Book Title: Kalpsutram
Author(s): Bhadrabahuswami, Suryodaysuri, Dharmsagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WYYYOYOYON) शेठ देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारफण्ड ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क: णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ध्यानस्थस्वर्गत आगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः । स्व० गच्छाधिपति आचार्यश्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः । श्रुतकेवली-श्रीभद्रबाहस्वामिप्रणीतं महामहोपाध्याय श्रीधर्मसागरगणिविरचितं 'किरणाचली' वृत्या समलकृतम्' श्रीकल्पसूत्रम् सम्पादकौ आ. श्रीसूर्योदयसागरसूरि-पं० लाभसागरश्च सहायकः आ० श्रीकंचनसागरसूरिः प्रकाशक-शेठ देवचन्द्रलालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड ट्रस्टीगणः सुरत वीर सं. २५१: विक्रम स. २०४६ आगमो० सं. ३९ प्रतयः २५० मूल्यम् रू.४० IROPICAPSPICY LOWOWOWWOONNNNNOOOOOOOOO For Privale & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरक :-ध्यानस्थस्वर्गत आगमोद्धारक आचायश्रीआनंदसागरसूरीश्वरजी म. शिष्य आचार्य श्रीकंचनसागरसरि प्रिन्टर-सागर प्रीन्टर्स नवनीत जे. महेता रीलीफरोड, पादशाह पोळ, मोदिनो डेलो अमदावाद-३८०००१ प्रकाशक अने प्राप्तिस्थान शेठ देवचन्द्रलालभाई जैनपुस्तकौद्धारफण्ड ठे. गोपीपुरा, बडेखां चकला सुरत ३९५००२ मुल्य रू. ४० नकल २५० CHOCHORROREOGRESORIANOC ॥२ For Privale & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३॥ प्रकाशकीय प्रियवांचको : श्री कल्पसूत्र परनी श्रीकल्पकिरणावली श्रीवात्मानंदसभाए भावनगरथी घणाज वर्षों पहेला बहारपाडी हती. पण तेना कागळो जीर्ण प्राय थया अने अत्यारे प्राप्ति दुर्लभ थइ आथी आ. श्रीकंचनसागरसरिजी शे० दे० ला. जै. पु० फण्ड तरफथी छपाववानो निर्णय कर्यो, त्यारे खबर पडो के पं. श्रीलाभसागरजी म०, आ. श्रीसूर्योदयसागरसूरिजी म. तथा पं. अभयसागरजी म. नो प्रेरणाथी श्रीआगमोद्धारक ग्रन्थमालाना माणिक्य ४ मणका तरीके छपाववा मागे छे. आधी पत्रव्यवहार करीने बन्ने भेगी छपावोने २५०, २५० कोपी बन्ने ग्रन्थमाला राखवी एवं विचारीने छपावी. शे० दे० ला० जै० पु० फण्डे लगभग १२५ ने आगमोद्धारक ग्रन्थमाला ७० लगभग ग्रन्थो बहार पाडया छे. तेमां महामहोपाध्याय श्रीधर्मसागरजी म. वि. सं १६२८मां कल्पकीरणावलीनी रचना करी छे. ते छापीने अमे प्रिय वांचकोनी आगळ मूकी छी.वांचको, मुनि भगवंतो तेनो उपयोग करीने अमारा प्रयत्नने सफल करे. तेज अभिलाषा. YRICSISESSIESIAUSIOS ॥३॥ JainEduca For Private & Personal use only ry.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || 8 || • संपादकीय श्री दृष्टिवाद नामना १२ मां अंगमानां प्रत्याख्यानप्रवाद नामना नवमापूर्वमांथी श्रीभद्रबाहुस्वामि महाराजे दशाश्रुतस्कंधनी रचना करी. तेमां आठमा अध्ययन रूपे कल्पसूत्रनी रचना करी, तेनी उपर समर्थ गीतार्थ महामहोपाध्याय श्रीधर्मसागरगणीवरे सं. १६२८ मां श्रीकल्पकिरणावली नामनी टीका रची. ते कल्पकिरणावलीने अमे बन्ने ग्रन्थमालाओ द्वारा बहार पाडीओ छीओ. कल्पकिरणावलीम मूल पाठोनी टीकामां पूर्व पाठोनो अतिदेश घणो करेलो छे. तेथी उपा० विनयजयजी म० जे संवत १६९६ मां सुबोधकानी रचना करी. ते सुबोधिका सरळ होवाने लीधे अत्यारे वाचनमां चाले छे, पण कल्प किरणावली तेमां आधार रूप छे ओम कहेतुं अतिशयोक्ति वाळं नथी. कारण के सुवोधिकाकार थे टीकामां जणावे छे के "विशेषार्थिना कल्प किरणावल्यादयो विलोक्या" ओम जणावे छे. अथी ओम मानतुं ज पडे के उपा० धर्मसागरजी म० आगमना अजोड अभ्यासी हता, तेओश्रीओ अनेक ग्रन्थो रचेला छे. प्रवचनपरीक्षा नामनो अजोड ग्रन्थ रच्यो छे। अने तेने आचार्य प्रवर श्री विजय सेनसूरीश्वरजी म जे हाथीनी अंबाडीओ मानपूर्वक वधावेलो छे. उपा० श्रीए ज्यां समाधान न मेळवी शायुं त्यां ' तत्त्वम् केवलीगम्यम्', एम कहीने पोतानुं भवभोरुपणुं जणान्युं छे. — 11 8 1 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECA आलंबन-आत्मानंद सभाए छपावेली कल्पकिरगावली, कपडवणन शेठ श्रीमीठाभाई गुलाबचंदना भंडारनी हस्तलिखीत प्रत, तेमज वीरविजयना उपाश्रयना भंडारनी हस्तलिखीत प्रतोनो आधार लीधो छे. आनी अंदर चौद स्वप्नमां जे श्लोक एकेक आव्यो छे ते हस्तलिखीत प्रतोना आधारे आप्यो छे. सुबोधिकामां आचेलक्यना विषयमा जे प्ररूपणा करी छे ते आचेलक अने आचेलक्य ए बेनो समन्वय न करतां लाइन खोटी दोराइ गइ छे. तेना विशेषार्थीए आगमोद्धारक ग्रन्थमाला तरफथी छपायेल आगमोद्धारक कृति संदोह भाग १ लानी कृति नंबर १४ "आचेलक्य" जे आगमोद्धारकश्रीन रचेलं छे ते वांचवा अमे भलामण करीए छीए. आ टीकामां जे चिन्हो जुदी जुदी रीते आपेला छे ते कल्पकिरणावली अने सुबोधेिकानो समन्वय करनार छे, एटले वाचकने एमां कोइ गरबड आवशे नहि. आनी नवेसर प्रेस कोपी करवानो प्रयत्न पं० श्रीलाभसागरजी म. जे कर्यो छे. सुबोधिकानी अंदर नव व्याख्यानोनां विभाग करेला होबाथी आमां पण तेने लक्ष्यमा राखीने नव व्याख्यानो करेला छे. बन्ने ग्रन्थमालाना प्रयत्नोथी अमे आ कल्पकिरणावली टीका बहार पाडवा प्रयत्न कर्यो छे. आमां कंड क्षति होय तो 8 सुधारीने वांचे एवी आशा राखीए छीए. सम्पादको:- आचार्य सूर्योदयसागरसूरिजी पं० लाभसागरजी AAAAAAA REKADALA ॥ ५ Jain Educatie m ational For Privale & Personal use only wwsirajanmanitary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६॥ Jain Educaticnational यम blej टाइटल प्रकाशक प्रकाशकीय संपादकीय विषयानुक्रम शुद्धिपत्रक आगमोद्धारक ग्रन्थमालानां प्रकाशनो अनुक्रमणीका प्रथम व्याख्यान द्वितीय व्याख्यान तुतीय व्याख्यान चतुर्थ व्याख्यान पंचम व्याख्यान षष्ठ व्याख्यान सप्तम व्याख्यान अष्टम व्याख्यान नवम व्याख्यान १ थी ६० / B ६१ थी १०६ १०७ थी १४३ १४४ थी १७३ १७४ थी २१६ २१७ थी २८४ २८५ थी ३४९ ३५० थी ३८० ३८१ थी ४३४ ॥६॥ brary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ REAA5A5%25A5%25AOॐ प० पू० तागण सोधस्तंभ-महोपाध्याय-श्रीधर्मसागरगणिवर-स्त्युत्यष्टकम् सिताम्बरे यो विमले तपागणे-ऽभवत् प्रभावान् नभसीव भास्करः । जिनाङ्गपड्दर्शनशास्त्रवेदिनं नमामि तं वाचकधर्मसागरम् ।।१।। आचार्यों विजयादिदानसत्-सूरीश्वरो वाचकसत्पदाङ्कितम् । चकार यं पीनजिनाऽऽगमाऽमृतं नमामि तं वाचकधर्मसागरम् ।।२।। श्रीकल्पसूत्रे किरणावलो बुध-प्रिया सुवृत्ती रचिता सविस्तरा । तथाऽन्यशास्त्राण्यापि येन धीमता नमामि तं वाचकघर्मसागरम् ।।३।। जिनेन्द्रमाणीरस विधातवे यस्मै नमस्यन्ति गुणानुरागिणः । जिनेश शास्त्रानुगवाक्यविस्तरं नमामि तं वाचकधर्मसागरम् ॥४|| यस्माद भजन्ते स्म भयं कुपाक्षिकाः चामुण्डिकाद्या हरिणा हरेरिख । उत्सूत्रदुःकण्टकभेदनोद्यतं, नमामि तं वाचकधर्मसागरम् ॥५॥ यस्य प्रसिद्धो भुवने क्षमावतो यशश्रयः शङ्खशशाङ्कनिर्मलः । पड्जीवकायाऽवनतत्परं सदा, नमामि तं वाचकधर्मसागरम् ॥६॥ शान्तत्वदान्तत्वमुमुक्षुतादयो, यस्मिन् गुणा रत्नवदर्णवे वराः । भावानुकम्पाश्चितचारुचेतसं, नमामि तं वाचकधर्मसागरम् ॥१७॥ इत्थं स्तुतो हर्षभराद् गणीश्वरः, स्तम्भायमानः तपगच्छमन्दिरे । श्रीमानुपाध्यायपदाङ्कितः मुघी-जेयत्य जसं गणिधर्मसागरः ॥८॥ ॥१॥ SainEdito litional Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ધ્યાનસ્થવગત આગાદ્વારકે આચાર્ય શ્રીઆન દસાગરસૂરીશ્વરજી મહારાજ किरणावली - - //રો - - - - - - - - - જન્મ વિ. સં. ૧૯૩૧ કપડવણજ દીક્ષા વિ. સં. ૧૯૪૭ | લીબડી પંન્યાસ વિ. સં. ૧૯૬૦ રાજનગર સૂરિપદ વ. સં', ૧૯૭૪ સુરત સ્વગ વાસ વિ. સં. ૨૦૦૬ સુરત દત્તા ચેન શમેશિના મુનિગણાન - પ્તાગમાનાં હૃતિક, સછાયુતિકર્મઠ; સ્થિતિyતે | શૈલેષ તામ્રપુ ચ સિદ્ધાદ્રૌ સુરતે ચ ચૈત્યયુગલેડ દયારોહચાગમાન આન‘દાદ્ધિ ગુરું' તુવે સુવિહિત’ માતે સમાધિસ્થિતમ્ //લા! - - - - - - %ના - દર - |૨|| lain Educ a tional For Private Personal use only ની Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान्तप्रशांतसरलप्रकृति गुणादयं गच्छाधिपं नृपतिवोधविधायिनं च । प्रान्ते समाधि मरणेन दिवं गतं तं माणिक्यसागरगुरुं प्रणमामि सूरिम् ॥१॥ | ઉપાધ્યાય સ', ૧૯૪૮ મહા વદ ૯ સ', ૧૯૮૫ મહા મુદે ૧૦ જ"બુસર ભોયણી - - - PERARISIEPROCILARIOSO GARRIORS - દીક્ષા સ'. ૧૯૬૭ મહા વદ ૮ ભરૂચ આચાર્યપદ સ. ૧૯૯ર વૈશાખ સુદ ૪ પાલીતાણા - - - - - ગણિ પન્યાસ પદ સં’, ૧૯૮૪ માગશર વદ ૧૦ અમદાવાદ મલિ નરેશ પ્રતિબોહક ગરછાન્શિયતિ ? કારગર સૃષ્ટિજી મહારાજ. સ્વર્ગવાસ સં. ૨૦૩૧ ચૈત્ર વદ ૮ શનિવાર લુણાવાડા IST En d an For P e rsonal use. Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली ||||| મૃ. ૯, આ, નાં HAZUR COURT ૪૮ પર હજુર હુકમ હેજર કાટ વસ્થાન મુ 'Tી. MULI STATE મૃલીના શ્રી જીન મંદિરમાં બિરાજતી પ્રતિમા એ પૈકી પાંચ પ્રતિમાની અ'જન સલા કા જન આચાર્ય મહાન રાજ શ્રી માણે કસાગરસૂરીજી હ તક સંવત ૧૯૯૬ના માગસર સુદી ૮ની મહાન પવિત્ર તીથીના રોજ થયેલ છે જેની ચાદગીરીમાં નીચે મુજબ કરવાનું ફરમાવવામાં આવે છે, ૧. હર સાલ આ ભ તીથીએ (માગસર સુદી ૪) સદરહું મદિરમાં સ્ટેટ તરફથી આગ ચડાવ વાનું તથા પ્રભુજીની પૂજા ભણાવવાનું ફરમાવવામાં આવે છે અને તે બદલ વડાપ કે રા. ૧૨-૦૦ બાર દેરાસરને આમ તેજુરી એફી સરે તેજ દિવસે પેાતાની સહીના બીલથી આ પવા દર સાલ માગસર શુદી ૪ ને દિવસ જાહેર તહેવાર તરીકે ગણી સ્ટેટની તમામ ઓફીસમાં રજા પાઠવી. ૩. સદર હે દી વસે શીકાર – ધી માટે જ આડર કાઢવા. અમલ થવા આ હકમની એક નકલ આ જમ ટ્રેઝરી એ ફી સર તરફ તથા જાણ થવા માટે એક ન કલ મહું રોજ શ્રી માણેકસાગરજી તરફ તથા એ ક નકલે શ્રી જૈન દેરાવાસી સ ધ તરફ મોકલવી. તા. ૧૮ નવેમ્બર સને ૧૯૪૧. (સહા) ગેાવી દેજી પેપટભાઈ (Ed.) M , K, Shah (Sd.) Harischandras/nhji હું, પ. અસી. મુલી. ચી. કારભારી, મુલી. | ઠાકોર સાહેબ, મુલી. - અસલ સાથે મુકાબુલ કરનાર તુલસીદાસ ઓઘડ, કારકુને ખરી નકલ જાણ થવા માટે શ્રી માણેકસાગરસુરીજી મહારાજ તરફ રવાના તા. ૨૧-૧૧-૪૧, | HD, Goda For હર ચીરતદાર મુલી સ્ટેટ, | 8 || For Private Peronis Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् पङ्क्तिः » 0. पEAAAAAAAAACAR अशुद्धम् लोकालो द्युपहृतः मन्यपि प्रधान्येना जागरत्ति) हहत० इत्यादिषु गम्भीरं धनायुषि एनमर्थ देवाणुप्आि रनिकेतने प्रकर्ष भागा "सदृश्ये शुद्धिपत्रकम् शुद्धम् पृष्ठम् पङ्क्तिः लोकलो. ग्रुपहत० मन्यदपि प्राधान्येना जागरा) ਵਰਨ इत्यादि गभोरं धनायूंषि एनमर्थ देवाणुप्पिा ६८१ स्वनिकेतने प्रकर्षपरि भोगावसदृश्ये अशुद्धम् जिवा० प्रभु पन्थानया द्वितीये वंदाभि कुक्षी (पासेउ (निसण्ण) अल्प० ऽऽश्वर्यभूत० अभाविआ तीर्य प्रासादात् संवृत्तानि शुद्धम् जवा० प्रभु पन्थान द्वितीयसमये च वंदामि कुक्षौ (पास (संनिसण्णे) तुच्छकुलेषु अल्प ऽश्चर्यभूत. अभाविआ तीर्थ प्रसादात् संवृतानि SAHES 00mm ६०B ६०B , Jain Education interational For Private & Personal use only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली शुद्धम् पृष्ठम् पङक्तिः शुद्धि पृष्ठम् पक्तिः ७५ १२ पत्रकम् ॥२॥ अशुद्धम् पोतानाधिक तित्थयराणां निवर्तित आलोचित्त कुलेषु पोतनाधि० तित्थयराणं “निर्वर्तितः आलोचित अशुद्धम् यौव कोमला वालुअ० रमणीये पंडुतरं यः। वयणमिरि पुन च्ययमानां शुद्धम् यत्रैव सौधर्मे कल्पे कोमल वालुआ अतिरमणीये पंडुरतरं यः तं। वयणसिरि पुनः च्यमानां ['त आज्ञप्तिम् आज्ञाप्तिम् (एजं आढत्ते मध्यमागेन (जणेव आदत्ते मध्यभागे (जेणेव CORRECORRECORE यत्र यौव तिलसाए त्रिशाला तिसलाए त्रिशला हिं विग्गहेहिं) । संतंअं० (सोभगुण. शब्दाविशेष (दुमणं उद्वावत संतअ० (सोभागुण शब्दविशेषं (दुम्मणं उद्धावत Jain Educatio n al For Privale & Personal use only MPTanelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् पङ्क्तिः ११२ पृष्ठम् पङिक्तः शुद्धम् अशुद्धम् प्राइनि पुणरविर० शुद्धम् प्रागनि० पुणरवि० बयासी' N प्र० له له : له KUGUSAEPICES PAGESCIA प्रेशन्तो अप निवृतश्च गंभीरम् याणा भक्तिः पृथुला व्याप्नुवावन्तं गुरुपप० संविः जागरिता दलायणा) زم चञ्चलैः प्रेशन्तो अपनिवृत्तश्च गभीरम् त्रेयाणां भक्तिभिः पृथुलो व्याप्नुवन्तं गुरुप संविजागरिता दलोयणा) अशुद्धम् वयासा' साहवि० मंगल मुंपक सङ्गामत: तिसला स्वामीन् विदधति सम्मार्जिताः अंति . (उववागअपरावे rvy mmsMMor" साहावि० मंगल भूषक० सङ्ग्रामतः सा तिसला स्वामिन् विदधती सम्मार्जिता अंति. (उवाग अपराद्धे ज्जाओ पायपी० सालं) SURESULex زم له १२० १ : سی سی : आओ पायापी० साल) Jain Education Bona For Privale & Personal use only elibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली पृष्ठम् पङ्क्तिः पृष्ठिम् पङ्क्तः 3 शुद्धि पत्रकम् ॥४॥ KECRECACAA १३५ १३६ . vvxdvdo Mar अशुद्धम् अहण पविविसित्ता) तथातं । महार्धानि नरिंदे प्रेक्षणीयम्काण्डपट्टीम् मध्येन मिलिता क्षत्रिय यंतरं उवित्ता प्रायाग्रह्णत: ययासी) उपहारो शुद्धम् अट्टण पविसित्ता) तथा । महार्यानि नरिदे प्रेक्षणी यामकाण्डपटीम् मध्येन यत्रैव मिलित्ता क्षत्रियः यंतरिय ठावित्ता प्रायग्रहणतः वयासी) अपहारो अशुद्धम् शुद्धम् बहुशः बहुशः महंत व्हं महासु कुलदि० कुलवृत्तिकरः कुलदि० विविधनकरतः विवर्धनकरः तं पुन्नपचि० पुन्नपंचि० वार्षिक वार्षिक त्यान (सक्वारि० त्या (सक्कारिक सज्जेई) सज्जेइ) गइए गईए घति० दशिता न्मूलादुन्मू० न्मू० शातन शाटनपातन० मनघां मनधी PEECHESTERBAR १५६ र घटित . दर्शिता AAMGEEG १६८ १२ ॥४ ॥ Jain Educati o nal For Privale & Personal use only M einelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् पङ्क्तिः 6.66 २०० पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धम् शुद्धम् श्रीसामति श्रीसोमति पौतक्या० पोतक्या कूल: विमान्न विमानै ग्लाक० ग्लोक चर्ण चूर्ण १८४ कालयं कलियं प्रथम बिह <एवं> विह. अभावास्या अमावास्या स्थापितये। स्थापितसूर्यमूर्ति विसर्जनमित्यादिस्त कुलायातचन्द्रसूर्य० । नामधिज नामधिज्जा पयत्तो पवत्तो वरणेमुदं वद्धणे सुदं. अशुद्धम् कारितः । तस्यामपि खारोवमो असी सर्वतीथ० सहस्स प्रविष्टाः । निपीदति गाद पयन्तम् । पडागे लष्यमाणाः मेकर दटुंह तत्थ BASARETERSHIRSANARTRE शुद्धम् कारितम् । तस्या अपि खारोवमं असीई सर्वतीर्थ सहस्म प्रविष्टा । निषीदाते गाद' पर्यन्तम् ] पडाग लष्यमाणः मेऽकर:० BAARREARSATIRITES प्रथम २०७ २०८ .. . . २१८ १९८ रयणीह तत्थ 428 Jain Education For Privale & Personal use only donahelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली पृष्ठम् पङ्क्तिः शुद्धम् पृष्ठम् पङ्क्तिः २२४ १२ शुद्धि पत्रकम क्वेन ABHISHASTR २४५७ २२५ २२६ १४ १० त:-बासयतः । वीरवरस्स निसिज्जाए लोके २२९१ अशुद्धम् शुद्धम् सरा सरो तारिहिसि । त्तरेहिसि । कोशिक' कौशिक नाद्यपसर्ग नाद्युपसर्ग इति । इति शशाप । कोलाक० काला० काडन् क्तोगाय क्तोपायः ध्याच० दति प्यच० दती विघाय বিঘা तदा पारणकं पारणके तदा হিজাগি शिष्यीणि हासे पिज्जे . हासे वा पिज्जे माकणकप्पे माणकप्पे गुणवोगेन गुण योगेन ठिअंमि अशुद्धम् वत्वेन तः। वीरवस्त निसिञ्जाए लोकानां ठिअंभि ब्रह्मा वा नघनः ऽप्येष मः |-गत- अद्वतऽस्नि ' २४७ २ २४८ ११ २४९ २५२ २५३११/१२ २५५ २५६ क्रीडन् ब्रह्य वा नधनः ऽप्येष मा ।-गर्भअद्वैत० ऽस्ति ' स्वामिनिश्रया पश्चाद् २३८ स्वामि ITISHARE २६१ ९ २६२६ निश्चया पश्वाद् Jain Educatio n al For Privale & Personal use only nelibrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धम् पृष्ठम् पङ्क्तिः पृष्ठम् पङ्क्तिः २६४३ २८५ ୨-୪- १० २६५४ G अशुद्धम् नाम्नो च आदानीयः रयणि सम्यकू पष्ठिगताति काले अनन्तर 6 हत्याजोति० यशामुहर्तो ग्यणि बुच्छिन्ने दबुजोयं महाबारस्स स्थानासता बोरस्स वर्षातितत अ us:0022 शुद्धम् इत्याज्योति यशोमुहूत्तों रयणि बुच्छिन्ने दबुज्जोयं महावीरस्स स्थानाहारदानासता वीरस्य वर्षातिशतततातत्त्वं . . . . MN000mmmmmmmm . . ० ० ० ० ० २९६ २९७ १२ २९८१ शुद्धम् नाम्नोश्च आदानीयश्च रयणि सम्यक् पण्टिगतानि काले अनन्तर पर्यन्तम् पर शृणुता द्रव्यतः नक्खहृद्यैरतदुक्त . APRINCICIANAVARATREAM 6 पर्यन्तम् पर: ୪୨- ११ ४ १२ अणु ३०९ दूव्यतः नक्खेहृद्यरतदुक्तं तत्त्व ५ ॥ ७॥ or Jain Educationnemand For Private & Personal use only Thedbrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली पृष्ठम् पङ्क्ति ३११ शुद्धम् अरहओ बायालीस पृष्ठम् पक्ति ३५४ ११ ३५५ ३५८ १२ ३६३ कलपशुद्धि पत्रकम् अशुद्धम् अरइओ बायलीसद्धिचविमला आट चयुत्वा हकाररुपैंसहस्त्राणि बुष्टि अशुद्धम् शुद्धम् पोडश षोडश तथावि० तथा विधवि० वैश्या० वेश्या० पर्यन्तमू विशेषाणं विशेषाणां 'अपत्या:'निय० अपत्यानि य० पर्यन्तम् -~MNCV COMMAN mmmmmmmmmmmmmmmmm . १ . ३६६ विमल आठ च्युत्वा हकाररूपैसहस्राणि वृष्टि पुष्कमिदं तित्थगर ३२८१४ SAASPARRORECARReOAcc mmmmmmm ३७२ ३७३ १० हरी साघु० अहन्मत मुनिक्ष पारणार्थ विधा धम्मथि मितं मिद तित्वगरगंद्रा रायाइ पयन्तम् हरी अ साधु० अहन्मतं सुभिक्ष. पारणार्थ विद्या धर्मपि मित ३७४ गंदा ३५३ सयाई पर्यन्तम् ३८. ॥८॥ Sinan For Privale & Personal use only abetbrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धम् शुद्धम् पृष्ठम् पक्ति : पृष्ठम् पङ्क्तिः ३८२४ ३८३ ॥९ ॥ रात्र ARCH मशुद्धम् अपापपाणा य कतरि ४२० ५ शुद्धम् अपायपाणा य तणा य कत्तरि इति रत्ना० काल हति ३८४८ ३८५ रग्निा० कयु: लाल राईदियाएहिं रियाआणं घाष्टर्य याणं नि० सम्भो भिलिंसूवे हितए अनत्तमिते पञ्चवार्य राइदिएहि रियाण धाष्टच. याणं कप्पइ नि साम्भोग भिलिंगसूवे हित्तए अनस्तमिते पच्चवाय arNNNmmmmmmm omomy, पर्व विशेषेश्रीमह ४३४ विशेषश्रीमदहवाद सहजपाल बद जपाल सिद्ध सिद्ध 97-62-RESS ॥९॥ For Privale & Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली : आगमो० प्रकाशनो ॥१०॥ Persecure ROSTORES आगमोद्धारकग्रन्थमालाना प्रकाशनो ग्रन्थाङ्क प्रन्थाङ्क सर्वज्ञशतक सटीक आगमोद्धारक कृतिसन्दोह भा० ३ श्राद्ध आनंदमंजूषा आगमोद्धारक कृतिसन्दोह भा० ४ सज्झायमाला औष्ट्रिकमतोमूत्रदीपिका कर्मविचार सूत्रच्याख्यानविधिशतक ज्ञानझरणां धर्मसागरग्रन्थसङ्ग्रह रोहिणीपूजा जैनस्तोत्रसञ्चय भा० ३ कुलकसन्दोह गुरुतत्त्रप्रदीप रत्नसारचरित्र शतार्थविवरण आगमोद्धारककृतिसन्दोह भा० १ चन्द्रराजचरित्र सन्देहसमुच्चय अधिकारविंशिका आगमोद्धारककृतिसन्दोह भा० २ आगमोद्धारककृतिसन्दोह भा० ५ जैन स्तोत्रसञ्चय भा० १ लोकविशिका भा० १ , भा० २ आगमोद्धारककृतिसन्दोह भा०६ १३ आगमोद्धारकनी श्रुतोपासना न्यायावतार सटीक FASHISHASRASHISHASHISHASHASIRISH ॥१०॥ Jain Education For Privale & Personal use only Inmaramainelibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थाङ्क २८ ग्रन्थाङ्क सित्तुज कप्पो (शजयकल्प सटीक) ४२ लघुतमनामकोश (सभावा०) ॥११॥ आगमोद्धारककृतिसन्दोह भा. ७ धर्मरत्नप्रकरण (हिन्दी०) मा० . लोकविंशिका भा० २ KRESCRECRACANCRECECORRECASS धर्मरत्नप्रकरण (हिन्दी०) भा० २ धर्मरत्नप्रकरण (हिन्दी) भा० ३ संसारीजीवचरित्रबालावबोध मंगलस्वाध्याय सर्वज्ञशतक (टबो) जिनाशास्तोत्र-केवली. गुर्जरादिकृतिसमुकचय जैन स्तोत्रसञ्चय भा० ४ महामंत्रना अजवाला स्तोत्ररत्नावली योगबिन्दुभावानुवाद ४५ सड्ढजीयकप्पो (श्राद्धजीतकल्प) ४६/१ आगमोद्धारककृतिसन्दोह भा०८ ४६/२ तत्त्वार्थ० हिन्दी स्तोत्रस्तवनादि पञ्चसूत्र-वार्तिक आवश्यकसप्तति आनन्दरत्नाकर (प्रशस्त) भा० १ जई जीयकप्यो (यतिजीतकल्प) पञ्चकल्पभाष्य निःशेषसिद्धान्त विचारपर्याय कर्मार्थस्त्र (सभाषांतर) FRERAHARASHRERASHATRENA ॥११॥ Aihelibrary.org For Privale & Personal Use Only Jain Educationakaandional Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली ॥१२॥ Jain Educationtional ग्रन्थाक ५६ ५७ ५८ पञ्चसूत्र टीप्पण गिरनार प्रशस्ति जंबुद्दीव पण्णत्ती (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति) शत्रुञ्जयगिरिराजदर्शन गु० शत्रुञ्जयगिरिराजदर्शन आवृति बीजी शत्रुलयगिरिराजदर्शन इंग्लीश कपडवंजनी गौरवगाथा ग्रन्थाङ्क ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ आगमज्योतिर्धर भा० १ आगमज्योतिर्धर भा० २ व्याख्यानसंग्रह ज्ञानझरणां भा० १ ज्ञानझरणां भा० २ जैनस्तोत्रसञ्चय भा० ५ आगमज्योत १-१६ णमात्थु ण समणस्स भगवओ महावीरस्स ૫. પૂ. આગમાધ્ધારક શ્રી આનંદસાગર સૂરીશ્વરજી મ.ના એક માત્ર વારસદાર અનન્ય પટ્ટધર મુલિનરેશપ્રતિબાધક સ્વ. ગચ્છાધિપતિ આચાય દેવ શ્રી માણિકયસાગર સૂરીશ્વરજી મ.ના શિષ્યરત્ન શતાવધાની પન્યાસપ્રવર શ્રી લાભસાગરજી મ. તથા અતિમ શિષ્ય મહાવીરપુરમ્ નીથના સ્વપ્નદ્રષ્ટા પન્યાસપ્રવર શ્રી પુણ્યાદયસાગરજી મ.ને ઉપાધ્યાય પદપ્રદાન નિમિત્તે વૈશાખ વદ-૫, रविवार ती २-६-८१, स्थण : शनोट स. २०४७ वीरनिर्वाण २५१७. आगमो ० प्रकाशनो ॥१२॥ ainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क. कि. १ ૧ श्री आगमोद्धारकग्रन्थमालायाः माणिक्यं ४ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ध्यानस्थस्वर्गत आगमोद्धारक - आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः स्व० गच्छाधिपति आचार्यश्रीमन्माणिक्य सागर- हेमसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः श्रुतकेवल श्रीभद्रबाहुस्वामिप्रणीतं श्रीदशाश्रुतस्कन्धछेदसूत्रस्य अष्टमाऽध्ययनरूपं श्रीजैनशासन सौधस्तम्भायमानमहोपाध्यायश्रीधर्मसागरगणिवरविरचितकल्पकिरणावलीवृत्तियुतं श्री कल्पसूत्रम् णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं । एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ १ ॥ पुरिमचरिमाणकप्पो मंगलं वद्धमाणतित्थंमि । इह परिकहिया जिणगण - हराइथेरावली - चरितं ॥ २ ॥ प्रणम्य प्रणताऽशेष - वीरं वीरजिनेश्वरम् । स्ववाचनकृते कुर्वे कल्पव्याख्यानपद्धतिम् ॥ १॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीकल्पइह हि तावच्चतुर्मासकमासीना मुनयो मङ्गलनिमित्तं कल्पद्रकल्पं पर्युषणाकल्पाऽभिधमध्ययनं पश्न दिनानि वाचयन्ति ।।४किरणावली टीका ॥५|| तत्र कल्प:-साध्वाऽऽचारः । स च दशधा । तद्यथा व्या०१ 'आचेलक्कुद्देसिय-सिज्जायर-रायपिंड-किइकम्मे । वय-जिट्ठ-पडिकमणे मासं पन्जोसवणकप्पो ॥१॥ (पञ्चाशके गा. ८००) [वृहत्कल्प० ६३६४ निशीथ० ५९३३ पञ्चकल्प० १२७१ जीतकल्प० २०४२] व्याख्या-अविद्यमानं चेलं-वस्त्रं यस्याऽसौ अचेलकस्तदभाव आचेलक्यम् । तच्च तीर्थकरानाश्रित्य चतुर्विंशतेरपि । तेषां देवेन्द्रोपनीतदेवदृष्याऽपगमे तदभावत्वमेव । साधूनाश्रित्य तु प्रथमाऽन्तिमतीर्थकृत्तीर्थे श्वेतमानायुपेतवस्त्राणां जीर्णप्रायत्वात् तादृग्वस्त्रधारित्वेऽप्यचेला एवोच्यन्ते वाचंयमाः। न चैतदयुक्तं, तथाविधविशिष्टनेपथ्याऽभावादचेलकत्वव्यवहारस्य सार्वजनीनत्वात् । नत्रः कुत्सार्थत्वेऽपि युक्तियुक्तत्वाच्च । यदाह 'जह जलमवगाहतो बहुचेलो वि सिरवेढिअकडिल्लो। भण्णइ नरो अचेलो तह मुणो संतचेला वि ॥१॥ तह थोवजुण्णकुच्छिअ-चेलेहि वि भण्णइ अचेलोत्ति । जह तूरसालि! लहु देसु पोति नग्गिा मो ति॥२॥ (विशेषाव. २६०१-२) अजितादिद्वाविंशतितीर्थकृत्तीर्थसाधूनां तु ऋजुप्रज्ञत्वान्महामूल्याऽनियतवर्णाऽऽद्युपेतवस्त्रपरिभोगाऽनुज्ञानात् १ दुविहा एत्थ अचेला संतासतेसु होइ विष्णेया । तित्थगर संतचेला संताऽचेला भवे सेसा ॥ टीका :-द्विविधा-द्विप्रकाराः । अत्राऽऽचेलक्यविचारे अचेला-निर्वासस: सदसत्सु-विद्यमानाऽविद्यमानेषु । चेलेब्विति गम्यं । भवन्ति-स्युः विज्ञेया-ज्ञातम्या । तत्र तीर्थकरा-जिनाः असच्चेला सन्तो अचेला भवन्ति; शक्रोपनीनदेवदूष्याऽपगमाऽनन्तर । तथा सद्भिर्वस्त्रैरचेलाः सन्तोऽचेला भवेयुः-स्युः शेषा-जिनेभ्योऽन्ये साधवः ।। पञ्चा०८०५ ।। -पंचकप्पभास गा. १२७५ जीतकल्प० गा. २०४८ बृहत्कल्प ६३६५ निशीथ० ५९३४. ABPEECISISA For Private & Personal use only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BABASABASIRA तादृग्वस्त्रधारित्वेन सवेलकत्वमेव केषाश्चित् । केवाश्चित् श्वेतमानाऽऽधुपेतवस्त्रधारित्वेनाऽवेलकत्वमपि इति विकल्पभागेवाऽऽ. चेलक्यम् ॥ इति आचेलक्यकल्पः प्रथमः॥ . तथा 'उद्देसियं तु कम्म' (पञ्चाशके गा. ८०८) इति वचनात् । उद्दिश्य साधूनङ्गीकृत्य क्रियते यत्तदोद्देशिका इति व्युत्पत्त्याऽऽधाकर्मेत्यर्थों विवक्षितः । तच्चाऽऽधार्मिक प्रथमचरमतीर्थकृत्तीर्थयोय कञ्चनमुनिमुद्दिश्य कृतमशनादिकं सर्वेषामपि संयतानामकल्प्यम् । यदाह___संघादुद्देसेणं ओहाईहिं समणाइ अहिगिच्च । कडमिह सव्वेसिं चिअ न कप्पई पुरिमचरिमाणं' ।। (पश्चा० गा० ८०९) ति । 'सङ्घायुद्देशेन'-सोपाश्रयाऽऽलम्बनेन । 'ओहाइहिं' ति सामान्यविशेषाभ्यां तत्र 'सङ्घार्थम्' इति विकल्पः सामान्यम् । विशेषस्तु 'प्रथमजिनसङ्घार्थ चरमजिनसङ्घार्थ मध्यमजिनसवाऽर्थ वा' इत्यादि विकल्पः।। एवमुपाश्रयमाश्रित्याऽपि । 'समणाइ अहिगिच्च' ति। श्रमणान् श्रमणोश्चाऽधिकृत्येत्यर्थः, द्वाविंशतिजिनतीर्थेषु पुनः यं समादिकमुदिश्याऽऽधाकर्म कृतं तस्यैवाऽकल्प्यं, शेपसाधूनां तु कल्प्यम् । यत:____ 'मज्झिमगागं तु इदं जं कडमुदिस्स तस्स चेव त्ति । नो कप्पइ सेसाणं तं कप्पइ एस मेरत्ति' ॥ (पश्चा० ८१०) 'एषा मर्यादा' इत्यर्थः ।। इति औदेशिककल्पो द्वितीयः॥ तथा शय्यया-सत्या तरतोति शय्यातरः-वसतिसामी । पिण्डशब्दस्योभयत्र सम्बन्धात् तस्य पिण्डो-अशन-पान BASABIES JainEducedu For Private & Personal use only Altrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ASHESEARS खादिम-स्वादिम-वस्त्र-पात्र-कम्बल-रजोहरण-सूची-पिष्पलक-नखरदन-कर्णशोधनलक्षणोद्वादशविधः। यदाह किरणाव 'असणाई वत्थाई सइआई चउक्या तिन्नि' ति। स सर्वेषामपि तीर्थेषु साधूनामकल्या टीका , प्रसङ्गगुरुदोषसद्भावात् । व्या० ___यतः-'सिज्जायरोत्ति भण्णइ आलयसामी उ तस्स जो पिंडो। सो सम्वेसिं न कप्पइ पसंगगुरुदोसमावेण ॥ ति (पश्चा० ८११)। प्रसङ्गे-तद्ग्रहणप्रसक्तो ये गुरवो-महान्तो दोषाः-दूषणानि तेषां यो भाव-भवनं तस्मादित्यर्थः। दोषाणां गुरुत्वं च सन्निहितसाधुगुणाऽनुरागेण पारणके प्रथमालिकाद्यर्थ पुनः पुनः प्रवेशने चाऽनेवणीयाऽऽहारसम्भवात् , मिष्टान्नपानादिलोभेन तत्कुलाऽपरित्यागात् । कारणवशारगतस्यापि पुनरागमनात् । विशिष्टाऽऽहारोपधिभ्यां शरीरोपध्योरलाघवात् । 'येन वसतिया तेनाऽऽहाराद्यपि देयम्' इति गृहिणां भयोत्पादनात् । तद्दान भयाच वसतेदौलभ्यात् ।। वसत्यभावाच्च भक्तपानशिष्यादिव्यवच्छेदाच्चेति । तीर्थकृत्प्रतिषिद्धत्यादेवेति बोध्यम् । तत्परित्यागे तु 'अहो! निःस्पृहा एते अतो वसत्यादिदानतः पूज्या' इति भावोत्पादनेन शय्यातरस्य श्रद्धावृद्धिः प्रवचनगौरवं च इत्यादिगुणाः। एवं सत्यपि यदि रात्रेश्वतुरोऽपि यामान् शोभनाऽनुष्ठानाः साधवो जाग्रति प्राभातिकं चाऽऽवश्यकमन्यत्र कुर्वन्ति तदा मूलोपाश्रयस्वामी शय्यातरो न भवति, भवति च तत्र सुप्ते कृते चाऽऽवश्यके प्राभातिके । अथ शय्यातरगृहे सुप्त्वा प्राभातिकं चाऽऽवश्यकमन्यत्र कुर्वन्ति तदा यस्याऽवग्रहे सुप्तं यस्याऽवग्रहे च प्राभातिक कृतं तौ द्वायपि शय्यातरौ भवतः । तृण-डगल-भस्म-मल्लक-पीठ-फलक-शय्या-संस्तारक-लेपादिवस्तूनां ग्रहणे सोपधिकशिष्यप्रवाजने चाऽऽज्ञया कल्प्यवाच्छरयातरो न भवति ॥ इति शय्यातर कल्पस्तृतीयः ।। DIL ॥ ४। कलन Jain Educaw enational For Privale & Personal use only wantbary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा राजा तावदुदितोदितकुलप्रसूतो बद्धमुकुटराज्ञाऽभिषिक्तः सेनापति-पुरोहित-श्रेष्ठय-मात्य-सार्थवाहलक्षणैः प्रश्चभिः साई राज्यं भुञ्जानश्चक्रवादिस्तस्य यः पिण्ड:-अशनादिचतुष्कं वस्त्रं पात्रं कम्बलं रजोहरणं चेत्यष्टविधः । स च प्रथमचरमतीर्थकृत्तीर्थयोाघातादिदोषदूषितवादकल्प्यः। यदाह 'मुदितादिगुणो राया अहवहो तस्स होइ पिंडुत्ति । पुरिमेयराणमेसो वाघायाईहिं पडि कुटो' ।। ति (पश्चा० ८१४) । व्याघातादयः पुनरेवम् 'ईसरपभिई हि तर्हि वाघाओ खद्धलोहुदाराणं । दसणसंगो गरहा इयरेसिं न अप्पमायाओ' ॥१॥ (पश्चा० ८१५)। अस्य गाथार्थ:-ईश्वरप्रभृतिभिः-युवराजतलवरमाडम्बिकादिभिः सपरिकरैः प्रविशद्भिनिर्गच्छद्भिश्च तस्मिन् राजकुले व्याघात:-स्खलना साधोस्तत्र प्रवेशनिर्गमयोः । ततश्च भिक्षास्वाध्यायादीनामपि व्याघातः । अथवा सम्मादमङ्गलबुद्धधा वा कायपात्रप्रभृतीनां व्याघातः-हननं स्यात् । 'खद्धलोह' ति खद्धे-प्रभूतेऽन्नादौ लभ्यमाने यो लोभ:-लुब्धता । तथा उदाराणां-हस्त्यश्वस्त्रीपुरुषादीनां दर्शने-अवलोकने सङ्ग:-अभिष्वगः स्यात् । ततश्चात्मविराधनादि चारकचोर-कामुकादिसम्भावनया राजकोपात् कुलगण सङ्घायुपघातश्च स्यात् । तथा गाँनिन्दा यथा-अहो! एते गहणीयमपि राजप्रतिग्रहं स्वीकुर्वन्ति'। गहणीयता च तस्य स्मातेरेवमूचे'राप्रतिग्रहदग्धानां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर!। स्विन्नानामिव बीजानां पुनर्जन्न न विद्यते' ॥१॥ अथवा 'अनभिष्वङ्गा मुनयो मता' एते त्वष्टकल्याणवत् कथं गजाऽश्वादिषु सङ्गं कुर्वन्ति ? इत्येवंरूपा । SAECRECARSAARCOACACAN Jain Educ a tional For Privale & Personal use only wwur jantanorary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प SARACTOR किरणावली टीका व्या०१ का अथैते दोषा मध्यमजिनमुनीनामपि भवेयुः इति कथं तदग्राह्यता ?, इत्याह-'इअरेसिं न, अपमायाओ' त्ति । इनरेषां-मध्यमजिनमुनीनां न-नैव एते दोषा भवन्ति । कुतः? अप्रमादात् । यतः ते ऋजुप्रज्ञत्वाद् विशेषेणाऽप्रमादित्वेनोक्तदोषपरिहारपरायणाः। इतरे पुनः ऋजुजड-वक्रजडत्वेन न तथा ॥ इति राजपिण्डकल्पश्चतुर्थः॥ तथा कृतिकर्म-चन्दनकं । तद्विविधम्-अभ्युत्थानं वन्दनकदानं च । द्वितयमपि एतत् सर्वजिनतीर्थेषु साधुभिर्यथापर्यायादिना परस्परं विधेयं । साध्वीभिस्तु सर्वाभिरपि पुरुषोत्तमो धर्म इति कृत्वा सर्वे साधयोऽभिवन्दनीयाः। न पुन: पर्यायाद्यपेक्षणीयम् । यदुक्तं वरिससयदिक्खिआए अज्जाए अज्नदिक्खि भो साह । अभिगमणवंदणनमंसणेण विणएण सो पुज्जो ॥ धम्मो पुरिसप्पभवो पुरिसवरदेसिओ पुरिसजेट्ठो। लोए वि पह पुरिसो किं पुण लोगुत्तमे धम्मे ॥ (उपदेशमाला गा०१५-१६) स्त्रीवन्दने च बहवो दोषाः। तथाहि 'तुच्छत्तणेण गब्बो जायइ ण य संकते परिभवेणं । अन्नो वि होज्ज दोसो थिआसु माहुज्जहिज्जासु' ॥ त्ति । (बृहत्कल्प गा० ६४००-जीतकल्प० गा० २०८८) माधुर्यहार्यास्वित्यर्थः। योग्यस्य च यथार्ह वन्दनाऽकरणेऽह कृते चैर्गोत्रकर्मणो बन्धः । 'नूनमेतत्प्रवचने विनयो नाऽभिधीयते' इति प्रवचनखिंसा। 'अविज्ञा वा एने लोकरूढिमपि नाऽनुवत्तयन्ति' इति निन्दाऽपि । ततश्च बोधिदुर्लभता संसारवृद्धिश्चेति दोषाः॥ कृतिकर्मकल्पः पञ्चमः ॥ A GAR For Private & Personal use only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 977-AIRS तथा व्रतानि-महाव्रतानि तान्येव कल्यो व्रतकल्पः । स च तत्त्वतोऽभेदेऽपि प्रथमचरमजिनतीर्थयोः पश्चमहाव्रतलक्षणः । शेषाणां तु चतुर्बलक्षणः । यतः-'नाऽपरिगृहीतानां स्त्रीणां परिभोगः सम्भवति' इति तद्विरतौ तासामपि विरतिरेवेति ऋजुप्रज्ञानां प्रज्ञा, न तु शेषाणां । परमयं द्वेषाऽपि स्वस्वतीर्थेषु स्थित एवाऽवगन्तव्यः ॥ इति व्रतकल्पः पष्टः॥ तथा ज्येष्ठ:-रत्नाऽधिकः । स एव कल्पो ज्येष्ठकल्पो-ज्येष्ठत्वव्यवहार इत्यर्थः । स च प्रथमपश्चिमजिनयतीनामुपस्थापनात एवाऽऽरभ्य, शेषाणां तु निरतिचारत्वात् प्रव्रज्यात एवेति । अथ पिता-पुत्रादीनां द्वयोर्युगपदुपस्थापने कथं ज्येष्ठताव्यवहारः?, इत्याह'पितिपुत्तमाइआणं समगं पत्ताण जिपितिपभिई। थेवंतरे विलंबो पनत्रणाए उबवणा' ॥ (पश्चा० ८२५) । व्याख्या-पितापुत्रादीनां-जनकसुतप्रभृतीनाम् आदिशब्दात् राजाऽमात्य-मातादुहितु-राश्यमात्यादिग्रहः। समकं-युगपत् प्राप्तानां-विवक्षिताऽध्ययनाऽधिगमेनोपस्थापनायोग्य नामवाप्तानां ज्येष्ठाः पितृ-प्रभृ. तयः स्युः। आदिशब्दात् राज-पातृ-राज्यादिग्रहः। अथ पुत्रादिः प्राप्तो न पित्रादिः तदा को विधिः?, इत्याह-स्तोके-अल्पे अन्तरे-विशेषे दिनदयादितः पित्रादिरपि प्राप्स्यतीत्येवंरूपे विलम्ब:-प्रतीक्षणं कार्यम् । पित्रादौ प्राप्ते सति युगपदेव पितापुत्रादिरूपस्थापनीयः, माऽभूत् पुत्राद्यपेक्षया लघुताकरणेन पित्रादेरसमाध्युन्निष्क्रमणादिरिति । अथ वहन्तरं तदा को विधिः, इत्याह-प्रज्ञापनया-पित्रादिसम्बोधनया 'तव पुत्रो यदि विवक्षितां श्रियं IC - - ॥ ७॥ For Private & Personal use only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावरू टीका व्या०६ - - - श्रीकल्प-13 प्राप्नोति अन्येषां च ज्येष्ठतरो भवति तदा तवैवाऽभ्युदयस्ततो न त्वयाऽस्य विघ्नो विधेय' इत्यादि- लक्षणया उपस्थापना-व्रतारोपणा कार्या। ॥ ८॥ अथ प्रज्ञाप्यमानोऽपि यदि न प्रतिपद्यते तदा प्रतीक्षणीयं यावदसौ प्राप्नोति । द्वये राजादयो युगपद यदा तुपस्थाप्यन्ते तदा यथाऽसन्नं ज्येष्ठता ॥ इति ज्येष्ठकल्पः सप्तमः ।। तथा प्रतिक्रमणं--पविधाऽऽवश्यककरणं । तच्चाऽतिचारो भवतु मा वा पुनरुभयसन्ध्यमवश्यं कर्तव्यमिति प्रथमचरमतीर्थकृत्तीर्थयोः साधुनां सप्रतिक्रमणश्चारित्रधर्मः । शेषाणां तु समुत्पन्ने प्रतिक्रमणाऽहें कारणे प्रतिक्रमणं नाऽन्यथा ॥ इति प्रतिक्रमणकल्पोऽष्टमः ॥ तथा प्रथमाऽन्तिमतीर्थकरयोस्तीर्थे मासकल्पः स्थित एव । प्रतिबन्धादिदोषसम्भवात् । यदाह 'पडिबंधो लहुअत्तं न जणुवयारो न देसविनाणं । नाऽऽणाराहणमेए दोसा अविहारपक्खम्मि ॥ त्ति । (पञ्चा० ८३०) प्रतिबन्धः-शरयातरादिवस्त्वभिष्वङ्गः । लघुत्वं च-कथमेते स्वगृहं परित्यज्याऽन्यगृहेषु व्यासक्ताः' । अनुपकारश्च-विचित्रदेशस्थित जनानामुपदेशदानाऽभावेन । 'न देसविनाणं' ति । न-नैव देशेषु-विविधमण्डलेषु सञ्चरतां यद्विज्ञान-विचित्रलोकालोकोत्तरज्ञानं । 'नाऽऽणाराहणं'ति । नाऽऽज्ञाराधना | आज्ञा चैवं 'मोत्तण मासकप्पं अण्णो सुत्तमि नस्थि उ विहारो'त्ति । (पश्चवस्तु गा० ८९६) एते दोषा अविहारपक्षे । कदाचित् ।। - RECORROCEACOCOCOGES ॥ ॥८ ॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only wiafaelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमबाधाकारिदुर्भिक्षग्लान्यादिकारणवशाद द्रव्यतो मासकल्पाऽभवने भावतो वसतिपाटकपरावर्तनेनाऽन्ततःशयनभूमिपरावत्तIMI नेनाऽपि चाऽयमवश्यं विधेय एव । यदुक्तं कालाइदोसओ पुण न दधओ एस कीरए नियमा । भावेण उ कायव्यो संथारगवच्चयाइहि ॥ त्ति । (पश्चा० ८३१) संस्तारकव्यत्ययादिभिः इत्यर्थः । शेषाणां तु ऋजुप्रज्ञत्वादुक्तदोषाऽसम्भवादस्थितः ॥ इति मासकल्पो नवमः॥ तथा परि-सामस्त्येनैकत्राऽवगृहीतक्षेत्रमात्रे (उपणा-) वसनं पर्युषणा । एवं व्युत्पन्नोऽपि 'पर्युषणा' शब्दः क्वचिच्चातुसिकाद्यवगृहीतकालाऽवस्थानविशेषाऽभिधायकः । क्वचिच्च सांवत्सरिकप्रतिक्रमणाद्युपलक्षितपर्वदिनस्याऽपि, स च कालकसूरेराग भाद्रसितचतुर्युवेति बोध्यम् । तत्र प्राचीनपक्षे सैव कल्पः पर्युषणाकल्पः । स च द्विधा-सालम्बनो निरालम्बनश्च । निरालम्बनोऽपि जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नो द्विविधः। तत्र जयन्यस्तावत् सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादारभ्य कार्तिकचतुर्मासिकप्रतिक्रमण यावत् सप्ततिदिनमान:, उत्कृष्टस्तु चातुर्मासिकः । सोऽपि गृहिज्ञाताऽज्ञातभेदाभ्यां विभज्यमानो द्वेधा। तत्र गृहिज्ञातस्तावत् सप्ततिदिनमानोऽनन्तरोदित एष । अज्ञातस्तु-आषाढ चतुर्मास कातिकमगात् सांवत्सरिकप्रतिक्रमगं यावत् पञ्चाशदिनमानः। परं स्वाऽभिगृहीतोऽपि पश्चकवृद्धयाऽयमेव । तथाहि-आषाढसितदशमीस्थिताः साधवः पौर्णमास्यां पौर्णमासीं वयमत्र स्थिताः स्म यावत् श्रावणकृष्णपञ्चम्यां 'वयमत्र स्थिताः ५. स्म' इति स्वाऽभिगृहीतं कुर्वन्ति । तत् कुर्वन्तस्तु तृण-डगल -भस्म-मल्लक-पीठफलक-शय्या-संस्तारकादीनि वर्षायोग्यान्युप AAAAACREACHES CELEAGUESSELS Sain Educathternational For Private & Personal use only w a library.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प 8.किरणावली टीका व्या०१ करणानि स्वानि-स्वायत्तीकुर्वन्ति । मङ्गलनिमित्तं च पश्चदिनानि यावत् पर्युषणाकल्पं कर्षयन्ति, पृच्छतां च गृहस्थानां पुरोऽधिकरणादिदोषसम्भवशङ्कया 'वयमत्र स्थिताः स्मो न वा' इति नियमाऽभावमेव वदन्ति इत्येष उत्सर्गः 'सेसकाल पजोसवंताण अववाओ' त्ति (निशीथ) वचनात् तथाविधक्षेत्रादिसामय्यभावे श्रावणकृष्णपञ्चम्यां पर्युपितव्यं, तदभावे दशम्यां, तदभावे पञ्चदश्याम् । एवं पश्चकपश्चकवृद्धिस्तावत्क्रियते यावत् भाद्रपदसितपश्चमी । तस्यां तु नियमतो गृहिज्ञातमेव पर्युषितव्यम् । अयं विधिः सङ्घाऽऽदेशाद् व्युच्छिन्नः। अत इदानीं स्वाऽभिगृहीतं गृहिज्ञातं चेत्युभयथाऽपि भाद्रसितचतुर्थ्यामेव पर्युषितव्यं । तत्र दिनानां पश्चाशद् आषाढसितचतुर्दश्या आरभ्य भाद्रसितचतुर्थ्यन्तं, सप्ततिस्तु चतुर्थ्या आरभ्य कार्तिकसितचतुर्दश्यन्तम् । अयं द्वेधाऽपि निरालम्बन स्थविर कल्पिकानामेव, जिनकल्पिकानां तु चातुर्मासिक एवेति । उक्तं च 'चाउम्मासुकोसो सत्तरिराइंदिआ जहष्णो उ । थेराण जिणाणं पुण नियमा उक्कोसओ चेव' ॥ त्ति । (पश्चा० ८३३ प्रवचनसारो० गा०६५८) पर्युषणाया अर्वाग् परत्र च मासवृद्धौ क्रमेण दिनानामशीतिः शतं च सम्पद्यते, कथं पञ्चाशत् सप्ततिर्वा ? इत्यादि आक्षेपपरिहारौ तु सामाचार्याम् 'अंतरावि से कप्पइ' इत्यतनग्रन्थव्याख्याऽवसरे वक्ष्यामः । साऽऽलम्बनस्तु स्थविरकल्पिकानामेव । विहितमासकल्पानां तत्रैव चतुर्मासकाऽनन्तरमपि मार्गशीर्ष यावदवस्थाने पाण्मासिकोऽवगन्तव्यः उक्तं च REASOBARDASHASABARSAR Sain E For Privale & Personal use only wwwijuirtelibrary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ११ ॥ 'काऊ मासक तत्थेव ठियाण तीए मग्गसिरे । सालंबणयाणं पुण छम्मासिओ होइ जिहदुग्गहो' ॥ त्ति । (प्रव० सा० ७७५ - दशा० चूर्णि ७४) एवं व्यावर्णित स्वरूपः पर्युषणाकल्पः प्रथमचरमजिनतीर्थे नियतः । शेषाणां त्वनियतः । यतस्ते दोषाऽभावे देशोनां पूर्व कोटिपीच्छन्त्येकाऽवस्थितिम् । इतरथा न मासमपि । इत्येवं विदेहेऽपि ।। इति पर्युषणाकल्पो दशमः ॥ एते दशाsपि कल्पा ऋषभवर्द्धमानतीर्थे नियता एव । अजितादीनां तीर्थेषु आचेलक्यौ-देशिक प्रतिक्रमण - राजपिण्डमास - पर्युषणालक्षणाः षट्कल्पा अनियता, शेषास्तु शय्यातर - चतुर्बत - पुरुष ज्येष्ठ - कृतिकर्मलक्षणाश्चत्वारो नियता एवेति । एवं दशानामपि कल्पानां नियताऽनियतऽविभागकरणे कारणं तावत् तत्तत्कालभाविनो मनुजा एव । यदुक्तं 'पुरिमा उजुजडाओ कजड्डाओ पच्छिमा । मज्झिमा उजुपण्णाओ तेण धम्मे दुहा कए || १ || 'पुरिमाणं दुब्विमुज्झो चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो । मज्झिमगाण जिणाणं सुविसोझो सुहणुपालो य' ॥ १ ॥ ति । (पञ्चा० ८३६) बृहत्कल्प० ६४०३ जितकल्प० २०९१) तत्र ऋषभतीर्थे ऋजुत्वेन व्रतादिप्रतिज्ञानिर्वाहित्वेऽपि नटनर्तकी नृत्यावलोककसाधुदृष्टान्तेन जडत्वाद्विशुद्धिर्दुःसाध्या । तथाहि -किल केचिदादिमजिनयतयो विचारभूमेर्गुरुसमीपमागताः । पृष्टाश्च गुरुभिः यथा - 'किमियच्चिराद् यूय Jain Educatinational १ (पूर्वे ऋजुजडा: वक्रजडाः पश्चिमाः । मध्यमा ऋजुप्राज्ञाः तेन धर्मो द्विधा कृतः ||१|| २ पूर्वेषां दुर्विशोभ्यः चरमाणां दुरनुपालः कल्पः । मध्यमकान जिनानां सुविशोध्यः सुखानुपालश्च ) || ८३६ ॥ . ॥ ११ ॥ library.org Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ १२ ॥ मागताः ?' । ऋजुत्वात्ते चोचुः यथा - 'नटं नृत्यन्तं प्रेक्षमाणाः स्थिताः । ततो गुरुस्तान शिष्यत् यथा - ' मा पुनरेवं कार्षुः ' इति प्रतिपश्नवन्तश्च तत्ते । ततोऽन्यदा ते तथैव पृष्टा । ऊचुः यथा- 'नटीं नृत्यन्तीं वीक्षमाणाः स्थिताः प्रेरिताश्च गुरुणा । जडत्वादूचुः - भवद्भिर्नस्तदा निषिद्धो न नटी' इति । नटे हि निषिद्धे नटी निषिद्धैवेति प्रतिपत्तुं न शक्तिं तैरिति । अन्योऽपि दृष्टान्तो यथा- एकः कुङ्कणदेशजन्मा वणिग् वृद्धश्वे कुटुम्बमोहं सन्त्यज्य प्रव्रजितः । स चैकदेर्यापथिकीकायोत्सर्गे चिरकालं स्थितवान् । 'किं कारणम् !' इति गुरुणोक्ते - 'जीवदया चिन्तिता' इत्यवदत् । 'कथम् ?" इति पुनः पृष्टे'गृहे वसद्भिरस्माभिः क्षेत्रे वृक्षनिसूदनादिपुरस्सरमुप्तानि धान्यानि भूयांस्यभूवन् । इदानीं मत्पुत्रा निश्चिन्ता अकुशलाच करिष्यन्ति । तथा च ते वराकाः श्रुत्पीडिता मरिष्यन्ति' इति ऋजुत्वात् स्वाकृते कथिते गुरुभिरुक्तं - 'जीवघातादि विना कृषिर्नोत्पद्यते इति । 'दुर्ध्यातम्' इत्युक्ते 'मिथ्यादुष्कृतं दत्तवान् । इति कोङ्कणसाधुदृष्टान्तः ॥ वीरतीर्थे तु वक्रजडत्वाद् व्रतादिपालनं तद्विशुद्धिश्चेत्युभयमपि दुःसाध्यम् । अत्राऽपि दृष्टान्तद्वयं तत्र प्रथमो यथा'केचित्किल चरमजिनसाधवस्तथैव पृष्टा' ऊचुः यथा - 'नटं वीक्षमाणाः स्थिताः' ततो गुरुणा 'निषिद्धाः । पुनरन्यदा नहीं वीक्षमाणाः स्थिताः पृष्टाश्च वक्रतयोत्तराऽन्तराणि ददुः । निर्बन्धे च नटीमुक्तवन्त उपालब्धाश्च सन्तो जडत्वादूचुः, यथा - 'नट एव न द्रष्टव्य' इत्यस्माभिर्ज्ञातमासीदिति । द्वितीयो यथा - कश्चित् श्रेष्ठिपुत्रो दुर्विनीतः 'पित्रादीनां प्रत्युत्तरं न देयम्' इति स्वजनसमक्षं शिक्षितः । कदाचित्सर्वे बहिर्गतेषु गृहद्वारं दत्त्वा स्थितः । द्वाराssगते श्रेष्ठिना द्वारोद्घाटनार्थं बहुशः शब्दकरणेऽप्यवदन् भित्तेरुपरि प्रविश्य Jain Educati temational किरणावल टीका व्या० १ ॥ १२ ॥ weibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३॥ VERSCHICHSHSHSHIRUGAR मध्याऽऽगतेन पित्रा खट्वास्थो हसन्नुपालब्धः, प्राह-युष्माभिरेव शिक्षितोऽहं यत् 'प्रत्युत्तरं न देयम् ॥ इति श्रेष्ठिपुत्रदृष्टान्तः॥ अजितादितीर्थे तु ऋजुप्रज्ञत्वादुभयमपि सुकरमेव । दृष्टान्तस्तु नटनृत्याऽवलोककसाधोरेव । यथा केचिदजितादिजिनसाधवस्तथैव पृष्टाः, ऋजुत्वादूचुः, यथा--'नटं वीक्षमाणाः स्थिताः' ततो गुरुणा तथैवोक्ताः । पुनरन्यदा नटीं दृष्ट्वा प्रज्ञत्वाद् | विकल्पितवन्तः 'नटवनट थपि न वीक्षितव्या रागहेतुत्वाद्' इति । ननु आस्ताम् ऋजुप्रज्ञानां चारित्रम् ऋजुजडानां पुनः कथम् ? इति चेत् , उच्यते-सत्यामप्यनाभोगतः स्खलनायाम् ऋजुजडानां तीव्र पङ्कलेशाऽभावात् भावतः शुद्धत्वात् । स्थिरभावेनैव चारित्रपरिणामः तीर्थकृद्भिनिर्दिष्टः । तथा सहकारिवशेन कादाचित्को ह्यस्थिरभावोऽपि न चारित्रपरिणामं हन्ति । 'न ह्यग्निसम्पर्कादुष्णमपि वज्र वज्रत्वमपि जहाति' इति । यदाहः श्रीहरिभद्रसूरिपादाः-'एवं विहाण वि इहं चरणं दिट्ट तिलोगनाहेहिं । जोगाण थिरो भावो जम्हा एएसिं सुद्धो उ॥ अथिरो अ होइ भावो सहकारिवसेग न उण तं हणइ । जलणा जायइ उण्हं बज्ज ण उ चयइ तत्तंपि' ॥ इति । (पञ्चा० ८३९-८४०) ननु एवं युक्तश्चरणाऽनपगम ऋजुजडानामावलक्षणस्य गुणस्य सद्भावात् वक्रजडानां पुनर्दोषद्वयसद्भावात् कथमसौ ? इति चेद , इत्यत्राऽपि उच्यते-यथा ऋजुनडानामनाभोगतः स्वलना, तथा 'माया एव वक्रता' इति वचनात् वक्रजडानां प्रायः कालाऽनुभावतोऽसकुन्मातृस्थानादेव । तच्च सज्वलनकषायाणामेव अतिचारहेतुत्वात् तत्सङ्गतमेवाऽत्र ग्राह्यं, नेतरत् । RECRUECRECRUARANG क.कि.२ Jain Educ a tional For Private & Personal use only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावत टीका ॥१४॥ व्या० ला तस्य चारित्राद्युपहन्तृत्वात् । यदुक्तं-- 'सव्वेवि अ अइआरा संजलणाणं तु उदयो हुंति । मूलछिज्जे पुण होइ बारसहं कसायाणं' ।। (आव०नि० गा०११०) यच्चामीषां जडत्वं तन्मेधामधिकृत्यैव बोध्यं, न पुनः परकीयलक्ष्याऽभिप्रायाऽवगममाश्रित्याऽपि । यद्वा-वक्रजडानां जडत्वं मायायामेवाऽन्तर्भवति । यत:-ते जानन्तोऽपि परप्रत्यायनार्थ माययैवाऽसदप्यात्मीयं जडत्वमाविष्कुर्वन्ति । तस्माजडत्वमुपचरितं माया तु वास्तवीति । वास्तव्येव मायाहेतुका चारित्रस्खलना इति भावः। केचिच्चाऽतिचारवाहुल्यात् दुष्पमायां चारित्रमेव न मन्यते तदप्यसमञ्जसमेव । 'न विणा तित्थं णियंठेहि' (जीतकल्प. गा० ३१८ व्यवहार० ३८९) । इति प्रवचनवचनान्निग्रन्थैविना तीर्थस्यैवाऽसम्भवात् । व्यवहारभाष्ये त्वेवंविधवक्तृणां महतः प्रायश्चित्तस्योक्तत्वाच । तथा 'जो भणइ नत्थि धम्मो न य सामाइ न चेव य वयाई । सो समणसंघवज्झो कायरो समणसंवेण" ॥ इत्याद्युक्तेश्च । तस्मात् पूर्वसाध्वपेक्षया हीनहीनतरक्रियापरिणामवत्त्वेऽपि नृपगोपवृक्षवृषभपुष्करिण्याद्यागमोक्त दृष्टान्तेन दुष्पमसाधूनां साधुत्वमेवेत्यादि बहुवक्तव्यं ग्रन्थाऽन्तरादवगन्तव्यमिति । यस्तु सप्ततिदिनमानः पर्युषणाकल्पो नैयत्येनोक्तः स चाऽशिवादिकारणाऽभावे सति इति बोध्यम् । अशिवादिदोषसद्भावे तु अर्वागपि निर्गमने जिनाऽऽज्ञैव । यतः उक्तम् 'असिवे ओमोअरिए रायदुट्टे भए अ गेलण्णे। एएहि कारणेहि अपत्ते होइ निग्गमणं ॥३१६१॥ काइयभूमी संथारए ॥१४॥ JainEdu Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५॥ 25ASHASABASA अ संसत्तदुल्लहे भिक्खे । एएहि ॥३१५९।। राया सप्पे कुंथ अगणि गिलाणे अथंडिलस्सऽसई। एएहि ॥३१५८॥ ला (निशीथ०) तथा वर्षाऽनतिकमे कालाऽतिक्रमणेऽपि जिनाज्ञा एव । उक्तं च 'वासं नो उवरमती पंथा वा दुग्गमा सचिविखल्ला । एएहि कारणेहिं अइकते होइ निग्गमणं' । (निशीथ० ३१६०)। एवमशिवादिदोषाऽभावेऽपि संयमपरिपालनहेतवः क्षेत्रगुणा अप्यन्वेषणीयाः । ते च अमी 'चिक्खिल्ल-पाण-थंडिल-वसही-गोरस-जणाउले विज्जे । ओसह-निच याऽहिवई पासंडा-भिक्ख-सज्झाए' ॥ (दशा०नि०६७) व्याख्या-यत्र क्षेत्र न भूयान् कर्दमः। यत्र च न भूयांसः सम्मृच्छिमाः प्राणाः । स्थण्डिलमनाऽऽपातमसलोकं ।।४ वसतिः स्वीपण्डपश्यादिदोषरहिता सुलभा च । यत्र गोरसं प्रचुरं । यत्र भूयान् जनः, सोऽप्यतीय भद्रकः । वैद्याश्च भदकाः। औषधानि सुलभानि । यत्र कौटुम्बिकानां धनधान्यनिचितानि बहूनि गृहाणि । यत्र राजा अतीव भद्रकः । यत्र ब्राह्मणतापस-भरडक-लैङ्गिकादिभिर्मुनीनामपमानं न स्यात् । यत्र क्षेत्रे भैक्ष्यं सुलभं । यत्र स्वाध्यायो वसतावन्यत्र च शुद्धयति इति । जघन्यतोऽपि चत्वारोऽमी गुणाः___ 'सुलहा विहारभूमी विआरभूमी अ सुलहसज्झाओ। सुलहा भिक्खा य जहिं जहन्नयं वासखित्तं तु ॥१॥ शेषं तु || पञ्चादि-द्वादशपयन्तगुणाऽन्वितं मध्यममिति । एवंविधगुणाऽभावे सन्नपि दोपाऽभावो मरुमरीचिकावदकिञ्चित्करः। तथा गुणा अपि दोषजुषो विषमिश्रितपायसमिवाऽकिश्चित्कराः इति दोषाऽभावजुषो गुणानालोच्य वाचंयमैः पर्युषितव्यमिति । एवं %AMACHARGEX ॥१५ Jain Educa t ional For Private & Personal use only wostimary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प RECE | व्यावणितस्वरूपो दशधाऽपि कल्पो दोषाऽभावेऽपि क्रियमाणस्तृतीयरसायनकल्पो भवति । अस्तदन्तर्गतः प्रस्तुतपर्युषणा- किरणाव कल्पोऽपि तत्कल्प एव। टीका तृतीयरसायनस्वरूपं त्वेवं-केनाऽपि राज्ञा निजपुत्रस्याऽनागतचिकित्सायां कार्यमाणायां त्रयो वैद्याः समाहूताः। तेषु & व्या० आधः-'सन्तं व्याधिमपनयति असति चाऽभिनवं वितनोति' इति स्वकीयरसायनस्वरूपं निरूपयन्नेव निवारितः । अलमनेन सुप्तसिंहोत्थापनकल्पेन' इति । द्वितीयस्तु-'सन्तं अपनयति असति च न किञ्चिदुपद्रवयति' इति ब्रुवाणोऽप्युपेक्षितः। कृतमने नाऽपि भस्मनि हुतकल्पेन' इति । तृतीयस्तु 'सन्तं अपनयति असति च शरीरे सौन्दर्य-वीर्य-तुष्टिप्रभृत्यनेकगुणसम्पादकम्' इति भणन्नेव सत्कारितः । कारितं च तदीयं रसायनं स्वतनयं प्रति इति । तद्वदयमपि कल्पः सन्तं दोषं शोषयति पोषयति च तदभावे चारित्रगुणान् । यतो यद्यपि संयताः समित्यादिषु यतमाना एवं सर्वकालं भवेयुः, वही च निर्जरा विहारे । तथाऽपि विशेषतो वर्षासु वसुमत्या बहुप्राणाऽऽकुलितत्वेन सम्भावितप्राणबाधया एकत्राऽवस्थानेनैव यतनापरायणैर्भाव्यं न पुनः ५ शीतोष्णकालयोरिव ग्रामाऽनुग्रामगमनादिमद्भिः। यतो गमनाऽऽगमने पथि बहुप्राणवाधासम्भवेन चारित्रगुणानामपि बाधा स्यात् । श्रूयते च त्रिखण्डभोक्ता श्रीकृष्णनरेन्द्रोऽपि प्रतिदिनं प्रणामाऽथं बहुगनाऽश्वादिनिखिलपरिवारपरिकलितपोडशसह समुकुटबद्धनरेन्द्राणां गमनाऽऽगमनेन कुन्थुपिपीलिकाद्य नेकजन्तूनामुपघातो मा भूयादिति धिया जीवदयानिमित्तमेव वर्षाचातुर्मास्यां निजाऽऽस्थानसभायामपि न समुपाविशदिति । ततो 'देवशयनैकादशी' इति लोकरूढिरपीति । एवमन्यैरप्युत्तमैवर्षासु बहुसावधव्यापारदरग्रामाऽन्तरकरणपरिहारेण यतनापरायणैर्भाव्य । तस्मात् सर्वसावधवकैः साधुभिस्तु सुतरां कारणाऽभावे 55% Jain Educa t ional For Private & Personal use only worthelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१७॥ RASHREE ऽवग्रहक्षेत्रमाङ्गीकृत्यै कताऽवस्थानेन जयन्यतोऽपि सप्ततिदिनमानः पर्युषणाकल्पः समाराधनीयः॥ तदेवं समुपस्थिते पर्युषणाकल्पे पर्युषणापर्वदिनाऽन्तर्मङ्गलनिमित्तं पञ्चभिरेव दिनैर्वाच्यमानस्याऽस्य पर्युषणाकल्पाऽध्ययनस्य श्रवणं काकदन्तपरीक्षावन्निःप्रयोजनं, कण्टकशाखामर्दनवञ्च साऽपायं भविष्यतीति पराऽऽशङ्कापराकृतये तन्माहात्म्य यथा-'यथा द्रुमेषु कल्पद्रुः, सर्वकामफलप्रदः । यथौषधीषु पीयूष, सर्वरोगहरं परम् ॥१॥ रत्नेषु गरुडोद्गारो, यथा सर्व विषापहः । मन्त्राऽधिराजो मन्त्रेषु, यथा सर्वाऽर्थसाधकः ॥२॥ यथा पर्वसु दीपाली, सर्वाऽऽत्मसु सुखावहा । कल्पः सद्धर्मशास्त्रेषु, पापव्यापहरस्तथा ॥३॥ कल्पः पर्युषणाभिधः कलिमलप्रध्वंसबद्धाऽऽदरः, कल्पः सर्वसमीहितोदयविधौ कल्पद्रुकल्पः कलौ । ये कल्पं परिवाचयन्ति भविका शृण्वन्ति ये चाऽऽदरात् , ते कल्पेषु विहृत्य मुक्तिवनितोत्सङ्गे सदा शेरते ॥४॥ श्रीमद्वीरचरित्रवीजमभवच्छ्रीपाश्ववृक्षाऽङ्करः, स्कन्धो नेमिचरित्रमादिमजिनव्याख्या च शाखाचयः । पुष्पाणि स्थविरत नस्य च कथोपादेय हेयं तथा, सौरभ्यं फलमत्र निवृतिमयं श्रीकल्पकल्पद्र मे ॥५॥ नाऽईतः परमो देवो, न मुक्तेः परमं पदम् । न श्रीशत्रुञ्जयात्तीर्थ, श्रीकल्पान्न परं श्रुतम् ॥६॥ पुण्यानामुत्तमं पुण्यं, श्रुतानामुत्तमं श्रुतम् । ध्येयानामुत्तमं ध्येयं, जिनैः श्रीकल्प उच्यते ॥७॥ आचारात्तपसा कल्पः, कल्पः कल्पदरी सिते । कल्पो रसायनं सम्यग , कल्पस्तत्वाऽर्थदीपनः ।।८।। वाचनात्साहाय्यदानात , सर्वाऽक्षरथुतेरपि । विधिनाऽऽराधितः कल्प: शिवदोऽन्तभवाऽष्टकम् ॥९॥ ७ ॥१७ Jain Education motional For Privale & Personal use only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प गिरणाव टीका ॥१८॥ व्या० SERECENTER-%AAAAAAAR ऐगग्गचित्ता जिणसासणम्मि पभावणा पूअपरायणा जे । तिसत्तवारं निसुणंति कप्प भवण्णवं गोअम ! ते तरंति' ॥१॥ इत्यादि कल्पश्रवणफलम् ॥ न चैवंविधमहात्म्यस्याऽनैकान्तिकत्वं शङ्कनीयम् , न वा बहुविधव्ययसाध्यं प्रासादप्रतिमाप्रतिष्ठाद्यनुष्ठान, बहायाससाध्यं चारित्राद्यनुष्ठान व्युदस्य सुखसाध्यतया पर्युषणाकल्पसूत्रश्रवणमात्रेणैव सन्तोष्टव्यम् । यतो यथाऽवसरमशेषधर्माद्यनुष्ठानेष्वप्यनिगृहितबलवीर्यस्य सम्यग्दृष्टेरेव. कालादिसमग्रसामग्रीसध्रीचीनतया भव्यत्वपरिपाकवशादभीष्टफलसिद्धावुक्तमाहात्म्याऽव्यभिचारान् । न हि लोकेऽपि कृषिकर्मादौ कारणभूतादपि बीजात् पृथ्वीपाथ पवनादिसामग्रीशून्यादङ्कुरोत्पत्तिरिष्टा दृष्टा श्रुता वा । अन्यथा-'इकोवि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥१॥ इत्याद्याकर्णनोर्वीकृतकर्णेन कल्पसूत्र-श्रवणमप्युपेक्षणीय स्यात् । तदपेक्षया वीरनमस्कारस्य सुखसाध्यत्वात् । तस्मात् सामग्र्येव बलवती। ___ अत एवोत्सूत्राद्युपहतस्याऽनेकशः कल्पसूत्रश्रवणेऽपि अनन्तसंसारतादवस्थ्य तस्य सामय्यभावात् । सामग्री च प्रवचनाs विरोधेनैव भवति । प्रवचनाऽविरोधस्तु उत्सूत्राद्युपहतस्याऽसम्भव्येव । तस्मात् स्वल्पमपि धर्माऽनुष्ठानं तदितरधर्माऽनुष्ठानाऽविरोधेनैव श्रेयोबी नेतरत् । यत: 'आराध्येनाऽविरोधेन, स्वल्पं यत्सुकृतं कृतम् । तत्सर्व श्रेयसां बीजं, वैपरीत्यं विपर्यये' ॥१॥। तदपि धर्माऽनुष्ठान १ एकाग्रचित्ता जिनशासने प्रभावना-पूजापरायणा ये । त्रिसप्तवाराः शृण्वन्ति कल्पं भवार्णवं गौतम ! ते तरन्ति ॥ Bri%tit% % All॥१८ JainEduc. For Private & Personal use only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१९॥ GEECRECRACCARECORE सामय्यन्तःपातितारतम्याद्यध्यवसायविशेषितं सत्तत्तदनुरूपकार्यजनकं प्रतिप्राणिभित्रमिति न किञ्चिदनुपपन्नम् । एतेनाऽल्पत्वादिविशेषितशङ्काऽपि व्युदरता। यतः-शुद्धश्रद्धानसद्धयानादिकारणगुणोत्कर्षाऽपकर्षादेरचिन्त्यमाहात्म्यवशात् केषाश्चिदान्तमौंहर्तिकेनाऽपि चारित्रेण केवलोत्पत्तिः। अन्येषां पुनस्तथाविधयोग्यतावशादन्तर्मुहात समयाद्याधिक्यगणनया यावद्देशोनपूर्वकोटयाऽपि । सामग्यनङ्गीकारे सम्यग्दृष्टेरिवोत्सूत्राद्युपहृतदृष्टेरपि किश्चिद्धर्माऽनुष्ठानमवलम्ब्य सदृशफलसिद्धौ सिद्धं प्रवचनेऽत्यन्तमसामञ्जस्यं । तस्मात्तदपाकृतये स्वीक व्याऽवश्य फलाऽव्यभिचारिणी सामग्री इति सर्व समञ्जसम् । अथ 'पुरुषविश्वासे वचोविश्वास' इति न्यायात् । वचनरूपापन्नस्य सूत्रस्याऽपि व्यावर्णितमाहात्म्यसिद्धये प्रणेता प्ररूपणीय इति जिज्ञासायां, प्रणेता तावत् सर्वाऽक्षरसन्निपातविचक्षणश्चतुर्दशपूर्वविद्युगप्रधानः श्रीभद्रबाहुस्वामी दशाश्रुतस्कन्धस्याऽष्टमाsध्ययनरूपतया प्रत्याख्यानप्रवादाऽभिधाननवमपूर्वात् पर्युषणाकल्पसूत्रमिदं सूत्रितवान् । पूर्वाणि च क्रमेण प्रथममेकेन, द्वितीयं द्वाभ्यां, तृतीयं चतुर्भिः, चतुर्थमष्टमिः, पञ्चम पोडशभिः, षष्ठं द्वात्रिंशता, सप्तमं चतुष्षटथा, अष्टममष्टाविंशत्यधिकशतेन, नवमं षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयेन, दशमं द्वादशाऽधिकैः पञ्चभिः शतैः, एकादश चतुर्विंशत्यधिकैर्दशभिः शतैः, द्वादशमष्टचत्वारिंशदधिकैविंशत्या शतैः, त्रयोदशं षण्णवत्यधिकश्चत्वारिंशता शतैः, चतुर्दशं विनवत्यधिकैरेकाऽशीत्या शतैश्च इस्तिप्रमाणमषीपुजैलेख्यानि सर्वसङ्ख्यया तु चतुर्दशपूर्वाणि षोडशसहस्त्रैः ज्यशीत्यधिकैस्त्रिभिः शतैर्हस्तिप्रमाणमयीपुल्जैलेख्यानि । अत एवेद१ पू. । १ । २ । ३ | ४ | ५ | ६ | ७ । ८ । । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । सर्वसङख्या हस्तिः । १ । २ । ४ । ८ | १६ | ३२ | ६४ | १२८/२५६/ ५१२ | १०२४ । २०४८ । ४०९६ | ८१९२ १६३८३ CitiemetweCLA ॥ १९ Jain Educalaima For Private & Personal use only www.Mahiry.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प टीक व्या ॥ २०॥ मपि सूत्रं श्रुतबलेनाऽसङ्ख्येयभवनिर्णायकमहापुरुषप्रणीतत्वादुक्तमाहात्म्याऽव्यभिचारि । प्रतिसूत्रं चाऽनन्तार्थाऽभिधायकमपि । यदुक्तं 'सव्वनईणं जइ हुज्ज वालुआ सव्वउदहीण जं उदयं । तत्तो अणंतगुणिो अत्थो इक्कस्स मुत्तस्स' ॥१॥ तथा-'बदने रसनाशतं भवेत् , यदि मे निर्मल केवलं हृदि । तदिदं गदितु न पारयाम्यपि, कल्पस्य महाऽर्थमात्मना ॥१॥ न चैवविधमहापुरुषप्रणोतत्वात् प्राकृतनिबन्धः कथम् ? इति शङ्कनीयं । 'प्रेक्षावतां हि प्रवृत्तिः स्वार्थकारुण्याभ्यां व्याप्ता' इति वचनाद् । महापुरुषाः परोपकारपरायणा अपि यदि संस्कृतनिबन्धबन्धुरा भवन्ति तदा बालाऽबलादयश्चारित्रकाक्षिणो नाऽनुकम्पिता भवेयुः । तानिबन्धस्य तैरध्येतुमशक्यत्वात् । अत एव गणभृतोऽपि सुधर्मादयस्तेषां सुखाऽध्ययनादिप्रतिपत्त्यर्थमेवाऽल्पाऽक्षरं महाथे चाऽपि सिद्धान्तं प्राकृतनिबन्धबन्धुरमेव ग्रथितवन्तः । उक्तं च 'बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । अनुग्रहाऽर्थ तत्त्वज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥१॥ (आ० नि० पे० ७३०) प्राकृतरचनाऽपि चतुरचेतसश्चेतश्चमत्करोति न त्वज्ञानाऽऽवृतचेतसश्चेतोऽपि । उक्तं च 'नेच्छन्ति प्राकृतं मूर्खा, मक्षिकाश्चन्दनं यथा । क्षीरानं शूकरा यद्वद् , घूका इत्र रविप्रभाम् ॥१॥ इति । ___ अथ 'अनधिकारिणा हि कृतं साङ्गमपि कर्म नोक्तफलाऽव्यभिचारि भवति' इत्यत्र वाचनायां श्रवणे च केऽधिकारिणः ? इति आकाङ्क्षायां मुख्यतः साधवः साध्व्यश्चाऽधिकारिणः । तत्रापि कालतो रात्रौ कृतोद्देशसमुद्देशादियोगाऽनुष्ठानो वाचनोचितो वाचयति । तदितरे तु शृण्वन्ति । साध्वीश्रावणादिकारणे पुननिशीथचूायुक्तविधिना दिवापि तयोरधिकारः । सम्प्रति Sain Educati o nal For Private & Personal use only wwwitterry.org Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAROGRECA-%AA-7-9- तु श्रीवीरनिर्वाणादशीत्यधिकनवशतवर्षाऽतिकमे, (९८०) क्वचिच त्रिनवत्यधिकनवशतवर्षाऽतिक्रमे (९९३) ध्रुवसेननृपस्य पुत्रमरणार्तस्य समाधिमाधातुमानन्दपुरे सभासमक्षं समहोत्सवं वाचयितुमारब्धम् । अतःप्रभृति चतुर्विधसङ्घोऽप्यधिकारी श्रवणे वाचनायां तूतलक्षणः साधुरेवेति दृश्यत इति बोध्यम् । तथा सम्प्राप्ते पयुषणापर्वण्यतुलफलाऽव्यभिचारि कल्पसूत्रश्रवणवच्चैत्यपरिपाटी, समस्तसाधुवन्दनं, सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं, मिथः साधर्मिकक्षामणकम् , अष्टमतपश्चेति षश्चकृत्यान्यपि विधि विधेयानि । एतेषामपि कल्पसूत्रश्रवणवदवश्यकर्त्तव्यतापनत्वादभीष्टफलदातृत्वाव्यभिचाराच्च । तत्राष्टमं तपो नागकेतुवद् विधेयम् । तथाहि अस्त्येका सान्वर्था चन्द्रकान्ता नाम नगरी । तस्यां च वशीकृताऽनेकराजो राजा विजयसेनः । वणिग्मुख्यस्तु सश्रीकः श्रीकान्ताऽऽख्यः। तस्य च श्रीसखीनाम्नी भार्या । तया चोपचाराणां शतैरेकः सुतःप्रसूतः। स च प्रत्यासन्ने पर्युषणापर्वणि 'अष्टमं तपः करिष्यामः' इति कुटुम्बभाषितमाकर्ण्य सञ्जातजातिस्मृतिर्बालकः सनष्टमं तपः कृतवान् । तदनु स्तन्यपानादिकमकुर्वन्तं तमवगम्य साश्रुनेत्रया मात्रा यावत् सुतस्वरूपं तत् पत्युनिरूपितं । तेनाऽनेकचिकित्सकैः कारितोपचारोऽपि स्तन्याद्यकुर्वन्नतुच्छां मृ मापन्नो ह्यमृतोऽपि मृत इत्यवधार्य धरायां निधिरिव निक्षिप्तस्तदीयैः । इतश्चाऽष्टमतपःप्रभावात् प्रकम्पितासनो धरणेन्द्रोऽवधिना प्राग्भवादारभ्यास्य व्यतिकरं विज्ञातवान्-"यदयं पूर्वभवे बाल्ये. ऽपि मृतमानको वणिग्पुत्रो विमात्राऽल्पेऽप्यपराधे भूयः पराभूयमानो मित्राय स्ववृत्तान्तं न्यवेदयत् । ततः 'प्राग्जन्मन्यकृततपस एवाऽयं पराभवः' इति मित्रवचसा मानाऽपमानौ सन्त्यज्य तपस्येव लीनः सन्नेकदा प्रत्यासन्ने पर्युषणापर्वणि 'अष्टमं REACOCAAAAACARE 10 ॥२१॥ For Private & Personal use only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ २२ ॥ Jain Edu तपः करिष्यामि' इति ध्यानपरायणः तृणगृहे सुप्तः । इतथाऽवाप्तावसरया विमात्रा प्रत्यासन्नप्रदीपनादग्निकणमादाय तत्र निक्षिप्तः । स च तेन तपोध्यानपरायण एवं तृणगृहे सद्यो विपद्याsपुत्रिणः श्रीकान्तस्य पुत्रत्वेनोत्पेदे तदनु जातजातिस्मृतिरष्टमतपसाऽवाप्तमूच्छ मृत इति धिया निजकै भूमौ निक्षिप्तः । अथ च यावन्न म्रियते तावत् सञ्जीवयामि" इति ध्यात्वा धरणेन्द्रः स्वप्रभावादरक्षत् | श्रीकान्तस्तु पुत्रमृत्युश्रवणेन सञ्जातहृदयसङ्घट्टः क्षणमात्रा देव मृत्युमाप । ततोऽपुत्रिणो धनाऽऽदित्सया राज्ञः पुरुषानागतान् रणेन्द्रो निषेधयत् । तदनुचरै विज्ञप्तो राजाऽपि स्वयमागत्य घरणेन्द्रमुवाच- 'किमिति प्रतिषेधयसि ?' । धरणेन्द्रोऽप्युवाच 'राजन् ! त्वमपि कथं गृह्णासि ?' राजाऽवदद् - राजनीतिरियम् अस्माकं 'यदपुत्रिणो धनं गृह्यते' । ततो धरणेन्द्रो वभाण - 'अस्य पुत्रो जीवन्नेवाऽस्ति' । क्वाऽस्ति ?" इति राज्ञोके - ' क्षितौ निखातोऽस्ति' इत्यभाणि धरणेन्द्रेण । ततस्तं समुत्खन्याssनीय समक्षं च सर्वेषां मातुर्दत्तः । धरणेन्द्रोऽपि स्वकीयस्वरूपं प्रादुष्कृत्य तस्य पूर्वंभवादिवृत्तान्तं राज्ञे निवेद्य बालायच हारं दत्त्वा तिरोदधे । राजा च तद्वृत्तान्तविस्मितः 'अयं यत्नेन परिपाल्य' इत्यादिश्य स्वगृहं जगाम श्रीकान्तस्य च मृत्युकर्मणि कृते निजकैः शिशोः 'नाग केतु:' इति सञ्ज्ञा ददे सञ्जज्ञे । ततःप्रभृति अयं अमीचतुर्दश्योश्चतुर्थ, चतुर्मास षष्ठं पर्युषणायां चाऽष्टमं कुर्वाणो यौवनेऽपि जितेन्द्रियो जिनपूजा-साधूपासनपरायणः पौषधाद्यनुष्ठानतत्पर एवाsafaष्ठते । एकदा च सज्जनोऽपि चौरकलङ्कृतो विजयसेनेन हतो दुर्ध्यानेन मृतो व्यन्तरीभूयावधिना विज्ञाताऽऽत्मीयवृत्तान्तोदृश्यरूपवदागत्य सभाssसीनं राजानं पाणिना आहत्य रुधिरवमन्तमेव भूमावपातयत् । सभालोकोऽपि 'किमेतकम् ?' इति जातः । ततश्च नगरप्रमाणां शिलां विकृत्य गगनस्थो दुर्गिरा लोकं भापयामास । नागकेतुस्तु चतुर्विधसङ्घ जिनबिम्बाऽऽगमौ ternational किरणावली टीका व्या० १ ॥ २२ ॥ library.org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२३॥ REPENSESARKARISAR कसाक्षयोमा भूदित्याशयतःप्रासादमारुह्य पतन्तीं शिलांतप:शक्त्या पाणिना दः । व्यन्तरस्तु तदनु तपःशक्तिसहनाऽशक्तः शिला संहृत्य नत्वा च नागकेतुं तवचसा च राजानं पटूकृत्य निजस्थानमगात् । ततःप्रभृति राजमान्यः सन्नेकदा जिनेन्द्रभवने जिनपूजां कुर्वन् पुष्पमध्यस्थितसर्पदष्टाङ्गुलिरपि जिनेन्द्रमृतः पुरतो निश्चलथ्यानलीनः समूलकाषङ्कषितघातिकोज्ज्वलं केवलज्ञानमाप्तवान् । ततःशासन देव्यर्पितयतिलिङ्गोऽनेकभव्यान् प्रतिबोधयन् भूतले विहरति स्म इति तपसा दुःसाध्यमपि मुमाध्यमिति तपोमाहात्म्यमवगम्याऽन्यैरपि तपसि यत्नपरायणैर्भाव्यमिति नागकेतुकथा ॥ अष्टमतपसि कविघटनात्वेवम् 'किरत्नत्रयसेवन किमथवा शल्यत्रयोन्मूलनं, किंवा चित्तवचोवपुःकृतमलप्रक्षालनं सर्वतः । किं जन्मत्रयपावनं किमभवत् विश्वत्रयाऽऽयं पदं, धन्यैर्यद् विहितं कलावपि जनैः पर्वोपवासत्रयम् ॥१॥ इति श्रीकिरणावया कल्पव्याख्यान-प्रारम्भपद्धतिः॥ अथाऽत्र कल्पाऽध्ययने त्रीणि वाच्यानि । तथाहि-जिनानां चरितानि, स्थविरावली, पर्युषणासामाचारी चेति । उक्तं चपुरिमचरिमाण कप्पो मंगलं बद्धमाणतित्थम्मि । इह परिकहिआ जिणगण-हराइथेरावली चरितं ॥१॥ व्याख्या-वर्षा पततु मा वा, पर्युषणा तावदवश्यं कर्तव्येति प्रथमचरमयोः-ऋषभवीरयोस्तीर्थे कल्पः, मङ्गलं च वर्द्धमानतीर्थे यस्माद् इह-कल्पे परिकथितानि जिनानां चरितानि, गणधरादिस्थविरावली, चरित्रं चेति । तत्राऽपि साम्प्रतीनतीर्थाऽधिपतित्वेन प्रत्यासन्नोपकारित्वादादावेव श्रीभद्रबाहुस्वामिपादाः तद्भवव्यतिकराऽवाप्तपञ्चकल्याणकनिबन्धबन्धुरं श्रीवीरचरित्रं सूत्रयन्त उद्देशनिर्देशनचकमायं जघन्यमध्यमवाचनाऽऽत्मकं प्रथमसूत्रमादिशन्ति ॥ २ Jain Educ a tional For Private & Personal use only p orary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ २४ ॥ ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे पंच हत्युत्तरे होस्था ॥ १ ॥ [ते णं काले णमि' त्यादित: 'परिनिन्युडे भययमि' तिपर्यन्तम् ] तत्र यत्तदोर्नित्याऽभिसम्बन्धात् यत्राऽसौ स्वामी दशमदेवलोकगत पुष्पोत्तरप्रवरविमानाद् देवानन्दाकुक्षाववातरदिति यच्छन्दघटितमन्वयमध्याहृत्य 'ते णं काले णं' ते - तस्मिन् 'णमिति वाक्यालङ्कारे काले- वर्तमानावसर्पिण्याचतुर्थाऽरकलक्षणे । णं- पूर्ववत् । अथाऽऽषैत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीयामधिकृत्य 'तेणं कालेणं' ति तस्मिन् काले 'तेणं समएणं' तितस्मिन् समये । परं समय:- जीर्णशाटकस्फाटनदृष्टान्तेन प्रागुक्तकालाऽन्तर्गत परमनिकृष्टकालविशेषः । यद्वा हेतौ तृतीया । ततश्च पूर्वन्यायादेव यौ कालसमयौ श्री ऋषभादिजिनैः श्रीवीरस्य षण्णां च्यवनादीनां वस्तूनां हेतुतया प्रतिपादितौ न च च्यवनादीनां वस्तुत्वेन व्याख्यानमनागमिकं चूर्ण्यादिषु तथैव व्याख्यानात् । यतः 'जो भगवता उसमसामिणा सेसतित्थयरेहि अ भगवतो वद्धमाणसामिणो चवणाईणं छन्हं वत्थूणां कालो जातो दिट्ठो बागरिओ अ । तेणं काळेणं तेणं समएणं'ति इति पर्युषणाकल्पचूर्णों तथा दशाश्रुतचूर्णौ च । तेन हेतुभूतेन कालेन समयेन । 'समणे 'ति 'श्रमुच् खेदतपसो :' इति श्राम्यति इति श्रमण:- घोरतपोऽनुष्ठायीत्यर्थः । यद्वा--'सम' त्ति पदं मूलाऽतिशयचतुष्टयसूचकम् । तथाहि - अनुत्तरसुरसंशयनिरासाऽर्थं सत्यपि केवलज्ञाने मनसः प्रयोगात् । सह मनेन मनसा वर्त्तते इति 'सामना' इत्यनुत्तरमुरसंशयनिरासकत्वेन ज्ञानातिशयः । रागाद्युपद्रवशमकत्वाद् Jain Educatiemational किरणावली टीका व्या० १ ॥ २४ ॥ library.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२५॥ AIBASNEAUCRA भगवानपि 'शमन' इति अपायाऽपगमाऽतिशयः। सम्यग-यथास्थितम् अणति-व्रते इति 'समणः' अबाधितसिद्धान्तगतिः इति वचनाऽतिशयः । सह मानेन-सुराऽसुरनरेश्वरादिकृतपूजया वर्तते इति 'समान' इति 'पूजाऽतिशयः। हूस्वत्वं च प्राकृतत्वात् । (भगवं) भगवान् समग्रैश्वर्यादिसंयुक्तः (महावीरे) महावीरः-कर्मशत्रुजयादन्वर्थनामाऽन्तिमो जिनः । (पंच हत्थुत्तरे)त्ति । हस्तादुत्तरदिशि वर्तमानत्वात् , हस्त उत्तरो यासां वा, हस्तोपलक्षिता वा उत्तरा हस्तोत्तरा-६ उत्तराफाल्गुन्यः । ताश्च पञ्चसु-पश्चस्थानेषु यस्य स पञ्चहस्तोत्तर इति भगवद्विशेषणम् । निर्वाणस्य स्वातौ जातत्वात (होत्थ)त्ति अभवत् । यद्यप्यग्रे निर्वाणस्याऽवश्यं वक्तव्यत्वेनादावपि 'उसमे गं अरहा कोसलिए पंच उत्तरासाढे अभिइ छ? होत्थ त्ति जंबु० प्र० सूत्रवत् 'समणे भगवं महावीरे पंचहत्युत्तरे साइ छठे होत्थ'त्ति सूत्रं वक्तुं युक्तं तथापि सूत्रकाराणां विचित्रा गतिरिति नाऽधृतिविधेया । यच्च कल्याणकनिबन्धबन्धुरे श्रीवीरचरित्रे 'पंचहत्थुत्तरे होस्था' इत्यादावकल्याणकभूतस्याऽपि गर्भाऽपहारस्योद्देशः तद्देवानन्दाकुझाववतीर्णः प्रसूतवती च त्रिशले ति महत्यसङ्गतिः तनिवारणार्थम् अवश्य वक्तव्यत्वान्नक्षत्रसाम्याचाऽवगन्तव्यम् । अत एव यत्र क्यापि श्रीवीरचरित्रं तत्र सर्वत्रापि 'पंच हत्थुत्तरे होत्था' इत्येव सूत्रम् । उक्तकारणस्य सर्वत्रापि सत्त्वाद् । यत्र तु ऋषभचरित्रं क्वचिद्राज्याभिषेकस्याऽवश्य वक्तव्यत्वाऽभावेन 'चउ उत्तरासाढे'त्ति । क्वचिच्च सूत्राऽन्तरे नक्षत्रसाम्यात्' पंच उत्तरासाढे'त्ति । न तत्र दोषः।। [ननु सन्देहविषौषध्यां गर्भाऽपहारस्य कल्याणकत्वेन व्याख्यानात्तु 'पट्कल्याणकनिबन्धबन्धुरं श्रीवीरचरित्रम्' इत्येव कथं नोक्तम् ? इति चेत् । मैवं, गर्भाऽपहारस्य कल्याणकत्वेन क्वाऽप्यागमे व्याख्यानाऽनुपलम्भात् । प्रत्युताऽऽचाराङ्गादिभि DADABPERATORS BAIRAASALA Jain Educatiarthimosiational For Private & Personal use only wwmjainmendrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द किरणावली टीका व्या०१ श्रीकल्प-15 विसंवादित्वेन प्रत्यक्षाऽऽगमवाधाच्च । तथाहि-पंचहत्थुरे होत्थ' ति आचाराङ्गे । तट्टीका यथा 'हस्त उत्तरो यासाम् उत्तर फाल्गुनीनां ता हस्तोत्तराः । ताश्च पञ्चसु स्थानेषु गर्भाऽऽधान-संहरण-जन्म-दीक्षा-ज्ञानोत्पत्तिलक्षणेषु संवृत्ताः' । अतः २६॥ पञ्च हस्तोत्तरो भगवानभूदित्यत्र 'पञ्चसु स्थानेषु' इत्येव व्याख्यातं न पुनः कल्याणकेष्विति स्वयमेवाऽऽलोच्यम् । तथा 'इअ ते दिणा पसत्था ता से सेहिं पि तासु कायव्वं । जिणजत्ताइ सहरिसं ते अ इमे वद्धमाणस्स ॥४२७॥ आसाढसुद्धछट्ठी चित्ते तह सुद्धतेरसी चेव । मग्गसिरकिण्हदसमी वेसाहे सुद्धदसमी अ ॥४२८॥ कत्तिअकिण्हे चरिमा गम्भाइदिणा जहक्कम एते । हत्थुत्तरजोएणं चउरो तह साइणा चरमो ॥४२९॥ श्रीहरिभद्रसरिकृतयात्रापश्चा० श्रीअभयदेवमूरिकृततट्टीकादेशो यथा-आषाढशुद्धपष्ठी-आषाढशुक्लपक्ष-षष्ठीतिथिरित्येकं दिनम् । एवं चैत्रमासे 'तथे' ति समुच्चये शुद्धत्रयोदश्येवेति द्वितीयं । "चैवे'ति अवधारणे । तथा मार्गशीर्षकृष्णदशमीति तृतीयं । वैशाखशुद्धदशमीति चतुर्थ । चशब्दः समुच्चयार्थः । कार्तिककृष्णे चरमा-पञ्चदशीति पञ्चमम् । एतानि किम् ? इत्याहगर्भादिदिनानि-गर्भ-जन्म-निष्क्रमण-ज्ञान-निर्वाणदिवसा यथाक्रम-क्रमेणैव एतानि-अनन्तरोक्तानि । एषां च मध्ये हस्तोत्तरयोगेन-हस्त उत्तरोयासां, हस्तोपलक्षिता वा उत्तरा हस्तोत्तरा-उत्तराफाल्गुन्यः। ताभिर्योगश्चन्द्रस्येति हस्तोत्तरयोगः तेन करणभूतेन चत्वार्याधानि दिनानि भवन्तीति । 'तथे ति समुच्चये। स्वातिना-स्वातिनक्षत्रयोगेन युक्तः 'चरमो' त्ति-चरमकल्याणकदिन इति प्राकृतत्त्वात् । इति गाथाद्वयार्थः ॥ बनाना GETECTESAKARAARAA दा॥२६॥ 8 Sain E e mnational For Privale & Personal use only wwwmijarlelibrary.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२७॥ अत्र पश्चानामेव कल्याणकानां मासाः पक्षास्तिथयो नक्षत्राणि चोक्तानि । तत्र यदि गर्भाऽपहारोऽपि कल्याणकतयाऽऽराध्योऽभविष्यत्तर्हि तद्वत्तस्याऽपि मासाद्यकथयिष्यत् , तच्च नोक्तम् । अतो न गर्भाऽपहारः कल्याणकमिति । यत्तु क्वचिदन्यत्रा वचूर्णी कल्याणकपटकव्याख्यानमुपलभ्यते तत् कर्तुस्तदंशे प्रवचनाऽनुपयोगे सति सन्देह विषौषध्यनुसरणमेव शरणम् ।। प्रवचनाऽनुपयोगस्तु महतामपि सम्भवति । यदुक्तं_ 'नहि नामाऽनाभोगः छद्मस्थस्येह कस्यचिम्नास्ति । ज्ञानाऽऽवरणीयं हि ज्ञानाऽऽवरणप्रकृतिकर्म" ॥१॥ न चैवं क्वचिदंशे श्रुताऽनुपयोगो महतां लाघवाय । गौतमस्वामिनोऽपि श्रुताऽनुपयोगस्याऽऽगमप्रसिद्धत्वादिति न किञ्चिदनु पपन्नम् । तथा चानाभोगादन्यत्र तीर्थसम्मतपुरुषाऽसम्मत्या व्याख्याने प्ररूपणे च तीर्थाऽऽशातना-तीर्थवाह्यता चाsनिवार्यैव । न चैवमास्माकीनानामपि षट्कल्याणकव्याख्यानं तत्प्ररूपणं चाऽनाभोगादेवेति वक्तव्यम् । तत्रानाऽऽभोग़गन्धस्याऽप्यभावात् । तत्कथम् ? इति । चेत् । शृणु-षष्ठकल्याणकप्ररूपणामूलं ताच्चित्रकूटे चण्डिकागृहस्थितो नवीनमतव्यवस्थापनहेतवे जिनवल्लभवाचनाऽऽचार्य एव । यत आह-तत्र कृतचतुर्मासकानां श्रीजिनवल्लभवाचनाचार्याणामाश्विनमासस्य कृष्णत्रयोदश्यां श्रीमहावीरगर्भाऽपहार कल्याणकं समागतं । ततः श्राद्वानां पुरो भणितं जिनवल्लभगणिना भोः श्रावका ! अद्य श्रीमहावीरस्य षष्ठं गर्भाऽपहारकल्याण के 'पंच हत्युत्तरे होत्था साइणा परिनिबुडे भया' इति प्रकटाऽक्षरैरेव सिद्धान्ते प्रतिपादनात् । अन्यच्च तथाविधं किमपि विधि चैत्यं नास्ति । ततोऽत्रैव चैत्यवासिचैत्ये गत्वा देवा वन्धन्ते तदा शोभनं भवति । गुरुमुखकमलविनिर्गतवचनाऽऽराधकैः श्रावकैरुकं-भगवन् ! यधुष्माकं सम्मत तत्क्रियते । ततः RECRUGRAACREKHA Jain Educatie national For Private & Personal use only wo m brary.org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणार टीका 1२८॥ व्या० AORSHISHRSHASTASHATARREAS सर्वे श्रावका निर्मलशरीरा निर्मलवस्त्रा गृहीतनिर्मलपूजोपकरणा गुरुणा सह देवगृहे गन्तुं प्रवृत्ताः। देवगृहस्थितयाऽऽयिकया गुरुश्राद्धसमुदायेनाऽऽगच्छतो गुरून् दृष्ट्वा पृष्टं । को विशेषोऽद्य ? । केनाऽपि कथितं वीरगर्भाऽपहारकल्याणककरणार्थमेते समागच्छन्ति । तया चिन्तित-'पूर्व केनाऽपि न कृतमेतदेतेऽधुना करिष्यन्ति' इति न युक्तं । पश्चात् संयती देवगृहद्वारे पतित्वा स्थिता । द्वारप्राप्तान् प्रभूनवलोक्योक्तमेतयाऽदुष्टचित्तया-'मया मृतया यदि प्रविशत' । 'तागप्रीतिकं ज्ञात्वा निवृत्त्य स्वस्थानं गताः पूज्याः' इत्यादि जिनदत्ताऽऽचार्यकृतगणधरसार्धशतकस्य वृत्तौ । तथा 'असहायेणावि विही पसाहिओ जो न सेससूरीणं । लोअणपहे वि वच्चइ वुच्चइ पुण जिणमयण्णूहि ॥१२२॥ ति गणधरसार्धशतके द्वाविंशतिशततमी गाथा । तवृत्तिर्यथा-'ततो येन भगवताऽसहायेनाऽपि एकाकिना परकीयसाहाय्यनिरपेक्षं अपिः-विस्मयेऽतीवाऽऽश्चर्यमेतत् । विधिः-आगमोक्तः षष्ठकल्याणकरूपश्चैत्यादिविषयः पूर्व प्रदर्शितश्च । प्रकार:-प्रकर्षेणेदमित्थमेव भवति योऽत्राऽर्थेऽसहिष्णुः सः वावदीतु' इति स्कन्धाऽऽस्फालनपूर्वकं साधित:-सकललोकप्रत्यक्षं प्रकाशितः । यो न 'सेससूरीणं शेषनरीणाम्-अज्ञानसिद्धान्तरहस्यानामित्यर्थः । लोचनपथेऽपि-दृष्टिमार्गेऽपि, आस्तां श्रुतिपथे व्रजति-याति । उच्यते पुनर्जिनमतः-भगवत्प्रवचनवेदिभिरिति गाथार्थः । तथा 'पूर्वई मूलपडिमं पि साविआ चिइनिवासिसम्मत्तं । गम्भापहारकल्लाणगंपि न होई वीरस्स ॥१॥ त्ति । जिनदत्ताऽऽचार्यकृतोत्सूत्रपदोद्घाटनकुलके । इत्यादि वचोव्यजितां श्रीहरिभद्रमरि-श्रीअभय देवसूर्यादीनां पञ्चकल्याणकवादिनां क्वचिदज्ञानोद्भावनेन क्वचिच्चोत्सूत्रभाषणेन हीलनां कुर्वन् प्रागुक्तरीत्याऽऽयिकया निवार्यमाणोऽपि निजमताऽऽविष्करणार्थ षष्ठं PEACCASIROHASARAMARCACA ।॥२८ Jain Educade For Private & Personal use only Manorary.org Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२९॥ AGA कल्याणकं व्यवस्थापयंश्च कथमनाभोगवान् ? कथं वा तदपत्यम् ' इति स्वयमेव रहस्यालोच्यम् । एतेन पञ्चकल्याणकवादिनां प्रागुक्तानामनाऽऽभोगशङ्काऽपि व्युदस्ता । तदीयप्राचीनानां षट्कल्याणकविषयकभणितेरनुद्भावनात् । यत्तु-'पंचहत्योत्तरे होत्था साइणा परिनिव्वुडे भयवं' ति भणितेरुद्भावन तत्तु तदुद्भावयितुरेवाऽनाघ्रातसिद्धान्तगन्धवाऽभिव्यञ्जकमुक्तरीत्या मन्तव्यम् । ननु कल्याणकाऽधिकारप्रतिबद्धत्वात् शक्रजीतत्वाच्च कथं न तस्य कल्याणकत्वम् ? इति मे मतिरिति चेत् । सत्यं, तर्हि "उसभेणं अरहा कोसलिए पंच उत्तरासाढे अभिई छठे होत्था । तं जहा-उत्तरासाढाहिं चुए, चइत्ता गभं वक्ते. उत्तरासाढाहिं जाए, उत्तरासाढाहिं रायाभिसे पत्ते, उत्तरासाढाहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारि पब्बइए, उत्तरासादाहिं जाव समुप्पण्णे, अभिइणा परिनिव्वुडे''त्ति। श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपत्रे-श्रीऋषभराज्याभिषेकस्य कल्याणकाऽधिकारप्रतिबद्धत्वात् प्रथमतीर्थदराज्याभिषेकस्य च शक्रजीतत्वेन श्रीहारिभद्याम् आवश्यकवृत्तावुक्तत्वाच्च । अद्भुतपुण्यप्रकृतिमजनस्य जन्मवदऽनाश्चर्यभूतस्य च श्रीऋषभराज्याभिषेकस्याऽपिकल्याणकत्वमतिव्रततिरुत्सूत्रवृक्षमारोहन्ती तावकीना केन पापात्मना मर्दिता ?। वादी आह-आस्तां सिद्धान्तपक्षः परं यथाऽनागमिकाऽपि कालकमरिप्रवर्तिता चतुर्थी तदनुजानां प्रमाणं । तथा तथाविधमपि 'प्रवचनजाऽभिवृद्धिबुद्धया' सुविहिताग्रणी श्रीजिनवल्लभवाचनाऽऽचार्यप्रवर्तितं गर्भसंहरणमपि कल्याणक तदनुजानां प्रमाणीभवन निवारयितुं शक्यम् ? इति चेत् । को निवारयिता? स्त्रीपूजानिषेधवदिदमप्यनाऽऽगमिकं युज्यते एव । भवन्तः प्रमाणयन्ति न वा ? इति चेत् । नैवेति ब्रमः । यतो नहि वयं तदनुजा न चाऽसौऽस्माकं पूर्वजः । न चैवं चतुर्थ्यामपि, युक्तः सामान्य-चतुर्थी तावत तत्कालयतिसर्वसङ्कप्रमाणीकृतत्वेन तदनुकालवर्तिनाऽपि सर्वसङ्घन प्रमाणीकृता । अतस्तदन्तर्वतिनाम BREACARECRECEKACIE R EREDREARN | ॥२९। Sain Educa t e national For Private & Personal use only wravelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्प ॥ ३० ॥ स्माकं स पूर्वजः । वयं च तदनुजा इति । पृष्ठं कल्याणकं तु त्वदीयव्यवस्थापित समुदायेनैव प्रमाणीकृतं । न पुनः परम्पराssयाततीर्थदाज्ञावर्तिसङ्गेनेति कुतस्त्यं तौल्यम् ? त्वदीय समुदायस्य च तीर्थकु दाज्ञा वर्तित्व स्वीकारे श्रीहरिभद्रसूरि - श्री अभय देवसूर्यादीनां पञ्चकल्याणकत्रादिनां तीर्थबाह्यता स्यात् । तच्च तवाऽप्यनभिमतम् । अतो भवानेव तथेति किं न विचारयसि ? | यच्च चतुर्थ्यां अनागमिकत्वमुकं तदप्ययुक्तम् । अनागमिकप्रवर्त्तने श्री कालकसू रेर्युगप्रधानत्वव्याहते: अनाभोगे च तत्कालवसिङ्घनिवारणाऽभविष्यत्, न च तदानीन्तनसङ्घः तदायत्तः तं प्रति निवारयितुमशक्तः ? । तीर्थकृद्वयवस्थापितः सङ्घस्तीर्थस्य तीर्थकृतो वाऽऽज्ञातिक्रमे महान्तमपि पुरुषं निवारयत्येव । कथमन्यथा चतुर्दश पूर्वविदमपि श्रीभद्रबाहुस्वामिनं सङ्घाssज्ञातिक्रमणे 'किं प्रायश्चित्तम् ?' इति वचसा प्रबोध्य मिथ्यादुष्कृतमदापयिष्यत् ? । आस्तां सङ्घः । सङ्घाऽऽज्ञावर्त्ति प्रध्वरमपि मानुषं तीर्थदाज्ञाऽतिक्रमणे निवारयति । यथा पष्ठ कल्याणकव्यवस्थापकं स्वदीयगुरुमार्यिकाऽपीति । प्रागुक्तत्वद्भणितिरपि । यदुक्तं- 'प्रवचनपूजाऽभिवृद्धिबुद्धया' इति तदप्यसारं । जिनाऽऽज्ञाऽतिक्रमणे स्वमतिकल्पितस्य सुन्दरस्याऽपि सुन्दराऽऽभासत्वेन मिथ्यात्वप्रसक्त्याऽनर्थहेतुत्वात् । यदागमः - 'aurant किलिees जइ वि करे अइदुकरं तु तयं । सुंदरबुद्धीइ कथं बहुअं पि न सुंदरं होई' ति॥ ९९४ ॥ ( उप० ) ननु भोः ! 'नो से कप्पर तं स्यणि उवायणावित्तए'त्ति । षष्ठीनिषेधात् 'तं च पुण्णिमाए पंचमीए । पत्रमा इएस पव्वे पज्जोसवेयन्त्रं नो अपव्वेसु'ति । निशीथचूर्ण्यादिवचनात् । चतुर्थ्या अपि निषेधात् । प्रवचनविरुद्धाऽपि चतुर्थी राज्ञ Jain Educammational किरणाव टीका व्या० ॥ ३० Mbrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CEMBEROENA उपरोधेन प्रवचननाऽभिवृद्धिबुद्धया सीता । तत्र का गतिः? इति चेत् । सत्यं, शणु-युगप्रधानश्रीकालकसूरिस्तीर्थसम्मतो न तीर्थकृतामाज्ञामतिकामति । तदतिक्रमे च 'युगप्रधानत्वादि व्याहतेः । इति तदाऽपि सम्मतम् । एवं च सति यथा 'साधुना सचित्तवनस्पत्यादिस्पर्शों न विधेयः' 'न सेव्या च योषित्' इति निषेधसाम्येऽपि गिरिनद्याधुत्तारे बल्ल्याचवलम्बन जिनाज्ञा न पुनयोषित्सेवाऽपि । तथा षष्ठीचतुर्योः दृश्यमाननिषेधसाम्येऽपि महदन्तरं । यत:-श्रीकालकसूरेरेव पष्ठी नाऽऽज्ञेति पर्यालोचनया चतुर्थी स्वीकारे कश्चिद्विशेषो वक्तव्यः। स च विशेषः पर्यालोच्यमान आज्ञाऽनाज्ञाभ्यामेव कृतः नाऽन्यः। तथा च षष्ठीनिषेधो निरपवादिकः । सापवादिकश्च चतुर्थ्या निषेध इति सम्पन्नं चतुर्थी जिनाऽऽज्ञेति । अन्यथा तत्कालवर्तिसर्वसङ्कसम्मता न प्रावतिष्यत । तत्कालपर्तिस सङ्घसम्मतत्वं च तदनुकाल पर्तिससङ्घसम्मतत्वाऽन्यथाऽनुपपच्या सूपपादमेव । अन्यथा पक्षद्वयाऽनुवृत्त्या चूर्णिकारादयः 'केइ सोहम्मावच्चिज्जा पंचमीए पज्जोसति केइ पुण कालगावच्चिज्जा च उत्थीए अपव्वे पज्जोसति' विकल्पावकथयिष्यत् । तच्च नोकं, किन्तु 'कहमियाणि चउत्थीए अपव्वे पज्जोसविज्जइ' इति प्रभृत्येव, तथा च चतुर्थी न केवलं प्रवचनजाऽभिवृद्धिबुद्धयैव प्रतिता किन्तु जिनाऽऽज्ञापलो वनयैव । यच्च पष्ठकल्याणकप्ररूपणाया आदिकत्तुः सुविहिताऽग्रणीत्वमुक्तं तच्च सुविहिताऽनुजत्वमन्तरेणासम्भवि । यदागम:___ 'हंतूण सधमागं सीसो होऊण ताव सिक्खाहि । सीसस्स हुंति सीसा न हुँति सोसा असोसस्स' ॥त्ति। (चन्द्र वेध्यप्र०) ताचाऽस्य विचार्यमाणं विशीयते । चैत्यवासं परित्यज्य कस्याऽपि सुविहितगगस्य पार्श्व चारित्रस्याऽग्रहात् नवीनमतप्रवर्तनेन साबाह्यत्वाच्च । न चैतद्वचनं रागद्वेषविलसितं 'देशमाख्याति भाषितम्' इतिवचनात् त्वदीयमणि ते रेवोपलम्भात । बEAAAAAACCOREA ॥३ For Private & Personal use only brary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणार टीका ॥ ३२॥ व्या . कथमन्यथा स्वयमेव-'सङ्घत्राकृतचैत्यकूटपतितस्याऽन्तस्तरां ताम्यतस्तन्मुद्रादृढपाशबन्धनवतः शक्तस्य न स्पन्दितुम् । मुक्त्यै कल्पितदानशीलतपसोऽप्येतत्क्रमस्थायिनःसङ्घच्याघ्रवशस्य जन्तुहरिणवातस्य मोक्षः कुतः ॥३३॥ त्ति सङ्घपट्टकसूत्र त्रयस्त्रिंशत्तमकाव्येन तत्कालवर्तिसङ्घ व्याघ्रोपमयोपावर्णयिष्यत् ? । कथं वा तट्टीकायाम्-‘ऐदंयुगीनसङ्घप्रवृत्तिपरिहारेण सबाह्यत्वप्रतिपादनममीषां भूषणं न तु दृषणम्' इति सङ्घबाह्यतां तस्य व्याख्यास्यद् इति । न चैवं यथार्थमपि | स्वयमेव स्वोपघातकं कथमुक्तवान्' ! इति चित्रं चिन्तनीयं । मतिभ्रमेऽपि घुणाऽक्षरन्यायेनाऽनाऽऽश्चर्यात् कथमन्यथा गणनाऽनुक्रमेण द्वितीयमपि 'गर्भापहारं 'भोः-श्रावकाः! अघ श्रीमहावीरस्य षष्ठं गर्भापहारकल्याणकमिति वचश्चातुर्यात् केनाऽप्यप्रकाशितं पूर्व मयैव प्रकाश्यत इत्यज्ञापयिष्यत् । किञ्च-आस्तामन्यः शतपद्यामप्याष्ट्रिकाऽऽचरणायाः कथं प्रामाण्य ? । यतो जिनवल्लभेन सिद्धान्तविरुद्धमेव पष्ठं कल्याणकं व्यवस्थापितं । जिनदत्तन च स्त्रीपूजाऽपलाप इत्याद्यर्थाऽऽलापकवचोभिः शतपदीकारः पाल्लविकोऽपि तं कोपितवानित्यपि चित्रं चेतसि पर्यालोच्यम् । तथा च यत्र क्यापि षट्कल्याणकव्याख्यानमुपलभ्यते तद्यथासम्भवं क्वचिदभिनिवेशात् क्यचिचाऽनाऽऽभोगादवगन्तव्यम् । अन्यथा श्रीहरिभद्रसूर्यादीनां सम्मतेरकिश्चित्करत्वेन मूलभङ्गाऽऽपत्तिः। तस्मान्मूलाऽऽद्यखण्डनयैव स्कन्धादीनां कुशलता । तदुच्छेदे तु तेषामप्युच्छेद एवेति विचिन्त्य प्रवचनाऽविसंवाद्येव वचःप्रमाणीकर्तव्यम् । अन्यथा यदि सर्वसम्मतानां श्रीहरिभद्रसूर्यादीनां वचोभिर्विसंवाद्यपि वचःप्रमाणीस्यात् तर्हि अस्माकमपि वचनं GREACOCALCOME JainEduca For Private & Personal use only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३३॥ ECORREAST-STI-AS- विसंवादिवचनेन विसंवाद्येव सत्सुतरां प्रमाणीभवत् केन प्रतिषेधुं शक्यम् ? । इत्याद्यपि वावकवदनहूदप्रादुर्भूतप्रतिबन्दीनदीसन्तरणोपाये मूकतैवाऽऽश्रयणीया स्याद् इति विचिन्त्य चतुरैर्न मूलमून्मूलनीयम् ।। ननु यद्येवं तर्हि वीरेण भगवता पञ्चम्यां पर्युषितत्वेन चतुर्थ्याः स्वीकारे सुतरां मृलोन्मूलनमेव ? इति चेत् । मैवं, नहि वयं तीर्थकृत्कृत्यमनुसृत्य प्रवर्तामहे किन्तु तीर्थकृता तदनुकारिणां चाऽऽगमविदामाज्ञामेव । अन्यथा तीर्थकृदनुपात्तत्वेन रजोहरणाद्युपकरणमपि परिहरणीयं स्यात् । न स्याच्च स्थूलभद्रयोगेन्द्रमपेक्ष्य वेश्याजनोपान्तोपवेशनमपि परिहरणीयमिति । आज्ञा च तथाकाराऽर्हस्य युगप्रधानस्य श्रीकालकसूरेचोऽङ्गीकारेणैव । यदागमः "कप्पाकप्पे परिनिट्ठिअस्स ठाणेसु पंचसु ठिअस्स। संयमतबडगस्स उ अविगप्पेणं तहकारो" ति ॥ (आव०नि० ३५८) (पंचा० ५५८) ॥ अन्यथाकरणे च प्रत्युत मूलोन्मूलनमेव ॥ अथ 'कारणिआ चउत्थि' ति (निशीथ) वचनात् कारणिक्येव चतुर्थी । कारणं तावत् कालकमरिरेव तदानीं नेदानीमस्माकमपीति नाऽस्माभिरङ्गी क्रियते ? इति चेत् । तईि 'अण्णउत्यियं वा गारस्थिअं वा पन्जोसवेति' निशीथसूत्रं (४६)। तच्चूर्णियथा-'गिहत्थाणं अण्ण उत्थियाणं गिहत्थीणं अण्णतिथिणीणं उसण्णाणं संजईणं च पुरओ कप्पो न पढिअब्बो' त्ति । औत्सर्गिकवचनात् । सभासमक्षं कल्पस्त्रवाचनमपि पुत्रमरणाऽऽतस्य ध्रुवसेननृपस्य समाधिहेतवे प्रवृत्तत्वेन कारणिकमेव तदपि परिहरणीयम् । नो चेत् , चतुर्थ्या किमपराद्धं तव ? परं ज्ञायते तीर्थसम्मतयुगप्रधानप्रवर्तितत्वमेव तस्या महानेवाऽपराधः । कथमन्यथा कारणिकत्वं समानेऽपि पङ्क्तिभेदः। तस्मादुभे अपि स्वीकर्तव्ये परिहर्त्तव्ये चोभे अपीति प्रतिबन्दी- 32 464680186 ॥३३ Jain Educa t ional For Privale & Personal use only wwwakalimary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ ३४ ॥ Jain Educa पाशपतितस्य तेऽन्यस्य मोक्षोपायस्यासम्भवेन परित्यज तीर्थाऽनाऽऽहतत्वेन मृतमातृकल्पां पञ्चमीं। स्वीकुरु च तीर्था ssered नैव कल्पलताकल्पां चतुर्थी जिनाऽऽज्ञात्वात् । एवमन्यपि एवंविधपुरुषप्रवर्तितं जिनाऽऽज्ञा । न पुनः स्वगृह एव पण्डितमन्येन येन केनचित् यत्किञ्चिदपीत्यलं विस्तरेण । यद्यपि विस्तर भीत्या एतावत्या अपि युक्तेरुद्भावनमसङ्गतमिवाssभाति । तथाऽपि कालानुभावात् प्रायो भूयान् जनो भूयस्यप्यन्तरे विद्यमानेऽप्यभेदमेव मन्यते । स एव तावदनया दिशा युक्तिलेश निशम्य भेदं जानात्विति नाऽसङ्गतिदशेषः । किन्तु तदनुकम्पैवेति सुस्थम् ॥] अथ प्रकृतमुच्यते - कथं पञ्चस्तोत्तरो भगवानभूद् ? इति व्यक्त्यर्थं (तं जहा) तद्यथेत्यादिना मध्यमवाचनां निर्दिशति(हत्थुत्तराहिंचुए ) ति हस्तोत्तराभिः उत्तरफाल्गुनीभिः चन्द्रयोगे च्युतो देवभवात् (चहत्ता गन्भं वकंते) च्युत्वा च गर्भ व्युत्क्रान्तः - उत्पन्नः । (हत्थुत्तराहिं गभाओ गर्भ) < हस्तोत्तराभिः > गर्भात् गर्भ ( साहरिए) सङ्क्रामितः । (हत्थुत्तराहिं जाए) - हस्तोत्तराभिः > जात:- योनिवर्त्मना निर्गतः (हत्थुत्तराहि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअं पव्वइए) हस्तोत्तराभिः > मुण्डः - बाह्यतः केशलुञ्चनेन, अभ्यन्तरतस्तु कषायेन्द्रियमनोनिग्रहेण इति द्रव्यभावाभ्यां मुण्डितो भूत्वा । अगारात् 'विश्लेषे पञ्चमी' (सिद्ध० २-२ - २९) इति गृहवासं परित्यज्य अनगारितां साधुतां प्रव्रजितःस्वीकृतवान् साधुस्वरूपमापन इत्यर्थः । (हत्थुत्तराहिं अनंते) त्ति < हस्तोत्तराभिः > अनन्ताऽर्थविषयत्वाद् अनन्तम् । 'अणुत्तरे' सर्वोत्कृष्टत्वाद् अनुत्तरं (निव्वाघाए ) कटकुटयादिभिरप्रतिहतवान् निर्व्याघातं । (निरावरणे) क्षायिकभावोत्पन्नत्वेन सर्वाssवरणाऽपगमात् निरावरणं । (कसिणे) अनन्तपर्यायोपेत भूतभवद्भविष्यद शेष सामान्यात्मक वस्तूनां enational किरण टीक व्या ॥ ३ www.jamemorary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐॐॐSAR सर्वतः सर्वथा प्रकाशकत्वेन कृत्स्नाऽर्थग्राहकत्वात् कृत्स्नं (पडिपुण्णे) पूर्णिमामृगाङ्कमण्डलमिव सकलस्वांशयुक्तत्वात् प्रतिपूर्ण । | (केवलवरनाणदंसणे) एवंविधमपि केवलम्-असहायं स्वविषयप्रकाशकत्वेन नाऽन्यत् अवध्यादिसजातीयमपेक्षत इत्यर्थः । अत एव वरं-प्रधान न पुनः श्रुतज्ञानवत्परोपकारकत्वेन ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शने । ततः प्राक्पदाभ्यां कर्मधारयः । सर्वत्र प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः। ननु 'अनन्तमनुत्तरमित्यादि विशेषणैरुभयोरपि निर्विशेषत्वेनोक्तत्वात् यदेव ज्ञानं तदेव दर्शनमिति पर्यायवाचित्वाऽऽपन्नयोदयोग्रहणमयुक्तम् ? इति चेत् । मैवं, समानविषयत्वेऽपि ज्ञानं तावत् प्रधानविशेषोपसर्जनीकृतसामान्याऽर्थग्रहणलक्षणं । दर्शनं पुनः प्रधानसामान्योपसर्जनीकृतविशेषाऽर्थग्रहणलक्षणम् इतिविशेषस्य विद्यमानत्वात् । को भावः ? ज्ञानं तावत् स्वविषयं प्रकाशयदशेषविशेषान् प्रधानभावेन प्रकाशयति यावत् सामान्यानि तु गौणभावेन, दर्शनं तु यावत् सामान्यानि प्रधान्येनाऽशेषविशेषांश्च गौण्येनेति । (समुप्पण्णे) त्ति । सम्-सम्यग् उत्पन्नं 'समुत्पन्नं-सर्वथा तदावरणाऽपगमात् सर्वतः सर्वाशैः प्रादुर्भूतमित्यर्थः, न पुनः क्षायोपशमिकमत्यादिवदभ्यासवशात् प्रवर्द्धमानं । न वाऽसदेवोत्पन्नं 'नाऽसतो जायते भावः' इतिवचनात् । आत्मना सहाऽनादिसिद्धत्वात् । (साइणा परिनिब्बुए) ति-स्वातिनक्षत्रेण युक्ते चन्द्रे परि-सामस्त्येन नियता-सकलकर्माशैविमुक्त इत्यर्थः (भयवं) < भगवान् > इति ।।२।। अथ विस्तरवाचनामधिकृत्य यतश्च्युतो भगवान् यत्र चोत्पन्न इति नामग्राहं बिभणिषुराह[ते णमि' त्यादितो 'गम्भत्ताए वक्ते' ति यावत् ] । विजय JainEducat For Private & Personal use only ww2 ary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरण टीव व्या AUGRECRURRESTERRECARECASTEGA-SA व्याख्या-तत्र (तेणं कालेणं तेणं समएणं) (प्राग्वत् ) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये > (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीर: कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्तः इति सम्बन्धः। (जे से) त्ति । यःसः (गिम्हाणं) ति । आर्षे ग्रीष्मशब्द: स्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च ततो ग्रीष्मस्येत्यर्थः। (चउत्थे मासे) < चतुर्थों मास:> (अट्ठमे पक्खे) < अष्टमः पक्ष> (आसाढसुद्धे') आषाढशुक्ल: (तस्स णं आसाढसुद्धस्स) अषाढशुक्लस्य (छट्ठी पक्खे णं) अहोरात्रस्य दिवारात्रिभ्यामुभयपक्षात्मकत्वात् षष्ठयाः पक्षे-पष्ठयास्तिथे रात्रौ 'णमिति पूर्ववत् । [क्वचित् 'छट्ठी दिवसे णं' ति पाठः। स च दिवसशब्दस्य तिथिवाचकत्वेन व्यक्त एव] (महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरीयाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमद्विइआओ) महान् विजयो यस्मिन् तच्च तत् पुष्पोत्तरं च-पुष्पोत्तरसम्झं च तदेव प्रवरेषु-प्रधानेषु पुण्डरीक-सर्वविमानेष्वतिश्रेष्ठत्वात् तस्मात् <महाविमानात् विंशतिसागरोपमस्थितिकात् > [क्वचिच्चेतदनन्तरं 'दिसासोवत्थियाओ वद्धमाणाओ' तिपाठः। तत्र दिक्ष्ववस्थितादावलिकागतविमानमध्यस्थात् बर्द्धमानाच्च सर्वप्रकारेणेत्यर्थः] (आउक्खएणं भव क्खएणं ठिइक्खएणं) आयुः-देवायुः, भवः-देवगतिः, स्थिति-आहारो वैक्रियशरीरे अवस्थिति तेषां क्षयेण। (अणंतरं चयं चइत्ता) अनन्तरम्-अव्यवहितं च्यवं-च्यवनं चित्वा-कृत्वेत्यर्थः। अथवाऽनन्तरं-देवभवसम्बन्धिनं चयं-देहं त्यक्त्वाविमुच्य(इहेव) इहैवेति देशतः प्रत्यासन्ने, न पुनर्जम्बूद्वीपानामसङ्ख्येयत्वादन्यत्रेत्यर्थः। (जंबुद्दीवे दीवे) < जम्बूद्वीपेद्वीपे> (भारहे वासे) <भारते वर्षे> । (दाहिणभरहे) < दक्षिणार्द्धभरते > (इमीसे ओसप्पिणीए) < अस्यामवसपिण्यां> (सुसमसुसमाए समाए वइकंताए)< चतुष्कोटाकोटिसागरोपमप्रमाणे प्रथमारके व्यतिक्रान्ते> (सुसमाए ERRORISEERURSA Lain Edu a l For Privale & Personal use only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAस. समाए वइकंताए) रत्रिकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणे द्वितीयारके व्यतिक्रान्ते > (सुसमदूसमाए समाए वकंताए' (द्विकोटाकोटिसागरोषमप्रमाणे तृतीयारके व्यतिक्रान्ते> (दूसमसुसमाए समाए बहुवइकंताए) < चतुर्थारके बहुव्यतिक्रान्ते> ( सागरोवमकोडाकोडीए) < एकया सागरोपमकोटाकोटया > (बायालीसाए वाससहस्से हिं ऊणियाए) द्विचत्वारिंशद्वर्ष सहस्ररूनितया (इत्यादिना) चतुर्थारकस्य प्रमाणमवगन्तव्यम् । (पंचहत्तरीए वासेहिं अद्ध नवमेहि अ मासेहिं सेसेहिं) सार्धाऽष्टक-मासाऽधिकैः पञ्चसप्तत्या वर्षेः शेषैः । को भावः ? श्रीवीरनिर्वाणात् सार्धाऽष्टमासाऽधिकैस्त्रिभिर्वश्चतुर्थाऽरकसमाप्तिरिति । (इक्कवीसाए तित्थयरेहिं इक्खागकुलसमुप्पन्नेहिं कासवगुत्तेहिं एकविंशतौ तीर्थङ्करेषु ईश्वाकुकुलसमुत्पन्नेषु काश्यपगोत्रेषु (दोहि अ हरिवंसकुल. समुप्पन्नेहिं गोयमगुत्तेहिं) मुनिसुव्रतनेम्योः हरिवंशकुले यमुत्पन्नयोः गौतमगोत्रयोः सर्वत्राऽत्र तृतीया सप्तम्यर्थे । (तेवीसाए तित्थयरेहिं वइकंतेहिं) यावत् त्रयोविंशतो तीर्थकरेषु व्यतिक्रान्तेषु (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (चरमतित्थयरे पुवतित्थयरनिहिडे) चरमतीर्थकरः पूर्वतीर्थंकरनिर्दिष्टः (माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स) ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य (कोडालसगुत्तस्स) कोडालैः समान गोत्रं यस्य स तथा तस्य (भारियाए देवाणंदाए माहणीए) भार्यायाः देवानन्दाया ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्राया जालन्धरैः समानं गोत्रं यस्याः सा तथा तस्याः (पुश्वरत्तावरत्तकाल समगंसि पूर्वरात्रश्चासौ अपररात्रश्च स एव काललक्षणः समयो न त्वन्यः समाचारादिरूप इति पूर्वरात्राऽपररात्रकालसमयस्तत्र-मध्यरात्रे इत्यर्थः । इह आर्षत्वादेकरे MN Jain Educatiemational For Privale & Personal use only wil.jantalibrary.org Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प ३८ ॥ फलोपः । अथवाऽयमपरात्र शब्दस्तथा च 'अर्द्ध गते सर्वं गतम्' इतिन्यायादपगता रात्रिः अपरात्रः । [क्वचितु 'अडरतावर ते ' ति पाठः तत्र अर्द्धरात्रलक्षणो योऽपररात्रस्तत्र ] ( हत्युत्तराहिं) > हस्तोत्तराभिः > बहुवचनं बहुकल्याणकाऽपेक्षं च्यवनादिकल्याणकचतुष्टयस्य उत्तरफल्गुनीजातत्वात् । यद्रा - ' फल्गुनी प्रोष्ठपदस्य भे' इति सूत्रेण फल्गुनीशब्दस्य बहुवचनान्तताऽपि । [य सन्देहविपौषधीकारः प्रथमसूत्रे (पंचहत्युत्तरे ) त्ति पदं व्याख्यानयन् समासकरणेन बहुवचनं बहुकल्याणकाऽपेक्षमित्यु क्तवान् तद् गर्भसंहरणस्याऽपि कल्याणकत्वं सिद्धयतु इति स्त्रमताऽनुर । गेणैवेति बोध्यम् । कथमन्यथा व्याख्येयमूत्राऽभावेऽपि तदुद्भावयेत् ? । टीप्पनककारेणाऽप्यत्रैव सूत्रे व्याख्येयमूत्रसद्भावेन तदुद्भावितमिति ।] (नक्खत्तेणं जोगमुवागणं) ति < उत्तरफल्गुनीनक्षत्रेण योगमुपागतेन अर्थाच्चन्द्रेण सहेत्यर्थः । (आहारवीए) आहाराsपक्रान्त्या - देवाऽऽहारपरित्यागेन । अथवाऽऽहारव्युत्क्रान्त्या - अपूर्वाऽऽहारोत्पादनेन मनुष्योचिताऽऽहारग्रहणेनेत्यर्थः [ एवमन्यदपि पदद्वयं व्याख्येयं ] ( भववकंतीए सरीरवकंतीए ) <भवाऽपक्रान्त्या शरीराऽपक्रान्त्या > ( कुच्छिसि भत्ताए) कुक्षौ गर्भतया (वक्ते) व्युत्क्रान्तः - उत्पन्न इति ॥ ३॥ ['समणे' त्यादित: 'पडिबुद्धे' त्यन्तं सम्बन्धः ] तत्र - ( समणे भगवं महावीरे तिष्णाणोवगए आविहोत्था) श्रमणो भगवान् महावीरः मति श्रुताऽवधिज्ञानत्रयसहितोऽभवत् । (चइस्सामि ति जाणइ) तत्र 'चहस्सामि'ति । यद्यपि देवानां पण्मासाऽवशेषायुषां - “माल्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः श्रीहीन शो वाससां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागाऽङ्गभङ्गौ दृष्टेर्भ्रान्तिर्वेपथुचारतिथ Jain Ednternational किरणावली टीका व्या० १ ॥ ३८ ॥ Thin elibrary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || ३९॥ ARMA-%% ॥१॥ इति भावा भवन्ति इति, तथापि तीर्थकुन्सुराः पुण्यप्रकर्षाद् विज्ञानकान्त्यादि प्रकर्षभाजो भवन्ति इति । च्यवनभविप्यत्कालं जानाति । (चयमाणे न जाणइ) च्यवमानस्तु न जानाति । च्यवनस्यैकसामयिकत्वेन तज्ज्ञानाऽगम्यत्वाजघन्यतोऽपि छाअस्थिकज्ञानोपयोगस्याऽऽन्तमौहर्तिकत्वात् 'च्यवनकाल भगवान् न जानाति' इति । (चुएमि त्ति जाणइ) च्युतस्तु जानाति । 'च्युतोऽस्मि' इति पूर्वभवाऽऽयातज्ञानत्रिकसद्भावादिति । (जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे यस्यां रजन्यां <श्रमणो भगवान् > महावीर: (देवाणंदाए माहणीए) < देवानन्दायाः ब्राह्मण्या:> (जालंधरसगुत्ताए) < जालन्धरसगोत्रायाः> (कुञ्छिसि गम्भत्ताए) < कुक्षौ गर्भया > (वक्ते) व्युत्क्रान्तः (तं रयणिं च णं) तस्यां रजन्यां (सा देवाणंदा माहणी) < सा देवानन्दा ब्राह्मणी > (सयणिज्जंसि) < शयनी ये > (सुत्तजागरत्ति) सुप्तजागरानाऽतिसुप्ता नाऽतिजाग्रती, अत एव (ओहीरमाणी ओहीरमाणी) पुनः पुनः ईपन्निद्रां गच्छन्ती (इमे) इमान्-महास्वप्नान् इति विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धः। (एआरूवे) एतदेव व्यावणितमेव रूपं-स्वरूपं-न न्यूनमधिकं वा कविकृतं येषां ते तथा तान् । (उराले) उदारान्-प्रशस्तान् (कल्लाणे) कल्याणान्-कल्याणानां शुभसमृद्धिविशेषाणां हेतुत्वाद् । अथवा कल्यंनीरोगताम् अणन्ति-गमयन्तीति तान् (सिवे) शिवान् उपद्रवोपशापकत्वात् (धण्णे) धन्यान्-धनावहत्वात् (मंगले) मङ्गल्यान् मङ्गले-दुरितोपशमे साधुत्वात् (सस्सिरीए) सश्रीकान्-सशोभान् (चउद्दस महासुमिणे) चतुर्दश महास्वप्नान् (पासित्ता णं) दृष्ट्वा (पडिबुद्धा) प्रतिबुद्धा-जागरिता ॥३॥ ('तं जहे' त्यादितः 'सिहिं चे' त्यनेन सम्बन्धः) - - - Sain Educa tional For Privale & Personal use only OTibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P श्रीकाल्प किरणावली टीका व्या०१ ॥४०॥ RICICHIATRICES (तं जहा) तद्यथा-(गय-वसह-सीह-अभिसेअ-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुंभं । पउमसर-सागर-विमाण+भवण-रयणुच्चय-सिहिं च ॥४॥ तत्र-गज-वृषभ-सिंहाः प्रतीताः । अभिषेकः श्रियाः सम्बन्धी । दाम-कुसुममाला । <शशिदिनकरौ> ध्वज-कुम्भौ प्रतीतौ । पद्मोपलक्षितं सरः पद्मसरः । सागरः-समुद्रः । विमानं-देवसम्बन्धि भवनं-प्रासादः । रत्नोच्चयः-रत्नभृतं स्थालं । शिखी-निधूमोऽग्निः । यो देवलोकादवतरति तन्माता विमानं, यस्तु श्रेणिकाऽऽदिवन्नरकादवतरति तन्माता भवनं पश्यतीति द्वयोरेकतरदर्शनाचतुर्दशैव स्वप्नाः।यद्वा-विमानमेव भवनमिति व्युत्पत्त्या विमानाऽवतीर्णतीर्थकृन्माता विमानभवनं पश्यति । वर्णादिभिरतिशोभनत्वेन विमानमिव-विमानसदृशं भवनमिति व्युत्पत्त्याच नरकाऽवतीर्णतीर्थकृन्माता इति । एव-इन शब्दाभ्यां तत्पुरुषसमासकरणे नाऽऽधिक्यशङ्काऽपि । यद्यप्येते वक्ष्यमाणवर्णकविशिष्टास्त्रिशलावदेव देवानन्दयाऽपि दृष्टाः तथापि तथाविधफलाऽभावान्नाऽत्र गणधरैविस्तरतो वर्णिताः॥४॥ ['तए णमि' त्यादितो 'वयासी'ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तए णं सा देवाणंदा माहणी) ततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी (इमे एयारूवे) इमान् एतत्स्वरूपान् (उराले कल्लाणे सिबे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए चउद्दस महासुमिणे) <प्रशस्तान् कल्याणान् शिवान् धन्यान् मङ्गल्यान् सश्रीकान् चतुर्दश महास्वप्नान् > (पासित्तापडिबुद्धा समाणी) < दृष्ट्वा जागरिता सती> (हतचित्तमाणंदिआ) तत्र हृष्टतुष्टा-अत्यर्थ तुष्टा । अथवा हृष्टा-विस्मिता तुष्टा-तोषवती चित्तेनाऽऽनन्दिता चित्ताऽऽनन्दिता। यद्वा ASHRSHASHRASHRSHASHAHARASAR ॥४०॥ JainELTAL For Private & Personal use only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४१॥ HEMEEACHECECAUGUAE आनन्दिनं चित्तं यस्याःसा तथा ।मकार:प्राकृतत्वात । अथवा हृष्ट-विस्मितं तुष्ट-तोपवाच्चित्तं यत्र तद्यथा स्यामा । (पीडमणा) प्रीतिः-आप्यायनं मनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः (परमसोमणस्सिा ) परम सौमनस्यं जातमम्या: सा परमसौमनस्यिता। (हरिसवसविसप्पमाणहि भया) हवशेन विसपेत्-विस्तारयायि हृदयं यस्याः । धाराहयकर्ययपुष्फगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा) धाराभिः-धाराधरप्रादुभूताभिः आहतं हतं वा यावत्कदम्ब पुष्पं तदिव समुच्छ्वसितानि-उदधुषितानि रोमाणि कूपेषु-रोमरन्ध्रेषु यस्याः । यद्यप्येतान्यर्थतो न भयो भेट स्तुतिरूपत्वात् प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थत्वाच्च नाऽयुक्तानि इति । (सुमिणुग्गहं करेइ)। स्वप्नाना करोति । विशिष्टफललाभाऽऽरोग्यराज्यादिकं भावयतीति अन्ये । (सुमिणुग्गहं करित्ता सयणिजाती < स्वप्नाऽवग्रहं कृत्वा शयनीयात् अभ्युत्तिष्ठति > (अन्भुद्वित्ता)<अभ्युत्थाय > (अरियमचवलमसंभव मानसौत्सुक्याऽभावेन । अचपलं कायतः । असम्भ्रान्तया-अस्खलन्त्या । [(अविलंबियाए) त्ति क्वचित्तवालिया अविच्छिन्नया] (रायहंससरिसीए गईए जेणेव उसमदत्ते माहणे तेणेव उवाच्छइ) राजहंसगतिसदृशमाया ऋषभदत्तब्राह्मणः तत्रैवोपागच्छति> (उवागच्छित्ता उसभदत्तं माहणं) < उपागत्य ऋषभदत्तं बाहर विजएणं बद्धावेइ) तत्र जय:-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च । विजय:-परेषामसहमानानामभिभवः । विजयः परदेशे < तेन वर्द्धयति> (वद्धावेत्ता) <वर्द्धयित्वा > (आसत्था) आश्वस्ता-गतिजनितश्राऽभावात विश्वस्ता-सडलोभाऽभावादनुत्सुका (सुहासणवरगया) मुखेन मुखं शुभं वाऽऽसनवरं गता या सा (करयलपरिग्गहिअं) BACHINES Jain Educa t ional For Private & Personal use only Alibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ।। ४२ ।। करतलाभ्यां परिगृहीतमात्रं । (दमनहं) दशनखं (सिरसावत्तं ) शिरस्यावर्त्तम् - आवर्त्तनं प्रादक्षिण्येन भ्रमणं यस्य स तथा तं । शिरसाऽप्राप्तमित्यन्ये ( मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी) अञ्जलिं मुकुलितकमलाकारं मस्तके कृत्वा एवमवादीत् ||५|| [' एवं खलु' इत्यादितो 'पडिबुद्धे 'ति यावत् पूर्ववत् ] ( एवं खलु अहं देव णुपिआ ) !) < एवं खलु अहं हे सरलाशये !> (अज्ज सयणिज्जंसि) अद्य शयनीये > (सुत्त जागरा) सुप्तनागरा ( ओहीरमाणी ओहीरमाणी ) <पुनः पुनः ईषभिद्रां गच्छन्ती > (इमे एयारूत्रे) इमान् एतत्स्वरूपान् (उराले जाव सस्सिरीए) प्रशस्तान् यावत् सश्रीकान ( चउद्दस महातुमिणे) चतुर्दश महास्वप्नान् (पासित्ताणं पडिबुद्धा) दृष्ट्वा जागरिता । ( तं जहा-गय जाव सिहिं च) 'तं जहे' त्यादितो गाथा पूर्ववत् । तद्यथा - गज यावत् शिखी च ॥ ६ ॥ [ 'एएसिं" मित्यादितो वयासी'ति पर्यन्तम् ] तत्र (एएसि णं) एतेषाम् (उरालाणं जाव चउद्दसहं महासुमिणाणं) प्रशस्तानां यावत् चतुर्दश महास्वप्नानां (केम) मन्ये इति तिर्थो निपातः । को-नु (कल्लाणे) कल्याण: ( फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? ) फलवृत्तिविशेषो भविष्यति ? । (तए णं से उस भदत्ते माहणे) ततः स ऋषभदत्तो ब्राह्मणः (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (अंतिए) अन्तिके (एअमहं सुच्चा) एनमर्थं श्रुखा - आकर्ण्य (निसम्म) निशम्य - हृदयेनावधार्य (हट्ठ जाव हिअए) हृटतुष्ट जाव विस्तारयायी हृदयः ( धाराह्यकयंचपुष्कगंपिव ) धाराहत कदम्बपुष्पमिव Jain Educate national 30 किरणांव टीका व्या० ॥ ४२ (wwjachnurary.org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४३॥ (समुस्ससिअरोमकूवे) समुच्वसिरोमकूपः (सुमिणुग्गहं करेइ) स्वप्नानामवग्रहम्-अर्थाऽवग्रहतः करोति (करित्ता Bईहं अणुपविसइ) कृत्वा तत ईहां-तदर्थपर्यालोचनलक्षणामनुप्रविशति । (अणुपविसित्ता) अनुप्रविश्य (अप्पणो) आत्मसम्बन्धिना (साहाविएणं) सहजेन-स्वाभाविकेन (मइपुव्वएणं) मतिपूर्वेण-आभिनिबोधप्रभवेन (बुद्धिविण्णाणेणं) बुद्धिविज्ञानेन-मतिविशेषजातोत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन । अथवा_ 'मतिरप्राप्तविष या बुद्धिः साम्प्रतदर्शिनी । अतीतार्था स्मृतिया, प्रज्ञा कालत्रयाऽऽत्मिका' ॥१॥ इति वचनात् बुद्धिः-साम्प्रदर्शिनी विज्ञानं-पूर्वाऽपराऽर्थाविर्भावकमतीताऽनागतवस्त विषयं तयोः समाहारे, बुद्धिविज्ञानेन, (तेसिं सुमिणाणं) तेषां स्वप्नानां (अत्थुग्गहं करेइ) अर्थाऽवग्रह-स्वप्नफलनिश्चयं करोति । (अत्थुग्गहं करित्ता देवाणंदा माहणि) अर्थाऽग्रहं कृत्वा देवानन्दां ब्राह्मणी (एवं वयासी) एवमवादीत् ॥७॥ ['उरालाणमि' त्यादितो 'दारयं पयाहिसित्ति यावत् । तत्र (उरालाणं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणा दिट्ठा । कल्लाणाणं सिव। धन्ना मंगल्ला सस्सिरीआ) प्रशस्ता त्या हे देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः । कल्याणाः शिवा धन्या माङ्गल्याः सश्रीकाः (आरुग्गतुहिदीहाउ) त्ति आरोग्यंनीरोगत्वं तुष्टिः-सन्तोषः दीर्घाऽऽयुः-चिरजीविता । (कल्लाणमंगल्लकारगा गं तुमे देवाणुपिए। सुमिणा दिट्ठा) कल्याणमङ्गलकारकास्त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः (तं जहा) तद्यथा-(अस्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलामो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! सुक्खलाभो देवाणुप्पिए!) अर्थलाभः हे देवानुलिये !, भोगलाभः पुत्रलाभः G॥४३ Jain Educatiemational For Private & Personal use only Lilibrary.org Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या० ॥४४॥ AAAAAAAAAA सौख्यलाभः इत्यादिषु भविष्यतीतिशेषो दृश्यः। (एवं खलु तुम देवाणुप्पिए !) एवंरूपात्-उक्तफलसाधनसमर्थात् स्वप्नाद् हे देवानुप्रिये ! त्वं दारकं प्रजनिष्यसीति सम्बन्धः। सोपसर्गत्वात् सकर्मको 'जनि' धातुरिति । (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं) नवसु मासेषु षष्ठयाः सप्तम्यर्थत्वात् बहुप्रतिपूर्णेषु (अट्ठमाणराइंदियाणं वइक्कंनाणं) अर्द्धमष्टमं येषु तानि अर्द्धाऽष्टमानि तेषु रात्रिंदिवेषु-अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु । (सुकुमालपाणिपायं) सुकुमारपाणिपादं (अहीणे) त्यादि अहीनानि-अन्यूनानि लक्षणतः। (पडिपुण्णपंचिंदियसरीरं) प्रतिपूर्णानि स्वरूपतः पश्चाऽपीन्द्रियाणि यस्मिन्तत्तथाविधं शरीरं-देहं यस्य स तथा । (लक्खणवंजणगुणोववे अं) लक्षणानि छत्रचामरादीनि । तत्र चक्रवर्तितीर्थकतामष्टोत्तरसहनं । बलदेवानामष्टोत्तरशतं । तदितरेषां तु प्रचुरभाग्यभाजां द्वात्रिंशत् । तानि चेमानि "छत्रं तामरसं धनू रथवरो दम्भोलि कूर्मा ऽङ्कुशाः वापी स्वस्तिक तोरणानि च सरः पञ्चाननः पादपः। चक्रं शङ्ख गजो समुद्र -कलशौ प्रासाद मत्स्या यवा यूप स्तूप कमण्डलून्य वनिभृत् सच्चामरो दर्पणः २७ ॥१॥ उक्षा पताका कमलाभिषेकः सुदाम केकी घनपुण्यभाजाम्" । इति षट्पदी। अथवा-"इह भवति सप्त रक्तः पडुनतः पञ्च सूक्ष्म दीर्घश्च । त्रिविपुल लघु गम्भीरो द्वात्रिंशल्लक्षणः स पुमान् ॥१॥ SHASTERESTERSTAESE ५॥४४। Sain Educ ational For Private & Personal use only Berary.org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४५॥ AIRAGRAAN-RIGANG नख-चरण-पाणि-रसना-दशनच्छद-तालु-लोचनाऽन्तेषु । स्याद्यो रक्तः सप्तम सप्ताहां स लभते लक्ष्मीम् ॥२॥ षट्कं कक्षा-वक्षः-कृकाटिका-जासिका-नखा-ऽऽस्यमिति । यस्येदमुन्नतं स्या-दुन्नतयस्तस्य जायन्ते ॥ ३॥ दन्त-त्व-केशा-ऽङ्गुलिपर्व-नख चेति पश्च सूक्ष्माणि । धनलक्ष्मण्येतानि प्रभवन्ति प्रायशः पुंसाम् ॥४॥ नयन-कुचाऽन्तर-नासा-हनु-भुजमिति यस्य पञ्चकं दीर्घम् । दीर्घाऽऽयुर्वित्तपरः पराक्रमी जायते स नरः ॥५॥ भालमुरोवदनमिति त्रितयं भूमीश्वरस्य विपुलं स्यात् । ग्रीवा जङ्घा मेहनमिति त्रयं लघु महीशस्य ॥६॥ यस्य स्वरोऽथ नाभि-सत्वमितीदं त्रयं गम्भीरं स्यात् । सप्ताऽम्बुधिकाञ्चेरपि भूमेः स करग्रहं कुरुते ॥७॥" इयं च प्रागुक्ता सङ्ख्या बाह्यलक्षणविषयाऽवगन्तव्या । अभ्यन्तरलक्षणानि पुनरने कानि। यदुक्तं निशीथचूर्णी'पागयमणुआणं बत्तीसं लक्खणाणि । अट्ठसयं बलदेववासुदेवाणं । अट्ठसहस्सं चक्कवहितिस्थयराणं । जे फुडा हत्थपायाइसु लक्खिज्जति तेसिं पमाणं भणिअंति । 'जे पुण स्वभावसच्चादयः तेहि सह बहुतरा भवन्ति इति । तथाहि--"मुखमई शरीरस्य सर्व वा मुखमुच्यते । ततोऽपि नासिका श्रेष्ठा नासिकायास्तु लोचने ॥१॥ यथा नेत्रे तथा शीलं यथा नासा तथाऽऽर्जवम् । यथा रूपं तथा वित्तं यथा शीलं तथा गुणाः ॥२॥ गतेः प्रशस्यते वर्ण-ततः स्नेहोऽमुतः स्वरः । अतस्तेज इतः सत्व-मिदं द्वात्रिंशतोऽधिकम् ॥३॥ सात्विकः सुकृती दानी राजसो विषयी भ्रमी । तामसः पातकी लोभी साविकोऽमीषु सत्तमः ॥४॥ द यः सात्विकस्तस्य दया स्थिरत्वं, सत्यं ध्रुवं देवगुरुप्रभक्तः । सत्त्वाऽधिकः काव्यशतक्रतुश्च, स्त्रीसक्तचित्तः पुरुषेषु शूरः ॥५॥1 AAAAAA ॥४५ Sain Educ a tional For Privale & Personal use only westindinary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणा टीका व्या CABIABAD अतिहस्वेऽतिदीर्धेऽतिस्थूले चातिकशे तथा। अतिकृष्णेऽतिगौरे च षट्षु सत्त्वं निगद्यते ॥६॥ सद्धर्मः सुभगो नीरुक सुस्वप्नः सुनयः कविः । सूचयत्यात्मनः श्रीमान् , नरः स्वर्गगमाऽऽगमौ ॥७॥ निर्दम्भः सदयो दानी दान्तो दक्षः सदा ऋजुः । मर्ज़ायोनेः समुद्भूतो, भविता च पुनः पुमान् ॥८॥ मायालोभक्षुधालस्य बहाऽऽहारादिचेष्टितैः । तियग्योनिसमुत्पत्तिं ख्यापयत्यात्मनः पुमान् ॥९॥ सरागः स्वजनद्वेपी दुर्भापी मुखसङ्गत् । शास्ति स्वस्य गताऽऽयातं नरो नरकवर्त्मनि ॥१०॥ नासिका-नेत्र-दन्तौ-ष्ठ,-कर-कर्णाऽहिणा नराः। समाः समेन विज्ञेया विषमा विषमेन तु ॥११॥ अस्थिवर्थाः सुखं मांसे त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गतौ यानं स्वरे चाऽऽज्ञा सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥१२॥ आवर्तो दक्षिणे भागे दक्षिण : शुभकन्नृणाम् । वामो वामेऽतिनिन्द्यः स्या-दिगन्यत्वे तु मध्यमः ॥१३॥ अकर्मकठिनः पाणिर्दक्षिणो वीक्ष्यते नृणाम् । वामभ्रवां पुनर्वामः सुप्रशस्योऽतिकोमलः ॥१४॥ पाणेस्तलेन शोणेन धनी नीलेन मद्यपः । पीतेनाऽगम्यनारीगः कल्मषेण धनोज्झितः ॥१५॥ दातोन्नते तले पाणे-निम्ने पितृधनोज्झितः । धनी संभृतनिम्ने स्या-द्विषमे निर्द्धनः पुमान् ॥१६॥ अरेखं बहुरेख वा येषां पागितलं नृणाम् । ते स्युरल्पाऽऽयुषो निःस्वा दुःखिता नाऽत्र संशयः ॥१७॥ दीर्घनिर्मासपर्वाणः सूक्ष्मा दीर्घाः सुकोमलाः । मुघना सरला वृत्ताः स्वीबोरगुलयः श्रिये ॥१८॥ अनामिकाऽन्त्यरेखायाः कनिष्ठा स्याद्यदाऽधिका । धनवृद्धिस्तदा पुंसां मातृपक्षो बहुस्तदा ॥१९॥ SABA-CIAAAAAAAAE Jan Education Interational For Private & Personal use only awranwr.amesbrary.org Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४७॥ एसनका मणिबन्धापितुलेखा करभाद्विमवायुयोः। ले खे द्वे यान्ति तिखोऽपि तर्जन्यङ्गुष्ठकाऽन्तरे ॥२०॥ येषां रेखा इमा तिस्रः सम्पूर्णा दोष पर्जिताः । तेषां गोत्रधनायुषि सम्पूर्णान्यन्यथा न तु ॥२१॥ उल्लध्यन्ते च यावन्त्योऽङ्गुल्यो जीवितरेखया। पञ्चविंशतयो ज्ञेया-स्तावन्त्यः शरदा बुधैः ॥२२॥ मणिवन्धोन्मुखा आयु-लेखायां येऽत्र पल्लवाः । सम्पदस्ते बहिये ता विपदोऽङ्गुलिसन्मुखाः॥२३॥ ऊर्ध्वरेखा मणेबन्धा-दूर्ध्वगा सा तु पञ्चधा । अङ्गुष्ठाऽऽश्रयणी सौख्य-राज्यलाभाय जायते ॥२४॥ राजा राजसदृक्षो वा तर्जनी गतयाऽनया । मध्यमां गतयाऽऽचार्यः ख्यातो राजाऽथ सैन्यपः ॥२५॥ अनामिकां प्रयान्त्यां तु सार्थवाहो महाधनः। कनिष्ठां गतया श्रेष्ठः सप्रतिष्ठो भवेद् ध्रुवम् ॥२६॥ यवैरङ्गुष्ठमध्यस्थै-विद्याख्यातिविभूतयः । शुक्लपक्षे तथा जन्म दक्षिणाङ्गुष्ठगैश्च तैः ॥२७॥ न स्त्रीस्त्यजति रक्ताऽक्षं नाऽर्थः कनकपिङ्गलम् । दीर्घबाहुं न चैश्वर्यं न मांसोपचितं सुखम् ॥२८॥ उरोविशालो धनधान्यभोगी शिरोविशालो नृपपुगवश्च । कटिविशालो बहुपुत्रदारो विशालपादैः सततं सुखी स्यात् ॥२९ अतिमेधाऽतिकीर्तिश्च विख्यातोऽतिमुखी तथा । अतिस्निग्धा च दृष्टिश्च स्तोकमायुर्विनिर्दिशेत् ॥३०॥ चक्षुःस्ने हेन सौभाग्यं दन्तस्नेहेन भोजनम् । वपुःस्नेहेन सौख्यं स्यात् पादस्नेहेन वाहनम् ॥३१॥ वामभागे तु नारीणां दक्षिणे पुरुषस्य च । विलोक्यं लक्षणं विज्ञैः पुंसस्त्वायुः पुरस्सरम् ॥३२॥ दु(पु)ष्टं यदेव देहे स्याल्लक्षणं चाऽप्यलक्षणम् । इतरद् बाध्यते तेन बलवत्फळदं भवेत् ॥३३॥ इति" FEAAAAAAAAAE Sain Educa t ional For Privale & Personal use only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्प ॥ ४८ ॥ व्यञ्जनानि-मपीतिलकादीनि तेषां यो गुणः- प्रशस्तता तेनोपपेतः- युक्तः । ( ' उप-अप - इत' शब्दत्रयस्य स्थाने 'शकन्धवा' दिदर्शनादुपपेत (इति भवति) अथवा सहजं लक्षणं, पश्चाद्भवं व्यञ्जनं । गुणाः- सौभाग्यादयः । (माणुम्माणपमाण) 'जलेनाऽतिभृते कुण्डे प्रमातव्य पुरुपनिवेशने यज्जलं निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं भवेत्तदा स पुमान् मानान्वितः कथ्यते इति मानं ।, 'तुलाऽऽरोपितथ यद्यर्द्धभारं तुलति तदोन्मानप्राप्तः । तत्र भारमानं त्वेवम् 'पट्सप पर्यवस्त्वेको गुजैका च यवैस्त्रिभिः । गुञ्जात्रयेण वल्लः स्याद् गद्याणे ते च षोडश ॥ १ ॥ पले च दश गद्याणा-स्तेषां सार्द्धशतं मणे । मणैर्दशभिरेका च घटिका कथिता बुधैः || २ || घटिभिर्दशभिस्ताभि-रेको भारः प्रकीर्त्तितः' इत्युन्मानं । 'स्वाऽङ्गुलेनाऽष्टोत्तरशताऽङ्गुलोच्छ्रयः प्रमाणप्राप्तः ' । यदुक्तम्–'अष्टेर्शतं पवतिः परिमाणं चतुरशीतिरिति पुंसाम् । उत्तम-सम- हीनानां स्वदेहसङ्ख्या स्वमानेन ॥ १ ॥ इदं त्वशेषपुरुषानाश्रित्य । तीर्थकृतस्तु विंशत्यधिकशताऽङ्गुलप्रमाणा भवेयुः । यतस्तेषां शीर्षे द्वादशाऽङ्गुलमुष्णीषं स्यादिति प्रमाणं । ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः । (पडिपुण्णसुजाय सव्वंग) प्रतिपूर्णानि अन्यूनानि - सुजातानि - सुनिष्पन्नानि सर्वाऽङ्गानि शिरःप्रभृतीनि यस्मिन् । तथाविधं ( सुंदरंगं ) सुंदरम् अङ्ग- शरीरं यस्य स तथा । (ससिसोमाकारं ) शशीवत् सौम्य आकारो यस्य तं । (कंलं) कान्तं - कमनीयम् । (पिअदंसणं) अत एव प्रियं द्रष्टृणां दर्शनं रूपं यस्य । (सुरुवं) अत एव सुरूपं - शोभनरूपम् । ( दारयं पयाहिसि) दारकं प्रजनिष्यसि ॥ ८ ॥ [ से वि अ णमि' त्यादितो 'भविस्सइ'ति यावत् ] Jain Educationmational किरणाव टीका व्या० ॥ ४८ www.library.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |४९॥ ASIAS ॐॐASSRIES (सेवि अणं दारए) तत्र-सोऽपि दारको णमित्यलङ्कारे । (उम्मुक्कबालभावे) उन्मुक्तबालभावः-जाताऽष्टवर्षः। (विण्णायपरिणयमेत्ते) विज्ञातं-विज्ञानं परिणतमात्रं यस्य स तथा। [क्वचित् 'विनयपरिणय'त्ति पाठस्तत्र विज्ञ एव विज्ञकः स चाऽसौ परिणतमात्रश्च-बुद्धयादिपरिणामवानेव विज्ञकपरिणतमात्रः] इह मात्रशब्दो बुद्धयादिपरिणामस्याऽभिन्नत्वख्यापनपरः। (जुव्वणगमणुप्पत्ते) यौवनमेव यौवनकमनुप्राप्तः। (रिउव्वेअ-जउव्वेअ-सामवेअ-अथव्वणवेअ) ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेद-अथर्वणवेद इत्यादिषु षष्टीबहुवचनलोपावेदानाम् इति दृश्यम् । (इतिहासपंचमाणं) इतिहासःपुराणं पञ्चमं येषां (निग्घंटुछट्ठाणं) निघण्टु:-नामसङ्ग्रहः षष्ठः येषां (संगोवंगाणं) अङ्गानि-शिक्षा-कल्प-व्याकरणछन्दो-ज्योति-निरुक्तयः। उपाङ्गानि-तदुक्तप्रपश्चनपराः प्रबन्धाः। (सरहस्साणं) ऐदम्पर्ययुक्तानां (चउण्हं वेआणं) चतुणां वेदानां (सारए) सारकः-अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः स्मारको वा-अन्येषां विस्मृतसूत्रादेः स्मारणात (पारए) पारगः-पर्यन्तगामी । [(वारए धारए) क्वचित्तत्र वारकः-अशुद्ध पाठनिषेधकः। धारक:-अधीतान् धाररितुं क्षमः।] (सडंगवी) षडङ्गवित्-शिक्षादिविचारकः । ज्ञानाऽर्थे तु पौनरुक्त्यं स्यात् । (सद्वितंत-विसारए) पष्ठिरस्तन्त्रिता अत्रेति-पष्ठितन्त्रं-कापिलीय शास्त्रं तत्र विशारदः । तच्चैवम् –'प्रधानाऽस्तित्वमेकत्व-मर्थवत्त्वमथान्यता। पाराऽयं च तथाऽनैक्यं वियोगो योग एव च ॥१॥ शेषवृत्तिरकर्तत्वं चूलिकाऽर्था दश स्मृताः। द्विपर्यायः पञ्चविधस्तथोक्ताऽऽनचतुष्टयः ॥२॥ कारणानामसामर्थ्य-मष्टाविंशतिधा मतम् । इति षष्टिपदार्थाना-मष्टभिः सह सिद्धिभिः ॥३॥ इति ||४१ For Privale & Personal use only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोकल्प 14011 1 ( संखाणे ) ति । सङ्कलित - व्यवकलित-स्कन्धे सुपरिनिष्ठित इति योगः । तच्च छायादिना नगगृहादिमानं । तथा'अर्द्ध तोये कर्दमे द्वादशांशः षष्ठो भागो वालुकायां निमग्नः । सार्द्धा हस्तो दृश्यते यस्य तस्य स्तम्भस्याऽऽशु ब्रूहि मानं विचिन्त्य ॥ १ ॥ ' स्तम्भो हस्ताः षट् इत्यादि । [ क्वचित् 'सिक्खाणे' ति पाठस्तत्र शिक्षाम् अणति - प्रतिपादयतीति शिक्षाणम् - आचारोपदेशकं शास्त्रं । तत्र षडङ्गविश्वमेवाssवेदयति] (सिक्खाकप्पे ) इत्यादि । शिक्षा च- अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रं कल्पश्च - यज्ञादिसामाचारीप्रतिपादकं शास्त्रं, शिक्षाकल्पं तत्र । (वागरणे) तत्र - व्याकरणे ऐन्द्र - पाणि- जैनेन्द्रादिलक्षणशास्त्रे (छंदे) छन्दसि -पद्यलक्षणनिरूपके। (निरुत्ते) निरुक्ते - पदभञ्जने (जोइसामयणे ) त्ति । "अयि गतौ" गत्यर्था ज्ञानार्था इति ज्योतिषाम् अयने - ग्रहादीनां ज्ञाने ज्योतिःशास्त्रे इत्यर्थः । ( अन्नेसु अ बहुसु) अन्येषु च बहुषु (बंभन्नएस सुपरिणिट्ठिए आवि भविस्सई) ब्राह्मण्येषु - वेदव्याख्यारूपेषु ब्राह्मणसम्वन्धिषु ब्राह्मणहि तेषु सुपरिनिष्ठितश्चाऽपि भविष्यति । [ क्वचित् तदनन्तरं 'परिव्वायएस' ति पाठस्तत्र परिव्राजकदर्शनप्रसिद्धेषु ] ( नए) नयेषु - आचारेषु न्यायशास्त्रेषु वेति भाव्यम् ॥९॥ ['तं उरालाणमि' त्यादितो 'अणुवूहइ' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र (तं उराला गं तुमे देवाणुप्पिए । सुमिणा दिट्ठा जाव आरुग्गतुट्ठि - दी हाउअमंगल्लकल्लाणकारगा णं तुमे देवाणुपिए ! सुमिणा दिट्ठत्तिकद्दु') तं - यस्मादेवं तस्मादुदारादि < यावत् आरोग्य-तुष्टि-दीर्घाssयु:- मङ्गलकल्याणकारका > विशेषणाः < देवानुप्रिये !> स्वप्नास्त्वया दृष्टा इति निगमनम् । ( इतिकट्टु ) ति इति भणित्वा (भुज्जो भुज्जो अणुवूहइ) भूयो भूयो अनुबृंहयति - अनुमोदयति ॥ १० ॥ . किरणावली टीका व्या० १ ॥ ५० ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARASSASALARIUS ['तएणमि' त्यादितो 'वयासी' ति यावत् सुगमम् ], (तए णं सा देवाणंदा माहणी) <तदा णं सा देवानन्दा ब्राह्मणी> (उसभदत्तस्स माहणस्स अंतिए) <ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य अन्तिके > (एअम8) < एनमर्थ> (सुच्चा निसम्म) श्रुत्वा निशम्य (हतुट्ठ जाव हिअया) हृष्टतुष्टा यावत् हर्षविसपत् हृदया (करयलपरिग्गहिअं दसनह') <करतलाभ्यां परिगृहीतमात्रं दशनखं > (सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु) (शिरसावर्त्तम् । मस्तके अञ्जलिं कृत्वा । > (उसभदत्तं माहणं) <ऋषभदत्तं ब्राह्मणम् । > (एवं वयासी) <एवमवादीत्> ॥ ११॥ ['एवमेअमि' त्यादितो 'विहरई' त्ति यावत् ] (एवमेअं' देवाणुप्पिआ!) तत्र-एतद् एवमिति पत्युर्वचने प्रत्ययाऽऽविष्करणम् रहे देवानुप्रिय !> एतदेव स्पष्टयति (तहमेयं देवाणुप्पिआ!) हे देवानुप्रिय ! तथैतद्यथा यूयं वदथेत्यनेनाऽन्वयतः तद्वचने सत्यतोक्ता । (इच्छिअमेअं देवाणुष्पिआ!) हे देवानुप्रिय ! अवितथमेतदनेन तद्वयतिरेकाऽभावोऽसूचि । (पडिच्छि अमेअं देवाणुप्पिआ!) रहे देवानुप्रिय!> एतद् असन्दिग्धमनेन सन्देहाऽभावः। (इच्छिअपडिच्छि अमेअं देवाणुपिआ!) अत एव <हे देवानुप्रिय !> इष्टम् ईप्सितं वाऽस्माकमेतत् । (पडिच्छिअमेअं देवाणुप्पिआ!) <हे देवानुप्रिय !> प्रतीष्टं प्रतीप्सितं वा युष्मन्मुखात्पतदवगृहीतम् । (इच्छिअपडिच्छिअमेअं देवाणुप्आि!) < हे देवानुप्रिय ! इष्ट-प्रतीष्टमेतद् > धर्मद्वययोगोऽत्यन्ताऽऽदरख्यापकः । (सच्चे णं एस अट्टे) सद्भ्यो हितः सत्यः-प्रणिहितोऽयमर्थः । (से जहे णं तुम्भे वयह त्ति कठु) < यथा यूयं वदथ > इति कृत्वा-इति भणित्वा (ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ) < तान् | ॥५१॥ in Edi national For Privale & Personal use only brary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥५२॥ स्वप्नान् सम्यक प्रतिच्छति प्रतीच्छथ> (उसमदत्तेणं माहणेणं सद्धि) <ऋषभदत्तेन ब्राह्मणेन साध> (उरालाई किरणावरु माणुस्सगाई) <प्रशस्तान् मानुष्यकान् > (भोगभोगाई भुजमाणी विहरह।) भोगार्हो भोगा भोगभोगास्तान् , टीका व्या० प्राकृत्वानपुंसकत्वं, भुञ्जाना विहरति-तिष्ठति ॥१३॥ ['तेणं कालेणमि' त्यादितो 'विहरइ' त्ति पर्यन्तम् ] ('तेणं कालेणं तेणं समएणं) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये ।> (सक्के)तत्र-शकस्य-आसनविशेषस्याऽधिष्ठाता। (देविंदे) देवानां मध्ये इन्दनात्-परमैश्वर्ययुक्तत्वाद्देवेन्द्राः। (देवराया) देवेषु राजा-कान्त्यादिभिर्गुणैरधिकं राजमानत्वात् । ।ला (वजपाणी) वज्रं पाणावस्येति वज्रपाणिः। (पुरंदरे) असुरादिपुराणां दारणात्पुरन्दरः।(सयकऊ) शतं क्रतूनां-कार्तिकश्रेष्ठीभवाऽपेक्षयाऽभिग्रहविशेषाणां श्राद्धपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा यस्याऽसौ शतकतुः। कार्तिकश्रेष्ठीभवो यथा-पृथ्वीभूषणनाम्नि नगरे प्रजापालो नाम भूपालः । श्रेष्ठी च कार्तिकनामा महद्धिको राजमान्यः । तेन श्राद्धप्रतिमानां शतं कृतं । | ततः 'शतक्रतु' रिति ख्यातिः। एकदा च गैरिकनामा परिव्राजको मासोपवासी तत्राऽऽगात् । एकं कार्तिकं विना सर्वोऽपि | तनिवासीलोकस्तदाऽऽहतो जातः एकदाऽवगतकार्तिकवृत्तान्तः सः सकोपो भोजननिमित्तं निमन्त्रितो राज्ञे जगाद-"यदि श्रेष्ठी परिवेषयति तदा तनिकेतने समुपैमी" ति श्रुत्वा राजा श्रेष्ठिसदने गत्वा तं. भुजे धृत्वाऽभ्यधात् “मद्गेहे गैरिकं भोजय" । श्रेष्ठी जगाद-त्वदाज्ञाविधायित्वाद्विधास्येऽहमिति । तदनु श्रेष्ठिना भोज्यमानो गैरिकोऽपि 'धृष्टोऽसी'त्यङ्गुलीचालनचेष्टां चकार । दध्यौ च श्रेष्ठी-यदि प्रागेव प्रावजिष्यत-तदिदं नाऽभविष्यदिति विचिन्त्याऽष्टश्रेष्ठिसहस्रेण समं PRESCREECRESSESEX Jain Educatiu For Private & Personal use only library.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |५३॥ USAREERSALADS SSESS श्रेष्ठी श्रीमुनिसुव्रतस्वाम्यन्तिके प्रव्रज्याऽधीतद्वादशाङ्गीको द्वादशाऽब्दैः सौधर्मेन्द्रो बभूव । गैरिकोऽपि निजकधर्मतस्तद्वाहनमैरावणाख्यं जातः । ततः कार्तिकोऽयमिति ज्ञात्वा पलायमानं तं धृत्वा शक्रोऽधिरूढवान् । स च शक्रमापनार्थ शीर्षद्वयं विचकृवान् । शक्रोऽपि द्विमूर्तिकः । पुनरपि स चतुःशीर्षः। इन्द्रोऽपि चतुर्मुत्तिरित्यादि यावदवधिना विज्ञाय शक्रेण तर्जितो भीतः सन् तदुचितमेव रूपं विहितवानिति । इति कार्तिकश्रेष्ठी कथा ।। (सहस्सक्खे) सहस्राक्ष:-पश्चमन्त्रिशताऽक्षणामिन्द्रकार्यप्रवृत्तत्वात् । (मघवं) मघा-महामेघा देव विशेषा वा वशे सन्त्यस्य स मघवा । (पागसासणे) पाका:-बलवन्तो वैरिणस्तान् पाको वा-दानवविशेषस्तं शास्तीति पाकशासनः । (दाहिणड्ढलोगाहिबई) दक्षिणाऽद्धलोकस्याऽधिपतिः मेरोदक्षिणतः सर्वस्याऽपि तदधीनत्वात् । ( एरावणवाहणे) ऐरावणः-गजरूपः सुरविशेषो वाहनं यस्य । (सुरिंदे) सुराणामिन्द्रः-आल्हादकः । अथवा शोभना रा-दीप्तिः येषां ते सुराः तेषु इन्द्रः-श्रेष्ठः। (बत्तीसविमाणसयसहस्साहिवई) <द्वात्रिंशद्विमानानां> शतसहस्राः-लक्षाः तेषामधिपतिः । ( अरयंबरवत्थधरे ) अरजांसि-निर्मलानि यानि अम्बरवस्त्राणि-स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पवसनानि तानि धरतीति । (आल इअमालमउडे) आलगितौ-यथास्थाने निवेशितौ मालामुकुटौ येन । अथा आलिङ्गितमालं मुकुटं यस्य । (नवहेमचारचित्तचंचल कुंडलविलहिज्जमाणगल्ले) नाभ्यामिव-प्रत्यग्राभ्यामिव हेम्नः सत्काभ्यां चारुभ्यां चित्राभ्यां चञ्चलाभ्याम्-इतस्ततश्चलनपराभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ गल्लौ यस्य । (महड्डीए) महती ऋद्धि:-छत्रादिराजचिह्नरूपा यस्य । (महज्जुईए) महती द्युतिः-आभरणादिसम्बन्धिनी, युतिर्वा उचितेष्टवस्तुघटनारूपा यस्य । (महाबले) Pl॥ ५३॥ Jain EducM For Private & Personal use only library.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीकल्प टीका ५४ RERESENSURANUSSORS महाबलः (महायसे) महायशाः (महागुंभावे) महानुभावः-महिमा यस्य । (महासुक्खे) < महासौख्य:> (भासुरबोंदी) किरणावली भासुरा-दीप्तिमती बोन्दि-वपुर्यस्य । (पलंबवणमालधरे) प्रलम्बा वनमाला-भूषणविशेषः पादान्तलम्बिनी पञ्चवर्ण-ला व्या०१ पुष्पमाला वा यस्य । (सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसएविमाणे सुहम्माए सभाए सकसि सिहासणंसि) <सौधर्मे कल्पे सौधर्माऽवतंसके विमाने सुधर्मायां सभायां शक्रसिंहासने> (से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणाऽऽवाससयसाहस्तीणं) स-इन्द्रःणं-वाक्यालङ्कारे तत्र-देवलोके द्वात्रिंशद विमानाऽऽवासा-विमाना एव । तेषां लक्षाणां । स्त्रीत्वं चाऽऽपत्वात् । (चउरासीए सामाणिअसाहस्सोणं) चतुरशीतिः समानया-इन्द्रतुल्यया--शक्ति-आयु:ज्ञानादिकया ऋद्धया चरन्तीति सामानिकाः तेषां सहस्राणां (तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं) त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशाःमहत्तरकल्पाः पूज्यस्थानीया मन्त्रिकल्पा वा तेषां (चउण्हं लोगपालाणं) चत्वारो लोकपाला:-'सोम-यम-वरुणकुबेरा' दिक्पालननियुक्ताः <तेषां> 1 (अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणां) अष्टौ अग्रमहिष्यः-प्रधानपल्यः। ताश्च-'पद्मा शिवा शची अज्जू अमला अप्सरा नवमिका रोहिण्याख्याः' तेषां सपरिवाराणां (तिण्हं परिसाणं) तिस्रः पर्षदो-बाह्या मध्यमाऽभ्यन्तराः जघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिवारविशेषभूताः (सत्तण्हं अणिआणं) सप्तानाम् अनीकानां-सैन्यानां । तानि च-गंधव-नट्ट-हय-गय-रह-भड-अणिआ मुराहिवाण भवे । सत्तममणि वसहा महिसा य अहोनिवासीणं' (बृ० सं० गा० ५०) (सत्तण्हं अणिआहिवईणं) सप्तानामनीकाऽधिपतीनां (चउण्हं चउरासीए आयरक्खदेवसाहस्सीण) चतस्त्रः चतुरशीतयः चतुर्दिशं भावादङ्गरक्षकाणां षट्त्रिंशत्सहस्राऽधिकलक्षत्रयमिति । (अण्णेसिं च M॥ ५४॥ ५ aditinternational For Private & Personal use only selibrary.org Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५॥ ४२२४१९४२२५८२४२२४५२४२४२ बहणं सोहम्मकप्पवासीणं बेमाणिआणं देवाणं देवीण घ) अन्येषां च बहूनां सौधर्मकल्पवासिनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च (आहेवच्चं) इत्यादि । आधिपत्यम् -अधिपतेः कर्म-रक्षा इत्यर्थः । एतच सामान्यत आरक्षकमात्रेणाऽपि क्रियते । अत आह-(पोरेवच्चं) पुरोवयं-सर्वेषामग्रेसरत्वं । तच्च स्वामित्वमन्तरेणाऽपि नायकनियुक्तगृहचिन्तकनरवत् स्यादत आह-(सामित्तं) स्वामित्व-नायकत्वं । तत्तु पोषकत्वं विनाऽपि मृगयूथाधिपते रिव, भवेदित्याह-(भट्टितं) भर्तृत्व-पोषकत्वं । (महत्तरगत्तं) महत्तरकत्वं-गुरुतरतं तदाऽऽज्ञाविकलस्याऽपि स्वदासीवर्ग प्रति वणिज इव स्यादित्याह- आणाइसरसेणावचं) आज्ञया ईश्वर आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः ततो Im विशेषणकर्मधारये, तस्य कर्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं-स्वसैन्यं प्रति अदभुतमाज्ञाप्राधान्यमित्यर्थः । (कारेमाणे) कारयन् नियुकैः सह (पालेमाणे) पालयन् स्वयमेव । (महयाहये ) त्यादि ( महया ) महता, रवेणेति योगः । (अयं) त्ति। आख्यानकप्रतिबद्धम् अहतं वाऽव्यवच्छिन्न (नगोअ) यन्नाटयं तत्र यद्गीतं (वाईअ) यानि चला वादितानि (तंतीतलतालतुडिअघणमुइंग) तन्त्रीतलतालत्रुटितानि । तत्र तन्त्री-वीणा तलतालाश्च-हस्तास्फोटरवाः । यद्वा-तलाः-हस्ता ताला:-कंसिका । त्रुटितानि-शेषतूर्याणि । यश्च घनमृदङ्गः-मेघवनिमईलः। (पडपडहवाइअरवेणं) यच्च पटुपटहवादितमिति कर्मधारयगर्भो द्वन्द्वः। तदनु तेषां यो वस्तेन (दिव्वाई भोग भोगाई) दिव्यान्-देवजनोचितान् भोगभोगान्-अतिशयवोगान् । नपुंसकता च प्राकृतत्वात् (भुजमाणे विहरइ) भुञ्जन विहरति-आस्ते ॥१३॥ ॥५५॥ Sain Ede national Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASALACE किरणावली टीका व्या०१ ॥५६॥ xi ['इमं च णमि' त्यादेः 'एवं वयासी' ति पर्यन्तम् ] । (इमं च णं केवलकप्प) तत्र इमं केवल:-परिपूर्णः स चाऽसौ कल्पश्च-कार्यकरणसमर्थः । अथवा परिपूर्णतासाधात | केवलकल्पः-केवलज्ञानसदृशः। (जंबुद्दीवं दीव) जम्बूद्वीपं द्वीपं (विउलेणं ओहिणा) विपुलेन अवधिना (आभोएमाणे आभोएमाणे) आभोगयन्-पश्यन् (विहरह) विहरति-आस्ते (तत्थ णं समणं भगवं महावीर) तत्र श्रमणं भगवन्तं । महावीरं (जंबुद्दीबे दीवे भारहे वासे)जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे (दाहिणभरहे) दक्षिणार्द्धभरते (माहणकुंडगामे नयरे) ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे (उसभदत्तस्स माहणस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य (कोडालसगुत्तस्स) कोडालसगोत्रस्य (भारिआए देवाणंदाए माहणीए) भार्यायाः देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः 8 (कुच्छिसि) कुक्षौ (गभत्ताए वक्कंत) गर्भतया व्युत्क्रान्तं (पासइ) पश्यति, (पासित्ता) दृष्ट्वा (हतुडचित्त माणदिए) हृष्टतुष्टचित्तेन आनन्दितः (नंदिए) नन्दितः-समृद्धितां प्राप्तः (परमानंदिए) परमानन्दित:-अतीव समृद्धिभावं गतः (पीइमणे) प्रीतिमनाः (परमसोमणस्सिए) परमसौमनस्थितः (हरिसवसविसप्पमाणहिअए) हर्षवशेन विसर्पद् हृदयः (धाराहयकदंबसुरहिकुसुमं) धाराहतं यत्कदम्बस्य-नीपस्य सुरभिकुसुमं तदिव (चंचुमालइअ) त्ति पुलकितः। अत एव (उसविअरोमकूवे) उच्छ्रितरोमकूपश्च यः स तथा । (विकसिअवरकमलाणणनयणे) विकसितानिभूतलाऽवतरणोद्भूतप्रभूतप्रमोदादुत्फुल्लानि वरकमलवदाननं च नयने च यस्य स तथा । (पयलिअ) प्रचलितानि भगवद्गभोत्पत्तिदर्शनजनितसम्भ्रमाऽतिरेकात कम्पितानि ['पलंबिअत्ति पाठे तु प्रकर्षेण लम्बितानि] (वरकडग) वराणि Jain Educ a ti For Privale & Personal Use Only Dibrary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥५७॥ ट्रा प्रधानानि कटकानि च-कङ्कणानि । (तुडिय) त्रुटिताश्च-बाहुरक्षकाः (केजर) केयुराणि च-अङ्गदानि बाहुमूलभूषणानि । है। (मउड) मुकुटं च-किरीट (कुंडल) कुण्डले च-कर्णाऽऽभरणे यस्य स तथा । (हारविरायंतवच्छे) हारविराजद्वक्षाः 21 तदनु पदद्वयस्य कर्मधारयः (पालंब) प्रालम्बः-झुम्बनकं मुक्तामयं (पलंबमाण) प्रलम्बमानं-लम्बमानं (घोलंतभूसणधरे) घोलच्च-दोलायमानं यद्भूषणम्-आभरणं तद् धारयति यः स तथा। (ससंभमं) ससम्भ्रम- सादरं (तुरिअं) त्वरितसौत्सुक्यं (चवलं) चपलं-वेगवच्च यथा स्यात्तथा। (सुरिंदे) सुरेन्द्रः (सीहासणाओ अब्भुढेइ) सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति (अब्भुढेत्ता) अभ्युत्थाय (पायपीढाओ) पादपीठतः (पच्चोरुहइ) प्रत्यवरोहति-अवतरतीत्यर्थः। (पच्चोरुहित्ता) प्रत्यवतीय (वेरुलिअवरिट्ठरिट्ठअंजण) वैडूर्येण मध्यवर्तिना वरिष्ठे-प्रधाने रिष्ठाऽञ्जने-रत्नविशेषौ ययोस्ते तथा । (निउणोविअ) निपुणेन-कुशलेन शिल्पिना परिकर्मिते । अत एव (मिसिमिसिंत) त्ति । चिकिचिकायमाने । (मणिरयणमंडियाओ) मणिभिः-चन्द्रकान्तादिभिः रत्नश्च-कर्केतनादिभिः मण्डिते ये ते तथा । ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । एवं विधे (पाउआओ) पादुके (ओमुअइ) अवमुञ्चति । (ओमुइत्ता) अवमुच्य (एगसाडिअ) ति । एकखण्डशाटकमयं (उत्तरासंगं करेइ) उत्तरासङ्ग-बैकक्षं करोति (करित्ता) कृत्वा च (अंजलिमउलिअग्गहत्थे) अञ्जलिना-अञ्जलिकरणतो 6. मुकुलितौ-मुकुलाऽऽकृती कृतावग्रहस्तौ येन स तथा । (तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ) तीर्थकराऽभिमुखं | सप्ताऽष्टपदानि अनुगच्छति (अणुगच्छित्ता वामं जानूं) अनुगम्य वाम जानुं (अंचेई) ति आकुश्चयति-उत्पाटयति (अंचित्ता) आकुश्चय (दाहिणं जाणुं धरणितलंसि) दक्षिणं जानुं धरणितले (साहटु) ति संहृत्य-निवेश्य RSS मा॥५७॥ Sain Educat For Private & Personal use only Abrary.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प करणावलं टीका व्या०१ ॥५८॥ * २२२ रनक (तिक्खुत्तो) त्रिकृत्व:-त्रीन वारान् (मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेइ) मस्तकं धरणितले न्यस्यति (निवेसित्ता) न्यस्य (ईसिं पच्चुन्नमइ) ईषन्-मनाय् प्रत्युन्नमति-अवनतत्वं मुश्चति (पच्चुन्नमित्ता) अवनतत्वं मुक्त्वा (कडगतुडिअभियाओ भुआओ) कटकानि-कङ्कणानि त्रुटिताश्च-वाहुरक्षकास्ताभिः स्तम्भिते भुजे (साहरेइ)त्ति ऊर्ध्वं नयति-स्तम्भिकोपमे करोतीतिभावः। (साहरित्ता) ऊर्य नीत्वा (करयलपरिग्गहिंअं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी) द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्याऽन्तरिताऽङ्गुलिकयोः सम्पुटरूपतया यदेकत्र मीलनं सोऽञ्जलिस्तं करतलाभ्यां परिगृहीत:-निष्पादितस्तं <दशनख> आवर्तनम्-आवतः शिरस्याव? यस्य तम् । अलुक्समासश्चात्र, अत एव मस्तके कृत्वा। अथवा शिरसाऽप्राप्तम्-अस्पृष्टमेवमवादीत् ॥१४॥ नमुत्थु णमि' त्यादितः 'समुप्पजित्थे ति यावत् ] तत्र (नमुन्थु णं) नमोऽस्तु इति सर्वत्र सम्बध्यते । सर्वत्र ‘णमिति वाक्यालङ्कारे । (अरहंताणं) चतुर्थ्यर्थे षष्ठी च प्राकृतत्वात् । ततोऽहन्ति शक्रादिकृतां पूजामित्यईन्तः तेभ्यो नम इति बहुवचनमद्वैतोच्छेदेन बहुत्वख्यापनार्थ, तथा कर्माऽरिहननात् (अरिहंताणं)। 'रुह जन्मनि' इति धातोः कर्मबीजाऽभावेन भवेऽप्ररोहणाद् (अरुहंताणं) इति पाठत्रयम् । अथ नामादि चतुर्विधानप्यर्हतः सामान्यतो नमस्कृत्य विशेषतो भावाऽर्हतः पृथग् नमस्कर्तुमाह-(भगवंताणं) इति । "भगोऽर्क-ज्ञान-माहात्म्य-यशो-चैराग्य-मुक्तिषु। रूप-वीर्य-प्रयत्ने-च्छा-श्री-धम्मै -श्वर्य-योनिषु ॥" (अभि०) इत्यर्कयोनिवर्जद्वादशाऽर्थभगयुक्तेभ्यः। तत्र यशस्वी-शाश्वतवैरिणामहि-मयूरादीनां वैरोपशमनात् । वैराग्यवान् - SHRA I n५८॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५९॥ “यदा मरुन्नरेन्द्रश्री-स्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिनाम विरतवं तदाऽपि ते ॥४॥" (वीतरागस्तवः प्र. १२) इत्युक्तेः । वीर्यवान्--अपरिमितबलवत्त्वात् । प्रयत्न:-तपःकर्मादावुत्साहः । इच्छा-भवाजन्तूनामुदिधीर्षा । श्रीःचतुस्त्रिंशदतिशयरूपा। ऐश्वर्यम्-अनेकेन्द्रादिदेवकोटिसेव्यत्वं । ज्ञान-माहात्म्य-मुक्ति-रूप-धर्मवचं च प्रतीतमेव । (आइगराणं) इत्यादि आदिकरेभ्यः-श्रुतधर्मस्याऽर्थाऽपेक्षया नित्यत्वेऽपि शब्दाऽपेक्षया स्वस्वतीर्थेष्वादिकरणात् (तित्थयराणं) तीर्थकरेभ्यः-तीर्थ-'सङ्घ आद्यगणधरो वा' तत्करणात् (सयंसंबुद्धाणं) स्वयं सम्बुद्धेभ्यः-स्वयमेव | परोपदेशं विनैव सम्यग्तचाऽवबोधात् । कुत एवं ? यतः (पुरिसुत्तमाणं) पुरुषोत्तमेभ्यः-भगवन्तः संसारेऽपि वसन्तः सन्तः सदा पराऽर्थकृतो गौणीभूतस्वार्था उचितक्रियोपेता अन्याः कृतज्ञा देवगुरुमहामानिनो गम्भीराऽऽशया इत्यादि गुणगणाऽन्धितत्वात् । उतमत्वमेवोपमात्र येणाह-(पुरिससोहाणं) पुरुषसिंहेभ्य पुरुषाः सन्तः सिंहा || इव कर्मारिष्षतिक्रूरत्वात् परिपहेषु साऽवज्ञत्वात् उपसर्गेभ्यो निर्भयत्वाच्च पुरुषसिंहास्तेभ्यः। (पुरिसवर-पुंडरीआणं) पुरुषवरपुण्डरीकेभ्यः पुण्डरीकाणि च धवल कमलानि वराणि च तानि च वरपुण्डरीकाणि पुरुषा वरपुण्डरी-|| काणीव पुरुषवरपुण्डरीकाणि तेभ्यः । धवलकमलसदृशाश्च भगवन्तः कर्मपङ्के सम्भूता अपि दिव्यभोगजलेन | वर्दिताः त्यक्त्वा चोभयं जगल्लक्ष्मोनियासास्तियग्नराऽमरसेव्याश्च पुण्डरीकवर्द्धन्ते । धवलता चाऽमीषां सदाऽशुभमलरहितत्वादिति । एवं (पुरिसवरगंधहस्थीगं) पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यः-'ईति-मारि-दुर्भिक्ष-परचक्रादि' क्षुद्रगजानां भगवद्विहारपवनगन्धादेव भङ्गात् । न चाऽमी पुरुषाणामेवोचमाः किन्तु सकलजीवलोकस्यापि इत्यत (लोगुत्तमाणं) JainEdur For Private & Personal use only wonloliary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण। श्रीकल्प-| ॥६ ॥ ! टीक व्या लोकोत्तमेभ्यो लोकस्य-भव्यसङ्घातस्य उत्तमाः-चतुस्विंदतिशयोपेतत्वात् लोकोत्तमत्वमेवाह-( लोगनाहाणं) लोकनाथेभ्यः लोकस्य-भव्यलोकस्य नाथा:-योगक्षेमकारिणः । तत्राऽप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादेलम्भकत्वात् योगकारित्वं तस्यैव च प्राप्तस्य तत्तदुपद्वाऽभावाऽऽपादनेन पालकत्वात् क्षेमकारित्वमिति तेभ्यः। ताचिकं च नाथत्वं कथम् ? इत्याह(लोगहिआणं) लोकहितेभ्यः लोकस्य--एकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य पश्चाऽस्तिकायाऽऽत्मकस्य वा तद्रक्षणप्रकर्षोंपदेशेन सम्यग् प्ररूपणतश्च हिता-अनुकूलवृत्तयस्तेभ्यः । नाथत्वं च भव्यानां यथाऽवस्थितवस्तुप्रदीपनेन स्यादित्याह(लोगपईवाणं) लोकप्रदीपेभ्यः लोकस्य-देशनायोग्यविशिष्टतिर्यग्नराऽमररूपस्योपदेशप्रभाभिमिथ्यात्वध्वान्तविध्वंसनेन | पदार्थसार्थप्रकृष्टप्रकाशकत्वात् प्रदीपा इव प्रदीपा इति तेभ्यः । (लोगपज्जोअगराणं) लोकप्रद्योतकरेभ्यः लोकस्यलोकाऽलोकरूपस्य समस्तवस्त्वाऽऽत्मकस्य केवलाऽऽलोकपूर्वकप्रवचनमरीचिमण्डलप्रवर्तनेन प्रद्योत-प्रकाशं कुर्वन्तीत्येवंशीला । यद्वा-लोकस्य-उत्कृष्टमतेः गणधरादिभव्यसत्वस्य प्रद्योतं-विशिष्टज्ञानशक्तिं तत्क्षणद्वादशाङ्गीविरचनाऽनुमेयां कुर्वन्तीति लोकप्रद्योतकरास्तेभ्यः । अनयोश्च पूर्वोक्तयोविशेषणयोद्रष्टदृश्यलोककृतो भेद इति । (अभयदयाणं) अभयदयेभ्यः सप्तभयहरणादभयं दयन्त इत्यभयदाः । सप्तभयस्थानानि त्विमानि "इह-परलोका-ऽऽदाणमकम्हा-आजीवि-मरण-मसिलोगा। सत्त य भयठाणाई जिणेहिं सिद्धंतभणिआई ॥" (प्रवचनसारो० १३२०)। अथवा प्राणाऽन्तिकोपसर्गकारिष्वपि न भयं दयन्ते । अथवा अभया-सर्वप्राणिभयत्यागवती दया-कृपा येषां ते तथा तेभ्यः। अथ च यथाऽनर्थत्यागकारिणोऽमो तथाऽर्थप्रापका अपीत्याह-(चक्खुद्याण) ॥ ६. Jain Educ UIN l ational For Privale & Personal use only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरक श्रीकल्प ॥६०॥ चक्षुईयेभ्यः-सुख चक्षु:-गुमाऽशुमाऽर्थविभाोपदर्शकसात् श्रुतज्ञानं तदयन्त इति चक्षुर्दयास्तेभ्यः। यथाहि- किल|| किरणावली लोके कान्नारगतानां चौरैश्चक्षुर्वद्धा विलुप्तधनानां जनानां कश्चित् चक्षुर्दस्वेप्सितमार्गप्रदर्शनेनोपकारी स्यादेवमेतेऽपि टीका व्या०१ भावन्तः संसार कान्तारानानां कुमासनया सज्ञानचक्षुराच्छाद्य रागादिचौलुिप्तधर्मधनानां श्रुतवक्षुर्दचा निर्वाणमार्ग प्रापयन्त उपकारिगो भवेयुरिति म दर्शयन्नाह-(मग्गदगाणार्गदयेभ्यः मार्ग-सम्यग्दर्शनादिकं मुक्तिपथं दयन्त इति मार्गदयास्तेभ्यः । अथ यथा चक्षुरुवाटय दर्शयित्वा च मार्ग तन्निरुपद्रवमास्पदं प्रापयन् परमोपकारी स्यादेवमेतेऽपीत्याह'सरगदयागं) शरगइयेभ्यः परणं-चागं नानाविधोपनो पद्रुतानां रक्षाऽऽस्पदं निर्वाणरूपं तद्दयन्त इति शरगदयास्तेभ्यः। यथाहि-ठोके चक्षुरादिदानादास्थानो नीवित द इत्यनिधीयो तथैोऽप्रीत्याइ-(जीवदयार्ण) जीवदयेभ्यः जीवन जीयःभावप्राणधारगम् अनरणं तं दयन इति । यद्वा-जीवेषु दया येषामिति जीवदयास्तेभ्यः। [क्वचिद् 'बोहियाणमिति पाठस्तत्र बोधिः-तत्वार्थरुचिरूपा जिनोक्तपाऽवाप्जिस्ता दयन्त इति अनन्तरो कविशेषग कदम्बकं च भगवतां धर्माऽऽत्मकतया सम्पन्नमित्येतदेवाह-(धम्मदयाण) धर्मदयेभ्यः धर्म-देशसर्व चारित्ररूपं दयन्त इति धर्मदयास्तेभ्यः । यथा च धर्मदयत्वं तथाह-(धन्न तयाण) धर्मदेशोभ्यः धर्म-नों पकारं यथा भव्यमवन्ध्यदेशनातो देशयन्तीति धर्मदेशका तेभ्यः। धर्मदेशकसं चैते धर्मस्वामित्वे सति न पुनर्नवदिति दर्शयत्राह-(धम्मनायगाणं) धर्मनायकेभ्यः धर्मस्य Lain Education a l For Private & Personal use only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |॥६०॥ क्षायिकज्ञानादेसदशीकारतत्फलप्रकर्ष भागाचनायकास्तेभ्यः। (धम्मसारहीण) धर्मसारथिभ्यः-धर्मरथस्य सारथय इव । यथा च किल सारथी रथं रथिकमांश्च सम्यक् प्रवर्तयति रक्षति च । एवं भगवन्तोऽपि संयमाऽऽत्म-प्रवचनाख्यानां चा रेवधर्मा 5ङ्गानां रक्षोपदेशदानादिना धर्म सारथयः स्युः । धर्मसारथिकतायां सम्प्रदायस्त्वेवम्-'एकदा श्रीवीरप्रभुः पृथिव्यां विहरन राजगृह पुराद् बहिरुद्याने समसः । तत्र च श्रेणिकधारिण्योः मेघकुमारनामा नन्दनश्चन्दनप्रतिमया प्रभोगिरा संसाराद्विरतोऽटी प्रियाः परित्यज्य प्रवजितः। प्रभुगा च ग्रहगाऽऽ सेवनादिशिक्षाऽर्थ स्थविराणामतिः । तत्र च निर्गच्छदागर उदने कवाचं यमचर गप्रपा नरेणुगुण्डित गात्रस्तस्यां रजन्यां क्षगमात्रनपि निद्रामप्राप्नुवन् 'क्व मे सुखाऽऽवासे कुसुमशय्याशयनं ? क्य चाऽस्यां दुःखाऽऽवासवसतौ भूत्रस्तरे लुठनम् ? इति सदृश्येनोपमय नित्थं कदर्थनां सोहुमशकोऽहमिति | प्रातः प्रभुमारय पुनरपि गृहि भावमाश्रयिष्ये इति ध्यात्वोद्गते सूर्ये प्रभोरन्तिकमागत्य प्रभुं प्रणतः । प्रभुगा च प्रथमत एवाऽम तिरस्कारिया वाण्या वादिनः । हे वत्स ! निर्गच्छदागच्छत्साधुभिट्टितोऽपि किं दुर्ध्यातवान् ? । यतः 'को चकवटिरिद्धिं चइडं दासत्तगं समभिलसइ । को वरस्य गाई मोर्चे परिगिण्हइ उपलखंडाई ॥१८॥ नेरइयाण वि दुक्ख झिज्झइ कालेग किं पुण नराणं । ता न चिरं तुह होही दुक्खमिणं मा समुब्धियम् ॥१९॥ जी जलबिदसमें संपतिओ तरंगलोलाओ। सुविणयसमं च पेमें जं नागपु तं करि जासु ॥४४॥ - - म For Private & Personal use only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६२॥ १६ क. कि.६ वरमग्गिम्म पवेसो वरं च विसुद्वेण कम्मुणा मरणं । मा गहियव्त्रयभंगो मा जीअं खलियसीलस्स ॥ २० ॥" (संबोधसित्तरि वैराग्यशतक ४४ ) इत्यादिकमुपदिश्य भगवानेव प्राग्भवौ स्मारयति । " हे मेघ ! तावकीनावेव प्राग्भवौ श्रवणगोचरीकुरु यत्त्वं साम्प्रतीनादितो भवात्तृतीयभवे वैतादथभूमौ श्वेतः परदः सहस्रहस्तिनीशः सुमेरुप्रभनामा हस्त्यभूः । अन्यदा च ग्रीष्मे दवाद्भीतः हस्तिनी: जिवाद्विहाय तृषितो धावमानः पङ्किलमेकं सरः प्राविशत्तत्र चाऽप्राप्तपयाः पङ्के एवं निमग्नः ॥ प्रत्यर्थिदन्तिना दन्ताभ्यां विद्धो महाव्यथां सहमानः सप्त दिनान्यस्थाः । एवं विंशत्युत्तरशतमायुः परिपाल्य मृत्वा च arrant a stratशतनायको रक्तश्चतुर्दन्तो दन्ती समुत्पेदिवान् । एकदा च तथैव दवं वीक्ष्य जातजातिस्मृतिः वर्षारात्राऽऽदिमध्यान्ते सपरिवारः समूलं वल्ल्याद्युन्मूल्याssयोजनमानं स्थण्डिलं निर्मितवान् । अन्यदा दवाद्भीतः सन् प्रागुक्ते, सत्त्वसङ्कुले स्थण्डिले गत्वा सत्वरं प्रविष्टः संलीनाऽङ्गः स्थितोऽपि गात्रकण्डूयनेच्छ्या पादमेकमुत्क्षिप्तवान् । तत्र भूम्यामन्यत्राऽनवाप्ताऽवकाशः शशकः प्राविशत् । वपुः कण्डूयित्वा पादमधो मुञ्चन् शशकमालोक्य तदनुकम्पया सशङ्कः सार्द्धदिनद्वयं तदवस्थ एव स्थितवान् । शान्ते च दवे प्रचलिते शशके गिरेः कूटमिव त्वं भूमावपतः । ततो दिनत्रयं क्षुत्तस्वाधितोऽपि कृपापरः शतमेकमन्दानामायुः परिपाल्याsत्र श्रेणिकधारिण्योः पुत्रत्वेनोत्पन्नः । " तदानीं त्वज्ञेनाऽपि त्वया कृपापरतया मनागपि व्यथा नाऽगण्यत । इदानीं तु जगद्वन्द्यैः साधुभिर्घटयमानोऽपि दूयसे ? " स्वयुक्तं श्रुत्वा स्मृत्वा च पूर्वभव पुनरायातसंवेगः प्रभु प्रणम्याऽभ्यधात् - "हे वीर ! चिरं जीयाः । यदेवं मामुत्पथप्रस्थितं रथ्यौ सुसारथिरिव पुनः पन्थानयामानीतवान् । अतःप्रभृति प्रभ्रूणाममीषां पादरजोऽपि वन्धं मे | आस्तामन्यत्, नेत्रे विमुच्य शरीरमपि व्युत्सृष्टं । कुर्वतां Jain Educational ॥६१॥ brary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प सट्टादिकं शरीरे न मनागपि दुष्याम्यहमित्यत्राऽर्थेऽभिग्रहो भवतु" इत्येवं स्थिरीकृतो मेघस्तीनं तपस्तप्त्या मासिकी च संलेखनां कृत्वा विजयविमाने देवोऽजनि । ततश्च्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति । तदेवं भगवन्तो धर्मसारथयः ॥ इति श्रीमेघकुमारनिदर्शनम् ॥ किरणावली टीका व्या०१ ॥६२॥ REKARA%AKAA-%% इति श्रीजैनशासनसौधस्तम्भायमान-महामहोपाध्याय-श्रीधर्मसागरगणिवरविरचितायां कल्पकिरणावल्यां प्रथमं व्याख्यानं समाप्तम् BREARSHISAREERA ॥६२॥ For Privale & Personal use only wwwr.gainelibrary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६३॥ अथ द्वितीयं व्याख्यानं प्रारभ्यते (धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं) धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिभ्यः-त्रयः समुद्राः चतुर्थों हिमवान् इति चत्वारः क्षिते: अन्ताः तेषु प्रभुतया भवा इति चातुरन्ताः ते च ते चक्रवर्तिनश्च चातुरन्तचक्रवर्तिनः। धर्मेषु वरा:-श्रेष्ठाः तेषु चातुरन्तचक्रवर्तिन इव धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनः। यथाहि पृथिव्यां शेषराजाऽतिशायिनः चातुरन्त चक्रवर्तिनो भवन्ति । एवं भगवन्तोऽपि धर्मवरेषु-शेषप्रणेतृषु साऽतिशयाः प्रोच्यन्त इति तेभ्यः। यद्वा-अन्यकुतीथिकाऽपेक्षया धर्मवरेण नरकादिचतुर्गत्यन्तकरणाच्चतुरन्तेन मिथ्यात्वादिरिपूच्छेदकत्वाच्चक्रेणेव वर्तितुं शीलं येषां ते तथा तेभ्यः। ['दीवो ताणं' इत्यादि ] अत्र च प्रथमा चतुर्थ्यर्थ षष्ठयर्थतया योज्या । तत्र (दीवो) दीपः-समस्ताऽर्थप्रकाशकत्वाद् दीप इव दुःस्थितस्य संसारसागरान्तर्वतिप्राणिगणस्याऽऽश्वासहेतुत्वाद् द्वीप इव वा। (ताणं) अनर्थप्रतिहननहेतुत्वात् त्राणम् । (सरणं) अर्थसम्पादनहेतुत्वाच्च शरणम् । (गई ) गम्यते सुस्थित्यर्थ दुःस्थितैः आश्रीयते इति गतिः । (पइट्ठा) प्रतिष्ठन्त्यस्याम् इति प्रतिष्ठा-संसारगर्तपतत्प्राणिगणस्याऽऽधार इति । (अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं) अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरेभ्यः-अप्रतिहते - कटकुटथादिभिः वरे-क्षायिके ज्ञानदर्शने-विशेषसामान्याऽवबोधरूपे धरन्ति इति तेभ्यः। ईदृशं ज्ञानदर्शनधारित्वम् आवरणाऽभावात् सम्पद्यत इत्याह-(विअदृछ उमाणं) व्यावृत्तछद्मभ्य:-व्यावृत्तं छद्म-घातिकर्माणि संसारो वा येभ्य इति तेभ्यः । तदभावस्तु रागादिजयादित्याह-(जिणाणं जावयाणं) जिनेभ्यः ॥६३। For Privale & Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥६४॥ रागादिजेभ्यः । रागादिजयश्च तज्जयोपायज्ञानपूर्वक एव इत्यत आह-ज्ञायकेभ्यः- जानन्ति इति ज्ञायकाः तेभ्यः । यद्वाअन्यभव्यसत्त्वै रागादीन् सदुपदेशदानादिना जापयन्ति इति जापकाः तेभ्यः । अत एव ( तिष्णाणं तारयाणं ) तीर्णेभ्यो भवाऽर्णवं ज्ञानादिपोतेन । तारकेभ्यः अन्यानप्युपदेशवर्तिनः । (बुद्धाणं बोहयाणं ) अज्ञाननिद्राप्रसुप्ते जगत स्वसंविदितज्ञानेन जीवादितत्त्वं बुद्ध्यन्ते स्म इति बुद्धाः तेभ्यः । अन्यानपि बोधयन्ति इति बोधकाः तेभ्यः । (मुत्ताणं मोअगाणं) बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहबन्धनात् कर्मबन्धनाद्वा मुक्ता इति तेभ्यः । अन्यानपि तद्वयान्मोचयितृभ्यः । एतानि विशेषणानि भवाऽवस्थामाश्रित्योक्तानि । अथ सिद्धावस्थामाश्रित्योच्यन्ते - ( सव्वण्णूणं ) सर्वज्ञेभ्यः - जीवस्वाभाव्यात् सर्वं वस्तुजातं प्रधानविशेषं गौणीकृतसामान्यं च केवलज्ञानेन जानन्ति इति सर्वज्ञाः तेभ्यः । (सव्वदरिसीणं) सामान्यप्रधानं गौणीकृतविशेषं च सर्व केवलदर्शनेन पश्यन्ति इति सर्वदर्शिनः तेभ्यः । प्रथमं सर्वज्ञेभ्यः इति विशेषणं च केवलिनामाद्यसमये ज्ञानं, द्वितीये दर्शनम् इति सूचनार्थम् । उभयमपि च वस्तु विषयीकुर्वद्वस्तु निरपेक्षमेव केवलिनां छद्मस्थानां तूभयं - सापेक्षं निरपेक्षं च । क्रमो पि प्रथमं दर्शनं पश्चाज्ज्ञानम् इति प्रसङ्गाद् बोध्यम् इति । (सिवम यलमरु अमणतमक्खयमव्याबाहमपुणरावित्ति ) (इत्यादि) शिवं - निरुपद्रवम् । अचल - स्वाभाविकप्रायोगिक चलनाऽभावात् । अरुजम् - आधिव्याध्यभावात् । अनन्तम्अनन्ताऽर्थविषयक ज्ञानमयत्वात् । अक्षयम्-अनाशं साऽऽद्यनन्तत्वात्, अक्षतं वा परिपूर्णत्वात् । अव्याबाधं- परेषां पीडाकारित्वाभावात् । अपुनरावृत्ति - पुनर्भवे ऽनवतारात् । ( सिद्धिगइनामधेयं) सिद्धि: - लोकान्तक्षेत्ररूपा सा चाऽसौ गतिव किरणा टीका व्या० ॥६४ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६५॥ SABRETORRHARASHERBA सैव नामधेयम्-अभिधा यस्य । ईदृशं (ठाणं) स्थानं-व्यवहारतः सिद्धिक्षेत्रं, निश्चयतो यथावस्थितमात्मस्वरूपं सम्यगशेषकर्मविच्युतेः ( संपत्ताणं) प्राप्ताः- सम्प्राप्ताः तेभ्यः । जीवस्वरूपविशेषणान्यपि इमानि उपचारालोकाऽग्रे ज्ञेयानि । आद्यन्तकृतो नमस्कारो मध्यव्यापीत्यतोऽन्ते (नमो जिणाणं) नमो जिनेभ्य इत्युक्तमिति । (जिअभयाणं) जितभयेभ्यः-पितभयेभ्यः न चाऽत्र पौनरुक्त्यम् । यतः 'सज्झायझाणतवोसहेसु उवएसथुइपयाणेसु । संतगुणकीत्तणेसु अन हुंति पुणरुत्तदोसाओ' त्ति (आव०) ॥१५०४॥ ___अनेन जिनजन्मादिषु शक्रः स्तौति इति “ शक्रस्तव" इत्यभिधीयते । एवं सर्वान् भावार्हतः स्तुत्वा पुनरधिकृतं वीरं । स्तौति-(णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स) नमोऽस्तु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (आइगरस्स चरमतित्थयरस्स पुवतित्थयरनिहिस्स) (जाव) यावत् करणात् (सयंसंबुद्धस्स) इत्यादि (सिद्धिगइनामधेयं ठाणं) इत्यन्तं दृश्यम् । (जाय संपाविउकामस्स) यद्यपि भगवतः सर्वत्र नि:स्पृहत्वात् सिद्धिगतौ कामो नास्ति तथापि तदनुरूपचेष्टनात् सम्प्राप्तुकाम इव तस्याऽप्राप्तस्येत्यर्थः। (वंदाभि णं भगवंतं) बन्देऽहं भगवन्तं (तत्थगयं) तत्र ब्राह्मणकुण्डग्रामे देवानन्दाकुक्षीस्थितम् । (इह गए) इह सौधर्मदेवलोके स्थितोऽहम् । यतः (पासेउ मे भयवं तत्थगए इहगयं तिकटु) पश्यति मां भगवान् तत्रगत इहगतं ज्ञानेन इतिशेप इतिकृत्वा-इतिहेतोः [पासउ' इति पाठे पश्यतु माम् इति] (समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ) श्रमणं भगवन्तं महावीर वन्दते नमस्यति । (वंदित्ता नमंसित्ता) बन्दित्ता नमस्यित्वा (सिहासणवरंसि ) सिंहासनवरे (पुरत्थाभिमुहे) ॥६५॥ Jain Educa t ional For Privale & Personal use only wow.adirary.org Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०२ ॥६६॥ RRCHAEOLAGANDHAMARREARSA पूर्वाभिमुखः (निसण्ण) निषण्णः-उपविष्टः। (तए णं तस्स सकस्स देविदस्स देवरणो) ततः तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य (अयमेयारूवे) अयमेतद्रूपः (अज्झथिए) आत्मन्यधि अध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिक-आत्मविषय इत्यर्थः। (चिंतिए) चिन्ता सञ्जाताऽस्मिन् इति चिन्तितः-चिन्तात्मको न ध्यानात्मकः । (पत्थिए) प्रार्थन | प्रार्थः स सञ्जातोऽस्मिन्निति प्रार्थितः-अभिलापात्मकः। (मणोगए) मनोगतः-वाचा न प्रकाशितः। (संकप्पे समुपज्जिस्था) सङ्कल्पः समुदपद्यत ॥१६॥ [न खलु एअं भूअं' इत्यादितः 'आयाइस्संति वा' इति यावत् ] तत्र-(न खलु एअं भूअं) न खलु एतद्भूतं (न एअं भव्वं) न एतत् भवति (न एअं भविस्स) न एतद् भविष्यति ( णं अरहंता वा चक्कवट्टी वा) यदहन्तो वा चक्रवर्तिनो वा (बलदेवा वा वासुदेवा वा) बलदेवाः वा वासुदेवाः वा (अंतकुलेसु वा) अन्त्यकुलेषु-जघन्यकुलेषु अन्त्यवर्णत्वात् शूद्रकुलेषु वा । (पंतकुलेसु वा) प्रान्तकुलेषु-अधमकुलेषु । (तुच्छकुलेसु वा ) अल्पकुटुम्बेषु अल्पर्धिषु वा। (दरिद्दकुलेसु वा) दरिद्रकुलेषु-सर्वथा निधनकुलेषु । (किविणकुलेसु वा) कृपणा:-किराटादयः (भिक्खागकुलेसु वा) भिक्षाचराःतालाचराद्याः (माहणकुलेसुवा) ब्राह्मणा:-धिगजातयः तत्कुलेषु । (आयाइंसु वा) आयासिषु:-जज्ञिरे (आयाइंति वा) आयान्ति-जायन्ते (आयाइस्संति वा) आयास्यन्ति-जनिष्यन्ते ॥१७॥ ['एवं खलु' इत्यादितः 'आयाइस्संति च' इति यावत् ] SAERECRACACARA ॥६६॥ Jain Ede For Private & Personal use only ernational elibrary.org TW Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६७॥ तत्र - ( एवं खलु अरहंता वा चक्कवडी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा ) एवं खलु अर्हन्तः चक्रवर्तिनः बलदेवाः वासुदेवाः वा ( उग्गकुलेसु वा ) उग्रा : - आदिदेवेन आरक्षकतया ये नियुक्ताः ( भोगकुलेसु वा ) भोगा:गुरुतया ये व्यवहृताः ( रायन्नकुलेसु वा ) राजन्या :- ये वयस्यतया स्थापिताः ( इक्खागकुलेमु वा ) इक्ष्वाकवःआद्यवंश्याः ( खत्तियकुले वा) क्षत्रिया- ये शेषप्रकृतितया स्थापिता राजकुलीनाः ( हरिवंसकुलेसु वा ) हरिवंश :- हरिवर्ष क्षेत्राऽऽनीतयुगलोद्भव इति । तत्कुलेषु ( अन्नयरेसु वा ) अन्यतरेषु इति ज्ञात-मल्लकि - लेच्छकिकौरव्यादिकुलेसु । तत्र ज्ञाताः - श्री ऋषभस्वजनवंशजाः इक्ष्वाकुवंशजा एव । नागा वा नागवंशजा भटाः शौर्यवन्तो योधाः । मलकिनो लेच्छकिन राजविशेषाः । कौरव्याः- तेभ्योऽपि विशिष्टाः कुरुवंशजाः । ( तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलसेसु वा ) तथा प्रकारेषु विशुद्धजातिकुलवंशेषु । तत्र जातिः - मातृपक्षः कुलं - पितृसमुत्थं । विशुद्धे जातिकुले येषु ते च ते वंशाः- पुरुषाऽन्वयाश्च तेषु । ( आयाइंसु वा आयाइति वा आयाइस्संति वा ) जज्ञिरे जायन्ते जनिष्यन्ते ॥ १८ ॥ [' अस्थि पुण एसे' इत्यादित: 'निक्खमिस्संति वा ) इति यावत् ] तत्र - ( अस्थि पुण एसे वि भावे) अस्ति पुनरयमपि भावः - भवितव्यताssख्यः (लोगच्छेरयभूए) लोकाssश्वर्यभूत पदार्थः - ( अनंताहिं उस्सप्पिणी ओस्सप्पिणीहिं बताहिं ) अनन्तासु उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसु व्यतिक्रान्तासु (समुप्पज्जइ ( १०० ) कदाचित् समुत्पद्यते । आश्चर्याणि चास्यामवसर्पिण्यां दश जातानि । तथाहि ॥६७॥ library.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणार | टीका व्या० ॥६८॥ "उवस्सग्ग गम्भहरणं इत्थीतित्थं अभाविआ परिसा । कण्हस्स अवरकंका अवयरणं चंद सूराणं ॥ १६७ ।। हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पाओ अ अट्ठसयसिद्धा । अस्संजयाण पूआ दस वि अणं तेण कालेण" ॥ १६८ ।। (स्थानाङ्गसूत्र ७७)-श्री अभयदेवसूरिकृतव्याख्या उपमृज्यते-चाव्यते प्राणी धर्मादेभिः इति उपसर्गाः- देवादिकृतोपद्रवाः । ते च भगवतो महावीरस्य छद्मस्थाऽबस्थायां भूयांसोऽग्रे वक्ष्यमाणलक्षणा बभूवुः । केवल्यवस्थायामपि नमन्निखिलनरनाकिनिकायनायकस्याऽपि जघन्यतोऽपि कोटीसङ्ख्यभक्तिभरनिभराऽमरपट्पदपटलजुष्टपाद पद्मस्याऽपि विविधर्द्धिलब्धिमद्वरवि ने यसहस्रपरिवृतस्याऽपि स्वभावप्रशमितयोजनशतमध्यगतवैरमारिविड्वरदुर्भिक्षाद्युपद्रवस्याऽप्यनुत्तरपुण्यसम्भारस्याऽपि मनुष्यमात्रेणाऽपि चिरपरिचितेनाऽपि शिष्याऽऽभासेनाऽपि गोशालकेन कृत उपसर्गः, इदं च किल न कदाचिद् भूतपूर्वं । तीर्थङ्करा हि अनुत्तरपुण्यसम्भारतया नोपसर्गभाजनम् अपि तु सकलनराऽमरतिरश्चां सत्कारादिस्थानमेव इति अनन्तकालभावि अयमों लोकेऽद्भुतभूत इति । तत्र केवल्यवस्थायां गोशालककृतोपसों यथा-" एकदा भगवान् श्रीमहावीरः श्रावस्त्यां विहरति स्म गोशालकश्च । तत्र च गौतमस्वामी गोचरगतो बहुजनशब्दमश्रौषीद् यथा-'इह श्रावस्त्यां द्वौ जिनौ सर्वज्ञौ महावीरो गोशालकश्च' इति । श्रुत्वा भगवदन्तिकमागत्य गौतमो गोशालकोत्थानं पृष्टवान् । भगवाँचोवाच यथा-'अयं शरवणग्रामे गोबहुलब्राह्मणगोशालायां जातो मलिनाम्नो मखस्य सुभद्राऽभिधानतभार्यायाश्च पुत्रः। षड्वर्षाणि छद्मस्थेन मया साध विहृतोऽस्मत्त एवं बहुश्रुतीभूत इति नाऽयं जिनो न च सर्वज्ञः' इदं च भगवद्वचनमाकर्ण्य ॥६८ Jain Educa Hernational For Private & Personal use only www.jainalbrary.org Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।६९॥ SASSUOSISSA बहुजनो नगर्यास्त्रिकचतुष्कादिषु परस्परं कथयामास 'गोशालको मखलिपुत्रो न जिनो न सर्वज्ञ' इदं च लोकोक्तिमाकर्ण्य गोशालकः कुपित आनन्दाऽभिधानं च भगवदन्तेवासिनं गोचरगतमपश्यत् तमवादीच-भो आनन्द ! एहि तावदेकमौपम्यं निशामय' यथा-केचन वणिजोऽर्थाऽर्थिनो विविधपण्यभृतशकटा देशान्तरं गच्छन्तो महाटवीं प्रविष्टाः। पिपासिताः, तत्र जलं गवेषयन्तः चत्वारि वल्मीकशिखराणि शाड्वलवृक्षकक्षस्याऽन्तरद्राक्षुः। क्षिप्रं चैकं विचिक्षिपुः ततोऽतिविपुलजलमवापुः। तत्पयो यावत् पिपासमापीतवन्तः पयःपात्राणि च पयसा परिपूरयामासुः। ततोऽपायसम्भाविना वृद्धेन निवार्यमाणा अप्यतिलोभाद् द्वितीयतृतीयशिखरे विभिदुः । तयोः क्रमेण सुवर्ण च रत्नानि च समासादयामासुः । पुनः तथैव चतुर्थ भिन्दानाः घोरविषमतिकायमञ्जनपुञ्जतेजसमतिचञ्चलजिह्वायुगलमनाकलनीयकोपप्रसरमहीश्वरं सङ्कट्टितवन्तः । ततोऽसौ कोपाद्वल्मीकशिखरमारुह्य मार्तण्डमण्डलमवलोक्य निर्निमेषया दृष्टया समन्तादवलोकयंस्तान् भस्मसाचकार । तन्निवारकवृद्धवाणिजकं तु न्यायदर्शी इति अनुकम्पया वनदेवता स्वस्थानं सञ्जहार इति । एवं त्वदीयधर्माऽऽचार्यमात्मीयसम्पदाऽपरितुष्टमस्मदवर्णवाद विधायिनमहं स्वकीयेन तपस्तेजसाध्यैव भस्मसात्करिष्यामि इति । एषः प्रचलितोऽहं त्वं तु तस्येममर्थमावेदय-" भवन्तं च वृद्धवाणिजमिव न्यायदर्शित्वाद् रक्षिष्यामि" इति श्रुत्वा असौ आनन्दमुनिः भीतो भगवदन्तिकमुपागत्य तं सर्वमावेदयत् । भगवताऽपि असौ अभिहितः-" एष आगच्छति गोशालकः ततः साधवः शीघ्रम् इतोऽपसरन्तु प्रेरणां च तस्मै कश्चिदपि माऽदाद् इति गौतमादीनां निवेदय" इति । तथैव कृते गोशालक आगत्य भगवन्तं प्रत्यभिधौ-" सुष्टु-शोभनम् आयुष्मन् ! काश्यप ! साधु आयुष्मन् ! काश्यप ! मामेवं SAMACHAR ॥६९॥ Sain Educ a tional For Privale & Personal use only H Dlibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प ॥७०॥ वदसि - " गौशालको मङ्खलिपुत्रोऽयम्" इत्यादि । योऽसौ गोशालकस्तवाऽन्तेवासी स देवभूयं गतः । अहं तु अन्य तच्छरीरकं परीषह सहनसमर्थमास्थाय वर्षे " इत्यादिकं कल्पितं वस्तूग्राहयन् तत्प्रेरणाप्रवृत्तयोर्द्वयोः साध्वो:- सर्वानुभूतिसुनोः तेजसा तेन दग्धयोः भगवताऽभिडित:- " हे गोशालक ! कश्चिच्चौरो ग्रामेयकैः प्रारभ्यमाणः तथाविधं दुर्गममानः अगुल्या तृणेन वा आत्मानमावृण्वन्नावृतः किं भवति ? अनावृत एवासौ । एवं त्वमपि अन्यथा जल्पनेन आत्मानमाच्छादयन् किम् आच्छादितो भवसि ? स एव त्वं गोशालको यो मया बहुश्रुतीकृतः तदेवं माऽवोचः " । एवं भगवतः समभावतया यथावद् ब्रुवाणस्य तपस्तेजोऽसौ कोपात् निःससर्ज । उच्चावचाऽऽक्रोशैव आक्रोशयामास । तत्तेजश्च भगति अप्रभवत् तं प्रदक्षिणीकृत्य गोशालकशरीरमेवाऽनुतापयदनुप्रविवेश । तेन च दग्धशरीरोऽसौ दर्शिताऽनेकविक्रियः सप्तरात्रौ कालमकार्षीद् इति | १ | तथा गर्भस्य - उदरसवस्य हरणम् - उदराऽन्तरसङ्क्रामणं गर्भहरणम् एतदपि तीर्थकराऽपेक्षया अभूतपूर्वं सद्भगवतो महावीरस्य जातम् इति अनन्तकालभावित्वादाश्चर्यमेव इति |२| तथा स्त्री - योषित् तस्याः तीर्थकरत्वेनोत्पन्नायाः तीर्य - द्वादशाङ्गं सङ्गो वा स्त्रीतीर्थम् । तीर्थे हि पुरुषसिंहाः पुरुषवरहस्तिनः त्रिभुवनेऽपि अव्याहतप्रभुभावाः प्रवर्त्तयन्ति । इह त्ववसर्पिण्यां मिथिलानगरीपतेः कुम्भकमहार|जस्य दुहिता मल्ल्यभिधाना एकोनविंशतितमतीर्थकर स्थानोत्पन्ना तीर्थं प्रवर्तितवती इति अनन्तकालजातत्वादस्य भावस्य आश्चर्यता इति | ३| ' अभाविपरित 'त्ति अभव्या-अयोग्या चारित्रधर्मस्य पर्षेत्- तीर्थकरसमवसरणश्रोतृलोकः । श्रूयते हि भगवतो Jain Eduernational किरणावळी टीका ग्या० २ ॥७०॥ elibrary.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७१॥ AALAREE वईमानस्य जम्भिकग्रामनगराद् बहिः उत्पन्न केवलस्य तदनन्तरं मिलितचतुर्विधदेवनिकायविरचितसमवसरणस्य भक्तिकुतूहलाऽऽकृष्टसमा याताऽनेकनराऽमरविशिष्टतिरश्वां सस्वभाषाऽनुसारिणाऽतिमनोहारिणा महाध्वनिना कल्पपरिपालनायैव धर्मकथा बभूव । यतो न केनाऽपि तत्र विरतिः प्रतिपन्ना । न चैतदपि तीर्थकृतः कस्याऽपि भूतपूर्वमिति । इदमाश्चर्यम् इति ॥ ४॥ ____ तथा कृष्णस्य-नवमवासु देवस्य अवरकङ्का-राजधानी गतिविषया जाता इत्यपि अजातपूर्वत्वादाश्चर्यम्-श्रूयते हि पाण्डवभार्या द्रौपदी धातकीखण्डभरतक्षेत्राऽपरकङ्काराजधानीनिवासिपमराजेन देवसामर्थ्यनाऽपहृता । द्वारवतीवास्तव्यश्च कृष्णो वासुदेवो नारदादुपलब्धतव्यतिकरः समाराधिनसुस्थिताऽभिधानलवणसमुद्राऽधिपतिदेवः पञ्चभिः पाण्डवैः सह द्वियोजनलक्षप्रमाणं जलनिधिमतिक्रम्य पमराज रणविमर्देन विजित्य द्रौपदीम् आनीतवान् । तत्र च कपिलनामा वासुदेवो मुनिसुव्रताऽभिधानतत्रत्यजिनात् कृष्णवासुदेवाऽऽयमनवार्तामुपलभ्य सबहुमानं कृष्णदर्शनार्थमागतः । कृष्णश्च तदा समुद्र ल्लङ्यति स्म । ततस्तेन पाञ्चजन्यः शशः पूरितः कृष्णेनाऽपि तथैव । ततः परस्परं शङ्खशब्दश्रवणमजायत इति ॥५॥ तथा भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थम् अवतरणम् आकाशात् समवसरणभूम्यां चन्द्र-सूर्ययोः शाश्वतविमानोपेतयोः बभूव । इदमपि आश्चर्यम् इति ॥६॥ तथा हरे:-पुरुषविशेषस्य वंश:-पुत्रपौत्रादिपरम्परा हरिवंशः तल्लक्षणं यत्कुलं तस्योत्पत्तिः। कुलं हि अनेकधा, अतो हरिवंशेन विशिष्यते । एतदपि आश्चर्यमेव इति-श्रयते हि भरतक्षेत्राऽपेक्षया यत् तृतीयं हरिवर्षाऽऽख्यं मिथुन कक्षेत्रं । ततः केनाऽपि पूर्वविरोधिना व्यन्तराऽमरेण मिथुनकमेकं भरतक्षेत्रे क्षिप्तं । तच्च पुण्याऽनुभावाद् राज्यं प्राप्तं । ततो हरिवर्ष BAAPAASAऊन SARGAMANG ॥७ ॥ JainEducad For Private & Personal use only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर्ड टोका व्या०२ ॥७२॥ SHRECRPORRORRECORRESS जातहरिनाम्नः पुरुषाद् यो वंशः स तथेति ॥ ७॥ तथा चमरस्य-असुरकुमारराजस्य उत्पतनम्-ऊर्ध्वगमनं चमरोत्पातः । सोऽपि आकस्मिकत्वादाश्चर्यम् इति । श्रयते हि चमरचञ्चाराजधानीनिवासी चमरेन्द्रः अभिनवोत्पन्नः सन्नूर्ध्वमवधिना आलोकयामास । ततः स्वशीर्षोपरि सौधर्मव्यवस्थित शक्रं ददर्श । ततो मत्सराऽऽध्मातः शक्रतिरस्काराऽऽहितमतिः इहाऽऽगत्य भगवन्तं महावीरं छद्मस्थाऽवस्थम् एकरात्रिकी प्रतिमा प्रतिपन्नं सुंसुमारनगरोद्यानवतिनं सबहुमान प्रणम्य-" भगवन् ! त्वत्पादपङ्कजवनं मे शरणम् , अरिपराजितस्य" इति विकल्प्य विरचितघोररूपो लक्षयोजनमानशरीरः परिधरत्नं प्रहरणं परितो भ्रमयन् गर्जन आस्फोटयन् देवान् त्रासयन् उत्पपात । सौधर्माऽवतंसकविमानवेदिकायां पादन्यासं कृत्वा शक्रं चाऽऽक्रोशयामास । शक्रोऽपि कोपाजाज्वल्यमानस्फारस्फुलिङ्गशतसमाकुलं कुलिशं तं प्रति मुमोच । स च भयात् प्रतिनिवृत्य भगवत्पादौ शरणं प्रपेदे। शक्रोऽपि अवधिज्ञानाऽवगततद्व्यतिकरः तीर्थकराऽऽशातनाभयाच्छीघ्रमागत्य वज्रमुपसञ्जहार । बभाण च-"मुक्तोऽसि अहो ! भगवतः प्रासादात् नाऽस्ति मत्तः ते भयम्" इति ॥ ८॥ तथा अष्टाभिरधिकं शतं अष्टशतम् । अष्टशतं च ते सिद्धाश्च-निवृता अष्टशतसिद्धाः । इदमपि अनन्तकालजातम् इति आश्चर्यम् । परम्-"एतदुत्कृष्टाऽवगाहनामाश्रित्य मध्यमाऽवगाहनायां पुनरने कशोऽष्टोत्तरशतं सिद्धयति" इति नाऽऽश्चर्यम् । तच्चैवम् " रिसहो रिसहस्स सुआ भरहेण विधज्जिआओ नवनवइ । अट्ट य भरहस्स सुआ सिद्धिगया एगसमयंसि" ॥ ॥ CCOUGEHARMAEROFEROACA-. ॥७२॥ Jain Educal For Private & Personal use only A mlibrary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७३॥ SASACRAESEX APHEREHENSIRONMROWANIM तथा वसुदेवहिण्डौ श्रीसङ्घदासगणयोऽप्याहु: “उसहो अभिइणा नक्खत्तेणं एगृणपुत्सएहिं अट्ट य नत्तुअसहिएहिं एगसमयंमि निव्वुए सेसाण वि अणगाराणं दससहस्साणि अट्ठसय (१०८) ऊणगाणि तमि नक्खत्ते निव्वुआणि" ति ॥ ९॥ तथा असंयता-असंयमवन्त आरम्भपरिग्रहप्रसक्ता अब्रह्मचारिणः तेषां पूजा-सत्कारः असंयतपूजा। सर्वदा हि किल संयता एव पूजाऽर्हाः । अस्यां त्ववसपिण्यां विपरीतं जातम् इति आश्चर्यम् ॥१०॥ अत एवाऽऽह-" दशाऽपि एतानि अनन्तेन कालेन-अनन्तकालात् संवृत्तानि अस्याम् अवसर्पिण्याम्" इति । एवं च कालसाधात् शेषेवपि भरतैरावतेषु दश दश आश्चर्याणि बभूवांसि । उक्तं च-" दससु वि वासेसेवं दस दस अच्छेरयाई जाणाहि" ति ( )। परं सर्वत्र चमरोत्पादाऽभावात् , कृष्णस्य धातकीखण्डगमनमिव तत्रत्य वासुदेवस्य अत्र आगमनाऽभावाच प्रकाराऽन्तरेण इति अर्थाद् बोध्यम् । दशानामपि आश्चर्याणां तीर्थव्यक्तिस्त्वेवम् "उसमे अट्टडिअसयं सिद्धं सीअलजिणंमि हरिवंसी । नेमिजिणे वरकंका-गमणं कण्हस्स संपत्तं ॥ ॥ इत्थीतित्थं मल्ली पूओं अस्संजयाण नवमजिणे । अवसेसा अच्छेरैयौं वीरजिणिदस्स तित्थंमि ॥ ॥ (नामगुत्सस्स वा कम्मस्स) [इत्यादि] नाम्न:-नामकर्मणो गोत्रकर्मणो वा-अथवा नाम्ना-सज्ञया गोत्रस्यनीचैर्गोत्रस्य (अक्खीणस्स) अक्षीणस्य-स्थितेरक्षयात् (अवेइअस्स) अवेदितस्य-तद्रसस्याऽननुभूतत्वात् (अणिजिण्णस्स) अनिर्जीर्णस्य-तत्प्रदेशानां जीवप्रदेशेभ्यः अपरिशाटनात् (उदएणं तस्योदयेन । क. कि. ॥७३॥ Jain Educa t ional For Privale & Personal Use Only wdubrary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०२ ॥७४॥ भगवता च नीचैर्गोत्रं भरतसुतमरीचिजन्मनि स्थूलसप्तविंशतिभवाऽपेक्षया तृतीयभवे निवद्धम् । तथाहि पश्चिममहाविदेहे नयसारनामा ग्रामाऽधिपतिः। एकदा स्वाम्यादेशाद् दारुनिमित्तं सपाथेयोऽटव्यां गतः। तत्र च भोजनाऽवसरे भृतकैः उपनीतायां रसवत्या-'यदि कश्चिद् अतिथिमिलति तदा शोभनम् ' इति बुद्ध्या इतस्ततो विलोकयन् | सार्थभ्रष्टान् क्षुत्तटबाधिततनून् साधून् दृष्ट्वा हृष्टः- अहो ! मे भाग्यम्' इति रोमाञ्चिततनुः सादरं साधून आहूय विपुलया रसवत्या प्रत्यलाभयत् । भोजनादिना च कृतकृत्यीभूय साधुसमीपे गत्वा नत्वाऽथोवाच-चलन्तु भगवन्तो दर्शयामि मार्गम् । तदनु तेन सह चलद्भिः साधुभिः-'योग्योऽयम्' इति अवधार्य अध्वन्येव वृक्षाऽधः उपविश्य धर्मदेशनया सम्यक्त्वं :प्रापितः । स चाऽऽत्मानं धन्यमन्यः साधून् नत्वा स्वग्राम प्राप्तः। सः प्रान्ते च पश्चनमस्कृतिस्मृतिपुरस्सर मृत्वा-द्वितीये भवे सौधर्मकल्पे पल्योपमाऽऽयुः सुरः । ततः च्युतः-तृतीये भवे मरीचिनामा भरतसुतोऽभूत् । स चैकदा सबहुमानं देवेन्द्रादिविधीयमानं प्रथमजिनमहिमानं दृष्ट्वा श्रुत्वा च धर्म सम्यक्त्वलब्धबुद्धिः प्रबजितः। ततः सः स्थविराऽन्तिके अधीतकादशाङ्गीकः, अन्यदा ग्रीष्मकाले अस्नानादिना पीडितवपुः संयममार्गाद् उद्विग्नमनाः-'गृहे मे गन्तुमनुचितं, श्रामण्यगुणानपि मेरुगिरिसमभारान् वोढुम् अहम् अशकः' इति चिन्तापरः स्वकीयस्वरूपं प्रकटयन्नेव एतत्कुलिङ्गं चिन्तयति । तद्यथा-'श्रमणाः त्रिदण्डविरता :, अहं तु नैवम् । अतो मे त्रिदण्डिकं-त्रिदण्डचिह्नमस्तु । तथा-'श्रमणा लोचेन्द्रियाभ्यां द्रव्यभावाभ्यां मुण्डाः, नाऽहमेवम् ' अतो मे चुरमुण्डः, शिरसि शिखा च भवतु । तथा-'श्रमणाः सकलप्राणिवधाद्विरताः, अहं तु न' इत्यतः स्थूलप्राणिवधादेव मे विरतिरस्तु । तथा-'निष्किश्चनाः किल साधवः, नाऽहमेवम् । AAAAAAA ॥७४|| JainEducation.international wronwanesbrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७५॥ अप्यतो मे मार्गाऽविस्मृतये पावित्र्यादिकं किञ्चनमस्तु । तथा-' शीलसुगन्धाः साधवः, नाऽहम्' इति मे गन्धचन्दनादिग्रहणमस्तु । तथा-' व्यपगतमोहा मुनयः, अहं तु न ' इत्यतो मे मोहाऽऽच्छादितमतेः छत्रकं चिह्नमस्तु । तथा-' अनुपानत्काः श्रमणाः, मम च उपानहौ भवतः । तथा-' शुक्लाम्बरा निरम्बराश्च जिनकल्पिकादयः कषायाकलुषितमतयः यतयः, नाहमेवम्' अतो मे कषायकलुषितस्य धातुरक्तानि वस्त्राणि भवन्तु । तथा-' अवद्यभीरवः साधवो बहुजीवसमाकुलजलाssरम्भवर्जकाः, नाऽहमेवम्' अतो मे परिमितेन जलेन स्नानं पानं चाऽस्तु । एवं निजमत्यैव विकल्प्य पारिव्रज्यं प्रव्रजितः । ततस्तं विसदृशरूपं विलोक्य भूयो लोको धर्म पृच्छति ? । तत्पुरच साधुमार्ग प्ररूपयति । किमिति भवता साधुमार्गो नाऽऽश्रीयते ? इति प्रश्ने- ' श्रमणाः त्रिदण्डविरता अहं तु त्रिदण्डवान्' इत्यादि प्रागुक्तमेव प्रादुष्करोति । एवं च स्वदेशनारञ्जितान् अनेकराजपुत्रादिजनान् भगवतः शिष्यतया समर्पयति विहरति च भगवतैव सार्द्धम् । अन्यदा च भगवान् विहरन् मरीचिना समम् अयोध्यायां बहिः समवसृतः तत्र च वन्दनार्थमागतेन भरतेन पृष्टो भगवान् - हे प्रभो ! अस्ति कश्चिदपि एतावत्यां पर्षदि भरतक्षेत्रे भविता तीर्थकृत् जीवः ? इत्युक्ते । प्रभुराह - हे भरत ! मरीचिरेवाऽयं स्वाध्यायध्यानाऽऽसक्कोऽस्यामेवावसर्पिण्यां 'वीर'नामा चतुर्विंशतितमस्तीर्थकृत् । महाविदेहे 'मूका राजधान्यां ' प्रियमित्र 'नामा चक्रवर्ती । अत्रैव भरते ' त्रिपृष्ठ 'नामा पोतानाऽधिपतिः प्रथमो वासुदेवश्च भविष्यति इति प्रभुक्तमाकर्ण्य भरतः पुलकितवपुः प्रभुं प्रणम्य मरीचिमभिवन्दितुं याति गत्या च विनयेन त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य वन्दते स्तौति च - 'भो मरीचे ! यावन्तो लाभाः ते त्वयैव लब्धाः । यतः - ' त्वं 'वीर' नामा चरम तीर्थकृत्, 'प्रियमित्र 'नामा चक्रवर्ती, ' Jain Educatimational ॥७५॥ library.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका शा. - 'त्रिपृष्ठ 'नामा प्रथमो वासुदेवश्च भविष्यसि' इत्यादि प्रागुतं प्रादःकृत्य-न च ते पारिव्रज्यं वन्दे न चाऽपि तवेदं जन्म, किन्तु चरमः तीर्यकृद् भविष्यसि अतो वन्दे' इत्यादि मधुरामिः वाग्भिः स्तुत्वा नत्वा च पुनः पितरमभिवन्ध विनीता नगरी प्राप्तः । मरीचिरपि भरतवचनं श्रुत्वा हर्षोद्रेकात् त्रिपदीम् आस्फोटय नृत्यं कुर्वनिदमवोचत् " जइ वासुदेवपढमो मूआइ विदेह चक्कवट्टित्तं । चरमो तित्थयराणं होउ अलं इत्ति मज्झ ॥१७९६॥ अहयं दसाराणं पिआ य मे चकवहिवंसस्स । अजो तित्थयराणां अहो ! कुलं उत्तम मज्झ ॥१७९७ । (विशे० आव० तथा नि०४३१-४३२) ॥ इति च जातिमदहेतुकं नीचैर्गोत्रं बद्धवान् । यदुक्तम्-- जाति-लाभ-कुलै-श्वर्य-बल-रूप-तपः-श्रुतैः । कुर्वन्मदं पुनस्तानि हीनानि लभते जनः ।। ( योग०४ प्र. १३) तदनु मरीचिः भगवति निवृते साधुभिः सह विहरन् प्राग्वत् साधुभ्यश्च शिष्यान् समर्पयति । एकदा च तं ग्लानीभूतं शान कोऽपि साधुः प्रतिजागर्ति । सोऽचिन्तयद-अहो ! एते बहुपरिचिता अपि न प्रतिजाग्रति । यदि वा कथमेते कृतकृत्याः स्वदेहेऽपि गतस्पृहाः संयमिनो मामीशमविरतं प्रतिजाग्रति ?। तस्माद् ‘रोगविमुकस्य ममैकं प्रति जागरकं प्रव्राजयितुं युक्तम् ' इतिचिन्तापरस्य तस्य एकदा नीरोगतायां सञ्जातायां 'कपिल 'नामा राजपुत्रो धर्मशुश्रूषया तदन्तिके समागतो निजदेशनया प्रतिबुद्धः। तेन प्रेरितो-'भो कपिल ! याहि साधुसमीपे प्रपद्यस्व च त्रैलोक्याऽलङ्कारं त्रैलोक्याऽग्यपदैकहेतुं HALA NARMA ॥७६। Jain Educ a tional For Private & Personal use only Miterary.org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७७॥ मुनिमार्गम्' इत्युक्ते कोंदयान्मुनिमार्गाऽनभिमुखः कपिल: प्रोवाच-यदेवं किमिति भवद्भिः तत्परित्यागेन एतत् पारिवज्यं स्वीकृतम् ? । मरीचिरुवाच-'पापोऽहं श्रमणाः त्रिदण्डविरताः, अहं तु नैवम्' इत्यादिविभाषा पूर्ववत् । पुनरपि कपिल: प्रोवाच-'किं भवदर्शने सर्वथा धर्मों नास्त्येव ?' इत्युक्ते मरीचिरचिन्तयत'प्रचुरकर्मा खलु अयं जिनोक्तमार्ग न प्रपद्यते । अतो वरं मे मदुचितः सहायः संवृत्तः इति विचिन्ता-'सम्पूर्णः खलु साधुमार्गे धर्मः, किश्चित्तु मम मार्गेऽपि' इत्यर्थाऽभिधायक-'कविला इत्थंपि इहयंपि इति (वि० आवर १८०४ नि० ४३७) उत्सूत्रमिश्रितमेव वाक्यं मरीचिरवोचत् । तच्छुत्वा च कपिलः तदन्तिके एव प्रबजितः। मरीचिनाऽपि अनेने दुर्वचनेन कोटाकोटीसागरप्रमाणः संसारोऽभिनिवर्तितः। त्रिपद्यास्फोटकाले च नीचैर्गोत्रं बद्धम् इति । ततः अनालोचिततत्कर्मा चतुरशीतिलक्षपूर्वाऽऽयुः परिपाल्य मृत्वा-चतुर्थे भवे ब्रह्मलोके दशसागरस्थितिः सुरः सञ्जातः। कपिलोऽपि ग्रन्थाऽर्थपरिज्ञानशून्योऽपि 'आसुरिप्रभृत्यनेकशिष्यान् प्रव्राज्य तक्रियानिरतो मृत्वा १ 'दुब्भासिएण' (वि. आव. १८०५-नि० ४३८)। यत्तु सुबोधिकाकारो मरीचिवचनम् उत्सूत्रत्वेनोक्तवान् तत्तु भगवत्याद्यागमोक्ताऽनन्तसंसारिणोऽपि जमालेः 'पञ्चदश भरा:-- | केवली,चकः' इत्यादि सर्वाऽऽगमविरुद्धबहुजल्पजल्पाकस्वगुरुभ्रातृमतव्यवस्थापनायेतिध्येयम् । कल्पकौ० पृ.३८ पं. ९ । ARREARCHEEG २० ॥७७॥ Jain Educated national For Privale & Personal use only Talibrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावरू टीका व्या० ||७८॥ ब्रह्मलोके देवः सञ्जातः । तत्र-'मया प्राग्भवे किं कृतम् ?' इत्यवधि प्रयुज्य स्वतीर्थमोहादागत्य च पश्चवर्ण पवर्ण- मण्डलावस्थोऽन्तर्हितः षष्ठितन्त्रादिकं कापिले यशास्त्रं स्वशिष्यवर्गस्य पुरः कथितवान । मरीचिस्तु ब्रह्मलोकारच्युतः पश्चमे भवे कोल्लाकसंनिवेशे अशीतिलक्षपूर्वाऽऽयुः 'कौशिक'नामा ब्राह्मणः। स च द्रव्योपार्जनपरायणो विषयाऽऽसक्तो हिंसादिषु निःशूको भूयांसं कालं गृहे स्थित्वा प्रान्ते च त्रिदण्डी भूत्वा मृत्वा च-'पद्मानन्दकाव्याऽनुसारेण' षष्ठे भवे सौधर्मे सुरः। तदपेक्षया च द्वाविंशतितमो मनुजभवो न गण्यते इति न भवाऽऽधिक्यशङ्काऽपि । श्री वीरचरित्राऽनुसारेण तु तिर्यगादिभवानुभूतिलक्षणे संसारे प्रभूतकालं परिभ्रम्य षष्ठे भवे स्थूणायां नगयां द्वासप्ततिलक्षपूर्वाऽऽयुः 'पुष्पमित्र' नामा द्विजः प्रान्ते च त्रिदण्डी भूत्वा मृत्वा च सप्तमे भवे सौधर्मकल्पे मध्यस्थितिः सुरः। ततः च्युतोऽष्टमे भवे चैत्यसन्निवेशे चतुःषष्ठिलक्षपूर्वाऽऽयुः 'अग्निद्योतो' नामा ब्राह्मणः । प्रान्ते च त्रिदण्डी भूत्वा, मृत्वा च नवमे भवे द्वितीये कल्पे मध्यस्थितिकोऽमरः । ततः च्युतो दशमे भवे मन्दरसन्निवेशे षट्पञ्चाशल्लक्षपूर्वाऽऽयुः 'अग्निभूति' नामा ब्राह्मणः। अन्ते त्रिदण्डी भूत्वा मृत्वा च एकादशे भवे सनत्कुमारकल्पे मध्यस्थितिक: सुरः । ततः च्युतो द्वादशे भवे श्वेतव्यां नगया चतुश्चत्वारिंशल्लक्षपूर्वाऽऽयुः 'भारद्वाज' नामा ब्राह्मणः। अन्ते त्रिदण्डिकतया मृत्वा त्रयोदशे भवे माहेन्द्रकल्पे मध्यस्थितिकः सुरः। ततः च्युतः कियन्तं कालं संसारे संमृत्य चतुर्दशे भवे राजगृहे चतुस्त्रिशल्लक्षपूर्वाऽऽयुः 'स्थावरो' नामा ब्राह्मणः। अन्ते त्रिदण्डी भूत्वा मृत्वा च पश्चदशे भवे ब्रह्मलोके मध्यस्थितिकः अमरः । ततः च्युतो भूयःकालं संसारे भ्रान्त्वा HereCRORESCRECRe%AE% A AMROSE% R ||७८॥ % Jain Educ a tional For Privale & Personal Use Only 1 library.org Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७९॥ षोडशे भवे 'विश्वभूति' नामा 'विशाखभूतेः' प्रियाया 'धारिण्या:' कुक्षौ कोटिवर्षाऽऽयुः क्षत्रियोऽभूत् । स च 'सम्भूत' मुनिपादान्ते व्रतमादाय वर्षसहस्रं दुस्तपं तपस्तपन् मासोपवासपारणके मथुरायां प्रविष्टः । तत्र च परिणयनार्थमागतेन 'विशाखनन्दि' नाम्ना पितृव्यभ्रात्रा तपःकृशाङ्गयष्टिम् एकया गया भुवि पातितमालोक्य 'कपित्थपातनं तव क्य?' इत्यादि इसितः सन् क्रुधा तां गां शृङ्गयोः गृहीत्वा गगनेऽभ्रमयत्-'मदीयेन अनेन उग्रतपसा भवाऽन्तरे भूयिष्ठवीर्यो भूयासम्' इति निदानं च चक्रे । ततो मृत्वा 'सप्तदशे' भवे महाशुक्रे उत्कृष्टस्थितिः सुरः। ततः च्युतः अष्टादशे भवे पोतनपुरे 'प्रजापते' राज्ञो 'मृगावत्याः' कुक्षौ चतुरशीतिवर्षलक्षाऽऽयुः 'त्रिपृष्ठ' नामा वासुदेवः। ततो मृत्वा एकोनविंशतितमे भवे सप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिः नारकः । तत उदृत्य विंशतितमे भवे सिंहः। ततो मृत्वा एकविंशतितमे भवे चतुर्थपृथिव्यां नारकः। तत उवृत्त्य तियड्मनुष्यादि भूयो भवान भ्रान्त्वा द्वाविंशतितमे भवे मनुजत्वमवाप्य उपार्जितशुभकर्मा त्रयोविंशतितमे भवे 'मूकायां' राजधान्यां 'धनञ्जय' राज्ञो 'धारिण्या देव्याः कुक्षौ चतुरशीतिलक्षपूर्वाऽऽयुः चक्रवर्ती। स च पोट्टिलाऽऽचार्यसमीपे कोटिवर्षप्रवज्यापर्यायः चतुर्विशतितमे भवे महाशुक्रनाम्नि विमाने सप्तदशसागरोपमस्थितिकः अमरः। ततः च्युतः पञ्चविंशतितमे भवे इहैव भरतक्षेत्रे छत्रियां नगर्या 'जितशत्रु' नृपतेः 'भद्रा देव्याः कुक्षौ पञ्चविंशतिवर्षलक्षाऽऽयुः 'नन्दनो' नामा पुत्रः। सच पोट्टिलाऽऽचार्यपायें राज्यं सन्त्यज्य गृहीततपस्यः अनवरतं मासोपवासैः विंशत्या स्थानैः तीर्थकरनामगोत्रं निकाचयित्वा प्रव्रज्यापर्यायं चैकं वर्षलक्षं परिपाल्य मासिकया संलेखनया आलोचित्तप्रतिक्रान्नो मृत्वा षड्विंशतितमे Cex JainEducat For Private & Personal use only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणा टीका व्या० ॥८ ॥ Ram-RRERe%AINA भवे प्राणतकल्पे पुष्पोत्तराऽवतंसकविमाने विंशतिसागरोपमस्थितिकः देवः। ततः च्युतः सप्तविंशतितमे भवे 'ब्राह्मणकुण्डग्रामे' नगरे 'ऋषभद तस्य' ब्राह्मणस्य 'देवानन्दायाः' पत्न्याः कुक्षौ समुत्पन्नः। इत्येवं सप्तविंशतिभवाऽपेक्षया तृतीये मरीचिसम्बन्धिनि भवे स्वदेशनाप्रतिबुद्धः 'कपिल:' साधुपार्श्व प्रवजनाय द्विरुक्तोऽपि-'किं भवत्समीपे सर्वथा धर्मो नाऽस्त्येव ?' इति प्रतिवचःपुरस्सरं साधुपार्श्वम् अगच्छन्-'पापात्मा मदुचितोऽयं भवतु मनिश्रितः' इति विचिन्त्य-'कविला ! इत्थंपि इहयंपि' त्ति प्रागुक्तरीत्या उत्सूत्रमिश्रितवचसा कोटाकोटिसागरसंसारसत्ताको मृत्वा ब्रह्मलोके सुरः। ततः च्युतः 'परिव्राजक' इत्यादिना क्रमेण यावत् किञ्चित् साऽवशेषनीचैर्गोत्रसत्ताको दशमदेवलोकाद् 'देवानन्दायाः कुक्षौ अवातरद् इति ॥ (जं णं अरहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा) < यदहन्तो वा चक्रवर्तिनो वा बलदेवा वा वासुदेवा वा (अंतकुलेसु वा अन्त्यकुलेषु वा (पंतकुलेसु वा) प्रान्तकुलेषु वा (तुच्छदरिदभिक्खागकिविणमाहणकुलेसु वा) तुच्छ-दरिद्र-भिक्षाक-कृपण-ब्राह्मणकुलेषु वा (आयाइंसु वा) जज्ञिरे (आयाइंति वा) जायन्ते (आयाइस्संति वा) जनिष्यन्ते । (कुञ्छिसि गम्भत्ताए) कुक्षौ गर्भतया (वक्कमिंसु वा) आगताः (वकमंति वा) आगच्छन्ति (वक्कमिस्संति वा) आगमिष्यन्ति वा > (नो चेव णं जोणीजम्मणनिक्खमणेणं) नैव योन्या जन्माऽर्थ निष्क्रमणेन (निक्खमिंसु वा) [इत्यादि] (निक्खमंति वा निक्खमिस्संति वा) निरक्रामन् निष्क्रामन्ति निष्क्रमिष्यन्ति वा ॥१९॥ ['अयं च णं' इत्यादितो 'गम्भत्ताए वक्रते' इति यावत् सुगमम् ] TECRECRECRECRAKARMA ॥८॥ Jan Ede For Private & Personal use only Lilibrary.org Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८१॥ (अयं च णं समणे भगवं महावीरे) < अयं श्रमणो भगवान् महावीरः (जंबुद्दीवे दीवे) जम्बूद्वीपे द्वीपे (भारहे वासे) भारते वर्षे (माहणकुंडग्गामे नयरे) ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे (उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य कोडालसगोत्रस्य (भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए) भार्यायाः देवा- || नन्दायाः ब्राह्मण्याः जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिसि गम्भत्ताए वकंते) कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्तः> ॥२०॥ ['तं जी' इत्यादितः 'एवं वयासी' इति यावत् ] (तं जीअमेअं) तत्र-तस्माद् एतद् जीतम्-आचरितं कल्प इति एकाऽर्थिनः (तीअपच्चुप्पन्नमणागयाण) F "वाऽतीतादौ" इति व्याकरणसूत्रेण 'अ'कारलोपे अतीतवर्तमानाऽनागतानाम् इत्यर्थः । (सक्काणं देविदाणं देवराईण) शक्राणां देवेन्द्राणां देवराजानां (अरहंते भगवंते) अर्हतो भगवतः (तहप्पगारेहिंतो) तथाप्रकारेभ्यः (अंतकुलेहितो) अन्त्यकुलेभ्यः (पंतकुलेहिंतो) प्रान्तकुलेभ्यः (तुच्छदरिद्दभिक्खागकिविणकुलेहिंतो वा) तुच्छ-दरिद्र-भिक्षाककृपणकुलेभ्यो वा (माहणकुलेहिंतो वा) ब्राह्मणकुलेभ्यो वा (तहप्पगारेसु) तथाप्रकारेषु (उग्गकुलेसु वा) उग्रकुलेषु ॥ वा (भोगकुलेसु वा) भोगकुलेषु वा (रायन्ननायखत्तियहरिवंसकुलेसु वा) राजन्य-ज्ञात-क्षत्रिय-हरिवंशकुलेषु वा (अन्नयरेसु तहप्पगारेसु) अन्यतरेषु तथाप्रकारेषु (विसुद्ध जाइकुलवंसेसु वा) विशुद्धजातिकुलवंशेषु (जाव रजसिरिं) यावत् राज्यश्रियं (कारेमाणेसु पालेमाणेसु) कुर्वाणेसु पालयत्सु (साहरावित्तए) सङक्रामयितुं । (तं सेअं खलु मम वि) तत् श्रेयः खलु ममाऽपि (समणं भगवं महावीर) श्रमणं भगवन्तं महावीरं (चरमतित्थयरं शEMRX ॥८ ॥ Jain Educa t ional For Private & Personal use only K rary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०२ ॥८२॥ A4-% E0%ARIA पुब्वतिस्थयरनिद्दिट्ट) चरमतीर्थकर पूर्वतीर्थकरनिर्दिष्टं (माहणकुंडग्गामाओ नयराओ) ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् (उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्त) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य कोडालसगोत्रस्य (भारिआए) भार्यायाः (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिओ) कुक्षितः (खत्तिय कंडग्गामे नयरे) क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे > (णायाणं) ज्ञातानाम्-श्रीऋषभस्वामिवंशजानां (खत्तियाणं) क्षत्रियविशेषाणां मध्ये इत्यर्थः । (सिद्धस्थस्स खत्तिअस्स कासवगुत्तस्स) < सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य काश्यपगोत्रस्य (भारि आए तिसलाए खत्तिआणीए) भार्यायाः त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः (वासिमगुत्ताए) वाशिष्ठगोत्रायाः (कुच्छिसि) कुक्षौ (गबभत्ताए साहरावित्तए) गर्भतया सङ्क्रमयितुम् । (जे वि अ णं से तिसलाए खत्तिआणीए गम्भे) योऽपि च तस्याः त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः गर्भ:-पुत्रिकारूपः (तं पि अ ) तमपि च (देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः जालन्धरसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गम्भत्ताए साहरावित्तए) कुक्षौ गर्भतया सङ्क्रमयितुम् (त्तिकह) इति कृत्वा (एवं संपेहेइ) त्ति एवं पर्यालोचयति । (एवं संपेहिता) पर्यालोच्य > (हरिणेगमेसिं) हरेः-इन्द्रस्य नैगमम्-आदेशम् इच्छतीति हरिगैगमेपी । केचित्तु हरे:-इन्द्रस्य सम्बन्धी 'नैगमेषी' नामा देव इति । (पायत्ताणिआहिवई) तं पदात्यनीकाऽधिपति (देव) देवं (सद्दावेइ) त्ति आकारयति (सद्दावित्ता एवं बयासी) आकार्य इत्थमवादीत् ॥२१॥ ['एवं खलु' इत्यादितः 'आयाइस्संति वा' इति यावत् ] AA5वनाउनका ॥८२॥ For Privale & Personal use only Alibrary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||८३॥ RSANGRECRPC-97-% तत्र-(एवं खलु देवाणुप्पिआ) खलु इति वाक्योपक्रमे [शेष पूर्ववत् ] <एवं खलु देवानुप्रिय ! (न एअं भूअं न एअंभव न एअं भविस्स) न एतद्भूतं न एतद्भवति न एतद्भविष्यति । (जं णं अरहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा) यदर्हन्तो वा चक्रवर्तिनो वा बलदेवा वा वासुदेवा वा (अंतपंततुच्छदरिद्दभिक्खागकिविणमाहणकुलेसु वा) अन्त्य-प्रान्त-तुच्छ-दरिद्र-भिक्षाक-कृपण-ब्राह्मणकुलेषु वा (आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा) जज्ञिरे जायन्ते जनिष्यन्ते । (एवं खलु अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वासुदेवा वा) एवं खलु अर्हन्तो वा चक्रवर्तिनो वा बलदेवाः वा वासुदेवाः वा (उग्गकुलेप्नु वा) उग्रकुलेषु वा (भोग-रायन्न-नाय-खत्तिअ-इक्खागहरिवंसकुलेसु वा) भोग-राजन्य-ज्ञात-क्षत्रिय-इक्ष्वाक-हरिवंशकुलेषु वा (अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु) अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु (विसुद्धजाइकुलवंसेसु वा) विशुद्धजातिकुलवंशेषु वा (आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा) जज्ञिरे जायन्ते जनिष्यन्ते वा> ॥२२॥ ['अस्थि पुण' इत्यादितो 'निक्खमिस्संति वा' इति पर्यन्तं सुगमम ] (अस्थि पुण एसे वि भावे लोगच्छेरयभूए) < अस्ति पुनरयमपि भावः लोकाश्चर्यभूतपदार्थः (अणंताहिं उस्सप्पिणीहिं ओसप्पिणीहिं) अनन्तासु उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु (वइकंताहि) व्यतिक्रान्तासु (समुप्पजइ) समुत्पद्यते(नामगुतस्स वा कम्मस्स) नाम्ना गोत्रस्य वा कर्मणः (अक्खीणस्स अवेइअस्स अणिजिण्णस्स) अक्षीणस्य अवेदितस्य अनिर्जीर्णस्य (उदएणं) उदयेन (जं णं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा) यदहन्तो ESSASABHAS AA% ॥८३॥ Jain Ede A national For Privale & Personal use only Milibrary.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाकिरणाव टीका व्या० श्रीकल्प वा चक्रवर्तिनो वा बलदेवा वा वासुदेवा वा (अंतकुलेसु वा) अन्त्यकुलेपु वा (पंततुच्छदरिदभिक्खागकिविणमाहण कुलेसु वा) प्रान्त-तुच्छ-दरिद्र-भिक्षाक-कृपण-ब्राह्मणकुलेषु वा (आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा) ॥८४|| जज्ञिरे जायन्ते जनिष्यन्ते वा । (कुच्छिसि गम्भत्ताए) कुक्षौ गर्भतया (वक्कर्मिसु वा वक्कमति वा धक्कमिस्संति वा) आगताः आगच्छन्ति आगमिष्यन्ति वा (नो चेव णं जोणीजम्मणनिक्खमणेणं) नैव योन्या जन्मार्थ निष्क्रमणेन (निक्खमिंसु वा निक्खमंति वा निक्खमिस्संति वा) निरक्रामन् निष्कामन्ति निष्क्रमिष्यन्ति वा> ॥२३॥ ['अयं च णं' इत्यादितः 'वकंते' ति पर्यन्तं प्राग्वत् ] (अयं च णं समणे भगवं महावीरे) < अयं श्रमणो भगवान् महावीरः (जंबुद्दीवे दीवे) जम्बूद्वीपे द्वीपे (भारहे वासे) भारते वर्षे (माहणकुंडग्गामे नयरे) ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे (उसमदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य कोडालसगोत्रस्य (भारिआए) भार्यायाः (देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिसि गम्भत्ताए वक्रते) कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्तः॥२४॥ ['तं जोअमेअं' इत्यादितः 'साहरावित्तए' त्ति पर्यन्तं प्राग्वत् ] (तं जीअमेअं) < तस्मात् आचरितमेतत् (तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं) अतीतवर्तमानाऽनागतानां (सक्काणं देविंदाणं देवराईणं) शक्राणां देवेन्द्राणां देवराजानां (अरहते भगवंते) अर्हतो भगवतः (तहप्पगारेहिंतो) तथा8| प्रकारेभ्यः (अंतपंततुच्छदरिद्दभिक्खागकिविणकुलेहिंतो) अन्त्य-प्रान्त-तुच्छ-दरिद्र-भिक्षाक-कृपणकुलेभ्यः> GORAKRARA AAAAAAE ॥८४ Jain Ede ibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1८५॥ बाAAAAAAAAACASS (जाव माहणकुलेहितो) यावत् ब्राह्मणकुलेभ्यः (तहप्पगारेसु) तथाप्रकारेषु (उग्गभोगरायन्ननायखत्तिअइक्खागहरिवंसकुलेसु वा) उग्र-भोग-राजन्य-ज्ञात-क्षत्रिय-इक्ष्वाक-हरिवंशकुलेषु वा (अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु) अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु (विसुद्धजाइकुलवंसेसु) विशुद्धजातिकुलवंशेषु (साहरावित्तए) सङ्क्रमयितुम् ॥२५॥ ['त गच्छ णं तुम' इत्यादितः 'पञ्चप्पिणाहि' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिआ!)< ततः गच्छ त्वं देवानुप्रिय ! (समणं भगवं महावीरं) श्रमणं भगवन्तं महावीरं (माहणकुंडग्गामाओ नयराओ) ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् (उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य कोडालसगोत्रस्य (भारिआए) भार्यायाः (देवाणंदाए माहणोए जालंधरसगुत्ताए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छीओ) कुक्षीतः (खत्तिअकुंडग्गामे नयरे) क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (नायाणं खत्तियाणं) ज्ञातानां क्षत्रियाणां (सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स कासवगुत्तस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य काश्यपगोत्रस्य (भारिआए) भार्यायाः (तिसलाए खत्तिआणीए वासिहसगुत्ताए) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः वाशिष्ठसगोत्रायाः (कुच्छिसि) कुक्षौ (गभत्ताए साहराहि) गर्भतया सङ्क्रमय (जे वि य णं से तिसलाए खत्तियाणीए गम्भे) योऽपि च तस्याः त्रिशलायाः क्षत्रियाण्या गर्भः (तं पि अणं देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए) तमपि देवानन्दाया ब्राह्मण्या ज लन्धरसगोत्रायाः (कुञ्छिसि) कुक्षौ (गम्भत्ताए साहराहि) गर्भतया सङ्क्रमय (साहरित्ता) सङ्क्रमय्य > (मम एअं आणत्तिअं) ममेमाम् आज्ञाप्तिम्-आज्ञा (खिप्पामेव) शीघ्रमेव (पञ्चप्पिणाहि) प्रत्यर्पय-मदाज्ञां JHARKHABAR २२ IA ॥८५॥ Jain Educand national For Private & Personal use only library.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प किरणावली टीका व्या०२ 1८६॥ ASHISHERSमराह कृतार्थीकृत्य आगत्य च निवेदय इत्यर्थः (शेष सुकरम् ) ॥२६॥ ['तए णं से हरिणेगमेसी' इत्यादितः 'परिआएई' त्ति यावत ] तत्र-(तए णं से हरिणेगमेसी)< तदा स हरिणैगमेषी (पायत्ताणिआहिवई देवे) पदात्यनीकाधिपतिः देव (सक्केण देविदेणं देवरन्ना) शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन (एवं वुत्ते समाणे) एवम् उक्तः सन् (हढे जाव) हृष्टः यावत्-तुटुचित्तमाणं दिए णदिए परमानंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण] (हियए) हृदयः; (करयल जाव) करतलाभ्यां यावत्-[परिग्गहि दसनहं सिरसावत्तं मस्थए अंजलिं ] (त्तिकह) अञ्जलिं कृत्वा (एजं देवो आणवेइत्ति) यदेवः आज्ञापयति >(आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ) आज्ञाया:-आदेशस्य वचनं विनयेन प्रतिशणोति-कर्तुमभ्युपगच्छति (पडिसुणित्ता) प्रतिशृत्य (उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ) ति ईशानकोणकं दिग्विभागम् अपक्रामति-व्रजति (अवकमित्ता)< अपक्रम्य > (वेउविअसमुग्घाएणं समोहणइ) त्ति उत्तरवैक्रियरूपकरणाय प्रयत्नविशेषेण समुद्धंति-आत्मप्रदेशान् विक्षिपति [समोहपणइ' त्ति पाठे समुद्धन्यते-समुदधातवान् भवति इत्यर्थः] (समोहणित्ता) प्रयत्न विशेष कृत्वा । तत्स्वरूपमेवाह-(संखिजाई जोअणाई)< सख्यातयोजनानि > (दंड) ति दण्ड इव दण्ड:-ऊर्ध्वाऽधआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्मपुदगलराशिः तं (निसिरइ) निसृजति-निष्काशयति इत्यर्थः । तत्कुर्वाणस्तु विविधविशिष्टपुदगलान् आदत्ते इति दर्शयन्नाह (तं जहा) तद्यथा-(रयणाणं) रत्नानां-कर्केतनप्रभृतीनां 'यद्यपि रत्नादिपुद्गला औदारिका एव भवन्ति समुदघाते IBABAAAAAAAधन ॥८६॥ Jain Ed mational For Private & Personal use only alibrary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन ॥८७॥ ABBABASAB च वैक्रिया एव ग्राह्याः । तथापि तेषां रत्नाऽऽदिपुद्गलानाम् इव सारता ख्यापनाय रत्नानामिव इति व्याख्येयम्' अन्ये वदन्ति-'औदारिका अपि गृहीताः सन्तो वैक्रियपरिणामभानो भवन्ति' इति । (वयराणं वेरुलियाणं लोहिअक्खाणं मसारगल्लाणं मगम्भाणं पुलयाणं सोगंधिआणं जोईरसाणं अंजणाणं अंजणपुलयाणं जायरूवाणं सुभगाणं अंकाण फलिहाणं रिहाणं)< हीरक-वैडूर्य-लोहिताक्ष-मसारगल्ल-हंसगर्भ-पुलक-सौगन्धिक-ज्योतीरसअञ्जन-अञ्जनपुलक-जातरूप-सुभग-अङ्क-स्फटिक-रिष्ठानाम् । > तेन च दण्डेन रत्नादीनां (अहाबायरे पुग्गले) यथा बादरान-असारान् गृहीतान् पुद्गलान् (परिसाडेइ) परिशाटयति (परिसाडिय) परिशाटय (अहासुहुमे पुग्गले) यथा सूक्ष्मान्-सारान् पुद्गलान् (परिआएइ) पर्यादत्ते ॥२७॥ 'परिआइत्ता' इत्यादितः 'तामेव दिसि पडिगय' ति यावद । _____ तत्र-(परिआइत्ता) पर्यादाय (दुचंपि) त्ति द्वितीयमपि वारं (वेउन्विअसमुग्याएणं) वैक्रियसमुद्घातेन | (ममोहणइ) समुद्घातं करोति । (समोहणित्ता) समुद्घातं कृत्वा (उत्तरवेउवि रूवं विउच्वइ) उत्तरवैक्रिय रूपं करोति । तच्च भवधारणीयादन्यदेव येन देवा मनुष्यलोके आयान्ति (विउव्वित्ता) विकुळ (ताए उकिटाए) PI (इत्यादि) तया देवजनप्रतीतया उत्कृष्टया-प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मणा यः स्वगत्युत्कर्षः तद्वत्या (तुरिआए) त्वरितया मानसौत्सुक्यात् (चवलाए) चपलया कायतः (चंडाए) चण्डया-सम्भारवत्या (जयणाए) जयिन्या-अशेषकर्मगतिजेच्या (उधुआए) उद्धृतया-अशेषशरीराऽवयवकम्पकारिण्या (सिग्याए) शीघ्रया वेगवत्या । ॥८७॥ Sain Educ a tional For Privale & Personal use only www.faimelibrary:org Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥८८॥ वदन्ति उत्कृष्टया प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मोदयात् प्रशस्तया । स्वरितया - शीघ्रसञ्चरणात् त्वरा सञ्जाता अस्यामिति त्वरिता तया । चपलया चपला इव विद्युद् इव चपला तया । चण्डया - क्रोधाऽऽविष्टस्येव श्रमाऽसंवेदनात् चण्डा चण्डा तया । जवनया - परमोत्कृष्ट वेगपरिणामोपेतया । उद्धृतया - प्रचण्डपवनोद्धूतस्य दिगन्तव्यापिनो रेणुकाराशेवि या गतिः सा च उद्धृता तया उद्धृतया । दर्पाऽतिशयात् शीघ्रया । निरन्तरशीघ्रत्वगुणयोगादित्यपि केचित् । [ 'छेआए' इत्यपि क्वचित् तत्र- छेकया- अपायपरिहारनिपुणया ] (दिव्वाए देवगइए) दिव्यया- देवजनोचितया देवगत्या (वीइवयमाणे वीइवग्रमाणे) व्यतिव्रजन् व्यतित्रजन् (तिरिअमसंखिजाणं दीवसमुद्दाणं) तिर्यग् असङ्ख्यातानां द्वीपसमुद्राणां > (मज्झमज्झेणं) ति मध्यमागेन ( जेणेव जंबुद्दीवे दीवे) यत्रैत्र जम्बूद्वीपो द्वीपः ( भार हे वासे) भरतक्षेत्रं (जणेव माहणकुंडग्गामे नयरे ) यत्रैव ब्राह्मणकुण्डग्रामं नगरं ( जेणेव उसमदत्तस्स माहणस्स गिहे ) यत्रेव ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य गृहं ( जेणेव देवानंदा माहणी) यत्रैव देवानन्दा ब्राह्मणी (तेणेव उवागच्छइ) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य > (आलोए) आलोके - दर्शनमात्रे (समणस्स भगवओ महावीरस्स) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पणामं करेइ) प्रणामं करोति ( पणा करिता ) प्रणामं कृत्वा (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः ( सपरिजणाए ) सपरिवारायाः > (ओसोवण ) ति अवस्थापिनीं निद्रां (दलइ ) त्ति ददाति (ओसोवणि दलिता) < अवस्वापिनीं निद्रां दवा (असुभे पोग्गले अवहरइ) अशुभान् पुद्गलान् अपहरति (सुभे पोरगले पक्खिवइ) शुभान् पुद्गलान् प्रक्षिपति (पक्खिवित्ता) Jain Educarernational . किरणावल टीका व्या० २ ॥८८॥ 27rary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1८९॥ SEE RESEARCHES प्रक्षिप्य (अणुजाणउ मे भयवं) अनुमानातु मम भगवान् (त्तिकह) इति कृत्वा (समणं भगवं महावीरं) श्रमणं । भगवन्तं महावीरं > (अन्यायाह) अव्यावाधम् इति भगवतो विशेषणं तत्पीडापरिहारात (अव्वाबाहेणं) अव्याबाधेनसुखेन संहत्तुरपि पीडाया अभावात् । यद्वा-अव्यायाधमव्यावाधेन-मुखमुखेन इत्यर्थः। (दिव्वेणं पहावेणं) < दिव्येन प्रभावेण (करयलसंपुडेणं गिण्इ) इस्ततलसम्पुटे गृह्णाति । > यतः-तथाविधकरव्यापारेण संस्पृश्य स्त्रीगभच्छविच्छेदकरणेनाऽपि ईपदपि बाधां विनैव नखाऽग्रे रोमकूपे वा प्रवेशयितुं ततो निष्काशयितुं वा समर्थों हरिणैगमेषी इति । उक्तं च भगवत्यां "पह णं भंते ! हरिणेगमेसी सकदए इत्थीगभं साहरमाणे गम्भाओ गब्भ साहरइ १ गम्भाओ जोणिं साहरइ २ | जोणीओ गम्भं साहरइ ३ जोणीओ जोणिं साहरइ ४?। गोयमा ! नो गम्भाओ गब्भं स हरइ १ नो गब्भाओ जोणिं साहरइ २ परामुसिअ परामुसिअ अव्वावाहं अव्वाबाहेणं जोणीओ गम्भं साहरइ ३ नो जोणीओ जोणि साहरई"। "पहु णं भंते ! से इत्थीगभं नहसिरंसि वा रोमकृवंसि वा साहरित्तए वा नीहरित्तए वा ? हंता पहू नो चेव णं तस्स गम्भस्स किंचि आवाहं विवाहं वा उप्पाइजा छविच्छेअं पुण करिजत्ति" (भग० सू० १८६)। (गिणिहत्ता जेणेव) < गृहीत्या च यत्रैव (खत्तियकुंडग्गामे नयरे) क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं (जेणेव सिद्धत्थस्स खत्तियस्स गिहे) यत्र सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य गृहं (जेणेव तिसला खत्तिआणी) यत्र त्रिशला क्षत्रियाणी ॥८९॥ Jain Educ a tional For Private & Personal use only brary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प किरणावली टीका व्या०२ २०॥ 18 (तेणेव उवागच्छइ) तत्राऽऽगच्छ.ते (तेणेव उवागच्छित्ता) तत्राऽऽगत्य च (तिलसाए खत्तिआणीए) त्रिशला- क्षत्रियाण्याः (सपरिजणाए) परिवारसहितायाः (ओसोवणिं दलइ) अवस्वापिनी निद्रां ददाति (दलित्ता) दचा (असुभे पोग्गले अवहरइ) अशुभान् पुद्गलान अपहरति (अवहरित्ता सुमे पोग्गले पक्खिवइ) अपहृत्य च शुभान पुद्गलान् प्रक्षिपति (पक्खिवित्ता) प्रक्षिप्य च (समणं भगवं महावीरं) श्रमणं भगवन्तं महावीरं (अव्वाचाहं अव्वाबाहेणं) अव्यावाधमब्याबाधेन-सुखसुखेन (तिसलाए खत्तिआणीए) त्रिशलाक्षत्रियाण्याः (कुच्छिसि गठभत्ताए साहरइ) कुक्षौ गर्भतया >संहरति-योनिद्वारेण निष्काश्य गर्भ-गर्भाशयं प्रवेशयति इत्यर्थः। (जेवि अ णं से तिसलाए खत्तिआणीए गम्भे)< योऽपि च त्रिशालाक्षत्रियाण्याः गर्भः (तंपि य णं) तमपि च (देवाणंदाए माहणोए जालंधरसगुत्ताए) देवानन्दाब्राह्मण्याः जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिंसि गब्भत्ताए साहराइ) उ कुक्षौ गर्भतया संहरति (साहरित्ता) संहृत्य > (जामेव दिसि पाउन्भूए) यस्या दिशोऽवधेः प्रादुर्भूतः-प्रकटथभूद्आगत इत्यर्थः। (तामेव दिसिं पडिगएत्ति) तामेव दिशं प्रतिगतः इति ॥२८॥ ['ताए उक्किट्ठाए' त्ति प्रभृति 'पञ्चप्पिणइ' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(ताए उक्किट्ठाए )< तया उत्कृष्टया (तुरियाए चवलाए चंडाए जयणाए उदधुआए सिग्घाए) वरितया चपलया चण्डया जयिन्या उद्धृतया शीघ्रया (दिव्वाए देवगइए) दिव्यया देवगत्या (तिरिअमसंखेज्जाणं दीवसमुदाणं) तिर्यगसङ्ख्यातानां द्वीपसमुद्राणां (मज्झंमज्झेणं) मध्यभागेन (जोअणसयसाहस्सिएहिं ) ति लक्षयो AEER- S 88-888-4-8-888 AR ॥९ ॥ Jain Edellemnational For Privale & Personal use only Mohalibrary.org Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९॥ BAAAAAAठ जनप्रमाणाभिः >वीकाभिः-गतिभिः इत्यर्थः (उपयमाणे उप्पयमाणे) उत्पतन्-ऊर्य गच्छन् (जेणामेव सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसए विमाणे)< यत्रैव सौधर्माऽवतंसके विमाने (सकसि सिहासणंसि) 'शक' नाम्नि सिंहासने (सक्के देविंदे देवराया) शक्रः देवेन्द्रः देवराजः (तेणामेव उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य (सकस्स देविंदस्स देवरनो) शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य (एअमाणत्तिअं) एतामाज्ञां (खिपामेव पच्चप्पिणइ) शीघ्रमेव प्रत्यर्पयति ॥२९॥ ['तेणं कालेणं' इत्यादितः 'साहरिए' ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (जे से वासाणं) ति योऽसौ >श्रावणादीनां वर्षाकालमासानां मध्ये (तच्चे मासे पंचमे पक्खे) तृतीया-आश्विनमासः पञ्चमः पक्षः (आसोअबहुले) आश्विनस्य बहुल:-कृष्णः (तस्स णं आसोअबहुलस्स) तस्य आश्विनबहुलस्य (तेरमी पक्खेणं) या त्रयोदशी तिथिः तस्याः पक्षा-पश्चाई रात्रिरित्यर्थः। (बासीइराइंदिएहिं वइकंतेहिं)< द्वयशीतों रात्रिदिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु (तेसोइमस्स राइंदिअस्स) व्यशीतितमस्य रात्रिदिवसस्य (अंतरा वट्टमाणे) मध्ये | वर्तमाने >(हिआणुकंपएणं) हितः शक्रस्य सस्य च "अनुकम्पकस्तु भगवतो भक्तः" 'अनुकम्पा'शब्दस्य तु भक्तिवाचकस्वमपि । यथा-"आयरिअ अणुकंपाए गच्छो अणुकंपिओ महाभागो" (ओपनि० भा० गा. १२७) इत्यत्र । तेन (देवेणं हरिणेगमेसिणा) देवेन हरिणेगमेषिणा (सक्कवरणसंदिवेणं) शक्रवचनसन्दिष्टेन (माहणकुंडग्गामाओ नयराओ) ACANCECRECIOUSIRMALAR AES ॥९॥ Jain Ed01 For Private & Personal use only wimulajulinelibrary.org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावल टीका व्या०२ ॥९२॥ RECOREOGRESPECRECORROR ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् (उसभदत्तस्स माहणस्त कोडालसगुत्तस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य कोडालसगोत्रस्य (भारिआए) भार्यायाः (देवाणंदाए माहणोए जालंधरसगुत्ताए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छीओ) कुक्षितः (खत्तिअकुंडग्गामे नयरे) क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (नायाणं खतिआणं) ज्ञातानां क्षत्रियाणां (सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स कासवगुत्तस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य काश्यपगोत्रस्य (भारिआए) भार्यायाः (तिसलाए खत्तिआणीए वासिढसगुत्ताए) त्रिशलायाः क्षत्रियायाः वासिष्ठसगोत्रायाः (पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि) मध्यरात्रे (हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमुपागते सति (अव्वाबाहं अव्याबाहेणं) अव्यावाधम् अव्याबाधेन-मुखेन (कुञ्छिसि) कुक्षौ (गम्भत्ताए साहरिए) गर्भतया सक्राभितः ॥३०॥ ['तेणं' इत्यादितः 'गयवसह गाहा' इति पर्यन्तम् ] तत्र-तेणं कालेणं तेणं समरणं) <तस्मिन् काले तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (तिन्नाणोवगए आवि होत्या) त्रिज्ञानोपगतः अभवत (तं जहा-साहरिजिस्सामित्ति) तद्यथा-संहरिष्यामि इति (जाणइ) जानाति । > संहरणमपि च्यवनवदेव । (साहरिजमाणे नो जाणइ) नवरं संह्रियमाणः पुनर्न जानाति । तत्र "ज्ञानाऽगोचरत्वे संहरणस्यैकसामयिकत्वं हेतुः" इति केचित् । केचित् पुनः-'आन्तमौहर्तिकत्वेऽपि छामस्थिकोपयोगाऽपेक्षया संहरणकालस्य सूक्ष्मतरत्वम्" इत्युभयथाऽपि विचार्यमाणं न चेतश्चमत्करोति । यतः-तत्कतुरुपयोगविषयत्वेन एकसामयिकत्वं हरिणगमेष्यपेक्षया। विशिष्टज्ञानशक्तिमतो भगवतो ज्ञानाऽगोचरत्वं चेत्युभयमपि विरुद्धयेत । तस्मादिव्य CURRECIRCRACHAR AAG ॥९॥ JainEdu For Privale & Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९३॥ 1990SALARSARKARIHAS शक्तिवशादल्पेनैव कालेन तेन तथा संहरणं विहितं यथा भगवतो न मनागपि बाधाऽभूद् इत्यर्थवत्वेन (साहरिजमाणे | नो जाणइ) त्ति विशेषणं भगवतः संहरणे सर्वथाऽनाबाधासंसूचकम् अनाबाधाऽवस्थायां च सत्यपि ज्ञानगोचरत्वे तदगोचरत्वव्यपदेशः सुप्रतीत एव । यतः"तहिं देवा वंतरिआ वरतरुणीगीअवाइअरवेणं । निच्चं मुहिआ पमुइआ गयंपि कालं न याणंति ॥" (देवेन्द्रस्तव गा. ७६ संग्रहणी गा. ३२) लोकेऽपि अतिसुखितो व्रते-"यन्मया अद्ययावत् गच्छन् कालो नाऽवगतः" इति । किश्च-कालस्य सूक्ष्मत्वमधिकृत्य ज्ञानाऽगोचरत्वे सर्वथा ज्ञानाऽभावः सम्पद्यते निराबाधत्वमधिकृत्य च तथा वक्तव्ये कथञ्चिद् ज्ञानाऽगोचरत्वमपि न विरुद्धथेत । तथा च(साहरिजमाणे वि जाणइ) त्ति (३९९ सू०) नाऽऽचाराङ्गविरोधोऽपि । इत्येवमपि व्याख्यानं सञ्जाघटीति इति विचार्य यथाऽऽगमं चतुरै विचार्यम् इति । (साहरिएमित्ति जाणइ)< “संहृतोऽहम्" इति जानाति । (जं रयणिं च ण समणे भगवं महावीरे) यस्यां च रजन्यां श्रमणो भगवान् महावीरः (देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छीओ) कुक्षितः (तिसलाए खत्तिाणीए वासिट्ठसगुत्ताए) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः वाशिष्ठसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गम्भत्ताए साहरिए) कुक्षौ गर्भतया संहृतः (तं रयणिं च णं) तस्यां च रजन्यां (सा देवाणंदा माहणी) सा देवानन्दा ब्राह्मणी (सयणिज्जंसि RSHISHASHASIRSTAR २४ ABANS ॥९३॥ Jain Educ-I For Private & Personal use only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीकल्प PESC फिरणावली Pटीका ॥१४॥ व्या०२ सुत्तजागरा) तल्पे सुप्तजागरा (ओहीरमाणो ओहीरमाणी) पुनः पुनः ईषन्निद्रां गच्छन्ती (इमे एयारूवे) इमान् एतत्स्वरूपान (उराले कल्लाणे सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए) उदारान् कल्याणान् शिवान् धन्यान् मङ्गल्यान् सश्रीकान् (चउद्दस महासुमिणे) चतुर्दश महास्वमान् (तिसलाए खत्तिआणीए हडे) त्रिशलया क्षत्रियाण्या हृता इति (पासित्ता णं पडिबुद्धा) दृष्ट्वा जागरिता । > (तं जहा) तद्यथा (गयवसह गाहा) ॥३१॥ जं रयणिं च णं' इत्यादितः 'सिहिं च' इति पर्यन्तम्] तत्र-(जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे)< यस्यां रजन्यां श्रमणो भगवान महावीरः (देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छीओ) कुक्षितः (तिसलाए खत्तिआणीए वासिट्ठसगुत्ताए) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः वाशिष्ठसगोत्रायाः (कुच्छिसि) कुक्षौ (गन्भत्ताए साहरिए) गर्भतया | संहृतः (तं रयणि च णं सा तिसला खत्तिआणी) तस्यां च रजन्यां सा त्रिशला क्षत्रियाणी >(तसि) [इत्यादि तस्मिन् (तारिसगंसि) तादृशके-बक्तुम् अशक्यस्वरूपे प्रकृष्टपुण्यवतां योग्य इति यावत् (वासघरंसि) त्ति वासभवने (अभिंतरओ सचित्तकम्मे) अभ्यन्तरे-भित्तिभागे सचित्रकर्मणि-चित्रकर्मसंयुक्ते (बाहिरओ) त्ति बाह्यतः (दुमिअ) त्ति धवलितं (घट्टमढे) घृष्टं-कोमलापापाणादिना अत एव मृष्टं-ममृणं यत्तत्तथा तस्मिन् (विचित्तउल्लोअचित्तिअतले) त्ति विचित्रम्-आश्चर्यावहम् उल्लोचस्य-वितानस्य विचित्रं-विविधचित्रोपेतं तलम्-अधो भागो यत्र तत्तथा तस्मिन् (विचित्तउल्लोअचिल्लितले) त्ति क्वचित् तत्र विचित्र:-विविधचित्रकलितः उल्लोकः-उपरिभागो यत्र चिल्लिअं-दीप्यमानं ॥१४॥ Jain B lemational For Privale & Personal use only Mahelibrary.org Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९५॥ PRECAAAAAA तलम-अधोभागो यत्र ततो विशेषणकर्मधारये विचित्रोल्लोकचिल्लिअतलं तस्मिन् ] (मणिरयणपणासिअंधयारे) < मणिरत्नैः प्रणाशिताऽन्धकारे > (बहसमसुविभत्तभूमिभागे) बहु-अत्यर्थ पञ्चवर्णमणिकुट्टिमतलाऽऽकलितत्वात् समःअनिम्नोन्नतः सुविभक्तः-विहितविविधस्वस्तिको भूमिभागो यत्र तत्तथा तत्र (पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए) पञ्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा मुकेन-क्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेन उपचारेण-पूजया कलिते (कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंत) [इत्यादि] कालागुरु च-कृष्णाऽगुरु प्रवरकुन्दुरष्कं च-[प्रधानो] चीडाऽभिधो गन्धद्रव्यविशेषः तुरुष्कं च सिल्हकं दह्यमानो (धूव) धूपश्च -दशाङ्गादिगन्धद्रव्यसंयोगोद्भूत इति द्वन्द्वे तेषां सम्बन्धी यो (मघमघत) त्ति मघमघायमान:-अतिशयगन्धवान् (गंधुधुआभिरामे) गन्ध उद्धृतः-उद्भूतः तेनाऽभिरामे (सुगंधवरगंधिए) त्ति सुष्टु गन्धवराणां-प्रधानवासानां गन्धो यस्मिन्नस्ति तत् सुगन्धवरगन्धिकं तस्मिन् [(सुगंधवरगंधगंधिए) त्ति क्वचित् तत्र सुगन्धाः-सुरभयो ये वरगन्धा:-प्रधानचूर्णाः तेषां गन्धो यत्र तत्तथा तत्र (गंधवट्टीभूए) ति गन्धवत्तिः-गन्धद्रव्यगुटिका गन्धः 'कस्तूरिका' इति गन्धवतिः-कस्तूरिका गुटिका वा तद्भूते-सौरभ्याऽतिशयात् तत्कल्प इत्यर्थः। (तसि) [इत्यादि पूर्ववत्] तस्मिन् (तारिसगंसि सयणिज्जसि) तादृशके शयनीये-तल्पे (सालिंगणवहिए) त्ति सह आलिङ्गनवा-शरीरप्रमाणगण्डोपधानेन यत् तत् सालिङ्गनवतिः । तत्र-(उभओ) उभयतः-शिरोन्तपादान्तयोः (विब्बोअणे) त्ति उपधाने-गण्डूके यत्र तत्र । अत एव (उभओन्नए) उभयतः उन्नते (मज्झे णयगंभीरे) मध्ये ४ नतगम्भीरे-नतं च तद् गम्भीरं च महत्त्वात् नतगम्भीरं तत्र । (गंगापुलिणवालुअउद्दालसालिसए) त्ति गङ्गापुलिने BARABAR ॥९५॥ Jain Education stcmational For Private & Personal use only wow.jarmelibrary.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE श्रीकल्प किरणावल टीका व्शा०२ ॥१६॥ त्यादि-गङ्गातटवालुकाभिः अवदालेन-पादादिन्यासे अधोगमनेन सदृशके । अथवा प्राकृतत्वाद विशेषणस्य परनिपाते अवदालेन-पादादिविन्यासे अधोगमनेन गङ्गातटवालुकाभिः सदृशके इत्यर्थः । (ओअविअ) त्ति परिकर्मितं यत् (खोमिअदुगुल्लपट्टपडिच्छन्ने) क्षौमम्-अतसीमयं दुकूलं-वस्त्रं तस्य युगलाऽपेक्षया यः पट्टः-एकशाटकः तेन प्रतिच्छन्ने-आच्छादिते [(पडिच्छए) त्ति पाठे तु सप्रतिच्छद-आच्छादनं यस्येत्यादि] (सुविरइअरयत्ताणे) सुष्ठु विरचित रजवाणम्-आच्छादनविशेषोऽपरिभोगाऽवस्थायां यत्र (रत्तंसुअसंवुडे) रक्तांशुकसंवृते- मशकगृहाऽभिधानरक्तवस्त्रावृते (सुरम्मे) रमणीये (आईणगरूअरनवणीयतूलतुल्लफासे) [इत्यादि०] आजिनक-स्वभावादतिसुकुमालः चर्ममयो वस्त्रविशेषः रूतं-| कर्पासपक्ष्म बूरः-वनस्पतिविशेषः नवनीतं-म्रक्षणं तूलम्-अर्कतूलम् एभिः तुल्यः स्पों यस्य तत्तथा तस्मिन् (सुगंधवरकुसुमचुण्णसयणोवयारकलिए) [इत्यादि सुगन्धाभ्यां वरकुसुमचूर्णाभ्यां-सत्कुसुमजातिवासयोगाभ्यां यः शयनस्य-शय्यायाः उपचार:-पूजा तेन कलिते (पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि) [इत्यादि] मध्यरात्रे (सुत्तजागरा) < सुप्तजागरा (ओहीरमाणी ओहीरमाणी) पुनः पुनः ईषन्निद्रां गच्छन्ती (इमे एयारूवे) इमान् एतत्स्वरूपान् (उराले जाव चउद्दसमहासुमिणे) उदारान यावत् चतुर्दशमहास्वप्नान् (पासित्ताणं पडिबुद्धा) दृष्ट्वा जागरिता । (तं जहा-) तद्यथा गय-वसह-सीह-मभिसेअ-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुंभं । पउमसर-सागर-विमाणभवण-रयणुच्चय-सिहिं च ॥३२॥ PRASHASHISHASAHESAR ॥९६॥ JainEducaINI brary.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९७॥ [ 'तए णं' इत्यादित: ' वरोरुं' इति पर्यन्तम् ] तत्र - (तए णं सा तिसला खत्तिआणी ) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी (तप्परमार ) तत्प्रथमतया (इभ) गजं स्वप्ने पश्यति । अत्र च प्रथमम् इमदर्शनं सामान्यवृत्तिमाश्रित्योक्तम् । अन्यथा ऋषभमाता प्रथमं वृषभं वीरजननी तु सिंहमपश्यद् इति वृद्धाः । ( चउद्दतं त्ति चतुर्दन्तं - चतुर्दन्तमुशलं [ (तओ य चउद्दतं ) इति क्वचित् तत्र - ततश्च इति योजने 'तर णं' इत्यनेन पुनरुक्तता स्याद् अतः ततौजसो - महाबला चत्वारो दन्ता यस्य इति व्याख्येयम् ] (ऊसिअ ) उच्छितः तथा (गलिअविपुलजलहर ) ति गलितविपुलजलधरः - निर्जलविस्तीर्णमेघः (हारनिकर-खीरसायरससंककिरण- दगरय-रययमहासेल) हारनिकरः- पुञ्जीकृतहारः, क्षीरसागरः - प्रतीतः, शशाङ्ककिरणाः- चन्द्रमरीचयः, दकरजांसि - शीकराः, रजतमहाशैलः- वैताढ्यः एतेषां द्वन्द्वे तद्वत् (पंडुतरं) पण्डुरतर:- अतिशयेन धवलः । तत उच्छ्रितवासौ गलितविपुलजलघर - हारनिकर-क्षीरसागर - शशाङ्ककिरण-दकरजो-रजतमहाशैलपण्डरतरश्च इति कर्मधारयः । यद्वा(तसि० ) मुदं श्रितो मुच्छ्रितः क्षुधादिवाधाऽनाबाधितत्वेन शुभचेष्टः क्रोधानाविष्टो वा । तथा च ततौजाचतुर्दन्तश्रासौ गलितविपुलजलधर - हारनिकर - क्षीरसागर - शशाङ्क किरण- दकरजो-रजतमहाशैलपण्डरतरश्च इति विशेषण कर्मधारयः (ऊस) ति सविभक्तिकपाठे तु उच्छ्रितम् - उच्चम् इति भिन्नविशेषणं । ( समागम ) ति समागता (महुअर) मधुकरा :- भ्रमराः यत्र तथाविधं यत् (सुगंधदाणवासिअ ) सुगन्धदानं-मदवारि तेन वासितं ( कपोलमूलं) कपोलयोर्मूलं यस्य स तथा तं । (देवरायकुंजरवरप्यमाणं) ति देवराजः शक्रः तस्य कुञ्जरः- ऐरावणः तद्वद्वरं - शास्त्रोक्तं क. फि. ९ २५ Jain Educatiu mamational ॥९७॥ maal Haltibrary.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प- किरणावल टीका व्या०२ ॥९८॥ SGHIROSHIRISHISHIGURUSAN प्रमाणं-देहमानं यस्य स तथा तं (पिच्छइ) पश्यति । (सजलघणविपुलजलहरगजिअगंभीरचारुघोस) सजल:- जलसंयुक्तो घन:-निबिडो विपुल:-विस्तीर्णो यो जलधरः-मेघः तस्य यद् गर्जितं तद्वत् गम्भीरश्चारुश्च-प्रधानो घोपःशब्दो यस्य स तथा तं । <(इभ) गज (सुभं) शुभकारित्वात् > (सव्वलक्खणकयंबिअं) सर्वलक्षणानां कदम्ब-समूहः तज्जातं यस्य स तथा तं (वरोरु) ति वरः-प्रधानः सन्नुरु:-विशालः तम् ॥३३॥ राज्यश्री-समलड्कृतिः शुभगतिः निश्शेषभूपप्रियः शश्वद्दानविराजितो वरकरः सदन्तशोभाऽऽस्पदम् । ओजस्वी रिपुसैन्यभञ्जनविभुनिश्शेषसत्त्वोत्तमो हस्तीवेह भवत्सुतो बहुगुणो भावी द्विपाऽऽलोकनात् ॥१॥ ['तओ पुणो धवलकमल' इत्यादितो 'अमिअगुणमंगलमुहं' इत्यन्तम् ] (तओ पुणो) तत्र-ततः पुनः (वसहं पिच्छइ) वृषभं पश्यति । कीदृशं ? (धवलकमलपत्तपयरातिरेगरूवप्पभ) ति धवलानां कमलानां यानि पत्राणि तेषां प्रकरः-समूहः तस्माद् अतिरेका-अधिकतरा रूपप्रभा यस्य स तथा तं । (पहासमुदओवहारेहिं सवओ चेव दीवयतं) प्रभासमुदयः-कान्तिकलापः तस्योपहारा-विस्तारणानि तैः सर्वत:दशापि दिशो दीपयन्तं । पुनः कीदृशम् ? (अइसिरिभरपिल्लणाविसप्पंतकंतसोहंतचारुककुहं) ति यद्यपि ककुदं स्वभावेनैवोल्लसति तथाप्युत्प्रेक्ष्यते-नेदं स्वभावतः किन्तु-अतिश्रीभरः-उत्कृष्टशोभासमुदयः तेन यत्प्रेरणा इव प्रेरणा तयैव विसर्पद्-उल्लसद् अत एव कान्तं-दीप्तिमत् शोभमानं च चारु च-प्रधानं ककुदं-स्कन्धो यस्य स तथा तं । (तणुप्तुद्धसुकुमाललोमनिद्धच्छवि) ति तनूनि-सूक्ष्माणि शुद्धानि-शुचीनि सुकुमालानि-मृदुस्पर्शवन्ति यानि रोमाणि तेषां ARREARSASARAM ॥९८॥ Jain Ede mational For Private & Personal use only W brary.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९९॥ स्निग्धा छविर्यस्य स तथा तं । तथा (थिरसुबद्धमंसलोवचिअलट्ठसुविभत्तसुंदरंग) ति स्थिरं-दृढम् । अत एवसुबद्धं तथा मांसलम् । अत एव-उपचितं-पुष्टं लष्ट-प्रधानं सुविभक्त-यथावत्संनिविष्टाऽवयवम् एवंविधं सुन्दरम् अङ्गदेहं यस्य तथा तं । (पिच्छइ) प्रेक्षते । (घणवलढउक्किहतुप्पग्गतिखसिंग) ति घने-निचिते वृत्ते-वर्तुले लष्टोत्कृष्टे-लष्टादप्युत्कृष्टे अतिश्रेष्ठे म्रक्षिताग्रे तीक्ष्णे शङ्गे यस्य स तथा तं[ क्वचित्तु-(तुप्पपुष्फग्गतिक्खसिंग) इति पाठः तत्र तुप्पे-म्रक्षिते पुष्पं-गोरोचनासूनकं विन्दुरूपं तदग्रे-उपरिभागे ययोः ईदृशे तीक्ष्णे शृङ्गे यस्य स तथा तं] (दंत) दान्तम्-अकरं (सिवं) शिवम्-उपद्रवोपशामकं (समाणसोभंतसुद्धदंतं) ति समाना:-तुल्यप्रमाणाः । अत एव-शोभमानाः शुद्धा:-श्वेताः दोषरहिता वा दन्ता यस्य स तथा तं । (वसह) वृषभं (अमिअगुणमंगलमुहं) ति अमिता-मानरहिता गुणा येभ्यः एवंविधानि यानि मङ्गलानि तेषां मुखं इव मुख-द्वारम् ॥३४॥ उद्धां भवपङ्कमग्नमखिलं विश्वं भविष्यत्यलं दुर्वाह्यां विषमेऽपि सुव्रतधुरं मोक्ता हि नो सर्वथा । सप्तक्षेत्रमुवित्तबीजवपने सानिध्यदाता सतां भावी च स्तवनीयतारगमनः पुत्रो वृष-स्वप्नतः ॥२॥ ['तओ पुणो हार' इत्यादितः 'चारुजीहं' इति पर्यन्तम् ] (तओ पुणो नहयलाओ ओवयमाणं) तत्र-ततः पुनः नभस्तलादवपतन्तम्-अवतरन्तं तदनु (नियमवयणमहवयंत) निजकवदनम् अतिपतन्तं प्रविशन्तं (सा सीहं पिच्छइ) सा-त्रिशला सिंह पश्यति । कीदृशं पुनः? (हारनिकरखीरसागरससंककिरणदगरयर ययमहासेल) ['हारे'त्यादि व्याख्या प्राग्वत् ] पुञ्जीकृतहारः क्षीरसागरः शशाङ्क ARCRECCACAREE ॥९९ San a tional For Private & Personal use only wwindindimrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥१००॥ किरणाः दकरजांसि रजतमहाशैलः - वैताढ्यः एतेषां द्वन्द्वः तद्वत् (पंडुरतरं ) (२००) पण्डुरतरः- धवल: (रमणिज पिच्छणिज्जं ) ति रमणीयं- मनोहरम् । अत एव प्रेक्षणीयं द्रष्टुम (थिरलट्ठपउडपीवरसुसिलिट्ठविसितिक्खदाढाविविअहं) इत्यादि] स्थिरौ दृढौ लष्टौ -कान्तौ प्रकोष्ठौ - कलाचिके यस्य स तथा वृत्ताः - वर्तुला: पीवराः पुष्टाः सुश्लिष्टाः - अन्योऽन्यं सुसम्बद्धा विशिष्टाः - प्रधानाः तीक्ष्णा याः दाढा दंष्ट्राः ताभिः विडम्बितम् - अलङ्कृतं मुखं यस्य स तथा ततो विशेषण कर्मधारयः । [ 'विडंबिओ' ति विवृतम् इति केचित् ] ( परिकम्मिअजञ्चकमलकोमलपमाण सोनंत) ति परिकम्मितौ इव परिकर्मितौ जात्यकमलवत्कोमलौ प्रमाणेन मात्रया शोभमानी लष्टौ प्रधानौ ओष्ठौ यस्य स तथा तं ( रत्तुप्पलपत्तम असुकुमालतालुनिल्ला लिअग्गजी ) ति रक्तोत्पलपत्रवत् मृदु सुकुमालं च यत् तालु तच्च निललिता - निष्कासिता लपलपायमाना वा अग्रा अय्या वा प्रधाना या जिहा सा च विद्यते यस्य स तथा तं । (मूसागयपवरकणगताविअआवत्तायंत वट्टतडियविमलसरिसनयणं) ति मूषा- मृन्मयभाजन विशेषः तत्र गतं - संस्थं वरं प्रधान तापितम् - अग्निसम्पर्केण द्रवीकृतम् । अत एव आवर्त्तायमानं यत् कनकं - सुवर्ण प्राकृतत्वाद्विशेषणयोः परनिपाते मूषागतवरकनकतापिताssवर्त्तायमानं तद्वद्वृत्ते विमलतडित्सदृशे च नयने यस्य स तथा तं । (विसालपीवरवरोरुं) विशालौविस्तीर्णौ पीवरौ - पुष्टौ वरौ -प्रधानौ ऊरू यस्य स तथा तं । तथा (पडिपुनविमलसंध) प्रति पूर्णः - अन्यूनो विमलः स्कन्धो यस्य स तथा तं । तथा (मिउविसयसुहुमलक्खणपसत्थविच्छि (स्थि)न्न केसराडोव सोहिअं) ति मृदूनि - सुकुमाराणि विशदानि - धवलानि सूक्ष्माणि - तनूनि लक्षणैः प्रशस्तानि - प्रशस्तलक्षणानि विस्तीर्णानि दीर्घानि यानि केसराणि -स्कन्ध Jain Educational 1179 किरणावल टीका व्या० २ ॥१००॥ brary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १०१ ॥ २९ सम्बन्धिरोमाणि तेषाम् आटोपः - उद्धतता तेन शोभितं । तथा ' ( उसियसुनिम्मिअसुजाय अप्फोडिअलंगूलं) ति उच्छ्रितम् - उदग्रं सुनिर्मितं - कुण्डलीकृतं सुजातं - सशोभं यथा स्यात् तथा आस्फोटितम् - आच्छोटिवं लागलं - पुच्छं येन स तथा तं । (सोमं) सोमं सौम्यं वा मनसा अक्रूरम् इत्यर्थः । ( सोमाकारं ) ] सोमाऽऽकारं - सुन्दराऽऽकृर्ति (लीलायंतं) लीलायन्तं - मन्थरगति (गाढनिक्खग्गनहं) त्ति गाढम् - अत्यर्थ तीक्ष्णानि अग्राणि येषाम् एवंविधा नखा यस्य तं । तथा (वयणनिरिपल्लवपत्तचारुजीहं) ति वदनस्य-मुखविवरस्य श्रिये - रक्तत्वमृदुत्वाभ्यां शोभायै पल्लव इव प्राप्ता-प्रसारिता चार्थी जिह्वा येन स तथा तं । 'वयगसिरिपलं वपत्तचारुजी) इति पाठे वदनस्य श्रीः -शोभा यया सा वदनश्रीः तथाविधा लम्बा पत्रवच्चावच जिह्वा यस्य इति व्याख्येयम् ] ।। ३५ ।। सिंहो मुख्यतमःपद्गगे जिह्माऽऽकृतिः प्रोच्यते, निष्णातेन यथा तथा तव जनुः सर्वेषु सच्चेषु च । दानज्ञान पराक्रमादिक गुणैर्माविशिरोरत्नवत्, बाह्याभ्यन्तरबैरिहस्तिदलने हस्तिद्विषो दर्शनात् ॥ ३ ॥ [ 'तओ पुणो' इत्यादितः 'करामिसि मणि' इति यावत् ] तत्र (नओ पुगो) ततः पुन ( पुगचंद वयणा) पूर्णचन्द्रवदना - त्रिशला ( पउमद्दहकमलवासिणि) पद्महूदान्त:कमलवासिनीं (हिमवं नसेल सिहरे) हिमवत्तैलशिखरे (दिसा गई दो रूपोवर कराभिसिच्चमाणिं ) ) दिग्गजेन्द्रोरुपी वरकरामिपिच्यमानां (भगवई सिरिं पिच्छइ) भगवन श्रीदेशीं पश्यति । कीदृशीम् ? (उच्चागयठाण) ति उच्च ॥१०१॥ हा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली टीका व्या०२ LOOK श्रोकलपट हिमवति आगत-प्राप्तं । यद्वा-उच्चो योगः-पर्वतो हिमवान् तत्र जातम् उच्चागजम् एवंविधं यत्स्थानं-कमलम् । ॥१०२॥ तच्चैवं--योजनशतोच्चो द्वादशकलान्वितद्विपश्चाशदुत्तरयोजनसहस्र-१०५२-१२।१९) पृथुलः स्वर्णमयो हिमवन्नामा नगः । तत्र दश (१०) योजनोद्वेषः पञ्चशत (५००) योजनपृथुलः सहस्र (१०००) योजनदी? वज्रतल: पद्महूदनामा हृदः। तन्मध्यभागे क्रोद्योच्चम् एक (१) योजनयुदीर्घ नीलरत्नमयदश (१०) योजननालं वज्रमयमूलं रिष्ठरत्नमयकन्दं रक्तस्वर्गमयवायत्रं जाम्बूनदमयाऽभ्यन्तरपत्रं चै काठम् । तत्र क्रोशद्वयपृथुलाऽऽयामा क्रोशैकोच्चा रक्तकनकमयकेसरा कनकमयी कणिका तस्या मध्ये क्रोशैकदीर्घ क्रोशाऽर्धपृथुलं किञ्चिन्यूनकोशोच्चं पश्चशत (५००) धनुरुच्चतदर्धमानपृथु पूर्वदक्षिगोत्तररूपदिकत्रयवर्तिद्वारत्रिकं श्रीदेवीभवनम् । तन्मध्ये सार्द्धशतद्व पधनुर्माना मणिवेदिका । तदुपरि च श्रीदेवीयोग्य शयनीयं । तन्ख्याालपसिश्च श्रीदेव्याभरणभृतानि वलयाकाराणि तदर्द्धमानानि अष्टोत्तरशतपद्मानि । तत्परितो द्वितीयवलये-वायव्येशानोत्तरदिक्षु चतुःसार सामाजिक मुराणां चतुःसहस्रसख्याकानि कमलानि । पूर्वदिशि चतसृणां महत्तर देवीनां चत्वारि कमलानि । आग्नेय्यां गुरुस्थानीयाऽभ्यन्तरपार्षदाष्टसहस्रमुरागाम् असहस्रकमलानि । दक्षिगस्यां मित्रस्थानीयमध्यमपार्षददशसहस्र मुरागां दशसहस्रका लानि । नैऋत्यां किङ्करस्थानीयवाह्य पार्षदद्वादशसहस्रसुराणां द्वादशसहस्रकमलानि । पश्चिमायां इस्त्य-श्व-रथ-पदाति-महिष-गन्धर्ष-नाटय रूपसप्तसैन्यस्वामिनां सप्तपढयानि पानि । ततः तृतीयवलये-पोडशसहस्राऽङ्गरक्षकदेवानां पोडशसहस्रकमलानि । चतुर्थवलये-द्वात्रिंशल्लक्षाऽभ्यन्तराऽभियोगिकदेवानां द्वात्रिंशल्लक्षकमलानि । ॥१०२॥ For Private & Personal use only amalibrary.org Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१०३॥ पञ्चमे वलये - चत्वारिंशल्लक्षमध्यमाऽऽभियोगिकदेवानां चत्वारिंशक्षकमलानि । पष्ठे वलये - अष्टचत्वारिंशल्लक्षबाह्याssभियोगिकसुराणाम् अष्टचत्वारिंशल्लकमलानि । एवं च - आत्मना सह पदभिः वलयैः सर्वसया कमलानि एका कोटि: त्रिंशतिः लक्षाः पञ्चाशत् सहस्राः शतम् एकं विंशतिश्व इति (१२०५०१२०) । एवम् - रवि कमलैः परिवृते कमले (लट्ठसंठिअं) लष्टं प्रधानं यथा स्यात् तथा संस्थितां प्राप्ताम् । अन्यत्र अवस्थितापि पद्मवासिनी भवत्येव इति तत्रैव संस्थिताम् इीि सूचनार्थ विशेषणं । (पत्थरूवं ) ति प्रशस्तरूपां (सुपइडिअ कणगमय कुम्मस रिसोवमाणचलणं) ति सुप्रतिष्ठितौ- समतलनिवेशौ कनकमयकूर्मेग उन्नतत्वात् सदृशम् उपमानं ययोः तादृशौ च चरवौ यस्याः सा तथा ताम् । (अच्चुन्नयपीणर इअमंसल उन्नयनणुतंबनिन हं) ति अत्युतं पीर-अनुष्ठाय तत्र रजिता - रञ्जिता लाक्षारसेन रञ्जिता इव मांसला मध्योन्नताः तनवः - तलिनाः ताम्राः-अरुणाः स्तिग्वाः-अहताः नखाः यस्याः सा तथा तां । या अत्युन्नतानपि निजरूनदप दुरानपि प्रीणयति विशेष कार्य । (कपासबुक वाल करचर न होनलवरंगुलिं ति कमलस्य पलाशानि-पत्राणि तद्वत् यु हुपाल करवरगौ यस्याः सा चासौ कोलिथ इति । ( कुरुविंदावत्तवाणुपुन्वजंघ) ति कुरुविंदाव- भूषणविशेष आवर्तविशेषो वा तद्वत्यौ वृत्तानुपूर्वे च जवे यस्याः सा तथा तां । (निगूढजाणु) निगूढजानुं - गुप्त Jain Education famational ॥ १०३ majanturary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रांकल्प किरणार टीका व्या ॥१०४॥ HERE- जानुं (गयवरकरसरिसपीवरोरु) ति गजवरकर:-गजेन्द्रशुण्डा तत्सदृशे पीवरे-पुष्टे ऊरू यस्याः तां । (चामीकररइअमेहलाजुत्तनविच्छि(त्थि)न्नसोणिचक्क) ति चापीकररचितमेखलायुक्तं कान्तं विस्तीर्ण श्रोणिचक्र-कटिचक्रं यस्याः तां। (जच्चजणभमरजलयपयर) ति जात्याञ्जन-प्रदिताञ्जनं तथा च जात्याञ्जनभ्रमरजलदप्रकर इव वर्णेन तादृशी इत्यर्थः। (उज्जुअसमसंहिभतणुअआइज्जलडहसुकुमालमउअरमणिज्जरोमराई) ऋजुका-सरला समा-अविषमा संहितानिरन्तरा तनुका-सूक्ष्मा आदेया-सुभगा लटभा-सविलासा सुकुमालमृदुका-सुकुमारेभ्योऽपि-शिरीषपुष्पादिभ्योऽपि मृदुका रमगीया मनोज्ञा रोमराजी यस्याः तां । (नाभिमंडलसुंदरविसालपसत्यजघणं) ति नाभिमण्डलेन सुन्दरं विशाल प्रशस्तसुलक्षणत्वात् जघनं यस्याः तां । (करयलमाइअपसस्थतिवलिभमज्झ) ति कातलेन-मुष्टिना मेयं-मानयोग्यं मानं वा प्रशस्तं त्रिवलीक-चलीत्रययुक्तं मध्यं यस्याः तां । (नाणामाणिरयणणगविमलमहातबणिज्जाभरणभूसणविराइअमंगुवंगि) ति नानाप्रकाराणि यानि आमरणानि भूपणानि च इति योज्यं । मणयः-चन्द्रकान्ताद्या रत्नानि-वैडूर्यादीनि कनकं-पीतवर्ण, तपनीयं-तदेव रतं तच्च जात्यत्वाद् विमल-महच्छब्दाभ्यां विशेपितं तेषां यानि आभरणानिअङ्गपरिधेयानि यानि च भूषणानि-उपाङ्गपरिधेयानि तैः विराजितानि यथाक्रमम् अङ्गानि-शिरप्रभृती नि उपाङ्गानि चअङ्गुल्यादीनि यस्याः तां 'मंगु' त्ति माऽऽगमस्यापत्वात् (हारविरायंतकुंदमालपरिणद्धं) हारेण विराजत् कुन्दमालयाकुन्दादिकुसुममाल या परिणद्ध-व्या तं । (जलजलिंतथणजुअलविमलकलसं) ति जाज्वल्यमानं-देदीप्यमानं स्तनयुगलम् सका। CHALEGECE ॥१०४॥ SanEdus For Private & Personal use only R E orary.org Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १०५ ॥ २७ Jain Educati एव विमल शौ यस्याः तां । (आहअपत्तिअ) इत्यादि) अत्र 'मुक्ताकलापेन कण्ठमणिसूत्रकेण शोभागुणसमुदयेन 'च' इति विशेषणत्रयेण सविशेषणेन उपलक्षिताम् इति भगवतीविशेषणमध्याहृत्य व्याख्येयम् । तथाहि - (आइ अपत्तिविसिए) ति-मर्यादया स्थानौचित्येन चिता-व्यस्ता या पत्रिका मरकतपत्राणि ताभिः विभूषितः - अलङ्कृतः । अथवा - आदृतप्रत्ययितैः- सादर विश्वस्तविज्ञानिकैः विभूषितः- विरचितमण्डनः तेन (सुभगजालुजलेणं) ति सुभगै:-दृष्टिहारिभिः जालैः - गुच्छविशेषैः उज्ज्वलः तेन । एवं विवेन (मुत्ताकलावणं) मुक्काकलाप केनोपलक्षितां तथा (उरस्थदीणामाविरइएणं) चः पुनरर्थे उरःस्थया दीनारमालया विरचितेन विराजितेन वा (कंठमणिमुत्तएण य) कण्ठमणिसूत्रत्रेण-कण्ठस्थरत्नमयसूत्रेणोपलक्षितां तथा (कुंडलजुअलुल्लसतं अंसोवसत्त) चि 'देहलीप्रदीप' न्यायेन चकारस्य अत्राऽपि सम्बन्धात् । पुनः कीदृशीं भगवतीम् ? आर्यत्वाद् अंसोपसक्तम् इति विशेषणस्याऽपि परनिपातेन असयोः स्कन्धयोः उपसक्तं- लग्नं यत् कुण्डलयुगलं तस्य उल्लसन्ती (सोभनसप्पभेणं) शोभमाना सती - प्रशस्ता प्रभा यत्र । एवंविधेन (सोभगुणसमुदपणं) शोनागुणसमुदयेन दीप्तिलक्षणगुणप्राग्भारेण । किं लक्षणेन ? (आणणकुडुंविरण) आनन कौटुम्बिकेन यथा किल राज्ञः शोभाकारिणः कौटुम्बिकाः तथा मुखनरेन्द्रस्य शोभाकारित्वेन यः कौटु विप्रायः अंसोपसतकुण्डलयुगलोल्लसत्प्रभः शोभागुणसमुदयः तेनोपलक्षिताम् इति । (कमलामलविसालर मणिजलोअर्ण) कमलाऽमलविशालरमणीयलोचनाम् इति तु स्पष्टमेन । (कमलपजलंत कर गहिअमुक्कतोयं ) ति प्राग्वत् परनिपाते प्रज्वलन्ती - दीप्तिमन्तो यौ करौ ताभ्यां गृहीते ये कसले ताभ्यां मुकं-क्षरत् तोयं - मकरन्दरूपं जलं यस्याः सा तथा तां । ational ॥१०५॥ library.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०२ ॥१०६॥ CHECECRECTORAGRECREGARAc (लीलावायकयपक्खएण) ति लीलया न पुनः स्वेदापनोदाथ स्वेदस्यैवाऽभावात् वातार्थ-वातोत्क्षेपार्थ कृतो यः पक्षकः- तालवृन्तं तेनोपलक्षिताम् इति अत्राऽप्यध्याहार्य । यद्वा-लीलायै शोभार्थं परैः सह स्पर्द्धया यो वादः तत्र कृत:-विहितो यः पक्षः प्रतिज्ञापरिग्रहः क प्रत्यये तेन । (सुविसदकसिणघणसण्हलंबतकेसहत्थं) ति सुविशदः स्पष्टः-न पुनर्जटाजूटवदविवृतः कृष्णः-श्यामः घन:-अविरलः सूक्ष्मः-तलिनः लम्बमानः केशहस्तः-केशपाशो यस्याः ताम् । लक्ष्मीदर्शनतश्चिरं निरुपमामादौ सुराज्यश्रियं भोक्ता ज्ञानरमामवाप्य सुतरां तत्तीर्थलक्ष्मी ततः । नूतामिन्दिवरैः सदाऽनुभविता निःसीमभाग्यश्रियं पारं यास्यति चाऽविनश्वरतरां मोक्षश्रियं वः सुतः ॥४॥ इति श्री जैनशासनसौधस्तम्भायमान-महामहोपाध्यायश्री धर्मसागरगणिवर विरचितायां कल्पकिरणावल्यां द्वितीयं व्याख्यानं समाप्तम् ।। THERECAAAAAAA ॥१०६॥ For Privale & Personal use only www.ainelibrary.org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७॥ ANGRECREAKRETECTECIA-%AGAP अथ तृतीयं व्याख्यानं प्रारभ्यते । ['तओ पुणो सरस' इत्यादित 'ओवयंत' इति पर्यन्तम् ] तत्र-(तओ पुणो) ततः पुनः (नभंगणतलाओ ओवयंत) नभस्तलाद् अपत (दाम पिच्छइ) दाम पश्यति । कीदृशं ? (सरसकुसुममंदारदाम) त्ति सरसकुसुमानि यानि मंदारदामानि-कल्पद्रुममालाः तैः परिकरितत्वाद् (रमणिजभूअं) रमणीयभूतं-रम्यमित्यर्थः । (चंपगासोगपुन्नागनागपियंगुसिरीसमुग्गरमल्लिआजाइजूहिअंकोल्लकोजकोरिंटपत्तदमणयनवमालिअब उलतिलयवासंतिअप उमुप्पलपाडलकुंदाइमुत्तसहकार-)< चम्पकः अशोकः पुन्नागः नागः प्रिय गुः शिरीषः मुद्गरः मल्लिका जाति यथिका अङ्कोल्लः कोजकोरिण्टौ दमनकपत्राणि नवमालिका बकुलः तिलकः वासन्तिका पदानि उत्पलानि पाटल: कुन्दः अतिमुक्तः सहकारः> । चम्पकाऽशोकादीनां सहकाराऽन्तानां यः (सुरभिगंध) मुरभिगन्धः सोऽस्ति यस्य तत् (अणुवममणोहरेणं) अनुपममनोहरेण (गंघेणं) गन्धेन (दसदिसाओ वि) व्यवहितस्याऽप्यपेः सम्बन्धाद् दशाऽपि दिशः (वासयंत) वासयत् । (सम्वोउअसुरभिकुसुममल्लधवलविलसंतकंतबहुवण्णभत्तिचित्तं) सर्वत्तुकं यत् सुरभिकुसुममाल्यं तेन धवलं तच्च तद् विलसत्कान्तबहुवर्णभक्तिचित्रं च इति विशेषणकर्मधारयः। अनेन धवलवर्णस्याऽऽधिक्यं लक्ष्यते । (छप्पयमहुअरिभमरगणगुमगुमायंतणि लिंसगुंजंतदेसभाग) त्ति प्राकृतत्वात् प्राग्वद विशेषणानां ॥१०॥ Jain Education international For Privale & Personal use only www.jairtelibrary.org Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प BHASHA ॥१०८॥ परत्वेऽपि-गुमगुमायमानो मधुरं ध्वनन् निलीयमानः-स्थानान्तरादागत्य तत्र लीयमानो गुञ्जन्-शब्दाविशेष कुर्वश्च माकिरणावर्ल षट्पद-मधुकरी-भ्रमराणां वर्णादिभेदभिन्नभ्रमर जातीनां गणः-समुदायो देशभागेषु-तस्मिन् तस्मिन् देशे यस्य तद् | टीका | व्या०२ गुमगुमायमान-निलो यमान-गुञ्जन् षट्पद-मधुकरी-भ्रमरणगणदेशभागमित्यर्थः ॥३७॥ दामाऽऽलोकनतोऽमरप्रकुसुमेरचिप्यते निरैः, पुत्रो वर्यफलप्रदोऽत्र भविनां मन्दारपुष्पौघवत् । मालागन्धवदन्वहं सुतयशो विश्वप्रसारि स्फुटं, पुत्राऽऽज्ञा शिरसि हिता निदधती शेषेव धार्या नृपैः ॥५॥ 'ससिंच' इत्यादितः' 'समुल्लसंत' इति पर्यन्तम्] तत्र-ततः पुनः (सा) सा-त्रिशादेवी षष्ठे स्वप्ने (ससिं च पिच्छद) शशिनं पश्यति । कीदृशं? (गोखीरफेणदगरयरययकलसपंडुरं) गोक्षीर-फेन-दकरजो-रजतक रशपाण्डुरं) (सुभं) शुभं (हिअयनयणकंत) हृदयनयनकान्तं (पडिपुन्नं) प्रतिपूर्ण-पोडशकलासंयुकमित्यर्थः। (तिमिरनिकरघण गुहिरवितिमिरकर) त्ति तिमिरनिकरेण निविडगम्भीरस्य-वनकुञ्जादेः तिमिराणामभावः तत्करणशीलं । (पमाणपक्वतरायलेहं) त्ति प्रमाणपक्षयोः-- वर्षादिप्रमाणहेत्वोः शुक्र कृष्णपक्षयोः अन्त:-मध्ये र जन्ती लेखा-कला यस्य । अश्वा 'चान्द्र'मासाऽपेक्षया प्रमाणपक्षयोः अन्ते पौर्णमास्यां रागदा-हर्षदायिन्यो लेखा:-कला यस्य तं-परिपूर्णकलमित्यर्थः। (क्रुभुअवणविबोहगं) कुमुदवनविबोधकं । (निसासोभग) निशायाः शोभकं । (सुपरिमट्ठदप्पणतलोवम) सुपरिमृष्टेन दर्पणतलेनोपम! ॥१०८ यस्य तं । (हंसपटुवनं) हंसस्येव पटुः-धवलो वर्णो यस्य तं । (जोइसमुहमंडगं) ज्योतिषां मुखमण्डक। PRASNA Sain Educ Monational For Privale & Personal use only hilibrary.org Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१०९॥ २८ कल्प कि०१० Jain Educa (तमरिपुं) तमोरिपुं । (मयणसरापूर गं) मदनस्य शरापूरं - तूणीरमिव यस्मादुदिते किल चन्द्रे कामः कामिनः स्वराणां लक्षीकरोति । (समुददगपूरगं) समुद्रस्य दकं पानीयं पूरयतीति चन्द्रिकया तदुल्लासकारित्वादिति तं । (दुमण्णं जणं दइअवज्जिअं) दुर्मनस्कं दयितवर्जितं जनं विरहिणीलोकं (पायएहिं सोसयंत) पादकैः - 'प्रशंसायां कप्रत्यये' किरणैः शोषयन्तं - तापाऽतिरेककरणात् । (पुणो ) ' पुनः शब्दः प्रथममेव योजितः । (सोमचारुरूवं) सौम्यं सन्तं चारुरूपं । ( गगणमंडलविसालसोमचकम्ममाणतिलयं ) ति प्राग्वत् परनिपाते विशालस्य गगनमण्डलस्य सौम्यं चङ्क्रम्यमाणं जङ्गमं तिलकमिव विभूषाहेतुत्वात् । (रोहिणिमणहि अयवल्लहं) रोहिण्याः मनःचित्तं तस्य हितदः - अनुकूलदायी वल्लभः प्रियः तं । 'हितद' इति त्वेकपाक्षिक प्रेमनिरासार्थं सर्वनक्षत्राऽधिपतित्वेऽपि यत्र 'रोहिणिमनोहितदवल्लभ' इति विशेषणं तल्लोकरूढया । (देवी) त्रिशला (पुनचंदं) पूर्ण:- अविकल : चन्द्र- आह्लादोऽस्माद् | अथवा - पूर्णः चन्द्रः - दीप्तिः घनाद्यनावृतत्वाद् यस्य तम् । अत एव (समुल्लसतं) समुल्लसन्तंप्रतिक्षणं देदीप्यमानम् ॥ ३८ ॥ < emational सम्पूर्णेन्दु विलोकनादमल भासौम्यः सुवृत्तः कला, श्रीधामाऽमृतदायकः कुवलयोल्लासी महर्षिप्रियः । राकाश्चन्द्र इवाऽङ्गजोऽतिसुभगो भावी परं न क्षयी, जिह्यांसुर्न दिनेsकलङ्ककलितो नो चैव दोषाssकरः ॥ १ ॥ [ 'तओ पुणोत्तम' इत्यादितो 'दित्तसोहं' इत्यन्तम् ] तत्र - (तओ पुणो ) ततः पुनः सप्तमे स्वप्ने ( सूरं ) सूर्य ( पिच्छइ) पश्यति । कीदृशम् ? ( अतमपडलपरिप्फुडं) ॥१०९॥ brary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावलं टीका 3 व्या०३ तमःपटलस्याऽभावः अतमःपटलं तेन परिस्फुट-सर्वदिक्षु प्रकटं । यद्वा-तमःपटलं परिस्फोटयतीति तमःपटलपरिस्फोटः तं । (चेव तेअसा पजलंतरूवं) त्ति 'चेव' शब्दस्य-अवधारणाऽर्थस्य व्यवहितस्याऽपि सम्बन्धात् तेजसैव प्रज्वलद्रप प्रकृत्या हि सूर्यमण्डलपतिबादरपृथ्वीकायिकाः शीतला एव; अथवा 'चेब' ति समुच्चयाऽर्थः। (रत्तासोगपगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्वरागसरिस) रक्ताऽशोकश्च प्रकाश किंशुकश्च-पुष्पितपलाश: शुकमुखं च गुञ्जार्द्धश्च तेषां रागेण सदृशम् ; आरक्तत्वात् । | (कमलवणालंकरणं) कमलवनम् अलङ्करोति-विकाशश्रिया विभूषयतीति कमलवनाऽलङ्करणः तं । (अंकणं जोइसस्स) ज्योतिष-ज्योतिश्चक्रं तस्य अङ्कन-मेषादिराशिसङ्क्रमणादिना लक्षणज्ञापकं । (अंबरतलपई) अम्बरतलप्रदीपं । (हिमपडलगलग्गह) हिमपटलं गले गृह्णाति इति हिमपटलगलग्रहः-अवश्यायराशेः गले हस्तयिता इत्यर्थः ततः तं । (गहगणोरूनायगं) ग्रहगणस्य उरू:-महान् नायकः तं । (रत्तिविणासं) रात्रिविनाशमिति स्पष्टं । (उदयत्थमणेसु मुहत्तसुहदसणं) उदयास्तमयोः मुहूर्त सुखदर्शनम् । अन्यदा तु-(दुनिरिक्खरूवं) दुनिरीक्ष्य रूपमिति व्यक्तं । (रत्तिमुद्धंतदुप्पयारप्पमद्दणं) ति रात्रौ 'मकारस्य अलाक्षणिकत्वात् ' उद्वावत-उच्छंखलान् दुष्प्रचारान्-चौरपारदारिकादीन् दुष्टप्रचारान् प्रमईयति यः तं । (सीअवेगमहणं) शीतवेगमर्थन-जाड्याऽतिशयविध्वंसक। (मेरुगिरिसययपरिअट्टयं) मेरुगिरि सततं-निरन्तरं परिवर्तयति-प्रदक्षिणयति इति मेरुगिरिसततपरिवर्तकः तं । (विशालं) विशाल-विपुलमण्डलं (रस्मि सहस्सपयलिअदित्तसोहं) रश्मिसहस्रेण-हेतुभूतेन प्रगलिता प्रदलिता वा दीप्तानामपि-चन्द्रादीनां शोभा यस्माद् येन वा स तथा तम् । अत्र रश्मिसहस्राऽभिधानं रूढयाऽवगन्तव्यम् । अन्यथाऽऽधिक्यमपि रविरश्मीनां लोकशास्त्रेषूच्यते । यथा ABOECARECRecy ॥११०॥ Jain E t ernational For Private & Personal use only Beibrary.org Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥११॥ १ ऋतुभेदात् पुनस्तस्या-ऽतिरिच्यन्तेऽपि रश्मयः । शतानि द्वादश मधौ त्रयोदश तु माधवे ॥१॥ चतुर्दश पुनर्येष्ठे नभोनभस्ययोस्तथा । पञ्चदशैव त्वापाढे पोडशैव तथाऽऽश्विने ॥२॥ कार्तिके त्वेकादश च शतान्येवं तपस्यपि । मार्गे च दश सार्दानि शतान्येवं च फाल्गुने ॥३॥ पोष एव परं मासि सहस्रं किरणा रवेः इति ॥३९॥ १ चैत्रे | वैशाखे । ज्येष्ठे | अपाढे | श्रावगे । भाद्रपदे | आश्विने | कार्तिके मागें । पोषे । माघे । फाल्गुने १२०० १३०० १४०० १५०० १४०० १४०० १६०० ११०० १०५० १००० ११०० १०५० | सच्चक्राणां प्रमोदं विधदसुरतमोयुक्तदोषाऽपनेता, विश्वव्यापिप्रतापो निरुपमकमरोल्लासकृत् जाड्यहर्ता । भाविपुत्रो हि भास्वानिव परममितस्फूर्यदुद्योतकारी, चण्डो नाऽस्तङ्गमी (स्यात् ) कुवलयहितभामण्डलोऽर्कोऽवलोकात् ॥७॥ ['तओ पुणो जच्च०' इत्यादितः 'पिच्छणिजरूवं' इत्यन्तम् ] तत्र-(तओ पुणो) ततः पुनः अष्टमे स्वप्ने (धयं पिच्छइ) ध्वज पश्यति । <कीदृशं ?> (जच्चकणगलट्टिपइडिअं) जात्यकनकलष्टिप्रतिष्टितं । (समूहनीलरत्तपीअसुकिल्लसुकुमालुल्लसिअमोरपिच्छकयमुद्धयं) 'समूहोऽस्त्येषाम्' इति समूहा-'अभ्रादित्वादअप्रत्यये' समूहवन्तः-प्रचुरा इत्यर्थः । तैः नील-रक्त-पीत-शुक्लैः कृष्णस्य नीलादनतिविप्रकर्षात् ; पञ्चवर्णैः सुकुमारैः-कोमलैः उल्लसद्भिः-बातेन स्फुरद्भिः मयूरपिच्छैः कृता मूर्द्धजा इव-केशा इव यस्य स तथा तं (धयं) ध्वजमिति प्रायोजितमेव । (अहिअसस्सिरीअं) अधिकसश्रीकम्-अतीवशोभायुक्तं । (फालि CIRCROCHAKRACOCKSA-P ROCESSEX ॥११९ Jain Educ a tional For Private & Personal use only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प टीका ॥११२॥ असंखंककुंददगरयरययकलसपंडुरेणं) त्ति स्फटिकं च शङ्खश्च-कम्बुः अथवा स्फाटितः-भिन्नः शङ्खः अङ्कश्च-रत्न | किरणावल विशेष: कुन्दश्च-कुन्दमाल्यं दकरजांसि च जलकणाः रजतकलश:-रूप्यकुम्भः तद्वत् पाण्डुरेण । (मत्थयत्थेण) मस्तकस्थेन व्या० (रायमाणेण) राजमानेन (भि गगणतलमंडलं चेव ववसिएणं सीहेण रायमाणं) गगनमण्डलं भेत्तुं व्यवसितेनैवकृतोद्यमेनैव अत्युच्चैस्त्वाद् इयमुत्प्रेक्षा । एवंविधन सिंहेन-भगवल्लाञ्छनभूतसिंहाऽऽकारपताकया सिंहचित्रेण वा राजमानं । (सिवमउअमारुअलयाहयकंपमाणं) ति शिवः-सौम्यो मृदुकः-अचण्डो यो मारुतः-वातः तस्य लय:-लेषः तेन आहतम्-आन्दोलितम् । अत एव प्रकम्पमानम्-इतस्ततो नृत्यन्तम् । अथवा आर्षत्वात् 'लयाहय'त्ति 'आहत'-विशेषणस्य पानिपातेऽपि शिवमृदुकमारुताऽऽहतलतावत प्रकम्पमानमिति व्याख्येयम्। (अहप्पमाण) अतिप्रमाण-महाप्रमाणं (जणपिच्छणिजरूवं) जनप्रेक्षणीयरूपम् ॥४॥ प्रासादोऽर्जुनकुम्भभागपि यथा भासेत चञ्चत् सदा, पुत्राद्वः समलङ्कृतेऽपि सुतरां राजे त्रिलोकी तथा । प्रासादेन विनोच्चता ननु यथा स्फारध्वजां नो तथा, त्रैलोक्येऽपि विधास्यते हि विधिना पुत्रे सतां ते शना ॥८॥ ['तओ पुणो जच्चकंचण' इत्यादितः 'पुण्णकलसं' इत्यन्तम् ] तत्र-(तओ पुणो) ततः पुनः (सा) सा-त्रिशला नवमे स्वप्ने (रययपुण्णकलस) रजतपूर्ण कलशं-रूप्यमयं पूर्णकलशं (पिच्छद) पश्यति । कीदृशं ? (जच्चकंचणुजलंतरूवं) जात्यकश्चनवत् उत्-प्राबल्येन ज्वलद-दीप्यमानं रूपं यस्य । [केचित्त-रजतशब्दस्य रूप्यवाचकत्वेऽपि 'जच्चकंचण.' इत्यादिवचनेन विसंवादसंभवादत्र कनकमेव ग्राह्य तथा च स्वर्ण 18॥११॥ REPRENEUROCEAEE Jain Edelstational For Private & Personal use only elibrary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥११३॥ २५ मयमित्यर्थः । 'जच्च' त्ति जात्यकाञ्चनेन उत्- प्राबल्येन ज्वलद्रूपं यस्य तमिति व्याख्यानयन्ति । तत्र - उक्तव्याख्यानानुसारेण विसंवादगन्धस्याऽप्यभावात् कथं तदनुरोधेन कल्पनया व्याख्यानं युक्तम् ? इति बोध्यम् ] (निम्मलजल पुण्णमुत्तमं ) निर्मलजलपूर्णम् उत्तमं दिवमाणसोह) दीप्यमानशोभं (कमलकलावपरिरायमाणं) कमलकलापेन परि-समन्तात् राजमानं । (पडिपुण्णय सव्वमंगलभेअ समागम) त्ति प्रतिपूर्णकानां सर्वमङ्गलभेदानां समागमः --मेलापकः स्थानमित्यर्थः । [ क्वचिच्च पड़िवुज्झत सच्च मंगलालय समागमं' इति पाठः तत्र - प्रतिबुध्यमानानि - जागरूकाणि यानि सर्वमङ्गलानि तेषाम् आलय:- निवासभूतः समागमः- सम्मुखाssगमनं यस्य तं ] ( पवररयणपरायंत कमलठिअं) प्रवररत्नैः प्रकर्षेण राजति कमले स्थितं । यद्वा-प्रवरा रचना यस्य एवंविधः परागः - पुष्परजः अन्तः - गर्भे यस्य एतादृशे कमले स्थितं । ( नयणभूणकर) नयनानामानन्दकत्वात् भूषणकरं । ( प्रभास माणं) प्रभासमानं - स्वयं दीप्यमानं प्रभया असमानं वा । अत एव (सव्वओ चैव दीवयंत) सर्वा दिशो दीपयन्तं । (सोमलच्छीनिभेलणं) सौम्यलक्ष्म्याः - प्रशस्त सम्पदः 'निभेलणं' - ति देश्यत्वाद् गृहं । (सव्वपावपरिवज्जिअं) सर्वैः पापैः - अशिवैः परिवर्जितम् । अत एव (सुभ) शुभं (भासुरं) भासुरं दीप्तं (सिरिवरं) श्रिपा त्रिवर्गसम्पत्त्या वरं श्रेष्ठं तदागमसूचकत्वात् । (सव्वोउअसुरभिकुसुम आसत्तमल्लदानं) सर्वजानां सुरभिकुसुमानाम् आस- कण्ठस्थं माल्यदाम-प्रशस्तमाला यस्मिन् तम् । अत्र 'दाम' शब्दः परोऽपि प्रशंसाऽर्थः । यथा- 'वनान्तकपोलपाली' त्या 'अन्त- पाली' शब्दौ ॥४१॥ Jain Educational ॥११३॥ Mbrary.org Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावलं टीका व्या०३ ॥११४॥ शोभावानमृताऽऽश्रितोऽतिसुभगः सज्जातरूपमः, सद्वर्णप्रवराऽऽकृतिः सुमनसां शीर्पस्थिती रत्नवत् । सत्कों विशदाऽऽननो महिमवानापन्नहीतारको, माङ्गल्योऽहमिवाऽङ्गजो हि भविता सम्पूर्णकुम्भो वदेत् ॥९॥ ['तओ पुणो रविकिरण' इत्यादितः 'सररूहाभिरामं' इत्यन्तम् ] तत्र-(तओ पुणो) ततः पुनः (सा) सा-त्रिशला दशमे स्वप्ने (पउमसरं) पद्मसरः (पिच्छइ) पश्यति । (रविकिरणतरुणबोहि असहस्सपत्तसुरभितरपिंजरजलं) 'तरुण' शब्दस्येह सम्बन्धात् तरुणरविकिरणैः बोधितानि यानि सहस्रपत्राणि-पद्मानित: सुरभितरं पिञ्जरं च-पीतरक्तं जलं यस्य तत्तथा । अथवा-'पुणरविर' ति पुनरपि किरणः-सूर्यः तेन तरुणेन अभिनवेन बोषितानि इत्यादि योज्यं । (जलचरपहकरपरिहत्थगमच्छपरिभुज्जमाणजलसंचयं) जलचराः-यादांसि तेषां पहकर' ति देश्यत्वात् समूहः तेन परिपूर्ण तच्च तन्मत्स्यपरिभुज्यमानजलसञ्चयं च इति विशेषणकर्मधारयः। (महंतं) महत् (जलं तमिव कमलकुवलयउप्पलतामरसपुंडरीअउरुसप्पमाणसिरिसमुदएणं) कमलंसूर्यविकाशि कुवलयं-नीलम् उत्पलं-रक्तं तामरसं-महाऽम्भोज पुण्डरीक-श्वेतम् एपाम् उरुभिः-विशालैः सर्पद्भिःउल्लसद्भिः श्रीसमुदयः-कान्तिप्राग्भारैः ज्वलदिव-देदीप्यमानमिव । अत एव (रमणिजरूवसोभ) रमणीयरुपशोभं । (पमुइअंतभमरगणमत्तमहुअरिगणुक्करोलिज्झमाणकमलं) [२५०] प्रमुदितम् अन्त:-चित्तं येषां ते प्रमुदितान्तरः ते Bा च ते भ्रमरगणाश्च मत्ताः-समदाः मधुकरीगगाश्च-भ्रमरजातिविशेषाः तेपाम् उत्कराः-समूहाः । अत्र समूहानामपि समूहाऽX भिधानं बहुत्वख्यापनार्थ ततः तैः अवलिह्यमानानि आस्वाद्यमानानि कमलानि यत्र तत् । (कायंबकवलाहयचक्ककल ABREARSHRSHAN GARHETA ॥११४॥ an Ed national For Private & Personal use only Calibrary.org Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥११५॥ हंससारसगविअसउणगणमिहणसेविजमाणसलिलं) त्ति कादम्बका:-कलहंसाः बलाहका:-बलाहाः चक्रा:चक्रवाकाः कला:-मधुरध्वनयो हंसाः-राजहंसाः सारसा:-दीर्घजानुकाः तेच ते गर्विता:-सुस्थानप्राप्तिप्ताः शकुनिगणाश्च पक्षिसमूहाः तेषां मिथुनैः-द्वन्द्वैः सेव्यमानं सलिलं यस्य तत् । (पउमिणिपत्तोवलग्गजलविंदनिचयचित्त) पमिनीपत्रोपलग्नाः ये जलविन्दवः तेषां निचयेन चित्रं-मण्डितमिव [क्वचिच्च-जलविंदुमुत्तचित्तं' इति पाठः तत्र-जलविन्दव एव मुक्ता-मौक्तिकानि ताभिः चित्रमिति व्याख्येयं] (हिअयनयणकंत) हृदयनयनकान्तं । (पउमसरं नाम सरं) < पद्मसरोवरं > (सररुहाभिरामं) ति सरस्सु-सरसीषु अई-पूज्यम् । अत एव अभिरामं सरोऽर्हाडभिरामम् 'उच्चाहती' ति सूत्रेण हकारात् पूर्वमुकारः ॥४२॥ पद्मावासं प्रशस्यं सकलकुवलयाऽऽधारमिष्टं प्रजायाः, सच्छायं चारुशाखैः परिवृतममलं भूरि पुन्नागमुख्यैः। x x x x x x x x x x सेविष्यन्ते मुतं मामिव परमजडं राजहंस सरोजक ॥१०॥ ['तओ पुणो चंद०' इत्यादितः 'सोमवयणा' इति पर्यन्तम् ] तत्र-(नओ पुगो) ततः पुनः एकादशे स्वप्ने (सारयरयणिकरसोमवयणा) शरद्रजनीकरसौम्यवदनात्रिशला (खीरोयसावर) क्षीरोदसागरं (पिच्छद) पश्यति । (चंदकिरणरासिसरिससिरियच्छसोह) चन्द्रकिरणराशेः सःशा श्रीः यस्याः; एवंविधा वक्ष शोभा यस्य स तथा तं । 'वक्षः' शब्देन अत्र मध्यभागो लक्ष्यः । (चउगमणपयड्रमाण जलसंचयं) ति चतुर्गमनेषु--चतुर्दिग्मार्गेषु प्रवर्द्धमानः प्र. प्रार्तमानो-प्रसरन् जलसञ्चयो FASTTEHRISHAILER Jain Educ a tional For Private & Personal use only Gelibrary.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCI श्रीकल्प किरणावर | टीका ॥११६॥ व्या० 1- यस्य ['च उगुणपडमाणजलसंचयं] इति पाठस्तु-कस्माच्चतुर्गुणत्वम् ? इति अनपेक्ष्यैवाऽऽधिक्यमात्रस्यैव विवक्षितत्वात सुगम एव] (चवलचंचलुचायप्पमाणकल्लोललोलततोय') त्ति चपलेभ्योऽपि चञ्चल: उच्चाऽऽत्मप्रमाणैश्चअत्युनतस्वमानः कल्लोलैः-महत्तरङ्गैः लोलद-एकीभूय विरलीभवत् तोयं-पानीयं यस्य स तथा तं । (पडुपवणाहयचलिअचवलपागडतरंगरंगतभंगखोखुम्भमाणसोभतनिम्मल उक्कडउम्मीसहसंबंधधावमाणोनियत्तभासुरतराभिरामं) त्ति पटु पवनाऽऽहताः सन्तः चलिताः-प्रवृत्ताः, अत एव चपलाः प्रकटाश्च-स्पटाः तरङ्गाः-सामान्येन कल्लोला: तथा रङ्गन्तः-इतस्ततः प्रेक्षन्तो; भगा:-'भङ्गस्तरङ्गभेदे च' इति वचनात् तरङ्गविशेषा एवं तथा 'ख'खुब्भमाण' ति अतिक्षुभ्यन्तः; शोभमाना निर्मला:-स्वच्छाः उत्कटाश्च-दुस्सहाः उर्मयः-विच्छित्तिमन्तः कल्लोलाः । ततः तरङ्गाऽन्त-भङ्गाऽन्त-उHन्तपदानां द्वन्द्वः। तैः सह-साई यः सम्बन्धः तेन पूर्व धावमान:-तीराऽभिमुख सर्पन् अपनिवृतश्च भासुरतर:-अतिदीप्तिमान् अपनिवृत्तश्चाऽभिरामः-दीप्तिमानेव । यद्वा-धावमानोऽपनिवृत्तश्च सन् भासुरतर:-- अतिदीप्तिमान् । अत एव अभि-समन्तात् रामः-रमणीयः, पश्यतां दृक्पथमागतोऽत्यन्तं प्रीतिदायीत्यर्थः। एतदर्थाऽनुपातिनी श्रीजयसुन्दरसूरिकृताऽऽर्या यथा कल्लोललोलसलिलं धावदपसरद् बहुमिरम्यतटम् । नद्यागमसावत्त क्षीराब्धिं सैक्षत गंभीरम् ॥१॥ __यत्तु केचित्-'भयङ्करे तु डमरमाभीलं भासुरं तथा' इति शेषवचनात् धावमानो भामुरतर:-अतिभयङ्करः अपनिवृत्तश्च अभिरामः हृद्य इति व्याख्यान्ति तन्न ख्यातिमत् । यतः-तीर्थकुन्मातरः क्रूराऽऽत्मानमपि सिंहं सौम्याकारमेव स्वप्ने ARREARRRRRRRRRRRRRICRORE 0% A Sain Educa t ional For Private & Personal use only D brary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥११७॥ -4 -4 -4 -4-4-4-4-4-34 पश्यन्ति । कथं पुन: क्षीरसमुद्रम् अति भयङ्करम् ? इति स्वयमेवाऽऽलोच्यं । [लोलंततोय' इति निर्विभक्तिकपाठे तु तोयाऽन्तपदेनाऽपि सह विशेषणकर्मधारयः] (महामगरमच्छतिमितिमिगिलनिरुद्धतिलितिलयाभिघायकपूरफेणपसरं) त्ति महान्तो मकराश्च मत्स्याश्च तिमयश्च तिमिङ्गलाश्च निरुद्धाश्च तिलितिलकाश्च जलचरजन्तुभेदाः तेषाम् अभिघातेन-पुच्छाद्याच्छोटनेन कर्पूर इव कर्पूर-उज्ज्वलत्वात् फेनप्रसरो यत्र स तथा तं । (महान ईतुरिय वेगसमागयभमगंगावत्तगुप्पमोणुचलंतपचोनियत्तभममाणलोल सलिलं) ति महानदीनां-गङ्गादीनां त्वरितवेगैः आगतभ्रम-उत्पन्नभ्रमणो योऽसौ गङ्गावर्ताख्य' आवतः तत्र गुप्यत्-व्याकुली भवत् । अत एव उच्चलद्-उच्छलत् प्रत्यवनिवृत्तं च-व्यावृत्तं भ्रममाणं-भ्रमणशीलं लोलं-स्वभावादस्थिरं सलिलं यस्य ॥४३॥ कीर्तिः फेनचयो जलं सुसमयो गम्भीरपुत्रोदधौ, सज्ज्ञानादिगुणाः सुरत्ननिकरः सत्त्वस्थितिः श्रीपदम् । एवं शंसति सागरः परमसौं संसारसिन्धुः क्षणादु-तीर्यष्यति निर्वृतिं श्रितजनानुत्तारयिष्यत्यलम् ॥११॥ [ 'तओ पुणो तरुण' इत्यादितः 'पुंडराय' इति यावत् ] तत्र-(तओ पुणो) ततः पुनः (सा) सा-त्रिशला द्वादशे स्वप्ने (वरविमाणपुंडरीयं) विमानवरपुण्डरीकं (पिच्छइ) प्रेक्षते । (तरुणसूरमंडल समप्पभं) त्ति तरुणसूरमण्डलसमप्रभं । (दिप्पमाणसोह) दीप्यमानशोभं (उत्तमकंचणमहामणिसमूहपवरतेयअट्ठसहस्सदिपंतनहप्पईव) त्ति उत्तमकाश्चन महामणिसमूहैः प्रवराणां 'ते' ति तेकन्ते-गच्छन्ति आधारभाव मिति तेकाः; अथवा त्रायन्ते पतगृहमिति त्रेयाः; तेकानां त्रेयाणा SAARCASSESASARकर ॥११७॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only woNThelibrary.org Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P श्रीकल्प किरणावळ टीका ॥११८॥ व्या०३ RASABHANSARAA वा-स्तंभानाम् अष्टोत्तरसहस्रेण दीप्यमानं सत् नभः प्रदीपयति-प्रकाशयति यत्तत्तथा । (कणगपयरलबमाणमुत्तासमुज्जल) त्ति कनकप्रतरेषु-सुवर्णपत्रेषु लम्बमानाभिर्मुक्ताभिः समुज्ज्वलं । कनकप्रकरैः लम्बमानमुक्ताभिश्च समुज्ज्वलमित्यन्ये । (जलंतदिव्वदाम) ज्वलदिव्यदामं (ईहामिग-उसभ-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग-किन्नर-रुरु-सरभचमर-संसत्त-कुंजर-वलय-पउमलय-भत्तिचित्त) ईहामृगाः-वृकाः वृषभाः तुरगाः नराः मकराः विहगाः> व्यालका:-सर्पाः - किन्नराः> रुरवः-मृगभेदाः < शरमाः चमय:> संसक्ताः-श्वापदविशेषाः< कुञ्जराः> वनलता:-अशोकलताद्याः पद्मलताः-पद्मिन्यः [शेषाः प्रतीताः] एषां भक्तिः-विच्छित्तिभिः चित्रं-नानारूपं । (गंधवोपवजमाणसंपुण्णघोसं) ति गन्धर्वस्य-गीतस्य उपवाघमानस्य-वादित्रस्य च सम्पूर्णो घोपो यत्र तत्तथा । (निच्च) नित्यंशाश्वतं (सजलघणविउलजलहरगजिअसहाणुणाइणा देवदुंदुहिमहारवेणं) सजलो धनः-अविरलो विपुलः-पृथुला यो जलधरः-मेघः तस्य गर्जितशब्दः तद्वदनुनादिना-प्रतिरवयुक्तेन देवदुन्दुभिमहारवेण (सयलमवि जीवलोयं पूरयंत) सकलमपि जीवलोकं पूरयन्तम् आप्यायन्त, चतुर्दश रज्जात्मकं वा लोकं व्याप्नुवावन्तं । (कालागुरुवपवरकुंदुरुक-तुरुक-डझंत-धूव-वासंग-उत्तम-मघमतगंधुधुयाभिराम) कालागुरु-प्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्काः प्रागिव ते च दह्यमानो धूपश्च-दशाङ्गादिः वासाङ्गानि च गन्धमालिनी' ग्रन्थोक्तसुरभिकरणोपायभूततत्तद् द्रव्याणि तेषाम् उत्तमेन मघमघायमानेन गन्धेन उधुतेन-इतस्ततो विप्रसतेन अभिरामं यत्तत्तथा [क्वचित् 'डज्झंतधूवसारसंगत) इति पाठ: तत्र दद्यमानो यो धूपसार-उत्कृष्टधूपः तस्य सङ्गतेन हृदयंगमेन उत्तमेन इति व्याख्येयं] (णिचालोयं) नित्यालोकं MEACECACAAR ६ ॥११८॥ Jain Educ a tional For Private & Personal use only brary.org Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥११९॥ AAAAAAE नित्यमुद्योतयुक्तं । (सेय) श्वेतं (सेयप्पभ) श्वेतप्रभ (सुरवराभिराम) सुरवरान् अभिरमयतीति । यद्वा-सुराणां वरा अभि-समन्तात् रामा:-स्त्रियो यस्मिन् (सातोवभोग) सातस्य-सातवेदनीयस्य कर्मणः उपभोगो यत्र पञ्चधा विषयसुखसम्पत्तेः (विमाणवरपुंडरी) विमानवरेषु पुण्डरीकमिव श्रेष्ठत्वात् ॥४४ मार्तण्डादतिभास्वरं मणिचितं सौम्यं क्वणत् किङ्किणी;-क्वाणोच्चध्वजसुन्दरं खगमनं मुक्ताफलै राजितम् । मन्दारप्रवरप्रसूनसुरभीभूतं विमानं यथा, नेत्राऽऽनन्दितदेशनादिषु सुतः स्थानेषु हर्षप्रदः॥१२॥ [ 'तओ पुणो पुलग' इत्यादितो 'रयणनिकररासिं' इति यावत् ] तत्र-(तओ पुणो) ततः पुनः (सा) सा-त्रिशला त्रयोदशे स्वप्ने (रयणणिकररासिं) रत्ननिकरराशिं (पिच्छइ) पश्यति । (पुलग-वेरिं-दणील-सासग-कक्केयण-लोहियक्ख-मरगय-मसारगल्लपवालफलिह-सोगंधियहंसगभ-अंजण-चंदप्पह-वररयणेहिं) त्ति पुलकादयो रत्नविशेषाः प्रसिद्धाः। नवरं 'वेर'त्ति वज्रम् । इन्द्रनीलं 'सासग' त्ति सस्यक < कर्केतनं लोहिताक्षं मरकतं मसारगल्लं प्रवालं स्फटिकं सौगन्धिकं हंसगर्भम् अञ्जनं> चन्द्रप्रभ:चन्द्रकान्तः < वररत्नैः> (महीअलपइटिअं) महीतलप्रतिष्ठितमिति राशिविशेषणं । पुलकादिवररत्नैः (गगणमंडलंत) गगनमण्डलान्तं यावत् (प्रभासयंत) प्रकाशयन्तं (तुंगं) तुङ्गम्-उच्च । तुगत्वमनियत मित्याह-(मेरुगिरि सणिकास) मेरुगिरेः संनिकाशं-तुल्यं । (रयणणिकररासिं) रत्ननिकराणां राशि:-उच्छ्रितः समूहविशेषः तम् ॥४५॥ PAAROGRECORMA Jain Educ a tional For Privale & Personal use only wimminelibrary.org Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावल टीका व्या०३ ॥१२०॥ गाम्भीय धैर्यवयं शमिदमियमिनां भाग्यसौभाग्यसंविः दाक्षिण्यान्यग्यदाक्ष्यं जगदुपकृतधीः पुण्यकारुण्यमिष्टम् । स्वाम्यं स्वाम्याऽभिरामं सकलचतुरतेत्यादि भासदगुणाली, रत्नश्रेणी च दीपा भवदसमसुते रत्नराशिर(ह्य)माना ॥१३॥ [ 'सिहिं च' इत्यादितः 'सिहिं' इति पर्यन्तं] तत्र-(सिहिं) इति 'गयवसह' गाथाया अन्ते (सिहिं च) इति यत्पदं तस्येदं ग्रहणवाक्यम् । अत एव 'तत' | इति नोक्तं । विशेष्यपदं तु स्वप्नवर्णकान्ते (सिहिं) इति शिखिनं च चतुर्दशे स्वप्ने (सा) सा-त्रिशला (पिच्छद) पश्यति । (विउलुज्जल-पिंगल-महुघय-परिसिच्चमाण-निदधूम-धगधगाइय-जलंत-जालुजलाभिराम) त्ति विपुला उज्ज्वलेन पिङ्गलेन च मधुघृतेन परिपिच्यमाना निर्धमा धगधगायमाना-धगधगिति कुर्वन्त्यो ज्वलन्त्यः-दीप्यमाना या ज्वाला-अचिपः ताभिरुज्ज्वलम् । अत एवाऽभिरामं । (तरतमजोगेहिं) तरतमयोगो विद्यते येषु ते तरतमयोगा 'अभ्रादित्त्वाद् अ-प्रत्ययः' । एका ज्वाला उच्चा अन्या तु उच्चतरा अपरा च उच्चतमा इति (तैः) तरतमयोगयुक्तैः (जालपयरेहिं) ज्वालानां प्रकरै:-कलापैः (अण्णुण्णमिव अणुप्पइण्णं) अन्योऽन्यम् अनुप्रकीर्णमिव-मिश्रितमिव स्पर्द्धया तदीया ज्वाला अन्योऽन्यमनुप्रविशन्ति इव इत्यर्थः, (जालुज्जलणग) ज्वालानाम् उत्-ऊर्ध्व ज्वलनं ज्वालोज्ज्वलनं तदेव ज्वालोज्ज्वलनकम् आर्षवाद विभक्तिलोपे तेन (अंबरं व कत्थइ पयंत) त्ति क्वचित्तदेशे अम्बरम-आकाशं पचन्तमिवक्वचिद् अभ्रंलिहाभिः ज्वालाभिः आकाशमिव पक्तुमुद्यतमितिभावः। (अइवेगचंचलं) अतिवेगचञ्चलम् ॥४६॥ DASHASAX ॥१२॥ in Eder ational For Pawale & Personal use only Malibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।१२१॥ BASHAKAAAAAAE तेजःस्थानं मनुष्योपकृतिकृतिपरो दुस्सहो दुर्जनानां, धूमामद्वेषमुक्तो दृढतरनडताहृत्पदार्थप्रकाशी। माऽमर्त्यप्रियो यो विशदतमशिखीवाङ्गजं स्यात्परं नो, तापं तूष्णं च कर्ता शशधरः सशरः क्यापि नो स्नेहवृद्धिः ॥१४॥ ['इमे एयारिसे' इत्यादितः' 'अरहा' इति पर्यन्तं] तत्र-(इमे एयारिसे) इमान् एतादृशान् (सुभे) शुभान्-कल्याणहेतून् (सोमे) सौभ्यान् उमा-कीर्तिः तत्सहितान् वा (पियदंसणे) प्रियं दर्शन-सप्नेऽवभासो येषां ते तथा तान् (सुरूवे) मुरूपान-शोभनस्वभावान् (सुविणे) स्वप्नान्-गजादीन (दटूण सयणमज्झे पडिवुद्धा) शयनमध्ये-निद्रान्तरे दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा-जागरितां | [शेषं प्राग्वत् ] (अरविंदलोयणा) < कमललोचना-त्रिशला> (हरिसपुलइअंगी) < हर्षेण रोमाश्चितशरीरा> । एए चउदस सुविणे सव्वा पासेइ तिस्थयरमाया। जं रयणि बक्कमइ कुच्छिंसि महायसो अरहा ॥४७॥ < एतान् चतुर्दश स्वप्नान् सर्वाः तीर्थकरमातरः पश्यन्ति । महायशसः अर्हन्तः यस्यां रजन्यां कुक्षौ व्युत्क्रामन्ति ॥> ['तण णं सा' इत्यादितः 'पडियोहेइ' इति पर्यन्तम् ] तत्र-(तए णं सा तिसला खत्तिआणी) < ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी> (इमे एयारूवे उराले) < इमान् एतत्स्वरूपान् उदारान् > (चउद्दसमहासुमिणे) < चतुर्दशमहास्वप्नान् > (पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी) < दृष्ट्वा जागरिता सती> (हतुट्ठ जाच हयहियया) < हृष्टा तुष्टा यावत् हृर्षितहृदया> (धाराहयकयंयपुप्फगपि वा समुस्ससियरोमकृया) <धाराभिः आहतं कदम्बपुष्पमिव समुच्छ्वसितानि रोमाणि कूपेषु यस्याः> (सुमिणुग्गहं करेइ) GRAHAKAPAAS 5. कि.११ मा ॥१२१॥ 1 TAN Jan Eden For Privale & Personal use only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ।१२२॥ R-CACCRA FARSHASRASHISHASHA स्वप्नानाम् अवग्रह-स्मरणं करोति (करित्ता) कृत्वा (सयणिज्जाओ अब्भुट्टइ) < शयनी या अभ्युत्तिष्ठति > (अभु-६ किरणावल ठित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ) < अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवतरति > (पच्चोरुहित्ता) < प्रत्यवतीर्य > (अतुरियम | टीका व्या०३ चवलमसंभताए) अत्वरितं-मानसौत्सुक्याऽभावात् अचपलं-कायतः असम्भ्रान्तया-अस्खलन्त्या ['अविलंबियाए' त्ति पाठे अविलम्बितया-अविच्छिन्नया] (रायहंससरिसीए गईए) राजहंसगतिसदृश्या गत्या (जेणेव सयणिज्जे) < यत्रैव शयनीयं > (जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए) < यत्रैव सिद्धार्थ क्षत्रियः> (तेणेव उवागच्छइ) < तत्रैव उपागच्छति> (उवागच्छित्ता) < उपागत्य > (सिद्धत्थं खत्तियं) < सिद्धार्थ क्षत्रियं (ताहिं इट्टाहिं) ति या विशिष्टगुणोपेताः ताभिःगीभिः इतिसम्बन्धः। इष्टाभिः-तस्य वल्लभाभिः। (कंताहिं) कान्ताभिः-अभिलषिताभिः सदैव । (पियाहिं) तेन प्रियाभिः-अद्वेष्याभिः सर्वेषामपि । (मणुण्णाहिं) मनोज्ञाभिः-मनोरमाभिः कथयाऽपि (मणामाहि) ति मनसा अम्यन्तेगम्यन्ते सुन्दरत्वाऽतिशयात् पुनः पुनः याः ता मनोऽमाः ताभिः चिन्तयाऽपि मनःप्रियाभिः इत्यर्थः। (उरालाहिं) उदाराभिः-उदारनादवर्णोच्चारादियुक्ताभिः प्रधानाभिर्वा । (कल्लाणाहिं) कल्याणाभिः-समृद्धिकारिकाभिः (सिवाहिं) शिवाभिः-उपद्रवहन्त्रीभिः गीर्दोषाऽनुपद्रताभिर्वा । (धन्नाहिं) धन्याभिः-धनलम्भिकाभिः। (मंगल्लाहिं) माङ्गल्याभिःमङ्गले अनर्थप्रतिघाते साध्वीभिः। (सस्सिरीयाहिं) सश्रीकाभिः-अलङ्कारादिशोभावतीभिः ['हिअयगमणिजाहिं' ति क्वचित् तत्र-हृदये या गच्छन्ति कोमलत्वात् सुबोधत्वाच्च ताः तथा ताभिः] (हिअयपल्हाणिजाहि) हृदयग्रहादनीयाभिः-हृद्गतशोकायुच्छेदिकाभिः । (मियमहरमंजुलाहिं) मिताः-वर्णपदवाक्याऽपेक्षया परिमिताः मधुराः स्वरतः 2॥१२२॥ CREA Jain Edit henational For Private & Personal use only LIAHbraryorg Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18A ॥१२३॥ SHRERASHISHASSA मज्जुला:-मनोरमाः शब्दतो याः ताः। ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । (गिराहि) गीर्भि:> (संलवमाणी संलवमाणी) < जल्पन्ती (२) (पडियोहेइ) < जागरयति> ॥४८॥ ['तए णं सा' इत्यादित: 'एवं वयासी' इति पर्यन्तं] तत्र-(तए णं) ततः-अनन्तरं 'ण' वाक्यालङ्कारे (सा तिसला खत्तिआणी) <सा त्रिशला क्षत्रियाणी> (सिद्धत्थेणं रण्णा अभYण्णाया समाणी) <सिद्धार्थेन राज्ञा अभ्यनुज्ञाता सती> (नाणामणिकणगरयणभत्तिचितसि भद्दासणंसि) नानामणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिः चित्र-विचित्रे [ शेषं प्राग्वत् ] < भद्रासने> (निसीयइ) < उपविशति > (निसीइत्ता) < उपविश्य > (आसत्था वीसत्था) <आश्वस्ता विश्वस्ता> (सुहासणवरगया) < सुखासनवरगता> (सिद्धत्थं खत्तियं) < सिद्धार्थक्षत्रियं > (ताहिं इट्टाहिं) < ताभिः इष्टाभिः> (जाव संलवमाणी संलवमाणी) यावत् जल्पन्ती (२) (एवं वयासी) < एवम् अवादीत् > ॥४९॥ ["एवं खलु' इत्यादितो 'भविस्सई' ति पर्यन्तं] तत्र-(एवं खलु अहं सामी!) <एवं खलु अहं हे स्वामिन् > !| (अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि) <अद्य तस्मिन् तादृशे शयनीये> (वण्णओ) प्रागुक्तवर्णना (जाव पडिबुद्धा) <यावत् जागरिता>(तं जहा) तद्यथा ('गयवसह'-गाहा) <गज-वृषभ० गाथा> (ते एएसि सामी!) <तस्मात् एतेषां हे सामिन् !> (उरालाणं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं)<उदाराणां चतुर्दश महास्वप्नानां> (के मन्ने) मन्ये इति वितर्काऽर्थों निपात:-को नु 15/॥१२३॥ CAREER Jain Education national For Privale & Personal use only wittebrary.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावल टीका व्या०३ ॥१२४॥ AAAAAAAASAUR (कल्लाणे) (कल्याण:> (फलवित्तिविसेसे भविस्सइ) <फलवृत्तिविशेषो भविष्यति ?> ॥५०|| ['तए णं से सिद्धत्थे' इत्यादितो 'वयासा' इति पर्यन्तं] तत्र-(तए णं) <तत:> (से सिद्धत्थे राया) <सः सिद्धार्थः राजा > (तिसलाए खत्तिआणीए) <त्रिशलाक्षत्रियाण्या:> (अंतिए एयमढे सोचा निसम्म) <अन्तिके एतमर्थ> श्रुता-श्रोत्रेण निशम्य-हृदयेनाऽवधार्य (हतुट्ठ जाव हियए) <हृष्टः तुष्ट यावत हर्पितहृदय:> (धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयरोमकूवे) <धाराऽऽहतनीपसुगन्धिकुसुमम् इव समुच्छ्वसितरोमकूप:> (ते सुमिणे) तान् स्वप्नान् (ओगिण्हेति) अवगृहति (ओगिण्हित्ता ईहं अणुपविसइ) अर्थाऽवग्रहतः ईहाम् अनुप्रविशति-सदर्थपर्यालोचनलक्षणाम् (ईहं अणुपविसित्ता) <ईहाम् अनुप्रविश्य>, ततः (अप्पणो साहविएणं) [इत्यादि प्रायद् व्याख्येयं] <आत्मसम्बन्धिना सहजेन> (मइपुन्धएणं) <मतिपूर्वेण> (बुद्धिविण्णाणेण) <बुद्धिविज्ञानेन> (तेसिं सुमिणाणं अत्थुग्गहं करेइ) <तेषां स्वप्नानां फलनिश्चयं करोति> (करित्ता) <कृत्वा> (तिसलं खत्तियाणिं) <त्रिशलां क्षत्रियाणी> (ताहिं इट्ठाहिं जाव मंगल्लाहिं) <ताभिः इष्टाभिर्यावत् माङ्गल्याभि:> (सस्सिरीयाहिं मियमहुरमंजुलाहिं वग्गूहिं) <सश्रीकाभिः मितमधुरमञ्जुलाभिः वाग्भिः> (संलवमाणे संलबमाणे)<जल्पन् २> (एवं वयासी) < एवं वदति स्म> ॥५१॥ ['उराला णं तुमे' इत्यादितः 'पयाहिसि' इति पर्यन्तं] ISAIRESEAणार | ॥१२४॥ Jain EduW omational For Private & Personal use only ibrary.org Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२५॥ तत्र-(उराला गं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा) < उदाराः वया> हे सरलस्वभावे ! स्वप्नाः दृष्टाः।> (कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणा दिट्ठा) < कल्याणाः त्वया हे सरलस्वभावे ! स्वप्नाः दृष्टा:> (एवं सिवा धन्ना मंगल्ला सस्सिरीया) <एवम् उपद्रवनिवारकाः धनलभ्भिकाः माङ्गल्याः सश्रीकाः> (आरुग्गतुहिदीहाउकल्लाग(३००) मंगल कारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा) आरोग्यतुष्टि-दीघाऽऽयु:कल्याण मङ्गलकारकाः त्वया हे सरलसमावे! स्वप्नाः दृष्टा:> (तं जहा) तद्यथा (अस्थलाभो देवाणुप्पिए !) अर्थ:-हिरण्यादिः < तस्य लाभः हे सरलसभावे !> (भोगलाभो देवाणुप्पिए !) भोगाः-शब्दादयः < तेषां लाभः हे सरलस्वभावे !> (पुत्तलाभो देवाणुप्पिए !) पुत्रलाभः-सुतजन्म < तस्य लाभः हे सरलस्वभावे!> सुक्ख लाभो देवाणुप्पिए !) सौख्यं-निवृतिः < तस्य लाभः हे सरलस्वभावे !> (रज्जलाभो देवाणुप्पिए!) राज्यं-सप्ताङ्गरूपं < तस्य लाभः हे सालसमावे! भविष्यति इतिशेषः । (एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए !) < एवं प्रकारेण हे सरलस्वभावे ! वं> (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं) < नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु > अट्ठमाणं राइंदियाणं वइकनाणं) < सार्धसप्तदिवसाऽधिकेषु व्यतिक्रान्तेषु> (अम्हं कुलके) <अस्माकं > कुलकेत्वादीनि त्रयोदश पदानि । < कुले> केतु:-चिह्न ध्वजः केतुरिव केतुः अद्भुतभूतत्वात् [पाठान्तरे (कुलहे) कुलस्य हेतु:-कारणं एवं (अम्हं कुलदोवं) <अस्माकं कुले> दीप व दीपः प्रकाशकत्वात् मङ्गलत्वाच्च (कुलपञ्चयं) <कुले> पर्वतः अनभिभवनीयः स्थिराऽऽयसाधात् (कुलवडिंसयं) <कुले> अवतंस:-शेखरः उत्तमत्वात् ASIAECREDICALCREAAG ४ ॥१२५॥ For Private & Personal use only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥१२६॥ | 1-42-AROR-- R (कुलतिलयं) <कुले तिलको भूकतात (कुलकित्तिकर) <कुले, कीतिः-ख्यातिः तत्करणात् कीर्तिकर: किरणावली [कुलवित्तिकरं' काचिद् वृत्तिकरः इतिपाठः तत्र-कुले वृत्तिः-निर्वाहः] (कुलदिणयरं) <कुले > दिनकरः टीका व्या०३ अतिप्रकाशकत्वात् (कुलाधारं) < कुले > आधारः पृथिवीवत् (कुलनंदिकर) < कुले> नन्दिः वृद्धिः < तत्करः> (कुलजसकर) <कुले> यशः सर्वदिग्गामी < तस्करः> (कुलपायव) <कुले> पादपः-वृक्षः आश्रयणीयच्छायकत्वात् (कुलविवद्धणकर) <कुले> विवर्द्धनं-विविधैः प्रकारैः वृद्धिरेव (तत्करः> ['सुकुमाल' इत्यादि पूर्ववत् (सुकुमालपाणिपायं) <सुकुमालपाणिपादं> (अहीणसंपुन्नपंचिंदियसरीर) र अहीनसम्पूर्णपश्चन्द्रियशरीरं> (लक्खणवंजणगुणोववेयं) < लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेतं । > (माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंग) <मानोन्मानप्रमागप्रतिपूर्णसुजातसर्याऽङ्गसुन्दराङ्ग> (ससिसोमाकारं) <शशीवत् सौम्याकारं> (कंत) <कान्तं> (पियदंसणं) <प्रियदर्शनं> (सुरू) <सुरूपं> (दारयं) <दारकं> (पयाहिसि) प्रजनिष्यसि> ॥५२॥ ['सेवि य णं' इत्यादितो 'भविस्सइ' ति यावत् ] तत्र-(सेवि य णं दारए) <सोऽपि दारक:> (उम्मुक्कबालभावे) < उन्मुक्तबालभावः> (विण्णायपरिणयमे ते) < विज्ञातपरिणतमात्रं> (जुब्धणगमणुपत्ते) < यौवनकमनुप्राप्त:> (सूरे) शूरः-दानतः अभ्युपगतनिर्वाहतो वा (वीरे) वीरः-सङ्गामतः (विकते) विक्रान्तः-महामण्डलाऽऽक्रमणतः (विच्छिन्नविउलबलवाहणे) ॥2॥१२६॥ विस्तीर्णादपि विपुले-अतिविस्तीर्णे बलवाहने-से नागवादिके यस्य (रज्जवइ राजा भविस्सइ) राज्यपतिः राजा ACCECREEKRECORECRUCIGAREKAR Iris malignal For Privale & Personal use only LF library.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२७॥ सतन्त्र इत्यर्थः, भविष्यति ।५३।। ['तं उरालाणं' इत्यादितो 'वयासी' इति पर्यन्तं] तत्र-(२) < तत:> (उरालाणं तुमे देवाणुप्पिया !) प्रशस्ताः त्वया हे सरलस्वभावे> (जाव) < यावत् स्वप्नाः दृष्टाः ।> (दुच्चपि तच्चपि) द्विरपि त्रिरपि (अणुवृहइ) अनुवृंहति-प्रशंसति । (तए णं 15 तिसला खत्तिआणी) < ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी> (सिद्धत्थस्स रणो) सिद्धार्थराजस्य > (अंतिए एअमटुं सुचा) <पार्श्व एतदर्थ श्रुत्या> (निसम्म) <निशम्य > (हतुह जाव हयहियया) < हृष्टा तुष्टा यावत् हिितहृदया> (करयलपरिग्गहि अइसनहं) < हस्तयुग्मयोजनरूपं> (सिरसावत्तं) शिरसावर्त> (मस्थए अंजलिं कटु) <मस्तके अञ्जलिं कृत्वा> (एवं वयासी) < एवं कथयति स्म ॥५४॥ [एवमे सामी' इत्यादितः 'एवं वयासी' इति पर्यन्तं प्राग्वता तत्र-(एवमे भं सामो) <एवमेतत सामिन् !> (तहमेअं सामी) तथै तत् स्वामिन् !> (अवितहमेयं सामी) <अवितयमेतत् स्वामिन् !> (असंदिद्धमेयं सामी) <असन्दिग्धमेतत् स्वामीन् !> (इच्छि अमेअं सामी) (इष्टमेतत् स्वामिन् !) (पडिच्छि अमेअं सामो) <प्रतीष्टमेतत् स्वामिन् !> (इच्छिअपडिच्छिअमेअं सामी) <इष्टमीष्टमेत सामिन् !> (सचे णं एसमडे) <सत्य एषोऽर्थः> । (से जहेयं तुम्भे वयह त्तिक१) <यथा यूयं वदथ इति कथयित्वा> (ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ) <तान् स्वप्नान् सम्यक्प्रकारेण हृदये धरति> ॥द RRCORRES RECENTER 24. Jain Educ a tional For Private & Personal use only ww r y.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ १२८॥ ( प डिच्छित्ता ) धृत्वा च (सिद्धत्थेणं रण्णा अन्भणुष्णाया समाणी) सिद्धार्थराजेन आदिष्टा सती > (नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भदासणाओ ) ( नानामणिरत्नचित्रात् भद्रासनात् > (अब्भुट्ठेइ ) < अभ्युत्तिष्ठति > (भुट्ठेता) अभ्युत्थाय (अतुरियमच वलमसंभंताए अविलंबियाए रामहंससरिसीए गईए) <अलतिया अचपलया असम्भ्रान्तया अविलम्बितया राजहंसगतिसदृश्या गत्या ( जेणेव सए सयणिज्जे) < यत्रैव स्वकीयं शयनीयं > ( तेणेव उवागच्छइ) < तत्रैव उपागच्छति > (उवागच्छिता) < उपागत्य > ( एवं वयासी) एवं कथयति स्म > ॥ ५५ ॥ ['मा मे ते उत्तमा' इत्यादितो 'विहरइ' त्ति पर्यन्तं ] तत्र - (मा मे ते) मा मम एते ( उत्तमा पहाणा) उत्तमाः स्त्ररूपतः, प्रधानाः फलतः । एतदेवाह(मंगला सुमि दिट्ठा) मङ्गल्या मङ्गले साधवः स्वप्नाः दृष्टाः > (अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्संति तिकटु) <अन्यैः पापस्वप्नैः प्रतिहन्यन्ताम् इतिकृत्वा (देवयगुरुजण संबद्धाहिं) < देवगुरुजन सम्बन्धिनीभिः> (सत्थाहिं मंगलाहिं धम्मियाहिं लट्ठाहिं कहा हिं) उत्तमाभिः मङ्गल्याभिः धार्मिकाभिः प्रधानाभिः कथाभिः > (सुमिणजागरिअं ) ति स्वप्नसंरक्षणार्थं जागरिकां (जागरमाणी परिजागरमाणी) जाग्रती - विदधति प्रतिजाग्रती - तानेव स्वप्नान् संरक्षणेनोपचरन्ती (विहरइ ) < तिष्ठति ['तए णं सिद्धस्थे' इत्यादितो 'वयासी' इति पर्यन्तं ] ॥५६॥ Jain Educatioernational किरणाव टीका व्या० ॥१२८॥ rary.org Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९॥ SAHASRA AAAAAAAAAABA तत्र-(तए णं) (तत:> (सिद्धत्थे खत्तिए पच्चूसकालसमयंसि) त्ति सिद्धार्थक्षत्रियः> प्रत्यूषकाललक्षणो यः समय:-अवसरः तस्मिन् (कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ) त्ति कौटुम्बिकपुरुषान्-आदेशकारिणः आह्वयति (सद्दावित्ता एवं बयासी) <आहूय च एवं कथयति स्म ॥५७॥ खिप्पामेव' इति प्रभृतितः 'पञ्चप्पिणह' ति पर्यन्तं] तत्र-(खिप्पामेव) क्षिप्रमेव> (भो देवाणुप्पिया! अज्ज सविसेसं बाहिरिय उवट्ठाणसालं) त्ति रहे देवानुप्रियाः! अद्य विशेषतः बाह्याम् > उपस्थानशालाम्-आस्थानमण्डपं (गंधोदगसित्तसुइअसंमज्जिओवलित) गन्धोदकेन सिका शुचिका-पवित्रा सम्मार्जिताः-कचरापनयनेन उपलिप्ता-छगणादिना या सा तथा ताम् । इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तसम्मार्जितोपलिप्तशुचिकाम् इत्येव दृश्य । शुचेः सिक्ताद्यनन्तरभावित्वात् [शेष पूर्ववत् ] (सुगंधवरपंचवण्णपुप्फोवयारकलियं) < सुगन्धवरपञ्चवर्णपुष्पोपचारकलितां> (कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडज्झलधूवमघमघंतगंधु आभिरामं) <कालाऽगुरुप्रवरकुन्दुरुष्क तुरुष्कदह्यमानधूपमघमघायमानगन्धोद्धुताऽभिरामां> (सुगन्धवरगंधियं गंधवहिभूयं करेह कारवेह) <सुगन्धवरगन्धिको गन्धपतिभूतां कुरुत स्वयं, कारयताऽन्यः> (करित्ता य कारवित्ता य) <कृत्वा कारयित्वा च> (सीहासणं रयावेह) रसिंहासनं रचयत ?> (रयावित्ता) <रचयित्वा> (मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह) <मम एताम् आज्ञां क्षिप्रमेव प्रत्यागत्य कथयत > ॥५८॥ 'तए णं ते कोडेबियपुरिसा' इत्यादितः 'पञ्चप्पिणंति' इत्यन्तं] ASHASABRETABRSS ॥१२९॥ Jain Educ hemational For Privale & Personal use only wwnelibrary.org Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावळी टीका व्या०३ ॥१३०॥ RECE२RAAAAESARKESAGE तंत्र- (तएणं ते कोडुबियपुरिमा) < ततः ते कौटुम्बिक पुरुषाः> (सिद्धत्थेणं रण्णा) < सिद्धार्थेन राज्ञा > (एवं वुत्ता समाणा) < एवम् उक्ताः सन्तः> (हृदुतुह जाव हियया) < हृष्टा: तुष्टाः यावत् हर्षित हृदया:> (करयल जाव कडु) < हस्तयुग्मयोजनरूपं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा> (एवं सामित्ति) एवम् इति-यथादेशं स्वामिन् ! इतिआमन्त्रणार्थः इतिः-उपदर्शने [शेष सुखायसेयं] (आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति) < आज्ञया विनयेन च वचनम् अङ्गीकुर्वन्ति > (पडिसुणित्ता) < अङ्गीकृत्य च> (सिद्धत्थस्म खत्तियस्स अत्तियाओ) <सिद्धार्थक्षत्रियस्य समीपात् > (पडिनिक्खमंति) < प्रतिनिष्क्रामन्ति > (पडिनिक्वमित्ता) < प्रतिनिष्क्रम्य > (जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छंति) < या बाह्या उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छन्ति > (उवागच्छित्ता) < उपागत्य > (खिप्पामेव सविसेस बाहिरयं उवट्ठाणसालं) <क्षिप्रमेव सविशेषां बाह्याम् उपस्थानशालां> (गंधोदयसित्तइ जाव सीहासणं रयाविति) <गन्धोदकसिक्तशुचिका यावत् सिंहासनं रचयन्ति > (रयावित्ता जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति) < रचयित्वा यत्रैव सिद्धार्थक्षत्रियः तत्रैव उपागच्छन्ति > (उववागच्छित्ता) < उपागत्य > (करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु) < हस्तयुग्मयोजनरूपं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा > सिद्धत्थस्स खत्तियास तमाणत्तियं पञ्चप्पिणति) <सिद्धार्थक्षत्रियस्य ताम् आज्ञा प्रत्यर्पयन्तियुष्मदादिष्टं कार्यम् अस्माभिः कृतम् इति कथयन्ति > ॥५९॥ ['लए णं सिद्धत्थे' इत्यादितः 'अब्भुटेइ' इति पर्यन्तम्] ॥१३०॥ For Private & Personal use only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३॥ SAAAAAAACAR-AE तत्र- (तए णं) ततः (सिद्धत्थे खत्तिए) <सिद्धार्थक्षत्रियः> (कल्लं पाउप्पभाए रयणीए) ति कल्यम् इति-श्वः, प्रादुः-प्राकाश्ये ततश्च प्रकाशप्रभातायां रजन्यां। (फुल्लुप्पल कमल कोमलुम्मिलियंमि) फुल्लं-विकसितं तच्च तद् उत्पलं च-पद्म तच्च कमलश्च-हरिणविशेषः तयोः कोमलम्-अकठोरम् उन्मीलितं-दलानां नयनयोश्च उन्मीलितं यस्मिन् , (अहापंडुरे) अथ-जनीविभातानन्तरं दीर्घस्तु आर्षत्वात् पाण्डुरे-शुक्ले (पभाए) प्रभाते । (रत्तासोगपगासकिंतुयसुयमुहगुंजद्धरागबंधुजीवगपारावयचलणनयणपरहुयसुरत्तलोयणजासुअणकुसुमरासिहिंगुलनिअरअइरेगरेहंतसरिसे) रक्ताऽशोकस्य तरोः प्रकाशश्च किंशुकं च-पलाशपुष्पं शुकमुखं च गुञ्जाया अर्द्धश्च इति द्वन्द्वः तेषां यो रागः। तथा बन्धुजीवकं च-पुष्पविशेषः । पारापतस्य चरणौ नयने च । परभृतस्य-कोकिलस्य सुरक्ते-सुशब्देन कोपाऽऽविष्टत्वोपलक्षणात् कोपाऽऽरक्ते लोचने च । जपापुष्पप्रकरश्च । हिगुलनिकरश्च-मुवर्तितकुरुविन्दगुटिका । ततो रागाऽन्तादिपदानाम् इतरेतरद्वन्द्वे । एतेभ्यः अतिरेकेण-आधिक्येन राजमानः सन् सदृशः तस्मिन् । अरुणत्वमात्रेण सदृशः विशिष्टदीप्त्या स्वतिरिक्त इति भावः। (कमलायरसंडविबोहए) कमलाऽऽकरा:-पद्मोत्पत्तिस्थानभूता हुदादयः तेषु यानि खण्डानि-नलिनवनानि तेषां विबोध के-विकाशके । (उडियंमि सूरे) उत्थिते-उद्गते सूरे-रखौ (सहस्सरस्सिमि) सहस्रं रश्मयो यस्य (दिणयरे) दिनकरे-दिनकरणशीले (तेअसा जलंते) तेजसा ज्वलति सति (तस्स य करपहरापरळूमि अंधयारे) तस्य च करा:-किरणाः तेषां तैः या प्रहारः-अभिघातः तेन अपरावे-विनाशिते अन्धकारे । 'पहर'त्ति प्राकृतलक्षणेन हवः। (बालायवकुंकुमेणं खचिअन्य जीवलोए) बालाऽऽतपः कुङ्कममिव तेन खचिते इव-पिञ्जरिते Sease & Resea ॥१३ Sain Educat i onal For Private & Personal use only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणानक टीका न्या.३ ॥१३२॥ BABASARER RECEMEMOREHINSA-AAA इव जीवलोके-मध्यजगति (सयणिजाओ अब्भुट्टे) शयनीयाद अभ्युत्तिष्ठति ॥६०॥ [सयणिचाओ' इत्यादितः 'पडिनिक्खमइ'त्ति पर्यन्तम्] तत्र- (सयणिज्जाओ अब्भुटेत्ता) <शयनीयाद् अभ्युत्थाय > (पायापीढाओ पचोरुहइ) < पादपीठात् प्रत्यवतरति> (पच्चोरहित्ता) <प्रत्यवतीर्य> (जेणेव) < यत्रैव > (अट्टणसाल) त्ति अट्टणशाला-व्यायामशाला (तेणेव उवागच्छति) < तत्रैव उपागच्छति > (उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसइ) < उपागत्य व्यायाम- | शालाम् अनुप्रविशति > (अणुपविसित्ता) < अनुप्रविश्य > (अणेगवायाम जोग्गवग्गणवामद्दणमल्लजुद्धकरणेहिं) अनेकानि व्यायामानि व्यायामनिमित्तं योग्यादीनि यानि । तत्र योग्या च-गुणनिका वल्गनं च-उल्लङ्घनं व्यामईनंपरस्परेण बाहाद्यङ्गमोटनं मल्लयुद्धं-प्रतीतं करणानि च-अङ्गभङ्गविशेषाः तैः (संते) श्रान्तः सामान्येन (परिस्संते) परिश्रान्तः-अङ्गप्रत्यङ्गाऽपेक्षया सर्वतः (सयपागसहस्सपागेहिं) त्ति शतकृत्वो यत्पक्वम् अपरापरौषधीरसेन, सह शतेन कार्षापणशतेन वा यत्पक्वम् एवं सहस्रपाकमपि (सुगंधवरतिल्लमाइएहिं) सुगन्धवरतैलादिभिः अभ्यङ्गैः इति योगः। आदिशब्दात् घृतकपरपानीयादिपरिग्रहः । किं भूतैः ? (पोणणिज्जेहिं) प्रीणनीयैः-रसरुधिरादिधातुसमताकारिभिः (दीवणिज्जेहिं) दीपनीयैः-अग्निजननैः (मयणिज्जेहिं) मदनीयैः-कामवद्धनैः (विहणिज्जेहिं) बृंहणीयैः-मांसोपचयकारिभिः (दप्पणिज्जेहिं) दर्पणीयैः-बलकारिभिः (सम्विदियगायपल्हायणिज्जेहिं) सर्वेन्द्रियाणि सर्वगात्राणि च प्रहलादयन्ति इति 'कर्तरि अनीयः' तैः (अभंगिए समाणे) अभ्यङ्गैः-स्नेहनः अभ्यङ्गः क्रियते स्म यस्य सः। ॥१३२॥ Sain Educ a tional For Private & Personal use only H alibrary.org Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३३॥ क्र. कि. १२ 38 Educa अभ्यङ्गितः सन् (तिल्लचम्मंसि) ततः तैलचर्मणि - तैलाभ्यक्तस्य सम्बाधनाकरणाय यच्चर्मतूलिकोपरि कड तत्तैलचर्म तत्र-‘संबाहिए समाणे'त्ति योगः । कै: ? इत्याह- पुरुषैः । कथंभूतैः ? (निउणेहिं) निपुणैः- उपायकुशलैः (डिपुण्णपाणिपायसुकुमालको मलत लेहिं) त्ति प्रतिपूर्णानां 'पाणिपादानां सुकुमालकोमलानि अतिकोमलानि तानि - अधोभागापेक्षया येषां ते तथा तैः (अभंगणपरिमद्दणुग्वलण करणगुणनिम्माएहिं ) त्ति अभ्यङ्गनपरिमर्दनउद्वनानां प्रतीतार्थानां करणे ये गुणविशेषाः तेषु निर्मातैः -सदभ्यस्तैः (लेएहिं दक्खेहिं पट्ठेहिं कुसले हिं मेहावीहिं छेकैः - असरज्ञैः 'द्विसप्ततिकला पण्डितैः' इति च वृद्धाः । दक्षैः - कार्याणामविलम्बितकारिभिः । प्रष्ठैःअग्रगामिभिः । कुशलैः - साधुभिः सम्बाधनाकर्मणि । मेधाविभिः - अपूर्व विज्ञानग्रहणशक्तिनिष्ठैः ['निउणसिप्पोवग एहिं 'त्ति क्वचित् । तत्र-निपुणानि-सूक्ष्माणि यानि शिल्पानि - अङ्गमर्द्दनादीनि तानि उपगतानि - अधिगतानि यैः] (जिअपरिसमे हिं) जितपरिश्रमैः ['छेएहिं 'त्ति काचित् । तत्र- छेकैः - प्रयोगज्ञैः 'दक्खेहिं' दक्षैः शीघ्रकारिभिः 'पत्तहिं' प्राप्तार्थै: - अधिगतकर्मणि निष्ठां गतैः ] ( पुरिसेहिं ) पुरुषैः (अट्ठिसुहाए मंससुहाए तपासुहाए रोमसुहाए) अस्थ्नां सुखहेतुत्वाद् अस्थिसुखा तया । एवं शेषाण्यपि पदानि । < मांससुखकरया सचासुखकरया रोमसुखकरया > (विहार) - चतुर्विधया (सुहपरिक्रम्मणाए संवाहणाए ) सुखा - मुखकारिणी परिकर्मणा - अङ्गशुश्रूषा तथा । तस्याश्च बहुविधत्वात् कतमया ? इत्याह-सम्बाधनया संवाहनया वा विश्रामगया । (संबाहिए समाणे ) <सम्बाधितः १ सुबोधिकाकारस्य तु तच्चिन्त्यत्वेन लिखनं भाष्यादि अज्ञानमूलकम्' इति । (कल्प कौमुदी) national ॥१३३॥ rary.org Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E किरणावली टीका व्या०३ श्रीकल्प- सन् > (अवगयपरिस्समे) अपगतपरिश्रमः । [क्वचिद् 'अवगयखेअपरिस्समे'त्ति पाठः । तत्र-खेदः-दैन्यं श्रम:- व्यायामजः शरीराऽस्वास्थ्यम] (अgणसालाओ पडिनिक्खमइ) < व्यायामशालातः प्रतिनिष्क्रीमति > ॥६॥ ॥१३४॥ ['अट्टणसालाओ' इत्यादितः 'पडिनिक्खमइ' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(अणसालाओ पडिनिक्खमित्ता) < अट्टनशालातः प्रतिनिष्क्रम्य > (जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ) < यत्रैव स्नानगृहं तत्रैव उपागच्छति > (उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपविसइ) < उपागत्य स्नानगृहम् अनुप्रविशति > (अणुपविविसित्ता) अनुप्रविश्य > (समुत्तजालाकुलाभिरामे) त्ति समुक्तेन-मुक्ताफलयुक्तेन जालेन-गवाक्षेण आकुल:-व्याप्तः अभिरामश्च यः स्नानमण्डपः तत्र (विचित्तमणिरयणहिमतले) त्ति विचित्रं मणिरत्नाभ्यां कुट्टिमतलं-बद्धः यत्र (रमणिज्जे पहाणमंडवंसि) < रमणीये स्नानमण्डपे> (नाणामणिरयणभत्तिचित्तसि पहाणपीढंसि) < नानामणिरत्नरचनाविचित्रे स्नानपीठे> (सुहनिसन्ने पुप्फोदएहि अ गंधोदएहि अ उण्होदएहि असुभोदएहि असुद्धोदएहि अ) < सुखेनोपविष्टः सन् > पुष्परसमित्रैः उदकैः गन्धोदकैः-श्रीखण्डादिरसमित्रैः < उदकैः> उष्णोदकैः-अग्निततोदकैः शुभोदकैः-पवित्रस्थानानीतैः तीर्थोदकैः मुखोदकैः वा-नात्युष्णः शुद्धोदकैश्च-स्वाभाविकैः (कल्लाणयकरणपवरमजणविहीए मजिए) <कल्याणककरणेन प्रधानेन स्नानविधिना> मज्जितः। कथं मजितः ? इत्याह-(तत्थ) त्ति तत्र-स्नानाऽवसरे (कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमजणावसाणे) ६ कौतुकानां रक्षादीनां शतैः बहुविधैः । कल्याणानि कायति-आकारयति कल्याणकं यत् प्रवरं मज्जनं तस्याऽवसाने (पम्हलसुकु SADECERLOREACHEGARALARI BILA SGESCIPES MARA ॥१३४॥ Jain Education international Ghabrary.org Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३५॥ BASESSUAALISUUS मालगंधकासाइअलूहिअंगे अहयसुमहग्घदूसरयणसुसंवुडे) पक्ष्मला-पक्ष्मवती अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना काषायिका-कपायरक्तशाटिका तथा लूषित-विरुक्षितम् अङ्ग-शरीरं यस्य स तथा अहतं- माद्यनुपद्रुतं सुमहाघ-बहुमूल्यं यद् दृष्यरत्नं-प्रधानवस्त्रं तेन सुसंवृतः-परिगतः। यद्वा-मुष्ठु संवृतं-परिहितं येन [क्वाऽपि 'नासानीसासवायवज्झचक्खुहरवण्णफरिसजुत्तहयलालापेलवाइरेगधवलं कणगखचिअंतकम्मदूसरयणसुसंधुए' ति पाठः। तत्र-नासानिश्वासवातेन वाह्य श्लक्ष्णत्वात् , चक्षुः हरति विशिष्टरूपत्वात् चक्षुहरं चक्षुर्धरं वा-चक्षुरोधकं घनत्वात् वर्णस्पर्शयुक्तं -प्रधानवर्णस्पर्श हयलालायाः सकाशात् पेलवं मृदु अतिरेकेण-अतिशयेन धवलं यत्तत्तथा। कनकेन खचितं-मण्डितम् अन्तयोः-अश्चलयोः कर्मचानकलक्षणं यस्य तत्तथा तेन दृष्यरत्नेन मुसंवृतः] (सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते) त्ति सरससुरभिगोशीर्षचन्दनेनाऽनुलिप्तं गात्रं यस्य । (सुइमालावण्णगविलेवणे) शुचिनी-पवित्र माला च-पुष्पमाला वर्णकविलेपनं च-मण्डनकारि कुङ्कमादिविलेपनं यस्य । यद्यपि वर्णकशब्देन चन्दनमुच्यते परं 'गोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते' इत्यनेन तस्योक्तत्वात् । (आविद्वमणिसुवण्णे) आविद्धानि परिहितानि मणिसुवर्णानि उपलक्षणत्वान् मणिसुवर्णमयभूषणानि येन । न धात्वन्तरमयं भूषणमस्ति इत्यर्थः। (कप्पियहारद्वहारतिसरयपालंबपलंयमाणकडिसुतसुकय सोहे) कल्पितःविन्यस्तः हारः-अष्टादशसरिक: अर्द्धहार:-नवसरिक: त्रिसरिकं च प्रतीतं यस्य स तथा तं । प्रालम्ब:-मुक्तावलिझुम्बनकं प्रलम्बमानो यस्य । कटिसूत्रेण-कटयाभरणेन सुष्ठु कृता शोभा यस्य । ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। यद्वा-कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य । (पिणद्धगेविज्जे) पिनद्धानि-परिहितानि ग्रीवायां ग्रेवेयकानि-ग्रीवाऽऽभरणानि येन (अंगुलिजग GGEECRUGRECEMARACa Jain Educa ida rational For Private & Personal use only womenabrary.org Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प RRORSCORRES ॥१३६॥ ललियकयाभरणे) अङ्गुलीयकानि-अगुल्याभरणानि उर्मिकाः ललितानि-शोभावन्ति कचाऽऽभरणानि च-पुष्पादीनि ॥ फिरणाव यस्य (वरकडगतुडिअभिअभुए) वराणि-प्रधानानि कटकानि हस्ताऽऽभरणानि त्रुटिकाश्च-बादाभरणानि तैः स्तम्भितौ टीका व्या. इव भुजौ यस्य । (अहियरुवसस्सिरीए) अधिकरूपेण सश्रीकः । (कुंडल उज्जोइआणणे) कुण्डलोद्योतिताऽऽनन: (मउडदित्तसिरए) मुकुटदीप्तशिरष्कः। (हारोत्थयसुकयरइयवच्छे) हारेण अवस्तृतम् आच्छादितं तेनैव सुष्टु कृतरतिकंच | वक्षो यस्य । (मुद्दिआपिंगलंगुलिए) मुद्रिकाभिः-सरत्नामुल्याभरणः पिङ्गला अगुलयो यस्य । (पालंबपलंयमाणसुक- ॥ यपडउत्तरिज्जे) प्रलम्बेन-दीर्घेण प्रलम्बमानेन च सुकृतं पटेन उत्तरीयकम्-उत्तरासगो येन । (नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणोवियमिसिमिसिंतविरइयसुसिलिट्ठविसिट्ठल?आविद्धवीरवलए) त्ति नानामणिकनकरत्नैः विमलानि महार्हाणि-महार्धानि यानि निपुणेन शिल्पिना 'उविभ' ति परिकमितानि 'मिसिमिसिंत' ति देदीप्यमानानि विरचितानि-निर्मितानि मुश्लिष्टानि-सुसन्धीनि विशिष्टानि-अन्येभ्यो विशेषवन्ति लष्टानि-मनोहराणि आविद्धानि-परिहितानि वीरवलयानि येन-"यः कश्चिद वीरः स मां विजित्य वलयानि एतानि मोचयतु" इति स्पर्द्धया परिहितानि वलयानि 'वीरवलयानि' उच्यन्ते । (किं बहणा? कप्परक्खए विव अलंकिअविभूसिए) किंबहुना ? वर्णितेन इतिशेपः। कल्पवृक्ष इवाऽलङ्कृतः-दलादिभिः, विभूषितश्च-फलपुष्पादिभिः कल्पवृक्षः (नरिंदे) राजा पुनः अलङ्कृतः-मुकुटादिभिः विभूषितः-वस्त्रादिभिः । (सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं) ति सकोरिण्टानि-कोरिण्टकाख्यकुसुमस्तवकवन्ति माल्यदामानि-पुष्पसजो यत्र तत्तथा तेन । कोरिण्टकाः पुष्पवृक्षजातिः तत्पुष्पाणि मालान्ते शोभार्थं दीयन्ते- 'मालायै ॥१३६ E ARC AAAAAAAA Jain Edonnerational For Private & Personal use only ifrary.org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३७॥ HARSHA H ARASHRESTHA हितानि माल्यानि-पुष्पाणि दामानि मालाः <छत्रेण> ब्रियमाणेन [वाचनान्तरे सूर्याभवदलङ्कारवर्णकः। स चैवम्| 'एगावलिं पिणद्वेइ' इत्यादि राजप्रश्नीयसूत्रं तच्च विस्तरार्थिना राजप्रश्नीयाज्ज्ञेयम् । ] (सेयवर चामराहिं उदुव्वमा णीहिं) त्ति श्वेतवरचामरैः उद्धृयमानः 'चामरस्य क्लीवत्वेऽपि स्त्रीत्वं' गौडमतेन । (मंगलजयसद्दकयालोए) मङ्गलभूतो जयशब्दः कृतो जनेन आलोके-दर्शने यस्य स तथा । (अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडविअ) त्ति अने के ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः । दण्डनायका:-तन्त्रपालाः । राजानः-माण्डलिकाः। ईश्वराः-युवराजानः अणिमाद्यैश्वर्ययुक्ता इत्यन्ये । तलवरा:-तुष्टराजदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः। माडम्बिकाः-छिन्नमडम्बाऽधिपाः । (कोडुबिअमंतिमहाभनिगणगदोवारियअमच्च) कौटुम्बिका:-कतिपयकुटुम्बस्वामिनः अवलगका ग्राममहत्तरा वा । मन्त्रिणः सचिवाः । महामन्त्रिणः-महामात्या मन्त्रिमण्डलप्रधानाः हस्तसाधनाऽध्यक्षा वा । गणका-ज्योतिषिका भाण्डागारिका वा । दौवारिका:प्रतीहारा राजद्वारिका वा । अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः । (चेडपीढमद्दनगरनिगमसिडिसेणावइसत्यवाहदूअसंधिवाल सद्धि संपरिवुडे) चेटा:-पादमूलिका दासा वा । पीठमर्दा-आस्थाने आसन्नासन्नसेवका वयस्या इत्यर्थः वेश्याऽऽचार्या वा । नागरा-नगरवासिप्रकृतयः-राजदेयविभागाः। निगमा:-कारणिका वणिजो वा। श्रेष्ठिन:-श्रीदेवताध्यासितसौवर्ण| पविभूषितोत्तमाङ्गाः । सेनापतयः-नृपतिनिरूपिताः चतुरङ्गसैन्यनायकाः । सार्थवाहा:-सार्थनायकाः । दूताः-अन्येषां गत्वा । राजाऽऽदेशनिवेदकाः। सन्धिपाला-राज्यसन्धिरक्षकाः । एषां द्वन्द्वः ततस्तैः । इह च तृतीया बहुवचनलोपो द्रष्टव्यः।।3|| साध न केवलं तत्सहितः अपि तु तैः सम् इति-समन्तात् परिवृतः । (धवलमहामेघनिग्गए इव गहगणदिपंतरिक्ख FACCEEROCESSORROSROUGUSA ॥१३ Jain Educatiletional For Private & Personal use only womadlerary.org Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाक्स टीका व्या०३ ॥१३८॥ तारामणाण मज्झे ससिव पियदसणे) नरपतिमज्जनगृहात् प्रतिनिष्क्रामति इति योगः । किं भूतः ? प्रियदर्शनः । क इव ? धवलमहामेघनिर्गत इत्र शशी तथा 'ससिब्य'त्ति वतोऽन्यत्र सम्बन्धः ततो ग्रहगणदीप्यमानऋक्षतारकगणानां मध्ये इव वर्तमानः । (नरवई नरिंदे नरवसहे नरसीहे) नरपतिः-नराणां पतिः-रक्षिता। नरेन्द्रः-नरेषु ऐश्वर्याऽनुभवनात् । नरवृषभ:-राज्यधुराधरणात् । नरसिंहः-शौर्यातिशयात् । (अभहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाणे) अभ्यधिक राज तेजोलक्ष्म्या दीप्यमानः। (मजणघराओ पडिनिक्खमइ) < मजनगृहात् प्रतिनिष्क्रामति > ॥२॥ ['मजणघरे' इत्यादितो 'निसीअई'त्ति पर्यन्तं सुगमम् ] __ (मज्जणघराओ पडिनिक्खमित्ता) < मजनगृहात् प्रतिनिष्क्रम्य > (जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला | तेणेव उवागच्छइ) < यत्रैय बाह्या उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छति > (उवागच्छित्ता सीहासणंसि पुरस्थाभिमुहे निसीआइ) < उपागत्य सिंहासने पूर्वाभिमुखः निषीदति> ॥६॥ ['सीहासमि' इत्यादितो 'वयासी'त्ति यावत्] तत्र - (सीहासणंसि पुरस्थाभिमुहे निसीइत्ता) < सिंहासने पूर्वाभिमुखः निषद्य > (अप्पणो उत्तरपुरथिमे दिसीभाए अट्ठभद्दासणाई सेयवत्थपच्चुन्थयाई सिद्धस्थकयमंगलोवयाराई रयावेइ) < आत्मनः ईशानकोणे अष्टौ भद्रासनानि > श्वेतवस्त्रेग प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादितानि, कृतः सिद्धार्थकप्रधानो मङ्गलाय उपचार:-पूजा येषु । प्राकृतत्वात् कृत शब्दस्य मध्ये निपातः < रचयति > । (रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते) < रचयित्वा आत्मन:> ॥१३८॥ Jain Education national For Privale & Personal use only Www.cahelibrary.org Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३९॥ दुरं-विश्कर्षः सामन्त-समीपम् उभयोः अभावे नाऽतिदुरे नाऽतिसमीपे इत्यर्थः। 'यवनिकाम् आच्छयति' इति सम्बन्धः । (नाणामणिरयणमंडियं) नानामणिरत्नैः मण्डितां । (अहिअपिच्छणिज्ज) अधिकं प्रेक्षणीयम्-आलोकनीयां । (महग्घवरपट्टणुग्गयं) महार्धा चासौ बरे पत्तने-वस्त्रोत्पत्तिस्थाने उद्गता-व्यता। वरपट्टनाद्वा-प्रधानाऽऽवेष्टनकाद् उदगता-निर्गता। (सण्हपभत्तिसयचित्तताणं) सूक्ष्मपट्टसूत्रमयो भक्तिशतचित्रः तान:-तानको यस्यां ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलय भत्तिचित्त) ईहामृगाः-वृकाः <वृपभाः तुरगाः नराः मकराः पक्षिणः सर्पाः किन्नराः> रुव:-मृगभेदाः शरभाः-अष्टापदाः महाकाया आटव्यपशवः चमराआटव्यगावः [शेष सुगमं । व्याख्यानं च प्राग्वत्] <कुञ्जराः वनलताः पद्मलताः एषां भक्तिभिः चित्रां> (अभितरियं जवणियं अंडावेइ) आस्थानशालाया अभ्यन्तरभागवर्तिनी यवनिकां-काण्डपट्टीम् आकर्षयति-आयतां कारयति इत्यर्थः। (अंछावेत्ता) < आयतां कारयित्वा> (नाणामणिरयणभत्तिचित्त) < नानामणिरत्नैः भक्तिचित्रं> (अस्थरयमिउमसूरगुत्थयं) आस्तरकेण-प्रतीतेन मृदुमसूरकेण च अवस्तृतम्-आच्छादितम् । अथवा-अस्तरजसा मृदुमसरकेण इतियोज्यं । (सेयवस्थपच्चुत्थुअं सुमउयं) श्वेतवस्त्रेण प्रत्यवस्तृतम्-उपरि आच्छादितं सुमृदुकं-कोमलम् । अत एव-(अंगसुहफरिसगं विसिट्ठ) अङ्गस्य सुखः- सुखकारी स्पर्शों यस्य । विशिष्टं-शोभनं (तिसलाए खत्तिआणीए भद्दासणं रयावेइ) <त्रिशलोपवेशनयोग्य भद्रासनं रचयति> (रयावित्ता कोडंबियपुरिसे सहावेह) < रचयित्वा च कौटुम्बिकपुरुषान् आकारयति> (सदावेत्ता एवं वयासी) <आकार्य च एवं कथयति स्म ॥६॥ ॥१३॥ JainEducation Anational For Privale & Personal use only drary.org Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणा टीका व्या ॥१४॥ AAAAAAAAABAR [खिप्पामेव भो !' इत्यादितः 'पडिसणेतिति यावत] तत्र- (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!) <शीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः !> (अटुंगमहानिमित्त) अष्टाऽङ्गम्अष्टाऽवयव । यथा-- ___ "अङ्गं स्वप्नं स्वरं चेव भौमं व्यञ्जन-लक्षणे । उत्पातमन्तरिक्षं च निमित्तं स्मृतमष्टधा" ॥१॥ तत्र-'पुंसां दक्षिणाऽङ्गे 3 स्त्रीणां वामाऽङ्गे स्फुरणं रम्यम्' इत्यादि अङ्गविद्या शसप्नानामुत्तममध्यमाऽधमविचारः स्वप्नविद्या २। गृहगोधा-कृक लास-काक-विनायक-घूक-दुर्गा-भैरवी-शृगालादीनां सरपरिज्ञानं स्वरविद्या ३। भौम-भूमिकम्पादिविज्ञानं भौमविद्या ।। व्यञ्जनं-मपीतिलकादीनि ५। लक्षणं-करचरणरेखादिसामुद्रिकोक्तं ६। उत्पातम्-उल्कापातादि:-- "उल्कापाते प्रजापीडा निर्धाते भूपतिक्षयः । अनावृष्टिश्च दिग्दाहे दुर्भिक्षं पांसुवर्षणे" ॥१॥ इत्यादि परिज्ञानं ७। अन्तरिक्षं-ग्रहाणामुदयाऽस्तादिपरिज्ञानं ८ इत्याद्यष्टभेदं यन्महानिमित्तं-परीक्षाऽर्थप्रतिपत्तिकारणव्युत्पादकशास्त्रविशेषः । (सुत्तत्थधारए) तस्य यौ सूत्राथौं धारयन्ति पठन्ति वा तयोर्वा पारगा ये ते तथा, अनेन 'धारए पाढए पारए' इति पाठत्रयं व्याख्यातं । (विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपादए सद्दावेह) < विविधशास्त्रेषु कुशलान् स्वप्नलक्षण. पाठकान् आकारयत> (तए णं ते कोडुबियपुरिसा सिद्धत्थेण रण्णा एवं वुत्ता समाणा) < तत:-ते कौटुम्बिकपुरुषाः सिद्धार्थेन राज्ञा एवम् उक्ताः सन्तः> (हतुट्ट जाव हियया) < हृष्टाः तुष्टा यावत् हर्पितहृदयाः> यावत् करणा'हडतुडचित्तमाणंदिआ' इत्यादि दृश्यं । (करयल जाव.) < करतलाभ्यां> यावत् करणात्-'परिग्गहियं दसनहं ६ ॥१४ For Privale & Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४॥ RECECRECA सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं' (पडिसुणेति) त्ति प्रतिशृण्वन्तिअभ्युपगच्छन्ति वचनं विनयेन [ शेषं प्राग्वत् ] ॥६५॥ ["पडिसुणित्ता' इत्यादितः 'सदाविति' त्ति थावत् सुगमम् ] (पडिसुणित्ता सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति) < प्रतिशृत्य च सिद्धार्थराजस्य समीपात प्रतिनिष्क्रामन्ति > (पडिनिक्खमित्ता कुंडग्गामं नयरं मज्झमज्झेणं जेणेव सुविणलक्खणपाढगाणं गेहाई तेणेव उवागच्छंति) प्रतिनिष्क्रम्य च कुण्डग्राम नगरं मध्यंमध्येन स्वप्नलक्षणपाठकानां गृहाणि तत्रैव उपागच्छन्ति > (उचागच्छित्ता सुविणलक्खणपाढए सद्दाविति) < उपागत्य स्वप्नलक्षणपाठकान् शब्दयन्ति ॥६६॥ ['तए णं' इत्यादितो 'वद्धाविति' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स कोडुबियपुरिसेहिं सद्दाविआ समाणा) < तत:-ते स्वप्नलक्षणपाठकाः सिद्धार्थराजस्य कौटुम्बिकपुरुषैः शब्दिताः सन्त:> (हतुट्ठ जाव हियया व्हाया) < हृष्टाः तुष्टा यावत् हर्षितहृदयाः स्नाताः स्नानाऽनन्तरं (कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता) कृतं बलिकर्म यैः स्वगृह देवतानां, कृतानि कौतुकमङ्गलानि एव प्रायश्चित्ता.न-दुःस्वप्नादिविधाताऽर्थमवश्यकरणीयत्वाद यैः ते तथा । तत्र-कौतुकानि-मषीतिलकादीनि । मङ्गलानि तु-सिद्धार्थक-दध्यक्षतर्वाऽङ्करादीनि । (सुद्धप्पावेसाई वेसाई) ति शुद्धात्मानःस्नानशुचिकृतदेहाः । वेषे साधनि वेष्याणि 'वस्त्राणि' इतियोगः । अथवा शुद्धानि चतानि प्रवेश्यानि च-राजसभाप्रवेशो MEEG ६ ॥१४ १॥ Jain Educato 22ational For Privale & Personal use only orary.org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प- किरणावली टीका व्या०३ ॥१४२॥ चितानि च इति । (मंगलाई वत्थाई पवरोइं परिहिया) मङ्गल्यानि-मङ्गलकरणे साधूनि वस्त्राणि प्रवराणि-प्रधानानि परिहिता:-निवसिताः । (अप्पमहग्घाभरणालंकियसरोरा) अल्पानि स्तोकानि महार्धानि-बहुमूल्यानि यानि आभरणानि तैः अलङ्कृतं शरीरं येषां (सिद्धत्थय हरियालियाकयमंगलमुद्धाणा) सिद्धार्थाश्च-सर्षपाः हरितालिका च-दूर्वा कृता मङ्गलनिमित्तं मूर्धनि-शिरसि यैः (सएहिं सरहिं गेहेहिंतो निग्गच्छंति) स्वकेभ्यः-आत्मीयेभ्य इत्यर्थः गृहेभ्यः निर्गच्छन्ति > (निग्गच्छित्ता खत्तियकुंडग्गाम नयरं मज्झमज्झेणं जेणेव सिद्धस्थस्स रणो भवणवडिंसयपडिदुवारे तेणेव उवागच्छंति) <निर्गत्य क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं मध्यंमध्येन यत्रैव सिद्धार्थराजस्य > भवनवरेषु-हर्येषु अवतंसक इव-शेखरक इव भवनवराऽवतंसकः तस्य प्रतिद्वारं-मूलद्वारं समीपद्वारं < तत्रैव उपागच्छन्ति > (उवागच्छित्ता भवणवरडिंसगपडिदुवारे) < उपागत्य भवनवराऽवतंसकप्रत्तिद्वारे> तत्र (एगयओ मिलंति) त्ति समुदायीभूय सम्मतीभवन्ति-सर्वसम्मतमेकं पुरस्कृत्य अन्ये तदनुयायिनो भवन्ति इत्यर्थः। यत:-'यत्र सेवेऽपि नेतारः सर्वे पण्डितमानिनः । सर्वे महत्त्वमिच्छन्ति तद्वृन्दमवसीदति" ॥१॥ इति दृशन्तीभूता च राज्ञो मन्त्रिपरीक्षितशय्यकशाय्यबलगकपञ्चशती तद्यथा-काचित्सुभटानां पञ्चशती परस्परमसम्बद्धा सेवावृत्तिनिमित्तं कस्यचिद् राज्ञः पुरो ययौ । राज्ञा मन्त्रिणा च परीक्षानिमित्तम् एकैच शय्या शयनाय प्रेषिता, ते च अहमिन्द्रत्वमापना नि:स्वामिकाः परस्परं विवदमाना:-'सर्वेषामविशेषेण परिभोगो भवतु' इत्याशयेन यथाऽपितामेव शय्यामन्तराले विमुच्य तदभिमुखपादाः शयितवन्तः प्रातश्च रहः सङ्केतितराजपुरुष राजे यथावद्वयतिकरे निवेदिते-कथमसम्बद्धा -AAAAAAAE ॥१४२॥ Jain E For Private & Personal use only Himandlibrary.org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४३॥ एते योद्धारः? इति विचिन्त्य निर्भय निष्काशिता इति । (एगयओ मिलिता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला) < सम्मती भूय यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला> (जेणेव सिद्धस्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति) < यत्रैव सिद्धार्थः क्षत्रिय तत्रैव उपागच्छन्ति > (उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहिअंद जाव कटु) < उपागत्य हस्तयुग्मयोजनरूपं यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा > (सिद्धत्थं खत्तियं) < सिद्धार्थ क्षत्रियं> सानपाठकाः पुन:-"दीर्घाऽऽयुर्भव वृत्तवान् भव भव श्रीमान् यशस्वी भव, प्रज्ञावान् भव भूरिसत्वकरुणादानैकशौण्डो भव । भोगाढयो भव भाग्यवान् भव महाप्सौभाग्यशाली भव प्रौढश्रीव कीर्तिमान् भव सदा कोटिंभरस्त्वं भव ॥६॥ इत्याद्याशीः पुरस्सरं (जएणं विजएणं वद्धाविंति) जयेन विजयेन त्वं वर्द्धस्व इति आवक्षत इत्यर्थः। जय-विजयौ च प्राग्नद् व्याख्येयौ ॥ ६७॥ इति श्रीजैनशासनसौधस्तम्भायमान-महोमहोपाध्यायश्रीधर्मसागर-गणिवरविरचितायां कल्पकिरणावल्यां तृतीयं व्याख्यानं समाप्तम् । REAAAAAEEMALEबर १ अत्र 'कोटिंभर' इति प्रयोगस्तु-सञ्ज्ञात्वविवक्षया 'सज्ञायां भृत्वि' त्यादिना 'खे विश्वभरवत्' साधुः (कल्पकौमुदी) ॥१४३॥ Jain Edu For Privale & Personal use only malibrary.org Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणार टीका ॥१४४॥ ब्या० RECORRECREGAR-CAREA अथ चतुर्थ व्याख्यानं प्रारभ्यते । [तए णं ते सुमिण' इत्यादितः 'निसीअंति' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तए णं ते सुमिणलक्खणपाढगा सिद्धत्थेण रणा) - ततः स्वप्नलक्षणपाठकाः सिद्धार्थराजेन > (वंदिअपूइअसक्कारिअसम्माणिआ समाणा) वन्दिताः-सद्गुणोत्कीर्तनेन, पूजिता:-पुष्पैः, सत्कारिताः-फलवस्त्रादिदानेन, सन्मानिता:-अभ्युत्थानादिप्रतिपच्या । अन्ये तु-पूजिताः-वस्त्राऽऽभरणादिना, सत्कारिता:-अभ्युत्थानादिना, सन्मानिता:आसनदानादिना [क्वचित्-'अचिअ वंदिअमाणिअपूड' ति पाठः। तत्र-अचिंता:-चन्दनचर्चाऽऽदिना मानिता:दृष्टिप्रणामतः शेषं प्राग्वत् ] सन्तः (पत्ते पत्त पुब्वन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीअंति) < प्रत्येकं प्रत्येकं> पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु < निपीदन्ति > ॥६८॥ ['तए णं सिद्धत्थे' इत्यादितः 'वयासी' ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तए णं सिद्धत्थे खत्तिए) < ततः सिद्धार्थः क्षत्रियः> (तिसलं खत्तियाणिं जवणियंतरं ठावेइ) < त्रिशलां क्षत्रियाणी यवनिकामध्ये स्थापयति > (ठवित्ता) <स्थापयित्वा > (पुष्फफलपडिपुण्णहत्थे) पुष्पफलैः-सहस्रपत्रनालिकेरादिभिः प्रतिपूणौं हस्तौ यस्य स तथा । यत:___ "रिक्तपाणिनं पश्येच्च, राजानं दैवतं गुरुम् । निमित्त विशेषेण, फलेन फलमादिशेत्" ॥१॥ इति [शेष सुगमं] (परेणं SHEHARSARRER ॥१४ AR Jain Educ a tional For Privale & Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1१४५॥ RECAECARECRECA विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं व्यासी) < परमविनयेन तान् स्वप्नलक्षणपाठकान् एवं कथयति स्म> ॥६९॥ ["एवं खलु' इत्यादितः 'पडिबुद्धा' इति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र-(एवं खलु देवाणुप्पिआ!) < एवं प्रकारेण हे देवानुप्रियाः !> (अज तिसला खत्तिआणी तंसि तारिसगंसि जाव सुत्तजागरा) < अद्य त्रिशला क्षत्रियाणी तस्मिन् तादृशे यावत नातिसुप्ता नातिजाग्रती> (ओहीरमाणी ओहोरमाणो इमे एयारूवे उराले चउद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा) < पुनः पुनः ईषन्निद्रां गच्छन्ती इमान् एतत्स्वरूपान् चतुर्दश महास्वप्नान् दृष्ट्वा जागरिता> ॥७॥ ['तं जहा' इत्यादितः 'भविस्सइ' त्ति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र-(तं जहा-' 'गयवसह.' गाहा) < तद्यथा-'गजवृषभ.' गाथा > (तं एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं देवाणुप्पिया! उरालाणं) <ततः एतेषां चतुर्दशमहास्वप्नानां हे देवानुप्रियाः! प्रशस्तानां> (के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?) <क: मन्ये कल्याणः फलवृत्तिविशेषो भविष्यति ?> ॥७१॥ [तए णं ते सुविण' इत्यादितः 'एवं वयासी' त्ति पर्यन्तम् ] __तत्र-(तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स अंतिए) < ततः ते स्वप्नलक्षणपाठकाः सिद्धार्थक्षत्रियस्य अन्तिके > (एयमढें सोचा निसम्म हतुट्ट जाव यहियया ते सुमिणे ओगिण्हंति) < एनमर्थ श्रुत्वा IGEAAAAAठबन्ल R E क.कि. १३ बका ॥१४५॥ ३७Educa iational For Private & Personal use only rary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०४ ॥१४६॥ निशम्य हृष्टाः तुष्टाः यावत् हर्षितहृदयाः तान् स्वप्नान् चित्ते धरन्ति > (ओगिणिहत्ता ईह अणुपविसति) <धृत्वा ईहाम् अनुप्रविशन्ति > (अणुपविसित्ता) < अनुप्रविश्य > (अन्नमन्नेण सद्धिं संचालति) त्ति । अन्योऽन्येन सह सञ्चालयन्ति-संवादयन्ति पर्यालोचयन्ति इत्यर्थः। [क्वचित-'संलावेंति' त्ति पाठः । तत्राऽपि स एवाऽर्थः] (संचालेत्ता ते सुमिणाणं) < पर्यालोच्य तेषां स्वप्नानां > (लद्धट्ठा गहिअट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा) इत्यादि । लब्धार्थाःस्वतः। गृहीताऽर्थाः-पराऽभिप्रायाग्रहणतः । पृष्टाऽर्थाः-संशये सति परस्परतः । तत एव विनिश्चिताऽर्थाः-ऐदंपर्यालोचनात् (अहिगयट्ठा) अत एव चाऽभिगतार्थाः-अवधारितार्थाः। (सिद्धत्थस्स रणो पुरओ सुमिणसस्थाइं उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा) सिद्धार्थस्य राज्ञः पुरः स्वप्नशास्त्राणि उच्चरन्तः उच्चरन्तः (सिद्धत्थं खत्तियं एवं ययासी) सिद्धार्थक्षत्रियम् एवं वदन्ति स्म ॥७२॥ तत्र स्वप्नशास्त्राण्येवं यथा 'अनुभूतः श्रुतो दृष्टः प्रकृतेश्च विकारजः । स्वभावतः समुद्भूत-श्चिन्तासन्ततिसम्भवः ॥१०॥ देवताधुपदेशोत्थो धर्मकर्मप्रभावजः । पापोद्रेकसमुत्थश्च स्वप्नः स्यानवधा नृणाम् ॥१७॥ प्रकारैरादिमैः पइभि-रशुभश्च शुभोऽपि च । दृष्टो निरर्थकः स्वप्नः, सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरैः (युग्मं) ॥१८॥ रात्रेश्चतुषु यामेषु दृष्टः स्वप्नः फलप्रदः । मासैादशभिः षड्भि-त्रिभिरेकेन च क्रमात् ॥१९॥ निशान्त्यघटिकायुग्मे दशाहात्फलति ध्रुवम् । दृष्टः सूर्योदये स्वप्नः सद्यः, फलति निश्चलम् ॥२०॥ RECTEGOLORCAMERA ॥१४६॥ For Private & Personal use only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४७॥ NAGAR मालास्वप्नोऽतिदृष्टश्च तथाऽऽधिव्याधिसम्भवः । मलमूत्रादिपीडोत्थः स्वप्नः सर्वो निरर्थकः ॥२१॥ (विवेकविलासे) धर्मरतः समधातुर्यः, स्थिरचित्तो जितेन्द्रियः सदयः । प्रायस्तस्य प्रार्थित-मर्थ स्वप्नः प्रसाधयति ॥१॥ न श्राव्यः कुस्वप्नो, गुर्वादे स्तदितरः पुनः श्राव्यः । योग्यश्राव्याऽभावे, गोरपि कर्णे प्रविश्य वदेत् ॥२॥ इष्टं दृष्ट्वा स्वप्नं, न सुप्यते नाऽऽप्यते फलं तस्य । नेया निशाऽपि मुधिया, जिनराजस्तवनसंस्तवतः ॥३॥ स्वप्नमनिष्टं दृष्ट्वा, सुप्यात पुनरपि निशामवाप्याऽपि । नैतत्कथ्यः कथमपि, केषाश्चित् फलति न स यस्मात् ॥४॥ पूर्वमनिष्टं दृष्ट्वा, स्वप्नं यः प्रेक्षते शुभं पश्चात् । स तु फलदस्तस्य भवेद् , द्रष्टव्यं तद्वदिष्टेऽपि ॥५॥ स्वप्ने मानवमृगपति-तुरङ्गमातङ्गवृषभसुरभिभिः । युक्तं रथमारूढो. यो गच्छति भूपतिः स भवेत् ॥६॥ उपहारो हयवारण-यानाऽऽसनसदननिवसनादीनाम् । नृपशङ्का शोककरो, बन्धुविरोधाऽर्थहानिकरः ॥७॥ यः सूर्याचन्द्रमसो-बिम्बं ग्रसते समग्रमपि पुरुषः । कलयति दीनोऽपि महीं ससुवर्णा साऽर्णवां नियतम् ॥८॥ हरणं प्रहरणभूषण-मणिमौक्तिककनकरूप्यकुप्यानाम् । धनमानम्लानिकर, दारुणमरणावहं बहुशः ॥९॥ आरूढः शुभ्रमिभं, नदीतटे शालिभोजनं कुरुते । भुङ्क्ते भूमिमखिलां स जातिहीनोऽपि धर्मधनः ॥१०॥ निजभाया हरणे, वसुनाशः परिभवे च सङ्कलेशः । गोत्रस्त्रीणां तु नृणां, जाये ते बन्धुवधबन्धौ ॥११॥ शुभ्रेण दक्षिणस्यां यः, फणिना दश्यते निजभुजायाम् । आसादयति सहस्र, कनकस्य स पञ्चरात्रेण ॥१२॥ READIRECORAKAR ॥१४७॥ Jain Education international For Privale & Personal use only wwaijatnelibrary.org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ५. किरणावर टीका व्या.१ ॥१४८॥ जायते यस्य हरणं, निजशयनोपानहां पुनः स्वप्ने । तस्य म्रियते दयिता, निविडा स्वशरीरपीडाऽपि ॥१३॥ यो मानुषस्य मस्तक-चरणभुजानां च भक्षणं कुरुते । राज्यं कनकसहस्रं, तदर्धमाप्नोत्यसौ क्रमशः ॥१४॥ द्वारपरिघस्य शयनप्रेखोलनपादुकानिकेतानाम् । भञ्जनमपि यः पश्यति तस्याऽपि कलत्रनाशः स्यात् ॥१५॥ कमलाऽऽकररत्नाऽऽकर-जलसम्पूर्णाऽऽपगा: सुहृन्मरणम् । यः पश्यति लभतेऽसा वनिमित्तं वित्तमतिविपुलम् ॥१६॥ अतितप्तं पानीयं, सगोमयं गडूलमौषधेन युतम् । यः पिबति सोऽपि, नियतं म्रियतेऽतिसाररोगेण ॥१७॥ देवस्य प्रतिमाया, यात्रास्नपनोपहारपूजादीन् । यो विदधाति स्वप्ने, तस्य भवेत् सर्वतो वृद्धिः ॥१८॥ वप्ने हृदयसरस्यां, यस्य प्रादुर्भवन्ति पद्मानि । कुष्टविनष्टशरीरो, यमवसतिं याति स त्वरितम् ॥१९॥ आज्यं प्राज्यं स्वप्ने यो, विन्दति वीक्ष्यते यशस्तस्य । तस्याऽभ्यवहरणं वा, क्षीराऽन्नेनैव सह शस्तम् ॥२०॥ हसने शोचनमचिरात , प्रवर्तने नर्तनेऽपि वधवन्धौ । पठने कलहश्च नणा-मेतत् प्राज्ञेन विज्ञेयम् ॥२१॥ कृष्णं कृत्स्नमशस्तं, मुक्त्वा गोवाजिराजगजदेवान् । सकलं शुक्लं च शुभं, त्यक्त्वा कसिलवणादीन् ॥२२॥ दृष्टाः स्वप्ना ये स्वं, प्रति तेऽशुभाः शुभा नणां स्वस्य । ये प्रत्यपरं तस्य, ज्ञेयास्ते स्वस्य नो किश्चित् ॥२३॥ दुःस्वप्ने देवगुरून् , पूजयति करोति शक्तितश्च तपः । सततं धर्मरतानां, दुःस्वप्नो भवति सुस्वप्नः ॥२४॥ तथा आगमोऽपि यथा-'इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एग महं खीरकुंभं दधिकुंभं घयकुंभ मधुकुंभ वा पासमाणे पासइ, उप्पाडेमाणे उप्पाडेइ, उप्पाडितमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झइ तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ'। BOUCGACASREAM R ECE ॥१४८ Sain E -nternational For Private & Personal use only rary.org Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||१४९॥ ARREARREARSIRSAR ANSARERRENT __'इत्थी वा पुरिसे वा सुविणं ते एगं महं हिरण्णरासिं वा सुवण्णरासिं वा रयणरासिं वा वयररासि वा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झइ तेणेव भवग्गहणेणं जाव अंतं करेइ' । 'इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं अयरासि वा तउअरासिं वा तंबरासिं वा सीसगरासि वा पासमाणे पासइ, दुरूमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नइ तक्खणामेव बुज्झइ दुच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ (बुज्झइ) जाव अंतं करे।' 'इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं भवणं सधरयणामयं 'समाणे पासइ, अणुपविसमाणे अणुपविसइ, अणुपविठ्ठमिति अप्पाणं मन्नइ तक्खणामेव बुज्झइ तेणेव (भवग्गहणेणं जाव त परेइ) ॥ (भगवती सूत्र-५८१) [एवं खलु' इत्यादितः 'पडिबुझंति' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं सुमिणसत्थे) <एवं प्रकारेण हे देवानुप्रियाः ! अस्माकं स्वप्नशास्त्रे> (शयालीस सुमिणा तीसं महासुमिणा बावत्तरि सव्वसुमिणा दिट्ठा) <द्विचत्वारिंशत् स्वप्ना:> सामान्यफला: त्रिंशत् महास्वप्नाः> महाफलाः < द्वासप्ततिः सर्वे स्वप्नाः दृष्टा:> (तस्थ णं देवाणुप्पिया! अरहंतमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा अरहंतंसि (४००) वा चक्कहरंसि वा गम्भं वक्कममाणंसि) < तत्र हे देवानुप्रियाः! अर्हन्मातरो वा चक्रवर्तिमातरो वा अर्हति वा चक्रवर्तिनि वा> गर्भ व्युत्क्रामति-प्रविशति सति इत्यर्थः। गर्भ वा व्युत्क्रामति-उत्पद्यमाने इत्यर्थः। (एएसिं तीसाए महासुमिणाणं इमे चउद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुझंति) < एतेषां त्रिंशतः महासप्नानां मध्ये इमान् चतुर्दश महास्वप्नान् दृष्ट्वा जाग्रति > ॥७३॥ 36 ARSHAN |॥१४९॥ Jain Education international For Privale & Personal use only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली टीका व्या०४ AAAAAAAAE RECECRECACAR ['तं जहा' इत्यादितः 'गाहा' इत्यन्तं सुबोधम् ] तत्र (तं जहा गययमह' गाहा) < तद्यथा-गजवृषभ यावन्निधूमाऽग्निम् > ॥७॥ ['वासुदेव' इत्यादितः 'पडिज्वुझंति' ति यावत्सुखावबोधम् ] तत्र-(वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गम्भं वक्कममाणंसि) < वासुदेवमातरो वा वासुदेवे गर्भ उत्पद्यमाने > (एएसिंच उद्दसण्ह सुमिणाणं अन्नयरे सत्त महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुझंति) < एतेषां चतुर्दश महास्वप्नानां मध्यात् अन्यतरान् सप्त महास्वप्नान् दृष्ट्वा जाग्रति> ॥७५।। ['बलदेव' इत्यादितः 'बुझंति' ति यावत्सुवोधम् ] तत्र-(बलदेवमायरो चा बलदेवसि गम्भं वक्कममाणंसि) < बलदेवमातरो वा बलदेवे गर्भे उत्पद्यमाने> (एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुमिणे पासित्ता णं पडियुज्झंति) < एतेषां चतुर्दश महास्वप्नानां मध्यात् अन्यतरान् चतुरो महास्वप्नान् दृष्ट्वा जाग्रति> ॥७६॥ ['मंडलियः' इत्यादित: 'बुज्झंति' ति पर्यन्तं सुबोधम् ] तत्र-(मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गम्भं वक्कममाणंसि) < मण्डलिकराजमातरो वा माण्डलिके गर्भ उत्पद्यमाने> (एएसिं च उद्दसण्हं महासुमिणाणं) <एतेषां चतुर्दश महास्वप्नानां मध्यात् > (अनयरं एगं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति) < अन्यतरम् एकं महास्वप्नं दृष्ट्वा जाग्रति > ७७॥ RESCREAK ॥१५॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५॥ ['इमे य णं' इत्यादितः 'पयाहिसि' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(इमे य णं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तिआणीए चउद्दस महासुमिणा दिट्ठा) इमे च ण देवानुप्रियाः ! त्रिशलया क्षत्रियाण्या चतुर्दश महास्वप्नाः दृष्टाः [इत्यादि प्राग्वत् ] (तं उरालाणं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तिाणीए सुमिणा दिट्ठा) < तस्मात् उदाराः हे देवानुप्रियाः ! त्रिशलया क्षत्रियाण्या स्वप्नाः दृष्टा:> (जाव मंगलकारगा णं देवाणुप्पिया निसलाए खत्ति आणीए सुमिणा दिट्ठा) < यावत् मङ्गलकारकाः हे देवानुप्रियाः! त्रिशलया क्षत्रियाण्या स्वप्नाः दृष्टा:> (तं अत्यलाभो देवाणुप्पिया! भोगलाभो देवाणुप्पिया! पुत्तलाभो देवाणुप्पिया! सुक्खलामो देवाणुप्पिया! रज लाभो देवाणुप्पिया!) < ततः हे देवानुप्रियाः ! अर्थलाभः भोगलाभः पुत्रलाभः सौख्यलाभः राज्यलाभो भविष्यति > (एवं खलु देवाणुप्पिया! तिसला खसिआणी) < एवं प्रकारेण हे देवानुप्रियाः! त्रिशला क्षत्रियाणी> (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धहमाणं राइंदियाणं वइनाणं) < नबसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु सार्धसप्तदिवसाधिकेषु व्यतिक्रान्तेषु> (तुम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपव्वयं कुल वडिंसयं कुलसिलयं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलदिगयरं कुलाधारं कुलनंदिकरं कुलजसकर कुलपायवं कुलतंतुसंताणविवद्धणकर) < युष्माकं कुलकेतुः कुलदीपः कुलपर्वतः कुलावतंसः कुलतिलकः कुलकीर्तिकरः कुलदिनकरः कुलाऽऽधारः कुलवृद्धिरः कुलयशस्करः कुलपादपः कुलान्तुसन्तानविविधनकरत:> (सुकुमालपाणिपादं अहीणपडिपुन्नपचिदियसरीरं) < सुकुमालपाणिपादं अहीनसम्पूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरं > (लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसु. ॥१५१॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only wimiyainelibrary.org Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प टीका ॥१५२॥ जायसव्वंगसुंदरंग) < लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेतं मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्ग> (ससिसोमाकारं कंत किरणावल पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि) < शशिवत् सौम्याकारं कान्तं प्रियदर्शनं सुरूपं दारकं प्रजनिष्यसि > ॥७८॥ व्या० ['से वि यण' इत्यादितः 'चकवट्टी' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमित्ते) < सोऽपि च दारकः उन्मुक्तबालभावः विज्ञातपरिणतमात्र> (जोन्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विकते) < यौवनकमनुप्राप्तः शूरः वीरः विक्रान्तः> (विच्छिन्नविपुलबलवाहणे चाउरंतचक्कवट्टी रजवई राया भविस्सइ) < अति विस्तीर्णबलवाहनः चातुरन्तचक्रवर्ती राज्यपतिः राजा भविष्यति > (जिणे वा तेलुकनायगे धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी) जिनो वा त्रैलोक्यनायको धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती । तत्र चतुर्दश स्वप्नानां पृथग् फलं त्वेवम्-चतुर्दन्तदन्तिदर्शनात् चतुर्दा धर्मोपदेष्टा भविष्यति ।१। वृषभदर्शनात् भरतक्षेत्रे बोधिबीजं वापयिष्यति ।। सिंहदर्शनात् मदनादिदुर्गजभज्यमानं भव्यवनं रक्षिष्यति ।३। लक्ष्मीदर्शनात् वार्षिकं दानं ॥४॥ दत्त्वा तीर्थकरलक्ष्मीभोक्ता भविष्यति ।४। दामदर्शनात् त्रिभुवनस्य मस्तकधार्यों भविष्यति ।५। चन्द्रदर्शनात् कुवलये मुदं दास्यति ।६। सूर्यदर्शनात् भामण्डलविभूषितो भविष्यति ।। ध्वजदर्शनात् धर्मध्वजश्रिया विभूषितो भविष्यति ।८। कलशदर्शनात् धर्मप्रासादशिखरस्थितिं करिष्यति ।९। पद्मसरोदर्शनात सुरसञ्चारितस्वर्णसरोजेषु स्थापितक्रमो भविष्यति ॥१०॥ रत्नाकरदर्शनात केवलाऽऽलोकरत्नस्थानं भविष्यति ।११। विमानदर्शनात् अनुत्तरमुरपर्यन्तं वैमानिकदेवानामाराध्यो भविष्यति | ॥१५२। ।१२। रत्नराशिदर्शनात् रत्नप्राकारमण्डितो भविष्यति ।१३। निधूमाऽग्निदर्शनात् भव्यात्मकल्याणशुद्धिकारको भविष्यति। ISHASHASHASABHARA Jain Education national For Private & Personal use only www elitary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५३॥ JASTRACAAAACAEHOUR ।१४। इति । सामुदायिकफलं तु चतुर्दश स्वप्ननिरीक्षणात् चतुर्दशरज्ज्यात्मक-लोकाऽग्रस्थायी भविष्यति इति ॥७९॥ ['तं उराला गं' इत्यादितः 'सुमिणा दिवा' इति यावत् प्राग्वत् ] तत्र-(तं उराला णं देवाणुप्पिया! तिसलाए खत्तिआणीए सुमिणा दिट्ठा) < तस्मात् प्रशस्ताः हे देवानुप्रियाः! त्रिशलया क्षत्रियाण्या स्वप्नाः दृष्टाः> (जाव आरुग्गतुहिदीहाउयकल्लाणमंगल्लकारगा णं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तिआणीए सुमिणा दिट्ठा) < यावत् आरोग्यतुष्टिदीर्घाऽऽयुःकल्याणमङ्गलकारकाः हे देवाणुप्रियाः! त्रिशलया क्षत्रियाण्या स्वप्नाः दृष्टाः> ॥८॥ ['तए णं' इत्यादितः 'एवं वयासी' ति प्राग्वत ] तत्र-(तए णं सिद्धत्थे राया तेसिं सुमिणलक्खणपाढगाणं अंतिए) < ततः सिद्धार्थराजा तेषां स्वप्नलक्षणपाठकानाम् अन्तिके > (एयमदं सोचा निसम्म हहतुट्ठ जाव हियए) < एनमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्टः तुष्टः यावत् हर्षितहृदय:> (करयल जाव ते सुमिणलक्खणपाढगा एवं वयासी) <करतलाभ्यां यावत् तान् स्वप्नलक्षणपाठकान् एवं कथयति स्म> ॥८१॥ [एवमेअं' इत्यादितः 'पडिविसज्जेइ' ति यावत् ] तत्र-(एवमेअंदेवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुपिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया!इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया!) < एवमेतत् हे देवानुप्रिया तथैतत् हे देवानु 18-॥१५३ PEACAAAAAACHE national For Private & Personal use only wayantibrary.org Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीकल्प किरणावली टीका न्या.४ ॥१५॥ SHISHASHRE प्रियाः । अवितथमेतत् हे देवानुप्रियाः। इष्टमेतत् हे देवानुप्रियाः ! प्रतीष्ट मेतत् हे देवानुप्रियाः ! इष्टप्रतीष्टमेतत् हे देवानुप्रियाः !> (सच्चे णं एसमटे से जहेयं तुब्भे वयहत्तिक? ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ) < सत्य एषोऽर्थः यथा यूयं वदथ इतिकृत्वा तान् स्वप्नान् सम्यग् हृदये धरति > (पडिच्छित्ता)< प्रतीच्छय-धृत्वा> (ते सुमिणलक्खणपाढए) तान् स्वप्नलक्षणपाठकान् (विउलेणं असणेणं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं) विपुलेन अशनेन-शाल्यादिना पुष्पाणि-अग्रथितानि < वस्त्राणि > गन्धा-बासा माल्यानि-ग्रथितपुष्पाणि अलङ्कारः-मुकुटादिः । तेषां समाहारद्वन्द्वः <:> (सक्कारेइ सम्माणेइ) सत्कारयति-प्रवरवस्त्रादिना सन्मानयति-तथाविधवचनादि प्रतिपत्त्यान (सकारिता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ) < सत्कार्य सन्मान्य विपुलं> जीविकोचितम्-आजन्मनिर्वाहयोग्यं प्रीतिदानं <ददाति > (दलइत्ता पडिविसज्जेई) दत्त्वा प्रतिविसर्जयति राजा इति ॥ ८२॥ ['तए णं' इत्यादितः 'एवं वयासी' ति यावत् प्राग्वत ] तत्र-('तए णं से सिद्धत्थे खत्तिए सीहासणाओ अब्भुटेइ) < ततः सः सिद्धार्थक्षत्रियः सिंहासनाद् अभ्युत्तिष्ठति > (अन्भुटेता जेणेव तिसला खत्तिआणी जवणियंतरिया तेणेव उवागच्छइ) < अभ्युत्थाय यत्रैव त्रिशलाक्षत्रियाणी यवनिकाऽन्तरिता तत्रैव उपागच्छति > (उवागच्छित्ता तिसलं खत्तिआणिं एवं वयासी) < उपागत्य त्रिशलां क्षत्रियाणीम् एवं वदति स्म> ॥ ८३॥ [एवं खलु' इत्यादितः 'वुझंति' ति यावत् प्राग्रत् ] S S M ॥१५॥ Jain E For Privale & Personal use only K abrary.org Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र-(एवं खलु देवाणुप्पिए! सुमिण सत्थंसि बायालीसं सुमिणा तीसं महाणुमिणा) <एवं प्रकारेण हे सरलस्वभावे ! स्वप्नशास्त्रे द्विवत्तारिंशत् स्वप्ना:-सामान्यफलाः त्रिंशत् महास्वप्नाः-महाफला:> (जाव एगं महासुमिर्ण पासित्ता णं पडिबुज्झंति) < यावत् एकं महास्वप्नं दृष्ट्वा जाग्रति > ॥ ८४ ॥ [इमे य गं' इत्यादितः 'चकवट्टी' त्ति प्राग्वत् ] तत्र-(इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ! चउद्दस महासुमिणा दिट्ठा) < इमे च त्वया हे सरलस्वभावे ! चतुर्दश महास्वप्नाः दृष्टा:> (तं उरालाणं तुमे जाव जिणे वा तेलुकनायगे धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी) < तस्मात् प्रशस्ताः त्वया यावत जिनो वा त्रैलोक्यनायकः धर्मवरचाउरन्तचक्रवर्ती भविष्यति ॥८५॥ 'तए णं से' इत्यादितः 'पडिच्छई' ति यावत् प्राग्वत् ] तत्र-(तए णं सा तिसला खत्तिआणी एअमटुं सोचा निसम्म हट्टतुट्ट जाव हयहियया) < ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी एनमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षित हृदया> (करयल जाव ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ) < करतलाभ्यां यावत् तान् स्वप्नान् सम्यग् प्रतीच्छति > ।। ८६ ।। 'पडिच्छित्ता' इत्यादितः 'अणुपविट्ठा' इति पर्यन्तं प्राग्वत ] तत्र-पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी) < प्रतीच्छ्य सिद्धार्थराजेन अभ्यनुज्ञाता सती> (नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अन्भुटेइ)< नानामणिरत्नानां भक्तिभिः चित्रात् भद्रासनात् अभ्युत्तिष्ठति > ॥१५५॥ Jain Educ a tional For Private & Personal use only ibrary.org Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प काकिरणावर टीका न्या०६ ॥१५६॥ RRORECAERA (अन्भुद्वित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गइए) <अभ्युत्थाय अत्वरितया अचपलया असम्भ्रान्तया अविलम्बितया राजहंससदृशया गत्या> (जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ) < यत्रैव स्वकीयं गृहं तत्रैव उपागच्छति> (उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुपविट्ठा) < उपागत्य स्वकीयं गृहम् अनुप्रविष्टा> ॥८७॥ ['जप्पमिदं च णं' इत्यादितः साहरंती' इति पर्यन्तम् ] तत्र-(जप्पभिई च णं समणे भगवं महावीरे तंसि रायकुलंसि साहरिए) < यतःप्रभृति च श्रमणो भगवान् ला महावीरः तादृशे राजकुले संहृतः> (तप्पभिई च णं बहवे वेसमणकुंडधारिणो तिरियजंभगा देवा) < ततःप्रभृति बहवः > वैश्रमणस्य कुण्डं-आयत्ततां धारयन्तीति ये ते तथा। तिर्यग् लोकवासिनो जृम्भकाः देवाः तिर्यगजृम्भकाः (सक्वयणेणं से जाई इमाई पुरापोराणाई महानिहाणाई भवंति) शक्रवचनेन-शक्रेण वैश्रमण आदिष्टः तेन च एते इत्यर्थः । से इति अथशब्दार्थे < यानि इमानि > पुग-पूर्व प्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि-चिरन्तनानि पुरापुराणानि महानिधानानि-भूमिगतसहस्रादिसङ्ख्येया द्रव्यसश्चयाः < भवन्ति > (तं जहा-पहीण सामियाई पहीणसेउयाई पहीणगोत्तागाराई) <तानि यथा-> प्रहीणः-स्वल्पीभूतः स्वामी येषां तानि प्रहीणस्वामिकानि । प्रहीणा-अल्पीभूताः सेक्तार:सेचकाः धनक्षेप्तारो येषां तानि प्रहीणसेक्तकानि । प्रहीण सेतुकानि वा सेतुः-मार्गः। प्रहीणं-विरलीभूतं मानुषं गोत्रागारं येषां गोत्र-धनस्वामिनोऽन्वयः अगारं-गृहं । (उच्छिन्नसामियाई उच्छिन्नसेउयाई उच्छिन्नगोत्तागाराई) एवम् उच्छिन्ना-निःसत्ताकीभूताः स्वामिनः । येषाम् इत्यादि प्रावत् । < उच्छिन्नसेक्तकानि उच्छिन्नसेतुकानि वा। उच्छिन्न AA IASISAMACAAAE ॥१५ Jain Edullimational For Privale & Personal use only Masalibrary.org Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५७|| गोत्रागाराणि ।> (गामा-गर-नगर-खेड-कबड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-संवाह-सन्निवेसेस ['गामागरे'इत्यादि करादिगम्याः ग्रामाः। आकरा:-लोहाद्युत्पत्तिभूमयः। न एतेसु करोऽस्तीति नकराणि । खेटानि-धूलीप्राकारोपेतानि । कर्बटानि-कुनगराणि । मडम्बानि-सर्वतोऽर्द्धयोजनात परतोऽवस्थितप्रामाणि । द्रोणमुखानि-जलस्थल पथावुभावपि स्तः। पत्तनानियेषु जलस्थलपथयोः अन्यतरेण पर्याहारप्रवेशः । आश्रमाः-तीर्थस्थानानि मुनिस्थानानि वा । संवाहाः-समभूमौ कृर्षि कृत्वा येषु दुर्गभूमिषु धान्यानि कृषिबलाः संवहन्ति रक्षाऽर्थम् । सनिवेशाः-सार्थकटकादेः । ततो द्वन्द्वः तेषु । (सिंघाडएसुवा तिएसु वा चउक्केसु वा चच्चरेसु वा चउम्मुहेसु वा महापहेस वा) शङ्गाटक-सिनाटाऽऽयं फलं तदाकारं त्रिकोणस्थानं । त्रिकं-यत्र रथयात्रयं मिलति । चतुष्कं-यत्र रथ्याचतुष्कमीलनं । चत्वरं-बहुरध्याऽऽपातस्थानं । चतुर्मुख-चतुरि देवकुलादि । महापथः-राजमार्गः । (गामट्ठाणेसु वा नगरट्ठाणेसु वा गामनिद्धमणेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा) ग्रामस्थानानि-ग्रामपुरातननिवासभूमयः । नगरस्थानानि-नगरस्य उद्वसितभुवः । ग्रामनिर्द्धमनानि-ग्रामजलनिर्गमाः 'खालम्' इति प्रसिद्धाः। एवं नगरनिर्द्धमनानि । (आवणेस वा देवकुलेसु वा सभास वा पवासु वा आरामेसु वा उज्जाणेसु वा) आपणा:-हट्टाः। देवकुलानि-यक्षाऽऽयतनानि । सभाजनोपवेशनस्थानानि । < तेषु> प्रपासु-पानी यशालामु। आरामा:-कदल्यादि प्रतिच्छन्नानि यानि स्त्रीयुतपुंसां क्रीडास्थानानि । उद्यानानि-पुष्पफलोपेतवृक्षशोभितानि उत्राबादी बहुजनभोग्यानि उद्यानिकास्थानानि इत्यर्थः। (बणेस वा वणसंडेसु वा सुसाण-सुन्नागार-गिरिकंदर-संति-खेलो-वट्ठाण-भवण गिहेसु वा) वनानि-एकजातीयवृक्षाणि । वनखण्डानि-अनेकजात्युत्तमवृक्षाणि । श्मशान-शून्यागारं । गिरिकन्दरा च प्रतीताः। क.कि.१४ाका BHASKASHAAAAAAER AACARRECOGE ॥१५७॥ Yo in Educ RI a rnational For Private & Personal use only wimijitalibrary.org Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्रीकल्प किरणावल टीका व्या०५ 5 ॥१५८॥ SPEAKERARAN % शान्तिगृहा:-शान्तिकर्मस्थानानिः । क्विचित-'संधि' इति पाठः तत्र सन्धिगृह-भित्योरन्तराल प्रच्छन्नस्थान शैलगृहंपर्वतमुत्कीर्य यत्कृतम् । उपस्थानगृहम्-आस्थानमण्डपः। भवनगृहा:-कुटुम्बिवसनस्थानानि । ततः श्मशानादीनां द्वन्द्वः। <एतेषु स्थानेषु > (संनिक्खित्ताई) ति सम्यग् निक्षिप्तानि । [क्वचित्- 'संनिहिआई गुत्ताई'ति पाठः तत्र संनिहितानि-सम्यग निधानीकृतानि गुप्तानि-पिधानाद्यनेकोपायैः] (चिट्ठन्ति) रतिष्ठन्ति > (ताई सिद्धत्थरायभवणंसि साहरंति)< तानि सिद्धार्थराजभवने >प्रवेशयन्ति-निक्षेपयन्ति । क्वापि-'घोसेसु' पाठः तत्र घोषा:-गोकुलानि ॥८८॥ [जं रयणि च णं' इत्यादितः 'संकप्पे समुप्पज्जित्थति पर्यन्तम् ] तत्र-(जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे नायकुलंसि साहरिए)< यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः ज्ञातकुले संहृतः> (तं रयणि च णं नायकुलं हिरण्णेणं वडित्था सुवणेणं वडिन्था)< तस्यां रजन्यां च ज्ञातकुलं ['हिरण्णेणं' इत्यादि'] हिरण्य-रूप्यम् 'अघटितस्वर्णम्' इत्यन्ये । तेन वृद्धि प्राप्त > सुवर्ण घटितं । (धणेणं) धनंगणिमधरिममेयपरिच्छेज्जभेदात चतुर्धा । तथा चोक्तम् "गणिमं जाइफलपुप्फफलाई, धरिमं तु कुंकुमगुडाई। मिज्ज चोप्पडलोणाई रयणवत्थाई, परिच्छिज्ज" ॥१॥ (धण्णेणे) धान्यं चतुर्विशतिधा"धनाई चउवीसं जब गोहम सालि वीहि सहिआ। कुदव अणुआ कंगु रालय तिल मुग मासा य ॥ प्र० सा० १००४॥ अयसि हरिमंथ तिउडा निष्फाव सिलिंद रायमासा य । उच्छूअ मसूर तूवरी कुलत्थ तह धनय कलाया" ॥१००५॥ % aex ॥१५८ Jain Education international For Private & Personal use only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५९॥ [जव घउं शालि व्रीहि साठी कोद्रव जुवार कंगु रालक (लांग) तिल (चीना) मग माप अतसि चणा तिउड (चीणोलांग) वाल मठ चोला बरटी (बंटी) मसूर तुवर कुलथी धाणा वटाणा] | (रज्जेणं रटेणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कुहागारेण पुरेणं अंतेउरेणं जणवएणं वद्भित्था) राज्यं-सप्ताङ्गं । राष्ट्र-देशः । बलं-चतुरङ्गं । वाहनं-वेसरादि । कोश:-भाण्डागारं । कोष्ठागारं-धान्यगृहं । पुराऽन्तःपुरे प्रतीते। जनपद:लोकः। तेन > [क्वचित्-'जसवाएणं' ति तत्र यशोवाद:-साधुवादः]- तेन वृद्धि प्राप्तं > (विउलधणकणगरयणमणिमोत्ति-यसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइएणं) पुन: विपुलधनं-गवादी। कनक-घटिताऽघतिरूपं द्वेधाऽपि । रत्नानिकर्केतनादीनि । मणय:-चन्द्रकान्तायाः। मौक्तिकानि-शुक्त्याकाशादिप्रभवाणि । शङ्खा-दक्षिणावर्ताः । शिला-राजपट्टादिकाः। प्रबालानि-विद्रुमाः। रक्तरत्नानि-पद्मरागाः। आदिशब्दाद् वस्त्रकम्बलादिपरिग्रहः ततः तेन । एतेन किमुक्तं भवति ? इत्याह-(संतसारसावइज्जेणं पीइसकारसमुदएणं अईव अईव अभिवद्भित्था) सद्-विद्यमानं न पुनः इन्द्रजालादौ इव अवास्तवं । यत् सारस्वापतेयं-प्रधानं द्रव्यं तेन । प्रीतिः-मानसी स्वेच्छा । सत्कारः-वस्त्रादिभिः जनकृतः। ततो द्वन्द्वः इशेष सुगम] <तत्समुदयेन अतीव अतीव अभिवृद्धं > (तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापिऊणं अयमेयारूवे अज्झथिए चिंनिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था)< ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य मातापित्रोः अयम् एवंविध अध्यवसायः चिन्तितःप्रार्थितः मनोगतः सकल्पः समुत्पन्नः> ॥८९॥ ['जप्पभिई चणं' इत्यादितो 'वद्धमाणु'त्ति पर्यन्तम् ] 2. warwarikREMI 5345390 ५९ RE Jain Edu For Private & Personal use only wwwmamalinsary:org Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A भीकल्प किरणावर GEECRECCA टीका ॥१६॥ व्या० AAAAAAB तत्र-(जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिंसि गम्भत्ताए वकंते)< यतःप्रभृति च अस्माकम् एषो दारकः कुक्षौ गर्भतया उप्तन्नः> (तप्पभि च णं अम्हे हिरण्णेणं वडामो सुवण्णणं वडामो)> तद्दिनादारभ्य वयं हिरण्येन बर्दामहे सुवर्णेन व महे> (धणेणं जाव संतसारसावइज्जेणं पीइसक्कारेणं अईव अईव अभिवढ़ामो)< धनेन यावत् सत्सारस्वापतेयेन प्रीतिसत्कारसमुदयेन अतीव अतीव अभिवर्दामहे > (तं जया णं एस दारए जाए भविस्सइ) < तस्मात् यदा अस्माकं एषः दारकः जातः भविष्यति > (तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स एयाणुरूवं गुण्णं गुणनि'फन्न नामधिजं करिस्मामो "वद्धमाणु"त्ति)< तदा वयमेतस्य दारकस्य एतदनुरूपं >गुणेभ्यः आगतं गौणं । गौणशब्दः अप्राधान्येऽपि अस्ति । इत्याह-गुणनिष्पन्न-प्रधान नामैव नामधेयं करिष्याम: "वर्द्धमान" इति ।।९०॥ ['तए णं समणे भगवं महावीरे' इत्यादितो 'होत्थति यावत् ] तत्र-(तए णं समणे भगवं महावीरे)< ततः श्रमणो भगवान महावीरः> (माउ अणुकंपणट्ठाए निचले निप्फंदे निरयणे अल्लोणपल्लोणगुत्ते यावि होत्या) मातुः अनु कम्पनार्थ-कृपया मातरि वा अनुकम्पा-भक्तिः तदर्थे 'मयि परिस्पन्दमाने मा मातुः कष्टं भूयाद्' इति 'मातरि वा भक्तिः अन्येषां विधेयतया दर्शिता भवतु' इति । निश्चल:चलनाऽभावात् । निस्पन्द:-किश्चिचलनस्याऽप्यभावाद । अत एव निरेजन:-निष्कम्पः। अत एव आ-ईषद लीन:-अङ्गसंयमनात् । प्रकर्षेण लीन:-उपाङ्गसंयमनात् । अत एव गुप्त:-परिस्पन्दनाऽभावात् । अत्र कवेरुत्प्रेक्षा-एकान्ते किमु मोहराजविजये मन्त्रं प्रकुर्वनिव, ध्यान किश्चिदगोचरं विरचयत्येकः परब्रह्मणे । R ECHECCCCC Jain Edu For Private & Personal use only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६॥ कि कल्याणरसं प्रसाधयति वा देवो विलुप्यात्मकं, रूपं कामविनिग्रहाय जननीकक्षावसौ वः श्रिये ॥१॥ ततो विशेषणकर्मधारयः । चाऽपीति समुच्चये < अभवत् > ॥९॥ ['तए णं तीसे' इत्यादितो 'विहरइ'ति यावत् ] तत्र-(तए णं तीसे तिसलाए खत्तियाणीए अयमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पजित्था < ततः तस्याः त्रिशलाक्षत्रियाण्याः अयमेवंविधः यावत् सङ्कल्पः समुत्पन्न:> (हडे मे से गम्मे चूए मे से गम्भे गलिए मे से गब्भे) हृतो मम स गर्भ:-केनचिद देवादिना । मृत:-कालधर्म प्राप्तः । च्युतः-सजीवपुद्गलपिण्डतालक्षणात् पर्यायात परिभ्रष्टः। गलित:द्रवतामापद्य क्षरितः । चतुर्ध्वपि पदेषु काक्या विकल्पप्रतिपत्तिः । (एस मे गब्भे पुब्धि एअइ इयाणि नो एअइत्ति कटु) < एष मे गर्भः पूर्वम् एजति-कम्पते इदानीं नो> एजति-कम्पते <इतिकृत्वा> (ओहयमणसंकप्पा चिंतासोगसायरसंपविट्ठा करयलपल्हत्थमुही अदृज्झाणोवगया भूमिगयदिहिया झियायइ) उपहत:-कालुष्यकलितो मनःसङ्कल्पो यस्याः। चिन्तया-गर्भहरणादिध्यानेन यः शोकः स एव सागरः तत्र सम्प्रविष्टा । करतले पर्यस्तं-निवेशितं मुखं यया । आर्तध्यानोपगता। भूमिगतदृष्टिका-भूमिसंमुखमेव किं कर्त्तव्यजडतया वीक्ष्यमाणा ध्यायति । तथाहि "सत्यमिदं यदि भविता मदीयगर्भस्य कथमपीह तदा । निःपुण्यकभविकानामवधिरिति ख्यातिमत्यभवम् ॥१॥ यद्वा चिन्तारत्नं नहि नन्दति भाग्यहीनजनसदने । नाऽपि च रत्ननिधानं दुर्गतगृहसङ्गतीभवति ॥ २॥ कल्पतरुर्मरुभूमौ न प्रादुर्भवति भूम्यभाग्यवशात् । नहि नि:पुण्यपिपासितनृणां पीयूषपानमपि ॥३॥ ॥१६॥ Jain Educatie sile national For Private & Personal use only ledibrary.org Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०४ ॥१६२॥ हा ! धिर धिय दैवं प्रति किं चक्रे ! तेन सततकक्रेण । यन्मन्मनोरथतरुमलादुन्मूलादुन्मरितोऽनेन ॥४॥ आदत्ते दत्त्वाऽपि च लोचनयुगलं कलङ्कविकलमलम् । दत्त्वा पुनरुद्दालितमधमेनाऽनेन निधिरत्नम् ॥५॥ आरोप्य मेरुशिखरं प्रपातिता पापिनाऽमुनाऽहमियम् । परिवेष्याऽप्याकृष्टं भोजनभाजनमलज्जेन ॥६॥ यहा मयाऽपराद्धं भवान्तरेऽस्मिन् भवेऽपि भवतः किम् ? । यस्मादेवं कुर्वन्नुचिताऽनुचितं न चिन्तयसि ॥ ७ ॥ अथ किं कुर्वे ? क्य च वा, गच्छामि ? वदामि कस्य वा पुरतः ? । दुर्दैवतेन दग्धा, जग्घा मुग्धाऽधमेन पुनः ॥८॥ किं राज्येनाऽप्यमुना ?, किं वा कृत्रिमसुखैर्विषयजन्यैः ? । किं वा दुकूलशय्याशयनोद्भवशर्महर्येण ? ॥९॥ गनवृषभादिस्वप्नैः सूचितमुचितं चित्रजगदय॑म् । त्रिभुवनजनाऽसपत्नं विना जनाऽऽनन्दिसुतरत्नम् । युग्मम् ॥ १० ॥ तदरे ! दैवत ! किमुपस्थितोऽसि ? दुःखाऽग्निगहनदहनाय । भवतोऽपराधविधुरां कि मां प्रति धरसि वैरिधुराम् ॥११॥ धिक् संसारमसारं धिक पर्यन्ताऽसुखाऽभिमुख विषयान् । मधुलिप्तखड्गधारालेहनतुलितानहो ! ललितान् ॥१२॥ यद्वा मयका किश्चित्तथाविधं दुकृतं कृतं कर्म । पूर्वभवे यत ऋषिभिः प्रोक्तमिदं धर्मशास्त्रेषु ॥१३॥ "पसुपक्खिमाणुसाणं बाले, जो वि हु विओयए पावो । सो अणवच्चो जायइ, अह जायइ तो विवजिजा॥१४॥ तत्पड्डका मया किं ? त्यक्ता वा त्याजिता अधमबुद्धया। लघुवत्सानां मात्रा, समं वियोगः कृतः किंवा ? ॥१५॥ तेषां दुग्धाऽपायोऽकारि मया कारितोऽथवा लोके । किंवा सबालोन्दुर-बिलानि जलपूरितानि मया ? ॥१६॥ १ पशुपक्षिमानुषाणां बालान् योऽपि च वियोजयति पापः। सोऽनपत्यो जायते अथ जायते ततो विपद्येत ॥१४॥ ॥१६॥ an Educa tional For Private & Personal use only antainelibrary.org. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६३॥ KAACARCICROCEE किं ? कीटिका नगराण्युष्ण जलप्लावितानि धर्मधिया। किं वा काकाऽण्डानि, धर्मकृते स्फोटितानि मया ? ॥१७॥ किंवा साऽण्डशिशून्यपि, तनीडानि प्रपातितानि भुवि ?। पिकशुककुक्कुटादेलिवियोगोऽथवा विहितः ।। १८ ।। किंवा ? बालकहत्याऽकारि, सपत्नी सुताद्युपरि दुष्टम् । चिन्तिमचिन्त्यमपि वा, कृतानि कि कार्मणादीनि ? ॥ १९॥ किंवा गर्भस्तम्भन-शातनमुख मया चक्रे ? । तन्मन्त्रभेषजान्यपि, किं वा मयका प्रयुतानि ? ॥२०॥ अथवाऽन्यद्वा मयका, किमपि महापातकं कृतं कर्म ? । सच्छीलखण्डनाद्यं, यदिदं तहते न सम्भवति ॥२१॥ यतः-'कुरंडरंड तणदुब्भगाई ज्झत्तनिंदूविसकन्नगाई । जम्मंतरे खंडिअसीलभावा नाऊणकुज दढतीलभावं' ॥ २२ ॥ दुर्दैवत ! रे निघृण ! निष्करुणाऽकार्यसज ! निर्लज !। विगताऽऽगसि मयि तत्किं निष्कारणवैरितां वहसि ॥२३॥ अथवाऽलमनृतदेवोपलम्भनरेवमुन्मना देवी । दृष्टा शिष्टेन सखीजनेन तत्कारणं पृष्टा ॥ २४ ॥ प्रोवाच साऽश्रुलोचन-रचनानिःश्वासकलितवचनेन । किं मन्दभागधेया, वदामि यजीवितं मेऽगात् ॥ २५॥ सख्यो जगुरथ रे सखि ! शान्तममङ्गलमशेषमन्य दिह । गर्भस्य तेऽस्ति कुशलं, नवेति बद कोविदे सपदि ? ॥ २६ ॥ सा प्रोचे गर्भस्य च कुशले, किमकुशलमस्ति मे सख्यः ? । इत्याधुक्त्वा मूर्छा-मापना पतति भूपीठे ॥२७॥ शीतलवातप्रभृतिभि-रुपचार : बहुतरैः सखीभिः सा । सम्प्रापितचैतन्यो-त्तिष्ठति विलपति च पुनरेवम् ॥ २८ ॥ १ कुरण्डरण्डत्वदुर्भगत्वानि बन्ध्यात्वनिन्दु (मृताऽपत्यसूः) विषकन्यकत्वादि । जन्मान्तरे खण्डितशीलभावा ज्ञात्वा कुर्यात् दृढशीलभावम् ॥ २२ ॥ LAAAAAUSEUCCESCENESS ॥१६ Jain Educa t ional For Private&Personal use only. malibrary.org Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव टीका ॥१६४॥ व्या. गरुए अणोरपारे, रयणनिहाणे अ सायरे पत्तो । छिद्दघडो न भरिज्जइ, ता किं दोसो जलनिहिस्स? ॥२९॥ पत्ते वसंतमासे, रिद्धिं पाति सयलवणराई। जंन करीरे पत्तं, ताकि दोसो वसंतस्स ? ॥३०॥ उत्तुंगो सरलतरू, बहुफलभारेण नमियसव्वंगो । कुजो फलं न पावइ, ता किं दोसो तरुवरस्स? ॥ ३१ ॥ समीहितं यनलभामहे वयं, प्रभो!नदोषस्तव कर्मणोममा दिवाऽप्युलूको यदि नाऽवलोकते, तदासदोषः कथमंशुमालिनः॥३२॥ अथ मम मरणं शरणं, किं करणं ? विफल जीवितव्येन । तच्छ्रुत्वा विललाप च, सख्यादिकसकलपरिवारः॥३३॥ यत्कि चक्रेऽस्माकं स्वामिन्या दैवतेन दुर्मतिना ? । हा कुल देव्यः ! क्व गताः ? यदुदासीनाः स्थिता यूयम् ॥३४॥ इत्यादिकं प्रभूतं तथैव किल कारयन्ति कुलवृद्धाः। शान्तिकपौष्टिकमन्त्रो-पयाचितादीनि कृत्यानि ॥३५॥ पृच्छन्ति च दैवज्ञान् निषेधयन्त्यपि च नाटकादीनि । अतिगाढशब्दविरचित-वचनानि निवारयन्त्यपि च ॥३६॥ राजाऽपि लोककलितः, शोकाऽऽकुलितोऽजनिष्ट शिष्टमतिः। किंकर्त्तव्यत्वेन च, मूढत्वं मन्त्रिणः प्रापुः" ॥३७॥ इत्येवं सति (तंपि सिद्धत्थरायवर भवणं) तदपि च सिद्धार्थराजवरभवनं (उवरयमुइंगतंतीतलतालनाडइजजणमणुज्जं दीणविमण विहरइ) उपरतं-निवृत्तं मृदङ्गतन्त्रीतलतालैः-प्राग्व्याख्यातैः नाटकीयैः-नाटकहितैः जनैः२ गरुकेऽनर्वापारे रत्ननिधाने च सागरे प्राप्तः। छिद्रघटो न भियते तत् किं दोषो जलनिधेः ॥२९॥ प्राप्ते वसन्तमासे ऋद्धि प्राप्नोति सकलवनराजी। यन्न करीरे पत्रं तत् किं दोषो वसन्तस्य ॥३०॥ ३ उत्तुङ्कः सरलतरुर्बहुफलभारेण नतसर्वाङ्गः । कुब्जः फलं न प्राप्नोति तत् किं दोषस्तरुवरस्य ॥३१॥ AAAAAAAAAA ॥१६४ Jain Educa t ional For Privale & Personal use only www.kasary.org Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६५॥ BABASAHARHAARAA पात्रः 'मणुज्ज'त्ति भावप्रधानत्वानिर्देशस्य मनोज्ञत्वं-चारुता यस्मात् । अथवा उपरतमृदङ्गतन्त्रीतलतालनाटकीयजनं 'अणुज्जति अनूजम्-अनोजस्कं वा । अत एव दीनविमनस्कं विहरति आस्ते ॥१२॥ ['तए णं से' इत्यादितः 'एवं वयासी'ति यावत् ] तत्र-तए णं से समणे भगवं महावीरे)< ततः सः श्रमणो भगवान् महावीर:> (माउए अयमेयारूवं अज्झस्थियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पन्नं वियाणित्ता) <मातुरिममेवंविधम् अध्यवसायं प्रार्थितं मनोगतं सङ्कल्पं समुत्पन्नं > तं तथाविधं पूर्वोदितं व्यतिकरमवधिना अवधार्य भगवान् चिन्तयति "किं कूर्मः? कस्य वा बमो? मोहस्य गतिरिदृशी। दुषेर्धातोरिवाऽस्माकं, दोषनिष्पत्तये गुणः ॥१॥ प्रमोदाय कृतेऽप्यासीदयं खेदाय मे गुणः । नालिकेराऽम्भसि न्यस्तः, कर्पूरो मृतये यथा" ॥२॥ इति सश्चिन्त्य श्रीवीरः (एगदेसेणं एयइ) एकदेशेन-अगुल्यादिना एजति । एतच्च-'यद्भगवता मातुः अनुकम्पायै कृतमपि तस्या एव अधृतितया पर्यणसीत् तत्तु आगामिनि काले कालस्यैव दोषाद गुणोऽपि वैगुण्याय कल्प्स्यते' इति सूचनार्थ मिति वृद्धाः। (तए णं सा तिसला खत्तियाणी हट्ठतुट्ट जाव हयहियया एवं वयासी) तत:-स्वगर्भस्य कुशलमवधायें < हृष्टा तुष्टा यावत् > सहर्षा त्रिशला <क्षत्रियाणी> एवमवादीत् ।।१३।। ['नो खलु' इत्यादितः 'पवइत्तए'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(नो खलु मे गब्भे हडे जाव नो गलिए) < एवंप्रकारेण न मम गर्भः हृतः यावत् न गलित:> (मे गम्भे ABAEREAASHAPERSARE ॥१६५॥ Jain Educati. Ide national For Privale & Personal use only M brary.org Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरावली व्या०४ टीका ॥१६६॥ | पुब्धि नो एजइ इयाणि एजइत्तिक? हतु? जाव हयहियया एवं विहरइ) <मम गर्भः पूर्व न एजति इदानीम् एजति इतिकृत्वा हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षितहृदया एवं विचरति> - "प्रोल्लसितनयनयुगला, स्मेरकपोला प्रफुल्लमुखकमला । विज्ञातगर्भकुशला, रोमाञ्चितकचुका त्रिशला ॥१॥ प्रोवाच मधुरवाचा, गर्भ मे विद्यतेऽथ कल्याणम् । हा! धिग् मयकाऽनुचितं, चिन्तितमतिमोहमतिकतया ॥२॥ सन्त्यथ मम भाग्यानि, त्रिभुवनमान्या तथा च धन्याऽहम् । श्लाघ्यं च जीवितं मे, कृतार्थतामाप मे जन्म ॥३॥ श्रीजिनपदाः प्रसेदु, कृताः प्रसादाश्च गोत्रदेवीभिः। फलितो जन्माऽवध्याऽऽ-राधितजिनधर्मकल्पतरुः ॥४॥ इत्यादि महाहर्षिता, देवीमालोक्य वृद्धललनानाम् । 'जय जय नन्दे' त्याद्याऽऽ-शिषः प्रवृत्ता मुखकजेभ्यः ॥५॥ कलया प्रवर्तितान्यपि, कुलललनाभिश्च ललितधवलानि । उत्तम्भिताः पताका, मुक्तानां स्वस्तिका न्यस्ताः ॥६॥ अष्टावष्टौ मङ्गलकानि, समालेखितानि सर्वत्र । सत्पञ्चवर्णपुष्प-प्रकरः परितो भुवि विकीर्णः ॥७॥ कर्पूराऽगुरुचन्दन-परिमलनिकरः कृतश्च सर्वत्र । बद्धानि तोरणान्यपि, सुकुङ्कुमस्य छटा दत्ताः ॥८॥ स्थाने स्थाने मङ्गल-धवलाऽऽतोद्यानि गीतनृत्यानि । राजभवनं चतुर्भि-वर्णैः सङ्कीर्णमपि जज्ञे ॥९॥ वर्धापनाऽऽगताभिः, सुवर्णकोटीभिरपि च सम्पूर्णम् । हट्टश्रेणिषु शोभाः, प्रयोजिता जिनगृहे पूजा ॥१०॥ बन्दीजनमोचनानि च, रचितान्युद्घोषितोऽमारिवः । सङ्घस्याऽनघभक्ति-र्व्यक्तीचक्रे विविधविधिना ॥११॥ सम्पन्ना दानेन च, राजनराः कल्पतरव इव नव्याः । ऐश्वर्येण च राजा, सुरराज इवाऽत्र सञ्जज्ञे ॥१२॥ ॥१६६॥ in Edi tora For Private Personal use only wwwjamelibrary.org Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६७॥ दिव्याऽऽभरणविभूत्या, सुरचोक इवाऽत्र सकललोकोऽपि । किंबहुना सर्वेषां, परमानन्दश्च सम्पन्नः ॥१३॥ आस्तन्यपानाजननी पशूना-मादारलम्भाच नराधमानाम् । आगेहकृत्याच्च विमध्यमाना-माजीवितात्तीर्थमिवोत्तमानाम्" इति ॥१४॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे गम्भत्थे चेवत्ति < ततः श्रमणो भगवान महावीरः गर्भस्थ एव> पक्षाऽधिकमासपट्के व्यतिक्रान्त इत्यर्थः । उक्तं च"तिहिं नाणेहि समग्गो देवी तिसलाइ सो उ कुच्छिंपि । अह वसई सन्निगब्भं छम्मासे अद्धमासं च (वि.आ.) ॥१८५३॥ अह सत्तमम्मि मासे गब्भत्थो चेव भिग्गहं गिण्हे । नाहं समणो होहं अम्मापियरम्मि जीवन्ते" इति ॥१८५४॥ __ (इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिणहइ) < इनम् एतद्रूपम् अभिग्रहं गृह्णाति > (नो खलु मे कप्पड अम्मापिऊहिं जीवंतेहि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारि पवइत्तए) <नो चैत्र मम कल्पते-मातापित्रोः जीवतोः मुण्डो भूत्वा गृहानिर्गत्य अनगारितां प्रबजितुम् > ॥१४॥ ['तए णं सा' इत्यादितः 'परिवहह'चि यावत् ] तत्र-(तए णं सा तिसला खत्तियाणी हाया कययलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता जावसव्वालंकारविभूसिया) < ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी स्नाता कृतबलिकर्मा तुकमङ्गलप्रायश्चित्ता यावत् सर्वाऽलङ्कारविभूषिता> (तं गभं नाइसीएहिं नाइउण्हेहिं नाइतित्तेहिं नाइकडएहिं नाइकसाएहिं) <तं गर्भ ABUAAAAAECASIA | ॥१६७॥ JainEduca For Privale & Personal use only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥१६८॥ नाऽतिशीतैः नात्युष्णैः नाऽतितिक्तैः नाऽतिकटुकैः नाऽतिकषायैः (नाइअंबिलेहिं नाइमहुरेहिं नाइनिद्धेहिं नाइलुक्खेहिं नाइउल्लेहिं नाइसुक्केहिं ) <नाऽत्यम्लैः नाऽतिमधुरैः नाऽतिस्निग्धैः नाऽतिरूक्षैः नात्याद्वैः नातिशुष्कैः > शीतादिषु हि कानिचिद् वातिकानि कानिचित् पैत्तिकानि कानिचित् श्लेश्मकारीणि च स्युः । उक्तं च वाग्भट्टे वातलैश्च भवेद्गर्भः कुब्जान्धजडवामनः । पित्तलैः खलतिः पङ्गुः श्वित्री पाण्डुः कफात्मभिः ॥ १ ॥ इति । तथा - अतिलवणं नेत्रहर - मतिशीतं मारुतं प्रकोपयति । अत्युष्णं हरति बल-मतिकामं जीवितं हरति ॥ १॥ वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चाssमलकरसो घृतं वसन्ते गुडश्रान्ते ॥२॥ बुद्धिप्रदा गौल्याः सर्वे क्षारा मलापहाः । कषाया रञ्जकाः सर्वे सर्वे अम्ला विषोपमाः (विशोषणाः ) ||३॥ तथा - ग्राम्यधर्म - यान - वाहना- ऽध्वगमन- प्रस्खलन- प्रपतन- प्रपीडन - प्रधावना -ऽभिघात - विषमशयन- विषमासनोपवास - वेगविघाता-तिरुक्षा-ऽतिकट्व- तितिक्ताऽतिभोजना - ऽतिरागा-ऽतिशोका - ऽतिक्षार सेवा - ऽतिसार - वमन विरेचनप्रेङ्खोलनाऽजीर्णप्रभृतिभिः बन्धनान् मुच्यते गर्भः । मन्दं सञ्चर मन्दमेव निगद व्यामुञ्च कोपक्रमं पथ्यं भुङ्क्ष्व वधान नीविमनधां मा माऽट्टहासं कृथाः । आकाशे भव मा सुशेष्व शयने नीचैर्वहिर्गच्छ मा । देवी गर्भभरालसा निजसखीवर्गेण सा शिष्यते ॥१॥ (सव्वत्भयमाणहेहिं भोयणच्छायणगंध मल्लेहिं ) ति ऋतौ ऋतौ यथायथं भज्यमाना - सेव्यमानाः सुखहेतवो Jain Educational | किरणावळी टीका व्या० ४ ॥ १६८ brary.org Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।१६९॥ BIBASICIACCASADARASALA ये तैः भोजनाऽऽच्छादनगन्धमाल्यैः। तत्र-भोजनम्-आहारग्रहणम् । आच्छादन-प्रावरणं । गन्धा:-पटवासादयः। माल्यानिपुष्पमालाः । (ववगयरोगसोगमोहभयपरिस्समा [परित्तासा] मा) <व्यपगताः> रोगा-ज्वराद्याः। शोकःइष्टवियोगादिजनितः । मोहः-मृ.। भयं-भीतिमात्रं । परित्रास:-अकस्माद्भयं 'परित्रासन' स्थाने परिश्रमो वा-व्यायाम: < यस्याःसा त्रिशला> (जं तस्स गभस्स हियं) <यत्तस्य गर्भस्य > हितं-गर्भस्यैव मेधाऽऽयुरादिवृद्धिकारणं । तच्च-- __"दिवास्वापाऽ-ना-ऽश्रुपात-स्नाना-ऽनुलेपना-ऽभ्यङ्ग-नखच्छेदन-प्रधावन-हसना-ऽतिकथन-श्रवणा-ऽवलेखनाऽनिला-ऽऽयासपरिहारेण यतः-दिवा स्वपन्त्याः स्त्रियः स्वापशीलो गर्भः। अञ्जनादन्धः। रोदनाद विकृतदृष्टिः। स्नानाऽनुलेपनाद् दुःखशीलः । तैलाऽभ्यङ्गात् कुष्ठी । नखाऽपकर्तनात् कुनखी । प्रधावनाच्चञ्चलः । हसनात् श्यामदन्तोष्ठतालुजिहः । अतिकथनात् प्रलापी । अतिशब्दश्रवणाद् बधिरः । अवलेखनात् खलतिः। व्यजनक्षेपादिमारुताऽऽयाससेवनाद् उन्मत्तः स्यात्" । इति सुश्रुते। (मियं पत्थं गन्भपोसणं) मितं-परिमितं नाऽधिकमनं वा। पथ्यम्-आरोग्यकारणत्वात् । कोऽर्थः? गर्भपोषणं (तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी) < तस्मिन् > देशे उचितभूप्रदेशे काले-तथाविधाऽवसरे <आहारं कुर्वती> (विवित्तमउएहि सयणासणेहि पइरिक्कसुहाए मणोणुकलाए विहारभूमीए) विविक्तानि-दोषवियुक्तानि लोकान्तराऽसङ्कीर्णानि वा मृदुकानि च-कोमलानि यानि तैः शयनाऽऽसनैः । प्रतिरिक्तया-तथाविधजनाऽपेक्षया विजनया अत एव मुखया शुभया वा । मनोऽनुकूलया विहारभूम्या-चक्रमणाऽऽसनादिभूम्या । (पसत्थदोहला संपुण्णदोहला सम्माणि AREASSACREAT क.कि. १५ ४३ ॥१६९॥ Jain Educa ! For Private & Personal use only waysDilrary.org Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा श्रीकल्प ॥१७॥ AR BABAEBAAAAAAS यदोहला अविमाणियदोहला वुच्छिन्नदोहला ववणीयदोहला) प्रशस्तदोहदा-अनिन्द्यमनोरथा । सम्पूर्णदोहदा- १४ किरणावली अभिलाषपूरणात् । सन्मानितदोहदा-प्राप्ताऽभिलषितस्य भोगात् । अविमानितदोहदा-नाऽवज्ञातदोहदा क्षणमपि नाऽपूरित टीका व्या०४ मनोरथा इत्यर्थः। अत एव व्यवच्छिन्नदोहदा-त्रुटिताऽऽकाङ्क्षा । दोहदव्यवच्छेदस्यैव प्रकर्षाभिधानायाऽऽह-व्यपनीतदोहदा । (सुहंसुहेणं आसइ सयइ चिट्ठ निसीयइ तुअइ विहरइ) सुखसुखेन-गर्भाऽनाबाधया । आश्रयतिआश्रयणीयं स्तम्भादि । शेते-निद्रया । तिष्ठति-ऊर्ध्वस्थानेन । निषीदति-आसने उपविशति । त्वग्वतयति-निद्रां विना शय्यायां । विहरति कुहिमे । (सुहंसुहेणं तं गम्भ परिवहइ) < सुखसुखेन तं गर्भ परिवहति> ॥१५॥ ['तेणं कालेणं' इत्यादितः 'पयाय'त्ति पर्यन्तम्] तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीर:> (जे से गिम्हाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे चित्तसुद्धे) <यः स उष्णकालस्य प्रथमे मासे द्वितीये पक्षे चैत्रशुक्ल: (तस्स णं चित्तसुद्धस्स तेरसीदिवसेणं) < तस्य चैत्रशुक्लस्य त्रयोदशीदिवसे> (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं ४ा अट्ठमाणं राईदियाणं) सार्धसप्तदिनाऽधिकनवमासाः प्रतिपूर्णाः । उक्तं च-- "दोण्हं वरमहिलाणं गम्भे वसिऊण गम्भसुकुमालो । नवमासे पडिपुण्णो सत्त य दिवसे समइरेगे" (वि.आ.) ॥१८५५॥ न त्वेवं कालमानं सर्वेषामपि । यत:"दु-चउत्थ-नवम-बारस-तेरस-पन्नरस सेस गम्भठिइ । मासा अड नव तद्वरि उसहाउ कमेणिमे दिवसा ॥१॥ ॥१७॥ Sain Ed o mnational For Privale & Personal use only IN ibrary.org Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १७१ ॥ Jain Educatio national च - पणवीसं छद्दिण अडवीसं छच्च छच्चि-गुणवीसं । सगं छठवीसं छच्छय वीसिगवीसं छ छन्वीसं ॥२॥ छप्पण अड सत्तट्ठ य अट्ठट्ठ छ सत्त गन्मदिणत्ति" । सप्ततिशतस्थानके श्रीसामतिलकसूरिकृते । < यन्त्रम् > भगवंत मास दिन भगवंत मास भगवंत मास दिन १ ४ ८ ९ २ २५ ६ २८ ६ ६ १९ ७ ९ ८ ९ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ ९ ९ ९ ९ ९ ८ ८ ९ दिन २६ ६ ६. ८ २० २१ २२ १५ २३ १६ ९ २४ (वइकंताणं उच्चठाणगएसु गहेसु) [ इत्यादि ] <व्यतिक्रान्तेषु उच्चस्थानस्थितेषु ग्रहेषु ग्रहाणामुच्च स्थानानि एवम् - "अर्काद्युच्चान्यज- वृष- मृग- कन्या- कर्क- मीन- वणिजोंऽशैः । २० २१ ६ २६ ६ १७ १८ १९ दिग्दहनाऽष्टाविंशति - तिथी पुनक्षत्रविंशतिभिः " ( आरम्भसिद्धिः) ॥ ११ ॥ ९ ९ ८ ९ ९ ९ ७ ु ॥ १७१॥ ibrary.org Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प मीन २१ ॥१७२॥ साकिरणावली टीका व्या०४ तुला TOBAACAEARGAON ग्रहा:- सूर्य चन्द्र मङ्गल बुध गुरु शुक्र शनि राशि: मेष वृषभ मकर परमोच्च:- १० फलं त्वेवम् "मुखी भोगी धनी नेता, जायते मण्डलाऽधिपः । नृपतिश्चक्रवर्ती च, क्रमादुच्चग्रहे फलम्" ॥१॥ तथा-"तिहिं उच्चेहि नरिंदो पंचहिं तह होइ अद्धचक्की अ । छहिं होइ चक्कवट्टी सत्तहिं तित्थंकरो होइ ।।१।। इको जइ उच्चत्यो हवइ गहो उन्नई परं कुणइ । पुण बे तिणि गहाभो कुणंति को इत्थ संदेहो" ॥२॥ तथा-"निःस्वो नीचरतश्चौरो निःप्रज्ञो बुद्धिवर्जितः । शत्रुप्रपीडितो रोगी अर्काऽऽद्यैनींचगैः क्रमात् ॥१॥ ___ अन्धं दिगम्बरं मूर्ख परपीडोपजीवनम् । कुर्यातामतिनीचस्थौ पुरुषं चन्द्रभास्करौ ॥२॥ त्रिभिर्नीचैर्भवेद्दास-स्त्रिभिरुच्चैनैराऽधिपः । त्रिभिः स्वस्थानगैर्मन्त्री त्रिभिरस्तमितेर्जड" ॥३॥ उच्चत्वं चाऽत्र ग्रहाणामंशकाद्यपेक्षया घटनीयम् । (पढमे चंदजोगे) प्रथमशब्दः प्रधानाऽर्थः प्रधाने चन्द्रबले अर्थान्नृपादीनां । यद्वा-तदा रवेर्मेषस्थत्वात् भगवतश्च मध्यरात्रे जन्मभावात् तदा मकरलग्नं प्रथमायां चान्द्यां होरायां 'इन्द्वर्कयोः समे' इत्युक्तेः। अन्यथा वा मुधिया वृद्धोपदेशाद्भावनीयम् । (सोमासु दिसासु वितिमिरासुविसुद्धासु) सौम्यासु-रजोवृष्टयाद्यभावात् शान्तासु <दिक्षु> । AERACTICE पू ॥१७२॥ Jain E For Private & Personal use only nibrary.org Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१७३॥ ४९ वितिमिरासु - भगवज्जन्मकाले सार्वत्रिकोद्योतभावात् चन्द्रिकाया वा ध्वस्तध्वान्तासु । विशुद्धासु - उल्कापातदिग्दाहाद्यभावात् निर्मलासु । (जइएसु सव्वसउणेसु जयोऽस्ति एषु इति जयिकेषु राजादीनां जयदायिषु सर्वशकुनेषु - काकोलूकपौतक्यादिषु । यद्वा-काकानां श्रवणे द्वित्रिचतुः शब्दाः शुभावहाः । (पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसप्पंसि मारुयंसि पवास) प्रदक्षिणवासौ अनुकूलच भगवतः प्रदक्षिणवा हित्वाद् अनुकूलम् । अथवा प्रदक्षिणे- प्रदक्षिणावर्त्तत्वात् अनुकूले सुरभिशीतत्वात् । भूमिसर्पिणि-मृदुत्वात् । चण्डवातो हि उच्चैः सर्पति । तादृशे मारुते प्रवातुमारब्धे - 'अचेतना अपि दिशः प्रसेदुर्मुदिता इव । वायवोऽपि वस्पर्शाः मन्दं मन्दं वस्तदा ॥ १ ॥ (निफन्नमेइणीयंसि कार्लस) निष्पन्ना - निष्पन्नसर्वशस्या मेदिनी यत्र तादृशे काले - ऋतौ । (पमुह अपक्कीलिएसु जणवएस) प्रमुदिता:- सुभिक्षसौस्थ्यादिना प्रक्रीडिताच वसन्तोत्सवादिना क्रीडितुमारब्धाः । ततो विशेषणकर्मधारयः । जनपदेषु - जनपदवास्तव्य लोकेषु सत्सु - I 'उद्योत त्रिजगत्यासीत्, दध्वान दिवि दुन्दुभिः । नारका अध्यमोदन्त, भूरप्युच्छ्वासमासदत् ॥ १ ॥ (पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि ) < मध्यरात्रे (हत्थुत्तराहि नक्खलेण जोगमुबा गएणं) उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रेण सह चन्द्रे योगमुपागते (आरोग्गा आरोग्गं दारयं पयाया) अरोगा - अनाबाधा माठा अरोगम् - अनाबा दारकं प्रजाता - सुषुवे । जनिः सोपसर्गत्वात् सकर्मकः ॥९६॥ इति जैनशासनसौधस्तम्भायमान - महामहोपाध्यायश्री धर्मसागर - गणिवरविरचितायां कल्पकिरणावल्यां चतुर्थ व्याख्यानं समाप्तम् । ॥१७३॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥१७४॥ अथ पञ्चमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ['जं स्यणि च णं' इत्यादितः, '- भूया आणि हुत्थ' ति पर्यन्तम् ] तत्र - (जं स्यणि चणं समणे भगवं महावीरे जाए) यस्यां रात्रौ श्रमणः > भगवान् महावीरः जातः (सा णं रयणी बहुहि देवेहिं देवीहि यत्ति सा रजनी बहुभिर्देवैः देवीभिश्च तत्र - तीर्थकृतां जन्मनः सूतिकर्मणि शाश्वत - कल्पाऽधिकारिण्यः प्रथमतः षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यो देव्योऽभ्यायान्ति । तास्त्वेवम् - दिकुमार्योsersघोलोक - वासिन्यः कम्पिताऽऽसनाः । अज्जन्मावर्ज्ञात्वाऽभ्येयुस्तत्सूतिवेश्मनि ॥१॥ भोग भोगवती, सुभोगा भोगमालिनी । तोयधारा विचित्रा च पुष्पमाला त्वनिन्दिता (त्रिषष्टि प० २७४) ॥२॥ त्या प्रभुं तदम्बां चे-शाने सूतिगृहं व्यधुः । संवर्त्तनाऽशोधयन् क्ष्मा-मायोजनमितो गृहात् ||३|| मेरा मेघवती, सुभेघा मेघमालिनी । सुवत्सा वत्समित्रा च वारिषेणा वलाहिका (त्रि० पर्व १ - २८२ ) ॥४॥ अष्टकादेत्यैता, नन्वाऽन्तं समातृकम् । तत्र गन्धाऽम्बुपुष्पौध वर्ष हर्षाद्वितेनिरे ॥५॥ अथ नन्दोत्तरानन्दे आनन्दानन्दिवर्धने । विजया वैजयन्ती च, जयन्ती चाडपराजिता (त्रि० १०१ -२८८ ) ॥६॥ एताः पूर्व रुचकादेत्याssलोकाऽर्थ दर्पणमग्रतो घरन्ति । समाहारा सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा यशोधरा । लक्ष्मीवती शेषवती, चित्रगुप्ता वसुन्धरा (त्रि० १० १ - २९१) ॥७॥ किरणावली टीका व्या० ५ ॥१७४॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१७५॥ NeCANCE%AC%ELECRUST एता दक्षिणरुवकादेत्य स्नानाऽर्थ करतभृडारा गीतगानं विदधति । इलादेवी सुरादेवी, पृथ्वी पद्मावत्यपि । एहनासा नवमिका, भद्रा सीतेति नामतः (त्रि०प०१-२९४)॥८॥ एताः पश्चिमरुचकादेत्य वाताऽर्थ व्यजनपाणयोऽग्रे तिष्ठन्ति । अलंबुसा मिश्रकेशा, पुण्डरीका च वारुणी । हासा सर्वप्रभा श्रीही-रष्टोदनचकाऽद्रितः ॥९॥ एता उत्तररुचकादेत्य चामराणि वीजयन्ति । चित्रा च चित्रकनका, (शतेरा) सुतेजा च सुदामिनी । दीपहस्ता विदिक्षवेत्या-ऽस्थुर्विदिग्रुचकाऽद्रितः ॥१०॥ रुचकद्वीपतोऽभ्येयुश्चतस्रो दिक्कुमारिकाः । रूपा रूपासिका चाऽपि, मुरूपा रूपकावती ॥११॥ चतुरङ्गुलतो नालं, छित्त्वा खातोदरेऽक्षिपन् । समापूर्य च वैडूर्य-स्तस्योर्ध्व पीठमादधुः॥१२॥ बद्ध्वा तवया जन्म-गेहादरम्भागृहत्रयम् । ताः पूर्वस्यां दक्षिणस्या-मुत्तरस्यां व्यधुस्ततः ॥१३॥ याम्यरंभागृहे नीत्वा-ऽभ्यङ्गं ते नुस्तु तास्तयोः । स्नानचर्चाऽशुकाऽलङ्का-रादि पूर्वगृहे ततः ॥१४॥ उत्तरेऽरणिकाष्ठाभ्या-मुत्पाद्याऽग्निं सुचन्दनैः । होमं कृत्वा बबन्धस्ता-रक्षापोट्टलिकां द्वयोः ॥१५॥ पर्वताऽऽयुर्भवेत्युक्त्वा, स्फालयनश्मगोल कौ । जन्मस्थाने च तौ नीत्वा, स्वस्त्रदिक्षु स्थिता जगुः ॥१६॥ एताश्च-प्रत्येकं च सामानिकी चत्वारिंशच्छतान्विताः। महत्तराभिश्च प्रत्येकं तथा चतसृभिर्युताः। ॥१७॥ अङ्गरक्षैः षोडशभिः, सहरः सप्तभिस्तथा । अनीकैस्तदधीशैश्च, मुरैश्चाऽन्यैर्महदिभिः॥१८॥ GROSSETOGORA ALIR जा ॥१७ Jain Educa t ional For Private & Personal use only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका व्या० ॥१७६॥ -CARELUGREECEMGEELCANCECEMALL आभियोगिकदेवकृतैोजनप्रमाणविमान्नरत्राऽऽयान्ति । इति दिवमारिका महोत्सवः। ततः सिंहासन शाकं, चचालाऽचलनिश्चरम् । प्रयुज्याऽथाऽवधि ज्ञात्वा, जन्माऽन्तिमजिनेशितुः॥१॥ वज्रयेकयोजनां घण्टा, सुघोषां नैगमेषिणा । अवादयत्ततो घण्टा-रेणुः सर्वविमानगाः ॥२॥ शक्राऽऽदेशं ततः सोच्चैः, सुरेभ्योऽज्ञापयत्स्वयम् । तेन प्रमुदिता देवा-श्चलनोपक्रमं व्युधुः ॥३॥ पालकाख्याऽमरकृतं, लक्षयोजनसंमितम् । विमानं पालकं नाम-ऽध्यारोहत् त्रिदशेश्वरः ॥४॥ पालकविमाने पुरतोऽग्रमहिषीणामष्टौ भद्रासनानि । वामतश्चतुरशीतिसहस्रसामानिकसुराणां तावन्ति भद्रासनानि । दक्षिणतो द्वादशस'साऽभ्यन्तरपार्षदानां तावन्ति भद्रासनानि । चतुर्दशसहस्रमध्यमपार्षदानां तावन्ति भद्रासनानि । एवं पोडशसहस्रबाह्यपार्षदानामपि पोडशसहस्रभद्रासनानि । पृष्ठतः सप्ताऽनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानि । चतुर्दिक्षु प्रत्येकं चतुरशीतिसहस्राऽऽत्मरक्षक देवानां चतुरशीतिसहस्रभद्रासनानि । मध्ये शाकं सिंहासनम् ।। पुरतोऽग्रमहिष्योऽष्टौ, वामे सामानिकाः सुराः । दक्षिणे त्रिसभादेवाः, सप्ताऽनीकानि पृष्ठतः ॥५॥ अन्यैरपि धनव-वृतः सिंहासनं स्थितः । गीयमानगुणोऽचाली-दपरेऽप्यमरास्ततः॥६॥ देवेन्द्रशासनात् केचित् , केचिन्मित्राऽनुवर्तनात् । पत्नीभिः प्रेरिताः केचित् , केचिदात्मीयभावतः ॥७॥ केऽपि कौतुकतः केऽपि,विस्मयात् केऽपि भक्तितः । चेलुरेवं सुराः सर्वे, विविधैर्वाहनैयुताः ॥८॥ विविधैस्तूर्यनिर्घोषैः, घण्टानां क्वणितैरपि । कोलाहलेन देवानां, शब्दाऽद्वैतं तदाऽजनि ॥९॥ ॥१७६॥ Jain Educa t ional For Privale & Personal use only Library.org Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १७७॥ ४५ Jain Education national सिंहस्थो वक्ति हस्तिस्थं, दूरे स्वीयं गजं कुरु । हनिष्यत्यन्यथा नूनं, दुर्द्धरो मम केसरी ॥१०॥ वाजिस्थं कासराऽऽरूढो, गरुडस्थो हि सर्पगम् । छागस्थं चित्रकस्थोऽथ, वदन्त्येवं तदाऽऽदरात् ॥११॥ सुराणां कोटिकोटीभिर्विमानैर्वाहनधनैः । विस्तीर्णोऽपि नभोमार्गोऽतिसङ्कीर्णोऽभवत्तदा ॥१२॥ मित्रं केsपि परित्यज्य, दक्षत्वेनाऽग्रतो ययुः । प्रतीक्षस्त्र क्षणं भ्रातः ! मामत्रेत्यपरेऽवदन् ॥ १३॥ केचिद्वदन्ति भो देवाः ! सङ्कीर्णाः पर्ववासराः । भवन्त्येवंविधा नूनं, तस्मान्मौनं विधत्त भोः ! ॥१४॥ नमस्यागच्छतां तेषां शीर्षे चन्द्रकरैः स्थितैः । शोभन्ते निर्जरास्तत्र सजरा इव निर्जराः ॥ १५ ॥ मस्तके घटिकाकाराः, कण्ठे ग्रैवेयकोपमाः । स्वेदबिन्दुसमा देहे, सुराणां तारका वभुः ॥ १६ ॥ नन्दीश्वरे विमानानि सङ्क्षिप्यागात् सुराऽधिपः । जिनेन्द्रं च जिनाऽम्बां च, त्रिः प्रादक्षिणयेत्ततः ॥ १७॥ वन्दित्वा नमस्त्विा, चेत्येवं देवेश्वरोऽवदत् । नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षि-धारिके ! विश्वदीपिके ! ||१८|| अहं शक्रोऽस्मि देवेन्द्रः, कल्पादाद्यादिहागमम् । प्रभोरन्तिमदेवस्य करिष्ये जननोत्सवम् ॥ १९ ॥ भेतव्यं देवि ! तन्नैवेत्युक्त्वाऽवस्वापिनीं ददौ । कृत्वा जिनप्रतिविम्बं जिनाऽम्बासन्निधौ न्यधात् ॥ २०॥ भगवन्तं तीर्थकर, गृहीत्वा करसम्पुटे । विचक्रे पञ्चधा रूपं, सर्वश्रेयोऽर्थिकः स्वयम् ॥२१॥ एको गृहीततीर्थेश, पार्श्वे द्वौ चाऽऽत्तचामरौ । एको गृहीताऽऽतपत्रः, एको वज्रधरः पुनः ॥ २२ ॥ अगः पृष्ठगं स्तौति, पृष्ठस्थोऽप्यग्रगं पुनः । नेत्रे पश्चात् समीहन्ते, केचनाऽग्रेतनाः सुराः ||२३|| ॥ १७७॥ www.jairtelibrary.org Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०५ ॥१७८॥ शक्रः सुमेरुशृङ्गस्थ, गत्वाऽथो पाण्डुकं वनम् । मेरुचूलादक्षिणेना-ऽतिपाण्डुकम्बलाऽऽसने ॥२४॥ कृत्वोत्सङ्गे जिनं पूर्वा-ऽभिमुखोऽसौ निषीदति । समस्ता अपि देवेन्द्राः, स्वामिपादान्तमैयरुः ॥२५॥ 'दश वैमानिका, विंशतिभवनपतयः, द्वात्रिंशद् व्यन्तराः, द्वौ ज्योतिष्कौ' इति वतुःषष्ठिरिन्द्राणां । सौवर्णा राजता रात्नाः, स्वर्णरूप्यमया अपि । स्वर्णरत्नमयाचाऽपि,रूप्यरत्नमया अपि ॥२६॥ स्वर्णरूप्यरत्नमया, अपि मृत्स्नामया अपि । कुम्भाः प्रत्येकमष्टाऽऽढयं, सहस्रं योजनाऽऽननाः ॥२७॥ 'पणवीसजोअणुत्तुंगो बारसजोषणाई वित्थारो । जोअणमेगं नालुअ, इगकोडी सद्विलक्खाई' ( ) एवं भृङ्गार-दर्पण-रत्नकरण्डक-स्थाल-पात्रिका-पुष्पचङ्गेरिकादि पूजोपकरणानि कुम्भवदष्टप्रकाराणि, प्रत्येकमष्टोत्तरसहस्त्रमानानि । तथा मागधादितीर्थानां मृदं । जलं च गङ्गादीनां । पद्मानि जलं च पद्महदादीनां । क्षुल्लहिमवद्वर्षधर-वैताढयविजय-वक्षस्कार-देवकुरूत्तरकुरुभद्रशालनन्दनवनादीनां सिद्धार्थपुष्पतुम्बरगन्धान सौषधीश्च । जलादि चाऽऽभियोगिकसुरैरच्युतेन्द्र आनाययत् ॥ क्षीरनीरभृतैर्वक्ष:-स्थलस्थैत्रिदशा बभुः। संसारौघं तरीतुं किं, धृतकुम्भा इव स्फुटम् ॥१॥ सिञ्चन्त इव भावई, क्षिपन्तो वा निजं मलम् । कलशं स्थापयन्तो वा, धर्मचैत्ये सुरा बभुः ॥२॥ संशयं त्रिदशेशस्य, मचा वीरोऽमराचलम् । वामाऽङ्गुष्ठाऽङ्गसम्पर्कात् , समन्तादप्यचीचलत् ॥३॥ कम्पमाने गिरौ तत्र, चकम्पेऽथ वसुन्धरा । शृङ्गाणि सर्वतः पेतु-श्रुक्षुभुः सागरा अपि ॥४॥ BAEQAAAAAAAE ॥१७८॥ For Private & Personal use only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १७९॥ ब्रह्माण्डस्फोटसदृशे, शब्दाऽद्वैते प्रसर्पति । रुष्टः शक्रोऽवस्था, क्षमयामास तीर्थपम् ॥५॥ सङ्ख्याऽतीताऽर्हतां मध्ये, स्पृष्टः केनाऽपि नाङ्क्षिणा । मेरुः कम्पमिषादित्या - नन्दादिव ननर्त्त सः ||६|| शैलेषु राजता मेऽभूत्, स्नात्रनीराऽभिषेकतः । तेनाऽमी निर्जरा हारा स्वर्णापीडो जिनस्तथा ॥७॥ तत्र पूर्वमच्युतेन्द्रो, विदधात्यभिषेचनम् । ततोऽनुपरिपाटीतो, यावच्चन्द्राऽर्यमादयः ||८|| जलस्नात्रे कविघटना-श्वेतच्छत्रायमानं शिरसि मुखशशि-न्यंशुपूगयमाणं, कण्ठे हारायमाणं वपुषि च निखिले, चीनचोलायमानम् । श्रीमज्जन्माभिषेकप्रगुणहरिगणो-दस्त कुम्भौघगर्भाद्, (, भ्रश्यद् दुग्धाऽब्धिपाथ वरमजिनपतेरङ्गसङ्गि श्रिये वः ॥ ९ ॥ चतुर्वृषभरूपाणि शक्रः कृत्वा ततः स्वयम् । शृङ्गाष्टकक्षरत्क्षीरै रकरोदभिषेचनम् ॥१०॥ सत्यं ते विबुधा देवा, यैरन्तिमजिने शितुः । सृजद्भिः सलिलैः स्नानं, स्वयं नैर्मल्यमाददे || ११|| समङ्गलप्रदीपं ते, विधायाऽऽरात्रिकं पुनः । सनृत्यगीतवाद्यादि, व्यधुर्विविधमुत्सवम् ||१२|| तथा - 'उन्मृज्य गन्धकाषाय्या, दिव्ययाऽङ्गं हरिर्विभोः । विलिप्य चन्द्रनाद्यैश्च पुप्पाद्यैस्तमपूजयत् ॥१॥ दर्पणो बर्द्धमानश्च कलशो मीनयोर्युगम् । श्रीवत्स - स्वस्तिके नन्द्या ऽऽवर्त्त भद्रासने इति ॥२॥ शक्रः स्वामिपुरो रन्न - पट्टके रूप्यतन्दुलै: । आलिख्य मङ्गलान्यष्टाविति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥३॥ इतिषष्टीयचरित्रे | शक्रोऽथ जिनमानीय, विमुच्याऽम्बाऽन्तिके ततः । सञ्जहार प्रतिविम्बाऽवस्वापिन्यौ स्वशक्तितः ॥ १३ ॥ ॥१७९ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प टीका व्या.५ ॥१८॥ SOURCEAECE कुण्डलक्षोमयुग्मं चोच्छी मुक्त्वा हरिय॑धात् । श्रीदामरत्नदामाढय-मुल्लोचे स्वर्णकन्दुकम् ॥१४॥ द्वात्रिंशद्रत्नरैरूप्यं-कोटिवृष्टिं विरच्य सः । बाढमाघोषयामासे-ति सुरैराभियोगिकैः ॥१५॥ स्वामिनः स्वामिमातुश्च, करिष्यत्यशुभं मनः । सप्तधार्यमञ्जरीव, शिरस्तस्य स्फुटिष्यति ॥१६॥ स्वाम्यङ्गुष्ठेऽमृतं न्यस्य, स्वामिजन्मोत्सव सुराः । नन्दीश्वरेऽष्टाहिकां च, कृत्वा जग्मुर्यथाक्रमम् ॥१७॥ क्रमस्त्वेवम्-जिनजन्मोत्सवाऽनन्तरं बहवो देवा नन्दीश्वरद्वीपे यात्रायै यान्ति । शक्रस्तु जिनगृहं । ततः पूर्वदिश्यञ्जनगिरिचैत्ये । तल्लोकपालास्तु क्रमेण चतुर्दियवर्तिषु चतुर्यु दधिमुखशिखरिचैत्येषु । शक्रवदीशानोऽपि; परमुत्तरस्यामेव । तल्लोकपाला अपि प्राग्वत् । चमरबलीन्द्रावपि क्रमेण दक्षिणपश्चिमयोर्दिश्योरित्यादि बोध्यम् । इति देवकृतः श्रीमहावीर जन्मोत्सवः । एवं च चातुनिकायिकाऽनेककोटाकोटि देवदेवीभिनिर्मीयमाणे जिनजन्मोत्सवे जगति यद्धेतुकं यज्जातं तदाह (ओवयंतेहि उप्पयंतेहि य)त्ति अवपतद्भिः-अवतरद्भिः उत्पतद्भिः-ऊर्ध्व गच्छद्भिः (उम्पिजलमाणभूआ कहकहगभूआ आवि हुत्था) उप्पिश्चल:-भृशमाकुलः स इवाऽऽचरतीति क्विपि शतरिच प्राकृतत्वात् 'माण' आदेशे 'उप्पिंजलमाण' इति सिद्धम् । तद्भूना- भूतस्योपमार्थत्वाद् उत्पिञ्जलतीव । अव्यक्तवर्णों नादः तद्भुतो वाऽपि हर्षाऽट्टहासादिना 'कहकहा' रवमयीव अभवन् क्वचित उपिजलमालाभूआ पाठः तत्र-उत्पिञ्जलानां भृशमाकुलानां देवादीनां माला-श्रेणिः तां भूताप्राप्ता । क्वापि-'देवुज्जोए एगालोए लोए देवसंनिवाया उपिंजल.' इत्यादि । तत्र 'होत्थ'त्ति प्रत्येकं सम्बन्धात् । ॥१८॥ Jain E a tional For Private & Personal use only Wavanelibrary.org Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१८१॥ RESEAAAAबर देवोद्योतोऽभूत् । एकाऽऽलोकश्च-उद्योताऽद्वैतभावात् । लोकः-चतुर्दशरज्ज्यात्मको भुवनं वाऽभूत् । देवसन्निपाता 'उप्पिञ्जल.' इत्यादि विशेषणद्वयोपेता अभवन् । क्यापि 'देवुकलि अत्ति । तत्र-उत्कलिका-हर्षज उत्कृष्टक्ष्वेडितनादः ] ॥९७ ॥ ['जं रयणिं च णं' इत्यादितो 'वासंच वासिंसुत्ति पर्यन्तम्] तत्र-(जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए) < यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरो जातः> (तं रयणि च णं बहवे वेसमणकुंडधारी तिरियजंभगा देवा) तस्यां रजन्यां बहवः वैश्रमगस्य कुण्डम्-आयत्ततां धारयति ये ते तिर्यग्लोकवासिनो देवाः (सिद्धस्थरायभवणंसि) (सिद्धार्थगजभवने> (हिरण्णवासं च) हिरण्य-रूप्यं च वर्षम्-अल्पतरवृष्टिः । वृष्टिस्तु महति [शेष प्राग्वत् ] (सुवण्णवासं च वयरवासं च वत्थवासं च आभरणवासं च पत्तवासं च पुप्फवासं च फलवासं च बीयवासं च मल्लवासं च गंधवासं च चुण्णवासं च वणवासं च वसुहारवासंच वासिंसु) < सुवर्णवर्ष च वज्रवर्ष च वस्त्रवर्ष च आभरणवर्ष च पत्रवर्ष च पुष्पवर्ष च फलवर्ष च बीजवर्ष च माल्यवर्ष च गन्धवर्ष च चूर्णवर्ष च वर्णवर्ष च वसुधारावर्ष च अवयन् > [क्वचित् 'धण्णवासं च'त्ति पाठः तत्र धान्यवर्ष] अत्रान्तरे प्रियभाषिताऽभिधाना चेटी राजानं वर्धापयति । यथा-['पिअट्टयाए पिअं निवेएमो पिअंभे भवउ । मउडवज्जं जहामालिअं ओमयं मत्थए धोअई' इति क्वचिद् दृश्यते । एतत् व्याख्या-'पिअट्टयाए' प्रीत्यर्थ 'पि' प्रियम्-इष्टं वस्तु पुत्रजन्मलक्षणं 'निवेएमो' निवेदयामः । एतच्च प्रियनिवेदनं 'पिअं' प्रियं च 'भे' भवतां भवउ' भवतु इति । तस्या दानम्-'मउडवज'ति मुकुटस्य राजचिहत्वात् तस्य स्त्रीणामनहत्वात् 'जहामालिअंति यथाधारितं 'मलि धारणे' SOURCOCCASUAAA ॥१८॥ Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Murary.org Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥१८२॥ उक्तत्वात् यथापरिहितमित्यर्थः । 'औमयं' ति अवमुच्यते - परिधीयते यः सः अवमोचक:- आभरणं तं 'मस्थए इति अङ्गप्रतिचारकाणां मस्तकानि क्षालयन्ति - दासत्वाऽपनयनार्थ, स्वामिना धौतमस्तकस्य हि दासत्वमपगच्छति इति लोकव्यवहारः ] ॥९८॥ ['तए णं' इत्यादित: ' एवं वयासी'ति पर्यन्तम् ] तत्र - (तए णं से सिद्धस्थे खसिए) ततः सः सिद्धार्थक्षत्रियः (भवणवइ-वाणमंतर जोइस-वेमाणि एहिं देवहिं तित्थर जम्मणाभिसेयमहिमाए कयाए समाणीए) भवनपति - व्यन्तर- ज्योतिष्क- वैमानिकैः देवैः तीर्थकरजन्माभिषेकोत्सवे कृते सति ( पच्चूसकालसमयंसि नगरगुत्तिए सदावेइ ) < प्रभातकालसमये > पुराऽऽरक्षकान् आकारयति > (सद्दावेत्ता एवं व्यासो) आकार्य एवमवादीत् ॥९९॥ < [' खिप्पामेव' इत्यादित: 'पञ्चपिणह' ति पर्यन्तम् ] तत्र - ( खिप्पामेव भो देवाणुपिया | कुंडग्गामे नगरे) - क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! कुण्डग्रामे नगरे > (चारगसोहणं करेह) चारकशोधनं-बन्दीमोचनं कुरुत । यतो राजनीतिरियम् 'युवराजाभिषेके च परराष्ट्राऽयमर्द्दने । पुत्रजन्मनि वा मोक्षो बद्धानां प्रविधीयते ॥१॥ ( करिता ) < कृत्वा (माणुम्माणवणं करेह) मानं - रसधान्यविषयम् उन्मानं - तुलारूपं तयोः वर्द्धनं < कुरुत> (करिता कुंडपुरं नगरं ) < कृत्वा कुण्डपुरं नगरं > (सब्भिंतर बाहिरियं आसिअ संमजिओ वलित्तं) सहाऽभ्यन्तरेण Jain Educatinternational . > किरणावली टीका व्या० ५ ॥१८२॥ elibrary.org Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ॥१८३॥ मध्यभागेन बाहिरिका-बहिर्भागोयत्र तत्तथा क्रियाविशेषणम् । आसिक्तं-गन्धोदकछटकदानात समार्जित-कचवरशोधनात उपलिप्तं गोमयादिना (सिंघाडग-तिय-च उक-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु)त्ति [शृङ्गाटकादयःप्रायत्] < शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुखराजमार्गः> पन्थाः-सामान्यमार्गः< तेषु > (सित्त-प्लुइ-सम्मट्ठ-रत्यंतरावणवीहियं)सिक्तानि-जलेन। अत एव शुचीनि-पवित्राणि संमृष्टा-कचवराऽपनयनेन समीकृतानि । रथ्याऽन्तराणि-रथ्यामध्यानि आपणवीथयश्च-हट्टमार्गा यस्मिन् । (मंचाइमंचकलिय)मश्चा-मालकाः प्रेक्षणकद्रष्ट्र जनोपवेशननिमित्तम् अतिमश्चका:-तेषामप्युपरि ये तैः कलितं ।(नाणाविहरागभूसिअज्झयपडागमंडिय) नानाविधरागैः-कुसुम्भादिभिः विभूषिता ये ध्वजा-सिंहगरुडादिरूपोपलक्षिता बृहपटरूपाः, पताकाश्व-तदितररूपा ताभिः मण्डितं (लाउल्लोइअमहियं) लाइअं-छगणादिना भूमौ लेपनम् उल्लोइअं-सेटिकादिना कुडयादिषु धवलनं ताभ्यां महितमिव-पूजितमिव । त एव वा महितं-पूजनं यत्र । (गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलिनलं) गोशीर्षस्य-चन्दनविशेषस्य सरसस्य-प्रत्यग्रस्य रक्तचन्दनस्य-चन्दनविशेषस्यैव । दईरस्य-दईराऽ- 13 भिधानाऽद्रिजातश्रीखण्डस्य । गोशीर्षादिभिर्वा दत्ता-न्यस्ता पश्चाऽइगुलयः तला-हस्तका कुडयादिषु यस्मिन् । दईरबहुलेन चपेटारूपेण वा दत्तपश्चाङ्गुलितलमित्येके । (उवचिअचंदणकलशं) उपचिता-उपनिहिता गृहान्त कृतचतुष्केषु चन्दनकलशा-माङ्गल्यघटा यत्र । (वंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभाग) वन्दनघटाः सुकृताः तोरणानि च प्रतिद्वार-द्वारस्य द्वारस्य देश भागेषु यत्र । [क्वचिन् 'घड' स्थाने 'घण'त्ति पाठः तत्र वन्दना-वन्दनमाला घनानि-बहूनि तोरणानि च प्रतिद्वारं यत्र । यद्वा-उपचिता-निवेशिताः वन्दनवटाश्च सुकृततारणानि च द्वारदेशभागं द्वारदेशभागं प्रति यस्मिन् । देशभागश्च in Educa For Private & Personal use only Trbary.org. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका ॥१८॥ व्या.. SARABARGA | देश एवं] (आसत्तोसत्तविपुलववग्यारिअमल्लदामकलावं) आसक्तः-भूमिलग्न उत्सक्तश्च-उपरिलग्नो विपुल:विस्तीणों वृत्तः-वर्गलः, प्रलम्बित:-पुष्पगृहाकारो माल्यदाम्नां कलाप:-समूहो यत्र । (पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुप्फपुंजोवयारोलय) पश्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्ताः-करप्रेरिताः पुष्पपुञ्जाः तैः य उपचार:-पूजाभूमेः तेन कलितं । (कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकडनंतधूवमघमतगंधुदधृआभिराम) ['काले त्यादि प्राग्वत् ] <कृष्णाऽगुरुचीडासील्हकदह्यमानदशाङ्गादिधूपानां मघमघायमानः गन्धोद्भूताऽभिरामं> (सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूअं) <सुगन्धवरगन्धिकं गन्धगुटिकाकल्पं> (नड-नदृग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-लंबग-कहग-पाढग-लासग-आरक्खग-लंखमंख-तूणइल्ल-तुंबवीणियं अणेगतालायराणुचरिय) नटा:-नाटककारः। नर्तका:-ये स्वयं नृत्यन्ति । जल्ला:-वरत्राखेलकाः राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये । मल्ला:-नियुद्धप्रतीताः। मौष्टिका:-मल्ल। एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति । विडम्बका:-विदूषकाः वेलम्बका वा ये समुखविकारम् उत्प्लुत्योत्प्लुत्य नृत्यन्ति । कथका:-सरसकथावक्तारः। पाठका:सक्तादीनां [क्वापि 'पवग' इति पाठः तत्र प्लपका:-ये उत्प्लवन्ते झम्पादिभिः गर्तादिकं लङ्घयन्ति नद्यादिकं वा तरन्ति] लासका:-ये रासकान् ददति 'जय' शब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डाः इत्यर्थः । आरक्षकाः-तलवराः क्वचिद् 'आरक्खग'त्ति स्थाने 'आइक्खग'त्ति पाठः तत्र आख्यायकाः-ये शुभाऽशुभमाख्यान्ति । लखा:-महावंशाऽनखेलकाः। मला:चित्रफलकहस्ता भिक्षाका 'गौरीपुत्रका' इति वित्ताः। तूगइल्ला-तूणीरधराः तूणाऽभिधानवाद्यवन्तो वा । तुम्बवीणिकाःवीणावादकाः अथवा तुम्बा:-किन्नरी लपन्यादिवादका वीणिका-वीणावादिनः। अनेके ये तालाचराः-तालादानेन SABA HARACTERIESAKALEGAECE ॥१८४ For Privale & Personal use only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % ॥१८५॥ 5 RECORRECTECAR % प्रेक्षाकारिणः तालान् कुट्टयन्तो वा कथां कथयन्ति तैः अनुचरितं-सेवितं यत्तत्तथा । (करेह कारवेह) कुरुत स्वयं कारयत चाऽन्यः । (करित्ता कारवेत्ता य जूअसहस्सं मुसलसहस्सं च उस्सवेह) < कृत्वा कारयित्वा च युगानां सहस्रं मुसलानां च सहस्र ऊधी कुरुत > (उस्सवित्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह) < ऊर्जीकृत्य एतां ममाऽऽज्ञां प्रत्यागत्य कथयत > ॥१०॥ ['तए णं ते कोडंबिय' इत्यादितः 'पच्चप्पिणति'त्ति यार सुगमम् ] तत्र--(नए णं कोडुबियपुरिसा सिद्धत्थेण रण्णा एवं वुत्ता समाणा) < ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः सिद्धार्थराजेन एवम् उक्ताः सन्तः > (हहतुट्ठ जाव हयहियया करयल जाव पडिसुणित्ता खिप्पामेव कुंडपुरे नयरे चारगसोहणं जाव उस्सवित्ता) < हृष्टाः तुष्टाः यावत् हर्षितहृदया इस्तयुग्मयोजनपूर्व यावत् प्रतिश्रुन्य शीघ्रमेव कुण्डपुरे नगरे बन्दिमोचनं यावत् युग-मुसलसहस्रम् ऊर्वीकृत्य > (जेणेवं सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति) < यत्र सिद्धार्थ-क्षत्रियः तत्रैव उपागच्छन्ति > (उवागच्छित्ता) < उपागत्य > (करयल जाव कटु सिद्धत्थस्स खत्तियस्स रन्नो एयमाणत्तियं पचप्पिणंति) < करयुग्मयोजनपूर्व यावत् अञ्जलिं कृत्वा सिद्धार्थक्षत्रियराजस्य एताम् आज्ञा प्रत्यर्पयन्ति > ॥१०॥ तिए णं से सिद्धत्थे राया' इत्यादितः 'ठिइवडिअं करेह' ति पर्यन्तम् ] तत्र- (नए णं से सिद्धत्थे राया जेणेव अणसाला तेणेव उवागच्छइ) < ततः सः सिद्धार्थों राजा CReal AES -ENGA I brary.org Jain Educ a For Private & Personal use only tional Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव ल टीका व्या०५ ॥१८॥ A ला यत्रैव व्यायामशाला तत्रैव उपागच्छति > (उवागच्छित्ता) उपागंत्य (जाव सम्वोरोहेणं) इत्यादि । समस्ताऽन्तःपुरैः यायत्करणात् प्रथम 'सव्विदीए सव्वजुईए' इत्यादि दीक्षाकालपठितं वक्ष्यमाणाऽऽलापकवृन्दं समग्रं 'सम्बोरोहेणं' इतिपर्यन्तम् अत्र ग्राह्यम् । (सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडियसद्दनिनाएणं) सर्वपुष्पगन्धवस्त्रमाल्याऽलङ्कारादिरूपा या विभूषा तया। < सर्व > त्रुटितानां-वादित्राणां यः शब्दः निनादश्च-प्रतिरवः < तेन> (महया इड्रीए महया जुईए महया बलेणं महया वाहणेणं महया समुदएणं महया वरतुडिअजमगसमगप्पबाइएणं) महत्या ऋद्धया युक्त इति गम्यं । <महत्या > युक्त्या-उचितेष्टवस्तुघटनया युत्या वा मेलेन, द्युत्या वाऽऽभरणादीनां । < महता> बलेन-सैन्येन । महता> वाहनेन-शिविकावेगसरादिना । <महता> समुदयेन-सङ्गताभ्युदयेन परिवारादिसमुदायेन वा। महता पर> तूर्याणां यमकसमकं-युगपत प्रवादित-ध्वनितं तेन । (संख-पणव-भेरिझल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरुज-मुइंग-दुंदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं) शङ्कः-कम्बुः। पणव:-मृत्पटहः । भेरी-ढका । झल्लरी-चतुरङ्गुलनालिः करटिसदृशी वलयाकारा । उभयतो नद्धा इत्यन्ये । खरमुखी-काहला । हुडुक्का-तिवलितुल्या। मुरुजः-मईलः । मृदङ्गः-मृन्मयः। दुन्दुभिः-देववाद्यम् एषां निर्घोषः-महाश्चनिः नादितं च-प्रतिशब्दः तद्रूपो यो रवः तेन । (उस्तुकं) [इत्यादि] उच्छुल्का-मुक्तशुल्कां 'स्थितिपतितां करोति' इति सम्बन्धः। शुल्क-विक्रेतव्य भाण्डं प्रति मण्डपिकायां राजदेयं द्रव्यम् । (उक्कर उक्किटु अदिज्जं अमिजं अभडप्पबेस) उत्कराम्-उन्मुक्तकरां करः-गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यम् । उत्कृष्टां-प्रधानां । यद्वा फर्पणं-कृष्टम् उन्मुक्तं कृष्टं यस्यां लभ्येऽपि आकर्षण निषेधात् । अदेयां ir%ari ॥१८६॥ JainEdur For Private & Personal use only wimagainelibrary.org Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१८७॥ विक्रयनिषेधेन केनाऽपि न कस्याऽपि देयम् । अमेयां-क्रयविक्रयनिषेवात् । अविद्यमानो भटानां-राजाऽऽज्ञादायिनां भट्टका पुत्रादिनृणां प्रवेशः कुटुम्बिगृहेषु यस्याम् । (अदंडिमकुदंडिम) ति दण्डेन निर्वतं दण्डिम-कुदण्डेन निवृतं कुदण्डिमं राज द्रव्यं तन्नास्ति यस्यां । तत्र दण्ड:-अपराधाऽनुसारेण रानग्राह्यं द्रव्यं । कुदण्डस्तु-कारणिकानां प्रज्ञाऽपराधात् महत्यप्यपराधिनोऽपि अपरावे अल्पराजग्राह्यम् [क्वचिद् 'अदंडकुदंडिम' ति पाठः तत्र दण्डलभ्यद्रव्यं दण्डः। शेष प्राग्वत् ] (अधरिमं) ति अविद्यमानं धरिम-धारणीयद्रव्यम् ऋणमुकलनात् यस्यां क्वचिद् 'अहरिमं' ति केनाऽपि कस्याऽप्यहरणात् (गणियावरनाइज कलियं) गणिकावरैः-विलासिनीप्रधानैः नाटकीयैः-नाटकप्रतिबद्धपात्रः कलिता या [क्वचित 'अगणिअवग्नाउइजकलियं' इति पाठः तत्र अगणितैः-प्रतिस्थानं सद्भावात् असङ्ख्यातैः चरैः-प्रधानैः नाटकीयः । शेष प्राग्वत् ] (अमेगतालायराणुचरियं) अनेकतालाचराऽनुचरितां-प्रेक्षाकारिविशेषाऽऽसे विताम् । (अणुदधूअमुइंगं (१००) अमिलाण-मल्लदाम पमुइय-पक्कीलियजणजाणवयं) अनुश्रुता-भानुरूप्येण वादनार्थम् उत्क्षिप्ता अनुद्धता बावादनार्थमेव वादकैः अपरित्य का मृदङ्गा यस्यास् । अम्लानानि माल्यदामानि-पुष्पमाला यस्यां । प्रमुदितः-हृष्टः प्रक्रीडितश्च क्रीडितुमारब्धः सह पुरज ने न जनपद:-जनपदवासिलोकः यस्यां [क्वचित् 'पमुइयपक्कीलिअजणाभिरामं ति पाठः तत्र प्रमुदितैः प्रक्रीडितैश्च जनैः अभिरामा । 'विजयवेजहई' ति क्वचित् तत्र अतिशयेन विजयः विजयविजयः स प्रयोजनं यस्यां सा विजयजयिकी ता] (इसदिवस ठिइवडियं करेइ) ति दश दिवसान् यावत् स्थितौ-कुलमर्यादायां पतिना-अन्तभूता या पुत्रजन्मोत्सवसम्बन्धिनी व पनिकादिका प्रक्रिया तां <करोति> ॥१०२।। - ॥१८ Jain EducaA mational For Private & Personal use only wMusnelibrary.org Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका व्या .. ॥१८८॥ RECE%ECREENEUSIC%Ato ['तए णं सिद्धस्थे' इत्यादितः 'एवं वा विहरइ' ति पर्यन्तम् ] ता-(नए सिद्धत्थे राया दसाहियाए ठिइवडियाए वहमाणीए) < ततः सिद्धार्थों राजा> दशाऽहिकायांदशदिवसप्रमाणायां स्थितिपतितायां वर्तमानायां> (सइए अ साहस्सिए अ सयसाहस्सिए अजाए अ) शतिकान-शतपरिमाणान् साहस्रिकान् सहस्रपरिमाणान् । शतसाहसिकान्-लक्षप्रमाणान् । 'यजी देवपूजायाम्' इति धातोः यागान् देवपूजाः 'देव' शब्देनाऽत्र अर्हत्प्रतिमा एव वाच्यतयाऽवगन्तव्याः। यतः-भगवन्मातापित्रोः श्रीपार्श्वनाथाऽपत्यस्वेन श्रमणोपासकत्वाद् अन्याऽभिधेयत्वाऽसम्भवः। (दाए य भाए दलमाणे यं दवावेमाणे य) दायान्-पर्वदिवसादौ दानानि । भागान-लब्धद्रव्यविभागान् मानितद्रव्यांशान् वा । ददन् दापयन् (सहए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य लंभे पडिकछमाणे य पडिच्छावेमाणे य) < शतिकान् साहस्रिकान् लक्षप्रमाणान > लाभान् प्रतीच्छन्-गृह्णन् प्रतिग्राहयन् (एवं वा विहरइ) विहरति-आस्ते ॥१०३॥ [तए णं' इत्यादित ‘एवं वा विहरंति' ति पर्यन्तम्] तत्र- (तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो) < ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य > मातापितरौ (पढमे दिवसे ठिइवडियं करेंति) <प्रथमे दिवसे> स्थितिपतितां-कुलक्रमान्तभूतं पुत्रजन्मोचितमनुष्ठान कारयतः स्म । (तइए दिवसे चंदसूरदसणियं करिंति) <तृतीय दिवसे> चन्द्रसूर्यदर्शनिकां-चन्द्रसूर्य दर्शनाऽभिधानमुत्सवविशेष कुरुतः । तथाहि-जन्माहादिनद्वयेऽतिक्रान्ते गृहस्थगुरुः समीपगृहेऽचिंताऽहतप्रतिमाऽग्रे स्फटिक ॥१८८ Jain Educa t ional For Private&Personal Use Only wa l ilrary.org Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १८९ ॥ ४८ मयीं रूप्यमय वा चन्द्रमूर्ति प्रतिष्ठाप्य अर्चित्वा च विधिना स्थापयेत् । ततः स्नातां सुवखाऽऽभरणां शिशुमातरं करद्वयधृतपुत्रां चन्द्रोदये प्रत्यक्षचन्द्रसन्मुखं नीत्वा- 'ॐ अर्ह चन्द्रोऽसि निशाकरोऽसि नक्षत्रपतिरसि सुधाकरोऽसि औषधीगर्भोऽसि अस्य कुलस्य ऋद्धि वृद्धिं कुरु कुरु साहा' इत्यादि चन्द्रमन्त्रमुच्चरन् मातृपुत्रयोश्चन्द्रं दर्शयेत् । सपुत्रा माता च गुरुं प्रणमति गुरुवाऽऽशीर्वादं दत्ते । यथा "सर्वोषधी मिश्र मरीचिराजिः, सर्वाऽऽपदां संहरणप्रवीणः । करोतु वृद्धिं सकलेऽपि वंशे, युष्माकमिन्दुः सततं प्रसन्नः ॥१॥ ततः स्थापितेन्दुमूर्ति विसर्जयेत् । कदाचिद्यदि तस्यां निशि चतुर्दशी अभावास्या वा स्यात् साऽभ्रे वा व्योम्नि चन्द्रो न दृश्यते तदाऽपि तस्यामेव सन्ध्यायां चन्द्रदर्शनं कार्यम् । अपरायामपि रात्रौ चन्द्रोदये भवतु तत् ॥ अथ तस्मिन्नेव दिने प्रातः स्वर्णमयीं ताम्रमयीं वा सूर्यमूर्ति पूर्वविधिना संस्थाप्य ॐ अर्ह सूर्योऽसि दिनकरोऽसि तमोहोsसि सहस्रकिरणोऽसि जगच्चक्षुरसि प्रसीद' । आशीर्वादश्चायम् - "सर्वसुरासुरखन्द्यः, कारयिताऽपूर्व सर्वकार्याणाम् । भूयात् त्रिजगच्चक्षु - मङ्गलदस्ते सपुत्रायाः ॥ १ ॥ मातृपुत्र सूतकभयात्तत्र नाऽऽनेयौ । ततः स्थापित सूर्यदर्शन विधिः । सम्प्रति च तत्स्थाने शिशोदर्पणदर्शनं कार्यते ॥ (छडे दिवसे धम्मजागरियं जागरिंति) धर्मेण - कुलधर्मेण लोकधर्मेण वा पष्ठयां रात्रौ जागरणं धर्मजागरिका तां < कुरुतः > | (एक्कारसमे दिवसे वहते निव्वत्तिए असुइजम्मकम्मकरणे) एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते > निवर्तिते - अतिक्रान्ते अशुचीनाम् - अशौचवतां जन्मकर्मणां - नालछेदनादीनां यत् करणं तस्मिन् । ( संपत्ते बारसाहे . ॥१४९॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥१९॥ दिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावति) <सम्प्राप्ते> द्वादशाऽऽख्यदिवसे रविपुलम् किरणावली अशनपानखादिमस्वादिमादि> उपस्कारयत:-रसवतीं निष्पादयतः (उवक्खडावित्ता मित्तनाइनियंगसयणसंबंधि टीका व्या०५ परियणं नाए य खत्तिए य आमंतयंति) <निष्पाद्य > मित्राणि-मुहृदः । ज्ञातयः-सजातीया मातापित-है। भ्रात्रादयः। निजका:-स्वकीयाः पुत्रादयः। स्वजना:-पितृव्यादयः । सम्बन्धिन:-पुत्रपुत्रीप्रभृतीनां श्वशुरादयः। परिजन:-दासीदासादिः । ज्ञातक्षत्रियाश्च ऋषभस्वामिसजातीयाः < तान् आमन्त्रयन्ति > (आमंतयित्ता तओ पच्छा) < आमन्त्र्य ततः पश्चात् > (पहायाकयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता) < स्नातौ कृतबलिपूजौ कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तौ> (सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई पवराई वत्थाइं परिहिया) <श्वेतानि प्रवेशयोग्थानि मङ्गलकारीणि प्रश्राणि वस्त्राणि परिहितौ> (अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा) <अल्पमहाCऽऽभरणैः अलङ्कृतशरीरौ> (भोयणवेलाए भोयणमंडवसि सुहासणवरगया) < भोजन वेलायां भोजनमण्डपे सुखासनोपविष्टौ> (तेणं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणेणं नाएहिं खत्तिएहिं सद्धिं) <मित्राणि ज्ञातयः पुत्रादयः पितृव्यादयः श्वशुरादयः दासीदासादयः ऋषभदेवसजातीयाः तैः साई> (तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइम) <तद् विस्तीर्णम् अशनादि चतुर्विधाहारं> (आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणा) आ-इषत् स्वादयन्तौ-बहु त्यजन्तौ इक्ष्वादेखि । विशेषेण-आधिक्येन स्वादयन्तौ-अल्पं त्यजन्तौ खजूरादेखि । परि-सामस्त्येन भुञ्जानौ-अल्पमप्यत्यजन्तौ भोज्यम् । परिभाजयन्तौ-अन्येभ्यो यच्छन्ती खाद्यविशेषं मातापितरौ इति प्रक्रमः । (एवं वा विहरंति) <एवं ॥१९॥ प्रकारेण तिष्ठतः>॥१०४॥ . For Private & Personal use only SASARASWAॐॐॐ an m orary.org Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१९॥ ['जिमिअभुत्तुत्तरा०' इत्यादितः 'एवं वयासी'ति पर्यन्तम् ] तत्र-(जिमिअभुत्तुतरागया वि अ णं समाणा) जिमितौ भुकोत्तरं-भोजनोत्तरकालम् आगतौ-उपवेशनस्थाने इति गम्यं । सन्तौ । (आयंता चोक्खा परमसुइभूआ) आचान्तौ-शुद्धोदकेन कृतशौचौ । चोक्षौ-लेपसिक्थाद्यपनयनेन । अत एव परमशुचिभूतौ। (तं मित्त नाइनियगसयणसंबंधिपरियणं नायए खत्तिए य) <तत् मित्राणि ज्ञातयः पुत्रादयः पितृव्यादयः श्वशुरादयः दासीदासादयः ऋषभस्वामिसजातीया:> (विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारति सम्माणेति) सविस्तीर्णेन> पुष्प-वस्त्र-गन्ध-माल्याऽलङ्कारादिना <सत्कारयतः सन्मानयतः> [सत्कारसन्मानव्याख्या प्राग्वत् ] (सक्कारित्ता सम्माणित्ता) < तत्कृत्वा > (तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणस्स णायाणं खत्तियाण य पुरओ एवं वधासी) < तस्यैव मित्र-ज्ञाति-पुत्र-पितृव्य-श्वसुर-दास्यादीनां ऋषभदेवसजातीयानां च अग्रे एवम् अवादिषाताम् > ॥१०५॥ ['पुष्विपि णं' इत्यादितः 'अभिवडामो' ['वसमागया य'] ति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र-(पुल्विपिणं देवाणुप्पिया ! अम्हं एयंसि दारगंसि गम्भं वकंतसि समाणंसि) < पूर्वम् अपि हे देवानुप्रियाः ! अस्माकम् एतस्मिन् दारके गर्भ उत्पन्ने सति > (इमं एयारूवं अज्झथिए चिंतिए जाव समुप्पज्जित्था) < अयम् एतत्स्वरूपः अध्यवसायः चिन्तितो यावत् समुत्पन्न:> (जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसि गम्भ For Privale & Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावा टीका ॥१९२॥ व्या.। HDHISHASHRS ARRORS ताए वकंते) < यतःप्रभृति अस्माकम् एप दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः> (तप्पभिई चणं अम्हे हिरण्णेणं वडामो) <तदिनादारभ्य वयं हिरण्येन व महे> (सुवण्णेणं धणेणं धन्नेणं रज्जेणं जाव सावइज्जेणं) < सुवर्णेन धनेन धान्येन राज्येन यावत् प्रधानद्रव्येण > (पीइसक्कारेणं अईव अईव अभिवढ़ामो) <प्रीतिसत्कारादिभिः अतीवाऽतीव अभिवर्दामहे > (सामंतरायाणो वसमागया य) < सामन्तनृपाः वशमागताश्च > ॥१०६॥ ['तं जया णं' इत्यादितः 'नामेणं'ति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र-(तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सइ) <तस्मात् यदा अस्माकम् एष दारको जातो भविष्यति> (तया णं अम्हे एयस्स इमं एयाणुरूवं) < तदा वयं एतस्य दारकस्य इमम् एतदनुरूपं > (गुण्णं गुणणिप्फण्णं नामधिज्जं करिस्सामो "वद्धमाणु"त्ति) <गुणेभ्य आगतं गुणनिष्पन्नं नाम करिष्यामः "वर्दमान" इति> (ता अज अम्ह मणोरहसंपत्ती जाया) < सा अद्य अस्माकं मनोरथसिद्धिः जाता > (तं होउ णं अम्हं कुमारे "वद्धमाणे" नामेणं) < तस्माद् भवतु अस्माकं कुमारः नाम्ना "वर्द्धमानः" > ॥१०७।। ['समणे भगवं' इत्यादितः 'महावीरे' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते णं) < श्रमणो भगवान् महावीरः काश्यपगोत्र:> (तस्स णं तओ नामधिज्जा एवमाहिज्जेति-) < तस्य त्रीणि नामानि एवं कथ्यन्ते > (तं जहा-अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे(१) सहसमुइयाए समणे (२) <तद्यथा-मातापितृसत्कं “वर्द्धमानः"१ > समुदिता-रागद्वेषाऽभावः 'सह' त्ति सहभाविनी AGEAAAEEबलरावक ॥१९॥ M Jain Educ a tional For Privale & Personal use only www.udantirermurary.org Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १९३॥ कि. १७ समुदिता सहसमुदिता । यच्चूर्णि :- 'समुइ० - रागदोसर हियया' तथा 'श्रमण" इति श्राम्यति इति श्रमणः - तपोनिधिः 'श्रमू च खेदतपसोः' इतिवचनात् २ । (अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाणं खतिखमे परिमाणं पालए घीमं) भयम् - अकस्मात् भैरवं सिंहादिभयं तयोर्विषये अचल:- निष्प्रकम्पः तदगोचरत्वात् । परीषहोपसर्गाणां क्षुत्पिपासादि - दिव्यादिभेदात् द्वाविंशति-षोडश विधानां क्षान्त्या -क्षमया क्षमते- न तु असमर्थतया यः सः क्षान्तिक्षमः । प्रतिमानां भद्रादीनाम् एकरात्रिक्यादीनां वा तत्तदभिग्रहविशेषाणां वा पालकः पारगो वा । धीमान् ज्ञानचतुष्टयवान् । (अरतिरतिसहे दविए वीरियसंपन्ने देवेहिं से नाम कयं समणे भगवं महावीरे३) अरतिरत्योः सहः समर्थः तनिग्रहात् । द्रव्यं तत्तद्गुणभाजनं । द्रव्यंभव्यम् इति व्याकरणोक्तेः । रागद्वेषरहितः इति वृद्धाः । वीर्यसम्पन्नः- स्वस्य सिद्धिगमने निश्चितेऽपि तपश्चरणादौ प्रवर्त्तनात् । अत- “महावीर” ३ इति नाम देवैः कृतं । Educatinational तच्चैवम्- 'अह बढइ सो भयवं, दिअलोअचुओ अणोवमसिरीओ । दासीदासपरिवुडो, परिकिण्णो पीढमदेहिं ॥ ७७२ || असिअसिरओ सुनयणो, बिंबोडो धवलदंतपंतीओ । वरपउमग भगोरो, फुल्लुप्पलगंधनीसासो ||७७३|| जाईसरी उ भयवं, अपरिवडिएहिं तिहिं उ नाणेहिं । कंतीए बुद्धीए य, अम्महिओ तेहिं मणुएहिं ॥ ७७४ || अह ऊण अवासो, भयवं कीलइ कुमारएहिं समं । आमलिआखिल्लेणं, लोअपसिद्धेण पुरवाहि ||७७५ || तत्थ य खेड्ढे रुवखं, आरुहियव्वं तु खेलयन रेहिं । एत्थंतरे अ सको, सोहम्मसदाए उबविट्ठो ॥ ७७६ ॥ संतगुणकित्तणयं करेइ वीरस्स अमरमज्झम्मि । धीरत्तगुणविआरो, परगुणगहणंमि तल्लिच्छो ॥ ७७७॥ ॥१९३॥ www.embrary.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावली टीका व्या०५ ABARBAR बालो अबालभावो, अबालपरकमो महावीरो । न हु सको भेसेउं, देवेहि सइंदएहिपि ॥७७८। तं वयणं सोऊणं, मिच्छदिट्ठी उ अह सुरो एगो । चिंतइ माणुसमित्तं, तत्थवि सिसुभावमावन्नं ॥७७९।। देवेहिं वि नो तरइ भेसेउ, सद्दहामि नो एवं । ता गंतु भेसेमी, इअ चिंतिम आगो तत्थ ॥७८०॥ कीलइ जत्थ जिणिंदो, कीलणरुक्खं च वेढइ समंता । कज्जलवण्णं काउं, फणिरूवं दीहरं भीमं ॥७८१॥ तं दळूण पलाणा, भयभीया कीलमाणया कुमरा । सव्वेवि ठिो वीरो, फणिणा विकओ फणाडोवो ॥७८२॥ सो चित्तूग करेणं, उल्लाले उण घल्लिो दूरं । भयरहिएणं जिणेणं, लहु मिलिआ ते पुणो डिम्मा ।।७८३॥ चिंतइ सुरो न भीओ, इत्थं ता अन्नहा पुणो भेसे । एत्थंतरंमि वीरो, तिंदूसय कीलणं कुणइ ॥७८४॥ तेहिं कुमारेहिं समं, सोवि सुरो डिभरूवयं काउं । कीलइ वीरेण सम, जियो अ सो भगवया तत्थ ॥७८५॥ तप्पिट्ठीए वीरो, आरूढो तस्स वाहणनिमित्तं । एसोच्चिय तत्थ, पणो जिअस्स जं पिट्ठिमारुहणं ॥७८६॥ सो वडिउं पयत्तो, वेआलाकारधारओ रुहो । सत्ततलमाणदेहो, संजाओ भेसणहाए ॥७८७॥ जिणनाहेण वि पहओ, पिट्ठीए वज्जकठिणमुट्ठीए । सो आराडि काउं भएण ससगोव्य संकुडिओ ॥७८८॥ पायडियामररूवो, रंजिअहिअओ य पणमइ जिणिदं । भणइ तुहं परमेसर !, धीरत्तं तारिसं चेव ॥७८९॥ जारिसयं सुरवइणा, सुरमज्झे वण्णि ति ता खमसु । मज्झ तुम भेसविओ, परिक्खणत्थं जमेवं ति ॥७९०॥ भुजो भुजो खामिअ, पणमिञ वीरं गओ स सोहम्मं । भयवं पि गिहे चिट्ठइ, विसिटकलाविणोएण । ७९१॥ MECRECE%AAAACAROO ॥१९४|| For Privale & Personal use only fairtelibrary.org Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१९५॥ ABHISHEHR454ॐॐॐॐॐार बालत्तणे वि सूरो, पयइए गुरुपरकमो भयवं । 'वीर'त्ति कयं नाम, सक्केणं तुट्ठचित्तेणं ॥७७१।। इत्यामल कीक्रीडा। (प्राकृतवीरचरित्रे पत्र ३३) (वि. आ.) १८६४. ६५. ६६.६७.६८. (मलयगिरि आ.) ६९. ७०.७१. ७३. अह तं अम्मापियरो, जाणित्ता अहिअ अट्ठवासं तु । कयकोउअलंकार, लेहायरिअस्स उवणिति ।।१८७१।। (७६) तत्र च मातापितरौ, मोहवशाद्विविधमुत्सवं कुरुतः । लग्नादिकव्यवस्थिति-पुरस्सरं परमसन्तुष्ट्या ॥१॥ तथाहि-गजतुरगसमूहैः स्फारकेयूरदारैः, कनकघटितमुद्रा-कुण्डलैः कङ्कणाद्यैः । रुचिरतरदुकूलैः पश्चवर्णैस्तदानीं, स्वजनमुख नरेन्द्राः सक्रियन्ते स्म भक्त्या ॥२॥ तथा-पण्डितयोग्यं नानावस्त्राऽलङ्कारनालिकेरादि । अथ लेखशालिकानां, दानाऽर्थमनेकवस्तूनि ॥३॥ तथाहि-पूगीफलशृङ्गाटक-खर्जरसितोपलास्तथा खण्डा । चारुकुलि चारुबीजा-द्राक्षादिसुखाशिकावृन्दम् ॥४॥ सौवर्णरात्नराजत-मिश्रितलिखनोपकारकारीणि । कमनीयमपीभाजन-लेखनिकापट्टिकादीनि ॥५॥ वाग्देवीप्रतिमाऽर्चा-कृतये मुक्ताफलादिभिः खचितम् । सौवर्णाऽलङ्कारं, कर्पूरप्रभृतिगन्धभरम् ॥६॥ सज्जीकुरुतस्तदन, स्नानं किल कारयन्ति कुलवृद्धाः। तीर्थोदकैः पवित्रः, प्रचुरतरैर्भगवतः पश्चात् ॥७॥ दिव्याऽऽभरणपिलेपन-दुकूलमालाद्यलङ्कृतं वीरम् । सौवर्णशृङ्खलाऽश्चित-करिणि समारोपयन्ति ततः ॥८॥ तदा-शिरसि धरन्ति पवित्र-च्छत्राण्यर्क । सितकर करनिकरप्रभ-चमराणि च वीजयन्ति तथा ॥९॥ છત્રઇનકનિચ્છનનનનનઈ. Jain Educatite national For Private & Personal use only Manibrary.org Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प |किरणान टीका व्या०५ ॥१९६॥ ग्यं यज्ञोपवीतल । निर्मितचावधिनैव, पाटनी BABASAHAASAAAAAAAAEX ददति महादानानि-प्रवराणि च वादयन्ति वाद्यानि । गायन्ति गायना अपि, नृत्यन्ति विचित्रपात्राणि ॥१०॥ इत्यादि महः पूर्व, प्रभुरागात्पण्डिताऽऽश्रयद्वारे। पण्डित परिच्छदोऽपि च, पीठप्रभृतीनि सजयति ॥११॥ सकलक्षितितलविमला-ऽऽखण्डलसमभूपतेर्मया पुत्रः । सविशेपवेषविधिनैव, पाठनीयो विचिन्त्यैवम् ॥१२।। मणिबन्धबाहुवक्षः-कर्णललाटेषु कर्णयोर्मूले । निर्मितचन्दनतिलकः, कुसुमिततिलकोपमः समभूत् ।।१३॥ पर्वाद्युत्सववासर-योग्यं यज्ञोपवीतपर्यन्तम् । परिहितवान् सविशेष, विप्रो विप्रोचितं वेषम् ॥१४॥ अत्राऽन्नरे-वातान्दोलितकेतुवज्जलनिधौ सक्रान्तशीतांशुवत्, प्रोदामद्विपकर्णवन्मृगदृशः स्वाभाविकस्वान्तवत् । मूषोत्तापित हेमवद् ध्रुवमपि प्रौढप्रभावात् प्रभो- राकम्पेन चलाऽचलं समभवद्देवेन्द्रसिंहासनम् ॥१५॥ अथ देवेन्द्रोऽवधिना, प्रभुसम्बन्धं विलोक्य विस्मयतः। सकलत्रिदशसमक्षं, प्रोवाचाऽमृतसदृशवाचा ॥१६! साऽऽने वन्दनमालिका समधुरीकारः सुधायाः स च ब्राहम्याः पाठविधिः स शुनिमगुणाऽऽरोपं सुधादीधितौ । कल्याणे कनकच्छटाप्रकटनं, पावित्र्यसम्पत्तये, शास्त्राऽध्यापनमहतोऽपि यदिदं, यल्लेखशालाकृते ॥१७॥ मातुः पुरो मातुलवर्णनं तत् , लङ्कानगयों लहरीयकं तत् । तत्प्राभृतं लावणमम्बुराशेः, प्रभोः पुरो यद्वचसां विलासः॥१८॥ यतः-अनध्ययनविद्वांसो, निद्रव्यपरमेश्वराः । अनलङ्कारसुभगाः, पान्तु युष्मान् जिनेश्वराः ॥१९॥ अथ विग्रीभूयेन्द्रः, समागतस्तत्र चिन्तयामास । गाम्भीर्यमहो! बाले, यदयं ज्ञानाऽपि न ब्रूते ॥२०॥ यतः-भूतं भावि भविष्यच्च वस्तु सर्व जिनेश्वरः । अनन्तपर्यायोपेत-मावाल्यादपि वेस्यसौ ॥२१॥ ॥१९६। Jain Ed e mnational For Private & Personal use only rinelibrary.org Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१९७॥ AAAAAAAASHRESTHAAHASIRSANER यदि वा-गर्जति शरदिन वर्षति, वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः। नीचो वदति न कुरुते, न वदति साधुः करोत्येव ॥२२॥ असारस्य पदार्थस्य, प्रायेणाऽऽडम्बरो महान् । नहि स्वर्णे ध्वनिस्तादृग, यादृक् कांस्ये प्रजायते ॥२३॥ अथ विप्रोचितपीठे, वीरं संस्थाप्य पृच्छति स्म हरिः। पण्डितसंशयविषयी-भूतानपि शब्दसन्दोहान् ॥२४॥ तथाचाऽऽगमः-सको य तस्समक्खं, भगवंतं आसणे निवेसित्ता । सदस्स लक्खणं पुच्छे, वागरणं अवयवा इंदं ॥७॥ (आ. भा.)॥१८७२ । (वि. आ.) तदा-वेदास्ताँचतुरोऽपि वेत्ति गणितः, ग्रन्थप्रमाणस्मृति-स्तान्यहादशलक्षणानि निखिलाँ-स्तर्कान् ससाहित्यकान् । छन्दोऽलङ्कृतिनाटकान्यपि च य-स्तस्य द्विजातेः पुरो बालोऽसौ किमु वक्ष्यतीति सकलो लोकः स्थितः प्रोन्मुखः।२५। अथ वर्द्धमानकुमरो, भनक्ति पण्डितमनःस्थसन्देहान् । सर्वानपि तदनन्तर-मवदत् स पुरः सुराऽधिपतेः ॥२६॥ आबालकालादपि मामकीनान् , यान् संशयान् कोऽपि निरासयन्न। विभेद ताँस्तानिखिलान् स एष, बालोऽपि भोः! पश्यत चित्रमेतत् । २७।। तदोवाच पुनरपि शचीपतिः--मनुष्यमा शिशुरेष विप्र!, नाऽऽशङ्कनीयो भवता स्वचित्ते । विश्वत्रयीनायक एष वीर-जिनेश्वरो वाङ्मयपारदृश्वा । २८॥ तदनु जैनेन्द्रं व्याकरणं जज्ञे । ततः-शास्त्राण्येतावन्त्यपि, लघुना वीरेण कथमधीतानि । इति जनमानससंशय-विच्छित्त्यै हरिरवोचदिदम् ॥२९॥ | ॥१९॥ For Privale & Personal use only mainelibrary.org Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ १९८॥ यद्वत् सहस्रकरशुभ्रकरप्रदीपा, ज्योतिश्वयैः प्रसृमरैः सहिता सदैव । आगर्भतः सततसर्वगुणस्तथैव, ज्ञानत्रयेण सहितो जिनवर्द्धमानः ॥ ३० ॥ इत्याद्युक्त्वा सस्य, स्थानं गतवान् हरिस्तथैव विभुः । सकलज्ञातक्षत्रिय - परिकलितो निजकसौधमगात् ॥३१॥ इति श्रीवीरकुमारले खशालाकरणम् ॥१०८॥ ['समणस्स णं भगवओ' इत्यादित: 'जसवईइ वा' इत्यन्तम् ] तत्र - ( समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिया कासवगो तेणं) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पिता काश्यपगोत्रः > (तस्स णं तओ नामधिजा एवमा हिज्जेति ) < तस्य त्रीणि नामानि एवं कथ्यन्ते ( तं जहासिद्धत्थेइ वा सिज्जैसे इ वा जससे इ वा) तद्यथा - सिद्धार्थः १ श्रेयांसः २ यशशः ३ (समणस्स भगवओ महावोरस माया वासिट्ठीगोत्तेणं तीसे तभो नामधिना एवमाहिज्जति) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य माता वशिष्ठ गोत्रा तस्याः त्रीणि नामानि एवं कथ्यन्ते ( तंजहा - तिसलाइ वा विदेहदिन्ना इ वा पीइकारिणी इ वा) तद्यथा - त्रिशला १ विदेहदिन्ना २ प्रीतिकारिणी ३ > (समणस्स भगवओ महावीरस्स पितिज्जे सुपासे । जिट्ठे भाया नंदिवद्वणे भगिगो मुदंसणा ) < श्रमगस्य भगवतो महावीरस्य पितृव्यः सुपार्श्वः । वृद्धो भ्राता नन्दिवर्द्धनः । भगिनी सुदर्शना (भारिया जसोआ कोडिन्नागोत्तेणं स्त्री यशोदानाम्नी कौडिन्य गोत्रा । तच्चैवम् -> एवं बालभावाऽतिक्रमेणाऽवाप्तयौवनोऽयं 'भोगसमर्थः' इति विज्ञात भगवत्स्वरूपाभ्यां मातापितृभ्यां प्रशस्ततिथिनक्षत्र Jain Educaternational किरणावली टीका व्या० ५ ।।१९८ ।। alibrary.org Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१९९॥ Recarnar मुहूर्तेषु नरवीरतृपतिसुताया यशोदायाः पाणिग्रहणं कारितः । तया च सह पञ्चविधान् मानुप्यकान् भोगान् भुञ्जानस्य भगवतः पुत्री समभूत् । (समणस्स णं भगवो महावीरस्स धूआ कासवीगोत्तण) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पुत्री काश्यपगोत्रा> (तीसे दो नामधिना एवमाहिज्जंति) <तस्याः द्वे नाम्नी एवं कथ्यन्ते> (तं जहाअणोजा इवा पियदसणा इवा) < तद्यथा-अनोद्या प्रियदर्शना च> सा च प्रवरनरपतिसुतस्य स्वभागिने यस्य जमाले: परिणायिता । तस्यामपि च शेषवतीनाम्नी पुत्री । सा च (समणस्स णं भगवओ महावीरस्स नत्तूई कासवगोत्तेणं) <श्रमणस्य > भगातो <महावीरस्प> नतूई ति दौहित्रीत्यर्थः । काश्यपगोत्रा । (तीसे णं दो नामधिज्जा एवमाहिज्जति) < तस्या द्वे नाम्नी एवं कथयन्ते > (तं जहा-सेसवई वा जसवई वा) < तद्यथा-शेपवती यशोवती च> १०९। [समणे भगवं' इत्यादितः 'एवं वयासी'ति पर्यन्तम्] तत्र- (समणे भगवं महावीरे दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे आलीणे भद्दए विणीए) <श्रमणो भगवान् महायोर:> दक्षः-कलासु । दक्षा-प्रतिज्ञातसिद्धिपारगामितया पदवी प्रतिज्ञा यस्य । प्रतिरूपः-तत्तद्गुणसङ्क्रमणे दर्पणवात् विशिष्टरूपो वा । आलीनः-सर्वगुणैराश्लिष्टः गुप्तेन्द्रियो वा । भद्रका-सरलः भद्रः-वृषभः तद्वद् गच्छति इति भद्रगो वा । भददो वा-सर्वकल्याणदायित्वात् । विनीतः-विनयवान् सुशिक्षितो वा । जितेन्द्रियो वा। यत:-'विनयो हीन्द्रियजप-स्ताकः शास्त्रमर्हति । विनीतस्य हि शास्त्रार्थाः, प्रसीदन्ति ततः श्रियः ॥११॥ एतानि विशेषणानि भोगावस्थायां वर्षद्वयभावसंयतदशां च प्रतीत्य यथासम्भवं योज्यानि । (नाए नायपुत्तेत ५ OGEOGREAK ॥१९९॥ Jain Educ a tional For Private & Personal use only o brary.org Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२००॥ 1 नायकुलचंदे विदेहे विदेहदिन्ने विदेहजचे विदेहसूमाले) (ति) ज्ञातः - प्रख्यातः ज्ञातो वा ज्ञातवंश्यत्वात् । ज्ञातः-सिद्धार्थः तस्य पुत्रः ज्ञातपुत्रः । न च पुत्रमात्रेण काचित् सिद्धिः स्याद् । इत्याह- ज्ञातकुलचन्द्रः । विदेहे इति - विशिष्ट देहः वज्रऋषभ नाराचसंहनन - समचतुरस्रसंस्थानोपेतत्वात् । यद्वा-' दिहक् उपलेपे' विगतो देह:- लेपः अस्मात् निर्लेपः - भोगेष्वपि वैराग्यवत्त्वात् । विदेहदिन्ना - त्रिशला तस्या अपत्यं विदेहदिन्नः । तस्या एव औरस पुत्रत्वाऽभिधानायाsse - ' भीमो भीमसेन' इति न्यायात् विदेहा- त्रिशला तस्यां जाता अर्चा-शरीरं यस्य सविदेहजाऽचः । यद्वा- विदेहःअनङ्गः स यात्यः- पीडयितव्यो यस्य स विदेहयात्यः । विशेषेण दिह्यते-लिप्यते पापैरात्मा अत्र इति विदेह: - गृहवास: तत्रैव सुकुमारी तित्वे तु वत्वात् । (तीसं वासाई विदेहंसि कट्टु अम्मापिऊहिं देवत्तगए हिं) त्रिंशद्वर्षाणि विदेहे गृहवासे कृत्वा स्थित्वा । त्रिंशद्वर्षाणि पुनरेवम् - अष्टाविंशतिवर्षाऽतिक्रमे मातापित्रोः तुर्यं स्वर्ग - माहेन्द्रम् । आचाराङ्गाऽभिप्रायेण तु श्रीपार्श्वनाथोपास कयोः अनशनेन अच्युतं गतयोः । प्रव्रज्याये श्रीवीरो नन्दिवर्द्धनमनुज्ञापितवान्' यदाss ! पूर्णो ममाऽभिग्रहः ततः प्रव्रजामि ' इति । तो भइ जिभाया मम जणणीजणयविरहदुहिअस्स । तुह विरहग्गी सुंदर ! खयंमि खारोमो होइ ||८०८॥ विरक्तात्मा स्वाम्याह-पिअमाइभाइभइणी, भज्जापुत्तत्तणेण सव्वेवि । जीवा जाया बहुसो, जीवस्स उ एगमेगस्स ॥ ८११ ॥ ता कंमि कंमि कीर, पडिबंधो वा कंमि कमि वा नेव । इअ नाऊण महायस !, मा किज्जउ सोगसंतावो ॥ ८१२ ॥ नृपः प्राह - अहमवि जाणामि इमं, किंतु ममं बंधणा न तुर्हति । जीवियभूषण तए, अज्ज विमुकस्स सयराहं ॥ ८१३ ॥ Jain Educational किरणाव टीका व्या० ५ ॥२००॥ library.org Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२०१॥ AASACCUMEACHECECCLES ता मह उवरोहेणं, वासाई दुन्नि चिट्ठसु गिहम्मि । उत्तमपुरिसा दुहियं, दट्टुं करुणायरा हुंति (होन्ति) ॥८१४॥ वीरः एवं होउ नरेसर !, किंतु ममट्ठा न कोइ आरंभो । कायव्यो हं फासुअ-भोअणपाणेण चिहिस्सं ॥८१५।। एवं चिअ पडिवन्ने, चिट्ठइ मुहझाणभावणो वीरो । विसयसुहनिप्पिवासो, दयावरी सव्वजीवेसु ॥८१६॥ (वीरचरित्रे) पत्र ३४-३५॥ ततः समधिकं वर्षद्वयं वस्त्राऽलङ्कारविभूषितोऽपि प्रासुकैषणीयाऽऽहारः शीतोदकमप्यपिबन् भगवान् तस्थिवान् । न च प्रासुकेनाऽपि जलेन सर्वस्नानं कृतवान् । केवलं लोकस्थित्या हस्तपादमुखप्रक्षालनं प्रासकेनैव जलेन चकार । निष्क्रमणमहोत्सवे तु सचित्तोदकेनाऽपि स्नातवान् । ब्रह्मचर्य तु सुविशुद्धं ततःप्रभृति जावजीवमेव परिपालितवाँश्च । इह यदा भगवान् जातः तदानीमेव-'चतुर्दशस्वप्नसूचितो निश्चयेन भावी चक्रवर्ती इति लोकख्यातिमाकर्ण्य स्वस्वमातापितृभिः श्रेणिकचण्डप्रद्योतादयः कुमारा भगवत्पर्युपासनाय प्रेषिताः। भगवति च घोराऽनुष्ठानपरे- नैष चक्रवर्ती' इति स्वस्वगृहं प्रतिजग्मिवांसः । एवं वर्षद्वयाऽन्ते-(गुरुमहत्तरएहिं अन्भणुण्णाए समत्तपइन्ने) गुरुणा-ज्येष्ठभ्रात्रा नन्दिवर्द्धनेन महत्तरकैश्च-राज्यप्रधानैः अभ्यनुज्ञातः-प्रव्रज्याऽर्थ दत्ताऽनुमतिः श्रीवीरः समाप्तप्रतिज्ञ:-'नाई समणो होहं अम्मापिअरंमि जीवंते' (आ. भा. ५९) इति गर्भस्थगृहीताऽभिग्रहस्य अष्टाविंशत्या वर्षः नन्दिवर्द्धनोपरोधाऽभिग्रहस्य च वर्षद्वयेन पारगमनात् (पुणरवि लोगंतिएहिं जीयकप्पिएहिं देवेहिं) पुनरपि इति विशेषद्योतने एकं तावत् समाप्तप्रतिज्ञः, विशेषतश्च-लोकान्तिकदेवैः BAAPAAAAAA - D॥२०॥ Dateibrary.org . JainEduaanemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प. ॥२०२॥ टीका व्या०५ बोधिन' इति गम्यम् तृतीयाया अन्यथाऽनुपपत्तेः। लोकाऽन्ते भवाः लोकाऽन्तिका ब्रह्मलोकवासिन एकान्तसम्यग्दृष्टयः सारस्वताद्या निकायभेदान्नवधा । तद्यथा-सारस्सयमाइच्चा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिआ अव्वाबाहा अग्गिचा चेव रिहा य ॥१८८४।। एए देवनिकाया भयवं बोहिंति जिणवरिंदं तु । सबजगज्जीवहि भयवं तित्थं पवत्तेहि ॥१८८५॥ (वि. आ.) यद्यपि स्वयंसंबुद्धत्वात् तदुपदेशनिरपेक्षो भगवान् तथापि ते देवा जीतकल्पिता:-'जीतम्' अवश्यमाचरणीयं कल्पितं कृतं यैः ते जीतकल्पिताः । जीते वा अवश्यंभावेन कल्प-इतिकर्तव्यता जीतकल्पः स एषामस्ति इति जीतकल्पिकाः | तैः। विभक्तिव्यत्ययात् ते लोकान्तिकाः देवाः (ताहिं इटाहिं जाव वग्गृहिं अणवरयं अभिनंदमाणा य अभिथुव्यमाणा य एवं वयासी) < ताभिः इष्टाभिः यावत् वल्गुभिः> प्राग्वत् व्याख्याताभिः वाग्भिः अनवरतं भगवन्तम् अभिनन्दयन्तः-समृद्धिमन्तम् आचक्षाणाः गम्भीराभिः महाध्वनिभिः अपुनरुताभिः इति व्यक्तम् । <गुणान् कीर्तयन्तः एवं वदन्ति स्म> ॥११॥ ['जय जय नंदा' इत्यादितः 'सई पउंजंति ति पर्यन्तम्] तत्र- (जय जय नंदा! जय जय भदा! भई ते) जयं लभस्त्र सम्भ्रमे द्विवचनं, नन्दति-समृद्धो भवति इति नन्दः तदामन्त्रणं, दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात् । अथवा जय त्वं जगन्नन्द ! । एवं (जय०) नवरं भद्रक:-कल्याणवन् कल्याणकारी वा भद्रं ते भवत्विति शेषः। (जय जय खत्तियवरवसहा ! वुज्झाहि भगवं लोगनाहा ! सयलजगज्जीवहियं CAAAAAAAE ॥२०२॥ Jain E a tional For Privale & Personal Use Only wwwjarmelibrary.org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२०३॥ पवतेहि धम्मतित्थं) हे क्षत्रियेषु वरवृपभ ! स्वं जय बुद्ध्यस्त्र हे भगवन् ! लोकनाथ ! सकलजगज्जीवहितं धर्मप्रधानं तीर्थ प्रवर्त्तय > (हियसुहनिस्से असकरं सव्वलोए सव्वजीवाणं भविस्सइ तिकटुटु जय जय स परंजंति) हितं - पध्यान्नवत् सुखं शर्म शुभं वा कल्याणं निःश्रेयसं मोक्षः तत्करं सर्वस्मिन् लोके ये सर्वजीवाः तेषाम् < भविष्यति इति कृत्वा जय जय शब्द प्रयुञ्जते ॥ १११ ॥ [' पिणं' इत्यादित: ' परिभाइत्ता' इति पर्यन्तम् ] तत्र - (पुविपि णं समणस्स भगवओ महावीरस्स माणुस्सगाओ गिहत्थम्माओ) मनुष्योचिताद् गृहस्थ विवाहादेः पूर्वमपि श्रमणस्य भगवतः < महावीरस्य > (अणुत्तरे आहोइए अप्पडिवाई नाणदंसणे होत्था) अनुत्तरम् - अभ्यन्तराऽवधिसद्भावात् सर्वोत्कृष्टम् । आभोगिकम् - आभोगप्रयोजनम् । अप्रतिपाति- अनिवर्त्तकम् आकेवलोत्पत्तेः । अवधिज्ञानम् अवधिदर्शनं चाssसीत् । तच्च परमावधेः किञ्चिदूनं [' अहोहिए 'ति क्वचित् तत्र - अधोsaधिः - अधःपरिच्छेद बहुलोऽभ्यन्तरोऽवधिः इत्यर्थः ] तथा च चूर्णि :- 'अहोहिअ 'त्ति अद्भुतरोहोहि । अत एव - ""नेरइयदेवतित्थंकराय ओहिस्स बाहिरा हुंति । पासंति सव्वओ खलु, सेसा देसेण पासंति "त्ति ॥ ६६ ॥ ( आव. मलय . ) ] (तए णं समणे भगवं महावीरे तेणं अणुत्तरेण आहोइएणं नाणदंसणेणं) < ततः श्रमणो भगवान् महावीरः तेन अनुत्तरेण उपयोगप्रधानेन ज्ञानदर्शनेन (अपणो निक्खमणकालं आभोएइ) <स्वकीयं दीक्षाकालम् > आभोगयति - विलोकयति (आभोत्ता ) <विलोक्य > (चिचा हिरण्णं चिचा सुवण्णं चिचा धणं चिचा रज्जं Jain Education national ॥२०३॥ library.org Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर्क टीका व्या०५ ॥२०४॥ NEHASHASRASHAHAR ASॐ चिच्चा रटुं) [हिरण्यादि व्याख्या प्राग्वत् ] < त्यक्त्वा हिरण्यं त्यक्त्वा सुवर्ण त्यक्त्वा धनं त्यक्त्वा राज्यं त्यक्त्वा राष्ट्र> (एवं यलं वाहणं कोसं कोडागारं चिच्चा पुरं चिच्चा अंतेउरं चिच्चा जण वयं) < एवं बलं वाहन कोश कोष्ठागारं त्यक्त्वा पुरं त्यक्त्वा अन्तःपुरं त्यक्त्वा लोकंर (चिच्चा विपुल-धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-माइअं संतसारसावइज्जं विछडइत्ता विगोवइता) <त्यक्त्वा विस्तीर्ण धनं कनकं रत्नानि मणयः मुक्ताफलानि शंखाः शिलाः प्रवालानि रक्तरत्नानि आदिकं विद्यमानं प्रधानद्रव्यं > विच्छद्य-विशेषेण त्यक्त्वा दीक्षामहिमकरणतो । विच्छर्दवद्वा कृत्वा विच्छदः-विस्तारः। तथा तदेव गुप्तं सत् विगोप्य-प्रकाशीकृत्य दानाऽतिशयात् । अथवा 'गुपिः कुत्सने कुत्सनीयमेतद् अस्थिरत्वाद इति उक्त्वा (दाणं दायारेहिं परिभाइत्ता) दीयते इति दान-धनं दायाय-दानाऽर्थम् आ ऋच्छन्तीति अचि दायारा:-याचकाः तेभ्यो-दानाऽहेभ्यः परिभाज्य-विभागेन दत्त्वा परिभाव्य वाआलोच्य-"एतेभ्य इदमिदं दातव्यम्' इति । अथवा दातृभिः-स्वनियुक्तनृभिः दानं परिभाज्य-दापयित्वा (दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता) दाय:-भागोऽस्ति एषां दायिकाः-गोत्रिका: तेभ्यो दान-धनं विभागं परिभाज्य-विभागशो दत्त्वा शीतत्राणपटी न चाऽग्निशकटी नास्ति द्वितीया पटी, भोज्ये क्षिप्रचटी न चाऽमृतघटी शाके न रम्या वटी। निर्वाता न कुटी प्रिया न गुमटी भूमौ निघृष्टा कटी, श्रीमद्वीर ! तब प्रसादकरटी भिद्यान् ममाऽऽपत्तटी ॥१॥ एवं च दानविधानं कदा? कियत् कालं? किं प्रमाण ? किं निर्घोषपुरस्परं च ? इत्यादि आवश्यकनियुक्त्यादेवगन्तव्यम् । तद्यथा BREABASAHARI VIR०४॥ Sain Education sational For Privale & Personal use only WMF ebrary.org Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२०५॥ क. कि. १८ કર 'स्वच्छरण होही अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदाणं, तो अत्यसंपयाणं पवत्तर पुत्रसूरंमि ॥ ८१६॥ एगा हिरण कोडी, अट्ठे अगूगगा सयसहस्सा । खरोदयमाईअं दिज्जइ जा पायरासाओ ||८१७|| वरह वरं वरह वरं, इअ घोसिज्जइ महंतसदेणं । पुरतिअ - चउक्क - चच्चर-रत्था - रायप्पाइ ॥ ८१९ ॥ जो जंवरे तं तस्स, दिज्जइ हेमवत्थमाईअं । विअरंति तत्थ तिवसा सकाएसेण सव्र्व्वपि ॥ ८२० || तिन्नेव य कोडिसया, अट्ठासीई अ हुंति कोडीओ । असी च सयसहस्सा एवं संच्छरे दिन्नं' ॥ ८२१ ॥ तत्तद्वार्षिकदानवर्षविरमद् दारिद्र्यदावानलाः सद्यः सज्जितवा जिराजिवसनाऽलङ्कार दुर्लक्ष्यमाः । सम्प्राप्ताः स्वगृहेऽर्थिनः सशपथं प्रत्याययन्तोऽङ्गनाः, स्वामिन् ! षिङ्गजनैः निरुद्धहसितैः के ? यूयमित्युचिरे ॥१॥ 'पुट्ठो अ पुणो भाया जिणेण वीरेण विगयमोहेण । तुह संतिओ हु अवही पुण्णो गिहामि दिरुखमहं ॥। ८२५॥ यह सोहवंदणमालामंचाइमंचरम णिज्जं । कुंडग्गामं नगरं सुरलोअसमं कयं तइया' ॥ ८२७॥ ततो नन्दीवर्धननृपः शक्रादयश्च प्रत्येकमष्टो तर सहस्र सुवर्णमय-रूप्यमय-मणिमय-सुवर्णरूप्यमय- सुवर्णमणिमय-रूप्यमणिमय- सुवर्णरूप्यमणिमय-मृन्मय कलशादिनिष्क्रमणाऽभिषेकसामग्रीं कारयन्ति । ततः अच्युतेन्द्राद्यैश्चतुःषष्ट्या सुरेन्द्रैः अभिषेके कृते अच्युताद्याभियोगिक सुरकृता सौवर्णादिकलशाः श्रीनन्दीवर्धन कारिते सौवर्णादिकलशेषु दिव्याऽनुभावतः प्रविष्टाः । ततस्ते अधिकतरं शोभितवन्तः । ततः श्रीनन्दीवर्धनो राजा सामिनं सिंहासने पूर्वाभिमुखं Jain Educational ॥२०५॥ brary.org Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावल टीका ५ व्या० श्रीकल्प- निवेश्य देवाऽऽनीतक्षीरोदसमुद्रादिनीरैः सर्वतीथमृत्तिकाभिः सर्वकषायैश्चाऽभिषेकं करोति । इन्द्राश्च सर्वेऽपि भृङ्गाराऽऽदर्शादि ॥ हस्ता 'जय जय' शब्दं प्रयुञ्जानाः स्वामिनः पुरतः तिष्ठन्ति । ॥२०६॥ ततः-'सुरचंदणाणुलित्तो, सुरतरुवर कुसुममालचिंचइओ । सिअवस्थपाउअंगो जस्स य मूल्लं सयसहस्सं ॥८३१।। भासुरकिरीडमउडो, हारविरायंतकंठवच्छयलो । केऊरकडयमंडिअभुदंडो कुंडलाहरणो' ॥८३२॥ ततः श्रीनन्दीवर्धनाऽऽदिष्टाः कौटुम्बिकपुरुषाः अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टां मणिकनकविचित्रां पश्चाशद्धनुरायतां पञ्चविंशतिधनुर्विस्तीणां पत्रिंशद्धनुरुच्चां चन्द्रप्रभाऽभिधां शिविकामुपस्थापयन्ति । ततो देवा अपि । परं देवाऽऽनीतशिबिका ला श्रीनन्दीवर्धनाऽऽनीतशिबिकायामेव दिव्याऽनुभावतः प्रविष्टाः । ततः सा अतीव शोभितवती ॥११२।। ['तेणं कालेणं' इत्यादितः ‘एवं वयासी'ति पर्यन्तम्] तत्र- (तेणं कालेण तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे) <तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीर:> (जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहले) <यः सः हिमतौं प्रथमो मासः, प्रथमः पक्ष: मार्गशीर्षकृष्णपक्ष:> (तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खणं) ततः प्रभुः तस्य > मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तिथौ (पाईणगामिणीए छायाए पोरिसीए अभिनिवडाए पमाणपत्ताए) पूर्वदिग्गामिन्यां छायायां पाश्चात्यपौरुष्यां प्रमाणप्राप्तायाम् अभिनित्तायां-जातायां (सुब्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहत्तणं चंदप्पभाए सीआए) सुव्रताख्ये दिवसे BARBIBARBASNETISAE HEATERESEART ॥२०६॥ Jain Ed e rational For Privale & Personal Use Only ४ Inglibrary.org Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२०७॥ **** विजयाख्ये मुहर्ने हस्तोत्तरानक्षत्रे कृतषष्ठतपाः विशुद्धद्यमानलेश्याकः सर्वाऽऽभरणभूषितःप्रलम्बवनमाल: परिहितश्वेतकनकखचितान्तप्रदेश-लक्षमूल्यनासानिःश्वासवातवाह्यसुकुमारतरवस्त्रः पूर्वोक्तायां शिबिकायामारुह्य पूर्वाभिमुखं सिंहासने निषीदति । प्रभोः दक्षिणतः कुलमहत्तरिका हंसलक्षणं पटशाटकमादाय, वामपार्श्वे प्रभोरम्बधात्री उपकरणमादाय, पृष्ठे च वरतरुणी स्फारशृङ्गारा धवलाऽऽतपत्रम् , ईशानकोणे चैका प्रतिपूर्ण भृङ्गारम् , आग्नेयकोणे त्वेका कनकदण्डमणिविचित्रतालवृन्तमादाय | भद्रासने निपीदति । ततः श्रीनन्दीवर्धनाऽऽदिष्टा हृष्टाः पुरुषा यावच्छिबिकानुत्पाटयन्ति । अत्रान्तरे-शकः शिबिकाया दाक्षिणात्यामुपरितनी बाहाम् , ईशानेन्द्र उत्तराहामुपरितनी बाहां, चमरेन्द्रो दाक्षिणात्यामधस्तनी बाहां, बलीन्द्र उत्तराहामधस्तनी बाहां। शेषा भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकेन्द्रा यथाई शिबिकामुत्पाटयन्ति । ततः शक्रेशानवर्जाः तामुद्वहन्ति । शक्रेशानौ तु चामराभ्यां वीजयतः। यतः-'सिंहासणे णिसणो, सक्कीसाणा य दोहिं पासेहिं । वीयंति चामरेहिं मणिकणगविचित्तदंडेहिं ॥१८९५॥ पुब्धि उक्खित्ता माणु-सेहिं सा हट्ठरोमकूवेहिं । पच्छा वहति सीयं असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥१८९६॥ चल चवलभूसणभरा, सच्छंदविउविआभरणधारी। देविंद-दाणविंदा, वहंति सीयं जिणिदस्स ॥१८९७।। कुसुमाणि पंचवण्णाणि, उर्थता दुंदुही अ ताडता । देवगणा य पहट्ठा, समंतओ उच्छुकं गयणं ॥१८९८॥ वणसंडोव्य कुसुमिओ, पउमसरो वा जदा सरयकाले । सोहइ कुसुमभरेणं, इअ गयणयलं सुरगणेहिं १९०१॥ ॥२०७। One Sain Educ a tional For Privale & Personal Use Only D elibrary.org Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका व्या०। ॥२०८॥ AAAAAAGEAAAAA अयसिवणं व कुसुमिश्र, कणिआरवणं चंपगवणं च । तिलगवणं वा कुसुमिअं, इअ गयणयलं सुरगणेहि ॥१९०३॥ जाव य कुंडग्गामो, जाव य देवाण भवण-आवासा । देवेहि य देवीहि य अविरहिअं संचरंतेहिं ॥१८८९॥ वरपडहभेरिझल्लरि-दुंदुहि संखसहिएहिं तूरेहिं । धरणियले गयणयले तूरनिनाओ परमरम्मो' ॥१९०४॥ (वि. आ.) व्यवसायान् व्यापारांश्च, मुक्त्वा द्रष्टुं ययुनराः। स्त्रियो निज निजं कर्म, त्यक्त्वाऽगुः कौतुकोत्सुकाः ॥१॥ श्रुत्वा वाद्यौघनि?णं, खियोऽभवन् सुविहलाः। [यतः-स्त्रीणां षड् वस्तूनि प्रायस्त्वतिवल्लभानि सहजगुणानि-'कलिकज्जलसिंदुरं तूरं दुग्धं च जामाता इति चक्रुर्नानाविधाश्चेष्टाः सर्वेषां विस्मयप्रदाः ॥२॥ यथा-कस्तूर्या नयनयुग, गण्डौ किल कज्जलेन काश्चिकया । कण्ठं हारेण कटिं, करकमलं नूपुरेण तथा ॥३॥ कङ्कणकाभ्यां क्रमणौ, चलनतलं चन्दनद्रवैर्भव्यैः । सदलक्तरसेन वपु-विभूषयन्ति स्म विस्मयतः॥४॥ तथा-ग्रहणं रुदतां पथि, परबालानां निजकसम्भ्रमाचक्रुः । घाटपटीशाटकयोर्विपरीततया च परिधानम् ॥५॥ शिथिलपरिधानबन्ध, गाढे कर्तुं न शक्नुवत्यस्ताः । वातोड्डीनशिरोंशुक-वधुजनोऽजनि कुमारीव ॥६॥ काश्चित्कृतार्धतिलका, काश्चित्कणकभूषणाः काश्चित् । प्रक्षालितैकचरणा, एकाञ्जितलोचना अपि च ॥७॥ काश्चिदपि भोजनादा-चविहितशौचा विचित्रचित्रण । बाहेकदेशपरिहित-कठचुक्यः कौतुकादीयुः ॥८॥ PERMISCRECECTECRECECACAGE ॥२०८ Jain Educ a tional Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२०९॥ तथा-भगवति शिविकाऽऽरूढे प्रवज्यायै गन्तुं प्रवृत्ते तत्प्रथमतया सर्वात्मना रत्नमयानि अष्टौ मङ्गलानि पुरतः क्रमेण प्रस्थितानि, तद्यथा-स्वस्तिकः श्रीवत्सः नन्द्यावतः वर्धमानकं भद्रासनं कलशः मत्स्ययुग्मं दर्पणश्च । ततः क्रमेण-पूर्णकलशभृङ्गारचामराणि, ततः-महती वैजयन्ती, ततः-वैडूर्यदण्डस्थं विमलातपत्रं, ततः-मणिकनकमयं सपादपीठं सिंहासन, तत:-अष्टशतमारोहरहितं वरतुरगाणां, ततः-अष्टशतं वरकुञ्जराणां, ततः-अष्टशतं सघण्टानां सपताकानां सनन्दीघोषाणाम् अनेकप्रहरणाऽऽवरणसम्भृतानां रथानां, ततः-अष्टशतं वरपुरुषाणां, तत:-हयाऽनीकं, तत:-गजाऽनीकं, तत:-रथाऽनीकं, ततः-पदात्यनीकं, ततः-लघुपताकासहस्रमण्डितो योजनसहस्रोच्छ्यो महेन्द्रध्वजः, ततः-खड्गग्राहाः कुन्तग्राहाः पीठफलकग्राहाः, तत:-हासकारका नर्मकारकाच, ततः-कान्दर्पिकाः 'जय जय' शब्दं प्रयुञ्जानाः, तदनन्तरं बहव उग्राः भोगाः राजन्याः क्षत्रियाः तलवरा माडम्बिकाः कौटुम्बिकाः श्रेष्ठिनः सार्थवाहाः देवा देव्यश्च सामिनः पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतो व्यवस्थिताः सम्प्रस्थिताः। तदनन्तरम्--(सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे) सदेवमनुजाऽसुरया-स्वर्गमर्त्यपातालवासिन्या पर्षदा-जनसमुदायेन समनुगम्यमानम्-अनुव्रज्यमानं भगवन्तम् अग्रे-अग्रतश्च (संखिअचकिअ-लंगुलिय-मुहमंगलिय-वद्वमाण-पूसमाण-घंटियगणेहिं)त्ति शासिकाद्यैः परिवृतं । तत्र-शानिका:-चन्दनगर्भशङ्कहस्ताः मङ्गलकारिणः शङ्कवादका वा, चाक्रिका:-चक्रप्रहरणाः कुम्भकारतैलिकादयो वा, लाङ्गलिका-गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलाकारधारिणो भट्ट विशेषाः कर्षका वा, मुखमाङ्गलिकाः-मुखे मङ्गलं येषां ते चाटुकारिण इत्यर्थः, वर्धमानाः-स्कन्धाऽऽरोपितपुरुषाः, पुष्यमाणा-मागधा मान्या वा, घण्टया चरन्ति इति घाण्टिका 'राउलिया' इति रूढाः HEREHRESHARIREX 43 ॥२०९॥ t ional www Jain Educa rary.org Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावल टीका व्या०५ ॥२१॥ तेषां गणैः 'वडिअगणेहिं त्ति क्वचित् तत्र खण्ड कगणाः-छात्रसमुदायाः) (ताहिं इट्टाहिं जाव वग्गूर्हि अभिणंदमाणा अभिथुव्यमाणा य एवं वयासी) ताभिः इष्टाभिः इत्यादिविशेषणोपेताभिः वाग्भिः अभिनन्दन्तः अभिष्टुवन्तश्च प्रक्रमात् कुलमहत्तरादिस्वजना एवम् अवादिषुः ॥११३॥ ["जय जय नंदा!' इत्यादितः 'सई पउंतित्ति पयन्तम् ] तत्र- (जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते) ['जय' इत्यादि प्राग्वत् ] < जय समृद्धो भव, जय त्वं कल्याणवन् ! भद्रं ते भवतु > (अभग्गेहिं नाणदसणचरित्तेहिं अजियाइं जिणाहि इंदियाई)त्ति अभग्नैः-निरतिचारैः ज्ञानदर्शनचारिौ: उपलक्षितः त्वम् अजितानि अजेयानि वा जय-वशीकुरु इन्द्रियाणि-श्रोत्रादीनि (जिअं च पालेहि समणधम्म) जितं च-सात्म्यापन्नं पालय श्रमणधर्म-क्षान्त्यादिदशलक्षणं (जियविग्यो वि य वसाह तं देव ! सिद्धिमज्झे) जितविघ्नोऽपि च त्वं हे देव ! वस-निवस सिद्धिमध्ये अपि-चेति समुच्चये । अत्र 'सिद्धि'शब्देन श्रमणधर्मस्य वशीकारः तस्प मध्यं-लक्षगया प्रकर्षः । तत्र त्वं निरन्तयं तिष्ठ इत्यर्थः। अत एव (निहणाहि रागदोसमल्ले तवेणं धिइधणियबद्ध कच्छे) रागद्वेषमल्लो निजहि-निगृहाण तपसा-बाह्याऽभ्यन्तरेण साधकतमेन धृतौ-सन्तोषे धैर्य वा धणियम्अत्यर्थ बद्ध कक्षः सन् (मद्दाहि अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं) मईय अष्टकर्मशत्रून् । केन कृत्वा ? ध्यानेन । तत्राऽपि आत्तरौद्रनिषेधायाऽऽह-उत् तमसा-तमोऽतीतेन शुक्लेन-शुक्लाऽऽख्येन । (अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागे च वीर ! तेलुकरंगमज्झे) अप्रमत्तः प्रमादरहितः सन् गृहाण आराधनापताकां वीर ! इति भगवदामन्त्रणं %EC% ec% ४॥२१०॥ Jain Eduell national For Privale & Personal Use Only 178brary.org Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२१॥ त्रैलोक्य मेष रङ्ग:-मलाक्षाटकः तन्मव्ये । (पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलवरनाणं) प्राप्नुहि वितिमिरम् अनुत्तरं केवलवरज्ञानं । (गच्छ य नुस्ख परं पयं जिणवरोवइटेणं मग्गेणं अकुडिलेणं हंता परीसहचम) गच्छ च मोक्षं परं पदं जिनपरोपदिष्टेन-ऋषभादिजिनोक्तेन मार्गेण-रत्नत्रयलक्षणेन अकुटिलेन-कपायविषयादिकौटिल्यपरिहारात अक्षेपेण मोक्षप्रापकत्वाच्च सरलेन हत्या परीपहच{ (जय जय खत्तिअवरवमहा!) जय क्षत्रियवरवृषभ ! जात्यक्षत्रियो हि परचमं हनि (वहुई दिवसाई यहई पक्खाई बहई मासाई बहई उऊई बहई अयणाई बढ़ाई संवच्छराई) <बहुन् दिवसान् बहुन् पक्षान् बहुन मासान् बहून् > कृतवः-द्विमासा हेमन्ताद्याः < बहूनि > अयनानिषण्मासानि दक्षिणाऽयनोत्तराऽयणरूपाणि बहुन् संवत्सरान् > (अभीए परीसहोवसग्गाणं खतिखमे भयभेरवाण) अभीतः परीपहोपसर्गेभ्यः । भयभैरवाणां-भैरव भयानां क्षान्तिक्षम:-क्षान्त्या क्षमः न बसामर्थ्यादिना । [क्वचित् 'अभिभविअगामकंटके' त्ति तत्र ग्राम कण्टकान-इन्द्रियग्रामप्रतिकूलान् दुर्वाक्यजल्पनपरादीन् अभिभूय-अपकर्ण्य] (धम्मे ते अविग्धं भवउ तिकट्टु जय जय सई पउंजंति) धर्म-प्रस्तुतसंयमे ते-तब अविघ्नं-निर्विघ्नता भवतु इतिकृत्वा इत्युच्चार्य जयजयशब्दं प्रयुञ्जते स्वजना एव ॥११४॥ [तए पं' इत्यादितः 'तेणेव उवागच्छइ'त्ति पर्यन्तम्] तत्र- (तए णं समणे भगवं महावोरे) < ततः श्रमणो भगवान् महावीर:> (नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिजमाणे पिच्छिन्नमाणे) नयनमाला:-श्रेणिस्थितजननेत्रपतयः तासां सहस्रैः, एवमग्रेऽपि रप्रेक्ष्यमाणः २> । (बयण Jain Educa t ional For Private & Personal use only walaManorary.org Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२१२॥ IFRESEARCRECRECORREC मालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे) वदनानि वचनानि वा ८ तेषां मालासहस्रैः> अभिष्ट्रयमानः २। किरणाव (हिययमालासहस्सेहिं उन्नंदिज्जमाणे उन्नंदिजमाणे) हृदयमालासहः-जनसमूहसत्कैः उन्नन्द्यमानः २-उत् टीका व्या० प्राबल्येन समृद्धिमुपनीयमानः 'जय जीव नन्द !' इत्यादि पर्यालोचनादिति भावः [क्वचित् 'उन्मइजमाणे'त्ति तत्र-उन्नती- II क्रियमाणः-उन्नति प्राप्यमाणः] (मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे) ति मनोरथमालासहस्रःएतस्याऽऽज्ञाविधायिनो भवाम इत्यादिभिः जनविकल्पैः विशेषेण स्पृश्यमानः २ । (कंतिरूवगुणेहिं पत्थिजमाणे पस्थिजमाणे) कान्तिरूपगुणैः हेतुभूतैः प्रार्थ्यमानः २-भर्तृतया स्वामितया वा स्त्रीपुरुषजनेनाऽभिलष्यमाणाः (अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे दाइजमाणे) त्ति र अगुलिमालासहस्रः> दर्यमानः २, (दाहिणहत्थेणं बहणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे) <दक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणां नमस्कारसहस्राणि > प्रतीच्छन् २-गृह्णन् २, (भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे) < गृहश्रेणिसहस्राणि> समतिक्रामन् २-उल्लङ्घयन् , (तंतीतलतालतुडिय-गीयवाइअरवेणं) तन्त्र्यादीनां त्रुटिकान्तानां प्रागुक्तार्थानां गीते-गीतमध्ये यद्वादितं-वादनं तेन यो रवः-शब्दः तेन (महरेण य मणहरेणं जयजयसद्दघोसमीसिएणं मंजुमंजुणा घोसेग य पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे) मधुरेण-मधुवर्षिणा मनोहरेण-मनोऽभिरामेण जगजयशब्दघोपमिश्रितेन-जयजयशब्दोच्चारणमिश्रितेन मन्जुमजुना-न ज्ञायते कोऽपि किमपि जल्पतीति अतिकोमलेन वा घोषेण च लोकानां स्वरेण च प्रतिबुद्ध्यमानः २-सावधानीभवन् [क्वचित् 'आपडिपुच्छमाणे'त्ति तत्र-आ प्रति 13॥२१: Jain Educ a tional For Privale & Personal Use Only www3bary.org Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E ॥२१३॥ -ESE%E4%EE%E34 ---- पृच्छन्-प्रश्नयन् प्रणमतां सुखादिवार्ता] (सव्वड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं सव्ववाहणेणं सव्वसमुदएणं) सर्वद्धा-समस्तछत्रादिराजचिह्नरूपया, सर्वद्यत्या-आभरणादिसम्बन्धिन्या <कान्त्या> सर्वयुत्या वा उचितेष्टवस्तुघटनादिरूपया, सर्वबलेन-हस्त्यश्वादिरूपकटकेन, सर्ववाहनेन-करभवेगसरशिबिकादिना । सर्वसमुदयेन-पौरादिमेलापकेन । (सव्वायरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सब्यसंभमेणं सव्वसंगमेणं सधपगइएहिं) सर्वाऽऽदरेण-सौचित्यकरणरूपेण । सर्वविभूत्या-सर्वसम्पदा । सर्वविभूषया--समस्तशोभया। सर्वसम्भ्रमेण-प्रमोदकृतौत्सुक्येन, सर्वसङ्गमेनसर्वस्वजनमेलापकेन, सर्वप्रकृतिभि:-अष्टादशनैगमादिनगरवास्तव्यप्रकृतिभिः । (सव्वनाडएहिं सव्वतालायरेहिं सव्वावरोहेणं सन्च-पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-विभूसाए सव्वतुडिय-सद्द-निनाएणं) सर्वनाटकैः [इत्यादिसुगमम्] < सर्वतालाचरैः सर्वाऽन्तःपुरेण सर्वपुष्पगन्धमाल्याऽलङ्कारशोभया> सर्वतूर्यशब्दानां मीलने यः सङ्गतो निनाद:महाघोषः तेन । अल्पेष्वपि ऋद्धयादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिदृष्टा इति आह-(महया इडीए) [इत्यादि प्राग्वत् ] (महया जुईए महया बलेणं महया वाहणेणं महया समुदएणं महया वरतुडिय-जमगसमगप्पवाइएणं) <महत्या ऋद्ध्या, महत्या द्युत्या युत्या वा, महता बलेन, महता वाहनेन, महता समुदयेन, महता परतूर्याणां यमकसमकं प्रवादितं तेन > (संख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हडक-दुंदुहि-निग्घोस-नाइयरवेणं) < शकः मृत्पट हः काष्ठपटहः ढक्का-झल्लरी-काहला-हुडुक्का-दुन्दुभिः एषां निर्घोषः प्रतिशब्दः तेन > (कुंडपुरं नगरं मज्झं मज्झेण निग्गच्छइ) एवं क्षत्रियकुण्डपुरमध्येन भवनपङ्क्तिसहस्राणि समतिक्रामतो भगवतः पृष्ठौ हस्तिस्कन्धारूढः सकोरिण्टमाल्यदाम्ना धिय AAAAAAAAABAलवर | ॥२१३॥ Jain Educati emational For Private & Personal use only relibrary.org Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प (COM किरणावली टीका व्या०५ ॥२१४॥ माणेन छरेण चामराभ्यां वीज्यमानः चतरङ्गिन्या सेनया परिकलितो नन्दिवर्धनो राजा समनगच्छति । (निग्गच्छित्ता जेणेव नायसंडवणे उजाणे) < निर्गत्य > यावत् <यत्रैव > ज्ञातखण्डवनं < उद्यानं > (जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ) < यत्रैव > अशोकवरपादपो वृक्षः < तत्रैव उपागच्छति > ॥११५॥ ['उवागच्छित्ता' इत्यादितः 'पव्वइए'त्ति पर्यन्तम्] तत्र- (उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सोयं ठावेइ) < उपागत्य > अशोवरपादपस्याऽधः शिविकांकूटाकाराच्छादितां जम्पानविशेषां भगवान् स्थिरीकारयति । (ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ) कारयित्वा च शिबिकातः प्रत्यवरोहति-अवतरति इत्यर्थः । (पच्चोरहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ) < प्रत्यवतीय > स्वयमेव आभरणानि < माल्यालङ्कारान् > उन्मुश्चति-अवतारयति इत्यर्थः। तच्चैवम् मौलेमौलिमपाकरोच्छतियुगात् सत्कुण्डले कण्ठतो, नैष्कं हारमुर स्थलाच्च सहसैबांसद्वयादङ्गदे । पाणिभ्यां विपुले च वीरवलये मुद्रावलीमङ्गुली-वर्गाद् भारमिव प्रशान्तहृदयो वैराग्यरङ्गात् प्रभुः ॥१॥ इति । तानि च आभरणानि कुलमहत्तरिका हंसलक्षणेन पटशाटकेन प्रतीच्छति । प्रतीच्छय च भगवन्तमेवमवादीत्-'इक्खागकुलसमुप्पन्ने सि णं तुम जाया। कासवगुत्ते सिं णं तुमं जाया । उदितोदितनायकुलनयलमिअंक सिद्धत्थजच्चवत्तिअसुते सिणं तुम जाया। जच्चखत्तिआणीए तिसलाए सुए सि णं २२ ॥२१४॥ Jain Educ a tional brary.org Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२१५॥ तुमं जाय । देवनरिंदपहिअकित्ती सिणं तुमं जाया । एत्थ सिग्धं चकमिअव्वं, गरुअं आलंबेअन्वं, असिधारं महत्वयं चरिअव्वं जाया परक्कमिअव्वं जाया अस्सि च णं अठे नो पमाइअव्वं अणवरयपडतं सुपायनंदिवद्भणपमुह सयण वग्गसमेआ अंसूणि विणिम्मुअंता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एगते अवक्कमंति' । (ओमुहत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ) ततो भगवान् अवतार्य स्वयमेव > एका मुष्टया कूर्चस्य चतसृभिस्तु शिरस इति पञ्च मौष्टिकं लोचं करोति । (करिता छणं भत्तेणं अपाण एणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) <कला > शक्रश्च हंसलक्षणेन पटशाटकेन केशान् प्रतीच्छय क्षीरोदसमुद्रे प्रवाहयति । ततः पष्ठेन भक्तेन अपानकेन -पानीयरहितेन उत्तराफाल्गुनीभिः चन्द्रयोगे सति > ततश्च "दिव्य मणुस्सघोसो तूरनिनाओ अ सक्कवयणेणं । खिप्पामेव निलुको जाहे पडिवज्जइ चरितं ॥१९०८ ॥ काऊण नमोकारं सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिण्हे । 'सव्वं मेकरणिज्जं पार्वति चरितमारूढो " ।। १९०९ ॥ सामी च सामायिकं कुर्वन्- 'करेमि सामाइअं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' इत्यादि उच्चरति न तु 'भंते 'ति तथाकल्पत्वात् । एवमागमोक्तविधिना (एगं देवद्समादाय) इन्द्रेण वामस्कन्धेऽर्पितं दिव्यवस्त्रविशेषम् आदाय (एगे अबीए मुंडे भविता अगाराओ अणगारिथं पव्वइए) एको - रागद्वेषसहाय विरहात् । अद्वितीय - एकाक्येव, न पुनर्यथा 'ऋषभचतुःसहस्रया राज्ञां मल्लिपार्थौ त्रिभिस्त्रिभिः शतैः । वासुपूज्यः पशत्या । शेषा एकोनविंशतिः सहस्रेण' || Jain Educatiemational ॥ २१५ ॥ library.org Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव टीका व्या । ॥२१६॥ CARROTHERSTARR मुण्डो भूत्वा-द्रव्यतः शिकूर्चलोचनेन । भावतः क्रोधाद्यपनयनेन । अगारात-गृहानिष्क्रम्येतिशेषः। अनगारतांसाधुतां प्रबजितः-गतः। विभक्तिपरिणामाद्वा अनगारतया प्रवजितः-श्रमणीभूतः ॥ "तिहिं नाणेहिं समग्गा तित्थयरा जाव हुँति गिहवासे । पडिवन्नभि चरित्ते चउनाणी जाव छउमस्था ॥८५३।। सक्काईया देवा भयवं तं वंदिउं सपरितोसा । कयनंदीसरर्जत्ता नियनियठाणाई संपत्ता" ॥८५५।। (महावीरचरित्र) ॥११६॥ इति श्रीजैनशासनसौधस्तम्भायमानमहामहोपाध्याय-श्रीधर्मसागरगणिविरचितायां कल्पकिरणावल्यां पञ्चमं व्याख्यानं समाप्तम् ।। SISPIRESCIALLISIS ASABHA ॥२: Sain Educ a tional For Privale & Personal use only library.org Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A २१७॥ AAEEAAAAAAA अथ षष्ठं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ वीरोवि बंधुवग्गं आपुच्छिअ पत्थिओ विहारेण । सोवि अरिसन्नचित्तो वंदिअ वीरं पडिनियत्तो ॥८५६।। बन्धुवर्गोऽपि दृष्टिविषयं यावत् तत्र स्थित्वास्वया विना वीर ! कथं बजामो गृहेऽधुना शून्यवनोपमाने। गोष्ठीसुखं केन सहाऽऽचरामो, भोक्ष्यामहे केन सहाऽथ बन्धो! ॥१॥ सर्वेषु कार्येषु च वीर ! वीरे-त्यामन्त्रणादर्शनतस्तवाऽऽर्य । प्रेमप्रकर्षादभजाम हर्ष, निराश्रयाचाथ कमाश्रयामः ॥२॥ अतिप्रियं बान्धव ! दर्शनं ते, सुधाञ्जनं भावि कदाऽस्मदक्ष्णोः । नीरागचित्तोऽपि कदाचिदस्मान् , स्मरिष्यसि प्रौढगुणाऽभिराम ! ॥३॥ इत्यादि वदन् कष्टेन निवृत्त्य साऽश्रुलोचनः स्वगृहं जगाम । 'सो य भयवं दिव्वेहिं गोसीसाईएहिं चंदणेहिं चुण्णेहिं अवासेहि अ पुप्फेहि अवासिअदेहो निक्खमणभिसेएण य अहिसित्तो । विसेसेण इंदेहिं चंदणाइगंधेण वासिओ । तस्स पाइअस्स चत्तारि साहियमासे गंधो न फिडिओ । अओ से सुरहिगंधेण भमरा बहवे दूराओ वि पुप्फिए कुंदाइवणसंडे चइत्ता दिव्वेहिं गंधेहिं आगरिसिआ भगवओ देहमागम्म विधंति RRIERSTAGE कि.१९॥ ॥२१७॥ २५ Sain E t ernational For Privale & Personal use only Mainelibrary.org Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प.. २१८॥ लाकिरणावली टीका व्या०६ दिवस B के मग्गओ गुमगुमायंता समल्लिति । जया पुण न किंचिवि पाविति तयां आरुसिआ तुडेहिं भिंदिऊण तयं खायंति । जे केई अजिइंदिया पुरिसा ते वि गंधे अग्याइऊण गंधमुच्छिा भयवंतं सुगंधपुडियाइ पत्थेति, तुसिणीए अच्छमाणस्स पडि| लोमे उवसग्गे करिति । तहा इत्थियाओ वि भयवओ देहं सेअमरहि निसाससुगंधमुहं अच्छीणि अनिसग्गेण चेव नीलुप्पलपलासोवमाणि दहूं रयणीइ बहुविहमणुलोममुवसग्गं करिति, तथापि भगवान् मेरुरिव निःप्रकम्प एव । दिवसे मुहुत्ते सेसे, कम्मारगामपवरमणुपत्तो । तत्थ सामी पडिमाई ठिओ अ मिक्कंपो ॥१९११।। गोवनिमित्तं सक्कस्स, आगमो वागरेइ देविंदो । कोल्लाग बहुल छ?स्प, पारणे पयस वसुधारा ॥१९१२॥ गोपः सर्वदिनं हले वृषभान् वाहयित्वा सायं स्वामिसमीपे तान् मुक्त्वा गोदोहाय गृहं गतः। ते तु चरितुं वने गताः । स चाऽऽगतोऽवीक्ष्य स्वामिनमपृच्छत् ? अदत्तोत्तर:-'स्वामी न वेत्ति' इति रात्रौ बने पिलोकते स्म, परं नाऽपश्यत् । रात्रिशेषे स्वयमेवाऽऽगता वृषभाः, सोऽप्यागतो, दृष्ट्वा तान् स्वामिनं प्रति सेव्हकमुत्पाठय धावितः। अवधेरागत्य शक्रेण शिक्षितः। ताहे सको रणइ- भयवं ! तुम्भं उवसग्गबहुलं । अहं बारसवरिसाणि तुम्भं वेयावच्चं करेमि' । ताहे सामिणा भणिअं'नो खलु देविंदा ! एवं भूयं ३ जणं अरहता देविंदाण वा असुरिंदाण वा निस्साए केवलणाणं उप्पाडेंति ३ सिद्धिं वा वच्चंति । अरहंता सएणं उहाणवलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमेणं केवलणाणं उप्पाडेंति ३ सिद्धिं वा वच्चंति ३। ततः 'मारणान्तोपसर्गस्य, वारणार्थ विडोजसा । सिद्धार्थः स्थापितः स्वामि-मातृप्वयव्यन्तरः ॥१॥ ततः-'स्वामी कोल्लाकसन्निवेशे बहुलगृहे सपात्रो धर्मों मया प्रज्ञापनीयः' इति प्रथमपारणकं गृहस्थपात्रे परमान्नेन ॥२१८॥ Jain Ed e rational For Privale & Personal use only HDinibrary.org Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२१९॥ HSSASS कृतवान् । तदा च-चेलोरक्षेपः, गन्धोदकपुष्पवृष्टिः, दुन्दुभिनादः, व्योम्नि 'अहो दानम्' इति घोषणा, वसुधारावृष्टिश्च' इति पञ्चदिव्यानि प्रादुर्भूतानि । "अद्धतेरसकोडी उक्कोसा तत्थ होइ वसुहारा । अद्ध तेरसलक्खा जहनिआ होइ वसुधारा ॥३३२॥ (आ. नि०) विहरन्नथ मोराक-सन्निवेशे प्रभुर्ययौ । प्राज्यदुइज्जन्तकाऽऽख्य-तापसाश्रमशालिनि ॥१॥ पितुर्मित्रं कुलपति-स्तत्र प्रभुमुपस्थितः । पूर्वाऽभ्यासात् स्वामिनाऽपि, तस्मिन् बाहुः प्रसारितः ॥२॥ तस्य प्रार्थनया सामी, तत्रैको रात्रिमाविशत् । स्पेयं वर्षास्वित्यूचे, प्रस्थितं; सः पुनः प्रभुः ॥३॥ नीरागोऽप्युपरोधेन, प्रतिशत्याऽन्यतो ययौ । अष्टौ मासान् बिहत्याऽथ, तत्र वर्षाऽर्थमागमत् ॥४॥ कुलपत्यर्षिते वर्षा, तस्थौ स्वामी तृणौकसि । गावो बहिः तृणाऽनाऽऽप्त्या, वर्षाऽऽरम्भे क्षुधाऽऽतुराः ॥५॥ अधावन् खादितुं वेगात् तापसानां तृणोटजान् । निष्कपास्तापसास्तास्ते-ऽताडपम् यष्टिभिर्भृशम् ॥६॥ ताडितास्तैश्वखादुस्ताः, श्रीवीराऽलङ्कृतोटजम् । स्थितः प्रतिमया स्वामी, नाऽश्नतीस्ता न्यषेधयत् ॥७॥ उटजस्वामिना रावाः, चक्रे कुलपतेः पुरः । प्रभुं सोऽप्यशिपन्नीडं, रक्षन्ति न वयोऽपि किम् ? ॥८॥ अप्रीतिर्मयि सत्येषा, तन्न स्थातुमिहोचितम् । विचिन्स्येति प्रभुः पञ्चा-ऽभिग्रहानग्रहीदिमान् ॥९॥ माऽप्रीतिमद्गृहे वासः, स्थेयं प्रतिमया सदा । न गेहिबिनयः कार्यों, मौनं पाणौ च भोजनम् ॥१०॥ शुचिराकाचतुर्मास्या-अद्धमासादनन्तरम् । प्रावृष्यथाऽस्थिकग्राम, जगाम त्रिजगद्गुरुः ॥११॥ -52397 ॥२१९॥ Jain Education national For Privale & Personal Use Only morary.org Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प %%% किरणाबर टीका व्या०६ ॥२२॥ SASHASHASA ['समणे भगवं' इत्यादितः 'अहियासेइ' ति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणे भगवं महावीरे संवच्छरियं साहियं मास जाव चीवरधारी होत्था) < श्रमणो भगवान् महावीरः मासाऽधिकं वर्ष यावत् वस्त्रधारी अभवत् > साधिकमाससंवत्सरावं देवदृष्याऽर्दै पति ते-दक्षिणवाचालपुगऽऽसनसुवर्णवालुकानदीतटे कण्टके विलग्ने च भगवान् सिंहावलोकनेन तद् अद्राक्षीत-'ममत्वेन' इत्येके । 'स्थण्डिले पतितमस्थण्डिले वा' इत्यन्ये । 'सहसात्कारेण' इत्यपरे । 'शिष्याणां वस्त्रपात्रं सुलभं भावी न वा' इति केचित् । 'भाविस्वसन्तते: कपायबाहुल्यात् कण्टकप्रायता' इति वृद्धवादः । 'कण्टकभूताः तावत् कुपाक्षिकास्ते च वस्त्ररूपस्य प्रवचनस्य सम्पर्कमात्रेण किश्चित् पीडाविधायिनो भविष्यन्ति, परं विप्रेण त्वरितमेव ग्रहणाद वर्षसहस्रद्वयान्ते धर्मदत्तराज्यावसरे विप्रीभूयाऽऽगतः | शक्र एव तत् सम्पर्कनिरासेन प्रवचनपीडां निराकरिष्यति' इति वयम् । कण्टकलग्नत्वादेवोपेक्ष्य निर्ममतया पुनर्न जग्राह ।। तददं च पितृमित्रस्य विप्रस्य प्रागेवाऽर्पितमासीत् । तच्चैवम्-(एत्थन्तरंमि एगो) प्र. पिउणो मित्तं सोमो आजम्मं चेव निद्धणो भट्ठो। धणलाभत्थी पत्तो, आसं काउं निणसयासे ॥८५७॥ सो पुण दाणावसरे, जिणस्स देसंतरं गओ आसि । लाहत्यमेव रडिओ, भज्जाए आगओ संतो ॥८५८॥ एवं जिणेण दिन्नं, सबस्स ढणकए तुमं देसि । तो निल्लक्खण ! अजवि, गंतूण तमेवं मग्गेसु ॥८५९॥ भणियं च तेण भयवं ! दीणो हं दुत्थिो अभग्गो अ । मग्गंतभमंतस्स य, न किंचि मे सामि ! संपडइ ॥८६०॥ किंच-किं किं न कयं को को न पत्थिओ %%% ॥२२०॥ लनबाट Jain Educ tional a HAL rary.org Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२२१॥ ૫ ० (कह कह न नामिअं सीसं) कत्थ कत्थ न य भमिओ । दुब्भरउअरस्स कए किं न कथं जं न कायव्वं ॥ ८६१ ॥ दिन्नं च तर दाणं, सब्बस्स जहिच्छि चिरं कालं । नासि तया इत्थाहं ती सामि ! करेह कारुन्नं ॥ ८६२ ॥ देसु मह किंचि दाणं, सव्वस्स जगस्स तंसि कारुणिओ । इअ विन्नत्तो भयवं करुणेकरसोणुकंपाए ||८६३ ॥ वियर सुरस, अन्नं मह नत्थि किंपि इय भणियं । सो वि गओ पणमित्ता, महापसाओ त्ति तं गहियं ॥ ८६४ || महावीरचरियं (लघु) निःस्पृह भगवान् अनुपयोग्यपि देवेन्द्रोपनीत देवदृष्यं यत् शकलीकृत्य अर्द्ध ब्राह्मणाय दत्तवान् न्यस्तवाँश्च अवशिष्टम् भर्द्ध स्वस्कन्धे तद्- 'भगवत्सन्ततेः वस्त्रपात्रादिषु मूर्च्छासंसूचकम्' इति कश्चित् । कश्चिच्च- 'कालानुभावात् ऋद्धिमानपि न उदारचितेन औचित्यकर्त्ता भविष्यति' इति । अपरस्तु-'भगवतः प्रथम विप्रकुलोत्पन्नत्वेन एवमभिप्रायोऽभूत् ' कथमन्यथा सांवत्सरिकदानदाताऽपि - 'अन्यत् किञ्चिन्मम नास्ति' इति भणित्वाऽपि विद्यमानमपि अखण्डं नाऽदास्यद् इति । ततः - तुम्नागस्सुवणीअं, दसिआकज्जमि तेण सो भणिओ । भमसु जिणमग्गओ, ते खंघाओ पडिस्सइ तमद्धं || ८६५ || Jain Educationational न य पेच्छी सो भयवं, निस्संगो तो तुमं तमाणिज्जा । दोवि अहं तुन्नेउं, अद्धे सगलं करिस्सामि ॥ ८६६ ॥ दीणारसय सहस्सं लही हि तं विकमि तो तुझं । मज्झं च अद्धमद्धं, होही मणिओ इअ गओ सो ||८६७|| वच्चतस्त य पडियं, खंधाओ सुरण्णवालयापुलिणे । वत्थं कंटयलग्गं, घित्तूण य सो दिओ वलिओ ॥ ९६०॥ महावीरचरियं (लघु) ॥२२१॥ Fbrary.org Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टोका व्या०६ ॥२२२॥ ति . ANGREGIR-CICICIPE परं स द्विजो लजया पुनर्मागयितुमशक्नुवन् भगवतः पृष्ठलग्नो वर्ष यावद बभ्राम । पश्चाच्च तेन तदर्दै पतिते गृहीते । भगवान्-(तेण परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए) ति। ततः परं यावज्जीवमचेलको बभूव । पाणिपतग्रहिकः- पाणिपात्रः। स्वामी हि सप्रावरणधर्मस्थापनार्थ देवदूष्यपरिग्रहं चक्रे । तथा प्रथमपारणकं सपात्रधर्मज्ञापनार्थ पात्र एव विहितवान् । ततः'पाणिपात्रः' इति । (समणे भगवं महावीरे साइरेगाई वालसवासाई) <श्रमणो भगवान् महावीरः साधिकानि द्वादशवर्षाणि> (निच्चं वोसहकाए चियत्तदेहे) त्ति । नित्यं-प्रवज्याप्रतिषस्थानन्तरं यावज्जीवं व्युत्सृष्टकाय:-परिकर्मणावर्जनात् त्यक्तदेहः । एवं च अध्वनि विहरति सति भगवति ___ मंदाइणीनदोपुलिणे मधुमित्थचिखिल्ले भगवतो पादेसु चकंकुसाइलक्खणाणि दीसंति । तत्थ पूसो नाम सामुदितो । 8| सो ताणि पासिऊण चिंतेति-एस चकवट्टी गतो एगागो - बच्चामि गं वागरेमि, तो मम एत्तो भोगा भविस्संति । सेवामि णं कुमारत्तणे'। 'सामी वि शृणागस्स संनिवेसस्स बाहिं पडिमाए ठिओ । तत्थ सो सामि पेच्छि ऊण चिंतेति-"अहो मए पलालं अहिन्जिअं । एएहि लक्खणेहि न जुत्तं एतेण समण होउं"। इओ अ सको देवराया ओहिणा पलोएइ-कहिं अज्ज सामी विहरइ । ताहे पेच्छती सामि तं च पूसं । आगतो सामि वंदित्ता भणति-भो पूस ! तुमं लक्खणं न याणसि । एसो अपरिमितलक्षणो । ताहे वष्णेइ लक्खणं अभंतरगं-"गोक्खीरगोरं रुहिरं पसत्थं" सत्यं न होइ अलियं । एस धम्मवरचा. उरंतचकवट्टी देविंदनरिंदपूइओ भविअजणकुमुयाणंदकारओ भविस्सइ' । (आव० नि. गाथा ४७१, हारि० टीकातः) "इअ भणि कण सुरिंदो पूअइ धणकणगरयणरासीहिं । सामुद्दिों पहढे जिणो वि अन्नत्थ विहरइ" ॥१॥ ॥२२२॥ in Edua t ional For Privale & Personal use only OMEOnlibrary.org HO Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२२३॥ (जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्खजोणिआ वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा) ये केऽपि चोपसर्गा उत्पद्यन्ते । तद्यथा-देवकृताः मनुष्यकृताः तिर्यकृताः। कामभोगप्रार्थनारूपा अनुकूलाः। तर्जनाताडनादिरूपा प्रतिकूला:> देवादिकृतोपसर्गसहनं यथा-स्वामी प्रथमचतुर्मासके शूलपाणियक्षाऽऽयतने स्थितः___ 'सो पुण दुट्ठसहावो वासं कस्सइ न देइ रयणीए । सो पुव्वभवे वसहो आसी धणदेववणि यस्स ॥९०६॥ पंचसए सगडाणं, उत्तारेउं नईइ सो तुट्टो । गामस्स बदमाणस्स बाहिं मोतुं गओ वणिओ ९०७॥ पाणिचारिनिमित्तं, दव्वं गामिल्लियाण दाऊणं । तेहि अन किंचि दिन्नं, तण्डाए छुहाए सो मरिउं ॥९०८॥ जाओ अमूलपाणी, रुटो उवरिं च तस्स गामस्स । मारिं विउबिऊणं, निवाइओ बहुजणो तेण ॥२.०९॥ लोगेणं विष्णविओ, तव्ययणेणं च देउलं काउं । तप्पडिमा कारविआ, जत्तं पूअं च कारिति ।।९१०॥ तम्मारिअनण-अट्ठीनियरो दीसह पए पए तत्थ । तो सो 'अद्विअगामु'त्ति लोअमज्झमि विक्खाओ ॥९११॥ तस्सेव बोहणत्यं, भयवं पडिमाइ संठिओ रतिं । तस्साययणेसुच्चिअ, दट्टुं रुट्ठो जिणस्सुवरि ॥९१२॥ उपसग्गिउमाढत्तो, संझार कुणइ भूमिभेकरं । अट्टहाससई मणुअतिरिक्खाण नासणयं ॥९१३॥ तत्तो अ हत्थिरू पिसायरूवं, च नागरूवं च । काउं उवसग्गेइ, खुहइ मणागंपि णो भयवं ॥९१४॥ सिरकन्ननासनह-अच्छिदंतपिठीसु वेभणं कुणइ । इकिक्का जा जीविअ-हरणे अन्नस्स सुसमस्या" ॥९१५॥(महावीरचरियं) । तहावि सामी णो मणागंपि सुहझाणाओ खुहिओ । पच्छा सो पडिवुद्धो सामिणो खामेइ-"खमह भट्टारगा"त्ति । ताहे | ADIERREARRER A ।॥२२ JainEducatordindergat For Private & Personal use only Introrary.org Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका ॥२२४॥ IPI व्या०६ HDA%A9-१ सिद्धत्थो उद्धाइओ भणति-"हो मूलपाणी ! अपत्थिअपत्थिा ! न जाणसि सिद्धत्थरायपुत्तं भगवंतं तित्थगरं । जइ एयं सको जाणति तो ने निधिसयं करेइ"। (आव० हारि०टीकातः) ताहे सो भीतो दुगुणं खामेति । सिद्धत्थो से धम्म कहेइ । तत्थ उपसंतो महिमं करेइ सामिस्स । तत्थ लोगो चिंतेइ-'सो तं देवज्जयं मारित्ता इयाणिं कीलई । तत्थ सामी देसूणे चत्तारि जामे अतीव परिताविओ पभातकाले मुहुत्तमेत्तं निदापमादं गतो। तत्थिमे दस महासुमिणे पासित्ता पडिबुद्धो । तं जहा-तालपिसाओ हओ १, सेअसउणो २, चित्तकोइलो अ ३, दो वि एते पज्जुवासंता दिट्ठा । दामदुगं च सुरहिकुसुममयं ४, गोवग्गो अ पज्जुवासेंतो ५, पउमसरो (विबुहेहिं अलंकिओ) विबुद्धपंको ६, सागरो अ मे णित्थिण्णोत्ति ७, सूरो य पइण्णरस्सिमंडलो उग्गमंतो ८, अंतेहि अ मे माणुसुत्तरो पब्वओ वेदिओ त्ति ९, मंदरं चारूढो मित्ति १० । लोगो पभाए आगतो। उप्पलो इंदसम्मो अ। ते अ अचणि दिवगंधचुण्णपुप्फवासं च पासंति । भट्टारगं च अक्खयसव्वंगं । ताहे सो लोगो सब्बो सामिस्स उकिसीहनायं करेंतो पाएसु पडिओ भणइ-'जहा देवज्जएणं देवो उवसामिओ महिमं पगतो' । उप्पलो वि सानि दट्टुं वंदिअ भणिआइओ-सामी! तुब्भेहिं अंतिमरातीए दस सुमिणा दिट्ठा । देसिमं फलं ति-जो तालपिसाओ हओतमचिरेण मोहणिज्जं उम्मूले हिसि । जो अ सेअसउणो-तं सुकज्झाणं काहिसि । जो वि चित्तकोइलो-तं दुवालसंगं पण्णवेहिसि । गोग्गफलं च-ते चउबिहो समणसमणीसावगसाविगासंघो भविस्सइ । पउमसरा-चउव्विहदेवसंघाओ भविस्सइ । जं च सागरं तिण्णो-तं संसारमुत्तारिहिसि । जो अ सूरो-तमचिरा केवलनाणं ते उप्पन्जिहि त्ति । जं चंतेहि माणुमुत्तरो | वेढिओ-तं ते निम्मलो जसकीतिपयावो सयलतिहुअणे भविस्सइ । जं च मंदरमारूढोसि-तं सीहासणत्थो सदेवमणुआसुराए ख ॥२२॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only Pahlibrary.org Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२२५॥ परिसाए धम्म पण्णवेहिसि ति। दामदुगं पुण न याणामि । सामी भणति हे उप्पल ! जण्णं तुमं न याणसि तण्णं अहं दुविहं-सागाराणगारिश्र धम्म पण्णवेहामि त्ति । ततो उप्पलो वंदित्ता गतो । तत्थ सामी अद्धमासेण खमति । एसो पढमो वासारत्तो । (भाव. हारि० टीकातः नि. गा. ४६३) तत:-स्वामी मोराकसन्निवेशं गतः । तत्र प्रतिमास्थितस्य वीरस्य सत्काराद्यर्थ सिद्धार्थों जनानामतीतादीनि कथयति । स्वामिमहिमानं च दृष्ट्वा प्रद्विष्टेनाऽच्छन्दकेन तृणच्छेदाऽच्छेदविषये प्रश्ने कृते, सिद्धार्थेन-'न छेत्स्यते' इत्युक्ते छेदनोद्यतस्य तस्याऽङ्गुलीः शक्रः चिच्छेद । ततो-रुष्टः सिद्धार्थों जनान् प्रति-'चौरोऽयं' इति उक्तवान् , यतः कर्मकरस्य वीरघोषस्य दशपलिकं वट्टलकं गृहीत्वा खजूरीवृक्षाऽधः स्थापितम्' एकं तावदिदम् । द्वितीयम्-'इन्द्रशर्मण उरणकोऽनेन भक्षितः तदा स्थीनि अद्यापि बदर्या अधो दक्षिणोत्कुरुडिकायां तिष्ठन्ति' । तृतीयं पुनरवाच्यम् । अलं कथनेन । निर्बन्धे कृते-बजत अस्य भार्या कथयिष्यति नाऽहं कथयिष्यामि' इत्युक्ते तैः पृष्टा सा उवाच-'भगिनीपतिरयं लज्जितो विलक्षः। स्वामिनं विजने गत्वा आह-'स्वामिन् ! अहमत्रैव जीवामि । त्वं तु पूज्यः सर्वत्रापि पूज्यसे। ततः स्वामी श्वेताम्ब्यां विहरन् जनैः वार्यमाणोऽपि कनकखलाऽऽख्यतापसाश्रमे चण्डकौशिकसर्पप्रतिबोधायाऽगात् । स हि प्राग्भवे क्षपकः। क्षुल्लकेन आवश्यके पारणाऽर्थगमनजातमण्डूकीविराधनाऽऽलोचनार्थ स्मारितः। क्रुधा क्षुल्लकं हन्तुं धावन् स्तम्भे आस्फल्य मृतो ज्योतिष्केयूत्पन्नः। ततश्च्युतः तत्र आश्रमे पञ्चशततापसाधिपतिः चण्डकौशिको बभूव । तत्राऽपि राजन्यान् स्वाश्रमफलादिगृहानान् वीक्ष्य परशुहस्तो धावन्नवटे पतितः। परशुविद्धः तत्रैव 'चण्डकोशिक' इति । AAAAAAAAAA ॥२२५॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only L wimmjainelibrary.org Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२२६॥ Jain भवनमा ग्विषोऽरिभूत् । स च प्रभुं प्रतिमास्थं दृष्ट्वा कुधा ज्वलन् सूर्य दर्श दर्श त्रिः दृग्ज्वालां मुमोच । तासु विफला 'मद्विषाssक्रान्तोऽयं पतन् मा मां मृद्नीयाद्' इति दष्वा दृष्ट्वा अपक्रामन् गोक्षीरधवलं भगवद् रक्तं वीक्ष्य - 'चण्ड कौशिक ! बुद्ध्यस्व बुद्ध्यस्व' इति प्रभुवचः श्रुत्वा जातिस्मृतिमान् प्रभुं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य प्रपन्नाऽनशनो 'मा अन्यत्र विभीषणा मे दृष्टिः यासीद्' इति तुण्डं विले प्रक्षिप्य स्थितः । घृतविक्रायिकाभिः भक्त्या घृतेन प्रक्षितः । पिपीलिकादिभिः भृशं पीड्यमानः प्रभुदृष्टिसुधावृष्ट्या सिक्तः पक्षाऽन्ते सहस्रारे ययौ । प्रभुरप्यन्यत्र विजहार । उत्तरवाचालायां च नागसेनः स्वामिनं क्षीरेण प्रतिला भितवान् पञ्चदिव्यानि च । ततः श्वेताम्ब्यां प्रदेशी राजा स्वामिनो महिमां कृतवान् । ततः सुरभिपुरं गच्छतः स्वामिनः पञ्चरथैः 'नैयका' गोत्रतः राजानः वन्दितवन्तः । ततः स्वामी सुरभिपुरं गतः । तत्र 'गङ्गा' नाम नदी । 'सिद्धयात्रो' नाविकः । तदा लोके नावमारोहति कौशिकवासितं श्रुत्वा विद्वान् 'खेमिलः' उवाच- 'मरणान्तं विघ्नं प्राप्यं परम् एतन्मुनिप्रभाशन् मोक्ष्यामहे' तदनन्तरं गङ्गोत्तारे नावाऽऽरूढस्य प्रभोः त्रिपृष्ठभवविदारितसिंहजीव सुदंष्ट्र सुरकृतदुर्गात विकुर्वणा - नौमज्जनापसर्ग कम्बल - शम्बलनामानौ नागकुमारौ निवारितवन्तौ । तयोश्च उत्पत्तिरेवम् 'महुराए नगरीए जिणदासो वाणियओ सड्डो साधुदासी साविया । दोहिवि अभिगयाणि परिमाणकडाणि । तेहिं चउपयस्स पच्चक्खाणं गीतं । ततो दिवस देवसितं गोरसं गेण्डंति । तत्थ य एगा आभीरी गोरसं गहाय आगता । सा ता साविया भण्ण-' मा तुमं अन्नत्थ भमाहि । जत्तिअं आणेसि तत्तिअं गेण्हामि एवं तासि संगतं जातं । इमावि गंधपु International किरणावली टीका व्या० ६ ॥२२६॥ Nelibrary.org Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२२७|| डियाई देइ । इमावि कूड़गादि दुई दही वा देइ । एवं तासि दढं सोहितं जातं । अनया तासिं गोवाणं विवाहो जातो । ताहे आभीरी ताणि निमंतेति । ताणि भगंति-'अम्हे बाउलाणि न तरामो गंतु । जं तत्थ जुज्जति-भोषणे कडूगभंडादि वत्थाणि आभरणाणि धृवपुप्फगंधमल्लादि वधुवरस्स तं तेहिं दिन्नं । तेहिं अतीव सोभावितं । लोगेण य सलाहियाणि । तेहिं तुट्टेहिं दो तिवरिसा य गोणपोतगा हट्टसरीरा उवढविआ 'कंबल-संबल'त्ति नामेणं । ताणि णेच्छति । बला बंधिउं गयाणि । ताहे तेण सावएण चिंतियं-'जइ मुच्चीहिति ततो लोआ वाहिति । ता एत्थ चेव अच्छंतु' फासुगचारी किणिऊणं दिज्जति । एवं पोसिज्जंति । सो वि सावओ अट्ठमी-चाउद्दसीसु उववासं करेति पोत्थयं च वाएति । ते वि तं सोऊण भद्दया जाया सणिणो य । जदिवसं सावगो न जेमेति तदिवसं ते विन जेमंति । तस्स य सावगस्स भावो जाओ-जहा इमे भविआ उवसंता' अब्भहिओ अ णेहो जातो। ते रूपस्सिगो। तस्स य सावगस्स मित्तो । तत्थ भंडीरवणजत्ता । तारिसा णस्थि अण्णस्स बइल्ला । ताहे तेण ते भंडीए जोएत्ता नीता अणापुच्छाए । तत्थ अण्णेणवि अण्णेणवि समं धावं कारिता । ताहे छिण्णा तेण ते आणे बद्धा । ण चरंति न य पाणियं पिवंति । जाहे सव्वहा णेच्छंति ताहे सो साओ तेसिं भत्तं पच्चक्खाति णमोकारं च देति, ते कालगया जागकुमारेसु उवण्णा । ओहिं पति जाव पेच्छंति तित्थगरस्स उवसग्गं कीरमाणं । ताहे तेहिं चिंतिअं-'अलाहि ता अण्णेणं, सामि मोरमो' आगता। एगेण नावा गहिता । एगो मुदा ढेण समं जुज्झति । सो महड्डिगो। तस्स पुण चवणकालो। इमे अहुणोक्वण्णया । सो तेहिं पराजिओ। ताहे णागकुमारा तित्थगरस्स महिमं करेति । सत्तं रूवं च गायति । एवं लोगो वि । ततो सामी ओइण्णो। तत्य देवेहिं सुरभिगंधोदयवासं पुप्फवासं च वुटुं UGUAGECRACRECRec ॥२२७॥ ता Lain Education International For Privale & Personal use only foundelibrary.org Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प २४ किरणावरु टीका व्या०६ ॥२२८॥ तेवि पडिगया। (आव० हारि० प. १९८ गाथा ४६९) ततः स्वामी राजगृहे नालन्दायां तन्तुक (तन्त्वाक) शालैकदेशे अनुज्ञाप्य आद्यं मासक्षपणमुपसम्पद्य तस्थौ । तत्र गोशाल आगात् । तस्योत्पत्तिस्त्वेवम् 'मङ्खलि' नामा मङ्खः तस्य 'सुभद्रा' भार्या शरवणविषये गोबहुलद्विजस्य गोशालायां प्रसूत इति 'गोशाल' इति नाम । स च स्वामिनि कूरादिविपुलभोजनविधिना विजयेन प्रतिलाभिते दिव्यकुसुमादि पश्चदिव्यानि निरीक्ष्य 'त्वच्छिष्योऽस्मि' इति स्वामिनमाह । ततो द्वितीयपारणके पक्वान्नादिना 'नन्दः । तृतीये सर्वकामगुणितपरमान्नादिना 'सुनन्द: स्वामिनं प्रतिलाभितवान् । तत:-चतुर्थमासक्षपणके कोल्लाकसग्निवेशं स्वामी प्राप्तः। तत्र 'बहुल' नामा द्विजः पायसं दत्तवान् दिव्यानि च । गोशालस्तु तन्त्वाकशालायां स्वामिनमनुपलभ्य अन्तः बहिश्च राजगृहे गवेषयन् स्त्रोपकरणं द्विजेभ्यो दत्त्वा समुखं शिरो मुण्डयित्वा कोल्लाके भगवन्तं दृष्ट्वा-'त्वत् प्रव्रज्याऽस्तु मम' इति उक्तवान् । ततः स्वामी सगोशाल: 'सुवर्णखल ग्राम याति । अन्तरा च गोपैः महास्थाल्यां पायसं पच्यमानमालोक्य गोशालः स्वामिनं जगाद-'मा गम्यतां भुज्यतेऽत्र' । सिद्धार्थेन च तदभङ्गकथने गोपैः प्रयत्नरक्षिताऽपि पायसस्थाली भग्ना । ततो गोशालेन-'यद् भाव्यं तद् भवत्येव' इति नियतिः स्वीकृता । ततः स्वामी 'ब्राह्मण' ग्राममगात् । तत्र 'नन्दोपनन्द' भ्रातृसम्बन्धिनौ द्वौ पाटकौ । स्वामी नन्दपाटके प्रविष्टः प्रतिलाभितश्च नन्देन । गोशालस्तु उपनन्दगृहे पर्युषिताऽन्नदानाद् रुष्टः-'यद्यस्ति मे धर्माचार्यस्य तपस्तेजः तदा SALAAAAAAAADARA D॥२२८ Sain Educa t ional For Private & Personal use only wimchalcrary.org Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।२२९॥ SMARTIALA अस्य गृहं दह्यताम्' इति । तदनु तद् गृहं ददाह । पश्चात् प्रभुः चम्पायामुपागतः। तत्र-द्विमासक्षपणेन वर्षावासम् अवसत् । चरमद्विमासपारणकं च चम्पाया बहिः कृत्वा कोलाकसन्निवेशं गतः स्थितश्च शून्यगृहे प्रतिमायां । गोशालेन तु तत्रैव 'सीहो' ग्रामणीपुत्रो 'विद्युन्मती' दास्या सह क्रोडन् हसितः कुट्टितश्च तेन । स्वामिनमाह-'अहमे काक्येव कुट्टितो यूयं किं न वारयत?' । सिद्धार्थः प्राह-'पुनमैवं कुर्याः'। ततः-स्वामी पात्रालके प्राप्तः तस्थिवांश्च शून्यागारे । ततः-'स्कन्दः स्वदास्या दत्तिलकया सममगात् । तत्रापि तथैवाऽभवत् । ततः-स्वामी कुमारकं सनिवेशं गत्वा चम्पारमणीयोद्याने प्रतिमयाऽस्थात् । इतश्च श्रीपार्थशिष्यो भूरितराऽन्ते वासिपरिवृतो 'मुनिचन्द्र' मुनिः, तत्रैव 'कूपनय' कुम्भकारशालायां तस्थौ । तत्साधुनिरीक्ष्य गोशालः प्राह- 'के यूयं ? तैरुक्तं-'निग्रन्थाः' । पुनः प्राह का यूयं क्व च मम धर्माचार्यः' तैरुचे-'यादृशस्त्वं तादृशस्त्वद् धर्माचार्योऽपि भविष्यति । ततःरुष्टेनोचे-'मे धर्माचार्यतपसा दह्यतां युष्मदाश्रयः' तैरप्यूवे-'नेयं भीतिरस्माकं' । पश्चात् स आगत्य स्वामिनः सर्वमुवाच । सिद्धार्थोऽवदत्-नैते साधवा दह्यन्ते । रात्रौ जिनकल्पतुलनां कुर्वाणो 'मुनिचन्द्रः प्रतिमास्थो मत्तेन कुम्भकारेण चौरभ्रान्त्या व्यापादितः । उत्पेदे च अवधिज्ञानं जगाम च स्वर्ग। ततः-महिमार्थमायाताऽमरकृतोद्योतमालोक्य-'उपाश्रयो दह्यते अमीषाम्' इति उवाच स्वामिनं गोशालः । सिद्धार्थेन यथावत् कथनेन तत्र गत्वा तच्छिप्यान्निर्भय॑ आयातः । ततः-स्वामी चौरायां गतः। तत्र-'चारिको हेरिको' इति कृत्वा आरक्षका अगडे प्रक्षिपन्तःप्रथमं गोशालः क्षिप्तः । प्रभुस्तु नाऽद्यापि । तावता तत्र-'सोमा-जयन्ती' नाम्न्यौ उत्पलभगिन्यौ संयमाऽक्षमतया परिवाजिकीभूते ज्ञात्वा तमुपसर्गमुपशामयतः। IDIOSHOBHASHRSORRECIPE .कि.२० ॥२२९॥ For Private & Personal use only library.org Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प KORMP किरणावली टीका व्या०६ ततः-प्रभुः पृष्ठचम्पां प्राप्तः । तत्र-वर्णाश्चतुर्मासक्षपणेन अतिवाह्य बहिः पारयित्वा कयंगलसन्निवेशं गतः । तत्र 'दरिद्रस्थविरा' नाम पाखण्डस्थाः तत् पाटकमध्यस्थे देवकुले स्वामिनः प्रतिमास्थितस्य माघमासे हिमवर्षे निपतिते दरिद्रस्थविराः समहिलादिपरिग्रहा जागरदिने गायन्ति | दृष्ट्वा गोशालो जहास । पुनः पुनः तैः त्रिनिर्वासितः । पुनः स्वामिशिष्य इति कृत्वा मुक्तः। ततः-स्वामी श्रावस्त्यां गत्वा बहिः प्रतिमया स्थितः । तत्र सिद्धार्थोक्तमहामांसभोजनपरिहाराय गोशालो वणिग्गेहेषु भिक्षाऽर्थ भ्रमन् 'पितृदत्त' गृहपतिभार्यया निन्द्वा-मृताऽपत्यप्रस्वा 'श्रीभद्रया' 'शिवदत्त' नैमित्तकवाचा स्वाऽपत्यजीवनाय गर्भमांसमिश्रं पायसं भोजितः, अग्निभयाच्च अन्यतो गृहद्वारं चक्रे । आगतेन सिद्धार्थोक्ताऽप्रत्यये पायसवमने कृते नखवालादि दृष्ट्वा रुष्टेन तद्गृहं गवेषयताऽपि न दृष्टं । ततः-स्वामीतपसा पाटकोऽपि ज्वालितः । ततः-स्वामी बहिः 'हरिद्र' संनिवेशात् 'हरिद्र' वृक्षस्याऽघोऽवतस्थे प्रतिमया। पथिकप्रज्वालिताऽग्निना प्रभोः अनपसरणात् पादौ दग्धौ । गोशालस्तु नष्टः। ततः-स्वामी 'नंगला' ग्रामे वासुदेवगृहे प्रतिमया स्थितः । तत्र गोशालो डिम्भभापनाय अक्षिकर्षणमकार्षीत् । तत्पित्रादिभिः कुट्टितो 'मुनिपिशाच' इति उपेक्षितः । ततः-स्वामी 'आवर्त' ग्रामे | बलदेवगृहे प्रतिमया स्थितः । तत्र गोशालेन डिम्भभापनाय मुखत्रासो विहितः । तत्पित्रादीन्-'ग्रथिलोऽयं किमनेन हतेन ? अस्य स्वाम्येव हन्यते' इति विचिन्त्य स्वामिहननाय उद्यतान् दृष्ट्वा बलदेवमूर्तिरेव बाहुना लाङ्गलमुत्पाटथ उत्तस्थौ । ततः सर्वेऽपि स्वामिनं नतवन्तः। ततः-स्वामी 'चौराक' संनिवेशं जगाम । तत्र मण्डपे भोज्यं पच्यमानं दृष्ट्वा गोशालः पुनः पुनः न्यग्भूय वेलां विलोकयति स्म । तत: चौरशङ्कया हतेन तेन रुष्टेन स्वामितपस्तेजसा मण्डपध्यापनाऽकारि । ततः-स्वामी %ARRESO ॥२३०॥ JainEHSI H orary.org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२३१॥ 'कलम्बुका' संनिवेशं गतः। तत्र मेघ-कालहस्तिनामानौ द्वौ भ्रातरौं । कालहस्तिना दृष्टया उपसर्गितः। मेधेनोपलक्ष्य क्षामितः। ततः-स्वामी क्लिष्टकर्म निर्जरानिमित्तं 'लाढा' विषयं प्राप। तत्र हीलनादयो घोराः उपसर्गाः अध्यासिताः । तत:'पूर्णकलशाऽऽख्ये' अनार्यग्रामे स्वामिनो गच्छतोऽन्तरा द्वौ स्ते नौ 'अपशकुन' इति विचिन्त्य असिमुत्पाटय धावितौ, ज्ञातवृत्तान्तेन वज्रिणा वज्रेण हतौ।। ततः-स्वामी 'भद्रिका' पुर्या वर्षासु चातुर्मास्यं तपश्च कृतवान् । ततो बहिः पारयित्वा विहरन् 'कदलीसमागम ' ग्राम गतः । तत्र मङ्खलिः दधिकूरभोजनं कुर्वन्नतृप्तो जनेन निर्भत्सितः, भगवतश्च प्रतिमा । ततः-स्वामी 'तम्बाल' ग्रामं गतः। तत्र पार्धाऽपत्यीयः बहुशिष्यपरिवृतः 'नन्दिषेण' नामाऽऽचार्यः प्रतिमास्थितः चौरभ्रान्त्या आरक्षकपुत्रेण भल्ल्या हतः। जाताऽवधिः स्वर्गमलश्चकार । शेषं च मङ्खलिबचनादि मुनिचन्द्रवत् । ततः-स्वामी 'कूपिक' संनिवेशं गतः । तत्र चारिकशङ्कया गृहीतो भगवान् पार्थाऽन्तेवासिनीभ्यां परिवाजिकीभूत-'विजया-प्रगल्भाभ्यां' मोचितः । स्वामिनः पृथगभूतश्च मङ्खलिः अन्यस्मिन् पथि गच्छन् पञ्चशतैरपि स्तेनैः गृहीत:-'मातुल' इति कृत्वा वाहनया खिन्नः। अचिन्तयद्-'वरं स्वामिनैव साई गमनम्' इति स्वामिनं मार्गयितुं लग्नः । स्वाम्यपि वैशाल्यां गत्वा अयस्कारशालायां प्रतिमया स्थितः। तत्रैकोऽयस्कारः पण्मासं यावद् रोगी भूत्वा अरोगः सन्नुपकरणकरः शालायामागतः । स्वामिनं निरीक्ष्य 'अमङ्गलम्' इति विचिन्त्य घनेन हन्तुमुद्यतोऽवधिना ज्ञात्वा आगत्य तेनैव हतो मघवता । ततः- स्वामी 'ग्रामाक' संनिवेशं गतः । तत्रोद्याने 'विभेलक' यक्षो महिमा चक्रे । तत:-'शालिशीर्ष' ग्रामे उद्याने प्रतिमास्थस्य स्वामिनो माघमासे 'त्रिपृष्ठ' भवाऽपमानिताऽन्तःपुरी मृत्वा ॥२३॥ Sain Educ a tional For Privale & Personal Use Only m elibrary.org Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२३२॥ Jain Educ व्यन्तरीभूता तापसीरूपं कृत्वा जलभृतजटाभिः अन्याऽसह्यम्, उपसर्गम् उपशान्ता च स्तुतिं चक्रे । तद्वेदनमधिसहमानस्य षष्ठेन तपसा विशुद्धयमानस्य लोकावधिरुत्पन्नः । ततः - स्वामी 'भद्रिकां' गतः । तत्र च पष्ठवर्षासु चतुर्मासतपो विचित्रच अभिग्रहानकरोत् । तत्र पुनः पण्मासान्ते मङ्क लिर्मिलितः। ततः-स्वामी बहिः पारयित्वा ऋतुबद्धे मगधायां निरुपसर्गों विहृतवान् । ततः - 'आभिकायां' सप्तमवर्षासु चतुर्मासक्षपणेन बहि: पारयित्वा 'कुंडाग' संनिवेशे वासुदेव देवकुले स्वामी प्रतिमया स्थितः । मङ्कलिरपि वासुदेवप्रतिमायाः पराङ्मुखोऽधिष्ठानं मुखे कृत्वा तस्थौ । कुट्टित लोकैः । ततः - 'मर्दन' ग्रामे बलदेव देवकुले कोणे स्वामी प्रतिमया स्थितः । मङ्गुलिः बलदेवमुखमूले मेहनं कृत्वा तस्थौ द्वयोरपि स्थानयो: 'मुनिः ' इति कृत्वा मुक्तः । ततः - 'लोहार्गले' जनेन चारिकबुद्धया 'जितशत्रु' पार्थोपनीतः सगोशालः । ' अस्थिक' ग्रामाऽऽगतेन 'उत्पलेन' मोचितः । ततः - 'पुश्मिताल - शकटमुख' उद्यानयोः अन्तराले प्रतिमया तस्थौ, सभार्यः - 'वग्गुर' श्रेष्ठी च उद्यानस्थ 'मल्लिजिन' जीर्णाऽऽयतनप्रतिमां नमस्कृतवान् । सन्तानाय नव्याऽऽयतन विधापनादिभिः आरराध च । जाते गर्भे अन्यदा पूजार्थं व्रजन्नीशानेन्द्रवचसा प्रथमं स्वामिनम् अर्चति स्म । ततः - मल्लिजिनाऽऽयतने मल्लिप्रतिमां च । ततः स्वामी 'उन्नाग' संनिवेशं याति । तत्राऽन्तरे गोशाळेन सन्मुखाऽऽगच्छदन्तूरवधुवरहसनं 'ततिल्लो विहिराया जाणति दूरेवि जो जहिं वसइ । जं जस्स होइ सरिसं तं तस्स विइज्जयं देइ' ||१||त्ति ( आव ० हारि० गाथा ४९० टीका ) mational: किरणाबली | टीका व्या० ६ ॥२३२॥ elibrary.org Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२३३॥ - SAHASRANCHHERAE%% -- तैः कुट्टयित्वा वंशजाल्या प्रक्षिप्तः । सामिछत्रधरत्वान्मुक्तश्च । ततः स्वामी गोभूमि याति । ततः 'रानगृहे' अष्टमवर्षामकरोत् चतुर्मासकतपश्च । बहिः पारणकं च । ततः 'वज्रभूम्यां बहुपसर्गाः' इति कृत्वा नवमवर्षारानं स्वामी तत्र कृतवान् । चतुर्विधाऽऽहाररहितं चतुर्मासकम् अपरमासद्वयं च तत्रैव विहृत इति पाण्मासिकं तपोऽभूत् । सत्यभावाच्च नवमवर्षारात्रमनियतमकार्षीत् । तत:-'सिद्धार्थ'पुरं गतः । ततः-'कूर्मग्राम प्रस्थितः । तत्राऽन्नरा तिलस्तम्बं दृष्ट्वा-'भगवन् ! अयं निष्पत्स्यते न वा ?' इति मङ्खलिः बभाषे। प्रश्नाउनन्तरं-'सप्ताऽपि तिलपुष्पजीवा मृत्वा एकस्यां शम्ब्यां तिला भविष्यन्ति' इति भगवद्वचनाऽन्यथाक्रतिधिया तिलस्तम्बम उत्पाटय मूलादुन्मूल्य एकान्ते मुमोच । 'मा प्रभुवचोऽन्यथाऽभूद्' इति सन्निहितव्यन्तरष्टिश्चक्रे । गोखुरेण च विनभूमौ नित्यस्थिरीचक्रे । ततः-प्रभुः 'कूर्म'ग्रामे आतापनाग्रहणे मुत्कलमुक्तजटामध्ययूकावाहुल्यदर्शनाद् 'यकाशय्यातर' इतिकथनरुष्ट वैश्यायन मुक्ततेजोलेश्यातः शीतलेश्यया गोशालं रक्षितपूर्वी । 'सिद्धार्थ'पुरे वजन् गोशालेन-'स तिलस्तम्बो न निष्पन्न' इति उक्ते-'स एष तिलस्तम्बो निष्पन्न' इति प्रत्याह । गोशाल: अश्रद्दधत्-'तिलशम्बां विदार्य सप्ततिलान् दृष्टा नियति गाढीकृतवान् । ततः-'आतापनापरस्य सदा षष्ठतपः सनखकुल्मापपिण्डिकया एकेन उप्णोदकचुलुकेन पारयतः दण्मास्या ते नोलेश्योत्पद्यत' इति' सिद्धार्थोक्तोपायं पृथग्भूतः कुम्भकारशालास्थितः तां साधितवान् त्यक्तव्रतश्रीपार्थशिष्य १. अत्र तेजोलेश्योपायः सिद्धार्थशिक्षित:' इत्यधिकृत्य सुबोधिकाकृतः चिन्ता 'आवश्यवृत्त्यादि अज्ञानमूला' इति ध्येयम् । (कल्पकौमुदी) RECORRESEN ॥२३३॥ Sain Educ a tional For Privale & Personal use only Deforary.org Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -CA श्रीकल्प किरणावली टोका ॥२३४॥ व्या०६ षट्कात् अष्टाङ्गनिमित्तं च शिक्षितवान् । ततः अहङ्कारेण-'अहं जिनोऽस्मि' इति सर्वजने प्रख्यापयति स्म । तत:-'वाणिज' ग्रामे आतापनापुरसप्तरं षष्ठतपसा उत्पन्नाऽवधिः आनन्दः स्वामिनम् आलोक्य-'अहो परीषहसह' इति स्तुतिपरः-'अचिरेण ते केवलमुत्पत्स्यते' इत्यादि उक्तवान् । ततः-स्वामी श्रावस्त्यां दशमं वर्षाराचं चित्रं तपोऽकरोद् इत्यादि अनुक्रमेण यावत् स्वामी बहुम्लेच्छां दृढभूमिं गतः । तस्यां बहिः पेढालोद्याने पोलापचैत्ये अष्टमभक्तेन एकरात्रिकी प्रतिमां तस्थिवान् । इतश्च सभागतः शक्रः-'त्रैलोक्यजनाऽपि वीरचेतश्चालयितुम् असमर्था' इति प्रशंसां कृतवान् । तदनु शक्राऽमर्षेण सामानिक 'सङ्गमाऽऽख्य' सुरः सत्वरमागत्य प्रथमतो धूलिवृष्टिं चकार-यया पूर्णाऽक्षिकर्णादिश्रोताः स्वामी निरुच्छ्वासोऽभूत् । ततः वज्रतुण्ड पिपीलिकाभिः चालनीतुल्यश्चक्रेताश्च एकेन श्रोतसा निर्यान्ति द्वितीयेन प्रविशन्ति । तथा-वज्रतुण्डोदंशाः । तीक्ष्णतुण्डा घृतेल्लिकाः। वृश्चिकाः नकुलाः सर्पाः मूपकाश्च भक्षयन्ति । तथा-हस्तिनः हस्तिन्यश्च-शुण्डाघातचरणमर्दनादिना । पिशाच:-अट्टहासादिना । ज्याघ्रःदंष्ट्रानख विदारणादिना । सिद्धार्थ त्रिशले-करुणविलापादिना उपसर्गयनि । ततः स्कन्धावारसमीपस्थः प्रभोः पदोर्मध्येऽग्नि प्रयाल्य स्थालीमुपस्थाप्य च पचति । ततः चण्डाल:-तीक्ष्णतुण्डशकुनिपञ्जराणि प्रभोः कर्णबाहुमूलादिषु लम्बयन्ति । ते च मुखैभक्षयन्ति । ततः-खरवातः पर्वतानपि कम्पयन् प्रभुमुक्षिप्य पातयति । तत:-कलिकावात:-चक्रवद् भ्रामयति । तत:भारसहस्र लोहमय चक्रेणाहतो भूमौ प्रभुः आजानुनिमग्नो येन मेरुचूलापि चूर्णीस्यात् । तत:-प्रभातं विकुळ रक्ति-'देवाय ! अद्यापि तिष्ठसि ?' स्वामी ज्ञानेन रात्रि वेत्ति । देवर्द्धि दर्शयित्वा च भणति-'वृणीत महर्षे ! येन तब स्वर्गेण मोक्षेण वा ॥२३४॥ Sain E ternational For Privale & Personal use only WHATbrary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२३५॥ -%- प्रयोजनम् । तथाऽप्यक्षुब्धं देवाङ्गनानाटय-गीत-विलासादिभिः उपसर्गयति । एवमेकस्यां निशि विंशत्योपसर्गर्न मनागपि क्षोभमुपागमत् भगवान् । अत्र कविः'बलं जगद्ध्वंसनरक्षणक्षम, कृपा च किं सङ्गमके कृताऽऽगसि । इतीव सश्चिन्त्य विमुच्य मानसं, रुषैव रोषस्तव नाथ ! निर्ययौ ॥१॥ ततः-पण्मासाऽवधिकाऽनेषणीयाऽऽहारसम्पादनादि विचित्रोपसर्गान् तत्कृतान् सहमानो भगवान् निरशन एव । षण्मास्या 'स गतो भविष्यति' इति विचिन्त्य यावद् वनग्रामगोकुलं गोचर्यां प्रविष्टः। तत्राऽपि तस्कृतामनेषणामवगम्य अर्धहिण्डित एवाऽऽगत्य बहिः प्रतिमया स्थितः। स सुरोऽवधिना शुद्धपरिणाम स्वामिनं ज्ञात्वा द्वितीयदिने उपशान्तः स्वामिनं प्रति ब्रते-'हे आर्य ! वन विहारादौ, हिण्ड गोचर्यादौ, नाऽहं किश्चित्करोमि' इत्युक्ते :-'इच्छया बजामि न वा' इति । 'नाऽहं कस्याऽपि वक्तव्य' इति स्वामिना प्रत्युक्तः । ततः-विषण्णः सन् स्वामिनमभिवन्ध सौधर्म प्रति चचाल | स्वामी च तत्रैव गोकुले हिण्डन् वत्सपालिकया स्थविरया परमान्नेन प्रतिलाभितो वसुधारा च निपतिता । इतश्च कालं तावन्त, सुराः सौधर्मवासिनः । निरानन्दा निरुत्साहा, उद्विग्नाश्चाऽवतस्थिरे ॥३४॥ शक्रोऽपि मुक्त नेपथ्या-ऽङ्गरागोऽत्यन्तदुःखितः। सङ्गीतकादिविमुखो, मनस्येवमचिन्तयत् ॥३०५।। इयतामुपसर्गाणां, निमित्तम भवं ह्य हम् । मया स्वामिप्रशंसायां, कृतायां सोऽकुपत्सुरः ॥३०६।। अत्राऽन्तरे सङ्गमकः, पापपङ्कमलीमसः। प्रणष्टकान्तिप्राग्भारो-ऽम्भःस्पृष्ट इव दर्पणः ॥३०७॥ हलचल ॥२३५। Jain Educ a tional For Privale & Personal use only Halbrary.org Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव टीका व्या० ॥२३६॥ भ्रष्टप्रतिज्ञो मन्दाक्ष-मन्दीभूताऽक्षिपङ्कनः । देवराजाऽधिष्ठितां तां, सुधर्मामाययौ सभाम् ॥३०८॥ युग्मम् । शक्रः सङ्गमकं दृष्ट्वा, सद्यो भूत्वा पराङ्मुखः । इत्यूचे भोः सुराः! सर्वेऽप्याकर्णयत मद्वचः ॥३०९॥ अयं हि कर्मचण्डालः पापः सङ्गमकाऽमरः । दृश्यमानोऽपि पापाय, तद्रष्टुं नैष युज्यते ॥३१०॥ बहनेनाऽपराद्धं हि, यः सामी नः कथितः। अस्मत्तोऽपि न कि भीतो, भवादु भीतो न यद्ययम् ॥३१॥ अर्हन्तो नाऽन्यसाहाय्यात् , तप्यन्ते तप इत्यहम् । तथोपसर्गकालेऽपि, नाऽमुं पापमशिक्षयम् ॥३१२।। अतः परमिह तिष्ठन्न-ऽस्माकमपि पाप्मने । निर्वासनीयस्तदसौ, कल्पादस्मात् सुराधमः ॥३१३।। इत्युक्त्वा तं वज्रपाणिः, वज्रेणेव शिलोच्चयम् । जघान बामपादेन, सुराधमममर्पणः ॥३१४॥ पर्यस्यमानो विविधा-ऽऽयुधैर्माधवतैमटैः । आक्रोश्यमानस्त्रिदश-स्त्रीभिर्मोटितपाणिभिः ॥३१५।। सामानिकैहस्थमानो 'यानकाऽऽख्य' विमानगः । स शिष्टैकाऽर्णवायुष्को मेरुचूलां सुरो ययौ ॥३१६॥ महिप्पः सङ्गम कस्य शक्रमेवं व्यजिज्ञपत् । सनाथमनुगच्छामः त्वदादेशो भवेद्यदि ॥३१७॥ अनुगन्तुं सङ्गमकं दीनाऽऽस्था अन्वरस्त ताः। आरयत् परीवार-मशेषमपि वासवः ॥३१८॥ (त्रिषष्टिः पर्व १० सर्ग ४) तत:-'आलभिकायां हरिकान्तः' 'श्वेताम्बिकायां हरिस्सहश्च' प्रियं प्रष्टुमेतः। ततः-'श्रावस्त्यां शक्रः' स्कन्दप्रतिमायामवतीर्य स्वामिनं वन्दितवान् ततो महती महिमाप्रवृत्तिः । ततः-'कौशाम्ब्यां चन्द्रसूर्याऽवतरणं' वाणारस्यां च शक्रः' 'राजगृहे ईशान:' 'मिथिलायां जनको राजा धरगेन्द्रश्च' प्रियं पृच्छति स्म । DI||२३६ Jain Educat i onal 101 For Privale & Personal use only writrimary.org Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।२३७॥ ततः-'वैशाल्याम्' एकादशो वरात्रोऽभूत् । तत्र-भूतानन्दः, प्रियं पृच्छति । तत:-'मुंमुमारपुरे' गतः तत्र-चमरोत्पातः । ततः-'भोगपुरे' खजूरोसकण्टककम्बाभिः महेन्द्रक्षत्रियेण क्रियमाणा उपसर्गाः प्रियपृच्छार्थमागतेन 'सनत्कुमारेण' निवारिताः। ततः-'नन्दी'ग्रामे पितृसखा बन्दते । 'मिण्डिक'ग्रामे गोपोपसर्ग 'शको' वित्रासनेन निवारितवान् । ततः-कौशाम्ब्यां गतः । तत्र-'शतानीक' राजा 'मृगावती' देवी 'विजया' प्रतिहारी तथा-वादी' नामा धर्मपाठकः 'मुगुप्तः' अमात्यः तद्भार्या 'नन्दा' सा च श्राविका मृगावत्या वयस्या। स्वामिना तत्र पोषबहुलप्रतिपदि अभिग्रहो जगृहे । यथा-पृथ्वीनाथसुता, भुजिष्याचरिता, जंजीरता, मुण्डिता, क्षुत्क्षामा, रुदति, विघाय पदयोरन्तर्गतां देहली, कुल्माषान् , प्रहरद्वयव्यपगमे, सूर्पस्य कोणे स्थितान् दद्यात् तदा पारणकं भगवतः। सोऽयं महाऽभिग्रहः-'द्रव्यतः-कुल्माषान् सूर्पकोणेन । क्षेत्रतः-देहल्या एकं पदमारतः एकं च परतः कृत्वा। कालत:-निवृत्तेषु भिक्षाचरेषु । भावतः-राजसुता, दासत्वमापन्ना, निगडिता, मुण्डितमस्तका, रुदन्ती, अष्टमभक्तिका, चेद दास्यति तदा गृहीष्यामि । परीवहसहनार्थ स्वामिनोऽभिप्रहः । तन:-गोचर्या हिण्डन् पञ्चदिवसोनषण्मासोपवासी दैवयोगात् 'धनावह' श्रेष्ठिभार्या-'मूला' गृहस्थितया, चम्पेश 'दधिवाहन' नृप-धारिणी' राज्ञीसुतया 'वसुमत्या' 'चन्दनबाला' अपरनाम्न्या स्वामी प्रतिलाभितः। कविश्वात्र-चन्दना सा कथं नाम, 'बाले' ति प्रोच्यते बुधैः । मोक्षमादत्त कुल्माषै-महावीरं प्रतार्य या ॥१॥ ततः-पञ्चदिव्यानि । देवा ननृतुः, केशाः शिरसि सञ्जाता, निगडानि च नूपुराणि । देवैश्च चन्दनशीतलत्वात् 'चन्दना' इति तस्या नामाऽकारि। लोभाद् राजानं वसुधारां गृहानं शक्रो निवार्य प्राह-'यस्येयं दास्यति तस्यैषा' । ततः-सा धनावह ICCCCCEAECRACEAERO to | ॥२३७॥ Jain Educatie Alternational For Private & Personal use only B imlibrary.org Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२३८॥ श्रेष्ठिनं स्वपितृतुल्यं समर्पयामास । शक्रः शतानी प्रत्युक्तवान्-'सङ्गोप्यैषा यावत् स्वामिनः केवलोत्पत्तिः। तदनन्तरं दकिरणावली सामिनः प्रथमशिष्याणि (शिष्या) भविष्यति' इति । टीका तत:-'सुमङ्गला' ग्रामे सनत्कुमारेन्द्रवन्दनं । 'बालक' ग्रामे 'वायल' वणिक यात्रायां गच्छन् स्वामिनं दृष्ट्वा अमङ्ग व्या०६ लधिया असिना घाताय धावन् सिद्धार्थेन हतः । ततः स्वामी चम्पायां 'स्वातिदत्त' द्विजस्याऽग्निहोत्रशालायां वर्षावास तस्थौ । रात्रौ च 'पूर्णभद्र-माणिभद्रौ' यक्षेन्द्रौ स्वामिनः पर्युपास्तिं कुर्वाणौ विलोक्य विस्मितेन तेन-'को हि आत्मा ?' इति पृच्छा । सामिना च-'योऽहमिति मन्यते' इत्यादि जीवव्यवस्थापनं । पुनरपि पृच्छा-'किमुपदेशनम् ? । 'द्विधा-धार्मिकम् अधार्मिकं च' एवं 'मूलोत्तरगुण भेदात् प्रत्याख्यानमपि द्विधा' इति विप्रो बुद्धः । तत:-'जम्भिक.' ग्रामे 'शक्रो' नाट्यविधि दर्शयित्वा-'इयद्भिः दिनैः ज्ञानोत्पत्तिः' इत्य कथयत् । ततः-'मिण्डिक' ग्रामे 'चमरेन्द्र' प्रियपृच्छा । ततः-'षण्मानि' ग्रामे | स्वामिनो बहिः प्रतिमास्थस्य पार्श्वे गोपो गां मुक्त्वा ग्रामं प्रविष्टः । आगतश्च पृच्छति-'देवार्य ! क्य गवा गौः ?' मौने च रुष्टेन तेन स्वामिकर्णयोः कटशलाके तथा प्रक्षिप्ते यथा मिथो मिलिते । छिन्नाऽग्रत्वाद अदृश्येव । एतच्च कर्म शय्यापालककर्णयोः तप्तत्रपुःप्रक्षेपयता त्रिपृष्ठेन यदर्जितं तदुदीर्ण च वीरभवे । शय्यापालको भवं भ्रान्त्वा अयमेव गोपः । ततः-प्रभुः मध्यमापापायां गतः तत्र सिद्धार्थवणिग्गेहे भिक्षाऽर्थमागतं खरकवैद्यो विलोक्य स्वामिनं सशल्यं ज्ञातवान् । पश्चात् स वणिग उद्याने गत्वा सण्डासकाभ्यां गृहीत्वा वैद्यात् ते शलाके निर्गमयति स्म । तदाऽऽकर्षणे च वीरेण आराटिः तथा मुक्ता यथा | सकलमपि उद्यानं महाभैरवं वभूव । देवकुलमपि कारितं । स्वाम्यपि संरोहणौषधेन तदैव प्रगुणी भूतः । ॥२३८॥ THERE REGGAE RESCERERAS Jain Edube Hndernational For Private & Personal use only Mainelibrary.org Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।२३९॥ CHARACACAAAAEECH एवं चोपसर्गा गोपेनैव आरब्धा गोपेनैव परिनिष्ठिताः । एतेषां जघन्यादिविभागस्त्वेवम्-गधन्यं किल-कटपूतनाशीतं । मध्यमं च-कालचक्रम् । उत्कृष्टं च-श्रोत्रशल्योद्धरणं । 'तत्प्रक्षेप्ता गोपः सप्तमनरकाऽतिथिः, खरकसिद्धाथौं च स्वर्गमलचक्रतुः' इति । (ते उप्पन्ने सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ) एवं ये व्यावर्णिता देवाद्युपसर्गाः तान उत्पन्नान् सम्यक् सहते-भयाऽभावेन । क्षमते-क्रोधाऽभावेन । तितिक्षते-दैन्याद्यनवलम्बनेन । अध्यासयति-अविचलकायतया इति ॥११७॥ ['तए णं' इत्यादितः 'नो एवं भवई' त्तिपर्यन्तम् ] तत्र-यत एवं (तए णं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए) ततः अनगारो जातः श्रमणो भगवान् महावीरः। अनगारवप्रयोजकं च विशेषणकदम्बकम्- (इरियासमिए) [इत्पादि] ईर्यायां-गमनाऽऽगमनादौ समितः-सम्यक् प्रवृत्तः। (भासासमिए) भापायां-भाषणे समितः। (एसणासमिए) एपणायां-द्विचत्वारिंशदोपविशुद्धभिक्षाग्रहणे < समितः > (आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए) आदाने-ग्रहणे 'उपकरणस्य' इति गम्यं । भाण्डमात्रायाः-वस्त्राधुपकरणरूपपरिच्छदस्य । अथवा भाण्डस्य-वस्त्रादेः मृन्मयभाजनस्य वा । मात्रस्य च-पात्रविशेषस्य निक्षेपणायां-विमोचने यः समित:-सुप्रत्युषेक्षादिक्रमेण सम्यक् प्रवृत्तः स तथा । (उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपांरिट्ठावणियासमिए) उच्चार:-पुरीषं, प्रस्त्रवण मूत्रं, खेल:-निष्टिवनं, सिवान:-नासिकामल:, जल्ल:-शरीरमलः तेषां परिष्ठापना-त्यागः तत्र समितः-शुद्धस्थण्डिलाश्रयणात् । एतच्चाऽन्त्यं समितिद्वयं भगवतो भाण्ड-सिङ्घानाद्यसम्भवेऽपि नामाऽखण्डितार्थमित्थमुक्तं । 4GEOMAE% EMACARE | ॥२३९॥ Sain Ede r ational For Privale & Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावल BREGA-%AA%- टीका व्या०६ श्रीकल्प-II (मणसमिए वयसमिए कायसमिए) [इत्यादि] मनःप्रभृतीनां < मनोवचनकायानां > कुशलानां प्रवर्तक इत्यर्थः । (मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते) चित्तादीनामशुभानां निषेधकः । यत:- समितिः सत्प्रवृत्तिः गुप्तिस्तु निरोधः । अत एव॥२४॥ (गुत्ते गुतिदिए गुत्तबंभयारी) त्ति < गुप्तः > गुप्तत्वात् गुप्तानि इन्द्रियाणि-शब्दादिषु रागद्वेषाऽभावात् श्रोत्रादीनि । ब्रह्म च-मैथुनविरतिरूपं वसत्यादिनवगुप्तिमत् चरति-आसेवते इत्येवं शीलो यः स तथा। (अकोहे अमाणे अमाए अलोभे) अक्रोधः [इत्यादिव्यक्तम्] < अमान: अमायः अलोम > अत एव (संते पसंते उवसंते) शान्त:-अन्तवृत्त्या । प्रशान्त:बहिवृत्त्या । उपशान्तः-उभयतः । अथवा-मनःप्रभृत्यपेक्षया शान्तादीनि पदानि । अत एव (परिनिम्बुडे अणासवे) परिनिवृतः-सकलसन्तापवर्जितः । अनाऽऽश्रवः-अपापकर्मबन्धः, हिंसादि सप्तदशाऽऽश्रवनिवृत्तेः। (अममे अकिंचणे छिन्नगंथे) अममम्-आभिष्वङ्गिक 'मम' इति शब्दविरहितः । अकिञ्चनः-निद्रव्यः। छिन्नग्रन्धः-मुक्तहिरण्यादिग्रन्थः। ['छिन्न सोए' त्ति क्वचित् । तत्र-छिन्नशोकः छिन्नश्रोतो वा-छिन्नसंसारप्रवाह इत्यर्थः। (निरुवलेवे) निरुपलेपः-द्रव्यभावमलरहितः । तत्र-द्रव्यतः-विमलवपुः । भावतः-मिथ्यात्वादिमलरहितः । निरुपलेपत्वमेव उपमानैराह (कंसपाई इव मुक्कतोए) कांस्यपात्रीव मुक्तं-त्यतं तोयमिव तोयं-बन्धनिबन्धनत्वात् स्नेहो येन । (संखे इव निरंजणे) शङ्ख इव निरञ्जनः । अथवा रञ्जनं रङ्गणं वा रागाद्युपरञ्जन तस्मानिगतः। (जीव इव अप्पडिहयगई) जीव इव अप्रतिहतगतिः-सर्वत्रौचित्येनाऽस्खलितविहरणात् संयमेऽप्रतिहतवृत्तेर्वा । (गगणमिव निरालंबणे) गगनमिव निरालम्बनः देशग्रामकुलाद्यालम्बनरहितत्वात् । (वाउ इव अपडिबवे) वायुरिव अप्रतिबद्ध:-क्षेत्रादौ प्रतिबन्धवन्ध्यत्वेनौचित्येन निरन्त- | SALASPEGREGISCHGESCLASSIC २४०॥ ट Sain Ed i lmational For Private & Personal use only Mahlibrary.org Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।२४१। क. कि. १८ ૧ रविहारात् । (सारयसलिलं व सुद्धहियए) शारदसलिलमिव शुद्धहृदयः - कालुष्याsकलङ्कितत्वात् । (पुत्रखरपत्तं व निरुवलेवे) पुष्करं - पद्मं तस्य पत्रमित्र निरुपलेपः- पङ्कजलकल्प स्वजन विषयस्नेहरहितत्वात् । (कुम्सो इव गुतिं दिए ) कूर्म :कच्छपः स इव गुप्तेन्द्रियः । स हि कदाचिद्ग्रीवाचरणचतुष्टयरूपाऽङ्गपञ्चकेन गुप्तो भवेद् एवं भगवानपि इन्द्रियपञ्चकेन । (खग्गविसाणं व एगजाए) खड्गः - गण्डकाऽऽख्यो जीवविशेषः तस्य विषाणं शृङ्गम् एकमेव स्यात्तद्वदेको जातः- एकभूतो रागादिसहायासहितत्वात् । (विहग इव विप्यमुक्के) विहग इव विप्रमुक्तः - मुक्तपरिकरत्वाद् अनियतवासाच्च । ( भारंडपक्खी इव अप्पमत्ते) भारण्डपक्षीव अप्रमत्तः - निद्राद्यभावात् । भारण्डपक्षिणोः किलैकं कलेवरं पृथग्ग्रीवं त्रिपादं च स्यात् । यदुक्तं – 'भारण्डपक्षिणः ख्याताः त्रिपदा मयेभाषिणः । द्विजिह्वा द्विमुखा को - दराऽभिन्न फलैषिणः ।। 11 चाऽत्यन्तमप्रमत्तत्तयैव निर्वाहं लभेते । अतस्तदुपमा । (कुंजरो इव सोंडीरे) कुञ्जर इव शोण्डीर :- कर्मशत्रुसैन्यं प्रति शुरः । (सभो इव जायथामे) वृषभ इत्र जातस्थामा - स्त्रीकृतमहाव्रत भारवहनं प्रति जातबल: - निर्वाहकत्वात् । सीहो इव दुरिसे) सिंह इव दुर्देषः - परिषहादिमृगैः अनभिभवनीयत्वात् । (मंद इव अप्पर्कपे) मेरुरिव अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गाः अविचलितसचः । (सागरो इव गंभीरे) सागर इव गम्भीर : - वर्षशोकादिसाधनसम्बन्धेऽप्यविकृतचित्तत्वात् । (शे इव सोमलेसे) चन्द्र इव सोमलेश्य:- परोपतापकृन्मनः परिणामरहितत्वात् । (सूरो इव दित्ततेए) सूर इव दीप्ततेजा - द्रव्यतो देहदीप्त्या, भावतो ज्ञानेन परेषां क्षोभकत्वाद्वा । ( जच्चकणगं व जायख्वे) जात्यकनकमिव Jain Educatimational ॥२४९॥ Felibrary.org Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२४२॥ जातं सम्पन्नं रूपं स्त्ररूपं रागादिकुद्रव्यविरहाद् यस्य । अपगतदोषरूपकुद्रव्यत्वेन उत्पन्नस्वभाव इत्यर्थः । ( वसुंधरा इव सव्वासविस) वसुन्धरेव सर्वान् शीतोष्णादीन् अनुकूलेतरान् स्पर्शान् विषहते यः । ( सुहुहुयासणो इव तेयसा जलते) सुहूतः - घृतादितर्पितः स चाऽसौ हुताशनश्च-अग्निश्च तद्वत्तेजसा - ज्ञानेन तपसा वा ज्वलन् दीप्यमानः । (इमेसि पयाणं दुन्नि संगहणिगाहाओ कंसे संखे जीवे गगणे वाउ अ सरयसलिले अ । पुक्खरपत्ते कुम्मे विहगे खग्गेय भारंडे ॥१॥ कुंजर वसहे सीहे नगराया चेव सागरमखोहे । चंदे सूरे कणगे वसुंधरा चैव यवहे ||२|| ) (नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे) नाऽस्त्ययं पक्षो यदुत तस्य भगवतः कुत्रचित् प्रतिबन्धो भवति । (से अ पडिबंधे चउच्विहे पण्णत्ते । तं जहा - दव्बओ खित्तओ कालओ भावओ) <सः प्रतिबन्धः चतुःप्रकार: कथितः । तद्यथा - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच > (दव्वओ णं सचित्ताचित्तमीसेसु दव्वेषु) < द्रव्यतः - स्त्र्यादिसचित्तभूषणादिअचित्त- अलङ्कृतस्त्र्यादिमिश्रभेदात् त्रिविधेमु द्रव्येषु > | (खित्तओ णं गामे वा नगरे वा अरण्णे वा ) - क्षेत्रतः - ग्रामे नगरे अरण्ये वा > (खित्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा नहे वा) क्षेत्रं - धान्यजन्मभूमिः । खलं - धान्यमलपवनादिस्थण्डिलं गृहे वा अङ्गणे वा > नमः - आकाशं < तस्मिन् । (कालओ णं समए वा) <कालतः -> समय:- सर्व निकृष्टकाल : 'उत्पलपत्रशतव्यतिभेद-जरत्पटशाटकपाटनादिदृष्टान्तसाध्यः' । (आवलियाए वा आणापाणुए वा धोवे वा खणे वा लवे वा मुहुत्ते वा) आवलिका - असङ्ख्यातसमयरूपा । आणापाणू - उच्छ्वासनिःश्वासकालः । Jain Edinternational . उन किरणावली टीका व्या० ६ ॥२४२॥ melibrary.org Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२४३॥ काल तोकः-सप्तोच्छ्वासमानः । क्षण:-बहुतरोच्छ्वासरूपः । लयः-सप्तस्तोकमानः। मुहूर्तः-लवसप्तसप्ततिमानः <तस्मिन् > (अहोरत्ते या पक्खे वा मासे वा उऊ वा अयणे वा संवच्छरे वा अण्णयरे वा दीहकालसंजोए) < त्रिंशन्मुहत्तमाने अहोरात्रे । पञ्चदशाऽहोरात्रभाने पक्षे । पक्षद्वयमाने मासे । मासद्वयमाने ऋतौ । ऋतुत्रयमाने दक्षिणोत्तरायणे । अयनद्वयमाने संवत्सरे > अन्यतरस्मिन् दीर्घकालसंयोगे युगपूर्वोऽऽदौ । (भावओ णं कोहे वा माणे वा मायाए वा लोभे वा भए वा हासे पिज्जे वा दोसे वा) < भावतः क्रोधे माने मायायां लोभे वा> भये-इहलोकादिभेदात्सप्तविधे । हास्ये-हर्षे वा। अनभिव्यक्तमायालोभस्वभावे अभिष्वङ्गमात्रे प्रेमणि । द्वेषे-अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपे अप्रीतिमात्रे । अथवा-रागः-सुखाऽभिज्ञस्य सुखाऽनुस्मृतिपूर्वः सुखे तत्साधनेऽप्यभिमतविषये गर्द्धः-प्रेम तस्मिन् । द्वेषः-दुःखाऽभिज्ञस्य दुःखाऽनुस्मृतिपूर्वः दुःखे तत्साधने वा अप्रीतिः तत्र । (कलहे वा अब्भक्खाणे वा पेसुन्ने वा परपरिवाए वा) कलहेअसभ्यवचनराटयादौ । अभ्याख्याने-असदोषाऽऽविष्करणे। पैशून्ये-प्रच्छन्नम् असदोषाऽऽविष्करणे । परपरिवादे-विप्रकीर्णपरदोषगुणवचने । (अरइरई वा मायामोसे वा मिच्छादसणसल्ले वा) (६००) अरतिमोहनोयोदयाचित्तोद्वेगफला अरतिः। रतिमोहोदयाच्चित्ताऽभिरती रतिः। समाहारे अरतिरतिनि । मायामृषे मायामोषे वा-वेषान्तरभाषान्तरकरणेन परवञ्चनं-माया मायया सह मृषा मायामृषा, मायया वा मोषः परेषां मायामोषः तस्मिन् । मिथ्यादर्शन-मिथ्यात्वं शल्यमिव अनेकदुःखहेतुत्वात् । (तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवइ) एवम्-अमुना प्रकारेण तस्य भगवतो न भवति 'प्रतिबन्धः इति प्रकृतम् ॥११८॥ SABRECRECRECRACCORECAछन | ॥२४ ॥ Jain Ed e rational For Privale & Personal use only Helibrary.org Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प. किरणाव टीका ॥२४४॥ | व्या० ['से णं भगवं वासावासवज्ज' इत्यादितः 'विहरइ'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(से ण भगवं वासावासवजं अट्ठगिम्हहेमंतिए मासे) < स भगवान् > वर्षासु-प्रावृषि वासः वर्षावास: तद्वर्जम् अष्टमासान् ग्रीष्महेमन्तिकान् । (गामे एगराइए नगरे पंचराइए) ग्रामे एकरात्रः वासमानत्वेनाऽस्ति यस्य स एकरात्रिकः। एवं नगरे पञ्चरात्रिकः। (वासीचंदणसमाकणकप्पे समतिणमणि-ले ठुकंचणे) वासीचन्दनयो:प्रतीतयोः । अथवा-वासीचन्दने-अपकारकोपकारको तयोः समान:-निपरागत्वात् कल्प:-विकल्पः समाचारो वा यस्य । समानि-तुल्यानि उपेक्षणीयतया तृणादीनि-<तृणरत्नानि पाषाणसुवर्णानि> यस्य । (सम सुहदुक्खे इहलोगपरलोगअपडिबद्धे जीविअमरणे निरवकंखे संसारपारगामी कम्मसत्तुनिग्घायणट्ठाए अब्भुट्टिए) [इत्यादि व्यक्तम् ] < समसुखदुःखः । इहलोके परलोके च प्रतिबन्धरहितः। जीवितव्ये मरणे च वाञ्छारहितः। संसारपारगामी । कर्मवरिघातार्थ कृतोद्यमः।> (एवं च णं विहरइ) एवम्-ईर्यासमित्यादिगुणवोगेन विहरति-आस्ते ॥११९॥ [तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं' इत्यादितः 'नाणदंसणे समुप्पन्ने' इत्यन्तम् ] तत्र-(तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं) < तस्य भगवतः निरुपमेन> ज्ञानेन मत्यादिचतुष्टयेन । (अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुतरेणं चरित्तेणं अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेर्ण अणुत्तरेणं वीरिएणं अणुत्तरेणं अज्जवेणं अणुत्तरेणं मद्दवेणं अणुत्तरेणं लायवेणं)<निरुपमेन > दर्शनेन-चक्षुर्दर्शनादिना सम्यक्त्वेन वा । चारित्रेणमहाव्रतादिना । आलयेन-स्यादि-असंसक्तवसत्यादिना । विहारेण-देशादिषु चक्रमणादिना। वीर्येण-विशिष्टोत्साहेन । R-RRESTER ॥२४४। Jain Educa t ional T orary.org Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२४५॥ SECRECRRCRECOREGRAA आर्जवेन-मायानिग्रहेण । माईवेन-माननिग्रहेण । लाघवेन-क्रियासु दक्षत्वेन । अथवा-लाघवं द्रव्यत:-अल्पोपधित्वं, भावतःगौरवत्रयत्यागः तेन। (अणुत्तराए खंतीए अणुत्तराए मुत्तीए अणुत्तराए गुत्तीए अणुत्तराए तुट्ठीए) <निरुपमया> क्षान्त्या-क्रोधनिग्रहेण । मुक्त्या-निर्लोभतया । गुप्त्या-मनोगुप्त्यादिकया। तुष्टया-मनःप्रहत्या। (अणुत्तरेण सच्चसंयमतवतुचरिअसोवचियफलनिव्वाणमग्गेणं) <निरुपमेन > सत्य-संयम-तपः-सुचरितसोपचित फलनिर्वाणमार्गेण । सत्यं सूनृतं संयमः-प्राणिदया तपः-द्वादशभेदं तेषां सुष्ठु-विधिवत् चरितम्-आचरणम् उपचयनम्-उपचितं सह उपचितेन-उपचयेन वर्तते सोपचितं । सत्यसंयमतपःसुचरितेन सोपचितं-स्फीतं फलं-मुक्ति रक्षणं यस्य स तथा । स चाऽसौ निर्वाणमार्गश्च-रत्नत्रयलक्षणः तेन । (अप्पाणं भावेमाणस्स) आत्मानं भावयतः। अनेन 'आत्मज्ञानमेव मोक्षस्य प्रधानं साधनम्' इत्युक्तम् । (दुवालससंवच्छराई वइकंताई) ति <द्वादशसंवत्सराः व्यतिक्रान्ता:> । द्वादशसंवत्सरव्यतिक्रमणं त्वेवम्नव किर चाउम्मासे छकिर दोमासिए उवासी य । बारस य मासि माइं बावत्तरि अद्धमासाई ॥