ब्रह्मणोऽपि ॥ १०४ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये
वीराङ्के आदिपर्वणि पाण्डवराज्यार्थलाभवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः ।
सप्तमः सर्गः। सेवध्वमध्वरभुजामपि सेवनीयं
पाराशरं मुनिमवाप्तयदङ्गसङ्गः । वर्णः शुचित्वमसितोऽपि तदाप केश___ व्याजेन येन शिरसा ध्रियते न कैः कैः ॥ १ ॥ अन्येयुरर्जुनहरी तपसस्तनूज__ मापृच्छय पौरपरिवारपरीतपाचौँ । जाते वसन्तसमये यमुनोमिबिन्दु
सिक्ताय खाण्डववनाय गतौ विहर्तुम् ॥ २ ॥ अन्तःप्रसृत्वरपतङ्गभवस्त्रेवन्ती
नीरप्रभाभिरिव नीरदनीलवर्णम् । आलोक्य खाण्डववनं पुरतो मुरारि
रानन्दकन्दलितगीनिजगाद पार्थम् ॥ ३ ॥ उल्लचितं च परितः परितापितं च
तिग्मांशुना कलितदुःखमिवान्तरिक्षम् । पश्येदमत्र यमुनाजलसीम्नि वेल्ल
द्वल्लीजटं वनमिषेण तपस्तनोति ॥ ४ ॥ वर्षाभ्रमादिव सुसंहतशाखिसंघ
शाखातिरोहितशशिद्युमणौ मयूराः । १. यमुना.
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७६
काव्यमाला |
सूर्यात्मजाजलगजध्वनितेन नित्यं नृत्यन्ति नादविधुरीकृत पान्थसार्थाः ॥ १ ॥ वन्येभकुम्भहृतमौक्तिकमिश्रगुञ्जा
संजातभूषणभराः शबरेन्द्रकन्याः । अस्मिन्विचित्रसिचयीकृत चित्रकाय
कायत्वचः पुरपुरंध्रिजनं हसन्ति ॥ ६ ॥ लीलावती मुखमिवेन्दुजयावदातं विद्योतमानमणिकुण्डलमण्डलेन ।
पश्य स्वभावशुभशोभमपीदमद्य
कांचिसन्त विभवेन बिभर्ति भूतिम् ॥ ७ ॥ क्रौञ्चप्रपञ्चितदरं ननु माधवस्य
पश्यावतारमतिमत्तशिलीमुखौघम् ।
येन व्यभूषि वनभूरपि मानसौकस्तोमेन शुभ्रकुसुमस्तबकच्छलेन ॥ ८ ॥ मन्ये प्रसूनभरसौरभवासलोभा
दात्मा व्यासारि सहसैव विहायसापि । अस्मिन्नपि द्युमणिवाहनवाहिवा है
ये चिरेण ववृधे दिवसैरवश्यम् ॥ ९ ॥ शङ्के वसन्तभरनिर्भरभासमान
सीमन्तिनी मुखमयूखभराभिभूतम् । पीयूषदीधितिममुं दयितं निरीक्ष्य
दुःखादमूर्दधति दुर्बलतां त्रियामाः ॥ १० ॥
ईदृग्वसन्त विभवेन यथा यथामी
प्रौढिं क्रमेण दिवसाः परिदर्शयन्ति ।
शङ्के त्रपापरिभवेन तथा तथैताः
यामा नवीनवनिता इव संकुचन्ति ॥ ११ ॥
१. चित्रकायो व्याघ्रः २. रात्रयः.
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१ आदिपर्व - ७ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दीर्घोऽपि दैर्घ्यमभजद्दिवसो बभार
काय कृशापि च निशा प्रिययोगभाजाम् । प्रौढोऽप्यधत्त लघुतां स पुनर्गुरुत्वं
क्षामापि सा समतनोद्विरहातुराणाम् ॥ १२ ॥ तापर्द्धिरुत्तरदिशि व्रजतो रराज राजीविनीयुवतिजीवितवल्लभस्य ।
काप्युत्कटा कवचितेव तदन्तराशा - वासित्रिलोचनविलोचनवह्निबाष्पैः ॥ १३ ॥
संतापिता इव खरैरविरश्मिभारै
स्तारा विहाय गगनं तुहिनांशुवध्वः । स्वेदोदबिन्दु पटलीकपटेन कान्त
भ्रान्त्येव चन्द्रवदनावदनानि भेजुः ॥ १४ ॥ उत्तेजयत्यनिशमेणदृशां मुखानि
कामायुधाय मधुरेष यथा यथोच्चैः । स्पर्धावादिव महांसि तथा तथाय
१ सूर्यस्य.
मुद्योतयत्यनुदिनं मृगलाञ्छनोऽपि ॥ १५ ॥ पुंस्कोकिले किमपि गायति सार्वभौमराज्याभिषेकमिव संतनुते स्मरस्य । अश्रान्तकान्तरत कौतुक जातखेद
-
स्वेदोदविन्दुभिरिह प्रमदामुखेन्दुः ॥ १६ ॥
विश्वत्रयं विजयते मकरध्वजोऽयमस्त्रीकृतेन मम कोमलकूजितेन । एनं तथापि कुसुमास्त्रमुशन्ति लोकाः पुंस्कोकिलोऽरुणितदृष्टिरिति क्रुधेव ॥ १७ ॥ आपत्य विन्ध्यगिरिसीमनि मूच्छितोऽयमभ्रंकषाग्रशिखरस्खलनेन वायुः ।
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७७
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७८
काव्यमाला ।
वन्येभदानसलिलश्रुतितालवृन्तयोगेन जीवित इवातिशनैरुपैति ॥ १८ ॥ ग्रासोन्मुखैः फणिकुलैरिव मारुतोऽयं वित्रासितो मलयजद्रुमबद्धवासैः । आयाति मन्दमिह 'गीतिविलासलोलावेणीर्विलोक्य सुदृशां भृशद्भियेव ॥ १९ ॥
विन्ध्यत्रिकूटमलयाचलकंदराभिः
पीतोऽपि तोषयति नः पवनः प्रसर्पन् । दोलाविलास चलकेरलकैरवाक्षी
वक्षोजवायुलहरीलयला लितोऽयम् ॥ २० ॥ आवाति पश्य शनकैर्मलयानिलोऽयं यहूननूतनविलोलवनप्रसूनः । अस्मिन्वियुक्तवनिताजनतापकारी
तद्वाणवृष्टिरसिको विलसत्यनङ्गः ॥ २१ ॥
तं विक्रमं वितनुते मलयानिलोऽयं कामस्य वीर इव मानिपताकिनीषु ।
येन द्विरेफमुखरास्तरवः शिरांसि
प्रीत्येव काष्ठवपुषोऽपि विकम्पयन्ति ॥ २२ ॥ दूरं गते त्वयि भवन्मुखसोदराणि संतापमत्र मलिनान्यपि धारयन्ति ।
मासः कृतोऽवधिरधीश स पूर्ण एव
संप्रत्यपि स्मरसि मां न कथं कथंचित् ॥ २३ ॥ पङ्केरुहव्यतिकरैरपि तापिताभि
सायमानघटिका घटिकागमाभिः ।
प्रातः प्रयाणचलितेषु मुहूर्त काले
संदिश्यते विरहिणीभिरिति प्रियेषु ॥ २४ ॥
१. 'गीत' ग. २. 'आयाति' क. ३. 'प्रीत्यैव' ग.
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(युग्मम्)
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१ आदिपर्व - ७ सर्गः ]
बालभारतम् ।
मञ्जीरमन्द्ररवमञ्जुमरालमालावाचालबालकमलकमया रयेण । कॢप्ते पदे मदवशेन वसन्तलक्ष्म्या किंकिल्लिवल्लिभिरलभ्यत पल्लवालिः ॥ २५ ॥
रक्तोत्पलप्रचितकुञ्चितकुञ्चिकाभै
रुत्फुल्लकिंशुकलताकुसुमैरमीभिः । उद्धाट्य किंचिदपि मानमयं कपाटं
कामो विवेश हृदि संप्रति दंपतीनाम् ॥ २६ ॥
सौभाग्यभाग्यमुररीकुरुते लतासु
सर्वासु चम्पकलतैव नितान्तमेषा ।
यस्या वसन्तरमणः कुसुमच्छलेन
भूषाभरं सुरभिभिः कुरुते सुवर्णैः ॥ २७ ॥ उत्फुल्लफुल्लमहसा हसति द्विरेफ
नादेन गायति विघूर्णति मारुतेन ।
सद्यः प्रपद्य सुमुखीमुखमद्यमद्य
धत्ते प्रमत्त इव कां बकुलो न लीलाम् ॥ २८ ॥
आलिङ्गितः कुरुबकाख्यत रुस्तरुण्या शक्रेमकुम्भकुचया सुरुचाभिसृत्य । इत्येष शेषधवलाभिरलाभि सद्यः
सौभाग्यकीर्तिभिरिव प्रसवप्रभाभिः ॥ २९ ॥
कामाकुलः खलु कटाक्षघटाः क्षिपन्तीमात्मन्यवेक्ष्य रमणीं रमणीयतार्थी ।
अह्नाय मूर्ध्नि कुसुमानि नवानि बन
न्प्रीतिं तनोति तिलकः किल कस्य नासौ ॥ ३०॥
७९
१. 'कङ्केलिः' इति साधीयान्पाठः, 'कङ्केल्लिरशोकः' इति 'जस्स कारणादो उक्खfuse बन्धणं far कल्लिपल्लवं -' इत्यादिलवङ्गिकोक्तिव्याख्याने जगद्धरपण्डिताः.
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८०
काव्यमाला |
कोऽप्येष कुंजकतरुर्घनसारधूपधूमोर्मिधूपिततनुर्धृतपुष्पमालाम् ।
गायन्मधुत्रतवधूमधुरा रवेण
वश्यीकरोति कुतुकीव वसन्तलक्ष्मीम् ॥ ३१ ॥
श्रीमद्वसन्तऋतुराजविलासभूमि
भ्रतिर्विभाति सहकारमहीरुहोऽयम् ।
स्थानप्रदायिषु षङ्गिषु कोकिलेय
मत्र प्रपञ्चयति कंचन पञ्चमं यत् ॥ ३२ ॥ मत्तेषु पश्य दयितारसविह्वलेषु पारावतेषु कृतकौतुककूजितेषु ।
एषा वसन्तपरिरम्भभरेण रम्भा
कामातुरेव मकरन्दरसं ददाति ॥ ३३ ॥ नव्यप्रसूनमिषतो नवमाधवीयं
स्वेदोदबिन्दुनिवहानिव हासयन्ती । सङ्गे वैसन्तकमितुर्घनचञ्चरीक
रोमाञ्चकञ्चुकितचारुतनुश्चकास्ति ॥ ३४ ॥
अद्याप्यजातकुचकल्पफला मिलन्त्यो मन्दानिलेन शिशुकेलिकलेन पश्य ।
कन्या इव स्फुरितनूतनपुष्पहासाः
क्रीडां मिथो विदधते नवनालिकेर्यः ॥ ३५ ॥
खर्जूरिकाविशदरेणुकणावलीभिरश्मालीकृततनूः पटलीरलीनाम् ।
प्रध्वानिनीर्मदनपुष्पमयेषुपङ्कि
कल्पाः कृताम्बरगतीः कति नानमन्ति ॥ ३६ ॥
व्यालोलमञ्ज रिभरः स्फुरितप्रसूनः
कस्योत्सवं हृदि ददाति न सिन्दुवारः ।
१. कुब्जकः सेवतीभेदः, 'सेवती पुष्पसाहस्रात्कुब्जकं पुष्पमुत्तमम्' इति नरसिंहपुरा
णम्. २ वसन्तकामुकस्य.
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१आदिपर्व-७सर्गः]
बालभारतम् ।
पुष्पायुधस्य नवकार्मुककाण्डभार
वाहीककिंकर इव त्रिजगद्विजेतुः ॥ ३७॥ पश्य स्वभावमधुराणि मधूकगुल्मा
गुञ्जन्मधुव्रतवधूनि मधूनि पीत्वा । उच्चैस्तरेषु कलितस्खलितः समीरो __ वात्येष मत्त इव हासितवल्लिपुष्पः ॥ ३८ ॥ किंकिल्लिपल्लवकरा स्मितपङ्कजास्या
कर्णीयकोकिलरवा मधुरा मधुश्रीः । आभाति मञ्जुलकुचाश्रयचन्दनाक्त
काश्मीरपत्ररचनायितपुष्पपङ्क्तिः ॥ ३९ ॥ आपत्य चम्पकधिया नवकर्णिकार
पुष्पेषु गन्धरहितेष्वपि चञ्चरीकः । प्रीतो मधूनि रसयत्ययमन्यपुष्प
सौरभ्यसंभृतनिजाननवासितानि ॥ ४० ॥ कौन्तेय पश्य वनसीमनि दूरकृष्ट
कालायसासितशिलीमुखचक्रवालः । पान्थान्विकम्पयति केशव किङ्किरातः । कोऽप्यत्र निष्कृपमना ननु 'किङ्किरातः ॥ ४१ ॥ शुभ्रप्रभे करुणिकाकुसुमे विभाति __ श्यामोऽथवारुणरुचौ नवकाञ्चनारे । इत्थं स्मरन्निव मुहुर्महनीयतार्थी __भृङ्गीपतिः स्फुरति तत्र च तत्र चायम् ॥ ४२ ॥ एलावने कुरुबकस्तबके प्रियाले
कैकोलके दमनके नवमालिकायाम् । १. अशोकः. 'कर्णावतंसीकृतकिङ्किरातैः' इत्युदारराघवम्. २. कामः. 'हेमालंकारभाभिर्भरनमितशिरःशेखरैः कैङ्किरातैः' इत्यत्र किङ्किरातस्य कामस्येमे कैङ्किराताः का. मिन इत्यर्थदर्शनात्. ३. 'कक्कोलके' इत्युचितम्.
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काव्यमाला।
पुष्पाणि जिघ्रति मुहुर्मधुपीभुजंगः
कामेन नुन्न इव बाणपरीक्षणाय ॥ ४३ ॥ सद्यो वसन्तभरफुल्लितफुल्लमल्ली___ संभारसौरभमिलत्पवने वनेऽस्मिन् । कुन्तीतनूज ननु जन्म च जीवितं च __रागेण नागरजनस्य कृतार्थयावः ॥ ४ ४ ॥ इत्युक्तिसंमदवशीकृतचित्तवृत्ती
कृष्णार्जुनौ परिजनेन समं समन्तात् । तौ निन्यतुः सफलतां वनमण्डलानि
लीलारसेन मधुना मधुरीकृतानि ॥ १५ ॥ खेलाय खाण्डववनाय ततो युवान__ श्वेलमधूत्सवरसेन वधूसहायाः । पूर्वप्रयुक्तनयनद्वयकृष्यमाणा ___ मन्ये विलासमदभारभृतोऽतिमन्दम् ॥ ४६॥ अद्य त्वदेकहृदयो हृदयाधिनाथ__ श्चाटुक्रियाभिरनुकूलयते सखि त्वाम् । मुञ्चाभिमानमिदमान्तरलोचनेन ___ मुग्धे विचारय वचो मम मानयैनम् ॥ ४७ ॥ स्वच्छे न वेत्सि किमु चाटुपटुं सपत्नी
प्रायो भवन्ति पुरुषाः खलु चाटुसाद्याः । चेदुत्सवेऽद्य स करिष्यति खेलनानि
सार्ध तया किमयशःपटहो न तेऽसौ ॥ ४८ ॥ किं चान्यभृयुवतिकूजितपञ्चबाण__ बाणासनक्कणितरौद्रदिगन्तराणि । एतानि तानवितमानवतीमनांसि
वत्से मधूत्सवदिनानि सुदुःसहानि ॥ ४९ ॥ १. 'तनुजन्म' ख-ग.
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१आदिपर्व-७सर्गः]
बालभारतम् ।
सेयं दशापि तव तप्ततनूविवर्त
संवर्तमर्मरितबालमृणालशय्या । तुभ्यं सदैव नलिनानि समानयन्ती
लोकेऽपि कोपिनि बभूव निरुत्तराहम् ॥ ५० ॥ एषा पदे निपतितामि कुरु प्रसाद
मद्यास्तु ते रिपुजनो विफलाभिलाषः । इत्थं विचक्षणसखीवचनानुरोधाप्राणाधिनाथमनुकूलयति स काचित् ॥ ५१ ॥
(पञ्चभिः कुलकम्) रन्तुं परः करयुगेन गृहीतपाद
पद्मः सृजन्ननुनयानभिमानवत्याः । उत्पत्य दीनवचनोऽप्यनिरीक्ष्य वक्र
तस्याः शुशोच कुचगौरवमप्यभीष्टम् ॥ १२ ॥ यस्या ध्वनिर्मम गिराप्युपमीयते सा
स्यात्कीदृशी पिकवधूः सखि दृश्यमेतत् । इत्युक्तिकैतववती वनमाप कापि
पूर्व गतेऽपि दयितेऽनुनयान्निरस्ते ॥ ५३ ॥ प्रौढागसापि दयितेन पदप्रणाम___ लीलावतापि रचितं बत गोत्रभेदम् ।
तं काचिदश्रुतवतीव मनोभवज्या__टंकारराववेलिता चलिता वनाय ॥ १४ ॥ एषा कथं परिहरिष्यति मानमित्थं
चिन्तानिधिर्नतमुखो विलिखन्धरित्रीम् । उद्दामकामशरपीडितया कयापि
कान्तो नितान्तमनुनीय वनाय निन्ये ॥ ५५ ॥ १. 'मानेन' क. २. 'परिवृढेन' ख-ग. ३. 'तत्' क. ४. 'मनोभुवि' ग. ५. 'कलितें ग.
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काव्यमाला।
कश्चित्नियामनुपतन्नितरामुरोज___ संस्पर्शलालसमना विततैः करात्रैः । आसादयद्गुरुतदीयनितम्बबिम्ब
दूरीकृतो बत कथंचन बाहुमूलम् ॥ ५६ ॥ खेदं सखीषु गमनादभिनीय काचि__ दाकाङ्गितौ रसवशादवलम्बनाय । ताम्यद्भुनापि पुरतः कुचपूरदूर
नुन्नस्य वर्त्मनि न भर्तुरवापदंसौ ॥ १७ ॥ दूरादुपेत्य पुरुषायितलाघवोत्थ
वेगादनुप्रथितमन्दपदामजानन् । वल्लीविलग्नवसनव्यसनच्छलेन
प्रीत्यैक्षत प्रणयिनीमपरो मुधैव ॥ १८ ॥ उच्चैनितम्बकुचडम्बरभारभुन्ना
लीलावती किमपि मन्दपदं जगाम । एवंविधामपि सदैव हृदा दधानः
कान्तोऽन्वगादतिशनैरिति युक्तमेव ॥ १९ ॥ तादृग्वसन्तसमयस्पृहणीयमेव
दोलासुखं रतिपतेरपि पूरयन्ती । आलम्ब्य काचन करेण करं प्रियस्य
लीलाविलोलभुजमिन्दुमुखी जगाम ॥ ६॥ विष्वग्विलासवनगुल्मलतागताना
मेणीदृशामसमभासुरभाभिरास्यैः । उल्लासिभिः कुसुमितः शुशुभे वसन्त
श्चन्द्रैरिवायुधकृते कुसुमायुधस्य ॥ ११ ॥ एणीदृशस्तनुतिरस्कृतजातरूपा
नानामणिप्रवणभूषणभासमानाः । १. नितमां' ग. २. व्यसनमुन्मोचनम्. ३. जातरूपं सुवर्णम्.
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१ आदिपर्व - ७ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दोला कौतुकवनीपृथुकर्णपाशलोलासु कुण्डलितुमीषुरुदारभासः ॥ ६२ ॥ भर्ताधिरोपयति यावद्दश्य दोर्भ्या तावद्वधूरधिरुरोह रयेण दोलाम् । अभ्यस्तनित्यपुरुषायितलाघवानि
श्रोणिस्तनोन्नतिनताप्यभिदर्शयन्ती ॥ ६३ ॥
प्रेङ्खोलने परिवृढेन कुतूहलेन
काप्यध्यरोषि रमणी समुदस्य दोर्भ्याम् । दूरास्त्रपातबलसंभ्रमभाजि यन्त्रे
शस्त्रं जगत्रयजितेव मनोभवेन ॥ ६४ ॥ दोलाधिरोहपरयापरया प्रियस्य
पृष्ठे न्यधीयत पदं यदलक्तकाङ्कम् । पञ्चाङ्गुलीपरिचितेन स तेन पृष्ठ
रङ्गनिषङ्ग इव पञ्चशरो विरेजे ॥ ६५ ॥ दोलाधिरोपकृतये रभसादुदस्य
कोऽपि प्रियां कृशतरो दरबद्धमुष्टिः । त्रासातुरं स्मरजितापि मृणालधन्वा
नन्वात्तवज्रजयशक्तिरिवाशशङ्के ॥ ६६ ॥
दोलास्पृशां मृगदृशां वदनानि रेजुर्दण्डावलम्बनतबाहुयुगान्तराले ।
सद्यो मृणालजनितेषु शरासनेषु
बाणीकृतानि नलिनानि मनोभुवेव ॥ ६७ ॥
किंचिन्नतस्फुरितपृष्ठतताग्रपादं
लोलालकं रणितने पुरकङ्कणादि ।
नृत्यन्नितम्बमुपविष्टरतानि दोला
लीलायितं स्मरयति स्म नितम्बिनीनाम् ॥ ६८ ॥
१. 'चाङ्ग' ग. २. 'कङ्कणनूपुराणि' क.
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काव्यमाला |
उच्चैर्गतित्रुटितहारलतासमुत्थमुक्तावृतः क्षणमलक्षि मरुत्पथोऽपि । स्वेदोदबिन्दुपरिपूर्ण इवाङ्गनानां दोलाविलासकलया प्रहतः पदायैः ॥ ६९ ॥
दोला लाविलसितेन विलासिनीनां मत्वा वशां त्रिजगतीमपि पञ्चबाणः । मिल्लतः थतराद्रभसेन तासा
माकृष्य तूणत इव प्रसवान्यमुञ्चत् ॥ ७० ॥
प्रेङ्खोलनेऽम्बरतेऽप्यतिधाष्टर्यमुक्तयष्टिग्रहाद्रुतविनिर्मितहस्तताला ।
अत्रासयन्मृदुलगीतिभिरापतन्तं
काचिद्विधोर्मृगमिवास्यकलङ्कभीत्या ॥ ७१ ॥
दोलागतेन गगनाग्रमवाप्य शोणं
कस्याश्चन क्रमयुगं विनमद्विलोक्य | भानुर्न्यधत्त नयनं निजपाणियुग्मे
लीलासरोजयुग लीगलनभ्रमेण ॥ ७२ ॥
यष्टिग्रहव्यतिकरेण करेण सज्जी
कर्तुं तताङ्गिललितं वसनं न शक्ताः । ऊर्ध्वा बभूवुरिति केलिकुतूहलाय
दोलाकलासु कुशलास्तरलायताक्ष्यः ॥ ७३ ॥
स्वच्छाद्भुतस्फटिकरत्नविनिर्मितासु
दोलासु निर्मलतया स्फुटमस्फुटासु ।
ऊर्ध्वाः स्त्रियो निरवलम्बनमम्बरान्तः खेला इव त्रिदशचारुदृशो विरेजुः ॥ ७४ ॥ आसीत्परस्पर परिक्रमणानुभावै
र्यः स्वेदबिन्दुविसरः किल दंपतीनाम् ।
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१आदिपर्व-७सर्गः]
बालभारतम् ।
सोऽपि व्यलोपि शिशिरेण तदा विलोल
दोलाविलाससुलभेन समीरणेन ॥ ७९ ॥ दोलागतागतविनोदरसेन गीतं
प्रापञ्चयन्त सुदृशः श्रितपञ्चमं यत् । तस्य प्रतिध्वनिरिवोपवनाश्रयाणा___मश्रावि कुण्ठकुहरेषु कुहूकरीणाम् ॥ ७६ ॥ साध्यं न मन्मथशरैरपि यत्तदेव ___ मात्सर्यमाशु गलहस्तयितुं प्रियाणाम् । रेखामिषाद्विनमनोन्नमनेन रत्न
प्रेङ्खोलनैर्विदधिरे ध्रुवमर्धचन्द्राः ॥ ७७ ॥ दोलाविलासकुतुकोद्भुरकृष्णपार्थ
वीरावलीसरलपादहतं तदैव । स्पष्टान्तरान्तरपरिस्फुरिताम्बुवाह___ मद्यापि जर्जरमिवाम्बरवर्त्म भाति ॥ ७८ ॥ दोलाचलघुवमिषेण सहस्रमूर्ती__भूय स्वयं स्मर इव स्मृतपूर्ववैरः । व्यालोलहारमिषकौसुमचापधारी
धाटीकृते पुररिपोर्दिवि धावति स्म ॥ ७९ ॥ सद्यः स्फुरत्तरलकातरदृग्विलोक
स्वेदप्रकम्पपुलकोद्मविभ्रमाणाम् । पार्थोपवेशललिते दयिते वधूनां .
दोलाधिरोहभयमेव मिषं बभूव ॥ ८० ॥ स्वेदोद्मव्यतिकर श्लथितानि यष्टि
मुष्टिग्रहे करतलानि वधूसखानाम् । दोलागतागतधुतद्रुममौलिपुष्प
श्रेणीपरागपतनेन दृढत्वमापुः ।। ८१ ॥ १. कोकिलानाम्,
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८८
काव्यमाला |
प्रेङ्खोलनान्यतुलखेलनधूतशाखिपुष्पच्युतैर्मधुरसैः स्तिमितानि बाढम् । साक्षादशक्यललितानि विमुच्य चक्रुश्वेतः क्रुधेव कुसुमावचये युवानः ॥ ८२ ॥ प्रागुत्तीर्णप्रियतमभुजाडम्बरालम्बलोला
दोलासौख्यं क्षणमकलयन्नुत्तरन्त्योऽपि नार्यः । सद्योऽभ्यासप्रबलमबलाचक्रवाले समन्ता
दप्युत्तीर्णे न चिरममुचलौलभावं च दोलाः ॥ ८३ ॥ वीराः पार्थमुकुन्दयोरथ वनोत्सङ्गे कुरङ्गीदृशां विव्वोकैर्ह्रियमाणमानमनसो मन्दं विलेसुर्मुदा । एभिर्विग्रहरूपविग्रहधरैः सार्धं वितन्वन्निव
स्पर्धा मत्र मनोभवोऽपि ललितं चक्रे रतिक्रीडनैः ॥ ८४ ॥ इति श्रीमनिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये आदिपर्वणि वसन्तवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः ।
अष्टमः सर्गः ।
अहो महत्त्वं वचसामगोचरं प्रपञ्चयकृष्णमुनिः पुनातु वः । भवार्णवोऽप्येष विशोषमेति यत्पदद्वयीरेणुकणैरपि क्षणात् ॥ १ ॥ रथाङ्गपार्थानुचरैरथ द्रुमा नवप्रवालप्रसवग्रहाशयैः । भूरीभवत्पल्लवपुष्पवैभवा इति व्यचीयन्त कराङ्गुलीनखैः ॥ २ ॥ लतासु लातुं लसिते मृगीदृशां घनध्वनत्कङ्कणसंकरे करे | द्रुतोत्पतिष्णुभ्रमरी भरैर्मयादिव प्रसूनैरुदनामि दूरतः ॥ २ ॥ विलूयमानानि मुकुन्दकामिनीजनेन लीलाविपिनान्तवल्लिषु । पुष्पाणि तत्पाणिजपाटलप्रभाटोपानि कोपादिव शोणतां ययुः || ४ || निजप्रियाणामिव वश्यताकृते परस्परं दंपतिभिः ससंमदैः । जवादवाचायिषत स्वपाणिभिः पुष्पाणि बाणार्थमनङ्गधन्विनः || ९ || बहून्नमन्त्यः कुसुमेच्छया मुहुर्मुहुर्नमन्त्यश्च नितम्बभारतः । स्त्रियः प्रियाण्यूर्ध्वरतानि रागिभिः स्मरस्मयस्मेररसैरसस्मरन् ॥ ६ ॥
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१ आदिपर्व - ८ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दूरादाने कुसुमानि कामुकेऽभिधाभिदि प्रौढलताकृतस्थितौ । तान्येव तस्मिन्मदनास्त्रतां ययुः श्वासानिलैर्व्याघुटितानि सुभ्रुवाम् ||७|| तन्वीं तनूतुल्यतया लताततौ पुरः स्फुरन्तीमविभाव्य वल्लभः । क्षिप्ता प्रसून स्तबकभ्रमात्करं कुचौ स्पृशन्नेव दधार दक्षताम् ॥ ८ ॥ प्रियस्य पुष्पाय लताधिरोहिणः पदाङ्गली निम्नशिखावलम्बिनी । अलब्धपूर्व करजक्षतोत्सवं मृगीदृशालभ्यत पल्लवभ्रमात् ॥ ९ ॥ द्रुमाधिरूढे कुसुमं प्रयच्छति प्रिये गिरा कोमलयाभिभाषिणि । नवीन वध्वाः पुलकप्रकम्पयोर्गलन्मरन्दाभिगमोऽभवन्मिषम् ॥ १० ॥ लूने प्रसूने मधुपस्तदाश्रयः श्रयन्मुखानं रणितं चकार यत् । भियाभिषिक्तः प्रथमं नवोढया वोढास्मरन्मङ्गलगीतमेव तत् ॥ ११ ॥ अलि विलूनात्प्रसवादुपागतं कयापि वित्रासयितुं विदग्धया । करः क्वणत्कङ्कणकं न कम्पितो विलोलयालिङ्गि भियेव वल्लभः ॥ १२ ॥ शुचिस्मिताः पुष्पितवल्लिविभ्रमादुपेयुषी षट्पदपद्धतिर्वधूः । विकम्पयन्तीरपि ताः करौ भयादियं मुदा पल्लविनीरमन्यत ॥ १३ ॥ मुखाद्वहिलम्बिनि सुभ्रुवां स्मिते समेत्य दूरादलयः सुमभ्रमात् । कृतोपवेशा द्रुतबद्धपक्षति क्षितौ पतन्तो दधिरे यदि स्तनैः ॥ १४ ॥ प्रियेण मुक्ते कुसुमोत्करेऽन्तरान्यतः सपत्नीश्वसितैरपीरिते । मुदा स्फुरत्पुष्प इवैक्षि सज्जितो निजस्मितस्मेरतलः करोऽन्यया ॥ १९ ॥ परस्परालोकनमग्नचेतनं करादजानन्गलितानि पूर्वतः । वृथा प्रसूनानि ददौ प्रियः प्रिया वृथा गृहीत्वैव शिरस्यरोपयत् ॥ १६ ॥ कराग्रकर्षेण वधूमपि द्रुमेऽधिरोपयन् कोऽपि विकम्पितः पतन् । हारेण शाखाग्रविलम्बिना रसस्तम्भीकृतश्वासलघुश्चिरं धृतः ॥ १७ ॥ स्मरातुरः कश्चन दूरचुम्बनानुकारलीला मिलदोष्ठसंपुटः । प्रियामुखे पुष्पलयोन्मुखे समं तदेव तेन्वत्यतिसंमदं दधौ ॥ १८ ॥ युवा विचिन्वन्कुसुमानि वृक्षतः पपात पश्यन्नपरामचेतनः । अघानि पादेन ततो विदग्धया धृतकुधा निर्दयमेव कान्तया ॥ १९ ॥
१. 'पथि' इति साधीयान्पाठः २. 'तन्वन्नतिसंमदं' इत्युचितम् .
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काव्यमाला।
चिरं प्रियाया मुखमीक्षितुं प्रिये पुष्पाण्यमुञ्चत्यपि कम्पतोऽपतत् । अजानती तानि पतन्ति संमुखी न सापि चक्षुः प्रियचक्षुषोऽकृषत् २० अपि प्रसूनेषु नखक्षतं प्रिये सृजत्यसूयां विदधे मनस्विनी । भृङ्गोऽपि पुष्पावचयोत्थितः पिबन्प्रियामुखाजं रसिनाप्यसूयत ॥२१॥ भृङ्गेण दष्टो नवपल्लवभ्रमादुपेत्य दूरादधरो मृगीदृशः। विषव्यथां हर्तुमिव स्वयं रयादुपालि पीतो दयितेन धीमता ॥ २२ ॥ प्रिय प्रयच्छेदमतीव मञ्जुलं प्रसूनमित्युक्तिभिरुच्छ्रिताङ्गुलौ। लतोन्मुखायां सुदृशि द्रुतं पपौ परः परस्याश्छलबन्धुरोऽधरम् ॥२३॥ रहः समालिङ्गय परां परोऽन्यतः परागरज्यन्नयनां समागताम् । क्रुद्धेति दीनोऽनुनयन्वयूं मृषा कृतागसं खं स्वयमप्यजिज्ञपत् ॥२४॥ प्रसूनपाताद्गलदश्रु सुभ्रुवो विलोचनं कूकृतिकारिकामिषात् । अचुम्बदच्छन्नमिवाच्छवाससा पिधाय कच्चिच्चतुरः स्मरातुरः ॥ २५ ॥ रुग्णे रजोभिः प्रियदत्तपुष्पजैरङ्गे कृशाङ्गयाः परिमार्जनोद्यतम् । शुशोच निःश्वासमपि प्रसृत्वरं निजं सपत्नीसविधे कृतस्थितिः ॥२६॥ अवाप्य कस्याश्चन कण्ठकन्दलं प्रदत्तया चित्तहरेण मालया। मुदेव नृत्यं विदधे विलोलया मुहुः सपत्नीश्वसितोर्मिनुन्नया ॥ २७ ॥ रजोऽवकीर्ण दयितेन कौसुमं परां यदालिङ्गितुमङ्गनादृशि । तदाशु निःश्वासभरेण निघ्नती हहात्मनि द्रोहमपि व्यधत्त सा ॥२८॥ निशम्य तृप्ताममुनाभिधाभिदा मदर्पणेऽसौ त्यजदाशु मा स्म माम् । प्रियेण वध्वा हृदि रोपिता व्यधादितीव माला तुमुलं चलालिभिः २९ रसोत्थकम्पेन न पारितः स्रजा धम्मिल्लबन्धो दयितेन सुभ्रवः । मुधा सपत्न्या मुमुदे न मूढया तमात्मभीतं हृदि मन्यमानया ॥ ३० ॥ अन्या कटाक्षाहतिभीगलत्करः स्फुरद्रसोऽसाविति शङ्कमानया । धम्मिल्लबन्धप्रगुणः प्रियः स्त्रिया चिरं चुचुम्बे वलिताननं मुदा ॥३१॥ चुम्बाय धृत्वा चिबुकं विवर्तिते वेगेन वक्रे किल कापि किंनरी । धम्मिल्लबन्धे कुचसंगते बभौ हयास्यतुल्ये कुसुमालिगायिनि ॥ ३२ ॥ १. 'अनुगेन' क-ख.
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१ आदिपर्व - <सर्गः ]
बालभारतम् ।
उरःस्फुरन्माल्यभृतः सुमावलीपरीतधम्मिल्लपरार्ध्यपृष्ठकाः । सचापतॄणा इव पुष्पधन्वनश्चमूचरा दंपतयो विरेजिरे ॥ ३३ ॥ वधूवराणां वपुषि प्रसूनजैर्वृते रजोभिः श्रमवारिपङ्किले । हतद्विषन्मानमहाबलो बली मुदं दधौ मन्मथमत्तसूकरः ॥ ३४ ॥ प्रसूनरेणुप्रकरा वनान्तरे मृदुस्फुरद्वायुविवर्तनर्तिताः । वधूजनस्पर्शकृतोत्सवा बभ्रुर्दिवाकरस्येव करा विकम्पिनः ॥ ३९ ॥ प्रियेण वध्वाः श्रमधर्मभेदिभिः पटान्तवातैः प्रेमदाश्रुशीतलैः । वृथा कृतस्नेहभरस्थितिर्दुतं हतः सपत्न्यामभिमानदीपकः ॥ ३६ ॥ मरुत्कृते चालयितुं पटान्तरं स्वयं भुजंगे प्रणयादनीश्वरे । अघानि कस्याश्चन धर्मजं पयस्तदा सपत्नीश्वसितैः खरैरपि ॥ ३७ ॥ सरोजबन्धुर्न लिनद्विषन्मुखानतापयद्युक्तमहो वधूवरान् । इमेऽपि युक्तं तपनात्मजां तदा बभूवुरालोडयितुं समुत्सुकाः ॥ ३८ ॥ वनान्तराद्दंपतयो विभूषणप्रसूनमालामिलितालिमण्डलाः । तीव्रांशुतप्ताः पयसेऽचैलँल्लताजुषो गता जङ्गमता इव द्रुमाः ॥ ३९ ॥ प्रसून सर्वस्वमुदारविग्रहे स्वयं गृहीत्वा चलिते वधूजने । चेलुश्छलायेव सहैव शाखिनः शिखिच्छदच्छत्र कदम्बदम्भतः ॥ ४० ॥ रवौ प्रतीचीजुषि कोऽपि धारयञ्ठः पटीं मूर्धनि मुग्धसुभ्रुवः । छन्दानुवृत्त्या जलधेरिवासितच्छविं युवानो यमुनामलोकयन् ॥ ४१ ॥ अथो रथाङ्गैश्चलचन्द्रघाटिकाभयान्यभात्यन्त मुखानि योषिताम् । मरालबालैः सुविहारवारिजत्रजप्रमोदाद्यमुनाजलस्थितैः ॥ ४२ ॥ समापतत्तुङ्गतरङ्गसंगताद्भुत प्रतिच्छन्दमिषेण योषिताम् । कृतस्थितीनां तटिनीतटे रयादभ्युत्थितं चक्रुरिवाम्बुदेवताः ॥ ४३ ॥ अमुत्र मा भैष्ट पुरोऽपि सुभ्रुवः सृजन्ति केलि लहरीषु पश्यत । इति प्रतार्य प्रतिबिम्बदर्शनादवीविशत्कामिजनोऽङ्गना जलम् ॥ ४४ ॥ पयांसि नाभिद्वयसान्यपि द्रुतं जनातिरेके ययुरंसन्नताम् । ह्रियेव मग्ने निजपङ्कजव्रजे मुखानि राजीवयितुं मृगीदृशाम् ॥ ४९ ॥ १. आनन्दाश्रुशिशिरैः २. 'चललताजुषः ' ग. ३. नाभिप्रमाणानि प्रमाणे द्वयसच्.
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प्रदत्तकम्पेषु तटाद्विलासिषु प्रणादभागुच्छलति स्म यज्जलम् । तन्नूनमाह्वानविधिं व्यधत्त तत्तदानुकम्पामनसां मृगीदृशाम् ॥ ४६ ॥ जनार्दनो मण्डनरत्नमण्डलीसमुज्वलः कज्जलमञ्जुलद्युतिः । कलिन्दपुत्र्या हृदये रसस्पृशि स्थितो धुनीजानिरिवाङ्गवान्बभौ ॥ ४७ ॥ स्फुरत्करोल्लासितवारिशीकरौ नदीजले लूनसरोरुहौ मुहुः । अखेलतामञ्जनमञ्जुदीधिती रथाङ्गपार्थो विपिनद्विपाविव ॥ ४८ ॥ आमौलि सर्वाङ्गविलासलीलया मुदा मुकुन्देन रसेन लालिता । कराहतिस्फारितफेनसंपदा तदाहसद्विष्णुपदीं कलिन्दभूः ॥ ४९ ॥ विलासकारी यमुनाजलान्तरे हरिः स्मरन्बालविहार कौतुकम् । तदा मेदामात्यविवेकयन्त्रितं स्वमाधिपत्येऽपि न बहमन्यत ॥ ९० ॥ तदा महामोदविलासभासुरान्विलोकयन्तौ कुतुकेन दंपतीन् । तरङ्गिणीपाथसि पार्थकेशवौ कृतार्थयामासतुरक्षिणी क्षणम् ॥ ५१ ॥ क्रीडासु पाणिप्रसरेण मुञ्चतः सदम्भमम्भांसि निषेद्धुमक्षमा । काचित्प्रियस्योरसि वक्रपङ्कजं ररक्ष दक्षा विनियोज्य रागिणी ॥ १२ ॥ अनीश्वरा जेतुमनन्तकैतवं पयोविलासैर्दयितं विलासिनी । कठोर वक्षोरुह कोटिभिर्मुहुर्जघान धन्यं रुषितेव वक्षसि ॥ १३ ॥ मिथः समालोकनभिन्नचेतसो रसात्प्रियावल्लभयोः कयोश्चन । अव्यापृतं तज्जलमञ्जलौ सृतं रुरोद निःस्यन्दिभिरेव बिन्दुभिः || १४ || सरित्तरङ्गेऽभिमुखाभिपातुके निजौ निरीक्ष्य प्रतिबिम्बितौ स्तनौ । प्रसर्पदम्भःकरिकुम्भशङ्कया कयाचिदाश्लिष्यत भीतया प्रियः ॥ ५५ ॥ आकण्ठनिर्मग्नतनोर्मृगीदृशः श्वासोमिसौरभ्यमिलन्मधुव्रतम् ।
जने सरोजं व्यपदिश्य रागवानचुम्बदाघ्राणमिषान्मुखं मुहुः ॥ ९६ ॥ राजीवराजीविपिने विलासिभिर्विलासकौतूहलतो विमर्दिते । मृगीदृशामाननपद्मकाननकोडेषु विक्रीडितमब्जवासया ॥ ५७ ॥ परस्परोदस्तजलौघलीलया नया प्रियेषु प्रहताक्षिवर्त्मसु । चिक्रीडतुः कौचन दंपती तदा दक्षौ समालिङ्गनचुम्बनोत्सवैः ॥ ९८ ॥
१. 'नु झम्पा' ख - ग. २. 'महा' क ख ३. 'मनस्विनी' ग.
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१ आदिपर्व - ८ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दधौ प्रक्षिप्तजलोक्षिता मुहुर्हगजमुच्चैरसितं च कापि यत् । विलस्य कोपेन तदा तदीर्ष्यया स्वयं सपत्नी विदधौ तदैव तत् ॥ १९ ॥ कदाप्यसंभावितविभ्रमेऽम्भसा प्रियेऽभिषिञ्चत्यपि नामभेदतः । संवृत्तरागा सहसा प्रवृत्तितो मुदं दधौ काप्यपरा चुकोप च ॥ ६० ॥ हमार्गमागत्य विवृद्धमत्सरा मिथः सपत्न्यो बहुशः स्मृतागसः । स्वस्वक्रुधैकं सलिलाहतैः समं व्यधुर्विलासिस्पृहणीयमाकुलम् ॥ ६१ ॥ चिराय पर्याकुलया जलोक्षणैः क्षणात्कृतं साचि कयाचिदाननम् । नाबोधि सिञ्चन्सममोहितो युवा पश्यन्पुरः कर्णवतंसवारिजम् ॥ ६२ ॥ सरोरुहिण्यन्तरिता मुहुर्मुहुः सिञ्चन्तमजं स्मितमाननभ्रमात् । कुतूहलोत्तालमना मनःप्रियं पयःप्रवाहैर्विधुरं वधूर्व्यधात् ॥ ६३ ॥ प्रियोरसि प्रेमतरुं सखीरिता मुग्धा नवोप्तं चुलुकाम्भसासिचत् । नेत्राञ्जलिभ्यां हृदि शोकमत्सरद्रुमौ परा तत्क्षणरोपितौ पुनः॥ ६४ ॥ तदाङ्गनानामिव लोजनाञ्जनैस्तथाजनि श्यामजला कलिन्दभूः । यथा तदा श्लेषवशादिवाभजन्निजं तदर्णः शितिवर्णमर्णवः ॥ ६९ ॥ ससंभ्रमाश्लेपलगद्विलेपनं कुचाग्रमारुह्य रसान्मृगीदृशाम् । सद्यः प्रलीनोऽपि पुनर्नवोऽभवन्मुहुस्तरङ्गस्तरलैर्वनानिलैः ॥ ६६ ॥ सरागदृग्भिस्तरुणीभिरापतन्निहन्यमानोऽपि मुहुश्च पेटया । उत्फेनभासा प्रजहास चञ्चलः शठोऽपराधीव तरङ्गसंचयः ॥ ६७ ॥ विमर्दिताम्भोरुहकेसराङ्कुरैः परिस्फुरत्फेनलवालिमारुतैः । विलासिनीनव्यविलासतो बभौ सस्वेदरोमाञ्च इवोर्मिसंचयः ॥ ६८ ॥ मदङ्कमुन्मुच्य बहुकृताकृतिर्विधुर्दधौ क्रोडगताः कुमुद्वतीः । इतीव सिन्धूत्थितपातिशीकरैद्यः कैरवाक्षी मुखवीक्षयारुदत् ॥ ६९ ॥ रोमाञ्चदण्डान्तरगैर्मृगीदृशां नखक्षतैः स्नानपरिस्फुटीकृतैः । तीव्रार्धचन्द्रायुधमञ्जुलैर्जगज्जयाय दर्प विततान दैर्पकः ॥ ७० ॥ विस्रस्तधम्मिल्ललगप्रसूनकप्रभ्रष्ट मालामिषतो मृगीदृशाम् । विमुच्य कामः शरचापसंमदं मदेन तासां ललितान्यशिश्रियत् ॥७१॥ १. जलम्. २. 'मृगीदृशः ' क. ३. कामः.
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काव्यमाला।
गङ्गां पयोगौरतया मदस्पृशं तां ताम्रपणीमपि मौक्तिकश्रिया । तदा विजग्ये यमुना वधूकुचस्थलीगलचन्दनहारहारिणी ॥ ७२ ॥ कनीनिकाकान्तिभिरञ्जनं दृशोः स्मितत्विषा चन्दनचर्चनं हृदः । कटाक्षभाभिनवमुत्पलं श्रुतेस्तदा वधूनामिति भूषणान्यभान् ॥ ७३ ॥ वधूवराणां जलखेलनोत्सवैस्तदा प्रवृद्धो हृदि रागसागरः । यथा समुद्भान्त इव व्यलोक्यत क्षणेन रज्यन्नयनच्छविच्छलात् ॥७४॥ मुखद्विषीवाजवने वधूजनैलूनेऽरुणः क्रुद्ध इवाजबान्धवः । ययौ तटं तोयनिधेस्तदाननस्पर्धार्थमुत्साहयितुं सुधाकरम् ।। ७५ ॥ रुचिप्रियाभिः सह कान्तिकामुके विलस्य निर्याति नभःसरोवरात् । समं समन्तान्निजकामिनीजनै वाधुवानोऽपि निरीयुरम्भसः ॥ ७६ ॥ शनैर्विनिर्गच्छति कामिनीजने बभूव जानुद्वयसं तदा पयः । प्रवृद्धिहेतूचनितम्बनिर्गमात्स्वेनापसृत्याजनि तीरगं तदा ॥ ७७ ॥ गतासु कान्तासु तदा तदाननप्रभाभवद्भर्त्सननिर्भयैरिव । क्रीडाप्रवृद्धोदकनाशिभिर्मुदा स्फुटीबभूवे सरिदजकाननैः ॥ ७८ ॥ नितम्बिनीनां वदनेन्दुसंपदा पश्चात्कृतैर्विस्तृतकेशकैतवात् । गलत्पयोबिन्दुकदम्बकच्छलाच्चिद्वैरिवान्तर्व्यथितैररुद्यत ॥ ७९ ॥ आम्रज्यमानेऽपि धवैर्वधूतनोविच्छोटिते क्लेदिनि चीवरे हठात् । अस्यां दृढाश्लेषणमन्यवाससा तेने सुतारुण्यदशाभृतां कभीः ॥ ८० ॥ मौलौ पाटलपुष्पदाम घटना सीमन्तसीमान्तरे
सिन्दूरप्रसरो ललाटफलके माञ्जिष्ठरत्नाङ्कुरः । गण्डे कुङ्कुमपत्रवल्लिरधरे लाक्षारसस्थापना
कर्णे पङ्कजकर्णिकेति सुदृशां संध्याभासोऽभवत् ।। ८१ ॥ संध्याशोणतरे रविच्छविभरे मूर्तेऽनुरागार्णवे
मन्ना दंपतयो निशागमसमुत्कण्ठां च रन्तुं व्यधुः। १. 'आकाशरूपतडागात्स्वप्रभारूपकामिनीभिः सह विलासं कृत्वा निर्गच्छति भास्करे' इति तात्पर्यम्. २. 'आप्रेज्यमाने' ग. ३. 'मूर्तानुरागार्णवे' ग.
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१आदिपर्व-९सर्गः] बालभारतम् ।
सद्यः स्नातनिशाकरान्वयमहावीरद्वयीदीधिति
व्यालोकेन तेदात्वजाततिमिरभ्रान्त्या च भेजुर्मुदम् ॥ ८२ ॥ ' इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के आदिपर्वणि पुष्पावचयजलकेलिवर्णनो नामाष्टमः सर्गः ।
नवमः सर्गः। कृष्णमानमततं महामुनिं यत्पदद्वयनखांशुभासुरः। भुक्तिमुक्तिरमणीशिरोमणीभावमावहति को न कोविदः ॥ १ ॥ भानुमत्यपरसानुमच्छिरःसंमुखेऽथ खलु मार्गखेदिनी । सौधमौलिशिखराग्रशेखरे रुक्मिणीरमणमाह फाल्गुनः ॥ २ ॥ आवहन्निव दिवाकरस्त्वया द्वेषमेष हरिनामसाम्यतः। त्वां निरूप्य गुरुसौधशेखरं पश्चिमाचलशिरोऽधिरोहति ॥ ३ ॥ एष दुनियतिदण्डचण्डिमप्रेरितो बत रविर्गतच्छविः । स्थास्यति स्वयमतः पतन्कियत्कालमम्बरविलम्बिभिः करैः ॥ ४ ॥ हन्त संतमसमण्डलीसुहृत्पांसुलाकटुकटाक्षयष्टिभिः । प्रेर्यमाण इव पश्चिमाचले निष्पपात तुहिनेतरद्युतिः ॥५॥ दीधितिर्दिनकरे तु नायके सापराध इव तापमाप या। अत्र गच्छति पराङ्मुखेऽधुना खिद्यते खलु निराशयानया ॥ ६ ॥ . क्वापि तापिदिवसार्धविह्वलो बबलीयत सेदागतिध्रुवम् । सांप्रतं दिनविरामवामने भानुधामनि शनैर्लसत्यसौ ॥ ७ ॥ पश्चिमां भजति वल्लभे निजे रागभाजि शिशिरे दिनेश्वरे । ईर्ण्ययेव पतनार्थमुन्नतान्युन्नतान्यधिरोह दीधितिः ॥ ८ ॥ मीलदजमुखमध्यसूक्ष्मकद्वारनिर्यदलिदम्भतोऽजिनी । मुञ्चतेऽर्कविपदेव दुःखिता पश्य निःश्वसितधूमधोरणीम् ॥ ९॥
१. चन्द्रवंशोद्भूतकृष्णार्जुनशरीरकान्तिदर्शनेन. २. तदात्वं तत्कालः. ३. 'मुक्ति. भुक्ति' ग. ४. 'शेखरः' ख-ग. 'शेखरम्' इति साधीयान्पाठः. 'प्रासादशङ्गभागस्स शिखामाल्यम्' इति तदर्थः; एवं सति 'गुरुसौधशेखरम्' इत्यग्रिमश्लोकस्थं विशेषणं सं. गच्छते. ५. वायु:.
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काव्यमाला।
जागृहीति पुरतः षडङ्गिणा व्याहृतेव निनदैः कुमुद्वती। किंचिदुन्मिषितकैरवेक्षणा हुं करोति मृदु तत्प्रतिस्वनैः ॥ १० ॥ आगतागतवियोगदुःखितौ कृप्तगाढपरिरम्भविभ्रमौ। मुञ्चतोऽश्रु चितपक्ष्म पक्षिणावक्षिदीनवदनौ दिनाधिपे ॥ ११ ॥ मण्डलीचलितपक्षिमण्डलीकैतवेन तरवे वितन्वते । यामिनीसमयशीलभीतितो मौलिबन्धमिव पश्य मौलिषु ॥ १२ ॥ एष्यदुर्धरतमश्चमूपुरश्चारिवीरनिकरानुकारिभिः । गोरजोभिरभितोऽभिषङ्गिभिः शेष एष दिवसोऽवसीदति ॥ १३॥ दूरतः खयमुपेयुषो रवेः पूजितस्य सबलैः सुरासुरैः। रत्नपीठ इव सज्जयत्ययं बिम्बबिम्बनमिषेण वारिधिः॥ १४ ॥ वासरास्यकमलस्य भास्वरं भास्करस्य लवमात्रकं वपुः ।
ओष्ठबिम्बमिव चुम्बनोत्सवादापपेऽपरदिशानुरक्तया ॥ १५ ॥ कापि गन्तुमनसा दिनश्रिया यामिनीसमयकेलिलीलया। भानुरब्धितरणाय सज्यते न्यङ्मुखो घट इवार्धलक्षितः ॥ १६ ॥ अस्तभूमिभृति भाति वारुणीदिग्वधूस्तनसमे समुन्नते। रागिणोऽरुणवपुर्लवो रवे रागचिह्ननखलक्ष्मसंनिमः ॥ १७ ॥ अस्तभूमिधरमस्तकज्वलद्भास्करोपलकृशानुभानुभिः । एष तप्त इव पाटलद्युतिः सप्तसप्तिरपतत्पयोनिधौ ॥ १८ ॥ यद्भिदे त्रिभुवनं भ्रमाम्यहं लब्धमेतदधुना क यास्यति । इत्यसौ खलु रुषारुणो रविस्तोयधौ तिमिरशङ्कयापतत् ॥ १९ ॥ सुप्तनीरशयनाभिनीरजक्रोडपीडितविरिञ्चिपञ्चितैः । अम्बुधौ कमलबान्धवोऽधुना कृष्टिमन्त्रजपनैरिवापतत् ॥ २० ॥ द्राग्वितीर्य ककुभां मुखे मैषीकूर्चकं निचिततद्रुचिस्पृशाम् । अन्वगामि दयितो दिनश्रिया सांध्यरागशिखिसेवया रविः ॥ २१ ॥ अत्र सांध्यसमये समागते यजनो भजति नम्रतां कृती । चित्रमत्र किमु नीलिताः करा यजलैरपि सरोरुहच्छलात् ॥ २२ ॥ १. 'मखी' क-ख-ग.
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१ आदिपर्व - ९ सर्गः ]
बालभारतम् ।
वासरान्तशिशिरत्वचारणा मारुतेनः गमितेक निर्वृतिम् । भानुतापभवस्वेदभेदिना मीदजनमनाः बभूक भूः ॥ २३ ॥ विष्टपत्रयां गते भास्करे जलधिमध्यपातिनि । दिक्षु भूरितुलासु पक्षिभिर्म तारकमणोऽयौ ॥ २४ ॥ द्यौरुदारपरिरम्भविभ्रमादस्य सांध्यसमयस्य रागिणः । स्वेदविन्दुभिरिवोद्धुभिर्वृता गाहतेऽल्पतमसा विवर्णताम् ॥ २९ ॥ स्वं वराहघटया तमस्ततौ पङ्कमनमिव मन्यमानया । पल्वलाद्बहिरुपेतयाप्यहो मन्दमन्दमनयाभिसृप्यते ॥ २६ ॥ सुप्तनीररुहगुप्तषट्पदीवृन्दमेन्दकृतगीतिरीतिषु ।
आविशन्ति करिणीसखाः सुखं पश्य वारिशयनेषु वारणाः ॥ २७ ॥ वित्तमाप्तमिव पद्मिनीपतेस्तापमस्य परदेशगामिनः । सौहृदाद्धृदयपञ्जरे परिक्षिप्य रक्षति स्थानसंचयः ॥ २८ ॥ सूक्ष्मकादपि दिनान्धलोचनादल्पमप्यजनि यद्बहिस्तमः । वर्धते तदिह पश्य पांसुलाचक्रवालसुकृतैरिव क्रमात् ॥ २९ ॥ तत्क्षणोदितविलीनयानया संध्यया क्षणिकतामिव स्मरन् । बोधितः सृजति कैरवाकरो बद्धषट्चरणवन्दिमोक्षणम् ॥ ३० ॥ अब्धिपातिनि विरोचने जगल्लोचने निचितदुःखषितः । न्यङ्मुखः सृजति पाणिघर्षणं दीपवर्तिजननच्छलाज्जनः ॥ ३१ ॥ दीपवर्तिकृतिमेलितं स्त्रिया भाति पाणियुगमुद्यताङ्गुलि । विश्वविश्वजयिनश्चलाचलं सारचक्रमिव मारचक्रिणः ॥ ३२ ॥ अन्धकारसुभटस्य भास्करं दुर्जयं जितवतः समन्ततः । पुष्पवृष्टिरिव निर्ममे सुरैर्मूर्ध्नि तारककदम्बकैतवात् ॥ ३३॥ एकतोऽपि भुवि भूरिशोऽभवन्दीपकादहह पश्य दीपकाः । अन्धकारनिधनाय भानुमन्मुक्त दिव्य विशिखादिवेषवः ॥ ३४ ॥ दैवमुक्तमिह तामसं महच्छस्त्रमाहतमहो महोमयैः । अस्त्रवत्पुरुषकारचारितैर्दीपकैरहह विग्रहस्तयोः ॥ ३९ ॥
१. 'सद्वराहघटया' ग. २. 'मन्द्र' ग. ३. 'दुःखितः ' ग. ४. सर्वलोकजेतुः .
१३
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काव्यमाला |
लुप्तलोचनगतीनि सान्द्रतां यत्तमांसि दधिरेतमां दिवि ।
दीपकैः सपदि तद्भुवं भुवः प्रेरितानि ययुरत्र पिण्डताम् ॥ ३६ ॥ किं प्रदीपचयकज्जलोर्मिभिः किं निमीलिनलिनोत्थितालिभिः । किं नु घूककुलहक्कनीनिकाकान्तिभिर्नभसि तुन्दिलं तमः ॥ ३७ ॥ अन्धकारनिकरेण सर्पता शान्तसांध्यरुचिवह्निभस्मना । तारका मुकुरमार्जनामियं संतनोति नियतं निशीथिनी ॥ ३८ ॥ तापमर्कमणिरौज्झदत्यजज्जाड्यमुद्गतमहो महौषधी । अङ्गकोचैममुचत्कुमुद्वती तत्तमः किमु न सर्वरोगभित् ॥ ३९ ॥ एकतानसुरतत्वचिन्तया सिद्धतां ध्रुवमवाप्य पांसुलाः । अस्फुटा जगति दैवनिर्मितादन्धकारपटतोऽधुनाचलन् ॥ ४० ॥ अन्धकारमयगोमयच्छटाडम्बरे रजनिरम्बराजिरे । सोमकामुकसमागमोत्सुका तारकाकुसुमभारमाकिरत् ॥ ४१ ॥ व्योमरङ्गभुवि तारकासमाभाजि किंचिदुदितात्र कौमुदी । अन्धकारवधनाटकोदयद्राजपात्र पुरतः पटीनिभा ॥ ४२ ॥ शैलगुप्ततनुरेष चन्द्रमाः प्राग्दिशं मलयजैरिवांशुभिः । कौतुकेन परिताडयत्यसावम्बरोच्छलदुडुच्छलच्छटाम् ॥ ४३ ॥ चापयष्टिरिव मान्मथी पुरः सेयमभ्युदयते विधोः कला । तत्प्रसूनविशिखैरिवोड्डुभिर्भानुमद्विरहिता दिशोऽङ्किताः ॥ ४४ ॥ चान्द्रमर्धमुरुचिह्नमोषधीदीप्तदीपभृति पूर्वपर्वते । शातकुम्भमयकुम्भकेपरं सज्जकज्जलमिवेक्ष्यते दिवः ॥ ४५ ॥ अस्फुटैकल मैन्दवं वपुः कस्य न स्मरमदं करोत्यदः । सेवितामरपतेर्व्रणत्र पागोपिताधरमिवाननं दिशः ॥ ४६ ॥ अस्य पश्य सकला कलानिधेर्मूर्तिरम्बरविलम्बिनी बभौ । लाञ्छनच्छललसन्निशाप्रतिच्छन्दसुन्दरितदर्पणाकृतिः ॥ ४७ ॥ सज्जितं त्रिजगतीजयेच्छया लाञ्छनच्छलविलोकितान्तरम् । मण्डलीकृतमनङ्गधन्विनो धन्व नन्वयमुदन्वदन्वयः ॥ ४८ ॥ १. कोचः संकोचः २. 'खर्परम्' ग. ३. चन्द्रमाः.
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१ आदिपर्व - ९ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दीधितिस्तुहिनदीधितेरसौ भाति जर्जरतमित्रमिश्रिता । कल्पितो नु दिनशिल्पिने ककुब्यौवतेन सतिलो जलाञ्जलिः ॥ ४९ ॥ प्राघुणस्य समुपेयुषः करक्रीडया कुमुदिनीहृदीशितुः । निर्ममे तिमिरसर्पमारणं हा स्वभावमलिनो मरुत्पथः ॥ १० ॥ श्याममन्तरलसज्जगत्रयं स्फीतशीतरुचिमण्डलं नमः । आससाद रवैरिणोंऽशुमन्नेत्रपूजितहरस्य तुल्यताम् ॥ ११ ॥ सैर्वदिग्जुषि तमश्वये रुषा ताम्रमाननमिवादधौ विधुम् । निर्गतेऽत्र चकिते तमखिनी पाण्डुरं विरहलीलयावहत् ॥ ५२ ॥ लक्ष्य लक्ष्म हरितालकाङ्करादालवालवलयादिवेन्दुतः । उद्यता मदनकीर्तिवल्लिवत्कौमुदीयमुडपूरपुष्पिता ॥ ५३ ॥ ओषधीमिषसमज्वलन्महाशोकवह्नय इवान्तरद्रयः । आगते शशिनि मित्रदुःखतश्चन्द्रकान्तसलिलै रुदन्त्यमी ॥ ९४ ॥ सौधमौलिमहिलाक्षिकैरवस्तोम क्लृप्तरुचिदण्डपद्यया । पश्य कैरवसुहृन्नभःशिखां मन्दमन्दमयमेति चन्द्रमाः ॥ ५९ ॥ क्षीरनीरनिधिनीरदः शशी स्फारतारककदम्बबुद्बुदम् । भूरिवृष्टिभरचुम्बिताम्बरं कौमुदीमयमदीपयत्पयः ॥ १६ ॥ रक्ष रक्ष वशवल्लभे भवद्वल्लभस्तुदति कैरवाक्षि माम् । ध्वान्तमित्यलिकुलच्छलादलं क्रन्दतीव परितः कुमुद्वतीम् ॥ ५७ ॥ पीततामसमधुः सुधारुचेरेष मत्त इव कान्तिसंचयः । उत्पतन्नभसि भूतले पतन्नाशु हासयति दिग्विलासिनीः ॥ १८ ॥ ओषधीपतिरयं तमोमयं लोहपिण्डमिव विष्टपत्रयम् । किंचिदौषधमिवाङ्कमावहत्कि न रौप्यमयमेव निर्ममे ॥ ९९ ॥ शीतरश्मितमसोरिदं यशोदुर्यशोभिरभितोऽपि भूतलम् । कौमुदीचयपदार्थकॉयिक च्छायमण्डलमिषैर्विचित्रितम् ॥ ६० ॥
९९
१. अतिथेः. २. विष्णुः सूर्यरूपेण दक्षिणनयनेन शिवं पूजितवानिति पौराणिक कथामनुसृत्येयं कल्पना. ३. 'पूर्व' क. ४. 'कायक' ग.
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काव्यमाला।
कल्पितो गगनचर्मणि स्वयं पेषयन्त्रवदयं मनोभुवा । किं दलीकृतवियोगिलोकहृत्कीकशाभतटतारकः शशी ॥ ६१ ।। उच्छलन्ति वियदर्णवे नवाश्चन्द्रिकामयचलज्जलोर्मयः। इत्यवैमि मकरो विशृङ्खलं खेलतीह मकरध्वनध्वजः ॥ ६२ ॥ नागलोकतिमिरच्छिदोत्सुकैर्दागहंप्रथमिकाविकासिभिः । आविशद्भिरिव सोमरश्मिभिः क्षोभितः पतिरपामपि क्षणात् ।। ६३॥ प्रेमसीधुरसनोपदंशकं यच्छतो बत चकोरदंपती। सोमकोमलकराङ्कुरं मिथश्चारुचञ्चपुटकोटिमोटितम् ॥ ६४ ॥ चन्द्रिकाभिमृतकामिनीतनुच्छायमण्डलकमेव सेवकम् । दृश्यतेऽस्ततिमिरावरोधनस्त्रीकुलं भुवि शुचेव नि ठत् ॥ ६५ ॥ किं न सैष समयः सुधामयश्छाययापि बत यत्र पुष्पितम् । भूरुहां चलदलान्तरस्फुरच्चन्द्रिकानिचितचन्द्रकच्छलात् ॥६६॥ चन्द्रचक्रधृतिदुर्धरोऽधुना चित्तभूरधित चक्रवर्तिताम् । तेन दूरितमदं तदाज्ञया वर्तते जगदशेषमप्यदः ॥ ६७ ॥ कामुकागमसमुत्सुका मुहुः कामबाणगणशाणतां गतैः । सुभ्रवस्तनुमयूखभूषणैर्भूषयन्त्यहह भूषणान्यपि ॥ ६८ ॥ पुष्पशेखरविशेषसौरभभ्रान्तषट्पदपदेन सुभ्रुवाम् । उच्छलन्ति खलु तत्क्षणाङ्गुलीमार्जितोरुकवरीमरीचयः ॥ ६९ ॥ सुभ्रुवो विशदचित्रकादिकं यद्यदेव विदधुः प्रसाधनम् । तत्तदाननतुषारदीधितेश्छिन्नतामगमदिद्धदीधितेः ॥ ७० ॥ सुभ्रुवां रतिरतीशयोः कलावासयोरिव विलोचनद्वये । कापि कज्जललिपिर्जगजितोश्चापयुग्मरुचिरा व्यराजत ॥ ७१ ।। दृक्प्रभाकुसुमिताः कपोलयोर्यल्लसन्ति नवपत्रवल्लयः । तन्मधुर्मधुसखस्य योगतोऽलंचकार नियतं नितम्बिनीः ॥ ७२ ॥ पारिपाश्विकयुगायितस्फुरन्मौक्तिकस्तबकितोरुमण्डलः ।। कामकेलिरसनाटिकानटः कामिनीक्दनचन्द्रमा बभौ ॥ ७३ ॥
१. 'पारिपार्श्वकः' ख-ग. पार्श्वे इति परिपार्श्वम् । विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः । परिपार्श्व वर्तते इति पारिपाश्चिकः । 'परिमुखं च' इति चकाराद्वक्.
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१आदिपर्व-९सर्गः] बालभारतम् ।
तन्मधूमिरसनं सुधारसे तच्च चन्द्रमसि चन्दनार्चनम् । . पावकद्रवनवप्रसाधनं योषितो यदधरे वितेनिरे ॥ ७४ ॥ पाञ्चजन्यविषयेऽपि योषितां तारहारविमलाक्षमालया। कण्ठिकातरलकण्ठुलारवैीवया क इव जप्यते अपः ॥ ७९ ॥ कामयौवनवनेभखेलनस्तम्बयोगदृशामुरोजयोः। एणनाभिमयपत्रवल्लयो रेजिरे मदजलावलेपवत् ॥ ७६ ॥ शक्रकार्मुकसहस्रमावहन्नङ्गदद्युतिभरैर्यदङ्गनाः। तत्सहस्रमितवेध्यवेधने चित्तभूर्भुवमभूत्सहस्रदृक् ॥ ७७ ॥ जित्वरं युवतिपाणितां गतं तोयवासतपसेव तोयजम् । शौक्तिकेयवलयावलिच्छलात्सेव्यते शशिकलाभिरप्यदः ॥ ७८ ॥ अङ्गुलीषु नवरत्नमुद्रिकाभूषणानि पुनरुक्तभूषणम् । भूषिता मुकुरजप्रभाकरैश्चक्रिरे रसक्शान्मृगीदृशः ॥ ७९ ॥ धार्यतामिह दृढं त्वया त्वया वध्यतामिति कृतारवैर्मिथः । मेखला खलु नितम्बमण्डले बध्यते मृगहशः सखीजनैः ॥ ८० ॥ स्मेरमथुरसमानहंसकं पादपङ्कजयुगं मृगीदृशाम् । यत्तदाननमहोहोर्मिभिनिर्मदः कमलमर्दनोऽजनि ॥ ८१ ॥ योषितां रमणरागजागरैः सांध्यरागरुचयो विनिर्जिताः। अजसौहृदरिपूनपि क्रमात्तत्क्षणं जतुमिषात्सिषेविरे ॥ ८२ ॥ कौमुदीविशदयोः सदच्छतादृश्यमानविशदाङ्गशोभयोः । चारुचन्दनविलेपचीरयोर्लभ्यतेऽपि न भिदा नतध्रुवा ।। ८३ ।। इत्यवाप्तनवभूषणाः क्षणं वीक्ष्य रत्नमुकुरेऽङ्गमङ्गनाः । भासमानरसभावभङ्गयो जज्ञिरे दयितदर्शनोत्सुकाः ।। ८४ ॥ तद्रसप्रसरसारसारणीभूतभूतलसुरेश केशव । आवयोरपि वयो नवं प्रियादर्शने सफलतां विगाहताम् ॥ ८५ ॥ इत्यनङ्गलसदङ्गनारसस्मेरमानसविलासयोस्तयोः । केषु मानमथनेच्छया मिथोऽदीपि दंपतिषु नेक्षणस्पृहा ॥ ८६ ॥ १. 'कुण्डला-' ग. २. 'महोत्सव' क. ३. सारणी स्वल्पसरित्.
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१०२
काव्यमाला |
मन्मथस्य किमु सूक्ष्मवेधतां वच्मि यन्मृगदृशामुरः शरैः । अप्रसृत्वरमृणालतन्तुनाप्याजघान कुचमध्यवर्त्मना ॥ ८७ ॥ प्रस्तुतागतहृदीशसंकथास्वेदवारि भरनिर्भरा बभुः । धौतमूर्तय इव स्त्रियोऽङ्गभूबाणपुष्पमकरदबिन्दुभिः ॥ ८८ ॥ पञ्चवाण इति मन्मथं जगुधिंग्जना यदयमङ्गनाजने । एकमेकमिह रोमकूपकश्रेणिकासु विशिखं निखातवान् ॥ ८९ ॥ ईशमानय यथा तथापि तं प्रेरयच्च वचसेति दूतिकाम् । आगतं सुकृतिनी कुतोऽप्यमुं काप्यलोकत च पादपातिनम् ॥ ९० ॥ उत्सुकापि हृदि वामलोचना काचन स्फुरितवामलोचना | निश्चितप्रियसमागमा सखीं न न्ययुङ् किल मानमुद्रा ॥ ९९ ॥ ध्यातवल्लभसमागमा गृहद्वारनिश्चलविलोचनद्वया । शून्यहुंकृतिमुखी सखीकथावाचि काचिदुदकण्ठताधिकम् ॥ ९२ ॥ तन्वती प्रियतमे गतागतं तद्गुणग्रहणमञ्जुना मुहुः | दूततामिव गतेन मानिनी मानमात्ममनसैव मोचिता ॥ ९३ ॥ द्वारि काचन नियुक्तया दृशा वीक्ष्य पत्रमपि तोरणे वलत् । वल्लभोऽयमिति जातसंमदा नैकवारमुदतिष्ठदासनात् ॥ ९४ ॥ प्रेषिता प्रियजनेन दूतिका यद्वयलोकि पुरतोऽनुनायिका । अन्वतापि निजदूतिकाद्भुतप्रेरणेन मिथुनेन तन्मिथः ॥ ९९ ॥ द्वारसीमनि ददर्श च प्रियं काचिदप्यघकृतं नुनाव च । प्राङ्गियोजिततदात्वसंचलद्दूतिकागतिविलम्बकारकम् ॥ ९६ ॥ दूतिकां चतुरचाटुशिक्षया योषितः स्वयममज्जयन्त च । आययुश्च हृदयेश्वराः स्वयं प्रेम्णि साम्यमसमञ्जयत्यदः ॥ ९७ ॥ वल्लभेऽभ्ययति तिर्यगानना मानमानयत काचिदखताम् । तन्मुखेन्दुगत कोणया दृशा प्रेम हृतमपि न्यवेदयत् ॥ ९८ ॥ द्वारमेतवति वल्लभेदिशत्कापि मानपरतां पराङ्मुखी । तद्विलोकनमनाश्च लोचनं लोचनेऽसृजद प्रदर्शिनि ॥ ९९ ॥
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१ आदिपर्व - ९ सर्गः ]
बालभारतम् ।
काचिदेत्य परिरम्भिणि प्रिये मानिनी प्रसृतपाणिनीरजा । कोपनैव लसदनुकम्पना स्पष्टतां न खलु मानमानयत् ॥ १०० ॥ कापि चाटु परिरम्भणैः प्रियं छेकमेकनिपुणापि नापृणोत् । कोपगोपनकलासु कृत्रिमं भावमक्षिणि विधातुमक्षमा ॥ १०१ ॥ संमुखोत्थितिकृतो नतभ्रुवः शुभ्रभासि मनसि स्मरः स्फुरन् । अग्रमागतवतो हृदीशितुर्देहबिम्बितमिव व्यराजत ॥ १०२॥ तथा स्वयं प्राणसमे समागते पुरः परस्याः प्रससार लोचनम् । कुशेशयं कर्णवतंसितं यथास्मितं तदेकावयवच्छविं दधौ ॥ १०३ ॥ प्रिये समायाति समुत्सुकायाः कस्याश्चिदभ्युत्थितिभासुरायाः । मुदेव सांराविणमङ्गकानि विभूषणानां रणितेन तेनुः ॥ १०४ ॥ आसां निधिरधिष्ठितमानं कान्तयावगणितो वलमानः । यासि तां पुनरिति द्रुतमेकः कृष्टमूर्धजमपात्यत तल्पे ॥ १०९ ॥ नयनं तमश्रुवारिभिर्बत सादेन शरीरसंभ्रमः । रसदर्शन संमुखोत्थितीर्मनसैव व्यदधन्प्रिये स्त्रियः ॥ १०६ ॥ एकासनेषु विविशुः सुदृशः प्रियैस्ताः पर्यस्तमानमुपमानवियोगरम्याः ।
एतानि वीक्ष्य मिथुनानि रतिप्रदत्त -
नेत्रोऽजनि स्मरविकारपरः स्मरोऽपि ॥ १०७ ॥
चञ्चञ्चन्द्ररुचिप्रपञ्चविगलन्मानान्धकारश्रियः
साटोपरमरवीर मार्गणगणस्त्रस्तत्रपासंपदः ।
१०३
एवं दंपतयस्तदा रतरसप्रारम्भसंरम्भित
प्रागल्भ्याय मदाय मध्यरसनस्वेच्छाभिरुत्सङ्गिताः ॥ १०८ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के आदिपर्वणि चन्द्रोदयवर्णनो नाम नवमः सर्गः ॥
१. छेको विदग्धः २. 'बिम्बनम्' इति शोभनः पाठः.
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१.०४.
काव्यमाला ।
दशमः सर्गः ।
दुष्ट कर्मफणिदष्टजनालीदोषमोषकृतयेऽङ्कमिषेण ।
यः सुधात्विषि विवेश सुधार्थं स श्रिये भवतु भारतकारः ॥ १ ॥ जातमन्मथमथो मदिराक्षीलोचनानि परिचुम्ब्य युवानः । तत्क्षणाप्तरुचयो मधुरासु स्वं मनो विदधिरे मदिरा ॥ २ ॥ स्त्रीजने धृतमदे मदनाज्ञापालनाक्रमणनूतनदूत्या । हुंकृतं कृतमहुंकृतिहेलालोलयेव सुरयालिरवेण ॥ ३ ॥ हालयालिकुलकूजितगीतैरुत्सवं नवमिव प्रथयन्त्या । आददे मदभिदे प्रमदानां कामदेवपृतनाधिपतित्वम् ॥ ४ ॥ लोलपट्पदकनीनिकमक्ष्णा शोणतां कलयताब्जमयेन । वीक्षिता इव रुषा मदिराभिर्भीरवो मुमुचिरे मदमन्तः ॥ ५ ॥ काप्युदस्य कुसुमानि रसेन प्रेक्ष्य विम्बि च मुखं मधुपात्रे | भ्रान्तिभृत्यपि घवेऽम्बुजबुद्ध्या गृह्णती यदि हृदैव ललज्जे ॥ ६ ॥ सीधुसंनिहितवाससरोजं नो तथा रसनलोभनमासीत् । रागिणां निभृतरागभराणां बिम्बितैरपि यथा मुखपद्मैः ॥ ७ ॥ बिम्बनाद्विधुरियाय सुरायां वासवारिजमिवाशु विजेतुम् । किं जडः सहजवैरवशान्धो नाङ्गनामुखमिहैव ददर्श ॥ ८ ॥ माधुरीं दधतु निर्भरमासामाननाब्जकलनाभिरिमानि । इत्युपायिभिरपायिषत प्राग्वल्लभैर्नवमधूनि मृगाक्ष्यः ॥ ९ ॥ अर्धपीतमबलाभिरलाभि प्रेयसा मधु नदन्मदनं यत् । तोषतोऽतिरसदं रसनायां तन्मुखार्पितमपीति न पीतम् ॥ १० ॥ प्रेमतः खलु तदाजनि यूनामैक्यमेव मनसोरिव तन्वोः । आस्यसीधुमिषरागरसोर्मिक्रीडनान्यत इतोऽपि यदासन् ॥ ११ ॥ प्रेम निष्कपटमस्ति न यूनां गृह्णतां सुगुणमल्पगुणेन । स्वं प्रदाय मुखसीधु मिथस्ते द्राक्पपुर्यदधरं दयितानाम् ॥ १२ ॥ यद्ददे मधुरसाय सुधाजिन्माधुरी मृगदृशामधरेण । मञ्जिमा तदमुनापि हि तासामाननेषु विदधे विधुजेता ॥ १३ ॥
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१आदिपर्व-१०सर्गः)
बालभारतम् ।
१०६
अन्तरन्तरधरं च सुरां च प्रेयसां रसयतामनुवेलम् । एतयोः किमु विदंशपदेऽभूत्यतां च किमवाप न विद्मः ॥ १४ ॥ कामिनि प्रियतमाधरपानारम्भकारिणि निजावसरेऽपि । कोपिनीव मदिरारुणकान्तिः कम्पमाप विततालिरयेण ॥ १५ ॥ प्रेयसी प्रति धवेऽर्धनिपीतसीधुदातरि दधौ क्रुधमन्या । संभ्रमास्तचषके मुदिताभून्मङ्घ वक्रमधुरे च विलक्षा ॥ १६ ॥ रागवृद्धिभिदुरं प्रमदानामन्तराशु मदिरा विनिविश्य । एकमद्भुतमुदच्छिददुच्चैरध्यरोपयदथो मदमन्यम् ॥ १७ ॥ अन्धतामधित मानतमोभिर्यो मनःसु सुदृशामपि चैव । वीक्षितुं प्रियजनं किल रागो रागिणां प्रसृमरे मरदीपे ॥ १८ ॥ घूर्णमानवपुषां सुमुखीनां रत्नकुण्डलरुचिद्विगुणाभिः । स्फीतरागरसवीचिनिभाभिर्लोललोचनविभाभिरभासि ॥ १९ ॥ भूषणं भृशमनन्यमनन्यं योषितामजनि यन्मद एव । चारुचीवरवराभरणानि भ्रंशभाजि जगृहुर्न तदेताः ॥ २० ॥ निनिमित्तगमनोत्थितभाजामधल्पितनिरर्थकवाचाम् । पुष्पचापहृतमानधनानां वल्गतु ग्रहिलता महिलानाम् ॥ २१ ॥ मद्यपानमदम तनूनां प्रेयसि प्रसृमरे परिरब्धुम् । निर्मदोऽजनि मदः प्रमदानां ह्रीमतीव हृदि संकुचिता हीः ॥ २२ ॥ कोऽपि भीरुमपरां परिरम्भश्रद्धया मधुरसैर्मदयित्वा । उद्यतद्विगुणभावभृतं तामेव मन्मथवशेन निषेवे ॥ २३ ॥ काप्यनिवृतमना मधु पीत्वा कृत्रिमं मदमधत्त मृगाक्षी। वीक्ष्य च प्रियतमं स्वमनस्कं संभ्रमादकृतकं मदमाप ॥ २४ ॥ वीक्ष्य पाटलदृशं प्रियमेष क्रोधवानिति धिया विनिमन्ती । अग्रतः स्मिततदङ्घिनखान्तर्लम्बमाननिजबिम्बविलोकात् ॥ २५ ॥
१. 'विदुरम्' क-ख-ग. २. 'मनोज्ञमनोज्ञम्' ख.
१४
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१०६
काव्यमाला। काचिदन्ययुवतिभ्रमदत्तक्रोधमुक्तमदलब्धविवेका। ह्रीमती मदवशात्प्रणतेऽस्मिन्खेलति स्म कृतकेन मदेन ॥ २६ ॥
(युग्मम्) दत्तदृप्रियमुखप्रतिबिम्बे प्रोल्लसद्रसवशान्मधु पीत्वा । कापि तत्क्रमसमुज्झितमौग्ध्या प्रौढिमाप्य रमणी रमते स्म ॥ २७ ॥ निःसृतोऽपि हृदयादभिमानः प्राप्यते व पुनरीगितीव । स्त्रीजनस्य रसनाञ्चलदोलाखेलनानि वचनैः क्षणमाधात् ॥ २८ ॥ हृदहे मधुवशान्मधुबन्धोरर्पिते रतियुतस्य वधूभिः । तत्पराभववशादिव मानो निर्जगाम ह्रियमेव गृहीत्वा ॥ २९ ॥ उद्धतः पिहितकामधनुाटंकृतिव्यतिकरोऽजनि यूनोः । भावनिर्भरपरस्परहस्तोत्तालतालसरसः परिहासः ॥ ३० ॥ ताः प्रतिक्षणविलक्षणतोषक्रोधहास्यरुदितादिविकाराः । चक्रिरेऽद्भुतमदा मदिराक्ष्यः प्रीतिमेव हृदये दयितानाम् ॥ ३१ ॥ यद्वदन्त्यशनसंनिभमेवोद्गारमित्यनृतमत्र बभासे । गीतकं यदुदगारि सुधावत्पीतसीधुभिरपि प्रमदाभिः ॥ ३२ ।। गीतकं मृदुपदेन तदानीं यन्मदेन जगुरम्बुजनेत्राः । षट्पदास्तदलपन्खलु लोलाः सीधुगन्धिमुखपानमिषेण ॥ ३३ ॥ योषितो विदधिरे मृदु गीतं नृत्यकर्म च रतिर्मुदु चक्रे । मन्मथो मृदु ततान च मौर्वीनादवाद्यमिह रागिरसाय ॥ ३४ ॥ आवहद्भिरतिरूपगुणस्य स्फीतिमातिशयिकी मदयोगात् । रागिणां चकृषिरे च मिथोऽङ्गैश्चञ्चलानि मदवन्नयनानि ॥ ३५ ॥ कामिनीजनकुचेषु मनोभूराज्यपुण्यकलशेषु विलेसे। द्वारि वारिजनिभैस्तदनन्यप्रेक्षणप्रतिमितैः प्रियनेत्रैः ॥ ३६॥ लोचनद्वयमुदारमरीचिस्फारवीचिनि तरत्तरुणस्य । योषितो वपुषि नाभिगभीरावर्तमग्नमिदमुत्पततु व ॥ ३७ ॥ दृङ्मगद्वयममन्दमनोभूकाण्डपाततरलं तरुणानाम् । श्रोणिशैलशिखरेषु निखिन्नं त्रासखिन्नमिव मुग्धमुखीनाम् ॥ ३८ ॥
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१आदिपर्व-१०सर्गः]
बालभारतम् ।
१०७
अङ्गकान्तरविलोकिनि नेत्रे भर्तुरैक्षत मुखं प्रसृताक्षी । तत्र पश्यति पुनर्वदनाजं न्यङ्मुखीव निभृतं त्रपयाभूत् ॥ ३९ ॥ आननं प्रियतमस्य दिक्षुर्वीक्षितुं पुनरनीशतमैव । काप्यशिक्ष्यत हियैव नवोढा नेत्रकोणकविलोकितकानि ॥ ४० ॥ अङ्गके प्रियतमस्य मृगाक्ष्या यत्र यत्र नयनं निपपात । विव्यधे मधुसखेन पृषत्कैस्तत्तदङ्कितशरव्यमिवाशु ॥ ४१ ॥ मानसानि निभृतेक्षणपीतोन्मृष्टमप्यरसयन्नयनोष्ठम् । आननैरथ रसस्तरुणानां पातुषि कटुरेति रसत्वम् ॥ ४२ ॥ यावदिच्छति मुदाधरपानं कामुको मदवशंवदचित्तः । रक्तया स्वकरकुञ्चितकेशस्तावदेव चकृषे मदिराक्ष्या ॥ ४३ ॥ कापि पातुमुदिते हृदयेशे संभ्रमादपसरन्मृदुमौग्ध्या । ह्रीमती च मदनेन च दूना नार्पयच्च न जहार च वक्रम् ॥ ४४ ॥ लोभयन्मलयजादिभिरीशः संमुखीमकृत कामपि मुग्धाम् । येन मौग्ध्यकवचा कुसुमेषुर्नेषुभिर्व्यथयितुं प्रभुरेनाम् ॥ ४५ ॥ अक्षिपञ्शयनमूर्धनि चक्षुः सुभ्रवः स्मरवशेन यदैव । निन्यिरे स्वयमुदस्य कराभ्यां तत्र ताः खलु तदैव हृदीशैः ॥ ४६ ॥ संगमेच्छुरपि कापि नवोढा श्लिष्यतो ननननेति वदन्ती । भीपदे वहतु कम्पि शरीरं हृष्टरोम तु वरस्य रसाय ॥ ४७ ॥ शिक्षिता मुहुरुपांशु सखीभिश्चाटु यत्प्रियवशीकृतिमन्त्रम् । तत्प्रकाशयितुमत्र नवोढा गुप्तमेनमजपद्रसनाग्रे ॥ ४८ ॥ वाणिनीभिरुरुभिः श्रवणान्ताकृष्टमुक्ततरलैनयनान्तैः । ताडिताः स्मरशरैरिव कम्पं स्वेदमश्नु च भजन्तु युवानः ॥ ४९ ॥ उत्तरीयहरणे परिणेतुर्द्राङ्मुधा करमरुद्ध कराभ्याम् । कापि गूढरसमूढमनस्का स्त्रस्तनीविनि नितम्बदुकूले ॥ ५० ॥ हारकान्तिलहरी हरिणाझ्या वक्षसोंऽशुकधिया मुहुरस्यन् । कोऽपि तत्प्रहसितत्रपमाणो मीलिताक्षमसृजत्परिरम्भम् ॥ ५१॥ .
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१०८
काव्यमाला |
उत्तरीयहृतिलज्जितयान्यः सुभ्रुवा दृशि हतोऽब्नदलेन । अश्रुतेरितपरागविविक्तालोकनश्च सहसा परिरब्धः ॥ ५२ ॥ प्रेमकोमलरुषा परिरम्भे ताडितः पुलकितेन करेण । वीक्षितो भ्रुकुटिभिश्च नवाश्रुस्निग्धनेत्र गतिभिः प्रिययान्यः ॥ ९३ ॥ अङ्गकैरपुलकैः परिरेभे मानिनी सपदि कंचन दक्षा । मर्मवेदिनममुं तु समन्तुं व्यक्तसीत्कृतिरसैव चुचुम्ब ॥ १४ ॥ स्यूतयोः स्मरशिलीमुखमालासूचिकानिचितसंचरणेन । विद्रुताद्भुतरुषां द्रुतमासीदैक्यमेव मनसोर्ननु यूनाम् ॥ ५५ ॥ रागिणामथ मिथःपतितानि स्वैरमाननसुधासरसीषु । संमदासुधा पितानि क्रोधतापममुचन्नयनानि ॥ १६ ॥ स्तम्भकम्पगुणजूंषि वपूंषि स्वेदविन्दुकलितानि च यूनाम् । पुष्पितद्रुमलतावनलक्ष्मीमीयुरायुधकृते कुसुमेषोः ॥ ९७ ॥ मत दंपतिवपूंषि तदात्वस्फायमानपुलकैः श्वसितानि । गौरवादिव परस्परमभ्युत्थानकर्म विदधुः परिरब्धुम् ॥ १८ ॥ मन्मथार्तिषु ततासु विवर्णमेवमेव मिथुनानि मिथोऽङ्गम् । माधुरीविरहितं स्वरभेदाच्चाटु च प्रियकृदेव वितेनुः ॥ ५९ ॥ नष्टसंज्ञमनसो दयितस्य प्रेयसीकुचशिखासु विलासि । लब्धसङ्गमिव पाणिसरोजं मन्दमन्दमलसत्तदधोऽधः ॥ ६० ॥ विस्तृते प्रियकरे खलु तारे कान्तया प्रणयनहृदैव । मुक्तमाशु समयैकविदैव स्रस्तनीवि वसनं जघनेन ॥ ६१ ॥ कान्तहृन्निबिडमग्नकुचानामुच्छ्रसत्पुलकपूरितसंधिः । भ्रष्टहारवलयः परिरम्भो रागिणां तदनु निर्विवरोऽभूत् ॥ ६२ ॥ तादृशोग्रपरिरम्भनिरोधाज्जीवितव्यमपि विह्वलमन्तः ।
सुस्थितं प्रणयिनं व्यधुराशु स्वादिताघरसुधारसधाराः ॥ ६३ ॥ लोचनान्यपि मुखेन्दुमरीचि श्वाससौरभभरानपि नासाः । आननान्यपि पिबन्त्यधरोष्ठं रागवृद्धिमसृजन्मिथुनानाम् ॥ ६४ ॥
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१ आदिपर्व - १० सर्गः ]
बालभारतम् ।
स्पर्शशालिनि विवृद्धसुगन्धिश्वासमालिनि विशेषितकान्तौ । ओष्ठपानजुषि सन्मणिताक्षैः प्रीतिराप्यत मिथो युवयुग्मे ॥ ६५ ॥ लोलता भृशमधारि वधूनां यत्करैरधरखण्डिनि कान्ते । लब्धतादृशरसं रतमेतत्तेन पल्लवितमेव विरेजे ॥ ६६ ॥ रागवाननुलवं नलिनाक्ष्या मञ्जु चक्षुरधरं च चुचुम्ब । ते परस्परपरिस्फुरदीयसंभ्रमादिव धृतारुणभावे ॥ ६७ ॥ बाहुमूलकृतबाढनखाङ्कः खण्डिताधरदलो यदरज्यत् । तद्वतेषु सुदृशश्चलकाञ्चीनूपुरादिभिरदूयत कान्तः ॥ ६८ ॥ छिन्नहारमणिभिः क्षितिपातादुच्छलद्भिरभितः सुरतेषु । नृत्यते स्म कृतकृत्यमनोभूपुष्पमार्गणगणैरिव यूनाम् ॥ ६९ ॥ सुश्रुते रहसि वाद्यविचित्रे मेखलावलयनूपुरनादे | गीतिरीतिषु पुनर्मणितेषु प्रेयसां पटु ननर्त मनोभूः ॥ ७० ॥ दुर्वहस्तननितम्ब भरेयं मा स्म खेदि रभसेन रतानाम् । मूर्ध्नि सुभ्रुवमिति प्रियभालस्वेदवारिभिरषिञ्चदनङ्गः ॥ ७१ ॥ धाष्टर्चकर्मविकसन्मदलज्जाः सज्जधैर्यकुपितस्मरलोलाः । इत्यभीक्ष्णमहरन्नधरत्वं कामुकस्य रतिकेलिषु कान्ताः ॥ ७२ ॥ यद्यदेहत हृदैव हृदीशस्तत्तदप्रथितमेव वितेने । तादृशप्रसरतुष्टमनोभूदत्तदिव्यनयनेव नताङ्गी ॥ ७३ ॥ स्वेदवारि कुचकुङ्कुममिश्रं कामुकोरसि रतश्रमसूतम् । कामिनी भृशममान्तमिवान्तर्मूर्तिमन्तमनुरागमवर्षत् ॥ ७४ ॥ न्यङ्मुखेन पुरुषायितरङ्गत्कामिनी कुचयुगेन शुचेव । दूरितप्रियहृदा वितताभिः स्वेदबिन्दुपटलीभिररोदि ॥ ७५ ॥ मुक्तदन्तमुखचुम्बनलीलादृग्भिरेव दृश एव पिबन्तः । रागिणो रतभरेण मिथोऽन्तः सीत्कृतैररसयन्रससारम् ॥ ७६ ॥ स्मितरुचि रुदितार्द्रं सान्द्रसीत्कारमन्द्रं करुणवचनमूचुर्मन्दमित्यङ्गना यत् ।
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११०
काव्यमाला ।
समजनि दयितानां बाढमुत्साहहेतोः सरभसरतलीला निर्दयानां तदेव ॥ ७७ ॥
क्षणमुपचितचञ्चच्चाटुमन्त्रोक्तिभाजो रभसभरनिरुद्धश्वासयोराशु यूनोः । मनसि रतमनन्यध्यायिनि ध्यायमानं
समजनि सममेव स्निग्धयोः सुप्रसन्नम् ॥ ७८ ॥ यूनाममन्दपरिरम्भभरै रतान्ते
कामोऽपि मूर्छित इव क्षणमेकमस्थात् ।
उज्जीवितः पुनरपि क्रमजायमान
मन्दातिशीत सुरभिश्वसितानिलेन ॥ ७९ ॥
आलिङ्गनाद्विघटनैकमना रतान्ते
नामुच्यत प्रमदया हृदयाधिनाथः । तस्या मुखं च सविशेषरसानुभावं पश्यन्नवापस पुनर्नवतामतीव ॥ ८० ॥ हृष्टस्मराणि भृशमुत्सुकतागृहीतवासोविपर्ययविलोकमृदुस्मितानि । व्रीडाविकुञ्चितविलोलविलोचनानि
यूनां रतान्तललितानि महोत्सवोऽभूत् ॥ ८१ ॥ सुभ्रुवामवयवेषु नखाङ्का भूषणं विरहिताभरणेषु । तद्वपुर्विरहितेषु तदर्था ग्लानिराभरणमाभरणेषु ॥ ८२ ॥ वीक्ष्य तादृशरसद्विगुणश्रीभासुराणि वदनानि युवानः । निन्यिरे मुहुरपि स्मरलोलालीलयैव दयिताः शयनीयम् ॥ ८३ ॥ उद्यत्तन्द्र इवोपभुक्तरजनीखेदेन चन्द्रोऽप्ययं
डिण्डीरप्रतिवीरमूर्तिरुचितः स्रस्यत्कराडम्बरः । अस्तक्ष्माधरमस्तकस्थितिमतिर्मन्ये चचार स्फुर
त्पारावारतरङ्गरङ्गितमरुत्पूराय दूरादपि ॥ ८४ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के आदिपर्वणि सुरापानसुरतवर्णनो नाम दशमः सर्गः ॥
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१आदिपर्व-११सर्गः]
बालभारतम् ।
१११
एकादशः सर्गः। कृतवसतिरजस्रं साधुहृत्पञ्जरान्तः
किमपि किमपि वक्ता सत्पुराणोक्तिसूक्तीः । भवतु भुवनचित्तप्रीतये ज्ञानलक्ष्मी
कुतुकशुकविहंगः सत्यवत्यङ्गजन्मा ॥ १ ॥ कुसुमशरशरालीसंपदा दंपतीनां
सुरभिणि सुरतान्तस्नेहनीरे निमज्जन् । अथ मुरुमथनस्य प्रीतये.मन्दचारो
ऽजनि रजनिविरामारम्भशंसी समीरः ॥ २ ॥ वन रजनि सरोज स्मेरतामेहि मौनं
कुवलयकलया द्राक्चापलं मुञ्च वार्धे । परिहर दिवमिन्दो कोक संश्लिष्य कोकी
मिति जगति मृदङ्गोऽताडि सूर्याज्ञयैव ॥ ३ ॥ अविरतरतलीला खेदभाजां मिथोऽपि
श्लथतरपरिरम्भस्यूतसर्वाङ्गकानाम् । अवसरममृतोर्मिप्लावितानामिवान्त
मुकुलितनयनत्वात्प्रेयसां प्राप निद्रा ॥ ४ ॥ स्वमनसि परमात्मज्योतिरुज्जीव्य सार
स्वतलय इव मूर्ते ब्राह्मसंज्ञे मुहूर्ते । किल निजनिजशिल्पं शिल्पिनः कल्पयन्तः
किमपि किमपि जन्मापूर्वमुन्मेषमापुः ॥ ५ ॥ दधिमथनविलोलल्लोलहग्वेणिदम्भा__दयमदयमनङ्गो विश्वविश्वकजेता । भवपरिभवकोपत्यक्तबाणः कृपाण
श्रममिव दिवसादौ व्यक्तशक्तिय॑नक्ति ॥ ६ ॥ १. 'गुरुमिथुनस्य. ग. २. 'मूर्त-' ग.
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११२
काव्यमाला |
व्रजति रजनिरेषा कामधुक्कामिनीनामुदयति दिनमेतद्विप्रयोगप्रयोगः । त्यजत गिति मानं मानिनीनामिवेत्थं दिशि विदिशि दिनेशोद्दामगीस्ताम्रचूडः ॥ ७ ॥
कथमपि कृतनिद्रा मानिनी स्वप्नदृष्टं प्रियमुपनतमग्रे ताडयन्ती प्रबुद्धा | अतिहतिषु दयालुः श्लिष्यति स्म स्मराती शठमपि शयनान्ते गुप्तमागत्य सुप्तम् ॥ ८ ॥ प्रियतममवलोक्य स्वप्नमोहे सपत्न्या
सह कलितविलासं मानिनी नष्टनिद्रा । स्फुरति च पुरतोऽस्मिंस्तंद्रमेण क्रमेण
स्फटिकभुवि जघान स्वं प्रतिच्छन्दमेव ॥ ९ ॥ चिरमुपचितमानं यामिनीं जागरित्वा
क्षणमथ मृदुनिद्रौ रागिणावेकतल्पे |
स्वयमुपनयमाप्य स्वप्नतोऽन्योन्यमेव
व्यवसित परिरम्भ भेजतुः कीं न केलिम् ॥ १० ॥ अजनि युगसहस्रं तत्किमद्यापि भासा - मुदयति दयितोऽस्यां नेति जातप्रकोपैः ।
रथचरणविहंगैर्वीक्षितेवारुणाभि
श्विरमभजत दृग्भिः शोणतां वासवाशा ॥ ११ ॥
अपरशिखरचूलासिन्धुसंबन्धिनीभिः
किमपि कुमुदिनीभिर्द्रा+परीरम्भलुब्धे । लसति शशिनि कान्ते कौमुदी कोपनेवाद्भुतमलभत कार्यं शोणिमानं च किंचित् ॥ १२ ॥
१. 'झटिति' ग. २. 'हरग्रहेण' क. ३. 'कान्तकेलिं' क ख; 'कामकेलिं' इति क- पुस्तक टिप्पणीभूतः पाठः.
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१ आदिपर्व - ११ सर्गः ]
बालभारतम् ।
धुरि मधुरिमभाजां कौमुदी हन्त लम्या क पुनरपि गतेऽस्मिन्नोषधीनामधीशे । इति रुनिचयान्तः संग्रहं शीघ्रमस्या व्यतनुत जनतासौ धेनुदुग्धच्छलेन ॥ १३ ॥ अजनि जनितनिद्रा कृष्टियन्त्रामलक्ष्म्या गगनगहनगर्भे चन्द्रमाः कूपरूपः । इह पुनरुपशान्ते तत्प्रभानीर सेके
व्यहरत हरितालीबन्धुरध्वान्तमेतत् ॥ १४ ॥ तिमिरकरिकदम्बैरम्बरोत्तालतल्लात्कवलितमिदमुच्चैर्निर्भरं चन्द्रिकाम्भः ।
अथ पृथुतरताराम्भोजिनी कन्दवृन्द
क्षयसमयमवेक्ष्य प्रस्थितो राजहंसः ॥ १९ ॥
अभिनवमधुगन्धाबन्धसंधावदैरावतमदमधुपालीपक्षवातप्रणुन्नैः ।
अरुणकिरणदम्भाद्गुप्तसप्ताश्वलीला -
सरसिरुहरजोभिर्दिग्बभौ जम्भजेतुः ॥ १६ ॥
निशि विकसितवन्ति प्रापुरक्षीणि किंचित्प्रियतमरमणीनां कैरवाणीव निद्राम् ।
रथविलुलिततारालोल रोलम्बभाजि
द्रुतमुषसि विकासं नीरजानीव भेजुः ॥ १७ ॥ अपृथुपथविलासायास पाणिधमाभि
3
र्मधुकरनिकराणां मैहिरेयीं गिराभिः ।
अलभत न समन्तान्मीलितुं नीलपङ्के
रुहगहनदलाली किंचिदाकुञ्चितापि ॥ १८ ॥
११३
१. ' चरु मृत्तिकापात्रम्' इति क पुस्तकस्था टिप्पणी २ तल्लो जलाधारविशेषः.
३. सूर्यसंबन्धिनीम्.
१५
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११४
काव्यमाला |
सकृदपसृतपत्राभ्यन्तरभ्यन्तरोद्यत्परिमलमिलितालिश्रेणिकामण्डलानि । उदयिनि हृदयेशे कङ्कणानीव पङ्केरुहमुकुल करायैर्भेजिरेऽम्भोरुहिण्यः ॥ १९ ॥
रुचिनिचयममुञ्चत्तारकाचक्रवालं
विधुरपि विधुरत्वं प्राप शूरागमेऽस्मिन् । इति चकित इवोच्चैः कम्पितो दंपतीनां रतिगृह कुहरान्तर्दुर्गदीप्तोऽपि दीपः ॥ २० ॥ सपदि पदमशेषद्वीपदीपायमान
घुमणिकिरणवीथीचक्रवालप्रणुन्नैः । भृशमुपशमधूमैरोषधीनामिवोवीं
धरनिवहगुहान्तर्ध्वान्तभारैरकारि ॥ २१ ॥ विलसनसदनेभ्यो जग्मुराश्लिष्टकान्ता - स्तनघनघुसृणाङ्कद्वन्द्वदम्भेन सद्यः ।
स्फुरदुरसि युवानो मन्मथक्ष्मापलीला
रथ इव पृथुशोभे चक्रयुग्मं दधानाः ॥ २२ ॥
उदितमुदितकान्ताश्लेषपीयूषवीची
-
चकित इव कृशानुश्चित्ततश्चक्रनाम्नाम् । गुरुतरगिरिशृङ्गोत्सङ्गदुर्गेषु मञ्जु
घुमणिमणिगणोष्मच्छद्मना सद्म चक्रे ॥ २३ ॥
प्रिय विरहित को कीदृक्पयो वाहिनीभिः सह शममगुरिन्दुग्रावनिःस्पन्दनद्यः । किमपि कलितमौनस्तद्वियोगादिव द्रा
क्पतिरधित नदीनामेष दीनामवस्थाम् ॥ २४ ॥ द्रुतकृतपदपाताः प्रातरायातवन्तो नखरदपदलक्ष्मीमण्डिताः खण्डिताभिः ।
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१आदिपर्व-११सर्गः]
बालभारतम् ।
विधृतगृहवयस्यागर्वमीताभिराभिः
कृतकसुभगतार्थ पर्यरभ्यन्त धन्याः ॥ २५ ॥ हरिरिव दिवसोऽभूद्विश्वकान्तारचारी
स्फुरदरुणकरालीकेसरश्रीकरालः । तिमिरकरटिमालाभुक्तिरक्तेव दंष्ट्रा
घटितकुटिलवेषा यन्मुखे सूर्यरेखा ॥ २६ ॥ अतनुत तनुभाजां कामुकः पङ्कजिन्या
मुदमुदयमहीभृन्मूर्ध्नि गुप्तार्धमूर्तिः । सततविततमार्गश्रान्तिविश्रान्तिहेतोः
स्थित इव विनिवेश्योत्तुङ्गशैलाग्रशृङ्गे ॥ २७ ॥ क्रशयति बत सिन्धूर्मत्कलत्राणि तापै
रयमयममृतांशुं मत्तनूजं दुनोति । इति कुपितपयोधिप्रौढवीचीकराग्र। प्रहत इव स मग्नोऽप्याप भानुनभोग्रम् ॥ २८ ॥ त्रिभुवनजनताया दृम्भिराशयमान
भ्रमिरहिममरीचिः शोचिषां चाकचक्यैः । उदयगिरिशिरोऽग्रे तर्कुयन्त्रप्रपञ्च__ स्फुरिततनुरिवोच्चै रज्यमानो विरेजे ।। २९ ॥ अहिमकरघरट्टस्फारसंचारलीला
दलिततिमिरखण्डश्रोणिसंवावदूकैः । तरुणतरतमालश्यामलैरुल्लसद्भिः
प्रसृतमुषसि लक्षैः पक्षिणामन्तरिक्षे ॥ ३० ॥ गगनगहनगर्भे दाववत्पूर्वसंध्या
वतमसतृणजालं ज्वालयित्वास्तमाप । तदिह नियतसुप्तः कान्तिलेशोऽपि भानो
र्दशशतमितशाखश्चित्तचित्राय भावी ॥ ३१ ॥
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११६.
काव्यमाला |
विधुरुचि शुचिवस्त्राच्छादमुत्क्षिप्य रात्रिप्रथित कुसुमपूजाहारिताराकुलं च । हरमरकतलिङ्गश्रीसहक्षेऽन्तरिक्षे
स्नपनमकृत भानुर्भानुकाश्मीरनीरैः ॥ १२ ॥ द्विषति शशिनि दूने नूनमम्भोजभारैः स्मितमवतमसौधे म्लानमेव प्रदीपैः ।
अपि सदृशरुचीनामन्तरं किंचिदेत -
ज्जयति जलमयानां तारतेजः स्पृशां च ॥ ३३ ॥ निशि सरसिरुहिण्याः संपदां संप्रदायं
यदहरत तदेष प्रातरायाति सूर्ये । विधुरपरमहीभृन्मौलितो दत्तझम्पः
स्फुटमरुददुदन्वत्तीरपङ्केऽर्धमग्नः ॥ ३४ ॥ अहरत हरगर्व पर्वतोऽयं प्रतीच्याः
स्फुरिततिमिरभित्तिद्योतिताधोविभागाः ।
कपिशपटुजटालीबन्धबन्धुत्वपात्र
द्युतिपरिचितलेखामात्रशीतांशुमौलिः ॥ ३५ ॥ तरणितरुणिमानं प्राप्य रक्ता किल द्यौरिति सितरुचिरब्धौ दुःखितः पश्चिमाद्रेः । द्रुतमतनुत झम्पां वार्धकाधिक्यभावा
गुलितपलितपङ्किः प्रोषिताभीषुदम्भात् ॥ ३६ ॥ व्यरुचदलिकदम्बं हेमरागैः परागै
र्विकचकमलकोणे बिभ्रदङ्गं पिशङ्गम् ।
हिममहिममनोज्ञे भानुमद्भानुवह्नि
ज्वलितमिव विलीनं वृन्दमिन्दुप्रियाणाम् ॥ ३७ ॥
गगनमलिनमानं धूमतामानयन्त्यः स्फुटमदधत भासो भास्वरा भास्करस्य ।
१. भानवः किरणा एव काश्मीरनीराणि कुङ्कुमजलानि तै:.
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१आदिपर्व-११सर्गः] बालभारतम् ।
त्रिभुवनभवनान्तदंपतीनां तदात्त्व
ज्वलितविरहकीलाजिह्वकीलाभिलीलाम् ॥ ३८ ॥ परिवृढपरिरब्धप्रेयसीतारहारा
वलिविगलितमुक्ताचक्रवालच्छलेन । तरणिरथरथाङ्गक्षोदभीत्येव तारा
गुरुगृहशिखराणि स्पष्टमभ्येतवत्यः ॥ ३९ ॥ व्रतमतनुत मुक्ताहारवृत्तिश्चकोरः
कुमुदसमुदयेन ध्यानमध्यायि किंचित् । भृशमसृजदुलूकः कुञ्जवासं तपस्वी
पुनरुदयविभूत्यै यामिनीकर्तुरिन्दोः ॥ ४० ॥ दिनमणिमणिराजीधूतचूंमध्वजोगा
दुदयगिरिशिरोग्रान्नूनमुड्डीय तप्तः । त्वरितमधिरुरोह व्योमवृक्षस्य शाखा
शिखरमिव पतङ्गः प्राग्दिशो मौलिदेशम् ॥ ४१ ॥ द्विजपतिहुतमग्निर्नव्यमादत्त हव्यं __खलु मुखमखिलानां नाकिनां लोलजिह्वः । इति पतिरयमहां नूनमहाय शक्रा
दिकसुरमयमूर्तिस्तेजसां स्फूर्तिमाप ॥ ४२ ॥ पतितवति विपाण्डौ पक्कपत्रानुकारे
तुहिनमहसि जातः पल्लवोऽयं नवीनः । दिवसविभुनिभेन व्योमवृक्षस्य विश्व
त्रयसुकृतसुधाभिर्लब्धसेकस्य शङ्के ॥ ४३ ॥ यदकृत जनतासौ भक्तिभारं तदप्य
अलिनलनिजबिम्बच्छद्मना पद्मबन्धुः ।
१. 'कीलाजिह्वोऽत्राग्निः' इति ग-पुस्तकस्था टिप्पणी. २. धूमध्वजो वह्निः, ३. सू. र्यच्छलेन.
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११८
काव्यमाला।
सपदि विपदपास्त्यै मूर्तिमत्पाकपिङ्गं
सुकृतफलमिवास्या हस्तवति व्यधत्त ॥ ४४ ॥ भुवि गतमतिदूरं दीर्घकाण्डाग्रचक्रा
कृति विततदलालि मारुहच्छायवृन्दम् । अवहत नवशूरव्याहतध्वान्तसेना
ततिपतितसदण्डच्छत्रखण्डानुकारम् ॥ ४५ ॥ अपि गृहकुहरेषु ध्वान्तजालानि जाला
न्तरसरलगतीनां चाकचक्यै रुचीनाम् । प्रसृमरहरिणाक्षीरत्नताटङ्कचक्र
प्रतिफलनविचित्रश्चित्रभानुर्जघान || ४६ ॥ गहनतरुवनस्थं तामसं त्रासकम्पा
कुलमिव चलपत्रच्छायपूरच्छलेन । द्युमणिरनणुशाखामध्यलब्धावकाशै
दिशिदिशि करदण्डैः खण्डयामास चण्डैः ॥ ४७ ॥ लघुतरबिलगर्भोदनदुर्गान्तरेषु
स्थितमपभयगोद्रीवमप्यन्धकारम् । दिवसविवशनश्यत्पन्नगश्रेणिचूडा___ मणिकिरणविकासैस्त्रासयामास भावान् ॥ ४८ ॥ दिवसमुखविशेषध्यानसंलीनयोगी
श्वरविसरशिरोऽधःस्कन्धभावन्धदम्भात् । अपि गुरुषु गिरीणां कंदरासु प्रविश्य
स्वयमुपचयधीरं ध्वान्तमध्वंसतार्कः ॥ ४९ ॥ रविरविरलसर्पत्सर्पशारीररोचिः
कवचितमपि नीचैर्विश्वशश्वन्निवासम् ।
१. सूर्यः.
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१ आदिपर्व - ११ सर्गः ] बालभारतम्
अवतमसकुटुम्बं स्फाटिकाद्रिस्फुटत्वस्फुटितकरकलापैः प्रापयामास नाशम् ॥ ९० ॥
निचिततरतरङ्गच्छद्मकाश्मीरनीरच्छुरणगुणपिशङ्गाभोगमङ्गं वहन्त्याः ।
तदनु कमलिनीनां कामुकः काञ्चनीयं
तिलकमिव विरेजे व्योमलक्ष्मीमृगाक्ष्याः ॥ ९९ ॥ प्रत्यूषयामखुरलीक्षणनर्तितास्त्रौ
ब्राह्म मुहूर्तमनु सेवितवामदेवौ । अर्कोदये व्यतनुतामथ दानकेलिं
कृष्णौ कलिन्दतनयासविधे निखिन्नौ ॥ ५२ ॥
रङ्गत्पतङ्गप्रतिमोऽतिमात्रगात्रस्थितिर्मेचकचीरधारी । विशालचक्षुश्चतुरस्रमूर्तिर चर्हवर्चा मधुपिङ्गकूर्चः ॥ १३॥ पुरस्तयोरस्तसमस्तशत्रुविस्तारयोस्तारमतिर्जटावान् ।
द्विजाग्रणीजप्रदुदग्रबाहुः कश्चित्ततश्चित्तहरोऽभ्युपेतः ॥ ५४ ॥
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( युग्मम्)
किमेष मेरुर्वनमेखलावान्बिभ्रत्किमर्को यमुनां तनूजाम् । धृतोरुधूमोऽथ शिखीति ताभ्यां कृष्णांशुकोऽशङ्कि सपिङ्गकान्तिः॥१५॥ प्रमोदमन्दात्मकथावथैतौ दैत्यारिपार्थौ रसात्कृतार्थौ । समुत्थितौ तस्य पदानयुग्मे भृङ्गोपमावस्पृशतां नतास्यौ ॥ १६ ॥ मुदा समुत्थाय करेण रेणुभ्राजिष्णुभालो सुभटौ द्विजस्तौ । जगाद दन्तांशुभिरंशुकामलग्नस्त्रिमार्गायमुनाप्रयोगः ॥ ९७ ॥ पुरा पुरारिप्रतिमप्रतापः क्षोणीपतिः श्वेतकिसंज्ञयाभूत् । सदा कृतैस्तत्क्रतुचक्रवालैर्निर्वेदमापुः किल वेदभाजः ॥ ९८ ॥ तपांसि तीव्राणि तदेष तन्वन्प्रीतेन गौरीपतिनोपदिष्टः । अतोषयद्वादश हायनानि धाराभिराज्यस्य नृपः स वह्निम् ॥ ५९ ॥ १. खुरली अभ्यासः २. वामदेवः शिवः ३. कृष्णपार्थौ. ४. ' - अन्तर्गतैः' खः 'लमास्त्रमार्गः' ग.
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काव्यमाला।
पुनः पुनानो निजदर्शनेन तं भूपतिं शंभुरुवाच तुष्टः । सदा मदंशेन मुनीश्वरेण दुर्वाससा ते ऋतुकर्म भूयात् ॥ ६ ॥ इति प्रभोः प्राप्य गिरं स राजा चक्रे शताब्दी क्रतुमण्डलानि । अवाप्य विप्रान्गिरिशोपमेन दुर्वाससा संघटिताधिवासान् ॥ ६१ ॥ । ततः शताब्दीमखहव्यलाभैस्तद्द्वादशाब्दीघृतपानकैश्च । हुताशनः श्वेतकिभूपदत्तैर्लब्धाद्भुतग्लानिरभूदतेजाः ॥ १२ ॥ चिरं विरिश्चेरुपदेशमाप्य ग्लानिच्छिदायै दहनस्तदानीम् । स सप्तकृत्वः खलु खाण्डवेऽस्मिन्दीप्तोऽपि रक्षापुरुषैरलोपि ॥ ६३ ॥ शिखी वनस्यास्य समस्तजन्तुमेदांसि पीत्वा लमते स्वतेजः । इदं सदा रक्षति तक्षकस्य वास्तोष्पतिमित्रमहो महाहेः ॥ ६४ ॥ अहं स वह्निः शशिहंसकीर्ती लब्ध्वा भवन्तौ स्वजनीभवन्तौ । क्षणेन धक्ष्यामि विरिश्चिवाचा तत्खाण्डवं पाण्डवपद्मनाभौ ॥ ६५ ॥ महावने मानवदानवा हि रक्षांसि रक्षां सततं सृजन्ति । तथा हेरिस्तक्षकमैत्र्यदक्षो दाहक्षणे वर्षति खाण्डवेऽस्मिन् ॥ ६६ ॥ ज्वलाम्यलं तद्युवयोरवाप्य साहाय्यमाहात्म्यमहं वनेऽस्मिन् । सखा मदीयः स महाबलोऽपि कर्मण्यमुष्मिन्नजनिष्ट कुण्ठः ॥ ६७ ॥
(युग्मम्) कथां पृथासूनुरिमां निशम्य वह्नि जगाद प्रगलत्प्रमादः । नभोनिभे वक्षसि दन्तभासो गङ्गातरङ्गान्बलिवद्वितन्वन् ॥ ६८ ॥ सुदुर्बलं दोर्बलतो धनु, मन्दत्वरास्ते तुरगाश्च रथ्याः । रथस्तथोदग्ररयासहोऽयं बाणाश्च ताडग्रणकर्मणेऽल्पाः ॥ ६९ ॥ किमप्यमुष्यापि हरेर्न बाहुसामर्थ्यबाहुल्यसहं महास्त्रम् । पराक्रमोपक्रमतां त्वदर्थमेतान्पुनः साधय सिद्धिहेतून् ॥ ७० ॥ श्रुत्वेति तस्मै समदत्त वह्निः सोमक्षितीशाद्वरुणेन लब्धम् । रथं सिताश्वं कपिकेतुमस्त्रं गाण्डीवमप्यक्षयतूणयुग्मम् ॥ ७१ ॥ १. संबुद्धे रूपम्. २. इन्द्रः.
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१आदिपर्व-१२सर्गः]
बालभारतम् ।
मुरारये चक्रमरातिरौद्रमाग्नेयमस्त्रं च हुताशनेन । अमानवानामपि तानवाय कौमोदकी नाम गदाप्यदायि ।। ७२ ॥ नत्वा वह्निमथायुधानि विधुवन्नाबद्धगोधाङ्गुलि.
त्राणो वीरवरस्तदाजनि रथी पार्थो रथाङ्गी तथा । तत्साहाय्यसुदुःसहो हुतवहस्तत्र ज्वलन्नुज्ज्वला
ज्वालास्ताण्डवयन्स खाण्डववने चिक्रीड कल्पान्तवत् ।। ७३ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के
आदिपर्वणि कृष्णार्जुनास्त्रलाभो नामैकादशः सर्गः ।
द्वादशः सर्गः । समुदे पराशरसुतः सुतरां भवतोयराशितरणैकतरी । प्रससार भारतमिषेण मुखे खलु यस्य निर्मलवितानपटः ॥ १॥ अथ सप्रतिज्ञ इव दग्धुमिदं वनमुग्रधूममुखमुक्तशिखः । चिरकालनिर्दहनकोपवशात्कपिशः किल व्यलसदेष शिखी ॥ २ ॥ प्रबलप्रवृद्धबहुजिह्वतया कवलीकृतार्करुचिराजिरिव । अतिदुःसहोऽजनि शिखी महसा स हसन्निवाद्भुतयुगात्तदवम् ॥ ३ ॥ परिपालितस्य जलदेन सदा निजवैरिणा तरुगणस्य तदा । ज्वलितः शिरांसि विदलय्य शिखी जलदाश्रये न्यधितधूममिषात्॥४॥ दहनस्तदा स्फुटितवेणुघटाघटितोत्कटध्वनिमिषेण मुहुः । विपिनान्तरे तनुमतस्त्रसतः प्रति कोपहुंकृतिमिव व्यतनोत् ॥ ५ ॥ अभवत्तदा परमकोटिगतज्वलनाभिषङ्गपरितापभृताम् । वनवासिनां कलकलः सकलत्रिजगज्जनप्रलयभीतिमयः ॥ ६ ॥ वसनेऽग्रहीदथ कचप्रचये तदपुस्फुटत्पटु दृशौ दहनः । तदपि त्रसन्तमखिलाङ्गपदग्रहणादनिष्टयदरण्यजनम् ॥ ७ ॥ ज्वलनत्रसज्जननिषेधकरः कनकाभकेतुकपिशीर्षगुरुः । त्वरितं वनानि परितः स्फुरितैर्विरराज वप्र इव पार्थरथः ॥ ८॥ . १. कल्पान्तवह्निम्.
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काव्यमाला ।
पततां वनात्त्वरितमुत्पततां पतितं रवेण वपुरेव भुवि । पवनेन पार्थशरसार्थहता छदपद्धतिस्तु दिवमेव ययौ ॥ ९ ॥ अथ यक्षराक्षसतुरङ्गमुखप्रमुखैररण्यपुरुषैः सरुषैः । उपशान्तये हुतभुजः स्वभुजप्रथिताम्बुपात्रमभितः स्फुरितम् ॥ १० ॥ प्रहितस्य शान्तिजननाय जनैर्ज्वलने जलस्य न लवोऽप्यपतत् । अतिदूरतो ऽप्यतुलतापवशात्परिशोषितस्य नभसि स्फुरतः ॥ ११ ॥ मिलितैरतीव वनवासिजनैः प्रहितं पयो बहु दवज्वलने । अशनान्तरालजलपानकलां कलयांबभूव तरुभारभुजि ॥ १२ ॥ जलमानयन्घटघटीपटलैर्ज्वलनोपशान्तिकृतये किल यत् । स्वतनौ तदाशु परितप्ततरा निदधुर्न वस्तुनि जना ज्वलिते ॥ १३ ॥ अभितो भुजान्दहनशान्तिधियां चरणानपि त्वरितनाशभृताम् । अभिदत्पृथाजनिरनेकशरप्रसरै रथाङ्गपतनैश्च हरिः ॥ १४ ॥ अभितस्त्वमेव परिरक्ष शिखी भवतः सखा दहति संप्रति नः । पृषदश्वमेतदिव वक्तुमगुर्गुरु फाल्या गगनवर्त्म मृगाः ॥ १५ ॥ घनहर्षहेषितभृतस्तुरगाः स्वयमेत्य पेतुरनले ज्वलति । मरणे नितान्तनियते भयतो न महस्विनः परिहरन्ति महः ॥ १६ ॥ दर्शनैर्ददार यदुदारभयः किरिसंचयः किमपि भूवलयम् । विपिनं प्रदीपयति तद्दहने खनति स्म कूपमिव मूढमतिः ॥ १७ ॥ अपवैरमग्निभयतोऽनुगता हरयस्तलेषु करिणां शरणम् । निहताः पतद्भिरथ तैरपि ते क्व फलत्यकृत्यमभिमानमुचाम् ॥ १८ ॥ बिलनिर्गमे समणयः फणिनो यदधुः स्फुलिङ्गयुतधूमकलाम् । नितरामधो जगदपि ज्वलितं वनसीनि तेन दहनेन ततः ॥ १९ ॥
सरिदम्बुचूर्णितपरिज्वलिताचलनागवल्लिदलपूगफलैः ।
कवलीकृतैरिव तदा विपिनेऽरुणजिह्न एव विललास शिखी ॥ २० ॥
१. 'पृथाजनु : ' क. २. 'अधिपः' क- ख. ३. 'व्यदारयदुदारभयः' क- ख. ४. 'हरि संचय:' ग; 'करिसंचयः क. किरयः कोला:.
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१ आदिपर्व-१२सर्गः]
बालभारतम् ।
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अतिलौल्यतः कवलयन्मलिनाति काननं किमपि दावशिखी । बहुभक्षणेन शितिधूममिषात्तनुते स्म भोजनबहूद्दिरणम् ॥ २१ ॥ अवलोक्य दावदहनं तमहो परितापितत्रिभुवनं गहने । अपि पार्थकेतनकपिनिदधौ स्मयमद्भुतं हुतपलादपुरः ॥ २२ ॥ अपि तापयूँत्कृतिकृतां वदनोल्लसितस्वभावशिखिहेतिमिषात् । वनरक्षसां व्यधित गर्भशिखी विशतोऽन्तरभ्युपगमं शिखिनः॥ २३ ॥ उपरि प्रपत्य पिदधुः स्वशिशून्मृगयोषितोऽवगणितात्मरुजः । अथ तासु पाततरलाः सुतरामसहन्त हन्त विरहं नै मृगाः ॥ २४ ॥ प्रणयक्रुधा विरहितानि चिरं वनवासिलोकमिथुनानि तदा । कृतहाकृतीन्यपि परिक्रमणे सुखनिर्व्यथं पुलकितान्यमिलन् ॥ २५ ॥ भयसंभ्रमेऽपि परिरभ्य तथा सुखमाप तद्वनजुषां मिथुनम् । ह्रियमाणमग्निपतनेन यथा नहि जीवितव्यमपि वेद पुरा ॥ २६ ॥ हिमतागुणादभिमतं मरणं वरमेव वारिणि न दीप्तदवे । गलबद्धबालनिवहा न्यपतन्वनसुध्रुवो नदनदीषु ततः ॥ २७ ॥ दहनो दहेजननि हा सुत हा दयिते हहा हृदयनाथ हहा । हहहा सगर्भ हहहा भगिनीत्युदितं तदा वनजनेन मिथः ॥ २८ ॥ दवदह्यमानहरिहस्तिमहोरगमुख्यजीवरवकञ्चुकितः । गुरुभूधरस्फुटनभूनिनदो द्युसदां ददौ भुवनभङ्गभयम् ॥ २९ ॥ अथ खाण्डवप्रसभरक्षणधीः क्षणधीरिताब्दपटलो बलभित् । मुसलप्रमाणसरलैः सलिलैः प्रववर्ष पत्रिभिरिवास्य सुतः ॥ ३० ॥ अतिदीप्ततद्दवशिखाशिखरैः खलु दह्यमानमिदमेब्दजलम् । गगनेऽप्यवाप वडवाग्निहतोदधिवासदुःखमिति घिङ्तियतिम् ॥ ३१ ॥ अथ पार्थमार्गणगणोऽगणयजलवारिणी वियति कुट्टिमताम् । अतिवेगसंचरणपत्रभवत्पवनैरजिज्वलदहो ज्वलनः ॥ ३२ ॥ १. भस्मीकृतलङ्क इत्यर्थः. २. 'बूत्कृतिः' क-ख; 'फूत्कृतिः' इति क-पुस्तकस्थः शोधितः पाठः. ३. 'नृमृगाः' ग. ४. '-हंकृतीनि-' क. ५. भेघसलिलम्. ६. 'अगणयन्' क-ग. ७. 'ज्वलनम्' ख-ग.
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१२४
काव्यमाला।
अभवत्तदा स कुरुवर्षचरः किल तक्षकोऽत्र विपिने ज्वलति । प्रविवेश मातृजठरं भयतः पुनरश्वसेन इति तत्तनयः ॥ ३३ ॥ सुतरक्षणाय फणिराजवधू?तमुत्पपात दिवि दीप्तदवात् । गिलनावशिष्टफणिपुच्छयुत विजयी चकर्त च तदीयशिरः ॥ ३४ ॥ अथ तक्षकप्रणयतः पवनैः परिमोह्य पाण्डुपृथिवीशसुतम् । अपमौलिपन्नगवधूजठरादहरत्तदा हरिरहीन्द्रसुतम् ॥ ३५ ॥ इति वश्चनेन कुपितः फणिनी विशिखैस्त्रिधा दिवि चकत नरः । दहनो हरिः स च तदाप्यशपद्भव निष्प्रतिष्ठ इति सर्पसुतम् ॥३६॥ खयमश्वसेनहतिवञ्चनया कुपितः कृतान्त इव पाण्डुसुतः। अतिभीषणैर्विशिखदण्डगणैर्गगनं प्यधाद्विधुरयन्मरुतः ॥ ३७ ॥ . अथ तं प्रति धुपतिरुग्ररुषारुणदृष्टिराजि निजमङ्गमधात् । गगनान्तरालविकरालदवज्वलनस्फुलिङ्गभरभिन्नमिव ।। ३८ ॥ जलदास्त्रमास्तृतवियद्वलयाम्बुदराजिराजितममोचि ततः। हरिणा रयेण हरिणाधिपतिप्रतिमल्लपौरुषकिरीटिरुषा ॥ ३९ ॥ त्रुटदुत्कटोत्कटतडित्पटलैदृढगर्जितैर्जितदिगन्तगजैः । जलदैस्तदैव परितः स्फुरितैः क्षयकालभीषणमकारि नभः ॥ ४० ॥ घनपद्धतिः पिहिततिग्मरुचिस्तिमिराणि तानि विततान तदा। विरराज येषु शिखिकीट इव द्युतिदीपितत्रिभुवनोऽपि दवः ॥ ४१ ॥ अपतन्घनाघनघुनाम्बुभरैर्गलहस्तिता इव शिखाः शिखिनः । स दधौ छमिच्छमितशब्दमिषादथ दुःखनिःश्वसितमल्परुचिः॥ ४२ ॥ स्वमथ प्रतापमिव मूर्तमयं परिभूयमानमवलोक्य दवम् । पवनास्त्रमस्त्रकुशलो मुसलध्वजधैर्यधाम विजयी व्यसृजत् ॥ ४३ ॥ अहह व्यरोधि युधि मत्तनुजानुज एष पाण्डुतनुभूरमुना । इति कोपितेन पवनेन किल ग्रुपतेरलोडि गृहमद्रिपतिः ॥ ४४ ॥ १. '-हृतकण्ठतया' ग. २. देवान्. ३. धारणक्रियाविशेषणम्. ४. घनः सान्द्रः. ५. बलभदः.
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१ आदिपर्व - १२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
सपदि क्षिपन्ननुदिशं जलदाञ्जयसंपदा सह सहस्रदृशः । अदिदीपदर्दितवनं ज्वलनं नरतेजसा सममसौ पवनः ॥ ४५ ॥ निकृते विरोधिनि घने पवनैरुदितास्ततः शिखिशिखा मुदिताः । रुचिबन्धुमम्बुरुहबन्धुमपि द्रुतमस्पृशन्दिवि हसन्महसम् ॥ ४६ ॥ यदवारि वारिदततिर्वितता वियति स्वयं विजयिना जयिना । तदतिक्रुधा दिवि दधार पवि मघवाधिरुह्य विशदं रेदिनम् ॥ ४७ ॥ अथ संभ्रमभ्रमितभीमपवौ पवनप्रपातकुपिते पतौ । त्रिदशैर्भृशं निजनिजास्त्रततिः कलिता किरीटिकेलिकेलिकृते ॥ ४८ ॥ स्वजनप्रमाथभवदुःखदवाकुललोकनिःश्वसितधूमभरैः ।
ध्रुवमङ्गसङ्गिभिरतीव शितिं स दधार दण्डमिव दण्डधरः ॥ ४९ ॥ परिपिण्ड्य दत्तमिव धूर्जटिना जगदन्तकारि दहनाक्षिमहः । द्विषदस्खलं स खलु रुद्रसखः समये हिरण्मयगदास्त्रमधात् ॥ ९० ॥ दजेन्द्रकीर्तितरला बलिनो न पदात्पदं ददति यद्भयतः । तमुरीचकार वरुणस्तरुणघुमणिद्युतिं सपदि पाशमपि ॥ ११ ॥ इति शस्त्रविस्तृतरसा सहसा सह वासवेन दिविषत्परिषत् । दववह्निनिह्नवसमर्थरुचिः प्रचचाल पार्थसमरार्थमसौ ॥ ५२ ॥ अचलन्नितश्च गुरुगर्वभृतः क्षणमात्रवृष्टिकलितोच्छुसिताः । युधि यक्षराक्षसखगेन्द्रफणिप्रमुखा रुषा विजयिने विपिनात् ॥ १३ ॥ युधि यक्षराजिरसिराजिकरा विकरालतां निदधती परितः । स्फुटकोपताम्ररुचिरभ्यचलद्द वहेतिपङ्किरिव धूमयुता ॥ ५४ ॥ विविधास्त्रधारणकरालतराः कृतहुंकृतो विकृतभालभुवः । रसनाञ्चलज्वलदुरुज्वलना रजनीचरा विदधुरुगुरुताम् ॥ १९ ॥ अतिचण्डतुण्डनखराः खगतैः पवनं छदैस्तमसृजन्गरुडाः ।
ननु सोऽपि दीपकलिकेव दवः शमनोन्मुखः सपदि येन कृतः ॥ ९६ ॥ मणिपाणिजज्वलदनेक फणाङ्गुलिशालिनस्तरलतां दधतः । परितः प्रसतुरसितद्युतयो युधि मृत्युराज भुजवद्भुजगाः ॥ १७ ॥
१. ऐरावतम्. २. कलिः कलहः. युद्धमिति यावत् .
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काव्यमाला |
दिवि दैवतेषु कुपितेषु पुरः फणिदैत्यराक्षसमनुष्यकुलैः । विजयी विभुत्रिजगतीसुभटैः कटरि व्यधत्त युधमस्त्रसखः ॥ ९८ ॥ निजशस्त्रपाततरलेषु तदा त्रिजगद्भटेषु विकटेषु रुषा । क्षयवारिवाह इव वासवभूरिपुवृष्टिमष्टसु स दिक्षु दधौ ॥ १९ ॥ स्वयमुद्धृतेन युधि कोऽपि चलज्ज्वलदङ्गिपेण गिरिणा फलभुक् । नरवाणपातहतबाहुतया पतता व्यपाति निरदायि ततः ॥ ६० ॥ समिति त्रसन्नरशरैः शमनः करलम्बितलथितदण्डतया । नर एव वीर इति भूषितवान्नररेखया हृदवनिं महताम् ॥ ६१ ॥ परजीवितच्छिदुर कर्तनिकाभिधयन्त्रलोलरसनायुगलः ।
युधि कालपाश इव पाण्डुभुवा विशिखैर्गणः फणभृतां बिभिदे ॥६२॥ अभजद्भियं भृशमपूर्वचरीं नरवाणदौत्यघटितां धनदः । इति तस्य पाणिकृतयापि तदा गदया रुषेव दिवि विच्छुरितम् ॥ ६३ ॥ दिवि जातरूपगिरिगोत्रभृतां शिशुभूभृतामिव समुत्पतताम् । स गरुत्मतां सपदि पक्षतति विचकर्त युक्तमयमिन्द्रसुतः ॥ ६४ ॥ प्रचरिष्णुपार्थशरपातभयात्रसतः क्षणेन वरुणस्य रणे । करलम्बिपाशमयमस्त्रमपि व्यधित कुधेव चरणस्खलनम् || ६१ || कुपितश्चकार कदनानि हरिर्वनवासिनामपि रथाङ्गरयात् । अतिजिह्वयातितरलीकृतया कवलीचकार किल ताननलः ॥ ६६ ॥ द्विषतो निपिष्य युधि चक्रमहो मुहुरारुरोह मुरवैरिकरम् । दिवि विम्बमम्बरमणेस्तिमिराण्यभिहत्य पूर्वगिरिशृङ्गमिव ॥ ६७ ॥ हरिचक्रपार्थचरचक्रहतैर्वनवासिनस्त्रिदशतां गमिताः । नवरोचमानभुजशौर्य भरैरचलन्पुनर्युधि सुराः सह तैः ॥ ६८ ॥ नरसंगरेण दनुजान्मनुजानपि वीक्ष्य देवपदवीं गमितान् । सहजैरचालि किमु मुक्तिपदस्पृहयालुभिः समरसीम्नि सुरैः ॥ ६९ ॥ विललास चक्रधरचक्रमथ द्युपथे सहार्जुन सुवर्णशरैः । परितापितामरकुलं किरणाकुलमर्कविम्बमिदमन्यदिव ॥ ७० ॥
१. 'अर्जुनशरैः परितः ' क.
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१ आदिपर्व - १२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
परितप्तदीर्णचलित स्खलितप्रतिशस्त्रराशिभिरथोप्रतरैः । नरमार्गणैविधुरिता युधि ते ययुरिन्द्रमेव शरणं त्रिदशाः ॥ ७१ ॥ अथ विक्रमेण तनयस्य तदा मुदितो विशेष बलदर्शनधीः । बलसूदनः कृतककोपकणः क्षणमश्मवृष्टिमसृजन्नभसः ॥ ७२ ॥ शरजालकं किमपि संभ्रमतो विजयी ववर्ष तदमर्षनिधिः । अपिषत्पतत्र पवनेन शिलाः परमाणुवत्क्वचन चिक्षिपिरे ॥ ७३ ॥ अथ मेरुशृङ्गमुरु पार्थभिदे मुमुचे रुषेव नमुचेर्द्विषता । दिवि लोहगोलकमिव ज्वलितोज्ज्वलदन्तरं तरलितत्रिजगत् ॥ ७४ ॥ अथ पार्थबाणततिभिः पतिते दवसीम्नि तत्र शिखरे महति । अपि कल्पशाखिभिरपूरि नहि स्वमनः प्रकल्पितमिवै सनम् ॥ ७५ ॥ बलशत्रुरम्बरगिरानुभवैरपि दुर्जयौ नरहरी कलयन् । अथ मुक्तसंगररसप्रसरस्त्रिदशैः समं त्रिदिवसीम्नि ययौ ॥ ७६ ॥ निरपायमग्निरथ संज्वलितो नरविक्रमस्मरणकम्पिशिराः । मरुदध्वमूर्ध्नि विललास रणापसृतं विलोकयितुमिन्द्रमिव ॥ ७७ ॥ जितशत्रयोर्मुरजिदर्जुनयोर्ज्वलितः स कश्चन महोदहनः । यशसातयोर्विंशदितो हिमवानिव यत्पुरो दवशिखी स बभौ ॥ ७८ ॥ दृढदावपावकभवानि बभुर्मलिनानि धूमवलयान्यभितः । दिवि मूर्तिमन्ति समिति त्रसतो नवदुर्यशांसि सुरभर्तुरिव ॥ ७९ ॥ यदुपार्जि जम्भमुखदैत्यजयाद्दिवि वासवेन हिमहारि यशः । इषुभिर्नरेण दलितस्य कणैरिव तस्य तारकगणैः शुशुभे ॥ ८० ॥ मदसिंहनादमथ तौ दधतुर्नरकेशवौ जयरसेन तथा । अनुसंगतौ किमु रणाय भटाविति शङ्कितं दिवि यथा विबुधैः ॥ ८१ ॥ वनजीवनिर्गमनिषेधकृते स्थितयोस्तयोरथ रथस्थितयोः । दिवि मूर्तिमान्हुतवहो जटिलः प्रमदी जगर्ज च वैशाश्च पपौ ॥ ८२ ॥ १. 'अति' क. २. 'वनजीवि - क. ३. 'वसाश्च' इति पाठः साधीयानू. वसा वपा.
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काव्यमाला ।
अपि नीरनामभृति वैरभवं बत बिभ्रदौर्व इव तत्र वने। . दवदम्भतोऽज्वलदुदग्रशिखाततिरब्दमार्गमपि दग्धुमनाः ॥ ८३ ॥ ज्वलितस्य तस्य दहनस्य भयाद्गहनत्विषा कमलकोमलया। ध्रुवमन्वसारि शिशिरा सविधे यमुना धुनी तदधुनाप्यसिता ॥ ८४ ॥ । दवपावकप्रबलतापहता यमुनापि मङ्क्ष विपिनान्तरतः । गगनं जगाम परिरब्धुमिव द्युधुनीसखीमसमधूममिषात् ॥ ८५ ॥ विपिनप्रभूततरभूतपलग्रसनोत्थतृष्ण इव कृष्णपथः । हृदकूपसिन्धुसरसीषु रसादपिबत्ययस्वयमसेचनकम् ॥ ८६ ॥ व्यथितस्तदाविततदाहवशादिवसाधिपोऽपि दिवि तापभरैः । न लभेत शान्तिमधुनापि धुनीधवमध्यसंविशननिःसरणैः ॥ ८७ ॥ परितापसंकुचदशेषदशाकृशवक्रिताकृतिरतिग्मरुचिः । अभजत्तदा मदनवैरिशिरस्तटिनीतटं ज्वलति तत्र वने ॥ ८ ॥ स दवस्तदा दिवि तथा परितः परिताप्य पित्तमदितोडुततेः । अधुनापि भानुमसहिष्णुरिव प्लवते यथा क्वचन सा दिवसे ॥ ८९ ॥ क्षयमित्यवेक्ष्य शिखिमैव्यवशान्मृगमेकमेव पवनश्चलितुम् । दवतस्ततः किल विकृष्य तदा निदधौ सुधारुचि स चिह्नमभूत् ॥९॥ घनतद्वनज्वलनतप्तधरातलसंगसंगतकृशानुकणम् । अधुनापि भाति फणिराजफणापटलं प्रदीप्तमिव रत्नमिषात् ॥ ९१ ॥ अमुना क्षयाभिनयिना शिखिना हरिरप्यतापि सविधे स तथा । जननान्तरेऽप्यनिशमेव यथा ध्रुवमन्धितोयशयनोऽयमभूत् ॥ ९२ ॥ ज्वलनोऽप्यतिज्वलनतः स तदा ध्रुवमातुरः स्वपरितापभरैः । अविशत्पयोधिर्मपि यःशमितस्तदगात्प्रतीतिमयमौर्व इति ॥ ९३ ॥ अरण्यतः पार्थ शरण्य पाहि मां हिमांशुहारीणि यशांसि वर्धय । मयो भयेनेति वदन्कृशानुना व्यमोचि दैत्यो नमुचेः सहोदरः ॥१४॥
१. वनशब्दस्य नीरवाचकतामधिकृत्येयमुक्तिः. 'वनजायताक्ष्यः-' इत्यादौ तथादर्शनादप्रयुक्तत्वदोषेऽपि निरस्तः. २. 'अयशः शमितः' ग.
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१आदिपर्व-१२सर्गः] बालभारतम् । प्राविप्रो मन्दपालस्त्रिदिवभुवमगात्तत्र निष्पुत्र इत्या
पायं नैवानपायं फलमुरुतपसां बाल्यतो ब्रह्मचारी । तत्कृत्वा शार्ङ्गरूपं द्रुतसुतकृतये शाङ्गिकायां स सूते
यत्पुत्राणां चतुष्कं प्रणुतिभिरमुनामोचि वस्ततस्तत् ॥९५ ॥ वह्निः शाश्विसेनोरगमयदनुजान्षड्डिना खाण्डवं त
दग्ध्वा षड्डासराणि क्षयकुपितमहाकालभालाक्षिभीमः । षडक्रप्रायमूर्ती कुरुकुंकुरकुलौ तूर्णमापृच्छय वीरौ
धीरौ षटुक्रितोऽपि प्रकृतशुचिरुचिः स्खं पदं प्राप हृष्टः ॥ ९६ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितेः
पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती। तत्प्रज्ञात्मनि बालभारतमहाकाव्ये महेच्छप्रियं निर्याति स्म रसैः सुधोर्मिसरसैः स्वर्वादि पर्वादिमम् ॥ ९७ ॥
(सैर्गा द्वादश तैरेकं सहस्रनवशत्यपि ।
अष्टेत्यनुष्टुभां संख्या निश्चितात्रादिपर्वणि ॥) इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के
आदिपर्वणि खाण्डववनवर्णनो नाम द्वादशः सर्गः ।
१. कुकुरा यादवाः. २. श्लोकोऽयं क-पुस्तके त्रुटितः.
