Book Title: Acharanga Sutra Satikam Part 01
Author(s): Jinendrasuri, 
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
Catalog link: https://jainqq.org/explore/600273/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहर्षपुष्पामृत जैन प्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क-८६ ॥श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः॥ । तपोमूर्ति-पूज्याचार्यदेव श्रीविजयकर्पूरसूरिगुरुभ्यो नमः ।। ॥हालारदेशोद्धारक-पूज्याचायदेव श्रीविजयामृतसूरिगुरुभ्यो नमः ।। सुविहितशिरोमणिसरिपुरंदर-श्री-शीलावाचार्यविरचित-वृत्तिसमेतं पञ्चमगणभृत्सुधर्मास्वामि-प्रणीतं । 8% श्री प्राचारांग सूत्रम् % [पञ्चाध्ययनात्मकः प्रथमो विभागः ] संपादक-संशोधकश्च तपोमूर्ति-पूज्याचार्यदेव श्रीमविजयकपरसूरीश्वर-पट्टालङ्कार-हालारदेशोद्धारक कविरत्न-पूज्याचार्यदेव श्रीमद्विजयामृतसूरीश्वर-विनेयः पन्यास श्री जिनेन्द्रविजय गणी dotato dia do 100 cotojopo UOOOOO Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका - श्रीहर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल - शांतिपुरी (सौराष्ट्र) गुजरात T बीर सं० २५०५ ] * विक्रम सं० २०३५ आ आगमना अधिकारी योगवाही गुरुकुलवासी सुविहित मुनिराजो अने साध्वीजी महाराजो छे. मूल्य ६० २५-०० [ सन् १९७८ मुद्रक : गौतम आर्ट प्रिन्टर्स व्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सम्पादकीय निवेदन * निष्कारणबंधु विश्ववन्सल चरमशासनपति श्रमणभगवान महावीरदेवे भव्यजीवोना हितने माटे स्थापेल शासन आजे विद्यमान छ अने विषमकालमा पण भव्य जीवोने माटे सर्वज्ञ, परमात्मानुए शासन परम आलंबन रूप के. तीर्थकरदेवोनी अविद्यमानतामा तेओश्रीनी वाणी शासनना प्राण स्वरूप होय छे. श्री तीर्थकरदेवो अर्थथी प्ररूपेल अने गणधरदेवो सूत्रथी गूथेल अजिनवाणी हितकांक्षी पुन्यात्माओ माटे अमृत तुन्य छे.. विद्यमान आगम श्रुतज्ञाना मुख्यतया ४५ आगम गणाय छे. ते उपरांत पण ८४ आगमनी गणतरीने हिमाबे बीजु पण केटलुक आगम रूपी श्रुतज्ञान विद्यमान छे. आगम सूत्रो उपर नियुक्तिओ, भाप्यो, चूर्णिओ अने टीकाओ रचाइ छे. अने अथी सूत्र सहित आगमनी अचांगी जैन शासना मान्य छे. तेना आधार वर्तमान ज्ञाना. चार. दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचार रूप व्यवहार प्रवर्ते छे. सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान अने' सम्यगचारित्र रूप मुक्ति-मार्ग प्रवर्तमान छे. . पंचांगीनो वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा अने धर्मकथा रूप पंचलक्षण स्वाध्याय नेटलो जोरदार तेटली श्री संघमा सम्यग ज्ञाननी शुद्धि जोरदार, तेनाथी ज्ञानाचार उज्वल, उज्वल ज्ञानाचारथी दर्शनाचार उज्वल, Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्वल दर्शनाचारथी चारित्राचार उज्वल, उज्वल चारित्राचार थी तपाचार उज्वल अने अ चारे उज्वल आचारथी वीर्याचार उज्वल. वीर्याचारनी उज्वलताथी जैनशासन उज्वल. ए उज्वल जैन शासन सदा जयवंत वर्ने छे. आम शासननो आधार कहो के पायो कहो, मूल कहो के प्राण कहो, अ श्री जिनवाणी थे. अने ते जिनवाणी ४५ मूल आगम सहित पंचांगी स्वरूप छे. पंचांगीने अनुसरता प्रकरण अन्थो यावत् स्तवन सज्झाय के नाना निबंध के वाक्य स्वरूप छे. उपशम विवेक संवर अत्रिपदी स्वरूप जिनवाणीथी घोर पापी चिलातीपुत्र पतनना मार्गथी निकली प्रगतिमार्गना मुसाफिर बनी गया हता. ४५ मूल आगमना अधिकारी योगवाही गुरुकुलवासी सुविहित मुनिवरो के. साध्वीजी महाराजो श्रीआवश्यक सूत्र आदि मूल सूत्रोना तेमज श्री आचारांग सूत्रना योगवहन करवा पूर्वक अधिकारी के. श्रावक श्राविकाओ उपधान वहन करवा पूर्वक श्री आवश्यक सूत्र उपरांत दशवैकालिकसूत्रना षड्जीव-निकाय-नामना चोथा अध्ययन पर्यंतना श्रुतना अधिकारी के. आम आगमश्रतना अधिकारी मुनिवरो योगवहन करवा पूर्वक योग्यता मुजब अध्ययन आदि करीने पोताना ज्ञान दर्शन चारित्रने निर्मल बनावे के अने योग्यता मुजब धर्मकथा आदि द्वारा जिणवाणीनुपान करावी साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चारे प्रकारना संघने तेमज मार्गाभिमुख जीवोने मुक्तिमार्ग प्रदान करे छे. ४५ आगमसूत्रो ६ विभागोमां वहेंचायल छे. (१) अंगसूत्रो-११ (२) उपांगसूत्रो-१२ (३) पयनासूत्रो Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन अमारी ग्रन्थमाला तरफथी आ आचारांगसूत्र प्रथम विभाग मूल प्रगट करता आनंद अनुभवीए छीए. हालमा ४५ आगम मूल अने केटलाक आगम टीका सहित प्रगट करवानु काम शरू करता आ सूत्र नागरी लिपिमा मोटा टाइपमा प्रगट करेल छे. श्री आगम सुधा सिन्धुना १२ विभाग प्रगट १ई गया छे. सटीक आगमोमां श्रीमदन्तकदशा, श्रीमदनुत्तरोपपातिकदशा अने श्रीमदुपासकदशा सूत्र प्रगट थइ गयाँ छे. आ श्री आचारांग पत्र नो प्रथम माग प्रगट थाय छे. आ ग्रन्थन संशोधन संपादन हालाग्देशोद्धारक कविरत्न स्व. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजयअमृतसरीधरची महाराजना शिष्यरत्न पू० पंन्यास श्री जिनेन्द्रविजयजो गणिवरे घणी खंत थी करेल छे. कागल छपाइ आदिना भाव वधवाने कारणे खर्च धार्या करतां वधु आवे छे. आगम सूत्रोना अधिकारी योगवाही गुरुकुलवासी सुविहित मुनिओ छे. ए शास्त्रविधि मुजब पूज्य श्रमणसवमा आगम वाचनादिमा अनुकूलता थाय ते रूप आ श्रुतभक्ति करतां अमे आनंद अनुमविए छीए. मुद्रण माटे श्री गौतम आर्ट प्रिन्टर्सना व्यवस्थापको ए सारी संत राखी थे तो तेमनो आभार मानीए छीप, लि. महेता मगनलाल चत्रभुज शाह कानजो हारजा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर समर्पण प्रशांतमूर्ति पूज्यपाद शासन प्रभावक स्व० श्राचार्यदेवेश श्रीमद्विजय शान्तिचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा जेओश्रीनी साथे पू० पाद परम शासनाधार संघस्थविर पूज्याचार्यदेव श्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजी महाराजानी पावनकारी छत्रछायामा रहेता शासन सेवानो भव्य आदर्श प्राप्त थयो अने सदाने माटे जेमोश्रीऐ शासननी वफादारीनी शहनाई बजावी तेओनी पुनीत स्मृतिमा तेजोभीने आ श्री श्राचाराङ्ग सूत्र सटीक प्रथम-विभाग सादर अर्पण करी धन्य बनु छु पं० जिनेन्द्रविजय गणी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० (४) छेदस्त्रो-६ (५) मूल सूत्रो-४ (६) चूलिकासूत्रो-२. आ स्त्रोनु स्वाध्याय आदि अध्ययन वचे तेमाटे उपयोगी बने ते रीते ४५ मूल सूत्रो श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघमा सलंग मुद्रित नथी अने जेथी आगम सूत्रोना स्वाध्याय आदिनी अनुकूलता थाय ते माटे शक्य प्रयत्ने संशोधन करीने प्रगट करवानी योजना विचारवामां आवी. ते योजना मुजब ४५ आगमसूत्रो १४ विभागमा संपादन थइ रह्यां के जेमाथी १२ भाग प्रगट थइ गया छ. उपरांत ते योजना साथे ४ आगम सटीक प्रगट करवानु राखेल के. जेमाथी श्री उपासकदशा श्री अंतकदशा श्री अनुत्तरोपपातिक दशा सटीक प्रगट थया छ, अने श्री आचारांग सूत्र सटीकनो प्रथम भाग प्रगट थाय के. आ सूत्रना संपादनमा पू० आगमोद्धारक आचार्यदेवश्री सागरानंदसरीश्वरजी म. संशोधित श्री आगममंजूषा, पाबु श्री धनपतसिंहजी द्वारा प्रकाशित सटीकसूत्र तथा बे हस्तप्रतो आदि नो उपयोग कयों के. टीकाओमा रहेला पाठांतरो मेलवीने मूलपाठ जोडे कौशमा आपेला छे. 'ज्ञानधनाः साधवः' अ विधान मुजब श्रमण संघना प्राण समान आ आगम सूत्रोर्नु श्री श्रमण भगवंतो द्वारा विशेष परिशीलन थतां श्रीसंघने माटे श्री शासन ने माटे घणी उज्वलता फेलाशे अने अ आशयथी स्वपरना श्रेयकारी आगम सूत्रनां संशोधन संपादनमा अविरत उत्साह प्रवर्तमान छे. अने भविष्यमा ४५ आगमो अंगे प्रात पञ्चांगीन संपादन करवानी भावना पण छे. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशननी सगवडता माटे श्री गौतम आर्ट प्रिन्टर्स (ब्यावर )ना व्यवस्थापक श्री छगनलालमाई जे खंत अने उत्साह बताव्या के तेने कारणे आ प्रकाशनो समयसर प्रकाशित थइ रह्या छ.. चरम तीर्थपति श्रमण. भगवान महावीर देवे प्रकाशेल जिनवाणीनो प्रभाव पांचमा आराना छेडा सुधी रहेशे. ओ ज्वलंत जिनवाणीनो प्रकाश आपणा आत्माने अजवालनारो बने ते माटे योग्यता अने अधिकार मुजब जिनवाणीनी उपासना-भक्तिमा मावोचाल पूर्वक रस लइ रह्यो छुते टकी रहे अने सौ श्रुत आराधनामा उजमाल पनी खेज मारा अंतरनी शुम भावना छे. बीर सं० २५०५ वि० सं० २०३५ कार्तिक सुर १ बुधवार हालारी बीशा भोसवाल तपगच्छ जन उपाश्रय, ४५ दिग्विजय प्लॉट, जामनगर हालारदेशोद्धारक कविरत्न पूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजय अमृतसूरीश्वरजी महाराजानो चरण सेवक पं० जिनेन्द्रविजय गणी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ २४७ २५५ ३८० १ शस्त्रपरिज्ञा नाम अध्ययनम् क्रम मद्देशक नाम १ जीवोद्देशकः ... २ पृथिव्युद्देशकः ३ अप्कायोद्देशकः ४ तेजस्कायोद्देशकः ५ बनस्पतिकायोद्देशकः ... ६ प्रसकायोहे शकः वायूहे शकः ... १४४ * अनुक्रमणिका * ३ मानोद्देशकः . ... ४ मोगाभिष्वङ्गत्यागोदेशकः .. ५ लोकनित्रोद्देशकः ... ६ ममत्वत्यागोद शकः ..... ३ शीतोष्णीयाध्ययनम् १ सुप्तोद्देशकः .... २ दुःखोद शकः ३ सयमानुष्ठानोद्देशकः .... ४ कषायबमनोद्देशकः ... ४ सम्यक्त्वाध्ययनम् १ सम्यग्वादोद्द शकः ... २ धर्मप्रवादिकपरीक्षोद्देशकः ३ अनवधतपोद्देशकः ४ समासवचनोद्देशकः .. ५ लोकसाराध्ययनम् १ अमुनिनामोद्देशकः .२ मुनिनामोद्देशकः ३ अपरिग्रहोद्देशकः ४ अगीतार्थोद्द शकः ५ ह्रदोपमोद्देशकः ... ६ उन्मार्गवर्जनोद्देशकः .. २१४ Ad0 ३८७ ४०३ ४१२ ४२२ ४३५ ४४६ ३३६ २ लोकविजय नाम अध्ययनम् १ स्वजनोद्देशकः २ दृढत्वोद्देशकः ૨૬ ३४६ ३५८ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धं कर्मण्वाददे सूत्र० पृष्ठः पंक्तिः भशुद्ध २ १३ .शद्धि ४ १० पयवण ६ १० कित्ति ७१४ चारन्मतेन ८ ११ यथ० १० १४ मञ्जिकाः १५ ३ नाधापि १७ १३ गुणी १८ ६ ०दृष्टी २० १ भाषशास्त्रं २२ । आरसं २२, १ इह २३ १० तथा २५ २ कक्षाः २५ २ ज्ञानावरग. शुद्धि पषयण कित्त० चान्द्रमतेन यथा० मल्लिकाः नाथापि ॥ शुद्धिपत्रकम् ॥ पृष्ठः पंक्तिः अशुद्धं . शुद्धं २५ ३ पादात्यन्चेन्द्रिय- पादानात् याणां पन्चेन्द्रियाणां २६ ७ दिशा दशा० ___८ हिमाणा हियमाणा २८ १३ दिशि० दिश० ३० १४ अयं मयं च ३३ १ स्वसंनिष्ठाश्च स्वसंविनिष्ठाश्व ३५ १. जीव० जीवा० -३५ १२ जीवाः जीवः ३७ ७ दीपो दोषो ३६ ७' भयपत्र अयमत्र ३६ १० मनि० मति० ३६ १२ विस्तेर० विस्तरे०. ४२ ८ कल्कल० बल्कल ४३ ४ णं पृष्ठः पंक्तिः अशुद्ध ४४ ५ काण्यददे ४५ ७ सूत्र० ४५ ७ क्य४८ १ जाणीयो ४६.५०१ व्यस्स ५५ १४ ०मा० ५७ २ नंजण ५८ १२ श्रत्र ६६ १३ यष्ट ७१ ५ पुडवि० ७४ ११ •त्मार: ७८ ४ ०र्देष्टु० ७८ १३ महिमा ७६ ११-१२ ०हस्सा ८१ १४ विकारी गुणो दृष्टे० भावशस्त्रं माउसं १इहं. यथा यक्षाः ज्ञानापरणी कार्यजोणीभी व्यस्य महा० गंजण अत्र अष्ट पुढवि० न्मार: देष्टु० महिया ०हस्रा० विकारा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध वसई विशेष: पृष्ठः पंक्तिः अशुद्ध ८१ १४ शस्र० ८५ १४ ०श्यर० ८५ १४ बहादते . फस ८ शाक्य१४ १० विन्पस्त० ६७ ११ दिक्षिणो० १०० १ ०काधिकाम् १.१ ६ वापहनु० ०२ १३ निलग्ना १०६ ८ वहिंसति १०८ ६ परिणतः ११० ७ ०भाणस्स १११ २ श्चय ११२ २ ॥११॥ ११२ ४ ०मातुङ्गा ११२ ८ श्चेतिका शखा शयर प्रहादते शाक्याविन्यस्त० दक्षिणो० कायिकान् नैवापहनु० निर्लेपना विहिंसति परिणता माणस्स स्वय ॥१२॥ •मातुलिङ्गा श्वेतिका पृष्ठः पंक्तिः .. अशुद्धं ११३ २ वयसई .११४ १० विशेषः ११७ . ४ (ट्रि) ११६ ८. खग० १२० १२ ताह १२१ ४ भ्राम्यत्ति १२३ ६ शव्या० १२४ १३ निवृत्तस्ते १२५ १० शब्देष्वपि १२६ १ प्राथनं १२६ ६ शब्यादि० १२७ २ समारंममाण १२७ १० वि हसंति १२८ १ असासथं १२६ १ •विषे० १२६ २ वर्द्धते पृष्ठः पंक्तिः भशुद्ध १३० ७ मेहावी मेहावी १३३ १० व्योनीनान् व्योनीनाम् १३४ . बीरिया वीरिय १३५ ६ सक्षण नक्षग० १३५ १२ सिया ! गोयमा ? सिया ? गोयमा! १३६ ७ ०थेषु व्येषु० १३७ १ दंदाण दंताण १३७ एवं १३६ ७ दत्तेयं १४० ५ प्राणः प्राणाः १४१ ३ दिग्ब० दिग्वि. १४३ ११ सर्वोऽरिणतो सोऽरिवाsतो १४८ ६ ब्लशितस्य लक्षितस्य १४६ ७ अत्तो असणो १५१ ८ यथोक्तक्षणाम् वधोक्तलक्षणाम खड्ग ताई भ्राम्यन्ति शब्दा० निवृत्तास्ते शब्देष्वपि प्रार्थन शब्दादि समारंभमाण विहिति मसासयं विशेष बद्धत एवं पत्तेय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारम्भि० शेषाः समन्ताल्लोभीऽर्थालोमः ततोऽसौ धृत मत पृष्ठः पंक्तिः मशुद्ध १५४ १२ ताराम्भिक १५६ ६ शेषा १५६ ११ ०दश्य १६३ ११ निक्षेषार्थ १६७५ व्यस्था० १६८ ११ बके १७३ ७ व्याणाम् १७८ १ बध्नाति १७५ . रसकपायाः १८८ १२ गोरव १८६ ११ सज्वलन० १६. १ स्याष्टो १६४१ संजगदी १६४ १० सहसकारे १६४ ११ वाण वाणं १८ २ सुभूपेनापि निक्षेपार्थ व्यवस्था बंके याणामबध्नाति रसकषाया। पृष्ठः पंक्तिः अशुद्ध २०० ६ समन्तल्लो- अर्थालाभः २०३ १२ ततोऽसौ २०८ ४ घृतं २०८ १४ मत २१२ ६ पुचि २१२ ७ तुम २१५ २ केश्चिद् २१५ १४ ०समव्वितं २२३ ४ बिडम्बना २२३ ७ एव मित्रापि २२४ १४ घृतिन्द्रत २३० ६. गतस्यामेव २३०६ अनिलंपते २३० १० बम्ध २३० १६ षष्ठा० पृष्ठ पंक्तिः अशुद्ध शुद्धं २३३ ११ प्राप्ती वाप्ती २३३ १४ परिहर्त्तव्मानि परिहर्तव्यानि २३४ १२ कुत्तट कुंटतं २३७ २ भूरीशो भूरिशो २३६८ तत्व से तत्व २४४ १२ तीरपारतोः तीरपारयोः २५० ८ चेव' 'तुम चेव' २५४ ३ प्ररिणमेत परिणमेत् २५८ ८ साधु साधुः २६० २ पुनः पुनः २६२ १३ कायव्ययं कायधयं २७१ ४ पाहि बाहिं . २७८ १४ पापास पापस० २७६ ७ ०मान: मानः २८०१ परस्तपरतो परस्परतो २८० १३ द्विविधया द्विविधया पुधि तुमंपि केषाश्चिदु समन्वितं विडम्बिना एवमत्रापि धृति दूत. गतस्यायमेव अनिलेपिते : बन्ध .. mote .. nnn IDR गौरवः . सज्वलन स्याष्टो संजोगट्ठी सहसाकारे माणवाणं सुभूमेनापि षष्ठ० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध मवसीयत तरेषा ___ पृष्ठः पंक्तिः अशुद्ध ३१० । विशति ३११ । ०सप्तति १२ तीर्यकर. ३१२ १ ययाकीर्ति। ३१० ८ दोहि ३१२ १२ सदुच्चये ३१३ १३ दसी शुद्ध विंशति० सप्ततिः तीकर यशाकीर्ति नन्दि० समुच्चये दंसी पृष्ठः पंक्तिः असुद्ध २८१ १२ ०पयवसीयत २८३ ३ तवेषा २८३ ७ र्निन्दि० २८३ १४ गन्धेवु २८४ ७ धवन्ति २८७ ३ सवश २८७ १० काष्ठाहा. २८७ १२ भवेम्मो० २८७ १४ लिई० २६१ ४ धातनम् २६५ ७ यद्रव्यं ३०१ ३ ०चरण ३०३ १४ तनु ३०४ ५ वेयणं ३०६ १३ पूर्णे० २०८. ७ ०क्काय गन्धेष भवन्ति सर्वशः काष्ठहा० भवेन्मो० निर्वेद घातनम् यद्रव्यं ०चरम० पृष्ठः पंक्तिः अशुद्ध शुद्ध' ३६२ ४ माहे मोहे ३६२ ५ प्रवचनेन प्रवचने ३६२ १४ अन्तः सन्त: ३६५ १० वेना० वेदना ३६७ ५ निविशेष निर्विशेष ३७३ १४ अर्चा मच्र्चा ३७६ १० बोकय ०वलोकय ३८१ १३ तद्वद्रासं तदास ३८८ ८ कारण करण ३६१ ४ ०यणका० व्यणुका० ४०३ ३ ०मजना० मजाना० ४०३ ३ ०मान्नु० माप्नु० ८ धावतो धातवो ४०५ १२ तधा० तथा ४०६ १ प्रतिज्ञातिनिर्व० प्रविज्ञानिक ४०६ ८ परीषाहाणां परीषहाणां ३१६ २ ०मृत्कष्टतो मुत्कृष्टतो ३२३ ४ पात० पात ३२५ १३ ०क्षान्त. शान्त ३३५ १ जीवीयस्स जीवियस्स ३३८ ८ कषाय ०कषाया ३३८ ११ दानो० हानो ३४७ ६ भावर्थ भावार्थ ३६१ ७ विपयेवाच्च । विपर्ययाच्च nonwar se n वयवं पूवो. क्कायः Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठः पंक्तिः अशुद्धं शुद्धं ४०७ २ पञ्चा - पश्चा ४१२ ३ विषयदिभिः विषयादिमिः ४१४ १ हिंसत्या सिंहतया ४२१ १४ समीप्ये सामीप्ये ४२२ २ समाप्तौ समाप्त ४२६ ८ भाव० भावा० ४२७ १३ भाममा० मागमा पृष्ठः पंक्तिः भशुद्धं ४२८ ५ तत्संत्रा ४३० २ कर्मवन्धः ४३४ ध्याम ४३५ १२ परिगत्स्रोता ४४० ४ यतेरति ४५० भारहए ४४१ १२ व्देष्टं शुद्धं . तत्संज्ञा कम्मेबन्ध ध्यात्म परिंगलस्रोता यतेरपि आराहए दिष्टं पृष्ठः पंक्तिः मशुद्धं ४४२ गम० ४४३ ८ स्यद० ४४८ ११ तहिट्ठीए ४५५ ८ जतिमरणं ४५५ १४ तत्तल्ये ४५७ १२ ॥५-५ ।। शुद्धं र्गम स्वाद तहिट्टीए जातिमरणं तत्तुल्ये Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ पञ्चमगणभृत्श्रीसुधर्मस्वामिविरचितं श्रुतकेवलीश्रीभद्रबाहुस्वामि-दृब्धनियुक्तियुतंसूरिपुरंदर श्रीशीलाङ्काचार्यविहित-विवरणसमन्वितं श्रीआचारागसूत्रम् । -::ॐनमः सर्वज्ञाय ॥ जयति समस्तवस्तु-पर्याय-विचारापास्त-तीर्थिकं, विहितैकैकतीर्थ-नयवाद-समूह-वशात्प्रतिष्ठितम् । बहुविधभङ्गि-सिद्धसिद्धान्त-विधूनित-मलमलीमसं,तीर्थमनादिनिधनगत-मनुपममादिनतं जिनेश्वरैः॥१॥(स्कन्दकच्छन्द.)आचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यथा, जगाद वीरो जगते हिताय यः। तथैव किश्चिद्गदतः स एव मे, पुनातु धीमान् विनयापिता गिरः ॥२॥ शस्त्रपरिज्ञा-विवरण-मतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ गृणाम्यहमञ्जसा सारम्॥३॥ इह हि रागद्वेषमोहाद्यभिभूतेन सर्वेणापि संसारिजन्तुना शारीरमानसानेकातिकटुक-दुःखोपनिपातपीडितेन तदपनयनाय आ. सू.१ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ॥२॥ हेयोपादेय-पदार्थपरिज्ञाने यत्नो विधेयः, सच न विशिष्टविवेकमृते, विशिष्टविवेकश्च न प्राप्ताऽशेषातिशय-कलापाप्तोपदेशमन्तरेण, आप्तश्च रागद्वेषमोहादीनां दोषाणामात्यन्तिकप्रक्षयात, स चार्हन एव, अतः प्रारभ्यतेऽहद्वचनानुयोगः, स च चतुर्धा, तद्यथा-धर्मकथानुयोगो गणितानुयोगो द्रव्यानुयोगश्चरणकरणानुयोगश्चेति, तत्र धर्मकथानुयोग उत्तगध्ययनादिकः, गणितानुयोगः सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकः, द्रव्यानुयोगः पूर्वाणि सम्मत्याढिकश्च, चरणकरणानुयोगश्चाचाराङ्गादिकः, स च प्रधानतमः, शेषाणां तदर्थत्वात् , तदुक्तम्-'चरणपडिवत्तिहे जेणियरे तिणि अणुओग"""त्ति तथा "चरणपडिवत्तिहेउ धमकहाकालदिक्खमादीया । दविए दंसणसोही दंसणसुद्धस्स चरणं तु ॥२॥" गणधरैरप्यत एव तस्यैवादी प्रणयनमकारि, अतस्तत्प्रतिपादकस्याचाराङ्गस्यानुयोगः समारभ्यते, स च परमपदप्राप्तिहेतुत्वात्सविघ्नः , तदुक्तम्-"श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां, क्वापि यान्ति विनायकाः ॥१॥" तस्मादशेषप्रत्यूहोपशमनाय मङ्गलमभिवेयं, तच्चादिमध्यावसानभेदात्रिधा, तत्रादिमङ्गलं 'सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खाय'मित्यादि, अत्र च भगवत्कथितकथनं भगवद्वचनानुवादो मङ्गलम्; अथवा श्रुतमिति श्रुतज्ञानं, तच्च नन्वन्तःपातित्वान्मङ्गलमिति, एतच्चाविघ्नेनाभिलषितशास्त्रार्थपारगमनकारणं, मध्यमङ्गलं लोकसाराध्ययनपशमोद्देशकसूत्रं 'से जहा केवि हरए पडिपुण्णे चिट्ठइ समंसि भोम्मे उवसन्तरए १चरणप्रतिपत्तिहेतवो येनेतरे त्रयोऽनुयोगाः। घरणप्रतिपत्तिहेतवो धर्मकथाकालदीक्षादिकाः। द्रव्ये दशनशद्धिद शनशुद्धस्य चरणं तु ॥१॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारक्खमाणे इत्यादि, अत्र च ददगुणैराचार्यगुणोत्कीर्तनम् , आचार्याश्च पञ्चनमस्कारान्तःपातित्वान्मङ्गलमिति, एतच्चाभिलषितशास्त्रार्थस्थिरीकरणार्थम् , अवसानमङ्गलं नवमाध्ययनेऽवसानसूत्रम् 'अभिनिव्वुडे अमाई आवकहाए भगवं समियासी' अत्राभिनिवृतग्रहणं संसारमहातरुकन्दोच्छेद्यऽविप्रतिपत्त्या ध्यानकारित्वान्मङ्गलमिति, एतच्च शिष्य प्रशिष्यसन्तानाव्यवच्छेदार्थमिति, अध्ययनगतसूत्रमङ्गलत्वप्रतिपादनेनै वाध्ययनानामपि मङ्गलवमुक्तमेवेति न प्रतन्यते, पर्वमेव वा शास्त्रं मङ्गलं, ज्ञानरूपत्वात् , ज्ञानस्य च निर्जरार्थत्वात् , निर्जरार्थत्वेन च तस्याविप्रतिपत्तिः, यदुक्तम्-"जं अन्नाणि कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडोहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ उस्सासमित्तणं ॥१॥" मङ्गलशब्दनिरुक्तं च मां गालयत्यपनयति भवादिति मङ्गलं, मा भृद्गलो विघ्नो गालो वा नाशः शास्त्रस्येति मङ्गलमित्यादि, शेषं त्वाक्षेपपरिहारादिकमन्यतोऽवसेयमिति । साम्प्रतमाचारानुयोगः प्रारभ्यते-आचारस्यानुयोगार्थकथनमाचारानुयोगः सूत्रादनु-पश्चादर्थस्य योगोऽनुयोगः, सूत्राध्ययनात्पश्चादर्थकथनमिति भावना, अणोळ लघीयसः सूत्रस्य महताऽर्थेन योगाऽनुयोगः, स चामीभिरिरनुगन्तव्यः, तद्यथा-निक्खेवेगहनिरुत्ति-विहिपवित्तीय केण वा कस्स । तद्दारभेयलक्खण तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो ॥१॥ तत्र निक्षेपो-नामादिः सप्तधा, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यानुयोगो द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तोऽनेकधा, द्रव्येण-संटिकादिना -प्रतिशिस्येति प्र.१ यदलानी कर्म क्षपयति बहुकाभिवर्षकोटिभिः । तज्ज्ञानी विभिगुप्तः क्षपयत्युच्छ,वासमात्रेण ॥१॥ ध्ययनात्पश्चावेगहनिकासप्तधा, नाम ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यस्य-आत्मपरमाण्वादेर्द्रव्ये-निषद्यादौ वा अनुयोगो द्रव्यानुयोगः, क्षेत्रानुयोगः क्षेत्रेण क्षेत्रस्य क्षेत्र वाऽनुयोगः अध्ययनं १ श्रीआचा- क्षेत्रानुयोगः, एवं कालेन कालस्य काले वाऽनुयोगः कालानुयोगः, वचनानुयोग एकवचनादिना, भावानुयोगो द्वेधाराङ्गवृत्तिः a आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तो, नोआगमतस्तु औपशमिकादिभावैः, तेषां चानुयोगोऽर्थकथनं उद्देशकः १ (शीलाङ्का.) भावानुयोगः शेषमावश्यकानुसारेण ज्ञेयं, केवलमिहानुयोगस्य प्रस्तुतत्वात्तस्य चाचार्याधीनत्वात् केनेति द्वार विवियते : तथोपक्रमादीनि च द्वाराणि प्रचुरतरोपयोगित्वात्प्रदर्श्यन्ते, तत्र केनेति कथम्भूतेन ?, यथाभूतेन च मूरिणा व्याख्या ॥४॥ कत्तव्या तथा प्रदर्श्यते-- देसकुलजाइस्वी संघयणी धिइजुओ अणासंसा। अविकत्थणो अमाई थिरपरिवाडो गहियवक्को ॥१॥ जियपरिसो जियनिदो मज्झत्थो देसकालभावन्नू । आसन्नलद्धपइभो णाणाविहदेसभासण्ण ।। 2 | पंचविहे आयारे जुत्तो सुत्तत्थतदुभगविहिन्नू । आहरणहे उकारण-णयणिउणो गाहणाकुसलो । ३॥ ससमयपरसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । गुणसयकलिओ जुत्तो पयवणसारं परिकहेउ॥४॥ आर्यदेशोभृतः सुखावबोधवचनो भवतीत्यतो देशग्रहणं, पैतृकं कुलमिश्वाक्वादि ज्ञातकुलश्च यथोत्क्षिप्तभारवहने न श्राम्यतीति, मातृकी जातिस्तत्संपन्नो विनयादिगुणवान् भवति, 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ती'ति रूपग्रहणं, संहननधृतियुतो व्याख्यानादिषु न खेदमेति, अनाशंसी श्रोतृभ्यो न बस्त्राद्याकाङ्क्षति, अविकत्थनो हितमितभाषी, अमायी सर्वत्र विश्वास्यः, स्थिरपरिपाटिः परिचितग्रन्थस्य स्त्रार्थगलनासंभवात् , ग्राह्यवाक्यः ॥ ४ ॥ सर्वत्रास्खलिताज्ञः, जितपर्षद् राजादिसदसि न क्षोभमुपयाति, जितनिद्रोऽप्रमत्तत्वाभिद्राप्रमादिनः शिष्यान् सुखेनैव Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५॥ प्रबोधयति, मध्यस्थः शिष्येषु समचित्तो भवति, देशकालभावज्ञः सुखेनैव गुणवशादौ विहरिष्यति, आसन्नलब्धप्रतिभो द्राक् परवायत्तरदानसमर्थो भवति, नानाविधदेशभाषाविधिज्ञस्य नानाविध देशजाः शिष्याः सुखं व्याख्यामवभोत्स्यन्ते, ज्ञानाद्याचारपञ्चकयुक्तः श्रद्धेयवचनो भवति, सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञ उत्सर्गापवादप्रपञ्चं यथावद् ज्ञापयिष्यति, हेतूदाहरणनिमित्तनयप्रपञ्चज्ञः अनाकुलो हेत्वादीनाचष्टे, ग्राहणाकुशलो बह्वीभियुक्तिभिः शिष्यान् बोधयति, स्वसमयपरसमयज्ञः सुखेनैव तत्स्थापनोच्छेदौ करिष्यति, गम्भीरः खेदसहः, दीप्तिमान पराधृष्यः, शिवहेतुत्वात् शिवः, तदधिष्ठितदेशे मार्याद्युपशमनात् , सौम्यः सर्वजननयनमनोरमणीयः, गुणशतकलितः प्रश्रयादिगुणोपेतः, एवंविधः मूरिः प्रवचनानुयोगे योग्यो भवति ॥ तस्य चानुयोगस्य महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि-व्याख्याङ्गानि भवन्ति, तद्यथा -उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयः, तत्रोपक्रमणमुपक्रमः उपक्रम्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वोपक्रमः-व्याचिख्यामितशास्त्रस्य समीपानयनमित्यर्थः, स च शास्त्रीयलौकिकमेदाद् द्विधा, तत्र शास्त्रीयः आनुपूर्वी नाम प्रमाणं वक्तव्यताऽर्थाधिकारः समवतारश्चेति षोढा, लौकिको नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढेव । निक्षेपणमनेनास्मादस्मिन्निति वा निक्षेपः, उपक्रमानीतस्य व्याचिख्यासितशास्त्रस्य नामादिन्यसनमित्यर्थः, स च त्रिविधः, तद्यथा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्च, तत्रौघनिष्पन्नोऽङ्गाध्ययनादिसामान्याभिधानन्यासः, नामनिष्पन्न आचारशस्त्रपरिज्ञादिविशेषाभिधाननामादिन्यासः, सूत्रालापकनिष्पन्नश्च सूत्रालापकानां नामादिन्यसनमिति । अनुगमनमनेनास्मादस्मिन्निति वाऽनुगमः, अर्थकथनमित्यर्थः, स च द्विधा-नियुक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्चेति, तत्र नियुक्त्यनुगमस्त्रिविधः, तद्यथा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं ! श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का. निक्षेपनियुक्त्यनुगमः उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमो निक्षेप एव सामान्यविशेषाभिधानयोरोघनिष्पन्ननामनिष्पन्नाभ्यां निक्षेपाभ्यामनुगतः सूत्राक्षेपया वक्ष्यमाणलक्षणश्चेति, उपोद्घातनियुक्त्यनुगमश्चाभ्यां द्वारगाथाभ्यामनुगन्तव्यः, तद्यथा-"'उद्देसे णिद्देसे य णिग्गमे खेत्तकालपुरिसे य । कारणपच्चयलक्खण णए समोयारणाऽणमए ॥१॥ किं कतिविहं कस्स कहिं केसु कह केचिरं हवह कालं। कह संतरमविरहियं भवागरिस फासणणिरुत्ती ॥ २ ॥" सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमः सूत्रावयवानां नयैः साक्षेपपरिहारमर्थकथनं, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स च सूत्रोचारणरूपः पदच्छेदरूपश्चेति । अनन्तधर्माध्यासितं वस्त्वेकेनैव धर्मेण नयन्ति-परिच्छिन्दन्तीति ज्ञानविशेषा नयाः, ते च नैगमादयः सप्तेति । साम्प्रतमाचाराङ्गस्योपक्रमादीनामनुयोगद्वाराणां यथायोगं किश्चिद् विभणिषुरशेषप्रत्यूहोपशमनाय मङ्गलार्थ प्रेक्षापूर्वकारिणां च प्रवृत्यर्थ सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादिका नियुक्तिकारो गाथामाहवंदित्त सव्वसिडे जिणे अ अणुओगदायए. सव्वे । आयारस्स भगवओ निज्जुतिं कित्तिइस्सामि ॥१॥ ___ तत्र वन्दित्वा सर्वसिद्धान् जिनश्चेिति मङ्गलवचनम् , अनुयोगदायकानित्येतच्च सम्बन्धवचनमपि, आचारस्येत्य| भिधेयवचनं, नियुक्ति करिष्ये इति प्रयोजनकथनमिति तात्पर्यार्थः, अवयवार्थस्तु 'वन्दित्वे'ति 'वदि अभिवादन १ उद्देशो निर्देशश्च निगमः क्षेत्र कालः पुरुषश्च । कारणं प्रत्ययः लक्षणं नयाः समवतारः अनुमतम् ।। १।। किं कतिविध कस्य क केषु कथं कियचिरं भवति कालम । कति सान्तरमरहित मावकर्षाः स्पर्शना मिरुक्तिः ॥ २॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७ ॥ स्तुत्यो रित्यर्थद्वयाभिधायी धातुः, तत्राभिवादनं कायेन स्तुतिर्वाचा, अनयोश्च मनःपूर्वकत्वात्करणत्रयेणापि नमस्कार आवेदितो भवति, सितं ध्मातमेषामिति सिद्धाः-प्रक्षीणाशेषकर्माणः, सर्वे च ते सिद्धाश्च सर्वसिद्धाः, सर्वग्रहणं तीर्थातीर्थानन्तरपरम्परादिसिद्धप्रतिपादकं, तान्वन्दित्वेति सम्बन्धः सर्वत्र योज्यः, रागद्वेषजितो जिनाः-तीर्थकृतस्तानपि सर्वान् अतीतानागतवर्तमानसर्वक्षेत्रगतानिति; अनुयोगदायिनः-सुधर्मस्वामिप्रभृतयो यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् सर्वानिति, अनेन चाम्नायकथनेन स्वमनीषिकाव्युदासः कृतो भवति, 'वन्दित्वे ति क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह-'आचारस्य' यथार्थनाम्नः 'भगवत' इनि धमार्थप्रयत्न गुणमाजस्तस्येवंविधस्य, निश्चयेनार्थप्रतिपादिका युक्तिनियुक्तिस्ता 'कीर्तयिष्ये। अभिधास्ये इति अन्तस्तत्त्वेन निष्पना नियुक्ति बहिस्तत्त्वेन प्रकाशयिष्यामीत्यर्थः ॥१॥ यथाप्रतिज्ञातमेव विमणिपुर्निक्षेपार्हाणि पदानि तावत् सुहृद्भुत्वाऽऽचार्यः संपिण्ड्य कथयतिआयार अंग सुयस्खंध वंभ चरणे य तहेव सत्थे य । परिणाए संणाए निक्षेवो तह दिसाणं च ॥२॥ आचारअङ्गश्रतस्कन्धब्रह्मचरणशस्त्रपरिज्ञासंज्ञादिशामित्येतेषां निक्षेपः कर्त्तव्य इति । तत्राचारब्रह्मचरणशस्त्रपरिज्ञाशब्दा नामनिष्पन्ने निक्षेपे द्रष्टव्याः, अङ्गश्रुतस्कन्धशब्दा ओघनिष्पन्ने, संज्ञादिशब्दौ सूत्रालापकनिष्पन्ने निक्षेपे द्रष्टव्याविति ॥ २॥ एतेषां मध्ये कस्य कतिविधो निक्षेप इत्यत आह १ चाद्रन्मतेन णिज उभयपदभावात् । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पध्ययनं १ उद्दशकः१ श्रीआचा रावृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥८॥ चरणदिशावजाणं निक्खेवो चउविहो(कओ) य नायवो। चरणमि छव्विहो खलु सत्तविहो होइ उ दिसाणं ॥३॥ चरणदिग्वर्जानां चतुर्विधो निक्षेपः, चरणस्य षड्विधः, दिशब्दस्य सप्तविधो निक्षेपः, अत्र च क्षेत्रकालादिकं यथासम्भवमायोज्यम् ॥३॥गमादिचतुष्टयं सर्वव्यापोति दर्शयितुमाहजत्थ यजं जाणिज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। जत्थविय न जाणिज्जा चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ॥४॥ 'यत्र' चरणदिकशब्दादौ यं निक्षेप-क्षेत्रकालादिकं जानीयात्तं तत्र निरवशेष निक्षिपेद्, यत्र तु निरवशेषं न जानीयादाचाराङ्गादौ तत्रापि नामस्थापनाद्रव्यभावचतुष्कात्मकं निक्षेपं निक्षिपेदित्युपदेश इति गाथार्थः ॥ ४॥ प्रदेशान्तरप्रसिद्धस्यार्थस्य लाघवमिच्छता नियुक्तिकारेण गाथाऽभ्यधायि आयारे अंगमि य पुबुद्दिडो चउक्कनिक्खेवो। नवरं पुण नाणत्तं भावायारंमि तं वोच्छं ॥ ५ ॥ तुलिकाचारकथायामाचारस्य पूर्वोद्दिष्टो निक्षेपः अङ्गस्य तु चतुरङ्गाध्ययन इति, यश्चात्र विशेषः सोऽभिधीयते'भावाचारविषय' इति ॥ ५॥ यथप्रातिज्ञातमाह तस्सेगट्ठ पवत्तण पढमंग गणी तहेव परिमाणे। समोयारे सारो य सत्तहि दारेहि नाणत्तं ॥६॥ 'तस्य' भावाचारस्य एकार्थाभिधायिनो वाच्याः, तथा केन प्रकारेण प्रवृत्तिः-प्रवर्तनमाचारस्याभूत तच्च वाच्यं, तथा प्रथमाङ्गता च वाच्या, तथा गणी-आचार्यस्तस्य कतिविधं स्थानमिदमिति च वाच्यं, तथा 'परिमाणम्' इयत्ता वाच्या, ॥ ८ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा कि क्व समवतरतीत्येतच्च वाच्यं, तथा सारश्च वाच्यः, इत्येभिः सप्तभिः पूर्वस्माद्भावाचारादस्य भेदो-नानात्वमिति पिण्डार्थः ॥ ६॥ अवयवार्थ तु नियुक्तिकदेवाभिधातुमाह . आयारो आचालो आगालो आगरो य आसासो। आयरिसो अंगति य आइण्णाSSजाइ आमोक्खा ॥ ७॥ आचर्यते आसेव्यत इत्याचारः, स च नामादिचतुर्दा, तत्र शरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तो द्रव्याचारोऽनया गाथयाऽनुसतव्यः-'णामण-धोयण-वासण-सिक्खावण-सुकरणाविरोहोणि । दव्वाणि जाणि लोए । दबायारं वियाणाहि॥१॥' भावाचारो द्विधा-लौकिको लोकोत्तरश्च, तत्र लौकिकः पाषण्डिकादयः पञ्चरात्रादिक यत् कुर्वन्ति स विज्ञेयो, लोकोत्तरस्तु पञ्चधा ज्ञानादिका, तत्र ज्ञानाचारोऽष्टधा, तद्यथा-काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अणिण्हवणे । वंजणअस्थतदुभए अट्ठविहो णाणमायारो ॥१॥ दर्शनाचारोऽप्यष्टधैव, तद्यथा--'निस्संकियनिक्कंखिय निन्वितिगिच्छा अमूहदिवी य । उववूहथिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ॥२॥ चारित्राचाराऽप्यष्टव:-'तिन्नेव य गुत्तोओ पंच समिइओ अह मिलियाओ। पवयणमाईया इमा तासु ठिओ चरणसंपन्नो ॥३॥ तपआचारो द्वादशधा, तद्यथा-'अणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं सरसचाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ॥४॥ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव १ नामनधावनवासनशिक्षणसुकरणाविरोधीनि । द्रव्याणि यानि लोके द्रव्याचार विजानीहि ॥ १॥ ॥8 ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन श्रीआचारामवृत्तिः (शीलाका.) सज्झाओ। झाणं उस्सग्गोवि य अभितरओ तवो होई ॥५॥ वीर्याचारस्त्वनेकध-अणिहियबलविरिओ परकमइ जो जहुत्तमाउत्तो। जुजइ य जहाथामं नायब्बो वीरियायारो॥६॥ एष पश्चविध | आचारः, एतत्प्रतिपादकथायमेव ग्रन्थविशेषो भावाचार, एवं सर्वत्र योज्यम् । इदानीमाचालः, आचान्यतेऽनेनातिनिविहं कर्मादीत्याचालः, सोऽपि चतुर्धा, व्यतिरिक्तो वायुः, भांवाचालस्त्वयमेव ज्ञानादिः पञ्चधा । इदानीमागाला, आगालनमागाला-समप्रदेशावस्थानं, सोऽपि चतुर्धा, व्यतिरिक्त उदकादेनिम्नप्रदेशावस्थानं, भावागालो ज्ञानादिक एव, तस्यात्मनि रागादिरहितेऽवस्थानमितिकृत्वा । इदानीमाकरः, आगत्य तस्मिन् कुर्वन्तीत्याकरः, नामादिः, तत्र व्यतिरिक्वो रजतादिः, भावाकरोऽयमेव ज्ञानादिः, तत्प्रतिपादकश्चायमेव ग्रन्थो, निर्जरादिरत्नानामत्र लाभात् । इदानीमाश्चासा, आश्वसन्त्यस्मिन्नित्याश्वासो नामादिः, तत्र व्यतिरिक्तो यानपात्रद्वीपादिः, भावाश्वासो ज्ञानादिरेव । इदानीमादर्शः; आदृश्यते अस्मिन्नित्यादर्शो नामादिः, व्यतिरिक्तो दर्पण:, भावादर्श उक्त एव, यतोऽस्मिन्नितिकर्तव्यता दृश्यते । इदानीमङ्गम, अज्य(ध)ते-व्यक्तीक्रियते अस्मिन्नित्यङ्ग, नामायेव, तत्र व्यतिरिक्तं शिगेबाह्वादि, भावाङ्गमयमेवाचारः। इदानीमाचीर्णम्-आसेवितं, तच्च नामादिषोढा, तत्र व्यतिरिक्तं द्रव्याचीर्ण मिहादेस्तृणादिपरिहारेण पिशितभक्षणं, क्षेत्राचीर्ण वान्हीकेषु सक्तवः कोकणेषु पेया, कालाचीर्ण विदं-'सरसो चंदणपंको अग्घह सरसा य गधकासाई । पाडलिसिरीसमल्लिय पियाइं काले निदाहमि ॥ १॥' भावाचार्ण तु ज्ञानादिपञ्चकं, १ सरसश्चन्दनपकोऽर्घति सरसा च गन्धकाषायिकी । पाटलशिरीषमञ्जिकाः प्रियाः काले निदाघे ॥१॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ११ ॥ तत्प्रतिपादकश्चाचारग्रन्थः । इदानीमाजातिः, आजायन्ते तस्यामित्याजातिः साऽपि चतुर्द्धा व्यतिरिक्ता मनुष्यादिजातिः भावाजातिस्तु ज्ञानाद्याचारप्रसूतिरयमेव ग्रन्थ इति । इदानीमा मोक्षः, आमुच्यन्तेऽस्मिन्नित्यामोक्षणं वाऽऽमोक्षो, नामादिः, तत्र व्यतिरिक्तो निगडादेः, भावामोक्षः कर्माष्टको द्वेष्टनम शेषमेतत्साधकश्चायमेवाचार इति । एते किञ्चिद्विशेषादेकमेवार्थं विशिषन्तः प्रवर्त्तन्त इत्येकार्थिकाः शक्रपुरन्दरादिवत्, एकार्थाभिधायिनां च छन्दश्चिनिबन्धानुलोम्यादिप्रतिपत्त्यर्थमुद्घट्टनम् उक्तं च- "बंधाणुलोमया खलु सत्यंमि य लाघवं असम्मोहो । संतगुणंदीवणाविय एगगुणा हवंते ॥ १ ॥ ॥७॥ इदानीं प्रवर्त्तनाद्वारं, कदा पुनर्भगवताऽऽचारः प्रणीत इत्यत आहसव्वेसिं आयारो तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए । सेसाई अंगाई एक्कारस आणुपुव्वोए ॥ ८ ॥ सर्वेषां तीर्थङ्कराणां तीर्थप्रवर्त्तनादावा चारार्थः प्रथमतयाऽभवद्भवति भविष्यति च ततः शेषाङ्गार्थ इति, गणधरा अप्यनयेवानुपूर्व्या सूत्रतया ग्रन्थन्तीति ॥ ८ ॥ इदानीं प्रथमत्वे हेतुमाह - आयारो अंगाणं पढमं अंगं दुवालसपि । इत्थ य मोक्खोवाओ एस य सारो पवयणस्स ॥९॥ अयमाचारो द्वादशानामप्यङ्गानां प्रथममङ्गमित्यनूद्य कारणमाह — यतोऽत्र मोक्षोपायः - चरणकरणं प्रतिपाद्यते एष च प्रवचनस्य सारः प्रधानमोक्ष हेतु प्रतिपादनाद्, अत्र च स्थितस्य शेषाङ्गाध्ययनयोग्यत्वाद् अस्य प्रथमतयोपन्यास इति ॥६॥ इदानीं गणिद्वारं, साधुवर्गो गुणगणो वा गणः सोऽस्यास्तीति गणी, आचारायत्तं च गणित्वमिति प्रदर्शयन्नाह - १ बन्धानुलोमता खलु शास्त्रे च लाघवमसंमोहः । सद्गुणदीपनमपि च एकार्थगुणा भवन्त्येते ॥ १ ॥ *** ॥ ११ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं १ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) उद्देशकः । आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणिहाणं ॥१०॥ . यस्मादाचाराध्ययनात क्षान्त्यादिकश्वरणकरणात्मको वा श्रमणधर्मः परिज्ञातो भवति, तस्मात्सर्वेषां गणित्वकारणानामाचारधरत्वं प्रथमं आद्यं प्रधानं वा गणिस्थानमिति ॥१०॥ इदानी परिमाणं-किं पुमरस्याध्ययनतः पदतश्च परिमा- णमित्यत आह णवर्षभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ ओ । हवई य सपचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥ ११॥ ___ तत्राध्ययनतो नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकोऽयं पदतोऽष्टादशपदसहस्रात्मको 'वेद' इति विदन्त्यस्माद्धेयोपादेयपदार्थानिति वेदः-शायोपशमिकभाववर्त्ययमाचार इति । सह पञ्चमिश्चूडाभिर्वर्त्तत इति सपञ्चचूडश्च भवति, रक्तशेषानुवादिनी चूडा, तत्र प्रथमा "पिंडेसण(१) सेजारियाभासज्जाया(२-३-४) य वसणा(५) य पाएसा(६) उग्गहपडिमत्ति(७) सप्ताध्ययनात्मिका, द्वितीया सत्तसत्तिक्कया, तृतीया भावना, चतुर्थी विमुक्तिः, पञ्चमी निशीथाध्ययनं, 'बाबहुरओ पदग्गेणं'ति तत्र चतुश्चूलिकात्मकद्वितीयश्रुतस्कन्धप्रक्षेपाहुः, निशीथाध्ययन-पञ्चमलिकाप्रक्षेपाबहुतरोऽनन्तगमपर्यायात्मकतया बहुंतमश्च, पदाग्रण-पदपरिमाणेन भवतीति ॥११॥ इदानीमुपक्रमान्तर्गतं समवतारद्वारं, तत्रैताश्चूडा नवसु ब्रह्मचर्याध्ययनेष्ववतग्न्तीति दर्शयितुमाहआयारग्गाणत्यो बंभच्चेरेसु सो समोयरइ । सोऽवि य सत्थपरिणाए पिंडिअत्यो समोयरइ ॥१२॥ * पिंडसम सिज्जिरिया भासा वत्थेसणा य पाएसा इति प्र. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३॥ सत्थपरिणाअत्थो छस्सुवि काएसु सो समोयरह । छज्जीवणियाअत्यो पंचसुवि वएसु ओयरह ॥१॥ पंच य महव्वयाइं समोयरंते य सव्वदन्वेसु। सम्वेसिं पजवाणं अणतभागम्मि ओयरह ॥१४॥ उत्तानार्थाः, नवरम् 'आचारामाणि'चूलिकाः द्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि पर्याया-अगुरुलध्यादयः तेषामनन्तभ गे व्रतानामवतार इति ॥ १२-१३-१४ ॥ कथं पुनर्महाव्रतानां सर्वद्रव्येष्ववतार इति ?, तदाह 'छज्जीवणियो पढमे बीए चरिमेय सव्वदव्वाई। सेसा महव्वया खनु तदेकदेसेण दव्वाणं ॥१५॥ छज्जीवणिया' इत्यादिस्पष्टा. कथं पुनमहाव्रतानां सर्वद्रव्येष्ववतारो न सर्वपयायेविति उच्यते, येनाभिप्रायेण चोदितवस्तिमाविष्कतु माह-'णणु सव्वणभपएसाणंतगुणं पढमसंजमहाणं । छविहपरिवुड्डीए छहाणासंखया सेढी॥१॥ अन्ने के पज्जाया ? जेणुवउत्ता चरित्तविसयम्मि । जे तत्तोऽणतगुणा जेसिं तमणंतभागम्मि ॥२॥ अन्ने केवलगम्मत्ति ते मई ते य के तदब्भहिया। एवंपि होज तुल्ला गाणंतगुणत्तणं जुत्तं ॥ ३ ॥ सेढीसु णाणदसणपज्जाया तेण तप्पमाणेसा । इह पुण चरित्तमेत्तोवओगिणो तेण ते थोवा ॥ ४ ॥ अयमासामर्थो लेशतः-नन्धित्यसूयायां, संयमस्थानान्यसंख्यातानि तावद्भवन्ति, तेषां यज्जघन्यं तदविभागपलिच्छेदेन बुद्ध्या खण्ड्यमानं पर्यायैरनन्ताविभागपलिच्छेदात्मकं भवति, तच पर्यायसंख्यया निर्दिष्टं सर्वाकाशप्रदेशसंख्याया अनन्तगुणं, सर्वनमःप्रदेशवर्गीकराप्रमाणमित्यर्थः, ततो द्वितीयादिस्थानरसंख्यातगच्छगतैग्नन्त १ षड्जीवनिकायः प्रथमे द्वितीये चरमे च सर्वद्रव्याणि । शेषाणि महाब्रतानि खलु तदेकदेशेन द्रव्याणाम् । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराजवृत्तिः (शीलाङ्का. ॥१४॥ अध्ययन उद्देशक १ मागादिकया वृद्ध्या षट्स्थानकानामसंख्येयस्थानगता श्रेणिर्भवति, एवं चैकमपि स्थानं सर्वपर्यायान्वितं न शक्यते परिच्छेत्त', किं पुनः सर्वाण्यपीत्यतः केऽन्ये पर्यायाः ? येषामनन्तभागे व्रतानि वर्तेरनिति । स्यान्मतिः, अन्ये केवल(लि)- गम्या इति, इदमुक्तं भवति-केवलगम्याप्रज्ञापनीयपर्यायाणामपि तत्र प्रक्षेपाबहुत्वम् . एवमपि ज्ञानज्ञेययोस्तुल्यत्वा- | तुल्या पव नानन्तगुणा इति । अत्राचार्य आहुा आहुः)-याऽसौ संयमस्थानश्रेणिनिरूपिता सा पर्वा चारित्रपर्यायैनिदर्शनपर्यायसहितैः परिपूर्णा तत्प्रमाणा-सर्वाकाशप्रदेशानन्तगुणा, इह पुनश्चारित्रमात्रोपयोगित्वात्पर्यायानतभागवृत्तित्वमित्यदोषः । इदानीं सारद्वार, कः कस्य सार इत्याहअंगाणं किं सारो?आयारो, तस्स हवह किं सारो । अणओगत्थो सारो तस्सवि य परूवणा सारो॥६॥ स्पष्टा, केवलमनुयोगार्थो-व्याख्यानुभूतोऽर्थम्तस्य प्ररूपणा-यथास्वं विनियोग इति । अन्यच्च-- सारो परूवणाए चरणं तस्सवि य होइ निव्वाणं । निव्वाणस्स उ सारो अव्वाचाहं जिणा चिंति ॥१७॥ स्पष्टैव । इदानीं श्रतस्कन्धपत्यो मादिनिक्षेपादिकं पूर्ववद्विधेयं, मावेन चेहाधिकार, भावश्रुतस्कन्धश्च ब्रह्मचर्यात्मक इत्यतो ब्रह्मचरणशादी निक्षप्तव्यावित्याह-- बंभम्मी य चउक्कं ठवणाए होड बंभणप्पत्ती। सत्तण्हं वण्णाण नवण्हं वण्णंतराणं च ॥१८॥ तत्र ब्रह्म नामादिचतुर्दा, तत्र नामब्रह्म ब्रह्म त्यभिधानम् , असद्भावस्थापना अक्षादौ सद्भावस्थापना प्रतिविशिष्टयज्ञोपवीताद्याकृतिमृल्लेप्यादी द्रव्ये, अथवा स्थापनायां व्याख्यायमानायर्या ब्राह्मणोत्पत्तिर्वक्तव्या, तत्प्रसङ्गेन च सप्तानां Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च वर्णानां नवानां च वर्णान्तराणामुत्पत्तिणनीयेति । यथाप्रतिज्ञातमाह एका य मणुस्सजाई रज्जुप्पत्तोह दो कया उसभे। तिण्णव सिप्पवणिए सावगधम्मम्मि चत्तारि ॥१६॥ __ यावमाभेयो भगवानाधापि राजलक्ष्मीमध्यास्ते, तावदेकैव मनुष्यजातिः, तस्यैव राज्योत्पत्ती भगवन्तमेवाश्रित्य ये स्थितास्ते क्षत्रियाः, शेषाश्च शोचनाद्रोदनाच शुद्राः, पुनरग्न्युत्पत्तावयस्कारादिशिल्पवाणिज्यवृत्त्या वेशनाद्वैश्याः भगवतो शानोत्पत्तौ भरतकाकणीलाञ्छनाच्छावका एव ब्राह्मणा 'जज्ञिरे, एते शुद्धात्रयश्चान्ये गाथान्तरितगाथया प्रदर्शयिष्यन्ते ॥ साम्प्रतं वर्णवर्णान्तरनिष्पन्नं संख्यानमाह-- संजोगे सोलसगं सत्त य वण्णा उ नव य अंतरिणो । एए दोवि विगप्पा ठवणा भस्स णायव्वा ॥२०॥ — संयोगेन षोडश वर्णाः समुत्पन्नाः, तत्र सप्त वर्णा नव तु वर्णान्तराणि, एतच्च वर्णवर्णान्तरविकल्पद्वयं स्थापनाब्रह्मति ज्ञातव्यम् ॥ साम्प्रतं पूर्वसूचितं वर्णत्रयमाह-यदि वा प्रागुद्दिष्टान् सप्त वर्णानाहपगई चउकगाणंतरे य ते ९ति सत्त वण्णा उ । आणतरेसु चरमो वण्णो खलु होइ णायव्वो ॥२१॥ १जे राय अस्सिता ते खत्तिआ जाया, अणस्सिया गिहवइणो जाया, जया भग्गी उप्पण्णा तया पागभावस्सिता सिप्पिया वाणियगा जाया, तेहिं तेहिं सिप्पवाणिज्जेहि वित्तिं विसंतीति वइस्सा उप्पण्णा । भट्टारए पव्वइए भरहे अभिसित्ते सावगधम्मे सप्पण्णे बंभणा जाया, णिस्सिता बंभणा जाया, माहणत्ति उकस्सगमावा धम्मपिमा जं च किंचिवि हणंत पिच्छति तं निवारैति मा हण भो मा हण, एवं ते जणेण सुकम्मनिव्वत्तितसण्णा बंमणा जाया। जे पुण अणस्सिता असिप्पिणो असावगा ते वय खला इतिका तेसु तेसु पभोयणेसु हिंसाचोरियादियासु दुन्भमाणा सोगदोहणसीला सुद्दा संवुत्ता (इति चूर्णिः). Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १६ ॥ प्रकृतयश्चतस्रः - ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राख्या आसामेव चतसृणाम्रनन्तरयोगेन प्रत्येकं वर्णत्रयोत्पत्तिः, नद्यथा - द्विजेन क्षत्रिययोषितो जातः प्रधानक्षत्रियः संकरक्षत्रियो वा एवं क्षत्रियेण वैश्ययोषितो वैश्येन शूद्रयः प्रधानसंकर भेटौ वक्तव्यावित्येवं सप्त वर्णा भवन्ति, अनन्तरेषु भवा अनन्तरास्तेषु योगेषु चरमवर्णव्यपदेशो भवति ब्राह्मणेन क्षत्रियायाः क्षत्रियो भवतीत्यादि, स च स्वस्थाने प्रधानो भवतीतिभावः ॥ इदानीं वर्णान्तराणां नवानां नामान्याह-अग्गनि साया य अजोगवं मागहा य सूया य । स्वत्ता (य) विदेहावि य चंडाला नवमगा हुंति ॥२२॥ उग्रः निषादः अयोगवं मागधः सूतः क्षत्ता विदेह: चाण्डालश्चेति ॥ कथमेते भवन्तिीत्याहएगंतरिए इणमो अंबडो चेव होइ उग्गो छ । बिइयंतरिअ निसाओ परासरं तं च पुण वेगे ||२३|| पडिलोमे सुद्दाई अजोगवं मागहो य सूओ अ । एगंतरिए खत्ती वेदेहा चैव नायव्वा ||२४|| वितियंतरे नियमा चण्डालो सोऽवि होइ णायव्वो । अणुलोमे पडिलोमे एव एए भवे भेया || २५ | आसामर्थो यन्त्र कादवसेयः तच्चेदम् ब्रह्मपुरुषः क्षत्रिय: पुरुष: । ब्राह्मणः पुरुषः | शूद्रः पुरुषः वैश्या स्त्री शूद्री बी शूही स्त्री वैश्या स्त्री निषादः अयोगम् पारासरो बा । अम्बष्ठः उम्र: एतानि नव वर्णान्तराणि, इदानीं वर्णान्तराणां संयोगोत्पत्तिमाह | वैश्यपुरुषः क्षत्रिया स्त्री मागध क्षत्रियः पुरुषः ब्राझी सूतः शूद्रः पुरुषः | वैश्यपुरुषः | शूद्रपुरुषः ब्राह्मस्त्री ब्राह्मस्त्री क्षत्रिया स्त्री क्षप्ता वैदेहः चाण्डालः अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ १६ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १७ ॥ उग्गेणं खत्ताए सोवागो वेणवो विदेहेणं । अंबट्ठीए सुद्दीय बुकसो जो निसाएणं ॥ २६ ॥ सूण निसाईए कुक्करओ सोवि होइ णायव्वो । एसो बीओ भेओ चउव्विहो होइ णायव्वो ॥ २७ ॥ अर्थो यन्त्रादवसेयः, 'तच्चेदम् । उग्रपुरुषः क्षत्ता स्त्री विदेहः पुरुषः क्षत्ता स्त्री वैणवः विषादः पुरुषः. . अम्बष्ठी स्त्री शूद्री स्त्री वा बुकसः शूद्रः पुरुषः निषादस्त्री कुक्कुरकः श्वपाकः गतं स्थापनाब्रह्म, इदानीं द्रव्यब्रह्मप्रतिपादनाय आहदव्वं सरीरभविओ अन्नाणी वत्थिसंजमो चेव । भावे उ वत्थिसंजम णायव्वो संजमो चेव ॥ २८ ॥ ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं शाक्यपरिव्राजकादीनामज्ञानानुगतचेतसां वस्तिनिरोधमात्रं विधवा प्रोषितभर्तृकादीनां च कुलव्यवस्थार्थं कारितानुमतियुक्तं द्रव्यब्रह्म, भावब्रह्म तु साधूनां वस्तिसंयमः, अष्टादशभेदरूपोऽप्ययं संयम एव, सप्तदशविधसंयमाभिन्नरूपत्वादस्येति, अष्टादश भेदास्त्वमी - 'दिव्यात्कामरतिसुखात् त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । औदारिकादपि तथा तद्ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥ १ ॥ चरणनिक्षेपार्थमाह aria होइ छक्कं गइमाहारो गुणी व चरणं च । खित्तंमि जंमि खित्ते काले कालो जहिं जाओ जो उ ) ॥ २९ ॥ १ तच प्रथमचतुष्कोष्ठकादवगन्तव्यम् प्र. ॥ १७ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (sitorgr.) ॥ १८ ॥ चरणं नामादिषोढा, व्यतिरिक्तं द्रव्यचरणं त्रिधा भवति - गतिभक्षणगुणभेदात्, तत्र गतिचरणं गमनमेव, आहारचरणं मोदकादेः, गुणचरणं द्विधा - लौकिकं लोकोत्तरं च लौकिक यत् द्रव्यार्थं हस्तिशिक्षादिकं वैद्यकादिकं वा शिक्षन्ते, लोकोत्तरं साधूनामनुपयुक्त चरण मुदायिनृपमारकादेर्वा, क्षेत्रचरणं यस्मिन् क्षेत्रे गत्याहारादि चर्य्यते व्याख्यायते वा, शब्दसामान्यान्तर्भावाद्वा शालिक्षेत्रादिचरणमिति, कालेऽप्येवमेव || भावचरणमाह भावे गइमाहारो गुणो गुणवओ पसत्थमपसत्था । गुणचरणे पसत्थेण बंभचेरा नव हवंति ॥ ३० ॥ भावचरणमपि गत्याहारगुणभेदात् त्रिधा तत्र गतिचरणं साधोरुपयुक्तस्य युगमात्रदत्तदृष्टीर्गच्छतः, भक्षणचरणमपि शुद्धं पिण्डमुपभुञ्जनस्य, गुणचरणमप्रशस्तं मिथ्यादृष्टीनां सम्यग्दृष्टीनामपि सनिदानं, प्रशस्तं तेषामेव कर्मोद्वेष्टनार्थ मूलोत्तरगुण कलापविषयम्, इह चानेनैवाधिकारो, यतो नवाप्यध्ययनानि मूलोत्तरगुणस्थापकानि निर्जरार्थमनुशील्यन्ते ॥ एतेषां चान्वर्थाभिधानानि दर्शयितुमाह सत्यपरिण्णा १ लोगविजओ २ य सीओसणिज्ज ३ सम्मत्तं ४ । तह छोगसारनामं ५ थुयं ६ तह महापरिण्णा ७ य ॥ ३१ ॥ अट्टमए य विमोक्खो ८ उवहाणसुयं ६ च नवमगं भणियं । इच्चेसो आयारो आयारग्गाणि सेसाणि ॥ ३२ ॥ स्पष्टे, केवलमित्येष नवाध्ययनरूप आचारो, द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तु शेषाणि - आचाराग्राणीति ॥ साम्प्रतमुपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च तत्राद्यमाह - [ श्रध्ययनं १ उद्दे शकः १ 11 2 = 11 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६॥ जिभसंजमो १ अ लोगो जह बज्झइ जह य त पजहियव्वं २। सुहदुक्खतितिक्खाविय ३ सम्मत्तं ४ लोगसारो . य ॥३३॥ निस्संगया ६ य छठे मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा ७ । निज्जाणं ८ अहमए नवमे य जिणेण एवं ति ९॥ ३४॥ तत्र शस्त्रपरिज्ञायामयमर्थाधिकारो–'जियसंजमोत्ति जीवेषु संयमो जीवसंयमः-तेषु हिंसादिपरिहारः, स च जीवास्तित्वपरिज्ञाने सति भवत्यतो जीवास्तित्वविरतिप्रतिपादनमत्राधिकारः । लोकविजये तु 'लोगो जह बज्झइ जह य तं पजहियबति, विजितभावलोकेन संयमस्थितेन लोको यथा बध्यते अष्टविधेन कर्मणा यथा च तत्प्रहातव्यं तथा ज्ञातव्यमित्ययमर्थाधिकारः । तृतीये त्वयम्-संयमस्थितेन जितकषायेणानुकूलप्रतिकूलोपसर्गनिपाते सुखदुःखतितिक्षा विधेयेति । चतुर्थे त्वयम्-प्राक्तनाध्ययनार्थसंपन्नेन तापसादिकष्टतपासेविनामष्टगुणेश्वर्यमुद्वीश्यापि दृढसम्यक्त्वेन भवितव्यमिति । पञ्चमे त्वयम्-चतुरध्ययनार्थस्थितेनासारपरित्यागेन लोकसाररत्नत्रयोधु क्तेन भाव्यमिति । षष्ठे त्वयम्प्रागुक्तगुणयुक्तेन निसङ्गतायुक्तेनाप्रतिबद्धेन भवितव्यम् । सप्तमे त्वयम्-संयमादिगुणयुक्तस्य कदाचिन्मोहसमुत्थाः परिपहा उपसर्गा वा प्रादुर्भवेयुस्ते सम्यक् सोढव्याः। अष्टमे त्वयम्-निर्याणम्-अन्तक्रिया सा सर्वगुणयुक्तेन सम्यग्विधेयेति । नवमे त्वयम्--अष्टाध्ययनप्रतिपादितोऽर्थः सम्यगे बर्द्धमानस्वामिना विहित इति, रात्प्रदर्शनं च शेषसाधनामुत्साहार्थ, १ उदइओ भावो लोगा कसाया जाणियव्वा (इति चूर्णिः) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं १ उद्देशकः तदुक्तम्-"'तित्थयरो चउणाणी सुरमहिओ सिझियव्वाधुवंमि । अणिमूहियबलविरिओ सव्वत्थाश्रीआचा मेसु उज्जमइ ॥ १॥ किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उज्जमियव्वं सपच्च राङ्गवृत्तिः वायंमि माणस्से ॥२॥"॥ साम्प्रतमुद्देशार्थाधिकारः शस्त्रपरिज्ञाया अयम् - (शीलाङ्का. जीवो छक्कायपरुवणा य तेसिं वहे य बंधोत्ति । विरईए अहिगारो सत्थपरिणाए णायव्वो ॥३५॥ ॥२०॥ar तत्र प्रथमोद्देशके सामान्थेन जीवास्तित्वं प्रतिपाद्य, शेषेषु तु षट्सु विशेषेणं पृथिवीकायाद्यस्तित्वमिति, सर्वेषां चाव साने बन्धविरतिप्रतिपादनमिति, एतच्चान्ते उपात्तत्वात्प्रत्येकमुद्देशार्थेषु योजनीयं, प्रथमोद्देशके जीवस्तद्वधे बन्धो विरतिश्चेत्येवमिति ॥ तत्र शस्त्रपरिक्षेति द्विपदं नाम, शस्त्रस्य निक्षेपमाह दव्वं सत्थग्गिविसन्नेहंबिलखारलोणमाईयं । भावो य दुप्पउत्तो वाया काओ अविरई य॥३६॥ शस्त्रस्य निक्षेपो नामादिश्चतुर्दा, व्यतिरिक्तं द्रव्यशस्त्रं खड्गाद्यग्निविषस्नेहाम्लक्षारलवणादिकं, भावशास्त्रं तु दुष्प्रयुक्तो भाव:--अन्तःकरणं तथा वाकायावविरतिश्चेति, जीवोपघातकारित्वादितिभावः । परिज्ञापि चतुर्द्धत्याह४ दवं जाणण पच्चक्खाणे दविए सरीरं उवगरणे । भावपरिण्णा जाणण पच्चक्खाणं च भावेणं ॥३७॥ १ तीर्थकरश्चतु नी सुरमहितः ध्रुवं सेधितव्ये । अनिगृहितबलवीर्यः सर्वस्थाम्नोद्यच्छति ।। १।। किं पुनरवशेषैर्दुःखक्षयकारणान्सुविहितः । मति नोधन्तव्यं सप्रत्यपाये मानुष्ये ॥२॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र द्रव्यपरिज्ञा द्विधा-ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च, ज्ञपरिज्ञा आगमनोआगमभेदाद्विधा, आगमतो ज्ञाताऽनु२१॥ पयुक्तः, नोआगमतस्विधा, तत्र व्यतिरिक्ता द्रव्यपरिज्ञा यो यत् द्रव्यं जानीते सचित्तादि सा परिच्छेद्यद्रव्यप्राधान्यात द्रव्यपरिक्षेति, प्रत्याख्यानपरिज्ञाऽप्येवमेव, तत्र व्यतिरिक्तद्रव्यप्रत्याख्यानपरिज्ञा देहोपकरणपरिज्ञानम् , उपकरण च रजोहरणादि, साधकतमत्वात् , भावपरिज्ञापि द्विधैव-ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तश्च, नोआगa मतस्त्विदमेवाध्ययनं ज्ञानक्रियारूपं, नोशब्दस्य मिश्रवाचित्वात् , प्रत्याख्यानभाषपरिज्ञापि तथैव, आगमतः पूर्ववत् , LI नोआगमवस्तु प्राणातिपातनिवृत्तिरूपा मनोवाकायकृतकारितानुमतिमेदात्मिका ज्ञेयेति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतमाचारादिप्रदानस्य सुखप्रतिपत्तये दृष्टान्तोपन्यासेन विधिराख्यायते-यथा कश्चिद्राजा अभिनवनगरनिवेशेच्छया | ka भूखण्डानि विभज्य समतया प्रकृतिभ्यो दत्तवान् , तथा कचरापनयने शल्योद्धारे भूस्थिरीकरणे पक्वेष्टकापीठप्रासाद रचने रत्नाद्यपादाने चोपदेशं दत्तवान्, ताश्च प्रकृतयस्तदुपदेशानुसारेण तथैव कृत्वा यथाऽभिप्रेतान भोगान् बुभुजिरे, अयमत्रार्थोपन यः-राजसदृशेन सूरिणा प्रकृतिसदृशस्य शिष्यगणस्य भूखण्डसदृशः संयमो मिथ्यात्वकचवराद्यपनीय सर्वोपाधिशुद्धस्यारोपणीयः, तं च सामायिकसंयम स्थिरीकृत्य पक्वेष्टिकापीठतुल्यानि व्रतान्यारोपणीयानि, ततः प्रासादकल्पोऽयमाचारो विधेयः, तत्रस्थश्चाशेषशास्त्रादिरत्नान्यादत्ते, निर्वाणभाक् भवति । साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणलक्षणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, लक्षणं त्विदम्-'अप्पग्गंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च। लक्खणजुत्तं ॥ २१ ॥ १अल्पग्रन्थं महाथ द्वात्रिंशद्दोषविरहितं यच्च । लक्षणयुक्तं सूत्रमष्टमिश्च गुणैरुपपेतम् ।। १ ।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयं मे आडसं! तेणं (आमुसंतेणं, आवसतेणं) भगवया एवमक्खायं इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ अध्ययनं १ श्रीआचा-81॥ सू०१॥ राङ्गवृत्तिः सुत्तं अट्ठहि य गुणे हिं उववेयं ॥१॥' इत्यादि, तच्चेदं सूत्रम् -'सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं- उद्देशकः १ (शीलाङ्का. इहमेगेसिं णो सण्णा भवति' अस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या-संहितोचारितैव, पदच्छेदस्त्वयम्-श्रुतं मया आयुष्मन ! तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह एकेषां नो संज्ञा भवति । एक तिङन्तं शेषाणि सुबन्तानि, गतः सपदच्छेदः सूत्रानुगमः, साम्प्रतं सूत्रपदार्थः समुन्नीयते-भगवान् सुधर्मस्वामी जंबूनाम्न इदमाचष्टे यथा-श्रुतम्' आकर्णितमवगतमधारितमितियावद्, अनेन स्वमनीषिकाव्युदासो, 'मयेति साक्षान पुनः पारम्पर्येण 'आयुस्मन्निति जात्यादिगुणसंभवेऽपि दीर्घायुष्कत्वगुणोपादानं दीर्घायुरविच्छेदेन शिष्योपदेशप्रदायको यथा स्यात् , इहाचारस्य व्याचिख्यासितत्वात्तदर्थस्य | च तीर्थकृत्प्रणीतत्वादिति सामर्थ्यप्रापितं तेनेति तीर्थकरमाह, यदि वा–आमृशता भगवत्पादारविन्दम् , अनेन विनय आवेदितो भवति, आवसता वा तदन्तिके इत्यनेन गुरुकुलवासः कर्तव्य इत्यावेदितं भवति, एतचार्थद्वयं 'आमुसंतेण आवसंतेणे'त्येतत्पाठान्तरमाश्रित्यावगन्तव्यमिति, 'भगवते ति भगः-ऐश्वर्यादिषडर्थात्मकः सोऽस्यास्तीति भगवान् तेन, 'एव'मिति वक्ष्यमाणविधिना 'आख्यात'मित्यनेन कृतकत्वव्युदासेनार्थरूपतया आगमस्य १ चूर्ण्यभिप्रायेण द्वितीयसूत्रावतरणमेतत् . Blu२२ ॥ २ पत्तेय पत्तेयं (गणहरा) सिस्सेहिं पज्जुवासिज्जमाणा एवं भणंति-'सुयं मे० (इति चूर्णिः). ܪܬܢ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यत्वमाह, 'इहे ति क्षेत्रे प्रवचने आचारे शस्त्रपरिज्ञायां वा आख्यातमितिसंबन्धो, यदि वा-'इहे'ति संसारे 'एकेषां' ज्ञानावरणीयावृतानां प्राणिनां 'नो संज्ञा भवति' संज्ञानं संज्ञा स्मृतिरवबोध इत्यनर्थान्तरं, सा नो प्रजायत इत्यर्थः उक्तः पदार्थः, पदविग्रहस्य तु सामासिकपदाभावादप्रकटनम् । इदानी चालना-ननु चाकारादिकप्रतिषेधकलघुशब्दसंभवे सति किमर्थं नोशब्देन प्रतिषेधः इति ?, अत्र प्रत्यवस्था, सत्यमेवं, किंतु प्रेक्षापूर्वकारितया नोशब्दोपादानं, सा चेयम्-अन्येन प्रतिषेधेन सर्वनिषेधः स्याद्, यथा न घटोऽघट इति चोक्ते सर्वात्मना घटनिषेधः, स च नेष्यते, यतः प्रज्ञापनायां दश संज्ञाः सर्वप्राणिनामभिहितास्तासां सर्वासां प्रतिषेधः प्राप्नोतीतिकृत्वा, ताश्चेमाः-'कइ णं भंते ! सण्णाओ पणत्ताओ?, गोयमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा कोहसण्णा माणसण्णा मायासण्णा लोभसण्णा ओहसण्णा लोगसण्ण"त्ति आस च प्रतिषेधे स्पष्टो दोषः, अतो नोशब्देन प्रतिषेधनमकारि, यतोऽयं सर्वनिषेधवाची देशनिषेधवाची च, तथाहि-नोघट ही इत्युक्ते तथा घटाभावमात्रं प्रतीयते, तथा प्रकरणादिप्रसक्तस्य विधानं, स पुनर्विधीयमानः प्रतिषेध्यावयवो ग्रीवादिः प्रतिषेध्यादन्यो वा पटादिः प्रतीयत इति, तथा चोक्तम्-"प्रतिषेधयति समस्तं प्रसक्तमर्थ च जगति नोशब्दः। १ कति मदन्त ! संज्ञाः प्रज्ञप्ताः', गौतम ! दश संज्ञा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आहारसंज्ञा भयसंश। मथुनसंज्ञा परिग्रहसंज्ञा कोधसंज्ञा मानसंज्ञा मायासंहा लोभसंज्ञा ओघसंज्ञा लोकसंज्ञा । २०क्त घटाभावमात्रं प्रतीयते भर्थप्रसक्तनिषेधेन चाप्रसक्तस्य प्र. ।। २३ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शालाङ्का ॥२४॥ ध्ययनं १ उद्देशकः १ स पुनस्तदवयवो वा तस्मादर्थान्तरं वा स्याद् ॥ १॥ इति, एवमिहापि न सर्वसंज्ञानिषेधः, अपितु विशिष्टसंज्ञानिषेधो, ययाऽऽत्मादिपदार्थस्वरूपं गत्यागत्यादिकं ज्ञायते तस्या निषेध इति ॥ साम्प्रतं नियुक्तिकृत्सूत्रावयवनिक्षेपार्थमाहदव्वे सचित्ताई भावेऽणुभवणजाणणा सण्णा । मति होइ जाणणा पुण अणुभवणा कम्मसंजुत्ता॥३८॥ संज्ञा नामादिभेदाच्चतुर्दा, नामस्थापने क्षुण्णे, ज्ञशरीरभव्यशरीस्व्यतिरिक्ता सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिधा, सचित्तेन हस्तादिद्रव्येण पानभोजनादिसंज्ञा अचित्तेन ध्वजादिना मिश्रेण प्रदीपादिना संज्ञानं-संज्ञा अवगम इति कृत्वा, भावसंज्ञा पुनर्द्विधा-अनुभवनसंज्ञा ज्ञानसंज्ञा च, तत्रान्पव्याख्येयत्वात्तावत् ज्ञानसंज्ञा दर्शयति-'मइ होइ जाणणा पुण'त्ति मननं मतिः-अवबोधः सा च मलिज्ञानादिः पञ्चधा, तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी शेषास्तु क्षायोपशमियः, अनुभवनसंज्ञा तु स्वकृतकर्मोदयादिसमुत्था जन्तोर्जायते, सा च षोडशभेदेति दर्शयति आहार भय परिग्गह मेहुण सुख दुक्ख मोह वितिगिच्छा। कोह माण 'माय लोहे सोगे लोगे य धम्मोहे ॥ ३९ ॥ आहाराभिलाष आहारसंज्ञा, सा-च तैजसशरीरनामकम्र्मोदयादसातोदयाच्च भवति, भयसंज्ञा त्रासरूपा, परिग्रहसंज्ञा मृ रूपा, मेथुनसंज्ञा स्त्र्यादिवेदोदयरूपा, एताश्च मोहनीयोदयात् , सुखदुःखसंज्ञे सातासातानुभवरूपे वेदनीयोदयजे, मोहसंज्ञा पिथ्यादर्शनरूपा मोहोदयात् , विचिकित्सासंज्ञा चित्तविप्लुतिरूपा महोदयात् ज्ञानावरणीयोदयाच्च, क्रोधसंज्ञा अप्रीतिरूपा, मानसंज्ञा गर्वरूपा, मायासंज्ञा वक्रतारूपा, लोभसंज्ञा द्धिरूपा, शोकसंज्ञा विप्रलापवैमनस्यरूपा, ॥ २४ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २५ ॥ एता मोहोदयजाः, लोकसंज्ञा स्वच्छन्दघटितविकन्परूपा लौकिकाचरिता, यथा- न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः, श्वानो कक्षाः, विप्रा देवाः, काकाः पितामहाः, बर्हिणां पक्षवातेन गर्भ इत्येवमादिका ज्ञानावरगयान्पक्षयोपशमान्मोहोदयाच्च भवति, धर्म्मसंज्ञा क्षमाद्यासेवनरूपा मोहनीयक्षयोपशमाज्जायते, एताश्चाविशेषोपादानात्यञ्चेन्द्रिययाणां सम्यग्मिथ्यादृशां द्रष्टव्याः, ओघसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा वलिवितानारोहणादिलिङ्गा ज्ञानावरणीयान्पक्षयोपशमसमुत्था द्रष्टव्येति । इह पुनर्ज्ञानसंज्ञयाऽधिकारो, यतः सूत्रे सैव निषिद्धा 'इह एकेषां नो संज्ञां ज्ञानम् -अवबोधो भवती 'ति ॥ १ ॥ प्रतिषिद्धज्ञानविशेषावगमार्थमाह सूत्रम् - जहा - पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पचfत्थमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डा वा दिसाओ आगओ अहंमंसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ अदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिं णो णायं भवति ॥ सू० २ ॥ " तंजहेत्यादि णो णायं भवतीति यावत्" तद्यथेति प्रतिज्ञातार्थोदाहरणं, 'पुरत्थिमाउ'त्ति प्राकृतशैल्या मागधदेशी भाषानुवृत्या पूर्वस्या दिशोऽभिधायकात् पुरत्थिमशब्दात्पञ्चम्यन्तात्तसा निर्देशः, वाशब्द उत्तरपक्षापेक्षया विकल्पार्थः, यथा लोके भोक्तव्यं वा शयितव्यं वेति एवं पूर्वस्या वा दक्षिणस्या वेति । दिशतीति दिकू, अतिसृजति व्यपदिशति द्रव्यं द्रव्यभागं वेति भावः ॥ तां नियुक्तिकभिक्षेप्तुमाह- ॥ २५ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन उद्देशकः १ ___ नामं ठवणा दविए खित्ते तावे य पण्णवग भावे । एस दिसानिक्खेवो सत्तविहो होइ णायव्वो ॥४०॥ श्रीआचा नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रतापप्रज्ञापकमावरूपः सप्तधा दिग्निक्षेपो ज्ञातव्यः, तत्र सचित्तादेव्यस्य दिगित्यभिधानं नामराङ्गवृत्तिः दिक्, चित्रलिखितजम्बूद्वीपादेर्दिग्विभागस्थापनं स्थापनादिक् । द्रव्यदिग्निक्षेपार्थमाह(शीलाङ्का.) तेरसपएसियं खलु तावइएसुभवे पएसेसु। दव्वं ओगाढं जहण्णय तं दसदिसाग ॥ ११ ॥ द्रव्यदिग् द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च. आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता त्वियम्-त्रयोदशप्रदेशिकं द्रव्यमाश्रित्य या प्रवृत्ता, खलुरवधारणे, त्रयोदशप्रादेशिकमेव दिए, न पुनईशप्रादेशिकं यत् कैश्चिदुक्तमिति, प्रदेशा:-परमाणवस्तैर्निष्पादितं कार्यद्रव्यं तावत्स्वेव क्षेत्रप्रदेशेष्ववगाढं जघन्यं द्रव्यमाश्रित्य दशदिग्विभागपरिकल्पनातो द्रव्यदिगियमिति । तत्स्थापना (२)। त्रिवाहकं नवप्रदेशिकमभिलिख्य चतसृषु दिवेकैकगृहवृद्धिः कार्या ॥ क्षेत्रदिशमाह- .. RBI अट्ठ पएसो रुयगो तिरिय लोयस्स मज्झयारंमि । एस पभवो दिसाणं एसेव भवे अणदिसाणं ॥ ४२ ॥ तिर्यगलोकमध्ये रत्नप्रभापृथिव्या उपरि बहुमध्यदेशे मेयन्तद्वौं सर्वक्षुल्लकातरौ तयोरुपरितनस्य चत्वारः प्रदेशा गोस्तनाकारसंस्थाना अधस्तनस्यापि चत्वारस्तथाभूता एवेत्येषोऽष्टाकाशप्रदेशात्मकश्चतुरस्रो रुचको दिशामनुदिशां च प्रभव-उत्पत्तिस्थानमिति । स्थापना चेयं (३)। आसाममिधानान्याहइंदग्गेई जम्मा य नेरुती वारुणी य वायव्वा । सोमा ईसाणावि य. विमला य तमा य योद्धव्वा ॥४३॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥२६॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bal आसामायेन्द्री विजयद्वारानुसारेण शेषाः प्रदक्षिणतः सप्तावसेयाः, ऊर्ध्व विमला तमा चाधः बोद्धव्या इति, स्थापना ॥ २७ ॥ चेय ॥ आसामेव स्वरूपनिरूपणागहदुपएसाइ दुरुत्तर एगपएसा अणुत्तरा चेव चउरो चउरो य दिसा चउराइ अणत्तरा दुण्णि ॥४४॥ चतस्रो महादिशो द्विप्रदेशाद्या द्विद्विप्रदेशोत्तग्वृद्धाः, विदिशश्चतस्र. एकप्रदेशरचवात्मिकाः 'अनुत्तरा' वृद्धिरहिताः, ऊर्ध्वाधोदिगद्वयं त्वनुत्तरमेव चतुष्प्रदेशादिरचनात्मकम् ॥ किञ्च- . . अंतो साईआओ बाहिरपासे अपज्जवसिआओ। सव्वाणंतपएसा सव्वा य भवंति कडजुम्मा ॥ ४५ ॥ ___ सर्वाऽप्यन्तः-मध्ये सादिका रुचकाद्या इतिकृत्वा बहिश्च अलोकाकाशाश्रयणादपर्यवसिताः, 'सर्वाश्च' दिशाप्यनन्तप्रदेशात्मिका भवन्ति, 'सव्वा य हवंति कडजुम्मति सर्वासां दिशा प्रत्येकं ये प्रदेशास्ते चतुष्ककेनापह्रिमाणाश्चतुष्कावशेषा भवन्तीतिकृत्वा, तत्प्रदेशात्मिकाच दिश आगमसंज्ञया कड जुम्मत्तिशब्देनाभिधीयन्ते, तथा चागमः"कह णं भंते ! जुम्मा पण्णत्ता?, गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तंजहा-कडजुम्मे तेउए दावरजुम्मे कलिओए । से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा! जे णं रासी चउकगावहारेणं अवहीरमाणे १ कति भदन्त ! युग्माः प्रज्ञताः ?, गौतम ! चत्वारो युग्माः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कृतयुग्मः योजः द्वापरयुग्मः कल्योजः। अथ केनार्थेन भदन्तवमुच्यते ?, गौतम ! योराशिश्चतुष्ककापहारेणापहियमाणोऽह्रियमाणश्चतुष्पर्यवसितः स्यात् स कृतयुग्मः, एवं त्रिपर्यषमितस्त्र्योजः द्विपर्यवसितो द्वापर युग्मः, एकपर्यवसितः कल्योजः । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं १ उद्देशकः १ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २८ ॥ अवहोरमाण चउपजवसिए सिया, से णं कडजुम्मे, एवं तिपजवसिए तेउए, दुपजवसिए दावरजुम्मे, एगपज्जवसिए कलिओए"त्ति ॥ पुनरप्यासा संस्थानमाहसगडुडोसंठिआओ महादिसाओ हवंति चत्तारि। मुत्तावली य चउरो दो चेव हवंति रुयगनिभा॥४६॥ महादिशश्चतस्रोऽपि शकटोर्द्धिसंस्थानाः, विदिशश्च मुक्तावलिनिभाः, ऊर्ध्वाधोदिग्द्वयं रुचकाकारमिति ॥ तापदिशमाहजस्स जमओआइचो उदेइ सा तस्स होइ पुष्वदिसा। जत्तोअअस्थमेइ उ अवरदिसा साउणायव्वा ॥४७॥ दाहिणपासंमि य दाहिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं । एया चत्तारि दिसा तावखित्ते उ अक्खाया ॥४८॥ तापयतीति ताप-आदित्यः, तदाश्रिता दिक तापदिक शेष सुगम, केवलं दक्षिणपादिव्यपदेशः पूर्वाभिमुखस्येति द्रष्टव्यः ॥ तापदिगङ्गीकरणेनान्योऽपि व्यपदेशो भवतीति प्रसङ्गत आह जे मंदरस्स पुटवेण मणस्सा दाहिणण अवरेण जे आवि उत्तरेणं सच्चेसिं उत्तरो मेरू ॥४९॥ सव्वेसिं उत्तरेणं मेरू लवणो य होइ दाहिणी । पुवेणं उहई अवरेणं अस्थमइ सूरो ॥ ५० ॥ ये 'मन्दरस्य' मेरोः पूर्वेण मनुष्याः क्षेत्रदिगङ्गीकरणेन, रुचकापेक्षं पूर्वादिदिक्त्वं वेदितव्यं, तेषामुत्तरो मेरुदक्षिणेन लवण इति तापदिगङ्गीकरणेन, शेषं स्पष्टम् ॥ प्रज्ञापकदिशिमाहजत्यय जो पण्णवओकस्सवि साहा दिसामुयाणिमित्तं । जत्तोमुहो य मा पच्छओ अवरा ॥५१॥ ॥२८॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २६ ॥ प्रज्ञापको यत्र क्वचित् स्थितः दिशां बलात्कस्यचिन्निमित्तं कथयति स यदभिमुखस्तिष्ठति सा पूर्वा, पृष्टनश्चापरेति, निमित्तकथनं चोपलक्षणमन्योऽपि व्याख्याता ग्राह्म इति ॥ शेषदिकसाधनार्थमाह दाहिणपासंमि उ दाहिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं । एयासिमन्तरेणं अण्णा चत्तारि विदिसाओ ॥ ५२ ॥ एयासिं चेव अडण्हमंनरा अट्ठ हुंति अण्णाओ । सोलस सरोरउस्सयबाहल्ला सव्वतिरियदिसा ॥ ५३ ॥ हेट्ठा पायताणं अहोदिसा सीसउवरिमा उड्डा । एया अडोरसवी पण्णवगदिसा मुणेयव्वा ॥५४॥ एवं पकप्पिआणं दसह अट्ठण्ह चैव य दिसाणं । नामाई वुच्छामी जहकमं आणुपुव्वीए ॥ ५५॥ पुव्वा य पुग्वदविण दक्खिण तह दक्खिणावरा चेव । अवरा य अवरउत्तर उत्तर पुव्वुत्तरा चेव ॥५६॥ सामुत्थाणी कविला खेलिज्जा खलु तहेव अहिधम्मा। परियाधम्मा य तहा सावित्ती पण्णवित्तीय ॥५७॥ हेडा नेरइयाणं अहोदिसा उवरिमा उ देवाणं । एयाई नामाई पण्णवगस्सा दिसाणं तु ॥ ५८ ॥ एताः सप्त गाथाः कण्ठ्याः, नवरं द्वितीयगाथायां सर्व्वतिर्यग्दिशां बाहल्यं - पिण्डः शरीरोच्छ्रयप्रमाणमिति । साम्प्र तपास संस्थानमाह - सोलसवी तिरियदिसा सगडुडीसंठिया मुण्णेयव्वा । दो मल्लगमूलाओ उड्ढ े अ अहेवि य दिसाओ ॥ ५९ ॥ षोडशापि तिर्यग्दिशः शकटोद्धिसंस्थाना बोद्धव्याः, प्रज्ञापकप्रदेशे सङ्कटा बहिविंशालाः, नारकदेवाख्ये द्वे एव उर्ध्वाघोगामिन्यौ शरावाकारे भवतः, यतः शिरोमुले पादमूले च स्वल्पत्वान्मल्लकबुध्नाकारे गच्छन्त्यौ च विशाले भवत ॥ २६ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा अध्ययनं. राङ्गवृत्तिः शकः । ॥३०॥ । इति । आसां सर्वासा तात्पर्य यन्त्रकादवसेयं, तच्चेदम् (४)॥ भावदिग्निरूपणार्थमाह मणुया तिरिया काया तहऽग्गबीया चउक्कगा चउरो। देवा नेरहया वा अट्ठारस हाँनि भावदिसा ॥६०॥ है। मनुष्याश्चतुर्भेदास्तद्यथा-सम्मूर्छनजाः कर्मभूमिजा अकर्मभृमिजाः अन्तरद्वीपजाश्चेति, तथा तिर्यञ्चो द्वीन्द्रिया स्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्चेति चतुर्दा, कायाः पृथिव्यप्तेजोवायवश्चन्वारः, तथाऽग्र(१)मूल(२)स्कन्ध(३)पर्व(४)बीजाश्चत्वार एव, एते पोडश देवनारकप्रक्षेपादष्टादश, एभिर्भावैर्भवनाज्जीवो व्यपदिश्यत इति भावदिगष्टादशभेदेति ॥ अत्र च सामान्यदिग्ग्रहणेऽपि यस्यां दिशि जीवानामविगानेन गत्यागती स्पष्ट सर्वत्र सम्भवतस्तयैवेहाधिकार इति तामेव नियुक्तिकृत्साक्षाद्दर्शयति, भावदिक्चाविनाभाविनी सामर्थ्यादधिकृतव, यतस्तदर्थमन्या दिशश्चिन्त्यन्त इत्यत आह-- पण्णवगदिसट्ठारस भावदिसाओऽवि तत्तिया चेव । इक्विक्कं विंधेजा हवंति अट्ठारसाहारा ॥६॥ पण्णवगदिसाए पुण अहिगारो एत्थ होइ जायचो । जीवाण पुग्गलाण य एयासु गयागई अत्थि ॥६॥ प्रज्ञापकापेक्षया अष्टादशभेदा दिशः, अत्र च भावदिशोऽपि तावत्प्रमाणा एव प्रत्येकं सम्भवन्तीत्यतः एकैको प्रज्ञापकदिशं भावदिगष्टादशकेन 'विन्ध्येत्' ताडयेद् , अतोऽष्टादशाष्पादशकाः, ते च संख्यया त्रीणि शतानि चतुर्विशत्यधिकानि भवन्तीति, एतच्चोपलक्षणं तापदिगादावपि यथासम्भवमायोजनीयमिति । क्षेत्रदिशि तु चतसृष्वेव महादिक्षु सम्भवो न विदिगादिषुः तासामेकप्रदेशिकत्वाच्चतुष्प्रदेशिकत्वाच्चेति गाथाद्वयार्थः ॥ अयं दिकसंयोगकलापः 'अण्णय ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीओ दिसाओ आगओ अहमंसी'त्यनेन परिगृहीतः, सूत्रावयवार्थश्वायम्-इह दिगग्रहणात् प्रज्ञापकदिशश्चतस्रः पूर्वादिका ऊधिोदिशौ च परिगृह्यन्ते, भावदिशस्त्वष्टादशापि, अनुदिग्ग्रहणात्तु प्रज्ञापकविदिशो द्वादशेति, तत्रासंज्ञिनां RE नैपोऽवबोधोऽस्ति, संज्ञिनामपि केषाश्चिद्भवति केषाश्चिन्नेति, यथाऽहममुष्या दिशः समागत इहेति । 'एवमेगेसि । णो णायं भवइत्ति' 'एव' मित्यनेन प्रकारेण, प्रतिविशिष्टदिग्विदिगागमनं नैकेषां विदितं 'भवतीत्येतदुपसंहारवाक्यम् , एतदेव नियुक्तिकृदाहa केसिंचि नाणसण्णा अस्थि केसिंचि नत्थि जीवाणं । कोऽहं परंमि लोए आसी कयरा दिसाओवा?॥६३॥ A केषाश्चिञ्जीवानां ज्ञानावरणीयक्षयोपशमवतां ज्ञानसंज्ञाऽस्ति, केषाश्चित्तु तदाबृतिमतां न भवतीति । यादृग्भूता संज्ञा न भवति तां दर्शयति-कोऽहं परस्मिन् 'लोके' जन्मनि मनुष्यादिरासम् , अनेन भावदिग् गृहीता, कतरस्या वा दिशः समायात इत्यनेन तु प्रज्ञापकदिगुपातेति, यथा कश्चिन्मदिरामदाघूर्णितलोललोचनोऽव्यक्तमनोविज्ञानो रथ्यामार्गनिपतितस्तच्छ-कृष्टश्वगणालिद्यमानवदनो गृहमानीतो मदात्यये न जानाति कृतोऽहमागत इति, तथा प्रकृतो मनुष्यादिरपीति गाथार्थः ॥ केवलमेव संज्ञा नास्ति अपराऽपि नास्तीति सूत्रकृदाह- . अस्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि ॥ सू०३॥ १ औपपातिकवृत्त्यभिप्रायेणैष तृतीयसूत्रावतरणमागः, चूर्ण्यभिप्रायेण तु 'भविस्सामि' इति पर्यन्त उपसंहारः, 'मवति' इति 'तंजहा' इति चाधिकम् । ॥31॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ___ 'अस्ति' विद्यते 'ममे त्यनेन षष्ठयन्तेन शरीरं निर्दिशति, ममास्य शरीरकस्याधिष्ठाता, अतति-गच्छति सततगतिप्रवृत्त आत्मा-जीवोऽस्तीति, किंभृतः ?-'औपपातिक: उपपात.-प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रान्तिः, उपपाते भव औप अध्ययनं १ पातिक इति, अनेन संसारिणः स्वरूपं दर्शयति, स एवंभूत आत्मा ममास्ति नास्तीति च एवंभृता संज्ञा केषाश्चिद- उद्देशकः १ ज्ञानावष्टब्धचेतसा न जायत इति । तथा कोऽहं' नारकतिर्यगमनुष्यादिः पूर्वजन्मन्यासं ? को वा देवादिः 'इतो' मनुष्यादेर्जन्मन 'च्युतो विनष्टः 'इह' संसारे 'प्रेत्य' जन्मान्तरे 'भविष्यामि' उत्पत्स्ये इति, एषा च संज्ञा न भवतीति ॥ इह च यद्यपि सर्वत्र भावदिशाऽधिकारः प्रज्ञापकदिशा च, तथापि पूर्वसूत्रे साक्षात्प्रज्ञापकदिगुपात्तात्र तु भावदिगित्यवगन्तव्यम् । ननु चात्र संसारिणां दिग्विदिगागमनादिजा विशिष्टा संज्ञा निषिभ्यते न सामान्यसंज्ञेति, एतच्च संझिनि धम्मिण्यात्मनि सिद्धे सति भवति, 'सति धम्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्त, इति वचनात् , स च प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरातीतत्वाद्दुरुपपादः, तथाहि-नासावध्यक्षेणार्थसाक्षात्कारिणा विषयीक्रियते, तस्यातीन्द्रियत्वाद् , अतीन्द्रियत्वं च स्वभावविप्रकृष्टत्वाद् , अतीन्द्रियत्वादेव च तदव्यभिचारिकार्यादिलिङ्गमम्बन्धग्रहणासम्भवात् नाप्यनुमानेन, तस्याप्रत्यक्षत्वे तवसामान्यग्रहणशक्त्यनुपपत्तेः नाप्युपमानेन, आगमस्यापि विवक्षायां प्रतिपाद्यमानायामनुमानान्तभवाद् अन्यत्र च बाह्यऽर्थे सम्बन्धाभावादप्रमाणत्वं, प्रमाणत्वे वा परस्परविरोधित्वान्नाप्यागमेन, तमन्तरेणापि सकलार्थोपपत्ते प्यर्थापत्या, तदेवं प्रमाणपश्चकातीतत्वात्षष्ठप्रमाणविषयत्वादभाव एवात्मनः । प्रयोगश्चायम्-नास्त्यात्मा,an प्रमाणपत्रकविषयातीतत्वात, खरविषाणवदिति, तदभावे च विशिष्टसंज्ञाप्रतिषेधाभावसम्भवेनानुत्थानमेव सूत्रस्येति, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३॥ एतत्सर्वमनुपासितगुरोर्वचः, तथाहि-प्रत्यक्ष एवात्मा, तद्गुणस्य ज्ञानस्य स्वसंविस्मिद्धत्वात् , स्वसंनिष्ठाश्च विषयव्यवस्थितयो, घटपटादीनामपि रूपादिगुणप्रत्यक्षत्वादेवाध्यक्षत्वमिति. मरणाभावप्रसङ्गाच्च न भूतगुणश्चैतन्यमाशङ्कनीयं, तेषां सदा सन्निधानसम्भवादिति, हेयोपादेय-परिहारोपादान-प्रवृत्तश्चानुमानेन परात्मनि सिद्धिर्भवतीति, एवमनयैव दिशोपमानादिकमपि स्वधिया स्वविषये यथासम्भवमायोज्यं, केवलं मौनीन्द्रेणानेनैवागमेन विशिष्टसंज्ञानिषेधद्वारेणाहमिति चात्मोन्लेखेनात्मसद्भावः प्रतिपादितः, शेषागमानां चानाप्तप्रणीतत्वादप्रामाण्यमेवेति । अत्र चास्त्यात्मेत्यनेन क्रियावादिनः सप्रमेदा नास्तीत्यनेन चाक्रियावादिन एतदन्तःपातित्वाच्चाज्ञानिकवनयिकाश्च सप्रभेदा उपक्षिप्ताः, ते चामी-'भसियसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई। अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥॥ तत्र जीवाजीवाश्रवन्धपुण्यपापसंवरनिर्जरामोक्षाख्या नव पदार्थाः स्वपरभेदाभ्यां नित्यानित्यविकल्पद्वयेन च कालनियतिस्वभावेश्वरात्माश्रयणादशीत्युत्तरं भेदशतं भवति क्रियावादिनाम्, एते चास्तित्ववादिनोऽभिधीयन्ते, इयमत्र भावना-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः १ अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः २ अस्ति जीवः परतो नित्यः कालतः ३ अस्ति जीवः परतोऽनित्यः कालतः ४ इत्येवं कालेन चत्वारो भेदा लब्धाः, एवं नियतिस्वभावेश्वरात्मभिप्यकेन चत्वारश्चत्वारो विकल्पा लभ्यन्ते, एते च पञ्च चतुष्कका विंशतिर्भवति, इयं च जीवपदार्थेन लब्धा, एवमजीवादयोऽप्यष्टौं प्रत्येक विंशतिभेदा भवन्ति, ततश्च नव विंशतयः शतमशीत्युत्तरं भवति १८० । तत्र स्वत इति 13 म्वनैव रूपेण जीवोऽस्ति, न परोपाध्यपेक्षया ह्रस्वत्वदीर्घत्वे इव, नित्यः-शाश्वतो न क्षणिकः, पूर्वोत्तरकालयोरवस्थि ॥३३॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वात् , कालत इति काल एव विश्वस्य स्थित्युत्पत्तिप्रलयकारणम्, उक्तं च-"काल: पचति भूतानि, कालः श्रीआचा पसंहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥१॥" स चातीन्द्रियो युगपच्चिरक्षिप्रक्रिया- व्ययन १ राङ्गवृत्तिः भिव्यङ्गयो हिमोष्णवर्षाव्यवस्थाहेतुः क्षणलवमुहूर्त-यामाहोरात्रपक्ष-मासतु अयन-संवत्सरयुगकल्प-पन्योपमसागरोपमो-उद्देशकः १ (शीलाङ्का.) त्सपिण्यवसर्पिणी-पुद्गलपरावर्तातीतानागतवर्तमान-सर्वाद्धादिव्यवहाररूपः १। द्वितीयविकल्पे तु कालादेवात्मनोऽस्तित्वमभ्युपेयं, किं त्वनित्योऽसाविति विशेषोऽयं पूर्वविकल्पात् २। तृतीयविकल्पे तु परत एवास्तित्वमभ्युपगम्यते, कथं पुनः परतोऽस्तित्वमात्मनोऽभ्युपेयते !, नन्वेतत्प्रसिद्धमेव सर्वपदार्थानां परपदार्थस्वरूपापेक्षया स्वरूपपरिच्छेदो, यथा दीर्घत्वापेक्षया ह्रस्वत्वपरिछेदो हस्वत्वापेक्षया च दीर्घत्वस्येति, एवमेव चानात्मनः स्तम्भकुम्भादीन् समीक्ष्य तद्वयतिरिक्ते वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्गत इति, अतो यदात्मनः स्वरूपं तत्परत एवावधार्यते न स्वत इति ३ । चतुर्थविकल्पोऽपि प्राग्वदिति चत्वारो विकल्पाः ४ । तथाऽन्ये नियतित एवात्मनः स्वरूपमवधारयन्ति, का पुनरियं नियतिरिति, उच्यते, पदार्थानामवश्यंतया यद्यथाभवने प्रयोजककी नियतिः, उक्तं च-"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥१॥" इयं च मस्करिपरिव्राण्मतानुसारिणी प्राय इति । अपरे पुनः स्वभावादेव संसारव्यवस्थामभ्युपयन्ति, कः पुनरयं स्वभावः ?, वस्तुनः स्वत एव तथापरिणतिभावः स्वभावः, उक्तं च-"कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं, ॥३४॥ विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥१॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H३५॥ स्वभावतः प्रवृत्तान, निवृत्तानां स्वभावतः। नाहं कतैति भूतानां, यः पश्यति स पश्यति ॥ २॥ केनाञ्जितानि नयनानि मृगागनानां, कोऽलङ्करोति रुचिरागाहान्मयूरान् । कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति, को वा करोति (दधाति) विनयं कुलजेषु पुस्सु ? ॥ ३॥" तथाऽन्येऽभिदधते-समम्तमेतज्जीवादीश्वरात्प्रसूतं, तस्मादेव स्वरूपेऽवतिष्ठते, कः पुनरयमीश्वरः ?, अणिमाद्यैश्वर्ययोगादीश्वरः, उक्तं च-"अज्ञो(न्यो) जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेच्छवभ्रं वा स्वर्गमेव वा ॥१॥" तथाऽन्ये व वते न जीवादयः पदार्थाः कालादिभ्यः स्वरूपं प्रतिपद्यन्ते, किं तर्हि १, आत्मनः, कः पुनरयमात्मा १, आत्माद्वैतवादिनां विश्वपरिणतिरूपः आत्मायत उक्तश्च-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥" तथा-"पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्य"मित्यादि । एवमस्त्यजीवः, स्वतः नित्यः कालत इत्येवं सर्वत्र योज्यम् ॥ तथा अक्रियावादिनो-नास्तित्ववादिनः, तेषामपि जीवजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाख्याः सप्त पदार्थाः स्वपरभेदद्वयेन तथा कालयदृच्छानियतिस्वभावेश्वरात्मभिः षभिश्चिन्त्यमानाश्चतुरशीतिविकन्पा भवन्ति, तद्यथा-नास्ति जीवाः स्वतः कालतः नास्ति जीवः परतः कालत इति कालेन द्वौ लब्धी, एवं यदृच्छानियत्यादिष्वपि द्वौ द्वौ भेदी प्रत्येकं भवतः, सर्वेऽपि जीवपदार्थे द्वादश भवन्ति, एवमजीवादिष्वपि प्रत्येक द्वादशैते, सप्त द्वादशकाश्चतुरशीतिरिति ८४ । अयमत्रार्थः-नास्ति जीवः स्वतः कालत इति, इह पदार्थानां लक्षणेन सत्ता निश्चीयते कार्यतो वा ?, न चात्मन ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३५॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्ययनं १ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.)। स्ताहगस्ति किञ्चिल्लक्षणं येन सत्ता प्रतिपद्यमहि, नापि कार्यमणुनामिव महीधादि सम्भवति, यच्च लक्षणकार्याभ्यां नाभिगम्यते वस्तु तन्नास्त्येव, वियदिन्दीवरवत् , तस्मानास्त्यात्मेति । द्वितीयविकल्पोऽपि यच्च स्वतो नात्मानं विभर्ति गगनारविन्दादिकं तत्परतोऽपि नास्त्येव, अथवा सर्वपदार्थानामेव परभागादर्शनात्सर्वार्वागभागसूक्ष्मत्वाचोभयानुपलब्धेः सर्वानुपलब्धितो नास्तित्वमध्यवसीयते, उक्तं च-यावद् दृश्यं परस्तावागः स च न दृश्यते" इत्यादि, तथा यदृच्छातोऽपि नास्तित्वमात्मनः, का पुनर्यदृच्छा ?, अनमिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिर्यदृच्छा, "अतर्कितोपस्थितमेव सर्व, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वथाऽभिमाना ॥१॥ सत्यं पिशाचाः स्म वने वसामो, भेरिं कराग्रैरपि न स्पशामः । यदृच्छया सियति लोकयात्रा, भेरी पिशाचाः परिताडयन्ति ॥ २॥" यथा काकतालीयमबुद्धिपूर्वक, न काकस्य बुद्धिरस्ति-मयि तालं पतिष्यति, नापि तालस्याभिप्रायः-काकोपरि पतिष्यामि, अथ च तत्तथैव भवति, एवमन्यदप्यतर्कितोपनतमजाकृपाणीयमातुरभेषजीयमन्धकण्टकीयमित्यादि द्रष्टव्यम् , एवं सर्व जातिजरामरणादिकं लोके यादृच्छिकं काकतालीयादिकल्पमवसेयमिति । एवं नियतिस्वभावेश्वरात्मभिरप्यात्मा निराकर्तव्यः॥ तथाऽज्ञानिकानां सप्तषष्टिर्भेदाः, ते चामी-जीवादयो नव पदार्था उत्पत्तिश्च दशमी सत् असद् सदसत् अवक्तव्यः सदवक्तव्यः असदवक्तव्यः सदसदवक्तव्यः इत्येतैः सप्तभिः प्रकारैर्विज्ञातुन.शक्यन्ते न च विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति, भावना चेयम्-सन् जीव इति को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन ?, असन् जीव इति को जानाति ? किं वा तेन ॥३६॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ज्ञातेनेत्यादि एवमजीवादिष्वपि प्रत्येक सप्त विकल्पाः, नव सप्तकाविषष्टिः, अमी चान्ये चत्वारस्त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्त. तद्यथा-सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? एवम सती सदसती अवक्तव्या भावोत्पत्तिरिति को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातयेति, शेषविकल्पत्रयमुत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोऽत्र न सम्भवतीति नोक्तम् , एतच्चतुष्टयप्रक्षेपात्सप्तपष्टिर्भवति । तत्र सन् जीव इति को वेत्ति ? इत्यस्यायमर्थ:-न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियान् जीवादीनवभोत्स्यते, न च तेतिः किश्चित्फलमस्ति, तथाहि--यदि नित्यः सर्वगतोऽमृत्तों ज्ञानादिगुणोपेत एतद्गुणव्यतिरिक्तो वा ? ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति, तस्मादज्ञानमेव श्रेयः । अपि च-तुल्येऽप्यपराधे अकामकरणे लोके स्वल्पो दीपो, लोकोत्तरेऽपि आकुट्टिकानाभोगसहसाकारादिषु चुल्लकभिक्षुस्थविरोपाध्यायमूरीणां यथाक्रममुत्तरोत्तरं प्रायश्चित्तमित्येवमन्ये ध्वपि विकल्पेष्वायोज्यम् ॥ तथा वैयिकानां द्वात्रिंशभेदाः, ते चानेन विधिना मावनीयाः-सुरनृपति-यतिज्ञाति-स्थविराधम-मातपितष्यष्टसु मनोवाकायप्रदान-चतुर्विधविनयकरणात् , तद्यथा-देवानां विनयं करोति मनसा वाचा कायेन तथा देशकालोपपन्नेन दानेनेत्येवमादि । एते च विनयादेव स्वर्गापवर्गमार्गमभ्युपयन्ति; नीचैर्वृत्त्यनुत्सकलक्षणो विनयः, सर्वत्र चैवंविधेन विनयेन देवादिषूपतिष्ठमानः स्वर्गापवर्गभाग् भवति, उक्त च-'विणयाउ णाणं णाणाओ दंसणं दंसणाओ चरणं च। चरणाहिंतो मोक्खो मोक्खे सोक्वं १ विनयात् ज्ञानं ज्ञानादर्शनं दर्शनात् (ज्ञानदर्शनाभ्यां ) चरणं च । चरणात् (ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यः ) मोक्षो मोक्षे सौख्यमनाबाधम् ।।१।। ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ ३७॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारावृत्तिः (शीलाका अध्ययनं १ उद्देशकः १ अणावाहं॥१॥" अत्र च क्रियावादिनामस्तित्वे सत्यपि केपाश्रित्सर्वगतो नित्योऽनित्यः कर्ताऽकर्ता मृतॊऽमृतः श्यामाक-तण्डुलमात्रोऽङ्गुष्ठपर्वमात्रो दीपशिखोपमो हृदयाधिष्ठान इत्यादिकः, अस्ति चौपपातिकश्च, अक्रियावादिनां त्वात्मैव न विद्यते, कुतः पुनरौपपातिकत्वम् ?, अज्ञानिकास्तु नात्मानं प्रति विप्रतिपद्यन्ते, किन्तु तज्ज्ञानमकिश्चित्करमेपामिति, वैनयिकानामपि नात्माऽस्तित्वे विप्रतिपत्तिः, किन्त्वन्यन्मोक्षसाधनं विनयाहते न सम्भवतीति प्रतिपन्नाः। तत्रानेन सामान्यात्मास्तित्वप्रतिपादनेनाक्रियावादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः, आत्मास्तित्वानभ्युपगमे च-शास्ता शास्त्रं शिष्यः प्रयोजनं वचनहेतुदृष्टान्ताः । सन्ति न शून्यं ब्रुवतस्तदभावाचाप्रमाणं स्यात् ॥ १॥ प्रतिषेण्डप्रतिषेधौ स्तश्चेच्छ्न्यं कथं भवेत्सर्वम् । तदभावेन तु सिडा अप्रतिषिडा जगत्यर्थाः ॥२॥" एवं शेषाणामप्यत्रैव यथासम्भवं निराकरणमुत्प्रेक्ष्यमिति ॥ ३ ॥ गतमानुषङ्गिक, प्रकृतमनुस्रियते-तत्रेह 'एवमेगेसि णो णायं भवई' इत्यनेन केषाश्चिदेव संज्ञानिषेधात्केषाश्चित्तु भवतीत्युक् भवति, तत्र सामान्यसंज्ञायाः प्रतिप्राणि सिद्धत्वातत्कारणपरिज्ञानस्य चेहाकिञ्चित्करत्वाद्विशिष्टसंज्ञायास्तु केषाश्चिदेव मावात् तस्याश्च भवान्तरगाम्यात्मस्पष्टप्रतिपादने सोपयोगित्वाद् सामान्यसंज्ञाकारणप्रतिपादनमनाइत्य विशिष्टसंज्ञायाः कारणं सूत्रकदर्शयितुमाह से जं पुण जाणेजा सह संमइयाए(इए) परवागरणेणं अण्णेसिं अंतिए वा सोचा, तंजहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाभो आगओ अहमंसि जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसि जं णायं भवति-अत्यि मे आया उववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुः wwwRANKAR Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३६ ॥ दिसाओ वा अणुसंचरह (अणुसंसरइ), सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ, सोऽह ॥ सू० ४ ॥ 'से जं पुण जाणेजत्ति सूत्रं यावत् सोऽह' मिति 'से' इति निर्देशो मागधशैल्या प्रथमैकवचनान्तः, स इत्यनेन च यः प्राग्निर्दिष्टो ज्ञाता विशिष्टक्षयोपशमादिमान् स प्रत्यवमृश्यते, यदित्यनेनापि यत्प्राग्निर्दिष्टं दिग्विदिगागमनं, तथा कोऽहमभृवमतीतजन्मनि देवो नारकस्तिर्यग्योनो मनुष्यों वा १ स्त्री पुमान्नषु सको वा ९ को वाऽमुतो मनुष्यजन्मनः प्रभ्रष्टोऽहं प्रेत्य देवा दिविष्यामीत्येतत्परामृश्यते, 'जानीयाद्' अवगच्छेद् इदमुक्तं भवति न कचिदनादौ संसृत पर्यटनमा दिगागमनादिकं जानीयात् यः पुनर्जानीयात्स एवं 'सह सम्मइयाए 'त्ति सहशब्दः सम्बन्धवाचा, सदिति प्रशंसायां मतिः - ज्ञानम्, अयपत्र वाक्यार्थः - आत्मना सह सदा या सन्मतिर्वर्त्तते तया सन्मत्या कविजानीते, सहशब्दविशेषणाच्च सदाऽऽत्मस्वभावत्वं मतेरावेदितं भवति, न पुनर्यथा वैशेषिकाणां व्यतिरिक्ता सती समवायवृत्त्याऽऽत्मनि समवेतेति । यदि वा 'सम्मइए' त्ति स्वकीयया मत्या स्वमत्येति, तत्र भिन्नमप्यश्वादिक स्वकीयं दृष्टमतः सहशब्दविशेषणं, सहशब्दश्चासमस्त इति, सत्यपि चात्मनः सदा मनिसन्निघाने प्रबलज्ञानावरणावृतत्वान्न सदा विशिष्टोऽवबोध इति सा पुनः सम्मतिः स्वमतिर्वा अवधिमनः पर्याय केवलज्ञानजातिस्मरणभेदाच्चतुर्विधा ज्ञेया, तत्रावधिमनः पर्याय केवलानां स्वरूपमन्यत्र विस्तरणोक्तं, जातिस्मरणं त्वाभिनिबोधिकविशेषः, तदेवं चतुर्विधया मत्याऽऽत्मनः कश्चिद्विशिष्टदिग्गत्यागती जानाति, कश्चिच्च परः - तीर्थकृत्सर्वज्ञः, तस्यैव परमार्थतः परशब्दवाच्यत्वात्परत्वं, तस्य तेन वा व्याकरणम्-उपदेशस्तेन जीवांस्तद्भेदश्चि पृथिव्यादीन् तद्गत्यागती च जानाति, अपरः पुनः 'अन्येषां ' ॥ ३६ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन श्रीआचाराङ्गवृत्तिः उद्देशकः १ (शीलाका.) तीर्थकर व्यतिरिक्तानामतिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानातीति, यच्च जानाति तत् सूत्रावयवेन दर्शयति तद्यथा-पूर्वस्या दिश आगतोऽहमस्मि, एवं दक्षिणस्याः पश्चिमायाः उत्तरस्या ऊर्ध्वदिशोऽधोदिशोऽन्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽऽगतोऽहमस्मीत्येवमेकेषां विशिष्टक्षयोपशमादिमतां तीर्थकरान्यातिशयज्ञानिवोधितानां च ज्ञातं भवति, तथा प्रतिविशिष्टदिगागमनपरिज्ञानानन्तरमेषामेतदपि ज्ञातं भवति-यथा अस्ति मेऽस्य शरीरकस्याधिष्ठाता ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण 'उपपादुको | भवान्तरसंक्रांतिभाग असर्वगतो भोक्ता मृत्तिरहितोऽविनाशी शरीरमात्रव्यापीत्यादिगुणवानात्मेति । स च द्रव्यकषाययोगोपयोगज्ञानदर्शनचारित्रवीर्यात्मभेदादष्टधा, तत्रोपयोगात्मना बाहूल्येनेहाधिकारः, शेषास्तु तदंशतयोपयुज्यन्त इति उपन्यस्ताः । तथा अस्ति च ममात्मा, योऽमुष्या दिशोऽनुदिशश्च सकाशाद् 'अनुसञ्चरति' गतिप्रायोग्यकर्मोपादानादनु-पश्चात सञ्चरत्यनुसश्चरति, 'पाठान्तरं' वा 'अणसंसरह'त्ति दिग्विदिशा गमनं भावदिगागमन वा स्मरतीत्यर्थः । साम्प्रतं सूत्रावयवेन पूर्वसूत्रोक्तमेवार्थमुपसंहरति-सर्वस्या दिशः सर्वस्याश्चानुदिशो य आगतोऽनुसश्चरति अनुसंस्मरतीति वा सः 'अहमित्यात्मोन्लेखः, अहंप्रत्ययग्राह्यत्वादात्मनः, अनेन पूर्वाद्याः प्रज्ञापकदिशः सर्वा गृहीताः भावदिशश्चेति । इममेवा) नियुक्तिकृद्दयितुमना गाथात्रितयमाहजाणइ सयं मईए अन्नेसिं वावि अन्तिए सोच्चा । जाणगजणपण्णविओ जीवं तह जीवकाए वा ॥४॥ इत्थ य सह संमइअत्ति जं एअंतत्थ जाणणा होई। ओहीमणपज्जवनाणकेवले जाइसरणे य ॥६५॥ परवइ वागरणं पुण जिणवागरणं जिणा परंनस्थि । अण्णेसिं सोच्चंतिय जिणेहिं सव्वो परो अण्णो॥६६॥ ॥४०॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४१ ॥ कश्चिदनादिसंसृत पर्यटन्नवध्यादिकयां चतुर्विधया स्वकीयया मत्या जानाति । अनानुपूर्वीन्यायप्रकटनार्थं पश्चादुपात्तमप्यन्येषामित्येतत्पदं तावदाचष्टे – 'अन्येषां वा' अतिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानाति तथा 'जाणगजणपण विओ' इत्यनेन परव्याकरणमुपात्तं, तेनायमर्थो - ज्ञापकः - तीर्थकृत्तत्प्रज्ञापितश्च जानाति, यज्जानाति तत् स्वत एव दर्शयति- सामान्यतो 'जीव' मिति, अनेन चाधिकृतोद्देशकस्यार्थाधिकारमाह, तथा 'जीवकार्याश्च' पृथ्वी कायादीन् इत्यनेन चोत्तरेषां पण्णामप्युद्देशकानां यथाक्रममधिकारार्थमाहेति, अत्र च 'सह सम्मइए' त्ति सूत्रे यत्पदं तत्र जाणणत्ति ज्ञानमुपात्तं भवति, 'मनि ज्ञाने' मननं मतिरितिकृत्वा तच्च किंभूतमिति दर्शयति – 'अवधिमनःपर्यायकेवलजातिस्मरणरूप' मिति, तत्रावधिज्ञानी संख्येयान संख्येयान्वा भवान् जानाति, एवं मनःपर्यायज्ञान्यपि केवलज्ञानी तु नियमतोऽनन्तान्, जातिस्मरणस्तु नियमतः संख्येयानिति, शेषं स्पष्टम् । अत्र च सहसम्मत्यादिपरिज्ञाने सुखप्रतिपत्यर्थं त्रयो दृष्टान्ताः प्रदर्शयन्ते, तद्यथा - वसन्तपुरे नगरे जितशत्रू राजा, धारणी नाम महादेवी, तयोर्द्धर्म्मरुच्यभिधानः सुतः, स च राजाऽन्यदा तापसत्वेन प्रव्रजितुमिच्छुर्द्धर्मरुचि राज्ये स्थापयितुमुद्यतः, तेन च जननी पृष्टा- किमिति तातो राज्यश्रियं त्यजति १, तयोक्तम्- किमनया चपलया नारकादिसकलदुःखहेतुभूतया स्वर्गापवर्गमार्गार्गलया अवश्यमपायिन्या परमार्थत इहलोकेऽप्यभिमानमात्र फलयेत्यतो (फलया चेत्यतो ) विहायैनां सकलसुखसाधनं धर्मं कर्त्तुमुद्यतः, धर्मरुचिस्तदाकण्यक्तवान्-यद्येवं किमहं तातस्यानिष्टो १ येनैवंभूतां सकलदोषाश्रयिणीं मयि नियोजयति, सकलकल्याणहेतोर्द्धर्मात्प्रच्यावयतीत्यभिधाय पित्राऽनुज्ञातस्तेन सह नापसाश्रममगात् तत्र च सकलास्तापसक्रिया यथोक्ताः पालयन्नास्ते, ॥ ४१ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राङ्गवृत्तिः (शीलाका. ॥४२॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अन्यदाऽमावास्यायाः पूर्वाहणे केनचित्ता(एकेन ता)पसेनो ष्टम्-यथा भो भोः तापसाः । श्वोऽनाकुट्टिभविता, - अतोऽद्यैव समित्कुसुमकुशकन्दफलमूलाद्याहरणं कुरुत, एतच्चाकर्ण्य धर्मरुचिना जनकः पृष्टः-तात ! केयमनाकुट्टिरिति, अध्ययनं. तेनोक्तम्-पुत्र ! कन्दफलादी(लतादी)नामच्छेदनं तद्धयमावास्यादिके विशिष्टे पर्वदिवसे न वर्त्तते, सावद्यत्वाच्छेदनादि उद्देशकः?' क्रियायाः, श्रुत्वा चैतदमावचिन्तयत्-यदि पुनः सर्वदाऽनाकुट्टिः स्याच्छोभनं भवेद् , एवमध्यवसायिनस्तस्यामावास्याय तपोवनासन्नपथेन गच्छनां साधूनां दर्शनमभूत् , ते च तेनाभिहिताः-किमद्य भवतामनाकुट्टिन सञ्जाता ? येनाटवीं प्रस्थिताः, तैरप्यभिहितम्-'यथाऽस्माकं यावज्जीवमनाकुट्टि'रित्यभिधायातिक्रान्ताः साध्वः, तस्य च तदाकयेहापोहविमर्शन जातिस्मरणमुत्पन्न-यथाऽहं जन्मान्तरे प्रव्रज्यां कृत्वा देवलोकसुखमनुभूयेहागत इति, एवं तेन विशिष्टदिगागमनं स्त्रमत्या-जातिस्मरणरूपया विज्ञातं, प्रत्येकबुद्धश्च जातः, एवमन्येऽपि कल्कलचीरिश्रेयांसप्रभृतयोऽत्र योज्या इति । परव्याकरणे विदमुदाहरणम्-गौतमस्वामिना भगवान्बर्द्धमानस्वामी पृष्टो-भगवन् ! किमिति मे केवलज्ञानं नोत्पद्यते ? भगवता व्याकृतं-भो गौतम ! भवतोऽतीव ममोपरि स्नेहोऽस्ति, तद्वशात् , तेनोक्तम्-भगवन्नेवमेवं-al (मेतत् ), किनिमित्तः पुनरसौ मम भगवदुपरि स्नेहः १ ततो भगवता तस्य बहुषु भवान्तरेषु पूर्वसम्बन्धः समावेदितः। 'चिरसंसिट्ठोऽसि मे सोयमा ! चिर परिचिओऽसि मे गोयमे'त्येवमादि, तच्च तीर्थद्वयाकरण(कृत्प्रतिपादित) | माकर्ण्य गौतमस्वामिनो विशिष्टदिगागमनादिविज्ञानमभूदिति । अन्यश्रवणे विदमुदाहरणम्-मल्लिस्वामिना पण्णां । १ चिरसंसृष्टोऽसि मया गौतम ! चिरपरिचितोऽसि मम गौतम ! ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ १२ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपुत्राणामुद्वाहार्थमागतानामवधिज्ञानेन तत्प्रतिबोधनार्थ यथा जन्मान्तरे सहितैरेव प्रव्रज्या कृता, यथा च तत्फलं देवलोके जयन्ताभिधानविमानेऽनुभृतं तथाऽऽख्यातं, तच्चाकर्ण्य ते लघुकर्मत्वात्प्रतिबुद्धा विशिष्टदिगागमनविज्ञानं च सञ्जातं, उक्तं च-"किं थ(च)तयं पम्हु जं च तया भो! जयंतपवरंमि । वुच्छा समयनिवड देवा ! णं संभरह जाति ॥१॥ इति गाथात्रयतात्पर्य्यार्थः ॥ ४ ॥ साम्प्रतं प्रकृतमनुस्रियते-यो हि सोऽहमित्यनेनाहङ्कारज्ञानेनात्मोल्लेखेन पूर्वादेर्दिश आगतमात्मानमविच्छिन्नसंततिपांततं द्रव्यार्थतया नित्यं पर्यायार्थतया त्वनित्यं जानाति स परमार्थतः आत्मवादीति सूत्रकृद्दर्शयति से आयावादो लोयावादी कम्मावादो किरियावादी ॥ सू०५॥ 'स' इति यो भ्रान्तः पूर्व नारकतिर्यग्नरामराद्यासु भावदिक्षु पूर्वाद्यासु च प्रज्ञापकदिक्षु अक्षणिकामूर्तादिलक्षणोपेतमात्मानमवैति( वेत्ति), स इत्थंभूतः 'आत्मवादी'ति आत्मानं वदितु शीलमस्येति, यः पुनरेवंभूतमात्मानं नाम्धुप- । गच्छति सोऽनात्मवादी नास्तिक इत्यर्थः। योऽपि सर्वव्यापिनं नित्यं क्षणिकं वाऽऽत्मानमभ्युपैति सोऽप्यनात्मवाद्येव, यतः सर्वव्यापिनो निष्क्रियत्वाद्भवान्तरसंक्रान्तिनं स्यात् , सर्वथा नित्यत्वेऽपि 'अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं नित्यमितिकृत्वा मरणाभावेन भवान्तरसंक्रान्तिरेव न स्यात् , सर्वथा क्षणिकत्वेऽपि निमलविनाशात्सोऽहमित्यनेन पूर्वोत्तरानुसन्धानं न स्यात् । य एव चात्मवादी स एव परमार्थतो लोकवादी, यतो लोकयतीति लोकः-प्राणिगणस्तं १ किमथ तद्विस्मृतं यच्च तदा मो जयन्तप्रवरे । उषिताः निबद्धसमयं देवास्तां स्मरत जातिम॥१॥ ॥४३॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ॥४४॥ वदितुशील मस्येति, अनेन चात्माद्वैतवादिनिरासेनात्मबहुत्वमुक्तं, यदिवा 'लोकापाती'ति लोकः-चतुर्दशरज्ज्वात्मकः प्राणिगणो वा, तत्रापतितुशीलमस्येति, अनेन च विशिष्टाकाशखण्डस्य लोकसंज्ञाऽऽवेदिता, तत्र च(तत्रैव) जीवास्ति अध्ययन कायस्य सम्भवेन जीवानां गमनागमनमावेदितं भवति, य एव च दिगादिगमनपरिज्ञानेनात्मवादी लोकवादी च संवृत्तः, उद्देशकः १ स एवासुमान् 'कर्मवादी' कर्मज्ञानावरणीयादि तद्वदितु शीलमस्येति, यतो हि प्राणिनो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगैः पूर्व गत्यादियोग्यानि कर्माण्यददते, पश्चात्तासु तासु विरूपरूपासु योनिषूत्पद्यन्ते, कर्म च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकमवसेयमिति । अनेन च कालयदृच्छानियतीश्वरात्मवादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः। तथा य एव कर्मवादी स एव क्रियावादी, यतः कर्म योगनिमित्तं बध्यते, योगश्च व्यापारः, स च क्रियारूपः, अतः कर्मणः कार्यभृतस्य वदनातत्कारणभृतायाः क्रियाया अप्यसावेव परमार्थतो वादीति, क्रियायाश्च कर्मनिमित्तत्वं प्रसिद्धमागमे, स चायमागमः"'जाव णं भंते ! एस जीवे सया समियं एयइ वेयइ चलति फंदति घट्टति तिप्पति जाव तं तं भावं परिणमति तावं च णं अविहवंधए वा सत्तविहबंधए वा छविहबंधए वा एगविहबंधए वा, णो णं अपंधए"ति, एवं च कृत्वा य एंव कर्मवादी स एव क्रियावादीति, अनेन च सांख्याभिमतमात्मनोऽक्रियावादित्वं निरस्तं भवति ॥ ५॥ साम्प्रतं वोक्ता क्रियामात्मपरिणतिरूपां विशिष्टकालाभिधायिना तिङ्प्रत्ययेनाभिदधदहंप्रत्यय१ यावद् भदन्त ! एष जीवः सदा समितमेजते व्येजते चलति स्पन्दते तिप्यति यावत् तं तं भावं परिणमति तावञ्च अष्टविध ॥४४॥ बन्धको वा सप्तविधबन्धको वा षड्विधबन्धको वा एकविधबन्धको वा, नाबन्धकः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५॥ साध्यस्यात्मनस्तद्भव एवावधिमनःपर्यायकेवल ज्ञानजातिस्मरणव्यतिरेकेणैव त्रिकालसंस्पर्शिना मतिज्ञानेन सद्भावावगमं दर्शयितुमाह अकरिस्सं चऽहं, कारवेसुचऽहं, करओ आवि समणुन्ने भविस्सामि ॥ सू०६॥ इह भृतवर्तमानभविष्यत्कालापेक्षया कृतकारितानुमतिभिनव विकल्पाः संभवन्ति, ते चामी-अहमकार्षमचीकरमहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञासिषमहं करोमि कारयाम्यनुजानाम्यहमिति करिष्याम्यहं कारयिष्याम्यहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञास्याम्यहमिति, एतेषां च मध्ये आद्यन्तौ सूत्रेणेवोपात्तौ, तदुपादानाच्च तन्मध्यपातिनां सर्वेषां ग्रहणम् , अस्यैवार्थस्याविष्करणाय द्वितीयो विकल्पः 'कारवेसुचाह मिति सूत्रणोपात्तः, एते च 'चकारद्वयोपादानादपिशब्दोपादानाच्च मनोवाकयैश्चिन्त्यमानाः सप्तविंशतिर्भदा भवन्ति, अयमत्र भावार्थः-अकार्षमहमित्यत्राहमित्यनेनात्मोल्लेखिना विशिष्टक्रियापरि तिरूप आत्माऽभिहितः, ततश्चायं भावार्थो भवति–स एवाहं येन मयाऽस्य देहादेः पूर्व यौवनावस्थायामिन्द्रियवशगेन | विषयविषमोहितान्धचेतसा तत्सदकार्यानुष्ठानपरायणेनाऽऽनुकूल्यमनुष्ठितम् , उक्तं च-विहवावलेवनडिएहिं जाई कीरंति जोव्वणमएणं । वयपरिणामे सरियाई ताईहियए खुडक्कंति ॥१॥" तथा 'अचीकरमह'मित्यनेन परोऽकार्यादौ प्रवर्त्तमानो मया प्रवृत्ति कारितः, तथा कुर्वन्तमन्यमनुज्ञातवानित्येवं कृतकारितानुमतिभिर्भूत ॥४५॥ १ चकारद्वयापिशब्दोपादानान्मनो० प्र० २ विभवावलेपनटितर्यानि क्रियन्ते यौवनमदेन । वयःपरिणामे स्मृतानि तानि हृदये शल्यायन्ते ॥१॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ४६ ॥ कालाभिधानं, तथा 'करोमी' त्यादिना वचनत्रिकेण वर्त्तमानकालोल्लेखः, तथा करिष्यामि कारयिष्यामि कुर्वतोऽन्यान् प्रति समनुज्ञापरायणो भविष्यामीत्यनागतकालोल्लेखः, अनेन च कालत्रयसंस्पर्शेन देहेन्द्रियातिरिक्तस्यात्मनो भूतवर्त्तमान भविष्यत्कालपरिणतिरूपस्यास्तित्वावगतिरावेदिता भवति, सा च नैकान्तक्षणिक नित्यवादिनां सम्भवतीत्यतोऽनेन ते निरस्ताः क्रिया परिणामेनात्मनः परिणामित्वाभ्युपगमादिति, एतदनुसारेणैव सम्भवानुमानादतीतानागतयोरपि भवयोरात्मास्तित्वमव सेयम् । यदिवा - अनेन क्रियाप्रबन्धप्रतिपादनेन कर्मण उपादानभूतायाः क्रियायाः स्वरूपमा वेदितमिति ॥ ६ ॥ अथ किमेतावत्य एव क्रिया उतान्या अपि सन्तीति एता एवेत्याह एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवति ॥ सू० ७ ॥ 'एयावंती' स्यादि एतावन्तः सर्वेऽपि 'लोके' प्राणिसङ्घाते 'कर्म्मसमारम्भाः क्रियाविशेषा ये प्रागुक्ताः अतीतानागतवर्त्तमानभेदेन कृतकारितानुमतिभिश्व अशेषक्रियानुयायिना च करोतिना सर्वेषां सङ्ग्रहादिति, एतावन्त एव परिज्ञातव्या भवन्ति नान्य इति । परिज्ञा च ज्ञप्रत्याख्यान भेदाद्विधा, तत्र ज्ञपरिज्ञयाऽऽत्मनो बन्धस्य चास्तित्वमेतावद्भिरेव सर्वैः कर्म्मसमारम्भैज्ञतं भवति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सर्वे पापोपादानहेतवः कर्म समारम्भाः प्रत्याख्यातव्या इति । इयता सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाधितमधुना तस्यैवात्मनो दिगादिभ्रमणहेतूपदर्शन पुरस्सरमपायान् प्रदर्शितुमाहयदिवा यस्तावदात्मकर्मादिवादी सदिगदिभ्रमणान्मोक्ष्यते, इतरस्य तु विपाकान् दर्शयितुमाह अपरिण्णायकम्मे खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिशाओ अणुदिसाओ अणुसंचरह, अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ ४६ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४७॥ सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणदिसाओ साहेति ॥ सू०८॥ 'अपरिणाये'त्यादि योऽयं पुरि शयनात्पूर्णः सुखदुःखाना वा पुरुषो-जन्तुर्मनुष्यो वा, प्राधान्याच पुरुषस्योपादानम् , उपलक्षणं चैतत् , सर्वोऽपि चतुर्गत्यापन्नः प्राणी गृह्यते, दिशोऽनुदिशो वाऽनुसञ्चरति सः 'अपरिज्ञातकर्मा' अपरिज्ञातं कर्मानेनेत्यपरिज्ञातकर्मा, खलुरवधारणे, अपरिज्ञातकर्मैव दिगादौ भ्राम्यति, नेतर इति, उपलक्षणं चैतद् , अपरिज्ञातात्मापरिज्ञातक्रियश्चेतिः यश्चापरिज्ञातकर्मा स सर्वा दिशः सर्वाश्चानुदिशः 'साहेति' स्वयंकृतेन कर्मणा सहानुसञ्चरति, सर्वग्रहणं सर्वासां प्रज्ञापकदिशा भ वदिशां चोपसङ्ग्रहार्थम् ॥ ८॥ स यदामोति तदर्शयति अणेगरूवाओ जोणोओ संधेइ (संधावइ), विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेह ॥ सू०९॥ अनेक संकटविकटादिकं रूपं यास तास्तथा, यौति-मिश्रीभवत्यौदारिकादिशरीरवर्गणापुद्गलैग्सुमाम् यासु ता योनयः-प्राणिनामुत्पत्तिस्थानानि, अनेकरूपत्वं चासां संवृतविवृतोभयशीतोष्णोमयरूपतया, यदिवा चतुरशीतियोनिलक्षभेदेन, ते चामी चतुरशीतिलक्षाः-''पुढवीजलजलणमारुय एक्केक्के सत्त सत्त लक्खाओ। वण पत्तय अणते दस चोद्दस जोणिलक्खाओ ॥ १ ॥ विगलिंदिएम दो दो चउरो चउरो य णारयसुरेसु। तिरिएस टुति चउरो चोद्दस लक्खा य मणुएसु ॥२॥ तथा शुभाशुमभेदेन योनीनामनेकरूपत्वं गाथाभिः प्रदर्श्यते १ पृथ्वीजलज्वलनमारुतेषु एकैकस्मिन् सप्त सप्त लक्षाः। प्रत्येकवने अनन्ते दश चतुर्दश योनिलक्षाः॥१॥ विकलेन्द्रियेषु ? चतसश्चतस्रश्च नारकसुरेषु । तिरश्चि भवन्ति चतस्रश्चतुर्दश लक्षाश्च मनुष्येषु ॥२॥ ॥४७॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ "सीयादी जीणीओ चउरासीती य सयसहस्साई। असुभाओ य सुभाओ तत्थ सुभाओ इमा जाण |॥१॥ अस्संखाउमणस्सा राईसर संखमादिआऊणं । तित्थगरनामगोत्तं सवसुहं होइ नायव्वं ॥२॥ तत्थवि य जाइसंपन्नतादि सेसाउ हुँति असुभाओ। देवेसु किव्विसादी सेसाओहुति उ सुभाओ ॥३॥ पंचिंदियतिरिएम हयगयरयणे हवंति उ सुभाओ। सेसाओ अ सुभाओ सुभवण्णेगिंदियादीया ॥४॥ देविंदचकवहित्तणाई मोत्तच तित्थगरभावं । अणगारभाविताविय सेसा उ अणंतसो पत्ता ॥ ५॥ एताश्चानेकरूपा योनिर्दिगादिषु पर्यटनपरिज्ञातकर्माऽसुमान् 'संधेइ'त्ति सन्धयति-सन्धि करोत्यात्मना, सहाविच्छेदेन संघट्टयतीत्यर्थः, 'संधावइति वा पाठान्तरं, 'सन्धावति' पौनःपुन्येन तासु(ताः) गच्छतीत्यर्थः, तत्सन्धाने च यदनुभवति तदर्शयति-विरूपं-बीभत्सममनोज्ञं रूपं-स्वरूपं येषां स्पर्शानां दुःखोपनिपाताना ते तथा, स्पर्शाश्रिता दुःखोपनिपाताः स्पर्शा इत्युक्ताः, 'तास्थ्यात्तव्यपदेश' इतिकृत्वा, उपलक्षणं चैतन्मानस्योऽपि वेदना ग्राह्याः, अतस्तानेवम्भूतान् स्पर्शान् 'प्रत्तिसंवेदयति' अनुभवति, प्रतिग्रहणात्प्रत्येकं शरीरान्मानसांश्च दुःखो ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ १ शीताद्या योनयश्चतुरशीतिश्च शतसहस्राणि । अशुभाः शुभाश्च तत्र शुभा इमा जानीहि ॥ १ ॥ असंख्यायुमनुष्याः संख्यायुष्काणां राजेश्वराद्याः। तीर्थकस्नामगोत्रं सर्वशुभं भवति ज्ञातव्यम् ॥ २॥ तत्रापि च जातिसम्पन्नताद्याः शेषा भवन्त्यशुमाः। देवेषु किल्बिषाद्याः शेषा भवन्ति च शुमाः ।। ३ ।। पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु हयगजरत्नयोर्भवति शुमा । शेषाश्च शुभाः शुमवणे केन्द्रियाद्याः ॥४॥ देवेन्द्रचक्रवर्तित्वे मुक्त्वा तीर्थकरमावं च । भावितानगारतामपि च शेषास्त्वनन्तशः प्राप्ताः ।।५।। Blug८॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४ ॥ पनिपाताननुभवतीत्युक्तं भवति, स्पर्शग्रहणं चेह सर्वसंसारान्तर्वर्तिजीवराशिसङ्ग्रहार्थ', स्पर्शनेन्द्रियस्स सर्वजीवव्यापित्वाद, अ(त)त्रेदमपि वक्तव्यं-सर्वान्विरूपरूपान् रसगन्धरूपशब्दान् प्रतिसंवेदयतीति, विरूपरूपत्वं च स्पर्शानां कार्यभूतानां विचित्रकर्मोदयात्कारणभृताद्भवतीति वेदितव्यं, विचित्रकर्मोदयाच्चापरिज्ञातकर्मा संसारी स्पर्शादीन्विरूपरूपांस्तेषु तेषु योन्यन्तरेषु विपाकतः परिसंवेदयतीति, आह च-"तः कमभिः स जीवो विवशः संसारचक्रमुपयाति । द्रव्यक्षेत्राडाभावभिन्नमावर्त्तते बहुशः ॥१॥ नरकेषु देवयोनिषु तिर्यग्योनिषु च मनुजयोनिषु च । पर्यटति घटीयन्त्रवदात्मा बिभ्रच्छरोराणि ॥ २॥ सततानुषडमुक्तं दुःखं नरकेषु तीनपरिणामम् । निर्यक्षु भयनुत्तुड्वधादिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥ ३॥ सुखदुःखे मनुजानां मनःशरीराश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव हि देवाना दुःखं स्वल्पं च मनसि भवम् ॥ ४ ॥ कर्मानुभावदुःखित एवं मोहान्धकारगहनवति । अन्ध इव दुर्गमार्गे भ्रमति हि संसारकान्तारे ॥ ५॥ दु:खप्रतिक्रियार्थ सुखाभिलाषाच पुनरपि तु जीवः । प्राणिवधादीन दोषानधितिष्ठति मोहसंछन्नः ॥६॥ बध्नाति ततो बहविधमन्यत्पुनरपि नवं सुबहु कर्म । तेनाथ पच्यते पुनरग्नेरग्नि प्रविश्येव ॥७॥ एवं कर्माणि पुनः पुनः स बध्नस्तथैव मुञ्चश्च । सुखकामो बहुदुःखं संसारमनादिकं भ्रमति ॥ ८॥ एवं भ्रमतः संसारसागरे दुर्लभं मनुष्यत्वम् । ससारमहत्त्वाधार्मिकत्वदुष्कर्मबाहुल्यैः ॥ ९॥ आर्यो देशः कुलरूपसम्पदायुश्च दीर्घमारोग्यम् । यतिसंसर्गः श्रद्धा धर्मश्रवणं च मनितक्ष्ण्यम् ॥ १० ॥ एतानि दुर्लभानि प्राप्त ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४४॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥५०॥ वतोऽपि दृढमोहनीयस्स । कुपथाकुलेऽहंदुक्तोऽतिदुर्लभो जगति सन्मार्गः ॥ ११॥" यदि वा योऽयं । अध्ययनं १ पुरुषः सर्वा दिशोऽनुदिशश्चानुसञ्चरति तथाऽनेकरूपा योनीः सन्धावति विरूपरूपांश्च स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति, सः 'अविज्ञातकर्मा' अविज्ञातम्-अविदितं कर्म-क्रिया व्यापारो मनोवाकायलक्षणः, अकार्षमहं करोमि करिष्यामीत्येवंरूपः उद्देशकः १ जीवोपमर्दात्मकत्वेन बन्धहेतुः सावधो येन सोऽयमविज्ञातकर्मा, अविज्ञातकर्मत्वेन च तत्र तत्र कर्मणि जीवोपमर्दादिके प्रवर्त्तते येन येनास्याष्टविधकर्मबन्धो भवति, तदुदयाच्चानेकरूपयोन्यनुसन्धान विरूपरूपस्पर्शानुभवश्च भवतीति ।। ६॥ यद्येवं ततः किमित्यत आह तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइआ॥ सू० १०॥ 'तत्र' कर्मणि ब्यापारे अकामहं करोमि करिष्यामीत्यात्मपरिणतिस्वभावतया मनोवाक्कायव्यापाररूपे 'भगवता' वीरवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा सा प्रकर्षेण प्रशस्ताऽऽदौ वा वेदिता प्रवेदिता, एतच्च सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनाम्ने कथयति, सा च द्विधा-ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च, तत्र ज्ञपरिज्ञया सावधव्यापारेण बन्धो भवतीत्येवं । भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सावद्ययोगा बन्धहेतवः प्रत्याख्येया इत्येवंरूपा चेति ॥ अमुमेवार्थ नियुक्तिकृदाहतत्थ अकारि करिस्संति पंधचिंता कया पुणो होइ । सहसम्मइया जाणइ कोइ पुण हेतुजुत्तीए ॥ ६७॥in ॥५०॥ 'तत्र' कर्मणि क्रियाविशेषे, किम्भूत इत्याह-'अकारि करिस्संति' अकारीति कृतवान् करिस्सन्ति-करिष्यामीति, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अनेनातीतानागतोपादानेन तन्मध्यवर्तिनो वर्तमानस्य कारितानुमत्योचोपसङ्ग्रहान्नवापि भेदा आत्मपरिणामत्वेन योगरूपा उपात्ता द्रष्टव्याः, तत्रानेनात्मपरिणामरूपेण क्रियाविशेषेण 'चन्धचिन्ता कृता भवति' बन्धस्योपादानमुपातं भवति, 'कर्म योगनिमित्तं बध्यते' इति वचनात् , एतच्च कश्चिजानाति आत्मना सह या सन्मतिः स्वमतिर्वा-अवधिमनःपर्यायकेवलजातिस्मरणरूपा तया जानाति, कश्चिच्च पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणया हेतुयुत्तयेति । अथ किमर्थमसौ कटुकविपाकेषु कर्माश्रवहेतुभूतेषु क्रियाविशेषेषु प्रवत्तत इत्याहइमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमो(भो)यणाए दुक्खपडिघायहे ॥ सू०११॥ तत्र जीवितमिति-जीवन्त्यनेनायुःकर्मणेति जीवितं-प्राणधारणम्, तच्च प्रतिप्राणि स्वसंविदितमितिकृत्वा प्रत्यक्षासनवाचिनेदमा निर्दिशति, चशब्दो वक्ष्यमाणजात्यादिसमुच्चयार्थः, एवकारोऽवधारणे, अस्यैव जीवितस्यार्थे परिफल्गुसारस्य तडिल्लताविल सितचञ्चलस्य बद्दपायस्य दीर्घसुखार्थ क्रियासु प्रवर्तते, तथाहि-जीविष्याम्यहमरोगः सुखेन भोगान् भोक्ष्ये ततो व्याध्यपनयनाथ स्नेहापानलावकपिशितभक्षणादिषु क्रियासु प्रवर्तते, तथाऽल्पस्य सुखस्य कृते अभिमानग्रहाकुलितचेता बह्वारम्भपरिग्रहाद्वह्वशुभं कर्मादत्ते, उक्तं च-"वे वाससी प्रवरयोषिदपायशुद्धा, शय्याऽऽसनं करिवरस्तुरगो रथो वा। काले भिषग्नियमिताशनपानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वमवेहि शेषम् ॥ १॥ पुष्टयर्थमन्नमिह यत्प्रणिधिप्रयोगः, संत्रासदोषकलुषो नपतिस्तु भुकते। यनिर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्च भैक्षं, तत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवान्नम् ॥२॥ भृत्येषु मन्त्रिषु, सुतेषु ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ -॥५१॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥५२॥ मनोरमेषु, कान्तासु वा मधुमदाङकुरितेक्षणासु। विश्रम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, सर्वाभिशडितमतेः कतरत्तु सौख्यम् ॥ ३॥" तदेवमनवबुद्धतरुणकिशलयपलाशचञ्चलजीवितरतयः कर्माश्रवेषु जीवितो अध्ययनं १ पमर्दादिरूपेषु प्रवर्तन्ते, नथाऽस्यैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ हिंसादिषु प्रवर्तन्ते, तत्र परिवन्दनं' संस्तवः उद्देशकः १ प्रशंसा तदर्थमाचेष्टते, तथाहि-अहं मयूरादिपिशिताशनाद्वली तेजसा देदीप्यमानो देवकुमार इव लोकानां प्रशंसास्पदं । भविष्यामीति माननम्' अभ्युत्थानासनदानाञ्जलिप्रग्रहादिरूपं तदर्थ वा चेष्टमानः कर्माचिनोति तथा पूजनं पूजाद्रविणवस्त्रानपानसत्कारप्रणामसेवाविशेषरूपं तदर्थ च प्रवर्त्तमानः क्रियासु कर्माश्रवैरात्मानं सम्भावयति, तथाहि'वीरभोग्या वसुन्धरे'ति मत्वा पराक्रमते, दण्डभयाच मर्या प्रजा बिभ्यतीति दण्डयति, इत्येवं राज्ञामन्येषामपि यथासम्भवमायोजनीयम्, अत्र च वन्दनादीनां द्वन्द्वसमासं कृत्वा तादयें चतुर्थी विधेया, परिवन्दनमाननपूजनाय जीवितस्य कर्माश्रवेषु प्रवर्त्तन्त इति समुदायार्थः । न केवलं परिवन्दनाद्यर्थमेव कर्मादत्ते, अन्यार्थमप्यादत्त इति दर्शयतिजातिश्च मरणं च मोचनं च जातिमरणमोचनमिति समाहारद्वन्द्वात्तादर्थ्य चतुर्थी, एतदर्थ च प्राणिनः क्रियासु प्रवर्त्तमानाः कर्माददते, तत्र जात्यर्थ'क्रौञ्चारिवन्दनादिकाः क्रिया विधत्ते, तथा यान यान् कामान् ब्राह्मणादिभ्यो ददाति 8 तांस्तानन्यजन्मनि पुनर्जातो मोक्ष्यते, तथा मनुनाऽप्युक्तम्-'वारिदस्तप्तिमाप्नोति, सुखमक्षयमन्नदः । तिलपदः प्रजामिष्टामायुष्कमभयप्रदः ॥११॥" अत्र चैकमेव सुभाषितम्-'अभयप्रदान' मिति तुषमध्ये कणि१ कार्तिकेयः ॥५२॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३॥ कावदिति, एवमादिकुमार्गोपदेशाद्धिसादौ प्रवृतिं विदधाति । तथा मरणार्थमपि पितृपिण्डदानादिषु क्रियासु प्रवर्तते, यदिवा ममानेन सम्बन्धी व्यापादितस्तस्य वैरनिर्यातनार्थ वधबन्धादी प्रवर्तते, यदिवा मरणनिवृत्त्यर्थमात्मनो दुर्गाद्यपयाचितमजादिना बलिं विधत्ते यशोधर इव पिष्टमयकुक्कुटेन, तथा मुक्त्यर्थम(मोक्षाया)ज्ञानावृतचेतसः पञ्चाग्नितपोऽनुष्ठानादिकेषु प्राण्युपमईकारिपु प्रवर्त्तमानाः कर्माददते, यदिवा जातिमरणयोर्विमोचनाय हिंसादिकाः क्रिया: कुर्वते । 'जाइमरणभोयणाए'त्ति वा पाठान्तरं, तत्र भोजनार्थ कृष्यादिकर्मसु प्रवर्त्तमाना वसुधाजलज्वलनपवनवनस्पतिद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियच्यापत्तये व्याप्रियन्त इति । तथा दुःखप्रतिघातमुररीकृत्यात्मपरित्राणार्थमारम्भानासेवन्ते, तथाहि-व्याधिवेदनात लावकपिशितमदिराद्यासेजन्ते, तथा वनस्पतिमूलत्वपत्रनिर्यासादिसिद्धशतपाकादितैलार्थमग्न्यादिसमारम्भेण पापं कुर्वन्ति स्वतः कारयन्त्यन्यैः कुर्वतोऽन्यान् समनुजानत इत्येवमतीतानागतकालयोरपि मनोवाकाययोगैः कर्मादानं विदधतीत्यायोजनीयम् । तथा दुःखप्रतिघातार्थमेव सुखोत्पत्त्यर्थं च कलत्रपुत्रगृहोपस्कराद्याददते, तल्लाभपालनार्थं च तासु तासु क्रियासु प्रवर्तमानाः पापकर्मासेवन्त इति, उक्तं च-"आदौ प्रतिष्ठाऽधिगमे प्रयासो, दारेषु पश्चादुगृहिणः सुतेषु । कत्तु पुनस्तेषु गुणप्रकर्ष, चेष्टा तदुच्चैःपदलङ्घनाय ॥१॥" तदेवंभूतैः क्रियाविशेषैः कर्मोपादाय नानादिक्ष्वनुसञ्चरन्ति अनेकरूपासु च योनिषु सन्धावन्ति विरूपरूपांश्च स्पर्शान प्रतिसंवेदयन्ति, इत्येतज्ज्ञात्वा क्रियाविशेषनिवृत्तिर्विधेयेति ॥ ११॥ एतावन्त एव च क्रियाविशेषा इति दर्शयितुमाह एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति ॥ सू० १२ ॥ ܚ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥५३॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ५४ ॥ 'एआवन्ती सव्वावन्ती' ति एतौ द्वौ शब्दौ मागधदेशी भाषाप्रसिद्ध्या एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत्पर्यायौ, एतावन्त एव सर्वस्मिन् 'लोके' धर्माधर्मास्तिकायावच्छिन्ने नभःखण्डे ये पूर्व प्रतिपादिताः 'कर्म्मसमारम्भाः' क्रियाविशेषाः, नैतेभ्योऽधिकाः केचन सन्तीत्येवं परिज्ञातव्या भवन्ति, सर्वेषां पूर्वत्रोपादानादिति भावः तथाहि - आत्मपरोभयैहिकामुष्मिकातीतानागतवर्त्तमानकालकृतकारितानुमतिभिरारम्भाः क्रियन्ते ते च सर्वेऽपि प्रागुपात्ता यथासम्भवमायोज्या इति ॥ १२ ॥ एवं सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाध्य तदुपमर्द्दकारिणां च क्रियाविशेषाणां बन्धहेतुत्वं प्रदश्यपसंहारद्वारेण विरतिं प्रतिपादयन्नाहजस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति से ह मुणी परिण्णायकम्मे तिबेमि ॥ सू० १३ ॥ ॥ इति प्रथमाध्ययने प्रथमो उद्देशकः ॥ १-१ ॥ भगवान् समस्तवस्तुवेदी केवलज्ञानेन साचादुपलभ्यैवमाह - 'यस्य' मुमुक्षोः 'एते' पूर्वोक्ताः 'कर्मसमारम्भाः ' क्रिया-विशेषाः कर्मणो वा - ज्ञानावरणीयाद्यष्टप्रकारस्य समारम्भा उपादान हेतवस्ते च क्रियाविशेषा एव परि-समन्तात् ज्ञाताः - परिच्छिन्नाः कर्मबन्धहेतुत्वेन भवन्ति, हुरवधारणे, मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः स एव मुनिर्झपरिज्ञया परिज्ञातकर्मा प्रत्याख्यान परिज्ञया च प्रत्याख्यात कर्म्मबन्धहेतुभूतसमस्त मनोवाक्कायव्यापार इति, अनेन च मोक्षाङ्गभूते ज्ञानक्रिये उपात्ते भवतो, न ह्याभ्यां विना मोक्षो भवति, यत उक्तम् — “ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष” इति । इतिशब्द एतावानयमात्मपदार्थविचारः कर्मबन्धहेतुविचारश्च सकलोद्देशकेन परिसमापित इति प्रदर्शकः, यदिवा 'इति' एतदहं ब्रवीमि यत्प्रागुक्तं यच्च वश्ये तत्सर्वं भगवदन्तिके साक्षात् श्रुत्वेति शस्त्रपरिज्ञायां प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ ● अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ ५४ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५५॥ ॥ अथ प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः साम्प्रतं द्वितीयः प्रस्तूयते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-प्रथमोद्देशके सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाधितम्, इदानीं तस्यैवेकेन्द्रियादिपृथिव्याद्यस्तित्वप्रतिपिपादयिषयाऽऽह-यदिवा प्राक् परिज्ञातकर्मत्वं मुनित्वकारणमुपादेशि, यः पुनरपरिज्ञातकर्मत्वान्मुनिन भवति-विरतिं न प्रतिपद्यते स पृथिव्यादिषु बम्भ्रमति, अथ क एते पृथिव्यादय इत्यतस्तद्विशेषास्तित्वज्ञापनार्थमिदमुपक्रम्यत इति । अनेनाभिसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे पृथिव्युद्देशक इति, तत्रोद्देशकस्य निक्षेपादेरन्यत्र प्रतिपादितत्वान्नेह प्रदर्श्यते, पथिव्यास्तु यनिक्षेपादि सम्भवति तनियुक्तिकृद्दर्शयितुमाहपुढवीए निक्खेवो परूवणालक्खणं परीमाणं । उवभोगो सत्थं वेयणा य वहणा निविती य ॥ ६८ ॥ प्रागजीवोद्देशके जीवस्य प्ररूपणा किं न कृतेत्येतच्च नाशकनीयं, यतो जीवसामान्यस्य विशेषाधारत्वात् विशेषस्य च पृथिव्यादिरूपत्वात् सामान्यजीवस्य चौपभोगादेरसम्भवात् पृथिव्यादिचर्चयैव तस्य चिन्तितत्वादिति । तत्र पृथिव्या नामादिनिक्षेपो वक्तव्यः, प्ररूपणा-सूक्ष्मवादरादिभेदा, लक्षणं-साकारानाकारोपयोगकाययोगादिकं, परिमाणं-संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयभागमात्रादिकम्, उपभोगः-शयनासन चङ्क्रमणादिकः, शस्त्रं-स्नेहाम्लक्षारादि, वेदना-स्वशरीराव्यक्तचेतनानुरूपा सुखदुःखानुभवस्वभावा, वधा-कृतकारितानुमतिभिरुपमईनादिका, निवृत्तिः-अप्रमत्तस्य मनोवाकायगुत्याऽनुपमर्दादिकेति समासार्थः । व्यासार्थ तु नियुक्तिकृद्यथाक्रममाह Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं १ उद्देशकः२ नामंठवणापुढवी दव्वपुढवी य भावपुढवी य । एसो खलु पुढवीए निक्खेवो चउविहो होइ ॥ ६ ॥ श्रीआचा A स्पष्टा, नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्याहराङ्गवृत्तिः दव्यं सरीरभविओ भावेण य होइ पुढविजीवो उ । जो पुढविनामगोयं कम्मं वेएइ सो जीवो ॥७॥ (शौलाका.) द्रव्यपथिवी आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु पृथिवीपदार्थज्ञस्य शरीरं जीवापेतं तथा पृथिवीपदार्थज्ञत्वेन भव्यो-बालादिस्ताभ्यां विनिमुक्तो द्रव्यप्रथिवीजीव:-एकमविको बद्धायुप्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च, भावपृथिवीजीवः पुनर्यः पृथिवीनामादिकर्मोदीर्ण वेदयति । गतं निक्षेपद्वारं, साम्प्रतं प्ररूपणाद्वारम्दुविहा य पुढविजीवा मुटुमा तह बायरा य लोगंमि। सुहमा य सव्वलोए दो चेव य बायरविहाणा ॥१॥ पृथिवीजीवा द्विविधाः-सूक्ष्मा पादराश्च, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः, बादरनामकर्मोदयात्तु बादराः, कर्मोदयजनिते एवेषां सूक्ष्मवादरत्वे न त्वापेक्षिके बदरामलकयोरिव ॥ तत्र सूक्ष्माः समुद्गकपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत् सर्वलोकव्यापिनः, बादरास्तु मृलमेदाद्विविधा इत्याहदुविहा वायरपुढवी समासओ सण्हपुढवि खरपुडवी | सण्हा य पंचवण्णा अवरा छत्तीसइविहाणा ॥७२॥ 'समासतः' संक्षेपाद्विविधा बादरपृथिवी-श्लक्षणवादरपथिवी खरवादरपृथिवी च, तत्र श्लक्ष्णबादरपथिवी कृष्णनीललोहितपीतशुक्लभेदात्पश्चधा, इह च गुणमेदाद्गुणिमेदोऽभ्युपगन्तव्यः, खरबादरपथिव्यास्त्वन्येऽपि षट्त्रिंशद्विशेषभेदाः सम्भवन्तीति ॥ तानाह Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५७॥ पुढवी य सकरा वालगा य उवले सिला य लोणसे ।अय तंब तउअ सोसग रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥७३॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासनंजण पवाले। अम्भपडलब्भवालुअ पायरकाए मणिविहाणा ॥ ७४ ॥ गोमेज्जए य रुयगे अंको फलिहे य. लोहियक्खे य। 'मरगय मसारगल्ले भुयमोयग इदनीले य ॥७॥ चंदप्पह वेरुलिए जलकते चेव सूरकन्ते य । एए खरपुढवीए नाम छत्तीसयं होइ ॥ ७६॥ ___ अत्र च प्रथमगाथया पृथिव्यादयश्चतुर्दश भेदाः परिगृहीताः, द्वितीयगाथया त्वष्टौ हरितालादयः, तृतीयगाथया दश गोमेदकादयः, तुर्यगाथया चत्वारश्चन्द्रकान्तादयः । अत्र च पूर्वगाथाद्वयेन सामान्यपृथिवीभेदाः प्रदर्शिताः, उत्तरगाथाद्वयेन मणिभेदाः प्रदर्शिताः, एताः स्पष्टा इति कृत्वा न विवृताः ॥ एवं सूक्ष्मवादरभेदान् प्रतिपाद्य पुनर्वर्णादिभेदेन पृथिवीभेदान् दर्शयितुमाहवण्णरसगंधफासे जोणिप्पमुहा भवंति संखजा। गाइ सहस्साईति विहाणंमि इक्किक्के ॥ ७७॥ तत्र वर्णाः शुक्लादयः पञ्च रसास्तिक्तादयः पञ्च गन्धौ सुरभिदुरभी स्पर्शाः मृदकर्कशादयः अष्टौ, तत्र वर्गादिके एकैकस्मिन् 'योनिप्रमुखा' योनिप्रभृतयः संख्येया मेदा भवन्ति, संख्येयस्यानेकरूपत्वाद्विशिष्टसंख्यार्थमाह-अनेकानि सहस्राणि एकैकस्मिन् वर्णादिके 'विधाने' भेदे भवन्ति, योनितो गुणतश्च भेदानामिति । एतच्च सप्तयोनिलक्षप्रमाणत्वात् १ चंदण गेरुय हंसग भुयमोय मसारंगल य प्र. ॥ ५७॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ५८॥ प्रध्ययनं १ उद्देशकः २ पृथिव्या एवं (सं)भावनीयमिति । उक्तं च प्रज्ञापनायाम्-"'तत्थ णं जे ते पजतगा एएसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेजाई जोणिपमुहसयसहस्साई पज्जत्तयणिस्साए अपज्जत्तया वक्कमंति, तं जत्थेगो तत्थ नियमा असंखेज्जा, से तं खरबायरपुढविकाझ्या" इह च संवृतयोनयः पृथिवीकायिका उक्ताः, सा पुनः सचित्ता अचित्ता मिश्रा वा, तथा पुनश्च शीता उष्णा शीतोष्णा वेत्येवमादिका द्रष्टव्येति ॥ एतदेव भृयो नियुक्तिकृत स्पष्टतरमाह वण्णमि य इकिक्के गंधंमि रसंमि तह य फासंमि । नाणती कायव्वा विहाणए होइ इकिक्कं ॥ ७८॥ - वर्णादिके एकैकस्मिम् 'विधाने' भेदे सहस्रायशो नानात्वं विधेयं, तथाहि-कृष्णो वर्ण इति सामान्यं, तस्य च भ्रमराङ्गारकोकिलगवलकज्जलादिषु प्रकर्षाप्रकर्षविशेषाद्भदः कृष्णः कृष्णतरः कृष्णतम इत्यादि, एवं नीलादिष्वप्यायोज्यं, तथा रसगन्धस्पर्शेषु सर्वत्र पृथिवीमेदा वाच्याः, तथा वर्णादीनां परस्परसंयोगाद्भसरकेसरकर्बु रादिवर्णान्तरोत्पत्तिरेवमुत्प्रेक्ष्य वर्णादीनां प्रत्येकं प्रकर्षाप्रकर्षतया परस्परानुवेधेन च बहवो मेदा वाच्याः॥ पुनरपि पर्याप्तकादिमेदाढ़ेदमाह जे बायरे विहाणा पज्जत्ता तत्तिआ अपज्जत्ता । मुटुमावि हुंति दुविहा पज्जत्ता चेव अपज्जत्ता॥७९॥ यानि बादरपृथिवीकाये 'विधानानि' भेदाः प्रतिपादितास्तानि यावन्ति पर्याप्तकानां तावन्त्येवापर्याप्तकानामपि, अत्र १ तत्र ये ते पर्याप्तकाः ऐतेषां वर्णा देशेन गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन सहस्रापशो विधानानि संख्येवानि योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि, पर्याप्तकनिश्रयाऽपर्याप्तका व्युत्क्रामन्ति, तद् यत्रकस्तत्र नियमादसंख्येयाः इत्येते खरबादरपृथ्वीकायिकाः Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५६॥ Raच भेदानां तुल्यत्वं द्रष्टव्यं न तु जीवानां; यत एकपर्याप्त काश्रयेणासंख्येया अपर्याप्तका भवन्ति, सूक्ष्मा अपि पर्याप्तका पर्याप्तकभेदेन द्विविधा एव, किन्तु अपर्याप्तकनिश्रया पर्याप्तकाः समुत्पद्यन्ते, यत्र चैकोऽपर्याप्तकस्तत्र नियमादसंख्येयाः पर्याप्तकाः स्युः । पर्याप्तिस्तु 'आहारसरीरिन्दियऊसासवभोमणोऽहिनिव्वत्ती। होति जतो दलियाओ करणं पइ सा उ पबत्ती ॥१॥ जन्तुरुत्पद्यमानः पुद्गलोपादानेन करणं निवर्तयति तेन च करणविशेषेणाहारमवगृह्य पृथग् खलरसादिभावेन परिणति नयति स तादृक्करणविशेष आहारपर्याप्तिशब्देनोच्यते, एवं शेषपर्याप्तयोऽपि वाच्याः तत्रैकेन्द्रियाणामाहारशरीरेन्द्रियोच्छ्वासाभिधानाश्चतस्रो भवन्ति, एताश्चान्तमुहर्तेन जन्तुरादत्ते, अनाप्तपर्याप्तिरपर्याप्तकोऽवाप्तपर्याप्तिस्तु पर्याप्तक इति, अत्र च पृथिव्येव कायो येषामिति विग्रहः ॥ यथा सूक्ष्मबादरादयो भेदाः सिद्धयन्ति तथा प्रसिद्धभेदेनोदाहरणेन दर्शयितुमाह रुक्खाणं गुच्छाणं गुम्माण लयाण वल्लिवलयाणं । जह दीसह नाणत्तं पुढवीकाए तहा जाण ॥८॥ यथा वनस्पतेवृक्षादिभेदेन स्पष्टं नानात्वमुपलभ्यते, तथा पृथिवीकायिकेऽपि जानीहि, तत्र वृक्षाः-चूतादयो गुच्छावृन्ताकीसल्लकीकप्पास्यादयः, गुल्मानि-नवमालिकाकोरण्टकादीनि, लता:-पुन्नागाशोकलताद्याः, वन्ल्या-त्रपुषीवालुङ्कीकोशातक्याद्याः वलयानि-केतकीकदल्यादीनि ॥ पुनरपि वनस्पतिभेददृष्टान्तेन पृथिव्या भेदमाह ओसहि तण सेवाले पणगविहाणे य कंद मूले य। जह दीसह नाणत्तं पुहवीकाए तहा जाण ॥ ८ ॥ १ आहारः शरीरमिन्द्रियाणि उच्छवासो वचः मनः अभिनिवत्तिः भवति यतो दलिकात् करणं प्रति सैव पर्याप्तिः ॥ १॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ ५ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ यथा हि वनस्पतिकायस्य ओषध्यादिको भेद एवं पृथिव्या अपि द्रष्टव्यः, तत्र ओषध्यः-शाल्याधाः, तृणानि-दर्भा अध्ययनं १ दीनि, सेवालं-जलोपरि मलरूपं, पनका-काष्ठादाधुन्लीविशेषः पञ्चवर्णः, कन्द-मूरणकन्दादिः, मूलम्- उशीरादीति ॥ एते च सूक्ष्मत्वान्नकद्वयादिकाः समुपलभ्यन्ते, यत्संख्यास्तूपलम्भ्यन्ते तदर्शयितुमाह उद्देशकः २ इकस्स दुण्ह तिण्ह व संखिजाण व न पासिउसका । दीसंति सरीराइपुढविजियाणं असंखाणं ॥२॥ स्पष्टा ॥ कथं पुनरिदमवगन्तव्यम् ?, सन्ति पृथिवीकायिका इति, उच्यते, तदधिष्ठितशरीरोपलब्धेः अधिष्ठातरि प्रतीतिर्गवाश्वादाविव इति, एतद्दर्शयितुमाह - एएहिं सरीरेहिं पच्चक्खं ते परूविया हुति। सेसा आणागिझा चक्खुफासं न जं इति ॥ ८३ ॥ __'एभिः' असंख्येयतयोपलभ्यमानैः पृथिवीशर्करादिभेदभिन्नैः शरीरस्ते शरीरिणः शरीरद्वारेण 'प्रत्यक्षं साक्षात् 'प्ररूपिताः' ख्यापिता भवन्ति. शेषास्तु सूक्ष्मा आज्ञाग्राह्या एव द्रष्टव्याः, यतस्ते चक्षुःस्पर्श नागच्छन्ति, स्पर्शशब्दो विषयार्थः ॥ प्ररूपणाद्वारानन्तरं लक्षणद्वारमाह उवभोगजोग अज्झवसाणे महसुय अचक्खुदंसे य । अविहोदयलेसा सन्नुस्सासे कसाया य ॥८४॥ तत्र पृथिवीकायादीनां स्त्यानाद्यदयाद्या च यावती चोपयोगशक्तिरव्यक्ता ज्ञानदर्शनरूपेत्येवमात्मक उपयोगो लक्षणं, तथा योग:-कायाख्य एक एव, औदारिकतन्मिश्रकार्मणात्मको वृद्धयष्टिकम्पो जन्तोः सकर्मकस्यालम्बनाय Bu६०॥ व्याप्रियते, तथा अध्यवसायाः-सूक्ष्मा आत्मनः परिणामविशेषाः, ते च लक्षणम् , अव्यक्तचैतन्यपुरुषमनःसमुद्भत Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्ताविशेषा इवानभिलक्ष्यास्तेऽभिगन्तव्याः, तथा साकारोपयोगान्तःपातिमतिश्रुताज्ञानसमन्विताः पृथिवीकायिका बोद्धव्याः, तथा स्पर्शनेन्द्रियेणाचक्षुर्दर्शनानुगता बोद्धव्याः, तथा ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मोदयभाजस्तावद्वन्धमाजश्च, तथा लेश्या-अध्यवसायविशेषरूपाः कृष्णनीलकापोततेजस्यश्चतस्रः ताभिरनुगताः, तथा दशविधसंज्ञानुगताः, ताश्च आहारादिकाः प्रागुक्ता एव, तथा सूक्ष्मोच्छवासनिःश्वासानुगताः, उक्तं च-:'पुढविकाइया णं भते! जीवा आणवन्ति वा पाणवन्ति वा ऊससन्ति वा नोससंति वा ?, गोयमा ! अविरहियं सतयं चेव आणवन्ति वा पाणवन्ति वा ऊससन्ति वा नीससन्ति वा" कषाया अपि सूक्ष्माः क्रोधादयः । एवमेतानि जीवलक्षणान्युपयोगादीनि कषायपर्यवसानानि पृथिवीकायिकेषु सम्भवन्तीति, ततश्चैवंविधजीवलक्षणकलापसमनुगतत्वात् मनुष्यवत्सचित्ता पृथिवीति । ननु च तदिदमसिद्धमसिद्धेन साध्यते, तथाहि-न युपयोगादीनि लक्षणानि पृथिवीकायेषु व्यक्तानि समुपलक्ष्यन्ते, सत्यमेतद्, अव्यक्तानि तु विद्यन्ते, यथा कस्यचित्पुसः हृत्पूरकव्यतिमिश्रमदिरातिपानपित्तोदयाकुलीकृतान्तःकरणविशेषस्याव्यक्ता चेतना, न चैतावता तस्याचिद्रूपता, एवमत्राप्यव्यक्तचेतनासम्भवोऽभ्युपगन्तव्यः, ननु चात्रोच्छ्वासादिकमव्यक्तचेतनालिङ्गमस्ति, न चेह तथाविधं किश्चिच्चेतनालिङ्गमस्ति, नैतदेवम् , इहापि समानजातीयलतोड्दादिकमर्शोमांसाङ्कुरबच्चेतनाचिह्नमस्त्येव, अव्यक्तचेतनानां हि सम्भावितैकचेतनालिङ्गानां वन १ पृथ्वीकायिका भदन्त ! जीवा आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा निःश्वसन्ति वा ?, गौतम ! अविरहितं सततमेव चानन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । ॥६१॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ६२ ॥ स्पतीनामिव चेतनाऽभ्युपगन्तव्येति, वनस्पतेश्च चैतन्यं विशिष्टतु 'पुष्पफलप्रदत्वेन स्वष्टं साधयिष्यते च ततोऽव्यक्तोपयोगादिलक्षणसद्भावात् सचित्ता पृथिवीति स्थितम् । ननु चाश्मलतादेः कठिन पुद् गलात्मिकायाः कथं चेतनत्वमित्यत आह अट्ठी जहा सरीरंमि अणुगयं चेयणं खरं दिट्ठ । एवं जीवाणुगयं पुढविसरीरं खरं होइ ॥ ८५ ॥ यथाऽस्थि शरीरानुगतं सचेतनं खरं दृष्टम्, एवं जीवानुगतं पृथिवीशरीरमपीति ॥ साम्प्रतं लक्षणद्वारानन्तरं परि माणद्वारमाह जे बाय पत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा तिन्निषि रासी वीसु ́ लोया असंखिजा ॥ ८६ ॥ तत्र पृथिवीकायिका चतुर्द्धा तद्यथा - बादराः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च तथा सूक्ष्मा अपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च तत्र ये बादराः पर्याप्तास्ते संवर्त्तितलोकप्रत्तरा संख्येय भागमात्र वर्तिप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, शेषास्तु त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसंख्येयानां लोकानामाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, यथा निर्दिष्टक्रमेण चैते यथोत्तरं बहुतराः, यत उक्तम् – " "सव्वस्थोवा बादरपुढविकाइया पज्जन्ता, बादरपुढविकाइया अपज्जन्ता असंखेजगुणा सुहुमपुढविकाइया अपज्जन्ता असंखेज्जगुणा सुहमपुढविकाइया पज्जन्ता असंखेज्जगुणा" ॥ प्रकारान्तरेणापि राशित्रयंस्य परिमाणं १ सस्तोका बादरपृथ्वीका यिकाः पर्याप्ताः बादर पृथ्वीकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः सूक्ष्म पृथ्वी कायिकाः अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः सूक्ष्म पृथ्वीकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः । अध्ययनं १ ३६ शकः २ ॥ ६२ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शयितुमाहपत्थेण व कुडवेण व जह कोई मिणिज्ज सव्वधन्नाई। एवं मविजमाणा हवंति लोया असंखिजा।८७॥ यथा प्रस्थादिना कश्चित्सर्वधान्यानि मिनुयाद्, एवमसद्भावप्रज्ञापनाङ्गीकरणाल्लोकं कुडवीकृत्याजघन्योत्कृष्टावगाहनान् पृथिवीकायिकजीवान् यदि मिनोति ततोऽसंख्येयान् लोकान् पृथिवीकायिकाः पूरयन्ति । पुनरपि प्रकारान्तरेण परिमाणमाहलोगागासपएसे इविक्कं निक्विवे पुढविजीवं । एवं मविजमाणा हवंति लोआ असंस्विजा ॥८८॥ स्पष्टा ॥ साम्प्रतं कालतः प्रमाणं निर्दिदिक्षुः क्षेत्रकालयोः सूक्ष्मवादरत्वमाहनिउणो उ होइ कालो तत्तो निउणयरयं हवह खित्तं । अंगुलसे दीमित्ते ओसप्पिणीओ असंखिजा८९॥ 'निपुणः सूक्ष्मः कालः' समयात्मकः, ततोऽपि सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यतोऽगुलीश्रेणिमात्रक्षेत्रप्रदेशानां समयापहारेAणासंख्येया उत्सपिण्यवसपिण्योऽपक्रामन्तीत्यतः कालात् क्षेत्रं सूक्ष्मतरम् ॥ प्रस्तुतं कालतः परिमाणं दर्शयितुमाह अणसमयं च पवेसो निक्खमणं चेव पुढविजीवाणं । काए कायहिइया चउरो लोया असंखिज्जा ॥१०॥ तत्र जीवाः पृथिवीकायेऽनुसमयं प्रविशन्ति निष्कामन्ति च, एकस्मिन् समये किया निष्क्रमः प्रवेशश्च १-२, तथा विवक्षिते च समये कियन्तः पृथिवीकायपरिणताः सम्भवन्ति ३, तथा कियती च कायस्थिति ४ रित्येते चत्वारो विकल्पाः कालतोऽभिधीयन्ते, तत्रासंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः समयेनोत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, पृथिवीत्वेन परि ॥३३॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यय१ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) उद्देशकः २ ॥६४॥ णता अप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः, तथा कायस्थितिरपि मृत्वा मृत्वाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणं कालं तत्र तत्रोत्पद्यन्त इति, एवं क्षेत्रकालाभ्यां परिमाणं प्रतिपाद्य परस्परावगाहप्रतिपिपादयिषयाऽऽह बायरपुढविक्काइयपज्जत्तो अन्नमनमोगाढो । सेसा ओगाहंते सुहमा पुण सबलोगंमि ॥ ९१॥ बादरपृथिवीकायिकः पर्याप्तो यस्मिन्नाकाशखण्डे अवगाढः तस्मिन्नेवाकाशखण्डेऽपरस्यापि बादरपथिवीकायिकस्य शरीरमवगाढमिति, शेषास्तु अपर्याप्तकाः पर्याप्तकनिश्रया समुत्पद्यमाना अनन्तरप्रक्रियया पर्याप्तकावगाढाकाशप्रदेशावगाढाः, सूक्ष्माः पुनः सर्वस्मिन्नपि लोकेऽवगाढा इति ॥ उपभोगद्वारमाहचंकमणे यहाणे निसीयण तुयट्टणे य कयकरण । उच्चारे पासवणे उवगरणाणं च निक्खिवणे ॥१२॥ आलेवण पहरण भूसणे य कयविक्कए किसीए य । भंडाणंपि य करणे उवभोगविही मणस्साण ॥१३॥ ___ चक्रमणो स्थाननिषीदनत्वग्वर्तनकृतकपुत्रककरणउच्चारप्रश्रवणउपकरणनिक्षेपलेपनाहरणभूषणक्रयविक्रयकृषीकरणमण्डकपट्टनादिषपभोगविधिर्मनुष्याणां पथिवीकायेन भवतीति ॥ यद्यवं ततः किमित्यत आह एएहिं कारणेहिं हिंसंति पुढविकाइए जीवे | सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ॥४॥ एमिश्वङ्क्रमणादिभिः कारणैः पृथिवीजीवान् हिंसन्ति, किमर्थमिति दर्शयति-'सातं' सुख मात्मनोऽन्वेषयन्तः परदुःखान्यजानानाः कतिपयदिवसरमणीयभोगाशाकर्षितसमस्तेन्द्रियग्रामा विमूढचेतस इति 'परस्य' पृथिव्याश्रितजन्तुराशेः 'दुःखम्' असातलक्षणं तदुदीरयन्ति-उत्पादयन्तीति, अनेन भूदानजनितः शुभफलोदयः प्रत्युक्त इति ॥ अधुना शस्त्र ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ ६४॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वार-शस्यतेऽनेनेति शस्त्रं, तच द्विधा-द्रव्यंशस्त्रं भावशस्त्रं च, द्रव्यशस्वमपि समासविभागभेदाद्विधैव, तत्र समासद्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाहहलकुलिय-विसकुद्दालालित्तय-मिगसिंग-कट्ठमग्गी य । उच्चारे पासवणे एयं तु समासओ सत्थं ॥५॥ तत्र हलकुलिकविषकुद्दालालित्रकमृगशृङ्गकाष्ठाग्न्युच्चारप्रश्रवणादिकमेतत् 'समासतः संक्षेपतो द्रव्यशस्त्रम् ॥ विभागद्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाहकिंची सकायसत्थं किंचो परकाय तदुभयं किंचि । एयं तु दव्वसत्थ भावे अ असंजमो सत्थं ॥६६॥ किञ्चित्स्वकायशस्त्रं पृथिव्येव पृथिव्याः, किश्चित्परकायशस्त्रमुदकादि, तदुभयं किञ्चिदिति भूदकं मिलितं भुव इति । तच्च सर्वमपि द्रव्यशस्त्रं, भावे पुनः 'असंयमः' दुष्प्रयुक्ता मनोवाकायाः शस्त्रमिति ॥ वेदनाद्वारमाह पायच्छेयण भेयण जंघोरु तहेव अंगुवंगे। जह हुति नरा दुहिया पुढविक्काए तहा जाण ॥ ७ ॥ ___ यथा पादादिकेष्वङ्गप्रत्यङ्गेषु छेदनभेदादिकया क्रियया नराः दुःखिताः, तथा पृथिवीकायेऽपि वेदना जानीहि ॥ यद्यपि पादशिरोग्रीवादीन्यङ्गानि पृथिवीकायिकानां न सन्ति तथापि तच्छेदनानुरूपा वेदनाऽस्त्येवेति दर्शयितुमाह नत्थि य सिअंगुवंगा तयाणरूवा य वेयणा तेसिं । केसिंचि उदीरंती केसिं चऽतिवायए पाणे ॥८॥ _पूर्वाद्धं गतार्थ, केषाश्चित्पृथिवीकायिकानां तदारांम्भणः पुरुषा वेदनामुदीरयन्ति, केषाश्चित्तु प्राणानप्यतिपातयेयुरिति । तथा हि भगवत्यां दृष्टान्त उपात्तो यथा-चतुरन्तचक्रवर्त्तिनो गन्धपेषिका यौवनवर्तिनी बलवती आर्द्रामलक ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥६६॥ प्रमाणं सचित्तपथिवीगोलकमेकविंशतिकृत्वो गन्धपट्टके कठिनशिलापुत्रकेण पिंष्यात् , ततस्तेषां पृथिवीजीवानां कश्चित्सङ्घट्टितः कश्चित्परितापितः कश्चिद्वथापादितोऽपरः किल तेन शिलापुत्रकेण न स्पृष्टोऽपीति । वधवारमाह अध्ययनं १ पवयंति य अणगारा ण य तेहि गुणेहि जेहिं अणगारा। पुढचं विहिंसमाणा न हुते वायाहि अणगारा॥९॥ उद्देशकः २ इह ह्य के कुतीथिका यतिवेषमास्थाय एवं च प्रवदन्ति-वयम् 'अनगाराः' प्रव्रजिताः, न च 'तेषु गुणेषु' निरवद्यानुष्ठानरूपेषु प्रवर्तन्ते, येवनगाराः, यथा चानगारगुणेषु न प्रवर्त्तन्ते तदर्शयति--यतस्तेऽहर्निशं पृथिवीजन्तुविपत्तिकारिणो दृश्यन्ते गुदपाणिपादप्रक्षालनार्थम् , अन्यथापि निर्लेपनिर्गन्ध कतु शक्यम् , अतश्च यतिगुणकलापशून्या न वाङ्माण युक्तिनिरपेक्षेणानगारत्वं विभ्रतीति, अनेन प्रयोगः सूचितः, तत्र गाथापूर्वार्द्धन प्रतिज्ञा, पश्चार्द्धन हेतुः, उत्तरगाथान साधर्म्यदृष्टान्तः स चायं प्रयोगः--कुतीथिका यत्यभिमानवादिनोऽपि यतिगुणेषु न प्रवर्तन्ते, पृथिवीहिंसाप्रवृत्तत्वाद्, इह ये ये पृथिवीहिंसाप्रवृत्तास्ते ते यातगुणेषु न प्रवर्तन्ते, गृहस्थवत् ॥ साम्प्रतं दृष्टान्तगर्भ निगमनमाहअणगारवाइणो पुढविहिंसगा निग्गुणा अगारिसमा । निद्दोसत्ति य मइला विरइदुगंछाइ महलतरा ॥१०॥ 'अनगारवादिनो' वयं यतय इति वदनशीलाः पृथिवीकायविहिंसकास्सन्तो निगुणा यतोऽत: 'अगारिसमा' गृहस्थतुन्या भवन्ति, अभ्युच्चयमाह-सचेतना पृथिवीत्येवं ज्ञानरहितत्वेन तत्समारम्भवर्तिनः सदोषा अपि सन्तो वयं निर्दोषा इत्येवं मन्यमानाः स्वदोषप्रेक्षाविमुखत्वात् 'मलिनाः' कलुषितहृदयाः, पुनश्चातिप्रगल्भतया साधुजनाश्रिताया निरवद्यानुष्ठानात्मिकाया विरतेः 'जुगुप्सया' निन्दया मलिनतरा भवन्ति, अनया च साधुनिन्दयाऽनन्तसंसारित्वं प्रदर्शितं भवतीति ।। I16६॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६७॥ एतच्च गाथाद्वयं सूत्रोपात्तार्थानुसार्यपि वधद्वारावसरे नियुक्तिकृत्वाऽभिहितं, तस्य स्वयमेवोपात्तत्वेन तद्वयाख्यानस्य न्याय्यत्वात् , तच्चेदं सूत्रम् 'लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणे'त्यादि । अयं च वधः कृतकारितानुमतिभिर्भवतीति तदर्थमाह केई सयं वहंति केई अन्नेहिं उ वहाविंती। केई अणमन्नंती पुढविकायं वहेमाणा ॥१०॥ स्पष्टा, तदधे अन्येषामपि तदाश्रितानां वधो भवतीति दर्शयितुमाहजो पुढवि समारंभइ अन्नेऽवि य सो समारभइ काए। अनियाए अनियाए दिस्से य तहा अदिस्से य॥१०२॥ ___ यः पृथ्वीकार्य 'समारभते' व्यापादयति सः 'अन्यानपि' अप्कायद्वीन्द्रियादीन् 'समारमते' व्यापादयति उदुम्बरवटफलभक्षणप्रवृत्तः तत्फलान्तःप्रविष्टत्रसजन्तुभक्षणवदिति, तथा 'अणियाए य नियाइ'त्ति अकारणेन कारणेन च, यदिवाऽसङ्कल्पेन सङ्कल्पेन च पृथिवीजन्तून समारमते तदारम्भवांश्च 'दृश्यान्' दर्दुरादीन् 'अदृश्यान्' पनकादीन् । 'समारभते' व्यापादयतीत्यर्थः॥ एतदेव स्पष्टतरमाह पुढविं समारभंता हणंति तन्निसिए य बहुजीवे । सुहमे य बायरे य पज्जत्ते य अपज्जत्ते ॥ १०३॥ स्पष्टा, अत्र च सूक्ष्माणां वधः परिणामाशुद्धत्वात्तद्विषयनिवृत्त्यभावेन द्रष्टव्य इति ॥ विरतिद्वारमाहएयं वियाणिऊणं पुढवीए निक्खिवंति जे दंडं । तिविहेण सव्वकालं मणेण वायाए काएणं ॥ १०४॥ __'एवमि'त्युक्तप्राकारानुसारेण पृथिवीजीवान् विज्ञाय तद्वधं बन्धं च विज्ञाय पृथिवीतो निक्षिपन्ति ये दण्डं-पृथिवी ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समारम्भाद्पुपरमन्ति, ते ईक्षा अनगारा भवन्तीत्युत्तरगाथायां वक्ष्यति, 'त्रिविधेने ति कृतकारितानुमतिभिः 'सर्वकालं' अध्ययनं १ श्रीआचा- यावज्जीवमपि मनसा वाचा कायेनेति ॥ अनगारभवने उक्तशेषमाहरावत्तिः। गुत्ता गुत्तीहिं सव्वाहिं समिया समिईहिं संजया। जयमाणगा सुविहिया एरिसया हुँति अणगारा ॥१०५॥ उद्देशकः २ तिसृभिर्मनोवाकायगुप्तिभिगुप्ताः, तथा पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिस्समिताः, सम्यक्-उत्थानशयन चक्रमणादिक्रियासु । यताः संयताः 'यतमानाः' सर्वत्र प्रयत्नकारिणः, शोभनं विहितं-सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठानं येषां ते तथा, ते ईदृक्षा अनगारा भवन्ति, न तु पूर्वोक्तगुणाः पृथिवीकायसमारम्भिणः शाक्यादय इति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चार्यते, तच्चेदं अट्ट लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सि लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितार्वति ॥ सू० १४॥ . अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरसूत्रे परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवतीत्युक्तं, यस्त्वपरिज्ञातकर्मा स भावात्तों भवतीति, तथाऽऽदिसूत्रेण सह सम्बन्धः-सुधर्मस्वामी जम्बनाम्ने इदमाचष्टे-'श्रुतं मया' किं तच्छु त ? पूर्वोद्देशकार्थं प्रदश्येदमपीति, 'अ' इत्यादि, परम्परसम्बन्धस्तु 'इहं एगेसिं णो सन्ना भवती'त्युक्तं, कथं पुनः संज्ञा न भवतीति, आर्तत्वात् , तदाह-'अ' इत्यादि, आतों नामादिश्चतुर्की, नामस्थापने क्षुण्णे, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो नोआग Fu६८॥ 8 मतो द्रव्यातः शकटादिचक्राणामुद्धिमूले वा यो लोहमयः पट्टो दीयते स द्रव्यातः, भावार्तस्तु द्विधा-आगमतो नोआग Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ मन नागमतो ज्ञाता--आपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु औदायकभाववर्ती रागद्वेपग्रह परिगृहीतान्तरात्मा प्रियविप्रयोगादिदःखसङ्कट निमग्नो भावाः इति व्यपदिश्यते अथवा शब्दादिविपरेषु विपविपाकसदृशेषु तदाकातिखाद्धिताहितविचारशून्यमना भावानः कोपचिनोति, पत उक्तम् च--'सोइंदियवसह णं नंते ! जावे किं बंधड किं चिणाइ ? किं उवचिणाइ ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबडाओ पकरेइ, जाव अणादियं च ण अणवदग्गं दीहमह चाउरन्तसंसारकन्तारमणपरिय" एवं स्पर्शनादिप्वप्यायोजनीयम् , एवं क्रोधमानमायालोभदर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयादिभिर्भावार्ताः संसारिणो जीवा इति, उक्तं च–“रागद्दोसकसाएहिं, इंदिएहि य पञ्चहिं । दुहा वा मोहणिज्जेण, अहा संसारिणो जिया ॥ १॥" यदि वा ज्ञानावरणीयादिना शुभाशुभेनाप्टप्रकारेण कर्मणाऽऽर्तः, कः पुनरेवंविध इत्यत्राह-लोकयतीति लोकः-एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियजीवराशिरित्यर्थः, अत्र लोकशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपर्यायभेदादष्टधा निक्षेपं प्रदाप्रशस्तभावोदयवर्तिना लोकेनेहाधिकारो वाच्यः, यस्माद्यावानातः स सर्वोऽपि परिवूनो नाम परिपेलवो निस्सारः औपशमिकादिप्रशस्तभावहीनोऽव्यभिचारिमोक्षसाधनहीनो वेति, स च द्विधा-द्रव्यभावभेदात , तत्र सचित्तद्रव्यपरिद्यनो जीर्णशरीरः स्थविरकः जीर्णवृक्षो वा, अचित्तद्रव्यपरियूनो जीर्णपटादिः, भावपरिघुन औदयिकभावो १ श्रोत्रेन्द्रियवशात्तों भदन्त ! जीवः किं बध्नाति ? किं चिनोति ? किमुपचिनोति ?, गौतम ! यष्ट कर्मप्रकृती। शिथिलबन्धनबद्धा गाढबन्धन द्धाः प्रकरोति, यावदनादिकमनवनता दीर्घाध्वानं चातुरन्तसंसारकान्तारमनुपर्यटति । २ रागद्वेषकषायै रिन्द्रियैश्च पञ्चभिः। द्विधा मोहनीयेन वा आतः संसारिणो जीवाः ॥ १॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥६६॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ।। ७०॥ दयात्प्रशस्तज्ञानादिभावविकलः, कथं विकलः ?, अनन्तगुणपरिहाण्या, तथाहि-पश्चचतुस्त्रिब्येकेन्द्रियाः क्रमशो ज्ञानविकलाः, तत्र सर्वनिकृष्टज्ञानाः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकाः प्रथमसमयोत्पन्ना इति, उक्तं च-"सर्वनिकृष्टो जीवस्य | अध्ययनं १ दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकानां स च भवति विज्ञेयः ॥ १॥ तस्मात्प्रभृति ज्ञान-उद्देशकः २ विवृद्धिदृष्टा जिनेन जीवानाम् । लब्धिनिमित्तः करणैः कायेन्द्रियवाङ्मनोहगभिः ॥ २" स च विषयकषायातः प्रशस्तज्ञानघूनः किमवस्थो भवतीति दर्शयति-'दुस्संबोध' इति, दुःखेन सम्बोध्यते-धर्मचरणप्रतिपत्तिं कार्यत इति दुस्सम्बोधो, मेतार्यवदिति, यदि वा दुस्सम्बोधो यो बोधयितुमशक्यो ब्रह्मदत्तवत् , किमित्येवम् ?, यतः 'अवियाणए'त्ति विशिष्टावबोधरहितः, स चैवंविधः किं विदध्यादित्याह-'अस्मिन्' पृथिवीकायलोके 'प्रव्यथिते' प्रकर्षण व्यथिते, सर्वस्यारम्भस्य तदाश्रयत्वादिति प्रकर्षार्थः, तत्तत्प्रयोजनतया खननादिभिः पीडिते नानाविधशस्त्रागीते वा 'व्यथ भयचलनयो रितिकृत्वा व्यथितं भीतमिति, 'तत्थ तत्थेति तेषु तेषु कृषिखननगृहकरणादिषु 'पृथग विभिन्नेषु कार्येषूत्पन्नेषु ‘पश्येति विनेयस्य लोकाकार्यप्रवृत्तिः प्रदर्श्यते, सिद्धान्तशैल्या एकादेशेऽपि प्राकृते बहादेशो भवतीति, 'आतुरा' विषयकषायादिभिः 'अस्मिन्' पृथिवीकाये विषयभृते सामर्थ्यात् पृथिवीकार्य 'परितापयन्ति' परि-समन्तातापयन्ति--पीडयन्तीत्यर्थः, बहुवचननिर्देशस्तु तदारम्भिणां बहुत्वं गमयति, यदिवा--लोकशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, कश्चिल्लोको विषयकषायादिभिरातॊऽपरस्तु कायपरिजीर्णः 'कश्चिदुःखसम्बोधः तथाऽपरो विशिष्टज्ञानरहितः, एते सर्वे ॥ ७० ॥ १ कश्चित्तु अपरो दुःसम्बोधः नास्तीदं प्र०। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ७१ ॥ Sप्यातुरा विषय जीर्णदेहादिभिः सुखाप्तयेऽस्मिन् पृथिवीकायलोके विषयभूते पृथिवीकायं नानाविधैरुपायैः 'परितापयन्ति' परि-समन्तात्तापयन्ति - पीडयन्तीति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ ननु चैकदेवताविशेषावस्थिता पृथिवीति शक्यं प्रतिपत्तुं न पुनरसंख्येयजीवसङ्घातरूपेत्येतत्परिहर्तुकाम आह संनि पाणा पुढो सिया लज्ज़माणा पुढो पास, अणगारा मोति एंगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढचिकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणो अणे गरूवे पाणे विहिंसह । 'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणा:' सखा 'पृथग' पृथग्भावेन, अड्गुला संख्येय भागस्व देहावगाहनया पृथिव्याश्रिताः सिता वा सम्बद्धा इत्यर्थः, अनेनैतत्कथयति नैकदेवता पृथिवी, अपि तु प्रत्येकशरीरपृथिवीकायात्मिकेति तदेवं सचेतनत्वमनेकजीवाधिष्ठितत्वं च पृथिव्या आविष्कृतं भवतीति । एतच्च ज्ञात्वा तदारम्भनिवृत्तान् दर्शयितुमाह'लज्जमाणा पुढो पास' त्ति, लज्जा द्विविधा --लौकिकी लोकोत्तरा च तत्र लौकिकी स्नुषासुभटादेः श्वशुरसङ्ग्रामविषया, लोकोत्तरा सप्तदशप्रकारः संयमः, तदुक्तम्- "लज्जा दया संजम बंभचेर 'मित्यादि, लज्जमाना:- संयमानुष्ठानपराः, यदिवा - पृथिवीकायसमारम्भरूपादसंयमानुष्ठानाल्लज्जमाना: 'पृथगि'ति प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनश्च अतस्तान् लज्जमानान् पश्येत्यनेन शिष्यस्य कुशलानुष्ठानप्रवृत्तिविषयः प्रदर्शितो भवतीति । कुतीर्थिकास्त्वन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह- 'अणगारा' इत्यादि, न विद्यतेऽगारं गृहमेषामित्यनगारा -- यतयः स्मो वयमित्येवं प्रकर्षेण वदन्तः प्रवदन्त इति, 'एके' शाक्यादयो ग्राह्याः, ते च वयमेव जन्तुरक्षणपराः क्षपितकषायाज्ञानतिमिरा 'इति' एवमादि ॥ ७१ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ७२ ॥ प्रतिज्ञामात्र मनर्थक मारटन्ति, यथा-- कश्चिदत्यन्तशुचिर्वोद्रश्चतुःषष्टिमृत्तिकास्नायी गोशवस्याशुचितया परित्यागं विधाय पुनः कर्मकरवाक्याच्चर्मास्थिपिशितस्नाय्वादेर्यथास्वमुपयोगार्थं सङ्ग्रहं कारितवान् तथा च तेन शुच्यभिमानमुद्वहताऽपि किं तस्य परित्यक्तम् १, एवमेतेऽपि शाक्यादयोऽनगारवादमुद्वहन्ति, न चानगारगुणेषु मनागपि प्रवर्त्तन्ते, च गृहस्थचर्यां मनागप्यतिलङ्घयन्तीति दर्शयति-- 'यद्' यस्माद् 'इम' मिति सर्वजनप्रत्यक्षं पृथिवीकायं 'विरूपरूपैः ' नानाप्रकारैः 'शस्त्रैः' हलकुद्दालखनित्रादिभिः पृथिव्याश्रयं कर्म्म- क्रियां समारंभमाणा विहिंसन्ति, तथाऽनेन च पृथिवीकर्म समारम्भेण पृथिवीशस्त्रं 'संमारंभमाणो' व्यापारयन् पृथिवीकायं नानाविधैः शस्त्रैर्व्यापादयन् 'अनेकरूपान्' तदाश्रितानुदकवनस्पत्यादीन् विविधं हिनस्ति, नानाविधैरुपायैर्व्यापादयतीत्यर्थः, एवं शाक्यादीनां पार्थिवजन्तुवैरिणामयतित्वं प्रतिपाद्य साम्प्रतं सुखाभिलाषितया कृतकारितानुमतिभिर्मनोवाक्काय लक्षणां प्रवृत्ति दर्शयितुमाह तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपड़िघायहेउ स सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणइ ॥ सू० १५ ॥ तत्र पृथिवीकायसमारम्भे खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे 'भगवता ' श्रीवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा सा प्रवेदितेति, इदमुक्तं भवति-भगवतेदमाख्यातं - यथैभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैः कृतकारितानुमतिभिः सुखैषिणः पृथिवीकायं समारभन्ते, त्रध्ययनं ९ ३६ शकः २ ॥ ७२ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानि चामनि-अस्यैव जीवितस्य परिपेलवस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ, तथा जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतु च स सुखलिप्सुखविट् स्वयमात्मनैव पृथिवीशस्त्रं समारभते, तथाऽन्यैश्च पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति, पृथिवीशस्त्रं समारममाणानन्यांश्च स एव समनुजानीते, एवमतीतानागताभ्यां मनोवाकायकर्मभिरायोजनीयम् । तदेवं प्रवृत्तमतेर्यद्भवति तदर्शयितुमाह तं से अहिआए तं से अघोहीए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा खल भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं भवति-एस खलु गथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खल गरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवस्वेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारभेण पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसह, से बेमि, अप्पेगे अंधमन्भे अप्पेगे अंधमच्छे अप्पेगे पायमभे अप्पेगे पायमच्छे अप्पेगे गुप्फमब्भे अप्पेगे गुप्फमच्छे अप्पेगे जंघमन्भे २ अप्पेगे जाणमम्भे २ अप्पेगे ऊरुमन्भे २ अप्पेगे कडिमन्भे २ अप्पेगे णाभिमन्भे २ अप्पेगे उदरमब्भे २ अप्पेगे पासमम्भे २ अप्पेगे पिहिमभे २ अप्पेगे उरमन्भे २ अप्पेगे हिययमम्भे २ अप्पेगे थणमभे २ अप्पेगे खंधमन्भे २ अप्पेगे बाहमन्भे २ अप्पेगे हत्थमम्भे २ अप्पेगे अंगुलिमब्भे २ अप्पेगे णहमन्भे २ अप्पेगे गोवमभे २ अप्पेगे हणमभे २ अप्पेगे होहमन्भे २ अप्पेगे दंतमब्भे २ अप्पेगे जिन्भमभे २ अप्पेगे तालमन्भे २ R| अप्पेगे गलमम्भे २ अप्पेगे गंडमन्भे २ अप्पेगे कण्णमन्भे २ अप्पेगे णासमभे २ अप्पेगे अच्छिमभर ॥७३, Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्राचाराङ्गवृत्तिः शीलाका. ॥ ७४॥ अध्ययनं १ उद्देशकः २ अप्पेगे भमुहमन्भे २ अप्पेगे णिडालम मे २ अप्पेगे सीसमन्भे २ अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए, इत्थं सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरभा अपरिणाता भवंति ॥ सू० १६ ॥ __ 'तं से अहियाए त से अबोहीए' तत् पृथिवीकायसमारम्भणं 'से' तस्य कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीशस्त्रं समारंभमाणस्यागामिनि काले अहिताय भवति, तदेव चाबोधिलाभायेति, न हि प्राणिगणोपमर्दनप्रवृत्तानामणीयसाऽपि हितेनाऽऽयत्यां योगो भवतीत्युक्तं भवति, यः पुनर्भगवतः सकाशात्तच्छिप्यानगारेभ्यो वा विज्ञाय पृथ्वीसमारम्भ पापात्मकं भावयति स एवं मन्यत इत्याह-'सेत'मित्यादि, 'सः' ज्ञातपृथिवीजीवत्वेन विदितपरमार्थः 'तं' पृथ्वीशस्त्रसमारम्भमहितं सम्यगवबुध्यमानः 'आदानीयं ग्राह्य सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय-अभ्युपगम्य, केन प्रत्ययेनेति दर्शयति-'श्रुत्वा' अवगम्य साक्षाद्भगवतोऽनगाराणां वा समीपे, ततः 'इह' मनुष्यजन्मनि 'एकेषां प्रतिबुद्धतत्वानां साधूनां ज्ञातं भवतीति, यत् ज्ञातं भवति तदर्शयितुमाह-'एसे'त्यादि, एष पृथ्वीशस्त्रसमारम्भः खलुरवधारणे कारणे कार्योपचारं कृत्वा 'नडूवलोदकं पादरोग' इति न्यायेनैष एव ग्रन्थः-अष्टप्रकारकर्मवन्धः, तथैष एव पथ्वीसमारम्भो मोहहेतुत्वान्मोहः-कर्मबन्धविशेषो दर्शनचारित्रभेदोऽष्टाविंशतिविधः, तथैष एव मरणहेतुत्वात्मार:-आयुष्ककर्मक्षयलक्षणः, तथैप एव नरकहेतुत्वान्नरका-सीमन्तकादिभू भागः, अनेन चासातावेदनीयमुपात्तं भवति, कथं पुनरेकप्राणिव्यापादनप्रवृत्तावष्टविधकर्मबन्धं करोतीति, उच्यते, मार्यमाणजन्तुज्ञानावरोधित्वात् ज्ञानावरणीयं बध्नात्येवमन्यत्राप्यायोजनीयमिति, अन्यदपि तेषां ज्ञातं भवतीति दर्शयितुमाह-'इच्चस्थमित्यादि, 'इत्येवमर्थम् ' आहारभूषणोपकरणार्थ ॥ ७४॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ७५ ॥ तथा परिवन्दनमाननपूजनार्थ दुःखप्रतिघातहेतु च 'गृडो' मूर्छितो 'लोकः' प्राणिगणः, एवंविधेऽप्यतिदुरितनिचयविपाकफले पृथ्वीकायसमारम्भे अज्ञानवशान्मूर्छितस्त्वेतद्विधत्त इति दर्शयति-'यद्' यस्माद् 'इम' पृथ्वीकार्य विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथ्वीकर्म(कार्य) समारंभमाणो हिनस्ति, पृथिवीकर्मसमारम्भेण च पृथिव्येव शस्त्रं स्वकायादेः पृथिव्या वा शस्त्रं हलकुद्दालादि तत्समारभते, पृथिवीशस्त्रं समारभमाणश्चान्याननेकरूपान् . 'प्राणिनो' द्वीन्द्रियादीन्विविधं हिनस्तीति । स्यादारेका, ये हि न पश्यन्ति न शृण्वन्ति न जिघ्रन्ति न गच्छन्ति कथं पुनस्ते वेदनामनुभवन्तीति ग्रहीतव्यम् ?, अमुष्यार्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तमाह-'से बेमी' त्यादि, सोऽहं पृष्टो भवता पृथिवी कायवेदनां ब्रवीमि, अथवा 'से' इति तच्छब्दार्थे वर्तते, यचया पृष्टस्तदहं ब्रवीमि, अपिशब्दो यथानामशब्दार्थे, यथा नाम कश्चिज्जात्यन्धो बधिरो मूकः कुष्ठी पगुः अनभिनिवृत्तपाण्याद्यवयवविभागो मृगापुत्रवत् पूर्वकृताशुभकर्मोदयाद्धिताहितप्राप्तिपरिहारविमुखोऽतिकरुणां दशां प्राप्तः, तमेवंविधमन्धादिगुणोपेतं कश्चित्कुन्ताग्रेण 'अब्भे' इति आभिन्द्यात् तथाऽपरः कश्चिदन्धमाच्छिन्द्यात् , स च भिद्यमानाद्यवस्थायां न पश्यति न शृणोति मृकत्वानोच्चै रारटीति, किमेतावता तस्य वेदनाऽभावो जीवाभावो वा शक्यो विज्ञातुम् १, एवं पृथिवीजीवा अप्यव्यक्तचेतना जात्यन्धवधिरमूकपङ्गवादिगुणोपेतपुरुषवदिति, यथा वा पञ्चेन्द्रियाणां परिस्पष्टचेतनानां 'अप्पेगे पायमन्भ' इति यथा नाम कश्चित्पादमाभिन्द्यादाच्छिन्द्याद्वेत्येवं गुल्फादिष्वप्यायोजनीयमिति दर्शयति, एवं जवाजानूरुकटीनाभ्युदरपार्श्वपृष्टउरोहृदयस्तनस्कन्धबाहुहस्ताङ्गुलि B ॥७५। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः अध्ययनं १ उद्देशकः २ ॥ ७॥ नखग्रीवाहनुकोष्ठदन्तजिह्वातालुगलगण्डकर्णनासिकाक्षिभ्र ललाटशिरःप्रभृतिष्ववयवेषु भिद्यमानेषु छिद्यमानेषु वा वेदनोत्पत्तिलक्ष्यते, एवमेषामुत्कटमोहाज्ञानभार्जा स्त्यानर्याधुदयादव्यक्तचेतनानामव्यक्तैव वेदना भवतीति ग्राह्यम् । अत्रैव दृष्टान्तान्तरं दर्शयितुमाह-'अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए' यथा नाम कश्चित् 'सम्' एकीभावेन प्रकर्षण प्राणानां मारणम्-अव्यक्तत्वापादनं कस्यचित कुर्यात, मुर्छामापादयेदित्यर्थः, तथाऽवस्थं च यथा नाम कश्चिदपापयेत् प्राणेभ्यो व्यपरोपयेत् न चासौ ता वेदना स्फुटामनु भवति, अस्ति चाव्यक्ता तस्यासौ वेद(चेत)नेति, एवं पृथिवीजीवानामपि द्रष्टव्यमिति । पृथिवीकायिकानां जीवत्वं प्रसाध्य तथा नानाविधशस्त्रसंपाते वेदनां चाविर्भाव्य अधुना तद्वधे बन्धं दर्शयितुमाह एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति, तं परिणाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्थं समारंभेजा, णेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेजा, णेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणजाणेजा, जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से हुमुणी परिणातकम्मेत्ति बेमि ॥ सू०१७ ॥ इति प्रथमाध्ययने द्वितीय उद्देशकः ॥१२॥ 'अत्र' पृथिवीकाये 'शस्त्र' द्रव्यभावभिन्न, तत्र द्रव्यशस्त्रं स्वकायपरकायोमयरूपं, भावशस्त्रं त्वसंयमो दुष्प्रणिहितमनोवाकायलक्षणः, एतद्विविधमपि शस्त्रं समारभमाणस्येति 'एते' खननकृष्याद्यात्मकार समारम्भाः बन्धहेतत्वेन ॥७६ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७७॥ 'अपरिज्ञाता' अविदिता भवन्ति, एतद्विपरीतस्य परिज्ञाता भवन्तीति दर्शयितुमाह-"एत्थे'त्यादि, 'अत्र' पृथिवीकाये द्विविधमपि शस्त्रम् 'असमारभमाणस्स' अव्यापारयत इति, 'एते' प्रागुक्ताः कर्मसमारम्भाः 'परिज्ञाता' विदिता भवन्ति, अनेन च विरत्यधिकारः प्रतिपादितो भवतीति, तामेव विरतिं स्वनामग्राहमाह-'त'मित्यादि, तं पृथिवीकायसमारम्भ बन्धं परिज्ञाय असमारम्भे चाऽबन्धमिति 'मेधावी' कुशलः एतत् कुर्यादिति-दर्शयति नैव पृथिवीशस्त्रं द्रव्यभावभिन्न समारमेत, नापि तद्विषयोऽन्यैः समारम्भः कारयितव्यः, न चान्यान् पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात इति, एवं च मनोवाकायकम्मभिरतीतानागतकालयोरप्यायोजनीयमिति, ततश्चैवं कृतनिवृत्तिरसौ मुनिरिति व्यपदिश्यते न शेष इति दर्शयन्नुपसञ्जिहीषुराह-'यस्य' विदितपृथिवीजीववेदनास्वरूपस्य, 'एते' पृथिवीविषयाः कर्म Ra समारम्भाः खननकृष्याद्यात्मकाः कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति ज्ञपरिज्ञया तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहता भवन्ति, हुरवधारणे, स एव मुनिर्द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञातं कर्म-सावद्यानुष्ठानमष्टप्रकारं वा कर्म येन स परिज्ञातकर्मा, नापरः शाक्यादिः, ब्रवीमि पूर्ववदिति शस्त्रपरिज्ञायां द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥ १-२॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ -:: B ॥ ७॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ अथ प्रथमाध्ययने तृतीयोऽप्कायोद्देशकः ॥ अध्ययन गतः पृथिव्युद्देशकः, साम्प्रतमप्कायोद्देशकः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके पृथिवीकायजीवाः उद्देशक: ३ प्रतिपादितास्तबधे बन्धो विरतिश्च, साम्प्रतं क्रमायातस्याप्कायस्य जीवत्वं तदधे बन्धो विरतिश्च प्रतिपाद्यते इति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे अप्कायोद्देशकः, तत्र पृथिवीकायजीवस्वरूपसमधिगतये यानि नव निक्षेपादीनि द्वाराण्युक्तानि, अप्कायेऽपि तान्येव समानतयाऽतिर्देष्टुकामः कानिचिद्विशेषाभिधित्सयोद्धतु कामश्च नियुक्तिकारो गाथामाह__आउस्सवि दाराइं ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणवभोगसत्थे य॥१०६॥ अप्कायस्यापि तान्येव द्वाराणि भवन्ति यानि पृथिव्याः प्रतिपादितानीति, 'नानात्वं भेदरूपं विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रविषयं द्रष्टव्यं, चशब्दाल्लक्षणविषयं च, तुशब्दोऽवधारणार्थः, एतद्गतमेव नानात्वं नान्यगतमिति ॥ तत्र विधानं-प्ररूपणा, तद्गतं नानात्वं प्रदर्शयितुमाह- . दुविहा उ आउजीचा सुहमा तह बायरा य लोगंमि । सुहमा य सव्वलोए पंचेव य बायरविहाणा ॥१०॥ ___स्पष्टा । तत्र पश्च वादरविधानानि दर्शयितुमाह Blu७८॥ सुद्धोदए य उस्सा हिमे य महिमा य हरतणू चेव । बायर आउविहाणा पंचविहा पण्णिया एए ॥१०॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ७६ ॥ 'शुद्धोदकं' तडागसमुद्र नदीहद । वटा दिगंतमवश्यायादिरहितमिति, 'अवश्यायो' रजन्यां यस्त्रेहः पतति, हिमं तु शिशिरसमये शीतपुद्गलसम्पर्कज्जलमेव कठिनीभृतमिति, गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातो महिकेत्युच्यते, वर्षाशरत्कालयोर्हरिताङ्कुर मस्तकस्थितो जलबिन्दु मिस्नेह सम्पर्कोद्भूतो हरतनुशब्देनाभिधीयते, एवमेते पञ्च बादराकायविधयो व्यावर्णिताः । ननु च प्रज्ञापनायां वादगष्कायभेदा बहवः परिपठिताः, तद्यथा - करकशीतोष्णक्षारक्षत्रकट्वम्ललवणवरुण का लोदपुष्कर चीरघृते चुरसादयः, कथं पुनस्तेषामत्र सङ्ग्रहः ?, उच्यते, करकस्तावत्कठिनत्वाद्धिमान्त'पाती, शेषास्तु स्पर्शरसस्थानवर्णमात्रभिन्नत्वान्न शुद्धोदकमतिवर्त्तन्ते यद्येवं प्रज्ञापनायां किमर्थोऽपरभेदानां पाठः ?, उच्यते, स्त्रीबालमन्दबुद्धयादिप्रतिपत्यर्थमिति, इहापि कस्मान्न तदर्थं पाठः १, उच्यते प्रज्ञापनाध्ययनमुपाङ्गत्वादार्थ, तत्र युक्तः सकलभेदोपन्यासः स्त्र्याद्यनुग्रहाय नियुक्तयस्तु सूत्रार्थं पिण्डीकुर्वन्त्यः प्रवर्तन्त इत्यदोषः । त एते वादराकायाः समासतो द्वेधाः - पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च तत्रापर्यातका वर्णादीनसम्प्राप्ताः, पर्याप्तकास्तु वर्णगन्धरसस्पर्शादेशैः सहस्त्राशोभिद्यन्ते, ततश्च सङ्ख्येयानि योनिप्रमुखानि शतसहस्त्राणि भवन्ति भेदानामित्यवगन्तव्यं, संवृतयोनयश्च ते साच योनिः सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, पुनश्च शीतोष्णोभयभेदात्त्रिविधैव, एवं गण्यमानाः योनीनां सप्त लक्षा भवन्तीति ॥ प्ररूपणानन्तरं परिमाणबारमाह जे बायरपज्जत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा तिन्निवि रासी वीसु' लोगा असंखिज्जा ॥ १०६ ॥ ये बादरा काय पर्याप्तकास्ते संवचितलोकप्रतरासंख्येय भागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषास्तु त्रयोऽपि राशयो ॥ ७६ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) उद्देशकः२ ॥८०॥ 'विष्वक' पथगसंख्येयलोकाकाशप्रदेशगशिपरिमाणा इति, विशेपश्चायम्-चादरपथिवीकायपर्याप्तकेभ्यो बादराप्कायपर्याप्तका असंख्येयगुणाः बादरपृथ्वीकायापर्याप्तकेभ्यो बादराप्कायापर्याप्तका असंख्येयगुणाः सूक्ष्मपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माकायापर्याप्तका विशेषाधिकाः सूक्ष्मपृथ्वीकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माकायपर्याप्तका विशेषाधिकाः ॥ साम्प्रतं परिमाणद्वारानन्तरं चशब्दसूचितं लक्षणद्वारमाहजह हथिस्स सरीरं कललावत्थस्स अहुणोववन्नस्स । होइ उदगंडगस्स य एसुवमा सव्वजीवाणं ॥११०॥ ___ अथवा पर आक्षिपति-नाप्कायो जीवः, तल्लक्षणायोगात् प्रश्रवणादिवदित्यस्य हेतोरसिद्धतोद्भावनार्थ दृष्टान्तद्वारेण लक्षणमाह-जहेत्यादि, यथा हस्तिनः शरीरं कललावस्थायामधुनोत्पन्नस्य द्रवं सचेतनं च दृष्टम् , एवमप्कायोऽपीति, यथा वा उदकप्रधानमण्ड कमुदकाण्डकमधुनोत्पन्नमित्यर्थः, तन्मध्यव्यवस्थितं रसमात्रमसञ्जातावयवमनभिव्यक्तचञ्च्चादिप्रविभागं चेतनावद् दृष्टम् , एषा एवोपमा अप्कायजीवानामपीति, हस्तिशरीरकललग्रहणं च महाकायत्वात्तबह भवतीत्यतः सुखेन प्रतिपद्यते, अधुनोपपन्नग्रहणं सप्ताहपरिग्रहार्थ, यतः सप्ताहमेव कललं भवति, परतस्त्वर्बुदादि, अण्डकेऽप्यु(केदकग्रहणमेवमर्थमत्र, प्रयोगश्चायम्-सचेतना आपः, शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात् , हस्तिशरीरोपादानभूतकल लवत् , विशेषणोपादानात्प्रश्रवणादिव्युदासः, तथा सात्मकं तोयम् , अनुपहतद्रवत्वाद् , अण्डकमध्यस्थितकललवदिति, तथा आपो जीवशरीराणि, छेद्यत्वाद्भेद्यत्वादुत्क्षेप्यत्वाद्भोज्यत्वाद्भोग्यत्वात् घेयत्वाद्रसनीयत्वात् स्पर्शनीयत्वात दृश्यत्वाद् द्रव्यत्वाद् एवं सर्वेऽपि शरीरधर्मा हेतुत्वेनोपन्यसनीयाः, गगनवर्जभूतधर्माश्च रूपवत्त्वाकारववादयः, ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥८०।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्र चायं दृष्टान्तः-मास्नाविषाणादिसङ्घातवदिति, ननु च रूपवत्त्वाकारवत्वादयो भूतधर्माः परमाणुष्वपि दृष्टा | इत्यनेकान्तिकता, नैतदेवं, यदत्र छेद्यत्वादिहेतुत्वेनोपन्यस्तं तत्सर्वमिन्द्रियव्यवहारानुपाति, न च तथा परमाणवः, अतः प्रकरणादतीन्द्रियपरमाणुव्यवच्छेदः, यदिवा नैवासौ विपक्षः, सर्वस्य पुद्गलद्रव्यस्य द्रव्यशरीराभ्युपगमात् , जीवसहितासहितत्वं तु विशेषः, उक्तं च "तणवोऽणन्भातिविगार मुत्तजाइत्तओऽणिलंता उ । सत्थासत्थहयाओ निज्जीवसजीवरुवाओ ॥ १॥" एवं शरीरत्वे सिद्धे सति प्रमाणं-सचेतना हिमादयः, क्वचित् अप्कायत्वाद् , इतरोदकवत् इति, तथा सचेतना आपः, क्वचित् खातभूमिस्वाभाविकसम्भवत्वाद्, दर्दु खत्, अथवा सचेतना अन्तरिक्षोद्भवा आपः, स्वाभाविकव्योमसम्भृतसम्पातित्वात्, मत्स्यवत्, अत एते एवविधलक्षणभाक्त्वाज्जीवा भवन्त्यप्कायाः॥ साम्प्रतमुपभोगद्वारमाह पहाणे पिअणे तह धोअणे य भत्तकरण अ सेए अ। आउस्स उ परिभोगो गमणागमणे य जी(ना)वाणं ॥ १११॥ स्नानपानधावनभक्तकरणसेकयानपात्रोडुपगमनागमनादिरुपभोगः ॥ ततश्च तत्परिभोगाभिलाषिणो जीवा एतानि कारणन्युद्दिश्याप्कायवधे प्रवर्तन्त इति प्रदर्शयितुमाह__ एएहिं कारणेहिं हिंसंती आउकाइए जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्रवं उदीरेंति ॥ ११२॥ १तनवोऽण्वभ्रादिविकारो मूर्तजातित्वतः अनिलान्तास्तु । शस्राशस्त्रहता निर्जीवसजीवरूपाः ॥१॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥८२॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 'एभिः' स्नानावगाहनादिका कारणरुपस्थितैः विषयविषमोहितात्मानो निष्करुणा अप्कायिकान् जीवान् 'हिंसन्ति' व्यापादयन्ति, किमर्थमित्याह-'सातं' सुखं तदात्मनः 'अन्वेषयन्तः प्रार्थयन्तः हिताहितविचारशून्यमनसः कतिपयदिवस Kaअध्ययनं १ स्थायिरम्ययौवनदध्मातचेतसः सन्तः सद्विवेकरहिताः तथा विवेकिजनसंसर्गविकलाः 'परस्य' अबादेर्जन्तुगणस्य उद्देशकः २ 'दुःखम्' असातलक्षणं तद् 'उदीरयन्ति' असातवेदनीयमुत्पादयन्तीत्यर्थः, उक्तं च-"एक हि चक्षरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्वितीयम् । एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलन खलु कोऽपराधः ॥ १॥ इदानीं शस्त्रद्वारमुच्यते उस्सिचणगालणधोवणे य उवगरणमत्तभंडे य । बायरआउक्काए एयं तु समासओ सत्थं ॥ ११३ ॥ शस्त्र द्रव्यभावभेदात् द्विधा-द्रव्यशस्त्रमपि समासविभागभेदात् द्विधैव, तत्र समासतो द्रव्यशस्त्रमिदम्-ऊर्दू सेच नमुत्सेचनं-कूपादेः कोशादिनोत्क्षेपणमित्यर्थः, 'गालनं' घनमसृणवस्त्रान्तेिन 'धावन' वस्त्राद्यपकरणचर्मकोशकटाहा(घटा)दिभण्डकविषयम्, एवमादिकं बादराप्काये 'एतत्' पूर्वोक्तं 'समासतः' सामान्येन शस्त्रं, तुशब्दो विभागापेक्षया विशेषणार्थः । विभागतस्त्विदम्-.. किंची सकाय सत्थं किंची परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो सत्थं ॥ ११४॥ किञ्चित् स्वकायशस्त्रं नादेयं तडागस्य, किञ्चित्परकायशस्त्रं मृत्तिकास्नेहक्षारादि, किश्चिच्चोभयं उदकमिश्रमृत्ति an८२॥ कोदकस्येति, भावशस्त्रमसंयमः प्रमत्तस्य दुष्प्रणिहितमनोवाकायलक्षण इति ॥ शेषद्वाराणि पृथिवीकायवन्नेतव्यानि ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ८३ ॥ इति दर्शयितुमाह सेसाई दाइ' ताइ' जाइ' हवंति पुढवीए । एवं आउछेसे निज्जुत्ती किन्तिया एसा (होइ ) ।। ११५ ।। 'शेषाणी' त्युक्तशेषाणि निक्षेपवेदनावधनिवृत्तिरूपाणि तान्येवात्रापि द्रष्टव्यानि यानि २ पृथिव्यां भवन्तीति, 'एवम्' उक्तप्रकारेणाकायो देशके 'निर्युक्तिः' निश्चयेनार्थघटना 'कीर्त्तिता' प्रदर्शिता भवतीति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम् से बेमिव जहा से अणगारे उज्जुकडे नियागपडिवण्णे (निकायपडिवन्ने) अमायं कुव्वमाणे वियाहिए | सू० १८ ॥ 'से बेमी' त्यादि अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशके परिसमाप्तिसूत्रे 'पृथिवीकायसमारम्भव्यावृत्तो मुनि' रित्युक्तं न चैतावता सम्पूर्णो मुनिर्भवति, यथा च भवति तथा दर्शयति तथाऽऽदिसूत्रेणायं सम्बन्धः - सुधर्मस्वामी इदमाह श्रुतं मया भगवदन्तिके यत् प्राक् प्रतिपादितमन्यच्चेदमित्येवं परम्परसूत्रसम्बन्धोऽपि प्राग्वद्वाच्यः । शब्दस्तच्छन्दार्थो, स यथा पृथिवीकायसमारम्भव्यावृत्त्युत्तरकालं सम्पूर्णानगारव्यपदेशभाग् भवति तदहं ब्रवीमि, अपि समुच्चये, स यथा चाऽनगारो न भवति तथा च ब्रवीमि 'अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणे' त्यादिनेति, न विद्यते अगारं - गृहमेषामित्यनगारा, इह च यत्यादिशब्दव्युदासेनानगारशब्दोपादाने नैतदाचष्टे - - गृहपरित्यागः प्रधानं मुनित्वकारणं, तदाश्रयत्वात्सावद्यानुष्ठानस्य, निखद्यानुष्ठायी च मुनिरिति दर्शयति-- 'उज्जुकडे 'ति ऋजु :- अकुटिल: ॥ ८३ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ८४ ॥ संयमो दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायनिरोधः सर्वसत्व संरक्षण प्रवृत्तत्वाद्दयैकरूपः सर्वत्राकुटिलगतिरितियावत्, यदि वा मोक्षस्थानगमनजु श्रेणिप्रतिपत्तेः सर्वसंवरसंयमात्, कारणे कार्योपचारं कृत्वा संयम एव स च सप्तदशप्रकार ऋजुः तं करोतीति ऋजुकृत्, ऋजुकारीत्यर्थः । अनेन चेदमुक्तं भवति - अशेष संयमानुष्ठायी सम्पूर्णोऽनगारः एवंविधश्चेदृग् भवतीति तद् दर्शयति – 'नियागपडिवन्ने' त्ति यजनं यागः नियतो निश्चितो वा यागो नियागो-मोक्षमार्गः सङ्गतार्थत्वा|द्धातोः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गतं सङ्गतमिति तं नियागं- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मोक्षमार्ग प्रतिपन्नो नियाग प्रतिपन्नः, पाठान्तरं वा 'निकायप्रतिपन्नो' निर्गतः कायः - औदारिकादिर्यस्माद्यस्मिन्वा सति स निकायोमोक्षस्तं प्रतिपन्नो निकायप्रतिपन्नः, तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनादेः स्वशक्त्याऽनुष्ठानात् स्वशक्त्याऽष्ठानं चामायाविनो भवतीति दर्शयति – 'अमायं कुव्वमाणे 'ति माया - सर्वत्र स्ववीर्यनिगूहनं, न माया अमाया तां कुर्बाणः, अनिगूहितसंयमानुष्ठाने पराक्रममाणोऽनगारो व्याख्यात इति, अनेन च तज्जातीयोपादानादशेषकषायापगमोऽपि द्रष्टव्य इति, उक्तं च—“सोही 'य उज्जयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठ" ति ॥ तदेवमसावुद्ध, तसकलमायावल्लीवितानः किं कुर्यादित्याह restraint मेव अणुपालिज्जा, वियहित्ता विसोत्तियं (विजहित्ता पुव्वसंजोयं) ॥ सू० १६ ॥ | 'यया श्रद्धया' प्रवर्द्धमान संयमस्थान(मानुष्ठान) कण्डकरूपया 'निष्क्रान्तः' प्रव्रज्यां गृहीतवान् 'तामेव' श्रद्धामश्रान्तो १ शोधिश्वर्जुभूतस्य धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति • अध्ययन १ उद्देशकः ३ ॥ ८४ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८५-18 यावज्जीवम् 'अनुपालयेद' रक्षेदित्यर्थः, प्रव्रज्याकाले च प्रायशः प्रवृद्धपरिणाम एव प्रव्रजति, पश्चात्तु संयमश्रेणी प्रतिपन्नो वर्द्धमानपरिणामो वा हीयमानपरिणामो वा अवस्थितपरिणामो वेति, तत्र वृद्धिकालो हानिकालो वा समयाद्यत्कणान्तमौहूर्तिकः, नातः परं सङ्क्लेशविशुद्ध्यद्धे भवतः, उक्तं च-"नान्तमुहूर्त्तकालमतिवृत्य शक्यं हि जगति सक्लेष्टुम् । नापि विशोडु शक्यं प्रत्यक्षो यात्मनः सोऽर्थः ॥ १॥" उपयोगद्यपरिवृत्तिः सा निर्हेतुका स्वभावत्वात् । आत्मप्रत्यक्षो हि स्वभावो व्यर्थाऽत्र हेतूक्तिः ॥ २॥" अवस्थितिकालश्च द्वयोवृद्धिहानिलक्षणयोर्यवमध्यवज्रमध्ययोरष्टौ समयाः, तत ऊर्ध्वमवश्यं पातात, अयं च वृद्धिहान्यवस्थितरूपः परिणामः केवलिनां निश्चयेन गम्यो न छद्मस्थानामिति । यद्यपि च प्रव्रज्याभिगमोत्तरकालं तसागरमवगाहमानः संवेगवैराग्यभावनाभावितान्तरात्मा कश्चित्प्रवर्द्धमानमेव परिणाम भजते, तथा चोक्तम्-'जह जह सुयमवगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमउव्वं । तह तह पल्हाइ मुणी नवनवसंवेगसडाए ॥१॥" तथापि स्तोक एव तादृक् बहवश्च परिपतन्ति अतोऽभिधीयते 'तामेवानुपालयेदिति, कथं पुनः कृत्वा श्रद्धामनुपालयेदित्याह-'विजहे'त्यादि, 'विहाय' परित्यज्य 'विस्रोतसिकां'शङ्का, सा च द्विधा-सर्वशङ्का देशशङ्का च, तत्र सर्वशङ्का किमस्ति आहतो मार्गो नवेति (मार्ग उत नेति), देशशङ्का तु किं विद्यन्ते अप्कायादयो जीवाः १, विशेष्य प्रवचनेऽभिहितत्वात् स्पष्टचेतनात्मलिङ्गाभावान्न विद्यन्ते इति वा, इत्येवमादिकामारेका विहाय सम्पूर्णाननगारगुणान् पालयेत्, य दिवा विस्रोतांसि द्रव्यभावभेदात् १ यथा यथा श्रुतमवगाहते ऽतिश्यरसप्रसरसंयुतमपूर्वम् । तथा तथा प्रह्लादते मुनिर्नवनवसंवेगश्रद्धया ॥१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥८५॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) अध्ययन ! उद्देशकः २ द्विधा-तत्र द्रव्यविस्रोतांसि नद्यादिस्रोतसां प्रतीपगमनानि, भावविस्रोतांसि तु मोक्ष प्रति सम्यग्दर्शनादिस्रोतसा प्रस्थितानां विरूपाणि, प्रतिकूलानि गमनानि भावविस्रोतांसि, तानि विहाय सम्पूर्णानगारगुणभाग् भवति, श्रद्धा वाऽनुपालयेदिति, पाठान्तरं वा विजहित्ता पुव्वसंजोग' पूर्वसंयोगः-मातापित्रादिभिः, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्पश्चासंयोगोऽपि श्वशुरादिकृतो ग्रावस्तं 'विहाय' त्यक्त्वा 'श्रद्धामनुपालयेदिति मीलनीयं ॥ तत्र यस्यायमुपदेशो दीयते यथा 'विहाय विस्रोतांसि तदनु श्रद्धानुपालनं कार्य' स एवाभिधीयते-न केवलं भवानेवापूर्वमिदमनुष्ठानमेवंविधं करिष्यति, किं त्वन्यैरपि महासत्वैः कृतपूर्वमिति दर्शयितुमाह पणया वीरा महावीहिं ॥ सू० २०॥ _ 'प्रणताः' प्रहाः 'वीराः' परीषहोपसर्गकषायसेनाविजयात् वीथि:-पन्थाः महाश्चासौ वीथिश्च महावीथि:-सम्यग् दर्शनादिरूपो मोक्षमार्गो जिनेन्द्रचन्द्रादिभिः सत्पुरुषैः प्रहता, तं प्रति प्रहाः-वीर्यवन्तः संयमानुष्ठानं कुर्वन्ति, ततश्चोत्तमपुरुषप्रतोऽयं मार्ग इति प्रदर्श्य तज्जनितमार्गविसम्भो विनेयः संयमानुष्ठाने सुखेनैव प्रवर्त्तयिष्यते ॥ उपदेशान्तरमाह-लोकं चेत्यादि, अथवा यद्यपि भवतो मतिर्न क्रमतेऽष्कायजीवविषये, असंस्कृतत्वात्, तथापि भगवदाज्ञेयमिति श्रद्धातव्यमित्याह लोगं च आणाए अभिसमेचा अकुओभयं ॥ सू० २१॥ अत्राधिकृतत्वादप्कायलोको लोकशब्देनाभिधीयते, तमप्कायलोकं चशब्दादन्यांश्च पदार्थान् 'आज्ञया' मौनीन्द्र Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनेनाभिमुख्येन सम्यगित्वा-ज्ञात्वा, यथाऽप्कायादयो जीवाः, इत्येवमवगम्य न विद्यते कुतश्चिद्धतोः--केनापि प्रकारेण जन्तूनां भयं यस्मात् सोऽयमकुतोभयः-संयमस्तमनुपालयेदिति सम्बन्धः, यद्वा 'अकुतोभयः' अप्कायलोको, यतोऽसौ न कुतश्विद्भयमिच्छति, मरणभीरुत्वात् , तमाज्ञयाऽभिसमेत्यानुपालयेद्-रक्षेदित्यर्थः॥ अप्कायलोकमाज्ञया अभिसमेत्य यत्कर्त्तव्यं तदाह से बेमि, णेव सयं लोगं अन्भाइक्खिजा, णेव अत्ताणं अन्भाइक्खिज्जा, जे लोयं अन्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खह, जे असाणं अम्भाइक्खद से लोयं अन्भाइक्खा ॥ सू०२२॥ सोऽहं ब्रवीमि, सेशब्दस्य युष्मदर्थत्वाच्या वा ब्रवीमि, न 'स्वयम्' आत्मना 'लोकः' अप्कायलोकोऽभ्याख्यातव्यः, अभ्याख्यानं नामासदभियोगः, यथाऽचौरं चौरमित्याह, इह तु जीवा न भवन्त्यापः, केवलमुपकरणमात्रं, घृततैलादिवत्, एषोऽसदभियोगः, हस्त्यादीनामपि जीवानामुपकरणत्वात्, स्यादारेका-नत्वेतदेवाभ्याख्यानं यदजीवानां जीवत्वापादनं, नैतदस्ति, प्रसाधितमपां प्राक् सचेतनत्वं, यथा हि अस्य शरीरस्याहंप्रत्ययादिभिर्हेतुभिरधिष्ठाताऽऽत्मा व्यतिरिक्तः प्राक् प्रसाधित एवमप्कायोऽप्यव्यक्तचेतनया सचेतन इति प्राक् प्रसाधितः, न च प्रसाधितस्याभ्याख्यानं न्याय्यम्, अथापि स्याद्, आत्मनोऽपि शरीराधिष्ठातुरभ्याख्यानं कर्त्तव्यं, न च तक्रियमाणं घटामियीति दर्शयति'नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेजा' नैव 'आत्मानं' शरीराधिष्ठातारमहंप्रत्ययसिद्धं ज्ञानाभिन्नगुणं प्रत्यक्षं 'प्रत्याचक्षीत' अपह वीत, ननु चैतदेव कथमवसीयते-शरीराधिष्ठाताऽऽत्माऽस्तीति, उच्यते, विस्मरणशीलो देवानां प्रिय उत्तमपि भाण Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ८८ ॥ यति, तथाहि - आहृतमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमता, कफरुधिराङ्गोपाङ्गादिपरिणतेः, अन्नादिवत्, तथोत्सृष्टमपि केनचिदभिसन्धिमतैव, आहतत्वाद्, अन्नमलवदिति, तथा न ज्ञानोपलब्धिपूर्वकः परिस्पन्दो भ्रान्तिरूपः, परिस्पन्दत्वात् त्वदीयवचनपरिस्पन्दवत्, तथा विद्यमानाधिष्ठातृव्यापार भाञ्जीन्द्रियाणि, करणत्वात्, दात्रादिवत् एवं कुतवर्क मार्गानुसारिहेतुमालोच्छेदः स्याद्वादपरशुना कार्य:, अत एवंविधोपपत्तिसमधिगतमात्मानं शुभाशुभफलभाजं न प्रत्याचक्षीत, एवं च सति यो झज्ञः कुतर्कतिमिरोपहतज्ञानचक्षुर काय लोकमभ्याख्याति प्रत्याचष्टे स सर्वप्रमाणसिद्धमात्मानमभ्याख्याति यश्चात्मानमभ्याख्याति नास्म्यहं स सामर्थ्यादप्काय लोकमभ्याख्याति, यतो ह्यात्मनि पाण्याद्यवयवोपेतशरीराधिष्ठायिनि प्रस्पष्टलिङ्ग भ्याख्याते सत्यव्यक्त चेतनालिङ्गोऽकाय लोकस्तेन सुतरामभ्याख्यातः ॥ एवमनेकदोषोपपत्तिं विदित्वा नायमप्कायलोकोऽभ्याख्यातत्र्य इत्यालोच्य साधवो नापकायविषयमारम्भं कुर्वन्तीति, शाक्यदयस्त्वन्यथोपस्थिता इति दर्शयितुमाह लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ १ । तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघाय हेउ से सयमेव उदयसत्थं समारभति अण्णेहिं वा उदयसत्थं समारंभावेति अण्णे उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति, तं से अहि अध्ययनं १ उद्देशकः २ ॥ ८८ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ८% याए, तं से अघोहीए २। से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खल मारे एस खल णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारम्भेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसह ३ । सेबेसि संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगा ४ ॥ सू० २३॥ 'लज्जमानाः स्वकीय प्रव्रज्याभासं कुर्वाणाः यदिवा सावद्यानुष्ठानेन लज्जमाना:-लज्जां कुर्वाणाः 'पथग'विभिनाः शाक्योलककणभक्कपिलादिशिष्याः, पश्येति शिष्यचोदना, अविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्ति, यथा-पश्य || मृगो धावतीति, द्वितीयार्थे वा प्रथमा सुव्यत्ययेन द्रष्टव्या, ततश्चायमर्थः-शाक्यादीन् गृहीतप्रव्रज्यानपि सावद्यानुष्ठानातान प्रथग्विभिमान पश्य, किं तैरसदाचरितं ? येनैवं प्रदय॑न्त इति दर्शयति-अनगारा वयमित्येके शाक्यादयः प्रवदस्तो 'यदिदं' यदेतत, काक्वा दर्शयति-'विरूपरूप:' उत्सेचनाग्निविध्यापनादिशस्त्रैः स्वकायपरकायभेदभिन्नैरुदककर्म समारमन्ते. उदककर्मसमारम्भेण च उदके शस्त्रं उदकमेव वा शस्त्रं समारभन्ते, तच समारभमाणोऽनेकरूपान्वनस्पतिद्वीन्द्रियादीन्विविधं हिनस्ति १, तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, यथा अस्यैव जीवितव्यस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतु यत् करोति तदर्शयति–स स्वयमेवोदकशस्त्रं समारभते अन्यैश्चोदकशस्त्रं समारम्भयति अन्यांश्चोदकशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते, तच्चोदकसमारम्भणं तस्याहिताय भवति, तथा R४॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवाबोधिलाभाय भवति २, स एतत्सम्बुध्यमान आदानीयं-सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय--अभ्युपगम्य श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां वाऽन्तिके इहैकेषां साधनां यत् ज्ञातं भवति तद्दर्शयति--'एषः' अप्कायसमारम्भो ग्रन्थ एष खलु मोह अध्ययनं १ . श्रीआचाराङ्गवृत्तिः एष खलु मार एष खलु नरक इत्येवमर्थ गृद्धो लोको यदिदं विरूपरूपैः शम्त्रैः उदककर्मसमारम्भेणोदकशस्त्रं समार- उद्देशकः २ (शीलाङ्का ममाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनो विविधं हिनस्तीत्येतत्प्राग्वत् व्याख्येयं ३, पुनरप्याह-'से बेमी'त्यादि, सेशब्द आत्म निर्देशे, सोऽहमेवमुपलब्धानेकाप्कायतत्ववृत्तान्तो ब्रवीमि--'सन्ति' विद्यन्ते प्राणिन उदकनिश्रिताः-पूतरकमत्स्यादयो RAL यानुदकारम्भप्रवृत्तो हन्यादिति, अथवाऽपरः सम्बन्धः-प्रागुक्तमुदकशस्त्रं समारममाणोऽन्यानप्यनेकरूपान् जन्तून् । विविधं हिनस्तीति, तत् कथमेतच्छक्यमभ्युपगन्तुमित्यत आह--'सन्ति पाणा' इत्यादि पूर्ववत्, कियन्तः पुनस्त इति दर्शयति--'जीवा अणेगा' पुनर्जीवोपादानमुदकाश्रितप्रभूतजीवभेदज्ञापनार्थ ततश्च दमुक्तं भवति-एकैकस्मिन् जीवभेदे उदकाश्रिता 'अनेके' असंख्येयाः प्राणिनो भवन्ति, एवं चाप्कायविषयारम्भभाज: पुरुषास्ते तनिश्रितप्रभूतजीवसत्त्वव्यापत्तिकारिणो द्रष्टव्याः ४॥ शाक्यादयस्तूदकाश्रितानेव द्वीन्द्रियादीन् जीवानिच्छन्ति नोदकमित्येतदेव दर्शयति इहं च खल भो ! अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया ॥ सू० २४ ॥ खलुशन्दोऽवधारणे 'इहैव' ज्ञातपुत्रीये प्रवचने द्वादशाङ्ग गणिपिटके 'अनगाराणां' साधूनाम् 'उदकजीवा' उदकरूपा जीवाश्चशब्दात्तदाश्रिताश्च पूतरकछेदनकलोद्दणकभ्रमरकमत्स्यादयो जीवा व्याख्याताः, अवधारण फलं च। नान्येषामुदकरूपा जीवाः प्रतिपादिताः ॥ यद्येवमुदकमेव जीवास्ततोऽवश्यं तत्परिभोगे सति प्राणातिपातमाजः साधव ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ इति, अत्रोच्यते, नैतदेवं, यतो वयं त्रिविधमकायमाचक्ष्महे--सचित्तं मिश्रमचित्तं च, तत्र योऽचित्तोऽप्कायस्तेनोपयोगविधिः साधूना, नेतराभ्यां, कथं पुनरसौ भवन्यचित्तः ? किं स्वभावादेवाहोश्विच्छत्रसम्बन्धात् ?, उभयथाऽपीति, तत्र यः स्वभावादेवाचित्तीभवति न बाह्यशस्त्रसम्पर्कात्, तमचित्तं जानाना अपि केवलमनःपर्यायावधिश्रतज्ञानिनो न परि-al भुञ्जते, अनवस्थाप्रसङ्गभीरुतया, यतो नु श्रयते-भगवता किल श्रीवर्द्धमानस्वामिना विमलसलिलसमुल्लसत्तरङ्गः शैवलपटलासादिरहितो महाहदो व्यपगताशेषजलजन्तुकोऽचित्तवारिपरिपूर्णः स्वशिष्याणां तृड्बाधितानामपि पानाय नानुजज्ञे, तथा अचित्ततिलशकटस्थण्डिलपरिभोगानुज्ञा चानवस्थादोषसंरक्षणाय भगवता न कृतेति, श्रुतज्ञानप्रामाण्यज्ञापनार्थ च, तथाहि-सामान्यश्रुतज्ञानी बाह्यन्धनसम्पर्कारुषितस्वरूपमेवाचित्तमिति व्यवहरति जलं, न पुनर्निरिन्धनमेवेति, अतो यद्वादशस्त्रसम्पर्कात् परिणामान्तरापन्नं वर्णादिभिस्तदचित्तं साधुपरिमोगाय कल्पते, किं पुनस्तच्छस्त्रमित्यत आह सत्यं चेत्थ अणुवीई पासा, पुढो सत्थं (ऽपास) पवेइयं ॥ सू. २५ ॥ शस्यन्ते–हिंस्यन्तेऽनेन प्राणिन इति शस्त्रं, तच्चोत्सेचनगालनउपकरणधावनादि स्वकायादि च वर्णाद्यापत्तयो वा पूर्वावस्थाविलक्षणाः शस्त्रं, तथाहि-अग्निपुद्गलानुगतत्वादीषत्पिङ्गलं जलं भवत्युष्णं गन्धतोऽपि धूमगन्धि रसतो विरसं स्पर्शत उष्णं तच्चोद्वत्तत्रिदण्डम्, एवंविधावस्थं यदि ततः कल्पते, नान्यथा, तथा कचवरकरीपगोमूत्रोषादीन्धनसम्बन्धात् स्तोकमध्यबहुभेदात्, स्तोकं स्तोके प्रक्षिपतीत्यादिचतुर्भङ्गिकाभावना कार्या, एवमेतत् त्रिविधं शस्त्रं, चशब्दो १॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं १ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः उद्देशकः३ (शीलाङ्का.) ऽवधारणार्थः, अन्यतमशस्त्रसम्पर्कविधस्तमेव ग्राह्य, नान्यथेति, 'एत्थति एतस्मिन् अपकाये प्रस्तुते 'अनुविचिन्त्य' विचार्य इदमस्य शस्त्रमित्येवं ग्राह्य', 'पश्ये त्यनेन शिष्यस्य चोदनेति । तदेवं नानाविधं शस्त्रमपकायस्यास्तीति प्रतिपादितम्. एतदेव दर्शयति-'पुढो सत्थं पवेदितं' 'पृथग्' विभिन्नमुत्सेचनादिकं शस्त्रं 'प्रवेदितम्' आख्यातं भगवता, पाठान्तरं वा पुढोऽपासं पवेदितं' एवं पृथग्विभिन्नलक्षणेन शस्त्रेण परिणामितमुदकग्रहणमपाशं प्रवेदितम्-आख्यातं भगवता, अपाशः- अबन्धनं शस्त्रपरिणामितोदकग्रहणमबन्धनमाख्यातमितियावद् ॥ एवं तावत्साधूनां सचित्तमिश्राप्कायपरित्यागेनाचित्तपयसां परिभोगः प्रतिपादितः, ये पुनः शाक्यादयोऽपकायोपभोगप्रवृत्तास्ते नियमत एवाप्कार्य विहिंसन्ति, तदाश्रितांश्चान्यानिति, तत्र न केवलं प्राणातिपातापत्तिरेव तेषां, किमन्यदित्यत आह अदु वा अदिनादाणं ॥ सू० २६ ॥ .. ___ 'अथ वेति पक्षान्तरोपन्यासद्वारेणाम्युच्चयोपदर्शनार्थः, अशस्त्रोपहताप्कायोपभोगकारिणां न केवलं प्राणातिपातः, अपि त्वदत्तादानमपि तत्तेषां, यतो यैरप्कायजन्तुभिर्यानि शरीराणि निर्वतितानि तैरदत्तानि ते तान्युपभुञ्जते, यथाकश्चित् पुमान् सचित्तशाक्यमिक्षुकशरीरकात् खण्डमुत्कृत्य गृहणीयाद्, अदत्तं हि तस्य तत्, परपरिगृहीतत्वात्, परकीयगवाद्यादानवल, एवं तानि शरीराण्यजीवपरिगृहीतानि गृहणीतोऽदत्तादानमवश्यम्भावि, स्वाम्यनुज्ञानाभावादिति, ननु यस्य तत्तडागकूपादि तेनानुज्ञातं सकृत्तत्पय इति, ततश्च नादत्तादानं, स्वामिनाऽनुज्ञातत्वात्, परानुज्ञातपश्वादिघातवत्, नन्वेतदपि साध्यावस्थमेवोपन्यस्तं, यतः पशुरपि शरीरप्रदानविमुख एव भिन्नार्यमर्यादैरुच्चैरारटन्विशस्यते, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ६३॥ ततश्च कथमिव नादत्तादानं स्यात् ?, न चान्यदीयस्यान्यः स्वामी दृष्टः परमार्थचिन्तायां, नन्वेवमशेषलोकप्रसिद्ध गोदानादिव्यवहारस्त्रुट्यति, त्रुट्यतु नामैवंविधः पापसम्बन्ध:, तद्धि देयं यद्दुःखितं स्वयं न भवति दासीबलीयादिवत्, न चान्येषां दुःखोत्पत्तेः कारणं हलखड्गादिवत् एतद्व्यतिरिक्तं दातुपरिगृहीत्रोरेकान्तत एवोपकारकं देयं प्रतिजानते जिनेन्द्रमतावलम्बिनः, उक्तं च - " यत् स्वयमदुःखितं स्यान्न च परदुःखे निमित्तभूतमपि । केवलमुपग्रहकरं धर्मकृते तद्भवेद्देयम् ॥ १ ॥” इति तस्मादवस्थितमेतत् - तेषां तददत्तादानमपीति ॥ साम्प्रतमेतद्दोषद्वयं स्वसिद्धान्ताभ्युपगमद्वारेण परः परिजिहीषु राह कप्पड़ ने कप्पर णे पाउ, अदुवा विभूसाए ॥ सू० २७ ॥ अशस्त्रोपहतोदकारम्भिणो हि चोदिताः सन्त एवमाहुः - यथा नैतत् स्वमनीषिकातः समारम्भयामो वयं किं त्वागमे निर्जीवत्वेनानिषिद्धत्वात् 'कल्पते' युज्यते 'नः 'अस्माकं 'पातुम्' अभ्यवहतु मिति, वीप्सया च नानाविधप्रयोजनविषय उपभोगोऽभ्यनुज्ञातो भवति, तथाहि - आजीविक भस्मस्नाय्यादयो वदन्ति - पातुमस्माक कल्पते न स्नातु वारिणा, शाक्य परिव्राजकादयस्तु स्नानपानावगाहनादि सर्व कल्पते इति प्रभाषन्ते, एतदेव स्वनामग्राहं दर्शयति--अथवोदकं विभूषार्थमनुज्ञातं नः समये, विभूषा करचरणपायूपस्थमुखप्रक्षालनादिका वस्त्र भण्डकादिप्रक्षालनात्मिका वा, एवं स्नानादिशौचानुष्ठायिनां नास्ति कश्चिद्दोष इति ॥ एवं ते परिफल्गुवचसः परिव्राजकादयो निजराद्धान्तोपन्यासेन मुग्धमतीविमोझ किं कुर्वन्तीत्याह ॥ ९३ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यय१ उद्देशकः २ . पुढो सत्थेहिं विउदृन्ति ॥ सू० २८ ॥ श्रीआचा 'पृथग' विभिन्नलक्षणैः नानारूपैरुत्सेचनादिशस्त्रस्ते अनगारायमाणाः 'विउदृन्ति'त्ति अपकायजीवान जीवनाथावतराङ्गवृत्तिः यन्ति-व्यपरोपयन्तीत्यर्थः, यदिवा पृथग्विभिन्नैः शस्त्रैरपुकायिकाधिविधं कुट्टन्ति-छिन्दन्तीत्यर्थः, कुट्ट र्द्धातोः छेदना(शीलाङ्का.) र्थत्वात ॥ अधुनैषामागमानुसारिणामागमासारत्वप्रतिपादनायाह१९४॥ एत्थऽवि तेसिं नो निकरणाए ॥ सू० २६ ॥ Pe 'एतस्मिन्नपि' प्रस्तुते स्वागमानुसारेणाभ्युपगमे सति 'कप्पडणे कप्पइ णे पाउ, अदुवा विभूसाए'त्ति एवं रूपस्तेषामयमागमो यबलादपकायपरिभोगे ते प्रवृत्ताः स स्याद्वादयुक्तिभिरम्याहतः सन् 'नो निकरणाए'तिनो निश्चय कत्तु समर्थो भवति, न केवलं तेषां युक्तयो न निश्चयायालम् , अपि त्वागमोऽपीत्यपिशब्दार्थः, कथं पुनस्तदागमो निश्चयाय नालमिति, अत्रोच्यते, त एवं प्रष्टव्याः कोऽयमागमो नाम ? यदादेशात्कल्पते भवतामपकायारम्भः, त आहुः. प्रतिविशिष्ठानुपूर्वीविन्पस्तवर्णपदवाक्यसङ्घात आप्तप्रणीत आगमः, नित्योऽकत को वा?, ततश्चैवमभ्युपगते यो येन प्रतिपन्न आप्तः स निराकर्त्तव्यः, अनाप्तोऽसौं अपकायजीवापरिज्ञानात् तद्वधानुज्ञानाद्वा भवानिव, जीवत्वं चापां प्राक् प्रसाधितमेव, ततस्तत्प्रणीतागमोऽपि सद्धर्माचोदनायामप्रमाणम्. अनाप्तप्रणीतत्वाद्, रथ्यापुरुषवाक्यवत्, अथ नित्योऽकत का समयोऽभ्युपगम्यते ततो नित्यत्वं दुष्प्रतिपादं, यतः शक्यते वक्तु-भवदभ्युपगतः समयः सकत को वर्णपदवाक्यात्मकत्वात्, विधिप्रतिषेधात्मकत्वात् , उभयसम्मतसककग्रन्थसन्दर्भवदिति, अभ्युपगम्य वा ब्रमः-अप्रमाणमसी, ..... ॥ ४ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यत्वादाकाशवत्, यच्च प्रमाणं तदनित्यं दृष्टं प्रत्यक्षादिवदिति, तथा विभूषासूत्रावयवेऽपि पृष्टा न प्रत्युत्तरदाने क्षमाः, यतियोग्यं स्नानं न भवति, कामाङ्गत्वात् , मण्डनवत्, कामाङ्गता च सर्वजनप्रसिद्धा, तथा चोक्तम्- "स्नानं मददर्पकरं, कामाङ्ग प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः॥१॥" शौचार्थोऽपि न पुष्कलो, वारिणा बाह्यमलापनयनमात्रत्वात्, न ह्यन्तर्व्यवस्थितकर्ममलक्षालनसमर्थ वारि दृष्टं, तस्माच्छरीवाङ्मनसामकुशलप्रवृत्तिनिरोधो भावशौचमेव कर्मक्षयायालं, तच्च वारिसाध्यं न भवति, कुतः ? अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वासर्वभावानां, न हि मत्स्यादयः तत्र स्थिता मत्स्यादित्वकर्मक्षयमाकत्वेनाभ्युपगम्यन्ते, विना च वारिणा महर्पयो विचित्रतपोभिः कर्म क्षपयन्तीति, अतः स्थितमेतत्-तत्समयो न निश्चयाय प्रभवतीति ॥ तदेवं निःसपत्नमपां जीवत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रवृत्तिनिवृत्तिविकल्पफलप्रदर्शनद्वारेणोपसंजिहीर्षुः सकलमुद्देशार्थमाह एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्सा इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी व सयं उदयसत्थं समारम्भेजा, णेवण्णेहिं उदयसत्थं समारंभावेज्जा, उदयसत्थं समारंभंतेऽवि अण्णे ण समणुजाणेजा, जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणातकम्मे त्ति बेमि ।। सू०३० ॥ इति ततीयोऽप्कायोद्देशकः ॥ एतस्मिन' अपकाये 'शस्त्रं द्रव्यभावरूपं समारममाणस्येत्येते समारम्भा वधवन्धकारणत्वेनापरिज्ञाता भवन्ति. ॥९५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ६६ ॥ अत्रैवापकाये शस्त्रमसमारभमाणस्येत्येते आरम्भा ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाता भवन्ति प्रत्याख्यान परिज्ञया च परिहृता भवन्ति, तामेव प्रत्याख्यानपरज्ञां विशेषतो ज्ञपरिज्ञापूत्रिकां दर्शयति- 'तद्' उदकारम्भणं बन्धायेत्येवं परिज्ञाय मेधावी - मर्यादाव्यवस्थितो नैव स्वयमुदकशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैरुदकशस्त्रं समारम्भयेत् नैवान्यानुदकशस्त्रं समारभमाणान्समनुजानीयात्, यस्यैते उदकशस्त्रसमारम्भाः द्विधा परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मा भवति । ब्रवीमीति पूर्ववद् । इति शस्त्रपरिज्ञायां तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ १-३ ॥ ॥ अथ प्रथमाध्ययने चतुर्थः तेजस्कायोद्द शकः ॥ उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देश के मुनित्वप्रतिपत्तये अप्कायः प्रतिपादितः तदधुना तदर्थमेव क्रमायातस्तेजस्कायप्रतिपादनायायमुद्देशकः समारभ्यते तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यनि तावद्यावन्नाम निष्पन्ने निक्षेपे तेज उद्देशक इति नाम, तत्र तेजसो निक्षेपादीनि द्वाराणि वाच्यानि, अत्र च पृथिवीविकल्पतुल्यत्वात् केषाश्चिदतिदेशो द्वाराणामपरेषां तद्विलक्षणत्वात् अपोद्धार इत्येतत् द्वयमुररीकृत्य नियुक्तिद् गाथामाह उस्सवि दाराई ताई' जाइ हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्थे य ॥ ११६ ॥ 'तेजसोsपि' अग्नेरपि 'द्वाराणि' निक्षेपादीनि यानि पृथिव्याः समधिगमेऽभिहितानि तान्येव वाच्यानि अपवादं 'अध्ययनं ? उद्ददेशकः २ ॥ ९६ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ७ ॥ Pal दर्शयितुमाह-'नानात्वं' मेदो विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रेषु, तुरवधारणे, विधानादिष्वेव च नानात्वं नान्यत्रेति, च शब्दाल्लक्षणद्वारपरिग्रहः ॥ यथाप्रतिज्ञातनिर्वहणार्थमादिद्वारव्याचिख्यासयाऽऽहदुविहा य तेउजीवा सुहुमा तह बायरा य लोगंमि । सुहमा य सव्वलोए पंचेव य बायरविहाणा ॥११७॥ स्पष्टा ॥ बादरपश्चभेदप्रतिपादनायाहइंगाल अगणि अच्चो जाला तह मुम्मुरे य बोडव्वे । बायरतेउविहाणा पंचविहा पण्णिया एए ॥११॥ दग्धेन्धनो विगतधूमज्वालोऽकारः, इन्धनस्थः लोपक्रियाविशिष्टरूपः तथा विद्यदुल्काऽशनिसङ्घर्षसमुत्थितः सूर्यमणिसंसृतादिरूपश्चाग्निः, दाह्यप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोऽचिः, ज्वाला छिनमूलाऽनङ्गारप्रतिबद्धा, प्रविरलाग्निकणानुविद्धं भस्म मुमुरः, एते बादरा अग्निभेदाः पञ्च भवन्तीति ॥ एते च बादराग्नयः स्वस्थानाङ्गीकरणान्मनुष्यक्षेत्रेऽर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेष्वव्याघातेन पश्चदशसु कर्मभूमिषु व्याघाते सति पञ्चसु विदेहेषु, नान्यत्र, उपपाताङ्गीकरणेन लोक। सङ्घय यभागवर्तिनः, तथा चागमः-"उववाएणं दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतह (४) य" अस्थायमर्थ:-अर्द्धत्तीयद्वीपसमुद्रवाहल्ये पूर्वापरदिक्षिणोत्तरस्वयम्भूरमणपर्यन्तायते ऊद्धर्वाधोलोकप्रमाणे कपाटे तयोः प्रविष्टा बादराग्निपुत्पद्यमानकास्तद्वथपदेशं लभन्ते, तथा 'तिरियलोयतट्ट (ट्ठ) यत्ति तिर्यग्लोकस्थालके च व्यवस्थितो बादराग्निपुत्पद्यमानो बादराग्निव्यपदेशभाग् भवति । अन्ये तु व्याचक्षते-तयोस्तिष्ठतीति ततस्थः, तिर्यग्लोकश्चासौ ततस्थश्च तिर्यग्लोकतत्स्थः, तत्र च स्थित उत्पित्सु दराग्निव्यपदेशमासादयति, अस्मिश्च व्याख्याने कपाटान्तर्गत एव गृह्यते, स च द्वयोरूद्धर्व 8७॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का. अध्ययनं १ उद्देशकः ४ कपाटयोरित्यनेनैवोपात्त इति तद्व्याख्यानाभिप्रायं न विद्यः । कपाटस्थापना चेयम् । समुद्घातेन सर्वलोकवत्तिनः, ते च पृथिव्यादयो मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता बादराग्निघूत्पद्यमानास्तद्वथपदेशभाजः सर्वलोकव्यापिनो भवन्ति, यत्र च बादराः पर्याप्तकास्तत्रैव बादरा अपर्याप्तकाः, तनिश्रया तेषामुत्पद्यमानत्वात् , तदेवं सूक्ष्मा बादराश्च पर्याप्तकापर्याप्तक- भेदेन प्रत्येकं द्विधा भवन्ति, एते च वर्णगन्धरसस्पर्शादेशैः सहस्राग्रशो भिद्यमानाः सङ्ख्येययोनिप्रमुखशतसहस्रभेदपरिमाणा भवन्ति, तत्रैषां संवृता योनिरुष्णा च सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् विधा, सप्त चैषां योनिलक्षा भवन्ति ॥ साम्प्रतं चशब्दसमुचितं लक्षणद्वारमाह जह देहपरिणामो रत्तिं खज्जोयगस्स सा उवमा । जरियस्स य जह उम्हा तओवमा तेज्जीवाणं ॥११९॥ ___ 'यथेति दृष्टान्तोपन्यासार्थः 'देहपरिणाम:' प्रतिविशिष्टा शरीरशक्तिः 'रात्रा'विति विशिष्टकालनिर्देशः 'खद्योतक' इति प्राणिविशेषपरिग्रहः, यथा तस्यासौ देहपरिणामो जीवप्रयोगनिवृत्तशक्तिराविश्वकास्ति, एवमङ्गारादीनामपि प्रतिविशिष्टा प्रकाशादिशक्तिरनुमीयते जीवप्रयोगविशेषाविर्भावितेति । यथा वा-ज्वरोष्मा जीवप्रयोगं नातिवर्तते, जीवाधिष्ठितशरीरकानुपात्येव भवति, एवोपमाऽऽग्नेयजन्तूनां, न च मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते, एवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामग्नेः सचित्तता मुक्तकग्रन्थोपपत्तिमुखेन प्रतिपादिता, सम्प्रति प्रयोगमारोप्यते अयमेवार्थ:-जीवशरीराण्यङ्गारादयः, छेद्यत्वादिहेतुगणान्वितत्वात् , सास्नाविषाणादिसङ्घातवत् , तथा आत्मसंयोगाविर्भूतोऽङ्गारादीनां प्रकाशपरिणामः, शरीरस्थत्वात् , खद्योतकदेहपरिणामवत् , तथा आत्मसम्प्रयोगपूर्वकोऽङ्गारादीनामूष्मा, शरीरस्थत्वात् , ज्वरोष्मवत् , | ह ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186॥ नचादित्यादिभिरनेकान्तः, सर्वेपामात्मप्रयोगपूर्वकं यत उष्णपरिणामभाक्त्वं तस्मानानेकान्तः, तथा सचेतनं तेजी, यथायोग्याहारोपादानेन वृद्धिविशेषतद्विकारवत्वात् , पुरुषवत् , एवमादिना लक्षणेनाग्नेया जन्तवो निश्चेया इति ।। उक्तं लक्षणद्वारं, तदनन्तरं परिमाणद्वारमाहजे बायरपज्जत्ता पलिअस्स असंखभागमित्ता उ । सेसा तिपिणवि रासी वीसुलोगा असंखिजा ॥१२०॥ ये वादरपर्याप्तानलजीवाः क्षेत्रपल्योपमासङ्खथ यभागमात्रवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः भवन्ति, ते पुनर्वादरपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्योऽसङ्खथे यगुणहीनाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः पृथ्वीकायवद्भावनीयाः, किन्तु चादरपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यो बादरान्यपर्याप्तका असंख्येयगुणहीनाः सूक्ष्मपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माग्नेयापर्याप्तका विशेषहीनाः सूक्ष्मपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माग्नेयपर्याप्तका विशेषहीना इति ॥ साम्प्रतमुपभोगद्वारमाहदहणे पयावण पगासणे य भत्तकरणे य सेए य । बायरतेउक्काए उवभोगगुणा मणस्साणं ॥१२॥ दहन-शरीराद्यवयवस्य वाताद्यपनयनाथ प्रकृष्टं तापनं प्रतापन-शीतापनोदाय प्रकाशकरणमुद्योतकरणं-प्रदीपादिना भक्तकरणम्-ओदनादिरन्धनं स्वेदो-ज्वरविसूचिकादीनाम् , इत्येवमादिष्वनेक प्रयोजनेषूपस्थितेषु मनुष्याणां बादरतेजस्कायविषया उपभोगरूपा गुणा उपभोगगुणा भवन्तीति ॥ तदेवमेवमादिभिः कारणैः समुपस्थितैः सततमारम्भप्रवृत्ता गृहिणो यत्याभासा वा सुखैषिणस्तेजस्कायजन्तून् हिंसन्तीति दर्शयितुमाह 1880 __एएहिं कारणेहिं हिंसंती तेउकाइए जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ॥ १२२ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं १ 'एतैः' दहनादिभिः कारणैस्तेजस्कायिकाम् जीवान् 'हिंसन्तीति सङ्घनपरितापनापद्रावणानि कुर्वन्ति 'सातं सुखं श्रीआचा तदात्मनोऽन्वेष्यन्तः 'परस्य' बादराग्निकायस्य दुःखम् 'उदीरयन्ति' उत्पादयन्तीति ।। साम्प्रतं शबद्वारं, तच्च द्रव्यराङ्गवृत्तिः भावशस्त्रभेदात् द्विधा, द्रव्यशस्त्रमपि समासविभागभेदात द्विधैव, तत्र समासतो द्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाह(शीलाङ्का.) पुढवी आउक्काए उल्ला य वणस्सई तसा पाणा। बायरतेउक्काए एयं तु समासओ सत्थं ॥१२३॥ ॥१०॥ 'पृथिवी' धृलिः अपकायश्च आर्द्रश्च वनस्पतिः त्रसाश्च प्राणिनः, एतद्वादरतेजस्कायजन्तूनां 'समासतः' सामान्येन शस्त्रमिति | विभागतो द्रव्यशस्त्रस्वरूपमाहकिंची सकायसत्थं किंचो परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो सत्यं ॥१२४॥ किश्चिच्छस्त्रं स्वकाय एव-अग्निकाय एव अग्निकायस्य, तद्यथा-तार्णोऽग्निः पर्णाग्नेः शस्त्रमिति, किश्चिच्च परकायशस्त्रम्-उदकादि, उभयशस्त्रं पुन:-तुषकरीषादिव्यतिमिश्रोऽग्निरपराग्नेः, तुशब्दो भावशस्त्रापेक्षया विशेषणार्थ:, एतत्त' पूर्वोक्तं समासविभागरूपं पृथिवीस्वकायादि द्रव्यशस्त्रमिति | माक्शस्त्रं दर्शयति-भावे शस्त्रम् असंयमो-दुष्प्रणिहित| मनोवाकायलक्षण इति ॥ उक्तव्यतिरिक्तद्वारातिदेशद्वारेणोपसञ्जिहीष नियुक्तिकदाह सेसाई दाराईताई जाई हवंति पुढवीए । एवं तेउद्देसे निज्जुत्ती कित्तिया एसा ॥१२५॥ अ उक्तशेषाणि द्वाराणि तान्येव यानि पृथिव्युद्देशकेऽभिहितानि 'एवम्' उक्तप्रकारेण तेजस्कायाभिधानोद्देशके | नियुक्तिः 'कीर्तिता' व्यावर्णिता भवतीति । साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्--- १००० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १०१ ܀܀܀܀ से बेमि व सयं लोगं अग्भाइक्खेजा णेव अत्ताणं अब्भाइक्वेजा, जे लोयं अन्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खह से लोयं अब्भाइक्खह || सू० ३१ ॥ अस्य च सम्बन्धः प्राग्वद्वाच्य इति, येन मया सामान्यात्मपदार्थ पृथिव्यप्काय जीव प्रविभागव्यावर्णनम कारि स एवाहमव्यवच्छिन्नज्ञानप्रवाहस्ते जो जीवस्वरूपोपलम्भसमुपजनितजिनवचनसम्मदो ब्रवीमि किं पुनस्तदिति दर्शयति'नैवेत्यादि, इह हि प्रकरणसम्बन्धाल्लोकशब्देनाग्निकाय लोकोऽभिधित्सितः, अतस्तमग्निलोकं जीवत्वेन नैव 'स्वयम्' आत्मनाऽभ्याचक्षीत - नैवापनुवीतेत्यर्थः, एतदभ्याख्याने ह्यात्मनोऽपि ज्ञानादिगुणकलापानुमितस्याभ्याख्यानमवाप्नोति, अथ च प्राक् प्रसाधितत्वादभ्याख्यानं नैवात्मनो न्याय्यम्, एवं तेजस्कायस्यापि प्रसाधितत्वात् अभ्याख्यानं क्रियमाणं नयुक्तिपथमवतरति, एवं चास्य युक्त्यागमबलप्रसिद्धस्याभ्याख्याने क्रियमाणे सत्यात्मनोऽप्यहं प्रत्यय सिद्धस्याभ्याख्यानं भवतः प्राप्तम् । एवमस्त्विति चेत्, तन्नेति दर्शयति- 'नेव अत्ताणं अभाइक्स्खेजा' नैवात्मानं - शरीराधिष्ठातारं ज्ञानगुणं प्रत्यात्मसंवेद्यं प्रत्याचक्षीत, तस्य शरीराधिष्ठातृत्वेन आहृतमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमता, तथा त्यक्तमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमतैवेत्येवमादिभिर्हेतुभिः प्रसाधितत्वात् न च प्रसाधितप्रसाधनं पिष्टपेषणवत् विद्वज्जनमनांसि रञ्जयति, एवं च सत्यात्मवत्प्रसाधितमग्निलोकं यः प्रत्याचक्षीत सोऽतिसाहसिक आत्मानमभ्याख्याति - निराकरोति, यश्चात्माभ्याख्यानप्रवृत्तः स सदैवाग्निलोकमभ्याख्याति, सामान्य पूर्वकत्वाद्विशेषाणां सति ह्यात्मसामान्ये पृथिव्याद्यात्मविभागः सिद्धयति, नान्यथा, सामान्यस्य विशेषव्यापकत्वात् व्यापकविनिवृत्तौ च व्याप्यस्याप्यवश्यं भाविनी ॥ १०१ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रध्ययन श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का. ॥१०२॥ उद्देशकः ४ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ विनिवृत्तिरितिकृत्वा । एवमयमग्निलोकः सामान्यात्मवन्नाभ्याख्यातव्य इति प्रदर्शितम् , अधुनाऽग्निजीवप्रतिपत्तौ सत्यां | तद्विषयसमारम्भकटुकफलपरिहारोपन्यासाय सूत्रमाह___ जे दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे से असत्थस्स खेयण्णे जे असत्थस्स खेयण्णे से दीह लोगसत्थस्स खेयण्णे ॥ सू० ३२॥ ___ 'य' इति मुमुक्षुर्दीर्घलोको-वनस्पतिर्यस्मादसौ कायस्थित्या परिमाणेन शरीरोच्छयेण च शेपैकेन्द्रियेभ्यो दी? | वर्त्तते, तथाहि-कायस्थित्या तावत् 'वणस्सइकाइए णं भंते ? वणस्सइकाइएत्ति कालओ केवचिरं होइ?, | गोयमा! अणंतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणिओ खेतओ अणंता लोया असंखेजा पोग्गलपरियहा; ते णं पुग्गलपरियहा आवलियाए असंखेजहभागे' परिमाणतस्तु पडुप्पन्नवणस्सइकाइयाणं भंते ! केवतिकालस्स निल्लेवणा सिया १, गोयमा ! पडुप्पन्नवणस्सइकाइयाणं नत्थि निल्लेवणा' तथा शरीरोच्छयाच्च दी| वनस्पतिः "वणस्सकाइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता, १ वनस्पतिकायो भदन्त ! वनस्पतिकाय इति कालतः कियश्चिरं भवति ? गौतम ! अनन्तं कालम्, अनन्ता उत्सर्पिण्यवस पिण्यः, क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, असंख्येयाः पुद्गलपरावर्त्ताः, ते पुद्गलपरावर्त्ता आवलिकाया असंख्येये मागे । २ प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकानां मदन्त ! कियता कालेन निर्लेपना स्यात् ?, गौतम ! प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकाथिकानां नास्ति चिलपना। ३ वनस्पतिकायिकानां भदन्त ! का महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ?, गौतमा ! सातिरेक योजनसहस्र शरीरावगाहना। ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ १०२॥ ܀܀܀ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमा! साहरेगं जोयणसहस्सं सरीरोगाहणा' न तथाऽन्येषामेकेन्द्रियाणाम् , अतः स्थितमेतत-सर्वथा .१०३॥ दीर्घलोको वनस्पतिरिति, अस्य च शस्त्रमग्निः, यस्मात्स हि प्रवृद्धज्वालाकलापाकुलः सकलतरुगणप्रध्वंसनाय प्रभवति, अतोऽसौ तदुत्सादकत्वाच्छस्त्रं, ननु च सर्वलोकप्रसिद्धथा कस्मादग्निरेव नोक्तः ?, किं वा प्रयोजनमुररीकृत्योक्तं दीर्घलोकशस्त्रमिति, अत्रोच्यते, प्रेक्षापूर्वकारितया, न निरभिप्रायमेतत्कृतमिति, यस्मादयमुत्पाद्यमानो ज्वाल्यमानो वा Bहव्यवाहः समस्तभूतग्रामघाताय प्रवर्त्तते, वनस्पतिदाहप्रवृत्तस्तु बहुविधसत्वसंहतिविनाशकारी विशेषतः स्यात् , यतो वनस्पतौ कृमिपिपीलिकाभ्रमरकपोतश्वापदादयः सम्भवन्ति, तथा पृथिव्यपि तरुकोटरव्यवस्थिता स्यात् , आपोऽप्यवश्यायरूपाः, वायुरपीपच्चञ्चलस्वभावकोमलकिशलयानुसारी सम्भाव्यते, तदेवमग्निसमारम्भप्रवृत्तः एतावतो जीवानाशयति, अस्यार्थस्य सूचनाय दीर्घलोकशखग्रहणमकरोत् सूत्रकार इति, तथा चोक्तम्-"'जायतेयं न इच्छन्ति, पावगं जलइत्तए। तिक्खमन्नघरं सत्थं, सव्वओऽवि दुरासयं ॥॥पाईणं पडिणं वावि, उ अणदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओऽवि य॥२॥ भूयाणमेसमाघाओ, हव्ववाहो न संसओ। तं. पईवपयावहा, संजओ किंचि नारभे ॥३॥ अथवा बादरतेजस्कायाः पर्याप्तकाः स्तोकाः, शेषाः पृथिव्यादयो ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ १ जाततेजसं नेच्छन्ति पावकं ज्वलयितुम् । तीक्ष्णमन्यतरत् शस्त्रं सर्वतोऽपि दुराश्यम् ।। १।। प्राचीनं प्रतीचीनं वापि ऊवमनुदिक्ष्वपि । अधो दक्षिणतो वापि दहति उत्तरतोऽपि च ॥२॥ भूनानामेष भाघातो हव्यवाहो न संशयः । तत् प्रदीपप्रतापार्थ संयतः किञ्चिन्नारभेत ॥३॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥१०४॥ जीवकाया बहवः, भवस्थितिरपि त्रीण्यहोरात्राणि स्वल्पा इतरेषां पृथिव्यब्वायुवनस्पतीनां यथाक्रमं द्वाविंशतिसप्तत्रिदश अध्ययनं १ वर्षसहस्रपरिमाणा दीर्घा अवसेया इति, अतो दीर्घलोकः-पृथिव्यादिस्तस्य शस्त्रम्-अग्निकायस्तस्य 'क्षेत्रज्ञो निपुणः अग्निकार्य वर्णादितो जानातीत्यर्थः, 'खेदज्ञो वा' खेदः-तद्व्यापारः सर्वसत्त्वानां दहनात्मकः पाकाद्यनेकशक्ति-उद्देशकः ४ कलापोपचितः प्रवरमणि रिख जाज्वल्य मानो लब्धाग्निव्यपदेशः यतीनामनारम्भणीयः, तमेवंविधं खेदम्-अग्निव्यापार जानातीति खेदज्ञः, अतो य एव दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः स एव 'अशस्त्रस्य' सप्तदशभेदस्य संयमस्य खेदज्ञः, संयमो हि न कश्चिज्जीवं व्यापादयति अतोऽशस्त्रम् , एवमनेन संयमेन सर्वसत्वाभयप्रदायिनाऽनुष्ठीयमानेनाग्निजीवविषयः समारम्भः शक्यः परिहतु पृथिव्यादिकायसमारम्भश्चेत्येवमसौ संयमे निपुणमतिर्भवति, ततश्च निपुणमतित्वाद्विदितपरमार्थोऽग्निसमारम्भाद्वथावृत्य संयमानुष्ठाने प्रवर्तते । इदानीं गतप्रत्यागतलक्षणेनाविनाभावित्वप्रदर्शनार्थ विपर्ययेण सूत्रावयवपरामर्श करोति—'जे असत्थस्से'त्यादि, यश्चाशस्त्र-संयमे निपुणः स खलु दीर्घलोकशस्त्रस्य-अग्नेः क्षेत्रज्ञः खेदज्ञो वा, संयमपूर्वकं ह्यग्निविषयखेदज्ञत्वम , अग्निविषयखेदज्ञतापूर्वकं च संयमानुष्ठानम् , अन्यथा तदसम्भव एवेत्येतद्गतप्रत्यागतफलमाविर्भावितं भवति ॥ कैः पुनरिदमेवमुपलब्धमित्यत आह—'वीरेही त्यादि, अथवा सद्वक्तृप्रसिद्धौ सत्यां वाक्यप्रसिद्धिर्भवतीत्यत उपदिश्यतेवीरेहिं एवं अभिभूय दिह, संजएहिं सया जत्तेहिं सया अप्पमत्तेहि ॥ सू० ३३॥ ॥१०४॥ घनघातिकमसङ्घातविदारणानन्तरप्राप्तातुलकेवलश्रिया विराजन्त इति वीराः-तीर्थकरास्तैर्वी रैरर्थतो दृष्टमेतद्गण ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरैश्च सूत्रतोऽग्निशस्त्रं दृष्टम् अशस्त्रं संयमस्वरूपं चेति । किं पुनरनुष्ठायेदं तैरुपलब्धमिति, अत्रोच्यते, अभिभूयेति अभिभवो ? नामादिश्चतुर्दा, द्रव्याभिभवो-रिपुसेनादिपराजयः आदित्यतेजसा वा चन्द्रग्रहनक्षत्रादितेजोऽभिभवः, भावाभिभवस्तु परीषहोपसर्गानीकज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायकर्मनिईलनं, परीषहोपसर्गादिसेनाविजयाद्विमलं चरणं, चरणशुद्धे नावरणादिकर्मक्षयः तत्क्षयान्निरावरणमप्रतिहतमशेषज्ञेयग्राहि केवलज्ञानमुपजायते, इदमुक्तं भवतिपरीषहोपसर्गज्ञानदर्शनावरणीयमोहान्तरायाण्यभिभूय केवलमुत्पाद्य तैरुपलब्धमिति । यथाभूतैस्तैरिदमुपलब्धं तद्दर्शयति-'संजएहिं' सम्यग यताः संयताः प्राणातिपातादिभ्यस्तैः, तथा 'सदा' सर्वकाल चरणप्रतिपत्तौ मृलोत्तरगुणमेदायां निरतिचारत्वाद्यत्नवन्तस्तैः, तथा 'सदा सर्वकालं न विद्यते प्रमादो-मद्यविषयकषायविकथानिद्राख्यो येषां तेऽप्रमत्तास्तैः, एवंभूतैर्महावीरैः केवलज्ञानचक्षुषेदं दीर्घलोकशस्त्रम् अशस्त्रं च संयमो दृष्टम्-उपलब्धमिति । अत्र च यत्नग्रहणादीर्यासमित्यादयो गुणा गृह्यन्ते, अप्रमादग्रहणात्तु मद्यादिनिवृत्तिरिति । तदेवमेतत्प्रधानपुरुषप्रतिपादितमग्निशस्त्रमपायदर्शनादप्रमत्तः साधुभिः परिहार्यमिति ॥ एवं प्रत्यक्षीकृतानेकदोषजालमप्यग्निशस्त्रमुपभोगलोभात्प्रमादवशगा ये न परिहरन्ति तानुद्दिश्य विपाकदर्शनायाह जेपमत्ते गुणट्ठीए से हु दंडेत्ति पवुच्चइ ॥ सू० ३४ ॥ यो हि प्रमत्तो भवति मद्यविषयादिप्रमादैरसंयतो 'गुणार्थी' रन्धनपचनप्रकाशातापनाद्यग्निगुणप्रयोजनवान् स दुष्प्रणिहितमनोवाकायोऽग्निशस्त्रसमारम्भकतया प्राणिनां दण्डहेतुत्वाद्दण्डः प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यते, आयुघृतादिव्यप ०५॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) अध्ययनं १ उद्देशकः ४ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ देशवदिति ॥ यतश्चैवं ततः किं कर्तव्यमित्यत आह तं परिणाय मेहावी इयाणिं णो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं ॥ सू०३५॥ ___ 'तम्' अग्निकायसमारम्भं दण्डफलं परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभ्यां 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो वक्ष्यमाणप्रकारेण व्यवच्छेदमात्मन्याचिनोतीति । तमेव प्रकार दर्शयितुमाह-'इयाणी' त्यादि, यमहमग्निसमारम्भं विषयप्रमादेनाकुलीकृतान्तःकरणः सन् पूर्वमकार्ष तमिदानी जिनवचनोपलब्धाग्निसमारम्भदण्डतत्त्वः नो करोमीति ॥ अन्ये | त्वन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह लजमाणा पुढो पास-अणगोरा मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारम्भेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे .वहिंसंति १। तत्थ खल भगवता परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउ से सयमेव अगणिसत्थं समारभह अण्णेहिं वा अगणिसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा अगणिसत्थं समारभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए तं से अबोहियाए २ से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिं णायं भवति-एस खल गंथे एस खल मोहे, एस खलु मारे एस खलु गरए, इचत्थं गडिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ परिधिाय वा अझमा ॥१०६ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगणिकम्मसमारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ३॥ सू ३६॥ अस्य ग्रन्थस्योक्तार्थस्यायमर्थो लेशतःप्रदश्यते-'लजमानाः' स्वागमोक्तानुष्ठानं कुर्वाणाः सावधानुष्ठानेन वा लज्जा कुर्वाणाः पृथग' विभिनाः शाक्यादयः ‘पश्येति संयमानुष्ठाने स्थिरीकरणाथ शिष्यस्य चोदना, अनगाग वयमित्येके । प्रवदमानाः, किं तैर्विरूपमाचरितं येनैवं प्रदर्श्यन्त. इति दर्शयति-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैरग्निकर्मसमारम्भेण अग्निशस्त्रं समारभमाणः समन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्ति १, तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, यथाऽस्यैव परिफागुजीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनाथ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतु यत्करोति तदर्शयति-'स' परिवन्दनाद्यर्थी स्वत एवाग्निशस्त्रं समारभते तथा अन्यैश्चाग्निशस्त्रं समारम्भयति तथाऽन्यांश्च अग्निशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते, तच्चाग्नेः समारम्भणं 'से' तस्य सुखलिप्सोरमुत्रान्यत्र चाहिताय भवति, तथा तदेव च तस्याबोधिलाभाय भवति २, 'स' इति यस्यैतदसदाचरणं प्रदर्शितं, स तु शिष्यस्तदग्निसमारम्भणं पापायेत्येवं सम्बुध्यमान 'आदानीय ग्राह्य सम्यग्दर्शनादि 'सम्यगुत्थाय' अभ्युपगम्य श्रुत्वा भगवदन्तिकेऽनगाराणां वा इहैकेषां साधूनां ज्ञातं भवति, किम् ?, तदर्शयति–'एष' अग्निसमारम्भः ग्रन्थः-कर्महेतुत्वाद् एष एव मोह एष एव मार एष एव नरकस्तद्धेतुत्वादिति भावः, इत्येवमर्थ च गृद्धो लोको यत्करोति तद्दर्शयति-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैरग्निकर्म समारभते तदारम्भेण चाग्निशस्त्र समारभते तच्चारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्तीति ३ ॥ कथं पुनरग्निसमारम्भप्रवृत्ता नानाविधान प्राणिनो B॥१०७ । विहिंसन्तीति दर्शयितुमाह-- Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन श्रीआचागङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) उद्दशकः ४ । ** से बेमि-संति पाणा पुढवीनिस्सिया तणणिस्सिया पत्तणिस्सिया कट्ठनिस्सिया गोमयणिस्सिया कयवरणिस्सिया, संति संपानिमा पाणा आहच्च संपयंति, अगणि च खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जति जे तत्थ संघायमावज्जति ते तत्थ परियावज्जति जे तत्थ परियावज्जंति ते तत्थ उहायति ॥ सू० ३७ ॥ तदां ब्रवीमि यथा नानाविधजीवहिंसनमग्निकायसमारम्भेण भवतीति । यथाप्रतिज्ञातार्थ दर्शयति—'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणा' जन्तवः, पृथिवीकायनिश्रिताः पृथिवीकायत्वेन परिणतः इत्यर्थः, तदाश्रिता वा कृमिकुन्थुपिपीलिकागण्डूपदाहिमण्डूकवृश्चिककर्कटकादयः, तथा वृक्षगुल्मलतावितानादयः, तथा तृणपत्रनिश्चिताः पतङ्गलिकादयः, तथा काष्ठनिश्रिता-घुणोद्देहिकापिपीलिकाऽण्डादयः, गोमयनिश्रिता:-कुन्थुपनकादयः, कचवरः-पत्रणधूलिसमुदायस्तनिश्रिताः कृमिकीटपतङ्गादयः। तथा 'सन्ति' विद्यन्ते सम्पतितुमुत्प्लुत्योत्प्लुत्य गन्तुमागन्तुवा शीलं येषां ते सम्पातिनः प्राणि नोजीवा मक्षिकाभ्रमरपतङ्गमशकपक्षिवातादयः, एते च सम्पातिनः 'आहत्य' उपेत्य स्वत एव, यदिवा अत्यर्थ कदाचिद्वा अग्निशिखायां सम्पतन्ति च । तदेवं पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानां यद्भवति तदर्शयितुमाह-'अगणिं चेत्यादि, रन्धनपचनतापनाद्यग्निगुणार्थिभिरवश्यमग्निसमारम्भो विधेयः, तत्समारम्भे च पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानामेता वक्ष्यमाणा अवस्था भवन्ति, छान्दसत्वात् तृतीयार्थे द्वितीया, ततश्चायमर्थः-अग्निना 'स्पृष्टाः' छुप्ता एके केचन सङ्घातम्अधिकं गात्रसङ्कोचनं मयूरपिच्छवदापद्यन्ते, चशब्दस्याधिक्यार्थत्वात्, खलुशब्दोऽवधारणे, अग्नेरेवायं प्रतापो नापर ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ *** * Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 20 11 स्येति, यदिवा सप्तम्यर्थे द्वितीया स्पृष्टशब्दश्च पतितवचनः, ततश्चायमर्थो भवति अग्नावेव स्पृष्टाः पतिता 'एके' शलभादयः 'सङ्घातं ' समेकीभावेनाधिकं गात्रसङ्कोचनम् 'आपद्यन्ते' प्राप्नुवन्ति ये च 'तत्र' अग्नौ पतिताः सङ्घातमापद्यन्ते ते प्राणिनः 'तत्र' अग्नी पर्यापद्यन्ते, पर्यापत्तिः– सम्मूर्छनम् ऊष्माभिभूता मूर्छामापद्यन्ते इत्यर्थः । अथ किमर्थ सूत्रकृता विभक्तिपरिणामोऽकारीति, उच्यते, मागधदेशीसमनुवृत्तेः व्याख्याविकल्पप्रदर्शनार्थं वा, अध्याहारादयोऽपि व्याख्याङ्गानीत्यनेन शिष्यो ज्ञापितो भवति । अथ के पुनस्तेऽध्याहारादय इति ? उच्यन्ते अध्याहारो विपरिणामो व्यवहितकल्पना गुणकल्पना लक्षणा वाक्यमेदश्चेति, इह च द्वितीयाविभक्तेः सप्तमी परिणामः कृत इति । ये च 'तत्र' अग्नौ पर्यापद्यन्ते ते प्राणिनः कृमिपिपीलिकाभ्रमरनकुलादयस्तत्राग्नावपद्रावन्ति प्राणान् मुञ्चन्तीत्यर्थः, तदेवमग्निसमारम्भे सति न केवलमग्निजन्तूनां विनाशः किं त्वन्येषामपि पृथिवीतृणपत्रकाष्ठगोमयकचवराश्रितानां सम्पातिमानां च व्यापत्तिरवश्यम्भाविनीति, अत एव च भगवत्यां भगवतोक्तम् - "" दो पुरिसा सरिसवया अन्नमन्नेहिं सद्धिं अगणिकार्य समारंभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं समुज्जालेनि, एगे विज्झवेति, तत्थ णं के पुरिसे महाकम्मयराए ? के पुरिसे अप्पकम्मयराए १, गोयमा ! जे उज्जालेति से महाकम्मयराए, जे विज्झवेति से अप्पकम्मयराए” ॥ तदेवं प्रभूतसच्त्वोपमर्द्दनकरमग्न्यारम्भं विज्ञाय मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमातभिश्च तत्परिहारः कार्य १ द्वौ पुरुषौ सदृशवयसौ अन्योऽन्यं समकमग्निकायं समारम्भयतः, तत्रैकः पुरुषोऽग्निकार्य समुज्ज्वलयति, एको विध्यापयति, तत्र कः पुरुषों महाकर्मा कः पुरुषोऽल्पकर्मा ?, गौतम ! य उज्ज्वलयति स महाकर्मा यो विध्य पयति सोऽल्पकर्मा । ॥ १०६ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ११० ॥ इति दर्शयितुमाह एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति तं परिण्णाय मेहावी णेव सय अगणिसत्थं समारंभे नेवऽण्णेहिं अगणिसत्थं समारंभावेजा अगणिसत्थं समारंभमाणे अणे न समणजाणेजा, जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणा परिण्णायकम्मे त्ति बेमि ॥ सूत्रं ३८ ॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥ १-४ ॥ 'ra' aftaara ' शस्त्रं' स्वकायपरकायभेदभिन्नं 'समारभमाणस्य' व्यापारयत इत्येते आरम्भाः पचनपाचनादयो बन्धहेतुत्वेनापरिज्ञाता भवन्ति, तथा अत्रैवाग्निकाये शस्त्रमसमारंभमाणस्यैते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, यस्यैते after समारम्भा ज्ञपरिज्ञया ज्ञाता भवन्ति प्रत्याख्यान परिज्ञया च परिहृता भवन्ति स एव मुनिः परमार्थतः परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमीति पूर्ववत् । इति शस्त्रपरिज्ञायां चतुर्थो देशकटीका समाप्ता ॥ १-४ ॥ ॥ अथ प्रथमाध्ययने पञ्चमो वनस्पतिकायोद्द शकः ॥ उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पञ्चमः समारभ्यते, अस्य वायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदे शके तेजस्कायः प्रतिपादितः, तदनन्तरमविकल सुसाधुगुणप्रतिपत्तये क्रमायातवायुकायप्रतिपादनावसरे वनस्पतिकायजीवस्वरूपमाविर्भाव्यते, किं पुनः अध्ययन १ उद्देशकः ५ ॥ ११० ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमोलाइनकारणमिति, उच्यते। एष हि वापुरचाक्षुपत्वाद्दुःश्रद्धानः, अतः समधिगताशेषपृथिव्यायेकेन्द्रियप्राणिगणस्वरूपः शिष्यः श्चय(सुख)मेव वायुजीवस्वरूपं प्रतिपत्स्यते, स एव च क्रमो येन शिष्याः जीवादितत्त्वं प्रति प्रोत्सहन्ते यथावत्प्रतिपत्तमिति, वनस्पतिकायस्तु समस्तलोकप्रत्यक्षपरिस्फुटजीवलिङ्गकलापोपेतः, अतः स एव तावत्प्रतिपाद्यते. इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे वनस्पत्युद्देशकः, तत्र वनस्पतेः स्वभेदकलापप्रतिपादनाय पूर्वप्रसिद्धार्थातिदेशद्वारेण नियुक्तिकृदाह पुढवीए जे दारा वणसइकाएऽवि हुँति ते चेव । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणवभोगसत्थे य ॥१२६॥ ___ यानि पृथवीकायसमधिगतये द्वाराण्युक्तानि तान्येव वनस्पतौ द्रष्टव्यानि, नानात्वं तु प्ररूपणापरिमाणोपभोगशस्त्रेषु चशब्दाल्लक्षणे च द्रष्टव्यमिति ।। तत्रादौ प्ररूपणास्वरूपनिपिनायाह| दुविह वणस्सइजीवा सुहुमा तह थायरा य लोगंमि । मुहुमा य सव्वलोए दो य भवे बायरविहाणा ॥१२७॥ वनस्पतयो द्विविधाः-सूक्ष्मा बादराश्च, सूक्ष्माः सर्वलोकापन्नाश्चक्षुर्लाह्याश्च न भवन्त्येकाकारा एव, बादराणां पुनद्व विधाने ॥ के पुनस्ते बादरविधाने इत्यत आहपत्तेया साहारण बायरजीवा समासओ दुविहा । बारसविहऽणेगविहा समासओ छव्विहा हुति॥१२८॥ बादराः समासतः द्विविधाः-प्रत्येकाः साधारणाश्च, तत्र पत्रपुष्पमूलफलस्कन्धादीन प्रति प्रत्येको जीवो येषां ते प्रत्येकजीवाः, साधारणास्तु परस्परानुविद्धानन्तजीवसङ्घातरूपशरीरावस्थानाः, तत्र प्रत्येकशरीरा द्वादशविधानाः, साधारणा ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ १११॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा गङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥११२॥ स्त्वनेकभेदाः, सर्वेऽप्येते समासतः षोढा प्रत्येतव्याः । तत्र प्रत्येकतरुद्वादशभेदप्रत्यायनायाह- - अध्ययनं १ रुक्खा गुच्छा गुम्मा लया य वल्लो य पब्वगाचेव । तणवलयहरियओसहिजलरुहकुहणा य बोद्धव्वा ॥