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१३०
काव्यमाला।
सभापर्व।
प्रथमः सर्गः। चन्द्रायमाणाः सुकृताम्बुराशेः सूर्यायिताः साधुहृदम्बुजानाम् । स्फारं त्रिलोकीदुरितान्धकारं पराशरस्याङ्ग्रिनखाः क्षिपन्तु ॥ १ ॥ अथार्ककन्यातटसीम्नि धन्या विष्णुश्च जिष्णुश्च मयासुरश्च । प्रियोक्तयः खण्डवखण्डदाहखेदच्छिदे मैत्र्यजुषो निषेदुः ॥ २ ॥ मयासुरः स्वं वनवह्निमुक्तं जानन्पुनर्जातमिवात्ततोषः ।। पाथै ततो बाहुभृतां वतंसमुवाच कंसद्विषतः समक्षम् ॥ ३ ॥ भाराय दिक्सिन्धुरभूधरास्ते धाता व वाताशन एष शेषः । विश्वंभरां भूरिभरां बिभर्ति परोपकारी पुनरेक एव ॥ ४ ॥ परोपकारे न रतिं करोति यस्तद्भराधिक्यनतां धरित्रीम् । धर्तुं मुकुन्दोऽपि परोपकारिलोकच्छलाद्वल्गति कोटिमूर्तिः ॥ ५ ॥ दीप्तेषु संसारदवानलेषु यशःसुधानीरनिधौ निलीनः । महानिहामुत्र च नैव तापमाप्नोति कुत्रापि परोपकारी ॥ ६ ॥ कथं तपस्तीव्रतरं चरन्ति स्फुरन्ति तीर्थेषु कथं वृथैव । सतां नितान्तं सुकृतानि तानि परोपकारव्रतमेव धत्ते ॥ ७ ॥ वित्तादिदानप्रभवा भुवोऽन्तः परोपकाराः कति न प्रतीताः । अमी शतांशेऽपि समीभवन्ति भयार्तजन्तोरभयार्पणैः किम् ॥ ८॥ न किंचन प्रत्युपकारमूचे स्थिरं विरञ्चोऽप्यभयप्रदातुः । तत्कैरहं पार्थ तवार्थपूरसंपूरणैरप्यनृणो भवामि ॥ ९ ॥ पितुः कलादातुरभीतिदातुर्मातुश्च किं प्रत्युपकारकर्म । इति स्मरन्तो हृदि केऽपि खेदं तदनिभक्त्यैव येदि क्षिपन्ति ॥ १० ॥ त्वज्ज्येष्ठयोः पार्थ तवापि पादपूजां ततः कामपि कामयिष्ये । इति प्रतिज्ञाय तदा तदने तिरोदधे दानवसूत्रधारः ॥ ११ ॥ किरीटिनः खाण्डवदाहमित्रं श्रीखाण्डवप्रस्थपुरान्मुरारिम् । प्रैषीदथ द्वारवतीपुराय तं पूजयित्वा तपसस्तनूजः ॥ १२ ॥ १. 'दत्ते' ख-ग, २. 'न' ग. २. 'दिनम्' क.
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२ सभापर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
कैलासघात्री घरमुत्तरेण मैनाकशैलं प्रति यत्प्रतीतम् ।
पूर्वोत्तरस्यां दिशि हेमरत्नैरलंकृतं विन्दुसरः सरोऽस्ति ॥ १३ ॥ न्यासीकृतं तत्र पुरा गरीयस्त्वरोऽथ गत्वा स्वयमानिनाय । वस्तुत्रयं विस्मयकारि शङ्खगदासभाभाण्डमयं मयोऽपि ॥ १४ ॥ मूर्छा यदापू रणशब्दपूरे दूरेण देवद्विरदोऽपि याति । तं फाल्गुनायाथ स देवदत्तमदत्त सख्ये वरुणस्य शङ्खम् ॥ १९ ॥ सभवजन्याभिधभूमिजानेर्गदामदान्मारुतनन्दनाय । क्षुम्यन्ति यद्भान्तिरवैर्जगन्ति कल्पान्तशङ्कार्तसुरासुराणि ॥ १६ ॥ मयाभिधानां वृषपर्वदैत्यप्रभोः सभां हस्तसहस्रमात्राम् । ददौ प्रक्लृप्तामृतुनाधिकेन वर्षेण हर्षी स युधिष्ठिराय ॥ १७ ॥ विनिर्मितायां स्फटिकाश्मसार्थैः पार्थस्य कीर्त्यामिव मूर्तिमत्याम् । यस्यां सहस्राणि वितेनुरष्टौ रक्षांसि रक्षां मयवाग्वशानि ॥ १८ ॥ यस्यामदृश्ये स्फटिकस्य वप्रे कल्याणकॢप्ता कपिशीर्षमाला । व्योमापगायाः पुलिने निलीना रथाङ्गराजीव विरोजति स्म ॥ १९ ॥ यत्पीठबन्धस्फटिकावनीषु मयूखलुप्ताः स्म विभान्ति सत्यः । हंसीरुतैः पद्मविहारिपद्मामञ्जीररावैरिव केलिवाप्यः ॥ २० ॥ वैडूर्यपैत्राः स्मितपद्मरागपद्मालयो मञ्जुलरत्नमालाः । आमुक्तमुक्तामयविन्दुवृन्दा वापीषु यस्यां व्यलसन्नलिन्यः ॥ २१ ॥ अच्छेन लृप्तं स्फटिकेन भित्तिस्तम्भाद्यदृश्यं स्खलनस्य हेतुम् । यस्यां वलन्तः प्रतिबिम्बितेन पुरो निजेनैव जना व्यजानन् ॥ २२ ॥ यत्रेन्दुकान्तप्रथितालवालपालीषु तन्वन्नमृतप्रणालीः । लीलावनीनामवनीरुहेषु बभौ वनीपाल इवामृतांशुः ॥ २३ ॥ सूर्याश्मभूमीषु निवेश्य कुम्भीर्यशो हसद्भिर्नभूभुजोऽपि । यत्रार्कपाका रसवत्यपश्यं किं कापि नाक्लृप्यत सूपकारैः ॥ २४ ॥ यस्याः शिरः सीनि वियद्विचित्रं नानामणीनां रमणीयभाभिः । ताक्सुधर्मादिभाजयेन धात्रा कृतं जैत्रमिवातपत्रम् ॥ २५ ॥
१. 'पाञ्चजन्याभिध - 'क. २. 'विराजते' ग. ३. 'वैदूर्य' ग. ४. ' - अदर्शम् ' ग.
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१३२
काव्यमाला ।
धूमायमानाग्निनिभासु नीलस्तम्भासु शोणाश्ममहीषु यत्र । अमर्त्ययूनोर्मनसी द्रवत्वान्निकाममेकीकुरुते स्म कामः ॥ २६ ॥ नीलोपलक्षोणिषु शोणरत्नस्तम्भा हगम्भोजमुदे यदन्तः । प्रातः समुद्रोत्पतदंशुमालिप्रौढप्रभा दण्डनिभाः स्म भान्ति ॥ २७ ॥ यत्र स्फुटस्फाटिकर्भूविभागे स्तम्भा महानीलमया विरेजुः । स्फारेन्दुकान्तिप्रकरातिपीतध्वान्तत्रजोद्गारभाराभिरामाः ॥ २८ ॥ चन्द्रापं यत्र पपुः सिताब्जसंदेहलीनालिकलङ्कितेषु । क्रीडाचकोराः स्फटिकाश्मक्लृप्तपाञ्चालिकास्येषु शशिभ्रमेण ॥ २९ ॥ यस्यां दधुः स्वस्तिकपङ्किलेखामुक्तानि मुक्ताफलमण्डलानि । चूलाचलत्केतु पटान्ततान्तपतयुगङ्गाजलबिन्दुलीलाम् ॥ ३० ॥ वसन्सदा तुम्बुरुरर्जुनस्य मैत्र्येण गन्धर्वपरीतपार्श्वः । स्थाने प्रमाणे च लये च यस्यां जगौ समं किंपुरुषाप्सरोभिः ॥ ३१ ॥ विशारदैर्यैरपि शारदायाः सभा न्यभालि स्मितबुद्धिबोधैः । सविस्मयास्तेऽपि समौलिकम्पं निर्वर्ण्य यां वर्णयितुं न शक्ताः ॥ ३२ ॥ तस्यां प्रविश्याथ शुभे मुहूर्ते नृपो ददौ सप्तदिनानि दानम् । द्विजावलीषु स्फुरितासु सप्तद्वीपावनीमण्डलपावनीषु ॥ ३३ ॥ नभोऽन्तरा नारदमङ्गभाभिः पतङ्गभासोऽपि भुजिष्ययन्तम् । कदाचिदालोकयति स्म तस्यां स्थितः सभायामवनीभुजंगः || ३४ || ध्यानैकतानैः शमहर्षिभिस्तैर्महर्षिभिः सप्तभिरुत्कचित्तैः । पीतास्यशीतांशुरुचं तदात्वविमुद्रचक्षुः कुमुदैरुदारम् ॥ ३५ ॥ पतिव्रताभिर्दिवि तारकाभिः शशिभ्रमोच्छृङ्खल लोचनाभिः । अलाञ्छनालोकन भग्नकान्तशङ्काभिरल्पाल्पनिरूपितास्यम् ॥ ३६ ॥ मैले मदालोकनसावहित्था भूवन्निति च्छन्नतनुं घनान्ते । विलोकयन्तं कलहायमानान्विमानिनः कानपि मानिनीभिः ॥ २७ ॥ तदात्वकान्ताकुचकोटिकृष्टैः शिरस्तटीकुम्मलितैः करायैः । हिया च भक्त्या च नताननेन विमानिवर्गेण विनम्यमानम् ॥ ३८ ॥ १. ' - भूविभूषाः खन्ग. २. 'चूडा-' ग. ३. 'किंपुरुषाङ्गनाभि:' क.
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२ सभापर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
उदस्तहस्तेन
समुत्सुकत्वसंभारभाजाम्बुजबान्धवेन । लीलारविन्दद्वितयं विहाय विहायसि स्पृष्टपदाब्जयुग्मम् ॥ ३९ ॥
१३३
उदञ्चदुत्तुङ्गतरङ्गहस्तविस्तारवत्या गगनस्त्रवन्त्या । पवित्रतायै शिवसेव्ययापि दूरादपि क्षालितपादपद्मम् ॥ ४० ॥ शृण्वन्तमन्तःकरणेन किंचिदनाहतं नाम मुदां निधानम् । समीरणाभोगरणगुणाया निरादरं नादरसे महत्याः ॥ ४१ ॥ गङ्गातरङ्गावलिमञ्जुलानि सद्ध्यानधामानि जटान्तरेषु । उद्भासयन्तं शशिशुभ्रभासं सतीवियोगस्थमिवैकमीशम् ॥ ४२ ॥ स्फुरत्परीवारमुनीन्द्रवारनेत्रप्रभाम्भः कमलायितास्यम् । ध्रुवं पथः श्रान्तिभिदे सभाग्रध्वजाञ्चलैर्वीजितमुत्तरन्तम् ॥ ४३ ॥ (कुलकम्)
अथायमभ्युत्थितिभाजि भूपे कृतानतौ व्योमतलावतीर्णः । दत्वाशिषं भूषितभद्रपीठः पुरो निविष्टे मुनिरित्युवाच ॥ ४४ ॥ तेजस्विनस्त्वत्क्रतुनित्यतृप्त्या प्रेक्ष्य प्रियान्दैत्यभुजैरजेयान् । दत्ताशिषस्त्वय्यधुनैव देव्यः स्वयं मया स्वर्गगतेन दृष्टाः ॥ ४५ ॥ स्वर्गे महेन्द्रादिमहासभालीनिभालनेनाजनि यः प्रमोदः । तमप्यसौ लुम्पति मेsतिमात्रप्रभाभरात्तप्रसभा सभा ते ॥ ४६ ॥ प्रभूतसंभूतविभूतितेजः शोभा पराभूतसुराधिनाथम् । राजन्हरिश्चन्द्रनरेन्द्रमीर्ष्यापरः सुधर्मोपरिगं निरीक्ष्य ॥ ४७ ॥ श्री पाण्डुभूपस्त्वयि धर्मराजसभाविभूषायितवैभवात्मा 1 दिवं समीक्ष्य क्षितिमीयुषो मे मुखेन संदेशममुं दिदेश ॥
४८ ॥
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( युग्मम्)
- सद्धर्मकल्पदुजुषि त्वदीययशः सुधासिन्धुशतावतारे ।
जानाति नातिश्रममश्रमेण नीतस्त्वया नीतिपथे जनोऽयम् ॥ ४९ ॥ महोन्नतः संनतताकलङ्कशङ्की घरापातिनि वस्तुनि स्खे | जिघृक्षया कोऽपि नर्ति न याति कुतः परद्रव्यहृतिस्त्वदुर्व्याम् ॥ १० ॥
१. 'इमम्' ग.
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१३४
काव्यमाला ।
लीलाचलानां चललोचनानां नृरत्नरत्नाभरणै रणद्भिः । पुरे पुरे वर्त्मनि वर्त्मनि स्यात्तवानिशं कोऽपि नयप्रघोषः ॥ ११ ॥ पृथ्वीश पृथ्वीं त्वयि पाति पान्था भृशं निशीथेऽपि महापथेऽपि । हस्ताग्रविन्यस्तमणिप्रदीपद्युतिच्युतध्वान्तचयाश्चलन्ति ॥ ५२ ॥ त्वद्यज्ञतृप्तामरनिर्भयेन्दुभाभिस्तथासौ सरसा रसाभूत् । यथा पृथानन्दन नन्दनोर्वी जहास शश्वत्फलशालिसस्या ॥ ५३ ॥ उच्छृङ्खलं खेलति पुत्रराज्यमदादसौ यद्यपि नित्यमुर्व्याम् । धर्मो धराधीश भवत्पितेति पदे पदे सत्क्रियते तथापि ॥ १४ ॥ भवत्क्रतुप्रीतिहृदः पयोधिरत्नाकरेभ्यो रविणा गृहीतैः । वृष्टैर्जलैरेव मणीभवद्भिर्बभूव भूः कुत्र न रत्नगर्भा ॥ १५ ॥ वनानि सर्वाणि करिप्रसूनि बहूनि सर्वे गिरयः सुवन्ति । त्वयि क्षितिं पाति नयैकनिष्ठे विन्ध्याटवीरोहणयोः क्व गर्वः ॥ ५६ ॥ ऊधस्विधेनुस्तननित्यवर्षत्पयोनदीमातृकतां वैहन्तः ।
ग्राम्याः स्तवस्फारफलाभिरामक्षेत्रा न नेत्राणि धने क्षिपन्ति ॥ ५७ ॥ राजन्भवान्राजति तोरनीतिरसावैनीतिस्तव किंतु देशः । महामुनीनामपि साम्यरम्यमनोधनानां हरते मनांसि ॥ १८ ॥
धर्मैकधीरं निखिलं विलोक्य क्रूरे निजे कर्मणि लज्जमानाः । राजञ्जनं तावकमाधयो वा न व्याधयो वा खलु बाधयन्ति ॥ १९ ॥ पदे पदे संमदिना सदैव महेषु लोकेन वितन्यमानम् । नवं नवं भोगमुपाददानास्तवाशिषः स्वर्गिगणा गृणन्ति ॥ ६० ॥ तव स्तवोक्त्या सफलैव वाणी मुखे भवद्देशजुषां जनानाम् । तेषां पुनर्वेश्मनि निष्फलैव लक्ष्मीरभावेन वनीपकस्य ॥ ६१ ॥ सिक्तो यदि व्यर्थमनोरथानामखैरजखैरभिसृत्वरीणाम् । तत्किं तवायं नयकल्पशाखी मनोरथं पूरयति प्रजासु ॥ ६२ ॥
१. 'वहन्ति' क. २. 'चारु' ख. ३. ' - अस्तापनीति : ' ग. ४. न विद्यते इति - यत्रेति विरोधपरिहारः.
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२सभापर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
१३५ त्वत्पालनादाश्रममेदिनीषु सुखं यदापुर्मुनयो महान्तः । जानन्ति नूनं फलनोन्मुखीनां मुक्तेर्मुदामग्रयणं तदेव ॥ १३ ॥ मुक्त्वा तरन्तीमिति तावकीने सद्धर्मसिन्धौ धरणी फणीन्द्रः । शृणोति कीर्तिं भवतो भुजंगीगीतेषु मौलीनधुना धुनानः ॥ ६४ ॥ भवत्पुरीवासविलासभावन्मनोरथाविष्टहृदः सदैव । देवा दिवं मोक्तुममी न शक्ताः कः स्यात्क्षमः कर्मनियोगभङ्गे ॥६५॥ एतां परित्यज्य पुरी पुरोऽस्तु व ते रतिः स्वर्गमुपागतस्य । त्रिशङ्कुसूनोनयन्नपायं न राजसूयं तनुषे मखं चेत् ॥ ६६ ॥ यतो जयी राजसु राजसूययज्ञैकयाजी सुकृतैकभाजी । हसत्यसावत्र विभूत्वभूत्या हरि हरिश्चन्द्रमहीमहेन्द्रः ॥ ६७ ॥ योग्यो जयश्रीचतुरैश्चतुर्भिस्त्वं सोदरैरीशराज्यसंपत् । नयज्ञ यज्ञं जनयेत्युपेत्य मैत्रीपरो राजतु देवराजः ॥ ६८ ॥ संदिष्टमेतत्तव याम्यतोऽहं देवेशसंदेशकृते मुरारिम् । इदं निगद्याशु मुनिस्तिरोभूद्वियोतयन्विादिवांशुभिर्याम् ॥ १९॥ अथाह्वयदुर्वहराजसूयमन्त्राय नारायणमेकमित्रम् । धनाधिपोऽयं गुरुकार्यभारे यन्मन्यते वामधुरीणमेनम् ॥ ७० ॥ श्रीपाण्डुसंदिष्टमखाय मन्त्रं युधिष्ठिरेणायमुपांशु पृष्टः । नारायणः संगतराजनीतिपारायणं सारमिदं जगाद ॥ ७१ ॥ सर्वैर्गुणैरर्हसि राजसूयं राजन्पुनस्तस्य महाबलस्य । वधं जरासंधधराधवस्य विना न निर्वाहसखो मखोऽयम् ॥ ७२ ॥ भर्गाय भूमीधवमेधयज्ञं संकल्प्य यस्मिन्बलिनां जयाय । समुद्यते केऽपि नताः पदान्ते नेशुः परे केचन कांदिशीकाः ॥ ७३ ॥
१. '-इत्यमुं ते' ग; 'त्वमन्ते' क. २. एतदने क-पुस्तके 'निबोध भूपालसमुद्भवोऽस्य बृहद्रथस्यावनिपस्य पत्न्यौ । गुरोरयातां यतिनाश्रमं नो(2) विभज्य चानं गुरुदत्तमात्ताम् ॥ यज्ञान्त एते सकले निरस्ते हिया बहिर्योज्य ततो जराख्या। सुरूपसंपन्नमतः कुमारं राशेऽर्पयत्कृत्यविदे पलादी ।।' इति श्लोकद्वयमधिकं वर्तते.
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१.३६
काव्यमाला। ये ये पुनः शौर्यबलावलेपात्तत्संमुखा भूपतयो बभूवुः । विनित्य ते ते समरैर्निरुद्धा गिरिव्रजान्तः षडशीतिसंख्याः ॥ ७४ ॥ राज्ञोऽधुनावध्यचतुर्दशैव शतेन तेषां मखमीहतेऽसौ । यस्तान्कृती मोचयति प्रबद्धान्सम्राट् स भूमौ विभवत्यवश्यम् ॥ ७९ ॥ सप्राणयुद्धैर्विनने यदि स्याजेयो हरेणापि रणे त्वजेयः । अहं निजे दुर्यशसीव सिन्धौ पलायितस्तन्महसा वसामि ॥ ७६ ॥ भीमो भुजस्तम्भबलाद्भुतश्रीर्जम्भारिजन्मा जगदेकजेता । अहं महानीतिरिति त्रयोऽपि युता जरासंधवधाय यामः ॥ ७७ ॥ इत्युक्तमन्त्रोच्छसितस्य राज्ञः समाज्ञया शौरिररिव्ययाय । भीमार्जुनाभ्यां सह शुक्रसौम्यरम्योपकण्ठोऽर्क इव प्रतस्थे ॥ ७८ ॥ क्रमाद्ययुः प्राग्दिशि पञ्चसंख्यैर्विहारमुख्यैगिरिभिः परीतम् । त्रयोऽपि वीरा मगधाधिपस्य गिरिव्रजाख्यं नगरं गरीयः ॥ ७९ ॥ निहत्य यस्मिन्वृषभासुरेन्द्रं तच्चर्मसंनद्धतदस्थिढक्काः । तिस्रो जरासंधनृपेण क्लृप्ता नन्दन्ति चैत्यद्रुमपुष्पकीर्णाः ।। ८० ॥ भङ्क्त्वा प्रतोली स्वभुजप्रहारैर्निपात्य तच्चैत्यकमद्रिशृङ्गम् । अवमना तत्रयसंनिपातः पुरे द्विमातुर्नृपतेः पपात ॥ ८१ ॥ अमी बलत्रासितमालिकात्तमालास्ततः कैतवविप्रवेषाः । सदस्यकस्मान्मगधाधिपस्य ययुः प्रवीरा धृतचित्तवैराः ॥ ८२ ॥ गिरिव्रजेशोऽतिथिपूजनैकरतिनिषण्णानगृहीतपूजान् । ऊचेऽथ तान्विस्मयमानचेता धीराकृतिज्ञातनृपान्ववायान् ॥ ८३ ॥ विध्वस्य तीर्थ किमु मागधानां सदाचितं चैत्यकमद्रिशृङ्गम् । अद्वारमार्गेण पुरं प्रविष्टा गृह्णीत मे संप्रति नातिथेयम् ॥ ८४ ॥ द्विजा न यूयं भवतां भुजोर्वी मौर्वीकिणश्रेणिवशंवदश्रीः । राजत्यसौ संततसंचरिष्णुशौर्यद्विपस्यन्दिमदप्लुतेव ॥ ८५ ॥ प्राप्ता द्विजव्याजभृतः किमत्र क्षत्रस्य कस्य प्रभवा भवन्तः । क्षिप्तः किमझिवलदुज्ज्वलोग्रज्वालाकराले ज्वलनान्तराले ॥ ८६ ॥
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२सभापर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
इत्यत्र धीरोद्धतवाचि साचिविलोचनश्रीरुचितस्मितास्यः । तत्कर्णयुग्मावनवाध्वनीनमूचे वचः श्रीकुचकेलिकारः ॥ ८७ ॥ स्युः क्षत्रियाः पार्थिव बाहुवीर्या विशन्त्यमार्गेण च वैरिगेहम् । केनापि कार्येण गृहानुपेत्य रिपोर्न गृह्णन्ति तथातिथेयम् ॥ ८८ ॥ अपूर्वमक्ष्णः श्रवसश्च भूपवधेन धर्मप्रतिकूलमेव ।। क्रतुं करिष्यन्मगधेश धर्मरक्षाकराणामसि नः सपत्नः ॥ ८९ ॥ वधाय यज्ञेऽवनिपान्निरुद्धांस्तन्मुञ्च पञ्चत्वपथेन मा गाः । युधिष्ठिरादेशवशादुपेताः स्वज्ञातिदुःखं न सहामहेऽद्य ॥ ९० ॥ अहं स हन्ता दनुजावतंसं कंसं हिडम्बस्य विडम्बनोऽसौ । अयं पुनः खाण्डवदाहरक्षाविजम्भिजम्भारियशोनिशुम्भी ।। ९१॥ राजन्नियुक्तास्त्वयि राजसूयं चिकीर्षता धर्मसुतेन तेन । भवास्य यज्ञे वसुदोऽसुदो वा भीमस्य यज्ञे भव भीमबाहो ॥ ९२ ॥
(युग्मम्) आकर्ण्य कर्णद्वयवज्रसूचीमिदं वचः संगरभङ्गुरभ्रूः । आस्फालयत्तालबलेन बाहुं द्वैमातुरः कातरितत्रिलोकः ॥ ९३ ॥ रे रे शठास्तिष्ठत तिष्ठतेति गिरं किरन्नुत्थित एष यावत् । अभ्युत्थितस्तावदभीः स भीमो योद्धं जवादुषितोद्धताङ्गः ॥ ९४ ॥ दोःस्फालनस्फाररवैस्तदैव तयोः स्फुटं स्फोटितमन्तरिक्षम् । खर्दण्डवेषादखिलेह तस्य प्रस्फोटरेखा स्फुरति स्फुटा तत् ॥ ९५॥ तदा तयोरुद्धतपादपातैः पातालभर्तुः खलु भूमिधर्तुः । सहस्रधा मौलिरभूत्प्रभूतमणिच्छविच्छद्मनिषक्तरक्तः ॥ ९६ ॥ रणक्षणेच्छागतवज्रपाणिपाणिस्पृशाद्रिप्रहतिप्रसूतः ।। मिथस्तयोस्तालमहाप्रहारानुत्प्रेक्ष्य मुक्तः पविनापि दर्पः ।। ९७ ॥ तादृक्तलार्तित्रुटिताङ्गमध्यसंधिर्जरासंघधराधिनाथः । भीमेन भूमाविति कार्तिकादिचतुर्दशाहप्रधनैर्त्यपाति ॥ ९८ ॥ १. '-अध्वनि वाद्यमान-'ख.
१८
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१३८
काव्यमाला |
वृक्षेषु न श्लिष्यति शस्त्रपातैर्न भिद्यते स्वः प्रभुचापकान्तिः । आयोधनं सर्वरथेषु यस्य ध्वजो जयस्तम्भ इवेक्ष्यते च ॥ ९९ ॥ शक्राद्वसुः प्राप बृहद्रथोऽयं तस्माज्जरासंधनृपोऽपि तस्मात् । तं सारथीभूय रथं मुरारिर्भीमार्जुना रूढमथारुरोह ॥ १०० ॥ रथध्वजे भूतशतैः परीतं ध्यानाभ्युपेतं विनिवेश्य तार्क्ष्यम् । राज्ये जरासंधनृपस्य पुत्रं विष्णुर्विनीतं सहदेवमाधात् ॥ १०१ ॥ बन्दीकृतान्क्षितिपतीनथ तान्विमोच्य तैरेव सार्धमथ ते प्रसृतप्रमोदैः ।
ईयुस्त्रयीतनुमहः सहजप्रतापा
धर्माङ्गजं त्रिजगतीजयिनस्त्रयोऽमी ॥ १०२ ॥ अभ्युद्धृता मगधभूर्वैवसिन्धुमग्नाः
कुर्मो वयं किमिति तान्वदतः क्षितीशान् । कृष्णोऽभ्यधादिति ममेप्सितराजसूये धर्मोद्भवस्य भवितव्यमहो सहायैः ॥ १०३ ॥ दत्तस्ततो मगधराजजयस्य सारं
मूर्ते रथो मधुभिदे स युधिष्ठिरेण । संमान्य तेऽपि जगतीपतयो विसृष्टा
देशं जवान्निजनिजं ययुरुत्कचित्ताः ॥ १०४ ॥ वीरश्रीचतुरान्नियोज्य चतुरो बन्धून्धनौधैश्चतु
दिग्दण्डेन निधाय कोशमसमं यज्ञाय सज्जीभव | दत्वा मन्त्रमुं युधिष्ठिरधराधीशाय तस्याज्ञया विष्णुर्द्वारवतीविलासयुवतीनेत्रेषु मैत्रीमधात् ॥ १०९ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के सभापर्वणि जरासंधवधो नाम प्रथमः सर्गः ॥
१. 'आयोजनम्' ख.ग. २. 'घर' ख. ३. 'मैत्रीं व्यधात्' क.
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२सभापर्व-२सर्गः] बालभारतम् ।
१३९ द्वितीयः सर्गः। शुद्धज्ञानसुधाम्भोधिधनं द्वैपायनं स्तुवे ।। योऽवर्षद्विश्वहर्षाय श्रीभारतसुधारसैः ॥ १ ॥ चतुरङ्गचमूचारभारभुग्नावनिर्व्यधात् । भीमानुजोऽथ कौबेरीदिग्जयाय प्रयाणकम् ॥ २ ॥ स्फाराहंफारहुंकारझंकारिनभसोऽलसन् । अमित्रश्रीसमाकृष्टिमान्त्रिका इव पत्तयः ॥ ३ ॥ मुखरा हयहेषाभिः पताकाहस्तशिक्षया । रथाः स्वरथिनां कीर्निर्तयन्त इवाचलन् ॥ ४ ॥ स्वगतिस्पर्धिनी छायामपि च्छादयितुं रुषा । पिधानाय रवेधूतधूलयो हरयोऽस्फुरन् ॥ ५ ॥ वलक्षाः कलुषीकर्तु द्विषत्कीर्तिपटीरिव । सत्रुर्मदमषीधारावर्षिणः करिणां गणाः ॥ ६ ॥ जयश्रीवल्लिबीजानां राजयो लाजमुष्टयः । जिष्णौ घनरसासिक्ते क्षिप्ताः पुरपुरंधिभिः ॥ ७ ॥ कुणिन्दविषयप्रत्तावासस्तदनु वासविः । अणारपौरुषो भूरीञ्जिगाय जगतीपतीन् ॥ ८ ॥ सुमण्डलादिभूमीन्द्रशौर्यनिद्रानिशागमः । सप्तद्वीपजयी जिष्णुर्ययौ प्राग्ज्योतिषं ततः ॥९॥ आलानितचमूनागमदस्यन्दकदम्बकैः । तत्रातिसुरभीचके कृष्णः कृष्णागुरुदुमान् ॥ १० ॥ वृतश्चीनैः किरातीधैः सागरानूपवासिभिः । तत्र शक्रसुहृदाजा भगदत्तो युधं व्यधात् ॥ ११ ॥ आरूढभगदत्तस्य सुप्रतीकस्य दन्तिनः ।
पपुः शिलीमुखाः पार्थकरोम्भोजत्यैजो मदम् ॥ १२ ॥ १. 'कुलिन्द' ग. २. 'जिष्णुः' क-ख. ३. किप्प्रत्ययान्तः.
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काव्यमाला।
कृत्वा कामं दिनान्यष्टौ कामरूपेश्वरो रणम् । धनंजये जयं पूर्व स ततो व्यतरद्धनम् ॥ १३ ॥ शर्वपर्वतखर्वत्वकरद्विपवरोऽथ सः । कुलूतपुरभूपालं बृहन्तं जितवान्युधा ॥ १४ ॥ रामदेवसुनामादिराजराजिजयोज्ज्वलः । सेनाबिन्दुं दिवप्रस्थपुरे सत्याभिधं व्यधात् ॥ १५ ॥ कृत्वा तु पौरवं ध्वस्तगौरवं पर्वतेश्वरम् । जिष्णुरुत्सवसंकेतांश्चक्रेऽनुत्सवकेतनान् ॥ १६ ॥ रागिण्यः स्मेरकाश्मीरैः श्लथीभूतपतिक्रियाः । काश्मीरभूमयः कामतप्तास्तमभजंस्ततः ॥ १७ ॥ अस्त्रैस्तेनारिनारीणां द्विरदानां मदाम्बुभिः । तत्र मधेर्मयोर्वथुसरितस्त्रिगुणीकृताः ॥ १८ ॥ अवीरीकृतकाश्मीरः शौर्यमोहितलोहितः । दशमण्डलदण्डोग्रस्त्रिगर्तभटकर्तनः ॥ १९ ॥ गतोऽयमिति वैरीभसिंहः सिंहपुरं पुरम् । युधि चित्रायुधं भूपं तत्र चित्रायुधं व्यधात् ॥ २० ॥
(युग्मम्) अथ चोलचलाक्षीणां चक्षुश्चञ्चलतां क्षिपन् । नव्यवैधव्यसंबन्धं कुर्वन्बाहीकयोषिताम् ॥ २१ ॥ सिक्तकीर्तिलतः शिष्टभ्रूणहूणीहगम्बुभिः । दरदोदरदीर्घोत्थनिश्वासोग्रमहः शिखी ।। २२ ॥ ययौ काम्बोजमोजस्वी रङ्गत्तुङ्गतुरङ्गमम् । लक्ष्मीलिप्सुरसौ निष्णुरुत्तरङ्गमिवार्णवम् ॥ २३ ॥
(विशेषकम्)
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१. 'सर्व' ख. २.-'अप्यपौरुषम्' ख. ३. ' केतनात् ग,
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२ सभापर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
बद्धाः सिषिचुरक्षोटवृक्षालीं तद्विपा मदैः । अपकारिष्वपि व्यक्तं महतामुपकारिता ॥ २४ ॥
कृत्वाथ दक्षिणं क्षीणशौर्यं काम्बोजभूपतिम् । नृपान्पार्थो जिगायाथ प्रागुदीच्यां दिशि स्थितान् ॥ २९ ॥ ओजः परमकाम्बोजलोहद्रोहभवं भजन् । ' रिषीकेषु हृषीकेशविक्रमः स क्रमाद्ययौ ॥ २६ ॥ हरितः स हरीनष्ट प्राप्य तत्प्रभुढौकितान् । वेरप्यधिको रेजे तेजःक्रान्तजगत्रयः ॥ २७ ॥ एतद्दिग्जयसंजातं यशो जातमिवात्मनः । अथारुक्षतुषाराद्रिं शुभ्रमभ्रंकर्षं विभुः ॥ २८ ॥ एषां नास्योचितं गात्रमास्यं गात्रोचितं न वा । इत्यत्र विस्मितास्तस्य तुरगान्वीक्ष्य किंनराः ॥ २९ ॥ आसन्नोत्तरदिग्दन्तिमदगन्धोद्धुरकुधः । 'नीरदेषु रदाघातं तत्र तद्विरदा व्यधुः || २० ||
तत्र तद्रथचक्राध्वसमूहप्रवहत्पयाः । सहस्रमुखतां मन्ये तदादि धुनी दधौ ॥ ३१ ॥ तद्वीरा शौर्यसोष्माणो यत्र यत्र ददुः पदम् । तत्र तत्रावहत्स्वच्छ कीर्तिस्तेषां हिमच्छलात् ॥ ३२ ॥ चक्रे भूर्जस बिन्दुबन्धुरैः सिन्धुरैरधः । सोऽद्रिस्तदीयैर्दाना लिध्वनिधिकृतकिंनरैः ॥ ३३ ॥ भिया शैलाधिदेवस्य दिग्गजैरप्यलैम्भिताम् । तत्करिक्रीडया पीडां सेहिरे देवदारवः || ३४ || जित्वाथ निष्कुटं शैलं स क्रान्त्वा श्वेतपर्वतम् । देशे किंपुरुषावासे द्रुमपत्रं ततोऽजयत् ॥ ३९ ॥
१४१
१. ‘हृषीकेषु' ख. २. ‘दरदैः सह काम्बोजमजयत्पाकशासनिः' ग. ३. 'लम्भिताः'
क. ४. 'जित्वा स' ख-ग.
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१४२
काव्यमाला |
तत्र गर्जगजालोकादस्थानाब्दभयोत्थितैः । यशोभिरर्जुनस्येव नभश्छन्नं सितच्छदैः ॥ ३६ ॥ सुवर्णसिकताखेलैः स्वर्णपद्मावतंसनैः । वीरास्तत्र बभुर्मूर्तदीप्ततेजोवृता इव ॥ ३७ ॥ से देशे हाटके कीर्ति सुभगं भावुकोद्यमः । प्रसह्य गुह्यकाञ्जित्वा सरो मानसमासदत् ॥ ३८ ॥ स्फटिकाद्र तटीबिम्बद्विगुणायितसैनिकः । ततोऽलकापुरीद्वारि स निवेशान्यवेशयत् ॥ ३९ ॥ तटीषु वर्णसादृश्याददृश्यदशनानिह । निजबिम्बान्वशाबुध्या तंत्र तद्दन्तिनोऽस्पृशन् ॥ ४० ॥ कर्णानिलोल्लसद्दानमपीबिन्दुनिवेशतः ।
तद्विपैरलकावप्रे तत्प्रशस्तिरलिख्यत ॥ ४१ ॥ यच्छन्धनान्यसंख्यानि तस्य स्वपुरभङ्गभीः । तदा धनद इत्याख्यां दधौ सत्यां धनाधिपः ॥ ४२ ॥ जित्वा गन्धर्वदेशं स गन्धर्वनगरेऽगृहीत् । हयांस्तित्तिरकल्माषान्मण्डूकाख्यान्विलोद्भवान् ॥ ४३ ॥ उत्तरं हरिवर्षे तु जिगीषुरथ फाल्गुनः । दिव्यैर्नरैः करं दत्त्वा बहुरत्नानि वारितः ॥ ४४ ॥ स शंभुनन्दनाभ्यासविलासस्तम्भविभ्रमम् । आरोपयज्जयस्तम्भमिह निर्दम्भविक्रमः ॥ ४९ ॥ इत्युत्तर हैंरिज्जैत्रः शंकरेणापि शङ्कितः । उत्ततार स कैलासशैलादैलविलाचितः ॥ ४६ ॥ इति उत्तरदिग्विजयः ॥
१. अयं श्लोकः ख- पुस्तके नास्ति. 'तत्र गर्ज' इत्यतः प्रागेव ग-पुस्तके. २. 'निवेशं न्य' ग. ३. 'मुदा' ख-ग. ४. 'तथ्यां' ख-ग. ५. 'काख्याञ्शिलो' ख; 'काख्यशिलो' ग. ६. 'हरिं जैत्रः' ग.
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२सभापर्व-२सर्गः] बालभारतम् ।
बलान्यथ बली भीमो रसाढुभूषितैरसौ । केशैरुच्छ्रितमङ्गल्यपूर्वपूर्वदिशेऽदिशत् ॥ ४७ ॥ जयलक्ष्मीविलासाद्रिाहिनी वाहयन्नयम् । भीमोऽचलद्दाशृङ्गशृङ्गारः स्यन्दनाश्रयः ॥ ४८ ॥ अस्य प्रातः प्रयाणेऽभूत्पुरः कन्येव पूर्वदिक् । मौलौ विजयकल्याणकुम्भवद्विभ्रती रविम् ॥ ४९ ॥ पुण्डरीकैः स डिण्डीरस्तुरंगैरुत्तरङ्गितः । भीमाननेन्दुतेजोभिर्जगर्न बलसागरः ॥ ५० ॥ पूर्वदिग्विजये पूर्वमेव पूर्वोदितस्तदा । अप्रतापीकृतः सैन्यैः शूरो दूरोत्थरेणुभिः ॥ ११ ॥ भूभृतां कटकाभोगवाहिनीं वाहिनीं द्विधा ।। लङ्घमानो मदोत्तालान्पञ्चालान्प्राप मारुतिः ॥ १२ ॥ निष्प्रपञ्चान्स पञ्चालान्गण्डकान्दण्डदायिनः । विदेहान्देहदान्कृत्वा दशार्णेषु ततोऽविशत् ॥ १३ ॥ निरायुधं युधा जित्वा सुशर्माणं दशार्णपम् । स न्यधाद्विदिशापुर्या यशस्तम्भमिव ध्रुवम् ॥ १४ ॥ प्रशस्ति तत्र तत्सैन्यवृषा वेत्रवतीतटे । विषाणैरलि«न्नीलैरक्षशैलाश्मसु द्विपाः ॥ ५५ ॥ एनं सेनापतिं कृत्वा सुशर्माणं ततोऽजयत् । सोऽश्वमेधेश्वरं पूर्वदेशाधीशं नरेश्वरौ ॥ १६ ॥ सुकुमारसुमित्राख्यौ पुलिन्दनगराधिपौ । वशीकृत्य निवासान्स चेदिदेशे न्यवेशयत् ॥ १७ ॥ शिशुपालमहीपालप्रौढप्रेमगुणैरसौ । आलानितो गज इव तत्र त्रिंशन्निशाः स्थितः ॥ ५८ ॥
५.
१. 'दुद्भुषितै' ख-ग. २. 'वलद्दा' ख. ३. 'र्णवम्' क. ४. 'जय' क. 'सत्सैन्यः सान्द्र' क. ६. 'नीचे' क.
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काव्यमाला।
श्रोणिमन्तं कुमारेषु कोशलेषु बृहबलम् । विनिर्जित्य स तेजस्वी ययावुत्तरकोशलान् ॥ ५९॥ संगराभङ्गुरैरीशैः सर्वदा तत्र गर्विताम् ।। अलज्जयदयोध्यां स दीर्घप्रज्ञं नृपं जयन् ॥ १० ॥ सरयूसरिता तत्र तद्दन्तिमदमिश्रया ।। खर्धनी प्राप संभेदं कालिन्येव द्वितीयया ॥ ६१ ॥ गोपालकच्छराजादिराजराजीवचन्द्रमाः । जगामोदानसंग्रामरसी वाराणसीमसौ ॥ ६२ ॥ जित्वा सुमन्तुनामानमुद्दामानमिलापतिम् । कीर्तिः प्रतेने तेनेह द्वितीयेव युवाहिनी ॥ ६३ ॥ सोऽत्र विश्वेश्वरं नत्वा प्रतापयशसी दधौ । तद्भालनेत्रबालेन्दुप्रभयेवाद्भुतप्रभे ॥ ६४ ॥ तेन तेजोऽग्निभिर्मत्स्यदेशादिक्षितिपेन्धनैः । चिरं देहे विदेहेषु जनको मिथिलाधिपः ॥ ६५ ॥ कृष्टोग्रधन्वनो जाग्रजनके मिथिलापुरे । रामस्येवाभवत्तस्य करग्रहमहोत्सवः ॥ ६६ ॥ अथेन्द्रपर्वते सुझान्प्राच्यसुह्मान्सुपक्षकान् । जिगाय मागधान्दण्डदण्डधारधराधवौ ॥ १७ ॥ गिरिव्रजे जरासंधसुतं कृत्वा करप्रदम् । स तैरेव वृतः सर्वैर्गोंडदेशानुपाद्रवत् ॥ ६८ ॥ कम्पयन्भूभृतः सैन्यैः स्थावराञ्जङ्गमानपि । ततः प्रापैष गौडेषु चम्पा निष्कम्पसंपदम् ॥ ६९ ॥ तं वीक्ष्य प्राप्तविषयं विषमायुधविग्रहम् ।। स्त्रीलोक इव चम्पायाः कम्पातः पार्थिवोऽभवत् ॥ ७० ॥
१. 'तस्य' क..
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२ सभापर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
उत्तालकर्णभूपाला व कर्णनरतस्ततः ।
पौण्पं रणसेवासु वासुदेवं जिगाय सः ॥ ७१ ॥ कृती कौशिक कच्छादिदेशक्रमितविक्रमः । रङ्गदब्धितरङ्गेषु वङ्गेषु क्रमतोऽगमत् ॥ ७२ ॥ तस्याङ्घ्रिपूजा निर्मुक्तमुकुटेन महौजसः ।
आज्ञा समुद्रसेनेन राज्ञा मूर्ध्नि न्यधीयत ॥ ७३ ॥ चञ्चद्वीचिकरोत्क्षिप्तैस्तस्य नानामणित्रजैः । गाम्भीर्यनिर्जितः पूर्व सागरोऽपि करं ददौ ॥ ७४ ॥ स गङ्गासागरन्यस्ते जयस्तम्भे यशोगजम् । स्वयमाकलयामास पूर्वदिक्करिजित्वरम् ॥ ७९ ॥ दीप्तस्तस्य प्रतापाग्निस्तत्र सिन्धूर्मिमारुतैः । उद्यान्त्यनुदिनं यस्य स्फुलिङ्गा इव भानवः ॥ ७६ ॥ इत्यशेषां दिशं जित्वा ववलेऽसौ बैलाम्बुधिः । दोर्दण्डदण्डितद्दण्डमण्डलाधिपमण्डलः ॥ ७७ ॥
इति पूर्वदिग्विजयः ॥
सहदेवोऽपि चतुरश्चतुरङ्गचमूवृतः । वीरो दक्षिणदिग्देशजैत्रीं यात्रामसूत्रयत् ॥ ७८ ॥ शृङ्गान्तान्पातयंस्तुङ्गान्गिरीनरिमहीभृताम् । अशक्याश्रयणांश्चक्रे तस्य निःशाणनिःखनः ॥ ७९ ॥ हरिचामरकुम्भीन्द्रकर्णस्यन्दन केतुजैः । क्रमाच्चमूरजो निन्ये मरुद्भिः परमं नभः ॥ ८० ॥ शूरसेनेषु विद्वेषिशूरसेनां रसेन सः । अजयज्जयदन्तीन्द्रालानगोवर्धनाचलः ॥ ८१ ॥ मथुरानगरीनाथनारीभिः स जयोद्धुरः । सवैलक्ष्यं सहर्षे च दृष्टः सौभाग्यभाग्यभूः ॥ ८२ ॥
१. 'भूपालोsवक' ख २. 'पौण्डक' ख ३. 'महाम्बुधिः ' ख,
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काव्यमाला।
वृन्दावनाधिदेव्यस्तत्कुम्भिकुम्भैस्तदास्मरन् । कृष्णालोकोच्छ्रसद्गोपीपीनवक्षोजविभ्रमान् ॥ ८३ ॥ तस्य द्विपमदैः श्यामैः शत्रुस्त्रीसाञ्जनाश्रुभिः । पृथक्प्रवाहिभिस्तत्र त्रिस्रोता यमुनाप्यभूत् ॥ ८४ ॥ मत्स्यराजाहिराजादिदेशक्लेशोपदेशकः । चर्मण्वतीनदीतीरभूपभोजाजकुञ्जरः ॥ ८५ ॥ अथायमुच्छलढूलिच्छायासुखचलबलः । ययाववन्तिदेशाय वह्रिदेशीयविक्रमः ॥ ८६ ॥ (युग्मम्) विन्दानुविन्दराजेन्द्रद्वयीजयमयीमिह । स सिप्रापुलिनोत्सङ्गरने कीर्तिमनर्तयत् ॥ ८७ ॥ अयमुज्जयनीवारनारीनेत्रोत्पलार्चितः । तत्रान महाकालं चञ्चद्रोमाञ्चकञ्चकः ॥ ८ ॥ माहिष्मत्यां ततो नीलनृपेण कलयन्कलिम् । स व्यधाद्रुधिरै रेवामपि कोपारुणामिव ॥ ८९ ॥ नीलस्य पूर्वजप्रत्तवरबद्धोऽग्निरज्वलत् । साहाय्यायाथ माद्रेयपृतनान्तः प्रतापवान् ॥ ९ ॥ स्वं विलोक्यानलज्वालामालाभिर्विद्वलं बलम् । सहदेवः शुचिर्भूत्वाब्रवीदिति हुताशनम् ॥ ९१ ।। समारम्भस्त्वदर्थोऽयं स्वाहाप्रिय नमोऽस्तु ते । मुखं त्वमेव देवानां यज्ञविघ्नाय नार्हसि ॥ ९२ ॥ इत्यादिस्तुतिभिस्तस्य प्रशान्ते हव्यवाहने । मौलिना नीलभूपालः पालयामास शासनम् ॥ ९३ ॥ त्रैपुरं करदं कृत्वानश्वरं पौरवेश्वरम् । कैरावादीन्वशीकृत्य सुराष्ट्रायां ततोऽगमत् ॥ ९४ ॥
सुराष्ट्रेशमतोऽजैषीन्नृपं भोजकटे पुरे । १. 'देवी यत्कुम्भिकुम्भैस्तदास्मरत्' ख. २. 'कौशिकान्विवशीकृत्य' ख-ग...
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२ सभापर्व - २ सर्गः ]
बालभारतम् ।
रुक्मपुत्रयुतं शक्रसुहृदं भीष्माभिधम् ॥ ९९ ॥ मिलित्वाथ परप्रेमशालिनो वनमालिनः । गत्वा चकार सूर्पारदेशं वशगतं बली ॥ ९६ ॥ दण्डकेषु जयन्भूपान्पूजयन्राघवाश्रमान् । गतोऽथ सागरद्वीपं स निषादविषादकृत् ॥ ९७ ॥ छिन्नप्रावरणान्कुर्वन्कर्णप्रावरणान्रणे ।
द्विषां कालसमः कालमुखान्कालमुखान्सृजन् ॥ ९८ ॥ मुरवी पुरवीरालिजयशालियशस्ततिः । दीप्तताम्रायद्वीप नृपदीपसमीरणः ॥ ९९ ॥ रामकाद्विझरस्तम्भीकारिसेनारजश्चयः । रेणाब्धौ शरजालेन गृह्णन्भूपतिमिङ्गिलम् ॥ १०० ॥ अयोध्येष्वेकपादेषु दण्डदेषु दयापरः । उत्कटः करहाटादिदेशात्तकरहाटकः ॥ १०१ ॥ इत्थं युधिष्ठिराज्ञां स राज्ञां मूर्ध्नि किरीटयन् । मलयाद्रितटीं प्राप श्रीखण्डद्रुममण्डनाम् ॥ १०२ ॥ (पञ्चभिः कुलकम् )
तत्र हतपत्राणि दृष्ट्वा केकिविशङ्किभिः । चन्दनाः पन्नगैर्मुक्ता ययुस्तत्सैन्यसेव्यताम् ॥ १०३ ॥ तत्र तस्येभनिर्भग्नचन्दनस्पन्दसिन्धुषु ।
जलकेलिं विलेपं च समं चक्रुश्चमूचराः ॥ १०४ ॥ खेलंस्तमालमाला हेलामेलासु संसृजन् ।
तत्र रिङ्गलवङ्गेषु तमसेवत मारुतः ॥ १०९ ॥
तत्राद्भतभयोद्रेकज्वरजर्जरविग्रहः ।
१४७.
ते कोदण्डपाण्डित्यं न पाण्ड्यः पाण्डवं प्रति ॥ १०६ ॥ तत्रेभभग्नशुक्त्युत्थव्यक्तमुक्ताक्षरावलिः ।
१. 'काधिपम् ' क. २. 'रणाब्धेः' ख. ३. 'भूपं' ख-ग.
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काव्यमाला ।
प्रशस्तिपट्टिकेवास्य ताम्रपर्णी सरिद्वभौ ॥ १०७ ॥ दर्दुराचलसिंहस्त्रीगर्भभिद्भटहुंकृतिः । अथापैष गिरि सामसह्यः प्रतिपार्थिवैः ॥ १०८ ॥ आर्द्रास्तदन्तिदानौघेर्मेचकैस्तंदुपत्यकाः । रामास्त्रताडिताम्भोधिसद्योमुक्ता इवाबभुः ॥ १०९ ॥ बिडोजोनिविडोजोभिर्भटै विडभूमिषु । पराञ्चि काञ्चीनाथस्य चक्रे चक्राणि स क्रमात् ॥ ११० ॥ चोडीनेत्रपुटक्रोडीकृतैरपि पयःकणैः । शान्तश्चित्तान्तरे तस्य कोऽप्यहो कोपपावकः ॥ १११ ॥ तहलैरुत्तरत्कुम्भिसेतुभिः स्तम्भिताम्भसः । कावेर्या विरहारम्भमम्भोधिर्लचितः क्षणम् ॥ ११२ ॥ केरलीचिकुरैरेव कुटिलैः केरले क्षणम् । रणं विभ्रान्तहृदयो विदधे न विरोधिभिः ॥ ११३ ॥ मुरलातीरवानीरकुञ्जसंकेतकेतने । कान्ता केरलनाथस्य लक्ष्मीरभिससार तम् ॥ ११४ ॥ उण्ड्रेऽथ तन्नृपस्त्रैणबाष्पधौतपदाम्बुजः । महानदीनदीपझैरानर्च पुरुषोत्तमम् ॥ ११५ ॥ ततोऽन्धेऽतिसप्तसप्तिसप्तयस्तस्य सप्तयः । सप्तगोदावरीतीरे मुमुचुर्मार्गजं रजः ॥ ११६ ॥ नीरन्ध्रयन्दिवो रन्ध्रमन्ध्रभूपजयोद्भवैः। यशोभिः सोऽत्र भावेनानमद्भीमेश्वरं प्रभुम् ॥ ११७ ॥ ततः कुन्तलकर्णाटभूपाभ्यां भीमविक्रमः । शासनं ग्राहयामास पाकशासनशासनः ॥ ११८ ॥ हसन्सैन्यार्तभूभुग्नं भुजगेशं भुजेन सः । स्फूर्जत्क्षत्रस्फुलिङ्गेभ्यः कलिङ्गेभ्यस्ततोऽचलत् ॥ ११९ ॥
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१. 'दर्दुरालससिंह' ग. २. 'स्तटपत्तिकाः' क. ३. 'अथ सः' ख-ग.
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२सभापर्व-२सर्गः] बालभारतम् ।
१४९ निःस्वाननिबिडवानस्रस्तसानुततिच्छलात् । कलिङ्गेषु महेन्द्राद्रिस्तं तुङ्गत्वनितोऽनमत् ॥ १२० ॥ तस्मिन्नाराचधाराभिः कलिङ्गेशः सुरेशवत् । चिरं ववर्ष विस्तार्य गर्जतो दिवि वारिदान् ॥ १२१ ॥ करवालेन कुम्भिभ्यः कृष्ट्वा मुक्ताफलान्यथ । बीजानीव यशोवल्लेरुप्तवान्भुवि पाण्डवः ॥ १२२ ॥ धाराद्वयप्रभिन्नेभकुम्भमुक्तावलिच्छलात् । जयश्रीस्तत्कृपाणस्य वरमालामिवाक्षिपत् ॥ १२३ ।। पदपद्मद्वयं तस्य लक्ष्मीसम स्वयं ततः । मुक्त्वा कलिं कलिङ्गेशो नतः केशैरमार्जयत् ॥ १२४ ॥ तत्र नीरधितीराप्तपूगाभोगिलतादलैः । तद्वीरैः किंचिदसारि नालिकेरीफलेक्षणात् ॥ १२५ ॥ जित्वा रोमान्थपवनरुरुकच्छादिभूपतीन् ।। दिदीपे सिंहलद्वीपे स महोभिर्महाबलः ॥ १२६ ॥ तत्र द्विपरदापातकम्पमानमहावपुः । तस्मै भियेव भूरीणि ददौ रत्नानि रोहणः ॥ १२७ ॥ द्विरदोदस्तकर्पूरतरुगीर्णाभिरावृतम् । तत्र कर्पूरपारीभिस्तत्कीर्तिभिरिवाम्बरम् ॥ १२८ ॥ श्रीरोहणाश्रमागस्त्यसेवार्थ तत्र संस्थितः । सिंहलेशार्चितः प्रैषीलङ्कां प्रति घटोत्कचम् ॥ १२९ ॥ श्रीरामविक्रमचमत्कारविस्मारणै रणैः । अक्षोभितः स रक्षोभिर्वशीचक्रे विभीषणम् ॥ १३० ॥ युधिष्ठिरजयस्तम्भसमारोपवशादसौ। त्रिकूटमपि शैलेन्द्रं चतुष्कूटमिव व्यधात् ॥ १३१ ॥
लङ्कावस्कन्दकल्याणैस्तडित्त्वन्तोऽम्बुदा इव । १. 'निस्वास' ख. २. 'विस्तीर्य' ग. ३. 'कुम्भेभ्यः' ख. ४. 'शस्ततः' ग. ५. 'रोमांश्च' ग. ६. 'महापथः' क.
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काव्यमाला।
यशो वर्षन्सुवेलादौ तच्चमूरजनीचराः ॥ १३२ ॥ इत्थं जयजुषा तेन समर्थेन समन्वितः । ववले कलयन्कीर्तिमर्जुनामर्जुनानुजः ॥ १३३ ॥
इति दक्षिणदिग्विजयः॥ नकुलस्तु महीपालकुलस्तुतपराक्रमः । प्रपञ्चयंश्चमूवीची प्रतीचीमभिचेलिवान् ॥ १३४ ॥ परिभ्रष्टयशः पुष्पा मरुतेव प्रसर्पता । कम्पयांचक्रिरे तेन के न भूपतिभूरुहाः ॥ १३५ ॥ अन्धानां सैन्यधूलीभिर्बधिराणां च भेरिभिः । निःशकं द्विषतां लक्ष्मी रसादभिससार तम् ॥ १३६ ॥ विपक्षपक्ष्मलाक्षीणां क्षीणां कुर्वन्मनोरतिम् । श्रीकार्तिकेयभवनं रोहीतकमुपाद्रवत् ॥ १३७ ॥ दिग्हाराभयशोरोही रोहीतकपुरस्पृशाम् । शूराणां द्रावयन्मत्तमयूराणां रणोत्सवम् ॥ १३८ ॥ चमूभरनमभूमिदूरोन्नतकुलाचलः । महाक्षत्रकृतावेशं मरुदेशं निवेश सः ॥ १३९ ।। (युग्मम्) वसिष्ठाश्रम वृक्षरर्बुदाद्रौ सदाफलैः । तत्सैन्यास्तापममुचन्बहिरन्तश्च मार्गजम् ॥ १४ ॥ स वसिष्ठमखोत्थानां विश्वामित्रजितामपि । तत्र धात्रीभृतामन्यैरनुच्छिष्टं पपौ यशः ॥ १४१ ॥ तस्य सैन्येभदानाट्टै हतवीराश्रपङ्किले। द्विषत्कान्ताश्रुभिर्नद्यो जाङ्गलेऽपि स्थलेऽवहन् ॥ १४२ ॥ शिरीषकाशिबीन्हैमास्त्रिगर्ताम्बष्ठमालवान् ।।
.. १. 'दिग्दारा' क; "दिग्धाराभ' ग. २. 'चभूनर' ख. ३. 'शिरीषांश्वाशिवी' क; 'शैरीषका' ग. ४. 'नर्त' ग.
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२सभापर्व-२सर्गः] बालभारतम् ।
पंञ्च कर्वटकान्वाटधानस्थानान्द्विजाञ्जयन् ॥ १४३ ॥ अपि ग्रीष्मज्वलद्दावपावकोग्रमहः सहः । पुष्करारण्यलोकोऽथ प्रतापैस्तेन तापितः ॥ १४४ ॥ (युग्मम्) तहलाम्भोनिधेर्लोकलङ्घनाय प्रसर्पतः । भेजेऽम्भोनिधिरेवाग्रे मर्यादावल्लिवैभवम् ॥ १४५ ॥ दहता कुलभूपालान्क्लान्तस्तत्तेजसार्णवः । मेनेऽग्निमौर्व सर्वाङ्गव्यापिनं स्वजयोत्थितम् ॥१४६॥ (युग्मम्) तत्र तालासवोन्मत्ताश्चलप्रतिबलभ्रमात् । वीरा बिम्बितसैन्यासु सागरोमिषु धाविताः ॥ १४७ ॥ अथैष मत्तदन्तीव भूरुहानिव भूभुजः । सरस्वतीसरित्कूलबद्धमूलान्व्यमूलयत् ॥ १४८ ॥ गर्व पार्वतिकेषु खर्वमकृत प्रापञ्चयत्पञ्चता
सूयां पञ्चनदेशितुळजयत द्रागुत्तरज्योतिषान् । दर्पणामरपर्पटक्षितिपतिं व्यश्लेषयन्निर्ममे
खेदं चेदिकटाधिपस्य रमठान्निर्लोठयामास सः ॥ १४९॥ दो रानथ हारहूणनृपतेर्भङ्क्त्वा प्रभासाभिध
क्षेत्रालंकृततीर्थसार्थनमनैः कृत्वा कृतार्थ वपुः । ... देवं द्वारवतीपतिं प्रियवचःस्तोमातुलं मातुलं
शल्यं मद्रनरेन्द्रमामनसौ स प्रेमभिर्निर्ममे ॥ १५० ॥ म्लेच्छानुच्छिद्य कृत्स्नानमरगिरिचरान्बल्लवेन्द्राय दत्त्वा
दारिद्यं बर्बरेशोपशमनसुमनाः पूर्णदिग्त्रयात्रः । अप्येतस्यां प्रतीच्यामयमुदयगिरिः स्वीयतेजोयशःश्रीभानुप्रालेयभासोरजनयत यशस्तम्भमम्भोधितीरे ॥ १५१ ॥
इति पश्चिमदिग्विजयः॥ १. 'पञ्चकर्कान्वाटधानस्थानद्विजान्क्रमाञ्जयन्' ख; ‘पञ्चकर्वटकान्मध्यवाटधानद्विजाजयन्' ग. २. मूलानमूलयत्' ख-ग. ३. 'सूनां' क. ४. 'दिव्यकटा' ग. ५. 'रसवान्' ग. ६. 'नपर' क. ७. 'पल्लवे' क. ८. 'उदयगिरितुल्यो नकुलः' इति क-पुस्तकाटिप्पणी.
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१९२
काव्यमाला |
मध्येबन्धु प्रथितविजयस्तम्भवेदी चतुष्कं दीप्ते तेजः शिखिनि विधिना वर्तयन्मण्डलानि । यज्ञप्रेप्सुः प्रसृमरयशश्चन्दनस्पन्दशुभ्रा -
मित्थं पृथ्वीं सुकृततनयः पर्यणैषीन्मनीषी ॥ १५२ ॥ अथामी सामीरिपतिसुतनासत्यतनुजा जगज्जित्वोपेताः सुकृतसुतमानम्य मुदितम् । नगर्याः पर्यन्त क्षितिषु निखिलाशाजयमय
श्रियां लीलाशैलानिव कनककूटानघटयन् ॥ १५३॥ भ्रष्ट स्पष्टापरनरपतिश्रेणिशुभ्रातपत्र
छ हैमं जगति सकले लालयन्नेकमेव । ताराभारव्यपगमभवद्वैभवो भानुविम्ब
भ्राजी भूमि दिवस इव स द्योतयामास वीरः ॥ १५४ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनान्त्रि महाकाव्ये वीराङ्के सभापर्वणि सर्वदिग्विजयो नाम द्वितीयः सर्गः ॥ २ ॥ तृतीयः सर्गः । अस्तु वस्तुषु पराशरात्मजज्ञानदुग्धजलधिः स शुद्धये । नीयते बत यदेकबिन्दुना भारतेन विलयं भवानलः ॥ १ ॥ सोदरैरथ वृकोदरादिभिस्तैरधिष्ठितजयो युधिष्ठिरः । आदधौ वशगदिक्चेतुष्टयस्तुष्टये मखभुजां मखोद्यमम् ॥ २ ॥ एष एव समयः समुन्नति यावदापतति तावदापतत् । श्रीपुराणपुरुषः पुरः पुरीभर्तुरस्य चतुरः ऋतुक्रमे ॥ ३॥ स्फाटिके सदसि संनिवेश्य तं क्षीरनीरधिनिवेशविस्मरम् । विश्वपूज्यमभिपूज्य चावदत्पुङ्गवः क्रतुकृतां कृताञ्जलिः ॥ ४ ॥ त्वत्प्रसादमदसीमया मया निर्जितं जगदेशेषमप्यदः । तामसं सृजति दिक्षु भङ्गुरं पङ्गुरप्यरुणसेवयारुणः ॥ ५ ॥ तत्क्षणं कलुषितात्मनां रणे भूभृतामपहताः प्रभा इव । मान्ति कान्तिसमदा मदालये रुक्मिणीवर न रुक्मपर्वताः ॥ ६ ॥
१. 'त्मजो' क. २. 'चतुष्टये तुष्टये' ख. ३. 'दजेय ख- ग.
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दिन में
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२सभापर्व-३सर्गः]
बालभारतम् ।
१५३
ध्यातया जगदिन त्वदाज्ञया स्तम्भितो मणिकदम्बदम्भतः । आजगाम मम धाम मानिनां नाम धामदहनो महीभुजाम् ॥ ७ ॥ यैर्विलास गिरिभिर्नयश्रियां जिग्यिरे चकितदिग्गजा दिशः। . तान्मम व्यदधत क्षमाभृतः प्राभृतं भृशमसंनिभानिभान् ॥ ८ ॥ येऽश्ववारमनसा समं नभस्युल्लसन्ति समरे समन्ततः । युक्तमेव मयि तान्ददुनृपाश्चित्तसेवितमदङ्ग्रयो हयान् ॥ ९॥ इत्यमी मम परोपकारिताभासुराशय विभूतिराशयः । त्वत्प्रसादवशतः परश्शतक्ष्माभुजङ्गजययोनयोऽभवन् ॥ १० ॥ तद्दिश त्रिदशशर्मकर्मणे यत्करोमि समयज्ञ संप्रति । त्वं सुमित्रमसि मे सुमन्त्रिते सद्गुरुः सदुपदेशसंपदि ॥ ११ ॥ सन्ति संततमपि त्वदीक्षणाद्राजसूयमखराजयोऽपि मे । किं तु तातवचनादिह स्पृहा सापि हि त्वदनुबन्धवान्धवी ॥ १२ ॥ मङ्क मामनुमनुष्व तत्क्रतौ गच्छ मेऽद्भुतमहाः सहायताम् । दीक्षितो भवतु वा भवान्भवद्भारतीभरपरो भवाम्यहम् ॥ १३ ॥ इत्युदीरितवति प्रभौ भुवः सभ्यमभ्यधित विष्टपाधिपः । लोकदृक्कुमुदवृन्दसंमदद्योतमानदशनेन्दुमण्डलः ॥ १४ ॥ त्वं क्रतुं कुरु कृतिन्भवत्कृते मत्कृतेऽपि न च किंचिदन्तरम् । एकमेव हि यशोऽजबोधने भात्यहर्पतिमहःसमूहयोः ॥ १५ ॥ दिग्जितस्त्वदनुजास्त्वदुत्सवे निर्विशेषमतिरेष तेष्वहम् । इत्यमी ददतु पञ्च पञ्चतां तस्य यस्त्वयि न कर्मकृन्नृपः ॥ १६ ॥ एवमुक्तवति देवकीसुते सेवकीकृतसमस्तराजकः । सैष धौम्यमुनिना मुनीन्नृपः सोदरैरपि नृपानजूहवत् ॥ १७ ।। सिद्धसिन्धुसुतमुख्यबन्धुभिर्वन्धुरैरनुमतोऽनुबन्धतः । सोममूर्तिरयमष्टमूर्तिभृन्मूर्तितामधित दीक्षितो नूपः ॥ १८ ॥ धौम्यदिष्टनकुलाग्रजद्विजस्तोमसंस्तुतसमस्तवस्तुनि । यज्ञकर्मणि पृथात्मजो यथौचित्यमादिशदथावनीधवान् ॥ १९ ॥
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१५४
काव्यमाला।
सजनेष्वकृत भोजनक्रियाशोधनान्यथ सुयोधनानुजः । भूमिदैवतततिप्रतिग्रहे साग्रहोऽजनि कृपीतनूद्भवः ॥ २० ॥ पूजनानि जनयन्नयोज्ज्वलो राजराजिषु रराज संजयः। कृत्यवस्तुनि मनो धुनीजनिद्रोणयोरजनि याज्ञिकेऽधिकृत् ॥ २१ ॥ दक्षिणास्वजनि दक्षिणः कृपस्तत्त्वमैक्षि विदुरेण धार्मिकम् । अर्हणग्रहणगौरवं नृपः कौरवोऽभजत सर्वभूभुजाम् ॥ २२ ॥ नारदादिमुनिराजिराजिते केशवादिकनरेशपेशले। ब्रह्मतामधित तत्र सत्यवत्यङ्गजस्त्रिजगदर्चितः क्रतौ ॥ २३ ॥ यज्ञवेदिमनुसंस्कृतामुपाध्यायपङ्क्तिभिरथो यथोचितम् । आजगाम सह राजकैरसौ राजसूययजमानशंकरः ॥ २४ ॥ सा जगत्रयजनौघपावनी नूनमात्मनि पवित्रताकृते । तत्पदं त्रिपथगाभ्यगादनूचानचक्रगुणितत्रयीमयी ॥ २५ ॥ मावसौरभभृतो विभावसौ मन्त्रपूतमुपहूतदेवताः । जुह्वति स्म बत बह्वपि द्विजा द्रव्यमण्डलमखण्डशक्तयः ॥ २६ ॥ पालनोद्यततृतीयपाण्डवप्रत्तखाण्डवरसौधनीरुजा । पावकेन पपिरे परम्पराः सर्पिषामिह वपुःप्रपुष्टये ॥ २७ ॥ इयमानमुपहूय सज्जिता वीक्ष्य हव्यममरा हविर्भुजि । आननोत्थममृतं मुहुर्मुहुः सावहित्थमहतस्पृहाः पपुः ॥ २८ ॥ उद्धतेऽपि सति धूमसंचये लोचनैरनिमिषैर्निरीक्षितम् । गृह्णते स्म हविराहुतं द्रुतं पावके निपतदेव देवताः ॥ २९ ॥ नीरसाभिरमृतेऽमृतद्युतेः किं च नीरुचिभिरप्सरोऽधरे । तत्र कश्चन सुधाचयस्त्रयस्त्रिंशता त्रिदशकोटिभिः पपे ॥ ३० ॥ तत्र वल्गनरसाय वल्गता संततं ग्रुपतिना वियोगिनी । द्यौरराजत मखाग्निकेतनश्रेणिदम्भकृतवेणिबन्धना ॥ ३१ ॥ दानवारिधुतदानवैर्यथास्वादितैव विबुधैः सुखं सुधा । धौम्यधूतलघुजातिभिस्तथाभुज्यतान्नममृतं द्विजातिभिः ॥ ३२॥ १. 'वल्लभरसाय' क-ख.
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२ सभापर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
पावकैकमुखदुःखभोजनात्तृप्तिरापि नियतं न दैवतैः । तत्र ते रसवतीरसामृतं पातुमित्यजनि भूमिदैवतैः ॥ ३३ ॥ संभृतैरवभृथैकमङ्गलैः संगत त्रिजगतः प्रियंकरः । बन्धुबन्धुरितसंनिधिर्व्यधाद्दानवर्त्मनि मनो जनाधिपः ॥ ३४ ॥ स्पष्टतामटतु रत्नमण्डलं दानहेतुवसुधा च वर्धताम् । इत्ययं द्विजकरेषु कल्पनावारि वारिनिधिशोषकं ददौ ॥ ३५ ॥ अत्र दानरसिके रसातौ स्वायतायभरभाजि के वयम् । इत्यभावि भुवि कल्पपादपैरस्य दानजलसेकतोऽपि न ॥ ३६ ॥ भूमिदैवतकुलाय भूमिकां दातुमेव दधतो निजे भुजे । रुद्ध भूरितरभूमयो घृणां कुर्वते स्म हृदि तस्य भूधराः ॥ ३७ ॥ भूमिदेवनिवहाय भूरिभिर्भूरदायि वसुभिः सहामुना । इत्यसौ वसुमतीति नूतनं नाम नूनमतनिष्ट विष्टपे ॥ ३८ ॥ राजकानि मखशेषया भुवा स्वल्पयाप्ययमपूजयद्यया । तानि तां ननु नितान्तभारिणीं मौलिभिर्हुतमगृह्णतानतैः ॥ २९ ॥ आदितो यदसुवद्धृतं वसु क्ष्माधवैस्तदुपदाकृतं मुदा । आददे स बहुमानतः कृती मार्गणेषु तृणवददौ पुनः ४० ॥ पूर्यतामुपदया मम ऋतुः स्पर्धयेति यददुर्धनं नृपाः । तद्बभूव खलु तस्य भूपतेरेकमार्गणकदानवर्णिका ॥ ४१ ॥ दातुमिष्टमजनिष्ट तस्य यत्तद्यचिन्ति मनसापि नार्थिभिः । चिन्तितं न रसनास्वधारितैः किं तु दानमजनि त्रयाधिकम् ॥ ४२ ॥ याचको यदिह याचतेऽयैतां तज्जवादिति जगाद किंकरान् । दानकृत्कनकमानयेत्यसौ नादिशत्खलु नकारवैरतः ॥ ४३ ॥ अर्थिनः प्रथित कार्यसंमितं गृह्णतोऽप्यधिकमस्य यच्छतः । नाददे खलु ददाति स्वत्वहं वाद एष भुवि केन भज्यताम् ॥ ४४ ॥
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१९९
१. 'स्वापतेय' क; ' स्थापतेय' ख. २. 'मानदः ' ख. ३. 'तां' ख. ४. 'मानयत्यसौ' ग. ५. ‘वैरितः' ख; 'कैरत: ' ग.
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.११६
काव्यमाला |
तत्प्रदेयमणिपूर्तये पेयोनाथमाथहृदयस्तदा हरिः । मन्दरभ्रमिसुखं विलेक्षिपद्यद्विरोचनसुतं शुशोच तत् ॥ ४९ ॥ कम्पभृद्ग्रहमणिर्न भोमणिस्तापवान् कलुषहृन्निशामणिः । स्वस्वदानचकितः शुचाभवत्तत्र यच्छति नवच्छवीन्मणीन् ॥ ४६ ॥ पात्रमेष वसुभिर्यथोन्नतं रागभृद्भिरभिपूरयन्क्रमात् । सर्वतोऽप्यवनिमप्यपूरयत्प्रातरभ्युदयवानिवार्यमा ॥ ४७ ॥ स्थापयन्पृथु यथा दरिद्रकं वित्तमेष निखिलेऽपि भूतले । एकरूपमसृजद्यथा यथा निम्नमम्बु घटयन्घनाघनः ॥ ४८ ॥ आयुगान्तकुलभृद्भिरक्षयैरर्थिनां निधिगतैस्तदर्पितैः । रत्नराशिभिरनन्तया रजोगर्भयाप्यजनि रत्नगर्भया ॥ ४९ ॥ स्वं तथादित स पार्थिवो यथा संजगुर्दिवि बिले च याचकाः । स्वर्युधिष्ठिरममर्त्यपादपं पन्नगालययुधिष्ठिरं बलिम् || १० ॥ एक एव शुचि मन्युरित्यसौ भूरधः कृतविरोचनात्मजा । अङ्गुलीमिव चपालमुद्रिकामुद्रितं सपदि यूपमौर्ध्वयत् ॥ ११ ॥ भूमिपातुरथ पात्रमत्र तत्संसदि प्रथममर्हणोचितम् । पृच्छतः क्रतुमहे पितामहः संभ्रमादिति बभार भारतीम् ॥ १२ ॥ शक्रचक्रनुतमर्हणोचितं यद्विदन्नपि जगद्गुरुं हरिम् । पृच्छसि त्वमिह मां व्यनक्ति तद्गौरवं गुरुषु कौरवोत्तम ॥ १३ ॥ यत्पदोदकमधत्त मूर्धनि स्वर्धुनीं त्रिजगतीहरो हरः । * तं पुराणपुरुषं त्वमञ्जसा विज्ञ यज्ञपुरुषं च पूजय ॥ ९४ ॥ इत्युदारनिजचिन्तनस्फुटीकारवाचि सति शंतनोः सुते । आद्यमर्घमसुरारये रयात्पाण्डवोऽदित नवोदितस्मिँतः ॥ ५९ ॥ यज्ञसीनि शिशुपालपार्थिवश्चक्षमे न हि तदर्चनं हरेः । पाटलायितकरालर्हग्गिरं देहिनीमिव रुषं ततान तत् ॥ ५६ ॥
१. 'पयोधिप्रनाथ' ख. २. ख- पुस्तकेऽधिकः ३. 'क्षत्र' ख. ४. 'तत्' क. ५. 'स्मयः ' क.ग. ६. 'हरभरे' ख.
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२सभापर्व-सर्गः]
बालभारतम् ।
सत्स्वपि द्रुपदकुम्भसंभवव्यासवृद्धगुरुयाज्ञिकेषु किम् । पूजितः कुरुपते हरिस्त्वया नैकमप्यधित तेषु यो गुणम् ॥ ५७ ॥ पूज्य एव यदि वा स एष वस्तन्नृपाः किमुपहूय वञ्चिताः । धर्मसूनुरिति चात्मनः कुतो नाम नाम निबिडं विडम्बितम् ॥ १८ ॥ इत्युदीर्य सममुत्थितो नृपैर्गन्तुमिच्छुरवनीभृता धृतः । बोधितोऽपि शुचिसान्त्वनोक्तिभिर्वाचमित्ययमुवाच कोपनः ॥ ५९ ॥ नो गतिर्भवति पुत्रवर्जिते तेन नूनमगतिधुनीजनिः । छेत्तुमेष भवतोऽपि सद्गतिं बुद्धिदोऽजनि जनार्दनार्चने ॥ ६० ॥ उक्षवाहशकटाहिमुख्यभिद्विक्रमस्मितमनास्त्रिविक्रमः । भूयसोऽपि परिभूय भूपतीनद्भुतानयमपूजि धिक्तया ॥ १ ॥ यः स्त्रियं बत जघान पूतनां नूतनाङ्कुरितपुण्यकन्दलः । ईदृशि ऋतुमहोत्सवे महाराज युक्तमयमच्युतोऽर्चितः ॥ १२ ॥ कतवादयमजर्जरां जरासंधबन्धनविधौ धियं व्यधात् । तत्कलङ्कभरभागभागसि स्तुत्य इत्युचितमच्युतस्तव ॥ ६३ ॥ एतदुक्तवति तत्र कोपतस्तद्वधाय युधि भीममुत्थितम् । संनिरुध्य सहसा भुजोरसा शान्तनिस्तमिति शान्तये जगौ ॥ १४ ॥ प्राागिह त्रिनयने चतुर्भुजे जातवत्यशुभरासभध्वनौ ।
स्तमातृपितृभीतिपारदा भारतीति गगनोद्भवाभवत् ॥ ६५ ॥ डिम्भ एष भविता जगज्जयी मृत्युरस्य स पुनर्भविष्यति । सास्यतोऽधिकदृशा समं यदुत्सङ्गसङ्गवशतोऽधिको भुजौ ॥ ६६ ॥ इत्यमुष्य जननी श्रुतश्रवाः कस्य नैनमकृताङ्कवर्तिनम् । विष्णुमस्तमिव भानुमानयं प्राप्य नष्टकरदर्शनोऽभवत् ॥ १७ ॥ भ्रातृ निजमथाह सा हरि सापराधमपि मा वधीरमुम् । इस्यदादभयदं वरं तदा विष्णुरप्रियशतावधिं सुधीः ॥ ६८ ॥ एनमप्रियशतायुषं ततो विष्णुयज्ञपशुमत्र मावधीः। इत्यवेत्य शममाप मारुतिः कोपमाप्य च जगाद चेदिपः ॥ ६९ ॥ १. समुपस्थितो' क. २. भीष्मः. ३. 'हि' ख. ४. 'तत्त्वया'क; 'धिकिया' ख.
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१५८
काव्यमाला |
भीष्म भीष्मतरतेजसो भृशं भूभुजोऽवगणयन्ति यं गुणैः ।
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तं जलेशयमपि प्रपूजयन्वृद्ध इत्यधम तैर्न वध्यसे ॥ ७० ॥ गां निशम्य निशितामिति कुधा दुर्धरोऽभ्यधित सिद्धसिन्धुभूः । ये नृपा न गणयन्ति शाङ्गिणं तच्छिरःसु पदमेतदर्पितम् ॥ ७१ ॥ पूजितो हरिरयं मयामुना रे नृपाः किमपि यस्य दुष्यति । अद्य मद्भुजभुजङ्गभेकतां निर्विवेकमतिरातनोतु सः ॥ ७२ ॥ इत्युदीर्णरुषि जीर्णपौरुषे रोषरूक्षितमुखेषु राजसु ।
शार्ङ्गिणं प्रति जगौ जगद्भिदा घोषघोषि दमघोषनन्दनः ॥ ७३ ॥ योग्यतातिगमुपाददेऽर्चनं किं त्वया कथममीभिराहितम् ।
त्वामहं शिखिमुखे जुहोम्यतः कृष्ण शान्तनवपाण्डवैः समम् ॥ ७४ ॥ एहि मङ्खु मदपूर्ण मे हितं संविधेहि युधि शक्तिरस्ति चेत् ।
मद्भुजोस्त्वनुचितार्हणग्रहक्रूरपापहरणाय ते गुरुः ॥ ७५ ॥ त्वं च शान्तनव पाण्डवाश्च रे मङ्कु संयति समेतमेत वा । एककालमि वः पिवाम्यहं कुम्भयोनिरिव सप्त तोयधीन् ॥ ७६ ॥ एवमब्द इव शब्दमम्बरध्वानिनं सृजति सात्वतीसुते ।
आददे सदसि दैवैतद्विषत्खण्डिना मृदु शिखण्डिनेव गीः ॥ ७७ ॥ मत्पुरीमदहदेष मत्पितुर्वाहमप्यहृत वाहमेघतः । बभ्रुसुभ्रुवमपाहरन्नृपा वच्मि विप्रियमतः किमेककम् ॥ ७८ ॥ आगसामिति शतं पितृष्वसुः पुत्रकोऽयमिति मर्षितं मया । सांप्रतं तु न सहेऽतिमन्थतः क्षीरनीरधिरपि व्यधाद्विषम् ॥ ७९ ॥ कोपकम्पितकरक्रमाधरः प्रोचिवानथ सुनीथपार्थिवः ।
रे जनार्दन विनर्दसीति किं किंकरस्य तव का मयि क्षमा ॥ ८० ॥ मां सहस्व सहसाद्य साहसादुत्पतेति तमुदित्वरायुधम् । चक्रचङ्कमवशादसौ शिरोविप्रयुक्तवपुषं विभुर्व्यधात् ॥ ८१ ॥
२. 'र्णभीहितं' ग. ३. 'मपि' ख-ग. ४. 'विष्णुना द्विषः' ग.
१. ‘तन्न’ ख. ५. 'पूजको ' क.
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२सभापर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
नूयमानमहिमांशुदुःसहं हर्षिभिः सुरमहर्षिभिर्महः । सात्वतीसुतकबन्धतोऽविशत्कैशवे वपुषि वीक्षितं न कैः ॥ ८२॥ संप्रधार्य निजमातृबान्धवीनन्दनस्य दहनक्रियां कृती। धृष्टकेतुमभिषिच्य तत्सुतं तत्पदेऽथ सेदमानयत्नृपः ॥ ८३॥
इत्थं मुरारिपरिपालितपूर्णयज्ञः
साम्राज्यमाप्य विरराज स राजराजः । पूर्ण यशोमयपयःप्रचयैश्च चक्रे
यज्ञान्तपूर्तमिव शाश्वतमन्तरिक्षम् ॥ ८४ ॥ जगत्रितयपूजितोज्ज्वलचरित्रभाजा स्वयं
नृपेण परिपूजिता मुदमुदित्वरीं बिभ्रतः । सितैरनुगता वृकोदरकिरीटिमाद्रीसुतै
स्ततो निजनिजं पदं सपदि विश्ववीरा ययुः ॥ ८५ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराके सभापर्वणि राजसूयवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ।
चतुर्थः सर्गः। ज्ञानप्रदीपपात्राणां सर्वेषामुपरि स्फुरन् । पायाद्वैपायनो विश्वजनमञ्जनमञ्जुलः ॥ १ ॥ अथेन्द्रप्रस्थसौन्दर्य पश्यन्दुर्योधनोऽशुचत् । पुरंदरपुरीजैत्रस्वपुरीचारुतामदम् ॥ २ ॥ कदापि कौतुकाविष्टः प्रविष्टस्तामसौ सभाम् । द्रष्टुं ग्रामटिको राजधानीमिव ससंभ्रमः ॥ ३ ॥ स्फाटिकोक्मसौ चीरमुत्क्षिपन्नीरसंभ्रमात् । रसादहासि दासेरैर्विलक्षवदनः क्षणम् ॥ ४ ॥ पैद्मरागमयीं पश्यन्नन्तरापद्मिनीमयम् ।
आकाशभूमितर्केण लीलावापीजलेऽपतत् ॥ ५ ॥ १. 'स्तूयमान' ख. २. 'सान्ता अप्यदन्ताः ' इत्यङ्गीकृत्येदम्. 'स दयां नय' ख. ३. 'प्रामणिको' क. ४. 'स पराग' क. ५.'मयीम्' क. ६.'अर्काश्मभूवि'ख; 'आकाशभूवि' ग.
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१६०
काव्यमाला।
अहासि न तदा तस्मिन्निस्तेजसि जलस्थिते । अब्धिपातिनि मार्तण्डे कैरवैरिव कौरवैः ॥ ६ ॥ हसत्सु सह दासेरैर्भीमार्जुनयमादिषु । अहस्यत प्रतिध्वानैः सभाभित्तिभिरप्यसौ ॥ ७ ॥ धिग्जातास्मि समग्रक्ष्मापतिक्षयनिमित्तकम् । इत्यन्तःपतिते तत्र चकम्पे केलिवापिका ॥ ८॥ वाप्यालवालमध्येऽसौ विरोधद्रुरिवाङ्गवान् । बभौ फलाय कस्मैचिद्विलक्षस्मितपुष्पितः ॥९॥ तापवानुत्थितः सोऽयं तोयोद्धृतनवांशुकः । निश्चितक्षत्रनक्षत्रक्षयो रविरिवार्णवात् ॥ १० ॥ तस्याग्रे स्फाटिकी भित्तिमच्छामनवगच्छतः । गच्छतः स्फुटिते मौलौ ते पुन हसुर्जनाः ॥ ११ ॥ इत्येष रोषवैलक्ष्यावहित्यकृतसंमदः । पतसः पुत्रमापृच्छय प्रपेदे हस्तिनापुरम् ॥ १२ ॥ तादृशी क्ष्माभृतो लक्ष्मी सारं सारं पदे पदे । न रतिं वापि स प्राप मरौ तप्त इव द्विपः ॥ १३ ॥ अमान्तीरिव चित्तान्तर्दुःखसंतापवीचिकाः। तप्तनिश्वासरूपेण मुहुरुद्वमति स्म सः ॥ १४ ॥ कृतकार्यपरिष्वङ्गास्तदङ्गावयवाः क्रमात् । प्रभाधिक्यममुञ्चन्त हेमन्तदिवसा इव ॥ १५ ॥ अथालोच्य मिथस्तेन प्रणुन्नः सौबलो नृपः । प्रज्ञाचक्षुषमुर्वीशं विजनस्थं व्यजिज्ञपत् ॥ १६ ॥ रत्नैरिद्धोऽपि कान्ताभिः सेव्यमानोऽपि त्वत्सुतः ।
कुतोऽपि कृशतामेति प्रावृषेण्य इवार्णवः ॥ १७ ॥ - १. 'धिमयाता' ख, 'धिग्गता' ग. २. 'समरे क्षमापक्षय ख. ३. 'किल' क. . ४. 'स्खलिते' क.ग.
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२सभापर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
स मत्वेत्थमथाहूय नृपतिः सुतमब्रवीत् । आश्रयोऽपि श्रियो वत्स किमिन्दुरिव सीदसि ॥ १८ ॥ दूरनिर्मुक्तकौन्तेयाः समुच्चेयाः पदे पदे । किं तात रमयन्ति त्वां नैताः पैतामहश्रियः ॥ १९ ॥ वचोनासीरतानीतस्फीतनिश्वसितानिलः । गान्धारीनन्दनो दैन्यसगद्गदमथावदत् ॥ २० ॥ कौन्तेया इव नूयन्ते क्षत्रियाः वार्जितश्रियः । श्रीर्मुदे वणिजां पैतामही तात महीयसी ॥ २१ ॥ पाण्डवैः खाण्डवप्रस्थमर्जिताभिर्विभूतिभिः । तथाभूषि यथेहाभूद्वस्तुं वास्तोष्पतेः स्पृहा ॥ २२॥ स्फुरति स्फाटिकस्तत्र प्राकारो रक्षितुं निधीन् । कुण्डलीन्द्र इव स्वभ्रात्परिखापथनिर्गतः ॥ २३ ॥ गुरुणा यस्य वप्रेण दत्तेव जपमालिका । माणिक्यकपिशीर्षालियॊनाधारि तमोभिदे ॥ २४ ॥ नभोमरकतादर्श भान्ति यत्परिखोर्मयः । संक्रान्ता इव वप्रान्तचलकेतनकैतवान् ॥ २५ ॥ प्रवेशेनैव यद्वप्रे स्खलितस्य नभवतः । सफलं मेनिरे मारविवराणां (१) जनुर्जनाः ॥ २६ ॥ चतुर्भिस्तोरणामुक्तमुक्तास्रन्दशनैर्मुखैः । चतुर्दिग्लोकपालानां पुराणि हसतीव यत् ॥ २७ ॥ अपराद्धे नमन्नर्कस्तय॑ते यद्वहिर्जनैः । वप्राग्रांसमानकमाणिक्यकपिशीर्षवत् ॥ २८ ॥ वसन्तमन्तर्दिवसं रत्नवेश्मविभानिभात् । यत्राराममयो वप्रो बहिन्तिं सदारुधत् ॥ २९ ॥ न मामसावसौ वेत्ति वेत्तीह युवमध्यगम् ।
हरः सोऽपीति निर्भीतियंत्रानङ्गोऽपि रङ्गति ॥ ३० ॥ १. 'स्वय' ग. २. 'सूयन्ते' क. ३. 'स्फुरितः' क.
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काव्यमाला।
मुक्तधुगतयोऽभ्यस्तुं भुवि लीलागतीरिव । वसन्ति यत्र रंम्भोरुदम्भाद्रम्भादिदेवताः ॥ ३१ ॥ मिथुनौधैमिथोरूपनिरूपादनिमेषिभिः । दिव्यैरिवागतं दैत्यभीतैर्यत्राकुतोभये ॥ ३२ ॥ मन्ये यच्चन्द्रशालानां नामाभूदमरावती । यद्भूमिगर्भगेहानां नाम भोगवती पुनः ॥ ३३ ॥ रत्नोया कन्दुकभ्रान्त्या धावन्तः सह वालिना । द्वयेऽपि रविबिम्बेन सीमां यान्ति यदर्भकाः ॥ ३४ ॥ बाला यत्सौधमालासु नक्तमेणाङ्कमण्डले । पाणिं क्षिपन्ति जानन्त्यो रजताञ्जनभाजनम् ॥ ३५ ॥ यत्प्रासादास्तथाभूतस्वाभोगग्रस्तमम्बरम् । उद्गिरन्ति सदा धूतधूपधूमावलिच्छलात् ॥ ३६ ॥ ध्वनरक्षा भुजङ्गेशभाजो यदेववेश्मसु । कुम्भाः कारयितुः पुण्यनिधिकुम्मा इव स्फुटाः ॥ ३७ ॥ भान्ति यत्रोदवीथीषु कल्याणरजतच्छलात् । साम्राज्यदीक्षितन्यायतेनःकीर्तिचया इव ॥ ३८ ॥ जलैर्यत्केलिवापीनां स्यन्दिभिभूमिभेदिभिः । सुधाकुण्डावली नूनं जाता पातालपातिभिः ॥ ३९ ॥ दानदीक्षागुरूणां यजनानां मणिपादुकाः । नूनं कल्पद्रुमा मूर्ध्नि वहन्ते पल्लवच्छलात् ॥ ४० ॥ कवीनां रसनालोलदोलाकेलिरसस्पृशः । वाग्देव्या यत्र दासीव श्रीः पुरः स्फुरति स्फुटम् ॥ ४१ ॥ शेषोऽपि द्विसहस्राक्षरसनस्तत्पुरश्रियम् । वीक्ष्य वीक्ष्य स्वयं वक्तुं शक्तो भवति वा न वा ॥ ४२ ॥ वसंस्तत्र मणिश्रेणिनद्धसौधास्ततामसे ।
रवेरुदयमस्तं वा न वेत्ति सुखितो जनः ॥ ४३ ॥ , 'दीक्षितस्यास्य जेयत्कीर्ति' क.
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२सभापर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
खयंकृतस्य कौन्तेयैः पत्तनस्यास्य दूरगा। पूर्मे पैतामही काण्डकरपाटकवद्वभौ ॥ ४४ ॥ सहजद्विषतामेषामेषा लक्ष्मीः पुरस्य माम् । स्मर्यमाणा दुनोत्यन्तरयोगिनमिव प्रिया ॥ ४५ ॥ चतुर्भुजेन दिग्गैत्रैः सोदरैश्च वृतः कृतौ। श्रियं यामाश्रयद्धर्मसूनुः क्लिश्नाति साति माम् ॥ ४६ ॥ समस्तैर्वस्तुभिः स्वस्वदेश विश्वभूभुजः । दत्तैरानन्दयन्यज्ञबलये बलिनोऽपि तम् ॥ ४७ ॥ श्रीचन्दनरसं शातकुम्भकुम्भैरढौकयत् । यशः स्वमिव तेजःस्थं पाण्ड्यो मलयपार्थिवः ॥ ४८ ॥ जातं रावणगङ्गायां पद्मरागमणिव्रजम् । भक्त्या स्फुटीकृतं मूर्तमनुरागमिवात्मनः ॥ ४९ ॥ अब्धितीरोद्भवानिन्द्रनीलमौक्तिकसंचयान् । स्वराज्यश्रीशितिश्वेतकटाक्षस्तबकानिव ॥ ५० ॥ सिंहलेशो यशोवल्लीवृन्दकन्दानिवोज्ज्वलान् । अदत्त दक्षिणावर्तशङ्खानपि सहस्रशः ॥ ११ ॥
(विशेषकम्) अब्ध्यर्पिता नु पुष्पालीः सभृङ्गास्तज्जुषे श्रिये । मुक्ता मरकतैर्युक्ता ददौ बर्बरदेशपः ॥ १२ ॥ मल्लक्ष्मीस्तव मुण्डीति वैदन्नस्याः कचानिव । वैदूर्याणि पुरोऽमुश्चत्कौङ्गचौलिकदेशपः ॥ १३ ॥ शङ्खमत्स्यमुखोन्मुक्तमुक्तापङ्कीद्वयीः सिताः । प्रवालकन्दलश्रेणीनवीनरविपाटलाः ॥ १४ ॥ नदीपद्वीपभूमीपा ददुर्यास्ताभिराबभौ । ओष्ठपर्यस्तदन्तालिद्वयच्छायेव तत्सभा ॥ ५५ ॥
(युग्मम्) १. 'मेषां लक्ष्मी राजन् पुरस्य' क. २. 'द्भवानीलरलमौ' क. ३. 'वदस्तस्याः ' ग. ४. 'रुचि' ख.
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१६४
काव्यमाला |
मुक्ताफलजुषो हीरान्नीरवाहद्युतो ददौ । हसतोऽन्यानि रत्नानि नूनं सूर्पारपार्थिवः ॥ ५६ ॥ 'किरिदंष्ट्राकरिशिरोवेणुमुक्तास्थलत्रयीः ददुस्त्रिविधवीरश्रीलीला शैलानिवाद्रिपाः ॥ ५७ ॥ मुक्ताभरणसश्रीकान्पारसीकाधिपो हयान् ।
।
aat स्वविषयस्थस्य तरङ्गानिव तोयधेः ॥ १८ ॥ चामरौषधिकस्तूरीमुख्यैः किमु वयं यदि । हीरोनिति क्रुधा रक्तान्हिमाद्रिसदना ददुः ॥ १९ ॥ हेमा श्यामही रौलिमालिनो ददतुर्द्विपान् । कैलिङ्गपुण्ड्रकौ जातानभितः काम्यकं सरः ॥ ६० ॥ कौशलेशः शिरीषाभान्नातिपैतान्मतङ्गपः । वेणातीरनृपः शुभ्राञ्शोणान्सौराष्ट्रभूपतिः ॥ ६१ ॥ हीरानढौकन्ने विद्योद्योतिताम्बरान् । भक्ता विभूषणानीव स्वस्ववामभ्रुवां भुवाम् ॥ ६२ ॥
( युग्मम्)
व्यतरन्नितरेऽप्युर्वीभुजः सारं निजश्रियाम् । एतादृशमखप्रेक्षा कॢप्तवत्क्लृप्तभक्तयः ॥ ६३ ॥ हेमकक्षातडित्वन्तोऽर्जुनप्रतिलताम्बुदाः ।
चतुर्दश सहस्राणि हरिणा करिणोऽर्पिताः ॥ ६४ ॥ अदाच्चित्ररथः शक्रसुहृद्गन्धर्वनायकः । जगन्मनस्त्वराभ्यासगुरुं हयचतुःशतीम् ॥ ६९ ॥ अयं महाप्रभावानि प्रभावन्ति सहस्रशः । अहीन्द्रमौलिजीमूतगर्भमुक्ताफलान्यदात् ॥ ६६ ॥ विततार स्वरातौरांस्तुम्बरुस्तुरगाञ्शतम् । समीरोऽपि करोत्येव यदारोहस्पृहां गतौ ॥ ६७ ॥ पृथिव्यामुदयास्ताद्रिमुख्यदिपर्वतान्तरे ।
१. 'करि' ग, २-३. 'हारा' क. ४. 'कालिङ्गपौण्ड्रकौ' ख-ग. ५. 'युक्तां' ख.
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२ सभापर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
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न स कोऽप्यस्ति भूभर्ता यस्तस्मै न बलिं ददौ ॥ ६८ ॥ अदृष्टपूर्वानज्ञातनाम्नो विस्मयदानपि । वैरिणो हि तदागृह्णन्पदार्थान्सपरिच्छदः ॥ ६९ ॥ देशारण्य नदीशैल सिन्धु मध्यादिसंभवैः ः ।
वस्तुभिः पूरिता सा भूर्जम्बूद्वीपं श्रियाहसत् ॥ ७० ॥ पार्थस्तदभिषेकार्थं मुनयोऽम्बरचारिणः । आहरन्सर्वतीर्थेभ्यस्तदानीं नारदादयः ॥ ७१ ॥ भूपतेरभिषेकार्थं तस्योपस्करढौककाः । महामहीभुजोऽप्यासन्भुजिष्या इव संसदि ॥ ७२ ॥ बाहिकेन्द्राहृतैर्वाहैः काम्बोजोऽयोजयद्रथम् । सुनीथोऽसज्जयत्केतुं वसुदानो महागजम् ॥ ७३ ॥ मागधेन्द्रः स्वगुष्णीषे एकलव्य उपानहौ । काश्योऽस्त्रं कवचं पाण्ड्यश्चेकितानोऽधितेषुधिम् ॥ ७४ ॥ शल्येन धारितस्यासेर्धाराद्वितयबिम्बितः । त्रिमूर्तिरिव रेजेऽसौ त्रिवेदीवेदिनोऽचितुम् ॥ ६१ ॥ वृत्तैस्तस्य स्वकुल्यस्य निष्कलङ्क इवेक्षितुम् । सात्यकिस्फारितच्छत्रमूर्त्या तत्राययौ विधुः ॥ ७६ ॥ रेजतुश्चामरे तस्य भीमफाल्गुनचालिते । कटाक्षौ निकटप्राप्तयज्ञदानश्रियोरिव ॥ ७७ ॥ वेदोक्तया राजचिह्नेषु सज्जितेष्विति पार्थिवैः । अभ्यषिञ्चैस्तपः सूनुं धौम्यव्यासादयो द्विजाः ॥ ७८ ॥ अकल्पयत्पुरा कल्पे यं शक्राय प्रजापतिः ।
तं ददौ वारुणं शङ्कं तदास्मै कलशोदेधिः ॥ ७९ ॥ एनमादाय दायादः किरीटिसुखदुःखयोः ।
अभिषेकं व्यधात्तस्य तीर्थाम्भोभिः स्वयं हरिः ॥ ८० ॥
१. 'भूमि' क. २. 'षेकाय' क-ग. ३. 'हृतं' क-ग. ४. 'सात्यकिं स्फुरित' ख.
५. 'द्भवः' ख. 'दुग्धाब्धिः' इति क पुस्तकटिप्पणी. ६. 'किरीटी' ख.
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काव्यमाला ।
वीरवादितमङ्गल्यकम्बूनां निनदैस्तदा । मयान्यैरपि भूपालैमूछालैः पतितं भुवि ॥ ८१ ॥ कृष्णपाण्डवशैनेयधृष्टद्युम्नैरमूच्छितैः। हसितोऽहं वजन्मोहं यत्तैस्तन्नति विस्मृतिम् ॥ ८२ ॥ आसीत्कृष्णार्चनात्पुष्पवृष्टिर्या नकुलाग्रजे । सा मां दुनोति चेदीन्द्रमृत्यूत्पातोडुपातवत् ॥ ८३ ॥ वाप्यन्तः पतितं कृष्णा यन्मां स्त्रीभिः सदाहसत् । स्खलत्यद्यापि तत्तात चित्ते निशितशल्यवत् ॥ ८४ ॥ इत्यादिस्मरणोत्पन्नचिन्ताभारभियेव मे। स्थितिमेकत्र कुत्रापि स्थाने न कुरुते मनः ।। ८५ ॥ अपूर्यमाणवाञ्छस्य तादृक्परिभवोदधेः । मृत्युरेवाद्य मे श्लाघ्यो न तु दुःखविडम्बनम् ॥ ८६ ॥ इत्यवेत्य व्यथां सूनोर्वाचमूचेऽम्बिकासुतः । वत्स कापुरुषस्यैव वैराग्याय परर्धयः ॥ ८७॥ पुरी कुरु नयारम्भैजृम्भमाणश्रियं स्वयम् । सभां तादृक्प्रभां नानारत्नैर्यत्नेन कारय ॥ ८८ ॥ गौतमाङ्गपतिद्रोणद्रौणिभिः ककुभो जय । सप्ततन्तुं कुरुवृतः सोदरै राजसूयवत् ॥ ८९ ॥ वत्स निर्वेदभूर्मा भूः कीर्तिमर्जय विक्रमात् । त्वज्ज्येष्ठो यत्पृथासूनुः श्रीमान्सोऽप्युत्सवस्तव ॥ ९० ॥ अथाकिरद्गिरं दैन्यच्छन्नक्रोधां सुयोधनः । सा श्रीः पुरे चिरेण स्यात्प्रतिभूः कोऽस्ति जीविते ॥ ९१ ॥ सभा व भाविनी तात तादृङ्मनुजकर्तृका । पाण्डवैः पीतसर्वस्वाः कः स्वार्थो जयतां दिशः ॥ ९२ ॥ राजसूयं विना न स्यां सम्राट् किं सप्ततन्तुना ।
लज्जे तद्विक्रमार्तासु संक्रामन्राजराजिषु ॥ ९३ ॥ १. 'दये' ख. २ 'त्वं' ख. ३ 'सभासु' ख.
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२ सभापर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
ज्येष्ठः के मे तपःसूनुरुदासो यस्तदाभवत् । भीमादिषु सहासेषु सभान्तःस्खलिते मयि ॥ ९४ ॥ गौतमादिभिराक्रम्य तत्पार्थान्वैरिणो रणे । गृह्ने पुरं सभाशोभि दिग्जयोत्थां च संपदम् ॥ ९५ ॥ मत्वेति तत्र दुर्मन्त्रं धृतराष्ट्र विवक्षति । खस्त्रीय प्रति गान्धारधरणीविभुरभ्यधात् ॥ ९६ ॥ पुरः स्फुरन्मुरारातिभीमार्जुनयमो युधि । क्रोधे दग्धुं क्षमो विश्वं केन जेयो युधिष्ठिरः ॥ ९७ ॥ तं तु रन्तुमजानन्तमाहूतमनिवर्तिनम् । सारिद्यूतेन जित्वाहं ग्रहीष्ये सर्वमप्यदः ॥ ९८ ॥ तद्रूप कारितस्फारसभालोकच्छलादमुम् । इहानय ततः सर्व ग्रहीष्येऽहं धियानया ॥ ९९ ॥ ऊचेऽथ व्यथमानोऽन्तः स प्रज्ञानयनो नृपः । धिमन्त्रं वः स धर्मात्मा जेतव्यः कैतवादिभिः ॥ १० ॥ कर्मण्यस्मिन्क सा धर्मप्रतापयशसां कथा । किं तु पापमसामर्थ्यमयशश्च प्रकाशितम् ॥ १०१ ॥ इत्युक्ते व्यक्तकोपन्धिः स्वभावान्धसुतोऽवदत्। धर्मात्मा वा विधर्मो वा कैषा द्विषि विचारणा ॥ १०२ ॥ शक्त्या जेतुमशक्योऽरिः संताप्यः कैतवादपि । छलाङ्कलाग्रजोऽबध्नाद्धर्मज्ञं बलिनं बलिम् ॥ १०३ ॥ तत्कुरूपक्रमं तूर्णमेताजेतुं विरोधिनः । न चेद्रोगैरिवाच्छिन्नस्तैरुन्मूलयितास्महे ॥ १०४ ॥ कार्येऽस्मिन्पाण्डुपक्षीयैर्विदुरायैर्निषिध्यसे ।
तत्त्वं तात चिरं नन्देर्मरणं शरणं तु मे ॥ १०५ ॥ १. 'काम' ख. २. 'दासीनस्त' ख. ३. 'क्रोधाद्दग्धु' ख. ४. 'नयत तत्सर्व' ख. ५. 'पान्धस्वभावो' ख. ६. 'मेनं जेतुं विरोधिनम्' ग. ७. 'न त्वं तात' क, 'वं च तात' ख.
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इति सुतमतिविप्लवेन जानन्नपि कुलवीरविनाशमभ्युपेतम् । नृपतिरपि तथेत्युवाच कस्य भ्रमयति पुत्रकदाग्रहो न चित्तम् ॥१०६ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते बालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के सभापर्वणि कौरवामर्षो नाम चतुर्थः सर्गः ।
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पश्चमः सर्गः ।
शितिद्युतिः सत्यवतीतनूजः पुनातु सूर्येन्दुविलोचनो वः । भौ महाभारतशब्द नाम्ना गुणेन संक्षिप्तमिवाम्बरं यः ॥ १ ॥ अथो पृथासूनुस भाविभूतिस्पर्धासमुत्पादितपातकेन । च्युता सुधर्मेव दिवः पृथिव्यां शुभा सभाकारि सुयोधनेन ॥ २ ॥ धुनीतनूजे मयि च स्थितेऽन्तर्नैवानयः स्यादिति संप्रबोध्य । दुरोदरार्थ विदुरो निषेधन्नृपेण पार्थानयने नियुक्तः ॥ ३ ॥ हरित्वरापीतमरुत्पथेन रथेन धीमान्व्यथमानचेताः । तत्खाण्डवप्रस्थपुरं सहस्तिपुराज्जवेनोपपुरादिवाप ॥ ४ ॥ कृत्वा सुहृदयूतकृते कुरूणां प्रभुः सभामाह्वयते द्रुतं त्वाम् | इत्युक्तवन्तं विदुरं प्रपूज्य हसन्निवाचष्ट तपस्तनूजः ॥ ५ ॥ वशंवदद्यूतगुणेन वेद्मि छैलेन सातन्यत सौबलेन ।
युद्धैरजय्योSपि तथापि जेयो यथा रिपुः स्यादिति साधु तद्धीः ॥ ६ ॥ जयाजयाख्याजुषि संयतीव द्यूतेऽपि हृतो न निवर्तते यः । सक्षत्रगोत्रैकपतिस्ततोऽहमेष्यामि तस्यां पुरि यद्भविष्यः ॥ ७ ॥ इत्येव निश्चित्य सहानुयातैः कृष्णापुरोगैरनुजैश्चतुर्भिः । रथस्थितो हस्तिपुरं प्रतस्थे श्रीहानये भानुरिवापराब्धिम् ॥ ८ ॥ पितामहद्रोणविचित्रवीर्यपुत्रादिपूजाकृतकृत्यमेतम् ।
दुर्योधनः पूजयति स्म वाहमेधक्रतोर्वाहमिवावनीशम् ॥ ९ ॥ अथापरेद्युर्धृतराष्ट्रभीष्ममुख्यैर्वृतायामभितः सभायाम् ।
दुर्योधनो धर्मसुतेन सारै रन्तुं शकुन्यन्तरितः प्रवृत्तः ॥ १० ॥
१ 'छतदातन्यत' क- ग. २. 'हि तथापि' क; 'हि यथा तथापि ' ग. ३. 'मेव ' ख. ४. 'घृताया' ख.
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२सभापर्व-५सर्गः] बालभारतम् ।
अष्टापदाष्टापदमूर्ध्नि पात्यमानौ समुत्पाट्य मुहुस्तदाक्षौ। युधिष्ठिरश्रीहरणे प्रवृत्तौ वृत्तौ स्वनै स्तेनतुरट्टहासम् ॥ ११ ॥ गृहान्तरारोपणसौरबुध्नष्टात्कारभारप्रतिशब्ददम्भात् । भविष्यदात्मप्रभुमृत्युदुःखाच्चकार हाकारमहो सभापि ॥ १२ ॥ सारा दधुः केऽपि कुभूपमृत्युध्यानैकतानाः किल कालिमानम् । भेजुः पृथासूनुविभूतिकृष्टिध्यानेन मन्येऽरुणरूपमन्ये ॥ १३ ॥ उत्थापितारोपितबद्धमुक्तैः श्यामैश्च रक्तैश्च नृपैरिवैतौ । सारैर्विचिक्रीडतुरेकचित्तौ गमं चरेऽप्यादधतावलक्षम् ॥ १४ ॥ हाकारधिक्कारपरेषु धर्मपुष्टेषु दुष्टेषु च हर्षितेषु ।। यद्यत्पृथा भूः पणतां निनाय जिगाय तत्तच्छकुनिश्छलज्ञः ॥ १५ ॥ पराजितीभूतसमस्तराज्यभरोऽप्यसंभावितरोषदोषः । पणेन बन्धूनपि हारयित्वा स्वं हारयामास स धर्मसूनुः ॥ १६ ॥ सा विद्यतेऽद्यापि तवैव कृष्णा द्यूतं तया क्लृप्तपणं विधेहि । अपीति पार्थ प्रति धार्तराष्ट्र वदत्यमर्षी विदुरो जगाद ॥ १७ ॥ रे रेऽन्धसूनोऽन्धविवेक केयं क्रूरा कुलोच्छेदकरी मतिस्ते । खमृत्यवे केसरिणोऽभिघातरमून्किमुत्थापयसि प्रसुप्तान् ॥ १८ ॥ जन्मक्षणोत्थक्षतजास्थिवृष्ट्या ज्ञातोऽसि पापान्धतमेन पित्रा । न जातमात्रोऽपि हतोऽसि हा धिक्शशाङ्कवंशैकघुणस्त्वमेकः ॥१९॥ कालत्रयज्ञः स्वकुले भवन्तं मत्वा भविष्यन्तमतिप्रमत्तम् । जगत्रयप्रीतिकरो बभार प्रागेव देवः कलुषत्वमन्तः ॥ २० ॥ रे कौरवाः क्रूरविपाकमन्तर्दुष्टत्रणं वो मरणाय जातम् । उन्मूल्यतामेष विशेषशस्त्रकर्मप्रगल्भैर्यदि जीवितेच्छा ॥ २१ ॥ इत्यालपत्यालमिवालमस्मिन्हसन्निवानन्दवशंवदात्मा । पणीकृता धर्मसुतेन कृष्णा जितेयमेवं शकुनिर्बभाषे ॥ २२ ॥ दासीयमासीदिति धार्तराष्ट्रः खं प्रातिकामाख्यमयुक्त सूतम् । आनेतुमेतां द्रुपदस्य पुत्री कुलक्षयायेव विषस्य वल्लिम् ॥ २३ ॥ १. 'समुन्नत्य क. २. 'साधु' क. ३. 'वाचष्ट' ख-ग.
२२
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१७०
काव्यमाला |
निवेद्य वृत्तान्तमथामुनेयमाहूयमानेति जगाद कृष्णा ।
स्वं हारयित्वा पणितां नृपेण जेता जयेत्तामिति पृच्छ सभ्यान् ॥ २४ ॥ इत्युक्तिमागत्य वदत्यमुष्मिन्दुर्योधनो द्रागनुजं न्ययुङ्क । समानयैनामजयं जयं वा सभ्यान्स्वयं पृच्छतु संसदीति ॥ २९ ॥ एह्येहि दासी त्वमसीति कोपादःशासने जल्पति तत्र याते । अन्तःपुरान्तः कुरुपुंगवस्य गन्तुं प्रवृत्तातिभयेन कृष्णा ॥ २६ ॥ क्व यासि दासि त्वमिति क्रुधान्धो वदन्ननूत्पत्य कंचे गृहीत्वा । चकर्ष कृष्णामघमोऽयमात्मद्रोही स्वकानामिव कालरात्रिम् ॥ २७ ॥ स्त्रीधर्मनिर्मापितपारवश्यां मां मेति कर्षेति शनैर्वदन्तीम् । इमां विशेषात्स चकर्ष हर्षपरः किमुद्रान्तहृदामकृत्यम् ॥ २८ ॥ गृहीतदुर्योधनशासनेन दुःशासनेन प्रसभेन कृष्टाम् ।
आलोक्य तां तत्कुलकालवहिधूम्यामिवाकम्पत राजलोकः ॥ २९ ॥ देवत्रतद्रोणकृपेषु कोऽपि स्वेदः कुलैकक्षयसूचकोऽभूत् । सभाजनः किं च चकार हाहाकारखरैकार्णवमन्तरिक्षम् ॥ ३० ॥ अधोमुखो निःश्वसितप्रवाहसंप्लाव्यमानोदररोमराजिः । तत्कर्म पश्यन्विदुरो दुरन्तं शिरो धुनीते स्म धृतं कराभ्याम् ॥३१ ॥ इह क्षणेऽप्यस्फुटितं स्फुटाश्मरूपं स्मरन्तः स्वमुरो नरेन्द्राः । दुःखानैलप्लुष्टमतीव चूर्णीकर्तुं जलैर्हग्गलितैरसिञ्चत् ॥ ३२ ॥ महीभुजां कौरवपक्षभाजां मुखेष्वराजन्त महाट्टहासाः । आसन्नसंभावितजीवितव्यप्रयाणभेरि प्रणदप्रकाशाः ॥ ३३ ॥ तां वीक्ष्य भीमः कुपितो बभाषे युधिष्ठिर द्यूतकरौ करौ ते । वक्ष्यामि साक्षात्सहदेव वह्नि यच्छेति कोपे सति को विवेकी ॥ ३४ ॥ ऐन्द्रिस्तमाचष्ट चिराद्विवेकनिधेर्धियस्ते किमुपप्लवन्ते । अस्मान्विभुः क्षत्रधृतव्रतो यदहारयद्भीम यशस्करं तत् ॥ ३५ ॥ इत्यर्जुनोक्त्या शमभाजि भीमे दुःशासनः संसदमा निनाय । तां याज्ञसेनीं प्रसभादकीर्तिप्रतानिनी कन्दलवत्कुरूणाम् ॥ ३६ ॥ १. 'कचैर्गृ' क-ग. २. ' स्वमनो' क. ३. 'नलक्लिष्ट' क. ४. 'जीवितस्य' ख.
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२ सभापर्व - ५ सर्गः ]
बालभारतम् ।
रजस्वला संसदमेकवासा विकचुकानेन शठेन नीता । सरोषरूक्षं कृपणं च चक्षुस्त्रपानतेषु न्यधित प्रियेषु ॥ जितासि किं दासि विलोक से मून्दुर्योधने निक्षिप म दुःशासनेनेत्यभिलोडितासौ सती नमस्कृत्य गुरून्बभाषे ॥ ३८ ॥ विष्णोः सखीं पार्षतभूपपुत्रीं पाण्डोधरित्रीकमितुर्वधूटीम् । दासीति किं मामयमाह धर्मे विचार्य वार्यः कुमतिर्भवद्भिः ॥ ३९ ॥ भीष्मो बभाषेऽथ तवाभिभूत्या कुलक्षयं चेतसि चिन्तयन्तः । वत्से वयं मूढहृदो न विद्मस्त्वत्प्रश्नमप्यादृतधर्मशास्त्राः ॥ ४० ॥ द्यूते जितास्माभिरसौ न वेति दुर्योधने पृच्छति धर्मतत्वम् । सभ्येषु भीत्या खलु यद्वदेषु प्रोचे विकर्णो धृतराष्ट्रसूनुः ॥ ४१ ॥ सभ्या भयं किं भवतां विभाव्य धर्मक्रमं ब्रूत यथार्थमेव । जितेन राज्ञा पणिता जितासौ न स्याद्भुवं पञ्चवशा हि कृष्णा ॥४२॥ इत्यस्य वाक्यं चिरमभ्यनन्दन्तेभ्या नृपः किं तु रुषाभ्यधत्त । विकर्ण नो वेत्सि जितैव कृष्णा प्राक्क्कॢप्तसर्वस्वपणेन साकम् ॥ ४३ ॥ अस्त्राणि वस्त्राणि च पाण्डवानां जितानि च स्वीकुरु को विलम्बः । पञ्चप्रियायाः प्रसभादसत्या गृहाण वासश्च विचित्रमस्याः ॥ ४४ ॥ अनेकभार्यापि महत्त्वपात्रं या गीयते गौरिव राजतेऽसौ । वासस्तदस्या रभसेन कर्ष गावोऽधिकं भान्ति विनांशुकेन ॥ ४५ ॥ इत्यस्य वाक्यादपि पाण्डुपुत्रा मुक्तोत्तरीयाः सदसि व्यराजन् । समुज्झिता शारदवारिदौधैः कराः खरांशोरिव विस्फुरन्तः ॥ ४६ ॥ विचित्रवीर्याङ्गजनिर्विशेषं सभाजने तत्क्षणमीलिताक्षे । दुःशासनः शासनतोऽङ्गभर्तुश्चकर्ष चीरं द्रुपदाङ्गनायाः ॥ ४७ ॥ कुतूहलोत्तानहताशनेत्रैरपूर्णवाञ्छै रिपुभिर्न्यरूपि । आविर्भवन्नूतनमेव वासस्तद्रूपमाच्छादितरूपमस्याः ॥ ४८ ॥ यथा यथासौ वसनं चकर्ष तथा तथा सूज्ज्वलमाविरासीत् । नवं नवं तत्र सुवृत्तभाजि जवेन वाप्यामिव वारि हारि ॥ ४९ ॥ १. 'सभ्यानू' क.
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३७ ॥
चक्षुः ।
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१७२
काव्यमाला।
अनुज्ञया चीवरकर्षणस्य मुहुर्मुहुः कम्पि शिरः कुरूणाम् । अस्त्राधिदेवैरिव पाण्डवीयैः प्रारब्धमुन्मूलयितुं रराज ॥ ५० ॥ अतिप्रकर्षेऽशुककर्षणानाममर्षतोऽभाषत भीमसेनः । अनध्वनीनां श्रवणध्वनीनां मम प्रतिज्ञां शृणुत क्षितीशाः ॥ ५१॥ । दुःशासनस्यास्य विदार्य वक्षः पिबामि नासृग्चलुकत्रयं चेत् । लिप्ये तदस्यैव दुराशयस्य पापेन साध्वीपरितापजेन ॥ १२ ॥ देव्या मणीभासुरदिव्यवासोराशिस्तदा संसदि कृष्टमुक्तः । बभौ महीयान्धृतराष्ट्रवंशदाहाय दावाग्निरिव स्वयंभूः ॥ ५३ ॥ दुःशासने चीवरकर्षखिन्ने हिया निषण्णेऽथ वधूः पृथायाः। अनाथवन्नाथवती सती मामयं हहाकर्षदिति व्यलापीत् ॥ १४ ॥ सूतात्मजस्तामथ भाषते स्म क ते सतीत्वं प्रचुरप्रियायाः । जितेत्यनाथासि तदाशु नाथवती भवैकं वृणु कौरवेषु ॥ ५५ ॥ वदत्यदः सूतसुते मदान्धः पापाब्धिरत्रोपविशेति जल्पन् । मूल् मुमूर्षुर्द्वपदाङ्गजाया दुर्योधनोऽदर्शयदूरुदेशम् ॥ १६ ॥ क्रुधोच्छसत्कर्णमुखादिरन्ध्रकीर्णाग्निकीलोऽभ्यधिताथ भीमः। विनिर्यदौर्वाग्निशिखो युगान्तविमुक्तमर्याद इवाम्बुराशिः ॥ १७ ॥ आस्फालयच्चीरमपोह्य यं रे प्रदर्शयन्संसदि यज्ञजायाः। दुर्योधनाजी गदयानयाहं तं वाममूरुं तव चूरयिष्ये ॥ १८ ॥ इत्युन्नदन्तं दृढकोपपिष्टदन्तं निरूप्य प्रसभं नदन्तम् । कम्पं दधुः केचन विष्टरेभ्यः पेतुः परे मूर्छनमापुरन्ये ॥ ५९ ॥ अद्यैव वा श्वोऽप्यथवायमेव कालः कुरूणां कुमतेर्गुरूणाम् । एवं बभूवुर्विदुरापगेयशारद्वतद्रोणमुखेषु वाचः ॥ ६ ॥ मुखेन मुञ्चच्छिखिनः शिखौघं वदन्निवाशेषकुलस्य दाहम् । तदाग्निहोत्रे कुरुपार्थिवस्य गोमायुरुच्चैः स्वरमुन्ननाद ॥ ६१ ॥ मत्वेत्यरिष्टं विदुरादुराशामुन्मुच्य भीचुम्बितचित्तवृत्तिः । कदर्थितस्वान्तमकीर्तिशब्दैर्दुर्योधनं धीनयनो जगाद ॥ ६२ ॥ १. 'क्रुद्धोल्लसत्कर्ण' ख. २. 'विदुरो दुराशा उन्मुच्य' क.
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२सभापर्व-५सर्गः] बालभारतम् ।
१७३ ज्येष्ठस्य बन्धोर्दयिता स्वसेव मातेव वन्द्यैव यथा तथास्तु । सतीशतस्तुत्यपदां सदोऽन्तरिमां किमित्थं तु वदस्यबुद्धे ॥ ६३ ॥ त्वं तेजसा खेन सतीमयेन वत्से जगद्भमयितुं समर्था । न दुर्नयेऽस्मिन्नपि कोपनासि तुष्टोऽस्मि पाञ्चालि वरं वृणीष्व ॥ ६४ ॥ अथावदत्पाण्डवधर्मपत्नी तत्र क्रतौ भूमिभुजः समस्ताः । यस्या ययुः कर्मसु किंकरत्वमकिंकरः सोऽस्तु तपस्तनूजः ॥ ६५ ॥ वृणु द्वितीयं वरमित्यमुत्र गुरौ पुनर्जल्पति सा जजल्प । अमी महास्त्रा रथिनः परेऽपि भवन्त्वदासा नृप पाण्डुपुत्राः ॥ ६६ ॥ निमज्जतामापदि पाण्डवानामसौ भृशं नौरजनिष्ट कृष्णा । इत्युक्तयः सभ्यजनस्य भीमक्रोधकृशानोर्दधुरिन्धनत्वम् ॥ ६७ ॥ स्त्री नौः किमस्मासु विपत्पयोधि वयं तरामो भुजलीलयैव । एष द्विषो हन्मि रुषेति जल्पन्गदामुदस्योत्थित एव भीमः ॥ ६८ ॥ तं वीक्ष्य दुर्योधनकर्णदुःशासनादिविद्वेषिषु कम्पितेषु । धृत्वा भुजे धर्मसुतस्तमेनं वधान्तरायं रचयांचकार ॥ ६९ ॥ द्राक्सुयोधनवधोद्धतानुजक्रोधरोधमधुरे युधिष्ठिरे । भारतीमथ विचित्रनन्दनश्चन्दनद्रवनिभामभाषत ॥ ७० ॥ वत्स मत्सरिषु हृच्छरायितकूरदूरवचनेषु वल्गिषु । विष्टपानि रुषि दग्धुमीश्वरः को न कुप्यति महासहायवान् ॥ ७१ ॥ मुञ्चतीन्दुमणिरप्यहो महाघर्षणेन तमसि स्फुलिङ्गकान् । ईदृशोपेशमचारुचेतसः कस्तवोपमितिमेतु हेतुभिः ॥ ७२ ॥ सोदरैः सह सहस्रदीधितिस्पर्धिवर्धितमहोमहोद्यमैः । आद्रियस्व निजराज्यमुज्वलं पावनी कुरु नृपावनीमिमाम् ॥ ७३ ॥ सद्गुरूक्तमिव चित्ततः क्वचिन्नोपकारमवतारयन्त्यहो । अर्थिदत्तमिव वित्तमुत्तमा न स्मरन्त्यपकृतं परैः कृतम् ॥ ७४ ॥ संसहस्व कुनयं सुयोधने स्वानुजे व्रज निजां पुरीमपि । सा पृथापि च भवद्वियोगिनी क्लेशलेशविवशा भविष्यति ॥ ७५ ॥ १. 'वधवा' क-ख. २. 'पमितिचारुक. ३. 'पृथाभवभवद्वि' क-ग.
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१७४
काव्यमाला।
तूर्णमित्ययमनुज्ञया पितुः स्वं पुरं प्रति चचाल धर्मसूः । सोदरैः सह मुहुर्मुहुर्महामर्षनिश्वसितहर्षितायुधैः ॥ ७६ ।। रोषदोषकलुषाः प्रयान्त्यमी तात मृत्युरयमात्मनः कुले । तैः समं समरकर्म दुष्करं द्यूतमेतदिह वर्ततां पुनः ॥ ७७ ॥ द्वादशैव शरदो वनावनी ते व्रजन्त्वजिनवाससो जिताः । खञ्जना इव शुचौ त्रयोदशे गुप्तमेव विचरन्तु वत्सरे ॥ ७८ ॥ इत्यजेयसमरो भवामि तैादशाब्दबलबबलोच्चयः । एवमङ्गजगिरा कुरूद्वहो धर्मनन्दनमजूहवत्पुनः ॥ ७९ ॥
(विशेषकम्) क्षत्रधर्ममधिकृत्य धर्मसूर्यद्भविष्यहृदयः सभां गतः । निर्जितः शकुनिना दुरोदरे सोदरैः सह वनाय चेलिवान् ॥ ८ ॥ दत्तराज्यविभवः सुयोधने कृत्तिचीवरधरो युधिष्ठिरः । शैलकाननविलासमानसः शंकरश्रियमशिश्रियत्तदा ॥ ८१ ॥ पाण्डवाननुयतीमथावदद्रौपदीमिति सुयोधनानुजः । मुञ्च पञ्च दयितानकिंचनानेकमेव वृणु कौरवेश्वरम् ॥ ८२ ॥ पावनिस्तमवदच्चतुर्दशे वत्सरे निबिडमत्सरेरितः । क्षुण्णकौरवशतार्पितक्रमः कौरवेशमुकुटे नटाम्यहम् ॥ ८३ ॥ कृत्तिवेष्टितवपुः किमत्र गौौरयं वदति काननोचितः । एवमुद्गिरि सुयोधनानुजेऽहासि कर्णशकुनिक्षितीश्वरैः ॥ ८४ ॥ हन्तुमुग्रतरमैन्तुकारिणः कर्णसौबलकशेषभूपतीन् । प्रत्यजानत धृतक्रुधस्त्रयस्तेऽपि संसदि वृकोदरानुजाः ॥ ८५ ॥ वीक्ष्य कानपि विनम्य कानपि स्वान्तचिन्तिततदङ्गमङ्गलान् । साग्रहस्य विदुरस्य मन्दिरे ते विमुच्य जननीमथाचलन् ॥ ८६ ॥ अभिवाद्य पदद्वयं वधूं चलितां कृच्छ्रमथावदत्पृथा । कुसुमास्तरवृन्तभीरु ते भविताङ्गं सति कर्करातिथिः ॥ ८७ ।।
१. 'पूर्णा' क. २. 'मन्त्र' क. ३. 'कृत्न' क.
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२ सभापर्व - ९ सर्गः ]
बालभारतम् ।
सुकुमारतया न याश्रयद्धसृणं मौक्तिकमण्डलानि च । रविधाम सहिष्यते कथं भवती खेदलवाँश्च सा वने ॥ ८८ ॥ जगदेकजतोऽपि यान्त्यमी सति सत्यव्रतपालिनो वनम् । प्रतिपालय मामिहैकिकां किमु वत्से त्वमपीति मुञ्चसि ॥ ८९ ॥ भवदीयमुखेन्दुना विना विकसत्कोमलकान्तिनामुना ।
कुल व कुलककैरवप्रतिमं मेऽक्षि विकाशमेष्यति ॥ ९० ॥ यदि सत्यमपालि सोदरैर्नियतं पालितमेव तत्त्वया । त्वमिहैव कृतस्थितिः शुचः सहदेव प्रियपुत्र पाहि माम् ॥ ९१ ॥ सकृपः कृतदुर्नयेऽप्यरौ विजयिन्यः समभूः सभाभुवि । अकृपः स कथं स्थितोऽधुना रुदतीं मां न दृशापि पश्यसि ॥ ९२ ॥ जतुमन्दिरतो विकृष्य मां निजपृष्ठेन वहन्नहर्निशम् । किमु भीम गतस्तदा खिदां यदिदानीं रुदतीं विमुञ्चसि ॥ ९३ ॥ निजमौलिमणीगणोन्मृजा शुचिशोभेषु नमन्नहर्मुखे । मम पादनखेषु को युधिष्ठिर कर्ता वदनावलोकनम् ॥ ९४ ॥ उपलानपि सा विलापिनीत्यवशारोदेयदत्र नाद्भुतम् । यदशोच्यत तैस्तदा सुयोधनदुःशासनकर्णसौबलैः ॥ ९९ ॥ अधिपाः किमु यान्त्यमी हहा वनभूमीमिति नागरो जनः । सकलोऽपि रुरोद रोदसीदरदूरोदरपूरणादरः ॥ ९६ ॥
माहं दृशा कुपितया धृतराष्ट्रदाहपापाय भूवमिति दम्भगृहीतराज्यः ।
इत्येष चीरपिहितास्यविभासिभूत
जीमूतगोपितविधुः प्रचचार राजा ॥ ९७ ॥
कालेन कालकवलीकृतवैरवार्तमेतेन कौरवकुलं कलहोत्कटेन ।
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१. ' नकुलैककुलीनकैरव' क. २. 'मदत्त' ख. ३. 'विभासि' ख; 'विभाति' ग.
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१७६
काव्यमाला |
विस्तार्य बाहुयुगमित्यगमन्निकामकोपारुणोरुनयनः पवनाङ्गजन्मा ॥ ९८ ॥
एवं किरञ्शरकदम्बकमाम्बिकेयसेनासु दुर्धरधनुर्धरधैर्यरोधम् । युद्धे करोम्यहमिति प्रववर्ष गच्छ
विष्वक्शतऋतुसुतः सिकतावितानम् ॥ ९९ ॥ आच्छिद्य मेमुरदुरोदरदम्भजृम्भमाणप्रभावबलिनं युधि सौबलेयम् । स्यादुक्तमस्य विशदत्वमिति स्वमास्यं
लिहवा मषीभिरगमत्सहदेववीरः ॥ १०० ॥ रङ्गत्यरातिनिकरे शिरमङ्गमङ्ग
शृङ्गारितं भुजभृतां निभृतं न भाति । इत्यङ्गनाजनमनोरमरूपरोचि
धूलीविपशबलो नकुलो जगाम ॥ १०१ ॥ इत्यातुरं विशतु हस्तिपुरं पुरंध्री
वर्गो दिनैः कतिपयैरपि कौरवाणाम् । इत्याललाप बहुशापमबद्धकेशा
सा पाण्डुपुत्रसुदती रुदती प्रवासे ॥ १०२ ॥ अल्पैरहोभिरिति कौरवकैरवाक्ष्यो
गीतानि बिभ्रतु शपन्निति कोपशोणः । धौम्यो जगौ परिपतन्पथि याम्यरौद्र
सामानि नैर्ऋतदिगुद्धृतदर्भपाणिः ॥ १०३ ॥ उत्पाताः शतशोऽभवन्पुरि समागम्य स्वयं नारदो वंशोच्छेदमथादिशत्कुरुपतेश्चिन्ताज्वलच्चेतसः । तद्भीत्यैव समागतेषु शरणं दुर्योधनाद्येषु च
द्रोणो वीररसैकवाधिरभयं दत्त्वासृजन्मङ्गलम् ॥ १०४ ॥
१. 'स्याद्युक्त' ग.
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२सभापर्व-५सर्गः] बालभारतम् ।
भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितेः
पादाजभ्रमरोपमानमम नाम व्रतीन्द्रः कृती । तत्कीयोकसि बालभारतमहाकाव्ये द्वितीयं सभापर्वैतत्कविगर्वपर्वतपविः प्राप्तं समाप्तेः पदम् ॥ १०५ ॥ अमुष्मिन्पञ्चभिः सर्गः सभापर्वण्यनुष्टुभाम् । जातानि व्यधिकाशीतिसंयुतानि शतानि षट् ॥ १०६ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के
सभापर्वणि पाण्डवप्रवासो नाम पञ्चमः सर्गः ।
इति सभापर्व समाप्तम्।
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काव्यमाला।
वनपर्व।
प्रथम सर्गः। रामादपि श्लाघ्यगुणः श्रियेऽस्तु व्यासो मुनिः श्रीदयितावतारः। विनिर्मितो येन परार्थमेव भवार्णवे भारतसेतुबन्धः ॥ १॥ अथेन्द्रसेनादिभिरिन्द्रसेनाजयेऽप्युदारैः सहचारिदारैः। भक्तैश्चतुर्भिर्दशभिश्च पार्थों वीरै रथस्थैः पथि पर्यवारि ॥२॥ वैचित्रिणा नु प्रहितं विचित्रं रथादिसत्कारमवाप्य पार्थाः । संबोध्य संमान्य विवर्त्य पौरास्तचित्तचौरा ययुरभ्युदीचीम् ॥ ३॥ योगेद्धया धर्मसुतोऽनुगामिद्विजवजाग्रेसरशौनकोक्त्या । शुचि निशायाममुचत्रिमार्गातटे प्रयागस्य वटे स्थितोऽसौ ॥ ४ ॥ श्रीविप्रयुक्तेन च भूरिविप्रयुक्तेन च क्षोणिभुजा विभाते । अक्षय्यरूपा रसवत्यवापि धौम्योपदिष्टेन रवेः स्तवेन ॥ ५ ॥ सरस्वतीमुख्यसरस्वतीभिः श्लाध्यं कुरुक्षेत्रमुपास्य भूपः । दुरोदरं दूरतरं प्रशंसन्स जग्मिवान्काम्यककाननाय ॥ ६ ॥ आस्थाय पन्थानमिह प्रथीयान्स्थितो निशीथे बकदैत्यबन्धुः । किर्मीरवीरः समवर्तिसख्यवर्ती रणेऽकारि बकारिणाशु ॥ ७ ॥ निन्द्योऽवनिं द्योतयिता कथं ते सूनुः कलेरंश इति त्यनामुम् । इत्यादिवादी विदुरो निरस्तः प्रज्ञाशा प्रॉप वनेऽत्र पार्थान् ॥ ८॥ संमानितो बन्धुवियोगतप्तधीदृष्टिदिष्टेन स संजयेन । पुनः पुरेऽगाद्विदुरोऽन्धपुत्रकुमन्त्रबोधार्थमपीष्टपार्थः ॥ ९॥ घात्या विसैन्या रिपवोऽधुनेति कर्णोक्तिभिः पार्थवधाय धावन् । अनीतिपके किमु मज्जसीति व्यासेन रुद्धोऽथ सुयोधनो द्राक् ॥१०॥ " पार्थाप्तिशिक्षासु कराहतोरु निरादरं संसदि कौरवेन्द्रम् । शशाप मैत्रेयमुनिर्मरुद्भूगदाक्षतोरुभवसंयतीति ॥ ११ ॥ पार्थे वनं द्वैतवनं गतेऽथ मित्राणि धात्रीपतयः समीयुः । हृदि प्रविष्टे प्रशमे समन्ताद्गणा गुणानामिव गौरवाय ॥ १२ ॥ १. 'वात्यारिसैन्या' क.
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३वनपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
१७९ यो राजसूयावभृथार्द्रमौलियों धर्मसूर्यो मतधर्मतत्त्वः । शुचां शुचीनामिव तत्प्रसङ्गाद्भागं गृहीत्वा क्षितिपैर्गतं तैः ॥ १३ ॥ [आसीन्महान्मे सह संपरायः सौभेन शाल्वेन हरिजंगाद । भवादृशान्वारयितुं यतोऽज्ञान्द्यूते मया नागतमात्तवैरे ॥ १४ ॥] देशाय सूनुर्द्वपदस्य साकं कृष्णासुतैः पञ्चभिरञ्चति स्म । तदा यदूनां च विभुः सुभद्राभिमन्युयुक्तोऽगमदुग्रमन्युः ॥ १५ ॥ प्रमोदवल्लीं द्विषदुग्रदावदग्धां प्ररोहाभिमुखी प्रतन्वन् । कृष्णो मुनिर्मेघ इवैत्य पार्थे प्रतिश्रुतिं नाम ववर्षे विद्याम् ॥ १६ ॥ सरस्वतीसङ्गसदापवित्रं गतास्ततः काम्यककाननं ते । प्रतिश्रुति साधयितुं किरीटी जगाम जाग्रन्महिमा हिमाद्रिम् ॥ १७ ॥ ददाह संक्रन्दननन्दनस्य दिनैश्च कैश्चिद्दववद्वियोगः । मनो वनोा विततानि तेषां श्रीशोषशोकदुमकाननानि ॥ १८ ॥ इहान्तरे शान्तरसः शरीरी श्रीलोमशो नाम दिवोऽवतीर्णः । ववर्ष देवर्षिवरः कृतार्थे कर्णानुजे कर्णरसायनं गाम् ॥ १९ ॥ त्वं वर्धसे धर्मतनून दिल्या धन्योऽसि मन्यस्व जितानरातीन् । जगत्रयीजैत्रभुजस्य भीमानुजस्य राजन्नमरास्त्रलाभैः ॥ २०॥ गतो हिमाद्रेस्तटमिन्द्रकीलमिन्द्रेण विप्राकृतिना तपोर्थे । विमोचितोऽप्यस्त्रमसावमुञ्चन्स्फुटात्मनाभाषि शिवं भजेति ॥ २१ ॥ तपोवनं चारु ततो गतोऽसौ तपःस्थितो वासविरेकमासम् । दिनत्रयानन्तरपारणानि चकार कारुण्यकलः फलानि॥ २२ ॥ परं तपस्तत्र ततः प्रतन्वन्परं तपः किंचिदचिन्तनीयम् । प्रकाशयामास स मासमात्रं षड्डासरीपारणकं फलानि ॥ २३ ॥ सृजन्नथो मासमुदासवृत्तिर्वपुष्यपि क्षीबयशास्तपांसि । बभक्ष पक्षान्तरितानि शीर्णपर्णान्यपर्णापतिदत्तचित्तः ॥ २४ ॥ स्वयं मरुद्भिः पुरतः स्फुरद्भिः कृताहृतिर्मासि ततश्चतुर्थे । निष्कम्पमूव॑ दधदङ्गमङ्गीचकार ताराणि तपांसि पार्थः ॥ २५ ॥
१. अयं श्लोकः केवलं क-पुस्तक एव दृश्यते. २. 'मन्ये स्वजि' ख. ३. 'मूर्धो' क.
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१७०
काव्यमाला।
हिमाद्रिशृङ्गाणि हिमादितानि रसादसाराणि विमुच्य चक्रुः । . नीलाश्मशृङ्गभ्रमतस्तदङ्गे दिग्दन्तिनो दन्तहतीरतीव ॥ २६ ॥ रजस्तमोलङ्घनजाचिकेन क्रोडीचकाराशु हृदा तदानीम् । सत्त्वं स्थितं मूर्तमिवाष्टमूर्ति जगत्रयीमूर्तिमसौ महेच्छः ॥ २७ ॥ तेनासितीव्रतलीलयैव निहन्यमानैरिव भीतभीतैः । तस्मिन्प्रदेशे सकलोऽप्यमोचि द्वेषादिदोषैरसुमत्समूहः ॥ २८ ॥ . पुच्छं चमर्यास्तरुगुच्छलग्नममोचयत्सिहयुवा नखाग्रैः । श्रान्तं रतान्ते कलविङ्कयुग्मं सदृदु व्यज्यत फूत्कृतेन ॥ २९ ॥ शुष्यज्जलादाशु नदादुदस्य तिमिर्दकेऽमोचि बकेन भूरौ । अपाययन्मातृविमुक्तमेणमेणारिनारी कृपया पयांसि ॥ ३० ॥ समं समग्रैर्ऋतुभिर्व्यभूषि वनावनी तत्र विमुक्तवैरैः । आविर्बभूवार्जुनमर्जुनस्य यशो लतापुष्पततिच्छलेन ॥ ३१ ॥ अंसद्वयोत्तंसकृपाणचापं निषङ्गयुग्मव्यतिषङ्गिपृष्ठम् । तपांसि ताशि च तप्यमानं तं वीक्ष्य विक्षोभमगुर्दिगीशाः ॥ ३२॥ प्रीतोद्भुतैस्तस्य तपोभिरेभिः कुतूहली सत्त्वविलोकनाय । तत्राययौ सानुचरः किरातरूपं विरूपाक्षविभुर्विभाव्य ॥ ३३ ॥ वसंमुखं क्रूरतरस्तरस्वी मूकासुरः शूकरमूर्तिरुद्यन् । पुरः शरेणाशु तवानुजेन जन्नेऽनु जघ्ने शशिशेखरेण ॥ ३४ ॥ अयं मयाङ्गीकृत एव लोकः कुतस्त्वयाहन्यत हन्मि तत्त्वाम् । इत्युक्तिभिर्दूतमुखोदिताभिः पार्थ रणार्थ विभुराबभाषे ॥ ३५ ॥ अथोदितास्त्रे शशिभृत्किरीटभिल्ले किरीटी भुजभृत्किरीटः । आरोप्य चापं रचयांचकार ब्रह्माण्डमुन्मण्डपमेव काण्डैः ॥ ३६ ॥ तेनेषुजालेन भिया कराले त्रस्ते समस्ते गणचक्रवाले । प्रभावतस्तस्य धनुर्निषङ्गान्हरोऽहरद्विस्मितमानसस्य ॥ ३७ ॥ कोशादथाकृष्य कृपाणमुद्यत्पाणिः प्रतापी प्रति तं किरातम् । तवानुजो भानुजयोग्रजाग्रदृग्दीप्तिसंदीप्तदिगुच्चचाल ॥ ३८ ॥ १. 'तेनाथ' ग. २. 'भीतिभीतैः' ख.
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३वनपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
हृते कृपाणेऽप्यकृपाणिपाणिपातैः क्षिपन्मङ्ग शिलाकुलानि । भीमानुभूरेष पुरो रुरोध क्रोधैकधीरः प्रधनेऽन्धकारिम् ॥ ३९॥ क्षीणदुपाषाणगणायुधोऽथ प्रफुल्लमलत्वविधिः स धीरः । करेण धृत्वा चरणे स्मरारिमविभ्रमज्जैत्रपटीमिवाजौ ॥ ४० ॥ चूडागलद्गाङ्गजलः कपाली शूली जटालः स्फुटबालचन्द्रः। प्रत्यक्षतां तस्य गतस्त्रिनेत्रः क्षणेऽत्र सत्त्वप्रसरेण तुष्टः ॥ ४१ ॥ पृथाभवाय प्रथितस्तवाय ततः प्रभुः पाशुपतास्त्रमस्मै । अमानवक्षेप्यमदान्मदान्धसुरासुरश्रेणिजयोज्ज्वलश्रीः॥ ४२ ॥ दास्यत्यसौ नः सुपतीनितीव देवीभिरभ्याचि स पुष्पवृष्ट्या । तदा ालक्ष्मीमदगर्जिताभो नभोऽन्तरा दुन्दुभिरुन्ननाद ॥ ४३ ॥ एष प्रसन्नरथ पर्यवारि वृन्दारकैरिन्द्र इवेन्द्रसूनुः । ददत्युदात्ते सुमनस्त्वभाजः प्रभोः सुतेऽपि प्रभुवत्प्रभुत्वम् ॥ ४४ ॥ प्रस्वापनास्त्रं धनदः प्रचेताः पाशान्ददौ दण्डधरश्च दण्डम् । जगजयाशीभिरुदारवीरमुदीरयन्तः स्वयमित्यमुष्मै ॥ ४५ ॥ धन्योऽधुना मातलिसारथौ तं रथेऽधिरोप्य प्रथमानमानम् । द्विषनिकायद्रुमसूदनाय द्युनायकः स्वर्भुवनं निनाय ॥ ४६॥ [तेत्रोर्वशी वासवनन्दनेन निराकृता मातरिति प्रजल्पन् । पण्डो भवेति प्रशशाप शाक्रि भग्नाभिलाषा वसति जगाम ॥ ४७ ॥ अबोधयद्देवपतिस्तनूनं दुःखातुरं पार्थ त्रयोदशेऽब्दे ।। शापोऽपि वो गुप्तविहारचौ(१) मत्स्याधिवासे वरवद्धि भावि ॥४८॥] अर्धासने तं विनिवेश्य शक्रः किमेतदेतत्परिपृच्छतो मे । साक्षान्नराख्यानयुतं समस्तमिदं चरित्रं कथयांचकार ॥ ४९ ॥ सगद्गदमेरमुखे सहर्ष दृम्बद्धबाष्पाम्भसि हृष्टरोम्णि । ईक्चरित्रश्रवणामृतौघमन्नाशये भूभुजि सानुजेऽपि ॥ १० ॥ पुनर्मुनीन्दुर्निजगाद राजन्भूतीर्थयात्रासु मयि प्रवृत्ते । इदं मदीयेन मुखेन पार्थः कृतप्रणामस्तव संदिदेश ॥ ११ ॥
__(युग्मम्) १. 'चूलाचल' क-ख. २. इमौ श्लोको केवलं क-पुस्तक एव दृश्येते.
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१८२
काव्यमाला । संवत्सरैः पञ्चभिरुत्प्रपञ्चय दिव्यास्त्रचक्रं चरितेन्द्रकार्यः। श्वेताद्रिमौलौ भवदझिपझे रोलम्बयिष्यामि शिरोजराजीः ॥ १२ ॥ तस्मिन्निति व्यक्तगिरि प्रमोदं प्रपद्य पृथ्वीपतिरित्युवाच । त्वया करिष्ये सह तीर्थयात्रां प्रसीद सीदन्तु ममाघसंघाः ॥ १३ ॥ श्रीलोमशेनानुमते मतेऽस्मिन्वृद्धं जनं काम्यकतो निवर्त्य । स्थितरूयहं पर्वतनारदादिकथाभिरद्वेषहृदेष पार्थः ॥ ५४॥ नृपोऽन्वहं वर्त्मनि लोमशेन धौम्येन चादिष्टविशिष्टतत्त्वः । चचाल पूर्वी प्रति मार्गशीर्षीविरामपुष्पोदयवासरेऽसौ ॥ ५५ ॥ स स्नानदानार्चितविश्वतीर्थः पार्थः पथा नैमिषकाननस्य । सोद्रेकगङ्गायमुनाम्बुसेकं प्रयागमागःक्षयदक्षमागात् ॥ १६ ॥ महानदीमाजमयं गयाद्रिमगात्पवित्रं शिरसा गयस्य । अब्दस्तदा ग्रीष्मजयेन गर्नन्विभूषयामास नेभोन्तरालम् ॥ १७ ॥ धौम्योऽथ पार्थ निजगाद धा न युज्यते पार्थिव तीर्थयात्रा । वर्षासु वर्षाम्बुवशप्रभूताविर्भूतजीवाकुलभूतलासु ॥ १८ ॥ क्ष्मापाल कालः पुनरेष रम्यः स्थानस्थितानां न तु यात्रिकाणाम् । दृक्प्रीतिकृद्दश्यसमस्तवस्तुजम्बालजालाम्बुकरालवत्मा ॥ ५९॥ तथा हि पश्याब्दमृदङ्गनादैनृत्यन्ति नूनं नृप दिक्पुरंध्यः । आसामतश्चञ्चलरत्नभूषाविभानिमा भात्यचिरप्रभासौ ॥ ६ ॥ और्वाग्निकीला नियतं पयोधेः समं पयोभिः पपिरे पयोदैः । एतास्तदेतेषु तडिद्वितानच्छलाज्वलन्त्युज्ज्वलदिग्विभागाः ॥ ६१ ॥ उत्तेज्यते मन्मथसैनिकास्त्रगणोऽब्दशाणेषु तडिन्मिषेण । तस्याः स्फुलिङ्गैरिव पश्य पिङ्गैरद्योति खद्योतकुलैश्चलद्भिः ॥ ६२ ॥ पतिद्युतीनां पिहितः पयोदैस्तत्कान्तयस्तदिवि तद्वियुक्ताः। भ्रमन्ति मूर्छन्ति पतन्ति वातवीचीचलन्नीपरजोऽपदेशात् ॥ ६३ ॥ १. 'पौषोदय' ख. २. 'गयान्तरालं' ख. ३. 'धर्मयात्रा' ख. ४. 'उत्तेजिते मन्मथसैनिकास्त्रगणे ख.
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३वनपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
१८३ जित्वा दवाग्नीनिजधर्मपुत्रद्रुमद्रुहः पश्य मुदाम्बुदानाम् । गर्जाट्टहासैर्हसतां लसन्ति दन्ता इवैता धवला बलाकाः ॥ १४ ॥ नायं पयोदोऽर्जुन एष नीलद्युतिर्दिवोऽभ्येति तडित्किरीटी। धारापदेशान्नृप दर्शयंस्तेभ्यस्तेषुपातान्कलितेन्द्रचापः ॥ १५ ॥ निरीक्ष्य नीराणि पतन्ति गर्भाधानस्य बीजानि भुजङ्गमीनाम् । विभाव्य संभाविसुभिक्षमेते नदन्ति नृत्यन्ति च नीलकण्ठाः ।। ६६ ॥ सुजातिभाजः समयस्य राजन्नमुष्य पुत्रीः सरितो रसाढ्याः । समुद्वहन्तस्त्रपया महान्तः पयोधयः संप्रति संकुचन्ति ॥ १७ ॥ वियोगिनीहृद्दलदारणाय दधाति कामः क्रकचान्निकामम् । उत्कण्ठकान्यागतभृङ्गसङ्गनीलस्फुटत्केतककैतवेन ॥ ६८ ॥ गूढाङ्यः पङ्कपरम्परासु श्यामाः स्वरामाविरहातिदुःखैः । फूत्कारिणो मार्गवशेन वक्रं सर्पन्ति सर्पा इव पश्य पान्थाः ॥ ६९ ॥ कृतां पयोदैः सरितं स्मराज्ञारेखामिवोल्लचितुमप्यशक्ताः । प्राणान्परित्याजयितुं नदद्भिर्धता इवैते पथि पार्थ पान्थाः ॥ ७० ॥ पान्थस्य दुःखं नैलिनस्य नाशं जलस्य मालिन्यमिनस्य लोपम् । पश्याम मा मेति विशुद्धपक्षाः प्रागेव जग्मुर्नुप राजहंसाः ॥ ७१॥ सुप्तोऽधुना विष्णुरितीव तीव्रमयूखपीयूषमयूखबिम्बे । तल्लोचने रोचयतो न रोचिश्चयेन विश्वं तिमिरातमेतत् ।। ७२ ॥ स विश्वनाथः स्वपिति स्म पार्थ तीर्थानि सर्वाण्यपि यन्मयानि । इहैव तत्संप्रति तिष्ठ तस्मिन्विद्राणनिद्रे कुरु तीर्थयात्राम् ॥ ७३ ॥ इत्युक्तिभिधौम्यपुरोहितस्य नृपश्चतुर्मासमुवास तत्र । मठे द्विजास्यादशृणोच वृत्तं राजर्षिराजस्य गयस्य विश्वम् ॥ ७४ ।। [कर्णानुजः पुण्यतमानि पश्यन्देवर्षिराजर्षिसमाश्रितानि । तीर्थान्यथो वित्तविशारदेन श्रीलोमशेनाभिदधेऽर्थविज्ञः ॥ ७५ ॥
१. 'उत्कण्ठका' क-ख. २. 'निलयस्य' ख. ३. 'हन्त' ख. ४. धनुश्चिह्नान्तर्गताः ७५-१०१ श्लोकाः केवलं क-पुस्तकाधारेण लिखिताः.
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काव्यमाला।
अत्राश्रमं पश्य कहोडनाष्टावक्रस्य यो गर्भगतोऽपि पैञ्यम् । सर्वत्रियामाध्ययनं निषेधन्वक्रत्वमापाथ पितुः प्रकोपात् ॥ ७६ ॥ बन्दीकृतं खं जनकं निशम्य बालोऽपि वादे मिथिलेशयज्ञे । प्रविश्य यज्ञायतनं प्रवादैर्बन्दि निजग्राह विवाददक्षम् ॥ ७७ ॥ अथाश्रमं पुण्यतमं प्रपश्य कौन्तेय रैभ्यस्य सहानुनश्च । पुरा भरद्वाजसुतं यवक्री ज्ञात्वामरत्वं भवितुं तपःस्थम् ।। ७८ ॥ शक्रस्तदेत्य द्विजवेषधारी चिक्षेप रेणुं सुरनिम्नगायाम् । किमेतदित्यालपतं(2) महर्षि सेतुं विधे(धा)मीति जगाद वाचम्॥७९॥
(युग्मम्) नैषा मनीषा तव विप्र साध्वी प्राहेतिवाचि स मुनौ सुरेशः । तथैव जानीह्यमरत्ववाञ्छां वरानथोऽन्याँस्त्वमतो वृणीष्व ॥ ८० ॥ कामान्बहून्वासवतोऽभिगम्य निवेदयामास पितुः पुरस्तात् । रैभ्याच्च पित्राभिहितो यवक्री शङ्कयं सदा वत्स महर्षितोऽस्मात्॥८१॥ अथैकदा रैम्यवधू यवक्रीरधर्षयत्कामवशंवदात्मा । कृत्या प्रयुक्तार्थविदा जघान रैम्येन नासादितरक्षणं तम् ॥ ८२ ॥ ज्ञात्वा भरद्वाजमुनिः सुतान्तं रैभ्यं शशापाथ विवेश वह्निम् । परावसू रैभ्यसुतो गृहेऽगाजघान तातं मृगधीनिशान्ते ॥ ८३ ॥ अर्चावसुं भ्रातरमाह कष्टी सुद्युम्नभूपस्य मखस्थमेत्य ।। तातान्तकोऽहं मुनिशापनुन्नो जातस्त्वयाघाच्च विमोचनीयः ॥ ८४ ॥ ज्येष्ठं पदे स्वे विनिवेश्य तीर्थस्नानैर्गताघोऽग्रजमाचकार । भूयो मखक्ष्मागत एव विप्रैर्धात्रा निषिद्धो गुरुहेत्युदीर्य ॥ ८५ ॥ अचीवसुर्तीतुरघं प्रजल्पन्वरैः सुरेन्द्रादिभिरचितोऽसौ। वत्रे भरद्वाजऋषेः स सूनोः पितुश्च रैभ्यस्य च जीवितव्यम् ॥ ८६ ॥ अर्चावसोः पुण्यचयेन जाता लब्धासवोऽमी मुनयस्त्रयोऽत्र । रैभ्यालयेऽतो जपदानहोमैर्जनो जनुस्थं कलुषं जहाति ॥ ८७ ॥ निकेतनं पश्यत कापिलेयं यतो निदग्धाः सगरस्य पुत्राः। गङ्गां समानीय भगीरथेन वंश्येन नीता हरिपादपद्मम् ॥ ८ ॥
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३वनपर्व-१सर्गः]
बालभारतम् ।
१८५
उशीनरस्याश्रममत्र तस्य दत्त्वामिषं स्वं शरणागतं यः। वहिं कपोताकृतिनं ररक्ष शक्राय श्येनादृतमायिनेथ ॥ ८९ ॥ एण्या विभाण्डाच्युतवीर्यमत्तं तस्यामृषिशृङ्ग इति प्रयज्ञे । नीतः स्वदेशेऽप्सरसा विलोभ्य वृष्ट्यार्थिना लोमपदेन राज्ञा ॥ ९० ॥ पुत्री प्रदत्ता ऋषये नृपेण भीतो मरुत्त्वान्विततान वृष्टिम् । तस्योटनं पश्य तमोविभूतेः शिष्यवृतं चाध्ययनप्रगल्भैः ॥ ९१ ॥ अथागतोऽसौ च्यवनाश्रमान्ते श्रीलोमशेनाजगदे पृथाभूः । पुरा सुकन्यास्य मुनेश्च नेत्रं सर्यातिपुत्रीरभिदत्कुशेन ॥ ९२ ॥ महर्षयेऽमै प्रददौ सुकन्यां प्रसाद्य सर्यातिरगादगारे । नासत्यदसौ(?) ह्रदमाविगाह्य चक्रात(?) एनं निजरूपसाम्यम् ॥१३॥ ताभ्यामदादध्वरदेवभागं तुष्टो मुनिर्मन्युवता प्रनुन्नम् । जिघांसुकामेन पुरंदरेण पतत्सु कुण्ठं कुलिशं विजिग्ये ॥ ९४ ॥ विलोकयनां वसति सुपुण्यां मांधातृराजर्षिवरस्य धार्मे । पुत्रेष्टिसंभूतजलातिपानताताङ्गसंभेदविनिर्गतस्य ॥ ९५ ॥ तां यज्ञभूमि व्रज सोमकस्य राज्ञोऽथ यस्यां सुतमानिहत्य । एकं सुतान्प्राप बहून्स यज्ञे यो याजकं खं निरयादरक्षत् ॥ ९६ ॥ अथापरं कौरव कुम्भयोनेरिलाश्रमं विद्धि समागमेऽस्य । पयांसि कालुष्यमपि त्यजन्ति शुचिर्नरः स्याच किमत्र चित्रम् ॥९७॥ विधाय वातापिमजाकृतिं खं पुत्रं विपच्य द्विजपुंगवेभ्यः । अभोजयच्चेल्वलदेववैरिः कुक्षि विनिर्भिद्य तथैति सासुः ॥ ९८ ॥ अजारिवातापिरनेन सोऽपि विन्ध्यस्य भास्वद्गतिरोधबुद्धेः । वृद्धिः सुरेशादिभिरार्थतेन भूयोऽगमच्छद्मगिरा निषिद्धाः ॥ ९९ ॥ सुरैविरञ्चिप्रहितैर्दधीचेविधाय वजं बहु याचितस्य ।। खण्डास्थिना दुर्जयकालिकेया विनाशिता वज्रधरेण पूर्वम् ॥ १० ॥ लीना भयात्केचन सिन्धुराजे तदार्थिनोऽसावपिबत्पयोधिम् । नीता विनाशं रिपवोऽपि देवैरेवंविधः कुम्भभवो महर्षिः ॥ १०१ ॥
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१८६
काव्यमाला |
पश्यन्नगस्त्याश्रमदुर्नयादितीर्थान्यथो पार्थिवपुंगवोऽसौ । पुरातनानां चरितानि शृण्वञ्जगाम गङ्गान्वितसागराय ॥ १०२ ॥ तस्मिन्कृती पञ्चनदीशतेषु स्नातो गतः पुण्यकलः कलिङ्गान् । अद्वैतधी वैतरणी स्रवन्तीमुत्तीर्य तेने पितृतर्पणानि ॥ १०३ ॥ उत्पन्नमत्राखिललोकवृत्तविलोकनज्ञांनममुष्य राज्ञः । तथाशृणोत्षष्ठिसहस्रगव्यूत्यन्तर्गतानां यमिनां जपं सः ॥ १०४ ॥ [तेतो महेन्द्राद्विगतः सबन्धू रामाश्रमालोकनचित्तवृत्तिः । सलोमशो भूपतिसत्कृतेनाकृतात्रणेनाभिदधे नरेन्द्रः ॥ १०५ ॥ यो जीवयन्मातरमाशु हत्वा भूपालभूत्या हृतयोगधर्माम् । आदेश भङ्गकुधतातशापनष्टांश्च बन्धूञ्जनकप्रणुन्नः ॥ १०६ ॥ यः कार्तवीर्यं च कथावशेषं तातान्तकं गोभवदुःखतप्तम् । अथाकरोत्पार्थिववंशदाहं सोऽप्यागमिष्यत्यचिरेण रामः ॥ १०७ ॥ ] दानं दद्भार्गव संगमाय गिरा मुनीन्दोरकृतव्रणस्य ।
अथ स्थितः कश्यपवेदिकायां चतुर्दशीं यावदसौ नरेशः ॥ १०८ ॥ नत्वाथ भास्वन्महसं महेन्द्रं महाद्रिमौलौ भृगुनन्दनर्षिम् । क्षोणीशमुख्यो दिशि दक्षिणस्यां पारिक्षितीं नाम नदीं जगाम ॥ १०९ ॥ गोदावरीस्नानर्वैरीकृतश्रीरगस्त्यतीर्थे द्रविडेषु नत्वा ।
पराक्रमं शक्रसुतस्य नारीतीर्थेषु मत्वा स ययौ प्रभासम् ॥ ११० ॥ आनन्दसंवाद विशारदाभ्यां रामाच्युताभ्यां परिपूजितेन । तत्र स्थितं भूमिभुजा समीरपयोभुजा द्वादशवासराणि ॥ १११ ॥ ततो विदर्भेषु गतः स तेने स्नानं पयोष्णीसरितः पयोभिः |
तत्र स्थितः शक्रसहासनस्थं ज्ञानेन दृष्ट्वानुज उन्मदोऽभूत् ॥ ११२ ॥ आननं द्रुपदराजसुतायाः सर्वतीर्थ विहितस्त्रपनायाः । यैघलोकि कमलैः क्व तदेषां प्रीतये भवतु शीतमरीचिः ॥ ११३ ॥
१. 'दुर्णया' क ख २. धनुश्चिहान्तर्गतश्लोकाः ख-ग-पुस्तकयोर्न सन्ति ३. 'प रिस्रुतं' ग. ४. 'करी' ग. ५. 'यद्यलोकि' क.
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३ वनपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
ददत्प्रतिपदं मुदा द्विजजनाय दानान्ययं नयं च जनयञ्जनैर्जगति धर्मवीरोत्तमः । उपास्य परितोऽप्युदक्ककुभि सर्वतीर्थावलीः सुबाहुपुरमासदत्तदनु मेदिनीकामुकः ॥ ११४ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के आरण्यके पर्वणि तीर्थोपासनो नाम प्रथमः सर्गः ।
द्वितीयः सर्गः । कनीनिकीभवन्ध्यानदृशि दर्शयतां सताम् । संसारपारावारस्य पारं पाराशरो मुनिः ॥ १ ॥ [आससादाम्बिकेयस्य सभां वैचित्रिणार्चितः । व्यासः पृष्टः पृथापुत्रवृत्तजिज्ञासुनावदत् ॥ २ ॥ पाण्डवानां प्रियो विष्णुहरेः प्रियतमा इमे । युष्माभिर्विदितं सर्वं कृष्णायाश्वीरकर्षणे || ३ || शिपिविष्टभवा विष्णोः कराग्रक्षतजा वनम् । धृतचीराञ्चलेन स्राक्सत्सु स्वीयेषु हाकरोत् ॥ ४ ॥ विचार्यैतद्विचित्राणि समक्षं सर्वभूभुजाम् । वासांस्यापूरि कृष्णेन कृष्णायास्तन्तु संख्यया ॥ १ ॥ केन जेयोऽर्जुनः संख्ये दिव्यास्त्रकृतसाधनः । प्रायेणाप्यसुहा भोगी किं पुनर्विषपानतः || ६ ||] व्यासादासाद्य तत्कर्णविषं पार्थकथामिषम् । दिनानि तानि गान्धारीजानिर्दुःखादवाहयत् ॥ ७ ॥ ततश्चरणचारेण वैचित्रितनयास्तु ते ।
परिमुक्तरथायुक्तं चेलुर्भूभृद्विभुं प्रति ॥ ८ ॥ भूधराधिपविभानिभालनोत्तालभालतललम्बि लोचनम् ।
लोमशस्तदनु सोमवंशजं चित्तवल्लभमभाषत क्षितेः ॥ ९ ॥
१८७
१. 'वीरो मनः' क ख २. धनुश्चिहान्तर्गतपाठः ख-ग-पुस्तकयो बुटितः ३. 'कथानकम्' खग.
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१८८
काव्यमाला |
शैलाधिपोऽयमिह राज्यमपास्य पाण्डुस्तस्थौ चिरं तव पिता मृगयाविरक्तः ।
तत्क्लृप्तनिर्भरतपः प्रभवैर्यशोभिः
शुभाति पुरस्य हिमांशुशुद्धम् ॥ १० ॥
ध्रुवमवनिधरादतः पितुः स्वा
त्किमपि वशीकरणौषधं गृहीत्वा ।
अहरत वपुरर्धमेव गौरी
पदमधित धुनी तु मूर्ध्नि शंभोः ॥ ११ ॥ नृपालबालश्चिरमद्रिभर्तुः कोडेऽस्य विक्रीडितवान्यतस्त्वम् । तश्वद्वियोगैरिव तापितोऽयं प्रालेयजालानि तनौ तनोति ॥ १२ ॥ मूलस्रुतैर्दृक्श्रुतिविश्वगर्भे प्रत्यन्तशैलप्रभवैर्भुवोऽन्तः । शिरश्रयुतैरस्य हिमांशुपूरैरन्तर्मरुद्वेश्म ररङ्ग गङ्गा ॥ १३ ॥ ग्रीष्मे दिवाकरकरप्रकरार्दितानां
मध्यं दिनेषु नृपकिंकरदम्पतीनाम् । अस्मिन्गलत्तुहिन बिन्दुकदम्बकानि
धाराग्रहश्रियमयन्ति गुहागृहाणि ॥ १४ ॥ तपसि दृढतरो दधाति मूर्ध्ना
विबुधमणीन्वहति क्षमां समन्तात् ।
धरणिधर भवन्तमित्यवश्यं
सुहृदमिवेक्षितुमेष नित्यमूर्ध्वः ॥ १५ ॥
हेलाविलम्बितहिरण्मयरत्नशृङ्गाः
शृङ्गारभासुररुचः सहकारिकान्ताः ।
कान्तारभूवसतयोऽत्र चरन्ति सारं
सारङ्गचञ्चलदृशो मरुतां महेलाः || १६ ||
रैनावलीरुचिचयेन मिथोऽप्यलक्ष्यावेकत्रवासरसिकाविह हस्तिसिंहौ ।
१. 'वेक्षित' क. २० 'मूर्ध्नः' क. ३. 'रत्नावनी' ख-ग.
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३ वनपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
जानन्तु मुग्वहृदया इति किं नु वेद्मि तादृक्तपोधनतपः प्रभवं प्रभावम् ॥ १७ ॥ बहुकासारः सारः सारस्वतवारिभिर्महानेषः । निजकान्तारं तारं तारं वहति व्रजं मरुताम् ॥ १८ ॥ उत्तीर्य तूर्णतरमङ्कतटात्तटिन्यः
पेतुः सुता इव गिरेरिह पादपीठे |
तल्लब्धरत्नचयभूषणभारभाजो
गच्छन्ति विस्तृतरसादपि तं पयोधिम् ॥ १९ ॥ विश्वकशत्रुशरणागतमन्धकारं
संरक्ष्य भानुमति वीक्षणभाजि शैलः ।
भ्रान्त्वा दिनं गतवतीह गुहागृहान्त
राकृष्य मुञ्चति निशि ज्वलितौषधीकः ॥ २० ॥ भात्येष मेरुरुचिरोsपि नमेरुशोभी कृत्स्नामिलामपि वहन्नेनिलाभिरामः ।
सव्यालबालमपि चन्दनपादपानां
नैव्यालवालमभितो वहते समूहम् ॥ २१ ॥
वैनस्यान्तर्लसत्पत्ररतिभूतरुचारुणः । सुरौघः स्त्रीसखो रत्नैरतिभूतरुचारुणः ॥ २२ ॥ वन्येभप्रकरकराग्रभग्नवंश
प्राग्भारप्रभवनवीन मौक्तिकोऽयम् |
कान्तारप्रसवपरागपिङ्गमूर्तिनक्षत्रावलिवृतमेरुवद्विभाति ॥ २३ ॥
भित्त्वा भित्त्वा कुवलयदलश्यामभासः सशब्दानब्दानस्मिन्गुरुतर शिलासङ्गसंपीडिताङ्गः ।
-
१८९
१. नमेरुभिर्वृक्षैः. २. अनिलेन वायुना ३. नव्यमालवालम्, इति विरोधपरिहार:; नञ्समासेन विरोधः ४. 'खेलत्यन्तर्वनस्यास्मिन्' ख ग. ५. 'श्रीसखो' ग; 'श्रीमुखो' ख. ६. 'स्तस्मिंस्तस्मिन्' ख ७. 'तरु' ख.
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१९०
काव्यमाला।
सारङ्गाणामधिपतिरपि प्रत्यहं हन्ति जातं ___ मातङ्गानां न हि गुरुरवं संनिधावप्यशङ्कम् ॥ २४ ॥ केरिपरिणतदन्ताभ्याससंभग्नशृङ्ग
च्युतमणिचयमिश्ररस्य पूरैर्नदीनाम् । अपि मृगमृगनाभिभ्राजमानान्तरालै
रुदधिरजनि रत्नस्थानकं मेचकश्च ॥ २५ ॥ धूमायमान इव लोलपयोदजालैः
कीलानुविद्ध इव रत्नशिखासमूहैः । स्फारस्फुलिङ्ग इव कान्तिपिशङ्गपक्षि.
व्यूहैरयं वियदुदन्वति वाडवाग्निः ॥ २६ ॥ अस्मिन्महीभृति महाकटकाभिरामे __ तुङ्गा विभान्ति शिखराः किल धीरवीराः । मौलिस्थितद्रुममिषेण धृतातपत्राः
क्रीडद्भुजङ्गकपटप्रचलत्कृपाणाः ॥ २७ ॥ गोप्रसङ्गोज्ज्वलच्छायो हरिच्छविपरिच्छदः । एष भूमीधैरो भाति जगत्रितयवस्तुवत् ॥ २८ ॥
(अनन्तार्थोऽयं श्लोकः) लसन्नीलग्रावच्छविभरविनीलेऽम्बरतले
सदा वर्षाहर्षादिह तटवनेषु क्षितिभृतः । समीरप्राम्भारप्रहतनिपतन्निर्झरकणै
मयूरा नृत्यन्ति स्फुरति परितश्चातकचयः ॥ २९ ॥ चूलाचञ्चन्मणिगणविभाकृष्टकोदण्डकेलिः
क्रीडालोलस्फुरदुरुतडिदम्भदम्भोलिशोभी। कालेनाब्दच्छलनवर्भवत्पक्षपक्षोऽयमद्रि
जैत्रं शत्रु हरिमिव पराजित्य जग्राह शस्त्रे ॥ ३० ॥ १. 'परिणतकरिदन्ता' ख. २. 'शिरः' ग. ३. 'धवों क. ४. 'भवत्यक्ष्यदक्षो' ख.
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३ वनपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
प्राचीमञ्चति चण्डरोचिषि चिरं प्राप्ते प्रतीचीं प्रति प्रातः शीतकरे करैरुभयतो गाङ्गेयभङ्गोज्ज्वलः । हैमं कुण्डलमेकतः कलयतः कापालमप्यन्यतो भूतेशस्य वधूविभक्तवपुषः सैष श्रियं पुष्यति ॥ ३१ ॥ त्वद्वन्धुबन्धुरतपोवशदर्शितात्मा
जामातृसंगमसुखानि चिरादेवाप ।
अभ्यापतन्तमयमित्यधुना भवन्तं
लोलाभिराह्वयति शाखिशिखाङ्गुलीभिः ॥ ३२ ॥
इति लोमशोक्तिभिरयं नृपतिः कुतुकी विलोकयितुमेनमगम् । अकृत द्रुतामपि गति बत यां श्रदधायि सापि वरलापतिभिः ॥ ३३ ॥ पुरश्चरद्भीमपदान्तघातसमीकृतोरुस्थैपुटोपलेन ।
पथारुरोहाथ धराधरं तं घराघवोऽन्यैरनुगम्यमानः ॥ ३४ ॥ गन्धमादनवनान्तयायिनो वायुवर्धितरजोऽम्बुवृष्टिजम् ।
घ्नन्ति विघ्नगकुञ्ज पुञ्जिता ध्यानशुद्धशुचिचेतसः स्म ते ॥ ३५ ॥ आकुले द्विजकुले पथि वध्वां पातभाजि नकुलेन धृतायाम् 1 अस्मरच्च मनसाथ मरुद्भूराजगाम च घटोत्कचवीरः ॥ ३६ ॥ व्योमाङ्गणाग्रसर लोमशदर्शितेन
मार्गेण मेघपरिरब्धतडिल्लताभाः । ऊढा घटोत्कच चमूसुभटोच्चयेन शैलेन्द्रमूर्धनि ययुर्वदरीवनं ते ॥ ३७ ॥ पतिभ्यो निर्विशेषायाः कृष्णायाः सुखदुःखयोः । सत्याः स्नानेन गङ्गा स्वं तत्र पुण्यममन्यत ॥ ३८ ॥ कृष्णा तत्र कृतानल्पाकल्पा विन्दुसरोम्बुजैः । मुदा मुकुरयामास कैलासस्य गिरेः शिला ॥ ३९ ॥
१९१
१. ‘परं' ख. २. 'दवाप्य' ख. ३. 'स्वपुटो' ख-ग. ४. 'मथ' ख-ग. ३. 'वना - न्तम्' ख.
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१९२
काव्यमाला।
सप्तमेऽहनि कैलाशतटे स्वमुखबिम्बवत् । पूर्वोत्तरमुरुत्कृष्ट कृष्णा हेमाजमैक्षत ॥ ४० ॥ अब्जानि मह्यमीडेंशि यच्छेति प्रेरितस्तया । मारुतिः पितृभक्त्येव मरुतः संमुखोऽचलत् ॥ ४१ ॥ गन्धमादनमारुह्य मुह्यद्गन्धर्वगुह्यकम् । सशङ्खनादं नादं स चके चकितदिग्गजम् ॥ ४२ ॥ वसन्निह वने हेमकदलीखण्डमण्डने । तवानजाग्रदुत्तानसंभ्रमो हनुमानभूत् ।। ४३ ॥ पुंच्छास्फोटेन स पविप्रहारं स्मारयन्गिरिम् । उत्तस्थौ कुम्भकर्णादीन्नाकस्थानपि कम्पयन् ॥ ४४ ॥ मत्त्वा यान्तमथ ज्ञानाद्वान्धवं गान्धवाहिना । तस्थौ तस्य प्रियं कर्तुं संकटे पथि सुप्तवत् ॥ ४५ ॥ खिन्नो भीमस्तु संरम्भाद्धेमरम्भावनाध्वनि । क्वापि तापं सरस्यौज्झत्पानस्नानविपेन्द्रवत् ॥ ४६ ॥ गच्छन्पुरः कपीन्द्रं तमथ रुद्धमहापथम् । स हेमाद्रिमिवाद्रीन्द्रं सेवायातमलोकत ॥ १७ ॥ अपसर्पत्वसौ मार्गादिति मारुतिरुन्नदन् । तूर्ण घूर्णन्पतन्मुह्यन्क्लीवजीवमगं व्यधात् ।। ४८ ॥ अथोन्मील्य दृशौ किंचित्किचिदाकुञ्चय कन्धराम् । मन्दं मन्दमिवोवाच वानरोऽयं नरोक्तिभिः ॥ ४९ ।। महात्मन इवाकारस्तवाचारस्तु नीचवत् । यथा वृथा व्यथापात्रं जीवाञ्जनयसि स्वनैः ॥ ५० ॥ निद्रागुणक्षणक्षीणरोगाभोगपृथुव्यथम् । किं मां जागरयन्मूढ कृतवान्सुकृतं भवान् ॥ ११ ॥
१. 'पुच्छच्छोटेन' ख; 'पुच्छाच्छोटेन' ग. २. 'तस्थों' ख-ग. ३. 'सुप्तवान्' क. ४. 'स्तव वाच' क. ५. 'रोगभोग' ख-ग. ६. 'महतू' ख.
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३ वनपर्व - २ सर्गः ]
बालभारतम् ।
मर्त्योऽस्यमर्त्यदेशोऽयं निवर्तस्व किंमत्र ते ।
सुखं निद्रां करोम्येष सुखं जीवन्तु जन्तवः ॥ ९२ ॥ निजं कुलं च कार्ये च प्रथयित्वा पृथासुतः । ययाचे वैरिमन्थानः पन्थानमथ वानरम् ॥ ५३ ॥ ऊचे कपिरपि खात्मज्ञानाच्चेन्मां न लङ्घसे | तद्गच्छ पुच्छमुत्क्षिप्य रुग्णोऽहं चलनाक्षमः ॥ ५४ ॥ नात्मवांल्लङ्घनीयः स्यादस्य पुच्छमुदस्य तत् । इतो यामीति भीमस्तदुत्क्षेमकरोत्करौ ॥ ११ ॥ अक्षमः स तदुत्क्षेप्तुमहं दृष्टोऽस्मि केनचित् । इति दिक्षु क्षिपन्नक्षि कपिना तेन भाषितः ॥ ५६ ॥ लेज्जथा मास्म सामीरे यदहं भवदग्रजः ।
वेत्स त्वद्दर्शनोत्कण्ठी प्राप्तः श्रीरामकिंकरः ॥ ५७ ॥ अथानन्दपरिस्पन्दस्यन्दमानस्वमानसः ।
कारिः शिरसि न्यस्य पाणी वाणीमिमां जगौ ॥ १८ ॥ मायालघुमपि प्रेक्ष्य त्वां प्रीतोऽस्मि दृढं प्रभो । अतिप्रीणय मामब्धिजयोग्रस्फूर्तिमूर्तिभृत् ॥ १९ ॥
कल्पान्तक्रमवर्धितानलभयभ्रान्तद्युसद्दानवं
रुक्मच्छैन्नशिरः किरीटतिलकग्रीवामणिद्योमणि । रामस्तोमशिखातिखर्वितनगं निःसीम भीमस्तदापातुरकातरेण मनसा तद्वर्धमानं वपुः ॥ ६० ॥ नासाश्वासवशोदरागत मुहुर्यातोडुजातो मुख
श्वासव्यास लोन्नतक्षितिधृतिव्यग्रोरगग्रामणीः । अङ्गव्याप्तिसमाप्तसप्तभुवनो नाक्ष्णापि वक्ष युत
स्वेदार्णः कणवर्णमर्णवमसावैक्षिष्ट कि लङ्घताम् ॥ ६१ ॥ तत्पुच्छाहतिनिम्नभूतलपथं पाथोभवन्निम्नगा
स्तच्छ्वासा जलधेर्गतैरित इतोर्णोभिश्च सप्तार्णवाः ।
१. 'लज्जतां' ग. २. 'वने' ख. ३. 'छत्र' क- ख. ४. 'तलो' क. ५. 'वर्ण्यतां' ग.
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१९४
काव्यमाला।
तत्फूत्कारबलात्तदा स्फुटितवत्यद्रीन्द्रवृन्दे गुहा
विद्धे व्योमनि तत्तनूरुहमुखैश्छिद्राणि कक्षच्छलात् ॥ १२ ॥ कृतं तत्तेजोभिः किमपि रथपृष्ठे प्रसृमरं
स्वबिम्बस्य छायावलयमवलोक्य द्युतिपतिः । त्रसन्राहुभ्रान्त्या समुपहसितो दूरगतिना
मृगाङ्केण स्वाभिः सह सहचरीभिः खलु तदा ॥ ६३ ॥ कर्णनासाननच्छिद्रैः पञ्चग्रासीकृताम्बरः । स बभौ ब्रह्मचारीन्द्रः कपीन्द्रो मेहतां मुदे ॥ ६४ ॥ अदर्शि दर्शनीयं ते रूपं कपिकुलोत्तम । भाति यद्वर्णने दीना मुनीनामपि कापि वाक् ॥६५॥ मानहीनस्तवाकारप्रासादः वर्धनीध्वजः । तमेकादशरुद्र द्राग्मुञ्च चञ्च सतां हृदि ॥ ६६ ॥ कौन्तेयमिति जल्पन्तं द्रागल्पितवपुः कपिः । आलिलिङ्ग च सानन्दबाष्पो मूर्ध्नि चुचुम्ब च ॥ ६७ ॥ ऊचे च त्वमभीतो मद्रूपं भीतेन्द्रमैक्षथाः । उत्तारणीयमात्मानं त्वद्धैर्यस्योद॑धेर्मुदा ॥ ६८ ॥ अद्यापि सिंहनादस्ते मन्नादेन विमिश्रितः । भविता वैरिमर्माविद्विषलिप्तशरो यथा ॥ १९॥ स्वयं रणक्षणे स्फूर्जन्नर्जुनस्यन्दनध्वजे । करिष्ये बाढफूत्कारैर्गतबोधान्विरोधिनः ॥ ७० ॥ इत्युक्त्वास्मिन्नदृश्यत्वं हनूमति गते सति । भीमस्याभूत्तदा दुःखमोदरससंकरः ॥ ७१ ॥ ततो निशातधीः शातकुम्भरम्भावनावनौ ।
हेमपद्मनदीयोगि सोऽगात्सौगन्धिकं वनम् ॥ ७२ ॥ १. 'तद्भुक्कार' ख; 'तदुत्कार' ग. २. 'मरुतां' ग. ३. 'साग्' क. ४. 'त्ववीर्यस्या' ग. ५. 'दधे मुदा' ग. ६. 'बूक्कारै' ख; 'बूत्कार' ग. ७. 'स्वमोदरस' ख.
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३वनपर्व-२सर्गः]
बालभारतम् ।
तत्रैलविलशैलाग्रवननिर्झरसंभवाम् । सुवर्णपद्मिनी रक्षोरक्षितामयमैक्षत ॥ ७३ ॥ तस्यां पद्मानि कान्तास्यश्रीसद्मानि निरीक्ष्य सः । प्रियामनोरथोऽपूरि मयेत्युत्पुलकोऽभवत् ॥ ७४ ॥ भविष्यद्वल्लभापाणिस्पर्शात्पुलकिते करे । भीमोऽजिनीं स जग्राह रक्षारक्षःक्षयक्षमः ॥ ७५ ॥ मिलद्भिः पलभुग्योधैररोधि क्रोधिभिः पुनः । उद्यद्भिर्वियदग्रं स मशकैरिव कुञ्जरः ॥ ७६ ॥ उग्रभ्रमित्वराटोपचक्राकारविडम्बिनीम् । स गदां भ्रामयामास मूर्ध्नि दैत्यभयंकरीम् ॥ ७७ ॥ तस्मिन्याति तदा तेनुः शिलावर्षाणि राक्षसाः । तान्यस्मिन्नपतन्कान्तामुक्तलीलारविन्दवत् ॥ ७८ ॥ अथोत्पातेषु जातेषु कृष्णादिष्टेन वर्त्मना । राजा घटोत्कचव्यूढस्तत्रागात्सपरिच्छदः ॥ ७९ ॥ 'विबोध्य द्वेषिरक्षांसि भीमं भूमिपतिः स्वयम् । समाश्लिष्यन्नसंतप्तं चक्रे रविमिवाम्बुदः॥ ८० ॥ कल्याणकदलीखण्डचारुतामोहितास्ततः । तत्रैवास्थुरमी राज्यसंपद्यपि निरादराः ॥ ८१ ॥ शंसन्भास्करशिष्यं खं जटाशाली जटासुरः । विप्रवेषी छलान्वेषी तमुपेत्येह तस्थिवान् ॥ ८२ ॥ घटोत्कचान्विते भीमे मृगयायां गतेऽन्यदा । . भुजद्वयवियुक्तेव रेजे यौधिष्ठिरी चमूः ॥ ८३ ॥ ऍधिष्यन्निव कोपाग्नेः प्राग्घृत्वास्त्राणि मायया। क्षणेऽस्मिन्पाण्डवान्कृष्णायुताञ्ज। जटासुरः ॥ ८४ ||
१. 'तामब्जिनी' ग. २. 'प्रबोध्य' ख-ग. ३. 'वात्सु' ख. ४. 'एधिष्यभीमकोपानेः' ख.
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१९६
काव्यमाला।
संस्तम्भितगतिं राज्ञामाद्रेयक्षोभितं च तम् । चक्रे यमपुरीपान्थं द्रुतमन्वेत्य मारुतिः ॥ ८५ ॥ अमी पुनः समागत्य नरनारायणाश्रमम् । श्वेताश्वदत्तसंकेताश्चतुर्वर्षीमपूरयन् ॥ ८६ ॥ ते मृगीकण्ठकण्डूभिर्मगारातिनखाङ्कुरम् । ततोऽगमन्समीपं तेराश्रमं वृषपर्वणः ॥ ८७ ॥ स्थित्वा नृपोऽत्र सप्ताहं सत्कृतो वृषपर्वणा। भास्वानिव सहस्यान्तेऽचलत्प्रत्युत्तरां दिशम् ॥ ८ ॥ ततः किरीटिसंपर्कमनोरथमिवोज्ज्वलम् । श्वेताद्रिमारुरोहाह्नि चतुर्थे पार्थपार्थिवः ॥ ८९ ॥ अथ गौरीनवोद्वाहप्रसन्नशिवसेवितम् । ते ययुः कृतमेरुश्रीसानन्दं गन्धमादनम् ॥ ९० ॥ कीरोक्तिभन्नसंदेहे पठद्बटुकमण्डले । महर्षेराष्टिसेनस्य तत्र ते तस्थुराश्रमे ॥ ९१ ॥ पञ्चवर्णदलैः पुष्पैः समीरणसमीरितैः । कृष्णाथ लोभिता भीमं प्रैषीत्तद्रहणेच्छया ॥ ९२ ॥ अथाधिरुह्य शैलाग्रमालोक्याग्रेऽलकां पुरीम् । स नादक्षोभितोदन्वदम्बुः कम्बुमवादयत् ॥ ९३ ॥ तदा तदाननं तादृक्कम्बुचुम्बितवैभवम् । मरालभ्राजिराजीवभ्रमतः शिश्रिये श्रिया ॥ ९४ ॥ त्रुट्यत्ताराततिस्त्रस्यदकोश्वस्तस्य कम्बुभूः । नादो विघटमानेन्दुकलासंधिरवर्धत ॥ ९५ ॥ नादस्तत्कम्बुभूर्भूभृद्वैहानद्धप्रतिस्वनः ।
दिशि क्वासौ बभूवेति निश्चिकाय न कश्चन ॥ ९६ ॥ १. 'शमिपतेः' क-ग. २. 'नन्दनं' ग. ३. अयं श्लोकः ख-पुस्तके त्रुटितः. ४ 'गुहोद्भूत' ग.
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३ वनपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
तासु प्रतिध्वनत्कम्बुध्वानचूलासु बिम्बितः । प्रीतो भीमप्रियादेशात्कोटिमूर्तिरिवाभवत् ॥ ९७ ॥ हनूमन्नाद मिश्रेण सिंहनादेन मोहयन् । गन्धर्वान्पुष्पप ितां सोऽग्रहीद्गन्धमादनात् ॥ ९८ ॥ गन्धमादनवनाधिपालकः कोपमाप्य मणिमान्महाबलः । भीमदक्षिण कर व्यथाकरक्षिप्तशक्तिरमरैरनूयत ॥ ९९ ॥ स्वव्यथा हतरुचेव बाहुना दक्षिणेन हेठदक्षिणेन सः । चित्रगुप्तकरमार्जिताभिधं तं व्यधादथ समीरनन्दनः ॥ १०० ॥ आर्ष्टिषेणमुनिसद्मनि कृष्णां न्यस्य बन्धुभिरसावथ वत्रे । आययौ हतपलादकुलोक्तिक्रोधनः स धनदः प्रधनाय ॥ १०१ ॥ प्रेक्ष्य पाण्डवमपोह्य च रोषं गुह्यकाधिपतिरेतदवोचत् । पुण्यमस्ति मयि नूनमुपेतो यत्स्वयं त्वमिह धर्मतनूजः ॥ १०२ ॥ भूचक्रशक्र मम केलिबलान्यमूनि नित्यं कृतार्थय यथासुखखेलनेन । अत्रैव ते निवसतो मधुसेकमेक
मासेन दास्यति दृशोस्त्रिदशेन्द्रसूनुः ॥ १०३ ॥ इत्युक्त्वा स्वपदं गते सति धनाधीशे धराधीश्वरो भीमं वीररसैकनिर्मितमिवाश्लिष्य प्रशान्तिं नयन् । संप्राप्तः पुनराष्र्ष्टिषेणसविधेर्मासावधिं तन्मय
ध्यानोऽयं निरवाहयद्धरि सुतप्रेक्षाक्षणोत्कण्ठितः ॥ १०४ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्र विरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के आरण्यके पर्वणि हिमवदधिरोहणो नाम द्वितीयः सर्गः ।
१९७
तृतीयः सर्गः । सूत्रधार इव मुक्तिपुरैकद्वारभारतकृतौ कृतकृत्यः । श्रेयसेऽस्तु स मुनिर्महनीये स्वात्मधामनि सुखेन निषण्णः ॥ १ ॥
१. 'हितरुषेव' ख-ग. २. 'बहुदाक्षिणेन' क- ख. ३. 'क्रोधत:' ग. ४. 'विरोध'ख.
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१९८
काव्यमाला।
श्वेतपर्वततटेषु स खेलन्नेकदा नृपतिरैक्षत कान्तिम् । द्वादशामणिदीप्तिसहस्री मण्डितामिव दिवः प्रपतन्तीम् ॥ २ ॥ व्योमकालिमपयोदतमिस्रज्योतिरिङ्गिणमशीतमयूखम् । विश्वविश्वगशक्यविलोकैः स्वप्रभावविभवैः पिदधानम् ॥ ३ ॥ विस्फुलिङ्गनिभपिङ्गपतङ्गभ्राजमानसंविधां वियदब्धौ । और्वहेतिपटलीमिव तादृङ्गीलिमच्छलजलानि पिबन्तीम् ॥ ४ ॥
(विशेषकम्) किं किमेतदिति निश्चिनुतेऽसौ यावदग्रभुवि तावदुपेतः । दीप्तिलिप्तजगदेष महेन्द्रस्यन्दनस्तडिदिव द्रुतमभ्रात् ॥ ५ ॥ स्यन्दनावनिगतेः समकालं वीक्ष्य पादपुरतोऽथ लुठन्तम् । कृष्णसर्पमिव जेतुमरातीन्पार्थमादित करेण नरेन्द्रः ॥ ६ ॥ संमदादथ हृदा परिरब्धः पार्थिवेन चिरमेष किरीटी । कृष्णया पुनरनेन समन्तादान्तरेण भुजदूरगतोऽपि ॥ ७ ॥ मन्दचन्दनरसो विरसेन्दुश्रीर्मुधाकृतसुधापरिणामः । कोऽपि संमदपैदाय तदाभूत्सोदरेषु परितः परिरम्भः ॥ ८ ॥ स्पृष्टभीमचरणं च यमाभ्यामानतं च पुरतो विनिविष्टम् । सव्यसाचिनमथ क्षितिपालः पूजितप्रहितमातलिरूचे ॥ ९ ॥ अस्मदुग्रतरपञ्चवियोगी पञ्चवह्नितपसा समसाधि ।। यत्त्वया किमपि पञ्चसमाभिः तद्वदारिकरिपञ्चमुख द्राक् ॥ १० ॥ अङ्गकान्तियमुनाजलसङ्गः स्वधुनीकृतलसद्दशनांशुः । शेखरायितकराम्बुजलक्ष्मीरभ्यधादथ सुराधिपसूनुः ॥ ११ ॥ अनितेयमजरा धनुषि ज्या वर्म विद्विषदभेद्यमलाभि । शिक्षिता च दिवि पञ्चदशास्त्री त्वत्प्रसादवशतस्त्रिदशेभ्यः ॥ १२ ॥ निष्कपुष्करमयी मयि माला सेयमुल्लसदमेयमदेन । दीयते स्म हरिणायमपायवातघातनपटुर्मुकुटश्च ॥ १३ ॥ १. 'वीर' ख. २. 'सरुचिं' ख-ग. ३. 'मदाय' क-ख.
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३ वनपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
चित्रसेनममरेशसभाया भूषणं भरतपुत्रमुपास्य । स्वीकृतं भुवनमोहि मयोर्गीतनैर्तनकलायुगलं च ॥ १४ ॥ ते निवातकवचा युधि तिस्रः कोटयः सुरजितोऽम्बुधिकुक्षौ । स्वीकृतेन्द्ररथसारथिनास्त्रैर्जघ्निरेऽधिप भवत्पदिकेन ॥ १९ ॥ व्योमचारिणि हिरण्यपुरेऽहं कालिकेयकपुलोमजदैत्यान् । अच्छिदं निहित पाशुपतास्त्रोद्भूतभूरिपशुभिः स्मरणाते ॥ १६ ॥ सा रतिः क्वचिदभून्न पुनर्मे यास्ति नाथ भवदङ्घ्रिविलोके । पारिजातमधुपस्य कुतः स्यात्कर्णिकारकुसुमे रसमोदैः ॥ १७ ॥ अत्रचित्रमिह नः प्रथयेत्थं तं पृथाप्रथमसूनुरथोचे । सोऽपि भूपकुतुकाय वितेने दैवतायुधशतानि ततानि ॥ १८ ॥ तत्क्षणार्जुनभुजाग्रनियुक्तोदग्रशस्त्र विसरप्रसरेण ।
किं किमद्य भवितेति जगद्भिः क्षोभितासुरसुरैः प्रचकम्पे ॥ १९ ॥ अन्तरेऽत्र तरलामलमालाखेदमेदुरगतिर्द्रुतमेत्य ।
शंकरः स्वयमुदञ्चितपाणिः प्राणिनामभयदः प्रभुरूचे ॥ २० ॥ वत्स संहरतु संहरतु द्राक्शस्त्रमस्तु न भवान्भुवनायै ।
भास्करो यदि करोति तमिस्रं तत्प्रकाशयतु लोकममुं कः ॥ २१ ॥ दैवतायुधगणोऽयमरातौ क्षिप्त एव कुशलाय न शून्ये ।
किं न तत्क्षणमतो युधि मुक्तो वाडवाग्निरभिहन्ति जगन्ति ॥ २२ ॥ तद्धनुः परिहरेत्युदितोऽपि स्थाणुना स्वयमसौ हरिसूनुः । वीक्ष्य धर्मतनुजस्य मुखाब्जं तद्गिरैव शमितोऽस्त्रममुञ्चत् ॥ २३ ॥ धार्मिनिर्मितनुतौ ससुरेशे दृश्यताविरहितेऽथ महेशे । ते परस्परसमागमहर्षोत्कर्षतो वनमहीषु विलेसुः ॥ २४ ॥ [तंत्र धीनयनजेन नियुक्तो द्रौपदी विहितभोजनयामे । आजगाम विपिनेsत्रिकुमारो भोजनार्थमपि सायुतशिष्यः ॥ २५ ॥
१९९
१. 'नर्तक' क. २. 'नृप' ग. ३. 'मोह:' ग. ४. 'अत्र' क. ५. कोष्टकान्तर्गता: श्लोकाः ख ग पुस्तकयोखुटिताः.
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काव्यमाला |
प्रेषितो मुनिवरस्तपजेन मर्जनार्थमगमत्सह शिष्यैः ।
सानुजेन मरणाय चोद्यतं तं निरीक्ष्य मखजा हरिमीडे ॥ २६ ॥ रक्षिता सदसि दीर्घतमस्य पट्टकूलद विभो मम लज्जा । शापतो मुनिवरस्य तथाद्य पाण्डवानव जनार्दन भक्तान् ॥ २७ ॥ आगतः क्रतुभवां हरिराह देहि मेऽन्नमबले क्षुधिताय । नाथ पाहि मुनिशापभयान्नो भोजनावधिरलं मम सर्वम् ॥ २८ ॥ पात्रलग्नमपि शाक पत्रमत्तमादरवशेन निनाय ।
२००
तृप्तिमाप वसुदेवसुतेन माययात्तवपुषा मुनिसङ्घः ॥ २९ ॥ शंकराशमुनिमानय भीम मित्युवाच मधुहा व्रज शीघ्रम् । अन्नमोघभयतोति तदात्ते भीमतोऽप्यचदृशो दिशि जग्मुः ॥ ३० ॥ आपदन्तमविबुध्य मुरारिः कृष्णया सह ततोऽचि ( ? ) नृपेण । स्वं पदं प्रति गतेऽर्जुनसख्यावाजगाम स तदा बृहदधः ॥ ३१ ॥ अर्चितं विधिवदासनसंस्थं पार्थिवोऽथ निजगाद यतीन्द्रम् | नास्ति कोsपि मम तुल्यधरित्र्यां लुप्तराज्यवनवासविषादी ॥ ३२ ॥ भूपतिं स च विहस्य बभाषे नार्हसीति नरदुःखकलायाः । द्यूतनष्टविभवो वनगोऽभूद्येो नृपो वनितया दमयन्त्या ॥ ३३॥ एकवस्त्रपरिधानदम्पती कानने सुषुपतुर्निशिथे तौ ।
खड्गरूपधर एव पपात क्रन्दनाय च कलिः परिधानम् ॥ ३४ ॥ निद्रितां स्त्रियमपास्य वनान्ते निर्गतोऽथ वसनार्धदधानः । वाससोऽर्धविगता वनिता सा तात गेहमगमद्बहुदुःखैः ॥ ३५ ॥ सोऽपि भूपतनयो वनवहेर्दह्यमानवपुषं पवनाशम् । उज्जहार फणिनाप्यथ दष्टः प्राप वर्णविकृतिं सहसैव ॥ ३६ ॥ प्राप्स्यसीति समये निजरूपं प्रोच्यमाननृपतिर्भुजगेन । सारथित्वमगमत्स सुबाहोः प्राप कालबहुतो दमयन्तीम् ॥ ३७ ॥ वाग्विलासविभवैर्गतशोकं संविधाय तनयं बृहदश्वे । आससाद विपिने शिशिरान्तः स्वं निकेतनगते मुनिमान्ये ॥ ३८ ॥]
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३ वनपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
3
त्वां निषेवितुमिहाहमुपेतः पाण्डुनन्दनमिदं किल जल्पन् । काननेषु मधुपीमधुरोक्तिर्व्यक्ततामथ ततान वसन्तः ॥ ३९ ॥ निश्चितं मधुदिनैः परितक्ष्य स्वल्पिताः शिशिरदीर्घरजन्यः | तलताः पतिततत्तनुखण्डानीव रेजुरुडुमण्डलपुष्पाः ॥ ४० ॥ वृत्तवल्लिवलयो मृदुभङ्गी गीतिमान्मलयवायुनटोऽयम् । मानिनीजन विडम्बननाम्नो नाटकान्मदयति स्म जगन्ति ॥ ४१ ॥ स्वं कुटुम्बमरविन्दकदम्बं लुप्तपत्रमवलोक्य सकोपः । अर्दितुं किल हिमानि हिमाद्रि प्रत्यगात्तरणिरुद्धरतेजाः ॥ ४२ ॥ कः क्षणः प्रियतमानभिसतु ध्यायिनीमिति नितान्तमसाध्वीम् । कोकिलः किल कुहूरिति वाचा भावविद्विजवरो निजगाद ॥ ४३ ॥ वीक्षितासु सरुषं कुरुवध्वा गन्धमादन विलासपरासु । स्वर्वधूषु विधुवंशभवैस्तैः प्रापि पञ्चशरपञ्चशरत्वम् ॥ ४४ ॥ यन्मधौ तरुणिमस्पृश किंचित्प्रौढिमानमतनिष्ट दिनश्रीः । निर्भरं तरणिरेष विशेषात्तत्क्रुधेव परितापमवाप || ४९ ॥ वापि गन्तरि मधौ कुसुमालीमण्डलेषु शिथिलीकृतभावाः । वल्लयः शुशुभिरे विरहाग्निज्वालिता इव विपाकपिशङ्गयः ॥ ४६ ॥ उच्छलज्जलधितुङ्गतरङ्गध्वानमङ्गलमृदङ्ग निनादः । आययावथ विजित्य वसन्तं ग्रीष्मभूविभुरुदर्यमतेजाः ॥ ४७ ॥ ग्रीष्मतापचकितः कुसुमेषुर्बाणपुष्पमधुभिः स्वगृहाणि । सिञ्चति स्म हृदयानि वधूनामन्यथा कथमिमानि हिमानि ॥ ४८ ॥ तलपात्र निहितानि पयांसि श्याममेघमहिषी कुलजानि । आपिबद्भिरभितोऽपि विवस्वन्नन्दनैरिव दिनैः समवधिं ॥ ४२ ॥ अद्भुतमणिदीधितिभीतैः क्ष्मां प्रविश्य जगतोऽथ जलौघैः । आश्रितो बिलपथान्खलु नाथः पाथसामिति दधातु समृद्धिम् ॥ १० ॥ पाटलाविच किलद्रुमपुष्पैरर्पितद्युतिनि वल्लभदत्तैः ।
नो शिरीषकुसुमैः स्वसमानश्रीपुषि द्रुपदजावपुषि श्रीः ॥ ११ ॥
२०१
१. 'नृत्त' ग. २. 'नम्रो' ग. ३. 'रिति नितान्तमसाध्वीः ' ख ग ४. 'वृद्धिम्' ख. ५. 'युषि' ख.
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काव्यमाला ।
चन्दनद्रवभरैरपि भीष्मग्रीष्मतापचकितैरिव कामम् । स्फीततत्समयशीतगुणेषु स्त्रीननस्तनतटेषु विलेसे ॥ १२ ॥ तैस्तदा जगदिदं शुचिजातैः पर्यतापि परितः परितापैः । नो निशा व्यलसदत्र यथोडुद्योतचन्दनधरापि चिराय ॥ ५३ ।। नूतना दिवि तपात्ययभूभृद्वाटिकेव तरला जैलदाली । अभ्युपेत्य तपभूरिविभूतिं लुम्पति स्म मुहुरुष्णमरीचिम् ॥ १४ ॥ छाद्यमानमहसं सहसार्क वीक्ष्य नव्यजलदैर्मुदितेव । उल्ललास वसुधा नवदभैरुत्पपात पयसा नदराजिः ॥ ५५ ॥ उद्यतं शुचिजयाय वयस्यं तोयवाहमवलोक्य नॅटद्भिः । स्फारितस्फुटसदृक्षशिखण्डैः क्षोणिमण्डलममण्डि मयूरैः ॥ १६ ॥ श्यामतां वहतु वारि कठोरं वक्तुमार्कविभवं हरतां वा। तद्ददौ किमपि वारिधरस्तु प्रीणितानि बत येन जगन्ति ॥ १७ ॥ तैर्घनाघनघटापरिघट्टैः खण्डितस्य दिवि चण्डमरीचेः । खण्डमण्डलममण्डयदाशामण्डलीं चलतमोमणिमूर्त्या ॥ १८ ॥ धूमयोनिरुदितः कृतवासं खं पितामहमरण्यमहीषु । पावकं दलयति स्म हहा धिग्दुर्विवेकमुदयं मलिनानाम् ॥ १९ ॥ पाण्डवैर्दुपदजावदनेन्दुज्योत्स्नया कृततमःशमनेषु । अप्रदत्तजलदाम्बुलवेषु क्रीडितं गिरिगुहान्तगृहेषु ॥ ६ ॥ यूथिकाकुटजकेतकजातीनीपपुष्पकृतपञ्चशरश्रीः । आततान मकरध्वजवीरः सजतां त्रिजगतीविजयाय ॥ ६१ ॥ वृष्टितो विरमतापि कदाचित्तुष्टयेऽनुसरतां पतगानाम् । अम्मुचा मुमुचिरे जललेशास्तुङ्गपादपदलेषु गलन्तः ॥ १२ ॥ गन्धलीनमधुपैररुणत्वं धारयद्भिरभितोऽपि शिलीन्धैः । भूषिता मरकतोपनमित्रै रत्नभूषणगणैरिव भूमिः ॥ १३ ॥
१. 'स्तथा' ख. २. 'वियदाली' क. ३. 'महसा' क. ४. 'नदद्भिः ' क. ५. 'स्फुर' क. ६. 'व नयेन' क-ख. ७. 'कृपया स' ख.
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३ वनपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दातुमन्नपटलान्युदिताब्द कल्पना जलमपि त्रुटदेब्धेः । यज्जगत्यपि जवात्तदवाप शुभ्रतां शुचियशोभिरिवासौ ॥ ६४ ॥ संगतामपतिवद्धनकालः काननेषु शरदं परिरभ्य । तत्क्षणादपि पलायत शृण्वन्राजहंसजनितध्वनितानि ॥ ६१ ॥ चन्द्र चारुवदना धृतभास्वद्दर्पणा सुरधनुर्मुकुटाढ्या | हंसहाररुचिरा च तदीयक्काणनूपुरवा शरदागात् ॥ ६६ ॥ पुण्यवानहमनेन समन्तात्पायसीयसपदीति मुदाब्धिः । उद्गते घटभुवि स्फुटमन्दैः कर्षितोऽपि भृशमुच्छ्रसति स्म ॥ ६७ ॥ लोचनैरिव निमेषवियुक्तैरम्बुजै रसभृतो भृशमाप | एष्यताममृगयन्त विशुद्धा मार्गमेव विशदच्छदयूनाम् ॥ ६८ ॥ हन्त भास्करकराग्रगतानां प्रान्तरे चिरमपां विरेण । श्यामतां गतवतः कृशमूर्तेः कर्दमस्य हृदयेन विदीर्णम् ॥ ६९ ॥ जीवितैः किमु ततः समयोऽसौ साहसादिव देवेषु पतित्वा । बर्हिणां छदभरैः पदमापि च्छत्रतामुपगतैर्नृपमूर्ध्नि ॥ ७० ॥ प्रीतिनिश्चलमृगाः करलोलत्कङ्कणकणपलायितकीराः । गीतनृत्तविधिनैव वितेनुः पालनानि नवशालिषु गोप्यः ॥ ७१ ॥ स्फारितामृतकलामृत कुण्डेनाङ्किता गजवती जगतीयम् । माधुरीगुणधुरीणघृतेक्षुः कासि कासमहसा हसति स्म ॥ ७२ ॥ यद्वनीषु चलखञ्जननेत्रा सर्वतः शरदसौ विललास । तद्बभार भुवि तत्पदलेखाविभ्रमं स्थलरुहोत्पलवीथी ॥ ७३ ॥ षट्पदो मुहुरयुक्छदपुष्पं सेवते स्म गजदानसुगन्धि । शङ्कितश्रवणतालनिपातस्तद्वलादपि चलादतिबिभ्यत् ॥ ७४ ॥ बाणपत्रनयनेऽसनपुष्पस्वर्णधामनि मुखे शरदोऽस्याः । कुङ्कुमस्तबकमण्डललक्ष्मीं बन्धुजीवकुसुमानि सभीयुः ॥ ७५ ॥ षट्पदोsधरतैले दयितायाः संपतन्नवजयेति विलोलः । पञ्चभिश्चलकरैः कुरुवीरैः शक्यते स्म विनिवारयितुं न ॥ ७६ ॥
५.
२०३
१. 'दब्धिः ' क. २. 'विहरेषु' ख ग ३. 'स यः' ख-ग. ४. 'हृदेषु' ख ग.
'दले' ग.
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२०४
काव्यमाला।
जानती मधुनिधानसरोजश्रीरिवाभिरपराधपरं स्वम् । उत्थिते मधुविरोधिनि जाता भूरिभीरिव शरद्गमनेच्छुः ॥ ७७ ॥ यामिनी गुरुतरां रमणीनां सोष्म च स्तनयुगं तुहिनेऽपि । कल्पयन्नथ सहःसमयोऽभूत्कामिनां सुकृतपाकवेशेन ॥ ७८ ॥ चिन्तयन्हृदि जपामनुरक्तां षट्पदोऽधित पदं न फलिन्याम् । रो-रेणुमसितेन सिताङ्गस्तद्वनेऽभ्रमत सैष तपस्वी ॥ ७९ ॥ भास्करोऽपि हिमरुग्ण इव द्योः समकोणपथ एव चचार । वीक्ष्य भानुमिति भानुमणिभ्यः पावकोऽपि हि बहिर्न बभूव ।। ८० ॥ स्म क्रियावहि पराभवपात्रं मा हिमैरहमयं च समेतौ । इत्यवाप्य हृदि मन्त्रमचालीत्पावकस्य हरिते खरतेजाः ॥ ८१ ॥ इन्दुरम्बरतलेऽम्बुनि पद्मं म्लानिमापतुरतीव तुषारैः । एतयोर्युतिरलोकि विलीना पाण्डवैर्द्वपदनामुख एव ।। ८२ ॥ उद्यतेन जगदेव मयेदं दूनमित्यनुशयीव सहस्यः । संस्मृतागततपःसमयोऽसौ वार्धके सति परिव्रजति म ॥ ८३ ॥ अनिललोललवङ्गरजोभरच्छलसुकोमलकेशलवाञ्चितः । . शिथिलपद्मपदः शिशिरः शिशुर्नवसमुद्गतकुन्दरदोऽभवत् ॥ ८४ ॥ निशि खलु घुमणिः फणिविष्टपे व्रजति तच्चिरसङ्गवशादिव । उदकमन्धुषु तापगुणं हिमे भजति शैल्यमिहापरथा तपे ॥ ८५ ॥ हिमभयादुषसि स्फुटमात्मना ढुंदनलो वपुरन्तरदीप्यत । अननि तज्जनिधूमशिखा मुखे तनुमतामतिबाष्पततिस्तदा ॥ ८६ ॥ हिमगुणैरजयजगदप्यदः समय एष कुचौ न तु योषिताम् । इति तयोस्तनुमानिव कुङ्कुमस्तबकमूर्तिरदीपि महाशिखी ॥ ८७ ॥ शिखिधिया कपिभिर्नवकृष्णलासमुदयोऽनुपदं परिपुञ्जितः । नवमहीभिरपि स्फुटकुङ्कुमस्तबकवत्कलितस्तुहिनागमे ॥ ८ ॥ १. 'तरुणीनां' ग. २. 'रसेन' क, ३. 'मन्द' क. ४. 'यदनलो' ख. ५. 'सखी' ग. ६. 'महः' ग. ७. 'वन' ग.
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(वनपर्व-४ सर्गः] बालभारतम् ।
२०५ अहह चुल्लिगृहेषु वधूकरप्रथितभस्ममहोवसना अपि । गुरुतरामपि जाग्रति यामिनी हुतभुजोऽपि हिमैः स्म हुता इव ॥ ८९॥ हिमभयान्मदनोऽपि हसन्तिकामकृत सद्मनि पद्मशो हृदि । अपरथा कथमूष्म मनोरमं प्रियसुखाय तदीयकुचद्वयम् ॥ ९० ॥ द्रौपदी हिमगिरौ शिशिरार्ता वीक्ष्य रात्रिषु महौषधिमालाम् । अग्निविष्टरधियाभिपतन्ती पर्यहासि दयितैरनुवेलम् ॥ ९१ ॥ हिमदग्धपुष्पजनिहेतुवनीतरुवल्लिपद्धतिऋतुः शिशिरः । कुसुमाकरस्य ऋतुभर्तुरथागमनं विभाव्य चकितश्चलितः ॥ ९२ ॥ पाञ्चाल्या वाचि पुंस्कोकिलकलगिरि तद्रोमपतौ शिरीषे
तत्केशान्ते कलापिच्छदनमहसि तल्लोचने खञ्जरीटे । तद्धास्ये रोध्रपुष्पोल्लसितरजसि तद्दन्तपतौ च कुन्द___ स्तोमे च प्राप्तहर्षेः कुरुभिरिति चतुर्वर्षिका तत्र निन्ये ॥ ९३ ॥ मत्वा चूतदिनादथो दशसमापूर्ति समापृच्छय तं
शैलेन्द्रं बदरीवनाश्रममहीमासाद्य मासं स्थिताः । उत्तीर्णास्तदतः सुबाहुनगरन्यस्तान्गृहीत्वा रथा
न्भैमी प्रेष्य च यामुनाचलतटीं ते पञ्चवीरा ययुः ॥ ९४ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के आरण्यके पर्वणि अर्जुनसमागमो नाम तृतीयः सर्गः ।
चतुर्थः सर्गः । दृशोराधाय यत्कायकान्तिसिद्धाञ्जनं जनः । द्रास्त्रिलोकीविलोकी स्यात्तं सेवे कृष्णयोगिनम् ॥ १ ॥ मिथो लीलामितज्योत्स्नालसत्कुसुमसंपदम् । खेलैः सफलतां निन्युस्ते यामुनवनावलिम् ॥ २॥ तत्र तेषु तलं प्राप्य तन्वानेषु मिथः कथाः ।
कृतार्थ मेनिरे धाम महौषध्यो निजं निशि ॥ ३ ॥ १. 'दृशां' ग. २. 'छदमहसि च' ग.
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काव्यमाला। आहूय नूपुरारावैः शिक्षयन्तीव तद्राि । कृष्णालीलागतिस्तत्र मरालीनामभूद्गुरुः ॥ ४ ॥ कृष्णालीलोक्तिमाकर्ण्य मधुरां वनदेवताः । उद्यन्मधुधिया तत्र सदापुः संभ्रमान्मुदम् ॥ ५ ॥ ऋतूपयुक्तपुष्पस्रग्वती तत्र कृता प्रियैः । अलंचकार कान्तारं कृष्णा वल्लीव जङ्गमा ॥ ६ ॥ इह तैर्विहितानेकविनोदैरिन्दुनन्दनैः । इत्येकादशमुत्कर्षवद्भिर्वर्षमनीयत ॥ ७ ॥ मृगयायै गतोऽन्येधुर्महाकायमलोकयत् । किंचिद्कोदरः काकोदरं कन्दरगं गिरेः ॥ ८ ॥ कीनाशनागरीलोहप्राकाराकारविग्रहम् । ययौ तं निकषा भीमः कुतूहलितकौतुकः ॥ ९ ॥ दशमद्वारनिर्धूतक्रोधानलसदृङ्मणिः । सोऽप्यधावत दुःप्रेक्ष्यः प्रेक्ष्य भीमं भुजङ्गमः ॥ १० ॥ मुखोदरस्फुरत्कालदोःकल्परसनायुगम् । तं हन्तुमुद्गदभुजः क्रुधा भीमोऽप्यधावत ॥ ११ ॥ तत्फूत्कृन्मारुतेनैव पातिता मारुतेर्गदा । द्विषद्वर्ती द्विषवृत्ति स्वजनोऽपि हि गच्छति ॥ १२ ॥ दोर्दण्डेनैव संहतु प्रवृत्तोऽथ वृकोदरः । आपादकण्ठमावेष्टि स्वेन भोगेन भोगिना ॥ १३ ॥ महाबलयुजानेन बद्धो धुन्वन्बलाद्वपुः । महाबलसुतोऽप्येष नासीन्निर्गन्तुमीश्वरः ॥ १४ ॥ अथोत्पातैरिहायातो भीमं भोगिनियन्त्रितम् । धर्मसूसृत्युसर्वाङ्गालिङ्गिताङ्गमिवैक्षत ॥ १५ ॥ भोगिमल्लः क भीमैनत्कोऽप्ययं कोपितः पुरा ।
ध्यात्वेत्यूचे नृपो नागं कस्त्वं बद्धस्तथैष किम् ॥ १६ ॥ १. 'मलोकत' ग.२. 'र्मृति' ख-ग. ३. भोगी मल्लः क्व भीमैस्तत्' ख; 'भीमैतत्'ग, ४. 'सुरः'ख-ग.
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३ वनपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
सरीसृपो नृपोत्तंसमथोचे मर्त्यभाषया । महीभुज भुजङ्गोऽहमेतद्वननिकेतनः ॥ १७ ॥ जीवाः सर्वेऽपि मद्भक्ष्यं तान्निघ्नन्नापराधवान् । बद्धो मयैष यद्वैर मेकद्रव्यस्पृहा महत् ॥ १८ ॥ केनाप्येकेन जीवेन नाहं तृप्तः पुराभवम् । अद्यामुनातिकायेन शेष्ये कुक्षिभरिः क्षणम् ॥ १९ ॥ अमुं ददामि वा तस्मै स्वभक्ष्यं पारितोषिकम् । भवत्युत्तरबुद्धिर्मत्प्रश्नानामुत्तरेषु यः ॥ २० ॥ अवोचदथ पृथ्वीन्दुरित्थं यदि तदुच्यताम् । कुर्वे कर प्रश्न खर्वमहं तव ॥ २१ ॥ किं विषादपि पीयूषं स्यादिति भ्रान्तिदं वचः । अथ भूपं प्रति व्यालपतिरालपति स्म सः ॥ २२ ॥
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को विप्रः किल कः शूद्रः किं मित्रं के च शत्रवः । कः सुधीः कश्च वैधेयः कः शूरः कश्च कातरः ॥ २३ ॥ किं सत्यं किमसत्यं च को धर्मः किं च पातकम् ।
२०७
किं सुखं किमु दुःखं च का मुक्तिः का च संसृतिः ॥ २४ ॥ द्विजिह्वत्वादिव प्रश्नद्वितीरिति पृच्छति ।
तस्मिन्भुजङ्गमे धीमानभ्यधत्त स्मिताननः ॥ २५ ॥ तं जानामि द्विजं नाग यस्य निष्कपटं तपः । तपोभिर्द्विजतां याति शूद्रोऽप्युन्मदसंयमः ॥ २६ ॥ विद्धि भोगीन्द्र तं शूद्रं यो रौद्रचण्डवृत्तयुक् । दुर्वृत्ता यान्ति शूद्रत्वं त्रिवेदीवेदिनोऽपि हि ॥ २७ ॥ कर्मोद्यम मित्रं प्रमादः परमो रिपुः । धीमान्भवेद्विरक्तात्मा वैधेयो नास्तिकः परः ॥ २८ ॥ स्वकीयेन्द्रियसंकेतादपि प्रविशतोऽन्तरा ।
यः शत्रून्हन्ति कामादीन्स शूर इति मे मतिः ॥ २९ ॥
१. 'मगात् ' ग. २. 'कश्च शात्रवः' ख-ग. ३. 'चारुवृत्तमुक्' ग. ४. 'पुन:' ग.
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२०८
काव्यमाला ।
भीरूणामपि नेत्रान्तललितालोकनेन यः । कम्पते नाग निर्मुक्तधैर्यः स खलु कातरः ॥ ३० ॥ सत्यं तच्च हितं जन्तोरसत्यमपि यद्वचः । असत्यमेव तत्सत्यमपि यत्परदुःखकृत् ॥ ३१ ॥ देवे परेषामद्वेषो रागो वंशक्रमागते । सुपात्रदुःस्थयोर्दानं शान्तिर्धर्मोऽयमुत्तमः ॥ ३२ ॥ उपकारिण्यपि द्रोहः सुविश्वस्तेऽपि वश्चना । पूज्येऽपि प्रभुतादर्पः सर्प तद्वच्मि पातकम् ॥ ३३ ॥ सुखं सर्वत्र माध्यस्थ्यं दुःखं मिथ्या विजृम्भणम् । मुक्तिश्चित्तात्मनोरक्यं संसृतिवृषरागधीः ॥ ३४ ॥ नरेन्द्रोऽयमिति प्रश्नोत्तरैर्मन्त्राक्षरैरिव । अपश्यन्मुक्तमेवाग्रे भीमं न तु भुजङ्गमम् ॥ ३५ ॥ राजञ्जय जयेत्युक्त्वा मुक्त्वा पुष्पाणि मूर्धनि । सुरः कोऽपि विमानस्थः स्वस्थं भूपमथावदत् ॥ ३६ ॥ रागद्वेषोग्रकौरव्यशतग्रन्थिविसंष्ठले। . वत्स त्वमेक एवास्मद्वंशे मुक्तामणीयसे ॥ ३७ ॥ अहं स नहुषो नाम नृहंस तव पूर्वजः । तपोभिरर्जयामास वासवश्रियमुज्ज्वलाम् ॥ ३८॥ ऊढेन सर्वगन्धर्वसुपर्वपरमर्षिभिः ।। चलितोऽस्मि विमानेन शचीसंभोगसंविदा ॥ ३९ ॥ अथाशु सर्प सर्पति मयोक्तः कुम्भनो मुनिः। सर्पो भवेति मां कोपसंतप्तः शप्तवानसौ ॥ ४० ॥ अनुग्रहं मयाराद्धः स मुनिर्य तदा ददौ । स ते प्रश्नोत्तरैरेव प्रत्यक्षो मम मुक्तिदैः ॥ ४१ ॥ तद्वत्स गच्छ कार्येषु यतस्व विजयस्व च ।
इत्युदीर्य ययौ नाकलोकं नहुषनिर्जरः ॥ ४२ ॥ १. 'सर्व' ग. २. 'खमिच्छा' ग. ३. 'क्तिः शिवात्मनो' ग. ४. 'स्वयं ख.
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३वनपर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
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इति तच्चरितानन्दमण्डनाः पाण्डुनन्दनाः। काम्यकं वनदेवीभिरापृष्टकुशला ययुः ॥ ४३ ॥ हरिनारदमार्कण्डैरथागत्य कथाततिम् । कथयित्वा चिरं तेषां गतमेभिर्यथा गतम् ।। ४४ ॥ पितरं घोषगोवीक्षाच्छलेनापृच्छय कौरवः । तद्धर्षणाय कर्णोक्त्या सैन्यद्वैतवनं ययौ ॥ ४५ ॥ स च द्वैतसरस्तीरे निवासेच्छुर्निवारितः । तत्क्रीडाबन्धुगन्धर्वचित्रसेनानुचारिभिः ॥ ४६ ॥ द्राग्विरथ्याधिरथ्यादीनथ तत्करणे रणे । सानुजं भूभुजं चित्रसेनः सेनाग्रतोऽहरत् ॥ ४७ ॥ पार्थेशमथ राजर्षियज्ञे तद्दिनदीक्षितम् ।
आश्रित्य द्वैतवनगं चक्रन्दुः कौरवप्रियाः ॥ ४८ ।। अथासौ तत्कथां श्रुत्वा हास्यमुन्मोच्य मारुतिम् । आदिशत्कुल्यमोक्षाय धनंजययमान्वितम् ॥ ४९ ।। भीमार्जुनयमैः शत्रुयमैरथ दिवं प्रति । वृष्टं नाराचधाराभिर्विपरीताम्बुदैरिव ॥ ५० ॥ तद्भियाभूदतापोऽर्कः स्वैरेव स्वेदबिन्दुभिः । सारथिस्तद्रथावस्तमनाः पङ्गुः करोतु किम् ॥ ११ ॥ घ्नन्ति त्वद्वंशजाः स्वामिन्निति वक्तुमिवोडुपम् । तुल्यमध्यायि नक्षत्रैर्गन्तुं मेरोः परां तटीम् ॥ ५२ ॥ धावत्क्रोधान्धन्धिर्वसैन्यदैन्यकराशरान् । खण्डयपाण्डुपुत्राणां चित्रसेनोऽभ्यवर्तत ।। ६३ ।। विझून्य पावकास्त्रेण शत्रुमायामयं तमः । अवधीदशगन्धर्वलक्षी मघवतः सुतः ॥ १४ ॥
१. 'त्करणे' ग. २. 'तत्र सेनः' ख. ३. 'वारिभिः' ग. ४. 'गन्धर्व' ग. ५. 'न्यव' ग. ६. 'विद्राव्य' ग.
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काव्यमाला |
चित्रसेनं गदाचित्रगतिं मित्रमथार्जुनः ।
पुष्प श्लक्ष्णैरपि शरैश्चक्रे काम इवाकुलम् ॥ १९ ॥ उase चित्रसेनस्तं पार्थ स्वार्थेऽपि मा मुहः । हन्त कर्षति हन्तव्यं सर्प कः पङ्कतः कृती ॥ ९६ ॥ श्रीमानपश्रियो युष्मान्यक्कर्तुं रिपुरापतन् ।
मया शक्राज्ञया जहे तन्मुक्त्यै किमु ताम्यसि ॥ १७ ॥ किं च युष्मासु यन्मूलः प्रतिकूलत्वपादपः । नालाभिः स तदास्माभिः कर्णस्तूर्ण पलायितः ॥ १८ ॥ पार्थोऽप्यूचे जितं नान्यैः सहन्तेऽरिं जिगीषवः । निजं भोजनमुच्छिष्टीकृतमन्यैः क्षमेत कः ॥ १९ ॥ परस्परापराधेषु वयं पञ्चशतं च ते । अपरैः परिभूतासु प्रयामः कागमेकताम् ॥ ६० ॥ किं वा बहूक्तिभङ्गीभिरङ्गीकृतमिदं मया । राज्ञः कृपापयोराशेराज्ञया तद्विमोचनम् ॥ ६१ ॥ मुक्तोऽथ चित्रसेनेन यज्ञोर्व्या सानुजो नृपः । नतास्यो मयि तिष्ठेति त्रपामनुनयन्निव ॥ ६२ ॥ द्यां गते चित्रसेनेऽथ वीरान्पार्थहतान्हरिः । अजीजिवद्दवलष्टानि वृट्यमृतं तरून् ॥ ६३ ॥ वत्स नेदृक्पुनः कृत्यमित्युक्तो धर्मसूनुना । दुर्योधनो ह्रिया दीर्यमाणहृच्चलितस्ततः ॥ ६४ ॥ द्वेषिभिर्मुञ्चितोऽस्मीति मानी मृत्यून्मुखः पथि । स्थितोऽसौ निर्भरं दर्भास्तरणेऽस्तरणेप्सितः ॥ ६९ ॥ कुतोऽप्यागत्य विज्ञातवृत्तेनादित्यसूनुना । दुःशासनशकुन्याद्यैर्बोधितोऽपि स नोत्थितः ॥ ६६ ॥ कृत्यया हारयित्वाथ निशितं निशितैौजसः । जगदुर्जगदुन्मादभेदिनः श्वभ्रदानवाः ॥ ६७ ॥
१. ‘निर्वृष्टयेवाम्बुदस्तरून्' ख-ग.
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३वनपर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
मा भूविषादभूर्भूप रणाय प्रगुणाशयः । वयं ते हन्त गान्तारो विग्रहाय सहायताम् ॥ ६८ ॥ इत्युदीर्य ज्वलद्वीर्यैः प्रहितस्त्रिदशाहितैः। संपरायपरायत्तचित्तः पुरि ययौ नृपः ॥ १९ ॥ तं भीष्मोऽथ सदस्यूचे दिष्यासि कुशली नृप । दृष्टस्त्वया स्वयं तादृग्विक्रमः कर्णपार्थयोः ॥ ७० ॥ ततोऽधुनापि संधत्स्व विभागं देहि भोगिषु । विरोधक्रोधकीलाभिर्मा कुलं व्याकुलं कृथाः ॥ ७१ ॥ इत्युक्तियुक्तेऽवज्ञाते याते सिन्धुसुते नृपः । दैत्योक्तिस्मरणस्मेरवैरो वैरोचनि जगौ ॥ ७२ ॥ दुरोदरजितो युद्धे जेतव्यो जीयतेऽधुना। राजसूयमखोत्थेन धर्मसूधर्मकर्मणा ॥ ७३ ॥ सर्वदिग्जैत्रयात्रस्त्वं भव भीमार्जुनादिवत् । कृतधर्मात्मजासूयं राजसूयं तनोम्यथ ॥ ७४ ॥ अथ प्रारब्धसंरब्धनियूंढप्रौढदिग्जये । राधेये राजसूयेच्छं पुरोधा नृपमभ्यधात् ॥ ७५ ।। एकस्मिन्सति सम्राजि नान्यः सम्राड् भवेदिति । तद्राजनराजसूयस्य मा भूः कर्मणि कर्मठः ॥ ७६ ॥ परीतपुरुहूताथै हूतानागतपाण्डवम् । ततः प्रतेने राजासौ राजसूयसमं मखम् ॥ ७७ ॥ यज्ञान्ते तं जगौ कर्णो हते युधि युधिष्ठिरे । राजसूये त्वया प्राप्ते भजिष्ये हृदि संमदम् ॥ ७८ ॥ करिष्ये पादशौचं तु नाहं हत्वार्जुनं रणे । श्रुत्वेति हस्तगं मूढो मेने दुर्योधनो जयम् ॥ ७९ ॥ इतश्च मृगयाक्षीणैर्विज्ञप्तः स्वप्नगैर्मगैः ।
कृपालुः काम्यके पार्थस्तृणबिन्दुसरो ययौ ॥ ८० ॥ १. 'संधेहि' ग. २. अयं श्लोको ग-पुस्तकेऽग्रिमश्लोकात्परत्र. ३. 'सूत' ग.
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काव्यमाला ।
युद्धाभ्यासेऽथ ते लक्ष्याभ्यासाय मृगयामिषात् । तृणबिन्द्वाश्रमे न्यस्य प्रियां पार्था वनेऽचरन् ॥ ८१ ॥ विवाहार्थमथानेन यथाशाल्वं जयद्रथः । वैजञ्जहार पाञ्चाली हारगौरं जहौ यशः ॥ ८२ ॥ ततोऽनुपातिभिः पार्थेः पात्यमानचमूचयः। ववलेऽत्यवलेपेन धृतराष्ट्रसुतापतिः ॥ ८३ ॥ ततोऽर्जुनशरासारैर्निपेतुस्तच्चमूभटाः । धाराधराम्बुधाराभिनिराधारा मृगा इव ॥ ८४ ॥ तदाद्भुतगदापातैाग्विरथ्य जयद्रथम् । त्वदासोऽसीति वाचालं मुदामुञ्चद्वकोदरः ॥ ८५ ॥ प्रकटप्रियसामर्थ्यपुलकाङ्कुरमालिनीम् । आदाय दयितामीयुरथ पार्था निजस्थितिम् ॥ ८६ ।। तपो भागीरथीतीरे चरन्नथ जयद्रथः । साक्षाद्भूते स भूतेशेऽयाचत्पार्थजये वरम् ॥ ८७ ॥ तं शंभुरभ्यधाज्जेता त्वं चतुष्पाण्डवीं युधि । कृष्णमित्रं तु केन्द्रियो येन वयं जिताः ॥ ८८ ॥ इत्यादिश्य तिरोभूते शिरोभूते दिवौकसाम् । पुरं जयद्रथः पूर्णमनोरथ इवागमत् ॥ ८९ ॥ कान्ताहरणसंव्यग्रं कान्तारव्रतकर्षितम् । कामिन्या सहितं काम्ये प्राह मार्कण्डजो नृपम् ॥ ९ ॥ त्वत्तोऽधिकतरं नीतं दुःखं जानकिजानिना । एकैकस्य तु निक्षेपात्पर्वतोऽपि विदीर्यते ॥ ९१ ॥ राज्यविघ्नोपहासौघं वने वानरसंगमम् । सवितुर्विरहालापं प्रिया परगृहाश्रयम् ।। ९२ ॥ सततं रक्ष संपर्कमयुक्तं हननं कपेः ।
सागरे बन्धनं सेतोः सौमित्रेर्मूर्च्छनं तथा ॥ ९३ ॥ १. 'ब्रह्मन्' ख. २. कोष्ठकान्तर्गता एकत्रिंशच्छोकाः ख-ग-पुस्तकयोस्त्रुटिताः.
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३वनपर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
दशास्यघातनं रौद्रं क्लेशात्कान्ताविमोक्षणम् । विना रामं न कोऽप्यासीढुःखैरेतैर्न दीर्यते ॥ ९४ ॥ दुःखद्रुकृन्तने कुन्तो भवाकूपारनाविकः । कृष्णः कमलपत्राक्षो ध्येयो वै भवता हरिः ॥ ९५ ॥ एकार्णवनलं श्रान्तो बहुभ्यामतरत्परा । आलोकि वटपत्रस्थं बालं बालरविच्छविम् ॥ ९६ ॥ अन्वगामुदरे तस्य नीतो नासाग्रवायुना । रक्षितो क्षयपर्यन्तमभवं पूर्ववत्ततः ॥ ९७ ॥ वैवस्वतमनुः पूर्व मच्छ(त्स्य)रूपेण विष्णुना। सततं वर्धमानेन नावमारोप्य रक्षितः ॥ ९८ ॥ यूयं धर्मविदः कृष्णाप्रियप्रेमपरायणाः । दुःखाब्धेरञ्जसा पारमपारस्य गमिष्यथ ॥ ९९ ॥ आसीत्पूर्व तपोराशिः कौरस्यः कौशिको मुनिः । विण्मूत्रैर्दुःखितो मूनि द्रुमूलस्थो बलाकया ॥ १०० ॥ क्रुधा विलोकनेनैव प्रेषितो यमसादनम् । भ्रमताहारकामेनासादितं कस्यचिद्गृहम् ॥ १०१ ॥ द्वारिस्थं कौशिकं क्षिप्रं कान्तया गृहिणोऽतिथिम् । नाचितं ह्यन्नपानाधैर्धवशुश्रूषकामया ॥ १०२ ॥ पतिव्रतां चिरायातां क्रुधाम्यधत्त कौशिकः । किं नोऽतिथिस्त्वया ज्ञातश्विरोषितगृहाङ्गणः ॥ १०३ ॥ आबभाषे सती जातं विलम्बं भर्तृकार्यतः । विधि(द्धि) नाहं बलाका सा त्वत्तः पञ्चत्वमागता ॥ १०४ ॥ साश्चर्य प्राह मे वृत्तं कथं ज्ञातं पतिव्रते । कथयिष्यति ते व्याधो मिथिलायां जगाद सा ॥ १०५ ॥ गतेनालोकि वैदेह्यां मांसविक्रयकारकः । धर्मव्याधोऽपि तं प्राह सतीनुन्नो भवानिति ॥ १०६ ॥
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काव्यमाला ।
अत्याश्चर्यपरो व्याधमूचे यत्सर्वविद्भवान् । कस्मात्करोषि कर्मेदं सतीवृत्तं च मे वद ॥ १०७ ॥ त्रिकालज्ञा भवन्तीति स्त्रियो याः पतिदेवताः । कुलधर्महतो नापि सर्वज्ञोऽमरवन्दितः ॥ १०८ ॥ नृपोऽहमभवं पूर्वे मारिषं मृगयां गतः । मृगबुद्ध्या ऋषि बीतं जनुषि मृगचर्मणा ॥ १०९ ॥ शप्तो व्याधो भवेतीति तेनेमां गमितो दशाम् । अनुनीतो मया पश्चात्तेनेदं ज्ञानमागतम् ॥ ११० ॥ इत्याकर्ण्य मुनिर्नत्वा निजाचारं गतभ्रमः । व्याधं विज्ञाप्य विधिवत्स्वमाश्रममासदत् ॥ १११ ॥ aroseमेकदा पित्रा ज्ञातवृत्तेन नोदितः । द्विजामिने नित्यं सप्ताहं जीवितावधिः ॥ ११२ ॥ न तं सनत्सुजातीयं कदाचित्पादपल्लवम् । चिरं जीवेति तैरुक्तसान ( ) म्यधत्त मे पिता ॥ ११३ ॥ भवतां वाग्गतिर्देवीरन्योन्यमेकलक्षताम् ।
याति युष्माभिस्तत्कार्यमायुहिनोऽयमर्भकः ॥ ११ 11 सप्ताहं ब्रह्मणो दत्तं जीवितं मे महात्मभिः । आजमीढ ह्यतो वन्द्या नृभिर्नित्यं घरासुराः ॥ ११५ ॥ एवं गतव्यथं कृत्वा दीर्घायुः सुकृताङ्गजम् । स्वपराभवसंतप्तामृतुजां प्रत्यबोधयत् ॥ ११६ ॥ त्वत्तो कृष्णे कुरुश्रेष्ठास्तरिष्यन्ति व्यथाम्बुधिम् । सावित्र्या रक्षितो भर्ता कीनाशवशगः पुरा ॥ ११७ ॥ आयुहनं विदित्वापि वत्रे सत्याच्च सा पतिम् । वनेऽगमत्सहानेन प्राप्ते मृत्युदिने सती ॥ ११८ ॥ पितृनाथो व्रजन्मार्गे सावित्री सत्यप्रीणितः । गृहीत्वा तं वरैः सासुं पतित्रत्यै प्रियं ददौ ॥ ११९ ॥
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३वनपर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
पतिनागाद्गुहं साध्वी सहैव व्रतसंभवे । तथैव त्वं प्रियैः प्राप्तराज्यैः प्राप्तासि वैभवम् ॥ १२०॥ इतोऽप्यूचे द्विजः कश्चिद्धामि द्वैतवनागतम् । एष शृङ्गाग्रलग्नां मे हरते हरिणोऽरणीम् ॥ १२१ ॥ अथाश्रु पाण्डवाश्चण्डचापास्तमनुगामिनः । नालोकन्त मृगं सौख्यमिव दुःखामिसेवकाः ॥ १२२ ॥ भूभृत्तटे वने क्वापि विश्रान्ता नकुलोऽम्भसे ।। गतश्विरादनागच्छन्नन्वीये बन्धुभिः क्रमात् ॥ १२३ ॥ क्रमानुगो नृपस्तत्र सरस्तीरे चतुर्मितान् । पतितान्दिग्जयस्तम्भानिव भ्रातृनलोकत ॥ १२४ ॥ ततः किमेतदित्यस्य चिन्तासंतापिचेतसः । संभ्रमाय भुवो भर्तुर्भारती नभसोऽभवत् ॥ १२५ ॥ राजन्यक्षोऽस्मि मत्प्रश्नानभित्त्वेहाम्बुपायिनाम् । मृत्युः स्यादिति तान्भिन्धि पिब चाम्बु यदृच्छया ॥ १२६ ॥ राजोचे बान्धवध्वंसेऽधुना किममुनाम्बुना। तथापि त्वत्प्रियान्प्रश्नान्भेत्स्यामि स्वेच्छया वद ॥ १२७ ।। इत्युक्ते सति राज्ञेति व्योम्नः प्रश्नगिरोऽभवन् । तदुत्तरगिरश्चाशु जगाद जगतीपतिः ॥ १२८ ॥ को देवः स्वीय एवात्मा सद्गुरूक्तिप्रकाशितः । किं दैवं प्राक्तनं कर्म सुदुर्लङ्घयं सुरासुरैः ॥ १२९ ।। को धन्यः क्रियते दास्यं यस्याःविषयाधिपः । कः शुचिः स्नाति यः शश्वत्सत्यवाग्जाह्नवीजलैः ॥ १३०॥ को मोक्षश्चित्तमेव खं सर्वबुद्धिवियोजितम् । का लक्ष्मीः सर्वसंतोषः का विपद्विपुला स्पृहा ॥ १३१ ॥ प्रीतः प्रश्नोत्तरैरेभिरयं जीवतु मद्वरात् ।
तवैकः संमतो भ्राता जाताथ व्योमवागियम् ॥ १३२ ॥ १. 'विटे' ग. २. 'व्योनि' ख. ३. 'इत्युत्तर' ग. ४. 'प्रकाशतः' ग. ५. 'मोक्षः कश्चित्त' क-ग.
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२१६
काव्यमाला |
मृत्युधीर्बन्धुदुःखेन कुललालनकाङ्क्षया । अथ भूपोऽभ्यधान्माद्रीपुत्रो जीवतु मत्प्रियः ॥ १३३॥ सोदर्यतोऽधिकप्रीतिं वैमात्रेयेऽथ पार्थिवम् । प्रीतः प्रत्यक्षतामेत्य धर्मो निर्मलगीर्जगौ ॥ १३४ ॥ धर्मोऽस्म्यहं स्यपुस्य तवास्येन्दुत्विषा मयि । हतौ पाण्डव माण्डव्यशापतापतमश्चयौ ॥ १३५ ॥ अरणी हरिणीभूय मया त्वां वीक्षितुं हृता । सोदरेषु तथार्तेषु पिबन्तोऽम्बु हतास्त्वमी ॥ १३६ ॥ अनृशंस्यं स सत्वं च दृष्ट्वा तुष्टोऽस्मि तेऽधुना । अवाप्नुहि जयं धर्म्य जीवन्तु तव बान्धवाः ॥ १३७ ॥ वर्षे वस विराटेषु मत्प्रसादादलक्षितः । इत्युदीर्याणीं तां च दत्त्वा धर्मस्तिरोदधे ॥ १३८ ॥ सहोदरैः सहोत्थाय धैर्मभूः स्वाश्रमं ययौ । ब्राह्मणायारणीं तस्मै तज्जीवितमिवार्पयत् ॥ १३९ ॥ पूर्णा द्वादशवत्सरीमथ परिज्ञाय क्षमानायकः
सानि धौम्यमुदीर्य पार्षतपुरीवासाय वर्षावधि | किं च द्वारवतीपुराभिगमने तानिन्द्रसेनादिका -
नवी शिक्षयति स्म कर्तुमुदितो गुप्तं विहारं क्वचित् ॥ १४० ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरि सुगुरोरर्हन्मतार्हस्थितेः
पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती | तल्लीलागिरि बालभारतमहाकाव्ये तृतीयं मनो
निर्वेदव्ययमेदुरश्रि निरगात्पर्वेदमारण्यकम् ॥ १४१ ॥ सर्गैश्चतुर्भिरेतस्मिन्पर्वण्यारण्यकाह्वये ।
चतुःशतीसप्तषष्टिविशिष्टासीदनुष्टुभाम् ॥ १४२ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्र विरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के आरण्यके पर्वणि धर्मादेशो नाम चतुर्थः सर्गः । इत्यारण्यकपर्व समाप्तम् ।
१. 'सहोद्यद्भिः ' ग. २. 'धर्मसूः' ग.
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४ विराटपर्व - १ सर्गः ]
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बालभारतम् ।
विराटपर्व |
प्रथमः सर्गः ।
कर्ता जगत्पापविषाहृतीनां स्तात्स श्रिये सत्यवतीसुतो वः । जगच्चमत्कारकमुज्जगार श्रीभारतं नाम सुधारसं यः ॥ १ ॥ पप्रच्छ पृथ्वीशमथो किरीटी कुर्वन्किरीटे करकुका लाग्रम् | छन्नः प्रभो स्थास्यति कैः प्रकारैरिहाब्द भारैर्नभसीव भानुः ॥ २ ॥ द्विजं सभास्तारमवेहि धर्मसुतस्य मां कङ्क इति प्रतीतम् । इत्युक्तिभाक्संसदि मत्स्यभर्तुः स्थाताहमित्याह महीमहेन्द्रः ॥ ३ ॥ भीमोऽभ्यधादित्यथ बल्लवाख्यः सूदो भविष्यामि नृपस्य तस्य । जयो जगौ राजसुतागुरुत्वं नृत्ये गमिष्यामि बृहन्नडाख्यः ॥ ४ ॥ स्थास्यामि गोस्वामितयात्र तैन्तिपालाख्य एवं सहदेव ऊचे । अश्वाधिभूर्यन्थिकसंज्ञयेह स्थाताहमित्थं नकुलोऽप्यजल्पत् ॥ ९ ॥ उवाच कृष्णाप्यथ मालिनीति सैरन्ध्र्यहं तत्र विराटपत्न्याः । ध्रुवं भविष्याम्यनवद्यकर्मकदम्बसंबद्धमिदं पदं हि ॥ ६ ॥ इत्थं मिथो मन्त्रकथेषु तेषु मुनीन्विनम्याभ्युदितेषु गन्तुम् । धौम्यो धियां धाम सुधामयीभिरुवाच वाग्भिर्नयवागुराभिः ॥ ७ ॥ भवद्भिरुद्भिन्ननयैर्विधेया ध्येया विधानैर्नरदेवसेवा | या मृत्यवे शैलशिरोधिरोहपद्येव सद्यः स्खलितक्रमाणाम् ॥ ८ ॥ अहो अहीनामपि खेलनेभ्यो दुःखानि दूरं नृपसेवनानि । एकोऽहिना दृष्ट उपैति मृत्युं क्ष्मापेन दष्टस्तु सगोत्रमित्रः ॥ ९ ॥ आदौ मयैवायमदीपि नूनं न तन्मामवलेहितोऽपि । इति भ्रमादङ्गुलिपर्वणापि स्पृश्येत नो दीप इवावनीपः ॥ १० ॥ सौरभ्यमेवाप्य सदाप्यहीनामानन्दनश्चन्दनपादपोऽभूत् । गुणेन केनापि न भूपतीनां सदा मुदे कोऽपि कथंचन स्यात् ॥ ११ ॥ कुतोऽप्यनासादितजीवनस्य संदेहदोलागतजीवितस्य । तृष्णातिरेकोत्तरस्य कूपझम्पेव सेवा जगतीपतीनाम् ॥ १२ ॥
१. तन्तिर्नाम पश्वादिबन्धुनरज्जुः. 'तन्त्रपाला' क ख २. 'प्यवोचत्' ख ग.
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२१८
काव्यमाला। यद्भूभृते भात्यशुभं शुभं वा तदेव धूर्तः सततं प्रतन्वन् । स्पर्धाभिमानोज्झित एव सेवाफलं क्वचित्कोऽपि लभेत किंचित्॥१३॥ इत्युक्तवानात्ततदग्निहोत्रो गुप्तं स पाञ्चालपुरं प्रपेदे। नृपाज्ञया शौरिपुरी स चेन्द्रसेनादिमः सर्वपरिच्छदोऽगात् ॥ १४ ॥ पतया पदानां द्रुतरक्तयाध्वमहीषु पद्मप्रकरं किरन्तः । कृष्णां पुरस्कृत्य ययुर्विराटपुरीं स्वयं पाण्डुसुताः सुगुप्ताः ॥ १५ ॥ विलम्बमानेन शवेन गुप्तान्यमी शमीस्कन्धमनुश्मशाने । निधाय तान्यायुधमण्डलानि च्युतांशुचण्डांशुतुलामवापुः ॥ १६ ॥ जयो जयन्तो विजयश्च पार्था यमौ जयत्सेनजयबलाहौ । इत्थं मिथःकल्पितगुप्तसंज्ञा पृथग्ययुस्ते पुरिगुप्तवेषाः ॥ १७ ॥ रत्नाक्षधारी धृतविप्रवेषः कौन्तेयभूपः सदसि प्रविष्टः । कोऽसीति मत्स्य क्षितिपेन पृष्टो वाग्भिः सुधाश्रीवसुधामिरूचे॥ १८॥ विप्र प्रियः सत्यसुतस्य कङ्काभिधः सभास्तारतया प्रतीतः । तद्राज्यविभ्रंशवशान्नुहंस जिजीविषुस्त्वामहमभ्युपेतः ।। १९ ।। हर्षादथादत्त गिरं विराटश्चिरान्मयादर्शि युधिष्ठिरोऽद्य । तन्मैव्यभावोबिलचारुमूर्तिर्यदृश्यसे तस्य कृती वयस्यः ॥ २० ॥ इदं यथेन्दौ कुमुदं मुदं मे चक्षुष्य चक्षुस्त्वयि संदधाति । ममापि तद्द्यूतसहायभूतः खेलन्सुखं भुत्व विभूतिमेताम् ॥ २१ ॥ इति क्षितीन्द्रेण वितीर्णपूजे तपस्तनूजे क्षितिभाजि तत्र । गर्वीखनाङ्कः प्रययौ परेऽह्नि सूदस्वरूपी बकसूदनोऽपि ॥ २२ ॥ खं बल्लवाख्यं प्रेदिशन्नृपेण सूदः कृतो बाहुबले च योधः । कृष्णाप्युपागत्य विराटपत्नी चकार सैरन्ध्यधिकारयानाम् ॥ २३ ॥ कृष्णां सुदेष्णाथ नृनाथपत्नी विलोक्य तां विस्मयिनी जगाद । इयं तनुस्तन्वि तवातिरम्या सैम्यग्न सैरन्ध्यधिकारपात्रम् ॥ २४ ॥ भाग्यावधिविश्वविलोचनानां निर्माणकर्मावधिरजयोनेः । हसत्यशेषोपमितीः प्रतीकप्रभाभिरेषा तव रूपरेखा ॥ २५ ॥ १. 'नृरत्न' ग. २. 'स दिश' ग. ३. 'नृपस्य' ग. ४. 'न भाति' ख.
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४ विराटपर्व - १ सर्गः ]
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बालभारतम् ।
सामुद्रिकोक्तैरखिलैः
प्रधानस्त्रीलक्षणैर्लक्षितमूर्तिमब्धिः ।
चक्रे
खलु त्वां प्रतिकल्पलक्ष्मीशिल्पादनल्पाभ्यसनो मेनोज्ञाम् ||२६|| प्रभवत्प्रभौघमयोग्यमुच्चैर्मणिमण्डनानाम् ।
अल्पप्रभाणां
वदत्यलंकारमनस्तयालंकारस्तवेनैव तवाङ्गमेतत् ॥ २७ ॥
त्वां वीक्ष्य पुंस्त्वं मनसा श्रयन्ति स्त्रियोऽपि तच्यानतयैव देवी । शक्तः स्वयं विष्णुरभून्न लेभे त्वद्भर्तृतां तु क्व नु भाग्यमीदृक् ॥२८॥ न पापवृत्त्यै खलु रूपमीदृग्रूपास्ति तन्नूनमनून शीला ।
ततः कथं स्थास्यसि भर्तृहीना श्रीमत्तमद्भर्तरि मगृहेऽस्मिन् ॥ २९ ॥ गन्धर्वदेवा नृपपत्नि पञ्च रक्षन्त्यलक्ष्याः पतयोऽन्वहं माम् । क्लिश्नाति तत्कोऽपि न तेषु सत्सु भास्वत्करेष्वम्बुजिनीमिवेन्दुः ॥ ३० ॥ इतीरितोक्ति नरपालपत्नी तां मालिनीति प्रथिताभिधानाम् । चकार गन्धाधिकृतां कृतांहिप्रक्षालनोच्छिष्टनिषेधबन्धाम् || ३१ ॥ ( युग्मम्)
तत्रागतोऽन्येद्युरुदीर्णतन्तिपालाभिधानो नैकुलाग्रजन्मा | परीक्ष्य दक्षो वृषलक्षणेषु क्षोणीभुजाकारि वृषाधिकारी ॥ ३२ ॥ आबद्धवेणिर्धृतकञ्चुकी स्त्रीजनोचितालंकरण ः किरीटी । अन्येद्युराच्छाद्य किरीटमागाद्विराटसंसद्भुवि षण्ढवेषः ॥ ३३ ॥ बृहन्नडोऽस्मीति वदन्द्युलोकगन्धर्वमैत्र्याप्ततदीयशिक्षः । मत्स्याधिनाथेन कृतः सुतायाः संगीतशिक्षागुरुरुत्तरायाः ॥ ३४ ॥ तमेत्य भूपं नकुलस्तुरंगकुलस्य तत्त्वे कैलिलावबोधः । अवाप वाहाधिकृतिं रथानां बन्धे सुधीग्रन्थिकनामधेयः ॥ ३५ ॥ इत्येषु गुप्तेषु सुखं स्थितेषु गतेषु मासेषु चतुर्मितेषु । दिग्भ्योऽखिलाभ्यः पुरि तत्र यात्रामहोत्सवे मल्लभटाः समीयुः ॥ ३६ ॥ भटः प्रतापार्कयशः शशाङ्कगुणौघनक्षत्रपिधानहेतुः । जीमूत इत्यूर्जितगर्जितश्रीर्मलाधिपस्तेषु समुल्लास ॥ ३७ ॥
१. 'श्रमा' ख. २. ‘यतोऽन्याम्' ख. ३. 'तन्त्रपाला' क ख ४. सहदेव : . ५ ' कृतभावबोधः' ख. ६. 'शशाङ्को' ग. ७. 'समुल्लाप' क.
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२२०
काव्यमाला।
लीलासमुल्लचितमल्लपङ्क्तेस्तस्य प्रतापैकनिधेर्न कश्चित् । रवेरिवास्तंगमितान्यतेजस्ततेः पुरोऽभूप्रतिमल्लभूतः ॥ ३८ ॥ तस्मिन्नलब्धप्रधने मदैकधनेऽधिकं रङ्गति रङ्गभूमौ । भीमं हियाचष्ट चिराद्विराटो निवार्यतां बल्लव मल्लबल्लाः ॥ ३९ ॥ इत्याज्ञया तस्य च कौतुकैश्च दोर्दण्डकण्डूलतया च नुन्नः । विधोद्यदुत्साहरसः ससर्प तदर्थमुच्छेत्तुमथो पृथाभूः ॥ ४०॥ भीमस्य दोःस्फालनजस्तदाभून्नादो विदीर्णेतरशैलशृङ्गः। किमत्र चित्रं यदभजि तेन जीमूतगर्वग्रहपर्वतोऽपि ॥ ४१ ॥ मल्लेन्द्रमुद्गर्जमथोग्रयुद्धं प्रपात्य दोष्णैव ममर्द भीमः । दत्तोरुदन्तप्रहृतिच्युतेन महोपलेनेव महेभमद्रिः ॥ ४२ ॥ विद्रावयत्येव समानकालं जीमूतजालं जनको यदीयः । स एकजीमूतजयस्तवेन व्यलजि लोकैः पवनाङ्गजन्मा ॥ ४३ ॥ भीमं प्रति प्रीतिरसप्रसत्त्या सुवर्णवृष्टिं नृपतिः प्रतेने । को वेत्ति देवैस्त्रपया तदानीं प्रसूनवृष्टिर्न कृता कृता वा ॥ ४४ ॥ गनाश्च सिंहाश्च युधे पुरोऽन्तःपुरस्य राज्ञा कुतुकान्नियुक्ताः। भीमे ययुर्भङ्गमुदग्रसिंहनादे दवाचिनिभनेत्रभासि ॥ ४५ ॥ इत्थं लसत्कौतुककौशलाभि-लाभिरामो दयतां नरेन्द्रम् । मासा दशासन्कुरुकुञ्जराणां तेषां विशेषार्चनहर्षितानाम् ॥ ४६ ॥
तत्र च पुरि सेनानीर्मत्स्यनृपालस्य बलनिधिः श्यालः । षष्टयुत्तरशतबन्धुह्येष्ठोऽजनि कीचको नाम ॥ ४७ ॥ स कदापि द्रुपदसुतां ददर्श सदने स्वसुः सुदेष्णायाः । नियमितवेणी मलयजलतिकामिव कलितकालाहिम् ॥ ४८ ॥ रूपं निरूप्य निरुपममस्याः स्वशिरः प्रकम्पयांचक्रे । दुर्मदमदनप्रसृमरशरविसरैरुरसि विद्ध इव ॥ ४९ ॥ अनिमिषदृक्तां पश्यन्स पञ्चबाणेन पञ्चभिर्वाणैः ।
एकैकेनेव हतो हृदि तस्या हृद्तैर्दयितैः ॥ ५० ॥ १. 'निधार्यतां' ग. २. 'मल्लः' ग. ३. 'कदाचिद्रुप' ग. ४. 'कालाहीम्' ग.
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४विराटपर्व-१सर्गः] .. बालभारतम् । . २२१
तस्या नवप्रवेशात्तस्योरसि रतिरसः खलूद्धान्तः । उल्लसति स्म विलोचनयुगलीविगलितजलच्छलतः ॥ ११ ॥ सुमुखी सुललितनयना कोमलतरचरणपाणिरिह केयम् । अलिमिव हृदयं भ्रमयति मम जंगमकल्पवल्लिरिव ॥ १२ ॥ इति पृष्ट्वैष सुदेष्णां मुदितो विदितेन तत्स्वरूपेण । भृशमधिकाधिकविकसितरणरणकाकुलितहृदयोऽभूत् ॥ १३ ॥
(युग्मम्) अथ तेन द्रुपदसुता जगदे जगदेकनयनपीयूषम् । परिकलितशीललीला स्मरशिखिकीलाभितप्तेन ॥ १४ ॥ इन्दुमुखी कुमुदाक्षी रम्भोरूः कमलचारुकरचरणा । अमृतद्रवलावण्या हृदयगता देवि किं दहसि ॥ ५५ ॥ त्वं कण्ठगा मुदेऽमी ददति मृति त्वं च पञ्चशरविभवः । एते तृणं तदतुले तुलयामि शुभे किमसुभिस्त्वाम् ॥ ५६ ॥ अपि दयिते हृदयस्य द्वारे भवतीं विधातुमुक्तोऽस्मि । यदि हान्तरा चरन्ती शल्यमिव व्यथयसि दृढं माम् ॥ १७ ॥ यदि भुजयुगलेन दृढं सुतनो न तनोषि मम तनौ बन्धम् । उत्कण्ठाभरपूर्णः स्फुटितोऽस्मि तदूर्ध्व एवाहम् ॥ १८ ॥ तदिह कुरु तरुणि करुणां मदसुषु मदनाभितापितं भज माम् । रमणी रमणेन विना न विभासि विभावरीव चन्द्रेण ॥ ५९ ॥ अथ रोषरूक्षपदमिति वदति स द्रुपदनन्दिनी वचनम् । दुर्नयमधिरोहति धीधिक्ते दशकन्धरस्येव ॥ ६० ॥ गन्धर्वास्त्रिदशैरप्यशमितगर्वा भवन्तमुद्धान्तम् । मन्दं मत्पतयो बत गुप्ता नेष्यन्ति पञ्च पञ्चत्वम् ॥ ६१ ॥ अथ मन्मथविसृमरशरदूनमनःस्त्रस्तसुनिबिडवीडः ।
सपदि सुदेष्णायै स न्यवेदयत्तद्गतं भावम् ॥ ६२॥ १. 'स लोचन' ग.
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२२२
काव्यमाला।
मदनासहं सहोदरमवलोक्य ततोऽवदत्सुदेष्णा तम् । प्रेष्या महोत्सवमिषान्मदिराथै मन्दिरमियं ते ॥ ६३ ॥ मधुमधुरवचनरचना विचित्रवाग्भिस्तथेयमनुनेया । अलिनो नलिनीव यथा सुमुखी विमुखी न ते भवति ॥ ६४ ॥ इत्येष सहोदरया विहिताश्वासो ययौ निजावासम् । पशुरिव गुरुणा तरुणीरूपगुणेन प्रबद्धोऽपि ॥६५॥ तेन मनोऽतिमनोज्ञां रमणीमभियोजितं ततो मनसा । साधु कृतज्ञेन कृतं तस्य पुरस्तन्मयं भुवनम् ॥ ६६ ॥ शिशिरैः पदार्थविसरैरुरो न तस्याससाद शिशिरत्वम् । तस्योरसा रयात्पुनरासञ्शिशिराण्यशिशिराणि ॥ ६७ ॥ शिशिरोपचारतरलं परिवारजनं जगाद स तदानीम् । मृदुमन्थरशिथिलो हितवर्णपदं समदमदनातः ॥ ६८ ॥ अन्तःपरितापभिदे तथ्यं पथ्यं हि न बहिरुपचारः।। अमृतमधुरं तदधरसंमुखरसनौषधं कुरुत ॥ ६९ ॥ कदलीदलपटलमदश्वालयत कथं यदस्य पवनेन । वर्धेत दावपावक इव हृदि न तु दीप इव विरहः ॥ ७० ॥ हृदि धृततत्कुचकलशे स्मरशररन्ध्रेषु चञ्चलैः प्राणैः । ज्वलितवियोगानलजुषि मलयजपङ्कोऽतितापाय ॥ ७१ ॥ इति दीनतदीयवचःप्रचयविलीनावलेपदृढलेपाः । जलतरलकातरदृशोऽभूवन्नवरोधसुदृशोऽपि ॥ ७२ ॥ परिवृढदृढविकलतयाकुलितस्वान्तेन परिजनजनेन । दूती सपदि नियुक्ता गत्वा निजगाद सैरन्ध्रीम् ॥ ७३ ॥ देवि यदादि विलोचनगोचरतां तेन गमितासि । स तदादि हृच्छयशिखीमुखविद्धस्त्यक्तसंज्ञोऽभूत् ॥ ७४ ॥ स्मरशरभरपरिविद्धे तितउतुलां सुदति तस्य हृदि याते ।
भवदाशाबद्धपथैर्न निर्गमोऽलाभि भृशमसुभिः ॥ ७५ ॥ १. 'विद्धाङ्गो विसंज्ञो' ग.
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४विराटपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
अबलापि बलवती त्वं यस्या भुजपञ्जरानुशरणरयः । विग्रहरिपुसूर्पकरिपुविशिखभयात्कीचकोऽप्यभवत् ॥ ७६ ॥ तव मुखमिति बत चुम्बति कमलं चक्रौ कुचाविति स्पृशति । कर इति कुमुदं दत्ते हृदि विकलः स किल वापीषु ॥ ७७ ॥ सैरन्ध्रीपदपदवी दवीयसी सपदि देवि परिमुञ्च । नमतु पदाम्बुजयोस्तव तदङ्गनावदनचन्द्रोऽपि ॥ ७८ ॥ परिरम्भदम्भनिभृतं रसय प्रेमामृतं समं तेन । त्रुटदमलहारविगलितमुक्तामिषमुक्तबिन्दुचयम् ॥ ७९ ॥ किशलयकमलकुलैरप्यगलितमुरुमुरसि तस्य परितापम् । स्पर्शगुणेन हरन्ती निरुपमपाणिर्न किं भवसि ॥ ८० ॥ अनुबन्धं रचय स्वयमयमर्थः सिद्धिमेष्यति मृगाक्षि । सोदरपरितापभिदाभ्युदितसुदेष्णावचोभिरपि ॥ ८१ ॥ स्मरशरनिकरव्यतिकरपरिताडनपीडितस्य तस्य भृशम् । यदि जीवितं भवत्कुचदुर्गमदुर्गाधिरोहेण ॥ २ ॥ अमृदितमलयजरसमिव राजतु तदुरो दृढेऽपि परिरम्भे । सुमुखि स्वेदलवादितविदलितनवहारचूर्णेन ॥ ८३ ॥ स्मरतापभेदनौषधपिण्डवदात्मीयकुचयुगं सुमुखि । . तदुरसि बधान धन्ये पृष्ठदृढग्रन्थिभुजपाशम् ॥ ८४ ॥ ईदृक्तापभयं परिरम्भेऽपि न सुभ्रु तस्य कर्तव्यम् ।। स प्रथमं त्वदवेक्षास्वेदजलैर्यास्यति जडत्वम् ॥ ८५ ॥ गणयिष्यति न सुदेष्णां न महीपालं निषेधमपि न तव । अबले बलेन स बली ग्रहीष्यति स्वयमिदं रचय ॥ ८६ ॥ हारं तदुरसि रसिके परिरम्भनिषेधकं सखि द्वेषात् । अन्तः कठिनघनस्तनसंरम्भेण स्वयं दलय ॥ ८७ ॥ कण्ठोपकण्ठमधुना प्राणाः सुदति स्वयं समायाताः।
अयि भवती कण्ठगता प्राणसमा भवतु तस्य जवात् ॥ ८॥ १. शूर्पकः कामरिपू राक्षसः.
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२२४
काव्यमाला |
अन्तर्गतया तदुरः पीडितमेव त्वयैव पूर्वमपि । अधुनापि पौनरुक्तत्याद्बहिर्गता हि पीडय न दोषः ॥ ८९ ॥ इति रचितवाचि तस्यामश्यामलचरितया तयोक्तमिदम् । दूति बिभेमि स भेद्यो गन्धर्वैः पञ्चभिः पतिभिः ॥ ९० ॥ इत्यफलीकृतमस्या वाचां पटलं तदेकवचनेन । मलिनतमममलरुचिना गृहमणिना तिमिरजालमिव ॥ ९९ ॥ इति गतया दूतिकया तस्या वचने यथातथे कथिते । नलिनतलिनस्थितोऽप्ययमतीव सेमवाप कीचकस्तापम् ॥ ९२ ॥ एह्येहि वल्लभे लघु विनय कपोलाद्धनाञ्जनं बाष्पम् | इति स जगौ मृगलाञ्छन मागच्छन्मालिनी सुखभ्रान्त्या ॥ ९३ ॥ दैववशेन स्वप्ने सैरन्ध्रीमेकवेलमासाद्य ।
स पुनर्मीलितनयनः सुष्वाप प्राप न पुनस्ताम् ॥ ९४ ॥ धातस्तात तवासनसरोजसंकोचहेतुरयमिन्दुः ।
कुरु राहोर्वपुरखिलं गिलितो न यथा पुनरुदेति ॥ ९९ ॥ शंकर किं करवाणि त्वमेव देवः सदा मया महितः । वहसि किमु शिरसि चन्द्रं न दहसि पुनरप्यमुं कामम् ॥ ९६ ॥ इति विकलवचनरचनापरिचयविधुरीकृताखिलवजनः । गमयामास तमित्रां कष्टमसौ कल्पशतकल्पाम् ॥ ९७ ॥
(विशेषकम् )
मद्यकृते सच्छलया तद्वत्सलया सुदेष्णया बलतः । सैरन्ध्री दुर्नयभयविहित निषेधाप्यथ प्रहिता ॥ ९८ ॥ तरणिं विधाय शरणं कीचकसदनाय तदनु सायाहे । कृष्णा चचाल तस्यां रक्षायै राक्षसं व्यदादर्कः ॥ ९९ ॥ तस्या विलोक्य वदनं सदनं भासां स चन्द्रविम्बमिव । उद्धान्तो जलधिरिव द्विगुणोच्छलदच्छहर्षोर्मिः ॥ १०० ॥
१. 'विरतायां' ख-ग. २. 'तमसाप' ख. ३. 'मुहुर्मी' ख ग ४. 'सदोमया सहितः' ख.
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४विराटपर्व-२सर्गः]
बालभारतम् ।
२२५
रोमाञ्चद्विगुणतरौ तरसा बाहू तदा तदीयौ तौ। अदलयतां केयूरे किल दयिताश्लेषविघ्नभयात् ॥ १०१॥ तामवदन्मदनातः स सती क्षितिवलयमिलितनयनयुगाम् । सुमुखि समेहि समेहि त्यज लज्जां रचय परिरम्भम् ॥ १०२ ॥ अयमहमियं च संपत्परिजनजनतेयमेतदपि सदनम् । उररीकुरु सकलमदकलमदशीली भवामि यथा ॥ १०३ ॥ इति निगदन्तमनन्तरमवलोक्य तमुत्सुकं प्रसङ्गाय । मणिभूषणकपिशतमं शीललतादवमसौ मेने ॥ १०४ ॥ दुरितद्विरदोन्मूलितमिव कीचकमंशुकातिकर्षण । तं भुवि परिपात्य ययौ राजनिकेताजिरं कृष्णा ॥ १०५॥ अभिसृत्य कामकोपद्विगुणिततापः कचैरथाकृष्य । द्रुपदात्मजां पदासौ श्रियमिव मूल् जघान खाम् ।। १०६ ॥ द्रुपदसुतादेहादथ रक्षारक्षस्तदाशु निर्गत्य । दुरितमिव तस्य मूर्त गतचेष्टमपातयद्भुवि तम् ॥ १०७ ॥
इति नृपतिसभायां भीमसेनोऽथ तिष्ठ. __ परिभवमवलोक्य स्वप्रियायाः प्रवीरः । शमितसमयरोधो बोधयन्क्रोधवनि
लघु सुकृतसुतेनारोधि संज्ञाज्ञयासौ ॥ १०८ ॥ इति श्रीीजनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये
वीराङ्के विराटपर्वणि पाण्डवगुप्तिर्नाम प्रथमः सर्गः ।
द्वितीयः सर्गः। स पराशरनन्दनो मुदे रिपुनारीनयनाञ्जना शनैः । असिभिव्रततीव्रताजितैरिव यः कान्तिमिषान्निषेव्यते ॥ १॥ अथ पाण्डवजीवितेश्वरी द्रुतमुत्थाय कृतातुरस्वरा ।
रजसा वृतविग्रहा ययौ जगतीपालसभां स वल्लभाम् ॥ २ ॥ १. 'तरं' ख-ग.
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२२६
काव्यमाला |
विकटाक्षिकटाक्षितानलिः करुणं क्रोधगिरात्र सा जगौ । नयमद्य विलोकयामि ते प्रहतां पश्यसि मत्स्यराज माम् || ३ || युवयोः कलहो रहोऽभवद्वद किंकारण एष मालिनि । इति जल्पति मत्स्यभूपतौ पुनरप्यादित पार्षती गिरम् ॥ ४ ॥ सुररूपिषु वल्लभेषु मे जगतामप्रकटेषु पञ्चसु ।
न महान्यदि जायते शमी बलवान्कः कुरुते तदीदृशम् ॥ ५ ॥ युधि भीम जयन्तमुत्कटं दयित त्वां कथयन्ति बान्धवाः । अवगण्य गुरोर्गिरं रयादहितं संहर मद्विडम्बनम् || ६ ॥ इति तामतिकोपसंभ्रमस्फुटगुप्ताक्षरभाषिणीं क्षणात् । निजगाद युधिष्ठिरो गिरा विकसत्कृत्रिमरोषरूक्षया ॥ ७ ॥ यदि ते विदितः प्रभावभाग्युधि भीमः पतिरस्ति कश्चन । परिपूरयिता स ते स्पृहां व्रज विनीभव मा दुरोदरे ॥ ८ ॥ इति धार्मिगिरा चिरादगाद्दधती मन्युभरं कुरङ्गदृक् । अभि भूपतिवल्लभामथाकथयत्कीचकदुष्टचेष्टितम् ॥ ९ ॥ परपूरुषपाणिदूषिते समभिक्षाल्पजलेन वाससी । जनितनपना च सागमन्निशि किर्मीरहरं महानसे ॥ १० ॥ स महानसवेदिकातले न च निद्रापरिपूरितेक्षणः । हृदये लुठनं दधानया परिरब्धो हृदयेश्वरस्तया ॥ ११ ॥ तदनिद्रविलोचनः प्रियामवलोक्य स्वयमागतां चिरात् । भुजयुग्मनिपीडनच्युतान्तरदुःखव्यसनां चकार सः ॥ १२ ॥ अथ दुःखजबाष्पगद्गदीकृतकण्ठस्फुरदस्फुटाक्षरम् । द्रुपदक्षितिपालनन्दिनी प्रतिवक्ति स्म जटासुरद्विषम् ॥ १३ ॥ यदुपेक्षितवान्पुरा भवानपि दुःशासनमुग्रशासनः । इति पश्यत गन्धकारिकापदसंकीर्णकिणौ करौ मम ॥ १४ ॥ अधुनापि चकर्ष कीचकः कचपाशं निजघान च क्रमैः । द्रुतमप्रति कुर्वतोऽग्रतः किमुरोऽपि स्फुटितं न ते पते ॥ १५ ॥
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४ विराटपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
इति वल्लभया स भाषितः स्मृतबन्धुव्रजदुःखकष्टितः । निजगाद तदा विनिःश्वसन्भुजयोरक्षियुगं मुहुः क्षिपन् ॥ १६ ॥ हृदयेश्वरि धर्मजन्मनः शममन्त्रेण दृढं नियन्त्रिताः । उपलत्रिदशा इवास्त्रिणो अभिभूतौ किमु कुर्महे वयम् ॥ १७ ॥ सह तेन विलाससंविदं कुरु मिथ्या निशि नृत्यमण्डपे । कमलाक्षि यथा क्षिपामि तं यमव परिपिण्डितं बलात् ॥ १८ ॥ इति भीमवचः सुधाचयच्युतदुःखौघविषा मखाङ्गभूः । द्रुतमाट विराटवल्लभाभवनं गुप्तमतागतिर्मुदा ॥ १९ ॥ अपरेद्युरुपागतं गृहं रहसि स्नेहपरेव कीचकम् । वचनैर्मधु वादसादरैर्निजगाद द्रुपदस्य नन्दिनि ॥ २० ॥ सजने सुभग त्वया कथं पृथिवीमन्मथ भाषिता तथा । विजने निशि नृत्यमण्डपे समुपेतव्यमहो मदिच्छया ॥ २१ ॥ इति तद्वचनैर्मुदं वहन्निदमूचे नरपालशालकः । स्वपदागतसुस्थजीवितस्फुटकण्ठस्खलदक्षरोदयम् ॥ २२ ॥ सुकृतैः समवधिं मामकैर्विनिपेते द्रुतमद्य पातकैः ।
तृणित त्रिजगत्प्रभुत्वया स्मितया मां तु यदीक्ष्यसे दृशा ॥ २३ ॥ मदिराक्षि मदङ्गसंगमभ्रमविभ्राजितशुभ्र कान्तिनोः । तव लोचनयोः पयोरुहां ततिमुत्तारणकं करोमि किम् ॥ २४ ॥ नयनप्रतिमा सरोरुहं वदनस्य प्रतिहस्तकः शशी । चलचारुचकोरलोचने वदनं ते वद वर्णयामि किम् ॥ २९ ॥ अयमद्य सुधासहोदरः सुमुखि त्वन्मुखचन्द्रमा वदन् । अभवद्विषसोदरोऽपि यः किमपि ह्यस्तनवासरे हहा ॥ २६ ॥ सफलं मम जन्म जीवितं विभुतारूपमहोमदोऽप्यभूत् । अमृतप्लुतिवन्मयि त्वया वचनं लोचनमप्यरोचि यत् ॥ २७ ॥ हृदयं विकास नेशिवान्परितापः प्रससार संमदः । परिरम्भगिरापि ते ततः परिरम्भे किमहो भविष्यति ॥ २८ ॥ १. 'मदो मदो' ग.
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काव्यमाला। स्फुरितैव कृतार्थता मिथो मनसोर्मेलनखेलनेन नौ । स भविष्यति कीदृशः क्षणः खलु सा यत्र शरीरयोरपि ॥ २९ ॥ इति स प्रलपन्धनं तया प्रहितो लोचनलोलनश्रिया । दृढतद्गुणबद्धमानसः शनकैर्धाम जगाम कीचकः ॥ ३० ॥ प्रहरे प्रथमेऽपि मूढधीळयमहः स मुहुः स पृच्छति । वचनैर्गृहकेलिदीर्घिकाश्रयकोकद्वयशोककारिभिः ॥ ३१॥ निशि तस्य मृति विचिन्तयन्कृपया नूनमहो दिवाकरः । अकरोद्दिवसं गुरुं हृदा विकृपं तं स तु मन्यते स्म हा ॥ ३२ ॥ क्षणदावसरेण मृत्युना खलु तस्य प्रसभं नमोन्तरात् । हूदिनीहृदयाधिपान्तरे पतिरहां परिपातितस्ततः ॥ ३३ ॥ न विधेयमतः परं मयेत्यतुलं भूषणमेव तन्वतः । स हतस्य मुदा म वर्धते रजनी चन्द्रमरीचिनिर्मला ॥ ३४ ॥ दयितावचने रणक्रियागंतभीमस्थिति भीमकोटरम् । निशि यामयुगक्षणे ययावथ संकेतनिकेतनं प्रति ॥ ३५ ॥ पथि दुःशकुना न तेन ते गणिता नूनमसंख्यतां गताः। श्रुतमाप्तभुजंगसंपदा मदनान्धेन वचः सतां न च ॥ ३६ ॥ परिवारजनं विसर्जयन्द्रुतमुत्सुक्यपरिस्खलत्पदः । प्रविवेश स रङ्गमण्डपं व मृगाक्षि त्वमसीति भावुकः ॥ ३७ ॥ अयमन्ध इवाग्रपाणिना तमभिस्पृश्य च कान्तकं जगौ । न मया कमलाक्षि मण्डनं विदधे तादृशमुत्सुकात्मना ॥ ३८ ॥ मदवाप्तिमनो लयात्प्रिये परुषं स्पर्शगुणं गतासि किम् । रणदारुणवैरिदारणक्षणकष्टैः कठिनं हि मद्वपुः ॥ ३९ ॥ दयिताभिभवेन सौरभैर्दयिताभोगकृते तैरपि । प्रधनप्रथया च पावनेस्त्रिगुणं कोपशिखी तदाज्वलत् ॥ ४० ॥ ददृशे तव रूपमद्भुतं विभुताबोधि मृधं प्रकाशय ।
इति मन्दमथालपन्मरुत्तनुभूय॑स्य तदंसयोर्भुजम् ॥ ४१ ॥ १. 'गम' ग.
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४विराटपर्व-२सर्गः) बालभारतम् ।
२२९ पदपातविकम्पितक्षितिः करघातध्वनदम्बरस्ततः । चकितः क्षणदाचरः परः समरस्तत्र तयोरजायत ॥ ४२ ॥ अथ भीमभुजामहार्गलप्रबलापातचयेन कीचकः । रुधिरं वमति स हृद्तं क्रतुपुत्रीनिबिडानुरागवत् ॥ १३ ॥ अखिलैरपि कीचकाङ्गकैः समरे भीमकरेरितैर्दुतम् । हृदि यातमहो बहिः प्रियामनवाप्तां समवाप्नुमुत्सुकैः ॥ ४४ ॥ सुरभीरुविलासविस्मृतद्रुपदापत्यरसेऽथ कीचके । दयितामभिभाष्य मारुतिर्मुदितोऽशेत महानसं गतः ॥ ४५ ॥ तदनु प्रहतं प्रहर्षितक्रतुजादिष्टमवेक्ष्य कीचकम् । अजनिष्ट जनोऽखिलः खलूदितवित्रासविषादविस्मयः॥ ४६ ।। अथ तत्र समं सुदेष्णया सुदृशस्तस्य सहोदराश्च ते । कृतहाकृतिदुःसहस्वनाः सहसा नृत्यनिकेतने ययुः ॥ ४७ ॥ प्रतिशब्दमिषेण देहिनां निबिडाक्रन्दभृतां पदे पदे । अपि कुट्टिमकेलिपर्वतत्रिदशावासभरैररुद्यत ॥ ४८ ॥ विजयिन्बलिनः सुशर्मणः स्मरवीरप्रतिवीरविग्रहम् । अनिमेषकराललोचनाः सुरनार्यः खदिताः किमद्य ते ॥ ४९ ॥ हरिणा स्वयमर्थितो यदि प्रिय जेतुं दिवि दानवान्भवान् । अवचःपरिभाषणो ययावपरीरम्भमरोऽपि नः कथम् ॥ ५० ॥ विलसन्तमनङ्गमङ्गिनं सुदृशस्त्वामिह मेनिरे भुवि । अधुना तपसोजितं प्रियं धुवधूस्तादृशमेव मन्यताम् ॥ ११ ॥ कृतमेतदहो युवासिनां मनसा सिद्धिमुपैति वाञ्छितम् । सुरभीरुभिरन्यथा कथं त्वमकस्मात्परिरम्यसे प्रिय ॥ १२ ॥ अनिमेषविलोचनासु चेत्तव रागः सुरकामिनीषु च । द्रुतमेहि महाशय स्वयं न निमेषो नयनेषु नः शुचा ॥ १३ ॥ इति तस्य नितम्बिनीजनप्रबलाक्रन्दितगाढदुःखतः । स्फुटति स्म किल द्विधा नभः ककुभो भङ्गमिवाययुस्तदा ॥ ५४ ॥
(कुलकम्)
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२३०
काव्यमाला।
उपरि स्फुरितस्य दुःखिनः स्वजनस्य स्वयमश्रुवारिभिः। तमपनपयद्भिरेव तैः क्षतजं क्षालितमत्र मण्डपे ॥ ५५ ॥ दधिरेऽधिकपञ्च कीचकाः शतमस्याग्निहुतौ ततो मतिम् । पुरतोऽङ्गुलिगुप्तनासिकां ददृशुस्तम्भयुजं च मालिनीम् ॥ १६ ॥ अभिघात्य निजैः प्रियैरभु मुदिता द्रष्टुमिहेयमाययौ । इति रोषरसेन कीचका दहने दग्धुमिमां समाकृषन् ॥ ५७ ॥ समनापि ततोऽप्रतश्चितां रुदितोद्गर्जनशोकसागरैः। निगदन्त्यपि गुप्तनामभिः स्वपतीन्सा रुदतीव कीचकैः ॥ १८ ॥ द्रुतलचितवप्रमण्डलः करशस्त्रीकृतमार्गपादपः। पदधूतरजोमये तमस्यथ भीमस्तदिलातलं ययौ ॥ १९ ॥ तमवेक्ष्य कृतान्तभीषणं गुरुगन्धर्वभियाथ कीचकाः। मुमुचुः सह जीविताशया द्रुतमेव द्रुपदस्य नन्दिनी ॥ ६० ॥ प्रणिहत्य हठेन कीचकान्सदशव्याममितेन शाखिना ।
तनयः पवनस्य वल्लभामथ संभाष्य यथागतं गतः ॥ ६१ ॥ विज्ञाय गन्धर्वहतान्नपस्तान्नोवाच किंचिच्च ततः स्वयं ताम् । सुदेष्णया भूपगिरा तु गेहान्निास्यमानेयमिदं जगाद ॥६२ ॥ क्ष्मानाथः क्षमतां त्रयोदशदिनी देवि प्रवीरास्तदा
भर्तारः स्वपदान्यवाप्य मुदिता नेष्यन्ति मामुत्सुकाः । तैर्युक्तश्च जवादवाप्स्यति जयं राजा विराटोऽप्ययं
तद्धीरैव भवेति तद्वचसि सा तूष्णीं सुदेष्णा स्थिता ॥६३ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के विराटपर्वणि कीचकवधो नाम द्वितीयः सर्गः ।
तृतीयः सर्गः। सुस्वादुशीतविशदः सुधारसो यद्वक्रपद्मगतिसारसौरभः । कर्णप्रियोऽप्यजनि भारतीभवन्कृष्णं तमानमत योगिनं जनाः ॥ १ ॥ दृष्टा न ते वचन पाण्डवा इति ख्याते चरैः कुरुनरेश्वरस्तदा । लप्स्ये क तानिति स चिन्तयाकुलः पप्रच्छ संसदि नदीसुतादिकान् ॥२॥
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४विराटपर्व-३सर्गः] बालभारतम् ।
२३१ भीष्मोऽभ्यधत्त सुलभः शुभैकभूर्भूखण्डभूषणमणियुधिष्ठिरः । एभिश्चररैमितिभिः स वीक्षितः सर्वत्र पर्वतधुनीवनादिषु ॥ ३ ॥ यत्रातिशुद्धविधिविप्रमण्डली घुष्टत्रयीप्रमुदितस्त्रयी तनुः । काले जलं च तुहिनं च शक्तिमान्धमै च मुञ्चति नृणामदुःखदम् ॥४॥ दुग्धैः सहर्षसुरभीस्तनच्युतैरामूलमद्भुतरसासु भूमिषु । वापीषु यत्र जलमुद्भवत्यहो पातालनिर्यदमृतौघसंनिभम् ॥ ५॥ सत्कर्मकान्तवपुषाद्भुताद्भुतश्रीलक्षणेन सुतवत्सलात्मना । धर्मेण सत्यशुचिनांहिणान्वितो देशोऽस्ति तत्र खलु धर्मनन्दनः ॥६॥ ऊचे सुशर्मनृपतिस्त्रिगर्तभूनाथस्तदा कुरुपति कृताञ्जलिः । ख्यातं चरैर्मम समस्तभूमिभाग्देशेषु मत्स्यविषयोऽथ वर्ण्यते ॥ ७ ॥ तनिश्चितं चरति गुप्तचर्यया तत्रैव धर्मतनुजः सहानुजः । दृश्यश्च कैश्चन कदाप्युपक्रमैः स्यान्नैष वो हरिरयोगिनामिव ॥ ८ ॥ तन्मत्स्यराजनगराद्धरामहे वृन्दं गवां तदिह चेविषःस्थिताः । तद्गोपराभवरुषा गमिष्यति प्रत्यक्षतामसमयेऽपि फाल्गुनः ॥ ९॥ तत्रापि ते यदि भवन्ति न ध्रुवं वीरप्रकाण्ड तदपाण्डवं जगत् । तत्तादृगद्भुतविभूतिभूषणं मत्स्यादिभूननु विगृह्य गृह्यते ॥ १० ॥ यो नाम धामचयधाम कीचकस्तस्याजनि क्षितिपतेश्चमूपतिः । दैवाजगाम जगतां स दुर्जयो गन्धर्वकोपहुतभुक्पतङ्गताम् ॥ ११ ॥ तन्मत्स्यभूमिविभुरस्तकीचकोऽस्माकं स शल्यरहितेव शर्करा । आत्मप्रतापपरितापितात्मना तं वीर कीर्तिपयसा समं पिब ॥ १२ ॥ गोत्रद्विषं सबलबन्धुमेकतो दूरेण गोहरणतो हरामि तम् । तत्पत्तनं विभवमत्तमन्यतः स्वामिन्गृहाण विहितोद्यमः स्वयम् ।। १३ ॥ आदाय संविदमिमां सुशर्मणः प्रोत्साहितस्तपननन्दनादिभिः । राजा रजःकलुषकीर्तिसिन्धुना सैन्येन गौहृतिमतिस्ततोऽचलत् ॥१४॥ दिग्भ्यो यशः स्वमिव देहतः स्वतः पुण्यप्रतानमिव पावनं ततः । भर्ता त्रिगर्तविषयस्य याम्यदिङ्मुक्ताविराटनगराजहार गाः ॥ १५ ॥ १. 'धर्म' ख-ग. २ 'भूति' ख.
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२३२
काव्यमाला |
पूर्णेऽथ धर्मतनयस्य वत्सरे सुप्ते तदा कलकलाकुलाननः । गोपालजालपतिरेत्य संसदि श्वासोमिंजर्जरितगीर्जगौ नृपम् ॥ १६ ॥ यः कीचकेन करिणेव पल्वलश्चक्रे पुरा स्फुरदकीर्तिकर्दमः । देव त्रिगर्तनृपतिः स एव ते जहे पुरस्य सुरभीरभीलुकः ॥ १७ ॥ क्रोधोद्धुरः स धरणीधवो धनुर्ध्वानौचरुद्धमरुदध्वकन्दरः । प्रच्छन्नपाण्डुसुतसंयुतस्ततः संनद्धदुर्धरचमूचयोऽचलत् ॥ १८ ॥ तैः सूर्यशङ्खमदिराश्वनामभिः पुत्रैर्युतः स नृपतिर्द्विषां बलम् । प्रापेन्दुशुक्रबुधबद्धसंनिधिर्ध्वान्तं प्रगे प्रतिपदंशुमानिव ॥ १९ ॥ भोक्तुं रसेन चतुरङ्गतां गतं सैन्यं समानसमयं सुशर्मणः । तत्कृष्टकार्मुकचतुष्टयच्छलाज्जज्ञे यमस्ततचतुर्भिताननः ॥ २० ॥ वीरोत्करेऽवनिविलासशालिनि स्वर्गाङ्गनासमुदये वियज्जुषि । अन्तःपटाभमिषुमण्डपं व्यधुस्ते पाणिपीडनमहोत्सवे तयोः ॥ २१ ॥ स्पर्धानुबन्धिसुरसिन्धुमत्सरान्नेतुं सहस्रमुखतां निजं यशः । युद्धक्रियानिरवधीन्क्रुधावधीद्वीरान्सहस्रमथ मत्स्यपार्थिवः ॥ २२ ॥ तादृक्सहस्रमितवीरमर्दनप्रोद्भूतदुःसहमहःसहस्रकम् ।
मत्स्यावनीशमवलोक्य लज्जया झम्फां सहस्ररुचिराम्बुधौ व्यधात् २३ उद्दण्डकाण्डकृतवीरमण्डलावर्तस्त्रिगर्त नृपतिस्ततः क्रुधा ।
भ्रूभङ्गभीषणमुखः करालदृग्द्रा मत्स्यभूमि विभुमभ्यधावत ॥ २४ ॥ कुन्तं रयेण करमुक्तमाहवे दूरात्प्रविश्य हृदयेन विद्विषाम् । पृष्टेषु निःसृतमहो मुहुः करे वेगाद्धयस्य जगृहुस्तुरङ्गिणः ॥ २५ ॥ दूरे पुरः स्थितमपि द्विषं प्रति क्रुद्धा विमुच्य विशिखं महारथाः । पश्चाद्विमुक्तममुमश्ववेगतोऽपश्यन्मृतं वलितकन्धरा यदि ॥ २६ ॥ निर्भत्सितेव भटरक्तसिन्धुभिः संध्या जगाम विलयं स्वयं तदा । अप्यन्धकारनिकरान्निकारवान्क्षीणः क्षणेन रणरेणुडम्बरः ॥ २७ ॥ वीरासिपातधुतकुम्भिमण्डली कुम्भोत्थमौक्तिकगणानुकारिभिः । छिन्नोच्छलद्भटशिरोर्दिताम्बरस्वेदोदविन्दुभिरिवोडुभिर्बभौ ॥ २८ ॥
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४ विराटपर्व - ३ सर्गः ]
भ्रश्यत्कृपाणततयोऽसिधेनुभिस्तद्भेदतः प्रबलमुष्टिलीलया । तस्यामशक्तिजुषि दन्तिवद्रदैस्तेनुस्ततोऽतिबलिनः कलिं भटाः ॥ २९ ॥ एवं बलेन बलिनः सुशर्मणस्त्रासं जवेन गमिते बले स्थितः । एको विराटजगतीपतिः प्रगे निस्तारकाततिरिवौषधीपतिः ॥ ३० ॥ स्वस्वाङ्गभूषणमणिप्रभाभरध्वस्तान्धकारविशदं मदात्तदा । उत्तालकालचरणं रणोत्सवं मत्स्यत्रिगर्तनृपती वितेनतुः ॥ ३१ ॥ वर्षत्यमर्षजुषि बाणधोरणीः क्रुद्धे त्रिगर्तनरभर्तरि क्षणम् । वृष्ट्ाकुलो गज इवाथ संकुचन्कष्टां दशामधित मत्स्यभूपतिः || ३२ ॥ वर्षे यदोकसि यदन्नभोजिनो यूयं स्थिताः स किमुपेक्ष्यते युधि । इत्यात्मवंशतिलकान्कुरूद्वहान्वक्तुं कृतोद्यम इवेन्दुरुद्ययैौ ॥ ३३ ॥ वीरेन्द्रमस्तकमणेः सुशर्मणो मूर्तव कीर्तिरुदियाय चन्द्रमाः । प्रेम्णेव पर्यरभतैनमङ्कनव्याजादकीर्तिरपि मत्स्यभूपतेः ॥ ३४ ॥ बाणोत्करैर्विरथितस्तिरस्कृतः खड्गादिशस्त्रसमरैरपि क्षणात् । मलोsपि मल्लकलया धुतः श्वसन्बद्धोऽथ मत्स्यनृपतिः सुशर्मणा ॥ ३९ ॥ क्षिप्ता रथे तमथ याति वैरिणि व्याचष्ट मारुतसुतं तपःसुतः । अस्मासु सत्सु यदयं द्विषा जितस्तदयौरिवेन्दुमहसा हसत्य हो ॥ २६ ॥ एवं निगद्य शरपद्यया दिवं वीरान्सहस्रमनयद्युधिष्ठिरः । भीमः शतानि युधि सप्त तत्क्षणं माद्रीसुतौ दशशतीं सुशर्मणः ॥ ३७ ॥ क्रुद्धस्य योद्धुमभिधावतस्ततो निर्मथ्य रथ्यरथसारथीन्पदा । मौलिं त्रिगर्तनृपतेरलोडयद्भीमो महेभ इव मूर्च्छितात्मनः ॥ ३८ ॥ मत्स्याधिनाथमभिमोच्य मारुतिः कारुण्यपुण्यसुकृतात्मजोक्तिभिः । वीरोऽमुचत्तमपि वैरिणं हसन्दासस्तवाहमिति दीनवादिनम् ॥ ३९ ॥ गृह्णीत राज्यमपि मे भवद्बलात्कीर्तौ च संपदि च संचराम्यहम् । अस्माकमेतदिति मत्स्यभूपतेः कङ्कादिभिः सह मुदोक्तयोऽभवन् ॥ ४० ॥ एवं विमोच्य सुरभीर्मिलच मूहर्षस्मितोच्चमिषमूर्तकीर्तिभाक् । दूतैर्निदिश्य नगरे जयोत्सवं तत्रैव रात्रिमवसद्विराटराट् ॥ ४१ ॥ इति दक्षिण गोग्रहणसुशर्मपराजयः ।
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३०
बालभारतम् ।
२३३
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२३४
काव्यमाला।
एत्य प्रगेऽथ पुरि गोकुलाधिपः शुद्धान्तधामनि कुमारमुत्तरम् । व्याचष्ट पुष्टभयकोपसंचयव्याकम्पसंपदपरिस्फुटं वचः ॥ ४२ ॥ एकार्णवं क्षितितलं बलोत्करैः कुर्वन्कुबेरहरितो जहार गाः । शीतद्युतौ द्विगुणयन्सुयोधनः खामिन्कलङ्कमलमात्मपूर्वजे ॥ ४३ ॥ युद्धेऽन्यतश्चरति तत्र भूमिभृत्सिहेऽस्तभीरिभ इवेह सोऽस्फुरत् । जानात्यसौ खलु कुमारसिंह न त्वामत्र गोत्रतिलकायितश्रियम् ॥४४॥ चक्षुर्भुजापरिघयोर्मुहुः क्षिपन्दन्तांशुभिर्विशदयन्मुहुः सभाम् । मातुः पुरः प्रणयिनीजनस्य च प्रोचेऽथ मत्स्यनृपसूनुरुत्तरः ॥ ४५ ॥ तावत्क्रुधेह युधि जाग्रतु द्विषो यावन्न मे प्रतिलसन्ति सायकाः । स्यादद्य यद्यनुगुणस्तु सारथिस्तत्तान्करोम्युदितपार्थशङ्कितान् ॥ ४६ ॥ इत्थं धराधवभुवा धनंजयस्पोद्धरं निगदिते वधूपुरः । मन्यूद्भवा बहुलमन्युरग्रहीदन्तर्विहस्य वचनं मनस्विनी ॥ ४७ ॥ ख्यातः क्षितीन्द्रभव यस्तव स्वसुर्नृत्ये गुरुत्वमवहळूहन्नडा । पूर्व पुरंदरभवस्य खाण्डवप्लोषे स सारथिपदं प्रपेदिवान् ॥ ४८ ॥ यस्तस्य गाण्डिवविखण्डितद्विषो यन्ताजनिष्ट स न ते किमु क्षमः । सारथ्यमर्थयतरां तमुत्तरां संप्रेष्य नैष यदि मां न मानयेत् ॥ ४९ ॥ श्रुत्वेति तद्वचनमुत्तरोऽनुजां प्रेष्यानिनाय रयतो बृहन्नडाम् । तेनातियत्नमयमर्थितो जयः सारथ्यभारमुररीचकार तम् ॥ ५० ॥ अन्तःपुरेऽथ परितः कुमारिका मिथ्यानभिज्ञ इव हासयन्मुहुः । पर्यादधार विविधैर्विचेष्टितैः सौवर्णवर्म शतमन्युनन्दनः ॥ ११ ॥ इत्युत्तराभ्यधित सस्मिताधरा तं सज्जितध्वजपटे रथे स्थितम् । संख्येऽशुकान्यसुहृदां बृहन्नडे हार्याणि मत्कृतकपुत्रिकाकृते ॥ १२ ॥ इत्थं तदुक्तिमभिगम्य पाण्डुभूरारूढवत्यथ रथं तमुत्तरे । तारांस्तथैष तुरगानतत्वरत्क्ष्मामस्पृशन्त इव ते ययुर्यथा ॥ १३ ॥
१. 'जाग्रति' क.