११॥ वृश्च्यन्त इति वृक्षाः, ते द्विविधाः-एकास्थिका बहुबीजकाच, तत्रैकास्थिकाः-पिचुमन्दाम्रकोशम्बशालाकोल्लपीलुशल्ल-उद्देशकः ५ क्यादयः, बहुबीजकास्तु-उदुम्बरकपित्थास्तिकतिन्दुकविल्वामलकपनसदाडिममातुङ्गादयः, गुच्छास्तु-वृन्ताकीकर्पासीजपाआढकीतुलसीकुसुम्मरीपिप्पलीनील्यादयः, गुल्मानि तु-नवमालिकासेरियककोरण्टकबन्धुजीवकबाणकरवीरसिन्दुवारविचकिलजातियूथिकादयः, लतास्तु-पद्मनागाशोकचम्पकचूतवासन्तीअतिमुक्तककुन्दलताद्याः, वल्लयस्तु-कुष्माण्डीकालिङ्गीत्रपुषीतुम्बीवालुङ्कीएलालुकीपटोल्यादयः, पर्वगाः पुनः-इक्षुवीरणशुण्ठशरवेत्रशतपर्व(त्री)वंशनलवेणुकादयः, तृणानि तु-श्चेतिकाकुशदर्भपर्व(वर्च)कार्जुनसुरभिकुरुविन्दादीनि, वलयानि च-तालतमालतकलीशालसरलाकेतकीकदलीकन्दल्यादीनि, हरितानि-तन्दुलीयकाधूयारुहवस्तुलबदरकमार्जारपादिकाचिल्ली(विल्लरी)पालक्यादीनि, औषध्यस्तु-शालीव्रीहिगोधूमयवकलममसूरतिलमुद्गमाषनिष्पावकुलत्थातसीकुसुम्भकोद्रवकङ्ग्वादयः, जलरुहा-उदकावकपनकशैवलकलम्बुकापाव(वा)ककशेरुकउत्पलपद्मकुमुदनलिनपुण्डरीकादया, कुहु(ह)णास्तु-भूमिस्फोटकाभिधानाः आयकायकुहुणकुण्डुक्कोदेहलिकाशलाकासप्पच्छत्रादयः, एषां हि प्रत्येकजीवानां वृक्षाणां मृलस्कन्धकन्दत्वकशालप्रवालादिष्वसंख्येयाः प्रत्येक जीवाः, पत्राणि पुष्पाणि चैकजीवानि मन्तव्यानि, साधारणास्त्वनेकविधाः, तद्यथा-लोहीनिहुस्तुभायिकाअश्वकर्णीसिंहकर्णीशङ्गबेर(रा)मालुकामूलककृष्णकन्दसूरणकन्दकाकोलीक्षीरकाकोलीप्रभृतयः॥ 'सर्वेऽप्येते संक्षेपात् षोढा भवन्ती'त्युक्तं, के Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाः पद्मिनामान्तीत्यत आत सरीरसंघाव पुनस्ते मेदा इत्याहअग्गबीया मूलबीया खंधवीया चेव पोरबीया य। बीयरहा समुच्छिम समासओ वयसईजीवा ॥१३०॥ तत्र कोरिण्टकादयोऽग्रवीजाः, कदल्यादयो मूलबीजाः, निहुशल्लक्कयरणिकादयः स्कन्धबीजाः, इक्षवंशवेत्रादयः पर्वबीजाः, बीजरुहाः शालिब्रीह्यादय, सम्मूर्छ नजाः पद्मिनीशृङ्गाटकपाठशैवलादयः, एवमेते समासात्तरुजीवाः पोढा कथिताः, नान्ये सन्तीति प्रतिपत्तव्यं ॥ किंलक्षणाः पुन: प्रत्येकतरवो भवन्तीत्यत आहजह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण पत्तिया वही। पत्तयसरीराणं तह हुति सरीरसंघाया ॥१३॥ यथेति दृष्टान्तोपन्यासार्थः, यथा सकलसर्पपाणां श्लेषयतीति श्लेषः-सर्जरसादिस्तेन मिश्रितानां वर्तिता' वलिता वतिः तस्यां च वतौं प्रत्येकप्रदेशाः क्रमेण सिद्धार्थकाः स्थिताः, नान्योऽन्यानुवेधेन, चूर्णितास्तु कदाचिदन्योऽन्यानुवेधमाजोऽपि स्युरित्यतः सकलग्रहणं, यथाऽसौ वर्तिस्तथा प्रत्येकतरुशरीरसङ्घातः, यथा च सर्षपास्तथा तदधिष्ठायिनो जीवाः, यथा श्लेषविमिश्रितास्तथा रागद्वेषप्रचितकर्मपुद्गलोदयमिश्रिताः जीवा, पश्चिमार्द्धन गाथाया उपन्यस्त दृष्टान्तेन सह साम्यं प्रतिपादितं, तथेति शब्दोपादानादिति । अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमाहजह वा तिलसक्कुलिया पहुएहिं तिलेहिं मेलिया संती। पत्तयसरीराणं तह हुंति सरीरसंघाया॥१३२॥ ___ यथा वा तिलशकुलिका-तिलप्रधाना पिष्टमयपोलिका बहुभिस्तिलनिष्पादिता सती भवति, तथा प्रत्येकशरीराणां तरूणां शरीरसङ्घाता भवन्तीति द्रष्टव्यमिति ॥ साम्प्रतं प्रत्येकशरीरजीवानामेकानेकाधिष्ठितत्वप्रतिपिपादयिषयाऽऽह Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणाविहसंठाणा दीसंती एगजीविया पत्ता । खंधावि एगजीवा तालसरलनालिएरीणं ॥१३३॥ श्रीआचा नानाविधं-भिन्न संस्थानं येषां तानि नानाविधसंस्थानानि पत्राणि यानि चैवंभृतानि दृश्यन्ते तान्येकजीवाधिष्ठि-2 राङ्गवृत्तिः तान्यवगन्तव्यानि, तथा स्कन्धा अप्येकजीवाधिष्ठितास्तालसरलनालिकेर्यादीना, नावानेकजीवाधिष्ठितत्वं सम्भवतीति, कार (शीलाका.) अवशिष्टानां त्वनेकजीवाधिष्ठितत्वं सामर्थ्यात्प्रतिपादितं भवति ॥ साम्प्रतं प्रत्येकतरुजीवराशिपरिमाणाभिधित्सयाऽऽह॥ ११४॥ पत्तेया पज्जत्ता सेढीए असंखभागमित्ता ते । लोगासंखप्पज्जत्तगाण साहारणाणता ॥१३४॥ प्रत्येकतरुजीवाः पर्याप्तकाः संवर्तितचतुरस्रीकृतलोकश्रेण्यसंख्येयभागवाकाशप्रदेशराशितुल्यप्रमाणाः, एते च पुनर्बादरतेजस्कायपर्याप्तकराशेरसङखयेयगुणाः, ये पुनरपर्याप्तकाः प्रत्येकतरुजन्तवः ते घसङ्ख्येयाना लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इति, एतेऽप्यपर्याप्तका बादरतेजस्कायजीवराशेरसङ्ख्येयगुणाः, सूक्ष्मास्तु वनस्पतयः प्रत्येकशरीरिणः पर्याप्तका अपर्याप्तका वा न सन्त्येव, साधारणास्त्वनन्ता इति विशेषानुपादानात् १, साधारणाः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्सकभेदेन चतुर्विधा अपि पृथक् पृथगनन्तानां लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इति, अयं तु विशेषः-साधारणवादरपर्याप्तकेभ्यो बादरा अपर्याप्तका असंख्येय गुणाः बादरापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माः अपर्याप्तका असंख्येयगुणास्तेभ्योऽपि सूक्ष्माः पर्याप्तकाः असंख्येयगुणा इति ॥ सम्प्रत्येषां तरूणां यो जीवत्वं नेच्छति तं प्रति जीवत्वप्रतिपादनेच्छया नियुक्ति कृदाहa एएहिं सरीरेहिं पच्चक्रवं ते परूविया जीवा । सेसा आणागिज्झा चक्खुणा जे न दीसंति ॥१३५॥ a॥११४॥ 'एतैः' पूर्वप्रतिपादितस्तरुशरीरैः प्रत्यक्षप्रमाणविषयैः 'प्रत्यक्षं साक्षात् 'ते' वनस्पतिजीवाः 'प्ररूपिताः' प्रसाधिताः, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। ११५ ॥ तथाहि-न हतानि शरीराणि जीवव्यापारमन्तरेणैवंविधाकारभाञ्जि भवन्ति, तथा च प्रयोगः-जीवशरीराणि वृक्षाः, अक्ष्याधुपलब्धिभावात् , पाण्यादिसङ्घातवत् , तथा कदाचित् सचित्ता अपि वृक्षाः, जीवशरीरत्वात् , पाण्यादिसङ्घातवदेव, तथा मन्दविज्ञानसुखादिमन्तस्तरवः, अव्यक्तचेतनानुगतत्वात् , सुप्तादिपुरुषवत् , तथा चोक्तम्-'वृक्षादयोऽक्षाद्यपलब्धिभावात्पाण्यादिसङ्घातवदेव देहाः। तद्वत्सजीवा अपि देहताया:, सुप्तादिवत् ज्ञानसुखादिमन्तः ॥१॥" 'शेषा' इति सूक्ष्मास्ते च चक्षुषा नोपलभ्यन्त इत्याज्ञया ग्राह्या इति, आज्ञा च भगवद्वचनमवितथमरक्तद्विष्टप्रणीतमिति श्रद्धातव्यमेव ॥ साम्प्रतं साधारण लक्षणमभिषित्सुराह साहारणमाहारो साहारण आणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एयं ॥ १३६ ॥ समानम्-एक धारणम्-अङ्गीकरणं शरीराहारादेर्येषां ते साधारणाः तेषां साधारणानाम्-अनन्तकायानां जीवानां 'साधारणं' सामान्यमेकमाहारग्रहणं तथा प्राणापानग्रहणं च साधारणमेव, एतत्साधारणलक्षणम् , एतदुक्तं भवतिएकस्मिन्नाहारितवति सर्वेऽप्याहारितवन्तस्तथैकस्मिन्नुच्छ्वसिते निःश्वसिते वा सर्वेऽप्युकछवसिता निःश्वसिता वेति ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयितुमाह__ एगस्स ड जं गहणं बहूण साहारणाण ते चेव । जं बहुयाणं गहणं समासओ तंपि एगस्स ॥१३७॥ एको यदुच्छ्वासनिःश्वासयोग्यपुद्गलोपादानं विधते बहूनामपि साधारणजीवानां तदेव भवति, तथा यच्च बहवो ग्रहणमका रेकस्यापि तदेवेति ॥ अथ ये बीजात्प्ररोहन्ति वनस्पतयस्तेषां कथमाविर्भाव इत्यत आह Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) अध्ययनं १ उद्देशकः ५ जोणिन्भूए बीए जीवो वक्कमह सो व अन्नो वा। जोऽवि य मूले जीवो सो चिय पत्ते पढमयाए ॥१३८॥ अत्र भूतशब्दोऽवस्थावचनः, योन्यवस्थे बीजे योनिपरिणाममजहतीत्यर्थः, बीजस्य हि द्विविधावस्था-योन्यवस्था अयोन्यवस्था च, यदा योन्यवस्था न जहाति बीजमुज्झितं च जन्तुना तदा योनिभूतमुच्यते, योनिस्तु जन्तोरुत्पत्तिस्थानमविनष्टमिति, तस्मिन् बीजे योनिभृते जीवो 'व्युत्क्रामति' उत्पद्यते, स एव पूर्वको बीजजीवोऽन्यो वाऽऽगत्य तत्रोत्पद्यते, एतदुक्तं भवति-यदा जीवेनायुषः क्षयाद्वीजपरित्यागः कृतो भवति, तस्य च यदा बीजस्य क्षित्युदकादिसंयोगस्तदा कदाचित्स एव प्राक्तनो जीवस्तत्रागत्य परिणमते कदाचिदन्य इति. यश्च मूलतया जीवः परिणमते स एव प्रथमपत्रतयाऽपीति, एकजीवकत के मूलपत्रे इतियावत् , प्रथमपत्रकं च याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था भूजलकालापेक्षा सैवोच्यत इति, नियमप्रदर्शनमेतत् , शेष तु किशलयादि सकलं न मूलजीवपरिणामाविर्भावितमेवेत्यवगन्तव्यमिति ॥ यत उक्तम्-"'सव्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अणन्तओ भणिओ"इत्यादि ॥ सांप्रतमपरं साधारणलक्षणमभिधित्सुराह चकागं भजमाणस्स गंठो चुण्णघणो भवे । पुढविसरिसभेएणं अणंतजीवं वियाणेहि ॥१३॥ यस्य मूलकन्दत्वपत्रपुष्पफलादेर्भज्यमानस्य चक्रकं भवति, चक्राकारः समच्छेदो भङ्गो भवतीतियावत् , यस्य च ग्रन्थिः-पर्व भङ्गस्थानं वा 'चूर्णेन' रजसा 'घनो' व्याप्तो भवति, यो वा भिद्यमानो वनस्पतिः पृथिवीसदृशेन भेदेन १ सर्वोऽपि किशलयः खलूद्गच्छन्ननन्तको भणितः। ११६॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केदारोपरिशुष्कतरिकावत् पुटभेदेन भिद्यते, तमनन्तकायं विजानीहि ॥ तथा लक्षणान्तरमाह गूढसिरागं पत्तं सच्छीरं जंच होइ निच्छीरं। जं पुण पणट्ठसंधिय अणंतजीवं वियाणाहि ॥१४०॥ स्पष्टार्था ॥ एवं साधारणजीवान लक्षणतः प्रतिपाद्य सम्प्रति नामग्राहमनन्तान् वनस्पतीन् दर्शयितुमाह- सेवालकत्थभाणि(छहाणी)यअवए पणए य किंनए य हढे(हि)। एए अणंतजीवा भणिया अपणे अणेगविहा ॥१४१ ॥ सेवालकत्थभाणिकाऽवकपनककिण्वहठादयोऽनन्तजीवा गदिता अनेकप्रकाराश्चान्येऽपीत्थमवगन्तव्या इति ॥ सम्प्रति प्रत्येकतरूणामेकादिजीवपरिगृहीतशरीरदृश्यत्वं प्रतिपिपादयिषुराह__ एगस्स दुण्ह तिण्ह व संखिजाण व तहा असंखाणं । पत्तयसरीराणं दोसंति सरीरसंघाया ।१४२॥ ____एकजीवपरिगृहीतशरीरं तालसरलनालिकेर्यादिस्कन्धः, स च चक्षुर्लाह्यः, तथा बिसमृणालकर्णिकाकुणककटाहानामेकजीवपरिगृहीतत्वं चक्षुदृश्यत्वं च, द्वित्रिसंख्येयासंख्येयजीवपरिगृहीतत्वमप्येवं दृश्यतया भावनीयमिति ॥ किमनन्तानामप्येवं ?, नेत्यत आहइकस्स दुण्ह तिण्ह व संग्विजाण व न पासिसक्का । दीसंति सरीराइं निओयजीवाणणंताणं ॥१४३॥ नैकादीनामसंख्येयावसानानामनन्ततरुजीवानां शरीराण्युपलभ्यन्ते, कुतः १, अभावात् , न ह्यकादिजीवपरिगृहीतान्यनन्तानां शरीराणि सन्ति, अनन्तजीवपिण्डत्वादेव, कथं तो पलभ्यास्ते भवन्तीति दर्शयति-दृश्यन्ते शरीराणि बादर Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा-' राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ११८ ॥ निगोदानामनन्तजीवानां, सूक्ष्मनिगोदानां तु नोपलभ्यन्ते, अनन्तजीवसङ्घातत्वे सत्यप्यतिसूक्ष्मत्वादिति भावः, निगोदास्तु नियमत एवानन्तजीवसङ्घाता भवन्तीति, उक्तं च - " " गोला य असंखेजा हुंति णिओआ असङ्ख्या गोले । एक्केको य निओए अनंतजीवा णेयव्वो [ ॥ १ ॥" एवं वनस्पतीनां वृक्षादिप्रत्येकादिभेदात्तथा वर्णगन्धरसस्पर्शभेदात् सहस्राग्रशो विधानानि संख्येयानि योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि मेदानामवसेयानीति, तथाहि वनस्पतीनां संवृता योनिः सा च सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, तथा शीतोष्णमिश्रभेदाच्च तथा प्रत्येकतरूणां दश लक्षा योनिभेदान, साधारणानां च चतुर्दश, कुलकोटीनां द्वयोरपि पञ्चविंशतिकोटिशतसहस्राणीति ॥ उक्तं विधानद्वारम्, इदानीं परिमाणमभिधीयते तच्च प्रथमं सूक्ष्मानन्तजीवानां दर्शयितुमाह- पत्थेण व कुडवेण व जह कोइ मिणिज सव्वधन्नाइं । एवं मविजमाणा हवंति लोया अनंता उ ॥१४४॥ प्रस्थकुड वादिना यथा कश्चित्सर्वधान्यानि प्रमिरणुयात्, मित्वा चान्यत्र प्रक्षिपेद् एवं यदि नाम कश्चित्साधारणराशि लोक मत्वाऽन्यत्र प्रक्षिपेत् तत एवं मीयमाना भवन्ति लोका अनन्ता इति ॥ इदानीं बादरनिगोदपरिमाणाभिधित्सयाss - जे बायरपज्जत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा असंखलोया तिन्निवि साहारणाणता ॥ १४५॥ ये पर्याप्तकवादरनिगोदास्ते संवचितचतुरश्री कृतसकललोकप्र तरासङ्ख्येय भागवर्त्तिप्रदेशराशिपरिमाणा भवन्ति, एते १ गोलाश्चासङ्ख्येया भवन्ति निगोदा असङ्ख्यया गोले । एकैकश्च निगोंदोऽनन्त जीवो मुणितव्यः ॥ १ ॥ अध्ययन १ • उद्देशक: ५ ॥ ११८ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६॥ पुनः प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिपर्याप्तकजीवेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः, के पुनस्त्रय इति ?, उच्यन्ते, अपर्याप्तकवादरनिगोदा अपर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदाः, एते च क्रमशो बहुतरका द्रष्टव्या इति, साधारणजीवास्तेभ्योऽनन्तगुणाः, एतच्च जीवपरिमाण, प्राक्तनं तु गशिचतुष्टयं निगोदपरिमाणमिति ॥ परिमाणद्वारानन्तरमुपभोगद्वारमभिधित्सुराह-- . आहारे उवगरणे सयणासण जाण जुग्गकरणे य । आवरण पहरणेसु अ सत्थविहाणेसु अ बहुसु॥१४॥ __ आहार:-फलपत्रविशलयमूलकन्दत्वगादिनिर्वगः, उपकरणं व्यजनकटककवलकार्गलादि, शयनं-खटवाफलकादि, आसनम्-आसन्दकादि, यानं-शिविकादि, युग्यं-गन्त्रिकादि, आवरणम्-फल कादि, प्रहरणं-लकुटमुसुण्ढयादि, शस्त्रविधानानि च बहूनि तनिर्वानि, शरदात्रखङ्गचुरिकादिगण्डोपयोगित्वादिति । तथाऽपरोऽपि परिभोगविधिः, तद्दर्शनायाह आउन कट्ठकम्मे गंधंगे वत्थ मल्लजोए य । झावणवियावणेसु अ तिल्लविहाणे अ उज्जोए ॥१४७॥ आतोद्यानि-पटहभेरीवंशवीणाझल्लर्यादीनि, काष्ठकर्म-प्रतिमास्तम्भद्वारशाखादि, गन्धाङ्गानि-बालकप्रियगुपत्रकदमनकत्वक्चन्दनोशीरदेवदार्वादीनि, वस्त्राणि-वल्कलकसमयादीनि, माल्ययोगा-नवमालिकाचकुलचम्पकपुन्नागाशोकमालतीविचकिलादयः, मापनं-दाहो भस्मसात्करणमिन्धनैः, वितापनं-शीताभ्यदितस्य शीतापनयनाय काष्ठप्रज्वालनात, तैलविधानं-तिलातसीसर्षपेङ्गुदीज्योतिष्मतीकरञ्जादिभिः, उद्योतो-वर्तितणचूडाकाष्ठादिभिरिति । एवमेतान्युपभोगस्थानानि प्रतिपाद्य तदुपसञ्जिही गह-- ॥११॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका) अध्ययनं १ उद्देशकः ५ नत्र ॥ १२०॥ एएहिं कारणेहिं हिंसंति वणम्सई बहू जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ॥१४८॥ 'एतैः' गाथाद्वयोपात्तैः 'कारण: प्रयोजनैः 'हिंसन्ति' व्यापादयन्ति प्रत्येकसाधारणवनस्पतिजीवान् बहून् वनस्पतिसमारम्भिणः पुरुषाः, किंभृतास्त इति दर्शयति-सातं सुखं तदन्वेषिणः 'परस्य' वनस्पत्याद्यकेन्द्रियादेः 'दुःखं' बाधामुत्पादयन्ति ।। साम्प्रतं शस्त्रमुच्यते-तच्च द्विधा-द्रव्यभावभेदात, द्रव्यशस्वमपि समासविभागभेदात् द्विधैव, समासद्रव्यशस्वाभिधित्सयाऽऽहकप्पणिकुहाणि(डि)असियगदत्तियकुद्दालवासिपरसू अ। सत्थ वणस्सईए हत्था पाया मुहं अग्गो।१४९॥ ___ कल्प्यते-छिद्यते यया सा कल्पनी-शस्त्रविशेषः, कुठारी प्रसिद्धैव, असियगं-दात्रं, दात्रिका-प्रसिद्धा एव, कुद्दालकवासिपरशवश्च, एते वनस्पतेः शस्त्रं. तथा हस्तपादमुखाग्नयश्च इत्येतत्सामान्यशस्त्रमिति ॥ विभागशस्त्राभिधित्सयाऽऽहकिंची सकायसत्थं किंची परकाय तभयं किंचि । एयं तु दव्वसन्थं भावे य असंजमो सत्थं ॥१५॥ किश्चित् स्वकायशस्त्रं-लकुटादि किश्चिच्च परकायशस्त्रं-पाषाणाग्न्यादि तथोभयशस्त्रं-दात्रदात्रिकाकुठारादि, एतद् द्रव्यशस्त्रं भावशस्त्रं पुनरसंयमः दुष्प्रणिहितमनोवाकायलक्षण इति ॥ सकलनियुक्त्यर्थपरिसमाप्तिप्रचिकटयिषयाऽऽह सेसोईदाराईताहजाई हवंति पुढवीए । एवं वणस्सईए निज्जुत्ती कित्तिया एसा ॥१५॥ उक्तव्यतिरिक्तशेषाणि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यामभिहितानि ततस्तद्वाराभिधानाद्वनस्पती नियुक्तिः 'कीर्त्तिता' व्यावर्णितेति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् |१२० ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२१ तं णो करिस्सामि समुहाए, मत्ता मइमं अभयं विदित्ता, तं जे णो करए, एसोवरए, एत्थोवरए, एस अणगारेत्ति पवुच्चई ॥ सू० ३६ ॥ अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रैः सम्बन्धः प्राग्वद्वाच्यः, उक्तं प्राक् 'सातान्वेषिणो हि वनस्पतिजन्तूनां दुःखमुदीरयन्ति, ततश्च तन्मूलमेव दुःखगहने संसारसागरे भ्राम्यत्ति सत्त्वाः' इत्येवं विदितकटुकविपाका समस्तवनस्पतिसत्त्व विषयविमर्दनिवृत्तिमात्यन्तिकीमात्मनि दर्शयबाह-'तत्' वनस्पतीनां दुःखमहं दृष्टप्रत्यपायो न करिष्ये, यदिवा तद्दुःखोत्पत्तिनिमित्तभृतं वनस्पतावारम्भ-छेदनमेदनादिरूपं नो करिष्ये मनोवाकायैः, तथाऽपरैन कारयिष्ये, तथा कुर्वतश्चान्यानानुमंस्ये, किं कृत्वेति दर्शयति-सर्वज्ञोपदिष्टमार्गानुसृत्या सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थाय समुत्थाय, प्रव्रज्या प्रतिपद्येत्यर्थः, तदेवं वर्जितसकलसावद्यारम्भकलापः संस्तद्वनस्पतिदुःखं तदारम्भं वा नो करिष्यामीति, अनेन च संयमक्रिया दर्शिता, न च क्रियात एव मोक्षावाप्तिः, किं तहिं ? ज्ञानक्रियाभ्यां, तदुक्तम्-'नाणं किरियारहियं किरियामेत्तं च दोऽवि एगन्ता । न समत्था दाउ' जे जम्ममरणदुक्खदाहाई॥१॥" यत एवमतो विशिष्टमोक्षकारणभूतज्ञानप्रतिपिपादयिषयाऽऽह-'मत्ता मइम' मत्वा-ज्ञात्वा अवबुध्य यथावत् जीवान् , मतिरस्यास्तीति मतिमान् , मतिमानेवोपदेशाहों भवतीत्यतस्तद्वारेणैव शिष्यामन्त्रणं हे मतिमन् ! प्रव्रज्या प्रतिपद्य जीवादिपदार्थाश्च ज्ञात्वा मोक्षमवाप्नोतीति, सम्यगज्ञानपूर्विका हि क्रिया फलवतीति दर्शितं भवति । पुनरत्रैवाह१ज्ञान क्रियारहित क्रियामानं च द्वे अप्येकान्तात् । न समर्थे दातुं यानि जन्ममरणदुःखदाहकानि ॥१॥ ॥ १२१॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं १ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) उद्देशकः ५ ॥ १२२॥ 'अभयं विदित्ता' अविद्यमानं भयमस्मिन्सत्त्वानामित्यमयः-संयमः, स च सप्तदशविधानस्तं चाभयं-सर्वभूतपरिपालनात्मकं संसारसागरानिर्वाहकं विदित्वा वनस्पत्यारम्भानिवृत्तिविधेयेति । एतदेव दर्शयितुमाह-'तं जे नो करए' इत्यादि, 'तं' वनस्पत्यारम्भ 'यो विदिततदारम्भकटुकविपाकः नो कुर्यात, तस्य प्रतिविशिष्टेष्टफलावाप्तिर्नान्यस्यान्ध- मूढया प्रवर्त्तमानस्य, अभिलषितविप्रकृष्टस्थानप्राप्तिप्रवृत्तान्धक्रियाव्याघातवदिति मन्तव्यं, ज्ञानमपि क्रियाहीनं न मोक्षाय, गृहान्तर्दधमाननिनक्षुपगुचक्षुर्ज्ञानवदिति, एवं च ज्ञात्वाऽभ्युपेत्य च तत्परिहारः कर्त्तव्य इति दर्शितं भवति । एवं यः सम्यगज्ञानपूर्विकां निवृत्तिं करोति स एव समस्तारम्भनिवृत्त इति दर्शयति—'एसोवरए'त्ति एष एव सर्वस्मादारम्भावनस्पतिविषयादुपरतो यो यथावत् ज्ञात्वाऽऽरम्भं न करोतीति, स पुनरेवंविधनिवृत्तिभाकिं शाक्यादिष्वपि सम्भवत्युतेहैव प्रवचन इति दर्शयति-'एत्थोवरए'त्ति एतस्मिन्नेव जैनेन्द्र प्रवचने परमार्थत उपरतो नान्यत्र, यथाप्रतिज्ञातनिरवद्यानुष्ठायित्वादुपरतव्यपदेशभाग् भवति न शेषाः शाक्यादयः, तद्विपरीतत्वाद्, एष एव च सम्पूर्णानगारव्यपदेशमश्नुते इति दर्शयति-'एस अणगारेत्ति पवुच्चई 'एष:' अतिक्रान्तसूत्रार्थव्यवस्थितोऽविद्यमानागारोऽनगारः प्रकर्षण उच्यते प्रोच्यते इति, किंकृतः प्रकर्षः, अनगारव्यपदेशकारणभूतगुणकलापसम्बन्धकृतः प्रकर्षः, इतिशब्दोऽनगारव्यपदेशकारणपरिसमाप्तिद्योती, एतावदनगारलक्षणं नान्यदिति, ये पुनः प्रोशितपारमार्थिकानगारगुणाः शब्दादीविषयानङ्गीकृत्य प्रवर्तन्ते ते तु नापेक्षन्ते वनस्पतीन् जीवान्, यतो भूयांसः शब्दादयो गुणा वनस्पतिभ्य एव निष्पधन्ते, शन्दादिगुणेष्वेव वर्तमाना रागद्वेषविषमविविघूर्णमानलोललोचना नरकादिचतुर्विधगत्यन्तःपातिनो बोधव्याः, ॥१२२७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१२३॥ तदन्तःपातिन एव च शब्दादिविषयामिष्बङ्गिणो भवन्तीति ॥ अस्यार्थस्य प्रसिद्धये गतप्रत्यागतलक्षणमितरेतरावधारणफलं सूत्रमाह जे गुणे से आवट्टे जे आवट्टे से गुणे ॥ सू. ४०॥ यो 'गुणः शन्दादिकः स आवतः, आवर्तन्ते-परिभ्रमन्ति प्राणिनो यत्र स आवतः-संसारः, इह च कारणमेव कार्यत्वेन व्यपदिश्यते यथा नड्वलोदकं पादगेगा, एवं य एते शब्दादयो गुणाः स आवतः, तत्कारणत्वात् , अथवैकवचनोपादानात्पुरुषोऽभिसम्बध्यते, यः शव्यादिगुणेषु वर्तते स आवर्ने वर्तते, यश्चावचें वर्तते स गुणे वर्तत इति, अत्र कश्चिच्चोद्यचञ्चुगह-यो गुणेषु वर्तते स आवर्ने वर्तत इति साधु, यः पुनरावतें वर्तते नासौ नियमत एव गुणेषु वर्तते, यस्मात्साधवो वर्तन्ते आवर्ते न गुणेषु तदेतत्कथमिति, अत्रोच्यते, सत्यम् , आवर्ते यतयो वर्तन्ते न गुणेषु, किन्तु रागद्वेषपूर्वकं गुणेषु वर्तनमिहाधिक्रियते, तच्च साधूनां न सम्भवति, तदभावात्, आवर्तोऽपि संसरणरूपो दुःखात्मको न सम्भवति, सामान्यतस्तु संसारान्तःपातित्वं सामान्यशब्दादिगुणोपलब्धिश्च सम्भवत्येवातो नोपलब्धिः प्रतिषिच्यते, रागपरिणामो द्वेषपरिणामो वा यस्तत्र स प्रतिषिध्यते, तथा चोक्तम्-"'कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं पेम्म नाभिनिवेसए" इत्यादि, तथा चोक्तम्-"न शक्यं रूपमद्रष्टु, चक्षर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ तु यौ तत्र, तो बुधः परिवर्जयेत् ॥ १॥" इति, कथं पुनर्गुणभूयस्त्वं वनस्पतिभ्य इति प्रदर्श्यते-वेणुवीणापटहमुकुन्दादीनामा १ कर्णसौल्येषु शब्देषु प्रेम नाभिनिवेशयेत् । ॥१२३॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १२४ ॥ * ܀܀܀܀ तोद्यविशेषाणां वनस्पतेरुत्पत्तिः, ततत्र मनोहराः शब्दा निष्पद्यन्ते, प्राधान्यमत्र वनस्पतेर्विवक्षितं, अन्यथा तु तन्त्रीचर्मपाण्यादिसंयोगाच्छब्दनिष्पत्तिरिति रूपं पुनः काष्ठकर्म्मस्त्रीप्रतिमादिषु गृहतोरणवेदिकास्तम्भादिषु च चक्षुरमणीयं, गन्धा अपि हि कपूरपाटला लव लीलवङ्गकेतकीसरसचन्दनागरुक कोल केलाजातिफलपत्रिकाकेसर मांसोत्वक्पत्रादीनां सुरभयो २ उद्देशकः ५ गन्धेन्द्रियाह्लादकारिणः प्रादुर्भवन्ति, रसास्तु बिसमृणालमूलकन्दपुष्पफल पत्रकण्टक मञ्जरीत्व गङ्कुर किसलयारविन्दकेसरादीनां जिह्नेन्द्रियलादिनो निष्पद्यन्ते अतिबहव इति, तथा स्पर्शाः पद्मिनीपत्रकमलदलमृणालवन्कलदुकूलशाटकोपधानतूलिकच्छादनपटादीनां स्पर्शनेन्द्रियसुखाः प्रादुष्यन्ति एवमेतेषु वनस्पतिनिष्पन्नेषु शब्दादिगुणेषु यो वर्त्तते स आवर्त्ते वर्त्तते, यश्च आवर्त्तवर्त्ती स रागद्वेषात्मकत्वात् गुणेषु वर्त्तत इति, स चावर्त्तो नामादिभेदाच्चतुर्द्धा, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यावर्त्तः स्वामित्वकरणाधिकरणेषु यथासम्भवं योज्यः, स्वामित्वे नद्यादीनां क्वचित्प्रविभागे जलपरिभ्रमणं द्रव्यस्यावर्त्तः, द्रव्याणां वा हंसकारण्डवचक्रवाकादीनां व्योम्नि क्रीडतामावर्त्तनादावर्त्तः, करणे तु तेनैव जलद्रव्येण भ्रमता यदन्यदावर्त्तते तृणकलिश्चादि स द्रव्येणावर्त्तः, तथा त्रपुसीसकलोहरजतसुवर्णोरावर्त्य मानैर्यदन्यत्तदन्तः पात्यावर्त्यते स द्रव्यैरावर्त्तत इति, अधिकरणविवक्षायामेकस्मिन् जलद्रव्ये आवर्त्तस्तथा रजतसुवर्णरीतिकात्रपुसीसकेष्वेकस्थीकृतेषु बहुषु द्रव्येष्वावर्त्तः, मात्रावर्त्तो नामान्योऽन्यभावसङ्क्रान्तिः, औदयिक भावोदयाद्वा नरकादिगतिचतुष्टयेऽसुमानावर्त्तते, इह च भावावर्त्तेनाधिकारो न शेषैरिति ॥ अथ य एते गुणाः संसारावर्त्तकारणभूताः शब्दादयो वनस्पतेरभिनिवृतस्ते किं नियतदिग्देशभाजः उत सर्व्वदिनु इत्यत आह ॥ १२४ ॥ ܀܀܀܀ अध्ययनं १ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड्ढे अहं तिरियं पाईणं पासमाणे स्वाइं पासति, सुणमाणे सद्दाईसुणेति, उड्ढे अहं पाईणं मुच्छमाणे रुवेसु मुच्छति, सद्देसु आवि ॥ सू०४१॥ प्रज्ञापकदिगङ्गीकरणादूद्धवदिग्व्यवस्थितं रूपगुणं पश्यति प्रासादतलहादिषु, 'अध'मित्यवाङ अधस्तात गिरिशिखरप्रासादाधिरूढोऽधोब्यवस्थितं रूपगुणं पश्यति, अधःशब्दार्थे अबाङित्ययं वर्त्तते, गृहभित्त्यादिव्यवस्थितं रूपगुणं तिर्यक् ।। पश्यति, तिर्यकशब्देन चात्र दिशोऽनुदिशश्च परिगृह्यन्ते, ताश्चेमाः-'प्राचीन मिति पूर्वा दिग, एतच्चोपलक्षणम् , अन्या अप्येतदाद्यास्तिर्यग्दिशो द्रष्टव्या इति, एतासु दिक्षु पश्यन् चक्षुर्ज्ञानपरिणतो रूपादिद्रव्याणि चक्षुाद्यतया परिणतानि पश्यति-उपलभत इत्यर्थः, तथा तासु च शृण्वन् शृणोति शब्दानुपयुक्तः श्रोत्रेण नान्यथेति ॥ अत्रोपलब्धिमात्रं प्रतिपादितं, न चोपलब्धिमात्रात्संसारप्रपातः, किन्तु यदि मूछौं रूपादिषु करोति, ततोऽस्य बन्ध इति दर्शयितुमाह'उड्ड'मित्यादि पुनरूद्धर्वादेमूर्जासम्बन्धनार्थमुपादानं, मूर्छन् रूपेषु मूर्छति, रागपरिणाम यान् रज्यते रूपादिष्वित्यर्थः, एवं शब्देष्वपि मछति, अपिशब्दः सम्भावनायां समुच्चये वा, रूपशब्दविषयग्रहणाच्च शेषा अपि गन्धरसस्पर्शा गृहीता भवन्ति, 'एकग्रहणे तज्जातीयानां ग्रहणाद, आद्यन्तग्रहणादा तन्मध्यग्रहणमवसेयमिति ॥ एवं विषयलोकमाख्याय विवक्षितमाहएस लोए वियाहिए एत्थ अगुत्ते अणाणाए ॥ ४२॥ | ॥ १२५॥ 'एष' इति रूपरसगन्धस्पर्शशब्दविषयाख्यो लोको व्याख्यातः, लोक्यते परिच्छिद्यते इतिकृत्वा, एतस्मिंश्च प्रस्तुते Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यय१ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ॥ १२६॥ उद्देशकः ५ शन्दादिगुणलोकेऽगुप्तो यो मनोवाकायैः मनसा द्वेष्टि रज्यते वा वाचा प्राथनं शब्दादीनां करोति कायेन शब्दादिविषयदेशममिसर्पति, एवं यो ह्यगुप्तो भवति सोऽनाज्ञायां वर्त्तते, न भगवत्प्रणीतप्रवचनानुसारीतियावदिति ॥ एवं गुणश्च यत्कुर्यात्तदाह पुणो पुणो गुणासाए, वंकसमायारे ॥ सू. ४३ ।। ततधासावसकृच्छब्दादिगुणलुब्धो न शक्नोत्यात्मानं शन्दादिगृद्धेनिवर्तयितुम् , अनिवर्तमानश्च पुनः पुनर्गुणास्वादो भवति, क्रियासातत्येन शब्यादिगुणानास्वादयतीत्यर्थः, तथा च यादृशो भवति तदर्शयति-वक्र:-असंयमः कुटिलो नरकादिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात्, समाचरणं समाचार:-अनुष्ठानं, वक्रः समाचारो यस्यासौ वक्रसमाचारः, असंयमानुष्ठायीत्यर्थः, अवश्यमेव शब्दादिविषयाभिलाषी भूतोपमईकारीत्यतो वक्रसमाचारः, प्राक् शब्दादिविषयलवसमास्वादनाद्गृद्धः पुनरात्मानमाचारयितुमसमर्थत्वादपथ्याम्रफलभोजिराजवद्विनाशमाशु संश्रयत इति ॥ एवं चासौ नितरां जितः शब्दादिविषयसमास्वादनात् 'खंतपुत्तोव्व' इदमाचरति पमत्तेऽगारमावसे ॥ सू०४४॥ प्रमत्तो विषयविषमूर्छितः 'अगारं' गृहमावसति, योऽपि द्रव्यलिङ्गसमन्वितः शब्दादिविषयप्रमादवान् असावपि विरतिरूपमावलिङ्गरहितत्वात् गृहस्थ एवेति । अन्यतीर्थिकाः पुनः सर्वदा सर्वथाऽन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह ॥१२६॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १२७॥ लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंममाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति १। तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जातीमरणमोयणाए दुक्खपडियायहे से सयमेव वणस्सइसत्यं समारंभइ अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेइ अण्ण वा वणस्सइसत्थं समारभमाणे समणजाणइ, तं से अहियाए त से अबोहोए २।से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुहाए सोचा भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए, इचत्थं गड्डिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे वि हसंति ३ ॥ सू० ४५॥ प्राग्वत् ज्ञेयं, नवरं वनस्पत्यालापो विधेय इति ॥ साम्प्रतं च वनस्पतिजीवास्तित्वे लिङ्गमाह से बेमि इमंपि जाइधम्मयं एयंपि जाइधम्मयं, इमंपि बुड्डिधम्मयं एयंपि बुड्विधम्मयं, इमंपि चित्तमंतयं एयंपि चित्तमंतयं, इमंपि छिण्णं मिलाइ एयंपि छिण्णं मिलाइ, इमंपि आहारगं एयंपि आहारगं, इमंपि अणिच्चयं एयंपि अणिच्चयं, इमंपि असासयं ॥ १२७॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं. एयंपि असासर्थ,(इमंपि अधुवं एयपि अधुवं), इमंपिचओवचइयं एयंपि चओवचइयं, श्रीआचा इमंपि विपरिणामधम्मयं नामियं) एयंपि विपरिणामधम्मयं ॥ सू०४६॥ राङ्गवृत्तिः सोऽहमुपलब्धतत्वो ब्रवीमि, अथवा वनस्पतिचैतन्यं प्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्यमानस्वरूपं यत्तदहं ब्रवीमि, यथा(शीलाङ्का.) प्रतिज्ञातमर्थ दशयति-'इमंपि जाइधम्मय'ति इहोपदेशदानाय सूत्रारम्भस्तद्योग्यश्च पुरुषो भवत्यतस्तस्य सामर्थ्येन ॥ १२८॥al सन्निहितत्वात्तच्छरीरं प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमा परामृशति, इदमपि-मनुष्यशरीरं, जननं-जातिरुत्पत्तिस्तद्धर्मकम् , एत दपि वनस्पतिशरीरं तद्धर्माकं-तत्स्वभावमेव, इतिपूर्वकोऽपिशब्दः सर्वत्र यथाशब्दार्थे द्वितीयस्तु समुच्चये व्याख्येयः, ततश्चायमर्थः-यथा मनुष्यशरीरं चालकुमारयुववृद्धतापरिणामविशेषवत् चेतनावत्सदाधिष्ठितं प्रस्पष्टचेतनाकमुपलभ्यते, तथेदमपि वनस्पतिशरीर, यतो जातः केतकतरुर्वालको युवा वृद्धश्च संवृत्त इति, अतस्तुल्यत्वादेतदपि जातिधर्मकं, न च कश्चिद्विशेषोऽस्ति; येन सत्यपि जातिधर्मत्वे मनुष्यादिशरीरमेव सचेतनं न बनस्पतिशरीरमिति, ननु च जातिधर्मत्वं केशनखदन्तादिष्वप्यस्ति, अव्यभिचारि च लक्षणं भवत्यस्ति च व्यभिचारः, तस्मादयुक्तं कल्पयितु जातिधर्मत्वं जीवलिङ्गमिति, उच्यते, सत्यमस्ति जननमात्रं, किन्तु मनुष्यशरीरप्रसिद्धवालकुमारकयुववृद्धाद्यवस्थानामसम्भवः केशादिष्वस्ति स्फुटः, तस्मादसमञ्जसमेतद्, अपि च-केशनखं चेतनावत्पदार्थाधिष्ठितशरीरस्थं जातमित्युच्यते, वर्द्धत इति वा, न पुनस्त्वयैवं तरवोऽपि चेतनावत्पदार्थाधारस्था इष्यन्ते, त्वन्मते भुवोऽचेतनत्वात्तस्मादयुक्तमिति । अथवा जातिधर्मत्वादीनि समुदितानि सूत्रोक्तान्येक एव हेतुः, न पृथक् हेतुता, न च समुदायहेतुः केशादिष्वस्ति १२८॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२६ ॥ तस्माददोष इति । तथा यथेदं मनुप्यशरीरकमनवरतं बालकुमाराद्यवस्थाविर्वर्द्धते, तथैतदपि वनस्पतिशरीरमकुरकिशलयशाखाप्रशाखादिभिर्विशेषवर्धते इति, तथा यथेदं मनुष्यशरीरं चित्तवदेवं वनस्पतिशरीरमपि चित्तवत, कथम् १, चेतयति येन तच्चित्तं-ज्ञानं, ततश्च यथा मनुष्यशरीरं ज्ञानेनानुगतमेवं वनस्पतिशरीरमपि, यतो धात्रीप्रपन्नाटादीनां स्वापविबोधसद्भावः तथाऽधोनिखातद्रविणराशेः स्वप्ररोहेणावेष्टनं प्रावृड्जलधरनिनादशिशिरवायुसंस्पर्शादङ्कुरोद्भेदः, तथा मदमदनसङ्गस्खलद्गतिविघूर्णमानलोललोचनविलासिनीसन्नपुरसुकुमारचरणताडनादशोकतरोः पल्लवकुसुमोद्गमः, तथा सुरभिसुरागण्डूपसेकाद्वकुलस्य स्पृष्टप्ररोहिकादीनां च हस्तादिसंस्पर्शात्सङ्कोचादिका परिस्फुटा क्रियोपलब्धिः, न चैतदभिहिततरुसम्बन्धि क्रियाजालं ज्ञानमन्तरेण घटते, तस्मासिद्ध चित्तवत्त्वं वनस्पतेः इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरं छिन्नं म्लायति तथेदमपि छिन्नं म्लायति, मनुष्यशरीरं हि हस्तादि छिन्नं म्लायति-शुष्यति, तथा तरुशरीरमपि पल्लवफलकुसुमादि छिन्नं शोषमुपगच्छत् दृष्टं, न चाचेतनानामयं धर्म इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरं स्तनक्षीरव्यञ्जनौदनाद्याहाराभ्यवहारादाहारकं तथैतदपि वनस्पतिशरीरं भूजलाद्याहाराभ्यवहारक, न चैतदाहारकत्वमचेतनानां दृष्टम् , अतस्तद्भावात्सचेतनत्वमिति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरमनित्यक-न सर्वदाऽवस्थायि तथैतदपि वनस्पतिशरीरमनित्यं नियतायुष्कत्वात् , तथाहि-अस्य दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टमायुः। तथा यथेदं मनुष्यशरीरमशाश्वतं-प्रतिक्षणमावीचीमरणेन मरणात् तथैतदपि वनस्पतिशरीरमिति । तथा यथेदमिष्टानिष्टाहारादिप्राप्त्या 'चयापचयिक' वृद्धिहान्यात्मकं तथैतदपि इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरं विविधपरिणामः-तत्तद्रोगसम्पर्कात् पाण्डुत्वोदर ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥१२६ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) अध्ययनं १ उद्देशकः ५ ॥१३०॥ वृद्धिशोफकृशत्वाङ्गुलिनासिकाप्रवेशादिरूपो बालादिरूपो वा, तथा रसायनस्नेहायुपयोगाद्विशिष्टकान्तिबलोपचयादिरूपो विपरिणामः तद्धर्मक-तत्स्वभावक तथैतदपि वनस्पतिशरीरं तथाविधरोगोद्भवात्पुष्पपत्रफलत्वगाद्यन्यथाभवनात् तथा विशिष्टदौहृदप्रदानेन पुष्पफलाद्यपचयाद्विपरिणामधर्मकम् । एवमनन्तरोक्तधर्मकलापसद्भावादसंशयं गृहाणतत्-सचेतनास्तग्व इति ॥ एवं वनस्पतेश्चैतन्यं प्रदर्श्य तदारम्भे चन्धं तत्परिहाररूपविरत्यासेवनेन च मुनित्वं प्रतिपादयन्नुपसञ्जिहीर्ष राह एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति, एत्थ सत्थं असमारममाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवति, तं परिणाय मेहावी व सयं वणस्सइसत्थं समारंभेजा जेवण्णेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेजा जेवण्णे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणज्जा, जस्सेते वणस्सतिसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे त्ति बेमि ॥ सू० ४७ ॥ पश्चम उद्देशकः ॥ १-५॥ "एतस्मिन् वनस्पती शस्त्रं द्रव्यमावाख्यमारंभमाणस्येत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता-अप्रत्याख्याता भवन्ति, एतस्मिश्च वनस्पतौ शस्त्रमसमारभमाणस्येत्येते आरम्भाः परिज्ञाता:-प्रत्याख्याता भवन्तीति पूर्ववच्ची , यावत् स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमि पूर्ववदिति । शस्त्रपरिज्ञाध्ययने पञ्चमोद्देशकटीका परिसमाप्तेति ॥ १-१॥ -:: ॥ १३०॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१॥ ॥ अथ प्रथमाध्ययने षष्ठस्त्रसकायोद्देशकः ॥ उक्तः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठः समारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तरोद्देशके वनस्पतिकायः प्रतिपादितः, तदनन्तरं च त्रसकायस्यागमे परिपठिनत्वात् तत्स्वरूपाधिगमायायमुद्देशकः समारभ्यते, तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, यावनामनिष्पन्ने निक्षेपे त्रसकायोद्देशकः, तंत्र प्रसकायस्य पूर्वप्रसिद्धद्वारक्रमातिदेशाय तद्विभिभलक्षणद्वाराभिधानाय च नियुक्तिकृदाह1 तसकाए दाराताई' जाईहवंति पुढवीए। नाणत्ती उ विहाणे परिमाणवभोगसत्थे य॥ १५२॥ त्रस्यन्तीति प्रसास्तेषां कायस्त्रसकायस्तस्मिस्तान्येव द्वाराणि भवन्ति यानि पृथिव्यां प्रतिपादितानि, नानात्वं तु । विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रद्वारेषु, चशब्दालक्षणे च प्रतिपत्तव्यमिति ॥ तत्र विधानद्वारमाहM दुविहा खल तसजीवा लडितसा चेव गइतसा चेव । लडीय तेउवाऊ तेणऽहिगारो इहं नस्थि ॥१५३॥ | द्विविधा द्विभेदाः, खलुरवधारणे, त्रसत्वं प्रति द्विमेदत्वमेव, सनात्-स्पन्दनात् प्रसाः, जीवनात्प्राणधारणाज्जीवाः, Raसा एव जीवास्त्रसजीवाः, लम्धित्रसा गतित्रसाश्च, लब्ध्या तेजोवायू प्रसौ, लब्धिस्तच्छक्तिमात्रं, लब्धित्रसाम्या मिहाधिकारो नास्ति, तेजसोऽभिहितत्वाद्वायोश्चाभिधास्यमानत्वाद्, अतः सामर्थ्याद्गतिवसा एवाधिक्रियन्ते ॥ के पुनस्ते कियझेदा वेत्यत आहनेरइयतिरियमणुया सुरा य गइओ चउविहा चेव । पजत्ताऽपज्जत्ता नेरझ्याई अनायव्वा ॥१५४॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १३२ ॥ **** नारका - रत्नप्रभादिमहातमः पृथ्वी पर्यन्तनरकावासिनः सप्तभेदाः, तिर्यश्वोऽपि द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाः, मनुष्याः सम्मूर्छनाः गर्भव्युत्क्रान्ताथ, सुरा भवन पतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः, एते गतित्रसाश्चतुर्विधाः, नामकर्मोदयाभिनिर्वृ त्तगतिलाभाद्गतित्रसत्वम्, एते च नारकादयः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधा ज्ञातव्याः, तत्र पर्याप्तिः पूर्वोक्तैव पोढा, तया यथासम्भव निष्पन्नाः पर्याप्ताः तद्विपरीतास्त्वपर्याप्तका अन्तर्मुहुर्त्तकालमिति ॥ इदानीमुत्तरभेदानाहतिविहा तिविहा जोणी अंडापोअअजराउआ चेव । बेइंदिय तेइन्दिय चउरो पंचिंदिया चैव ॥ १५५ ॥ दारं ॥ अत्र हि शीतोष्ण मिश्र भेदात्तथा सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्तथा संवृतविवृततदुभयभेदात्तथा स्त्रीपुंनपुंसकभेदाच्चेत्यादीनि बहूनि योनीनां त्रिकाणि सम्भवन्ति तेषां सर्वेषां सङ्ग्रहार्थं त्रिविधा त्रिविधेति वीप्सानिर्देशः, तत्र नारकाणामाद्यासु तिसृषु भूमिषु शीतैव योनिः चतुर्थ्यामुपरितननरकेषु शीता अधस्तननरके पूष्णा पञ्चमीषष्ठीसप्तमी पूष्णैव 'नेतरे गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यङ्मनुष्याणामशेषदेवानां च शीतोष्णा योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियसंमूर्छन जतिर्यङ्मनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः शीता उष्णा शीतोष्णा चेति, तथा नारकदेवानामचित्ता नेतरे, द्वीन्द्रियादिसम्मूर्छन पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः सचित्ताचित्ता मिश्रा च, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यङ्मनुष्याणां मिश्रा योनिर्नेतरे, तथा देवनारकाणां संवृता योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुरिन्द्रिय सम्मूर्छ नजपञ्चेन्द्रिय तिर्यङ्मनुष्याणां विवृता योनिर्नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्ति १ शीता शीतोष्णेति । तत्र नारकाणामाद्यासु तिसृषु भूमिपूष्णैत्र योनिः चतुर्थ्यामुपरितननरकेषूष्णाऽधस्तननरकेषु शीता पचमषष्ठीप्रमीषु शीतैव नेतरे इति पा., मतान्तराभिप्रायकश्चायं पाठः, अस्ति सङ्ग्रहणीवृत्तावेवं मतद्वयमपि । अध्ययनं २ उद्द शकः ६ ॥ १३२ ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33॥X कतिर्यग्मनुष्याणां संवृतविवृता योनिर्नेतरे, तथा नारका नपुंसकयोनय एव, तिर्यश्चस्त्रिविधा:-स्त्रीपुनपुसकयोनयोऽपि, मनुष्या अप्येवं त्रैविध्ययोनिमाजः, देवाः स्त्रीपु योनय एव, तथाऽपरं मनुष्ययोनेस्त्रैविध्यं, तद्यथा-कूर्मोन्नता, तस्या चाहत्चक्रवादिसत्पुरुषाणामुत्पत्तिः, तथा शङ्खावर्त्ता, सा च स्त्रीरत्नस्यैव, तस्या च प्राणिनां सम्भवोऽस्ति न निष्पत्तिः, तथा वंशीपत्रा, सा च प्राकृतजनस्येति, तथाऽपरं त्रैविध्यं नियुक्तिकृद्दर्शयति-तद्यथा-अण्डजाः पोतजाः जरायुजाश्चेति, तत्राण्डजाः पक्ष्यादयः, पोतजाः वल्गुलीगजकलभकादयः, जरायुजा गोमहिषीमनुष्यादयः, तथा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदाच्च भिद्यन्ते, एवमेते त्रसास्त्रिविधयोन्यादिमेदेन प्ररूपिताः, एतद्योनिसमाहिण्यौ च गाथे'पुढविदगअगणिमास्यपत्तेयनिओयजीवजोणीणं । सत्तग सत्तग सत्तग सत्तग दस चोद्दस य लक्खा ॥२॥ विगलिंदिरसुदो दो चउरी चउरो य नारयसुरेसु। तिरियाण होन्ति चउरो चोद्दस मणआण लक्खाई ॥२॥ एवमेते चतुरशीतियोनिलचा भवन्ति, तथा कुलपरिमाणं 'कुलकोडिसयसहस्सा बत्तीसढनव य । पृथ्व्युदकाग्निमारुतप्रत्येकनिगोदजीवयोनीनान् । सप्त सप्त सप्त मप्त दश चतुर्दश च लक्षाः॥१॥ विकलेन्द्रियेषु दह्र चतस्रश्चतस्रश्च नारकसुरयोः। तिरश्चां भवन्ति चतस्रश्चतुर्दश मनुष्याणां लक्षाः ॥२॥ २ कुलकोटिशतसहस्राणि द्वात्रिंशत् अष्टाष्टनव च पञ्चविंशतिः। एकेन्द्रियद्वित्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियहरितकायानाम ।।।। अर्धत्रयोदश द्वादश दश दश नव चैव कोटीलक्षाः। जलचरपक्षिचतुष्पदोरोभुजपरिसपंजीवानाम ॥२॥ पञ्चविंशतिः पविशतिश्च शतसहस्राणि नारकसुरयोः । द्वादश च शतसहस्राणि कुलकोटीनां मनुष्याणाम् ॥३॥ एका कोटौकोटी सप्तनवतिश्च शतसहस्त्राणि । पञ्चाशच्च सहस्त्राणि कुताकोटीनां मुणितव्यानि ॥४॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) उद्देशकः ६ पणवीसा। एगिदियबितिइन्दिय(सत्त? य नव य अट्ठवीसं च । बेइन्दियतेइदिय)चउरिंन्दियहरियकायाणं ॥१॥ अडत्तेरस बारस दस दस नव चेव कोडिलक्खाई। जलयरपक्खिचउप्पयउरभुयपरिसप्पजीवाणं ॥ २॥ पणवीसं छब्बीसं च सयसहस्साई नारयसुराणं । पारस य सयसहस्सा कुल- कोडीणं मणुस्साणं ॥ ३॥ एगा कोडाकोडी सत्ताणउतिं च सयसहस्साई। पन्नासं च सहस्सा कुलकोडीणं मुणेयब्वा ॥ ४॥ अङ्कतोऽपि १९७५००००००००००० सकलकुलसङ्ग्रहोऽयं बोद्धव्य इति ॥ उक्ता परूपणा, तदनन्तरं लक्षणद्वारमाहदसणनाणचरित्ते चरियाचरिए अदाणलाभे अ। उवभोगभोगवीरिया इंदियविसए य लडीय ॥१५६॥ उवओगजोगअज्झवसाणे वोमुच लडि णं उदया(ओदइया)। अट्ठविहोदय लेसा सन्नुसासे कसाए अ॥१५७॥ 'दर्शन' सामान्योपलब्धिरूपं चक्षुरचक्षुरवधिकेवलाख्य, मन्यादीनि ज्ञानानि स्वपरपरिच्छेदिनो जीवस्य परिणामाः ज्ञानावरणविगमव्यक्तास्तत्त्वार्थपरिच्छेदाः, सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातानि चारित्रं, चारित्राचारित्रं देशविरतिः स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणं श्रावकाणां, तथा दानलामभोगोपभोगवीर्यश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनर्देशनाख्याः दश लब्धयः जीवद्रव्याव्यभिचारिण्यो लक्षणं भवन्ति, तथोपयोग:-साकारोऽनाकारश्चाष्टचतुर्भेदः, योगो मनोवाकायाख्यस्त्रिधा, अध्यवसायाश्चानेकविधाः सूक्ष्माः मनःपरिणामविशेषाः, विष्वग्-पृथग् लब्धीनामुदया: १३४॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१३५॥ प्रादुर्भावाः क्षीरमध्वास्रवादयः, शानावरणाद्यान्तरायावसानकर्माष्टकस्य स्वशक्तिपरिणाम उदयः, लेश्या:-कृष्णादिभेदा अशुभाः शुभाश्च कषाययोगपरिणतिविशेषसमुत्थाः, संज्ञास्त्वाहारभयपरिग्रहमैथुनाख्याः, अथवा दशभेदाः-अनन्तरोक्ताश्चतस्रः क्रोधाद्याश्च चतस्रस्तथौघसंज्ञा लोकसंज्ञा च, उच्छ्वासनिःश्वासौ प्राणापानौ, कषायाः कषः-संसारस्तस्यायाः क्रोधादयोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदात् षोडशविधाः । एतानि गाथाद्वयोपन्यस्तानि द्वीन्द्रियादीनां लक्षणानि यथासम्भवमवगन्तव्यानीति, न चैवविधलक्षणकलापसमुच्चयो घटादिष्वस्ति, तस्मात्तत्राचैतन्यमध्यवस्यन्ति विद्वांसः ॥ अभिहितसक्षणकलापोपसञ्जिहीर्षया तथा परिमाणप्रतिपादनार्थ गाथामाह लक्षणमेवं चेव उ पयरस्स असंखभागमित्ताउ । निक्खमणे य पवेसे एगाईयावि एमेव ॥१५॥ तुशब्दः पर्याप्तिवचनः, द्वीन्द्रियादिजीवानां लक्षणं-लिङ्गमेतावदेव दर्शनादि परिपूर्ण, नातोऽन्यदधिकमस्तीति । परिमाणं पुनः क्षेत्रतः संवर्तितलोकप्रतरासङ्ख्येयभागावर्तिप्रदेशराशिपरिमाणास्त्रसकायपर्याप्तकाः, एते च चादरतेजस्कायपर्याप्तकेभ्योऽसंख्येयगुणाः, त्रसकायपर्याप्तकेभ्यस्त्रसकायिकापर्याप्तकाः असंख्येयगुणाः, तथा कालतः प्रत्युत्पन्न सकायिकाः सागरोपमलक्षपृथक्त्वसमयराशिपरिमाणा जघन्यपदे, उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमलक्षपृथक्त्वसमयगशिपरिमाणा एवेति, तथा चागमः-"पडप्पन्नतसकाइया केवतिकालस्स निल्लेवा सिया 1, गोयमा १ जहन्नपए १ प्रत्युत्पन्नत्रसकायिकाः कियता कालेन निर्लेपाः स्युः, गौतम ! जघन्यपदे सागरोपमशतसहस्रपृथक्त्वेन उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतसहस्रपृथक्त्वेन । ॥१३५॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ka सागरोवमसयसहस्सपुहुत्तस्स उकोसपदेऽवि सागरोवमसयसहस्सपुहुत्तस्स" । उद्वर्तनोपपातौ गाथाशकलेना- Mal. श्रीआचा अध्ययनं १ मिदधाति-निष्क्रमणम्-उद्वर्त्तनं प्रवेशः-उपपातः जघन्येनैको द्वौ त्रयो वा उत्कृष्टतस्तु 'एवमेवेति प्रतरस्यासंख्येयभागराङ्गवृत्तिः वर्तिप्रदेशराशिपरिमाणा एवेत्यर्थः ॥ साम्प्रतमविरहितप्रवेशनिर्ममाभ्यां परिमाणविशेषमाह उद्देशकः६ निक्खमपवेसकालो समयाई इत्थ आवलीभागो।अंतोमुहुत्त विरहो उदहिसहस्साहिए दोनि ॥१५६॥दारं॥ al जधन्येन अविरहिता संतता त्रसेषु उत्पत्तिनिष्क्रमो वा जीवानामेकं समयं द्वौ त्रीन् वेत्यादि, उत्कृष्टेनात्रावलिकाs संख्येयभागमानं कालं सततमेव निष्क्रमः प्रवेशो वा, एकजीवाङ्गीकरणेनाविरहश्चिन्त्यते गाथापश्चिमार्द्धन-अविरहः सातत्येनावस्थानम , एकजीवो हि त्रसभावेन जघन्यतोऽन्तमुहूर्तमासित्वा पुनः पृथिव्यायेकेन्द्रिथेप्रत्पद्यते, प्रकर्षणाधिकं सागरोपमसहस्रद्वयं च प्रसभावेनावतिष्ठते सन्ततमिति ॥ उक्तं प्रमाणद्वार, साम्प्रतमुपभोगशस्त्रवेदनाद्वारत्रयप्रतिपादनायाहमंसाईपरिभोगो सत्यं सत्याइयं अणेगविहं। सारीरमाणसा वेयणा य दुविहा बहुविहा य ॥१६०॥ दारं ॥ मांसचर्मकेशरोमनखपिच्छदन्तस्त्रायवस्थिविषाणादिभिस्त्रसजीवसम्बन्धिभिरुपभोगो भवति, शस्त्रं पुनः 'शस्त्रादिकमिति' शस्त्रं खड़गतोमरक्षुरिकादि तदादिर्यस्य जलानलादेस्तच्छस्त्रादिकमनेकविधं-स्वकायपरकायोभयद्रव्यभावभेदभिन्नमनेकप्रकारं उसकायस्येति, वेदना चात्र प्रसङ्गेनोच्यते-सा च शरीरसमुत्था मनःसमुत्था च द्विविधा यथासम्भवं, तत्राद्या शल्यशलाकादिमेदजनिता, इतरा प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगादिकृता, बहुविधा च ज्वरातीसारकासश्वासभगन्दरशिरोरोगशलगदकीलकादिसमुत्था तीव्र ति ॥ पुनरप्युपभोगप्रपश्चाभिधित्सयाऽऽह ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३७॥ मंसस्स के अट्ठा केइ चम्मस्स केइ रोमाणं । पिच्छाणं पुच्छाणं दंदाणऽहा वहिज्जति ॥११॥ | कई वहति अट्ठा केइ अणहा पसंगदोसेणं । कम्मपसंगपसत्ता बंधंति वहति मारंति ॥ १६२॥ मसार्थ मृगशकरादयो वध्यन्ते, चर्मार्थ चित्रकादया, रोमार्थ मूषिकादयः, पिच्छार्थ मयूरगृद्धकपिञ्चुरुदुकादयः, पुच्छार्थ चमर्यादयः, दन्तार्थ वारणवराहादयः, वध्यन्त इति सर्वत्र सम्बध्यत इति ॥ तत्र केचन पूर्वोक्तप्रयोजनमुद्दिश्य घ्नन्ति, केचित्पुनः प्रयोजनमन्तरेणापि क्रीडया घ्नन्ति, तथा परे प्रसङ्गदोषात् मृगलक्षक्षिप्तेषु लेलुकादिना तदन्तरालव्यवस्थिता अनेके कपोतकपिञ्जलशुकसारिकादयो हन्यन्ते, तथा कर्म-कृष्याद्यनेकप्रकारं तस्य प्रसङ्गः-अनुष्ठान तत्र प्रसक्ताः-तन्निष्ठाः सन्तस्त्रसकायिकान् बहून् बन्धन्ति रज्ज्वादिना, घ्नन्ति -कशलकुटादिभिः ताडयन्ति, मारयन्तिप्राणैर्वियोजयन्तीति ॥ एवं विधानादिद्वारकलापमुपये सकलनियुक्त्यर्थोपसंहारायाह सेसाईदाराइताई जाईहवंति पुढवीए । एवं तसकायमी निज्जुत्ती कित्तिया एसा । १६३ ।। उक्तव्यतिरिक्तानि शेषाणि द्वाराणि तान्येव वाच्यानि यानि पृथ्वीस्वरूपसमधिगमे निरूपितानि, अत एवमशेषद्वाराभिधानात्रसकाये नियुक्तिः कीर्तितैषा सकला भवतीत्यवगन्तव्येति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम् से बेमि संतिमे तसा पाणा, तंजहा-अंडया पोयया जराउमा रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भिया उचवाइया, एस संसारेत्ति पवुच्चई ॥ सू. ४८॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ १३७॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः ॥ १३८॥ अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रसम्बन्धः प्राग्यद्वाच्यः, सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवद्वदनारविन्दविनिमृतार्थजातावधारणात् यथावदुपलब्धं तत्त्वमिति, 'सन्ति' विद्यन्ते त्रस्यन्तीति प्रसाः-प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः, ते च कियझेशः अध्ययन किंप्रकाराश्चेति दर्शयति-तद्यथेति वाक्थोपन्यासार्थः, यदिवा 'तत्' प्रकारान्तरमर्थतो यथा भगवताऽभिहितं उद्देशकः ६ तथाऽहं भणामीति, अण्डाज्जाताः अण्डजाः-पक्षिगृहकोकिलादयः, पोतादेव जायन्ते पोतजाः 'अन्येष्वपि दृश्यते' (पा-३-२-१०१) इति जनेर्डप्रत्ययः, ते च हस्तिवन्गुलीचर्मजलूकादयः, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः, पूर्ववत् डप्रत्ययः, गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः, रसाज्जाता रसजा.-तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति, संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजाः-मत्कुणयुकाशतपदिकादयः, सम्मुर्छनाज्जाताः सम्मृर्छनजाः-शलभपिपीलिकामाक्षकाशालिकादयः, उद्भेदनमुद्भित्ततो जाता उद्भिजाः, पृषोदरादित्वादलोपः पतङ्गखञ्जरीटपारीप्लवादयः, उपपाताज्जाता उपपातजाः, अथवा उपपाते भवा औपपातिकाः-देवा नारकाच, एवमष्टविधं जन्म यथासम्भवं संसारिणो नातिवर्तन्ते, एतदेव शास्त्रान्तरे त्रिविधमुपन्यस्त "सम्मूर्च्छनगर्भोपपाता जन्म" (सत्त्वार्थ० अ० २ सूत्र ३२) रसस्वेदजोद्भिज्जानां सम्मृर्छनजान्तःपातित्वात् अण्डजपोतजजरायुजानां गर्भजान्तःपातित्वात् देवनारकाणामोपपातिकान्तःपातित्वात् । इति त्रिविधं जन्मेति, इह चाष्टविधं सोत्तरभेदत्वादिति । एवमेतस्मिन्नष्टविधे जन्मनि सर्वे त्रसजन्तवः संसारिणी निपतन्ति, नैतद्वयतिरेकेणान्ये सन्ति, एते चाष्टविधयोनिभाजोऽपि सर्वलोकप्रतीता बालाङ्गनादिजनप्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्याः, 'सन्ति च' अनेन शब्देन त्रैकालिकमस्तित्वं प्रतिपाद्यते त्रसानां, न कदाचिदेतैविरहितः संसारः सम्भवतीक्षि, एतदेव Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १३९ ॥ दर्शयति- 'एस संसारेति पवुच्चति' एषः- अण्डजादिप्राणिकलापः संसारः प्रोच्यते नातोऽन्यस्त्रसानामुत्पत्तिप्रकारोऽस्तीत्युक्तं भवति ॥ कस्य पुनरत्राष्टविधभूतग्रामे उत्पत्तिर्भवतीत्याह मंदस्सावियाणओ ॥ सू०.४९ ॥ मन्दो द्विधा - द्रव्यभावभेदात् तत्र द्रव्यमन्दोऽऽतिस्थूलोऽतिकृशो वा भावमन्दोऽप्यनुपश्चितबुद्धिर्वाल : कुशास्त्रवासितबुद्धिर्वा, अयमपि सद्बुद्धेरभावाद्बाल एव इह भावमन्देनाधिकारः, 'मन्दस्ये' ति बालस्याविशिष्टबुद्धेः अत एव अविजानतो - हिताहितप्राप्तिपरीहारशून्यमनसः इत्येषोऽनन्तरोक्तः संसारो भवतीति ॥ यद्येवं ततः किमित्याह निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता दत्तेयं परिनिव्वाणं सव्वेसिं पाणानं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसिंजीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं महम्भयं दुक्खं तिबेमि, तसंति पाणा पदिसो दिसासु य ॥ सू० ५० ॥ एवमिमं सकायमा गोपालाङ्गनादिप्रसिद्धं निश्चयेन ध्यात्वा निर्ध्याय चिन्तयित्वेत्यर्थः क्त्वाप्रत्ययस्योत्तर क्रियापेक्षत्वाद् ब्रवीमीत्युत्तरक्रिया सर्व्वत्र योजनीयेति । पूर्व्वं च मनसाऽऽलोच्य ततः प्रत्युपेक्षणं भवतीति दर्शयति- 'पडिलेहेत्त 'त्ति प्रत्युपेक्ष्य-दृष्ट्वा यथावदुपलभ्येत्यर्थः, किं तदिति दर्शयति- 'प्रत्येक' मित्येकमेकं सकायं प्रति परिनिर्वाणंसुखं प्रत्येक सुखभाजः सर्वेऽपि प्राणिनः नान्यदीयमन्य उपभुङ्क्ते सुखमित्यर्थः, एष च सर्व्वप्राणिधर्म्म इति दर्शयतिसर्वेषां प्राणिनां - द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तथा सर्व्वेर्षा भूतानां - प्रत्येकसाधारणसूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्त कतरूणामिति, तथा ॥ १३९ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का. ॥१४०॥ सर्वेषां नीवानां इति-मभव्युत्क्रान्तिकसम्मृर्छनजौपपातिकपम्वेन्द्रियाणां, तथा सर्वेषां सत्त्वानां इति-पृथिन्या अध्ययनं १ घेकेन्द्रियाणामिति, इह च प्राणादिशब्दानां यद्यपि परमार्थतोऽभेदस्तथापि उक्तन्यायेन मेदो द्रष्टन्या, उक्तं च-'प्राणा| दित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरयः स्मृताः । जीवाः पम्पेन्द्रियाः प्रोक्ताः(ज्ञेयाः) शेषाः सत्त्वा उदीरिताः उद्देशकः ६ (प्रकीर्तिताः) ॥२॥ इति, यदिवाशब्दव्युत्पत्तिद्वारेण समभिरूढनयमतेन भेदो द्रष्टव्यः(भ्युपगंतव्यः), तद्यथा-सततप्राणधारणात्प्राण : कालत्रयभवनाद् भूताः त्रिकालजीवनात् जीवाः सदाऽस्तित्वात्सत्वा इति, तदेवं विचिन्त्य प्रत्युपेक्ष्य च यथा सर्वेषां जीवानां प्रत्येकं परिनिर्वाणं-सुखं तथा प्रत्येकमसातम्-अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखमहं ब्रवीमि, तत्र दुःखयतीति दुःखं, तद्विशिष्यते-किंविशिष्टम् ?-'असातम' असद्यकाशविपाकजमित्यर्थः, तथा 'अपरिनिर्वाण'मिति समन्तात् सुर्ख परिनिर्वाणं न परिनिर्वाणमपरिनिर्वाणं समन्तात् शरीरमनःपीडाकरमित्यर्थः, तथा 'महाभय'मिति महच्च तद्भयं च महाभयं, नातः परमन्यद् भयमस्तीति महाभयं, तथाहि-सर्वेऽपि शारीरान्मानसाच्च दुःखादुद्विजन्ते प्राणिन इति, इति शब्दएवमर्थे, एवमहं ब्रवीमि सम्यगुपलब्धतत्त्वो यत्प्रागुक्तमिति । एतच्च ब्रवीमीत्याह-'तसंती' त्यादि, एवंविधेन च असातादिविशेषणविशिष्टेन दुःखेनाभिभूतास्त्रस्यन्ति-उद्विजन्ति प्राणा इति प्राणिनः, कुतः पुनस्द्विजन्तीति दर्शयतिप्रगता दिन प्रदिग्विदिक इत्यर्थः, ततः प्रदिशः सकाशादुद्विजन्ति, तथा प्राच्यादिषु च दिक्षु व्यवस्थितास्त्रस्यन्ति, एताश्च प्रज्ञापकविधिविभक्ता दिशोऽमुदिश गृह्यन्ते, बीवव्यवस्थानभवणात, ततथायमर्थः प्रतिपादितो भवति काका-न काचिहिंगनुदिग्वा यस्यां न सन्ति त्रसाः त्रस्यन्ति वा न यस्यां स्थिताः कोशिकारकीटवत् , कोशिकारकीटो हि सर्वदिग्भ्योऽनु Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४१॥ दिग्भ्यश्च विम्यदात्मसंरक्षणार्थ वेष्टनं करोति शरीरस्येति, भावदिगपि न काचित्तादृश्यस्ति यस्यां वर्तमानो जन्तुर्न त्रस्येत् , शारीरमामसाभ्या दुःखाभ्यां सर्वत्र नरकादिषु जंघन्यन्ते प्राणिनोऽतस्त्रासपरिंगतमनसः सर्वदाऽवगन्तव्याः ॥ एवं सर्वत्र दिक्ष्वनुदिक्षु च त्रसाः सन्तीति गृहीमः, दिग्वदिव्यवस्थितास्त्रसास्त्रस्यन्तीत्युक्तं, कुतः पुनस्त्रस्यन्ति ?-यस्मातदारम्भवद्भिस्ते व्यापाद्यन्ते, किं पुनः कारणं, ते तानारम्भन्त इत्यत आह-- तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितावंति, संति पाणा पुढो सिया ॥ सू०५१॥ _ 'तत्र तत्र' तेषु तेषु कारणेघूत्पन्नेषु वक्ष्यमाणेषु अर्चाजिनशोणितादिषु च पृथग्विभिन्नेषु प्रयोजनेषु, पश्येति शिष्यचोदना, किं तत्पश्येति दर्शयति—'मांसभक्षणादिगृद्धा आतुरा:-अस्वस्थमनसः परि-समन्तात्तापयन्ति-पीडयन्ति नानाविधवेदनोत्पादनेन प्राणिव्यापादनेन वा तदारम्भिणस्वसानिति, येन केनचिदारम्भेण प्राणिनां सन्तापनं भवतीति दर्शयन्नाह-संती'त्यादि, 'सन्ति' विद्यन्ते प्रायः सर्वत्रैव प्राणा:-प्राणिनः 'पृथक् विभिन्नाः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया: 'श्रिताः पृथिव्यादिश्रिताः, एतच्च ज्ञात्वा निरवद्यानुष्ठायिना भवितव्यमित्यभिप्रायः ॥ अन्ये पुनरन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयन्नाह लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारभेण तसकायसत्थं समारभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति, तत्थ खल भगवया परिण्णा पइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूय Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १४२ ॥ te जाईमरणमोयणाए दुक्खपरिधामहेड मे सयमेव तसकायसत्थं समारभति अण्णेहिं वा नसकाय सत्थं समारंभावेई, अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं खे अबोहिए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीचं समुट्ठाय सोचा खलु भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति - एस मलु गंधे, एस -स्वल मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इचत्थं गड्डिए लोप जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेण तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति ।। सू० ५२ ॥ पूरवत् व्याख्येयं यावत् 'अण्णे असे गरूवे पाणे विहिंसइति ॥ यानि कानिचित्कारणान्युद्दिश्य त्रसवधः क्रियते तानि दर्शयितुमाह से बेमि अप्पे अचाए हणंति, अप्पेगे अजिणाए बहंति अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, एवं हिययाए पिताए बसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए हाए हारुणीए अट्ठीए अडिमिंजाए अट्ठाए अणट्ठाए अप्पेगे हिंसिस मेत्ति वा वहंति अप्पेगे हिंसंति मेति वा वहति अप्पेगे हिंसिस्संति मेति वा वहति ॥ सू० ५३ ॥ श्रध्ययनं १ उद्दे शकः ६ । १४२ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १४३ ॥ तदहं ब्रवीमि यदर्थं प्राणिनस्तदारम्भप्रवृत्तैर्व्यापाद्यन्त इति, अप्येकेऽर्चायै घ्नन्ति, अपिरुत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, 'एके' केचन तदर्थित्वेनातुराः, अर्च्यतेऽसावाहारालङ्कारविधानैरित्य च देहस्तदर्थं व्यापादयन्ति तथाहि लक्षणवत्पुरुषमक्षतमव्यङ्गं व्यापाद्य तच्छरीरेण विद्यामन्त्रसाधनानि कुर्व्वन्ति उपयाचितं वा यच्छन्ति दुर्गादीनामग्रतः, अथवा विषं येन भक्षितं स हस्तिनं मारयित्वा तच्छरीरे प्रक्षिप्यते पश्चाद्विषं जीर्यति, तथा अजिनाथ - चित्रकव्याघ्रादीन् व्यापादयन्ति एवं मांसशोणितहृदय पित्तव सापिच्छपुच्छ्वालशृङ्गविषाणदन्तदंष्ट्रान खस्नाय्वस्थ्य स्थिमिञ्जादिष्वपि वाच्यं, मांसार्थं सूकरादयः, त्रिशूला लेखार्थं शोणितं गृह्णन्ति, हृदयानि साधका गृहीत्वा मध्नन्ति पित्तार्थं मयूरादयः, वस्त्रार्थं व्याघ्रमकरवराहादयः, पिच्छार्थं मयूरगृध्रादयः, पुच्छार्थं रोझादयः, वालार्थं चमर्यादयः, शृङ्गार्थं रुरुखड्गादयः, तत्किल शृङ्गं पवित्रमिति याज्ञिका गृह्णन्ति, विषाणार्थं हस्त्यादयः, दन्तार्थं शृगालादयः, तिमिरापहत्वात्तदन्तानां दंष्ट्रार्थ वराहादयः, नखार्थं व्याघ्रादयः, स्नाय्वर्थं गोमहिष्यादयः, अस्थ्यर्थं शङ्खशुक्त्यादयः, अस्थिमिञ्जार्थं महिषवराहादयः, एवमेके यथोपदिष्टप्रयोजन कलापापेक्षया घ्नन्ति, अपरे तु कृकलासगृहको किलिकादीन् विना प्रयोजनेन व्यापादयन्ति, अन्ये पुनः 'हिंसिसु मेत्ति' हिंसितवानेषोऽस्मत्स्वजनान्सिंहः सर्वोऽरिवऽतो घ्नन्ति मम वा पीडां कृतवन्त इत्यतो इन्ति, तथा अन्ये वर्त्तमानकाल एव हिनस्ति अस्मान् सिंहोऽन्यो वेति घ्नन्ति, तथाऽन्येऽस्मानयं हिंसिष्यतीत्यनागतमेव सर्पादिकं व्यापादयन्ति ।। एवमनेकप्रयोजनोपन्यासेन हननं त्रसविषयं प्रदर्श्य उद्देश कार्थमुपस जिहीर्षुराह - एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चते आरंभा अपरिण्णाया भवंति, एत्थ सत्थं असमा ॥ १४३ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ॥१४४॥ उद्देशकः ७ रभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवन्ति, तं परिणाय मेंहावी व सयं तसकायसत्थं समारंभेज्जा, वडपणेहिं तसकायसत्थं समारंभावेजा वऽण्णे तसकायसत्थं समारंभंते समणजाणेजा, जस्सेते तसकायसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे त्तिबेमि ॥ सू० ५४ ॥ प्राग्वद्वाच्यं (प्राग्वद्भावनीय) यावत्स एव मुनिस्त्रसकायसमारम्भविरतत्वात परिज्ञातकर्मत्वात्प्रत्याख्यातपापकर्मत्वादिति चवीमि भगवतः त्रिलोकबन्धोः परमकेवलालोकसाक्षात्कृतसकलभुवनप्रपश्चस्योपदेशादिति षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥ ॥ इति प्रथमाध्ययने षष्ठ उद्देशकः ॥ १-६ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ अथ प्रथमाध्ययने सप्तमोद्द शकः ॥ उक्तः षष्ठोद्देशकः, साम्प्रतं सप्तमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अभिनवधर्माणां दुःश्रद्धानत्वादल्पपरिभोगत्वादुत्क्रमायातस्योक्तशेषस्य वायोः स्वरूपनिरूपणार्थमिदमुपक्रम्यते तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे वायूद्देशक इति, तत्र वायोः स्वरूपनिरूपणाय कतिचिद्वारातिदेशगी नियुक्तिकृद्गाथामाह ॥ १४४॥ ܀ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १४५॥ वाउस्सऽपि दाराइनाई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणवभोगसत्थेय ॥१६४॥ वातीति वायुस्तस्य वायोरपि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यां प्रतिपादितानि, नानात्वं-भेदः, तच्च विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रषु, चशब्दालक्षणे च द्रष्टव्यमिति ॥ तत्र विधानप्रतिपादनायाह-- दुविहा यवाउजीवा सुहमा तह वायरा उ लोगंमि। सुहमा य सव्वलोए पंचेव य वायरविहाणा ॥१६५।। वायुरेव जीवा वायुजीवाः, ते च द्विविधाः-सूक्ष्मवादरनामकर्मोदयात् सूक्ष्मा बादराश्च, तत्र सूक्ष्माः सकललोकव्यापितया अवतिष्ठन्ते, दत्तकपाटसकलवातायनद्वारगेहान्तर्दू मवत् व्याप्त्या स्थिताः, बादरभेदास्तु पञ्चैवानन्तरगाथया वक्ष्यमाणा इति ॥ बादरभेदप्रतिपादनायाह उक्कलिया मंडलिया गुञ्जा घणवाय सुद्धवाया य । बायरवारविहाणा पंचविहा वणिया एए ॥१६६॥ दारं-स्थित्वा स्थित्वोत्कलिकाभियों वाति स उत्कलिकावातः, मण्डलिकावातस्तु वातोलीरूपः, गुञ्जा-मम्भा तद्वत् गुञ्जन् यो वाति स गुञ्जावातः, घनवातोऽत्यन्तधनः पृथिव्याद्याधारतया व्यवस्थितो हिमपटलकन्पो, मन्दस्तिमितः शीतकालादिषु शुद्धवातः, ये त्वन्ये प्रज्ञापनादौ प्राच्यादिवाता अभिहितास्तेषामेष्वेव यथायोगमन्तर्भावो द्रष्टव्य इति, एवमित्येते बादरवायुविधानानि-भेदाः 'पञ्चविधाः पश्चप्रकारा व्यावर्णिता इति ॥ लक्षणद्वाराभिधित्सयाऽऽह___जइ देवस्स सरीरं अंतडाणं व अंजणाईसु। एओवम आएसो वाएऽसंतेऽवि रूवंमि ॥ १६७ ॥ ॥१४५ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का. १४६ ॥ यथा देवस्य शरीरं चन्नुषाऽनुपलभ्य मानमपि विद्यते चेतनावच्चाध्यवसीयते, देवाः स्वशक्तिप्रभावात्तथाभूतं रूपं अध्ययनं १ कुर्वन्ति यच्चक्षुषा नोपलभ्यते, न चैतद्वक्तु शक्यते-नास्त्यचेतनं चेति, तद्वद्वायुरपि चक्षुषो विषयो न भवति, अस्ति च चित्तवाश्चेति, यथा वाऽन्त नमजनविद्यामन्त्रैर्भवति मनुष्याणां, न च नास्तित्वमचेतनत्वं चेति, एतदुपमानो(नेन) उद्देशकः ७ वायावपि भवति 'आदेशो' व्यपदेशोऽसत्यपि रूप इति, अत्र वासच्छब्दो नाभाववचनं, किं त्वसद्रूपं वायोरिति चक्षुर्गाव तद्रूपं न भवति, सूक्ष्मपरिणामात्, परमाणुरिव, रूपरसस्पशात्मकश्च वायुरिष्यते, र यथाऽन्येषां वायुः स्पर्शवानेवेति, प्रयोगार्थश्च गाथया प्रदर्शितः, प्रयोगश्चायं-चेतनावान् वायुः, अपरप्रेरिततिर्यगनियमितगतिमन्चात , गवाश्वादिवत , तिर्यगेव गमननियमाभावात् अनियमितविशेषणोपादानाच्च परमाणुनाऽनेकान्तिकासंभवः, तस्य नियमितगतिमत्त्वात् , जीवपुद्गलयोः 'अनुश्रेणिगति' (तत्त्वा० अ० २ ० २७) रिति वचनात् , एवमेष वायु:-घनशुद्धवातादिभेदोऽशस्त्रोपहतश्चेतनावानवगन्तव्य इति ।। परिमाणद्वारमाहजेवायरपजत्ता पयरस्सअसंखभागमित्ताते । सेसा तिन्निवि रासीवीसुलोगा असंखिजा ॥१६८॥ दारं॥ ये बादरपर्याप्तका वायवस्ते संवर्तितलोकप्रतरांसङ्घय यभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयो विष्वक्पृथगसङ्खये यलोकाकाशप्रदेशपरिमाणा भवन्ति, विशेषश्चायमत्रावगन्तव्यः-चादगपकायपर्याप्तकेभ्यो बादरवायुपर्याप्तका असङ्ख्य यगुणाः बादराप्कायापर्याप्तकेभ्यो बादरवायुकायापर्याप्तका असङ्ख्य यगुणाः सूक्ष्मापकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्म Ra४६ वाय्वपर्याप्तका विशेषाधिकाः सूक्ष्मापकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवायुपर्याप्तका विशेषाधिकाः॥ उपभोगद्वारमाह Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४७॥ वियणघमणाभिधारण उस्सिंचणफुसणआणुपाणू अवायरवाउकाए उवभोगगुणो मणस्साणं ॥१६॥ व्यजनभस्वाध्माताभिधारणोसिश्चनफूत्कारप्राणापानादिभिर्वादरवायुकायेन उपभोग एव गुण उपभोगगुणो मनुष्याणामिति ॥ शस्त्रद्वाराभिधित्सयाऽऽह, तत्र शस्त्रं द्रव्यभावमेदाद्विविध, द्रव्यशस्त्राभिधित्सयाऽऽहविअणे अ तालविंटे सुप्पसियपत्त चेलकण्णे य । अभिधारणा य बाहिं गंधग्गी वाउसत्थाई ॥१७॥ व्यजनं तालवृन्त सूर्पसितपत्रचेलकर्णादयः द्रव्यशस्त्रमिति, तत्र सितमिति चामरं, प्रस्विनो यद्वहिरवतिष्ठते वातागमनमार्गे साऽभिधारणा, तथा गन्धा:-चन्दनोशीरादीनां अग्निाला प्रतापश्च, तथा प्रतिपक्षवातश्च शीतोष्णादिकः, प्रतिपक्षवायुग्रहणेन स्वकायादिशस्त्रं सूचितमिति, एवं मावशस्त्रमपि दुष्प्रणिहितमनोवाकायलक्षणमवगन्तव्यमिति ॥ अधुना सकलनियुक्त्यर्थोपसञ्जिहीर्ष राह सेसाइ दाराइ ताईजाई हवंति पुढवीए । एवं वाउद्दे से निज्जुत्ती कित्तिया एसा ॥ १७१॥ 'शेषाणि' उक्तव्यतिरिक्तानि तान्येव द्वाराणि पृथिवीसमधिगमे वान्यभिहितानीति, एवं सकलद्वारकलापव्यावर्णनाद् वायुकायोद्देशके नियुक्तिः कीर्तितैषाऽवगन्तव्येति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्-'पहू एजस्स दुगंछणाए'त्ति, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके पर्यन्तसूत्रे त्रसकायपरिज्ञानं तदारम्भपरिवर्जनं च मुनित्वकारणमभिहितम्, इहापि तदेव द्वयं वायुकायविषयं मुनित्वकारणमेवोच्यते, तथा परम्परसूत्रसम्बन्धः, इहमेगेसिं णो णायं भवत्ति, किं तत् ज्ञातं भवति ?, 'पहु एजस्स दुगुणाए'त्ति, तथा आदिसूत्र ॥१४७ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलावा.) सम्बन्धश्च 'सुयं मे आउसंतेण' मित्यादि, किं तत् श्रतं?, यत्त्रागुपदिष्टं, तथेतच्चपहू एजस्स (य एगस्स) दुगुछणाए ॥ सू० ५५॥ अध्ययनं. । 'दुगु'छण'त्ति जुगुप्सा प्रभवतीति प्रभुः-समर्थः योग्यो वा, कस्य वस्तुनः समर्थ इति १, 'एज कम्पने' एजतीत्येजो | उ शकः ७ वायुः कम्पनशीलत्वात् तस्यैजम्य जुगुप्सा-निन्दा तदासेवनपरिहारो निवृत्तिरितियावत तस्या-तद्विषये प्रभुर्भवति, वायुकायसमारम्भनिवृत्तौ शक्तो भवतीतियावत् , पाठान्तरं वा 'पहू य एगस्स दुगुछणाए' उद्रेकावस्थावर्त्तिनैकेन गुणेन स्पर्शाख्येनोपलक्षित इत्येको-वायुस्तस्यैकस्य एकगुणोपलशितस्य वायोर्जुगुप्सायां प्रभुः, चशब्दात् श्रद्धाने च प्रभुभवतीति, अर्थात् यदि श्रद्धाय जीवतया जुगुप्सते ततः॥ योऽसौ वायुकायसमारम्भनिवृत्तौ प्रभुरुक्तस्तं दर्शयति आयकदंसी अहियंति णञ्चा, जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ, जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ, एयं तुलमन्नेसिं ।। सू०५६ ॥ 'तकि कृच्छजीवन' इत्यातङ्कनामातङ्कः-कृच्छजीवनं-दुःखं, तच्च द्विविधं-शारीरं मानसं च, तत्राद्यं कण्टकक्षारशस्त्रगण्डलूतादिसमुत्थं, मानसं प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगेप्सितालाभदारिद्रयदौर्मनस्यादिकृतम् , एतदुभयमातङ्कः, एनमातङ्क पश्यति तच्छीलश्चेत्यातङ्कदर्शी, अवश्यमेतदुभयमपि दुःखमापतति मय्यनिवृत्तवायुकायसमारम्भे, ततश्चेतद्वायुकायसमारम्भणमातङ्कहेतुभूतमहितमिति ज्ञात्वैतस्मानिवर्तते प्रभुर्भवतीति । यदिवाऽऽतको वैधा-द्रव्यभावभेदात् , तत्र ॥ १४८॥ द्रव्यातङ्क इदमुदाहरणम्-जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासंमि अत्थि सुपसिद्धं । बहुणयरगुणसमिद्धं रायगिहं णाम जयरंति Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ra॥१॥ तत्थासि गरुयदरियारिमहणो भुयणनिग्गयपयावो । अभिगयजीवाजीवो राया णामेण जियसत्तू ॥ २ ॥ अण वरयगरुयसंवेगभाविओ धम्मघोसपायमूले । सो अन्नया कयाई पमाइणं पासए सेहं ॥३॥ चोइज्जंतमभिक्खं अवराह तं पुणोऽवि कुणमाणं । तस्स हियट्ठ राया सेसाण य रक्खणडाए ॥ ४॥ आयरियाणुण्णाए आणावइ सो उणिययपुरिसेहिं । तिव्वुक्कडदव्वेहिं संधियपुव्वं तहिं खारं ॥५॥ पक्खित्तो जत्थ गरो णवर गोदोहमेत्तकालेणं । णिज्जिण्णमंससोणिय अद्वियसेसत्तणमुवेइ ॥६॥ दो ताहे पुत्वमए पुरिसे आणावए तहिं राया। एगं गिहत्थवेसं बीयं पासंडिणेवत्थं ॥ ७॥ पुव्वं चिय सिक्खविए ते पुरिसे पुच्छए तहिं राया । को अवराहो एसि ? मणंति आणं अइक्कमह ॥८॥ पासंडिओ जहुत्ते ण पवट्टइ अत्तओ य आयारे । पक्खिवह खारमज्मे खित्ता गोदोहमेत्तस्स ।। ।। दणऽद्विवसेसे ते १जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षेऽस्ति सुप्रसिद्धम् । बहुनगरगुणसमृद्ध राजगृहं नाम नगरमिति ॥१॥ तत्रासीत् गुरुहप्तारिमर्दनो भुवननिर्गतप्रतापः। अभिगतजीवाजीवो राजा नाम्ना जितशत्रुः ।।२।। अनवरतगुरुसंवेगमावितो धर्मघोषपादमूले। सोऽन्यदा कदाचित्प्रमादिनं पश्यति शिष्यम् ॥ ३ ॥ चोद्यमानममीक्ष्णमपराधं तं पुनरपि कुर्वन्तम् । तस्य हितार्थ राजा शेपाणां च रक्षणार्थाय ॥४॥आचार्यानुज्ञया मानयति स तु निजपुरुषः। तीब्रोत्कटद्रव्यैः संयुक्तपूर्व तत्र क्षारम् ॥५॥ प्रक्षिप्तो यत्र नरो नवरं गोदोहमात्रकालेन । निर्जीणमांसशोणितोऽस्थिशेषत्वमुपैति ॥६॥ द्वौ तदा पूर्वमृतौ पुरुषावानयति तत्र राजा। एक गृहस्थ वेषं । द्वितीयं पापण्डिनेपथ्यम् ॥ ७॥ पूर्वमेव शिक्षितान् तान् पुरुषान् पृच्छति तत्र राजा । कोऽपराधोऽनयोः ? भणन्ति यो । मन्ति आज्ञामतिक्रामति॥८॥ पाखण्डिको यथोक्ते नप्रवर्त्तते आत्मनश्वाचारे । प्रक्षिपत क्षारमध्ये क्षिप्तौ गोदोहमात्रेण ।।।। ॥ १४६ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ॥१५ ॥ पुरिसे अलियरोसरत्तच्छो। सेहं अवलोयंतो राया तो भणइ आयरियं ॥ १० ॥ तुम्हवि कोऽवि पमादी ? सासेमि या अध्ययनं १ तंपि त्थि भणइ गुरू । जइ होही तो साहे तुम्हे च्चिय तस्स जाणिहिह ॥ ११॥ सेहो गए णिवंमी भणई ते साहुणो उण पुणत्ति । होहं पमायसीलो तुम्हें सरणागओ धणियं ॥ १२॥ जइ पुण होज्ज पमाओ पुणो ममं सडभावरहियस्स । उद्देशकः ७ तुम्हं गुणेहिं सुविहिय ! तो सावगरक्खसा मुच्चे ॥ १३ ॥ आयंकभओविग्गो ताहे सो णिच्चउज्जुओ जाओ। कोवियमती य समए रण्णा मरिसाविओ पच्छा ॥ १४॥ दव्वायंकादंसी अत्ताणं सव्वहा णियत्तेइ । अहियारंभाउ सया जह सीसो धम्मघोसस्स ॥ १५॥ भावातङ्कदर्शी तु नरकतिर्यङ्गमनुष्यामरभवेषु प्रियविप्रयोगादिशारीरमानसातङ्कभीत्या न प्रवर्तते वायुसमारम्भे, अपि त्वहितमेतद्वायुसमारम्भणमिति मत्वा परिहरति अतो य आतङ्कदर्शी भवति विमलविवेकभावात् स वायुसमारम्भस्य जुगुप्सायां प्रभुः, हिताहितप्राप्तिपरिहारानुष्ठानप्रवृत्तः, तदन्यैवंविधपुरुषवदिति । वायुकायदृष्टाऽस्थ्यवशेषौ तौ पुरुषौ अलिकरोषरक्ताक्षः । शैक्षकमालोकयन् राजा ततो भणत्याचार्यम् ॥ १०॥ युष्माकमपि कोऽपि प्रमादी ?, शासयामि च तमपि नास्ति भणति गुरुः । यदि भविष्यति तदा कथयिष्यामि यूयमेव तं ज्ञास्यथ ।। ११॥ शैक्षको गते नृपे भणति तान् साधू तु न पुनरिति । भविष्यामि प्रमादशीलो युष्माकं शरणागतोऽत्यर्थम् ॥ १२ ॥ यदि पुनर्भवेत्प्रमादः पुनर्मम शठ( श्राद्ध )भावरहितस्य । युष्माकं गुणेः सुविहिताः ततः श्रावकराक्षसात् मुञ्चेयम् ॥ १३ ॥ आतङ्कभयोद्विग्नस्तदा स नित्यमुद्युक्तो जातः। कोविदमतिश्च समये राज्ञा क्षमितः पश्चात् ॥ १४॥ द्रव्यातङ्कादर्शी आत्मानं सर्वथा निवर्त्तयति । अहितारम्भात् ५०॥ सदा यथा शिष्यो धर्मघोषस्य ॥१५॥ wwwwwwwwwwwwwwwxxAAR Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१॥ समारम्भनिवृत्तः कारणमाह-'जे अज्झस्थ'मित्यादि, आत्मानमधिकृत्य यद्वर्त्तते तदध्यात्म, तच्च सुखदुःखादि, तद्यो जानाति-अवबुध्यते स्वरूपतोऽवगच्छतीत्यर्थः, स बहिरपि प्राणिगणं वायुकायादिकं जानाति, यथेषोऽपि हि सुखाभिलाषी दुःखाच्चोद्विजते, यथा मयि दुःखमापतितमतिकटुकमसद्वेद्यस्वकर्मोदयादशुभफलं स्वानुभवसिद्धं एवं यो वेत्ति स्वात्मनि सुखं च सद्वेद्यकर्मोदयात् शुभफलमेवं च योऽवगच्छति स खल्वध्यात्मं जानाति, एवं च योऽध्यात्मवेदी स वहिर्व्यवस्थितवायुकायादिप्राणिगणस्यापि नानाविधोपक्रमजनितं स्वपरसमुत्थं वा शरीरमनःसमाश्रयं दुःखं सुखं वा वेत्ति, स्वप्रत्यक्षतया परत्राप्यनुमीयते, यस्य पुन: स्वात्मन्येव विज्ञानमेवंविधं न समस्ति कुतस्तस्य बहिर्व्यवस्थितवायुकायादिप्वपेक्षा ?, यश्च बहिर्जानाति सोऽध्यात्म यथावदवैति, इतेरतराव्यभिचारादिति । परात्मपरिज्ञानाच्च यद्विधेयं तदर्शयितुमाह-एयं तुलमन्नेसिमित्यादि, एतां तुलां यथोक्तक्षणाम् अन्वेषयेद्-गवेषयेदिति, का पुनरसौ तुला ?, यथाऽऽत्मानं सर्वथा सुखाभिलाषितया रक्षसि तथाऽपरमपि रक्ष, यथा परं तथाऽऽत्मानमित्येतां तुला तुलितस्वपरसुखदुःखानुभवोऽन्वेषयेद्-एवं कुर्यादित्यर्थः, उक्तं च-"'कट्टेण कंटएण व पाए विद्धस्स चेयणहस्स । जइ होइ अनिव्वाणी सब्वत्थ जिएसु तं जाण ॥१॥" तथा "मरिष्यामीति यद् दुःखं, पुरुषस्योपजायते । शक्यस्तेनानुमानेन, परोऽपि परिरक्षितुम् ॥ १॥"॥ अतश्च यथाऽभिहिततुलातुलितस्वपरा नराः स्थावरजङ्गमजन्तुसङ्घातसंरक्षणायैव प्रवर्तन्ते, कथमिति दर्शयति१ काष्ठेन कण्टकेन वा पादे विद्धस्य वेदनात्तस्य । यथा भवत्यनिर्वाणी (असाता) सर्वत्र जीवेषु ता जानीहि ।।१।। २ स्वपरान्तरा.प्र. ॥५१॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ॥१५२॥ इह संतिगया दविया णावकरखंति जोविउ ॥ सू०५७॥ 'इह' एतस्मिन् दयैकरसे जिनप्रवचने शमनं शान्तिः-उपशमः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणसम्यग-1 दर्शनज्ञानचरणकलापः शान्तिरुच्यते, निराबाधमोक्षाख्यशान्तिप्राप्तिकारणत्वात, तामेवंविधा शान्ति गताः-प्राप्ताःउद्देशकः ७ शान्तिगताः, शान्तौ वा स्थिताः शान्तिगताः, द्रविका नाम रागद्वेषविनिमुकार, द्रवः-संयमः सप्तदशविधः कर्मकाठिन्यद्रवणकारित्वाद्-विलयहेतुत्वात् स येषां विद्यते ते द्रविकाः, नावकाङ्क्षन्ति-न वाञ्छन्ति नाभिलषन्तीत्यर्थः, किं | नावकाक्षन्ति ?-'जीवितु' प्राणान् धारयितु, केनोपायेन जीवितु नाभिकाक्षन्ति ?, वायुजीवोपमर्दनेनेत्यर्थः, शेषपृथिव्यादिजीवकायसरक्षणं तु पूर्वोक्नमेव, समुदायार्थस्त्वयम्-इहैव जैने प्रवचने यः संयमस्तद्वयवस्थिता एवोन्मूलितातितुङ्गरागद्वपद्रमाः परभृतोपमर्दनिष्पन्नसुखजीविकानिरभिलाषाः साधवो. नान्यत्र, एवंविधक्रियावरोधाभावादिति ॥ एवं व्यवस्थिते सति लजमाणे पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्यं समाएभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति । तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया। इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपबिघायहेउ' से सयमेव वाउसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा ॥१५२॥ वाउसत्थं समारंभावेह, अण्णे वाउसत्यं समारंभंते समणुजाणति, तं से अहियाए, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोचा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खल मोहे, एस खल मारे, एस खल णिरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ सू० ५८॥ से बेमि संति संपाइमा पाणा आहच संपयंति य फरिसं च खल पुट्ठा एगे संघायमावज्जति, जे तत्थ संघायमावज्जति ते तत्थ परियावज्जति, जे तत्थ परियावज्जति ते तत्थ उद्दायंति, एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी व सयं पाउसत्थं समारंभेजा, णेवण्णेहिं वाउसत्थं समारंभावेजा, णेवण्णे वाउसत्थं समारभंते समणुजाणेजा, जस्सेते वाउसत्थसमारभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्तिमि ॥ सू०५९ ॥ पूर्ववन्नेयं ॥ सम्प्रति षड्जीवनिकायविषयवधकारिणामपायदिदर्शयिषया तन्निवृत्तिकारिणां च सम्पूर्णमुनिभावप्रदर्शनाय सूत्राणि प्रक्रम्यन्ते २ ॥१५३॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं १ श्रीआचा. राङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ॥१५४॥ एत्थंपि जाणे उवादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति, आरंभमाणा विणयं वयंति, छंदोवणीया अज्झोववण्णा, आरंभसत्ता पकरंति संगं ॥ सू० ६०॥ एतस्मिन्नपि-प्रस्तुते वायुकाये, अपिशब्दात् पृथिव्यादिषु च समाश्रितमारम्भं ये कुर्वन्ति ते उपादीयन्ते-कर्मणा बध्यन्त इत्यर्थः, एकस्मिन् जीवनिकाये वधप्रवृत्तः शेषनिकायवधजनितेन कर्मणा बध्यते, किमिति ?-यतो न ह्य कजीवनिकायविषय आरम्भः शेषजीवनिकायोपमर्दमन्तरेण कतु शक्यत इत्यतस्त्वमेवं जानीहि, श्रोतुरनेन परामर्शः, अत्र च द्वितीयार्थे प्रथमा, ततश्चैवमन्वयो लगयितव्यः-पृथिव्याधारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणा उपादीयमानान् जानीहि, के पुनः पृथिव्याद्यारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणोपादीयन्ते ? इति, आह-'जे आयारे ण रमंति' ये ह्यविदितपरमार्था ज्ञानदर्शनचरणतपोवीर्याख्य पश्चप्रकाराचारे 'न रमन्ते'न धृतिं कुर्वन्ति, तदधृत्या च पृथिव्याद्यारम्भिणः, तान् कर्मभिरुपादीयमानान् जानीहि, के पुनराचारे न रमन्ते ?, शाक्यदिगम्बरपावस्थादयः । किमिति १, यत आह-'आरंभमाणा विणयं वयंति' आरम्भमाणा अपि पृथिव्यादीन् जीवान् विनयं संयममेव भाषन्ते, कर्माष्टकविनयनाद्विनयासंयमः, शाक्यादयो हि वयमपि विनयव्यवस्थिता इत्येवं भाषन्ते, न च पृथिव्यादिजीवाभ्युपगमं कुर्वन्ति, तदभ्युपगमे वा तदाश्रिताराम्भित्वात् ज्ञानाद्याचारविकलत्वेन नष्टशीला इति । किं पुनः कारणं ?, येनैवं ते दुष्टशीला अपि विनयव्यवस्थितमात्मानं भाषन्ते इत्यत आह-'छन्दोवणीया अज्झोववण्णा' छन्दः-स्वाभिप्रायः इच्छामात्रमनालोचितपूर्वापरं विषयाभिलाषो वा, तेन छन्दसा उपनीताः (छन्देनोपनीताः)-प्रापिता आरम्भमार्गमविनीता अपि विनय भाषन्ते, ॥१५४॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१५५॥ अधिकमत्यर्थमुपपन्ना तच्चित्तास्तदात्मकाः अध्युपपन्नाः-विषयपरिभोगायत्तजीविता इत्यर्थः, य एवं विषयाशाकर्षितचेतसस्ते किं कुयु रित्याह-'आरंभसत्ता पकरंति संगं' आरम्भणमारम्भ:-सावद्यानुष्ठानं तस्मिन् सक्ताः-तत्पराः प्रकर्षण कुर्वन्ति, सज्यन्ते येन संसारे जीवाः स सङ्ग:-अष्टविधं कर्म विषयसङ्गो वा तं सङ्गं प्रकुर्वन्ति, सङ्गाच्च पुनरपि संसारः, पुनः २ तत्रैवोत्पत्तिः, आजवंजवीभावरूपः, एवंप्रकारमपायमवाप्नोति षड्जीवनिकायघातकारीति ॥ अथ यो निवृत्तस्तदारम्भात्स किंविशिष्टो भवतीत्यत आह से वसमं सव्वसमण्णागयपण्णाणणं अप्पाणणं अकरणिज्ज पावं कम्मं णो अण्णेसिं, तं परिणाय मेहावी व सयं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभेजा, णेवडण्णेहिं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभावेजा, वऽण्णे छज्जोवनिकायसत्थं समारंभंते समणजाणेजा, जस्सेते छज्जीवनिकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे त्तिबेमि ॥ सू०६१॥ 'से' इति पृथिव्युद्देशकाद्यभिहितनिवृत्तिगुणभाक् षड्जीवनिकायहनननिवृत्तो 'वसुमान्' वसूनि द्रव्यभावमेदाद्विधाद्रव्यवसूनि-मरकतेन्द्रनीलवज्रादीनि भाववसूनि-सम्यक्त्वादीनि तानि यस्य यस्मिन्वा सन्ति स वसुमान् द्रव्यवानित्यर्थः, इह च भाववसुभिर्वसुमत्त्वमङ्गीक्रियते, प्रज्ञायन्ते यैस्तानि प्रज्ञानानि-यथावस्थितविषयग्राहीणि ज्ञानानि सर्वाणि समन्वागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञान:-सर्वावबोधविशेषानुगतः सर्वेन्द्रियज्ञानैः पटुभि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) i ॥ १५६ ॥ यथावस्थितविषयग्राहिभिरविपरीतैरनुगत इतियावत् तेन सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना अथवा सर्वेषु द्रव्यपर्यायेषु सम्यगनुगतं प्रज्ञानं यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मा, भगवद्वचनप्रामाण्यादेवमेतत् द्रव्यपर्यायजातं नान्यथेति सामान्यविशेषपरिच्छेदान्निश्चिताशेषज्ञेयप्रपञ्चस्वरूपः सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मेत्युच्यते, अथवा-शुभाशुभफल सकलकलापपरिज्ञानान्नर कतिर्यक् नरामरमोक्षसुखस्वरूपपरिज्ञानाच्चापरितुष्यन्ननैकान्तिका दिगुणयुक्ते संसारसुखे मोक्षानुष्ठानमावि - ष्कुर्व्वन् सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्माऽभिधीयते, तेनैवंविधेनात्मना 'अकरणीयम्' अकर्त्तव्यमिह पर लोकविरुद्धत्वादकार्य|मिति मत्वा नान्वेषयेत् न तदुपादानाय यत्नं कुर्यादित्र्थः, किं पुनः तदकरणीयं नान्वेषणीयमिति ?, उच्यते, 'पापं कर्म' अधःपतनकारित्वात्पापं क्रियत इति कर्म, तच्चाष्टादशविधं प्राणातिपातमृषावादादत्तादान मैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालोभप्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यान पैशून्य पर परिवादरत्यरतिमायामृषामिथ्यादर्शनशम्याख्यमिति, एवमेतत् पापमष्टादशभेदं नान्वेषयेत् न कुर्यात् स्वयं न चान्यं कारयेत् न कुर्वाणमन्यमनुमोदेत । एतदेवाह - 'तं परिण्णाय मेहावी' त्यादि 'तत्' पापमष्टादशप्रकारं परि:- समन्तात् ज्ञात्वा मेधावी - मर्यादावान् नैव स्वयं षड्जीवनिकायशस्त्रं स्वकाय परकायादिभेदं समारभेत् नैवान्यैः समारम्भयेत् न चान्यान् समारभमाणान् समनुजानीयात् एवं यस्यैते सुपरीच्यकारिणः षड्जीवनिकाय शस्त्रसमारम्भाः तद्विषयाः पापकर्म्मविशेषाः परिज्ञाता ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च स एव मुनिः प्रत्याख्या तपापकर्म्मत्वात् - प्रत्याख्याताशेषपापागमत्वात् तदन्यैवंविधपुरुषवदिति । इतिशब्दोऽध्ययनपरिसमाप्तिप्रदर्शनाय, ब्रवीमीति सुधर्मस्वाम्याह स्वमनीषिकाव्यावृत्तये भगवतोऽपनीतघनघातिकर्म्म - 1 अध्ययनं १ उद्देशकः ७ ॥ १५६ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्टयस्य समासादिताशेषपदार्थाविर्भावकदिव्यज्ञानस्य प्रणताशेषगीर्वाणाधिपतेश्चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वितस्य श्रीवर्द्धमानस्वामिन उपदेशात्सर्वमेतदाख्यातं यदतिक्रान्तं मयेति । उक्तः सूत्रानुगमः निक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिः। सम्प्रति नया नैगमादयः, ते चान्यत्र सुविचारिताः, सङ्क्षपतस्तु सर्वेऽपि एते द्वेधा भवन्ति, ज्ञाननयाश्चरणनयाश्च, तत्र ज्ञाननया ज्ञानमेव प्रधानं मोक्षसाधनमित्यध्यवस्यन्ति, हिताहितप्राप्तिपरिहारकारित्वात् ज्ञानस्य, तत्पूर्वकसकलदु:खप्रहाणाच्च ज्ञानमेव न तु क्रिया, चरणनयास्तु चरणस्य ' प्राधान्यमभिदधति, अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात्सकलपदार्थाना, तथाहि-सत्यपि ज्ञाने सकलवस्तुग्राहिणि समुल्लसिते न चरणमन्तरेण भवधारणीयकर्मोन्छेदः, तदनुच्छेदाच मोक्षालाभः, तस्मान्न ज्ञानं प्रधानं, चरणे पुनः सति सर्व मूलात्तरगुणाख्ये घातिकर्मोच्छेदः, तदुच्छेदात् केवलावबोधप्राप्तिः, ततश्च यथाख्यातचारित्रवटिज्वालाकलापप्रतापितसकलकर्मकन्दोच्छेदः, तदुच्छेदादव्याबाधसुखलक्षणमोक्षावाप्तिरिति, तस्माच्चरणं प्रधानमित्यध्यवस्यामः । अत्रोच्यते, उभयमप्येतन्मिथ्यादर्शनं, यत उक्तम् 'हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दडो, धावमाणो य अंधओ॥१॥" तदेवं सर्वेऽति नयाः परस्परनिरपेक्षा मिथ्यात्वरूपतया न सम्यगभावमनुभवन्ति, समुदितास्तु यथावस्थितार्थप्रतिपादनेन सम्यक्त्वं भवन्ति, यत उक्तम्-"२एवं सव्वेवि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबडा। अण्णोण्णणिस्सिया १हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हताऽज्ञानतः क्रिया । पश्यन् पङगुर्दग्धोधावंश्वान्धः॥१॥२ एवं सर्वेऽपि नयाः मिथ्यादृष्टयः स्वपक्षप्रतिबद्धाः । अन्योऽन्यनिश्रिताः पुनर्भवन्ति त एष सम्यक्त्वम् ॥१॥ ॥ १५७॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का. ॥१५८॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पुण हवंतिते चेव सम्मत्तं ॥१॥" तस्मादुभयं परस्परसापेक्ष मोक्षप्राप्तये अलं, न प्रत्येकं ज्ञानं चरणं चेति, निर्दोषः खल्वेष पक्ष इति व्यवस्थितं । तया चोभयप्राधान्यदिदर्शयिषयाह-सब्वेसिपिणयाणं बहुविधवत्तव्वय णिसामेत्ता। अध्ययनं १ तं सव्वणयविसुद्ध जं चरणगुणडिओ साह॥१॥चरणं च गुणश्च चरणगुणी तयोः स्थितश्चरणगुणस्थितः, उद्देशकः ७ गुणशब्दोपादानात् ज्ञानमेव परिगृह्यते, यतो न कदाचिदात्मनो गुणिनस्तेन ज्ञानाख्येन गुणेन वियोगोऽस्ति, ततोऽसौ सहभावी गुणः, अतो बहुविधवक्तव्यं नयमार्गमवधार्यापि सङ्क्षपात् ज्ञानचरणयोरेव स्थातव्यमिति निश्चयो विदुषां, न चाभिलषितप्राप्तिः केवलेन चरणेन, ज्ञानहीनत्वात्, अन्धगमिक्रियाप्रतिविशिष्टप्रदेशप्राप्तिवत्, न च ज्ञानमात्रेगाभीष्टप्राप्तिः, क्रियाहीनत्वात्, चक्षुर्ज्ञानसमन्वितपशुपुरुषअर्धदग्धनगरमध्यावस्थितयथावस्थितदर्शिज्ञानवद, तस्मादुभयं प्रधान, नगरदाहनिर्गमे पङ्ग्वन्धसंयोगक्रियाज्ञानवत् ॥ एवमिदमाचाराङ्गसन्दोहभूतं प्रथमाध्ययनं षड्जीवनिकायस्वरूपरक्षणोपायगर्भमादिमध्यावसानेषु दयैकरसमेकान्तहितापत्तिकारि मुमुक्षुणा यदाऽधीतं भवति सूत्रतः शिक्षकेणार्थश्वावधृतं भवति श्रद्धानसंवेगाभ्यां च यथावदात्मीकृतं भवति ततोऽस्य महाव्रतारोपणमुपस्थापनं परीक्ष्य निशीथाचभिहितक्रमेण सचित्तपृथिवीमध्यगमनादिना श्रद्दधानस्य सर्व यथाविधि कार्यम् । कः पुनरुपस्थापने विधिरिति ?, अत्रोच्यते, शोभनेषु । तिथिकरणनक्षत्रमुहूर्तेषु द्रव्यक्षेत्रमावेषु च भगवतां प्रतिकृतीरभिवन्ध प्रवर्द्धमानाभिः स्तुतिभिः अथ पादपतितोत्थितः ॥१५ ॥ सूरिः सह शिक्षकेण महाव्रतारोषणप्रत्ययं कायोत्सर्गमुत्सायककं महाव्रतमादित आरभ्य त्रिरुरुचारयेद् यावनिशिभुक्ति Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरतिरविकला त्रिरुरुचारिता, पश्चादिदं त्रिरुच्चरितव्यम्-'इच्चेइयाई पंच महव्वयाई राहभोयणवेरमणलट्ठाई ॥ १५ ॥ अत्तहियट्ठयाए उपसंपन्जिता णं विहरामि' पश्चान्दनकं दचोस्थितोऽभिधत्ते अवनताङ्गयष्टिः-संदिशत किं भणामी'ति, मूरिः प्रत्याह-'वन्दित्वाऽभिधत्स्वेत्येवमुक्तोऽभिवन्द्योत्थितो भणति-'युष्माभिर्मम महाव्रतान्यारोपितानि इच्छाम्यनुशिष्टि मिति, आचार्योऽपि प्रणिगदति- 'निस्तारकपारगो भवाचार्यगुणैर्वर्डस्व' वचनविरतिसमनन्तरं च सुरभिवासचूर्णमुष्टिं शिष्यस्य शिरसि किरति, पश्चाद्वन्दनकं दत्त्वा प्रदक्षिणीकरोत्याचार्य नमस्कारRaमावर्तयन् , पुनरपि वन्दते, तथैव च करोति सकल क्रियानुष्ठानम् , एवं त्रिप्रदक्षिणीकृत्य विरमति शिष्यः, शेषा साधव चास्य मूनि युगपद्वासमुष्टिं विमुञ्चन्ति सुरभिपरिमला यतिजनसुलभकेसराणि वा, पश्चात्कारितकायोत्सर्गः सूरिरभिदधातिगणस्लव कोटिकः स्थानीयं कुलं वैराख्या शाखा अमुकाभिधान आचार्य उपाध्यायश्च, साध्व्याः प्रवर्तिनी तृतोयोद्देष्टव्या, यथाऽऽसन्नं चोपस्थाप्यमाना रत्नाधिका भवन्ति, पश्चादाचाम्लं निर्विकृतिकं वा स्वगच्छसन्ततिसमायातमाचरन्तीति । एवमेतदध्ययनमादिमध्यान्तकल्याणकलापयोगि भव्यजनतामनःसमाधानाधायि प्रियविप्रयोगादिदुःखावर्त्तवहूलकषायझपादिकुलाकुलविषमसंसृतिसरित्तारणसमर्थममलदयैकरसमसकृदश्यसितव्यं मुमुक्षुणेति ॥ आचार्यश्रीशीलाकविरचिता शस्त्रपरिज्ञाध्ययनटीका समाप्तेति (ग्रन्थाग्रं २२२१)॥ ॥ इति प्रथमाध्ययने सप्तमोद्देशकः॥ १-७॥इति प्रथममध्ययनम् ॥१॥ १ इत्येतानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिमोजनविरमणषष्टानि आत्महितार्थायोपसंपद्य विहरामि, म १५४ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक वि.अ.२ उद्देशकः१ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का) ॥१६ ॥ ॥ अथ लोकविजयाख्यं द्वितीयमध्ययनम् ॥ नमः श्रीवर्द्धमानाय, वर्द्धमानाय पर्ययः । उक्ताचारप्रपञ्चाय, निष्प्रपश्चाय तायिने ॥१॥ शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्यैः । श्रीगन्धहस्तिमिविवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ॥ २॥ उक्तं प्रथमाध्ययनं, साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह हि मिथ्यात्वोपशमक्षयक्षयोपशमान्यतरावाप्तसम्यगदर्शनज्ञानकार्यस्यात्यन्तिकैकान्तानाबाधपरमानन्दस्वतत्त्वसुखानावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितमोक्षकारणस्याश्रवनिरोधनिर्जरारूपस्य मूलोत्तरगुणमेदभिन्नस्य चारित्रस्यापराशेषव्रतवृतिकल्पनिष्पादितनिष्प्रत्यूहसकलपाणिगणसङ्घट्टनपरितापनापद्रावण निवृत्तिरूपस्य संसिद्धये मरणाभावप्रसङ्गादभूतगुणात्मधर्मज्ञानोपलब्धेर्हिस्पत्यमनिरासेन सामान्यतो जीवास्तित्वं प्रतिपाद्य विशेषतश्च बौद्धादिमतनिरासे-केन्द्रियावनिजलानलपवनवनस्पति भेदांश्च जीवान् प्रकटय्य यथाक्रम समानजातीयाश्मलताद्यद्भेददर्शनादर्शोमांसाङ्कुरवत् अविकृतभूमिखननोपलब्धेर्माण्डूकवत् विशिष्टाहारोपचयापचयशरीराभिवृद्धिक्षयान्वयव्यतिरेकगतेरभकशरीरवत् अपरप्रेरिताप्रतिहतानियततिरश्चीनगमनाद्गवाश्वादिवत् सालवतकनूपुरालङ्कारकामिनीचरणताडनविकाराधिगतेः कामुकवदित्यादिभिः प्रयोगः तथोच्चैः शिर उद्घाटय सूक्ष्मवादरद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियसंज्ञीतरपर्याप्तकअपर्याप्तकभेदांश्च प्रदर्श्य शस्त्रं च स्वकायपरकायभेदभिन्नं तद्वधे बन्धं विरतिं च प्रतिपाद्य पुनरपि तदेव चारित्रं यथा सम्पूर्णभावमनुभवति तथाऽनेनाध्ययनेनोपदिश्यते, तथाहि-अधिगतशत्रपरिज्ञासूत्रार्थस्य तत्प्रतिपादितैकेन्द्रियपृथिवीकायादि श्रद्दधानस्य सम्यक् तद्रक्षापरिणामवतः सोंपाधिशुद्धस्य तद्योग्यतयाऽऽरोपितपञ्चमहाव्रतमारस्य ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥१६ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधोर्यथा रागादिकषायलोकस्य शब्दादिविषयलोकस्य वा विजयो भवति तथाऽनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते। तथा च नियुक्तिकारेणाध्ययनार्थाधिकार शस्त्रपरिज्ञायां प्राग्निरदेशि-"लोओ जह बज्झइ जह य तं विजहियव्वं" ति, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्र सूत्रार्थकथनमनुयोगः, तस्य द्वाराणि उपाया व्याख्याङ्गानीत्यर्थः, तानि चोपक्रमादीनि, तत्रोपक्रमो वैधा-शास्त्रानुगतः शास्त्रीयः लोकानुगतो लौकिक इति, निक्षेपविधा-ओघमामसूत्रालापकनिष्पन्नभेदात्, अनुगमो द्वेधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, नया-नेगमादयः । तत्र शास्त्रीयोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारी द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारोऽध्ययनसम्बन्धे शस्त्रपरिज्ञायां प्रागेव निरदेशि, उद्देशार्थाधिकारं तु स्वयमेव नियुक्तिकारः प्रचिकटयिषुराह सयणे य अदढत्तं बीयगंमि माणो अ अत्थसारो अ । भोगेसु लोगनिस्साइ लोगे अममिज्जया चेव ॥ १६३ ॥ Bal तत्र प्रथमोद्देशकार्थाधिकारः 'स्वजने' मातापित्रादिके अभिष्वङ्गोऽधिगतसूत्रार्थेन न कार्य इत्यध्याहारः, तथा च सूत्रम्-'माया मे पिया मे इत्यादि १, 'अदढत्तं बीयगंमित्ति द्वितीय उद्देशके अदृढत्वं संयमे न कार्यमिति सम्बन्धः शेषः, विषयकषायादौ चादृढत्वं कार्यमिति, वक्ष्यति च–'अरई आउट्टे मेहावी' २, तृतीय उद्देशके 'माणो अ अत्थसारो अत्ति जात्याद्यपेतेन साधुना कर्मवशाद्विचित्रतामवगम्य सर्वमदस्थानानां मानो न कार्यः, आह च–के गोआवादी ? के माणावादी'त्यादि, अर्थसारस्य च निस्सारता वयते, तथा च–'तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता अप्पा वा ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) लोक वि.अ.२ उद्देशकः १ ॥ १६२॥ बहुगा वे'त्यादि ३, चतुर्थे तु 'भोगेसु'त्ति भोगेष्वभिष्वङ्गो न कार्य इति शेषः, यतो भोगिनामपायान् वक्ष्यति, सूत्रं च–'थीहिं लोए पब्वहिए' ४, पञ्चमे तु 'लोगणिस्साए'त्ति त्यक्तस्वजनधनमानभोगेनापि साधुना संयमदेहप्रतिपालनाय स्वार्थारम्भप्रवृत्तलोकनिश्रया विहर्त्तव्यमिति शेषः, तथा च सूत्रम्-'समुट्टिए अणगारे' इत्यादि जाव परिव्वए' ५, षष्ठोद्देशके तु-'लोए अममिज्जया चेव लोकनिश्रयाऽपि विहरता साधुना तस्मिन् लोके पूर्वापरसंस्तुतेऽसंस्तुते च न ममत्वं कार्य, पङ्कजवत्तदाधारस्वभावानभिष्वङ्गिणा भाव्यमिति, तथा च सूत्रम्-जे ममाईयमई जहाति से जहाति ममातिय' गाथातात्पर्यार्थः॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेप लोकविजय इति द्विपदं नाम, तत्र लोकविजययोनिक्षेपः कार्यः, सूत्रालापकनिष्पन्ने च निक्षेपे यानि निक्षेपार्हाणि सूत्रपदानि तेषां च निक्षेपः कार्यः, सूत्रपदोपन्यस्तमूलशब्दस्य च कषायाभिधायकत्वात् कषायाश्च निक्षेप्तव्याः, तदेवं नामनिष्पन्नं भविष्यवस्त्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपोपक्षिप्त सामर्थ्यायातं च यनिक्षेप्तव्यं तनियुक्तिकारो गाथया सम्पिण्डयाऽऽचष्टेलोगस्स य विजयस्स य गुणस्समूलस्स तह य ठाणस्स । निक्लेवो कायव्यो जमूलागं च संसारो॥१६४ ॥ कण्ठया, नवरं 'जमूलागं च संसार' इति यन्मूलकः संसारस्तस्य च निक्षेपः कार्यः, तच्च मूलं कषायाः, यतः नारकतिर्यग्नरामरगतिस्कन्धस्य गर्भनिषेककललावु दमांसपेश्यादिजन्मजरामरणशाखस्य दारिद्रयाद्यनेकव्यसनोपनिपातपत्रगहनस्य प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगार्थनाशानेकव्याधिशतपुष्पोपचितस्य शारीरमानसोपचिततीव्रतरदुःखोपनिपातफलस्य संसारतरोमूलम्-आद्यं कारणं कषायाः-कष:-संसारस्तस्याऽऽया इतिकृत्वा । तदेवं यान्यत्र नामनिष्पन्ने यानि च सूत्रा १६२॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १६३॥ लापकनिष्पन्ने निक्षेप्तव्यपदानि सम्भवन्ति तानि नियुक्तिकारः सुहृद्भत्वा विवेकेनाऽऽचष्टेलोगोत्तिय विजअति य अज्झयणे लक्खणं तु निष्फण्णं । गुणमूलं ठाणंति य सुत्तालावे य निष्फण्णं ॥१५॥ कण्ठया, तत्र 'यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायालोकविजययोनिक्षेपमाहलोगस्सयनिक्खेवो अट्ठविहोछविहोउ विजयस्स। भावे कसायलोगो अहिगारोतस्स विजएणं ॥१६॥ तत्र लोक्यत इति लोकः, 'लोक दर्शन' इत्यस्माद्धातोः 'अकर्तरि च कारके संज्ञाया (पा. ३-३-१९ ) मिति घज, सच धर्माधर्मास्तिकायव्यवच्छिन्नमशेषद्रव्याधारं वैशाखस्थानस्थकटिन्यस्तकरयुग्मपुरुषोपलक्षितमाकाशखण्डं पञ्चास्तिकायात्मको वेति, तस्य निक्षेपोऽष्टधा-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपर्यवभेदात , 'छविहो उ विजयस्स'त्ति विजयः अभिभवः पराभवः पराजय इति पर्यायाः, तस्य निक्षेपः षड्विधो वक्ष्यते, तत्रादावाष्टप्रकारे लोके येनात्राधिकारस्तमाह'भावे कसायलोगो'त्ति भावलोकेनात्राधिकारम्, स च भावः षट्प्रकार औदयिकादिः, तत्राप्यौदयिकभावकषायलोकेनाधिकारः, तन्मूलत्वात संसारस्य, यद्येवं ततः किमत आह-'अहिगारो तस्स विजएणंति अधिकारो-व्यापार: तस्यऔदयिकभावकषायलोकस्य 'विजयेन' पराजयेनेति गाथार्थः ॥ तत्र लोकोऽष्टधा निक्षेषार्थ प्रागुपादेशि विजयश्च षोढा, तनिक्षेपार्थमाहलोगोभणिमोदव्वं खित्तं कालो अभावविजओभव लोग भावविजओ पगयंजह बझई लोगो॥१७॥ तत्र लोकश्चतुर्विंशतिस्तवे विस्तरतोऽभिहितः, ननु च केयं वाचो युक्तिः? 'लोकश्चतुर्विंशतिस्तवेऽभिहित' इति किमत्रा ॥१६३॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥१६४॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ नुपपन्नम् ?, उच्यते, इह ह्यपूर्वकरणप्रक्रमाधिरूढक्षपकश्रेणिध्यानाग्निदग्धघातिकर्मेन्धनेनोत्पन्ननिरावरणज्ञानेन विपच्य लोकवि.अ.२ मानतीर्थकरनामाविर्भूतचतुस्त्रिंशदतिशयोपेतेन श्रीवर्द्धमानस्वामिना हेयोपादेयार्थाविर्भावनाय सदेवमनुजाय परिषद्याचारार्थों बभाषे, गणधरैश्च महामतिभिरचिन्त्यशक्त्युपेतैगौतमादिभिः प्रवचनार्थमशेषासुमदुपकाराय स एवाचाराङ्गतया उद्देशकः७ दमे, आवश्यकान्तर्भूतश्चतुर्विंशतिस्तवस्त्वारातीयकालभाविना भद्रबाहुस्वामिनाऽकारि, ततश्चायुक्तः पूर्वकालभाविन्याचाराङ्गे व्याख्यायमाने पश्चात्कालभाविना चतुर्विंशतिस्तवेनातिदेश इति कश्चित् सुकुमारमतिः, अत्राह-नैष दोषो, यतो भद्रबाहुस्वामिनवाऽयमतिदेशोऽभ्यधायि, सच पूर्वमावश्यकनियुक्ति विधाय पश्चादाचाराङ्गनियुक्ति चक्रे, तथा चोक्तम् - "आवस्सयस दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे"त्ति सूक्तम् । विजयस्य तु निक्षेपं नामस्थापने तुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिकमाह-दव्व'मित्यादिना, द्रव्यविजयो व्यतिरिक्तो द्रव्येण द्रव्यात द्रव्ये वा विजयः कटुतिक्तकषायादिना श्लेष्मादेन पतिमल्लादेर्वा, क्षेत्रविजयः षटखण्डभरतादेर्यस्मिन् वा क्षेत्रे विजयः प्ररूप्यते, कालविजय इति कालेन विजयो यथा षष्टिभिर्वर्षसहस्रर्भरतेन जितं भरतं, कालस्य प्राधान्यात , भृतककर्मणि वा मासोऽनेन जित इति, यस्मिन् वा काले विजयों व्याख्यायत इति, भावविजय औदयिकादेर्भावस्य भावान्तरेण औपशमिकादिना । विजयः। तदेवं लोकविजययोः स्वरूपमुपदयं प्रकृतोपयोग्याह-'भवे'त्यादि, अत्र हि भवलोकग्रहणेन भावलोक एवाभिहितः, छन्दोमङ्गभीत्या ह्रस्व एवोपादायि, तथा चावाचि-"भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं"ति, ॥१६४॥ तस्य औदयिकभावकषायलोकस्य औपशमिकादिभावलोकेन विजयो यत एतदत्र प्रकृतम् , इदमत्र हुयम्-अष्टविधलोक Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१५॥ पड्विविजययोः प्राग्ल्यावर्णितस्वरूपयोर्भावलोकभावविजयाभ्यामत्रोपयोग इति, यथा चाष्टप्रकारेण कर्मणा लोकःप्राणिगणो बध्यते, बन्धस्योपलक्षणत्वायथा च मुच्यत इत्येतदप्यत्राध्ययने प्रकृतमिति गाथार्थः । तेनैव भावलोकविजयेन किं फलमित्याह विजिओ कसायलोगो सेयं खु तमो नियत्ति होइ । कामनियत्तमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं ॥१६८॥ ___ व्याख्या-'विजित' पराजितः, कोऽसौ ?-कषायलोकः औदयिक्रमावकषायलोक इतियावत , विजितकषायलोकः सन् किमवाप्नोतीत्याह-संसारान्मुच्यते चिप्रम्, अतस्तस्मानिवर्तितु श्रेयः, खुक्यिालङ्कारे अवधारणे वा, निवर्तित श्रेय एव, किं कवायलोकादेव निवृत्तः संसारान्गुच्यते आहोश्विदन्यस्मादपि पापोपादानहेतोरिति दर्शयति- 'कामे'त्यादि गाथाद्धं सुगमम् । गतो नामनिष्पनो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवति, तत्रास्त्रलितादिगुणोपेतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्-'जे गुणे से मुलडाणे जे मूलट्ठाणे से गुणे' इत्यादि । __अस्य च निक्षेपनियुक्त्यनुगमन प्रतिपदं निक्षेपः क्रियते, तत्र गुणस्य पञ्चदशधा निक्षेपःदब्वे खिसेकाले फल पज्जाव गणण करण अष्भासे। गुणगुणे अगुणगुणे भव सीलगुणे य भावगुणे ॥१६९। नामगुणः स्थापनागुणः द्रव्यगुणः क्षेत्रगुणः कालगुणः फलगुणः पर्यवगुणः गणनागुणाः करणगुणः अभ्यासगुणा गुणागुणः अगुणगुणः भवगुणः शीलमुणः भावगुणश्चेति गाथासमासार्थः ॥ तदेवं सत्रानुगमेन सूत्रे समुच्चरिते निक्षेपनियुक्त्यनुगमेन सदवयवे निक्षिप्ते सत्युपोद्घातनियुक्तेिरवसरः, सा च 'उद्द से'त्यादिना द्वारगाथाद्वयेनानुगन्तव्या। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १६६॥ लोकवि. अ.२ उद्देशकः १ .. साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिकनियुक्तेरवसरः, तत्रापि सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यादिकमाह दव्वगुणो दव्वं चिय गुणाण जं तंमि संभवो होइ । सञ्चित्ते अञ्चित्ते मीसंमि य होइ दव्वंमि ॥१७॥ __ तत्र द्रव्यगुणो नाम द्रव्यमेव, किमिति १, गुणानां यतो गुणिनि तादात्म्येन सम्भवात् (व.), ननु च द्रव्यगुणयोलेक्षणविधानभेदाढ़ेदः, तथाहि-द्रव्यलक्षणं-गुणपर्यायवद् द्रव्यं, विधानमपि-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलादिकमिति, गुणलक्षणं-द्रव्याश्रयिणः सहवर्तिनो निगुणा गुणा इति, विधानमपि-ज्ञानेच्छाद्वेषरूपरसगन्धस्पर्शदयः स्वगतभेदभिन्ना इति, नैष दोषो, यतो द्रव्ये सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्ने स गुणस्तादात्म्येन स्थितः, तत्राचित्तद्रव्यं द्विधा-अरूपि रूपि च, तत्रारूपिद्रव्यं विधा-धर्माधर्माकाशमेदभिन्नं, तच्च गतिस्थित्यवगाहदानलक्षणं, गुणोऽप्यस्यामृतत्वादगुरुलघुपर्यायलक्षणः, तत्रामूर्त्तत्वं त्रयस्यापि स्वं रूपं न भेदेन व्यवस्थितम् , अगुरुलघुपर्यायोऽपि, तत्पर्यायत्वादेव, मृदो मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलपर्यायवत् , रूपिद्रव्यमपि स्कन्धतद्देशप्रदेशपरमाणुभेदं, तस्य च रूपादयो गुणाः अभेदेन व्यवस्थिताः, भेदेनानुपलब्धेः, संयोगविभागाभावात् , स्वात्मवत् । तथा सचित्तमप्युपयोगलक्षणलक्षितं जीवद्रव्यं, न च तस्माद्भिन्ना ज्ञानादयो गुणाः, तद्भदे जीवस्याचेतनत्वप्रसङ्गात् , तत्सम्बन्धाद्भविष्यतीति चेत् , अनुपासितगुरोरिदं वचो, यतो न हिं स्वतोऽसती शक्तिः कतु मन्येन पार्यते, न ह्यन्धः प्रदीपशतसम्बन्धेऽपि रूपावलोकनायालमिति । अनयैव दिशा मिश्रद्रव्येऽप्येकत्वसंयोजना स्वबुद्ध्या कार्यति गाथार्थः। तदेवं द्रव्यगुणयोरेकान्तेनैकत्वे प्रतिपादिते सत्याह शिष्यः-तत्किमिदानीमभेदोऽस्तु ?, नैतदप्यस्ति, यतः सर्वथाऽभेदेऽभ्युपगम्यमाने सत्येकेनैवेन्द्रियेण गुणान्तरस्याप्युपलब्धेरपरेन्द्रियवैफल्यं Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६७॥ स्यात्, नथाहि-चूतफलरूपादौ चक्षुराद्युपलभ्यमाने रूपाचात्मभूतावयविद्रव्याव्यतिरिक्तरसादेरप्युपलब्धिः स्याद. रूपादिस्वरूपवद्, एवं ह्यभेदः स्याद्-यदि रूपादौ समुपलभ्यमानेऽन्येऽपि समुपलभ्येरन् , अन्यथा विरुद्धधर्माध्यासाद्भिधेरन् घटपटवदिति । तदेवं भेदाभेदोपपत्तिभिर्याकुलितमतिः शिष्यः पृच्छति-उभयथाऽपि दोषापत्तिदर्शनात्कथं गृहीमः ?, आचार्य आह-अत एव भेदाभेदोऽस्तु, तत्राभेदपक्षे द्रव्यं गुणो भेदपक्षे तु भावो गुण इति, तथाहि-गुणगुणिनोः पर्यायपर्यायिणोः सामान्यविशेषयोरवयवावयविनोर्मेदाभेदव्यस्थानेनैवात्मभावसद्भावात् , आह हि-"'दव्वं पज्जवविजुयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णस्थि । उप्पायटिभंगा हदि दवियलक्खणं एयं॥१॥ नयास्तव स्यात्पदलाञ्छिता इमे; रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥२॥" | इत्यादि स्वयूथ्यैरत्र बहु विजृम्मितमित्यलं विस्तरेण । एतदेव नियुक्तिकारः समस्तद्रव्यप्रधाने जीवद्रव्ये गुणभेदेन व्यवस्थितमाह संकुचियवियसियत्तं एसो जीवस्स होई जीवगुणो। पूरेइ हंदि लोगं बहुप्पएसत्तणगुणणं ॥ १७१॥ ___ जीवो हि सयोगिवीर्यसद्र्व्यतया प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यामाधारवशात् प्रदीपवत् सङ्कुचति विकसति च, एष जीवस्यात्मभूतो गुणो, मेदं विनाऽपि षष्ठ्युपलब्धेः, तद्यथा-राहोः शिरः शिलापुत्रकस्य शरीमिति, तद्भव एव वा सप्त समुद्घातवशात् सङ्कुचति विकसति च, सम्यक-समन्ततः उत्-प्राबल्येन हननम्-इतश्चेतश्चात्मप्रदेशाना प्रक्षेपणं समुद १ द्रव्यं पर्यायत्रियुतं द्रव्यवियुताश्व पर्यवा न सन्ति । उत्पादस्थितिभङ्गा हन्दि द्रव्यलक्षणमेतत् ॥१॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) घातः, स च कषायवेदनामारणान्तिकवैक्रियतैजसाहारककेवलिसमुद्घातभेदात् सप्तधा, तत्र कषायसमुद्धातोऽनन्तानुबन्धिक्रोधाद्युपहतचेतस आत्मप्रदेशानामितश्चेतश्च प्रक्षेपः, इत्येव तीव्रतरवेदनोपहतस्यापि वेदनासमुद्घातः, मारणा लोकवि. अ.२ न्तिकसमुद्घातो हि मुमूर्षारसुमत आदिम्सितोत्पत्तिप्रदेशे आलोकान्तादात्मप्रदेशाचां भूयो भूयः प्रक्षेपसंहाराविति, वैक्रिय-उद्देशकः १ समुद्घातो वैक्रियलब्धिमतो वैक्रियोत्पादनाय बहिरात्मप्रदेशप्रक्षेपः, तैजससमुद्घातस्तैजसशरीरनिमित्तं तेजोलेश्यालब्धिमतस्तेजोलेश्याप्रक्षेपावसरे इति, आहारकसमुद्घातचतुर्दशपूर्वविद आहारकलब्धिमवः कचित्सन्देहापगमनाय तीर्थङ्करान्तिकगमनार्थमाहारकशरीरं समुपादातु बहिरात्मप्रदेशप्रक्षेपः, केवलिममुद्घातं तु समस्तलोकव्यापितयाऽन्तर्नीतान्यसमुद्घातं नियुक्तिकारः स्वत एवाचष्टे-'पूरयति' व्याप्नोति हन्दीत्युपप्रदर्शने, किम्?–'लोक' चतुद्देशरज्ज्वात्मकमाकाशखण्ड, कृतो?, बहुप्रदेशगुणत्वात् , तथाहि-उत्पनदिव्यज्ञान आयुषोऽल्पत्वमवधार्य वेदनीयस्य च प्राचुर्य दण्डादिक्रमेण लोकप्रमाणत्वादात्मप्रदेशाना लोकमापूरयति, तदुक्तम्-दंड कवाडे मंथतरे यत्ति माथार्थः ॥गतो 13/ द्रव्यगुणः, क्षेत्रादिकमाहदेवकुरु सुसमसुसमा सिडी निम्भय दुगादिया चेव । कल भोअणुज्जु वके जीवमजीवे य भावंमि ॥१७॥ क्षेत्रगुणः देवकुर्वादिः, कालगुणे सुषमसुषमादिर, फलगुणे सिद्धिः, पर्यवगुणे निर्भजना, गणनागुणे द्विकादि, करणगुणे कलाकौशल्यम्, अभ्यासगुणे भोजनादि, गुणागुणे ऋजुता, अगुणगुणे वक्रता, भवगुणशीलगुणयोर्भावगुणार्थ ॥१६८॥ मुपात्तेन जीवग्रहणेन गतार्थत्वाद्गाथायां पृथगनुपादानं, भवगुणो जीवस्य नारकादिर्भवः, शीलगुणो जीवः क्षान्त्याधु Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पेतो, भावगुणो जीवाजीवयोः, इति संयोज्यकैको व्याख्यायते-तत्र देवकुरूत्तरकुरुहरिवर्षरम्यक हैमवतहरण्यवतपटपश्चाशदन्तरद्वीपकाकर्मभूमीनामयं गुणो, यदुत तत्रत्यमनुजा देवकुमारोपमाः सदावस्थितयौवना निरुपक्रमायुपो मनोजशब्दादिविषयोपभोगिनः स्वभावमा(वार्जवप्रकृतिभद्रकगुणासन्नदेवलोकगतयश्च भवन्ति । कालगुणोऽपि भरतैरावतयोस्तिसष्वप्येकान्तसुषमादिषु समासु स एव सदावस्थितयौवनादिरिति । फलमेव गुण: फलगुणः, फलं च क्रियाया भवति, तस्याश्च क्रियायाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररहिताया ऐहिकामुष्मिकार्थं प्रवृत्ताया अनात्यन्तिकोऽनै कान्तिको भवन् फलगुणोऽप्यगुण एव भवति, सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रक्रियायास्त्वैकान्तिकात्यन्तिकानाबाधसुखाख्यसिद्धिफलगुणोऽवाप्यते, एतदुक्तं भवति-सम्यगदर्शनादिकैव क्रिया सिद्धिफलगुणेन फलवती, अपरा तु सांसारिकसुखफलाभास एव, फलाध्यारो- पानिष्फलेत्यर्थः । पर्यायगुणो नाम द्रव्यस्यावस्थाविशेषः पर्यायः स एव गुणः पर्यायगुणः, गुणपर्याययोर्नयवादान्तरेणाभेदाभ्युपगमात् , स च निर्भजनारूपो, निश्चिता भजना निर्भजना-निश्चितो भाग इत्यर्थः, तथाहि-स्कन्धद्रव्यं देशप्रदेशेन भिद्यमानं परमाण्वन्तं भेदं ददाति, परमाणुरप्येकगुणकृष्ण द्विगुणकृष्णादिना अनन्तशोऽपि भिद्यमानो भेददायीति । गणनागुणो नाम द्विकादिका, तेन च सुमहतोऽपि राशेर्गणनागुणेनेयत्ताऽवधार्यते। करणगुणो नाम कलाकौशलं, तथाहि-उदकादौ करणपाटवार्थ गात्रोत्क्षेपादिकां क्रियां कुर्वन्ति । अभ्यासगुणो नाम भोजनादिविषयः, तद्यथा-तदहर्जातबालकोऽपि भवान्तराम्यासात् स्तनादिकं मुख एव प्रक्षिपति उपरतरुदितश्च भवति, यदिवाऽभ्यासवशात् सन्तमसेऽपि कवलादेमुखविवरप्रक्षेपाद्वथा(पो व्या)कुलितचेतसोऽपि च तुदद्गाकण्डूयनमिति । गुणागुणो नाम गुण ॥१६॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि. अ.२ उद्देशकः १ लाङ्का. * एव कस्यचिदगुणत्वेन विपरिणमते, यथाऽऽर्जवोपेतस्यजुत्वाख्यो गुणो मायाविनः प्रत्यगुणो भवति, उक्तं चआचा -8"शाठ्य होमति गण्यते व्रतरुची दम्भः शची कैतवं, शूरे निघृणता ऋजौ(ऽऽर्जवे) विमतिता दैन्यं प्रवृत्तिः प्रियाभाषिणि । तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे, तत्को नाम गुणो भवेत् स विदुषां यो दुर्जर्नाङ्कितः ॥१॥"। अगुणगुणो नामागुण एव कस्यचित् गुणत्वेन विपरिणमते, स च वक्रविषयो, यथा १७०॥ गौगलिरसञ्जातकिणस्कन्धो गोगणस्य मध्ये सुखेनैवास्ते, तथा च-"गुणानामेव दौर्जन्या(दौरात्म्या)हरि धुर्णे नियुज्यते । असञ्जातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गौर्गलिः॥१॥"। भवगुणो नाम भवन्ति-उत्पद्यन्ते तेषु तेषु स्थानेष्विति नारकादित्वेनेति भवः, तत्र तस्य वा गुणो भवगुणः, स च जीवविषयः, तद्यथा-नारकास्तीव्रतरवेदनासहिष्णवस्तिलशश्छिन्नसन्धानिनोऽवधिमन्तश्च भवगुणादेव भवन्ति, तिर्यञ्चश्च सदसद्विवेकविकला अपि सन्तो गगनगमनलब्धिमन्तो, गवादीनां च तृणादिकमप्यशनं शुभानुभावेनापद्यते, मनुजानां चाशेषकर्मक्षयो, देवानां च सर्वशुभानुभावो भवगुणादेवेति । शीलगुणो नाम परैराश्यमानोऽपि शीलगुणादेव न क्रोधवशो भवति, अथवा शब्दादिके शोभने अशोभने वा स्वभावादेव विदितवेद्यवन्माध्यस्थ्यमवलम्बते । मावगुणो नाम भावा:-औदयिकादयस्तेषां गुणो भावगुणः, स च जीवाजीवविषयः, तत्र जीवविषय औदयिकादिः षोढा, तत्रौदयिकः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तीर्थकराहारकशरीरादिः प्रशस्तः, अप्रशस्तस्तु शब्दादिविषयोपभोगहास्यरत्यरतीत्यादिः, औपशमिक उपशमश्रेण्यन्तर्गतायुष्कक्षयानुत्तरविमानप्राप्तिलक्षणस्तथा सत्कर्मानुदयलक्षणश्चेति, क्षायिकभावगुणश्चतुर्दा, तद्यथा-क्षीणसप्तकस्य पुनमिथ्यात्वागमनं १ क्षीणमोहनी ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 1 ॥१७० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१॥ यस्यावश्यंभाविशेषघातिकर्मक्षयः २ क्षीणघातिकर्मणोऽनावरणज्ञानदर्शनाविर्भावः ३ अपगताशेषकर्मणोऽपुनर्भवस्तथाऽऽत्यन्निकैकान्तिकानाबाधपरमानन्दलक्षणसुखावाप्ति ४ श्चेति, क्षायोपशमिकः क्षायोपशमिकदर्शनाद्यवाप्तिरिति, पारिणामिको भव्यत्वादिरिति, सानिपातिकस्त्वौयिकादिपञ्चभावसमकालनिष्पादितः तद्यथा-मनुष्यगत्युदयादौदयिकः । सम्पूर्णपञ्चेन्द्रियत्वावाप्तेः क्षायोपशमिकः दर्शनसप्तकक्षयात् क्षायिकः चारित्रमोहनीयोपशमादौपशमिकः भव्यत्वात्पारिणामिक इति, उक्नो जीवभावगुणः । साम्प्रतमजीवभावगुणः, स चौदयिकपारिणामिकयोरेव सम्भवति, नान्येषां, तत्रौदयिकस्तावद् उदये भव औदयिकः, स चाजीवाश्रयोऽनया विवक्षया, यदुत-काश्चित् प्रकृतयः पुद्गलविपाकिन्य एव भवन्ति, काः पुनस्ताः?, उच्यन्ते, औदारिकादीनि शरीराणि पश्च षट् संस्थानानि त्रीण्यङ्गोपाङ्गानि षट् संहननानि वर्णपश्चकं गन्धद्वयं पञ्च रसा अष्टौ स्पर्शा अगुरुलघुनाम उपघातनाम पराघातनाम उद्योतनाम आतपनाम निर्माणनाम प्रत्येकनाम साधारणनाम स्थिरनाम अस्थिरनाम शुभनाम अशुभनाम, एताः सर्वा अपि पुद्गलविपाकिन्यः; सत्यपि जीवसम्बन्धित्वे पुद्गलविपाकित्वादासामिति, पारिणामिकोऽजीवगुणस्तु द्वेधा-अनादिपारिणामिकः सादिपारिणामिकश्चेति, तत्रानादिपारिणामिको धधिकिाशानां गतिस्थित्यवगाहलक्षणः, सादिपारिणाभिकस्त्वज्रन्द्रधनुरादीनां परमाणुनां च वर्णादिगुणान्तरापत्तिरिति गाथातात्पर्यार्थः ॥ उक्रो गुणो, मूलनिक्षेपार्थमाह मूले छक्कं दव्वे ओदइउवएस आइमूलं च । खित्ते काले मूलं भावे मूलं भवे तिविहं ॥ १७३ ॥ ॥ १७१॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि.अ. श्रीआचा राङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.) उद्देशकः। । १७२॥ मूलस्य षोढा निक्षेपो, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावमेदात, नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यमूलं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं त्रिधा-औदयिकमूलमुपदेशमूलमादिमूलं चेति, तत्रौदयिकद्रव्यमूलं वृक्षादीनां मूलत्वेन परिणतानि यानि द्रव्याणि, उपदेशमूलं यचिकित्मको रोगप्रतिघातसमर्थ मूलमुपदिशत्यातुरायेति, तच्च पिप्पलीमूलादिकं, आदिमूलं नाम यद्वक्षादिमूनोत्पत्तावाद्यं कारणं, तद्यत् स्थावरनामगोत्रप्रकृतिप्रत्ययान्मूलनिवर्तनोत्तरप्रकृतिप्रत्ययाच्च मूलमुत्पद्यते, एतदुक्तं भवति-तेपामौदारिकशरीरत्वेन मूलनिवर्तकानां पुद्गलानामुदयिष्यता कार्मण शरीरमाद्यं कारणं, क्षेत्रमूलं यस्मिन् क्षेत्रे मूलमुत्पद्यते व्याख्यायते वा, एवं कालमूलमपि, यावन्तं वा कालं मूलमास्ते, भावमुलं तु विधेति गाथार्थः । तथाहि ओदइयं उवविठ्ठा आइ तिगं मूलभाव ओदहो। आयरिओ उवदिट्ठा विणयकसायादिओ आई ॥१७॥ ___भावमूलं त्रिविधम्-औदयिकभावमूलम् उपदेष्टुमूलम् आदिमलं चेति, तत्रौदयिकभावमूलं वनस्पतिकायमूलत्वमनुभवन्नामगोत्रकर्मोदयात् मूलजीव एव, उपदेष्ट्रभावमूलं वाचार्य उपदेष्टा-यैः कर्मभिः प्राणिनो मूलत्वेनोत्पद्यन्ते, तेषामपि मोक्षसंसारयोर्वा यदादिभावलं तस्य चोपदेष्टेत्येतदेव दर्शयति–'विणयकसाआइओ आई' तत्र मोक्षस्यादिमूलं ज्ञानदर्शनचारित्रतपौपचारिकरूपः पञ्चधा विनयः, तन्मूलत्वान्मोक्षावाप्तेः, तथा चाह-"विणयाओ' णाणं णाणाउ दंसणं दसणाहि चरणं तु । चरणाहिंतो मोक्खो मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥१॥ विनयफलं शुश्रूषा गुरु शुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं घिरतिर्विरतिफलं चावनिरोधः ॥२॥ संवरफलं तपो १ विनयात् ज्ञानं ज्ञानाद्दर्शनं ज्ञानदर्शनाभ्यां चरणं तु । ज्ञानदर्शनचरणेभ्यस्तु मोक्षो मोक्षे सौख्यमनाबाधम् ॥ १॥ १७२॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१७३॥ बलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्माक्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥ ३॥ योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः॥४॥" इत्यादि संसारस्य त्वादिमूलं विषयकषाया इति ॥ मूलमुक्तमिदानीं स्थानस्य पश्चदशधा निक्षेपमाह - णामंठवणादविए खित्तहा उडू उवरई वसही। संजम पग्गह जोहे अयल गणण संधणा भावे ॥१७॥ तत्र द्रव्यस्थानं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्याणां सचित्ताचित्तामिश्राणां स्थानम्-आश्रयः, क्षेत्रस्थानं भरतादि ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकादिर्वेति, यत्र वा क्षेत्रे स्थानं व्याख्यायते, अद्धा-कालः ततस्थानं द्विधा-कायस्थितिभवस्थितिभेदात. तत्र कायस्थितिः पथिव्यप्तेजोवायूनामसङ्ख्य या उत्सप्पिण्यवसर्पिण्यः, बनस्पतेस्तु ता एवानन्ताः, विकलेन्द्रियाणाम(ण)सङ्गथे या वर्षसहस्राः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुजानां सप्ताष्टौ वा भवाः । भवस्थितिस्तु वायूदकवनस्पतिपथिवीनां त्रिसप्तदशद्वाविंशतिवर्षसहस्रात्मिका, तेजसस्त्रीण्यहोरात्राणि, द्वीन्द्रियाणां शङ्खादीनां द्वादश वर्षाणि, त्रीन्द्रियाणां पिपीलिकादीनामेकोनपश्चाशदहोरात्राणि, चतुरिन्द्रियाणां भ्रमरादीनां षण्मासाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां त्रीणि पन्योपमानि, देवानां नारकाणां च कायस्थितेरभावाद्भवस्थितिः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति, इयमुत्कृष्टा द्विरूपापि, 'जघन्या तु सर्वे षामन्तमुहर्तात्मिका, नवरं देवनारकयोर्दश वर्षसहस्राणीति, अथवा अद्धास्थानं-समयावलिकामुहूर्ताहोरात्रपक्षमासर्वयनसंवत्सरयुगपल्योपमसागरोपमोत्सपिण्यवसर्पिणीपुद्गलपरावर्तातीतानागतसर्वाद्धारूपमिति । उर्ध्वस्थानं तु कायोत्सर्गादिकम्, अस्योपलक्षणत्वान्निषण्णाद्यपि गृह्यते। उपरतिः वितिः, तत्स्थानं देशे सर्वत्र च श्रावकसाधुविषयं । वसति ॥१७३॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X.x.x.000 श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥१७४॥ ..............X स्थानं यो यत्र ग्रामगृहादौ वसति। संयमस्थानं संयम:-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातरूपः, तस्य पञ्चविधस्याप्यसङ्ख्य यानि संयमस्थानानि, कियदसङ्ख्यमिति चेत् अतीन्द्रियत्वादर्थस्य न साक्षानिर्देष्टु शक्यते, आगमानुमारोपमया तूच्यते-इहैकसमयेन सूक्ष्माग्निजीवा असङ्ख्य यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा उत्पद्यन्ते, तेभ्यो- उद्देशकः १ ऽग्निकायत्वेन परिणता असङ्ख्य यगुणाः, ततोऽपि तत्कायस्थितिरसङ्घय यगुणाः, ततोऽप्यनुभागवन्धाज्यवसायस्थानान्यसङ्ख्य यगुणानि, संयमस्थानान्यप्येतावन्त्येवेति सामान्यतः, विशेषतस्तूच्यते-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धीनां प्रत्येकमसङ्खये यलोकाकाशप्रदेशतुल्यानि संयमस्थानानि, सूक्ष्मसम्परायस्य त्वान्समुहूर्तिकत्वादन्तमहूर्तसमयतुल्यान्यसङ्खथ यानि संयमस्थानानि, यथाख्यातस्य त्वेकमेवाजघन्योत्कृष्टं संयमस्थानम्, अथवा संयमश्रेण्यन्तर्गतानि संयमस्थानानि ग्राह्याणि, सा चानेन क्रमेण भवति, तद्यथा-अनन्तचारित्रपर्यायनिष्पादितमेकं संयमस्थानम्, असङ्ख्य यसंयमस्थाननिर्वतितं कण्डकं, तैश्चासङ्ख्य यैर्जनितं षट्स्थानकं, तदसङ्ख्य यात्मिका श्रेणीति । प्रग्रहस्थानं, तु प्रकर्षण गृह्यते वचोऽस्येति प्रग्रहः-ग्राह्यवाक्यो नायक इत्यर्थः, स च लौकिको लोकोत्तरश्च, तस्य स्थान प्रग्रहस्थानं, लौकिकं तावत्प विधं, तद्यथा-ाजा युवराजो महत्तरः अमात्यः कुमारश्चेति, लोकोत्तरमपि पञ्चविधं, तद्यथा-आचार्योपाध्यायप्रवतकस्थविरगणावच्छेदकमेदादिति । योधस्थानं पश्चधा, तद्यथा-आलीढप्रत्यालीढवैशाखमण्डलसमपादभेदात् । अचलस्थानं तु चतुर्द्धा-सादिसपर्यवसानादिभेदात्. तद्यथा-सादिसपर्यवसानं परमाण्वादेव्यस्यैकप्रदेशादाववस्थानं जघन्यत एक समयमुत्कृष्टतश्चासङ्घय यकालमिति, साद्यपर्यवसानं सिद्धानां भविष्यदद्धारूपम्, अनादिसपर्यवसानमतीताद्धारू Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १७५ ॥ पस्य शैलेश्यवस्थान्त्यसमये कार्मणतैजसशरीरभव्यत्वानां चेति, अनाद्यपर्यवसानं धर्माधर्माकाशानामिति । गणनास्थानमेकद्वयादिक शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तं । सन्धानस्थानं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, पुनरप्येकै द्विधा-छिन्नाच्छिन्नभेदात, तत्र द्रव्यक्छिन्नसन्धान कञ्चुकादे., प्रच्छिन्नसन्धानं तु पक्ष्मोत्पद्यमानतन्त्वादेरिति, भावसन्धानमपि प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् द्वधा, तत्र प्रशस्ताच्छिन्नभावसन्धानमुपशमक्षपकश्रेण्यामारोहतो जन्तोरपूर्वसंयमस्थानान्यच्छिन्नान्येव भवन्ति, श्रेणिव्यतिरेकेण वा प्रबर्द्धमानकण्डकस्येति, छिन्नप्रशस्तभावसन्धानं पुनरौपशमिकादिमावादोदयिकादिभावान्तरगतस्य पुनरपि शुद्धपरिणामवतः तत्रैव गमनम्, अप्रशस्ताच्छिन्नभावसन्धानमुपशमश्रेण्याः प्रतिपततोऽविशुद्धयमानपरिणामस्यानन्तानुबन्धिमिथ्यात्वोदयं यावत् , उपशमश्रेणिमन्तरेणापि कषायवशात् बन्धाध्यवसायस्थानान्युत्तरोत्तराण्यवगाहमानस्य वा इति, अप्रशस्तच्छिन्नभावसन्धानं पुनरोदयिकभावादौपशमिकादिभावान्तरसङ्क्रान्तौ सत्यां पुनस्तत्रैव गमनमिति । इह द्वारद्वयं योगपर्धन व्याख्यातं, तत्र सन्धानस्थानं द्रव्यविषयमितरत्तु भावविषयमित्युक्त स्थानम् ॥ अथवा भावस्थानं कषायाणां यत् स्थानं तदिह परिगृह्यते, तेषामेव जेतव्यत्वेनाधिकृतत्वात्, तेषां किं स्थानं ?, यदाश्रित्य च ते भवन्ति, शब्दादिविषयानाश्रित्य च ते भवन्तीन्ति तदर्शयति पंचसु कामगुणेसु य सद्दष्फरिसरसरूवगंधेसु। जस्स कसाया वहति मूलढाणं तु संसारे ॥ १७६ ॥ तत्रेच्छानङ्गरूपः कामस्तस्य गुणा यानाश्रित्यासौं चेतसो विकारमादर्शयति, ते च शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्तेषु पञ्चस्वपि व्यस्तेषु समस्तेषु वा विषयभूतेषु 'यस्य' जन्तोर्विषयसुखपिपासोन्मुखस्यापरमार्थदर्शिनः संसाराभिष्वङ्गिणो राग-21 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥१७६॥ द्वेषतिमिरोपप्जुतदृष्टेमनोज्ञेतरविषयोपलब्धौ सत्यां कषाया 'वर्तन्ते' प्रादुर्भवन्ति, तन्मलश्च संसारपादपः प्रादुर्भवतीत्यतः लोकवि. अ.२ शब्दादिविषयोद्धत(ताः)कषायाः 'संसारे संसारविषयं मूलस्थानमेवेति एतदुक्तं भवति-रागाद्युपहतचेताः परमार्थमजानानोऽतत्स्वभ वेऽपि तत्रवभावारोपणेनान्धादप्यन्धतमः कामी मोदते, यत आह-"दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जग- उद्देशकः १ त्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति । कुन्देन्दीवर पूर्णचन्द्रकलशश्रीमल्लतापल्लवानारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते ॥ १॥" द्वेषं वा कर्कशशब्दादौ व्रजतीति, ततश्च मनोज्ञेतरशब्दादिविषयाः कषायाणां मूलस्थानं, ते च संसारस्येति गाथातात्पर्यार्थः ॥ यदि नाम शब्दादिविषयाः कषायाः कथं तेभ्यः संसार इति ?, उच्यते, यतः कर्मस्थितेः कषाया मूलं साऽपि संसारस्य, संसारिणश्चावश्यंभाविनः कषाया इति, एतदेवाह जह सव्वपायवाणं भूमीए पइडियाणि मूलाई। इय कम्मपायवाणं संसारपइडिया मूला ।। २७७॥ यथा सर्वपादपानां भूमौ प्रतिष्ठितानि मूलानि, एवं कर्मपादपानां संसारे कपायरूपाणि मूलानि प्रतिष्ठितानीति गाथार्थः ॥ ननु च कथमेतच्छद्धेयं-कर्मणः कषाया मूलमिति !, उच्यते, यतो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः, तथा चागमा-"'जीवे णं भंते ! कनिहिं ठाणेहिं णाणावरणिज्जं कम्मं बंधइ ?, गोयमा ! दोहिं १ जीवो मदन्त ! कतिमिः स्थान नावरणीयं कर्म बध्नाति ?, गौतम ! द्वाभ्यां स्थानाभ्यां तद्यथा-रागेण वा द्वेषेण वा । गगो । ॥ १७६ ॥ द्विविधो-माया लोभश्व, द्वषो द्विविधः-क्रोधश्च मानश्च, एतैश्चतुर्भिः स्थान:र्योपगूढे निावरणीयं कर्म पध्नाति । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०१७७॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ठाणेहिं, तंजहा-रागेण व दोसेण व । रागे दुविहे-माया लोभे य, दोसे दुविहे-कोहे य माणे य । एएहिं चउहि ठाणेहि वीरिओवगहिएहिं णाणावरणिज्जं कम्म बंधइ" एवमष्टानामपि कर्मणा योज्यमिति । ते च कषाण मोहनीयान्तःपातिनोऽष्टप्रकारस्य च कर्मणः कारणं, मोहनीयं कामगुणानां च (इति) दर्शयति अढविहकम्मरक्खा सब्वे ते मोहणिजमूलागा। कामगुणमूलगं वा तम्मू लागं च संसारो॥ १७ ॥ यदयादि प्राक-'इय कम्मपायवाणं तत्र कतिप्रकाराः ते कर्मपादपाः किंकारणाश्चेति १, उच्यते, अष्टविधकर्मवृक्षाः, ते सर्वेऽपि मोहनीयमूलाः, न केवलं कषायाः, कामगुणा अपि मोहनीयमूलाः, यस्माद दोदयात् कामाः, वेदश्च मोहनीयान्तःपातीत्यतस्तन्मोहनीयं मूलम्-आद्यं कारणं यस्य संसारस्य स तथा इति गाथार्थः ॥ तदेवं पारम्पर्येण संसारकषायकामानां कारणत्वान्मोहनीयं प्रधानभावमनुभवति, तत्क्षये चावश्यम्भावी कर्मक्षयः, तथा चामाणि2 'जह मत्थयसूईए, हयाए हम्मए तलो। तहा कम्माणि हम्मति, मोहणिज्जे खयं गए ॥१॥" तच्च द्विधा-दर्शनचारित्रमोहनीयभेदात्, एतदेवाहदुविहो अ होइ मोहो सणमोहो चरित्तमोहो अ । कामा चरित्तमोहो तेणऽहिगारो इहं सुते ॥१७॥ मोहनीयं कर्म द्वधा भवति, दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति, बन्धहेतोद्वैविध्यात्, तथाहि-अर्हत्सिद्धचैत्यतपःश्रुतगुरुमाधुसङ्घप्रत्यनीकतया दर्शनमोहनीयं कर्म बध्नाति, येन चासावनन्तसंसारसमुद्रान्तःपात्येवावतिष्ठते, तथा तीव्र १ यथा मस्तकसूच्या हतायां हन्यते तालः । तथा कर्माणि हन्यन्ते मोहनीये क्षयं गते ॥१॥ १७७॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) लोक वि.अ.२ उद्देशका १ ॥ १७८॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ कषायबहुरागद्वेषमोहाभिभूतः सन् देशसर्वविरत्युपघाति चारित्रमोहनीयं कर्म बध्नाति, तत्र (अनन्तानुबन्धि)मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वभेदात्रेघा( सप्तधा) दर्शनमोहनीयं, तथा षोडशकषायनवनोकषायभेदाच्चारित्रमोहनीयं पञ्चविंशतिधा, तत्र कामाः शब्दादयः पञ्च चारित्रमोहः, तेन चात्र सूत्रेऽधिकारो; यतः कषायाणां स्थानमत्र प्रकृतं, तच शब्दादिकपश्चगुणात्मकमिति गाथार्थः ॥ तत्र चारित्रमोहनीयोत्तरप्रकृतिस्त्रीनपुसकवेदहास्यरतिलोभाश्रितकामाअयिणः कषायाः संसारमूलस्य च कर्मणः प्रधान कारणमिति प्रचिकटयिषुराह संसारस्स उ मूलं कम्मं तस्सवि हूंति य कसाया। ___ 'संसारस्य नारकतिर्यग्नरामरगतिसंसृतिरूपस्य (मूल) कारणमष्टप्रकारं कर्म, तस्यापि कर्मणः कषाया:-क्रोधादयो निमित्तं भवन्ति । तेषां च प्रतिपादितशब्दादिस्थानानां प्रचुरस्थानत्वप्रतिपादनाय पुनरपि स्थानविशेष गाथाशकलेनाह ते सयणपेसअस्थाइएसु अज्झत्थओ अ ठिआ ॥ १८०॥ स्वजन:-पूर्वापरसंस्तुतो मातापित्श्वशुरादिका प्रेष्यो-भृत्यादिरों-धनधान्यकुप्यवास्तुरत्नभेदरूपः ते स्वजनादयः कृतद्वन्द्वा आदिर्येषां मित्रादीनां तेषु स्थिताः कषाया विषयरूपतया, अध्यात्मनि च विषयिरूपतया प्रसन्नचन्द्रैकेन्द्रियादीनामिति गाथार्थः ॥ तदेवं कषायस्थानप्रदर्शनेन सूत्रपदोपात्तं स्थानं परिसमाप्य तेषामेव कषायाणां सूत्रमूलपदोपात्तानां जेतव्यत्वाधिकृतानां निक्षेपमाह-- __णामंठवणादविए उप्पत्ती पच्चए य आएसो । रसभावकसाए या तेण य कोहाइया चउरो ॥१८१॥ ॥ १७८ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0१७६ ॥ यथाभृतार्थनिरपेक्षमभिधानमात्रं नाम, सद्भावासद्भावरूपा प्रतिकृतिः स्थापना, कृतभीमभ्र कुट्युत्कटललाट(पट)घटितत्रिशूलरकास्यनयनसन्दष्टाधरस्पन्दमानस्वेदसलिलचित्रपुस्ताद्यक्षवराटकादिगतेति, द्रव्यकपाया ज्ञशरीरभव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्ताः कर्मद्रव्यकषाया नोकर्मद्रन्यकपायाश्चेति, तत्रादित्सितात्तानुदीर्णोदीर्णाः पुद्गला द्रव्यप्राधान्यात कर्मद्रव्यकषायाः, नोकर्मद्रव्यकषायास्तु विभीतकादयः, उत्पत्तिकषायाः शरीरोपधिक्षेत्रवास्तुस्थाण्वादयो यदाश्रित्य तेषामुत्पत्तिः, तथा चोक्तम्-'कि एत्तो कट्ठयरं जं मूढो थाणअम्मि आवडिओ। थाणस्स तस्स रूसह न अप्पणो दुप्पओगस्स ॥१॥" प्रत्ययकषायाः कषायाणां ये प्रत्ययाः-यानि बन्धकारणानि, ते चेह मनोज्ञेतरभेदाः शब्दादयः, अत एवोत्पत्तिप्रत्यययोः कार्यकारणगतो भेदः, आदेशकषायाः कृत्रिमकृतभ्र कुटिभङ्गादयः, रसतो कषायाः, रसकपायाः, रसकपायः कटुतिक्तकषायपञ्चकान्तर्गतः, भावकषायाः शरीरोपधिक्षेत्रवास्तुस्वजनप्रेष्यार्चादिनिमित्ताविभूताः शब्दादिकामगुणकारण कार्यभूतकषाय कमोदयात्मपरिणामविशेषाः क्रोधमानमायालोभाः, ते चैकैकशोऽनन्तानुवन्ध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसज्वलनभेदेन भिद्यमानाः षोडशविधा भवन्ति, तेषां च स्वरूपानुबन्धफलानि गाथाभिरभिधीयन्ते, ताश्चेमाः-"जलरेणुपुढविपव्वयराईसरिसो चउव्विहो कोहो । तिणिसलयाकट्ठडियसेलत्थंभोवमो १ किंमेतस्मात्कष्टकरं यन्मूढः स्थाणावापतितः । स्थाणवे तस्मै रुष्यति नात्मनो दुष्प्रयोगाय ॥१॥२ जल रेणुपृथ्वीपर्वतराजीसहशश्चतुर्विधः क्रोधः । तिनिशलताकाष्ठास्थिशैलस्तम्भोपमो मानः ॥१॥ मायाऽवलेखिकागोमूत्रिकामेषशृङ्गघनवंशीमूलसमा । लोमो हरिद्राकर्दमखञ्जनकृमिरागसमानः॥२॥ पक्ष चतुर्मासवत्सरयावज्जीवानुगामिना क्रमशः। देवनरतियनारक गतिसाधनहे तवो भणिताः ।।३।। ॥१७४। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ܀ ॥१०॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ माणो ॥१॥मायावलेहिगोमुत्तिर्मेदसिंगघणवंसमूलसमा । लोभो हलिद्दकद्दमखंजणकिमिरायसामाणो ॥२॥ पक्खचउमासवच्छरजावज्जीवाणगामिणो कमसो। देवणरतिरियणारयगइसाहणहेयवो भणिया । लोक वि.अ.२ ॥३॥" एषां च नामाद्यष्टविधकषायनिक्षेपाणां कतमो नयः कमिच्छतीत्येतदभिधीयते-तत्र नैगमस्य सामान्यविशेष- उद्देशकः १ रूपत्वान्नैकगमत्वाच्च तदभिप्रायेण सर्वेऽपि साधवो नामादयः, सङ्ग्रहव्यवहारौ तु कषायसम्बन्धाभावादादेशसमुत्पत्ती नेच्छता, ऋजुसूत्रस्तु वर्तमानार्थनिष्ठत्वादादेशसमुत्पत्तिस्थापना नेच्छति, शब्दस्तु नाम्नोऽपि कथञ्चिद्भावान्तर्भावानामभावाविच्छतीति गाथातात्पर्यार्थः ॥ तदेवं कषायाः कर्मकारणत्वेनोक्ताः, तदपि संसारस्य, स च कतिविध इति दर्शयति दव्वे खित्ते काले भवसंसारे अ भावसंसारे। पंचविहो संसारो जत्येते संसरंति जिआ ॥१८॥ __ द्रव्यसंसारो व्यतिरिक्तो द्रव्यसंसृतिरूपः, क्षेत्रसंसारो येषु क्षेत्रेषु द्रव्याणि संसरन्ति, कालसंसारः यस्मिन् काल इति, नारकतिर्यग्नरामरगतिचतुर्विधानुपूयु दयावान्तरसङ्क्रमणं भवसंसारः, भावसंसारस्तु संसृतिस्वभाव औदयिकादिभावपरिणतिरूपः, तत्र च प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धानां प्रदेशविपाकानुभवनम्, एवं द्रव्यादिकः पञ्चविधः संसारः, अथवा द्रव्यादिकश्चतुर्धा संसारः, तद्यथा-अश्वास्तिनं ग्रामानगरं वसन्ताद् ग्रीष्मं औदयिकादौपशमिकमिति गाथार्थः॥ तस्मिंश्च संसारे कर्मवशगा: प्राणिनः संसरन्तीत्यतः कर्मनिदर्शनार्थमाह- . |१८०॥ णामंठवणाकम्मदव्वकम्मं पओगकम्मच। समुदाणिरियावहियं आहाकम्मं तवोकम्मं ॥१८॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १८१॥ किइकम्म भावकम्मं दसविह कम्मं समासओ होइ। नामकर्म कर्मार्थशून्यमभिधानमात्रं, स्थापनाकर्म पुस्तकपत्रादौ कर्मवर्गणानां सद्भावासद्भावरूपा स्थापना, द्रव्यकर्म व्यतिरिक्तं द्विधा-द्रव्यकर्म नोद्रव्यकर्म च, तत्र द्रव्यकर्म कर्मवर्गणान्तःपातिनः पुद्गलाः बन्धयोग्या वध्यमाना बद्धाश्चानुदीर्णा इति, नोद्रव्यकर्म कृषीवलादिकर्म । अथ कर्मवर्गणान्तःपातिनः पुद्गला द्रव्यकर्मेत्यवाचि, काः पुनस्ता वर्गणा इति सङ्कीय॑न्ते ?, इह वर्गणाः सामान्येन चतुर्विधाः-द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात , तत्र द्रव्यत एकद्वयादिसङ्ख्येयासङ्ख्येयानन्तप्रदेशात्मिकाः क्षेत्रतोऽवगाढद्रव्यैकद्वयादिसङ्ख्येयासङ्ख्येयप्रदेशात्मिकाः कालत एकद्वयादिसङ्ख्येयासङ्ख्येयसमयस्थितिकाः भावतो रूपरसगन्धस्पर्शस्वगतमेदात्मिकाः सामान्यतः, विशेषतस्तूच्यन्ते-तत्र परमाणूनामेका वर्गणा, एवमेकैकपरमाणूपचयात् सङ्ख्येयप्रदेशिकानां स्कन्धानां सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयप्रदेशिकानामसङ्ख्येयाः, एताश्चौदारिक दिपरिणामाग्रहणयोग्याः, अनन्तप्रदेशिकानामप्यनन्ता अग्रहणयोग्याः, ता उल्लवन्य औदारिकग्रहणयोग्यास्त्वनन्तानन्तप्रदेशिकाः खन्वनन्ता एव भवन्ति, तत्रायोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते औदारिकशरीरग्रहणयोग्या जघन्या वर्गणा भवति, पुनरेकैकप्रदेशवृद्ध्या प्रवर्द्धमाना औदारिकयोग्योत्कृष्टवर्गणा यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः को विशेषः?, जघन्यात् उत्कृष्टा विशेषाधिकाः, विशेषस्त्वस्या एवौदारिकजघन्यवर्गणाया अनन्तभागः, तस्य चानन्तपरमाणुमयत्वादेकैकोत्तरप्रदेशोपचये सत्यप्यौदारिकयोग्यवर्गणानां जघन्योत्कृष्टमध्यवर्तिनीनामानन्त्यं, तत औदारिकयोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपप्रक्षेपेणायोग्यवर्गणा जघन्या भवन्ति, एता अप्येकैकप्रदेशवृद्धयो ॥१८१॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १८२॥ स्कृष्टान्ता अनन्ता भवन्ति, जघन्योत्कृष्टवर्गणानां को विशेषः १, जघन्याभ्योऽसङ्ख्येयगुणा उत्कृष्टाः, ताश्च बहुप्रदेश व्ययगुणा उत्कृष्टा ताच अपरालोकवि.अ.२ त्वादतिसूक्ष्मपरिणामत्वाच्चौदारिकस्यानन्ता एवाग्रहणयोग्या भवन्ति, अन्पप्रदेशत्वाद्वादरपरिणामत्वाच्च वैक्रियस्यापीति, अत्र च यथा यथा प्रदेशोपचयस्तथा तथा विश्रसापरिणामवशावर्गणानां सूक्ष्मतरत्वमवसेयम् । एतदेवोत्कृष्टोपरि उद्देशकः १ रूपप्रक्षेपयोग्यायोग्यादिकं क्रियशरीरग्रहणवर्गणानां जघन्योत्कृष्टविशेषलक्षणं चावसेयं, तथा वैक्रियाहारकान्तरालवर्त्ययोग्यवर्गणानां जघन्योत्कृष्टविशेषासङ्ख्येयगुणत्वमिति, पुनरप्ययोग्यवर्गणोपरि रूपप्रक्षेपात् जपन्याहारकशरीरयोग्यवर्गणा भवन्ति, ताश्च प्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना उत्कृष्टां यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः कियदन्तरमिति ? उच्यते, जघन्याभ्य उत्कृष्टा विशेषाधिकाः, को विशेष इति चेत्, जघन्यवर्गणाया एवानन्तभागः, तस्याप्यनन्तपरमाणुन्वादाहारकशरीरयोग्यवर्गणानां प्रदेशोत्तरवृद्धानामानन्त्यमिति भावना, तस्यामेवोत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या आहारकाग्रहणयोग्यवर्गणाः, ततः प्रदेशवृद्धया वर्द्धमाना उत्कृष्ट यावदनन्ता एव आहारकस्य सूक्ष्मत्वाद् वहुप्रदेशत्वाच्चायोग्या एव भवन्ति, बादरत्वादल्पप्रदेशत्वाच्च तैजसस्येति, जघन्योत्कृष्टयोः कियदन्तरमिति ? उच्यते, जघन्याभ्य उत्कृष्टा अनन्तगुणाः, केन गुणकारेणेति चेत् , अभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तमाग इति, तदुपरि रूपे प्रक्षिप्ते तैजसशरीरवर्गणा जघन्याः, एता अपि प्रदेशवृद्धया वर्द्धमाना उत्कृष्टां यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः कियदन्तरं ?, जघन्याभ्यः उत्कृष्टा विशेषाधिका, विशेषस्तु जघन्यवर्गणानन्तभागः, तस्याप्यनन्तप्रदेशत्वाज्जघन्योत्कृष्टान्तगल ॥१२॥ वर्गणानामानन्त्यं भवति, तैजसोत्कृष्टवर्गणोपरि रूपे प्रक्षिप्ते सत्यग्रहणवर्गणा भवन्ति, एवमेकादिवृद्धयोत्कृष्टान्ता Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३॥ अनन्ताः, ताश्चातिसूक्ष्मत्वाद् बहुप्रदेशत्वाच्च तैजसस्याग्रहणयोग्याः, बादरत्वात् अन्पप्रदेशत्वाच्च भाषाद्रव्यस्यापीति, जघन्योत्कृष्टयोरनन्तगुणत्वेन विशेषो, गुणकारश्चाभव्येभ्योऽनन्तगुणः सिद्धानामनन्तभाग इति, तस्यामयोग्योत्कृष्टवर्ग-18 णार्या रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या भाषाद्रव्यवर्गणा भवति, तस्याश्च प्रदेशवृद्धया उत्कृष्टवर्गणापयन्तान्यनन्तानि स्थानानि भवन्ति, जघन्योत्कृष्टयोर्विशेषो जघन्यवर्गणानन्तभागाधिकोत्कृष्टवर्गणा भवति, अत्राप्यनन्तभागस्यानन्तपरमाण्वात्मकत्वाद्भापाद्रव्ययोग्यवर्गणानामानन्त्यमवसेयं, तदनेनैकादिप्रदेशवृद्धिप्रक्रमेणायोग्यवर्गणानां जघन्योत्कृष्टादिक ज्ञातव्यं, नवरं जघन्योत्कृष्टयोआंदोऽयम्-अभव्यानन्तगुणः सिद्धानन्तभागात्मका, तास च पूर्वहेतुकदम्बकादेव भाषाद्रव्यानापानद्रव्ययोरयोग्यत्वमवसेयम्, अयोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते आनापानवर्गणा जघन्या, ततो रूपोत्तरवृद्धयोस्कृष्टवर्गणान्ता अनन्ता भवन्ति, जघन्यात उत्कृष्टा जघन्यानन्तभागाधिका, तदुपरि रूपोत्तरवृद्धया जघन्योत्कृष्ट भेदेनाग्रहणवर्गणा, विशेषस्त्वमव्येभ्योऽनन्तगुणः सिद्धानामनन्तभागः, पुनरप्ययोग्योत्कृष्टवर्गणोपरि प्रदेशादिवृद्धया जघन्योत्कृष्टभेदा मनोद्रव्यवर्गणा, जघन्यवर्गणानन्तभागो विशेषः, पुनरपि प्रदेशोत्तरक्रमेणाग्रहणवर्गणा, विशेषश्चाभव्यानन्तगुणादिकः, ताश्च प्रदेशबहुत्वादतिसूक्ष्मत्वाच्च मनोद्रव्यायोग्याः, अन्पप्रदेशत्वाद् बादरत्वाच्च कार्मणस्यापि, तदुपरि रूपे प्रक्षिप्ते जघन्याः कार्मणशरीरवर्गणाः, पुनरप्येकैकप्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना उत्कृष्टा यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्यो स्कृष्टयोः कः प्रतिविशेष इति ?, उच्यते, जघन्यवर्गणानन्तभागाधिकोत्कृष्टवर्गणा सचानन्तभागोऽनन्तानन्तपरमाण्यात्मकोऽत एवानन्तमेदभिन्नाः कर्मद्रव्यवर्गणा एवं भवन्ति, आभिश्चात्र प्रयोजन, द्रव्यकर्मणो व्याचिख्यासितत्वा १८३॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १८४॥ दिति । शेषा अपि वर्गणाः क्रमायाताः विनेयजनानुग्रहार्थ व्युत्पाद्यन्ते-पुनरप्युत्कृष्टकर्मवर्गणोपरि रूपादिप्रक्षेपेण जघ लोकवि. अ.२ न्योत्कृष्टभेदभिन्ना ध्रुववर्गणाः, जघन्याभ्य उत्कृष्टाः सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणाः, तदुपरि रूपप्रक्षेपादिक्रमेणानन्ता एवला जघन्योत्कृष्टभेदा अधूववर्गणाः, अध्रुवत्वादध्रुवाः, पाक्षिकसद्भावादध्रवत्त, जघन्योत्कृष्टभेदोऽनन्तरोक्त एव, तदुत्कृष्टो- उद्देशकः १ परि रूपादिप्रवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा अनन्ता एव शून्या वर्गणा भवन्ति, जघन्योत्कृष्टविशेषः पूर्ववत् , तासां संसारेऽप्यभावात् शून्यवर्गणा इत्यभिधानम् , एतदुक्तं भवति-अध्रववर्गणोपरि प्रदेशवृद्धयाऽनन्ता अपि न सम्भवन्तीति प्रथमा शून्यवर्गणा, तदुपरि रूपादिवृद्धया जघन्योत्कृष्टमेदाः प्रत्येकशरीरवर्गणा भवन्ति, जघन्यातः क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागप्रदेशगुणोत्कृष्टा, तदुपरि रूपोत्तरादिवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा अनन्ता एव शून्यवर्गणा भवन्ति, जघन्यवर्गणात उत्कृष्टा त्वसङ्ख्येय(लोकासङ्ख्येय)भागप्रदेशगुणा, तदसङ्ख्येयभागोऽप्यसङ्ख्येयलोकात्मक इति द्वितीया शून्यवर्गणा, तदुपरि रूपादिवृद्ध्या पादरनिगोदशरीरवर्गणा जघन्यातः क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागप्रदेशगुणोत्कृष्टा, तदुपरि रूपादिवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा तृतीया शून्यवर्गणा, उत्कृष्टा जघन्यातोऽसङ्ख्येयगुणा, को गुणकार इति ?, उच्यते, अगुलासङ्ख्येयभागप्रदेशराशेरावलिकाकालासङ्ख्येयभागसमयप्रमाण कृतपौनःपुन्यवर्गमूलस्यासङ्ख्येयभागप्रदेशप्रमाण इति, तदुपरि रूपोत्तरवृद्धया जधन्योत्कृष्टमेदा सूक्ष्मनिगोदशरीरवर्गणा, जघन्यात उत्कृष्टा आवलिकाकालासंख्येयभागसमयगुणा, तदुपरि रूपोत्तरवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा चतुर्थी शन्यवर्गणा, जघन्यात उत्कृष्टा चतुरस्रीकृतलोकस्यासङ् १८४॥ ख्येयाः श्रेण्यः, ताश्च प्रतरासङ्ख्येयभागतुल्या इति, तदुपरि रूपादिवृद्धया- जघन्योत्कृष्ट मेदा महास्कन्धवर्गणा, जघ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१८५॥ न्यात उत्कृष्टा क्षेत्रपन्योपमस्यासङ्ख्येयगुणा संख्येयगुणा वेति । उक्ताः समासतो वर्गणाः, विशेषार्थिना तु कर्मप्रकृतिरवलोकनीयेति । साम्प्रतं प्रयोगकर्म, वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रकण युज्यत इति प्रयोगः, सच मनोवाकायलक्षणः पञ्चदशधा, कथमिति !, उच्यते, तत्र मनोयोगः सत्यासत्यमिश्रानुभयरूपश्चतुर्की, एवं वाग्योगोऽपि, काययोगामप्तधा-औदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियवैक्रियमिश्राहारकाहारकमिश्रकाणियोगमेदात , तत्र मनोयोगो मनःपर्याप्त्या पर्याप्तस्य मनुष्यादेः वाग्योगोऽपि द्वीन्द्रियादीनाम् , औदारिकयोगस्तिर्यग्मनुजयोः शरीरपर्याप्तेरूद्धर्व, तदारतस्तु मिश्रा, केवलिना वा समुद्घातगतस्य द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु, वैक्रियकाययोगो देवनारकबादरवायूनाम् , अन्यस्य वा वैक्रियलब्धिमतः, तन्मिश्रस्तु देवनारक्यारुत्पत्तिसमयेऽन्यस्य या वैक्रियं निवर्तयतः, आहारककाययोगश्चतुर्दशपूर्वविद आहारकशरीरस्थस्य, तन्मिश्रस्तु निर्वर्तनाकाले, कार्मणयोगो विग्रहगती केवलिसमुद्घाते वा तृतीयचतुर्थपञ्चमममयेष्विति । तदनेन पञ्चदशविधेनापि योगेनात्माऽष्टौ प्रदेशान् विहायोत्तप्तभाजनोदकवदुद्वर्तमानैः सर्वरेवात्मप्रदेशैरात्मप्रदेशावष्टब्धाकाशदेशस्थं कार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिकं यद् बध्नाति तत्प्रयोगकर्मेत्युच्यते, उक्तं च-"'जावणं एस जोवे एयइ वेयइ चलइ फंदईत्यादि ताव णं अट्ठविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा नो णं अबंधए"। समुदानकर्म सम्पूर्वादापर्वाच्च ददातेल्युडन्तात् पृषोदरादिपाठेन आकारस्योकारादेशेन १ यावदेष जीव एजते व्येजते चलति स्पन्दते, तावदष्टविधबन्धको वा सप्तविधबन्धको वा षड्विधबन्धको वा एकविधबन्धको वा, नव बन्धकः। ॥१८५॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (बीलाङ्का.) ॥ २८६ ॥ रूपं भवति, तत्र प्रयोगकर्मणैकरूपतया गृहीतानां कर्मवगणानां सम्यगुमुलोचरप्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्ध भेदेनाङमर्यादया देश सर्वोपघातिरूपया तथा स्पृष्टनिघत्तनिकाचितावस्थया च स्वीकरणं समुदानं तदेव कर्म समुदानकर्म, तत्र मूलप्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणीय दिः, उत्तरप्रकृतिबन्धस्तूच्यते-उत्तरप्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणीयं पञ्चधा - मतिश्रुतावधिमनःपर्याय केवलावरण भेदात्, तत्र केवलावारकं सर्वघाति शेषाणि तु देशघातिन्यपि दर्शनावरणीयं नवधा- निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयभेदात, तत्र निद्रापञ्चकं प्राप्तदर्शनलब्ध्युपयोगोपघातकारि, दर्शनचतुष्टयं तु दर्शनलब्धिप्राप्तेरेव, अत्रापि केवलदर्शनावरणं सर्वघाति शेषाणि तु देशतः, वेदनीयं द्विधा - सातासात भेदात्, मोहनीयं द्विधा - दर्शन चारित्रभेदात्, तत्र दर्शन मोहनीयं त्रिधा - मिथ्यात्वादिभेदात् (सप्तधा - अनन्तानुबन्धिमिध्यात्वादिभेदात् वन्धतस्तु पञ्चधा) बन्धतस्त्वेक.विधं, चारित्रमोहनीयं षोडश (द्वादश) कषायन व नोकषायभेदात्पञ्च (एक) विंशतिविधम् अत्रापि मिथ्यात्वं सज्ज्वलनव द्वादश कषायाश्च सर्व्वघातिन्यः शेषास्तु देशघातिन्य इति, आयुष्कं चतुर्द्धा - नारका दिभेदात्, नाम द्विचत्वारिंशद्भेदं गत्पादिभेदात, त्रिनवतिभेदं चोत्तरोत्तरप्रकृतिभेदात्, गतिश्चतुर्द्धा जातिरेकेन्द्रियादिभेदात्पञ्चधा शरीराणि औदारिकादिभेदात्पञ्चधा औदारिक क्रियाहारकभेदादङ्गोपाङ्गं त्रिधा निर्माणनाम सर्व्वजीव शरीरावयवनिष्पादकमेकधा बन्धननाम औदारिकादिकर्म्मवर्गणैकत्वापादकं पश्चधा सङ्घातनामौदारिकादि कर्म्मवर्गणारचनाविशेषसंस्थापकं पञ्चधा संस्थाननाम समचतुरस्रादि पोढा म्हनननाम वज्रऋषभनाराचादि षोढैव स्पर्शोऽष्टधा रसः पञ्चधा गन्धो द्विधा वर्णः पञ्चधा आनुपूर्वी नारक दिवद्ध विहायोगतिः प्रशस्ता प्रशस्तभेदात् द्विधा अगुरुलघूपघातपराघातातपोद्योतोच्छ्वासप्रत्येक लोकवि. अ. २ उद्देशकः १ ।। १८६ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१८७॥ साधारणत्रसस्थावरशुभाशु मसुभगदुर्भगसुस्वरदुःस्वरसूक्ष्मचादरपर्याप्तकापर्याप्तकस्थिरास्थिरादेयानादेययशः कीर्तिअयशःकीर्तितीर्थकग्नामानि प्रत्येकमेकविधानीति, गोत्रमुच्चनीचभेदात् द्विधा, अन्तरायं दानलाभभोगोपभोगवीर्यभेदात् पञ्चधेत्युक्तः प्रकृतिवन्धो, बन्धकारणानि तु गाथामिरुन्यन्ते---"'पडिणीयमंतराइय उवघाए तप्पओस णिण्हवणे । आवरणदुर्ग बन्धइ भूओ अच्चाप्तणाए य ॥१॥ भूयाणकंपवयजोगउज्जुओ । खंतिदाणगुरुभत्तो । बन्ध भूभो सायं विवरीए पन्धई इयरं ॥ २ ॥ अरहंतसिडचेइयतवसुअगुरुसाधुसंघपडिणीओ । बंधइ दसणमोहं अणंतसंसारिओ जेण ॥ ३॥ तिव्वकसाओ बहुमोहपरिणतो रागदोससंजुत्तो। बंधइ चरित्तमोहं दविहंपि चरित्तगुणघाई ॥ ४ ॥ मिच्छविट्ठी महारभपरिग्गहो तिव्वलोभ णिस्सीलो। निरआउयं निबंधइ पावमती (भूयोघाति) रोहपरिणामो ॥ ५॥ उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ गूढहियय माइल्लो । सदसीलो अससल्लो तिरिआउ' बंधई जीवो ॥६॥ पगतीए तणुकसाओ दाणरओ सीलसजमविहणो । १ प्रत्यनीकत्वेऽनराय उपधाते तत्पद्वषे निवने । आवरणद्विकं बध्नाति भूतोऽत्याशातनया च ॥१॥ भूतानुकम्पावतयोगायक्तः शान्ति ( मान ) दानी गुरुमक्ताः। पनाति भूतः सातं विपरीतो बध्नातीतरत् ॥ २॥ अर्हत्सिद्धचेत्यतपाश्रुतगुरुसाधुसप्रत्यनीकः। बध्नाति दर्शनमोहमनन्तसंसारिको येन ॥३।। तीव्रकषायो बहुमोहपरिणतो रागद्वे पसंयुक्तः। बध्नाति चारित्रमोह द्विविधमपि चरित्रगुणाति ॥ ४॥ मिथ्या दृष्टिमेंहारम्भपरिग्रहस्तीत्रलोभो निश्शीलः। नरकायुष्कं निबध्नाति पापमती रौद्रपरिणामः ॥ ॥ उन्मार्गदेशको मार्गनाशको गूढहृदयो मायावी। शाठ्यशीलश्च सशल्यस्तिर्यगायुबंध्नाति जोवः ॥ ६॥ प्रकृत्या तनुकषायो दानरतः शीलसंयमविहीनः । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ १८७॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा-18 लोकवि. अ.२ उद्देशकः १ राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥१८॥ 'मज्झिमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउ बन्धई जीवो ॥७॥ अणव्वयमहव्वएहि य बालतवोऽकामनिजराए य । देवाज्यं णिबंधइ सम्मदिट्ठी उ जो जीवो॥८॥मणवयणकायको माइल्लो गारवेहिं पडिबहो। असुभं | बंधइ नामं तप्पडिवक्खेहिं सुभनामं ॥९॥ अरिहंतादिसु भत्तो सुत्तराई पयणुमाण गुणपेहो । बन्धइ उच्चागोयं विवरीए बंधई इयरं ॥१०॥ पाणवहादीसु रतो जिणपूयामोक्खमग्गविग्घयरो। अज्जेइ अंतरायं ण लहइ जेणिच्छियं लाभं ।। ११॥" स्थितिबन्धो मूलोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टजघन्यभेदः, नत्रोत्कृष्टो मूलप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः, यस्य च यावत्यः कोटीकोटयः स्थितिस्तस्य तावन्त्येव वर्षशतान्यबाधा, तदुपरि प्रदेशतो विपाकतो वा अनुभवः एतदेव प्रतिकर्मस्थितेः योजनीयं, इति सप्ततिर्मोहनीयस्य, नामगीत्रयोविंशतिः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः पूर्वकोटीत्रिभागोऽबाधा । जघन्यो ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणामन्तमुहूर्त, नामगोत्रयोगष्टौ मुहूर्ताः, वेदनीयस्य द्वादश, आयुषः क्षुल्लकभवः, स चानापानसप्तदशभागः । साम्प्रतमेतदेव बन्धद्वयमुत्तरप्रकृतीनामुच्यते-तत्रोत्कृष्टो मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलावरणनिद्रापञ्चकचक्षु१ मध्यमगुणयुक्तो मनुजायुर्बध्नाति जीवः ॥ ७॥ अणुव्रतमहावतश्च बालतपोऽकामनिजेरया च । देवायुर्निबध्नाति सम्यग्दृष्टिश्च यो जीवः॥८॥ मनोवचनकायवक्रो मायावी गोरवैः प्रतिबद्धः। अशुभं बध्नाति नाम तत्प्रतिपक्षः शुभनाम ॥॥ अहंदादिषु भक्तः सूत्ररुचिःप्रतनुमानो गुणप्रेक्षी । बध्नात्युच्चैर्गोत्रं विपरीतो बध्नातीतरत् ॥ १०॥ प्राणवधादिषु रतो जिनपूजामोक्षमार्गविघ्नकरः। अर्जयत्यन्तरायं न लभते येनेप्सितं लाभम् ।। ११ ॥ १८८॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १८ ॥ | दर्शनादिचतुष्कासद्वेद्यदानाद्यन्तरायपञ्चकमेदानां विंशतेरुत्तरप्रकृतीनां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः, स्त्रीवेदसातावेदनीयमनुजगत्यानुपूर्वीणां चतसृणां पश्चदश, मिथ्यात्वस्योधिकमोहनीयवत् , कषायषोडशकस्य चत्वारिंशत कोटीकोटयः, नपसावेदारतिशोकमयजुगुप्सानरकतिर्यग्गत्येकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिक क्रियशरीरतदङ्गोपाङ्गद्वयतैजसकार्मणहण्डसंस्थानान्त्यसंहननवर्णगन्धरसस्पर्शनरकतिर्यगानुपूर्वीअगुरुलघूपघातपराघातोच्छवासातपोद्योताप्रशस्तविहायोगतित्रसस्थावरवादरपर्याप्तकप्रत्येकास्थिराशुभदर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिनिर्माणनीचैगोत्ररूपाणां त्रिचत्वारिंशत उत्तरप्रकलीन विंशतिः, वेदहास्यरतिदेवगत्यानुपूर्वीद्वयाद्यसंस्थानसंहननप्रशस्तविहायोगतिस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशःकात्युच्चोत्ररूपाणां पञ्चदशानामुत्तरप्रकृतीनां दश, न्यग्रोधसंस्थानद्वितीयसंहननयोदश तृतीयसंस्थाननाराचसंहननयोश्चतर्दश कब्जसंस्थानार्धनाराचसंहननयोः षोडश वामनसंस्थानकीलिकासंहननद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणानामष्टानामुत्तरप्रकृतीनामष्टादश, आहारकतदङ्गोपाङ्गतीर्थकरनाम्नां सागरोपमकोटीकोटिभिन्नान्तमुहर्त्तमवाधा. देवनारकायुषोरोधिकवत् , तिर्यग्मनुष्यायुषः पन्योपमत्रयं पूर्वकोटित्रिभागोऽवाधा । उक्त उत्कृष्टः स्थितिबन्धो, जघन्य उच्यतेमत्यादिपञ्चकचक्षुर्दर्शनाद्यावरणचतुष्कसज्ज्वलनलोभदानाद्यन्तरायपञ्चकभेदानां पञ्चदशानामन्तमुहर्तमन्तमुहर्तमेवाबाधा, निद्रापञ्चकासातावेदनीयानां षण्णां सागरोपमस्य त्रयः सप्तभागाः पन्योपमासङ्घय यभागन्यूनाः, सातावेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ता अन्तर्मुहूर्त्तमबाधा, मिथ्यात्वस्य सागरोपमं पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनम् , आद्यकषायद्वादशकस्य चत्वारः, सप्तभागाः सागरोपमस्य पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनाः, सज्वलनक्रोधस्य मासद्वयं, मानस्य मासः, तदधं मायायाः, १८६॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १६० ॥ वेदस्याष्टो संवत्सराः, सर्वत्रान्तर्मुहूर्त्तमवाधा, शेषन कायमनुष्यतिर्यग्गति पञ्चेन्द्रियजात्यौ (जातिपञ्चको दारिकःङ्गोपाङ्गतै जसकाम्मणपटूर स्थानपट्संहनन वर्णगन्धरस स्पर्शतिर्यग्मनुजानुपूत्र अगुरुल धूपघातपराघातोच्छ्वासात पोद्योतप्रशस्ताप्रशस्त विहायोगतियशः कीर्त्तिवर्जत्र सादिविंशतिकनिर्माणनीचे गोत्र देवगत्यानुपूर्वीद्वयन र कगत्यानुपूर्वीद्वय वैकिय शरीरतदङ्गोपाङ्गरूपण कष्टषष्ट्युत्तरप्रकृतीनां देवद्विकनरकद्विक क्रियद्विकआहारकद्विकयशः कीर्त्तितीर्थ करना मकर्म रहितानां शेषनामप्रकृतीनां रथा नीचे गोत्रस्य चेत्यासामुत्तरप्रकृतीनां सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनौ अन्तमुहूर्त्तमवाधा कियपरकम्य तु सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागौ पन्योपमासख्येयभागन्यूनावन्तमुहूर्तमबाधा, आहारकतदङ्गोपाङ्गतीर्थ करनाम्नां सागरोपमकोटी में टिभिन्नान्तमुहूर्तमबाधा, ननु चोत्कृष्टोऽप्येतावन्मात्र एवाभिहितस्ततः कोऽनयोर्भेद इति ?, उच्यते, उत्कृष्टात् सख्येयगुणहीनो जघन्य इति यशः की युच्चै गौत्र योग्टमुहूर्त्तान्यन्तमुहूर्त्तमबाधा, देवनार कायुषोदश वर्षसहस्राण्यन्तमुहूर्त्त मचाधा, तिर्यग्मनुजायुषोः क्षुल्लकभवोऽन्तमुहूर्त्तमवाधेति, बन्धनसङ्घा त योगैदारिकादिशरीरसहचरितत्वात्तद्गत एवोत्कृष्ट जघन्यभेदोऽवगन्तव्य इति । उक्तः स्थितिबन्धः, अनुभावबन्धस्तूच्यते -तत्र शुभाशुभानां कर्मप्रकृतीनां प्रयोगकर्मणोपात्तानां प्रकृतिस्थितिप्रदेशरूपाणां तीव्रमन्दानुभावतयाऽनुभवनमनुभावः, स चैकद्वित्रिचतुःस्थानभेदेनानुगन्तव्यः, तत्रा शुभप्रकृतीनां कोशातकीरससमक्कथ्यमानार्द्ध त्रिभागपादावशेषतुल्यतया तीव्रानुभावोऽवगन्तध्यो, मन्दानुभावस्तु जातिरसैकद्वित्रिचतुर्गुणोदकप्रक्षेपास्वादतुल्यतयेति, शुभानां तु चीरेक्षुरसदृष्टान्तः पूर्ववद्योजनीयः, अत्र च कोशातकी क्षुरसादावृदकबिन्द्वादिप्रक्षेपात् व्यत्ययाद्वा भेदानामानन्त्यमवर मिति । अत्र चायूंषि भवविपाकीनि आनु लोकवि. अ. २ उद्देशकः १ ॥ १६० ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ११ ॥ पूर्व्यः क्षेत्रविपाकिन्यः शरीरसंस्थानाङ्गोपाङ्गसङ्घातसंहननवर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघूपघातपराघातोद्योतातपनिर्माणप्रत्येकसाधारणस्थिरास्थिरशुभाशुभरूपाः पुद्गलविपाकिन्यः, शेषास्तु ज्ञानावरणादिका जीवविपाकिन्य इत्युक्तोऽनुभावबन्धः । प्रदेशबन्धस्त्वेकविधादिबन्धकापेक्षया भवति, तत्र यदेकविधं बध्नाति तदा प्रयोगकर्मणैकसमयोपात्ताः पुद्गलाः सातावेदनीयभान विपरिणमन्ते, पडिबधबन्धकस्य त्वायुम्मोहनीयवजः पोढा, सप्तविधवन्धकस्य सप्तधा, अष्टविधवन्धकस्याटधेति, तत्राद्यसमयप्रयोगात्ताः पुद्गलाः समुदानेन द्वितीयादिसमयेवल्पबहुप्रदेशतयाऽनेन क्रमेण व्यवस्थापयंतीतितत्रायुपः स्तोकाः पुद्गलाः, तद्विशेषाधिकाः प्रत्येक नामगोत्रयोः, परस्परं तुन्याः, तद्विशेषाधिकार प्रत्येकं ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां, तेभ्यो विशेषाधिका मोहनीये । ननु च तेभ्यो विशेषाधिका इत्यत्र निर्धारणे पश्चमी, सा च "पञ्चमी विभक्त" (पा. २.३-४२) इत्यनेन सूत्रेण विधीयते, अस्य चायमों-विभागो विभक्तं तत्र पञ्चमी विधीयमाना | यत्रात्यन्तविभागस्तत्रैव भवति, यथा माथुरेभ्यः पाटलिपुत्रका अभिरूपतराः, इह च कर्म पुद्गलानां सर्वदैकत्वं, तथावस्थानामेव च बुद्धथा बहुप्रदेशादिगुणेन पृथक्करणं चिकीर्षितं, तत्र पष्ठी सप्तमी वा न्याय्या, तद्यथा-गवां गोषु वा कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमेति, नैष दोषो, यत्रावध्यवधिमतोः सामान्यवाची शब्दः प्रयुज्यते तत्रैव षष्ठीसप्तम्यौ, “यतश्च निर्धारण (पा. २-३-४१) मित्यनेन सूत्रेण विधीयेते, यथा गवां कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमा, मनुष्येषु पाटलिपुत्रकाः आयतरा:, कर्मवर्गणापुद्गलानां वेदनीये बहुतरा इति, यत्र पुनर्विशेषवाची शब्दोऽवधित्वेनोपादीयते तत्र पञ्चम्येव, यथा खण्डमुण्डशवलशावलेयधवलधावलेयव्यक्तिभ्यः कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमेति, अतो नात्र विभागः कारणमविभागोवा, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (सोलाका ॥ १६२ " यतो माथुरपाटलिपुत्रकादिविभागेन विभक्तानामपि सामान्यमनुष्यादिशब्दोच्चारणे पष्ठीसप्तम्यौ भवतो, यत्र तु पुन लोक वि.अ.२ थुिरादिविशेषोऽवधित्वेनोपादीयते तत्र कार्यवशादेकस्थानामपि पञ्चम्येव, तदिह सत्यपि कर्मवर्गणानामेकत्वे तद्वि| शेषस्यावधित्वेनोपादानात्पञ्चम्येव न्याय्येति, तद्विशेषाधिका वेदनीये । उक्तः प्रदेशबन्धः समुदानकापीति । उद्देशकः १ साम्प्रतमीर्यापथिक, "ईर गतिप्रेरणयोः" अस्माद्धावे ण्यत् , ईरणमीर्या तस्याः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवमीर्यापथिक, कश्चेर्यायाः पन्था भवति ?, यदाश्रिता सा भवतीति ?, एतच्च व्युत्पत्तिनिमित्तं यतस्तिष्ठतोऽपि तद्भवति, प्रवृत्तिनिमित्तं तु स्थित्यभावः, तच्चोपशान्तक्षीणमोहसयोगकेवलिनां भवति, सयोगकेवलिनोऽपि हि तिष्ठतोऽपि सूक्ष्मगात्रसञ्चाग भवन्ति, उक्तं च-..'केवली णं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा ओगाहित्ता णं पडिसाहरेज्जा, पभू णं भंते ! केवली नेसु चेवागासपदेसेसु पडिसाहरित्तए ?, णो इण8 समह, कहं १, केवलिस्स णं चलाई सरीरोवगरणाई भवंति, चलोवगरणत्ताए केवली णो सञ्चाएति तेसु वागासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा पडिसाहरित्तए" तदेवं सूक्ष्मतरगात्रसञ्चाररूपेण योगेन यत्कर्म बध्यते तदीर्यापथिकम-ईप्रिभवं, ईर्याहेतुकमित्यर्थः, तच्च द्विसमयस्थितिकम्-एकस्मिन् समये बद्धं द्वितीये वेदितं, तृतीयसमये १ केवली भदन्त । अस्मिन् समये येष्वाकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वाऽवगाह्य प्रतिसंह रेत , प्रभुभदन्त ! केवली तेष्वेवाकाश. 'प्रदेशेषु प्रतिसंहत्तम् १, नेषोऽर्थः समर्थः, कथम् ? केवलिनश्चलानि शरीरोपकरणानि भवन्ति चलोपकरणतया केवली न शक्नोति an६२॥ तेष्वेवाकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा प्रतिसंहर्तुम् । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ KI तदपेक्षया चाकर्मतेति, कथमिति ?, उच्यते, यतस्तत्प्रकृतितः सातावेदनीयमकषायत्वात् स्थित्यभावेन बध्यमानमेव । परिशटति, अनुभावतोऽनुत्तरोपपातिकसुखातिशायि प्रदेशतः स्थलरूक्षशुक्लादिबहुप्रदेशमिति, उक्तं च-"अप्पं बायरमउयं बटुं च लक्ख च सुकिलं चेव । मंदं महव्वतंतिय साताबहुलं च तं कम्मं ॥१॥" अन्पं स्थितितः स्थितेरेवाभावात् , बादरं परिणामतोऽनुभावतो मृदनुभावं, बहु च बहुप्रदेशः, रूक्षं स्पर्शतो, वर्णेन शुक्लं, मन्दं लेपतः, स्थूलचूर्णमुष्टिमृष्टकुड्यापतितलेपवत् महाव्ययमेकसमयेनैव सर्वापगमात् , साताबहुलमनुत्तरोपपातिकसुखातिशायीति । उक्तमीर्यापथिकम् , अधुना आधाकर्म, यदाधाय-निमित्तत्वेनाश्रित्य पूर्वोक्तमष्टप्रकारमपि कर्म बध्यते तदाधाकर्मेति, तच्च शब्दस्पर्शरसरूपगन्धादिकमिति, तथाहि-शब्दादिकामगुणविषयाभिष्वङ्गवान् सखलिप्सुमोहोपहतचेताः परमार्थासुखमयेष्वपि सुखाध्यारोपञ्च विदधाति, तदुक्तम्-"दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सोख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः । उत्कीर्णवर्णपदपडितरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगति प्रयोगात् ॥१॥" एतदुक्तं भवति-कर्मनिमित्तभूता मनोज्ञेतरशब्दादय एवाधाकम्र्मेत्युच्यन्ते इति । तपःकर्म 8 तस्यैवाष्टप्रकारस्य कर्मणो बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थस्यापि निर्जराहेतुभूतं बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशप्रकारं तपःकर्मेत्युच्यते । कृतिकर्म तस्यैव कम्मणोऽपनयनकारकमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायविषयमवनामादिरूपमिति । भावकर्म पुनरवाधामुल्लङ्घय स्वोदयेनोदीरणाकरणेन वोदीर्णः पुद्गलाः प्रदेशविपाकाभ्यां भवक्षेत्रपुद्गलजीवेष्वनुभावं ददतो भावकर्मशब्देनोच्यन्त इति । तदेवं नामादिनिक्षेपेण दशधा कम्र्मोक्तम्, इह तु समुदानकम्मर्मोपात्तेनाष्टविधकर्मणाधिकार ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि. अ.२ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) इति गाथाशकलेन दर्शयति .. अट्ठविहेण उ कम्मेण एत्थ होई अहीगारो ॥ १८४ ।। गाथाई कण्ठ्यमिति गाथाद्वयपरमार्थः ॥ तदेवं सूत्रानुगमेन सूत्रे समुच्चारिते निक्षेपनियुक्त्यनुगमेन प्रतिपदं निक्षिप्ते नामादिनिक्षेपे च व्याख्याते सत्युत्तरकालं सूत्रं विवियते ॥ द्वितीये लोकविजयाध्ययने प्रथमोद्देशकः ॥ उद्देशकः १ ॥१४॥ जे गुणे से मूलहाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे । इति से गुणट्ठी महया परियावेणं पुणो व पुणो रसे पमत्ते-माया मे, पिया मे, भाया मे, भगिणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूआ मे, पहुसा मे, सहिसयणसंगंथसंथुआ मे, विवित्तवगरणपरिवणभोयणच्छायणं मे । इत्थं गड्डिए लोए अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुहाई संजगही अट्ठालोभी आलुपे सहसकारे विणिविट्ठचित्ते, एत्थ सत्थे पुणो पुणो, अप्पं च खलु आउयं इहमेगेसिं वाण वाणं तंजहा-॥ सूत्रं ६२॥ . १९४॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १५॥ अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रः सम्बन्धो वाच्यः, तत्रानन्तरसूत्रसम्बन्धः-‘से हु मुणी परिण्णायकम्मे'ति, स मुनिः । परिज्ञातकर्मा भवति यस्यैतद्गुणमूलादिकमधिगतं भवति, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु ‘से जं पुण जाणिज्जा सहसंमुइयाए परवागरणेणं अण्णसि वा सोचा' स्वसम्मत्या परव्याकरणेन तीर्थकरोपदेशादन्येभ्यो वाऽऽचार्यादिभ्यः श्रुत्वा जानीयात्-परिच्छिन्द्यात् , किं तदित्युच्यते-'जे गुणे से मूलट्ठाणे', आदिसूत्रसम्बन्धस्तु 'सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं किं तत् श्रुतं भवता यद्भगवता आयुष्मताऽऽख्यातमिति !, उच्यते, जे गुंणे से मूलट्ठाणे', 'य' इति सर्वनाम प्रथमान्तं मागधदेशीवचनत्वादेकारान्तं सामान्योद्देशार्थाभिधायीति, गुण्यते-भिद्यते विशेष्यतेऽनेन द्रव्यमिति गुणः, स चेह शब्दरूपरसगन्धस्पर्शादिकः, 'स' इति सर्वनाम प्रथमान्तमुद्दिष्टनिर्देशार्थाभिधायीति, 'मूल'मिति निमित्तं कारणं || प्रत्यय इति पर्यायाः, तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं, मूलस्य स्थानं मूलस्थानं, 'व्यवच्छेदफलत्वाद् वाक्याना'मिति न्यायात् य एव शब्दादिकः कामगुणः स एव संसारस्य-नारकतिर्यग्नरामरसंसृतिलक्षणस्य यन्मूलं कारणं कषायास्तेषां स्थानम्आश्रयो वर्तते, यस्मान्मनोज्ञेतरशब्दाद्युपलब्धौ कषायोदयः, ततोऽपि संसार इति, अथवा मूलमिति-कारणं, तच्चाटप्रकारं कर्म, तस्य स्थानम्-आश्रयः कामगुण इति, अथवा मूलं-मोहनीयं तद्भेदो वा कामस्तस्य स्थानं शब्दादिको विषयगुणः, अथवा मूलं-शब्दादिको विषयगुणस्तस्य स्थानमिष्टानिष्टविषयगुणभेदेन व्यवस्थितो गुणरूपः संसार एव, a आत्मा वा शब्दाधुपयोगानन्यत्वाद् गुणः, अथवा मूल-संसारस्तस्य शब्दादयः स्थानं कषाया वा, गुणोऽपि शब्दादिकः कषायपरिणतो वाऽऽत्मेति, यदिवा मृलं संसारस्य शब्दादिकषायपरिणतः सन्नात्मा तस्य स्थानं शब्दादिकं, गुणोऽप्य १६५॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) सावेवेति, ततश्च सर्वथा य एव गुणः स एव मूलस्थानं वर्तते । ननु च वनक्रियायाः सूत्रेऽनुपादानात् कथं प्रक्षेप लोकवि. अ.२ इति १, उच्यते, यत्र हि काचिद्विशेषक्रिया नैवोपादायि तत्र सामान्यक्रियामस्ति भवति विद्यते वर्तत इत्यादिकामुपादाय वाक्यं परिसमाप्यते, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यमिति । अथवा मूलमित्याचं प्रधानं वा, स्थानमिति कारणं, मूलं च तत्कारणं | उद्देशकः १ चेति विगृह्य कर्मधारयः, ततश्च य एव शब्दादिको गुणः स एव मूलस्थानं संसारस्य आद्यं प्रधानं वा कारणमिति, शेषं पूर्ववदिति । साम्प्रतमनयोरेव गुणमूलस्थानयोनियम्यनियामकभावं दर्शयंस्तदुपात्तानां विषयकषायादीनां बीजाकुरन्यायेन परस्परतः कार्यकारणभावं सूत्रेणेव दर्शयति-'जे मूलवाणे से गुणे'त्ति, यदेव संसारमूलानां कर्ममृलाना वा कषायाणां स्थानम्-आश्रयः शब्दादिको गुणोऽप्यसावेव, अथवा कषायमूलानां शब्दादीनां यत् स्थानं कर्म संसारो वा तत्तत्स्वभावापत्तेः गुणोऽप्यसावेवेति, अथवा शब्दादिकषायपरिणाममूलस्य संसारस्य कर्मणो वा यत् स्थानं-मोहनीयं कर्म शब्दादिकषायपरिणतो वाऽऽत्मेति तद्गुणावाप्तेःगुणोऽप्यसावेव, यदिवा-संसारकषायमूलस्यात्मनो यत् स्थानविषयाभिष्वङ्गोऽसावपि शब्दादिविषयत्वाद् गुणरूप एवेति । अत्रच विषयोपादानेन विषयिणोऽप्याक्षेपात् सूचनार्थत्वाच्च सूत्रस्येत्येवमपि द्रष्टव्यं-यो गुणे गुणेषु वा घर्तते स मूलस्थाने मूलस्थानेषु वा वर्त्तते, यो मूलस्थानादौ वर्त्तते स एव गुणादौ वर्तत इति, य एव जन्तुः शब्दादिके प्राग्व्यावर्णितस्वरूपे गुणे वर्त्तते स एव संसारमूलकषायादिस्थानादौ वर्तते, एतदेव द्वितीयसूत्रापेक्षया व्यत्ययेन प्राग्वदायोज्यम् , अनन्तगमपर्यायत्वात् सूत्रस्यैवमपि द्रष्टव्यं-यो गुणः स १६॥ एव मूल स एव च स्थानं, यन्मूलं तदेव गुणः स्थानमपि तदेव, यत् स्थानं तदेव गुणो मूलमपि तदेवेति, यो गुणः XXXX Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१७॥ | शब्दादिकोऽसावेव संसारस्य कारणत्वान्मूलं स्थानमप्यसावेव इत्येवमन्येष्वपि विकल्पेषु योज्यं, विषयनिर्देशे च विषय्यप्याक्षिप्तो, यो गुणे वर्त्तते स मुले स्थाने चेत्येवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् , इह च सर्वज्ञप्रणीतत्वादनन्तार्थता सूत्रस्यावगन्तव्या, तथाहि-मूलमत्र कषायादिकमुपन्यस्तं, कषायाश्च क्रोधादयश्चत्वारः, क्रोधोऽप्यनन्तानुबन्ध्यादिभेदेन चतुर्दा, अनन्तानुबन्धिनोऽप्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि बन्धाध्यवसायस्थानान्यनन्ताश्च तत्पर्यायास्तेषां च प्रत्येकं स्थानगुणनिरूपणेनानन्तार्थता सूत्रस्य सम्पद्यते, सा च छद्मस्थेन सर्वायुषाऽप्यविषयत्वा(दनन्तत्वा)च्चाशक्या दर्शयितु', दिग्दर्शनं तु कृतमेवातोऽनया दिशा कुशाग्रीयशेमुष्या गुणमूलस्थानानां परस्पातः कार्यकारणभावः संयोजना च कार्येति । तदेवं य एव गुणः स एव मूलस्थानं यदेव मूलस्थानं स एव गुण इत्युक्तं, ततः किमित्यत आह - 'इति से गुणट्ठी महया' इत्यादि, इतिहेतौ यस्माच्छब्दादिगुणपरिणत आत्मा कषायमूलस्थाने वर्तते, सर्वोऽपि च प्राणी 'गुणार्थी' गुणप्रयोजनी गुणानुरागीत्यतस्तेषां गुणानामप्राप्तौ प्राप्तिनाशे वा काक्षाशोकाम्यां स प्राणी 'महता' अपरिमितेन परिसमन्तात्तापः परितापस्तेन-शारीरमानसस्वभावेन दुःखेनामिभृतः सन् पौनःपुन्येन तेषु तेषु स्थानेषु 'वसेत' तिष्ठेदुत्पद्यत, किम्भृतः सन् १-प्रमत्तः । प्रमादश्च रागद्वेषात्मको, द्वेषश्च प्रायो न रागमृते, रागोऽप्युत्पत्तेरारभ्यानादिभवाभ्यासान्मातापित्रादिविषयो भवतीति दर्शयति-'माया मे' इत्यादि, तत्र मातृविषयो रागः संसारस्वभावादुपकारक वाद्वोपजायते, रागे च सति मदीया माता क्षुत्पिपासादिकां वेदनां मा प्रापदित्यतः कृषिवाणिज्यसेवादिकां प्राण्युपघातरूपा क्रियामारभते, तदुपपातकारिणि वा तस्यां वाऽकार्यप्रवृत्तायां द्वेष उपजायते, तद्यथा-अनन्तवीर्यप्रसक्तायां रेणकायां Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १६८ ॥ रामस्येति, एवं पिता मे, पितृनिमित्तं रागद्वेषौ भवतो, यथा रामेण पितरि रागात्तदुपहन्तरि च द्वेषात् सप्तकृत्वः क्षत्रिया व्यापादितः सुभूपेनापि त्रिसप्तकृत्वो ब्राह्मणा इति, भगिनीनिमित्तेन च क्लेशमनुभवति प्राणी, तथा भार्या - निमित्तं रागद्वेषोद्भवः, तद्यथा- चाणाक्येन भगिनीभगिनीपत्याद्यवज्ञातया भार्यया चोदितेन नन्दान्तिकं द्रव्यार्थमुपागते कोपान्नन्दकुलं क्षयं निन्ये, तथा पुत्रा मे न जीवन्तीति आरम्भे प्रवर्त्तते, एवं दुहिता मे दुःखिनीति रागद्वेषोपहतचेताः परमार्थमज्ञानानस्तत्तद्विधत्ते येन ऐहिकामुष्मिकान् अपायान् अवाप्नोति, तद्यथा - जरासन्धो जामातरि कंसे व्यापादिते स्वबलावलेपादपसृतवासुदेव पदानुसारी सबलवाहनः क्षयमगात्, स्नुषा मे न जीवतीत्यारम्भादौ प्रवर्त्तते, 'सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुता मे' सखा - मित्रं स्वजनः - पितृव्यादि, संग्रन्थः - स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रशालादि, संस्तुतो भूयो भूयो दर्शनेन परिचितः, अथवा पूर्वसंस्तुतो मातापित्रादिरभिहितः पश्चात्संस्तुतः शालकादिः स इह ग्राह्यः, स च दुःखित इति परितप्यते विविक्तं शोभनं प्रचुरं वा उपकरणं - हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादि परिवर्त्तनं - द्विगुणत्रिगुणादिभेदभिन्नं तदेव, भोजनं- मोदकादि आच्छादनं-पट्टयुग्मादि तच्च मे भविष्यति नष्टं वा । 'इच्चत्थ' मिति इत्येवमर्थं गृद्धो लोकः तेष्वेव मातापित्रादिरागादिनिमित्तस्थानेष्वामरणं प्रमत्तो ममेदमहमस्य स्वामी पोषको वेत्येवं मोहितमना 'वसेत्' तिष्ठेदिति, उक्तं च — “पुत्रा मे भ्राता मे स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे । इति कृतमेमेशब्दं पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥ १॥ पुत्रकलत्रपरिग्रह ममत्वदोषैर्नरो व्रजति नाशम् । कृमिक इव कोशकारः परिग्रहाद्दुःखमाप्नोति ||२||" अनुमेवार्थं नियुक्तिकारो गाथाद्वयेनाह— लोकवि. प्र.२ उद्देशकः १ ॥ १६८ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारं छत्तमणो कम्म उम्मूलए तदहाए । उम्मूलिज कसाया तम्हा उ चइज्ज सयणाई ॥१८५॥ माया मेत्ति पिया मे भगिणी भाया य पुत्तदारा मे। अत्थंमि चेव गिडा जम्मणमरणाणि पावंति॥१६॥ _ 'संसार' नारकतिर्यग्नरामरलक्षणं मातापितभार्यादिस्नेहलक्षणं वा 'छेत्तुमना' उन्मूलयिपुरष्टप्रकार कम्मोन्मूलयेत , तदुन्मूलनार्थ च तत्कारणभृतान् कषायानुन्मूलयेत , कषायापगमनाय च मातापित्रादिगतं स्नेहं जह्यात् , यस्मान्मातापित्रादिसंयोगाभिलाषिणोऽर्थे-त्नकुप्यादिके गृद्धा:-अध्युपपन्ना जन्मजरामरणादिकानि दुःखान्यसुभृतः प्राप्नुवन्तीति | गाथाद्वयार्थः ॥ नदेवं कषायेन्द्रियप्रमत्तो मातापित्राद्यर्थमर्थोपार्जनरक्षणतत्परो दुःखमेव केवलमनुभवतीत्याह-'अहो' इत्यादि, अहश्च सम्पूर्ण रात्रिं च, चशब्दात्यक्षं मासं च, निवृत्तशुभाध्यवसायः परि-समन्तात्तप्यमानः परितप्यमानः सन तिष्ठति, तद्यथा-"'कइया वच्चइ सत्थो ? किं भण्डं कत्थ कित्तिया भूमी। को कयविक्कयकालो निव्विसह किं कहिं केण? ॥ १॥" इत्यादि, स च परितप्यमानः किम्भूतो भवतीत्याह-काले'त्यादि, कालःकर्तव्यावसास्तद्विपरीतोऽकालः सम्यगुत्थातुम्-अभ्युद्यन्तु शीलमस्येति समुत्थायीति पदार्थः, वाक्यार्थस्तु-काले कर्तव्यावसरे अकालेन नद्विपर्यासेन समुत्तिष्ठते-अभ्युद्यतमनुष्ठानं करोति तच्छीलश्चेति, कर्तव्यावसरे न करोत्यन्यदा च विदधातीति, यथा वा काले करोत्येवमकालेऽपीति, यथा वाऽनवसरे न करोत्येवमवसरेऽपीति, अन्यमनस्कत्वादपगतकालाकालविवेक इति भावना, यथा प्रद्योतेन मृगावतिरपगतभत का सती ग्रहणकालमतिवाद्य कृतप्राकारादि १ कदा ब्रजति मार्थः किं भाण्ड कुत्र कियती भूमिः । कः क्रयविक्रयकालो निर्विषयति (निर्विशति ) किं क केन ? ॥१॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २०० ॥ रवा जिघृक्षितेति, यस्तु पुनः सम्यक्कालोत्थायी भवति स यथाकालं परस्परानाबाधया सर्वाः क्रियाः करोतीति, तदुक्तम्"मासैरष्टभिरहा च पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत् कर्त्तव्यं मनुष्येण येनान्ते सुखमेधते ॥ १ ॥ " धर्मानुष्ठानस्य च न कविदकालो मृत्योरिवेति । किमर्थं पुनः कालाकालसमुत्थायी भवतीत्याह - 'संजोगट्ठी' संयुज्यते संयोजनं वा संयोगोऽर्थः-प्रयोजनं संयोगार्थः सोऽस्यास्तीति संयोगार्थी, तत्र धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदराज्यभार्यादिः संयोगस्तेनार्थी - तत्प्रयोजनी, अथवा शब्दादिविषयः संयोगो मातापित्रादिभिर्वा तेनार्थी कालाकालसमुत्थायी भवतीति । किं च - 'अट्ठालोभी' अर्थो - रत्नकुप्यादिस्तत्र आ - समन्तालोऽर्थालोभः स विद्यते यस्येत्य सावपि कालाकालसमुत्थायी भवति, मम्मणवणिग्वत्, तथाहि असावतिक्रान्तार्थोपाज्जैन समर्थयौवनवया जलस्थलपथप्रेषितनाना देशभाण्डभृत बोहित्थमन्त्रीकोष्ट्रमण्डलिकासम्भृतसम्भारोऽपि प्रावृषि सप्तरात्रावच्छिन्नमुशलप्रमाण जलधारावर्षनिरुद्धसकलप्राणिगणसञ्चारमनोरथाय महानदी जलपूरानीतकाष्ठानि जिघृचुरुपभोगधर्म्मात्रसरे निवृत्तापराशेषशुभ परिणामः केवलमर्थोपार्ज्जनप्रवृत्त इति, उक्तं च—'''उक्खणइ खणइ निहणइ रत्तिं ण सुअति दियावि य ससंको। लिंपइ ठएइ सययं लेलियपडिलंछियं कुणइ ॥ १ ॥ भुञ्जसु न ताव रिक्को जेमेड' नविय अज्ज मज्जीहं । नवि य वसीहामि घरे कायव्वमिणं बहुं अज्जं ॥ २ ॥ पुनरपि लोभिनोऽशुभव्यापारानाह - 'आलु' पे' आ-समन्तान्लुम्पतीत्यालुम्पः, स १ उत्खनति खनति निदधाति । इन्ति) रात्रौ न स्वपिति दिवाऽपि च खशङ्कः । लिम्पति स्थगयति सततं लान्छितप्रतिलान्छितं करोति ॥ १॥ भुङ्क्ष्व न तावन्निर्व्यापारो जिमितुं नापि चाद्य महृदयामि । नापि च वत्स्यामि गृहे कर्त्तव्यमिदं बय ॥२॥ लोक . अ.वि. २ उद्देशकः १ ॥ २०० ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २०१ ॥ हि लोभाभिभूतान्तःकरणोऽपगत सकल कर्त्तव्याकर्त्तव्य विवेकोऽर्थलो भैकदत्तदृष्टिरैहिकामुष्मिक विपाककारिणोर्निर्लाञ्छनगलकर्त्तनचौर्यादिकाः क्रियाः करोति, अन्यच्च - 'सहसकारे' करणं कारः, असमीक्षितपूर्वापरदोषं सहसा करणं सहसाकार: स विद्यते यस्येत्यर्श आदिभ्योऽच्, (पा० ५-२-१२७) अथवा छान्दसत्वात्कर्त्तर्येव घञ्, करोतीति कारः, तथा हि-लोभतिमिराच्छादितदृष्टिरथैकमनाः शकुन्तवच्छ्राघातमनालोच्य पिशिताभिलाषितया सन्धिच्छेदनादितो विनश्यति, लोभाभिभूतो ह्यकदृष्टिस्तन्मनास्तदर्थोपयुक्तोऽर्थमेव पश्यति नापायान्, आह च- 'विणिविट्ठचित्ते' विविधम्-अनेकधा निविष्टंस्थितमवगाढमर्थोपार्ज्जनोपाये मातापित्राद्यभिष्वंगे वा शब्दादिविषयोपभोगे वा चित्तम्- अन्तःकरणं यस्य स तथा पाठान्तरं वा 'विणविचिट्ठे'त्ति, विशेषेण निविष्टा कायवाग्मनसां परिस्पदात्मिकाऽर्थोपार्ज्जनोपायादौ चेष्टा यस्य स विनिविष्टचेष्टः । तदेवं मातापित्रादिसंयोगार्थी आलुम्पः सहसाकारो विनिविष्टचित्तो विनिविष्टचेष्टो वा किम्भूतो भवतीत्याह-' इत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्मातापित्रादौ शब्दादिविषयसंयोगे वा विनिविष्टचित्तः सन् पृथिवीकायादिजन्तूनां |च्छम् - उपघातकारि तत्र पुनः पुनः प्रवर्त्तते, एवं पौनःपुन्येन शस्त्रे प्रवृत्तो भवति यदि पृथिवीकायादिजन्तूनामुपघाते वर्त्तते, तथाहि - 'शसु हिंसाया' मित्यस्माच्छस्यते हिंस्यत इति करणे ष्ट्रन्विहितः, तच्च स्वकाय परकायादिभेदभिन्नमिति । पाठान्तरं वा 'एत्थ सत्ते पुणो पुणो'; 'अत्र' मातापितृशब्दादिसंयोगे लोभार्थी सन् 'सक्तो' गृद्धः अभ्युपपन्नः पौनःपुन्येन विनिविष्टचेष्ट आलुम्पकः सहसाकारः कालाकालसमुत्थायी वा भवतीति । एतच्च साम्प्रतेक्षिणामपि युज्येत यद्यजरामरत्वं दीर्घायुष्कं वा स्यात्, तच्चोभयमपि नास्तीत्याह - 'अप्पं च' इत्यादि, अल्पं स्तोकं चशब्दोऽधिकवचनः, ॥ २०१ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि..२ श्रीआचाराजवृत्तिः चोलाङ्का.) । २०२॥ खलुखधारणे, आयुरिति भवस्थितिहेतवः कर्मापुद्गलाः 'इहे ति संसारे मनुष्यभवे वा 'एकेषां' केषाञ्चिदेव 'मानवाना' मनुजानामिति पदार्थः, वाक्यार्थस्तु-दह अस्मिन् संसारे केषाश्चिन्मनुजानां चुलकभवोपलक्षितान्तमुहर्त्तमात्रमल्एंस्तोकमायुर्भवति, चशब्दादुत्तरोत्तरसमयादिवृद्धया पन्योपमत्रयावसानेऽप्यायुषि खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्संयमजीवितमन्पमेवेति, तथाहि-अन्तमुहूर्तादारभ्य देशोनपूर्वकोटिं यावत्संयमायुष्क, तच्चान्पमेवेति, अथवा त्रिपन्योपमस्थितिकमप्यायुरन्पमेव, यतस्तदप्यन्तमुहर्तमपहाय सर्वमपवर्त्तते, उक्तं च-"अडा जोगुकोसे बंधित्ता भोगभूमिएसु लहुँ । सव्वप्पजीवियं वजइत्तु उव्वहिया दोण्हं॥१॥" अस्या अयमर्थ:-उत्कृष्टे योगे-बन्धाध्यवसायस्थाने आयुषो यो बन्धकालोऽद्धा उत्कृष्ट एव तं बवा, क?–भोगभूमिकेषु' देवकुर्बादिजेषु, तस्य क्षिप्रमेव सर्वान्पमायु. वजयित्वा 'द्वयोः' तिर्यग्मनुष्ययोरपवृत्तिका-अपवर्त्तनं भवति, एतच्चापर्याप्तकान्तमुहर्त्तान्तद्रष्टव्यं, तत ऊर्ध्वमनपवर्तनमेवेति । सामान्येन चाऽऽयुः सोपक्रमायुषां सोपक्रमं निरुपक्रमायुषां निरुपक्रम, यदा घसुमान् स्वायुषत्रिभागे त्रिभागत्रिमागे वा जघन्यत एकेन द्वाभ्यां वोत्कृष्टतः सप्तभिरष्टभिर्वा वरन्तमुहुर्तप्रमाणेन कालेनात्मप्रदेशरचनानाडिकान्तर्वर्जिन आयुष्ककर्मवर्गणापुद्गलान् प्रयत्नविशेषेण विधत्तं तदा निरुपक्रमायुर्भवतीति, अन्यदा तु सोपक्रमायुष्क | इति, उपक्रमश्चोपक्रमणकारणैर्भवति, तानि चामृनि-“दंडकससत्थरज्जू अग्गी उदगपडणं विसं वाला। दरः कशा शस्त्रं रज्जुरग्निरूदकं पतनं विषं व्यालाः। शीतमुष्णमरतिर्भय क्षत्पिपासा च व्याधिश्च ॥१॥मूत्रपुरीषनिरोधः जीर्णेऽजीर्णे च भोजने बहुशः। घर्षणं घोलनं पीडनमायुष उपक्रमा एते ॥२॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२०३॥ सीउण्हं अरह भयं खुहा पिवासा य वाही य॥१॥मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो । घंसणघोलणपीलण आउस्स अवकमा एते ॥२॥" उक्तं च-"स्वतोऽन्यत इतस्ततोऽभिमुखधावमानापदामहो निपुणता नणां क्षणमपीह यज्जीव्यते । मुखे फलमतिक्षधा सरसमल्पमायोजितं, कियच्चिरमचर्वितं दशनसङ्कटे स्थास्यति ? ॥१॥ उच्छवासावधयः प्राणाः, स चोच्छवासः समीरणः । समीरणाचलं नान्यत् , क्षणमप्यायुरभुतम् ।। २॥" इत्यादि । येऽपि दीर्घायुष्कस्थितिका उपक्रमणकारणाभावे आयुःस्थितिमनुभवन्ति तेऽपि मरणादप्यधिको जराभिभूतविग्रहा जघन्यतमामवस्थामनुभवन्तीति तद्यथेत्यादिना दर्शयति सोयपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं चक्खुपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं घाणपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं रसणापरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं फासपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं अभिकतं च खल वयं स पेहाए तभी से एगदा मूढभावं जणयंति ॥ सूत्रं ६३॥ । शृणोति भाषापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रं, तच्च कदम्बपुष्पाकारं द्रव्यतो भावतो भाषाद्रव्यग्रहणलब्ध्युपयोगस्वभावमिति, तेन श्रोत्रेण परि-समन्ताद् घटपटशब्दादिविषयाणि ज्ञानानि परिज्ञानानि तैः श्रोत्रपरिज्ञानर्जराप्रभावात्परिहीयमानः सद्भिस्ततोऽसौ-प्राणी 'एकदा' वृद्धावस्थायां रोगोदयावसरे वा 'मृढभावं' मूढतां कर्त्तव्याकर्तव्याज्ञतामिन्द्रियपाटवाभावादात्मनो जनपति, हिताहितप्राप्तिपरिहारविवेकशून्यतामापद्यत इत्यर्थः, जनयन्तीति चैकवचनावसरे 'तिङा तिको भवन्तीति बहुवचनमकारि. अथवा तानि वा श्रोत्रविज्ञानानि परिक्षीयमाणान्यात्मनः सदसद्विवेकविकलतामापाद . । २०३॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि. अ.२ श्रीआचारावृत्तिः (शीलाङ्का.) उद्देशकः १ ॥२०४॥ यन्तीति, श्रोत्रादिविज्ञानानां च तृतीया प्रथमार्थे सुव्यत्ययेन द्रष्टव्येति, एवं चचुरादिविज्ञानेष्वपि योज्यम् , अत्र च करणत्वादिन्द्रियाणामेवं सर्वत्र द्रष्टव्यं-श्रोत्रेणात्मनो विज्ञानानि चक्षुषाऽऽत्मनो विज्ञानानीति, ननु च तान्येव द्रष्टुणि कुतो न भवन्ति ?, उच्यते, अशक्यमेवं विज्ञातु, तद्विनाशे तदुपलब्धार्थस्मृत्यभावात् , दृश्यते च हृषीकोपघातेऽपि तदुपलब्धार्थस्मरणं, तद्यथा-धवनगृहान्तर्तिपुरुपपञ्चवातायनोपलब्धार्थस्य तदन्यतरस्थगनेऽपि तदुपपत्तिरिति, तथाहिअहमनेन श्रोत्रेण चक्षुषा वा मन्दमर्थमुपलभे, अनेन च स्फुटतरमिति स्पष्टैव करणत्वावगतिरक्षाणां, यद्येवमन्यान्यपि करणानि सन्ति तानि कि नोपात्तानि ?, कानि पुनस्तानि !, उच्यन्ते, वाक्पाणिपादपायूपस्थमनांसि वचनादानविहरणोत्सर्गानन्दसङ्कल्पच्यापागणि, ततश्चैतेषामात्मोपकारकत्वेन करणत्वं, करणत्वादिन्द्रियत्वमिति, एवं चैकादशेन्द्रियसद्भावेऽपि सति पश्चानामेवोपादानं किमर्थमिति, आहाचार्यो-नैष दोषः, इह ह्यात्मनो विज्ञानोत्पत्तौ यत् प्रकृष्टमुपकारक तदेव करणत्वादिन्द्रियम् , एतानि तु वाकृपाण्यादीनि नैवात्मनोऽनन्यसाधारणतया करणत्वेन व्याप्रियन्ते, अथ या काश्चन क्रियामुपादाय करणत्वमुच्यते एवं तर्हि भ्र दरादेरप्युत्क्षेपादिसम्भवात्करणत्वं स्यात, किंच-इन्द्रियाणा स्वविषये नियतत्वात् नान्येन्द्रियकार्यमन्यदिन्द्रियं कतु मलं, तथाहि-चक्षुरेव रूपावलोकनायालं न तदभावे श्रोत्रादीनि, यस्तु रसाघुपलम्मे शीतस्पर्शदेरप्युपलम्भः स सर्वव्यापित्वात् स्पर्शनेन्द्रियस्येत्यनाशङ्कनीयम् , इह तु पुनः पाणिच्छेदेऽपि तत्कार्यस्यादानलक्षणस्य दशनादिनाऽपि निय॑मानत्वाद्यत्किश्चिदेतत, मनसस्तु सर्वेन्द्रियोपकारकत्वादन्तःकरणत्वमिष्यत एव, तस्य च बाह्यन्द्रियविज्ञानोपघातेनैव गतार्थत्वान्न पृथगुपादानमिति, प्रत्येकोपादानं च क्रमोत्पत्तिविज्ञानोपलक्ष ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ २०४॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kणार्थ, तथाहि-येनैवेन्द्रियेण सह 'मनः संयुज्यते तदेवात्मीयविषयग्रहणाय प्रवर्त्तते नेतरदिति, ननु च दीर्घशप्कुली भक्षणादौ पचानामपि विज्ञानानां योगपद्य तोपलब्धिरनुभ्यते, नेतदस्ति, केवलिनोऽपि दावुपयोगौ न स्तः, आस्तां तावदारातीयभागदर्शिनः पश्चोपयोगा इति, एतच्चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतायते, यस्तु यौगपद्येनानुभवाभासः स द्रागवृत्तित्वान्मनसो भवतीति, उक्तं च-आत्मा सहति मनसा मन इन्द्रियेण, स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः । योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति र, यस्मिन्मनो ब्रजति तत्र गतोऽयमात्मा ॥१॥" इह चायमात्मेन्द्रियलब्धिमान् आदित्सितजन्मोत्पत्तिदेशे समयेनाहारपर्याप्ति निर्वतयति, तदनन्तरमन्तमुहूर्तेन शरीरपर्याप्ति, ततोऽपीन्द्रियपर्याप्ति तावतैव कालेन, तानि च पञ्चेन्द्रियाणि-स्पर्शनरसघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीति, तान्यपि द्रव्यभावभेदात प्रत्येक द्विविधानीति, तत्र द्रव्येन्द्रियं निवृत्युपकरणभेदात् द्विधा, निवृत्तिरप्यान्तरबाह्यभेदात् द्विधैव, निर्वर्त्यत इति निवृत्तिः, केन निर्वय॑ते , कर्मणा, तत्रोत्सेधागुलासङ्ख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थिता या वृत्तिरभ्यन्तरा निवृत्तिः, तेष्वेवात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक् यः प्रतिनियतसंस्थानो निर्माणनाम्ना पुद्गलविपाकिना वर्द्धकिसंस्थानीयेन आरचितः कर्णशष्कुल्यादिविशेषः अङ्गोपाङ्गनाम्ना च निष्पादित इति बाह्या निवृत्तिः, तस्या एव निवृत्तेविरूपायाः येनोपकारः क्रियते तदुपकरणं, तच्चेन्द्रियकार्यसमर्थ, सत्यामपि निवृत्तावनुपहतायां मसूराकृतिरूपायां तस्योपघातान्न पश्यति, तदपि निर्वृत्तिवद् द्विधा, तत्राभ्यन्तरमक्षण१ स्वपक्षे भावमनो व्याप्रियते इत्यथः। -- Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि.अ.२ लोकांव. अ. उद्देशकः १ स्तावत् कृष्णशुक्लमण्डलं बासमपि पत्रपक्ष्मद्वयादि, एवं शेषेवप्वायोजनीयमिति, भावेन्द्रियस्य उपदेशदानेनाधिकृतत्वाश्रीआचा दुपदेशश्च श्रोत्रेन्द्रियविषय इति कृत्वा तत्पर्याप्तौ च सवेन्द्रियपर्याप्तिः सूचिता भवति श्रोत्रमपि लब्ध्युपयोगभेदात् द्विषा राङ्गवृत्तिः तत्र लन्धिर्ज्ञानदर्शनावरणीयक्षयोपशमरूपा यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृत्तिं प्रति व्याप्रियते, तनिमित्त आत्मनो (शीलाका.) मनस्साचिव्यादर्थग्रहणं प्रति व्यापार उपयोग इति, तदत्र सत्या लब्धौ निवृत्युपकरणोपयोगार, सत्यां च निवृत्ताचुप२०६॥ करणोपयोगी, सत्युपकरण उपयोग इति, एतेषां च श्रोत्रादीनां कदम्बकमसूरकलम्बुकापुष्पक्षुरप्रनानासंस्थानताऽवगन्तव्येति, विषयश्च श्रोत्रेन्द्रियस्य द्वादशभ्यो योजनेभ्य आगतं शब्दं गृह्णाति चक्षुरप्येकविंशतिषु लक्षेषु सातिरेकेषु व्यवस्थितं प्रकाशकं प्रकाश्यं तु सातिरेकयोजनलक्षस्थितं रूपं गृह्णाति, शेषाणि तु नवभ्यो योजनेभ्य आगतं स्वविषयं गृह्णन्ति, जघन्यतस्त्वगुलासङ्ख्येयभागविषयत्वं 'सर्वेषाम् , अत्र च 'सोयपरिणाणेहि परिहायमाणेही त्यादि य उत्पत्ति प्रति व्यत्ययेनेन्द्रियाणामुपन्यासः स एवमर्थ द्रष्टव्यः-इह संज्ञिनः पञ्चेन्द्रियस्य उपदेशदानेनाधिकृतत्वादुपदेशश्च श्रोत्रेन्द्रियविषय इतिकृत्वा तत्पर्याप्तौ च सर्वेन्द्रियपर्याप्तिः सचिता भवति । भोत्रादिविज्ञानानि च वयोऽतिक्रमे परिहीयन्ते, तदेवाह-'अभिकंत'मित्यादि, अथवा श्रोत्रादिविज्ञानरपचितः करणभूतैः सद्भिः 'अमिकंतं च खलु वयं स पेहाए' तत्र प्राणिनां कालकृता शरीरावस्था यौवनादिर्वयः तज्जरामभि मृत्यु वा क्रान्तमभिक्रान्तम् , इह हि चत्वारि वयांसि-कुमारA यौवनमध्यमवृद्धत्वानि, उक्तंच-"प्रपमे वयसि नाधीत, बितीये नार्जितं धनम् । तृतीयेन तपस्तप्तं, १ चक्षुषः सख्येय मागे ययपि तवापि सर्वेषां विषयस्य सामान्येन विवक्षणादित्यमुक्तं । ॥ २०६॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थे किं करिष्यति ॥१॥"तवाद्यवयोद्वयातिक्रमे जराभिमुखमभिक्रान्तं बयो भवति, अन्यथा वा त्रीणि वांसिकौमारयौवनस्थविरत्वभेदादू, उक्तं च-"पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थाविरे भावे, नत्री स्वातल्यमहति ॥१॥" अन्यथा वा त्रीणि वांसि, बालमध्यवृद्धत्वभेदात् , उक्तं च-आषोडशाइवेद्बालो, यावत्क्षीरामवर्तकः । मध्यमः सततं यावत्परतो वह उच्यते ॥ १॥" एतेषु वयस्सु सर्वेष्वपि । योपचयवत्यवस्था तामतिक्रान्तोऽतिक्रान्तवया इत्युच्यते, चा समुच्चये, न केवलं श्रोत्रचर्घाणरसनम्पर्शनविज्ञानय॑स्तसमस्तैर्देशतः सर्वतो वा परिहीयमाणैौढथमापद्यते, क्यचातिक्रान्तं 'प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य 'स' इति प्रणी खलुरिति विशेषणे विशेषेण-अत्यर्थ मौढयमापद्यत इति, आह च-'ततो से' इत्यादि, 'तत' इति तस्मादिन्द्रियविज्ञानापचयाद्वयोऽ-3 तिक्रमणाद्वा स इति प्राणी 'एकदेति वृद्धावस्थायां मृढभावो मूढत्व-किंकर्तव्यताभावमात्मनो जनयति, अथवा 'से'तस्यासुभृतः श्रोत्रादिविज्ञानानि परिहीयमाणानि मुढभावं जनयन्तीति ॥ स एवं वार्धक्ये मूढस्वभावः सन् पायेगा लोकावगीतो मवतीच्याह: जेहिं पा सहिं संवसति ते विणं एगदा णिवगा पुब्धि परिवयंति, सोऽपि ते णियए पच्छा परिवएडा, णालं ते तव ताणाए पा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं गालं तापाप वा सरणाए वा, सेण हासाय ण किडाए पा रतीए ण विभूसाए ॥ सू.६४ ॥ वाशन्दा पक्षान्तरद्योतका, आस्तां तावदपरो लोको 'यैः पुत्रकलत्रादिभिः 'साई' सह संवसनि, तब भार्या ॥२०७॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......XX पुत्रादयों णमिति वाक्यालङ्कारें 'एकदेसि वृद्धावस्थायां 'नियगा' आत्मीया ये तेन समर्थावस्थायां पूर्वमेव पोषिता ते श्रीआचातं 'परिवदंति' परि-समन्ताद्वदन्ति-यथाऽयं न म्रियते नापि मश्चकं ददाति, यदिवा परिवदन्ति-परिभवन्तीत्युक्तं लोकवि. अ.२ रावृत्तिः भवति, अथवा किमनेन' वृद्धनेत्येवं परिवदन्ति, : न केवलमेषां, तस्यात्मापि तस्यामवस्थायामवगीतो भवतीति, आह उद्देशकः १ (शीलाङ्का.) च-वलिसन्ततमस्थिशेषितं, शिथिलनायुघृतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुमुप्सते, किमु कान्ता ॥२०८॥ कमनीयविग्रहा?॥१॥"गोपालबालाङ्गनादीनां च दृष्टान्तद्वारेणोपन्यस्तोऽर्थों बुद्धिमधितिष्ठतीत्यतस्तदाविर्भावनाय कथानकम्-कौशाम्ब्यां नगर्या अर्थवान् बहुपुत्रो धनो नाम सार्थवाहा, तेन चैकाकिना नानाविधैरुपायैः स्वापतेयमुपार्जितं, तच्चाशेषदुःखितबन्धुजनस्वजनमित्रकलत्रपुत्रादिभोग्यतां निन्ये, ततोऽसौ कालपरिपाकवशावृद्धभावमुपगतः सन् पुत्रेषु सम्यपालनोपचितकलाकुशलेषु समस्तकार्यचिन्ताभार निचिक्षेप । तेऽपि वयमनेनेदृशीमवस्था नीताः सर्व जनाग्रेसरा विहिता इति कृतोपकाराः सन्तः कुलपुत्रतामवलम्बमानाः स्वतः कचित् कार्यव्यासङ्गात स्वभार्याभिस्तमकल्पं A वृद्धं प्रत्यजजागरन् , ता अप्युद्वर्त्तनस्नानभोजनादिना यथाकालमाण्णं विहितवत्यः। ततो गच्छत्सु दिवसेषु वर्द्धमानेषु । पुत्रभाण्डेषु प्रौढीभवत्सु भ षु जग्वृद्ध च विवशकरणपरिचारे सर्वाङ्गकम्पिनि गलदशेषश्रोतसि सति शनैः शनैरुचितमुपचारं शिथिलता निन्युः। असावपि मन्दप्रतिजागरणतया चित्ताभिमानेन विश्रसया च सुतरां दुःखसागरावगाढः सन् पुत्रेभ्यः स्नुषाक्षण्णान्याचचने, ताश्च स्वभ भिश्चेखिद्यमानाः सुतरामपचारं परिहतवत्यः, सर्वाश्च पर्यालोच्यैकवाक्यतया स्वमत नभिहितवत्यः-क्रियमाणेऽप्ययं प्रतिजागरणे वृद्धभावाद्विपरीतबुद्धितयाऽपहनुते, यदि भवतामप्यस्माकमुपर्य X.......... Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २०४॥ विसम्भस्ततोऽन्येन विश्वसनीयेन निरुपयत, तेऽपि तथैव चक्रः, तास्तु तस्मिन्नवसरे सर्वा अपि सर्वाणि कार्याणि यथाऽवसरं विहितवत्यः, असावपि पुत्रः पृष्टः पूर्वविरुक्षितचेतास्तथैव ता अपवदति, नैता मम किश्चित्सम्यक कुर्वन्ति, तैस्तु प्रत्यायकवचनादवगततच्वैर्यथाऽयमुपचर्यमाणोऽपि वार्द्धक्याद्रोरुद्यते, ततस्तैरप्यवधीरितोऽन्येषामपि यथावसरे तद्भण्डनस्वभावतामाचचक्षिरे । ततोऽसौ पुत्रवधीरितः स्नुषामिः परिभृतः परिजनेनावगीतो वाङ्मात्रेणापि केनचिदप्यननुवर्तमानः सुखितेषु दुःखितः कष्टतरामायुःशेषामवस्थामनुभवतीति । एवमन्योऽपि जरामिभूतविग्रहस्तृणकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थः सन् कार्यकनिष्ठलोकात्परिभवमाप्नोतीति, आह-"गात्रं सङ्कुचितं गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाशं गता, दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शश्रषते, धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते॥१॥" इत्यादि । तदेवं जराभिभूतं निजाः परिवदन्ति, असावपि परिभयमानस्तद्विर(व्यतिरिक्तचेतास्तदपवादाञ्जनायाचष्टे, आह च-'सोवा' इत्यादि, वाशब्दः पूर्वापेक्षया पक्षान्तरं दर्शयति, ते वा निजास्तं परिवदन्ति, स वा जराजर्जरितदेहस्तानिजाननेकदोपोधड्नतया परिवदेव-निन्देद्, अथवा खि(वि)द्यमानार्थतया तानसाववगायति-परिभवतीत्यर्थः। येऽपि पूर्वकृतधम्मवशात्तं वृद्धं न परिवदन्ति तेऽपि तहःखापनयनसमर्था न भवन्ति, आह च-'नाल'मित्यादि, नालं-न समर्थाः ते-पुत्रकलत्रादयः, तवेति प्रत्यक्षभावमुपगतं वृद्धमाह त्राणाय शरणाय वेति, तत्रापत्तरणसमर्थ त्राणमुच्यते, यथा महाश्रोतोभिरुह्यमानः सुकर्णधाराधिष्ठितं प्लवमासाद्यापस्तरतीति, शरणं पुनर्यदवष्टम्भानिर्भयैः स्थीयते तदुच्यते, तत् पुनदुर्ग पर्वतः पुरुषो वेति, एतदुक्तं भवति-जरामि ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ २०80 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका) ॥ २१॥ लोक. अ.वि २ उद्देशका भूतस्य न कश्चित् त्राणाय शरणाय वा, त्वमपि तेषां नाल त्राणाय शरणाय वेति, उक्तं च-"जन्मजरामरणभयैरभिद्रते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥१॥" इत्यादि, स तु तस्यामवस्थायां किम्भूतो भवतीत्याह-'से ण हस्साए' इत्यादि, 'स' जराजीर्णविग्रहो न हास्याय भवति, तस्यैव हसनीयत्वात् न परान् हसितु योग्यो भवतीत्यर्थः, सच समक्षं परोक्षं वा एवमभिधीयते जनैः-किं किलास्य हसितेन हास्यास्पदस्येति, न च क्रीडायै-न च लङ्घनवल्गनास्फोटनक्रीडाना योग्योऽसौ भवति, नापि रत्यै भवति, रतिरिह विषयगता गृह्यते, सा पुनर्ललनावगृहनादिका, तथाभूतोऽप्यवजुगूहिषुः स्त्रीभिरभिधीयते-न लज्जते भवान् न पश्यति आत्मानं नावलोकयति शिरः पलितमस्मावगुण्डितं मां दुहितभूतमेवं गृहितुमिच्छसीत्यादिवचसामास्पदत्वात्र रत्यै भवति, न विभूषायै, यतो विभूषितोऽपि प्रततचर्मवलाकः स नैव शोभते, उक्तं च-"न विभूषणमस्य युज्यते, न च हास्य कुत एव विभ्रमः ? । अथ तेषु च वर्ततेजनो, ध्रवमायाति परां विडम्बनाम् ॥१॥ 'जं करेइ तं तं न सोहए जोव्वणे अतिक्कंते । पुरिसस्स महिलियाइव एक्कं धर्म पमुत्तणं ॥ २॥" गतमप्रशस्तं मूलस्थानं, साम्प्रतं प्रशस्तमुच्यते इच्चेवं समुडिए अहोविहाराए अंतरं च स्खलु इमं संपेहाए धीरे मुहूत्तमवि णो पमायए वओ अच्चेति जोव्वणं व ॥ सू० ६५॥ १ यवत्करोति तत्तन शोभते यौवनेऽतिक्रान्ते। पुरुषस्य महिलाया वा एकं धर्म प्रमुच्य ॥२॥ ॥ २१०॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ११॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अथवा यत एवं ते सुहृदो नालं. त्राणाय शरणाय वा अतः किं विदध्यादिन्याह-इस्चेव' मित्यादि, 'इतिः उपप्रदर्शने, अप्रशस्तमूलगुणस्थाने वर्तमानी जराभिभूतो न हास्याय न क्रीडाय न रत्यै न विभृपाय प्रत्येकं च शुभाशुभकर्म फलं प्राणिनामिन्येवं मन्वा ममुन्थिन:--मायस्थितः शस्त्रपरिज्ञोक्त मूल गुणस्थानमधिातष्ठन अहो-इत्याश्चयं विहरण बिहारः आश्चयभूती विहागे अहोविहारो-यथोक्तसंयमानुष्ठानं तस्मै अहोविहारायोत्थितः सन् झणमपि नो प्रमादयेदिच्यूत्तरेण सण्टङ्कः, किंच-'अंतरं चेत्यादि, अन्तर्गमत्यवसरः, तच्चार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिबोधिलाभसर्वविश्त्यादिकं चः समुच्चये, खलुखधारणे, 'इममिन्यनेनेदमाह विनेयस्तपःसंयमादाववसीदन् प्रत्यक्षमावापन्नमार्यक्षेत्रादिकमन्तरमवसरमुपदश्याभिधीयते तपायमेवम्भूतोऽवसरोऽनादौ संसारे पुनरतीव सदुर्लभ एवेति, अतस्तमवसरं सप्रेक्ष्य'पर्यालोच्य धीरः समुहूर्तमप्येक Raनो 'प्रमादयेत्' प्रमादवशगो भूयादिति, सम्प्रेक्ष्येत्यत्र अनुस्वारलोपश्छान्दसत्वादिति, अन्यदप्यलाक्षणिकमेवंजातीयमस्मा देव हेतोग्वगन्तव्यमिति, आन्तहित्तिकत्वाच्च छानस्थिकोपयोगस्य मुहर्तमित्युक्तम् , अन्यथा समयमप्येक न प्रमादयेदिति वाच्यं, तदुक्तम्-“सम्प्राप्य मानुषत्वं संसारासारतां च विज्ञाय। हे जीव ! किं प्रमादान्न चेष्टसे शान्तये सततम् १५१॥ ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिलताविलसितप्रतिमम् ॥ २॥" इत्यादि, किमर्थं च नो प्रमादयेदित्याह-'बयो अच्चेइत्ति, वयः कुमारादि अत्यतिअतीव एति-याति अत्येति, अन्यच्च-'जोव्वणं बनि अत्येत्यनुवर्तते, यौवनं वाऽत्येति-अतिक्रामति, वयोग्रहणेनैव यौवनस्य गतत्वात्तदुपादानं प्राधान्यख्यापनार्थ, धर्मार्थकामानां तनिबन्धनत्वात्सर्ववयसां यौवनं साधीयः, तदपि ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ २११. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २१२॥ लोकवि. अ.२ उद्देशकः १ त्वरित यातीति, उक्तं च-'नहवेगसम चवलं च जीवियं जोव्वणं च कुसुमसमं । सोक्खं च ज अणिच्च तिण्णिवि तुरमाणभोजाइ॥१॥" तदेवं मत्वा अहोविहारायोत्थानं श्रेय इति ॥ ये पुनः संसाराभिष्वङ्गिणोऽ- संयमजीवितमेव बहु मन्यन्ते ते किंभूता भवतीत्याह जीविए इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लपित्ता विलपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जेहिं वा सद्धिं संवसह ते वा णं एगया नियगा तं पुच्चि पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा ॥ सू०६६ ॥ ये तु वयोऽतिक्रमणं नावगच्छन्ति, ते 'इहे'त्यस्मिन्नसंयमजीविते 'प्रमत्ताः' अध्युपपन्ना विषयकषायेषु प्रमाद्यन्ति, प्रमत्ताश्चाहनिशं परितप्यमानाः कालाकालसमुत्थायिनः सन्तः सच्चोपघातकारिणीः क्रियाः समारम्भत इति, आह च-'से हता' इत्यादि, 'से'इत्यप्रशस्तगुणमूलस्थानवान्विषयामिलाषी प्रमत्तः सन् स्थावरजङ्गमानामसुमतां हन्ता भवतीति, अत्र च बहुवचनप्रक्रमेऽपि जात्यपेक्षयकवचन निर्देश इति, तथा छेत्ता कर्णनासिकादीनां भेत्ता शिरोनयनोदरादीनां लुम्पयिता ग्रन्थिच्छेदादिभिः विलुम्पयिता ग्रामघातादिभिः अपद्रावयिता प्राणव्यपरोपको विषशस्त्रादिभिः अवद्रापयिता वा, उत्त्रासको लोष्टप्रक्षेपादिभिः । स किमर्थ हननादिकाः क्रियाः करोतीत्याह-'अकडं' इत्यादि, अकृतमिति, यदन्येन १ नदीवेगसमं चपलमेव जीवितं यौवनं च कुसुमसमम् । सौख्यं च यदनित्यं त्रीण्यपि त्वरमाणभोज्यानि ॥१॥ ॥ २१२॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२१३॥ नानुष्ठितं तदहं करिष्यामीत्येवं मन्यमानोऽर्थोपार्जनाय हननादिषु प्रवर्तते । स एवं क्रूरकर्मातिशयकारी समुद्रलङ्घ|नादिकाः क्रियाः कुर्वन्नप्यलाभोदयादपगतसर्वस्वः किंभूतो भवतीत्याह-'जेहिं वा' इत्यादि, वाशब्दो भिन्नक्रमः | पक्षान्तरद्योतकः 'यः मातापितृस्वजनादिभिः सार्धं संवसत्यसौ त एव वा'ण'मिति वाक्यालङ्कारे 'एकदे'त्यर्थनाशाद्यापदि शैशवे वा निजाः' आत्मीया बान्धवाः सुहृदो वा 'पुचि' पूर्वमेव 'तं' मोपाय क्षीणं पोषयन्ति, स वा प्राप्तेष्टमनो. रथलाभः संस्ताग्निजान् पश्चात् 'पोषयेद्' अर्थदानादिना सन्मानयेदिति । ते च पोषकाः पोध्या वा ता आपद्गतस्य न त्राणाय भवन्तीत्याह-'नालं' इत्यादि, 'ते' निजा मातापित्रादयः, तवेत्युपदेशविषयापन्न उच्यते, 'त्राणाय आपद्रक्षणार्थ 'शरणाय'निर्भयस्थित्यर्थ 'नालं' न समर्थाः, त्वमपि तेषां त्राणशरणे कर्त्त नालमिति । तदेवं तावत्स्वजनो न त्राणाय भवतीत्येतत्प्रतिपादितं, अर्थोऽपि महता क्लेशेनोपात्तो रक्षितश्च न त्राणाय भवतीत्येतत्प्रतिपिपादयिषुराह उवाईयसेसेण वा संनिहिसंनिचओ किजई, इहमेगेसिं असंजयाण भोयणाए, तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जलि, जेहिं वा सद्धिं संवसह ते वा णं एगया नियगा तं पुवि परिहरंति, सो वा ते नियमे पच्छा परिहरिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सर पाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए बा सरणाए वा ।। सू० ६७॥ 'उपादिते'ति 'अद भक्षणे' इत्येतस्मादुपपूर्वामिष्ठाप्रत्ययः, तत्र 'बहुलं छन्द्रसी'तीडागमः, उपादितम्-उपभुक्तं तस्य शेषमुपभुक्तशेषं, तेन वा, वाशब्दादनुपभुक्तशेषेण वा समिधान-सनिधिस्तस्य संनिचयः सन्निधिसनिचयः, अथवा ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि.अ.२ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) उद्देशकः । ॥ २१४॥ सम्यग निधीयते-अवस्थाप्यत उपभोगाय योऽर्थः स सनिधिस्तस्य सनिचयः-प्राचुर्यमुपभोग्यद्रव्यनिचय इत्यर्थः, स 'इह' अस्मिन्संसारे 'एकेषाम्' असंयतानां संयतामासानां वा केषश्चिद् 'भोजनाय' उपभोगार्थ 'क्रियते' विधीयत इति, असावपि यदर्थमनुष्ठितोऽन्तरायोदयात्तत्संपत्तये न प्रभवतीत्याह-"तओ से इत्यादि, 'ततो' द्रव्यसन्निधिसन्निचयादुत्तरकालमुपभोगावसरे से तस्य बुभुक्षोः 'एकदेति द्रव्यक्षेत्रकालमावनिमिचाविर्भाषितवेदनीयकम्र्मोदये 'रोगसमुत्पादाः' ज्वरादिप्रादुर्भावाः 'समुत्पद्यन्त' इत्याविर्भवन्ति । स च तैः कुष्ठराजयक्ष्मादिभिरभिभूतः सन्मग्ननासिको गलत्पाणिपादोऽविच्छेदप्रवृत्तश्वासाकुलः किंभूतो भवति इत्याह-'जेहिं' इत्यादि, 'यैः'मातापित्रादिभिनिजैः साई संवसति त एव वा निजाः 'एकदा रोगोत्पत्तिकाले पूर्वमेव तं परिहरन्ति, स वा तान्निजान्पश्चात्परिभवोत्थापितविवेका 'परिहरेत' त्यजेत् तन्निरपेक्षः सेडुकवत् स्यादित्यर्थः, ते च स्वजनादयो रोगोत्पत्तिकाले परिहरन्तोऽपरिहरन्तो वा न त्राणाय भवन्तीति दर्शयति-नाल'मित्यादि, पूर्ववद्ः रोगाद्यमिभूतान्तःकरणेन चापगतत्राणेन च किमालम्ब्य सम्यकरणेन रोगवेदनाः सोढव्या? इत्याह जाणित दुक्खं पत्तेयं सायं । सू०६८॥ ज्ञात्वा प्रत्येकं प्राणिनां दुःखं तद्विपरीतं सातं वाऽदीनमनस्केन ज्वरादिवेदनोत्पत्तिकाले स्वकृतकर्मफलमवश्यमनुभवनीयमिति मत्वा न वैक्लव्यं कार्यमिति, उक्तं च-"सह कलेवर ! दुःखमचिन्तयन् , स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा। बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे!, परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते॥१॥" यावच्च भोत्रादि www २१४॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५॥ भिर्विज्ञानैः परिहीयमानः जराजीणं न निजाः परिवदन्ति यावच्चानुकम्पया पोषयन्ति रोगाभिभूतं च न परिहरन्ति तावदास्मार्थोऽनुष्ठेय इत्येतदर्शयति- . अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए ॥ सू०६९॥ चशब्द आधिक्ये खलुशब्दः पुनरर्थे पूर्वमभिक्रान्तं वयः समीक्ष्य मृढभावं व्रजतीति प्रतिपादितम् , अनभिक्रान्तं च पुनर्वयः सप्रेक्ष्य "आयटुं समणुवासेज्जासि" इत्युत्तरेण सम्बन्धः, 'आत्मार्थम् आत्महितं 'समनुवासयेत्' कुर्यादित्यर्थः। किमनतिक्रान्तवयसैवात्महितमनुष्ठेयमुतान्येनापि इति १, परेणापि लब्धावसरेणात्महितमनुप्ठेयमित्येतदर्शयति खणं जाणाहि पंडिए ॥ सू० ७॥ क्षण:-अवसरो धर्मानुष्ठानस्य, स चार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्त्यादिकः, परिवादपोषणपरिहारदोषदुष्टानां जराबालभावरोगाजामभावे सति, तं क्षणं 'जानीहि अवगच्छ 'पण्डित' आत्मज्ञ!। अथवाऽवसीदन् शिष्यः प्रोत्साह्यते-हे अनतिक्रान्तयौवन ! परिवादादिदोषत्रयास्पृष्ट ! पण्डित ! द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्नं 'क्षणम्' अवसरमेवंविधं 'जानीहि' अवबुध्यस्व, तथाहि-द्रव्यक्षणो द्रव्यात्मकोऽवसरो जङ्गमत्वपञ्चेन्द्रियत्वविशिष्टजातिकुलरूपवलारोग्यायुष्कादिको मनुष्यभावः संसारोत्तरणसमर्थचारित्रावाप्तियोग्यस्त्वयाऽवाप्तः, स चानादौ संसारे पर्यटतोऽसुमतो दुरापो भवति, अन्यत्र तु नैतच्चारित्रमवाप्यते, तथाहि-देवनारकमवयोः सम्यक्त्वश्रुतसामायिके एव, तिर्यक्षु च कस्यचिद्देशविरतिरेवेति । क्षेत्रक्षण क्षेत्रात्मकोऽवसरो यस्मिन् क्षेत्रे चारित्रमवाप्यते, तत्र सर्वविरतिसामायिकस्याधोलौकिकग्रामसमन्वितं तिर्यकृतेत्रमेव, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) तत्राप्य तृतीयद्वीपसमुद्राः, तत्रापि पश्चदशसु कर्मभूमिषु, तत्रापि भरतक्षेत्रमपेक्ष्य अर्द्धषविशेषु जनपदेष्वित्यादिका क्षेत्रक्षणा क्षेत्ररूपोऽवसरोऽधिगन्तव्यः, अन्यस्मिश्च क्षेत्र आये एव सामायिके। कालक्षणस्तु: कालरूपः क्षणोऽवसरः, स णस्त कालरूपः पोखरालोकवि. अ.२ चावसप्पिण्यां तिसृषु समासु सुषमदुषमादुष्षमसुषमादुष्षमाख्यासु उत्सर्पिण्या तु तृतीयचतुर्थारकयोः सर्वविरतिसामायिकस्य उद्देशकः । भवति, एतच्च प्रतिपद्यमानकं प्रत्यभ्यधायि, पूर्वप्रतिपन्नास्तु सर्वत्र तिर्यगूर्वाधोलोके सर्वासु च समासु द्रष्टव्याः, भावक्षणस्तु द्वेधा-कर्मभावक्षणो नोकम्मभावक्षणश्च, तत्र कर्मभावक्षणः कर्मणामुपशमक्षयोपशमक्षयान्यतरावाप्ताववसर उच्यते, तत्रोपशमश्रेण्या चारित्रमोहनीय उपशमितेऽन्तम्मोहित्तिक, औपशमिकश्चारित्रक्षणो भवति, तस्यैव मोहनीयस्य क्षयेणान्तम्भॊहर्तिक एव छद्मस्थयथाख्यातचारित्रलक्षणो भवति, क्षयोपशमेन तु क्षायोपशमिकचारित्रावसरः, स चोत्कृष्टतो देशोनां पूर्वकोटिं यावदवगन्तव्यः, सम्यक्त्वक्षणस्त्वजघन्योत्कृष्टस्थितावायुषो वर्तमानस्य, शेषाणां तु कर्मणां पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनान्तःसागरोपमकोटिकोटीस्थितिकस्य जन्तोर्भवति, सचानेन क्रमेणेति, ग्रन्थिकसत्त्वेभ्योऽभव्येभ्योऽनन्तगुणया शुद्धया विशुद्धयमानो मति श्रुतविभङ्गान्यतरसाकारोपयुक्तः शुद्धलेश्यात्रिकान्यतरलेश्योऽशुभकर्मप्रकृतिना चतुःस्थानिक रसं द्विस्थानिकतामापादयन् शुभानां च द्विस्थानिकं चतुःस्थानिकतां नयन बध्नंश्च ध्रुवप्रकृतीः परिवर्त्तमानाश्च भवप्रायोग्या बध्नन्निति, ध्रुवकर्मप्रकृतयश्चेमा:-पञ्चधा ज्ञानावरणीयं नवधा दर्शनावरणीयं मिथ्यात्वं कषायषोडशकं भयं जुगुप्सा तैजसकार्मणशरीरे वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघुपघातनिर्माणनामानि पञ्चधाऽन्तरायः, एताः सप्तचत्वारिंशद् ॥ २०२॥ ध्रुवप्रकृतयः, आसां सर्वदा वध्यमानत्वात् , मनुष्यतिरश्चोरन्यतः प्रथमं सम्यक्त्वमुत्पादयन्नेता एकविंशतिः(म्)परिवर्त ४.०४. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२१७॥ माना बध्नाति, तद्यथा-देवगत्यानुपूर्वीद्वयपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियशरीराङ्गोपाङ्गद्वयसमचतुरस्रसंस्थानपराघातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतिप्रशस्तत्रसादिदशकसातावेदनीयोच्चैर्गोत्ररूपा इति, देवनारकास्तु मनुष्यगत्यानुपूर्वीद्वयौदारिकद्वयप्रथमसंहननसहितानि शुभानि बध्नन्ति, तमतमानारकास्तु तिर्यग्गत्यानुपूर्वीद्वयनीचैर्गोत्रसहितानीति, तदध्यवमायोपपन्नः सनायुष्कमवध्नन् यथाप्रवृत्तेन करणेन ग्रन्थिमामाद्यापूर्वकरणेन भिवा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणं विधायानिवृत्तिकरणेन सम्यक्त्वमवाप्नोति, तत ऊवं क्रमेण क्षीयमाणे कर्मणि प्रवर्द्धमानेषु कण्डकेषु देशविरत्यादेवसर इति । नोकर्म भावक्षणस्त्वालस्यमोहावर्णवादम्तम्भाद्यभावे सम्यक्त्वाद्यवाप्त्यवसर इति, आलस्यादिभिस्तूपहतो लब्ध्वाऽपि संसारलङ्घनक्षम मनुष्यभवं बोध्यादिकं नाप्नोतीति, उक्तं च-'आलस्समोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता । भयसोगा अन्नाणा विक्खेव कुऊहला रमणा ॥१॥ एएहिं कारण हिं लण सुदुल्लहपि माणस्सं । न लहइ सुई हिअरिं संसारुत्तारणिं जीवो ॥२॥" तदेवं चतुर्विधोऽपि क्षण उक्तः, तद्यथा-द्रव्यक्षणो जङ्गमत्वादिविशिष्टं मनुष्यजन्म क्षेत्रक्षण आर्यक्षेत्रं कालक्षणो धर्माचरणकालो भावक्षणः क्षयोपशमादिरूपः । इत्येवंभूतमवसरमबाप्यात्मार्थ समनुवासयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः । किंच जाव सोयपरिणाणो अपरिहोणा, नेत्तपरिणाणा अपरिहीणा, घाणपरिणाणा अपरि१ आलस्य मोहोऽवर्ण: स्तम्भः क्रोधः प्रमादः कृपणता। भयशोकौ अज्ञानं विक्षेपः कौतूहलं रमणम ॥१॥ एतः कारणलब्ध्वा सुदुर्लभमपि मानुष्यं । न लमते श्रुति हितकरी संसारोत्तारिणी जीवः ॥२॥ ॥२१७॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥२१॥ लोकवि.अ.२ उद्देशकः १ हीणा, जीहपरिणाणा अपरिहीणा, फरिसपरिण्णाणा अपरिहोणा, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं, आयटुं संमं समणवासिज्जासि त्तिबेमि ॥ सू०७१॥ ॥ इति प्रथमोद्देशः॥ यावदस्य विशगरोः कायापशदस्य श्रोत्रविज्ञानानि जरसा रोगेण वा अपरिहीनानि भवन्ति, एवं नेत्रघ्राणरसनस्पर्शविज्ञानानि न विषयग्रहणस्वभावतया मान्द्यं प्रतिपद्यन्ते, इत्येतेः 'विरूपरूपैः' इष्टानिष्टरूपतया नानारूपैः 'प्रज्ञानः' प्रकृष्टनिरपरिक्षीयमाणैः सद्भिः किं कुर्याद् ? इत्याह-'आयड' इत्यादि, आत्मनोऽर्थ आत्मार्थः, स च ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकः, अन्यस्त्वनर्थ एव, अथवाऽऽत्मने हितं-प्रयोजनमात्मार्थ, तच चारित्रानुष्ठानमेव, अथवा आयतःअपर्यवसानान्मोक्ष एव, स चासावर्थश्चायतार्थोऽतस्तं, यदि वाऽऽयत्तो-मोक्षः अर्थः-प्रयोजनं यस्य दर्शनादित्रयस्य तसथा 'समनुवासयेत्' इति 'वस निवासे' इत्येतस्माद्धेतुमण्णिजन्तालिट्सप् सं-सम्यग यथोक्तानुष्ठानेन अनु-पश्चादनभिक्रान्तं वयः संप्रेक्ष्य क्षणम्-अवसरं प्रतिपद्य श्रोत्रादिविज्ञानानां वा प्रहीणतामधिगम्य तत आत्मार्थ 'समनुवासयेः' आत्मनि विदध्याः । अथवा 'अर्थवशाद् विभक्तिपुरुषपरिणाम'इतिकृत्वा तेन वा आत्मार्थेन ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकेनात्मानं 'समनुवासयेद्' भावयेद्रञ्जयेत् , आयतार्थ वा मोक्षाख्यं सम्यग-अपुनरागमनेनान्विति-यथोक्तानुष्ठानात्पश्चादात्मना 'समनुवासयेद'अधिष्ठापयेद् । 'इतिः' परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमिदमाह, यद्भगवता श्रीवर्द्धमानस्वामिनार्थतोऽभ्यधायि तदेवाहं सूत्रात्मना वच्मीति । द्वितीयाध्ययनस्य प्रथम उद्देशकः समाप्तः ॥२-१ । २१८॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २१ ॥ ॥ अथ द्वितीयाध्ययने द्वितोयोद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयस्य व्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इह विषयकषायमातापित्रादिलोकविजयेन मोक्षावाप्तिहेतुभूतं चारित्रं यथा सम्पूर्णभावमनुभवत्येवंरूपोऽध्ययनार्थाधिकारः प्राङ्निरदेशि, तत्र मातापित्रादिलोकविजयेन रोगजराधनभिभूतचेतसाऽऽत्मार्थ:-संयमोऽनुष्ठेय' इत्येतत्प्रथमोद्देशकेऽभिहितम् , इहापि तस्मिन्नेव संयमे वर्तमानस्य कदाचिन्मोहनीयोदयादरतिः स्याद् , अज्ञानकर्मालोभोदयाद्वाऽध्यात्मदोषेण संयमे न दृढत्वं भवेदित्यतोऽरत्यादिव्युदासेन यथा संयमे दृढत्वं भवति तथाऽनेन प्रतिपाद्यते, अथवा यथाष्टप्रकारं कर्मापहीयते तथा अस्मिन्नध्ययने प्रतिपाद्यते इत्यध्ययनार्थाधिकारेऽभ्यधायि, तच्च कथं क्षीयत इत्याह अरई आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के ॥ सू० ७२॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धो वाच्यः, स चायम्-'आयट्ठ समणुवासेज्जासि' आत्मार्थं संयम सम्यक्तया कुर्यात् , | तत्र कदाचिदरत्युद्भवो भवेत्तदर्थमाह-'अरई' इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु 'खणं जाणाहि पंडिए' क्षणं-चारित्रावसरमवाप्यारतिं न कुर्यादित्याह-'अरई' इत्यादि आदिसूत्रसम्बन्धस्तु 'सुअं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खाय' किं तच्छु तमित्याह-'अरई आउट्टे से मेहावी' रमणं रतिस्तदभावोऽरतिस्ता पञ्चविधाचारविषयां मोहोदयात् कषायाभिष्वङ्गजनितां मातापितृकलवाद्युत्थापितां 'स' इत्यरतिमान् 'मेधावी' विदितासारसंसारस्वभावः सन् आवर्तेत अपवर्तेत निवर्तयेदित्युक्तं भवति, संयमे चारतिर्न विषयाभिष्वङ्गरतिमृते कण्डरीकस्येवेत्यत इदमुक्तं भवति-विषयाभिष्वगे रति ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २२० ॥ ***** निवर्त्तेत, निवर्त्तनं चैवमुपजायते यदि दशविधचक्रवालसामाचारीविषया रतिरुत्पद्यते पौण्डरीकस्येवेति, ततश्चेदमुक्तं भवतिसंयमे रतिं कुब्र्वीत, तद्विहितरतेस्तु न किञ्चिद्वाधायै, नापीहापरसुखोत्तरबुद्धिरिति, आह च- ' क्षितितलशयनं वा प्रान्तभैक्षाशनं वा, सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा । महति फलविशेषे नित्यमभ्युद्यतानां, न मनसि न शरीरे दुःखमुत्पादयन्ति ॥ १ ॥ 'तणसंथार निसण्णोऽवि मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं तं कत्तो चक्कवट्टीवि १ ॥ २ ॥' अत्र हि चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादवाप्तचारित्रस्य पुनरपि तदुदयादव दिधाविषोरनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते तच्चावधावनं संयमात् यैर्हेतुभिर्भवति तान्नियुक्तिकारो गाथयाऽऽचष्टे बिउसे अदढों उ सजमे कोइ हुज अरईए । अन्नाणकम्मलोभाइएहिं अज्झत्थदोसेहिं ॥ १९७॥ इह हि प्रथमोद्देश के बह्वयो नियुक्तिग था अस्मिस्त्वियमेवै केत्यतो मन्दबुद्धेः स्यादारेका यथा इयमपि तत्रत्यैवेत्य तो विनेयसुखप्रतिपत्यर्थं द्वितीयोदेशकग्रहणमिति, कश्चित्कण्डरीकदेशीयः 'संयमे' सप्तदशभेदभिन्ने 'अदृढः ' शिथिलो मनोदयादरत्युद्भवाद्भवेत्, मोहनीयोदयोऽप्याध्यात्मिकैर्दोषैर्भवेत्, ते चाध्यात्मदोषा अज्ञानलोभादयः, आदिशब्दादिच्छामदनकामानां परिग्रहों, मोहस्याज्ञानलोभकामाद्यात्मकत्वात्तेषां चाध्यात्मिकत्वादिति गाथार्थः ननु चारतिमतो मेधाविनोऽनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते यथा - संयमारतिमपवर्त्तेत, मेधावी चात्र विदितसंसारस्वभावो विवक्षितो यश्चैवंभूतो नासावरतिमान् तद्वांश्चेन्न विदितवेद्य इत्यनयोः सहानवस्थानलक्षणेन विरोधेन विरोधाच्छायातपायोरिव नैकत्रावस्थानम्, १ तृणसंस्तारनिषण्णोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः । यत्प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि १ । । १ ।। 'लोकवि. अ. उद्देशकः २ ॥ २२० ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२३१॥ .... . उक्तं च-"तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम ॥१॥" इत्यादि, यो धज्ञानी मोहोपहतचेताः स विषयाभिष्वङ्गात्संयमे सर्वद्वन्द्वप्रत्यनीके रस्यभावं विदच्याद, आह च-अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाइविक्षेपितास्ते, कामे सक्तिं दधति विभवाभोगतुङ्गार्जने वा । विद्वचितं भवति हि महन्मोक्षमार्गकतानं, नास्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यसभित्ति गजेन्द्रः॥१॥ नैतन्मृष्यामहे, यतो ह्यवाप्तचारित्रस्यायमुपदेशो दित्सितः, चारित्रावाप्तिश्च न ज्ञानमृते, तत्कार्यत्वाचारित्रस्य, न च ज्ञानारत्योर्विरोधः, अपि तु रत्यरत्योः, ततश्च संयमगता रतिरेवारत्या बाध्यते न ज्ञानम् , अतो ज्ञानिनोऽपि-चारित्रमोहनीयोदयात्संयमे स्यादेवारतिः, यतो ज्ञानमप्यज्ञानस्यैव बाधकं, न संयमारते, तथा चोक्तम्ज्ञान भूरि यथार्थवस्तुविषयं स्वस्य द्विषो वाधकं, रागारातिशमाय हेतुमपरं युङ्क्ते न कत स्वयम। दीपो यत्तमसि व्यनक्ति किमु नो रूपं स एवेक्षतां, सर्वः स्वं विषय प्रसाधयति हि प्रासङ्गिकोऽन्यो विधिः ॥१॥" तथेदमपि भवतीन कर्णविवरमगाद् यथा-बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यती'त्यतो यत्किञ्चिदेतत , अथवा नारत्यापन एवैवमुच्यते, अपि त्वयमुपदेशो मेधावी संयमविषये मा विधादरतिमिति । संयमारतिनिवृत्तश्च सन् के गुणमवाप्नोतीत्याह-'खणंसि मुक्के' परमनिरुद्धः कालः क्षणः जरत्पशाटिकापाटनदृष्टान्तसमयप्रसाधितः तत्र मुक्तो विभक्तिपरिणामाद्वा क्षणेन-अष्टप्रकारेण कर्मणा संसारबन्धनैर्वा विषयाभिष्वङ्गस्नेहादिभिर्मुक्तो भरतदिति, ये पुनरनुपदेशवर्तिनः कण्डरीकाद्यास्ते चतुर्गतिकसंसारान्तर्वतिनो दुःखसागरमधिवसन्तीत्याह च ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ २२१ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा-' राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ १२२ ॥ अणाणाय पुट्ठावि एगे नियति, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो समुडायल कामे अभिगाहइ, अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति, इत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना नो हव्वाए नो पाराए ॥ सु० ७३ ॥ आज्ञाप्यत इत्याज्ञा - हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेशस्तद्विपर्ययोऽनाज्ञा तया अनाज्ञया सत्या 'स्पृष्टाः ' 'परीषहोपसगैः, अपिशब्दः सम्भावनायां स च भिन्नक्रमो निवर्त्तन्त इत्यस्मादनन्तरं द्रष्टव्यः, 'एके' मोहनीयोदयाकण्डरीकादयो न सर्वे संयमात्समस्तद्वन्द्वोपशमरूपात् निवर्त्तन्ते अपीति, सम्भाव्यत एतन्मोहोदयस्येत्यपिशब्दार्थः, किंभूताः सन्तो निवर्त्तन्त इत्याह- 'मन्दा' जडा अपगतकर्त्तव्या कर्त्तव्यविवेकाः, कुत एवंभूता १, यतो 'मोहेन प्रावृता' मोह :- अज्ञानं मिध्यात्वमोहनीयं वा तेन प्रावृत्ता-गुण्ठिताः उक्तं च - " अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः | अर्थं हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥ १ ॥" इत्यादि, तदेवमवाप्तचारित्रोऽपि कम्मोंदियात्परीषहोदयेऽङ्गीकृतलिङ्गः पचद्भावतामालम्बन इत्युक्तम् । अपरे तु स्वरुचिविरचितवृत्तपो नानाविधैरुपायैर्लोकादर्थं जिघृक्षवः किल वयं संसारोद्विग्ना मुमुक्षवस्तेषु तेषु आरम्भविषयाभिष्वङ्गेषु प्रवर्तत इति दर्शयति- 'अपरिग्गहा' इत्यादि, परि:- समन्तात् मनोवाक्कायकर्मभिगृ ह्यत इति परिग्रहः स येषां नास्तीत्यपरिग्रहा एवंभृता वयं भविष्याम इति शाक्यादिमतानुसारिणः स्वयूथ्या वा 'समुत्थाय' चीवरादिग्रहणं प्रतिपद्य, ततो लब्धान् कामान् 'अभिगाहन्ते' सेवन्ते, तिव्यत्ययेन चैकवचनमिति, अत्र चान्त्यव्रतोपादानात् शेषाण्यपि ग्राह्माणि, अहिंसका वयं भविष्याम एवममृषावादिन लोकवि. अ. २ उद्देशकः २ ॥ २२२ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२२३॥ इत्याद्यप्यायोज्यम् । तदेवं शैलूषा इवान्यथावादिनोऽन्यथाकारिणः कामार्थमेव तांस्तान प्रव्रज्याविशेषाधिभ्रति, उक्तं च-18 "स्वेच्छाविरचितशास्त्रः प्रव्रज्यावेषधारिभिः क्षद्वैः । नानाविधैरुपायैरनाथवन्मुष्यते लोकः ॥१॥" इत्यादि । तदेवं प्रव्रज्यावेषधारिणो लब्धान्कामानवगाहन्ते तन्नाभार्थं च तदुपायेषु प्रवर्तन्ते इत्याह-'अणाणाए' इत्यादि, 'अनाज्ञया' स्वैरिण्या बुद्धयः 'मुनय' इति मुनिवेषविडम्बनः कामोपायान 'प्रत्युपेक्षन्ते' कामोपायारम्भेषु पोनःपुन्येन लगन्तीति, आह च-'एत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् विषयाभिष्वङ्गाज्ञानमये भावमोहे पीनःपुन्येन 'सन्नाः' विषण्णा निमग्नाः पङ्कावमग्ना नागा इवात्मानमाक्रष्टुनालमिति, आह च-'नो हव्वाए नो पाराए' यो हि मध्येमहानदीपूर निमग्नो भवत्यसौ नारातीयतीराय नापि पारेमहानदीपूरमिति, एवमित्रापि कुतश्चिन्निमितात्यक्तगृह गृहिणीपुत्रधनधान्यहिरण्यरत्नकुप्यदासीदासादिविभव आकिश्चन्यं प्रतिज्ञायारातीयतीरदेश्याद्गृहवाससौख्यान्निर्गतः सन् नो हवाएत्ति भवति, पुनरपि वान्तभोगामिलाषितया यथोक्तसंयमाभावेन तक्रियाया विफलत्वात् नो पाराए त्ति भवति, उभयतो मुक्तबन्धना मुक्तोलीवोभयभ्रष्टो न प्रहस्थो नापि प्रजित इत्युक्तं भवति, उक्तं च-"इन्द्रियाणि न गुप्तानि, लालितानि न चेच्छया। मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य न भुक्तं नापि शोषितम् ॥१॥” इति । ये पुनरप्रशस्तरतिनिवृत्ताः प्रशस्तरतिमधिशयानास्ते किंभूता भवन्तीत्याह विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो लोभमलोभेण दुगुज्छमाणे लहे कामे नाभिगाहा ।। सू०७४॥.. wwwwwwwwwwwwww Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक. अ.वि २ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) उद्देशकः २ ॥ २२४॥ त्याह- लोभात पारगामिनः, तपस्यानाच्छीन्यं यथा तल पारो मोक्षः संसाराणवान भूत विविधम्-अनेकप्रकारं द्रव्यतो धनस्वजनानुषङ्गाद्भावतो विषयकषायादिभ्योऽनुसमयं मुच्यमाना एव भाविनि भूतवदुपचारान्मुक्ता विमुक्ताः ते जनाः ये जनाः सर्वस्वजनभूता निर्ममत्वाः पारगामिनो भवन्ति, पारो-मोक्षः संसाराणवतटवृत्तित्वात्तत्कारणानि ज्ञानदर्शनचारित्राण्याप पार इति, भवति हि तादाताच्छीन्यं यथा तन्दुलान् वर्षति पर्जन्य', अतस्तत्पारंज्ञानदर्शनचारित्राख्यं गन्तु' शीलं येषां ते पारगामिनः, ते मुक्ता भवन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः । कथं पुनः सम्पूर्णपारगामित्वं च भवतीत्याह-लोभ' इत्यादि, इह हि लोभः सर्वसङ्गानां दुस्त्यजो भवति, तथाहि-क्षपकण्यन्तर्गतस्यापगताशेषकपायम्यापि खण्डशः क्षिप्यमाणोऽप्यनुबध्यत इति, अतस्तं लोभ, तद्विपक्षण अलोभेन 'जुगुप्समानो' निन्दन्परिहरन् किं करोतीत्याह-लद्ध कामे' इत्यादि, 'लब्धान्' प्राप्तानिच्छामदनरूपान् कामान् 'नाभिगाहते' न सेवते, यो हि शरीरादावपि निवृत्तलोमः स कामामिष्वङ्गवान्न भवति, ब्रह्मदत्तामन्त्रितचित्रवदिति, प्रधानान्त्यलोभपरित्यागेन चोपसर्जनाधस्तनपरित्यागो द्रष्टव्यः, तद्यथा-क्रोधं क्षान्त्या जुगुप्समानो मानं माइवेन मायामाजवेनेत्याद्यप्यायोज्यं, लोभोपादानं तु सर्वकषायप्राधान्यख्यापनार्थमुपाददे, तथाहि-तत्प्रवृत्तः साध्यासाध्यविवेकविकलः कार्याकार्यविचाररहितः सन्त्रकदत्तदृष्टिः पापीपादानमास्थाय सर्वाः क्रियाः अधितिष्ठतीति, तदुक्तम्-"'धावेह रोहणं तरह सायरं भमइ गिरिणिगुजेसु। मारेइ बंधर्वपि हु पुरिसो जो होइ धणलहो॥१॥ अडइ षष्टुं वहा १ धावति रोहणं तरति सागरं भ्राम्यति गिरिनिकुब्जेषु । मारयति बान्धवमपि पुरुषो यो भवति धनलुब्धः ॥ १॥ भटति बहु वहति भारं सहते सुधां पापमाचरति धृष्टः । कुलशीलजातिप्रत्ययघृतिश्च लोभाभिद्रुतस्त्यजति ॥२॥ ॥२२४॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२२५॥ भरं सहइ छुहं पावमायरइ धिहो । कुलसीलजाइपञ्चयधिहच लोभहुओ चयह ॥ २॥" इत्यादि, तदेवं कुतश्चिनिमित्तात्सहापि लोभादिना निष्क्रम्य पुनर्लोभादिपरित्यागः कार्य:, अन्यस्तु लोभं विनापि प्रव्रज्यां प्रतिपद्यत इति दर्शयति विणावि (विणइत्त) लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकंखइ, एस अणगारित्ति पवुच्चड, अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुहाइ संजोगट्ठी अट्ठालोभी आल पे सहकारे विणिविट्ठचित्ते, इत्य सत्थे पुणो पुणो से आयषले से नाइबले से मित्तषले से पिञ्चबले से देवबले से रायषले से चोरबले से अतिहिवले से किविणबले से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कजइ, पावमुक्खुत्ति मन्त्रमाणे, अदुवा आसंसाए। सू०७५॥ कश्चिद्भरतादिनिःशेषतो लोभापगमाद्विनापि लोभं 'निष्क्रम्य' प्रव्रज्या प्रतिपद्य, पाठान्तरं वा 'विणहत्तु लोभ सज्वलनसंज्ञकमपि लोभं 'विनीय'निमलतोऽपनीय एष एवंभूतः सन् 'अकर्मा'अपगतघातिकर्मचतुष्टयाविर्भूतानावरणज्ञानो विशेषतो जानाति सामान्यतः पश्यति, एतदुक्तं भवति-एवंभूतो लोभो येन तस्मये मोहनीयक्षये चावश्यं घातिकर्मक्षयस्तस्मिश्च निरावरणज्ञानसद्भावस्ततोऽपि भवोपनाहिकापगम इत्यतो लोमापगमे अकम्मेत्युक्तम् । यतश्चैवम्भतो लोभो दन्तस्तद्वानौ चावश्यं कर्मक्षयस्ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-'पडिलेहाए' इत्यादि, प्रत्युपेक्षणया-गुणदोष ॥ २२५० Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.) पर्यालोचनयोपपन्नः सन्नथवा लोभविपाकं प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य तदभावे गुणं च लोभ 'नावकाक्षति' नाभिलपतीति, यश्चाज्ञानोपहतान्तःकरणोऽप्रशस्तमूलगुणस्थानवी विषयकषायाद्युपपन्नस्तस्य पूर्वोक्तं विपरीततया सर्व संतिष्ठते, A लोकवि.अ.. तथाहि-अलोभ लोभेन जुगुप्समानो लब्धान् कामानवगाहते, लोभमनपनीय निष्क्रम्य पुनरपि लोभैकमनाः सका उद्देशकः २ न जानाति नापि पश्यति, अपश्यंश्चाप्रत्युपेशणयाऽभिकाङ्क्षति । यच्च प्रथमोद्देशकेऽप्रशस्तमूलगुणस्थानमवाचि तच्च वाच्यमिति, आह च-'अहो य राओ' इत्यादि, अहोरात्रं परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारो विनिविष्टचित्तः अत्र-शस्त्रे पृथिवीकायाद्युपघातकारिणि पौन:पुन्येन वर्तते । किंच-'से आयबले' आत्मनो बलं-शक्त्युपचय आत्मबलं तन्मे भावीतिकृत्वा नानाविधैरुपायैरात्मपुष्टये तास्ताः क्रियाः ऐहिकामुष्मिकोपघातकारिणीविधत्ते, तथाहि-मांसेन पुष्यते मांस'मितिकृत्वा पञ्चेन्द्रियघातादावपि प्रवर्त्तते, अपराश्च लुम्पनादिकाः सूत्रणेवामिहिताः, एवं च 'ज्ञातिवल' स्वजनबलं मे भावीति, तथा तन्मित्रबलं मे भविष्यति येनाहमापदं सुखेनैव निस्तरिष्यामि, तत्प्रेत्यबलं भविष्यतीति बस्तादिकमुपहन्ति, तद्वा देवबलं भावीति पचनपाचनादिकाः क्रिया विधत्ते, राजबलं वा मे भविष्यतीति राजानमुपचरति, चौरग्रामे वा वसति चौरभागं वा प्राप्स्यामीति चौरानुपचरति, अतिथिवलं वा मे भविष्यतीत्यतिथीनुपचरति, अतिथिर्हि निःस्पृहोऽभिधीयते इति, उक्तं च-तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥१॥" एतदुक्तं भवति-तद्वलार्थमपि प्राणिषु दण्डो न निक्षेप्तव्यः २६॥ इति, एवं कृपणश्रमणार्थमपि वाच्यमिति, एवं पूर्वोक्तः 'विरूपरूपैः'नानाप्रकारी पिण्डदानादिभिः कायें: 'दण्ड. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।२२७॥ समादान मिति दण्डयन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डस्तस्य सम्यगादानं-ग्रहणं समादानं, तदात्मबलादिकं मम नाभविष्यत् यद्यहमेतनाकरिष्यमित्येवं 'संप्रेक्षया' पर्यालोचनया एवं संप्रेक्ष्य वा भयात् क्रियते, एवं तावदिहभवमाश्रित्य दण्डसमादानकारणमुपन्यस्तम्, आमुष्मिकार्थमपि परमार्थमजानानैर्दण्डसमादानं क्रियत इति दर्शयति-'पावमोक्खो'त्ति इत्यादि, पातयति पासयतीति वा पापं तस्मान्मोक्षः पापमोक्षः, 'इति' हेतौ, यस्मात्स मम भविष्यतीति एवं मन्यमानः दण्डसम.दानाय प्रवर्तत इति, तथाहि-हुतभुजि पड्जीवोपघातकारिणि शस्त्रे नानाविधोपायप्राण्युपधासात्तपापविध्वंसनाय पिप्पलशमीसमित्तिलाज्यादिकं शठव्युग्राहितमतयो जुह्वति, तथा पितृपिण्डदानादौ बस्तादिमांसोपस्कृतभोजनादिकं द्विजातिभ्य उपकल्पयन्ति तद्भुक्तशेषानुज्ञातं स्वतोऽपि भुञ्जते, तदेवं नानाविधैरुपायैरज्ञानोपहतबुद्धयः पापमोक्षार्थ दण्डोपादानेन तास्ताः क्रियाः प्राण्युपघातकारिणीः समारभमाणाः अनेकमवशतकोटीदुम्मोचमघमेवोपाददत इति । किञ्च-'अदुवा' इत्यादि, पापमोक्ष इति मन्यमानो दण्डमादत्त इत्युक्तम्, अथवा आशंसनम् आशंसा-अप्राप्तप्रापणामिलापस्तदर्थ दण्डसमादानमादत्ते, तथाहि-ममैतत् परुत्परारि वा प्रेत्य बोपस्थास्यते इत्याशंसया क्रियासु प्रवर्त्तते, राजानं वाऽर्थाशाविमोहितमना अवलगति, उक्तं च-'आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, भोक्ष्यामहे किल वयं सततं सुखानि । इत्याशया धनविमोहितमानसानां, कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुसाम् ॥ १॥ एहि गच्छ पनोत्तिष्ठ,वद मौनं समाचर । इत्याचाशाग्रहग्रस्तः,क्रीडन्ति धनिनोऽर्थिभिः ॥२॥" इत्यादि। तदेवं ज्ञात्वा किं कर्तव्यमित्याह ॥२२७०. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि. अ. उद्देशकः २ तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंड समारंमिजा,नेव अन्नं एएहिं कज्जेहिं भीआचा दंड समारंभाविजा, एएहिं कज्जेहिं दंड समारंभंतपि अन्नं न समणुजाणिज्जा, एस राजवृत्तिः मग्गे आरिएहिं पवेहए, जहेत्य कुसले नोवलिंपिज्जासि तिबेमि ॥ सू० ७६ ॥ लोगविज(शीलाङ्का.) यस्स वितिओ उद्देसो ॥ ३.२५ ॥२२॥ 'तदिति सर्वनाम प्रक्रान्तपरामर्शि, 'तत' शस्त्रपरिज्ञोक्तं स्वकायपरकायादिभेदमिन्नं शस्त्रम्, इह वा यदुक्तम् अप्रशस्तगुणमूलस्थानं-विषयकषायमातापित्रादिकं, तथा कालाकालसमुत्थानक्षणपरिज्ञानश्रोत्रादिविज्ञानप्रहाणादिकं तथाऽऽत्मवलाधानाद्यर्थं च दण्डसमादानं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरेत् 'मेधावी' मर्यादावर्ती, ज्ञातहेयोपादेयः सन् किं कुर्यादित्याह-'नेव सयं' इत्यादि, नैव 'स्वयम्' आत्मना एतैः-आत्मबलाधानादिकः 'काय, कर्त्तव्यैः समुपस्थितैः सद्भिः 'दण्ड' सत्त्वोपघातं समारभेत् , नाप्यन्यमपरमेभिः कार्यहिंसानृतादिकं दण्डं समारम्भयेत् , तथा समारभमाणमप्यपरं योगत्रिकेण न समनुज्ञापयेद् । एष चोपदेशस्तीर्थकृद्भिरभिहित इत्येतत् सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाहेति दर्शयति-'एस' इत्यादि, 'एप' इति ज्ञानादिगुणयुक्तो भावमार्गों योगत्रिकरणत्रिकेण दण्डसमादानपरिहारलक्षणो वा 'आय: आराद्याताः सर्वहेयधम्मभ्य इत्यार्याः-संसारार्णवतटवर्तिनः क्षीणघातिकम्मांशाः संसारोदरविवरवर्तिभावविदः तीर्थकृतस्तैः 'प्रकर्षेण' सदेवमनुजायां पर्षदि सर्वस्वभाषानुगामिन्या वाचा योगपद्याशेषB संशीतिच्छेच्या प्रकर्षण वेदितः-कथितः प्रतिपादित इतियावत् , एवम्भूतं च मार्ग ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमित्याह-"जहेत्य' । २२८० Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२२ ॥ इत्यादि, तेषु तेष्वात्मबलोपधानादिकेषु कार्येषु समुपस्थितेषु सत्सु दण्डसमुपादानादिकं परिहरन् 'कुशलो' निपुणः अवगततत्त्वो यथैतस्मिन् दण्डसमुपादाने स्वमात्मानं 'नोपलिम्पयन तत्र संश्लेषं कुर्या इति, विभक्तिपरिणामावा एतेन दण्डसमुपादानजनितकर्मणा यथा नोपलिप्यसे तथा सर्वैः प्रकाः कुर्यास्त्वम् । इतिशब्दः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकविजये द्वितीय उद्देशकः समातः ॥ २-२॥ ॥ अथ द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः ॥ उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके संयमे दृढत्वं कार्यमसंयमे चादृढत्वमुक्तं, तच्चोभयमपि कषायव्युदासेन सम्पद्यते, तत्रापि मान उत्पत्तेरारभ्य उच्चैर्गोत्रोत्थापितः स्यात् अतस्तद्वयुदासार्थमिदमभिधीयते । अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धः-'जहेत्थ कुसले नोवलिंपेज्जामि' कुशलो निपुणः सबस्मिन्नुच्चैर्गोत्राभिमाने यथाऽऽत्मानं नोपलिम्पयेस्तथा विदध्यास्त्वं, किं मत्वा, इत्यतस्तदभिधीयते से असइ उच्चागोए असहनीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते (एगमेगे खलु जीवे अई. अडाए असई उच्चागोए, असहनीआगोए, कंडगट्टयाए नो होणे नो अइरित्त)नोऽपोहए, इय संखाय को गोयावाई को माणावाई १, कसि वा एगे गिझा, तम्हा नो हरिसे नो कुप्पे, भूएहिं जाण पडिलेह सायं ॥ सू०७७ ॥ 'से असई उच्चागोए असई नीआगोएति' 'स' इति संसार्यसुमान् 'असकृद' अनेकशः उच्चैगोत्रे मानसत्काराहे, Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक. अ.वि २.. उद्देशकः३ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का. ॥ २३०॥ उत्पन्न इति शेषः, तथा असहनीचेोत्रे सर्वलोकावगीते, पौनःपुन्येनोत्पन्न इति, तथाहि-नीचैर्गोत्रोदयादनन्तमपि कालं तियवास्ते, तत्र च पर्यटन् द्विनवतिनामोत्तरप्रकृतिसत्कर्मा संस्तथाविधाध्यवसायोपपन्नः आहारकशरीरतत्- सङ्घातबन्धनाङ्गोपाङ्गदेवगत्यानुपूर्वीद्वयनरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुष्टयरूपा एता द्वादशकर्मप्रकृतीनिर्लेप्याशीतिसत्कर्मा तेजोवायुषत्पन्नः सन् मनुजगत्यानुपूर्वीद्वयमपि निर्लेप्य तन उच्चैर्गोत्रमुद्वलयति पल्योपमासंख्येयभागेन, अतस्तेजोवायुध्वाद्य एव भङ्गका, तद्यथा-नीचैर्गोत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्मताऽपीति, ततोऽप्युद्वृत्तस्यापर केन्द्रियगतस्यामेव भङ्गकः, त्रसेष्वप्यपर्याप्तकावस्थायामयमेव, अनिलेपते तूच्चैगोत्रे द्वितीयचतुर्थों भङ्गो, तद्यथा-नीचैर्गोत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्मता तूमयरूपस्यैवेति द्वितीयः, तथा उच्चैर्गोत्रस्य बन्धो नीचस्योदयः सत्कर्मता तूमयरूपस्येति चतुर्थः, शेषास्तु चत्वारो न सन्त्येव, तिर्यसूच्चैर्गोत्रस्योदयाभावादिति भावः, तदेवमुच्चैगोत्रोद्वलनेन कलंकली १ स्यान्यत्रापि आदावय० प्र. २ अनिलंपिते तूमचैर्गोत्रे द्वितीयो भङ्गकः, कस्यचित्प्रथमसमय एवापरस्यान्तमुहूर्ताद्वोवं. मुच्चैगोत्रसम्बन्धसद्भावे चतुर्थभङ्गकः, तद्यथा-नीचैर्गोत्रस्य बम्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कम्मता तूभयरूपस्य वेति द्वितीयः, तथोकचेगोत्रस्य बन्धो नीचस्योदयः सत्कर्मता तूभयरूपस्येति चतुर्थः, शेषास्तु चत्वारो न सन्त्येव, तिर्यक्षच्चेर्गोत्रस्योदयाभावादिति भावः । तदेवमुच्चैर्गोत्रोदलनेन कलकलीभावमापन्नोऽसंख्येवमपि कालं सूक्ष्मत्रसेष्वास्ते, ततोऽप्युवृत्त उच्चेोत्रोदयाभावे सति द्वितीयचतुर्थभजकस्थोऽनन्तमपि कालं तिर्यवास्ते इति, स च अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः, भावलिकाकालासंख्येयभागसमयसंख्यान पुद्गलपरावर्चानिति प्र. ३ नीचेगोत्रस्य बन्ध उच्चैर्गोत्रस्योदयः पचनीचर्गोत्रे सती ३ सच्चैर्गोत्रस्य बन्ध उच्चैर्गोत्रस्योदय सच्चनीच्चों सती ५ उच्चैर्गोत्रस्योदय उच्चनीचैर्गोत्रे सती ६ उच्चैर्गोत्रस्योदय उच्चैर्गोत्रं सत् ७ इत्येवरूपाः शेषास्तृतीयपञ्चमषष्ठासप्तमभङ्गरूपाश्चत्वारः.प्र. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ २३॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावमापनोऽनन्तं कालमेकेन्द्रियेष्वास्ते, अनुदलिते वा तिर्यक्ष्वास्तेऽनन्ता उत्सपिण्यषसप्पिणी:, आवलिकाकालासङ्ख्येयभागसमयसंख्यान् पुद्गलपराव निति, कीदृशः पुनः पुद्गलपगवर्त इति १ उच्यते, यदौदारिकवैक्रियतैजसभाषानापानमनाकर्मसप्तकेन संसारोदरविवरवर्तिनः पुद्गलाः आत्मसात्परिणामिता भवन्ति तदा पुद्गलपरावर्त इत्येके, अन्ये तु | द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्की वर्णयन्ति, प्रत्येकमसावपि बादरसूक्ष्मभेदात वैविध्यमनुभवति, तत्र द्रव्यतो बादरो यदौदारिकवैक्रियतजसकार्मणचतुष्टयेन सर्वपुद्गला गृहीत्वोज्झितास्तदा भवति, सूक्ष्मः पुनये देकशरीरेण सर्वपुद्गलाः स्पर्शिता भवन्ति तदा द्रष्टव्यः १, क्षेत्रतो बादरी यदा क्रमोत्क्रमाभ्यां म्रियमाणेन सर्वे लोकाकाशप्रदेशाः स्पृष्टा भवन्ति तदा विज्ञेयः, सूक्ष्मस्तु तदा विज्ञेयो यदैकस्मिन् विवक्षिताकाशखण्डके मृतः पुनर्यदा तस्यानन्तरप्रदेशवृद्धथा सर्व लोकाकाशं व्याप्नोति तदा ग्राह्यः २, कालतो बादरो यदोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयाः क्रमोत्क्रमाभ्यां म्रियमाणेनालिङ्गिता भवन्ति तदा विज्ञयः, सूक्ष्मस्तूत्सर्पिणीप्रथमसमयादारभ्य क्रमेण सर्वसमया म्रियमाणेन यदा छुप्ता भवन्ति तदाऽवगन्तव्यो ३, भावतो बादरो यदाऽनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानि क्रमोत्क्रमाभ्यां म्रियमाणेन व्याप्तानि भवन्ति तदाऽभिधीयते, अनुभागबन्धाध्यवसायप्रमाणं तु संयमस्थानावसरे प्रागेवाभ्यधायीति, सूक्ष्मस्तु जघन्यानुभागबन्धाध्यवसायस्थानादारभ्य यदा सर्वेष्वपि क्रमेण मृतो भवति तदाऽवसेय इति । तदेवं कलंकलीभावमापन्नोऽन्यो वा नीचैर्गोत्रोदयादनन्तमपि कालं तिर्यवास्ते, मनुष्येष्वपि तदुदयादेवावर्गीतेषु स्थानेषूत्पद्यते, तथा कलंकलीसवोऽपि द्वीन्द्रियादिषुत्पत्रः सन् प्रथमसमये एवं पर्याप्त्युत्तरकालं वोच्चैर्गोत्रं बवा मनुष्येष्वसकृदुच्चैर्गोत्रमास्कन्दति, तर कदाचित्ततीयमकस्थः ॥२३१० Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकांव. अ.२ भीआचाराजवृत्तिः (शीलाङ्का. उद्देशकः३ पञ्चमभङ्गोपपन्नौ वा भवति, ताविमौ-नीचैर्गोत्रं बन्ध्नात्युच्चैर्गोत्रस्योदयः सत्कर्माता तूमयस्य तृतीयः, पञ्चमस्तूच्चैर्गोत्रं बध्नाति तस्यैवोदयः सत्कर्मता तूभयस्य, षष्ठसप्तमभङ्गौ तूपरतबन्धस्य भवतः, अविषयत्वान्न ताभ्यामिहाधिकारः, तो चेमौ बन्धोपरमे उच्चैर्गोत्रोदय: सत्कर्माता तूमयस्येति षष्ठः, सप्तमस्तु शैलेश्यवस्थायां द्विचरमसमये नीचैर्गोत्रे क्षपिते उच्चैगोत्रोदयस्तस्यैव सत्कर्मातेति, तदेवमुच्चावचेषु गोत्रषु असकृदुत्पद्यमानेनासुमता पञ्चमङ्गकान्तर्वतिना न मानो विधेयो नापि दीनतेति । तयोश्वोच्चावचयोः गोत्रयोर्षन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि तुल्यानीत्याह-'णो हीणे णो अइरित्ते' यावन्त्युच्चैगोत्रेऽनुभावबन्धाध्यवसायस्थानकण्ड कानि नीचोत्रेऽपि तावन्त्येव, तानि च सर्वाण्यप्यसुमताऽनादिसंसारे भूयो भूयः स्पर्शितानि, तत्र उच्चैगोत्रकण्डकार्थतयाऽसुभृन हीनो नाप्यतिरिक्तः, एवं नीचैर्गोत्रकण्डकार्थतयाऽपीति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"एगमेगे खल जीवे अईअडाए असई उचागोए असहनीआगोए, कंड. गट्टयाए नो हीणे नो अहरित्ते" एकैको जीवः खलुशब्दो वाक्यालकारे अतीते कालेऽसकदुच्चावचेषु गोत्रपूत्पन्ना, स चोच्चावचानुभागकण्डकापेक्षया न हीनो नाप्यतिरिक्त इति, तथाहि-उच्चैर्गोत्रकण्डकेम्य एकमविकेभ्योऽनेकमविकेभ्यो वा नीचैर्गोत्रकण्डकानि न हीनानि नाप्यतिरिक्तानीत्यतोऽवगम्योत्कर्षापकौं न विधेयौ, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् सर्वेष्वपि मदस्थानेष्वेतदायोज्यं । यतश्चोच्चावचेषु स्थानेषु कम्मेवशादुत्पद्यन्ते, बलरूपलामादिमदस्थानानां चासमञ्जसतामवगम्य किं कर्त्तव्यमित्याह-'नोऽपीहए' अपिः सम्भावने सच भिमक्रमो, जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमदपि नो 'ईहेतापि नाभिलषेदपि अथवा नो स्पृहयेव-नावकादिति । तत्र यद्यच्चावचेषु स्थानेष्वसकृत्पमोऽसु Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ मांस्ततः किमित्याह-'इय संखाय' इत्यादि, इतिरुपप्रदर्शने 'इति' एतत्पूर्वोक्तनीत्योच्चावचस्थानोत्पादादिक 'परिसंख्याय' ज्ञात्वा को गोत्रवादी भवेद ?, यथा ममोच्चैोत्रं सर्वलोकमाननीयं नापरम्येत्येवंवादी को बुद्धिमान् भवेत् ?, तथाहि-मयाऽन्यैश्च जन्तुभिः सर्वाण्यपि स्थानान्यनेकशःप्राप्तपूर्वाणीति, तथोच्चैर्गोत्रनिमित्तमानवादी वा को भवेत ?, न कश्चित्संसारस्वरूपपरिच्छेदीत्यर्थः, किं च-'कंसि वा एगे गिज्झे' अनेकशोऽने कस्मिन् स्थानेऽनुभूते मति तन्मध्ये कस्मिन्वा एकस्मिन्नुच्चैगोत्रादिकेऽनवस्थितस्थानके रागादिविरहादेकः कथं गृध्येत् ?, तात्पर्यम्-आसेवां विदितकर्मपरिणामो विदध्यात, युज्येत गाद्धय यदि तत्स्थान प्राप्तपूर्व नाभविष्यत , तच्चानेकशः प्राप्तपूर्वम् , अतस्तलाभालाभयोः नोत्कर्षापकाँ विधेयाविति, आह च-'तम्हा' इत्यादि, यतोऽनादो संसारे पर्यटताऽसुमताऽदृष्टायत्तान्यमकृदुच्चावचानि स्थानान्यनुभूतानि तस्मात्कथश्चिदुच्चावचादिकं मदस्थानमवाप्य 'पण्डितो' हेयोपादेयतत्वज्ञो 'न हृष्येत' न हर्ष विदध्याद, उक्तं च-"सर्व सुखान्यपि बहुशः प्राप्तान्यतटा मयाऽत्र संसारे । उच्च स्था. नानि तथा तेन न मे विस्मयस्तेषु॥१॥'जइ सोऽवि णिज्जरमओ पडिसिहो अट्ठमाणमहणेहिं । अवसेस मयट्ठाणा परिहरिअव्वा पयत्तेणं ॥ ३ ॥ नाप्यवगीतस्थानाप्राप्तौ वैमनस्यं विदध्याद् , आह च-नो कुप्पे अदृष्टवशात्तथाभृतलोकासम्मतं जातिकुलरूपवललाभादिकमधममवाप्य 'न कुप्येत्' न क्रोधं कुर्यात, कतरनीचस्थान शब्दादिकं वा दुःखं मया नानुभूतमित्येवमवगम्य नोद्वेगवशगेन भाव्यम् , उक्तं च-"अवमानात्परिभ्रंशाधवन्धः १ यदि सोऽपि निर्गरामदः प्रतिषिद्धोऽष्टमानमथनैः । अवशेषाणि मदस्थानानि परिहर्त्तव्मानि प्रयत्नेन ।। १ । ३३॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि.अ. श्रीआचा. राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ।। २३४॥ उद्देशकः ३ धनक्षयात् । प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जात्यन्तरशतेष्वपि ॥१॥ संते 'य अविम्हइ असोहउ' पंडिएण य असंते । सका हुदुमोवमिअहिअएण हिअं धरतेण ॥२॥ होऊण चक्कवट्टी पुहइवई विमलपंडरच्छत्तो। सो चेव नाम भुजो अणाहसालालओ होह ॥शा" एकस्मिन् वा जन्मनि नानाभृतावस्था उच्चावचाः कर्मवश- तोऽनुभवति । तदेवमुच्चनीचगोत्रनिर्विकल्पमनाः अन्यदपि अविकल्पेन किं कुर्यादित्याह-'भूएहिं' इत्यादि, भवन्ति भविष्यन्त्यभूवमिति च भूतानि-असुभृतस्तेषु 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य विचार्य कुशाग्रीयया शेमुष्या जानीहि-अवगच्छ, किं जानीहि ?-'सातं' सुखं तद्विपरीतमसातमपि जानीहि, किं च कारणं सातासातयोः १ एतज्जानीहि किं चामिलषन्त्यविगानेन प्राणिन इति, अत्र जीवजन्तुप्राण्यादिशब्दानुपयोगलक्षणद्रव्यस्य मुख्यान वाचकान्विहाय सत्तावाचिनो भतशब्दस्योपादानेनेदमाविर्भावयति-यथाऽयमुपयोगलक्षणपदार्थोऽवश्यं सत्ता विभत्ति, माताभिलाष्यसातं च जुगुप्सते, साताभिलाषश्च शुभप्रकृतित्वाद् अतोऽपरासामपि शुभप्रकृतीनामुपलक्षणमेतदवसेयम् , अतः शुभनामगोत्र'युराद्याः कर्मप्रकृतीग्नुधावत्यशुभाश्च जुगुप्सते सर्वोऽपि प्राणी। एवं च व्यवस्थिते सति किं विधेयमित्याह समिए एयाणपस्सी (पुरिसे णं खलु दुक्खुव्वेअसुहेसए), तंजहा-अन्धत्तं पहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुसट खुजतं पडभतं सामत्तं सबलत्तं सह पमाएणं. अणेगरुवाओ जोणोओ १ सत्सु चाविस्मेतुमशोचितु पण्डितेन चासत्सु । शक्यं हि द्रमोपमित हृदयेन हितं धरता ॥ १॥ भूत्वा चक्रवर्ती पृथ्वीपतिविमल पाण्डुरच्छत्रः । स एव नाम भूयोऽनाथशालालयो भवति ॥२॥२ कर्मवशगो० प्र.३ बुध्यस्त्र । २३४० Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधायह विरूवरूवे फासे परिसंवेयह ॥ सू० ७॥ अथवा भूतेषु शुभाशुभरूपं कर्म प्रत्युपेक्ष्य यत्तेषामप्रियं तत्र विदध्यात् इत्ययमुपदेशो, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति'पुरिसेणं खल दुक्खुव्वेअसुहेसए" 'पुरुषो' जीवः णमिति वाक्यालङ्कारे 'खलुः' अवधारणे दुःखात उद्वेगो यस्य स दुःखोद्वेगः, सुखस्यैषकः सुखैषका, याजकादित्वात्समासश्छान्दसत्वाद्वा, दुःखोद्वगश्चासौ सुखैषकश्च दुःखोद्वेगसुखैषकः, सर्वोऽपि प्राणी दुःखोद्वेगसुखैषक एव भवत्यतो जीवप्ररूपणं कार्य, तच्चावनि जलपवनानलवनस्पतिसूक्ष्मवादरविकलपञ्चेन्द्रियसंज्ञीतरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपं शस्त्रपरिज्ञायामकार्येव, तेषां च दुःखपरिजिहीषूणां सुखलिमूनामात्मौपम्यमाचरता तदुपमर्दकानि हिंसादिस्थानानि परिहरताऽऽत्मा पञ्चमहाव्रतेष्वास्थेयः, तत्परिपालनार्थ चोत्तरगुणा अध्यनु. शीलनीयाः, तदर्थमुपदिश्यते-'समिए एयाणुपस्सी' पञ्चभिः समितिभिः समितः सन् एतत्-शुभाशुभं कर्म वक्ष्यमाणं चान्धत्वादिकं द्रष्टु शीलं यस्येत्येतदनुदर्शी भृतेषु सातं जानीहीति सण्टङ्कः, तत्र 'समिति'रिति 'इण गता' वित्यस्मात्सम्पूर्वात क्तिनन्ताद्भवति, सा च पञ्चधा, तद्यथा-इर्याभाषणाऽऽदाननिक्षेपोत्सर्गरूपाः, तत्रैर्यासमितिः प्राणव्यपरोपणव्रतपरिपालनाय, भाषासमितिरसदभिधाननियमसंसिद्धये, एषणासमितिरस्तेयवनपरिपालनाय, शेषद्वयं तु समस्तव्रतप्रकृष्टस्याहिंसाव्रतस्य संसिद्धये व्याप्रियते इति, तदेवं पञ्चमहाव्रतोपपेतस्तवृत्तिकल्पसमितिभिः समितः सन् भावत एतद्भुतसातादिकमनुपश्यति, अथवा यदनुदय॑सौ भवति तद्यथेत्यादिना सूत्रेणैव दर्शयति 'अन्धत्वमित्यादिना यावत् विरूपरूपे फासे परिसंवेएइ संसारोदरे पर्यटन प्राणी अन्धत्वादिका अवस्था बहुशः परिसंवेदयते, स चान्धो द्रव्यतो भावतश्च, ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ २३५० Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) लोक.अ.वि २ उद्देशकः ३ ॥ २३६॥ तत्रैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिया द्रव्यभावान्धाः, चतुरिन्द्रियादयस्तु मिथ्यादृष्टयो भावान्धाः, उक्तं - "एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिदितीयम । एतदद्वयं भुवि न यस्य सं तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ॥१॥" सम्यग्दृष्टयस्तूपहतनयना द्रव्यान्धाः, त एवानन्धा न द्रव्यतो न च | भावतः, तदेवमन्धत्वं द्रव्यभावभिन्नमेकान्तेन दुःखजननमवाप्नोतीति, उक्तं च-"जीवन्नेव मृतोऽन्धो यस्मात्सर्वक्रियासु परतन्त्रः। नित्यास्तमितदिवाकरस्तमोऽन्धकारार्णवनिमग्नः।।।। लोकदयव्यसनवहि विदी. पिताङ्गमन्धं समीक्ष्य कृपणं परयष्टिनेयम् । को नोदिजेत भयकृजननादिवोग्रात्कृष्णाहिनैकनिचितादिव चान्धग त ? ॥ २ ॥" एवं बधिरत्वमप्यदृष्टवशादनेकशः परिसंवेदयते, तदावृतश्च सदसद्विवेकविकलत्वादैहिकामुध्मिकेष्टफलक्रियानुष्ठानशून्यता बिभर्ति इति, उक्तं च-"धर्मश्रुतिश्रवणमङ्गलवर्जितो हि, लोकश्रतिश्रवणसंव्यवहारपाद्यः। किं जीवतीह बधिरो भुवि यस्य शब्दाः, स्वप्नोपलब्धधननिष्फलता प्रयान्ति ? ॥१॥ स्वकलत्रपालपुत्रकमधुरवचःश्रवणबाह्यकरणस्य । बधिरस्य जीवितं किं जीवन्मतकाकृतिधरस्य ? ॥२॥" एवं मूकत्वमप्येकान्तेन दुःखावह परिसंवेदयते, उक्तं च-"दुःखकरमकीर्तिकरं मूकत्वं सवलोकपरिभूतम् । प्रत्यादेशं मूढाः कम्मकृतं किं न पश्यन्ति ? ॥१॥" तथा काणत्वमप्येवंरूपमिति, आह च-"काणो निमग्नविषमोन्नतदृष्टिरेकः, शक्तो विरागजनने जननातुराणाम् । यो नैव कस्यचिदुपैति मनःप्रियत्वमालेख्यकर्मलिखितोऽपि किमु स्वरूपः॥१॥" एवं 'कुण्टत्वं' पाणि वक्रत्वादिकं 'कुजत्वं' वामनलक्षणं ॥ २३६॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२३७॥ | 'वडभत्वं विनिर्गतपृष्ठीवडभलक्षणं 'श्यामत्वं' कृष्णलक्षणं 'शषलत्वं' श्वित्रलक्षणं सहजं पश्चाद्भावि वा कर्मवशगो भूरीशो दुःखराशिदेशीय परिसंवेदयते । किं च-सह 'प्रमादेन' विषय क्रीडाभिष्वङ्गरूपेण श्रेयस्यनुद्यमात्मकेन वा | 'अनेकरूपाः' सङ्कटविकटशीतोष्णादिभेदभिन्ना योनी: संदधाति संधत्ते चतुरशीतियोनिलक्षसम्बन्धाविच्छेदं विदधातीति भावः, सम्यग् धावतीति वा, तासु तास्वायुष्कबन्धोत्तर कालं गच्छतीत्यर्थः, तासु च नानाप्रकागसु योनिषु । 'विरूपरूपान्' नानाप्रकारान् 'स्पर्शान्' दुःखानुभवान् परिसंवेदयते, अनुभवतीत्यर्थः॥ तदेवमुच्चोत्रोत्थापितमानो| पहतचेता नीचे गोत्रविहितदीनभावो वाऽन्धबधिरभूयं वा गतः समावबुध्यते कर्तव्यं न जानाति कर्मविपाकं नावगच्छति | संसारापसदतां नावधारयति हिताहिते न गणयति औचित्यमित्यनवगतनच्चो मूढस्तत्रैवोच्चैोत्रादिके विपर्यासमुपैति, आह च से अबुज्झमाणे हओवहए जाईमरणं अणपरियहमाणे, जीवियं पुढो पियं इहमेगेसि माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं, आरत्त विरत्तं मणिकुडल सह हिरण्णण इथि. याओ परिगिज्मति तत्थेव रत्ता, न इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सइ, संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेइ ॥ सू० ७९॥ 'से' इत्युच्चैर्गोत्राभिमानी अन्धबधिरादिभावसंवेदको वा कम्मविपाकमनवबुध्यमानो हतोपहतो भवति, नानाव्याधिसद्भावक्षतशरीरत्वाद्धतः समस्तलोकपरिभूतत्वादुपहतः, अथवोच्चैगोत्रगर्वाध्मातत्यक्तोचितविधेयविद्वज्जनवदनसमदभत Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ।। २३८ ।। । शब्दायशःपटहहतत्वाद्धतः अभिमानोत्पादिता ने कभव कोटि नीचैर्गोत्रोदयादुपहतः, मृढो विपर्यासमुपैतीत्युत्तरेण सम्बन्धः, तथा जातिश्व मरणं च समाहारद्वन्द्वस्तद् 'अनुपरिवर्त्तमानः' पुनर्जन्म पुनर्भरणमित्येवमरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारोदरे विवर्त्तमानः, आवोनीमरणाद्वा प्रतिक्षणं जन्मविनाशावनुभवन् दुःखसागरावगाढो विशरारुण्यपि नित्यताकृतमितिः हितेऽप्यहिताध्यवसायो विपर्यासमुपैति आह च- 'जीवितम्' आयुष्कानुपरमलक्षणमसंयमजीवितं वा 'पृथग' इति प्रत्येकं प्रतिप्राणि 'प्रियं' दयितं वल्लभम् 'इहे 'ति अस्मिन् संसारे 'एकेषाम्' अविद्योपहतचेतसां मानवानामिति, उपलक्षणार्थत्वात् प्राणिनां तथाहि - दीर्घजीवनार्थं तास्ता रसायनादिकाः क्रियाः सत्त्वोपपातकारिणीः कुर्वते, तथा 'क्षेत्रं' शालिक्षेत्रादि 'वास्तु' धवलगृहादि मम इदमित्येवमाचरतां सतां तत्क्षेत्रादिकं प्रेयो भवति, किं च- 'आरक्तम' ईषद्रक्तं वस्त्रादि 'विरक्त' विगतरागं विविधरागं वा 'मणिः' इति रत्नवैडूर्येन्द्रनीलादि 'कुण्डलं' कर्णाभरणं हिरण्येन सह स्त्रीः परिगृह्य 'तत्रैव' क्षेत्र वास्त्वा रक्तविरक्तवस्त्र पणिकुण्डलभ्यादौ 'रक्ता' गृद्धा अभ्युपपन्ना मूढा विपर्यासमुपयान्ति वदन्ति चनात्र 'तपो वा' अनशनादिलक्षणं 'दमो वा' इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमलक्षणो 'नियमो वा' अहिंसाव्रतलक्षणः फलवान् दृश्यते, तथाहि - तपोनियमोपपेतस्यापि कायक्लेशमोगादिवश्चनां विहाय नान्यत्फलमुपलभ्यते, जन्मान्तरे भविष्यतीति चेद्युग्राहितस्योल्लापः, किं च दृष्टहानिरदृष्टकल्पना च पापीयसीति, तदेवं साम्प्रतेक्षी भोगसङ्गविहितैक पुरुषार्थबुद्धिः सम्पूर्ण यथावसरसम्पादित विषयोपभोगं 'बालः' अज्ञः 'जीवितुकामः' आयुष्कानुभवनमभिलषन् 'लालप्यमानः ' मोगार्थमत्यर्थं लपन् वाग्दण्डं करोति, तद्यथा - अत्र तपो दमो नियमो वा फलवान्न दृश्यत इत्येवमर्थं ब्रुवन् मूढः लोकवि. अ. २ उद्देशकः ३ ॥ २३८ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२३४॥ 'अयुध्यमानो हतोपहतो जातिमरणमनुपरिवर्तमानो जीवितक्षेत्रस्यादिलोभपरिमोहितमनाः 'विपर्यासमुपैति' तच्चेऽतवाभिनिवेशम् अतत्वे तच्चाभिनिवेशं एवं हितेऽहितबुद्धिमित्येवं सर्वत्र विपर्ययं विदधाति, उक्तं च-"दाराः परिभवकारा बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो?, ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥१॥" इत्यादि। ये पुनरुन्मज्जतशुभकर्मापादिताध्यवसायपुरस्कृतमोशाम्ते किंभृता भवन्तीत्याह-- . इणमेव नावखंति, जे जणा धुवचारिणो । जाईमरणं परिन्नाय चरे संकमणे दढे ॥२॥ नस्थि कालस्स णागमो, सव्वे पाणा पियाउया(पियायया), सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं, तं परिगिस दुपयं चउप्पयं अभिजुजिया णं संसिंचिया णं तिविहेण जाऽविथ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा, से तत्य गड्डिए चिट्ठह, भोअणाए, तओ से एगया विविहं परिसिद्ध संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया वा विभयन्ति, अवत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से विणस्सह वा से, अगारदाहेण वा से उज्झइ इय, से परस्सऽहाए कूराई कम्माई बाले पकुब्वमाणे तेण दुक्खेण संमूढे विप्परियासमुवेइ, मुणिणा हु एयं पवेइयं, अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए, अतोरंगमा एए नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए, आयाणिज्जं च B. २३६ ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २४० ॥ आयाय तंमि ठाणे न चिह्न, वितहं पप्पsखेयन्ने तंमि ठाणंमि चिट्ठह ॥ सू० ८० ॥ 'इणमेव' इत्यादि, इदमेव पूर्वोक्तं सम्पूर्णजीवितं क्षेत्राङ्गनापरिभोगादिकं वा 'नावकाङ्क्षति' नाभिलपन्ति, ये जना 'ध्रुवचारिणो' ध्रुवो - मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि ध्रुवं तदाचरितु शीलं येषां ते तथा, धृतचारिणो वा धुनातीति धृतं चारित्रं तच्चारिण इति । किं च- 'जाई' इत्यादि, जातिश्व मरणं च समाहारद्वन्द्वः तत् 'परिज्ञाय' परिच्छिद्य ज्ञात्वा 'चरेत्' उद्युक्तो भवेत्, क १ – 'सङ्क्रमणे' सङ्क्रम्यतेऽनेनेति सङ्क्रमणं - चारित्रं तत्र 'दृढो' विश्रोतसिकार - हितः परीषहोपसग्गैः निष्प्रकम्पो वा यदि वा अशङ्कमनाः सन् संयमं चर, न विद्यते शङ्का यस्य मनसस्तदशङ्कम् प्रशङ्क मनो यस्यासावशङ्कमनाः- तपोदमनियम निष्फलत्वाशङ्कारहित आस्तिक्यमत्युपपेतस्तपोदमादौ प्रवर्त्तेत यतस्तद्वान् राजराजादीनां पूजाप्रशंसार्हो भवति, न चौपशमिकसुखावाप्तफलस्य तपस्विनः समस्तद्वन्द्वदवीय सोऽसत्यपि परलोके किश्चित् श्रूयते, उक्तं च — 'संदिग्धेऽपि परे लोके, त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ॥ १ ॥" इत्यादि । तस्मात् स्वायत्ते संयमसुखे दृढेन भाव्यं न चैतद्भावनीयं यथा - परुत्परि वृद्धावस्थायां वा धर्मं करिष्यामीति यतः - 'नत्थि' इत्यादि 'नास्ति' न विद्यते 'कालस्य' मृत्योरनागमः - अनागमनमनवसर इतियावत् तथाहि सोपक्रमायुषोऽसुमतो न काचित्साऽवस्था यस्यां कर्म्मपावकान्तर्वर्त्ती जन्तुजंतुगोलक इव न विलीयेत इति उक्तं च - " शिशुमशिशु कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितं, धीरमधीर मानिनममानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयतिं प्रकाशमवलीनमचेतनमथ सचेतनं निशि दिवसेऽपि लोकवि. अ. २ रदेशकः ३ ॥ २४० ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२४१॥ सान्ध्यसमयेऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि ॥१॥" तदेवं सर्वकषत्वं मृत्योरखधार्याहिंसादिषु दत्तावधानेन भाव्यं, किमिति, यतः-सव्वे पाणा पियाउया' प्राणशब्देनात्राभेदोपचारात् तद्वन्त एवं गृह्यन्ते, सर्वे प्राणिनोal जन्तवः 'प्रियायुषः' प्रियमायुर्येषां ते तथा, ननु च सिद्धय॑भिचारो, न हि ते प्रियायुषस्तदभावात् , नैष दोषो, यतो मुख्यजीवादिशब्दव्युदासेन प्राणशब्दस्योपचरितस्य ग्रहणं संसारप्राण्युपलक्षणार्थमिति यत्किश्चिदेतत , पाठान्तरं वा 'सव्वे पाणा पियायया' आयतः-आत्माऽनाद्यनन्तत्वात् स प्रियो येषां ते तथा, सर्वेऽपि प्राणिनः प्रियात्मानः । प्रियात्मता च सुखदुःखप्राप्तिपरिहारतया भवतीति आह च-सुहसाया दुक्खपडिकूला' सुखम्-आनन्दरूपमास्वादयन्तीति सुखास्वादाः-सुखभोगिनः सुखैषिण इत्युक्तं भवति, दुःखम्-असातं तत्प्रतिकूलयन्तीति दुःखप्रतिकूला:-दुःखद्वेषिण इत्युक्तं भवति, तथा 'अप्रियवधा' अप्रियं-दुःखकारणं तत् अन्त्यप्रियवधाः, तथा 'पियजोविणो' प्रियं-दयितं जीवितम-आयष्कमसंयमजीवितं येषां ते तथा, 'जीविउकामा यत एव प्रियजीविनोऽत एव दीर्घकालं जीवितकामाःदीर्घकालमायुष्काभिलाषिणो दुःखाभिभूता अप्यन्त्यां दशामापन्ना जीवितुमेवाभिलषन्ति, उक्तं च--"'रमइ विहवी विसेसे ठितिमित्तं थेववित्थरो महई । मग्गइ सरोरमहणो रोगी जीए चिय कयत्थो॥॥" तदेवं सर्वोऽपि प्राणी सुखजीविताभिलाषी, तच्च नारम्भमृते, असावपि प्राण्युपघातकारी, प्राणिनां च जीवितमत्यर्थं दयितमित्यतो भयो । भूयस्तदेवोपदिश्यत इत्याह--'सव्वेसिं' इत्यादि, सर्वेषामविगानेन 'जीवितम्' असंयमजीवितं 'प्रिय' दयितं, यद्येवं १ रमते विभववान् विशेषे स्थितिमात्रं स्तोकविस्तारोऽभिलषति । मार्गयति शरीरमधनो रोगी जोवित एव कृतार्थः ॥ १॥ ॥२४१ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २४२ ॥ ततः किमित्यत आह- 'तं परिगिज्झ' तद्-असंयम जीवितं 'परिगृह्य' आश्रित्य किं कुर्वन्तीत्याह – 'दुपयं' इत्यादि, 'द्विपदं ' दासीकर्मकरादि 'चतुष्पदं' गवाश्वादि 'अभियुज्य' योजयित्वा अभियोगं ग्राहयित्वा व्यापारयित्वेत्युक्तं भवति, ततः किमित्यत आह- 'संसिंचिया णं' इत्यादि, प्रियजीवितार्थमर्थाभिवृद्धये द्विपदचतुष्पदादिव्यापारेण 'संसिध्य' अर्थनिचयं संबद्ध 'त्रिविधेन' योगत्रिककरणत्रिकेण यापि काचिदन्या परमार्थचिन्तायां बह्वयपि फल्गुदेश्या 'से' तस्यार्थारम्भिणः सा चार्थमात्रा 'तत्र' इति द्विपदाद्यारम्भे 'मात्रा' इति सोपस्कारत्वात्सूत्राणां अर्थमात्राअर्थान्पता 'भवति' सत्तां बिभर्त्ति किंभूता ?, सा सूत्रेणैव कथयति-- अल्पा वा बही वा अल्पबहुत्वं चापेक्षिकमतः सर्वाऽप्यन्पा सर्वापि बही 'स' इत्यर्थवान 'तत्र' तस्मिन्नर्थे 'गुड' अभ्युपपन्नस्तिष्ठति, नालोचयत्यर्थस्योपार्जन क्लेशं न गणयति रक्षणपरिश्रमं न विवेचयति तरलतां नावधारयति फल्गुताम् उक्तं च - " कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं, निरुपमरसप्रीत्या खा (स्वा) दन्नरास्थि निरामिषम् । सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं सशङ्कितमीक्षते, न हि गणयति क्षुद्रो लोकः परिग्रहफल्गुताम् ॥ १ ॥" इत्यादि, स च किमर्थमर्थमर्थयत इत्यत आह--‘भोयणाए' भोजनम् - उपभोगस्तस्मै अर्थमर्थयते, तदर्थी च क्रियासु प्रवर्त्तते, क्रियावतच किं भवतीत्याह'तओ से' इत्यादि, ततः 'से' तस्यावलगनादिकाः क्रियाः कुर्वतः 'एकदा लाभान्तगयकर्म्मक्षयोपशमे 'विविध' नानाप्रकारं 'परिशिष्टं' प्रभूतत्वाद्भुक्तोद्धरितं 'सम्भूतं' सम्यकपरिपालनाय भूतं संवृत्तं किं तत् १, महच्च तत्परभोगाङ्गत्वादुपकरणं च महोपकरणं-द्रव्यनिचय इत्यर्थः, स कदाचिन्नाभोदये भवति, असावप्यन्तरायोदयान्न तस्योप लोकवि. अ. २ • उद्देशकः ३ ॥ २४२ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३॥ भोगायेत्याह--'तंपि से' इत्यादि, तदपि समुद्रोचरणरोहणखननबिलप्रवेशरसेन्द्रमर्दनराजावलगनकृषीवलादिकाभिः क्रियाभिः स्वपरोपतापकारिणीभिः स्वोपभोगायोपान्जितं सत् 'सेतस्यार्थोपार्जनोपायक्लेशकारिणः 'एकदा'भाग्यक्षये 'दायादा' पिपिण्डोदकदानयोग्याः विमजन्ते' विलुम्पन्ति, 'अदत्तहारो वा' दम्युर्वा अपहति, राजानो वा 'विलम्पन्ति' अवच्छिन्दन्ति 'नश्यति वा' स्वत एवाटवीतः 'से'तस्य 'विनश्यति वा' जीर्णभावापत्तेः 'अगारदाहेन वा' गृहदाहेन वा दह्यते, किन्ति वा कारणान्यर्थनाशे वक्ष्यन्ते इत्युपसंहरति-'इति' एवं बहुभिः प्रकार सपाजितोऽप्यों नाशमपैति, नेवोपार्जयितुरुपतिष्ठत इत्युपदिश्यते, सः अर्थस्योत्पादयिता परस्मै-अन्यस्मै अर्थायप्रयोजनाय अन्यप्रयोजनकृते 'कराणि' गलकर्तनादीनि 'कर्माणि' अनुष्ठानानि 'बाल:' अज्ञः 'प्रकुर्वाण: विदधानः 'तेन' कर्मविपाकापादितेन 'दुःखेन' असातोदयेन (सं)मूढः' अपगतविवेकः 'विपर्यासमुपैति' अपगतसदसद्विवेकस्वात्कार्यमकार्य मन्यते व्यत्ययं चेति, उक्तं च-"रागद्वेषाभिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ मुखः।एष मूढ इति ज्ञेयो. विपरीतविधायकः॥१॥" तदेवं मौढयान्धतमसाच्छादितालोकपथाः सुखार्थिनो दुःखमृच्छन्ति जन्तव इति ज्ञात्वा सर्वज्ञवचनप्रदीपमशेषपदार्थस्वरूपाविर्भावकमाललम्बिरे मुनयः, अदश्च मया न स्वमनीषिकयोच्यते सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाह, यदि स्वमनीषिकया नोच्यते कौतस्त्यं तहीदमित्यत आह–'मुणिणा' इत्यादि मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनि:-तीर्थकत्वेन 'एतदु' असकदुच्चेोत्रभवनादिकं प्रकर्षणादौ वा सर्वस्वभाषानुगामिन्या वाचा वेदितं-कथित वक्ष्यमाणं च प्रवेदित, किं तदित्याह-'अणोह इत्यादि, ओपो द्विधा-द्रव्यभावभेदात, द्रव्योपो नदीपूरादिको ॥२४३॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २४४ ॥ 1 भावोऽष्टप्रकारं कर्म्म संसारो वा तेन हि प्राण्यनन्तमपि कालमुह्यते, तम् - ओघं ज्ञानदर्शनचारित्रवोहित्थस्था तरन्तीत्योघन्तरा न ओघन्तरा अनोघन्तराः, तरतेश्छान्दसत्वात् खश् खित्त्वान्मुमागमः, एते कुतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयो वा ज्ञानादियान विकलाः यद्यपि तेऽप्योघतरणायोद्यतास्तथापि सम्यगुपायाभावात् न ओघतरणसमर्था भवन्तीति, आह च-"नो य ओहं तरित्तए' 'न च' नैवोघं भावौघं तरितु ं समर्थाः, संसारौघतरणप्रत्यला न भवन्तीत्यर्थः तथा 'अनीरंगमा' इत्यादि, तीरं गच्छन्तीति तीरङ्गमाः पूर्ववत् खश्प्रत्ययादिकं न तीरङ्गमा अतीरङ्गमाः एत इति प्रत्यक्षभावमापन्नान् कुतीर्थिकादीन् दर्शयति, न च ते तीरगमनायोद्यता अपि तीरं गन्तुमलं सर्वज्ञोपदिष्टसन्मार्गाभावादिति भावः, तथा 'अपारंगमा' इत्यादि, पारः-तटः परकूलं तद्गच्छन्तीति पारङ्गमा न पारङ्गमा अपारङ्गमाः 'एल' इति पूर्वोक्ताः, पारगतोपदेशाभावादपारङ्गता इति भावनीयं न च ते पारगतोपदेशमृते पारगमनायोद्यता अपि पारं गन्तुमलम्, गमनं गमः पारस्य पारे वा गमः पारगमः, सूत्रे त्वनुस्वारोऽलाक्षणिको, न पारगमोऽपारगमस्तस्मा अपारगमाय, असमर्थ समासोऽयं, तेनायमर्थः - पारगमनाय ते न भवन्तीत्युक्तं भवति, ततश्चानन्तमपि कालं संसारान्तर्वर्त्तिन एवासते, यद्यपि पारगमनायोद्यमयन्ति तथापि ते सर्वज्ञोपदेशविकलाः स्वरुचिविरचितशास्त्रप्रवृत्तयो नैव संसारपारं गन्तुमलम्, अथ तीर पारतोः को विशेष इति उच्यते, तीरं मोहनीयतयः पारं शेषघातिक्षयः, अथवा तीरं घातिचतुष्टयापगमः पारं भवोपग्राह्यभाव इत्यर्थः, स्यात् - कथमोघतारी कृतीर्थादिको न भवति, तीरपारगामी चेत्याह - 'आयाणिज्जं' इत्यादि, आदीयन्ते - गृह्यन्ते सर्वभावा अनेनेत्यादानीयं श्रुतं तदादाय तदुक्ते तस्मिन् संयमस्थाने न तिष्ठति, यदि वा - आदा अथवा • लोकवि. अ. ५ उद्देशकः ३ ॥ २४४ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीयम्-आदातव्यं मोगाङ्ग द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादि तदादाय-गृहीत्वा, अथवा-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैरादानीयं-कर्मादाय, किंभूतो भवतीत्याह-तस्मिन्' ज्ञानादिमये मोक्षमाग्गें सम्यगुपदेशे वा प्रशस्तगुणस्थाने न तिष्ठति-नात्मानं विधत्ते, न केवलं सर्वज्ञोपदेशस्थाने न तिष्ठति विपर्ययानुष्ठायी च भवतीति दर्शयनि-'वितहं' इत्यादि, वितथम्-असद्भुतं दुर्गतिहेतु तत्तथाभूतमुपदेशं प्राप्याखेदज्ञः-अकुशलः खेदज्ञो वाऽसंयमस्थाने तस्मिश्च साम्प्रतेक्ष्याचरित उपदिष्टे वा तिष्ठति, तत्रैवासंयमस्थानेऽभ्युपपनो भवतीतियावत् , अथवा वितथमिति आहआदानीयभोगाङ्गव्यतिरिक्तं संयमस्थानं तत्प्राप्य खेदज्ञो-निपुणस्तस्मिन् स्थाने आदानीयस्य हन्तृणि तिष्ठति, सर्वज्ञाज्ञायामात्मानं व्यवस्थापयतीत्यर्थः । अयं चोपदेशोऽनवगततत्त्वस्य विनेयस्य यथोपदेशं प्रवर्त्तमानस्य दीयते, यस्त्ववगतहेयोपादेयविशेषः स यथावसरं यथाविधेयं स्वत एव विवत्त इत्याह - उद्देसो पासगम्स नत्थि, पाले पुण निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आव अणुपरियहइ तिमि ॥ सू० ८१॥ लोकविजये तृतोयोद्देशकः ॥२-३ ॥ उद्दिश्यते इत्युद्देशा-उपदेशः सदसत्कर्तव्यादेशः स पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य न विद्यते, स्वत एव विदितवेद्यत्वात्तस्य, अथवा पश्यतीति पश्यकः-सर्वज्ञस्तदुपदेशवर्ती वा तस्य उद्दिश्यत इत्युद्देशो-नारकादिव्यपदेशः उच्चावचगोत्रादिव्यपदेशो वा स तस्य न विद्यते, तस्य द्रागेव मोक्षगमनादिति भावः, कः पुनर्यथोपदेशकारी न भवतीत्याह-बाले' इत्यादि, बालो नाम रागादिमोहितः, स पुनः कषायैः कर्मभिः परीषहोपसगा निहन्यत इति । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा राजवृत्तिः (धीलाका.) ॥ २४६ ॥ लोकवि, अ.. उद्देशका ३ निहः, निपूर्वाद्धन्तेः कर्मणि डः, अथवा स्निह्यत इति स्निहः-स्नेहवान् रागीत्यर्थः, अत एवाह-'कामसमणन्ने' कामाः-इच्छामदनरूपाः सम्यग् मनोज्ञा यस्य स तथा, अथवा सह मनोहर्वर्त्तत इति समनोज्ञो, गमकत्वात्सापेक्षस्यापि समासः, कामैः सह मनोज्ञः कामसमनोज्ञो, यदिवा कामान् सम्यगनु-पश्चात् स्नेहानुबन्धाज्जानाति सेवत इति काम- समनुज्ञः, एवंभूतश्च किंभूतो भवतीत्याह-'असमियदुक्खे' अशमितम्-अनुपञ्चमितं विषयाभिष्वङ्गकषायोत्थं दुःखं येन स तथा, यत एवाशमितदुःखोऽत एव दुःखी शारीरमानसाम्या दु:खाम्या, तत्र शारीरं कण्टकशस्त्रगण्डलूतादि समुत्थं मानसं प्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगेप्सितालाभदारिद्रयदौर्भाग्यदौर्मनस्यकृतं तद्विरूपमपि दुःखं विद्यते यस्यासौ दुःखी, एवंभूतश्च सन् किमवाप्नोतीत्याह-'दुक्खाणं' इत्यादि, दुःखाना-शारीरमानसानामावत-पौनःपुन्यभवनमनुपरिवर्तते, दु:खावर्तावमग्नो बंभ्रम्यत इत्यर्थः, इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ लोकविजयस्य तृतीयोद्देशकटीका समाता ॥ १-३॥ -:: an२४६. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ द्वितीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकः ॥ । २४७॥ तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ तेवणं एगया नियया पुचि परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए था, 'जाणितु दुक्खं पत्तेयं सायं, मोगा मे व अणुसोयन्ति इहमेगेसिं माणवाणं ॥ सू०८२॥ उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थस्य व्याख्या प्रस्तूयते-मोगेष्वनभिषक्तेन भाव्यं. यतो भोगिनामपाया दयन्ते (इति) प्रागुक्तं, ते चामी-'तओ से एगया' इत्यादि, अनन्तरसूत्रसम्बन्धः 'दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्ट अणु परियई' ति, तानि चामूनि दुःखानि 'तओ से' इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु षाले पुण निहे कामसमणपणे', Ka तेच कामा दुःखात्मका एव, तत्र चासक्तस्य धातुक्षयभगन्दरादयो रोगाः समुत्पद्यन्ते इत्यतोऽपदिश्यते–'तत' इति कामानुषङ्गात् कम्मोपचयस्ततोऽपि पश्चत्वं तस्मादपि नरकमवो नरकाभिषेककललार्बु दपेशीव्यूहगर्भप्रसवादिर्जातस्य च रोगाः प्रादुःष्यन्ति, 'से' तस्य कामानुषक्तमनसः 'एकदे'त्यसातावेदनीयविपाकोदये 'गेगसमुत्पादा' इति रोगाणांशिरोऽर्तिशूलादीनां समुत्पादा:-प्रादुर्भावाः 'समुत्पद्यन्ते' प्रादुर्भवन्ति, तस्यां च रोगावस्थायां किंभूतो भवत्यसावित्यत आई-जेहिं इत्यादि, यैर्वा 'साद्धमसौ संवसति, त एवैकदा निजाः पूर्व परिवदन्ति, स वा ताधिजान् पश्चात्परिवदेत, ka नालं 'ते' तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा, इति ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातं च | २४७० Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि.अ. श्रीआचाराजवृत्तिः (शीलाका. उद्दशकः ४ ॥२४८॥a स्वकृतकर्मफलभुजः सर्वेऽपि प्राणिन इति मत्वा रोगोत्पत्तौ म दौमनस्यं भावनीयं, न भोगाः शोचनीया इति, आह च-'भोगा में' इत्यादि, भोगा:-शब्दरूपरसगन्धस्पर्शविषयाभिलाषास्तानेवानुशोचन्ति-कथमस्यामप्यवस्थायां वयं भोगान् भुक्ष्महे , एवंभूता वाऽस्माकं दशाऽभूयेन मनोज्ञा अपि विषया उपनता नोपभोगायेति । ईदृक्षश्चाध्यवसायः केषाश्चिदेव भवतीत्याह-इहमेगेसिं' इत्यादि, 'इह' संसारे एकेषामनवगतविषयविपाकानां ब्रह्मदत्तादीनां मानवानामेवंभूतोऽध्यवसायो भवति, न सर्वेषां, सनत्कुमारादिना व्यभिचारात , तथाहि-ब्रह्मदत्तो मारणान्तिकरोगवेदनामिभूतः सन्तापातिशयात् स्पृशन्ती प्रणयिनीमिव विश्वासभूमी मृच्छा बहुमन्यमानः तथा हस्तीकृतो विहस्ततया विषयीकृतो वैषम्येण गोचरीकृतो ग्लान्या दृष्टो दुःखासिकया क्रोडीकृतो कालेन पीडितः पीडाभिनिरूपितो नियत्या आदित्सितो देवेन अन्तिकेऽन्त्योच्छवासस्य मुखे महाप्रवासस्य द्वारि दीर्घनिद्राया जिह्वाग्रे जीवितेशस्य वर्तमानो विग्लो वाचि विह्वलो वपुषि प्रचुरः प्रलापे जितो जृम्भिकाभिरित्येवंभूतामवस्थामनुभवन्नपि महामोहोदयाद् भोगांश्चिकाङ्क्षिषुः पार्योपविष्टी भार्यामनवरतवेदनांवेशविगलदUरक्तनयनां कुरुमति ! कुरुमतीत्येवं तां व्याहरन्नधः सप्तमी नरकपृथ्वीमगात्, तत्रापि तीव्रतरवेदनामिभूतोप्यऽवगणय्य वेदनां तामेव कुरुमती व्याहरतीत्येवंभूतो भोगाभिष्वङ्गो दुस्त्यजो भवति केषाश्चित, न पुनरन्येषां महापुरुषाणामुदारसत्वानाम् आत्मनोऽन्यच्छरीरमित्येवमवगततच्चाना सनत्कुमारादीनामिष यथोक्तरोगवेदनासद्भावे सत्यपि मयैवैतत्कृतं सोढव्यमपि मयैवेत्येवं जातनिश्चयानां कर्मक्षपणोद्यतानां न मनसः पीडोत्पद्यते इति, उक्तं च-"उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, रागद्वेषकषायसन्तति ॥२४८॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२४६॥ महानिर्विघ्नबीजस्त्वया । रोगैरङ्कुरितो विपत्कुसुमितः कर्मद्रुमः साम्प्रतं, सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरघोगामिभिः ॥ १॥ पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्त्वयाऽयं, न खलु भवति नाशः कर्मणां । संचितानाम् । इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यग, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः । ॥२॥" अपि च-भोगाना प्रधान कारणमर्थोऽतस्तत्स्वरूपमेव निर्दिदिक्षुराह- . तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुगा वा, से तत्थ गड्डिए चिट्ठा, भोयणाए, तओ से एगया विपरिसिह संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से हरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सह वा से विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा से उज्झइ इय, से परस्स अट्ठाए कूराणि कम्माणि वाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ ॥ सू० ८३॥ त्रिविधेन याऽपि तस्य तत्रार्थमात्रा भवति अल्पा वा बही वा, स तस्यामर्थमात्रायां गृद्धस्तिष्ठति, सा च मोजनाय किल भविष्यति, ततस्तस्यैकदा विपरिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति, तदपि से तस्यैकदा दायादा विभजन्ते. अदत्तहारो वा तस्य हरति, राजानो वा विलुम्पन्ति, नश्यति वा विनश्यति वा, अगाग्दाहेन वा दह्यते इति, स परस्मै अर्थाय क्रूराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणस्तेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति, एतच्च प्रागेव व्याख्यासमिति नेह प्रतायते ॥ तदेवं दुःखविपाकान् मोगान् प्रतिपाद्य यत् कर्तव्यं तदुपदिशतीत्याह २४ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचानिवृत्तिः गोलाका.) २५०॥ लोक. अ.वि २ उद्देशकः ४ आसं च छन्दं च विगिंच धीरे !, तुमं चेव तं सल्लमाहटु, जेण सिया तेण नो सिया, इणमेव नावबुझंति जे जणा मोहपाउडा, थीमि लोए पव्वहिए, ते भो। वयंति एयाई आययणाई', से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरगतिरिक्खाए, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं, संनि मरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए, नालं पास अलं ते एएहिं । सू० ८४॥ . 'आशा' भोगाकाङ्क्षा, चः समुच्चये, छन्दनं छन्दा-परानुवृत्त्या भोगाभिप्रायस्तं च, चशन्दः पूर्वापेक्षया समुच्चयार्थः, तावाशाछन्दौ 'वेविश्व' पृथक्कुरु त्यज 'धीर ! धी:-बुद्धिस्तया राजत इति, भोगाशाछन्दापरित्यागेच दुःखमेव केवलं न तत्प्राप्तिरिति, आह च-'तुमं चेव' इत्यादि, विनेय उपदेशगोचरापन आत्मा वा उपदिश्यते-त्वमेव तद्धोगाशादिक शल्यमाहृत्य-स्वीकृत्य परमशुभमादत्से, न तु पुनरुपमोगं, यतो भोगोपभोगो यैरेवार्थाद्यपायर्भवति तैरेव न भवतीत्याह-'जेण सिआ तेण नो सिया' येनेवार्थोपार्जनादिना भोगोपभोगः स्यात् तेनैव विचित्रत्वात कर्मपरिणतेन स्याद, अथवा येन केनचिद्धेतुना कर्मवन्धः स्यात्तन्न कुर्यात , तत्र न वर्ततेत्यर्थः, यदिवा येनैव राज्योपभोगादिना कर्मबन्धो येन वा निर्ग्रन्थत्वादिना मोक्षः 'स्याद् भवेत्तेनैव तथाभूतपरिणामवशाल स्यादिति । एतच्चानुभवावधारितमपि मोहाभिभूता नावगच्छन्तीत्याह-'इणमेव' इत्यादि, इदमेव हेतुवैचित्र्यं 'न बुध्यन्ते' न संजानते, के ?-ये जना मौनीन्द्रोपदेशविकला मोहेन-अज्ञानेन मिथ्यान्वोदयेन वा प्रावृताः-छादितास्तत्वविपर्यस्तमतयो मोह ॥२५०॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५१॥ ॥ नीयोदयाद्भवन्ति , मोहनीयस्य च तद्भेदकामानां च खियो गरीयः कारणमिति दर्शयनि-धोभि' इत्यादि, स्त्रीभिःअङ्गनाभिक्षेपादिविभ्रमरसौ लोकः आशाच्छन्दाभिभूतात्मा क्रूरकर्मविधायी नरकविपाकफलं शल्यमाहृत्य तत्फलमबुध्यमानो मोहाच्छादितान्तरात्मा प्रकर्षेण व्यथितः पराजितो वशीकृत इतियावत , न केवलं स्वतो विनष्टाः, अपरानपि असकृदुपदेशदानेन विनाशयन्तीत्याह-'ते भो!' इत्यादि, 'ते' स्त्रीभिः प्रव्यथिता भो! इत्यामन्त्रणे एतद्वदन्तियथैतानि-च्यादीनि 'आयतनानि' उपभोगास्पदभूतानि वर्तन्ते, एतैश्च विना शरीगस्थितिरेव न भवतीति । एतच्च प्रव्यथनमुपदेशदानं वा तेषामपायाय स्यादित्याह-'से' इत्यादि, तेषां 'से' इत्येतत् प्रव्यथनमायतनभणनं वा 'दुःखाय' भवति-शारीरमानसासातवेदनीयोदयाय जायते, किं च-'मोहाए' मोहनीयकर्मबन्धनाय अज्ञानाय वेति, तथा ‘माराए' मरणाय, ततोऽपि 'नरगाए' नरकाय नरकगमनार्थ, पुनरपि 'नरगतिरिक्वाए' ततोऽपि नम्कादुद्धृत्य तिरश्च्येतत्प्रभवति, तिर्यग्योन्यथं तत् स्त्रीप्रव्यथनं भोगायतनवदनं वा सर्वत्र सम्बन्धनीयं । स एवमङ्गनापाङ्गविलोकनाक्षिप्तस्तासु तासु योनिषु पर्यटनात्महितं न जानातीत्याह-'सययं' इत्यादि, सततम्-अनवरतं दुःखाभिभूतो मूढो 'धर्म' क्षान्त्यादिलक्षणं दुर्गतिप्रसूतिनिषेधकं न जानाति' न वेत्ति । एतच्च तीर्थ कृदाहेति दर्शयति-'उदाहु' इत्यादि, उत्प्राबल्येनाह उदाह-उक्तवान् , कोऽसौ ?-वीरः-अपगतसंसारभयस्तीर्थकुदित्यर्थः, किमुक्तवान् ?, तदेव पूर्वोक्तं वाचा दर्शयति-'अप्रमादः' कर्तव्यः, क्व ?-'महामोहे' अङ्गनाभिष्वङ्ग एव, महामोह कारणत्वान्महामोहः, तत्र प्रमादवता न भाव्यम् । आह च-'अलम्' इत्यादि, 'अलं' पर्याप्तं, कस्य ?-'कुशलस्य' निपुणस्य सूक्ष्मक्षिणः, केनालं? ॥ २५१। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा रावृत्तिः (शीलाका.) ॥ २५२॥ मद्यविषयकषायनिद्राविकथारूपेण पञ्चविधेनापि प्रमादेन, यतः प्रमादो दुःखाद्यभिगमनायोक्त इति । स्यात्-किमालम्ब्य प्रमादेनालमिति ?, उच्यते-'सन्ति' इत्यादि, शमनं शान्तिः-अशेषकपिगमोऽतो मोक्ष एव शान्तिरिति, म्रियन्ते । लोकवि. अ.. प्राणिनः पौन:पुन्येन यत्र चतुर्गतिके संसारे स मरण:-संसारः शान्तिश्च मरणं च शान्तिमरणं, समाहारद्वन्द्वस्तत् उद्देशका ४ 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य, प्रमादवतः संसारानुपरमस्तत्पत्यिागाच्च मोक्ष इत्येतद्विचार्येति हृदयं, स वा कुशला प्रेक्ष्य विषयकषायप्रमादं न विदध्याद्, अथवा शान्त्या-उपशमेन मरण-मरणावधिं यावत् तिष्ठतो यत्फलं भवति तत्पर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति । किच-'भेउर' इत्यादि, प्रमादो हि विषयकषायाभिष्वङ्गरूपः शरीराधिष्ठाना, तरच शरीरं मिदुरधर्म, स्वत एव भिद्यत इति भिदुर म एव धर्म-स्वभावो यस्य तद्भिदुरधर्म एतत् 'समोक्ष्य' पर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति सम्बन्धः, एते च भोगा भुज्यमाना अपि न तृप्तये भवन्तीत्याह-'नालं' इत्यादि, 'नालं' न समर्था अभिलापोच्छित्तये यथेष्टावाप्तावपि भोगाः एतत् पश्य' जानीहि, अतोऽलं तव कुशल !'एभिः' प्रमादमयेदुखकारणस्वभावैर्विषयैरुपभोगैरिति, न चैते बहुशोऽप्युपभुज्यमाना उपशमं विदधतीति, उक्तं च-"यल्लोके बीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नालमेकस्य तत्सर्वमितिमत्वा शमं कुरु ॥१॥ उपभोगोपायपरो वाञ्छति यः शमयितु विषयतष्णाम् । धावत्याक्रमितुमसौ, पुरोऽपराह निजच्छायाम् ॥१॥" तदेवं भोगलिप्सूनां तत्प्राप्तावप्राप्तौ च दुःखमेवेति दर्शयति ॥२५२॥ एयं पस्स मुणी! महन्भयं, नाइवाइज कंचणं, एस वीरे पसंसिए, जे न निविजा XXXXXX Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२५३॥ आयाणाए, न मे देइन कुप्पिज्जा थोवं लडन खिसए, पडिसेहिओ (पडिलामिओ) परिणमिन्ना, एयं मोणं समणुवासिज्जासि तिबेमि ॥सू.८५॥ इति चतुर्थोद्देशकः ॥२-४॥ 'एतत् प्रत्यक्षमेव भोगाशामहाज्वरगृहीतानां कामदशावस्थात्मकं महद्भयं भयहेतुत्वात् दुःखमेव महाभयं, तच्च मरणकारणमिति महदित्युच्यते, एतत् मुने ! 'पश्य' सम्यगैहिकामुष्मिकापायापादकत्वेन जानीहीत्युक्तं भवति । यद्येवं तकि कुर्यादित्याह-'नाइवाएज्ज' इत्यादि, यतो भोगाभिलपणं महद्भयमतस्तदर्थ 'नातिपातयेत्' न व्यथेत 'कञ्चन' कमपि जीवमिति, अस्य च शेषव्रतोपलक्षणार्थत्वात्र प्रतारयेत् कश्चनेत्याधप्यायोज्यं । भोगनिरीहः प्राणातिपातादिवतारूढच के गुणमवाप्नोतीत्याह-'एस' इत्यादि, 'एष' इति भोगाशाच्छन्दविवेचकोऽप्रमादी पञ्चमहाव्रतमागरोहणोनामितस्कन्धो वीरः कर्मविदारणात् 'प्रशंसितः स्तुतो देवराजादिभिः, क एष वीरो नाम ? योऽभिष्ट्रयत इत्यत आह'जे' इत्यादि यो 'न निर्विद्यते' न खिद्यते न जुगुप्सते, कस्मै ?-'आदानाय' आदीयते गृह्यतेऽवाप्यते आत्मस्व. तत्वमशेषावारककर्मक्षयाविभूतसमस्तवस्तुग्राहिज्ञाना(ना)बाधसुखरूपं येन तदादानं-संयमानुष्ठानं तस्मै न जुगुप्सते, तद्वा कवन सिकताकवलचर्वणदेशीयं कचिदलाभादी न खेदमुपयातीति, आह-'न मे' इत्यादि, ममायं गृहस्थः सम्भृतसंभारोऽप्यपस्थितेऽपि दानावसरे न ददातीतिकृत्वा 'न कुप्येत्' न क्रोधवशगो भूयाद, भावनीयं च-ममैवेषा कर्मपरिणतिथिलामोदयोऽयम, अनेन चालाभेन कर्मक्षयायोधतस्य मे तत्क्षपणसमर्थ तपो भावीति न किञ्चित्तूयते. अथापि कथश्चित स्तोकं प्रान्तं वा लमेत् तदपि न निन्देदित्याह-'थोवं' इत्यादि, 'स्तोकम्'. अपर्याप्तं 'लड' लब्धवा ॥ २५३. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा(ङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) । २५४ ।। न निन्देद्दातारं दत्तं वा, तथाहि - कतिचित्सिकथानयने ब्रवीति - सिद्ध ओदनो भिक्षामानय लवणाहारो वा अस्माकं नास्तीत्यन्नं ददस्वेत्येवं अत्युद्वृत्तच्छात्रवन्न विदध्यात् । किं च- 'पडिसेहिओ' इत्यादि, 'प्रतिषिद्धः' अदित्सितस्तस्मादेव प्रदेशात् 'प्ररिणमेत्' निवर्त्तेत, क्षणमपि न तिष्ठेन दौर्मनस्यं विदध्यान रुण्टन्नपगच्छेत् न तां सीमन्तिनीमपवदेद् धिक्ते गृहवासमिति, उक्तं च- "दिट्ठाऽसि कसेरुमई ! अणुभूयासि कसेरुमह ! | पीयं चियते पाणिययं वरि तुह नाम न दंसणं ॥ १ ॥" इत्यादि पठ्यते च- 'पडिलाभिओ परिणमेज्जा' प्रतिलाभितःप्राप्त भिक्षादिलाभः सन् परिणमेत्, नाच्चावचालापैः तत्रैव संस्तवं विदध्याद्, वैतालिकवदातारं नोत्प्रासयेदिति । उपसंहरन्नाह - ' एवं ' इत्यादि, 'एतत्' प्रव्रज्यानिर्वेदरूपं अदानाकोपनं स्वोकाजुगुप्सनं प्रतिषिद्धनिवर्त्तनं मुनेरिदं मौनंमुनिभिमुमुक्षुभिराचरितं त्वमप्यवाप्ताने कभव कोटिदुरापसंयमः सन् 'समनुवासयेः' सम्यग् विधत्स्वानुपालयेतिविनेयोपदेश आत्मानुशासनं वा । इतिः परिसमाप्तौ प्रवीमि पूर्ववत् ॥ लोकविजयाध्ययन चतुर्थोद्देशकटीका समाप्ता ॥ २-४ ॥ 18:1 १ दृष्टाऽसि उदारमते ! अनुभूताऽसि उदारमते !। पीतमेव ते पानीय वरं तब नाम न दर्शनम् ।। १ । लोकवि. अ. २ उद्देशकः ४ ॥ २५४ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%% .२५५॥ m ॥ अथ द्वितीयाध्ययने पञ्चमोद्देशकः ॥ उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पश्चमस्य व्याख्या प्रतन्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इह भोगान् परित्यज्य लोकनिश्रया संयमदेहप्रतिपालनार्थ विहर्त्तव्यमित्युक्तं तदत्र प्रतिपाद्यते, इह हि संसारोद्वेगवता परित्यक्तभोगाभिलाषण मुमुक्षुणोत्क्षिप्तपश्चमहाव्रतमारेण निरवद्यानुष्ठानविधायिना दीर्घसंयमयात्रार्थ देहपरिपालनाय लोकनिश्रया विहर्तव्यं, निराश्रयस्य हि कुतो देहसाधनानि , तदभावे धर्मश्चेति, उक्तं हि-"धम चरतः साधोलोंके निश्रापदानि पश्चापि । राजा गृहपतिरपरः षटकाया गणशरीरे च ॥१॥" साधनानि च वस्त्रपात्रानासनशयनादीनि, तत्रापि प्रायः प्रतिदिनमुपयोगित्वादाहारो गरीयानिति, स च लोकादन्वेष्टव्यो, लोकश्च नानाविधैरुपायैरात्मीयपुत्र कलत्राद्यर्थ आरम्भ प्रवृतः, तत्र साधुना संयमदेहनिमित्तं वृतिरन्वेषणीयेति दर्शयति जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कज्जंति, तंजहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाण नाईणं धाईण राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आपसाए पुढोपहेणाए सामासाए, पायरासाए, संनिहिसंनिचओ कजइ, इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए ॥ सू० ८६ ॥ 'यैः' अविदितवेद्यैः 'इद'मिति सुखदुःखप्राप्तिपरिहारत्वमुद्दिश्य 'विरूपरूपैः नानाप्रकारम्वरूपैः 'शस्त्रैः' प्राण्युप- घातकारिभिर्द्रव्यभावमेदभिन्नः 'लोकाय' शरीरपुत्रदुहितस्नुषाज्ञात्याद्यर्थ कर्मणां-सुखदुःखप्राप्तिपरिहारक्रियाणां XXIMA ॥ २५५ । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Il श्रीआचारावृत्तिः (शीलाका.) ॥ २५६ ॥ कायिकाधिकरणिकाप्रादोषिकापारितापनिकाप्राणातिपातरूपाणां कृषिवाणिज्यादिरूपाणां वा, समारम्भा इति मध्य लोकवि.अ. ग्रहणाबहुवचननिर्देशाच्च संरम्भारम्भयोरप्युपादानं, तेनायमर्थः-शरीरकलवाद्यर्थ संरम्भसमारम्भारम्भाः 'क्रियन्ते' अनुष्ठीयन्ते, तत्र संरम्भ इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहाराय प्राणातिपातादिसङ्कल्पावेशः, तत्साधनसन्निपातकायवागव्यापारजनित- उद्देशकः ५ परितापनादिलक्षणः समारम्भः, दण्डत्रयव्यापारापादितचिकीर्षितप्राणातिपातादिक्रियानिवृत्तिरारम्भः, कर्मणो वाअष्टप्रकारस्य समारम्भाः-उपार्जनोपायाः क्रियन्त इति, लोकस्येति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, साऽपि तादयें, कः पुनरसौ लोको ? यदर्थ संरम्भसमारम्भारम्भाः क्रियन्त इन्याह-'तंजहा-अप्पणो से' इत्यादि, यदिवा लोकस्य तृतीयार्थे षष्ठी, यदिति हेती, यस्माल्लोकेन नानाविधैः शस्त्रैः कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इत्यतस्तस्मिन् लोके साधु तिमन्वेषयेत् , यदर्थं च लोकेन कर्मसमारम्भाः क्रियन्ते तद्यथेत्यादिना दर्शयति-तंजहा-अप्पणो से' इत्यादि, 'तद्यथेत्युपप्रदर्शनार्थों, नोक्तमात्रमेवान्यदप्येवंजातीयकं मित्रादिकं द्रष्टव्यं, 'से'तस्यारम्भारिमोर्य आत्मा-शरीर (तस्मै अर्थ) तदर्थ कर्मसमारम्भाः-पाकादयः क्रियन्ते, ननु च लोकार्थमारम्माः क्रियन्त इति प्रागभिहितं, न च शरीरं लोको भवति, नैतदस्ति, यतः परमार्थदृशा ज्ञानदशनचारित्रात्मकमात्मतत्वं विहायान्यत्सर्व शरीराद्यपि पाराक्यमेव, तथाहि-बाह्यस्य पौद्गलिकस्याचेतनस्य कर्मणो विपाकभूतानि पश्चापि शरीराणीत्यतः शरीरात्माऽपि लोकशब्दाभिधेय इति, तदेवं कश्चिच्छरीरनिमित्तं कारभते, परस्तु पुत्रेभ्यो दुहितभ्यः स्नुषा:-वध्वस्ताभ्यो ज्ञातयः-पूर्वापरसम्बद्धाः स्वजनाः तेभ्यो au२५६. धात्रीभ्यो राजम्यो दासेभ्यो दासीभ्यः कर्मकरेभ्यः कर्मकरीभ्यः आदिश्यते परिजनो यस्मिन्त्रागते तदातिथेयाये 300-33000 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kal त्यादेशः-प्राघूर्णकस्तदर्थ कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इति सम्बन्धः, तथा 'पुढो पहेणाए' इत्यादि, पृथक् पृथक .२५७॥ पुत्रादिभ्यः प्रहेणकार्थ तथा 'सामासाए'त्ति श्यामा-रजनी तस्यामशनं श्यामाशः तदर्थं, तथा 'पायरासाए'त्ति प्रातरशनं प्रातराशस्तस्मै, कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इति सामान्येनोक्तावपि विशेषार्थमाह-सन्निहि' इत्यादि, सम्यग्निधीयत इति सन्निधिः-विनाशिद्रव्याणां दध्योदनादीनां संस्थापनं, तथा सम्यग निश्चयेन चीयत इति मनिचयः-अविनाशिद्रव्याणां अभयासितामृद्वीकादीनां सङ्ग्रहः, सन्निधिश्च सनिचयश्च सन्निधिसन्निचयं. प्राकृतशैल्या पुजिङ्गता, अथवा सन्निधेः सन्निचयः सन्निधिसन्निचयः, स च परिग्रहसंज्ञोदयादाजीविकाभ्यासाद्वा धनधान्यहिरण्यादिना क्रियत इति । स च किमर्थमित्याह-'इह' इत्यादि, 'इहे'ति मनुष्यलोके 'एकेषा मिहलोकेऽकृतपरमार्थबुद्धीना 'मानवानां' मनुष्याणां 'भोजनाय' उपभोगार्थमिति । तदेवं विरूपरूपैः शस्त्रैरात्मपुत्राद्यर्थ कर्मसमारम्भप्रवृत्ते लोके पृथकप्रहेणकाय श्यामाशाय प्रातराशाय केषाश्चिमानवानां भोजनार्थ सन्निधिसन्निचयकरणोद्यते सति साधुना किं कर्तव्यमित्याह-- समुट्ठिए अणगारे भारिए आरियपन्ने आरियदंसी अयंसंघित्ति अदक्खु (अयं संधिमदक्खु), से नाईए नाइयावए न समणुजाणई, सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए ॥ सू० ८७॥ सम्यक सततं सङ्गतं वा संयमानुष्ठानेनोत्थितः समुत्थितो, नानाविधशस्त्रकर्मसमारम्भोपरत इत्यर्थः, न विद्यतेऽगारं-गृहमस्येत्यनगारः, पुत्रदुहितस्नुषाज्ञातिधाच्यादिरहित इत्यर्थः, सोऽनगार: आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्यः इत्यार्य: २५७. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (चीलाङ्का.) ॥२५८ ॥ चारित्राहः, आर्या प्रज्ञा यस्यासावार्यप्रज्ञः, श्रुतविशेषितशेमुषीक इत्यर्थी, आय-प्रगुणं न्यायोपपन्नं पश्यति तच्छील लोकवि.अ. श्चेत्यार्यदी पृथकप्रहेणकश्यामाशनादिसङ्कल्परहित इत्यर्थः, 'अयंसंधीति' सन्धानं सन्धीयते वाऽसाविति सन्धिरयं सन्धिर्यस्य साधोरसावयंसन्धिः, छान्दसत्वाद्विभक्तेरलुगित्ययंसन्धिः-यथाकालमनुष्ठानविधायी यो यस्य वर्तमानः कालः उद्देशकः ५ कर्त्तव्यतयोपस्थितस्तत्करणतया तमेव सन्धत्त इति, एतदुक्तं भवति-सर्वाः क्रियाः प्रत्युपेक्षणोपयोगस्वाध्यायभिक्षाचर्याप्रतिक्रमणादिकाः असपत्ना अन्योऽन्याबाधया आत्मीयकर्त्तव्यकाले करोतीत्यर्थः, इतिः हेती, यस्माद्यथाकालानुष्ठानविधायी तस्मादसावेव परमार्थ पश्यतीत्याह-'अदक्खु'ति, तिव्यत्ययेन एकवचनावसरे बहुवचनमकारि, ततश्चायमर्थ:-यो धार्य आर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी कालज्ञश्च स एव परमार्थमद्राक्षीनापर इति, पाठान्तर' वा अयं संधिमदक्खु' 'अयम्' अनन्तरविशेषणविशिष्टः साधु 'सन्धि' कर्तव्यकालम् 'अद्राक्षीद्' दृष्टवान् , एतदुक्तं भवति-यः परस्परावाधया हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया विधेयावसरं वेत्ति विधत्ते च स परमार्थ ज्ञातवानिति, अथवा भावसन्धिःज्ञानदर्शनचारित्राणामभिवृद्धिः स च शरीरमृते न भवति, तदपि नोपष्टम्भककारणमन्तरेण, तस्य च सावधस्य परिहारः कर्तव्य इत्यत आह-से णाईए' इत्यादि, 'स' मिचुस्तद्वाऽकल्प्यं 'नाददीत' न गृह्णीयानाप्यपरमादापयेत्-ग्राहयेत, नाप्यपरमनेषणीयमाददानं समनुजानीयादपि, अथवा सइङ्गालं सधूमं वा नाद्यात्-न भक्षयेनापरमादयेददन्तं वा न समनुजानीयादिति, आह--'सव्वामगंध' इत्यादि, आमं च गन्धश्च आमगन्धं समाहारद्वन्द्वः, सर्व च तदामगन्धं ॥१५८D च सर्वामगन्धं, सर्वशब्दः प्रकारकात्स्न्येऽत्र गृह्यते न द्रव्यकात्स्न्ये, आमम्-अपरिशुद्धं, गन्धग्रहणेन तु पूतिगृह्यते, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२५६॥ ननु च पूतिद्रव्यस्याप्यशुद्धत्वात् आमशब्देनवोपादानाकिमर्थ मेदेनोपादानमिति, सत्यम, अशुद्धसामान्याद्गृह्यते, किं तु पूतिग्रहणेनेहाधाकर्माद्यविशुद्धकोटिरुपात्ता, तस्याश्च गुरुतरत्वात् प्राधान्यख्यापनार्थ पुनरुपादानं, ततश्चायमर्थः- 26 गन्धग्रहणेनाधाकर्म १ औद्देशिकत्रिकं २ पूतिकर्म ३ मिश्रजातं ४ बादरप्राभृतिका ५ अध्यवपूरक ६ श्चैते षडुद्गमदोषा अविशुद्धकोटथन्तर्गता गृहीताः, शेषास्तु विशुद्धकोट्यन्तर्भूता आमग्रहणेनोपात्ता द्रष्टव्या इति, सर्वशब्दस्य च प्रकारकात्याभिधायकत्वाद् येन केनचित् प्रकारेण आमम्-अपरिशुद्ध पूति वा भवति तत्सर्वं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया 'निरामगन्धः' निर्गतावामगन्धौ यस्मात्स तथा 'परिव्रजेत' मोक्षमार्गे ज्ञानदर्शनचारित्राख्ये परिः-समन्ताद्गच्छेत संयमानुष्ठानं सम्यगनुपालयेदितियावत् । आमग्रहणेन प्रतिषिद्धेऽपि क्रीतकृते तथाप्यन्पसचानां विशुद्धकोटथालम्बनतया मा भूत्तत्र प्रवृत्तिरतस्तदेव नामग्राहं प्रतिनिषेधिषुराह-- अविस्समाणे कयविक्कयेसु, से ण किणे न किणावए किणंतं न समणुजाणइ, से भिक्खू कालन्ने पालन्ने मायने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने भावन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालाणट्ठाई अपडिण्णे । सू०८८॥ क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रयौ तयोरदृश्यमानः, कीदृक्षश्च तयोरदृश्यमानो भवति ?, यतस्तयोनिमित्तभूतद्रव्याभावादकिञ्चनोऽथवा क्रयविक्रययोरदिश्यमान:-अनपदिश्यमानः, कश्च तयोरनपदिश्यमानो भवति ?, यः क्रीतकृतापरिभोगी भवतीति, आह च-'से ण किणे इत्यादि, 'स'मुमुक्षुरकिञ्चनो धर्मोपकरणमपि न क्रीणीयात् स्वतो नाप्यपरेण Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ।। २६० ।।। क्रापयेत् क्रीणन्तमपि न समनुजानीयाद्, अथवा निरामगन्धः परिव्रजेदित्यत्रामग्रहणेन हननकोटित्रिकं गन्धग्रहणेन पचनको टित्रिकं क्रयणकोटित्रिकं तु पुनः स्वरूपेणैवोपात्तम्, अतो नवकोटिपरिशुद्धमाहारं विगताङ्गारधूमं भुञ्जीत, एतद्गुणविशिष्टश्च किंभूतो भवतीत्याह - ' से भिक्खू कालन्ने' कालः - कर्त्तव्यावस रस्तं जानातीति कालज्ञः - विदितवेद्य', तथा 'बालण्णे' बलज्ञः बलं जानातीति बलज्ञः, छान्दसत्वाद्दीर्घत्वं, आत्मबलं सामर्थ्यं जानातीति यथाशक्त्यनुष्ठानविधायी, अनिगूहितबलवीर्य इत्यर्थः, तथा 'मायन्ने' यावद्द्रव्योपयोगिता मात्रा तां जानातीति तज्ज्ञ, तथा 'खेयन्ने' खेदः - अभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञः अथवा खेदः - श्रमः संसारपर्यटनजनितस्तं जानातीति, उक्तं च"जरामरणदौर्गत्यव्या वयस्तावदासताम् । मन्ये जन्मैव धीरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरम् ॥ १ ॥" इत्यादि, अथवा 'क्षेत्रज्ञः ' संसक्तविरुद्धद्रव्य परिहार्य कुलादि क्षेत्रस्वरूपपरिच्छेदकः, तथा 'खणयन्नो' क्षण एव क्षणकः - अवसरो भिक्षार्थमुपसर्पणादिकस्तं जानातीति, तथा 'विणयन्ने' विनयो - ज्ञानदर्शनचारित्रौपचारिकरूपस्तं जानातीति, तथा 'ससमय परसमयण्णे' स्वसमयपरसमयौ जानातीति, स्वसमयज्ञो गोचरप्रदेशादौ पृष्टः सन् सुखेनैव भिक्षादोषानाचष्टे तद्यथा - षोडशोद्गमदोषाः ते चामी -आधाकर्म्म १ औद्देशिकं २ पूतिकर्म्म ३ मिश्रजातं ४ स्थापना ५ प्राभृतिका ६ प्रकाशकरणं ७ क्रीतं ८ उद्यतकं ६ परिवर्त्तितं १० अभ्याहतं ११ उद्भिन्नं १२ मालापहृतं १३ आच्छेद्यं १४ अनिसृष्टं १५ अध्यवपूरकश्चेति १६ । षोडशोत्पादनदोषाः, ते चामी -धात्रीपिण्डः १ दूतीपिण्डः २ निमित्त पिण्डः ३ आजीवपिण्डः ४ वनीपकपिण्डः ५ चिकित्सा पिण्डः ६ क्रोधपिण्डः ७ मानपिण्डः ८ मायापिण्डः ९ लोभपिण्डः १० लोकवि. अ. २ उद्देशकः ५ ॥ २६० ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२१॥ पूर्वसंस्तवपिण्डः ११ पश्चात्संस्तवपिण्डः १२ विद्यापिण्डः १३ मन्त्रपिण्डः १४ चूर्णयोगपिण्डः १५ मूलकनेपिण्डश्चेति १६ । तथा दशैषणादोषाः, ते चामी-शङ्कित १ प्रक्षित २ निक्षिप्त ३ पिहित ४ संहृत ५ दायको ६ मिश्रा ७ ऽपरिणत ८ लिप्सो ज्झित १० दोषाः । एषां चोद्गमदोषा दातृकृता एव भवन्ति, उत्पादनादोषास्तु साधुजनिताः, एषणादोषाश्चोभयोत्पादिता इति । तथा परममयज्ञो ग्रीष्ममध्याह्नतीव्रतरतरणिकरनिकरावलीढगलस्वेदबिन्दुकः क्लिनवपुष्कः साधुः केनचिद् धिगजातिदेश्येनाभिहित:-किमिति भवतां सर्वजनाचीर्ण स्नानं न मम्मतमिति १, स आह-प्रायः सर्वेषामेव यतीनां कामाङ्गत्वाज्जलस्नानं प्रतिषिद्धं, तथा चार्षम् -'स्नानं मददप्र्पकरं, कामा प्रथम स्मतम । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः॥१॥" इत्यादि, तदेवमुभयज्ञस्तद्विषये प्रश्ने उत्तरदानकुशलो भवति, तथा 'भावन्ने भावः-चित्ताभिप्रायो दातुः श्रोतुर्वा तं जानातीति भावज्ञः, किं च-'परिग्गहं अममायमाणे' परिगृह्यत इति परिग्रहः-संयमातिरिक्तमुपकरणादिः तमममीकुर्वन्-अस्वीकुर्वन् मनसाऽप्यनाददान इतियावत , स एवंविधो भिक्षुः कालज्ञो बलज्ञो मात्रज्ञः क्षेत्रज्ञः खेदज्ञो क्षणज्ञः विनयज्ञः समयज्ञो भावज्ञः परिग्रहमममीकुर्वाणश्च किंभूतो भवतीत्याह-'कालाणुवाई' यद्यस्मिन् काले कर्तव्यं तत्तस्मिन्नेवानुष्ठातु शीलमस्येति कालानुष्ठायी-कालानतिपातकर्त्तव्योधतो, ननु चास्यांर्थस्य 'से मिक्खू कालन्ने' इत्यनेनैव गतार्थत्वात् किमर्थं पुनरभिधीयते इति : नैष दोषः, तत्र हि ज्ञपरिव केवलाऽमिहिता, कर्तव्यकालं जानाति, इह पुनरासेवनापरिज्ञा कलव्यकाले कार्य विधत्त इति । किंच-'अपडिण्णे नास्य प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञः, प्रतिज्ञा च कषायोदयादापिरस्ति, तद्यथा-क्रोधोदयात् स्कन्दा ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि.अ.२ उद्देशकः ५ चार्येण स्वशिष्ययन्त्रपीलनव्यतिकरमालोक्य सबलवाहनराजधानीसमन्वितपुरोहितोपरि विनाशप्रतिज्ञाऽकारि, तथा मानोभीआचा दयात् बाहुबलिना प्रतिज्ञा व्यधायि यथा-कथमहं शिशून् स्वभ्रातनुत्पन्ननिरावरणज्ञानाश्छमस्थः सन् द्रक्ष्यामीति ?, राजवृत्तिः तथा मायोदयात् मल्लिस्वामिजीवेन यथाऽपरयतिविप्रलम्भनं भवति तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा अगृहे, तथा लोभोदया(शीलाङ्का.) च्चाविदितपरमार्थाः साम्प्रतक्षिणो यत्याभासा मासक्षपणादिका अपि प्रतिज्ञाः कुर्वते, अथवा अप्रतिज्ञा-अनिदानो ॥२६२॥ वसुदेववत संयमानुष्ठानं कुर्वन् निदानं न करोतीति, अथवा गोचरादौ प्रविष्टः सन्नाहारादिकं ममैवैतद्भविष्यतीत्येवं प्रतिज्ञा न करोतीत्यप्रतिज्ञो, यदिवा स्याद्वादप्रधानत्वान्मौनीन्द्रागमस्यैकपक्षावधारणं प्रतिज्ञा तद्रहितोऽप्रतिज्ञः, तथाहिमैथुनविषयं विहायान्यत्र न क्वचिन्नियमवती प्रतिज्ञा विधेया, यत उक्तम्-"'नय किंचि अणण्णायं पडिसिद्ध १ नापि किचिदकल्पनीयमनुज्ञातं क रणे च समुत्पन्ने नापि किञ्चित प्रतिषिद्धं, किन्तु एषा तेषां तीर्थकृतां निश्चयव्यवहारनयद्वयाश्रिता सम्यगाज्ञा मन्तव्या यदुत कार्ये नानाद्यालम्बने सत्येन सद्भावसारेण साधुना भवितव्यं न मातृस्थानतो यत्किकिचदा लम्बनीयमित्यर्थः, तात्त्विकज्ञानाद्यालम्बनसिध्यैव मोक्षपथसिद्धेर्बाह्यानुष्ठानस्य अनेकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च, इत्थमेव नस्य al द्रव्यत्वसिद्धः, अथवा सत्य नाम संयमस्तेन काय समुत्पन्ने भवितव्यं, यथा यथा संयम उपसर्पति तथा तथा कत्तव्यं, तदुत्सर्पणं च शक्त्यनिगृहनेनैव निर्वहतीति, सर्वत्र यथाशक्ति यतितव्यमेवेति भावः माह च बृहद्भाष्यकार:-"कजं नाणादीय सच्च पुण होइ संजमो णियमा। जह जह सोहेइ चरणं तह तह कायव्ययं होइ ॥१॥" दोषा रागादयो निरुध्यन्ते-सन्तोऽप्यप्रवृत्तिमन्तो जायन्ते येनानुष्ठानविशेषेण पूर्वकर्माणि प्राग्भवोपात्तज्ञानावरणादिकर्माणि च येन क्षीयन्ते स सोऽनुष्ठानविशेषो मोक्षोपायो ज्ञातव्यः, रोगावस्थासु-ज्वरादिरोगप्रकारेषु शमनमिवोचितौषधप्रदानापथ्यपरिहाराद्यनुष्ठानमिव, यथा तेन विधीवमानेन ज्वरादिरोगः क्षय ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ २. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२६३॥ वावि जिणवरिंदेहिं। मोत्तु मेहुणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ॥१॥" तथा "दोसा जेण निरुज्झंति जेण जिझंति पुव्वकम्माई। सो सो मुक्खोवाओ, रोगावस्थासु समणं व ॥ २॥ जे जत्तिया उ हेऊ भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्ने । गणणाइया लोया दुण्हवि पुण्णा भवे तुल्ला ॥३॥" इत्यादि । 'अयंसन्धीत्यारभ्य काले अणुट्ठाईत्ति यावदेतेभ्यः सूत्रेभ्य एकादश पिण्डैषणा नियूढा इति । एवं तह्य प्रतिज्ञ इत्यनेन मूत्रणेदमापन्नं-न क्वचिकेनचित्प्रतिज्ञा विधेया, प्रतिपादिताश्चागमे नानाविधा अभिग्रहविशेषाः, ततश्च पूर्वोत्तरव्याहतिरिव लक्ष्यत इत्यत आह दुहओ छेत्ता नियाइ, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं उग्गहणं च कडासणं एएसु चेव जाणिज्जा ॥ सू० ८९॥ 'द्विधेति रागेण द्वेषेण वा या प्रतिज्ञा तां छित्त्वा निश्चयेन नियतं वा याति नियाति ज्ञानदर्शनचारित्राख्ये मोक्षमुपगच्छति, एवमुत्सर्गे उत्सर्गमपवादे चापवादं समाचरतो रागादयो निरुध्यन्ते पूर्वकर्माणि च क्षीयन्ते, अथवा यथा कस्यापि रोगिणोऽधिकृतपथ्यौषधादिक प्रतिषिध्यते कस्यापि पुनम्तदेवानुज्ञायते, एवमत्रापि यः समर्थस्तस्याकल्प्यमन्यस्य तु तदेवानुज्ञायते, तथोक्तं मिषग्वरशास्त्रे-"उत्पयते हि साऽवस्था, देशकालामयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात, कर्मकार्य च बजेये ॥१॥" दिति.। २ नैव किञ्चिदनुज्ञातं प्रतिषिद्धं वापि जिनवरेन्द्रः। मुक्त्वा मैथुनभावं न तद् विना रागद्वेषाभ्याम् ॥१॥दोषा येन निरुध्यन्ते येन क्षीयन्ते पूर्वकर्माणि। स स मोक्षोपायो रोगावस्थासु शमनमिव ॥ २॥ ये यावन्तो हेतवो भवस्य त एव तावन्तो मोक्षस्य । गणनातीता लोका द्वयोरपि पूर्णा भवेयुस्तुल्याः ॥३॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवि.अ.२ बीआचाराङ्गवृत्तिः (शोलाङ्का) उद्देशकः ५ ॥२६४॥ मार्गे संयमानुष्ठाने वा मिक्षाद्यर्थ वा, एतदुक्तं भवति-रागद्वेषौ छित्त्वा प्रतिज्ञा गुणवती, व्यत्यये व्यत्यय इति, स एवम्भूतो भिक्षुः कालज्ञो बलज्ञो यावद्विधा छिन्दन किं कुर्यादित्याह-'वत्थं पडिग्गह' इत्यादि यावत् एएसु चेव जाणेन्जा' एतेषु पुत्राद्यर्थमारम्भप्रवृत्तेषु सन्निधिसनिचयकरणोद्यतेषु जानीयात्र-शुद्धाशुद्धतया परिच्छिन्द्यात् , परिच्छेद- श्चैवमात्मक:-शुद्धं गृह्णीयादशुद्धं परिहरेदितियावत् , किं तद्विजानीयात् ?-वस्त्रं वस्त्रग्रहणेन वस्त्रैषणा सूचिता, तथा पतद्ग्रह-पात्रम्, एतद्ग्रहणेन च पात्रैषणा सूचिता, कम्बलमित्यनेनाऽऽविकः पात्रनिर्योगः कल्पश्च गृह्यते, पादपुञ्छनकमित्यनेन च रजोहरणमिति, एभिश्च सूत्रैरोघोपधिरौपग्रहिकश्च सूचितः, तथैतेभ्य एव वस्त्रैषणा पात्रैषणा च नियूढा, तथा अवगृह्यत इत्यवग्रहः, स च पश्चधा-देवेन्द्रावग्रहः १.राजावग्रहः २ गृहपत्यवग्रहः ३ शय्यातरावग्रहः ४ साधर्मिका वग्रहश्चेति, अनेन चावग्रहप्रतिमाः सर्वाः सूचिताः, अत एवासौ निर्यढा, अवग्रहकल्पिकश्चास्मिन्नेव सूत्रे कम्प्यते, तथा कटासनं, कटग्रहणेन संस्तारको गृह्यते, आसनग्रहणेन चासन्दकादिविष्टरमिति, आस्यते-स्थीयते अस्मिन्निति वाऽऽसनं-शय्या, ततश्च आसनग्रहणेन शय्या सूचिता, अत एव नियं टेति । एतानि च सर्वाण्यपि वस्त्रादीन्याहारादीनि चैतेषु स्वारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु जानीयात्, सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धो यथा भवति तथा परिव्रजेरिति भावार्थः । एतेषु च स्वारम्मप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु परिव्रजन् यावद्धाभं गृह्णीयात कश्चिन्नियमोऽप्यस्तीत्याह लडे आहारे अणगारो मायं जाणिज्जा, सेजहेयं भगवया पवेईयं, लाभुत्तिन मजिजा, अलाभुत्ति न सोइज्जा, बटुंपि लड्न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसचिना ॥सू०९०॥ ॥२६४॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RX .२६५॥ 'लब्धे प्राप्ते सत्याहारे, आहारग्रहणं चोपलक्षणार्थम् अन्यस्मिन्नपि वस्त्रौषधादिके 'अनगारः' भिक्षुः 'मात्रां जानीयात्' यावन्मात्रेण गृहीतेन गृहस्थः पुनरारम्भे न प्रवर्तते यावन्मात्रेण चात्मनो विवक्षितकार्यनिष्पत्तिर्भवति | तथाभृतां मात्रामवगच्छेदिति भावः, एतच्च स्वमनीषिकया नोच्यत इत्यत आह-'से जहेयं' इत्यादि, तद्यथा-इदमुद्देशकादेरारभ्यानन्तरसूत्रं यावद्भगवता-ऐश्वर्यादिगुणसमन्वितेनार्द्धमागधया भाषया सर्वस्वभाषानुगतया मदेवमनुजायां पर्षदि केवलज्ञानचक्षुषाऽवलोक्य 'प्रवेदितं' प्रतिपादितं, सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने इदमाचष्टे । किं चान्यत्-लाभो'त्ति इत्यादि, लाभो वनाहारादेर्मम संवृत्त इत्यतोऽहो ! अहं लब्धिमानित्येवं मदं न विदध्यात् । न च तदभावे शोकाभिभूतो विमनस्को भृयादिति, आह च-'अलाभो'त्ति इत्यादि, अलाभे सति शोकं न कुर्यात् , कथं ?-धिमा मन्दभाग्यऽहं येन सर्वदानोद्यतादपि दातुर्न लमेऽहमिति, अपि तु तयोर्लामालाभयोर्माध्यस्थ्यं भावनीयमिति, उक्तं च-"लभ्यते लभ्यते साधु, साधुरेव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे तु प्राणधारणम् ॥१॥" इत्यादि, तदेवं पिण्डपात्रवस्त्राणामेषणाः प्रतिपादिनाः, साम्प्रतं सन्निधिप्रतिषेधं कुर्वन्नाह-'बहुंपि'त्यादि, 'बहुंपि' बह्वपि लब्ध्वा 'न निहे' त्ति न स्थापयेत्-न सन्निधिं कुर्यात् , स्तोकं तावन्न सन्निधीयत एव, बह्वपि न सन्निदध्यादित्यपिशब्दार्थः, न केवलमाहारसन्निधिं न कुर्याद् , अपरमपि वस्त्रपात्रादिकं संयमोपकरणातिरिक्तं न बिभृयादिति, आह–'परि' इत्यादि, परिगृह्यत इति परिग्रहो-धर्मोपकरणातिरिक्तमुपकरणं तस्मादात्मानमपष्वष्केद्-अपसर्पयेद् , अथवा संयमोपकरणमपि मूर्छया परिग्रहो भवति, 'मूर्छा परिग्रह' (तत्त्वा० अ०७ सू० १२) इतिवचनात् , तत आत्मानं परिग्रहादपसप्पयन्नुपकरणे .... . ॥२६५० Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २६६ ॥ तुरगवत् मूच्र्छा न कुर्यात् ननु च यः कश्चिद्धर्मोपकरणाद्यपि परिग्रहो, न स चित्तकालुष्यमृते भवति तथाहिआत्मीयोपकारिणि राग उपघातकारिणि च द्वेषः, ततः परिग्रहे सति रागद्वेषौ नेदिष्ठौ, ताभ्यां च कर्म्मबन्धः, ततः कथं न परिग्रहो धम्र्मोपकरणम् १, उक्तं च- 'ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः । यशः सुखपिपासितैरयमसावनर्थोत्तरैः, परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते ॥ १ ॥" नैष दोषः, न हि धर्मोपकरणे ममेदमिति एवं साधूनां परिग्रहाग्रहयोगोऽस्ति, तथा ह्यागम:- " अवि अपणोऽवि देहंमि, नायरंति ममाइउ", यदिह परिगृहीतं कर्म्मबन्धायोपकन्पते स परिग्रहो, यत्तु पुनः कर्म्मनिर्जरणार्थं प्रभवति तत्परिग्रह एव न भवतीति । आह च अन्ना णं पासए परिहरिज्जा, एस मग्गे आयरिएहिं पवेइए, जहित्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि तिबेमि ॥ ९१ ॥ मति वाक्यालङ्कारे, 'अन्यथे' त्यन्येन प्रकारेण पश्यकः सन् परिग्रहं परिहरेत्, यथा हि अविदितपरमार्था गृहस्थाः सुखसाधनाय परिग्रहं पश्यन्ति न तथा साधुः तथाहि अयमस्याशयः - आचार्य सत्कमिदमुपकरणं न ममेति, रागद्वेषमूलत्वात् परिग्रहाग्रहयोगोऽत्र निषेध्यो, न धम्र्मोपकरणं, तेन विना संसारार्णवपारागमनादिति, उक्तं च साध्यं यथा कथचित् स्वल्पं कार्यं महच न तथेति । प्लवनमृते न हि शक्यं पारं गन्तुं समुद्रस्य ॥ १ ॥" अत्र चाहता मासैर्बोटिकैः सह महान्त्रिवादोऽस्तीत्यतो विवक्षितमर्थं तीर्थकराभिप्रायेणापि सिसाधयिषुराह - 'एस मग्गे ' लोकवि. अ. २ | उद्देशक: ५ ॥ २६६ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २६७ ॥ इत्यादि, धर्मोपकरणं न परिग्रहायेत्येषः - अनन्तरोक्तो मार्गः आराद्याताः सर्व हेयधर्मेभ्य इत्यार्याः- तीर्थकृतस्तैः 'प्रवेदितः' कथितो, न तु यथा बोटिकैः कुण्डिका तट्टिका लम्बणिका अश्ववालधिवालादि स्वरुचिविरचितो मार्ग इति, न वा यथा मौद्गलिस्वातिपुत्राभ्यां शौद्धोदनं ध्वजीकृत्य प्रकाशितः, इत्यनया दिशा अन्येऽपि परिहार्या इति । इह तु स्वशास्त्रगौरवमुत्पादयितुमार्यैःप्रवेदित इत्युक्तम् अस्मिश्चार्यप्रवेदिते मार्गे प्रयत्नवता भाव्यमिति, आह च - ' जहेल्थ' इत्यादि, लब्ध्वा कर्म्मभूमि मोक्षपादपबीजभूतां च बोधिं सर्वसंवरचारित्रं च प्राप्य तथा विधेयं यथा 'कुशलो' विदितवेद्यः 'अत्र ' अस्मिन्नार्यप्रवेदिते मार्गे आत्मानं पापेन कम्मैणा नोपलिम्पयेत् इति । एवं चोपलिम्पनं भवति यदि यथोक्तानुष्ठानविधायित्वं न भवति, सतां चायं पन्था यदुत यत्स्वयं प्रतिज्ञातं तदन्त्योच्छ्वासं यावद्विधेयमिति, उक्तं च - " लज्जां गुणौघजननीं जननीमिवार्या मत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्त्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति, सत्य स्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ १ ॥” इतिशब्दोऽधिकारसमाप्त्यर्थो, 'ब्रवोमि' इति सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवत्पादारविन्दमुपासता अभावीति ॥ परिग्रहादात्मानमपसर्पयेदित्युक्तं तच्च न निदानोच्छेदमन्तरेण, निदानं च शब्दादिपञ्चगुणानुगामिनः कामाः तेषां चोच्छेदोऽसुकरो, यत आह कामा दुरतिकमा, जीवियं हुप्पडिवूहगं, कामकामो खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जूरइ तिप्पइ परितप्पड़ || सू० ९२ ॥ कामा द्विविधाः - इच्छाकामा मदनकामाश्च तत्रेच्छाकामा मोहनीयमेदहास्यरत्युद्भवाः, मदनकामा अपि मोहनीय 1 ॥ २६७ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा. रावृत्तिः (धीलाङ्का. ॥ २६८॥ लोकवि.अ.२ उद्देशकः ५ मेदवेदोदयात् प्रादुष्प्यन्ति, ततश्च द्विरूपाणामपि कामानां मोहनीयं कारणं, तत्सद्भावे च न कामोच्छेद इत्यतो दुःखेनातिक्रमः-अतिलङ्घनं विनाशो येषां ते तथा, सतश्चेदमुक्तं भवति-न तत्र प्रमादवता भाव्यं । न केवलमत्र जीवितेऽपि न प्रमादवता भाव्यमिति, आह च–'जीवियं' इत्यादि, जीवितम्-आयुष्कं तत् क्षीणं सत् 'दुष्प्रतिबृहणीयं दुरभावार्थे, नैव वृद्धिं नीयते इतियावत् , अथवा जीवितं-संयमजीवितं तदुष्प्रतिबृहणीयं, कामानुषक्तजनान्तवर्तिना दुःखेन वृद्धिं नीयते, दुःखेन निष्प्रत्यूहः संयमः प्रतिपान्यते इति, उक्तं च-"आगासे गंगसोउव्व, पडिसोउव्व दुत्तरो। थाहाहिं चेव गंभीरो, तरिअव्वो महोअही ॥१। वालुगाकवलो चेव, निरासाए हु संजमो। जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुकरं ॥२॥" इत्यादि, येन चाभिप्रायेण कामा दुरतिक्रमा इति प्रागम्यधायि तमभिप्रायमाविष्कुर्वनाह–'कामकामी' इत्यादि, कामान् कामयितुम्-अभिलषितु शीलमस्येति कामकामी 'खलु वाक्यालङ्कारे 'अयम्' इत्यध्यक्षः 'पुरुष' जन्तुः। यस्त्वेवंविधोऽविरतचेताः कामकामी स नानाविधान् शारीरमानसान् दुःखविशेषाननुभवतीति दर्शयति-से सोयईत्यादि, 'स' इति कामकामी ईपितस्यार्थस्याप्राप्तौ तद्वियोगे च स्मृत्यनुषङ्गः शोकस्तमनुभवति अथवा शोचत इति काममहाज्वरगृहीतः सन् प्रलपतीति, उक्तं च"गते प्रेमाबन्धे पणयबहुमाने च गलिते, निवृत्ते सद्भावे जन इव जने गच्छति पुरः। तमुत्प्रेक्ष्योत्प्रेक्ष्य १ आकाशे गङ्गाश्रोत इष, प्रतिश्रोत इव दुस्तरः। बाहुभ्यामेव गम्भीरस्तरीतव्यो महोदधिः ॥ १॥ वालुकाकवल इव, निरास्वाद एव संयमः । यवा लोहमया एव, चर्वयि नव्याः सुदुष्करम् ॥ २॥ X.XX.XX ॥२६८॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६६॥ न पश्चात्तापंवा प्रियसखि ! गतांस्तांश्च दिवसान , न जाने को हेतुलति शतधा यन्त्र हृदयम् ॥१॥" इत्यादि शोचते, तथा 'जूरह'त्ति हृदयेन खिद्यते, तद्यथा-"प्रथमतरमथेदं चिन्तनीयं तवासीदुषहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन । हृतहक्ष्य ! निराश ! क्लीष ! संतप्यसे किं ?, न हिजडगततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते ॥१॥" इत्येवमादि, तथा 'तिप्पहति 'तिपृ ते प्रक्षरणार्थी' तेपते-क्षरति सञ्चलति मर्यादातो भ्रश्यति निमर्यादो भवतीतियावत , तथा शारीरमानसैदुःखैः पीडयते, तथा परि:-समन्ताद्वहिरन्तश्च तप्यते परितप्यते, 'पश्चात्तापं वा करोति, यथेष्टे पुत्रकलत्रादौ कोपात् कचिद्गते स मया नानुवर्तित इति परितप्यते, सर्वाणि चैतानि शोचनादीनि विषयविषावष्टब्धान्त:करणानां दुःखावस्था मंसूचकानि, अथवा शोचत इति यौवनधनमदमोहाभिभूतमानसो विरुद्धानि निषेव्य पुनर्वयापरणामेन मृत्युकालोपस्थानेन वा मोहापगमे सति किं मया मन्दभाग्येन पूर्वमशेषशिष्टाचीर्णः सुगतिगमनैकहेतुर्दुर्गतिद्वारपरिघो धर्मो नाचीर्णः ? इत्येवं शोचत इति, उक्तं च-"भवित्री भूतानां (भावानां) परिणतिमनालोच्य नियतां, पुरा यद्यत किञ्चिदिहितमशुभं यौवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदेवैकं पुसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् ॥१॥" तथा जूरतीत्यादीन्यपि स्वबुद्धया योजनीयानि, उक्तं च-"सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥ १॥" इत्यादि । का पुनरेवं न शोचत इत्याह आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स भहो भागं जाणाबई भागं जाणइ तिरियं मागं वा मोहापगमेशात इति योगपते, सर्वाणि Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा लोकवि. अ.२ राजवृत्तिः उद्देशकः ५ (शीलाङ्का.) ॥ २७० ॥ जाणा, गडिए लोए अणुपरियहमाणे, संधि वित्ता इह मचिएहिं, एस वीरे पसंसिए । जे बढे पडिमोयए जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूछ देहंतराणि पासइ पुढोवि सवंताई पंडिए पडिलेहाए ॥ सू० ९३ ॥ ___ आयतं-दीर्घमैहिकामुष्मिकापायदर्शि चक्षुः-ज्ञानं यस्य स आयतचक्षः, कः पुनरित्येवंभूतो भवति ? यः कामानेकान्तेनानर्थभूयिष्ठान् परित्यज्य शमसुखमनुमति, किं च-'लोगविपस्सी' लोक विषयानुषणावेशाप्तदुःखातिशयं तथा त्यक्तकामावाप्तप्रशमसुखं विविधं द्रष्टु शीलमस्येति लोकविदर्शी, अथवा लोकस्य ऊद्धर्वाधस्तिर्यग्भागगतिकारणायुष्कसुखदुःखविशेषान् पश्यतीति, एतदर्शयति-'लोगस्स' इत्यादि, लोकस्य-धर्माधर्मास्तिकापावच्छिन्नाकाशखण्डस्याधोभागं जानातीति-स्वरूपतोऽवगच्छति, इदमुक्तं भवति-येन कर्मणा तत्रोत्पद्यन्तेऽसुमन्तः यादृक् तत्र सुखदुःखविपाको भवति तं जानाति, एवमूतियग्भागयोरपि वाच्यं, यदिवा लोकविदर्शीति-कामार्थमर्थोपार्जनप्रसक्तं गृद्धमध्युपपन्नं लोकं पश्यतीति । एतदेव दर्शयितुमाह-'गड्डिए' इत्यादि, अयं हि लोको 'गृडः'.अध्युपपन्नः कामानुषङ्गे तदुपाये वा तत्रेवानुपरिवर्त्तमानो भूयो भूयस्तदेवांचरंस्तज्जनितेन वा कर्मणा संसारचक्रेऽनुपरिवर्त्तमानः-पर्यटनायत चक्षुषो गोचरीभवन् कामामिलापनिवर्त्तनाय न प्रभवति ?, यदिवा कामगृद्धान् संसारेऽनुपरिवर्त्तमानानसुमतः पश्येत्येवमुपदेशः, अपि च-'संधि' इत्यादि, इह 'मर्येषु' मनुजेषु यो ज्ञानादिको भावसन्धिा, स च मर्येष्वेव सम्पूर्णो भवतीति मर्त्यग्रहणम् , अतस्तं विदित्वा यो विषयकषायादीन् परित्यजति स एव वीर इति दर्शयति-'एस' इत्यादि, २७ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२७१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 'एष.' अनन्तरोक्तः आयतचक्षुर्यथावस्थितलोकविभागस्वभावदर्शी भावसन्धेर्वेत्ता परित्यक्तविषयतर्षों वीरः कर्मविदारणात् 'प्रशंसितः स्तुत: विदिततत्वैरिति । स एवंभूतः किमपरं करोतीति चेदित्याह- -'जे बढे' इत्यादि, यो बद्धान् द्रव्यभावबन्धनेन स्वतो विमुक्तोऽपरानपि मोचयतीत्येतदेव द्रव्यभावबन्धनविमोक्षं वाचोयुक्त्याऽऽचष्टे'जहा अंतो तहा वाहिं' इत्यादि, यथाऽन्तर्भावबन्धनमष्टप्रकारकर्मनिगडनं मोचयति एवं पुत्रकलत्रादि बाह्यमपि, यथा वा बाह्य बन्धुवन्धनं मोचयति एवं मोक्षगमनविघ्नकारणमान्तरमपीति, यदिवा-कथमसौ मोचयतीति चेत्तत्त्वाविर्भावनेन स्यादेतत्-तदेव किंभूतमित्याह-'जहा अंतो' इत्यादि, यथा स्वकायस्यान्तः-मध्ये अमेध्यकललपिशितासृक्पूत्यादिपूर्णत्वेनासाग्वमित्येवं बहिरप्यसारता द्रष्टव्या, अमेध्यपूर्णघटवदिति, उक्तं च-"यदि नामास्य कायस्य, यदन्तस्तवहिर्भवेत् । दण्डमादाय लोकोऽयं, शनः काकांश्च वारयेत् ॥१॥" इति, यथा वा बहिरसारता तथा:न्तरपीति । किंच-'अन्तो अन्तो' इत्यादि, देहस्य मध्ये मध्ये पूत्यन्तराणि-पूतिविशेषान् 'देहान्तराणि' देहस्यावस्थाविशेषान् , इह मांसमिह रुधिरमिह मेदो मज्जा चेत्येवमादि पूतिदेहान्तराणि 'पश्यति' यथावस्थितानि परि. च्छिन्नत्तीत्युक्तं भवति, यदिवा देहान्तराण्येवंभूतानि पश्यति- 'पुढो' इत्यादि, 'पृथगपि' प्रत्येकमपि अपिशब्दात्कुष्ठाद्यवस्थायां योगपद्येनापि स्रवन्ति नवभिः श्रोत्रोभिः कर्णाक्षिमलश्लेष्मलालाप्रश्रवणोच्चारादीन तथाऽपरव्याधिविशेषापादितव्रणमुखपूतिशोणितरसिकादीनि चेति । यद्येतानि ततः किं ?-पंडिए पडिलेहाए' एतान्येवंभृतानि गलच्छ्रोतोव्रणरोमकूपानि 'पण्डितः' अवगततत्वः 'प्रत्युपेक्षेत' यथावस्थितमस्य स्वरूपमवगच्छेदिति, उक्त च ॥ २७१॥ ܀܀܀܀ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २७२ ॥ ""मंसरुिहिरण्हारुवणडकलमलयमेयमज्जासु । पुण्णंमि चम्मकोसे दुग्गंधे असुहबीभच्छे || १ || संचारिमजंतगलंतवच्चमुत्तं तसेअपुण्णंमि । देहे हुज्जा किं रागकारणं असुहहेउम्मि १ || २ ||" इत्यादि । तदेवं पूर्तिदेहान्तराणि पश्यन् पृथगपि स्रवन्तीत्येवं प्रत्युपेक्ष्य किं कुर्यादित्याह से महमं परित्राय मा य हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणभावायए, कासंकासे स्खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडेण मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं वड्ढेइ अप्पणो, जमिण परिकहिज्ज इमेस्स वेव पडिवूहणयाए, अमराय महासड्डी अट्टमेयं तु पेहाए अपरिण्णा कंद ॥ सू० ६४ ॥ 'स' पूर्वोक्तो यतिमतिमान् श्रुतसंस्कृतबुद्धिर्यथावस्थितं देहस्वरूपं कामस्वरूपं च द्विविधयाऽपि परिज्ञय परिज्ञाय किं कुर्यादित्याह - 'माय हु' इत्यादि, 'मा' प्रतिषेधे चः समुच्चये हुर्वाक्यालङ्कारे, ललतीति लाला - अत्रुदयन्मुखश्लेष्मसन्ततिः तां प्रत्यशितुं शीलमस्येति प्रत्याशी, वाक्यार्थस्तु यथा हि बालो निर्गतामपि लालां सदसद्विवेकाभावात् पुनरप्यश्नातीत्येवं त्वमपि लालावत्यक्त्वा मा भोगान् प्रत्यशान, वान्तस्य पुनरप्यभिलाषं मा कुर्वित्यर्थः । किं च' मा तेसु तिरिच्छं' इत्यादि, संसारश्रोतांसि अज्ञानाविरतिमिथ्यादर्शनादीनि प्रतिकूलेन वा तिरचीनेन वाऽतिक्रमणी१ मांसास्थिरुधिरस्नय्ववनद्ध कल्मषमेद मज्जामिः । पूर्णे चर्मकोशे दुर्गन्धेऽयुचिबीभत्से ॥ १ ॥ संचारक ( श्रवत्) यन्त्रगतद्वचमूत्रन्तरवेदपूर्णे । देहे भवेत किं कारणं अशुचितौ ॥ २ ॥ लोकवि. अ. २ उद्देशका ५ ॥ २७२ ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२७३॥ XXX.X.C यानि निर्वाणश्रोतांसि तु ज्ञानादीनि तत्रानुकूल्यं विधेयं, मा तेष्वात्मानं तिरश्चीनमापादयेः, ज्ञानादिकार्ये प्रतिकलता मा विदध्याः, तत्राप्रमादवता भाव्यं, प्रमादाश्चेहैव शान्ति न लमते, यत आह-'कासंकासे इत्यादि. यो हिज्ञानाटियोतमि तिरश्चीनवर्ती भोगाभिलाषवान् स एवंभूतोऽयं पुरुषः सर्वदा किंकर्तव्यताकुल इदमहमकार्षमिदं च करिष्ये इत्येवं भोगामिलापक्रियाव्यापृतान्तःकरणो न स्वास्थ्यमनुभवति, खलुशब्दोऽवधारणे, वर्तमानकालस्यातिसूक्ष्मत्वादसंव्यवहारित्वमतीतानागतयोश्चेदमहमकार्पमिदं च करिष्य इत्येवमातुरस्य नास्त्येव स्वास्थ्यमिति, उक्तं च-"इदं तावत करोम्यद्य, श्वः कर्ताऽस्मीति चापरम् । चिन्तयन्त्रिह कार्याणि, प्रेत्यार्थ नावबुध्यते ॥१॥" अत्र दधिघटिकाद्रमकद्रष्टान्तो वाच्यः, स चायं-द्रमकः कश्चित् क्वचिन्महिषीरक्षणावाप्तदुग्धः तद्दधीकृत्य चिन्तयामास, ममातो घृतवेतनादि यावद्भार्या अपत्योत्पत्तिस्ततश्चिन्ता, कलहे पाणिप्रहारेणैव दधिघटिकाव्यापत्तिरित्येवंचिन्तामनोग्थव्याकुलीकृतान्तःकरण इति, तद्दद्धयानयने शिरोविण्टलीकाचीवरे आदीयमाने इव शिरो विधूयास्फोटिता दधिषटिऔर यथा तेन न तहधि भक्षितं नापि कस्मैचित्पुण्याय दत्तम् , एवमन्योऽपि कासंकसः-किंकर्तव्यतामढी निष्फलारम्भो भवतीति, अथवा कस्यतेऽस्मिन्निति कासः-संसारस्तं कपतीति-तदभिमुखो यातीति कासंकषः, यो ज्ञानादिप्रमादवान वक्ष्यमाणो वेत्याह-'बहुमायी' कासंकषो हि कषायैर्भवति, तन्मध्यभूताया मायाया ग्रहणे तेषामपि ग्रहणं दृष्टव्यमिति, ततः क्रोधी मानी मायी लोभीति द्रष्टव्यमिति । अपि च-'कडेण मूह' करणं कृतं तेन मढःकिंकर्तव्यताकुलः सखार्थी दुःखमश्नुते इति, उक्तं हि-"'सोउ सोवणकाले मजणकाले य मजिउ लोलो। - १ स्वपितु शयनकाले मज्जनकाले च मक्तु लोलः ( चपलः )। जेमितुच वराको जेमनकाले न शक्नोति ॥१॥ ॥ ७३॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोमेउ'च वराओ जेमणकाले न चाएइ ॥१" अत्र मम्मणवणिम्दृष्टान्तो वाच्यः; स चैवं कासंकषः . श्रीआचाबहुमायी कृतेन मुढस्तत्तत्करोति येनात्मनो वैरानुषङ्गो जायत इति, आह च-'पुणो तं करेई त्यादि, मायावी लोकवि. अ.२ राङ्गवृत्तिः परवश्चनपुद्धथा पुनरपि तत्-लोभानुष्ठानं तथा करोति येनात्मनो वैरं वर्द्धते, अथवा तं लोभं करोतीति-अर्जयति येन उद्देशकः ५ (शीलाङ्का.) जन्मशतेष्वपि वैरं वर्द्धत इति, उक्तं च-"दुःखातः सेवते कामान् , सेवितास्ते च दुःखदाः । यदि ते न प्रियं ॥२७४॥ दुःखं, प्रसस्तेषु न क्षमः ॥१॥" किं पुनः कारणमसुमस्तित्करोति येनात्मनो वैरं वद्धते ?, इत्याह-'जमिणं' इत्यादि, 'यदि ति यस्मादम्यैव-विशरारोः शरीरकस्य परिबृहणार्थं प्राणघातादिकाः क्रियाः करोतीति, ते च तेनोपहताः प्राणिनः पुनः शतशो मन्ति, ततो मयेदं कथ्यते-कासंकषः खल्वयं पुरुषो बहुमायी कृतेन मूढः पुनस्तत्करोति येनात्मनो वैरं वर्द्धयतीति, यदिवा यदिदं मयोपदेशप्रायं पौनःपुन्येन कथ्यते तदस्यैव संयमस्य परिवहणार्थम् , इदं चापरं कथ्यते'अमराय' इत्यादि, अमरायतेऽनमरः सन् द्रव्ययौवनप्रभुत्वरूपावसक्तोऽमर इवाचरति अमरायते, कोऽसौ ?-'महाश्रही' महती चासौ श्रद्धा च महाश्चद्धा सा विद्यते भोगेषु तदुपायेषु वा यस्य स तथा, अत्रोदाहरणं-राजगृहे नगरे मगधसेना गणिका, तत्र कदाचिद्धनः सार्थवाहो महता द्रव्यनिचयेन समन्वितः प्रविष्टः, तद्रूपयौवनगुणगणद्रव्यसम्पदाक्षिप्ता मगधसेनयाऽसावमिसरितः, तेन चायव्ययाक्षिप्तमानसेनासौ नावलोकिताऽपि, अस्याश्चात्मीयरूपयौवनसौभाग्यावलेपान्महती दुःखासिकाऽभूत् , ततश्च तां परिम्लानबदनामवलोक्य जरासन्धेनाभ्यधायि-किं भवत्या दुःखासिकाकारणं ?, केन ॥२७४॥ 12 वा सार्द्धमुषितेति, सा त्ववादीद्-अमरेणेति, कथमसावमर इत्युक्ते तया सद्भावः कथितो निरूपितच यावत्तथैवाद्या ............ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२७५॥ प्यास्त इत्यतो भोगार्थिनोऽर्थे प्रसक्ता अजरामरवत्क्रियासु प्रवत्तन्त इति । यश्चामरायमाणः कामभोगामिलापुकः स किंमतो भवतीत्याह-'अट्ट' इत्यादि, अतिः-शारीरमानसी पीडा तत्र भव आर्तस्तमार्तममरायमाणं कामार्थ महाश्रद्धावन्तं 'प्रेक्ष्य' दृष्टा पर्यालोच्य वा कामार्थयोर्न मनो विधेयं इति, पुनरमरायमाणभोगश्रद्धावतः स्वरूपमुच्यते'अपरिणाए' इत्यादि, कामस्वरूपं तद्विपाकं वा अपरिज्ञाय तत्र दत्तावधान: कामस्वरूपापग्ज्ञिया वा 'क्रदन्ते' भोगेष्वप्राप्तनष्टेषु काक्षाशोकावनुभवतीति, उक्तं च-"चिन्ता गते भवति साध्वसमन्तिकस्थे, मुक्त तु तप्तिरधिका रमितेऽप्यतप्तिः। द्वेषोऽन्यभाजि वशवर्तिनि दग्धमानः, प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कथञ्चिदस्ति ॥१॥" इत्यादि । तदेवमनेकधा कामविपाकमुपदर्य उपसंहरति से तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छित्ता भित्ता लपइत्ता विल पइत्ता उद्दवइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे, जस्सवि यणं करेह, अलं बालस्स संगणं, जे वा से कारइ बाले, न एवं अणगारस्स जायइ सिबेमि ॥ सू०९५ ॥ al 'सेति तदर्थे तदपि हेत्वर्थे, यस्मात्कामा दुःखैकहेतवः तस्मात्तज्जानीत यदहं ब्रवीमि, मदुपदेशं कामपरित्यागविषयं 8 कणे कुरुतेति भावार्थः । ननु च कामनिग्रहोऽत्र चिकीर्षितः, स चान्योपदेशादपि सिद्धयत्येवेत्येतदाशङ्कथाह-'तेइच्छं इत्यादि, कामचिकित्सां 'पण्डितः' पण्डिताभिमानी प्रवदन्नपरव्याधिचिकित्सामिवोपदिशन्नपरः-तीर्थको जीवोपमर्दे ॥ २७५॥ वर्तत इति, आह–से हंता' इत्यादि, 'स' इत्यविदिततत्त्वः कामचिकित्सोपदेशका प्राणिनां हन्ता दण्डादिभिः छेत्ता 31 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारावृत्तिः (शीलाङ्का. लोकवि. अ.. उद्देशकः५ ॥२७६॥ कर्णादीनां भेत्ता शूलादिभिः लुम्पयिता ग्रन्थिच्छेदनादिना विलुम्पयिता अवस्कन्दादिना अपद्रावयिता प्राणव्यपरोपणादिना, नान्यथा कामचिकित्सा व्याधिचिकित्सा वा अपरमार्थदृशां सम्पद्यते, किं च-'अकृतं' यदपरेण न कृतं कामचिकित्सनं व्याधिचिकित्सनं वा तदहं करिष्य इत्येवं मन्यमानः हननादिकाः क्रियाः करोति, ताभिश्च कर्मबन्धः, अतो य एवंभृत उपदिशति यस्याप्युपदिश्यते उभयोरप्येतयोरपथ्यत्वादकार्यमिति, आह च-'जस्सवि य णं' इत्यादि, यस्याप्यसावेवंभृतां चिकित्सा करोति, न केवलं स्वस्येत्यपिशब्दार्थः, तयोर्द्वयोरपि कतु: कारयितुश्च हननादिकाः क्रियाः, अतो 'अलं' पर्याप्तं 'बालस्य' अज्ञस्य 'सगेन' कर्मबन्धहेतुना कर्तुं रिति, योऽप्येतत् कारयति 'बाल' अबस्तस्याप्यलमिति सण्टकः, एतच्चैवम्भूतमुपदेशदानं विधानं वाऽवगततचस्य न भवतीत्याह-'न एवं' इत्यादि, एवम्भूतं प्राण्युपमर्दैन चिकित्सोपदेशदानं करणं वा 'अनगारस्य' साधोः ज्ञातसंसारस्वभावस्य न जायते-न कल्पते, ये तु कामचिकित्सा व्याधिचिकित्सा वा जीवोपमर्दैन प्रतिपादयन्ति ते बाला:-अविज्ञाततत्त्वाः, तेषां वचनमवधीरणीयमेवेति भावार्थः । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववदिति लोकविजयस्य पञ्चमोद्देशकटीका समाप्तेति ॥ ॥ इति पञ्चमोद्देशकः ॥ १-५ ॥ -:: Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ द्वितीयाध्ययने षष्ठोद्देशकः ॥ ०२७७॥ Bal उक्तः पञ्चमोहे शका, साम्प्रतं षष्ठ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-संयमदेहयात्रार्थ लोकमनुसरता साधुना लोके ममत्वं न कर्तव्यमित्युद्देशार्थाधिकारोऽभिहितः, सोऽधुना प्रतिपाद्यते-अस्य चानन्तरसूत्रसम्बन्धो वाच्यो 'नेवमनगारस्य जायत' इत्यभिहितम् , एतदेवात्रापि प्रतिपिपादयिषुराह से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावकम्म नेव कुज्जा नकारवेजा ॥ सू० ९६ ॥ यस्यानगारस्यैतत्पूर्वोक्तं न जायते सोऽनगारस्तत्-प्राण्युपधातकारि चिकित्सोपदेशदानमनुष्ठानं वा संबुद्धयमान:अवगच्छन् ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरनादातव्यम् आदानीयं तच्च परमार्थतो भावादानीयं ज्ञानदशनचारित्ररूपं तद् 'उत्थाये'त्यनेकार्थत्वादादाय-गृहीत्वा अथवा सोऽनगार इत्येतदादानीयं-ज्ञानाद्यपवर्गंककारणमित्येवं सम्यगवबुद्धयमानः सम्यक्संयमानुष्ठानेनोत्थाय-सर्व सावा कर्म न मया कर्त्तव्यमित्येवं प्रतिज्ञामन्दरमारुह्य, क्त्वाप्रत्ययस्य पूर्वकालाभिधायित्वात् किं कुर्यादित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मात् संयमः सर्वसावद्यारम्भनिवृत्तिरूपः तस्मात्तमादाय पापं-पापहेतुत्वात् कर्म क्रियां न कुर्यात् स्वतो मनसाऽपि न समनुजानीयादित्यवधारणफलं, अपरेणापि न कारयेदिति, आह च-न कारवे' इत्यादि, अपरेणापि कर्मकरादिना पापसमारम्भं न कारयेदित्युक्तं भवति, प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालोभरागद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशून्यपरपरिवादारविरतिमायामृषावादमिथ्यादर्शनशल्यरूपमष्टादशप्रकारं पापं कर्म स्वतो न कुर्यान्नाप्यपरेण कारयेदेवकाराच्चापरं कुर्वन्तं न समनुजानीयाद्योगत्रिकेणापि । ||॥ २७७० Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थः । स्यादेतत्-किमेकं प्राणातिपातादिकं पापं कुर्वतोऽपरमपि ढौकते आहोस्विन्नेत्याहश्रीआचा लोकवि.अ.२ सिया तत्थ एगयरं विप्परामुसह छसु अन्नयरंमि, कप्पइ सुहट्ठी लालप्पमाणे, सपण राजवृत्तिः दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेइ, सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जंसिमे पाणा (शीलाङ्का. उद्देशका ६ पव्वहिया, पडिलेहाए नो निकरणयाए, एस परिन्ना पबुच्चइ, कम्मोवसंती॥ सू० ९७॥ ॥ २७८॥al 'स्यात्तत्र' कदाचित्तत्र पापारम्भे 'एकतरं' पृथिवीकायादिसमारम्भं विपरामृशति-पृथिवीकायादिसमारम्भं करोति, एकतरं वाऽऽश्रवद्वार परामृशति-प्रारभते स षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्प्यते, यस्मिन्नेवालोच्यते तस्मिन्नेव प्रवृत्तो द्रष्टव्यः, इदमुक्तं भवति-पृथिवीकायादिषु षट्सु जीवनिकायेष्वाश्रवद्वारेषु वा मध्येऽन्यतरस्मिन्नपि प्रवर्त्तमानो यस्मिन्नेव पर्यालोच्यते तस्मिन्नेव कन्प्यते, सर्वस्मिन्नेव वर्तत इति भावार्थः । कथमन्यतरस्मिन् पृथिवीकायादिसमारम्भे वर्तमानोऽपरकायसमारम्भे सर्वपापसमारम्भे वा वर्त्तते इत्येवं मन्यते ?, कुम्भकारशालोदकलावनदृष्टान्तेनैककायसमारम्भकोऽपरकायसमारम्भको भवति, अथवा प्राणातिपातास्रवद्वारविघटनादेकजीवातिपातादेककायातिपाताद्वा अपरजीवातिपाती द्रष्टव्यः, प्रतिज्ञालोपाच्चानतो, न च तेन व्यापांद्यमानेना सुमताऽऽत्मा व्यापादकाय दत्तस्तीर्थकरेण चानुज्ञातोऽतः प्राणिनः प्राणान् गृह्णन्मदत्तग्राही, मावद्योपादानाच्च पारिग्राहिकः, परिग्रहाच्च मैथुनरात्रिभोजने अपि गृहीते, यतो नापरिग्रहीतमपभुज्यते परिभुज्यते चेत्यतोऽन्यतरारम्मे षण्णामप्यारम्मोऽथवा अनावृतचतुराश्रवद्वारस्य कथं चतुर्थषष्ठ-1 व्रतावस्थानं स्याद् , अतः षट्स्वन्यतरस्मिन् प्रवृत्तः सर्वेष्वपि प्रवृत्त इति, अथवैकतरमपि पापासमारम्भं य आरभते स Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २७६ ॥ षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्पते-योग्यो भवति, अकर्त्तव्यप्रवृत्तत्वाद्, अथवैकतरमपि यः पापारम्भं करोत्यसावष्टप्रकारं कर्मादाय षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्पते - प्रभवति, पौनःपुन्येनोत्पद्यत इत्यर्थः स्यात् किमर्थमेवंविधं पापकं कर्म्म समारभते १, तदुच्यते – 'सुहट्ठी लालप्पमाणे' सुखेनार्थः सुखार्थः स विद्यते यस्यासाविति मत्वर्थीयः, स एवम्भूतः मन्नत्यर्थं लपति पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते वाचा कायेन धावनवल्गनादिकाः क्रियाः करोति मनसा च तत्साधनोपार्याश्चिन्तयति, तथाहि सुखार्थी सन् कुष्यादिकर्म्मभिः पृथिवीं समारभते स्नानार्थमुदकं वितापनार्थमग्नि धर्मापनोदार्थं वायु आहारार्थी वनस्पतिं सकायं वेत्य संयतः संयतो वा रससुखार्थी सच्चित्तं लवणवनस्पतिफलादि गृह्णात्येवमन्यदपि यथासंभत्रमायोज्यं । स चैवं लालप्यमानाः किंभूतो भवतीत्याह – 'सएण ' इत्यादि यत्तदुप्तमन्यजन्मनि दुःखतरुकर्म्मबीजं तदात्मीयं दुःखतरु कार्यमाविर्भावयति, तच्च तेनैव कृतमित्यात्मीयमुच्यते, अतस्तेन स्वकीयेन 'दुःखेन' स्वकृतकम्र्म्मादयजनितेन 'मूढः' परमार्थमजानानो 'विपर्यासमुपैति' सुखार्थी प्राण्युपघातकारणमारम्भमारभते, सुखस्य च विपर्यासो दुःखं तदुपैति उक्तं च – “दुःखद्विट् सुखलिप्सुर्मोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । यां यां करोति चेष्ठां तया तया दुःखमादते ॥ १ ॥” यदिवा 'मूढो' हिताहितप्राप्तिपरिहाररहितो विपर्यासमुपैति - हितमप्य हितबुद्धयाऽधितिष्ठत्यहितं च हितबुद्धयेति, एवं कार्याकार्यपथ्यापथ्य वाच्यावाच्यादिष्वपि विपर्यासो योज्यः, इदमुक्तं भवति - मोहोऽज्ञानं मोहनीय मेदो वा, तेनोभयप्रकारेणापि मोहेन मूढोऽल्पसुखकृते तत्तदारभते येन शारीरमानस दुःखव्यसनो पनिपातानामनन्तमपि काल पात्रतां व्रजतीति । पुनरपि मृढस्यानर्थपरम्परां दर्शयितुमाह - 'सएण ' इत्यादि, स्वकीयेनात्मना कृतेन प्रमादेन ॥ २७६ ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २८० ॥ मद्यादिना 'विविध' विषयकषायविकथानिद्राणां स्वभेदग्रहणं तेन पृथग् - विभिन्नं व्रतं करोति, यदिवा पृथु विस्तीर्ण 'व' मिति वयन्ति - पर्यटन्ति प्राणिनः स्त्रकीयेन कर्म्मणा यस्मिन् स वयः - संसारस्तं प्रकरोति, एकैकस्मिन् काये दीर्घकालावस्थानाद, यदिवा कारणे कार्योपचारात् स्वकीयेन नानाविधप्रमादकृतेन कर्म्मणा वयः - अवस्थाविशेषस्तमेकेन्द्रियादिकला 'दादितदहर्जात बालादिव्याधिगृहीत दारिद्रथदौर्भाग्यव्यसनोपनिपातादिरूपं प्रकर्षेण करोति-विधत्त इति । तस्मिंश्च संसारेऽवस्थाविशेषे वा प्राणिनः पीडयन्ते इति दर्शयितुमाह - 'जंसिमे' इत्यादि, यस्मिन् स्वकृतप्रमादापादितकर्म्मविपाकजनिते चतुर्गतिकसंसारे एकेन्द्रियाद्यवस्थाविशेषे वा 'इमे' प्रत्यक्षगोचरीभूताः 'प्राणा' इत्यभेदोपचारात्प्राणिनः 'प्रव्यथिताः ' नानाप्रकारैर्व्यसनोपनिपातैः पीडिताः, सुखार्थिभिरारम्भप्रवृत्तै महाद्विपर्यस्तैः प्रमादवद्भिव गृहस्थैः पाषण्डिकैर्यत्याभासैश्चेति वा । यदि नामात्र प्रव्यथिताः प्राणिनस्ततः किमित्याह - 'पडि' इत्यादि, एतत् संसारचक्रवाले स्वकृतकर्म्म फलेश्वराणामसुमतां गृहस्थादिभिः परस्तपरतो वा कम्र्म्मविपाकतो वा प्रव्यथनं प्रत्युपेक्ष्य विदितवेद्यः साधुर्निश्चयेन नितरां वा नियतं वा क्रियन्ते नानादुःखावस्था जन्तवो येन तन्त्रिकरणं निकारः - शारीरमानसदुः खोत्पादनं तस्मै नो कर्म कुर्याद्, येन प्राणिनां पीडोत्पद्यते तमारम्भं न विदध्यादिति भावार्थः । एवं च सति किं भवतीत्याह'एस' इत्यादि, येयं सावद्ययोगनिवृत्तिरेषा परिज्ञा - एतत्तत्त्वतः परिज्ञानं प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यते, न पुनः शैलूषस्येव ज्ञानं निवृत्तिफलरहितमिति । एवं द्विविघयाऽपि ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्राणिनिकारपरिहारे सति किं भवतीत्याह – 'कम्मोवसंती' त्ति कर्म्मणाम् - अशेषद्वन्द्वातात्मकसंसारतरुबीजभूतानामुपशान्तिः - उपशमः, कर्मक्षयः लोकवि. अ. २ | उद्देशकः ६ ॥ २८० ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२८१॥ प्राणिनिकारक्रियानिवृत्तेर्भवतीत्युक्तं भवति । अस्य च कर्मक्षयप्रत्यूहस्य प्राणिनिकरणस्य मूलमात्मात्मीयग्रहः, तदपनोदार्थमाह जे ममायमई जहाइ से चयइ ममाइयं, सेह दिठ्ठपहे मुणी जस्स नथि ममाइयं. तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मइमं परिक्कमिजासि त्तिबेमि ॥ नारईसहई वीरे, वोरे न सहई रतिं । जम्हा अविमणे वोरे, तम्हावीरेन रजइ॥१॥सू०९८॥ ममायित-मामकं तत्र मतिर्ममायितमतिस्ता यः परिग्रहविपाकज्ञो 'जहाति' परित्यजति स 'ममायित' स्वीकृत परिग्रह 'जहाति परित्यजति, इह द्विविधः परिग्रहो-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र परिग्रहमतिनिषेधादान्तरो भावपरिग्रहो निषिद्धः, परिग्रहवृद्धिविषयप्रतिषेधाच्च बाटो द्रव्यपरिग्रह इति । अथवा काका नीयते, यो हि परिग्रहाध्यवसायकलुपितं ज्ञानं परित्यजति स एव परमार्थतः सबाह्याभ्यन्तरं परिग्रहं परित्यजति, ततश्चेदमुक्तं भवति-सत्यपि सम्बन्धमा चित्तस्य परिग्रहकालुष्याभावानगरादिसम्बन्धः पृथ्वीसम्बन्धेऽपि जिनकल्पिकस्येव निष्परिग्रहतेव, यदि नामवं ततः किमित्याह'सेह' इत्यादि, यो हि मोक्षकविघ्नहेतोः संसारभ्रमणकारणात् परिग्रहानिवृत्ताध्यवसायः, हुः अवधारणे, स एवं निः दृष्टो ज्ञानादिको मोक्षपथी येन स दृष्टपथः, यदिवा दृष्टभयः-अवगतसप्तप्रकारभयः शरीरादेः परिग्रहात्साक्षापारम्पर्येण वा पर्यालोच्यमानं सप्तप्रकारमपि भयमापनीपद्यत इत्यतः परिग्रहपरित्यागे ज्ञातभयत्वपवमसीयत इति । एतदेव पूर्वोक्तं स्पष्टयितुमाह-'जस्स' इत्यादि, यस्य 'ममायितं' स्वीकृतं परिग्रहो न विद्यते सः दृष्टभयो मुनिरिति ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीआचाराङ्गवृत्तिः (शीन्लाङ्का.) ॥ २८२॥ सम्बन्धः, किं च-'तं' इत्यादि, 'तं' पूर्वव्यावर्णितस्वरूपं परिग्रहं द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञाय 'मेधावी' ज्ञात लोकवि. प्र.. ज्ञेयो विदित्वा 'लोक' परिग्रहाग्रहयोगविपाकिनमेकेन्द्रियादिप्राणिगणं 'वान्त्वा' उद्गीर्य 'लोकस्य प्राणिगणस्य संज्ञालाका दशप्रकारा अतस्ता 'स' इति मुनि:, किंभूतो?-'मतिमान्' सदसद्विवेकज्ञः 'पराक्रमेथाः' संयमानुष्ठाने समुद्यच्छे।, उद्देशकः ६ संयमानुष्ठानोद्योगं सम्यग्विदध्या इतियावद् , अथवाऽष्टप्रकारं कारिषड्वर्ग वा विषयकषायान् वा पराक्रमस्वेति, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । स एवं संयमानुष्ठाने पराक्रममाणस्त्यक्तपरिग्रहाग्रहयोगो मुनिः किंभूतो भवतीत्याह-तस्य हि त्यक्तगृहगृहिणीधनहिरण्यादिपरिग्रहस्य निष्किञ्चनस्य संयमानुष्ठानं कुर्वतः साधोः कदाचिन्मोहनीयोदयादरतिराविः स्यात् , तामुत्पन्नां संयमविषयां 'न सहते' न क्षमते, कोऽसौ ?-विशेषेणेरयति-प्रेयरति अष्टप्रकार कारिषड्वर्ग वेति वीर:-शक्तिमान् , स एव वीरोऽसंयमे विषयेषु परिग्रहे वा या रतिरुत्पद्यते तां 'न सहते' न मर्षति, या चारतिः संयमे विषयेषु च रतिस्ताभ्यां विमनीभूतः शब्दादिषु न रज्यति, अतो रत्यरतिपरित्यागान विमनस्को भवति नापि रागमुपयातीति दर्शयति-यस्मात्यक्तरत्यरतिरविमना वीरस्तस्मात् कारणाद्वीरो 'न रज्यति' शब्दादिविषयग्रामे न गायं विदधाति । यत एवं ततः किमित्योह सद्दे फासे अहियासमाणे निविद नंदि इह जीवियस्स। मुणी मोर्ण समायाय, धुणे कम्मसरीरगं ॥२॥ पंतं लुहं सेवंति, वोरा संमत्तदंसिणो । एस ओहंतरे मुणी, तिने ॥ २८२॥ मुत्ते विरए वियाहिए ॥ ३॥ त्तिबेमि ॥ सू० ९९॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XX ० २८३॥ यस्मादी रत्यत्ती निराकृत्य शब्दादिषु विषयेषु मनोज्ञेषु न रागमुपयाति, नापि दुष्टेषु द्वेष, तस्माच्छब्दान् स्पर्शाश्च मनोजेतरभेदभिन्नान 'अहियासमाणे'त्ति सम्यक् महमानो निर्विन्द नन्दीत्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धः, एतदुक्तं भवति-मनोज्ञान शब्दान् श्रत्वा न रागमुपयाति, नापीतरान् द्वष्टि, आद्यन्तग्रहणाच्चेतवेषामप्युपादानं द्रष्टव्यं, तत्राप्यतिसहनं विधेयमिति उक्तं च-"'सद्देसु अ भद्दयपावएसु, सोयविसयमुवगएसु। तुण व रुट्ठण व समणेण सयान होअव्वं ॥ १॥ एव रूवेसु अ भद्दयपावएसु०। तहा गंधेसु अ०॥" इत्यादि वाच्यं, ततश्च शब्दादीविषयानतिसहमानः किं कुर्यादित्याह-निविद' इत्यादि, इहोपदेशगोचरापन्नो विनेयोऽभिधीयते, सामान्येन वा प्रमभोग्यमपदेशः, निर्विन्दस्व-जुगुप्सस्व ऐश्वर्यविभवात्मिका मनसस्तुष्टिर्निन्दिस्ताम् 'इह' मनुष्यलोके यज्जीवितममरामजीवितं वा तस्य या नन्दिा-तुष्टिः प्रमोदो यथा ममैतत्समृद्धयादिकमभृद्भवति भविष्यति वेत्येवं विकल्पजनिती नन्दी जगासस्व-यथा किमनया पापोपादनहेतुभृतयाऽस्थिरयेति ?, उक्तं च-"विभव इति किं मदस्ते १, च्यतविभवः किं विषादमुपयासि ?। करनिहितकन्दुकसमाः, पातोत्पाता मनुष्याणाम् ॥१॥" एवं रूपबलादिष्वपि वाच्य सनत्कुमारदृष्टान्तेनेति, अथवा पश्चानामप्यती चाराणामतीतं निन्दति प्रत्युत्पन्नं संवृणोत्यनागतं प्रत्याचष्टे, स्यादेतत-किमालम्ब्य करोतीत्याह—'मुणी' त्यादि, मुनिखिकालवेदी यतिरित्यर्थः, मुनेरयं मौनः-संयमो, यदिवा १शब्देषु च भद्रकपापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥१॥ एवं रूपेषु च भद्रक 80 २८३ ॥ पापकेषु । तथा गन्धेवु च । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २८४ ॥ मुनेर्भावः मुनित्वं तदप्यसावेव मौनं वा वाचः संयमनम् अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् कायमनसोरपि, अतः सर्वथा संयममादाय, किं कुर्यात् ? धुनीयात् कर्म्मशरीरकं औदारिकादिशरीरं वा, अथवा 'धुनीहि ' विवेचय पृथक्कुरु तदुपरि ममत्वं मा विधत्स्वेति भावार्थः । कथं तच्छरीरकं धृयते, ममत्वं वा तदुपरि न कृतं भवतीत्याह - 'प्रान्तं' स्वाभाविकर सर हितं स्वल्पं वा 'रूक्षम्' आगन्तुकस्नेहादिरहितं द्रव्यतो भावतोऽपि प्रान्तं - द्वेषरहितं विगतधूमं रूक्षं-रागरहितमपगताङ्गारं 'सेवन्ते' भुञ्जते, के ? - 'वीरा' साधवः, किंभूताः १- 'समत्वदर्शिन: ' रागद्वेषरहिताः सम्यक्त्वदर्शिनो वा- सम्यक् तत्त्वं सम्यक्त्वं तद्दर्शिनः परमार्थदृशः, तथाहि इदं शरीरकं कृतघ्नं निरुपकारि, एतत्कृते प्राणिनः ऐहिकामुष्मिक क्लेशभाजो धवन्ति, अनेकादेशे चैकादेश इतिकृत्वा, प्रान्तरूक्षसेवी समत्वदर्शी च कं गुणमवाप्नोतीत्याह - 'एस' इत्यादि, एष इति प्रान्तरूक्षाहारसेवनेन कर्मादिशरीरं धुनानो भावतो भवौघं तरतीति । कोऽसौ ? – 'मुनिः' यतिः, अथवा क्रियमाणं कृतमितिकृत्वा तीर्ण एव भवौघं कथ भवौघं तरति ! - यो 'मुक्तः ' सबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः कश्च परिग्रहान्मुक्तो भवति ? - यो भावतः शब्दादिविषयाभिष्वङ्गाद्विरतः, ततश्च यो मुक्तत्वेन विरतत्वेन वा विख्यातो मुनिः स एव भवौघं तरति, तीर्ण एवेति वा स्थितम् । इतिरधिकार परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । यश्च मुक्तत्वविरतत्वाभ्यां न विख्यातः स किंभूतो भवतीत्याह - दुव्वसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाइ वत्तए, एस वीरे पसंसिए, अच्चेइ लोयसंजोगं, एस नाए पबुच्चइ ॥ सू० १०० ॥ लोकवि. अ. २ उद्देशकः ६ ॥ २८४ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २८५ ॥ वसु द्रव्यमेतच भव्येऽर्थे व्युत्पादितं 'द्रव्यं च भव्य' इत्यनेन भव्यश्च - मुक्तिगमनयोग्यः, ततश्च मुक्तिगमनयोग्यं यद्द्रव्यं तद्वसु, दुष्टं वसु दुर्वसु, दुर्वसु चामौ मुनिश्च दुर्वसुमुनिः - मोक्षगमनायोग्यः, स च कुतो भवति ? - अनाज्ञया| तीर्थकरोपदेशशून्यः स्रीत्यर्थः, किमत्र तीर्थकरोपदेशे दुष्करं येन स्वैरित्वमभ्युपगम्यते ?, तदुच्यते - उद्देशका देरारभ्य सर्वं यथासम्भवमायोज्यं, तथाहि - मिध्यात्वमोहिते लोके संबोद्ध दुष्करं व्रतेष्वात्मानमध्यारोपयितु ं रत्यरती निग्रहीतु शब्दादिविपविष्टानिष्टेषु मध्यस्थतां भावयितुं प्रान्तरूक्षाणि भोक्तुम्, एवं यथोद्दिष्टया मौनीन्द्राज्ञया असिधारकल्पया दुष्करं सचरितु ं तथाऽनुकूलप्रतिकूलांश्च नानाप्रकारानुपसर्गान् सोढुम्, असहने च कम्र्मोदयांऽनाद्यतीत काल सुखभावना च कारणं, जीवो हि स्वभावतो दुःखभोरुरनिरोधसुखप्रियः, अतो निरोधकल्पायामाज्ञायां दुःखं वसति, अवसंश्व किंभूतो भवतीत्याह – 'तुच्छ' इत्यादि, तुच्छो-रिक्तः, स च द्रव्यतो निर्द्धनो घटादिर्वा जलादिरहितो भावतो ज्ञानादिरहितः, ज्ञानादिरहितो हि क्वचित्संशीतिविषये केनचित्पृष्टोऽपरिज्ञानात् ग्लायति वक्तु ज्ञानसमन्वितो वा चारित्ररिक्तः पूजा सत्कारमयात् शुद्धमार्गप्ररूपणावसरे ग्लायति यथावस्थितं प्रज्ञापयितु तथाहि प्रवृत्तमन्निधिः सन्नि धेर्निर्दोषतामा चष्टे, एवमन्यत्रापीति । यस्तु कषाय महाविषा गदकन्पभगवदाज्ञोपजीवकः स सुवसुमुनिर्भवत्यरिक्तो न ग्लायति च वक्तु ं यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानादनुष्ठानाच्च, आह च – 'एस' इत्यादि, 'एष' इति सुवसुमुनिर्ज्ञानाद्यरिक्तो यथावस्थितमार्गप्ररूपको वीरः कर्म्मविदारणात् ' प्रशंसितः' तद्विद्भिः श्लाघित इति । किं च- 'अच्चेई 'त्यादि, स एवं भगवदाज्ञानुवर्त्तको वीरोऽत्येति- अतिक्रामति, कं ? – 'लोकसंयोग' लोकेना संयतलोकेन संयोगः -सम्बन्धः ॥ २८५ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजाचाराङ्गवृत्ति: (शीलाङ्का.) ॥ २८६ ॥ ममत्वकृतस्तमत्येति, अथवा लोको बाह्योऽभ्यन्तरच, तत्र वाह्यो धनहिरण्यमातृपित्रादिः आन्तरस्तु रागद्वेषादिस्तत्कार्यं अष्टप्रकारं कर्म्म तेन सार्द्ध संयोगमत्येति - अतिलङ्घयतीत्युक्तं भवति । यदि नामैवं ततः किमित्याह – 'एस' इत्यादि, योऽयं लोकसंयोगातिक्रमः 'एष न्यायः एप सन्मार्गः मुमुक्षूणामयमाचारः 'प्रोच्यते' अभिधीयते, अथवा परम् आत्मानं च मोक्षं नयतीति छान्दसत्वात्कर्त्तरि घञ् नायः यो हि त्यक्तलोकसंयोग एष एव परात्मनो मोक्षस्य न्यायः प्रोच्यते - मोक्षप्राप कोऽभिधीयते सदुपदेशात् । स्यादेतत्- किंभूतोऽसावुपदेश इत्यत आह जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिन्नमुदाहरंति, इइ कम्मं परित्राय सव्वसो जें अणन्नदंसी से अणन्नारामे, जे अणण्णारामे से अणन्नदंसो, जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ, जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ || सू० १०१ ॥ यद्दुःखं दुःखकारणं वा कर्म्म लोकसंयोगात्मकं वा 'प्रवेदितं' तीर्थकृद्भिरावेदितं 'इह' अस्मिन् संसारे 'मानवानां' जन्तूनां ततः किं ? - तस्य 'दुःखस्य' असावलक्षणस्य कर्मणो वा 'कुशला' निपुणा धर्म्मकथालब्धिसम्पन्नाः स्वसमयपरसमयविद उक्तविहारिणो यथावादिनस्तथाकारिणो जितनिद्रा जितेन्द्रिया देशकालादिक्रमज्ञास्ते एवंभूताः परिज्ञाम्उपादान कारणपरिज्ञानं निरोधकारणपरिच्छेदं चोदाहरन्ति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यान परिज्ञया च परिहरन्ति परिहारयन्ति च । किं च-' इति कम्मं' इत्यादि, इतिः पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शको यत्तदुःखं प्रवेदितं मनुजानां यस्य च दुःखस्य परिज्ञां २. लोकवि. अ. २ | उद्देशकः ६ ॥ २८६ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २८७ ॥ कुशला उदाहरन्ति तदुःखं कर्मकृतं तत्कर्माष्टप्रकारं परिज्ञाय तदाश्रवद्वाराणि च तद्यथा - ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञानावरणीयमित्यादि, प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय तदाश्रवद्वारेषु 'सर्वशः' सर्वैः प्रकारैर्योगत्रिककरण त्रिकरूपैर्न वर्त्तेत, अथवा सर्वशः परिज्ञाय कथयति, सर्वशः परिज्ञानं च केवलिनो गणधरस्य चतुर्द्दशपूर्वविदो वा यदिवा सर्वशः कथयति 'आक्षेपण्याद्या चतुर्विधया धर्मकथयेति । सा च कीटकथेत्याह- 'जे' इत्यादि, अन्यद्रष्टु ं शीलमस्येत्यन्यदर्शी यस्तथा नासावनन्यदर्शी—यथावस्थितपदार्थद्रष्टा, कश्चैवंभूतो १ - यः सम्यग्दृष्टिमनीन्द्रप्रवचनाविर्भूततत्त्वार्थो, यश्चानन्यदृष्टिः सोऽनन्यारामो - मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते । हेतुहेतुमद्भावेन सूत्रं लगयितुमाह – 'जे' इत्यादि, यश्च भगवदुपदेशादन्यत्र न रमते सोऽनन्यदर्शी, यश्चैवम्भूतः सोऽन्यत्र न रमत इति उक्तं च- "शिवमस्तु कुशास्त्राणां वैशेषिकषष्टितन्त्र बौद्धानाम् । येषां दुर्विहितत्वाद्भगवत्यनुरज्यते चेतः ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवं सम्यक्त्वस्वरूपमाख्यातं कथयंचारक्तद्विष्टः कथयतीति दर्शयति- 'जहा पुण्णस्स' इत्यादि, तीर्थकरगणधराचार्यादिना येन प्रकारेण 'पुण्यवतः ' सुरेश्वर चक्रवर्त्तिमाण्डलिकादेः 'कथ्यते' उपदेशो दीयते ' तथा ' तेनैव प्रकारेण 'तुच्छस्य' द्रमकस्य काष्ठाहारकादेः १ कथाचतुष्टयलक्षणं त्विदं - स्थाप्यते हेतुदृष्टान्तैः स्वमत यत्र पण्डितैः । स्याद्वादध्वनिसंयुक्तं सा कथाऽऽक्षेपणी मता ॥ १ ॥ मिथ्यादृशां मतं यत्र पूर्वापर विरोधकृत । तन्निराक्रियते सद्भिः सा च विक्षेपणी मता ॥२॥ यस्याः श्रवणमात्रेण भवेन्मोक्षा मिला. षिता । भव्यानां सा च विद्वद्भिः प्रोक्ता संवेदनी कथा ॥ ३ ॥ यत्र संसारभोगाङ्ग स्थितिलक्षणवर्णनम् । वैराग्यकारणं भव्यैः, सोक्का लिर्वेदनीकथा ॥ ४ ॥ ॥ २८७ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीआचाराङ्गवृत्तिः (चीलाका) ॥२८८॥ कथ्यते, अथवा पूर्णो-जातिकुलरूपाद्युपेतस्तद्विपरीतस्तुच्छो, विज्ञानवान् वा पूर्णस्ततोऽन्यस्तुच्छ इति, उक्तंच"ज्ञानेश्वर्यधनोपेतो, जात्यन्वयबलान्वितः। तेजस्वी मतिमान् ख्यातः, पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात् ॥१॥"ला एतदुक्तं भवति-यथा द्रमकादेस्तदनुग्रहबुद्धया प्रत्युपकारनिरपेक्षः कथयत्येवं चक्रवादेरपि, यथा वा चक्रवर्त्यादेः उद्देशक कथयत्यादरेण संसारोत्तरणहेतुमेवमितरस्यापि, अत्र च निरीहता विवक्षिता, न पुनरय नियमा-एकरूपतयैव कथनीयं, तथा हि-यो यथा बुध्यते तस्य तथा कथ्यते, बुद्धिमतो निपुणं स्थूलबुद्धेस्त्वन्यथेति, राज्ञश्च कथयता तदभिप्रायमनुवर्तमानेन कथनीयं, किमसावभिगृहीतमिथ्यादृष्टिरनभिगृहीतो वा संशीत्यापन्नो वा १, अभिगृहीतोऽपि कुतीथिकैव्युद्ग्राहितः स्वत एव वा ?, तस्य चैवम्भूतस्य यद्येवं कथयेद्यथा-"दशसूनासमश्चक्री, दशक्रिसमो ध्वजः। दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नपः॥१॥ तद्भक्तिविषयरुद्रादिदेवमवन(देवतादारुवन)चरितकथने च मोहोदयात्तथाविधकम्मोदये कदाचिदसौ प्रदूषमुपगच्छेद, द्विष्टश्चैतद्विदध्यादित्याह च अवि य हणे, अणाइयमाणे, इत्थंपि जाण सेयंति नस्थि, केयं पुरिसे कं च नए ?, एस वीरे पसंसिए, जे बढे पडिमोयए, उड्डे अहं तिरिय दिसासु, से सव्वओ सव्वपरिन्नाचारी, न लिप्पई छणपएण, वीरे, से मेहावी अणग्घायणखेयन्ने, जेय बन्धपमुक्खमन्नेसी कुसले पुण नो षडे नो मुक्के ॥ सू०१०२ ।। ॥ २८॥ अपिः सम्भावने, आस्तां तावद्वाचा तर्जनम् , अनाद्रियमाणो हन्यादपि, चशब्दादन्यदप्येवंजातीयक्रोधाभिभूतो Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२८ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ दण्डकशादिना ताडयेदिति, उक्तं च-"'तत्थेव य निट्ठवणं बंधण निच्छभण कडगमद्दो वा । निव्विसयं व नरिंदो करेज संघंपि सो कुडो॥१॥" तथा तच्चनिकोपासको नन्दबलात् बुद्धोत्पत्तिकथानकाद्भागवतो वा मल्लिगृहोपाख्यानाद्रौद्रो वा पेढालपुत्रसत्यक्युमाव्यतिकराकर्णनात् प्रद्वेषमुपगच्छेत् , द्रमककाणकुण्टादि कश्चित्तमेवोद्दिश्य धर्मफलोपदर्शनेनेति । एवमविधिकथनेनेहैव तावबाधा, आमुष्मिकोऽपि न कश्चिद्गुणोऽस्तीत्याह च- एत्थंपि' इत्यादि, मुमुक्षोः परहितार्थ धर्मकां कथयतस्तावत्पुण्यमस्ति, परिषदं त्वविदित्वाऽनन्तगेपवर्णितस्वरूपकथने 'अत्रापि' धर्मकथायामपि 'श्रेयः पुण्यमित्येतनास्तीत्येवं जानीहि, यदिवाऽसौ राजादिरनाद्रियमाणस्तं साधु धर्मकथिकमपि हन्यात् । कथमित्याह-एत्थंपी'त्यादि, यद्यदसौ पशुवधतर्पणादिकं धर्मकारणमुपन्यस्यति तत्तदसो धर्मकथिकोऽत्रापि श्रेयो न विद्यते इत्येवं प्रतिहन्ति, यदिवा यद्यदविधिकथनं तत्र तत्रेदमुपतिष्ठते-अत्रापि श्रेयो नास्तीति, तथाहि-अक्षरकोविदपरिषदि पक्षहेतु दृष्टान्ताननादृत्य प्राकृतभाषया कथनमविधिरितरस्यां चान्यथेति । एवं च प्रवचनस्य हीलनैव | केवलं कर्मबन्धश्च, न पुनः श्रेयो, विधिमजानानस्य मौनमेव श्रेय इति, उक्तंच-सावजणवजाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वुत्तु पि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं का?॥१॥" स्यादेतत-कथं तर्हि धर्मकथा कार्येत्युच्यते—'कोऽयं' इत्यादि यो हि वश्येन्द्रियो विषयविषपराङ्मुखः संसारोद्विग्नमना वैराग्यकृष्यमाण १ तत्रैव निष्ठापनं बन्धनं निष्काशनं कट कमदं वा । निर्विषयं वा नरेन्द्रः कुर्यात्सङ्घमपि स क्रुद्धः । १॥२ सावधानवद्ययो. वंचनयोर्यो न जानाति विशेषम् । वक्तुमपि तस्य न क्षमं किमङ्ग पुनर्देशनां कत्तुम् १ ॥२॥ ॥२८ ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २९० ॥ हृदयो धम्मं पृच्छति, तेनाचार्यादिना धर्म्मकथिकेनासौ पर्यालोचनीयः - कोऽयं पुरुषो १, मिथ्यादृष्टिरुत भद्रकः, केन वाऽऽशयेनायं पृच्छति, कं च देवताविशेषं नतः, किमनेन दर्शनमाश्रितमित्येवमालोच्य यथायोग्यमुत्तरकालं कथनीयं, एतदुक्तं भवति-धर्म्मकथाविधिज्ञो ह्यात्मना परिपूर्णः श्रोतारमालोचयति द्रव्यतः, क्षेत्रतः किमिदं क्षेत्रं तच्चनिकैर्भागवतैरन्यैर्वा तज्जातीयैः पार्श्वस्थादिभिर्वोत्सर्गरुचिभिर्वा भावितं, कालतो दुष्पमादिकं कालं दुर्लभद्रव्यकालं वा, भावतोऽरक्तद्विष्टमध्यस्थभावापन्नमेवं पर्यालोच्य यथायथाऽसौ बुध्यते तथा तथा धर्म्मकथा कार्या, एवमसौ धर्म्मकथायोग्यः, अपरस्य त्वधिकार एव नास्तीति उक्तं च- "जो 'हेउवायपक्खमि हेउओ आगमम्मि आगमिओ । सो ससमय पण्णवओ सिद्धंतविराहओ अण्णो ॥ १ ॥ " य एवं धर्म्मकथा विधिज्ञः स एव प्रशस्त इत्याह च - 'एस' इत्यादि, यो हि पुण्यापुण्यवतोर्धर्मकथासमदृष्टिर्विधिज्ञः श्रोतृविवेचकः 'एषः' अनन्तरोक्तो 'वीरः' कर्म्मविदारकः ' प्रशंसितः' श्लाघितः । किंभूतश्च यो भवतीत्याह - 'जे षडे' इत्यादि, यो ह्यष्टप्रकारेण कर्म्मणा स्नेहनिगडादिना वा बद्धानां जन्तूनां प्रतिमोचकः धर्म्मकथोपदेशदानादिना स च तीर्थकृद्गणधर आचार्यादिर्वा यथोक्तधर्म्मकथा विधिज्ञ इति । क्व पुनर्व्यवस्थितान् जन्तून् मोचयतीत्याह - 'उड्ड' इत्यादि, उद्धवं ज्योतिष्कादीन् अधो भवनपत्यादीन् तिर्यक्षु मनुष्यादीनिति । किं च – 'से सव्वओ' इत्यादि, 'स' इति वीरो बद्धप्रतिमोचकः 'सर्वतः ' सर्वकालं सर्वपरिज्ञया द्विविधयाऽपि चरितु शीलमस्येति सर्वपरिज्ञाचारी - विशिष्टज्ञानान्वितः सर्वसंवर चारित्रोपेतो वा स एवंभूतः कं गुण१ यो हेतुवादपक्षे हेतुक आगमे भागमिकः । स श्वसमयप्रज्ञापकः सिद्धान्तविराधकोऽन्यः ॥ १ ॥ लोकवि. अ. २ | उद्देशकः ६ ॥ २९० ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवाप्नोतीत्याह--'न लिप्पईत्यादि, 'न लिप्यने' नावगुण्ठ्यते, केन ?—'क्षणपदेन' हिंसास्पदेन प्राण्युपमर्द जनितेन, 'क्षणु हिंसायामि त्यस्यैतद्रूपं । कोऽसौ ?, बी' इति । किमेतावदेव वीरलक्षणमुतान्यदप्य(स्त्य)स्तीन्याह-'से मेहावीत्यादि, स 'मेधावी' बुद्धिमान य: रणोदयातनस्य खेदज्ञः' अणत्यनन जन्तुगणश्चतुर्गतिकं संसार्गमत्यणं-कर्म तस्योत्-प्राबल्येन धातनम्-अपन यनं तस्य तत्र वा खेदज्ञो-निपुणः, इह हि कर्मक्षपणोधताना मुमुक्षूणां यः कर्मक्षपणविधिज्ञः स मेधावी कुशलो वीर इत्युक्तं भवति, किं चान्यत्-'जे य'इत्यादि, यश्च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशसस्य चतुर्विधस्यापि बन्धस्य यः प्रमोक्षः तदुपायो वा तमन्वेष्टु-मृगायतु शीलमस्येत्यन्वेपी, यश्चैवम्भृतः स वीरो मेधावी खेदज्ञ इति पूर्वेण सम्बन्धः, अणोद्घातनस्य खेदज्ञ इत्यनेन मूलोत्तप्रकृतिभेदभिन्नस्य योगनिमित्तायातस्य कपायस्थितिकस्य कर्मणो बध्यमानावस्थां बद्धस्पृएनिधत्तनिकाचितरूपां तदपनयनोपायं च वेतीत्येतदभिहितं, अनेन चापनयनानुष्ठानमिति न पुनरुक्तदोषानुषङ्गः प्रसजति । स्यादेतत्-योऽयमणोद्घातनस्य खेदज्ञो बन्धमोक्षान्वेषको वाऽभिहितः स किं छद्मस्थ आहोस्वित् केवली !, केवलिनो यथोक्तविशेषणासम्भवात् छद्मस्थग्रहणं, केवलिनस्तर्हि का वाति?, उच्यते-'कुसले' इत्यादि, कुशलोऽत्र क्षीणघातिकाशो विवक्षितः, स च तीर्थकृत सामान्यकेवली वा छद्मस्थो हि कर्मणा बद्धो मोक्षार्थी तदुपायान्वेषकः, केवली तु पुनर्घातिकर्मक्षयान्नो बद्धो भवोपग्राहिकर्मसद्भावानो मुक्तो, यदिवा छमस्थ एवाभिधीयते-'कुशल' अवाप्तज्ञानदर्शनचारित्रो मिथ्यात्वद्वादशकपायोपशमसद्भावात् तदुदयवानिव न बद्धोऽद्यापि तत्सत्कर्मतासद्भावानो मुक्त इति । एवम्भृतश्च कुशलः केवली छद्मस्थो वा यदाचीर्णवानाचरति वा तदपरेणापि ܀܀܀܀܀܀܀ २९१० Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) लोकवि.अ.. उद्देशकः ६ .२१२॥ मुमुक्षुणा विधेयमिति दर्शयति से जं च आरभेजच नारभे, अणारडंचन आरभे, छणं छणं परिणाय लोगसन्नं च सव्वसो ॥ सू० १०३॥ 'स' कुशलो यदारभते आरब्धवान् वा अशेषकर्मक्षपणोपायं संयमानुष्ठानं यच्च नारभते मिथ्यात्वाविरत्यादिकं संसारकारणं, तदारब्धव्यमारम्भणीयमनारब्धमनारम्भणीयं चेति, संसारकारणस्य च मिथ्यात्वाविरत्यादेः प्राणातिपाताद्यष्टादशरूपस्य चैकान्तेन निराकार्यत्वात, तनिषेधे च विधेयस्य संयमानुष्ठानस्य सामर्थ्यायातत्वात्तनिषेधमाह-- 'अणारखं च' इत्यादि, अनारब्धम्-अनाचीणं केवलिभिर्विशिष्टमुनिभिर्वा तन्मुमुक्षु रमते-न कुर्यादित्युपदेशो, यच्च मोक्षाङ्गमाचीर्ण तत्गुर्यादित्युक्तं भवति । यत्तद्भगवदनाचीर्ण परिहार्य तन्नामग्राहमाह--'छणं छणं' इत्यादि, 'क्षणु हिंसायाँ' क्षणनं क्षणो-हिंसनं कारणे कार्योपचारात् येन येन प्रकारेण हिंसोत्पद्यते तत्तज्ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेद् , यदिवा क्षण:-अवसरः कर्त्तव्यकालस्तं तं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वाऽऽसेवनापरिज्ञया च आचरेदिति । किं च-'लोयसन्नं' इत्यादि, 'लोकस्य' गृहस्थलोकस्य संज्ञानं संज्ञा-विषयाभिष्वङ्गजनितसुखेच्छा परिग्रहसंज्ञा वा तां च ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरेत , कथं १–'सर्वशः सर्वैः प्रकारैर्योगत्रिकरणत्रिकेणेत्यर्थः, तस्यैवंविधस्य यथोक्तगुणावस्थितस्य धर्म कथाविधिज्ञस्य बद्धप्रतिमोचकस्य कर्मोद्घातनखेदज्ञस्य बन्धमोक्षान्वेषिणः सत्पथव्यवस्थितस्य कुमार्गनिराचिकीपों हिंसाद्यष्टादशपापस्थानविरतस्यावगतलोकसंज्ञस्य यद्भवति तदर्शयति Ba॥२६२. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३॥ उद्देसो पासगस्स नत्थि, वाले पुणे निहे कामसमणुन्ने, असमियदुक्खे दुक्खो दुक्खाणमेव आवट्ट अणुपरियइ त्ति बेमि ॥ सू० १०४॥ . ॥ इति षष्ठोद्देशकः ॥२-६ ।। ॥ इति लोकविजयाध्ययनम् ॥२॥ उद्दिश्यते नारकादिव्यपदेशेनेत्युद्देशः स ‘पश्यकस्य परमार्थदृशो न विद्यते इत्यादीनि च सूत्राण्युद्देशकपरिसमाप्ति यावत्ततीयोद्देशके व्याख्यातानि, तत एवार्थोऽवगन्तव्यः, आक्षेपपरिहारौ चेति । तानि चामुनि बालः पुननिहः कामसमनुज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेवावत्तमनुपरिवर्तते । इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ (ग्रन्थाग्रम् २५००) उक्तः षष्ठोद्देशकः॥ तत्परिसमाप्तौ चोक्तः सूत्रानुगमः सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिकः। साम्प्रतं नैगमादयो नयाः, ते चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादिता इति नेह प्रतन्यन्ते, संक्षेपतस्तु ज्ञानक्रियानयद्यान्तर्गतत्वात्तेषां तावेव प्रतिपाद्यते, तयोरप्यात्मीयपक्षसावधारणतया मोक्षाङ्गत्वाभावात् प्रत्येकं मिथ्यादृष्टित्वम् , अतः पङ्ग्वन्धवत् परस्परसापेक्षतयेष्टकार्यावाप्तिरवगन्तव्येति उपगम्यते ॥ इति लोकविजयाध्ययनस्य टीका समाप्ता ॥२॥ ॥ श्रीआचाराने इतिश्रीशीलाङ्काचार्यवृत्तियुतं लोकविजयाध्ययनं द्वितीयम् ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ २९४ ॥ ॥ अथ शीतोष्णीयाख्ये तृतीयाध्ययने प्रथमोद्द ेशकः ॥ +2625iggeser उक्तं द्वितीयमध्ययनं साम्प्रतं तृतीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, तत्र शस्त्रपरिज्ञायामस्यार्थाधिकारोऽभाणि, यथा शीतोष्णयोरनुकूलप्रतिकूल परिषहयोरतिसहनं कर्त्तव्यं तदधुना प्रतिपाद्यते, अध्ययन सम्बन्धस्तु शनपरिज्ञोक्तमहाव्रतसम्पन्नस्य लोकविजयाध्ययन प्रसिद्धसंयम व्यवस्थितस्य विजितकषायादिलोकस्य मुमुक्षोः कदाचिदनुलोमप्रतिलोमाः परीषदाः प्रादुष्पन्ति तेऽविकृतान्तःकरणेन सम्यक सोढव्या इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् अस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेधा, तत्राप्यध्ययनार्थाधिकारोऽभिहितः उद्देशार्थाधिकारप्रतिपादनार्थं तु नियुक्तिकार आह— पढमे सुत्ता अस्संजयत्ति १ बिइए दुहं अणुहवंति २ । तइए न हु दुक्खेण अकरणयाए व समणुत्ति ३ ॥ १९८ ॥ उद्देसंमि चउत्थे अहिगारो उ वमणं कसायाणं । पावविरईओ विओसो संजमो इत्थ मुक्खुत्ति ४ ॥ १९९॥ प्रथमोऽयमर्थाधिकारो, यथा-भावनिद्रया सुप्ताः- सम्यग्विवेकरहिताः, के ? - असंयताः - गृहस्थास्तेषां च भावसुप्तानां दोषा अभिधीयन्ते, जाग्रतां च गुणाः, तद्यथा- 'जरामच्चुवसोवणीए नरे' इत्यादि १, द्वितीये तु त एवासंयता यथा भावनिद्रापन्ना दुःखमनुभवन्ति तथोच्यते, तद्यथा - 'कामेसु गिद्धा निचयं करंति' २, तृतीये तु 'न हु' नैव दुःख सहनादेव केवलाच्छ्रमणः अकरणतयैव-अक्रिययैव संयमानुष्ठानमन्तरेणेत्यर्थः वच्यति च - 'सहिए दुक्खमायाय शीतोष्णीय • अ. ३ उद्द शकः १ ॥ २९४ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २१५॥ तेणेव य पुट्ठो नो झंझाए' ३, चतुर्थोद्देशके त्वयमधिकारो, यथा-कषायाणां वमनं कार्य, पापस्य च कर्मणो विरतिः, 'विदुषो विदितवेद्यस्य संयमोऽत्रैव प्रतिपाद्यते, क्षपकश्रेणिप्रक्रमात् केवलं भवोपग्राहिक्षयान्मोक्षश्चेति गाथाद्वयार्थः ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे शीतोष्णीयमध्ययनमतः शीतोष्णयोनिक्षेपं निर्दिदिक्षुराहनाम ठवणा सीयं दव्वे भावे य होइ नायव्वं । एमेव य उण्हस्सवि चउव्विहो होइ निक्खेवो ॥२०॥ सुगमा । तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यशीतोष्णे दर्शयितमाहदव्वे सीयलदव्वं दव्वुण्हं चेव उण्हदव्वं तु । भावे उ पुग्गलगुणो जीवस्स गुणो अणेगविहो ॥ २०१॥ ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यशीतं शीतगुणोपेतं गुणगुणिनोरभेदात् शीतकारणं वा यद्रव्यं द्रव्यप्राधान्याच्छीतलद्रव्यमेव द्रव्यशीतं-हिमतुषारकरकादि, एवं द्रव्योष्णमपीति । भावतस्तु द्वेधा-पुद्गलाश्रितं जीवाश्रितंच, गाथाशकलेनाचष्टे-तत्र पुद्गलाश्रितं मावशीतं पुद्गलस्य शीतो गुणो गुणस्य प्राधान्यविवक्षयेति, एवं भावोष्णमपि, जीवस्य तु शीतोष्णरूपोऽनेकविधो गुणः, तद्यथा-औदयिकादयः षड् भावाः, तत्रौदयिकः कर्मोदयाविर्भूतनारकादिभवकषायोत्पत्तिलक्षणः उष्णः, औपशमिकः कम्र्मोपशमावाप्तसम्यक्त्वविरतिरूपः शीतः, क्षायिकोऽपि शीत एव, क्षायिकसम्यक्त्वचारित्रादिरूपत्वाद्, अथवाऽशेषकर्मदाहान्यथानुपपत्तेहष्णः, शेषा अपि विवक्षातो द्विरूपा अपीति ॥ अस्य च जीवभावगुणस्य शीतोष्णविवेक स्वत एव नियुक्तिकारः प्रचिकटयिषुराहसीयं परीसहपमायुवसमविरई सुहं च उण्हं तु। परीसहतबुजमकसाय सोगाहिवेयारई दुक्खं ॥२०२॥ दारं। ॥ २५॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शीत'मिति भावशीतं, तच्चेह जीवपरिणामस्वरूपं गृह्यते, स चायं परिणामो-मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषोढव्याः भीआचा शीतोष्णीय. परीषहाः 'प्रमादः' कार्यशैथिल्यं शीतलविहारता 'उपशमो मोहनीयोपशमा, स च सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतिलक्षणः, राङ्गवृत्तिः Ral अ०३ उपशमश्रेण्याश्रितो वा, तत्क्षयो वेति, 'विरति'रिति प्राणातिपातादिविरत्युपलक्षितः सप्तदशविधः संयमः 'सुखं च' (शीलाबा उद्देशका सातावेदनीयविपाकाविर्भूतमिति । एतत् सर्व परीषहादि शीतमुष्णं च गाथाशकलेनाह-परीपहा:-पूर्वव्यावर्णितस्वरूपाः ॥ २१६॥ तपस्युद्यमो-यथाशक्ति द्वादशप्रकारतपोऽनुष्ठानं 'कषायाः क्रोधादयः 'शोक' इष्टाप्राप्तिविनाशोद्भवा आधिः 'वेदः' स्त्री पुनपुसकवेदोदयः 'अरतिः' मोहनीयविपाकाच्चित्तदौःस्थ्यं 'दुःखं च' असातावेदनीयोदयादीनि, एतानि परीषहादीनि पीडाकारित्वादुष्णमिति गाथासमासार्थः। व्यासाथ तु नियुक्तिकारः स्वत एवाचष्टे-तत्र परीपहाः शीतोष्णयोयोरप्यभिहिता, ततो मन्दबुद्धेरनध्यवसायः संशयो विपर्ययो वा स्याद् अतस्तदपनोदार्थमाह इत्थी सकारपरीसहो य दो भावसीयला एए । सेसा वीसं उण्हा परीसहा टुंति नायव्वा ॥२०॥ स्त्रीपरीषहः सत्कारपरीषहश्च द्वावप्येतौ शीती, भावमनोऽनुकूलत्वात् , शेषास्तु पुनर्विशतिरुष्णा ज्ञातव्या भवन्ति, मनसः प्रतिकूलत्वादिति गाथार्थः॥ यदिवा परीपहाणां शीतोष्णत्वमन्यथा आचष्टे. जे तिव्वप्परिणामा परीसहा ते भवंति उण्हा उ। जे मंदप्परिणामा परीसहा ते भवे सीया ॥ २०४ ॥ दारं । - तीव्रो-दुःसहः परिणामः-परिणतिर्येषां ते तथा, य एवम्भूताः परीषहास्ते उष्णाः, ये तु मन्दपरिणामास्ते शीता इति, al इदमुक्तं भवति-ये शरीरदुःखोत्पादकत्वेनोदीर्णाः सम्यक्सहनाभावाच्चाधिविधायिनस्ते तीव्रपरिणामत्वादुष्णाः, ये पुन ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २६७ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ रुदीर्णाः शारीरमेव केवलं दुःखमुत्पादयन्ति महासत्त्वस्य न मानसं ते भावतो मन्दपरिणामाः, यदिवा ये तीव्रपरिणामाःप्रबलाविभूतस्वरूपास्ते उष्णाः, ये तु मन्दपरिणामाः-ईपलक्ष्यमाणस्वरूपास्ते शीता इति । यत्परीषहानन्तरं प्रमादपद. मुपन्यस्तं शीतत्वेन यच्च तपस्युद्यम इत्युष्णत्वेन तदुभयं गाथयाऽऽचष्टे घमंमि जोपमायइ अत्थे वा सोअलुत्ति तं विति । उज्जुत्तं पुण अन्नं तत्तो उपहंति णं चिंति ॥२०॥ दारं । __ 'धर्म' श्रमणधर्मे यः 'प्रमाद्यति'नोद्यमं विधत्ते 'अर्थे वा' अयंत इत्यर्थो-धनधान्यहिरण्यादिस्तत्र तदुपाये वा शीतल इत्येवं तं 'ब्रुवते' आचाते, उद्युक्तं पुनरन्यं ततः-संयमोद्यमात् कारणादुष्णमित्येवं ब्रवते, णमिति वाक्यालङ्कार इति गाथार्थः ॥ उपशमपदव्याचिख्यासयाऽऽह - ___ सीईभूओ परिनिम्बुओ य संतो तहेव पण्हाणोल्हाओ)। होउवसंतकसाओ तेणुवसंतो भवे जीवो ॥२०६।। दारं। उपशमो हि क्रोधाद्यदयाभावे भवति, ततश्च कषायाग्न्युपशमात् शीतीभृतो भवति, क्रोधादिज्वालानिर्वाणात परिनिवृतो भवति, चः समुच्चये, रागद्वेषपावकोपशमादुपशान्तः, तथा क्रोधादिपरितापोपशमात् 'प्रह्लादितः' आपन्नसुखो, यतो ह्य पशान्तकषाय एव एवम्भूतो भवति तेनोपशान्तकषायः शीतो भवतीति, एकार्थिकानि वैतानीति गाथार्थः । अधुना विरतिपदव्याख्यामाहअभयकरो जीवाणं सीयघरो संजमो भवइ सीओ।अस्संजमो य उण्हो एसोअन्नोऽवि पज्जाओ॥२०७॥ दारं। अभयकरणशीलः, केषां ?-जीवानां, शीत-सुखं तद्गृह-सदावासः, कोऽसौ ?-संयमः सप्तदशभेदः, अतोऽसौ शीतो ॥ २६७॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय. उद्देशकः १ भवति, समस्तदुःखहेतुद्वन्द्वोपरमाद्, एतद्विपर्ययस्त्वसंयम उष्णः, 'एष' शीतोष्णलक्षणः संयमासंयमयोः पर्यायोऽन्यो श्रीआचा वा सुखदुःखरूपो विवक्षावशाद्भवतीति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं सुखपदविवरणायाहराङ्गवृत्तिः निव्वाणमुहं सायं सीईभूयं पयं अणाषाहं । इहमवि जं किंचि सुहं तं सीयं दुक्खमवि उण्हं ॥२०८॥ (शीलाका.) सुखं शीतमित्युक्तं, तच्च समस्तद्वन्द्वोपरमादात्यन्तिकैकान्तिकानाबाधलक्षणं निरुपाधिकं परमार्थचिन्तायां मुक्ति॥२८॥ सुखमेव सुखं नापरम् , एतच्च समस्तकोपतापाभावाच्छीतमिति दर्शयति-'निर्वाणसुख मिति, निर्वाणम्-अशेषकर्म क्षयस्तदवाप्तौ वा विशिष्टाकाशप्रदेशः तेन तत्र वा सुखं निर्वाणसुखम् , अस्य चैकार्थिकानि-सातं शीतीभृतं पदमनाबाधमिति । इहापि संसारे यत्किश्चित् सातावेदनीयविपाकोद्भुतं सात-सुखं तदपि शीतं मनआल्हादाद्, एतद्विपर्ययस्तु दुःखं, तच्चोष्णमिति गाथार्थः ॥ कषायादिपदव्याचिख्यासयाहउज्झइ तिव्वकसाओ सोगभिभूओ उहन्नवेओ य । उण्हयरो होइ तवो कसायमाईविज डहइ ॥२०॥ 'दह्यते' परिपच्यते, कोऽसौ ?-'तीव्रा' उत्कटा उदीर्णा विपाकानुभवेन कषाया यस्य स तथा, न केवलं कषायाग्निना दह्यते, 'शोकाभिभूतश्च' इष्टवियोगादिजनितः शोकस्तेनाभिभूतः तिरोहितशुमव्यापारोऽसावपि दह्यते, तथा उदीर्णो विपाकापन्नो वेदो यस्य स तथा, उदीर्णवेदो हि पुमान् स्त्रियं कामयते, साऽपीतरं, नपुंसकस्तूभयमिति, तत्प्राप्त्यभावे ka काङ्क्षोद्भूतारतिदाहेन दह्यते, चशब्दादिच्छाकामाप्राप्तिजनितारतिपावकेन दह्यते, तदेवं कषायाः शोको वेदोदयश्च । दाहकत्वादुष्णः, सर्व वा मोहनीयमष्टप्रकारं वा कम्र्मोष्णं, ततोऽपि तद्दाहकत्वादुष्णतरं तप इति गाथाशकलेन दर्शयति २६८. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २९९ ॥ उष्णतरं तपो भवति, किमिति १-यतः कषायादिकमपि दहति, आदिशब्दाच्छोका दिपरिग्रह इति गाथार्थः । येनाभिप्रायेण द्रव्यभावभेदभिन्ने परीषहप्रमादोद्यमादिरूपे शीतोष्णे जगादाचार्यस्तमभिप्रायमाविष्करोति सीउण्हफाससुहदुहपरी सहकसायवे यसोय सहो । हुज्ज समणो सया उज्जुओ य तवसंजमोवसमे ॥ २१०॥ शीतं चोष्णं च शीतोष्णे तयोः स्पर्शः तं सहत इति सम्बन्धः, शीतस्पर्शोष्ण स्पर्शजनितवेदनामनुभवन्नार्त्तध्यानोपगतो भवतीतियावत्, शरीरमनसोरनुकूलं सुखमिति, तद्विपरीतं दुःखं, तथा परीषहकषायवेदशोकान् शीतोष्णभृतान् सहत इति । तदेवं शीतोष्णादिसहः सन् भवेत् 'श्रमणः ' यतिः सदोद्युक्तश्च क्व ? - तपःसंयमोपशमे इति गाथार्थः ।। साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन साधुना शीतोष्णातिसहनं कर्त्तव्यमिति दर्शयति सोयाणिय उण्हाणि य भिक्खूणं हुँति विसहियव्वाई | कामा न सेवियव्वा सीओसणिज्जस्स निज्जुत्ती ॥ २११ 'शीतानि' परीषहप्रमादोपशमविरतिसुखरूपाणि यान्यभिहितानि 'उष्णानि च' परीषदतप उद्यमकषायशोकवेदारत्यात्मकानि प्रागभिहितानि तानि 'मिक्षूणां ' मुमुक्षूणां विषोढव्यानि न सुखदुःखयोः उत्सेकविषादों विधेयौ, तानि चैवं सम्यग्दृष्टिना सह्यन्ते यदि कामपरित्यागो भवतीति गाथाशकलेनाह - 'कामा' इत्यादि गाथार्द्धं सुगमं । तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतमशेषदोषत्रात विकलं सूत्रमुच्चारयितव्यं तच्वेदम् सुत्ता अमुणी सया मुणिणां जागरंति ।। सू० १०५ ।। अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धो वाच्यः, स चायम्-इह दुःखी दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्त्तत इत्युक्तं तदिहापि भावसुप्ता ।। २९९ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय अ.३ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥३०॥ अज्ञानिनो दुःखिनो दुःखानामेवावत्तमनुपरिवर्तन्ते इति, उक्तं च-"नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥१॥" इत्यादि, इह सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र निद्राप्रमादवन्तो(दापन्ना) द्रव्यसुप्ताः, भावसुप्तास्तु मिथ्यात्वाज्ञानमयमहानिद्राव्यामोहिताः, ततो ये 'अमुनयः' मिथ्यादृष्टयः सततं भावसुप्ताः सद्विज्ञानानुष्ठानरहितत्वात् , निद्रया तु भजनीयाः, मुनयस्तु सद्बोधोपेता मोक्षमार्गादचलन्तस्ते सततम्अनवरतं 'जाग्रति' हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वते, अतो द्रव्यनिद्रोपगता अपि क्वचिद्वितीयपौरुष्यादौ सततं जागरूका एवेति ।। एनमेव भावस्वापं जागरणं च विषयीकृत्य नियुक्तिकारो गाथा जगादसुत्ता अमुणिओ सया मुणिओ सुत्तावि जागरा हुँति । धम्म पडुच्च एवं निद्दासुत्तण भइयव्वं ॥२१॥ सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र निद्रया द्रव्यसुप्तान् गाथान्ते वक्ष्यति, भावसुप्तास्त्वमुनयो-गृहस्था मिथ्यात्वाज्ञानावृता हिंसाद्यास्रवद्वारेषु सदा प्रवृत्ताः, मुनयस्त्वपगतमिथ्यात्वादिनिद्रतयाऽवाप्तसम्यक्त्वादिबोधा भावतो जागरूका एव, यद्यपि क्वचिदाचार्यानुज्ञाता द्वितीयपौरुष्यादौ दीर्घसंयमाधारशरीरस्थित्यर्थ निद्रावशोपगता भवन्ति तथापि सदा जागरा एव, एवं च धर्म प्रतीत्योक्ताः सुप्ता जाग्रदवस्थाश्च । द्रव्यनिद्रासुप्तेन तु भाज्यमेतद्-धर्मः स्याद्वा न वा, यद्यसौ भावतो जागर्ति ततो निद्रासुप्तस्यापि धर्मः स्यादेव, यदिवा भावतो जाग्रतो निद्राप्रमादावष्टब्धान्तःकरणस्य न स्यादपि, यस्तु द्रव्यभावसुप्तस्तस्य न स्यादेवेति भजनाः । अथ किमिति द्रव्यसुप्तस्य धम्मों न भवतीति ?, उच्यते, द्रव्यसुप्तो हि निद्रया भवति, सा च दुरन्ता, किमिति ?, यतः स्त्यानचित्रिकोदये सम्यक्त्वावाप्तिर्भवसिद्धि ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ३..॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३०१ ॥ कस्यापि न भवति, तद्द्बन्धश्च मिध्यादृष्टिसास्वादनयोरनन्तानुबन्धिबन्धसहचरितः, क्षयस्त्वनिवृत्तिवादरगुणस्थान कालसंख्येयभागेषु कियत्स्वपि गतेषु सत्सु भवति, निद्राप्रचलयोरपि उदये प्राग्वदेव, बन्धोपरमस्त्यपूर्वकरण कालसंख्येयभागान्ते भवति, क्षयः पुनः क्षीणकषायद्विचरणसमये, उदयस्तूपशम कोपशान्तमोहयोरपि भवतीत्यतो दुरन्तो निद्राप्रमादः । यथा च द्रव्यसुप्तो दुःखमवाप्नोत्येवं भावसुप्तोऽपि (इति) दर्शयितुमाह जह सुत्त मत्तमुच्छि असहीणो पावए बहुँ दुक्खं । तिब्वं अपडियारंपि वट्टमाणो तहा लोगो ॥ २१३॥ सुप्तो निंद्रा मत्तो मदिरादिना मूच्छितो गाढमम्प्रहारादिना 'अस्वाधीनः - परायत्तो वातादिदोषोद्भवग्रहणादिना यथा बहु दुःखमप्रतीकारमवाप्नोति तथा भावस्वापे - मिथ्यात्वा विरतिप्रमादकषायादिकेऽपि 'वर्त्तमानः' अवतिष्ठमानो 'लोकः' प्राणिगणो नरकभवादिकं दुःखमवाप्नोतीति गाथार्थः । पुनरपि व्यतिरेकदृष्टान्तद्वारेणोपदेशदानायाहएसेव य उवएसो पदित्त पयलाय पंथमाईसु । अणुहवह जह सचेओ सुहाई समणोऽवि तह चेव ॥ २१४॥ 'एष एव ' पूर्वोक्त उपदेशो यो विवेकाविवेकजनितः, तथाहि - सचेतनो विवेकी प्रदीप्ते सति प्रपलायमानः सुखमनुभवति, पथिविषये च सापायनिरपायविवेकज्ञः, आदिग्रहणादन्यस्मिन्वा दस्युभयादौ समुपस्थिते सतिं यथा विवेकी सुखेनैव तमपायं परिहरन् सुखभाग् भवति एवं श्रमणोऽपि भावतः सदा विवेकित्वाज्जाग्रदवस्थामनुभवन् समस्त कल्याणास्पदीभवति । अत्र च सुप्तासुप्ताधिकारगाथा: - ""जागरह णरा णिच्चं जागरमाणस्स वड्ढएं वुडी । जो सुअइ १ जागृत नरा नित्यं जातो वर्धते बुद्धिः । यः स्वपिति न स धन्यः यो जागर्ति स सदा धन्यः ॥ १ ॥ स्वपिति स्वपतः श्रुतं ॥ ३०१ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय न सो धण्णो जो जग्गइ सो सया धन्नो ॥१॥ सुअइ सुअंतस्स सुझं संकियखलियं भवे पमत्तस्स । भीआचा जागरमाणस्स सुअं थिरपरिचिअमप्पमत्तस्स ॥२॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विजा सह निदया। राजवृत्तिः न वेरग्गं पमाएणं, नारंभेण दयालुया ।। ३ ॥ जागरिआ धम्मीणं आहस्मीणं तु सुत्तया सेआ। वच्छा(शीलाका. 18 हिवभगिणीए अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥ ४ ॥ सुयइ य अयगरभूओ सुअंपि से नासई अमयभूअं । .३०२॥ होहिह गोणभूओ नझुमि सुए अमयभूए ॥५॥" तदेवं दर्शनावरणीयकर्मविपाकोदयेन क्वचित्स्वपनपि यः संविग्नो यतनावांश्च स दर्शनमोहनीयमहानिद्रापगमाज्जाग्रदवस्थ एवेति । ये तु सुप्तास्तेऽज्ञानोदयाद्भवन्ति, अज्ञानं च महादुःखं, दुःखं च जन्तूनामहितायेति दर्शयति लोयसि जाण अहियाय दुक्खं समयं लोगस्स जाणित्ता, इत्य सत्थोवरए, जस्सिमे सहा य रूवा य रसा य गंधा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति ॥ सू० १०६ ।। 'लोके' षड्जीवनिकाये 'जानीहि' परिच्छिन्द्या दुःखहेतुत्वाद्दुःखम्-अज्ञानं मोहनीयं वा तदहिताय-नरकादिभव8 व्यसनोपनिपाताय, इह वा बन्धवधशारीरमानसपीडायै जायत इत्येतज्जानीहि, परिज्ञानाच्चैतत्फलं यदुत-द्रव्यभाव. शतिस्खलितं भवेत्प्रमत्तस्य । जागरतः श्रुत स्थिरपरिचितमप्रमत्तस्य ॥२॥नालस्येन समं सौख्यं न विद्या सह निद्रया। न वैराग्य प्रमादेन नारम्भेण दयालुता ॥३॥ जाग्रता धर्मिणां अधर्मिणां तु सुप्तता श्रेयसी। वत्साधिपभगिन्या अकथयत जिनो जयन्त्याः ॥४॥ स्वपिति चाजगरभूतः श्रुतमपि तस्य नश्यत्यमृतभूतम् । भविष्यति गोभूतो नष्टे श्रुतेऽमृतभूते ॥ ५॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३०३॥ स्वापादज्ञानरूपादुःखहेतोरपसर्पणमिति, किं चान्यत्-'समय'मित्यादि, समय:-आचारोऽनुष्टानं तं लोकस्यासुमद्वातस्य ज्ञात्वा अत्र शस्त्रोपरतो भवेदित्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धो, लोको हि भोगाभिलाषितया प्राण्युपमर्दादिकपायहेतुकं कम्र्मोपादाय नरकादियातनास्थानेषूत्पद्यते ततः कथञ्चिदुद्वृत्त्यावाप्य चाशेषक्लेशवातघ्नं धर्मकारणमार्यक्षेत्रादौ मनुष्यजन्म पुनरपि महामोहमोहितमतिस्तत्तदारभते येन येनाधोऽधो व्रजति, संसारान्नोन्मज्जतीति, एवं लोकाचारस्तं ज्ञात्वा, अथवा समभावः ममता तां ज्ञात्वा, 'लोकस्येति सप्तम्यर्थे षष्ठी, ततश्चायमों-'लोके' जन्तुसमहे 'समता समशत्रुमित्रतां समात्मपरता वा ज्ञात्वा, यदिवा सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयो जन्तवः सदा स्वोत्पत्तिस्थानरिरंसवो मरणभी वः सुखेप्सवो दुःखद्विष इत्येवम्भूतां समता ज्ञात्वा, किं कुर्यादित्याह–'एत्थ सत्थोवरए', 'अत्र' अस्मिन् षटकायलोके शस्त्राद्द्रव्यभावभेदादुपरतो धर्मजागरणेन जागृहि, यदिवा यद्यत्संयमशस्त्रं प्राणातिपाताद्यास्रबद्वारं शब्दादिपश्चप्रकारकामगुणाभिष्वङ्गो वा तस्माद्य उपरतः स मुनिरिति, आह च-'जस्सिम' इत्यादि, यस्य मुनेरिमे-प्रत्यात्मवेद्याः समस्तप्राणिगणेन्द्रियप्रवृत्तिविषयभूताः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शा मनोज्ञेतरभेदभिन्ना 'अभिसमन्वागता' इति, अभिः-आभिमुख्येन सम्यग्-इष्टानिष्टावधारणतयाऽन्विनि-शब्दादिस्वरूपावगमात् पश्चादागता:-जाताः परिच्छिन्ना यस्य मुनेर्भवन्ति स लोकं जानातीति सम्बन्धः, इदमुक्तं भवति-इष्टेषु न रागमुपयाति नापीतरेषु द्वेषम् , एतदेवाभिसमन्वागमनं तेषां नान्यदिति, यदिवेहैव शब्दादयो दुःखाय भवन्त्यास्तां तावत्पग्लोक इति, उक्तं च-"रक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श नागो रसे च वारिचरः। कृपणपतङ्गो रूपे भुजगो गन्धे तनु विनष्टः ॥ १॥ पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३०३॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोआचा- रावृत्तिः (शीलाका शीतोष्णीय ___ अ.३ उद्देशकः १ यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततामबुधः॥ २॥" अथवा शब्दे पुष्पशालाडूद्रा ननाश रूपे अर्जुनकतस्करः गन्धे गन्धप्रियकुमारः रसे सौदासः स्पर्शे सत्यकिः सुकुमारिकापतिर्वा ललिताङ्गकः, परत्र च नारकादियातनास्थानभयमिति ॥ एवं शब्दादीनुभयदुःखस्वभावानवगम्य यः परित्यजेदसौ कं गुणमवाप्नुयादित्याह से आयवं नाणवं (आयवी नाणवी) वेयणं धमवं बंभवं पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति बुच्चे, धम्मविऊ उज्जू, आवट्टसोए संगमभिजाणइ ॥ सू० १०७ ॥ ___ यो हि महामोहनिद्रावृते लोके दुःखमहिताय जानानो लोकसमयदर्शी शस्त्रोपरतः सन् शब्दादीन् कामगुणान् दुःखैकहेतूनभिसमन्वागच्छति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याचष्टे 'स' मुमुक्षुरात्मवान्-आत्मा ज्ञानादिकोऽस्यास्तीत्यात्मवान् , शब्दादिपरित्यागेन ह्यात्माऽनेन रक्षितो भवति, अन्यथा नारकैकेन्द्रियादिपाते सत्यात्मकार्याकरणाकुतोऽस्यात्मेति, 'पाठान्तरं' वा 'से आयवी नाणवी' आत्मानं श्वभ्रादिपतनरक्षणद्वारेण वेत्तीत्यात्मवित , तथा ज्ञानं-यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदकं. वेत्तीति ज्ञानवित् , तथा वेद्यते जीवादिस्वरूपम् अनेनेति वेदः-आचाराद्यागमः वेनीत्ति वेदवित , तथा दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावं स्वर्गापवर्गमार्ग धर्म वेत्तीति धर्मवित् , एवं ब्रह्म-अशेषमलकलङ्कविकलं योगिशर्म वेत्तीति ब्रह्मवित , यदिवा अष्टादशधा ब्रह्म ति, एवम्भृतश्चासौ प्रकर्षण ज्ञायते ज्ञेयं यैस्तानि प्रज्ञानानि-मत्यादीनि तैलोकं यथावस्थितं जन्तुलोकं तदाधारं वा क्षेत्रं जानाति-परिच्छिनत्तीत्युक्तं भवति, य एव ॥३०४॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दादिविषयसङ्गस्य परिहर्ता स एव यथावस्थितलोकस्वरूपपरिच्छे दीति । यश्चानन्तरगुणोपेतः स किं वाच्य ? इत्यत आह-'मुणी' इत्यादि, यो यात्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् प्रज्ञानैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा लोक जानाति स मुनिर्वाच्यो, मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्था मुनिरितिकृत्वा, किंच-'धम्म' इत्यादि, धर्म-चेतनाचेतनद्रव्यस्वभावं तचारित्ररूपं वा वेत्तीति धर्मवित् , 'ऋजु'रिति ऋजो:-ज्ञानदर्शनचारित्राख्यस्य मोक्षमार्गास्यानुष्ठानादकुटिलो यथावस्थितपदार्थस्वरूपपरिच्छेदाद्वा ऋजुः सर्वोपाधिशुद्धोऽवक्र इतियावत् । तदेवं धर्मवि जुर्मुनिः किम्भूतो भवतीत्याह-'आवट्ट' इत्यादि, भावावत्तों-जन्मजरामरणरोगशोकव्यसनोपनिपातात्मकः संसार इति, उक्तं हि-"रागद्वेषवशाविड, मिथ्यादर्शनदुस्तरम्। जन्मावर्ते जगत्क्षिप्तं, प्रमादाभ्राम्यते भृशम् ॥१॥" भावश्रोतोऽपि शब्दादिकामगुणविषयाभिलाषः, आवर्त्तश्च श्रोतश्चावर्त्तश्रोतसी तयो रागद्वेषाभ्यां सम्बन्धः-सङ्गस्तमभिजानातिआभिमुख्येन परिच्छिनत्ति-यथाऽयं सङ्गः आवर्त्तश्रोतसोः कारणं, जानानश्च परमार्थतः कोऽभिधीयते ?, योऽनर्थ ज्ञात्वा परिहरति, ततश्चायमर्थः-संसारश्रोत:-सङ्गं रागद्वेषात्मकं ज्ञात्वा यः परिहरति स एव आवत्तश्रोतसोः सङ्गस्याभिज्ञाता॥ सुप्तजाग्रता दोषगुणपरिच्छेदी के गुणमवाप्नुयादित्याह सीउसिणच्चाई से निग्गथे अरहरइसहे, फरुसयं नो वेएइ, जागर वेरोवरए, वीरे एवं दुक्खा पमुक्खसि, जरामच्चुवसोवणिए नरे सययं मूढे धम्म नाभिजाणइ ॥सू० १०८।। सबाह्याभ्यतरग्रन्थरहितः सन् शीतोष्णत्यागी सुखदुःखानभिलाषुकः शीतोष्णरूपौ वा परीषहावतिसहमानः संयमा Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय. भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका) शकः १ .३०६॥ संयमरत्यरतिसहः सन् परुषता-कर्कशता पीडाकारिता परीपहाणामुपसर्गाणां वा कर्मक्षपणायोद्यतः साहाय्यं मन्यमानो 'नो वेत्ति' न तान् पीडाकारित्वेन गृह्णातीत्युक्तं भवति, यदिवा संयमस्य तपसो वा परुषतां शरीरपीडोत्पादनात कर्मलेपापनयनाद्वा संसारोद्विग्नमना मुमुक्षुनिराबाधसुखोन्मुखो 'न वेत्ति' न संयमतपसी पीडाकारित्वेन गृह्णातीतियावत् । किं च–'जागर' इत्यादि, असंयमनिद्रापगमाज्जागर्तीति जागरः, अभिमानसमुत्थोऽमर्षावेशः परापकामध्यवसायो वैरं तस्मादुपरतो वैरोपरतो, जागरश्वासौ वैरोपरतश्चेति विगृह्य कर्मधारयः, क एवम्भूतो ?–'वोरः' कर्मापनयनशक्त्युपेतः, एवम्भूतश्च त्वं वीर ! आत्मानं परं वा दुःखाद्दुःखकारणाद्वा कर्मणः प्रमोक्ष्यसीति । यश्च यथोक्ताद्विपरीतः आवर्तश्रोतसोः सङ्गमुपगतोऽजागरः सनकिमाप्नुयादित्याह-जरा च मृत्युश्च ताभ्यामात्मवशमुपनीतो 'नर' प्राणी 'सततम्' अनवरतं 'मूढो' महामोहमोहितमतिर्द्धम्म-स्वर्गापवर्गमार्ग नाभिजानीते-नावगच्छति, तत् संसारे स्थानमेव नास्ति यत्र जरामृत्यू न स्तः, देवानां जराऽभाव इति चेत् , न, तत्राप्युपान्त्यकाले लेश्यावलसुखप्रभुत्ववर्णहान्युपपत्तरस्त्येव च तेषामपि जरासद्भावा, उक्तं हि-"'देवा णं भंते ! सव्वे समवण्णा ?, नो इणहे समडे, | सेकेण टेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा! देवा दुविहा-पुव्योववण्णगा य पच्छोववण्णगा य । तत्थ णं जे ते पुब्वोचवण्णगा ते णं अविसुद्धवण्णयरा, जे णं पच्छोववण्णगा ते णं विसुद्धवण्णयरा" एवं १ देवा मदन्त ! सर्वे समवर्णाः १, नेषोऽर्थः समर्थः, तन केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते ?, गौतम ! देवा द्विविधाः-पूर्पोत्पन्नकाश्च पश्चादुपपन्नकाश्च तत्र येते पूर्वात्पन्नकास्तेऽविशुद्धवर्णाः, ये पश्चादुत्पन्नास्ते विशुद्धवर्णाः । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३०६ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याद्यपीति, च्यवनकाले तु सर्वस्यैवैतद्भवति, तद्यथा-"मोल्यम्लानिः कल्पवक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागाङ्गभङ्ग, दृष्टिभ्रान्तिपथुश्चारतिश्च ॥१॥" यतश्चैवमतः सर्व जरामृत्युपशोपनीतमभिसमीक्ष्य किं कुर्यादित्याह पासिय आउरपाणे अप्पमत्तो परिव्वए, मंता य मइम, पास आरंभजं दुक्खमिणंति णचा, माई पमाई पुण एइ गम्भं, उवेहमाणो सहरुवेसु उज्जू माराभिसंकी भरणा पमुच्चई, अप्पमत्तो कामेहिं, उवरओ पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते खेयन्ने, जे पन्जवजायसत्थस्स खेयण्णे से असत्थस्स खेयन्ने, जे असत्थस्स खेयपणे से पज्जवजायसस्थस्स खेयन्ने, अकम्मस्स ववहारो न विजइ, कम्मुणा उवाहो जायइ, कम्मं च पडि लेहाए ॥ सू. १०६ ।। स हि भावजागरस्तैस्तैर्भावस्वापजनितैः शारीरमानसैदुखैरातुरान्-किंकर्तव्यतामूढान दुःखसागरावगाढान् प्राणानभेदोपचारात् प्राणिनो 'दृष्टवा' ज्ञात्वाऽप्रमत्तः परिव्रजेद्-उद्युक्तः सन् संयमानुष्ठानं विदध्यात् । अपि च-'मंता' इत्यादि, हे मतिमन् !-सश्रुतिक ! भावसुप्तातुरान् पश्य, मत्वा चैतज्जाग्रत्सुप्तगुणदोषापादनं मा स्वापमतिं कुरु, कि च-'आरंभज'मित्यादि, आरम्भ:-सावधक्रियानुष्ठानं तस्म ज्जातमारम्भजं, किं तद् ?-दुःखं तत्कारणं वा कर्म । 'इदमिति प्रत्यक्षगोचरापनमशेषारम्भप्रवृत्तप्राणिगणानुभूयमानमित्येतत् 'ज्ञात्वा' परिच्छिद्य निरारम्भो भृत्वाऽऽत्महिते ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ३०७ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय उद्देशकः। जागृहि । यस्तु विषयकपायाच्छादितचेता भावशायी स किमाप्नुयादित्याह-'माई' इत्यादि, मध्यग्रहणादाद्यन्तयोग्रहणं, श्रीआचा तेन क्रोधादिकपायवान् मद्यादिप्रमादवानारकदुःखमनुभृय पुनस्तिर्यक्षु गर्भमुपैति । यस्त्वकषायी प्रमादरहितः स किम्भूतो राङ्गवृत्तिः Ra भवतीत्याह-'उह' इत्यादि, बहुवचननिर्देशादाद्यर्थो गम्यते, शब्दरूपादिषु यो रागद्वेषौ तावुपेक्षमाण:-अकुर्वन् ऋजु- (शीलाङ्का.) भवति-यतिर्भवतिः यतिरेव परमार्थत ऋजुः, अपरस्त्वन्यथाभृतः स्त्र्यादिपदार्थान्यथाग्रहणाद्वक्रः, किं च-स ऋजुः ।३०८॥ शब्दादीनुपेक्षमाणो मरणं मारस्तदभिशङ्की-मरणादुद्विजंस्तत्करोति येन मरणात प्रमुच्यते । किं तत्करोतीत्याह 'अप्पमत्त' इत्यादि, कामयः प्रमादस्तत्राप्रमत्तो भवेत् । कश्चाप्रमत्तः स्याद् ?, य कामारम्भ केभ्यः पापेभ्य उपरतो भवतीति दर्शयति-'उवरओ' इत्यादि, उपरतो मनोवाकाय, कुतः ?-पापोपादानकर्मभ्यः कोऽसौ ?-वीरः, किम्भूतो?-गुप्तात्मा, कश्च गुप्तो भवति ?, यः खेदज्ञो, यश्च खेदज्ञः स के गुणमवाप्नुयादित्याह-'जे पज्जव' इत्यादि, शब्दादीनां विषयाणां पर्यवाः-विशेषास्तेषु-तन्निमित्तं जातं शस्त्रं पर्यवजातशस्त्र-शब्दादिविशेषोपादानाय यत्प्राण्युपघातकार्यनुष्ठानं तत्पर्यबजातशस्त्रं तस्य पर्यवजातशस्त्रस्य यः खेदज्ञो-निपुणः सोऽशस्त्रस्य-निरबद्यानुष्ठानरूपस्य संयमस्य खेदज्ञो, यश्चाशस्त्रस्य संयमस्य खेदज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्य खेदज्ञः, इदमुक्तं भवति-यः शब्दादिपर्यायानिष्टानिष्टात्मकान तत्प्राप्तिपरिहारानुष्ठानं च शस्त्रभृतं वेत्ति सोऽनुपघातकन्वात्संयममप्यशस्त्रभृतमात्मपरोपकारिणं वेत्ति, शस्त्राशस्त्रे च जानानस्तत्प्राप्तिपरिहारौ विधते, एतत्फलत्वात् ज्ञानस्येति, यदिवा शब्दादिपर्यायेभ्यस्तज्जनि तरागद्वेषपर्यायेभ्यो वा जातं यज्ज्ञानावरणीयादि कर्म तस्य यच्छस्त्रं दाहकत्वात् तपस्तस्य यः खेदज्ञः तज्ज्ञानानुष्ठानतः सोऽशस्त्रस्य संयमस्यापि खेदज्ञः, पूर्वोक्तादेव ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ..................... ॥३०८ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतो, हेतुहेतुमद्भावाच्च योऽशस्त्रस्य खेदज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्यापि खेदज्ञ इति, तस्य च संयमतपःखेदज्ञस्यास्रवनिरोधादनादिभवोपात्तकर्मक्षयः । कर्मक्षयाच्च यद्भवति तदप्यतिदिशति-'अकम्मरस' इत्यादि, न विद्यते अस्याष्टप्रकार कम्मेत्यका ( काष्टप्रकारमस्येत्यकर्मा) तस्य 'व्यवहारो न विद्यते' नासौ नारकतिर्यग्नरामरपर्याप्तकापर्याप्तकबालकुमारादिसंसारिव्यपदेशभाग भवति । यश्च सकर्मा स नारकादिव्यपदेशेन व्यपदिश्यत इत्याह-'कम्मुणा' इत्यादि, उपाधीयते-व्यपदिश्यते येनेत्युपाधिः-विशेषणं स उपाधिः कर्मणा ज्ञानावरणीयादिना जायते, तद्यथा-मतिश्रतावधिमनःपर्यायवान् मन्दमतिस्तीक्ष्णो वेत्यादि, चक्षुर्दर्शनी अचक्षुर्दशनी निद्रालुरित्यादि, सुखी दुःखी वेति, मिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिध्यादृष्टिः स्त्री पुमानपुंसकः कषायीत्यादि, सोपक्रमायुष्को निरुपक्रमायुष्कोऽल्पायुरित्यादि, नारकः तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियो द्वीन्द्रियः पर्याप्तकोऽपर्याप्तकः सुभगो दुर्भग इत्यादि, उच्चैगोत्रो नीचेोत्रो वेति, कृपणस्त्यागी निरुपभोगो निर्वीयः, इत्येवं कर्मणा संसारी व्यपदिश्यते । यदि नामैवं ततः किं कर्तव्यमित्याह-'कम्मं च' इत्यादि, कर्म-ज्ञानावरणीयादि तत्प्रत्युपेक्ष्य बन्धं वा प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकं पर्यालोच्य, तत्सत्ताविपाकापन्नांश्च प्राणिनो यथा भावनिद्रया शेरते तथाऽवगम्याकम्मतोपाये भावजागरणे यतितव्यमिति, तदभावश्चानेन प्रक्रमेण भवति, तद्यथाअष्टविधसत्कर्मापूर्वादिकरणक्षपकश्रेणिक्रमेण मोहनीयक्षयं विधायान्तमुहर्तमजघन्योत्कृष्टं कालं सप्तविधसत्कर्मा, ततः शेषघातित्रये क्षीणे चतुर्विधभवोपग्राहिसत्कर्मा जघन्यतोऽन्तमुहूर्तमुत्कृष्टतो देशोना पूर्वकोटिं यावत् , पुनरूर्व पञ्चह्रस्वाक्षरोदिगरणकालीयां शैलेश्यवस्थामनुभूयाकर्मा भवति । साम्प्रतमुत्तरप्रकृतीनां सदसत्कर्मताविधानमुच्यते-तत्र ज्ञाना ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३० ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय अ.३ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥३१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ वरणीयान्तराययोः प्रत्येकमुपात्तपञ्चभेदयोश्चतुर्दशस्वपि जीवस्थानकेषु गुणस्थानकेषु च मिथ्यादृष्टेरारभ्य केवलिगुणस्थानादारतोऽपरविकल्पाभावात् पञ्चविधसत्कर्मता। दर्शनावरणस्य त्रीणि सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा-नवविधं निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टय समन्वयाद् एतत् सर्वजीवस्थानानुयायि, गुणस्थानेष्वप्यनिवृत्तिवादरकालसङ्ख्येयभागान् यावत् १, ततः कतिचित्सङ्ख्येयभागावसाने स्त्यानर्द्धित्रयक्षयात् षट्सत्कर्मतास्थानं २, ततः क्षीणकषायद्विचरमसमये निद्राप्रचलाद्वयक्षयाच्चतुःसत्कर्मतास्थानं, तस्यापि क्षयः क्षीणकषायकालान्त इति ३ । वेदनीयम्य द्वे सत्कर्मातास्थाने, तद्यथा-द्वे अपि सातामाते इत्येवं, अन्यतरोदयारूढशैलेश्यवस्थेतरद्विचरमक्षणक्षये सति सातममातं वा कर्मेति द्वितीयं २ । मोहनीयस्य पञ्चदश सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा-पोडश कषाया नव नोकषाया दर्शनत्रये सति सम्यग्दृष्टेरष्टाविंशतिः १, सम्यक्त्वोद्वलने सम्यगमिथ्यादृष्टेः सप्तविंशतिः, दर्शनद्वयोदलनेऽनादिमिथ्यादृष्टेर्वा पविशतिः ३, सम्यग्दृष्टेरष्टाविंशतिमत्कर्मणोऽनन्तानुबन्ध्युद्वलने क्षपणे वा चतुर्विशतिः ४, मिथ्यात्वक्षये त्रयोविंशतिः ५, सम्यगमिथ्यात्वझये द्वाविंशतिः ३, क्षायिकसम्यग्दृष्टेरेकविंशतिः ७, अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्षये त्रयोदश ८, अन्यतरवेदक्षये द्वादश ९, द्वितीयवेदक्षये सत्येकादश १०, हास्यादिपटकन ये पञ्च ११, पुवेदाभावे चत्वारि १२, सज्वलनक्रोधाये त्रयः १३, मानक्षये द्वौ १४, मायातये सत्येको लोभः १५, तत्क्षये च मोहनीयामत्तेति । आयुषो द्वे सन्कम्मतास्थाने सामान्यन, तयथा-परमवायुप्कबन्धोत्तरकालयागुष्कद्वय मेकं १, द्वितीयं तु तद्वन्धाभाव इति । नाम्नो द्वादश सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा-विनवतिः १ द्विनवतिः २ एकोननवतिः ३ अष्टाशीतिः ४ पडशीतिः ५ अशीतिः ६ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३११॥ एसम्मकार एकोनाशीतिः ७ श्रष्टसप्ततिः ८ षट्सप्ततिः ९ पञ्चसप्ततिः १० नव ११ अष्टौ १२ चेति, तत्र त्रिनवतिः-गतयश्चतस्रः ४ पञ्च जातयः ५ पश्च शरीराणि ५ पश्च सङ्घाता: ५ चन्धनानि पञ्च ५ संस्थानानि षट् ६ अङ्गोपाङ्गत्रयं ३ संहननानि पट ६ वर्णपश्चक ५ गन्धद्वयं २ रसाः पञ्च ५ अष्टौ स्पर्शा ८ आनुपूर्वीचतुष्टयं ४ अगुरुलघूपपातपराघातोच्छ्वासातपोद्योताः पट ६ प्रशस्तेतरविहायोगतिद्वयं २ प्रत्येकशरीरत्रसशुभसुभगसुस्वरसूक्ष्मपर्याप्तकस्थिरादेययशासि सेतराणीति विंशतिः २० निर्माणं तीर्थकरत्वमित्येवं सर्वसमुदाये त्रिनवतिर्भवति ९३, तीर्थकरनामाभावे द्विनवतिः ९२, त्रिनवतेराहारकशरीरसङ्घातबन्धनाङ्गोपाङ्गचतुष्टयाभावे सत्येकोननवतिः ८६, ततोऽपि तीर्थकरनामाभावेऽष्टाशीतिः ८८, देवगतितदानुपूर्वीद्वयोदलने षडशीतिः ८६, यदिवा अशीतिसत्कर्मणो नरकगतिप्रायोग्य पध्नतः तद्गत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुकबन्धकस्य षडशीतिः, देवगतिप्रायोग्यबन्धकस्य वेति, तो नरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुष्टयोद्वलनेऽशीतिः ८०, पुनर्मनुष्यगत्यानुपूर्वीद्वयोद्वलनेऽष्टसप्तति ७८, एतान्यक्षपकाणां सत्कर्मतास्थानानि । क्षपकश्रेण्यन्तर्गतानां तु प्रोच्यन्ते, तद्यथा-त्रिनवतेनरकतिर्यग्गतितदानुपूर्वीद्वयैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजात्यातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणरूपैर्नरकतिर्यग्गतिप्रायोग्यैस्त्रयोदशभिः कर्मभिः क्षपितरशीतिर्भवति, द्विनवतेस्त्वेभिस्त्रयोदशमिः क्षपित रेकोनाशीतिः, याऽसावाहारकचतुष्टयापगमेनकोननवतिः सञ्जाता ततस्त्रयोदशनाम्नि क्षपिते षट्सप्ततिर्भवति, तीर्यकरनामाभावापादिताऽष्टाशीतिः, अष्टाशीतेस्त्रयोदशनामाभावे पञ्चसप्ततिः, तत्राशीतेः षट्सप्ततेर्वा तीर्थकरकेलिशैलेश्यापनद्विचरमसमये तीर्थकरनाम्नः प्रक्षेपात् वेद्यमाननवकर्मप्रकृतिव्युदासेन क्षयमुपगते शेषनाम्नि अन्त्यसमये नवसत्कर्मतास्थानं, ताश्च वेद्यमाना नवेमाः, Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराजवृत्तिः (शीलाङ्का. ॥३१२ ॥ तद्यथा-मनुजगति १ पञ्चेन्द्रियजाति २ त्रस ३ बादर ४ पर्याप्तक ५ सुभगादेय ६-७ ययाकीर्ति ८ तीर्थकररूपाः ९, शीतोष्णीय. एता एव शैलेश्यन्त्यसमये सत्तां बिभ्रति, शेषास्तु एकसप्ततिः सप्तषष्टिवा द्विचरमसमये क्षयमुपयान्ति, एता एव नव REAL अ०३ अतीर्थकरकेवलिनस्तीर्थकरनामरहिता अष्टौ भवन्ति, अतोऽन्त्यसमयेऽष्ट सत्कर्मतास्थानमिति । सामान्येन गोत्रस्य द्वे उद्देशक 'सत्कर्मतास्थाने, तद्यथा-उच्चनीचगोत्रद्वयसद्भावे सत्येकं सत्कर्मतास्थानं, तेजोवायूच्चैोत्रोद्वलने कालंकलीभावावस्थायां नीच्चैर्गोत्रसत्कर्मतेति द्वितीयं, यदिवा अयोगिद्विचरमसमये नीचैर्गोत्रक्षये सत्युच्चैर्गोत्रसत्कर्मता, एवं द्विरूपगोत्रावस्थाने सत्येक सत्कर्मतास्थानमन्यतरगोत्रसद्भावे सति द्वितीयमित्येवं कर्म प्रत्युपेक्ष्य तत्सत्तापगमाय यतिना यतितव्यमिति । किं च कम्ममूलं च (कम्ममाहूय)ज छणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहि अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मेहावी परिक्कमिज्जासि त्तिबेमि ॥ सू० ११० ॥ ॥ इति प्रथमोद्देशकः ॥३-१॥ कर्मणो मूलं-कारणं मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः, चः सदुच्चये, कर्ममूलं च प्रत्युपेक्ष्य यत्क्षण मिति 'क्षणु हिसायां' क्षणनं-हिंसनं यत्किमपि प्राण्युपघातकारि तत् कम्ममूलतया प्रत्युपेक्ष्य परित्यजेत् , पाठान्तरं वा कम्ममाहूय ॥ ३१२॥ जं छण' य उपादानक्षणोऽस्य कर्मणः तत्क्षणं काहूय-कम्र्मोपादाय तत्क्षणमेव निवृत्तिं कुर्याद् , इदमुक्तं भवति Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३१३॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अज्ञानप्रमादादिना यस्मिन्नेव क्षणे कर्महेतुकमनुष्ठानं कुर्यात्तस्मिन्नेव क्षणे लब्धचेताः तदुपादान हेतोनिवृत्तिं विदध्यादिति, पुनरप्युपदेशदानायाह-'पडिलेहिअ' इत्यादि, 'प्रत्युपेक्ष्य' पूर्वोक्तं कर्म तद्विपक्षमुपदेशं च सर्व समादाय गृहीत्वा अन्तहेतुत्वादन्तौ-रागद्वेषौ ताभ्यां सहादृश्यमानः ताभ्यामनपदिश्यमानो वा तत्कर्म तदुपादानं वा रागादिक झपरिजया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति, रागादिमोहितं लोकं विषयकषायलोकं वा ज्ञात्वा वान्वा च 'लोकसंज्ञा' विषयपिपासासंज्ञितां धनायाग्रहग्रहरूपां वा 'स' मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः सन् 'पराक्रमेत' संयमानुष्ठाने उद्यक्तो मवेत विषयपिपासामरिषड्वर्ग वाऽष्टप्रकारं वा कविष्टभ्याद् । इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत । इति शीतोष्णीयाध्ययने प्रथमोद्देशकटीका समाप्ता ॥ ३-१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ अथ तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरम्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः पूर्वो देशके भावसुप्ताः प्रदर्शिताः, इह तु तेषां स्वापविपाकफलमसातमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम् जाई च बुद्धिं च इहऽज ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं । - तम्हाऽतिविज्जे परमंति णचा, संमत्तदसो न करेइ पावं ॥१॥ ॥३१३॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय. अ०३ उद्देशका २ जातिः-प्रसूतिः बालकुमारयौवनवृद्धावस्थावसाना वृद्धिः 'इह' मनुष्यलोके. संसारे वा अद्यैव कालक्षेपमन्तरेण, भीआचा जातिं च वृद्धिं च 'पश्य' अवलोकय, इदमुक्तं भवति-जायमानस्य यदुःखं वृद्धावस्थायां च यच्छारीरमानसमुत्पद्यते रावृत्तिः तद्विवेकचक्षुषा पश्य, उक्तं च-"'जायमाणस्स ज दुक्खं,मरमाणस्स जंतुणो। तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ (चीलाङ्का.) जाइमप्पणो ॥१॥ विरसरसियं रसंतो तो सो जोणीमुहाउ निप्फिडइ । माऊए अप्पणोऽविअ वेअणमउलं जणेमाणो॥ २॥" तथा—'हीणभिण्णसरो दोणो, विवरीओ विचित्तओ। दुब्बलो दुक्खिओ वसइ, संपत्तो चरिमं दसं ॥ ३ ॥ इत्यादि, अथवा आर्य इत्यामन्त्रणं भगवान् गौतममामन्त्रयति, इह आर्य! 18 जातिं वृद्धिं च तत्कारणं कर्म कार्य च दुःखं पश्य, दृष्ट्वाऽवबुद्धयस्व, यथा च जात्यादिकं न स्यात् तथा विधत्स्व । किं चापरं-'भूएहि मित्यादि, भूतानि-चतुर्दशभूतग्रामास्तैः सममात्मन: सातं सुखं 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य जानीहि, तथाहि-यथा त्वं सुखप्रिय एवमन्येऽपीति, यथा च त्वं दुःखद्विडेवमन्येऽपि जन्तवः, एवं मत्वाऽन्येषामसातोत्पादनं न विदध्याः, एवं च जन्मादिदुःखं न प्राप्स्यसीति, उक्तं च-"यथेष्टविषयाः सातमनिष्ठा इतरत्तव । अन्यत्रापि विदित्वैवं, न कुर्यादप्रियं जने ॥१॥" यवं ततः किमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, 'तस्माद्' जातिवृद्धिसुख १ जायमानस्य यदुःखं म्रियमाणस्य जन्तोः। तेन दुखेन संतप्तो न स्मरति जातिमात्मनः ॥ १॥ विरसरसितं रसन् ततः स योनिमुखात् निस्सरति । मातुरात्मनोऽपि च वेदनामतुलां जनयन् ॥२॥हीनभिन्नस्वरो दीनो विपरीतो विचित्तकः। दुर्बलो दुःखितो बसति संप्राप्तः चरमां दशाम ॥३॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुःखदर्शनादतीव विद्या-तत्त्वपरिच्छेत्री 'यस्यासावतिविद्यः स 'परमं मोक्षं ज्ञानादिकं वा तन्मार्ग ज्ञात्वा सम्यक्त्वदर्शी: सन् पापं न करोति, सावद्यमनुष्ठानं न विदधातीत्युक्तं भवति । पापस्य च मूल स्नेहपाशास्तदपनोदार्थमाह उम्मुच पासं इह मच्चिएहिं, आरंभजीवी उभयाणुपस्सी। . कामेसु गिडा निचयं करंति, संसिच्चमाणा पुणरिति गम्भं ॥२॥ इह मनुष्यलोके चतुर्विधकषायविषयविमोक्षक्षमाधारमत्त्यैः सार्द्ध द्रव्यभावमेदभिन्नं पाशमुव-प्राबल्येन 'मुश्च' अपाकुरु, स हि कामभोगलालसस्तदादानहेतोहिंसादीनि पापान्यारभते अतोऽपदिश्यते-'आरंभ' इत्यादि, आरम्भेण जीवितु शीलमस्येत्यारम्भजीवी-महारम्भपरिग्रहपरिकल्पितजीवनोपायः उभय-शारीरमानसमैहिकामुष्मिकं वा द्रष्टुं शीलमस्येति स तथा, किंच-'कामेसु' इत्यादि, कामा-इच्छामदनरूपास्तेषु गृद्धाः-अध्युपपन्ना निचयं-कम्मोपचयं कुर्वन्ति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-'संसिच' इत्यादि, तेन कामोपादानजनितेन कर्मणा 'संसिच्यमानाः' आपूर्यमाणा गर्भादगर्भान्तरमुपयान्ति, संसारचक्रवालेऽरघट्टघटीयन्त्रन्यायेन पर्यटन्ते, आसत इत्युक्तं भवति । तदेवनिभृतात्मा किंभूतो भवतीत्याह-- अवि से हासमासज्जे, हंता नंदीति मन्नई । अल बालस्स संगण, वेरं वड्ड अप्पणो ॥३॥ ह्रीभयादिनिमित्तश्चेतोविप्लवो हासस्तमासाद्य-अङ्गीकृत्य 'स' कामगृध्नुहत्वाऽपि प्राणिनो 'नन्दीति क्रीडेति मन्यते, वदति च महामोहावृतोऽशुभाध्यवसायो यथा एते पशवो मृगयाथ सृष्टाः, मृगया च सुखिना क्रीडायै भवति, इत्येवं ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीआचारावृत्तिः (चीलाङ्का मृषावादादत्तादानादिवघ्यायोज्यं । यदि नामैवं ततः किमित्याह-'मल'मित्यादि, अलं-पर्याप्तं बालस्य-अज्ञस्य यः प्राणातिपातादिरूपः सङ्गो विषयकषायादिमयो वा तेनालं, बालस्य हास्यादिसङ्गेनालं, किमिति चेद् ?, उच्यते, 'वेर' Saeशीतोष्णीय. मित्यादि, पुरुषादिवधममुत्थं वैरं तद्वालः सङ्गानुषङ्गी सन्नात्मनो वर्द्धयति, तद्यथा-गुणसेनेन हास्यानुषङ्गादग्निशाणं नानाविधैरुपायैरुपहसता नवभवानुषङ्गि वैरं वर्द्धितं, एवमन्यत्रापि विषयसङ्गादावायोज्यं ॥ यतश्चैवमतः किमित्याह उद्देशकः २ तम्हातिविजो परमति णच्चा, आयंकदंसी न करेइ पावं । अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिदिया णं निकम्मदंसी ॥ ४ ।। यस्माद्वालसङ्गिनो वैरं वर्द्धते तस्मादतिविद्वान् परम-मोक्षपदं सर्वसंवरूपं चारित्रं वा सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं वा. एतत्परममिति ज्ञात्वा किं करोतीत्याह--'आर्यके'त्यादि, आतङ्को-नरकादिदुःख तद्रष्टुं शीलमस्येत्यातङ्कदर्शी स 'पापं पापानुबन्धि कर्म न करोति, उपलक्षणार्थत्वान्न कारयति नानुमन्यते । पुनरप्युपदेशदानायाह--'अग्गं च'इत्यादि, अग्रं-भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयं मूलं-घातिकर्मचतुष्टयं यदिवा मोहनीयं मूलं शेषाणि त्वग्रं, यदिवा मिथ्यात्वं मुलं शेपं त्वग्रं, तदेवं सर्वमग्रं मूलं च 'विगिंच' इति त्यजापनय पृथक्कुरु, तदनेनेदमुक्तं भवति-न कर्मणः पौद्गलिकस्यात्यन्तिकः क्षयः, अपि त्वात्मनः पृथक्करणं, कथं मोहनीयस्य मिथ्यात्वस्य वा मूलत्वम् १ इति चेत् , तदशाच्छेषप्रकृतिबन्धो यता, उक्त च-"न मोहमतिवृत्त्य पन्ध उदितस्त्वया कर्मणां, न चैकविधषन्धनं प्रकृतिवन्धविभवो महान् । अनादिभवहेतुरेष न च बध्यते नासकृत्त्वयाऽतिकुटिला गतिः कुशल ! कर्मणां दर्शिता ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३१ ॥ " तथा चागम:-'कहण्णं मंते ! जीवा अट्ठ कम्मपगडीओ बंधंति, गोयमा। णाणावरणिजस्स उदएणं दरिसणावरणिज कम्मं नियच्छइ, दरिसणावरणिज्जरस कम्मस्स उदएणं दसणमोहणीयं कम्म नियच्छइ, दंस,मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं नियच्छह, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं एवं खल जीवे अट्ठकम्मपगडीओ बंध", क्षयोऽपि मोहनीय झयाविनाभावी, उक्तं च-नायगंमि हते संते, जहा सेणा विणस्सई। एवं कम्मा विणस्संति, मोहणिज्जे खयं गए ।।१॥" इत्यादि, अथवा मूलम्-असंयमः कर्म वा, अग्रं-संयमतपसी मोक्षो वा ते मूलाग्रे 'धीर:' अक्षोभ्यो धीविराजितो वा विवेकेन दुःखसुखकारणतयाऽवधारय । किंच--'पलिच्छिदिया 'मित्यादि, तपःसंयमाभ्यां रागादीनि बन्धनानि तत्कार्याणि वा कर्माणि छित्त्वा निष्कर्मदर्शी भवति, निष्कर्माणमात्मानं पश्यति तच्छीलश्च निष्कर्मत्वाद्वा अपगतावरणः सर्वदर्शी सर्वज्ञानी च भवति ॥ यश्च निष्कर्मदर्शी भवति सोऽपरं किमाप्नुयादित्याह-- एस मरणा पमुच्चइ, सेहु दिट्ठभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवो उवसंते समिए सहिए सया जए कालखी परिवए, बटुं च खलु पावं कम्मं पगडं ॥ सू० १११ ॥ .. १ कथं मदन्त ! जीवा भष्ट कमप्रकृतीबंध्नन्ति ?, गौतम ! ज्ञानावरणीयम्योदयेन दर्शनावरणीयं कम बध्नन्ति, दर्शनावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनमोहनीय कर्म बध्नन्ति, दर्शनमोहनीयस्य कर्मण उदयेन मिथ्यात्वं बम्नन्ति, मिथ्यात्वेनोदितेनेवं खलु जीवा अष्ट कर्मप्रकृतीबंध्नन्ति ॥ २ नायके इते सति यथा सेना विनश्यति । एवं कर्माणि विनश्यन्ति मोहनीये क्षयं गते ॥ १॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ al अ.३ 'एष' इत्यनन्तरोक्तो मूलाग्ररेचको निष्कर्मदर्शी मरणाद्-आयुःक्षयलक्षणात् मुच्यते, आयुषो बन्धनाभावाद् , श्रीआचा शीतोष्णीय यदिवा आजवंजवीभावादावीचीमरणाद्वा सर्व एव संसारो मरणं तस्मात्प्रमुच्यते । यश्चैवं स किम्भूतो भवतीत्याह-से || रावृत्तिः हु' इत्यादि, 'स:' अनन्तरोक्तो मुनिष्टं संसाराद्भयं सप्तप्रकारं वा येन स तथा, हुरवधारणे दृष्टभय एव । किं च- उद्देशका २ (शौलाका.) 'लोयंसि इत्यादि, लोके द्रव्याधारे चतुर्दशभूतग्रामात्मके वा परमो-मोक्षस्तत्कारणं वा संयमः तं द्रष्टुं शीलमस्येति .३१८॥ परमदर्शी, तथा 'विविक्त' स्त्रीपशुपण्डकसमन्वितशय्यादिरहितं द्रव्यतः भावतस्तु रागद्वेषरहितमसङ्क्लिष्टं जीवितुं शीलमस्येति विविक्तजीवी, यश्चैवम्भूतः स इन्द्रियनोन्द्रियोपशमादुपशान्तो, यश्चोपशान्तः स पञ्चभिः समितिभिः सम्यग्वा इतो-गतो मोक्षमार्गे समितः, यश्चैवं स ज्ञानादिभिः सहितः-समन्वितो, यश्च ज्ञानादिसहितः स सदा यत:अप्रमादी । किमवधिश्चायमनन्तरोक्तो गुणोपन्यास त्याह-'काल' इत्यादि, कालो-मृत्युकालस्तमाकाक्षितु शीलमस्येति कालाकाक्षी स एवम्भूतः परिः-समन्तात्वत्परिव्रजेत् , यावत्पर्यायागतं पण्डितमरणं तावदाकाङ्क्षमाणो विविक्तजीवित्वादिगुणोपेतः संयमानुष्ठानमार्गे परिष्वकेदिति । स्यादेतत्-किमर्थं एवं क्रियते ? इत्याह-मृलोत्तरप्रकृतिभेदमिन्नं प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्धात्मकं बन्धोदयसत्कर्मताव्यवस्थामयं तथा बद्धस्पृष्टनिघत्तनिकाचितावस्थागतं कर्म तच्च न ह्रसीयसा कालेन क्षयमुपयातीत्यतः कालावकाङ्क्षीत्युक्तं, तत्र बन्धस्थानापेक्षया तावन्मूलोत्तरप्रकृतीनां बहुत्वं प्रदर्श्यते, तद्यथा-सर्वमूलप्रकृतीर्वघ्नतोऽन्तमुहूर्त यावदष्टविधं, आयुष्कवज सप्तविध तज्जघन्येनान्त ॥ ३१८॥ 8 मुहूर्तमुत्कृष्टतस्तद्रहितानि प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानि, सूक्ष्मसंपरायस्य मोहनीयबन्धोपरमे ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३१९॥ आयुष्कन्धाभावात् षड्विधम् , एतच्च जघन्यतः सामयिकमुत्कृष्टतस्त्वन्तमुहर्तमिति, तथोपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां सप्तविधबन्धोपरमे सातमेकं बघ्नतामेकविध बन्धस्थानं, तच्च जघन्येन सामयिकमुत्कष्टतो देशोनपूर्वकोटि कालीयं । इदानीमुत्तरप्रकृतिवन्धस्थानान्यभिधीयन्ते-तत्र ज्ञानावरणान्तराययोः पश्चभेदयोरप्येकमेव ध्रुववन्धित्वावन्धस्थानं, दर्शनावरणीयस्य त्रीणि बन्धस्थानानि-निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयसमन्वयाद् ध्रुवबन्धित्वान्नवविधं १, ततः स्त्यानद्धित्रिकस्यानन्तानुबन्धिभिः सह बन्धोपरमे षड्विधं २, अपूर्वकरणसङ्ख्येयभागे निद्राप्रचलयोर्वन्धोपरमे चतुर्विधं बन्धस्थानं ३ । वेदनीयस्यैकमेव बन्धस्थान-सातमसातं वा बध्नतः, उभयोरपि योगपद्येन विरोधितया बन्धाभावात् । मोहनीयबन्धस्थानानि दश, तद्यथा-द्वाविंशतिः-मिथ्यात्वं १ षोडश कषाया १७ अन्यतरवेदो १८ हास्यरतियुग्मारतिशोकयुग्मयोरन्यतर २० शयं २१ जुगुप्सा २२ चेति १, मिथ्यात्वबन्धोपरमे सास्वादनस्य सेवकविंशतिः २, सैव सम्यगमिथ्यादृष्टेरविरतसम्यग्दृष्टेर्वा अनन्तानुबन्ध्यभावे सप्तदशविधं बन्धस्थानं ३, तदेव देशविरतस्याप्रत्याख्यानबन्धाभावे त्रयोदशविधं ४, तदेव प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानां यतीनां प्रत्याख्यानावरणबन्धाभावानवविधं ५, एतदेव हास्यादियुग्मस्य भयजुगुप्सयोश्चापूर्वकरणचरमसमये बन्धोपरमात्पञ्चविधं ६, ततोऽनिवृत्तिकरणसङ्ख्येयभागावसाने पुवेदबन्धोपरमाच्चतुर्विधं ७, ततोऽपि तस्मिन्नेव सङ्ख्येयमागे क्षयमुपगच्छति सति क्रोधमानमायालोभसज्वलनानां क्रमेण बन्धोपरमात्त्रिविधं ८ द्विविध : मेकविधं १० चेति, तस्याप्यनिवृत्तिकरणचरमसमये बन्धोपरमान्मोहनीयस्या kalu ३१९॥ बन्धकः । आयुषः सामान्येनेकविध बन्धस्थानं चतुर्णामन्यतरत् , यादेयोगपद्यन बन्धाभावो विरोधादिति । नाम्नोऽष्टौ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा रावृत्तिः (धीलाङ्का.) ॥३२॥ शीतोष्णीय. अ.३ उद्देशक: २ बन्धस्थानानि, तद्यथा-त्रयोविंशतिस्तिर्यग्गतिप्रायोग्यं बध्नतस्तिर्यग्गतिरेकेन्द्रियजातिरौदारिकतैजसकार्मणानि हुण्डसंस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शास्तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी अगुरुलघूपघातं स्थावरं बादरसूक्ष्मयोरन्यतरदपर्याप्तकं प्रत्येकसाधारणयोरन्यतगत् अस्थिरं अशुभं दुर्भगं अनादेयं अयश कीर्तिर्निर्माणमिति, इयमेकेन्द्रियापर्याप्तकप्रायोग्य बनतो मिथ्यादृष्टेर्भवति १, इयमेव पराघातोच्छ्वाससहिता पञ्चविंशतिः, नवग्मपर्याप्तकस्थाने पर्याप्तकमेव वाच्यं २, इयमेव घातपोद्योतान्यतरसमन्विता पड़िवशतिः, नवरं बादरप्रत्येके एव वाच्ये ३, तथा देवगतिप्रायोग्यं बनतोऽष्टाविंशतिः, तथाहि-देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रिय ३ तैजस ४ कार्मणानि ५ शरीराणि समचतुरस्र ६ अङ्गोपाङ्ग ७ वर्णादिचतुष्टयं ११ आनुपूर्वी १२ अगुरुलघू १३ पघात १४ पराघात १५ उच्छ्वासाः १६ प्रशस्तविहायोगतिः १७ त्रसं १८ बाद १९ पर्याप्तकं २० प्रत्येकं २१ स्थिरास्थिरयोरन्यतरत् (स्थिर) २२ शुभाशुभयोरन्यतरत (शुभं) २३ सुभगं २४ सुस्वर २५ आदेयं २६ यशाकीय॑यशाकीयोरन्यतरत् २७ निर्माणमिति २८, एपेव तीर्थकरनामसहिता एकोनविंशत, साम्प्रतं त्रिंशत-देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रिया ३ हारका ४ ङ्गोपाङ्ग ६ चतुष्टयं तैजस ७ कार्मणे - संस्थानमाद्यं ९ वर्णादिचतुष्कं १३ आनुपूर्वी १४ अगुरुलघू १५ पघातं १६ पराघातं १७ उच्छवासं १८ प्रशस्तविहायोमतिः १६ त्रसं २० बादरं २१ पर्याप्तकं २२ प्रत्येकं २३ स्थिर २४ शुभं २५ सुभगं २६ सुस्वर २७ आदेयं २८ यश-कीर्ति २६ निर्माण ३० मिति च बध्नत एकं बन्धस्थानं ६, एव त्रिंशत्तीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत ७, एतेषां च बन्धस्थानानामेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियनरकगत्यादिभेदेन बहुविधता कर्मग्रन्थादवसेया, अपूर्व ॥३२॥ ४४४४४४ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३२१ ॥ करणादिगुणस्थानकत्रये देवगतिप्रायोग्यबन्धोपरमाद्यशः कीर्त्तिमेव बघ्नतः एकविधं बन्धस्थानमिति ८ तत उद्धर्वं नाम्नो बन्धाभाव इति । गोत्रस्य सामान्येनैकं बन्धस्थानं - उच्चनीचयोरन्यतरत्, यौगपद्येनो भयोर्बन्धाभावो विरोधादिति । तदेवं बन्धद्वारेण लेशतो बहुत्वमावेदितं कर्म्मणां, तच्च बहु कर्म्म प्रकृतं बद्धं प्रकटं वा, तत्कार्यप्रदर्शनात् खलुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणे वा बह्वव तत्कर्म्म । यदि नामैवं ततस्तदपनयनार्थं किं कर्त्तव्यमित्याह सच्चमि धिरं कुव्वा, एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं जोसह ॥ सू० ११२ ।। सद्भ्यो हितः सत्यः- संयमस्तत्र धृतिं कुरुध्वं सत्यो वा मौनीन्द्रागमो यथावस्थितवस्तुस्वरूपाविर्भावनात्, तत्र भगवदाज्ञायां धृतिं कुमार्गपरित्यागेन कुरुध्वमिति, किं च – 'एत्थोवरए' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् संयमे भगवद्वचसि वा उपसामीप्येन रतो-व्यवस्थितो 'मेधावी' तत्वदर्शी 'सर्वम्' अशेषं 'पाप' कर्म संसारार्णव परिभ्रमण हेतु झोपयतिशोषयति क्षयं नयतीतियावत् । उक्तोऽप्रमादः, तत्प्रत्यनीकस्तु प्रमादः तेन च कषायादिप्रमादेन प्रमत्तः किंगुणो भवतीत्याह " अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे से केयणं अरिहर पूरिण्णए, से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अणपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए । सू० ११३ ॥ अनेकानि चित्तानि कृषिवाणिज्यावल गनादीनि यस्यासावनेकचित्तः, खलुखधारणे, संसारसुखाभिलाप्यनेकचित्त एव भवति, 'अयं पुरुष' इति प्रत्यक्षगोचरीभूतः संसार्यपदिश्यते, अत्र च प्रागुपन्यस्तदधिघटिकया कपिलदरिद्रेण च ।। ३२१ ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा राजवृत्तिः (धीलाका.) ॥३२२॥ शीतोष्णीय. अ.३ उद्देशका दृष्टान्तो वाच्य इति । यश्चानेकचित्तो भवति स किं कुर्यादित्याह-'से केयण'मित्यादि, द्रव्यकेतनं चालनी परिपूर्णकः समुद्रो वेति भावकेतनं लोमेच्छा, तदसावनेकचित्तः केनाप्यभूतपूर्व पुरयितुमर्हति, अर्थितया शक्याशक्यविचाराक्षमोऽशक्यानुष्ठानेऽपि प्रवर्नत इत्युक्तं भवति, सच लोमेच्छापूरणव्याकुलितमतिः किं कुर्यादित्याह-से अण्णवहाए' इत्यादि, स लोभपूरणप्रवृत्तोऽन्येषां प्राणिनां वधाय भवति, तथाऽन्येषां शारीरमानसपरितापनाय, तथाऽन्येषां द्विपदचतुष्पदादीनां परिग्रहाय, जनपदे भवा जानपदा: कालप्रष्टादयो राजादयो वा तद्वधाय, मगधादिजनपदा वा तद्वधाय, तथा जनपदानां लोकानां परिवादाय-दस्युरयं पिशुनो वेत्येवं मर्मोद्घट्टनाय, तथा जनपदानामगधादीनां परिग्रहाय, प्रभवतीति सर्वत्राध्याहारः ॥ किं य एते लोभप्रवृत्ता वधादिकाः क्रियाः कुर्वन्ति ते तथाभूता एवासते उतान्यथाऽपीति दर्शयति आसेवित्ता एतं(वं) अह इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवे, निस्सारं पासिय . नाणी, उववाय चवणं णच्चा, अणण्णं चर माहणे, से न छणे नछणावए छणंतं नाण जाणइ, निविद नदि, अरए पयासु, अणोमदंसी निसपणे पावेहिं कम्महिं॥ सू०११४ ॥ एवम्-अनन्तरोक्तमर्थमन्यवधपरिग्रहपरितापनादिकमासेव्य 'इत्येवेति लोभेच्छाप्रतिपूरणायैव 'एके' भरतराजादयः 'समुत्थिताः, सम्यग्योगत्रिकेणोत्थिताः संयमानुष्ठानेनोद्यतास्तेनैव भवेन सिद्धिमासादयन्ति । संयमसमुत्थानेन च समुत्थाय कामभोगान् हिंसादीनि चास्रवद्वाराणि हित्वा किं विधेयमित्याह-'तम्हा' यस्माद्वान्तभोगतया कृतप्रतिज्ञ Ku3२२॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तस्माद्भोगलिप्सुतया तं द्वितीयं मृषावादमसंयम वा नासेवेत । विषयार्थमसंयमः सेव्यते, ते च विषया निःसारा इति दर्शयति-'निस्सारं' इत्यादि, सारो हि विषयगणस्य तत्प्राप्तौ तृप्तिस्तदभावानिःसारस्तं दृष्ट्वा 'ज्ञानी' तत्ववेदी न विषयाभिलाषं विदध्यात् । न केवल मनुष्याणां, देवानामपि विषयसुखास्पदमनित्यं जीवितमिति च दर्शयति-'उववायं चषणं णचा' उपपातं-जन्म च्यवनं-पातस्तच्च ज्ञात्वा न विषयसङ्गोन्मुखो भवेदिति, यतो निःसारो विषयग्रामः समस्तः संसारो वा सर्वाणि च स्थानान्यशाश्वतानि, ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-'अणण्ण'मित्यादि, मोक्षमार्गादन्योऽसंयमो नान्योऽनन्यः-ज्ञानादिकस्तं चर 'माहण' इति मुनिः। किं च-'से न छणे' इत्यादि, स मुनिरनन्यसेवी प्राणिनो न क्षणुयात्-न हन्यात् नाप्यपरं घातयेत् घातयन्तं न समनुजानीयात् । चतुर्थव्रतसिद्धये विदमुपदिश्यते'निविद' इत्यादि, निर्विन्दस्व-जुगुप्सस्व विषयजनितां 'नंदी' प्रमोदं, किम्भूतः सन् ? 'प्रजासु' स्त्रीषु अरक्तोरागरहितो, भावयेच्च यथैते विषयाः किंम्पाकफलोपमात्रपुषीफलनिबन्धनकटवः, अतस्तदर्थे परिग्रहाग्रहयोगपराङ्मुखो भवेदिति, उत्तमधर्मपालनार्थमाह-'अणोम' इत्यादि, अवम-हीनं मिथ्यादर्शनाविरत्यादि तद्विपर्यस्तमनवमं तद्रष्ट8 शीलमस्येत्यनवमदर्शी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवान् , एवम्भूतः सन् प्रजानुगा नन्दि निर्विन्दस्वेति सण्टङ्कः । यश्चानवमदर्शी | स किम्भूतो भवतीत्याह-निसन्न' इत्यादि, पापोपादानेभ्यः कर्मभ्यो निषण्णो-निर्विण्णः पापकर्मभ्या पापकर्मसु वा कर्तव्येषु निवृत्त इतियावत् ॥ किं च कोहाइमाणं हणिया य वीरे. लोभस्स पासे निरयं महंतं । तम्हा य धीरे विरए वहाओ, ३२३॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय. बीआचारावृत्तिः (चीलाङ्का.) उद्देशक:२ ॥ ३२४॥ छिदिज सोयं लहुभूयगामी ॥१॥ गंथं परिणाय इहज ! धीरे, सोयं परिणाय चरिज दंते। उम्मज लड इह माणवेहिं, नो पाणिणं पाणे समारभिज्जा ॥२॥ सित्तिबेमि ॥ इति द्वितीय उद्देशकः ॥३-२॥ क्रोध आदिर्येषां ते क्रोधादयः मीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेति मान-स्वलक्षणं अनन्तानुबन्ध्यादिविशेषः, क्रोधादीनां मानं क्रोधादिमानं, क्रोधादि यो मानो-गर्वः क्रोधकारणस्तं हन्यात् , कोऽसौ ?-वीरः, द्वेषापनोदमुक्त्वा रागापनोदार्थमाह'लोहस्स' इत्यादि, लोभस्यानन्तानुवन्ध्यादेश्चतुर्विधस्यापि स्थितिं विपाकं च पश्य, स्थितिमहती सूक्ष्मसम्परायानुयायित्वाद् विपाकोऽप्यप्रतिष्ठानादिनरकापत्तमहान , यत आगम:-"मच्छा मणुआ य सत्तमि पुढविं" ते च महालोभाभिभूताः सप्तमपृथिवीमाजो भवन्तीति भावार्थः । यद्यवं ततः किं कर्तव्यमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्माल्लोभाभिभूताः प्राणिवधादिप्रवृत्तितया महानरकमाजो भवन्ति, तस्माद्वीरो लोभहेतोः-वधाद्विरतः स्यात् , किं च-छिंदिज' इत्यादि, शोकं भावश्रोतो वा छिन्द्यात्-अपनयेत, किम्भूतो ?-लघुभूतो-मोक्षः संयमो वा तं गन्तु शीलमस्येति लघुभूतगामी, लघुभूतं वा कामयितु शीलमस्येति लघुभूतकामी, पुनरप्युपदेशदानायाह-'गन्थ' मित्यादि, 'ग्रन्थं बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं परिज्ञया परिज्ञाय इहाद्यैव कालानतिपातेन धीरः सन् प्रत्याख्यानपरिक्षया परित्यजेत् , किंच'सोय' मित्यादि, विषयाभिप्वङ्गः संसारश्रोतस्तत् ज्ञात्वा दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन संयमं चरेदिति, किमभिसन्धाय संयम चरेदित्याह-'उम्मज लडु'मित्यादि, इह मिथ्यात्वादिशैवलाच्छादितसंसारहृदे जीवकच्छपः श्रुतिश्रद्धासंयम ॥३२४॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्यरूपमुन्मज्जनमासाद्य-लब्ध्वा, अन्यत्र सम्पूर्णमोक्षमार्गासम्भवात् मानुष्येष्वित्युक्तं, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षत्वादत्तरक्रियामाह-'नो पाणिण मित्यादि, प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां प्राणान-पवेन्द्रियत्रिविधबलोच्छवासनिश्वासायुष्कलक्षणान्-'नो समारभेथाः न व्यपरोपयेः, तदुपघातकार्यनुष्ठानं मा कृथा इत्युक्तं भवति, इतिः पग्सिमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । शीतोष्णीयाध्ययने द्वितीयोदेशकटीका समाप्तेति ॥ ३-२॥ ॥ अथ तृतीयाध्ययने ततीयोद्देशकः ॥ उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आग्भ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तगेद्देशके दुःखं तत्सहनं च प्रति- 13 पादितं, न च तत्सहनेनैव संयमानुष्ठानरहितेन पापकर्माकरणतया वा श्रमणो भवतीत्येतत् प्रागुद्देशार्थाधिकारनिर्दिष्टमुच्यते, ततोऽनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योहेशकस्य सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम् संधि लोयस्स जाणित्ता, आयओ बहिया पास, तम्हा न हंता न विधायए, जमिणं अन्न मन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुणी कारणं सिया॥सू०११५॥ तत्र सन्धिव्यतो भावतश्च, द्रव्यतः कुडथादिविवरं भावतः कर्मविवरं, तत्र दर्शनमोहनीयं यदुदीर्ण तत्क्षीणं शेषमुपशान्तमित्ययं सम्यक्त्वावाप्तिलक्षणो भावसन्धिः, यदिवा ज्ञानावरणीय विशिष्टक्षायोपशमिकभावमुपगतमित्ययं 18/ सम्यग्ज्ञानावाप्तिलक्षणः सन्धिः, अथवा चारित्रमोहनीयक्षयोपशमात्मकः सन्धिस्तं ज्ञात्वा न प्रमादः श्रेयानिति, यथा ॥३२ ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दशका३ X हि लोकस्य चारकाधवरुद्धस्य कुड्थनिगडादीनां सन्धि-छिद्रं ज्ञात्वोपलभ्य न प्रमादः श्रेयान् , एवं मुमुक्षोरपि कर्मभीआचा शीतोष्णीय. विवरमासाद्य लवक्षणमपि पुत्र कलत्रसंसारसुखव्यामोहो न श्रेयसे भवतीति, यदिवा सन्धानं सन्धिः, स च भावसन्धिर्ज्ञानरावृत्तिः दर्शनचारित्राध्यवसायस्य कम्मर्मोदयात् त्रुटथतः पुनः सन्धान-मीलनम् , एतत्क्षायोपशमिकादिभावलोकस्य विभक्तिपरि(शीलाका.) णामाद्वा लोके ज्ञानदर्शनचारित्राहे भावसन्धि ज्ञात्वा तदक्षुण्णप्रतिपालनाय विधेयमिति, यदिवा सन्धिः-अवसरो धर्मा॥३२६॥ नुष्ठानस्य तं ज्ञात्वा लोकस्य-भूतग्रामस्य दुःखोत्पादनानुष्ठानं न कुर्यात् । सर्वत्रात्मौपम्यं समाचरेदित्याह-'आयओ' इत्यादि, यथा वात्मनः सुखमिष्टमितरत्चन्यथा तथा बहिरपि-आत्मनो व्यतिरिक्तानामपि जन्तूनां सुखप्रियत्वमसुखाप्रियत्वं च पश्य' अवधारय । तदेवमात्मसमतां सर्वप्राणिनामवधार्य किं कर्त्तव्यमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मात्& सर्वेऽपि जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्सवस्तस्मात्तेषां 'न हन्ता' न व्यापादकः स्यामाप्यपरस्तान जन्तून विविधैः-नाना प्रकारैरुपायैर्षातयेत विधातयेदिति, यद्यपि कांश्चित् स्थलान् सत्वान् स्वयं पापण्डिनो न घ्नन्ति तथाऽप्यौदेशिकसन्निध्यादिपरिभोगानुमतेरपर्धातयन्ति । न चैकान्तेन पापकर्माकरणमात्रतया श्रमणो भवतीति दर्शयति-'जमिण' मित्यादि, यदिद-यदेतत् पापकर्माकरणताकारणं, किं तद् १, दर्शयति-अन्योऽन्यस्य परस्परं या विचिकित्सा-आशङ्का परस्परतो 8 . भयं लज्जा वा तया तां वा प्रत्युपेक्ष्य परस्पराशङ्कयाऽपेक्षया वा पाएं-पापोपादानं कर्मानुष्ठानं 'न करोति'न विधत्ते, किं प्रश्ने क्षेपे वा, 'तत्र' तस्मिन् पापकर्माकरणे किं मुनिः कारणं स्यात् ?, किं मुनिरितिकृत्वा पापकर्म न करोति ?, काका पृच्छति, यदिवा यदि नामासौ यथोक्तनिमित्तात्पापानुष्ठान विधायी न सञ्जज्ञे किमेतावतैव मुनिरसौ ?, नैव मुनि Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३२७॥ रित्यर्थः, अद्रोहाध्यवसायो हि मुनिभावकारण, स च तत्र न विद्यते, अपरोपाध्यावेशात् , विनेयो वा पृच्छति-यदिदं परस्पराशङ्कया आधाकादिपरिहरणं तन्मुनिभावाङ्गता यात्याहोस्विन्नेति ? आचार्य आह-सौम्य । निरस्तापरव्यापार शृणु-'जमिण'-मित्यादि, अपरोपाधिनिरस्तहेयव्यापारत्वमेव मुनिभावकारणमिति भावार्थः, यतः शुभान्तःकरणपरिजामव्यापारापादितक्रियस्य मुनिमावो नान्यथेति, अयं सावनिश्चयनयाभिप्रायो व्यवहाराभिप्रायेण तूच्यते-यो हि सम्यग्दृष्टिरुत्तिप्तपञ्चमहाव्रतमारस्तद्वहने प्रमाद्यन्नप्यपरसमानसाधुलज्जया गुह्यद्याराध्यभयेन गौरवेण वा केनचिदाधाकर्मादि परिहरन् प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियाः करोति, यदि च तीर्थोद्भासनाय मासक्षपणातापनादिका जनविज्ञाताः क्रिया: करोति, तत्र वस्य मुनिभाव एव कारणं, तद्वयापारापादितपारम्पर्यशुभाध्यवसायोपपत्तेः ॥ तदेवं शुभान्तःकरणव्यापारविकलस्य मुनित्वे सदसद्भावः प्रदर्शितः, कथं तर्हि नैश्चयिको मुनिभाव इत्यत आह समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायए-अणनपरमं नाणी, नो पमाए कयाइवि । आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाइ जावए ॥१॥ विरागं रूवेहिं गच्छिज्जा महया खुइएहि य, आगई गई परिण्णाय दोहिवि अंतेहिं अविस्समाणेहिं से न छिज्जा न मिज न डझइन हमइ कंचणं सव्वलोए ॥ सू० ११६ ॥ समभावः समता तां तत्रोत्प्रेक्ष्य-पर्यालोच्य समताव्यवस्थितो यद्यत्करोति येन केनचित्प्रकारेणानेषणीयपरिहरणं लज्जादिना जनविदितं चोपवासादि तत्सर्व मुनिभावकारणमिति, यदिवा समयम्-आगमं तत्रोत्प्रेक्ष्य यदागमोक्तविधिना ॥३२७. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुष्ठानं तत्सर्व मुनिभावकारणमिति भावार्थः, तेन चागमोत्प्रेक्षणेन समतोत्प्रेक्षया वाऽऽत्मानं 'विप्रसादयेद' विविधं भीआचा शीतोष्णीय. प्रसादयेदागमपर्यालोचनेन समतादृष्टया वा आत्मानं विविधैरुपायैरिन्द्रियप्रणिधानाप्रमादादिभिः प्रसन्नं विदध्याद् । राङ्गवृत्तिः Bal अ०३ आत्मप्रसन्नता च संयमस्थस्य भवति, तत्राप्रमादवता भाव्यमित्याह च–'अणण्णपरम मित्याद्यनुष्टुप , न विद्यतेऽन्यः (शीलाका. उद्देशक:३ परमः-प्रधानोऽस्मादित्यनन्यपरमः-संयमस्तं 'ज्ञानी' परमार्थवित् 'नो प्रमादयेत' तस्य प्रमादं न कुर्यात्कदाचिदपि, ॥३२८॥al यथा चाप्रमादवत्ता भवति तथा दर्शयितुमाह-'आयगुत्ते' इत्यादि, इन्द्रियनोइन्द्रियात्मना गुप्तः आत्मगुप्तः 'सदा' सर्वकालं यात्रा-संयमयात्रा तस्यां मात्रा यात्रामात्रा, मात्रा च 'अच्चाहारो न सहे' इत्यादि, तयाऽऽत्मानं यापयेद्यथा विषयानुदीरणेन दीर्घकालं संयमाधारदेहप्रतिपालनं भवति तथा कुर्यादित्युक्तं भवति, उक्तं च-'आहारार्थं कर्म । कुर्यादनिन्द्यं, स्यादाहारः प्राणसन्धारणार्थम् । प्राणाः धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् ॥१॥" सैवात्मगुप्तता कथं स्यादिति चेदाह-'विराग' मित्यादि, विरञ्जनं विरागस्तं विरागं रूपेषु मनोज्ञेषु चक्षुर्गोचरीभूतेषु 'गच्छेदू' यायात , रूपमतीवाऽऽक्षेपकार्यतो रूपग्रहणम् , अन्यथा शेषविषयेष्वपि विरागं गच्छेदित्युक्तं स्यात् , महता-दिव्यभावेन यद्वयवस्थितं रूपं चल्लंकेषु वा मनुष्यरूपेषु सर्वत्र विरागं कुर्यादिति, अथवा दिव्यादि प्रत्येक महत क्षुल्लं चेति क्रिया पूर्ववत् , नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"विसयंमि पंचगंमि, दुविहंमि तिय तियं । भावओ सुट्ट जाणित्ता, से न लिप्पड दोसुवि ॥१॥" शब्दादिविषयपश्चकेऽपि इष्टानिष्टरूपतया द्विविधे हीन n३२८॥ मध्यमोत्कृष्टभेदमित्येतत् भावतः-परमार्थतः सुष्टु ज्ञात्वा स मुनिः पापेन कर्मणा द्वाभ्यामपि-रागद्वेषाभ्यां न लिप्यते, ܀ ܀܀ ܀܀ ܀ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀ ॥३२६॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ तदकरणादिति भावः, स्यात्-किमालम्ब्यैतत्कर्त्तव्यमित्याह-'आगइ' मित्यादि, आगमनम्-आगतिः सा च तिर्यगमनुध्ययोश्चतुर्दा, चतुर्विधनरकादिगत्यागमनसद्भावाद् , देवनारकयोद्वेधा, तिर्यग्मनुष्यगतिभ्यामेवागमनसद्भावाद् एवं गतिरपि, मनुष्येषु तु पश्चधा, तत्र मोक्षगतिसद्भावाद्, अतस्तामागतिं गतिं च परिज्ञाय संसारचक्रवालेऽरघट्टघटीयन्त्रन्यायमवेत्य मनुष्यत्वे च मोक्षगतिसद्भावमाकलय्यान्तहेतुत्वादन्तौ-रागद्वषो ताभ्यां द्वाभ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानाभ्यामनपदिश्यमानाभ्यां वा. क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियामाह-'से' इत्यादि, सः-आगतिगतिपरिज्ञावा रागद्वेषाभ्यामनपदिश्यमानो न छिद्यतेऽस्यादिना न भिद्यते कुन्तादिना न दह्यते पावकादिना न हन्यते नरकगत्यानुपूर्व्यादिना बहुशः, अथवा रागद्वेषाभावात् सिद्धयत्येव, तदवस्थस्य चैतानि छेदनादीनि विशेषणानि 'कंचण' मिति विभक्तिपरिणामात् केनचित्सर्वस्मिन्नपि लोके न छिद्यते नापि भिद्यते रागद्वेषोपशमादिति, तदेवमागतिगतिपरिज्ञानाद्रागद्वेषपरित्यागस्तदभावाच्च छेदनादिसंसारदुःखाभावः। 8 अपरे च साम्प्रवेक्षिणः कुतो वयमागताः ? व यास्यामः ? किं वा तत्र नः सम्पत्स्यते ?, नैवं भावयन्त्यतः संसारभ्रमणपात्रतामनुभवन्तीति दर्शयितुमाह अवरेण पुद्वि न सरंति एगे, किमस्स तीयं किं वाऽऽगमिस्सं। भासति एगे इह माणवाओ, जमस्स तोयं तमागमिस्सं ॥१॥ (अवरेणपुवि किह से अतीतं, किह आगमिस्सं न सरंति एगे। भासन्ति एगे इह माणवाओ, जह से अइ तह आगमिस्सं ॥॥ नाईयमहूँ न य आगमिस्सं, अह नियच्छन्ति तहागया उ। विहयकप्पे Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णीय. भीआचारावृत्तिः (शीलाका) उद्देशकः ३ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ एयाणपस्सी, निझोसइत्ता खवगे महेसी ॥२॥ रूपकं, 'अपरेण' पश्चात्कालभाविना सह पूर्वमतिक्रान्तं न स्मरन्त्येकेऽन्ये मोहाज्ञानावृतबुद्धयो यथा किमस्य जन्तोनरकादिभवोद्भूतं बालकुमारादिवयोपचितं वा दुःखाद्यतीतं किं वाऽऽगमिष्यति आगामिनि काले किमस्य सुखाभिलाषिणो दुःखद्विषो भावीति, यदि पुनरतीतागामिपर्यालोचनं स्यान्न तर्हि संसारे रतिः स्यादिति उक्तं च-"'केण ममेत्थुप्पत्ती कहं इओ तह पुणोऽवि गंतव्वं ?। जो एत्तियंपि चिंतइ इत्थं सो को न निधिण्णो ? ॥१॥" एके पुनर्महामिथ्याज्ञानिनो भाषन्ते-'इह' अस्मिन् संसारे मनुष्यलोके वा मानवा-मनुष्या यथा यदस्य | जन्तोरतीतं स्त्रीपुनपुसकसुभगदुर्भगश्वगोमायुब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रादिभेदावेशात् पुनरप्यन्यजन्मानुभूतं तदेवागमिष्यम् आगामीति, यदिवा न विद्यते पर:-प्रधानोऽस्मादित्यपर:-संयमस्तेन बासिनचित्ताः सन्तः 'पूर्व' पूर्वानुभूतं विषयसुखोपभोगादि 'न स्मरन्ति' न तदनुस्मृतिं कुर्वते, एके रागद्वेषविप्रमुक्ताः, तथाऽनागतदिव्याङ्गनाभोगमपि नाकाङ्क्षन्ति, किं च-अस्य जन्तोरतीतं सुखदुःखादि किं वाऽऽगमिष्यम्-आगामीत्येतदपि न स्मरन्ति, यदिवा कियान् कालोऽतिक्रान्तः कियानेष्यति, लोकोत्तरास्तु भाषन्ते-एके रागद्वेषरहिताः केवलिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा यदस्य जन्तोरनादिनिधनत्वात् कालशरीरसुखाद्यतीतमागामिन्यपि तदेवेति, अपरे तु पठन्ति-"अवरेण पुव्वं किह से अतीतं, किह आगमिस्सं न सरंति एगे। भासन्ति एगे इह माणवाओ, जह से अईअंतह आगमिस्सं ॥१॥" अपरेण १ केन ममात्रोत्पत्तिः केतः तथा पुनरपि गन्तव्यम् । य इयदपि चिन्तयति अत्र स कः न निर्विण्णा ? ॥ १ ॥ ॥ ३३.॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३३१॥ जन्मादिना साई पूर्वम-अतिक्रान्तं जन्मादि न स्मरन्ति, 'कथं वा' केन वा प्रकारेणातीतं सुखदुःखादि, कथं चष्यमित्येतदपि न स्मरन्ति, एके भाषन्ते--किमत्र ज्ञेयं ?, यथैकस्य गगद्वेषमोहसमुत्थैः कर्मभिद्धयमानस्य जन्तोस्तद्विपाकाचानुभवतः संसारस्य यदतिक्रान्तमागाम्यपि तत्प्रकारमेवेति, यदिवा प्रमादविषयकपायादिना कर्माण्युपचित्येष्टानिष्टविषयाननुभवतः सर्वज्ञवाकसुधास्वादासंविदो यथा संसारोऽतिक्रान्तस्तथागाम्यपि यास्यति, ये तु पुनः संसारार्णवतीरमाजस्ते पूर्वोत्तरदिन इत्येतदर्शयितुमाह-'नाईय' मित्यादि, तथैव--अपुनरावृत्त्या गतं- गमनं येषां ते तथागताः--सिद्धाः, यदिवा यथैव ज्ञेयं तथैव गत--ज्ञानं येषां ते तथागता:--सर्वज्ञाः, ते तु नातीतमर्थमनागतरूपतयैव नियच्छन्ति--अवधारयन्ति नाप्यनागतमतिक्रान्तरूपतयैव, विचित्रत्वात् परिणतेः, पुनरर्थग्रहणं पर्यायरूपाथ, द्रव्यार्थतया त्वेकत्वमेवेति, यदिवा नातीतमर्थ विषयमोगादिक नाप्यनागतं दिव्याङ्गनासङ्गादिकं स्मरन्त्यभिलषन्ति वा, के ?, तथागता:--रागद्वेषाभावात पुनरावृत्तिरहिताः, तुशब्दो विशेषमाह, यथा मोहोदयादेके पूर्वमागामि वाऽभिलषन्ति, सर्वज्ञास्तु नैमिति । तन्मार्गानुयाय्यप्येवम्भूत एवेति दर्शयितुमाह-'विलय कप्पे' इत्यादि, विविधम्--अनेकधा धृतम्-अपनीतमष्टप्रकार कर्म येन स विधृतः, कोऽसौ ? कल्प:--आचारो, विधूतः कल्पो यस्य साधोः स विधृतकल्पः स एतदनुदर्शी भवति, अतीतानागतसुखाभिलाषी न भवतीतियावत्, एतदनुदर्शी च किंगुणो भवतीत्याह-'निज्झोस' इत्यादि, पूर्वोपचितकर्मणां निझोपयिता--क्षपकः क्षपयिष्यति वा तुजन्तमेतन्लुडन्तं वा । कर्मक्षपणायोद्यतस्य च धर्मभ्यायिनः शुक्लध्यायिनो R३३१॥ वा महायोगीश्वरस्य निरस्तसंसारसुखदुःखविकल्पाभासस्य यत्स्यात्तदर्शयति Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ३३२ ॥ **** का अरई के आणंदे, एत्थपि अग्गहे घरे, सव्वं हासं परिचज आलीणगुत्तो परिव्वए, पुरिसा ! - तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ? ॥ सू० ११७ ॥ इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारोऽरतिः, अभिलषितार्थावाप्तावानन्दः, योगिचित्तस्य तु धर्म्मशुक्लध्यानावेशावष्टब्धध्येयान्तरावकाशस्यारत्यानन्दयोरुपादान कारणाभावादनुत्थानमेवेत्यतोऽपदिश्यते - के यमर तिर्नाम को वाऽऽनन्द इति १, नास्त्येवेतरजनक्षुण्णोऽयं विकल्प इति । एवं तर्ह्य रतिरसंयमे संयमे चानन्द इत्येतदन्यत्रानुमतमनेनाभिप्रायेण न विधेयमित्येतदनिच्छतोऽप्यापन्नमिति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानाद् यतोऽत्रारतिरतिविकल्पाध्यवसायो निषिषित्सितः, न प्रसङ्गायाते अप्यरतिरती, तदाह – 'एत्थंपी' त्यादि, अत्राप्यरतावानन्दे चोपसर्जनप्राये न विद्यते 'ग्रहो' गाये तात्पर्यं यस्य सोऽग्रहः, स एवम्भूतश्चरेद्-अवतिष्ठेत, इदमुक्तं भवति - शुक्लध्यानादारतोऽरत्यानन्दौ कुतश्चिन्निमित्तादायातौ तदाग्रहग्रहरहितस्तावप्यनुचरेदिति । पुनरप्युपदेशदानायाह - 'सव्व' मित्यादि, सर्वं हास्यं तदास्पदं वा परित्यज्याङ् – मर्यादयेन्द्रियनिरोधादिकया लीनः आलीनो गुप्तो मनोवाक्काय कर्म्मभिः कूर्म्मवद्वा संवृतगात्रः, आलीन श्वासौ गुप्त वालीन गुप्तः स एवम्भूतः परिः- समन्ताद्व्रजेत् परिव्रजेत् - संयमानुष्ठान विधायी भवेदिति । तस्य च मुमुक्षोरात्मसामर्थ्यात् संयमानुष्ठानं फलवद्भवति न परोपरोधेनेति दर्शयति- 'पुरिसा' इत्यादि, यदिवा त्यक्तगृह पुत्र कलत्रधनधान्यहिरण्यादितया अकिञ्चनस्य समतृणमणिमुक्ताले दुकाश्चनस्य मुमुक्षोरुपसर्ग व्याकुलितमतेः कदाचिन्मित्राद्याशंसा भवेतदपनोदार्थमाह - 'पुरिसा' इत्यादि, पूर्णः सुखदुःखयोः पुरि शयनाद्वा पुरुषो - जन्तुः, पुरुषद्वारामन्त्रणं तु पुरुषस्यै शीतोष्णीय ● अ० ३ उद्देशकः ३ ॥ ३३२ ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३३३॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ वोपदेशार्हत्वात्तदनुष्ठानसमर्थत्वाच्चेति, कश्चित्संसारादुद्विग्नो विषमस्थितो वाऽऽत्मानमनुशास्ति, परेण वा साध्वादिनाऽनुशास्यते-यथा हे पुरुष-हे जीव ! तवं सदनुष्ठान विधायित्वात्त्वमेव मित्रं, विपर्ययाच्चामित्रः, किमिति बहिर्मित्रमिच्छसि ?-मृगयसे, यतो झुपकारि मित्रं, स चोपकारः पारमार्थिकात्यन्ति कान्तिकगुणोपेतं सन्मार्गपतितमात्मानं विहाय नान्येन शक्यो विधातु, योऽपि संसारसाहाय्योपकारितया मित्राभासाभिमानस्तन्मोहविजृम्भितं, यतो महाव्यसनो पनिपातार्णवपतनहेतुत्वादमित्र एवासौ, इदमुक्तं भवति-आत्मैवात्मनोऽप्रमत्तो मित्रम् , आत्यन्तिकैकान्तिक-परमार्थसुखोत्पादनात , विपर्ययाच्च विपर्ययो, न बहिर्मित्रमन्वेष्टव्यमिति, यस्त्वयं बाह्यो मित्रामित्रविकल्पः सोऽदृष्टोदयनिमित्तवादौपचारिक इति, उक्तं हि-''दुप्पत्थिओ अमित्तं अप्पा सुपस्थिओ अ ते मित्तं । सुहदुक्खकारणाओ अप्पा मित्तं अमित्तं च ॥ १॥" तथा-"अप्येकं मरणं कुर्यात्, संक्रडो बलवानरिः। मरणानि त्वनन्तानि, जन्मानि च करोत्ययम् ।। १॥" यो हि निर्वाणनिर्वतकं व्रतमाचरति स आत्मनो मित्रं, स चैवम्भूता कुतोऽवगन्तव्यः १ किंफलश्चेत्याह जं जाणिज्जा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूरालइयं, जं जाणिज्जा दूरालइयं तं जाणिज्जा उच्चालइयं, पुरिसा! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि, पुरिसा! सच्च मेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए से उवहिए मेहावी मारं तरह, सहिओ धम्म१ दुष्पस्थितोऽमित्र आत्मा सुप्रस्थितश्च ते मित्रम् । सुखदुःखकारणात आत्मा मित्रममित्रश्च ॥१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारावृत्तिः (शीलावा. ॥ ३३४ ॥ मायाय सेयं समणुपस्सइ ।। सू० ११८ ।। शीतोष्णीय. ___ 'यं' पुरुष 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यात्कर्मणां विषयसङ्गानां चोच्चालयितारम्-अपनेतारं तं जानीयाद् 'दूरालयिक'मिति, दूरे सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यालयो दूगलया-मोक्षस्तन्माों वा स विद्यते यस्येति मत्वर्थीयष्ठन् दूरालयिकस्त- उशकार मिति, हेतुहेतुमद्भावं दर्शयितु गतप्रत्यागतसूत्रमाह-'जं जाणेज्जे'त्यादि, यं जानीयाालयिक तं जानीयादुच्चालयितारमिति, एतदुक्तं भवति-यो हि कर्मणां तदास्रवद्वाराणां चोच्चालयिता--अपनेता स मोक्षमार्गव्यवस्थितो मुक्तो वेति, यो वा सन्मार्गानुष्ठायी स कर्मणामुच्चालयितेति, सच आत्मनो मित्रमतोऽपदिश्यते-'पुरिसा' इत्यादि, हे जीव ! आत्मानमेवाभिनिगृह्य धर्मध्यानाबहिर्विषयाभिष्वङ्गाय निःसरन्तमवरुध्य ततः 'एवम्' अनेन प्रकारेण दुःखात्सकाशादात्मानं प्रमोक्ष्यसि, एवमात्मा कर्मणां उच्चालयिताऽऽत्मनो मित्रं भवति । अपि च-'पुरिसा' इत्यादि, हे पुरुष ! सद्भ्यो हितः सत्यः--संयमस्तमेवापरव्यापारनिरपेक्षः समभिजानीहि--आसेवनापरिज्ञया समनुतिष्ठ, यदिवा सत्यमेव समभिजानीहि--गुरुसाक्षिगृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहको भव, यदिवा सत्यः-आगमस्तत्परिज्ञानं च मुमुक्षोस्तदुक्तप्रतिपालनं । किमर्थमेतदिति चेदाह-'सच्चस्से'त्यादि, सत्यस्य--आगमस्याज्ञयोपस्थितः सन् मेधावी 'मारं' संसारं तरति, किं च'सही'त्यादि, सहितो-ज्ञानदियुक्तः सह हितेन वा युक्तः सहितः 'धम्म' श्रुतचारित्राख्यं 'आदाय' गृहीत्वा, किं करोतीत्याह- श्रेयः' पुण्यमात्महितं वा सम्यग--अविपरीततयाऽनुपश्यति समनुपश्यति । उक्तोऽप्रमत्तः तद्गुणाच, तद्विपर्ययमाह ॥३३४॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुहओ जीवीयस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जसि एगे पमायंति ॥ सू० ११६ ॥ द्विधा--रागद्वेषप्रकारद्वयेनात्मपरनिमित्तमैहिकामुष्मिकार्थ वा यदिवा द्वाभ्यां--रागद्वेषाभ्यां हतो द्विहतो दुष्टं हतो वा दुर्हतः, स किं कुर्याद् ?--जीवितस्य कदलीगर्भनिःसारस्य तडिल्लतासमुल्लसितचञ्चलस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ हिंसादिषु प्रवर्तते, परिवन्दनं-परिसंस्तवस्तदर्थमाचेष्टते, लावकादिमांसोपभोगपुष्टं सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरमवलोक्य मां जनाः सुखमेव परिवन्दिष्यन्ते, श्रीमान् जीयास्त्वं बहूनि वर्षशतसहस्राणीत्येवमादि परिवन्दनं, तथा माननार्थ कर्मोपचिनोति, दृष्ट्वीरसबलपराक्रमं मामन्येऽभ्युत्थानविनयासनदानाञ्जलिप्रग्रहैर्मानयिष्यन्तीत्यादि माननं, तथा पूजनार्थमपि प्रवर्त्तमानाः कर्मास्रवैरात्मानं भावयन्ति, मम हि कृतविद्यस्योपचितद्रव्यप्रारभारस्य परो दानमानसत्कारप्रणामसेवाविशेषः पूजा करिष्यतीत्यादि पूजनं, तदेवमर्थ कर्मोपचिनोति । किं च-जंसि एगे'इत्यादि, यस्मिन् परिवन्दनादिनिमित्ते एके गगद्वेषोपहताः प्रमाद्यन्ति, न ते आत्मने हिताः। एतद्विपरीतं त्वाह सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए, पासिमं दविए लोकालोकपवंचाओ मुच्चा त्तिबेमि ॥ सू० १२०॥इति तृतीय उद्देशकः ।। ३--३ ॥ सहितो--ज्ञानादिसमन्वितो हितयुक्तो वा दुःखमात्रया उपसर्गजनितया व्याध्युद्भवया वा स्पृष्टः सन् 'नो झंझाए'त्ति नो व्याकुलितमतिर्भवेत् , तदपनयनाय नोद्यच्छेद्, इष्टविषयावाप्तौ रागझझाऽनिष्टावाप्तौ च द्वेषझञ्झति, तामुभयप्रकारामपि व्याकुलता परित्यजेदिति भावः । किं च-'पासिम' मित्यादि, यदुक्तमुद्देशकादेरारम्यानन्तरसूत्रं यावत् Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (झीलाङ्का.) ॥ ३३६ ॥ तमिममर्थं पश्य-- परिच्छिन्द्धि कर्त्तव्या कर्त्तव्यतया विवेकेनावधारय, कोऽसौ ?--द्रव्यभूतो - मुक्तिगमनयोग्यः साधुरित्यर्थः, एवम्भूतश्च कं गुणमवाप्नोति ? - आलोक्यत इत्यालोकः, कर्म्मणि घञ, लोके चतुर्द्दशग्ज्वात्मके आलोको लोकालोकस्तस्य प्रपञ्चः -- पर्याप्तकापर्याप्त कसुभगादिद्वन्द्व विकल्पः, तद्यथा-नारको नारकत्वेनावलोक्यते, एकेन्द्रियादिरे केन्द्रिय( यादि ) त्वेन एवं पर्याप्तकापर्याप्तकाद्यपि वाच्यं तदेवम्भूतात्प्रपञ्चान्मुच्यते-- चतुर्द्दशजीवस्थान' न्यतरव्यपदेशार्हो न भवतीतियावद् । इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ इति शीतोष्णीयाध्ययने तृतीयोदेशकटीका समाप्ता ॥ ३-३॥ -:: ॥ अथ तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्द ेशकः ॥ उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः -- इहानन्तरोदेशके पापकर्माकरणतया दुःखसहनादेव केवलाच्छ्रमणो न भवतीति अपि तु निष्प्रत्यूहसंयमानुष्ठानादित्येतत्प्रतिपादितं निष्प्रत्यूहता च कषायवमनाद्भवति, तदधुना प्रागुद्देशार्थाधिकारनिद्दिष्टं प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं तच्चेदम्- सेवंता कोहं च माणं च माय च लोभं च एयं पासगस्स दंसणं, उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं सगडन्भि || सू० १२१ ।। 'स' ज्ञानादिसहितो दुःखमात्रास्पृष्टोऽव्याकुलितमतिर्द्रव्यभूतो लोकालोकप्रपञ्चात् मुक्तदेश्यः स्वपरापकारिणं क्रोधं | शीतोष्णीय० अ. ३ उद्देशः ४ ॥ ३३६ ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३७॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ च वमिता 'टुवम् उद्गिरणे' इत्यस्मात्ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे च षष्ठयाः प्रतिषेधे क्रोधशब्दाद् द्वितीया, लुडन्तं चैतत् , यो हि यथोक्तसंयमानुष्ठायी सोऽचिरात् क्रोधं वमिष्यति, एवमुत्तत्रापि यथासम्भवमायोज्यं, तत्रात्मात्मीयोपघातकारिण क्रोधकर्मविपाकोदयात्क्रोधः, जातिकुलरूपबलादिसमुत्थो मवों मानः परवञ्चनाध्यवसायो माया, तृष्णापरिग्रहपरिणामो लोभः, क्षपणोपशमक्रममांश्रित्य च क्रोधादिक्रमोपन्यासः, अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसज्वलनस्वगतमेदाविर्भावनाय व्यस्तनिर्देशः, चशब्दस्तु पर्वतपृथ्वीरेणुजलराजिलक्षणलक्षकः क्रोधस्य, शैलस्तम्भास्थिकाष्ठतिनिशलतालक्षणलक्षको मानस्य, वंशकुडङ्गीमेषशृङ्गगोमूत्रिकाऽवलेखकलक्षण लक्षको मायायाः, कृमिरागकई मखञ्जनहरिद्रालक्षणसूचको लोभस्य, तथा यावज्जीवसंवत्सरचातुर्मासपक्षस्थित्याविर्भावकश्चेति । तदेवं क्रोधमानमावालोमवमनादेव पारमार्थिकः श्रमणभावो, न तत्सम्भवे सति, यत उक्तम्- 'सामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा हुँति । मन्नामि उच्छपुप्फ व निष्फलं तस्स सामण्ण ॥१॥ ज अजिअ चरितं देसूणाएवि पुव्वकोडीए। तपि कसाइयमेत्तो हारेइ नरो मुहुत्तेणं ॥ २॥" स्वमनीषिकापरिहारार्थ गौतमस्वाम्याह-एय' मित्यादि, 'एतद्' यत्कषायवमनमनन्तरमुपादेशि तत् 'पश्यकस्य दर्शन' सर्व निरावरणत्वात्पश्यति-उपलभत इति | पश्यः स एव पश्यकः-तीर्थकृत् श्रीवर्धमानस्वामी तस्य दर्शनम्-अभिप्रायो यदिवा दृश्यते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमनेनेति ५ श्रामण्यमनुचरतः कषाया यस्योत्कटा भवन्ति। मन्ये इक्षुपुष्पवत् निष्फलं तस्य श्रामण्यम ।। १।। यदर्जितं चारित्र देशोनयाऽपि पूर्वकोट्या । तदपि कषायितमात्रो हारयति नरो मुहूर्तेन ॥२॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३३७ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.) शीतोष्णीय अ. ३ उद्देशका ४ wwwwwwwwwwwwwIRATRAIN दर्शनम्-उपदेशो, न स्वमनीषिका, किम्भूतस्य पश्यकस्य दर्शनमित्याह-'उवरय' इत्यादि, उपरतं द्रव्यभावशस्त्रं यस्यासावुपरतशस्त्रः शस्त्राद्वोपरतः शस्त्रोपरतः, भावे शस्त्रं त्वसंयमः कषाया वा, तस्मादुपरतः, इदमुक्तं भवति-तीर्थकृतोऽपि कषायवमनमृते न निरावरणसकलपदार्थग्राहिपरमज्ञानावाप्तिः, तदभावे च सिद्धिवधूसमागमसुखाभावः एवमन्येनापि मुमुक्षुणा तदुपदेशवर्तिना तन्मार्गानुयायिना कषायवमनं विधेयमिति, शस्त्रोपरमकार्य दर्शयन् पुनरपि तीर्थकरविशेषणमाह-'पलियंतकरस्स' पर्यन्तं कर्मणां संसारस्य वा करोति तच्छीलश्चेति पर्यन्तकरस्तस्यैतद् दर्शनमिति सण्टङ्कः । यथा च तीर्थकृत संयमापकारिकषायशस्त्रोपरमात्कर्मपर्यन्तकृदेवमन्योऽपि तदुक्तानुसारीति दर्शयितुमाह-- 'आयाण' मित्यादि, आदीयते-गृह्यते आत्मप्रदेशः सह श्लिष्यतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तदादानं-हिंसाद्याश्रवद्वारमष्टादशपापस्थानरूपं वा तस्थितेनिमित्तत्वात्कषाय वाऽऽदानं तद्वमिता स्वकृतभिद्भवति, स्वकृतमनेकजन्मोपात्तं कर्म भिनत्तीति स्वकृतभित् , यो ह्यादानं कर्मणां कषायादि निरुणद्धि सोऽपूर्वकर्मप्रतिषिद्धप्रवेशः स्वकृतकम्म॑णां भेत्ता भवतीति भावः, तीर्थकरोपदेशेनापि परकृतकर्मक्षपणोपायाभावात स्वकृतग्रहणं, तीर्थकरेणापि परकृतकर्मक्षपणोपायो न व्यज्ञायीति चेत् , तन्न, तज्ज्ञानस्य सकलपदार्थसत्ताव्यापित्वेनावस्थानात् ॥ ननु च हेयोपादेयपदार्थदानोपादानोपदेशज्ञोऽसौ न सर्वज्ञ इति सङ्गिरामहे, एतावतैव परोपकारकतत्वेन तीर्थकरत्वोपपत्तः, तदेतन सतां मनांस्यानन्दयति, युक्तिविकलत्वात , यतः सम्यग्ज्ञानमन्तरेण हिताहितप्राप्तिपरिहारोपदेशासम्भवो, यथावस्थितैकपदार्थपरिच्छेदश्च न सर्वज्ञतामन्तरेणेति दशयितुमाह-- ३३८॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३॥ जे एगं जाणइ से सव्वं जाणह, जे सवं जाणइ से एगं जाणइ ।। सू० १२२ ॥ 'यः' कश्चिदविशेषितः 'एक' परमाण्वादि द्रव्यं पश्चातपुरस्कृतपर्यायं स्वपरपर्यायं वा 'जानाति' परिच्छिनत्ति स सर्व स्वपरपर्यायं जानाति, अतीतानागतपर्यायिद्रव्यपरिज्ञानस्य समस्तवस्तुपरिच्छेदाविनाभाविवाद, इदमेव हेतुहेतुमद्भावेन लगयितुमाह-जे सव्व' मित्यादि, या सर्व संसारोदरविवरवत्तिं वस्तु जानाति स एकं घटादि वस्तु जानाति, तस्यवातीतानागतपर्यायमेदेस्तत्तत्स्वभावापच्याऽनाद्यनन्तकालतया समस्तवम्तस्वभावगमनादिति, तदुक्तम्-'एगदवियस्स जे अत्थपज्जषा वयणपज्जवा वावि । तीयाणागयभूया तावडयं तं हवह बव्वं ॥१।' तदेवं सर्वज्ञस्तीर्थकृत, सर्वज्ञश्च सम्भविनमेव सर्वसत्त्वोपकारिणमुपदेशं ददातीति दर्शयति सव्वओ पमत्तस्स भयं, सब्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं, जे एग नामे से बहुँ नामे, जे बहु'नामे से एग नामे, दुक्ख लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स सजोग जति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावखंति जीवियं ॥ सू० १२३ ॥ सर्वतः--सर्वप्रकारेण द्रव्यादिना यद्भयकारि कम्मोंपादीयते ततः 'प्रमत्तस्य' मद्यादिप्रमादवतो 'भयं' भीति, तद्यथा-प्रमत्तो हि कम्मोपचिनोति द्रव्यतः सवरात्मप्रदेशः क्षेत्रतः पडदिगव्यवस्थितं कालतोऽनुसमयं भावतो हिंसादिभिः, यदिवा 'सर्वत्र' सर्वतो मयमिहामत्र च, एतद्विपरीतस्य च नास्ति भयमिति, आह च 'सव्वओ' इत्यादि, 'सर्वतः' १ एकद्रव्यस्य येऽर्थपयवा बचनपर्यवा वाऽपि । तीतानागत भूता(वर्तमाना) तावत्तद् भवति द्रव्यम् ॥ १॥ ॥३३ ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारामवृत्तिः (चीलाङ्का.) शीतोष्णीय । अ.३ उद्देशकः ४ ऐहिकामुष्मिकापायाद् 'अप्रमत्तस्य' आत्महितेषु जाग्रतो नास्ति भयं संसारापसदात्सकाशाकर्मणो वा, अप्रमत्तता च कषायाभावाद्भवति, तदभावाञ्चाशेषमोहनीयाभावः, ततोऽप्यशेषकर्मक्षयः, तदेवमेकाभावे सति बहूनामभावसम्भवः, एकाभावोऽपि बह्वभावानान्तरीयक इत्येवं गतप्रत्यागतसूत्रेण हेतुहेतुमद्भाव दर्शयितुमाह-'जे एग' मित्यादि, यो हि प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसायाधिरूढकण्डकः एकम्-अनन्तानुबन्धिनं क्रोधं 'नामयति' क्षपयति स बहूनपि मानादीनामयतिक्षपयति अप्रत्याख्यानादीन् वा स्वभेदान्नामयति, मोहनीयं चैकं यो नामयति स शेषा अपि प्रकृती मयति, यो वा बहून् स्थितिशेषान्नामयति सोऽनन्तानुबन्धिनमेकं नामयति मोहनीयं वा, तथाहि-एकोनसप्ततिभिर्मोहनीयकोटीकोटिभिः क्षयमुपागतामिः ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायाणामेकोनविंशद्भिः नामगोत्रयोरेकोनविंशतिभिः शेषकोटीकोट्याऽपि देशोनया मोहनीयक्षपणा) भवति, नान्य इत्यतोऽपदिश्यते-यो बहुनामः स एव परमार्थत एकनाम इति, नाम इति क्षपकोऽभिधीयते उपशामको वा, उपशमश्रेण्याश्रयेणेकबहूपशमता बहुवेकोपशमता वा वाच्येति, तदेवं बवेककाभावमन्तरेण मोहनीयक्षयस्योपशमस्य वाऽभावः, तदभावे च जन्तूनां बहुदुःखसम्भव इति दर्शयति'दुक्ख' मित्यादि, 'दुःखम्' असातोदयस्तत्कारणं वा कर्म तत् 'लोकस्य' भूतग्रामस्य ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च यथा तदभावो भवति तथा विदध्यात्, कथं तदभावः ? का वा तदभावे गुणावाप्तिरित्युभयमपि दर्शयितुमाह-'वंता' इत्यादि, 'वान्त्वा'त्यक्त्वा लोकस्य-आत्मव्यतिरिक्तस्य धनपुत्रशरीरादेः 'संयोग' ममत्वपूर्वक सम्बन्धं शारीरदःखादिहेतु तद्धेतुकर्मोपादानकारणं वा 'यान्ति' गच्छन्ति 'धीराः कर्मविदारणसहिष्णवः यान्त्यनेन मोक्षमिति ॥३४.॥ ܀܀܀܀܀܀܀ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ks यानं-चारित्रं तच्चानेकभवकोटिदुर्लभं लब्धमपि प्रमाद्यतस्तथाविधकर्मोदयात् स्वप्नावाप्तनिधिसमतामवाप्नोत्यतो मह च्छब्देन विशेष्यते, महच्च तद्यानं च महायानं, यदिवा महद्यानं-सम्यगदर्शनादित्रयं यस्य स महायानो-मोक्षस्तं यान्तीति सम्बन्धः । स्यात्-किमेकेनैव भवेनावाप्तमहायानदेश्यचारित्रस्य मोक्षावाप्तिरुत पारम्पर्येण १, उभयथाऽपि बमः । तद्यथा-अवाप्ततद्योग्यक्षेत्रकालस्य लघुकर्मणस्तेनैव भवेन मुक्त्यवाप्तिरपरस्य त्वन्यथेपि दर्शयति-'परेण पर' मित्यादि, सम्यक्त्वप्रतिषिद्धनरकगतितिर्यग्गतयो ज्ञानावाप्तियथाशक्तिप्रतिपालितसंयमा आयुषः क्षयात् सौधर्मादिकं देवलोकमवाप्नुवन्ति, ततोऽपि पुण्यशेषतया कर्मभूम्यार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्त्यारोग्यश्रद्धाश्रवणसंयमादिकमवाप्य विशिष्टतरं स्वर्गमनुत्तरोपपातिकपर्यन्तमधितिष्ठन्ति, पुनरपि ततश्च्युतस्यावाप्तमनुष्यादिसंयमभावस्याशेषकर्मक्षयान्मोक्षः, तदेवं परेण-संयमेनोद्दिष्टविधिना 'परं' स्वर्ग पारम्पर्येणापवर्गमपि यान्ति, यदिवा 'परेण' सम्यगदृष्टिगुणस्थानेन पर देशविरत्याद्ययोगिकेवलिपर्यन्तं गुणस्थानकमधितिष्ठन्ति, परेण वाऽनन्तानुबन्धिक्षयेणोल्लसत्कण्डकस्थानाः 'परं' दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयक्षय धातिमवोपग्राहिकर्मणां वा क्षयमवाप्नुवन्ति, एवंविधाश्च कर्मक्षपणोद्यता जीवितं कियद्गतं किंवा शेषमित्येवं नावकाझन्ति, दीर्घजीवित्वं नाभिलषन्तीत्यर्थः, असंयमजीवितं वा नावकाङक्षन्तीति, यदिवा परेण परं यान्तीत्युत्तरोत्तर तेजोलेश्यामवाप्नुवन्तीति, उक्तं च-"जे 'इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एए णं कस्स १य इमे अद्यतया श्रमणा निर्ग्रन्था विहरन्ति, एते कस्य तेजोलेश्यां व्यतिब्रजन्ति ?, गौतम ! मासपर्यायः श्रमणो निम्रन्थो व्यन्तराणां देवानां तेजोलेश्या व्यतित्रजति, एवं द्विमासपर्यायः असुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिनां देवानां, त्रिमासपर्यायोऽसुरकुमाराणां ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३४१॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका ॥३४२॥ तेयलेस्सं वीईवयंति ?, गोयमा !, मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीइ-8 वयइ, एवं दुमासपरियाए असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं, तिमासपरियाए असुरकुमाराणं यात शीतोष्णीय. देवाणं चउमासपरियाए गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोइसियाणं देवाणं, पंचमासपरियाए चंदिमसूरियाण जोइसिंदागं जोइसराईणं तेउलेस्स, छम्मासपरियाए सोहम्मीसाणाणं देवाणं, सत्तमासपरिभाए उद्देशका ४ सणंकुमारमाहिंदाणं देवाणं, अट्ठमासपरियाए बंभलोगलंतगाण देवाणं, नवमासपरिआए महासुक्कसहस्साराणं देवाणं, दसमासपरियाए आणयपाणयआरणच्चुआणं देवाणं, एगारसमासपरियाए गेवेजाणं बारसमासे समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेसं वीयवयइ, तेण परं सुक्के सुक्काभिजाई भवित्ता तो पच्छा सिज्झइ ।" यश्चानन्तानुबन्ध्यादिक्षपणोद्यतः स किमेकमयादेव प्रवर्त्तते उत नेत्याह एग विगिंचमाणे पुढो(विगिंचमाणे एग) विगिंचइ, पुढोवि, सड़ी आणाए मेहावी लोगं : देवानां चतुर्मासपर्यायः ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां ज्योतिष्कानां देवानां, पञ्चमासपर्यायः चन्द्रसूर्ययोज्योतिष्केन्द्रयोज्योतीर जयोस्तेजोलेश्यां, षण्मासपर्यायः सौधर्मेशानानां देवाना, सप्तमासपर्यायः सनत्कुमारमाहेन्द्राणां देवानां, भष्टमासपर्यायो ब्रह्मलोकलान्तकानां देवानां, नवमासपर्यायो महाशुक्रसहस्राराणां देवानां, दशमासपर्णय आनतप्राणतारणाच्युतानां देवानां, एकादशमासपर्यायो ग्रैवेयकाणां, द्वादशमासः श्रमणो निग्रन्थोऽनुत्तरोपपातिकानां देवानां तेजोलेश्या व्यतिव्रजति, ततः परं शुक्लः शुक्ला ॥३४२ ॥ भिजातिभू (त्यो भूत्वा ततः पश्चात्मिध्यति । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४३ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ च आणाए अभिसमिच्चा अकुओभयं, अस्थि सत्थं परेण परं, नस्थि असत्थं परेण पर ।। सू० १२४ ।। 