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४ विराटपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
पृष्ठानुयायि जवना निलत्वरासंप्रेरितैरपि निजाश्वपादजैः । अप्राप्त एव रजसां भरैरथ सूर्य ययौ रिपुसमीपमुत्तरः ॥ ५४ ॥ अग्रे शमीतरुसमीपगः पुरीप्रान्तस्मशानभुवि मत्स्यभूपभूः । विद्वेषिणां भुवनभीषणारवं व्यालोकते स्म विपुलं बलार्णवम् ॥ ५५ ॥ विश्वान्तरालचरकालशर्वरी संध्यायमानकरिकुम्भवर्णकम् ।
रङ्गत्तुरङ्गखुरपातघातजक्षोणीरजःस्थपुटदिक्पुटस्थितिम् ॥ ५६ ॥ चञ्चद्रथोच्चयचलध्वजाञ्चलप्रज्वालितप्रबलपौरुषानलम् ।
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व्याप्तप्रमत्तयमकिङ्करावलीतुण्डाभकुण्डलितचापमण्डलम् ॥ ९७ ॥ दृप्तं नदीजकृपकुम्भभूकृषीसंभूतसूतसुतकौरवेश्वरैः । सैन्यं निभाय पुरतो भयातुरः प्रोचे शचीवरतनूजमुत्तरः || १८ || (त्रिभिर्विशेषकम् )
एतां निरूप्य पृतनां दिनेशरुग्दीप्तासि दण्डनिविडां बृहन्नडे | आकम्पतेऽद्य हृदयं भयाश्रयं व्यावर्तयान्तकपुरीपथाद्रथम् ॥ ९९ ॥ श्रुत्वेति तस्य वचनं धनंजयो व्याचष्ट तं भ्रमितभीरुलोचनम् सङ्ग्रामकातरतया त्रपामहे क्षोणीमहेशसुत शूरसंसदि ॥ ६० ॥ कीर्तिर्युगान्तशतसाक्षिणी नृणां कायस्तु मत्तकरिकर्णचञ्चलः । धैर्य भजस्व युधि भङ्गसंगमान्मा मा कुलं कुरु कलङ्कसंकुलम् ॥ ६१ ॥ आत्मायुधैर्युधि विशोधितो न चेत्तन्नामृतद्युतिकैलोपदंशकः । स्वाद्येत नन्दनवनान्तकेलिषु प्रेम्णार्पितोऽमरवधूजनाधरः ॥ ६२ ॥ मातुः स्वसुश्च दयिताततेश्च तां संधां विधाय पुरतस्तथाविधाम् । धिग्धिक्पलायनपरायणोऽधुना ह्रीर्मोनहीनमनसां जिजीविषा ॥ ६३ ॥ श्रुत्वेत्यभाषत सुतः क्षितीशितुर्विस्त्रस्त हस्तगधनुर्विहस्तधीः । पश्यन्पुरः कुरुपतेर्वरूथिनीं दृप्यद्रथीन्द्रवर भैरवारवाम् ॥ ६४ ॥ या कीर्तिरुल्लसति देहनाशतस्तां वेसरीसुतजनुः सहोदरीम् । रम्भाफलोद्भवसवर्णिनीं जनः कां मूलनाशनकरी परीप्सति ॥ ६९ ॥
१. 'कलोक' ख; 'कपोल' ग. २. 'हीना न हीन' क.
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काव्यमाला |
कीर्त्या तु किं च परलोकगामिनो या न स्फुटा श्रुतिपुटामृती भवेत् । किं कण्ठपीठलुठितागतात्मनः पुंसः सुखं सृजति हारवल्लरी ॥ ६६ ॥ के नाम वामनयनाजनाग्रतो न स्फोरयन्ति निजबाहुबाहुलम् | शक्यं न निष्कृपकृपाणपाटनप्राणप्रहारकरणं रणं पुनः ॥ ६७ ॥ द्रोणापगेय कृपकर्णकौरवाः सर्वे स्फुरन्ति शरदन्तुराम्बराः । एकैकमेषु समरे सहेत कः स्याद्यत्पुरोऽशनिधरोऽप्यधीरधीः ॥ ६८ ॥ उक्त्वेति शुष्यदधराननो रथादुत्प्लुत्य तूर्णपदपातमन्त्रसत् । पृष्ठे शराहतिमसौ लथीभवद्धम्मिल्लपुष्पततिपाततोऽविदत् ॥ ६९ ॥ तं पाण्डुभूरनुससार वेगतो व्याधूतवेणिलतिकारुणांशुकः । तं चित्ररूपमविचारगोचरं वीक्ष्यारवैरहासिषुः कुरूद्वहाः ॥ ७० ॥ स्त्रीवेषगुप्ततनुरेष फाल्गुनो नूनं गजेन्द्रगमनो महाभुजः । रोषं विमोक्षति रुषा शरोत्करैरित्युचिरे गुरुकृपापगाङ्गजाः ॥ ७१ ॥ पश्चाद्गतेन रयतः किरीटिना केशैर्धृतः कृपणमुत्तरो वदन् । मां मुञ्च मुञ्चरदिनो रथान्हयान्हेमानि रत्ननिचयं तवार्षये ॥ ७२ ॥ आक्रोशितानि शतमन्युसूनुना श्रुत्वास्य सस्मितमितीरितं वचः । मा भीतिमाश्रय हयास्त्वया नियम्यन्तां तनोमि रिपुदारणं रणम् ॥७३ अस्मिञ्शमीतरुशिखान्तरुत्तर न्यस्तास्ति पाण्डुसुतशस्त्रमण्डली । अस्याः शुभं मम भुजार्ग लोपमं गाण्डीवमिन्द्रतनयास्त्रमर्पय ॥ ७४ ॥ शङ्कां विलम्बिनि शवेऽत्र मा कृथा माया हि गूढमियमाहिता मया । मूर्धाभिषिक्ततनुजं न योजये त्वां कर्मणि ध्रुवममङ्गलक्रमे ॥ ७९ ॥ इत्यर्जुनोक्तिमवधार्य मत्स्यभूरारोहति स्म तमसौ शमीद्रुमम् । तत्रासिसायकधनूंषि चित्रभार्जुषि न्यभालयदबालविस्मयः ॥ ७६ ॥ संख्याक्षयेषुधियुतं ततोऽग्रहीगाण्डीवमर्जुन गिरोपलक्ष्य सः । तत्रावतीर्य तरुतः क्व ते गता पञ्चेति पृष्टवति फाल्गुनो जगौ ॥ ७७ ॥ कङ्कद्विजः सुकृतजो मरुद्भवः सूदो यमौ तुरगगोपती त्वहम् । बीभत्सुरस्मि निरवाहि वत्सरो गुप्तस्थितिः पणकृतो भवद्गृहे ॥ ७८ ॥ १. 'गांजीव ' क ख २. 'चित्रभानुंषि' क ख ग . ३. 'शंखाक्षये युधि' ख.
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विराटपर्व-३सर्गः] बालभारतम् ।
२३७ बीभत्सुफाल्गुनकिरीटिजिष्णवः कृष्णार्जुनौ विजयसव्यसाचिनौ । विश्वे धनंजयवलक्षवाहनावित्याह्वयान्दश दिशन्त्यहो मम ॥ ७९ ॥ धैर्य मजस्व विनयस्व वाजिनः पश्यार्दितां कुरुचमूं शरैर्मम । इत्युक्तिभाजि विजये रथाश्रये हृष्टो हयान्नृपतिभूरथैरयत् ॥ ८ ॥ साकं ततोऽनुगतभूतपतिभिः केतौ निकेतमकरोत्कपीश्वरः । यस्यांशुभिर्जययशःश्रियो वियद्वैडूर्यपुण्डूमरुणारत्नयुक् ॥ ८१ ॥ . दिक्कुम्भिनो निभृतकर्णतालतां शैलान्प्रतिध्वनितकुञ्जपुञ्जताम् । चक्षुःश्रुतीन्विधुरिताक्षतां नयन्शङ्ख ततो धुपतिभूरपूरयत् ॥ ८२ ॥ आश्वास्य शङ्खनिनदेन मूर्छितं मत्स्यक्षितीन्द्रतनयं किरीटिना । दिव्यास्त्रदैवतततिं जितात्मना ध्यात्वाधिरोपितमनुद्धतं धनुः ॥ ८३ ॥ विश्वे कुटुम्बयति कम्पमुत्कटैाटंकृतिव्यतिकरैः किरीटिना । उद्यत्तदात्वकुनिमित्तकोटिभिर्भीतोऽभ्यभाषत गुरुः कुरूद्वहम् ॥ ८४ ॥ यत्कौरवप्रवर विष्टपान्तरे दृष्ट्वाद्य माद्यति निमित्तमण्डली । तल्लक्षयामि भटलक्षमांसभुग्रक्षोगणभ्रमणभीषणं रणम् ॥ ८५ ॥ दुर्योधनप्रधनकेलिकौतुकी पार्थः स एष कपिकेतुरीक्ष्यते । कोपानले बहुलहेतिहेलया कक्षीकरिष्यति कुरूत्तमानसौ ॥ ८६ ॥ एते किरातरणकर्मसाक्षिणः क्षीवन्निवातकवचान्तकारिणः । दृप्यद्धिरण्यपुरदैत्यदारणाः प्रेसन्ति नो क्षितिप पार्थमार्गणाः ॥८७॥ एतां गुरुक्तिमुपकर्ण्य कौरवोऽभाषिष्ट भीष्ममिति भूरिमन्युभूः । मत्स्याधिपेन सह विग्रहोऽद्य नः कस्मात्प्रहर्तुमयमेति फाल्गुनः ॥८६॥ विस्मृत्य संश्रवमुपैति चेत्ततः का नः क्षतिः स्फुरतु कानने पुनः । किं तूयते गुरुरयं स्वयं रणारम्भे प्रगल्भयति यो रिपुस्तुतिम् ॥८९॥ इत्थं प्रजल्पति नृपे नदीजनिः शृण्वञ्जगौ नरशरासनस्वनम् । कालो यथा नियमितः सहाधिकैर्मासैनरेश निरतारि पाण्डवैः ॥ ९० ॥ पार्थः स एष समितौ समुद्यतः प्रोद्भूतकेतुकपिभीषणो रवः।। मन्यस्व संधिमधुनामुनाप्यहो भूयान्महोत्सवमयं जगत्रयम् ॥ ९१ ॥ १. 'दारुणाः' क. २. 'ते' ग.
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२३८
काव्यमाला |
वं भवेदिति गिरं तमब्रवीद्दैवं विरुद्धमवबुध्य सिन्धुभूः ।
यत्ता भवन्तु सुभटा घटामहे येनामुना समिति सव्यसाचिना ॥ ९२ ॥ किं तु व्रजन्तु नगराय गोत्रजाः क्षोणीश सैन्य चतुरङ्गरक्षिताः । पूर्वं हि विग्रहनिमित्तवस्तुनः शंसन्ति रक्षणविधिं विचक्षणाः ॥ ९३ ॥ अन्येन गच्छतु वृतश्चमूचतुर्भागेन नागनगरं नरेश्वरः ।
।
येनैष एव विजयो रणक्षणे यत्स्वामिरक्षणविधिर्यथा तथा ॥ ९४ ॥ द्रोणादिभिस्तु सुभटैर्युतोऽर्जुनं क्ष्माभृद्धुनीरयमिवैष धारये । इत्युक्तवत्यथ पितामहे तथा चक्रे भयातुरतया नृपो रयात् ॥ ९९ ॥ वेगाद्व्रजन्तमथ तं पृथङ्करः प्रेक्ष्योत्तरं प्रहसितोत्तरं जगौ । संगृह्य याति सुरभीः सभीरसौ यातेऽत्र मेऽत्र समरेण किं फलम् ॥ ९६ ॥ एनं प्रति त्वरयतूत्तुरंगमान्दूरं कुरङ्ग इव मापलापताम् । श्रुत्वेत्यथ त्वरितमुत्तरो रिपुं पक्षान्वितैरिव हयैरुपाद्रवत् ॥ ९७ ॥ प्राप्तोऽथ सत्वरखुरैस्तुरंगमैर्वेगेन संगतिमुपागते रथे । ते तत्र सन्तमिदमब्रवीदथो दुर्योधनं हठधनो धनंजयः ॥ ९८ ॥ भोस्तिष्ठ तिष्ठ निभृतं भवादृशैः कुल्यैः कलङ्कविधुरः कृतो विधुः । पूर्व जहार सुरभीर्भवान्हहा रुद्धो मयाधम पलायतेऽधुना ॥ ९९ ॥ चापं गृहाण विगृहाण विग्रहिन्साकं मया समय एष दुर्लभः । एकोऽस्मि संगरनियुक्त संगरो यूयं पुनः शतमितो धनुर्धराः ॥ १०० ॥ निर्भर्त्सकैरिति गिरां भरै रयादुत्साहकैरपि तदा कुरूद्वहः । युद्धाय नैव वलते स्म तत्क्रुधा पार्थो रथस्य रयतो गतोऽग्रतः ॥ १०१ ॥ वामे विमुच्य पृतनामभिद्रुतं दुर्योधनाय विनिभालय फाल्गुनम् । भीष्मादिभिः सपदि पर्यवारितैर्व्यावर्तितत्वरितवाहनैर्नृपः ॥ १०२ ॥ एकत्र तत्र मिलितां पताकिनीं दृष्ट्वा प्रहृष्टहृदयो धनंजयः । आकम्पितक्षुभित देवदानवं द्राग्देवदत्तमथ पर्यपूरयत् ॥ १०३ ॥ ध्वानैर्ध्वजे कपिवरस्य तत्परीवारप्रभूततरभूतबूत्कृतैः । तैर्देवदत्तनिनदैश्च विस्फुटब्रह्माण्डमण्डलमशङ्कि विष्टपैः ॥ १०४॥
१. 'नूनं' क. २. 'भो तिष्ठ' क-ग.
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४ विराटपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
आस्फालयंस्तदनु धन्वशिञ्जिनीं टंकारभारमतनोत्तथार्जुनः । गावो यथा सपदि पुच्छदण्डिकामुद्यम्य मत्स्यपुरमायुरुत्सुकाः॥ १०५ ॥ व्यावृत्तिमीयुषि गवां गणे द्विषां सैन्येषु तेषु विशिखोत्करं क्षिपन् । तत्तत्प्रियापरिभवादिदुःखजं वर्षन्नमर्षमिव शक्रभूर्बभौ ॥ १०६ ॥ एकेन मार्गणगणः किरीटिनां यावानमोचि पिहितार्कमण्डलः । तावान्न भूरिभिरपि द्विषां बलैर्भिन्नारिणा भृशमभिन्नशत्रुभिः ॥ १०७ ॥ लक्षाप्तिलालसतमानुपेयुषस्तीत्रागतीनपरमार्गणत्रजान् । दत्तार्धचन्द्रवशतः प्रतापयनिक वर्ण्यते स्वकुलमौलिरर्जुनः ॥ १०८ ॥ नाश्वः सोऽपि न सकोऽपि वारणो वीरः स कोऽपि नरथः स कोऽपि न । तेषां स कोऽप्यवयवोऽस्ति न द्विषां यत्रार्जुनस्य न शरा व्यधुर्व्यथाम् १०९ एकोऽपि सिंह इवं केतुकैतवव्यालोलपुच्छवलयो महायतिः । आसीद्धनंजयरथस्तदा द्विषद्भूपालकुञ्जरमदैकशोषकृत् ॥ ११० ॥ साटोपरत्नमुकुटोरुमण्डलं लोलभ्रु भीषणकनीनिकेक्षणम् । आवेशदष्टदशनच्छदं शरैः शत्रुंतपस्य मुखमैन्द्रिरच्छिदत् ॥ १११ ॥ कौन्तेय कुन्तगण रुग्णविग्रहः संग्रामजिन्निपतितो विवस्वता । मत्पुत्रकर्णपितृभूतसूतसूरित्यस्तशङ्कमयमङ्कगः कृतः ॥ ११२ ॥ तस्या विदग्धपृतनामृगीदृशः कर्णेऽवतंसनवपद्मवद्यशः । भीमानुजन्मकरपङ्कजोत्थितैस्तेने सितेतरतरं शिलीमुखैः ॥ ११३ ॥ शारद्वतोऽपि गुरुरिन्द्रनन्दने शिष्ये पुरः स्फुरति संगराङ्गणे । तत्संगमेच्छुरपि नो जयश्रिया संश्लिष्यते स्म किल सज्जलज्जया ११४ प्रौढप्रतापरविनाशतस्तमस्तोमे प्रसर्पति विरोधिना धुतः । द्रोणो मलीमस तमाकृतिः क्षणादुड्डीनपक्षततिरातनोतु किम् ॥ ११५ ॥ युद्धाङ्गणे गुणनिबन्धतः क्षणादत्रस्यतो मरणमेव काङ्क्षतः । चक्रे धनुर्धरधुरंधरोऽङ्गजं द्रोणस्य लोचनमिवैकमाकुलम् ॥ ११६ ॥ सेनासरोरुहदृशो विभूषणं गाङ्गेयमुत्कटमहाग्निनिर्मलम् । पार्थेन पौरुषमणौ हृते तदा विच्छायमेव जनता व्यलोकत ॥ ११७ ॥ १. 'मुत्पाद्य' ख- ग.
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२४०
काव्यमाला ।
धारोद्धराशरभरान्धनंजयो वर्षन्धनः प्रकटितोत्तरोन्नतिः । त्रासोन्मुखं समरपत्वलान्तरे तं धार्तराष्ट्रमकरोत्किलाकुलम् ॥ ११८ ॥ एकैकशोऽपि मिलितानपि भ्रमदिव्यास्त्रजालजटिलीकृताम्बरान् । एताञ्जिगाय युधि वासवाङ्गभूराविष्कृतप्रतिमहास्त्रपङ्क्तिभिः ॥ ११९ ॥ कौन्तेयकुन्तततिपातपातिता भान्ति स्म भूमिपतिवक्रपतयः । शौर्यश्रियः प्रधनपल्वलोदरे केलिक्रमाय कमलाकरा इव ॥ १२० ॥ भिन्नप्रभिन्नकरिकुम्भमण्डलीमुक्ताफलानि विगलन्ति भेजिरे । जम्भारिजन्मपरिरम्भसंभवात्स्वेदोदबिन्दुसमतां जयश्रियः ॥ १२१ ॥ दुःशासनप्रभृतयस्ततो व्यधुः सौवर्णपुङ्खविशिखोत्करैर्नरम् । नक्तं प्रदीप्तपरितोमहौषधीमालोज्ज्वलाञ्जनमहीध्रमञ्जलम् ॥ १२२ ॥ तानेक एव स शिलीमुखोच्चयैश्चक्रे विलीनमहसो महेन्द्रभूः । धिष्ण्यव्रजानिव दिवाकरो दिवारम्भे क्षणात्खरतरैः करोत्करैः॥१२३॥ छिन्नैनरेधुनिचयेन चामरैश्चित्रैर्ध्वजैश्च निपतद्भिराबभे । स्पष्टं पलग्रसनपुष्टिहृष्टिमद्रक्षोघटादृहसितैरिवाहवे ॥ १२४ ॥ ऐकस्तुरंगनिकरैस्तरङ्गिता बाणोत्करेण परिशोप्य वाहिनीः । अन्या द्विषां क्षतमुखाम्बुजार्चिताः प्रावर्तयधुधि जयोस्रवाहिनीः॥१२५ एवं पराजयविवृद्धमन्यवः शौर्याभिभूतशतमन्यवस्ततः । सर्वेऽपि सिन्धुतनयादयोऽर्जुनं संभूय तत्र रुरुधुर्धनुर्धराः ॥ १२६ ॥ तान्संहतान्पुनरवेक्ष्य रोषतः स्खं खं विभज्य बहुधेव वल्गतः । जिष्णोरपूज्यत पराक्रमश्चमत्कारोत्करं सुरवरैः सुमोत्करैः ॥ १२७ ॥ एकोऽप्यनेकवदयं भयंकरो राज्ञां शिरांसि परितः शरैः क्षिपन् । नूनं सहस्रभुजनेत्रतां जना दृश्यां गतोऽयमिति तर्कितोऽपरैः॥१२८॥ कुन्तीसुतोऽथ मरणैककाटिषु क्ष्मापेषु तेषु विलसद्दयारसः । अस्त्रं युधि प्रियमनङ्गधन्विनः संमोहनाभिधमधाद्धनुर्गुणे ॥ १२९॥ निद्रासमागमनहेतुदूतिका जृम्भा समेत्य वदनेषु विद्विषाम् ।। बाष्पेन सात्विकरसादिवोदयं संबिभ्रताशु नयनान्यपूरयत् ॥ १३० ॥ १. 'रक्तं' क. २. 'जल' क. ३. 'नरेश' क. ४. 'एका' ग.
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४विराटपर्व-३सर्गः] बालभारतम् । निद्राधिदैवतनवावतारतो व्याघूर्णयंश्च वदनं विरोधिनः ।.... आलोकयंश्च निखिलाः पुनर्दिशो दृम्भिर्मुहूर्तधृतचेतना मुहुः॥१३१॥ मुक्तेऽर्जुनेन विशिखे सिविरे निद्रारस सपदि वैरिणो रणे । मांसाशनव्यसनसङ्गसंगतप्रेतप्रणाशकरघोरघोरिणः ॥ १३२ ॥ सुप्ताः परस्परशरीरसंभ्रमावष्टम्भवेदिसुखशालिनो द्विपाः । तेषां च कुम्भयुगलोपरिस्थिताः प्राप्तप्रियोरसिनविभ्रमा भटाः ॥१३३॥ निद्रारसः समजनिष्ट वाजिनां कश्चित्तदा स किल फाल्गुनास्त्रतः । अद्यापि येन गमनेऽपितेऽन्वहं नो यान्ति जागरणकेलिकौतुकम्॥१३४॥ आसन्नधोमुखनतास्तुरंगिणः स्कन्धेषु वाहनिकरस्य निद्रया। वक्षःस्थितं विजयरत्नमर्जुनव्याकृष्यमाणमिव रक्षितुं जवात् ॥ १३५ ॥ निद्रावशेन रथिनां करद्वयात्कर्णान्तनीतगुणमेव कार्मुकम् ।
भूमौ पपात विशिखैस्तु वेध्यगैर्विश्वे निजा सफलता म दर्श्यते ॥१३६॥ . ' तत्कालमेकसमयं पदातिभिः प्रौढैः पतद्भिरवनीधरोद्धुरैः। दुर्वारभारनतभूमिचक्रितस्वाङ्गो बभौ कमठवत्फणीश्वरः ॥ १३७॥ स्मृत्वोत्तरावचनमर्जुनस्ततो मत्स्येन्द्रसूनुमिदमब्रवीन्मुदा । दुर्योधनस्य कदलीदलप्रभे कर्णस्य काञ्चनरुची हरांशुके ॥ १३८ ॥ एतेषु न स्वपिति सिन्धुभूरसौ मुक्त्वा तदेतमितरक्षमाभृताम् । खैरं विचित्रवसनान्युपाहरेत्युक्ते नरेण स तथाकरोद्रुतम् ॥ १३९ ॥ आत्तांशुकः श्रितरथोऽथ मत्स्यभूः पार्थाज्ञयाशु तुरगानतत्वरत् । भीष्मे शरैस्तुदति पृष्ठतः परावृत्तो निहस्य तुरगाञ्जयी ययौ॥१४० ॥ मुक्तो रिपुः किमिति कौरवो वदन्सुप्तोत्थितः स्वयमबुद्धविप्लवः । ज्ञात्वांशुकान्यपहृतानि भीतिमान्भीष्मोक्तिभिः सह चमूभिरत्रसत् १४१ बाणैः किरीटशिखरं किरीटिना दुर्योधनस्य समहारि नश्यतः । तस्मिन्शमीतरुवरेऽस्त्रमण्डलं मुक्तं तथैव ववले पुरं प्रति ॥ १४२ ॥
इत्युत्तरगोग्रहः ।
.. १. 'अस्तैर्वि' क-ग.
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२४२
काव्यमाला।
जित्वा रिपूनथ समागतः पुरे मत्वा सुतं सपदि षण्ढसारथिम् । भीष्मादिभिः समरहेतवे गतं दुःखी विराटनृपतिर्न धर्मसूः ॥ १४३ ॥ यावह्वलानि समनीनहचरैस्तावत्कुमारविजयो निवेदितः । भूपः प्रवर्त्य नगरोत्सवं ततः कङ्कान्वितो व्यधित सारिखेलनम् ॥१४४॥ क्रीडन्नृपो व्यधित कङ्क पश्य मत्पुत्रो जिगाय युधि तं सुयोधनम् । कङ्को जगाद खलु जीयते सुखाद्येनैष सारथिरभूद्वहन्नडा ॥ १४५ ॥ षण्ढस्य सारथिपदं वदञ्जये हेतुं रुषा क्षितिभृताक्षताडनात् । कङ्कद्विजः स विदधे सभालहक्कीलो महेश इव दृश्यशोणितः ॥ १४६॥ मानिष्टमत्र विषये प्रवर्ततां भूसंङ्गिमद्रुधिरलीलयेत्ययम् । कीलालपाणिरवनीपतिर्बभावागन्तवे घुसृणवानिव श्रिये ॥ १४७ ॥ तूर्णागते द्रुपदनन्दिनीधृते पात्रे सुवर्णघटिते युधिष्ठिरः । चिक्षेप रागमिव मूर्तमात्मनः प्रेम्णा चिरात्क्षतननिर्भरं स तम् ॥१४॥ नेया वयं प्रकटतां दिनत्रयं नैवेति दत्तदृढशिक्षमुत्तरम् । पार्थो विधाय रथिनं तमात्मना धात्रीशसौधमनयद्रथं रयात् ॥१४९॥ संसद्भुवि क्षितिपतिं प्रति प्रतीहारो व्यजिज्ञपदुपेतमुत्तरम् । षण्वेन सार्धमतिवधिसमदस्तूर्ण नृपोऽपि तमवीविशत्तदा ॥ १५० ॥ यो मे करोति वपुषि क्षतं क्षितौ तं प्रेषयेत्स सकुटुम्बकं दिवि । षण्ढोऽयमत्र न विमुच्यतामतो दौवारिकेऽवददिदं युधिष्ठिरः ॥१५॥ इत्येक एव वचनेन वेत्रिणः प्रीतः सभान्तरमवापदुत्तरः । तं प्रेक्षत क्षतजनिर्भरं छलाच्छुण्डालमत्र च नरेन्द्रकुञ्जरम् ॥ १५२ ॥ वृत्तान्तमेतमवगत्य भूपभूस्तातं जगाद किमु कोप्यते द्विजः । संमान्यतामयमतः सुतोक्तिभिः ककं नृपः क्षमयति स्म मङ्क्षतम् ॥१५३॥ कोपावलोकनवशेन पाण्डवः कर्तु क्षमोऽपि भुवनानि भस्मसात् । . यं पट्टबन्धमतनोत्क्षतार्थकं तेनैव सोऽजनि धुरि क्षमावताम् ॥ १५४ ॥ मौलिक्षते द्विजवरस्य गोपिते षण्ढः सभाभुवि नृपेण मोचितः । विद्वेषिशाखिशतदावपावकः प्रापात्मनन्दनविलासमारुतः ॥ १५५॥ १. 'संमदं तू' ग.
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४विराटपर्व-४सर्गः]
२४३ केनापि दिव्यपुरुषेण पौरुषं पुण्येन मे विदधता जिता द्विषः । गन्ता दिनैः प्रकटतां स तु त्रिभिः श्रुत्वा सुतोत्तरमिति स्मितो नृपः१५६ कामः काममयं करोति जगति क्रीडोत्सवानेकया
रत्या साकमितीव पाकविषयप्राप्तैरसूयारसैः । प्रीतिर्वीरकुमारवीर विजयश्रीसंभ्रमप्रेरिता
तो निष्कास्य तदा चकार सदनं चित्ते पुरीवासिनम् ॥१७॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये
वीराङ्के विराटपर्वणि दक्षिणोत्तरगोग्रहे पाण्डवजयो नाम तृतीयः सर्गः ।
___ चतुर्थः सर्गः । मुदेऽस्तु वः कृष्णमुनिर्यदीयभास्वद्वपुर्दन्तनखप्रभाभिः । विचित्ररत्नाभरणा न के के विमुक्तिकान्तासुभगीभवन्ति ॥ १ ॥ स्वयं तृतीयेऽथ दिने दिनादौ स्नातो विशुद्धाम्बरमाल्यधारी । धर्माङ्गजैः स्वैरनुजैश्चतुर्भिः सिंहासने मत्स्यविभोर्यवेशि ॥ २ ॥ वृत्तान्तमावेदितमुत्तरेण मत्वाथ तोषाब्धिविभुविराटः । आगत्य धर्मात्मजपादयुग्मे लग्नः क्षमस्वेति मुहुर्बुवाणः ॥ ३ ॥ मनस्तदा धर्मतनूजपादनखप्रभावारिणि वीरमुख्यैः ।। ऊर्वीकृतो भूमिपतिश्चतुर्भिर्रमादिभिर्भूरिभुजप्रभावैः ॥ ४ ॥ करौ किरीटे नखरत्नराजिविराजितौ हेमविधौ विधाय । हारं सृजन्वक्षसि दन्तकान्त्या प्रति प्रभुं वाचमुवाच राजा ॥ ५॥ अहं च देशश्च पुरी च नाथ वर्तामहे स्म त्रिजगत्पवित्राः । त्वदीयसङ्गादधुना कुलं मे पुनीहि कन्यां जयिने ददामि ॥ ६ ॥ इत्येतया तोषविशेषसान्द्रो गिरा विराटस्य धराधिनाथः । दृशं भृशं शाक्रिमुखारविन्दे चिक्षेप लोलभ्रमराभिरामाम् ॥ ७ ॥ रदै रुचा प्रत्युपकारगौरै रदाम्बरस्याम्बरमासृजद्भिः । विवेकभूसिवभूर्वभाषे शिष्यां सुतावद्गणयन्ति धीराः ॥ ८ ॥ १. 'त' क. २. ‘स वः' ख. ३. 'जस्तैरनुजै' ख. ४. रवै' क.
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*४४
काव्यमाला |
ययाग्रहः स्नेहविवृद्धिहेतोश्चिराद्विराटस्य चकास्ति चित्ते । सुताय दत्तामभिमन्यवे तत्सुतां मदीयाय सदृग्वराय ॥ ९ ॥ आलोक्य निश्चित्य च कृत्यमेतच्चिरं हृषीकेशपुरे न्ययुक्त | भूपः सुभद्रातनयस्य तूर्णमाकारणायाकृतिदर्पकस्य ॥ १० ॥ अथागतं द्वारि धनुर्विमुक्तबाणत्वराजित्वरनौसवेगम् । विज्ञापितो वेत्रिगिरा मुरारिरवीविशत्संसदि दूतमेनम् ॥ ११ ॥ कृतप्रणामस्तदयं जगाद चरः सभायां तिलकानि तन्वन् । द्विजन्मचञ्चत्करचन्दनेन मुरारितेजो मृगनाभिभाञ्जि ॥ १२ ॥ अयुङ्क्त मां युक्तमतेन राजा सहोदराणामिह धर्मसूनुः । प्रत्यक्षतां पूरितगोप्य कालस्तन्वन्विवस्वानिव तीव्रतेजाः ॥ १३ ॥ किरीटिने गोग्रहगाढ गर्वदुर्योधनक्ष्मापंजयोज्ज्वलाय ।
दातुं सुतां धर्मसुतांहियुग्मे लग्नो विराटः सह नन्दनेन ॥ १४ ॥ सुतेव शिष्येति धनंजयेन नैवादृता पार्थिवपुत्रिकेयम् । स्नुषा तु पुत्रीव सतां विभाति ततः सुतार्थ स्वयमर्थिता सां ॥ १९ ॥ ततस्तदाकारणकारणेन समागतोऽहं जगदेकनाथ ।
स्वामिन्सुभद्रातनयं नयज्ञं क्षणान्निजं प्रेषय भागिनेयम् ॥ १६ ॥ सखीसमक्षं मुकुरे मुखं या निरीक्षितुं चेतसि लज्जमाना । मुहुः कुमारी मणिकङ्कणेषु लोलाविलोकं क्षिपति स्म चक्षुः ॥ १७ ॥ उरःस्थले मन्मथपार्थिवस्य मत्वा निवासं कुचदूष्यचिह्नम् । विमुच्य यस्याः सरलप्रचारं कर्णान्तरे दृङ्मृगयुग्ममागात् ॥ १८ ॥ अन्तर्गता शैशवयौवनाभ्यां या पीड्यमानेव मुहुर्हढाभ्याम् । पर्याकुला वाञ्छति लोलदृष्टिः कस्यापि पाणिग्रहणं कुमारी ॥ १९ ॥ कुतूहलात्काञ्चनकन्दुके च करं करोति श्रुतिमण्डले च । मुहुर्विभूषाजुषि या विनोदगेहे च देहे च करोति दृष्टिम् ॥ २० ॥ इमां कुमारीं परिणीय राजन्नयं कुमारो भुवने विभातु । अभ्युन्नतः केतुरिवान्ववायप्रासादमौलौ विलसत्पताकः ॥ २१ ॥
१. 'युक्तमते मतेन' गं.
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४विराटपर्व-४सर्गः) 'बालभारतम् ।
२४५ आकर्ण्य मत्वाथ तथेति विष्णुदत्ताङ्गभूषं विससर्ज दूतम् । सौधं मतीनामभिमन्युशिक्षाकृते कृती मन्त्रिणमादिदेश ॥ २२ ॥ राज्ञस्तदाज्ञामधिगम्य सम्यग्विशुद्धधीरुद्धवमन्त्रिराजः । उवाच वाचः सितकान्तिकान्तिर्भद्राः सुभद्रातनये नवेच्छुः ॥ २३ ॥ मा विश्वसीविश्वजनीनशक्ते स्त्रियः श्रियो वा भृशचञ्चलायाः । ददाति गाढं व्यसनं जनानां रक्ता विरक्तापि पदे पदे या ॥ २४ ॥ यातो महात्मन्यपि लम्पटत्वमामन्यते लम्पटसंगमेन । लोलः शशाङ्कोऽपि विभाति तात वातप्रणुन्नाम्बुदमध्यवर्ती ॥ २५ ॥ कृतिन्नमात्येषु पुरातनेषु चिरं स्थिरा राजति राजलक्ष्मीः । यतः शरावेषु नवेषु वारि न्यस्तं समस्तं प्रलयं प्रयाति ॥ २६ ॥ ध्वस्ता समस्ता रिपवो मयेति निरुद्यमो वीरवरेण्य मा भूः । मुक्तोदये भास्वति भूरिशोऽपि भिन्नं तमोऽभ्येति पुनः कुतोऽपि ॥२७॥ तात प्रतापप्रसराय धीराः कुर्वन्ति धैर्य न पुनर्धनाय । न केसरी मौक्तिकपतिहेतोराहन्ति दन्तिप्रकरं करात्रैः ॥ २८ ॥ दुरोदरारम्भकथां कथंचिदार्या न कार्यान्तरतोऽपि कुर्युः । दुरोदरस्य व्यसनेन पेतुर्विपत्पयोधौ पितरस्त्वदीयाः ॥ २९ ॥ प्रभुप्रवृत्तिप्रतिमं चरन्ति प्रजाश्चिरं चण्डतमं हिमं वा । सूर्योपला वह्निमुचः स्वकाले चन्द्रोपलाः पश्य सुधामुचः स्युः ॥३०॥ अत्यर्थभावेन निषेव्यमाणमप्यार्य कार्य व्यसनं वदन्ति । तन्वन्पितुर्वाचमवाप रामो वनं बलियंग्गमनं च दानात् ॥ ३१ ॥ इत्यादिभिर्मन्त्रिपतेर्वचोभिर्मत्वा विदग्धं भुवि भागिनेयम् । विधाय दिव्यास्त्रभरप्रवीणं हरिः पितुः सद्मनि तं न्ययुक्त ॥ ३२ ॥ रिङ्गत्तुरङ्गशतभूमिभागरजोभरच्छन्नदिनादिनाथैः । कैश्चित्प्रयाणैरगमत्कुमारो विराटभूपालपुरोपकण्ठम् ॥ ३३ ॥ नदीप्रवाहप्रतिमस्य तस्य कुमारसैन्यस्य समागतस्य । विराटभूपालबलाम्बुराशिर्वेलाकुलः संमुखमाचचाल ॥ ३४ ॥ १. 'तुरङ्गाक्षतभूमि' क; 'तुरङ्गक्षितिभूमि' ख.
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२४६
काव्यमाला ।
युधिष्ठिरं वीक्ष्य दृशा कृशानुतेजाः कुमारस्तुरगं विमुच्य । नमश्चकार क्षितिनम्रमौलिस्तथा च भीमप्रमुखान्क्रमेण ॥ ३५ ॥ न्यञ्चद्वपुः किंचिदुदश्चिताङ्गभागेन साकं पुरपार्थिवेन । कटीतटन्यस्तकरश्चकार कृती परीरम्भभरं विधिज्ञः ॥ ३६ ॥ समानरूपप्रतिपत्तिमेव विधाय सङ्गं सममुत्तरेण । युधिष्ठिरादेशवशात्कुमारस्तुङ्गं तुरंगं पुनरारुरोह ॥ ३७ ॥ प्रत्यालयद्वारविमुक्तमुक्ताकदम्बकः स्वस्तिककैतवेन । सर्वाङ्गमानन्दमनोरमश्रीः प्रस्वेदबिन्दुप्रकरान्बभार ॥ ३८ ॥ परिस्फुरद्वाहसमूहपादप्रयातभिन्नावनिमण्डलोत्थैः । वातप्रणुन्नै रजसां वितानैर्विवर्णतामप्युररीचकार ॥ ३९ ॥ स देशदेशप्रसरत्प्रमत्तमातङ्गचक्रभ्रमसंभ्रमेण । वसुंधरायां परिकम्पितायां कम्पानुभावं बिभरांबभूव ॥ ४० ॥ तत्कालसज्जीकृतनीलरत्नद्वास्तोरणस्तम्भसमुद्भवेन । मरीचिवीचीप्रसरेण भूरिरोमाञ्चमङ्गे रचयांचकार ॥ ४१ ॥ उच्चैःशिरः संगतलोकघट्टप्रभ्रष्टहारच्युतमौक्तिकौधैः । स्फीतप्रतोलीनयनान्तरालादश्रुप्रपातं परितस्ततान ॥ ४२ ॥ आयाति सौभाग्यनिधौ कुमारे विस्तारयामास च बाहुपाशौ । द्विधाभवत्संमुखपौरलोकव्याजेन नारीव पुरी तदासौ ॥ ४३ ॥
(कुलकम्). मूर्त्या स मूर्तः किल कामदेवः कामं विभूषाभरभासमानः । स्मितप्रतोलीनयनाध्वनैव पुरीपुरन्ध्री हृदयं विवेश ।। ४४ ॥ आकार्यमाणा नवतूर्यनादैर्नार्यः स्वकार्यप्रसरं विमुच्य । कुमारमालोकयितुं विलोला जालान्तरालाभिमुखं प्रचेलुः ॥ ४५ ॥
औत्सुक्यतः काचन चित्रकाथै करे गृहीतां मृगनाभिमेव । स्निग्धाञ्जनभ्रान्तिवशाकिरन्ति नेत्रद्वये तत्र ददौ मृगत्वम् ॥ ४६ ॥ ताडङ्कमेकं कर एव काचित्तदा वहन्ती चपलं चचाल । त्रैलोक्यक्षेत्रमरचक्रवर्तिपताकिनीवाग्रविलासिचक्रा ॥ ४७ ॥ १. 'ताटङ्क क.
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४विराटपर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
२४७
क्षिप्रं श्रुतौ कुण्डलमेकमेव कस्याश्चिदास्यं दधदाबमासे । हर्षप्रकर्षाद्भुतमाससाद द्रष्टुं कुमारं स रविः किमिन्दुः ॥ ४८ ॥ चचाल हारस्य पदे निवेश्य समुत्सुका काचन काञ्चिदाम । सकिङ्किणीध्वानमिदं वहन्ती सा मूर्तकामद्विपवद्वभासे ॥ ४९॥ चक्षुर्गवाक्षं सुदृशां मनोभूः स्वसद्मनां कौतुकतोऽधिरूढः । तदेकतानप्रविलोक्यमानकिरीटिसूनुं प्रति मानदम्भात् ॥ १० ॥ आलोकयन्वंश्यममुं कुमारं भूरीणि रूपाणि विधुर्विधाय । स्मितेक्षणश्चन्द्रमुखीमुखानां मिषेण हर्षी न समाप तृप्तिम् ॥ ११ ॥ निपीयमानः स्मरविह्वलाभिरेवं सुकेशीभिरसौ कुमारः। अन्तः प्रविश्याशु मनोऽपहृत्य तासां क्रमादप्रकटो बभूव ॥ १२ ॥ निपीय नेत्राञ्जलिसंपुटेन क्षणेन सौन्दर्यरसं सुकेश्यः । चिरादतृप्ता इव नैव जग्मुः पुरोविभागाद्विगतेऽपि वीरे ॥ १३ ॥ विनिर्जितेनैव तनुप्रभाभिरयं स्वकीयप्रतिमाच्छलेन । स्मरेण संसेवितपादमूलः सौधान्तरं रत्नधरं विवेश ॥ १४ ॥ बहुश्रुतैः कुण्डलितं द्विजेन्द्रनिश्चित्य लग्नं शुभभावसूचि । पाणिग्रहारम्भमहोत्सवानां कृते नृपावुत्सुकतां प्रपन्नौ ॥ १५ ॥ वाजन्यजन्मप्रमदावदाताः स्वयं तदा तारतरत्वराभिः । मत्स्यावनीन्दोः पुरि विश्वभूपाः श्रीविश्वरूपप्रमुखाः समीयुः ॥ १६ ॥ भ्रान्तनुवो वन्दनमालिकाभिश्चलत्कराः केतनचक्रवालैः । महोत्सवेऽस्मिन्सदनश्रियोऽपि नृत्यं वितेनुधृतरत्नभूषाः ॥ १७ ॥ तनूजशुभ्रच्छदजाह्नवीभिः प्रतिक्रमाम्भोजमधुव्रतीभिः । तिथौ शुभायां द्रुतमुत्तरायां नितम्बिनीभिः प्रतिकर्म चक्रे ॥ १८ ॥ साभ्यङ्गभूषा सुभगा बभासे सिद्धार्थदूर्वाङ्कुरकर्बुराङ्गी । उपात्तबाणा ध्वजशोभिहेमनीलाश्मचेतोभवचैत्यचारु ॥ १९ ॥ रोफ्रेण निर्वाशिततैलमङ्गमाबिभ्रती कुङ्कुमपङ्कसङ्गम् । स्नानक्षणे तूर्यरवप्रमोदैः सा मूर्तरागप्रसरेव रेजे ॥ ६ ॥ १. 'हर्षप्रहर्षा' स्ख; 'हर्ष प्रक' ग. २. 'सूनुप्रतिमान' ग.
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२४८
काव्यमाला ।
एणीदृशां श्रोणिरिमां कुमारी सकुङ्कुमामस्नपयत्पयोभिः । शुभ्रांशुकुम्भप्रभवैर्विभाभिः ससांध्यरागां रजनीं यथा द्याम् ॥ ६१ ॥ सा चन्द्रिकामं परिधाय वासश्चन्द्रानना प्राप विभावरीव । भास्वन्मणिस्तम्भचतुर्दिगद्रि नभोनिभं केलिवितर्दिमध्यम् ॥ ६२ ॥ प्राचीमुखीं चन्द्रमुखीमथैनां निवेश्य नेपथ्यविधिर्व्यधायि । यस्तोषिणा बन्धुवधूजनेन स प्राप नेपथ्यमिदं तदङ्गे ॥ ६३ ॥ विभूषणाभोगधरा वराङ्गी विलोक्य रूपं मणिदर्पणे सा । आकाङ्क्षदात्मन्यभिमन्युभावं मुद्राभिमन्यौ च तदात्मभावम् ॥ ६४ ॥ ततान दीक्षातिलकं सवित्री तस्या यदास्येऽर्पितचन्द्रदास्ये । तत्रैव पर्यङ्कसमे समेत्य चकार केलि सरतिर्मनोभूः ॥ ६९ ॥ पूर्ण यदूर्णामयसूत्रमस्या हस्ते जनन्या जनितं तदानीम् । पाणिग्रहारम्भजुषालभन्त न तेन साम्यं मणिकङ्कणानि ॥ ६६ ॥ आबिम्बिता रत्नमयीभिरङ्के सा गोत्रदेवीभिरपि व्यधायि । मातुर्गिरा तारतमं नमन्ति किमुच्यते बन्धुजनाङ्गनाभिः ॥ ६७ ॥ इतश्च पुत्र्या द्रुपदस्य हर्षात्तदाभिमन्युः शतमन्युतेजाः । अलंकृतो नव्यविभूषणानां गणेन पाणिग्रहणोचितेन ॥ ६८ ॥ स्फुटाननं छन्नसमप्रदेहश्चीरेण वीरः कलयन्रराज । शुभ्रीकृतश्चन्द्रिका विकासिशशाङ्कविम्बं किल पूर्वशैलः ॥ ६९ ॥ यन्निर्ममे निर्मलचन्दनेन विशेषको भालतले जनन्या । मृगाङ्कविम्बात्कलयाधिकश्रि तेनाननं तस्य तदा बभासे ॥ ७० ॥ जितं गुरुत्वेन तदान्तरिक्षं जगाम तस्यानुचरत्वमेव । श्यामं लघुभूय विविक्ततारं स पुष्पधम्मिल्ल निबन्धदम्भात् ॥ ७१ ॥ मुखेन्दुसङ्गच्युतचन्द्रकान्ततौटङ्कयुग्मामृतनिर्झराभाम् ।
बभार हारः शतसंख्यदामा तत्कण्ठधामा घनसारधामा ॥ ७२ ॥ मुखे मृगाङ्कः कुलवत्सलत्वात्प्रेम्णा च पौत्रस्य हरिर्विभुत्वे । चक्रेऽवतारं पितृभागिनेयस्नेहेन देहे मदनोऽपि तस्य ॥ ७३ ॥
१. 'रभि' क २. 'स्फुटाननच्छन्नसमप्रदेहे चीरे स वीरः' क-ग. ३. 'ताडङ्क' ख.ग.
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४विराटपर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
२४९ उद्दण्डदण्डातपवारणस्य नानामणिश्रेणिभृतो मिषेण । तस्मिन्नियुक्तः स्ववशः सशेषः संपिण्ड्य सिन्धुः किल मातुलेन ॥७४॥ द्विपं चतुर्दन्तमिवोरुदन्तं मिथः प्रतिच्छन्दवशाद्विशालम् । आरुह्य मुक्ताधवलं स पौत्रस्नेहेन दत्तं किल वासवेन ॥ ७५ ॥ उत्तार्यमाणस्य तदा भगिन्या शुभ्रस्य दम्भाद्वरकुम्भकस्य । मुहुः परिभ्रम्य विलोक्यमानः कुल्यप्रमोदाद्विधुना चचाल ॥ ७६ ॥
(युग्मम्) दूतेन तूर्यध्वनिनैव तस्य पुरोवरस्यागमनेन दिष्टे । विराटगोत्रप्रमदाकुलस्य मैदाकुलस्यं स्फुरितं प्रमोदैः ॥ ७७ ॥ स पूर्वशैलादिव दन्तिराजादुत्तार्य मार्तण्ड इवोरुतेजाः। पादप्रचारेण विराटधाम धाराधराध्वानमिवाविवेश ॥ ७८ ॥. बृहजनैः संमुखमापतद्भिनिन्येऽभिमन्युः सविधे स वध्वाः । द्राग्गन्धवाहैरिव गन्धवाहैरम्भोरुहिण्या मधुपः समीपम् ॥ ७९ ॥ मौनावलम्बिन्यखिलेऽपि लोके क्षणं लिपिन्यस्त इव स्थितेऽस्मिन् । पैलं पलं चाक्षरमक्षरं च स्फुटं नियुक्तेषु समुच्चरत्सु ॥ ८० ॥ संसाध्य लग्नं सजनौघतालं स्थालं विशालं परिवादवत्सु । संमेलयामास करौ तदीयौ गुरुविराटस्य धृतौ कराभ्याम् ॥ ८१ ॥
(युग्मम्) ह्रिया मुहुः संप्रसरापसारां मिथस्तयोर्नेत्रयुगं तदानीम् । विश्रम्य विश्रम्य विभां प्रियाङ्गादपादतृप्तं चिरतृष्णयेव ॥ ८२ ॥ प्रदक्षिणास्तौ शिखिनः सृजन्तौ जायापती निर्मलचीरचारू । समापतुः शोणसरोरुहान्तः संभ्रान्तशुभ्रच्छदयुग्मशोभाम् ॥ ८३ ॥ गुरोनियोगादपि लाजमुष्टिं निक्षिप्य बाला ज्वलिते कृशानौ । आचारधूमं भृशमाददे यं स चिहलीलामगमन्मुखेन्दौ ॥ ८४ ॥ ततः सौभद्रेयः सकलकुलवीरव्रतलता
तताम्भोदो रोदोजलधिजलपूरायितयशाः । १. 'चण्डा' क. २. 'मुदाकुलस्य' ख. ३. 'पदं पदं ग.
३२
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२१०
काव्यमाला ।
प्रियायुक्तो मुक्ताविशदगुणराशिर्गुरुजन नमश्च चतरहृदयवृत्तिर्द्विजगिरा ॥ ८५ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिगुरोरर्हन्मतार्हस्थिते:
पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नामप्रतीन्द्रः कृती । पर्वैतद्विकर्ट विराटनृपतेस्तद्बुद्धिसिन्ध्यापणाशुद्धोर्मित्विषि बालभारतमहाकाव्ये तुरीयं ययौ ॥ ८६ ॥ सर्गैश्चतुर्भिर प्यासीदस्मिन्वैराटपर्वणि ।
अनुष्टुभां पञ्चशती षडशीतिश्च निश्चिता ॥ ८७ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के विराटपर्वण्यभिमन्युपाणिग्रहणो नाम चतुर्थः सर्गः ।
इति विराटपर्व समाप्तम् ।
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५उद्योगपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
उद्योगपर्व ।
प्रथमः सर्गः। संसारवारिधिद्वीपं द्वैपायनमुनिर्मुदे । मध्यस्थोऽप्याश्रिताशास्त्रैर्यः प्रीणात्यमृतोपमैः ॥ १ ॥ अथायमत्र मन्त्राय राजा सह सहोदरैः । आससाद सदः सार्ध सीरिश्रीजानिसृञ्जयैः ॥ २॥ अष्टमिर्विष्टपाधीशैरेभिरुत्कीर्तिसिन्धुभिः । सभेयं शुशुभे तुङ्गैरचलेव कुलाचलैः ॥ ३ ॥ दन्तांशुदम्भाद्दधतीं सुधाविजयजं यशः । ज्ञातनीतिपथो वाचमथोवाच तपःसुतः ॥ ४ ॥ ज्ञातनिःशेषशास्त्रस्य व्याहरे यत्पुरो हरेः । रत्नाचलस्य तत्काचलवढौकनिकायते ॥ ५ ॥ प्रीत्यैव वच्मि वा किंचित्पुरोऽपि त्रिजगद्गुरोः । स्नानं तन्याद्भुनीमूर्ध्नः शंभोरम्भोमयं न कः ॥ ६॥ बन्धुवर्गेण न समं समरो मम रोचते । जये पराजयेऽपि स्यानश्वरं कुलमैन्दवम् ॥ ७ ॥ संप्रहारः सहामीभिः खकैः क्व कुशलाय नः । खैरेव बिम्बितः साकं रणः केशरिणामिव ॥ ८ ॥ खीया हन्त न हन्तव्यास्तेऽपराधपरा अपि । कश्छिन्ते रभसोत्कीर्णदृशं नखमपि स्वकम् ॥९॥ जितेषु तेष्वकीर्तिर्या सामानपि हि लिम्पति । लिप्तेऽङ्गे कर्दमैर्बिम्बमलिप्तमपि लिप्तवत् ॥ १० ॥ नीतिर्द्विषापि साध न योद्धष्यं कुसुमैरपि ।
तत्कि युध्यामहे साधे बन्धुभिर्धरायुधाः ॥ ११॥ १. 'अथारिमथ मन्त्राय' ख; 'अथारिमन्नमाधाय' ग. २,३. 'ज्ञान' क. ४. व्याहरेत क. ५. 'दर्श' क.
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२५२
काव्यमाला। हरानङ्गितपुष्पेषुरणोदाहरणादिना । शिथिलीकृतसंधा नः संधानविषये मतिः ॥ १२ ॥ दत्तां सुबन्धुरस्माकं पञ्चानां ग्रामपञ्चकम् । भोगमात्रं फलं राज्ञामपि क्लेशस्ततोऽधिकः ॥ १३ ॥ का रतिर्भूरिभोग्यायां गणिकायामिव क्षितौ । भाग्यहीनं पतिं त्यक्त्वा रज्यते भाग्यभाजि या ॥ १४ ॥ श्रियं पुष्यन्तु नित्यं मदान्धवास्ते भुवां धवाः । पञ्चानां कष्टतोऽस्माकं सन्तु ते सुखिताः शतम् ॥ १५ ॥ अथ वक्तुं लसत्तृष्णे कृष्णे हर्षोज्वले बले । कोपानलस्फुलिङ्गाभवर्णः सात्यकिरुज्जगौ ॥ १६ ॥ नीतिशास्त्रान्धपट्टेन नियन्त्रितहशां भृशम् । शूरः किरति गास्तापकृतो नालोकहेतुकाः ॥ १७ ॥ तथापि ब्रूमहे नीतिलतावनगतः सुखी । अस्फुरद्विक्रमः को न द्विषद्दावेन दह्यते ॥ १८ ॥ सौस्थ्ये नीतिक्रमोऽप्यास्तामपमाने तु विक्रमः । सुखं वेल्लत्कराग्रेण हतः स्यादुत्फणः फणी ॥ १९ ॥ चारु निश्चेतनं दारु यज्ज्वलत्येव घर्षणैः । अपमानेऽप्यनुयुक्तान्वीक्ष्यापि स्त्रान्ति सात्त्विकाः ॥ २० ॥ न सत्त्वं नाभिमानश्च येषां तेषां द्विषद्भवे । पराभवेऽपि स्वस्थानां नीतिरुत्तरमुत्तरम् ॥ २१ ॥ नीतिश्चेद्वः प्रमाणं तत्कुलजः सहजो रिपुः । स भवन्कृतकारातिरातिथ्यं क्रियते मृतेः ॥ २२ ॥ विरुद्धान्सहसा हन्ति नीतिज्ञोऽपि गुरूनपि ।
ज्वलन्तं शामयन्त्यङ्गे किमग्निं नाग्निहोत्रिणः ॥ २३ ॥ १. 'हरो' क. २. 'पुष्पेषू' क. ३. 'पादतः' क-ख. ४. "विधये' ग. ५. 'पुष्णन्तु' ग. ६. 'स्तेषु बान्धवाः' ग. ७. 'शिखी' ग. ८. 'सौख्ये ख; 'सौम्ये' ग.
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१ उद्योगपर्व - १ सर्गः ]
बालमरितम् ।
इति जानेऽघसंघाने न धीरपि विधीयते । तैर्भीमैकगदासाध्यैश्छलिभिर्वैरिभिः सह ॥ २४ ॥ एवं वाग्डष्टिजीमूते सृञ्जयेऽथ विरामिणि । बभार भारतीं विष्णुर्मराल इव कोमलाम् ॥ २९ ॥ नीतिसारं नृपः स्माह शौर्यसारं च सृञ्जयः । क स्थानं मदिरां वच्मि येदौदासीन्यदोषभीः ॥ २६ ॥ रण्डा निर्विक्रमा नीतिरनीतिर्विक्रमोऽप्यसन् । कीर्ति जनयते गौरीं मिथुनं नीतिविक्रमौ ॥ २७ ॥
धावन्क्रोधान्धकारेषु नीतिदीपिकया विना । स्खलित्वा क्ष्माभृति प्रौढे भज्यते विक्रमः क्वचित् ॥ २८ ॥ शौर्येण स्मेरिता नीतिः सूर्येणेव सरोजिनी । राजहंससमूहस्य वशीकरणकारणम् ॥ २९ ॥ तदस्ति हस्तगं शौर्यमिह नीतिः प्रयुज्यताम् । भजन्ते यदि संधानमन्धावनिपनन्दनाः || ३० ॥ safir हरौ भूपपादपीठोपसेविनी । शोणकोणका रोषपदं द्रुपदजावदत् ॥ ३१ ॥ नीतिः पततु वो मूर्ध्नि क्षयं व्रजतु वो मतिः । पातालं यातु वो मन्त्रः शास्त्रं चैतत्प्रलीयताम् ॥ ३२ ॥ तदा सदसि मां वीक्ष्य तैः कृष्टकचवाससम् । प्रलीनं चेद्बलं तत्किं स्फुटितं न ह्रियापि हृत् ॥ ३३ ॥ संधि निर्मातु निर्मानः सह तैरहितैर्नृपः ।
अहं तु हन्तुमद्य स्वमुद्यतास्मि हुताशने ॥ ३४ ॥
इति वाचालपाञ्चाली निःश्वासानिलवीचिभिः । arrataract भीमो गाढमुज्ज्वालतां गतः ॥ ३५ ॥
२१३
१. 'जातेऽथ' ग. २. 'यद्यौ' ख. ३. क्ष्माभृति राजनि पर्वते च ४. 'ततः ' ग. ५० 'मुद्दलतो' ग.
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२१४
काव्यमाला |
3
क्षयोद्यत्कालरुद्राग्निवाडवायितदृग्युगः । ग्रसन्नोष्ठं रदैर्भालं वा वाचमुवाच सः ॥ ३६ ॥ कालकूटैर्व्यथाद्यापि तद्दत्तैर्बालकेलिषु । दहत्यद्यापि मद्देहं दहनो जतुगेहजः ॥ ३७ ॥ तैः कूटसारषाट्कारैर्निद्राद्यापि समेति न । क्लिश्यमानां परैः प्रेक्षे तथैवाद्यापि वल्लभाम् ॥ ३८ ॥ पिबामि रक्तमद्यापि न दुःशासनवक्षसः । तां नो सुयोधनस्योरुं गदयाद्यापि चूरये ॥ ३९ ॥ यावत्क्षत्रक्रियामन्दः संदधात्यसतां नृपः । क्षिपामि खण्डशः क्ष्मायां द्विषस्तावद्दासखः ॥ ४० ॥ इति हस्ताहतक्षोणिचमत्कृतफणीश्वरः । भ्रमिध्वनद्दाभीमो भीमो रोषाब्धिरुत्थितः ॥ ४१ ॥ द्विषदम्भोनिधिक्षोभसमर्थमथ सीरभृत् ।
अधारयदमुं दोर्भ्यां गोविन्द इव मन्दरम् ॥ ४२ ॥ असौ कुसुमयन्दन्तप्रभामधरपल्लवैः । बभाषे च समाकर्णपीयूषाप्रयणं वचः ॥ ४३ ॥ भीम स्थाम्ना च नाम्ना च जयत्येव जगद्भवान् । कुलीनगुरुगीः किंतु लङ्घिता लाघवाय ते ॥ ४४ ॥ यथा तथापि नो जेया बलिनश्छलिनश्च ते । भेदस्तु क्रियते कोsपि संधिच्छलबलैश्वरैः ॥ ४५ ॥ तुल्यः पितामहस्तुल्यो गुरुस्तुल्यो गुरोः सुतः । तेषां च भवतां चैते दधते यद्युदासताम् ॥ ४६ ॥ अर्जुनेषुमरुद्भूतकर्णादिषपङ्कयः ।
अम तदा त्वदायत्तगदावत्त्रैव कौरवाः ॥ ४७ ॥ प्रमाणय गुरोर्वाणीं रुचि च रचयात्मनः । तेsपि त्वमिव दर्पिष्ठा न संधौ दधते धियम् ॥ ४८ ॥
१. 'च समुवाच' क-ख. २. 'सारि' ख. ३. 'प्रेक्ष्ये' क ख.
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उद्योगपर्व-१सर्गः]
बालभारतम् ।
इति सौरिवचःशान्तरुषि तस्थुषि मारुतौ । वाचमाचष्ट शौण्डीर्यशमोदामर्जुमर्जुनः ॥ ४९ ।। संघट्यन्ते रणोद्धट्टप्रबलानि बलानि च । नियुज्यते यथार्थोक्तिपूतो दूतश्च वैरिषु ॥ ५० ॥ चेन्न संदधते मूढधियो वध्यास्तदाश्रु ते। अपातितो न तोषाय मुख्यः सोऽपि चलो रदः ॥ ११॥ सेवन्ते यदि तु ज्येष्ठमेवं ते जीवितानि नः। सेवमानो मुखद्वारं श्वासो मुक्तोऽपि गृह्यते ॥ १२ ॥ कार्य महदिहादीर्घसूत्रिता सूत्रिता वरम् । राहुः पूर्णिमपूर्णाङ्गं जयतीन्दुं जडक्रियम् ॥ १३ ॥ श्रुतः स्मितमुखैर्भूपद्रौपदीभीमयादवैः । यमाभ्यामपि मन्त्रोऽयमेवातिप्रस्तुतः स्तुतः ॥ १४ ॥ अथारिषु पृथापुत्रैर्दुपदस्य पुरोहितः । संधेर्वा युद्धबुद्धेर्वा स्थैर्याय विनियोजितः ॥ ५५ ॥ निश्चित्य कृत्यमित्यात्मपुरं मुररिपौ गते। अमी मिलनमी पार्था नृपसार्थाचणार्थिनः ॥ १६ ॥ रिपुद्विरदपश्चत्वे पञ्चास्यः पञ्चभिः सुतैः । पञ्चावरीतुं जामातृन्पञ्चालपतिराययौ ॥ १७ ॥ विराटद्रुपदो-शाक्षौहिणीद्वयसंगमम् । प्राप्तस्य सात्यकेरक्षौहिणी निन्ये त्रिवेणिताम् ॥ १८ ॥ पाण्डवानीयतुधृष्टकेतुश्चेदिधराधवः । . सहदेवो जरासन्धसूनुश्चाक्षौहिणीपतिः ॥ १९ ॥
माहिष्मतीपतिर्नीलो भ्रातरः पञ्च कैकयाः। .........वार्द्धक्षेमिकुन्तिभोजौ श्रेणिमाशिबिपौरवौ ॥६॥
१. 'सूत्र्यतां परम्' ग.
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काव्यमाला ।
एते चान्ये च नानाद्रिविषयक्षोणिनायकाः। संदध्य विदधुः सप्ताक्षौहिणीशं युधिष्ठिरम् ॥ ६१ ॥
(युग्मम्) समं जग्मतुरावातुं हरिं दुर्योधनार्जुनौ। पश्यतः स्म स्वपन्तं तमन्तरन्तःपुरं च तौ ॥ १२ ॥ कौरवस्तस्य शीर्षान्ते पादान्ते फाल्गुनः स्थितः। ततः श्रीपतिना प्रैक्षि प्रबुद्धेन पुरोऽर्जुनः ॥ १३ ॥ पृष्ट्वा हर्षमनाः पार्थमनामयमथैक्षत । शय्योपधानलग्नांसं केशवः कौरवेश्वरम् ॥ ६४ ॥ संपराय सहायत्वमाभ्यामभ्यर्थितस्ततः । मुरारातिः परावृत्य कौरवप्रभुमभ्यधात् ।। ६५ ॥ त्वं प्राप्तः प्रथमं पार्थश्वरमं नृप यद्यपि । तथापि वृणुते पूर्वदर्शनादयमेव माम् ॥ ६६ ॥ एकतो युद्धमुक्तोऽहमेकतोऽक्षौहिणी च मे। समाविमावुभौ भागौ ग्रहाणाक्षौहिणीमतः ॥ १७ ॥ इत्युक्तः शौरिणा हृष्टोऽधिष्ठितां कृतवर्मणा । क्षमापतिः समादाय यादवाक्षौहिणी ययौ ॥ १८ ॥ सारथ्यतथ्यस्वीकारकारिणा हरिणा सह । जितानेव रिपूञ्जानन्पार्थोऽपि प्राप पार्थिवम् ॥ ६९॥ शल्यं पार्थेषु गच्छन्तमन्तर्गत्वा सुयोधनः । संतोष्य भक्तिभिर्दक्षः स्वपक्षत्वमयाचत ॥ ७० ॥ इत्यावेदयितुं मद्रनरेन्द्रोऽयमुपागतः । जगदे पार्थनाथेन यात यूयं यथेप्सितम् ॥ ७१ ॥ अस्माकं तु प्रियं कर्तु कुरुपक्षाश्रयेऽपि वः । निन्दावचोभिः कर्णस्य कार्यस्तेजोवधो युधि ॥ ७२ ॥ १. 'संसज्य' ख, 'संभिद्य' इति क-पुस्तकशोधितपाठ एव वरम् , यथाश्रुतपाठस्य यथाभिप्रेतार्थाबोधकत्वात.
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१ उद्योगपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
तथेत्ययं प्रतिज्ञाय प्रति दुर्योधनं ययौ ।
तमाजग्मुश्च मित्राणि क्षत्राणि कति नाभितः ॥ ७३ ॥ भगदत्तो जगद्दत्ताभयः सुरविभोः सुहृत् । अरिदु सिन्धुरः सिन्धुपृथ्वीनाथ जयद्रथः ॥ ७४ ॥ अवन्तीशोऽनुबिन्दाग्रजन्मा विन्दोऽस्त्रकोविदः । द्वेषिक्ष्मापमनः शल्यं शल्यो मद्रमहीपतिः ॥ ७९ ॥ कृतवर्मा वृष्णिवरः काम्बोजेशः सुदक्षिणः । भूरिश्रवाः सौमदत्तिः शलादिभ्रातृभिर्युतः ॥ ७६ ॥ एते प्रत्येकमक्षौहिण्यधिपाः समुपाययुः । अक्षौहिण्यश्चतस्रोऽन्यैरिलानाथैः किलामिलन् || ७७ ॥ अक्षौहिणीभिरित्येकादशभिः शुशुभे नृपः । पातुं खदेशं जेतुं च दशाशा इव सोद्यमः ॥ ७८ ॥ धृतराष्ट्रे सभाभाजि राजराजि विराजिनि । स युक्तमुक्तवान्पार्थप्रहितोऽथ पुरोहितः ॥ ७९ ॥ वंश्यवर्गे यथायुक्तप्रणामानामयोक्तिभाक् । वक्ति पाण्डवराजन्यः सौजन्यविशदं वचः ॥ ८० ॥ धन्योऽस्मि बन्धुभिस्तुङ्गमङ्गीकृत्य धराभरम् । कृतोऽस्मि सुकृतोत्कण्ठी तीर्थयात्रोत्सवेन यः ॥ ८१ ॥ द्यूतोपदिष्टा गमयामासिरे वासरा मया । इदानीं दीयतां युक्तो भागः सागरवाससः ॥ ८२ ॥ जानामि नामित रिपुर्विपुलं विपुलातलम् । शतेन च चतुर्भिश्च बन्धुभिर्बन्धुरं भजे ॥ ८३ ॥ स्वयमेकेन केनापि भूमिर्भोक्तुं न शक्यते ।
सहते सत्सु कुल्येषु कोऽन्यं तद्भागभजिनम् ॥ ८४ ॥
१. 'शस्तु दक्षिणः 'क. २. 'स्वाजन्यशिवदं' क; 'स्वाजन्यं विशदं' ग. ३. 'भो
गिनम्' ग.
३३
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काव्यमाला । इति हद्भिः सुहृद्भिश्च विचार्य सुकृतोचितम् । कृत्यं कृत्यबुधैर्विश्वानन्दि संदिश्यतां मयि ॥ ८५ ॥ इत्युक्तस्वेशसंदेशभङ्गिरिङ्गितवित्तमः । सर्वेषु स्वान्तबोधाय पुरोधाश्चक्षुरक्षिपत् ॥ ८६ ॥ जनिकृत्प्रकृतिः सर्वः स्यादिति स्पष्टतां नयन् । भेजे शुभ्रतरङ्गाभामथ गङ्गासुतो गिरम् ॥ ८७ ॥ दिष्टया बाहुबलोदस्तप्रत्यूहव्यूहवीचयः । विपन्नीरनिधेस्तीरमीयुस्ते वीरखेचराः ॥ ८८ ॥
ऐन्द्रिदोर्वशवीराणां दिष्टया तेषां शमार्थिता । दिष्टया प्रविष्टास्तत्कोपदहनं न महीभुजः ॥ ८९ ॥ इदं गदति गाङ्गेये भ्रूभङ्गाभोगभीमदृक् ।। तापनिस्तापनिर्बन्धविधुरां व्याहरद्गिरम् ॥ ९० ॥ रणत्रस्तहृदो दैन्यप्रार्थितोलिवानपि । भीष्म भीष्मानिवाख्यासि कस्मादस्मासु पाण्डवान् ॥ ९१ ॥ सन्त्येभ्यो वीरकोटीरा गुणकोटीभिरुत्तराः । तल्कि न पलितापीड ब्रीडेसे पाण्डवस्तवैः ॥ ९२ ॥ यद्वा सुतेष्वशक्तो यः स पितॄणां प्रियो भवेत् । निन्दा करोषि कुरुषु स्तुति पाण्डुसुतेषु यत् ॥ ९३ ॥ अथावदन्नदीसूनुः सितैः कुसुमितं वचः । पार्थस्तुतिषु राधेय बाधेयमिति किं तव ।। ९४ ॥ गणयन्ति तृणं प्राणान्ये प्रवीरा रणाङ्गणे । चण्डैरुड्डापयन्ते तान्पाण्डवाः काण्डवायुभिः ॥ ९५ ॥ निरीक्ष्य गोग्रहे घोषविग्रहे च बलं तव ।
नेदानीं वेद्मि दैत्येन यदि ते दधते भयम् ॥ ९६ ॥ १. 'भृङ्गीरङ्कितविक्रमः' क. २. 'बलोदअध्वस्तप्रत्यूहवीचयः' ख. ३. 'ऐन्द्रेर्दो' ग. ४. 'व्रीडमाप्नोषि तत्स्तवैः' ख.
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उद्योगपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
इत्युक्तिभासुरे भीष्मे सान्तर्हासे सभाजने ।
सद्यः कर्णे विवर्णे च वाचमूचे विचित्रभूः || ९७ ॥ हितमाहितचिन्तानां निखिलानामिलाभृताम् । भीष्मो यदाह वंशैकदाहनीरं हि तद्वचः ॥ ९८ ॥ जगदुद्धारसंहारसत्ये सत्यपि तेजसि ।
स्पृहयन्ति श्रिये कुल्यनिग्रहं विग्रहं न ये ॥ ९९ ॥ तेऽतिमन्थोल्लसत्कोपा न क्रियन्ते पृथाभुवः । उद्यद्गरा इव क्षीरसागरा लोकलुप्तये ॥ १०० ॥ तद्यातु संजयस्तत्र प्रसादयतु पाण्डवान् । प्रसादप्रकृतीनिन्दुकरानिव घनात्ययः ॥ १०१ ॥ इत्युक्त्या सभ्यचेतांसि रञ्जयन्संजयं नृपः । पार्थेषु संघये प्रेषीत्तं पुरोगपुरोहितम् ॥ १०२ ॥ उपप्लव्यपुरे गत्वा मित्रमन्त्रिवृतं नृपम् ।
नाम संजयो नामप्रथनेन पृथासुतम् ॥ १०३ ॥ पृष्टः कुलस्य कुशलं वाचिकं च स भूभुजा । गिरां गतिषु पीयूषं खञ्जयन्संजयो जगौ ॥ १०४ ॥ यद्भाति त्वादृशैर्धर्मोज्जागरं गुणसागरैः । भूप संभाव्यतां कस्मात्तस्मिन्न कुशलं कुले ॥ १०९ ॥ इदं तु मन्तुसंतानमन्दनन्दनदुःखितः ।
संदिदेश त्वयि श्रीमानग्रजः पाण्डुभूभुजः ॥ १०६ ॥ धर्ममर्मविदो वन्द्या भवभाजां भवादृशाः ।
न ये कृतान्यक्षोभेण लक्ष्मीलोभेन लङ्घिताः ॥ १०७ ॥ भवान्भवानुकारी न याति कस्य नमस्यताम् । अञ्जि वनभाजोऽपि यस्यैश्वर्यं न केनचित् ॥ १०८ ॥
धूलिस्थामस्थिरां भूमिमिच्छन्बन्धुवधोद्यतः । सुधांशुशुद्धया कीर्त्या को न मुच्येत नित्यया ॥ १०९॥
१. 'प्रथमेन' क- ख.
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काव्यमाला।
सुकृतामृतकल्लोलसंतानस्नानमालिनः । नेच्छन्ति दूषितां रक्तैः शुचयो विजयश्रियम् ॥ ११० ॥ सन्तो भजन्ति संतोषं सुलभं विश्ववैभवम् । वाञ्छन्ति भूलवैश्वर्य जडास्तु प्राणसंशयात् ॥ १११ ॥ न कुलीनसमं कुल्यैः श्रिये नाश्रीयते रणः । बुद्धिं युद्धाय कः कुर्याद्भाग्यायत्तासु भूमिषु ॥ ११२ ॥ इत्युदित्वात्तमौनेऽस्मिन्रसनावल्लिमञ्जरीम् । निनाय भारती भूपः संसत्कर्णावतंसताम् ॥ ११३ ॥ कदा कलहवार्तापि धार्तराष्ट्रः कृता मया। यदित्थमभ्यर्थयते मां मुहुः शान्तये पिता ॥ ११४ ॥ संगरस्य गिरामस्ति प्रस्तावोऽपि न संप्रति । यतो मे पूर्ववाग्नद्धः पिता दातैव मेदिनीम् ॥ ११५ ॥ न चेदाता भुवं वृद्धो वत्सवत्सलताजितः । तत्कार्येऽस्मिन्प्रमाणं नः पुरातनपुमानयम् ॥ ११६ ॥ ततो मतिलतापुष्पैः सभैकहृदयंगमम् । वितेने विमलैर्वणर्मालिकां वनमालिकः ॥ ११७ ॥ ददते यदि ते भूमिभागमागःशतानि तत् । मत्सखीचिकुराकर्षमुख्यान्यपि सहामहे ॥ ११८ ॥ इन्द्रप्रस्थं यवप्रस्थं माकन्दी वारणावतम् । किंचिच्च पञ्चमं पञ्चपुरीयं दीयतामिति ॥ ११९ ॥ इदमप्यददानेषु तेषु कृत्यविधौ पुनः ।। मन्त्रः प्रमाणं सामीरिसौनासीरिगदास्त्रयोः ॥ १२० ॥ इति कृष्णोक्तिमाकर्ण्य कौन्तेयानां च वाचिकम् । मनोऽपि रथवेगेन खञ्जयन्संजयो ययौ ॥ १२१ ॥ कथ्यं स्थितेषु भूपेषु स्वरूपं सदसि त्वया ।
इत्युक्त्वा बुद्धिदृक्सायमायातं विससर्न तम् ॥ १२२ ॥ १. पुराणपुरुषो विष्णुः.
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५ उद्योगपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
ततो विचिन्त्य पार्थानां धर्म संग्रामधाम च । आर्तोऽम्बिकासुतस्तत्त्वविदुरं विदुरं जगौ ॥ १२३ ॥ यो नयी स जयीत्यत्र धर्मसूनुरुदाहृतिः । व्यावृत्त्युदाहृतिः किं तु भविष्यति सुतो मम ॥ १२४ ॥ किं करोमि क गच्छामि वत्सो मे दुर्नयाश्रयः ।
२६ १
इदं तु व्यसनं कुल्यमा कुल्यकृत मैन्मनः ॥ १२५ ॥ इति व्यथावशीभूतं भूपं बोधयितुं सुधीः । गिरास्यं विदुरो निन्ये शमामृत ( ? ) कुण्डताम् ॥ १२६ ॥ मा विषादविषान्मोहं व्रज धैर्य भज प्रभो ।
ते हि धीरा धरायां ये व्यसनेभ्यो न बिभ्यति ॥ १२७ ॥ सत्त्ववन्तो हि नात्मानं हापयन्ति विपद्धतम् । उनीवा इव धावन्ति पक्षच्छेदेऽपि वाजिनः ॥ १२८ ॥ ज्ञानीव तेजस्तपसोर्यस्तुल्यः संपदापदोः ।
तमर्दयतु कामानां मुग्धा धीः कर्मणामपि ॥ १२९ ॥ यः संपदापदोर्भेदं न वेद स्वान्ययोरिव ।
स सेव्यः स महातीर्थं स स्तुत्यः स तपः शुचिः ॥ १३० ॥ प्रीयतां व्यथयतां वा खैः संपदात्क्रमैः स किम् । पश्यत्यात्मानमिव यः संपदापन्मयं जगत् ॥ १३१ ॥ ते शूरा व्यसने दूरादायान्ति सति विद्विषि । हसन्तो हर्षसंलीनाः संमुखीना भवन्ति ये ॥ १३२ ॥ अत एव विद्वांसो ये हर्षाद्वैतवादिनः । व्यसनेन विजीयन्ते न दुःखाद्वैतवादिना ॥ १३३ ॥ स धीमान्स विविक्तात्मा प्राक्पुण्यायव्ययोद्यताम् । संपदं विपदं वेर्त्तिं विपदं संपदं च यः ॥ १३४ ॥
१. 'कुल्यं व्याकुल्य' ग. २. 'मात्मनः ' ग. ३. 'दृशाममृत' ग. ४. 'पत्कणैः' ख; 'मत्कणैः' ग. ५. 'अप्येत' ग. ६. 'चेति' ख.
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२६२
काव्यमाला।
किं चात्मायं न कस्यापि संबन्धी नास्य किं चन । वृथा ममायमस्याहिमित्यतत्त्वविदां मतिः ॥ १३५ ॥ राजन्नात्मानमात्मीयमेवं त्वं विद्धि बुद्धितः । पाण्डुपुत्रेण मत्पुत्रो जेतव्य इति मा मुहः ॥ १३६ ॥ इत्युक्त्वा विदुरेणान्तर्ध्यानादानीय दर्शितः । राज्ञे सनत्सुजातीयमुनिराध्यात्ममादिशत् ॥ १३७ ॥ तदुक्त्वाध्यात्मवाक्पूरदूरितान्तळथानलः । स तमां गमयामास वसुधावासवः सुधीः ॥ १३८ ॥ अथास्सिन्भूपतौ प्रातः सर्वैरुर्वीधवैर्वृते । यथोक्तं धार्मिकृष्णोक्तं सभायां संजयोऽभ्यधात् ॥ १३९ ॥ तत्र दुर्योधने राजन्यभिमान इवाङ्गिनि । पृथाभुवां च संदेशान्संदिदेश पृथक्पृथक् ॥ १४० ॥ वक्ति त्वां धर्मसूः प्रीतो गृहीते भूभरे त्वया। वयं तीर्थेषु विभ्रान्तोस्त्वमिव त्वं प्रियोऽसि नः ॥ १४१ ॥ जातः खेदो यदि भ्रातश्चिरकालेन कोऽपि ते । तन्मुञ्च तं भरं पञ्च तद्रहप्रगुणा वयम् ॥ १४२ ॥ ऊचे भीमो न चेद्भारं मोक्तुं शक्तोऽसि तं स्वयम् । तदादिश भृशं बाहुबलादुत्तारयामि ते ॥ १४३ ॥ ब्रूतेऽर्जुनः स्पृहाद्यापि भूभारं धर्तुमस्ति चेत् । तद्विश्रामधियाहं ते कर्णान्ते स्थातुमीश्वरः ॥ १४४ ॥ अतिपूरयितुं कर्णाविवै तद्वचनोच्चयैः । मूर्धानमाधुनोद्धन्याः सूनुर्धर्मसुतं स्तुवन् ॥ १४५ ॥ आचष्ट धृतराष्ट्रं च वचनैः कोपकल्मषैः । कटाक्षवीक्षिताशेषधराधीशो धुनीसुतः ॥ १४६ ॥ शक्ति द्यूतापमाने त्वल्लज्जयासज्जयन्न ते ।
न तु निर्जीड पीडा तेऽभूत्तेषु वनयायिषु ॥ १४७ ॥ १. 'चात्मनो' ग. २. 'ताः स्वमिव' क-ख. ३. 'वथ' ख-ग.
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५ उद्योगपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
मुञ्चत्यद्यापि मर्यादां न चेत्त्वद्बहुमानतः ।
यस्त्वं स पाण्डुर्यः पाण्डुः स त्वं तेषां सदा हृदि ॥ १४८ ॥ अद्यापि नीतिमद्भिस्तैः सार्धं संधिः खलूचितः । जीयन्ते केन ते पञ्चेन्द्रियाणीव जयश्रियः ॥ १४९ ॥ वध्यमाना गलन्माना भीमेन तव सूनवः । रक्षिष्यन्ते व कर्णाद्यैर्जयिज्यानिलतूलकैः ॥ १५० ॥ इति विरचितवाचं भीष्ममाचष्ट कर्णो रणभुवि कुरुवीरा रक्षणीयास्त्वयामी । त्वयि तु जयिशरालीतल्पसुप्ते तनोमि प्रधनमहमितीर्थ्यातापितश्चापमौज्झत् ॥ १११ ॥
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इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के उद्योगपर्वणि सैन्यंसंवर्गणो नाम प्रथमः सर्गः ।
द्वितीयः सर्गः ।
अप्रमेयमहिमा हिमाचलश्रीः पराशरसुतः श्रियेऽस्तु नः । यस्य विश्ववलयैकपावनी स्वर्धुनीव विससार भारती ॥ १ ॥ संधिबन्धविधयेऽथ धार्मिणा धार्मिकेण दधता दयाधिपम् । मुग्धबुद्धिविधुरेषु बन्धुषु प्रैषि बोधमधुरो मधो रिपुः ॥ २ ॥ षट्सहस्त्रसुभटीं सहायुतां सादिनो दश महारथान्वहन् । केशवो निशि वृकस्थले पुरे तस्थिवान्कुरुपुरीमथासदत् ॥ ३ ॥ पुण्यवानहमहं महानिति ध्यायता विभुरभोजि तद्दिने । इन्दिरापतिरुदारभक्तिधीः सुन्दरेण विदुरेण मन्दिरे ॥ ४ ॥ भक्तितुष्टमनसो हरेर्वरान्यच्छतोऽथ विदुरो मुदावदत् । अस्तु मे त्वयि रतिः सुताकुलं भोज्यमप्यतिथिसंकुलं कुलम् ॥ ५ ॥ संभ्रमादभिमुखोत्थितैः स्मितैः पूजितः सुरसरित्सुतादिभिः । आससाद तदयं गदाग्रभूरम्बिकासुतविकासितं सदः ॥ ६ ॥
१. 'संवर्णनो' ख- ग.
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२६४
काव्यमाला ।
विक्रमैर्निरुपमान्निरूपयन्भूपकुञ्जरचयानवज्ञया । सानुसिंह इव सिंहविष्टरं विष्टपप्रभुरभूषयत्ततः ॥ ७ ॥ माधवः सह महामहीधवैः संहतैरवहितेऽम्बिकासुते । पाण्डवीयकमुवाच वाचिकं वाचि कंचिदमृतद्रवं किरन् ॥ ८ ॥ के न पूर्वमभवन्भुवो धवा मेदिनी कमपि नेयमन्वगात् । व्रीडमप्यधृत नाग्रभर्तरि भ्रंशभाजि दधती नवं नवम् ॥ ९ ॥ नैतया कति पतित्वधारिणो मारिता बत परेषु संक्तया । रागिणो गुणनिधीन्यदृच्छया जीवतोऽपि कति नेयमत्यगात् ॥ १ 11 एतदर्थमपि यः कदर्थयत्यर्थवादकणधी रिपूनपि ।
श्लाध्यते न खलु सोऽपि यः पुनः कूल्यमस्यति नमस्य एव सः ॥ ११ ॥ वैभवेऽपि भुवनस्य भोग्यतामेति तल्पमितमेव भूतलम् । श्रीभरेऽपि सति भोग्यतोऽधिकं स्वस्य किंचिदपि नोपकारकम् ॥१२॥ वैभवैर्भवति भोगतोऽधिकं संमदो यदि ममत्वमात्रतः । क्ष्मा ममेयमखिलाप्यदो वदन्प्रीयते च तदकिंचनोऽपि किम् ॥ १३ ॥ मन्मुखादिति तपःसुतो नृपस्त्वां प्रणम्य परिरम्य बान्धवान् । भोगमात्र फलमात्मपञ्चमो ग्रामपञ्चकमयाचत स्वयम् ॥ १४ ॥ तद्धुनीवन बिलागसागरैरुद्धमस्ति न कियद्धरातलम् । भूलवोऽयमपि तद्वदुच्यतां मुच्यतां सह कुलेन विग्रहः ॥ १९ ॥ विग्रहः सह कुलेन नौचितीं यात्यरातिकुलकल्पपादपः । कश्चिरं रणभरेण सिंहयोः प्रीतिमेति न वने वनेचरः ॥ १६ ॥ गोत्रजः सहजशत्रुरित्यसौ नीतिरस्तु धनलोभदुर्धियाम् । वृद्ध तुल्यलघुपुंवृतं जगद्धीधनस्य पितृमित्रपुत्रवत् ॥ १७ ॥ धारयन्ति धनलुब्धचेतसां बन्धवोऽपि निभृतं विरोधिताम् । लूनलोभमधुरस्य धीमतो बन्धुतां स्पृशति विश्वमप्यदः ॥ १८ ॥
१. 'लुब्धया' ख. २. इतोऽग्रे 'त्रिभिर्विशेषकम्' इत्यधिकं ख. ३. 'भोज्यतो ' क- ख. ४. 'न' ख-ग. ५. 'बृद्धिकुल्य' ग.
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५ उद्योगपर्व - २ सर्गः ]
बालभारतम् ।
देहिनामहह लोभतः परः कश्चिदस्ति न परो भुवस्तले । आगमय्य निजपक्षतां क्षणाद्यो विपक्षयति बान्धवानपि ॥ १९ ॥ तद्वयं क्षितिभृतो भुजाभृतामालिभिः परिवृता इति स्मयात् । लोभतोऽवनिलवस्य विग्रहे माहोऽस्तु जयसंशये निजैः ॥ २० ॥ व्योममार्गभृदनेकमार्गणेष्वेकमार्गणवशं विरोधिषु ।
एकमेव गणयन्ति को विदा भूरिभिर्वृतमपि स्वमाहवे ॥ २१ ॥ नैकमप्यरिमनन्तपत्तयोऽप्याहवेऽवगणयन्ति धीधनाः । सत्सु तारकगणेषु राहुणा ग्रस्यते किमु न तारकाधिपः ॥ २२ ॥ आधिपत्यमपि न स्थिरं भुवः सुस्थिरं च यदि जीवितावधि । जीवितं च रणकारिणां नृणां चापमुक्तशरतुल्यचापलम् ॥ २३ ॥ तन्मृधाय बत मा विधा धियं बन्धुभिः सममिला विलस्यताम् । धानि भोज्यसमये समागतान्भोजयन्ति कृतिनो रिपूनपि ॥ २४ ॥ बन्धुवर्गमवधूय निष्ठुरो यो बलिं गिलति भूतलेऽन्वधीः । नित्यमुद्धरशिरोधरैर्मदादेकदृग्भिरपि स प्रहस्यते ॥ २९ ॥ हस्य मानवचसः पदे पदे बालिशैरपि पराङ्मुखश्रियः । क्ष्मामटन्ति निजपक्षविद्विषः पण्डिता इव न पण्डिता नृपाः ॥ २६ ॥ यः खबान्धवगणस्य पृष्ठगो भोगकर्मणि रणोत्सवेऽग्रगः ।
तं वियोगलकातरा धरा सेवते सुचरितं पतिव्रता ॥ २७ ॥ यो धुनाति निजबन्धुतां निजस्तस्य कोऽस्तु पर एव यः परः । क्वापि यान्त्वमलपक्षिणो जले शैवलं शिति सहैव शुष्यति ॥ २८ ॥ ये तु बन्धुपरिरम्भसंभवप्रीतयो धनलवात्तसंमदाः । ते तेन्दु वयो वयोमणीद्योतिनोऽतिमलिना घना इव ॥ २९ ॥ बन्धुनातिकटुनापि संगमः संमदं सृजति यं न तं सुधा । यत्सुधाकरकरेषु सत्सु न प्रीयतेऽस्तभृति भास्करेऽम्बुजम् ॥ ३० ॥ तेन बन्धुषु निजेषु संघये दौक्यतां किमपि पञ्चकं पुराम् । सर्वथापि विषयेऽत्र वो हिते सोऽहमप्युपरुणध्मि मध्यमः ॥ ३१ ॥
१. 'तु' ख. ग. २. 'खण्डिता' ग. ३. 'रुचयो' क.
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काव्यमाला |
२
प्राक्चरित्रनिचयैर्निबोधितो नारदादिभिरपि द्रुतागतैः । ऊचिवानेथ हरि प्रति क्रुधारब्धबोधनिधनः सुयोधनः ॥ ३२ ॥ सौहृदेन निश्चहि किं दैत्यबन्धन दधासि संघये । तान्महाप्रहरणान्रणावनीसीनि सज्जय लसज्जयश्रियः ॥ ३३ ॥ याच्यतेऽवनिलवोऽद्य धीधनैरेभिरूढदृढगूढमत्सरैः । तत्र रोपितपदा हि मच्चमूदाहि सैन्यमतिमेलयन्ति ते ॥ ३४ ॥ अद्य बान्धवमिषाद्विषः कथं तान्महत्त्वमधिरोपये पुनः । मृत्युदानपरमङ्गसंगतं कः प्रवर्धयति रोगमात्मनः ॥ ३५॥ एवमालपति कौरवे रवेः साम्यमिन्दुमपि लौचनं नयन् । भारतीमभजदुल्लसद्भुजः क्रोधनः क्रमकटुं त्रिविक्रमः ॥ ३६ ॥ ऐन्द्रिरेव परमः सुहृन्मम त्यज्यते स्वमपि यत्कृते मया । सान्द्रमैन्द्रमपि तस्य निष्फलं यस्य न स्फुरति तादृशः सुहृत् ॥ ३७ ॥ सङ्गतोऽङ्गसुहृदां सुधा मुधेत्यादिशन्ति हृदयालवः सदा । यं रसाद्रसयतां मनीषिणां न प्रियाधररसेऽपि हि स्पृहा ॥ ३८ ॥ नो सुहृत्परिचयात्परं क्वचित्किचिदस्त्यमृतमित्यहं ब्रुवे । यन्निपानघटमानहृष्टयो दृष्टयो दधति निर्निमेषताम् ॥ ३९ ॥ इत्थमिन्द्रसुतसौहृदादहं किं करोमि न विना चेंक्तिभिः । पूर्वकर्मवशगे शुभाशुभे चाटुकर्म कुरुते न कोविदः ॥ ४० ॥ युष्मदर्थमयमर्थितो मया संधिरस्तु यदि धीर्युधीप्सिता । भीमदोष्णि निहितैव तद्विषां कालरात्रिरिव सर्वदा गदा ॥ ४१ ॥ अस्तु पाण्डुतनुजन्मनां पुनः को विरोधिषु भवत्सु मत्सरः । मौलिदत्तचरणासु केसरी मक्षिकासु न कदापि कुप्यति ॥ ४२ ॥ कोऽभवत्परिभवाय पाण्डवैः सैनिकव्यतिकरः करिष्यते । वल्गदेणगणवर्गखैर्वणे सैन्यमानयति केसरी कियत् ॥ ४३ ॥
२. 'मिषाद्विषः' ख. ३. 'नायनं' ख ग ४. 'त्वदुक्ति' ग.
१. 'निति' क. ५. 'चर्वणे' ख.
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५ उद्योगपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
उत्तरार्थहृतमौलिचीवरो मौलिजालम हेरन्दयामरात् ।
कां चमूमरचयच्चमूभृतां गोग्रहे स विजयी जयाय वः ॥ ४४ ॥ पश्यतां निजभुजाभृतां कृपद्रोणतत्तनयकर्णभूभुजाम् ।
२६७
त्वां बलाद्दिवि हृतं व्यमोचयेत्फाल्गुने तदपि विस्मृतं तव ॥ ४५ ॥ यस्तु दुष्टजनपुष्टसंनिधिः साधुबन्धुवचनेषु रोषणः ।
स ध्रुवं त्वमिव दुश्चरित्रधीः क्रोधनेन विधिना कटाक्षितः ॥ ४६ ॥ यद्विदुः प्रकृतितो विपर्ययं मृत्युसीनि तदसत्यमेव ते ।
आ जनुःप्रकृति दुष्ट साधुतां नाधुनापि मृतिदृष्ट पद्याः ॥ ४७ ॥ ते त्वया समधिरोपिता पदं किं महत्तममवाप्नुमिच्छवः । ऊर्णनाभमुखलालया लतारोहधीः क इव काङ्क्षति ग्रहम् ॥ ४८ ॥ किं च नीचगति वारि तत्पतेः श्रीरपत्यमधिगम्य तां जडः । द्रागधो जिगमिषुर्महोन्नतेः कोपि रोपयतु बान्धवान्पदे ॥ ४९ ॥ निर्मलोऽपि मलिनीभवञ्जलैरुन्नतो भजति वैरितां निजे । धूमयोनिरिह धूमकेतनग्लानिदर्शितरसो निदर्शनम् ॥ ९० ॥ अप्रणाशित कुलं न शाम्यति स्वैः सह ध्रुवममर्षजं महः । वेणुयुग्मघनघट्टजः शिखी सर्वतोऽपि विपिनं दहत्यहो ॥ ११ ॥ तन्मुधा दधति संघये धियं मादृशा इह भवादृशे मुहुः । अत्तु वः सकलमप्यदः कुलं भीमदोर्विटपिभोगिनी गदा ॥ १२ ॥ इत्युदारतरभारतीभरे कैटभद्विषि तदा बभौ सभा । कोपतः कपिशदीधितिमृतिस्त्री कटाक्षचयचुम्बितेव सा ॥ ५३ ॥ क्रूरकोपकपिशः परिज्वलन् कौरवप्रभुमुखप्रभाकरः । भ्रू परिभ्रमणनिर्भरो बभौ क्षीबगाण्डिव इवाशुशुक्षिणिः || ५४ ॥ उरुमाहत तथा सुयोधनः क्रोधनः करतलेन नादिना । तद्व्यशङ्कत यथा विभुः स्वयं भीमसेनगदयाथ भङ्गुराम् ॥ १५ ॥ स्वौ भुजावधित कोपकण्टकत्रुट्यदङ्गदसमुच्छलन्मणी । दुःसहोष्मदहनस्फुलिङ्गकस्फूर्जिताविव सुयोधनानुजः || ५६ ॥
१. 'हरद्दया' ख-ग. २. 'क्वापि रोपयतु' कन्ग. ३. 'पदम् ' ख.
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२६८
काव्यमाला। कोपवानवतरः स्मरद्विषस्तं सरस्य पितरं पुरः स्मरन् । आदधे किल दृशं भृशं कृपीयोनिरुल्बणकृपीटयोनिकाम् ॥ १७ ॥ विस्फुलिङ्गपटली मुखान्मिथः कोपपिष्टरदराजितां क्षिपन् । इन्दुतो दहनवृष्ट्यमङ्गलं संसदि व्यधित कर्णनन्दनः ॥ १८ ॥ इत्यलोक्यत कुतूहलोल्लसल्लोचनेन दनुनन्दनद्विषा । रोषरूक्षरवसंभ्रमभ्रमद्भूरिभूरमणरासभा सभा ॥ ५९॥ स्वग्रहार्थमथ कौरवाग्रज पाशपाणिमतिकोपिनं पुरः । प्रेक्ष्य सात्यकिनिवेदितं तदा दिव्यरूपमधित क्रुधा विभुः ॥ ६० ॥ नाभिभागगतपद्मभूविभाभारभासुरनभाः सभाचरैः । मस्तकोपगतकोपपावकज्वाल इत्यपमशङ्कि शङ्किभिः ॥ ११ ॥ हृद्विहारिहरहारहारिणा भीषणः फणभृतां गणेन सः । बाहुदण्डनिवहानहो बहूकुर्वता क्षणबहू कृतानपि ॥ १२ ॥ अस्त्रमुल्लसदभीशुभीषणं दोष्णि दोष्णि स दधौ नवं नवम् । मारिभिर्नवनवाभिरेकको हन्तुकाम इव वैरिणः क्षणात् ॥ ६३ ॥ क्रूरकौरवचमूविमूलनस्फीतदुःसहमहःप्लुतानि च । वृष्णिपार्थनिवहान्मुहुर्मुखादक्षिपत्सहचराशुशुक्षणीन् ॥ ६४ ॥ व्यात्तवक्रपटुकण्ठकन्दरस्पष्टदृष्टजठरत्रिविष्टपम् । तं निरीक्ष्य भयभीतचक्षुषः कौरवा विधुरमारवं व्यधुः ॥ ६५ ॥ द्रोणभीष्मविदुरर्षिसंजयैरेव हर्षिभिरसौ निरीक्षितः । द्रागमर्षशमनाय नाकिभिर्नाकनायकमुखैरिति स्तुतः ॥ ६६ ॥ उद्गतस्त्वदुदराद्विरञ्चनस्तत्सुता च वचसामधीश्वरी । तत्प्रसादलवकोविदाकृतिवेत्तु वास्तवमपि स्तवं व ते ॥ ६७ ॥ गर्भितत्रिभुवनोऽपि वा यथा नाथ संवससि नो मनोऽणुषु । त्वं प्रसीदसि तथैव चेद्वचो गोचरीभवसि तन्मुदा नुमः ॥ ६८ ॥ १. 'धेलिकदृशं ग. २ 'मुखाग्रतः' ख. ३. 'नुज' क. ४. 'भालभाग' ख-ग. ५. 'ज्वालयन्नयमशति' ख-ग. ६. 'नाकिभिः' ख. ७. 'कोविदा क्वते वेत्तु' क; 'कोविदाः कृते विदा' ख. ८. 'स्तवं कुतः' क; 'स्तवः कुतः' ख.
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५ उद्योगपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
२६९
रोचते परकृताप्यहो सतां न स्तुतिः स्खमिह नौति कः स्वयम् । शेमुष स्वमयविष्टपत्रयस्वस्तवार्थमिति नः प्रयच्छसि ॥ ६९ ॥ किं तव स्तवगिरा प्रसीद नः श्रीतडिज्जलदभक्तिवत्सल । मुञ्चतु क्रुधमिमां भवान्भवाभोगदुःखसुखतारतुन्दिलः ॥ ७० ॥ कौरवेष्वपकरोषि बाणदोः खण्डखण्डन कुठार किं रुषा । वयसे युधि य एव भालदृग्दृष्ट भाललिपिना पिनाकिना ॥ ७१ ॥ ज्वालयन्हुतभुगेकमालयं पत्तनस्य परितोऽपि भीतिदः । एषु कुप्यसि भृशं वयं भयं मन्महे हृदि महेश मा कुपः ॥ ७२ ॥ एवमाशु गमितः शमं सुरैर्वज्रभृत्प्रभृतिभिः सुभक्तिभिः । द्रोणभीष्मविदुराचितो ययौ संसदः स दनुसूनुसूदनः ॥ ७३ ॥ पृथामथामन्त्र्य हरिः पुरस्य बहिर्गतः प्रागुपहूय कर्णम् । तदग्रतस्तज्जनि किंवदन्तीमुवाच दन्ती दनुजद्रुमाणाम् ॥ ७४ ॥ अथ स्वजन्मप्रथया पृथायाः कौमार्यसूनुर्निजगाद कष्टी । धियां मयैवेदमकारि दुःखमजानता तेषु सहोदरेषु ॥ ७९ ॥ धिग्मां मया सापि तदा वधूटी दृष्टातिहृष्टेन कदर्थ्यमाना । धिग्मां मया तान्परिहृत्य बन्धून्बन्धूकृतास्तत्परिपन्धिनोऽपि ॥ ७६ ॥ इत्यनुस्मरणकश्मलवर्णं कर्णमर्णवशयोऽनुशयार्तम् । आन्तरत्रिजगतीगतगङ्गावीचिचारुभिरुवाच वचोभिः ॥ ७७ ॥ कर्ण मा स्वमपवर्णय वृत्तं बन्धुवर्गमधुनापि भज खम् । राज्यभाजमिह धर्मजमुख्यास्त्वां नमन्तु तव कोऽपि न मन्तुः ॥ ७८ ॥ अग्रजं विभुमवाप्य भवन्तं दुर्जयेषु खलु तेषु विपक्षैः । वीर जीवदखिलात्मतनूजा प्रीतिमेतु जननी तव कुन्ती ॥ ७९ ॥ परस्परोन्मूलनमूलसंधा बन्धान्निवर्ते त्वयि फाल्गुने च । अविग्रहं वीर सहस्रदृष्टेः सहस्रभासा सह मैत्र्यमस्तु ॥ ८ ॥ इति वदति रिपौ दितेः सुतानां गिरमधितोल्लसदङ्गमङ्गराजः । कथय कथमिवाश्रये सगर्भानहमधुना प्रधनावतारकाले ॥ ८१ ॥
१. 'एष' ख. २. 'खागु' क.
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२७०
काव्यमाला ।
तैः सार्धमीश जयिभिर्विदधे विरोधं ___ मामेव यो मनसिकृत्य मृधैकधुर्यम् । आबालकालसुहृदं व्यसनोदयेऽद्य
तं मुञ्चतः स्फुटति मे हृदयं ह्रियैव ॥ ८२ ॥ दुर्योधनादपि युधिष्ठिरमभ्युपेत__ मद्यापि मां स्खलितसख्यमुदाहरन्तः ।
मां प्रीतिपूर्णमपि नीतिविदो विदन्तु ___मित्रं कलत्रमिव विश्वसनस्य बाह्यम् ॥ ८३ ॥ बन्धवोऽपि विरुद्धाः स्युर्लक्ष्मीलेशस्य लोभतः । जगतोऽपि जयत्येको जीवितालम्बनं सुहृत् ॥ ८४ ॥ मुञ्चे दुर्योधनं चैतद्विश्वे मित्रपराङ्मुखे । । हा कः कस्य मनःशल्यदुःखोद्धारं करिष्यति ॥ ८५ ॥ इति कृतगिरमङ्गाधीशमीशप्रशंसा
शुचिरुचिरचरित्रं वीरमापृच्छय विष्णुः । द्रुततरगति गत्वा कारयामास धर्मा
ङ्गजमसहनवर्गश्रीप्रहाणं प्रयाणम् ॥ ८६ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के उद्योगपर्वणि दुर्बोधदुर्योधनो नाम द्वितीयः सर्गः ।
तृतीयः सर्गः। धराधृतिद्वेषिहतिप्रतिष्ठितावतारसंभारसमुद्भवश्रमः । शमामृते विश्रमधीविवेश यः स पातु पाराशरविग्रहो हरिः ॥ १ ॥ कृती कुरुक्षेत्रगमाय विष्णुना स्वयं प्रयाणाय कृताभिषेचनः । परोपरोधादधिरूढवानथो रथं पृथाभूः पृथिवीपुरंदरः ॥ २ ॥ वृकोदराद्याः सहसा मनस्विनः सहोदरास्तं परिवत्रिरे नृपम् । द्युहस्तिनो हस्तमिवासुहृद्गणच्छिदानिदानं रणपारदा रदाः ॥ ३ ॥
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५ उद्योगपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
विराटपाण्ड्यद्रुपदादयो नृपास्तमन्वयुर्धन्वविराजिभिर्भुजैः । विरोधवीरध्वजिनीवधक्रुधाधिरोपित भ्रूविकटैरिवोत्कटाः ॥ ४ ॥ निजां निजां कीर्तिमिव द्युवाहिनीजलैर्मिलन्तीं शिशुसोमकोमलाम् । वितत्य केतुप्रचलाञ्चलच्छलाच्चतुर्बलाङ्गीं भुजशालिनोऽमिलन् ॥ ५ ॥ शितिद्युतिः संमदभासुरैः सुरैः पुरश्चरोऽदर्शि सुदर्शनायुधः । द्विषद्वधध्यानमयो महश्चयश्वमूसमूहस्य गतो नु पिण्डताम् || ६ || तनोतु केनैष तुलां बलोच्चयः परौधदाहेन च गौरवेण च । ययौ यदग्रेसरतां सवाडवोऽर्णवो लसच्चक्रमुकुन्दकैतवात् ॥ ७ ॥ जिते प्रतापैरिव पृष्ठगे रवौ स्वकुल्यहर्षादिव संमुखे विधौ । भयादिवाप्रत्यजि राहुयोगिनीयुगे गते दक्षिणवामपक्षयोः ॥ ८ ॥ अदक्षिणस्यां रथतोऽथ तत्त्वतस्तदोर्ध्वगं श्वासमवेक्ष्य विष्णुना । अवादि शङ्खश्च सुमङ्गलोत्सवादचालि सूतेन रथश्च भूपतेः ॥ ९ ॥ तदा तु संपूजित हर्षितद्विजत्रजोक्त वेदत्रयनादवीचिभिः । प्रतिध्वनत्स्यन्दनकन्दरोदरो दधौ यथार्थामभिधां त्रयीतनुः ॥ १० ॥ पटुः प्रयाणे पटहस्य निस्वनः प्रविश्य कर्णद्वितयेषु दोष्मताम् । स निर्जगाम द्विगुणोदयः क्षणान्मुखैकमार्गे मदशब्दकैतवः ॥ ११ ॥ धृतेभकुम्भस्तनयुग्मविभ्रमा चमूभ्रमत्स्यन्दनचक्रकुण्डला । चचाल भूपं परितोऽनुरागिणी प्रियेव पारिप्लववजिलोचना ॥ १२ ॥ विलुप्तविश्वावयवा सुनागरैः स्थितैरुपप्लव्यपुराट्टपङ्गिषु । नृपावलोकादनिमेषतां भृशं भजद्भिरभ्राजि नभश्चरैरिव ॥ १३ ॥ समुत्पतद्भिः स्खलितैर्महांसयोर्मुहुर्महासौधवधूकरोज्झितैः । अराजि लाजैः सुकृतोज्ज्वले नृपे वियच्चरैरामरचामरैरिव ॥ १४ ॥ ययौ तोलीपथसंकटाकुलः क्रमेण वप्रस्य बहिर्बलोच्चयः । महासरःपूर इवातिपूरणक्षतस्य सेतोर्बहुबाह्यविस्तृतिः ॥ १५ ॥ पुरोऽपि पश्चादपि विस्तृताकृतिर्गताल्पतां गोपुरमध्यवर्त्मनि । विनिःसरन्ती रिपुजीवितापहा चमूरियं शक्तिरिव व्यराजत ॥ १६ ॥ १. 'मन्वगु' ख- ग. २. 'तदात्वसंपू' ख ग ३ 'राजि' क.
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२७२
काव्यमाला |
शमीव तत्त्वं परमं तमुद्वहन्युधिष्ठिरं धर्ममयं चमूचयः । अखण्डयन्पुस्तरुखण्डशाखिनां शिखाग्रमप्येष शनैः शनैययौ ॥ १७ ॥ उदित्वरैर्वप्रगिरिप्रतोलिकागुहाशतेभ्यो गुरुवाहिनीगणैः । अपूरि दूरादपि पूरविस्तृतैः स भूरिभिर्भूविभुसैन्यसागरः ॥ १८ ॥ गतेऽक्षिमार्गान्नृपतावियं वियोगिनीव शून्यत्वमवाप किंचन । तदात्तवप्रावतरद्विलोककप्रजामिषसिशिरोंशुका पुरी ॥ १९ ॥ समुहल निगमः कियानिति प्रतिक्षणं ध्यानपरश्च भूभरः । विलोचने वक्रितकन्धरं पुरीं प्रति प्रतेने च शनैश्चचाल च ॥ २० ॥ मिथोऽपि बिम्बद्विगुणां रदद्वयीं मणिप्रणद्धां दधतो महोन्नताम् । सुरासुरैरक्षुभिते बलाम्बुधौ विलेसुरैरावतवन्मतङ्गजाः ॥ २१ ॥ विषाणितां गर्जिभिरद्रिभेदिनां बले चले तत्रसुराशु दिग्गजाः । भुजङ्गराजैकककीलमौलिगस्ततो विलोलः क्षितिगोलकोऽभवत् ॥ २२ ॥ अवाप्य सेकं करिणां मदोदकैर्मरुत्तरङ्गानपि कर्णवीजनैः । सुयोधनक्रूरचरित्रमूर्छिताचिराद्धरा किंचिदचालयद्वपुः ॥ २३ ॥ मृतो मृतोऽसाविति भाषुके जने गृहीतमात्मानमपायुधः सुधीः । गजेन शुण्डाङ्गुलिपर्वचर्वणादमूमुचत्कोऽपि चमूचमत्कृतः ॥ २४ ॥ समेत्य पश्चान्निभृतं घृतक्रुधा गजेन विस्तीर्णकरेण संधृतान् । तदात्वकष्टच्छुरिकाग्रधारया विवर्ध्य बालान्द्रुतमच्छुटत्परः ॥ २५ ॥ महाबलः कोऽपि करं करेणुना धृतं करेणात्मकरादमोचयत् । स तेन गाढमहतो धृते करे वराक एवैककरः करोतु किम् ॥ २६ ॥ समेतमासन्नमिमं विभीः परः पुरो वलन्दक्षिणगात्रलीलया । पटेन शुण्डां परिमृज्य संभ्रमन्नविभ्रमत्पेचकसीम्नि जाङ्घिकः ॥ २७ ॥ न यावदुर्वी करिभारभङ्गुरा प्रयाति दर्वीकरमन्दिरोदरम् । खुरक्षतोद्भूतरजस्तया लघु वितेनिरे तावदमूं चमूहयाः ॥ २८ ॥ स्थली पयोधिर्जलधिर्वसुंधरा भविष्यतीति त्रिदिवेऽप्यभूत्कथा । स्फुरत्तुरङ्गप्रकरक्रमाहतिक्षणोच्छलद्भूलिभराव लोकतः ॥ २९ ॥
१. 'प्रस्तर' ख. २. 'नबिभ्रमन्नेककसीनि' ग.
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५ उद्योगपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
हरिः परिस्पर्धिनि वर्धितोद्यमस्तुरंगमे धावति वेगदुर्धरः । अष्टमूर्ध्व पुरुषं परः परो व्यलङ्घतापीडितमेव फालया ॥ ३० ॥ परो हरिः कूपमपहुतं तृणैरलङ्घयमुल्लङ्घय विशालफालया । व्यथां न लेभे करायापि ताडितो हृदि स्तुवन्धैर्यगुणं तुरङ्गिणः ॥३१॥ उदश्चितैकमलीलया त्रिभिः पदैस्तथा कोऽपि हतो गतिं व्यधात् । यथाभवच्चेतसि चित्रकारिणामपि क्षणं चित्रकृतौ चमत्कृतिः ॥ ३२ ॥ समं मया धावथ यूयमित्यहो भृशं दृशः कौतुकिनां विलोकिनाम् । विलुप्य पश्चात्पदधूतधूलिभिर्हरिः परोऽधावत वातजित्वरः ॥ ३३ ॥ हरिर्निषिद्धोऽप्यपराश्वतर्जितस्त्वराममुञ्चन्न हि यः स तस्थिवान् । प्रैपातिनः पादकरान्तरस्फुरत्पदस्य पीडां निजसादिनोऽदधत् ॥ ३४ ॥ विवर्धितस्पर्धमहो महोनिधी समं चलन्तौ त्वरया परौ हरी । पताकिनीलोलदृशो दृशोर्भृशं समानतामापतुरप्रतो गतौ ॥ ३५ ॥ जितेऽपि वेगादितरे तुरंगमे न कोऽपि तत्याज रयं स्वयं हयः । निजं तनुच्छायमवेक्ष्य च क्षितौ निशम्य पादध्वनितं च दुर्धरः ॥ ३६ ॥ हयाद्रिकुट्टालशतक्षतस्थलोच्छलद्रजः पूर्णनतेषु वर्त्मसु । अलब्धने मिस्खलना मनागपि प्रसखुरश्रान्ततुरंगमं रथाः ॥ ३७ ॥ रथाङ्गरेखानिवहैर्महीं रथा विभूषयन्तो नवहारहारिभिः । दिशां दिशन्तस्तिलकानिव ध्वजाञ्चलैः किलातन्वत कामचारिताम् ३८ क्षुरप्रमाणेन विभिद्य दूरतः पतन्ति पक्वानि फलानि भूरुहाम् । अधोगतः कोऽपि रथाश्ववेगतो रथी करेणैव सहेलमग्रहीत् ॥ ३९ ॥ परो रथं सारथिरन्यसारथेजिंगाय संतर्ज्य धुरीणवाजिनः । जवेन यो छुटितेऽपि धीधनोऽधिरुह्य वंशानितरामदुद्रुवत् ॥ ४० ॥ च्युतेsपि चक्रे चिरमेकपक्षतस्तदक्षमुत्तार्य करेण धारयन् । मरुत्त्वरांहिस्वरयन्रथे हयाजिगाय यन्तापरसारथिं परः ॥ ४१ ॥ महाबलः कश्चन सारथिः पथि स्थितेषु खिन्नेषु निजेषु वाजिषु । जवेन यान्तं प्रतिवादिनो रथं करेण धृत्वैव हठादतिष्ठिपत् ॥ ४२ ॥
१. 'अनष्ट' क. २. 'प्रतापिन:' ग; 'प्रयातिनः' क- ख.
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काव्यमाला |
परः समीरत्वरया समीरयन्हयान्नियन्ता जितवांश्च वाजिनः । ररक्ष चासन्नलता शिखाततेः पतिं चलत्प्राजनवेगलीलया ॥ ४३ ॥ चरिष्णुचकारगृहीतचीवरप्रपातिनः कृष्टतनोर्ध्वनिं प्रभोः । उदार चीत्कार भरैरकणर्यन्नबोधि कोऽप्यन्यजनेन सारथिः ॥ ४४ ॥ महारथौ कौचन को पहुंकृतिप्रणादरौद्रौ रथसंकटे पथि । युधे घृतासी चटुलौ चटूक्तिभिः प्रविश्य मध्यं प्रभुरप्यवारयत् ॥ ४९ ॥ पुरः प्रलुश्चतुरं तुरंगमत्वरापरिभ्रान्तपदाः पदातयः । रथा इवोच्चैर्भुजदण्डमण्डलीभवत्पताका यितखङ्गवलयः ॥ ४६ ॥ समुत्पतन्तोऽधिकमुच्चकैः समुल्लसत्कृपाणद्युतिहृद्यपाणयः । बभुर्भटाः स्वप्रभुकीर्तिविस्तृतिप्रवृत्तये कृत्तविपल्लवा इव ॥ ४७ ॥ विचित्रचारीषु सवर्वरं स्फुरत्स्फुटस्वनाशून्यभिदोऽसिलेखया । मुहुर्नदन्तो मदविभ्रमादजीगणंस्तृणामं त्रिजगत्पदातयः ॥ ४८ ॥ भयं दधानो हृदि विष्टपत्रयव्ययप्रगल्भोऽपि लुलायलाञ्छनः । रणे सहायी भवितुं भुजाभृतामसिच्छलो दक्षिणपाणिमग्रहीत् ॥ ४९ ॥ स्फरापदेशात्कलितैककुण्डलो विनीलवासाः कटिशस्त्रिकांशुभिः । अनन्ततां पत्तिचयो ययावसिच्छलेन कर्षन्यमुनां समन्ततः ॥ ५० ॥ उदस्य कोऽप्याशु समं मुहुर्मुहुः करेण वामेन च दक्षिणेन च । स्फरं च खङ्गं च दधद्विपर्ययान्महत्त्वमभ्यासकृतां कृती ललौ ॥५१॥ उपेत्य पश्चान्मृततातवृत्तिकः कृताद्भुतध्यानपरेण कौतुकात् । परेण बालः सहसापि तापितश्चलन्धृतासिर्न भटानतत्रपत् ॥ ५२ ॥ उदस्य कुन्तं दिवि कोऽपि लीलया सकौतुकैः सैन्यजनैर्विलोकितः । क्षितेः समुत्पत्य रयेण पाणिना तमूर्ध्वमेव प्रसरन्तमग्रहीत् ॥ १३ ॥ जनौघमाक्षिप्य पुरश्वरं भटः स्फुटं परिक्षिप्य रयेण कुन्तकम् । परेण निर्मुक्तमिवाग्रतो गतः करेऽग्रहीत्कश्चन वञ्चयन्मुखम् ॥ १४ ॥ इति स्फुरत्कृत्स्नचमूसमुत्थितै रजोभिराच्छादितभानुभानुभिः । कृतप्रयाणे जयभाजि राजनि व्यराजदेकातपवारणं जगत् ॥ १५ ॥ १. 'क्षमः ' ख- ग.
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१ उद्योगपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
अवाप्य दैन्यं खलु सैन्यभारतश्चिरान्निरस्ता फणिकूर्मसूकरैः । महीयसां मूर्ध्नि मही महीभृतां समारुरोह च्छलतो रजस्ततेः ॥ १६ ॥ तटेषु खातेषु तुरङ्गरङ्गणैरुपर्युपेतेषु रजश्चयेषु च ।
स्फुटीभवन्मूलविवृद्धमौलयो गणा गिरीणां त्रिगुणोन्नता बभुः ॥ १७ ॥ बलाभिषङ्गादधिकाधिकोत्थितै रजोभिरुच्चैर्दिवि सान्द्रतां गतैः । रवेरवष्टब्धखुरास्तुरंगमाश्विरं महीचारसुखं सिषेविरे ॥ १८ ॥ प्रपूरितानां परितो बलोद्धतै रजोभिरास्कन्धतलं महीरुहाम् । समुन्नतानामपि पाणिलीलया फलान्यगृह्णादपि वामनो जनः ॥ १९ ॥ विधेः कृतं क्वापि न जायतेऽन्यथा तथा हि शून्यं गतयापि रेणुभिः । विभावरीवासररत्नगर्भया न किं भुवाभूयत रत्नगर्भया ॥ ६० ॥ इलावले पङ्किलतां प्रपेदुषि प्रभिन्नकुम्भीन्द्रमदाम्भसां भरैः । अधारयद्वष्टिनिवृत्तनीरदप्रभां नभोऽन्तः प्रथमोत्थितं रजः ॥ ६१ ॥ नभःसरित्केतनभासुरे शिरः सुवर्णकुम्भाथितभानुमण्डले ।
सुखं लसन्ती पृतनेह जङ्गमे नृपस्य धाम्नीव रजस्यराजत ॥ ६२ ॥ रथं नयन्वैर्त्मनि राजवाजिनं भुजिष्यभग्नस्थपुटं शनैः शनैः । जगाद यन्ता कुतुकस्टशा दृशा निरूपयन्तं नृपतिं पताकिनीम् ॥ ६२ ॥ अधीश पश्यात्र हयेऽनुपातिनी द्रुतं भिया वक्रितकन्धरा वधूः । व्यधाद्विलोलं नयनं तथा यथा स्थितो हियेवायमभूत्समीपगः ॥ ६४ ॥ अयं मयस्यानुयतः स्वनं घनं निशम्य कोपाद्ववले मृगद्विपः । निरीक्ष्य तद्वर्ति वधूकुचद्वयं प्रतीभकुम्भभ्रमतो भियात्रसत् ॥ ६१ ॥ तरोस्तलेऽसौ विदया निषेदिवान्नृपस्य वाचा प्रथमं समुत्थितः । तमप्यनालोच्य सखायमग्रतोऽत्रसन्निरीक्ष्यागतमुन्मदं गजम् ॥ ६६ ॥ न हत्यया हन्त कदापि गृह्यते करी परं पापशिखा निषादिनाम् । इति प्रलापेषु जनस्य कुम्भिना व्यमोचि नारीयमनेन सादिना ॥ ६७ ॥ पुरो मुखस्य भ्रमयशिखां तरोः प्रकोपयन्कोऽपि गजं कुतूहली । उदस्तहस्तं परिवञ्चय यात्यसौ चतुः पदाभ्यन्तरवर्त्मना मुहुः ॥ ६८ ॥ १. 'वर्त्म विनीतवाजिनम्' ख-ग. २. ' रथं पथि' ख. ३. 'सादिता' ग.
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२७६
काव्यमाला।
विलङ्घय लची त्वरया रथोच्चयं गतोऽग्रतोऽस्मीत्ययमुद्धुरो मदात् । पुरः करित्रासवलन्मयद्वयः सहाससां राविणमीक्षितो बलैः ॥ ६९ ॥ अवेक्ष्य मार्ग शकटातिसङ्कटं रथी पथीह स्थपुटे प्रयात्ययम् । परिस्फुरच्चक्रविलोलवल्लभा मुहुः परिष्वङ्गसुखाभिलाषुकः ॥ ७० ॥ अयं दवीयःपदवीगतामिभीमिभभ्रमात्तूर्णमुपेत्य कोपनः । अमुं विनिश्चित्य ततः स्पृशत्यहो मुहुर्महेभस्ततहस्तलीलया ।। ७१ ॥ अवाप्तजन्मा जननीवधादसौ ततः कृतोचैर्बहुभारवाहकः । शुचा खराश्वौ निजपूर्वपक्षको निरीक्ष्य तुल्यध्वनि रौति वेसरः ॥७२॥ इति प्रसत्तिप्रसरार्द्रया चमूं शाभिषिञ्चन्निव धर्मनन्दनः । पदे पदे संमिलितैः कुतूहलादालोकि लोकैः शतधापि वीक्षितः ॥ ७३ ॥ द्विपेन्द्रदानोदकनिर्झरच्छटाभिषेकसान्द्रोभयपक्षधान्यया । अचल्यत ग्रामतटेषु सेनया निरन्तरक्षेत्रविसङ्कटे पथि ।। ७४ ॥ अमी महान्तः किरयो बृहत्तराः मृगास्तथैते प्रसभेन रक्षितुम् । अहो व शक्या इति भीतविस्मितैर्गजाश्वमालोक्य तव प्रगोपकैः ॥७॥ अपि श्रियां भूमिरभूषितोज्ज्वला विलोकयशालिषु गोपबालिकाः । स्वकामकेलीविशदाय केशवो न शैशवाय स्पृहयांबभूव किम् ।। ७६ ॥ इदं किमेतत्किमिति स्त्रियां तथा शिशौ मुहुः पृच्छति दन्तिवानिकम् । कृतोऽक्षमूल्याकुलितः किलाविदन्ददौ जरद्रामटिकोऽपि नोत्तरम् ७७ इतीक्ष्यमाणः क्षणकौतुकोल्लसद्विलोचनामनिवासिभिजनैः । चमूचयः काननभूषु भूषणी बभूव विस्तारमहीदिदृक्षया ॥ ७८ ॥ पुरः शिशूनां गललम्बिनां कपिस्त्रियः परिभ्रम्य तृणं यदत्यजन् । तदङ्गनानां कटकौचितीभृतामपुत्रिणीनां हृदि शल्यतामधात् ॥ ७९ ॥ . सुखं गतायाः शयनं सुलम्पटा विघट्य सिंह्याः स्तनतः स्तनंधयाः । गजेष्वधावंश्च मुहुर्भटाभकैर्मुदा व्यमुच्यन्त च मातुरन्तिके ॥ ८ ॥ फलं करेणाप्तुमना मुहुर्मयं निनाय चूतं रवणाधिरोहणः । मयस्तु निम्बाय मुहुर्गतः कुतः क्रियैक्यमन्योन्यमनोभिलाषयोः॥८१॥ १. 'शिवदाय' ख. २ अक्षमूली ग्रामे व्यवहारनिर्णायकः,
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१ उद्योगपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
२७७
हयोच्चयोद्भूतरजःपरम्पराविलुप्तवैषम्यसुखाधिरोहणाः ।
पथि प्रथीयःस्थललीलया रयाद्बलाबलीभिर्गिरयो ललङ्घिरे ॥ ८२ ॥ विलङ्घय कुल्याममुकां पुरेऽमुके क्रमेण गन्तव्यमिति श्रुते पथि । पुरः पुराण्येव बलैर्निदध्यरे न सिन्धवो धूलिततिस्थलीकृताः ॥ ८३ ॥ पुरामुपान्तेषु तुरंगमक्रमप्रपातखातेषु निखातसंपदः । चमूचरैश्चञ्चलया लुलोकिरे दृशा रजोदर्शन निर्विशेषया ॥ ८४ ॥ पुरः स्त्रिया सैन्यलसदृशा रसाद्युवा निषादी सकटाक्षमीक्षितः । व्यधात्परीरम्भमिभेन्द्रकुम्भयोः स तद्गताक्षः पुलकान्यधत्त सा ॥ ८५ ॥ युवा तुरङ्गी लसदङ्गचङ्गिमा तुरङ्गमं चारुगतानि कारयन् । पुरः पुरस्त्रीभिरदर्शि सस्पृहं परस्परेर्ष्याकलुषेण चेतसा ॥ ८६ ॥ उदारशृङ्गारभृतां पदे पदे विलोकिनीनां पुरयोषितां पुरः । समुन्नतोपाङ्गविनम्रलोचनो मिथः स्खलन्मन्दपदं ययौ जनः ॥ ८७ ॥ इति ग्रामारण्यक्षितिधरसरित्पत्तनततीविलङ्घय प्रस्थानैः कतिभिरपि धर्मस्य तनयः । स्वयं स्थाने स्थाने मिलदतुलवीरोग्रकटकः कुरुक्षेत्रोपान्ते द्रुहिणदुहितुस्तीरमगमत् ॥ ८८ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमर चन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के उद्योगपर्वणि प्रयाणवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः । चतुर्थः सर्गः ।
अमृतवृष्टिरिवाजनि हृष्टिदा जगति यस्य पुराणपरम्परा । भवदवार्तिभिदे जलदद्युतिर्न किमिवास्तु स सत्यवतीसुतः ॥ १ ॥ लसदनेकपयोघबलप्रभा बहुलपत्ररथा पृथुवाहभृत् ।
अथ चमूः क्षितिपस्य सरस्वतीमनुससार निवासविधित्सया ॥ २ ॥ गतिजितः पवनो निजकिंकरीकृत इवाम्बुलवाम्बुजगन्धभृत् । अभिचमूं प्रहितः सैरिता तया सुकृतनन्दनसत्कृतकर्मणे ॥ ३ ॥
१. 'र्न दध्यिरे' ख. २. 'तायां गवि नम्र' ख ग ३. 'चटुल' क. ४. ' सहिता' ख.
५.
'कर्मणि' क- ख.
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२७८
काव्यमाला।
अथ विजित्य तनूषु चमूभृतां सपदि धर्मजवारिलवव्रजम् । प्रसृमरः पवनः म सरस्वतीजलकणप्रसरं प्रतितिष्ठति ॥ ४ ॥ नलिनरेणुलवैः कनकद्युतिः सृमरसौरभषट्पदगीतिभाक् । मधुरशीतगुणाम्बुकणैः सरिन्मरुदभूद्दयितो बलयोषिताम् ॥५॥ अपि सरित्परिरम्भभवं नवोदकलवं परिरभ्य समीरणम् । अननि मीलितहग्यदियं चमूस्तदबला खलु कामितकामिनी ॥ ६ ॥ मृदुसमीरविलासविकम्पिनी कुसुमसात्त्विकवारिकणैर्वृताम् । अभजदाशु रसेन सरस्वतीतटवनीमवनीशचमूचयः ॥ ७ ॥ जलनिधौ निहितो वडवानलः पविमचिक्षिपदेव मदाय नः । इति विरञ्चिसुतां परितो बलच्छलकुलाद्रिकुलानि सिषेविरे ॥ ८ ॥ अविदितोद्धतिरोपणकं नृपैः कथमपि छुपथेन किलागतम् । समवलोकि यथाक्रमरोपितं कुतुकिभिः स्थलमण्डलमग्रतः ॥ ९ ॥ सुकृतसूनुनिकेतचलद्भुजाञ्चलभुजाकथितेष्विव वेश्मसु । विनिहितेषु यथाक्रममक्रमान्निजनिजेषु ययुर्जगतीभुजः ॥ १० ॥ कमपि सारथिरात्मनृपालयं पथिषु पृच्छति यावदधिभ्रमः । निजगृहाङ्गणमेव रथो हयैः सपदि तावदनायि गतभ्रमैः ॥ ११ ॥ गजतुरङ्गनरत्रयपीठिकावलयिमूलभुवः स्थलसंचयाः । रुरुचिरे परितो नृपसेविताः सुरगृहा इव दिग्विजयश्रियाम् ॥ १२ ॥ शिरसि ताडकृतोऽपि निषादिनः समधिरोपयति स्म यथा नमन् । इह तथैव रयाद्रुदतीतरत्करिपतिमहतां चरितं नुमः ॥ १३ ॥ स्फुरितमाप सपल्ययतो हयः पथि यथा न निरस्तभरस्तथा । सहजसौम्यभृतो हि पराक्रमे सति महांसि वहन्ति मनस्विनः ॥ १४ ॥ स्थिरपदा निजसारथिसंज्ञया रथिनि पार्श्वगते रथवाजिनः । बहुमहीगमनेऽप्यखिदस्तथा प्रथमयुक्तमिव स्वमबोधिषुः ॥ १५ ॥ समधिरोहति यन्त्रभरे यथा रवभरं रवणा विधुरं व्यधुः । . अवतरत्यपि हन्त तथैव ते क्व मतिरूवमुखस्य खलूचिता ॥ १६ ॥ १. 'मपिक्षिपदेव' क-ख. २. 'समवरोपितयन्त्र' क.
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५उद्योगपर्व-४ सर्गः] बालभारतम् ।
२७९ पुलकिभिर्मुकुलायितलोचना सरभसं कुचमूलमिलद्भुजैः । गलविलम्बिकुचद्वितया हयाप्रियतमैरुदतारि बत प्रिया ॥ १७ ॥ क्षितिरगृह्यत सत्यमसौ युधि तदिह तत्र सतामुचिता हतिः । इति विचार्य भटै मृगादयो ववधिरे विधुराक्षपलायिनः ॥ १८ ॥ पटमयानि वितन्य निकेतनान्यभिपतजनसत्कृतितत्पराः। रुरुचिरे वणिजो गणिका इवोत्तरलकङ्कणकुण्डलसद्रुचः ॥ १९ ॥ कणजलेन्धनवह्निजिघृक्षया परिजने निखिलेऽपि गतेऽभितः । वसनवेश्मसु संमदमद्भुतं क्षणमधुः पतयो दयितासखाः ॥ २० ॥ पतितसैन्यरजःपटलं पटू भवति यावदुदात्तदिवाकरम् । सपदि तावदिदं पिहितं वहूदितमहानसधूमचयैर्वियत् ॥ २१ ॥ विधिसुताम्भसि सस्नुरलं मलं दलयितुं बहिरेव चमूचराः । मुमुचुरान्तरमप्यहह स्पृहाधिकदमेव हि सुप्रभुसेवनम् ॥ २२ ॥ सुमधुरं शिशिरं रसयन्पयो जनचयो मनसा समचिन्तयत् । सरिति वारिधिवजलभूरितां कलशयोनिवदात्मनि शक्तिताम् ॥२३॥ तरलहस्तमहालहरीभरोच्छलितशीकररुद्धनभा ध्वनत् । तनुरुचैव तमांसि सृजन्धुनीमभिससार गजबजवारिधिः ॥ २४ ॥ प्रतिशरीरभृतः कति नो वनद्विपकपोलकषैर्मदगन्धिताः । अनसरिल्लहरीध्वनितः क्रुधा मदकलः करटी विभिदे तटीः ॥ २५ ॥ पथिजखेदवशोऽपि करी तरुं प्रहतवान्वनदन्तिमदक्रुधा । अहह साहसिकस्य शिरस्यतः कुसुमवृष्टिरमुष्य दिवोऽपतत् ॥ २६ ॥ दलितमौक्तिककान्तिनि सैकते करिकुलस्य बभौ पदपद्धतिः । सुकृतसूनुयशःसमतार्थिनी शशिघटानुसृतेव सरस्वती ॥ २७ ॥ करिघटामवलोक्य धनभ्रमाद्भयभृतैरथवा गतिनिर्जितैः । सुकृतसूनुयशोजलपल्वलं वियदभाजि सरिद्वरटावरैः ॥ २८ ॥ विविशुरम्भसि भूधरडिम्भकाः स्फुरितपक्षतया हरिभीरवः । प्रचलकर्णदलद्विपमण्डलच्छलभृतो विगलन्मदनिर्झराः ॥ २९ ॥ १. 'रुदतारिषत प्रियाः' ग. २. 'नुमृतेव सरस्वतीम्' ग.
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२८०
काव्यमाला ।
स्फुटतराग्रकरः परितोऽम्भसि बुडितवानुदमजदथ द्विपः । धुतमुखः कृतचीत्कृतिरम्बुजभ्रमपतन्मधुपाकुलपुष्करः ॥ ३० ॥ उदयदान्तरशैत्यगुणौ परस्परभवत्परिरम्भविज़म्भणैः । वरसरित्करिणौ पतितः परां मुमुचतुः परितापपरम्पराम् ॥ ३१ ॥ मधुपगीतगुणानि जलस्य यजलरुहाणि जहार महागजः । तदिदमप्यहरन्मुहुरूमिभिर्मदममुष्य विसृत्वरसौरभम् ॥ ३२ ॥ . तिमिविलोलदृशः सरितो मदैर्मृगमदैरिव पत्रलताततिम् । विकटकुम्भयुगप्रतिबिम्बतस्तनतटीषु ततान मतङ्गजः ॥ ३३ ॥ उदितबुहुदवृन्दभृशस्विदं बहु विलस्य नदी नलिनाननाम् । पुनरुदित्वरदानवशैर्वृतः सहचरैरलिभिर्निरगादिभः ॥ ३४ ॥ गजगणे गतवत्यथ तत्क्षणादभिगतासु कुतोऽपि सखीष्विव । अकथयद्वरटासु नदी मदाविलजलालिरवैरिव संभ्रमात् ॥ ३५ ॥ तरुतलेषु निषण्णमथो पथो गमनखिन्नमशक्तमितो गतौ । जनमपास्य विनिश्वसदाननं द्विरदराजिरवध्यत सादिभिः ॥ ३६ ॥ कुसुमसंचयवृष्टमधुच्छटासुरभिपृष्ठनिविष्टषडविभिः । कुथवृतैरिव मुक्तकुथैरपि द्रुमतलेषु तदा करिभिर्वभे ॥ ३७ ॥ नै दलसंहतितो जलवर्षणं तलममुष्य भजेदिति मूलगैः । जलधरैरिव मुक्तमदाम्बुभि शमिभैः समसिञ्चि तरूच्चयः ॥ ३८ ॥ सुखनिमीलितहग्रसनाशिखामिलिततालुविघूर्णितविग्रहम् । पदमतन्यत शाखिषु योगिवत्करिभिराहृतपिण्डनिरादरैः ॥ ३९ ॥ क्षुधितमप्यलसं परिचारकाः करधृतैः कवलैधुतपङ्किलैः । विदधतः परितः परिताडनं चटु च डिम्भमिवेभमभोजयन् ॥ ४० ॥ गजघटागतिकुट्टिमितं खुरैः स्थपुटतामनयन्पुलिनं हयाः । अपि महद्भिरतीव समीकृतं विगमयन्तितरां तरला न किम् ॥ ४१ ॥ नखविलासजुषः कृतशिङ्घनश्वसितलोलरजःकणकम्पिनीम् । सरभसं परिवेल्लनकैतवाद्वसुमती हरयः परिरेभिरे ॥ ४२ ॥ १. 'निखिन्न' क. २. 'तदलं' ख-ग.
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५उद्योगपर्व-४ सर्गः] बालभारतम् । विपरिवर्तरयोर्धमुखाञ्जयः क्षणमतिप्रचलत्वभृतो हयाः । स्फटिककुट्टिमकान्तिनि सैकते रवितुरङ्गमबिम्बनिभा बभुः ॥ ४३ ॥ चिररजोलुठनैर्मलिनं श्रियः सुतमपि द्रुतमङ्कमुपागतम् । स्वयमेसिस्नपदेव सरस्वती स्व इव भाति परोऽपि सतां श्रितः ॥ ४४ ॥ अपि तनूषु न भेदमदीदृशन्मधुरधीरगभीरमधुध्वनिम् । चपलतैकपराः परिरेभिरे लहरयो हरयोऽपि परस्परम् ॥ ४५ ॥ अवतरन्तममुं सरितो हरिप्रकरमाशु विलचितरोधसम् । लहरिपूरमिवैक्षत दूरतश्वलितमुच्चमियं चकिता चमूः ॥ ४६॥ पुरुषमानपटू कृतकीलकव्यतिकरग्रथिताजिनवल्लिषु । करयुगान्तरिता परितो हयावलिरबध्यत बल्लवपालकैः ॥ ४७ ॥ प्रमदनादभृतां परिवल्गतामित इतोऽपि खुरैः खनतां क्षितिम् । तृणमुचां वदनेष्वथ वाजिनां सपदि खाद्यमबध्यत किंकरैः ॥ ४८ ॥ अविरलोच्चदलोच्चयखादनैर्मयगणः क्षणतो धरणीरुहाम् । असृजौदिशिरोवेपनोत्सवानिव स गीतिषु दिक्षु खगारवैः ॥ ४९ ॥
जीवः क एष किमु नाम विलोकतेऽसा__वुत्कंधरः प्रकुपितः पटुदीर्घदन्तः । एवं विलोक्य रवणं वनमेदिनीषु __ दूरं पलायत भयादिभसूदनोऽपि ॥ ५० ॥ शीकरार्धतृणच्छद्मस्वेदरोमाञ्चकञ्चकाम् । हर्षी वृषचयोऽचुम्बन्नदीतीरभुवं युवा ॥ ११ ॥ यस्मै यद्यजनितमशनं तेन तेनातिखिन्ना
न्पश्चात्पश्चादभिगतवतो भोजयामासुराशु । आसंध्यं ये स्वयमविदितक्षुद्भराः सत्त्ववीरा
स्तेषां क्षीराकृतियश इव प्रोदगादिन्दुरोचिः ॥ १२ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये
वीराङ्के उद्योगपर्वणि निवासनिवेशो नाम चतुर्थः सर्गः ।
१. 'विपरिवर्तनयो' ख. २. 'मपि स्वप' क. ३. 'सुमहदन्तरतः' क-ख. ४. 'भक्ष' क. ५. 'वयवो' ग. ६. 'स्वस्मै' ख-ग.
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२८२
काव्यमाला।
पञ्चमः सर्गः। सदा हृदन्तःस्फुरितस्य विष्णोविस्तारणीभिर्द्धतिधोरणीभिः । रोमावलीद्वारविनिःसृताभिरिवासितः सत्यवतीसुतोऽव्यात् ॥ १ ॥ इतो निषिद्धोऽपि नदीजमुख्यैर्दुर्योधनोऽधत्त धियं प्रयाणे । मतङ्गजस्तुङ्गनगेन्द्रशृङ्गात्पतल्लताद्यैरपि रुध्यते किम् ॥ २ ॥ पथ्यं वचो बाल इवातुरोऽयं क्रूरो न गृह्णाति सुयोधनो नः । रणे प्रवृत्ते कुरुपाण्डवानां भूमिर्भविष्यत्यखिलापि नैषा ॥ ३ ॥ इति प्रणीतां विदुरेण वाणीमाकर्ण्य कुन्ती कलितोरुचिन्ता । ततस्त्रिमार्गापुलिने दिनेशसूनुं दिनेशस्तुतिलीनमागात् ॥ ४ ॥ (युग्मम्) आपृष्टतापादुदयन्तमकै राधेयमाराधयितुं प्रवृत्तम् । प्रतीक्षमाणा सुतवत्सलासौ तापार्तिताम्यत्तनुरत्र तस्थौ ॥ ५ ॥ कर्ण जपान्तेऽथ पृथेत्यवोचत्कन्यात्वजातस्तनयोऽसि मे त्वम् । देवः सहस्रांशुरसौ पिता ते प्रभूतधाम्नो न पुनः स सूतः ॥ ६ ॥ देवेन साक्षादविणाप्यमुष्मिन्ननूदिते तद्वचने दिवोऽन्तः । रोमाञ्चितस्तीर्थशतानि जानन्पदानि कर्णोऽथ ननाम मातुः ॥ ७ ॥ निजानियुग्मानत मूर्ध्नि कर्णे द्राक्प्रस्नुवानास्तनयोः पयांसि । वत्स स्वमूर्धानमितो विधेहीत्युवाच कुन्ती स्रुतसंमदाश्रुः ॥ ८ ॥ जगाद कर्णः किमितः करोमि मातः शिरः खं यदि हा पतन्ति । जितद्युकुल्यास्त्रिजगत्यतुल्यास्त्वत्क्षीरधारा धुतपापभाराः ॥ ९ ॥ स्तन्यानि धन्यास्तव ते निपीय मत्सोदरा विश्वजितो बभूवुः । धन्योऽहमप्यद्य महाप्रभावैर्मातर्यदेतैरधुनाभिषिच्ये ॥ १० ॥ अथैकवारं यदि पायितः स्यां मातः पयस्तद्भुवि केन जीये । न पायितः साधु मृधे जयन्तु पञ्चापि मत्पञ्चतया कनिष्ठाः ॥ ११ ॥ इत्युक्तिभाजं नतमङ्गराज कुन्ती कराभ्यां तमुदस्य सद्यः । दृगम्बुधौते परिचुम्ब्य मूर्ध्नि दीनाननं नन्दनमित्युवाच ॥ १२ ॥ १. 'वचसीश्वरीभिः' क. २. 'लतौघैः' ख.
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५ उद्योगपर्व - ५ सर्गः ]
बालभारतम् ।
थूथुकृतं त्वद्व एव यो वः षण्णां विपक्षोऽञ्चतु पञ्चतां सः । ज्येष्ठस्य ते धर्मसुतादयोऽपि भवन्तु भूपस्य भुजिष्यरूपाः ॥ १३ ॥ त्वय्यागतेऽस्मासु बलेन कस्य मृधं विधातापि सुयोधनोऽपि । इत्याप्य संधिं परिपात वत्सास्त्वं च क्षितिं पञ्च च ते शतं च ॥ १४ ॥ अथाङ्गजः स्माह रथाङ्गबन्धोर्मा मेति वोचः कुविचारमम्ब । अद्यास्तम मयि निष्कुलोऽयमीदृग्जनोक्तिस्तव लाञ्छनाय ॥ १९ ॥ मदेकविश्रम्भधनं विहाय दुर्योधनं युद्धधुरीणमद्य |
सुते मयि द्वेषिपरे न धत्तां शशीव शूरोऽपि कलङ्कपङ्कम् ॥ १६ ॥ भयान्न चाविष्कृतसोदरत्वात्कर्णः श्रितो युद्धभयेन पार्थान् । इत्युक्तिभिः कौतुकिनां जनानामवीरसूर्मा भव वीरमातः ॥ १७ ॥ युधिष्ठिरं सत्यगिरं प्रतिज्ञानिर्वाहबन्धूनपरांश्च बन्धून् । लज्जे श्रयन्संयति कौरवेभ्यः श्रियं ददामीति मृषाप्रतिज्ञः ॥ १८ ॥ तुङ्गाभिमानः कृपकुम्भयोनिपितामहद्रौणिमहासहायः ।
२८३
विनापि मां कोपनिधिः स धीरः पक्षद्वयेऽपि क्षयकृन्नरेन्द्रः ॥ १९ ॥ मातर्वयं किं तनयाः षडेव न ते शतं किं तव देवि पुत्राः । मुक्ता स्वकुल्य व्यसने शतं तान्पञ्चाश्रयेऽहं किल को विवेकः ॥ २० ॥ इति प्रवीरव्रतधीरवाचमुवाच हृष्टा तनयं सतीयम् ।
साधूदितं त्वज्जनकः स कर्मसाक्षी जगच्चक्षुरितोऽस्तु तुष्टः ॥ २१ ॥ स्थिरप्रतिज्ञं श्रितवीरधर्मे याचे पुनः किंचिदहं मुहुस्त्वाम् । स्थिरश्चिरं तिष्ठ सुहृत्सु वत्स यच्छाभयं किं तु निजानुजेषु ॥ २२ ॥ पृथामथावोचत मान्सूनुः कथं वृथा मामिति याचसेऽम्ब । त्वदङ्गजानामभयं भयं न प्रागेव दैवेन रणे प्रदत्तम् ॥ २३ ॥ मातर्महोत्पातततिः पुरे नः प्रतिक्षणं कौरवभैरवास्ति । तप्तो निशीन्दुः कुरुपूर्वजः स्यात्कुधेव दुर्योधनदुर्नयस्य ॥ २४ ॥
१. 'अपास्त' ख. २. 'निर्बलो' ख. ३. 'शूरश्चारुभटे सूर्ये' इति विश्वात्तालव्यादिपि सूर्यवाची. ४. 'स्मितप्र' क. ५. 'त्वम्' ख- ग.
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काव्यमाला।
[उदेति शीतो मृतिसंमुखानामस्मादृशां भेदभियेव भानुः । विकम्पते भूरपि वीरशय्याशयालुदुर्योधनसंगमेच्छुः ॥ २५॥] चण्डालभूतेष्विव दुश्चिरित्रैर्धावन्ति दूराद्भषणा भषन्तः । काकाश्च मौलीनभि कौरवेषु मृतेष्विव क्रूररवाः पतन्ति ॥ २६ ॥ हीणा इव स्वैश्चरितैः स्वमास्यं स्वस्याप्यहो दर्शयितुं न शक्ताः । इतीव दिव्येषु विलोकयामः कबन्धमात्रं मुकुरेषु गात्रम् ॥ २७ ॥ प्रासादवृन्देऽस्मदभाग्यदुष्टभूतग्रहार्ता इव देवतार्चाः । विद्यन्ति कम्पं दधते हसन्ति वमन्ति रक्तं निपतन्ति भूमौ ॥ २८ ।। कुहूकलामस्मदकीर्तिलेपैरिवाश्रयत्कार्तिकपूर्णिमापि । चञ्चन्ति चामत्क्षयकालरक्तः करालवाग्निशिखावदुल्काः ॥ २९ ॥ धातापि संमूढ इव क्षयेऽस्मिन्वृक्षेषु पुष्पाणि विपर्ययेण । करोत्यकालेऽधिकहीनगात्रान्डिम्भान्विजात्यानपि गर्भिणीनाम् ॥ ३० ॥ एकाङ्गनायां बहुशोऽपि जाताः सद्योऽपि नृत्यन्ति हसन्ति कन्याः । प्रविष्टमात्रा इव विश्वरङ्गनट्योऽस्मदायुःक्षयनाटिकायाः ॥ ३१ ॥ आसन्नमृत्यून्मृतभक्षणेच्छालोलजिह्वावलयः कृशानुः । संध्याद्वये पश्यति नित्यमस्मान्दिग्दाहदम्भेन दिशोऽधिरुह्य ॥ ३२ ॥ स्वप्ने नु दृष्टा दिशि दक्षिणस्यां यान्तो मया प्रौढमयाधिरूढाः। स्वे शोणचीराभरणाः पितॄणां पत्युर्गृहं गन्तुमिवात्तवेगाः ॥ ३३ ॥ प्रासादमारुह्य सहस्रपत्रं स्वमूर्तिमत्पुण्यमिवोल्लसन्तः । स्वप्ने व्यलोक्यन्त मया जयश्रीविश्राम मिस्तु निजानुजास्ते ॥ ३४ ॥ भक्षन्भुवं धर्मभवोऽद्रिवर्ती भीमः किरीटी घृतपायसाशः । स्वप्ने मयैक्ष्यन्त यमौ गजस्थौ नृवाहनस्थौ हरिसात्यकी च ॥ ३५ ॥ युष्मद्वलेऽमी खलु सप्त दृष्टाः स्वमे विशुद्धाम्बरलेपमाल्याः । दौर्योधने तु त्रय एव सैन्ये कृपः कृपीभूः कृतवर्मवीरः ॥ ३६ ॥ १. अयं श्लोको ग-पुस्तके त्रुटितः. २. कोष्ठकान्तर्गतपाठः ख-पुस्तके त्रुटितः. ३. भूमीषु' ख. ४. 'रक्षन्' ख.
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५ उद्योगपर्व - ९ सर्गः ]
बालभारतम् ।
एवं दशैवाखिल सैन्ययुग्मतृप्तस्य मृत्योर्विवशीभवन्तः ।
क्षीणां क्षितौ क्षत्रियजातिमत्र समुद्धरिष्यन्ति पुनः प्रवीराः ॥ ३७ ॥ बिभीहि मा पञ्चसु पाण्डवेषु मृत्युर्भयेनैव न याति मातः । गन्ता स कौरव्यशतं बहूनां न पक्षपातं युधि कः करोति ॥ ३८ ॥ अथ पृथोवाच यदीदमस्ति तथाप्यभीतिं वितरानुजेषु । कल्याणलीनेऽपि सुते पितॄणामनर्थशङ्कीति न किं मनांसि ॥ ३९ ॥ अथाङ्गमर्ता गदति स्म मातर्बद्धप्रतिज्ञोऽस्मि वधेऽर्जुनस्य । तदेनमुन्मुच्य मया चतुर्णी वितीर्यते भीतेभियामभीतिः ॥ ४० ॥ राज्ञां समूहस्य समक्षमात्तां मुञ्चन्प्रतिज्ञां रणसीनि लज्जे । मा भूत्पुनर्भीतिलवोऽपि मातरयं मया न म्रियते किरीटी ॥ ४१ ॥ पुरायुधाभ्यासविधावहंयुरहं धृतस्पर्धमनेन सार्धम् ।
२८५
द्रोणं गुरुं भक्तिभरैरयाचं ब्रह्मास्त्रमस्मिन्विहितावतारम् ॥ ४२ ॥ नैवेदमज्ञातकुलस्य कल्प्यं कदाचिदित्यर्जुनपक्षपातात् । निराकृतोऽहं गुरुणा जगाम रामस्य धामाद्धिपति महेन्द्रम् ॥ ४३ ॥ शत्रुर्न महास्त्रदायी ममायमित्यादृतविप्रमायः ।
अहं महाभक्तिभरैर्गुरुं तं संतोष्य कां प्राप न चापविद्याम् ॥ ४४ ॥ गुरुप्रसादोरुमदात्कदाचित्काचिन्मया मोहमयाशयेन । तपोवनान्तभ्रमता हता गौत्रस्तो भियेवाशु वृषस्तदैव ॥ ४९ ॥ अथाकुलं कश्चन तेंद्धनो मां शशाप विप्रः कटुकोपकम्पः । यं जेतुमिच्छन्नसि तन्मृधे ते रथातियुग्मं गिलतु क्षमेति ॥ ४६ ॥ मया स विप्रश्चटुचातुरीभिराराध्यमानोऽपि न कोपमौज्झत् । प्रज्वालितः शैलवनेष्वर्देग्ध्वा जलादिसेकैर्न निवर्ततेऽग्निः ॥ ४७ ॥ तच्छापशल्यस्खलनातुरोरःप्रक्षीणबुद्धेरपि मे क्रमेण । गुरुप्रसादात्तृणितार्जुनोऽभूद्ब्रह्मास्त्रमुख्यास्त्रसहस्रलाभः ॥ ४८ ॥ मूर्धानमाधाय ममाङ्कदेशे सुखेन सुष्वाप गुरुः कदाचित् । दुःखं हृदः शापमयं जयन्ती क्षणादभूदूरुतलेऽतिपीडा ॥ ४९ ॥ १. 'खिलयुग्मसैन्यतृप्तस्य' ख. २. 'वीत' ख. ३. 'तद्वने' ख-ग. ४. 'दग्धा' ख.
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२८६
काव्यमाला।
गुरुन जागर्तु ममेत्यकम्प्रः केयं व्यथेत्याकलयामि यावत् । विनिर्ययौ वज्रमुखोऽष्टपादस्तावत्क्षतोरुर्मणुकाक्षकीटः ॥ १० ॥ गुरौ मदूरुक्षतजोर्मिसङ्गतन्द्रालुनिद्रेऽथ वितन्द्रकोपे । किमेतदित्यालपति स्वमङ्गं खादन्मयादर्शि स वज्रतुण्डः ॥ ११ ॥ दृष्ट्वाथ दृष्ट्या सरुषा स कीटो भस्मीकृतस्तेन तपोधनेन । दिव्यां दधानस्तनुमस्तदोषः पुरो गुरोः कोऽपि नमन्नुवाच ॥ १२ ॥ दैत्योऽस्मि भत्सु(तु) गुतो महर्षे/शापराधः खलु शापमाप । त्वदर्शनानुग्रहमुक्तकीटयोनिः स्फुरामीति तिरोदधेऽसौ ॥ १३ ॥ क्रुधाभ्यधान्मामथ कोपधामव्याधामधामाक्षि दधन्मुनीन्द्रः । रे क्षत्रगोत्र क्षतितोऽप्यकम्प्रो विप्रोऽसि न त्वं क्व नु तस्य सत्त्वम्॥१४॥ निर्माय मायामिति कामितास्त्रविद्यानवद्या शठ ही गृहीता । महाम्बुदे व्योमनि सोममूर्तिरिवोज्ज्वलापि त्वयि निष्फलास्तु ॥ ५५ ॥ प्राप्तं त्वया ब्राह्मणमायया यद्ब्रह्मास्त्रमेतत्तदहो महाजौ । मृत्योदिने द्वेषिहतिप्रयुक्तं विनाशमेष्यत्यकृतार्थमेव ॥ १६ ॥ इत्यत्र तादृग्गुरुसेवयापि तापाय शापोऽजनि नास्त्रशक्तिः । अभाग्यभाजां व्यवसायकर्म महन्महत्यै विपदे प्रदिष्टम् ॥ १७ ॥ किंचाटवीयायिषु पाण्डवेषु स्वप्ने सवित्रा निशि वारितोऽपि । इन्द्राय विप्रेन्द्रतयार्थिनेऽहि ते कुण्डले तत्कवचं ददेऽहम् ॥ ५८॥ गलिष्यति मा समरे रथानी शापात्तथास्त्रं प्रभविष्यति छ । विद्वेषिणां संमुखभानुकल्पं तदम्ब ताटङ्कयुगं ययौ मे ॥ १९ ॥ गतं च तद्वर्म सकोपशकक्षिप्तेन नूनं पविनाप्यभेद्यम् ।। तत्कर्मणा केन मया स जिष्णुर्जेयो जितः संयति येन रुद्धः ॥ ६ ॥ छित्त्वा श्रुती स्वे स्वतनुं च भित्त्वा तदा तु मे कुण्डलवर्मदातुः । सत्त्वेन तुष्टो हरिरेकवीरच्छिदं ददौ शक्तिमियं ममाशा ॥ ६१ ॥ न सापि शक्तिः प्रभवत्यवश्यं पार्थे कृतार्थे हरिमन्त्रितेन । तत्सर्वथा सर्वजितोऽनुजा मे दशापि जेष्यन्ति भुर्दिशोऽमी ॥१२॥ १. 'गोत्र' ख-ग.
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५ उद्योगपर्व - ९ सर्गः ]
बालभारतम् ।
किं चात्मनः स्वप्ननिमित्तदिष्टं जानामि मृत्युं पुनरस्मि धन्यः । मातः प्रयाणावसरेऽद्यं यत्त्वं तीर्थानि सर्वाण्यपि वीक्षितासि ॥ ६३ ॥ इदं वदन्मातृपदं प्रणम्य कर्णः प्रयाणाय दिदेश सैन्यान् । कुन्ती च सूनोर्वचनेन हर्ष दुःखं च दीर्घ दधती जगाम ॥ ६४ ॥ अथोरुवात्योद्धतधूलिरुग्णदृग्वारिदुष्यञ्जलपूर्णकुम्भः ।
कुरुप्रभोर्विस्मृतमन्त्रशून्यं यात्राभिषेकं विदधे पुरोधाः ॥ ६१ ॥ अस्मिन्नसत्यत्वभयेन नूनमनिर्यतः स्वस्त्ययनस्य मन्त्रात् ।
प्रसह्य कर्षन्खिदयेव भिन्नस्तदा द्विजानां धनिराप मान्द्यम् || ६६ || जेता भवान्वैरिपरम्पराभिः सुदुस्तरेऽस्मिन्समरे ससैन्यः । ततश्चिरं तापकशूर भेदपरायणः प्राप्नुहि गां सबन्धुः ॥ ६७ ॥ आशीर्वचोभिर्विपरीतबोधक्लिश्यद्विदग्धैरिति मागधानाम् ।
मुग्धः प्रमोदं दधदन्धजन्मा रथं मृतेर्गेहमिवारुरोह ॥ ६८ ॥ ( युग्मम् ) तनोति दुष्टत्वततीरतीव यः स स्फुटं पूर्वजपातहेतुः ।
अतः पपातादिपुमानमुष्य च्छत्रापदेशेन दिवो भुवीन्दुः ॥ ६९ ॥ कुमारिका मौलिगपूर्णकुम्भा शुभार्थमानीयत सन्मुखं या । इयं स्खलित्वा पतिता जयश्रीरिवायतस्तारतरं रुरोद ॥ ७० ॥ अस्मिन्नकल्याणमरातिवीर महाप्रहारैर्भवितेति भीतः । विमुच्य मूर्धानममुष्य राज्ञः पपात कल्याणमयः किरीटः ॥ ७१ ॥ आसन्न मार्जाररणोग्रनादभियस्तदा दीपधरस्य हस्तात् । कम्प्रादपाति क्षितिपप्रतापवीजत्विषा मङ्गलदीपकेन ॥ ७२ ॥ उन्मत्तकारूत्कटदण्डपातस्फुटत्पुटोत्थः कटुजर्जरश्रीः । जयश्रियः क्रन्दितवत्तदाभूत्प्रयाणशंसी पटहप्रनादः ॥ ७३ ॥ तदाचलद्भिः समराय नागैर्न्यस्तं स्वसर्वस्वमिव प्रियासु । मदाम्बु रोलम्बकदम्बचुम्ब्यमाविर्बभूव द्विरदीषु भूरि ॥ ७४ ॥
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१. ‘यदि त्वम्' ख. २. 'वैरिपरम्पराभिः सुदुस्तरेऽस्मिन्समरे ससैन्यो भवाञ्जता । कर्तरि लुट् । ततः संतापदायो धमारणपरायणः सबन्धुश्विरं पृथ्वीं प्राप्नुहि' इति मागधविवक्षितोऽर्थः । 'वैरिपरम्पराभिः कर्त्रीभिर्भवाञ्जेता । कर्मणि लुटू । सूर्यमण्डलभेदनपरायणी मृतो गां स्वर्गम्' इति दुर्योधनावगतोऽर्थः ३ श्लोकद्वयमुत्तरश्लोकतः पश्चात् ख ग.
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२८८
काव्यमाला |
प्रदीपनैस्तत्र तदात्वदीतैस्तापः पृथिव्या निविडोऽभविष्यत् । न चेत्तदा संचलतां हयानामिहापतिष्यन्नयनोदकानि ॥ ७९ ॥ देवत्रतद्रोणकृपैर्महद्भिः समं चलद्भिः बहुशाखलीनैः । पदे पदे दुःशकुनैरिवायं निवार्यमाणोऽपि चचाल मूढः ॥ ७६ ॥ विभग्नचक्राः परिभूतसूता विलीनयोक्रायुतरश्मयोऽपि । युद्धोद्धरे भद्वय रौद्रनादत्रस्तैरकृष्यन्त रथास्तुरङ्गैः ॥ ७७ ॥ चेलुस्तदा निश्चितमृत्यवोऽग्रे मा यात पश्चाद्धजतेति मन्ये । संकेत्यमाना अपि संमुखीनमरुच्चलैः केतुपटैर्भटौघाः ॥ ७८ ॥ एवं बलैर्मानमिव ग्रहीतुं भोगोचितायां भुवि विस्तरद्भिः । आनन्द्यमानः स महाभिमानः प्रापत्कुरुक्षेत्रमही महीशः ॥ ७९ ॥ रङ्गत्तुरङ्गोर्मिरिमाब्दशोभीस्थूलाद्विशाली ज्वलितायुधौर्वः । भूभृद्वलौघोऽयमदृष्टपारस्तस्थावकूपार इवेह गर्जन् ॥ ८० ॥ नोच्छेदनीया मम पाण्डुपुत्रा भेत्स्यामि योधानयुतं दिनेन । इदं वदन्सिन्धुसुतोऽभिषिक्तः सेनापतित्वेन सुयोधनेन ॥ ८१ ॥ शिनिप्रवीरो मगधेशधृष्टद्युम्नौ विराटद्रुपद शिखण्डी । चेदीश्वरश्चेति तपःसुतेन स्वे सप्त सेनापतयोऽभिषिक्ताः ॥ ८२ ॥ लेभे हरिः स्वीकृतसारथित्वं प्रीतोऽर्जुनः सर्वचमूपतित्वम् । इत्यष्टभिः स्वैः स वृतो रराज ग्रहैग्रहाधीश इव क्षितीशः ॥ ८३ ॥ एवं रोत् बलयोर्द्वयेऽस्मिन्खेदं स्वकुल्यव्यसनेन विभ्रत् । धार्मि तदापृच्छय जगाम रामः सरस्वतीतीरगतीर्थवीथीः ॥ ८४ ॥ [क्षैमाकमित्रोव सागरं तं पत्तिर्निषङ्गी कवची धनुष्मान् । अङ्गीव कोपः प्रबलोत्कचाक्षो ह्यगाद्रणोत्कण्डमनात्रि (स्त्रि) वाणः ॥ ८५॥ अदृष्टपूर्वं रमणो रमाया विलोक्य तं विस्मयमानचेताः । जगाद वाचं विनयावतंसां विलोकमानेषु सुतेषु पाण्डोः ॥ ८६ ॥
१. 'भटैर्म' ख. २. 'निशिप्रवीरा' ख. ३. इत आरभ्य द्वादश श्लोकाः ख-ग-पुस्तकयोखुटिताः.
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५उद्योगपर्व-५सर्गः] बालभारतम् ।
२८९ न सैनिकस्त्वं कुरुपाण्डवानां धनुर्भूतां काल इवात्तदेहः । कुतः समेतोऽसि ममाभिधेहि कुलाभिधानागमकारणं ते ॥ ८७ ॥ चापेन भीमेन नगोपमेन देहेन जाने प्रधनैकधुर्यम् । मञ्चेतसीदं कुतुकं विधत्ते नान्यायुधत्वं विशिखत्रयं ते ॥ ८८ ॥ देवारिणाथो जगदे मुरारिरवेहि मां माधव माधव त्वम् । बलोत्कचाख्यं भृगुलब्धविद्यमुद्यद्भटौवाहवद्रष्टुकामम् ॥ ८९ ॥ कीनाशसद्मातिथिमाहवे यं कर्तुं समीहे जयमादितेयैः(१)। चापोद्गतेनैकशरेण तस्य विधेमि(?) चिहं मरणस्य देहे ॥ ९० ॥ अस्वन्तकं चान्यममुं शरं मे वक्ति प्रजासंयमनो यमोऽपि । पराक्रमोऽयं च पराजितस्य चमूपतेः साह्यविधौ प्रगल्भः ॥ ९१ ॥ एवं यदि स्यात्सुपराक्रमं त्वं शीघ्रं मधो दर्शय विष्णुरूचे । त्रैविक्रमं रूपमवाप्य तावद्वाणेन पादप्रतलेऽङ्गितोऽजः ॥ ९२ ॥ अन्यच्छराकृष्टिपरो निरुध्य प्रोक्तो व्रणुब्देक्षि(?) वर ह्यजेन । क्षीबस्तदेवार्थमथोत्तरत्वं सोऽपि प्रतिच्छन्द इवाबभाषे ॥ ९३ ॥ त्यज स्वदेहं शिरसामरत्वं मम प्रसादेन लभस्व सत्याम् । दैत्येन्द्र वाचं परिपालयाशु द्रष्टात्र यत्कारणमागतोऽसि ॥ ९४ ॥ जना धरण्यां तव भक्तिभावैः पूजां करिष्यन्ति वरप्रदोऽस्तु । तेषां महाभाग मम प्रसादान्मुक्ति परां प्राप्स्यसि चान्यकल्पे ॥९५ ॥ इत्युक्तिभाजे हरये सुरूपं छित्त्वोत्तमाङ्गं प्रददौ सुरारिः।। व्योमैकदेशेऽमरतां विधाय मुरारिणाधारि विभासमानम् ॥ ९ ॥ त्वं मां शरण्यं वद तद्भजे त्वामेवं वदन्पार्थसुयोधनाभ्याम् । निराकृतो रुक्मिनृपस्तदानीमक्षौहिणीशः स्वपुरं जगाम ॥ ९७ ॥ सुयोधनो योधवरानथोचे कालेन को वः कियता सकोपः। अक्षौहिणीः सप्त तपःसुतस्य जेतुं समर्थः समरातिरेकात् ।। ९८ ॥ खं त्रिंशता शान्तनिकुम्भयोनी कृपस्तु षष्टया दशभिः कृपाभूः । कर्णो दिनैः पञ्चभिरस्य वैरिक्षये समर्थ कथयांबभूवुः ।। ९९ ॥ १. 'शान्तन' क-ग.
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काव्यमाला।
संपृच्छमाने नृपतौ निवेद्यमानेषु भीष्मेण महारथेषु । उक्तोऽङ्गभर्तार्धरथीति कोपात्प्राची प्रतिज्ञा पुनराबबन्ध ॥ १०० ॥ उलूकनामाथ सुयोधनेन दूतो नियुक्तः समरोत्सुकेन । कोपाग्निकीलाकटुभिर्वचोभिः सभागतं धर्मसुतं बभाषे ॥ १०१ ॥ राजनरणं कस्य बलेन कर्तुमुत्कोऽसि साकं कुरुकुञ्जरेण । न द्यूतमेतद्विजितः क्षणेऽस्मिन्न यासि जीवन्सह बन्धुभिः स्वैः॥१०२॥ जीवन्त्रजाशु त्यज युद्धबुद्धिं मिष्टान्नभोजी भव सर्वदापि । विराटभूपौकसि सूपकारभूतस्य भीमस्य करप्रसादात् ॥ १०३ ॥ किरीटिकोदण्डगुणाग्रधूततूलालिसंपादितसूत्रजातिः । विप्राकृतेस्तत्र नवांशुकानि ददाति साध्वी विशदानि कृष्णा ।।१०४॥ निश्चिन्तमेवं कैशिपुस्तवास्ति मा मृत्युदूती भज राज्यचिन्ताम् । इमानपि श्रीपतिसात्वतादीन्कि कालभोज्यं कुरुषे विमूढ ॥ १०५॥ अथो रथाश्वेभनृवाहनाधिरोहस्पृहा काचन ते चकास्ति । तद्दासतामाशु सुयोधनस्य भज स्वयं सेवककामधेनोः ॥ १०६ ॥ इत्यस्य वाग्भिः स्फुटनिष्ठुराभिर्भुजाभृतां कोपकुटुम्बितानाम् । अक्षणां द्युतिः कौरवकालरात्रिसंध्येव मध्येजगदुदिदीपे ॥ १०७ ॥ क्रोधज्वलच्चक्षुरभीशुभिन्नाः कनीनिकांशुप्रकरा न केषाम् । दूतेऽत्र पेतुः प्रलयानलाचि टालकालायसदण्डचण्डाः ॥ १०८ ॥ हस्तेन चेदिक्षितिपः शतघ्नीमुदास घात्याः शतमित्यमर्षी । स्थाप्याश्च पञ्चेति महीं महाभिघातेन चक्रेऽङ्गुलिवातचिह्नाम् ॥१०९॥ यं धृष्टकेतुः स्फुटितस्फुलिङ्गं कुधा कृपाणं दशनैर्ददंश । उप्रैक्षि कैर्नास्य सभाभ्यवर्ती(?) हद्दीप्तशौर्यानलधूमदण्डः ॥ ११०॥ क्रोधात्तथा क्रौर्यमधत्त धृष्टद्युम्नो यथास्य प्रतिबिम्बदम्भात् । कृष्टासिवर्ती पुरतो बभूव किं किं करोमीति यमोऽपि कैम्प्रः ॥१११॥ विवर्तयंश्चक्रमिवाक्षितारामारोपयंश्चापमिव भ्रुवं च ।। तुलां तदागाहत मातुलस्य पितुश्च मन्युप्रवणोऽभिमन्युः ॥ ११२॥ १. भूपस्य च' ख. २. 'कशिपुर्भक्ताच्छादनयोरेकोक्त्या पृथक्तयोः पुंसि' इति मेदिनी. ३. 'केनास्य स नास्यवर्ती' ख-ग. ४. 'प्रदीप्त' ख. ५. 'दीप्रः' ख.
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५उद्योगपर्व-५सर्गः]
बालभारतम् ।
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पदाङ्गुलीमिर्युधि केऽपि केऽपि कराङ्गुलीभिर्युधि चूरणीयाः । । घात्या द्विषोऽमी शतमित्यमर्षात्कृष्णासुतैः पञ्चभिरप्यभाषि ॥ ११३॥ .. सृष्टं स्वयं शत्रुषु दीर्वमायुः क्षणादिवापूरयितुं प्रवृत्तः । बभ्रुः क्रुधा विभ्रमदुग्रवेगादृशौ निशाघरविवर्तहेतू ॥ ११४ ॥ यथा प्रकोपेन जटासुरारिश्चपेटयाताडयदूरुमूरुम् । भियेव तद्धानभुवा म्रियेरन्समीपतः स्युर्यदि धार्तराष्ट्राः ॥ ११५ ॥ जिह्वाञ्चलोऽराजत सृञ्जयस्य किंचिद्विवक्षोः प्रसृतास्यलोलः । प्रत्युत्सुकः शत्रुकुलानि दग्धुं निर्यन्हृदो मूर्त इव प्रकोपः ।। ११६ ॥ यमौ जगत्प्राणसमीर पानस्फीताविवोष्टौ यमपन्नगस्य । प्रदर्शयामासतुराशु खड्गनिहाद्वयं द्यामिव लेलिहानम् ॥ ११७ ॥ भूमि परां प्राप्यत फाल्गुनेन भूर्भालरन्ध्रे प्रकटं नटन्ती । नटीव वैरिव्ययनाटकैकनटस्य गाण्डीवशरासनस्य ॥ ११८ ॥ तेषां प्रकोपस्य विकस्वरस्य द्विषन्नमेधक्रतुपावकस्य । जाननुलूकः प्रथमाहुतिं खं त्रस्तो नृपभ्रूलवसंज्ञयैव ।। ११९ ॥ द्वेषादेष निमेषतोऽहमखिलां द्विट्संहति संहरे
प्राप्यैकस्य हरे रणोत्सवनवोत्साहाय साहायकम् । इत्यने नृपमुग्रवाचि विजयिन्यभ्युत्थिते निर्भर
वीरेन्द्राः समनीनहन्समममी सेनां रसेनाञ्चिताः ॥ १२० ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितैः
पादाजभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्दुः कृती । मोहद्रोहिणि बालभारतमहाकाव्ये शमं पञ्चमं तबोधाम्बुधिमौक्तिकस्रजि ययौ पर्वेदमौद्योगिकम् ॥ १२१ ॥
सगैः पञ्चभिरुद्योगपर्वण्यस्मिन्ननुष्टुभाम् ।
पञ्चविंशतियुक्तानि निश्चितानि शतानि षट् ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते बालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के उद्योगपर्वणि समरसमारम्भो नाम पञ्चमः सर्गः ।
__इत्युद्योगपर्व समाप्तम् ॥ १. रटन्ती ' क.
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काव्यमाला । भीष्मपर्व।
प्रथमः सर्गः। यत्र भात्यनपवृत्तनिवेशः कालदेशपिहितोऽपि पदार्थः । वैभवानि भुवि भारतकारज्ञानतत्त्वमुकुरः स करोतु ॥ १ ॥ पुण्यधाम्नि कुरुवर्षपृथिव्यां बालवृद्धपरिसेवितदिक्षु । प्रोद्यतेष्वथ नृपेषु बभाषे श्रीपराशरसुतो धृतराष्ट्रम् ॥ २ ॥ दिव्यमक्षि वितरामि तवेदं पश्य युद्धमिति वाचि मुनीन्द्रे । सौबलीपतिरुवाच कुलस्य प्रक्षयं न खलु वीक्षितुमीशे ॥ ३ ॥ संजयाय समरावधि दत्त्वा दिव्यमक्षि सहसाथ महर्षिः। सर्वमेष कथयिष्यति तुभ्यं भूपतेरिति निवेद्य तिरोऽभूत् ॥ ४ ॥ संजयोऽथ रणसीमनि गत्वा गत्यखिन्नमनसः क्षितिभर्तुः । मन्दिरोदरगतस्य पुरस्ताद्वक्तुमारभत वीरविनाशम् ॥ ५ ॥ राजराज शृणु यो विषमस्थः संगरादथ गतः स न वध्यः । संविदं मिथ इति प्रतिपद्य क्ष्माभृतो रणभराय विनेदुः ॥ ६ ॥ सेनयोस्तदुभयोरभयैकभ्राजमानमनसः शिबिरेभ्यः ।। प्राचलन्भुजभृतो युधि योधा मूर्तिमन्त इव विक्रमभेदाः ॥ ७ ॥ अद्भुतं रणरसे मधुरत्वं पश्य यस्य रसनाय समुत्काः । नैकवेलमसृजन्नुपरुद्धाः सुभ्रुवामधरपानमभीष्टम् ॥ ८॥ युद्धतूर्यनिनदैबलवद्भिर्द्राग्विजित्य रुदितान्यबलायाः । विस्मृतस्मररसो रणरौद्रः कश्चिदाशु चकृषे वरवीरः ॥ ९ ॥ कोऽपि वीरमुकुटः परिरभ्य प्रेयसीमुरसिनद्वयसङ्गात् । संस्मृतप्रधनकुञ्जरकुम्भो मङ्घ वीररसमूर्तिरचालीत् ॥ १० ॥ असि वीररमणीति रमण्यामस्मि वीरजननीति जनन्याम् । संमदं विदधदुत्सुकचेतास्तारतूर्यतरलश्चलितोऽन्यः ॥ ११ ॥
१. 'शेषित' ख. २. 'मनसा' ख. ३. 'मुक्ताः ' क-ग.
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६ भीष्मपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
वल्लभास्मि तव चेत्करिकुम्भान्मत्कु चोन्नतिरिपून्परिभिद्य । यच्छ मे' मणिगणानिति कान्तावर्जितो युधि ययौ द्रुतमेकः ॥ १२ ॥ कम्पितः पतसि पादयुगे मे' नेत्रकोणनिहतोऽपि भयार्तः । युध्यसे किमिषुभिः प्रिय भीरुं भावुकामिति हसंश्चलितोऽन्यः ॥ १३ ॥ कामयुद्धरसरागवशात्मा कोऽपि दोलितमना रुचिभाजम् । कम्पनीमहह पाणिगृहीतां प्रेयसीमसिलतां च ददर्श ॥ १४ ॥ मा कृथा युधि वृथात्मकलङ्कं मां निधाय हृदये हृदयेश | साहसिन्निह परत्र च यन्मे त्वं गतिः प्रियमुवाच परैवम् ॥ १९ ॥ स्पर्धया लसदसिश्चलवेणिः कुम्भिकुम्भसुभगा सुकुचश्रीः । हृत्परस्य सदिषुः सकटाक्षा लोलयत्परचमूश्च वधूश्च ॥ १६ ॥ अस्मि वीरतनया वरवीरप्रेयसी च कुरु वीरसवित्रीम् । अद्य हृद्य समरैरिति माता कंचिदाह तिलकाक्षतपूर्वम् ॥ १७ ॥ पत्युरेव पुरतः सुतमेका स्माह साहसनिधेः समरोत्कम् । विक्रमं युधि तथा विदधीथा नो यथा भवति वत्स विकल्पः ॥ १८ ॥ उत्सुकास्मि तव संमुखपश्चाद्धातपङ्किममृतैश्च विषैश्च । अर्जितैर्निजसतीव्रतशक्त्या सेक्तुमित्यवददङ्गजमन्या ॥ १९ ॥ आशिषं च तिलकं च जनन्या मन्यते स्म कवचाधिकमन्यः । येन संयति स एव भटानां विक्रमैः कवचतां प्रैतिपेदे ॥ २० ॥ कोऽपि पाणिघृतकाष्ठकृपाणो बालकोऽप्यनुनयञ्जनकं स्वम् । हन्मि वीरतनयानिति जल्पन्भक्तिशक्तिभिरधारि जनन्या ॥ २१ ॥ जीवतां युधि यशांसि मृतानां यद्यशांसि च सुरप्रमदाश्च । सत्यमित्यशकुनान्यपि वीरा मेनिरे सुशकुनानि चलन्तः ॥ २२ ॥ वज्रशूचिमुखयोस्तटिनीभूशक्रभूघटितयोः सुभटैस्तैः । व्यूहयोरथ रथद्विपवाजिस्थानुभिश्च पदिकैश्च विलेसे ॥ २३ ॥
२९३
१. 'मौक्तिकगणा' ख. २. 'कुम्भिकुम्भयोरिव सुभगा सुष्ठु कुचश्रीर्यस्याः' इति विगृह्यपूर्वपदत्वाभावमुत्तरपदपरत्वाभावं वा प्रकल्प्य पुंवद्भावाभावः समर्थनीयः ३ 'वरवीरसवित्री' ख; 'कुरुवीरसवित्री' ग. ४. 'निधिः ' ख. ५. 'युधि वेदैः' ख. ६. 'सरन् ' ख; 'पतन्' ग. ७. 'वैरिकटका' ख. ८. 'विरेजे' ख.
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२९४
काव्यमाला ।
व्यूहयुग्ममिदमद्भुतमाप्तं तैर्भटैरभवदुद्भटघोरंम् । नूनमुल्लसितकेतुकराग्रैराहवाय मिथ आह्वयमानम् ॥ २४ ॥
हाटकीयपटुकङ्कट पिङ्गे ते बले चलदुकूलपताके । रेजतुर्युगभिदेऽद्भुतजिह्वावौर्वरौद्रदहनाविव दीप्तौ ॥ २१ ॥ संभ्रमप्रसृतदृष्टिचलौष्ठं हुंकृतीरकृत यद्भवर्गः ।
तद्ध्रुवं मुहुररातिजयश्रीकृष्टिमन्त्रमिह गुप्तमपाठीत् ॥ २६ ॥ अग्रतो रिपुषु विस्फुरितेषु क्रोधिनामिह वधोत्कभुजानाम् । शत्रुतः प्रभव एव भटानां भेजिरे मृधविधावदिशन्तः ॥ २७ ॥ तत्र राजतरथः सितवर्णोष्णीषवर्मतुरगः कुरुवृद्धः । हेमनद्धसितपञ्चशिखाभृत्तालकेतुरभवन्मृधमूर्द्धा ॥ २८ ॥ अर्जुनो रिपुपदानथ पश्यन्संगरे गुरुपितामहबन्धून् । बाष्पपूरममुचन्नयनाभ्यां शस्त्रमण्डलमैथाशु कराभ्याम् ॥ २९ ॥ तं कृपामयमपाभयशक्तिर्मन वीक्ष्य चकितो हरिरूचे । आयुधंधर भेट स्मर योगं कोऽपि कस्यचिदपीह न किंचित् ॥ ३० ॥ इत्युदीर्य परमं निजरूपं विश्वरूपमयमेव मुरारिः । उद्भवप्रलयतत्परजन्तुव्रातसंकुलमदीदृशदस्मै ॥ ३१ ॥ वाग्निदर्शनवशादिति दैत्यद्वेषिणा विरचितप्रतिबोधः । संस्मरन्नवमिवारिषु वैरं चापमाप विजयी यमरौद्रः ॥ ३२ ॥ अर्जुने रणरसस्मृति यावत्पाण्डवाः किलकिलां कलयन्ति । तावदुज्झितशरासनवर्मा धर्मसूरवततार स्थान्तात् ॥ ३३ ॥ कायमायतभुजेषु परेषु क्रोधिषु व्रजति संप्रति राजा । विस्मयं दददिति स्वभटानां सोदरैः सह जगाम स भीष्मम् ॥ ३४ ॥ भीष्ममाप रिपुरेष शरण्यं कौरवा जयरवानिति चक्रुः । आदधौ क्षितिपतिस्तु जयश्रीलम्भकं शिरसि भीष्मपदानम् ॥ ३९ ॥
१. ‘घोषं' ख २. ‘रुद्रतपना' ख. ३. 'तोपि रिपुषु स्फुरितेषु' ख. ४. 'मिवाश्रु' क. ५. 'नर' ग. ६. 'अर्जुनेन रणसंस्पृशि' ख. ७. 'स्म' ख.
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६ भीष्मपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
२९६ यत्त्वया सह पितामह योत्स्ये यच्छ तन्मयि जयार्थमनुज्ञाम् । एवमुद्रिति भूभुजि भीष्मः माह संयति यतस्त्र जयास्मान् ॥ ३६ ॥ नाव्रजेरिति यदि प्रधनान्तस्त्वां ततः क्षितिपमुख्य शपेयम् ।
औचितीचतुर संप्रति हृष्टः किं प्रियं तव वरं करवाणि ॥ ३७ ॥ इत्युदीरितगिरं गुरुमूचे प्राञ्जलिः कलितधीर्धरणीशः । प्रीतिमान्यदि ततः कथय त्वं तत्त्वतो निजवधार्थमुपायम् ॥ ३८ ॥ न म्रिये रणपरैरपि देवैराव्रजेः पुनरपीह कदाचित् । एवमुल्लसितवाचि स भीष्मे द्रोणमाप च ननाम च राजा ॥ ३९ ॥ भीष्मवत्कृतवचाः स च राज्ञे पृच्छते स्ववधबुद्धिमुवाच । हन्त हन्ति यदि कोऽपि रणे मां न्यस्तशस्त्रमिति मे मरणं स्यात्॥४०॥ अप्रियं यदि महन्महनीयात्त्वादृशादसमसत्य शणोमि । तत्त्यजामि रणसीमनि शस्त्रं तद्यतस्व विजयख च शत्रून् ॥ ४१ ॥ इत्युपायमनपायमवाप्य द्रोणतः कृपमगाजगतीशः । तं प्रणम्य च निशम्य च तस्मादाशिषं सपदि शल्यमगच्छत् ॥ ४२ ॥ भूपतिर्जयमतिः प्रणिपातप्रीतिभाजि वरदायिनि शल्ये । प्राच्यमद्रढयदेव तदेवोद्योगकर्मणि वचः प्रतिपन्नम् ॥ ४३ ॥ कर्णमर्णवसुतारमणस्तु द्राग्जगाम च जगाद च हृष्टम् । युध्यसे न खलु जीवति भीष्मे तत्र पातिनि पुनः स्फुरितव्यम् ॥४४॥ तद्वचोमतविधायिनि राधानन्दने हरिरवाप धरापम् । पाण्डुसूनुरवदत्पुनरस्मान्यो वृणोत्यरिबले वृणुमस्तम् ॥ ४५ ॥. बुद्धिधाम तव भूप सुतानां दुधियामपरमातृकबन्धुः। शिश्रिये तमथ मङ्घ युयुत्सुस्त्यक्तबान्धवबलः स्वबलेन ॥ ४६॥ धीनिधे जय जयेति जगद्भिः स्तूयमानचरितोऽथ पृथाभूः । सैन्यमाप्य निजमादृतवर्मा युद्धकर्मणि रथी प्रवणोऽभूत् ॥ ४७ ॥ दध्मुरुद्धररवानथ शङ्खानर्जुनप्रभृतयो रथभाजः । खैर्गुणैरपि तदा विहसद्भिर्दीर्यमाणमिव खं विरराज ॥ ४८॥
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२९६
काव्यमाला। कौरवैरपि विपिष्टदिगन्ताश्चक्रिरे किमपि कम्बुनिनादाः । नूनमम्बरगुणो न वो यैः प्रत्युत ध्वनिगुणं वियदासीत् ॥ ४९ ।। संमदध्वनिरतीव विरोधं बन्धुतां च दधतां भुजभानाम् । क्रोधतो न मदतो नु न जानेऽन्योन्यभेदमिलितैः कलितः खे ॥ ५० ॥ निश्चितागतरणोत्सवहृष्यद्भीमसेनकृतनादपयोधौ । व्यूहयोरुभयतः सुभटानां वेडसिन्धुभिरमज्यत ताभिः ॥ ११ ॥ विस्फुटीभवितुमुन्द्रमतान्तर्विक्रमेण रणविभ्रमभाजा । विस्फुरद्भिरिव बाहुभिरुचैः प्राचलन्नुभयतोऽथ भटौघाः ॥ ५२ ॥ . सादिनं हयचरो रथभाजं स्यन्दनी गजगतं च निषादी। पत्तिमप्यथ पदातिरवाप द्वन्द्वयुद्धमिति जातममीषाम् ॥ ५३ ॥ मन्नमन्यरदि नो रदयुग्मं कोऽपि संयति गजः प्रतिमाने । छिन्नमूलमिषुभिर्निजभर्ता बिभ्रदाप सुरसिन्धुरशोभाम् ॥ १४ ॥ तादृशं रणविलासमतन्वन्पर्यताडि शिरसि स्वरदेन । कोपिनेव परकुञ्जरहस्ताभ्युद्धतेन युधि कश्चन हस्ती ॥ ५५ ॥ कस्यचिद्रथिवरस्य न बाणा रक्तपानसुखमापुररीणाम् । तत्करस्फुटितघोरधनाटकृतिध्वनितनश्यदसूनाम् ॥ १६ ॥ सारसारथिजुषं तरलाश्वं स्यन्दनं हतपतिं निजपक्षे । कोऽपि मङ्घ विरथो रथभर्तारुह्य संयति जघान विरुद्धम् ॥ ५७ ॥ मादिनौ सपदि कौचन युद्धेऽन्योन्यवक्रवहदाहितभल्लौ । निर्व्यथं पुरत एव मिलित्वा चक्रतुः परहति क्षुरिकाभ्याम् ॥ १८ ॥ धावतः समितिहर्षितहेषं कश्चिदात्मतुरगस्य हृदेव । पातितेषु परसादिषु सद्यो न द्विषद्वधमहोत्सवमाप ॥ ५९॥ खण्डितैकचरणो विनिपातैः कोऽपि यान्तमहितं पदपातैः । धावितो युधि जघान मुहुर्भूस्थापितोद्भुतकरस्फुरकोटिः ॥ ६० ॥ अम्बरोत्पतनतः प्रपतन्तं वीरमुल्लसदसियुधि कंचित् । एकमप्युपरि वज्रशिलावन्मेनिरे भयपराः परवीराः ॥ ६१ ॥ १. 'रवौधैः' क.
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भीष्मपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
२९७ मत्तदन्तिपृतनासु पयोदश्रेणिकासु हिमकान्तिरिवैकः । प्राक्प्रविश्य परितः स्फुरिताङ्गः कौमुदीमिव यशांसि वितेने ॥१२॥ भूतले निरवकाशतयाश्वश्रेणिमूर्ध्वसु कृतक्रमचारः । उत्पतन्नरिबलेषु बलीयान्सादिनः सपदि कोऽपि जघान ॥ १३ ॥ खैरमप्रहतसारथिरथ्याः क्षत्रधर्ममधुरेण परेण । चक्रिरे रिपुचमूषु रणप्राक्सज्जिता इव रथा रथिहीनाः ॥ ६४ ॥ धैर्यधन्यतममर्जितवत्योर्ध्यातमेकसुभट सुरवध्वोः । हेलया बत बिभेद विवादं तद्वधूः शिखिपथेन गताग्रे ॥ ६ ॥ कापि चित्तदयितेऽप्युत मौलौ नृत्यति स्मृतमृतिम॑गनेत्रा। . तूंणपाणिधृतकुण्डलताला तद्वरामरवधूर्विरसाभूत् ॥ ६६ ॥ कोऽपि तत्क्षणमैदक्षिणपक्षस्वर्गभीरुरपि वीक्ष्य निजस्त्रीम् । स्पर्शनव्यसनिनी स्वकबन्धे संगम स्पृहयति स्म भटात्मा ॥ १७ ॥ एनमेनमथवा वृणवानि वर्वधूरिति विचारपरका । वञ्चितानि जहृदैव पराभिग्वृता यदधिकाधिकवीराः ॥१८॥ भीरवोऽपि समसंगतभीरुबीडया व्यधुरभीरुवदेके । युद्धमुद्धतकृपाणनिपातक्रीडया मृदितपूर्वकलङ्काः ॥ ६९ ॥ लोहमुद्गर इवाङ्गचतुर्दिक्खड्गवेगचलनास्फुटमूर्तिः । कोऽपि निष्फलपरास्त्रनिपातोऽत्रासयद्रिपुकुलानि कुलीनः ॥ ७० ॥ कर्णतालयुगवीजितमूर्ति नलुभ्यदलिगीतचरित्रः । कोऽपि भर्तुरनृणो गुरुनिद्रखापमाप रदिनो रदतल्पे ॥ ७१ ॥ एकतः परिकिरन्युधि बाणान्भानुमानिव करानभिमन्युः । . निर्बिभेद परतामसमुच्चैराततान च महान्ति महांसि ॥ ७२ ॥ एष विश्वमहितां जयलक्ष्मीमुद्धरत्नहितसैन्यमदैन्यम् । मन्दराद्रिरिव वार्धिममन्दादम्बरं द्रुतमलोडयदेकः ॥ ७३ ॥ विस्फुरन्तमिति तं प्रतिकोपाद्राग्बृहद्वलकृपौ नृपविप्रौ । पेततुः कुरुचमूचपलाक्षीलोचने इव तदा रथिराजौ ॥ ७४ ॥ १. 'गदाने ख. २. 'तूर्य' क. ३. सदक्षिण' क.
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२९८
काव्यमाला।
तं बृहबलमखण्डबलश्रीमन्युमानभिययावभिमन्युः । आर्जुने रणसहायतयाथो कैकयक्षितिपतिः कृपमाप ॥ ७९ ॥ दन्तिनोरिव तदा कुरुपाण्डव्यूहयोरुभयतो रदनाभान् । तान्प्रहारचतुरांश्चतुरोऽपि प्रेक्षत ध्वनिधनानमरौघः ॥ ७६ ॥ तन्मिथो विरथिनौ सकृपाणौ मङ्क कैकयनृपश्च कृपश्च । तत्किमप्यसृजतां युधि येनालोकितौ रणमपास्य भटैस्तैः ॥ ७७ ॥ दुर्मुखस्य धृतराष्ट्रसुतस्य द्राग्बृहबलसहायपदस्य । सारथिं युधि शरेण सरोषो निर्जघान सहसा सहदेवः ॥ ७८ ॥ आर्जुनेविकिरतः शरवीथीं ज्यानिनादनिपतद्रिपुपतेः । अच्छिनधुधि बृहद्बलभूपो मार्गणैः सपदि सारथिकेतू ॥ ७९ ॥ तत्कृतप्रतिकृतः स कृतज्ञः कोपतः किमपि युद्धमधत्त । फाल्गुनिर्घनघनाघनसान्द्रेश्छादयन्गगनवम शरौघैः ॥ ८० ॥ एकमप्यतुलवीर्यमने मेनिरे निजनिजाग्रविभागे। रोदसी दशदिशोऽपि शरौधैः प्लावयन्तमिव फाल्गुनिमन्ये ॥ ८१ ॥ अप्यभेद्यमुपलावलिवृष्ट्या मण्डपं दिवि विधाय स काण्डैः । अग्निवजनकमातुलरीत्याचारयद्रिपुवने निजतेजः ।। ८२ ॥ मिन्नभद्रगजरौद्रसुभद्रानन्दनास्त्रगणविक्रमणेन । इत्यभिद्रुतकुरुप्रकरण प्रीणिते समिति पाण्डवसैन्ये ॥ ८३ ॥ आपपात तटिनीतनयस्य स्यन्दनो भुवनभीषणघोषः । चक्रयोर्गतिभिरेव मृतानां जीवतां च हृदयानि विभिन्दन् ॥ ८४ ॥
(युग्मम्) आपतत्प्रलयमारुतकल्पः सिन्धुसूनुरतुलस्तु बलान्तः । भूभृतां सकटकानि कुलानि व्यक्तशक्तिरुदपीडयदग्रे ॥ ८॥ न श्रमः समजनिष्ट तटिन्या नन्दनस्य धनुषी विशिखैर्वा । भ्रूविभङ्गचललोचनरोचिः स्रग्भिरेव विमुखेषु परेषु ।। ८६ ॥
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६ भीष्मपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
अस्थिरा युधि युधिष्ठिरसेना भीष्म भीष्मधनुरुद्धृतबाणैः । त्रुट्यमानतनुरातनुते स्म व्याकुलैव सकलापि विलापम् ॥ ८७ ॥ सिन्धुजन्मनि जगत्रयरौद्रे मुञ्चति क्षयकरानिति बाणान् । आरुरोह परमं वियदर्कः कौतुकीव रणवीक्षणहेतोः ॥ ८८ ॥ आकुलान्यथ बलानि विलोक्य स्यन्दनी पितृपितामहमागात् । अन्यवीरसमरेण सुभद्रानन्दनः स्फुटमपूर्णविनोदः ॥ ८९ ॥ स्वप्रणरिषुणा हृदि विद्धस्तच्च मत्कृतिविकम्पितमौलिः ः । तादृशे समिति शान्तनवोऽपि व्याकुलः कुरुचमूभिरशङ्कि ॥ ९० ॥ भीष्मसीमनि कृपः कृतवर्मा ते च दुर्मुखविविंशतिशस्याः । फाल्गुनेर्विशिखवल्गितकेन व्याहताः कमपि कम्पमवापुः ॥ ९१ ॥ ऐन्द्रिसूनुरभितः परिभिन्नः कोपनिर्जितयुगान्तकृतान्तः । आच्छिदत्सपदि दुर्मुखसूतं भीष्मकेतुमिषुभिः कृतचापम् ॥ ९२ ॥ केतुपातकुपिते युधि भीष्मे कालदण्डवदुदस्यति बाणान् । पाण्डुसैन्यरथिनो दश दीप्ता रक्षितुं नरसुतं परिवव्रुः ॥ ९३ ॥ आपतत्पतगराडिव भीमो भीष्मबाणगणपातितकेतुः । तत्किमप्यकृत संगरसङ्गी येन वीररस एव स मेने ॥ ९४ ॥ आत्मयुग्यगजघातितसूतस्यन्दनाश्वनिकराय सकोपः । उत्तराय तु विराटसुताय स्वर्णशक्तिममुचद्युधिः शल्यः ॥ ९९ ॥ पर्वतादिव गजादथ तस्मादुत्तरस्तरलया युधि शक्त्या । विद्युतेव कृतगाढनिपातं पातितः शिखरदेश इवोच्चैः ॥ ९६ ॥ खङ्गभिन्नरिपुसिन्धुरशुण्डे तत्र राज्ञि कृतवर्मरथस्थे । भ्रातृमृत्यु कुपितो युधि शङ्खः सिन्धुजेन रुरुधे परिधावन् ॥ ९७ ॥ शङ्खरक्षणधियाथ धुनीजं दुर्धरं लघु रुरोध किरीटी ।
तत्तयोः प्रलयविभ्रमदायी सायकै रणरसः प्रससार ॥ ९८ ॥ पादचार बलशल्य गदाग्रध्वस्तसारथिहयस्तु स शङ्खः । जीवितव्यमिव मञ्जु गृहीत्वा खड्गमर्जुनरथेऽधिरुरोह ॥ ९९ ॥
१. 'तुद्यमान' ख ग २. रथी. 'स्यन्दिनी' क.
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२००
काव्यमाला।
सिन्धुसूनुरथ पाण्डुचमूषु त्यक्तफाल्गुनरंथः प्रणनाद । कोपविस्तृतयमाननतुल्याकृष्टचापदशनायितबाणः ॥ १० ॥ लोठयन्गजघटां भटचक्र संहरन्विघटयरथवीथीम् । चूर्णयन्हयचयं युधि जातो वज्रपात इव शत्रुषु भीष्मः ॥ १०१॥ मार्गणेषु गगनं पिदधत्सु क्रुद्धभीष्मधनुरुल्लसितेषु । अस्तभूधरगुहान्तरमागात्सोऽपि भीतवदशीतमरीचिः ॥ १०२॥ इत्थं भीष्मेऽतिभीष्मे क्षयसमयसमुद्भूतधूमध्वनोग्र__ज्वालाकल्लोललीदान्तरमिव तरसा कुर्वति व्योम बाणैः । यावद्युद्धान्निषद्धं किल निजकुलजानेति पूर्वाद्रिमिन्दु___स्तावत्ते मत्तवीराः स्वयमतनिषत ब्रीडयेवावहारम् ॥ १०३ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के भीष्मपर्वणि प्रथमदिनसङ्ग्रामवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ।
द्वितीयः सर्गः। क्षीरोदचिरशायित्वात्पीयूषमिव संचितम् । स्फारयन्भारतं व्यासः श्रीकृष्णावतरः श्रिये ॥ १ ॥ से राजानमतिम्लानमथ भीष्मातेजसा । गोमिरुल्लासयामास निशाकाले जनार्दनः ॥ २ ॥ निशान्तोद्घाटिते वीरमुक्तिद्वारे रवौ ततः । कौन्तेयाः कौरवाः क्रौञ्चव्यूहव्यूढास्ततोऽमिलन् ॥ ३ ॥ शिरांसि भूभुजामेवे शरपातैरपातयन् । फलानि नालिकेराणामिव सिन्धुसुतस्ततः ॥ ४ ॥ राज्ञां भीष्मशरोत्क्षिप्ता मूर्धानो युधि नृत्यताम् । वरयित्री सुरवधूमिव द्रष्टुमगुर्दिवम् ॥ ५ ॥ क्षिप्तानां नभसि क्ष्मापमूनी स्वस्मिन्प्रपातिनीः ।
रोषारुणा दृशापश्यद्भीष्मः पुलककन्दलः ॥ ६ ॥ १. 'रणः' ग. २. 'राजानमहनि म्लान' ख-ग. ३. 'निशान्ते घटिते' क. ४. 'व्यूहकृतो' ख-ग. ५. 'मेवं' ख..
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भीष्मपर्व-२सर्गः] बालभारतम् ।
धुनीसुतशरोद्भूतैरास्यैराज्ञा सकुण्डलैः । सर्वाङ्गमफलव्योम सूर्येन्दुफलपादपः ॥ ७ ॥ इत्यस्य विशिखापातैर्वातैरिव विलोडिताम् । विलोक्य वाहिनी क्रोधादधावद्धनुमद्धृजः ॥ ८ ॥ मर्माविद्भिर्द्विषां बाणैः कटाक्षरिव सुभ्रवः । पुरतस्ताड्यमानोऽपि हृष्यन्नेवापपात सः ॥ ९ ॥ स बाणविद्धसर्वाङ्गं गलद्रक्तं द्विषवलम् । मनसः कोपंतप्तस्य धारागृहमिव व्यधात् ॥ १० ॥ तमभ्यधावत्क्रुद्धोऽथ धुनीसूनुः किरशरान् । संहर्षोत्तालपातालकुमारप्रकरोपमान् ॥ ११ ॥ पार्थस्य चापतः सिन्धोर्मर्यादात इवोर्मिभिः । शरैः प्रसस्त्रे रुन्धद्भिर्लोकान्रोद्धर्मपारितैः ॥ १२ ॥ विक्रमोपक्रमस्ताभ्यां तदा कोऽपि तथादधे । व्योमापि विशिखस्तोमै रोमाञ्चीव यथैक्षत ॥ १३ ॥ स्पर्शकपेयं मधुरममरीकारकारणम् । अन्येऽप्यारेभिरे वीरा द्वन्द्वयुद्धरसायनम् ॥ १४ ॥ क्षतेभकुम्भोद्यन्मुक्ताछलोच्छलितशीकरम् । रेमे कलिङ्गवाहिन्यां भीमः साकं जयश्रिया ॥ १५ ॥ भीमभिन्नकरिश्रेणिरक्तवेणिषु मज्जताम् । तत्रासजीवितत्राणं शरणं जीवतां मृताः ॥ १६ ॥ व्योम्नि भीमक्षतोत्क्षिप्ता द्विरदा नीरदा इव । रक्तवर्षेः कलिङ्गेषूत्पातं कंचिदमूमुचन् ॥ १७ ॥ भीमोऽवधीच्छकदेवं भानुमन्तं च गोपतिम् । इत्युच्छ्तेि ध्वनौ सिद्धान्यधुरिन्द्रार्कयोर्दशम् ॥ १८ ॥ ततो मूर्छत्पतद्वीरमुन्ननाद वृकोदरः ।
दिग्गजा द्यां तदैक्षन्त त्रुटब्रह्माण्डशङ्कया ॥ १९ ॥ १. 'कोपतस्तस्य' क. २. 'मवारितैः' ग.
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३०२
काव्यमाला।
कुम्भीन्द्रेणेव भीमेन यमलीलावने युधि । ध्वस्तो वीररसस्येव प्रासादः केतुमान्नृपः ॥ २० ॥ अथ भीमास्त्रविरथस्तां चमूमत्यतापयन् । मारुतिर्मारुतोद्भूतजीमूत इव भानुमान् ॥ २१ ॥ सौभद्रशरवीचीभिः कुमारः कुरुभूपतेः । बालद्रुम इवाम्भोदधाराभिर्विधुरीकृतः ॥ २२ ॥ शराः सुयोधनादीनामितश्चेतश्च पातिनः । व्यैजयन्संयतिश्रान्तमार्जुनि वाजमारुतैः ॥ २३ ॥ द्रुमाणां कुसुमानीव यशांसि क्ष्माभुजां क्षिपन् । तत्रातित्वरया वायुरिवायात्कपिकेतनः ॥ २४ ॥ विपक्षविशिखास्तस्मिन्नकिंचित्करतां ययुः । नरेऽतिनीरसे नारीनिरीक्षणगुणा इव ॥ २५ ॥ कीनाशदासहस्तायैरिव भल्लिनखोत्कटैः । असून्क्रष्टुं विपक्षेषु विष्वक्पेते तदाशुगैः ॥ २६ ॥ कौन्तेयकृत्तैर्वीरेन्द्रैविध्यमानः समन्ततः । उद्विग्न इव तिग्मांशुस्तदास्ताद्रिगुहां गतः ॥ २७ ॥ ततोऽवहारव्याहारभाजि भीष्मे भुजाभृतः । ययुनिजनि धाम धामनिद्भुतवह्नयः ॥ २८ ॥ (द्वितीयमहः) अथोल्नणरणश्रद्धाः संनद्धा दो तोऽभितः । रत्नकङ्कटकान्त्योच्चैः क्षपाशेषे तमोऽक्षिपन् ॥ २९ ॥ भीष्मो व्यूहं व्यधाद्वैरिदर्पसाय गारुडम् । तद्वयूहगलहस्तार्थमर्धचन्द्रमथेन्द्रभूः ॥ ३० ॥ अभीष्टोदामसङ्ग्राममिथोदानसुहृत्तमाः । परस्परं प्रशंसन्तः प्रीता भुजभृतोऽमिलन् ॥ ३१ ॥ तदापलिप्तकीलाला बालार्कद्युतिमालया ।
न प्रत्यङ्गं लगन्तोऽपि प्रहारा जज्ञिरे भटैः ॥ ३२ ॥ १. 'इति द्वितीयमहः' ख. २. 'द्विषदर्पसर्पत्रासाय' ख. ३. 'चन्द्रं नरो व्यधातू'ख.
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६ भीष्मपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
प्रविष्टौ कुरुसैन्येषु द्रुतं भीमघटोत्कचौ । भक्षेषु सममेव द्वौ बालकस्य कराविव ॥ ३३ ॥ तच्चापयोः शरासारैन मुहुर्मुमुहुर्भटाः । कटाक्षैर्लक्षितास्तीक्ष्णैः कालरात्रिदृशोरिव ॥ ३४ ॥ रिपुराजशर श्रेणिस्तयोरुपरि निष्फला । पपात जलभृद्वृष्टिरूपरार्णवयोरिव ॥ ३१ ॥ भीमसेनपृषत्केन हृदयान्तः प्रवेशिना । मूर्छा कौरवभूभर्तुर्मृतिदूतीव योजिता ॥ ३६ ॥ तस्मिन्मूर्छाभृति हृते सूतेन रथशायिनि । कृष्णाद्यैस्तद्बलं चक्रे विर्वेशं विशरारुभिः ॥ ३७ ॥ द्रुतमाहितमोहेन नृपेणोत्साहितस्ततः । पालि वीररसस्येव भीष्मः कृष्टं धनुर्दधौ ॥ ३८ ॥ मुहुर्धन्व धुनीसूनोः शरापातैर्नतोन्नतम् | भटालिचर्वणव्यग्रयमचक्राभमैक्ष्यत् ॥ ३९ ॥ एैकैककङ्कपत्रास्तस्त्रत्रीभरुधिरार्णवे ।
सपार्थरथपत्त्यश्वं निमज्जयितुमुद्यतः ॥ ४० ॥ विश्वेषामीश भीष्मस्य विशिखोर्मिषु मज्जताम् । न किं भवार्णवोत्तारपोत पोतत्वमेषि नः ॥ ४१ ॥ इत्युपालभ्यमानोऽन्तरनन्यगतिकैर्नृपैः ।
विभुर्भीष्मरथस्याग्रे निनाय रथमार्जुनम् ॥ ४२ ॥ ( युग्मम्) प्रसरन्भीष्मदावाग्निर्वाणकीलाचयोऽग्रतः ।
चण्डैः पाण्डवकाण्डानां वातैरिव निवर्तितः ॥ ४३ ॥ रिपुच्छेदोच्छलद्वाणचापचक्रे किरीटिनः । प्राकार इव संलीनं पाण्डुसैनिकजीवितैः ॥ ४४ ॥
३०३
१. 'समये बद्धौ' ख. 'सममाबद्धौ' ग. २. 'हते' ख. ३. 'शासती' क. ४. 'वि. शरारुशरारुभिः' क-ख. ५. 'द्रुतमो' क; 'हृतमो' ख. ६. 'एकैकं कङ्कपत्रैस्तैस्त्रित्रिभी रुधि' क.
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३०४
काव्यमाला |
भीष्मस्य विशिखानेव छिन्दन्भिन्दन्पराशरैः । गुरोर्भक्ति च शक्ति च दर्शयामास वासविः ॥ ४९ ॥ ततस्त्रसद्भयो भीष्मः कृष्णौ नाराचपञ्जरे । निनाय निजशौर्यश्रीजयश्रीकेलि कीरताम् ॥ ४६ ॥ कृष्णौ विभतुर्भीष्मप्रहारक्षतजोक्षितौ । कालीकटाक्षकपिशप्रभौ कालभुजाविव ॥ ४७ ॥ गाङ्गेयवसुमुक्तानां सायकानां समागमे । तदासीत्पाण्डवी सेना गणिकेव पराङ्मुखी ॥ ४८ ॥ शिथिलं युध्यमानेऽथ फाल्गुने गुरुगौरवात् । सुघोरैर्भीष्मनिर्घातैः साक्रन्दे चाखिले बले ॥ ४९ ॥ स्वार्थसार्थच्छिदे पार्थबन्धमथो युधि ।
यदेवं दीप्तमुद्रान्तं न वृद्धं विनिषेधसि ॥ १० ॥ अद्य हन्म्यहमेवानुं किं त्वयेत्युद्गमद्वचाः । चण्डांशुचक्रचैण्डांशुचक्रज्वालाज्वलन्नभाः ॥ ११ ॥ दृष्टः ष्टं वल्ड्रीवैत्रसद्धिस्त्रिदशैरपि । रथाग्रादुग्रवेग श्रीरुत्ततार क्रुधा हरिः ॥ ५२ ॥
( चतुर्भिः कालापकम् )
तं प्रेक्ष्यायान्तमभ्रान्तः स्मेरो हृष्यन्प्रसन्नदृक् । रोमाञ्ची चञ्चयंश्चापमाचष्ट वसुरष्टमः ॥ १३ ॥ एह्येहि नाथ मुक्ति मे द्राग्दत्तां त्वत्सुदर्शनम् । मूढाश्चिरं तपःकष्टं सेवन्ते दर्शनान्तरम् ॥ १४ ॥ द्रुतमुक्तिकृते कैश्चिन्नाथ पूज्योऽपि कोप्यसे । धन्योऽहमपकर्तास्मिन्किचित्प्रकुपितोऽसि च ॥ ५५ ॥
१. गङ्गासूनुवस्ववतारभीष्मप्रक्षिप्तानां बाणानां सुवर्णद्रव्यरहितानां श्लेषे शसयोरभेदाच्छायकानां विद्यानाम् इत्यर्थः २. 'पदबन्ध' ग. ३. 'खण्डांशु' क. ४. 'कथं' ग. 'स्मि किंचिच्च कुपितो' ग.
५.
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६ भीष्मपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
इत्युक्तिपारे भक्त्या च चक्राप्तिस्पृहयापि च । नमन्मूर्धनि गाङ्गेये मुक्तिलक्ष्मीकटाक्षिते ॥ ५६ ॥ अनूत्पत्य समुत्थाप्योत्प्लुत्यारोप्य रथे हरिम् । जज्ञेऽर्जुनस्त्रिजगतीप्रेक्षणीयवपुः क्षणम् ॥ १७ ॥ विश्वेश कोऽयमारम्भः संरम्भस्त्यज्यतामयम् । प्रभावः प्रेक्ष्यतां प्रेङ्खन्व एव मयि बिम्बितः ॥ १८ ॥ इत्युक्त्वा हृष्टवैकुण्ठकम्बुनादैः कृतोद्यमाः । ज्यानादैराह्वयत्पार्थः सुरीर्वरवरोत्सुकाः ॥ १९ ॥ भुजगीव भुजा तस्य कृष्टचापविलायगा । असूतेवाशुगान्सर्पान्नरेन्द्रैरपि दुर्धरान् ॥ ६० ॥ तुल्यकालो च्छलच्छ स्त्रैररोधि क्रोधनैरयम् । संभूय भूभुजां भारैर्जम्भारिरसुरैरिव ॥ ६१ ॥ अथोत्कृत्तद्विषद्देहवाहनायुध केतनम् । माहेन्द्रमस्त्रं माहेन्द्रिर्व्यधाद्विश्वक्षयक्षमम् ॥ ६२ ॥ कोऽप्यासीत्खण्ड्यमानानां पाण्डवास्त्रविरोधिनाम् । धीवरैर्धूयमानानां शङ्खानामिव निःखनः ॥ ६३ ॥ पतन्त्येव बलाङ्गानि विखण्ड्याहर्तुमुत्सुकाः । विलसन्रक्तकुल्यासु पिशाचास्तिमिरूपिणः ॥ ६४ ॥ धनंजयजये वीरा बह्वभ्यासभुजामदम् । तदोच्चैरमुचन्नब्धितरणे तारका इव ॥ ६५ ॥ पार्थास्त्रक्षुण्णसैन्योत्थैरक्त सिक्त इवारुणः ।
दिनेशः प्रविवेशाब्धौ तदा स्नानमनोरथः ॥ ६६ ॥
आप्रभाते रणाम्भोधौ संपृक्ते दिवसात्यये ।
तदिति व्यथितं चक्रद्वयं विघटितं तदा ॥ ६७ ॥ (तृतीयमहः )
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( युग्मम् )
१. 'प्रेक्षणीय इव' ग. २. 'वैकुण्ठ' क. ३. 'द्यमान् ' क. ४. 'त्सुकान् क.
५. 'वक्त' ख- ग.
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काव्यमाला।
अथावासेषु निर्गम्य शर्वरी स्वप्नसंगरैः । व्यूहेन्द्रं कौरवाश्चक्रुरर्धचन्द्रं च पाण्डवाः ॥ ६८ ॥ अथ रक्तौघसंवृत्तप्रातःकृत्यपिशाचकम् । भीष्माभिमन्युप्रमुखा विदधुर्युद्धमुद्धतम् ॥ ६९ ॥ भूपालैः कालबालस्य प्रातराशं प्रकल्पयन् । कर्मव्यूह इवात्मानं भीष्मोऽर्जुनमयोधयत् ॥ ७० ॥ कृताधिकप्रतिकृतैस्तौ हृष्यन्तौ मुहुर्मिथः । चिरं चिक्रीडतुश्चारुसौहार्दो सुहृदाविव ॥ ७१ ॥ अभिमन्युः शरासारैरेकः शत्रूननेकशः। आच्छादयदुडुस्तोमान्करैरिव दिवाकरः ॥ ७२ ॥ पौरव्यपुत्रं दमनं नृपं सांयमनिं पुनः ।। कर्मकालाविव ज्ञानी धृष्टद्युम्नस्तदावधीत् ॥ ७३ ॥ भीमो भेजे द्रुतं प्रीतिभावं धावत्सु संमुखम् । मगधेन्द्रग़जेन्द्रेषु भेकेष्विव भुजंगमः ॥ ७४ ॥ गदापाणेस्तदा तस्य पादातस्य प्रसर्पतः । पंदोत्पातेन नागेन्द्रा द्वयेऽपि विचकम्पिरे ॥ ७५ ॥ खण्डितं तद्गदापातैरुच्छलन्मौक्तिकच्छलात् । तदोत्पपात कुम्भिभ्यो दिक्कुम्भिजयजं यशः ॥ ७६ ॥ भीमस्य पादपातैर्या पीडा भोगिविभोरभूत् । नैव सा तद्गदोत्क्षिप्तगजेन्द्रगिरिपाततः ॥ ७७ ॥ घ्नन्ति तस्मिन्रथोत्पातापातरक्ताब्धिमजनैः । गजान्वीक्ष्याकुलान्देवाः क्षिप्तादूरस्मरन्हरेः ॥ ७८ ॥ इति क्षतसमस्तेभवल्गनं फाल्गुनाग्रजम् । कृतान्तमिव संभ्रान्तमीयुर्दुर्योधनादयः ॥ ७९ ॥ काण्डेन कुरुराजेन ताडितः पीडितः क्षणम् ।
स्तब्धोऽभूत्तद्वधोपायं ध्यायन्निव वृकोदरः ॥ ८०.॥ १. निवर्य' ग. २. 'तदो' ग; 'पादो' ख.
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भीष्मपर्व-२सर्गः] बालभारतम् । ___३०७
पार्थेनाथ रथस्थेन पृषत्केन हृदि क्षतः । वर्णिकां मरणस्येव मूळमाप सुयोधनः ॥ ८१ ॥ सेनापतिसुषेणाख्यौ जलसंधसुलोचनौ । भीममुग्रं भीमरथं भीमबाहुमलोलुपम् ॥ ८२ ॥ समं विवित्सुविकटौ दुर्मुखं दुष्प्रधर्षणम् । इमान्यमातिथीकृत्य तत्सुतांश्च चतुर्दश ॥ ८३ ॥ चतुर्दशसु विश्वेषु व्रजतां यशसामसौ । उच्चैः सहचरीचक्रे सिंहनादान्वृकोदरः ॥ ८४ ॥ (विशेषकम्) विषमास्त्रप्रगल्भेऽथ भगदत्ते समेयुषि । संचुकोच नवीनेव रामा भीमपताकिनी ॥ ८५ ॥ भीमोऽमूर्छन्ध्वजालम्बी विद्धस्तदिषुणा हृदि । घूर्णन्बभौ स्तम्भबद्धो मदान्ध इव सिन्धुरः ॥ ८६ ॥ खभटारूढदिग्दन्तिघटो मायी घटोत्कचः। तमिभस्थं सुरेभस्थस्ततस्तातक्रुधारुधत् ॥ ८७ ॥ तदत्रवृष्टिभिः शौर्यलताकन्दौ तदापतुः । उत्कर्ष भगदत्तश्च सुप्रतीकश्च तद्गजः ॥ ८ ॥ प्रणादैर्भगदत्तस्य सुप्रतीकस्य चाद्भुतैः । द्राग्नरेन्द्रा गजेन्द्राश्च बभूवुर्विमदास्तदा ॥ ८९ ॥ समुज्झितेव दिग्नागैर्घटोत्कचहृतैरिव । तदा तैमीतमाकान्ता सिन्धुमन्नेव भूर्वभौ ॥९० ॥ मायिनां रणराज्याय रक्षसां दिवसो निशा। इति मैमिभिया भीष्मोऽवहारं व्याहरजवात् ॥ ९१ ॥ न मृतास्तावदद्येति ध्यायन्तः कौरवा ययुः । श्वोऽप्यमून्हन्म एवेति स्मरन्तः पाण्डवाः पुनः ॥९२॥ (चतुर्थमहः)
१. रामापक्षेऽप्यर्थः स्फुट एव. २. 'नैशतमः कान्ता' ख.
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काव्यमाला।
किं त एव जयन्तीति निशि पृष्टः सुतेन ते । भीष्मो जगाद गां विष्णुमना विष्णुपदीनिमाम् ॥ ९३ ॥ खयंभुवा भुवो भारं निराक स्मृतः पुरा । गतः प्रत्यक्षतां तेन स्तुतो नारायणः प्रभुः ॥ ९४ ॥ विश्व विश्वेश विश्वात्मन्विश्वका?घ विश्वधीः । जय विश्वस्थिते विश्वक्षय विश्वोदय प्रभो ॥ ९५ ॥ ज्ञातृज्ञेयप्रभो ज्ञानज्ञप्त्रे तुभ्यं नमो नमः । भोक्तभोग्यप्रभो भोगभोके तुभ्यं नमो नमः ॥ ९६ ॥ ये जग्निरे त्वया नाथ दिवस्तोषाय दानवाः। भारयन्ति भुवं देवी मानवीभूय तेऽधुना ॥ ९७ ॥ पदं सुमेरुमौलिझैः पातालं पत्तलं पुनः। हर्तु तस्या भुवो भारं भगवन्भव मानवः ॥ ९८ ॥ वयं स्वयंभुवेत्युक्ते स श्रीनारायणः प्रभुः । नरेण सुहृदा सार्धे भेजे भूषणतां भुवः ॥ ९९ ॥ वासुदेवार्जुनीभूय ताभ्यां गुप्तो युधिष्ठिरः। जयत्येव स धर्मात्मा युक्तस्तेन समं शमः ॥ १० ॥ इति भीष्मगिरा भूपः प्रभावं भावयन्हरेः। आसाद्य सदनं वीरविनयैरनयन्निशाम् ॥ १०१॥ आपपात ततः प्रातर्भीमभीष्ममुखो मृधे । प्रवीरप्रकरः श्येनमकरव्यूहसंहतः ॥ १०२॥ कालक्रीडावने युद्धे व्यत्ययाद्वीरशाखिषु । यशःकुसुमशुभ्रेषु तदा पेतुः शिलीमुखाः ॥ १०३ ॥ बाणभिन्नेभकुम्भासृग्धाराभारैर्बभूव भूः । प्रेतप्रीतिकरी प्रेतपतिपुण्यप्रपेव सा ॥ १०४ ॥ न दन्तिघातजं रक्तं रुग्रक्तेयं रवेरिति ।
भ्रातरः कातरा धीरैर्वारयांचक्रिरे क्षताः ॥ १०५ ॥ १. 'ज्ञाताज्ञातप्रभो' ग. २. भ्रमरा; बाणाश्च. . . . . . . . .
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६ भीष्म पर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
भिन्नभूपमुखाम्भोजैः कर्णान्तोत्थशिलीमुखैः । भवद्भीमभीष्मा ढ्यैर्जगा हे वाहिनीद्वयम् ॥ १०६ ॥ ध्वनद्धन्वनदद्वाणं सत्त्वालंकारभासुरम् । सात्यकिः सुरनारीभ्यो रथिनामयुतं ददौ ॥ १०७ ॥ नीरन्ध्रयन्शरैः शत्रून्पलायनपरान्दिशः । तमरुद्ध ततो युद्धसूरिभूरिश्रवा नृपः ॥ १०८ ॥ युद्धाय धावतस्तत्र दश सात्यकिनन्दनान् । भूरिश्रवाः शरैश्चक्रे दिक्पालेभ्यो वलीनिव ॥ १०९॥ ततः प्रवृद्धवेगौ तौ वीरौ तरलितक्रुधौ । मिथः क्रियाभिर्विरथौ घुतासी समधावताम् ॥ ११० ॥ भुग्नाशा करिकूर्माहिवराहगिरितद्भारात् । तत्सत्यसत्त्वावष्टब्धं नामज्जद्भूतलं यदि ॥ १.११ ॥ भीमदुर्योधनाभ्यां तौ स्वरथाभ्यामथान्यतः । द्रानीतौ तत्तु मेनाते जीवनं निधनाधिकम् ॥ ११२ ॥ तदा तु सात्यकि सुतध्वंसक्रोधार्द्धनंजयः । धनंजयोऽभवद्धाम्ना क्रूरः कौरवकानने ॥ ११३ ॥ अब्दादिव महाशब्दाच्चण्डकोदण्डतोऽर्जुनात् । भूभृन्मौलिषु संतापं व्यधुः शम्पा इवेषवः ॥ ११४ ॥ तद्वाणपातव्यथिता पिण्डीभूय भवच्चमूः । इतश्चेतश्च लुलितैर्मृत्योः कवलतां ययौ ॥ ११५ ॥ इति निर्दम्भसंरम्भात्तदा जम्भारिजन्मना । अहन्यन्त सहस्राणि नृपाणां पञ्चविंशतिः ॥ ११६ ॥ ध्वजैः पल्लवितं रक्तैः पुष्पितं हारमौक्तिकैः ।
मौलिभिः फलितं राज्ञां तदा दुर्मन्त्रितं तव ॥ ११७ ॥
३०९
१.
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'जवात् ' ख- ग. २. 'वैरौ' ख. ३. अर्जुन: ४. वह्निः ५. 'भूता' ख. ६. ‘द्यूतैः' ख-ग.
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काव्यमाला ।
एवमाखण्डलौ चण्डशूरमण्डलखण्डिनि । दुर्गमं दुर्गमम्भोधिं बिम्बोऽम्बरमणेरगात् ॥ ११८ ॥ युद्धादप्यधिकं कष्टं कलयरक्तकर्दमे । उत्सुकोऽप्यगमद्धाम वीरवारः शनैः शनैः ॥ ११९॥ (पश्चममहः) पुनः प्रभाते संनद्धाः क्रुद्धाः कौरवपाण्डवाः । ते क्रौञ्चमकरव्यूहभाजो युयुधिरेऽधिकम् ॥ १२० ॥ विपक्षादागतेभ्योऽपि तीक्ष्णेभ्योऽपि भृशं मुखम् । ते मार्गणेभ्यस्तृणवद्दातारो वपुरप्यदुः ॥ १२१ ॥ समरेऽस्मिन्यमक्रीडातडाग इव खेलताम् । नाकर्षन्क्षतजं केषां जलौकस इवेषवः ॥ १२२ ॥ कोपाटोपारुणरुची पेततुर्भीमपार्षतौ । कुरुषु स्फुरदिष्वासभ्रवौ यमदृशाविव ॥ १२३ ॥ पीड्यमाना दृढं ताभ्यां प्रियदोामिव प्रिया । सिस्वेद च चकम्पे च संमुमोह च सा चमूः ॥ १२४ ॥ वाहिनीशोषणोदग्रं गजानीकैः सुयोधनः । भीममाच्छादयद्भानुं प्रावृट्काल इवाम्बुदैः ॥ १२५ ॥ नागैः सङ्गोऽस्तु नागानामितीव गदया गजान् । दृढमाहत्य कुम्भेषु भीमः क्ष्मायाममजयत् ॥ १२६ ॥ तेनोत्क्षिप्तेषु नागेषु त्रस्तमस्तकुतूहलैः । विमानभङ्गभीत्या तु दिवि देवैरितस्ततः ॥ १२७ ॥ दातुं दिग्दन्तिविश्रान्त्यै दिक्पालेभ्य इवामुना । धृत्वा करेण जीवन्तो दिक्षु चिक्षिपिरे द्विपाः ॥ १२८ ।। इत्युदस्तद्विपस्तोमं नृपस्तोमरवृष्टिभिः । भीममभ्यकिरकोपकृशानुः सानुजानुगः ॥ १२९ ॥
१.'तेषां ख.
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६भीष्मपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
भीमस्तद्वाण संजातसर्वाङ्गीणत्रणो रणे । गोपति कोपसंरक्तट्टेक्सहस्र इवैक्षत ॥ १३० ॥ ततोऽशुप्रकरेणार्कः कौरवप्रकरानिव । कौरवान्मोहयामास मोहनास्त्रेण पार्षतः ॥ १३१ ॥ मिथः पेषकपेष्यत्वं भेजिरे कौरवास्ततः । तीव्रात्मानः प्ररोहन्तो डिम्भस्य दशना इव ॥ १३२ ॥ प्रौढप्रज्ञास्त्रपातेन कौरवप्रकरं गुरुः ।
तदा बोधयामास मोहविद्रोहकारकः ॥ १३३ ॥ ततो मुञ्चे न जीवन्तमेनमद्येति मारुतिः । विरथ्य कुरुपृथ्वीशं मूर्छयामास मार्गणैः ॥ १३४ ॥ नृपे कृपेण रथिना कृष्टे हृष्टेऽथ पाण्डवे । क्ष्वेडाभिः खण्डयत्यद्रींश्चकम्पे चकितेव भूः ॥ १३१ ॥ उद्यते कुरुवृद्धेऽथ पाण्डवप्रेयसी चमूः । शिरोनिखातैर्विशिखैः कुरङ्गीमिव निर्ममे ॥ १३६ ॥ भीष्मो भुवनसंक्षोभी भीरूणामथ भूभुजाम् । संकीर्णीकृत कीनाशसदनं कदनं व्यधात् ॥ १३७ ॥ स कोऽपि द्रौपदेयानां कौरवैरभवद्रणः । येनाशु गृहे चक्षुर्भीष्मादिभ्योऽपि नाकिनाम् ॥ १३८ ॥ तदा तत्कदनाधिक्यमशक्त इव वीक्षितुम् ।
गिरिगुप्ते रवौ चक्रुरवहारं महारथाः || १३९ || (ष्ठमहः) भीमाभिभूतमाश्वास्य निशान्ते शान्तनिर्नृपम् ।
उवाह मण्डलव्यूहं वज्रव्यूहं च धर्मजः ॥ १४० ॥ ततरिछन्नेव भानोर्मा वीरक्षितैर्महेषुभिः । क्ष्मायामितस्ततोऽभ्राम्यद्विधुरा रुधिरच्छलात् ॥ १४१ ॥
३११
१. 'गोपतिः' ख-ग. २. 'दन्तहस्त' क. ३. 'इवैक्ष्यत' ख-ग. ४. 'कैरव' इति भवेत्. ५. 'sमुञ्चत' ख ग. ६. 'भूरीणा' ख-ग.
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३१२
काव्यमाला ।
गाङ्गेय कृष्ण महसोर्महान्गाङ्गेयकृष्णयोः । संहर्षोऽभूत्सहस्रांशु सिंहिकासुतयोरिव ॥ १४२ ॥ स्तद्विशिखा हैमाः खात्पतन्तः क्षमातले । तत्प्रतापौघमूर्छालाः करमाला रवेरिव ॥ १४३ ॥ निर्मग्नवाहनो द्रोणवाणश्रेणीरणार्णवे ।
विराटः शिश्रिये शङ्खं जीवनाशाविमूढधीः ॥ १४४ ॥ विराटशङ्खौ तावेकरथस्थौ पितृनन्दनौ । अयोधयद्गुरुर्मोहक मघाविव शिष्यगौ ॥ १४९ ॥ घनसारोज्ज्वलेनाथ यशसा च शरेण च । द्रोणः शङ्खमसत्तायां मज्जयामास हेलया ॥ १४६ ॥ द्रौणिखण्डितपत्रेण यद्भुत्वैव शिखण्डिना । अस्त्रविद्यालतागुल्मविटपी सात्यकिः श्रितः ॥ १४७ ॥ सात्यकिः क्रुद्धमायान्तं मायाताण्डविताचलम् । ऐन्द्रेणास्त्रेण जितवान्नलम्बुषनिशाचरम् ॥ १४८॥ विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पन्नगीसूनुरार्जुनिः । इरावानजयन्पुण्यः पापौघाविव योगयुग् ॥ १४९ ॥ भयौघत्रस्तमरणं रणं कृत्वा क्षणं महत् । द्विड्वाहिनीमगाहेतां भगदत्तघटोत्कचौ ॥ ११० ॥ नकुलं विरथीकृत्य व्यद्रवन्मद्रपोऽभितः । विरथ्य सहदेवेन मातुर्भ्रातेति नो हतः ॥ १५१ ॥ क्रुद्धः शतायुषं भूपं जित्वा धार्मिः स्वयं क्रुधम् । संजहार जगद्भीतिहेलां वेलामिवार्णवः ॥ १५२॥
3
कृत्तैर्भीष्मास्त्रपातेन भुजैर्गलैश्च भूभुजाम् । यमभोजनशालायां दवभाण्डायितं युधि ॥ १५३ ॥
१. 'तद्विशिष्टाश्च हैमाभा' क. २. पत्रं वाहनम् ३. 'र्गात्रै' ग; 'गर्भै' ख.
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६भीष्मपर्व-२सर्गः]
बालभारतम् ।
आकृष्टं लोहघातेन पक्षवातेन वीजितम् । यमस्य पेयतां निन्ये राज्ञां रक्तं नरेषुभिः ॥ १५४ ॥ तदा तयोरुदञ्चद्भिस्तेजोभिरिव तापिते । गतेऽर्णवं रवौ चक्रुरवहारं महीभुजः ॥ १५५ ॥ (सप्तममहः) सुते सागरगामिन्याः सागरव्यूहकारिणि । प्रगे शृङ्गाटकव्यूहं तेने द्रुपदनन्दनः ॥ १५६ ॥ अङ्गत्विट्पूर्णमध्यानि चापचक्राणि दोष्मताम् । भोजनाहूतकीनाशसैन्यभाजनतां ययुः ॥ १५७ ॥ रिपुबाणोच्छलद्रक्ताधारासिक्तपुरोभुवः । अनुत्थितरजःपूराः सुखं शूराः प्रतस्थिरे ॥ १५८ ॥ क्षिपद्भिः माभृतां मौलीन्नालिकेरीफलोपमान् । परालचितुमारेभे वाहिनी भीष्मसायकैः ॥ ११९ ॥ तेन दीर्णोदरैश्छिन्न रुण्डैर्मुण्डैश्च भूभुजाम् । कपर्दकन्दुकाकारै रेमिरे यमकिंकराः ॥ १६० ॥ दधतः प्रधनाधिक्यं कुण्डलीकृतधन्वनः । अहो वृद्धस्य तस्याभूत्पार्थसेना पराङ्मुखी ॥ १६१ ॥ त्रस्तासु तासु सेनासु भीष्मः खेलन्यशोर्णवे । भीममेकं पुरोऽपश्यत्प्रतिबिम्बमिवात्मनः ॥ १६२ ॥ असृग्धारा बभुर्भीमहृदि भीष्मशराहते । रिपुदाहक्रियानिर्यप्रकोपाग्निशिखा इव ॥ १६३ ॥ अथ भीमशरग्रस्तसारथिः शान्तनो रथः । वाहैराहवतोऽकर्षि ददद्भिर्द्विषतां यशः ॥ १६४ ॥ बह्वाशिनं कुण्डधारं विशालाक्षापराजितौ । महोदरं पण्डितकं सुनाभं चेति ते सुतान् ॥ १६५ ॥ निघ्नतः सप्त भीमस्य प्रतापदहनस्तदा ।
समुच्छलद्भिः कीलालैः सप्तकील इवाज्वलत् ॥ १६६ ॥ (युग्मम्) १. 'शरायस्त' ग.
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३.१४
काव्यमाला |
अथ बन्धुवधक्रुद्धो युद्धोग्रस्तनयस्तव । आदित्यकेतुरादित्यवर्त्य कारि बकारिणा ॥ १६७ ॥ वित्रास्य द्विमूर्भीमो भीमोऽथ क्षेपभीमवत् । उन्ननादोच्चकैर्भालप्रारूढज्वलदीक्षणः ॥ १६८ ॥ उलूपीपन्नगीसूनुर्दिवि पित्रार्जुनेन यः । प्रार्थितो युद्धसाहाय्यं स इरावानथोत्थितः ॥ १६९ ॥ चूडामणिप्रभापिङ्गैः स पातालतुरङ्गिभिः । आवृत्तः प्राविशद्वैरिसेनां दावों वनीमिव ॥ १७० ॥ गान्धारबलाम्भोधितरङ्गाभतुरङ्गमम् । कालानल इवादीप्तो हेतिपातैरशोषयत् ॥ १७१ ॥ स हत्वा शकुनेः पुत्रान्सप्त दृष्टो न कैर्नदन् । अष्टमूर्तिरिवोच्चैस्तद्रक्तनिर्झरबिम्बितः ॥ १७२ ॥ दुर्योधनप्रणुन्नोऽथ तमभ्यायादलम्बुषः । मायामयहयारूढरक्षोभटघटावृतः ॥ १७३ ॥ मुखोच्छलच्छिखिज्वालाविषोल्काविषमायुधैः । रक्षःफणिभटैर्जग्मे युध्यमानैः क्षयो मिथः ॥ १७४ ॥ मण्डलाग्रेण कोदण्डं खण्डयित्वाधिरक्षसः । चक्रे विरावान्दीप्तोऽसाविरावान्भीतिदस्तदा ॥ १७५ ॥ उत्पत्यालम्बुषस्त्रासात्खं गतः खगवत्ततः । अनूत्पपात तं चासिचञ्चुः श्येन इवार्जुनिः ॥ १७६ ॥ इरावत्खङ्गवल्लया खे सवितेवादलेखया ।
द्विधा कृतोऽप्ययं क्रव्यात्पूर्णाङ्गो मुहुरेक्ष्यत ॥ १७७ ॥ अथ मायिन्यजेयेऽस्मिन्युद्धवलिंगनि फाल्गुनिः । कीनाशदास दोर्दण्ड चण्डान्फणभृतो दिशत् ।। १७८ ॥ चूडामणितडित्ताराः क्षयधाराधरा इव ।
ते तस्मिन्भस्मनि कृते ववृषुर्विषमं विषम् ॥ १७९ ॥
१. कल्पान्तरुद्रवत्.
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६ भीष्मपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
तायभूयामुना भुज्यमानानां फणिनां मणीन् । पततः काणिरेक्षिष्ट दिवा नक्षत्रवृष्टिवत् ॥ १८० ॥ भुक्त्वाथ भोगिनो भूरीकृतभीमनिजाकृतिः । पलाद : प्रोन्ननाद द्राग्लोकत्रयभयंकरः || १८१ ॥ पुरो मायामयी मूर्ति कृत्वा योद्धुं निशाचरः । खड्गेनापातयत्पश्चात्काणैरुत्कुण्डलं शिरः ॥ १८२ ॥ दृष्ट्वा हतमिरावन्तं तं तुदन्तं द्विषच्चमूः । क्रुद्धोऽस्तदिक्करिक्रीडां क्ष्वेडां चक्रे घटोत्कचः ॥ ९८३ ॥ स राज्ञा षड्रसास्वादसंभूतरससंकरैः । स्वभटान्प्रीणयन्मांसैर्ममन्थारिवरूथिनीम् ॥ १८४ ॥ गर्जगुरु गजानीको मानी कोपारुणेक्षणः । तमभ्यधावद्धात्रीशो मृत्युं यम इवोद्धतः ॥ १८५ ॥ घटोत्कचस्य चतुरश्चकर्त सुभटानयम् । शौर्य श्रीमन्दिरस्तम्भानिव जम्भारिविक्रमः || १८६ ॥ शक्तिर्घटोत्कचेनाथ क्षिप्ता क्ष्मापतये रयात् । नागं वङ्गाधिपेनान्तनतं विघ्नरुषापिवत् ॥ १८७ ॥ रङ्गद्भुजतुरङ्गेऽथ घटोत्कचबलेऽचले । उद्वेलार्णव तुल्येऽभूद्वाहिनीयं पराङ्मुखी ॥ १८८ ॥ नमद्भूमि भ्रमद्वार्धि त्रुटदद्रि त्रसज्जगत् । तदाभूत्कोऽपि संमर्दः पलादभगदत्तयोः ॥ १८९ ॥ श्रुत्वा सुतवधं जिष्णुर्निमन्त्रितयमक्रुधा । चक्रे महीं महीन्द्राणां शीर्षैर्मोदकशालिनीम् ॥ १९० ॥ अनावृष्टि कुण्डलिनं व्यूढोरोदीर्घ लोचनौ ।
कुण्डभेदं दीर्घबाहुं सुबाहुं कनकध्वजम् ॥ १९९ ॥
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१. 'देवानिव त्रिविष्टपात्' ख २. 'नेतुमन्तं' ख ग ३. 'दस्तकरि' क. ४. 'शै लिनीम्' ख.
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काव्यमाला।
वीरज चेति राजेन्द्र हत्वा नव सुतांस्तव । भ्रातृपुत्रवधक्रोधी भीमोऽमृद्गाद्भवञ्चमूः ॥ १९२ ॥ (युग्मम्) पाण्डवैः खण्ड्यमानानामिति भूप भवद्भुवाम् । कृपयेव पयोराशिं गतेऽर्केऽवहृतं नृपैः ॥ १९३ ॥ (अष्टममहः) आनाय्य कर्णो राज्ञाथ पृष्टः पार्थपराभवम् । ऊचेऽहं संहराम्येकः शत्रु भीष्मोऽस्त्रमुज्झतु ॥ १९४ ॥ सारालंकारभाग्दीपैर्महीपैरिव भासुरः । गतोऽथ पार्श्व भीष्मस्य तेन रोजेति पूजितः ॥ १९५॥ भीष्मं भूपो व्यधात्तात भग्नस्त्वबाहुनामुना । क्षत्रान्तकारी कृष्णस्यावतारो भृगुनन्दनः ॥ १९६ ॥ इति शक्तोऽपि यद्येतान्क्षत्रियान्कृष्णरक्षितान् । न हंसि कृपया भीतान्हन्तु कर्णस्तदाज्ञया ॥ १९७ ।। इत्युक्ते भूभुजा भीष्मः कोपाद्भूति जयजगौ । केन जेयोऽर्जुनः किंतु दृश्या मन्मार्गणाः प्रगे ।। १९८ ॥ इति प्रीते गते राज्ञि प्रातः शान्तनवो व्यधात् । प्राग्व्यूह सर्वतोभद्रं प्रतिव्यूहं च सौकृतिः ॥ १९९ ॥ सेनासंपातखाताया रणोत्थरुधिरच्छलात् । रेजिरे रत्नगर्भाया गर्भरत्नातिस्तदा ॥ २०० ॥ सौभद्राम्बुदनाराचधाराचक्रप्रपञ्चतः । ययौ दिशि दिशि प्रस्तं धार्तराष्ट्रबलं ततः ॥ २०१॥ तमभ्यधावत्क्रोधेन धुर्यो दुर्योधनेरितः । क्ष्वेडयैव क्षिपन्प्राणान्भूपालानामलम्बुषः ।। २०२ ॥ द्रौपदेयैर्मदाटोपज्वलितैः स्खलितः क्षणम् । सोऽभिमन्युरथं निन्ये शल्यैः शल्लयकतुल्यताम् ॥ २०३ ॥ प्ररूढशरशैलाग्रशृङ्गतां कार्णिमार्गणैः ।।
नीयमानो भयात्तेने सोऽथ मायां तमोमयीम् ॥ २०४ ॥ १. 'चमूम्' ग. २. 'राजाति' ख. ३. 'द्राग्व्यूह' ख-ग.
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६भीष्मपर्व-२सर्गः]
बालभारतम् ।
कवलीकृतमार्तण्डं तदोच्चैः प्रसृतं तमः । रक्षोमुखाग्निकीलाभिः स्फारोद्धारमिवाबभौ ॥ २०५॥ तमोवलज्वलन्नेत्ररक्षोभिः क्षोभिते बले । आर्जुनिय॑तनोदस्त्रं तापनं स्वप्रतापवत् ॥ २०६ ॥ क यास्यतीदमित्यर्कैः सर्वतोऽभ्युदितैस्तदा ।। क्ष्मायाश्छायामयमपि ध्वान्तमग्रासि हासिभिः ॥ २०७ ॥ तमसि ग्रस्यमानेऽर्केस्तमःश्यामं निजं वपुः । निभाल्येव भयार्तेन पलादेन पलायितम् ॥ २०८ ॥ प्रहारचण्डै चालि वाचालैर्घटितोऽप्यथ । भीष्मादिभिः परिणतः सौभद्रोऽद्रिरिव द्विपैः ॥ २०९ ॥ अर्थन्द्रिः सुतसंघट्टकुपितः कपिकेतनः । अस्त्रं ससर्ज वायव्यं कायव्ययकृते द्विषाम् ॥ २१० ॥ लोठितानां भटेन्द्राणां यशांसीव समीरणाः । स्थलान्युत्क्षिप्य मलिनीचक्रिरे धूतधूलयः ॥ २११ ॥ क्षिप्ताः शैलास्त्रतः शैला द्रोणेन स्खलितानिलाः । अधावन्नधरीकर्तुमिन्द्रवैरादिवेन्द्रनम् ॥ २१२ ॥ अथ पार्थेन नाराचसार्थेन कुलिशत्विषा । विकीर्य जालं शैलानामालभ्यत बलं द्विषाम् ॥ २१३ ॥ वातपुत्रगदाघातक्षतमातङ्गजातजाः । तत्रासृक्सरितः सः प्रेतहासोच्चफेनिलाः ॥ २१४ ॥ शिरःकलिङ्गकै रुण्डकूष्माण्डैर्भुजचिर्भटैः । क्षिप्तै राज्ञां व्यधाद्भीष्मः कालशाकवनं मृधम् ॥ २१५ ॥ भीष्मबाणच्युतै राज्ञां छत्रैश्चामरसंयुतैः । कीर्णा तद्यशसां शीर्थैर्मुक्तकेशैरिवावनिः ॥ २१६ ॥ भीष्मो भालाग्रविश्रान्तभ्रमत्कुड्मलपाणिभिः ।
वृद्धवेतालनारीभिर्दत्ताशीः प्राहरचमूः ॥ २१७ ।। १. 'मनासिहासिभिः' ख-ग. २. 'अथेहक्सुत' ख-ग. ३. 'त्कुण्डल' ग.
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३१८
काव्यमाला ।
इत्यस्य निष्ठापयतो भटान्भीष्मस्य सत्वरः । प्रतिज्ञां स्मारयन्विष्णुर्जिष्णुमभ्यानयत्पुनः ॥ २१८ ॥ गाङ्गेयमार्गणगणैः सर्वाङ्गप्रचरिष्णुभिः । सर्पिसर्पस्य बीभत्सुश्चन्दनस्य निभो बभौ ॥ २१९ ॥ अथातिशिथिले पार्थे संरब्धे सिन्धुजे भृशम् । प्रतोदपाणिरुन्मुक्तरथोऽधावत माधवः ॥ २२० ॥ प्रभुं वधाय धावन्तं क्रुधावन्तं विलोक्य तम् । वपुः सपुलकं बिभ्रद्भीष्मो धुन्वन्धनुर्नगौ ॥ २२१ ॥ एोहि नाथ गोविन्द मां प्रतोदेन ताडय । उक्षाणमिव संसारारण्योल्लङ्घनमन्थरम् ॥ २२२ ॥ इत्युक्तिभाजि भीष्मे द्रागनूत्पत्य धनंजयः । मुकुन्दं स्यन्दनं निन्ये नत्वा युद्धप्रतिज्ञया ॥ २२३ ॥ अथार्जुनशरोत्क्षिप्तराजराजिमुखच्छलात् । प्रनृत्यत्सु कबन्धेषु पद्मवृष्टिरिवाभवत् ॥ २२४ ॥ प्रेक्ष्य भीष्मक्षुरप्राग्रोत्क्षिप्तान्क्ष्मापशिरोभरान् । राहुव्यूहभियेवाब्धि गतेऽवाहरन्नृपाः ॥ २२५ ॥ (नवममहः) अथ ध्यायन्वरूथिन्या मथनं पार्थपार्थिवः । निशायामवदद्दीनमना दानवसूदनम् ॥ २२६ ॥ यदि त्रिजगतीसत्त्वमेकीभूयापि युध्यते । तथापि नापगेयस्य कामं रोमापि कम्पते ॥ २२७ ॥ गाङ्गेयजेयताबुद्धिस्तन्मूढमनसामियम् ।। अन्तायैव पतङ्गानां दीपे रन्तस्पृहेव नः ॥ २२८ ॥ अथाचष्ट हरिः कष्टमिदं भजसि भूप किम् । आपगेयं प्रगे हन्मि को भेदः कृष्णकृष्णयोः ॥ २२९ ॥ अथ माह नृपो नाहमसत्यत्वं तनोमि ते । अनपायं जयोपायं प्रष्टव्यस्तु पितामहः ॥ २३० ॥
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भीष्मपर्व-२सर्गः] बालभारतम् ।
३१९ इति निश्चित्य कृष्णेन सोदरैश्च समं नृपः । गुप्तो गत्वा जयोपायं भीष्मं पप्रच्छ भक्तितः ॥ २३१ ॥ गाङ्गेयोऽथ जगौ युद्धाटोपे कोऽपि न मां जयेत् । तजेयोऽहमवध्येन स्त्रीपिण्डेन शिखण्डिना ॥ २३२ ॥ श्रुत्वेति भीतो राजानं नत्वा स्वशिबिरं ययौ । प्रातर्जातमहाव्यूहैर्वीरव्यूहैरथोत्थितम् ॥ २३३ ॥ प्रवीरमुक्तैः शस्त्रौधैर्दिवि संघट्टिभिमिथः । चूर्णिता इव चण्डांशुकरा वह्निकणा बभुः ॥ २३४ ॥ वीरेषुपूरा वीरेषु ययुयोम्ना भुवा पुनः । तच्छायच्छद्मना कालकिंकराणां कराः समम् ॥ २३५ ॥ ततश्चलच्चमूत्खातक्षितिस्पृष्टाः फणीशितुः । रत्नभास इवैक्ष्यन्त युद्धोत्थाः क्षतजोमयः ॥ २३६ ॥ आसन्नवीरलग्नेऽपि द्विड्बाणे स्वीगवञ्चिनी । रक्तं बालातपं प्रेक्ष्यामाद्यन्वीरा क्षतभ्रमात् ॥ २३७ ॥ वीरैः शिखण्डिगाण्डीविप्रमुखैर्विमुखीकृतम् । गौरयन्कौरवं चक्रं विचक्राम पितामहः ॥ २३८ ॥ ममज्जुर्वीरगात्रेषु तन्मुक्ता बाणपतयः । यथा मरुस्थलोर्वीषु धारा धाराधरोज्झिताः ॥ २३९ ॥ भीष्मः शिरोभिर्भूपानां क्षुरप्रोत्क्षेपपातितैः । ममर्द द्विट्चमू यन्त्रोपलगोलकुलैरिव ॥ २४० ॥ गोचक्रतप्तवित्रस्तविश्वस्य ज्वलतोऽजनि । कृकलास इवार्कस्य शिखण्डी तस्य संमुखः ॥ २४१ ॥ अथाभ्यधत्त तं भीष्मः कामं प्रहर हन्त माम् ।
कृतिनोऽर्था इवापात्रे नायान्ति त्वयि मे शराः ॥ २४२ ॥ , १. 'ततः पप्रच्छ भक्तितः' क; 'ततः पप्रच्छ भीष्मतः' ग. २. 'हीनतो राजा' ख-ग. ३. 'रक्तवालातपप्रेक्षामासन्' ग.
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३२०
काव्यमाला |
भीष्म प्रहर मा जीवञ्जीवन्यास्यसि नाद्य मत् । इत्युक्त्वा पार्षतः काण्डैस्तं विभेदार्जुनेरितः ॥ २४३ ॥ रोमाग्रखण्डितोद्दण्डशिखण्डिविशिखेऽस्तु सः । रोपैसपूरयन्भीष्मो संजहार महारथान् ॥ २४४ ॥ नमद्भूस्फुटनोछ्रान्तस्वभ्रध्वान्तभरैरिव ।
रजोभिर्व्याप्तदिग्जज्ञे संमर्दो विद्विषां मिथः ॥ २४५ ॥ उत्पातजातसंभ्रान्तद्रोणाज्ञात्वरितास्ततः ।
कुरुवीरा धुमीसूनोः प्राकाराकारतां ययुः ॥ २४६ ॥ भीष्मस्यास्त्रैर्मणीभूषा बभुः कूटीकृता नृपाः । मेरुणेव तमाह्वातुं प्रहिताः शिखरश्रियः ॥ २४७ ॥ दूरादेत्याथ घृणया भीष्मोऽभाषत धर्मजम् । खिन्नोऽस्मि कदनादस्मात्पुत्र पातय मामिति ॥ २४८ ॥ इत्युक्त्वा शिथिलात्रोऽपि स बहूनां क्षयोऽभवत् । क्रीडन्नपि करी मूलोन्मूलनं हि महीरुहाम् || २४९ ॥ रक्ताब्धिब्रुडदद्रीन्द्रतुङ्गमातङ्गपुंगवः ।
भीमो बभूव बीभत्सोः शरव्यतिकरः परः ॥ २५० ॥ भीष्मो दीव्यास्त्रवान्धावन्मध्यमेत्य शिखण्डिना । निवारितोऽर्जुनध्वंसे सीधुनेवामृताहुतौ ॥ २१९ ॥ तं क्षणेऽस्मिन्रणे स्मेरमभ्येत्य वसवोऽभ्यधुः । कालोऽयं धन्य संन्यासहेतुस्तेऽस्माकमीहितः ॥ २५२ ॥ अथ भीष्मः श्लथारम्भः शिखण्डिविशिखत्रजैः । वातोत्थकुसुमस्तोमैरारामिक इवाचितः ॥ २९३ ॥
पतच्छीर्षोच्छलद्रक्तच्छलनृत्यत्पराक्रमः । चक्रेऽरिचक्रं सानन्दं साक्रन्दनिरिपुत्रजैः ॥ २९४ ॥ भीष्मेणास्त्रं घृतं यद्यत्तत्तदैन्द्रिस्तदाच्छिनत् । स्वीकृतं वादिना पक्षवितानमिव सन्मतिः ॥ २५९ ॥
१. 'विशिखेषु सः' ख-ग. २. 'कृष्णो' ख; 'कृष्णौ' ग. ३. 'श्चितः ' ख.
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६ भीष्मपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
छिन्दन्तो भीष्मशस्त्राणि भिन्दन्तो वैरिभूपतीन् । निन्दन्तोऽथ पविं देवैरस्तूयन्त नरेषवः ॥ २५६ ॥ भीष्मे शिखण्डिकाण्डौघगुप्ताः पार्थेषवोऽपतन् । वियोगिनि विधूयोतलीनाः स्मरशरा इव ॥ २१७ ॥ (युग्मम् ) द्रोणादीन्निघ्नतो गुप्ताः पेतुर्भीमेऽस्य सायकाः ।
पश्यन्त्याः पतिमेणाक्ष्याः कटाक्षा इव वल्लभे ॥ २५८ ॥ वज्राङ्कुरैरिव गिरिर्भेद्यमानोऽथ तच्छरैः ।
दुःशासनं संनिधिस्थं भीष्मः सस्मितमभ्यधात् ॥ २९९ ॥ . भुजङ्गमा बिलानीव जालानीव रवेः कराः । ने मर्माणि विशन्त्येते विशिखौघाः शिखण्डिनः ॥ २६० ॥ पुत्रप्रेम्णा सुरेन्द्रेण वज्रधारा इवार्पिताः । पार्थस्यामी पृषत्कास्ते किरातरणसाक्षिणः || २६१ ॥ अथो कथं ते शिथिलः काण्डपात इति क्रुधा | शिक्षार्थमिव पौत्राय गाङ्गेयः शक्तिमक्षिपत् ॥ २६२ ॥ तां छित्त्वाथ त्रिधा भीष्मं रोम्णि रोम्णि व्यपूरयत् । मुहुर्मुहुर्मुकुन्देन तर्ज्यमानोऽर्जुनः शरैः ॥ २६३ ॥ यमाविष्टेष्विव स्वाङ्गमजानत्सु क्षताकुलम् । मिथस्तदा मदान्धेषु युद्धोद्गर्जिषु राजसु ॥ २६४ ॥ रणोद्रेकमृतानेकवीरद्वार मिवात्मनि ।
देवे दर्शयति छिद्रपराह्णे विकर्तने ॥ २६९ ॥ छिन्नः पार्थशरै भिन्नतनुः श्रीशन्तनोः सुतः ।
क्षितौ पपात घस्रान्ते लध्वंशुरिव घर्मरुक् ॥ २६६ ॥ (विशेषकम् ) पृष्ठनिःसृतकाण्डौघसुख पर्यङ्कशायिनि ।
वीरेऽस्मिन्वीरहृत्कर्ता हाहाकारो जगत्स्वभूत् ॥ २६७ ॥
३२१
१. 'मन्मर्माणि' ख-ग. २. 'विशिखा न' ख ग ३. 'अहो' ख.ग. ४. 'मपराह्न - विकर्तने' ख-ग.
४१
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३२२
काव्यमाला ।
दुःखशोकभयार्तेषु गलदश्रूगम्बुषु । महामोहप्रविष्टेषु कम्पमानेषु राजसु ॥ २६८ ॥ अलुप्तात्मनि गाङ्गेये दीप्यमाने धुवागभूत् । उत्तरायणकालाय प्राणान्योगीन्द्र धारय ॥ २६९ ॥ (युग्मम्) नियुक्तैर्गङ्गया हंसरूपैर्मुनिवरैरपि । इत्येवं कथिते योगी स्थितोऽस्मीति जगाद सः ॥ २७० ॥ शान्तनिः सान्त्वयित्वाथ चकितान्कुरुपाण्डवान् । शिरो मे लम्बते कष्टं धार्यतामित्यभाषत ॥ २७१ ॥ उपधानाय धावत्सु धात्रीशेषु धनंजयः । शरैस्त्रिभिरभिज्ञो द्राक्तन्मूर्धानमधारयत् ॥ २७२ स्तुवंस्तमथ गान्धारिमभ्यधत्त धुनीसुतः । मदन्तमस्तु वो वैरं पत्यन्तं योषितामिव ॥ २७३ ॥ निशि याचञ्जलं हेमकुम्भहस्तेषु राजसु । दिव्यैर्जलैर्जलास्त्रेण तर्पितः स किरीटिना ॥ २७४ ॥ तेनाथ पूजिते पार्थे पार्थिवेषु गतेषु च । एत्य प्रसादयामास कर्णस्तु प्रसृताञ्जलिः ॥ २७५ ॥ पातङ्गिमूचे गाङ्गेयः प्रथायाः सूनुषु त्वया । सहोदरेषु संरब्धो मुच्यतां वत्स मत्सरः ॥ २७६ ॥ कर्णोऽभ्यधात्मभो वैरं न मे बन्धुषु किंतु माम् । अनुजानीहि मित्रैकसौहार्द वशगं युधि ॥ २७७ ॥ गङ्गासुतेनानुमतः पतङ्गतनयस्ततः । ययौ मन्दितवातेन स्यन्दनेन वरूथिनीम् ॥ २७८ ॥ तदनु दिनपतिश्रीभाजि भीष्मेऽस्तभासि
प्रतिनृपतिमहास्त्रध्वान्तभीकम्पितानाम् ।
१. 'गां वाचमभ्य' ख-ग.
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६ भीष्मपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
कुरुपतिपृतनानां कर्णवीरेन्दु तेजः
प्रसरसरभसत्वव्याकुलं चित्तमासीत् ॥ २७९ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरि सुगुरोरर्हन्मतार्हस्थितेः पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । षष्ठं पर्व गतं सुपर्वतटिनीसू नोरिदं तन्मति
व्यक्तादर्शनवालभारतमहाकाव्ये रसस्रोतसि ॥ २८० ॥ सर्गाभ्यामभवद्वाभ्याममुष्मिन्भीष्मपर्वणि ।
अनुष्टुभां चतुःशती षडूिंशतिसमन्विता ॥ २८९ ॥
३२१
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये भीष्मपर्वणि दशमदिवस संग्रामवर्णनादनु भीष्मवधो नाम द्वितीयः सर्गः ।
भीष्मपर्व समाप्तम् ।
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काव्यमाला।
द्रोणपर्व।
प्रथमः सर्गः। क्षमां दधानः स गिरिप्रधानः सिद्ध्यै सतां व्यासमुनिर्महोच्चैः । यः पुण्यकृत्पर्वशतावबद्धभावन्महाभारतवंशहेतुः ॥ १ ॥ इत्थं पितुः पातकथां निशम्य मूछी गतं धीनयनं प्रबोध्य । गत्वा पुनदृष्टरणोऽभ्युपेत्य गावल्गनिस्तं क्षितिपं जगाद ॥ २॥ राजन्सुतास्ते पतितेऽथ भीष्मभानौ महामोहतमःसु मन्नाः । प्रीताः पुनः प्रेकति कर्णदीपे व्यधुर्विधेयेषु पुनः प्रयत्नम् ॥ ३ ॥ कर्णानुमत्त्या पृतनाधिपत्ये द्रोणः प्रसन्नो विधिनाभिषिक्तः । वरप्रदः प्रार्थि सुयोधनेन धृत्वा श्वसन्तं नृपमर्पयेति ॥ ४ ॥ नरो न रक्षां सविधे विधाता यदा तदा धर्मसुतं ग्रहीष्ये । इत्युल्लसद्वाचि गुरौ कुरूणां बले बभूव प्रेमदप्रणादः ॥ ५ ॥ इत्थं विदित्वार्जुनरक्षितात्मा क्रौञ्चाह्वयं व्यूहमधत्त धार्मिः । बभूव सज्जः शकटाभिधेन व्यूहेन युद्धाय सुयोधनोऽपि ॥ ६ ॥ द्रोणस्ततः शोणहयो हिरण्यकमण्डलुस्थण्डिलचापकेतुः । आकर्णभास्वत्पलितोऽमितश्रीः सुवर्णसंनाहरथः पुरोऽभूत् ॥ ७ ॥ उरःप्रविष्टस्य महाभटानां दृग्वर्त्मनेव त्वरितं निरीय । कोपानलस्य ज्वलतो महोल्का ईव प्रपेतुर्द्विषतः पृषत्काः ॥ ८ ॥ कदम्बनालं परवाहिनीषु विस्तीर्णमल्पान्तरगुम्फसान्द्रम् । द्रोणपँमुक्तं परितोऽभिपत्य प्रभूतजीवक्षयहेतु जज्ञे ॥ ९ ॥ प्रतापमित्रस्य रवेस्तनूनं कालं करस्थं करवालमूर्त्या । अप्रीणयत्पौरवभूमिपालकपालरक्तासवतोऽभिमन्युः ॥ १० ॥ तस्याथ मद्रेशजयद्रथाश्वसूतच्छिदास्रच्छुरितासिलेखा । तेजोऽग्निकीलेव रराज राजवंशप्रतापोच्छलितस्फुलिङ्गा ॥ ११ ॥
१.. 'प्रबल: ख, 'प्रबलप' ग. २. 'इदं' ख. ३. 'ऽसित' ख-ग. ४. 'इवाभिपेतुःख. ५. 'वर' क. ६. प्रयुक्तं' ख.
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७द्रोणपर्व-१सर्गः] बालभारतम् । भीमौ ततो मद्रनरेन्द्रभीमौ भ्राम्यद्गदाभीतरवीन्दुतारौ । अधावतां भारनमद्धरित्री वित्रस्तशेषाहिवराहकूर्मों ॥ १२ ॥ वामान्यवामान्यथ मण्डलानि प्रदर्शयन्तौ मिलितौ रसेन । तौ पेततुर्जातमिथः प्रहारौ वायुद्वयोत्थौ जलधेरिवोर्मी ॥ १३ ॥ . रथेन कृष्टे कृतवर्मणाथ शल्ये समुत्थाय रथेन भीमः । जघान शत्रोर्बलमुद्यदैस्त्रसिन्दूरसीमन्तितदिग्वधूकः ॥ १४ ॥ कर्णस्य सूनुर्वृषसेनवीरः शरप्रपातैः परिपीडितायाः । पञ्चेन्द्रियाणीव परध्वजिन्या द्राग्द्रौपदेयान्विधुरीचकार ॥ १५ ॥ ततः प्रतिज्ञारभसेन सिंहयुगंधरव्याघ्रमुखान्कृपीशः । युधिष्ठिरेप्सुनिजघान मानलोभप्रमादानिव धर्मलिप्सुः ॥ १६ ॥ तद्वाणभिन्नेऽथ बले नृपालमौलिप्रसूनस्रगर्नूपवासम् । नालीकनालैरिवं हस्तिहस्तैर्दूरं पिशाचाः पपुरस्रपूरम् ॥ १७ ॥ कृत्तानुपादाय करीन्द्रकर्णान्प्राणेश्वरीभिः परिवीज्यमानाः । मांसास्त्रतृप्ताः सुखिनः पिशाचाः किरीटिकोदण्डरवानशृण्वन् ॥ १८ ॥ सत्क्षत्रधर्मेकपराः पुरस्तान्निरूपयन्तो युधि विश्वरूपम् । स्वयं नरेण प्रहताः सुसत्त्वास्तत्त्वस्पृशां लोकमपि व्यतीयुः ॥ १९ ॥ इत्थं कृपीशेन किरीटिना च निहन्यमानस्य बलद्वयस्य । पूर्णाम्बरेण ध्वनिनैव नुन्ने गतेऽस्तमर्के रथिनोऽवजहुः ॥२०॥ (प्रथममहः) शक्यो ग्रहीतुं न महीन्दुरेन्द्रिगुप्तो गुरौ नक्तमिति ब्रुवाणे । तमाह्वयिष्ये जयिनं युधीति त्रिगर्तभर्ती कुरुराजमूचे ॥ २१ ॥ पृथक्प्रभातेऽथ कृतार्धचन्द्रव्यूहः सुशर्मा त्रिरथायुतीभाक् । सुतं हरेराह्वयताशु योद्धं स्पर्धोद्भुरक्रूरचमूरवेण ॥ २२ ॥ ततोऽभिमन्त्र्य क्षितिपं तदने वीराग्रिमं सत्यजितं नियोज्य । धनुर्मिषव्यात्तमुखस्त्रिगर्तबलौघकालः प्रचचाल पार्थः ॥ २३ ॥
१. 'रयेण' ख. २. 'शस्त्रै' ख. ३. 'दस्त्र' क-ख. ४. 'नून' क. ५. 'रिह' क. ६. 'रस्त्र' क-ख. ७. 'बलस्य पूर्णम्' ख, ८. 'तिरथा' क.
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काव्यमाला |
तेऽप्येककालं बलिनो बलौघाः प्रहस्य बाणैः परिघप्रमाणैः । आच्छादयन्नर्जुनमुच्छलद्भिर्भरैस्तृणानामिव दीप्तमग्निम् ॥ २४ ॥ व्यावृत्तसिन्धूर्मिभरः प्ररुद्धव्योमानिलः प्रोच्छलितोड्डे चक्रः । नतक्षितिर्निश्रुतिकत्रिलोकस्तदैन्द्रिणावाद्यत देवदत्तः ॥ २९ ॥ तच्छब्दसंरम्भसुलम्भदेहस्तम्भानुभावेषु रिपूच्चयेषु । समुलिलेखेव निजप्रतापप्रशस्तिमैन्द्रिः शरसारटकैः ॥ २६ ॥ वज्राङ्कुरक्रूरमुखेन नूनमन्योन्यसंघट्टपावकेन ।
तद्वाणर्पूरेण निरन्तरेण हताश्च दग्धाश्च न के विपक्षाः ॥ २७ ॥ नीरन्ध्रसंसप्तकबाणवृष्टिविखण्डितानां द्युमणिद्युतीनाम् । गर्भात्तमिव सदोपभुक्ता तदापतत्सान्द्रनमश्छलेन ॥ २८ ॥ अस्त्रं ततस्त्वाष्ट्रमुदस्य वल्गन्पृथक्पृथग्वीर कुलैर्व्यलोकि । स्वस्योपरिक्षिप्तकराग्रहेतिर्मध्याह्नमार्तण्ड इवैष चण्डः ॥ २९ ॥ रक्तौघसिक्ते रथचक्रभिन्ने क्षेत्रे सुधन्वक्षितिपालमौलिम् । अपातयद्भूषणभासुराभं निजप्रतापद्रुमबीजमैन्द्रः ॥ ३० ॥ इन्द्रात्मभूचारितमारुतास्त्र निवारितास्त्रप्रसरैस्त्रिगर्ताः । इतस्ततः संपतितैमिंथोऽपि शरैर्निजानेव निजघ्नुरेते ॥ ३१ ॥ प्रहासशुभ्रैर्वदनैर्नृपाणां छन्नैः पताकावसनैश्च ते । पार्थेषुकृत्तैः फलगुञ्छपत्रैरिव त्रिगर्ताधिपकीर्तिवलेः ॥ ३२ ॥ इतश्च ते व्यूहितमण्डलार्धक्रौञ्चैर्बलैः पार्थ कुरुप्रवीराः । चेलुर्मिथः सायकपातनिर्यद्रक्तच्छलाग्रेसर युद्धभागाः ॥ ३३ ॥ उन्मूलयन्भूपतिभूरुहोऽथ प्रोड्डापयन्सैन्यतृणानि धावन् । द्रोणो महावात इवाचलेन सत्यौजसा सत्यजितानिरुद्धः ॥ ३४ ॥ पाञ्चाल्यवीरस्य सुरेन्द्रशक्तेः सहस्रशः सत्यजितः पृषत्काः । द्रोणेऽपतन्दुःसहपातसङ्गास्तडित्तरङ्गा इव वज्रशैले ॥ ३५ ॥
१. ' व्यावर्त' क. २. ' ताभ्र' ख. ३. शङ्खः. ४. 'पूगेण' क. ५. 'प्र' ख. ६. 'प्रहार' क.
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७ द्रोणपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दृग्वाजिभृत्कुण्डलचक्रचारुसंग्रामदीक्षा तिलकोत्पताकम् | अपातयत्सत्यजितस्तदास्यं शौर्यश्रियः पुष्परथं कृपीशः ॥ ३६ ॥ क्रुद्धः शतानीकनृपं विराटानुजं सेसेनं दृढसेनवीरम् । श्रीक्षेत्रदेवं प्रधनैकदेवं तेजोनिधानं वैसुधानभूपम् ॥ ३७ ॥ पलायिते धर्मसुतेऽथ तस्य चतुर्दिगुर्वीजयकुञ्जराणाम् । स्तम्भानिवैतांश्चतुरश्चकर्त गुरुः कुरुक्ष्मापमुदां निदानम् ॥ ३८ ॥
( युग्मम्)
३२७
तेनाथ निर्नाथ इवातिदीनंश्चमूसमूहस्तरलत्वरेण । नदीरयेणेव निरस्यमानो भीमं महाद्वीपमिवाससाद ॥ ३९ ॥ ततः स्वतेजोभिरिव प्रवीरैर्वृतोऽभितोऽसौ प्रसरच्छरोल्कः । गुरोः परीवारबलानि बाढं गिरेर्वनानीव दवो ददाह ॥ ४० ॥ युयुत्सुरच्छिन्नरिपूद्यमस्य बाहुं सुबाहुं कृतबाहुकं च । भीमस्तु धम्मिल्लमिवोरुरत्नं स वङ्गराजं युधि नागराजम् ॥ ४१ ॥ इत्युच्छलत्सप्तचमूसमुद्रो रजस्तमः कल्पितकालरात्रिः । संहृत्य सर्व रभसेन भीमो जगद्गुरौ ब्रह्मणि घातमैच्छत् ॥ ४२ ॥ अथावनीभाररुषेव दष्टो नखच्छलादङ्किषु शेषपुत्रैः । मुखेन विभ्रत्खलु तद्रुषेव फूत्कारिणं हस्तमिषेण शेषम् ॥ ४३ ॥ दिग्दन्तिनो निर्मदयन्मदौघगन्धैः स्फुरत्कर्णमरुत्प्रणुन्नैः । पुच्छच्छलात् क्रौर्यजितेन कालदण्डेन नित्यानुगतेन सेव्यः ॥ ४४ ॥ गर्भान्तरालस्थितभूतभावि कल्पद्वयी वासरदीप्तिदण्डौ । वहन्मुखद्वारिमणिप्रणद्धदन्तच्छलेन प्रलयो नु मूर्तः ॥ ४५ ॥ कृतान्तकान्ताकुचकर्कशत्वविरोधसक्रोधमिवातिरक्तम् ।
कुम्भद्वयं द्विट्कुलजीवकृष्टिधामाभसिन्दूर भरं दधानः ॥ ४६ ॥
१. 'पुण्यरथं' ग. २. 'समेतं' क. ३. 'क्षेत्र' क. ४. 'वसुधानभूतम्' क; 'वसुदानभूपम् ' ग. ५. 'मुदा निनादम्' क ६. ' तेनातिनिनार्थ' ग. ७. 'दान्त' क. ८. 'पपात' क; 'पतान्तः' ख. ९. ' इत्युचल' ख.
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३२८
काव्यमाला |
मृत्योः कृतान्तस्य च जीविताभ्यां कनीनिकाभ्यामतिरौद्ररूपः । कः संप्रहारोऽयमितीव किंचिदुन्मील्य नेत्रे किमपीक्षमाणः ॥ ४७ ॥ स्फुरत्पदाङ्गुष्ठयुगाङ्कुशाग्रहस्ता ननैः संयति सुप्रतीकः । भीमाय भीमध्वनिना नियुक्तः प्राग्ज्योतिषक्षोणिभुजा गजेन्द्रः ॥ ४८ ॥ केषांचिदुत्कर्मकरः परेषामापत्करो दोलितविश्वविश्वः । चतुर्युगी चारुपदप्रचारः स्वैरी शरीरीव चचाल कालः ॥ ४९ ॥ ( सप्तभिः कुलकम् ) अक्षौहिणीरेष करांह्रिदन्तैरेकोऽपि सप्तापि निहन्तुमीशः । इति द्विषद्भिः परिशङ्कयमानो निघ्नन्बलान्यापदिभः स भीमम् ॥ १० ॥ स कुञ्जरः कुण्डलितोरुशुण्डो दोर्दण्डमेवैकमुदस्य भीमः । अधावतामुद्धतयुद्धतप्तौ सपाशदण्डाविव लोकपालौ ॥ ५१ ॥ क्रमो च्छलजूलिमयेऽन्धकारे दुर्लक्ष्यविक्रान्तिकलाविशेषौ । मिथोऽपि गजरवसिंहनादानुमेययुद्धावभिजन्नतुस्तौ ॥ १२ ॥ युधिष्ठिराद्येषु महारथेषु क्रुधाभिधावत्सु विमुक्तभीमः । द्विपोऽयमुच्चैस्तनुवातघातपतत्तलारक्षबलोऽभ्यगच्छत् ॥ १३ ॥ दासार्ह भूपे भगदत्तभलभुजंगमग्रस्त समस्तवायौ । शिनेस्तनूजेऽपि च सुप्रतीकद्विपेन्द्रकोपानललीढपत्रे ॥ ५४ ॥ भृशं पिशाचा भगदत्तभल्लविदारितानां जगतीपतीनाम् । रक्तं शरीरात्पतदेव सौख्यनिमीलिताक्षाः पपुरुष्णमुष्णम् ॥ ५५ ॥ ( युग्मम्)
प्रदीप्तकोपाग्निकृताश्वहस्तिनृमेघमालामहनीयहस्तः । प्रभूतभूत प्रेसवाय नासृक्पूर्णानि चक्रे कति सुप्रतीकः ॥ १६ ॥ त्रस्तै रथाश्वरथ सुप्रतीकसीत्कारचीत्कारभयादपि द्राक् । वृकोदराद्येष्वतिदूरगेषु कश्चित्तदाभूत्तुमुलो बलानाम् ॥ १७ ॥ श्रुत्वा तदाक्रन्दमथेन्द्रजन्मा निर्जित्य वज्रास्त्रवशात्रिगर्तान् । समीरखेगी शरभो मृगेन्द्रमिव प्रमत्तो भगदत्तमागात् ॥ १८ ॥ १. 'रुद्र' ख. २. 'प्रमदाय' ख-ग. ३. 'सरथो' क.
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७द्रोणपर्व - १ सर्गः ]
स आपतन्काण्डहतप्रवीरकीलालपङ्कोच्चयमुच्चकार । ज्याघोषमूकीकृतसुप्रतीकः खिन्नैरखिन्नैश्च नरैर्निरैक्षि ॥ १९ ॥ प्राग्ज्योतिषेन्द्रेण तदा मदान्धं द्विपेन्द्रमद्रीन्द्रमिव प्रयुक्तम् । देवोऽपसव्येन रथेन विष्णुवृथोद्यमीकृत्य पुनः पुरोऽभूत् ॥ ६० ॥ क्षिहवाथ नाराचशतानि पार्थे नारायणास्त्रं स मुमोच वीरः । तद्वक्षसादत्त सुपर्णकेतुः सुवर्णसूत्रायितमेवं देवः ॥ ६१ ॥ युद्धेऽप्ययोग्योऽस्मि धृतं यदत्रं त्वयेति खिन्नोक्तिपरेऽथ पार्थे । कुक्षिस्थितक्षीरसमुद्रमन्द्रसुधार्द्रमूचे वचनं मुरारिः ॥ ६२ ॥ दैत्याय दत्तं नरकाय भूमिसुताय भूप्रार्थनया मया स्वम् । तेनेदमस्मै स्वसुताय तच्च समित्यगृह्णां जय संप्रतीमम् ॥ ६३ ॥ इत्युक्तिमाकर्ण्य हरेर्नरेण क्षिप्तैः क्षणादूर्ध्वमुखैः पृषत्कैः । विद्धा द्विपं तं च नृपं चरद्भिरभ्रान्तरभ्राम्यत नाकिलोकः ॥ ६४ ॥ कृत्ता शरैस्तस्य गजस्य घण्टा च्युतानि खात्तत्क्षणमत्रपङ्के । व्यधत्त मार्कण्डपुराणविद्यात्रीजानि चत्वारि खगाण्डकानि ॥ ६५ ॥ तदा नदन्तौ नरबाणपातविद्धो बलाधि भगदत्तनागौ । विलोडयामासतुरस्रधाराछलोच्छलद्विदुमवल्लिजालम् ॥ ६६ ॥ ततः किरीटिप्रदरेण मौलिप्रवेशिना बुघ्नविनिर्गतेन । विभिन्नकायः स पपात कुम्भी महाद्रिपादस्तडितेव तूर्णम् ॥ ६७ ॥ अथार्धचन्द्रेण वितन्द्रचन्द्रसहस्रसान्द्रोज्ज्वलकीर्तिजालः । प्राग्ज्योतिषक्षोणिपतेः स कोपवित्तानसूनाशु नरो निरास ॥ ६८ ॥ श्रीकामरूपक्षितिपे हतेऽथ पार्थेषुपङ्ख्या परिपीड्यमाना । न कंचिदापारिचमूः शरण्यं मरौ पशुश्रेणिरिवान्दवृष्ट्या ॥ ६९ ॥ गान्धारवीरौ वृषकाचलाख्यौ सुसंहतावुद्धतयुद्धसिद्धी । अपातयच्छात्रवशौर्यदन्तिदन्ताविवैकेन शरेण पार्थः ॥ ७० ॥ जिग्येऽथ मायामयदुष्टसत्त्वशस्त्रान्धकारादिविकारयुद्ध: । गान्धार भूपोऽनुजलोपकोऽपि किरीटिना सौरमहास्त्रयोगात् ॥ ७१ ॥ १. 'देवोऽथ' क. २. 'देवदेवः' क. ३. 'व्यधत्त' ख.
४२
बालभारतम् ।
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काव्यमाला ।
द्रोणस्तु धार्मिग्रहणप्रपञ्च पञ्चालभूपालचमूं प्रविश्य । क्षिप्तैः सरोजैरिव वीरवत्रैर्दिशः स्वतेजोविधुरा व्यधत्त ॥ ७२ ॥ नीलाम्बरस्यन्दनसूतसप्तिर्नीलस्तडित्वानिव पावकास्त्रैः । माहिष्मतीशः शरवारिवर्षी द्राग्द्रोणसेनां विधुरीचकार ॥ ७३ ॥ छिन्नातपत्रध्वजकार्मुकोऽथ द्रोणात्मजेनाभिपतन्धृतासिः । नीलद्युतिर्दण्डधरो नु नीलः श्रीनीलकण्ठावतरेण जघ्ने ॥ ७४ ॥ छिन्नेऽथ तन्मूर्धनि पाण्डुसेनामोलीन्द्रनीले कुरुषून्नदत्सु । पार्थः पुनर्निर्दलितत्रिगर्तस्तत्राशु निर्घात इवापपात ॥ ७५ ॥ एकोऽपि तुल्योऽखिलदेवदैत्यैः पार्थः परं बेसखो बलाब्धिम् । विलोडयामास तथा यथाभूयोम स्फुरत्सोमभरं भटास्यैः ॥ ७६ ॥ ततान भानोस्तनयस्तदास्त्रमाग्नेयमग्निप्रबलप्रतापः । अतर्कि वीरैः प्रधनप्रदत्तो यद्दीपितैः स्वस्य रविप्रवेशः ॥ ७७ ॥ हत्वा तमग्निं हरिनन्दनोऽब्दैः कर्ण शरैर्वेणुवनं विधाय ।
न क्षणिमृङ्गयः कति रक्तसिन्धूर्युद्धाम्बुराशेर्दयितास्ततान ॥ ७८ ॥ ततो जघानावरजं विपाटं शत्रुंजयं वीरमयं प्रवीरः । कर्णानुजान्वैरिनरेन्द्रराज्यश्रियः पुमर्थानिव तत्र पार्थः ॥ ७९ ॥ शौर्यातिरेक शुभयोरुभयोः कर्णार्जुनप्रबलयोर्बलयोः । आसीत्ततोऽतिनिधनं प्रधनं हृष्यन्निशाचरपिशाचरवम् ॥ ८० ॥ विद्विष्टशस्त्र फणिदष्टतनोर्मूर्छाभृतो भटभरस्य तदा । कीलालपूरपरिपूर्णनदीवाहैः प्रवाहनमभूदुचितम् ॥ ८१ ॥ उच्छिन्दैन्सुभटभुजासरोजनालान्युद्भिन्दन्हरिलहरीः समीरसूनुः । उद्गर्जन्गज इव विस्फुरन्मदोष्मा तां दोष्मानसहनवाहिनीं जगाहे ॥ ८२ ॥ कोऽप्यासीन्नरशरपातताडितानामाक्रन्दः स युधि विरोधिवाहिनीनाम् । सस्मार स्वदहनदह्यमानलङ्कालोकानां कपिरपि येन स ध्वजस्थः ॥ ८३ ॥
१. 'प्यधत्त' ख- ग. २. 'बभ्रुवैश्वानरे शूलपाणौ च गरुडध्वजे' इति मेदिनि:, ३. 'निधाय' क. ४. 'तानि विद्मः' क. ५. 'न्दंस्तु' क.
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७द्रोणपर्व-२सर्गः] बालभारतम् ।
३३१ पार्थोपमात्रसति शत्रुबले व्याकम्पिभूमितलभूमिधरे ।
अस्ताचलादपतदुष्णरुचिर्वीराः प्रतेनुरवहारमतः ॥ ८४ ॥ (द्वितीयमहः) इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारते द्रोणपर्वणि दिनद्वय
संग्रामवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः।
द्वितीयः सर्गः। धर्मशास्त्रकविमिष्टकवित्वाद्धत्त चित्तभुवि कृष्णमुनीन्द्रम् । . तत्कवित्वगुणनप्रतिशब्दा येन वक्रकुहरे विहरन्ति ॥ १ ॥ धर्मजग्रहदृढीकृतसंधस्तै टैर्युधि किरीटिनि हृत्ते । प्रीणयन्कुरुवरानथ चक्रव्यूहमति विमले गुरुराधात् ॥ २॥ तत्र भूभृदयुतेन कृतारे तारनादिनि मणिध्वजतारे। भूपतिः परिवृतः पृतनाभिर्नाभितामधित चक्रसमाभिः ॥ ३ ॥ संहितः कुरुनरेन्द्रकनिष्टैस्त्रिंशता त्रिदशवीरवरिष्ठैः । तन्मुखे गुरुरसौ बलसिन्धुः सिन्धुराजसहितो विरराज ॥ ४ ॥ दुर्भिदं भवमिवाथ पुरस्तं व्यूहमुद्भटसमूहमुदीक्ष्य । दृग्भरेण परिरभ्य सुभद्रासूनुमभ्यधित धर्मतनूजः ॥ ५ ॥ विष्णुजिष्णुमदनाश्च भवांश्च व्यूहमेतमभिभेत्तुमधीशाः । त्वत्पिता स्फुरति संप्रति दूरे तद्भुरं वहतु दुर्गमहाश्रीः ॥ ६ ॥ पार्थभूरथ मुदा गिरमूचे व्यूहमद्य रमसेन भिननि । मां निरीक्षयितुमज्ञममी तु स्यन्दनैर्भुजभृतोऽनुपतन्तु ॥ ७ ॥ एवमस्त्विति तपस्तनयेऽथ व्यक्तवाचि सहसाञ्चितचापः । राजकानि गणयंस्तृणमक्ष्णां मङ्ख फाल्गुनिरनोदयताश्वान् ॥ ८ ॥ तर्कुटङ्कहृतया रविभासा निर्मितस्त्रिदशवार्द्धकिनेव । भासयन्दश दिशो रिपुशूरैर्दूरतोऽपि दुरवेक्षशरीरः ॥ ९ ॥ रुक्मकङ्कटरथः कपिशाश्वः स्वर्णशाङ्गपतगोज्ज्वलकेतुः । सर्वतो मुखसमुन्मिषदन्तःपौरुषोष्मशिखिशाख इवोच्चैः ॥ १० ॥ १. गुणाभावश्चिन्त्यः. २. 'निरीयितुमविज्ञ' क-ख.