'एकम्' अनन्तानुबन्धिनं क्रोधं क्षपकश्रेण्यारूढः क्षपयन् 'पृथग्' अन्यदपि दर्शनादिकं शपयति, बद्धायुष्कोऽपि दर्शनसप्तकं यावत्क्षपयति, पृथगन्यदपि क्षपयन्नवश्यमनन्तानुवन्धिनामकं क्षपति पृथग-अन्यत्क्ष यान्यथानुपपत्तेः, किंगुणः पुनः क्षपकणियोग्यो भवतीत्याह-'सड्डी' इत्यादि, श्रद्धा-मात पागोंद्यमेच्छा विद्यते यस्यासो श्रद्धावान 'आज्ञया' तीर्थकरप्रणीतागमानुसारेण यथोक्तानुष्ठ नविधायी 'मेधावी' अप्रमत्तयतिः मर्यादाव्यवस्थितः श्रेण्यहो नापा इति । किं च–'लोगं च' इत्यादि, चः समुच्चये 'लोक' षड्जीवनिकायात्मकं कषायलोकं वा 'आज्ञया' मौनीन्द्रागमोपदेशेन 'अभिसमेत्य' ज्ञात्वा षड्जीवनिकायलोकस्य यथा न कुतश्चिनिमित्ताभयं भवति तथा विधेयं, कषायलोकप्रत्याख्यानपरिज्ञानाच्च तस्यैव परिहतुने कुतश्चिद्भयमुपजायत इति लोक वा चराचरमाज्ञया-आगमाभिप्रायेणाभिसमेन्य न कुतश्चिदैहिकामुष्मिकापायसन्दर्शनतो भयं भवति । तच्च भयं शस्त्राद्भवति. तस्य च शस्त्रस्य प्रकर्षगतिरस्त्युत नेति ?, अस्तीति दर्शयति—'अत्थि' इत्यादि, तत्र द्रव्यशस्त्रं कृपाणादि तत्परेणापि परमस्ति-तीक्ष्णादपि तीक्ष्णतरमस्ति, लोहक संस्कारविशेषात् , यदिवा शस्त्रमित्युपघातकारि तत एकस्मात्पीडाकारिणोऽन्यत् पीडाकायुन्पद्यते ततोऽप्यपर मिति, तद्यथा-कृपाणाभिघाताद्वातोत्कोपः ततः शिरोऽत्तिः तस्या ज्वरः ततोऽपि मुखशोषमूर्छादय इति, भावशस्त्रपारम्पर्य त्वेकसूत्रान्तरितं स्वत एव प्रत्याख्यानपरिज्ञाद्वारेण वक्ष्यति, यथा च शस्त्रस्य प्रकर्षगतिरस्ति पारम्पर्य | ॥३४३॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) वा विद्यते अशस्त्रस्य तथा नास्तीति दर्शयितुमाह-'नत्थि' इत्यादि, 'नास्ति' न विद्यते, किं तद्-'अशस्त्रं शीतोष्णीय. संयमः तत् ,परेण पर'मिति प्रकर्षगत्यापन्नमिति, तथाहि-पृथिव्यादीनां सर्वत्र तुल्यता कार्या न मन्दतीव्रभेदोऽस्तीति, दास्तातिअ.३ पृथिव्यादिषु समभावत्वात् सामायिकस्य, अथवा शैलेश्यवस्थासंयमादपि परः संयमो नास्ति, तदूर्व गुणस्थानाभावा- उद्देशक ४ दिति भावः । यो हि क्रोधमुणदानतो बन्धनतः स्थितितो विपाकतोऽनन्तानुबन्धिलक्षणतः क्षयमाश्रित्य प्रत्याख्यानपरिज्ञया जानाति सोऽपरमानादिदर्श्यपीत्येतदेव प्रतिसूत्रं लगायतव्यमित्याह जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदंसी, जे पिज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गम्भदंसी, जे गभर्दसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी। से मेहावी अभिणिवहिजा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पिज्जं च दोसं च मोहं च गम्भं च जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुक्खं च। एय पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं निसिहा सगडम्भि, किमथि ओवाही पासगस्स? न विज्जइ, नस्थि त्तिबेमि ॥ सू० १२५ ॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥ ३-४ ॥ ॥३४४॥ ॥ इति शीतोष्णीयाध्ययनम् ॥ ३॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४५॥ यो हि क्रोधं स्वरूपतो वेत्ति अनर्थपरित्यागरूपत्वाज्ञानस्य परिहरति च स मानमपि पश्यति परिहरति चेति, यदिवा यः क्रोधं पश्यत्याचरति स मानमपि पश्यति, मानाध्मातो भवतीत्यर्थः, एवमुत्तरत्रापि आयोज्यं, यावत् स दुःखदर्शीति, सुगमत्वान्न विवियते । साम्प्रतं क्रोधादेः साक्षान्निवर्तनमाह-से' इत्यादि, स मेधावी 'अभिनिवर्तयेदु' व्यावर्तयेत् , किं तत् ?-'क्रोधमित्यादि यावद्दुःखं' सुगमत्वाद्वयाख्यानाभावः; स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-एय' मित्यादि, 'एतदु' अनन्तरोक्तमुद्देशकादेरारभ्य पश्यकस्य-तीर्थकृतो दर्शनम्-अभिप्राय:, किम्भूतस्य ?-उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकृतः, पुनरपि किम्भूतोऽसौ ?-'आयाण'मित्यादि आदानं कम्र्मोपादानं निषेध्य पूर्वस्वकृतकर्मभिदसाविति, किं चास्य भवतीत्याह-'किमत्थी'त्यादि, 'पश्यकस्य केवलिनः 'उपाधिः' विशेषणं उपाधीयत इति वोपाधिः, द्रव्यतो हिरण्यादिर्भावतोऽष्टप्रकार कर्म, स द्विविधोऽप्युपाधिः किमस्त्याहोस्विन्न विद्यते ?, नास्तीति, एतदहं ब्रवीमि, सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति, यथा सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवत्पादारविन्दमुपास(य)ता सर्वमेतदश्रावि तद्भवते तदुपदिष्टार्थानुसारितया कथयामि, न पुनः स्वमतिविकल्पशिल्परचनयेति । गतः सूत्रानुगमः, तद्गतौ च समाप्तश्चतुर्थोद्देशकः ॥ ३-४॥ तत्परिसमाप्तौ चातीतानागतनयविचारातिदेशात् समाप्तं शीतोष्णीयाध्ययनामति ॥ ३ ॥ ग्रन्थानं ७१०॥ "३४५॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ३४६ ॥ ॥ अथ सम्यक्त्वाख्ये चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्द ेशकः ॥ उक्तं तृतीयमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इह शस्त्रपरिज्ञायामन्वयव्यतिरेकाभ्यां पड्जीवनिकायान् व्युत्पादयता जीवाजीवपदार्थद्वयं व्युत्पादितं तद्वधे च चन्धं विरतिं च भणताऽऽस्रव संवर पदार्थद्वयमूचे, तथा लोकविजयाध्ययने लोको यथा बध्यते यथा च मुच्यत इति वदता बन्धनिर्जरे गदिते, शीतोष्णीयाध्ययने तु शीतोष्णरूपाः परीपहाः सोढव्या इति भणता तत्फललक्षणो मोक्षोऽभिहितः, ततश्चाध्ययनत्रयेण सप्तपदार्थात्मकं तत्त्वमभिहितं, तत्वार्थश्रद्धानं च सम्यक्त्वमुच्यते, तदधुना प्रतिपाद्यते अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्ण्योपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेधा, तत्राध्ययनार्थाधिकारः सम्यक्त्वाख्यः शस्त्रपरिज्ञायां प्रागेवाभाणि, उद्देश कार्थाधिकारप्रतिपादनाय तु नियुक्तिकार आह पढमे सम्मावाओ बीए धम्मप्पवाइयपरिक्खा । तइए अणवज्जतवो न छु बालतवेण मुक्खुत्ति ॥ २१५॥ उद्देसंमि चउत्थे समासवयणेण नियमणं भणियं । तम्हा य नाणदंसणतवचरणे होइ जइयव्वं ॥ २१६ ॥ प्रथमोद्देशके सम्यग्वाद इत्ययमर्थाधिकारः, सम्यग् - अविपरीतो वादः सम्यग्वादो - यथावस्थितवस्त्वाविर्भावनं, द्वितीये तु धर्मप्रवादिकपरीक्षा, धम्मं प्रवदितुं शीलं येषां ते धर्म्मप्रवादिनस्त एव धर्म्मप्रवादिकाः, धर्मप्रावादका इत्यर्थस्तेषां परीक्षा-युक्तायुक्तविचारणमिति, तृतीयेऽनवद्यतपोव्यावर्णनं, न च बालतपसा-अज्ञानितपश्चरणेन मोक्ष इत्ययमर्थाधिकारः, चतुर्थोद्देशके तु 'समासवचनेन' सङ्क्षेपवचनेन 'नियमनं भणितं संयत उक्त इति । तदेवं सम्य• अ. ४ उद्दे शक : १ ॥ ३४६ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३४७॥ प्रथमोद्देशके सम्यग्दर्शनमुक्त, द्वितीये तु सम्यग्ज्ञानं, तृतीये बालतपोव्युदासेन सम्यक्तपः, चतुर्थे तु सम्यक्चारित्रमिति, तस्माच्चशब्दो हेतौ, यतश्चतुष्टयमपि मोक्षाङ्गं प्रागुक्त तस्मात् ज्ञानदर्शनस्तपश्चरणेषु 'मुमुक्षुणा यतितव्यं' तत्प्रतिपालनाय यावज्जीवं यत्नो विधेय इति गाथाद्वयार्थः ॥ अधुना नामनिष्पन्ननिक्षेपायातस्य सम्यक्त्वाभिधानस्य निक्षेप चिकीर्षु राहनामंठवणासम्मं दव्वसम्मं च भावसम्मं च । एसो स्वल सम्मस्सा निक्खेवो चउव्विहो होइ ॥२१॥ अक्षरार्थः सुगमः, भावथं तु सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यभावगतं नियुक्तिकारः प्रतिपिपादयिपुराह-- अह दव्वसम्म इण्डाणुलोमियं तेसु तेसु दव्वेसु। कयसंखयसंजुत्तो प(उव)उत्त जढ भिण्ण छिपणं वा ॥२१८॥ 'अथे' त्यानन्तर्ये ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यसम्यक्त्वमिस्याह, 'ऐच्छानुलोमिकं' इच्छा-चेतःप्रवृत्तिरभिप्रायस्तस्यानुलोमम्-अनुकूलं तत्र भवमैच्छानुलोमिकं तच्च तेषु तेष्विच्छा भावानुकूल्यतामाक्षु द्रव्येषु कृताधुपाधिभेदेन सप्तधा भवति, तद्यथा-कृतम्-अपूर्वमेव निर्तितं रथादि, तस्य यथाऽवयवलक्षणनिष्पत्तेद्रव्यसम्यकतु स्तन्निमित्तचित्तस्वास्थ्योत्पत्तेः यदर्थ वा कृतं तस्य शोभनाशुकरणतया समाधानहेतुत्वाद्वा द्रव्यसम्यम् १, एवं संस्कृतेऽपि योज्यं, तस्यैव रथादेभग्नजीर्णापोढापरावयवसंस्कारादिति २, तथा ययोद्रव्ययोः संयोगो गुणान्तराधानाय नोपमर्दाय उपभोक्तुर्वा मनःप्रीत्यै पयःशर्करयोरिव तत्संयुक्तद्रव्यसम्यक् ३, तथा यत्प्रयुक्तं द्रव्यं लाभहेतुत्वादात्मनः समाधानाय प्रभवति तत्प्रयुक्त ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३४७॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराजवृत्तिः (चीलाङ्का.) सम्य. अ.४ उद्देशक: १ .३४८॥ द्रव्यसम्यक् ४, पाठान्तरं वा-'उवउत्त'त्ति यदुपयुक्तम्-अभ्यवहृतं द्रव्यं मनःसमाधानाय प्रभवति तदुपयुक्तद्रव्यसम्यक् ४, तथा जढं-परित्यक्तं यद्भारादि तत्यक्तद्रव्यसम्यक् ५, तथा दधिभाजनादि भिन्नं सत् काकादिसमाधानोत्पत्तर्मिन्नद्रव्यसम्यक ६, तथाऽधिक(तथाविध)मांसादिच्छेदाच्छिन्नसम्यक ७, सर्वमप्येतत्समाधानकारणत्वाद्र्व्यसम्यक् विपर्ययादसम्यगिति गाथार्थः ॥ भावसम्यक् प्रतिपादनायाहतिविहं तु भावसम्म दंसण नाणे तहा चरित्ते य । दसणचरणे तिविहं नाणे दुविहं तु नायव्वं ॥२१९॥ त्रिविध भावसम्यक्-दर्शनज्ञानचारित्रभेदात्, पुनरप्येकैकं भेदत आचष्टे-तत्र दर्शनचरणे प्रत्येकं त्रिविधे, तद्यथाअनादिमिथ्यादृष्टेरकृतत्रिपुञ्जस्य यथाप्रवृत्तकरणक्षीणशेषकर्मणो देशोनसागरोपमकोटिकोटीस्थितिकस्यापूर्वकरणभिन्नग्रन्थेमिथ्यात्वानुदयलक्षणमन्तरकरणं विधायानिवृत्तिकरणेन प्रथम सम्यक्त्वमुत्पादयत औपशमिकं दर्शनम् १, उक्तं च"'ऊसरदेसं दड्डल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छत्ताणुदए उवसमसम्म लहइ जीवो ॥१॥" उपशमश्रेण्या चौपशमिकमिति २, तथा सम्यक्त्वपुद्गलोपष्टम्भजनिताध्यवसायः क्षायोपशमिकं २, दर्शनमोहनीयक्षयात् क्षायिकं ३, चारित्रमप्युपशमश्रेण्यामौपशमिकं १ कषायक्षयोपशमात् क्षायोपशमिकं २ चारित्रमोहनीयक्षयात्क्षायिकं , ज्ञाने तु भावसम्यग् द्विधा ज्ञातव्यं, तद्यथा-झायोपशमिकं क्षायिकं च, तत्र चतुर्विधज्ञानावरणीयक्षयोपशमात् मत्यादि चतुर्विधं क्षायोपशमिकं ज्ञानं, समस्तक्षयात्क्षायिक केवलज्ञानमिति । तदेवं त्रिविधेऽपि भावसम्यक्त्वे दर्शिते सति परचो. १ ऊपरदेशं दग्ध च विध्याति वनदवः प्राप्य । एवं मिथ्यात्वानुदये औपशमिकसम्यक्त्वं लभते जीवः ॥१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३४८॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३४६ ॥ दयति-यद्येवं त्रयाणामपि सम्यग्वादसम्भवे कथं दर्शनस्यैव सम्यक्त्ववादो रूढो ? यदिहाध्ययने व्यावयेते, उच्यते. तदभावभाविवादितग्योः, तथाहि-मिथ्यादृष्टेस्ते न स्तः, अत्र च सम्यक्त्वप्राधान्यख्यापनाय अन्धेतरराजकुमारद्वयेन बालाङ्गनाद्यवबोधार्थ दृष्टान्तमाचक्षते, तद्यथा-उदयसेनराज्ञो वीरसेनसूरसेनकुमारद्वयं, तत्र वीरसेनोऽन्धः, स च तत्प्रायोग्या गान्धर्वादिकाः कला ग्राहितः, इतरस्त्यभ्यस्तधनुर्वेदो लोकश्लाघ्या पदवीमगमत्, एतच्च समाकर्ण्य वीरसेनेनापि । | राजा विज्ञप्तो यथाऽहमपि धनुर्वेदाभ्यासं विदधे, राज्ञाऽपि तदाग्रहमवगम्यानुज्ञातः, ततोऽऽसौ सम्यगुपाध्यायोपदेशात् प्रजातिशयादभ्यासविशेषाच्च शब्दवेधी सञ्ज, तेन चारूढयौवनेन स्वभ्यस्तधनुर्वेद विज्ञानक्रियेणागणितचचर्दर्शनसदसद्भावेन शब्दवेधित्वावष्टम्भात्परबलोपस्थाने सति राजा युद्धायादेशं याचितः, तेनापि याच्यमानेन वितेरे, वीरसेनेन च शब्दानुवेधितया परानीके जजम्मे, परैश्चावगतकुमारान्धभावैमकतामालम्ब्यासौ जग्रहे, सूरसेनेन च विदितवृतान्तेन राजानमापुच्छय निशितशरशतजालावष्टब्धपरानीकेन मोचितः । तदेवमभ्यस्तविज्ञानक्रियोऽपि चक्षुर्विकलवानालमभि. प्रेतकार्यसिद्धये इति । एतदेव नियुक्तिकारो.गाथयोपसंह माहकुणमाणोऽविय किरियं परिचयंतोवि सयणधणभोए।दितोऽवि दुहस्स उरंन जिणइ अंधो पराणीयं ॥२२०॥ __ कुर्वन्नपि क्रियां परित्यजन्नपि स्वजनधनभोगान् दददपि दुःखस्योः न जयत्यन्धः परानीकमिति गाथार्थः ॥ तदेवं दृष्टान्तमुपदर्श्य दार्शन्तिकमाहकुणमाणोऽवि निवित्ति परिचयंतोऽवि सयणधणभोए। दिनोऽविदुहस्स उरं मिच्छद्दिडी न सिज्झइ उ॥२२१॥ प्रेतकार्यसिद्धये इतर परिचयंतोवि सयदपि दुःखस्योरः न जयत । ३४६ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारावृत्तिः (शीलाङ्का. .३५०॥ सम्य. अ.४ उद्देशकः १ कुर्वन्नपि निवृत्तिम्-अन्यदर्शनाभिहिता, तद्यथा-पञ्च यमाः पश्च नियमा इत्यादिकां तथा परित्यजन्नपि स्वजनधनभोगान् पश्चाग्नितपादिना दददपि दुःखस्योरः मिथ्यादृष्टिने सिध्यति, तुरवधारणे, नैव सिध्यति, दर्शनविकलत्वाद्, अन्धकुमारवत् असमर्थः कार्यसिद्धये । यत एवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याहतम्हा कम्माणीयं जेउमणो दंसणंमि पयइज्जा । दसणवओ हि सफलाणि टुंति तवनाणचरणाई॥२२२॥ यस्मास्मिद्धिमार्गमूलास्पदं सम्यग्दर्शनमन्तरेण न कर्मक्षयः स्यात् , तस्मात्कारणात्कानीकं जेतुमनाः सम्यग्दर्शने प्रयतेत, तस्मिश्च सति यद्भवति तदर्शयति-दर्शनवतो हि 'हिः' हेतौ यस्मात्सम्यग्दर्शनिनः सफलानि भवन्ति तपोज्ञानचरणान्यतस्तत्र यत्नवता भाव्यमिति गाथार्थः ॥ प्रकारान्तरेणापि सम्यगदर्शनस्य तत्पूर्वकाणां च गुणस्थानकानां गुणमाविर्भावयितुमाह सम्मत्तपत्ती सावए य विरए अणंतकम्मंसे । दसणमोहक्खवए उवसामन्ते य उवसंते ॥ २२३॥ . खपए य खीणमोहे जिणे असेढी भवे असंखिज्जा। तविवरीओ कालो संखिजगुणाइ सेढीए ॥२२॥ सम्यक्त्वस्योत्पत्तिः सम्यक्त्वोत्पत्तिस्तस्यां विवक्षितायामसङ्ख्येयगुणा श्रेणिर्भवेदित्युत्तरगाथान्तेि क्रियामपेक्ष्य सम्बन्धो लगयितव्यः, कथमसङ्ख्येयगुणा श्रेणिर्भवेदिति ?, अत्रोच्यते, इह मिथ्यादृष्टयो देशोनकोटोकोटिकर्मस्थितिका ग्रन्थिकसवास्ते कर्मनिर्जरामाश्रित्य तुल्याः, धर्मप्रच्छनोत्पन्नसंज्ञास्तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरकाः, ततोऽपि पिपृच्छिषुः सन् साधुसमीपं जिगमिषुस्तस्मादपि क्रियाविष्टः पृच्छन् , ततोऽपि धर्म प्रतिपित्सुः, अस्मादपि क्रियाविष्टः प्रतिपद्यमानः, ४॥३५.॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३५१॥ तस्मादपि पूर्वप्रतिपन्नोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरक इति सम्यक्त्वोत्पत्तिाख्याता, तदनन्तरं विरताविरति प्रतिपित्सुप्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नानामुत्तरोत्तरस्यासलयेयगुणा निर्जरा योज्या, एवं सर्वविरतावपीति, ततोऽपि पूर्वप्रतिपन्नसर्वरितः सकाशात 'अणंतकम्मसे'त्ति 'पदैकदेशे पदप्रयोग' इति यथा भीमसेनो भीमः सत्यभामा भामा एवमनन्तशब्दोपलक्षिता अनन्तानबन्धिनः, ते हि मोहनीयस्यांशाः-भागाः तांश्चिक्षपयिषुरसङ्ख्येयगुणनिर्जरका, ततोऽपि क्षपका, तस्मादपि क्षीणानन्तानुबन्धिकषायः, एतदेव दर्शनमोहनीयत्रयेऽभिमुखक्रियारूढापवगत्रयमायोज्यं, ततोऽपि क्षीणसप्तकात्तीणसप्तक एवोपशमश्रेण्यारूढोऽसख्येयगुणनिर्जरकः, ततोऽप्युपशान्तमोहः, तस्मादपि चारित्रमोहनीयक्षपकः, ततोऽपि क्षीणमोहः, अत्र चाभिमुखादित्रयं यथासम्भवमायोजनीयम् , अस्मादपि जिनो' भवस्थकेवली, तस्मादपि शैलेश्यवस्थोऽसङख्येयगुणनिर्जरकः। तदेवं कर्मनि गये असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणनिष्पादितसंयमस्थानप्रचयोपात्तश्रेणिः सोत्तरोत्तरेषामसङख्येयगुणा, उत्तरोत्तरप्रवर्द्धमानाध्यवसायकण्डकोपपत्तेरिति; कालस्तु तद्विपरीतोऽयोगिकेवलिन आरभ्य प्रतिलोमतया सङ्ख्येयगुणया श्रेण्या ज्ञेयः, इदमुक्तं भवति-यावत्कालेन यावत्कर्मायोगिकेवली क्षपयति तावन्मात्र कर्म सयोगिकेवली सङ्ख्येयगुणेन कालेन क्षपयति एवं प्रतिलोमतया यावद्धर्म पिपृच्छिषुस्तावन्नेयमिति गाथाद्वयार्थः। एवमनन्तरोक्तया नीत्या दर्शनवतः सफलानि तपोज्ञानचरणान्यभिहितानि, यदि पूनः केनचिदुपाधिना विदधाति ततः सफलत्वाभावः, कश्वासावुपाधिस्तमाहआहारउवहिपूआ इड्डीसु य गारवेसु कइतवियं । एमेव वारसविहे तवंमि नहु कइतवे समणो॥२२॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ३५१॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य. भीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥३५२॥ उद्देशकः १ आहारश्च उपधिश्च पूजा च ऋद्धिश्च-आमौषध्यादिका आहारोपधिपूज यस्तासु निमित्तभृतासु ज्ञानचरणक्रिया करोति, तथा गारवेषु त्रिषु प्रतिबद्धो यत्करोति तत्कृत्रिममित्युच्यते, यथा च ज्ञानचरणयोराहाराद्यर्थमनुष्ठानं कृत्रिम सन्न फलवद्भवति एवं सबाह्याभ्यन्तरे द्वादशप्रकारे तपस्यपीति, न च कृत्रिमानुष्ठायिनः श्रमणभावो, न चाश्रमणस्यानुष्ठानं गुणवदिति, तदेवं निरुपधेर्दर्शनवतस्तपोज्ञानचरणानि मफलानीति स्थितमतो दर्शने यतितव्यं, दर्शनं च तत्वार्थश्रद्धानं, तवं चोत्पन्नापगतकलङ्काशेषपदार्थसत्ताव्यापिज्ञानैस्तीर्थकृद्भिर्यदभाषि, तदेव सूत्रानुगमायातेन सूत्रेण दर्शयति से बेमि जे अईया, जे य पडुपन्ना आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खन्ति, एवं भासति, एवं पण्णविंति, एवं परूविंति सव्वे पाणा सव्वे भूया सब्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्जावेयव्या न परिचित्तव्वा, न परियावेयव्वा, न उद्दवेयव्या, एस धम्मे सुद्धे निइए समिच लोयं खेयपणेहिं पवेइए, तंजहा-उडिएसु वा अणुहिएसु वा अवविएसु वा, अणुवडिएसु वा, उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा, सोवहिएम वा, अणोषहिएसुवा, संजोगरएसुवा, असंजोगरएसुवा, तच्चं चेयं तहा चेय अस्सि चेयं पवुच्चइ ।। सू० १२६ ।। गौतमस्वाम्याह-यथा सोऽहं ब्रवीमि योऽहं तीर्थकरवचनावगततत्त्वः श्रद्धेयवचन इति, यदिवा शौद्धोदनिशिष्याभिमतक्षणिकत्वव्युदासेनाह-येन मया पूर्वमभाणि सोऽहमद्यापि ब्रवीमि नापरो, यदिवा सेशब्दस्तच्छब्दार्थे यच्छद्धाने Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३५३ ॥ सम्यक्त्वं भवति तदहं तवं ब्रवीमीति, येऽतीताः - अतिक्रान्ता ये च प्रत्युत्पन्नाः - वर्त्तमानकालभाविनो ये चागामिनः त एवं प्ररूपयन्तीति सम्बन्धः, तत्रातिक्रान्तास्तीर्थकृतः कालस्यानादित्वादनन्ता अतिक्रान्ता अनागता अध्यनन्ता आगामिकालस्यानन्तत्वात्तेषां च सर्वदैव भावादिति वर्त्तमानतीर्थकृतां च प्रज्ञापकापेक्षितया अनवस्थितत्वे सत्यप्युत्कृष्टजघन्यपदिन एव कथ्यन्ते, तत्रोत्सर्गतः समयक्षेत्र सम्भविनः सप्तत्युत्तरशतं तच्चैवं पञ्चस्वपि विदेहेषु प्रत्येकं द्वात्रिंशत्क्षेत्रात्मकत्वादेकैकस्मिन् द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशत् पञ्चस्वपि भरतेषु पञ्चैव मैरावतेष्वपीति, तत्र द्वात्रिंशत्पञ्चभिर्गुणिताः षष्ट्युतरशतं (१६०) भरतैरावतदशप्रक्षेपेण सप्तत्यधिकं शतमिति, जघन्यतस्तु विंशतिः, सा चैव पञ्चस्वपि महाविदेहेषु महाविदेहान्तर्महानद्युभयतटसद्भावात्तीर्थकृतां प्रत्येकं चत्वारः, तेऽपि पञ्चभिर्गुणिता विंशतिर्भरतैरावतयोस्त्वेकान्त सुषमादायभाव एवेति, अन्ये तु व्याचक्षते - मेरोः पूर्वापरविदेहयोरेकैकसद्भावान्महाविदेहे द्वावेव ततः पञ्चस्वपि दशैवेति, तथा च ते आहुः–“सत्त रसयमुकोसं इअरे दस समयखेत्त जिणमाणं । चोत्तीस पढमदीवे अणंतरडे य ते दुगुणा ॥ १ ॥” के इमे ? –‘अर्हन्तो' अर्हन्ति पूजासत्कारादिकमिति, तथा ऐश्वर्याद्युपेता भगवन्तः, ते सर्व एव पर प्रश्नावसरे एवमाचक्षते यदुत्तरत्र वक्ष्यते, वर्त्तमाननिर्देशस्योपलक्षणार्थत्वादिदमपि द्रष्टव्यम् - एवमाचचक्षिरे एवमाख्यास्यन्ति, एवं सामान्यतः सदेवमनुजायां परिषदि अर्द्धमागधया सर्वसत्त्वस्वभाषानुगामिन्या भाषया भाषन्ते, एवं प्रकर्षेण संशीत्यपनोदायान्तेवासिनो जीवाजीवा स्रवबन्धसंवरनिर्जरा मोक्षपदार्थान् ज्ञापयन्ति प्रज्ञापयन्ति, एवं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः मिथ्वात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः स्वपरभावेन सदसती तत्त्वं सामान्य विशेषात्मकमित्यादिना प्रकारेण ।। ३५३ ।। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा. रावृत्तिः (चीलाङ्का.) सम्य०४ उद्देशका १ ॥३५४॥ प्ररूपयन्ति, एकार्थिकानि वैतानीति, किं तदेवमाचक्षते इति दर्शयति-यथा 'सर्वे प्राणाः सर्व एव पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाश्चेन्द्रियबलोच्छ्वासनिश्वासायुष्कलक्षणप्राणधारणात् प्राणाः, तथा सर्वाणि भवन्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति च भूतानि चतुर्दशभूतग्रामान्तःपातीनि, एवं सर्व एव जीवन्ति जीविष्यन्ति अजीविषुरिति जीवाःनारकतिर्यग्नगमरलक्षणाश्चतुर्गतिकाः, तथा सर्व एव स्वकृतसातासातोदयात् सुखदुःखमाजः सत्त्वाा, एकार्था वैते शब्दाः 'तत्वभेदपर्यायः प्रतिपादन मितिकृत्वेति, एते च सर्वेऽपि प्राणिनः पर्यायशब्दावेदिता न हन्तव्याः दण्डकशादिभिः नाज्ञापयितव्याः प्रसह्यामियोगदानतो न परिग्राह्या भृत्यदासदास्यादिममत्वपरिग्रहतो न परितापयितव्याः शारीरमानसपीडोत्पादनतो नापद्रावयितव्याः प्राणव्यपरोपणतः 'एषः' अनन्तरोक्तो 'धर्मो दुर्गत्यर्गलासुगतिसोपानदेश्यः, अस्य च प्रधानपुरुषार्थत्वाद्विशेषणं दर्शयति-'शुद्धः' पापानुवन्धरहितः न शाक्यधिगजातीनामिवैकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियवधानुमतिकलङ्काङ्कितः, तथा 'नित्यः' अप्रच्युतिरूपः, पश्चस्वपि विदेहेषु सदाभवनात् , तथा 'शाश्वतः' शाश्वतगतिहेतुत्वात् यदिवा नित्यत्वाच्छाश्वतो, न तु नित्यं भूत्वा न भवति, भव्यत्ववत् , अभूत्वा च नित्यं भवति घटाभाववदिति, अयं तु त्रिकालावस्थायीति, अमुच 'लोक' जन्तुलोकं दुःखसागरावगाढं 'समेत्य' ज्ञात्वा तदुत्तरणाय 'खेदज्ञैः' जन्तुदुःखपरिच्छेत्तृभिः 'प्रवेदितः प्रतिपादित इति, एतच्च गौतमस्वामी स्वमनीषिकापरिहारेण शिष्यमतिस्थैर्यार्थ चमारे ॥ एनमेव सूत्रोक्तमर्थ नियुक्तिकारः सूत्रसंस्पर्शकेन गाथाद्वयेन दर्शयति- . जे जिणवरा अईया जे संपहजे अणागए काले ! सब्वेवि ते अहिंसं वदिसु वदिहिंति विवदिति ॥२२६।। ३५४॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५५॥ छप्पिय जीवनिकाए णोवि हणे णोऽविअहणाविजानोऽवि अअणुमनिज्जा सम्मत्तस्सेस निजुत्ती॥२२७॥ [चतुर्थेऽध्ययने प्रथमोद्देशकनियुक्तिः] गाथाद्वयमपि कण्ठ्यं । तीर्थकगेपदेशश्च परोपकारितया तत्स्वाभाव्यादेव प्रवर्त्तमानो भास्करोदय इव प्रबोध्यविशेषनिरपेक्षतया प्रवर्त्तते(तत् तद्यथेत्यादिना दर्शयति-तंजहा-उहिएसु वा' इत्यादि, धर्माचरणायोद्यता उत्थिता-ज्ञानदर्शनचारित्रोद्योगवन्तः, तद्विपर्ययेणानुत्थिताः तेषु निमितभूतेषु तानुद्दिश्य । भगवता सर्ववेदिना त्रिजगत्पतिना धर्मः प्रवेदितः, एवं सर्वत्र लगयितव्यं, यदिवा उत्थितानुत्थितेषु द्रव्यतोपि निषण्णानिषण्णेषु, तत्रैकादशसु गणधरेपूस्थितेष्वेव वीरवर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रवेदितः, तत उपस्थिता धम॑ शुश्रुषवो जिघृक्षवो वा तद्विपर्ययेणानुपस्थितास्तेष्विति, निमित्तसप्तमी चेयं, यथा चर्मणि द्वीपिनं हन्तीति, ननु च भावोपस्थितेषु चिलातिपुत्रादिष्विव धर्मकथा युक्तिमती अनुपस्थिनेषु तु के गुणं पुष्णाति ?, अनुपस्थितेष्वपीन्द्रनागादिषु विचित्रत्वात्कर्मपरिणतेः क्षयोपशमापादनाद्गुणवत्येवेति यत्किञ्चिदेतत् , प्राणिन आत्मानं वा दण्ड यतीति दण्डः, स च मनोवाक्कायलक्षणः, उपरतो दण्डो येषां ते तथा, तद्विपर्ययेणानुपरतदण्डाः , तेषूभयरूपेष्वपि, तत्रोपरतदण्डेषु तत्स्थैर्यगुणान्तराधानार्थ देशना, इतरेषु तूपरतदण्डत्वार्थमिति, उपधीयते-सगृह्यत इत्युपधिः, द्रव्यतो हिरण्यादिः भावतो माया, सह उपधिना वर्तन्त इति सोपधिकास्तद्विपर्ययेणानुपधिकास्तेष्विति, संयोगः-सम्बन्धः पुत्रकलत्रमित्रादिजनितस्तत्र रताः । संयोगरतास्तद्विपर्ययेणैकत्वभावनामाविता असंयोगरतास्तेष्विति, तदेवमुभयरूपेष्वपि यद्भगवता धर्मदेशनाऽकारि तत् तथ्य' सत्यमेतदिति, चशब्दो नियमार्थः, तथ्यमेवैतद्भगवद्वचनं, यथाप्ररूपितवस्तुसद्भावात्तथ्यता वचसो भवतीत्यतो वा तद्विपर्ययेणाथा युक्तिमती ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀ यत्किञ्चिदेतत् , HIT तेषूभयरूपेष्वपि ३५५ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारावृत्तिः (चीलावा.) सम्य.४ उद्देशकः? ३५६॥ वाच्यमपि तथैवेति दर्शयति-तथा चैतद्वस्तु यथा भगवान् जगाद, यथा-सर्वे प्राणा न हन्तव्या इत्यादि, एवं सम्यग्दर्शनं श्रद्धानं विधेयम् , एतच्चास्मिन्नेव मौनीन्द्रप्रवचने सम्यग्मोक्षमार्गविधायिनि समस्तदम्भप्रबन्धोपरते प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यत इति, न तु यथा अन्यत्र 'न हिंस्यात्सर्वभूतानी'त्यभिधायान्यत्र वाक्ये यज्ञपशुवधाभ्यनुज्ञानात् पूर्वोत्तरबाधेति ॥ तदेवं सम्यक्त्वस्वरूपमभिधाय तदवाप्तौ यद्विधेयं तदर्शयितुमाह तं आइतु न निहे न निक्खिवे जाणित्तु धम्मं जहा तहा, दिहिं निव्वेयं गच्छिज्जा, नो लोगस्सेसणं 'चरे ॥ सू० १२७ ॥ 'तत्' तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनमादाय-गृहीत्वा तत्कार्याकरणतो 'न निहेति न गोपयेत् तथाविधसंसर्गादिनिमित्तोत्थापितमिथ्यात्वोऽपि जीवसामर्थ्यगुणान्न त्यजेदपि, यथा वा शैवशाक्यादीनां गृहीत्वा व्रतानि पुनरपि व्रतेश्वरयागादिविधिना गुरुसमीपे निक्षिप्योत्प्रव्रजनं, एवं गुर्वादेः सकाशादवाप्य सम्यग्दर्शनं 'न निक्षिपेत्' न त्यजेत् , किं कृत्वा ?-यथा तथाऽवस्थितं धर्म ज्ञात्वा श्रुतधर्म चारित्रात्मकमवगम्य, वस्तूनां वा धर्म-स्वभावमवबुध्येति । तदवगमे तु किं चापरं कुर्यादित्याह-'दि?हिं' इत्यादि, दृष्टरिष्टानिष्टरूपैनिर्वेदं गच्छेद्, विरागं कुर्यादित्यर्थः, तथाहिशब्दैः श्रतः रसैरास्वादितैर्गन्धैराघ्रातः स्पर्शः स्पृष्टः सद्भिरेवं भावयेत्-यथा शुमेतरता परिणामवशाद्भवतीत्यतः कस्तेषु रागो द्वेषो वेति । किं च-'नो लोयस्स' इत्यादि, 'लोकस्य' प्राणिगणस्यैषणा-अन्वेषणा इष्टेषु शब्दादिषु प्रवृत्तिरनिष्टेषु च हेयबुद्धिस्ता 'न चरेत्' न विदध्यात् ॥ यस्य चैषा लोकेषणा नास्ति तस्यान्याप्यप्रशस्ता मतिर्नास्तीति दर्शयति पहा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५७॥ जस्स नस्थि इमा जाई अपणा तस्स कओ सिया, दिद्वं सुयं मयं विण्णायं जं एयं परिकहिज्जइ, समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकप्पंति ॥ सू० १२८॥ यस्य मुमुक्षोरिमा ज्ञातिः-लोकेषणाबुद्धिः 'नास्ति' न विद्यते, तस्यान्या सावद्यारम्भप्रवृत्तिः कुतः स्यात् ?, इदमुक्तं भवति-भोगेच्छारूपां लोकैषणां परिजिहीर्षोनैव सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तिरुपजायते, तदर्थत्वात्तस्या इति, यदिवा 'इमा' अनन्तरोक्तत्वात् प्रत्यक्षा सम्यक्त्वज्ञातिः प्राणिनो न हन्तव्या इति वा यस्य न विद्यते तस्यान्या विवेकिनी बुद्धिः कुमार्गसावद्यानुष्ठानपरिहारद्वारेण कुतः स्यात् ।। शिष्यमतिस्थैर्यार्थमाह-विट्ठ'मित्यादि, यदेतन्मया परिकथ्यते तत्सर्वज्ञैः केवलज्ञानावलोकेन दृष्टं, ततः शुश्रूषुभिः श्रुतं, लघुकर्मणां भव्यानां मतं, ज्ञानावरणीयझयोपशमाद्विशेषेण ज्ञातं विज्ञातम् , अतो भवताऽपि सम्यक्त्वादिके मत्कथिते यत्नवता भवितव्यमिति । ये पुनर्यथोक्तकारिणो न स्युः ते किम्भूता भवेयुरित्याह-'समेमाणा' इत्यादि, तस्मिन्नेव मनुष्यादिजन्मनि शाम्यन्तो' गाय॑नात्यर्थमासेवां कुर्वन्तः तथा 'प्रलीयमाना' मनोज्ञेन्द्रियार्थेषु पौनःपुन्येनैकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिकां जाति प्रकल्पयन्ति, संसाराविच्छित्ति विदधतीत्यर्थः ॥ यद्येवमविदितवेद्याः साम्प्रतक्षिणो यथाजन्मकृतरतय इन्द्रियार्थेषु प्रलीनाः पौनःपुन्येन कृतजन्मादिसन्धाना जन्तवस्ततः किं कर्त्तव्यमित्याह अहो अराओ य जयमाणे धीरे सया आगयपण्णाणे पमत्ते बहिया पास अप्पमत्त सया परिक्कमिजासि त्तिबेमि ॥ सू० १२६ ॥ इति प्रथमोद्देशकः ॥४-१॥ ॥३५७॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य.४ उद्देशक:२ भीआचाराजवृत्तिः (शीलाङ्का. ॥ ३८॥ अहश्च रात्रिं च यतमान एव यत्नवानेव मोक्षाध्वनि 'धीरः' परीषहोपसर्गाक्षोभ्यः 'सदा' सर्वकालम् 'आगतं' स्वीकृतं 'प्रज्ञानं' सदसद्विवेको यस्य स तथा, 'प्रमत्तान्' असंयतान् परतीथिकान्वा धर्माबहिर्व्यवस्थितान् पश्य, तांश्च तथा-भूतान् दृष्ट्वा किं कुर्यादित्याह-'अप्पमसे' इत्यादि, अप्रमत्तः सन्निद्राविकथादिप्रमादरहितोऽक्षिनिमेषोन्मेषादावपि सदोपयुक्तः पराक्रमेथाः कर्मरिपून् मोक्षाध्वनि वा । इतिरधिकारसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । इति सम्यक्त्वाध्ययने प्रथमोद्देशकटीका परिसमाप्ता ॥ ४-१॥ ॥ अथ चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः । साम्प्रतं द्वितीयव्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह अनन्तरोद्देशके सम्यग्वादः प्रतिपादितः, स च प्रत्यनीकमिथ्यावादव्युदासेनात्मलाभ लभते, व्युदासश्च न परिज्ञानमन्तरेण, परिज्ञानं च न विचारमन्तरेणेति, अतो मिथ्यावादभूततीर्थिकमतविचारणायेदमुपक्रम्यते, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रं-'जे आसवा' इत्यादि, यदिवेह सम्यक्त्वमधिकृतं, तच्च सप्तपदार्थश्रद्धानात्मकं, तत्र मुमुक्षुणाऽवगतशस्त्रपरिज्ञाजीवाजीवपदार्थेन संसारमोक्षकारणे निर्णतव्ये, तत्र संसारकारणमात्रवस्तद्ग्रहणाच्च बन्धग्रहणं, मोक्षकारणं तु निर्जरा तद्ग्रहणाच्च संवरस्तत्कार्यभृतश्च मोक्षः मूचितो भवतीत्यत आश्रवनिर्जरे संसारमोक्षकारणभूते सम्यक्त्वविचारायाते दर्शयितुमाह जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे al॥३५८॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३५६ ॥ अपरिस्सवा ते अणासवा, एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिचा पुढो पवेइयं ॥ सू० १३० ॥ 'य' इति सामान्यनिर्देशः, आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म्म यैरारम्भैस्ते आस्रवः, परि:- समन्तात्स्रवति - गलति यैरनुष्ठान - विशेषैस्ते परिस्रवाः, य एवास्रवाः - कर्म्मबन्धस्थानानि त एव परिस्रवाः - कर्म्मनिर्जरास्पदानि, इदमुक्तं भवति यानि इतरजनाचरितानि स्रगङ्गनादीनि सुखकारणतया तानि कर्म्मबन्धहेतुत्वादास्रवाः पुनस्तान्येव तत्रविदां विषयसुखपराङ्मुखानां निःसारतया संसारसरणिदेश्यानीति कृत्वा वैराग्यजनकानि अतः परिस्रवाः - निर्जरास्थानानि । सर्ववस्तूनामनैकान्तिकतां दर्शयितुमेतदेव विपर्ययेणाह - 'जे परिस्सया' इत्यादि, य एव परिस्रवाः - निर्जरास्थानानि - अर्हत्साधुतपश्वरणदशविधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानादीनि तान्येव कम्र्मोदयादवष्टब्धशुभाध्यवसायस्य दुर्गतिमार्गप्रवृत्तसार्थवाहस्य जन्तोर्महाशातनावतः सातर्द्धिरसगारवप्रवणस्यास्रवा भवन्ति पापोपादानकारणानि जायन्ते इदमुक्तं भवति यावन्ति कर्मनिर्जरार्थं संयमस्थानानि तद्बन्धनायासंयमस्थानान्यपि तावन्त्येव, उक्तं च- " यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासान्निर्वाणसुखहेतवः ॥ १ ॥" तथाहि - रागद्वेषवासितान्तःकरणस्य विषयसुखोन्मुखस्य दुष्टाशयत्वात्सर्वं संसाराय, पिचुमन्दरसवासितास्यस्य दुग्धशर्करादिकटुकत्वापत्तिवदिति, सम्यग्दृष्टेस्तु विज्ञातसंसारोदन्वतः न्यक्कृतविषयाभिलाषस्य सर्वमशुचि दुःखकारणमिति च भावयतः सञ्जातसंवेगस्येतरजनसंसारकारणमपि मोक्षायेति भावार्थः । पुनरेतदेव गतप्रत्यागतसूत्रं सप्रतिषेधमाह - 'जे अणासवा' इत्यादि, प्रसज्यप्रतिषेधस्य क्रिया ॥ ३५६ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) ॥ ३६॥ प्रतिषेधपर्यवसानतया परिस्रवा इत्यनेन सह सम्बन्धाभावात् पर्युदासोऽयम् , आम्रवेभ्योऽन्येऽनास्रवाः-व्रतविशेषाः, तेऽपि सम्य. ४ कम्र्मोदयादशुभाध्यवसायिनोऽपरिस्रवाः कर्मणः, कोकणार्यप्रभृतीनामिवेति, तथाऽपरिस्रवाः-पापोपादानकारणानि उद्देशक: २ केनचिदुपाधिना प्रवचनोपकारादिना क्रियमाणाः कणवीरलताभ्रामकक्षुल्लकस्येवानास्रवाः-कर्मबन्धाय न भवन्ति, यदिवा आस्रवन्तीत्यास्रवाः, पचायच, एवं परिस्रवन्तीति परिस्रवाः, अत्र चतुर्भङ्गिका-तत्र मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगैर्य एव कर्मणामास्रवाः-बन्धकाः त एवापरेषां परिस्रवाः-निर्जरकाः, एते च प्रथमभङ्गपतिताः सर्वेऽपि संसारिणश्चतुगतिका, सर्वेषां प्रतिक्षणमुभयसद्भावात , तथा ये आस्रवास्तेऽपरिस्रवा इति शून्योऽयं द्वितीयभङ्गको, बन्धस्य शाटाविनाभावित्वाद् , एवं येऽनास्रघास्ते परिस्रवाः, एते चायोगिकेवलिनस्तृतीयभङ्गपतिताः, चतुर्थभङ्गपतितास्तु सिद्धाः, तेषामनास्रवत्वादपरिस्रवत्वाच्चेति, अत्र चाद्यन्तमङ्गको सूत्रोपाचौ, तदुपादाने च मध्योपादानस्यावश्यंभावित्वात् मध्यभङ्गकद्वयग्रहणं द्रष्टव्यमिति । यद्येवं ततः किमित्याह-एए पए' इत्यादि, एतानि-अनन्तरोक्तानि पद्यते-गम्यते येभ्योऽर्थस्तानि पदानि, तद्यथा-ये आस्रवा इत्यादीनि, पदस्य चार्थावगत्यर्थ शब्दप्रयोगादेतत्पदवाच्यानांश्च सम्यगअविपर्यासेन बुध्यमानस्तथा 'लोक' जन्तुगणमानवद्वारायातेन कर्मणा बध्यमानं तपश्चरणादिना च मुच्यमानमाज्ञयातीर्थकरप्रणीतागमानुसारेणाभिसमेत्य-आभिमुख्येन सम्यक् परिच्छिद्य चशब्दो भिन्नक्रमः पृथक प्रवेदितं चाभिसमेत्य पृथगास्रवोपादानं निर्जरोपादानं चेत्येतच्च ज्ञात्वा को नाम धर्माचरणं प्रति नोद्यच्छेदिति ?, कथं प्रवेदितमिति चेत्, ॥३०॥ तदुच्यते, आस्रवस्तावज्ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञाननिहवेन ज्ञानान्तरायेण ज्ञानप्रद्वेषेण ज्ञानात्याशातनया ज्ञानविसंवादेन । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३६१॥ ज्ञानावरणीयं कर्म बध्यते, एवं दर्शनप्रत्यनीकतया यावदर्शनविसंवादेन दर्शनावरणीयं कर्म बध्यते, तथा प्राणिनामनुकम्पनतया भतानुकम्पनतया जीवानुकम्पनतया सत्वानुकम्पनत्वेन बहूनां प्राणि नामदुःखोत्पादनतया अशोचनतया अजरणतया अपीडनतया अपरितापनतया सातावेदनीयं कर्म बध्यते, एतद्विपर्ययाच्चासातावेदनीयमिति, तथाऽनन्तानुवन्ध्युत्कटतया तीव्रदर्शनमोहनीयतया प्रबलचारित्रमोहनीयसद्भावान्मोहनीयं कर्म वम्यते, महारम्भतया महापरिग्रहतया पवेन्द्रियवधात कुणिमाहारेण नरकायुष्कं बध्यते, मायावितया अनृतवादेन कूटतुलाकूटमानव्यवहारातिर्यगायुर्वध्यते, प्रकृतिविनीततया सानुक्रोशतया अमात्सर्यान्मनुष्यायुष्क, सरागसंयमेन देशविरत्या बालतपसा अकामनिर्जरया देवायुकमिति. कायर्जु तया भावजुतया भाषर्जु तया अविसंवादनयोगेन शुभनाम बध्यते, विपर्यवाच्च विपर्यय इति, जातिकुलबलरूपतप:श्रतलामेश्वर्यमदाभावादुच्चेर्गोत्रं, जात्यादिमदात परपरिवादाच्च नीचैर्गोत्रं, दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायविधानादान्तरायिकं कर्म बध्यते, एते ह्यास्रवास साम्प्रतं परिस्रवाः प्रतिपाद्यन्ते-अनशनादि सबाह्यभ्यन्तरं तप इत्यादि, एवमास्रवकनिर्जरकाः सप्रभेदा जन्तवो वाच्याः, सर्वेऽपि च जीवादयः पदार्था मोक्षावसना वाच्याः। एतानि च पदानि सम्बुध्यमानस्तीर्थकरगणधरेर्लोकमभिसमेत्य पृथक पृथक् प्रवेदितम् , अन्योऽपि तदाज्ञानुसारी चतुर्दशपूर्वविदादिः सत्त्वहिताय परेभ्य आवेदयतीत्येतदर्शयितुमाह आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपउिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं (भाघाइ धम्म खल से जीवाणं, तंजहा-संसारपडिवन्नाणं माणसभवत्थाणं आरंभविणईणं दुक्खुव्वेअ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा सम्य० ४ उद्देशक: २ (चीलाहा.) ।। ३६२॥ सुहेसगाणं धम्मसवणगवेसयाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं) विन्नाणपत्ताण, अट्टावि संता अदुवा पमत्ता अहा सच्चमिणं तिबेमि, नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि इच्छा पणीया वंकानिकेथा कालगहिया निचयनिविट्ठा पुढो पुढो जाईपकप्पयंति (एत्थमाहे पुणो पुणो) ॥ सू० १३१ ॥ ज्ञानं सकलपदार्थाविर्भावक विद्यते यम्यासौ ज्ञानी स 'आख्याति' आचष्टे 'इहे'ति प्रवचनेन केषां ?-मानवानां सर्वसंवरचारित्रार्हत्वात्तेषाम् , अथवोपलक्षणं चैतद्देवादीनां, तत्रापि केवल्यादिव्युदासाय विशेषणमाह-संसार' इत्यादि, संसार-चतुर्गतिलक्षणं प्रतिपन्नाः संसारप्रतिपन्नाः, तत्रापि ये धम्म भोत्स्यन्ते ग्रहीष्यन्ते च मुनिसुव्रतस्वामिघोटकदृष्टान्तेन तेषामेवाख्यातीत्येतदर्शयति–'सम्बुध्यमानानां यथोपदिष्टं धर्म सम्यगवबुध्यमानानां, छद्मस्थेन त्वज्ञातबुध्यमानेतरविशेषेण यादृग्भूतानां कथयितव्यं तान् सूत्रेणैव दर्शयति-'विज्ञानप्राप्तानां' हिताहितप्राप्तिपरिहाराध्यवसायो विज्ञानं तत्प्राप्ता विज्ञानप्राप्ताः, समस्तपर्याप्तिभिः पर्याप्ता, संज्ञिन इत्यर्थः, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति"आघाइ धम्म खल से जीवाणं, तजहा-संसारपबिवन्नाणं माणसभवत्थाणं आरंभविणईणं दुक्खुव्वेअसुहेसगाणं धम्मसवणगवेसयाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विण्णाणपत्ताणं" एतच्च प्रायो गतार्थमेव, नवरमारम्भविनयिनामित्यारम्भविनयः-आरम्भाभारः स विद्यते येषामिति मत्वर्थीयस्तेषामिति । यथा च ज्ञानी धर्मामाचष्टे तथा दर्शयति-'अहावि' इत्यादि, विज्ञान प्राप्ता धर्म कथ्यमानं कुतश्चिनिमित्तादा" अपि अन्तः alu३६२॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिलातिपुत्रादय इव अथवा प्रमत्ता विषयाभिष्वङ्गादिना शालिभद्रादय इव तथाविधकर्म झयोपशमापनेर्यथा प्रतिपद्यन्ते तथाऽऽचष्टे, यदिवाऽऽर्ताः-दुःखिनः प्रमत्ता:-सुखिनः, तेऽपि प्रतिपद्यन्ते धर्म, किं पुनरपरे ? अथवा आर्ताःरागद्वेषोदयेन प्रमत्ता विषयैः, ते च तीथिका गृहस्था वा संसारकान्तारं विशन्तः कथं भवतां विज्ञातज्ञेयानां करुणास्पदानां रागद्वेषविषयामिलापोन्मूलनाय न प्रभवन्ति । एतच्चान्यथा मा मस्था इति दर्शयितुमाह-'अहा सच्च' मित्यादि, इदं R| यन्मया कथितं कथ्यमानं च तद्यथा-मत्यं, याथातथ्यमित्यर्थः, इत्येतदहं ब्रवीमि, यथा दुर्लभमवाप्य सम्यक्त्वं चारित्र परिणाम वा प्रमादो न कायः, स्यात्-किमालम्ब्य प्रमादो न कार्यस्तदाह-'नाणागमो' इत्यादि, न धनागमो मृत्योमुखस्य कस्यचिदपि संसारोदरवर्तिनोऽस्तीति, उक्तं च-"वदत यदीह कश्चिदनुसंततसुखपरिभोगलालितः। प्रयत्नशतपरोऽपि विगतव्यथमायुरवाप्तवान्नरः ॥ १॥ न खलु नरः सुरौघसिद्धासुरकिन्नरनायकोऽपि यः। सोऽपि कृतान्तदन्तकुलिशाक्रमेण कृशितो न नश्यति ॥२॥" तथोपायोऽपि मृत्युमुखप्रतिषेधस्य न कश्चिदस्तीति, उक्तं च "नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां, चरति गुरुवतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातरः। तपति तपांसि स्वादति मितानि करोति च मन्त्रसाधन, तदपि कृतान्तदन्तयन्त्रक्रकचक्रमणैर्विदार्यते ॥१॥" ये पुनर्विषयकषायाभिष्वङ्गात् प्रमत्ता धर्म नावबुध्यन्ते ते किम्भूता भवन्तीत्याह-'इच्छा' इत्यादि, इन्द्रियमनोविषयानुकूला प्रवृत्तिरिहेच्छा तया विषयाभिमुखमभिकर्मबन्धं संसाराभिमुखं वा प्रकर्षेण नीता इच्छाप्रणीताः, ये चैवम्भूतास्ते 'कानिकेता' वङ्कस्य-असंयमस्य आ-मर्यादया: Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ३६४ ॥ संयमावधिभूतया निकेत भूताः - आश्रया वङ्कानिकेताः वङ्को वा निकेतो येषां ते वङ्कानिकेताः पूर्वपदस्य दीर्घत्वं, ये चैवम्भूतास्ते 'कालगृहीताः कालेन -मृत्युना गृहीताः कालगृहीताः, पौनःपुन्यमरणभाज इत्यर्थः, धर्मचरणाय वा गृहीतः - अभिसन्धितः कालो यैस्ते कालगृहीताः, आहिताग्निदर्शनादार्षत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः तथाहि - पाश्चात्ये वयसि परुत्परारि वा अपत्यपरिणयनोत्तरकालं वा धर्म्म करिष्याम इत्येवं गृहीतकालाः, ये चैवम्भूतास्ते निचये निविष्टानिचय कर्म्मनिचये तदुपादाने वा सावद्यारम्भनिचये निविष्टा:- अध्युपपन्नाः, ये चेच्छाप्रणीता वङ्कानिकेताः कालगृहीता निचये निविष्टास्ते तद्धर्माण: किमपरं कुर्वन्तीति दर्शयितुमाह - 'पुढो पुढो ' इत्यादि, पृथक्पृथगे केन्द्रिय द्वीन्द्रियादिकां जातिमनेकशः 'प्रकल्पयन्ति' प्रकुर्वन्ति, पाठान्तरं वा 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' 'अत्र' अस्मिन्निच्छाप्रणीतादिके हृषीकानुकूले मोहे करूपे वा मोहे निमग्नाः पुनः पुनस्तत्कुर्वन्ति येन तदप्रच्युतिः स्यात् ॥ तदप्रच्युतौ च किं स्यादिन्याह इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ अहोववाइए फासे पडिसंवेयंति, चिट्ठ कम्मेहिं कूरेहिं चिट्ठ परिचिह्न, अचिडं कूरेहिं कम्मेहिं नो चिट्ठ परिचिहह, एगे वयंति अदुवावि नाणी, नाणी वयंति अदुवावि एगे ।। सू० १३२ ।। 'इह' अस्मिंश्चतुर्द्दशरज्ज्वात्मके लोके 'एकेषां' मिध्यात्वाविरतिप्रमादकषायवतां 'तत्र तत्र' नरकतिर्यग्गत्यादिषु यातनास्थानकेषु 'संस्तवः' परिचयो भूयोभूयोगमनाद्भवति, ततः किमित्याह - 'अहोववाइए' इत्यादि, त एव- ****** सम्य० ४ उद्देशः २ ॥ ३६४ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३६५॥ मिच्छया प्रणीतत्वादिन्द्रियवशगास्तद्वशित्वात्तदनुकूलमाचरन्तो नरकादियातनास्थानजातसंस्तवास्तीथिका अप्यौदेशिकादि निर्दोषमाचक्षाणा 'अधऔपपातिकान्' नरकादिभवान् 'स्पर्शान्' दुःखानुभवान् 'प्रतिसंवेदयन्ति' अनुभवन्ति, तथाहि-लोकायतिका ब्रवते-"पिब खाद च चारुलोचने !, यदतोतं वरगात्रि ! तन्न ते । न हि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥१॥" वैशेषिका अपि सावधयोगारम्भिणः, तथाहि ते भाषन्ते'अभिषेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानमो(प्रो)क्षणदिग्नक्षत्रमन्त्रकालनियमाः' इत्यादि, अन्येऽपि सावद्ययोगानुष्ठायिनोऽनया दिशा वाच्याः, स्यात् किं सर्वोऽपीच्छाप्रणीतादिर्यावत्तत्र तत्र कृतसंस्तवोऽधऔपपातिकान् स्पर्शान प्रतिसंवेदयत्याहोस्वित्कश्चिदेव तद्योग्यकर्मकार्येवानुभवति ?, न सर्व इति दर्शयति–'चिट्ठ' इत्यादि, चि-भृशमत्यर्थ 'करैः' वधवन्धादिभिः 'कर्मभिः' क्रियाभिः 'चिट्ठ'मिति भृशमत्यर्थमेव विरूपा दशां वैतरणीतरणासिपत्रवनपत्रपाताभिघातशाल्मलीवृक्षालिङ्गनादिजनितामनुभवंस्तमस्तमादिस्थानेषु परितिष्ठति, यस्तु नात्यर्थं हिंसादिभिः कर्मभिर्वर्तते सोऽत्यन्तवेनानिचितेष्वपि नरकेषु नोत्पद्यते, स्यात्-क एवं वदन्तीत्याह-'एगे वयंती' त्यादि, 'एके' चतुर्दशपूर्वविदादयो 'वदन्ति' ब्रुवतेऽथवाऽपि ज्ञानी वदति, ज्ञानं-सकलपदार्थाविर्भावकम् अस्यास्तीति ज्ञानी, स चैतद् ब्रवीति, यद्दिव्यज्ञानी केवली माषते श्रुतकेवलिनोऽपि तदेव भाषन्ते, यच्च श्रुतकेवलिनो भाषन्ते निरावरणज्ञानिनोऽपि तदेव वदन्तीत्येतद्गतप्रत्यागतसूत्रेण दर्शयति-'नाणी' इत्यादि, 'ज्ञानिन' केवलिनो यद्वदन्त्यथवाऽप्येकेश्रतकेवलिनो यद्वदन्ति तद्यथार्थभाषित्वादेकमेव, एकेषां सर्वार्थप्रत्यक्षवादपरेषां तदुपदेशप्रवृत्तेरिति, वक्ष्यमाणेऽप्येक ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ४४०४४ ॥३५॥ . Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ३६६ ॥ वाक्यतेति । तदाह आवंती केयावंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवायं वयंति से दिहं चणे सुयं च णे मयं च णे विष्णायं च णे उड्ड अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सुपडिलेहियं च णे- सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे सत्ता हन्तव्या अज्जावेयव्वा परियावेयव्वा परिघेत्तध्वा उद्दवेयव्वा, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो अणारियaणमेयं, तत्थ जे आरिआ ते एवं वयासी-से दुद्दिडं च भे, दुस्सुयं च भे. दुम्मयं च भे, दुव्विण्णायं च भे, उड्ड अहं तिरियं दिसासु सव्वओ दुप्पडिलेहियं च भे, ज णं तुभे एवं आइक्वह, एवं भासह, एवं परूवेह एवं पण्णवेह - सव्वे पाणा ४, तव्वा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं, वयं पुण एवमाइक्खमो एवं भासामो एवं परूवेमो एवं पण्णवेमो-सव्वे पाणा ४ न हंतव्वा १ न अजावेयव्वा २ न परिधित्तव्वा ३ ́न परियावेयव्वा ४ न उद्दवेयव्वा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, आरियवयणमेयं पुव्वं निकाय समयं पत्तेय पत्तेय पुच्छिस्सामि, हं भो पावा या ! किं भे सायं दुक्खं उयाहु असायं १ समिया पडिवण्णे यावि एवं बूया - सन्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं सम्य• ४ उददेशकः २ ॥ ३३६ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ महाभयं मुक्वं तिमि || सू०१३३ ।। इति द्वितीय उहाकः ।। ४-२॥ 'आवन्तीति यावन्तः 'केआवन्तीति फेचन 'लोके' मनुष्यलोके 'श्रमणाः' पापण्डिकाः 'ब्राह्मणा' द्विजानमः प्रथक्पृथग विरुद्धो वादो विवादम् वदति, एतदुक्तं भवति--यावन्तः केचन पग्लोकं ज्ञीप्यवस्ने प्रात्पीयदर्शनानुगगितया पागक्यं दर्शनमपवदन्तो विवदन्ते, नथाडि भागबना बवते-“पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानान्मोक्षः, सर्वव्याप्यात्मा निष्क्रियो निर्गुणश्चैतन्यलक्षणो, निविशेष सामान्यं तत्त्व"मिति, वैशेषिकास्तु भाषन्ते-"द्रव्यादिषटपदार्थपरिज्ञानान्मोक्षः, समवायिज्ञानगुणेनेच्छाप्रयत्नद्वेषादिभिश्च गुणगुणवानात्मा, परस्परनिरपेक्ष सामान्यविशेषात्मकं तत्त्व" मिति शाक्यास्तु वदन्ति –“यथा परलोकानुयाय्यात्मैव न विद्यते, निःसामान्य वस्तु क्षणिकं चे"ति, मीमासकास्तु मोक्षसर्वज्ञाभावेन व्यवस्थिता इति, तथा केषाश्चित् पृथिव्यादय एकेन्द्रिया जीवा न भवन्ति, अपरे वनस्पतीनामप्यचेतनतामाहुः, तथा द्वीन्द्रियादीनामपि कृम्यादीनां न जन्तुस्वभावं प्रतिपद्यन्ते, तद्भावे वा न तद्वधे बन्धोऽल्पबन्धता वेति, तथा हिंसायामपि भिन्नवाक्यता, तदुक्तम्-प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्त च तद्गता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥१॥" इत्येवमादिक औद्देशिकपरिमोगाभ्यनुज्ञादिकश्च विरुद्धो वादः स्वत एवाभ्यूह्यः। यदिवा ब्राह्मणाः श्रमणा धर्मविरुद्धं वादं यद्बदन्ति तत्सूत्रेणैव दर्शयति'से दिटुं चणे' इत्यादि, यावत् 'नथिस्थ दोसो' त्ति, 'सेति तच्छब्दार्थे यदहं वक्ष्ये तत् 'दृष्टम्' उपलब्धं दिव्यज्ञानेनास्माभिरस्माकं वा सम्बन्धिना तीर्थकृता आगमप्रणायकेन चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, श्रुतं चास्माभिगुवांदेः Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजाचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) सम्य. ४ उद्देशकः २ Koox... ॥३६८॥ * सकाशात , अस्मद्गुरुशिष्यैर्वा तदन्तेवासिभिर्वा मतम्-अभिमतं युक्तियुक्तत्वादस्माकमस्मत्तीर्थकराणां वा विज्ञातं च तत्त्वभेदपर्यायैरस्माभिरम्मत्तीर्थकरेण वा, स्वतो न परोपदेशदानेन, एतच्चोधिस्तिर्यक्षु दशस्वपि दिक्षु सर्वतः सर्वैः--प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्त्यादिभिः प्रकारैः सुष्ठु प्रत्युपेक्षितं च-पर्यालोचितं च, मनःप्रणिधानादिना अस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण वा, किं तदित्याह-सर्वे प्राणाः सर्वे जीवाः सर्वे भूताः सर्वे सचा हन्तव्या आज्ञापयितव्याः परिगृहीतव्याः परितापयितव्या अपद्रावयितव्याः, 'अत्रापि धर्मचिन्तायामप्येवं जानीथ, यथा नास्त्यत्र यागार्थ देवतोपयाचितकतया वा प्राणिहननादौ 'दोष' पापानुबन्ध इति, एवं यावन्तः केचन पाण्डिका औद्देशिकभोजिनो ब्राह्मणा वा धर्माविरुद्धं परलोकविरुद्धं वा वाद भाषन्ते । अयं च जीवोपमर्दकत्वात् पापानुबन्धी अनार्यप्रणीत इति, आह च-आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्यः इत्यार्यास्तद्विपर्यासादनार्या:-क्रूरकर्माणस्तेषां प्राण्युपधातकारीदं वचनं, ये तु तथाभूता न ते किम्भूतं प्रज्ञापयन्तीत्याह-'तत्थ' इत्यादि, 'तत्रे'ति वाक्योपन्यासार्थे निर्धारणे वा, ये ते आर्या देशभाषाचारित्रार्यास्त एवमवादिषुर्यथा यत्तदनन्तरोक्तं दुष्टमेतदुष्टं दृष्टं दुष्टं 'भे' युस्माभियुष्मतीर्थकरेण वा, एवं यावदुष्प्रत्युपेक्षितमिति । तदेवं दुदृष्टादिकं प्रतिपाद्य दुष्प्रज्ञापनानुवादद्वारेण तदभ्युपगमे दोषाविष्करणमाह-जं ण'मित्यादि, णमिति वाक्यालङ्कारे, यदेतद्वक्ष्यमाणं यूयमेवमाचक्षश्वमित्यादि यावदत्रापि यागोपहारादौ जानीथ यूयं यथा नास्त्येवात्रप्राण्युपमर्दानुष्ठाने दोपर-पापानुबन्धः इति, तदेवं परवादे दोषाविर्भावनेन धर्माविरुद्धतामाविर्भाव्य स्वमतवादमार्या आविर्भावयन्ति- 'वय' मित्यादि, पुनःशब्दः पूर्वस्माद्विशेषमाह, वयं पुनर्यथा धर्मविरुद्धवादो न भवति तथा प्रज्ञापयाम *... ॥३६८॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३६ ॥ 0 . इति, तान्येव पदानि सप्रतिषेधानि तु हन्तव्यादीनि यावन केवलमत्र-अस्मदीये वचने नास्ति दोषोऽत्रापि-अधिकारे जानीथ यूयं यथा 'अत्र' हननादिप्रतिषेधविधौ नास्ति दोषा-पापानुबन्धः, सावधारणत्वाद्वाक्यस्य नास्त्येव दोषः, प्राण्युपघातप्रतिषेधाच्चार्यवचनमेतत् , एवमुक्ते सति ते पाषण्डिका ऊचुः-भवदीयमार्यवचनमस्मदीयं त्वनार्यमित्येतनिग्न्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, युक्तिविकलत्वात् , तदत्राचार्यों यथा परमतस्यानार्यता स्यात्तथा दिदर्शयिषुः स्ववाग्यन्त्रिता वादिनो न विचलयिष्यन्तीतिकृत्वा प्रत्येकमतप्रच्छनार्थमाह-'पुव्व' मित्यादि, 'पूर्वम् आदावेव 'समयम्' आगमं यद्यदीयागमेऽभिहितं तत् 'निकाच्य' व्यवस्थाप्य पुनस्तद्विरूपापादनेन परमतानार्यता प्रतिपाद्येत्यतस्तदेव परमतं प्रश्नयति, यदिवा पूर्व प्राश्निकान्निकाच्य ततः पाण्डिकान् प्रश्नयितुमाह-'पत्तेय' मित्यादि, एकमेकं प्रति प्रत्येकं भोः प्रावादुकाः ! भवतः प्रश्नयिष्यामि, कि 'भे' युष्माकं 'सातं' मनआह्लादकारि दुःखमुतासातं-मनःप्रतिकूलं ?, एवं पृष्टाः सन्तो यदि सातमित्येवं व युः ततः प्रत्यक्षागमलोकवाधा स्याद्, अथ चासातमित्येवं व युः ततः 'समिया' सम्यक प्रतिपन्नांस्तान् प्रावादुकान स्ववाग्यन्त्रितानप्येवं ब्रूयात्-'अपिः' सम्भावने सम्भाव्यते एतद्भणनं-यथा न केवलं भवतां दुःखमसातं, सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमसातं मनसोऽनभिप्रेतम् अपरिनिर्वाणम्-अनिवृत्तिरूपं महद्भयं दुःखमित्येतत् परिगणय्य सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्तव्या इत्यादि वाच्यं, तद्धनने च दोषः, यस्त्वदोषमाह तदनार्यवचनम् । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् , तदेवं प्रावादुकानां स्ववाग्नियन्त्रणयाऽनार्यता प्रतिपादिता, अत्रैव रोहगुप्तमन्त्रिणा विदितागमसद्भावेन माध्यस्थ्यमवलम्बमानेन तीर्थिकपरीक्षाद्वारेण यथा निराकरणं चक्रे तथा नियुक्तिकागे ॥३६8 । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ३७० ॥ गाथाभिराचष्टे खुड्डग पायसमासं धम्मकहंपि य अजंपमाणेणं । छत्रेण अन्नलिंगी परिच्छिया रोहगुत्तेणं ॥ २२७॥ अनया गाथया सङ्क्षेपतः सर्वं कथानकमावेदितं क्षुल्लकस्य, 'पादसमासो' गाथा पादसङ्क्षेपस्तम जल्पता धर्म्मकथां च 'छन्नेन' अप्रकटेन 'अन्यलिङ्गिनः प्रावादुकाः परीक्षिताः' निरूपिता: 'रोहगुप्तेन' रोहगुप्तनाम्ना मन्त्रिणेति गाथासमासार्थः । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम् - चम्पायां नगर्यां सिंहसेनस्य राज्ञो रोहगुप्तो नाम महामन्त्री, स चार्हदूदर्शनभावितान्तःकरणो विज्ञातसदसद्वादः, तत्र च कदाचिद्राजाऽऽस्थानस्थो धर्म्मविचारं प्रस्तावयति, तत्र यो यस्थाभिमतः स तं शोभनमुवाच स च तूष्णीभावं भजमानो राज्ञोक्तः- धर्म्मविचारं प्रति किमपि न ब्रूते भवान् ९, सत्वाहकिमेभिः पक्षपातव घोभिः ? विमर्शामः स्वत एव धर्मं परीक्षामहे तीर्थिकानित्यभिधाय राजानुमत्या 'सकुण्डलं वा वदनं न वत्ति, अयं गाथापादो नगरमध्ये आललम्बे, सम्पूर्णा तु गाथा भाण्डागारिता, नगर्यां चोद्धुष्टं, यथा-य एनं गाथापादं पूरयिष्यति तस्य राजा यथेप्सितं दानं दास्यति तद्भक्तश्च भविष्यतीति तं च गाथापादं सर्वेऽपि गृहीत्वा प्रावादुका निर्जग्मुः पुनश्व सप्तमेऽहनि राजानामस्थानस्थमुपस्थिताः, तत्रादावेव परिव्राड् ब्रवीति भिक्खं पविद्वेण मएज्ज दिट्ठ, पमयामुहं कमलविसालनेत्तं । बक्खित्तचित्तेण न सुट्टु नायं, सकुडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २२८ ॥ सुगमं नवरमपरिज्ञाने व्याक्षेपः कारणमुपन्यस्तं न पुनर्वीतरागतेति पूर्वगाथाविसंवादादसौ तिरस्कृत्य निर्द्धाटितः । सम्य० ४ उद्देशकः २ ॥ ३७० ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७१॥ • RAAAAAAAAAAAA पुनस्तापसः पठति फलोदएणं मि गिहं पविहो, तत्थासणत्था पमया मि दिहा। वक्खित्तचित्तण न सुटु नायं, सकुडलं वा वयणं न वत्ति ।। २२९ ॥ सुगमं पूर्ववत् । तदनन्तरं शौद्धोदनिशिष्यक आह मालाविहारंमि मएऽज दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न मुटु नायं, सकुडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २३० ॥ पूर्ववद् , एवमनया दिशा सर्वेऽपि तीथिका वाच्याः, आईतस्तु पुनर्न कश्चिदागत इति राज्ञाऽभाणि, मन्त्रिणा त्वाहतचुनकोऽप्येवम्भूतपरिणाम इत्येवं संप्रत्यय एषां स्यादित्यतो भिक्षार्थ प्रविष्टः प्रत्युषस्येव क्षुल्लकः समानीतः, तेनापि माथापादं गृहीत्वा गाथा बभाषे, तद्यथा खंतस्स दंतस्स जिई दियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स । किंमा एएण विचिंतिएणं, सकुडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २३१ ।। सुगमा, अत्र च क्षान्त्यादिकमपरिज्ञाने कारणमुपन्यस्तं न पुनाक्षेप इत्यतो गाथासंवादात् शान्तिदमजितेन्द्रियत्वाध्यात्मयोगाधिगतेश्च कारणाद्राझो धर्म प्रति भावोल्लासोऽभव, तुमकेन च धर्माप्रश्नोत्तरकालं पूर्वगृहीतशुष्केतरकर्दमगोलकद्वयं भित्तौ निक्षिप्य गमनमारेमे, पुनर्गच्छन् राज्ञोक्तं-किमिति भवान् धर्म पृष्टोऽपि न कथयति ?, स चावो A dditions Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य०४ उद्देशक:३ भीआचाराजवृत्तिः (चीलाङ्का. ॥ ३७२॥ चत-हे मुग्ध । ननु कथित एव धम्मों भवतः शुष्केतरगोलकदृष्टान्तेन । एतदेव गाथाद्वयेनाहउल्लो सुक्को य दो छुढा, गोलया मट्टियामया। दोवि आवडिया कुडडे,जो उल्लो तत्थ (सोऽत्थ) लग्गइ ॥२३॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा। विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए ॥ २३३ ॥ ___ अयमत्र भावार्थ:-ये ह्यङ्गप्रत्यङ्गनिरीक्षणव्यासङ्गात् कामिनीनां मुखं न पश्यन्ति तदभावे तु पश्यन्ति ते कामगृध्नुतया सार्दाः, सार्द्रतया च संसारपङ्के कर्मकर्दमे वा लगन्ति, ये तु पुनः क्षान्त्यादिगुणोपेताः संसारसुखपराङ्मुखाः काष्ठमुनयस्ते शुष्कगोलकसन्निभा न क्वचिल्लगन्तीति गाथाद्वयार्थः । सम्यक्त्वाध्ययने द्वितीयोद्देशकनियुक्तिः। इति सम्यक्त्वाध्ययने द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ ४-२॥ । अथ चतुर्थाध्ययने तृतीयोद्देशकः ॥ उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके परमतव्युदासद्वारेण सम्यक्त्वमविचलं प्रतिपादयता तत्सहचरितं ज्ञानं तत्फलभूता च विरतिरभिहिता, सत्यपि चास्मिस्त्रये न पूर्वोपात्तकर्मणो निश्वद्यतपोऽनुष्ठानमन्तरेण क्षयो भवतीत्यतस्तदधुना प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् उवेहि णं पहिया य लोगं, से सव्वलोगमि जे केइ विष्णू, अणुवीइ पास निक्खित्तः ॥३७२॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७३॥ दंडा, जे के सत्ता पलियं चयंति, नरा मुयच्चा धम्मविउत्ति अंजू, आरंभ दुक्खमिणति गच्चा, एषमाहु संमत्तदंसिणो, ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण मुदाहरंति इय कम्मं परिणाय सध्वसो ॥ सू० १३४ ॥ योऽयमनन्तरं प्रतिपादितः पापण्डिलोकः एनं धम्माद्वहिर्व्यवस्थितमुपेक्षस्व-तदनुष्ठानं मा अनुप्रस्थाः, चशब्दोऽ. नुक्तसमुच्चयार्थः, तदुपदेशमभिगमनपयुपासनदानसंस्तवानादिकं च मा कृथा इति । यः पाण्डिलोकोपेक्षकः स के गुणमवाप्नुयादित्याह-'से सव्वलोए' इत्यादि, यः पापण्डिलोकमनायवचनमवगम्य तदुपेतां विधत्ते स सर्वस्मिल्लोके-मनुष्यलोके ये केचिद्विद्वांसस्तेभ्योऽग्रणीविद्वत्तम इति स्यात् , लोके केचन विद्वांसः सन्ति ? येभ्योऽधिकः स्यादित्यत आह–'अणुवीइ' इत्यादि, ये केचन लोके 'निक्षिप्तदण्डा। निश्चयेन क्षिप्तो निक्षिप्तः - परित्यक्तः कायमनोवाङ्मयः प्राण्युपपातकारी दण्डो यस्ते विद्वांसो भवन्त्येव एतदनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य पश्य-अवगच्छ । के चोपरतदण्डा इत्यत आह-'जे केइ' इत्यादि, ये केचनावगतधर्माणः सवाः-प्राणिनः 'पलित'मिति कर्म तत्त्यजन्ति, ये चोपरतदण्डा भूत्वाऽष्टप्रकारं कर्म घ्नन्ति ते विद्वांस इत्येतदनुविचिन्त्य-अक्षिनिमीलनेन पर्यालोच्य 'पश्य' विवेकिन्या मत्याऽवधारय । के पुनरशेषकर्मक्षयं कुर्वन्ति ? इत्यत आह-'नरे' इत्यादि; नराः-मनुष्यास्त एवाशेषकर्मक्षयायालं नान्ये, तेऽपि न सर्वे अपि तु मृतार्चा-मृतेव मृता संस्कारामावादा शरीरं येषां ते तथा, निष्प्रतिकर्मशरीरा इत्यर्थः, यदिवा अध्र्चा-तेजः, स च क्रोधः, स च कषायोपलक्षणार्थः, ततश्चायमों-मृता-विनष्टा अर्चा कषायरूपा येषां ते ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ३७४ ॥ मृताचः, अकषायिण इत्यर्थः, किं च - 'धम्मं ' श्रुतचारित्राख्यं विदन्तीति धर्म्मविदः, इति हेतौ यत एव धर्म्मविदोऽत एव ऋजवः- कौटिल्यरहिता: । स्थादेतत्- किमालम्ब्यैतद्विधेयमित्यत आह- 'आरंभज' मित्यादि, सावद्यक्रियानुष्ठानमारम्भस्तस्माज्जातमारम्भजं, किं तद् १ - दुःखमिदमिति सकलप्राणिप्रत्यक्षं, तथाहि — कृषिसेवा वाणिज्याद्यारम्भप्रवृत्तो यच्छारीरमानसं दुःखमनुभवति तद्वाचामगोचरमित्यतः प्रत्यक्षाभिधायिनेदमोक्तम्, 'इतिः' उपप्रदर्शने, इत्येतदनुभवसिद्ध दुःखं ज्ञात्वा मृताच्च धर्म्मविद ऋजवश्च भवन्तीति । एतच्च समस्तवेदिनो भाषन्त इति दर्शयति — 'एव' मित्यादि, ' एवं ' पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहुः' उक्तवन्तः, के एवमाहुः ? - समत्वदर्शिनः सम्यक्त्वदर्शिनः समस्तदर्शिनो वा यदुदेशका देरारभ्योक्तं तदेवमृचुरित्यर्थः कस्मात्त ऊचुरित्याह- 'ते सव्वे' इत्यादि, यस्मात्ते सर्वेऽपि सर्वविदः 'प्रावादिकाः' प्रकर्षेण मर्यादया वदितु ं शीलं येषां ते प्रावादिनः, त एव प्रावादिका :- यथावस्थितार्थस्य प्रतिपादनाय वावदूकाः, 'दुःखस्य' शारीरमानसलक्षणस्य तदुपादानस्य वा कर्म्मणः 'कुशला' निपुणास्तदपनोदोपायवेदिनः सन्तः ते सर्वेऽपि ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय हेयार्थस्य प्रत्याख्यान परिज्ञामुदाहरन्ति, 'इतिः' उपप्रदर्शने, इत्येवं पूर्वोक्तनीत्या कर्मबन्धोदयसत्कर्म्मताविधानतः परिज्ञाय 'सर्वशः' सर्वैः प्रकारैः कुशलाः प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्ति यदिवा मूलोत्तरप्रकृतिप्रकारैः सर्वैः परिज्ञायेति मूलप्रकारा अष्टौ उत्तरप्रकृतिप्रकारा अष्टपञ्चाशदुत्तरं शतम्, अथवा प्रकृतिस्थित्यनु माग प्रदेशप्रकारैः, यदिवोदयप्रकारैर्बन्ध सत्कर्मता कार्यभूतै रागामिबन्धसत्कर्मताकारणैश्च कर्म्म परिज्ञायेति, ते चामी उदयप्रकाराः, तद्यथा - मूलप्रकृतिनां त्रीण्युदयस्थानानि, अष्टविधं सप्तविधं चतुर्विधमिति, तत्राष्टापि कर्म्मश्रकृती यौगपद्येन वेदयतोऽष्ट सम्य• ४ उद्देशकः ३ ॥ ३७४ ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३७५॥ विधं, तरुचकालतोऽनादिकमपर्यवसितमभव्यानां भव्यानां त्वनादि-सपर्यवसितं सादिसपर्यवसितं चेनि, मोहनीयोपशमे क्षये वा सप्तविधं, घातिक्षये चतुर्विधमिति । साम्प्रतमुत्तरप्रकृतिनामुदयस्थानान्युच्यन्ते, तत्र ज्ञानावरणीयान्तराययोः पञ्चप्रकार एकमुदयस्थानं, दर्शनावरणीयस्य द्वे, दर्शनचतुष्कस्योदयाच्चत्वारि अन्यतरनिद्रया सह पश्च, वेदनीयस्य सामान्येनैकमुदयस्थानं, सातमसातं वेति, विरोधाद्योगपद्योदयाभावः, मोहनीयस्य सामान्येन नवोदयस्थानानि, तद्यथा-दश नव अष्टौ सप्त षट् पश्च चत्वारि द्वे एकं चेति, तत्र दश मिथ्यात्वं १ अनन्तानुबन्धी क्रोधोऽप्रत्याख्यानः प्रत्याख्यानावरणः सज्वलनश्चेत्येतत्क्रोधचतुष्टयम् ५ एवं मानादिचतुष्टयमपि योज्यं अन्यतरो वेदः ६ हास्यरतियुग्मम् अरतिशोकयुग्मं वा ८ भयंह जुगुप्सा १० चेति, भयजुगुप्सयोरन्यतराभावे नव, द्वयाभावेऽष्टौ, अनन्तानुबन्ध्यभावे सप्त, मिथ्यात्वाभावे षट् , अप्रत्याख्यानोदयाभावे पश्च, प्रत्याख्यानावरणाभावे चत्वारि, परिवर्त्तमानयुगलाभावे सज्वलनान्यतरवेदोदये सति द्वे, वेदाभावे एकमिति, आयुषोऽप्यकमेवोदयस्थानं चतुर्णामायुषामन्यतरदिति, नाम्नो द्वादशोदयस्थानानि, तद्यथा-विंशनिः एकविंशतिः चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः षड्विंशतिः सप्तविंशतिः अष्टाविंशतिः एकोनविंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् नव अष्टौ चेति, तत्र संसारस्थानां सयोगिनां जीवानां दशोदयस्थानानि नाम्नो भवन्ति, अयोगिनां तु चरमद्वयमिति, अत्र च द्वादश ध्रवोदयाः कर्मप्रकृतयः, तद्यथा-तैजसकानेणे शरीरे २ वर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्टयं ६ अगुरुलघु ७ स्थिरं - अस्थिरंह शुभं १० अशुभं ११ निर्माण १२ मिति, तत्र विंशतिरतीर्थकरकेवलिनः समुद्घातगतस्य कार्मणशरीरयोगिनो भवति, तद्यथा-मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ असं ३ बादरं ४ पर्याप्तकं ५ सुभगं आदेयं ७ यशः कीर्तिरिति ८ धनो ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३७५॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.) दय १२ सहिता विंशतिः २०, एकविंशत्यादीनि तूदयस्थानानि एकत्रिंशत्पर्यन्तानि जीवगुणस्थानभेदादनेकभेदानि सम्य. ४ भवन्ति, तानि चेह ग्रन्थगौरवभयात् प्रत्येकं नोच्यन्त इत्यत एकैकमेदावेदनं क्रियते, तत्रेकविंशतिः गतिः १ जातिः २ उद्देशकः आनुपूर्वी ३ त्रसं ४ बादरं ५ पर्याप्तापर्याप्तयोरन्यतरत् ६ सुभगदुर्भगयोरन्यतरत् ७ आदेयानादेययोरन्यतरत् ८ यश:कीर्त्ययशाकीयोरेन्यतरत् ९, एताश्च नव ध्रुवोदय १२ सहिता एकविंशतिः २१, चतुर्विंशतिस्तु तिर्यग्गतिः १ एकेन्द्रियजातिः २ औदारिकं ३ हुण्डसंस्थानं ४ उपघातं ५ प्रत्येकसाधारणयोरन्यतरत् ६ स्थावरं ७ सूक्ष्मवादरयोरन्यतरत् ८ दुर्भगं ९ अनादेयं १० अपर्याप्तक ११ यशाकीय॑यशःकीयोरन्यतर १२ दिति, तत्रैवापर्याप्तकापनयने पर्याप्तकपराघाताभ्यां प्रक्षिप्ताभ्यां पञ्चविंशतिः २५, षड्विंशतिस्तु याऽसौ केवलिनो विंशतिरभिहिता सैवौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गद्वयान्यतरसंस्थानाद्यसंहननोपघातप्रत्येकसहिता वेदितव्या मिश्रकाययोगे वर्तमानस्य २६, सैव तीर्थकरनामसहिता केवलिसमुद्घातवतो मिश्रकाययोगिन एव सप्तविंशतिः २७, सैव प्रशस्तविहायोगतिसमन्विताऽष्टाविंशतिः २८, तत्र तीर्थकरनामापनयने उच्छवास १ सुस्वर २ पराघात ३ प्रक्षेपे सति त्रिंशद्भवति ३०, तत्र सुस्वरे निरुद्ध एकोनत्रिंशत् २९, सैव त्रिंशत्तीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत् ३१, नेवोदयस्तु मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वसं ३ बादरं ४ पर्यातकं ५ सुभगं ६ आदेयं ७ यशःकीर्ति ८ स्तीर्थकरमिति , एता अयोगितीर्थकरकेवलिनः, एता एव तीर्थकरनामरहिता अष्टाविति ८, गोत्रस्यैकमेव सामान्येनोदयस्थानं, उच्चनीचयोरन्यतरद् , यौगपद्येनोदयाभावो विरोधादिति, तदेव Su३७६ ॥ मुदयभेदैरनेकप्रकारतां कर्मणः परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्तीति ॥ यदि नाम कर्मपरिज्ञामुदाहरन्ति ततः ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३७७॥ किं कार्यमित्याह इह आणाकखी पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं,-जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ । एवं अत्तसमाहिए अणिहे, विगिंच कोहं अविकंपमाणे॥१॥ सू० १३५ ॥ 'इह' अस्मिन् प्रवचने आज्ञामाकाक्षितु शीलमस्येति आज्ञाकाङ्क्षी-सर्वज्ञोपदेशानुष्ठायी, यश्चैवम्भृतः स 'पण्डितो' विदितवेद्यः अस्निहो भवति, स्निह्यते-श्लिष्यतेऽष्टप्रकारेण कर्मणेति स्निहो न स्निहोऽस्निहः, यदिवा स्निह्यतीति स्निहोरागवान यो न तथा सोऽस्निहः, उपलक्षणार्थत्वाच्चास्य रागद्वेषरहित इत्यर्थः, अथवा निश्चयेन हन्यत इति निहतः भावरिपुमिरिन्द्रियकषायकम्मभिः यो न तथा सोऽनिहतः, इह प्रवचने आज्ञाकाङ्क्षी पण्डितो भावरिपुभिरेभिरनिहतो, नान्यत्र, यश्चानिहतः स परमार्थतः कर्मणः परिज्ञाता। यश्चैवम्भूतः स किं कुर्यादित्याह-'एगमप्पाण' मित्यादि, सोऽनिहतोऽस्निहो वा आत्मानमेकं धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रशरीरादिव्यतिरिक्तं 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य धुनीयाच्छरीरक, सम्भावनायां लिङ , सर्वस्मादात्मानं व्यतिरिक्तं पश्यतः, सम्भाव्यत एतच्छरीरविधूननमिति, तच्च कुर्वता संसारस्वभावकत्वभावनैवंरूपा भावयितव्येति-"संसार एवायमनर्थसारः, कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा ?। सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च, भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः॥१॥ विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित्पुरतो न पश्चात । स्वकर्मभिर्धान्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥२॥ सदैकोऽहं न मे कश्चित, ॥३७७।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीआचागङ्गवृत्तिः ................ (शीलाका.8 .३७८॥ नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भाचीति यो मम ॥३॥" तथा-एकः प्रकुरुते सम्य.४ कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ १॥ इत्यादि, किं च उद्देशका ३ 'कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं' परव्यतिरिक्त आत्मा शरीरं तत् कष्टतपश्चरणादिना कृशं कुरु, यदिवा 'कष' कस्मै कर्मणेऽलमित्येवं पर्यालोच्य यच्छक्नोषि तत्र नियोजयेदित्यर्थः, तथा 'जर' शरीरकं जरीकुरु, तपसा तथा कुरु यथा जराजीर्णमिव प्रतिभासते, विकृतिपरित्यागद्वारेणात्मानं निःमारतामापादयेदित्यर्थः, किमर्थमित्येतदिति चेदाह-'जहा' इत्यादि, यथा 'जीर्णानि' निःसाराणि काष्ठानि 'हव्यवाहो' हुतभुक्प्रमथ्नाति-शीघ्र भस्मात् करोति, दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्शन्तिकमाह'एवं अत्तसमाहिए' 'एवम् अनन्तरोक्तदृष्टान्तप्रकारेणात्मना समाहितः आत्मसमाहितः, ज्ञानदर्शनचारित्रोपयोगेन सदोपयुक्त इत्यर्थः, आत्मा वा समाहितोऽस्येत्यात्मसमाहितः, सदा शुभव्यापारवानित्यर्थः, आहिताग्न्यादिदर्शनादार्पत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः, यदिवा प्राकृते पूर्वोत्तरनिपातोऽतन्त्रः, समाहितात्मेत्यर्थः, 'अस्निहः' स्नेहरहितः संस्तपोऽग्निना कर्मकाष्ठं दहतीति भावार्थः ॥ एतदेव दृष्टान्तदाान्तिकगतमर्थ नियुक्तिकारो गाथयोपसञ्जिघृनुराहजह खलु झसिरं कहूँ सुचिरं सुक्कं लहूं डहइ अग्गी। तह खल खवंति कम्म सम्मचरणे ठिया साहू ॥२४॥ गतार्था । अत्र चास्निहपदेन रागनिवृत्तिं विधाय द्वेषनिवृत्तिं विधिसुराह-'विगिंच कोह'मित्यादि, कारणेऽकारणे वाऽतिक्रराध्यवसायः क्रोधः तं परित्यज, तस्य च कार्य कम्पनं तत्प्रतिषेधं दर्शयति-अविकम्पमानः ॥ किं विगणय्यै al३७८. तत्कुर्यादित्याह सात्तरनिपातोऽतमव्यापारवानित्य पर झुसिरंकात भावार्थः Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७६॥ इमं निरुहाउयं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाई व फासे, लोयं च पास विफदमाणं, जे निव्वुडा पावहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया, तम्हा ___ अतिविजो नो पडिसंजलिजासि तिबेमि ॥ सू० १३६ ॥ इति तृतीय उद्देशकः ॥४-३॥ 'इदं मनुष्यत्वं निरुद्धायुष्क' निरुद्धं-परिगलितमायुष्क 'सम्प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य क्रोधादिपरित्यागं विदध्यात् , किं च-दुक्ख' मित्यादि, क्रोधादिना दन्दह्यमानस्य यन्मानसं दुःखमुत्पद्यते तज्जानीहि, तज्जनितकर्मविपाकापादितं चागामि दुःखं सम्प्रेक्ष्य क्रोधादिकं प्रत्याख्यानपरिज्ञया जानीहि, परित्यजेरित्यर्थः, आगामिदुःखस्वरूपमाह-'पुढो' इत्यादि, पृथक् सप्तनरकपृथिवीसम्भवशीतोष्णवेदनाकुम्भीपाकादियातनास्थानेषु स्पर्शान्' दुःखानि, चः समुच्चये, न केवलं क्रोधाध्मातस्तस्मिन्नेव क्षणे दुःखमनुभवतीत्यागामीनि पृथग दुःखानि च स्पृशेद्-अनुभवेत् , तेन चातिदुःखेनापरोऽपि लोको दुःखित इत्येतदाह-'लोयं च' इत्यादि, न केवलं क्राधादिविपाकादात्मा दुःखान्यनुभवति, लोकं च शारीरमानसदुःखापन्नं विस्पन्दमानमस्वतन्त्रमितश्चेतश्च दुःखप्रतीकाराय धावन्तं पश्य' विवेकचक्षुषाऽवोकय । ये त्वेवं न ते किम्भूता भवन्तीत्यत आह-'जे निव्वुडा' इत्यादि, ये तीर्थकरोपदेशवासितान्तःकरणा विषयकषायाग्न्युपशमाभिवृताः-शीतीभूताः पापेषु कर्मसु 'अनिदाना: निदानरहितास्ते परमसुखास्पदतया व्याख्याताः, औपशमिकसुखभाक्त्वेन प्रसिद्धा इत्यर्थः, यत एवं ततः किमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्माद्रागद्वेषाभिभूतो दुःखभाग्भवति तस्मादतिविद्वान्-विदितागमसद्भावः सन्न प्रतिसवले:-क्रोधाग्निनाऽऽत्मानं नोद्दीपयेः कषायोपशम कुर्वित्यर्थः । इतिरधिकारपरिसमाप्ती, प्रवीमीति पूर्ववत् । सम्यक्त्वाध्ययने तृतीयोदेशकटीका समाप्तेति ॥४-३॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३४॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा रावृत्तिः (शीलाङ्का.) सम्य. ४ उद्देशका ४ ॥ ३८॥ ॥ अथ चतुर्थाध्ययने चतुर्थोद्देशकः ॥ उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके निरवयं तपोऽभिहितं, तच्चा विकलं सत्संयमव्यवस्थितस्य भवतीत्यतः संयमप्रतिपादनाय चतुर्थोद्देशक इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशस्यादि सूत्रम् आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं. तम्हा अधिमणे वीरे. सारए समिए सहिए सया जए, दुरणचरो मग्गो वीराणं अनियहगामीणं, विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए, जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि ॥ सू० १३७ ॥ आङीपदर्थे, ईषत्पीडयेद् अविकृष्टेन तपमा शरीरकमापीडयेद्, एतच्च प्रथमप्रव्रज्याऽवसरे, तत ऊद्धर्वमधीतागमः परिणतार्थसद्भावः सन् प्रकर्षेण विकृष्टतपसा पीडयेत्प्रपीडयेत् , पुनरध्यापितान्तेवासिवर्गः सङ्क्रामितार्थसारः शरीर तित्यक्षुर्मासार्द्धमासक्षपणादिमिः शरीरं निश्चयेन पीडयेन्निष्पीडयेत् , स्यात्-कर्मक्षयार्थ तपोऽनुष्ठीयते, स च पूजालाभख्यात्यर्थेन तपसा न भवत्यतो निरर्थक एव शरीरपीडनोपदेश इत्यतोऽन्यथा व्याख्यायते-कम्मैव कार्मणशरीरं वा आपीडयेत्प्रपीडयेनिष्पीडयेत् , अत्रापीषदर्थादिका प्रकर्षगतिरवसेया, यदिवा आपीडयेत्कर्म अपूर्वकरणादिकेषु सम्यगदृष्ट्यादिषु गुणस्थानकेषु, ततोऽपूर्वकरणानिवृत्तिवादरयोः प्रपीडयेत् , सूक्ष्मसम्परायावस्थायां तु निष्पीडयेत् , अथवा आपीडनमुपशमश्रेण्या प्रपीडन क्षपकश्रेण्यां निष्पीडनं तु शैलेश्यवस्थायामिति । किं कृत्वैतत्कुर्यादित्याह-'जहित्ता' . Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३८१॥ इत्यादि, पूर्वः संयोगः पूर्वसंयोगो-धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिकृतस्तं त्यक्त्वा, यदिवा पूर्व:-असंयमोऽनादिभवाभ्यासात्तेन संयोगः पूर्वसंयोगस्तं त्यक्त्वा 'आवीलये'दित्यादिसम्बन्धः, किं च-'हिच्चा इत्यादि, 'हि गता'वित्यस्मात् पूर्वकाले क्त्वा 'हित्वा' गत्वा, किं तत् ?-उपशमं-इन्द्रियनोइन्द्रियजयरूपं संयम वा 'गत्वा' प्रतिपद्यापीडयेदिति वर्तते, इदमुक्तं भवति-असंयमं त्यक्त्वा संयम प्रतिपद्य तपश्चरणादिनाऽऽत्मानं कर्म वाऽऽपीडयेत् प्रपीडयेन्निष्पीडयेदिति, यतः कर्मापीडनार्थमुपशमप्रतिपत्तिस्तत्प्रतिपत्तौ चाविमनस्कतेत्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मात्कम्मक्षयायासंयमपरित्यागस्तत्परित्यागे चावश्यंभावी संयमस्तत्र च न चित्तवैमनस्यमिति, तस्मादविमना विगतं भोगकषायादिष्वरतौ वा मनो यस्य स विमना योन तथा सोऽविमनाः, कोऽसौ , वीर:-कर्मविदारणसमर्थः । अविमनस्कत्वाच्च यत्स्यात्तदाह-'सारए' इत्यादि, सष्टा-जीवनमर्यादया संयमानुष्ठाने रतः स्वारतः, पञ्चभिः समितिभिः समितः, सह हितेन सहितो ज्ञानादिसमन्वितो वा सहितः, 'सदा' सर्वकालं सकृदारोपितसंयमभार: संस्तत्र 'यतेत' यत्नवान् भवेदिति । किमर्थं पुन: पौनःपुन्येन संयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशो दीयते ? इत्याह-'दुरनुचरो' इत्यादि, दुःखेनानुचर्यत इति दुरनुचर, कोऽसौ ?मार्गः-संयमानुष्ठानविधिः, केषां :-वीराणाम् अप्रमत्तयतीना, किम्भूतानामित्याह-'अणियह' इत्यादि, अनिवामोक्षस्तत्र गन्तु शीलं येषां ते तथा तेषामिति, यथा च तन्मार्गानुचरणं कृतं भवति तदर्शयति-'विगिंच' इत्यादि, 'मांस' शोणितं दर्पकारि विकृष्टतपोऽनुष्ठानादिना 'विवेचय' पृथक्कुरु, तद्धद्रासं विधेहीतियावत् , एवं वीराणां मार्गानुचरणं कृतं भवतीति भावः। यश्चैवम्भूतः स कं गुणमवाप्नुयादित्याह-एस' इत्यादि, 'एष' मांसशोणितयोरपनेता ॥३८१॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीजाचाराजवृत्तिः (सीलाङ्का.) सम्य.४ उदेशका ४ .३८२॥ पुरि शयनात् पुरुषः द्रवः-संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकः, मत्वर्थीयष्ठन् , द्रव्यभूतो वा मुक्तिगमनयोग्यत्वात् , कर्म रिपुविदारणसहिष्णुत्वाद्वीर इति, मांसशोणितापचयप्रतिपादनाच्च तदुत्तरेषामपि मेदआदीनामपचय उक्त एव द्रष्टव्यः, तद्भावभावित्वात्तेषामपि । कि च-'आयाणिज्जे' इत्यादि स वीराणां मार्ग प्रतिपन्नः मांसशोणितयोरपनेता मुमुक्षूणामादानीयो-ग्राह्य आदेयवचनश्च व्याख्यात इति । कश्चैवम्भृत इत्याह-'जे धुणाइ' इत्यादि 'ब्रह्मचर्ये' संयमे मदनपरित्यागे वोषित्वा यः 'समुच्छ्रयं' शरीरकं कम्र्मोपचयं वा तपश्चरणादिना 'धुनाति' कृशीकरोति स आदानीय इति विविधमाख्यातो व्याख्तात इति सम्बन्धः ॥ उक्ता अप्रमत्ताः, तद्विधर्मणस्तु प्रमत्तानमिधित्सुराह नित्तेहिं पलिच्छिन्नहिं आयाणसोयगढिए बाले, अव्वोच्छिन्नबंधणे अणभिवकतसंजोए तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो नत्थि तिमि ॥ सू० १३८ । नयत्यर्थदेशम्-अर्थक्रियासमर्थमर्थमाविर्भावयन्तीति नेत्राणि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि तैः परिच्छिन्नैः-यथास्वं विषयग्रहणं प्रति निरुद्धैः सद्भिरादानीयोऽपि भूत्वोषित्वा ब्रह्मचर्ये पुनमोहोदयादादानस्रोतोगृद्धः-आदीयते-सावद्यानुष्ठानेन स्वीक्रियत इत्यादानं-कम्म संसारबीजभूतं तम्य स्रोतांसि-इन्द्रियविषया मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा वा तेषु गृद्धःअध्युपपन्नः स्यात् , कोऽमो ?-'बाल' अज्ञः रागद्वपमहामोहाभिभूतान्तःकरणः । यश्चादानस्रोतोगृद्धः म किम्भृतः स्यादिन्याह-'अव्वोच्छिन्नबंधणे' इत्यादि, अव्यवच्छिन्नं जन्मशतानुवृत्ति बन्धनम्-अष्टप्रकारं कर्म यस्य स तथा, किं च-'अणभिक्कत' इत्यादि, अनभिक्रान्तः-अनतिलचितः संयोगो धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिकृतोऽसंयमसंयोगो वा ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ३८२ ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३॥ येनासावनतिक्रान्तसंयोगः तस्य चैवम्भृतस्येन्द्रियानुकून्यरूपे मोहात्मके वा स्मसि वर्तमानस्यात्महितं मोक्षोपाय वाऽविजानत आज्ञायाः-तीर्थकरोपदेशस्य लामो नास्तीत्येतदहं ब्रवीमि तीर्थकरवचनोपलब्धसद्भाव इति, यदिवाऽऽज्ञा बोधिः सम्यक्त्वम् , अस्तिशब्दश्चायं निपातस्विकालविषयी, तेनायमर्थः-तस्यानभिक्रान्तसंयोगस्य भावतमसि वर्तमानस्य बोधिलाभो नासीमास्ति न भावीति । एतदेवाह जस्स नत्थि पुरा पच्छा मझे तस्स कुओ सिया?, सेड पन्नाणमंते बुद्ध आरंभोवरए, संममेयंति पासह, जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं पलिळिंदिय बाहिरगं च सोयं, निक्कंमदंसी इह मच्चिएहिं, कग्माणं सफलं दळूण तओ निजाइ घेयवी ॥ सू० १३९ ।। यस्य कस्यचिदविशेषितस्य कर्मादानस्रोतोगृद्धस्य बालस्याव्यवच्छिन्नबन्धनस्यानभिक्रान्तसंयोगस्याज्ञानतमसि वर्त्तमानस्य 'पुरा' पूर्वजन्मनि बोधिलाभो नास्ति-सम्यक्त्वं नासीत् 'पश्चादपि' एष्येऽपि जन्मनि न भावि 'मध्ये मध्यजन्मनि तस्य कुतः स्यात इति , एतदुक्तं भवति-यस्यैव पूर्व बोधिलाभः संवृत्तो भविष्यति वा तस्यैव वर्तमानकाले भवति, येन हि सम्यक्त्वमास्वादितं पुनर्मिथ्यात्वोदयात्तत्प्रच्यवते तस्यापार्द्धपुद्गलपरावर्तेनापि कालेनावश्यं तत्सद्भावात , न ह्ययं सम्भवोऽस्ति प्रच्युतस्य सम्यक्त्वस्य पुनरसम्भव एवेति, अथवा निरुद्धेन्द्रियोऽपि आदानस्रोतोगृद्धः इत्युक्तः, तद्विपर्ययभूतस्य त्वतिक्रान्तसुखस्मरणमकुर्वतः आगामि च दिव्याङ्गनामोगमनभिकाङ्क्षतो वर्तमानसुखाभिष्वङ्गोऽपि नैव म्यादित्येतदर्शयितुमाह-'जस्स नत्थि' इत्यादि, यस्य भोगविपाकवेदिनः पूर्वभुक्तानुस्मृतिर्नास्ति नापि पाश्चात्यकाल 1३८३n Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगाभिलाषिता विद्यते तस्य व्याधिचिकित्सारूपान् भोगान् भावयतो 'मध्ये वर्तमानकाले कुतो भोगेच्छा स्यात् ।, भीआचा सम्य.४ मोहनीयस्थोपशमान्नैव स्यादित्यर्थः । यस्य तु त्रिकालविषया भोगेच्छा निवृत्ता स किम्भूतः स्यादित्याह-'से हु'. राङ्गवृत्तिः उद्देशका ४ इत्यादि, 'हुः यस्मादर्थे यस्मानिवृत्तभोगाभिलाषस्तस्मात्स प्रज्ञानवान्-प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञानं-जीवाजीवादिपरिच्छेत्तु तद्विद्यते (शीलावा.) 18| यस्यासी प्रज्ञानवान् , यत एव प्रज्ञानवानत एव बुद्धः-अवगततत्त्वो, यत एवम्भूतोऽत एवाह-'आरंभोवरए' सावद्या॥३८४ ॥ नुष्ठानमारम्भस्तस्मादुपरत आरम्भोपरतः । एतच्चारम्भोपरमणं शोभनमिति दर्शयन्नाह-'सम्म'मित्यादि, यदिदं सावद्या रम्मोपरमणं सम्यगेतत-शोमनमेतत् सम्यक्त्वकार्यत्वाद्वा सम्यक्त्वमेतदित्येवं पश्यत-एवं गृह्णीत यूयमिति । किमित्यारम्भोपरमणं सम्यगिति चेदाह-'जेण' इत्यादि, येन कारणेन सावद्यारम्भप्रवृत्तो बन्धं निगडादिभिः वधं कशादिभिः 'घोरं प्राणसंशयरूपं 'परिताप' शारीरमानसं 'दारुणं' अमह्यमवाप्नोत्यत आरम्भोपरमणं सम्यगभूतं कुर्यात, किं कृत्वेत्याह-'पलिच्छिन्दि' इत्यादि, 'परिच्छिन्द्य' अपनीय, किं तत् ?–'स्रोतः' पापोपादानं, तच्च बाह्य धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिरूपं हिंसाद्याश्रवद्वारात्मकं वा, चशब्दादान्तरं च रागद्वेषात्मक विषयपिपासारूपं वेति, किंच'णिकम्मदंसी'त्यादि, निष्क्रान्तः कर्मणो निष्का -मोक्षः संवरो वा तं द्रष्टुं शीलमस्येति निष्कर्मदर्शी, 'इहे'ति संसारे मर्येषु मध्ये य एव निष्कर्मदर्शी स एव बाह्याभ्यन्तरस्रोतसश्छेत्तेति स्यात् । किमभिसन्ध्य स बाह्याभ्यन्तरसंयोगस्य छेत्ता निष्कर्म्मदशी वा भवेत इत्यत आह-'कम्माण' इत्यादि, मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैः क्रियन्ते-बध्यन्त ॥ ३८४॥ इति कर्माणि-ज्ञानावरणीयादीनि तेषां सफलत्वं दृष्टा स वा निष्कर्मदर्शी वेदविद्वा कर्मणां फलं दृष्टा, तेषां च फलं ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३८५ ॥ ज्ञानावरणीयस्य ज्ञानावृतिः दर्शनावरणस्य दर्शनाच्छादनं वेदनीयस्य विपाकोदयजनिता वेदनेत्यादि, ननु च न सर्वेषां कर्म्मणां विषाकोदयमिच्छन्ति, प्रदेशानुभवस्यापि सद्भावात् तपसा च क्षयोपपत्तेरित्यतः कथं कर्म्मणां सफलत्वं १, नैष दोषो, नात्र प्रकारकात्र्यमभिप्रेतम् अपितु द्रव्यकात्स्म्यं तच्चास्त्येव, तथाहि - यद्यपि प्रतिबन्धव्यक्ति न विपाकोदयतथाप्यष्टानामपि कर्म्मणां सामान्येन सोऽस्त्येवेत्यतः कर्म्मणां सफलत्वमुपलभ्यते, तस्मात् कर्म्मणस्तदुपादानादासवाद्वानिश्चयेन याति निर्याति-निर्गच्छति, तन्न विधत्त इतियावत्, कोऽसौ ? - 'वेदविद्' वेद्यते सकलं चराचरमनेनेति वेद:आगमस्तं वेत्तीति वेदवित्, सर्वज्ञोपदेशवर्त्तीित्यर्थः ॥ न केवलस्य ममैवायमभिप्रायः, सर्वेषामेव तीर्थकराणामयमाशय इति दर्शयितुमाह जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघडदंसिणो आभोवरया अहातह लोयं उवेहमाणा पाईणं पडिणं दाहिणं उईणं इय सच्चसि परिचिए चिहिंसु, साहिसामो नाणं वीराणं समियाणं सहियाणं सयाजयाणं संघडदंसीणं आओवरयाणं अहातहं लोयं समुवेहमाणाणं किमत्थि उवाही १, पासगस्स न विज्जइ नस्थित्तिबेमी ॥ सू० १४० ॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ।। ४-४ ॥ इति चतुर्थमध्ययनम् ॥ ४ ॥ यदिवा उक्तः सम्यग्वादो निरवद्यं तपश्चारित्रं च अधुना तत्फलमुच्यते— 'जे खलु' इत्यादि, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, ये केचनातीतानागतवर्त्तमानाः 'भो' इत्यामन्त्रणे 'वीराः' कर्म्मविदारण सहिष्णवः समिताः समितिभिः सहिता ॥ ३८५ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य.४ उद्देशक: ४ श्रीबाचाराजवृत्तिः (चीलाहा.) .३८६॥ ज्ञानादिभिः सदा यताः सत्संयमेन 'संघबदसिणो'त्ति निरन्तरदर्शिनः शुभाशुभस्य आत्मोपरताः पापकर्मभ्यो यथा तथा अवस्थितं 'लोक' चतुर्दशरज्ज्वात्मकं कर्मलोकं वोपेक्षमाणाः-पश्यन्तः सर्वासु प्राच्यादिषु दिक्षु व्यवस्थिता इत्येवंप्रकाराः 'सत्य'मिति ऋतं तपः संयमो वा तत्र परिचिते-स्थिरे तस्यु:--स्थितवन्तः उपलक्षणार्थत्वात् त्रिकालविषयता द्रष्टव्या, तत्रातीते काले अनन्ता अपि सत्ये तस्थुः वर्तमाने पश्चदशसु कर्मभूमिषु सङ्ख्येयास्तिष्ठन्ति अनागते अनन्ता अपि स्थास्यन्ति, तेषां चातीतानागतवर्तमानानां सत्यवतां यज्ज्ञानं योऽभिप्रायस्तदहं कथयिष्यामि भवतां शृणुत यूयं, 8 किम्भूतानां तेषां ?-'वीराणा'मित्यादीनि विशेषणानि गतार्थानि, किम्भूतं ज्ञानमिति चेदाह-कि प्रश्ने 'अस्ति' विद्यते ?, कोऽसौ ?-पाधिः कमजनितं विशेषणं, तद्यथा-नारकस्तियन्योनः सुखी दुःखी सुभगो दुर्भगः पर्याप्तकोऽपर्याप्तक इत्यादि, आहोस्विन्न विद्यत इति परमतमाशय त ऊचुः-'पश्यकस्य' सम्यग्वादादिकमर्थ पूर्वोपात्तं पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य कर्मजनितोपाधिन विद्यते, इत्येतदनुसारेणाहमपि ब्रवीमि न स्वमनीषिकयेति । गतः सूत्रानुगमः, तद्गतौ च समाप्तश्चतुर्थोद्देशको, नयविचारातिदेशात् समाप्तं सम्यक्त्वाध्ययनं चतुर्थमिति ॥ ४-४ ॥ ग्रन्थानं ६२० ॥ --: : --. ३८६ ॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७॥ ॥ अथ लोकसाराख्ये पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्दशकः ।। उक्तं चतुर्थमध्ययन, साम्प्रतं पश्चममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने सम्यक्त्वं प्रतिपादितं तदन्तर्गतं च जानं, तभयस्य च चारित्रफलत्वात् तस्यैव च प्रधानमोक्षाङ्गतया लोकसारत्वात तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारी द्वधा, तत्राप्यध्ययनार्थाधिकारोऽभिहितः, उद्देशार्थाधिकारं तु नियुक्तिकारः प्रतिपिपादयिषुगहहिंसगविसयारंभग एगचरुत्ति न मुणी पढमगंमि। विरओमुणित्ति बिइए अविरयवाई परिग्गहिओ ॥२३॥ सहए एसो अपरिग्गहो य निव्विन्नकामभोगो य। अव्वत्तस्सेगचरस्स पच्चवाया चउत्थंमि ॥ २३७ ॥ हरओवमो य तवसंयमगुत्ती निस्संगया य पंचमए । उम्मग्गवजणा छहगंमि तह रागदोसे य ॥२३८॥ हिनस्तीति हिंसकः आरम्भणमारम्भो विषयाणामारम्भोऽस्येति विषयारम्भकः, व्यधिकरणस्यापि गमकत्वात्समासः, ण्वुलन्तस्य वा याजकादिदर्शनात् समासो, विषयाणामारम्भको विषयारम्भक इति, हिंसकश्च विषयारम्भकश्चेति विगृह्य समाहारद्वन्द्वः, प्राकृतत्वात्पु लिङ्गता, अयमों-हिंसकः प्राणिनां विषयारम्भकश्च विषयाथ सावद्यारम्भप्रवृत्तश्च न मुनिः, तथा विषयार्थ एक एव चरत्येकचरः स च न मुनिरिति, एतदधिकारत्रयं प्रथमोद्देशके १, द्वितीये तु हिंसादिपापस्थानकेभ्यो विरतो मुनिर्भवतीत्ययमर्थाधिकारः, वदनशीलो वादी अविरतस्य वादी अविरतवादी परिग्रहवान् भवतीत्येतचानोई शके प्रतिपादयिष्यत इति २, तृतीये त्वेष एव विरतो मुनिरपरिग्रहो भवतीति निर्विण्णकामभोगश्चेत्ययमर्था ३८७ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य०५ उद्देशकः १ भीआचा राजवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥३८८॥ धिकारः ३, चतुर्थे त्वव्यक्तस्य-अगीतार्थस्य सूत्रापरिनिष्ठितस्य प्रत्यपाया भवन्तीत्ययमर्थाधिकारः४, पश्चमके तु हृदोपमेन साधुना भाव्यं, यथा हि हृदो जलभृतोऽप्रतिस्रवः प्रशस्यो भवति, एवं साधुरपि ज्ञानदर्शनचारित्रभृतो विस्रोतसिकारहित इति, तथा तपःसंयमगुप्तयो निःसङ्गता चेत्ययमर्थाधिकारः ५, षष्ठे तून्मार्गवर्जना-कुदृष्टिपरित्यागः, तथा रागद्वेषौ च त्याज्यावित्ययमर्थाधिकारः ६, इति गाथात्रयार्थः ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेन द्विधा नाम--आदानपदेन गौणं चेति, एतत द्विविधमपि नियुक्तिकारः प्रतिपादयितुमाहआयाणपएणावंति गोण्णनामेण लोगसारुत्ति । लोगस्स य सारस्स य चउक्कओ होइ निक्खेवो ॥२३९॥ आदीयते-प्रथममेव गृह्यत इत्यादानं तच्च तत्पदं च आदानपदं तेन कारणभूतेनावन्तात्येतनाम, अध्ययनादावावन्तीशब्दस्योच्चारणाद् , गुणैर्निष्पन्नं गौणं तच्च तन्नाम च गौणनाम तेन हेतुना लोकसार इति, लोकस्य-चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य सार:-परमार्थो लोकसार: द्विपदं नामेत्यतः लोकस्य सारस्य च प्रत्येक चतुष्कको निक्षेपो भवति, तद्यथानामलोको यस्य कस्यचिन्लोक इति नाम क्रियते, स्थापनालोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य स्थापना गाथात्रयादवसेया, तच्चैतव-तिरिअं चउरो दोसु छद्दोसु अढ दस य एक्केक्के । पारस दोसुसोलस दोसुवीसा य चउसुतु॥१॥ पुणरवि सोलस दोसुबारस दोसुतु हुँति नायव्वा । तिसु दस तिसु भट्ठच्छ य दोसु दोसुतु चत्तारि ॥ २॥ ओयरिअ लोअमज्झा चउरो चउरो य सव्वहिं णेया। तिअ तिअ | दुग दुग एक्केकगं च जा सत्तमीए उ ॥ ३॥ द्रव्यलोको जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालात्मकः षड्विधः भाव ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ३८८॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३८९॥ लोकस्त्वौदायकादिषड्भागत्मकः सर्वद्रव्यपर्यायात्मको वा। सारोऽपि नामादि चतुर्विधः, तत्र नामस्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्यमारप्रतिपादनायाह- : सव्वस्स थूल गुरुए मज्झे देसप्पहाण सरिराई । धण एरंडे वहरे खहरंषं च जिणादुरालाई ॥२४॥ ___अत्र पूर्वार्द्धपश्चाईयोर्यथासङ्ख्यं लगनीयं, सर्वस्वे धनं सारभृतं, तद्यथा-कोटिसारोऽयं पश्चकपर्दकसारो वा, स्थूले एरण्डः सारः, सारशब्दोऽत्र प्रकर्षवाची, स्थूलानां मध्ये एरण्डो भिण्डो वा प्रकर्षभृतः, गुरुत्वे वज्र', मध्ये खदिरः, देशे आम्रवृक्षो वेणुर्वा, प्रधाने यो यत्र प्रधानभावमनुभवति सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्चेति, सचित्तो द्विपदश्चतुष्पदोऽपदश्चेति, द्विपदेषु जिनः चतुष्पदेषु सिंहः अपदेषु कल्पवृक्षः, अचित्तेषु वैडूर्यो मणिः, मिश्रेषु तीर्थकर एव विभूषितः, शरीरेवीदारिकं मुक्तिगमनयोग्यत्वाद्विशिष्टरूपापत्तेश्च, आदिग्रहणात् स्वामित्वकरणाधिकरणेषु सारता योज्या, तद्यथा-स्वामित्वे गोरसस्य घृतं सारभूतं, करणत्वे मणिसारेण मुकुटेन शोभते राजा, अधिकरणे दनि घृतं जले पद्ममुत्थितमित्यादिगाथार्थः।। भावसारप्रतिपादनायाहभावे फल साहणया फलओ सिद्धी सुहुत्तमवरिहा। साहणय नाणदंसणसंजमतवसा तहिं पगय।।२४१।। 'भावे' भावविषये सारे चिन्त्यमाने फलसाधनता सारः फलम्-अर्थक्रियावाप्तिस्तस्य साधनता फलसाधनता-फलार्थमारम्भे प्रवर्तनं ततः फलावाप्तिः प्रधानं, फलतोऽप्यनैकान्तिकानात्यन्तिकरूपात सांसारिकासकाशात्तद्विपर्यस्तं फलं सारः, किं तत १-सिद्धिः, किम्भूताऽसौ ?-'उत्तमसुखवरिष्ठा' उत्तमं च तदात्यन्तिकैकान्तिकानाबाधत्वात् सुखं च ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३८९ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारावृत्तिः (शीलाका सम्य. ५ उद्देशकः १ ॥३९.॥ 8 उत्तमसुखं तेन वरिष्ठा-बरतमा, तत्साधनानि च गाथाशकलेन दर्शयति-साधनकानि' प्रकृष्टोपकारकाणि ज्ञानदर्शनसंयमतपसि, तस्मिश्च भावसारे सिद्धाख्यफल साधने ज्ञानादिके प्रकृतं ज्ञानदर्शनचारित्रेण भावसाररूपेणात्राधिकार इति गाथार्थः॥ तस्यैव ज्ञानादेः सिद्धय पायस्य भावसारता प्रतिपादयन्नाहलोगंमि कुसमएसु य कामपरिग्गहकुमग्गलग्गेसु। सारो हु नाणदसणतवचरणगुणा हियहाए ॥२४२॥ 'लोके' गृहस्थलोके कुत्सिताः समयाः कुसमयाः तेषु च किम्भूतेषु ?-कामपरिग्रहेण ये कुत्सिता मार्गास्तेषु लग्नेषु, हुर्हेतौ, यस्मालोकः कामपरिग्रहाग्रही गृहस्थभावमेव प्रशंसति, वक्ति च-'गृहाश्रमसमो धर्मो, न भूतो न भविष्यति। पालयन्ति नराः शूराः, क्लोषाः पाषण्डमाश्रिताः ॥ १॥ गृहाश्रमाघाराश्च सर्वेऽपि पापण्डिनः इत्येवं महामोहमोहित इच्छामदनकामेषु प्रवर्तते, तथा तीथिका अप्यनिरुद्धन्द्रियप्रसग द्विरूपकामाभिध्वङ्गिणः इत्यतस्तेषु सारो ज्ञानदर्शनतपश्चरणगुणाः, उत्तमसुखवरिष्ठसिद्धिहेतुत्वात्, हिता-सिद्धिस्तदर्थत्वादिति गाथार्थः ॥ यतो ज्ञानदर्शनतपश्चरणगुणा हितार्थतया सारस्तस्मारिक कर्तव्यमित्याहचइऊणं संकपयं सारपयमिण दढेण पित्तव्यं । अत्थि जिओ परमपयं जयणा जा रागदोसेहिं ॥२४३।। 'त्यक्त्वा' प्रोज्झ्य, किं तत् !-'शङ्कापदं' किमेतन्मदारब्धमनुष्ठानं निष्फलं स्यादित्येवंम्भूतो विकल्पः शङ्का तस्याः पद-निमित्तकारणं तच्चाहत्प्रोक्तेप्वत्यन्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्य वर्थेषु या संशीतिः-सन्देह इत्येतद्रूपं तच्छकापदं विहाय सारपद-इदं ज्ञानादिकं प्रागुपन्यस्तं दृढेन--अनन्यमनस्केन तीर्थिकदम्भप्रतारणाक्षोम्येन ग्राह्य, तदेव Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शङ्कापदव्युदासकार्य गाथाशकलेन दर्शयति-अस्ति जीवः, अस्य च पदार्थानामादावुपन्यासाज्जीवपदार्थस्य च प्राधान्या॥३९१ ॥ दुपलक्षणार्थत्वाद्वा शेषपदार्थग्रहणं, अस्ति--विद्यते जीवितवान् जीवति जीविष्यतीति वा जीवः शुमाशुभफलभोक्तेति, स च प्रत्यक्ष एवाईप्रत्ययसाध्या, इच्छाद्वषप्रयत्नादिकार्यानुमानसाध्यो वा, तथा अजीवा अपि धर्माधर्माकाशपुद्गला गतिस्थित्यवगाहद्वयणकादिस्कन्धहेतवः सन्ति, एवमास्रवसंवग्बन्धनिर्जरा अपि विद्यन्ते, प्रधान पुरुषार्थत्वाद् आद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहणस्यावश्यंभावित्वादाद्यं जीवपदार्थ साक्षादुपन्यस्यान्त्यं मोक्षपदार्थमुपन्यस्यति--परमं च तत्पदं च परमपदं, तच्चास्तीति सम्बन्ध इति अस्ति मोक्षः शुद्धपदवाच्यत्वाद् बन्धस्य सप्रतिपक्षत्वान्मोक्षाविनाभावित्वाद्वा बन्धस्येति, सत्यपि मोते यदि तदवाप्तावुपायो न स्यात्ततो जनाः किं कुयु रित्यतस्तत्कारणेऽस्तित्वं दर्शयति-'यतना'यत्नो रागद्वेषेषु, रागद्वेषोपशमाद्यः संयमोऽसावप्यस्तीति । तदेवं सति जीवे परमपदे च शङ्कापदव्युदासेन ज्ञानादिकं सारपदं दृढेन ग्राह्यमिति गाथार्थः ॥ ततोऽप्यपरापरप्रकर्षगतिरस्तीति दर्शयन्नुपक्षेपमाहBa लोगस्स उ को सारो तस्स य सारस्स को हवइसारो तस्स य सारोसारं जइ जाणसि पुच्छिओसाह ॥२४४ ___ 'लोकस्य' चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य का सारः १ तस्यापि सारस्य कोऽपरः सारा ?, तस्यापि सारसारस्य सारं यदि बानामि ततः पृष्टो मया कथयेति गाथार्थः ॥ प्रश्नप्रतिवचनार्थमाहलोगस्स सार धम्मो धम्मपि य नाणसारियं विंति। नाणं संजमसारं संजमसार च निव्वाणं ॥२४५।। समस्तस्यापि लोकस्य तावद्धर्मः सारो, धर्ममपि ज्ञानसारं ब्रवते, ज्ञानमपि संयमसारं, संयमस्यापि सारभृतं निर्वाण Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा गङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ३९२ ॥ मिति गाथार्थः । उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं तच्चेदम् - आवंती के यावंती लोयंसि विप्परामुसंति अट्ठाए अणट्ठाए, एएसु वेव विप्रामुसंति (जावंति केइ लोए छक्कायवहं समारभंति अट्ठाए अहाए), गुरु से कामा, तओ से मारते, जओ से मारते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव दूरे ॥ सू० १४१ ।। 'आवन्ती'ति यावन्तो जीवा मनुष्या असंयता वा स्युः, 'के आवंति'त्ति केचन 'लोके' चतुर्दशरज्ज्वात्मके गृहस्थान्यतीर्थिकलो के वा षड्जीवनिकायान् आरम्भप्रवृत्ता विविधम्-- अनेकप्रकारं विषयाभिलाषितया 'परामृशन्ति' उपतापयन्ति, दण्डकशताडनादिभिर्घातयन्तीत्यर्थः, किमर्थं विपरामृशन्तीति दर्शयति- 'अर्था' अर्थार्थं अर्थाद्वा अर्थःप्रयोजनं धर्मार्थकामरूपं, कर्माणि ल्यब्लोपे पञ्चमी, अर्थमुद्दिश्य-प्रयोजनमुत्प्रेक्ष्य प्राणिनो घातयन्ति, तथाहि-- धर्म - निमित्तं शौचार्थं पृथिवीकायं समारभन्ते, अर्थार्थं कृष्यादि करोति, कामार्थमाभरणादि, एवं शेषेष्वपि कायेषु यथायोगं वाच्यं, 'अणडाएत्ति' अनर्थाद्वा -- प्रयोजनमनुद्दिश्यैव तच्छीलतयैव मृगयाद्याः प्राण्युपघातकारिणीः क्रियाः कुर्वन्ति, तदेवमर्थादर्थाद्वा प्राणिनो हत्वा एतेष्वेव--षड्जीवनिकायस्थानेषु विविधम्-- अनेकप्रकारं सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्यातकादिमेदेन ताकेन्द्रिययादीन् प्राणिनस्तदुपघातकारिणः परामृशन्ति, तान् प्रपीड्य तेष्वेवानेकश उत्पद्यन्त इतियावद्, यदिवा तत्षड्जीवनिकायबाधाऽवाप्तं कर्म्म तेष्वेव कायेषूत्पद्य ते तैस्तैः प्रकारैरुदीर्ण विपरामृशन्ति-- अनुभवन्तीति, नागार्ज्जुनीयास्तु पठन्ति - " जावंति केइ लोए लक्कायवहं समारभंति अट्ठाए अणट्ठाए वा " इत्यादि, गतार्थं स्याद् सम्य• ५ उद्देशकः १ ॥ ३९२ ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३६३ ।। धम्र्माणि कुरुने. यानस्य कायगतस्य विपच्यन्ते ?, तदुच्यते- 'गुरू से कामा' 'से' तस्यापर - विदः काम्यन्त इति कामाः - शब्दादयस्ते गुरवो दुस्त्यजत्वात्, कामा ह्यल्पसच्चैरनवाप्तपुण्योपचयैरुल्लङ्घयितु ं दुष्करमित्यतस्तदर्थं कायेषु प्रवर्त्तते तत्प्रवृत्तौ च पापोपचयस्तदुपचयाच्च यत्म्यात्तदाह- 'सतः' षड्जीवनिकायवि परामर्शात् परमकामगुरुत्वाच्चासौ मरणं मारः - प्रायुषः चयस्तस्यान्तर्वर्त्तते, मृतस्य च पुनर्जन्म जन्मनि चावश्यंभावी मृत्युरेवं जन्ममरणात् संसारोदन्वति मज्जनोन्मज्जनरूपान्न मुच्यते । ततः किमपरमित्याह -- 'जओ से' इत्यादि, यतोऽसौ मृत्योरन्तस्ततोऽसौ 'दूरे' परमपदोपायात् ज्ञानादित्रयात् तत्कार्याद्वा मोक्षाद्, यदिवा सुखार्थी कामान्न परित्यजति, तदपरित्यागे च मारान्तर्वर्त्ती, यतश्च मारान्तर्वर्त्ती ततो जातिजरामरणरोगशोकाभिभूतत्वादसौ सुखाद्दूरे। यस्मादसौ कामगुरुस्तद्गुरुत्वान्मारान्तर्वर्त्ती तदन्तर्वर्त्तित्वात्किम्भूतो भवतीत्यत आह- 'नेव से' इत्यादि, नैवासौ विषयसुखस्यान्तर्वर्त्तते, तदभिलाषा परित्यागाच्च नैवासौ दूरे, यदिवा यस्य गुरवः कामाः स किं कर्म्मणोऽन्तर्बहिर्वेति प्रश्नावसरे सत्याह - 'णेव से इ·यादि, नैवासी कर्म्मणोऽन्तः - मध्ये भिन्नग्रन्थित्वात्सम्भावितावश्यं भाविकर्म्मक्षयोपपत्तेः, नाप्यसौ दूरे देशोन कोटीकोटिकर्म्मस्थितिकत्वात्, चारित्रावातावपि नैवान्तनैव च दूरे इत्येतच्छक्यते वक्तु, पूर्वोक्तादेव कारणादिति, अथवा येनेदं प्राणापि किमसावन्तर्भूतः संसारस्याहोश्विद्बहिर्वर्त्तते इत्याशङ्कयाह - 'णेव से' इत्यादि, नैवासौ संमारान्तः घातिकर्म्मक्षयात् नापि दूरे अद्यापि भवोपग्राहिक र्म्म सद्भावादिति ।। यो हि भिन्नग्रन्थिको दुरापावाससम्यक्त्वः संसारारातीयतरवर्तीस किमध्यवसायी स्यादित्याह- ܀܀܀ ॥ ३६३ ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचारावृत्तिः (शीलाका.) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ .३१४॥ से पासइ फुसियमिव कुसग्गे पणन्नं वाएरियं निवझ्यं, एवं बालस्स जीवियं मंदस्स सम्ब.५ अवियाणओ, कूराई कम्माईबाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परिआसमुवेइ, PA उद्देशका १ मोहेण गन्भं मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो ॥ सू० १४२॥ 'से पासई त्यादि, 'सः' अपगतमिथ्यात्वपटलः सम्यक्त्वप्रभावावगत पंसारासारः ‘पश्यति' दृशिरुपलब्धिक्रिय इत्यत उपलभते-अवगच्छति किं तत् ?--'फुसियमिय'त्ति कुशाग्र उदकविन्दुमिव बालस्य जीवितमिति सम्बन्धः, तत्किम्भूत- 8 मित्याह--'पणुन्न'मित्यादि, प्रणुत्रम्-अनवरतापरापरोदकपरमाणूपचयात् प्रणुन्नं-प्रेरितं वातेनेरितं वातेरितं सन्निपतितं भाविनि भृतवदुपचारानिपतदेव वा निपतितं, दार्शन्तिकं दर्शयति-'एव'मिति, यथा कुशाग्रे बिन्दुः क्षणसम्भावितस्थितिक एवं बालस्यापि जीवितम् , अवगततत्वो हि स्वयमेवावगच्छति नाप्यसौ तदभिकाङ्क्षति अतो बालग्रहणं, बालो ह्यज्ञः, स चाज्ञानत्वादेव जीवितं बहु मन्यते, यत एव बालोऽत एव मन्दः-सदसद्विवेकापटुः, यत एव बुद्धिमन्दोऽत एव परमार्थ न जानाति, अतः परमार्थमविजानत एवम्भूतं जीवितमित्येवं पश्यति । परमार्थमजानंश्च यत्कुर्यातदाह-'कूराणि'इत्यादि, 'फराणि' निर्दयानि निरनुक्रोशानि 'कर्माणि' अनुष्ठानानि हिंसानृतस्तेयादीनि सकललोकचमत्कृतिकारीणि अष्टादश वा पापस्थानानि 'बालः' अज्ञः प्रकण कुर्वाणः, कभिप्राये क्रियाफले आत्मनेपदविधानात्तस्यैव तक्रियाफलविपाकं दर्शयति-तेन' क्रूरकर्मविपाकापादितेन दुःखेन 'मूढः' किंकर्तव्यताऽऽकुलः, Bh३६४॥ केन कृतेन ममैतदुःखमुपशम यायादिति मोहमोहितो विपर्यासमुपैति-यदेव प्राण्युपघातादि दुःखोत्पादने कारणं तदुपशमाय Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५॥ तदेव विदधातीति । किं च-'मोहेण' इत्यादि, 'मोह' अज्ञानं मोहनीय वा मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषमयं तेन मोहेन मोहितः सन् कर्म बध्नाति, तेन च गर्भमवाप्नोति, ततोऽपि जन्म पुनर्वालकुमारयौवनादिवयोविशेषाः, पुनर्विषयकषायादिना कम्र्मोपादायायुषः क्षयात् मरणमवाप्नोति, आदिग्रहणात्पुनर्गमित्यादि, नरकादियातनास्थानमेतीत्यतोऽभिधीयते-एत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्ननन्तरोक्ते 'मोहे' मोहकार्ये गर्भमरणादिके पौनःपुन्येनानादिकमपर्यन्तं चतुतिकं संसारकान्तारं पर्यटति, नास्मादपैतीतियावत् , कथं पुनः संसारे न बम्भ्रम्यात् , तदुच्यते-मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषाभावाद् , असावेव कुतो ?, विशिष्टज्ञानोत्पत्तेः १, सैव कुतो ?, मोहाभावात् , यद्येवमितरेतराश्रयत्वं, तथाहिमोहोऽज्ञानं मोहनीय वा, तदभावो विशिष्टज्ञानोत्पत्तेः, साऽपि तदभावादिति भणता स्पष्टमेव इतरेतराश्रयत्वमुक्तं, ततश्च न यावद्विशिष्टज्ञानोत्पत्तिः संवृत्ता न तावत्कर्मशमनाय प्रवृत्तिः स्यात् , नैषः दोषः, अर्थसंशयेनापि प्रवृत्तिदर्शनादिति । आह च-- संसयं परिआणओ ससारे परिन्नाए भवइ, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिन्नाए भवइ । सू० १४३॥ 'संसय मित्यादि, संशीतिः संशया-उभयांशावलम्बा प्रतीतिः संशयः, स चार्थसंशयोऽनर्थसंशयश्च, इह चार्थो मोक्षो मोक्षोपायच, तत्र मोक्षे न संशयोऽस्ति, परमपदमितिप्रतिपादनात् , तदुपाये तु संशयेऽपि प्रवृत्तिर्भवत्येव, अर्थसंशयस्य प्रवृत्त्यङ्गत्वात् । अनर्थस्तु संसार: संसारकारणं च, तत्सन्देहेऽपि निवृत्तिः स्यादेव, अनर्थसंशयस्य निवृत्त्यङ्गत्वात , अतः ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ ३४ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराजवृत्तिः (शीलाबा.) संशयमानर्थगतं परिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिः स्यादित्येतदेव परमार्थतः संसारपरिज्ञानमिति दर्शयति-तेन संशयं परि सम्या ५ जानता संसारश्चतुर्गतिकः तदुपादानं वा मिथ्यावाविरत्यादि अनर्थरूपतया परिज्ञातं भवति ज्ञपरिज्ञया, प्रत्याख्यान उद्देशकः १ परिज्ञया तु परिहृतमिति, यस्तु पुनः संशयं न जानीते स संसारमपि न जानातीति दर्शयितुमाह--'संसयं' इत्यादि, 'ससय' सन्देहं द्विनिधमप्यपरिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिनं स्यात् , तदप्रवृत्तौ च संसारोऽनित्याशुचिरूपो व्यसनोपनिपातबहुलो निःसारो न ज्ञातो भवति ॥ कुतः पुनरेतनिश्चीयते ? यथा तेन संशयवेदिना संसारः परिज्ञात इति ?, किमत्र निश्चेतव्यं १, संसारपरिज्ञानकार्यविरत्युपलब्धेः तत्र सर्वविरतिप्रष्ठां विरतिं निर्दिदिक्षुराह-- जे छेए से सागारियं न सेवइ, कटु एवमवियाणी विहया मंदस्स बालया, जे खल विसए सेवइ सेवित्ता वा नालोएइ, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परं सएण वा दोसेण पाविढयरेण वा दोसेण उवलिंपिज्जा) लडा हुरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणय त्तिमि ॥ सू.१४४॥ 'जे छए' इत्यादि यश्छेको-निपुण उपलब्धपुण्यपापः स 'सागारिय'ति वैथुनं न सेवते मनोवाकायकर्मभिः, स । एव यथावस्थितसंसारवेदी, यस्तु पुनर्मोहनीयोदयात्पाश्वस्थादिः तत्सेवते, सेवित्वा च सातगौरवमयात किं कुर्यादित्याह'कटटु' इत्यादि, रहसि मैथुनप्रसङ्गं कृत्वा पुनर्गुदिना पृष्टः सन्नपलपति, तस्य चैवमकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा ॥ ३६६ किं स्यादित्याह-विइया' इत्यादि, 'मन्दस्य' अबुद्धिमत एकमकार्यासेवनमियं चालता-अज्ञानता, द्वितीया तदपहवनं Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३९७ ॥ 1 मृषावादः तदकरणतया वा पुनरनुत्थानमिति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - "जे खलु विसए सेवई सेवित्ता वा णालोएइ, परेण वा पुट्ठो निण्हवर अहवा तं परं सएण वा दोसेण पाविट्ठयरेण वा दोसेण उचलिंपिज्ज' त्ति" सुगमं । यद्येवं ततः किं कुर्यादित्याह - 'लडा हु' इत्यादि, लब्धानपि कामान् 'हुरत्थे'त्ति बहिश्चित्रक्षुल्लकादिवत्तद्विपाकं प्रत्युपेक्ष्य चित्ताद्बहिः कुर्यात् यदिवा हुशब्दोऽपिशब्दार्थे, रेफागमः सुन्व्यत्ययेन द्वितीयार्थे प्रथमा, ततोऽयमर्थो - लब्धानप्यर्थ्यन्ते - अभिलष्यन्त इत्यर्थाः - शब्दादयस्तानुपनतानपि तद्विपाकद्वारेण 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य ततः 'आगम्य' झाला दुरन्तं शब्दादिविषयानुषङ्ग, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्य (सा) पेक्षत्वात्तां दर्शयतितदना सेवनतया परानाज्ञापयेत् स्वतोऽपि परिहरेदिति, एतदहं ब्रवीमि येन मया पूर्वार्थव्यवर्णनमकारि स एवाहमव्यवच्छिन्नसम्यग्ज्ञानप्रवाहः शब्दादिविषयरूपोपलम्भात् समुपजनितजिनवचनसंमद इति । एतच्च वच्यमाणं ब्रवीमीति, तदाह , पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे, इत्थ फासे (मोहे) पुणो पुणो, आवंती के यावंती लोयंसि आरंभजीवी, एएस चेव आरंभजीवी, इत्थवि बाले परिपच्चमाणे रमई पावेहिं कम्मेहिं असरणे सरणंति मन्त्रमाणे, इहमेगेसि एगचरिया भवद्द, से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोभे बहुरए बहुनडे बहुसदे बहुसंकप्पे आसवसत्ती पलिउच्छन्ने उट्ठियवायं पवयमाणे, मा मे केइ अदक्खू अन्नायपमायोसेणं, रूययं मूढे घम्मं नाभिजाणह, ܀܀܀܀ ।। ३९७ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य. ५. उद्देशका अट्टा पया, माणव! कंमकोविया जे अणुवरया अविजाए पलिमुक्खमाहु आवमेव भीआचा अणपरियति त्तिमि ॥ सू० १४५॥ प्रथम उद्देशकः ॥५-१ | पासह इत्यादि, हे जनाः! पश्यत यूयमेकान्तपुष्टधर्माणो, बहुवचननिर्देशादाद्यर्थो गम्यते, 'रूपेषु' रूपादि(शीलावा. विन्द्रियविषयेषु निःसारकटुफलेषु 'गृडान्' अध्युपपन्नान् सतः इन्द्रियैर्विषयाभिमुखं संसाराभिमुखं वा नरकादियातना॥ ३९८॥ स्थानकेषु वा परिणीयमानान् प्राणिन इति । ते च विषयगृध्नव इन्द्रियवशगाः संसारार्णवे किमाप्नुयुरित्याह-एत्थ फासे इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् संसारे हृषीकवशगः सन् कर्मपरिणतिरूपान् स्पर्शान पौनःपुन्येन-आवृत्त्या तानेव तेषु तेष्वेव स्थानेषु प्राप्नुयादिति । पाठान्तरं वा 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' 'अत्र' अस्मिन् संसारे 'मोहे' अज्ञाने चारित्रमोहे वा पुनः पुनर्भवतीति । कोऽसावेवम्भृतः स्यादित्यत आह - 'आवती'त्यादि, यावन्तः केचन 'लोके' गृहस्थलोके 'आरम्मजीविनः' सावद्यानुष्ठानस्थितिकाः, ते पौन:पुन्येन दुःखान्यनुभवेयुरिति । येऽपि गृहस्थाश्रिताः सारम्भास्तीर्थिकादयस्तेऽपि तदुःखभाजिन इति दर्शयति-एएस'इत्यादि, 'एतेषु' सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु शरीरयापनार्थ वर्तमानस्तीर्थिकः पावस्थादि 'आरम्भजीवी' सावद्यानुष्ठानवृत्तिः पूर्वोक्तदुःखभाग भवति । आस्ता तावद्गृहस्थस्तीथिको वा, योऽपि संसारार्णवतटदेशमवाप्य सम्यक्त्वरत्नं लब्ध्वाऽपि मोक्षककारणं विरतिपरिणामं सफलतामनीत्या कम्मोदयात सोऽपि सावद्यानुष्ठायी स्यादित्याह-'एत्यविषाले इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्नयहत्प्रणीतसंयमाभ्युपगमे a 'बालो' रागद्वेषाकुलितः परितप्यमानः परिपच्यमानो वा विषयपिपासया रमते, कै?-पापैः कर्मभिः, विषयार्थ सावद्या ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३१८. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ नहाने प्रति विधत्ते, किं कुत्राण इत्याह--'असा'मित्यादि, कामाग्निना पापा कम्मभिः परिपन्यमानः सावद्या नुष्ठानमशरणमेव शरणमिति मन्यमानो भोगेच्छाऽज्ञानतमिमाच्छादितदृष्टिविपर्ययः मन भूयो भूयो नानारूपा वेदना Ra अनुभवेदिति । आस्तां तावदन्ये, प्रवज्यामप्यभ्युपेत्य केचिद्विषयपिपामार्गस्तांस्तान् कल्काचारानाचरन्तीति दयितुमाह हमेगेसिमित्यादि, 'इह' मनुष्यलोके एकेषां न सर्वेषां चरणं चयते वा चर्या एकस्य चर्या एकचर्या, मा च प्रशस्तेतरभेदेन द्विधा-साऽपि द्रव्यभावभेदात् प्रत्येक द्विधा, नत्र द्रव्यतो गृहस्थपाषण्डिकादेविषयकषायनिमित्तमेकाकिनो विहरणं, भावतस्तु अप्रशस्ता न विद्यने, मा हि रागद्वेपविरहाद्भवति, न च तद्रहितस्याप्रशस्ततेति । प्रशस्ता तु द्रव्यतः प्रतिमाप्रतिपन्नस्य गच्छनिर्गतस्य स्थविरकल्पिकस्य चेकाकिनः सादिकानिमित्तान्निर्गतस्य, भावतस्तु पुना रागद्वेषविरहाद्भवति, तत्र द्रव्यतो भावतश्चैकचर्या अनुत्पन्नज्ञानानां तीर्थकृतां प्रतिपन्नसंयमानाम् , अन्ये तु चतुर्भङ्गपतिताः, तत्राप्रशस्तद्रव्यैकचर्योदाहरणं, तद्यथा-पूर्वदेशे धान्यपूरकाभिधाने सामोशे एकस्तापसः प्रथमवया देवकुमारसदृशविग्रहः षष्ठभक्तेन तद्ग्रामनिर्गमपथे तपस्तेपे, द्वितीयोऽप्युपग्रामं गिरिगहरेऽष्टमभक्तेन तपःकर्मणाऽऽतापनां विधत्ते, तस्मै च ग्रामनिर्गमपथवर्तिने शीतोष्णसहिष्णवे गुणैराकृष्टो लोक आहागदिभिः सपर्ययोपतिष्ठते, स तथा लोकेन पूज्यमानो वाग्भिरभिष्ट्रयमानः आहारादिनोपचर्यमाणो जनमृचे-मत्तोऽपि गिरिपरिसरातापी दुष्करकारकः, ततोऽसौ लोकस्तेन भूयो भूयः प्रोच्यमानस्तमेकाकिनं तापसमद्रिकुहरवासिनं पर्यपूजयद् , दुष्करं च परगुणोत्कीर्तनमितिकृत्वा तस्यापि सपर्यादिकं व्यधात् , तदेवमाभ्यां पूजाख्यात्यर्थमेकचर्या विदधे, अतोऽप्रशस्ता, एवमनया दिशाऽन्येऽप्यप्रशस्तैक ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३१॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीआचा राङ्गवृत्तिः (श्रीलाङ्का.) ॥ ४०० ॥ चर्याश्रिता दृष्टान्ता यथासम्भवमायोज्या इति । तदेवं सूत्रार्थे व्याख्याते सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्या नियुक्तिकारो व्याचिख्यासुराह चारो वरिया चरणं एगडं वंजणं तहिं छक्कं । दव्यं तु दारुसंकम जलथलवाराइयं बहुहा ॥ २४६ ॥ 'चार' इति 'चर गतिभक्षणयो:' भावे घञ् चर्येति 'गदमदचरयमश्चानुपसर्गे' (पा० ३-१-१००) इत्यनेन कर्मणि भावे वा यत्, चरणमिति वा, भावे न्युट्, एक:- अभिन्नोऽर्थोऽस्येत्येकार्थं, किं तत् ? – 'व्यञ्जनं' व्यज्यतेआविष्क्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनं - शब्द इत्येतत्पूर्वोक्तं शब्दत्रयमेकार्थ, एकार्थत्वाच्च न पृथग् निक्षेपः, 'तत्र' चारनिक्षेपे पटकं, चारस्य षट्कारो निक्षेप इत्यर्थः, तद्यथा-नामस्थापनेत्यादि, तत्र सुगमत्वान्नामस्थापने अनादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यचारं गाथासकलेन दर्शयति - 'दव्वं तु' ति तुशब्दः पुनः शब्दार्थे द्रव्यं पुनरेवम्भूतं भवति, दारुसङ्क्रमंश्च जलस्थलचारश्च दारुसङ्क्रमजलस्थलचारौ तावादी यस्य तद्दारुमङ्क्र मजलस्थलचारादिकं 'बहुधा ' अनेकधा, तत्र दारुसङ्क्रमो जले सेत्वादिः क्रियते, स्थले वा गर्त्तलङ्घनादिकः, जलचारो नावादिना, स्थलचारो रथादिना, आदिग्रहणात् प्रासादादौ सोपानपङ्क्त्यादिरिति यद्यद्देशाद्देशान्तरावाप्तये द्रव्यं स स द्रव्यंचार इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं क्षेत्रादिकमाह वित्तं तु जमि खित्ते कालो काले जहिं भवे चारो । भावंमि नाणदंसणचरणं तु पसत्थमपसत्थं ॥२४७॥ क्षेत्रं पुनर्यस्मिन् क्षेत्रे चारः क्रियते यावद्वा क्षेत्रं चर्यते स क्षेत्रचारः, कालस्तु यस्मिन् काले चरति यादन्तं वा कालं सम्य० ५ उद्देशकः १ ॥ ४०० ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स कालचारः, भावे तु द्विधा चरणं-प्रशस्तमप्रशस्तं च, तत्र प्रशस्तं ज्ञानदर्शनचरणानि, अतोऽन्यदप्रशस्तं गृहस्थान्यतीथिकाणामिति गाथार्थः ।। तदेवं सामान्यतो द्रव्यादिकं चार प्रदर्श्य प्रकृतोपयोगितया यते वचारं प्रशस्तं प्रश्नद्वारेण दर्शयितुमाहलोगे चउम्विहमी समणस्स चउविही कहं चारो! होई धिई अहिगारो विसेसओ खित्तकालेसु॥