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३३२
काव्यमाला |
यन्मुदादितबलो बलवत्तत्कोपतप्तनयनद्युतिदीप्तम् । धारयन्धनुरपक्षपशूनां होमकुण्डमिव कुण्डलितं सः ॥ ११ ॥ स्पर्धमानमंहसं पतिमह्नामप्यहो शरभरैः पिदधानः । शिष्यमाणशरणो रणशिष्यैस्त्रासवद्भिरसुरैश्च सुरैश्च ॥ १२ ॥ उग्रवेग जितया खलु रेखारूपया तनुरुचाप्यनुयातः । मृत्युराक्षसमुखानलकीलेष्वाकुलेष्वरिकुलेषु पपात ॥ १३ ॥
( पञ्चभिः कुलकम् )
उन्नदन्परिहसन्धनुरुचैर्ध्वानयन्प्रविकिरन्विशिखैौघान् । लोष्ठपातचलकाककुलाभं तच्चकार बलमाशु कुमारः ॥ १४ ॥ तच्छरैर्गुरुभिराशु सुदूरादापतद्भिरपराधपरेषु ।
ताडिता च सहसा विरटन्ती कोडिता च शिशुवद्विपुसेना ॥ १५ ॥ द्रोणसिन्धुनृपती पgan द्राक्कपाटपुटवद्विघटय्य ।
नागराज इव राजकुमारस्तद्वलं नगरवद्विजगाहे ॥ १६ ॥ पूर्वशर्ववरदुर्धर सिन्धुक्ष्मापनिर्जितधुतैः सबलोधैः । पाण्डवैः सहचरैरहितस्य श्री चुम्ब वदनं नरसूनोः ॥ १७ ॥ उद्भटप्रतिभटक्षयसंघामुक्तवेणिरिव लोलपताकः । घोरघस्मररवोऽभवदस्य व्यूहवीरभयदो रथ एव ॥ १८ ॥ एत्यसावभिगतोऽयमदीनं हन्त हन्त्ययमनेन हता हा । लात लात हत रे हत रेऽमुं तं प्रतीत्यजनि राजगणोक्तिः ॥ १९ ॥ राजकस्य तदिषुक्षतधूता मौलयस्तरलकुण्डलपक्षाः ।
संगरे भटभुजाभुजगाग्रे हेमपक्षिपृथुका इव पेतुः ॥ २० ॥ रुण्डमुण्डमयमेव धरित्रीपीठमस्त्रमयमेव विहायः । रक्तबिन्दुमयमेव तदाशाचक्रवालमकृतैष भुजालः ॥ २१ ॥ तस्य पत्रिषु ततेषु विभिन्नैर्व्यक्तमौक्तिकरदै रदिकुम्भैः । स्वर्वधूकुचतटार्पितहस्तं स्वं निषादिभटवृन्दमहासि ॥ २२ ॥
१. 'महसा' क. २. 'भुजगोऽप्रे' क.
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७द्रोणपर्व-२सर्गः] .
बालभारतम् ।
२
तत्क्षुरप्रततिकृत्तनिषतं वीररुण्डकरिमुण्डकदम्बम् । कुञ्जराननकुलक्षयबुद्ध्यालोकि नाकिसुभटैरपि भीतैः ॥ २३ ॥ सा स्थली तदिषुपातविकृत्तैः पूरिता भटहयाननदेहैः । प्रैक्षि वाहतनुवाहमुखानां युद्धभूमिरिव किंपुरुषाणाम् ॥ २४ ॥ घ्नन्तमेनमभियुच्य महास्त्रैस्ते कृपीतनयकर्णकृपाद्याः । त्रासिनो विजितवायुजवानां वाजिनां गमनमान्द्यमनिन्दन् ॥ २५ ॥ अश्मकादिनृपवन्दमुखाजै रत्नभूषणविभाजललीलैः । स व्यधत्त वियदस्त्रविधूतैः कीर्तिकेलिकमलाकरकल्पम् ॥ २६ ॥ ते पुनः कृपकृपीसुतकर्णद्रोणशल्यशलशौवलमुख्याः । एत्य तं कनकमार्गणचक्रैश्चकिरे द्विगुणदेहमयूखम् ॥ २७ ॥ ते तदस्त्रभरभिन्नशरीरास्त्रासतूर्णगतयः कुरुवीराः । लेभिरे न रुधिरासवलुब्धैः खेचरैरपि निशाचरडिम्भैः ॥ २८ ॥ संनिहत्य युधि मद्रमहीभृत्कर्णयोरवरजौ स वरौनाः । प्रेतराजपृतनासु सुभिक्षं निर्ममे कुरुचमूभिरमूभिः ॥ २९ ॥ एकमेकमपि कौरववीरान्संहतानपि पुनः पुनरेषः । कर्णसौबलसुयोधनमुख्यान्पत्रिमारुततृणानि चकार ॥ ३० ।। तत्र मुञ्चति शरान्परितोऽपि च्छिद्रितप्रपतितैः करिकर्णैः । रक्तसिन्धुसलिलानि कपाले गालितानि न पपुः के पिशाचाः ॥ ३१॥ पूरिते जगति रेणुतमोभिर्निस्त्रपं त्रलति वीरसमूहे । वादनाय वदनेधित शङ्ख द्विट्यशःकवलपिण्डमिवैषः ॥ ३२ ॥ दारयन्निव दिशो दश कम्बु वादयन्स पुलकं स ददर्श । वक्रहुंकृतिकृतः स्फुटमभ्युत्तिष्ठतो भटकदम्बकबन्धान् ॥ ३३ ॥ कम्बुनादकुपिताः पुनरीयुस्तं प्रति प्रतिमहीपतिवीराः । चूडरत्नरुचिरुच्यनभोग्राः पक्षिपुंगवमिवोरगपूँगाः ॥ ३४ ॥ १. 'निषिक्तं' ग. २. 'क्षोणि' ग. ३. 'लीनैः' ख-ग. ४. 'क्वचिदाशाः' क. ५. 'शोण' क. ६. 'पूराः' ख.
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३३४
काव्यमाला ।
रुद्रमुद्रणरणस्थितिरौद्रं नाम धाम च धनुश्च दधानः । उच्चकर्त स तदा कुरुलक्ष्मीकेलिखण्डभटमुण्डफलानि ॥ ३५ ॥ कर्णसूनुवृषसेनभुजाभृत्तूलफूलपवनो जवनोऽयम् । अक्षिपत्क्षितिधवस्य वसन्तश्रीलताविटपनो मुखपुष्पम् ॥ ३६ ॥ उच्चकर्त स च बाणचयैः सत्यश्रवोनृपजयीभुजमौलिम् । क्रन्दकारिमणिभूषणनादैः शल्यजस्य युधि रुक्मरथस्य ॥ ३७ ॥ शल्यसूनुसुहृदः सुहृदर्थे धावतः शतमिलापतिपुत्रान् । स व्यधत्त मुदितान्युधि गन्धर्वास्त्रदर्शितसुहृत्पथभाजः ॥ ३८ ॥ भिद्यमानहृदयानि तदानीं तस्य विक्रमगुणैश्च शरैश्च । दैवतानि च कुलानि च राज्ञां मूर्द्धकम्पविवशानि बभूवुः ॥ ३९ ॥ शौर्यदन्तिदशनायितबाहुं लक्ष्मणः कुरुनरेश्वरसूनुः । श्रीलताकिशलयः स्मरशोभापल्वलैककैमलस्तमियाय ॥ ४० ॥ काणिमार्गणगणैः पिहितेऽर्के लक्ष्मणः शठ इवाशु भुजंगः । आलिलिङ्ग वसुधां वपुषा च द्यां मुखेन च धुतेन चुचुम्ब ॥ ४१ ॥ अङ्गजव्ययजकोपकृशानुज्वालजालनिभलोचनरोचिः । संहतैः सह महारथचराद्रवत्तमथ कौरवनाथः ॥ ४२ ॥ रोमरोमपतितैः प्रतिवीरस्तोमहेमविशिखैर्विरराज । अन्तरुद्भुषितधैर्यमयास्त्रप्रस्फुटत्पुलकदण्ड इवासौ ॥ ४३ ॥ . दृग्विषो न भुजगो भुजदण्डस्तस्य चण्डचरितस्य तदानीम् । चापदृक्प्रसृमरेण ददाह द्विगणानिषुविषज्वलनेन ॥ ४ ४ ॥ लक्ष्मणाय जलमेष ददौ तद्दारकक्षितिपतिक्षतजेन । कोशलेश्वरबृहबलमूर्धा पिण्डमप्यथ पितृव्यसुताय ॥ ४५ ॥ तत्कराम्बुजशिलीमुखदंशव्याकुले क्षुभितवत्यथ कर्णे । कौरवावनिधवध्वजिनी सा संभ्रमेण सकलापि चकम्पे ॥ ६ ॥ १. 'पूर' क. २. 'वसन्ते' ग. ३. 'कमलं तमि' ख-ग.
जन
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७ द्रोणपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
अङ्गराजपृतना नृपतीनां रक्तकुङ्कुमरसैः स्नपिता च । पूजिता च मुखपद्मकदम्बैख्यम्बकाङ्गमिति तेन तदा भूः ॥ ४७ ॥ क्षुण्णभोजनृपकुंजर केतुः क्ष्मापनिर्जितसुशासनसूनुः । भग्नमद्रपरथो भृशमस्नादेष खिन्न इव कीर्तिपयोधौ ॥ ४८ ॥ मेघवेगविधुकेतुसुवर्चः शौर्यशत्रुजयभूपतिहन्त्रा । तेन सौबलबलक्षयत्र त्रासितः शकुनिरेंस्खघुताङ्गः ॥ ४९ ॥ इत्यमुत्र शरसंहतिपातैः संहरत्यहह मुक्तकचानाम् ।
ही ति हेति हहहेति च शब्दांत्रस्यतामुदभवन्सुभटानाम् ॥ १० ॥ इत्यवेक्ष्य जगत्रयशूरः सूरसूनुरपि दूरितयुद्ध: । द्रोणमेत्य स विदधौ गिरमुग्रश्वासखण्डितपदौघविवेकम् ॥ ९१ ॥ विक्रमव्यतिकरैः शतमन्युस्फारमन्युरभिमन्युभटेन्द्रः ।
तात कातरयति प्रधनाग्रे योद्धुमीयुषि यमेsपि यमोऽस्मान् ॥ ५२ ॥ नेह कुण्डलितधन्वनि बाणाः कृष्टिसंधितविमुक्तिषु हृष्टाः । वैरिरक्तरसनव्यसनेन प्रोत्थिताः स्वयमिवाशु निषङ्गात् ॥ १३ ॥ संगरे स यमदेवनिकेतं कर्तुमारभत किं विदधे यत् । अश्वपीठगजपीठर्नृपीठ श्रीकृतेऽश्वगजनृव्रजपातम् ॥ १४ ॥ मृत्युरेष यम एष युगान्तारम्भ एष इति दूरगतानाम् । संप्रति क्षितिभुजां युधि धावद्वन्धुपालनकृतां तुमुलोऽभूत् ॥ १५ ॥ पूरितं खलु दृढप्रतीनां कौतुकं न करिवीरकुलैस्तैः । तज्जवेन ययुरस्य दिगन्तान्पत्रिणो दिगिभदिक्पतिलोलः ॥ १६ ॥ तद्वले समुदितः क्षयरोगो युज्यते न तदुपेक्षितुमेषः । स्वैरमेतदुपशान्तिभराय सृज्यतां सपदि कश्चिदुपायः ॥ ५७ ॥ इत्युदीतगिरि तत्र गुरुर्गामुज्जगार ननु सैष कुमारः । तातमातुलसमः समरान्तस्तक्षति क्षणलवेन 'बलं नः ॥ ५८ ॥
३३५
१. क्षितेरष्टमूर्तिमूर्त्यन्तर्गतत्वात् २. 'तदाभूत्' ग. ३. 'कर्ता' क. ४. 'रखधुराङ्गः " क; 'रस्त्रिधुताङ्गः' ख. ५. 'विवेकाम्' ख-ग. ६. 'रथाङ्ग' ग. ७. 'लोभाः ' क. ८. 'त्वद्वले' ख. ९. 'प्रार्थ्यतां' ख; 'प्रथ्यतां' ग. १०. 'बलेन' ख ग.
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३३६
काव्यमाला । व्यक्तककटरथायुधकेतुर्मृत्युहेतुरिह जेतुमशक्यः । सासुरैरपि सुरैः सुरभर्तुः पौत्र एष कृतयुद्धविशेषः ॥ ५९॥ तद्रथास्त्रकवचप्रचयोऽस्य छिद्यते यदि कथं च न शक्यम् । इत्युदीर्य गुरुरुद्गुणचापः काणिमभ्यचलदर्कसुतेन ॥ ६० ॥ उन्महाः सह महारथसाथै राद्रवन्तममुमैन्द्रितनूजः । कोपपातितकृतान्तकदंष्ट्रानिष्ठुरैर्व्यमुखयद्विशिखौधैः ॥ ६१॥ कोपिनः फणिशिशोरिव तस्योन्मुच्य नेत्रपथमेत्य च पार्श्वम् । स्यन्दनं हृदि कभूः कृपवीरः सारथिं धनुरथाकिरकृन्तत् ॥ ६२ ॥ हेमचर्मकरवालकरोऽयं चूर्णयन्परबलान्यथ काणिः । तिग्मदीधितितमिस्रविराजत्पैक्षयुग्म इव मेरुरचालीत् ॥ ६३ ॥ भस्मयन्भटमहरुहचकं चूर्णयन्करिगिरिप्रकरं च । उत्पपात च पपात च विद्युद्दण्डचण्डचरितः परितोऽसौ ॥ ६४ ॥ उत्पतन्नुपरि नाकिकुलानां न्यपतन्नवनिपालकुलानाम् । नामयन्नवनिमंहिनिपातैर्भोगिनामपि स भीतिकरोऽभूत् ॥ १५ ॥ साहसेषु यदहासि महासिच्छेदनेऽप्युदितमौक्तिकदन्तैः । तयलासि हृदि दिव्यवधूनां धूतकालिमभैरैरिव कुम्भैः ॥ ६६ ॥ द्रोणबाणपरिखण्डितखड्गश्चक्रपाणिरिव चक्रमुदस्य । द्विट्कुलं दनुभुवामवतारं दारयन्नयमनूयत देवैः ॥ ६ ॥ आकुलैर्नृपकुलैरिह चक्रे खण्डितेऽपि तिलशः किल शस्त्रैः। तैर्गदाधर इवात्तगदोऽयं भीप्रणश्यदसुभिर्धशमैक्षि ॥ ६८ ॥ स कालसेनं शकुनेः कनिष्ठं तदङ्गजान्सप्त च सप्ततिं च । नृपान्दश ब्रह्मवशातिजातीञ्जघान कैकेयरथप्रमाथी ॥ ६९ ॥ गदाविभिन्नद्विपचक्रवालकीलाललीलास्तरिपुप्रतापम् । तमभ्यधावद्रथभङ्गकोपाद्दौःशासनिर्मधे गेंदास्त्रहस्तः ॥ ७० ॥ १. 'आसुरै' क. २. 'तेऽत्र' ग. ३. 'पक्ष्म' ख-ग. ४. 'भिजाती' ख. ५. 'तदा गदास्त्रः' ख-ग.
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७द्रोणपर्व -२ सर्गः ]
बालभारतम् ।
पदोत्थधूलीतिमिराग्निकीटैः परिज्वलच्छौर्यशिखिस्फुलिङ्गैः । मिथोगदापातलसत्कृशानुकणैर्नभोवर्त्म विभूषयन्तौ ॥ ७१ ॥ चिरं चरन्तौ समराब्धिमध्यावर्तप्रसक्ताविव मण्डलानि । मिथोभिघातादभिपेततुस्तौ नवोढयोर्हक्प्रसराविवोर्व्याम् ॥ ७२ ॥ युग्मम्) अथाभिमन्युं पतितं जघान क्रूराशया कौरवराजसेना । तीव्रास्त्रपातेन सुखप्रसुप्तं पति कुरक्तेव विलोलनेत्रा ॥ ७३ ॥ उत्थाय दौःशासनना च तस्य धिग्धिकृतो मूर्ध्नि गैदाभिघातः । तेने तदङ्गेन तदात्रवृष्टिः साकं सुरस्त्रीजललोचनेन ॥ ७४ ॥ विरथो रथिभिः क्षत्रयोधी कुक्षत्रयोधिभिः ।
एकोऽनेकैः शिशुः प्रौढैर्जघ्नेऽभूदिति खे ध्वनिः ॥ ७९ ॥ पुनरुत्थितिभीत्यैनं शङ्कमानैः क्रमात्पृथुः ।
अतन्यत तदा सिंहनादः कुरुमहारथैः ॥ ७६ ॥
ततो व्रजद्भिः कुरुवीरवृन्दैर्विद्राव्यमाणेषु पृथासुतेषु । प्रतापमित्रे पतितेऽभिमन्यौ ययौ जलायेव पयोधिमर्कः ॥ ७७ ॥ जातेऽवहारे चलितः कलितारिक्षयोऽर्जुनः । इष्टनाशं वैमनस्याच्छङ्कमानोऽविशञ्चमूम् ॥ ७८ ॥ शोकातुरान्स चतुरोऽपि निरूप्य बन्धू
नूचेऽधुनापि न सुतः स्पृशति क्रमौ मे । तत्कि छलेन रिपुभिः स हतोऽद्य चक्र
व्यूहं विशन्नकुशलः खलु निर्गमेऽस्य || ७९ ॥ श्रुतेऽथ सुतवृत्तान्ते मूर्छितं तं जगौ हरिः । मा वीरं शोच रोचिष्णुचरितं दिव्यतां गतम् ॥ ८० ॥ उत्थाय लब्धसंज्ञोऽथ पार्थः प्राह क्व पुत्रकः । स्वप्नचिन्तामणिमिव द्रक्ष्यामि त्वन्मुखं पुनः ॥ ८१ ॥ भीमाद्यैरेभिरुग्रास्त्रैरपि चातोऽसि नो तदा ।
क्व वा दन्तिभिरुद्दन्तैर्धियेताद्विशिरः पतत् ॥ ८२ ॥
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३३७
१. 'वित' ग. २. 'पदा' क. ३. 'रुत्तिष्ठतीत्येनं' क. ४. 'उल्लालयन्धिसंज्ञो' ख.
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३३८
काव्यमाला।
मातुलोऽपि तदा वीर त्वया धीरेण न स्मृतः । । ईशेन सर्वगेनापि न त्रातोऽस्यमुनापि यत् ॥ ८३ ॥ हा पुत्र व गतोऽस्येहि दृढं परिरभस्व माम् । इत्युक्त्वा पतितः क्ष्मायां संज्ञामाप्योत्थितः पुनः ॥ ८४ ॥ [शैनेयप्रमुखैोरैर्बोध्यमानोऽपि वासविः ।
नामुञ्चत्सुतजं शोकं तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ ८५ ॥ पुत्रावसानोद्भवशोकमग्नो जनार्दनेनाभिदधे पृथाभूः । आखण्डलप्रार्थनया हतं मे पुरासुरन(?)न्दमधर्मधर्मम् ॥ ८६ ॥ अभूत्तदा यो जनितोदरस्थो वलूकनामा शलभस्य पुत्रः । नाशं पितुर्माधवतो निशम्य स मद्वधार्थ तपसे जगाम ॥ ८७ ॥ अधित्यकायां दधतं हिमाद्रेस्तपः सुतीनं सुरशिल्पितुष्ट्यै । तद्भक्तियोगात्सुरसद्मकर्ता वरं वृणीष्वेति तमाह तुष्टः ॥ ८८ || स रत्नपेटीमसुना विधाय यस्यां प्रविष्टस्य रिपोरभेद्याम् । निरस्तदेहेन निमेषतोऽस्मै त्वष्टार्पयामास तदथिने ताम् ॥ ८९ ॥ यावत्समागच्छति मा स तस्यां कुशस्थलीस्थं बलतो निधातुम् । वर्षिष्ठभूदेवसुवेषभाजा भूत्वा पुरस्तावदयं मयोक्तः ॥ ९० ॥ विश्राम्यतां वत्स निवेदयाशु मञ्जूषया धावसि कुत्र कोपात् । प्रोक्तो मयेत्थं निजगाद सोऽपि हरिं स्वशत्रु ह्यनया ग्रहीष्ये ॥ ९१ ॥ एवं यदि स्यादहमद्य वच्मि विपक्षपक्षग्रहणेऽर्थसिद्धिम् । अवेहि मां मन्त्रगुरुं कुलस्य तवारिनाशे च विनष्टनिद्रम् ॥ ९२ ॥ आधास्यसि त्वं कथमेवमस्यां जनार्दनं त्वत्तनुवत्स्थविष्ठम् । आदौ त्वमेवाविश येन भूयादैत्येन्द्र विश्रम्भ इवावयोर्यत् ॥ ९३ ॥ मद्वाक्यविश्रम्भपरे सुरारौ तदा प्रविष्टे पिहिता मया सा। न्यस्ता च पेटी भुवने तदेति नोद्धाटनीयाभिहितः स्ववर्गः ॥ ९४ ॥
इतिवाचि गतेऽन्यत्र मयि पेटी सुभद्रया।
उद्धाट्यालोकि दैत्यासुस्तदास्या जठरे विशत् ॥ ९५ ॥ १. कोष्ठकान्तर्गताः श्लोकाः ख-ग-पुस्तकयोस्त्रुटिताः.
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७द्रोणपर्व-२सर्गः] बालभारतम् ।
३३९ . सायुधानि समादाय योद्धं मां समुपाद्रवत् ।
अब्रवं ज्ञातवृत्तस्तं व्यूहभेदं निबोध मे ॥ ९६ ॥ चक्रव्यूहभिदे दत्ता मतिर्नो निर्गमे मया । अथास्मै दितिवंश्याय गुरुं ज्ञात्वा शशाम सः ॥ ९७ ॥ जानीहि पार्थ दैत्यासुं सौभद्रं सुतमाशु च । इत्युक्तोऽपि शुचाचष्ट त्रातो नो किमु मामकैः ॥ ९८ ॥] रणैकरौद्रं सौभद्रमनुयान्तो महारथाः ।
रुद्धा जयद्रथेनेति श्रुत्वा शाक्रिः क्रुधाभ्यधात् ॥ ९९ ॥ भास्वत्यनस्ते यदि सिन्धुराज गुप्तं हरेणापि न संहरेयम् । लिप्ये महापातकिनां च पापैस्ततः कृशानुं च विशामि दीप्तम्॥१०॥ इति प्रतिज्ञाय ततान वीरः कम्बुध्वनि कम्बुधरेण साकम् । युगान्तहेतोः परिपीय कर्णैः संचीयमानं हृदि शूलिनापि ॥ १०१ ॥
इति प्रतिज्ञया तस्य हिमान्येव जयद्रथः ।
कम्पी दुर्योधनेनापि त्रातुं तेजोनिधे गुरोः ॥ १०२॥ ततस्तदा तादृशपुत्रशोकतारप्रलापं रुदती सुभद्रा । . रणव्यसूनादिशता प्रभुत्वं प्रबोध्यमाना हरिणा जगाद ॥ १०३ ॥ दयाशया ब्रह्मविदो वदान्याः सत्योक्तयः शीलमया नयाढ्याः । अन्येऽपि ये केचन पुण्यभाजस्तेषां गतिं प्राप्नुहि पुत्रकेति ॥ १०४ ॥
कृष्णाज्ञया जयपरः परमस्मयोऽथ ___ तल्पे शुचौ सुचरितः स चिरात्प्रसुप्तः। . ऐन्द्रिः सहैव हरिणा हरशैलमौलिं
स्वप्ने जगाम च ननाम च चन्द्रमौलिम् ॥ १०५ ॥ तं च तुष्टाव तुष्टात्मा वरदं विहिताञ्जलिः । देवं विश्वत्रयीहारं हरं हरिसखोऽर्जुनः ॥ १०६ ॥
..१. 'तेजोनिधैर्गुरोः' ख; 'तेजोनिधिर्गुरुः' ग. २. 'सुचिरा' ख-ग.
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काव्यमाला।
नमः शिवाय रुद्राय महेशाय कपालिने । ज्ञानिने पशुनाथाय भवाय भवमाथिने ॥ १०७ ॥ कामदायास्तकामाय धर्मदाय मखच्छिदे । सुधाकरकिरीटाय विषग्रीवाय ते नमः ॥ १०८ ॥ एवं देवः स्तुतस्तस्मै महाहिमयविग्रहम् ।
जयिने धनुरस्त्रं च सस्थानकमदीदृशत् ॥ १०९ ॥ आशु पाशुपतमद्भुतमस्त्रं पूर्वलब्धमधिगम्य महेशात् । मन्त्रमाप्य च नयी जयबन्धुं स व्यबुध्यत कृती कृतकृत्यः ॥ ११०॥ ततः प्रातः प्रीतो रिपुनृपतिवीरव्ययमय
प्रतिज्ञापाथोधिं किमपि कलयन्गोष्पदतया । प्रमोदप्रागल्भीभरपरवशं वासवसुतः
प्रतेने पृथ्वीशं सुररिपुमपि स्वप्नकथनात् ।। १११ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारते महाकाव्ये वीराङ्के
द्रोणपर्वणि तृतीयदिवसे अभिमन्युवधो नाम द्वितीयः सर्गः ।
तृतीयः सर्गः। छन्दनिर्दलितारातिकलङ्कच्छेदधीरिव । पाराशर्यशरीरेण तपस्यन्पातु वो हरिः ॥ १ ॥ ततः कृतदिनारम्भकृत्या जम्भारितेजसः । युद्धश्रद्धोल्लसत्काया निरीयुर्दोभृतोऽभितः ॥ २ ॥ नक्तमप्यर्जुनभयादसुप्तैरथ मन्थरैः । सुभटैः शकटव्यूह विकटं विदधद्गुरुः ॥ ३ ॥ दलालिशालितन्मध्ये नरेशकुलकेसरम् ।
चक्रे पमं रथाश्वेभकोटिकल्पितकर्णिकम् ॥ ४ ॥ १. 'मायिने' ग. २. 'छल' ख-ग. ३. 'द्धस' ख-ग. ४. 'विदधे' ख-ग.
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द्रोणपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
कृतवर्मादिभिः सूचिव्यूहं व्यूह्य तदन्तरे ।
न्यवेशयद्धृतं वीरैः सूचिपाशे जयद्रथम् || १ || (कुलकम् ) विपक्षपक्षमुत्क्षेष्टुं युधि गोप्तुं जयद्रथम् ।
३४१
स्वयं द्रोणोऽद्भुताङ्गस्य शताङ्गस्य धुरि स्थितः ॥ ६ ॥ माणिक्यप्रथितरथान्तरप्रतिष्ठस्तत्कालं भयदवपुः कपीन्द्रकेतुः । सैन्याग्रे जलदरुचिर्दिनाधिनाथ क्रोडस्थः शमन इव व्यलोकि वैध्यैः ॥ ७ ॥ कल्पान्तप्रकुपितकालकण्ठकण्ठप्रस्पर्धामिव दधतौ सुघोरघोषौ । कृष्णाभ्यां तनुरुचिमेचकौ तदानीं दध्माते प्रलयकरौ परेषु शङ्खौ ॥ ८ ॥ अन्योन्यं द्रुतमथ साहसप्रैसक्ता दोष्मन्तः प्रधनभृतोऽभितोऽभिचेलुः । आक्रन्दो गुणरवकैतवेन तेने तन्मुष्टिग्रहमसहिष्णुभिर्धनुर्भिः ॥ ९ ॥ आकृष्टैरथ हैवतो हयत्वराया मानेन स्फुरितुमनीश्वरैर्लुठद्भिः । चीत्कारं रथचरणैः क्षणं सृजद्भिद्रग्वेगादतिरथिनोऽमिलन्मदान्धाः ॥ १० संरम्भादुचितकृतप्रतिक्रियाणां वीराणामजनि तदा स शस्त्रपातः । प्रक्षुब्धे जगति यथा करं न तेषु प्रक्षेप्तुं क्षणमशकत्तमां यमोऽपि ॥ ११ ॥ संग्रामव्यतिकरजातखेदसादिस्वेदाम्भः प्रतिहतवर्णके तदानीम् । आरूढं रुधिरधुनीमहोर्मिवृन्दैः सिन्दूरीभवितुमिवेभकुम्भदेशे ॥ १२ ॥ अथ ज्यामारुतोड्डीनी निःसत्त्व तुषतन्दुलैः । कृतान्तं भोजयन्भूपैर्हेतिसिद्धैर्म होष्मभिः ॥ १३ ॥ पुरःपातिनि मातङ्गस्थलस्थपुटितामपि । रसामुल्लङ्घय तरसा द्रोणमाद्रवदिन्द्रभूः ॥ १४ ॥ ( युग्मम्) नत्वानुमान्य प्राङ्मुक्ताशुगमाच्छाद्य चाशुगैः ।
दक्षिणीकृत्य च द्रोणं स व्यूहं रंहसाविशत् ॥ १५ ॥ चक्ररक्षौ विविशतुर्युधामन्यूत्तमोजसौ ।
सहैव तेन वीरश्रीहक्कान्तिस्तबकाविव ॥ १६ ॥
१. 'विदधत्' इति पाठदर्शनात् 'चक्रे' 'न्यवेशयत्' इत्येतक्रियाकर्तुः पूर्वश्लोक एवोक्तत्वादिदमादर्शपुस्तकेष्वदृष्टमपि वर्धितम् २. 'लोकैः' ख ग ३ 'प्रसक्त्या' ख-ग. ४. ‘हन्ततो' क. ५. 'ईक्' क . ६. 'मरुदुड्डीन' ख- ग.
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३४२
काव्यमाला। लोलध्वजान्गजानद्रितनुजानिव सद्रुमान् । वज्रात्मजैरिव तदा शरैरैन्द्रिरपातयत् ॥ १७ ॥ गृह्यतां हन्यतां वैष को नु गृह्णाति हन्ति कः । हा हता वयमेवेति शब्दोऽभूत्तत्र भूभुजाम् ॥ १८ ॥ चक्रदारितभूजन्मा तदीयस्यन्दनस्वनः । व्यदारयत्तदा सिन्धुराजस्य हृदयावनिम् ॥ १९ ॥ निर्माय कृतवर्मादीन्धावतो धूमलानुमान् । चक्रे जवनकाम्बोजवनदाहं धनंजयः ॥ २० ॥ अन्वेत्य गुरुणा मुक्तं ब्राह्मं ब्राह्मण फाल्गुनः । अस्त्रमस्त्रेण जित्वाभूगोजभूपचमूयमः ॥ २१ ॥ जलेशसूनुर्वर्णाशासिन्धुजन्मा श्रुतायुधः । कृष्णौ चक्रे शरैरर्ककरविद्धाम्बुदोपमौ ॥ २२ ॥ स किरीटिशरोत्कृत्तसर्वास्त्रस्यन्दनो बभौ । क्षपाकर इवोष्णांशुकरक्षतकरक्षपः ॥ २३ ॥ अयुध्यमाने या मुक्ता मोक्तारं हन्ति सा गदा । वरुणेन पुरा पित्रा दत्ता तेनाददे तदा ॥ २४ ॥ रे रे कातर रे मूढ मुश्चाध्वानं त्वमत्र किम् । इत्यादिवादिनि हरौ स क्ष्मापस्तां रुषाक्षिपत् ॥ २५ ॥ गदा गोविन्दमालिङ्गय व्यावृत्त्याशु श्रुतायुधम् । जघान खं पति स्त्रीव पराश्लेषोल्लसद्रसा ॥ २६ ॥ वातेऽनुवात्यपि ततः पश्चाद्विसूतकेतुना । हयानां रंहसाचालीजयद्रथरुषा जयः ॥ २७ ॥ दीप्तं सुदक्षिणं क्षोणिकान्तं कम्बोजमोजसा ।
कृताद्भुतरणं कालशरणं प्राहिणोन्नरः ॥ २८॥ १. 'चैष' क-ग. २. 'स्यान्दन' ख. ३. 'धूमकेतुमान्' क. ४. 'यवन' ख. ५. 'किरीटी' क. ६. 'तदा' ख. ७. 'गदा' ख. ८. 'प्रवाते वात्यपि' ख. ५. 'दुर्तित' . ख; 'द्विस्तृत' ग. १०. 'काम्बोज' ख-ग. ११. 'रलंकार' क.
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७द्रोणपर्व-३सर्गः] बालभारतम् ।
३४३ अथैत्य पार्थ पृथ्वीशावच्युतायुःश्रुतायुषौ । शूलतोमरनाराचैर्मोहयामासतुर्दुतम् ॥ २९ ॥ द्रुतमूर्छितमूर्छन ततः शक्रास्त्रमोचिना । तावर्जुनेन गर्नन्तौ जनाते सानुजानुगौ ॥ ३० ॥ अङ्गवङ्गकलिङ्गादिध्वजिनीरुधिरैर्व्यधात् । वीरालंकाररत्नाढ्यैः स रत्नाकरमष्टमम् ॥ ३१ ॥ तद्भल्लभिन्नकुम्भीन्द्रघटाकुम्भसमुद्भवैः । ताम्रपर्णीशतान्यासन्रक्तैर्मुक्तालिमालिभिः ॥ ३२ ॥ प्रीतैः पीतेव रक्षोभिर्विलक्षब्रह्मराक्षसैः । तेने तेनेषुभिर्लेच्छवाहिनीरक्तवाहिनी ॥ ३३ ॥ अम्बष्ठाधिपतेर्मोलिं युद्धद्रुमफलं जयी । जयश्रिये प्रियायै स हृत्वा कृत्याय तत्वरे ॥ ३४ ॥ इतश्च त्वरया गत्वा गुरुं कुलपति गौ । त्वां विलच्याविशत्पार्थः प्रियशिष्यतया तव ॥ ३५ ॥ दत्ता भयेन निश्येव त्रस्यन्नस्थायि सिन्धुपः । विशन्नुपेक्षितश्चैन्द्रिविरुद्धं चरितं तव ॥ ३६ ॥ अथाचष्ट गुरुयूहमविशद्वासवात्मजः । हरित्वरितवाहेन लवयित्वा रथेन माम् ॥ ३७ ॥ यद्येनमनुगच्छामि तद्भीमाद्या विशन्त्यमी । त्वं तु युध्यस्व मन्मन्त्रवज्रवर्मवशेन तम् ॥ ३८ ॥ इत्युक्त्वा वज्रमन्त्रेण वर्मितो गुरुणा नृपः । खमागतेन रुद्रेन्द्र पशुरामगुरुक्रमात् ॥ ३९ ॥ अधरोल्लङ्घनानीशमुखश्वासेन रंहसा ।
पार्थमन्वचलद्धन्वचलनोग्रैः समं बलैः ॥ ४० ॥ (युग्मम्) १. 'रमाद्यैः' क-ग. २. 'प्रीतेव' ख. ३. 'अवन्त्य' ख. ४. 'नस्यन' क. ५. 'क्रमा' ग, ६. 'मभ्यचल' ख.
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काव्यमाला।
प्रीयमाणोऽस्त्रटङ्कारलहरीतारगीतिभिः। वीज्यमानो विलोलासिमायूरव्यजनवजैः ॥ ४१ ॥ तदा व्यूहमुखे युद्धोत्सवे कौरवपाण्डवैः ।
यथेष्टं भोजयामासे नैष्ठुर्यखजनो यमः ॥ ४२ ॥ (युग्मम्) विशिखैर्वरयोधचक्रवालं दशनैरुग्रतरं करीन्द्रवृन्दम् । इतरेतरमङ्कुशप्रहारैर्मधमाधोरणधोरणिश्चकार ॥ ४३ ॥ मुखमण्डलमम्बरे भटानां विवृतं मारय मारयेति शब्दैः ।
रिपुखड्गहतं पतत्रिनाशैरवलोकागतदेवतुष्टयेऽभूत् ॥ ४४ ।। अहितासिभिदोत्थितं दधानो गलरन्ध्रस्थितमैभमास्यमुच्चैः । युधि नृत्यपरः परश्वकाशे हरनाट्ये गुहबन्धुवत्कबन्धः ॥ ४५ ॥ रिपुमौलिरसिप्रहारनुन्नो दिवि ताडङ्कयुतोऽभवद्भटेन । सुरभीतिकृदेककाललब्धामणिश्वेतकरोग्रराहुरौद्रः ॥ ४६ ॥ रणसीमनि वाञ्छितस्य पत्युः प्रथमप्राप्तमरातिखड्गघातात् । धुगतं वदनं सहास«द्यं धुवधूं चुम्बितुमुच्चकैरियेष ॥ ४७ ॥ रिपुमेकमहो जघान कश्चित्प्रथमं जाचिकपुङ्गवः कृपाण्या । सममुच्चलितं जवेन जित्वा शरमुच्चैर्निजपक्षवीरमुक्तम् ॥ ४८ ॥ मणिमौलिजटाग्रकान्तिसिन्धुः प्रधनाम्भोधिभवार्धचन्द्रभालः । असिदण्डशिखोद्धृतॉरिशीर्षः किल खट्टाङ्गकरः परश्चकाशे ॥ ४९ ॥ परकृत्तनिरन्तरान्तरालं सफरकः काञ्चननिर्मितः परस्य । पतितो मृतवीरभेदपीडा विधुरो भूमितले किलार्कबिम्बः ॥ ५० ॥ अवलोक्य पुरस्त्रसन्तमन्तः कुपितः कोऽपि कुले कलङ्कभीरुः । असिना प्रथमं जघान बन्धुं रिपुमन्वेषिणमेव तस्य पश्चात् ॥ ११ ॥ सुहृदा धृतमञ्चलं विकर्षन्वपुषि प्रत्तपदो मृतस्य बन्धोः । दयिता रटितान्यमन्यमानः परचक्रेषु पपात कश्चिदेकः ॥ १२ ॥ १. '-खैः खर' ग. २. 'मण्ठप' क. ३. 'वृत्त' ग, ४. 'हक' क; 'हां' ग. ५. 'ताहि' क. ६. 'शर' ख-ग. ७. 'फलकं, निर्मितं, पतितं, विधुरं, बिम्बम्' ख-ग. ८. 'पुरः श्वसन्त' क-ग. ९. 'शिरसि' ख. १०. 'दृप्त' क.
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राहतुः ।
७द्रोणपर्व-३सर्गः] बालभारतम् । व्ययितास्त्रभरः परः समीके द्रुतमुन्मूल्य रदं रिपुद्विपस्य । प्रेसरन्प्रसभं बलेन दृष्टो मुशलीवाद्भुतभीतिभङ्गुरेण ॥ १३ ॥ खरशक्तिरपूर्णमण्डलोऽपि प्रसभं पूर्णतरेऽपि नाशहेतुः । सकलेन्दुसमाभटास्यकूटा द्विषतां विक्षिपिरेऽम्बरेऽर्धचन्द्रैः ॥ १४ ॥ युधि युद्धविधि व्यधुर्गतास्त्राः पतितोत्पाटितमुक्तमौलिगोलैः । दृढमुष्टिहतै रदैर्नखैश्च स्फुटरामायणवीरवद्भटेन्द्राः ॥ ५५ ॥
इतश्च प्रचलन्पार्थरथो रुद्धपुरःपथः । न तथास्खलि खेलद्भिः परैः परिहतैर्यथा ॥ १६ ॥ पत्रिणां पार्थमुक्तानां गव्यूत्या पुरतः पतन् । स रथस्त्वरयाश्चर्य चक्रे केतुकपेरपि ॥ १७ ॥ बिन्दानुबिन्दावावन्त्यौ व्यथयन्तौ शिलीमुखैः । रयादपातयत्पार्थस्तौ मधुच्छन्त्रलीलया ॥ १८ ॥ पाययाम्बु हयान्खिन्नान्विशल्पीकुरु शल्पितान् । इत्युक्त्वाथ हरिं जिष्णुरुत्ततार द्रुतं रथात् ॥ ५९॥ क्षणेऽस्मिन्नेष धावन्तीरुत्तालाः शरमालया। रुरोध योधपटलीलयाब्धिरिवापगाः ॥ ६० ॥ निःशङ्ककङ्कपत्रालिमयं मन्त्रालयं व्यधात् । तदन्तरप्यसौ वारि शरदारितभूमिजम् ॥ ६१॥ तत्राथ पाययित्वा च तारयित्वा च वाजिनः । स्पर्शेन निर्बणीकृत्य कृष्णः पुनरयोजयत् ॥ १२ ॥ अथाधिरोहिणौ कृष्णौ द्विगुणोपरया हयाः। ऊहुः कॅम्बूद्धशिरसौ प्रागुत्थानेऽप्यकम्पिनौ ॥ ६३ ॥ शिल्पमल्पावशेषेऽह्नि पार्थः प्रगटयत्परम् ।
कल्पान्तवात इव कान्भूभृतो न व्यकम्पयत् ॥ ६४ ॥ १. 'प्रसभं प्रसरन्' ख. २. 'पर' ख. ३. 'सारयित्वा' ख-ग. ४. 'कन्द्रेन्द्र' क. ५. 'कल्पान्ते ख.
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३४६
काव्यमाला |
अथैत्य गुरुणा बद्धकवचः कौरवेश्वरः ।
रुरोध क्रोधनो युद्धकिरीटाभं किरीटिनम् ॥ ६५ ॥ छिन्धि मूलमनर्थानामित्युक्ते हरिणा नरः । क्षणं तेन रणं चक्रे चमत्कृतसुरासुरम् ॥ ६६ ॥ अमज्जन्नर्जुने बाणाः सद्यो नद्यो यथाम्बुधौ । नृपे तु पेतुरकृतार्था यथा कृपणेऽर्थिनः ॥ ६७ ॥ किमेतदिति गोविन्दे वदत्यूचे धनंजयः ।
ज्ञातं मयास्मिन्गुरुणा वज्रं वर्मणि मन्त्रितम् ॥ ६८॥ वेयस्य छेदमित्युक्त्वा यदस्त्रं फाल्गुनोऽमुचत् । लोमेनेव महत्त्वं तद्द्रौणिनास्त्रेण वारितम् ॥ ६९ ॥ द्विःक्षेप्यं न खलु रणेषु दिव्यमस्त्रं ध्यात्वेति क्षितिभुजि विक्षिपन्पृषत्क्तान् । छित्त्वान्तः प्रगुणगुणं धनुस्तद्वोजः श्रीकर्णद्वयवदपातयत्किरीटी ॥ ७० ॥ स्म च्छिन्ते मणिमिव तज्जयाभिकाङ्क्षी वामाक्षीमुकुटरुचे रथस्य सूतम् । तच्चेतः कलितचतुर्दिगन्तराज्यश्रीदूतानिव चतुरोऽभिदत्तुरङ्गान् ॥ ७१ ॥ चिच्छेद द्विरदरदप्रभानिभं च छत्रं प्राक्शिर इव तद्यशोऽङ्गजस्य । तत्तेजस्तरुकरहाटवज्ज्वलन्तं सौवर्ण कलशमपि ध्वजाच्चकर्त ॥ ७२ ॥
(विशेषकम् )
नाराचानकवचितेषु वज्रमन्त्रैस्तस्यैन्द्रिः कररुहसंधिषु न्यधाश्च । तत्रस्तः स नरपतिस्तनूजुषां दिक्पालानामपि विकिरन्महांसि रक्तैः ॥७३॥ वर्मोच्चयान्द्रौणिप्रभृतीनामपातयत् ।
तदा तेजोमयानीव शरीराणि शरैर्नरः ॥ ७४ ॥ ते बाणै रक्तसिक्ताङ्गाश्चक्रिरे शक्रसूनुना । स्वजयश्रीगृहस्तम्भा इव सिन्दूरचित्रिताः ॥ ७५ ॥ ततश्च पातुमारेभे बलाम्भोधि विरोधिनाम् । बाणाङ्गुलिजुषा चापप्रसृत्त्या कलशोद्भवः ॥ ७६ ॥ १. 'नाराचान्स कवचितेषु' ग.
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७द्रोणपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
हत्वा बलावलीस्तेन पार्थेशे विरथीकृते ।
हतो हतोऽद्य राजेति लोकाः शोकात्प्रचुकुशुः ॥ ७७ ॥ क्षिप्तां शक्ति नृपेणाथ कटुक्काणां सघण्टिकाम् । ब्रह्मास्त्रेणाच्छिदद्रोणस्तच्छौर्यरसनामिव ॥ ७८ ॥ सहदेवरथेनाथ पलाय्य प्रययौ नृपः ।
दर्शितस्वामिभक्त्येव सेनयाप्यन्वगामि सः ॥ ७९ ॥ अथ पार्थचमूवीरैः समीरैः क्षयजैरिव । शोषिताः परवाहिन्यो रङ्गितासितरङ्गिताः ॥ ८० ॥ करटीव बृहत्क्षत्रः कैकयानी कनायकः । द्रोणानुगं क्षेमधूर्ति स्तम्भपातमपातयत् ॥ ८१ ॥ जघानाथ त्रिगर्ते स धृष्टकेतुर्महारथम् । सहदेवोऽरिमित्रं च व्याघ्रदत्तं च सात्यकिः ॥ ८२ ॥ त्वष्ट्रास्त्रहतमायास्त्रं भीमं भीमवधोद्यतम् । अलम्बुषं रथात्कृष्ट्वा निष्पिषेष घटोत्कचः ॥ ८३ ॥ तदाभूद्रौणभैमिभ्यां भज्यमानबलद्वये ।
क्षोणिभृत्क्षुभिताम्भोधिक्रोधी कलकलः कैलः ॥ ८४ ॥
दवीयसस्तदा जिष्णोरशृण्वशङ्खनिःखनम् । सात्यकिं काणि चैरितपरितप्तोऽभ्यधान्नृपः ॥ ८९ ॥ शूर क्रूरचरित्रेषु प्रविष्टस्ते गुरुः सुहृत् । धर्मज्ञ तव कालोऽयमालोकय शरण्यताम् ॥ ८६ ॥ प्रयातेऽपि त्वयि प्राणसदृक्षस्य दिदृक्षया । द्रोणां द्रौपदिभीमाभ्यां समेतस्य न मे भयम् ॥ ८७ ॥ इति श्रुत्वा तथेत्युक्त्वा दत्त्वा हुत्वा च सात्यकिः । स्रग्वी धात्रीशमामन्त्र्य मङ्गलालंकृतः कृती ॥ ८८ ॥
३४७
(अर्जुनप्रवेशः)
१. 'पार्थेन' ख. २. ''धृष्टकेतुं म' ख-ग. ३. 'द्रौणि' क- ख. ४. 'किल' ग. ५. 'द्रौणि' ख. ६. 'चरितं' ग. ७. 'सकृत्' ख.
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३४८
काव्यमाला |
काण्डखण्डित विद्वेषिरक्तसिक्तेन वर्त्मना । रथेन रंहसाचालीदुद्भूतरजसा मुखम् ॥ ८९ ॥ द्रोणसात्यकयोः काण्डमण्डपच्छन्नचण्डरुक् । रणोऽभूदस्त्रसंघट्टस्फुलिङ्गास्ततमास्ततः ॥ ९० ॥ गुरो त्वच्छिष्यमत्वेष्टुर्न मे(?) संरोद्धुमर्हसि । इत्युक्तिभाजि शैनेये गुरुरूचे न मुच्यसे ॥ ९१ ॥ इत्युक्तवन्तमुत्काण्डकोदण्डं दुर्जयं गुरुम् । वञ्चयन्रथवेगेन सात्यकिर्व्यूहमाविशत् ॥ ९२ ॥ निकृत्य कृतवर्मादीनप्रमादी विशन्नसौ । चक्रे क्षितिभुजङ्गानां क्षयं तायैरिवाशुगैः ॥ ९३ ॥ पाण्डवाश्चण्डकोदण्डा व्यूहभेदोद्यतास्तदा ।
गुणा इव प्रमादेन वारिताः कृतवर्मणा ॥ ९४ ॥ रणत्पत्रिभृतव्योमा संरम्भात्तान्नदीधितिः । शिनेः सूनुस्तदा वीरनेत्राम्भोजनिमीलनः ॥ ९९ ॥
सिन्धुराज्जलसंधाख्यं मगधेन्द्रमपातयत् ।
संध्याकाल इव क्षिप्रं चण्डांशुं चरमाचलात् ॥ ९६ ॥ ( युग्मम् ) मार्गणा लक्षदानेन प्रीणयन्स पदे पदे ।
नरनारायणौ द्रष्टुं शैनेयोऽचलदुत्सुकः ॥ ९७ ॥ गन्धसिन्धुरगन्धर्ववीरेन्द्रध्वजिनीत्रजान् । यमोऽङ्गुलीभिस्तद्वाणैर्लोलं लोलं मुदागिलत् ॥ ९८ ॥ सुदर्शनादिभूपालमौलीन्पत्रिभिरुत्क्षिपत् ।
व्योम्नः स चक्रे चण्डीशमूर्तेर्मुण्डालिमण्डनम् ॥ ९९ ॥ शैनेयसायकैलूनो दुनो दुःशासनस्तदा ।
द्रोणं प्राप मनस्ताप प्रम्लानाधरपल्लवः ॥ १०० ॥
( युग्मम् )
१. वर्मणा' क. २. 'दधूत' क ख ३. 'च्छिन्न' क. ४. 'माम्' इत्युचितम्. ५. 'विकृत्य' ख. ६. 'वर्मादीन्प्रमादीव' ख ग ७. बाणानू, याचकांच. ८. लक्षसंव्यवसुदानेन, लक्ष्यदानेन च 'लक्ष्य' ग.
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७द्रोणपर्व-३सर्गः] बालभारतम् ।
तं जगाद गुरुर्मूढ किमु त्रस्तोऽसि सात्यकः ।। पाञ्चालीचिकुराकृष्टौ सृष्टो यः क स ते मदः ॥ १०१ ॥ यो हासः पाशपातेषु सारिद्यूतेऽभवत्तव । पतत्सु यमपाशेषु प्राणिद्यूते व तेऽद्य सः ॥ १०२ ॥ अधुनापि कुरुध्वं वा संधिं युधि भयं यदि।.. नं तच्चेत्परलोकाय युध्यत्वं तदशङ्किताः ॥ १०३ ॥ इत्युक्ते न्यग्मुखस्त्राणाभिलाषी सैष दीनदृक् । दैत्यावतारः पातालदैत्यान्गन्तुमिवैहत ॥ १०४ ॥ कृतान्तकिंकरस्वेच्छैम्र्लेच्छयूँढैः समन्ततः । स सात्यकिमगान्मङ्घ चक्षुर्वेगवरत्वरः ॥ १०५॥ . मुहूर्तेऽस्मिन्गुरुर्विप्रः प्रज्वलत्कोपपावकः । चित्रं नृणां सुरस्त्रीणां व्यधात्पाणिग्रहान्बहून् ॥ १०६ ॥ धीरकेतुचित्ररथचित्रकेतुसुधन्वनः । पाञ्चालदिग्जयस्तम्भाञ्जङ्गमान्सोऽभ्यपातयत् ॥ १०७ ॥ यज्ञयोनिस्तदा वीरो मूर्छयित्वा शरैर्गुरुम् । कृपाणपाणिस्तं हन्तुं दण्डपाणिरिवाद्रवत् ॥ १०८ ॥ गुरुस्तं लब्धसंज्ञोऽथ शरैरासन्नपातिभिः । किष्कुप्रमाणैर्वैतस्तैवैशारूढमपूरयत् ॥ १०९॥ त्रस्तेऽस्मिन्वाडवः सैष दीप्तहेतिरशोषयत् ।। अन्तर्धार्मिबलाम्भोधिं भुवनप्लवनामम् ॥ ११०॥ छिन्ने म्लेच्छबले बाणैः क्षीणवर्मायुधं युधि । दुःशासनं न शैनेयोऽवधीद्भीमभिया तदा ॥ १११ ॥ प्रविश्य पाण्डुवाहिन्यां नृपवक्राणि पद्मवत् । तदा लुलाव वीरश्रीपूजार्थीव द्विजो गुरुः ॥ ११२ ॥
१. 'सात्वतातू' ख-ग. २ 'दृष्टो' ख. ३. 'न तु चे' क. ४. धृष्टद्युम्नः. ५. “वं. शारूढमयूरवत्' क. ६. 'क्षमः' क. ७. 'ययौ' क.
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३१०
काव्यमाला ।
कैकयाधिपतिज्येष्ठबृहत्क्षत्रद्रुमानलः । शिशुपालात्मभूधृष्टकेतुदावानलाम्बुदः ॥ ११३ ॥ जरासंघतनू जन्मसहदेवाम्बुदालिलः । धृष्टद्युम्नसुतक्षत्रधर्मश्वासानिलोऽरगः ॥ ११४ ॥ तेजसा प्रज्वलन्बाणैर्वर्षन्सर्पन्नुरुत्वरः । कोपेन निश्वसन् द्रोणः पार्थ व्याकुलयद्बलम् ॥ ११५ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) ( सात्यकिप्रवेशः )
क्षणेऽस्मिन्नन्तरिक्षान्तर्भाजि भास्वति भूपतिः । अभ्यधत्त समभ्येत्य भीमं भीमग्नमानसः ॥ ११६ ॥ वत्स त्वत्सत्त्वकालोऽयं द्विट्प्रविष्टं व्रजानुजम् । कर्ण्यते कैशवः कम्बुः क्रोशन्न पुनरार्जुनः ॥ ११७ ॥ द्विषद्विषमतामनं तात यातेऽर्जुनं त्वयि ।
द्रोणजां द्रौपदिर्भीति हन्ता हन्तायमेव मे ॥ ११८ ॥ इति श्रुत्वाभ्यधाद्भीमः प्रभो तेभ्योऽर्जुने व भीः । दधे मूर्ध्नि तथाप्येष शेषावत्तव शासनम् ॥ ११९ ॥ इत्युदीर्य महावीर्यः स्यन्दनख नगर्जनः । मदौघशाली कर्णान्तोलीनोड्डीनशिलीमुखः ॥ १२० ॥ पुरोलोकैर्दत्तमार्गः प्रपतद्भिरितस्ततः ।
( युग्मम् )
भीमः शकटभेदाय दन्ती मत्त इवाद्रवत् ॥ १२१ ॥ कौन्तेय यमिच्छा ते व्यूहं भेत्तुं मयि स्थिते । इत्युक्त्वामुं गुरुः क्रूरैर्बाणपूरैरर्पूरयत् ॥ १२२ ॥ तत्काण्डपतन व्यक्तसान्द्ररक्तो वृकोदरः । कालीकुचाग्रकाश्मीरक्लिन्नकाल इवाबभौ ॥ १२३ ॥ न शिष्योऽहं गुरुर्न त्वं नार्चामि त्वां यथार्जुनः । त्वां विजित्य विशन्तं मां पश्येत्युक्त्वानिलिर्गुरुम् ॥ १२४ ॥
१. 'द्रोणं द्रौपदिजैर्भीतं' क. २. 'ते भो' क. ३. 'शिष्य' ग. ४. 'कर्णान्तलीनो' ख-ग. ५. 'च' क. ६. 'पूजयत्' क. ७. 'कुचान्त' क. ८. 'क्लान्तः' क.
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७द्रोणपर्व-३सर्गः] . बालभारतम् ।
३५१ याममुञ्चद्गजबलां घण्टालंकारिणी गदाम् । द्रुतं द्रुम इवाभजि त्रस्तद्रोणस्तया रथः ॥ १२५ ॥ (युग्मम्) तदा त्वदात्मजो राजन्सानुजो मनुजेश्वरः । स व्यालचन्दनवनौपम्यं भीमाशुगैरगात् ॥ १२६ ॥ वृन्दारकं दीर्घनेत्रं सुषेणं दुर्विमोचनम् । द्रौणकर्माणमभयं चित्रकान्ति सुदर्शनम् ॥ १२७ ॥ इत्यष्टौ त्वत्सुतान्राजन्नाजधान वृकोदरः । तच्छिरोभिः शरोत्क्षिप्तैः कन्दुकैः क्रीडयन्दिशः ॥ १२८ ॥
(युग्मम्) वर्षन्कीनाशदासेभ्यो हतैर्दण्डैरिवाशुगैः । स्यन्दनेनाष्टनादेन तदा द्रोणस्तमाद्रवत् ॥ १२९ ॥ रामरावणसंग्रामगुणग्राममलिम्लुचः । तदोच्छ्सदवष्टम्भः संरम्भः कोऽप्यभूत्तयोः ॥ १३० ॥ रथादथावरुह्याशु भीमो हस्ताग्रहेलया। हस्तीवोत्पाद्य चिक्षेप दूरे दूरे रथं गुरोः ॥ १३१ ॥ पृथक्कृताङ्ग शेततः शताङ्गाद्विद्रुते गुरौ । रथी वरूथिनी भीमो विशद्विदशविक्रमः ॥ १३२ ॥ अपूर्णचर्वणश्रद्धान्दूरदेशान्तरागतान् । यमदन्तानिव शरान्प्रीणयन्प्राणिकोटिभिः ॥ १३३ ॥ कर्णानीकं समीकार्थी घनाकुलमनाकुलः ।
भीमोऽभजद्गजक्रीडाकान्तारमिव केसरी ॥ १३४ ॥ संरब्धशैनेयधनुर्निनादानादाय भीमोऽद्भुतमुन्ननाद । तक्ष्वेडया दध्मतुराशु कृष्णौ कम्बू तदा धार्मिमनोविनोदौ ॥ १३५॥ पराङ्मुखोद्वर्तितवार्धिबिभ्यवीपान्तरः कोऽपि स शब्दपूरः । श्लथार्धनारीश्वरसंधिबन्धः समीरणस्कन्धसमीरयोऽभूत् ॥ १३६ ॥
१. 'चन्दनौपम्यं भीम' ख-ग. २. 'शतकात्' क.
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३५२
काव्यमाला।
सामीरिणा संयति भज्यमानं विभज्यमानं यमदासवृन्दैः । बलं तदालोक्य नृलोकमस्त्रमयं वितन्वन्प्रेचचार कर्णः ॥ १३७ ॥ मिथः प्रमाथाकुलयोस्तदाभूत्कौन्तेययोः कश्चन काण्डपातः । यद्वातजातप्रसरैरिवासीत्सुरासुराणामपि मौलिकम्पः ॥ १३८ ॥ भीमेन भग्नप्रसरः शरौघैः कर्णस्तदा दीर्णरथायुधौधः । त्रस्तोऽपि वैरादिव रहसैव तदीयतातं जयति स वातम् ॥ १३९ ॥
मलानाननः कृपीकान्तं तदागत्य नृपोऽभ्यधात् । प्रियोऽर्जुनस्ते यन्मुक्तौ तस्मै सात्यकिमारुती ॥ १४० ॥ अहो नु मन्दभाग्यानां सामर्थ्य किंचिदद्भुतम् । येनापि वज्रदुर्भेदा त्वत्प्रतिज्ञा श्लथीकृता ॥ १४१ ॥ ऊचे गुरुर्गुरुतरां किं युध्येयं चमूमिमाम् । किंवा तौ बाणपातौघचलाचलकुलाचलौ ॥ १४२ ॥ एकोऽपि वीर याम्येष सप्ताप्यद्य चमूरमूः । एकादशचमूवीरैस्त्वं निवारय तत्रयम् ॥ १४३ ॥ इत्युक्त्वा गुरुणा गत्वा द्रुपदो-शनन्दनौ । पार्थिवौ विरथी चक्रे शक्रभूचक्ररक्षकौ ॥ १४४ ॥ इहान्तरे महाशौर्यः सूर्यसूनुरतापयत् । भीमं हैमैः शरवातैः पितुरात्तैः करैरिव ॥ १४५॥ भीमास्त्रैः कर्कशैरर्कसूनुलूनरथायुधः । नश्यन्नं हिरजोव्याजात्तेनेऽभ्रव्यापि दुर्यशः ॥ १४६ ॥ भीमे भूपालमालाया मौलिजालानि कृन्तति । सुराणामप्यहो शीर्षेः कम्पितं चकितैरिव ॥ १४७ ॥ पुनरप्याययौ सज्जस्यन्दनः सूर्यनन्दनः ।
भीमं हैमशरैः कुर्वन्हेमवल्लीवनोपमम् ॥ १४८ ॥ १. 'प्रचचाल' ग. २. 'मानम्लानः' क; 'म्लानमानः' ख. ३. अनुदात्तत्वलक्षणात्मनेपदस्यानित्यत्वात्क्यजन्तत्वाद्वा परस्मैपदम्. ४. 'किं च नौ बाणवातौघ' क. ५. 'इत्युक्तो' ग. ६. 'पातयन् क. ७. 'दुर्दशः' क. ८. 'मालानां' ख.
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७ द्रोणपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
छैन्ने बाणगणैव्यनि द्रष्टुं तत्र रणं तयोः । देवा इवाययुः पश्यदनिमेषभटच्छलात् ॥ १४९ ॥ कौन्तेये कर्णकोदण्डरथप्लोषानले तदा । दुर्जयाख्यस्तव सुतो राजन्भेजे पतङ्गताम् ॥ १५० ॥ भीमेन भुवनक्षोभशोभमानशरोत्करः । गदया विरथीच पुनराधि रथी रथी ॥ १११ ॥ तदा त्वदङ्गजो राजन्धावन्भीमेन निर्ममे । प्रेमथः स्वर्गसुमुखीमुखपद्मशिलीमुखः ॥ १५२ ॥ आरुह्य प्रेमथरथं ततोऽधिरथभूः शरान् । यान्भीमस्य हृदि न्यास तैस्तत्कोपानलोऽज्वलत् ॥ १५३ ॥ ततो दृष्ट्वा प्रविष्टेषु श्वभ्रं भीमेषु भोगिषु । कर्णो गुल्मं नरेन्द्राणां रथेन जैविनाविशत् ॥ १५४ ॥ तान्दुर्मपणदुर्ग्राहजयद्दुःशलर्दुःसहान् ।
जघान त्वत्सुतान्पञ्च भीमः सत्याभिधस्तदा ॥ १५५ ॥ रङ्गन्तं पुनरङ्गेशं कृत्वा कृत्तरथायुधम् । भीमे नदति भक्त्येव भियालोटि भटैर्भुवि ॥ १५६ ॥ सप्ताथ त्वत्सुतश्चित्रश्चित्रवाणः शरासनः । चारुचित्रकचित्राक्षौ चित्रवर्मोपचित्रकौ ॥ १५७ ॥ कर्णत्राणधियो भीमबाणपातनिपातिताः ।
३१३
युधि स्वपुत्रं पाहीति वक्तुं शङ्केऽर्कमत्रजन् ॥ ११८ ॥ ( युग्मम् ) मुहुर्जितोऽपि राधेयस्तीन्मृतान्वीक्ष्य बाष्पदृक् ।
अनिर्वेदः श्रियो मूलमित्येनं पुनरापतत् ॥ १५९ ॥ भीमः क्षरदसृग्धारो राधेयविशिखैर्बभौ । वीरश्रीस्नानकाश्मीरारुणनिर्झरशैलवत् ॥ १६० ॥
१. 'छन्नो' ख. २. 'कौन्तेयक' ख. ३. 'श्लेषानले' क. ४-५. 'प्रथमः ' क ख. ६. ‘गुप्त्यै’ स्व-ग. ७. ‘रथिना' क. ८. 'दुर्धर' ख ग ९. 'ताभूप चित्रवाणशरासनौ' ख- ग. १०. 'ताञ्जिता ' क; 'तान्हता' ख.
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३५४
काव्यमाला |
विमुक्तभीमकरया वामत्वाशरमालया । आलिङ्गयमान सर्वाङ्गो मुमोहाङ्गपतिस्ततः ॥ १६१ ॥ ते चित्रार्युधचित्राश्वचित्रसेनविकर्णकाः ।
शत्रुः शत्रुंजयः शत्रुं सहश्चेति सुतास्तव ॥ १६२ ॥ आर्कित्राणाय धावन्तो हता भीमेन तद्बभौ सप्तगोदावर इव श्री भीमस्तदसृग्रयैः ॥ १६३ ॥ ( युग्मम् ) ततो मूर्च्छान्तविक्रान्तः कर्णः स्वर्णमयैः शरैः । भीमं चक्रे दवार्चिष्मत्की लालीढद्रुमोपमम् ॥ १६४ ॥ [पार्थस्य विरथस्यास्य सर्वाण्यस्त्राणि धावतः । कर्णश्चिच्छेद पत्राणि तपस्य इव शाखिनः ॥ १६५ ॥] क्षीणायुधो हरिकरित्रातान्वातात्मजोऽक्षिपत् । वैकर्तनश्चकर्तेषुसंतानैर्मङ्खु तानपि ॥ १६६ ॥ [ स्मरन्कुन्तीगिरां भीममनिघ्नन्भानुभूस्तदा । लीनं मृतेभकूटेषु धनुष्कोट्या स्पृशञ्जगौ ॥ १६७ ॥ ] महद्भिर्न रणं कार्यमकृतास्त्र पुनस्त्वया । स्थूलमूर्तेर्बहुभुजः सूदतैव तवोचिता ॥ १६८ ॥ इत्युक्तया शल्ययन्भीमं दर्शितो दनुजद्विषा । अत्रास दूरादुद्दण्डैः काण्डैः कर्णः किरीटिना । १६९ ॥ आरूढोऽथ विपत्त्यक्तः सुतप्तः सात्यके रथम् । भीमः प्रावृविमुक्तोऽर्क इव पूर्वगिरेः शिरः ॥ १७० ॥
भीमसेनप्रवेशः ।
नरेण नाराचमुदञ्चितं तदा पतङ्गभूसंमुखमद्भुतप्रभम् । अखण्डयन्द्रौणिपतत्रिपतयस्तदुन्मुखं दावमिवान्दवृष्टयः ॥ १७१ ॥
१. 'वामत्वाशममालया' क. २. 'आलिङ्गयमानः सर्वाङ्गः ' ख; 'सर्वाङ्ग' ग. ३. 'युधि चित्रास्त्रचित्रसेवककर्णकाः ' ख. ४. 'दृढ' ग. ५. 'कर्ण' ख-ग. ६-७. क पुस्तके त्रुटितः. ८. 'स्तव' ग. ९. 'सूदनैव ततोचिता' क. १०. ' इत्युक्वा' क- ग.
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७ द्रोणपर्व - ३ सर्गः ]
बालभारतम् ।
ततः पतत्रिप्रकरैः पराङ्मुखं विरच्य नाराचरुंचा गुरोः सुतम् । असृक्प्रभायन्त्रितसांध्यविभ्रमाञ्जवान संधानवनीभृतां नरः ॥ १७२ ॥ यांहिधूतानपि रक्तवाहिनी प्रभावबिन्दू मुदितान्पदे पदे । त्वरातिरेकादभिवञ्चयन्ययौ जयद्रथेच्छोर्जयिनस्तदा रथः ॥ १७३ ॥ तदा हरीणामपि कृष्णयोरपि द्युतिस्त्वरादीर्घतैरैव मिश्रिता । मुद्दा भटैः संयति जह्नुनन्दिनीकलिन्दजासङ्गनिभा व्यभात्यत ॥ १७४ ॥ सव्यसाची रविरिव प्रत्यङ्गाप्तशिलीमुखम् ।
इतस्ततः कीर्णदलं पद्मव्यूहमथ व्यधात् ॥ १७५ ॥ विगाह्य वाहिनीं पद्मव्यूहोद्दलनलालसे । नरे नाग इवान्ते राजहंसैः पलायितम् ॥ १७६ ॥ महारथघटागुप्तपाशस्थितजयद्रथम् ।
सव्यसाची ततः सूचीव्यूहं निचितमाविशत् ॥ १७७ ॥
उद्यत्कीलालकीलालिमालिनं मारुतिस्तदा । अम्युज्ज्वलगदाहस्तो ददाह स्तोममस्त्रिणाम् ॥ १७८ ॥ सात्यकेनिघ्नतः शत्रून्मुहुर्धन्व नतोन्नतम् | निमेषोन्मेषभृन्मृत्योर्विलोचनमिवावभौ ॥ १७९ ॥
धन्विना युयुधानेन युधानेन क्रुधार्दितम् । कौरवेन्द्रमहाचक्रं ह हा चक्रन्द तत्तदा ॥ १८० ॥ अलं वृषनृपस्यैष खे चिक्षेप शरैः शिरः । यद्विधुंतुवद्वीक्ष्य वित्रस्तं राजमण्डलम् || १८१ ॥ अपात्यन्त शरैस्तेन वीरा पञ्चशतीमिताः । क्ष्मासंमुखाः पतङ्गस्य करा इव दिवस्तदा ।। १८२ ॥ नृपाङ्घ्रिपार्श्विमृगन्तं यूथेशमिव केसरी | भूरिश्रवाः समभ्यायाद्भूपस्तं यूपकेतनः ॥ १८३ ॥
१. 'रुषा' ख. २. 'हता' ख. ३. 'तरैर्विमि' क. १. 'लालसैः' ख. ६. 'विनिघ्नन्तं' ख. ७. 'भ्यागात् ' ख.
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४. 'व्यभाव्यत' ग.
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३१६
काव्यमाला |
उद्गर्जितौ विविधरत्नविचित्रचापौ चञ्चत्तडित्तरलकाञ्चनकाण्डपातौ । ऐकाब्धिनीररसनप्रसरद्विरोधौ
धाराधराविव जवादभिजग्मतुस्तौ ॥ १८४ ॥
दोः शालिनां मृधमिथः शिथिलादराणां तेजोमयान्यरुणितानि मनांसि नूनम् ।
अस्त्रौघघट्टजघनाग्निकणच्छलेन
पेतुस्तयोरुपरि कौतुकतश्चलानि ॥ १८९ ॥ धियां विभग्नविभुवाञ्छितमद्य धिग्धिग्दिक्चक्रवालविदितं मम शायकत्वम् । यच्छायितो न रिपुरित्यविशद्धियेव
भूमिं शरव्यसफलोऽपि तयोः शरौघः ॥ ९८६ ॥ अन्योन्यवाणततिपातितसूतसप्तिधन्वध्वज कलितकाञ्चनवर्मखौ |
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क्षेत्रे प्रचेलतुरथोग्रनिजप्रताप
द्विड्दुर्यशोविटपिबीजकराविवैतौ ॥ १८७ ॥ क्ष्वेडाभिः खड्गखाद्वा(टूका)रैः स्फुलिङ्गैर्गतिभङ्गिभिः । स्फुरद्धर्घरघोषैश्च तौ जातौ प्रेक्षणक्षणौ ॥ १८८ ॥ अथाकृष्य कचैर्हत्वा हृदि पातेन सात्यकिम् । सौमदत्तिः प्रपात्यैच्छच्छिरश्छेत्तुं महासिना ॥ १८९ ॥ तदाचष्ट हरिः पार्थे शिष्यस्ते पश्य सात्यकिः । जगज्जेतापि धिग्दैवात्सौमदत्तिवशं गतः ॥ १९० ॥ श्रुत्वेति पत्रिणा पार्थः सासिं भूरिश्रवो भुजम् । चिच्छेद धाताभिमुखं ताक्ष्णेवाहिमुत्कणम् ॥ १९१ ॥
१. 'चक्राब्धि' ग. २. 'चर्म' ख ग ३. 'खड्गारै: ' क- ग. ४. 'प्रेक्षणं क्षणम्' क-ख. ५. 'रुत्फणी' ग. अस्मिन्पाठे व्यत्यासेन क्रियान्वयः 'ताण' इति तृतीया करणे निर्वाह्या:
क ख पुस्तकपाठे
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७द्रोणपर्व-३सर्गः] बालभारतम् ।
३५७ स वणत्कङ्कणो मुक्त्वा मुद्रिकादन्ति दीप्तिभिः । हसन्विवेकं पार्थस्य पपात भुवि तद्भुनः ॥ १९२ ॥ च्युतेऽथ वाहौ सत्कर्मः सहाये सोमदत्तजः । पार्थ प्रोवाच भग्नेच्छो मुक्तसात्यकिमूर्धजः ॥ १९३ ॥ दर्शितं कूटयुद्धादि पुंसो मैत्र्यफलं हरेः। त्वयाद्य छिन्दतैवान्यरणसक्तस्य मे भुजः ॥ १९४ ॥ इत्युक्त्वा विरचय्येषु शय्यां वामकरेण सः । प्रायोपविष्टोऽविष्टोऽन्तः समं स्पर्शादि वृत्तिभिः ॥ १९५ ॥ प्राणान्प्राणानले तस्य जुह्वतो मूर्ध्नि निर्ययौ।। किंचित्कान्तिः शिखा धूमस्तोमयन्ती नभस्तलम् ॥ १९६ ॥ अथोचे निन्दतः मापान्पार्थः किं कृत्यमस्त्रिणाम् । रक्षन्ति वैरिवैषम्ये मजन्तं स्वजनं न चेत् ॥ १९७ ॥ प्राणतुल्यसुहृद्रक्षाकारिणं किमु निन्दथः । सन्तो मूर्छितसौभद्रमृत्यूद्यत्पत्रिणोऽपि माम् ॥ १९८ ॥ इदं वदति कौन्तेये लब्धसंज्ञः शिनेः सुतः ।। अपरिज्ञातवृत्तान्तः कोपोद्धान्तस्त्वरोत्थितः ॥ १९९ ॥ कृष्णाभ्यां वार्यमाणोऽपि द्युता हसदिवाभितः ।
अच्छिनद्भूरिदत्तस्य प्रागुत्क्रान्तात्मनो मुखम् ॥ २०० ।। (युग्मम् ) आनिशागममथो जयद्रथं रक्षितुं क्षितिभृतः कृतोद्यमाः । अर्जुनेन निहताः पतिं द्युतां तूर्णमस्तनयनाय विव्यधुः ।। २०१ ॥ अम्बरे किमु विलम्बते न किं तूर्णमस्तमभियात्यसाविति । रोषरक्तनयनैरिवेक्षितः कौरवै रविरभूत्तदारुणः ॥ २०२ ॥ आदिगन्तपरिपातिभिस्तदा रुद्धमार्गमिव फाल्गुनेषुभिः । अम्बरान्तगतमप्यहो क्षणं बिम्बमम्बरमणेळलम्बत ॥ २०३ ॥ भाति सर्वजगतामपीक्षणं भूषणं च सुकृतक्षणस्य यः । अस्तमद्भुतरुचोऽपि तस्य हा स्वार्थकाङ्गिभिरकाङ्क्षि कौरवैः ॥२०४ ॥ १. 'वैरवैषम्ये ख; 'वैरे वैषम्ये' ग. २. द्य' ख. ३. वृत्तान्त' ख. ४. 'क्षणश्च' क-ग.
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३५८
काव्यमाला।
सिन्धुभर्तरि रवौ च भूभुजां मण्डले च मुहुरुत्सुकं पतत् । जिष्णुनेत्रनलिनं तदा श्रियावस्तुमै हि वलयातिचञ्चलम् ॥ २०५ ॥ विष्णुस्तदा ग्रुपतिसूनुमुवाच वृद्ध
क्षत्रो मुनिर्ननु पितास्ति जयद्रथस्य । प्रीतः स पुत्रममुमाह शिरः क्षितौ ते
यः पातयिष्यति पतिष्यति तस्य तुल्यम् ॥ २०६ ॥ ध्यात्वेति पातय शिरोऽस्य जयद्रथस्य
क्रोडे पितुः सुतपसः कुरुवर्षसीम्नि । तस्मादिदं क्षितिमुपैतु यथा सवृद्ध
क्षत्रो न शापमपि यच्छति ते विमौलिः ॥ २०७ ॥ इति ध्यायन्क्रोधानलबहुलकीलासिसदृशा
दृशा पश्यन्प्लुष्यन्निव दिवसभङ्गे रिपुवपुः । नरो धावन्धन्वी नृप कृपकृपीभूवृषमुखै.
द्विषद्भिः प्रेङ्खद्भिः क्षणमविकलैरस्खलि बली ॥ २०८ ॥ क्षिप्रं क्षुरप्रप्रकरेण कृत्वा तान्सन्नसंनाहमहास्त्रवाहान् । क्षिपन्मुखानि क्षितिपजानां धनंजयः सैन्धवमभ्यधावत् ॥ २०९ ॥ ध्यात्वाथ वीरो निधनं मृधेन क्रुद्धोद्धुरः सिन्धुधराधिराजः । पौरंदरिं रोषपरम्पराभिरपूरयन्मुक्तिपुरीपरीप्सुः ॥ २१० ॥
अथो पृथासुतस्तस्य शिरो दिव्यशरोद्धृतम् । संध्यां ध्यातुरविज्ञातमङ्के पितुरपातयत् ॥ २११ ॥ किमेतदिति तन्मङ्क क्षितौ सुतशिरः क्षिपन् । वृद्धक्षत्रोऽप्यमूर्धाभूत्ववरेणैव दैवतः ॥ २१२ ॥ इति समिति निहत्याक्षोहिणीः सप्त सिन्धु
क्षितिभृति निहतेऽस्मिन्वल्गिना फाल्गुनेन । मदपरिमलचारुर्मारुतिर्यान्निनादा
नकृत सुकृतजस्तानग्रहीद्वाद्यवृन्दैः ॥ २१३ ॥ १. 'प्रजानां क.
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७ द्रोणपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
ततो विघटितव्यूहा बभ्राम कुरुवाहिनी । सर्वदिग्दीप्तिदावाग्निवनद्विपघटेव सा ॥ २१४ ॥ ततः किरीटी विकृपः कृपं च कृपीसुतं च त्वरया निरस्य । मुखैर्महाभल्लधुतैर्नृपाणामानर्च संध्यामिव पङ्कजौवैः ॥ २१९ ॥ दारुक प्रगुणितं रथं हरेः सात्यकिः समधिरुह्य कर्णजित् । काण्डखण्डितनृपव्रजोत्थितैः सांध्यधाम रुधिरैरवर्धयत् ॥ २१६ ॥ भीमापमान कुपितः पुरतोऽङ्गभर्तुः
संधां विधाय वृषसेनवधाय पार्थः ।
सर्वैः समं समरनित्यजयी जगाम
प्रीतिप्रणामकृतये सुकृतात्मजस्य ॥ २१७ ॥ अग्रेर्नृपं पुलकिनोऽथ रणप्रशंसां
चक्रुर्मिथः पवनसत्यकशक्रपुत्राः । कृष्णौ तु संमदपरः परिरभ्य वीरौ
भूपो नुनाव हरिमेव जयस्य हेतुम् ॥ २९८ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते बालभारते नाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के द्रोणपर्वणि चतुर्थ दिने जयद्रथवधो नाम तृतीयः सर्गः ।
चतुर्थः सर्गः ।
केशान्तर्भूतजीमूतविद्युद्दीयैव पिअरम् । जटाजूटं वहन्व्यासः पायादवतरो हरेः ॥ १ ॥ अथ जयद्रथो भेजे भवदत्ताभयः क्षयम् । इत्यूचे कौरवस्तूर्णमर्णः पूर्णेक्षणो गुरुम् ॥ २ ॥ अथ रुक्मरथः स्माह संनाहंनाहमाहवे ।
३५९
अद्य त्यजामि यामिन्यामप्यहत्वा तवाहितान् ॥ ३ ॥ एवमुक्तवति द्रोणे रोषशोणेक्षणाः क्षणात् । अस्तेऽपि सूरे शूरेन्द्रा युद्धायैव दधाविरे ॥ ४ ॥
१.
'नृपस्य पुलकेन' ग. क ख - पुस्तकयोस्तु 'अग्रे' इत्यस्य विभक्तिप्रतिरूपकाव्ययत्वमङ्गीकृत्याव्ययीभावः कृत इति प्रतिभाति.
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३६०
काव्यमाला ।
निशाचराणां तमसां भियेव दिवसस्तदा । रक्षोविपक्षं शिश्राय कैपिकान्त्या जयिध्वजम् ॥ ५ ॥ हता द्रोण द्रेणानादैः पलादाः प्रधनोत्सवे । किरीटिकेतनकपेर्बत्कारैर्दूरमसन् ॥ ६ ॥ हनुमत्ताबूत्कारप्रतिशब्द इवोद्भुतः । भीमास्यकन्दरान्नादस्तदाभूदरिकम्पनः ॥ ७ ॥ ततो युयुधिरे वीरा रुधिरेण परिप्लुताः । निर्नायै रुचिनाथस्य रुचिपूरैरिवाश्रिताः ॥ ८ ॥ तदोच्छद्भिर्वीराणां बाणैर्विद्धमिवाम्बरम् | तारकच्छद्मना छिद्रपूरितं परितोऽप्यभूत् ॥ ९ ॥ तदाच्छादितभूवक्रतमः समुदयच्छलात् । क्रुध्यद्भटेन्द्रक्ष्वेडाभिस्त्रुटित्वेवापतन्नभः ॥ १० ॥ अथ द्रोणशरोत्क्षिप्तैः शिविमुख्यनृपाननैः । क्व गतोऽर्क इति ज्ञातुमजैरिव गतं दिवि ॥ ११ ॥ सामीरिमुष्टि पिष्टाङ्गकलिङ्गक्ष्माभृदङ्गजात् । शुभ्राण्यस्थीनि भोक्तव्यपुण्यानीवाभितोऽपतत् ॥ १२ ॥ कालवैतालिककुते व्यञ्जनानीव कुर्वता । चक्रे विराटसूदेन कलिङ्गकुलकर्तनम् ॥ १३ ॥ जयरातध्रुवौ वीरौ तेजस्तारौ व्यपातयत् । भीमः कुहूनिशारम्भ इवार्करजनीकरौ ॥ १४ ॥ निरन्तरालं पिहिते कर्णे सामी रिसायकैः । अन्तः कौरववाहिन्याः कोऽप्यभूदद्भुतः स्वनः ॥ १५॥ हसन्बलिद्विषं भीमस्तदा दुःकर्ण दुर्मदौ । त्वत्सुतौ सरथौ राजन्पदा हत्वाक्षिपत्तिौ ॥ १६ ॥
१. 'कम्प' क; 'काय' ग. २. 'ध्वजा ख. ३. 'गुणं चापकृपाणयोः' इति हैम:. ४. 'बूत्कारैः' ख. ५. ‘पिष्टाङ्गात् ' ख.
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७द्रोणपर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
[सोमदत्तसुतं भूरिश्रवसः सोदरं शलम् । उपाचकार शैनेयः समरक्रतुदीक्षितः ॥ १७ ॥] परिपेतुः सपत्नेषु रत्ननद्धाः सहस्रशः । द्रौणिबाणास्तमखिन्यां धृतदीपा इवाभितः ॥ १८ ॥ वक्रज्वालातडित्क्रूरो घोरघोषघटोत्कचः । जगद्रोहाम्बुद इव द्रौणिं रुद्रमिवाद्रवत् ॥ १९॥ व्योम्नोग्रमापतझैमेः स्थित्वैकं चक्रमाशुगैः। द्रौणिस्तच्छौर्यसूर्पस्य बभञ्जोजागरां गतिम् ॥ २० ॥ [राक्षसाक्षौहिणी भीमां भैमेर्मायाविमोहिनीम् । द्रौणिरद्रावयद्भानुस्तमोरौद्रां तमीमिव ॥ २१ ॥] पीतानि वीरतेजांसि मुखज्वालमिषाद्वमन् । नदन्नञ्जनपाख्यो द्रौणिना तत्सुतो हतः ॥ २२ ॥ द्रौणिर्दुपदजानष्टौ कुन्तिभोजसुतान्दश । निहत्याष्टादशद्वीपदीप्तकीर्तिभरोऽभवत् ॥ २३ ॥ रत्नांशुधौतास्तद्भलधूता वीरालिमौलयः । तेनस्तमस्यवस्कन्दं भानुभृत्या इवाम्बरे ॥ २४ ॥ गदानिष्पिष्टवाहीकक्षोणिभृन्मस्तकोच्छूितैः । रत्नैरभाजि भीमस्य प्रतापाग्नौ स्फुलिङ्गताम् ॥२५ ॥ प्रमाथी विरजो नागदत्तो दृढरथाह्वयः । वीरबाहुरयोबाहुः सुहस्तसुदृढावपि ॥ २६ ॥ ऊर्णनाभः कुण्डशायी दशैते तव सूनवः । भीमेन चक्रिरे क्षिप्रं क्षुरप्रैः क्षिप्तमौलयः ॥ २७ ॥ (युग्मम्) तदा तेषां क्षणं राजन्युगपद्मनोगतैः ।
शिरोभिः स्मरयांचक्रे सुराणां रामविक्रमः ॥ २८ ॥ .. १. क-पुस्तके त्रुटितः. २. 'व्योमाग्र' ग. ३. ख-पुस्तके त्रुटितः. ४. 'वैरि' ख. ५. 'स्थितैः' ख-ग.
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काव्यमाला।
क्षिप्ताः खे सप्त भीमेन दीप्ताः सौवलमौलयः । तत्क्ष्वेडाभ्रष्टसप्तर्षिकमण्डलुनिभा बभुः ॥ २९ ॥ दिव्यास्त्रदीप्तिवित्रस्ततमा समरडम्बरः । द्रोणधर्मजयोर्वीरैर्दृष्टः स्पृष्टः कुतूहलात् ॥ ३० ॥ अथ पाण्डुभुवां काण्डैराकुले सकले बले । दीनवाचि नृपेऽवोचन्मुञ्चन्नुच्चैरिषून्वृषा ॥ ३१ ॥ मा भैषीरेष विद्वेषिपेषे भारोऽस्ति भूप मे । अद्य ते रोचये राज्यं मोचये नरतां नरात् ॥ ३२ ॥ इदं कर्णे वदत्यूचे कृपः किं गोग्रहादिषु । न सूतसुत दृष्टोऽसि शक्त्या युध्यस्व गर्न मा ॥ ३३ ॥ अथ क्रुद्धोऽभ्यधात्कर्णः कृपाचार्य कृपाणवान् । वैदस्यदो यदि पुनस्तच्छेद्या रसनामुना ॥ ३४ ॥ ततः स्फीतोऽग्रहग्द्रौणिर्मातुलाक्षेपकोर्पतः । रे रे किं वदसीत्युक्त्वा कीर्णासिः कर्णमाद्रवत् ॥ ३५ ॥ कर्णोऽप्यम्युद्ययौ सासी दासीकृतयमाविमौ । मध्यमेत्य कृपाचार्यनृपाभ्यां शमितौ द्रुतम् ॥ ३६ ॥ कालैरिवाथ निघ्नद्भिः कर्णद्रौणिसुयोधनैः।। आसन्परेषु मर्तव्यम्रियमाणमृतोक्तयः ॥ ३७ ।। मौर्वी चार्जुनचापस्य सेना च कुरुभूपतेः । प्रबद्धमुष्टिांगेन कर्णमूलमुपाविशत् ॥ ३८ ॥ रथे मनोरथे वाथ भग्ने फाल्गुनमार्गणैः । गन्ता तपस्वितां कर्णः कृपाचार्यमुपाश्रयत् ॥ ३९ ॥ द्रौणिध्वस्तद्रुपदजवजासृझिरोद्गमैः ।
तमःक्रव्यात्कुलं दूरकृष्टजिह्वमिवैश्यत ॥ ४० ॥ १. "मिवा' ख. २. 'वृषा कर्णे महेन्द्रे ना' इति नान्ते मेदिनिः. 'वृषः' क-ख-ग, ३. 'वदस्येवं' क. ४. 'च्छिन्द्यां रसनामिमाम्' ख. ५. 'पुन: ग. ६. 'कोपनः' ख-ग. ७. 'भाषयसी' क.
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७द्रोणपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
धार्मिस्तु भीमबीभत्सुपारिपार्श्वद्वयान्वितः । कौरवेन्द्रबलत्रासनाटकै कनटोऽभवत् ॥ ४१ ॥ मदावलिप्तमालानस्तम्भं संरम्भकुम्भिनः । सात्यकिर्मत्तदन्तीव सोमदत्तमपातयत् ॥ ४२ ॥ संहरन्ती प्रजाः पार्थद्रोणदिव्यास्त्रदीपिताः । सा रात्रिः क्षुद्ररुद्राग्निः कालरात्रिरिवोदभूत् ॥ ४३ ॥ पक्षद्वया शुगरदैः पत्रपूंगकचूर्णिनि । यमस्यास्ये रणे रक्तं ताम्बूलाम्बुवदाबभौ ॥ ४४ ॥ घोरे तमसि वीरेन्द्रा बभुर्दीपैः समीपगैः । कर्णोत्थैरन्तराध्मात्तक्रोधवह्नयङ्करैरिव ॥ ४५ ॥ तमोऽपि विद्धं शूराणां बाणैः शोणितनिर्झराः । दक्षतततीरुद्दीप्तिदीपावलिच्छलात् ॥ ४६ ॥ रणातिरेके वीराणां श्यामाभिर्भल्लिभिस्ततः । क्षणात्तमश्चपेटाभिरिवापात्यन्त दीपकाः ॥ ४७ ॥ दैत्यात्मानं कुरुपतिं देवात्मा धर्मजः स्वयम् । निशाबलिष्ठमपि यज्जिगायाभूत्तदद्भुतम् ॥ ४८ ॥ प्रजाः कवलयन्कर्णो ग्रासस्थं नकुलानुजम् ।
४
कृती मातृवचः स्मृत्वा विप्रं तार्क्ष्य इवामुचत् ॥ ४९ ॥ रथी तटस्थशौर्यश्रीस्पर्शेच्छुः क्रतुजोष्कृत । द्रुमत्सेनादिभूपालकपालैः स्थपुटां भुवम् ॥ १० ॥ आच्छादि द्रोणकर्णाभ्यां क्षितिः क्षितिभुजां मुखैः । लोकान्तरं व्रजद्भिस्तैर्वियुक्ता वारिजैरिव ॥ ९९ ॥ धृष्टद्युम्नादिवीरेन्द्रविद्रावणभवं यशः ।
कर्णे चन्द्रयति म्लानमाननाविरोधिनाम् ॥ १२ ॥
३६३
१. 'पूगैक' ग. २. ' तत्ताम्बूलवदा' ख; 'ताम्बूलाम्बु तदा' क- ग. ३. 'इछलात् ' क.ग. ४. 'चित्र' ख. ५. 'जोषकृत्' क. ६. ' म्लानमानाब्जैश्च' क.
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३६४
काव्यमाला |
भ्रातृस्नेहात्कृतान्तस्य दंष्ट्राविव शितीकृतैः । शरैः सेनां जयाशां च पार्थानां चिच्छिदेऽर्कजः ॥ ५३ ॥ रत्नचित्रमहाचापः सेन्द्रचाप इवाचलः । कृष्णेरितो महाकायस्ततस्तं भैमिराद्रवत् ॥ १४ ॥ ज्वालाभिर्जाठरोदग्रसप्तार्चिर्जातजन्मभिः । दृड्डासाकर्णवक्रेभ्यो निर्यन्तीभिर्भयंकरः ॥ १५ ॥ स्फारस्फुलिङ्गभृत्पिङ्गश्मश्रुभ्रूमूर्धजोच्चयः । दावानलप्रदीप्ताग्रशृङ्गशैल इवोच्चकैः ॥ १६ ॥ मूर्त्यैव संहरन्भी रूञ्शूरान्दृष्टचैव पातयन् । क्ष्वेडयैव क्षिपन्वीरान्स कर्णे सायकैः प्यधात् ॥ १७ ॥
(त्रिभिर्विशेषकम् )
ततः प्रतोलितुल्यास्यस्तुङ्गदीर्घो निशाचरः । कर्णमन्तरयामास प्राकारवदेलम्बुषः ॥ ५८ ॥ ततो घटोत्कचः प्रेक्ष्य जटासुरसुतं पुरः । चतुर्हस्तशतीमात्ररथस्थस्तमयोधयत् ॥ १९ ॥ स्फूर्जजौ महाकायौ दविग्रावदुवृष्टिभिः । मायिनौ तावयुध्येतां प्रेङ्खत्यक्षौ नगाविव ॥ ६० ॥ रथाद्रथमथाप्लुत्य भैमिर्दृढमपीडयत् । भुजौ रसारसादीदृग्युद्धबन्धु मैलम्बुषम् ॥ ६१ ॥ पीडितायास्तदङ्गोर्व्याः श्रोत्रेभ्यो मारुतैः सह । तेजोम्बुखगुणैः कील रक्तशब्दैर्विनिर्गतम् ॥ ६२ ॥ भैमिस्तन्मौलिमुन्मूल्य गत्वा दुर्योधनं जगौ । इत्थं कर्णशिरोऽप्याशु दर्शयाम्येष दृश्यताम् ॥ ६३॥ इत्युक्त्वा कर्णमेत्यातित्वरा स्फूत्कारभीषणः । अपूरयच्छरस्तम्भैः स्तम्भैरिव महारवः ॥ ६४ ॥
१. ‘दलंबलः’ ख-ग. २. 'द्वावुप्रमिषुदृष्टिभिः ' ग. ३. 'मलंबपम्' ख; 'मलं बलमू ' ग. ४. ' महारथः ' क-ग.
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७द्रोणपर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
निष्कम्पः कम्पयन्नोष्ठं निश्चलचालयन्भुजम् । निर्व्यथो व्यथयन्मौर्वी काण्डैः कर्णोऽपि तं प्यधात् ॥ १५ ॥ भैमेश्चक्रं सहस्रारं सहस्रांशूपहासकृत् । ज्वलद्वयोम्नि शरैः साधुसहस्रांशुसुतोऽच्छिनत् ॥ ६६ ॥ अथ ग्रुपथमाविश्य सरथः सैष पार्थभूः । हिंस्रः प्राणिसहस्राणि भूत्वा भूत्वापिषविषः ॥ १७ ॥ जज्वालोर्वी शिखिज्वालैौश्वकर्ष शिलोच्चयैः । दिशो मुञ्चराक्षसौघाद्विटमैन्ये भैमिमायया ॥ ६८ ॥ दिव्यास्त्रेणाथ तां मायां हत्वार्किः कर्कशैः शरैः । क्षिपन्राक्षसलक्षाणि दिद्युते रामविक्रमः ॥ ६९ ॥ या रुद्रेण स्वयं चक्रे सा चकैरष्टभिर्वृता । भैमिक्षिप्ताशनिः शीर्णरथमाधिरथिं व्यधात् ॥ ७० ॥ ततः कर्णशरक्षुण्णस्यन्दनः पिशिताशनः । खमुत्पपात तरसा पक्षीव क्षीणपञ्जरः ॥ ७१ ॥ मायाविनममायेन भूमिस्थेन नभःस्थितम् । प्रयुध्यमानं भीमेन पलादेन्द्रमलायुधम् ॥ ७२ ॥ बकस्य रक्षसो मित्रममित्रघ्नो घटोत्कचः । तदा प्रदारिताशाभिः क्ष्वेडाभिः संमुखं व्यधात् ॥ ७३ ॥
(युग्मम्) तादृक्प्रतिभटालाभचण्डकण्डूविखण्डिनोः। तयोर्महाप्रहारोऽभूत्कृतान्तभुजयोरिव ॥ ७४ ।। विशीर्णानि मिथोघातध्वानोमस्थयोस्तयोः।। गिरिशृङ्गाण्यपि तदा भीतानीव भुवं ययुः ॥ ७५ ॥ भैमिकृत्तमथ द्वेषिमुण्डमुज्ज्वलकुण्डलम् । दिवः पविज्वलत्पक्षद्वयो गिरिरिवापतत् ॥ ७६ ॥
१ 'व्यधातू' क-ख-ग.
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काव्यमाला ।
एत्य पार्थवरूथिन्यां मृद्गन्तमथ पार्थिवान् । पुनर्विरथ्याधिरथिं हैडम्बोऽविशदम्बरम् ॥ ७७ ॥ स दशापि दिशो हादैादैवोक्तिमयीः सृजन् । ववर्ष राक्षसो वृक्षविषभृद्रावपावकैः ॥ ७८ ॥ ततो पदे पदे शुष्यद्दिक्षु सर्वासु तद्बलम् ।। भिन्नपालिस्थलशिरःसरोजलमिवाद्रवत् ॥ ७९ ॥ शिश्रियुट्चिमूमेव केचित्केचिदहो पुनः । प्राविशंश्वाशु हस्त्यश्वशवशैलमहागुहाम् ॥ ८० ॥ विपरीताम्बुवृष्टयाभैस्ततः शरभरैर्नरः । सूरजः पूरयामास रुद्धद्विदशस्त्रवमभिः ॥ ८१ ॥ आर्केः शरा द्रुमा भैमिथः संघट्टजानलाः । ज्वलन्तः प्रपतन्तोऽथ प्रकृष्टायै भियेऽभवन् ॥ ८२ ॥ पलाशनबलाधीशः संरब्धोऽथ ववर्ष सः । कपाटसंधिघण्टाभिः सर्वाभिः शस्त्रजातिभिः ॥ ८३ ॥ प्रच्छिन्नभिन्नदीर्णाङ्गक्रियासमभिहारतः । हाहेत्येव ध्वनिमयस्तदाजनि चमूचयः ।। ८४ ॥ मुहुः किलकिलारावं चक्रे दिवि सुदारुणम् । मुहुर्ननत काष्ठासु ज्वलद्रोमावलीमुखः ॥ ८५ ।। ससादि सालंकरणं हस्त्यश्वमगिलन्मुहुः । पपौ तडागतुल्याभ्यां प्रसृतिभ्यामसृङ्मुहुः ।। ८६ ॥ इति नक्तंचरो नक्तं चरन्समहरच्चमूः । दर्शनेनैव रौद्रेण मुधा पेतेऽस्त्रजातिभिः ।। ८७ ॥ स्वस्तीत्युक्त्वाथ यातेषु दिवः सिद्धसुरर्षिषु । क्षीयमाणासु सेनासु व्याकुलेषु जगत्स्वपि ॥ ८ ॥
१. 'गुहाः' ग. २. 'सादी तुरंगमातङ्गरथारोहेषु दृश्यते' इति मेदिनी.
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७द्रोणपर्व-४सर्गः)
बालभारतम् ।
अहो गजेषु वाहानां वाहेषु भुजवाहिनाम् । भुजवाहिषु चाद्रीणां तलमिच्छत्सु संश्रयम् ॥ ८९ ॥ कौरवाः करिघण्टाभिरुत्तमाङ्करक्षिणः । एत्य युद्धरसाधीनं दीनास्याः कर्णमूचिरे ॥ ९० ॥
(त्रिभिर्विशेषकम्) अधुनाप्यमुनास्मासु हृतासुषु वृषस्त्वया । शक्त्या निघात्यः कस्यार्थे पार्थो वासवदत्तया ॥ ९१ ॥ इत्याका मुचकर्णस्तदस्त्रं वासवं ज्वलत् । सुसंकटाय कस्मैचिन्निधानमिव रक्षितम् ॥ ९२ ॥ मायास्त्रस्य पलादस्य मायास्थानं विदार्यहृत् । घ्नती तमोऽपि तन्मित्रं सा शक्तिस्त्रिदिवं ययौ ॥ ९३ ॥ विपन्नोऽपि हितं स्वेषां परेषामहितं सृजन् । संजहार महारक्षो विभुरक्षौहिणीं पतन् ॥ ९४ ॥ पतिते तत्र वीरेन्द्र कौरवा ननृतुर्मुदा । कृष्णोऽपि जगदात्मत्वं ज्ञापयन्निव नृत्तवान् ॥ ९५ ॥ विष्वक्सेनविषादेऽपि कृत्ये नृत्येन भासि किम् । इत्यैन्द्रिणा तदा पृष्टो नृत्यन्नेवाभ्यधात्प्रभुः ॥ ९६ ॥ तेजोमयवपुः कर्णः कुरूणां जीवितं परम् ।। शक्तिर्वासवदत्तेयमभूत्तस्यापि जीवितम् ॥ ९७ ॥ न त्वत्सूनुरघानीति हसन्तीवांशुभिर्मुदा । सैकपुंघातिनी शक्तिभैमि हत्वा हरि श्रिता ॥ ९८ ॥ गतायां त्रिदिवं तस्यां मृतानेतान्न वेत्सि किम् । यात्यायाति मुखेऽमीषां श्वासः कोटरकायवत् ॥ ९९ ॥
१. 'अथो ख. २-३. 'गज' ख. ४. अकारान्तवृषशब्दस्य क-ख-ग-पुस्तकहष्टस्य कर्णवाचकताया मेदिन्यामदर्शनात् , नकारान्तस्यैव दर्शनात् 'वृषस्त्वया' इत्युचितम्. ५. 'वाथ सं' क. ६. 'जगदात्महितं तत्त्वं' क. ७. 'रघातीति' क-स. ८. 'योत्या' ग.
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३६८
काव्यमाला। पार्थः पात्योऽथ शक्त्येति कौरवैः शिक्षितोऽन्वहम् । तदत्तवद्विसस्मार युधि मन्मोहितो वृषा ॥ १० ॥ एकलव्यजरासंधशिशुपालादयो मया । दुर्जया जन्निरे युक्त्या मत्वेतत्प्रधनं पुरा ॥ १०१ ॥ मत्संसाधितदुःसाधमित्यैतद्वैरिमण्डलम् । अस्त्रास्त्रत्वक्पुटस्तोमं नारिकेलमिवाहर ॥ १०२ ॥ इत्युक्ते शौरिणा सर्वे भूपभीमार्जुनादयः । शोकाग्निं युधि रोषाग्नीकृत्य धीरा दधाविरे ॥ १०३ ॥ युध्यस्व धर्मान्मा क्रुध्य चतुर्थेऽह्नि जयस्तव । इत्यादिशत्तदा व्यासः क्षणदृष्टो युधिष्ठिरम् ॥ १०४ ॥ अथोग्रे तमसि क्ष्वेडातुल्यकालं मिथः शराः। पेतुर्वक्रोदरेष्वेव योधानां शब्दवेधिनाम् ॥ १०५ ॥ ध्वान्तेषूग्रेषु सैन्याङ्गं दीप्तं दीप्तं मणित्विषा । द्विड्बाणा विव्यधुः कालनखाग्रेणेवै दर्शितम् ॥ १०६ ॥ उत्पपातेव नाराचैननवासिभिस्तदा । निशीथे यौवनोन्मत्तं ननर्देव द्विपैस्तमः ॥ १०७ ॥ इत्थं चिरप्रहारेण भूभृतस्तेऽपि शश्रमुः । स्यान्न येषां श्रमांशोऽपि साब्धिशैलधरां धृतौ ॥ १०८ ॥ अश्रान्तः करुणाक्रान्तमनाः संक्रन्दनात्मजः । तदाचख्यौ कृती वीरान्क्षणं विश्रम्यतामिति ॥ १०९ ॥ ततः पार्थ प्रशंसन्तस्ते दुःखोच्छेददैवतम् । निद्रां हरिकरिस्कन्धस्थिता एव सिषेविरे ॥ ११० ॥ रेजतुर्युद्धसंनद्धे ते सेने स्वापनिश्चले । यमौकश्चित्रवन्नानारत्नभूषांशुवर्णके ॥ १११ ॥ अथोद्ययौ शशी सुप्तान्करैरमृतवर्षिभिः । स्पृशन्निव प्रहारार्तान्कुलवीरान्सहानुगैः ॥ ११२ ॥ १. 'तद्वृत्त' ख. २. 'वृषः' क-ख-ग. ३. 'णैव' क-ख.
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७द्रोणपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
खण्डमूर्ते विधोबिंम्बै रक्तकुल्यासु दिद्युते । कृत्तैरिव तनूखण्डैः कुलव्यसनसंयति ॥ ११३ ॥ अथ द्विजेश्वरकर क्रीडाकलितशान्तिके । वियद्धानि विवेशार्कः कुर्वन्वसुमयीं महीम् ॥ ११४ ॥ गुरुः कुरुनरेन्द्रेण वाक्शल्यैः शल्यितस्ततः । क्रुद्धो विव्याध दिव्यास्त्रैरनस्त्रकुशलानपि ॥ ११५ ॥ संपरायपरायते यत्ते रिपुचमूचये ।
चकार कदनं श्रान्तः कृतान्तरदनं गुरुः ॥ ११६ ॥ किमकालक्षयोत्तालं भालचक्षुस्त्रिचक्षुषः । द्रोणपाणितले प्रायः प्राणिनश्छित्तयेऽभ्ययात् ॥ ११७ ॥ इत्युल्कामण्डलीचण्डकाण्डग्रस्त प्रजात्रजम् ।
दीप्तं निरूप्य तच्चापं खेचराः प्रोचिरे भयात् ॥ ११८ ॥ (युग्मम्)
पतत्सु द्रोणबाणेषु चर्मवर्मभटादिषु । रक्ताब्धि मज्जनेनैव वचनं विदधुर्बुधाः ॥ ११९ ॥ क्षिप्तैर्दुपदपुत्राणामिन्दुवृन्दैरिवाननैः ।
द्रोणश्चकार रक्तोदं तदा कालोदजित्वरम् ॥ १२० ॥ द्रोणेऽस्मिन्नचले क्लृप्तप्रचण्डप्रहृती ततः । विराटद्रुपदौ शौर्यद्विपदन्तौ निपेततुः ॥ १२१ ॥ धार्मितेजो यशः सूर्यशशितुल्यग्रहस्पृहः । क्षुरप्रलूनौ तन्मौली राहुयुग्मं गुरुर्व्यधात् ॥ १२२ ॥ आद्रवन्तो गुरुं भीमधृष्टद्युम्नादयस्तदा । गजैरिव गजाः कर्णशकुन्याद्यैर्धृता युधि ॥ १२३ ॥ रजः कालरजन्युग्रो मिलत्सर्वबलाम्बुधिः । भूयिष्ठभैरवरवः क्षयस्तत्राद्भुतोऽभवत् ॥ १२४ ॥
१. 'यत्ने' न. २. 'स्पृशौ ग.
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३७०
काव्यमाला |
भिन्नेभकुम्भनिर्मुक्तामुक्तासिततिलास्ततः । तत्र प्रसतुरस्रौघस्त्रवन्त्यः पलपङ्किलाः ॥ १२९ ॥ सप्तलोकतमांसीव सप्तसप्तिर्दिवोदये । सप्तार्णवानिवौर्वाग्निर्द्रोणः सप्तार्दयच्चमूः ॥ १२६ ॥ ऊचे कृष्णोऽथ कौन्तेयानजेयोऽसौ धृतायुधः । अस्त्रं सुतमृतिश्रुत्या त्यजेन्नीत्या क्रियेत सा ॥ १२७ ॥ इत्याकर्ण्यार्जुने कर्णौ पिधायाधोमुखे स्थिते । कथंचिदम्युपगमान्मूके शोकेन भूपतौ ॥ १२८ ॥ आलभ्य मालवपतेरश्वत्थामाभिधं द्विपम् । अश्वत्थामा हत इति प्रोच्चैरूचे वृकोदरः ॥ १२९ ॥ लज्जामज्जन्मुखाद्भीमाद्गुरुः श्रुत्वेदमप्रियम् । जानन्नजेयतां सूनोस्तदश्रद्धाय युद्धवान् ॥ १३० ॥ वीरान्षष्टिसहस्रों स पाञ्चालान्हन्तुमुद्यतान् । जघान कपिल: कोपी सगरस्य सुतानिव ॥ १३१ ॥ प्रयुतानि प्रवीराणां ब्रह्मास्त्रेणाथ निर्दहन् । चतुर्वर्षशतोऽप्येष युवेव व्यचरत्तराम् ॥ १३२ ॥ कर्म कुर्वन्नतिक्रूरं निषिद्धोऽथ सुरर्षिभिः । भीमोक्ति शङ्कितोऽपृच्छत्सत्यनिष्ठाद्युधिष्ठिरात् ॥ १३३ ॥ हरिणाभ्यर्थितो बाढं लोकप्रलयशान्तये ।
भीमोति धार्मिरयुक्त्वा स्वैरं हस्तीत्यभाषत ॥ १३४ ॥ कृष्ण कम्बु स्वनैर्हस्तीत्यनिशम्य नृपोदितम् । शल्यितः सुतशोकेन क्षणं स्तब्धः स्थितो गुरुः ॥ १३५ ॥ अस्पृशन्तो भृशं भूमिं तं भूपं येऽवहन्हयाः ।
ते भुवैव तदा चेरुर्बद्धपक्षा इवाण्डजाः ॥ १३६ ॥
धृष्टद्युम्नं प्रदीप्तास्त्रं कृष्टजिह्वमिवान्तकम् । जित्वा ततो जघानाशु दशवीरायुतीं गुरुः ॥ १३७ ॥ १. 'शङ्कितः ' ग.
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७द्रोणपर्व-४सर्गः]
बालभारतम् ।
३७१
इति द्विड्भयदं भीमः समभ्येत्य समभ्यधात् । सुते मृतेऽपि विप्रोऽपि पलाद इव हंसि धिक् ॥ १३८ ॥ इत्याकर्ण्य विमुच्यास्त्रं दत्तविश्वाभयो गुरुः । योगीन्दुर्दशमद्वारनिष्क्रान्तार्चिरुपाविशत् ॥ १३९ ॥ प्रागुत्क्रान्तात्मनस्तस्य नमसोस्तरवेरिव । पार्षतः प्रविवेशाङ्गमन्धकार इवाधमः ।। १४०॥ क्रुद्धपार्थनिषिद्धोऽपि धिकृतोऽपि नृपैरयम् । कचैराकृष्य खड्नेन गुरोर्मूर्धानमच्छिनत् ॥ १४१ ॥ त्रस्तेऽथ कौरवबले किमेतदिति पृच्छतः । . . द्रौणेराख्यत्कृपः कृत्स्नमाशु दुर्योधनेरितः ॥ १४२ ॥ ततः पितृवधक्रोधी रुद्रांशो भालरौद्रदृक् । अश्वत्थामा दधौ रूपं कल्पान्तायेव भैरवम् ॥ १४३ ।। पिबन्करं करेणायं कोपोष्मलोषितप्रजम् । ऊचे कोपानलोल्काभिः स्खलद्भिसिरैर्मुहुः ।। १४४ ॥ श्रावयद्भिः पितुः कर्णो मृतं मां हन्त तैरपि । मृत एवासि किं ध्यातो यत्केशैर्जगृहुर्गुरुम् ॥ १४५ ॥ आजन्मधृतसत्योऽथ धर्मजोऽपि गुरुव्यये । दधौ मृषोक्ति जीवत्सु विश्वासः क्षत्रियेषु कः ॥ १४६ ॥ अद्य नारायणास्त्रेण पितृदत्तेन विष्टपम् । असौ करोम्यपाञ्चालमपाण्डवमकेशवम् ॥ १४७ ।। इत्युक्त्वा शुचिरादाय प्रकम्पितसुरासुरम् । अस्त्रं नारायणं द्रौणिर्जगोंद्धतमूर्धनः ।। १४८ ॥ बलमाकुलमालोक्य तन्नादेनेन्द्रनन्दनः। अनुतापपरः क्षमापमूचे भ्रूचेष्टयोत्कटः ॥ १४९ ॥ राजन्नाजन्मसत्योक्तौ त्वयि सप्रत्ययो गुरुः ।
जन्ने निरस्त्रो यदि तत्सह्यः केनैष तत्सुतः ॥ १५० ।। १. 'तद्धात्यः' ख,
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काव्यमाला।
धिग्भोगस्पृहयालुत्वं यत्कृते दुष्कृताशयः । शिष्यो वृद्धं गुरुं व्याजत्याजितास्त्रमपातयत् ॥ १५१ ॥ इति प्रलापिनि क्रुद्धे शतक्रतुसुते ततः । जगाद नादयन्नुर्वी कोपनः पवनात्मजः ॥ १५२ ॥ क्षत्रियो मुनिवजल्पन्नैषि फाल्गुन वल्गुताम् । क्रूरारातिषु कः पार्थ प्रायो न्यायोचितं चरेत् ॥ १५३ ॥ किं नाम ध्वनिमुद्दामं कुरुते गुरुनन्दनः । मयि त्वयि च कृष्णे च संपरायपरायणे ॥ १६४ ॥ इत्युक्ति भीमसेनस्य गमयन्पूर्वरङ्गताम् । शतयज्ञसुतं यज्ञसुतः कोपोन्मदोऽवदत् ॥ १५५ ॥ अनस्त्रज्ञानपि ब्रह्मबन्धुर्ब्रह्मास्त्रतो हरन् । अधर्मसमरः स्वैरी पितृवैरी मया हतः ।। १५६ ॥ भीष्मः पितामहो वृद्धो भगदत्तः पितुः सखा । धेमैकयोधिनौ जल्प कया युक्त्या त्वया हतौ ॥ १६७ ॥ इति ब्रुवन्तं पार्थेन धिगित्युक्त्वा कटाक्षितम् । क्रोधाग्निसंभ्रमभ्राम्यच्चक्षुस्तं सात्यकोऽभ्यधात् ॥ १५८ ॥ धिगस्मान्कश्मलाचारानारादाराध्य घातिनम् । वस्था भवन्तं हन्तव्यमपि ये मृगयामहे ॥ १५९ ॥ अथैनं पार्षतः प्रोचे केन प्रायगतो हतः । यज्ञैकशीलो यूपाङ्कः पार्थकृत्तभुजः कृती ॥ १६ ॥ रे नृशंस दुराचार पुनर्यदि वदस्यदः । तत्त्वां हन्मीति जल्पन्तौ मिथस्तौ हन्तुमुद्यतौ ।। १६१ ॥ कृष्णोक्त्या तौ च भीमेन वारितौ स्फारितायुधौ । जज्वाल दीप्तदिग्जालमस्त्रं च द्रौणिचालितम् ॥ १६२ ।।
१. 'साक्षात्' ख. २. “मानि' ख. ३. 'इत्युक्तं' ख. ४. 'समरस्वैरी' क. ५. 'कर्मैक' ख. ६. 'कुशला' ग. ७. 'भवत' ख. ८. 'प्राह' ख. ९. 'क्षत' ख.
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७द्रोणपर्व-४सर्गः] बालभारतम् ।
३७३ अथ नारायणास्त्रोत्थैर्व्यथितां विविधायुधैः । सेनां प्रेक्ष्य नरं पश्यन्भूधवान्धामिरम्यधात् ॥ १६३ ॥ सत्यजित्प्रमुखा येन हता हन्त महारथाः । दुग्धमुग्धमुखो येन सौभद्रश्छलतो हतः ॥ १६४ ॥ दुर्योधनाय दुर्भेदं दिव्यं यः कवचं ददौ । वधे तस्य गुरोः क्रुध्यन्मध्यस्थोऽभून्मृधेऽर्जुनः ॥ १६५ ॥
(युग्मम्) वस्त्यस्मै भोः पलायध्वं प्रवेक्ष्याम्येष पावकम् । केन शक्योऽधुना जेतुं कालकल्पः कृपीसुतः ॥ १६६ ॥ अथोडाहुश्चतुर्बाहुरूचे प्रज्वलितान्नृपान् । नास्त्रेणानेन दह्यन्ते त्यक्तायुधरथा युधि ॥ १६७ ॥ इति श्रुत्वाभ्यधाद्भीमो भो भो मा भैष्ट भूमिपाः । हन्म्येष पश्यत द्रौणिं निर्दयं गदयानया ॥ १६८ ।। इत्युदीर्यातिगर्जन्तं धाविनं पावनि पुनः । मूढोऽयमित्युपहसन्द्रौणिर्बाणैरेपूरयत् ॥ १६९ ॥ अथो रथायुधमुचां मुक्त्वा चक्रं महीभुजाम् । एकीभूयास्त्रकीलालिड्भिीमं भीममासदत् ॥ १७० ॥ अस्त्रकीलाकलापेन वृतो भीमस्तदा बभौ । प्रतापभासुरो भानुर्यथा कल्पान्तवहिना ॥ १७१ ॥ वारुणं मारुतित्राणमस्त्रमैन्द्रिस्तदामुचत् । क्षणान्नारायणास्त्रेण तदप्यफलितं बलात् ॥ १७२ ॥ अस्त्रेण ताप्यमानोऽपि युध्यमानो वृकोदरः । अभूच्चेतश्चमत्कारकारी दिविषदामपि ॥ १७३ ॥ मुक्त्वाथ मन्थरहयं रथमेत्यातिरंहसा ।
यानादाकृष्य कृष्णाभ्यां भीमोऽस्त्रं त्याजितो बलात् ॥ १७४ ॥ १. 'ये निजं तेजः' क. २. 'रपूजयत्' क. ३. 'तेषां' क. ४. 'रिव' ख-ग.
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काव्यमाला।
सह पाण्डुचमूदुःखैः सह द्रौणिमनोरथैः । सह विश्वोपतापैश्च ततोऽस्त्रं तद्ययौ शमम् ॥ १७५ ॥ अस्त्रं पुनर्विमुञ्चेति द्रौणिर्दुर्योधनेरितः । द्विः प्रयोज्यं न दिव्यास्त्रमित्युक्त्वाधावदुद्धतः ॥ १७६ ॥ वज्रसारैः शरासारैर्जित्वा सात्यकिपार्षतौ । ' भूपं सुदर्शनं निन्ये पौरवं यमपौरताम् ॥ १७७ ॥ त्रस्यन्ती धर्मजचमूमनुधावन्नथ क्रुधा ।। रुद्धो धनंजयेनास्त्रमाग्नेयं द्रौणिरक्षिपत् ॥ १७८ ॥ अस्त्रस्य तस्य कीलाभिः श्लिष्यमाणाश्चमूभेटाः । कालकिंकरजिह्वाभिर्दह्यमाना इवाबभुः ॥ १७९ ॥ धूमोमिमन्दमार्तण्डदृश्यतारकमण्डलम् । प्रदह्याक्षौहिणी मङ्क्ष तदस्त्रं कृष्णमाद्रवत् ॥ १८० ।। तत्कीलापटलालीढौ कृष्णौ प्रधनमूर्धनि । तदा गर्भितनीलाश्महेमताडङ्कतां गतौ ॥ १८१ ॥ अथ पार्थो बभौ क्षिप्तब्रह्मास्त्रशमितानलः । तत्कालदहनोत्तीर्णसुवर्णवदतिद्युतिः ॥ १८२ ॥ अपाण्डवामकृत्वापि महीं शान्तेऽस्त्रपावके । दिव्यास्त्राणि तदा निन्दन्द्रौणिासमलोकत ॥ १८३ ।। रथं मुक्त्वा मुनि नत्वा ततोऽपृच्छत्कृपीसुतः । विफलत्वं किमस्त्राणि कृष्णयोरगमन्मम ॥ १८४ ॥ अथोवाच मुनिर्वत्स विद्धि बीभत्सुकेशवौ । निमित्तमानवावेतौ नरनारायणावृषी ॥ १८ ॥ तपःषष्टिसहस्राब्दी तप्त्वा नारायणो मुनिः। लिङ्गार्चनव॑तः शर्व सेवित्वा तत्समोऽभवत् ॥ १८६ ॥ १. 'नदन्नुषा' ख. २. 'चयाः' ख. ३. 'गर्भग' ख. ४. 'व्रतात्सर्वे सेवित्वा न समो' क.
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७द्रोणपर्व - ४ सर्गः ]
बालभारतम् ।
मूर्तिसेवापरः शंभोस्त्वं तु जातस्तदंशताम् ।
विश्वरूपस्य रूपं हि लिङ्गमङ्गं तु तल्लवः ॥ १८७ ॥ तन्मा कृथाः पृथासूनुकृष्णयोर्धानि विक्रियाम् । रुद्रांश सततं रुद्ररूपयोरेकरूपयोः ॥ १८८ ॥ इत्युक्वान्तर्हिते व्यासे द्रौणिर्नत्वा हृदा हरम् । देवरूपौ स्वयं कृष्णौ शान्तमन्युरमन्यत ॥ १८९ ॥ ततो विरतसंहारेऽवहारे विहिते नृपैः । अभिसर्पन्निवाम्नायव्यासं वासविरैक्षत ॥ १९० ॥ नत्वाथ पप्रच्छ मुनिं पृथाभूर्हष्टः पुमाञ्शूलकरो मया । कुरून्हरशूलभैवैस्त्रिलोकग्रासत्रिजिद्वैरिव कस्त्रिशूलैः ॥ १९१ ॥ अथाददे वाचमयं मुनीन्दुः कृष्णप्रसादेन तव प्रसन्नः । स्वामी स कामी गिरिपुत्रिकाया जगत्रयीकाननकल्पवृक्षः || १९२ ॥ तमात्मानमनात्मानं तमीश्वरमनीश्वरम् ।
पार्थ तं ज्ञानमज्ञानं ध्यायतं प्रियमप्रियम् ॥ १९३ ॥ इत्थं जगत्पतिजपैरनुगृह्य पार्थे
याते मुनौ निजनिजं शिबिरं प्रविश्य । वीराः शरीररुचिक्लृप्तदिना दिनान्ते
चक्रुः कथामवितथासु भटप्रथासु ॥ १९४ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरि सुगुरोरर्हन्मतार्हस्थितेः
पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । तद्वाकर्मणि बालभारतमहाकाव्ये कविप्रीतिदे
२
३७५
पीयूषद्रवधानि सप्तममिदं द्रोणस्य पर्वाद्रवत् ॥ १९९ ॥ सर्गैश्चतुर्भिरप्यत्रानुष्टुभां द्रोणपर्वणि ।
अशीतिसंनिकृष्टानि निर्दिष्टानि शतानि षट् ॥ १९६ ॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्के द्रोणपर्वणि पञ्चमदिवसयुद्धे द्रोणवधो नाम चतुर्थः सर्गः । द्रोणपर्व समाप्तम् ।
१. 'विश्वरूपस्वरूपं' ख ग २. 'रचित' ख-ग. ३. 'भरे' क.
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३७६
काव्यमाला ।
कर्णपर्व |
प्रथमः सर्गः ।
अगोचरं वागधिदेवताया वाचामपि स्वं चरितप्रपञ्चम् । वक्तुं जगत्तारणकारणेन व्यासीभवन्पातु स वो मुरारिः ॥ १ ॥ पुनः कुरुक्षेत्र निषण्णनेत्रः संग्राममुद्दामतमं निरूप्य । गावल्गणिर्द्रोणवधाकुलाय न्यवेदयत्कौरवपुंगवाय ॥ २ ॥ ततः कृपीसूनुमते कुरूणां सेनाधिपत्ये मुदितेन राज्ञा । कर्णोऽभिषक्तस्तृणवत्रिलोकीं मेने दृशा क्रोधशिखित्विषेव ॥ ३ ॥ स्मरानुकारो मकरक्रमेण बलं महद्वयूह्य तदङ्गराजः । राजञ्जगज्जैत्रपतत्रिपातः प्रकम्पयामास न कस्य चेतः ॥ ४ ॥ विभूष्य भूमिं हरमूर्तिमर्धचन्द्रानुकारेण बलेन पार्थः । जज्वाल भालाक्षिवदस्त्रजालज्वालाकरालो भयदस्तदग्रे ॥ ९ ॥ अथास्त्रसंघट्टपरम्पराभिश्चैर्णीकृतानां तपनद्युतीनाम् । लेशैरिव व्योमतलं स्फुलिङ्गैः शृङ्गारयन्तः सुभटाः प्रसस्रुः ॥ ६ ॥
पक्षद्वयक्ष्मापपटुप्रतापस्विद्यज्जयश्रीयुगघर्मनीरैः ।
इतस्ततोऽपि क्षतजच्छलेन काश्मीरमित्रैरिव भूरभूषि ॥ ७ ॥ रिपुक्षुरप्रोत्पतितप्रवीरताटङ्किवत्रौघनिभाद्विभाते ।
अभ्युद्गमोऽकारि स कोकयुग्मैरिवाम्बुजैरम्बुजकोकबन्धोः ॥ ८ ॥ गदाप्रपातोत्पतदत्रबिन्दुसिन्दूरिताशापति कुम्भिकुम्भः ।
सामीरिणा मत्तकारिस्थितेन कुलूतराजः सगजोऽपि जघ्ने ॥ ९ ॥ आच्छादिते रेणुभरेण मानौ नभःस्पृशा संयति भानुसनुः । शस्त्रक्षतारिक्षतजौघवृष्ट्या निविष्टरेणुं धरणीं चकार ॥ १० ॥ निपात्य संसप्तकमण्डलानि क्ष्माखण्डमाखण्डलसूनुरस्त्रैः । चकार कोपारुणदृष्टिधाम वृष्टिप्रपञ्चैरिव पूर्यमाणम् ॥ ११ ॥
१. 'हरि' क. २. 'र्भस्मीकृतानां' क. ३. 'भूरिभूषि' क.
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रकर्णपर्व-१सर्गः] बालभारतम् । पार्थप्रतापप्रहतौ प्रभूतप्रतापयाच्मार्थमिव प्रयातौ। । भूपौ सगी युधि दण्डधारो दण्डश्च चण्डद्युतिमण्डलाय ॥ १२॥ पाण्ड्यो नृपः पाण्डुचमू चलाक्षी चूडामणिः कौरवकालरुद्रः । विश्वाधिकंमन्यतयातिदर्पः ससर्प साधिपबन्धुबाहुः ॥ १३ ॥ कर्णादिजेतुयुधि तस्य मौलिं द्रौणिक्षुरप्रोत्पतितं पतन्तम् । रत्नप्रभादीप्तदिशं निभाल्य भिया न भानौ नयनं दधौ कः ॥ १४ ॥ मौलिं महायुद्धसमुद्धतस्य छित्त्वोत्सुकैम्लेंच्छबलाधिपस्य । भुवि प्रविष्टं बिलसङ्गिगङ्गा स्नानाय नूनं नकुलस्य काण्डैः ॥ १५ ॥ स्मरन्गिरं मातुरनातुरात्मा कृती कृतारातिजयो जघान । अप्यागतं वध्यदशां दशाशाविकीर्णकीर्तिनकुलं न कर्णः॥ १६ ॥ इत्थं मिथः संगरसंगतानां चमूचराणां खचरैः शरौधैः । विष्वक्चललाजनशङ्कयेव रथ्या रवेराशु ययुर्नभोन्तम् ॥ १७ ॥
प्रथममहः। कृतावहारे निशि वीरवारे प्रातः प्रवृत्ते पुनराहवाय । रराज कर्णः कुरुराजकर्णसुधाधुनीपूरगिरिगिरैव ॥ १८ ॥ रोजन्नराजन्नयनोत्सवा ये भवत्प्रसादाः कृतशत्रुसादाः। अद्यैष तेषामनृणीभवामि दहामि कामं ज्वलितोऽर्जुनस्य ॥ १९ ॥ शौर्यास्त्रवीर्यैरधिकोऽस्मि पार्थात्स सर्वथा सारथिनाधिको मत् । .. कृष्णाधिकं सारथिमद्य शल्यं यच्छाधं यच्छामि जयश्रियं ते ॥ २० ॥ इत्युक्तिभिस्तस्य मुदा नृपेण शल्योऽर्थितस्तद्रथसारथित्वम् । क्रुद्धो जगौ विश्वजयक्षमस्य ददासि धिक्सूतजसूततां मे ॥२१॥ नृपोऽथ तं प्रश्रयवानवादीन्मा वीरकोटीर कुरुष्व कोपम् । सारोत्तराः सारथयो रथिभ्यः पथि प्रथिम्नः प्रधनस्य धेयाः ॥ २२॥ ततो हुताशस्य यथा समीरः पुरां विपक्षस्य यथा विरञ्चिः। पृथातनूजस्य यथा मुकुन्दस्तथास्य सारथ्यमुरीकुरु त्वम् ॥ २३ ॥ १. 'वलि' ख-ग. २. 'अथा' क; 'अभ्याग' ग. ३. 'प्राजय' क. ४. 'प्रवर्ते' क. ५. 'रराज राज' क. ६. 'मनृणो' ख-ग. ७. 'ज्वलतो' ग. ८. 'शुग. ९. 'तद्रर्थिक
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३७८
काव्यमाला।
इत्युक्तिपूरैर्नृपतेः सुधौघसमद्रवैर्मद्रपतिः प्रसन्नः। खच्छन्दचारी रविनन्दनस्य सूतो भवामीति भृशं बभाषे ॥ २४ ॥ ततः सितोष्णीषधरोऽङ्गभर्ता रथं वलक्षाश्चमकूजनाख्यम् । महेन्द्रसूतं भृगुसूनुदत्तं तं दन्तिकक्षाध्वजमारुरोह ॥ २५ ॥ कुरूद्वहेषु ध्वनिदीर्णदिक्षु धुन्वन्धनुः शल्यमुवाच कर्णः । अद्यार्जुनं हन्मि यतो मुरारिस्ततो जयः स्यादिति वाङ्मधास्तु ॥ २६ ।। मयेन्द्रपुत्रेऽद्य हते रुषेन्द्रः सेवायतायास्त्रिदशास्त्रपतेः। । लज्जाविनम्राण्यपि दृग्भिरंहिगताभिरालोकयतां मुखानि ॥ २७ ॥ शल्यः स तं माह हसन्यदृच्छा प्रलापतः कर्ण न लज्जसे किम् । भोः केन न त्वं स च दृष्टसारो गन्धर्वयुद्धे च गवां ग्रहे च ॥ २८ ॥ द्रष्टासि तेजोऽद्य ममेति शल्यं संभाष्य कर्णोऽथ जगाद भृत्यान् । . संप्रेक्ष्यतां कास्ति जितेन्द्ररुद्रः पार्थस्तदर्थ विशिखा ममोत्काः ॥२९॥ (यो दर्शयत्यर्जुनमद्य तस्मै ददामि दामानि रणन्मणीनि । रामास्तुरंगान्करिणः पुराणि साराणि यद्वा स्वयमीहते सः ॥ ३० ॥ उवाच शल्योऽथ हसन्नवैमि सत्यीभवत्कर्ण वचस्तवेदम् । यदर्जुनो दर्शयिता स्वयं स्वमिष्टान्ग्रहीता भवतस्ततोऽसून् ॥ ३१॥ स्पर्धा मृधे मा कुरु भर्तृपिण्डपुष्टोऽद्य राज्यांशभुजार्जुनेन । हंसेन हेमाजभुजा गृहस्थोच्छिष्टाहृतिः काक इव द्युयाने ॥ ३२ ॥ तावन्महान्त्यङ्गमहीभुजंग कुरङ्गवत्तुङ्गय रङ्गणानि । मृगेन्द्रवद्यावदफल्गुपातं न फाल्गुनो वल्गति वल्गुतेजाः ॥ ३३ ॥ क्रुद्धोऽथ कर्णो निजगाद वेद्मि तमर्जुनं मां च स वेत्ति तत्त्वात् । शल्योपमैः शल्य किमत्र शत्रुमित्रोपधिस्त्रासयसीव वाक्यैः ॥ ३४ ॥ . वदाथवा स्वैरमगम्यगन्तुरपेयपातुर्यदभक्ष्यभोक्तुः । त्वं मद्रदेशैकनिवेशनस्य जनस्य नेतासि शुचिः कुतोऽस्ति ॥ ३५ ॥
१. 'अथाह शल्यः ख-ग. २. 'संलाप्य' ख-ग. ३. 'क्वापि' ख-ग. ४ धनुचिहान्तरगतः श्लोको भ्रष्टः क-पुस्तकात्..
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८ कर्णपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
३७९
शल्योऽथ तं स्माह मुहः किमित्थं मामात्थ नाथोऽसि यदङ्गभूमेः । विक्रेयतानीतकलत्रपुत्रैस्त्याज्या जनन्योऽपि जनैर्न यत्र ॥ ३६ ॥ क्रुधं विधत्सेऽभिहिते हितेऽपि राधेय युध्यस्व तदर्जुनेन । उक्त्वेति शल्यस्त्वरयांचकार हरीनरीणां जडयन्मनांसि ॥ ३७ ॥ महारथानामिषवोऽन्तरिक्षे तदा मिथः पातविलूनदेहाः । तेजोमयं प्राप्य शरीरमंशुच्छलेन मन्ये तपनं प्रविष्टाः ॥ ३८ ॥ संनाहदृङ्मार्गगलल्ललाटस्वेदोदबिन्दुर्दलयन्नथारीन् ।
अस्मिन्नियत्या निहते नियोगे रुदन्निवादर्शि दयालुरैन्द्रिः ॥ ३९ ॥ अथावदन्मद्रनृपोऽङ्गभूपं कुतूहलं सूतज पश्य पश्य ।
लीलालवः संयति योऽर्जुनस्य प्राणापहारः स महारथानाम् ॥ ४० ॥ मृत्यौ समासीदति पश्य कर्ण कुरुश्रियामुत्कटवार्धकानाम् | अपाति दन्तैर्नरकाण्डलूननृपालिमौलिच्युतहारमूर्त्या ॥ ४१ ॥ पश्यैन्द्रिवाणा युधि सप्त सप्ताष्टाष्ट द्विषः कर्ण निपात्य तुष्टाः । ध्वान्ताविले यान्ति विलेभिरन्तुं जयश्रियं चारुतरां गृहीत्वा ॥ ४२ ॥ इतस्ततः शैलततीस्ततान कोदण्डकोऽचैव पुरा पृथुर्यत् । तत्कौतुकं शान्तमगुर्दिगन्तान्यद्भूभृतोऽस्मिन्धृतचाप एव ॥ ४३ ॥ शरत्वरामारुतलुप्तखेदसंसुप्तसंसप्तकचक्रवालः ।
वृषः क्षणादेषु बलेषु वल्गन्हरेः सुतोऽयं वद केन सह्यः ॥ ४४ ॥ अद्य व यास्यत्यधुना मृधेऽसौ दृष्टो मयेत्युल्लसदंशमुक्त्वा । कर्णः शराकीर्णनभा नभस्वत्प्रभाततेरप्यदितावकाशम् ॥ ४९ ॥ शरोत्करैरर्कसुतस्य दिक्षु भित्तीभवद्भिः स्खलितेऽपि वाते ! आव्यथ्यमाना बलिना भयेन वनीव पाण्डुध्वजिनी चकम्पे ॥ ४६ ॥ काण्डैर्महामण्डपमन्तरिक्षे कृत्वाग्रजं भोजयितुं कृतान्तम् ।
शवान्नकूटान्पतितातपत्रपात्रे रणे सूरसुतस्ततान ॥ ४७ ॥ विद्धा मृधोर्वीषु सहस्ररश्मिसुतेन तेनाशुगमण्डलैर्ये । तदाशुगैर्विव्यधुरात्मभिस्ते रोषादिव व्योम्नि सहस्ररश्मिम् ॥ ४८ ॥ १. 'वैधेय' क-ग.
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३८०
काव्यमाला ।
मुहुर्विरथ्य क्रतुनन्दनादीन्दशायुतीं बाहुभृतां निहत्य | दस्तदा धर्मसुतेन काण्डैश्चक्रेऽशुमानर्क इवार्कजोऽपि ॥ ४९ ॥ क्षीणायुधः क्षिप्तरथोऽथै कृत्तवर्मा क्षताङ्गो हतचक्ररक्षः । वृषक्षुरप्रैर्विधुरो धरित्रीधवोऽथ बोधिच्छदवच्चकम्पे ॥ १० ॥ तीक्ष्णांशुमक्ष्णैव यमं भ्रुवैव जित्वाङ्गभर्तुः पितृपूर्वबन्धू | कोपावनिः पावनिराशुगैर्यत्तदाजयत्तं किमु चित्रमत्र ॥ ११ ॥ नन्दोपनन्दौ कवची सुपर्वा पाशी धनुग्रहमहाभुजौ च । निर्द्वन्द्वदीर्वात्मकसंनिषङ्गिक्राथा जरासंध इति प्रतीताः ॥ १२ ॥ • सुतास्तव द्वादश जघ्निरेऽमी राजन्नथाजौ पवनात्मजेन । सूर्या इव द्वादश तत्प्रतापास्ततः कुरूणामदिशन्युगान्तम् ॥ ५३ ॥ (युग्मम्)
तत्कार्मुकद्वादशतुर्यघोषनाद्यन्तदीप्तः पवनस्य सूनुः । रेजे यशोनाट्यनटो हतेभकुम्भोत्थमुक्तातिमुष्टिपुष्पः ॥ १४ ॥ मुक्ताबलैर्मारुतिदारितानां कुम्भस्थलोत्थैः करिणामपाति । दिवं गतानों कषणेन तेषां द्युलोकवृक्षेभ्य इव प्रसूनैः ॥ १९ ॥ परस्परोत्तालनृपालमालाकलम्ब जालैर्बलयोर्द्वयी सा । अकम्पतान्योन्यविलोलचक्षुः कटाक्षपातैर्युगलीव यूनोः ॥ ९६ ॥ जनौघसंहारचिराद्विरागभृता तपस्वीभवता यमेन ।
ज्येष्ठेन दत्तं स्वमिवाधिकारमादात्तदार्किः परसंप्रहारैः ॥ १७ ॥ हत्वा हयानां च विषाणिनां च सप्तायुतीं तत्तदसृक्पयोधीन् । चन्द्रैरिवाभूषयदेष लूनैर्द्राग्व्याघ्रदत्तादिनरेन्द्रवः ॥ ५८ ॥ दिव्यास्त्रभृद्रौणिजयावदातं दिव्यास्त्रवर्त्मक्षपितत्रिगर्तम् । किरीटिनं कर्णरॅणावलोकचमत्कृतः स्माह तदा मुकुन्दः ॥ ९९ ॥ विदारयन्वीरभुजोर्मिमाला दोर्भ्यां तरन्संगर सागरेऽस्मिन् । कर्णोऽथ पश्यार्जुन पश्यति त्वां मुहुः परं पारमिवारुणाक्षः ॥ ६० ॥
१. 'नदञ्शरैर्धर्म' ख-ग. २. 'हैमै' ख ग ३. 'sपकृत्त' क ख ४. कर्णस्य सूर्यः पिता, अत एव यमो ज्येष्ठ भ्राता. ५. 'कलम्बचक्रचम' ख-ग. ६. 'प्राह' ख-ग.
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(कर्णपर्व-१सर्गः] बालभारतम् । _ ३८१
उत्तुङ्गमातङ्गतुरंगमुख्यप्राणिव्रजप्राणनिरासरौद्रः ।। विना त्वयोच्चैः शरभेण केन प्रस्खल्यतां सिंह इवैष धावन् ॥ ११ ॥ इत्युक्तिपारे वृषभल्लिभिन्नं निशम्य भीमाच्छिबिरप्रयातम् । युधिष्ठिरं द्रष्टुमगादगाधबाधः क्रुद्धान्धः सहरिः किरीटी ॥ ६२ ॥ मदतिकोपेन निपात्य कर्णमिमौ समेताविति जातबुद्धिः। . निरीक्ष्य तौ क्षोणिपतिः क्षतौघक्षीणोऽपि हर्षी शयनादुदस्थात् ॥६३॥ नत्वा निषण्णौ तदनु क्षतौघवीक्ष्याविषण्णौ नृपतिर्मुदा तौ। पप्रच्छ दिट्याद्य स पिष्टसैन्यः कथं हतः संयति रामशिष्यः ॥ ६४॥ पार्थस्ततः माह विभो कृपीभूजयश्रिया विनितकर्णमृत्युः । भीमे भरं न्यस्य निरीक्षितुं त्वामेतोऽधुना हन्मि तवाज्ञया तम् ॥६५॥ क्रुद्धोऽथ धार्मिस्तमुवाच कुन्त्याः क्षत्राधम त्वं जवरं किमागाः। धिमां त्वयि त्रासिनि येन दः त्रयोदशाब्दीमसुहृज्जयाशा ॥ ६६ ॥ एकोऽद्य बन्धून्परिहृत्य कर्णात्रस्तोऽसि लुब्धादिव कृष्णसारः ।
ओजस्विनः कस्यचिदर्पयेदं गाण्डीवमस्मानवति द्विषो यः ॥ १७ ॥ इत्युक्तिभिः कोपकटाक्षमक्षि खड्ने क्षिपन्तं हरिरैन्द्रिमूचे । गाण्डीवमन्यस्य समर्पयेति वक्तुर्वधेऽसि प्रथितप्रतिज्ञः ॥ ६८ ॥ ततः प्रतिज्ञाघटनाय शोणां सास्त्रामनौचित्यविवेचनेन । आकर्ष खड्गादृशमाशु निन्दा गुरोरशस्त्रं वधमादिशन्ति ॥ ६९ ॥ इदं निशम्याह महेन्द्रसूनुर्युधिष्ठिरं धृष्टतरैर्वचोभिः । भयातिपूर्णः परमप्रमादी त्वमेव पृथ्व्या मघवान्प्रतीतः ॥ ७० ॥ इतीरितोक्ति हेतकृष्टखड्गं तमाह कृष्णस्त्यज मूढ शस्त्रम् । त्वं ज्येष्ठनिन्दामुशयान्मुमूर्षुः स्तवं कुरु स्वस्य सतां स मृत्युः ॥७१॥ इदं विदित्वाह नरश्चरित्रैर्न मागस्त्री पुरुषोऽद्य कश्चित् । कलिप्रकर्षे कलितोदयानां शरीरिणां शश्वदहं धुरीणः ॥ ७२ ॥ अथैष मां निन्दति नौति च स्खमिति क्रुधा रक्तमुखं नरेन्द्रम् । हरि गौ भूप विचारयन्द्रिस्तव स्तवं स्वस्य चकार निन्दाम् ॥ ७३ ॥ १. 'निपीड्य' क. २. 'द्रुत' ग.
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३८२
काव्यमाला |
इति ब्रुवन्भूपपदानयुग्मे मधुत्रतामास नरेण कृष्णः । भूपोऽपि तौ कर्णवधेऽभ्यषिञ्चदिवाक्षिनीरैः परिरभ्य हृष्टः ॥ ७४ ॥ रणे धरित्रीरमणेन साकं पाकद्विषः सूनुरथाभ्युपेत्य । हत्वापि राजप्रकरानकार्षीत्तेषां मुखै राजमयीमिवोर्वीम् ॥ ७५ ॥ गदाबलैर्वैरिबलानि भीमस्तदा बिभेदात्र यथा न भेदाः । क्ष्मायामबुध्यन्त महीभुजंगशताङ्गमातङ्गतुरंगमाणाम् ॥ ७६ ॥ भीतैर्भटैर्मुक्तमुखः करीव माद्यन्नथोत्पत्य पुरः स्फुरन्तम् । दुःशासनं कॢप्तरथास्त्रपेषः स एष जग्राह करेण केम्प्रम् ॥ ७७ ॥ दोषान्स्मरन्त्या हृदयस्थयाशु स कृष्णया नुन्न इवोग्रकोपः । हत्वैनमङ्केऽग्निसदृग्भिरुच्चैराचष्ट दृग्भिः प्रदहन्निवाशाः ॥ ७८ ॥ जहर्ष यः संसदि याज्ञसेनीकेशांशुका कर्षणकौतुकेन । भो भूमिपाः पश्यत पश्यतास्य विपाट्य वक्षो रुधिरं पिबामि ॥ ७९ ॥ इदं गदन्नेव तदा त्वदीयसूनोः कपाटोरु विपाट्य वक्षः । रक्तं मुहुः सैष पपौ जगर्ज मुहुर्महीपान्मुहुरालुलोके ॥ ८० ॥ आस्फालयन्बाहुमसृक्चितेन स सृक्किणी चावलयन्करेण । नदंस्तदा रक्तदृगूर्ध्वरोमा दृष्टश्च वीरैरभिमूर्छितं च ॥ ८१ ॥ स तेन कोपेन तदाकरिष्यदकर्णदुर्योधनमेव विश्वम् । स्मरस्मयस्मेररसोऽस्मरिष्यन्न द्रौपदीवेणिविमोक्षणं चेत् ॥ ८२ ॥ ऐन्द्रि तृणीय रणकर्मणीन्द्रस्पर्धे कधीरो वृषसेन वीरः । क्षणेऽत्र काणिः कटकोत्कटानि न्यपातयत्क्षोणिभृतां कुलानि ॥ ८३ ॥ मुहुः स माद्रीसुतसात्यकादीनेको बहून्विश्वविलोपशक्तीन् । विभग्नसंरम्भभरामकार्षीदब्धेस्तरङ्गानिव तीरदेशः ॥ ८४ ॥ ततः किरीटी प्रहरशरोधैर्मुखं च हस्तौ च वृषाङ्गजस्य । अपातयत्कौरवराजलक्ष्म्या वासाम्बुजं च श्रवणाम्बुजे च ॥ ८५ ॥ ततः शिखिक्रोडितकालकूटचक्रायमाणारुणकृष्णचक्षुः । राधाङ्गभूधैर्यधनोऽभ्यधावद्धनंजयं पुत्रवधक्रुधार्तः ॥ ८६ ॥
2
१. 'कण्ठम् ' ख २. 'क्षणेन' ख.