२४८ लोके चतुर्विधे द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपे 'श्रमणस्य' श्राम्यतीति श्रमणो-यतिस्तस्य कथम्भूतो द्रव्यादिश्चतुर्विधश्चारः स्याद् !, इति प्रश्ने निर्वचनमाह-भवति धृतिरित्येषोऽधिकारः, द्रव्ये तावदरसविरसपान्तरूक्षादिके धृतिर्भावयितव्या, क्षेत्रेऽपि कुतीर्थिकमाविते प्रकृत्यभद्रके वा नोद्वगः कार्यः, कालेऽपि दुष्कालादौ यथालाभं सन्तोषिणा भाव्य, भावेऽप्याक्रोशोपहसनादौ नोद्दीपितव्यं, विशेषतस्तु क्षेत्रकालयोरवमयोरपि धृतिर्भाव्या, द्रव्यभावयोरपि प्रायस्तन्निमित्तत्वात ।। चुनरपि द्रव्यादिकं विशेषतो यतेश्वारमाह पावोवरए अपरिग्गहे अ गुरुकुलनिसेवए जुत्ते । उम्मगवजए रागदोसविरए य से विहरे ॥ २४९॥ 'पापोपरतः पापात-पापहेतोः सावद्यानुष्ठानाद्धिसाऽनृतादत्तादानाब्रह्मरूपादुपरतः पापोपरतः, तथा न विद्यते परि| ग्रहोऽस्येत्यपरिग्रहः, पापोपरतोऽपरिग्रहश्चेति द्रव्यचारः, क्षेत्रचारमाह-गुरोः कुलं गुरुकुलं-गुरुसानिध्यं तत्सेवको-युक्तः समन्वितो यावज्जीवं गुरूपदेशादिनेति, अनेन कालचारः प्रदर्शिता, सर्वकालं गुरूपदेशविधायित्वोपदेशाद्, भावचारमाह-उद्गतो मार्गादुन्मार्गः-अकार्याचरणं तर्जकः, तथा रागद्वेषविरतः स साधुर्विहरेद-संयमानुष्ठानं कुर्यादिति, गता ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४०१॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचासङ्गवृत्तिः (धौलाका सम्य• ५ उद्देशकः १ ॥४०२॥ नियुक्तिः । साम्प्रतं सूत्रमनुश्रियते-तत्र विषयकषायनिमित्तं यस्यैकचर्या स्यात् स किम्भूतः स्यादित्याह- से बहु कोहे' इत्यादि, 'स' विषयगृध्नुरिन्द्रियानुकूलवडॅकचर्याप्रतिपन्नस्तीथिको गृहस्थो वा परैः परिभृयमानो बहुः क्रोधोऽस्येति बहुक्रोधः, तथा वन्द्यमानो मानमुद्वहत इति बहुमानः, तथा कुरुकुचादिभिः कल्कतपसा च बहुमायी, सर्वमेतदाहारादिलोभात्करोतीत्यतो बहुलोभः, यत एवमतो बहुरजाः-बहुपापो बहुषु वाऽऽरम्मादिषु रतो बहुरतः, तथा नटवद्भोगार्थ बहून् वेषान् विधत्त इति बहुनटः, तथा बहुभिः प्रकार: शठो बहुशठः, तथा बहवः सङ्कल्पा:-कर्तव्याध्यवसाया यस्य स बहुसङ्कल्पः, इत्येवमन्येषामपि चौगदिनामेकचर्या वाच्येति, स एवम्भूतः किमवस्थः स्यादित्याह-'आसव' इत्यादि, आस्रवाः-हिंसादयस्तेषु सक्तं-सङ्गं आश्रवसक्तं तद्विद्यते यस्यासावाश्रवसक्ती-हिंसाधनुषगवान् पलित-कर्म तेनावच्छन्नः, कर्मावष्टब्ध इतियावत , स चैवम्भृतोऽपि किं ब्र यादित्याह-'उडिय'इत्यादि, धर्माचरणायोद्युक्तः उस्थितस्तद्वाद उत्थितवादस्तं प्रबदन , तीथिकोऽप्येवमाह-यथा अहमपि प्रवजितो धर्माचरणायोद्यत इत्येवं प्रवदन् कर्मणाऽवच्छाद्यत इति । स चोस्थितवादी आस्रवेषु प्रवर्त्तमानः आजीविकाभयात् कथं प्रवर्तत इत्याह-'मा मे' इत्यादि, मा मां 'केचन' अन्येऽद्राक्षुरवद्यकारिणमित्यतः प्रच्छन्नमकार्य विदधाति, एतच्चाज्ञानदोषेण प्रमाददोषेण वा विधत्त इति । किं च-'सयय'मित्यादि, 'सततम्' अनवरतं मूढो मोहनीयोदयादज्ञानाद्वा 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं नाभिजानाति, न विवेचयतीत्यर्थः । यद्येवं ततः किंमित्याह-'अट्टा' इत्यादि, आर्ता विषयकषायैः 'प्रजायन्त' इति प्रजा:-जन्तवः हे मानव !, मनुजस्यैवोपदेशाहत्वान्मानवग्रहणं, 'कर्मणि' अष्टप्रकारे विभत्सिते 'कोविदा:' कुशलाः, न धर्मानुष्ठान ...... Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४०३॥ इति, के पुनः ते ये सततं धर्म नामिजानन्ति कर्मबन्धकोविदाश्चेति ?, अत आह–'जे अणुवरया' इत्यादि, ये केचनानिर्दिष्टस्वरूपाः 'अनुपरताः' पापानुष्ठानेभ्योऽनिवृत्ता ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्ग इत्येषा विद्या अतो विपर्ययेणाविद्या तया परि-समन्तात् मोक्षमाहुः ते धर्म नाभिजानन्त इति सम्बन्धः, धर्ममजनानाश्च किमान्नुयुरित्याह-'आवदृ' इत्यादि, भावावर्तः-संसारस्तमरघट्टघटीयन्त्रन्यायेनानुपरिवर्तन्ते, तास्वेव नरकादिगतिषु भूयो भूयो भवन्तीतियावत । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने प्रथमोद्देशक इति ॥५-१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ अथ पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह प्रागुद्देशके एकचर्याप्रतिपन्नोऽपि सावद्यानुष्ठानाद्विरतेरभावाच्च न मुनिस्त्युिक्तम् , इह तु तद्विपर्ययेण यथा मुनिभावः स्यात्तथोच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् आवन्ती केयावन्ती लोए अणारंभजीविणो तेसु, एत्थोवरए तं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नसी एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, उहिए नो पमायए, जाणित्त दुक्खं पत्तेयं सायं, पुढोछंदा इह माणवा पुढो दुक्खं पवेहयं से अविहिंसमाणे अणवययाणे, पुट्ठो फासे विपणनए ॥ सू० १४६॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारावृत्तिः (शीलाङ्का.) सम्य०५ उद्देशकः २ ॥४०४ ॥ 'यावन्त: केचन 'लोके' मनुष्यलोके 'अनारम्भजीविना, आरम्मा-सावद्यानुष्ठानं प्रमत्तयोगोवा, उक्तं च"'आदाणे निक्खेवे भासुस्सग्गे अठाणगमणाई । सव्वो पमत्तजोगो समणस्सवि होइ आरंभो॥१॥" तद्विपर्ययेण त्वनारम्भस्तेन जीवितु शीलं येषां इत्यनारम्भजीविनो यतयः समस्तारम्भनिवृत्ताः तेष्वेव-गृहिषु पुत्रकलत्रस्वशरीराद्यर्थमारम्भप्रवृत्तेष्वनारम्भजीविनो भवन्ति, एतदुक्तं भवति-सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु देहसाधनार्थमनवद्यारम्भजीविनः साधवः पङ्काधारपङ्कजवनिलेपा एव भवन्ति । यद्येवं ततः किमित्याह-'अत्र' अस्मिन् सावद्यागम्मे कर्तव्ये 'उपरत: सङ्कुचितगात्रः, अत्र वाऽऽहते धर्मे व्यवस्थित उपरतः पापारम्भात् , किं कुर्यात् स? 'तत्' सावद्यानुष्ठानायातं कर्म 'झोषयन्' क्षपयन् मुनिभावं भजत इति । किमभिसन्धायात्रोपरतः स्यादित्याह-'अयं संघी' इत्यादि, अविवक्षितकर्मका अप्यकर्मका धावतो, यथा पश्य मृगो धावति, एवमत्राप्यद्राक्षीदित्येतक्रियायोगे - प्ययं सन्धिरिति प्रथमा कृतेति, 'अय'मिति प्रत्यक्षगोचरापन आर्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तीन्द्रियनिर्वृत्तिश्रद्धासंवेगलक्षणः सन्धिः ' अवसरो मिथ्यात्वक्षयानुदयलक्षणो वा सम्यक्त्वावाप्तिहेतुभूतकर्मविवरलक्षणः सन्धिः शुभाध्यवसायसन्धानभृतो वा सन्धिरित्येनं स्वात्मनि व्यवस्थापितमद्राक्षीद्भवानित्यतः क्षणमप्येकं न प्रमादयेत् न विषयादिप्रमादवशगो भृयात् । कश्च न प्रमत्तः म्यादित्याह-'जे इमस्स' इत्यादि, 'य' इत्युपलब्धतत्त्वः अस्य' अध्यक्षस्य विशेषेण गृह्यते अनेनाष्टप्रकार कर्म तद्वतरशरीगविशिष्टं बाद्य न्द्रियेण गृह्यत इति विग्रहा-औदारिकं शरीरं तस्य 'अयं' वार्तमानिकक्षणः १ आदाने निक्षेपे माषायामुत्सर्गे च स्थाने गमनादौ । सर्वः प्रमत्तयोगः श्रमणस्यापि भवत्यारम्भः ॥१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ ४०४। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४०५॥ एवम्भूतः सुखदुःखान्यतररूपश्च गतः एवम्भूतश्च भावीत्येवं यः क्षणान्वेषणशीलः सोऽन्वेषी सदाऽप्रमत्तः स्यादिति । स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-एस मग्गे' इत्यादि, 'एषः' अनन्तगेक्तो 'मार्गो' मोक्षपथः 'आर्यैः सर्वहेयधर्मारातीय(तीर)वर्तिभिस्तीर्थकरगणधरैः प्रकर्षेणादौ वा वेदित-कथितः प्रवेदित इति । न केवलमनन्तरोक्तो वक्ष्यमाणश्च तीर्थकरैः प्रवेदित इति तदाह-'उहिए' इत्यादि, सन्धिमधिगम्योत्थितो धर्माचरणाय क्षणमप्येकं न प्रमादयेत । किं चापरमधिगम्येत्याह-'जाणित्तु' इत्यादि, ज्ञात्वा प्राणिनां प्रत्येकं दुःखं तदुपादानं वा कर्म तथा प्रत्येकं सातं चमनआह्लादि ज्ञात्वा समुत्थितो न प्रमादयेत् । न केवलं दुःखं कर्म वा प्रत्येकं, तदुपादानभृतोऽध्यवसायोऽपि प्राणिनां भिन्न एवेति दर्शयितुमाह-'पुढो' इत्यादि, पृथग-भिन्नः छन्द:-अभिप्रायो येषां ते पृथगछन्दाः, नानाभूतबन्धाध्यवसायस्थाना इत्यर्थः, 'इहे'ति संसारे संझिलोके वा, के ते?-'मानवाः' मनुष्याः, उपलक्षणार्थवादन्येऽपि, संज्ञिना पृथक्सङ्कल्पत्वाच्च तत्कार्यमपि कर्म पृथगेव, तत्कारणमपि दुःखं नानारूपमिति, कारणभेदे कार्यभेदस्य अवश्यंभावित्वादिति, अतः पूर्वोक्तं स्मारयन्नाह-'पुढो' इत्यादि, दुःखोपादानमेदाद् दुःखमपि प्राणिनां पृथक् प्रवेदितं, सर्वस्य स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वात् नान्यकृतमन्य उपभुङ्क्ते इति । एतन्मत्वा किं कुर्यादित्याह-से' इत्यादि, 'स' अनारम्भजीवी प्रत्येकसुखदुःखाध्यवसायी प्राणिनो विविधैरुपायैरहिंसन् तधाऽनपवदन्-अन्यथैव व्यवस्थितं वस्त्वन्यथा वदन्नपवदन् नापवदन् अनपवदन् , मृषावादमब वन्नित्यर्थः, पश्य च त्वं तस्यापि प्राकृतत्वादापत्वाद्वा लोपः, एवं परस्वमगृह्णन्नित्याद्यप्यायोज्यम् । एतद्विधायी च किमपरं कुर्यादित्याह-पुट्ठो' इत्यादि, स पञ्चमहावतव्यवस्थिता ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 1४०५॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराजवृत्तिः (शीलाका.) सम्य. ५ उद्देशक: २ .४०६॥ सन् यथागृहीतप्रतिज्ञातिनिर्वहणोद्यतः स्पृष्टः परीषहोपसर्गस्तान् तत्कृतान् शीतोष्णादिस्पर्शान् दुःखस्पर्शान् वा तत्सहिष्णुतया अनाकुलो विविधैरुपायैः-प्रकारैः संसारासारभावनादिमिः प्रेरयेत् , तत्प्रेरणं च सम्यकसहन, तत्कृतया दुःखासिकयाऽऽत्मानं भावयेदितियावत् ॥ यो हि सम्यकरणतया परीषहान् सहेत स किंगुणः स्यादित्याह एस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका फुसंति, इति उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठो अहियासइ, से पुन्विपेयं पच्छापेयं भेउरधम्म विडसणधम्ममधुवं अणिइयं असासयं चयावचइयं विप्परिणामधम्म, पासह एवं रूवसधिं ॥ सू० १४७॥ 'एषः अनन्तरोक्तो यः परीषाहाणां प्रणोदक: 'समिया' सम्यक् शमिता वा शमोऽस्यास्तीति शमी तद्भावः शमिता 'पर्यायः' प्रव्रज्या सम्यक् शमितया वा पर्यायः-प्रव्रज्याऽस्येति विगृह्य बहुव्रीहिःस सम्यकपर्यायः शमितापर्यायो वा व्याख्यातो नापर इति । तदेवं परीषहोपसर्गाक्षोभ्यता प्रतिपाद्य व्याधिसहिष्णुता प्रतिपादयन्नाह-'जे असत्ता' इत्यादि, येऽपाकृतमदनतया समवणमणिलेष्टुकाश्चनाःसमतापन्नाः पापेषु कर्मस्वसक्ता-पापोपादानानुष्ठानारताः 'उदाए' कदाचित्तान् तथाभूतान् साधून 'आतङ्का' आशुजीवितापहारिणः शूलादयो व्याधिविशेषाः 'स्पृशान्ति' अभिभवन्ति पीडयन्ति । यदि नामेवं ततः किमित्याह-'इति उदाहु' इत्यादि, 'इति' एतद्वक्ष्यमाणमुदाहृतवान्-व्याकृतवान्, कोऽसौ ?-धीरो' वी:-बुद्धिस्तया राजते, स च तीर्थकृद्गणधरो वा, किं तदुदाहृतवान् ?-तैरातकैः स्पृष्टः सन् ॥४०६ ।। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४०७ ॥ तान् स्पर्शान् - दुःखानुभवान् व्याधिविशेषापादितानध्यासयेत् सहेत । किमाकलय्येत्याह - ' से पुव्व' मित्यादि, स स्पृष्टः पीडितः आशुकारिभिरातङ्करेतद्भावयेद् यथा पूर्वमप्येतद्-असातावेदनीय विपाकजनितं दुःखं मयैव सोढव्यं, पश्चादप्येतन्मयेव सहनीयं यतः संसारोदर विवरवर्त्ती न विद्यत एवासौ यस्यासातावेदनीयविपाकापादिता ते रोगातङ्का न भवेयुः तथाहि केवलिनोऽपि मोहनीयादिघातिचतुष्टय तयादुत्पन्नज्ञानस्य वेदनीयसद्भावेन तदुदयात्तत्सम्भव इति, यतश्च तीर्थकरैरप्येतद्'बद्धस्पृष्टनिघत्त निकाचनावस्थायातं कम्मवश्यं वेद्यं नान्यथा तन्मोक्षः, अतोऽन्येनाप्यसातावेद१ कर्मबन्धश्चतुर्विधः, तद्यथा - प्रकृतिबन्धः १ स्थितिबन्ध: २ अनुभागबन्धः ३ प्रदेशबन्ध : ४, तत्र प्रकृतिबन्धोऽष्टविधः, ज्ञानावरणीय धन्तरायान्तः, एतेऽष्टावपि मूलभेदाः, उत्तरभेदास्तु ज्ञानावरणीये पब्च, दर्शनावरणीये नव, वेदनीये द्वौ, मोहनीयेऽष्टाविंशतिः, आयुषञ्चत्वारः, नाम्नः द्विचत्वारिंशत् सप्तषष्टिर्वा त्रिनवतिर्वा त्र्युत्तरशतं वा, गोत्रे द्वौ अन्तराये पञ्च, इति मूलोत्तर प्रकृतिबन्धः । स्थितिबन्धे ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय वेदनीयान्तरायेषु त्रिंशत्कोटी कोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, मोहनीये सप्ततिकोटा कोट्य', नामगोत्रयोविंशतिः, आयुषि ३३ सागरोपमाणि पूर्वकोटि त्रिभाम्रोनानि, नामगोत्रयोर्जघन्या स्थितिरष्टौ मुहूर्त्ता, वेदनीयस्स बार समुहुत्ता, तमुत्ता से साणं इति स्थितिबन्धा, शुभाशुभकम्मंपुद्गलेषु - "जो रसो अग्गुभागो दुबइ तत्थ सुभेसु महुरो असुभेसु भमहुरो रसो तरस बन्धो अभागबन्धो" अणुभागबन्धो समन्तो । प्रदेशा:- कम्र्म्मवर्गणास्कन्धाः तेषां बन्धः जीवप्रदेशः सम बह्रययः पिण्डवर क्षीरनीरसम्बन्धवद्वा, उक्तं च- "जीवकर्मप्रदेशानां यः सम्बन्धः परस्परम् । कृशानुलोहबद्धेतोः, तं बन्धं जगदुर्बुधाः ॥ १ ॥ प्रष्टवद्ध निधन्तनिकाचितकारणभेदात् स पुनश्चतुर्विधः, तथाहि - समूहगताय सूचिसम्बन्धवत् स्पृष्टकर्मबन्धः, दवरकबद्धसूचि सम्बन्धवद्बद्धकर्मबन्धः, पर्षान्तरित दवरक व सूचिका सम्बन्धवन्निधन्तकर्मबन्धः अग्निष्म तशूचिका समवाय मे लकवन्निकाचितकर्मबन्धः । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥ ४०७ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य०५ उद्देशक श्रीआचागणवृत्तिः (शीलाका. ॥४०८॥ नीयोदये सनत्कुमारदृष्टान्तेन मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य नोद्विजितव्यमिति, उक्तं च-"स्वकृतपरिणतानां दुर्नयानां विपाकः, पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निगुणस्य । स्वयमनुभवतोऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो, भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते ॥१॥" अपि च-एतदौदारिकं शरीरं सुचिरमप्यौषधरसायनायुपबृंहितं मृन्मयामघटादपि निःसारतरं सर्वथा सदा विशराविति दर्शयन्नाह-'भिदुरधम्म'मित्यादि, यदिवा पूर्व पश्चादप्येतदौदारिक शरीरं वक्ष्यमाणधर्मस्वभावमित्याह-'भिदुरधम्म'मित्यादि, स्वयमेव भिद्यत इति भिदुरः स धर्मोऽस्य शरीरस्येति भिदुरधम्म, इदमौदारिकं शरीर सुपोषितमपि वेदनोदयाच्छिरोदरचक्षुरुरःप्रभृत्यवयवेषु स्वत एव भिद्यत इति मिदुरं, तथा विध्वंसनधर्म पाणिपादाद्यवयवविध्वंसनात् , तथा अवश्यंभावसम्भावितं त्रियामान्ते सूर्योदयवत् ध्रुवं न तथा यत्तदध्रुवं, तथा अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया कूटस्थनित्यत्वेन व्यस्थितं सन्नित्यं नैवं यत्तदनित्यमिति, तथा तेन तेन रूपेणोदकधारावच्छश्वद्भवतीति शाश्वतं ततोऽन्यदशाश्वतं, तथेष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टम्भादौदारिकशरीरवर्गणापरमाणूपचयाच्चयः तदभावेन तद्विचटनादपचयः, चयापचयौ विद्येते यस्य तच्चयापचयिकम् , अत एव विविधः परिणामः-अन्यथाभावात्मको धर्मः-स्वभावो यस्य तद्विपरिणामधर्म । यतश्चैवम्भूतमिदं शरीरकमतोऽस्योपरि कोऽनुबन्धः का मूर्छा, नास्य कुशलानुष्ठानमृतेऽन्यथा साफल्यमित्येतदेवाह--'पासह' इत्यादि, पश्यतैनं पूर्वोक्तं रूपसन्धि, मिदुरधर्माद्याघातौदारिकं पञ्चेन्द्रियनिवृत्तिलाभावसरात्मकं, दृष्टा च विविधातङ्कजनितान् स्पर्शानध्यासयेदिति ॥ एतत्पश्यतश्च यत्स्यात्तदाह ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ||४०८॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४०९ ॥ समुप्पेहमाणस्स इकाययणरयस्स इह विप्पमुक्कस्स नस्थि मग्गे विरयस्स तिबेमि ॥ सू० १४८॥ सम्यगुत्प्रेक्षमाणस्य-पश्यतोऽनित्यताघातमिदं शरीरमित्येवमवधारयतो नास्ति मार्ग इति सम्बन्धः, किं च-आङ्अभिविधौ समस्तपापारम्मेभ्यः आत्मा आयत्यते-आनियम्यते यस्मिन् कुशलानुष्ठाने वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतनंज्ञानादित्रयम् एकम्-अद्वितीयमायतनमेकायतनं तत्र रतस्तस्य, किं च–'इह' शरीरे जन्मनि वा विविधं परमार्थ भावनया सारीरानबन्धात प्रमुक्तो विप्रमुक्तस्तस्य 'नास्ति' न विद्यते, कोऽसौ १-'मार्गो' नरकतियङ्मनुष्यगमनपद्धतिः, वर्तमानसामीप्ये वर्तमानदर्शनान्न भविष्यतीति नास्तीत्युक्तं, यदिवा तस्मिन्नेव जन्मनि समस्तकर्मक्षयोपपत्ते स्ति नाकादिमार्गः कस्येति दर्शयति-विरतस्य' हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवृत्तस्य, इतिरधिकारपरिममाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत सधम्मस्वाम्यात्मानमाह, यद्भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना दिव्यज्ञानेनार्थानुपलभ्य वाग्योगेनोक्तं तदहं भवतां ब्रवीमि, न स्वमतिविरचनेनेति । विरत एव मुनिर्भवत्येतत्प्रतिपाद्य साम्प्रतम् 'अविरतवादी परिग्रहवानिति यदुक्तं तत्प्रतिपादयबाह आवंती केयावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुँ वा अणुवा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा एएसु चेव परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महन्भयं भवइ, लोग वित्तं च णं उवेहाए, एए संगे अवियाणओ। सू० १४९ ॥ यावन्तः केचन लोके परिग्रहवन्तः परिग्रहयुक्ताः स्युस्तत(त्र) एवम्भूतपरिग्रहसद्भावादित्याह-से अप्पं वा इत्यादि, तदव्यं यत्परिगृह्यते तदल्पं वा-स्तोकं वा स्यात् कपर्देकादि, बहु वा स्यात् धनधान्यहिरण्यग्रामजनपदादि, अणु वा ४०९॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य. ५ भीआचा रावृत्तिः (शीलाका.) ॥४१०॥ ४ स्यात् मूल्यतस्तृणकाष्ठादि प्रमाणतो बज्रादि, स्थूलं वा स्यात् मूल्यतः प्रमाणतश्च हस्त्यश्वादि. एतच्च चित्तवद्वा स्यादचित्तवद्वेति । एतेन च परिग्रहेण परिग्रहवन्तः सन्त एतेष्वेव परिग्रहवत्सु गृहस्थेष्वन्तर्वर्त्तिनो वतिनोऽपि स्युः, यदिवैतेष्वेव षट्सु जीवनिकायेषु विषयभृतेष्वल्पादिषु वा द्रव्येषु मृच्छा कुर्वन्तः परिग्रहवन्तो भवन्ति, यथा वा विरतो विरतिवादं बदन्नल्पादपि परिग्रहात परिग्रहवान् भवति, एवं शेषेष्वपि व्रतेवायोज्यम् , एकदेशापगधादपि सर्वापराधितासम्भवः, अनिवारितास्रवत्वात् । यद्येवमल्पेनापि परिग्रहेण परिग्रहवत्त्वमतः पाणिपुटभोजिनो दिगम्बराः सरजस्कबोटिकादयोऽपरिग्रहाः स्युः, तेषां तदभावात् , नैतदस्ति, तदभावादित्यसिद्धो हेतुः, तथाहि-सरजस्कानामस्थ्यादिपरिग्रहाद्बोटिकानामपि पिछिकादिपरिग्रहाद् अन्त(न्तत)श्च शरीराहारादिपरिग्रहसद्भभावात् , धर्मोपष्टम्मकत्वाददोष इति चेद् तद् इतरत्रापि समान, किं दिगम्बराग्रहग्रहेणेति । एतच्चान्पादिपरिग्रहेण परिग्रहवत्वमेकेषां परिग्रहवत्त्वमपरिग्रहाभिमानिना चाहारशरीरादिकं महतेऽनयेति दर्शयन्नाह–'एतदेवेत्यादि, एतदेव-अल्पबहुत्वादिपरिग्रहेण परिग्रहवत्वमेकेषां-परिग्रहवता नरकादिगमनहेतुत्वात् सर्वस्याविश्वासकारणाद्वा महाभयं भवति, प्रकृतिरियं परिग्रहस्य, यदुत-तद्वान् सर्वस्माच्चकति, यदिवैतदेव शरीराहारादिकमपरस्याल्पस्यापि पात्रत्वक्त्राणादेर्द्धर्मोपकरणस्याभावाद् गृहिगृहे सम्यगुपायाभावादविधिनाऽशुद्धमाहारादिकं भुञ्जानस्य कर्मबन्धजनितमहाभयहेतुत्वान्महाभयं, तथैतद्धर्मशरीरं समस्ताच्छादनामावाद्बीभत्सं परेषां महाभयं, तन्निरवद्यविधिपालनामावाच्च महाभयमिति । यतः परिग्रहो महाभयमतोऽपदिश्यते-'लोगं' इत्यादि, 'लोकस्य' असंयतलोकस्य 'वित्त' द्रव्यमन्पादिविशेषणविशिष्टं, चशब्दः पुनःशब्दार्थे, णमिति वाक्यालङ्कारे, Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४११॥ लोकवित्तं लोकवृत्तं वा आहारभयमैथुनपरिग्रहोत्कटसंज्ञात्मकं महते भयाय पुनरुत्प्रेक्ष्य-ज्ञात्वा ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् । तत्परिहर्नुश्च यत्स्यात्तदाह-एए संगे' इत्यादि, 'एतान्' अल्पादिद्रव्यपरिग्रहसङ्गान् शरीराहारादिसङ्गान् वा 'अविजानतः अकुर्वाणस्य तत्परिग्रहजनितं महाभयं न स्यात् ।। किंच से सुपडिबद्धं सूवणीयंति नच्चा पुरिसा परमचक्खू विपरिकमा, एएसु चेव बंभचेर तिमि से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे-बंधपमुक्खो अज्झत्थेव, इत्य विरए अणगारे दीहरायं तितिक्खए, पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए, एयं मोणं सम्मं अणु वासिज्जासि तिबेमि ॥ सू० १५०॥इति द्वितीय उद्देशकः ॥५-२॥ 'से' तस्य परिग्रहपरिहर्तुः सुष्टु प्रतिबद्धं सुप्रतिबद्धं सुष्ट्रपनीतं सूपनीतं ज्ञानादि इत्येतत् ज्ञात्वा 'हे पुरुष ! मानव ! परमं ज्ञानं चक्षुर्यस्यासौ परमचक्षुः मोक्षकदृष्टि सन् विविधं तपोऽनुष्ठानविधिना संयमे कर्मणि वा पराक्रमम्वेति । अथ किमर्थ पराक्रमणोपदेश इत्यत आह–'एएसु चेवे' त्यादि, य इमे परिग्रहविरताः परमचक्षुषश्चैतेष्वेव परमार्थतो ब्रह्मचर्य नान्येषु, नवविधब्रह्मचर्यगुप्त्यभावाद् , यदिवा ब्रह्मचर्याख्योऽयं श्रुतस्कन्धः, एतद्वाच्यमपि ब्रह्मचर्य तदेतेष्वेवापरिग्रहवत्सु, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीम्यहं यदुक्तं वक्ष्यमाणं च सर्वज्ञोपदेशादित्याह-से सुरं च मे इत्यादि, तद्यत् कथितं यच्च कथयिष्यामि तच्छुतं च मया तीर्थकरसकाशात् तथा आत्मन्यधि अध्यात्म ममैतच्चेतसि व्यवस्थित किं तदध्यात्मनि स्थितमिति दर्शयति-बन्धात्सकाशात्प्रमोक्षः बन्धप्रमोक्षस्तथा 'अध्यात्मन्येव' ब्रह्मचर्ये व्यवस्थित Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचारावृत्तिः (शीलाका सम्य: ५ उद्देशकः३ ॥४१२॥ स्यैवेति । किं च--'इत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् परिग्रहे जिघृक्षिते विरतः, कोऽसौ ?-नास्यागारं-गृहं विद्यत इत्यनगारः, स एवम्भूतो 'दीर्घरानं' यावज्जीवं परिग्रहाभावात् यत् क्षुत्पिपासादिकमागच्छति तत् तितक्षेत' सहेत । पुनरप्युपदेशदानायाह--'पमत्ते' इत्यादि, प्रमत्तान्-विषयदिभिः प्रमादेवहिद्धर्माद्व्यवस्थितान् पश्य गृहस्थतीर्थिकादीन् । दृष्टा च किं कुर्यादिति दर्शयति-अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति । किं च--'एय' मित्यादि, 'एतत्' पूर्वोक्तं संयमानुष्ठानं मुनेरिदं मौन-सर्वज्ञोक्तं सम्यग् 'अनुवासयेः' प्रतिपालयेः 'इति' अधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत । लोकसागध्ययने द्वितीयोद्देशकः समाप्तः॥ ५-२॥ -:०::०:॥ अथ पञ्चमाध्ययने तृतीयोद्दशकः ॥ उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरम्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः--इहानन्तरोक्तोद्देशकेऽविरतवादी परिग्रहवानित्यमिहितम् , इह तु तद्विपर्यय उच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्-- आवंती केयावंती लोयंसि अपरिग्गहावंती एएसु चेव अपरिग्गहावंती, सुच्चा वई मेहावी पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्य मए संधी झोसिए एवमन्नत्थ संघी दुज्जोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज्ज वीरियं ॥ सू० १५१॥ यावन्तः केचन लोकेऽपरिग्रहवन्तो विरता यतय इत्यर्थः, ते सर्वे एतेष्वेव--अल्पादिषु द्रव्येषु त्यक्तेषु सत्स्वपरिग्रह ॥ ४१२ ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्तो भवन्ति, यदिवैतेष्वेव षट्सु जीवनिकायेषु ममत्वाभावादपरिग्रहा भवन्ति । स्यात्--कथमपरिग्रहभावः स्यादि॥४१३॥ त्याह--'सोचा' इत्यादि, 'वई'त्ति सुव्यत्ययेन द्वितीयार्थे प्रथमाऽतो वाच-तीर्थकराज्ञामागमरूपां 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सश्रुतिको हेयोपादेयपरिहारप्रवृत्तिज्ञः, तथा 'पण्डिताना' गणधराचार्यादीनां विधिनियमात्मकं वचनं निशम्य सचित्ताचित्तपरिग्रहपरित्यागादपरिग्रहो भवति । स्यादेतत्-कदा पुनरुत्पन्ननिगवरणज्ञानानां तीर्थकता वाग्योगो भवति येनासावाकर्ण्यते ?, उच्यते, धर्मकथाऽवसरे, किम्भूतस्तै' पुनर्धर्मः प्रवेदित इत्यारेकापनोदार्थमाह--'समिय'त्ति 'समत्ता' समशत्रुमित्रता तयाऽऽयेईम्भः प्रवेदित इति, उक्तं च-"'जो चंदणेण बाई आलिंपइ वासिणा व तच्छेति । संथुणइ जो अणिदति महेसिणो तत्थ समभावा ॥१॥" यदिवाऽऽर्येषुदेशभाषाचरित्राऽऽर्येषु समतया भगवता धर्मः प्रवेदितः, तथा चोक्तम्--''जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थई"त्यादि, अथवा शमिनो भावः शमिता तया सबहेयधारातीयवर्तिभिः आर्यैः प्रकर्षणादौ वा धम्मों वेदितः । प्रवेदितः, इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमेन तीर्थकृद्भिर्द्धर्मः प्रज्ञापित इलियावत् । स्याद्--अन्यैरपि स्वाभिप्रायेण धर्माः प्रवेदिता एवेत्यतस्तदव्युदासार्थ भगवानेवाह-'जत्थेत्यादि, सदेवमनुजायां पर्षदि भगवानेवमाह--यथाऽत्र मया ज्ञानादिको मोक्षसन्धिः 'झोसिओ'त्ति सेवित इति, यदिवा 'अत्र' अस्मिन् ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके मोक्षमार्गे समभावात्मके इन्द्रियRaनोइन्द्रियोपशमरूपे मया मुमुक्षुणा स्वतः एव सन्धानं सन्धिः--कर्मसन्ततिः सन्धीयत इति वा भवाद्भवान्तरमनेनेति सन्धिः--अष्टप्रकारकर्मसन्ततिरूपः स झोषित:-क्षपितः अतो य एव तीर्थकृद्भिर्द्धर्मोऽभिहितः स एव मोक्षमागों नापर यश्चन्दनेन वाह मालिम्पति वास्या वा तणोति । संस्तौति यश्च निन्दति महर्षयस्तत्र समभावाः॥१॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराजवृत्तिः (शीलावा. .४१४॥ इत्येतदेवाह-यथाऽत्र मया सन्धिोषितः एवमन्यत्र--अन्यतीर्थिकप्रणीते मोक्षमार्ग सन्धिः--कर्म सन्ततिरूपः दुझोंप्यो सम्य. ५ भवति--दुश्मयो भवति, असमीचीनतया तदुपायाभावाद् , यदि नाम भगवताऽत्र कर्मसन्धिोषितस्ततः किमित्याह उद्देशकः३ यस्मादस्मिन्नेव मार्गे व्यवस्थितेन मयाऽपि विकृष्टतरेण तपसा कर्म क्षपितं ततोऽन्योऽपि मुमुक्षुः संयमानुष्ठाने तपसि च वीर्य 'नो निहन्यात नो निगूहयेद् अनिगृहितबलवीयों भूयाद्, एतदहं ब्रवीमि परमकारुण्याकृष्टहृदयः परहितैकोपदेशदायीत्येतद्वीरवर्द्धमान स्वाम्याह, सुधर्मस्वामी स्वशिष्याणां कथयति स्म ॥ कश्चैवम्भूतः स्यादित्याह-- जे पुवुट्ठाई नो पच्छानिवाई, जे पुव्वुहाई पच्छानिवाई, जे नो पुवुट्ठायी नो पच्छा. निवाई, सेऽपि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्नेसयंति ॥ सु. १५२॥ यः कश्चिद्विदितसंमारस्वभावतया धर्मचरणकप्रवणमनाः पूर्व--प्रव्रज्याऽवसरे संयमानुष्ठानेनोत्थातु शीलमस्येति पूर्वोस्थायी पश्चाच्च श्रद्धासंवेगतया विशेषेण वर्द्धमानपरिणामो नो निपाती, निपतितु शोलमस्येति विगृह्य णिनिः निपतनं वा निपातः सोऽस्यास्तीति निपाती, हिंसतया निष्क्रान्तः हिंसतया विहारी च गणधरादिवत् प्रथमो भङ्गः। द्वितीयभङग सूत्रेणव दर्शयन्नाह-'जे पुब्बुट्ठाई पच्छानिवाई'इत्यादि, पूर्वमुत्थातु शीलमस्येति पूर्वोत्थायी, पुनर्विचित्रत्वात् कर्मपरिणतेस्तथाविधभवितव्यतानियोगात्पश्चान्निपाती स्यात् , नन्दिषेणवत् , कश्चिद्दर्शनतोऽपि गोष्ठामाहिलवदिति । तृतीयभङ्गस्य चाभावदनुपादानं, स चायम्-'जे नो पुट्ठायी पच्छानिवाती' तथाहि--उत्थाने सति निपातोs Rugga निपातो वा चिन्त्यते, सति धम्मिणि धर्मचिन्ता, तदुत्थानप्रतिषेधे च दूगेत्सादितैव निपातचिन्तेति । चतुर्थमङ्गदर्शनाय Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४१५॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ वाह-वो हि नो पूर्वोत्थायी न च पश्चाभिपाती सोऽविरत एवं गृहस्थः सन्नोत्थायी भवति सम्यग्विरतेरभावात नापि पश्चान्निपाती उत्थानाविनामावित्वान्निपातस्य, शाक्यादयो वा चतुर्थभङ्गपतिता द्रष्टव्याः, तेषामप्युभयासद्भावादिति । ननु च गृहस्था एव चतुर्थमङ्गपतिता युक्ता वक्तु, तथाहि-तेषां सावद्ययोगानुष्ठानेनानुत्थानतया प्रतिज्ञामन्दरारोपाभावान्निपाताभावः, शाक्यादिरपि चतुर्थभङ्गपतित इत्यत आह-'सोऽपि' शाक्यादिर्गणः पञ्चमहावतभारारोपणाभावेन सावधयोगानुष्ठानतया नो पूर्वोत्थायी निपातस्य च तत्पूर्वकत्वान्नो पश्चानिपातीत्यतस्तादृश एव-गृहस्थतुल्य एव स्याद्, आस्रवद्वाराणामुभयेषामप्यसंवृतत्वात् , उदायिनृपमारकवत् । अन्येऽपि ये सावद्यानुष्ठापिनस्तेऽपि तादृक्षा एवेति दर्शयनाह-येऽपि स्वयथ्याः पावस्थादयो द्विविधयाऽपि परिज्ञया लोकं परिज्ञाय पुनः पचनपाचनाद्यर्थ तमेव लोकमन्वाश्रिता अन्वेषयन्ति वा तेऽपि गृहस्थतुल्या एव भवेयुः॥ स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह एवं नियाय मुणिणा पवेइयं, इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुव्वावररायं जयमाणे, सया सीलं सुपेहाए सुणिया भवे अकामे अझंझे, इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुझेण बज्झओ१॥ सू० १५३ ॥ 'एतद्' यदुत्थाननिपातादिकं प्रागुपन्यस्तं तत्केवलज्ञानावलोकनेन 'नियाय'त्ति ज्ञात्वा 'मुनिना' तीर्थकता 'प्रवेदितं' कथितम् । इदं चान्यत्प्रवेदितमित्याह--'इह' अस्मिन् मौनीन्द्रे प्रवचने व्यवस्थितः सन् 'आज्ञा' तीर्थकरोपदेशमाकाक्षितु शीलमस्येत्याज्ञाकाक्षी--आगमानुसारप्रवृत्तिका, कश्चैवम्भृतः ?--'पण्डितः' सदसद्विवेकज्ञा Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ४१६ ॥ * 'अस्निहः' स्नेहरहितः । रागद्वेषविप्रमुक्तोऽहनिंशं गुरुनिर्देशवर्ती यत्नवान् स्यादित्येतदाह--पूर्वरात्र-रात्रेः प्रथमो यामोऽपररात्र-रात्रेः पाश्चात्यः एतद्यामद्वयमपि 'यतमानः' सदाचारमाचरेत्, मध्यवर्त्तियामद्वयमपि यथोक्तविधिना स्वपन वैरात्रादिकं विदध्यात्, रात्रियतन प्रतिपादनेन चापि प्रतिपादितैव भवति, आद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहण - स्यावश्यंभावित्वात् । किं च-- 'सदा' सर्वकाल' शीलम्' अष्टादशभेदसहस्रसङ्ख्यं संयमं वा यदिवा चतुर्द्धा शीलं--महाव्रतसमाधानं तिस्रो गुप्तयः पञ्चेन्द्रियदमः कषायनिग्रहश्चेत्येतच्छीलं सम्प्रेच्य मोक्षाङ्गतयाऽनुपालयेत् नाक्षिनिमेषमात्रमपि कालं प्रमादवशगो भूयात् । कश्च शीलसम्प्रेक्षकः स्यादित्याह--यो हि श्रुत्वा शीलसम्प्रेक्षणफलं निःशील निवतानां च नरकादिपातविपाकमाकर्ण्यागमात्, 'भवेत्' स्यात् 'अकाम' इच्छामदन कामरहित इति, तथा नास्य 'झञ्झा' माया लोमेच्छा वा विद्यत इत्यझञ्झः, कामझञ्झाप्रतिषेधाच्च मोहनीयोदयः प्रतिषिद्धः, तत्प्रतिषेधाच्च शीलवान् स्यादिति, एतदुक्तं भवति-- श्रुत्वा स्यात् अकामोऽझञ्झश्चेत्यनेन चोत्तरगुणा गृहीताः, उपलक्षणार्थत्वाच्च मूलगुणा अपि गृहीताः, ततः स्यात् अहिंसकः सत्यवादीत्याद्यपि द्रष्टव्यं । ननु चान्यज्जीवाच्छरीरमित्येवंभावनायुक्तस्यानिगूहित बलवीर्यस्य पराक्रममाणस्याष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारिणोऽपि मे यथोपदेशं प्रवर्त्तमानस्यापि नाशेषकर्म्ममलापगमोऽद्यापि भवतीत्यतस्तथाभूतमसाधारणकारणमाचच्व येनाहमाश्वेव (शेष मलकलङ्करहितः स्याम् अहं च न भवदुपदेशाद् अपि सिंहेनापि सह युद्ध, न मे कर्म्मक्षयार्थं प्रवृत्तस्य किश्चिदशक्य मस्तीत्यत्रोत्तरं सूत्रेणैवाह--अनेनैवौदारिकेण शरीरेणेन्द्रियनोइन्द्रियात्मकेन विषयसुखपिपासुना स्वैरिणा सार्द्धं युध्यस्व इदमेव सन्मार्मावतारणतो वशीकुरु; किमपरेण बाह्यतस्ते सम्य० ५ उद्देशकः ३ ॥ ४१६ ।। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥११७॥ युद्धेन ?, अन्तरारिषड्वर्गकर्मरिपुजयाद्वा सर्व सेत्स्यति भवतो, नातोऽपरं दुष्करमस्तीति ॥ किंत्वियमेव सामग्री अगाधसंसारानवे पर्यटतो भवकोटिसहस्रष्वपि दुष्प्रापेति दर्शयितुमाह जुहारि खल (जुद्धारियं च) दुल्लह, जहित्य कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, चुए बाले गन्भाइस ररि)जइ, अस्सि चेयं पवुच्चइ, ख्वंसि वा छणंसि वा, सेहु एगे संविडपहे (संविडभए--संचिट्ठपहे) मुणी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे, इय कम्म परिण्णाय सव्वसो से न हिंसइ, संजमई नो पगम्मइ, उवेहमाणो पत्तेयं सायं, वण्णा. एसी नारभे कंचणं सव्वलोए एगप्पमुहे विदिसप्पइन्ने निधिपणचारी अरए पयासु ॥ सू० १५४॥ एतदौदारिकं शरीरं भावयुद्धाह, खलुरवधारणे, स च भिन्नक्रमो, दुर्लभमेव-दुष्प्रापमेव, उक्तं च-"ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥ १॥" इत्यादि, पाठा न्तरं वा-"जुहारियं च दु " तत्रानाय सङ्ग्रामयुद्धं परीषहादिरिपुयुद्धं त्वायं तद् दुर्लभमेव तेन युद्ध थस्व, ततो Ka भवतोऽशेषकर्मक्षयलक्षणो मोक्षोऽचिरादेव भावीति भावार्थः। तच्च भावयुद्धाहं शरीरं लब्ध्वा कश्चित्तेनैव भवेनाशेष कर्मक्षयं विधत्ते, मरुदेवीस्वामिनीवत् , कश्चित् सप्तभिरष्टभिर्वा भवैर्भरतवत् , कश्चिदपार्द्धपुद्गलपरावर्तेन, अपरो न | सेत्स्यत्येव, किमित्येवं यत आह-यथा येन प्रकारेण 'अत्र' अस्मिन् संसारे 'कुशलैः' तीर्थकृद्भिः 'परिज्ञाविवेक ॥४१७॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजाचारावृत्तिः (चौलाका परिज्ञान विशिष्टता, कस्यचित् कोऽप्यध्यवसायः संसारवैचित्र्यहेतुः 'भाषितः प्रज्ञापितः, स च मतिमता तथैवाभ्युपगन्तव्य इति । तदेव परिज्ञाननानात्वं दर्शयन्नाह-लब्ध्वाऽपि दुर्लभ मनुजत्वं प्राप्य च मोक्षकगमनहेतु धर्म पुनरपि सम्य. कम्र्मोदयात्तस्मात् च्युतो 'पाल:' अज्ञः 'गर्भादिषु रज्यते' गर्भ आदिर्येषां कुमारयौवनावस्थाविशेषाणां ते गर्भादयः । उद्द शका तेष्वेव गार्यमुपयाति, यथेभिः सार्द्ध मम वियोगो मा भूत् इल्यध्यवसायी भवति, यदिवा धर्माच्च्युनस्तत्करोति येन गर्भादिषु यातनास्थानेषु सङ्गमुपयाति, 'रिजइ'त्ति वा कचित्पाठः, रीयते-गच्छतीत्यर्थः । स्यात्-क्कोक्तमिदं ? यत् | प्राग व्यावर्णितमित्याह-अस्मिन्निति आर्हते प्रवचने 'एतत्' पूर्वोक्तं प्रकर्षणोच्यते प्रोज्यते । एतच्च वक्ष्यमाण| मत्रैवोच्यते इति दर्शयन्नाह-रूपे' चक्षुरिन्द्रियविषयेऽध्युपपन्नो, वाशब्दादन्यत्र वा स्पर्शरसादौ 'क्षणे' प्रवर्तते, 'क्षण हिंसायां' क्षणनं क्षणो-हिंसा तस्यां प्रवर्तते, वाशब्दादन्यत्र चानृतस्तेयादाविति, रूपप्रधानत्वाद्विषयाणां रूपित्वाच्च रूषोपादानं, आस्रवद्वाराणां च हिंसाप्रधानत्वात्तदादित्वाच्च तदुपादानमिति । बालो रूपादिविषयनिमित्तं धर्माच्च्युतः सन् गर्भादिषु रज्यते, अनाहते मार्गे इदमुच्यते, यस्तु पुनर्गदिगमनहेतु ज्ञात्वा विषयसङ्गं धर्मादच्युतो हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवर्तते स किंभूतः स्यादित्याह-'स' जितेन्द्रियो, हुरवधारणे, स एवैक:-अद्वितीयो 'मुनिः' जगत्त्रयमन्ता 'संविडपथ: सम्यग्विद्धः-ताडितः क्षुण्णः पन्थाः-मोक्षमार्गो ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो येन स तथा, 'संविडभये'त्ति वा पाठः, संविद्धभयो दृष्टभय इत्यर्थः, यो ह्यास्रवद्वारेभ्यो हिंसादिभ्यो निवृत्तः स एव मुनिः क्षुण्णमोक्षमार्ग ॥४१८. इति भावार्थः । किं च-अन्येन प्रकारेणान्यथा-विषयकषायामिभृतं हिंसादिकर्मसु प्रवृत्तं 'लोक' गृहस्थलोकं पाखण्डि Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९॥ लोकं वा पचनपाचनौदेशिकसचित्ताहारादिप्रवृत्त मुत्प्रेक्षमाणोऽन्यथा वा आत्मानं निवृत्ताशुभव्यापारमुत्प्रेक्षमाणः संविद्धपथो मुनिः स्यात् इति । लोकं चान्यथोत्प्रेक्ष्य किं कुर्यादित्याह-'इति' पूर्वोक्तहेतुभिर्यबद्धं कर्म तदुपादानं च सर्वतः परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञयाऽपि सर्वतः परिहरेत् । कथं परिहरतीत्याह-'स' कर्मपरिहर्ता कायवाङ्मनोमिने हिनस्ति जन्तून न घातयत्यपरे प्यनुमन्यते । किं च-पापोपादानप्रवृत्तमात्मानं संयमयति, सप्तदशप्रकारं वा संयम करोति संयमयति, आचारविचन्तं वैतत् संयम इवाचरति संयमयति । किं च-'नो पगभइ' 'गल्भ धाष्ट्ये' असंयमकर्मसु प्रवृत्तः सन् न प्रगल्भत्वमायाति. रहस्यप्यकार्यप्रवृत्तो जिहति न धृष्टतां अवलम्बत इति, उपलक्षणार्थत्वादस्य तुण्णमोक्षपथो मुनिन क्रुध्यति, न जात्यादिमानमुदहति, न वश्चनां विधत्ते, न लुभ्यति । किमाकलय्यैतत्कुर्यादित्याह'उत्प्रेक्षमाणः' अवगच्छन् प्रत्येकं प्राणिनां सातं मनोऽनुकूलं नान्यसुखेनान्यः सुखीति नापि परदुःखेन दुःखीत्यतः प्राणिनो न हिंस्यादिति । प्राणिनां प्रत्येक सातमुत्प्रेक्षमाणश्च किं कुर्यादित्याह-वर्ण्यते-प्रशस्यते येन स वर्ण:-साधुकारस्तदादेशी वर्णादेशी--वर्णाभिलाषी सन् नारभते कश्चन पापारम्भं सर्वस्मिन्नपि लोके, यदिवा--तपःसंयमादिकमप्यारम्भं यशाकीय॑थं नारभते, प्रवचनोद्भावनाथ त्वारभते, तदुद्भावकाश्चामी-"प्रावचनी धर्मकथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । विद्यासिडः ख्यातः कविरपि चोद्भावकारत्वष्टौ ॥१॥" यदिवा वर्णो--रूपं तदादेशी--तदभिलाषुकः नोद्वर्तनादिकाः क्रिया आरभेत, किम्भूतः सन्नेतत्कुर्यादित्याह-'एको' मोक्षोऽशेषमलकलङ्करहितत्वात् संयमो वा-रागद्वेषरहितत्वात् तत्र प्रगतं मुखं यस्य स तथा-मोक्षे तदुपाये वा दत्तैकदृष्टिर्न कन्चन पापारम्भमारमेत इति, कि ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ४२० ॥ च-मोक्षसंयमाभिमुखा दिक् ततोऽन्या विदिक् तां प्रकर्षेण तीर्णो विदिक्प्रतीर्णः, स चैवम्भूतः सभारम्भी स्यात्, कुमार्गपरित्यागेन न पापारम्भान्वेषी भवतीत्यर्थः, किं च-चरणं चारः-- अनुष्ठानं निर्विण्णस्य चारो निर्विण्णचारः सोऽस्यास्तीति निर्विण्णचारी, कुत इति चेत्, यतः 'प्रजास्वरतः' प्रजायन्त इति प्रजाः प्राणिनस्तत्रारतः --तदारम्मानिवृत्तौ निर्गमत्वो वा, यश्च शरीरादिष्वपि ममत्वरहितः स निर्विण्णचार्येव भवति, यदिवा प्रजाः - स्त्रियस्तास्वरतः आरम्भेऽपि निर्वेदमा - गच्छति, कारणाभावे कार्यस्याप्यभावादिति ॥ यथ प्रजास्वरक्तः आरम्भरहितः स किम्भूतः स्यादित्याह - से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अकर णिज्जं पावकम्मं तं नो अनेसी, जं संमति पासा तं मोणति पासहा जं मोणंति पासहा तं संमंति पासहा, न इमं सक्कं सिटिलेहिं अद्दिजमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं, मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं, पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो, एस ओहन्तरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि ॥ सू० १५५ ॥ इति तृतीय उद्देशकः ॥ ५-३ ॥ वसु-द्रव्यं, स चात्र संयमस्तद्विद्यते यस्य स निवृत्तारम्भो मुनिर्वसुमान् सर्वं सम्यगन्वागतं प्रज्ञानं पदार्थाविर्भाव कं यस्यात्मनस्तेनात्मना सर्वसमन्वागतप्रज्ञानरूपापन्नेन यदकर्त्तव्यं पापकर्म्म तन्नो कदाचिदप्यन्वेषति, उपलब्ध परमार्थस्वरूपेणात्मना न सावधानुष्ठानविधायी स्यादिति भावार्थ: । यदेव सम्यक प्रज्ञानं तदेव पापकर्मवर्जनं यदेव च पाप सम्य० ५ उद्देशकः ३ ॥ ४२० ॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४२१ ॥ कर्मवर्जनं तदेव सम्यक् प्रज्ञानमित्येतद्गतप्रत्यागतसूत्रेणैव दर्शयितुमाह-सम्यगिति-सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वा तत्सहचरितं, अन्योः सहभावादेकग्रहणे द्वितीयग्रहणं न्याय्यं, यदिदं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वेत्येतत्पश्यत तन्मुनेर्भावो मौनंसंयमानानमित्येतत्पश्यत, यच्च मौनमित्येतत् पश्यत तत्सम्यग्ज्ञानं नैश्चयिकसम्यक्त्वं वा पश्यत, ज्ञानस्य विरतिफलत्वात सम्यक्त्वस्य चाभिव्यक्तिकारणत्वात् सम्यक्त्वज्ञानचरणानामेकताऽध्यवसेयेति भावार्थ: । एतच्च न येन केनचिच्छक्यमनुष्टातुमित्याह-नैतत्सम्यक्त्वादित्रयं सम्यगनुष्ठातु शक्यं, कैः १-'शिथिलैः' अल्पपरिणामतया मन्दवीयैः संयमतपसोऽतिदृढिमरहितैरिति, किं च-आद्रैः-पुत्रकलवाद्यनुषङ्गजनितस्नेहादाीक्रियमाणैरेतत्पूर्वोक्तमशक्यमिति सम्बन्धः, किं च-गुणा:--शब्दादयस्तेष्वास्वादो येषां ते गुणास्वादास्तैरिति, किं च-चक्रः समाचारो येषां ते तथा तैः, मायाविमिरिस्य तथा पमत्तेहित्ति--विषयकषायादिप्रमादैः प्रमत्तैरिति, किं च--अगारं--गृहं तद् आद्यक्षरलोपाद्गारमित्युक्तं तदगारमावसद्भिः-सेवमानः, पापकर्मवजनरूपं मौनमनुष्ठानमशक्यमिति सर्वत्र योजनीयं । कथं तहि शक्यमित्याह'मुनिः' जगत्त्रयस्य मन्ता मौनं--मुनित्वमशेषसावद्यानुष्ठानवर्जनरूपं 'समादाय' गृहीत्वा धुनीयाच्छरीरकमौदारिक कर्मशरीर वेति । कथं च तद्धननमित्याह--प्रान्तं--पर्युषितं वनचनकाद्यन्पं वा, तदपि रूक्षं विकृतेरभावात् , तत् 'सेवन्ते' तदभ्यवहरन्ति, के ते ?--'वीराः कर्मविदारणसहिष्णवः, किंभूताः ?-सम्यक्त्वदशिनः समत्वदर्शिनो वा। यश्च प्रान्तरूक्ष सेवी स किंगुणः स्यादित्याह-'एषः' अनन्तरोक्तविशेषणविशिष्टः ओषो--भवौषः संसारस्तं तरतीति, कोऽसौ ?-मुनिः, 8. वर्तमानसमीप्ये वर्तमानवद्वेति तीर्ण एवासौ, सबाह्याभ्यन्तरसङ्गाभावान्मुक्तवन्मुक्तः, कश्चैवम्भूतो ?-यः सावद्यानुष्ठाना Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य.५ उद्देशक बीआचाराजवृत्तिः (लीलाका ॥ २२॥ द्विरत इत्येवं व्याख्यातः । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, अवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने तृतीयोद्देशकः परिसमाप्तौ इति ॥५-३॥ ॥ अथ पञ्चमाध्ययने चतुर्थोद्देशकः ॥ उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः-इहायोद्देशके हिंसकस्य विषयारम्मकस्यैकचरस्य मुनित्वामावः प्रदर्शितो, द्वितीयतृतीययोस्तु हिंसाविषयारम्भपरिग्रहव्युदासेन तद्वतो दोष प्रदर्श्य विरत एव मुनिर्भवतीत्येतत्प्रतिपादितम् , अस्मिथ एकचरस्था निभावे दोषोद्भावनतः कारणमाह, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादिसूत्रम् गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुजायं दुप्परक्कतं भवइ मचियत्तस्स मिक्खुणो ॥ सू० १५६ ॥ असति बुद्धयादीन् गुणानिति ग्रामः, ग्रामादनु-पश्चादपरो ग्रामो ग्रामानुग्रामस्तं, 'दूयमानस्थ' अनेकार्थत्वाद्धातूनां विहरतः एकाकिना साधोयत्स्यात् तदर्शयति-दुष्टं यातं दुर्या, गमनक्रियाया गर्दा, गच्छत एवानुकूलप्रतिकूलोपसर्ग सद्धावादहनकस्येव कृतगतिमेदस्य दुष्टव्यन्तरीजवाच्छेदवत् , तथा दुष्टं पराक्रान्तम्-आक्रान्तं स्थानमेकाकिनो भवति, स्थलभद्राश्रितोपकोशागृहसाधोरिवेति, यदिवा-चतुष्प्रोषित मत कागृहोषितसाधोरिव, तस्य महासत्वतया अक्षोमेऽपि दुष्पराक्रान्तमेवेति, एतच्च न सर्वस्यैव दुर्यातं दुष्पराक्रान्तं च भवतीत्यतो विशिनष्टि-अव्यक्तस्य भिक्षोरिति, Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४२३॥ मिक्षणशीलो मिस्तस्य, किम्भूतस्य ?-अव्यक्तस्य, स चाव्यक्तः श्रुतवयोभ्यां स्यात, तत्र श्रुताव्यक्तो येनाचारप्रकल्पोऽर्थतो नाधिगतो भवति गच्छगतानां तमिर्गताना तु नवमपूर्वतृतीयवस्त्विति, वयसा चाव्यक्त आषोडशवर्षादगच्छगतानां तमिर्गतानां च त्रिंशत इति, अत्र चतुभेङ्गिका, श्रुतवयोभ्यामव्यक्तस्यैकचर्या न कन्पते, संयमात्मविराधनातः इत्याद्यो भङ्गः, तथा श्रुतेनाव्यक्तो वयसा च व्यक्तः, तस्याप्ये कचर्या न कल्पते, अगीतार्थत्वादुमयविराधनासद्भावादिति द्वितीयः, तथा श्रुतेन व्यक्तो वयसा चाव्यक्तः, तस्यापि न कल्पते, पालतया सर्वपरिभवास्पदत्वाद् विशेषतः स्तनकुलिङ्गादीनामिति तृतीयः, यस्तूमयव्यक्तः स सति कारणे प्रतिमामेकाकिविहारित्वमभ्युद्यतविहारं वा प्रतिपद्यताम, अस्यापि कारणाभ वे एकचर्या नानुमता, यतस्तस्यां गुप्तीर्या भाषेषणादिविषया बहवो दोषाः प्रादुष्पन्ति, तथाहि-एकाकी पर्यटन् यदीर्यापथं शोधयति ततः श्वाधुपयोगाद्मश्यति तदुपयुक्तश्चेन्नेर्यापथं शोधयेदित्यादिकाः शेषा अपि समितयो वाच्याः, अन्यच्च-अजीर्णेन वातादिक्षोभेण वा व्याध्युद्भवे संयमात्मविराधना प्रवचनहीलना च, तत्र यदि करुणापना गृहस्थाः प्रतिजागरणं कुयु स्तह्य ज्ञानतया षटकायोपमर्दनं कुर्वाणाः संयमबाधामापादयेयुः, अथ न कश्चित्तत्र तथाभूतः कर्तव्योद्यतः स्यात् तत आत्मविराधना, तथाऽतिसारादौ मूत्रपुरीषजम्बालान्तर्वर्तित्वात् प्रवचनहीलना, अपि च-प्रामादि व्यवस्थितः सन् धिगजात्यादिना केशलुञ्चिताद्यधिक्षेपेणाधिक्षिप्तः सन् परस्परोपमर्दकारि दण्डादण्डि भण्डनं विदध्यात, बतच गच्छगतस्य न सम्भवति, गुर्नाद्युपदेशसम्भवाद, तदुक्तं च-“'अक्कोसहणणमारणधम्मभंसाण बाल १ आक्रोशवधमारणधर्मभ्रंशानां पालसुलभानाम् । लाभं मन्यते धीरः यथोत्तराणामभावे ॥१॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ४२४ ॥ सुलभाणं । लाभ मण्णइ घोरो जह्नुत्तराणं अभावमि || १ ||" इत्येवमादिनोपदेशेन गच्छान्तर्गतो गुरुणाऽ-नुशास्यते, गच्छनिर्गतस्य पुनर्दोषा एव केवला इति उक्तं च- "" साहंमिएहिं संमुज्जएहिं एगागिओ अ जो विहरे । आयकपरयाए ठक्कायवहंमि आवडह || १ || 'एगागिअस्स दोसा इत्थी साणे तदेव पडिfty | भिक्खविसोहि महव्वय तम्हा सबिइज्जए गमणं ॥ २ ॥" इत्यादि, गच्छान्तर्वर्त्तिनस्तु बहवो गुणाः, तन्निश्रया अपरस्यापि बालवृद्धादेरुद्यत विहाराभ्युपगमात् यथाहि उदके समर्थस्तरनपरमपि काष्ठादि विलग्नं तारयति, एवं गच्छेयुद्यतविहायपरं सीदन्तमुद्यमयति, तदेवमेकाकिनो दोषान् वीक्ष्य गच्छान्तविहारिणश्च गुणान् कारणाभावे व्यक्तेनापि नैकचर्या विधेया, कुतः पुनरव्यक्तेनेति स्थितं । ननु च सति सम्भवे प्रतिषेधो युक्तो, न चास्ति सम्भवः एकाकिविहारितायाः, कोहि नाम बालिशः सहायान् विहाय समस्तापायास्पदमेका किविहारितामभ्युपेयादिति, अत्रोच्यते, न किञ्चिदपि कर्म्मपरिणतेरशक्यमस्ति तथाहि - स्वातन्त्र्य गदागदकल्पस्य समस्तव्यसनप्रवाहसेतुभृतस्याशेष कल्याणनिकेतनस्य शुभाचाराधारस्य गच्छस्यान्तर्वर्त्तिनः क्वचित्प्रमादस्खलिते चोदिताः अवगणय्य सदुपदेशमपर्यालोच्य समविचार्य कषायविपाककटुकशामनवधार्य परमार्थं पृष्ठतः कृत्वा कुलपुत्रतां वाङ्मात्रादपि केचित्को पनिघ्नाः **** १ साधर्मिकेषु सम्यगुद्यतेषु एकाकी च यो विहरेत् । भातप्रचुरतायां पटकायवधे स पतति ॥ १ ॥ २ एकाकिनो दोषाः स्त्री श्वा तथैव प्रत्यनीकः । मिक्षाऽविशोधिः महाव्रतेषु तस्मात्सद्वितीयेन गमनम् ॥ २ ॥ सम्य० ५ उद्दे शका ३ ॥ ४२४ ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥। ४६५ ।। सुखैषिणो ऽगणितापदो गच्छाभिर्गच्छन्ति, तत्र चैहिकामुष्मिका पायानवाप्नुवन्तीति, उक्तं च- ""जह सायर मि मीणा संखोहं सायरस्स असहंता । णिति तभो सुहकामी णिग्गयमित्ता विणस्संति ॥ १ ॥ एवं गच्छ समुद्दे सारणवीईहिं चोईया संता । णिति तओ सुहकामी मोणा व जहा विणस्संति ॥ २ ॥ गच्छंमि केह पुरिसा सउणी जह पंजरंतरणिरुडा । सारणवारणचोइय पासत्थगया परिहरति ॥ ३ ॥ जहा दिया पोयमपक्खजायं, सवासया पविउमणं मणागं । तमचाइया तरुणमपत्तजायं, ढंक्कादि अव्वत्तगमं हरेज्जा ॥ ४ ॥ " एवमजातसूत्र व यः पक्षस्तीर्थिकध्वाङ्क्षादिभिर्विलुप्यते गच्छालयान्निर्गतो वाङ्मात्रेणापि चोदितः सन् इति । एतद्दर्शयितुमाह वयसावि एगे बुझ्या कुप्पंति माणवा, उन्नयमाणे य नरे महया, मोहेण मुज्झह, संवाहा बहवे भुज्जो २ दुरइकम्मा अजाणओ अपासओ, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तद्दिट्ठीए तम्मुतीए तप्पुरक्कारे तस्सन्नी तन्निवेसणे, जयं विहारो चित्तनिवाई १ यथा सागरे मीनः संक्षोभं सागरम्या सहमानाः। निर्गच्छन्ति ततः सुखकामिनो निर्गतमात्रा विनश्यन्ति ॥ १ ॥ एत्र गच्छसमुद्रे मारणवाचि भिनदिताः सन्तः । निगच्छन्ति ततः सुखकामिनो मीना इव यथा विनश्यन्ति ॥ २ ॥ गच्छे केचित् पुरुषाः कुनयो यथाञ्जन्तरनिरुद्धाः । स्मारणवारणचोदिताः पार्श्वस्थतां गताः परित्यजन्ति ॥ ३ ॥ यथा द्विजपोतमजातपक्षं स्वका दावासकात प्लवितुमनसं मनाग् । तत्राशक्तं तरुणम जातपत्रं, ढङ्कादयोऽव्यक्तगमं हरेयुः (रन्ति ॥ ४ ॥ ।। ४२५ ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य.५ उद्देशकः ४ श्रीचारावृत्तिः (जीलाका ॥४२६॥ पंथनिझाई पलिषाहिरे, पासिय पाणे गच्छिज्जा ॥ सू० १५७ ॥ कचित्तपःसंयमानुष्ठानादाववसीदन्तः प्रमादस्खलिता वा गुर्वादिना धर्मेण वचसाऽपि 'एके' अपुष्टधर्माणः अनवगतपरमार्थाः 'उक्ताः' चोदिताः कुप्यन्ति, के ते -'मानवा' मनुजाः क्रोधवशगा भवन्ति, ववते च-कथमहमनेनेयता साधूनां मध्ये तिरस्कृता, किं मया कृतम् १, अथवाऽन्येऽप्येतत्कारिणः सन्त्येव, ममाप्येवम्भूतोऽधिकारोऽभूत , धिग्मे जीवितमित्यादि, महामोहोदयेन क्रोधतमिस्राच्छादितदृष्टयः उज्झितसमुचिताचारा उभयान्यतराव्यक्ता मीना इव गच्छसमुद्राभिर्गत्य विनाशमाप्नुवन्ति, यदिवा वचसाऽपि यथा क इमे लुश्चिताः मलोपहतगात्रयष्टयः प्रगतनावसर एवास्माभिर्द्रष्टव्या इत्यादिनोक्ता एके क्रोधान्धाः कुप्यन्ति मानवाः, अपिशब्दात्कायेनापि स्पृष्टाः कुप्यन्ति, कुपिताश्चाधिकरणादि कुर्वन्तीत्येवमादयो दोषा अव्यक्तैकचर्यायां गुर्वादिनियामकामावत्प्रादुष्प्युरिति, गुरुसान्निध्ये चैवम्भृत उपदेशः सम्भवेत, तद्यथा-"आनष्ठेन मतिमता तत्त्वार्थान्वेषणे मतिः कार्या। यदि सत्य का कोपः १ स्यादनतं किं नु कोपेन ?॥१॥ तथा- अपकारिणि कोपश्चेत्कोपे कोपः कथं न ते । धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रसह्य परिपन्थिनि ॥२॥"इत्यादि, किं पुनः कारणं वचसाऽप्यभिहिता ऐहिकामुष्मिकापकारकारिणः स्वपरवाधकस्य क्रोधस्थावकाशं ददतीत्याह-उन्नतो मानोऽस्येत्युन्नतमानः, उन्नतं वाऽऽत्मानं मन्यत इति, स चैवम्भृतो 'नरो' मनुष्यो महता मोहेन-प्रबलमोहनीयोदयेन अज्ञानोदयेन वा 'मुद्यति' कार्याकार्यविचारविवेकविकलो भवति, स च मोहमोहितः केनचिच्छिक्षणार्थमभिहितो मिथ्या दृष्टिना वा वाचा तिरस्कृतो जात्यादिमदस्थानान्यतरसद्भावेनोन्नतमानमन्दरारूढः ॥४२६. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ कुप्यति, मामप्येवमयं तिरस्करोति, धिग्मे जाति पौरुष विज्ञानं चेत्येवमभिमानग्रहगृहीतो वाङ्मात्रादपि गच्छान्निर्गच्छति, तन्निर्गतो वाऽधिकरणादिविडम्बनयाऽऽत्मानं विडम्बयति, अथवोन्नम्यमान, केनचित् दुर्विदग्धेनाहोऽयं महाकुलप्रसूत आकृतिमान् पटुप्रज्ञो मृष्टवाक् समस्तशास्त्रवेत्ता सुभगः सुखसेव्यो वेत्यादिना वचसा तथ्येनातथ्येन वोत्प्रास्यमान उन्नतमानो गर्वाध्मातो महता चारित्रमोहेन मुह्यति संसारमोहेन वोह्यत इति । तस्य चोन्मतमानतया महामोहेन मुह्यतो माहाच्च वाङ्मात्रेणापि कुप्यतः कोपाच्च गच्छनिर्गतस्यानभिव्यक्तस्य भिझोामानुग्राममेकाकिनः पर्यटतो यत्स्यात्तदाह-तस्थाव्यक्तस्यैकचरस्य पर्यटतः सम्बाधयन्तीति सम्बाधा:-पीडाः उपसर्गजनिता नानाप्रकागतङ्कजनिता वा भूयो भूयो बह्वयः स्युः, ताश्चैकाकिनाऽव्यक्तेन निरवद्यविधिना 'दुरतिक्रमा' दुरतिलचनीयाः, किम्भृतस्य दूरतिक्रमा इत्याह-तासां नानाप्रकारनिमित्तोत्थापितानां बाधानामतिसहनोपायमजानानस्य सम्यक्करणसहनफलं चापश्यतो दुरति क्रमणीयाः पीडा भवन्ति, ततश्चातङ्कपीडाकूलीभूतः सन्नेषणामपि लङ्घयेत , प्राण्युपमर्दमप्यनुमन्येत, वाकण्टकनुदितः a सन्नव्यक्ततया प्रज्वलेत, नैतद्भावयेद् यथा मत्कर्मविपाकापादिता एताः पीडाः परोऽत्र केवलं निमित्तभृतः, किं च "आत्मद्रोहममर्याद, मूढमुज्झितसत्पथम् । सुतरामनुकम्पेत, नरकाञ्चिष्मदिन्धनम् ॥१॥" इत्यादिका भावना आगमापरिमलितमतेनं भवेदिति । एतत्प्रदर्श्य भगवान् विनेयमाह-'एतद्' एकचर्याप्रतिपन्नस्य बाधादुरतिक्रमणीयत्वमजानानस्यापश्यतश्च 'ते' तव मदुपदेशवर्तिनो मा भवतु, आममानुसारितया सदा गच्छान्तर्वर्ती भवेत्यर्थः । सुधर्मस्वाम्याह-एतत् यत् पूर्वोक्तं तत् 'कुशलस्य' श्रीवर्द्धमानस्वामिनो 'दर्शनम्' अभिप्रायो यथाऽ ४२७. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀ सम्य. ५ उद्देशका ४ व्यक्तस्यैकचरस्य दोषाः सततमाचार्यसमीपवर्तिनश्च गुणा इति । आचार्यसमीपवर्जिना च किं विधेयमित्याह-तस्यश्रीआचा आचार्यस्य दृष्टिस्तदृष्टिस्तया सततं वर्तितव्यं हेयोपादेयाधु, यदिवा तस्मिन् संयमे दृष्टिस्तदृष्टिः, स एव वाऽऽगमो रावृत्तिः। दृष्टिस्तदृष्टिस्तया सर्वकार्येषु व्यवहव्यम् , तथा-तेनोक्ता सर्वसङगेभ्यो विरतिमुक्तिस्तया सदा यतितव्यम् , तथा (चीलाका पुरस्करणं पुरस्कार:-सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापनं, तस्य-आचार्यस्य पुरस्कारस्तत्पुरस्कारस्तस्मिन्-तद्विषये यतितव्यम् , तथा ॥४२८॥ तस्य संज्ञा तत्संत्रा-तज्ज्ञानं तद्वस्तित्संज्ञी सर्वकार्येषु स्यात् , न स्वमतिविरचनया कार्य विदध्यात्, तथा तस्य-गुरो निवेशनं-स्थानं यस्यासौ तन्निवेशनः, सदागुरुकुलवासी स्यादिति भावः । तत्र गुरुकुले निवसन् किम्भूतः स्यादित्याहयतमानो-यतनया विहरणशीलो विहारी स्यात् , यतमानः प्राण्युपमर्दनमकुर्वन् प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियाः कुर्यादिति, किं च-चित्तम्-आचार्यामिप्रायस्तेन निपतितु-क्रियायां प्रवर्तितु शीलमस्येति चित्तनिपाती सदा स्यादिति, तथा गुरोः क्वचिद्गतस्य पन्थानं निर्यातु-प्रलोकितु शीलमस्येति पथनिर्यायी, उपलक्षण चैतत् तेन सुषुप्सोः संस्तारकप्रलोकी बुभुक्षोराहारान्वेषीत्यादिना गुरोशराधकः सदा स्यात् , किं च-परिः-समन्तात् गुरोरवग्रहात् पुरतः पृष्ठतो वाऽवस्थानासदा कार्यमृते बाह्यः स्याद्, एतस्माच्च सूत्रात्त्रयः ईयों द्देशका निर्गता इति । किं च-क्वचित्कार्यादौ गुदिना प्रेषितः सन् दृष्ट्वा प्राणिनो युगमात्रदृष्टिस्तदुपधातं परिहरन् गच्छेत् । किं च-.. से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विणिवद्रमाणे संपलिजमाणे, एगया गुणसमियस्स रीयओ कायसंफ़ासं समणुचिन्ना एगतिया पाणा उद्दायंति, इह- . Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४२६ ॥ लोगवेयणबिज्जावडियं, जं आउट्टिकयं कंमं तं परिन्नाय विवेगमेह, एवं से अप्पमाएण विवेगं कि वेयवी । सू० १५८ ॥ 'स' भिक्षुः सदा गुर्वादेशविधायी एतद्वयापारवान् भवति, तद्यथा - अभिक्रामन् - गच्छन् प्रतिक्रामन् -- निवर्त्तमानः सङ्कुचन हस्तपादादिसङ्कोचनतः प्रसारयन् हस्तादीनवयवान् विनिवर्त्तमानः समस्ताशुभव्यापारात्, सम्यक् परि:समन्ताद्धस्तपादादीनवयवांस्तन्निक्षेपस्थानानि वा रजोहरणादिना मृज्न-परिमृजन् गुरुकुलवासे वसेदिति सर्वत्र सम्बन्धनीयं तत्र निविष्टस्य विधि - भूम्यामेकमूरु व्यवस्थाप्य द्वितीयमुत्क्षिप्य तिष्ठेत्, निश्चलस्थानासहिष्णुतया भूम प्रत्युपेक्ष्य प्रमाय च कुक्कुटीविजृम्भितदृष्टान्तेन सङ्कोचयेत् प्रसारयेद्वा, स्वपन्नपि मयुग्वत्स्वपिति, स किलान्यसत्वमयादेकपार्श्वशायी सचेतनश्च स्वपिति, निरीक्ष्य च परिवर्त्तनादिकाः क्रिया विधत्ते, इत्येवमादि संपरिमृजन् सर्वाः क्रियाः करोति । एवं चाप्रमत्ततया पूर्वोक्ताः क्रियाः कुर्वतोऽपि कदाचिदवश्यंभावितया यत्स्यात्तदाह - 'एकदा कदाचित्, 'गुणसमितस्य' गुणयुक्तस्याप्रमत्ततया यतेः 'रीयमाणस्य' सम्यगनुष्ठानवतोऽभिक्रामतः परिक्रामतः सकुचतः प्रसारयतो विनिवर्त्तमानस्य संपरिमृजतः कस्याश्चिदवस्थायां कायः -- शरीरं तत्संस्पर्शमनुचीर्णाः -- कायसङ्गमागताः सम्पातिमादयः प्राणिनः एके परितापमाप्नुवन्ति एके ग्लानतामुपयान्ति एकेऽवयवविध्वंसमापद्यन्ते, अपश्चिमावस्थां तु सूत्रेणेव दर्शयति-- एके 'प्राणाः' प्राणिनः 'अपद्रान्ति' प्राणैर्विमुच्यन्ते, अत्र च कर्म्मबन्धं प्रति विचित्रता, तथाहिशैलेrयवस्थायां मशकादीनां काय संस्पर्शेन प्राणत्यागेऽपि बन्धोपादानकारण योगाभावान्नास्ति बन्धः, उपशान्तक्षीण ॥ ४२ ॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीआचा राजवृत्तिः (चीलाङ्का.) सम्य०५ उद्देशकः ४ ॥४३०॥ मोहसयोगिकेवलिनां स्थितिनिमित्तकषायाभावात् सामयिका, अप्रमत्तयतेर्जघन्यतोऽन्तमुहूर्तमुत्कृष्टतश्चान्ताकोटीकोटीस्थितिरिति, प्रमत्तस्य त्वनाकुट्टिकयाऽनुपेत्यप्रवृत्तस्य क्वचित्पाण्याद्यवयवसंस्पर्शात् प्राण्युपतापनादौ जघन्यतः कर्मबन्धः उत्कृष्टतश्च प्राक्तन एव विशेषिततरः । स च तेनैव भवेन क्षिप्यत इति सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-ह-अस्मिन् लोके -जन्मनि वेदनम्-अनुभवनमिहलोकवेदनं तेन वेद्यम् - अनुभवनीयमिहलोकवेदनवेद्यं तत्रापतितमिहलोकवेदनवेद्यापतितं, इदमुक्तं भवति-प्रमत्तयतिनाऽपि यदकामतः कृतं कर्म कायसङ्घट्टनादिना तदैहिकमवानुबन्धि, तेनैव भवेन क्षप्यमाणत्वाद्, आकुट्टीकृतकर्मणि तु यद्विधयं तदाह-यन पुनःकाकुट्टया कृतम्-आगमोक्तकारणमन्तरेणोपेत्य प्राण्युपमर्देन विहितं तत्परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया 'विवेकमेति' विविच्यतेऽनेनेति विवेक:--प्रायश्चित्तं दशविधं तस्यान्यतरं मेदमुपैति, तद्विवेकं वाअमावाख्यमुपैति--तत्करोति येन कर्मणोऽभावो भवति । यथा च कर्मणो विवेको भवति तथा दर्शयितुमाह-एव मिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण 'से' तस्य कर्मणः साम्परायिकरय मदा वेदविद् 'अप्रमादेन' प्रमादाभावेन दशविधप्रायश्चित्तान्यतरभेदसम्यगनुष्ठानेन 'विवेकम्' अमावं कीर्तयति 'वेदवित्' तीर्थकरो वेदविद्वा-आगमविद्गणधरश्चतुर्दशपूर्वविद्वति ॥ किम्भूतः पुनरप्रमादवान् भवतीत्याह से पभूयदंसी पभूयपरिन्नाणे उवसंते समिए सहिए सयाजए, दह्र विप्पडिवेएइ अप्पाणं किमेस जणो करिस्सई, एस से परमारामो जाओ लोगंमि इत्थोओ, मुणिणा हु एवं पवेइयं, उब्बाहिबमाणे गामधम्महिं अवि निबलासए अवि ओमोयरियं ४३०॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुज्जा, अवि उडदं ठाणं ठाइज्जा अवि गामाणगामं दृइन्जिज्जा अवि आहार बुच्छिदिज्जा अवि चए इत्थीसु मणं, पुव्वं दंडा पच्छा फासा पुवं फासा पच्छा दंडा, इच्चेए कलहासंगकरा भवंति, पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए त्तिमि, से नो काहिए नो पासणिए नो संपसारणिए नो मामए णो कयकिरिए वइगुत्ते अज्झप्पसंखुडे परिवजह सया पावं एये मोज समणवासिज्जासित्तिबेमि ॥ सू० १५९॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥ ५-४॥ 'स' माधुः प्रभृतं प्रमादविपाकादिकमतीतानागतवर्तमानं वा कर्मविपाकं द्रष्टु शीलमस्येति प्रभृतदर्शी, साम्प्रतेक्षितया न यतकिश्चनकारीत्यर्थः, तथा प्रभूतं सत्वरक्षणोपायपरिज्ञानं संसारमोक्षकारणपरिज्ञानं वा यग्य स प्रभृतपरिज्ञान:, यथावस्थितसंसारस्वरूपदर्शीत्यर्थः, किं च--उपशान्तः कषायानुदयादिन्द्रियनोइन्द्रियोपशमाद्वा, तथा पञ्चभिः समितिभिः समितः सम्यग्वा मोक्षमार्गमितः ममितः, तथा ज्ञानादिभिः सहितः--समन्वितः सह हितेन वा सहितः, 'सदा' सर्वकालं यतः सदायतः, स एवम्भूतोऽप्रमत्तो गुरोरन्तिकमावसन प्रमादजनितम्य कर्मणोऽन्तं विधत्ते । स च स्व्याद्यनुकूलपरीषहोपपत्ती किं विदध्यादित्याह-'दृष्टवा' अवलोक्य स्त्रीजनमुपसर्गकरणायोद्यतमात्मानं 'विप्रतिवेदयति' पर्यालोचयति, तद्यथा--सम्यग्दृष्टिरस्मि, तथोत्क्षिप्तपश्चमहाव्रतमारः शरच्छशाङ्कनिर्मलकुललब्धजन्मा अकार्याकरणतयोस्थित इन्येवमात्मानं पर्यालोचयति, तं च वीजनं किमेष स्त्रीजनो मम त्यक्तजीविताशस्योज्झितैहिकसुखाभिलाषस्योपसर्गा Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य. ५ उद्देशकः ४ a दिकं कुर्यात् !, अथवा वैषयिकसुखस्य दुःखप्रतीकाररूपत्वात् किमेष स्त्रीजनः सुखं विदण्याद् ? अन्यो वा पुत्रकलत्रादिको श्रीआचा जनो मम मृत्युना जिघृक्षितस्य व्याधिना वाऽऽदित्सितस्य किं तत्प्रतीकारादिकं कुर्यादिति ? यदिवैवं स्त्रीजनस्य स्वभावं गणवृत्तिः चिन्तयेदिति सूत्रेणैव दर्शयति--स एष स्त्रीजन आरमयतीत्यारामः परमश्वासावारामश परमारामः ज्ञाततत्वमपि जनं (शीलाता.) हासविलासोपाङ्गनिरीक्षणादिभिर्विब्बोकोहयतीत्यर्थः, याः काश्चनास्मिन् लोके स्त्रियः ता मोहरूपा विज्ञाय यावन्न .४३२॥ परित्यजन्ति तावत्स्वत एव परित्यजेत् । एतच्च तीर्थकरेण प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह-'मुनिना' श्रीवर्द्धमानस्वामिनो त्पन्नज्ञानेनैव 'एतत्' पूर्भेक्तं, यथा स्त्रियो भावबन्धनरूपाः, 'प्रवेदितं' प्रकर्षणादौ वा व्याख्यातमिति । एतच्च वक्ष्यमाणं प्रवेदितमित्याह-उत्-प्राबल्येन मोहोदयाद् वाध्यमान:--पीडथमानः उवाध्यमानः, के ग्रामधर्मग्रामाःइन्द्रियग्रामस्तेषां धाः--स्वभावा यथास्वं विषयेषु प्रवर्तनं तैरुवाध्यमानो गच्छान्तर्गतः सन् गुर्वादिनाऽनुशास्यते, कथमनुशास्यत इत्यत आह-अपिः सम्भावनायां, निलं-निःसारमन्तप्रान्तादिकं यद्रव्यं तदाशक:--तद्भोजी स्यात् , यदिवा निर्गतं बलं--सामर्थ्यमस्येति निर्वलः एवम्भूतः सन्नाशीत, बलाभावे च ग्रामधर्मोपशमदर्शनाद् , बलाभावश्चाहारहान्या स्यादिति दर्शयति-अप्यवमौदर्यं कुर्याद् , यदि ह्यन्तप्रान्ताशिनोऽपि न मोहोपशमः स्यात् ततस्तदपि वन्लचनकादिना द्वात्रिंशत्कवलमात्रं गृह्णीयात् , तेनाप्यनुपशमे कायोत्सर्गादिना कायक्लेशं कुर्यादित्येतदर्शयति-अप्यूचं स्थानं तिष्ठेत , शीतोष्णादौं कायोत्सर्गेणातापनां कुर्यात् , तेनाप्यनुपशमे ग्रामानुग्राममपि विहरेत् , निष्कारणे विहारो निषिद्धो मोहोपशमनार्थ तु कुर्यात, किंबहुना ?, येन येनोपायेन विषयेच्छा निवर्तते तत्तत्कुर्यात, पर्यन्ते आहारमपि ॥ ४३२॥ ܀܀܀܀܀܀ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४३३ ॥ व्यवच्छिन्द्याद् , अपि पातं विदध्यात् अप्युद्वन्धनं कुर्यात् न च स्त्रीषु मनः कुर्यादित्याह च-अपिः समुच्चये, स्त्रीषु यन्मनः प्रवृत्तं तत् परित्यजेत , तत्परित्यागे हि कामा द्विरूपा अपि दूरत एव परित्यक्ता भवन्तीति, उक्तं च-"काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पास्किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१" किं पुनः कारणं स्त्रीषु मनो न विधेयमित्याह-स्त्रीसङ्गप्रसक्तानामपरमार्थदृशां 'पूर्व प्रथममेव तत्सङ्गाविच्छेदार्थमर्थोपार्जनप्रवृत्तस्य कृषिवाणिज्यादिक्रियाः कुर्वतोऽगणितक्षुत्पिपासाशीतोष्णादिपरीषहस्यैहिकदुःखरूपा दण्डाः, ते च स्त्रीसम्भोगात्प्रथममेव क्रियन्त इति पूर्वमित्युक्तं, पश्चाच्च विषयनिमित्तजनितकर्मविपाकापादितनरकादिदुःखविशेषाः स्पर्शा भवन्ति, यदिवा स्त्रयाद्यकार्यप्रवृत्तस्य पूर्व दण्डपाताः पश्चाद्धस्तपादच्छेदादिकाः स्पर्शा भवन्ति, यदिवा पूर्व स्पर्शाः पश्चाद्दण्डपाता इति, अथवा पूर्व दण्डा:-ताडनादिकाः पश्चात्स्पर्शाः-सम्बाधनालिङ्गनचुम्बनादिकाः, तद्यथा-वन्धानीतावरुद्धराजकुमारीगवावक्षिप्तपतदावीलग्रहणाद्राजपुरुषावलोकनताडनेन मूछितराजकुमारीतदर्शनतो वणिगिन्द्रदत्तस्याग्रतो दण्डाः पश्चात्स्पर्शा इति, पूर्व वा सुखादिस्पर्शाः पश्चाद्दण्डा ललिताङ्गकस्येवान्येषां चोपपतीनामिति । किं च-इत्येते स्त्रीसम्बन्धाः कलह -सङ्ग्रामस्तत्रासङ्गः-संबन्धस्कलहासङ्गस्तत्करा भवन्ति, यदिवा कलह:-क्रोधः आसङ्गो-राग इत्यतो रागद्वेषकारिणो भवन्ति, यद्येवं ततः किं कुर्यादित्याह-ऐहिकामुष्मिकापायतः स्त्रीसङ्गप्रत्युपेक्षया 'आगमेत्त'त्ति ज्ञात्वा आज्ञापयेदात्मानमनासेवनयेति, इतिरधिकारपारसमाप्तौ, ब्रवीम्यहं तीर्थकरवचनानुसारेण-दुःखं च ताः परिहर्त्तमिति । पुनरपि तत्परिहरणोपायमाह-'स' स्त्रीसङ्गपरित्यागी स्त्रीनेपथ्यका शृङ्गारकथा वा नो कुर्यात् , एवं च तास्त्यक्ता Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्ब०५ उद्देशक भीआचारावृत्तिः (शीलाङ्का. ४३४ ॥ भवन्ति, तथा-तासां नरकवीथीनां स्वर्गापवर्गमार्गार्गलानामङ्गप्रत्यङ्गादिकं न पश्येत् , यतस्तनिरीक्ष्यमाणं महतेऽनय भवतीति, उक्तं च-"सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जा तावविधत्ते विनयमपि समालम्बने तावदेव । भ्रूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टियाणाः पतन्ति ॥१॥" तथा-ताभिर्नरकविसम्भभूमिभिः साई न" सम्प्रसारणं-पर्यालोचनमेकान्ते निजस्वस्रादिभिरपि कुर्यादिति, उक्तं च-"मात्रा स्वम्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यन्त्र मुद्धति ॥१॥" इत्येवमादि, तथा-न तासु स्वार्थपरासु ममत्वं कुर्यात् , तथा-कृता-अनुष्ठिता तदुपकारिणी मण्डनादिका क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवम्भूतो न भूयात् , न स्त्रीणां वैयावृत्त्यं कुर्यात्, काययोगनिरोध इति भावः, तथा तथैताः शुभानुष्ठानपरिपन्थिनीनं वाङ्मात्रेणाप्यालपेदिति वाग्योगनिरोधः, तथा-आत्मन्यधि अध्यात्म-मनस्तेन संवृत्तोऽध्यामसंवृत्तः-स्त्री भोगादत्तमनाः स्त्रार्थोपयुक्तनिरुद्धमनोयोगः, एवम्भृतश्च किमपरं कुर्यादित्याह-परिः-समन्तात् वर्जयेत्-परिहरेत् 'सदा सर्वकालं 'पाप' किल्विषं तदुपादानं वा कम्म, उपसंहरणार्थमाहएतदु'यदुद्देशकादेरारभ्योक्तं, मुनेरिदं मौनं मुनिभावो वा तदात्मनि समनुवासये:-आत्मनि विदध्याः ॥ इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने चतुर्थोद्देशकः परिसमाप्तः॥ ५-४ ॥ ४३४. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पञ्चमाध्ययने पञ्चमोद्देशकः ॥ उक्तश्चतुर्थोद्देशकः साम्प्रतं पश्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशकेऽव्यक्तस्यैकचरस्य प्रत्यपायाः प्रदर्शिताः, अतस्तान् परिजिहीर्षणा सदाऽऽचार्यसेविना भवितव्यम् , आचार्येण च हृदोपमेन भाव्यं तदन्तेवासिना च तपासंयमगुप्तेन निःसङ्गेन च विहर्त्तव्यमिति, एतत्प्रतिपादनसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् से बेमि तंजहा-अवि हरए पडिपुण्णे समंसि भोमे चिट्ठह उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठइ सोयमझगए से पास सव्वओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पन्नाण. मंता पबुद्धा आरम्भोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिव्वयंति त्तिबेमि ॥१६॥ सेशब्दम्तच्छब्दार्थे, यद्गुण आचार्यों भवति तदहं तीर्थकरोपदेशानुसारेण ब्रवीमीति, तद्यथेति वाक्योपन्यासार्थे, अपिशब्दो भङ्गसमुच्चयार्थः, ते चामी भङ्गाः-एको हृदो-जलाशयः परिगलस्रोताः पर्यागलस्रोताच, सीतासीतोदाप्रवाहहदवत् , अपरस्तु परिगलत्स्रोताः, नो पर्यागलतस्रोताः, पद्महदवत् , तथा परो नो परिगलस्रोताः पर्यागलस्रोताच, लवणोदधिवत् , अपरस्तु नो परिगत्स्रोता नो पर्यागलस्रोताच, मनुष्यलोकार्बहिः समुद्रवत् । तत्राचार्यः श्रुतमङ्गीकृत्य प्रथमभङ्गपतितः, श्रुतस्य दानग्रहणसद्भावात् , साम्परायिककर्मापेक्षया तु द्वितीयमङ्गपतितः, कषायोदयाभावेन ग्रहणाभावात्तपःकायोत्सर्गादिना क्षपणोपपत्तेश्चेति, आलोचनामङ्गीकृत्य तृतीयभङ्गपतितः, आलोचनाया अप्रतिश्रावित्वात् , कुर्माग Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचारावृत्तिः (शीलाका.) सम्य. ५ उद्देशक: ५ ॥४३६॥ प्रति चतुर्थभङ्गपतितः: कुमार्गस्य हि प्रवेशनिर्गमाभावात् , यदिवा धम्मिमेदेन भङ्गायोज्यन्ते-तत्र स्थविरकल्पिकाचार्याः : प्रथमभङ्गपतिताः, द्वितीयभङ्गपतितस्तीर्थ कृत , 'तृतीयभङ्गस्थस्त्वहालन्दिका, स च क्वचिदर्थापरिसमाप्तावाचार्यादेनिर्णयसद्भावात्', प्रत्येकबुद्धास्तूमयाभावाच्चतुर्थभङ्गस्था इति, इह पुनः प्रथमभङ्गपतितेनोभयसद्भाविनाऽधिकारः, तथाभूतस्यैवायं हृददृष्टान्तः, स च हृदो निर्मलजलस्य 'प्रतिपूर्णो' जलजैः सर्वर्तुजैरुषशोभितः समे भूमागे विद्यमानोदकनिर्गमप्रवेशो नित्यमेव तिष्ठति, न कदाचिच्छोषमुपयाति, सुखोत्तारावतारसमन्वितः, उपशान्तम्-अपगतं रजः कालुष्यापादक यस्य स तथा, नानाविधांश्च यादसां गणान् संरक्षन सह वा यादोगणैरात्मानमारक्षन्-प्रतिपालयन् स रक्षन् तिष्ठतीत्येषा क्रिया प्रकृतैव । यथा चासौ ह्रदस्तथाऽऽचार्योऽपीति दर्शयति-'स' आचार्यःप्रथमभङ्गपतितः पञ्चविधाचारसमन्वितोsष्टविधाचार्यसम्पदुपेतः, तद्यथा-"आयार सुअ सरीरे वयणे वायण मई पओगमई। एए सुसंपया खलु अमिआ सङ्गाहपरिन्ना ॥ १॥" षटिंत्रशद्गुणगणाधारो हृदकल्पो निर्मलज्ञानप्रतिपूर्णः समे भूभाग इति संसक्तादिदोषरहिते सुखविहारे क्षेत्रे समो वा ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः उपशमवतां तत्र तिष्ठति-समध्यास्ते, किंभूतः - १नदका करो यावतकालेन शुष्यति तज्जघन्य लन्दं तत आरभ्योत्कृष्टं पञ्चरात्रिंदिवलक्षणं लन्दं तदत्र गृह्यते, उत्कृष्टलन्दस्यानतिक्रमेण चरन्तीति यथालन्दिकाः, पञ्चको गणोऽमुकल्पं प्रतिपद्यते, मासकल्पक्षेत्रं च गृहपकिहाभिः पभिर्वीथीमिर्जिनकल्पिकवत्परिकल्पयन्ति । २ पर्यागलस्रोतोवदर्थापेक्षया प्राहकत्वात् तृतीयमङ्गपतित इति गम्यम । ३ भाचारः श्रुतं शरीरं वचनं वाचना मतिः प्रयोगमतिः । एताः सुसंपदः खलु भष्टमी संग्रहपरिज्ञा ॥१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४३६॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४३७॥ 'उपशान्तरजा' उपशान्तमोहनीय इति, किं कुर्वन् ?-जीवनिकायान् रक्षन् स्वतः परतश्च सदुपदेशदानतो नरकादिपाताद्वेति, 'स्रोतोमध्यगत' इत्यनेन प्रथमभङ्गपतितं स्थविराचार्यमाह, तस्य हि श्रुतार्थदानग्रहणसद्भावात् स्रोतोमध्यगतत्वम् , स च किम्भूतः स्यादित्याह-'सः' आचार्योऽक्षोभ्यहृदकल्पः, 'सर्वतः सर्वप्रकारतयेन्द्रियनोइन्द्रियरूपया गुप्त्या गुप्त इत्येतत्पश्य आचार्यव्यतिरेकेणान्येऽप्येवम्भूता बहवः साधवः सम्भवन्तीत्येतन्निर्दिदिक्षुराह--इह मनुष्यलोके 8 पूर्वव्यावर्णितस्वरूपाः 'महर्षयो' महामुनयः सन्ति, इत्येतत्पश्य, किम्भूनास्ते महर्षय इत्यत आह-न केवलमाचार्या हृदकल्पा ये चान्ये साधवस्तेऽपि हृदकल्पाः, किंम्भूताः १-प्रकर्षण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं--स्वपरावभासकत्वादागमस्तद्वन्तः प्रज्ञानवन्तः, आगमस्य वेत्तार इत्यर्थः, तज्ज्ञा अपि मोहोदयात् क्वचिद्धेतूदाहरणासम्भवे ज्ञेयगहनतया संशयानाः न सम्यक् श्रद्धानं विदध्युरित्यतो विशिनष्टि-'प्रबुद्धाः' प्रकर्षेण यथैव तीर्थकृदाह तथैवावगततत्त्वाः प्रबुद्धा! तथाभृता अपि कर्मगुरुत्वान्न सावद्यानुष्ठानविरतिं कुयु रित्यतो विशेषयति-'आरम्भोपरता' आरम्भः-सावद्यो योगस्तस्मादुपरता आरम्भोपरताः, एतच्च न मदुपरोधेन ग्राह्यम् अपि तु स्वत एव कुशाग्रीयया बुड्या विचार्यमित्याह-एतद्यन्मया प्रागुक्तं तत्सम्यग मध्यस्था भूत्वा समर्यादं यूयमपि पश्यत । अपि चैतत्पश्यत-'काल' समाधिमरणकालस्तदभिकाङ्क्षया साधवो मोक्षाध्वनि संयमे परि:--समन्ताद्वजन्ति परिव्रजन्ति-उद्यच्छन्ति, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, बबीमीत्येतत्प्रकरणो. देशकाध्ययनश्रुतस्कन्धानपरिसमाप्तौ प्रयुज्यते, तदिहाधिकारपरिसमाप्तौ द्रष्टव्यमिति ॥ आचार्याधिकार परिसमापय्य B४३७॥ विनेयवक्तव्यतामाह Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा रावृत्तिः (शीलाङ्का.) सम्य.५ उद्देशकः ५. ॥ ४३८ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणणं नो लहइ समाहिं, सिया वेगे अणगच्छति असिता वेगे अनुगच्छंति, अणगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं न निग्विज्जे? ॥ सू० १६१॥ 'विचिकित्सा' चित्तविप्लुतिः यथा इदमप्यस्तीत्येवमाकारा युक्त्या समुपपन्नेऽप्यर्थे मतिविभ्रमो मोहोदयाद्भवति, तथाहि--अस्य महतस्तपाक्लेशस्य सिकताकणकवलनिःस्वादस्य स्यात् सफलता न वेति ? कृपीबलादिक्रियाया उभयथाऽप्युपलब्धेरिति, इयं च मतिर्मिथ्यात्वांशानुवेधाद्भवति ज्ञयगहनत्वाच्च, तथाहि--अर्थविविधः--सुखाधिगमो दुरधिगमोऽनधिगमश्च श्रोतारं प्रति भिद्यते, तत्र सुखाधिगमो यथा चक्षुष्मतश्चित्रकर्णनिपुणस्य रूपसिद्धिः दुरधिगमस्त्वनिपुणस्य अनधिगमस्त्वन्धस्य, तत्रानधिगमरूपोऽवस्त्वेव, सुखाधिगमस्तु विचिकित्साया विषय एव न भवति, देशकालस्वभावविप्रकृष्टस्तु विचिकित्सागोचरीभवति, तस्मिन् धर्माधर्माकाशादौ या विचिकित्सेति, यदिवा 'विइगिच्छत्ति विद्वज्जुगुप्सा, विद्वांसः--साधवो विदितमंसारस्वभावाः परित्यक्तसमस्तसङ्गास्तेषां जुगुप्सा-निन्दा अस्नानात प्रस्वेदजलक्लिन्नमलत्वाद्दुर्गन्धिवपुषस्तान्निन्दति-को दोषः स्याद्यदि प्रासुकेन वारिणाऽङ्गक्षालनं करिन्नित्यादि जुगुप्सा तां विचिकित्सा विद्वज्जुगुप्सां वा सम्यगापन्न:--प्राप्तः आत्मा यस्य स तथा तेन विचिकित्सासमापन्नेनात्मना नोपल मते 'समाधि' चित्तस्वास्थ्यं ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकों वा समाधिस्तं न लभते, विचिकित्साकलुषितान्तःकरणो हि कथयतोऽप्याचार्यस्य सम्यक्त्वाख्यां बोधि नावाप्नोति । यश्चावाप्नोति स गृहस्थो वा स्याद्यतिति दर्शयितुमाह-'सिता' पुत्रकलत्रादिभिरवबद्धाः, वाशब्द उत्तरापेक्षया पक्षान्तरमाह, 'एके' च लघुकर्माणः सम्यक्त्वं प्रतिपादयन्तमाचार्य ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀ ४३८॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ka मनुगच्छन्ति--आचार्योक्तं प्रतिपद्यन्ते, तथा 'असिता वा' गृहवा(पा)सविमुक्ता वा 'एके विचिकित्सादिरहिता आचार्य॥४३९॥ मार्गमनुगच्छन्ति । तेषां च मध्ये यदि कश्चित् कङ्कटुकदेश्यः स्यात् स तान् प्रभूताननपाचीनमार्गप्रतिपन्नानवलोक्यासावपि कर्मविवरतः प्रतिपद्यतापीति दर्शयितुमाह--आचायोक्तं सम्यक्त्वमनुगच्छद्भिर्विरताविरतैः सह संवसंस्तैर्वा चोद्यमानोऽनुगच्छन्- अप्रतिपद्यमानः कथं न निर्वेदं गच्छेद् ?, असदनुष्ठानस्य, मिथ्यात्वादिरूपां विचिकित्सा परित्यज्याचार्योक्तं सम्यक्त्वमेव प्रतिपद्यतेत्यर्थः, यदिवा सितासितैराचार्योक्तमनुगच्छद्भिः-अवगच्छद्भिर्बुध्यमानः सद्भिः कश्चिदज्ञानोदयान्मतिजाडयतया क्षपकादिश्चिरप्रव्रजितोऽप्यननुगच्छन्--अनवधारयन् कथं न निविद्येत ?, न निर्वेदं तपःसंयमयोर्गच्छेत् , निर्विष्णश्चेदमपि भावयेत् , यथा--नाहं भव्यः स्यां न च मे संयतभावोऽप्यस्तीति, यतः स्फुटविकटमपि कथितं नावगच्छामि, एवं च निर्विण्णस्याचार्याः समाधिमाहुः--यथा--भोः साधो! मा विषादमवलम्बिष्ठाः, भव्यो भवान्, यतो भवता सम्यक्त्वमभ्युपगतं, तच्च न ग्रन्थिभेदमृते, तद्भेदश्च न भव्यत्वमृते, अभव्यस्य हि भव्याभव्यशङ्काया अमावादिति भावः ॥ किं चायं विरतिपरिणामो द्वादशकषायक्षयोपशमाद्यन्यतमसद्भावे सति भवति, स च भवताऽवाप्तः, तदेवं दर्शनचारित्रमोहनीये भवतः क्षयोपशमं समागते, दर्शनचारित्रान्यथानुपपत्तेः, यत्पुनः कथ्यमानेऽपि समस्तपदार्थावगतिर्न भवति तज्ज्ञानावरणीयविजृम्भितं. तत्र च श्रद्धानरूपं सम्यक्त्वमालम्बनमित्याह. तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ॥ सू० १६२॥ यत्र क्वचित्स्वसमयपरसमयज्ञाचार्याभावात् सूक्ष्मव्यवहितातीन्द्रियपदार्थेषभयसिद्धदृष्टान्तसम्यग्हेत्वभावाच्च ज्ञाना ॥४३९॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा सम्य. ५ उद्देशका ५ रावृत्तिः (चीलाङ्का.) .४४०॥ वरणीयोदयेन सम्यग्ज्ञानाभावेऽपि शङ्काविचिकित्सादिरहित इदं भावयेत् , यथा-तदेवक सत्यम्-अवितथं, 'निःशङ्कमिति अहंदुक्तेष्वत्यन्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्यवर्थेम्वेवं स्यात् एवं वा इत्येवमाकारा संशीतिः शङ्काः निर्गता शङ्का यस्मिन् प्रवेदने तन्निःशक, यत्किमपि धर्माधर्माकाशपुद्गलादि प्रवेदितं, के-'जिनैः' तीर्थकरै रागद्वेषजयनशीलैः, तत्तथ्यमेवेत्येवम्भूतं श्रद्धानं पिंधेयं सम्यक्पदार्थानवगमेऽपि, न पुनर्विचिकित्सा कार्येति । किं यतेरति विचिकित्सा स्यायेनेदमभिधीयते !, संसारान्तर्वत्तिनो मोहोदयात्तत्कि ? यन्न स्यादिति, तथा चागमः- 'अस्थि भते । समणावि निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति ?, हंता अस्थि, कहन्नं समणावि णिग्गंथा कंखामोहणिजे कम्मं वेदेति , गोअमा! तेसु तेसु नाणन्तरेसु चरितंतरेसु संकिया कंखिया विइगिच्छासमावन्ना भेयसमावन्ना कलससमावन्ना, एवं खल गोयमा! समणावि निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदंति, तत्थालेषणं 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं', से णणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे आणाए आरहए भवति , हता गोअमा! एवं मण धारेमाणे आणाए आराहए भवति" किं चान्यत् ?-वीतरागा हि १ मस्ति भदन्त ! श्रमणा अपि निग्रन्थाः काङ्क्षामोहनीय कर्म वेदयन्ति ?, हन्त मस्ति, कथ श्रमणा अपि निग्रन्थाः काक्षामोहनीय कर्म वेदयन्ति ?, गौतम ! तेषु तेषु ज्ञाना तरेषु चरित्रान्तरेषु शङ्किताः काक्षिता विचिकित्सासमापन्ना भेदममापन्नाः कालुष्यसमापन्नाः, एवं खलु गौतम ! श्रमणा अपि निप्रन्थाः काङ्क्षामोहनीयं कमें वेदयन्ति, तत्रालम्बन 'तदेव सत्य निश्शङ्क यज्जिनेः प्रवेदितम्' । अथ नूनं भदन्त ! एवं मनो धारयन् आज्ञाया भाराधको भवति ?, हन्त गौतम ! एवं मनो धारयन् आज्ञाया आराधको भवति । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४४१॥ सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रवते कचित् । यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां, तथ्यं भूतार्थदर्शनम ॥१॥" इत्यादि ।। सा पुनर्विचिकित्सा प्रविजिषोर्भवत्यागमापरिकम्मितमतेः, तत्राप्येतत्पूर्वोक्तं भावयितव्यमित्याह सद्धिस्स णं समणनस्स संपवयमाणस्स समियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होई १, समियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ २, असमियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ ३, असमियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होड ४, समियंनि मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा समिआ होइ उवेहाए ५, असमियंति मन्त्रमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उहाए ६, उचेहमाणो अणवेहमाणं व्याउहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी शोसिओ भवइ, से उहियस्स ठियस्स गई समणपासह, इत्थवि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा ॥ सू० १६३ ॥ श्रद्धा-धर्मेच्छा सा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावांस्तस्य 'समनुज्ञस्य' संविग्नविहारिभिर्भावितस्य संविग्नादिभिर्वा गुणः प्रवज्याहस्य 'संप्रव्रजतः सम्यक्प्रव्रज्यामभ्युपगच्छतो विचिकित्सा-शङ्का भवेत् , तत्रैतस्य सम्यग्जीवादिपदार्थावधारणाशक्तस्येदमुपदेष्टं, तथा-तदेव सत्यं निःशङ्क यज्जिनः प्रवेदितमिति, तदेवं प्रव्रज्यावसरे तदेव निःशङक यज्जिनः प्रवेदितमित्येवं यथोपदेशं प्रवर्त्तमानस्य प्रवर्द्धमानकण्डकस्य सत उत्तरकालमपि तदधिकता तत्समता तन्न्यूनता तदभावो वा स्यादित्येवंरूपां विचित्रपरिणामता दर्शयितुमाह-तस्य श्रद्धावतः समनुज्ञस्य संप्रव्रजतस्तदेव निःशङक ॥४४१. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचारावृत्तिः (शीलाङ्का.) सम्य. ५ उद्देशकः ५ . ४४२॥ यज्जिनः प्रवेदितमित्येतत्सम्यगित्येवं मन्यमानस्य 'एकदा' इत्युत्तरकालमपि शङ्काकाक्षाविचिकित्सादिरहिततया सम्यगेव भवति-न तीर्थकरभाषिते शङ्काद्युत्पद्यत इति । कस्यचित्तु प्रव्रज्यावसरे श्रद्धानुसारितया सम्पगिति मन्यमानस्य तदुत्तरकालमधीतान्वीक्षिकीकस्य दुर्गहीतहेतुदृष्टान्तलेशस्य ज्ञेयगहनताव्याकृलितमतेः 'एकदेति मिथ्यात्वांशोदयेऽसम्यगिति भवति, तथाहि-असौ सर्वनयसमूहाभिप्रायतया अनन्तधर्माध्यासितवस्तुप्रसाधने सति मोहादेकनयाभिप्रायेणेकांशसाधनाय प्रक्रमते, यदि नित्यं कथमनित्यमनित्यं चेत्कथं नित्यमिति, परस्परपरिहारलक्षणतयाऽनयोरवस्थानात् , तथाहि-अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरै कम्बभावं हि नित्यम् अतोऽन्यत्प्रतिक्षणविशरारुरूपमनित्यमित्येवमादिकमसम्यगभावमुपयाति, न पुनर्विवेचयति; यथा अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु भवनयसमूहात्मकं च दर्शनमतिगहनं मन्दधियां श्रद्धागम्यमेव न हेतुक्षोभ्यमिति, उक्तं च-"सर्वनयनियतनैगमसङग्रहायेरेकैकशो विहिततीर्थिकशासनैर्यत् । निष्ठां गतं बहविधैगमपर्ययैस्तैः, श्रद्धयमेव वचनं न तु हेतुगम्यम ॥१॥" इत्यादि, यतो हेतुः प्रवर्त्तमानः एकनयाभिप्रायेण प्रवर्तेत, एकं च धर्म साधयेत् , सर्वधर्मप्रसाधकस्य हेतोरसम्भवादिति २ । पुनरपि विचित्रभावनामाह-कस्यचित मिथ्यात्वलेशानुविद्धस्य कथं पौद्गलिक शब्द इत्यादिकमसम्यगिति मन्यमानस्य 'एकदेति मिथ्यात्वपरिणामो(ग्माणू )पशमतया शङ्काविचिकित्साद्यभावे गुर्वाधुपदेशतः सम्यगिति भवति, यदि हि पौद्गलिकः शब्दो न स्यात् ततस्तत्कृतावनुग्रहोपघातौ श्रवणेन्द्रियस्य न स्याताम्, अमूर्तत्वादाकाशवदित्यादिकं सम्यग भवति ३। कस्यचिवागमापरिमिलितमतेः कथमेकेनैव समयेन परमाणोलोकान्तगमनमित्यादिकमसम्यगिति मन्यमानस्यैकदेति-कुहेतुवितर्का ॥४४२॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४४३ ॥ विर्भावावसरे नितरामसम्यगेव भवति, तथाहि-चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्याद्यन्ताकाशप्रदेशयोः समयामेदतया al योगपद्य संस्पर्शात् तावन्मात्रता परमाणोः स्यात् , प्रदेशयोर्लोकान्तद्वयगतयोक्यमित्यादिकमसम्यगिति भवति, न त्वसौ स्वाग्रहाविष्ट एतद्भावयति, यथा-विस्रसापरिणामेन शीघ्रगतित्वात् परमाणोरेकसमयेनासङ्ख्येयप्रदेशातिक्रमणं, यथा हि अङगुलिद्रव्यमेकसमयेनासङ्ख्येयानप्याकाशप्रदेशानतिलङ्घयति, एतदेव कुत इति चेत्, न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, न च सकलप्रमाणप्रष्ठप्रत्यक्षसिद्धेऽर्थेऽनुमानमन्वेष्टव्यं, तथाहि-यद्यनेकप्रदेशातिक्रमणं सामयिकं न भवेत् ततोऽङ्गुलमात्रमपि क्षेत्रमसङ्ख्येयसमयातिक्रमणीयं स्यात् , तथा च सति दृष्टेष्टवाधाऽऽपद्यतेति यत्किञ्चिदेतत् ४ । साम्प्रतं भङ्गकोपसंहारद्वारेण परमार्थमाविर्भावयन्नाह-सम्यगित्येवं मन्यमानस्य शङ्काविनिकित्सादिरहितस्य सतस्तद्वस्तु यत्नेन तथारूपतया भावितं तत्सम्यग्वा स्यदसम्यग्वा, तथापि तस्य तत्र सम्यगुत्प्रेक्षया-पर्यालोचनया सम्यगेव भवति, ईर्यापथोपयुक्तस्य क्वचित्पाण्युपमर्दवत् । । साम्प्रतमेतद्विपर्ययमाह-असम्यगिति किश्चिद्वस्तु मन्यमानस्य शङ्का म्यादर्वाग्दर्शितया छद्मस्थस्य सतस्तद्वस्तु सम्यग्वा स्यादसम्यग्वा, तस्य तदसम्यगेवोत्प्रेक्षया, असम्यग्पालोचनतयाऽशुद्धाध्यवसायतयेतियावत् , 'यद्यथा शङ्कयेत्तत्तथैव समापद्यते'ति वचनादिति ६ ॥ यदिवा-"समियंति मन्न-1 माणस्स" इत्याद्यन्यथा व्याख्यायते-शमिनो भावः शमिता 'इतिः' उपप्रदर्शने तामेतां शमितां मन्यमानस्य शुभाध्यवसायिनः 'एकदे'न्युत्तरकालमपि शमितेव भवति-उपशमवत्तेवोपजायते, अन्यस्य तु शमितामपि मन्यमानस्य ॥४४३॥ कषायोदयादशमितोपजायत इति, अनया दिशोत्तरभङ्गेष्वपि सम्यगुपयुज्यायोज्यमिति । तदेवं सम्यगसम्यगित्येवं पर्या Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा राजवृत्तिः (शीलाङ्का.) सम्य.. उद्देशक 1४४४॥ लोचयनपरस्याप्युपदेशदानायालमिति, आह च-आगमपरिकर्मिमतमतित्वाद्यथावस्थितपदार्थस्वभावदर्शितया सम्यगसम्यगिति चोत्प्रेक्षमाणः-पर्यालोचयनपरमनुप्रेक्षमाणं गड्डरिकायूथप्रवाहप्रवृत्तं गतानुगतिकन्यायानुसारिणं शङ्कया वाऽपधावन्तं ब्र याद्, यथा-'उत्प्रेक्षस्व'पर्यालोचय सम्यग्भावेन माध्यस्थमवलम्ब्य किमेतदईदुक्तं जीवादितत्वं घटामिय ाहोश्चिन्नेत्यक्षिणी निमील्य चिन्तयेति भावः। यदिवा उत्प्रेक्षमाणः संयममुत्-प्रावन्येनेक्षमाणः-संयमे उद्यच्छन्ननुत्प्रेक्षमाणं ब यात् , यथा-सम्यग्भावापन्नः संयममुत्प्रेक्षस्व-संयमे उद्योगं कुरु । किमवलम्ब्येत्याह-'इत्येवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण 'तत्र' तस्मिन् संयमे 'सन्धिः कर्मसन्ततिरूपो 'झोषितः' क्षपितो भवति, यदि संयमे सम्यग्भावे वोत्प्रेक्षणं स्यात, नान्यथेति । सम्यगुत्प्रेक्षमाणस्य च यत्स्याचदाह-'से' तस्य सम्यगुत्थानेनोत्थितस्य निःशङ्कस्य श्रद्धावतः स्थितस्य गुरुकुले गुरोराज्ञायां वा या गतिर्भवति-या पदवी भवति तां सम्यगनुपश्यत यूयं, तद्यथा-सकललोकश्लाघ्यता ज्ञानदर्शनस्थय चारित्रे निष्प्रकम्पता श्रुतज्ञानाधारता च स्यादिति, यदिवा स्वर्गापवर्गादिका गतिः स्यात् , तां पश्यतेति सम्बन्धः, अथवा उत्थितस्य-संयमोद्योगवतः तदभावेन च स्थितस्य पार्श्वस्थादेति-सकलजनोपहास्यरूपामधमस्थानगति वा पश्यतेति । तदेवमुद्युक्तेतस्योर्गतिमुपलभ्य पश्चविधाचारसारे प्रक्रमितव्यं, यदि नामानुपस्थितस्य विरूपा गतिर्भवति ततः किमित्याह-'अत्रापि'असंयमे बालभावरूपे इतरजनाचरिते आत्मानं सकलकल्याणास्पदं नोपदर्शयेत् , चालानुष्ठानविधायी मा भूदिति यावत , तथाहि-बालाः शाक्यकापिलादयस्नद्भावितो बालभावमाचरति, वक्ति च-नित्यत्वादमूर्त्तत्वाच्चात्मनः प्राणातिपात एव नास्त्याकाशस्येव, न हि वृक्षादिच्छेदे दाहे वाऽऽकाशस्य भिदा लोषो ॥४४४।। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४५॥ वा स्यात् , एवमात्मनोऽपि शरीरविकारेऽविकारित्वम् , उक्तं च-"न जायने न म्रियते कदाचिन्नायं भूत्वा भवितेति ॥ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः॥२॥ अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकारी स उच्यते । नित्यः सततगः स्थाणरचलोऽयं सनातनः ॥२॥" इत्यादि । अध्यवसायात्तद्धननादौ प्रवृत्तस्य तत्प्रतिषेधार्थमाह तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेव ज अन्जावेयव्वंति मन्नसि. तुमंसि नाम सच्चेव ज परियावेयवंति मनसि, एवं जं परिचित्तव्वंति मनसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी, तम्हा न हंता नवि घायए, अणुसंवेय. णमप्पाणणं जं हंतव्वं नाभिपत्थए ॥ सू० १६४॥ योऽयं हन्तव्यत्वेन भवताऽध्यवसितः स त्वमेव, नामशब्दः सम्भावनायां, यथा भवान शिरःपाणिपादपार्श्वपृष्ठोरूदरखान् एवमसावपि यं हन्तव्यमिति मन्यसे, यथा च भवतो हननोद्यतं दृष्टा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपि, तत्र दुःखापादनाच्च किल्बिषानुषङ्गः, इदमुक्तं भवति-नात्रान्तरात्मनः आकाशदेश्यस्य व्यापादनेन हिंसा, अपि तु शरीरात्मनः, तस्य हि यत्र क्वचित्स्वाधारं शरीरं नितरां दयितं तद्वियोजीकरणमेव हिंसेति, उक्तं च-पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छवासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्विरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥" न च संसारस्थस्य सर्वथा अमुर्तवावाप्तिः, येनाकाशस्येव विकरो न स्यात, सर्वत्रैव च प्राण्युपमर्दचिकीर्षितायामात्म ५४४५. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का) तुन्यता मावयितव्येत्येतदुत्तरसूत्रैर्दर्शयितुमाह-त्वमपि नाम स एव यं प्रेषणादिना आज्ञापयितव्यमिति मन्यसे, तथा । त्वमपि नाम स एव यं परितापयितव्यमिति मन्यसे, एवं यं परिगृहीतव्यमिति मन्यसे, यमपद्रावयितव्यमिति मन्यसे सम्य. ५ असौ त्वमेव, यथा भवतोऽनिष्टापादनेन दुःखमुत्पद्यते एवमस्यापीत्यर्थः, यदिवा यं कायं हन्तव्यादितयाऽध्यवस्यसि उद्देशका ५ तत्रानेकशो भवतोऽपि भावाचमेवासी, एवं मृषावादादावल्यायोज्यम् । यदि नाम हन्तव्यघातकयोरुक्तक्रमेणैक्यं ततः किमित्याह-'अञ्जु रिति ऋजुः प्रगुणः साधुरितियावत् , चशब्दोऽवधारणे, एतस्य-हन्तव्यघातकैकत्वस्य प्रतिबोधः प्रतिबुद्धमेतत्प्रतिबुद्धं तेन जीवितु शीलमस्येत्येतत्प्रतिबुद्धजीवी साधुरेवैतत्परिज्ञानेन जीवति नापर इत्युक्तं भवति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-'तस्माद् हन्यमानस्यात्मन इव महद्दुःखमुत्पद्यते तस्मादात्मौपम्यादन्येषां जन्तूनां न हन्ता स्यात् , नाप्यपरैर्घातयेत् न च नतोऽनुमन्येत, किं च-संवेदनम्-अनुभवनं अनु-पश्चात्संवेदनं केन ?-आत्मना, यत्परेषां मोहोदयाद्धननादिना दुःखोत्पादनं विधीयते तत्पश्चादात्मना संवेद्यमित्याकलय्य यत्किमपि हन्तव्यमिति चिकीर्षितं तन्नाभिप्रार्थयेत्-नाभिलषेत् । ननु चात्मनाऽनुसंवेदनमित्युक्तं, संवेदनं च सातासातरूपं, तच्च यथा नैयायिकवैशेषिकाणामात्मनो भिन्नेन गुणभूनेनैकार्थसमवायिना ज्ञानेन भवति तथा भवतामप्याहोस्विदभिन्नेनात्मन इत्यस्य प्रतिवचनमाहजे आया से विन्नाया जे विनाया से आया, जेण वियाणइ से आया, तं पडुच्च पडिसंखाए, s ४४६॥ एस आयावाई समियाए परियाए वियाहिए तिबेमि ॥ सू० १६५ ॥ इति पञ्चमउद्देशकः ५.५॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४४७ ॥ ___य आत्मा नित्य उपयोगलक्षणः विज्ञाताऽप्यसावेव, न तु पुनस्तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञानं पदार्थसंवेदक, यश्च विज्ञातापदार्थानां परिच्छेदक उपयोगः आत्माऽप्यसावेव, उपयोगलक्षणत्वाज्जीवस्य उपयोगस्य च ज्ञानात्मकत्वादिति । ज्ञानात्मनोग्मेदाभिधानाबौद्धाभिमतं ज्ञानमेकं स्यादिति चेत्, तन्न, मेदामावोऽत्र केवलं चिकीर्षितो नैक्यं, एतदेवैक्यं यो भेदाभाव इति चेद् , वार्तमेतत् , तथाहि-पटशुक्लत्वयोर्भेदेनावस्थानाभावेऽपि नैकत्वापत्तिः, अत्रापि शुक्लत्वव्यतिरेकेण नापरः पटः कश्चिदप्यस्तीति चेद् , अशिक्षितस्योनापो, यतः शुक्लगुणविनाशे सर्वथा पटाभावापत्तिः स्यात् , तदात्मना विनष्ट एवेति चेत्, भवतु का नो हानिः?, अनन्तधात्मकत्वाद्वस्तुनोऽपरमृद्वादिधर्मसद्भावे तद्धर्मविनाशेप्यविनष्ट एच, इत्येवमात्मनोऽपि प्रत्युत्पन्नज्ञानात्मकतया विनाशेऽप्यपगमूर्त्तत्वासङ्ख्येयप्रदेशताऽगुरुलध्वादिधर्मसद्भावादविनाश एवेत्यलं प्रसङ्गेन । ननु च य आत्मा स विज्ञातेत्यत्र तृजन्तेन कतु रमिधानादात्मनश्च कतृत्वात्ततश्च य एवात्मा स एव विज्ञातेत्यत्र विप्रतिपत्त्यमावो, येन चासौ जानाति तद्भिन्नमपि स्यात् , तथाहि-तत्करणं क्रिया वा भवेद् ?, यदि करणं तदात्रादिवद्भिन्नं स्यात्, अथ क्रिया सा यथा कस्था सम्भवत्येवं कर्मस्थाऽपीत्येवं मेदसम्भवे कुत ऐक्यमिति यश्चोदयेत्तं प्रति स्पष्टतरमाह-'येन' मत्यादिना ज्ञानेन करणभूतेन क्रियारूपेण वा विविध-सामान्यविशेषाकारतया वस्तु जानाति विजानाति स आत्मा, न तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञानं, तथाहि-न करणतया भेदः, एकस्यापि क कर्मकरणमेदेनोपलब्धेः, तद्यथा-देवदत्त आत्मानमात्मना परिच्छिनत्ति, क्रियापक्षे पानिको ह्यभेदो भवताऽप्यभ्युपगत एव, अपि च–'भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यत' इत्यादिनैकत्वमेवेति । ज्ञाना ॥ १७॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचागजवृत्तिः शिलाहा.) सम्य." उद्देशक त्मनोश्चैको यद्भवति तदशयितुमाह-'तं' ज्ञानपरिणामं 'प्रतीत्य' आश्रित्यात्मा तेनैव 'प्रतिसाचायते' व्यपदिश्यते, तद्यथा-इन्द्रोपयुक्त इन्द्र इत्यादि, यदिवा मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी यावत्केवलज्ञानीति, यश्च ज्ञानात्मनोरेकत्वमभ्युपगच्छति स किंगुणः स्यादित्याह-एष' अनन्तरोक्तया नीत्या यथावस्थितात्मवादी स्यात् , तस्य च सम्यग्मावेन शमितया वा 'पर्यायः' संयमानुष्ठानरूपो व्याख्यातः । इत्यधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ लोकसाराध्ययने पश्चमोद्देशकः ॥५-५॥ ॥४४८॥ ॥ अथ पञ्चमाध्ययने षष्ठोद्देशकः ॥ ___ उक्तः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-दहान्तरोद्देशके हृदोपमेनाचार्येण भाव्यमित्येतदुक्तं, तथाभूताचार्यसंपर्काच्च कुमार्गपरित्यागो रागद्वेषहानिश्चावश्यंभाविनीत्यतस्तत्प्रतिपादनसम्बन्धेनागतस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् अणाणाए एगे सोवाणा आणाए एगे निरुवट्ठाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दसणं, तहिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सनी तनिवेसणे ॥ सू० १६६ ॥ इह तीर्थकरगणधरादिनोपदेशगोचरीभतो विनेयोऽभिधीयते, यदिवा सर्वभावसम्मवित्वाद्भावस्य सामान्यतोऽभि ताजमB४४८ धानम्, अनाज्ञा-अनुपदेशः स्वमनीषिकाचरितोऽनाचारस्तयाऽनाया तस्यां वा 'एके' इन्द्रियवशगा दुर्गतिं जिगमिषवः Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४४९॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Bal स्वाभिमानग्रहग्रस्ताः सह उपस्थानेन-धम्मचरणाभामोद्यमेन वर्तन्त इति सोपस्थानाः, किल वयमपि प्रव्रजिताः सद सद्धर्मविशेषविवेकविकलाः सावद्यारम्भतया प्रवर्त्तन्ते, एके तु न कुमार्गवामितान्तःकरणाः, किन्तु आलस्यावर्णस्तम्भाद्यपवृहितबुद्धया, 'आज्ञायां' तीर्थकरोपदेशप्रणीते सदाचारे निर्गतमुपस्थानम्-उद्यमो येषां ते निरुपस्थानाः-सर्वज्ञप्रणीतसदाचारानुष्ठानविकलाः । एतत्कुमार्गानुष्ठानं मन्मार्गावसीदनं च द्वयमपि ते' तव गुरुविनयोपगतस्य दुर्गतिहेतुत्वान्मा भूदिति । सुधर्मस्वामी स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-'एतद' यत्पूर्वोक्तं यदिवा अनाज्ञायां निरुपस्थानत्वमाज्ञायाँ च सोपस्थानत्वमित्येतत् 'कुशलस्य' तीर्थकृतो दर्शनमभिप्रायः, यदिवैततद्वक्ष्यमाणं कुशलस्य दर्शनमित्याह-कुमार्ग परित्यज्य सदाऽऽचार्यान्तेवासिना एवंभूतेन भाव्यं, तस्य-आचार्यस्य दृष्टिस्तदृष्टिस्तया वर्तितव्यं, सा वा तीर्थकरप्रणीतागमदृष्टिस्तदृष्टिस्तयेति, तथा तस्य-आचार्यस्य तीर्थकृतो वा मुक्तिस्तन्मुक्तिस्तया, तथा तमाचार्य सर्वकार्येषु पुरः करोतीति तत्पुरस्कारः-प्राचार्यानुमत्या क्रियानुष्ठायीत्यर्थः, तथा तत्संज्ञी-तज्ज्ञानोपयुक्तः, तथा तन्निवेशन:-सदा गुरुकुलनिवासी ॥ स एवंभूतः किंगुणः स्यादित्याह अभिभूय अदक्खू अणभिभूए पभू निरालंबणयाए जे महं अपहिमणे, पवाएण पवायं जाणिज्जा, सहसंमइयाए परवागरणेणं अन्नेसि वा अंतिए सुच्चा ॥ १६७ ॥ ____ 'अभिभूप' पराजित्य परीषहोपसर्गान् धातिकर्मचतुष्टयं वा तत्त्वमद्राक्षीत , किंच-नामिभूतोऽनभिभृतः अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गः परतीर्थिकैर्वा, स एवम्भूतः 'प्रभुः' समर्थो निरालम्बनतायाः-नात्र संसारे मातापिनकलत्रादिकमालम्बन n४४९. Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा(रावृत्तिः चो नाका.) सम्य. ५ उद्देशकः ५ ४५०॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ मस्तीति तीर्थकृद्वचनमन्तरेण नरकादौ पततामित्येवम्भूतभावनायाः समर्थों भवति, कः पुनः परीषहोपसर्गाणां जेता केनचिदनभिभृतो निरालम्बनतायाः प्रभुर्भवति १, इत्येवं पृष्टे तीर्थकृत सुधर्मस्वाम्यादिको वाऽऽचार्योऽन्तेवासिनमाह-यः पुरस्कृतमोक्षो 'महान्' महापुरुषो लघुकर्मा ममाभिप्रायान्न विद्यते बहिर्मनो यस्यासावबहिर्मनाः, सर्वज्ञोपदेशवर्तीति यावत् , कुतः पुनस्तदुपदेशनिश्चय इति चेदाह-प्रकृष्टो वादः प्रवाद:-आचार्यपारम्पर्योपदेशः प्रवादस्तेन प्रवादेन प्रवादसर्वज्ञोपदेशं 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यादिति । यदिवाऽणिमाद्यष्टविधैश्वर्यदर्शनादपि न तीर्थद्वचनाद्बहिर्मनो विधत्ते, तीथिकानिन्द्रजालिककन्पानिति मत्वा तदनुष्ठानं तद्वादश्च पर्यालोचयति, कथमित्याह-'पवाएण पवायं जाणिज्जा' प्रकृष्टो वादः प्रवादा-सर्वज्ञवाक्यं तेन मौनीन्द्रेण प्रवादेन तीर्थिकप्रवादं 'जानीयात्' परीक्षयेत् , तद्यथा-वैशेषिकाः तनुभुवनकरणादिकमीश्वरक कमिति प्रतिपनाः, तदुक्तम्-"अन्यो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च ॥१॥" इत्यादिकं प्रवादमात्मीयप्रवादेन पर्यालोचयेत् , तद्यथाअर्मेन्द्रधनुरादीनां विस्रसापरिणामलब्धात्मलामानां तदतिरिक्तेश्वरादिकारणपरिकल्पनायामतिप्रसङ्गः स्यात् , तथा घटपटादीनां दण्डचक्रचीवरसलिलकुलालतुरीवेमशलाकाकुविन्दादिव्यापारानन्तरावाप्तात्मलाभानां तदनुपलब्धव्यापारेश्वरस्य कारणपरिकल्पनाया रासमादेरपि किं न स्यात् , तनुकरणादीनामप्यवन्ध्यस्वकृतकापादितं वैचित्र्य, कर्मणोऽनुपलब्धेः कुत एतदिति चेत्, समानः पर्यनुयोगः, अपि च-तुल्ये मातापित्रादिके कारणेऽपत्यवैचित्र्यदर्शनात्तदधिकेन निमिन भाव्यं, तच्चेश्वराभ्युपगमेऽप्यदृष्टमेवेष्टव्यं, नान्यथा सुखदुःखसुभगदुर्भगादि जगद्वैचित्र्यं, स्यादिति । तथा ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४५०॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ साड्या एवमाहुः-यथा 'सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कारः, तस्मादेकादशेन्द्रियाणि पश्च २ तन्मात्राणि, तन्मात्रेभ्यः पञ्चभूतानि, बुद्धयध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते, स चाकर्ता निगुणश्चेति, ततश्च प्रकृतिः करोति पुरुष उपभुङ्क्ते ततः कैवल्यावस्थायां द्रष्टाऽस्मीति निवर्तते' इत्यादिकं युक्तिविकलत्वान्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, तथाहि-प्रकृतेश्चेतनत्वात् कुत आत्मोपकाराय क्रियाप्रवृत्तिः स्यात ?, कुतो वा दृष्टेत्यात्मोपकाराय प्रवृत्तिर्न स्यात् ।, अचेतनायास्तद्विकल्पासम्भवात , नित्यायाश्च प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावात , पुरुषम्याप्यकत्वे संसारोद्वेगमोक्षौत्सुक्यभोक्तृत्वाद्यभावः स्यादिति, उक्तं च न विरक्तो न निर्विण्णो, न भीतो भवबन्धनात् । न मोक्षसुखकाक्षी वा, पुरुषो निष्क्रियात्मकः ॥१॥ कः प्रव्रजति साङ्ख्यानां, निष्क्रिये क्षेत्रभोक्तरि । निष्क्रियत्वात्कथं वाऽस्य, क्षेत्रभोक्तत्वमिष्यते॥२॥ इति । तथा शौद्धोदनिशिष्यका यत्सत्तत्सर्व क्षणिकमित्येवं व्यवस्थिताः, 'तत्रोत्तरम्' यदि निरन्वयो विनाशः स्यात् ततः प्रतिनियतः कार्य| कारणभाव एव न स्यात, एकसन्तानान्तर्गतत्वात्स्यादिति चेत्, अशिक्षितस्योल्लापः, तथाहि-न सन्तानिव्यतिरेकेण कश्चित्सन्तानोऽस्ति, तथा च सति पूर्वकालक्षणावस्थायित्वमेव कारणत्वम् , एवं च सर्व सर्वस्य कारणं स्यात् , सर्वस्य पूर्वकालक्षणावस्थायित्वाद्यत्किञ्चिदेतदिति, किं च-"यज्जातमात्रमेव प्रध्वस्तं तस्य का क्रिया कुम्भे ?। नोत्पन्नमात्रभग्ने क्षिप्त सन्तिष्ठते वारि ॥१॥ कर्तरि जातचिनप्टे धर्माधर्मक्रिया न सम्भवति। तदभावे बन्धः को बन्धाभावे च को मोक्षः ॥२॥" इत्यादि । पार्हस्पत्यानां तु भूतवादेनात्मपुण्यपापपरलोकाभाव ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४५.. Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य. ५ उद्देशका ५ श्रीआचागणवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥४५२॥ वादिना निर्मर्यादतया जनतातिगानां न्यक्कारपदव्याधानमनुत्तरमेवोत्तरमिति । अपि च-'अब्रह्मचयरक्तमू ः परदारघर्षणाभिरतैः । मायेन्द्रजालविषवत्प्रवर्तितमसत्किमप्येतत् ॥१॥" तथा-मिथ्या च दृष्टिर्भवदुःखधात्री, मिथ्यामतिश्चापि विवेकशन्या । धर्माय येषां पुरुषाधमानां, तेषामधर्मो भुवि कीदृशोऽन्यः? ॥२॥" इत्यनया दिशा सर्वेऽपि तीथिंकवादाः सर्वज्ञवादमनुसृत्य निराकार्या इति स्थितं । तन्निराकरणं च सर्वज्ञप्रवाद निराकार्यं च तीथिकवादमेभित्रिभिः प्रकारर्जानीयादित्याह-मननं मति:--ज्ञानं ज्ञानावरणीयक्षयक्षयोपशमान्यतरसद्भावानन्तरमेव सहसा- तत्क्षणमेव मत्या प्रातिभबोधावध्यादिज्ञानेन परिच्छिन्द्यात् सह वा ज्ञानेन इयं सच्छोभनया मिथ्याकलकाङ्करहितया मत्याऽवगच्छेत् , स्वपरावभासकत्वान्मतेरिति, कदाचित्परव्याकरणेनाप्यवगच्छेत् पर:--तीर्थकृत्तस्य तेन वा व्याकरणं--यथावस्थितार्थप्रज्ञापनम् आगमः परव्याकरणं तेन वा जानीयात् , तथाऽप्यनवगमेऽन्येषामाचार्यादीना अन्तिके श्रुत्वा यथावस्थितवस्तुसद्भावमवधारयेद् ॥ अवधार्य च किं कुर्यादित्याहनिद्देसं नाइवढेजा मेहावी सुपडिलेहिया सव्वओ सव्वप्पणा सम्मं समभिण्णाय, इह आरामं परिणाय अल्लीण गुत्तो परिव्वए निडियट्ठी धोरे आगमेण सया परक्कमेजासि त्तिबेमि ॥सू० १६८॥ निर्दिश्यत इति निर्देशः-तीर्थकरायुपदेशस्तं नातिवर्तेत 'मेधावी' मर्यादावानिति । किं कृत्वा निर्देशं नातिवर्ततेत्यत आह--सुष्ठ प्रत्युपेक्ष्य हेयोपादेयतया तीथिंकवादान् सर्वज्ञवाद च 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैव्यक्षेत्रकालभावरूपैः सर्वात्मनासामान्यविशेषात्मकतया पदार्थान् पर्यालोच्य सहमन्मत्यादित्रिकेण परिच्छिद्य सदाऽऽचार्यनिर्देशवर्ती तीर्थिक प्रवादनि ॥४५२॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४५५॥ राकरणं कुर्यात, किं कृत्वेत्यत आह-सम्यगेव स्वपरतीथिंकवादान् 'समभिज्ञाय' बुद्धवा ततो निराकरणं कुर्यात् । किं च- 'इह' अस्मिन् मनुष्यलोके आरमण मारामो रतिरित्यर्थः, स चारामः परमार्थचिन्तायामात्यन्तिकैकान्तिकरतिरूपः संयमः तमासेवनपरिज्ञया परिज्ञाय आलीनो गुप्तश्च 'परिव्रजेत्' संयमानुष्ठाने विहरेत, किंभूत इत्याह-निष्ठितोमोक्षस्तेनार्थी यदिवा निष्ठित:-परिसमाप्तः अर्थः-प्रयोजनं यस्य स निष्ठितार्थः 'धीर' कर्मविदारणसहिष्णुः सन् 'आगमेन' सर्वज्ञप्रणीताचारादिना 'सदा सर्वकालं 'पराक्रमेथाः' कमरिपून् प्रति मोक्षाध्वनि वा गच्छेः । इत्यधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवामीति पूर्ववत् । किमर्थं पुनः पौनःपुन्येनोपदेशदानमित्याहउड्ड सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया । एए सोया विअक्खाया, जेहिं संगति पासह ॥१॥ श्रोतासि-कर्मास्रवद्वाराणि तानि च प्रतिभवाम्यासाद्विषयानुबन्धादीनि गृह्यन्ते, तत उद्धवं श्रोतासि-वैमानिकाङ्गनाऽमिलाषेच्छा वैमानिकसुखनिदानं वा, अधो भवनपतिसुखाभिलाषिता, तिर्यग व्यन्तरमनुष्यतिग्विषयेच्छा यदिवा प्रज्ञापकापेक्षयोद्धर्व गिरिशिखरप्राग्भारनितम्बप्रपातोदकादीनि अधोऽपि श्वभ्रनदीकूलगुहालयनादीनि तिर्यगप्यारामसभाऽऽवसथादीनि प्राणिनां विषयोपभोगस्थानानि विविधमाहितानि-प्रयोगविस्रसाभ्यां स्वकर्मपरिणत्या वा जनितानि व्याहितानि, एतानि च कर्मास्रवद्वाराणीतिकृत्वा श्रोतांसीव स्रोतांसि, एभिश्च त्रिभिः प्रकारैरप्यन्यैश्च पापोपादानहेतुभूतैः 'सङ्क' प्राणिनामासक्ति कानुषङ्ग वा पश्यत, इतिहतो, तस्मात्कर्मानुषङ्गात् कारणादेतानि स्रोतांसीत्यतोऽपदिश्यते, आगमेन सदा पराक्रमेथा इति किं च ॥ ५३॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्य०५ उद्देशकः ५ श्रीआचा राजवृत्तिः (शीलाङ्का.) ४५४॥ आवट्ठ तु पेहाए इत्थ विरमिज (विवेगं किहइ) वेयवी, विणइत्त सोयं निक्खम्म एसमहं अकम्मा जाणइ पासह पडिलेहाए नावखइ इह आगई गई परिन्नाय ॥ १६९॥ रागद्वेषकषायविषयावत्त कर्मबन्धावत्तं वा तुशब्दः पुनःशब्दार्थे भावावर्त पुनरुत्प्रेक्ष्य 'अन' अस्मिन् भावावर्ते विषयरूपे 'वेदविद्' आगमविद् 'विरमेद्' आस्रवद्वारनिरोधं विदध्यात्, पाठान्तरं वा "विवेगं किइ वेदवी" आस्रवद्वारनिरोधेन तज्जनितकर्मविवेकमावं 'कीर्तयति' प्रतिपादयति वेदविदिति । आस्रवद्वारनिरोधेन च यत्स्याचदाहस्रोतः-आस्रवद्वारं तद्विनेतुम्-अपनेतु'निष्क्रम्य' प्रव्रज्य 'एष' इति प्रत्यक्षः प्रस्तुतार्थम्य चावश्यंभावित्वादेष इति प्रत्यक्षवाचिना सर्वनाम्नोक्तो यः कश्चिदित्यर्थः 'महान्' महापुरुषः अतिशयिककर्मविधायी, एवम्भूतश्च किंविशिष्टः स्वादिति दर्शयति-'अकर्मा' नास्य कर्म विद्यत इत्यकर्मा, कर्मशब्देन चात्र धातिकर्म विवक्षितं, तदभावाच्च जानाति विशेषतः पश्यति च सामान्यतः, सर्वाश्च लब्धयो विशेषोपयुक्तस्य भवन्तीत्यतः पूर्व जानाति पश्चाच्च पश्यति, अनेन च क्रमोपयोग आविष्कृतः, स चोत्पन्नदिव्यज्ञान लोक्यललामचूडामणिः सुरासुरनरेन्द्रैकपूज्यः संसाराणेवपास्यत्ती विदितवेद्यः सन् किं कुर्यादित्याह-सहि ज्ञातज्ञयः सुरासुरनरोपहितां पूजामुपलभ्य कृत्रिमामनित्यामसारी सोपाधिका च 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य हृषीकविजयजनितसुखनिःस्पृहतया तां नाकाङक्षति-नाभिलषतीति । किं च-'इह' अस्मिन् मनुष्यलोके व्यवस्थितः सन् उत्पन्नज्ञान: प्राणिनामागतिं गतिं च संसारभ्रमणं तत्कारणं च ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया निराकरोति ॥ तन्निराकरणे च यत्स्यासदाह ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४५४॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४५५॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अच्चेइ जाईमरणस्स वमग्गं विक्खायरए, सव्वे सरा नियति, तका जत्थ न विजइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पाहाणस्स खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न च? न तंसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्देन सुकिल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाएं न अंबिले न महुरे न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न निडे न लुक्खे न काऊ न रुहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विजए, अरूची सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि ॥ सू० १७०॥ 'अत्येति' अतिक्रामति जातिश्च माणं च जतिमरणं तस्य 'वट्टमरगति पन्थानं मार्ग उपादानं कर्मेतियारत , तद. त्येति--अशेषकर्मक्षयं विधत्ते, तत्क्षयाच्च किंगुणः स्यादित्याह--विविधम्--अनेकप्रकारं प्रधानपुरुषार्थतयाऽऽरब्धशास्त्रार्थतया तपःसंयमानुष्ठानार्थन्वेन व्याख्यातो मोक्षः--अशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाकाशप्रदेशाख्यो वा तत्र रतो व्याख्यातरतः, आत्यन्तिकैकान्तिकानावाधसुखक्षायिकज्ञानदर्शनसंपदुपेतोऽनन्तमपि कालं संतिष्ठते । किम्भूत इति चेत्, न तत्र शब्दानां प्रवृत्तिः, न च सा काचिदवस्थाऽस्ति या शब्दैरभिधीयेत इत्येतत्प्रतिपादयितुमाह-'सर्वे' निरवशेषाः 'स्वरा वनयस्तस्मान्निवर्तन्ते, तहाच्यवाचकसम्बन्धे न प्रवर्त्तन्ते, तथाहि-शन्दाः प्रवर्त्तमाना रूपरसगन्धस्पर्शानामन्यतमे विशेषे सङकेतकालगृहीते तसल्ये वा प्रवर्तेरन्, न चैतत्तत्र शब्दादीनां प्रवृत्तिनिमित्तमस्ति, अतः शब्दानभिधेया ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराजवृत्तिः शीलाङ्का.) सम्य०५ उद्देशकः ५ ।१५६॥ मोक्षावस्थेति । न केवलं शब्दानभिधेया, उत्प्रेक्षणीयापि न सम्भवतीत्याह--सम्भवत्पदार्थविशेषास्तित्वाध्यवसाय ऊहस्तक्क:- एवमेवं चैतत्स्यात् , स च यत्र न विद्यते ततः शब्दानां कुतःप्रवृत्तिः स्यात् । किमिति तत्र तर्काभाव इति चेदाह-मननं मतिः-मनसो व्यापारः पदार्थचिन्ता सौत्पत्तिक्यादिका चतुर्विधाऽपि मतिस्तत्र न ग्राहिका, मोक्षावस्थायाः सकलविकल्पातीतत्वात् , तत्र च मोक्षे काशसमन्वितस्य गमनमाहोश्विन्निष्कर्मणः १, न तत्र कर्मसमन्वितस्य गमनमस्तीत्येतदर्शयितुमाह-'ओजः' एकोऽशेषमलकलङ्काङ्करहितः, किंच-न विद्यते प्रतिष्ठानमौदारिकशरीरादेः कर्मणो वा यत्र सोऽप्रतिष्ठानो-मोक्षस्तस्य 'खेदज्ञो' निपुणो, यदिवा अप्रतिष्ठानो--नरकस्तत्र स्थित्यादिपरिज्ञानतया खेदज्ञो, लोकनाडि पर्यन्तपरिज्ञानादनेन च समस्तलोकालोकखेदज्ञता आवेदिता भवति । सर्वस्वरनिवर्तनं च येनाभिप्रायेणोक्तवांस्तमभिप्रायमाविष्कुनाह--'स' परमपदाध्यासी लोकान्तक्रोशषड्भागक्षेत्रावस्थानोऽनन्तज्ञानदर्शनोपयुक्तः संस्थानमाश्रित्य न दी| न ह्रस्वो न वृत्तो न व्यस्रो न चतुरस्रो न परिमण्डलो वर्णमाश्रित्य न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न शुक्लो गन्धमाश्रित्य न सुरभिगन्धो न दुरभिगन्धो रसमाश्रित्य न तिक्तो न कटुको न कषायो नाम्लो न मधुरः स्पर्शमाश्रित्य न कर्कशो न मृदुर्न लघुर्न गुरुने शीतो नोष्णो न स्निग्धो न रुक्षो 'न काऊ' इत्यनेन लेश्या गृहीता, यदिवा न कायवान् यथा वेदान्तवादिनाम्-'एक एव मुक्तात्मा तत्कायमपरे क्षीणक्लेशा अनुप्रविशन्ति आदित्यरश्मय इवांशमन्तमिति', तथा न रुहा 'रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च' रोहतीति रुहः, न रुहोऽरुहः, कर्मबीजामावदपुनर्भावीत्यर्थः, न पुनर्यथा शाक्यानां दर्शननिकारतो मुक्तात्मनोऽपि पुनर्भवोपादानमिति, ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४५६। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४५७ ।। उक्तं च-"दग्घेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमध्य, निर्वाणमप्यनवधारित भीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयंकृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥ १ ॥” तथा च न विद्यते सङ्गोऽमूर्त्तत्वाद्यस्य स तथा तथा स्त्री न पुरुषो नान्यथेति--न नपुंसकः, केवलं सर्वैरात्मप्रदेशैः परि:- समन्ताद्विशेषतो जानातीति परिज्ञः, तथा सामान्यतः सम्यरजानाति - पश्यतीति संज्ञः, ज्ञानदर्शनयुक्त इत्यर्थः, यदि नाम स्वरूपतो न ज्ञायते मुक्तात्मा तथाऽप्युपमाद्वारेणादित्यगतिरिव ज्ञायत एवेति चेत्, तन्न, यत आह--उपमीयते सादृश्यात् परिच्छिद्यते यया सोपमा--तुन्यता सा मुक्तात्मनस्तज्ज्ञानसुखयोर्वा न विद्यते, लोकातिगत्वात्तेषां कृतं ऐतदिति चेदाह तेषां मुक्तात्मनां या सत्ता-सा अरूपिणी, अरूपित्वं च दीर्घादिप्रतिषेधेन प्रतिपादितमेव । किं च न विद्यते पदम् अवस्थाविशेषो यस्य सोऽपदः, तस्य पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदम् - अभिधानं तच्च 'नास्ति' न विद्यते, वाच्यविशेषाभावात्, तथाहि--योऽभिधीयते स शब्दरूप - गन्धरसस्पर्शान्यतरविशेषेणाभिधीयते, तस्य च तदभाव इत्येतद्दर्शयितुमाह, यदिवा दीर्घं इत्यादिना रूपादिविशेषानराकरणं कृतं, इह तु तत्सामान्यनिराकरण कतु काम आह से न सद्दे न रूवे न गंधे न रसे न फासे, इच्चेव तिबेमि ।। सू० १७१ ॥ ॥ इति षष्ठ उद्देशकः ॥ ५-५ ॥ ॥ इति पञ्चममध्ययनम् ॥ ५ ॥ ॥ ४५७ ॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचा E. 'स' मुक्तात्मा न शब्दरूपः न रूपात्मा न गन्धः न रसः न स्पर्श इत्येतावन्त एष वस्तुनो भेदाः स्युः, तत्प्रति-al षेधाच्च नापरः कश्चिद्विशेषः सम्भाव्यते येनासौ व्यपदिश्यतेति भावार्थः / इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् / राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) गतः सूत्रानुगमा, तद्गतौ चापवर्गमाप्त उद्देशकः, तदपवर्गावाप्तौ च नयवक्तव्यताऽतिदेशात्समाप्तं लोकसाराख्यं पश्चममध्ययनमिति // 5-6 // ग्रन्थाग्रं 1115 // // 458 // सटीकस्य श्रीमदाचाराङ्गसूत्रस्य अध्ययनपञ्चकात्मकः / // प्रथमो विभागः समाप्तः // // 458 //