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कर्णपर्व-१सर्गः]
बालमारतम् ।
३८३
तयोरभून्नारदनादहूतगीर्वाणगन्धर्वभृतान्तरिक्षम् । अभ्यस्तमाजन्ममनोरथानां परम्पराभिः समरं पराभिः ॥ ८७ ॥ सूर्येन्द्रयोः पुत्रनयोक्तिवादे द्विधा स्थितैः पूर्वममर्त्यवृन्दैः । पृष्टस्तदेशश्च विधिश्च यत्र कृष्णो जयस्तत्र सदेत्युवाच ॥ ८ ॥ मिलच्चतुर्वाधिमियो महोर्मिसंघट्टयोपोग्रयुगान्तकल्पः । संरब्धकृष्णार्जुनशल्यकर्णशङ्खप्रणादः समयः स यज्ञे ॥ ८९ ॥ ततोऽतिसंरम्भिणि पार्थयुग्मे शल्योऽचलत्कृष्णकटाक्षविद्धः । हनूमतः पुच्छलवानरोम्णा सा हस्तिकक्षा च हता चकम्पे ॥ ९ ॥ इन्द्राय धात्रा दनुजान्विजेतुमिन्द्रेण रामाय नृपान्विपेष्टुम् । रामेण दत्तं विजयाह्नमस्मै यच्चापमार्किस्तदयं चकर्ष ॥ ९१ ॥ द्वन्द्वकयुद्धस्पृहया सहस्रचक्षुःसहस्रांशुतनूद्भवाभ्याम् । मिथः शरैः पार्श्वचरा नरेन्द्रा विजिग्यिरे मङ्गु निननिरे च ॥ ९२ ॥ अथार्कपुत्रेण वलक्षपक्षाः क्षिप्ता यशोङ्का इव कङ्कपत्राः । अपूरयन्पार्थचमू रयेण मरालमाला इव नीलमजम् ॥ ९३ ॥ जवादवैरोचनमेव विश्वं कर्तुं नरेण प्रहिताः पृषत्काः । भित्त्वा भृशं कर्णशरीरमुातलं वलिं भेत्तुमिव प्रविष्टाः ॥ ९४ ॥ मुष्टिस्थितानेव चकत कर्णः शरानथैन्द्रेः कृतविश्वचित्रः।। उत्थातुकामाँल्लघुमूल एव विद्वेषिणोऽर्थानिव बुद्धिकारः ॥ ९५ ॥ उक्तोऽर्जुनस्तद्गुणविस्मृताभ्यां भीमाच्युताम्यां ननु दुर्जयोऽसौ । धीराधिकं खाण्डवकालिकेयकिरातयुद्धादिह संरभव ॥ ९६ ॥ श्रुत्वेति पार्थोऽभ्युदितेऽनुरूपे रणो रणकङ्कणकैतवेन । दोयी हसन्यामिव दूरमुक्तैः शरैः शरीरीव नमोऽप्यकार्षीत् ॥९॥ पराक्रमं दर्शयितुं सुरेभ्य इवात्मनो मानधनस्तदार्किः । तद्भार्गवास्त्रेण किरीटिक्लप्तं ब्रह्माण्डतः काण्डपटं जहार ॥९८ ॥ विद्धाखिलाङ्गानथ भीमकृष्णकिरीटिनः काण्डगणेन कर्णः । प्रातः पतङ्गांशुसहस्रलीढत्रिकूटकूटप्रतिमानकार्षीत् ॥ ९९ ॥ १. 'अयःशरैः' ख-ग. २. 'मूलं' ख-ग.
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३८४
काव्यमाला।
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तयोर्वनान्तद्विपयोरिवाथ गण्डस्थलोड्डीनशिलीमुखेन । रणातिरेकेण न के समीपाजग्मुर्महीपास्तरुवद्विनाशम् ॥ १० ॥ यः खाण्डवे खण्डितपुच्छदण्डः स कृष्णयुग्मग्रसनप्रतिज्ञाम् । जिह्वायुगेनैव सृजन्वृषेण बाणासने बाणपदे कृतोऽहिः॥ १०१ ॥ हितोक्तिषु स्वैरमकर्णकर्णसंधानतोऽस्माद्भुजगाशुगो यम् । द्विषवलं नैति पुनस्तदेनं संधेहि युद्धेषु जडोऽन्यथा त्वम् ॥ १०२ ॥ इत्युच्यमानो युधि मद्रपेन तेजोवधार्थ व्यथमानचेताः । द्विः संदधे नास्त्रमितीरितोक्तिर्मुमोच कर्णो जयिने भुजङ्गम् ॥ १०३ ॥
(युग्मम्) हरौ गृहीताचलगौरवेऽथ हृदा रथाश्वेषु भुवं गतेषु । किरीटिनो मङ्घ किरीटखण्डमेवाहरन्नम्रमुखस्य सर्पः ॥ १०४ ॥ . कृष्णौ ततो रत्नविचित्रवर्णैः कर्णस्य बाणैः परितः परीतौ । अवापतुः पाण्डवराजराज्यजयश्रियः केलिकलापिहेलाम् ॥ १०५ ॥ यान्सूनुवात्सल्यवशंवदोन्तहस्तानिवादत्त वृषस्य भानुः । अखण्डयत्तानपि काण्डपातैः पार्थस्तुटत्काञ्चनवर्मदम्भान् ॥ १०६ ॥ अर्कात्मजत्वाद्वषपक्षभाजा क्षिप्तो यमेनेव भुजो भुजङ्गः । कर्षन्कचान्खाण्डवदत्तवैरश्छिन्नस्तदा व्योम्नि शरैनरेण ॥ १०७ ।। (दिव्यास्त्रपातैरपि दुर्जयस्य जयस्य कर्णेन ततः क्षतज्यः । तादृग्रणश्रान्त इवास्त्रदण्डो विश्रामकामः क्षणमुन्ननाम ॥ १०८ ॥ कोपच्छलेन ज्वलनः स्वचापपराभवेनेव तदातितापः । महारिमहाय जहीति वक्तुमिवाविशञ्चेतसि शक्रसूनोः ॥ १०९ ॥ द्राक्सज्जिते धन्वनि रौद्रमैन्द्रिस्ततो दधे दिग्दहनोऽग्रमस्त्रम् ।। नश्यन्निवैतद्भयतस्तदो-मज्जद्रथाङ्गो रविभूरथोऽभूत् ॥ ११० ॥) वामं द्विजासृक्क्षतिपापकम्प इवावमज्जद्रथचक्रमाम् । उद्धर्तुमिच्छन्नथ भानुसूनुरवोचदुच्चैस्तनयं पृथायाः ॥ १११ ॥ १. 'धावनृवात्' ख-ग. २. कोष्टकान्तर्गताः श्लोकाः ख-ग-पुस्तकयोनोंपलभ्यन्ते.
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३८५
(कर्णपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
मनोरथं भर्तुरिवोद्धरामि रथस्य चक्रं सुकृतज्ञ यावत् । तावद्विलम्बस्व महास्त्रमोक्षे शूरा न शूरा व्यसनस्थितेऽरौ ।। ११२ ॥ हसन्नथामुं हरिराह कर्ण दिष्टयोपदेष्टुं सुकृतानि वेत्सि। विषाग्निचारे ऋतुजानिकारे सौभद्रमारेऽपि न किं स्मृतानि ॥ ११३ ॥ इत्यच्युतोक्त्या कुपितस्तदस्त्रं ब्रह्मास्त्रपातेन विजित्य कर्णः । बिम्ब रवेर्गन्तुमिव प्रतेने पद्यामियं द्यामनु बाणचकैः॥ ११४ ॥ अथ व्यमुञ्चत्प्रसभात्कृशानुमयं महास्त्रं ज्वलिताशमैन्द्रिः । जितौ यमार्को दिवि धूमतापैर्धाता च तातश्च वृषस्य येन ।। ११५ ॥ अथाक्षिपद्वारुणमस्त्रमार्किः शान्ताग्निकीलापटलं समन्तात् । संताप्य सद्यो जलमज्जितस्य रूप्यस्य रूपं तदगाद्यशोऽस्य ॥ ११६ ॥ इत्यस्त्रमस्त्रेण निहत्य तिष्ठन्कोऽवनिग्रस्तसमस्तचक्रः । प्रम्लानदुर्योधनवक्रपद्मो बभावसूर्येन्दुरिव प्रदोषः ॥ ११७ ॥ ततस्तपोभिर्यदि संप्रसन्ना रुद्रादयस्ते गुरवस्तदेनम् । हन्यामनेनेत्यभिमन्य हैमं बाणं मुमोचाञ्जलिकं किरीटी ॥ ११८ ॥ सूनोः शुचा दीर्णमिवोरुरन्ध्रमुरश्चिरं दर्शयति धेरत्ने । कम्पेन तेनाङ्गपतिविभिन्नः पपात पातालपतिव्यथाकृत् ॥ ११९ ॥ [वीरांग्रणीरिगजाश्वमुख्यः प्राणिवजप्राणनिरासरौद्रः । स्मरानुकारः पतितोऽपि कर्णः प्रकम्पयामास न कस्य चेतः ॥१२०॥ पृथातनूजं जनताललामं तदाजरत्क्ष्मा विबुधात्तवेषः । त्यागोज्झिताशेषधरापगर्वमिलागतं सेवितजामदग्निम् ॥ १२१ ॥ तद्दानविस्तारयितुं(8) जनेषु सासुं विसंज्ञं त्रियुगोऽभ्यधत्त । वैरोचनेऽवेहि वनीयकं मां त्वदानकीर्त्या हृतचित्तवृत्तिम् ॥ १२२ ॥ सुरेन्द्रयाच्ञार्थदनिष्फलाशो दूरागतो दूरितकिंचनोऽपि । वस्त्यस्तु ते याम्यथ किं ब्रवीमि स्वभाग्यनिष्ठो ननु सर्वलोकः ॥ १२३ ॥ इति प्रियोक्त्या यदवाप्तसंज्ञो द्विज द्विजे हाटकपद्मरत्नम् । नान्यत्र मेऽयेति जगाद कर्णस्तमेव देहीति पुनः प्रयुक्तः ॥ १२४ ॥ १. कोष्टकान्तर्गताः श्लोकाः ख-ग-पुस्तकयो!पलभ्यन्ते.
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३८६
काव्यमाला।
आकृष्य शस्त्रैरदतो गृहाण गताक्षचेष्टस्य वपोर्वसुत्वम् । सेवाकृते निष्फलमेव दानमवेह्यकल्पं जरसावृतं माम् ॥ १२५ ॥ यदाङ्गमा च्छुरिकां विहर्तुमुद्यत्करोऽभूद्धरिणा तदोक्तः । तुष्टेन कर्णाद्य परीक्षितोऽसि वरं वृणीष्वेति चतुर्भुजेन ॥ १२६ ॥ भूतानुकम्पा हरिपादसेवां दीनेऽर्थदानं द्विनभोजनानि । एभिवरैरथितचित्तवृत्तेर्वरान्ददौ सूर्यसुतस्य विष्णुः ॥ १२७ ॥] दानैकशौण्डः परमार्गणाय तदाङ्गमप्यङ्गपतिः प्रदाय । दिशो दशापि द्युतिभिर्विभिन्दन्नके पितुः केन पतन्न दृष्टः ॥ १२८ ॥ उत्कृत्तकर्णा मदपौरुषाभ्यां सा कुण्डलाभ्यामिव वर्जिता च । कीर्त्या हसत्यैन्द्रिभुजे ह्रियेव पराङ्मुखाभूत्कुरुराजसेना ॥ १२९ ॥ मूनां च तस्मिन्पतितेऽपि बन्धौ दुर्योधनो युद्धरसेन धावन् । त्वत्सूनुराश्चर्यकरः सुराणां वीरेषु रेखां विशदां तदाप ॥ १३० ॥ मुक्तात्मने जलमिव वसुताय दातुं
यातेऽथ पश्चिमपयोनिधिमुष्णरश्मौ । एके मिताक्षि कुमुदा विदधुः प्रवीराः
प्रम्लानवक्रकमलाश्च परेऽवहारम् ॥ १३१ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितेः
पादाजभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती। पर्वेदं रविनन्दनस्य जगदानन्दे तदास्यामृतज्योतिर्योतिषि बालभारतमहाकाव्ये जगामाष्टमम् ॥ १३२ ॥
अनेनैकेन सर्गेण कर्णपर्वण्यनुष्टुभाम् ।
शतमेकमिहोत्पन्नं त्रिभिर्युक्ता च सप्ततिः ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये
वीराङ्के कर्णपर्वणि कर्णवधो नाम प्रथमः सर्गः ।
कर्णपर्व समाप्तम् ।
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९ शल्यपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
शल्यपर्व 1
प्रथमः सर्गः ।
३८७
[सतां परब्रह्म विलोकमार्गमपङ्किलं दूरितकण्टकं यः । श्रीभारतं ब्रह्म ततान शाब्दं स श्रेयसे सत्यवतीसुतोऽस्तु ॥ १ ॥ यद्भारती भारतपानलीलाः सुधाभुजां धाम न कामयामः । समुक्तिकानां परिलोभनानि ज्ञानानि नः कृष्णमुनिस्तनोतु ॥ २ ॥] युष्मान् शमसुधाम्भोधिः पायाद्वैपायनो मुनिः । शर्मशास्त्रैर्न कस्तापं यस्योर्मिभिरिव त्यजेत् ॥ ३ ॥ ततो निध्याय निःशेषनिधनं प्रधनं पुनः । नृपमेत्य जगौ दुःखैः संजयः खञ्जयन्वचः ॥ ४ ॥ राजन्रराज शौर्ये च दाने च प्रश्रये च यः । तस्मिन्कर्णे जगत्कर्णेन्द्रियैकग्राह्यतां गते ॥ ५ ॥ उद्भिन्नजीवितो राजन्पुत्रस्ते कर्णजीवितः । भूताविष्ट इव स्वेषां भियेऽभूद्विकलश्चलन् ॥ ६ ॥ बाढं कृपेण संध्यर्थमथितस्त्वत्सुतोऽवदत् । कः सुहृद्बन्धुभिर्मेलं कर्ता मेऽलं मृधं विना ॥ ७ ॥ ततो न मे समौ कृष्णाविति निष्णातशान्तवाक् । राज्ञा द्रौणिमतेऽरातिशल्यं शल्योऽभ्यषिच्यत ॥ ८ ॥ अमुं द्रोणाकिंभीष्मेभ्योऽधिकमर्जुनदुर्जयम् । स्वयं जहीति कृष्णोत्क्तत्या शल्यं वत्रे युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥ अथ संभूय भूयोभिर्योध्यं नैकेन केनचित् । इत्युक्त्वा सर्वतोभद्रं व्यूहं मद्रपतिर्व्यधात् ॥ १० ॥ बलं विभज्य सैनेयधृष्टद्युम्नशिखण्डिभिः । कर्मसाक्षिणि साक्षित्वं गते धार्मिस्ततोऽचलत् ॥ ११॥
१. कोष्टकान्तर्गतौ श्लोकौ ख-ग-पुस्तकयोर्नोपलभ्येते. २. 'पापतापं न कः शास्त्रैर्य' व-ग. ३. 'एको' ख ग.
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३.८८
काव्यमाला।
प्रावर्तत ततः संख्यमसंख्यप्रसरच्छरम् । क्षतदिक्क्षतजच्छायोऽच्छलन्नवरविच्छविः ॥ १२ ॥ व्यध्यप्राणिगणे तस्मिन्रणे यममहानसे । प्रातधूलिच्छलो धूमस्तोमो व्योमोदरं ययौ ॥ १३ ॥ असिदण्डैस्तदा कुड्यमानानां मुण्डकैतवात् । राज्ञां यमस्य धान्यानामिव प्रोच्छलितं कणैः ॥ १४ ॥ क्षिप्तेभेक्षोणिभृत्सेतुमुल्लङ्घय क्षतजार्णवम् । क्षतारयः श्रियं प्राप्य रेमिरे रामवद्भटाः ॥ १५ ॥ पितृव्यमातुलभ्रातृपितृपुत्रसुहृत्क्षयात् । निराशा जीवितव्येऽपि घोरं युयुधिरे भटाः ॥ १६ ॥ हासैः शुभ्रोऽसिभिः श्यामो वाहिन्योः कोऽप्यभूत्तयोः । संमेदो मज्जतां मुक्त्यै गङ्गायमुनयोरिव ॥ १७ ॥ सत्यसेनं सुषेणं च चित्रसेनं च कर्णजान् । नकुलो युद्धवैचित्र्यचण्डः कुण्डलिनोऽवधीत् ॥ १८ ॥ एवं विपक्षवक्षांसि दारयिष्यामि संगरे। इत्याख्यातुमिव स्वर्णसीतां केतौ प्रदर्शयन् ॥ १९ ॥ . धिमां मयैव भीष्माद्या हताः प्रागेव सैव यत् । नाभ्यषेचीति तन्वानः पश्चात्तापं कुरु प्रभोः ॥ २० ॥ संहरनक्कलौल्येन गताभिः काण्डभल्लिताम् । कीनाशदासजिह्वाभिरिवारीन्मद्रपोऽविशत्॥२१॥(त्रिभिर्विशेषकम्) शल्ये प्रहरति खैरं पत्त्यश्वरथकुञ्जरम् । खं दिशोऽपि द्विषः शल्यमयान्येव व्यलोकयत् ॥ २२ ॥ तेन काण्डहतः शैलशृङ्गादिव रथादथ । भीमः सिंह इवाधावत्क्ष्वेडामुखरिताम्बरः ॥ २३ ॥
१. 'च्छलाम' ख-ग. २. 'कृप्तेभ' ख-ग. ३. 'न्योर्भूभृतामभूत्' ख. ४. 'शरजालेन' ख.
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९शल्यपर्व-१सर्गः]
बालभारतम् ।
३८९
भेजे भीमो गदाभग्नमहेन्द्रस्यन्दनस्ततः । दन्तक्षताद्रिशृङ्गस्य मतङ्गजपतेस्तुलाम् ॥ २४ ॥ पदधूतासु धूलीषु भीमशल्यावथोद्दौ । भ्रेमतुर्मण्डलावतैर्मृत्युवात्यावशाविव ॥ २५ ॥ एतौ मिथो गदापातैः क्षुण्णयोः खलु तेजसोः । कणैरिव स्फुलिङ्गैी द्योतयन्तौ विनेदतुः ॥ २६ ॥ तौ पेततुस्त्वरायातौ परिहृत्य परस्परम् । वीरावुभयतो यन्त्रनिर्मुक्तौ गोलकाविव ॥ २७ ॥ अथैत्य स्वस्वसेनाभिर्नाभितां गमितौ द्रुतम् । संज्ञामाप्य रथारूढौ गूढौ समिति चेरतुः ॥ २८ ॥ चलदस्त्रदलो दन्तदन्तालीपुष्पितस्तदा । सिषेवे रणकल्पद्रुः स्वर्गस्त्रीकाटिभिभटैः ॥ २९ ॥ सत्यासन्नीकृतं ब्रह्मलोकं क्षितिभृतां यताम् । दुर्योधनास्त्रैरग्रेऽभूच्चेकितानो नृपस्तदा ॥ ३० ॥ तेजोभिरुज्ज्वलैर्भूप सहस्रद्वयतिनैः ।। सहस्ररश्मिद्विगुणप्रभावोऽभूधुधिष्ठिरः ॥ ३१ ॥ रत्नाढ्यपुङ्खरापुङ्ख हृन्मग्नैः शल्यसायकैः । आलिङ्गितो मृधे धार्मिः कौस्तुभाङ्कधिया श्रिया ॥ ३२ ॥ उड्डाययति शल्येषुमारुते तृणवद्द्विषः। चकम्पे ासदां वनवियत्कासारवारिजैः ॥ ३३ ॥ हतसूतस्त्वरातारहयः कुरुपते रथः । निर्ययौ भीमबाणेभ्यः पताकाङ्गुष्ठनर्तकः ॥ ३४ ॥ पार्थास्त्रविरंथो द्रौणिनिहृत्य सुरथं नृपम् । बिलं बिलेशयाशीव भोगी तद्रथमास्थितः ॥ ३५॥
१. 'गतौ' ख. २. 'स्त्वरोत्तारौं' ख; 'स्त्वरातारौं' ग. ३. 'सत्त्वा' ख-ग. ४. 'घातकैः' ख. ५. 'आलिङ्गयत' ख-ग. ६. 'विह्वल' क.
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३९०
काव्यमाला ।
क्षितिभृद्भ्यः क्रुधारक्तो रक्ताब्द इव मद्रपः । रक्तरक्तैः शरैर्वर्षन्नकर्षद्रक्तनिम्नगाः || ३६ || वृतः पाण्डवसैनेयैमलिहस्तक्रमैरिव । युधिष्ठिरो ययौ शल्यं मूर्तो मृत्युरिवाद्रवत् ॥ ३७ ॥ मिथोऽस्त्रपातविरथौ रेजतुर्धार्मिमद्रपौ । महीमूलगतौ प्रातः सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ३८ ॥ द्वेषिक्षयानुमेयोत्थाप्तं यो दक्षिणे भुजे । तमाकृष्य यमं खङ्गमूर्त्याधावत मद्रपः ॥ ३९ ॥ मद्रेशचन्द्रहासेन पतता मूर्ध्नि भूभृताम् । निघ्नता सिन्धुरध्वान्तानस्पृक्सिन्धुरवर्ध्यत ॥ ४० ॥ कुम्भिकुम्भभिदा लग्नमुक्ताव्यक्तरदस्तदा । जहास यशसा शल्यकृपाणः पार्थपौरुषम् ॥ ११ ॥ दिव्यास्त्रैरर्जुनादीनां महेन्द्रः क्व नु पात्यताम् । अजातरिपुणा कोपाद्दृष्टोऽप्यासीन्न भस्म यत् ॥ ४२ ॥ अथ यां शंभवे त्वष्टा सृष्टवान्दैत्यदारिणीम् । सर्वशक्त्यैव शक्ति तां शल्याय प्राक्षिपन्नृपः ॥ ४३ ॥ हतस्तया सहस्रनया साहस्रो हृदि मद्रपः । शेषशीर्षसहस्रस्य व्यथां भुवि पतन्ददौ ॥ ४४ ॥ धावञ्शल्यानुजः क्रुद्धो विचित्रकवचाभिधः । युधिष्ठिरक्षुरप्रेणाभिमुखोऽप्यमुखीकृतः ॥ ४५ ॥ धावत्सु मद्रसैन्येषु ततः कञ्चुकिषु क्रुधा । पत्रिभिः काञ्चनै रौद्रैः सुपर्णतनयायितम् ॥ ४६ ॥ भीमेनाभ्रंलिहाराति शवालिनगमालिनी । निर्मनुष्या महारण्यभूरिवाकारि युद्धभूः ॥ ४७ ॥ सैनेयभललूनेन शाल्व भूपालमौलिना । दृष्टेन राहुणेवाशु म्लानं कुरुमुखेन्दुना ॥ ४८ ॥
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९ शल्यपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दुर्योधनशरोदस्ते जे द्विट्चक्रमौलिभिः । भुञ्जानदण्डभृत्सैन्योत्क्षिप्तवायसपिण्डताम् ॥ ४९ ॥ स्वीकर्तुमिव निःशेषा तेन द्वेषिचमूः शरैः । आपुङ्खमग्नैः पुङ्खस्थनिजनामभिरङ्किताः ॥ १० ॥ सुशर्मकृपहार्दिक्यद्रोणभूसौबलाङ्गुलिः । अरातिषु कुरुक्ष्मापो यमपाणिरिवापतत् ॥ ११ ॥ कार्योऽद्य समरस्यान्त इत्युद्रान्तपराक्रमैः । ततः कल्पान्त कालोयैः संरब्धं कुरुपाण्डवैः ॥ १२ ॥ मागा बलख तिष्ठेहि पूर्व प्रहर हन्मि तत् । इत्यन्तरेऽस्त्रपातानामश्रूयन्त भटोक्तयः ॥ १३ ॥ शस्त्रैरेव भटाः शस्त्रारवैरेव भटारवाः । अहन्यन्त तदा तस्मिन्समरे त्रस्तखेचरे ॥ ५४ ॥ लोकान्तर्ध्वान्तदुर्भेदे ततो रजसि विस्तृते । शब्दा एव नतामा सन्वान्यपक्षोपलक्षणम् ॥ ५५ ॥ क्व सुशर्मा व हार्दिक्यः क्व द्रौणिः क्व सुयोधनः । व सौबल इति व्यापुः खं तदा पाण्डवोक्तयः ॥ १६ ॥ जयसेनो महाबाहुर्नैत्रो दुर्विषेहः सहः ।
२
३९१
विविंशतिर्दण्डधारः समं सहसुवर्चसौ ॥ १७ ॥ सुजातः श्रुतवान्वातवेगो भूरिबलोऽप्यमी ।
राजन्भीमेन पुत्रास्ते त्रयोदश तथा हताः ॥ १८ ॥ (युग्मम् ) त्रयोदशानां रक्तेषु स तेषां विम्बितो दधौ । चतुर्दशजगत्राणे द्राक्चतुर्दशतामिव ॥ ५९ ॥ सर्वे जयाय धावन्ति मया लभ्योऽद्य संजयः । इति ब्रुवाणः सैनेयो राजन्मामग्रहीत्तदा ॥ ६० ॥ उम्रकर्मा सुशर्माणं सानुजानुगनन्दनम् । स्वर्गमार्गसुशर्माणं ससैन्यं निर्ममेऽर्जुनः ॥ ६१ ॥
१. ' षहोरिहा ' ख-ग. २. 'दुर्मर्षणो दुष्प्रधर्षः' ख- ग.
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३९२
काव्यमाला । तदा मदाढ्यो भीमेन भवत्सूनुः सुदर्शनः । मरुन्मृगाक्षीवक्षोजस्तम्बे स्तम्बेरमीकृतः ॥ ६२ ॥ पृष्ठघातं छलात्कुर्वन्सबलः सुबलात्मजः । अदृष्टत्रणवजन्ने सहदेवेन शस्त्रिणा ॥ ६३ ॥ गृहीतां द्रोणतो युद्धविद्यामुद्दयोतयन्नयम् । उलूकं शकुनेः सूनुं ससैन्यौघमपातयत् ॥ ६४ ॥ धृष्टद्युम्नगिरा हन्तुमुद्यतादथ सात्यकः । प्रत्यक्षीभूय मां व्यासो विश्वदर्शी व्यमोचयत् ॥६५॥ अदर्शि द्रौणिहार्दिक्यकृपशेषान्मया रणात् । एकाकी पद्गतिनिर्यन्नेकादशचमूपतिः ॥ ६६ ॥ स मां हीणोऽवदत्कथ्यं मत्पितुर्यत्तवात्मजः । हतबन्धुसुहृत्सैन्यो दुःस्थः श्रान्तो ह्रदेऽविशत् ॥ ६७ ॥ इत्युक्त्वा मायया सैष दैत्यानामब्धिवासिनाम् । संस्तभ्याम्भो ह्रद विक्षन्संध्यारविरिवार्णवे ॥ ६८ ॥ क राजेति कृपद्रौणिहार्दिक्यै रथिमिस्त्रिभिः । भ्रमद्भिः कुरुवर्षान्तमद्गिरासौ हृदे श्रितः ॥ ६९ ॥ युधिष्ठिराज्ञया राजन्युयुत्सुस्त्वत्सुतस्तदा । दारान्दुर्योधनादीनामादाय प्रस्थितः पुरम् ॥ ७० ॥ तदा रथिसहस्राभ्यामयुतेनाभिचारिणाम् । मातङ्गसप्तशत्याश्च सहस्त्रैः पञ्चभिर्वृतः ॥ ७१ ॥ युधिष्ठिरश्चरान्दिक्षु प्रैषीचिन्ताभरातुरः । युद्धा दुर्योधनः क्वागाद्वैरमूलमितीक्षितुम् ॥ ७२ ॥ हार्दिक्याद्याः शनैरूचुस्तदा हदगतं नृपम् । वीरोत्तिष्ठ सहास्माभिः शत्रूञ्जयमुखाञ्जय ॥ ७३ ॥ तान्प्रशंसन्नथाचष्ट क्ष्माकान्तः श्रान्तवाहनः । विश्राम्यन्तु भवन्तोऽपि प्रातर्वध्या विरोधिनः ॥ ७४ ॥ १. 'तदा कु' का 'बला' ख.
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९शल्यपर्व-१सर्गः।
बालभारतम् ।
___ ३९३
इत्याकर्ण्य वनीगुप्ता लुब्धका धनलुब्धकाः। द्विषं शशंसु माय ह्रदस्थं सोऽपि भूभुजे ॥ ७९ ॥ ततः सह महावीरैर्मुदां भूमिः स भूमिपः । ययौ ह्रदं चमूहादहीणदिग्दन्तिसंततिः ॥ ७६ ॥ मा बुद्ध्येऽहं परैरत्रेत्याज्ञयाथ कुरुप्रभोः । दूरे वद्रुमं गत्वा द्रौणिमुख्या विशश्रमुः ॥ ७७ ॥ . अथापत्य पृथापत्यतिलकस्तज्जलान्तिकम् । उच्चैर्द्विषन्तमुद्दिश्य मुकुन्दप्रेरितो जगौ ॥ ७८ ॥ विश्वत्रयीवशीकारकारणं हूदमध्यगः । प्रक्षालयसि किं राजन्यशश्चन्दनमण्डनम् ॥ ७९ ॥ मानेन हृज्जुषाप्यम्भःस्तम्भनं किं न शिक्षितम् । यत्ते ह्रदप्रवेशेऽस्मिन्साहचर्य मुमोच सः ॥ ८० ॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ठ युद्धोत्थै रेणुभिः कीर्तिदर्पणम् । नीरप्रवेशविच्छायं वीरकोटीर मार्जय ॥ ८१ ॥ चिन्तामणिः क्षत्रियाणां रणस्तदधिकोऽपि वा। कदाचिजीवतामुरू ददाति दिवमप्यसौ ॥ ८२ ॥ अथोद्यहुद्बुदच्छद्मनिर्यन्मूर्तिमदाक्षरम् । ह्रदवर्ती वचोऽवोचत्तं प्रति प्रतिभूमिपः ॥ ८३ ॥ युक्तमुक्तं त्वया वीर किं तु पृथ्व्या किमद्य मे। अर्था यदर्थमर्थ्यन्ते ते मृता मित्रबान्धवाः ॥ ८४ ॥ स्वर्ग रिपूत्सवम्लानं प्रमोदं ददते रणाः । तदेनं विश्ववन्येन प्राप्स्यामि व्रतवर्मना ॥ ८५ ॥ राजशमरसेनैव रचिताचमने मयि । मद्भुक्तोच्छिष्टनिर्मुक्तामिदानीं भुङ्व मेदिनीम् ॥ ८६ ॥ अथाह पार्थः किं भूप खं भूदानेन रक्षसि । भूलवोऽपि न मेने प्राकुलमुच्छेत्तुमेव किम् ॥ ८७ ॥
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३९४
काव्यमाला ।
पार्थेभ्यः शुचिवेध्यापि न देयोवींति शुद्धवाक् ।
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कृत्स्नां दत्त्वाद्य तां भग्नप्रतिज्ञः किं न लज्जसे ॥ ८८ ॥ तदुत्तिष्ठ मृधेनास्तु तव वा मम वा मही । मा भूद्विजयसंदेहो मयि त्वयि च जीवति ॥ ८९ ॥ अथाह कौरवः क्रुद्धः सर्वानप्येष हन्मि वः । एकैकेन पृथग्युद्धं विधाय गदया रयात् ॥ ९० ॥ तमथाह तपः सूनुस्तुष्टोऽहं तव शौर्यतः । इष्टेनास्त्रेण जित्वैकमप्यस्मासु भुवं भज ॥ ९९ ॥ अथाभ्यधत्त गान्धारीसूनुर्योऽङ्गीकरोति माम् । गदया स मया सार्धं समरेऽस्तु समीहितः ॥ ९२ ॥ इत्युक्त्वा स गदापाणिर्नदादुस्थितवानयम् । शोणाक्षः परिभुक्तश्रीर्जनार्दन इवार्णवात् ॥ ९३ ॥ सौभद्र इव युष्माभिर्नास्माभिस्त्वं निहन्यसे । इत्युक्त्वास्मै शिरस्त्राणं ददौ वर्म च धर्मजः ॥ ९४ ॥ येन ते रोचते युद्धमाह्वयस्व तमित्यथ । सत्याङ्गजे गदत्याह दैत्याहतिबुधः क्रुधा ॥ ९९ ॥ पुनर्द्यूतमिदं मूढ किमारब्धमिह त्वया । अयमाहूयते चेत्त्वां तन्महाभाग का गतिः ॥ ९६ ॥ त्रयोदश समाः पुंसि गदाभ्यासमयोमये । अयं चक्रे कृती तेन भीमोऽप्येनं जयेन वा ॥ ९७ ॥ अथोत्थायावदद्भीमो मैवं वद गदाधर ।
हराम्येष द्विषः प्राणान्क्षणेन गदयानया ॥ ९८ ॥ अथाहृयत तं गर्वी गर्जन्दुर्योधनो युधि । सोऽप्यधावत धीरेण ध्वनिना दारयन्दिशः ॥ ९९ ॥ तदा सरस्वतीतीरतीर्थचारी हलायुधः ।
तौ शिष्यौ नारदाद्बुध्वा युद्धस्थौ द्रष्टुमागमत् ॥ १०० ॥
१. 'अथ षार्मिस्तमाचष्ट तु' ख-ग. २. 'इत्युक्त्वाशु' ख-ग.
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९शल्यपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
__ ३९५ अभ्युत्थानमथो तेनुः कृष्णकुन्तीसुतादयः । चकोरा इव चन्द्रस्य रेवतीहृदयेशितुः ॥ १०१ ॥ स्यमन्तपञ्चके युद्धं सिद्धक्षेत्रे विभाति मे । इति दुर्योधनेनोक्ते सर्वे सत्यसुतादयः ॥ १०२॥ दक्षिणेन सरस्वत्यास्तीर्थे शयननामनि । गत्वा सीरिणमावृत्य रणं द्रष्टुमुपाविशत् ॥ १०३ ॥ (युग्मम्) आपत्य विरथावेव भीमदुर्योधनाविह । अतिष्ठतां गदापाणी मिथोर्जिततर्जितौ ॥ १०४ ॥ सुरसिद्धर्षिगन्धर्वैः कुतुकाद्रुतमागतैः । तौ दृश्यमानौ समरे समानौ चेलतुस्ततः ॥ १०५ ॥ उद्गारैरिव पीतारितेजसोर्गदयोमिथः।। तौ गंदाघातकीलाभिर्मासुरावभिजग्मतुः ॥ १०६ ॥ तर्जने वर्जने स्थाने चलने वलने भ्रमौ । तौ जातौ चित्रचारीभिः स्वारीनयनोत्सवौ ॥ १०७ ॥ वामदक्षिणगोमूत्रप्रभृतीन्मण्डलक्रमान् । तयोः क्रमोद्धतो रेणुरेवाचख्यौ दिवौकसाम् ॥ १०८ ॥ दुर्योधनेन गदया भीमः पार्थेऽतिताडितः। शक्रेणाशनिना ताय इव नैव व्यकम्पत ॥ १०९ ॥ भ्रामयित्वा गदां वेगादेष दर्शितदिग्भ्रमाम् । उच्चैर्व्यमुञ्चत्सामीरिस्त्वत्सुताय द्रुतोत्प्लुतः ॥ ११० ॥ त्वत्सूनुर्वञ्चयित्वैनां तं मूर्ध्नि गदयार्दयत् । दन्तिदन्ताहतशिरा नायं गिरिरिवाचलत् ॥ १११ ॥ गदा भीमेन मुक्ताथ क्षितिनाथेन वञ्चिता । पपात कम्पितक्षोणिम्यदब्धिकुलाचला ॥ ११२ ॥
१. 'अथाभ्युत्थानमातेनु: ख-ग. २. 'महाघात' ख-ग. ३. 'तक्ष्ण' क. ४. 'भ्रमिम्' ख-ग. ५. 'क्षोणिभ्राम्यदद्रि' ख-ग.
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काव्यमाला ।
अथ वक्षसि दक्षेण भीमो भूपेण ताडितः । आलिलिङ्ग क्षणं कम्पी मूर्ची मीलितलोचनः ॥ ११३ ॥ भीमेनाश्वस्य नृपतिस्ताडितः प्रपतन्भुवि । स्थितोऽसौ जानुहस्तायै रिपुं सिंह इवैक्षत ॥ ११४ ॥ हर्षात्पाञ्चालचक्रेषु संक्रोशत्सु क्रुधोत्थितः । दिकूलं कषनिर्घोषः शङ्ख भीममताडयत् ॥ ११५ ॥ रक्तारुणः कम्पमानः पवमानसुतः क्षणम् । रेजेऽर्कबिम्बवत्कालक्रीडासरसि संगरे ॥ ११६ ॥ आहत्य भुवि भीमेन पातितस्तव नन्दनः । अविलम्बितमुत्थाय सोऽपि भीममताडयत् ॥ ११७ ॥ स्वतोऽप्यधिक एवायं तदा मेने युधि ध्रुवम् । त्वद्भर्देवैरपि यतः पूजितः पुष्पवृष्टिभिः ॥ ११८ ॥ भीमे प्रमृज्य कीलालं पुनयुद्धार्थमुत्थिते ।
अधिकः कोलयोरित्थं पार्थप्टष्टो हरि गौ ॥ ११९ ॥ [मौतुः पुरोऽयं दिग्वासा धर्मभूवचसा व्रजन् । निषिद्धोऽथ मया युक्त्या पुष्पकावरणो गतः ॥ १२० ॥ मात्रेत्युक्तो विलोक्याङ्गं नेत्रबन्धविमुक्तया। हरिणा वञ्चितः किं त्वं रक्षणीयमुरुं क्षतात् ॥ १२१ ॥] बली भीमः कृती भूपः कृतिना जीयते बली । छलयुद्धेन भङ्क्त्वोरुं यदि भीमो जयत्यमुम् ॥ १२२ ॥ इति श्रुत्वोत्तरानृत्यगुरुः स्वामुरुमाहत । भीमे पश्यति हस्तेन नर्तयिष्यन्निव श्रियम् ॥ १२३ ॥ आदाय भीमस्तां संज्ञां प्रतिज्ञां खामथ स्मरन् । चचार विविधाश्चारीढेिषदूरुभिदामतिः ॥ १२४ ॥ तेनाशु मुक्तामुल्लङ्घय गदां त्वत्सूनुना हतः ।
संमूर्छितः स्थितः पाणिवक्षःस्तब्धगदः क्षणम् ॥ १२५ ॥ . १. 'रिपुसिंह इवैश्यत' ख-ग. २. 'पातयत्' ख-ग. ३. कोष्टकान्तर्गतः पाठः ख-ग-पुस्तकयो!पलभ्यते.
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९शल्यपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
तं मत्वाप्रहरिष्यन्तं नापपात पुनर्नृपः । निहन्यात्तदवस्थं चेत्तं न जीवेद्वकोदरः ॥ १२६ ॥ मूर्छन्ते तलमालोक्य तेनोर्ध्व प्रेरिता गदा । मुञ्चतस्तलमुत्पत्य नृपस्योरं बभञ्ज सा ॥ १२७ ॥ तदोत्पातसहस्रेण विश्वे(?)वैधुर्यधारिणि । 'पपात विचलत्पादः श्रीलतापादपो नृपः ॥ १२८ ॥ निकारान्विषदानादी नुन्नादी श्रावयंस्तदा । पदा भीमो स्पृशन्मौलिमेकादशचमूपतेः ॥ १२९ ॥ अस्मान्द्यूतच्छलाजित्वा कृष्णां गौरिति ये जगुः । धर्मयुद्धान्निहत्याद्य ब्रूमो गौरिति तान्वयम् ॥ १३० ॥ इत्युद्दामवचा भीमो वार्यमाणोऽपि धार्मिणा । पुन कृतिकेत्युक्त्वा भूपं मूर्ध्नि पदास्पृशत् ॥ १३१ ॥ रुदन्नथाह त्वत्पुत्रो धार्मिबन्धो विधिर्वली । पितृव्यपुत्रयोरासीद्यद्वैरं नौ कुलान्तकृत् ॥ १३२ ॥ किं रे छलेन जित्वापि स्पृशसि क्ष्मापमंहिणा । इत्युक्त्वाथ बली भीमं हली क्रोधादधावत ॥ १३३ ॥ कटेरधो न हन्तव्यं गदयेति विदन्नपि । अस्योरुं भग्नवान्भीमः प्रतिज्ञापालने कृती ॥ १३४ ॥ अस्योरुभने मैत्रेयमुनिशापस्तथाफलत् । इत्यादिभिस्तदा वाग्भिः शौरिणा बोधितो बलः ॥ १३५ ॥ पाण्डवाश्छलयोद्धारः कौरवा धर्मयोधिनः । इत्यस्तु ख्यातिरित्युक्त्वा क्रुद्धोऽथ द्वारकां ययौ ॥ १३६ ।। युद्धे धर्मेऽप्यधर्मेऽपि पाण्डवाः काममाप्नुयुः । इत्यूचेऽथ वचः कृच्छ्राद्धार्मिणाभ्यर्दितो हरिः ॥ १३७ ॥ दिष्ट्या दुष्टस्य दत्तोऽह्रिस्त्वया मूर्ध्नि रिपोरिति ।
स्तुतोऽथ भीमः पाञ्चालैर्धामिलालितपौरुषः ॥ १३८ ॥ १. 'मुस्तुत्य' ग. २. 'कारिणि' क. ३. 'ऋजु ख-ग. ४. 'भ्यर्थितो ख-ग.
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३९८
काव्यमाला |
तानथाह हरिः पापैः स्वैरेवायं हतः पुरा ।
भीमेनाद्य हतोऽस्त्रेण वाग्भिः किं हन्यतेऽधुना ॥ १३९ ॥ फिनिविष्ट भुवं दोर्भ्यामवष्टभ्योन्नताननः ।
भ्रू संकटललाटोsथ कुधाह त्वत्सुतो हरिम् ॥ १४० ॥ रे कंसदासदायाद स्वैरधर्मैर्वयं हताः । त्वद्दिष्टैर्धर्मयोद्धारो नाधर्मैः किं ता मृधे ॥ १४१ ॥ भीष्मो भूरिश्रवा द्रोणः कर्णोऽहमपि कैतवात् । निपात्येमहि युष्माभिः पापिभिः शोच्यविक्रमैः ॥ १४२ ॥ धर्मयुद्धतनूशेषीकृतारिः सर्वकृत्यकृत् । आजन्मसुखितः संख्ये कः परोऽहमिवापतत् ॥ १४३॥ इत्युक्तवति वीरेऽस्मिन्मुक्ताः पुष्पस्रजः सुरैः ।
स्वं शोचन्तस्ततः पार्थाद्विनिवासान्समासदन् ॥ ९४४ ॥ अथोत्तीर्णे सतूणास्त्रपार्थेऽन्तर्हितवानरः ।
साश्वः सरश्मिः सर्वाङ्गं दग्धः कृष्णोज्झितो रथः ॥ १४५ ॥ द्रोणकर्णालीढोऽग्रेऽधुना मदवधीरितः ।
दग्धो रथोऽयमित्यूचे पार्थपृष्टोऽच्युतस्तदा ॥ १४६ ॥ अथामृत्युर्जयो भूतिः सर्वे नस्त्वत्प्रसादतः ।
इति ब्रुवन्हरिं तत्र निवासानगृहीनृपः ॥ १४७ ॥ याम औघवतीमत्र श्रेयसेऽद्य सरखतीम् । इत्युक्त्वा शिबिरात्कृष्णोऽकृषत्सात्यकिपाण्डवान् ॥ १४८ ॥ अत्रान्तरे महार्तिर्मामूचे भूप भवत्सुतः । कृतं मे मायया पश्य पाण्डवैर्मानखण्डनम् ॥ १४९ ॥ शक्त्या संवलितश्चार्व्या चार्वाको यदि जीवति । स परिव्राट् सुहृद्वैरपारं मम गमिष्यति ॥ ११० ॥
तौ मातापितरौ वृद्धौ स्वसा मुग्धा च दुःशला । धन्योऽहं दिवि यास्यामि भविष्यन्ति कथंचन ॥ १५१ ॥
१. 'मृता' क. २. 'इहा' ख-ग.
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९शल्यपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
३९९ इत्यादिवादिना तेन विषमस्थेन भूभुजा । राजन्वच्मि किमात्मानं भूरुहोऽपि प्ररोदिताः ॥ १५२ ॥ अथाकर्ण्य व्यथाकीर्ण कथकेभ्यः कुरूद्वहम् । तीर्थ ते द्रौणिहार्दिक्यकृपाः शयनमाययुः ॥ १५३ ॥ तत्र नि ठिताङ्गस्तैरिलापतिरलोक्यत । स्वर्ग गन्तुमिव क्षोणिं प्रच्छन्नालिङ्गनैर्धनैः ॥ १५४ ॥ अथावदत्कृपीसूनुरश्रुधाराक्तलोचनः । पृथ्वीपतेनियमयन्विकीर्णान्मूर्धनान्मुहुः ॥ १५५ ॥ विश्वं विश्वंभरागोलं तोलयित्वा चमूभरैः । धिग्धिगद्यागतो राजन्नवस्थां कथमीदृशीम् ॥ १५६ ॥ संव्यज्यथा यथाकामं चामरैर्यः पुराध सः । त्वं मरुद्भिः स्फुरत्केशः स्थलानां चामरीकृतः ॥ १५७ ॥ स्पृष्टां हिणापि या न प्राग्दुर्भगेव महीपते । सुभगामिव सर्वाङ्गमालिङ्गस्यद्य तां महीम् ॥ १५८ ॥ तवार्कस्य च तेजोभिः स्पर्धया तपसो मिथः । यत्पुरा प्राविशन्मध्यं छत्रं कुत्र तदद्य ते ॥ १५९ ॥ अलङ्घत भवान्वाहैयाँ मरुत्तरलैः पुरा । साद्य त्वां लङ्घते भूमिभूमिनाथ रजःकणैः ॥ १६० ॥ कुम्भिकुम्भौ स्पृशन्कुम्भस्तनीभिर्वीक्षितो रुषा। यः पुरा स शिवाभिस्त्वं क्ष्मां गतो वीक्ष्यसे मुदा ॥ १६१ ॥ क्षणं गीतिविरक्तेन चक्रचीत्कृतिकौतुकात् । पुरावाहि रथो येन सं शृणोषि शिवारुतम् ॥ १६२ ॥ इतस्ततः स्फुरन्वीरैरुक्तो जीवेति यः पुरा । उच्यसे स म्रियस्वेति पलादैः स्वस्वभाषया ॥ १६३ ॥ दिने दानभरश्रान्तो विश्रान्तः स्त्रीकुचेषु यः ।
स ते हस्तः क्षितौ वेल्लन्न विश्राम्यति संप्रति ॥ १६४ ॥ १. 'अवीज्यत' क. २. 'रात्रौ च' ख-ग.
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काव्यमाला।
क्षितौ पतन्मुहुर्बाहुमूर्धानं विधुवन्मुहुः । मृगन्सारं मुहुश्चक्षुर्जगादाथ कुरूद्वहः ॥ १६५ ॥ दिष्ट्या साम्राज्यमासाद्य स्वविनाशभिया भुवम् । क्वापि प्रत्यर्थिनां नाहमर्थिनां च पराङ्मुखः ॥ १६६ ॥ दिल्या कलावसुस्थानदानेन सततं मया । चक्रिरे परमप्रीताः सज्जना दुर्जनाश्च ते ॥ १६७ ॥ परं प्रति भयोल्लासं बिभ्रद्भिरनिशं मया । दिष्ट्या धीरैश्च वीरैश्च सह . गोष्टीरसः कृतः ॥ १६८ ॥ शुभवत्सकलोत्साहा दिल्यानुसमयं मया। भवार्णवमहानावो गावो विप्राश्च पूजिताः ॥ १६९ ॥ लब्धं भीमस्य सांमुख्यात्कुरुदेशव्यवस्थितम् । दियाभूदुज्ज्वलं राज्यकरणं मरणं च मे ॥ १७० ॥ दिश्या पुण्यप्रदा ब्रह्मकेशवेशा इव त्रयः । महाक्षयेऽपि जीवन्तो भवन्तो वीक्षिता मया ॥ १७१ ॥ तन्मास्स कुरुत क्षत्रोत्साहनिर्वाहशालिनः । शोकं लोकंपृणाशेषचरितस्य मृतस्य मे ॥ १७२ ॥ इत्युक्त्वा मौनिनि क्षोणीपतौ रोषारुणेक्षणः । पिंषन्करं करेणाह रौद्रिः साहसिकाग्रणीः ॥ १७३ ॥ दुःखाय माप न तथा वधोऽप्यनुचितः पितुः । यथाद्य त्वदवस्थेयं मम मर्माणि कृन्तति ॥ १७४ ।। तदद्य पञ्च पाञ्चालान्पञ्च यज्ञसुतासुतान् । पाण्डवान्पञ्च पञ्चत्वं नयाम्यायान्ति चेत्पुरः ॥ १७५ ॥ तदा दश दिशः सर्वा नादयन्हर्षनिस्वनैः । यथा यामि पृथासूनुपृतनानाशमानसः ॥ १७६ ॥ इत्याकर्ण्य नृपः प्रीतः कृपमादिश्य तत्क्षणम् ।
सरस्वतीजलेनामुं सैनापत्येऽम्यषेचयत् ॥ १७७ ॥ १. 'दिष्टयास्तदु' ख.
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९शल्यपर्व-१सर्गः) बालभारतम् ।
४०१ क्ष्मापसिंहमथालिङ्गय सिंहनादनदन्नभाः । दक्षिणाभिमुखं द्रौणिः सहार्दिक्यकृपोऽचलत् ॥ १७८ ॥ तरणौ वरुणावासं याते तदुदयेषिणः । शिबिरस्य समीपेऽमी गैत्वा तस्थुर्वने धने ॥ १७९॥ श्रुत्वेति संजयाद्भूपं गान्धारी च शुचातुरौ । प्रतिबोधयितुं व्यासे समासेदुषि तत्क्षणम् ॥ १८० ॥ (युग्मम्) तयोः शापभयादेत्य पार्थेशप्रेरितो हरिः । गृहीत्वा नृपतेः पादावरुदद्रोदयन्सभाम् ॥ १८१ ॥ अथोत्थाय कृती कृत्वा शौचमूचे जनार्दनः । गान्धारी धृतराष्ट्रं च वचोभिर्दुःखगद्गदैः ॥ १८२ ॥ प्रकृष्टे दैवदृष्टेऽस्मिन्हन्त जातेऽन्वयक्षये । अत्यक्तधर्मा युवयोः क्रोधपात्रं न पाण्डवाः ॥ १८३ ॥ युद्धोद्यते सुते तस्मिन्याचमाने जयाशिषम् । युवाभ्यामेव गदितं यतो धर्मस्ततो जयः ॥ १८४ ॥ युष्मदाज्ञा कृतः पार्थो द्रष्टव्याः पुत्रवत्ततः। मुहुर्बुवाण एवेदमुदस्थात्सहसा हरिः॥ १८५ ॥ निशायुद्धेऽस्ति धीद्रोणेस्तत्रातुं यामि पाण्डवान् । एवं ब्रुवन्सुतान्पाहीत्युक्तो राज्ञा हरिययौ ॥ १८६ ॥ व्यासेऽप्याश्वासनावाचश्वञ्चयित्वा तिरोहिते ।।
ज्ञातुं रजनिवृत्तान्तं संजयं प्राहिणोन्नृपः ॥ १८७ ॥ तानि स्मरन्कृपकपीश्वरसिद्धसिन्धुसूनुप्रबोधवचनान्यवधीरितानि । दुर्योधनप्रधनपातविमुह्यमानबुद्धिकृति न धृतराष्ट्रनृपः प्रपेदे ॥१८॥
भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितेः ___ पादाजभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । शोभाशालिनि बालभारतमहाकाव्ये तदेकाक्षरध्यानाधानमहाफले च नवमं शल्यस्य पर्वागमत् ॥ १८९॥
इति नवमं शल्यपर्व (सगदायुद्धम् ।) १. 'तदुभये' ख. २. 'तस्थुर्गत्वा विनद्य ते' ख-ग. ३. 'इति संजयवाचातौं' ख-ग. ४. 'नृपं च तौ' ख-ग.
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काव्यमाला |
सौतिकपर्व |
प्रथमः सर्गः ।
इतश्च व्योममानेन वर्धमाने वटे स्थिताः । निशि द्रौण्यादयो निद्रामद्रौणी पुनरापतुः ॥ १ ॥ अनिद्राणः स्वयं द्रौणिर्द्रागिरिद्रोहचिन्तया । चिरं बभ्राम कान्तारचक्रे कौम्भिकचक्रवत् ॥ २ ॥ एष वृक्षशिखा सुप्तं घूकेनैकेन केनचित् । निगृह्यमाणं साक्रन्दं काकलोकमलोकत ॥ ३ ॥ समिति द्विषतो जानन्दुर्जयानेकको बहून् । अथायं तद्वधोपायं तद्वदेव व्यचिन्तयत् ॥ ४ ॥ रयाञ्जागरयित्वा तु सोऽयं हार्दिक्यमातुलौ । सौप्तिकेन द्विषः सुप्तान्हन्मीत्यवददुन्मदः ॥ १ ॥ कृपोऽप्यूचे द्विषः सुप्तान्गुप्तान्न कवचायुधैः । निघ्नन्निर्विघ्न एव स्यान्नरकस्यातिथिर्नरः ॥ ६ ॥ तत्क्षत्रधर्ममाश्रित्य कर्मसाक्षिणि साक्षिणि । अरातीन्पातयिष्यामो यास्यामो वैरपारताम् ॥ ७ ॥ श्रमविद्रावणीं निद्रामेव सेवामहेऽधुना । आपृच्छय धृतराष्ट्रादीन्यामः प्रातररातिपान् ॥ ८ ॥ कृत्येषु हि स्फुरद्वृद्धाङ्कुशः कुशलवान्पुमान् । इह वैधर्म्यदृष्टान्तः क्षितिकान्तः सुयोधनः ॥ ९ ॥ अथ क्रोधप्रबोधातिव्यक्तरक्तविलोचनः । निश्वसन्विश्वरौद्रोक्तिरूचे शारद्वतीसुतः ॥ १० ॥ भीष्म भूरिश्रवस्तात कर्णभूपानधर्मतः । तेषां हतवतां हन्त हतौ को धर्ममीक्षते ॥ ११ ॥ स्मरतः समरोत्सङ्गे तालघातमधर्मतः ।
मम श्रमश्च निद्रा च कुतोऽस्तु भवतोरिव ॥ १२ ॥
१. 'थ' ख-ग. २. 'तिषु' ख ग ३. 'तथा तात' ख-ग.
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१०सौप्तिकपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
भुजाभाजां प्रतिजैकपालनं धर्मपालनम् । नस्तद्वधे प्रतिज्ञाते किं प्रष्टव्या जरन्नराः ॥ १३ ॥ अधुनापि ततो हन्मि निशि तानिशितायुधः। किं मे धर्मैरिति प्रोच्य प्रचचाल रथेन सः ॥ १४ ॥ इति प्रतिज्ञया यान्तं तन्तावप्यनुजग्मतुः । जन्तोः कर्मपरीपाकमिव बुद्धिक्रियान्वयौ ॥ १५ ॥ अथैत्य शिबिरद्वारि महाभूतं प्रभूतदृक् । असृमिश्रं महाकायं दोनिकायस्थिरायुधम् ॥ १६ ॥ दृडियद्भरिभीमास्त्रं हरि(१)वक्रोत्थितानलम् । रुण्डोपवीतं तेऽपश्यंश्चकिताः कृत्तिचीवरम् ।। १७ ॥ (युग्मम्) रत्नदीप्ताहिकेयूरे सूर्येन्दुसमतेजसि । द्रौणिस्तत्राफलीभूतशस्त्रपातो व्यचिन्तयत् ॥ १८ ॥ उल्लङ्घय कृपहार्दिक्यौ वृद्धौ स्वश्रद्धया स्फुरन् । एतामापदमाप्तोऽहं महेशानं श्रयेऽधुना ॥ १९ ॥ इति ध्यात्वा हुताशे खं जुहोमीति स्तुतो हरः । तेनाग्रे वीक्षितं चाग्निकुण्डं कल्याणवेदिकम् ॥ २० ॥ निःशङ्कशंकरध्यानो निर्यद्भूतततौ ततः। कार्यसिद्धिपुरद्वारीवाग्निकुण्डेऽत्र सोऽविशत् ॥ २१ ॥ स पुरारि पुरोऽपश्यत्ततः किमपि नापरम् । अथ प्रीतिभरस्मेरमुखोऽभाषि स्मरद्विषा ॥ २२ ॥ धर्मसूनुधरित्रीशचमू रक्षितुमक्षताम् । वत्स माया मयैवेयं चक्रे चक्र्युपरोधतः ॥ २३ ॥ सत्त्वेनानेन ते प्रीतः संप्रत्येव रिपूञ्जय । इत्युक्त्वास्मै हरो जैत्रं दत्त्वा खङ्गं तिरोदधे ॥ २४ ॥ १. 'तत्तद्वधे' ख-ग, २. 'चक्रो' क. ३. 'ड्रमततौ क. ४. 'तश्चमू संप्रत्यम जय ख-ग.
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४०४
काव्यमाला।
जनो निर्यन्निधात्यो वामित्युक्त्वा भोजमातुलौ । सैन्यस्य द्वारि मुक्त्वान्तरद्वारा द्रौणिराविशत् ॥ २५ ॥ उत्थाप्याङ्गिप्रहारेण सुखं सुप्तं मखात्मजम् । उत्तिष्ठन्तं कचाग्रेषु क्रोधोग्रः सोऽग्रहीदमुम् ॥ २६ ॥ शस्त्रैर्नहीति जल्पन्तं मदस्त्राणि गुरुद्रुहम् । न स्पृशन्तीत्युदीर्णोक्तिः पशुवत्तं जघान सः ॥ २७ ॥ हत्वोत्तमौजसं तद्वदेव द्रौणिर्गतो रथम् । तध्यानैर्धावतो वीरान्रुद्रास्त्रेण न्यपातयत् ॥ २८ ॥ युधा मन्यु युधामन्युं धृत्वा धावन्तमुद्धतम् । गदोन्मुचमंशस्त्रेण रथोत्तीर्णः क्रुधावधीत् ॥ २९ ॥ बहूनपि मुहूर्तेन सुप्तानेवावधीद्भटान् । गन्धसिन्धुरगन्धर्ववृन्दानिव स खड्गभृत् ॥ ३०॥ पञ्चापि द्रौपदीपुत्रान्धावतो दुर्धरायुधान् । स जघानासिना तौ च शिखण्डिजनमेजयौ ॥ ३१ ॥ द्रुपदस्याथ पुत्राणां पौत्राणां सुहृदामसौ । प्रभद्रकाणां मत्स्यानामपि चक्रे महाक्षयम् ॥ ३२ ॥ दिग्जये ज्वालयित्वाग्निं तौ तु द्वारि स्वयं स्थितौ । जन्नतुः कृपहार्दिक्यौ भयतो निर्यतो भटान् ॥ ३३ ॥ वहिना तेन ताभ्यां च दह्यमानाश्चमूचराः । को हन्ति किमिदं हन्तेत्याक्रन्दं चक्रुरुच्चकैः ॥ ३४ ॥ रक्तस्रग्लेपना रक्तवाससं रक्तदृङ्मुखीम् । काली पात्रकरां नाशकरी पाशेन देहिनाम् ॥ ३५ ॥ कालरात्रिमलोकन्त हन्यमानास्तदा भटाः । द्रौणाङ्गजस्य कल्पान्तरुद्रस्येव पुरश्वरीम् ॥ ३६ ॥ (युग्मम् ) आयुधादि विनाकृत्यायुक्तं घ्नन्तं कृपीसुतम् । वीराः वनेषु तेऽपश्यन्वप्नस्तु फलितं मुँदा ॥ ३७॥ १. 'मथास्त्रेण रथोत्तीर्णे ख. २. 'पाशकरां' ख-ग. ३. 'तदा' ख.
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१० सौप्तिकपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
प्राग्भिया हरिपार्थानां स्वप्ने स्वप्ने न्वहं हताः । ते वीरा द्रौणिकृत्याभ्यां प्रत्यक्षं तु तदुज्झिताः ॥ ३८ ॥ कालरात्रिपरीवारपिशाचपलभुक्चमूः । देहभाजस्तदाखादज्जीवतोऽपि मृतानपि ॥ ३९ ॥
इति निःशेष्य तां सेनां शेषे यामद्वये निशः । ते त्रयोऽप्यमिलन्प्रातः प्रीताः प्रोक्तमिथः कथाः ॥ ४० ॥ गत्वाथ कौरवाधीशं निःसंज्ञं रक्तभुङ्मुखम् । रुरुदुः परितः स्थित्वा शुशुचुश्चास्य तां दशाम् ॥ ४१ ॥ ऊचुश्च नृप यद्यस्ति संज्ञा शृणु ततः प्रियम् । पाण्डवाच्युतसैनेयशेषाः सर्वे हता द्विषः ॥ ४२ ॥ तान्प्रियोक्त्या नृपोऽप्यात्तसंज्ञः प्राह वहन्मुदम् । न भीष्मद्रौणकर्णैश्च यद्भवद्भिः कृतं मम ॥ ४३ ॥ प्राणान्प्रीतोऽधुना मुञ्चे स्वर्गे सङ्गोऽस्तु नः पुनः । इत्युक्त्वाभूद्व्यसुर्भूषस्तमथालिङ्गय ते ययुः ॥ ४४ ॥ अथ पार्थमिया भोजः खदेशं हास्तिनं कृपः । व्यासाश्रमं कृपीसूनुर्गन्तुमैच्छद्दिनोदये ॥ ४९ ॥ सौप्तिकस्य कथायुक्ति प्राणमुक्तिं च भूपतेः । आख्यातुं धृतराष्ट्राय संजयोऽप्यचलद्दूतम् ॥ ४६ ॥ अथेदं कृतवर्मास्त्रान्निःसृतो निशि दैवतः । आख्यन्मखभवक्षत्ता सौप्तिकं कर्म धार्मये ॥ ४७ ॥ तच्छ्रुत्वा मूर्छितः कृष्णानुजभोजैर्धृतः पतन् । संज्ञां प्राप्यावदद्भूपो निःश्वसन्नश्रुमिश्रदृक् ॥ ४८ ॥ अस्माकं धिग्जयोऽप्येष जज्ञे स्वक्षयहेतुकः । शोच्यो लोकेषु वेसर्या इव पुत्रोद्भवोत्सवः ॥ ४९ ॥ अधारिदलनानन्ददुग्धाब्धौ स्थास्यति ध्रुवम् । धिग्भ्रातृपुत्रशोकातिपङ्किले द्रुपदाङ्गना || १० ||
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काव्यमाला ।
इत्युक्त्वा नकुलं कृष्णानयनाय निदिश्य सः । राजा स्वयं मृताशेषयोधमायोधनं ययौ ॥५१॥ वीक्ष्य वीरान्हतान्राजा मूर्छन्नाश्वासितोऽनुजैः । कृष्णां प्राप्तामुपप्लव्याद्वीक्ष्य भेजेऽधिकां शुचम् ॥ १२ ॥ तं क्षयं वीक्ष्य मूर्छन्ती भीमेनाश्वासिता तदा । कृष्णा साह नृपं क्षुण्णसुतो भुव भुवं मुदा ॥ १३ ॥ दर्शयिष्यसि चेद्रौणिं हत्वा मे तच्छिरोमणिम् । ततो भुञ्जेऽहमित्युक्त्वा सेयं प्राय उपाविशत् ॥ १४ ॥ बोध्यमानाथ भूपेन सा क्रुधा माह मारुतिम् । मानिन्क्षत्रिय कोटीर दुःखात्रायस्व मामिति ॥ ५५ ॥ इत्युक्तः कान्तया भीमस्तूर्णं नकुलसारथिः । हन्तुमुद्दामधीमानमश्वत्थामानमन्वगात् ॥ ५६ ॥ अथोचे पार्थिवं विष्णुः फाल्गुनाय गुरुः पुरा । ददौ ब्रह्मशिरोत्रं तु क्रूराय द्रौणये न तु ॥ १७ ॥ भवत्सु वनयातेषु द्रौणिना क्रूरचेतसा ।। पुरी द्वारावतीमेत्य ततोऽहं चक्रमर्थितः ॥ ५८ ॥ गृहाणेति मयोक्तोऽथ नायं वामेन पाणिना । न दक्षिणेन न द्वाभ्यां चक्रोत्क्षेपे क्षमोऽभवत् ॥ १९ ॥ अथोचे मामयं चक्र ग्रहीतुं स्यां यदि क्षमः । ततस्त्वामेव युध्येय बुद्धिरीहङ्ममाभवत् ॥ ६०॥ यच्छ ब्रह्मशिरोत्रं तच्चक्रोत्क्षेपाक्षमाय मे । इदमुक्तवते तस्मै तदस्त्रं प्रददे मया ॥ ६१ ॥ स्वभावभीरुः संरम्भी क्रूरात्मास्त्रेण तेन सः । अयोज्येनापि मानव्ये द्रौणिर्भीमं हनिष्यति ॥ ६२ ॥ तदितो रक्षणीयोऽद्य भीम इत्युक्तिमान्हरिः । भूपार्जुनौ समारोप्य रथे सामीरिमन्वगात् ॥ १३ ॥
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१० सौप्तिकपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
व्यासाश्रमं गताः सर्वे ततो द्रौणिमलोकयत् । धृताक्तवाससं नीराभ्यासस्थं व्याससंनिधौ ॥ ६४ ॥ तं निरीक्ष्य किरीट्यग्रजन्माधावत्कुधान्धितः । रे क्रूर रे ब्रह्मबन्धो तिष्ठ तिष्ठेति च ब्रुवन् ॥ ६५ ॥ द्रौणिर्भयमद्रौणिर्वीक्ष्य तं युद्धदीक्षितम् । निरस्त्रो नीरथोऽगृह्णादिषीकां वामपाणिना ॥ ६६ ॥ तत्र ब्रह्मशिरोत्रस्य मन्त्रन्यासं विधाय सः । एनामपाण्डवादमुक्तवानाशु मुक्तवान् ॥ ६७ ॥ अथाभ्यधान्मधुध्वंसी बिभ्यद्वीभत्सुमुत्सुकः । पार्थ पार्थ यतस्वाशु मा स्याद्विश्वमपाण्डवम् ॥ ६८ ॥ रथादथावतीर्यैन्द्रिः कृतदेवगुरुस्मृतिः ।
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स्वस्त्यस्तु गुरुपुत्राय सहैभिः पाण्डुसूनुभिः ॥ ६९ ॥ उदग्रमिदमेवास्त्रमस्त्रेणानेन शाम्यताम् । इत्युक्त्वातिशुचिर्भूत्वा परमास्त्रमयोजयत् ॥ ७० ॥ ( युग्मम् ) ज्वालालीजटिले तत्र ज्वलितेऽद्वये दिवि । तदुत्तुङ्गस्फुलिङ्गान्तः पतङ्गोऽपि न लक्षितः ॥ ७१ ॥ क्षयेऽपि द्वादशैव स्युरर्काः किं तेऽद्य कोटिशः । तयोः स्फुलिङ्गानालोक्य रुद्राद्यैरित्यचिन्त्यता ॥ ७२ ॥ रौद्रौर्वान्निसमे शस्त्रे ते विलोक्य त्रिलोक्यपि । कल्पान्तशङ्कयेवाप कम्पसंपातमद्भुतम् ॥ ७३ ॥ वीक्ष्यात्म मित्रमत्राग्निं दूरतः क्रूरतां गतम् । क्रूरतां वायवोऽप्याशु कर्करीकृतपर्वताः ॥ ७४ ॥ और्वाग्निमिव खे वीक्ष्य तदस्त्रद्वयजं महः । उच्चकैरुच्चचालाब्धिः क्रोडीकर्तुमिवाशु तत् ॥ ७९ ॥ क्षुम्यदब्धित्रुटच्छैलस्फुटद्ब्रह्माण्डखण्डभूः । इहाप्रसरे क्रूरः कोऽपि कोलाहलोऽभवत् ॥ ७६ ॥ १. 'भयभ्रमद्रौणि' ख.
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४०८
काव्यमाला |
तदोचुर्मुनयो धर्मज्ञौ युवां द्रौणिपाण्डवौ । स्वं स्वमस्त्रममानुष्यक्षेप्यं संहरतं द्रुतम् ॥ ७७ ॥ कलिप्रियोऽपि कल्पान्तशङ्की व्यासानुगो मुनिः । तदा तयोः पपातान्तर्निषेद्धुं युद्धमस्त्रयोः ॥ ७८ ॥ तावन्तर्वीक्ष्य पार्थोऽस्त्रं संजहार महारथात् । मैतयोर्भूत्तपोलेशक्लेशोऽस्य स्तम्भनादिति ॥ ७९ ॥ विजित्यैव तपस्तेजस्तीव्रताभिर्महाव्रतौ । तदस्त्रं तु कृपीसूनोः स्तम्भयामासतुर्द्रुतम् ॥ ८० ॥ प्रति प्रतिपती स्माह साहसाब्धिस्ततोऽर्जुनः । सृष्टं मयास्त्रमस्त्रस्य ध्वंसाय न कृपीभुवः ॥ ८१ ॥ मयास्त्रेऽस्मिन्हतेऽस्त्रेण सैष नः संहरिष्यति । तदस्मासु च लोकेषु युद्धतं तद्विधीयताम् ॥ ८२ ॥ अथचतुः सुतं कृप्यास्तौ मुनी शस्तया गिरा । द्विजोत्तम किमारब्धं त्वया लोकद्वयाहितम् ॥ ८३ ॥ पार्थेऽप्यमानुषक्षेप्यं क्षिप्तं ब्रह्मशिरस्त्वया । तस्यैव प्रतिघाताय परमास्त्रं नरोऽसृजत् ॥ ८४ ॥ स्याच्चेद्ब्रह्मशिरोस्त्रस्य परमास्त्रेण च क्षयः । कथं छुटियति क्रूरकर्मा क्रुद्धादृकोदरात् ॥ ८१ ॥ अस्त्रं संहर संहर्षसंरम्भाभ्यां समन्ततः । पश्यास्मद्दर्शनादेतद्धृतमस्त्रं किरीटिना || ८६ ॥ पार्थेभ्यश्च शिरोरत्नं स्वजीवितमिवार्पय । तत्क्रूर कार्यकर्तापि जीवन्नेभिर्विमुच्यसे ॥ ८७ ॥ द्रोणाङ्गभूर्जगादाथ तौ मुनी विनयानतः । अयुक्त्याघाति भीमेन भूय इत्यस्त्रमीरितम् ॥ ८८ ॥ नाधुना साधु नाथौ मे विरोधविधुरं मनः । नित्यानामपि वैराणां युष्मदीक्षणमौषधम् ॥ ८९ ॥
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१० सौप्तिकपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
किंतु शूरो गुरौ भक्तः सत्यब्रह्मत्रतोऽर्जुनः । नाहं तद्वदतो नेदमस्त्रं संहर्तुमीश्वरः ॥ ९० ॥ योsaमेतदसह्मचर्य सृट्रैव संहरेत् । एतेन सानुबन्धस्य मूर्धा तस्याशु लूयते ॥ ९१ ॥ अमोघमस्त्रमीदृक्षमीदृक्षक्षयशान्तये ।
अभिमन्युप्रियायास्तद्गर्भे भ्रूणे पतत्वदः ॥ ९२ ॥ रक्षोदानवदिव्यास्त्रव्याधिविघ्नादिजं भयम् ।
दलयत्याशु तेनायं न देयः स्याच्छिरोमणिः ॥ ९३॥
यच्छामि पितृशिष्येभ्यस्तथाप्येनं भवद्गिरा ।
अयं प्रलयसंरम्भः समन्ताच्छाम्यतामिति ॥ ९४ ॥ ( युग्मम् ) एवमेव विधेहीति मुनिभ्यां गदितस्ततः । तदस्त्रमुत्तरागर्भे प्रत्यमुञ्चत्कृपीसुतः ॥ ९९ ॥ अथावदगदापाणिर्द्रौणि भ्रूणो न दह्यताम् । क्षीणस्य कुरुवंशस्य कुलतन्तुर्भवत्वयम् ॥ ९६ ॥ व्रती विप्रः पुरा प्रोचे वैराटीं प्रति यत्तव । परिक्षीणेषु कुरुषु परीक्षिद्भविता सुतः ॥ ९७ ॥ तद्विजेश द्विजस्यास्य तद्वचो नान्यथा तथा । त्वत्पितृप्रियशिष्यस्य कुलमेतच्च वर्धताम् ॥ ९८ ॥ द्रौणिरूचेऽथ मा पक्षपाताद्वद गदाग्रज । अमोघेण मदस्त्रेण सैष भ्रूणोऽस्तु भस्मसात् ॥ ९९ ॥ कृष्णोऽप्यूचे विमुञ्चास्त्रममोघं भ्रूणभित्तये । अहं तु तपसा स्वेन जीवयिष्यामि तं सुतम् ॥ १०० ॥ भवान्पुनरपि क्रूरकर्मनिर्मितिपातकी ।
त्रीणि वर्षसहस्राणि चरिष्यत्यजने वने ॥ १०१ ॥
असहायो मलक्किन्नः पूतिशोणितगन्धभृत् ।
न प्राप्स्यसि क्वचित्कांचित्कस्यचित्संविदं पुनः ॥ १०२ ॥
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काव्यमाला।
ऊचे सत्यवतीसूनुः सत्यमस्तु हरेर्वचः । द्रौणे यतस्त्वया क्रूरं कर्माशूरोचितं कृतम् ॥ १०३ ॥ इति शप्तो मणि द्रौणिर्दत्त्वा तेभ्यो वनं ययौ। तेऽप्यगुद्रौपदी व्यासनारदाभ्यां युता द्रुतम् ॥ १०४ ॥ अथ रत्नं नभोरत्नसंपन्नं द्योतयन्पुरः । सामीरिराज्ञया राज्ञः कृष्णामभ्यधित स्मितः ॥ १०५ ॥ क्षत्रगत्या जितोऽस्त्रज्ञस्त्याजितोऽस्त्रशिरोमणिः । गुरोरङ्गज इत्यङ्ग न वगै गमितोऽद्य सः॥ १०६ ॥ अथ मुदमुदयन्ती द्रौपदी माह मान्यो
गुरुरिव गुरुसूनुर्युक्तमत्याजि जीवन् । मणिममुममराणां लोभकं शोभिताशं
निजशिरसि रसायाश्चित्तनाथो निधत्ताम् ॥ १०७ ॥ कुनयकुरुकुटुम्बच्छेदनात्खेदनाशः
समजनि मम जज्ञे द्रौणिमर्षाच्च हर्षः ।। अहमिति हरिमैव्यात्त्वत्रियत्वात्कृतार्थो
जगति सुगतिभाजो नैव शोचामि बन्धून् ॥ १०८ ॥ ते पुत्रास्तव बन्धवस्तव च ते न द्रोणिना जन्निरे
तत्तुष्टेन हता हरेण महतामेषां न शोच्यं महः । इत्युक्ते मुरवैरिणा सुकृतभूपृष्टेन हृष्टिं परां
भेजेऽसौ निजवर्गवीरवरलाज्ञानेन यज्ञाङ्गजा ॥ १०९ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मताहस्थितेः
पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । वाणीवेश्मनि बालभारतमहाकाव्ये तदन्तगु
न्मेषप्रेषणभासि पर्व दशमं शान्ति ययौ सौप्तिकम् ॥ ११ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनाम्नि महाकाव्ये वीराङ्के नवमसगदायुद्धशल्यपर्वदशमसौप्तिकपर्वकीर्तनो नामाष्टत्रिंशः सर्गः ।
अनयोरेकसर्गेण शल्यसौप्तिकपर्वणोः । एकेन कल्पितान्यासञ्शतानि त्रीण्यनुष्टुभाम् ॥
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११ स्त्री पर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
स्त्रीपर्व |
प्रथमः सर्गः ।
छलयुद्धहृताहितो हरिस्तपसे मुक्त कलत्रपुत्रकः । अविशच्छुचि यन्मनस्तपोवनमृद्ध्यै स पराशरात्मजः ॥ १ ॥ स इतश्च जगाम संजयः कृतफूत्कारमहारवः सुरम् । हहहा प्रहताः स्म इत्यपि प्रलपन्भूपतिवेश्ममाविशत् ॥ २ ॥ अथ भानुमतीमुखस्नुषाविदुरादिखजनजान्वितम् । दयितायुतमेत्य संजयो नृपतिं गद्गदया गिरा जगौ ॥ ३ ॥ अहमन्वहमेत्य विप्रियं प्रियवर्गव्ययमभ्यधां तव ।
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अधुनाप्यहितं वदाम्यतः शृणु वत्रीकृतहृन्महीपते ॥ ४ ॥ द्रुपदात्मजपाण्डवात्मजव्रजयुक्तं गुरुजादिभिर्बलम् | हरिसात्यकि पाण्डवोज्झितं निशि हत्वाभिगतैर्निवेदितम् ॥ ९ ॥ अपमोहवशः स सौप्तिकं प्रियमाकर्ण्य लसन्मनाः प्रगे । तनयस्तव हर्षितो ययौ दिवमेकादशवाहिनीविभुः ॥ ६ ॥ ( युग्मम् ) इति कोपनपद्मपन्नगीगरलोभिप्लवकल्पया गिरा ।
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परिपेतुरुपेतमूर्छनाः क्षितिपीठे क्षितिवल्लभादयः ॥ ७ ॥ मुमुहुर्मुहुरुत्थिता मुहुर्मुहुरालप्य मिथोऽतिदैन्यतः । क्व नु यामि कथं भवामि किं करवाणीत्यरुदंस्तमाममी ॥ ८ ॥ प्रविकीर्णशिरोरुहां स्फुरत्परिकम्पां करुणप्रलापिनीम् । स्रवदखुदृशं सभामिमामथ शोको रसवत्तयास्पृशत् ॥ ९ ॥ धृतराष्ट्रसभेयमाविला घरणिस्फालितमौलिजा सृजाः । करुणस्य विलासकारणं शुशुभे पल्लविनी वनीव सा ॥ १० ॥ विधिपर्यनुयोगहोक्तिहृत्तटघातादिकविक्रियोज्झिता । अयि विस्मृतरोदकारणा प्ररुरोदेव सभासु निर्भरम् ॥ ११ ॥
१. 'वृद्ध्यै' क. २. जन्मशब्दवदस्य वेश्मशब्दस्यापि भवेदकारान्तत्वम्. ३. 'सहसा ते क्षितिवल्लभादयः' ख. ४. 'विस्मित' क.
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४१२
काव्यमाला।
विनिमीलितचक्षुषो नमच्छिरसः स्वासनतो नताङ्गकाः। प्रसृतांह्रियुगा लुठद्भुना रुरुदुर्मन्दमचेतना जनाः ॥ १२ ॥ अथ विस्तृतवक्त्रकन्दरप्रविशहाजलसेचनादिव । अतिशोकविमूर्छितं मनः कथमप्याप नृपस्य चेतनम् ॥ १३ ॥ विदुर घुगतात्मजन्मनस्त्वमनाथस्य ममैकको गतिः।। परिपालय मामिति ब्रुवन्स धरापतिराप कश्मलम् ॥ १४ ॥ पुनरातमना जनाधिपः प्रहितस्त्रैणसुहृज्जनो लपन् । विदुरेण च संजयेन च प्रियया च प्रतिभाजयञ्शुचम् ॥ १५ ॥ अपि भूरिचमूभैरोचिताः किमपि स्वल्पकसैन्यशालिषु । हहहा प्रहता मैंदङ्गजा व्रणलेशोऽपि न पाण्डवेष्वभूत् ॥ १६ ॥ क स सैन्यभरः क्व तहलं सुहृदः सूतसुतादयः क ते । क भवाँश्च सुयोधनः क्षितौ क्षममन्यत्किमु भागधेयतः ॥ १७ ॥ कठिनं विधिना विनिर्मितं हृदयं वज्रमयं मम ध्रुवम् । तनयव्ययदुःखपर्वतव्रजपातेऽपि न ययदीर्यत ॥ १८ ॥ अथ भूपमिति प्रलापिनं प्रसभोल्लासितगद्गदस्वरः । परिधौतमुखो गम्बुभिः प्रतिबोधाय जगाद संजयः ॥ १९ ॥ किमु शोचसि बुद्धिलोचन स्फुटवेदागमशास्त्रतत्त्ववित् । तनयास्तव वीर वर्मना यदवापुः पदमैशमद्भुतम् ॥ २० ॥ विदुरोऽपि जगाद सादरं नृप शोकं प्रतिलोकवत्कृथाः । समुपेत्य कुतोऽपि कुत्रचित्पथिकाभेषु गतेषु सूनुषु ॥ २१ ॥ निगदन्ति च रूपमात्मनस्तनयानित्यपि मा शुचं कृथाः । क्क हतेतरपद्धतिर्बहूकृतरूपः शुचमेति मन्त्रवान् ॥ २२ ॥ अधिकाधिकवैभवोद्भवे नृप तेषां मुदितोऽसि सर्वदा । दिवमेषु गतेषु भूतलादधुना किं कुरुषे शुचं कृतिन् ॥ २३ ॥ तनया मम पाण्डवैः क्षता मतिरेषापि तवास्तु मा शुचे । निहता निजकर्मणैव ते भववर्ती स्वकृतैकभुग्यतः ॥ २४ ॥ १. 'मन्द्र' ख. २. अपि विस्मृत' क. ३. 'प्ररोचिताः' ख. ४. 'मतङ्गजा' ख.
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११स्त्रीपवे-१सगे:
बालभारतम् ।
तमथैत्य पराशरात्मभूः प्रतिबोधाब्धिसुधाकरोऽभ्यधात् । किमु मुह्यसि ते दिवं गताः सुखिनस्त्वां नृप न सरन्त्यपि ॥ २५ ॥ मृतयो हि भवानुचारिका बत जन्तुं भवनित्यबालकम् । गमयन्त्यमुमङ्कमङ्कतः कुरुते तन्ममतां मुधा जनः ॥ २६ ॥ अजनि स्वजनो न कस्य को न भविष्यत्यथवा भवभ्रमे । जगदेककुटुम्बिनो जनाः क्व विपन्ने जनयन्तु तच्छुचम् ॥ २७ ॥ इति मा कुरु शोकमुर्वरावर किंचाधमधीस्तवात्मजः । अवनाववतीर्णवान्कलेरयमंशः कमलासनाज्ञया ॥ २८ ॥ अहमिन्द्रसदस्यगां पुरा जगती तत्र गता जगौ सुरान् । विधिसंसदि कार्यमस्ति यत्प्रतिपन्नं तदुपास्यतामिति ॥ २९ ॥ अथ तां जगतीं विधि गौ वन लोकं लघुधात्रि धारय । धृतराष्ट्रसुतः सुयोधनस्तव कार्याणि करिष्यति द्रुतम् ॥ ३० ॥ दनुजावतरैनरैः कलेरवतारो बहुभिः सहायवान् । भवितैष समन्तपञ्चके निखिलक्षत्रियमृत्युकारणम् ॥ ३१ ॥ इति वेद्मि तवात्मनः कलिः कलिनिर्माणनिजापराधतः । सहितः स्वसहायमण्डलैः प्रलयं प्राप धराप मा मुहः ॥ ३२ ॥ इति गुह्यमवेत्य मुह्य मा भन धैर्य नृप धर्मवित्तम । त्वयि भक्तिपरो विमोहतस्तव जीविष्यति नापि धर्मसूः ॥ ३३ ॥ सुकृतज्ञ विधेर्विवर्ततो मम वाचापि निजानसून्धर । पितृधीः करुणां करिष्यति त्वयि धार्मिर्नृप पालयाद्य तम् ॥ ३४ ॥ इति वाङ्मतभाङ्महीपतिर्गतवत्याशु पराशरात्मजे । प्रचचाल समन्तपञ्चकं प्रति बन्धूनभिशोचितुं व्यसून् ॥ ३५ ॥ स इतश्च कृती युधिष्ठिरः परिदध्यौ गुरुनन्दनादिकाः । पुरनिःसृतमेत्य धीदृशं पृथगासन्निति मां चरा जगुः ॥ ३६ ॥ इयता समयेन तद्गतः कुरुवर्षान्तिकमेव नः पिता । अनुयामि ततस्तमङ्गजव्ययकोपी लघु मां शपत्यसौ ॥ ३७ ॥ १. 'अगाम्' इत्येतत्कर्तृभूतम्.
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४१४
काव्यमाला।
नृपतिनाकामिनीरुदिता तात्युपानमत ।
इति मङ्क्ष विचिन्त्य धर्मभूर्हरिसैनेयनिजानुजान्वितः । धृतराष्ट्रमुपेत्य तात ते सुतवैरी नमतीत्युपानमत् ॥ ३८ ॥ अथ कौरववीरकामिनीरुदिताकर्णनगद्गदस्वरः । नृपतिर्नतविष्णुसात्यकानुजनामानि पितुर्यवेदयत् ॥ ३९ ॥ तमथापरिरभ्य बुद्धिदृक्परिरब्धं बकशत्रुमाह्वयत् । बलवांस्तनयान्तकारिणं प्रहरिष्यन्भुजलीलयैव तम् ॥ ४० ॥ हरिणादित एव कारितस्तदभिप्रायविदायसोर्पितः । परिपीड्य चे वक्षसा पुमान्रभसागीमधिया विखण्डितः ॥ ४१ ॥ विनियुक्तसमग्रशक्तिना विधुरोऽसौ रुधिरं वमन्मुखात् । निपतन्भुवि मूर्छया रयादथ सूतेन धृतोश्वसत्क्रमात् ॥ ४२ ॥ अथ तद्दलनास्तमत्सरः प्रकटीभूतविवेकसंभ्रमः । हहहा किमघाति पाण्डवः स मयैवमित्यलोचनोऽरुदत् ॥ ४३ ॥ प्रणतोऽथ हरिस्तमभ्यधान्न स भीमः स महारि मा मुहः । छलितस्त्वमयःपुमर्पणादिह नागायुतशक्तिमान्मया ॥ ४४ ॥ इति वाक्श्रुतिहर्षितं हरिः कृतशौचं पुनराह धीदृशम् । अकृतेष्टवचाः स्वयं सुतानविषः कुप्यसि किं वृकोदरे ॥ ४५ ॥ अवधार्य निजापराधतः सुतवृन्दं हतमुर्वरावर । सुकृतज्ञ कृतं सुदुष्करं तदिदं नोऽनुमनुष्य सर्वथा ॥ ४६ ॥ इति वाचि जनार्दने जगौ धृतराष्ट्रः स्मयमानमानसः । सुतशोकभरेण धर्मतः प्रतपन्साध्वहमुद्धृतस्त्वया ॥ ४७ ॥ इतिगीरतिवत्सलोऽखिलानयमालिङ्गय विमत्सरस्ततः । विजयध्वमखण्डिताः परैरिति कल्याणमयीमुवाच गाम् ॥ १८ ॥ धृतराष्ट्रमतास्ततो गता लघु नन्तुं सुबलात्मजाममी । तपसस्तनयं तु सा शुचा परितप्ता परिशप्तुमैहत ॥ ४९ ।। तदवेत्य पराशरात्मभूषुधुनीस्पर्शशुचिटुंतागतः । सुबलस्य सुतां जगौ न गौः सति शापाय नृपस्य तन्यताम् ॥ १० ॥ १. 'तमथो' ख. २. 'विचक्षुषा' ख.
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१९ स्त्रीपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
तनयेन जयाशिषेऽर्थिता भवती या सुकृते जयं जगौ । कुटिलेऽद्य सुते हते नृपं किमु शप्तुं सति धार्मिमीहसे ॥ ११ ॥ सुबलस्य सुता ततोऽवदन्मम ते दुर्नयिनो हताः सुताः । विदधे पुनरानलिः सुयोधनदुःशासनयोरसद्वयम् ॥ १२ ॥ अथ पावनिराह निर्मितं यदकृत्यं जननि क्षमस्व तत् । अपराधपरानकि क्वचित्किमु माता तनुजाञ्जिघांसति ॥ १३ ॥ कृतया सदसि प्रतिज्ञया कुरुभूपस्य मयोरुराहतः । अधरस्तु न मे विलङ्घितो युधि दुःशासनरक्तधारया ॥ १४ ॥ अथ सक्रुधमाह सौबली क्व तपः सूनुरनन्तमत्सरः । समरे मम येन नन्दनोऽगमि नैकोऽपि कुलस्य तन्तुताम् ॥ ५५ ॥ अथ धर्मसुतः कृताञ्जलिः परिकम्पी पुरतः स्थितो जगौ । अयमस्मि सुतान्तकारिणं शप मां मातरुदात्तपातकम् ॥ १६ ॥ मम संहृतबन्धुपद्धतेरसुभिः पापकलङ्कपङ्किलैः । सुकृतावतरेण सेव्यतां तव शापत्रिदशापगोपमः ॥ १७ ॥ इति वाचि नृपे न सौबली किमपि स्माह विनिश्वसन्मुखी । स नमन्कुनखः पुनस्तयाजनि पट्टान्तरदृष्टिवीक्षितः ॥ ५८ ॥ तदवेक्ष्य भिया जयी ययौ हेरिपृष्टावपरेऽपि ( ? ) तत्रसुः । उदयद्दयया ततस्तया दधतो भीतिमतीव सान्त्विताः ॥ १९ ॥ तदनु प्रणिपत्य तां तयानुमता नेमुरुपेत्य ते पृथाम् । कुलनाशभुवां शोरपां वितरन्तीं प्रमदाश्रणे पदम् ॥ ६० ॥ मखजामथ सूनुशोकिनीमधिरोप्याङ्कतटे प्रबोध्य च । तनयैश्व तया च संयुता सुबलक्ष्मापसुतां पृथानमत् ॥ ६१ ॥ ऋतुजामथ सौबली जगौ किमु वत्से शुचमेषि पश्य माम् । विधिदृष्टमिदं समागतं गतबन्ध्वात्मजयोरिहावयोः ॥ ६२ ॥ नियतानियतेर्नियो गतस्तनुभाजां मृतिरेति किं तु ते ।
धुनीतरणे तथा रणे मरणेनापि न यान्ति शोच्यताम् ॥ ६३ ॥ १. ' रनून' क. २. 'हरिषष्ठाप्यपरे' ख; 'हरिप्रष्ठोऽप्यपरे' इति भवेत्.
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काव्यमाला।
इति बोधमयीमियं धियं दधती व्यासवितीर्णदिव्यहक् । समलोकत संगराङ्गणं पतितक्षत्रगणं यथा स्थितम् ।। ६४ ॥ धृतराष्ट्रयुधिष्ठिरादयस्तदनु व्यासगिरा रणाङ्गणम् । चलदाकुलवीरकामिनीकुलकल्लोलितशोकमासदन् ॥ १५ ॥ अथ वीक्ष्य पलादसंकुलं स्फुटचिदैर्वृतमङ्गिभिर्मतैः । रुददङ्गनमङ्गनं युधः सुबलक्ष्मापसुता हरिं जगौ ॥ ६६ ॥ मृगयस्व मुकुन्द कुञ्जरैर्धननीलैः कनकोज्वलैभेटैः ।। व्यसुभिर्वसुधा विभात्यसौ तिमिराकौशुसमीकभूरिव ॥ ६७ ॥ तरदास्यकरांहूयो रुचन्निह निम्नाः क्षितयोऽस्रपूरिताः । यमपानकृतेऽजवासितारुणमैरेयनिखातभाण्डवत् ॥ ६८ ॥ विमलातपवारणच्छलादिह राकाचयचन्द्रमण्डलैः । पतितेषु मुखेषु भूभुजां निजमित्रेष्विव मूर्छितं शुचा ॥ ६९ ॥ गलितैः शुशुभेऽत्र कुम्भिनां रदमुक्ताफलकेतनाञ्चलैः । भटनिर्दलिता सुहृयशस्तरुशाखाकुसुमच्छदैरिव ॥ ७० ॥ इह रक्तमये पयोनिधौ शिखिपत्रातपवारणैर्बभे । जलदैरिव पातुमागतैः क्वचिदुत्पातनियोगवृष्टये ॥ ७१ ॥ हतभूपतिवृन्दखण्डिताश्युतकर्तर्यसिचक्रकैतवात् । क्षतकङ्कणवेणिकुण्डलावलिमौज्झन्निह दिग्जयश्रियः ॥ ७२ ॥ त्रुटिताखिलसंधिनि स्थिता कवचे लूनवपुष्टया बभुः। क्रमुकद्रुमवल्करोपिता इव भोज्याय यमेन दोर्भूतः ॥ ७३ ॥ पतितैः कलितासिभिभृशं कनकाभैर्भुजशालिनां भुजैः । नकुलैधुतपन्नगैरिव प्रमदः कालसभासदां ददे ॥ ७४ ॥ यमकिंकरबालकननैनवशिक्षातरणाय सज्जिताः । इह तुम्बफलोच्चया इव क्षतजाब्धौ भटमौलयो बभुः ॥ ७९ ॥ इदमुल्लसितात्तमुच्चकैः स्थितमाभाति शताङ्गमण्डलम् । रथिनस्त्रिदिवालयं गतान्खयमन्वेतुमिवाहतोद्यमम् ॥ ७६ ॥ १. भोज्या यमकेन' ख.
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११स्त्रीपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
प्रविकीर्णपुटाजिनं बभाविह निखानकदम्बमुन्मुखम् । फैलसंचयनाय कोणपैः परितो भाण्डघटेव सजिता ॥ ७७ ॥ अवलोकय कृष्ण जिष्णवो जगतामैप्यवहन्त ये धुरम् । भुवि ते पतिता विधेर्वशाद्धिगहो यान्ति पलादखाद्यताम् ॥ ७८ ॥ प्रतिरोमपृषत्कमण्डलीपरिविद्धः परिदूरिताननैः । पिशितग्रसनाय जम्बुकैरयमाघ्राय विमुच्यते मुहुः ॥ ७९ ॥ भषणोऽस्य वपुष्यसावसृक्कपिशाभं पिशितस्य शङ्कया। शरशल्यमदन्क्षताननः स्वपलेनैव विगाहते मुदम् ॥ १० ॥ पतितस्य करेण बिभ्रतः शरमेकेन परेण कार्मुकम् । लघु दूरममुष्य यान्त्यमी चकिताः फेरवगृध्रवायसाः ॥ ८१ ॥ गमितः शतखण्डतामयं रिपुणा कोपपरेण मार्गणैः । मुदितेन समेत्य फेरुणा सकुटुम्बेन विभज्य भुज्यते ॥ ८२ ॥ अयमस्य दृशि क्षिपन्मुखं श्रुतिपाशे पंतितैककक्रमः । करटो विरटन्धुतच्छदः करटैः कैन रटद्भिरीक्ष्यते ॥ ८३ ॥ पिशितग्रसनात्ततृप्तयः कतिचित्क्रव्यभुजः पिबन्त्यमी । सुभटासिहतिद्विखण्डितद्विरदेन्द्रप्रकरो दरोदकम् ॥ ८४ ॥ पिशितार्थमुपागतैनिशाचरचनरवक्रतो धुताः । कुपिता इव यान्ति जम्बुकादय एते व्यसु रक्षसां कुलम् ॥ ८५॥ इह डिम्बविदंशदेशिनः पलभुग्दम्पतयः स्मरातुराः। रसयन्ति रसात्करोटिभिः शशकाभै रुधिरासवं नवम् ॥ ८६ ॥ नलकास्थिपुटश्रुतं धृतं नवमस्तिक्ययुतं निशाचरी । अभिभोजयति प्रियं शिशूनपि सेयं पिशितैकभुक्वयम् ॥ ७ ॥ प्रखरैः क्षुरिकादिकायुधैः पतितानां भुजिनां हहा निजैः । इह जाङ्गलखण्डखण्डने सहकारित्वमधारि रक्षसाम् ॥ ८८॥ १. 'तिस्थान' क. २. 'परिसंच' ख. ३. मप्यवहन्ति ये भुवम्' क. ४. 'बिभृता' क. ५. 'विभाज्य' क. ६. पतितकचरणः. 'पततै' ख. ७. 'मांसं पललजाङ्गले' इति हैमः.
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४१८
काव्यमाला |
पललैः कवलीकृतैस्तृषं कलयन्तो नितरां निशाचराः । नखभिन्नशवैौघहमयीं जलधारां परितः पिबन्त्यमी ॥ ८९ ॥ कृतरक्तविलेपनाः प्रियैर्ज नितान्त्रावलिहारवल्लयः । पलभुक्सुदृशोऽत्र रासकैः कटु गायन्ति किरीटिपौरुषम् ॥ ९० ॥ न निरीक्षितुमप्युषाचरैरपि शक्याः सुकृतैकराशयः । व्यसवोऽप्यतिशायिकान्तयः सुखसुप्ता इव भान्ति केऽप्यमी ॥ ९१ ॥ वधूः खलु दिव्यमूर्तिना परिरब्धाप्यमुनास्य विग्रहम् । अतिदिव्यममुं विलेपनाभिपतद्भृङ्गमिषान्कटाक्षयत् ( ? ) ॥ ९२ ॥ परितोऽब्जधियालिपद्धतिर्नृपतेरस्य मुखे व्यसोरपि । अमला मणिकुण्डलांशुभिर्निपतन्ती चरचामरायते ॥ ९३ ॥ विमलातपवारणोदरे पतितो मौक्तिकभूषणः पुमान् । अधिदुग्धपयोधि कुण्डलात्फणिसुप्ताच्युतवद्विभात्ययम् ॥ ९४ ॥ अपरोऽपि भुजाभृतां गणः पलभुग्भिर्हुतमेष मुच्यते । त्वरिताभिपतत्तदङ्गनासु सतीत्वप्रभया भयाकुलैः ॥ ९५ ॥ विविधैरुपलक्षणैः क्षणादुपलक्ष्य प्रमदाजनः प्रियान् । किमु वक्ति कथं विचेष्टते परिमग्नः शुचि पश्य केशव ॥ ९६ ॥ किमु नाथ विरक्तवान्भवान्मयि यन्मामपि वीक्ष्य नाकृषः । करिकुम्भतटान्मृघश्रियः कुचदेशादिव पाणिपल्लवम् ॥ ९७ ॥ अनुकूल मैमाद्य धृष्टतां प्रिय किं दर्शयसेऽधुनापि यत् । असिमुज्झसि नः खपाणितोऽम्बरवेणीमिव साहसश्रियः ॥ ९८ ॥ अपि शत्रुशरक्षतैर्वृतो नखचिद्वैरिव शौर्य संपदः । प्रिय मत परिष्वजस्व मां विधुराहं त्वयि नैव मानिनी ॥ ९९ ॥ नवरागरसाद्विलोक से वधूर्यद्यनिमेषया दृशा ।
मञ्जु
प्रिय मां दयितां ततो न मां किमु दाक्षिण्यवशादपीक्षसे ॥ १०० ॥
१. 'चल' ख. २. 'भूषणांशु' ख. ३. 'कुण्डलफ' क. ४. 'सुसतीत्रभ्रयाप्रया' क. ५. 'मिवाध्व (स्ख) 'क. ६. 'प्रथमां' ख. ७. 'पीक्ष्यसे' ख.
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११स्त्रीपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
४१९ परिरम्भणचुम्बनादिकं विजितं केलिदुरोदरे मया । वितराशुतरां तदद्य मे प्रिय निद्रास्यनृणः सुखीव किम् ॥ १०१ ॥ समरश्रमभित्तये रजोरुधिरक्लिन्नशरीर एव मे । परितः परिरम्भणोत्सर्वं न पुरेवाद्य करोषि किं प्रिय ॥ १०२ ॥ अपराधपरस्य ते नतिर्न मयामानि ततोऽसि मानभाक् । अधुना पदयोः पतामि ते द्रुतमुत्तिष्ठ कृपां कुरु प्रभो ॥ १०३ ॥ अणुसंचलनेऽपि जागृयामिति वादिन्रुदती प्रियाद्य माम् । नवजागरणारुणेक्षणः कथमाकृष्य कचैन चुम्बसि ॥ १०४ ॥ मदुरस्तव मानिनोऽपि यः सतताभ्यासवशोऽस्पृशद्रसात् । प्रिय मामपि वीक्ष्य पार्श्वगामधुना सोऽप्यलसः कथं करः ॥ १०५ ॥ उपधाय कुचौ मम स्थितो दिनदानश्रमवान्निशासु यः। हृदयेश स ते करः क्षितौ रणखिन्नः किमशेत संप्रति ॥ १०६ ॥ न्यपतन्मुहुरेत्य मन्मुखे कविगोष्ठीरसिनोऽपि यत्तव । किममीलि तदप्यदस्त्वया नयनं नाथ मदागमेऽधुना ॥ १०७ ॥ मयि यन्न चटुप्रलापवान्न च जागर्षि रवैरैपीदृशैः । कुतुकात्प्रिय तत्त्वया धृता छलनिद्रव वचांसि यच्छ मे ॥ १०८ ॥ इति शोकमयोक्तिविह्वला स्रवदस्राविलगण्डमण्डलाः । गुरुमोहवशा वदन्त्यमूर्दयितान्प्राणवियोगिनोऽङ्गनाः ॥ १०९ ॥ उपलक्षयसे न मत्कुचौ किमिमौ कुम्भयुगेषु कुम्भिनाम् । इति काचिदियं प्रलापिनी प्रियपाणि तरसा हृदि न्यधात् ॥ ११० ॥ किमु मत्परिरम्भलोभतस्त्वमुपैतोऽसि पुरोऽतिदूरतः । इति वागियमीशितुः पृथक्पतितं पाणिमुरस्यरोपयत् ॥ १११ ॥ अधिकृत्तमरातयेऽपितं प्रभुणा वेणिधृतं निजं शिरः । इयमुत्पुलका चुचुम्ब च व्यसुतां प्राप च वीरवल्लभाम् ॥ ११२ ॥ शतखण्डितमङ्गमीशितुः सकलं न्यस्य यथाक्रम क्रमात् । परिरभ्य मुदाप मूछितं यदियं प्राप तदेव मृत्युताम् ॥ ११३ ॥ १. 'सुभट' ख. २. 'रमीदृशैः' क. ३. स्त्रितं' क. ४. 'वल्लभा' ख.
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४२०
काव्यमाला ।
इति युद्धधरावलोकिनी पतितं वीक्ष्य सुतं सुयोधनम् । : सुबलस्य सुता विमूच्छिता पुनरुद्बुध्य जगाद केशवम् ॥ ११४ ॥ यदवादि मया रणोद्यमे न सुतः सैष जयेति भाषया । तदिमां ध्रुवमाययौ दशां सह बन्धुखजनैः सुयोधनः ॥ ११५ ॥ विविधैरपि भाषणैर्मुहुर्विदिताक्रन्दभरा हृदीशितुः । बत भानुमती हगम्बुभिः स्वयमेन्तस्त्रपनं करोत्यसौ ॥ ११६ ॥ वपुषो हरते रजोञ्चलैर्विकृषत्यङ्गुलिभिस्तृणं मुखात् । गमयत्य सृगश्रुभिः स्नुषानिवहोऽयं दयितेषु मामकः ॥ ११७ ॥ इयमच्युत मौलिमीशितुः स्वयमङ्के विनिवेश्य बालिका । स्वजने त्वयि दत्तदीदृग्विलपन्ती वदतीदमुत्तरा ॥ ११८ ॥ स्वसुरेष सुतः प्रियः सहक्तव रूपे विनये न ये जये । किमु सर्वग पश्यति त्वयि च्छलिभिर्भूरिभिरेकको हतः ॥ ११९ ॥ अभिचुम्ब्य हृदीशितुर्मुखं पुनरालोक्य निजाश्रुभिः प्लुतम् । स्मृतसात्विकवारिविभ्रमा विधुरेयं रुदती वदत्यमुम् ॥ १२० ॥ प्रिय विप्रियवानहं (?) त्वया न हि पृष्टापि युधि द्रुतं यता । किमु विप्रियकारिणीमिव प्रलपन्तीमपि मां न भाषसे ॥ १२१ ॥ यदि दत्तमुरः सुरस्त्रियः प्रिय तन्मां चलितारुणेक्षणः ।
४
कटु रे रटसीह किं वदेत्यपि रोषादियतापि मे मुदः ॥ १२२ ॥ प्रिय तादृशगौर पौरुषः स्फुटमेकोऽपि रणैककर्कशः । मदभाग्यसहायतां विना व सहस्रैरपि हन्यसे द्विषाम् ॥ १२३ ॥ सततं मयि साम तन्वतः प्रिय मन्ये तव विस्मृता रुषः । धृतकोपलवस्य तेऽद्य ते पुरतः स्थातुमपीश्वराः परे ॥ १२४ ॥ तनयस्य तवैव वैरतः कति तातेन निजघ्निरे परे । नयनोत्सव तैर्घनैरपि प्रिय नैको ववले पुनर्भवान् ॥ १२५ ॥
१. 'मन्तः स्रपनं' क-ख. २. 'विप्रियवान्भवानहं' क. ३. 'द्वितया' क. ४. 'मो
, मुदः' ख ५. 'सामतत्त्वत:' ख. ६. 'तत्कृते' ख.
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११स्त्रीपर्व-सर्गः) बालभारतम् ।
४२१ यदि वेनि तपांसि तान्यहं सुरबालाभिरलामि यैर्मवान् । द्विगुणानि विधाय तानि तत्प्रिय ताभ्योऽपि भवन्तमानये ॥ १२६ ॥ भवदाननदर्शने सदा प्रिय यन्निनिमिषत्वमासदम् । अनिमेषविलोचनासु मन्द्रमतः किं तदगामि पश्य माम् ॥ १२७ ॥ अपि साप्तपदीनमुच्यते महतां संगतमङ्ग शाश्वतम् । तदहं सहसे यमुज्झिता किमु षण्मासविलासवल्लभा ॥ १२८ ॥ इति तारविलापिनीमिमामियमाकृष्य विराटमागता । अनुरोदयतेऽपि रोदसी न सुदेष्णा करुणारवेन किम् ॥ १२९ ॥ त्रिदिवेऽप्सरसो भुवि प्रियाः पुलकस्वेदभृतो भजन्त्यमुम् । द्रुपदं स्वरभेदवेपथुप्रलयस्तम्भविवर्णताश्रिताः ॥ १३० ॥ अपकृष्य कृपी विमूर्छितां स्फुटधूमच्छलधार्मिदुर्यशः । गुरुसंस्करणं द्विजोत्तमा विरचय्य शुधुनी व्रजन्त्यमी ॥ १३१ ॥ रसना ननु मद्रभूपतेर्वृषतेजो वधपापलुप्तये ।। पलभुक्पतगक्षुधानले सरलेह खमहो जुहोत्यसौ ॥ १३२ ॥ दयितस्य शिरोऽतिदूरतो द्रुतमानीय नियोज्य वर्मणि । प्रिय भूमिरसाविहातपो गृहमेहीत्यभिवक्ति मत्सुता ॥ १३३ ॥ अवलोकय पञ्च सुभ्रुवो विगतेाः सममेव केशव । शयनस्थितमाप्तपञ्चतं बत भूरिश्रवसं श्रयन्त्यमूः ।। १३४ ॥ अयमीशितुरध्वरोद्धुरो हेह कण्ठग्रहकृन्मृगीदृशाम् । द्विजराजिषु गोसहस्रदः प्रतिपक्षान्तकरः करः पुरः ॥ १३५ ॥ इति भर्तृभुजं प्रयातितं वयशःशाखिशिखावदैन्द्रिणा । समुदस्य भुवोऽङ्गुलीदलेष्वभिचुम्ब्य प्रलयन्त्यमूर्मुहुः ॥ १३६ ॥ स्वभुजौ नटयन्नकारयन्मम पुत्रं भुवि दुष्कृतानि यः । वृषसेनसुषेणयोरियं जननी शोचति तं हतं परैः ॥ १३७ ॥
१. 'देष्णो दातरि दुर्गमे' इति हैमात्सुदुर्गमा. २. 'श्रुभिः' क. ३. 'विघूर्णिता' ख. ४. 'त्यपि भक्तिमत्सुता' ख. ५. 'हठकण्ठ' स्व.
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४२२
काव्यमाला |
शकुनिः पतितोऽयमात्मजान्मम यन्मन्त्रनियन्त्रिताञ्शतम् । अजुहोदनुजक्रुधानलत्विषि धार्मिर्भुवि लब्धुमिन्द्रताम् ॥ १३८ ॥ इति सूनुशुचा विमूर्च्छिता पुनरासादितचेतना स्म सा । हरिमाह न मत्कुलं त्वया किमिवारक्षि लयोदयक्षम ॥ १३९ ॥ अयमीदृगुपेक्षितस्त्वयाजनि कृत्स्नोऽपि कुलक्षयो मम । इति षत्रिमितेस्तु वत्सरे भवतोऽप्यच्युत गोत्रविप्लवः ॥ १४० ॥ हरिराह पुरा हसन्नसौ मम दैवाद्भवितान्वक्षयः । शुचमेमि न तेन शोच मा त्वमपीमान्भवितव्यताहतान् ॥ १४१ ॥ जंगतामनिवारया तृषा विधुरासि द्रुतमेहि जाह्नवीम् । शुचमुज्झ पिबोज्ज्वलं जलं तनयेभ्यो ददती जलाञ्जलीन् ॥ १४२ ॥ इति विश्वविदा मुरच्छिदा तृषितेयं प्रकटीकृतस्पृहा ।
त्रपया वदहाः करोमि किं सुतशोकादपि दुःसहा तृषा ॥ १४३ ॥ समर व्यसुवीरमंण्डल स्फुटसंख्यानगतिर्युधिष्ठिरः । धृतराष्ट्रनृपेण तत्क्षणं परिपृष्टो निजगाद दिव्यदृक् ॥ १४४ ॥ कोट्योऽष्टषष्टिर्वीराणां द्वादशायुतसंयुताः ।
जघ्निरे समरेऽमुष्मिन्महः संहतिदुःसहाः ॥ १४१ ॥ दश पञ्च च षष्टिश्च शतान्युत्तमतेजसाम् । हतानि राजराजानां सुरराजजितामपि ॥ ९४६ ॥ चतुर्दशसहस्राणि लक्षाणि रणदक्षिणाः । विकटाः सुभटाः पेतुरिह पातितशत्रवः ॥ १४७ ॥ तुल्य ज्वलन्मुखशतानलप्रबलपावने । रणोत्सङ्गे हुताङ्गास्तेऽभूव शतमखोपमाः ॥ १४८ ॥ मर्तव्यमिति योद्धारः प्रीता गन्धर्वतां गताः । पराङ्मुखा रणेऽस्त्रेण हता गुह्यकतामगुः ॥ १४९ ॥ न स्वामिभक्त्यै नो कीर्त्यै न जयाय दिवे न वा । आवेशादेव ये युद्धे मृतास्ते ब्रह्मतां गताः ॥ १५० ॥
१. 'मञ्जुल' क. २. 'सुतेन' ख. ३. कुशला इत्यर्थः .
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११स्त्रीपर्व-१सर्गः] . बालभारतम् । .
वीरेन्द्ररूपरौद्रत्वक्ष्वेडाभिर्युग्यमर्दनैः । मृता रक्ताब्धिपातैर्ये जग्मुस्तेऽप्युत्तरान्कुरून् ॥ १५१॥ लोमशस्य प्रसादेन तीर्थयात्राचरः पुरा । यां दृष्टिमासदं दिव्यां सर्वं पश्याम्यदस्तया ॥ १५२ ॥ इत्युक्त्वाथ तैपासूनुरादिशन्मृतसंस्कृतौ ।
तत्रेन्द्रसेनं विदुरं युयुत्सुं संजयान्वितम् ॥ १५३ ॥ श्रीखण्डकृष्णागुरुरोचितासु चितासु तैस्तत्क्षणमाहितानाम् । धूमोर्मिभिः कीर्तिपटा भटानां स्फुटं नभोऽन्तः सुरभीबभूवुः ॥१९४ ॥ अथो मिथः कण्ठकृतग्रहाणां स्त्रीणां तदाक्रन्दरवस्तथासीत् । यथाभवत्तप्रियभोगभानामप्यश्रुपातः सुरसुन्दरीणाम् ॥ १५५ ॥ स्वर्ग गतानामथ बान्धवानां प्रवृत्तिमाप्रष्टुमिव प्रयातः । स्वर्गस्त्रवन्तीसलिलक्रियोत्कः पार्थोऽम्बिकासूनुयुतः स वर्गः ॥ १५६ ॥ येऽत्र क्षेत्रे क्षत्रियाः कीर्तिशेषास्तेषामेतद्दत्तमक्षय्यमस्तु । इत्युक्त्वोच्चैरम्बिकासूनुमुख्याः क्लृप्तस्नानाः कल्पयामासुरम्भः ॥११७॥ सद्यः प्रोद्यदुःखसंघट्टमूढो गूढं कुन्त्या श्रावितो भानुवृत्तम् । अर्णः कर्णायापि धार्मिस्तदानीममिश्रं दत्तवान्सोदराय ॥ १५८ ।। सत्रक्रीतसुरधिवीरविधुरं क्रन्दत्कुरङ्गेक्षणा
श्रेणी सा जनबाष्पजातयमुनासंभेदशोभाजुषः । जाहव्याः पुलिनावनीं विमलयन्नात्मो'."वेशात्तत
स्तेने सत्यभवः शुचामवगलद्रागः प्रयागः श्रियम् ॥ १५९ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितेः ।
पादाजभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । तद्वाण्यौजसि बालभारतमहाकाव्येऽधितैकादशो
बोधप्रक्रमसूक्तपद्धतिसखे स्त्रीपर्व नियूंढताम् ॥ १६० ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारते महाकाव्ये
वीराङ्के स्त्रीपर्वणि स्त्रीविलापो नाम प्रथमः सर्गः । एकेनानेन सर्गेण स्त्रीपर्वणि विनिश्चितम् ।
शतद्वयमिह स्पष्टमष्टोत्तरमनुष्टभाम् ॥ १. 'नृपः सनु' क. २. 'सलिले: क्रयोक्तः' ख.
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४२४
काव्यमाला।
शान्तिपर्व ।
प्रथमः सर्गः। ओंकारो यः सदाबैकवर्णोऽपीशस्त्रयीमयः। . व्यास निश्वसितान्वेदान्पायाच्यासमुनिः स नः ॥ १ ॥ अथ त्रैलोक्यकल्याणकन्दमन्दाकिनीतटे । तत्राजग्मुः शेमारामनीरदा नारदादयः ॥ २॥ जलाञ्जलिविरामेऽपि नेत्राञ्जलिगलज्जलः । शौचान्तेऽपि सुहृच्छोकादकिंचित्करणस्थितः ॥ ३ ॥ धर्मभूः किमपि ध्यायन्विन्ध्यस्मारीव वारणः। . ऊचे देवर्षिणा कर्णपेयपीयूषवर्षिणा ॥ ४ ॥ (युग्मम्) दिष्यासि कुशली राजन्कि विच्छाय इवेक्ष्यसे । हताहितसमूहोऽपि दग्धेन्धन इवानलः ॥ ५॥ जित्वाप्यरीन्रणास्कन्दमदसंक्रन्दनोपमान् ।। लब्धेतिकष्टादिष्टेऽपि राज्ये राजन्विषीद मा ॥६॥ अथ निःश्वस्य विश्वस्य विभुरूचे हहा हताः । यदर्थमर्थ्यते राज्यं राज्यार्थ तेऽपि बान्धवाः ॥ ७ ॥ यत्रोत्पत्तिस्तदेव खं महसे दहतः कुलम् । उद्भान्तं दुर्यशोभिर्मे धूमैरिव हविर्भुजः ॥ ८ ॥ विषस्य सोदरैव श्रीः क्रिययानु ततोऽधिका । समग्रकुलनाशाय यद्भोगैकस्पृहापि हा ॥ ९ ॥ स्मरन्मातुर्गिरं योऽस्मान्वध्यकोटिगतान्मुहुः। ररक्ष मित्रदाक्षिण्यारब्धयुद्धोऽपि बान्धवान् ॥ १० ॥ जन्ने कृतरस्माभिः सोऽपि विश्वत्रयीजयी ।
सहोदरो महीमज्जत्स्यन्दनव्यसनस्थितः ॥ ११ ॥ (युग्मम्) १. 'यदाप्येकः कर्णो' क. २. 'व्याप' ख. ३. 'विश्वासिभाचेदान्व्त्यन्' क. ४. 'न्यश्यन्व्यासमुनिर्मुदे ख. ५. 'शरा' क. ६. 'क्षमे क. ७. 'मन्द' क.
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१२ शान्तिपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
१२ ॥
तदीदृग्लोभचण्डाल चण्डालिङ्गनदूषितः । अस्पृश्योऽहमतो यामि जीवितुं विजने वने ॥ ते सव्यसाचिसाचिव्यमाजः पान्तु धरां शराः । वैरस्य हेतुर्द्वधापि न योग्या मादृशामसौ || १३ || अकिंचिच्चिन्तकः शान्तकण्डूतिर्मृगघट्टनैः । वत्स्यामि पुनरेकाकी शीर्णपत्राशनो वने ॥ १४ ॥ इत्युक्तिभाजि भूजानौ गिरं भेजे धनंजयः । स कोपविनयाटोपकटुकोमलपेशलम् ॥ १९ ॥ अलब्धे रागिणो लोका अहो लब्धे विरागिणः । हेमन्ते तापमीहन्ते हन्त ग्रीष्मे हिमं मुहुः ॥ १६ ॥ ऐच्छद्भवान्वने राज्यमिच्छन्राज्येऽधुना वनम् । उन्मत्त इव लोकेश लोकेनाप्युपहस्यैते ॥ १७ ॥ विधिरिन्द्रे दरिद्रे च दिदेश कृपया पृथक् । धर्ममध्वरदानैश्च तपोध्यानैश्च तारणम् ॥ १८ ॥
तद्दुःस्थेन वनस्थेन नेशा यद्याहतं तपः । तदिदानीं स्थितः स्वाम्यं मनः कुरु मखादिषु ॥ १९ ॥ अथ सद्यः समुत्तप्तदुग्धदुर्धरया गिरा । कोपेन कलुषीकृत्य विनयं पावनिर्जगौ ॥ २० ॥ वेधसा पञ्चमीच धिगकिंचनकृद्भवान् । मध्याङ्गुलीवाङ्गुलीनां मध्येऽस्माकं मुधा गुरुः ॥ २१ ॥ नास्माकं कोऽप्युपायोऽस्ति विश्ववीर जितामपि । त्वत्कनीयस्त्वनामैकं व्यसनं येन नीयते ॥ २२ ॥
द्वेष्टी (ष्टृ णामपि दुष्टानां रक्षणं यस्य लक्षणम् । ततं चेत्प्रियं तुभ्यं ता देवत्रतादयः || २३ ||
४२९
१. 'कौशलम्' ख. २. 'स्यसे' ख. ३. 'दत्तै' ख. ४. 'नेश' ख. ५. 'तेन तीर्थ' क. ६. 'द्विष्टाना' ख. ७. 'राजंस्तत्किं हतारयः ' क.
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४२६
काव्यमाला |
भग्नोऽसि राज्यकष्ठेऽपि यदि कातरहृत्तया । तत्तपः कष्टदृष्टः सन्विमनाः किं करिष्यसि ॥ २४ ॥ अयाचितजलाहारा वल्कभाजो जटाजुषः । किं नीडशिरसो वृक्षा भवं घ्नन्ति विना मनः ॥ २५ ॥ क्षिताः क्ष्मारक्षिणः पूर्वे स त्वं श्रय तपोऽधुना । वयं ज्येष्ठानुगा भूप भूहत्या पततु त्वयि ॥ २६ ॥ इति संहृतवाक्येऽस्मिन्नूचतुश्चतुरौ गिरम् । यमौ जलदगजन्तोद्रे कि के किरवच्छविम् ॥ २७ ॥ इष्टदीन सुपात्रादिभुक्तशेषभुजां विभो । गृहिणां स्पृहणीयैव गतिर्यतिवरैरपि ॥ २८ ॥ तपोभिर्यतयः कष्ठैराजन्वाञ्छन्ति विष्णुताम् । गृहं तु गृहिणामेत्य विष्णुर्यज्ञांशमिच्छति ॥ २९ ॥ नयी विश्वयतिस्तोम पुण्यषष्ठांशभाग्नृपः । यतिः खपुण्यभाग्विद्धि कः कृतिन्सुकृती तयोः ॥ ३० ॥ तत्पालय महीपाल महीमेनां मनोयतिः । तुल्यं जनकवद्भुङ्क्ष्व फलं राज्ययतित्वयोः ॥ ३१ ॥ दशनद्युतिहारेण हारिणीमथ भारतीम् ।
रसनाञ्च (च) लदोलायां दोलयामास पार्षती ॥ ३२ ॥ भिन्नारयो भवद्वत्रप्रसादोत्काः सहोदराः । नानन्द्याश्वेत्प्रभो तत्ते कृतघ्नस्य व्रतेन किम् ॥ ३३ ॥ क्षालनं वज्रलेपेऽपि म्लेच्छेऽपि स्यात्पवित्रता । न घटेत कृतघ्ने तु कापि पापप्रतिक्रिया ॥ ३४ ॥ सुकृतेन कृतज्ञानामधः कुर्याद्दिवं धरा | दुष्कृतेन कृतघ्नानां नोल्लसन्ती प्रियेत चेत् ॥ ३५ ॥ तदालिङ्गनहृद्योक्तिराज्यभागैः कृतज्ञ ते ।
धन्याः सहेलं खेलन्तु सोदराः सफलश्रमाः || ३६ ॥ १. 'पूर्व सर्वे' ख.
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१२शान्तिपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
४२७ इत्यमीषां वचोवीचीप्रपञ्चैरपि भूपतेः । स्वबन्धुवधदुःखाग्नितप्तं न शमितं मनः ।। ३७ ॥ अथ हृज्ज्ञानपीयूषपयोधिलहरी गिरम् । दन्तांशुफेनिलां व्यासस्तच्छोकाग्निच्छिदे किरत् ।। ३८ ॥ दैवाद्यस्य यथा मृत्युरस्ति स म्रियते तथा । मशकोऽपि गजेनापि न शक्यो हन्तुमिच्छया ॥ ३९ ॥ तद्भूनाथ मयामाथि कुलं स्वमिति मा मुहः । कस्तान्विश्वजितो धीरान्हन्ति स्वैः कर्मभिर्विना ॥ ४० ॥ स्यात्पृथक्पथि पान्थानां यथा सङ्गः क्षणं क्वचित् । तथैव भविनां तत्कः शोकं तद्विरहे वहेत् ॥ ४१ ।। क्वापि तौ शोकहर्षों वा यतो भावोल्लवे लवे । ऐन्द्रजालिकवत्कालो दर्शयत्यन्यथान्यथा ॥ ४२ ॥ राजशोचसि किं बन्धून्कालेन कवलीकृतान् । ग्रस्यन्ते लीलया येन त्रिलोकीकारिणोऽपि ते ॥ ४३ ॥ शुचं मुञ्च तवेदानी कालः पालयितुं प्रजाः । न प्रजापालनादन्यो राज्ञां धर्मोऽस्ति यौवने ॥ ४४ ॥ जीवतो राज्यभागेन व्यसून्ब्राह्मणतर्पणैः । बन्धून्प्रीणय भूपाल त्वदुःखाहुःखिनोऽद्य ये ॥ ४५ ॥ अथास्मिन्विरते विष्णुवितेने जिष्णुसंज्ञया । क्ष्मापसंतापनाशाय मुखाजमधुभारतीम् ॥ ४६॥ कः करोति कृती शोकं राजन्परिजनार्तिदम् । न वैलन्ति मृता ये च न च जानन्ति यत्कृतम् ॥ ४७ ॥ सुहृदो दूरगस्यापि यद्यैश्वर्यश्रुतिर्मुदे । दिवि भोगभुजः शोच्यास्तत्कि ते बन्धवस्तव ॥ ४८ ।। करस्थं लालयन्मृत्युः करी कवलवज्जनम् ।
यदेच्छति तदा भुङ्क्ते ततः शोच्येत को मृतः ॥ ४९ ॥ १. 'वीरान्' ख. २. 'क्वचित्तौ' ख. ३. 'चलन्ति मृतायैन' क.
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४२८
काव्यमाला ।
मृत्योश्चरा इव मुहुर्निमेषा वेगिनोऽङ्गिनाम् । आयान्ति दृक्पथे जीवग्रहावसरमीक्षितुम् ॥ १० ॥ अकस्मादेव कुत्रापि कदापि गमनेच्छया । जनं विश्वासयन्तीव श्वासाः शश्वद्गतागतैः ॥ ११ ॥ जगज्जीवातवस्तेऽपि श्रीरामभरतादयः । जाता वेति ह संदेहदोलायां कालतो गताः ॥ ५२ ॥ जीवितं हन्त जन्तूनां नयनोन्मेषचञ्चलम् । सुखश्रीयौवनादीनां का तदंशस्पृशां कथाः || ५३ ॥ कृत्यं किंचित्करे कार्यं तिष्ठत्यायुषि गत्वरे । तमिस्राविद्युदुद्द्योते च्युतं द्रव्यमिव द्रुतम् ॥ १४ ॥ एष जीवितकल्पद्रुश्चतुर्वर्गफलप्रदः । शोकादनलकीलाभिः क्लीबा विफलयन्ति तम् ॥ ५५ ॥ तद्भूलोकपते शोकं मुञ्चामुं चातुरीमय |
गृहाण जीवितस्यास्य कालकालोचितं फलम् ॥ ५६ ॥ राज्ये यज्ञादिलीलाभिः सफलीकुरु यौवनम् । वार्धके तु धराधीश युक्तं मुक्तिकृते तपः ॥ १७ ॥ इत्यादिवाक्यैरन्यैश्च प्राग्भूपचरितैर्मुहुः । बोधितो बभ्रुणा तैश्च शुचावोचद्युधिष्ठिरः ॥ ५८ ॥ धियां बन्धुवधोद्भूतैरुद्भान्तैर्मम पातकैः । आकाशे कालिकोत्प्रेक्षां करिष्यन्ति कवीश्वराः ॥ १९ ॥ अपि जन्मसहस्राणि वहौ मे जुह्वतो वपुः । क्षयं यास्यन्ति गाङ्गेयघातकस्य व पातकम् ॥ ६० ॥ इति शोकातुरखान्तं विलपन्त मिलापतिम् । गिरा मधुरया व्यासमुनिराश्वासयञ्जगौ ॥ ६१ ॥ निघ्नतो युधि धूतास्त्रान्गुरूनपि न हन्ति यः । राजन्स क्षत्रधर्मैक लोपपापेन लिप्यते ॥ ६२ ॥ १. ‘हृतम्' ख. २. ‘तैः प्रभूतैः' इति शोधितं ख- पुस्तके.
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१२शान्तिपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
युधि यः क्षत्रधर्मस्थो हन्ति वा हन्यतेऽथवा । गीर्वाणैरपि पूज्यते तो पुण्यौ पुष्पवृष्टिभिः ॥ ६३ ॥ अपापस्तदसि क्ष्माप प्रसन्नः पालयावनिम् । यदि मिथ्याभिशङ्कास्ति वाहमेधं कुरुष्व तत् ॥ ६४ ॥ अभिनन्द्य निजं राज्यमानन्द्य प्रकृतीन्कृती। पश्य पुण्याय गाङ्गेयं शर शय्याचरं गुरुम् ॥ ६५ ॥ इति कृष्णमुनीन्द्रेण श्रीकृष्णेन च बोधितः ।। पुरेऽविशत्पुरस्कृत्य धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः ॥ ६६ ॥ महेन महता भूपः स विभूष्य सभाभुवम् । द्विजान्धौम्यपुरस्कारादपूजयदुपस्थितान् ।। ६७ ॥ दुर्योधनसुहृत्तत्र त्रिदण्डिमुनिवेषभाक् । मणिरूप इवाङ्गारश्चार्वाकः कौणपोऽविशत् ॥ ६८ ॥ पापाकारं कुलागारं धिक्त्वामित्यादि भूपतौ । वचोऽभूत्तन्मुखाचित्रं चन्द्रादिव हलाहलम् ॥ ६९ ॥ द्विजा विज्ञाय राज्ञे च तं निवेद्य क्रुधादहन् । हुंकारप्रोत्थितेनाग्निदैवतेनेव हृज्जुषा ॥ ७० ॥ शक्यो हन्तुं हरेणापि नैष द्विजरुषं विना । इत्युक्त्वा तद्वधप्रीतो हरिरप्रीणयन्नृपम् ॥ ७१ ॥ तादृग्युद्धोत्थबाह्यान्तस्तापमण्डलखण्डनम् .। अथाभिषेकं भूपस्य चक्रुस्तीर्थोदकैर्द्विजाः ॥ ७२ ॥ स पूर्वभूमिभृद्भद्रासनवर्ती श्रितः श्रिया । राजा विराजयामास विश्वं विश्वंभरातलम् ॥ ७३ ॥ शिवं शक्क्यान्वितमिव प्रत्यक्षं धाम्नि धर्मजः । धृतराष्ट्रं वधूयुक्तममन्यत सुहृन्मतः ॥ ७४ ॥ यौवराज्ये मरुत्पुत्रं विदुरं मन्त्रकर्मणि ।
धनंजयं जयोद्योगे संजयं व्ययचिन्तने ॥ ७९ ॥ १. 'त्रिदण्डी' ख.
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४३०
काव्यमाला |
नकुलं बलरक्षासु धौम्यं द्विजजनार्चने ।
सहदेवं सहस्थित्यां स्थितिज्ञोऽथादिशन्नृपः ॥ ७६ ॥ ( युग्मम् ) संस्थाप्य मन्त्रिणो नैनेत्वा हरि रत्नमये ददौ । स भीमार्जुनयोर्दुर्योधनदुःशासनौकसी ॥ ७७ ॥ कौरवावसथा नित्यमन्येभ्योऽपि विभज्य सः । गिरा हरेरलुब्धात्मा लब्धप्रशमनं व्यधात् ॥ ७८ ॥ श्राद्धं विधाय बन्धूनां भूपा ( ? ) नथ यथाविधि । धर्मानेभ्यः प्रपाकू पसत्रकल्पानकल्पयत् ॥ ७९ ॥ विष्णुं जिष्णुनिकेतस्थमन्येद्युः क्षणदात्यये । शश्वदन्तर्दशा दृष्टं दृग्भ्यां द्रष्टुं नृपोऽगमत् ॥ ८० ॥ सिंहासनसमासीनं ध्यानलीनं हरिं नृपः । शैलेऽम्बुदमिवालोक्य केकीव मुदितो जगौ ॥ ८१ ॥
त्वद्धामनेत्रकुमुदक्रीडानित्यमधुत्रती ।
विभावरी विभातेयं सुखभावेन ते विभो ॥ ८२ ॥ अथावादिनि गोविन्दे पुनरूचे नराधिपः । विश्वैकध्येय किं ध्यानं दीपमर्क इवासृजः ॥ ८३ ॥
इतिवाचि नृपे वाचि दृशावुन्मील्य विष्णुना । यो मां ध्यायति राजेन्द्र तं ध्यायामि स मामिव ॥ ८४ ॥ उत्तराशां गतप्राये तपने तेनुर्मुक्तिधीः ।
दध्यौ मामधुना भीष्मस्तमहं मनसागमम् ॥ ८९ ॥ अथ प्रीत्याभ्यधाद्भूपो भगवन्भवदुत्सुकम् । भीष्मं यामः स मे धर्मान्वक्तुं त्वद्दर्शनाव्ययः ॥ ८६ ॥ श्रुत्वैतदचद्भूपो भीमबीभत्सुसात्यकैः ।
मुकुन्दः स्यन्दनी स्कन्दसहोदरदिदृक्षया ॥ ८७ ॥
१. 'नुवा' ख २. 'जिष्णुं' क. ३. 'मनु' ख. ४. 'अथो' क. ५. 'ननु' क. ६. 'मुक्त' ख.
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१२शान्तिपर्व-१सर्गः)
बालभारतम् ।
व्यधादिहान्तरे शान्तमनाः शान्तनवः स्तवम् । ऋषिवातवृतः शौरेर्भावपूजामैनःस्रजम् ॥ ८८ ॥ नमः स्वयमविश्वाय विश्वज्ञानाय विष्णवे । सर्वाङ्गलीनसर्वाङ्गसहस्राद्भुततेजसे ॥ ८९॥ वाससा वासरेणेव निशयेव तनुत्विषा । शश्वदासेवितं सेवे हरिं कालमिवाङ्गिनम् ॥ ९ ॥ न्यक्पातिनो भवाम्भोधौ जन्तवोऽम्बुदबिन्दुवत् । मुक्ता भवन्ति यद्भक्तिशुक्तिलीनाः श्रयामि तम् ॥ ९१ ॥ यस्या विभक्तिरूपैव भक्ति वत्सु मुक्तिदा । श्रीविश्वरूपः साक्षान्मे सोऽस्तु नेत्रामृताञ्जनम् ॥ ९२ ॥ इति स्तुत्वा हृदा नत्वा ध्यायन्सद्योऽप्यलोकत । भीष्मः प्रमोदरोमाञ्चदीनभीष्मशरो हरिम् ॥ ९३ ॥ अथ श्रीकेशवस्तेऽपि भूपभीमार्जुनादयः । रथादुत्तीर्य गाङ्गेयमानम्य पुरतोऽविशत् ॥ ९४ ॥ अथ व्यथातुरं भीष्मं दृशालिङ्गय हरि गौ। कच्चित्ते न शर्भिन्नं ब्रह्मज्ञानमयं वपुः ॥ ९५ ॥ श्रीविश्वरूप भगवन्भवल्लयमयात्मनाम् । का वज्रबाणपर्यङ्कहंसतूलीकयोभिदा ॥ ९६ ॥ इति भाषिणि भीष्मेऽथ केशवः माह साहसम् । त्वां वहन्ती मही मन्ये द्यामिन्द्राढ्यां मुदा हसेत् ॥ ९७ ॥ त्वयि बाणार्दिते तप्तमनुद्भूतरति कचित् । धार्मि बोधय धर्मज्ञ धर्मोक्या स्वयमव्यथः ॥ ९८ ॥ क्षीरोदशायी भगवानित्युक्त्वा गरुडध्वजः । परामृतकलावृष्ट्या दृष्ट्या तं निर्व्यथं व्यधात् ॥ ९९ ॥ तादृक्संविद्रतिस्थानप्रसत्तिश्लाघयोरथ ।
पुष्पवृष्टिस्तयोमूनि देवर्षिस्तुतयोरभूत् ॥ १०० ॥ १. 'नव' ख. २. मुक्तिभाजो मुक्ताफलानि च.
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४३२
काव्यमाला।
श्वो वक्तासि कृतिन्धर्मानित्युक्त्वा भीष्ममच्युतः । सपाण्डवो ययौ स्थानमाययुश्च निशात्यये ॥ १०१ ॥ अद्यासि निर्व्यथात्मा चेत्तद्धर्मान्दिश धार्मये । इत्युक्तिशालिनि माह वनमालिनि सिन्धुभूः ॥ १०२ ॥ त्वत्प्रसादात्पटुर्धर्मान्वक्ष्यामि त्वद्राि विभो । स्वयं तु पृच्छतु मापः किं ह्रीः क्षत्रोचिते कृते ॥ १०३ ॥ अथाच्युतगिरा पादलग्नो भीष्मेण भूपतिः ।। आघ्राय मूर्ध्नि मां पृच्छेत्युक्तोऽपृच्छन्नॅपक्रियाम् ॥ १०४ ॥ कृत्वा कृष्णाय धर्माय द्विजेभ्योऽपि हृदा नमः । ऊचे भीष्मः स्मितरुचा धर्मेणैवोज्ज्वलां गिरम् ॥ १०५॥ राजनराजन्ति राजानः पूज्यपूजादयानयैः । तारैः कङ्कणकेयूरहारैर्नटविटादयः ॥ १०६ ॥ हासप्रियो नृपः सारं पिबद्भिरनुजीविभिः । पदापि स्पृश्यते रोललोलैः पुष्पमिवालिभिः ॥ १०७ ॥ वृत्ति कल्पयतः वाङ्गव्ययेनापि गवादिषु । तृणादपि लघुनूनं सर्वधर्मोज्झितो नृपः ॥ १०८ ॥ अकर्णस्य जगत्प्राणपायिनो वक्रचारिणः । किं विश्वसेविजिह्वस्य भुजगस्येव भूभुजः ॥ १०९॥ सत्तेजःकीर्तिसूर्येन्दुः कालः क्षमाप इवापरः । क्वचिद्भीमः क्वचिच्छान्तः केन शक्येत लचितुम् ॥ ११० ॥ मखेषु देवं सेवन्ते श्रीपतिं दहनं च ये । गोपैः कोप्या न ते विप्राः श्रिये दाहाय च क्षमाः ॥ १११॥ नोपेक्ष्यः स्खलिताचारः क्षमायामेकोऽपि भूभुजा । तसिंल्लब्धपदः पाप्मा कं कं प्राप्नोति न क्रमात् ॥ ११२ ॥ नयकल्पतरुच्छन्ने क्षीणपङ्केऽस्तकण्टके ।
राज्ञामुद्यानवद्देशे धर्मः खेलति हेलया ॥ ११३ ॥ १. राजधर्मान्. 'नयक्रियाम्' ख. २. भूपैः. ३. 'च्याप्नोति' ख.
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OC
१२शान्तिपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
यदाज्ञायन्त्रिता वर्णाश्चत्वारोऽप्यर्णवा इव । स्फूर्जन्तोऽपि न मर्यादा मुञ्चन्ते किं स नेश्वरः ॥ ११४ ॥ यदि यज्ञामृतै राजा न वर्षति दिवं प्रति । तत्क्षुधार्ताः सुधाकूपान्दिवि देवाः खनन्ति किम् ॥ ११५ ॥ धराभृति न चेद्धर्मस्तदधर्मभरातुरा । कूर्माद्यैः किं 'हियेतोर्वी दलयन्ती रसातलम् ॥ ११६ ॥ तदेक एव देवः मापतिधर्मगतिस्थितः । भाति त्रिजगदाधारः समाहारः सुरश्रियाम् ॥ ११७ ॥ लोकंपृणगुणोऽप्युच्चैर्नृपः क्रूरपरिच्छदः । सेवितुं शक्यते केन ससर्प इव चन्दनः ॥ ११८ ॥ तीर्थाधिकारिभिरिव स्फीतलोभैनियोगिभिः । पीड्यमानाः प्रजास्तीर्थमिव भूपं शपन्ति च ॥ ११९ ॥ नृपश्चारुपरीवारोऽप्यचारुचरितः स्वयम् । जनेन त्यज्यते दूरं मणिवान्फणवानिव ॥ १२० ॥ खाचारपरिवारस्य सदाचारस्य भूपतेः । राज्ययामिकतां याति धर्मस्त्रिजगदर्चितः ॥ १२१ ॥ क्रियासु विफलाः सैन्यक्रमविक्रमबुद्धयः । न स्यादात्मेव भूपानां पुरोधा यदि धर्मवित् ॥ १२२ ॥ अरक्तेभ्योऽपि रक्तेषु कुमुदेभ्योऽम्बुजेष्विव । श्रियं संचारयन्भूपः प्रतापी भाति भानुवत् ॥ १२३ ॥ प्रतापस्य प्रकाशेन दण्डस्यालम्बनेन च । कलिध्वान्तेऽपि भूपानां वृद्धो धर्मः सुखं चरेत् ॥ १२४ ॥ प्राप्तप्रतापतपना विश्वं प्रणिधिभिर्नृपाः । दूरप्रचारैर्गृह्णन्ति गूढैदृश इवांशुभिः ॥ १२५ ॥ अलक्ष्यः क्ष्माभुजां मन्त्रो विश्वोद्धारक्षयक्षमः ।
सत्ता यस्येश्वरस्येव क्रिययैवानुमीयते ॥ १२६ ॥ १. ध्रियेतो' ख. २. 'स्थितिः' क.
उWW९ ॥
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३४
काव्यमाला 1
व लक्ष्मीरतिविश्वस्ते व सौख्यमतिशङ्किनि । तद्भाति नातिविश्वासी नातिशङ्की च भूपतिः ॥ १२७ ॥ उद्धृत्तदण्डनं दीनपालनं शीललालनम् । द्विजार्चनं च राज्यश्रीश्चतुःशालं महीभुजाम् ॥ १२८ ॥ कारणेऽपि विकोपानाम लुब्धानां विपद्यपि । प्रमोदेऽप्यविकाराणां राज्ञां श्रीविरहासहा ॥ १२९ ॥ मित्राणि रणकालेऽङ्गरोमाणीव प्रमोदतः । यस्योच्छ्रसन्ति भूमीन्द्रः स नेन्द्रेणापि जीयते ॥ १३० ॥ धर्मी धत्ते स्थितौ यः क्ष्मां तद्गुणैर्योगिनामपि । अतिब्रह्मलयानन्दैरमन्दैर्ह्रियते मनः ॥ १३१ ॥ नयी नृपो नृणां सिद्धात्सुवर्णपुरुषादिव । यं धर्मादेशमादत्ते न स तेनापि हीयते ॥ १३२ ॥ क्ष्मारक्षणात्परं राज्ञः कृत्यं नास्ति लभेत यत् । जनानामर्थधर्माशौ तेन लोकद्वयाहितौ ॥ १३३ ॥ एवं देवत्रतो राजधर्म धर्मस्य सूनवे । भूरिप्राग्भूपचारिभ्यचारुसौरभ्यमभ्यधात् ॥ १३४ ॥
(इति राजधर्माः 1)
सर्वधर्मद्रुमाराममथामरधुनीजनिम् ।
शत्रुक्षीणश्रियां वृत्ति राज्ञां पप्रच्छ पार्थिवः ॥ १३५ ॥ हृद्वर्तिविष्णुकेशान्तघनगर्जिघनैः खनैः ।
ध्वानयन्मेरुदध्वानं तमित्यूचे पितामहः ॥ १३६ ॥ क्षीणः परं प्रविश्यामि दिवाकरमिवोडुपः ।
कलया कलया वृद्धः स्वां लभेत पुनः श्रियम् ॥ १३७ ॥ अस्ते मित्रैबले शत्रुमुद्यन्तं वीक्ष्य धीमता ।
संकुच्य क्रमलेनेव स्थेयं दिवसमिच्छता ॥ १३८ ॥
१. 'धर्मैर्धत्ते' इति, 'धर्माद्धत्ते' इति वा भवेत् २ सुरवर्त्म ३. मित्रं सूर्योऽपि. ४. 'संकुचनू' क.
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१२शान्तिपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
आक्रामति द्विषि प्रौढे न तिष्ठन्ति न यान्ति च । नवोढा इव वोढारं धीरा विधुस्यन्ति तम् ॥ १३९ ॥ वीतमन्त्रस्तु कुर्वीत बलिनाप्यरिणा रणम् । भुवं भुनक्ति जित्वा वा मृत्वा वा स्पर्धते हरिम् ॥ १४० ॥ कोशो यथा तथाप्येवं देवविप्रधनैर्विना । कार्यों व्यसनवल्लीनां स हि दीप्तो दवानलः ॥ १४१ ॥ संचितश्रीन मुच्येत व्यसनेऽप्यनुजीविभिः । अलिः सहाजैः सहते बन्धनं गन्धलोभतः ॥ १४२ ॥ क्षीणतैलं त्विषो दीपमग्निं दग्धेन्धनं शिखाः। शोभाव्यसुं विमुञ्चन्ति निद्रव्यमनुजीविनः ॥ १४३ ॥ आशापाशैमिथो बद्धं जगदस्ति चराचरम् । त्रुटन्ति यस्य यस्यामी स तं मुञ्चति हेलया ॥ १४४ ॥ विषमेऽपि न मर्यादा यो विमुञ्चति तस्य चेत् । तत्परित्याजनाशक्तिर्वीडयैव विलीयते ॥ १४५ ॥ व्यसनेषु श्रियं धाम देशं दारानपि त्यजेत् । रक्षेच ध्रुवमात्मानं पुनः कालो हि सर्वदः ॥ १४६ ॥ रुद्धोऽरिभिर्बहुतरैः सुधीस्तदपिकं श्रयेत् । क्रूरैः कर्मभिराक्रान्तो योगं जीव इवोत्तमः ॥ १४७ ॥ न विश्वसेप्रियोक्तीनां सद्वेषाणां विशेषतः । भृगयूनां स्मरन्गीतं मृगयूँनां कुलान्तकम् ॥ १४८ ॥ अन्तर्वसन्नलक्ष्यात्मा वर्तेत बलिनि द्विषि । प्रहरेत स्फुटीभूय काले रोग इवाणिनि । १४९ ॥ वकोटकपटः सर्पकुटिलः सिंहविक्रमः ।
काकातिशङ्कितो गृध्रदीर्घदर्शी सदा भवेत् ॥ १५० ॥ १. इन्द्रम्. २. 'यत्र' ख. ३. 'न मुञ्चति' क. ४. 'तत्' ख. ५. णत्वाभाव.. श्चिन्त्यः. व्याधानाम्. ६. 'युवादेर्न' इति णत्वनिषेधः.
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४३६
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काव्यमाला |
अनात्मज्ञतया स्वल्पबलो बलिनि संपतन् ।
स भवेद्वात्यया गच्छन्तृणमूल इवानले ॥ १११ ॥ अलुब्धैर्गुणिभिर्वीरैर्गुणग्राहिभिरुज्ज्वलैः ।
सुहृद्भिर्यः परीतस्तं विपदामपदं विदुः ॥ ९९२ ॥ दृष्टान्तौघ कथास्यूतैः शुचिभिर्वचनैरिति । आपद्धर्मं दिशत्सिन्धुनन्दनोऽनन्दयन्नृपम् ॥ ११३ ॥ मुहुः पुलकयनङ्गं गङ्गासूनुवचः स्मृतेः । अगादगारमुवींन्दुस्ततः सहचरैः सह ॥ १९४ ॥ तदा विदुरषष्ठानां मतिस्तेषामजायत । त्रिवर्गज्ञानपीयूषनिपीतप्रीतिशालिनाम् ॥ १५९ ॥ (इत्यापद्धर्माः ।)
अपृच्छदापगापुत्रं पुनरेत्य नरेश्वरः । धैर्य विनष्टबन्धुश्रीः कथं मर्त्यः श्रयेदिति ॥ ११६ ॥ पीतप्रशमपीयूषविशदोद्गारसोदराम् ।
भीष्मो वाचमथोवाच धिया वाचस्पतिद्युतीः ॥ १५७ ॥ राजन्दुःखौघवात्याभिर्नृणां प्रचलदात्मनाम् । संसारसारासारत्वविचारः स्थैर्यकारणम् ॥ १९८ ॥ क्षणिकैव स्मृतिः शोकस्तदायुस्तैदमुं स्वयम् । नष्टारं नाशयित्वाशु यशो गृह्णन्ति धीधनाः ॥ १९९ ॥ शोचन्ति हि धनं नश्यन्मूढानायुः सदा गलत् । त्रैलोक्यैश्वर्यदानेऽपि यल्लवोऽपि न लभ्यते ॥ १६० ॥ कालैक्यशालिनं विश्वव्यापिनं संविचारयन् । गलन्मिथ्यामतिर्नष्टशोकं क्व कुरुतां कृती ॥ १६१ ॥
ममकारनकारं ये कुठारं दुःखभूरुहाम् । कदाचिन्नैव मुञ्चन्ति ते सदानन्दमन्दिरम् ॥ १६२ ॥
१. 'प्रबल' क. २. 'क्षणिकैकस्मृतिः' क. ३. 'स्तदनु' इति ख- पुस्तके शोधितम्.
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१२शान्तिपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
४३७ यद्यायुर्व्ययतो बन्धौ वर्धमाने मुदं वहेत् । तत्कि शोचति लोकेऽस्मिन्क्रमान्निःशेषितायुषि ॥ १६३ ॥ अभावादागता गच्छन्त्यभावे सर्वजन्तवः । यदि कोऽप्यग्रतो याति तन्मन्दैः शोच्यते स किम् ॥ १६४ ॥ कः केन शोच्यतां जन्तून्कालो बालानिवात्मनः । अभावद्वयहस्ताम्यामितश्चेतश्च चालयेत् ॥ १६५ ॥ सोऽर्थः सन्नप्यसन्युक्त्या भुक्तो नार्जित एव यः। दैवादसत्तां यातेऽस्मिन्तन्त सोचन्ति दुर्धियः ॥ १६६ ॥ योगे क्षेमे प्रणाशे च ये सदा दुःखदायिनः । तैरनित्यसुखदं धर्म क्रीणन्ति कोविदाः ॥ १६७ ॥ उपान्तदीप्तदावेषु विलासोपवनेष्विव । अवश्योद्यद्वियोगेषु संयोगेषु रमेत कः ॥ १६८ ॥ बन्धोदेहे यदि स्नेहस्तन्मृत्यौ तं दहन्ति किम् । चेत्तदात्मनि कः शोको नित्यादृश्यस्य तस्य तत् ॥ १६९ ॥ अभावायैव भावाः स्युः शोकायैव तदीशिताः । चतुर्वर्गव्ययायैव तद्रागस्तं सुधीस्त्यजेत् ॥ १७० ॥ करिष्यामीति कृत्यानि नो विलम्ब्यानि वेत्ति कः । उन्मेषं वा निमेषं वा कं मृत्युः स्थिरयिष्यति ॥ १७१ ॥ न वर्गमपवर्ग च जडा गृह्णन्ति तत्फले । दानाय वित्तं तपसे दौस्थं दत्ते मुंहुविधिः ॥ १७२ ॥ धनवान्यः सुखी शुद्धो निराधित्वेन निर्धनः । हीनोऽपि न लगेत्कृत्ये वराकोऽन्यः करोति किम् ॥ १७३ ॥ तापकृद्वर्धमानैव लब्धे लैब्धेन्धने धने ।
तृष्णाग्निकीला संतोषपीयूषेणैव शाम्यति ॥ १७४ ॥ १. 'शोचता' ख. २. प्रागभावप्रध्वंसाभावेत्यर्थः. ३. 'अभावभावाः शोकाः स्युः ख. ४. "विधिर्मुहुः ख. ५. 'सुस्थो' ख. ६. 'लब्धे धने' क. 'लब्धे धनेन्धने' इति भवेत.
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४३८
काव्यमाला |
तृष्णातिरस्करिण्यैव पिहितोऽस्ति सुखोदयः । यावत्युत्सार्यते सेयं तावानयमवेक्ष्यते ॥ १७९ ॥ आशासु दत्तदृक्सौख्यं पुरस्थमपि नेक्षते ।
यदा निवर्तते ताभ्यस्तदा पश्यति तज्जनः ॥ १७६ ॥ येषां न लब्धुमारम्भो न स्थम्भो लब्धवर्जने । 1 जीवन्तोऽपि विमुक्तास्ते सुखे दुःखेऽपि हर्षिणः १७७ ॥ ते धन्याः कुलधर्मार्थानप्युलङ्घय स्थिता मतिः । येषां मोहतमश्छन्नपरमार्थप्रदीपिका ॥ १७८ ॥ आत्मा शुद्धोद्धतज्ञानभनबन्धनसंशयः ।
सामरस्यं समायाति विष्णुना विश्वहेतुना ॥ १७९ ॥ योग दीपदलन्मोहध्वान्त स्पष्टे न पश्यति । नयनेनान्तरेणान्तः परमं पुरुषं कृती ॥ १८० ॥ इति निखिलविशेषधर्मवेदी प्रचुरपुराणचरित्रचित्रिताभिः । अदिशदवनिवल्लभाय वाग्भिर्मृवभुवि वीरवरः स मोक्षधर्मम् ॥ १८९॥ (इति मोक्षधर्माः । ) भेजे श्रीजिनदत्तसूरि सुगुरोर हन्मतार्हस्थितेः पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती |
माधुर्याध्वनि बालभारतमहाकाव्येऽत्र शान्ति गतं
शान्तेः पर्व तदास्यतो जयमधुस्यन्दे मृदु द्वादशम् ॥१८२॥
इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्य श्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारते महाकाव्ये वीराङ्के शान्तिपर्वणि धर्मत्रयकीर्तनो नाम चत्वारिंशः सर्गः ।
एतस्मिन्नेकसर्गेण शान्तिपर्वण्यनुष्टुभाम् ।
शतमेकं युता षड्मिरशीतिरभवत्तथा ॥
समाप्तं चेदं शान्तिपर्व |
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१३ अनुशासनपर्व - १ सर्गः ] बालभारतम् ।
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४३९
अनुशासनपर्व |
प्रथमः सर्गः ।
पाराशरः पातु स मां तमालशितिद्युतिर्दैत्यभिदोऽवतारः । वाच्याय विश्वकहिताय देवी वागेव जिह्वाजनि यन्मुखाजे ॥ १ ॥ अथेदमाकर्ण्य धुनीतनूजा जानि रुन्मुद्रितशोकमुद्रः । दीनाननश्रीरकृत प्रलापान्पापानुशङ्की सुकृतस्य सूनुः ॥ २ ॥ अहो जनैः साध्वपि यत्क्रियेत प्रियेतरं वक्ति तदप्यकर्म । राज्यं तु राज्ञां नरकान्तमेव धियां तदर्थेऽपि हैतस्वसार्थम् ॥ ३ ॥ अकर्षि कूर्च नमतः सहर्ष बालेन ताम्बूलरसाय यस्य ।
मया हहा सोऽपि भवान्निजघ्ने पितामहः कामहताशयेन ॥ ४ ॥ द्विषा दर्शन कौतुकाय येनास्त्रविद्यामहमापितो याम् । विग्धिमयाघाति तया स एव पितामहः कामहताशयेन ॥ १ ॥ येनात्मनैवाभरणैर्विभूष्य सर्वाङ्गमुत्सङ्गमवापितोऽहम् ।
क्षिप्तः क्षितौ ही स मया शराङ्कः पितामहः कामहताशयेन ॥ ६ ॥ न मां विना यस्य रतिर्मया स सुरासुरश्रेणिभिरप्यजेयः । हा मर्म पृष्ट्वा निशि घातितोऽह्नि पितामहः कामहताशयेन ॥ ७ ॥ (कुलकम् )
इति प्रलापातुरमतिभागी भागीरथीसूनुरधीशमुर्व्याः । भक्तयुज्ज्वलीभूतमनस्थमातृतरङ्गभङ्गायितवागुवाच ॥ ८ ॥ मा वत्स दावच्छविना विनाशं नयस्व शोकेन विवेकवल्लीः । हन्ता हि न त्वं न मृतिर्न कालो वयं हतास्ते निजकर्मणैव ॥ ९ ॥ मृदार्द्धिपिण्डैरपि कामकृत्यक्षणक्षणान्यान्यशरीरिरूपैः ।
कर्माणि वालैकराणि मुक्तश्रमं रमन्ते वत विश्वजीवैः ॥ १० ॥
सदा सदाचाररते निरस्तकर्मग्रहेऽनन्यसमे तु मर्त्ये । आयुः स्थिरं स्यादभियाति लक्ष्मीः कुलं कलाश्वोज्ज्वलतां भजन्ते ११
१. 'भूतानि' क. २. 'राज्ञां हि राज्यं' ख. ३. 'हित' क. ४. 'भङ्गीयित' क ख.
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काव्यमाला |
मतः सदाचार इति प्रतिष्ठामयेत मर्त्यश्चरितेन केन । इदं तदा पृच्छति मेदिनीन्दौ जगाद गीर्वाणधुनीतनूजः ॥ १२ ॥ अर्थिव्यथा पारनिदानदानो नकारकारागृहचित्तवृत्तिः । अदेयदेवपरप्रभेदमुक्तो विमुक्तैरपि किं न मान्यः ॥ १३ ॥ अर्तीरुपेतस्य रिपोरपि स्वं तपो वपुः श्रीव्ययतोऽपि निघ्नन् । अक्षुण्णदाक्षिण्यविधिर्विधत्ते दिशो यशोभिर्विशदाः सदापि ॥ १४ ॥ अस्मत्पुरा पातकघातकोऽयं महोपकारीति कृतापकारम् । श्लिष्यन्ति हृष्टाः सहसा हसन्तः सन्तः क्षमासंततिचारुचित्ताः ॥ १५॥ सहस्रधा बद्धपरापराधं विरोधिनं लब्धमपि कुधान्धः । वधोदये दैन्यमयं दयालुरभ्यर्च्य निर्मुञ्चति निर्मलात्मा ॥ १६ ॥ परः परामर्तिमियति येन जागर्ति येनात्मनि नाम दैन्यम् । सत्यत्रतः सत्यमपीहते तन्नवध्यमानोऽपि सुधीः सुधीरः ॥ १७ ॥ निजानि जानन्नपि जातजातिस्मृतिर्भवेऽन्यत्र निधीकृतानि । सुखोपलम्यान्यपि नाददीत द्रव्याणि निर्व्याजनयो मनीषि ॥ १८ ॥ स्त्रीभिः प्ररूढार्तिभिरौषधत्वं नीतस्य लुप्येत न यस्य चेतः । न तत्कलां धर्मकलत्रचारी न ब्रह्मचारी च शुभौ लभेते ॥ १९ ॥ इयं महामोहकरीत्यरक्तः परोपकारप्रथनेति रक्तः । प्रयुक्तभोगप्रसरेत्युदासः सदापि दक्षः श्रियमीक्षते स्वाम् ॥ २० ॥ श्लथीकृतोदामतपो जपोक्तिः (?) सुखैरशेषैर्विषयोपयुक्तैः । जानन्विभोः पञ्चमुखस्य मूर्तिमात्मानमानन्दयते महात्मा ॥ २१ ॥ यथोक्तदानव्यसनी यथोक्तश्राद्धी यथोक्ताखिलतीर्थसेवी । यथोक्तसांसारिकतात्विक श्रीर्जनो मनोऽन्यानि यशांसि धत्ते ॥ २२ ॥ धन्याः सुधाधामकलाकिरीटमाराधयन्ति श्रितभक्तयस्तम् । यस्य प्रभावं य इवाद्भुतश्रीर्वक्तुं विविक्तो हरिरेव देवः ॥ २३ ॥ इत्युक्तिभाजि धुनीतनूजे भूजेतरि प्रश्नपरे मुरारिः । वाचं समुच्चारयति स्म कुक्षिप्रक्षिप्तसप्ताम्बुधिशब्दमन्द्रम् ॥ २४ ॥ १. 'भयेन' ख. २. स्वाधीनीकुर्वन्.
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१३ अनुशासनपर्व - १ सर्गः ] बालभारतम् ।
सर्वज्ञमानी सततोद्यदुद्यज्ज्ञानप्रधानोऽपि स योगिवर्गः । व्योम्नो यदङ्गाष्टमभागभावभाजो न पर्यन्तपदं ददर्श ॥ २९ ॥ ईदृग्विधाः सन्ति न रोणि रोम्णि ब्रह्माण्डपिण्डाः कति यस्य भर्तुः । संभूय तत्तद्गतविष्णुधातृश्रेण्यापि वर्ण्य क्व नु यन्महत्त्वम् ॥ २६ ॥ चक्षुश्चलं चुम्बति यद्यदग्रे लोलं मनः श्लिष्यति यद्यदाशु | वाक्स्वैरिणी यद्यदुपैति तत्तन्मुक्तिप्रदं यन्मयविश्वबोधात् ॥ २७ ॥ यन्मौलिजस्वेदजलप्रवाहनिस्यन्दसंदोहनदैकदेशे । नाभीसरोजस्थित विश्वकर्ता हरिस्त्रिलोकीजठरोऽपि शेते ॥ २८ ॥ स एव देवः परमस्तमांसि महांसि चातीत्य कृतप्रतिष्ठः । इच्छाक्रियाज्ञानकृतप्रेशस्तिलुप्तत्रिलोको जयति त्रिनेत्रः ॥ २९ ॥ इदं वदन्नेव महेशमन्तर्निधाय स ध्यानदृशावतस्थे । रोमाञ्चवद्भिः करसंपुटानि भालेऽन्यधीयन्त युधिष्ठिराद्यैः ॥ ३० ॥ अथो तथोद्यन्महनीयमोहनिशावसाने क्षणजागरूके । जनेऽखिलेऽस्मिन्कृकवाकुवाक्यध्वनिर्धुनीसूनुरिलापमूचे ॥ ३१ ॥ चेतश्चलं गच्छति यत्र यत्र तृणेऽपि तत्तत्कुशला रसेन । ध्यायन्ति तत्कालभवद्भुजंगगङ्गादिशृङ्गारिततत्स्वरूपम् ॥ ३२ ॥ तदीदृगेकैकगुणाश्रितोऽपि कर्मावलीं कर्मकरीं करोति । यस्त्वीदृशाशेषगुणाभिरामः समानधाम्नः परमस्य धाम ॥ ३३ ॥ धर्मज्ञ सत्कर्मनिधे कुकर्महतेषु वंश्येषु वृथाभिशङ्की । तन्मा मुहः पालय भूमिपाल महीमहीनाखिलधर्मकर्मा ॥ ३४ ॥ विपगतं सिन्धुसुतं स्वशिष्यं द्रष्टुं तदा वाक्पतिरागतश्च । नत्वार्थितः कर्मगतीः शरीरशरीरिणोराह च खं गतश्च ॥ ३५ ॥ प्रणम्य भूपेन जगत्स्वरूपं पृष्टस्तदा नाकनदीकुमारः । समग्रमावेदयति स्म वेदश्रुत्यादिविद्यार्णवपारदृश्वा ॥ ३६ ॥
४४१
१. प्रथमद्वितीयपादव्यत्यासः ख पुस्तके. २. 'प्रशस्ते' ख. ३. 'शङ्काम्' क. ४. 'जगत्स्वकृतं ' ख.
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४४२
काव्यमाला ।
सदःपदे निर्ध्वनिके तदानीं व्यासाज्ञया शंतनुनन्दनेन । ते प्रेषिता जग्मुरथो रथोर्मिपश्चात्पतद्वायुरयाः पुराय ॥ ३७ ॥ द्विजैस्तदानीं परिषेव्यमाणः खः सिन्धुजन्मा विमलात्मवृत्तिः । शिलीमुखश्रेण्यनुविद्धमूर्तिर्बभौ मरालैरिव पद्मखण्डः ॥ ३८ ॥ निजानिजानामभिदानिदानं दानी तदा नीतिपरः पुरान्तः । स धर्मकर्मा समयमानकर्मा भिन्नाघमर्मा नृविभुर्बभासे ॥ ३९ ॥ भजत्यथाशां धनदस्य दीने कालक्रमक्षीणवसौ दिनेशे । जनार्दनाद्यैः सह भूमिकान्तः पितामहोपान्तमहीमियाय ॥ ४० ॥ उन्मीलितध्याननिमीलिताक्षं मन्दाकिनीनन्दनमिन्दुकीर्तिः । युधिष्ठिरस्त्वां नमतीत्युदीर्य नत्वा निषण्णो नृपतिः पुरस्तात् ॥४१॥ भृशं विशब्दैरवलोक्यमानमुखारविन्दः परमर्षिवृन्दैः । दृशौ समुन्मील्य सभां निभालय गङ्गात्मभूर्भूमिविभुं बभाषे ॥ ४२ ॥ दिष्ट्या दृष्टोऽसि तपस्तनूज सुप्तोऽस्मि मासद्वयमाशुगेषु । इहोत्तराभाजि रवौ भवन्तमामन्त्रयाम्येष शिवाय धान्ने ॥ ४३ ॥ उक्त्वेति किंचित्परिवृत्तचक्षुर्भीष्मोऽम्बिकास्नुमिदं जगाद । न शोचनीयं भवताभितोष्यः संतोषभाजा सुत एष राजा ॥ ४४ ॥ अथाच्युतं क्लृप्तनुतिर्विनम्य गन्तुं तमामन्त्र्य तदाज्ञयाशु | प्राणानिलस्तम्भनशक्तिनिर्यच्छल्यौघमङ्गं मुमुचे महात्मा ॥ ४९ ॥ अभूतपूर्वामहिमद्युतोऽपि च्छायां क्षणं नर्तयदङ्गसीम्नि | भित्त्वा शिरः शंतनुनन्दनस्य ज्योतिर्विहायो विमलं विवेश ॥ ४६ ॥ निर्माय दिव्यां शिविकां युयुत्सुर्धृतातपत्रः क्षितिपेन भीष्मः । नीलश्चितायां चितचन्दनायां भीमार्जुनान्दोलितचामराग्रः ॥ ४७ ॥ प्रभोर्मिमैत्र्यादिव पावकेन क्रोडीकृतायामथ भीष्ममूर्तीौं । राज्ञानुगैः साकमकारि नाकतरङ्गिणीवारिणि वारिकृत्यम् ॥ ४८ ॥ हा हा वत्स शिखण्डिनापि मशकेनेव त्वमस्तः करी चेति स्वीकृतपूर्वमूर्तिरैतुलाक्रन्दाथ मन्दाकिनी ।
१. 'शान्तनु' ख. २. ' त्वमत्तः' क. ३. 'रकुला' क.
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१३अनुशासनपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
४४३ इन्द्राद्यैरपि दुर्जयस्तव वसुः सूनुर्पतः स्वेच्छया
मा रोदीरिति बोधिता मधुजिता निस्पन्दमीनाभवत् ॥ ४९ ॥ आनम्य धूर्नटिजटावलयस्य विश्व
कल्याणपुण्यकैलसस्य जलं त्रिमार्गाम् । आविर्भविष्यदधिकाधिकवीरसंय.
द्भूपः पुरी सहचरैः सहितस्ततोऽगात् ॥ ५० ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मताहस्थितेः
पादाजभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती। तद्भाषाभुवि बालभारतमहाकाव्येऽनुशास्तिक्रम
श्रेयाश्रीसदनं त्रयोदशमिदं पर्व प्रपेदे शमम् ॥ ५१ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये वीराङ्केऽनुशासनपर्वणि भीष्मस्वर्गगमनप्रकीर्तनो नामैकचत्वारिंशः सर्गः ।
अनेनैकेन सर्गेण पर्वण्यत्रानुशासने । अनुष्टुभां विनिर्दिष्टा सप्ततिः षड्भिरुत्तरा ॥
समाप्तमिदमनुशासनपर्व।
१. 'वपुः' ख. २. 'निष्पन्द' क. ३. 'कलभस्य' क. ४. 'त्रिमार्गम्' क.
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४४४
काव्यमाला।
अश्वमेधपर्व। भवाकूपारपारद्रुः पाराशर्यमुनिर्ददे। नैति यद्भारतीगुच्छस्तुच्छभाग्यस्य भोग्यताम् ॥ १॥ स्रवन्तीसूनुशोकाब्धौ क्ष्मापतिः पतितस्ततः । कौरवोत्तंसकंसारिव्यासैराकृष्यत द्रुतम् ॥ २ ॥ तदा तदुक्तिभिः पापशाखिप्लोषिशिखित्विषे । अधत्त हयमेधाय मेधामयमिलाधवः ॥ ३ ॥ विग्रहग्रस्तनिःशेषलक्ष्मीरेष मैखोदये । दुःखं दधौ गुणाधाने धिया हीन इवाधिकम् ॥ ४ ॥ मखशेषो मरुत्तस्य राज्ञः कनकसंचयः । अङ्के हिमाचलस्यास्ति हेमाचलकुमारवत् ॥५॥ तमाप्नुहि महीनाथ समानुहि महामखम् । विधेहि विश्वमनृणं पिधेहि दुरितच्छटाः ॥ ६ ॥ इत्युक्त्वा नृपमामन्त्र्य वन्द्यमानो विमानिभिः । द्यां ययौ तडिदुल्लासः श्रीव्यासः शमिभिः समम् ॥ ७ ॥
(विशेषकम्) सभोद्यानविहारेऽथ तां गीतां पुनरैन्द्रिणा । पृष्टोऽनुगीतामाचष्ट कंसारिः सा पुनः व गीः ॥ ८ ॥ ततः कृतमखारम्भसमागमनसंविदा । गत्वा मुरारिणाकारि द्वारिका हर्षकारिका ॥ ९॥ हिमाद्रितो महादेवसेवावल्लिफलान्यथ ।
आनिनाय महीजानि तानि हैमानि यज्ञधीः ॥ १० ॥ वसत्येव हरिदेवः सत्यसूनोः सदा हृदि ।
तदाशु तदभिप्रायं मत्वेवायं यदागतः ॥ ११ ॥ १. 'भवकूपार' क-ख. २. 'पारंगः' क. ३. 'महोदये' क. ४. 'विधेहि' क. ५. 'इत्युक्त्या ' क.
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१४अश्वमेधपर्व-१सर्गः]
बालभारतम् ।
द्रौण्यस्वदग्धं कालेऽस्मिन्नसूत सुतमुत्तरा । प्रतानिनीव दुर्वातजलका निष्कलं फलम् ॥ १२ ॥ ततः कुन्तीसुभद्रादि क्रन्दाहृदयो हरिः । तं दृष्टयाजीवयदृष्टया सद्यो भेकमिवाम्बुदः ॥ १३ ॥ यतो जातः परिक्षीणो कुरूणामयमन्वये । परीक्षिदिति नामानमेनमूचे तदच्युतः ॥ १४ ॥ अथ व्यासाज्ञया राज्ञा यज्ञाय बहुकौतुकः।। संभारस्फाररत्नाढ्यः प्रावय॑त महाधनः ॥ १५ ॥ कृष्णसारमथोत्सृज्य हैरिमर्जुनरक्षितम् । विधिना चैत्रशुक्लान्ते दीक्षितः क्षितिपोऽभवत् ॥ १६ ॥ कोऽपि हन्त न हन्तव्य इति राजाज्ञयार्जुनः । क्षत्राणि नमयन्नेव तृणानीव समीरणः ॥ १७ ॥ प्राग्ज्योतिषपति जित्वा वज्रदत्तं त्रिभिर्दिनैः । सिन्धुदेशं ययौ युद्धचतुरस्तुरगानुगः ॥ १८ ॥ (युग्मम्) अथाङ्के बिभ्रती बालं मरालमिव बाष्पदृक् । अवश्यायलवाकीर्णसरोजेव सरोजिनी ॥ १९ ॥ मृधोग्रसैन्धवक्रोधधूमध्वजपयोधरम् । एत्यार्जुनं दयालीनं दीनाम्यधित दुःशला ॥ २० ॥ (युग्मम्) भ्रातर्भगाभिधानेन भवाभोग इवाङ्गिनाम् । अभावम॑सृजत्पुत्रस्त्वन्नाम्नैव श्रुतेन मे ॥ २१ ॥ पौत्रो जयद्रथस्यायं शिशुः स्वस्त्रे(स्त्री)यजस्तव । गुरुभवान्भवत्वस्य राज्यश्रीपाणिपीडने ॥ २२ ॥ खस्ने(स्त्री)यस्यैवमश्रेयः श्रुत्वा निन्दन्निजोद्यमम् ।
बालं भूपालयन्नैन्द्रिर्बान्धवीं तामबोधयत् ॥ २३ ॥ १. 'झलक्का' ख. 'जलोल्का' इति ख-पुस्तके टिप्पणीगतः. २. 'परिक्षि' क. ३. 'हरिरर्जु' क. .४. 'अथाङ्गे' ख. ५. 'भी' क. ६. 'मसृजत्' क. ७. 'सुतः' ख. ८. 'अमोघमम्' क.
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४४६
काव्यमाला |
अथार्जुनो ययौ तेजः शुष्यद्वैरियशोजलः । मणीपूरपुरीमर्कः पाशपाणिपुरीमिव ॥ २४ ॥ बलेन बभ्रुवद्वभ्रुवाहनस्तत्पुरीपतिः । सत्पुत्रः पितृभक्त्याग्रमाजगाम ननाम च ॥ २९ ॥ सुतस्य तस्य तेजांसि द्रष्टुमुत्कण्ठितस्ततः । वाचमूचे चमूचेतश्चमत्कारकरों नरः ॥ २६ ॥ न मे विमुक्तसंग्रामस्त्वत्प्रणामः प्रियंकरः । शूद्राणां वयसा ज्यैष्ठयं क्षत्राणामूष्मणा पुनः ॥ २७ ॥ पार्थ प्रिया तदोलूपी भूपीठ भेदयो ( ? ) त्थिता । महाभुजं भुजंगीय (म) मब्रवीद्बभ्रुवाहनम् ॥ २८ ॥ अयं वत्स भवत्सत्वविलोकनकुतूहली । त्वत्पिता तापितारातिरातिथ्यं मृधमीहते ॥ २९ ॥ निशम्येदं तदारुह्य मुह्यत्कृत्यपथो रथम् । चापमारोपयत्साकं स्वभ्रुवा बभ्रुवाहनः ॥ २० ॥ पितृपुत्रावथो विश्व स्वं दर्शयितुमक्षमौ । हियेव चक्रतुः काण्डच्छन्नार्ककिरणं रणम् ॥ ३१ ॥ गत्वा दिवं भुवं स्पृष्ट्वा पातालस्य तैलेऽविशन् । एतयोर्यशसां स्थानं दर्शयन्त इवेषवः ॥ ३२ ॥ अथार्जुनिः पृथासूनुर्हतसारथितो रथात् । उत्ततार गिरेः शृङ्गादिव क्रुद्धो मृगाधिपः ॥ ३३ ॥ अपतन्मणिपूरेन्द्रमार्गणैरैन्द्रिमार्गणाः । छिन्नाः शिखित्विषो धाराधरधाराभरैरिव ॥ ३४ ॥
स्वनन्दनमृघास्कन्दसानन्दहृदयस्तदा । पृथाभूः प्रथयामास शिथिलं शिथिलं शरान् ॥ ३५ ॥ बभ्रुवाहनबाणेन गाढं हृदि हतोऽर्जुनः ।
आकुलः कुलिशाग्रेण कुलशैल इवापतत् ॥ ३६ ॥
१. 'तत्पुत्रः ' ख २. 'हृदयो' ख; 'मिदयो' ख- शोधितः ३. 'पथे' क. ४. 'विश्वैः '
क; 'विश्वे' ख. ५. 'तलं' ख. ६. 'हृत' क. ७. 'घराधारा' क.
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१४ अश्वमेधपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
जगत्रयजयोन्मुद्रे रुद्रेणाप्यजिते युधि । शब्दोऽभूद्दिवि हाहेति तिमिन्नेऽर्जुने तदा ॥ ३७ ॥ पतितं पितरं भानुमिवालोक्य विमूर्च्छितः । सूर्यकान्तिशिलोत्थोग्निरिव चित्राङ्गदाङ्गजः ॥ ३८ ॥ तत्र चित्राङ्गदागत्य दृष्ट्वा सुतहतं पतिम् । विललापतमां तापतमांस्येकत्र बिभ्रती ॥ ३९ ॥ हा चित्तेश हहा कान्त हहहा शान्तमानसः । किं धाम्नि मम जायायाः समायातस्य तेऽभवत् ॥ ४० ॥ चिरागतोऽप्यनाप्य स्वामिन्दास्योचितं जनम् । आतिथ्येन तनूजस्य सुखितः स्वपिषीति किम् ॥ ४१ ॥ इत्युचैः प्रलपन्ती सा रोदयन्ती खगानपि । सपत्नीमुरगीं गाढमालिङ्गय क्ष्मातलेऽलुठत् ॥ ४२ ॥ अथ संज्ञां ममासाद्य स्वं निन्दन्विलपन्मुहुः । मृत्यौ दधे धियं दुःखवाहनो बभ्रुवाहनः ॥ ४३ ॥ सत्या हि सुतया ध्यातस्तदायातस्तलाद्भुवः । भोगिलोकशिरोरत्नमिव संजीवनो मणिः ॥ ४४ ॥ यदैव सै तया दत्तो हृदये हृदयेशितुः । तदैव दैवमाक्रम्य तस्य स्वात्मानमानयत् ॥ ४९ ॥ हर्षाश्रुधौतशोकाश्रुतापदुःखितचक्षुषम् । सुप्तोत्थित इवापश्यदथ पार्थः परिच्छदम् ॥ ४६ ॥ अथोचे वाक्सुधाकूपी तमुलूपी कृताञ्जलिः । नाथ धन्योऽसि धन्यानामेव पुत्रात्पराजयः ॥ ४७ ॥ किंतु जघ्ने यदा भीष्मः शप्तोऽसि वसुभिस्तदा । वध्योऽस्त्वसौ सुतस्येति कोऽन्यथा त्वज्जयी भवेत् ॥ ४८ ॥ मत्पिता मत्कृपाद्रेण ते भक्त्याभ्यर्थितस्तदा । त्वत्कालरजनिव्योममणि प्राहुरमुं मणिम् ॥ ४९ ॥
१. 'लाप्य क. २. 'नभो' क. ३. 'सुतया' क.
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काव्यमाला |
इत्युक्त्या प्रीतिमान्पार्थस्ते पत्न्यौ च सुतं च तम् । आमन्त्र्यार्णवमर्यादां क्ष्मां जिगाय हैयानुगः ॥ ९० ॥ सर्वैर्यज्ञे समेतव्यमित्याज्ञाप्य महीपतीन् । उत्सवी नर्तयन्कीर्ति प्राप पौरंदरिः पुरम् ॥ ९१ ॥ राज्ञाथ रुक्मसर्वाङ्गः कारितः क्रतुमण्डपः । दानद्वेषि निशापेषि नित्यवासरवानिव ॥ १२ ॥ भूदेवनरदेवानां प्रियमेलकतीर्थवत् । हृष्यद्विश्वमनोभावः प्रावर्तत ततः क्रतुः ॥ ९३ ॥ अथ सत्यसुतप्रीतिकृते सत्यवतीसुतः । स्वयं क्रियाचयं चक्रे दिव्यदीक्षाकृतक्षणः ॥ ५४ ॥ विशुद्ध ध्यानदीधित्या महामखशिखित्विषा । दानकाञ्चनकान्त्या च राज्ञो भिन्नं त्रिधा तमः ॥ ५५ ॥ क्रियान्तरेषु देवर्षिसिद्धगन्धर्वकिंनराः । मङ्गलानि जगुस्तत्रानृत्यन्नप्सरसो रसात् ॥ ९६ ॥ धूमधूमच्छलोत्क्षिप्तक्ष्मापपापं हविर्भुजम् । धिन्वन्तो विधिना यज्ञकर्मपारं ययुर्द्विजाः ॥ १७ ॥ अथ कृष्णमुनीन्द्राय दक्षिणां क्षोणिपः क्षितिम् । ददौ दानैकचतुरश्चतुरब्धिसरोजिनीम् ॥ ५८ ॥ कोटी हाटककोटीनां विप्रेभ्यः संप्रदाय सः । द्वैपायनगिरा प्रादुर्वी मुर्वीधनः पुनः ॥ ९९ ॥ क्रीडन्तो मेरुकूटाभैः स्वर्णकूटैर्नृपार्पितैः । महामुदो महदेवा देवा इव तदा बभुः ॥ ६० ॥ अथौचित्य लसत्कृत्यः सत्कृत्य विषयाधिपान् । नृपतिः प्राहिणोत्तेऽपि तद्गुणग्राहिणो ययुः ॥ ६१ ॥ घृतदुग्धनदीमुग्धस्निग्धान्नशिखरित्रजः ।
राज्ञा तेने तदा ब्रह्मसंघभोज्यमहोत्सवः ॥ ६२ ॥
१. 'सहानुगः' ख. २. 'धूमभम' क.
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१४ अश्वमेधपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
अथाम्बिकेयं गान्धारीं विदुरं संजयं तदा । पार्थिवोऽपूजयत्पुण्यप्रत्यक्षा इव देवताः ॥ ६३ ॥ तदा च प्राचरतत्र सत्रधात्रीतले बिलात् । नकुलः स्वर्णवर्णैकपार्श्वः पार्श्वे द्विजन्मनाम् ॥ ६४ ॥ रूपविस्मापितान्भूपमुख्यान्विस्मापयन्पुनः । वाचमव्याकुलोsवोचन्नकुलो नूकुलोचिताम् ॥ ६५ ॥ प्रीतेन्द्रादिसुरः प्रीतश्रीव्यासादिद्विजो मखः ।
व्यनक्तु सक्कुप्रस्थस्य व तुलां कलयाप्ययम् ॥ ६६ ॥ वित्तवृष्टिमयो दृष्टिमदायैव महोत्सवः । अल्पः फले यथानल्पकायच्छायो वटद्रुमः ॥ ६७ ॥ स व्याचष्ट द्विजैः पृष्टः सतुप्रस्थकथामथ । पुण्याङ्करः कुरुक्षेत्रे द्विजराजः पुराजनि ॥ ६८ ॥ शिलोञ्छवृत्तेः कार्येन कृशस्तस्य भवोऽप्यभूत् । किं चित्रं शत्रवोऽपि स्युः सतां कष्टेन कष्टिनः ॥ ६९ ॥ दुर्भिक्षे महति क्षीणशिले क्षोणितलेऽखिले । भ्रान्त्वा क्षोणितलं सत्कुप्रस्थं प्राप कदापि सः ॥ ७० ॥ विधिमावश्यकं कृत्वा वैश्वदेवादिकं वशी । भोक्तुं स्थितोऽर्थिनं प्रेक्ष्य प्रियामुत्पुलकोऽवदत् ॥ ७१ ॥ प्रिये पश्य प्रसन्नोऽद्य मम धर्मो व्रतादिभिः । अर्थेषु सत्सु कालेऽत्र दर्शयन्प्राप्तमर्थिनम् ॥ ७२ ॥ प्रशंसन्नपि सत्पात्रं दाने कालविलम्बकृत् । तदर्तिक्षणसत्तायाः पापं लुम्पति कैर्व्रतैः ॥ ७३ ॥ . अथ हर्षाश्रुपूर्णाक्षिपुटः पुलकमुद्वहन् । क्षुधितः स्वस्वभागानं क्षुधितार्थिने ददौ ॥ ७४ ॥ दध्युस्तस्य द्विजेन्द्रस्य प्रिया पुत्रः स्नुषाप्यथ ।
अस्मै देयं स्वभागान्नमन्नेनानेन तृप्यतु ॥ ७९ ॥
१. 'अर्थिनं' ख. २. 'दद्मः' ख.
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काव्यमाला।
इत्थं मनोरथैस्तेषां न शान्तास्य क्षुधा तदा । ते सर्वे स्वस्वभागान्नं तदा तस्मै ददुर्मुदा ॥ ७६ ॥ तेषां सुकृतिनामन्नस्तृप्तोऽयमतिथिगौ । धर्मः सत्त्वमहत्त्वाद्वः प्रीतोऽहं सिद्धिमाप्नुत ॥ ७७ ॥ इत्युक्त्वान्तर्हिते धर्मे दुष्कर्मेन्धनवह्नयः । जग्मुस्तिग्मांशुमानैस्ते विमानर्देहिनो दिवम् ॥ ७८ ॥ जगाम तामहं सक्तुगन्धसंबन्धतो धराम् । विप्रोच्छिष्टपयः स्पृष्टं पार्श्व हैममभून्मम ॥ ७९ ॥ द्वितीयपार्थहेमत्वचिन्तया कुत्र कुत्र न । द्विजभोज्यभुवि भ्रान्तः संप्राप्तोऽत्रापि संप्रति ।। ८० ॥ क्वापि प्रापि पुनस्ताहक्प्रीत्यै नायं प्रभाकणः। सक्तुप्रस्थस्य साम्यं तत्कि क्रामतु क्रतुः शतम् ।। ८१ ।। इत्युदित्वा गते तत्र चित्रकान्तावदर्शनम् । भूकान्ते संभ्रमभ्रान्ते वाचं व्यासः समासदत् ॥ ८२ ॥ शुद्धो भावः क्वचिल्लक्ष्मीः क्वचिन्नोभावपि क्वचित् । सर्वेभ्यः सर्वशुद्धोऽयं क्रतुभ्योऽभ्यधिकः क्रतुः ॥ ८३ ॥ सुरासुरमखेभ्योऽपि शुद्धे यौधिष्ठिरे क्रतौ। नकुलोऽस्मिन्ननार्यत्वमनार्यः कार्यतो जगौ ॥ ८४ ॥ बोधं क्रोधः पुरा श्राद्धे जमदग्निमुनेः शमम् । पिठरस्थं पयः पित्र्यं श्वा भूत्वा जिह्वयालिहत् ॥ ८५ ॥ धर्मः शुनामयं नाम दोषोऽयमिह रक्षितुः । इत्यसौ न शशापैनं सारमेयममेयहक् ॥ ८६ ॥ अशक्तस्तेन पापोऽयं कम्पमापोग्रपापकृत् ।
दुरन्तस्यापि पापस्य मुनिशापो हि शोधनः ॥ ८७ ॥ १. 'धर्मसिद्धिर्म' ख. २. 'किमयं क्रमतु क्रमम' ख. ३. 'नोभावुभावपि' ख. ४. 'समम्' ख.
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१४ अश्वमेधपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
शप्तस्तत्पितृभिः कोपः स्वोपयोगि पयो लिहन् । अदभ्रविभ्रमो भूमौ भवान्बभ्रु भवेदिति ॥ ८८ ॥ यदि यौधिष्ठिरे यज्ञे करिष्यसि विमाननाम् । तदा विमुच्यसे सत्यं दत्तस्तैरित्यनुग्रहः ॥ ८९ ॥ अयं स कोपनकुलः कुर्वन्निह विमाननाम् । राज्ञो यज्ञोद्भवां मानमूर्छा हवा व्यमुञ्चत ॥ ९० ॥ बोरित्यद्भुतकथाश्रवणप्रवणाशयाः । भूदेवनरदेवाद्याः सर्वे विस्मयमाश्रयन् ॥ ९१ ॥ इति यतिशैतहर्षस्फायमानप्रहर्षः प्रततहुतिविधानः प्रौढसत्पात्रदानः । दलितदुरितभारः सोऽभवत्पुण्यसारः
कृंतकुगति निषेधस्तस्य राज्ञोऽश्वमेधः ॥ ९२ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरि सुगुरोर हन्मतार्हस्थितेः पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती | तद्विद्याहृदि बालभारतमहाकाव्येऽश्वमेधोभवं
पर्व प्रीतिपदं चतुर्दशमिदं संप्राप संपूर्णताम् ॥ ९३ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनानि महाकाव्ये चतुर्दशमाश्वमेधिकं पर्व समाप्तम् ।
४५१
१. 'श्वोप' ख. २. 'मान्यः' ख. ३. 'मुक्त्वा व्यमुच्यत' ख. ४. 'कृत' ख. ५. 'कृतिजगति' ख.
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४१२
काव्यमाला ।
आश्रमवासपर्व ।
अथास्मिन्वसुधां पाति धर्मेणाप्यचिकित्सितम् । अभूदर्थिक प्राप्तिरेव दुःखं जगज्जुषाम् ॥ १ ॥ तदाघमर्षणे तस्य नामन्येव श्रुते स्मृते । श्रुतिस्मृतिपरीवारा व्यवहाराय जज्ञिरे ॥ २ ॥ नित्यं नत्वाम्बिकासूनुं निर्दिदेशाधिकारिणः । तस्य राजार्हभोगार्थं राजा निर्व्याजभेक्तिधीः ॥ ३ ॥ राज्ञा स पुनरज्ञाततपस्वीव प्रियासखः । इलाशायी फलाहारी ब्रह्मचारी सदा स्थितः ॥ ४ ॥ इति पाति क्षितिं राज्ञि नाजानन्सुखतत्पराः । कालेन कृत्यमानानि जीवितव्यान्यपि प्रजाः ॥ ५ ॥ अब्दे पञ्चदशे भीमोऽघुष्यत्कौरवदुर्नयान् । तच्छ्रुत्वा धृतराष्ट्रोऽभूज्जित्वा कोपं वनस्पृहः ॥ ६ ॥ सोऽभ्यधाद्भूपतिं वत्स याचे किंचिद्ददासि चेत् । इति प्रह्णे नृपेऽयाचद्वस्तुं र्द्वन्द्वोचितां महीम् ॥ ७ ॥ इति श्रुत्वा मिश्राक्षः पादलग्नो जगौ नृपः । मा तात मुञ्च मामेकं त्रस्तो मृग इवार्भकम् ॥ ८ ॥ इति दीनं वदत्युर्वीवासवे वासवीसुतः । एत्याभ्यधाद्भवाम्भोधिसारपीयूषवद्वचः ॥ ९ ॥ जानन्मुह्यसि किं राजन्कृत्येषु जयिनी त्वरा । पश्य देहप्रदीपस्य तैलमायुः प्रलीयते ॥ १० ॥ आसन्न मृत्युदावाग्नेर्धर्मे देहतरोः फलम् । गृह्णतः कुरुवृद्धस्य विघ्नीभवसि मूढ किम् ॥ ११ ॥ पूर्यते देहगेहस्य यावत्पुण्यमयक्रयः । उत्तमैरुत्तमस्थानयोग्यं तावत्तदयते ॥ १२ ॥
१. 'नुकारिणः' क. २. 'भक्त' ख ग ३. 'चपि' ख ५. 'तत्' क . ६. 'इन्दो' क. ७. व्यासः, ८. 'प्रहीयते' ख.
१०. 'दर्प्यते' ग.
४. 'दुर्जयान्' ख.
९. 'भव' क ख.
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१५ आश्रमवासपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
इति व्यासोक्तिभिः कृच्छ्रादोमित्युक्ते महीभुजा । प्रणवश्रवणं श्रेय इति प्रीत कुरूद्वहः ॥ १३ ॥ भीष्मादीनामथ श्राद्धं कृत्वासौ नृपसंमतः । दानं दानपेयः शान्तविश्वदौःस्थ्यमेलं ददौ ॥ १४ ॥ श्राद्धे दुर्योधनादीनामुद्यद्धनधनव्यये । अभूद्भीमप्रकोपार्ज्वलतो जलदोऽर्जुनः ॥ १५ ॥ अथामन्त्रय कुलं पौरानप्यरण्याय बुद्धिदृक् । श्रीरामवत्कनिष्ठेन कान्तया च युतोऽचलत् ॥ १६ ॥ दीनँदीनैर्निषिद्धापि सुतैः कुन्ती तमन्वगात् । संजयोऽपि ययौ जज्ञे वनी पञ्चेन्द्रियेव तैः ॥ १७ ॥ मुनीभूतेन भूपेन शतयूपेन संगतः ।
तत्र तेपे तपः प्रज्ञाचक्षुः सानुचरश्चिरम् ॥ १८ ॥ आत्मेश ईश आत्मेति तेषां ध्यानलयस्पृशाम् । अङ्गानि स भुजंगानि बभुः कार्श्यनिशानिभात् ॥ १९ ॥ एत्य तीर्थोपमं तीर्थयात्रोत्का नारदादयः । प्राक्चरित्रैश्विरादेनमानन्द्य दिवमुद्ययुः ॥ २० ॥ रथैरथैतन्नतिधीस्तां वनीमवनीधवः ।
सार्धं कुरुपुरन्ध्रीभिः समगादनुगावृतः ॥ २१ ॥ दरवारितराजाईलाञ्छनः शुभवाञ्छनः । बहिर्बद्धबलस्कन्धः सबन्धुः सोऽविशद्वनम् ॥ २२ ॥ नमन्गुरून्कुरूत्तंसः प्रतेने पुण्यमुन्नतम् । वर्ष हर्षाश्रुवारीणि भवदोषमशोषयत् ॥ २३ ॥ शुद्धिजुष्टं च पुष्टं च दधतोऽङ्गं यशोमयम् । स्थामाक्षामशरीरास्ते नृपाय ददुराशिषम् ॥ २४ ॥
४९३
१. 'परा:' ख. २. 'नलं' क; 'तलं' ग. ३. 'मुद्यन्ते च' क; 'मुयनय' ख. ४. 'दीनाननैः' पाठः ५. 'सुत' ख. ६. 'कायनशा' ख.
७. ‘रथोतन्ननिधी' ख;
'रथैतन्नभिधी' क. ८. 'श्याम' ख.ग.
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४९४
काव्यमाला। क्व क्षत्तेति क्षितीन्द्रेण पृष्टः प्रोचेऽम्बिकासुतः । स खैरी वातभुक्पुत्र दृश्यादृश्यश्चरेद्वने ॥ २५ ॥ इतश्च विदुरोऽप्यत्र समागच्छन्यदृच्छया। वनं प्रेसज्जनं प्रेक्ष्य दूरान्मृग इवात्रसत् ॥ २६ ॥ तमन्वधावदेकाकी सास्रो भूपाकशासनः । दूर दूरं स यातोऽस्मानिर्भाग्याद्विभवो यथा ॥ २७ ॥ मूले सालस्य कस्यापि तं स्थितं पृथिवीपतिः। नमन्युधिष्ठिरोऽस्मीति प्राह प्रत्युत्तरोत्सुकः ॥ २८ ॥ स्फीताक्षस्तन्मुंखप्रेक्षी नेत्रप्राणेन्द्रियैर्नृपम् ।। स तु प्राविशदर्कोऽग्निमिव भाभिर्निशागमे ॥ २९ ॥ तदा तस्मिन्सामरस्ये समाविष्टे महात्मनि । बभूव भूभुजंगोऽयमद्भुतज्ञाननिर्भरः ॥ ३० ॥ यन्यषेधद्वियद्वाणी तदेहदहनं तदा। तपोग्निनैव तन्मन्ये तत्पुरापि निवर्तिनाम् ॥ ३१ ॥ अथेदं धृतराष्ट्राय विनिवेद्यात्मपञ्चमः । तृष्णामिवेन्द्रियगणो भूपः कुन्तीमभिस्थितः ॥ ३२ ॥ फलभक्षः क्षमाशायी क्षपयित्वा नृपः क्षेपाम् । ववर्ष वसुभिः प्रातर्भानुकद्भुवनप्रियैः ॥ ३३ ॥ पितृव्यमथ राजर्षिराँजिराजितसंनिधिम् । ननाम नामग्रहणादप्यस्तजनपातकम् ॥ ३४ ॥ अथ त्रिजगतीवृत्तविलोचनसुधाञ्जनम् । तेषां दृङ्मार्गमागच्छत्पुण्यद्वैपायनो मुनिः ॥ ३५ ॥ स सर्वैः प्रणतः क्षत्तुर्गतिं राज्ञः पुरः स्तुवन् ।
पुत्रमाचष्ट कच्चित्ते चित्ते किंचिन्न बाधते ॥ ३६ ॥ १. 'वोन्नमत्' क. २. 'शालस्य' ख-ग. ३. 'मुखं प्रेषी' ख. ४. 'तत्पुरोऽपि' ग. ५. 'निवर्तनम्' क; 'निवर्तितम्' ख. ६. 'क्षिपाम्' क-ख. ७. 'राज' ख-ग. ८. 'चित्त' ख-ग. ९. 'किंचिन्न बाधते मनः' क.
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४५५
दधार गान्धार
निर्भरैः।
॥३८ ।
१९आश्रमवासपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
इति वागमृतं पीत्वा तदुद्गारत्वमागताम् । गिरं दधार गान्धारधराधवसुतापतिः ॥ ३७ ॥ तैस्तैर्वितरणाभोगैः संभोगैरपि निर्भरैः । अप्रीण्यन्त सुपात्राणि गात्राणि च मया चिरम् ॥ ३८ ॥ चतुभिरिन्द्रियैदृष्ट्या संविभज्य गृहीतया । मम तत्त्वार्थपर्यन्तं स्पर्शायैर्दर्शितं जगत् ॥ ३९ ॥ दूत्याभवत्प्रसत्त्यैव विरक्तीकृत्य संपदि । आनीतोऽहमिदं सिद्धिसंकेतस्थानकं वनम् ॥ ४० ॥ तत्कि मे बाधतां किंतु कान्तिदृश्यैव गृह्यते । तददृष्टं कुलभुवां चाकचिक्यं दुनोति माम् ॥ ४१ ॥ इत्यसै वादिने दिव्यां दृशं द्वैपायनो ददौ । आजन्मदौःस्थदूंनाय चिन्तामणिमिवेश्वरः ॥ ४२ ॥ सोऽथ व्यासाज्ञयापश्यद्गङ्गाम्भसि भृशप्रभान् । तान्दुर्योधनसौभद्रमुख्यान्पक्षद्वयीभटान् ॥ ४३ ॥ न लिप्तो रागदोषेण तान्पश्यन्नप्यसौ सुधीः । आत्मेश्वराणां यत्प्रीतिपैदं मुक्तिपदं हि तत् ॥ ४४ ॥ किं ध्यानविनकारिण्या दृष्टद्रष्टव्यया दृशा। इत्यभ्यर्थ्य मुनि धीमान्पुन(नेत्रतां गतः ॥ ४५ ॥ अथ व्यासाज्ञया वध्वो मुक्तमानवविग्रहाः । तैस्तैर्विमानिभिः साकं नाकं जग्मुर्निजप्रियैः ।। ४६ ॥ अथ मासमिह स्थित्वा नृपतिः पितुराज्ञया । गतोऽरण्यात्पुरं रामः पुरारण्यं पुरादिव ॥ ४७ ॥ धर्माब्धेस्तरणं दोभ्या शिक्ष्यमाणामुना मही । डिण्डीरपाण्डुरैरस्य मण्डिता कीर्तिमण्डलैः ॥ ४८ ॥ यशोधिदैवतमिव क्ष्मापतेरस्य संसदि ।
कदाचिदाययौ स्वैरी नारदः पारदद्युतिः ॥ ४९ ॥ १. 'घर' ख. २. 'इत्यस्य वादिनो' ख. ३. 'दूराय क; 'दूनस्य' ख. ४. 'प्रदं क. ५. 'धर्माब्धौ' ख-ग. ६. 'शिष्यमाणा' ख-ग.
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काव्यमाला।
हृष्यत्त्वचं तमर्चित्वा पप्रच्छ पृथिवीपतिः । श्रद्धालुः कुलवृद्धानां प्रवृत्तिं वनवासिनाम् ॥ ५० ॥ किं वक्तायमिति व्यक्तं वीक्ष्यमाणाननो जनैः। हर्षोमिषु श्लथो वाचमथोवाच मरुन्मुनिः ॥ ११ ॥ स प्रभञ्जनभुवर्षे वर्षे भोजनमुक्तितः । राजन्रराज राजर्षिरुत्कर्षिततपःस्थितेः ॥ १२ ॥ किमेभिस्तप एवास्तु कर्मप्लोषि ममेत्यसौ । मुमुक्षुनिष्क्रियो वहीनपि तत्याज कानने ॥ १३ ॥ एष तेषु प्रदीप्तेषु जरत्तरुघने वने । ध्यानामृताब्धौ गान्धारीपृथाभ्यां सहितोऽविशत् ॥ ५४ ॥ समाधिना परं धाम गतेस्तैरुज्झितांस्तनूः । अदहद्वाष्पवान्दीप्तशब्दोऽग्निश्चिरसेवितः ॥ ५५॥ तेषां विरहसंतापं स बाढं वोढुमक्षमः । संजयस्तु व्रतकृशो ययौ राजन्हिमालयम् ॥ ५६ ॥ इत्युक्त्वास्मिन्मुनौ याते शोकोत्पातेऽपतन्नपः । चक्रे तेषां स्फुरन्मोहकलिलः सलिलक्रियाम् ॥ १७ ॥ अथ द्विजवितानेभ्यस्तानेवोद्दिश्य भूपतिः । अमन्दपुण्यसंदानं दानं दान्तमना ददौ ॥ १८ ॥
इत्याश्रमे विमलयोगपतत्तनूनां __ शोकं विवेकनिकषः परिहृत्य तेषाम् । भूवल्लभो हरिहरद्रुहिणादिपाद___ ध्यानप्रपञ्चितरुचिः सुचिरं ननन्द ॥ १९ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितः
पादाजभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । जाड्योत्खण्डिनि बालभारतमहाकाव्येऽत्र पर्वाश्रमा___ वासं पञ्चदशं तदुक्तिसदने प्रत्यासदत्पूर्णताम् ॥ ६ ॥ इति श्रीबालभारते महाकाव्ये आश्रमवासिकं पञ्चदशं पर्व संपूर्णतामगात् । १. 'वर्तिनाम्' ग. २. 'एषु' क. ३. 'तासुभिः' ग. ४. 'दीप्तं शब्दा' क. ५. 'त्पत्तिप' ख. ६. 'हत्या' क; 'इज्या' ख.
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१६मौशलपर्व-१सर्गः) बालभारतम् ।
मौशलपर्व। प्रध्याय तनुवित्तानां सत्यसूनुरनित्यताम् । धर्माधाने च दाने च व्यदधादरमादरम् ॥ १ ॥ ददौ धर्माय धर्मैकचतुरश्चतुरः क्रमान् । चक्रे दानश्च निःशेषामवनीमनीपकाम् ॥ २॥ वसुधां वसुधाराभिनित्यमित्यस्य सिञ्चतः । श्रयतस्तत्फलं श्रेयः षट्त्रिंशदगमत्समाः ॥ ३॥ पुरी द्वारवती जग्मुः कालेऽस्मिन्कालदूतवत् । मुनीन्द्रा नमदुन्निद्रकौशिकाः कौशिकादयः ॥ ४ ॥ शाम्बं स्त्रीवपुषं कृत्वा वृष्णयो मदविह्वलाः । तानपृच्छन्मुनीन्पुत्रः पुत्री वास्या भविष्यति ॥ ५ ॥ मुशलं ब्रह्मदण्डाभं भावि लौहं कुलान्तकृत् । इत्युक्त्वामी तिरोभूवशाम्बस्याविरभूच्च तत् ॥ ६ ॥ आहुकेन भियाक्षेपि भस्सीकृत्य तदम्भसि । मत्वा कुलान्तं चायान्तं तीर्थयात्रां ययौ हरिः॥ ७ ॥ अथो रथो रथाङ्गं च केतुश्च पतगाधिपः । सर्व तिरोऽभवत्तस्य लुब्धं मित्रमिवापदि ॥ ८ ॥ अपूर्वाः सर्वतश्चण्डाः सद्यो ज्वरकराः पुरि । मुखं मृत्युप्रैपातानामुत्पाताः शतशोऽभवन् ॥९॥ अभासयत्प्रभासं च यात्रया विहरन्हरिः । कालेऽत्र कालकृष्टाश्च तं देशं यदवो ययुः ॥ १०॥ इह ते विहितोत्साहा लीलोद्यानेषु खेलिनः । विदधुर्मधुपानानि मधुपा इव पङ्कजे ॥ ११ ॥ तेऽद्भुतानन्दसंदर्भास्तदा नात्मानमुन्मदाः । कालदंष्ट्राङ्कुरघटाघरदृस्थमजानत ॥ १२ ॥
१. 'वनीयका ख-ग. २, 'तपसः' ग. ३. 'विलौहं च' ख. ४. 'पताकाना' क.
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काव्यमाला।
तेषां तन्मुशलक्षोदकणबीजगणोद्भवैः । तृणकाशैर्वृते स्थाने धीर्यो मुदभून्मिथः ॥ १३ ॥ त्वं रे सौप्तिकसुप्तघ्नस्त्वं रे प्रायस्थवीरहा। इत्थं मिथः कथा जज्ञे शैनेयकृतवर्मणोः ॥ १४ ॥ इत्युक्तिपारे प्रबलैबेलैः पक्षद्वयस्थितैः ।
खेच्छासमरमारेभे यदूनामन्वयस्तृणैः ॥ १५ ॥ . क्षिप्तं तृणमपि क्षिप्रमभवन्मुशलाकृति । मांसास्थिरक्तपङ्कत्वमेव निन्ये बलद्वयीम् ॥ १६ ॥ प्रद्युम्नशाम्बशैनेयकृतवर्ममुखान्भटान् । खेलतः क्षीयमाणांश्च हरिरैक्षत तुल्यदृक् ॥ १७ ॥ अहो बभूव भूस्तेषां या पूर्व रतिनृत्यभूः। सैवाभूद्वतभुग्वर्गनिरर्गलविलासभूः ॥ १८ ॥ जज्ञे यदुकुलं द्रुह्यद्वीरं मुह्यद्वधूजनम् । निशि नश्यदलिम्लायत्पद्मिनीकमिवोदकम् ॥ १९ ॥ अथेदमैन्द्रये विष्णुराख्यातुं प्रेष्य दारुकम् । वज्रमादिश्य दस्युभ्यो योषितः परिरक्षितुम् ॥ २० ॥ वयं हलधरालोकसमुत्सुकमना ययौ । द्वारकां नारिकावृन्दकन्दमन्दार्णवध्वनिम् ॥ २१ ॥ (युग्मम्) ततो जनकमामन्य कामपालं जगाम सः । तदा तदास्यान्निर्यातः श्वेताहिः पश्यतो हरेः ॥ २२॥ अहिः सहस्रशीर्षोऽयं वलक्षो जलधिं प्रति । मैनाकदर्शनोत्कण्ठी हिमालय इवाचलत् ॥ २३ ॥ स वासुकिमुखैः सपैः समं सन्मुखमागतः।। विवेश वारिधौ धतु धरां वीरोज्झितामिव ॥ २४ ॥ इत्यनन्तपदं प्राप्ते बले वरुणपूजिते । प्रविश्य विपिनं योगी सुष्वाप सुखितो हरिः ॥२५॥
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१६मौशलपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
निजे ज्योतिषि संपृक्तो लुब्धकेन पदस्तले । कृष्णसारधिया कृष्णो हतस्तीवेण पत्रिणा ॥ २५ ॥ सुरसिद्धर्षिगन्धर्वैः श्रिया च प्रीतितत्परैः । पूज्यमानोऽविशद्धाम नित्यं नारायणाभिधम् ॥ २६ ॥ विष्वन्दिग्वृन्दमुद्दयोत्य भास्वतीव गते हरौ। बभूव भुवनं क्षुभ्यत्तमोमयमिवाभितः ॥ २७ ॥ इहान्तरे यदूच्छेदकथामाकर्ण्य दारुकात् । शोकं दैन्यं भयं पार्था निर्माथा इव भेजिरे ॥ २८ ॥ अथ क्ष्मापगिरा गत्वा दारुकेण सहार्जुनः।। विवेश द्वारकां द्रष्टुं सशोकं जनकं हरेः ॥ २९ ॥ नष्टवीरगणां नष्टेन्द्रियां बन्धुतनूमिव । पश्यन्पुरी ययौ पार्थः परां शोकस्य भूमिकाम् ॥ ३० ॥ सुभद्रेश कथं दीनाः स्थास्याम इति सर्वतः । पूत्कुर्वद्भिवृतोऽभ्येत्य जिष्णुर्वृष्णिवधूजनैः ॥ ३१ ॥ पतितं भुवि हा पुत्र हा पुत्रेति प्रलापिनम् । वसुदेवं नरः पश्यन्पपात च रुरोद च ॥ ३२ ॥ (युग्मम्) मृगैः सिंहा इवास्माभिर्यत्प्रसादाजिता द्विषः । स गतः कोऽधुनास्माकं शरणं रणसंकटे ॥ ३३ ॥ स्तौमि तान्यादवाञ्जग्मुर्ये दिवि प्रथमं हरेः । योग्यान्यस्यापि कस्यापि धिनस्तेन विनाधुना ॥ ३४ ॥ हा जनार्दन हा राम हा शैनेय हहा स्मर । भवन्तः क गताः प्राप्तमालपन्त्यपि मां न किम् ॥ ३५ ॥ इति प्रलापैः पतितो नरो रोदितदिङ्मुखः। सर्वगान्रोदयामास योगीन्द्रानप्यगोचरान् ॥ ३६ ॥ यत्रानैषीन्निशां पूर्व लीलागीतेन फाल्गुनः ।
तत्रैव तां निशां निन्ये स्त्रीणां क्रन्देन विग्विधिः ॥ ३७ ॥ १. 'फूत्कुर्वद्भि' क-ख-ग.
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काव्यमाला |
प्रातः पुत्रवियोगेन तनुमानकदुन्दुभिः । तत्याज देवकीमुख्यैरनुयातः प्रियाजनैः ॥ ३८ ॥ संस्कृत्य सात्वतादीनां तनुं कृत्वा जलक्रियाम् । पार्था वज्रं हरेः पौत्रं स्त्रीश्वादाय ततोऽचलत् ॥ ३९॥ क्रन्दती तत्क्षणत्रस्तोड्डीयमानखगखनैः ।
तदा स्वामिशुचेवाब्धौ ममज्ज नगरी हरेः ॥ ४० ॥ इन्द्रप्रस्थं व्रजन्प्राप्तो विकटामटवीं नरः । सालंकारवधूवारलुब्धै रुद्धो वनेचरैः ॥ ४१ ॥ तानुग्रलगुडा टोपान्गोपान्कोपाद्विलोकयन् । बलाधिक्यमिवाधिज्यं कृच्छ्राच्चक्रेऽर्जुनो धनुः ॥ ४२ ॥ तस्य नष्टास्तदा पृष्ठादधमर्णा इवेषवः । आकृष्टापि नवोढेव न ज्या सन्मुखमाययैौ ॥ ४३ ॥ सेखीशिक्षादयः क्षिप्रं बालायाः प्रियसंगमे । अथ मन्त्रोक्तयस्तस्य रणेऽस्मिन्विस्मृतिं ययुः ॥ ४४ ॥ किं स्वप्नोऽयं किमन्योऽहमिति भूरिवितर्किणः । पार्थस्य पश्यतः कामं कामिनीर्दस्यवोsहरन् ॥ ४५ ॥ न. शेकिरे ग्रहीतुं तैर्दृश्यभासो वरस्त्रियः । अदृष्टरक्षिता भाग्यहीनैरौषधयो यथा ॥ ४६ ॥ प्रवेष्टुं वर्त्म देहीति पृथिवीं प्रणमन्निव । न्यग्मुखोऽजनि मन्वानो जीवितं फल्गु फाल्गुनः ॥ ४७ ॥ गतेषु हृतदारेषु तदा दुःखाज्जगुर्जनाः । अहो विश्वजयी जिग्ये गोपैर्धिग्विधिवल्गितम् ॥ ४८ ॥ इत्युक्तः कर्णयनैन्द्रिरिन्द्रप्रस्थं पुरं गतः । प्रधान वृष्णिवामाक्षीवज्रदारुकसंयुतः ॥ ४९ ॥
१. 'कृतजलक्रियम्' ख. २. इदं पद्यं ख ग - पुस्तकयोर्नास्ति ३. 'तेषु दुःखाजना जगुः' ख-ग. ४. 'संगतः' ख-ग.
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१६मौशलपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
राज्ये वज्रमिह न्यस्य गते दुःखिनि फाल्गुने । सत्यभामादयो देव्यः कृशानुं विविशुः शुचा ॥ ५० ॥ श्रीविष्णुव्ययगोपालपराभवमहाशुचम् । . हस्तिनापुरवम॑स्थमेत्य व्यासोऽर्जुनं जगौ ॥ ११ ॥ मित्रगोत्रप्रभाभूतिप्रभावविभुता हृता । विडम्बितो न कालेन कुत्र कः पुत्र मा मुहः ॥ १२ ॥ हराद्यैरप्यनिग्राह्यो लसदकॆन्दुदीपकः । सर्व हरति सर्वस्य कालोऽयं पश्यतोहरः ॥ ५३ ॥ सूर्येन्दुचक्रविक्रीडदनित्यत्वरथोऽङ्गिनाम् । अधर्मविजयी कालो हरत्यर्थानसूनपि ॥ १४ ॥ जगद्विडम्बनायैकनटं कौतूहली हसन् । अनित्यतानटीकान्तं कालमालोकते कृती ॥ ५५ ॥ पर्यन्तविरसा भावा न भवेयुभवे यदि । तत्परोक्षसुखे साक्षाद्दुःखे तपसि कः स्फुरेत् ॥ १६ ॥ यदुषु मुशलपातप्रेसितैरात्मनि क्ष्मा
धरवनचरगोपक्रीडितैश्च प्रतप्तः । इति मुनिपतिवाणीपुण्यपीयूषसिक्तो
___ गजनगरमगच्छन्मध्यमः पाण्डुपुत्रः ॥ १७ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितेः
पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । तजिह्वाञ्चललोलतल्पतरलबाहीस्मिते षोडशं पर्वतत्किल बालभारतमहाकाव्येऽगलन्मौशलम् ॥ १८ ॥
इति श्रीवालभारते महाकाव्ये षोडशं मौशलपर्व समाप्तम् ।
१. 'वजे राज्य' ख-ग. २ 'रप्यनुप्रा' ख. ३. 'प्रेषितै' ख. ४. 'ब्राह्माशते' क; 'ब्राह्मीस्मृते ख.
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काव्यमाला ।
प्रास्थानिकपर्व। श्रुत्वार्थ वृष्णिनिधनं धनंजयमुखान्नृपः । ताहकालबलत्रस्तः समस्तत्यागधीरभूत् ।। १ ॥ धृतराष्ट्रभुवां राष्ट्रमनुयुज्य युयुत्सुना । परिक्षिते क्षितिं स्वीयां ददौ सोदरसंमतः ॥ २ ॥ उदारपुण्यप्रकृतिं द्विजप्रकृतिसंमताम् । सुभद्रामिह भूपालस्तत्पालनकृतेऽदिशत् ॥ ३ ॥ श्राद्धमाधाय बन्धुभ्यो विधायेष्टिं च नैष्टिकीम् । उत्ससर्ज जले सोऽग्नीनरागानिव शमामृते ॥ ४ ॥ पौरानाश्वास्य विधुरान्धरामामन्य सानुजः । उर्वीशः सर्वसंन्यासी याज्ञसेनीसखोऽचलत् ॥ ५ ॥ एत्योत्सर्गरुषेवाथ पार्थान्प्रार्थ्य हुताशनः । निन्द्यः सुहृदिवादत्त प्राग्दत्तान्कार्मुकेषुधीन् ॥ ६ ॥ परित्यक्तपुरानेतानेकः श्वा वारितोऽपि षट् । तदा बुद्धीन्द्रियप्राणानिव कर्मगणोऽन्वगात् ॥ ७ ॥ अथामी दिशमासेदुः शनैर्दक्षिणपश्चिमाम् । मग्नां द्वारवतीं वीक्ष्य न च ते योगिनोऽमुहन् ॥ ८ ॥ क्षोणिं प्रदक्षिणीकृत्य ततः स्फीतानुगद्युतिः । राजा ययौ दिशं दीप्यमानो भानुरिवोत्तराम् ॥ ९॥ ततो गत्या च कीर्त्या च तुहिनाचललविनः । वालुकार्णवमाप्यतेऽपश्यन्मेरुं सनन्दनम् ॥ १० ॥ निराश्रये निरालम्बे तत्राथ पथि पार्षती । पतिता चित्तमप्यौज्झत्कृत्ये मूढस्य धीरिव ॥ ११ ॥ सर्वतो निर्मला राजस्तपोयोगे स्थिताद्भुते । कुतः कुमुद्वतीवाह्नि दीर्घ स्वपिति पार्षती ॥ १२ ॥
१. 'च' क.
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१७प्रास्थानिकपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
भूपः श्रुत्वेति भीमोक्तिमनावृत्तमुखोऽवदत् । पक्षपातमधत्तैका सुराधिपसुतेऽधिकम् ॥ १३ ॥ (युग्मम्) पतिते सहदेवेऽथ भीमपृष्टोऽभ्यधान्नृपः । अयं धियोऽभिमानेन मेने मोहजडं जगत् ॥ १४ ॥ नेकुले पतिते भीमपृष्टः मापोऽवदत्पुनः । न स्पर्धा रूपदर्पण कन्दर्पेऽप्येष चक्षमे ॥ १५ ॥ जातपातेऽर्जुने वातपुत्रपृष्टो जगौ नृपः । चचाल शिथिलं सैष शूरमानी रणाङ्गणे ॥ १६ ॥ पतितोऽसीति भीमेन पातिनाभिहितस्ततः । भूपोऽभ्यधाबले दो बह्वाशस्य तवाभवत् ॥ १७ ॥ . इत्याक्रमत्परं लोकं धर्मवीरो युधिष्ठिरः। नाक्षिपच्चक्षुरप्येषु पतितेष्वपि बन्धुषु ॥ १८ ॥ शुनैवानुगतो गच्छन्नविलुप्तमतिर्नृप। पुरुहूतं पुरोभूतं रथस्थितमथैक्षत ॥ १९ ॥ देही मत्पुरमेहीति वाग्भङ्गया भाग्यभोग्यया । आहूतः पुरुहूतेन पुरुहूतः क्षिते गौ ॥ २० ॥ नाकमाकलयिष्यामि न विनैवीमुना शुना । धिक्तं यः किल संपत्सु विपत्सेवकमुज्झति ॥ २१॥ वनेऽप्यनुज्झितासक्तिर्मलिनोऽप्यलिनां गणः । सुरमूर्धाधिरोहेऽपि सुमनोभिन मुच्यते ॥ २२ ॥ नैवालिङ्गन्ति गोब्रह्मशिवलिङ्गादिभेदिनः । जाह्नवीसवनालस्या जनमाश्रितमोचिनम् ॥ २३ ॥ एतत्त्यागे व मे धर्मस्तं विना युगतिः कुतः ।
आस्तां मे तदियं शिक्षा तवापि भ्रंशकारिणी ॥ २४ ॥ १. 'पतिते सहदेवेऽथ' इत्ययं श्लोकः ख-ग-पुस्तकयोः. २. 'नकुले पतिते भीमपृष्टः' इत्ययं श्लोकः ख-ग-पुस्तकयोः. ३. 'स्याभवत्तव' ख-ग. ४. 'क्षिपत्' क. ५. 'वशुनामुना' ख.
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काव्यमाला।
इति भाषिणि धर्मज्ञे राज्ञि संक्रन्दनोऽवदत् । सुकृतादिक्रियाहीनः श्वायमेतु व मे पुरम् ॥ २५ ॥ खर्गोऽस्तु देहयुक्तस्य सुकृतैरस्य मत्कृतैः ।। इत्यथोचे नृपः कम्प्रशिरोभिः पूजितः सुरैः ॥ २६ ॥ ततः श्वरूपमुग्धर्मः स्वरूपरुचिरश्चिरात् । प्रीतः सर्वाङ्गमालिङ्गय भूवल्लभमभाषत ॥ २७ ॥ वत्स वत्सत्वमालोकि श्वदेहेन मुदे मया । प्रीतोऽस्मि पत्रमारोह स्वर्गस्तेऽस्तु सनातनः ॥ २८ ॥ अनया समयाभोगचतुरः पितुराज्ञया । विमानं दिव्यसोपानं प्राप्य देही दिवं गतः ॥ २९ ॥ अर्चितो नाकिभिः साकं मुनिभिर्नारदादिभिः । राजर्षिषु रराजायं तत्र चन्द्र इवोड्डषु ॥ ३० ॥ प्रस्थानस्थो दिवमनु नृपः प्राह शक्रं स्थितास्ते ____ मत्सोदयोः सह मखभुवा यत्र तत्रास्मि नेयः । मा मानुष्यं त्रिदिवभुवने भावमेहीति तेन
व्याषिद्धोऽपि ध्रुवमयमभूदैत्र गाढानुबन्धः ॥ ३१ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मताहस्थितेः
पादाजभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । मौर्योन्मर्दिनि बालभारतमहाकाव्येऽत्र तद्भारती
मूल् सप्तदशं श्रितामितदशं प्रास्थानिक प्रास्थित ॥ ३२॥ इति श्रीबालभारते महाकाव्ये सप्तदशं प्रास्थानिकपर्व समाप्तम् ।
१. 'ऽमुना' ख. २. 'मित्र' ख. ३. 'शक्ति' क. ४. 'दत्त' क. ५. 'मौन्यो' ख-ग. ६. 'पूल्' क. ७. 'दृशं' क. 'दिशं' ख. ८. 'प्रास्थितम्' क-ख-ग.
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१८स्वर्गारोहणपर्व-१सर्गः] बालभारतम् ।
स्वर्गारोहणपर्व । अथायमायतश्रीकं ससौदर्य सुयोधनम् । दिवि वीक्ष्योल्लसन्मन्युः शतमन्युमभाषत ॥ १ ॥ नमः स्वर्गाय यत्रायमनपायः प्रपूज्यते । महापीठस्थितः पापी जगत्तापी सुयोधनः ॥ २ ॥ किं कार्य निर्विचारेण स्वर्गाचारेण मेऽधुना । . सबन्धुवर्गसंसर्ग एव स्वर्गोऽस्तु गोचरः ॥ ३ ॥ अथो सगर्भानानन्दः संदर्भानस्य भूपतेः । दर्शयेत्यदिशन्देवा देवदूतं मनस्त्वरम् ॥ ४ ॥ यथा तत्प्रथितेनाथ पृथ्वीनाथः प्रपेदिवान् । दुर्गतिं दुर्गदुर्गन्धवधबन्धादिदुःखदाम् ॥ ५ ॥ प्रवध्यवध्यमानानां बन्धूनां विविधैर्वधैः । स तैदाकर्णयत्कर्णकटुमातिरं स्वरम् ॥ ६ ॥ भीमादयो वयमियं द्रौपदी च पृथुव्यथा । तत्पुण्यपवनेनैव स्वस्थाः स्मः स्थीयतां क्षणम् ॥ ७ ॥ इत्युक्त्या स्तम्भितः स्तम्भमन्त्रशक्त्येव भूपतिः । निन्दन्देवस्य दुर्वृत्तं देवदूतमभाषत ॥ ८ ॥ स्थितोऽहं बन्धुसङ्गेन नरकोऽप्येष नाकति । वैसरिण्येव गङ्गेह दुःखान्येव सुखानि मे ॥ ९॥ खस्ति ते गच्छ नाकिभ्यो नाकाय च नमो नमः । दुर्वृत्ता यत्र पूज्यन्ते त्यज्यन्ते शीलशालिनः ॥ १० ॥ इत्युक्तेऽस्मिन्गते दूते पुरुहूतं पुरःस्थितम् ।
अपश्यद्भूपतिः किंतु न किंचिन्नरकादिकम् ॥ ११ ॥ १. 'शद्देवो' ग. २. 'मनश्वरम्' ख-ग. ३. 'पथा' क. ४. 'तत्रा' ख-ग. ५. 'इत्युक्त्या ' ख-ग.
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काव्यमाला |
स्पृष्टं पुण्येन मरुता मरुतामधिपो नृपम् । किमेतदिति संभ्रान्तमथैनं सान्त्वयञ्जगौ ॥ १२ ॥ गुरोर्विनिग्रहेऽवोचद्यदसत्यलवं भवान् । अदर्शि दुर्गतिस्तेऽसौ तत्पलं मायया मया ॥ १३ ॥ तत्प्रमोदसुधासिन्धून्बन्धून्पश्याधुना दिवि ।
नन्दिनीं द्रुपदस्यापि स्वर्गश्रीपदतां गताम् ॥ १४ ॥ इत्यमर्त्यपतिवाक्यसंमदी स्वर्णदीपयसि धर्मनोदितः । धर्मसूनुरविशद्रवीकृते श्रेयसीव विमलच्छिदि... ॥ १५ ॥ रुक्मपङ्कजनिकुञ्जगुञ्जनैः कर्णकोटर सुधौघवर्षिणः ।
तन्मुदे मधुलिहां पदं तदा तुम्बरुप्रभृतयोऽभजन्भृशम् ॥ १६ ॥ तन्मदाय च दृशामगोचराः सान्द्रमन्द्रमुरजवनस्पृशः । सौरमौर जिकराजयो ययुर्वारिवारणगणस्य गर्जिषु ॥ १७ ॥ तन्मुदे च जलमग्नमूर्तयस्तोयजाकृतिकराननश्रियः । चित्रमारुतलयेन चक्रिरे नर्तनानि सुरनर्तकीगणाः ॥ १८ ॥ इत्यनन्यलयलालितात्मनस्तोयकेलिषु किमप्यजानतः । जाह्नवी वपुषि तस्य निर्ममे मर्त्यताविनिमयेन दिव्यताम् ॥ १९ ॥ कल्पकोटिमदनेन्दुभास्वता कालपावकविवर्तकर्मणा । उद्धृतैरणुभिरुत्तमोत्तमैः लृप्तमूर्तिरिव स व्यराजत ॥ २० ॥ त्रदशीमथ सभामभिव्रजन्प्रेक्षणीयक विधायिनां पुरः । यद्यदेह स दातुमद्भुतं तत्तदैक्षत तदात्महस्तगम् ॥ २१ ॥ राजसूयमखकर्मसिद्धिजं सिद्धगीतिषु निजं पिबन्यशः । शक्रदर्शितपथः पृथूत्सवोऽनुत्सुकः सुरसभां स भेजिवान् ॥ २२ ॥ तत्र संप्रसरदप्सरोगणप्रेक्षणीयकमहान्सहोदरान् । तान्विभावसुविभाभिभाविनो भासितामरसभान्यभालयन् ॥ २३ ॥ अर्के कर्णाभिमन्यू हरिमहसि हरि तत्र गन्धर्वराजे गान्धारीशं कृपीशं गुरुवपुषि वसावष्टमे सिन्धुसूनुम् ।
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१८ स्वर्गारोहणपर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
येषामन्येऽपि येंऽशाः क्षितिभरहतयेऽवातरन्मर्त्यलोकं लीनांस्तांनेष तेषु त्रिदशपतिगिरा धर्मपुत्रो ददर्श ॥ २४ ॥
भुक्ताखिलद्वीप दिलीपराम भगीरथाद्यद्भुतवीरसेव्यः । अयं स्वयं तत्र रराज राजचन्द्रो हरिश्चन्द्रपदोचितश्रीः ॥ २९ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरि सुगुरोरर्हन्मतार्हस्थितेः पादाब्जभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती | वैदग्ध्यात्मनि बालभारतमहाकाव्ये स्म निर्गच्छति स्वर्गारोहणपर्व तन्मतिमहः स्पष्टोदयेऽष्टादशम् ॥ २६ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्री दमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारते महाकाव्ये वीराङ्के आश्वमेधिकाश्रमवासिकमौशलप्रास्थानिकस्वर्गारोहणाभिधपञ्चपर्वी प्रपञ्चनो
नाम द्विचत्वारिंशः सर्गः ।
अस्यामेकेन सर्गेण पञ्चपर्व्यामनुष्टुभाम् । प्रपञ्चितं शतद्वन्द्वमेकाशीतिसमन्वितम् ॥
१. 'स्तानेव' ख-ग. २. 'भक्ता' ख ग.
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४६८
काव्यमाला |
आस्तीकपर्व ।
यद्भारतीभारतपानलीनः सुधाभुजां धाम न कामये ऽहम् । स मुक्तिकान्तापरिलोभनानि ज्ञानानि मे कृष्णमुनिस्तनोतु ॥ १ ॥ तपस्विनीभूम्यथ पाण्डुपुत्रवियोगपञ्चाग्नितपः प्रविष्टा । परीक्षितं दीप्तगुणं युवानं वीक्ष्यावकीर्णत्वमधत्त मत्ता ॥ २ ॥ वर्ण्यः परीक्षित्क्षितिपः किमेष यः सर्वतो दानजलेन सिक्ताः । प्रताप तिग्मद्युतितापनेन प्रावर्धयत्पूर्वजकीर्तिवलीः ॥ ३॥ यस्योप्रमूर्तेः शैरभूर्बभार षड्भिर्गुणैः षण्मुखतां प्रतापः । चण्डद्युतां द्वादशमण्डलानि यत्कुण्डलानीव विरेजुरुच्चैः ॥ ४ ॥ स्वयं सुधासान्द्रकरोऽपि चन्द्रः शश्वद्यशो गायति यस्य गौरम् | तदङ्कमस्यैति मृगो मृगारिनखाङ्कराकारकलास्पृशोऽपि ॥ १ ॥ रजस्तमोलुप्त विवेकदृष्टि प्रपातिनं पातकपङ्कपूरे । दयामयो यः समयोचितेन दण्डावलम्बेन जनं चकर्ष ॥ ६ ॥ क्रीतं गुणैनींतिपरायणो यः कस्यां तरङ्गं न गृहीचकार । तत्तत्परिज्ञानभियेव भेजे हृदापि पायं न कदापि कश्चित् ॥ ७ ॥ यैरीश्वरोऽस्थाप्यत संनिवेशविशेषतः क्ष्मादिसकर्तृकत्वात् । तैरप्यहो यद्भुवि तस्कराणां न स्थापनायां ददृशे प्रमाणम् ॥ ८ ॥ अभ्यर्च्य शंभुर्वदने दिनानामभ्यर्थितो येन सदार्थिसार्थम् । तं भूतले स्रष्टुमनीश एव तद्रूपचारी स्वयमागतश्चेत् ॥ ९ ॥ तस्याभवन्मद्रवतीति कान्ता नितान्तरूपामिव यां निरूप्य । सुगाढमङ्गेन निजेन भर्तुरङ्गं नगाधीशसुता बबन्ध ॥ १० ॥ जातोऽयमस्मन्मयमूर्तिरस्मत्पुण्यैरिति ध्यानपरा दिगीशाः ।
मुदं परां भेजुरनन्यभासा तया समं खेलति तत्र भूपे ॥ ११ ॥ जगत्रयोल्लासिविकासिशक्ति ब्रह्माण्डपिण्डीव पतिं प्रजानाम् । कालेन कल्याणकदम्बगर्भं गर्भं दधौ भूविभुवल्लभेयम् ॥ १२ ॥
१. 'लीनाः' ग. २. 'मयानः ' ग. ३. 'शुभानि' ख ४. 'नः' ग. ५. बाणजन्यः, कार्तिकेयश्व.
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आस्तीक पर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
दूरप्रियालिङ्गनभङ्गिभोगं पोष्यत्वयास्यज्जगदेकवीरम् । सदुःखहर्ष स्तनयुग्ममस्याः श्यामाननं पीनतमं च जज्ञे ॥ १३ ॥ तद्भूणमर्कः शशभृच्च वृद्धमातामहो वृद्धपितामहश्च । असिञ्चतां स्वस्वमहोभिरस्मात्तस्या वपुस्तापि च पाण्डु चासीत् ॥ १४ ॥ असौ सपत्नी मम रत्नगर्भा सर्भरत्नाहमपीति कामम् । मेयं मयापीड वसुंधरेति सा मन्दमन्दाङ्घ्रिगतिश्चचाल ॥ १५ ॥ सा देहसादोज्झितभूरिभूषा रत्नाङ्कितं कङ्कणयुग्ममेव । आविभ्रती सार्कविधुर्विभातलक्ष्मी रिवाभासत नाशितोडुः ॥ १६ ॥ मन्त्रप्रभावर्द्धिसमर्थनाभिः साध्येऽपि सिद्धा हि महर्षिमित्रे | त्रैलोक्ययात्राजुषि वल्लभेऽस्या न दोहदः कश्चिदपूरितोऽभूत् ॥ १७ ॥ रराज सा दोहदपूरणेन समुज्ज्वलोन्मीलितदेहदीप्तिः । विस्फीतशीतद्युतिडम्बरेण कुमुद्वतीवाभिदलद्दलालिः ॥ १८ ॥ अमुग्धदेहद्युतिदीपिताशं दुग्धाब्धिवीची च निधिं कलानाम् । जगदृशां पुण्यपरम्पराभिः पुण्यक्षणेऽसौ सुषुवे तनूजम् ॥ १९ ॥ तेजस्विनं सूनुममुं प्रसूय विश्वाङ्गनासु प्रथमैव साभूत् । जायेत यस्यां तपनो न पूर्वी तामेव किं दिक्षु दिशं दिशन्ति ॥ २० ॥ दिशामधी शैर्विहितावतारे तस्मिन्कुमारे कमनीयभासि । नवीभवद्वल्लभविभ्रमाशाः प्रेसत्तिमाशा रभसेन रेजुः ॥ २१ ॥ तदङ्गसक्तेषु दिगीश्वरेषु प्रधानमानी धनदस्तदाभूत् । तज्जन्मदानातिशयेऽपि राज्ञो न तुत्रुटे यत्सदने धनेन ॥ २२ ॥ जनेषु मामीजयते सुहृत्सु द्विषज्जनानेजयते पुरायम् । इति प्रतेने जगतीभुजंगस्तनूजमेनं जनमेजयाह्नम् ॥ २३ ॥ माधुर्यधुर्याणि किमु ब्रवीमि नृप प्रियायां स्तनयोः पयांसि । यानि प्रकामं पिबति स्म तस्य शिशोर्मुखीभूय सुधाकरोऽपि ॥ २४ ॥ दृशा स्मितं नासिकयास्य गन्धं मुखेन दुग्धं श्रवसा चटूक्तिम् । अङ्गेन पाणिद्वयलालनं च मातुः प्रमोदेन पपौ स बालः ॥ २९ ॥ १. 'प्रमुख' ग. २. 'प्रशक्ति' ख.
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४७०
काव्यमाला।
विलोलदोलाशयनः समस्तं बालोऽयमालोक्य विलोलमेव । । एकात्मतातत्त्वविवेकबोधि लयोद्गतानन्द इवापनिद्रम् ॥ २६ ॥ स्फुरत्नभायामुरसा रसायां चचाल वालः स्फटिकाचितायाम् । तरन्निवात्यद्भुतरूपकीर्तिदुग्धाम्बुधौ लोलकरक्रमोऽयम् ॥ २७ ॥ उत्तिष्ठतो वीक्ष्य जनान्सहेलं बालोऽप्यसावुत्थित एव तद्वत् । न बद्धमुष्टित्वभियेव बन्धुवर्गाङ्गुलीषु ग्रहणं चकार ॥ २८ ॥ . यः कोऽपि यत्किचिदपि प्रतन्वन्दृष्टोऽमुना तद्विदधे तदैव । असावसाधारणबोधशक्तिरालोक्य कौतूहलिना जनेन ॥ २९ ॥ तत्सत्यमेव श्रुतिवाक्यमात्मा वै जायते पुत्र इति प्रतीतम् । तत्रैव पुत्रे नृपमद्रवत्योः कथं मिथः स्नेहरसोऽन्यथागात् ॥ ३० ॥ परस्परेानिधिरेककालं कालेऽभिसर्तुं तरला कलाली। बोधाभिधानेन विलोचनेन विलोकयामासतमां तमेकम् ॥ ३१ ॥ भाग्योदयैरेव सुतस्य तस्य क्षीणे च रीणे च गणे रिपूणाम् । भूपः शरासारयशांसि पातुं मृगव्यमव्यग्रमतिस्ततान ॥ ३२ ॥ . मध्येवनं मार्गणविद्धनष्टमृगानुसारी मृगयाविहारी । भाग्योमिनिर्मुक्त इवार्थकामश्चिरं स बभ्राम न कुत्र कुत्र ॥ ३३ ॥ मौनी मुनिस्तेन शमीकनाम्ना दृष्टश्च पृष्टश्व मृगप्रवृत्तिम् ।.. अदत्तवाक्चापमुखोद्धृतेन मृताहिनाकारि सहारकण्ठः ॥ ३४ ॥ प्राप्तो गते राजनि कोपपिङ्गः शृङ्गी मुनेस्तस्य सुतः सशाप । यः पन्नगं मत्पितरि न्यधत्त तं तक्षको भक्षतु सप्तमेऽति ॥ ३५ ॥ शमी शमीकः कृपयादितस्तं भूपालशापं कथयांचकार । भूपोऽपि संमन्त्रितमान्त्रिकौघः स्वरक्षणोपायपराङ्मुखोऽभूत ॥ ३६ ॥ संमन्त्र्य मन्त्रिप्रवरैरथैकस्तम्भाप्रदेशस्थितसंनिवेशम् । . . . . सौधं विधायाशु सुधीः स रुद्धपरप्रवेशं नरपो विवेश ॥ ३७ ॥ जगत्रयीलङ्घनजाचिकाहिहालाहलालीभिरलङ्घनीयम् । पार्थेषु रत्नौषधिमान्त्रिकौघमयं सयत्नत्रितयं ततान ॥ ३८ ॥ .
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आस्तीक पर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
अथाहि दिष्टे मुनिशापनुन्नः पृथासुतद्वेषविशेषतप्तः । मूर्ती यमक्रोधशिखीव नागः स नागसाह्वं नगरं प्रतस्थे ॥ ३९ ॥ विषद्विषन्मन्त्रसुधाब्धिमेष द्विजं द्विजिह्नः पथि कश्यपाख्यम् । यान्तं रयात्पार्थिवपालनाय दरिद्रमिष्टद्रविणं ददर्श ॥ ४० ॥ स पश्यतस्तस्य वटं विषाग्निघातेन दग्ध्वा तमुवाच विप्रम् | स तक्षकोऽहं नृपरक्षणे चेत्क्षमोऽसि तज्जीवय वृक्षमेनम् ॥ ४१ ॥ अहेरदत्ताथ सुधौघवृष्ट्या दृष्ट्या तरूज्जीवनमुत्तरं सः । महात्मनां वाग्भिरसूचितैव क्रिया विशत्युज्ज्वलकार्यनाट्यौ ॥ ४२ ॥ मर्त्यैरदेयं द्रविणंप्रदाय स तक्षकेण प्रहितोऽथ विप्रः । चेष्टाचयज्ञातनुपालकालः संपूर्णकामः स गृहं जगाम ॥ ४३ ॥ क्ष्मापं ययुस्तापसवेषभाजो भुजंगमाः केऽप्यथ तक्षकोक्त्या । अत्रान्तरे भीतिभिरस्पृशन्तो विषौषधीधर्मविधिच्छलेन ॥ ४४ ॥ दत्त्वाशिषं तत्स्वयमर्पितानि फलानि पुष्पाणि च पाणियुग्मे । दधौ नृपस्तत्क्षणवीक्षणीयकृतान्तदेवार्चनवाञ्छयेव ॥ ४५ ॥ दृष्ट्वा क्रिमिं शौणदृशं पिशङ्कं सूक्ष्मं फले मन्त्रिणमाह भूपः । शापेन मुच्येय दशत्वसौ मां कीटो मुधाकल्पिततक्षकाख्यः ॥ ४६ ॥ एवं नृदेवं निगदन्तमेव दग्ध्वा ससौधं विषवह्निवीच्या ।
धृतस्वरूप युतकीटरूपः खं तक्षकस्तत्क्षणमुत्पपात ॥ ४७ ॥ जनमेजयनामाथ तत्सूनुर्भासुरां भुवम् ।
स बालोऽप्युज्ज्वलत्तेजा दिवाकर इवाकरोत् ॥ ४८ ॥ अब्धेरप इवाम्भोभृद्गुरुतः कलिताः कलाः । अन्या इव व्यधादेष जगदास्वादकर्मणि ॥ ४९ ॥ सुवर्णवर्णकाशी स कुमारीमुदवाह सः । नृपो वपुष्टमां नाम पुष्टमाङ्गलिकोत्सवः ॥ ९० ॥ दिव्यदम्पतिभिः प्रेक्ष्य तं खेलन्तं तयान्वितम् । निद्रा तादृक्प्रिया नास्ति दुःखितैरिव दूरिता ॥ ५१ ॥
१. 'नृपान्त' ख.
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४७१
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४७२
काव्यमाला ।
भूभृन्मौलिमिलत्पादः प्रतापाक्रान्तभूतलः । सर्वलोकदुरालोकः स बभौ भानुमानिव ॥ १२ ॥ प्रवर्षन्नमृतं गोभिः कुर्वन्कुवलयस्मितम् । कस्य कस्य न सेव्यत्वं स सुधांशुरिवासदत् ॥ १३ ॥ वपुष्टमा क्रमादेनं सेवमाना ततोऽसुवत् । जितारातिशतानीकं शतानीकं तनूद्भवम् ॥ १४ ॥ सहस्रानीक इत्यस्य शतानीकस्य नन्दनः । भाव्यश्वमेधाद्वैदेहीभवो देहीव विक्रमः ॥ १५ ॥ इति श्रुत्वा वचो वैशंपायनाजनमेजयः । ननन्द निभृतानन्दः सदा निष्क्रन्दनो द्विषाम् ॥१६॥ (युग्मम्) जगत्रयजयोपायस्फायमानमति मुनिः । उत्तङ्कस्तं कदापेत्य लीलावनगतं जगौ ॥ १७ ॥ कान्तायै कुण्डले वेदगुरुणा गुरुदक्षिणाम् । याचितः पौष्यभूपस्त्री मदयन्तीधते अहम् ॥ १८ ॥ ते पुरा कुण्डले प्रार्थ्य गुर्वर्थ मम धावतः । तीरमुक्ते सरिन्नीरस्पर्शिनस्तक्षकोऽहरत् ॥ १९ ॥ तत्पथेनाहमुत्तालः पातालतलमाविशम् । तं नित्वाग्निप्रसादेन तूर्ण पूर्णस्पृहोऽभवम् ॥ ६ ॥ ताडङ्कहृति विद्वेषं तदद्यैव वहन्नहम् । कंचिन्नालोकयं लोकनाथं येन स जीयते ॥ ६१॥ दृष्टेऽद्य त्रिजगजैत्रचरित्रे त्वयि मन्मनः । तथा व्यकासीत्तच्छल्यशैथिल्यमभवद्यथा ॥ १२ ॥ तत्साधय धराधीश मुदे स्वपितृवैरिणम् । परीक्षिद्भक्षकं क्षीणरक्षकं मङ्क तक्षकम् ॥ १३ ॥ तक्षकः पितृवैरीति तद्विरा वैरकारणम् ।
सभ्यानापृच्छय जज्वाल स रुषा पुरुषाधिपः ॥ ६४ ॥ १. 'तीर' ग.
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आस्तीकपर्व-१सर्गः]
बालभारतम् ।
४७३
ततस्त्रिजगतीहोमक्षमानक्षीणतेजसः । द्विजानामन्य धात्रीशः सर्पसत्रमसूत्रयत् ।। १५ ।।... तदाहिकुलदाहाय भूपकोष इवानवान् । प्राविशत्क्रतुकुण्डान्तः प्रज्वलज्ज्वलनच्छलः ॥ १६॥ निर्दम्भमन्त्रसंरम्भमासुरैरथ भूसुरैः । कृष्टा विश्वधतिव्यक्तशक्तयोऽप्युरगा न के ॥ ६७ ॥ निसर्गभूषणं भर्ग भगवन्भवतो वयम् । तदस्माद्भालदृग्वासोपरोध्यात्पाहि पावकात् ॥ ६८ ॥ आकल्पमाप्य तल्पत्वमस्मदीशेन सेव्यसे । अस्मानमान्न किं पासि क्रतुतः ऋतुपूरुष ॥ ६९ ॥ त्वत्सर्गस्य तृतीयोऽशः पश्यतस्ते विलीयते । वेदज्ञैः क्लिश्यमानान्नः पासि वेदकवे न किम् ॥ ७० ॥ कदा रज्जुक्रियाकारि नास्माभिः स्यन्दने तव। . तन्नः किं त्रायसे नैभ्यस्त्रयीविन्यस्त्रयीतनो ॥ ७१ ॥ अस्मन्मुक्ता मही मङ्कासाद्रिस्तन्मेरुमन्दिरा । का वो गतिर्वयं पाल्यास्तत्संमील्याग्निमाननम् ॥ ७२ ॥ इत्यारटन्तस्तैः सर्वैरपि रक्षितुमक्षमैः । सास्त्रं निरीक्ष्यमाणास्ते दीप्तेऽनौ भोगिनोऽपतन् ॥ ७३ ॥ खमित्रमारुतभुजो भुञ्जानो भुजगव्रजान् । स्फुरत्फणामणिस्वानः सोऽग्निरद्वाहसीदिव ॥ ७॥ . अनलादुच्छलन्तस्ते श्यामाङ्गा मणिमौलयः । धूमेषु सस्फुलिङ्गेषु नोपालक्ष्यन्त पन्नगाः ॥ ७९ ॥ दग्धा मखाग्निकीलामिरुद्भूतनवमूर्तयः । सद्योऽपि द्यामगुर्नागास्ते धूमोत्कलिकाछलात् ॥ ७६ ॥ दह्यमानकुलालोकहृदयस्फुटनव्यसोः। निर्ममे मृतकमैव कस्यचिद्भोगिनोऽग्निना ॥ ७७ ॥ .
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४७४
काव्यमाला।
गरगरलविध्मातं महाहिः कोऽपि पावकम् । अज्वालयत्स्वफूत्कारैरकर्णानां कुतो मतिः ॥ ७८ ॥ प्रसह्य सह्यमानेषु तदा भोगिकुलेष्वभूत् । . . दुर्भिक्षभयभृद्विष्णुगुहवाहनयोर्मनः ॥ ७९ ॥ रविस्यदनसंदानभर्गभूषणभोगिनाम् । नाभूत्तदाग्निभीः"...."सोढतद्भालचक्षुषाम् ॥ ८० ॥ ता धारा वाहिपीवाहिरक्तनद्यस्तदाभवन् । वालासु यासु लोलासु सागरो रागमागतः ॥ ८१ ॥ एवं हुताहिव्यूहेषु द्विजेषु जनमेजयः।। महानागकुलस्तोमहोममप्यादिशत्क्रुधा ॥ ८२ ॥ ततस्तक्षकहोमाय मन्त्रमाहुश्च सोमपाः । त्रस्तः स्वस्त्रीयमास्तीकमित्युवाच च वासुकिः ॥ ८३ ।। अनादेशविधानाग्निदग्धा कटूः पुरोरगान् । दाहोऽस्तु सर्पसत्रे व इति माताशपत्सुतान् ॥ ८४ ॥ क्षयं यास्यन्ति सर्वेऽपि किं सर्पा मातृशापतः। . इति पृष्टस्तदा देवैर्जगाद जलजासनः ॥ ८५ ॥ जरत्कारुमुनेः पत्नी जरत्कारुरिति श्रुता। प्रसविष्यति सा पुत्रमास्तीकं वासुकिस्खसा ॥ ८६ ॥ अहीन्वेदविदग्धस्तान्दग्धशेषान्स पास्यति । लोकश्छायामयं भानुहतशेषं यथा तमः ॥ ८७ ॥ ततस्त्वं भागिनेयं स्वं भागिधेयमिवागतः । अहीनहीनचारित्ररक्षयैष तव क्षणः ॥ ८८ ॥ इत्यास्तीको गिरं श्रुत्वा मातुलस्यातुलोद्यमः । चचाल सर्पसत्राय चेतःसहचरः क्रमात् ॥ ८९॥ तक्षकाकर्षसंहर्षसंरब्धस्तब्धपाणयः । द्विजास्तदा च राजानं जगदुर्जगदुत्तमाः ॥९०॥
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आस्तीक पर्व - १ सर्गः ]
४७९
बालभारतम् ।
तक्षकेण शरण्यस्त्वत्पितामहपितामहः ।
चक्रे शक्रः स किं मान्यः कृप्यः सोऽपि सहैव किम् ॥ ९१ ॥
तक्षकं रक्षकोपेतं कोपेन मनसो रसात् । द्रुतं जुहुत यज्ञाग्नौ तानित्यूचे तदा नृपः ॥ ९२ ॥ अथावेशोच्छु सद्दृष्टिभीमभ्रकुटयो द्विजाः । सेन्द्राय तक्षकायेति मन्त्रपूर्वी जगुर्गिरम् ॥ ९३ ॥ कोशन्तीष्वथ कोटीषु त्रयस्त्रिंशतिनाकिनाम् । मन्त्रशक्त्या खमानीतो नाकिनाथः स तक्षकः ॥ ९४ ॥ तौ वीक्ष्य खाण्डवप्लौषरक्षकौ शक्रतक्षकौ । होमाय कृष्टौ व्योमा जिह्वा व्यावल्गयच्छिखी ॥ ९९ ॥ दिक्पालमयभूपाल छुपालोंऽशस्तवाष्टमः । हुतेऽस्मिन्पौरुषं ते किमित्यरोदीत्तदा शची ॥ ९६ ॥ स्वर्गस्वाम्ये तवेच्छा चेत्तदिन्द्रोऽस्तु त्वदाज्ञया । जनमेजय मुञ्चामुमित्यूचुः सर्वतः सुराः ॥ ९७ ॥ इति लोके साक्रन्दे संक्रन्दनकरग्रहात् । सावेशविप्रहुंकारैर्व्यच्छुटमा तक्षकः ॥ ९८ ॥ यावत्पतति होमानौ स नागो मा पतेति तम् । व्योम्नि व्यालम्बयंस्तावदित्यास्तीकः स्तुवन्नृपम् ॥ ९९ ॥ स्वस्ति ते पाण्डुवंश्याय यत्कीर्तेर्मुखबिम्बवत् । इन्दुर्मरकतादर्शनिभे नभसि भासते ॥ १०० ॥ आस्ते यावदखर्वपर्वतघटा गुर्वीयमुर्वी भृशं
तावन्नन्दतु भूमुकुन्द जगतीपुण्यैरगण्यैर्भवान् । येनैतां भुजगाधिपस्तव भुजे विन्यस्य नागाङ्गनागोष्ठीगीतभवद्यशः श्रुतिरसादाचान्तचिन्तोऽभवम् ॥ १०१ ॥ स्वान्वत्सान्पितृदेवमानव ऋषीन्यावद्धुनोति स्वधा -
स्वाहा हन्तवषट्कृतिस्तन चतुष्केन त्रयीधेनुकाः ।
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૩૭૬
काव्यमाला ।
तावल्लालय भूमिपाल भुवि तद्गोपालरूपाननूचानान्पूर्वजवृत्तिलाभमुदितान्संमानदानादिना ॥ १०२ ॥ नित्यं त्वद्वदनारविन्दसदनं वाग्देवता सेवते
त्वं पद्माश्रयभासुरोऽसि जयति त्रैलोक्यसूत्रं त्वयि । भूभृन्मण्डलमौलिमण्डनगुणैरेभिः स्वयं ब्रह्मणः
साधर्म्यं वहसि प्रियंवद मदाशीर्भिस्तदायुर्भव ॥ १०३॥ कल्पान्तेषु यशोभरैस्तव हरेर्दुग्धाधिवासः स्वयं
मार्कण्डस्त्रिदशा पगारयपयः स्नानोत्सवं लप्स्यते । अत्युक्तिः कवितेति नात्र वचसि श्रद्धास्ति चेत्तच्चिरं नन्द त्वं दलितारिपक्ष भवतु प्रत्यक्षमेतत्तव ॥ १०४॥ वितन्वाते विश्वाङ्गणसदसि यावत्तव यश:
प्रतापाभ्यामभ्युल्लसितरुचिवादं विधुरवी । भज स्थैर्यं सोमान्वयतिलक तावत्कसुकृतैः
कृतैर्लभ्यः सभ्यस्त्वमिव गुणदोषैकनिकपः ॥ १०५ ॥ क्व यातु त्वां विना धर्मः क्व ते धर्मे विना रतिः ।
मा द्वयोर्युवयोरस्तु पृथ्वीनाथ पृथग्गतिः ॥ १०६ ॥ अशक्तमेकाङ्क्षितया विहर्तुं महीन्द्र मूर्ध्ना वह धर्ममेनम् । चतुष्पदीं प्राप्य कृति कृतज्ञो विशृङ्खलं खेलति यावदेषः ॥ १०७ ॥ यावद्धर्मस्तावदेव त्रिलोकी यावच्च त्वं तावदेवास्ति धर्मः । तत्रैलोक्याधारभूतस्त्वमेकोऽनन्तं कालं नन्द कल्याणकन्द ॥ १०८ ॥ सर्गेऽस्मिञ्जनिते पुराणकविना सीतांशुबिम्बं भवद्वऋश्रीपुनरुक्तमङ्कमिषतश्छन्नं मषीरेखया । क्ष्मानिर्दूषणभूषण त्वयि गुणैस्त्रैलोक्यलोकं वशी
कुर्वाणे कुसुमायुधोऽप्यधिकता दोषादनङ्गीकृतः ॥ १०९ ॥
चौरस्त्रीकुलटाकुलाश्रुतटिनीसंभेदगर्भे मुहुः
स्नानाधान परोवनीतलकृतस्थानः प्रभावास्पदम् ।
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आस्तीक पर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
एष न्यायतपोधनः किमपि तद्वृत्तं वितेनेऽन्तरा
त्मानं त्वां कलयन्कलाढ्य जगदप्यासीद्यथा तन्मयम् ॥ ११० ॥ पौरुषतरुमारूढावनीश तव संततं लतानीतिः । रिपुनिःश्वासोल्लसितैः सुरभयति दिशो यशः कुसुमैः ॥ १११ ॥ न व्यामोहं क्वचन तनुते यत्र धत्ते विरोध
धातुः पुत्र्या सह न सहजं चापलं चातनोति । हस्ते कृत्वा जगदिव कृतिस्तत्किमेषापि लक्ष्मी
४७७
भद्रपौत्रप्रभव भवता शिक्षि वृत्तं स्वमेव ॥ ११२ ॥ विश्वं न स्यादनीदृङ्किखिलमपि कदाप्येष लोकप्रवादः
कल्पे कल्पे ततस्त्वं मदयसि वसुधां लब्धपुण्यावतारः । कल्पद्रुः कामधेनुस्त्रिदशमणिरपि श्रीनिकेतस्रवन्ती
भूयाम्भोधिं गतानामिति भवति भवद्दानवारां विवर्तः ॥ ११३ ॥ दत्से दानमिदं सदा यदि ततः श्रीसोमवंश्यः स्वयं
प्राक्तोयप्रथनौचितीं शुचिकलाविस्मेर विस्मारय । तत्तत्पूरमयीषु सिन्धुषु पयः पीत्वा ध्वनिप्रोद्धतै
र्याच्या दैन्य पराङ्मुखैः पृथुगुण प्रार्थिष्यसे नार्थिभिः ॥ ११४ ॥ आजन्मापि कृशाकृतिं द्विजपतिं स्वे मूर्धनि स्वर्धुनी
धौते धारयते जगत्पतिरसावग्रो गुणग्राहिणाम् । सद्यः संगतमप्यसुं वसुभरैः पुष्णाति पूषा शिरो
भूषा दानवतामुभावपि शुभावेतौ गुणौ तु त्वयि ॥ ११९ ॥ भद्रापतनूज पूजनविधिं वागीश्वरीजंगम -
प्रासादेषु विशारदेषु विशदं किंचित्त्वया तन्वता ।
दारिद्यौघरजः प्रमार्जनकृते दत्ता स्वयं शाश्वती
लक्ष्मीः कर्मकरीव मुञ्चति पुरोभागं न तेषां क्वचित् ॥ ११६ ॥ तादृग्दारिद्र्यमुद्रातुरचतुरचमूहर्षहेला निदानै
र्दानैरुद्यञ्जगत्यां जयति तव महीपाल पाणिर्महीयान् ।
१. 'वन' ख. २. 'चरी' ख.
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काव्यमाला।
सा कल्पः कल्पशाखी त्रिदिवभुवि मुधा मार्गणानां सुराणां ___ मिथ्यावित्तानि दत्ते यदभिनयनटीभूय भूयस्तराणि ॥११७॥ किं वर्ण्यः कलिगन्धसिन्धुरहरिभूवल्लभ त्वं कला
वल्लीनामवनी वनीयकवनीधारालधाराधरः । कल्पोर्वीरुहमूर्ध्नि मौक्तिकमयानूनप्रसूनच्छवि
च्छद्मानः पृथुमानदानजनिताः क्रीडन्ति यत्कीर्तयः ॥ ११८॥ विश्रामाय न कल्पवृक्षवनमप्यालोकते नोच्चकै
श्चिन्तारत्नधराधरेऽपि कषणक्रीडारसं काङ्घति। वृन्दो कामदुहां क वाञ्छतु समं धुयै धरायां भवा
नेको वीरवृषो वहत्यहरहर्दानस्य दीर्घा धुरम् ॥ ११९ ॥ अचैतन्याश्चिन्तामणिसुरगवीकल्पतरवः
पयोधेरुत्तस्थुर्यदि सति महादानिनि वलौ । तदेते भूनेतः कथमिव भवन्तं क्षितितले
भविष्यन्तं मत्वा प्रथममगमन्मेरुशिखरम् ॥ १२० ॥ दाता येन रसातलं व्रजति तदानं बलिदत्तवा
वास्तु वःसुरभीमणिक्षितिरुहां दाने गुणग्राहिता । मातुः प्रार्थनयापि विश्वजयिने कर्णोऽपि निर्भीतये
नाभीति जयिने ददौ कमिव तत्त्वां स्तौमि भूमिप्रभो ॥१२१॥ अर्हद्भक्तसुहृद्विभक्तिविभवश्रीवल्लिशालद्विष
क्षोणीपालकपालपाटनपटुप्रोद्दामवामध्रुवः । विद्वत्पुण्यपुरैकगोपुरपुरोभागीति भागीरथी
भासा भासितभूनभांसि न भृशं जग्मुर्यशांसि क ते ॥१२२॥ शत्रुक्षत्रकलत्रनेत्रसलिलैर्जम्बालजालस्पृशि
भ्रान्त्वा भूपतिभालभूषण भवत्कीर्तिर्भुवो मण्डले । यद्यान्ती विबुधालयं प्रति सुधाकुण्डे सुधांशौ न्यधा
- दशिक्षालनमित्ययं खलु मलस्तस्मिन्गतः स्मरताम् ॥ १२३ ॥ १. 'क्रमम् ख.
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आस्तीक पर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
त्वद्यशश्छविलवापहारिणी नैव दैवतधुनीति घुष्यताम् । यां शिवः शिरसि केशवक्रमस्पर्शदिव्य विमलामलालयत् ॥ १२४ ॥ खर्व: पार्वणशर्वरी वरयिता गव न दवकरा
धीशः श्रीदधराधरोऽतिविधुरः स्वः सिन्धुरो नोद्धरः । ईशोऽन्तंसधुनी च नीचमहिमा सान्द्रो हिमाद्रिश्च न
श्री सोमान्वयश तावकयशश्चक्रे दिशः क्रामति ॥ १२५ ॥ व्याषेधो धरणीधरेशितुरनध्यायः सुधाया विधोरन्तर्धिर्धनदाचलस्य निधनं दुग्धोदसिन्धोः पिधाः । प्रत्याख्यानममानवद्विपमहादेहाद्युतेर्निदवो -
जहव्यास्तव भूभुजंग यशसां भारो दिशां हारति ॥ १२६ ॥ गङ्गां शृङ्गारयद्भिस्तुहिनकरकलाशेखरं रेखयद्भिः
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श्रीखण्डं मण्डयद्भिर्भुजगविभुविभासंचयं चञ्चयद्भिः । चन्द्रं निस्तन्द्रयद्भिः स्फटिक गिरिशिरोवृन्दमानन्दयद्भिर्भूसुभ्रुकान्त शुभ्रैस्त्रिभुवनमभितः शोभितं त्वद्यशोभिः ॥ १२७ ॥ शेषं निःशेषयन्त्यो हरशिखरिशिखा संघमालङ्घमाना मन्दारं मन्दयन्त्यो हरिचरणसरिद्वाहमागाहमानाः । कर्पूरं दूरयन्त्यः सुरसुरभिपयः संचयं वञ्चयन्त्यो
विश्वं विश्वंभराया रमण तव यशोराजयो राजयन्ति ॥ १२८ ॥ उक्तः सर्वग एव तत्त्वविदुरैर्देवः शिवोऽसौ न तन्मिथ्या यत्कुसुमैः प्रपूजयसि यैः सर्वाङ्गमेनं विभुम् । दीनार्तिद्रुमदाव तावकयशस्तोमच्छ विच्छद्मना
तुल्यं सर्वगतानि तानि सुरभीकुर्वन्ति सर्व जगत् ॥ १२९ ॥ शेते पश्य चतुर्मुखोऽपि जगतामन्ते तदन्ते हरि
स्तस्यान्ते च हरः स्फुरद्दिननिशा युग्मव्यवस्थावशात् ।
सर्वान्तेऽपि नरेश न स्वपिति ते कीर्तिः पुनः संकट
व्योमौकः स्थितिचिन्तया भवतु किं तस्या दिनं का निशा ॥ १३० ॥
१. 'सर्वान्तोऽपि ' ग.
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काव्यमाला।
मन्येऽब्धौ वडवानलं फणिपुरे कालाग्निरुद्रं दिवि
व्यक्षाक्षिज्वलनं पयोधरपथे सौदामनीडम्बरम् । पूर्वस्यां दिशि शक्रशस्त्रमधुना कार्य किमत्रात्मभि
र्भानुमन्त्रयतीति सोमकुलज त्वत्तेजसि स्फूर्जति ॥ १३१ ॥ तव प्रतापस्तपनस्तदन्तः पुमांस्त्वमेकोऽसि हिरण्यवर्णः । भवद्विषां सत्त्वजुषां महांसि त्वय्येव मज्जन्ति महीभुजंग ॥ १३२॥ निःशोभं भवभालभीमनयनं दम्भोलिकीलागल. ___ल्लीला लुम्पति दावपावकविभापूरः परक्रूरताम् । अर्कः कर्कशतां समुज्झति वहत्यौर्वो न गर्वोद्गमं
श्रीसोमान्वय विश्ववल्गनकलामत्ते भवत्तेजसि ॥ १३३ ॥ व्योम्नि व्योममणिर्वने दवशिखिज्वालाकलापः पयो
राशौ वाडवपावको जलधरस्तोमे तडिद्विभ्रमः । एते पौरववंशसंभव भवत्तेजोभिरस्तौजसो
मन्ना दुर्यशसीव भान्ति विलसज्जम्बालनालप्रभे ॥ १३४ ॥ पतिः प्रतापदीपानां महीप तव दीप्यते ।
ब्रह्मणोऽपि तमखिन्यां भावी दीपोत्सवो यया ।। १३५॥ यत्र संचलति संचलत्पदः सुस्थिते भवति सुस्थितं जगत् । तद्भवं भुवि भवानवातरख्यातमेव मतमद्वयं विभो ॥ १३६ ।।
देव त्वजैत्रयात्रा समयसमुदयत्तुङ्गमातङ्गशुण्डा___ दण्डाग्रप्रायजाग्रत्तुरगखुरभरैः सानुमन्तः समन्तात् । सातकं कम्पमानाः शकुनिकलकलैः प्रस्तरव्रातपातैः
शङ्के निष्कासयन्ति खकुहरविहरत्प्रत्यनीकावनीपान् ॥१३७॥ शक्रः संक्रन्दनोऽभूदकलयदनलस्तापमापत्कृतान्तः
काय क्रव्यादभर्ताजनि रजनिचरोऽम्बुप्रविष्टः प्रचेताः । १. 'सौदामिनी' ग. २. 'सर्वस्पां' ग. ३. 'गर्वोद्यमम्' ग. ४. 'विश्वलालचकला' ग. ५. 'ग्राय' ख. .
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आस्तीक पर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
वायुर्न कापि तस्थावधित धनदतां गुह्यकेन्द्रो गतोऽद्रिं शूली धूलीधुतार्के भरनतभुजगे दिग्जिति त्वत्प्रयाणे ॥ १३८ ॥
त्वत्प्रारब्धप्रचण्डप्रधननिधनितारातिवीरातिरेकक्रीडत्कीलालकुल्यावलिभिरलभत स्यन्दमाकन्दमुर्वी ।
दम्भोलिस्तम्भभास्वद्भुजभुजगजगद्भर्तुराभर्तुरेनां
तेनायं मूर्ध्नि रत्नद्युतिततिमिषतः शोभते शोणभावः ॥ १३९॥ विज्ञैरागमतो मतो यदि वलीहेतुर्न तद्भावतो
बिम्बं भिन्नमरातिभिस्तव शिवप्रस्थायिभिः पार्थिवैः । भिन्नस्तैः पृथिवीपुरंदर परं प्रालेयरश्मिर्यत -
स्तस्मिन्कज्जलकश्मलच्छविविलं लक्ष्मच्छलं लक्ष्यते ॥ १४० ॥
४.८१
कल्पे कल्पे भवसि भुवनानन्दविद्वेषिवृन्दा
वस्कन्देषु त्वमसमगुणः सत्प्रतापः क्षमापः । तद्रोमाञ्चं भजति गिरिभिर्भूतधात्री धुनीते
चन्द्रादित्यच्छल परिलसत्कुण्डलं व्योममौलिम् ॥ १४१ ॥ अमी प्राज्यं राज्यं जगति रचयिष्यन्त्यरिनृपानिमान्मेत्स्यामीति द्रुहिण भवतो निश्चयलयः । प्रतिज्ञातं धाता तव तु तनुते निष्फलमदो मदोग्रत्वत्पादप्रणतिमतिमेतेषु वितरन् ॥ १४२ ॥ अदन्तैर्मातङ्गैर्विटपिभिरपुष्पैरनुड्डुभि
स्तमिस्राभिः सर्वैरमणिभिरफेनैर्जलधिभिः ।
अमीभिः श्रीसोमान्वयतिलक विश्वत्रयमपि प्रसर्पद्भिः पूर्णत्वदरिकुल दुष्कीर्तिनिकरैः ॥ १४३ ॥ त्वत्तेजस्ततितापिता इव विपल्लीला कटाक्षच्छटा
संश्लिष्टा इव संनिधिस्थितवधूनिःश्वासदग्धा इव । दुष्कीर्तिव्यतिषक्तमूर्तय इव क्ष्माकान्त भान्ति ध्रुवं दुर्ध्यानद्युतितन्मया इव वने श्यामत्विषस्त्वद्विषः ॥ १४४ ॥
६१
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काव्यमाला।
त्वद्विद्वेषिपुरे पुरा निवसति प्रासादवृन्दध्वज- . ___ च्छायां केलिकलापिभिः फणिगणभ्रान्त्या निहत्यार्दिताः । शून्यं संप्रति सर्वतो निजपतिप्रध्वंसवैराग्यतो निर्वैरा इव ते क्षिपन्ति न मुखं सर्पत्सु सर्पष्वपि ॥ १४५ ॥ शिखरिषु हृदभूतैर्भूमिनेतः प्रभूतै
स्त्वदहितयुवतीनां दृग्जलैः कजलाढ्यैः । अहह विरहखिन्नाः खेचराणां रमण्यः
प्रतिपदमनुयज्ञं प्रीतिलेखांल्लिखन्ति ॥ १४६ ॥ श्रुत्वा पार्थप्रपौत्रं किमपि तव नवं वर्णनि स्वर्णकर्णा- लंकारं कारयिष्ये किमियमिति वधूत्तसितालीदलालीम् । आदायादाय देशान्तरचरकवयोऽरण्यदेशेऽपि शत्रु
क्षत्रस्त्रीनेत्रबाप्पाञ्जनदरिषु लिखत्यद्भुतत्वत्प्रशस्तीः ॥ १४७ ॥ दिगन्तान्दिग्दन्तावलकटमिया तावकभुज
भ्रमान्मुक्त्वा जग्मुर्गिरिविवरमागैरहिपुरम् । अहीन्द्रं तद्रूपं नृपतिवर तत्रापि रिपवो
निरूप्यांशुत्रासादयुगतिमतिदीना विदधतु ॥ १४८ ॥ जम्भजित्करिकरो भवद्भुजः पन्नगेन्द्र इति सोदरास्त्रयः । संविभज्य जयिनो जगत्रयं भूमिपाल परिपालयन्त्यमी ॥ १४९ ॥ त्वद्भुजभ्रमकणः फणीन्द्रदिग्धस्तिहस्तपविदण्डमण्डनः । दैन्यतोऽब्धिजलदुर्गविष्टरे विष्टरश्रवसि याति विष्टपम् ॥ १५० ॥ स्पर्धा कुतो धास्यति भूभुजंग भुजंगराजः स भवद्भुजेन । यस्त्वत्क्षतारिव्रजपातभुग्नधाराभरेणापि बिभर्ति खेदम् ॥ १५१ ॥
रङ्गद्भुजंगकुलहोमबलप्रलीना
धारां धरां क इव धारयितुं क्षमः स्यात् । इत्थं जना निजगदुर्न विदुर्जडास्ते
राजन्भवद्भुजभुजंगकृतस्थिति ताम् ॥ १५२ ॥
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आस्तीक पर्व - १ सर्गः ]
बालभारतम् ।
स्वयं जगत्रयं त्रातुं शक्तः शक्तित्रयीसुतः । भवाञ्जुहोतु होमानौ नाकनागपती कृती ॥ १५३ ॥ त्यस भूतशर्व सर्वान्सुरासुरोर्वीश मखान्मखस्ते । तापोच्छलत्पन्नगरत्नराजिव्याजोत्थताम्बूलकणप्रतानः ॥ ११४ ॥ हिमांशोर्मालिन्यं दलयसि यशोभिश्चलचमूधुतैर्धूलीभारैः शिथिलयसि भारं फणिविभोः । नृणां दौस्थ्यं दानैरपनयसि सोमान्वयशिरः
किरीट त्रैलोक्योपकृतिसुकृती त्वं विजयसे ॥ १५१ ॥ भुजाग्रमभजंस्तवाङ्गुलिमिषेण नाकद्रुमाः
सुरारिभयभीरवः सुरवराश्च हृत्पञ्जरम् । अतोऽनुसृतवत्सल त्रिविधवीर कोटीरक
स्तुलां रिपुकुलान्तक व्रजतु भूभुजंग त्वया ॥ ११६ ॥ स्पर्धा बन्धात्त्वदङ्गं सपदि गुणगणा ये विशंस्तत्प्रवेशे द्वारूपा रोमकूपास्त्वदवयवभरं निर्भरं शोभयन्ते । तैरेवान्तः क्षितीश त्वमसि शशिनिभैर्भासितस्तत्तमित्रं रोमस्तोमच्छलेनान्तरमिव निरयद्भाति मार्गेषु तेषु ॥ १९७ ॥ सर्वज्ञनामपरिपूर्तिकृते हरोऽपि
मृत्युंजयस्तव गुणान्गणयन्कृतज्ञः ।
अम्भोधिपट्टमभिवीचिनिभान्निजेन
मूर्त्यन्तरे च कुरुते मरुतैष रेखाः ॥ १९८ ॥ न लीलादोलायां न कनकनिकेताग्रशिखरे न तल्पे नाकल्पे न मृदुपवने नाप्युपवने । रति क्वापि प्रापुर्नृवर कवयस्त्वद्गुणगणानुरूपार्थध्यानभ्रमितमतिशून्यभ्रमिकृतः ॥ १९९ ॥ औचित्योचित्य किंचित्क्वचिदपि वचनप्रक्रमं विक्रमश्रीविश्रामावास विश्वोत्तरगुण तनुतां कः स्तुतिं प्रस्तुतिं ते । १. 'सुतः ख २. 'स्त्वमसि' ख.
४८३
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काव्यमाला ।
दृग्लीलादग्धदाह्यप्रचय रचयति त्वत्प्रशंसां न शर्वः __ सर्वज्ञोऽपि स्वयं तु स्तुतिकृतिषु कृतिन्कस्य न स्यात्रयोमिः॥१६०॥ इत्येष स्वस्तिपूर्वस्तवननवसुधावृष्टिमान्हृष्टिमन्ने(?)
तत्र क्षत्रावतंसे कथय किमु ददे तुभ्यमित्युक्तिभाजि । आस्तीकस्तक्षकाहिप्रभृतिफणभृतां चक्रमुन्मोच्य चक्रे
तोषं शक्रोऽपि विश्वत्रयहृदयमदाद्वैतवैतण्डिकश्रीः ॥ १६१ ॥ श्रेयोधामनि मन्त्रदामनि भवन्नाम्नि श्रुतेऽस्मद्विषं
जन्तोन प्रभविष्यतीत्यहिकुलैः सोत्कर्षहर्षाकुलैः । दत्तोदारवरस्तदैव स जरत्कारोः कुमारोऽनिशं
कालाहेर्निजनामगर्भमवतु ग्रन्थं यशोऽङ्गं मम ॥ १६२ ॥ वीरेन्दोर्जनमेजयस्य पुरतस्तत्राहिसत्रान्तरे
वैशम्पायनतो निशम्य किल यां सूतः स उग्रश्रवाः । आख्यन्नैमिषकानने कुलपतेः श्रीशौनकस्य ऋतौ
सेयं लालयतु स्ववालमिव महन्थं कथा भारती ॥ १६३ ॥ भेजे श्रीजिनदत्तसूरिसुगुरोरहन्मतार्हस्थितेः
पादाजभ्रमरोपमानममरो नाम व्रतीन्द्रः कृती । एतन्नन्दतु बालभारतमहाकाव्यं तदुल्लासितं वाग्देवीगृहकोविदेन्दुहृदयः श्रेयः सुधास्वस्तिकः ॥ १६४ ॥ श्रीआस्तीकप्रभावाख्ये सर्गेऽमुष्मिन्ननुष्टुभाम् ।
शतद्वयं समुद्दिष्टमष्टपञ्चाशदन्वितम् ॥ १६५ ॥ इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यश्रीमदमरचन्द्रसूरिविरचिते बालभारतनानि महाकाव्ये वीरा . आदिपर्वसंबन्धी आस्तीकप्रभाववर्णनो नाम त्रिचत्वारिंशत्तमः सर्गः ।
१. 'तु त्वत्स्तुति' ग. २. 'आस्तीकायप्रभावाख्ये' ख.
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कविप्रशस्तिः ]
बालभारतम् ।
कविप्रशस्तिः ।
किंचित्संचलितेऽपि वस्तुनि भृशं यत्संभवान्मन्महे विश्वं यन्मयमीश्वरादिमयतास्पष्टप्रमाणेप्सितम् ।
४८५
संसारप्रसरः परस्तनुमतां यस्यानुरोधेषु य
त्संरोधेषु शिवं स यच्छतु सतां श्रीचारुतां मारुतः ॥ १ ॥ देशे सत्तीर्थसार्थ दुरुदुरिते श्रीहनूमत्तनूजो
त्पत्तौ तेन प्रतेने जगदिव महास्थानमस्थानमाधेः । स्वाख्याङ्कज्ञातिनाम्ना मरकतमणिका मिश्रमुक्ताफलस्रभूषावद्भूमृगाया द्विजपटलमिहास्थापि साकं वणिग्भिः ॥ २ ॥ श्रीमद्वायनाम्नि सारसुकृतश्रीधानि तस्मिन्महा
स्थाने मानिनि दानमानसरसास्ते वायटीया द्विजाः । स्तोमस्तोमसमुत्थधूमनि वर्मालिन्यमालम्बया - मासुर्थी वणिजो जिनार्चनघनोपधूमोत्करैः ॥ ३ ॥ ध्वजमिषभुजमूलस्थूलकुम्भैकवक्षो
रुहमहह महीयोधः कृतस्फाटिकाद्रि । विलसति वणिजां सत्कीर्तिधमर्धिनारी
श्वरवपुरिव तत्र श्रीमहावीरचैत्यम् ॥ ४ ॥ श्रीश्वेताम्बर मौलिमौक्तिकमणिस्तस्मिञ्जिनेन्द्रालयेऽधिष्ठाता जिनदत्तसूरिरजनि ज्ञानैकवैज्ञानिकः ।
श्रेयस्तुङ्गयदङ्गसंगमसमुद्भूतप्रभूतस्फुर
त्पुण्यैः पश्य गुणैर्गतं दिवि सितच्छायैरुडुच्छद्मना ॥ ५ ॥ तत्पट्टोर्वीघरवरमणिद्योंमणिद्योत्तजैत्रै
स्तेजः पुत्रैः किमपि ककुभोऽपूरि रासिलसूरिः । यस्य व्योमच्छलकलशभृत्कीर्तिधारापयोभिगोभिर्भुक्ता घनजनमनः कानने मोहवलयः ॥ ६ ॥
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४८६
काव्यमाला।
सुरगजरजनीभुजंगगङ्गाभुजगपतिप्रतिशूरकीर्तिपूरः । तदनु मुनियतिर्मतिप्रतिष्ठाजनितरसोऽजनि जीवदेवसूरिः ॥ ७ ॥ वयस्यद्विद्याभिः खलु सह कलाभिर्गुणगणाः
सहेलं खेलन्तो बहुमतिलते यत्तनुवने । यशः श्रीपुष्पस्रक्चयसुरभयः संशयमयीं ___ महादोलां मुक्त्वा सुकृतरसवापीषु विहृताः ॥ ८ ॥ महायोगी भोगी प्रभुनिभभुजस्तस्य शमिनः
सभायामायातः क्वचिदहनि कश्चिद्वहनदृक् । असावुद्यद्विद्याचयजयपताकामिव सुखं
मुखाजिह्वां कृष्ट्वा कृतपरिकरोग्रे न्यविशत ॥ ९ ॥ प्रीतिव्यालोकमौलिच्छलचलकमलामुच्छलन्युञ्छनालि
ब्राजभ्राजिष्णुवीची स्तिमिततिमिसदृगृकलाकेलिकम्राम् । अक्षुभ्यंस्तत्प्रभावादपि सुकृतसुधासिन्धुधाराधरोऽयं दूरं सूरिः प्रपूरे सर इव वरवाग्वृष्टिभिः संसदं सः ॥ १० ॥ अथ सुकृतकथान्ते गन्तुमिच्छत्रसज्ञां
न सपरिकरबन्धात्क्रष्टुमीष्टे स्म योगी । भषण इव तदस्मिन्नुल्लसद्दीनशब्दे ।
किमिदमिति जनेनापृष्टमाचष्ट सूरिः ॥ ११ ॥ शक्तः पातयितुं नभस्तरुफलं हुंकारतोऽकै क्षमो
मूलस्तम्भमपि त्रिलोकभुवने भकं भुजंगेश्वरम् । योगीन्द्रोऽद्भुतभूरिसिद्धिरसिकोऽसौ मत्कपालाप्तये प्राप्तः स्तम्भनमाचरन्मयि मया द्राक्प्रत्युत स्तम्भितः ॥ १२ ॥ वक्रानलम्बितललद्रसनावबद्ध
पर्यस्तिकोऽत्र मदमर्षदवानलेन । कुञानिःसृतमहोरगवेष्टिताङ्गः
शाखीव शुष्यतुतरामयमित्थमेव ॥ १३ ॥ १. 'वा' ख. २. 'हर्ष ख. ३. 'कुञाप्र' ख.
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कविप्रशस्तिः]
बालभारतम् ।
४८७
४८७
जिनेश्वरमतामृतार्णवचितन्द्रचन्द्रोदय ... प्रमोदय दयां हृदि क्रुधर्ममुं च मुञ्च प्रभो । सदः सदि वदत्यदस्तदनु साधुवर्गे गुरुं
क्षितौ खटिकयाक्षराण्यखिलदेष योगी तदा ॥ १४ ॥ उपकृतिमुपकर्तुः सर्वतः कुर्वते ये
कति न धरति धात्री तानसौ मानशौण्डान् । अपकृतिकृतिनस्तानेव कुर्वीत गुर्वी ___ वहति सततमुर्वीमुद्विवेकः स एकः ॥ १५ ॥ आमृश्यैवं स यतिपतिना कृष्णभोगीव योगी
बन्धान्मुक्तः क्रुधमभिवहन्निःश्वसन्निःससार । यातो यस्यां दिशि रिपुरसौ गम्यतां नाद्य तस्या
मस्मद्वग्र्यैरिति च वचनं स्पष्टमाचष्ट सूरिः ॥ १६ ॥ रतिरिव पतिनाशे श्रीरिवास्थैर्यदोषे __ स्ववशगकविदौस्थे वागिवाप व्रतं या। नगरबहिरगच्छद्गच्छ साध्वी न्यवेशि
स्वतनुमनु च तेन द्रोहिणा मोहिता सा ॥ १७ ॥ मत्वेत्यथो कुशमयं तमयं मुनीशः
कृत्वा ततान वितते तपनस्य तापे । स प्रस्फुरज्ज्वरभरोऽथ विहाय साध्वीं
लूनाङ्गुलिगलितगर्वगणो जगाम ॥ १८ ॥ अयमुदयममन्दव्यक्तशक्तिर्व्यनक्ति
क्वचन वचनसङ्गी नास्य सादृश्यमङ्गी । सततमिति यतीन्द्रस्तस्य नर्नति कीर्ति
जंगति जगति गङ्गार्णस्तरङ्गाङ्गहारैः ॥ १९ ॥ पूर्वोर्वीधरगन्धसिन्धुरशिरःसिन्दूरपूरप्रभां
बिभ्राणे तरणौ कदाचन कृतप्राभातिकप्रक्रियः । १. 'दमुं' ख.
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काव्यमाला।
सूरिभूरिभिरेत्य तत्पुरवरैः संमान्य मान्यः सतां
प्रीतिश्रीरसभावितैर्निजसभावौ बभाषे द्विजैः ॥.२० ॥ गौरेका पतिता कथंचन मृता श्रीब्रह्मशालान्तरे __ न म्लेच्छाः प्रविशन्ति तत्र न मृतं कर्षन्ति विप्राः पशुम् । धर्माधार कृपाधुरीण तरसा तस्मान्महाकश्मला
दमादन्यपुरप्रवेशकलयैवोत्कर्षतः कर्ष तत् ॥ २१ ॥ मन्त्राकृष्टविशिष्टचेटकचयत्रीताप देहं त्यज
न्स्वामी सोऽन्यपुरप्रवेशकमथ ध्यानं दधौ शुद्धधीः । सा गौरुच्छ्रसिता ततो जिनमतस्यापि प्रेदश्र्योन्नति
तस्माद्ब्रह्मगृहाबहिनिरगमद्दुःखं द्विजानां हृदः ॥ २२ ॥ स्वस्थानस्थापितात्मा तदनु मुनिरसावुत्सवे न द्विजेन्द्र
रानिन्ये ब्रह्मशालामथ च पृथुमदैर्वायटादित्यदेवम् । हैमं यज्ञोपवीतं तदिह सह महास्थानवेंन्देन दत्त्वा
जैनोऽपि ब्रह्ममुख्यस्त्वमसि शमनिधेऽस्माकमेवं जगे च ॥२३॥ जलद इव तडित्वान्मेरुशृङ्गाप्तसेतु
जलधिरिव करीवाबद्धकल्याणकक्षः । ध्वनिभरमृतदिको लब्धनिष्कोपवीत
स्तदनु मुनिरकार्षीद्धर्मकर्मोपदेशम् ॥ २४ ॥ पदपदमुदगायन्गायनस्तोमनृत्य
न्नटपटलकजल्पद्वन्दिवृन्दोद्भवेन । मुदितजनमुदश्रु स्निग्धसान्द्रेण सूरिः
स्वमतमथ पथागाजग्मुरन्येऽप्यथौकः ॥ २५ ॥ यतीन्द्रस्तस्याथोल्लसदसमशक्तेः परपुर
प्रवेशावेशधिः परमतमनुत्कर्षमगमत् । अमुक्तस्वाङ्गोऽपि श्वसनसुभगस्यापि यदसा
वनेकस्याप्येकः समसमयमेवान्तरविशत् ॥ २६ ॥ १. 'त्रातागयष्टियतिः' ख. २. 'प्रभावप्रभा सा श्रीब्र ख. ३. 'वण्टेन' ग. ४. 'कल्पान' ग. ५. 'द्भटेन' ग.
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कविप्रशस्तिः
बालभारतम् । ___४८९ यन्मार्गाग्रतृणालिरिक्षुलतिका यद्वालुकामण्डलं
खण्डो यत्तटगर्भनीरममृतं यत्कर्कराः शर्कराः। यत्फेनप्रचयः सुधारुचिरयं यत्संरवोऽनाहत
ध्वानस्ताः शतशोऽस्फुरन्क न यतेस्तस्य प्रबन्धापगाः ॥२७॥ तेनाकारि पुरारिपर्वतशिरोधिकारि धात्रीलता__लंकारि स्फुटपापहारि भुवने वृन्दे जिनेन्द्रौकसाम् । आरोपोन्नमितेन यस्य नियतं दण्डोच्चयेनोच्चकै
विद्धं व्योम दधाति किं न परितश्छिद्राण्युडुच्छमना ॥ २८ ॥ गाम्भीर्ये च गुरुत्वे च माधुर्ये च ध्वनौ च कः । पर्यन्ताब्धेर्जलाधार इव तस्यैव तुल्यताम् ॥ २९ ॥ श्राद्धाश्रद्धाभाजनमुदितसभाजनविराजिनो विप्रान् । पौरांश्च भक्तिगौरान्कदाचिदाचष्ट स मुनीन्द्रः ॥ ३० ॥ ग्रहीतुमतुलाग्रहः परपुरप्रवेशव्यसोः
कपालमथ पालनाद्वपुष एकखण्डं मम । स योगिपुरुषोऽकृत प्रमृतगोप्रयोगं मया ___ खरक्षणविचक्षणा त्वघटि चेटकानां घटा ।। ३१ ॥ भुवनविजयविद्यां सिद्धिकर्मण्यवद्या
मसुमदसुविनाशैः साधयिष्यन्स योगी। चिरविरचितयनो मत्कपालग्रहार्थ
विहरति परितो मन्मृत्युकालप्रतीक्षः ॥ ३२ ॥ व्यसो गरनिर्गमे डमरुकध्वनियॊमनि
स्फुटः स्फुरति तद्यदा मम शिरोस्थि चूर्य तदा । इतीद्धमतिलीलया स मुदमुद्वहन्मच्चितां
चिराय परिपूरयत्यगरुचन्दनौधैः पुरा ॥ ३३ ॥ इति विरचितशिष्यः स क्षमी ध्यानशुद्धि
त्रुटितविकटकर्मा निर्मलीभूतचित्तः । १. 'तस्यैतु' ग.
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४९०
काव्यमाला।
अमृगयत नटन्तीरष्टसिद्धीः कदाचि
दिशि विदिशि कदाचिद्गीः श्रियौ युक्तपाणी ॥ ३४ ॥ नेत्रे निमीलयति चेद्भववृद्धिहेतु
भूलोकदर्शनभिया स पतिर्यतीनाम् । तद्भूरिभावभरभासुरभूतिमाला___ मालोकते त्रिजगतीमपि किं मुनीन्द्रः ॥ ३५ ॥ इति सुकृतनिधानध्याननिर्धारितायु
(वमिव दिवमात्मध्यानपूतां स चक्रे । जनमनसि स जीवन्नेव रजे(रेजे?) तु तत्त
न्मतिविफलिततादृग्दुष्टयोगिप्रयोगः ॥ ३६ ॥ अमीभिस्त्रिभिरेव श्रीजिनदत्तादिनामभिः । सूरयो भूरयोऽभूवंस्तत्प्रभावास्तदन्वये ॥ ३७ ।। एकः प्रौढविवेकविभ्रमलतापुष्पेषु पुष्पेषुजि
त्तेषु श्रीजिनदत्तसूरिरुदयद्भरिप्रभावोऽभवत् । तादृग्विस्तृतहृन्निपीत मसो यस्योचितं (१) दिद्युते
धीरोम्भोधरसिन्धुसिन्धुरजयी व्याख्यासु शब्दो गुणः ॥३८॥ श्रीविवेकविलासाथैर्यत्प्रवन्धैः सहस्रशः। हतमोहतमोऽकारि करैरिव रवेर्जगत् ॥ ३९ ॥ आयुष्यं कथयन्ति जन्तुषु पयःसारात्पयोधेः पुनः
पीयूषं पृथिवीजुषामनिमिषीभावाय संभाव्यते । विद्मः श्रीजिनदत्तसूरिवचनं सारः सुधानामपि __ व्यक्तं मुक्तिमपि प्रयच्छति सतां यनीतिमुनीतिकृत् ॥४॥ श्रीजीवदेवसूरीणां त एव परमाणवः ।
जग्मुर्यदङ्गतां भेजे तद्गुणैस्तद्धियेव यः ॥ ४१॥ १. 'करोति' ग. २. ......:ने वा रेजतुस्तत्र तत्तत्स' ग. ३. 'सति' . ४. 'नभसि......' ग. ५. 'श्रीविद्याश्रीविला' ग. ६. पयःसारः' ग. ७. 'प्रीत'ग.
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________________ 491 कविप्रशस्तिः] बालभारतम् / श्रीवाग्भटस्थाननिवासिनस्ते संभूय भूयस्तरहर्षभाजः। कदाचिदागत्य निवेशवेश्म जगुढिनास्तं मुनिचक्रशक्रम् // 42 // मरुद्दात्तास्माकं भुवनजयिनौ तस्य तनयौ __ तयोः सङ्गो यस्यामजनि हनुमद्भीमभटयोः / तथा संक्षेप्यासौ पृथुरपि महाभारतकथा यथा खल्पाभिः स्यात्तिथिभिरतिथिः कर्णपथयोः // 43 // . आज्ञापितस्तदिह कर्मणि सूरिभिस्तैः ख्यातः क्षितावमरचन्द्र इति वशिष्यः / श्रीबालभारतमिति प्रततान काव्यं वीराङ्कमेतदविनश्वरमात्मनोऽङ्गम् // 44 // शस्ते प्रशस्तिसर्गेऽत्र रङ्गत्कविगुरुक्रमे / निश्चित्य स्पष्टतां नीता नवाशीतिरनुष्टुभाम् // 45 // चतुर्युक्तचत्वारिंशत्सर्गरासन्ननुष्टुभाम् / / षट्सहस्री नवशती पञ्चाशद्वालभारते // 46 // इति श्रीजिनदत्तसूरिशिष्यपण्डितश्रीमदमरचन्द्रविरचिते श्रीबालभारतनम्नि महाकाव्ये वीराङ्के चतुश्चत्वारिंशत्प्रशस्तिसर्गः / समाप्तं चेदं बालभारतं नाम महाकाव्यम् / 1. 'वाग्भट' ख. 2. 'संयोग' ख. 3. 'सहस्रं ग. Aho! Shrutgyanam