२८॥ एग किर छम्मासं दो किर तेमासिए उवासो य । अड्डाइज्जाइ दुवे दो चेव दिवड्ढमासाई ॥५२९।। भई च महाभदं पडिमं ततो अ सव्वओभई । दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासीयमणुबद्धं ॥५३०॥ गोभरमभिग्गहजुभं खमणं छम्मासिभं च कासी अ । पंचदिवसेहिं ऊणं अव्वहिओवच्छ नयरीए ॥५३१॥ दस दोय किर महप्पा ठाइ मुणी एगराइभं पडिमं । अट्ठमभत्तेण जई इकिकं चरमराई अ॥५६२। ॥२४५॥ Jain Educa For Privale & Personal use only nelibrary.org Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CI श्रीकल्प किरणावला टीका व्या०६ ॥२४६॥ दो चेव य छ?सए अउणातीसे उवासिओ नया । न कयाइ निच्चभत्तं च उत्थभत्तं च से आसि ॥५३३॥ बारस वासे अहिए छटुं भत्तं जहण्णयं आसी। सव्वं च तवोकम्मं अपाणयं आसि वीरस्स ॥५३४॥ तिन्नि सए दिवसाणं अउणापण्णे तु पारणाकालो । उक्कुडुअनिसिज्जाए ठिअपडिमाणं सए बहुए ॥५३५।। उत्कुटुकनिषद्यानां प्रतिमानां बहूनि शतानि स्थितः। पञ्चजाए पढम दिवसं एत्थं तु पक्खिवित्ता णं । संकलिअंमि उ संते जं लद्धं तं निसामेह ॥५३६॥ बारस चेव य वासा, मासा छच्चेव अद्धमासो य । वीरवरस्स भगवओ, एसो छ उमत्थपरिआगो ॥५३७॥ (आ०नि०) छ।मस्थ्ये भगवतः सर्वोऽपि सङ्कलितः प्रमादकालः अन्तर्मुहूर्तप्रमाणः इत्यर्थः । (तेरसमस्स संवच्छरस्त अंतरा बमाणस्स जे से गिम्हाणं दुच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्ध) <त्रयोदशस्य वर्षस्य पक्षाऽधिकपण्मासस्य यः सः उष्णोः द्वितीयो मासः चतुर्थः पक्षो वैशाखशुद्धः> (तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमी पक्खे णं पाईणगामिणीए छागए पोरिसोए अभिनिविद्वार पमाणपत्ताए) <तस्य वैशाखशुद्धस्य दशम्यां तिथौ पूर्व दिग्गामिन्यां छायायांपाश्चात्यपौरुष्यां जात यां प्रमाणप्राशायां> । (सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं जंभियगामस्स नगरस्स बहिआ उज्जुवालुयाए नईए तीरे) <सुव्रताऽभिधे दिवसे विजयाऽऽख्ये मुहर्ते जम्भिकनाम्नो नगरस्य बाह्यप्रदेशे ऋजुवालकायाः नद्याः तटे> (वेयावत्तत्स चेइयस्स अदूरसामंते) व्यावृत्तचैत्यत्वाद् व्यावृत्तं तस्य व्यावृत्तस्य-जीर्णोद्यानस्य इत्यर्थः। जीर्णव्यन्तराऽऽयतनस्य वा, विजयावर्त वा चैत्यं तस्य अदरसामन्ते-अदूराऽऽसन्ने उचितदेशे इत्यर्थः । AudiciarA ॥२४६॥ For Private & Personal use only IMorary.org Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२४७॥ (सामाकास गाहावइस कट्टकरणंलि) त्ति श्यामाकाऽभिधानस्य गृहपतेः-कौटुम्बिकस्य क्षेत्रे-धान्योत्पत्तिस्थाने (सालपायवस्स अहे गोदोहियाए उक्कुडुयनिसिचाए) <सालवृक्षस्याऽधस्ताद गोदोहिकया उत्कुटुकाऽभिधानया निषद्यया> (आयावगाए आयावेमाणस्स) <आतापनया आतप्यमानस्य> (छट्टेणं भत्तण अपाणएणं हत्थुतराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) (पष्ठेन भक्तेन अपानकेन उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रेण चन्द्रयोगमुपागते सति > (झाणंतरियाए वमाणस्स) शुक्लध्यानं चतुर्दा-'पृथक्त्ववितर्क सविचारम्' 'एकत्ववितर्कमविचारं' 'मूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति' 'उच्छिन्न क्रियमनिवति ।' तेपाम् आद्यभेदद्वये ध्याते अग्रेतनभेदद्वयमप्रतिपन्नस्य केवलज्ञानमुत्पेदे इत्यर्थः। (अणंते अणुसरेनिवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवल वरनाणदंसणे समुप्पन्ने) [अनन्त इत्यादि पूर्वमिव व्याख्येयम् इति] <अनन्तं सोत्कृष्टं निर्व्याघातं निराबरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवलं वरं ज्ञानं च दर्शनं च सर्वप्रकारैः उत्पन्नम्>॥१२॥ ['तए णं . . . अरहा' इत्यादितः 'जाणमा पासमाणे विहरई' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तए णं समणे भगवं महावीरे) <ततः श्रमणो भगवान् महावीर:> (अरहा जाए) अईन्-अशोकादिमहापूजाऽहत्वान् ['अरिहा' इत्यादि क्वचित् तत्र अरीन्-रागादीन् हनि इत्या दे पूर्वमिव जात:-सम्पन्नः (जिणे केवली सव्वन्नू सव्वदरिसी) जिन:रागादिजेता । केवलानि-परिपूर्णानि शुद्धानि अनन्तानि वा ज्ञानादीनि विद्यन्ते यस्याऽसौ केवली। अत एव सर्वज्ञ:-एकस्मिन् समये विशेषाऽवबोधवान् । सर्वदर्शो-द्वितीयसमये सामान्याऽवबोधवान् । (सदेवमणुआपुरस्स लोगस्स परियायं जाणइ पासइ) सदेवमनुजाऽसुरस्य लोकस्य पर्यायं जातावेकवचनम् इति पर्यायान् इति पर्यायान्-उत्पादव्ययलक्षणान् सरकाब ल-% ॥२४७| AR Jain Educ tional For Privale & Personal use only rary.org Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणार टीका ॥२४८॥ HABAR व्या० जानाति-ज्ञानेन, पश्यति-दर्शनेन । न च पर्यायानित्येवोक्ते द्रव्यं न जानाति ? इति शङ्काऽवकाशः। उत्पादव्यययोः निराधारयोः अनुपपत्तेः । तयोः ज्ञानेन तदविष्वग्भावेन वर्तमानमन्वयि द्रव्यमपि ज्ञातमेव । अत एव आह-(सव्वलोए सव्यजीवाण आगई गई ठिइंचवणं उववाय) सर्वलोकवर्तिनां सर्वजीवानाम् आगति-यतः स्थानादागच्छति जीवा विवक्षितमास्पदं । गति-यत्र मृत्वा उत्पद्यन्ते । स्थिति-कायभवस्थितिभेदेन द्विविधामपि । च्यवनं-देवलोकात् मनुष्यतिर्यक्षु अवतरणम् । उपपातं-देवनारकाणां जन्म । तेषां जीवानामिदं (तकं मणो माणसियं) तत्कं-तदीयं मनः चित्तं मानसिकं-चित्तगतं चिन्तारूपापन्नपुद्गल जातं । यद्यपि मनो-मनोगतयोः नाऽस्ति वास्तवो भेदः तथापि व्यवहारनयानुसरणादस्त्येव भेदः । तथा च वकारो भवन्ति 'ममेदं मनसि वर्तते' इति । (भुतं कडं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्म) भुक्तम् अशनपुष्पादि । कृत-चौर्यादि । प्रतिसेवितं प्रतिषेवितं वा-मैथुनादि । आविष्कर्म-प्रकटकतं रहकर्म-प्रच्छन्नकृत 'जानाति पश्यति च' इति डमरुकमणिन्यायेनाऽत्राऽपि सम्बध्यते । (अरहा) [प्राग्वत् ] < अहन्- (अरहस्सभागी) अरहस्यभागी-न रहस्यम्-रकान्तं भजते । जघन्यतोऽपि कोटिसुरसेव्यत्वात् । (तं तं कालं मणवयकायजोगे वट्टमाणाणं सवलोए सम्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ) तत्र तत्र काले मनोवचनकाययोगे वर्तमानानां सर्वलोकानां सर्वजीवानां सर्व भावान्-गुगपर्यायान् । तत्र-सहभाविनः-ज्ञानादयो गुणाः, क्रमभाविनः हर्षादयः पर्यायाः, तान् । अकारप्रश्लेपात् सर्वाऽजीनां-धर्माऽसिमायादीनां पुद्गलाऽस्तिकायान्तानां सर्वभावान् सर्वविवाश्च जानन् पश्यश्च विहरति--आस्ते॥१२॥ तत्राऽऽदिश्य क्षणं धर्म, देवोद्योते जगद्गुरुः । लाभाऽभावान्मध्यमायां, महसेनवनेगमत् ॥१॥ ॥२४८ Lain Educa ional naryong Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२४९॥ श्रीअपापामहापुर्या, यज्ञाऽर्थी सोमिलो द्विजः । मगधागोबरादीयु-स्तत्र चैकादश द्विजाः ॥२॥ इन्द्रभूतिरग्निभूतिः, वायुभूतिः सहोद्भवाः । व्यक्तः सुधर्मा मण्डित-मौर्यपुत्रौ सहोदरौ ॥३॥ अकम्पितोऽचलभ्राता, मेतार्यश्च प्रभासकः। अहंमन्याः स्वयं सर्वे, सर्वज्ञख्यातिभाजिनः ॥४॥ ते च यद्विषयकसन्देहभानः तानि यथा जीवे कम्मे तज्जीव भूय तारिसय बंधमोक्खे य । देवा णेरइए या पुण्णे परलोय व्याणे ।५७६॥ (आ०नि०) पंचण्डं पंचसया अट्ठसया य होंति दोण्ह गणा । दोण्हं तु जुयलयाणं तिसओ तिसओ भवे गच्छो ॥५९७॥ एवं चतुश्चत्वारिंश-च्छतानि मिलिता द्विजाः । कुर्वनि यज्ञकर्माणि, स्वःशर्माणि प्रलिप्सवः ।।५।। अत्रान्तरे-तं दिव्वदेवघोसं सोऊणं, माणुसा (माहणा) तहि तुटा । अहो ! जण्णिएण जटुं, देवा किर आगया इहई ॥५९१॥ सोऊण कीरमाणी महिम, देवेहिं जिणवरिदस्स । अह एइ अहम्माणी, अमरिसिओ इंदभूइत्ति ॥५९८॥ मुत्तूण ममं लोगो किं, वच्चइ एस तस्स पामूले । अन्नो वि जाणइ मए, ठिअंभि कत्तुच्चियं एयं ! ॥१२०॥ (आ०मलय०) वंचिज व मुक्खजणो, देवा कह णेण विम्हयं नीआ । वंदंति संथुर्णति अ, जेणं सव्वन्नूबुद्धीए ॥१२१॥ अहो! सुरा कथं भ्रान्ताः तीर्थाऽम्भ इव वायसाः। कमलाकरवभेका मक्षिका: चन्दनं यथा ॥६॥ करभा इव सवृक्षान् क्षीराऽन्नं शूकरा इव । अर्कस्याऽऽलोकवद् घूकाः त्यक्त्वा यागं प्रयान्ति यत् ॥७॥ युग्मम् ॥ अहवा जारिसओ च्चिअ, सो नाणी तारिसा सुरा तेवि । अणुसरिसो संजोगो गामनडाणं च मुक्खाणं ॥१२२॥ BABASAHARSASARSHASTRA | ॥२४९॥ Jain Educat n ational For Privale & Personal use only library.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्प ॥२५०॥ । स्वगतम् - व्योम्नि सूर्यद्वयं किं स्यात् ? गुहायां केसरिद्रयम् । खड्गौ द्वौ वा प्रतीकारे, किं सर्वज्ञावहं स च ॥८॥ किन्त्वेन्द्रजालिकः कोऽपि, कलाशाली विदेशजः । सर्वज्ञाऽऽटोपमात्रेण, जनस्वर्गिप्रतारकः ॥९॥ सोsवादीद् भो जनाः ! कीदृग्, सर्वज्ञोऽसौ निगद्यते ? । जनैरूचे स्वरूपं को, वक्तुं नामाऽस्य शक्नुयात् ॥१०॥ सदध्यौ त सौ नूनं, मायायाः कुलमन्दिरम् । कथं लोकः समस्तोऽपि विभ्रमे पातितोऽमुना ॥ ११ ॥ न क्षमे क्षणमात्रं तु तं सर्वज्ञं कदाचन । तमः स्तोममपाकर्ते, सूर्यो नैव प्रतीक्षते ॥ १२ ॥ वैश्वानरः करस्पर्श, मृगेन्द्रः श्वापदस्वनम् | क्षत्रियाच रिपुक्षेपं न सहन्ते कदाचन ॥ १३ ॥ मया हि येन वादीन्द्राः, तूष्णीं संस्थापिता समे । गेहेशूरतरः क्वाऽसौ सर्वज्ञो मत्पुरो भवेत् ॥ १४॥ शैला येनाऽग्निना दग्धाः पुरः के तस्य पादपाः । उत्पादिता गजा येन, को वायोस्तस्य पुम्भिकाः || १५ ॥ अग्निभूतिरुवाचैवं भ्रातः ! कस्तेऽत्र विक्रमः ? | कीटिकायां कथं पक्षिराट् करोति पराक्रमम् ॥ १६॥ पद्मस्योत्पाटने हस्ती, कुठारः काशकर्त्तने । मृगस्य मारणे सिंहः सद्भिः किं क्वाऽपि शस्यते ? ॥ १७ ॥ गौतम भ्रातरं प्राह भो ! अद्याप्यवतिष्ठते । वाद्यसौ विहिते मुद्ग-पाके कटुको यथा ॥ १८ ॥ पीलयतस्तिलः कश्चिद्, दलतश्च यथा कणः । सूडयतस्तृणं किञ्चिद-गस्तेः पिवतः सरः ॥ १९ ॥ मयतस्तुषः कोऽपि तद्वदेष ममाऽभवत् । तथापि सासहिनीऽहं मुधा सर्वज्ञवादिनम् ||२०|| एकस्मिन्नजिते यस्मिन् सर्वमप्यजितं भवेत् । एकदा हि सती लुप्त-शीला स्यादसती सदा ॥ २१ ॥ Jain Educentemational किरणावली टीका व्या० ६ ॥२५०॥ library.org Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२५१॥ यतः - छिद्रे स्वल्पेऽपि पोतः किं, पाथोधौ नैव मज्जति । न दुर्गों गृह्यते धीरैः, दुर्गाशे पातितेऽपि किम् ? ॥ २२ ॥ हो ! वादिगणा भोट कर्णाटादिसमुद्भवाः । कस्माददृश्यतां प्राप्ता 2, यूयं मम पुरः सदा ||२३|| लाटा दूरगताः प्रवादि-निवहा, मौनं श्रिता मालवाः, सूकाभा मगधा गता गतमदा, गर्जन्ति नो गौर्जराः । काश्मीराः प्रणताः पलायनकरा जातास्तिलङ्गोद्भवाः, विश्वे चाऽपि स नाऽस्ति यो हि कुरुते, वादं मया साम्प्रतम् ||२४|| कृष्णसर्पस्य मण्डूक- पेटां दातुमुद्यतः । मृपो रदैव मार्जार- दंष्ट्रापाताय सादरः ||२५|| वृषभः स्वर्गजं शृङ्गैः, प्रहर्त्तुं काङ्क्षति द्रुतम् । द्विपः पर्वतपाताय, दन्ताभ्यां यतते रयात् ||२६|| शशकः केस रिस्कन्ध- केसरां क्रष्टुमीहते । मद्दष्टौ यदसौ सर्व वित्त्वं ख्यापयते जने ||२७|| त्रिभिर्विशेषकम् ॥ समीराऽभिमुखस्थेन, दावाग्निज्वलितोऽमुना । अपि कच्छूलता देह-सौख्यायाऽऽलिङ्गिता ननु ॥ २८ ॥ शेषशीर्षमणि लातुं, हस्तः स्वीयः प्रसारितः । सर्वज्ञाऽऽटोपतोऽनेन, यदहं परिकोपितः ||२९|| तावद् 'गर्जति खद्योतः तावद् गर्जति चन्द्रमाः । उदिते च सहस्रांशौ, न खद्योतो न चन्द्रमाः ||३०|| तावद् गजः प्रसृतदानगल्लः, करोति कालाम्बुदगर्जितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु लागुलविस्फोटरवं शृणोति ॥ ३१ ॥ सारङ्गमातङ्गतुरङ्गपूगाः, पलाय्यतामाशु वनादमुस्मात् । आटोपकोपस्फुटकेसरश्रीः, मृगाधिराजोऽयमुपेयिवान् यत् ||३२|| मम भाग्यभराद्यद्वा, वाद्ययं समुपस्थितः । दुर्भिक्षे क्षुधितस्यान्न - लाभश्चिन्तातिगो यथा ॥ ३३ ॥ यमस्य मालवो दूरे, किं स्यात् को वा वचस्त्रिनः । अपोषितो रसो नूनं, किमजेयं च चक्रिणः ॥ ३४ ॥ Jain Educatitermnational ॥२५१॥ elibrary.org Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव टीका व्या ॥२५२॥ PRASTRSHISHASTREARRIERREARRES अभेद्यं किमु वचस्य, किमसाध्यं महात्मनाम् । क्षुधितस्य न किं खाद्य किं न वाच्यं खलस्य च ॥३५॥ कल्पद्रणामदेयं किं, निविण्णानां किमत्यजम् । गच्छामि तर्हि तस्यान्ते, पश्याम्येतत् पराक्रमम् ॥३६॥ लक्षणे मम दक्षत्वं, साहित्ये संहिता मतिः। तर्के कर्कशताऽत्यर्थ, क्य शास्त्रे नाऽस्ति मे श्रमः ॥३७॥ "काउं हयप्पयावं पुरभी देवाण दाणवाणं च । नासेहं नीसेसं खणेण सम्वन्नुवायं से" ॥१२३॥ (आ. मलय०) इत्युदीर्य त्वरा पूर्णो, ययौ वादस्य लिप्सया । पञ्चछात्रशतैः पठ्य-मानोऽसौ विरुदैरिति ॥३८॥ बिरुदानि च-सरस्वतीकण्ठाभरण ! वादिविजयलक्ष्मीशरण! विज्ञाताखिलपुराण ! वादिकदलिदलकृपाण ! निपुणश्रेणिशिरोमणे ! कुमतान्धकारनभोमणे ! विजितवादिवृन्द ! वादिगरुडगोविन्द ! वादिमुखभञ्जन ! निरवद्यविद्याविहितानेकजनरञ्जन ! ज्ञानरत्नरत्नाकर ! महाकवीश्वर ! शिष्यीकृतबृहस्पते ! विनतानेकनरपते ! जितानेकवाद ! सरस्वतीलब्धप्रसाद ! इत्यादीनि । ___ "इअ वुत्तणं पत्तो दट्टुं तेलोकपरिवुडं वीरं । चउतीसाइसयनिहिं संकिओ चिडिओ पुरओ" ॥२४॥ (आ० मलय०) अथ-वीरं निरीक्ष्य सोपान-स्थितो दध्यौ स विस्मितः । किं ब्रह्मा ? शङ्करः किंवा ?, किं विष्णुः? ब्रह्मा वा किमु ॥३९|| चन्द्रः किं ? स न यत् कलङ्कसहितः, सूर्योऽथवा ? नो स यत् तीक्ष्णांशुः किमु वासबो ? न स सह-साक्षो यतो गीयते । किं वा स्वर्णगिरिः ? न सोऽतिकठिनः, ख्यातः सुरद्रुः ? न वा नो स्याचिन्तितमात्रदः स हि जने, हुं वर्द्धमानो ह्यसौ ॥४०॥ आदित्यमिव दुःप्रेक्ष्य, समुद्रमिव दुस्तरम् । बीजाऽक्षरमिवाऽचर्य, दृष्ट्वा वीरं महोदयम् ॥४१॥ 4ASHASAHESS | ॥२५२। Sain Educ a tional For Private & Personal use only Elebrary.org Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२५३॥ कथं मया महत्त्वं हा !, रक्षणीयं पुरार्जितम् । प्रासादं को लिकाहेतोः, भक्तुं को नाम वाञ्छति ॥४२॥ सूत्रार्थी पुरुषो हारं, कस्रोटयितुमीहते ? । कः ? कामकलशं शस्यं, स्फोटयेद् ठीकरीकृते ॥४३॥ भस्मने चन्दनं को वा ?, दहेद् दुःप्रापमप्यथ । लोहार्थी को महाम्भोधौ, नौभङ्गं कर्तुमिच्छति ॥४४॥ "आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केण । णामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसिणा(प्र.सीय) ॥५९९।।(आ० नि०) "हे इंदभूइ ! गोयम !, सागय-मुत्ते जिणेण चिंतेइ । नामपि मे विआणइ, अहवा को में न याणेई" ॥१२५।। (आ० मलय०) स्वागतप्रच्छ ने दध्यौ मिष्टाक्यैः कथं प्रिये ? । कपित्थं तन्न यच्छीघ्रं वातेन पतति द्रुमात् ॥४५॥ न ते गो-मुद्ग-माणिक्य-घट-वल्ली-जनानु ये। साध्या गोपाम्बुमाणिक्यविद्यष्टिकरवायचयैः ॥४६॥ "जइ वा हिययगयं मे संसय मन्निज्ज अहव छिदिजा। तो हुन्ज विम्हओ मे इअ चिंतंतो पुणो भणिओ" ॥१२६॥ (आ० मलय०) किंमन्नि अत्यि जीवो उआहु नत्यित्ति संसओ तुज्झ । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्यो ॥६००॥ (आ० नि०) समुद्रो मथ्यमानः किं, गङ्गापूरोऽथवा किमु । आदिब्रह्मध्वनिः किं वा, वीरवेदश्वनिर्वभौ ॥४७॥ वेदपदानि च-'विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनः तान्येव अनु विनश्यति न प्रेत्यसज्ञाऽस्ति' इति । तत्र- विज्ञानमेव-चैतन्यमेव (घनः) नीलादिरूपत्वाद् विज्ञानधनः स एव एतेभ्य:-पृथिव्यादिरूपेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय-उत्पद्य पुनः तान्येव अनु विनश्यति-तत्रैव च अव्यक्तरूपतया संलीनं भवति इति भावः । तथा 'मृत्वा पुनर्जन्म AA -.कि. २२ ॥२५३॥ $6 in E r mational For Privale & Personal Use Only library.org Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीकल्प ॥२५४॥ प्रेत्य' इत्युच्यते । न तत् सञ्ज्ञा अस्ति न परलोकसञ्ज्ञा अस्ति इतिभावः । एतेषां पदानामर्थः तव चेतसि विपरिवर्त्तते । तदयुक्तं यतोऽयमर्थः - ' विज्ञानघन एव' इति - ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽनन्यवाद् आत्मा-विज्ञानघनः प्रतिप्रदेश मनन्तविज्ञान पर्यायसङ्घात्मकत्वात् स एव एतेभ्यो भूतेभ्यः - क्षित्युदकादिभ्यः समुत्थाय - कथञ्चिदुत्पद्य इति घटविज्ञानपरिणतो हि आत्मा घटाद् भवति, तद्विज्ञानस्य सापेक्षत्वात् । अन्यथा निरालम्बनतया मिध्यात्वप्रसक्तेः । एवं सर्वत्र भाव्यं । पुनः - 'तान्येव' इत्यादि - तेषु भूतेषु व्यवहितेषु अपगतेषु वा आलाऽपि तद्विज्ञानघनात्मना उपरमते अन्यविज्ञानात्मना उत्पद्यते । यदि वा सामान्यरूपतया अवतिष्ठते इति 'न प्रेत्यसज्ञाऽस्ति'- न प्राक्तनी घटादिसञ्ज्ञा अवतिष्ठते साम्प्रतविज्ञानोपयोगविधिनतत्वाद् इति जीवसत्ता । तथा - 'सवै अयम् आत्म ज्ञानमय' इत्यादि । 'ददद' - 'दमो दया दानम्' इति 'दकारत्रयं यो वेत्ति स जीवः " इत्यादिनाऽपि । तथा-'विद्यमानभोक्तुकमिदं शरीरं भोग्यत्वाद् ओदनादिवद्' इत्यादि अनुमानेनाऽपि । तथा -क्षीरे घृतं तिले तैलं, काष्ठेऽग्निः सौरभं सुमे । चन्द्रकान्ते सुधा यद्वत्, तथाऽऽत्माऽङ्गगतः पृथग् || अतोऽस्ति जीवः । “छिन्नंमि संसयम्मि जिणेण जरामरणविप्यमुक्केण । सो समणो पञ्चइओ पंचहिं सह खंडिअस एहिं " || ६०१ ॥ ( आ० नि० ) ततः 'उप्पज्जए वा विगमए वा धुवए वा' इति त्रिपदीमवाच्य द्वादशाङ्गीं स विहितवान् । इति प्रथमगणधरः ॥ 'तं च प्रव्रजितं श्रुत्वा दध्यौ तद्बान्धवोऽपरः । अपि जातु द्रवेदद्रिर्वले जलमपि क्वचित् ॥ १॥ मृगाङ्कमण्डलाज्जातु जायतेऽङ्गारवर्षणम् । वह्नेरपि भवेयुर्वा, ज्वालाः प्रालेयशीतलाः ॥२॥ Jain Edura International किरणावली टीका व्या० ६ ॥२५४॥ nelibrary.org Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२५५॥ SHRISHABHASHA पीयूषादपि मृत्युः स्या-जीवितव्यं विषादपि । चलेत् कुलाऽचलौघोपि, स्याद्वायुरपि निश्चलः ॥३॥ स्यात् व्यत्यासोऽपि रोदस्योः, शुष्येन्नीराकरोऽपि हि । पतेज्ज्योतिर्गणोऽप्येष, भू पातालमा विशेत् ॥४॥ मेरुरप्युद्धियेताऽत्र, हारयेन तु बान्धवः । अश्रद्धया पुनर्व्यक्त्या पप्रच्छ स स्वयं जनान् ॥५॥ पञ्चभिः कुलक। ततः पुनरपि-'तं पव्वइयं सोउं बीओ आगच्छई अमरिसेण । वच्चामि णं आणेमि पराजिणित्ता णं तं समणं ॥६०२।। (आ०नि०) छलिओ छलाइणा सो मन्ने वा इंदजालिओ वावि । को जाणइ कह वत्तं इत्ताहे वट्टमाणी से ? ॥१२७।। (आ० मलय०) सो पक्खंतरमेगंपि जाइ जइ मे तो मि तस्सेव । सीसत्तं हुज्ज गो वुत्तुं पत्तो निणसगासं ॥१२८॥ आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सबन्न सव्वदरिसिणा ॥६०३॥ (आव०नि०) हे अग्गिभूई ! गोअम ! सागयमुत्ते जिणेण चिंतेइ । नामपि मे विआणइ अहवा को में न याणेइ ? ॥१२९।। (आ०मलय०) जइ वा हिअयगय मे०॥१३॥ किं मन्ने अत्थि कम्मं ? उदाहु नत्थित्ति संसो तुज्झ । वेअपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्यो॥६०४॥ (आ०नि०) वेदपदानि च–'पुरुष एव इदं ग्नि सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं उताऽमृतत्वस्ये शानो यदन्नेनाऽतिरोहति यदेजति यन्नेजति यद्रे यदु अंतिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्याऽस्य बाह्यतः' इति । तत्र-'पुरुषः" आत्मैव । एवकारः पुरुषाऽतिरिक्तस्य कर्मप्रकृतीश्वरादिव्यवच्छेदाऽर्थः । इदं सर्वे' प्रत्यक्षं वर्तमान चेतनाऽचेतनस्वरूपं । 'ग्नि' इति वाक्याऽकृतौ । 'यदभृतं' यदतीतं 'यच्च भाव्यं' भविष्यन् मुक्तिसंसारावपि स एव पुरुषः। 'उत' इत्यादि । 'उत'शब्दः समुच्चये । 'अमृतत्वस्य' ॥२५५|| Sain Educ a tional For Privale & Personal Use Only www.rinelibrary.org Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावरु टीका व्या०६ ॥२५६॥ BAकाल अमरणभावस्य मोक्षस्य ईशानः-विभुः लुप्तचकारनिर्देशाद् यच्च अन्नेन-आहारेण अतिरोहति-अतिशयेन वृद्धिमुपैति । तथा यदेजति-चलति पश्वादि। यन्नेजति-न चलति पर्वतादि। यद्रे-मेर्वादि । 'यदु' अंतिके-यत्समीपे 'उ'शब्दः अवधारणे । तथा यदन्त:-मध्ये अस्य-चेतनाऽचेतनस्य सर्वस्य यदेवाऽस्य बाह्यं तत् सर्व पुरुष एव इति । अतः तदतिरिक्तस्यकर्मणः किल सत्ता दुःश्रद्धेया इति तब प्रतिभासते । तथा न प्रत्यक्षादिगोचरं कर्म । कथं वा अमूर्तस्य-आत्मनो मृतेन कर्मणा अनुग्रहोपघातावपि ?। न खलु नभसः चन्दनलकुटादिना तौ भवतः इति कर्माऽभावः। तदसम्यग्-यतः एतेषाम् अयम् अभिप्रायः। तथाहि-इह तावत्त्रिविधानि वेदपदानि । कानिचिद् विधिपराणि, कानिचित्तु अनुवादपराणि, कानिचिच्च अर्थवादपराणि । तत्र-अर्थवादोऽपि स्तुतिनिन्दाऽर्थवादभेदेन द्विधा। क्रमेण उदाहरणानि । यथा-'स्वर्गकामोऽग्निहोत्रं जुहुयाद्' इति । 'द्वादश मासाः संवत्सरः' इति । स सर्वविद् यस्यैष महिमा' इत्यादि । एप यः प्रथमो यज्ञः अग्निष्टोमः। 'यः अनेन अनिष्ट्वा अन्येन यजते स गर्तमभ्यपतद्' इत्यादि । तथा-'पुरुष एवेदम्' इत्यादीन्यपि पुरुषस्तुतिपराणि । यद्वा-जात्यादिमदत्यागाय अद्वतभावनाप्रतिपादकानि न कर्मसत्ताप्रतिषेधकानि । नहि खलु अकर्मण आत्मनः कर्तत्वं युज्यते । 'एकान्तशुद्धतया प्रवृत्तिनिवन्धनाऽभावाद् गगनबद्' इति । तथा (तव)-आगमाऽनुमाने अपि'पुण्यः पुण्येन पापः पापेन कर्मणा' इति भवनोदरवर्ति सौभाग्य-भाग्यविरूपता दरिद्रतादिसमग्रमपि वस्तु अविकलकारणजन्य कार्यत्वाद् घटपटादिवद् इति । तथा-'अमूर्तस्याऽपि आत्मनो मूर्तकर्मकृतौ उपघाताऽनुग्रही अविरुद्धौ एव । विज्ञानस्य मदिरापानौषधादिभिः तद दर्शनात्' इत्येवं वेदाऽर्थ जिनमुखादाकर्ण्य अग्निभूतिरपि पञ्चशतच्छात्रैः सह SHRSHAAURA ॥२५६॥ Sain Educ ational For Private & Personal use only W H brary.org Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२५७॥ RECAC प्रबजितः ॥ इति द्वितीयो गणधरः॥ 'ते पव्वइए सोउं तइयो आगच्छई जिणसगासं । बच्चामि गं, वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि ॥६०६॥ (आ० मलय०) मीसत्तेणोक्गया संपयमिदग्गिभूइणो जस्स । तिहुअणकयप्पणामो स महाभागोभिगमणिज्जो ॥१३१॥ तदभिगमणवंदणणमंसणाइणा हुज्ज पूअपावोऽहं । वुच्छिन्नसंसओ वा वुत्तुं पत्तो जिणसगासं ॥१३२॥ आभट्ठो० ॥६०७॥ तज्जीव तस्सरीरं ति संसओ नवि पुच्छसे किंचि । वेअ०॥६०८॥ वेदपदानि च-विज्ञानघन' इत्यादितः 'न प्रेत्यसंज्ञाऽस्नि' इति । तथा-'सत्येन लभ्यः तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं 8 ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मान' इत्यादीनि च । तत्र-'विज्ञान' इत्यादि पूर्ववत् । परं-'न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति' इति । देहात्मनोः भेदसज्ञाऽस्ति भूतसमुदयमात्रधर्मत्वात् चैतन्यस्य । ततश्च-अमूनि किल शरीराऽतिरिकत्लोच्छेदपरागि। 'सत्येन' इत्यादीनि तदतिरिक्ताऽऽत्मप्रतिपादकानि इति संशयः ते । तदपि न 'विज्ञान' इत्यादेरपि देह भिन्नात्मप्रतिपादकत्वाद । व्याख्या तु पूर्ववद् इति । 'छिन्नंमि० ॥६०९॥ (आव०नि०) इति तृतीयो वायुभूतिः ।। 'किं मन्नि पंचभूआ अस्थि नत्थि त्ति संसओ तुज्झ । वेअपयाण ॥६१२॥ (आ०नि०) वेदपदानि-स्वप्नोपमं वै सालमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेय' इत्यादीनि भूतोच्छेदपराणि । तथा-'पृथिवी देवता आपो देवता' इत्यादि द्यावापृथियो' इत्यादि च भूतसत्ताराणि इति । तत् संशयकारणनिराकरणाय नगपानाह-वेदार्थ यथा- ६ AAAAE ॥२५७॥ Jan Edu a l का For Private & Personal use only albrary.org Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२५८॥ Jain Edu 'स्वप्न वे' इत्यादीनि अध्यात्मचिन्तायां कनककामिन्यादिसंयोगस्य अनित्यत्वाद् विपाककटुकत्वाच्च तद्आसक्तिनिवृत्तिपराणि न तु तदभावप्रतिपादकानि । 'पृथिवी देवता' इत्यादीनि तु तवाऽपि प्रतीतानि, इति चतुर्थो व्यक्तः ( गणधर : ) ।। किं मन्न जारिस इह भवंभि सो तारिसी परभवेपि । वेअपयाण ०' || ६१६ | (आ० नि०) वेदपदानि च - ' पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्' इत्यादीनि भवान्तरसादृश्यप्रतिपादकानि । तथा - 'शुगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इत्यादीनि तद्वैसदृश्यप्रतिपादकानि । इति संशयनिदानम् । न खलु शालिवीजाद् गोधूमाक्रूरप्रसूतिः, कारणानुरूपस्यैव कार्यस्य दर्शनाद् इति युक्तिव । तत्र भगवानाह - पुरुषः खलु इह जन्मनि स्वभावेन मार्दवाऽऽर्जवादिगुणयुक्तो मनुष्यनामकर्म बद्ध्वा मृतः सन् पुरुपत्यमश्नुते न तु नियमतः । एवं पशवोऽपि । जीवगतिविशेषस्य कर्माssयत्तत्वात् । तथा-गोमयादिप्रभववृश्चिका दिकार्यवैस दृश्यमपीति । इति श्रीपञ्चमः सुधर्मागणधरः ॥ 'किंमन्नि बंधमुख अस्थि नस्थि ति संसओ तुज्झ । वेअवयाण०' || ६२० || (अ० नि०) वेदपदान- 'सएप विगुणो विभुर्न वध्यते संसरति वा न मुच्यते मोचयति, न वा एप बाह्यम् अभ्यन्तरं वा वेद' इत्यादि । तथा-'न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोः अपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाऽप्रिये न स्पृशत' इत्यादि । तत्र'स एप:' अधिकृतो जीवः । 'विगुणः' सत्च्वादिगुणरहितः । 'विभुः' - सर्वगतः 'न बध्यते' पुण्यपापाभ्यां न युज्यते । 'संसरति वा' इत्यत्र न इति अनुवर्त्तते । 'न मुच्यते' न कर्मणा वियुज्यते बन्धाऽभावात् । नाऽप्यन्यं ' मोचयति' अकर्तृकत्वात् । 'नवा एप बाह्यम् - आत्मभिन्नं महदहङ्कारादि । 'आभ्यन्तरं - स्वरूपमेत्र 'वेद' इति जानाति । प्रकृतिधर्मत्वाद् nternational किरणावली टीका व्या० ६ ।। २५८।। library.org Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२५९॥ ज्ञानस्य इति बन्धमोक्षाऽनुपपत्तिः। तथा 'न ह वै स.' इत्यादि। तत्र-'न ह वै'-नैव इत्यर्थः। 'सशरीरस्य' इति बाह्याऽऽध्यात्मिहशरीरवतः 'प्रिया०' इत्यादि मुखदुःखाऽभावोऽस्ति । 'अशरीरं वा वसन्तम् ' इति-मुक्तं । 'प्रियाऽप्रिये.'सुखदुःखे इत्यादीनि मोक्षसद्भायाऽऽवेदकानि । ततः कथं निश्चयेन बन्धमोक्षौ ? इति त्वन्मतिः। तत्र भगवानाह-'स एप' इत्यादि 'विगुणः' विगताः छाद्मस्थिकज्ञानादिगुणा यस्य । 'विभुः-केवलज्ञानात्मना सर्वगतः। 'न बध्यते'-मिथ्यादर्शनादिकारगाऽभावात् मनुष्यादिभवेषु 'न संसरति' इत्यादीन्यपि मुक्ताऽऽत्मस्वरूपनिवेदकानि न तु बन्धाद्यभावावेदकानि ॥ इति षष्ठो मण्डितः (गणधरः) । 'किमनि अस्थि देवा............ | <वेअपयाण०> ............' ॥६२४॥ (आ०नि०) तभिदानम् - 'को जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इन्द्रयमवरुणकुबेरादीन ?' इत्यादीनि तनिषेधकानि। 'स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वलोकं गच्छति' इत्यादीनि तद्वयवस्थापकानि । 'यज्ञायुधी' इति-यज्ञ एव दुरितदारकत्वाद आयुधं यस्य । तत्र प्रत्युत्तरम्-'सन्ति देवा मत्प्रत्यक्षत्वाद् । भवतोऽपि आगमात् सन्त्येव । मायोपमत्वं सर्वथाऽनित्यत्वमेव न तु देवप्रतिषेधावेदकमपि ॥ इति सप्तमो मौर्य पुत्रः (गणधरः)। _ 'कि मन्नि नेरइआ अत्यि ....... | < वेअपयाण० >........' ॥६२८॥ (आ० नि०) तन्निबन्धनम्-'न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति' इत्यादि । तथा 'नारको वै एप जायते यः शूद्रान्नमश्नाति' इत्यादि। उतत्र-'न ह वै प्रत्य' इत्यादौ नारकाऽभावः शङ्कयते भवता तदयुक्तम् । यतोऽयमर्थः- न खलु प्रेत्य-परलोके मेर्वाधिवत घCAAAAAACACa ॥२५९॥ Jain Educa t ional For Privale & Personal use only womadrrary.org Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणार टीका ॥२६॥ व्या शाश्वताः केचनाऽपि अबस्थिता नारकाः सन्ति, किन्तु य इहोत्कृष्टं पापमर्जयति स इतो गत्वा प्रेत्य नारको भवति । अतः केनाऽपि तत्यापं न विधेयं येन प्रत्य नारकैभूयते इति । शेपं तु सुबोधमेव ।। इति अष्टमोऽकम्पितः (गणधरः)। किं मन्नि पुण्णपावं अत्थि नत्थि........ । < वेअपयाण. >........' ॥६३२।। (आ०नि०) तन्निदानम्-'पुरुष एवेदं ग्नि सर्वम्' इत्यादि । 'पुण्यः पुण्येन' इत्यादि । तत्रोत्तरम्-प्राग्वद ।। इति नवमोऽचलभ्राता ॥ किं मन्ने परलोगो अत्यि न०........ | <वेअपयाण०>........' ॥६३६॥ (आ०नि०) (गणधरः) _ 'विज्ञानधन एव एतेभ्यो भूतेभ्य' इत्यादि निषेधकम् । 'नारको वै एष जायते' इत्यादि व्यवस्थापकम् । उत्तरं प्राग्वद् ॥ इति दशमो मेतार्यः (गणधरः)॥ 'किं मन्ने निव्याणं अस्थि न०......। < वेअपयाण>......' ॥६४०॥ (आ०नि०) अत्र वेदपदानि 'जरामर्य वा <एतत्सर्व> यदग्निहोत्रं । तथा-'सैषा गुहा दुरवगाहा' । तथा-'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परम् अपरं च तत्र-परं सत्यं ज्ञानं, अनन्तरं ब्रह्म' इति । एतेषां चाऽयमर्थः तव मतौ प्रतिभासते-अग्निहोत्रक्रिया तावद् भूतषधोपकारभूतत्वात् शबलकारा अग्निहोत्रं च जरामयम् इति सदा करणम् इत्युक्तं, तव्यतिरिक्तं च कालाऽन्तरं नास्ति यस्मिन्नपवर्गप्रापण क्रियाऽऽरम्भः, तस्मात् साधनाऽभावात् नाऽस्ति मोक्षः इति मोक्षाऽभावप्रतिपादकानि पदानि, शेषाणि तु तदस्तित्वख्यापकानि इति संशयः। परं त्वम् अर्थ न जानासि । तेषामयमर्थ:-'जरामयं वा' इति वाशब्दोऽप्यर्थे । ततश्च | | यावज्जीवमपि अग्निहोत्रं कुर्यात् न तु नियमत एव । ततश्च-अपवर्गप्रापणक्रियाऽऽरम्भकालाऽस्तित्वमनिवार्यम् इत्यादि SCREENERकलवान ॥२६० Jain Educatio n al WW2 bary.org Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६१॥ ક ॥ इति एकादशः प्रभासः ( गणधर : ) || एवं जनमुखाच्छ्रुत्वा वेदार्थमखिला अपि । द्विजोत्तमाः परिव्रज्य सम्प्रापुः परमं पदम् ||१|| एवं चतुश्चत्वारिंशच्छतानि द्विजाः प्रव्रजिताः । तत्र मुख्यानाम् एकादशानां त्रिपदीपूर्वकम् एकादशाऽङ्ग - चतुर्दशपूर्वरचना गणधर पदप्रतिष्ठा च । ते चैत्रम्-तत्र श्री गौतमस्वामिना निपद्यात्रयेण चतुर्दशपूर्वाणि गृहीतानि । 'प्रणिपत्य पृच्छा च निषद्योच्यते' | प्रणिपत्य पृच्छति गौतमस्वामी - ' कथय भगवन् किं तत्त्वम् ? ' । ततो भगवानाचष्टे - ' उपपन्ने इवा' । पुनस्तथैव पृष्टे - 'विग मे इवा' । पुनरप्येवं कृते वदति- 'धुवे इवा' । एषाः तिस्रो निपद्याः । आसामेव सकाशाद् - 'यत् सद् तद् उत्पादव्ययधौव्ययुक्तम् ' अन्यथा वस्तुनः सत्ताsयोगाद् इत्येवं तेषां गणभृतां प्रतीतिः भवति । ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो बीजबुद्धिवाद् द्वादशाङ्गसुपरचयन्ति । ततो भगवान् तेषां तदनुज्ञां करोति । शक्रश्च दिव्यं वज्रमयस्थालं दिव्यचूर्णानां भृत्वा त्रिभुवनस्वामिनः सन्निहितो भवति । ततः स्वामी रत्नमयसिंहासनाद् उत्थाय परिपूर्णां चूर्णमुष्टिं गृह्णाति । ततो गौतमस्वामिप्रमुखा एकादशाऽपि गणधराः इषदवनततनवः परिपाट्या तिष्ठन्ति । ततो देवाः सूर्यध्वनिगीतशब्दादिनिरोधं विधाय तूष्णीका: शुवन्ति । ततो भगवान् पूर्वं तावदेतद् भणति - ' गौतमस्य द्रव्यगुणपर्यायैः तीर्थमनुजानामि' इति चूर्णाश्च तन्मस्तके क्षिपति । ततो देवा अपि चूर्णपुष्पगन्धवर्षं तदुपरि कुर्वन्ति गणं च भगवान् सुधर्मस्वामिनं धुरि व्यवस्थाप्य अनुजानाति || इति गणधरवादः ॥ १२१ ॥ [ 'ते णं कालेणं' इत्यादित: 'अपच्छिमं अंतरावासं वासवासं उवागए' त्ति पर्यन्तम् ] ॥२६१॥ Intelibrary.org Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२६२॥ Jain Ed तत्र - ( तेणं कालेणं तेणं समरण) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे ) < श्रमणो भगवान् महावीरः ( अट्ठियगामं नीसाए पढमं अंतरावास वासावासं उबागए) त्ति अस्थिकग्रामनिश्रया प्रथमम् अन्तरवासं - वर्षारात्रं- वर्षासु वसनम् उपागतः । अन्तरावास इति वर्षारात्रस्य आख्या । उक्तं च- 'अंतरघणसामलो भयवं' ति वर्षा त्रघनश्यामल इत्यर्थः । (चंपं च पिट्ठिचपं च नीसाए तओ अंतरावासे वासावासं उवागए) चम्पां च पृष्ठचम्पां च निश्रया - अवलम्ब्य त्रयो वर्षारात्राः < वर्षासु वसनम् उपागतः > (वेसालि नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुवालस अंतरावासे वासावास उवागए) एवं वैशाली वाणिज्यग्रामं च निश्वया द्वादश वर्षारात्राः <वर्षासु वसनम् उपागतः > (रायगिहं नगरं नालंदं च बाहिरियं नीसाए चउद्दस अंतरावासे वासावासं उवागए ) राजगृहाद् उत्तरस्यां दिशि नालन्दा > बाहिरिका - शाखापुरविशेषः तत्र निश्रया> चतुर्दश वर्षाौरात्राः वर्षासु वसनम् उपागतः > (छ मिहिलाए दो भद्दियाए) पट् मिथिलापुरि द्वौ भद्रिकापूर्या (एगं आलभियाए एवं सावस्थीए एगं पणियभूमीए) एकम् आलभिकायाम् एकं श्रावस्त्याम् एकं प्रणीतभूमौ वज्रभूम्याऽऽख्याऽनार्यदेशे इत्यर्थः । (एग पावाए मज्झिमाए हत्थिवालस्स रण्णो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए) एक अपश्चिमो वर्षारात्रो मध्यमाsपापायां हस्तिपालस्य राज्ञः > रज्जुका :- लेखकाः तेषां सभा - अपरिभुज्यमाना करणशाला- जीर्णशुल्कशाला तस्याम् इत्यर्थः । वर्षासु वसनम् < उपागतः > 'पश्चिम' शब्द: पर्यन्तवाची मङ्गलार्थं वा अपश्चिम इत्युक्तं । प्राक् किल तस्या नगर्या 'अपापा' इति नाम आसीत् देवैस्तु 'पापा' इत्युक्तं । यतः - भगवान् तत्र कालगतः । छद्मस्थकाले emational किरणावली टीका व्या० ६ ॥२६२॥ helibrary.org Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1२६३॥ RECHARACAAA-% ARKARI जिनकाले च सर्वसङ्ख्यया द्विचत्वारिंशत् वरात्राः ॥१२२॥ ['तत्थ णं जे से' इत्यादितः 'उवागए' ति पर्यन्तम् ] (तत्थ ण जे से' पावाए मज्झिमाए हस्थिवालस्स रणो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए) तत्र-यस्मिन् <मध्यमाऽपापायां हस्तिपालस्य राज्ञः जीर्णशुल्कशालायां पर्यन्तं> अन्तरावासे-वर्षारात्रे <वर्षासु वसनम् उपागतः ॥१२३।। ['तस्स णं' इत्यादितः 'जाव सव्वदुक्खप्पहीणे'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तस्स णं अंतरावासस्स जे से वासाणं च उत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियबहले) < तस्य वर्षारात्रस्य यः सः वर्षाणां चतुर्थों मासः सप्तमः पक्षः कार्तिकमासस्य कृष्ण पक्ष:> (तस्स णं कत्तिथ बहुलस्स पण्णरसी पक्खेणं) (तस्य कार्तिककृष्णपक्षस्य पश्चदशे> दिवसे (जा सा चरमा रयणी) < या सा> चरमा रजनी-दिनाऽपेक्षया पश्वादभाविनी रात्रि:-अमावास्यारात्रिः इत्यर्थः। (तं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे) < तस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः (कालगए) कालगतः-कायस्थितिभवस्थित्योः कालाद् गतः (वइकंते) व्यतिक्रान्तः संसारात् (समुज्जाए) त्ति सम्यग उद्-ऊर्च यातः समुद्यातः। न मुगतादिवत् पुनर्भवाऽवतारी 'ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः ॥१॥ इति तद्वचः।। (छिन्नजाइजरामरणयंधणे) छिन्नं जात्यादीनां बन्धन हेतुभूतं कर्म येन (सिद्धे) सिद्धा-साधिताऽर्थः (बुद्ध) बुद्धः | ॥२६॥ Jain Educa t ional For Private & Personal use only rary.org Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२६४॥ जाकिरणावर ज्ञः (मुत्ते) मुक्त:-भवोपग्राहिकर्मा शेभ्यः (अंतगडे) अन्तकुन्-सर्वदुःखानां (परिनिबुडे) परिनिर्वृतः-कर्मकृतसकलस टीका न्तापविरहात् । किमुक्तं भवति? इत्याह-(सव्वदुक्खप्पहीणे) सर्वाणि दुःखानि-शारीरमानसानि प्रहोणानि यस्य स तथा इति ॥ व्या०६ (चंदे नाम से दोच्चे संवच्छरे) इत्यादि । युगे हि पञ्च संवत्सराः। तत्र तृतीयः पञ्चमश्चाऽभिवद्धिताख्यः शेषाः त्रयः चन्द्राऽऽख्याः। यदागमः___ "चंदे चंदे अभिव ड्डिए अचंदे अभिवड्दिए चेव । पंचसहियं जुगमाणं पण्णत्तं वीअरागेहि" || (जोति० गा० ४९) स च द्वितीयः चन्द्रसंवत्सरः । तस्य प्रमाणं त्रीणि शतानि चतुःपञ्चाशद् अधिकानि अहोरात्राणि द्वादश च पष्ठिभागा दिवसस्य (३५४-१२/६०)। (पीइवद्धणे मासे) कार्तिकस्य हि 'प्रीतिवद्धन' इति नाम । यतः "अभिनन्दनः सुप्रतिष्ठः विजयः प्रीतिवर्द्धनः श्रेयान् शिशिरः, शोभन: हिमवान् वसन्तः कुसुमसम्भवः निदाघः बनविरोधी च" । इति श्रावणादि द्वादश मासनामानि ।। (नंदीवद्धणे पक्खे अग्गिवेसे नाम से दिवसे 'उवसमित्ति' पवुच्चई)" । नन्दीवईनपक्षः। < अग्निवेश्म > | तदिनस्य नाम । त्तिशब्दः अलङ्कारे 'उपशम' इत्यपि नाम इत्यर्थः। यतः- "पूर्वाऽङ्गनामा सिद्धमनोरम: मनोहर: यशोभद्रः यशोधरः सर्वकामसमृद्धः इन्द्रः मूर्दाऽभिषिक्तः सोमनसः धनञ्जयः अर्थसिद्धः अभिजातः अत्याशन: शतञ्जयः अग्निवेश्म" इति पञ्चदश दिननामानि । ॥२६४। (देवानंदा नाम सा रयणो 'निरतित्ति पवुच्चई) देवानन्दा नाम सा-अमावास्या रजनी। यतः BREASTARATHISARS Jain Education national For Private & Personal use only womagelibrary.org Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६५॥ "उत्तमा सुन झत्रा एलापत्या यशोधरा सोमनसा श्रीसम्मूता विजया वैजयन्ती जयन्ती अपराजिता इच्छा समाहारा तेजा अतितेजा देवानन्दा च" । इति पञ्चदश रात्रिनामानि । 'निऋतिः' इत्यपि उच्यते । (अच्चे लवे, मुहत्ते पाण, थोवे सिद्धे, नागे करणे) यस्मिन् लवे भगवान् सिद्धः स लवः-अर्चाऽऽख्यः । स च प्राणापान:-मुहत्तों नाम । स च स्तोकः सिद्धनामा । करणं नागाऽऽख्यं शकुन्यादिषु तृतीयम् अमावास्योत्तरार्द्धभावि । (सव्वट्ठसिद्ध मुहुत्ते) स च मुहर्तः सर्वार्थसिद्धनामा । यतः-"रुद्रः श्रेयान् मित्रं वायुः सुपिता अभिचन्द्रः माहेन्द्रः बलवान् ब्रह्मा बहुसत्यः ईशानः त्वष्टा भावितात्मा वैश्रवणः वारुणः आनन्दः बिजयः विजयसेनः प्राजापत्यः उपशम: गन्धर्वः अग्निवेश्यः शतवृषभः आतपवान् अर्थवान् ऋणवान् भौमः वृषभः सर्वाऽर्थसिद्धः राक्षसश्च" । इति त्रिंशन्मुहर्तनामानि ।। [शेष सुगमं] (साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं कालगए वइकंते जाव सब्वदुक्खप्पहीणे) < स्वातिनक्षत्रेण सह चन्द्रे योगमुपागते सति कालाद् गतः व्यतिक्रान्तः संसारात् यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः॥१२४॥ ['जंच रयणिं च ' इत्यादितः 'उज्जोविया आविहोत्थ' त्ति पर्यन्तं सुगमम् ] (जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे< यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् UMII महावीरः कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (सा णं रयणी बहहिं देवेहिं देवीहि य ओवयमाणे उप्पयमाणेहि य क.कि. २३ उज्जोविया आविहोत्था) < सा रात्रिः बहुभिः देवैः देवीभिश्च अवतरद्भिः उत्पतद्भिः कृतोद्योता अभवत् ॥१२५॥ ['जं रयणिं च णं' इत्यादितः 'कहकहगभूया आविहोत्थ' त्ति पर्यन्तं प्राग्व्याख्यातम् ] MARHTERACTEGRATIOAADARA ॥२६५॥ Sain Education n ational For Private & Personal use only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०६ ॥२६६॥ REAAAAAAAAA% (ज रयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे) < यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः > (सा ण रयणी बहहिं देवेहिं देवीहि य ओवयमाणेहिं उप्पयमाणेहि य) < सा रात्रिः बहुभिर्देवैः देवी भिश्च अवतरद्भिः उत्पतद्भिः > (उम्पिजलगमाणभूया कहकहगभूया आविहोत्था) < अत्याकुलेव अव्यक्ताक्षरकोलाहलमयीव जाता > ||१२६॥ ['जं रयणिं च णं' इत्यादितः केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे) < यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीर: कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः > (तं रणिं च णं जिस्स) तस्यां रात्रौ> जेष्ठस्य अन्तेवासिनः ज्ञानदर्शने समुत्पन्ने इति योज्यम् । (गोयमस्स इंदभूइस्स अणगारस्स अंतेवासिस्स) गोत्रेण गौतमस्य नाम्ना इन्द्रभूते: <साधोः अन्तेवासिनः > (नायए पिज बंधणे बुच्छिन्ने) ज्ञातजे-श्रीमहावीरविषये स्नेहबन्धने व्यवच्छिन्ने-त्रुटिते सति (अर्णते अणुत्तरे) <अनन्ते सर्वोत्कृष्टे > (जाव केवल वरनाणदंसणे समुप्पन्ने) < केवलं केवलवरज्ञानदर्शने> उत्पन्नम् । तदुत्पत्तिव्यतिकरस्त्वेवम्-'स्वनिर्वाणसमये देवशर्मणः प्रतिबोधनाय क्यापि ग्रामे स्वामिना प्रेषितः । तं प्रतिबोध्य पश्चादागच्छन् श्रीवीरनिर्वाणं श्रुत्ता वाहत इव शून्यः क्षण तस्थौ, बमाण च - "पसरइ मिच्छत्ततम गज्जति कुतित्थ कोसिआ अन्ज । दुभिक्खडमरवेराई निसिअरा हुंति सप्पसरा ।। अत्यमिए जह सूरे, मउलेइ तुमंमि संघ कमलवणं । उल्लसइ कुमयतारा-निअरो बिहु अन्ज जिण ! वीर ! ॥ CARRACTECRECACK ॥२६६॥ Jain Educati mational For Private & Personal use only M ilibrary.org Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६७॥ BABASAHASRAEASIES तमगसिअ ससि च नहं विज्झायपईवं च, निसि भवणं । भरहमिणं गयसोहं, जायमणाहं च पहु ! अज ॥" तथा-हा हा वीर ! किं कृतं ? यदीदृशेऽवसरे अहं दूरीकृतः किं मांडकं मण्डयित्वा बालकवत् तबाऽश्चलेऽलगिष्यम् ?, किं केवलभागम् अमार्गयिष्यम् ? किं त्वयि कृत्रिममना अभवम् ?, किं मुक्ती सङ्कीर्णम् ?, किं तव अणक्खरकारकः अभवम् ?, किं वा तव भारोऽभवम् ?, हा वीर ! कथं विस्मारितः ?, अहं कस्याऽग्रे सन्देहान् प्रक्ष्ये ?, हा वीर ! विरहं कुर्वाणेन महान् विरामः कृतः, कस्याऽग्रे कथयामि ? वीर ! वीर ! इति वी....वी...तस्य लग्नाऽभवन् । हुं हुं ज्ञातं-'वीतरागा निस्नेहा | भवन्ति' धिङ्माम् , येन निर्वाणसमये श्रुतोपयोगोऽपि न ददे, धिग्र ममैकपाक्षिकं स्नेहम् । अलं स्ते हेन-'एकोऽस्मि, नाऽस्ति कश्चन मम' एवं सम्यक साम्यं भावयतः तस्य केवलमुत्पेदे। ___"मुक्खमग्गपवनाणं, सिणेहो वज्जसिंखला । वीरे जीवंतओ जाओ, गोअमो जं न केवली ॥" प्रातः इन्द्राद्यैःमहिमा कृतः-"अहङ्कारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये । विषादः केवलायाऽभूत् , चित्रं श्रीगौतमप्रभोः॥" द्वादशवर्षाणि केवलिपर्यायं परिपाल्य 'दीर्घाऽऽयुः' इति कृत्वा सुधर्मस्वामिनो गणं समर्प्य मोक्षं ययौ। सुधर्मस्वामिनोऽपि पश्चात् केवलोत्पत्तिः । सोऽपि अष्टौ वर्षाणि केवलितया विहृत्य आर्य जम्बूस्वामिनो गणं समर्प्य सिद्धिं गतः ॥१२७॥ ['ज रयणिं च णं' इत्यादितो 'दव्वुजोयं करिस्सामोति पर्यन्तम् ।। तत्र-(जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सम्वदुक्खप्पहीणे) < यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः> (तं रयणिं च णं नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा M NAACCORECACAAAAAAA ॥२६७॥ Jain Educatiemational For Privale & Personal use only Arimelibrary.org Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२६८॥ SOCIA अट्ठारसवि गणरायागो) < तस्यां रात्रौ> नव मल्लकिजातीयाःकाशीदेशस्य राजानः, नव लेच्छकिनातीयाः कोशलदेशस्य किरणार राजानः ते च कार्यवशात् गणमेलापकं कुर्वन्ति इति गणराजानः अष्टादश ये चेटकमहाराजस्य भगवन्मातुलस्य सामन्ताः टीका व्या० श्रूयन्ते । ते तस्याम् (अमावासाए पाराभो) अमावास्यायां पारं-पर्यन्तं भवस्य आभोगयति-पश्यति यः सः पाराऽऽभोगः-संसारसागरपारप्रापणप्रवणः तम् । अथवा-पारं-पर्यन्तं यावद आभोग:-विस्तारो यस्य सः पाराऽऽभोगःअष्टप्राहरिकः प्रभातं यावद् सम्पूर्ण इत्यर्थः । तं तथाविधं (पोसहोववासं पट्टविंसु) त्ति पौषधोपवासं प्रस्थापितवन्तःकृतवन्तः क्यचित् 'बाराभोए'त्ति पाठः तत्र-द्वारम् आभोग्यते-अवलोक्यते यैः ते द्वाराऽऽभोगाः-प्रदीपाः तान् कृतवन्तः] आहारत्यागपौषधरूपमुपवासं चाऽकार्युः इति च वृद्धव्याख्या । एतदर्थाऽनुपात्येव च उत्तरसूत्रं-(गए से भावुजोए 18 दव्वुज्जोयं करिस्सामो) गतः स भावोद्योतः-ज्ञानरूपः । ज्ञानज्ञानिनोः अभेदात् ज्ञानमयो भगवान् गत:-निर्वाणं । अत:'द्रव्योद्योतं-प्रदीपरूपं करिष्यामः' इति हेनोः तैः दीपाः प्रवर्तिताः। ततःप्रभृति दीपोत्सवः संवृनः । कार्तिकशुक्लप्रतिपदि च श्रीगौतमस्य केवलमहिमा देवैः चक्रे । अतः तत्रापि जनप्रमोदः। नन्दीवर्धननरेन्द्रश्च भगवतोऽस्तं श्रुत्वा शोकाऽऽतः सन् सुदर्शनया भगिन्या सम्बोध्य सादरं स्ववेश्मनि द्वितीयायां भौजितः ततो 'भ्रातृ द्वितीया पर्वरूढिः ।।१२८॥ ['जं रयणिं च णं' इत्यादितः 'जम्मनक्खत्त सकते' ति पर्यन्तम् ] तत्र-(जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाव सव्यदुक्खप्पहीणे) <(यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (तं रयणि च ण) <तस्यां रात्रौ> (खुद्दार भासरासी नाम महग्गहे) दि ॥२६८ Jain Educa t HOLI ional For Privale & Personal Use Only wa l iorary.org Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६९॥ LOGER क्षुद्रात्पा-करसभावः भस्मराशि:-त्रिंशत्तमो महाग्रहः । ग्रहनामानि चैवम्-'अङ्गारकः विकालकः लोहिताक्षः शनैश्चरः आधुनिकः प्राधुनिकः कण कणकः कणकणकः कणवितानकः कणसन्तानकः सोमः सहितः अश्वासनः कार्योपगः कबुरकः अजकरकः दुन्दुभकः शङ्खः शङ्गनाभः शङ्खवर्णाभः कंस: कंसनाभः कंसवर्णाभः नीला नीलाभासः रूपी रूपावभासः भस्म भस्मराशिः तिलः तिलपुष्पवर्णः दकः दकवर्णः कायः आन्ध्यः इन्द्राग्निः धूमकेतुः हरिः पिङ्गलः बुधः शुक्रः बृहस्पतिः राहुः आस्तिः माणवक: कामस्पर्शः धुरः प्रमुखः विकटः विसन्धि कल्पः प्रकल्पः जाल: अरुणः अग्निः कालः महाकाल: स्वस्तिकः सौवस्तिका वर्द्धमानका प्रलम्ब: नित्यालोकः नित्योद्योतः स्वयंप्रभः अबभासः श्रेयस्करः क्षेमङ्करः आभङ्करः प्रभङ्करः अरजा विरजा अशोकः वीतशोकः विततः विवस्त्रः विशाल: शालः सुव्रतः अनिवृत्तिः एकजटी द्विजटी करः करिकः राजा अगल: पुष्पः भावः केतुः' इति अधाशीतिः ग्रहाः । तत्र भस्मराशिः एकनक्षत्रे (दोवाससहस्सठिइ) द्विवर्षसहस्रस्थितिकः । यतु-'द्विवर्षसहस्रस्थितिः एकराशौ एतावन्तं कालम् अवस्थानाद्' इति सन्देहविषौषध्यामुक्तं तदसङ्गतं-'जाव जम्मनक्खत्ताओ वक्ते भविस्सइ'त्ति अग्रेतनसूत्रेण सह विरोधात् । तस्माद 'एकराशौ पश्चचत्वारिंशद्वर्षशतस्थितिकः' इति बोध्यम् । (समणस्स भगवओ महाबोरस्स जम्मनक्षत्तं संकंते) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य जन्मनक्षत्रं सक्रान्तः> ॥१२९।। ['जष्पभिई' इत्यादितः 'पूआसकारे पवत्तइत्ति पर्यन्तम् ] तथा-['जया णं' इत्यादितः 'भविस्सइति पर्यन्तम् ] -5555 ॥२६९। JainEducationीय For Private & Personal use only INDrary.org Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका व्या० १२७०॥ तत्र-(जप्पभिई च णं से खुद्दाए भासरासी नाम महग्गहे दोवाससहस्सठिइ समणस्स भगवओ महाबोरस्स जम्मनक्खत्तं संकंते) <यदादितः सः क्षुद्रात्मा भस्मराशिः नाम महाग्रहः द्विवर्षसहस्रस्थितिकः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य जन्मनक्षत्र सक्रान्तः> (तप्पभिई च णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंधीण य नो उदिए उदिए पूआसकारे पवत्तई) ततःप्रभृति श्रमणानां निग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च उदितः उदितः-स्फीतः स्फीतः पूजा-अभ्युत्थानादिभिः सत्कार:-वस्त्रादिभिः न प्रवर्तते । (जया णं खुदाए जाव जम्मनक्खत्ताओ वइकंते भविस्सइ) <क्षुद्रात्मा यावत् > भस्मराशौ जन्मनक्षत्राद अतिक्रान्ते च (तया णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंधीण य उदिए उदिए पूआसकारे भविस्सइ) < तदादितः श्रमणानां निर्ग्रन्थानां निग्रन्थीनां च उदितोदितः> पूजासत्कारौ भविष्यत इति सूत्रद्वयेन सम्बन्धः । अत एव इन्द्रेण विज्ञप्तः-'स्वामी! यत् क्षणं अवस्थाय जन्मभे सङ्क्रामतो भस्मकस्य मुखं विफलय । प्रभो! येन त्वाय मोक्ष गते अप्रभविष्णुः असौ महाग्रहः, पश्चात् त्वदीयतीर्थस्य बाधाकारी न स्यात् ।' ताः प्रभुणा उक्तम्-'न खलु त्रुटितमायुः सन्धातुं जिनेन्द्रैरपि पार्यते' ततः अवश्यभाविनी तीर्थबाधा । कलिकनि च कुनृपे पडशीतिवर्षाऽऽयुषि सङ्कोपप्लवकारिणि भवता निग्रहिते, मजन्मनक्षत्राद्भस्मराशिग्रहे व्यतिक्रान्ते कल्किपुत्रधर्मदत्तराज्यादारभ्य भविता श्रमण सङ्घस्य पूजासत्कारः। स चैवम्-यतः प्रायः प्रवचनपीडामुत्पादयितुं पूजाद्यपहर्तुं च कुप्रभव एवं प्रभविष्णवः ते च धर्मदत्तराज्याद् आपश्चमारकं प्रायोऽसम्भविनः । उक्तं च श्रीहेमाचार्यैः श्रीवीरचरित्रे (त्रि० ५० १० स० १३) ॥२७॥ Jain Educa t ional 2 ary.org Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२७॥ 'पितः पापफलं घोरं शक्रशिक्षां च संस्मरन् । दत्तः करिष्यति मही-महच्चैत्यविभूषिताम् ॥१२२॥ पञ्चमारकपर्यन्तं यावदेवमतः परम् । प्रवृत्तिजिनधर्मस्य भविष्यति निरन्तरम्' ॥१२३॥ तथा शत्रुञ्जयमाहात्म्येऽपि-'पञ्चमारकपर्यन्तम्' इत्यादि। एवं सर्व देशविसंवादि कुपाक्षिकबाहुल्यमपि यत् प्रवचनपीडाकारि तस्याऽपि प्रायोऽसम्भव एव भाव्यः। अन्यथा उदितोदितपूजाद्युपपादकसूत्राऽनुपपत्तिः स्यात् । ननु सत्यपि कुपाक्षिकबाहुल्ये सम्प्रतिवत् तदानीमपि पूजासत्कारो भवतु किं बाधकम् ? इति चेत् । उच्यते-यो हीदानीन्तनपूजासत्कारः स च भाविनः स्फीतपूजासत्कारस्य बीजभूतः। न पुनः स्वयं स्फीतः। यतः कुपाक्षिकबाहुल्ये सति आस्ताम् अन्यः सुमार्गपतितोऽपि प्रायो भूयान् जनः कुपक्षसुपक्षयोः तुल्यधिया प्रवर्त्तमानः पूजासत्कारं कुर्वन्नपि न द्वेषिमुद्रामतिकामति । यतः'सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य, न नाथ ! मुद्रामतिशेरते ते । माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षका ये, मणौ च काचे च समानुबन्धाः॥ (स्याद्वाद-मंजरी) इति श्रीहेमाचार्यकृतद्वात्रिंशिकायाम् । अतः तत्कृतः पूजासत्कारोऽपि अकिश्चित्कर एव । यस्तु अनन्यमनाः सुपक्षमेव | कशीकृत्य प्रवर्त्तते स च अल्पीयान् न स्वयं प्रभुश्चेति तत्कृतोऽपि पूजासत्कारो न स्फीतः इति बोध्यम् ॥१३०-१३१॥ ['जं रयणिं च णं' इत्यादितः 'नो चक्खुकासं हव्वमागच्छंति' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(ज रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे) < यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् AMESHES ॥२७१ Sain Educa t ional For Privale & Personal use only Manorary.org Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२७२॥ Jain Education महावीरः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (तं स्यणि चणं) <तस्यां रात्रौ ( कुंधू अणुदधरी नाम समुप्पन्ना) कपृथिव्यां तिष्ठन्ति इति पृषोदरादित्वात् कुन्थुः - प्राणिजातिः । नोद्ध शक्यते इति अनुद्धरी - 'अणु-सूक्ष्म शरीरं घरन्ति इति अनुद्धरी' इति चूर्णिः । < नाम समुत्पन्ना (जा किआ अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंधाणं निग्गंथीणं नो चक्खुफासं हव्वमागच्छंति) या स्थिता इत्यस्य व्याख्यानम् - अचलमाना इति छद्मस्थानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां > चक्षुः स्पर्शदृष्टिपथं शीघ्रं नाऽऽगच्छन्ति । (जा अठिआ चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंधाण य निग्गंधीण य) या च अस्थिता चलन्ती सती छद्मस्थानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च > (चक्खुफासं हव्वमागच्छंति) चक्षुः स्पर्श दृष्टिपथं शीघ्रम् आगच्छन्ति > कुन्ध्यादिशब्देषु स्त्रीत्वम् एकवचनं च प्राकृतत्वादिति ॥१३२॥ [ 'जं पासिता' इत्यादितः 'दुराराहए भविस्सइ' ति पर्यन्तम् ] तत्र (जं पासिता बहुहिं निग्गंथेहिं निग्गंधीहिं य) <यां कुन्धुम् अनुद्धरीं दृष्ट्वा बहुभिः साधुभिः साध्वीमिश्र> (भलाई पचखायाई) भक्तानि प्रत्याख्यातानि - अनशनं कृतमित्यर्थः । ( से किमाहु ? भंते ! ) किमाहुः ? दन्ताः !-गुखः ! किं कारणम् अनुद्धरी उत्पत्तौ प्रत्याख्याने वा ? इति शिष्येण पृष्टे गुरुराह - ( अज्जप्पभिइ संजमे दुराराह भविस्स) अद्यप्रभृति संयमो दुराराध्यो भविष्यति इति-जीवकुलाऽऽकुलितत्वात् पृथिव्यां संयमप्रायोग्यक्षेत्राभावात् पाखण्डिकादिसङ्कराच्च ॥१३३॥ [ 'तेणं कालेणं' इत्यादितः 'हुस्थ' ति पर्यन्तम् ] tonal www किरण टीव व्या ॥२७ ary.org Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२७३॥ KEECLCCESCREECREC तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स इंदभूइपामोक्खाओ चउद्दस समणसाहस्सीओ) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य इन्द्रभूतिप्रमुखाः चतुर्दश श्रमणसहस्राः १४०००> 'साहस्सीओ' ति आपत्वात् स्त्रीत्वम् । (उक्कोसिआ समणसंपया हुत्था) < उत्कृष्टा श्रमणसम्पद् अभवत् > ॥१३४॥ ['समणस्स' इत्यादितः 'अज्जियासंपया हुत्थ' त्ति पर्यन्तं प्रतीतार्थम् ] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स अजचंदणापामोक्खाओ छत्तीसं अजियासाहस्सीओ उक्कोसिआ अज्जियासंपया हुत्था) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य आर्यचन्दनबालाप्रमुखाः षट्त्रिंशत् सहस्राः ३६०००। उत्कृष्टा आर्यिकासम्पद् अभवत् > ॥१३५०॥ ['समणस्स' इत्यादितः 'समणोवामगाणं संपया हुत्थ' त्ति पर्यन्तं प्रतीतम्] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स संखसयगपामोक्खाणं एगा सयसाहस्सी अउठिं च सहस्सा उक्कोसिआ समणोवासगाणं संपया हुत्था) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य शङ्खशतकप्रमुखाणां श्रमणोपासकानां-- श्रावकाणाम् एकं लक्षम् एकोनाश्च पष्टिसहस्राः १५९००० उत्कृष्टा श्रावकाणां सम्पद् अभवत् > ॥१३६।। ['समणस्स' इत्यादितः 'समणोवासियाणं संपया हुत्थ' ति यावत् ] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स सुल सा-रेवइपामोक्खाणं) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य > सुलसानागभार्या द्वात्रिंशत्पुत्रजननी । रेवती-मङ्खलिपुत्रमुक्ततेजोऽचिर्नातरक्तातिसारस्य भगवतः तथाविधौषधदानेनाऽऽरोग्योपकीं। ESSAGAR %2-% ॥२७३॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only M elibrary.org Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प जाकिरणावली टीका ॥२७४॥ व्या०६ <तत्प्रमुखाणां > (समणोवासियाणं लिणि सयसाहस्सीओ अट्ठारससहस्सा उक्कोसिआ समणोवासियाणं संपया हुत्था) <श्राविकाणां त्रयो लक्षाः अष्टादश च सहस्राः ३१८००० उत्कृष्टा श्राविकाणां सम्पद् अभवत् > ॥१३७॥ ['समणस्स' इत्यादितः 'चउद्दसपुरवीणं संपधा हुत्थ'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स तिणि सया चउद्दसपुव्वीणं) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य त्रीणि शतानि ३०० चतुर्दशपूर्वधराणां> (अजिणाणं जिणसंकासाणं सचक्खरसंनिवाईणं जिणो विव अवितह वागरमाणाण) अजिनानाम्-असर्वज्ञानां सता सर्वज्ञतुल्यानां । सर्वे अक्षरसन्निपाता-वर्णसंयोगा ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा तेषां। जिन इव अवितथं-सद नार्थ व्याकुर्वाणानां । केवलि-श्रुत केवलिनोः प्रज्ञापनायां तुल्यत्वात् (उक्कोसिआ हाच उद्दसपुवीणं संपया हुत्थ) <उत्कृष्टा चतुर्दश पूर्वधराणां सम्पद् अभवत् > ॥१३८॥ [समणस्स' इत्यादितः 'ओहिणाणीणं संपया हुत्थ'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स तेरस सया ओहिणाणीणं) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्स त्रयोदशशतानि १३०० अवधिज्ञानिनां> (अइसेसपत्ताणं) अतिशेषा-अतिशयाः आमोषध्यादयः तान् प्राप्तानां (उक्कोसिआ ओहिणाणोणं संपया हत्था) उत्कृष्टा आधिज्ञानिनां सम्पद् अभवत् ॥१३९॥ ['समणस्स' इत्यादितः केवलणाणीणं संपया होत्थति यावत ] तत्र-समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्तसया केवलणाणीण) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त शतानि TECRECRECIA ॥२७॥ 0 Jain Edur For Privale & Personal use only wowgairtelibrary.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARAN ॥२७५|| lesed- ७०० केवलज्ञानिनां> (संभिन्नवरनाणदंसगधराणं) सम्यगभिन्ने-पृथग् समयभाविनी वरज्ञानदर्शने धरन्ति इति । अथवा सम्भिन्ने-परिपूर्णे । केचित्तु-सिद्धसेनदिवाकरमतम् अङ्गीकृत्य 'सम्भिन्नेत्ति'-युगपद् इति व्याख्यान्ति, तदयुक्तम्विशेषणवतीकारेण तन्मतस्य शतशः शकलीकृततात् । (उक्कोसिआ केवलणाणीणं संपया होत्था) < उत्कृष्टा केवलज्ञानिनां सम्पद् अभवत् > ॥१४०॥ [समणस्स' इत्यादितः 'वेउवीणं संपया होत्य'त्ति पर्यन्तं प्रतीतम् ] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्तसया बेउबीणं अदेवाणं देवडिपसाणं उक्कोसिया वेउव्वीणं 5 संपया होत्था) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त शतानि ७०० वैक्रियलब्धिमताम् अदेवानामपि देवर्द्धिविकुर्वणासमर्थानाम् उत्कृष्टा चैक्रियलब्धिमतां सम्पद् अभवत् > ॥१४१॥ ['समणस्स' इत्यादितः 'विउलमईणं संपया होत्थ' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणस्सणं भगवओमहावीरस्त पंचसया विउलमईणं अड्राइजेसु दीवेसु दोसु असमुद्देसु सन्नीणं पंचिंदिआण पजत्तगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पञ्चशतानि ५०० साईद्वयोः द्वीपयोः समुदयोश्च द्वयोः मध्ये स्थितानां सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां मनोगतान् भावान् ज्ञायमानानां> विपुला-बहु४ विधविशेषणोपेतमन्यमानवस्तुग्राहित्वेन विस्तीर्णा मतिः-मनःपर्यायज्ञानं येषां । यथा--'घटः अनेन चिन्तितः, स च सौवर्णः पाटलिपुत्रका-शारदः-कालवर्णः' इत्यादि विपुलमतयो जानन्ति । ऋजुमतीनां तु सामान्या एच, तेषाम् अर्द्धतृतीयाऽगु मकबर ॥२७५॥ Jan Edu For Private & Personal use only elibrary.org Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव टीका ॥२७६॥ व्या० - SCRECECRECRACCA लन्यूननृक्षेत्रस्थितानां सज्ञिनां मनोमात्रग्राहकत्वम् । इतरेषां सम्पूर्ण नृलोके । अत्र दर्शनाऽभावात् 'जाणमाणाणं' इत्येवोक्तम् । (उकोसिआ विउलमईणं संपया होत्था) < उत्कृष्टा विपुलमतीनां सम्पद् अभवत् > ॥ १४२॥ ['समणस्स' इत्यादितः 'वाइसंपया होत्थ'त्ति यावत् सुगमम् ] तत्र-(समणस्स भगवओमहावीरस्स चत्तारि सया वाइणं सदेवमणुआसुराए परिसाए अपराजिआणं उक्कोसिआ वाइसंपया होत्था) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य चत्वारि शतानि ४०० वादिनां देवमनुष्याऽसुरपर्षदि अपराजितानाम् उत्कृष्टा वादिसम्पदा अभवत् ॥१४३॥ ['समणस्स' इत्यादितः 'अजियासयाइं सिद्धाई' ति यावत् सुगमम् ] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त अंतेवासिसथाई सिद्धाइं) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य | सप्त अन्तेवासिनां-शतानि ७०० सिद्धानि > (जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई) < यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणानि > (चउद्दस अज्जियासयाई सिद्धाइं) चतुर्दश च आर्यिकाणां शतानि १४०० सिद्धानि ॥१४४॥ ['समणस्स' इत्यादितः 'अणुत्तरोववाईयाणं संपया होत्थ'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अष्टौ शतानि ८०० अनुत्तरविमानेषु उत्पन्नानां> (गइकलाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं) गतिः-देवगतिरूपा कल्याणी येषाम् । एवं स्थितिः-देवाऽऽयरूपा कल्याणी-उत्कृष्टा येपाम् । अथवा गतौ मनुष्यगतौ कल्याणं येषां स्थितौ ॥२७६। For Private & Personal use only wa lirary.org Jain Educa 264 rational al Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७॥ SACARE देवभवेऽपि कल्याणं येषां वीतरागप्रायत्वात् । अत एव आगमिष्यद् भद्राणाम्-आगामिभवे सेत्स्यमानत्वात् । अथवा गतौप्राणगमनेऽपि, स्थितौ-जीवितेऽपि कल्याणं येषां 'तवनियममुट्टिआणं' इत्याधुक्तेः अभयकुमारादिवत् (उक्कोसिआ अणुत्तरोववोइयाणं संपया होत्था) < उत्कृष्टा अनुत्तरविमानेषु उत्पन्नानां सम्पद् अभवत् > ॥१४५|| ['समणस्स णं' इत्यादितः 'अंतमकासी' इति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणस्स णं भगवओ महावीरस्स दुविहा अंतगडभूमी होत्या) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य द्विविधा > अन्तकृतः-भवाऽन्तकृतः-निर्वाणयायिनः तेषां भूमिः-कालः <अभवत् > (तं जहा-जुगंतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य) < तद्यथा-> युगानि-कालमानविशेषाः । तानि च क्रमवर्तीनि तत्साधाद् ये क्रमवर्तिनः-गुरुशिष्य-प्रशिष्यादिरूपाः पुरुषाः तेऽपि युगानि । तैः प्रमिताः अन्तकृद्भूमिः या सा युगान्तकृद्भुमिः। पर्यायः-तीर्थकरस्य केवलिवकालः तमाश्रित्य अन्तकृद्भभिः पर्यायान्तभूमिः। (जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुर्गतकडभूमी) ति अत्र पञ्चमी द्वितीयार्थे यावत् तृतीयपुरुष एव युगं तृतीयपुरुषयुग-प्रशिष्यं जम्बूस्वामिनं यावद् इत्यर्थः । वीरादारभ्य तृतीयपुरुषयुगं यावत् साधवः सिद्धाः । श्रीवीरः सुधर्मा जम्बूश्चेति । ततः सिद्धिगतिच्छेदः (चउवासपरियाए अंतमकासी) त्ति चतुर्वर्षपर्याये-केवलिपर्यायापेक्षया भगवति जिने सति अन्तं-भवान्तम् अकार्षीत् । तत्तीर्थे केवली सम्बपि साधुः न आरात् कश्चिन्मोक्षं गतः किन्तु भगवतः केवलोत्पत्तेश्चतुर्पु वर्षेषु गतेषु सिद्धिगमनाऽऽरम्भः ॥१४६॥ ['तेणं कालेणं' इत्यादितः 'सव्वदुक्खप्पहीणे ति पर्यन्तम् ] REKAHAASAN ७० ॥२७७॥ Jain Edu wwdothelibrary.org c ational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प दाकिरणावली टीका व्या०६ ॥२७८॥ 64845464 तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता साईरेगाई दुवालसवासाइं छउमस्थपरियागं पाउणित्ता)< तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः त्रिंशद्वर्षाणि गृहवासे स्थित्या पक्षाऽधिकपण्मासाऽधिकानि द्वादश वर्षाणि > छद्मस्थत्वं पालयित्वा-पूरयित्वा इत्यर्थः । (देसूणाई तीसं वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता) ति सार्द्धपञ्चमासोनानि त्रिंशद्वर्षाणि केवलिपर्यायं पूरयित्वा> (बायालीसं वासाइं सामनपरियागं पाउणित्ता) <द्विचत्वारिंशद्वर्षाणि यतिपर्यायं पूरयित्वा> (बावत्तरि वासाई सव्वाउयं पाउणित्ता) < द्विसप्ततिवर्षाणि सर्वाऽऽयुः पूरयित्वा > (खीणे वेअणिजाउयनामगोत्त) <क्षयं गतानि वेदनीयाऽऽयुर्नामगोत्राणि कर्माणि यस्य > (इमीसे ओसप्पिणीए दुसमसुसमाए समाए बहुवइकंताए तीहिं वासेहिं अद्ध नवमेहि अ मासेहिं सेसेहिं) < एतस्याम् अवसर्पिण्यां चतुर्थेऽरके बहुव्यतिक्रान्ते त्रिषु वर्षेषु सार्दाऽष्टमासाऽधिकेषु शेषेषु सत्सु> (पावाए मज्झिमाए हथिपालस्स रन्नो रज्जुगसभाए) < पापायां मध्यमायां नगर्या हस्तिपालस्य राज्ञः लेखकसभायां> (एगे अबीए) एकः-सहायविरहात् अद्वितीयः-एकाकी। न पुनर्यथा ऋषमादयो दशसहस्रादिसाधुभिः सहिता मोक्षं जग्मुः तथेति । अत्र कविः “यन कश्चन मुनिस्त्वया समं मुकिमैयरि(मापदि) तरैजिनैरिव। दुष्षमासमयभाविलिङ्गिनां, व्यनि तेन गुरुनिर्व्यपेक्षता ।। (छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं साइणा नक्खत्तण जोगमुवागएण) < यष्ठेन भक्तेन अपानकेन स्वातिनक्षत्रेण चन्द्रयोगे सति > (पच्चूसकालसमयंसि संपलिअंकनिसण्णे) त्ति प्रत्यूषकाललक्षणो यः समयः-अवसरः तत्र सङ्गतः CRICACACCIA 18॥२७८॥ emakiorea For Pawale & Personal use only m brary or Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२७९॥ पर्यङ्कः-पद्मासनं तेन निषण्णः-उपविष्टः उपविष्टजिनप्रतिमेव इत्यर्थः। (पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणपन्न अज्झयणाई पावफलविवागाई) पश्चपश्चाशदध्ययनानि कल्याण फलविपाकानि, पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि पापफलविपाकानि (छत्तीसं अपुढवागरणाई वागरित्ता) पत्रिंशदपृष्टव्याकरणानि च व्यागीर्य-कथयित्वा (पहाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे) प्रधानं नामाऽध्ययनं मरुदेवाऽध्ययनं विभावयन् श्रीवीरः (कालगए वइकंते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे) कालगतः यावत् | सर्वदुःखप्रक्षीणः ॥१४७॥ ['समणस्स' इत्यादित 'इति दीसइ' ति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सम्वदुक्खप्पहीणस्स) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य > (नववाससयाई वइकताई) इतः सूत्रादारभ्य अन्तरालकालाऽभिधायकसूत्रेषु सत्र षष्ठयाः पञ्चम्यर्थत्वेन निर्वाणाद् इति अध्याहारेण वा व्याख्येयम् । ततश्च श्रीमहावीरस्य निर्वाणान्नववर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि-व्यतीतानि (दसमस्स य वाससयस असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ) दशमस्य वर्षशतस्य अस्या वाचनाया इति टिप्पनकवचनाद् , अस्याः पुस्तकवाचनायाः पर्षद्वाचनायाः वाअयम् अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति इति अक्षरार्थः। भावार्थस्तुयद्यपि तथाविधार्थावबोधकव्यक्तवाक्याऽनुपलम्भाद् विवृत्य वक्तुमशक्यः। तथापि ग्रन्थान्तरानुगतयुक्त्या किश्चिदुच्यते । तथाहि-एतत् सूत्रं 'श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः प्रक्षिप्तम्' इति क्वचित् पर्युषणकल्पावचूनौँ । तदभिप्रायेण श्रीवीरनिर्वा AAAAAAA ॥२७९॥ JainEdubi For Private & Personal use only womdabrary.org Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ २८० ॥ Jain Ed णानवशताऽशीतिवर्षाऽतिक्रमे (९८०) सिद्धान्तं पुस्तके न्यसद्भिः श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः श्रीपर्युपगा कल्पस्याऽपि वाचना पुस्तके न्यस्ता । तथा सम्प्रदाय गाथाऽपि - "वलहिपुरंभि अनयरे देवड्डिपमुहसयलसंवेहिं । पुथ्थे आगमलिहिओ नवसयसीआओ वीराओ" ॥ १ ॥ इति श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः एतत् सूत्रं पुस्तक लिखनकालज्ञापनाय विखितम् इति भावः । अत्र" एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया वाऽतिदीनेषु महाश्रावक उच्यते" ॥१९॥ इति योगशास्त्र-तृतीयप्रकाश- एकोनविंशतितमश्लोकस्य वृत्तौ तु - 'जिनवचनं दुःषमा कालवशादुच्छिन्नप्रायम्' इति मत्वा भगवद्भिः नागार्जुन - स्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् । ततः - 'जिनवचनं बहुमानिना तत्पुस्तकेषु लेखनीयं वस्त्रादिभिः अभ्यर्चनीयं च' इत्यपि दृश्यते । तेन एतदपि विचार्यमेव इति । केचित्तु नवशत अशीति वर्षे वीरात् सेनाङ्गजार्थमानन्दे । सङ्घसमक्षं समहं प्रारब्धं वाचितुं विज्ञेः " ॥१॥ इत्याद्यन्तर्वाच्यवचनात् । 'श्रीवीरनिर्वाणाभवशताशीति (९८०) वर्षाऽतिक्रमे पुत्रमरणाऽऽर्त्तस्य ध्रुवसेननृपस्य समाधिमाघातुम् आनन्दपुरे सभासमक्षं पर्युषणाकल्पो वाचयितुम् आरब्धः' इति वदन्ति परं तत्र इदं विचारणीयम् अस्ति । यतः'क्वचित् त्रिनवत्यधिक नवशत (९९३) वर्षाऽतिक्रमे ध्रुवसेननृपाऽऽग्रहाद् आनन्दपुरे सभासमक्षं पर्युषणाकल्पवाचना जाता' इत्यपि दृश्यते । यदुक्तम् emnational किरणावली टीका व्या० ६ ॥२८० ॥ alibrary.org Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२८॥ RECECRUAERRORCHAEX 'वोरात् त्रिनन्दाङ्क (९९३) शरद्यचीकरत त्वच्चैत्यपूते ध्रुवसेनभूपतिः । यस्मिन् महैः संसदि कल्पवाचना-माद्यां तदानन्दपुरं न कः स्तुते ॥१॥ ___ इति मुनिसुन्दरमरिकृतस्तोत्ररत्नकोशे। एतद् व्यञ्जकमपि-'पुस्तकवाचनातः कियता कालेन पर्षद्वाचना जाता' इति क्वचित् पर्युषणाकल्पावचूणौं इति बोध्यम् । ननु आनन्द पुरे सभासमक्षं पर्युषणाकल्पकर्षणे ध्रुवसेननृपाऽऽग्रहस्य अप्रयोजकत्वमेव पश्यामः। यतः-आनन्दपुरे नृपाद्यनुरोधात् पूर्वमपि पर्पद् वाचनाया विद्यमानत्वमेवाऽस्ति । यदागम: "जे भिक्खु अन्नउत्थियं वा गारस्थियं वा पजोसवेति" इति निशीथसूत्रे उ०१० सू०४६। तद्गाष्यं यथा"पज्जोसवणा कप्पं पजोसवणाए जो उ कडिजा। गिहि अन्नतिथि-ओसन्न-संजईणं च आणाई ॥३२१८॥ गिहि-अन्न उत्थि-ओसन-दुगा संजमगुणेहणुबवेआ। समीयवाससंकाइणो य दोसा समणिबग्गे ॥३२१९॥ दिवसओ न चेव कप्पइ खेत्तं च पडुच्च मुज्जम तेसिं । असती अ व इअरेसिं दंडगमभत्थितो दोसा ॥३२२०॥ एतच्चूर्णिः यथा-'पजोसवणा.' गाहा-"पज्जोसवणा पुव्यवण्णिा गिहत्थाणं अनउत्थियाणं, गिहत्थीणं अण्णतिथिणीणं, ओसभाणं, संजईण य जो एए पज्जोसवेति-एषाम् अग्रतः पर्युषणाकल्पं पठति इत्यर्थः। तस्स चउगुरु आणाईआ दोसा" ॥ 'गिहि अन्न' गाहा-"गिहत्था गिहत्थिणीओ अ एवं दुगं। अहवा अण्णति स्थिगा अण्ण तित्थिणीओ अ। अहवा ओसना ओसनिणीओ अ। एते दुगा। संयमजोगेहिं अणुववेआ। तेसिं पुरओ न कड्डिजति । अहवा एएहिं समं ॥२८१ Jain Educa t ional Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणावल टीका व्या.६ श्रीकल्प समीयवासदोसो भवति । इत्यीसु अ संकमाइआ दौसा भवति । संजईओ जइबि संयमगुणेहिं उववेआ भवंति तहावि समी. बवासदोसो संकदोसो अ"|| 'दिवसओ.' गाहा-"पज्जोसवणा कप्पो दिवसतो कड्डिन चेव कप्पति । जत्थवि खेतं ॥२८॥ 15 पडुच्च कड्डिज्जति । जहा-दिवसओ आणंदपुरे मूलचेइयघरे सव्वजणसमक्खं कड्डिज्जति । तत्थवि साहू णो कढति पासत्थो कड्डति, तं साहु सुणेज्जा, न दोसो। पासत्थाण वा कड्डगस्स असति दंडगेण अभत्थिओ सङ्केहि या ताहे दिवसओ वि कड्डिजति" त्ति निशीथचूणौ इति चेत् । सत्यं, यद्यपि एवं-तथापि निशीथचूणौं कारणिकमेव साधूनां तद्वाचनम् उक्त, ध्रुवसेनपाऽऽग्रहातु कारणाद्यानपेक्षयैव सर्वसम्मतं पर्युषणाकल्पस्य पर्षद्वाचनं प्रवृत्तं । यद्वा-पूर्व कारणिकमपि ग्रन्थोक्तवचनमात्रमेवासीत् परं तथाविधकारणाधनवकाशान्न केनाऽपि साधुना पर्युषणाकल्पः पर्षदि वाचयितुम् | आरब्धो ध्रुव सेननृपाऽऽग्रहात्तु वाचितः सन् सर्वत्राऽपि प्रवृत्त इति सम्भाव्यते । 'तत्त्वे तु बहुश्रुतगम्यम्' इति ॥ (वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इति दीसह) [इत्यादि] __ अत्र केचिद् वाचनान्तरं-क्वचिद् आदर्श पाठान्तरम् । अन्यथा 'इइ दीसई' त्ति पदानुपपत्तिः इतिकृत्वा यदेव अशीतिपक्षे तदेव पाठान्तरेण त्रिनवतिपक्षेऽपि जातम् इति अव्यक्तमेव व्याख्यान्ति । अव्यक्तत्वं च एतत्सूत्रं श्रीमद् भद्रबाहुस्वामिप्रणीतं परं न वाऽपि विवृतम् इति अभिप्रायेणैव बोध्यम् । केचित्पुनः पुस्तकवाचनातः कियकालेन पर्षद्वाचना जाता ? इति वचनात् पूर्वोक्तश्रीमुनिसुन्दरसूविचनाच पुस्तकवाचनाऽपेक्षया अन्या वाचना सा वाचनान्तरं प्राकृतत्वाद् षष्ठयर्थे सप्तमी इति कृत्वा वाचनान्तरस्य-पर्षद्वाचनालक्षणस्य दशमस्य HEREUROSAURUSALALAURES EXCCCCCCESS ॥२८२॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only HIVTibrary.org Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२८३॥ KAAREKHA वर्षशतस्याऽयं त्रिनातितमः (९९३) संवत्सरः कालो गच्छति इति दृश्यते । अयं भावः-नवशताऽशीति (९८०) वर्षे पुस्तकवाचना प्रवृत्ता-नवशतत्रिनवति (९९३) वर्षे च पर्षद्वावना इति । अन्ये तु केचन सन्देहविषौषध्यनुसारेण-'त्रिनवतियुतनवशतपक्षे तु इयताकालेन पञ्चम्याः चतुर्थी पर्युषणापर्व प्रववृते' इति व्याख्यानि परम् एतद् व्याख्यान स्थानकवृत्ति-धर्मोपदेशमालावृत्ति-पुष्पमालावृत्ति यावत् कालकाचार्यकथा-प्रभा. वरुचरित्र-पर्युषणाकल्पचूर्णि-निशीथचूर्णिप्रभृतिभिः विसंवदति । यत:-स्थामकवृत्तौ, धर्मोपदेशमालावृत्तौ, पुष्पमालावृत्ती, सर्वास्वपि कालकाचार्यकथासु, प्रभावकचरित्रे च-धरावासनगराऽधिपतेः 'वज्रसिंह'नाम्नो राज्ञः 'सुरसुन्दरी'नाम्न्याश्च तद्देव्याः पुत्रः कालक'नामा कुमारो वैराग्यात् प्रवजितो युगप्रधानत्वमापन्नः स्वभगिन्याः 'सरस्वती'नाम्याश्च साव्या उपयोपशमननिमित्तं प्रवचनमालिन्यप्रक्षालननिमित्तं च गईभिल्लोच्छेदकारी, 'बलमित्र-भानुमित्र' नाम्नो च स्वभागिनेययोः भागि ने यस्य 'बलभानो' प्रवाजनादिहेतुकाऽप्रीतिवशान्निर्गन: श्रीकालकमरिः प्रतिष्ठानपुरं प्राप्तः। तत्र सातवाहननृपो परोधेन पञ्चमीतश्चतुर्थ्यां पर्युपणापर्व व्यवस्थापितवान् । एकदा च श्रीसीमन्धरजिनप्रशंसातः चमत्कृतचेतसा शक्रेण निगोदविचार-स्वाऽऽयुःप्रश्नव्याकरणसन्तुष्टेनाऽभ्यर्चित इत्यादिव्यतिकरेण व्यावर्णितः । तथा प्रभावकचरित्रे पादलिप्ताचार्यसम्बन्धेस चाऽस्ति बलमित्राऽऽख्यो राजा बलभिदा समः। कालकाचार्यजामेयः सर्वश्रेयःश्रियां निधिः ॥ भवाध्वनीनभव्यानां सन्ति विश्रामभूमयः। तत्राऽऽर्यखपुटा'नाम सूरयो विद्ययोदिताः ॥२॥ ॥२८३ Jain Educat e national For Private & Personal use only library.org Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२८४॥ श्रीवीरमुक्तितः शतचतुष्टये चतुरशीति संयुक्ते (४८४) । वर्षाणां समजायत स श्रीमानार्थखपुटगुरुः ||३|| इत्यादिव्यतिकरेण श्रखपुटाचार्य-कालकाचार्य भागिनेयवलमित्रभानुमित्रादयः सर्वेऽपि एककालीना उक्ताः । तथा पर्युषण कल्पचूर्णि - निशीथचूण्यः बलभित्रभानु मित्र भागिनेयोपलक्षितः श्रीपर्युषणापर्वानेता श्रीकालकसूरिरुक्तः, तथा च गर्दै भलोच्छेदकारी पूर्वोक्ताचार्यराजसमानकालीनश्च पर्युपणानेता श्रीकालकसूरिः कथं त्रिनवतियुतनवशत (९९३) वर्षातिक्रमे सम्भवति ? इति सम्यक् पर्यालोच्यम् । किं च सन्देहविपपध्याम्- तेणउभनवस एहिं समइकं तेहि वद्धमाणाओ । पज्जोसवण चउत्थी कालगसूरिहिं तो विभा ॥१॥ वीसहिं दिहिं कप्पो पंचगहाणीइ कप्पठवणा य । नवसयतेणउ एहिं वुच्छिन्ना संघआणाए ॥ २ ॥ सालाहणेण रण्णा संघारसेण कारिओ भयवं । पज्जोसवणा चउत्थी चाउम्मासं चउदसीए || ३ || मासगपडिकणं पक्खिदिवसंमि चउन्विहो संघो । नवसयतेणउएहिं आयरणं तं पमाणंति || ४ || इति गाथाचतुष्टयं तीर्थोद्गाराधुक्कसम्मतिया प्रदर्शितं तीर्थोद्गारे च न दृश्यते इत्यपि विचारणीयं । यद्यपि च 'तेण अनवसर हिं' इति कालसप्ततिकायां दृश्यते । परं तत्र प्रक्षेपगाथानां विद्यमानत्वेन तदवचूर्णावव्याख्यातत्वेन च इयं गाथा च सूत्रकर्तृका इति सम्भाव्यते । तत्त्रं तु सम्यग् एतदाम्नायविद्वेद्यम् । इति एतत् सूत्रव्याख्याने बहुश्रुता एव प्रमाणम् इति बोध्यम् ॥ १४८ ॥ Jain Education national इति श्रीजैनशासन सोधस्तम्भायमानमहामहोपाध्यायश्रीधर्म सागरगणिविरचितायां कल्प किरणावल्यां पष्ठं व्याख्यानं समाप्तम् । किरणाव टीका व्या० ॥२८ www.janbrary.org Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२८५ ॥ ७२ अथ सप्तमं व्याख्यानं प्रारभ्यते । अथ जघन्य - मध्यमोत्कृष्टवाचनाभिः श्रीपार्श्वनाथचरित्रमाह[“तेणं कालेणं' इत्यादितः 'विसाहाहिं परिनिन्कुडे' ति पर्यन्तम् ] तत्र - (तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे णं अरहा पुरिसादाणीए ) त्ति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्व नामा अर्हन्> पुरुषाऽऽदानीयः - पुरुपञ्चासौ पुरुषाऽऽकारवर्त्तितया आदानीयः - आदेयवाक्यतया पुरुषाऽऽदानीयः पुरुषप्रधान इत्यर्थः । पुरुषविशेषणं तु - 'पुरुष एव प्रायः तीर्थकर :' इति ख्यापनार्थम् । पुरुषैः वा आदानीयः - ज्ञानादिगुणतया स पुरुषाऽऽदानीयः । (पंचविसाहे होत्था । तं जहा -विसाहाहिं चुए चहत्ता गर्भ वक्कते । विसाहाहिं जाए । विसाहाहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं फवइए । विसाहाहिं अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसि पडिपुणे केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने । विसाहाहिं परिनिब्बुडे) < पञ्चसु स्थानेषु यस्य विशाखा नक्षत्रम् अभवत् । तद्यथा-विशाखाभिः चन्द्रयोगे च्युतः, देवभवात् । च्युत्वा च गर्भ व्युत्क्रान्तः - उत्पन्नः । विशाखाभिः जातः । विशाखः भिः द्रव्यभावाभ्यां मुण्डितो भूला अगारात् अनगारितां साधुतां प्रत्रजितः । विशाखाभिः अनन्तम् अनुत्तरं निर्व्याघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवलम् - असहायं वरं ज्ञानं च दर्शनं च समुत्पन्नम् । विशाखाभिः युक्ते चन्द्रे परि-सामस्त्येन निर्वृतः ॥ १४९ ॥ ['तेणं कालेणं' इत्यादित: 'कुच्छिसि गन्मत्ताए वकते' ति पर्यन्तं सुगमम् ] Jain Educatioemational ॥ २८५ ॥ ibrary.org Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्प ॥२८६ ॥ तंत्र- (ते काले तेणं समएणं पासे णं अरहा पुरिसादाणीए ) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्वनामा अर्हन् पुरुषाssदानीय > (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले ) < यः सः ग्रीष्मस्य प्रथमः मासः प्रथमः पक्षः चैत्रबहुल: > (तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खे णं) < तस्य चैत्रबहुलस्य चतुर्थीतिथौ > (पाणयाओ कप्पाओ वीसं सागरोवमहिआओ अनंतरं चयं चत्ता) - प्राणतकल्पात् विंशतिसागरोपमस्थितिकात् अनन्तरं च्यवनं कृत्वा > (इव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वाणारसीए नयरीए आससेणस्स रन्नो वामाए देवीए ) < इव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे वाणारस्यां नगर्याम् अश्वसेनस्य राज्ञः वामायाः देव्याः > (पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागणं) मध्यरात्रे विशाखा नक्षत्रेण चन्द्रेण योगमुपागतेन > (आहारवती ए (७००) भववकंतीए सरीरवकंतीए कुच्छिसि गन्भत्ताए वक्ते) आहारापक्रान्त्या भवाऽपक्रान्त्या शरीराऽपक्रान्त्या कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्तः - उत्पन्नः > ॥ १५०॥ ['पासे णं' इत्यादितः 'तं गर्भ परिवहइ' त्ति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र - ( पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तिन्नाणोचगए आवि होत्था) पार्श्वनामा अर्हन् पुरुषाऽऽदानीयः मतिश्रुताऽवधिज्ञानत्रयसहितोऽभवत् (चइस्सामित्ति जाणइ, चयमाणे न जाणइ, चुएमित्ति जाणइ) च्यवनभवि व्यत्कालं जानाति, च्यवमानस्तु न जानाति, च्युतस्तु जानाति > । ( तेणं चेव अभिलावेणं सुविणदंसणविहाणेणं सव्वं जाव नियगं हिं अणुपविट्ठा जाव सुमुहेणं तं गर्भ परिवहइ) < तेनैव अभिलापेन स्वप्नदर्शनविधानेन Jain Educanernational किरणावली टीका व्या० ७ ॥२८६॥ Delibrary.org Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२८७॥ BARADAAEENADAI सर्व यावत् वामादेवी निजकं गृहमनुप्रविष्टा यावत सुखं सुखेन तं गर्भ परिवहति> ॥१५१।। ['तेणं कालेणं' इत्यादितः 'दारगं पयाय' ति पर्यन्तं सुबोधम्] तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे णं अरहा पुरिसादाणोए) <तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्वनामा अईन् पुरुषाऽऽदानीय:> (जे से हेमंताणं दुच्चे मासे तच्चे पक्खे पोसबहुले) < यः सः हेमन्ताद्वितीयः मासः तृतीयः पक्षः पौषबहुल:> (तस्स णं पोसबहुलस्स दसमी पक्खे णं) <तस्य पौषबहुलस्य दशमी तिथौ> (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदिआणं वइकंताणं) < नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अर्धाऽष्टमेषु दिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु> (पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तण जोगमुवागएणं आरोग्गा आरोग्गं दारयं पयाया) <मध्यरात्रे विशाखाभिः युक्ते चन्द्रे आरोग्या-वामा रोगरहितं दारकं प्रजाता> ॥१५२।। [ज रयणिं च णं' इत्यादितः 'होत्थ' त्ति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र- ( रयणि च णं पासे अरहा पुरिसादाणीए जाए) < यस्यां रजन्यां पार्श्वनामा अईन पुरुषाऽऽदानीयः जात:> (सा ण रयणी बहुहिं देवेहिं देवीहि य जाव उम्पिजलमाणभूआ कहकहगभूआ आवि होत्था) < सा रात्रिः बहूभिः देवैः देवीभिश्च यावत् उप्पिञ्जलमाणः-भृशमाकुलः अव्यक्तवर्णरवमयी अभवत् ॥१५३॥ 'सेस तहेव' इत्यादितः 'पासे नामेणं' इति पर्यन्तम्] तत्र-(सेसं तहेव । नवरं पासाभिलावेणं भाणियव्वं जाव तं होऊ णं कुमारे पासे नामेणं) <शेषं तथैव । NARESCAAAAAAलबल ॥२८७ Jain Educatie m ational For Privale & Personal use only M aibrary.org Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोकल्प ॥२८८॥ Jain Educati मनर श्रीमहावीरवत् । नवरं पार्श्वनाम्ना भणितव्यम् अस्मिन् गर्भस्थिते सति शयनस्थिता जननी कृष्णं सर्प सर्पन्तं पश्यति स्म इति 'पार्श्व' इति नाम । क्रमेण यौवनप्राप्तिरेवम् – धात्रीभिरिन्द्रादिष्टाभि - लल्यमानो जगत्पतिः । नवहस्तप्रमाणाऽङ्गः क्रमादाप च यौवनम् ॥ १ ॥ ततः - कुशस्थलेश - प्रसेनजित्पुत्रों प्रभावतीनाम्नीं कन्यामागृह्य पित्रा परिणायितः । अन्येद्युर्गवाक्षस्थः स्वामी पुरीं पश्यन् बहिर्गच्छन्तो नागरान् नागरीच पुष्पोपहारभृतो वा कश्चित् पृष्टवान् । स आह-रोरद्विजसुतः कृपया लोकैर्जीवितः कमठनामा । अन्येद्यू रत्नाद्यलङ्कृतेश्वरान् 'प्राय् जन्मतपसः फलम्' इति तपस्वी जातः । पञ्चाऽग्न्यादितपस्तपन् कन्दफलादिभोजनः । सोऽयं पुर्या बहिरागतः । तमचितुं पौरजना व्रजन्तः सन्ति । स्वाम्यपि कौतुकमिपात् सपरिवारः तं दृष्टुं यौ । दृष्ट्वा च दह्यमानं महोरगं करुणाम्भोधिर्भगवानाह - 'अहो ! अज्ञानम् अज्ञानं ' यत् तपस्व्यपि अस्य दया नास्ति । अहो ! तपस्विन् ! मूढतया त्वं धर्मस्य तत्त्वं न वेत्सि । महाऽऽरम्भरतः किं दयां विना वृथा कष्टं करोषि ? | यतः - कृपानदीमहातीरे सर्वे धर्मास्तृणाङ्कुराः । तस्यां शोषमुपेतायां कियन्नन्दति ते पुनः ||१|| इत्यादि , आकर्ण्य कमठोऽवोचत् - ' राजपुत्रा हि गजाऽश्वादिक्रीडां कर्त्तुं जानन्ति, धर्मं तु तपोधना वयमेव जानीमः ' । ततः स्वामिना - 'अग्निकुण्डात् काष्ठमाकृष्य कुठारेण द्वेधाकृत्य च तापविह्वलः पन्नगो निष्कासितः' । स च भगवनियुक्त पुरुषमुखान्नमस्कारान् प्रत्याख्यानं च निशम्य तत्क्षणादेव विपद्य च धरणेन्द्रोऽभवत् । 'अहो ! ज्ञानवान् भगवान्' इति जनैः स्तूयमानः स्वगृहं ययौ स्वामी । कमठस्तु मृत्वा मेघकुमारेषु मेघमाली देवो जातः ॥ १५४ ॥ ational किरणाव टीका व्या० ॥२८ www.jbrary.org Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['पासे णं' इत्यादितः 'एवं वयासी' इति पर्यन्तं प्राग्वत् ] ॥२८९॥ तत्र-(पासे णं अरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूबे आलीणे भद्दए विणीए तीस वासाई अगारवासमझे वसित्ता) < पावनामा अर्हन् पुरुषाऽऽदानीयः दक्षः दक्षप्रतिज्ञः विशिष्टरूपः गुप्तेन्द्रियः सरल: विनीतः त्रिंशद् वर्षाणि गृहवासे स्थित्वा > (पुणरवि लोगतिएहिं जिअकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इटाहिं जाव एवं वयासी) < पुनरपि विशेषतश्च लोकान्तिका: जितकल्पिता देवाः ताभिः इष्टाभिः वाग्भिः यावत् एवं वदन्ति स्म > ॥१५॥ ['जय जय नंदा' इत्यादितः ' पति ' इति पर्यन्तं प्राग्वत् ] तत्र-(जय जय नंदा! जय जय भद्दा ! जाव जय जय सई पउंजंति) < जयं लभस्व नन्द ! कल्याणकारी ! यावत् 'जय जय' शब्दं प्रयुञ्जते > ॥१५६॥ [ 'पुस्विपि णं' इत्यादितः 'अणगारि पव्वइए'त्ति पर्यन्तं प्राग्वत् ] तत्र-(पुधिपि णं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ अणुत्तरे आहोइए तं चेव सव्वं जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता) < मनुष्योचिताद् गृहस्थधर्मात् पूर्वमपि पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषाऽऽदानीयस्य अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टमवधिज्ञानम् आभोगिकम् तदेव सर्व यावत् दानं दायिकेभ्यः-गोत्रिकेभ्यः परिभाज्य > .कि.२५ मा (जे से हेमंताणं दुच्चे मासे तच्चे पक्खे पोसबहुले तस्स णं पोसबहुलस्स इकारसी दिवसे णं) < यः सः हेमन्ततॊः द्वितीयः मासः तृतीयः पक्षः पौषबहुलः तस्य पौषबहुलस्य एकादशीदिवसे > (पुब्वण्हकालसमयसि SEASALAAAAAE ॥२८९॥ Jain Educatiemational For Private & Personal use only wwargamelibrary.org Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प।२९०॥ किरणाबली टीका व्या०७ BARSHAHARASHR विसालाए सिबियाए सदेवमणुआसुराए परिसाए तं चेव सव) < पूर्वाण्हकालसमये विशालाभिधशिविकायामारुह्य सदेवमनुजाऽसुरया पर्षदा तदेव सर्व > (नवरं वाणारसिं नगरि मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता) < नवरं वाणारसीनगरीमध्येन निर्गच्छति निर्गत्य > (जेणेव आसमपए उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ) < यत्रैव 'आश्रमपद' उद्यानं यत्रैव अशोकवरपादपः-वृक्षः तत्रैव उपागच्छति > (उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुअइ) < उपागत्य अशोकवरपादपस्य अधः शिविका स्थिरीकारयति, कारयित्वा च शिबिकातः प्रत्यवतरति, प्रत्यवतीर्य स्वयमेव आभरणमाल्यालङ्कारान् उन्मुञ्चति-अवतारयति > (ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ) < अवतार्य स्वयमेव पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति > (करित्ता अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तणं जोगमुवागएणं एग देवदूसमादाय तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए) < कृत्वा, अष्टमेन भक्तेन अपानकेन विशाखाभिः चन्द्रयोगे सति एकं देवदूष्यं-दिव्यवस्त्रविशेषम् आदाय त्रिभिः पुरुषशतैः साधं द्रव्यभावाभ्यां मुण्डो भूत्वा गृहानिक्रम्य अनगारिता-साधुतां प्रवजित:-श्रमणीभूतः > ॥१५७॥ ['पासे णं' इत्यादितः 'अहियासेइ'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तेसीइं राइंदियाई निच्च वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केह | उवसग्गा उप्पज्जति । तंजहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्खजोणिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा | WEARSHADAKIRANAGAR SS ॥२९॥ Jain E malignal For Privale & Personal use only M elibrary.org Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२९॥ 5555555555 वा) < पार्श्वनामा अर्हन् पुरुषाऽऽदानीयः ज्यशीतिः दिवसानि नित्यं व्युत्सष्कायः त्यक्तदेहः ये केऽपि च उपसर्गाः उत्पद्यन्ते । तद्यथा-देवकृताः मनुष्यकृताः तियकृताः अनुकूलाः प्रतिकूलाः वा > तत्र देवोपसर्गः कैमठसम्बन्धी । स चैवम्-स्वामी प्रव्रज्य एकदा विहरन् तापसाश्रमे कूपसमीपे न्यग्रोधाऽधो निशि प्रतिमया स्थितः । इतः स 'मेघमाली' & सुराऽधमः श्रीपार्श्वमुपद्रोतुम् आगत्य अमर्षाऽन्धः वैताल-शार्दूल-वृश्चिकादिभिः अक्षुब्धं भगवन्तं वीक्ष्य विशेषेण गगने अन्धकारसनिभान् मेघान् विकृत्य कल्पान्तमेघवर्षितुमारेभे, विधुच्च ब्रह्माण्डं स्फोटयन्तीव दिशो व्यानशे । क्षणादेव नासाग्रं प्राप्ते जले आसनकम्पेन धरणेन्द्रः समं महिषीभिः समागत्य फणैः प्रभुमाच्छादितवान् । अवधिना मेघमालिनमवलोक्य-रे ! किमिदमारब्धम् ? इति हक्कितो, भीतः, प्रभुशरणं प्रपद्य, प्रणम्य च स्वस्थानं ययौ। धरणेन्द्रोऽपि नृत्यादिविधिपुरस्सरं प्रभुभक्तिं विधाय ययौ इति । (ते उप्पन्ने सम्म सहइ खमइ तितिक्खड अहियासेइ) भवे १ कमठ - मरुभूति ६ भील - बज्रनाभराजा २ कुर्कुटसर्प - हस्ती ७ सप्तमनरके - मध्यमेवेयके देव ३ पञ्चमनरके - अष्टमस्वर्गे देव ८ सिंह - महाविदेहे चक्री ४ सर्प - विद्याधर ९ चतुर्थनरके - दशमस्वर्गे देव ५ षष्ठनरके - द्वादशस्वर्गे देव १० कमठतापस - पार्श्वनाथ भगवान् BABASAHARANAS भवे ॥२९॥ For Private & Personal use only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका काव्या०५ ॥२१२॥ एवं देवादिकतान् र तान् उत्पन्नान् > उपसर्गान् भगवान् सम्यक सहते-भयाऽभावेन, [इत्यादि प्राग्वत ] क्षमते- क्रोधाऽभावेन, तितिक्षते-दैन्याद्यनवलम्बनेन, अध्यासयति-अविचलकायतया ॥१५८॥ ['तए णं से पासे' इत्यादितः 'जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ'त्ति पर्यन्तं प्राग्वत् ] तत्र-(तए ण से पासे भगवं अणगारे जाए) < ततः सः पाश्चनामा भगवान् अनगारः जातः > (ईरियासमिए जाव अप्पाणं भावमाणस्स तेसीइ राइंदियाई वइकंताई चउरासीइमस्स राइंदियस्स अंतरावमाणस्स) < ईर्यायां सम्यक प्रवृत्तः यावत् आत्मानं भावयतः व्यशीतिः दिवसानि व्यतिक्रान्तानि, चतुरशीतितमस्य दिवसस्य अन्त:-मध्ये वर्तमानस्य > (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खे पं) < यः सः ग्रीष्मतॊः प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः चैत्रबहुल: तस्य चैत्रबहुलस्य चतुर्थीतिथौ > (पुव्वहकालसमयंसि धायईपायवस्स अहे छटेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तणं जोगमुवागएणं) < पूर्वाहकालसमये-प्रथमप्रहरे धातकीपादपस्य अधः षष्ठेन भक्तेन अपानकेन विशाखाभिः युक्ते चन्द्रे > (झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अर्णते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ) < शुक्लध्यानस्य आद्यभेदद्वये ध्याते अग्रेतनभेदद्वयमप्रतिपन्नस्य अनन्तं यावत् केवलवरं ज्ञानं च दर्शनं च समुत्पन्नं यावत् जानन् पश्यंश्च विहरति-आस्ते ॥१५९॥ ['पासस्स णं' इत्यादितः 'जसे विय'त्ति पर्यन्तम् ] RECRETREATRE SHASHISHASABAIRAAमर AAAAAE ॥२९२। Sain Educ a tional For Private & Personal use only rayong Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२९३॥ AAAAAERONay तत्र-(पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ट गणा अढ गणहरा होत्था । तं जहा-सुभे य अजघोसे य वसिढे बंभयारि य । सोमे सिरिहरे चेव वीरभद्दे जसेवि य ॥१॥) < पार्थस्य अर्हतः पुरुषाऽऽदानीयस्य अष्टौ > एकवाचनिका यतिसङ्गाता गणाः, गणधरा:-तन्नायकाः सूरयः अष्टौ । आवश्यके तु दश गणा दश गणधराश्चो काः तस्मादिह (तथापीह) स्थानाङ्गे च 'द्वौ अल्पाऽऽयुष्कत्वादिकारणान्न उक्तौ' इति ।। टिप्पन केऽपि एवमेव व्याख्यानात् । < तद्यथा-शुभः आर्यघोषः वशिष्टः ब्रह्मचारी सोमः (प्र. सौम्यः) श्रीधरः (श्रीगृह)। वीरभद्रः यशस्वी > (स्थानागसूत्रेऽयं क्रमः) ['पासस्स णं अरहओ' इत्यादितः 'समणसंपया हुत्थ'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(पासस्स णं अरहओ पुरसादाणीयस्स अजदिन्नपामोक्खाओ सोलससमणसाहस्सीओ उकोसिया समणसंपया हुत्था) < पार्थस्याहतः पुरुषाऽऽदानीयस्य आर्यदिनप्रमुखाणि पोडशश्रमणसहस्राणि (१६०००) उत्कृष्टा श्रमणसम्पद् अभवत् > ॥१६१॥ ['पासस्स ' इत्यादितः 'अजियासंपया हुत्थ'त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स पुप्फचूलापामोक्खाओ अद्वतीसं अजियासाहस्सीओ उक्कोसिया अजियासंपया हुत्था) < पार्श्वस्याहतः पुरुषाऽऽदानीयस्य पुष्पचूलाप्रमुखाणि अष्टत्रिंशत् आर्यिकासहस्राणि (३८०००) उत्कृष्टा आर्यिकासम्पद् अभवत् > ॥१६२॥ ४/॥२९३॥ GREELCAREER CATEGOR6 Jan Educa t ional For Private & Personal use only www.ganeibrary.org Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥२९४॥ -RESS ['पासस्स णं' इत्यादितः 'समणोवासग. 'त्ति पर्यन्तम् ] किरणावल तत्र-(पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्य सुव्वयपामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सीओ || टीका VI व्या०७ च उसद्धिं च महस्सा उछोसिया समणोवासगसंपया होत्था र पार्श्वस्याईतः पुरुषादानीयस्य सुवेतप्रमुखाणां श्रमणोपासकानां श्रावकाणाम् एकं लक्षं चतुःषष्ठिश्च सहस्राः (१६४०००) उस्कृष्टा श्रमणोपासकसम्पद् अभवत् ॥१६३।। ['पासस्स णं' इत्यादितः 'समणोवासिया०'त्ति पर्यन्तम् ] तर- (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स सुनंदापामोक्खाणं समणोवासियाणं तिणि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था) < पार्श्वस्याहतः पुरुषाऽऽदानीयस्य सुनन्दाप्रमुखाणां श्रमणोपासिकानां त्रयो लक्षाः सप्तविंशच सहस्राः (३२७०००) उत्कृष्टा श्रमणोपासिकानां-श्राविकाणां सम्पद् अभवत् > ॥१६४॥ ('पासस्स णं' इत्यादितः 'चउद्दस.' त्ति पर्यन्तम् ) तत्र-(पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्थस्स अधुढसया चउहसपुब्बीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर जाव चउद्दसपुब्बीणं संपया होत्था) < पार्श्वस्याहतः पुरुषादानीयस्य सार्दानि त्रीणि शतानि (३५०) चतुर्दशपूर्वधराणाम् असर्वज्ञानां सतां सर्वज्ञतुल्यानां सर्वाक्षर० यावत् चतुर्दशपूर्वधराणां सम्पद् अभवत् > ॥१६॥ [ 'पासस्स णं' इत्यादितः 'अणुत्तरो०' त्ति पर्यन्तम् ] ॥२९४॥ AKRECORA RECOREA Jain Educathemational For Privale & Personal use only wasiralbrary.org Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२९५|| तत्र-(पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स चउद्दससया ओहिणाणीणं, दससया केवलनाणीणं, इक्कारससया वेउवियाणं, छस्सया रिउमईणं, दस समणसया सिद्धा, वीसं अज्जियासया सिद्धा, अट्ठमसया विउलमईणं, छस्सया वाईणं, बारससया अणुत्तरोववाइआणं संपया होत्था) < पार्थस्यार्हतः पुरुषादानीयस्य चतुर्दशशतानि १४०० अबधिज्ञानिनां, दशशतानि १००० केवलज्ञानिनाम्, एकादशशतानि ११०० वैक्रियलब्धिमतां, षट्शतानि ६०० ऋजुमतीनां, दश श्रमणशतानि १००० सिद्धानि, विंशतिः आर्यिकाणां शतानि २००० सिद्धानि, सार्धानि सप्तशतानि ७५० विपुलमतीनां, षट्शतानि ६०० वादिनां, द्वादशशतानि १२०० अनुत्तरविमानेषु उत्पन्नानां सम्पद् अभवत् > ॥१६६॥ 11 ['पासस्स णं इत्यादितः 'अंतमकासी' ति पर्यन्तम् ] नत्र-पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स दुविहा अंतगडभूमी होत्था। तंजहा-जुगंतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य जाव चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी, तिवासपरियाए अंतमकासी) <पार्श्वस्याहतः पुरुषादानीयस्य द्विविधा भवान्तकृतः भूमिः-काल अभवत् । तद्यथा-युगान्तकद्भूमिः पर्यायान्तद्भूमिश्व > युगान्तकरभूमिः श्रीपार्श्वनाथादारभ्य चतुर्थ पुरुषयुगं यावत् सिद्धिगमः प्रवृत्तः । पर्यायान्तकृद्भूमौ तु केवलोत्पादात् त्रिषु वर्षेषु सिद्धिगमाऽऽरम्भः ॥१६७॥ ['तेणं' इत्यादितः 'सव्वदुक्खप्पहीणे ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तेणं कालेणं तेण समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता, तेसोई RECE 40%AKARSAAMAGAR ॥२९' Sain Educ a tional For Private & Personal use only wournaldalbrary.org Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प-मा किरणा टीका ॥२९६॥ व्या राइंदियाई छ उमत्थपरियाय पाउणित्ता, देसूणाई सत्तरिवासाई केवलिपरियायं पाउणित्ता, पडिपुन्नाई सत्तरिवासाई सामण्णपरियायं पाउणित्ता, एक वाससयं सवाउयं पालयित्ता) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्वनामा अर्हन् पुरुषादानीयः त्रिंशद्वर्षाणि गृहवासे स्थित्ता, व्यशीतिदिवसानि छद्मस्थत्वं पूरयित्वा, त्र्यशी तिदिवसोनानि सप्ततिवर्षाणि केवलिपर्यायं पूरयित्वा, बहुप्रतिपूर्णानि सप्ततिवर्षाणि यतिपर्यायं प्रयित्वा, एक वर्षशतं सर्वाऽऽयुः पूरयित्वा> (खीणे वेयणिजायुणामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुवइकंताए) < क्षयं गताति वेदनीयाऽऽयुर्नामगोत्राणि कर्माणि यस्य, एतस्याम् अवसर्पिण्यां चतुर्थेऽरके बहु व्यतिक्रान्ते > (जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे सावण सुद्धे तस्स णं सावणसुद्धस्स अट्ठमी पक्खे ) < यः सः वर्षाणां प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः श्रावण शुक्लः तस्य श्रावण शुक्लस्य अष्टम्यां तिथौ > (उपि संमेयसेलसिहरंसि अप्पच उत्तीसइमे मासिएण भत्तणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्वत्तेणं जोगमुवागएणं) < सम्मेतशैलशिखरस्योपरि आत्मना चतुस्त्रिंशत्तमेन मासिकेन भक्तेन अपानकेन विशाखाभिः युक्ते चन्द्रे < (पुटवण्हकालसमयंसि) मोक्षगमने पूर्वाण्ड एव कालः ['पुव्यरत्तावरत्त०] | इति क्यचित्पाठस्तु लेखकदोषात् मतान्तरभेदाद्वा] (वग्यारिअपाणी कालगए वइकंते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे) त्ति कायोत्सर्गस्थितत्वात् प्रलम्बितभुनद्वयः < कालगतः व्यतिक्रान्तः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः > ॥१६८।। [ 'पासस्स णं इत्यादितः 'काले गच्छई' ति यावत् ] तत्र-(पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स दुवालसवाससयाई वइकंताई ||२९६ TECARS Jain Educa t ional For Privale & Personal Use Only www. bary.org K Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२९७॥ ७५ तेरसमस्त णं अयं तीसइमे संवच्छरे काले गच्छ) पार्श्वस्यार्हतः पुरुषादानीयस्य यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य > श्रो पार्श्वनिर्वाणादनन्तरं श्रीवीरमुक्तेः पञ्चाशदधिकवर्षशतद्वये (२५०) जातत्वात् । त्रिंशदधिकद्वादशशतेषु वर्षेषु (१२३०) अतिक्रान्तेषु वाचना [ इत्यादि प्राग्वत् ] इति श्री पार्श्वनाथचरित्रम् । अथ श्री नेमिनाथस्य जघन्यादिवाचनाभिः चरित्रमाह - [ 'तेणं' इत्यादितः 'चित्ताहिं परिनिन्दुए' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र - (तेणं कालेणं तेणं समरणं अरहा अरिट्ठनेमी पंचचित्ते हुत्था) - तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः पञ्चसु स्थानेषु यस्य चित्रानक्षत्रमभवत् (तं जहा चित्ताहिं चुए चइत्ता गन्भं वकंते, तहेव उवक्खेवो जाव चित्ताहि परिनिब्बुडे) - तद्यथा - चित्राभिः युक्ते चन्द्रे च्युतः च्युत्वा च गर्भं व्युत्क्रान्तः । तथैव -> 'उवक्खेवो' ति प्रागुक्तालापकोच्चारणं चित्राऽभिलापेन इत्यर्थः । यावत् चित्राभिः चन्द्रयोगे परिनिर्वृतः ॥ १७० ॥ [ 'तेणं' इत्यादित: 'दविणसंहरणाइ इत्थ भणिअयं ति पर्यन्तम् ] < तत्र - (तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिनेमी जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कतियबहुले, तस्स णं कत्तियबहुलस्स वारसी पक्खे णं) तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः यः सः वर्षाणां चतुर्थो मासः सप्तमः पक्षः कार्त्तिकबहुलः तस्य कार्तिक बहुलस्य द्वादशीतिथौ (अपराजिआओ महाविमाणाओ बत्तीससागरोवमठियाओ अनंतरं चयं चता) - अपराजितमहाविमानात् द्वात्रिंशत्सागरोपमस्थितिकात् > [ क्वचित् 'तित्तीसं Jain Education international ॥२९७ ॥ elibrary.org Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टाका ॥२९८॥ व्या०७ Mar-RRRRRREKASIA सागरोवमाइ' ति दृश्यते < अनन्तर च्यवनं कृत्वा > (इहेव जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे सोरियपुरे नगरे समु. हविजयस्स रणो भारियाए सिवादेवीर पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव चित्ताहिं गन्भत्ताए वक्ते) < इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे सौरीपुरे नगरे समुद्रविजयस्य राज्ञः भार्यायाः शिवादेव्याः मध्यरात्रे यावत् चित्राभिः चन्द्रयोगे गर्भतया उत्पन्नः > (जाव सुविणदसणदविणसहरणाइ इत्थ भाणियवं) < यावत् स्वप्नदर्शनं > पितुश्मनि निधाननिक्षेपादि + अत्र भणयितव्यम् > ॥१७२।। ['तेणं कालेणं' इत्यादितः 'परिभाइत्त' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं मावणसुद्धस्स पंचमी पक्खे णं) > तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टने निः यः सः वर्षाणां प्रथमः मासः द्वितीयः पक्षः श्रावणशुक्ल: तस्य श्रावणशुक्लस्य पञ्चमी तिथौ > (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं आरोग्गा आरोग्गं दारयं पयाया) < नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु यावत् चित्राभिः चन्द्रयोगे सति आरोग्या-शिवामाता रोगरहितं दारकं प्रजाता > (जम्मणं सत्रुद्दविजयाभिलावेण तव्वं जाव तं होऊ णं कुमारे अरिहनेमी नामेण) < जन्मप्रमुखं समुद्रविजयाभिशापेन नेतव्यं यावत् तस्मात् भवतु 'कुमारः अरिष्टनेमिः' नाम्ना > तत्र रिष्टरत्नमयं नमि दिवि उत्पतन्तं माता स्वप्ने अद्राक्षीत् इति अपश्चिमशब्दवत् नपूर्वत्वात् 'अरिष्टनेमिः' । 'कुमार' इति अपरिणीतत्वात् । अपरिणयनं त्वेवम्-एकदा यौवनाभिमुखं नेमि निरीक्ष्य शिवादेवी समवदत्-वत्स ! | ॥२९८॥ in EH For Private & Personal use only wNDelibrary.org NI Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२९९॥ अनुमन्यस्व पाणिग्रहणं पूरय च अस्मन्मनोरथं ? । स्वामी तु-'योग्यां कन्यां विलोक्य करिष्ये अहं पाणिग्रहणम्' इति प्रत्युदतरत् । तत:-पुनरपि एकदा कौतुकरहितोऽपि भगवान् अनेकराजपुत्रमित्रपरिकरितः कृष्णाऽऽयुधशालायाम् उपागमत् । तत्र कौतुकोत्सुकैः मित्रैः विज्ञप्तः-अङ्गुल्यग्रे कुलालचक्रवच्चक्रम् अभ्रामयद् , अनामयच्च सारङ्ग धनु: मृणालवत् , कौमोदकी गदां च यष्टिवद् उत्पाटय निजभुजतरौ शाखाश्रियं प्रापयद् , अपूरयच्च कमलवदादाय शङ्खम् । तच्छब्देन शब्दाऽद्वैतं जगदभवद् बधिर इव सर्वोऽपि लोकः । गजाश्चादयश्च उन्मूल्य स्तम्भादीन् उद्बन्धनाः तत्रसुः। कृष्णस्तु-'उत्पन्नः कोऽपि सपत्नो राज्यलिप्सुः' इतिचिन्तया त्वरितम् आयुधशालायामागात् । दृष्ट्वा च नेमि चकितो निजबलतुलनाय नेमि प्रति हरिराह 'आवाभ्यां वीक्ष्यते नेमे ! स्वबलं हरिरित्यबक् । ततो नेमि -हरी मल्ला-ऽक्षाटके जग्मतुतम् ॥१॥ श्रीनेमिराह-अनुचितं ननु भूलुठनादिकं, सपदि बान्धव ! युद्धमिहावयोः । बलपरीक्षणकद्भुजनामनं, भवतु नाऽन्यरणः खलु युज्यते ॥२॥ द्वाभ्यां तथैव स्वीकृत्य प्रथमं हरिः निजबाहुं प्रसारितवान् , बालितवाँश्च नेमिः कमलनालवत् । तदबाहुं निजबाहुलग्नं च कोपात्ताम्रवदनं जनार्दन शाखावलम्बिकपिमिवान्दोलितवान् । ततः-विषण्णः कृष्णः 'मम राज्यमेषः सुखेन ग्रहीष्यति' इति चिन्तातुरः स्वचिते चिन्तयामास । 'क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्रुते । ममन्थ शङ्करः सिन्धु, रत्नान्यापुर्दिवौकसः ॥१॥ ततः-बलभद्रेण सहाऽऽलोचयति-किं विधास्यावः? नेमिस्तु राज्यलिप्सुः बलवाँश्च । ततः-आकाशवाणी प्रादुरभूद ASAASARAAAABA मा॥२९९ Jain Educat i onal For Private & Personal use only wwwmalitary.org Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S श्रीकल्प || e AAAAAA-बब-ब 'अहो 'हरे ! श्रीनमिनाथेन निगदित-यदयं नेमिः अपरिणीत एव व्रतमाप्स्यति' इति न शङ्का विधेया। ततश्च हरि:-राज्य- किरणा लिप्सुः अवश्यं स्त्रीपरिग्रहवानेव, न चाऽयं बलवानपि तथा' इति विचिन्त्य निश्चिन्तोऽपि पुनः निश्चयाऽर्थ वसन्तक्रीडामिषेण || टीका व्या जलकेलिचिकीर्षया महाग्रहतो नेमिना सह रैवतकाऽचलभूतलभूषणमेकमनुपमं सरः साऽन्तपुरः प्राप्तः। तत्र च-'प्रणयतः परिगृह्य जिनं करे, हरिरवेशयदाशु सरोऽन्तरे। तदनु शीघ्रमसिञ्चत नेमिनं, कनकशङ्गजलैः स च तं तथा ॥१॥ जिनपपाणिपुटेन पटीयसा सलिलसेचनमाप्य कुमोदकः । कमपि तं प्रमदं प्रमदान्वितोऽप्यनुबभूव न यत्र गिरां गतिः' ॥२॥ तथा-रुक्मिणीप्रमुखगोपिकागणमपि सज्ञितवान्-'यदयं प्रभुः निःशङ्कक्रीडया पाणिग्रहणाऽभिमुखी कार्यः । ततश्च-'तावन्त्यः प्रमदाः सुगन्धिपयसा स्वर्णादिशृङ्गी शं, भृत्वा तन्निपतज्जलैयुगपद-प्यत्याकुलत्वं प्रभोः । प्रावर्तन्त विधातुमभुतजलक्रीडोल्लसन्मानसा-स्तावद् व्योमनि देवगीरिति समुद्भूता श्रुता चाऽखिलैः ॥३॥ मुग्धाः स्थः प्रमदाः ! यतोऽमरगिरौ गीर्वाणनाथैश्चतु:-पष्टया योजनमानवक्त्रकुहरैः कुम्भैः सहस्राऽधिकैः । बाल्येऽपि स्नपितो य एष भगवान् नाऽभून मनागाकुलः, कत्तं तस्य सुयत्नतोऽपि किमहो! युष्माभिरीशिष्यते' ॥४॥ 'नेमी वि तओ काओ विसिंचइ सलिलेहि ताओ सुरभीहिं । लीलाकमलेण उरम्मि हणइ काओ वि लीलाए' ॥५॥ इत्यादि सविस्तरं जलकेलिः । ततः-'कमलकेलिकुतूहलमित्यसा-विह विलस्य विलासवतीसखः । कमलयुक्तकरः कमलाकरा-निरसरक्कमलाऽधिपतिस्ततः ॥६॥ जिनपने मितनुमिह रुक्मिणी स्ववसनेन मुदा निरमार्जयत् । तमुपवेश्य हिरण्मयविष्टरे सबहुमानमथोग्रसुताऽवदत् ॥७॥ rgesteck |॥३०॥ Jain Educa t ional For Private & Personal use only wwurjateprary.org Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAGARAA भो देवर ! ज्ञातं, गृहनिर्वाहकातरस्त्वं स्त्रीपरिग्रहं न करोषि, परं तदयुक्तम् । यतो भ्राता ते समर्थों यथा-अस्माकं द्वात्रिंशत्सहस्रसङ्ख्याकानां निहिं कुरुते तथा-किमेकस्य भ्रातृजायाया निर्वाहं कर्तुमक्षमः ?। तथा-'ऋषभमुख्यजिनाः करपीडन, विदधिरे दधिरे च महीशताम् । बुभुजिरे विषयाँश्च बहुन् सुतान् , सुषुविरे शिवमप्यथ लेभिरे ॥८॥ स्वमसि किं नु नवोऽद्य शिवङ्गमी?, भृशमरिष्टकुमार ! गरिष्ठधीः । विमृश देव ? गृहाण गृहस्थतां, कुरु सुबन्धुम नस्सु च सुस्थताम् ॥९॥ अथ जगाद च जाम्बवती जबात , शणु पुरा हरिवंशविभूषणम् । समुनिमुवततीर्थपतिगृही, शिवमगादिह जातसुतोऽपि हि ॥१०॥ एवमन्यासामपि गोपिकानां वचांसि । ततः-गोपिकावचोयुक्त्या यदुनाम् आग्रहाच मौनावलम्बिनमपि स्मिताऽऽननं निरीक्ष्य-'अनिषिद्धमनुमतम्' इति न्यायात् 'स्वीकृतं पाणिग्रहणं नेमिना' इति ताभिनि?पितं प्रससार च, तथैव जनोक्तिः इति । ततः-कृष्णेन उग्रसेनपुत्री राजीमती मागिता, चलितश्च समुद्रविजयः अनेकनरेन्द्रपरिवृतः सर्वसामग्र्या, श्रीशिवादेवीप्रमुखप्रमदाजनेन गीयमानो नयनानन्दकारी ने मिकुमारो स्थस्थो धृतातपत्रः पाणिग्रहणाय वजन्नग्रतो वीक्ष्य सारथिं प्रति'कस्येदं कृतमङ्गलभरं धवलमन्दिरम् ?' इति पृष्टवान् । तत:-सोऽङ्गुल्याऽदर्शयत्-उग्रसेननृपस्य-तव श्वसुरस्य अयं प्रासादः। स्मितानेन च राजीमतीसख्यौ० मृगलोचना-चन्द्राननाख्ये त्वां पश्यतः । तत्र-मृगलोचना नेमिमालोक्य-हे चन्द्रानने ! RECARRERASHREE कि. २६ ॥३०१॥ Jain E u r International For Private & Personal use only (Linelibrary.org Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प किरणावली टीका व्या०७ ३०२॥ 'इकुच्चिय रायमई वणियावग्गमि वणणि जगुणा । जीसे नेमी करिस्सइ लायन्ननिही करगहणं' ॥११॥ चन्द्राननाऽपि मृगलोचनामाह 'रायमईए ख्वं विहिनिम्मविअंच रंभरूबहरं । न करिज दइअमिअसं हविज्ज ता नूण मजसभरं ।।१२।। ___इतश्च-तूर्यरवमाकर्ण्य मातृगृहात् राजीमती सखीमध्ये प्राप्ता। हे सख्यौ ! भवतीभ्यामेव यथा-साडम्बरमागच्छन् | कोऽपि वरो विलोक्यते तथा अहमपि किं विलोकयतुं न लभेयम् ? इति बलात् तदन्तरे स्थित्वा नेमिमालोक्य साश्चर्य स्वगतं-किं पातालकुमारः ? किं वा मकरध्वजः ? किं वा सुरेन्द्रः ? किं वा पुण्यप्राग्भारो मूर्तिमान् ? । 'किं तस्स करेमि अहं ? अप्पाणं बिहु निउंछणं विहिणो । निरुवमसोहग्गनिही एस पई जेण मह विहिओ'त्ति ॥१३॥ मृगलोचना राजीमत्यभिप्रायं परिज्ञाय सप्रीतिहासं-हे सखि चन्द्रानने ! समग्रगुणसम्पूर्णेऽपि वरे 'अस्ति एकं दूषणं, परं वरार्थिन्या राजीमत्याः शृण्वत्याः कथं वक्तुं शक्यते ? | चन्द्राननाऽपि-हे सखि मृगलोचने ! मयाऽपि तदवगतमेव, परं तद् दूषणभाषणं न साम्प्रतं साम्प्रतम् । राजीमत्यपि त्रपया मध्यस्थतां दर्शयन्ती-हे सख्यौ ! यस्याः कस्याऽपि भुवनाद्भुतभाग्यसौभाग्यधन्यायाः कन्याया वरोऽयं भवतु नाम परं; पाथसा पाथोधिरिव सर्वगुणानामयमेको निधिः मे मनसि प्रतिभासते, तदेतस्मिन् दूषणं-क्षीरसागरे क्षारत्वमिव, कल्पपादपे कार्पण्यमिव, चन्दनमे दौर्गन्ध्यमिव, भास्करे अन्धकारमिय, सुराऽचले चलत्वमिव, सुवर्णे श्यामत्यमित्र, पयसि पूतरजातमिव, लक्ष्म्यां दारिद्यमिय, सरस्सत्यां मौर्यमिव असम्भाव्यमेव । तदनु ताभ्यां सविनोदं निगदितं-मो राजीमति ! निरीक्षिते हिवरे गैरत्वमेव तावन् मुख्यो गुणो गीयते, अपरगुणास्तु HECHN-C40-40-4WATML ॥३०२॥ International For Private&Personal use only. S inelibrary.org Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३०३॥ प्रस्तावे तत् संस्तवे सति ज्ञायन्ते । गौरत्वं च अस्य कज्ज स्वर्णाभमेव पश्याः , तच्च विचार्यमाणं कस्मैचिदपि न रोचते । तदेतदेव महषणं, प्रवरस्थाऽपि वरस्प महिमानम् अपहरति । राजीमती साऽसूयं सख्यौ प्राह-अद्य यावत् मया चतुरतया चतुराननपुत्रिके इव चिन्त्यमाने अभूतां भवत्यौ, साम्प्रतं तु विपरीत इव संवृत्ते । यदेतत् सकलगुणकारणं श्यामलत्वमेव भूषणतया भाषणाऽहं दूषणरूपतया प्ररूपितम् । शृणु तावत् सावधानीभूय भवत्यौ-श्यामलत्वे 'श्यामलवस्त्वाश्रयणे च ये गुणाः, केवलगौरत्वे च अपगुणाः' । तथाहि-'भू-चित्ताल्लि-अगरू-कत्युरी-घण-कणीणिगा-कैसा । कसव-मसी-रयणी कसिणा एए अणग्धफला' ॥१४|| इति कृष्णत्वे गुणाः। 'कपूरे अंगारो, चंदे चिंध, कणीणिगा नयणे । भुज्जे मरीयं, चित्ते रेहा कसिणा वि गुणहे अ' ॥१५॥ इति कृष्णवस्त्वाश्रयणे गुणाः। 'खार लवणं, दहणं हिमं, च अइगोरविग्गहो रोगी। परवसगुणो अ चुण्णो के लगोरत्तणेवगुणा ॥१६।। इति केवलगौरत्वेऽवगुणाः। एवं परस्परं तासां जल्पने जायमाने श्रीनेमिः पशूनाम् आर्तस्वरं श्रुत्वा साक्षेपं-'हे सारथे! कोऽयं दारुणः स्वर: । सारथिः प्राह-"युष्माकं विवाहकृते समुदायीकृतपशूनामयं स्वरः । इत्युक्ते स्वामी चिन्तयति'धिग विवाहोत्सवं यद् अनुत्सवोऽमीषाम् । इतश्च-'हल्ली सहिओ! किं मे दाहिणं चक्खु परिप्फुरइ ?' ति वदन्ती राजीमती प्रति सख्यौ-'प्रतिहतम् अमङ्गलं ते' इत्युक्त्वा थुथुत्कारं कुरुतः। नेमिस्तु-हे सारथे ! रथमितो निवर्तय' । छ ॥३० Jain Education international For Privale & Personal use only www.jantelibrary.org Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प PAISAG किरणावली टीका व्या० ७ ॥३.४॥ अत्रान्तरे नेमि पश्यन्नेको हरिणः स्वग्रीवया हरिणिग्रीवां विधाय स्थितः । अत्र कविघटना-स्वामिनं वीक्ष्य हरिणो ब्रूते'मा पहरसु मा पहरसु, एवं मह हिययहारिणिं हरिणिं । सामी ! अम्हं मरणा वि हु, दुस्सहो पिअतमाविरहो' ॥१६॥ हरिणी नेमिमुखं निभाल्य हरिणं प्रति ब्रूते'एसो पसन्नवयणो तिहुअणसामी अकारणे बंधू । ता विष्णवेसु वल्लह ! रक्खत्थं सव्वजीवाणं' ॥१७॥ हरिणोऽपि पत्नीप्रेरितो नेमि ब्रूते'निज्झरणनीरपाणं अरण्णतणभक्खणं च वणवासो । अम्हाण निरवराहाण जीविअं रक्ख रक्ख पहो !' ॥१८॥ एवं सर्वेऽपि पशवः स्वामिनं पशुप्राइरिकाँश्च प्रति पूत्कुर्वन्ति, तावत् स्वामी बभाषे-'भो पशुप्राहरिका ! मुञ्चत मुश्चत | मृगादीन् , नाहं विवाहं करिष्ये' इति नेमिवचसा प्राह रिकाः तथा कुर्वन्ति । सारथिरपि रथं निवर्त्तयति । अत्रकविः- हेतुरिन्दोः कलके यो, रिहे रामसीतयोः। नेमे राजीमतीत्यागे, कुरङ्गः सत्यमेव सः' ॥१९॥ समुद्रविजय-शिवादेवीप्रभृतयः स्वजनास्तु शीघ्रमग्रे गत्वा रथं स्खलन्ति, शिवा च सबाष्पं ब्रते'पत्थेमि जणणिवच्छल ! वच्छ ! तुमं पढमपत्थणं किं पि । काऊण पाणिगहणं महदंसे निअवहुवयणं ॥२०॥ ने मिराह-'मुश्चाग्रहमिमं मातः! मानुषीपु न मे मनः । मुक्तिस्त्रीसङ्गमोत्कण्ठ-मुत्कण्ठमातिष्ठते ॥२१॥ यतः-'या रागिणि विरागिण्य-स्ताः स्त्रियः को निषेवते । RETREARREARSHIRSASARECAR A R |॥३०४॥ Jain Edubar arrinternational For Private & Personal use only Halibrary.org Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३०५ ॥ のの Peast काम मुक्ति, या विरागिणि रागिणी' ॥ २२ ॥ इत्यादि । राजीमती - 'हा दैव ! किमुपस्थितम् ? इत्युक्त्वा मूर्च्छा ययौ । सखीभ्यां चन्दनद्रवैः आश्वासिता राजीमती च निःश्वस्य सवाष्पं गाढस्वरं प्राह 'हा जायवकुलदियर ! हा निरुवमनाण ! हा जगस्सरण ! | हा करुणायर सामी ! में मुत्तणं करूं चलिओ' ॥२३॥ हा हिय ! धिट्ट ! निठुर ! अज्जवि निल्लज्ज ! जीविअं वदसि । अम्नत्य बद्धराओ जइ नादी अत्तणो नाओ ( जाओ ) ||२४|| पुनर्निःश्वस्य सोपालम्भं जगाद - 'जइ सयलसिद्धभुत्ताइ (ए) धुत्त ! रतोसि मुत्तिगणिआए । ता एवं परिणयणा- रंभेण विविआ किमहं ? ||२५|| सख्यौ सरोषं यथा-‘लोअपसिद्धी वत्तडी सहिए इक सुणिज्ज । सरलं विरलं सामलं चुकिअ विही करिज ॥२६॥ पम्मरहम पियसहि । अमिवि किं करेसि विभावं ? । पिम्मपरं किं पि वरं अन्नयरं ते करिस्सामो'त्ति ||२७|| राजीमती कर्णौ पिधाय-हा ! अश्राव्यं किं श्रावयथः ? - 'जड़ कवि पच्छिमार उदयं पावेइ दिणयरो तहवि । मुत्तूण ने मिनाहं करेमि नाहं वरं अन्नं' ॥२८॥ पुनरपि नेमिनं प्रति- 'वृतेच्छुरिच्छाधिकमेव दत्से, त्वं याचकेभ्यो गृहमागतेभ्यः । मयाऽर्थयन्त्या जगतामधीश !, हस्तोऽपि हस्तोपरि नैव लब्धः ॥ २९ ॥ Jain Educationternational ॥ ३०५ ॥ library.org Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०७ ॥३०६॥ अथ विरक्ता राजीमती पाह-'जह वि हु एअस्स करो, मज्झ करे नो अ आसि परिणयणे। तह वि सिरे मह सुच्चि, दिक्खासमए करो होही' ॥३०॥ अथ नेमिनं प्रति सपरिकरः समुद्रविजयो यथा'नाभेयाद्याः कृतोद्वाहा, मुक्ति जग्मुर्जिनेश्वराः । ततोऽप्युच्चैःपदं ते स्यात्, कुमार ! ब्रह्मचारिणः ॥३१॥ नेमिराह-'हे तात ! क्षीणभोगकर्माहमस्मि । किंच-'एकत्रीसङ्गहेऽनन्त-जन्तुसङ्घातघातके । भवतां भवतान्तेऽस्मिन्, विवाहे कोऽयमात्रहः ॥३२॥ अत्र कवेर्घटना-'मन्येऽङ्गनाविरक्तः परिणयनमिषेण नेमिरागत्य । राजीमतीं पूर्वभव-प्रेम्णा समकेतयन् मुक्त्यै ॥३३॥ (अरहा अरिहनेमी दक्खे जाव तिनि वाससयाई कुमारे अगारवासमझे वसित्ता णं पुणरवि लोयंतिएहिं जीयकप्पिएहिं देवेहिं तं चेव सव्वं भाणियन्वं, जाव दाण दाइयाण परिभाइत्ता) < अर्हन अरिष्टनेमिः दक्षः यावत् त्रीणि वर्षशतानि कुमारः गृहवासमध्ये स्थित्वा पुनरपि > । अत्रान्तरे-लोकान्तिकाः जितकल्पिताः देवाः 'जय निर्जितकन्दर्प ! जन्तु जाताऽभयप्रद !। नित्योत्सवावतारार्थ, नाथ ! तीर्थ प्रवर्तय ॥३४॥ इति स्वामिन प्रोच्य-स्वामी वार्षिकदानाऽनन्तरं त्रिभुवनमानन्दयिष्यति'इति समुद्रविजयादीन् प्रोत्साहयन्ति। ततः-सर्वेऽपि सन्तुष्टा इति । <तदेव सर्व भाणयितव्यं यावद् दानं दायिकेभ्यः परिभाज्य > । 'दानविधिस्तु वीरवद्' इति ज्ञेयम् ।।१७२॥ ['जे से वासाणं' इत्यादितः 'पब्वइए' त्ति पर्यन्तं मुकरम् ] ॥३०६॥ Haidernational For Private & Personal use only brary.org Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ॥३०७॥ RECARCIR-CHAUR तत्र-(जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुद्धस्स छडीपक्खे णं)< यः सः वर्षाणां प्रथमः मासः द्वितीयः परः श्रावणशुक्ल: तस्य श्रावणशुक्लस्य षष्ठीतिथौ > (पुठवण्हकालसमयंसि उत्तरकुराए सीयाए सदेवमणुआसुराए परिसाए अणुगम्ममाणमग्गे जाव बारवईए नयरीए मज्झंमज्झेण निग्गच्छह, निग्गच्छित्ता)< पूर्वाह्नकालसमये उत्तरकुराऽभिधशिविकायां सदेवमनुजाऽसुस्या पर्षदा अनुगम्यमानम् अग्रभागे | यावत् द्वारवतीनगरीमध्येन निगच्छति, निर्गत्य > (जेणेव रेवयए उजाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ) < यत्रैव रैवतकम्' उद्यानं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य अशोकवरपादपस्य अधः शिविकां स्थिरीकारयति > (ठावित्ता सीयाओ पचोरुहइ, पचोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ) < कारयित्वा शिबिकातःप्रत्यवतरति, प्रत्यवतीर्य स्वयमेव आभरणमाल्यारङ्कारं उन्मुश्चति > (ओमुइत्ता) सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ) < अवतीर्य स्वयमेव पञ्चमौष्टिकं लोच करोति > (करित्ता छट्टणं भत्तणं अपाणएणं चित्तानक्वत्तेणं जोगमुवागएणं एग देवदूसमादाय एगेणं पुरिससहस्सेणं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइए) > कृत्वा षष्ठेन भक्तेन अपानकेन चित्राभिः चन्द्रयोगे सति, एक देवयं दिव्यवस्त्रविशेषम् आदाय, एकेन पुरुषसहस्त्रैः सार्ध, दुव्यतः भावतश्च मुण्डो भूत्वा गृहान्निष्क्रम्य अनगारितां-साधुतां प्रवजित:-- श्रमणीभूतः > ॥१५३।। 'अरहओ णं' इत्यादितः 'जाणमाणे पासमाणे विहरई' त्ति पर्यन्तम्] ॥३०७ Jain Educ a tional For Private & Personal use only Wirary.org Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका ॥३०८॥ व्या.. RECROREA तत्र-(अरहओणं अरिष्टनेमिस्स चउपन्नं राइंदियाई निच्चं वोसट्टकाए चिअत्तदेहे तं चेव सव्वं जाव पणपन्नगरस राइंदियस्स अंतरा वहमाणस्स) < अर्हतः अरिष्टने मेः चतुष्पश्चाशद् दिवसानि नित्यं व्युत्सृष्टकायः त्यक्तदेहः तदेव सर्व यावत् पञ्चपञ्चाशत्तमस्य दिवसस्य अन्तरा-मध्ये वर्तमानस्य > (जे सेवामाणं तच्चे मासे पंचमे पश्खे आसोयबहुले, तस्स णं आसोयबहुलस्स पण्णरसीपक्खे ण)< यः स: वर्षाणां तृतीयो मासः पञ्चमः पक्षः अश्विनकृष्णः तस्य अश्विन कृष्णस्य पञ्चदशे दिवसे-अमावास्यायाम् इत्यर्थः > (दिवसस्स पच्छिमे भागे उजिंतसेलसिहरे वेडसपायवस्स अहे अट्ठमेणं भत्तेण अपाणएण चित्ताहिं नक्खेत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियार वट्टमाणस्स अणंते जाव जाणमाण पासमाणे विहरइ) < दिवसस्य पश्चाद् भागे< केवलज्ञानं रैवतकोपान्त्ये सहस्राम्रवने समुत्पेदे > वेडसपादपस्य अधः अष्टमेन भक्तेन अपानकेन चित्राभिः चन्द्रयोगे सति शुक्लध्यानस्य आद्यभेदद्वये ध्याते अग्रेतन भेदद्वयमप्रतिपन्नस्य अनन्तं यावत् जानन् पश्यश्च विहरति-आस्ते >॥१७४।। 'उद्यानपालकस्तत्र गत्वा विष्णोळ जिज्ञपत् । कोटीदशरूप्यस्य सार्दास्तस्मै ददावसौ ॥१॥ सर्वद्धर्या वन्दितुं तीर्थकर हरिरुपागमत् । भृङ्गीव मालतीं रानी-मत्यपि प्रहमानसा ॥२॥ भवान्धकूपतो रज्जु-देशीयां देशनां प्रभोः । निशम्य प्रार्थयाञ्चक्रे वरदत्तनृपो व्रतम् ॥३॥ प्रभुस्तं दीक्षयामास द्विसहस्रीनृपान्वितम् । बहुकन्याऽन्वितां राजीमती च समहोत्सवम् ॥४॥ आजन्मस्वामिपादाब्ज-सेवाबद्धमनोरथाम् । वीक्ष्य राजीमती विष्णुः, पप्रच्छ स्नेहकारणम् ? ॥५॥ %%AERS ॥३०८ Sain Educ a tional For Privale & Personal use only woyalebrary.org Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिनं नत्वा, रथनेमिः रे । रथनेमिमजानाना हाताय महासती । ततो धन-धनवती-भवादारभ्य नेम्यपि । तया सह स्वसम्बन्ध-माख्यादष्टभवावधि ॥६॥ प्रातिहार्यः सदाश्चयः, हृभरतिशयैरपि । विजहार हरत्पापं, भगवानवनीतले ॥७॥ विहरनन्यदा स्वामी, रैवते समवासरत् । रथने मिरुपादत्त, चारित्रं श्रीजिनान्तिके ॥८॥ अन्यदा नेमिनं नत्वा, रथनेमिः प्रतित्रजन् । बाधितो बृष्टिकायेन, प्राविशत् कन्दरां गिरेः॥९॥ राजीमत्यपि मेघाम्बु-बाधिता तद्गुडान्तरे । रथनेमिमजानाना, तत्रस्थं प्राविशत्तदा ॥१०॥ तमदृष्ट्वा तमिस्रेण श्रोणिनिहितचक्षुषम् । वस्त्राणि परितोऽक्षैप्सी-दुद्वाताय महासती ॥११॥ स्वर्गलोकजयायेव, साधयन्ती तपःक्रियाम् । दृष्ट्वा विवसनां तन्वीं, बभूवोत्कलिकाकुलः ॥१२॥ भ्रातुरादिना जघ्ने, तथा कामेन मर्मसु । यथा चाऽसौ पुरस्तस्या-स्तस्थावुत्तानितेक्षणः ।।१३।। आगच्छ स्वेच्छया भद्रे !, कुर्वहे सफलं जनुः । उभावपि वयःप्रान्ते, चरिष्यावस्तपोविधिम ॥१४॥ श्रुत्वेत्यश्रुत्यमव्याज-चित्ता संघीय वाससी । सती स्पष्टमभाषिष्ट, धारयित्वा च धीरताम् ॥१५॥ महानुभाव ! संरम्भः, कोऽयं ते भवकारणम् । संस्मर? स्वप्रतिज्ञातां, प्रव्रज्यां मा स्म विस्मरः ? ॥१६॥ संयती प्रतिसेवादि, यदुक्तं बोधिघातकम् । श्रीमता नेमिनाथेन, तत्तवाद्यैव विस्मृतम् ॥१७॥ १ धन-धनवत्यौ । सौधर्म मित्रदेवौ। ३ विद्याधरचित्रगतिरत्नवत्यौ । ४ ब्रह्मदे० मित्रदेवौ । ५ अपराजित-प्रीतिमत्यौ। ६ आरणे (११) मित्रदेवौ । ७ शङ्ग-यशोमत्यौ । ८ अपराजितविमाने मित्रदेवौ । ९ नेमि-राजीमत्यौ । Lain Educ a tional For Privale & Personal use only UPDorary.org Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०७ ।३१०॥ AAAAAAAAAAD यदुक्तम्-संयतीप्रति सेवायां धर्मोइडाहर्षिघातयोः । देवद्रव्यविनाशे च, बोधिघातो निवेदितः ॥१८॥ पूर्व गृहस्थया यस्त्वं, मया वाचाऽपि नेहितः । साऽहं व्रतप्रतिज्ञायां, वामद्य कथमाद्रिये ? ॥१९॥ अगन्धनकुले जाता-स्तियश्चो ये भुजङ्गमाः । तेऽपि वान्तं न पिबन्ति, तद्विद्धि स्वं ततोऽधिकम् ॥२०॥ राटिकाकृते कस्मान्मा स्म कोटिं विनाशय । तस्माद्वीरत्वमाधाय शुद्धं धर्म समाचर ॥२१॥ इत्यादिमदनोन्माद-सर्पसपैकजाङगुलीम् । तदुक्तं युक्तिमाकर्ण्य चिन्तयामासिवानिदम् ॥२२॥ स्त्रीजातावपि धन्याऽसौ, निधानं गुणसम्पदाम् । कुकर्मजलधौ मग्नो, धिगहं पुरुषोऽपि हि ॥२३॥ तस्मादेपैव बन्धुर्मे, गुरुर्वाऽपि न संशयः । उद्धृतोऽहं महासत्या, यया नरककूपतः ॥२४॥ भावयित्वेति धन्यात्मा, श्रीमन्ने मिपदान्तिके । गत्वा दुश्चीर्णमालोच्य तपस्यां गाढमग्रहीत् ॥२५॥ राजीमत्यपि शुद्धात्मा, साध्वीगणमहत्तरा । अभेदं नेमिना प्राप-दवन्ध्यप्रार्थना जिनाः॥२६॥ छद्मस्था वत्सरं तस्थौ गेहे वर्षचतुःशतीम् । पञ्चवर्षशतीं राजी-मती केवलशालिनी ॥२७॥ ['अरहओ णं' इत्यादितः 'दुवालमपरियाए अंतमकासी' तिपर्यन्तम् ] (अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स अट्ठारस गणा अट्ठारस गण हरा होत्था) (अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स वरदत्तपामुक्खाओ अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समणसंपया होत्था) (अरहओणं अरिहनेमिस्स अजजक्खिणिपामुक्खाओ चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था) (अरहओ णं R EACCIENCIENTIRECAR ॥३१०॥ Winternational For Private & Personal use only melibrary.org Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३११॥ अरिट्टनेमिस्स नंदपामुक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सीओ अउणत्तरं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया होत्था) (अरहओ णं अरिहनेमिस्स महासुव्वयापामुक्खाणं समणोवासिगाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ छत्तीसं च सहस्सा उनकोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था) (अरह ओणं अरिहनेमिस्स चत्तारि सया च उद्दसपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर जाव संपया होत्था)(अरहओर्ण अरिहनेमिस्स पण्णरससया ओहिनाणीणं, पण्णरससया केवलनाणीणं, पण्णरससया वेउव्वियाण, दस सया विउलमईणं, अट्टसया वाईणं, सोलससया अणुत्तरोववाइयाणं, पण्णरससमणसया सिद्धा, तीसं अज्जियासयाई सिद्धाइं) (अरइओ णं अरिहनेमिस्स दुविहा अंतगडभूमी होत्था। तं जहा-जुगंतडभूमी, परियायंतगडभूमी य । जाव अट्ठमाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी, दुवालस परिआए अंतमकासी) परिवारादि सम्बन्धिनी सप्तसूत्री स्पष्टैव] तत्र-< अर्हतः अरिष्टनेमेः अष्टादश गया अष्टादश गणधरा अभवन् । अर्हतः अरिष्टने मेः वरदनप्रमुखाणि अष्टादश श्रमणसहस्राणि (१८०००) उत्कृष्टा श्रमणसम्पद् अभवत् । अर्हतः अरिष्टनेमेः आर्ययक्षिणीप्रमुखाणि चत्वारिंशत्सहस्राणि (४००००) उत्कृष्टा आर्यिकासम्पद् अभवन् । अर्हतः अरिष्टनेमेः नन्दप्रमुखाणां श्रमणोपासकानां-श्रावकाणाम् एकं लक्षं एकोनाश्च सप्ततिसहस्राः (१६९०००) उत्कृष्टा श्रावकाणां सम्पद् अभवत् । अतः अरिष्टनेमेः महासुव्रताप्रमुखाणां श्राविकाणां त्रयो लक्षाः पत्रिंशच सहस्राः (३३६०००) उत्कृष्टा श्राविकाणां सम्पद् अभवत् । अर्हतः अरिष्टनेमेः चत्वारि HAGRAAAAAAAAA ML ॥३१॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only ibrary.org Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M श्रीकल्प किरणावल टीका व्या०७ ॥३१२॥ शतानि (४००) चतुर्दशपूर्वधराणाम् असर्वज्ञानां सतां सर्वज्ञतुल्यानां सर्वाऽक्षर. यावत् उत्कृष्टा चतुर्दश पूर्वधराणां सम्पद् अभवत् । अर्हतः अरिष्टनेमेः पञ्चदश शतानि (१५००) अवधिज्ञानिनां, पञ्चदश शतानि (१५००) केवलज्ञानिनां, पञ्चदश शतानि (१५००) वैक्रियलब्धिमताम् , एकं सहस्रं (१०००) विपुलमतीनां, अष्ट शतानि (८००) वादिनां, षोडश शतानि (१६००) अनुत्तरविमानेषु उत्पन्नानां, पञ्चदश श्रमणशतानि (१५००) सिद्धानि, त्रिंशत् आर्यिकाशतानि (३०००) सिद्धानि । अर्हतः अरिष्टनेमेः द्विविधा भवान्तकृतः भूमिः-कालः अभवत् । तद्यथा-युगान्तकृभूमिः पर्यायान्तकृभूमिश्च । अष्टमपुरुषयुगं यावत् युगान्तकृद्भूमिः, द्वादशवर्षपर्याये-केवलोत्पत्तेः द्वादशवर्षेषु सिद्धिगमनाऽरम्भः ॥ १७५-१७६-१७७१७८-१७९-१८०-१८१॥ ['तेणं कालेणं' इत्यादितः 'सव्वदुक्खप्पहीणे'त्ति यावत् ] तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी तिन्नि वाससयाई कुमारवासमझे वसित्ता चउप्पन्नं राइंदियाई छउमस्थपरियाय पाउणित्ता, देसूणाई सत्तवाससयाई केवलिपरियाय पाउणित्ता, पडिपुण्णाई सत्सवाससयाई सामण्णपरियायं पाउणित्ता, एगं वाससहस्सं सम्वाउयं पालयित्ता) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन अरिष्टनेमिः त्रीणि वर्षशतानि गृहवासे स्थित्वा, चतुष्पश्चाशदिवसानि छद्मस्थत्वं पूरयित्वा, चतुःपञ्चाशदिवसोनानि सप्तवर्षशतानि केवलिपर्यायं पूरयित्वा, प्रतिपूर्णानि सप्तवर्षशतानि यतिपर्यायं पूरयित्वा, एक वर्षसहस्रं सर्वाऽऽयुः पूरयित्वा > (खीणे वेषणिज्जायुनामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहवहवंताए) क्षयं गतानि वेदनीयाऽऽयुर्नामगोत्राणि कर्माणि यस्य, एतस्थाम् अवसर्पिण्यां चतुर्थेऽरके बहुव्यतिक्रान्ते> ॥३१२॥ JainEduranoernational For Privale & Personal use only D ibrary.org Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३१३॥ (जे से गिम्हाणं च उत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढसुद्धे, तस्स णं आसाढसुद्धस्स अट्ठमी पक्खे णं) < यः सः ग्रीष्मस्य चतुर्थों मासः, अष्टमः पक्षः आषाढशुक्लः तस्य आषाढशुक्लस्य अष्टमी तिथौ > (उप्पि उज्जितसेलसिहरंसि पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं चित्तानक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) < उज्जयन्तशैलशिखरस्योपरि > पनिशदधिकैः पश्चशतैः < अणगारैः मासिकेन भक्तेन अपानकेन चित्राभिः चन्द्रयोगे सति > (पुन्धरत्तावरत्तकालसमयंसि नेसज्जिए कालगए (८००) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे) < मध्यरात्रे > निषण्णः < कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः > ॥१८२॥ ['अरहओ णं अरिष्टनेमिस्स' इत्यादितः 'काले गच्छइ'त्ति यावत् पाठसिद्ध व्याख्या च प्राग्वत् ] तत्र-(अरहओ णं अरिष्टनेमिस्स कालगयस्म जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स चउरासीइं च वाससहस्साई वइकंताई पंचासीइमस्स वाससहस्सस्स नववाससयाई वइकंताई । दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ) < अर्हतः अरिष्टने मेः कालगतस्य यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य चतुरशीति च वर्षसहस्राणि नववर्षशतानि च व्यतिक्रान्तानि दशमस्य वर्षशतस्य अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति > ॥१८३॥ [इति श्री नेमिचरित्रम् ] अतः परं ग्रन्थगौरवभयात् नम्यादीनां पश्चानुपूाऽजितान्तानाम् अन्तरकालमानमेवाह['नमिस्स णं अरहओ' इत्यादितः 'यायालीसं वाससहस्सेहिं इचाइयं' इति पर्यन्तम् ] STEREORRESPESAL क.कि. २७ ॥३१३॥ Sain Educa For Privale & Personal use only www.aanbrary.org Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प टीका ॥३१४॥ RECEPALAAREE विंशतिसूत्राणि व्यक्तानि । तथापि व्यक्ततरार्थ किश्चित् समुदायार्थों लिख्यते किरणावली तत्र- (नमिस्स णं अरहओ कालगयस्स जाव सम्वदुक्खप्पहीणस्स पंच वाससयसहस्साई चउरासीई च वाससहस्साई नववाससयाई वइकंताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ) व्या०७ श्रीनमिनिर्वाणात् पञ्चभिर्वर्षाणां लक्षैः श्रीनेमिनिर्वाणं ततश्चतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि २१ ॥१८४॥ ___ (मुणिसुव्वयस्स णं अरहओ जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स इक्कारसवाससयसहस्साई चउरासीइं चल वाससहस्साई नववाससयाई वइकंताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छद) श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाणात् षडभिवर्षाणां लक्षः श्रीनमिनिर्वाणं ततश्च पश्चलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि २० ॥१८५॥ (मल्लिम णं अरहो जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स पण्णहिँ वाससयसहस्साई चउरासीइं च वाससहस्साई नववाससयाई वक्ताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ) श्रीमल्लिनिर्वाणाच्चतुःपञ्चाशता वर्षाणां लक्षः श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाणं । ततश्च एकादशलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि १९ ॥१८६॥ (अरस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स एगे वासकोडिसहस्से वइकंते, सेसं जहा मल्लिस्स । तं च एयं ॥३१४॥ - SERE COSASCARGA KOK For Private & Personal use only library.org Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३१५॥ पंचसडिलक्खा चउरासीइं च वाससहस्साई वइकंताई तंमि समए महावीरो निव्वुओ, तओ परं नववाससयाइं वइकंनाइ दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छह । एवं अग्गओ जाव सेधंसो ताव दट्ठव्य) श्रीअरनिर्वाणाद् वर्षाणां कोटिसहस्रेण श्रीमल्लिनिर्वाणं । ततश्च पश्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि < एवम् अग्रतो यावत् श्रीश्रेयांसः तावद् द्रष्टव्यम् > १८ ॥१८७।। कुंथुस्स णं अरहओ जाव०पहीणस्स एगे च उभागपलिओवमे वकंते पंचसहि च सयसहस्सा, सेसं जहा मल्लिस्स) श्रीकुन्थुनिर्वाणाद वर्षकोटिसहस्रोन-पल्योपमचतुर्थाशेन श्रीअरनिर्वाणं । ततः सहस्रकोटिपञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षा तिक्रमे पुस्तकवाचनादि १७ ॥१८८।। । (संतिस्स णं अरहओ जाव०पहीणस्स एगे चउभागूणे पलिओवमे वइते पहिं च, सेसं जहा मल्लिस्स) श्रीशान्तिनिर्वाणात् पल्योपमान श्रीकुन्थुनिर्वाणं । ततश्च पल्यचतुर्थाश-पश्चषष्टिलक्ष-चतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि १६ ॥१८९॥ (धम्मस्स णं अरहो जाव०पहीणस्स तिन्निसागरोवमाइं वइकताइ पन्नहिं च, सेसं जहा मल्लिस्स) श्रीधर्मनिर्वाणात् पादोनपल्योनैत्रिभिः सागरोपमः श्रीशान्तिनिर्वाणं । ततश्च पादोनपल्योपम < पञ्चषष्टिलक्ष> चतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि १५ ॥१९॥ (अणंतस्स णं अरहओ जाव०पहीणस्स सत्तसागरोवमाई वइकंताई पन्नहि च, सेसं जहा मल्लिस्स) GGISEGISTIASSASSEGG Sain Educ ational For Private & Personal use only Indilibrary.org MI Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावल दा टीका व्या०७ ॥३१६॥ श्रीअनन्तनिर्वाणाच्चतुभिः सागरोपमैः श्रीधर्मनिर्वाणं । ततश्च त्रिसागरपश्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि १४ ॥१९१॥ (विमलस्स णं अरहओजाव०प्पहीणस्स सोलससागरोवमा वहता पन्नदिच, सेसं जहा मल्लिस्स) श्रीविमलनिर्वाणान्नवभिः सागरोपमैः श्रीअनन्तनिर्वाणं । ततश्च सप्तसागरपञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि १३ ॥१९२॥ ___ (वासुपुज्जस्स णं अरहओ जाव०पहीणस्स छायालीसं सागरोवमाइं वइक्ताई पन्नहिं च, सेसं जहा मल्लिस्स) श्रीवासुपूज्यनिर्वाणात् त्रिंशतासागरैः श्रीविमलनिर्वाणं । ततश्च षोडशसागरपञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि १२ ॥१९३॥ (सिज्जंसस्स णं अरहओ जाव०प्पहीणस्स एगे सागरोवमसए वइकते पन्नडिं, च, सयसहस्सा, सेसं जहा मल्लिस्स) श्रीश्रेयांसनिर्वाणाच्चतुःपञ्चाशता सागरैः श्रीवासुपूज्यनिर्वाणं । ततश्च षट्चत्वारिंशत्सागरपञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ११ ॥१९४॥ (सीअलस्स णं अरहओ जाव.पहीणस्स एगा सागरोवमकोडी तिवासअद्धनवमासाहिय-बायालीसवाससस्सेहिं ऊणिआ वइक्कंता, एअंमि समए महावीरो निन्वुओ, तओ पर नववाससयाई वइक्कंताई दसमस्स य वासस यस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छद) श्रीशीतलनिर्वाणात् वर्षाणां षट्पष्टिलक्षषड्विंशति રક્તરિશ્નનનનનન ।।३१६ Jain Educed For Private & Personal use only H ITbrary.org Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ॥३१७॥ सहस्राधिकसागरशतोनया र एकया > सागरकोटया श्रीश्रेयांसनिर्वाणं । ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकैः द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्ररूने सागरशतेऽतिक्रान्ते श्रीवीरनिवृतिः । ततः परं नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि १० ॥१९॥ (सुविहिस्त णं अरहओ पुप्फदंतस्स जावाप्पहीणस्स दस सागरोवमकोडोओ वक्ताओ, सेसं जहा सीअलस्स । – चेम-तिवासअनवमासाहियवायालीसं वाससहस्सेहिं ऊणिया वइकंता इच्चाइ) श्रीसुविधिनिर्वाणान्नवभिः सागरकोटिभिः श्रीशीतलनिर्वाणं । ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकैः द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्ररूनायां सागराणा| मेकस्यां कोटयां व्यतिक्रान्तायां श्रीवीरनिवृत्तिः । ततः-नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाच नादि ९ ॥१९६॥ (चंदप्पहस्स णं अरहओ जाव०पहीणस्स एगं सागरोवमकोडिसयं वइकंत, सेसं जहा सीअलस्स । तं च इमं-तिवासअनवमासाहियबायालीसवाससहस्सेहिं ऊणगमिच्चाइ) श्रीचन्द्रप्रमनिर्वाणान्नवत्या सागरकोटिभिः श्रीसुविधिनिर्वाणं । ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकैद्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैरूनामु.दशसु सागरकोटिषु व्यतिक्रान्तासु श्रीवीरनिर्वाणं । ततः-नवशताशीतितिक्रमे पुस्तकवाचनादि ८ ॥१९७।। (सुपासास अरहओ जाव०प्पहीणस्स एगे सागरोवमकोडिसहस्से वइकते, सेसं जहा सीअलस्स । तं च इम-तिवासअदन घमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं अणिया इचाइ) श्रीसुपार्श्वनिर्वाणानवशतकोटिसागरैः श्रीचन्द्रप्रभनिर्वाणं । ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकैद्विचत्वारिंशता वर्षसहस्ररूनया सागराणामेकशतकोटया श्रीवीर. निर्वृतिः। ततः-नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ७॥१९८॥ ॐॐन ||३१५ Jain Educati For Privale & Personal use only s ary.org Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प साकिरणावः टीका ॥३१८॥ व्या०५ SRISSAGARSAA55 (पउमप्पहस्स णं अरहओ जाव०पहीणस्से दससांगरोवमकोडिसहस्सा वइक्वता तिवासअनवमाला साहिय बायालीसवाससहस्सेहिं इचाइयं, सेसं जहा सीअलस्स) श्रीपद्मप्रभनिर्वाणात् सागरकोटीनां नवभिः सहस्रैः श्रीसुपार्श्वनिर्वाणं । ततश्च त्रिवर्षानवमासाधिकैर्द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्बैरूनैरेककोटीसहस्रसागरेः श्रीवीरनिवृतिः। तत:-नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ६ ॥१९९॥ (सुमइस्स णं अरहओ जाव०पहीणस्स एगे सागरोवमकोडिसयसहस्से वकते,सेसं जहा सीअलस्स । तिवोसअद्ध नवमासायिबायालीसवाससहस्सेहिं इच्चाइयं) श्रीमुमतिनिर्वाणात्सागरकोटीनां नवत्यासहस्रः श्रीपद्मप्रभनिर्वाणं । ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकैद्विचत्वारिंशता वर्षसहस्ररूनैर्दशभिः सागरकोटिसहस्रः श्रीवीरनिर्वाणं । तत:नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ५ ॥२०॥ (अभिनंदणस्स णं अरह ओ जावाप्पहीणस्स दससागरोवमकोडिसयसहस्सा वइकंता, सेसं जहा सीअलस्स । तिवासअनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं इच्चाइय) श्रीअभिनन्दननिर्वाणात्सागरकोटीनां नवभिलक्षः श्रीसुमतिनिर्वाणं । ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकैद्विचत्वारिंशता वर्णसहरूनैरेककोटिसागरलक्षेण श्रीवीरनिवृतिः। ततः-नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ४ ॥२०॥ (संभवस्स णं अरहओ जाव०पहीणस्स वीसं सागरोवमकोडिसयसहस्सा बइकंता, सेसं जहा सीअलस्स । तिवासअद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं इच्चाइयं) श्रीशम्भवनिर्वाणात्सागरकोटीनां दशभिः ॥३१८॥ Jain Educ a tional Mbrary.org Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३१९॥ Pॐॐॐॐॐ लक्षैः श्रीअभिनन्दननिर्वाणं । ततश्च त्रिवषोर्द्धनरमासाधिकैर्द्विचत्वारिंशता वर्षसहसरूनैर्दशलक्षकोटिसागरैः श्रीवीरनिर्वाणं । ततः-नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ३ ॥२०२॥ . (अजिअस्स णं अरहओ जाव०पहरणस्स पन्नासं सागरोषमकोडिसयसहस्सा वइकंता, सेसं जहा सोअलस्स । तिवासअद्धनवमासाहियबा.यालीसवाससहस्सेहिं इचाइयं) श्रीअजितनिर्वाणात्सागरकोटीनां त्रिंशता लक्षैः श्रीशम्भवनिर्वाणं । ततश्च त्रिवर्द्धनवमासाधिकैर्द्विचत्वारिंशता वर्षसहरूनैर्विशत्यासागरकोटिलक्षैः श्रीवीरनिर्वृतिः । तत:-नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि । तथा श्रीऋषभनिर्वाणात्सागरकोटीनां पञ्चाशता लक्षैः श्रीअजितनिर्वाणं । ततश्च विवर्षार्द्धनवमासाधिकैद्विचत्वारिंशता वर्षसहरूनैः पञ्चाशत्कोटिलक्षसागरैः श्रीवीरनिवृतिः। ततः-नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि १॥२०३।। श्रीनमिनाथनिर्वाणथी पांच लाख वर्षे श्रीनेमिनिर्वाण, त्यारपछी चोराशी हजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि २१॥ श्रीमुनिसुव्रतना निर्वाणथी छ लाख वर्षे श्रीनमिनिर्वाण, त्यारपछी पांच लाख चोराशी हजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि २० । श्रीमल्लिनाथना निर्वाणथी चोप्पन लाखवर्षे श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाण, त्यारपछी अगियार लाख चोराशी हजार P नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १९ । श्रीअरनायनानिर्वाणथी कोटीसहस्रवणे श्रीमल्लिनिर्वाण, त्यारपछी पांसठ लाख चोराशीहजार नवसी अंशी वर्षे पुस्तकयाचनादि १.अहिंथी श्रीश्रेयांसनाथ मुधी आ प्रमाणे जाणवु > श्रीकुंथनाथना निर्वाणथी कोटीसहस्रवर्ष ओछां एवा पल्योपमना चोथे भागे श्रीअरनिर्वाण, त्यारपछी सहस्रकोटी पांसठलाख चोराशी SARASWAR*****%%ARIES Jain Educ a tional diary.org Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव टीका ॥३२॥ व्या०० हजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १७ । श्रीशांतिनाथना निर्वाणथी अर्द्धपल्योपमे श्रीकुंथुनाथनिर्वाण, त्यारपछी पल्योपमनो चोथो भाग तथा पांसठलाख चौराशीहजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १६ । श्रीधर्मनाथना निर्वाणथी पोणोपल्योपम ओछा एवा त्रण सागरोपमें श्रीशांतिनाथनिर्वाण, त्यारपछी पोj पल्योपम तथा पांसठलाख चोराशीहजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १५। श्रीअनंतनाथना निर्वाणथी चार सागरोपमे श्रीधर्मनाथनिर्वाण, त्यारपछी त्रण सागरोपम पांसठलाख चोराशीहजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १४ । श्री विमलनाथना निर्वाणथी नव सागरोपमे श्रीअनंतनाथनिर्वाण, त्यारपछी सात सागरोपम पांसाठलाख चोराशीहजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १३ । श्रीवासुपूज्यना निर्वाणथी त्रीस सागरोपमे श्रीविमलनाथनिर्वाण, त्यारपछी सोल सागरोपम पांसठलाख चोराशीहजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १२ । श्रीश्रेयांसनाथना निर्वाणथी चोप्पन सागरोपमे श्रीवासुपूज्यनिर्वाण, त्यारपछी छेतालीस सागरोपम पांसठलाख चोराशीहजार नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि ११ । श्रीशीतलनाथना निर्वाणथी एकसो सागरोपम छासठलाख छब्बीसहजार वर्ष ओछां एवा एककोडी सागरोपमे श्रीश्रेयांसनिर्वाण, त्यारपछी त्रण वर्ष साडाआठ मास अने बेंतालीसहजार वर्ष ओछां एवा छासठलाख छब्बीसहजार वर्षे अधिक एवा एकसो सागरोपमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसो अॅसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १० श्रीमुविधिनाथना निर्वाणथी नवकोडीसागरोपमे श्रीशीतल| निर्वाण, त्यारपछी तालीसहजार वर्ष त्रण वर्ष साडाआठमास ओछां एवा एककोडी सागरोगमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसो अशी बर्षे पुस्तकवाचनादि ९। श्रीचंद्रप्रभुना निर्वाणथी नेवु कोडी सागरोपमे श्रीमुविधिनिर्वाण, त्यारपछी बेंता ॥३२. Jain Educatio national For Privale & Personal use only wasnary.org Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३२१॥ RRECACAAAE%ARA लीसहजार वर्ष त्रण वर्ष साडाआठमास ओछां दशकोडीसागरोपमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि । श्रीसुपार्श्वनाथना निर्माणथी नवसें कोडी सागरोपमे श्रीचंद्रप्रभनिर्वाण, त्यारपछी बेंतालीस हजार वर्ष त्रण वर्ष साडाआठमास ओछां एवा एकसो क्रोड सागरोपमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि । श्री पद्मप्रभना निर्वाणथी नवहजारकोडी सागरोपमे श्रीसुपार्श्वनिर्वाण, त्यारपछी त्रणवर्ष साडाआठमास तथा बेंतालीसहजार वर्ष ओछां एवा एकहजारक्रोडसागरोपमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि ६॥ श्रीसुमतिनाथना निर्वाणथी नेवुहजारकोड सागरोपमे श्री पद्मप्रभनिर्वाण, त्यारपछी त्रण वर्ष साडाआठमास तथा बेंतालीसहजार वर्ष ओछां दशहजारक्रोडसागरोपमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि ५। श्रीअभिनंदनना निर्वाणथी नवलाखकोडसागरोपमे श्रीसुमतिनिर्वाण, त्यारपछी त्रण वर्ष साडाआठमास तथा बेंतालीसहजार वर्ष ओछां एकलाखक्रोडसागरोपमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसोॲशी वर्षे पुस्तकवाचनादि । श्रीसंभवनाथना निर्वाणथी दशलाखकोडी सागरोपमे श्रीअभिनंदननिर्वाण, त्यारपछी त्रण वर्ष साडाआठमास तथा बेंतालीसहजार वर्ष ओछां एवा दशलाखकोडी सागरोपमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि ३। श्रीअजितनाथना निर्वाणथी त्रीसलाखकोडी सागरोपमे श्रीसंभवनाथनिर्वाण, त्यारपछी त्रण वर्ष साडाआठमास तथा बेंतालीसहजारवर्ष ओछां एवा वीसलाखकोडी सागरोपमे श्रीवीरनिर्वाण, त्यारपछी नवसो अंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि । श्रीऋषभना निर्वाणथी पचासलाखकोडी सागरोपमे श्रीअजितनिर्वाण, त्यारपछी त्रण वर्ष साडाभटमास तथा बैंतालीसहजारवर्ष ओछां एवा पचासलाखक्रोड सागरोपमे श्रीमहावीरनिर्वाण, ॥३२१॥ Jain Educatiemational For Privale & Personal use only helibrary.org Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावही टीका ॥३२२॥ व्या०७ त्यारपछी नवसो अॅशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १॥ १८४ थी २०३ ॥ अथ अस्यामवसपिण्यां प्रथमधर्मप्रवर्तकत्वेन परमोपकारित्वात् किश्चिद् विस्तरतः श्रीऋपभदेवचरित्रम् । यथा['तेणं' इत्यादितः 'अभीइपंचमे हुत्था' इति पर्यन्तम् ] तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभेणं अरहा कोसलिए चउउत्तरासाढे अभीइपंचमे होत्था) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये ऋषभः अर्हन् > कोशलायाम्-अयोध्यायां भवः कौशलिकः < चतुर्यु स्थानेषु यस्य उत्तराषाढानक्षत्रम् अभवत् पश्चमस्थाने च अभीचि:-अभिजिन्नक्षत्रम् अभवत् > ॥२०४॥ [तंजहा-' इत्यादितः 'परिनिव्वुए'त्ति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र-तं जहा- उत्तरासाढाहिं चुए चइत्ता गम्भं वक्रते जाव अभीइणा परिनिव्वुए) < तद्यथा-उत्तराषाढानक्षत्रेण चन्द्रयोगे सति च्युतः, चयुत्वा च गभं व्युत्क्रान्त:-उत्पन्नः यावत् अभिजिन्नक्षत्रेण चन्द्रयोगे सति परि-सामस्त्येन निवृतः > ॥२०॥ ['तेणं' इत्यादितः 'गम्भं वकंतेत्ति पर्यन्तं सुगमम् ] ___ तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभेणं अरहा कोसलिए) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये ऋषभः अर्हन् कौशलिकः > (जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे आसाढबहुले तस्स णं आसाढबहुलस्स चउत्थी पक्खे ण) < यः सः ग्रीष्मस्य चतुर्थों मासः सप्तमः पक्षः आपाढबहुल: तस्य आपाढबहुलस्य चतुर्थीतिथौ > (सव्वटु AAAAAAAACANCC ॥३२२॥ Damlibrary.org Jain Educ a tional Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३२३॥ सिद्धाओ महाविमाणाओ नित्तीस सागरोधमट्टिइयाओ अणंतरं चयं चइत्ता) < सर्वार्थसिद्धमहाविमानात् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकात् अनन्तरं च्यानं कृत्वा > (इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इक्खागभूमीए नाभिकुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए पुञ्चरत्तावरत्तकालसमयंसि आहारवकंतीए जाव गब्भत्ताए वकंते) < इहेब जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे इक्ष्वाकभूम्यां नाभिकुलकरस्य मरुदेवायाः भार्यायाः मध्यरात्रे आहारापक्रान्त्या यावत् गर्भतया घ्युत्क्रान्त:-उत्पन्नः > ॥२०६।। ['उसभेणं इत्यादितः 'सयमेव वागरेइति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र-(उसभे णं अरहा कोसलिए तिण्णाणोवगए आविहोत्था। तं जहा-चइस्सामि त्ति जाणइ जाव सुविणे पासइ । तं जहा-'गयवसह' गाहा) < ऋषभः अर्हन् कौशलिकः मति-श्रुता-ऽधिज्ञानत्रयसहितः अभवत् । तद्यथा-च्यवनभविष्यत्कालं जानाति यावत् स्वप्नान् पश्यति । तद्यथा-'गजवृषभा' गाथा > (सव्वं तहेव, नवरं पढमं उसभं अइंतं पासइ, सेसाओ गयं) < सर्व तथैव, नवरं > मरुदेवा प्रथमं मुखेन 'अइंत' ति प्रविशन्तं वृषभं पश्यति, शेषा-जिनजनन्यः प्रथमं गजं पश्यन्ति, वीरमाता तु सिंहमद्राक्षीत् । (नाभिकुलगरस्स साहेइ, सुविणपाढगा नथि। नाभिकुलगरो सयमेव वागेरह) < नाभिकुलकरस्य कथयति । स्वप्नपाठकाः नास्ति । नाभिकुलकरः स्वयमेव स्वप्नफलं कथयति > ॥२०७॥ ['तेणं' इत्यादितः 'दारगं पयाया' इति पर्यन्तं प्राग्वत् ] WRRRRRRRJA ॥३२॥ For Privale & Personal use only www.uday.org Jain Education Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ४/किरणाव टीका व्या०७ ॥३२४॥ तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभे णं अरहा कोसलिए जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स अट्ठमी पक्खे णं) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये ऋषभः अईन् कौशलिकः यः सः ग्रीष्मस्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः चैत्रकृष्णः तस्य चैत्रकृष्णस्य अष्टमी तिथौ > (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुनाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं जाव आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं आरोग्गा आरोग्गं दारयं पयाया) < नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अर्द्धाऽष्टमेषु दिनेषु यावत उत्तराषाढानक्षत्रेण चन्द्रयोगे सति आरोग्या-मरुदेवा माता रोगरहितं दारकं प्रजाता > ॥२०८॥ ['तं चेव सव्वं' इत्यादितः 'जूअवज्ज सव्वं भाणियव्वं'त्ति यावत् ] तत्र-(तं चेव सव्वं जाव देवा देवीओ अ वसुहारवा वासिंसु) < तदेव सर्वं यावद् देवाः देव्यश्च वसुधारावर्ष वर्षयन् > (सेसं तहेव चारगसोहण-माणुम्माणवद्धणं-उस्सुक्कमाइ ठिइवडियजूयवजं सव्वं भाणियवं) < शेषं तथैव, चारकशोधन-मानोन्मानवर्द्धन-उच्छुल्कमादिकं स्थितिपतितां यूपवर्ज सर्व भाणयितव्यम् > । ___अथ देवलोकच्युतो भगवान्-अनुपमश्रीः, अप्रतिपातिज्ञानत्रयः, जातिस्मरः, अनेकदेवदेवीपरिवृतः, बुद्धि-कान्त्यादिगुणैः अशेषमनुष्येभ्योऽभ्यधिकः, वरपद्मगर्भगौरः, बिम्बोष्ठः, अञ्जनसक्शिरोजः, फुल्लोत्पलकमलगन्धनिःश्वासः, शुभध्यानक्षीरनीरसूरप्लावितं हृदयान्निर्गत्य अधरपल्लालग्नं रागं प्लावयितुम् अनुलग्नेनेव स्फटिकावदातदन्तपङ्क्तिकान्ति कलापेनोपशोभितः, शारदेन्दुसुन्दरवदनः, क्रमेण वर्द्धमानः सन्नाहाराभिलाषे सुरसश्चारिताऽमृतरसामगुलिं मुखे प्रक्षिपति । ॥३२४॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only nelibrary.org Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३२५॥ ह. कि. २८ ર Jain Educa एवमन्येऽपि तीर्थकृतः बालभावे अवगन्तव्याः । बालभावाऽतिक्रमे पुनः अग्निपक्वाहारमोजिनः । ऋषभस्तु आप्रव्रज्यां सुरानीतोत्तरकुरुकल्पद्रुमफलरसम् आस्वादितवान् । किञ्चिदूसातवर्षे च भगवति - 'प्रथमतीर्थ कुशस्थापनं शक्रजीतम् ' इति विचिन्त्य कथं रिक्तपाणिः स्वामिनः पुरो यामि ? इति महतीमिक्षुयष्टिमादाय, अनेक देवपरिवृतः शक्रः नाभिकुलकराङ्कस्थितस्य स्वामिनः पुरः तस्थौ । दृष्ट्वा चेक्षुयष्टिं हृष्टवदनेन स्वामिना करे प्रसारिते- 'मक्षयसि इक्षुम्?" इति भणित्वा दवा च तां इक्ष्वभिलापात् स्वामिनो वंश ' इक्ष्वाकु' नामा अभवत् । गोत्रमपि अस्य एतत् पूर्वजानामिक्ष्यभिलापात् 'काश्यप' नामा इति शक्रो वंशस्थापनां कृतवान् । अथेदृश्येव अवसरे किञ्चिन्मिथुनकं सञ्जाताऽपत्यं सदपत्यमिथुनकं तालवृक्षाघो विमुच्य रिरंसया क्रीडामन्दिरमगात् । ततः - पवनप्रेरितेन पतता तालफलेनैकस्मिन् दारके व्यापादिते तत् पितृमिथुनकं प्रतनुकषायं तां दारिकां संबद्ध कियता कालेन विपद्य सुरलोके समुत्पन्नम् । सा च उद्यानदेवतेवोत्कृष्टरूपा एकाकिन्येव वने विचचार । दृष्ट्वा च तां सुरसुन्दरीकल्पाम् अनल्पविस्मयोत्फुल्लनयना युगलिकनरा नाभिकुलकराय न्यवेदयन् । नाभिरपि - 'शिष्टा इयं सुनन्दानाम्नी ऋषभपत्नी भविष्यति' इति लोकज्ञापनपुरस्सरं तां गृहीतवान् । ततः सुनन्दा - सुमङ्गलाभ्यां सह प्रवर्द्धमानो भगवान् यौवनमनुप्राप्तः । शक्रोऽपि प्रथम तीर्थक्रुद्विवाहकृत्यम्- 'अस्माकं जीतम् ' इत्यनेक देवदेवीकोटिपरिवृतः समागत्य - 'स्वामिनो वरकृत्यं स्वयमेव कृतवान् । वधूकृत्यं च द्वयोः वरकन्ययोः देव्यः' इति । ततः ताभ्यां विषयोपभोगिनो भगवतः पदलक्षपूर्वेषु गतेषु 'भरतब्राह्मीयुगलम् अन्यानि चैकोनपञ्चाशत् युगलानि सुमङ्गला प्रसूतवती । बाहुबली - सुन्दरीयुगलं च सुनन्दा' इति ॥ २०९ ॥ emational ॥३२५॥ elibrary.org Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प |किरणावल टीका व्या०७ ॥३२६॥ PRIYASARAS ['उसमेणं' इत्यादि तः 'पढमतित्थंकरे इवा' इति पर्यन्तम् ] तत्र-(उसभे णं अरहा कोसलिए कासवगुत्ते तस्स पंच नामधिज्जा एवमाहिति) <ऋषभः अईन् कौशलिकः काश्यपगोत्रः। तस्य पञ्च नामधेयानि एवमाख्यायन्ते> (तं जहा-उसमे इवा, पढमराया इ वा पढमभिख्खायरे इ वा, पढमजिणे इ वा, पढमतित्थयरे इ वा) <'ऋषभः' इति वा > इकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारे । 'पढमराए'त्ति 'प्रथमराजा' । स चैवम् 'कालानुभावात् क्रमेण प्रचुरप्रचुरतरकपायोदयात् परस्परं विवदमानानां युगलिकानां दण्डनीतिः तावत् विमलवाहनचक्षुष्मत्कुलकर काले अल्पापराधत्वात् हकाररुपैयासीत् । यशस्विनोऽभिचन्द्रस्य च काले अपराधवृद्धथा अल्पे अनल्पे चापराधे हकार-मकारौ एव अभूताम् । प्रसेनजित्-मरुदेव-नाभिकुलकरकाले पुनरपि अपराधवृद्धौ क्रमेण जघन्यादि अपराधिनां हकारमकार-धिक्कारा अभूवन् । एवमपि नीत्यतिक्रमणे ज्ञानादिगुणाधिकं भगवन्तं विज्ञाय भगवन्निवेदने कृते स्वाम्याह-नीतिमतिक्रमतां दण्डं सर्व नरेश्वरः राजा करोति । स च अमात्याऽऽरक्षकादिवलयुतोऽनतिक्रमणीयाऽऽज्ञो भवति । एवमुक्ते तैरूचे अस्माकमपीदृशः राजा भवतु । साम्याह-याचध्वं राजानं कुलकरं प्रति । तैः याचितो नाभिः- 'भो ! भवतां ऋषभ एव राजा' इत्युक्तरान् । तत:-ते राज्याभिषेकनिमित्तम् उदकानयनाय सर: प्रति गतवन्तः। तदानीं च प्रकम्पितासनः शक्र:-'जीतम्' इति धिया समागत्य मुकुट-कटक-केयूर-कुण्डलाभरणादि विधिपुरस्सरं राज्येऽभिषिञ्चति स्म । मिथुनकनरास्तु नलिनपत्रस्थितोदकहस्ता अलङ्कृतं भगवन्तं निरीक्ष्य विस्मयोत्फुल्लनयना व्याकुलीकृतचेतसः कियन्तमपि कालं CRICAAKAE%lesvides ॥३२६॥ Sain Ede Emational For Private & Personal use only amajsinelibrary.org Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३२७॥ CC विलम्ब्य भगवत्पादयोः उदकं प्रक्षिप्तवन्तः। एविधक्रियोपेताँश्च तान् दृष्ट्वा तुष्टः शक्रः । अचिन्तयत्-'अहो खलु विनीता एते पुरुषाः' इति चैश्रमणमाज्ञापितवान्-यदिह द्वादशयोजनविस्तीणों नवयोजन-विष्कम्भां 'विनीता' नाम्नी नगरी निष्पादय ? इति । आज्ञासमनन्तरमेव दिव्यभवनपङ्क्ति -प्राकारोपशोभितां नगरीम् अवासयत् । तत:- भगवान् राज्ये हस्त्यश्वगवादीनां सङ्ग्रह पुरस्सरम् उग्रभोगराजन्यक्षत्रियलक्षणानि चत्वारि कुलानि व्यवस्थापितवान् । तत्र उग्रदण्डकारित्वात् उग्राः, आरक्षकस्थानीयाः। भोगाईत्वाद् भोगाः, गुरुस्थानीयाः। समानव यस इतिकृत्वा रामन्याः, वयस्यस्थानीयाः । शेपप्रधानप्रकृतितया क्षत्रियाश्च । तदानीं च कालपरिहान्या ऋषभकुलकरकाले कल्पद्रुमफल मोगाऽभावेन इक्ष्वाकवः ते इक्षुभोजिन:, शेषास्तु पत्रपुष्पफलभोजिनः, अग्नेः अभावाद्वा अपयशाल्यौपधीभोजिनचासन् । कालानुभावात् तदजीर्णे स्वल्पं स्वल्पतरं च भुक्तवन्तः । तस्याऽप्य जीणे तैर्विज्ञप्तो भगानाह-हस्ताभ्यां घृष्ट्वा त्वचं चापनीय भुरध्वम् ? इति निशम्य तथैव कृते कियता कालेन ता अपि ते न जीर्णवन्तः। पुनः विज्ञप्तभगवदुपदेशेन प्रवालपुटे तिमिततन्दुल. भोजिनः। पुनरप्यजीणे कियन्तमपि कालं हस्ततलसंपुटे संस्थाप्य । पुनरप्यजीर्ण कक्षासु स्वेदयित्वा । एवमपि अजीर्णे हस्ताभ्यां घृष्ट्वा पत्रपुटे च तिमित्वा । एवमपि अजीर्णे पुनः हस्ततले मुहूर्त संस्थाप्य इत्यादिभङ्गकमोजिनो बभूवांसः।। ___ एवं च सति एकदा परस्परं द्रमघर्षणान्नवोत्थितप्रवृद्धज्यालावल्या समुज्ज्वलन्तं भूतलावलग्नं तृणादिकलापं कवलयन्तम् अग्निमुपलभ्य अभिनवरत्नबुद्धया ग्रहणाय प्रसारितपाणयः दह्यमानाः भीताः सन्त: भगवन्तं यथावद्ध्यतिकरकथनेन विज्ञपयामासुः। भगवता च अग्नेः उत्पत्ति विज्ञाय-'भो युगलिका ! उत्पन्नोऽग्निः । अत्र च शाल्याद्यौषधीः निधाय Sta ॥३२७॥ Jain Educ a tional For Private & Personal use only Throlibrary.org Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका व्या०५ ॥३२८॥ SONOTECTECRETURECRUCIAS भुग्ध्वम् ? यतः- ता सुखेन जीर्यति' इति उपाये कथितेऽपि अनभ्यासात् सम्यगुपायमलभमानाः ता औषधीः अग्नौ प्रक्षिप्य कल्पद्रोः इव फललिप्सया पुरः स्थित्वा पश्यन्ति । अग्निना च ताः सर्वतो दह्यमानाः दृष्ट्वा - 'अहो ! अयं पापात्मा वैताल इव अतृप्तः सयमेव सर्व भक्षयति नाऽस्मान् प्रति किमपि प्रयच्छति' इति । अतः - 'अस्यापराधं भगवते विज्ञप्य शिक्षा दापयिष्यामः' इति बुद्ध्या गच्छन्तः पथि भगवन्तमपि हस्तिस्कन्धारूढम् अभिमुखमागच्छन्तं दृष्ट्वा यथावद्वयतिकरं भगवते न्यवेदयत् । भगवाँश्चाह-न चाऽत्राऽव्यवधानेन धान्यादि प्रक्षेपः कार्यः, किनु कुम्भादिव्यवधानेन । इति उक्त्वा तैरेव साई मृत्पिण्डमानाय्य निधाय च हस्तिकुम्भे मिण्ठेन कुम्भकारं न्यदर्शयत् । उक्तवांश्च – एवं विधानि भाण्डानि विधाय तेषु पार्क कुरुध्वम् ? इति भगवदुक्तं सम्यगुपायमुपलभ्य ते तथैव कृतवन्तः। अतः - प्रथमं कुम्भकारशिल्पं प्रवर्तितं । ततः - लोहचित्र-तन्तुबाय-नापितलक्षणः चतुर्भिः शिल्पैः सह मूलशिल्पानि पञ्चव । तान्यपि प्रत्येक विंशत्या भेदैः शिल्पशतं तत्तु आचार्योपदेशजमिति । < 'प्रथमभिक्षाचरः'।'प्रथमो जिनः' - रागादिजेतृत्वात् । 'प्रथमतीर्थकर' > ॥२१०॥ ['उसभेणं' इत्यादितः 'पब्वइए' ति यावत् ] तत्र (उसभेणं अरहा कोसलिए दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे आलीणे मद्दए विणीए वीसं पुव्यसयसहस्साई कुमारवासमझे वसइ वसित्ता, तेवहि पुन्धसयसहस्साई रजवासमझे वसइ, तेवढु पुव्वसयसहस्साई रजवासमझे वसमाणे) <ऋपभः अर्हन कौशलिकः दक्षः दक्षप्रतिज्ञः प्रतिरूपः आलीनः सरल: विनीतः विंशतिपूर्व शतसहस्राणि कुमारवासमध्ये स्थित्वा, त्रियष्टि पूर्वशतसहस्राणि राज्यवासमध्ये वसति, तावन्तं तत्र वसन् > FASHIAAAES ॥३२८॥ Jain Educe ntamational Ali For Private & Personal use only Gabrary.org Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||३२९ (लेहाइआओ गणिअप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ) त्ति लेखादिकाः < गणितप्रधानाः शकुनरूतपर्यासानाः > द्वासप्ततिः कनाः। ताश्चमाः 'लिखितं गणितं गीतं नृत्यं वाद्यं च पठित-शिक्षे च । ज्योतिश्छन्दो-उलङ्कृति -व्याकरण-निरूक्ति-काव्यानि ॥१॥ कात्यायन निघण्टुः गज-तुरगा-ऽऽरोहणं तयोः शिक्षा । शस्त्राभ्यासो रस-मन्त्र-यन्त्र-विष-खन्य-गन्धवादाश्च ॥२॥ प्राकृत-संस्कृत-पैशाचिका-उपभ्रंशाः स्मृतिः पुराण-विधी । सिद्धान्त-तर्क-वैद्यक-वेदा-ऽऽगम-संहिते-तिहासाश्च ॥३॥ सामुद्रिक-विज्ञाना-चार्यकविद्या रसायनं कपटम् । विद्यानुवाद-दर्शनसंस्कारौ धूर्त्तशम्बलकम् ॥४॥ मणिकर्मतरुचिकित्सा खेचर्य-मरी कलेन्द्रजालं च । पातालसिद्धि-यन्त्रक-रसवत्यः सर्वकरणी च ॥५॥ प्रासादलक्षणं पण-चित्रो-पल-लेप-चर्मकर्माणि । पत्रच्छेद्य-नखच्छेद्य-पत्रपरीक्षा वशीकरणम् ॥३॥ काष्ठघटन-देशभाषा गारुड-योगा-धातु कर्माणि । केलिविधि-शकुनरूते इति पुरुषकलाद्विसप्ततिज्ञेयाः ॥७॥ अत्र लिखितं-सलिप्याधष्टादशलिपी विधानं तच्च भगवता दक्षिणकरेण ब्राहम्या उपदिष्टं । गणितं तुएक दश शतमस्मात् सहस्रमयुतं ततः परं लक्षम् । प्रयुत कोटिमथाऽव॒दमजं खर्व निखर्व च ॥१॥ तस्मान्महासरोज पहुं सरिताम्पति ततस्त्वन्त्यम् । मध्यं परार्थमाहु-यथोत्तरं दशगुणं तज्ज्ञाः ॥२॥ इत्यादि सङ्ख्यानं । तच्च सुन्दा वामकरण । काष्ठकर्म-रूपकर्म भरतस्य । पुरुषादिलक्षणं च बाहुबलिन उपदिष्टमिति।।४ (च उसहिमहिलागुणे) त्ति-< चतुष्पष्टिं महिलागुणान् > --- RBARAGAR ॥३२९॥ in Educ a tional ibrary.org Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ ३३० ॥ 'ज्ञेया नृत्यfeet faiवादित्र-मन्त्र-तन्त्रांश्च । घनवुष्टि-फलाकृष्टी संस्कृतजल्पः क्रियाकल्पः ॥ १ ॥ ज्ञान-विज्ञान दम्माम्बुस्तम्भा गीत - तालयोर्मानम् । आकारगोपना-ssरामरोपणे काव्यशकि- वक्रोक्ती ॥२॥ नरलक्षण - गजयत्ररपरीक्षणे वास्तुशुद्धि-लघुबुद्धी । शकुनविचारो धर्माचारोऽञ्जनचूर्णयोर्योगः ||३|| धर्मकर्म कनकसिद्धि वर्णिकावृद्धी | वाकूपाटव- करलाघव - लचितचरण-तैलसुरभिताकरणे ( ) || ४ || भृत्योपचार - गेहाचारौ व्याकरण - परनिराकरणे । वीणानाद - वितण्डावादा ऽङ्कस्थितिजनाचाराः ||५| कुम्भ्रम - सारिश्रम- रत्नमणिभेद-लिपिपरिच्छेदाः । वैद्यक्रिया च कामाऽऽविष्करणं रन्धनं चिकुरबन्धः ||६|| शालिखण्डन- मुखमण्डने कथाकथन - सुकुसुमग्रथने । वरवेष - सर्वभाषाविशेष-वाणिज्य (भैषज्ये) भोज्यानि ||७|| अभिधानपरिज्ञानाssभरण- यथास्थान विविधपरिधाने । अन्त्याक्षरिका - प्रश्नप्रहेलिका स्त्रीकलाख तुप्पष्टिः ||८|| (सिप्पस च कम्मागं तिन्निवि पयाहिआए उवदिसइ) त्ति कर्मणां कृषिवाणिज्यादीनां मध्ये कुम्भकारशिल्पादिकं प्रागुक्तं शिल्पशतमेव उपदिष्टम् । अत एव 'अनाचार्योपदेशजं कर्म, आचार्योपदेशजं च शिल्पम्' इति कर्मशिल्पयोः विशेषमामनन्ति । कर्माणि च क्रमेण स्वयमेव समुत्पन्नानि । त्रीण्यप्येतानि - द्वासप्तति पुरुष कला-चतुष्पष्टिमहिलागुणशिल्पशताख्यानि वस्तूनि प्रजाहिताय भगवानुपदिशति स्म इति । < ( उवदिसित्ता पुत्तसयं रजसए अभिसिंचइ) - उपदिश्य पुत्रशतं राज्यशतेऽभिषिञ्चति तत्र - भरतस्य विनी - तायां मुख्यराज्यं, बाहुबलेव बहलीदेशे तक्षशिलायां राज्यं दया, शेषा-अष्टनवतिनन्दनानां पृथक् पृथग् देशान् विभज्य Jain Educational 'किरणाव टीका व्या० ॥३३०|| brary.org Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३१॥ %ecitie CEO दत्तवान् । नन्दननामानि तु इमानि-- संखो अ विस्तसम्मो विमल-मुलक्खण य अमल-चित्तंगो । तह खायकित्ति-वरदत्त-दत्त-सागर-जसहरो य ॥१॥ वर-थवर कामदेवो धुव बच्छो नंदसूर य सुनन्दो । कुरु-अंग-बंग-कोसल-वीर-कलिंगे अमागहविदेहे ॥२॥ संगम-दसन्न-गंभीर-वसुबम्म-सुबम्म-रद्वय सुरहे । बुद्धिकरे विविहकरे सुजसे जसकित्ति-जसकरए ॥३॥ कितिकर-सुरण-भसेन विकन्तउ नरुत्तमओ। तह चंदसेण महसेण-मुसेणे (णहसेन) भाणु-कन्ते अ (सुकंते अ) ॥४॥ पुप्फरओ सिरिहरो दुरिसो सुंसुमार दुजओ अ । जयमाण सुधम्म धम्मसेण आणंदगा-गंदे ॥५॥ गंदो अवरागिन विस्मसेग हरिसेणओ जओ विजओ । विजयंत पहाकरो अरिदमणो माण महबाहु ॥६॥ तह दीहवाहु मेहे सुघोस तह विसवराह-सुसेणे (सेनावइ)। कविले सेलविआरी अरिंजओ कुंजरबलो अ ॥७॥ जयदेव नागदत्तो पासब-बलबीर-सुधमई सुमई । तह पउमनाह सीहो मुजाई संजय सुनाहो य ॥८॥ नरदेव वित्तहर-सुरवरो अदढरह-पभंजणा पए । अडनवइ भरहभाया संखाइपभंजणवसाणा ॥९॥ राज्यदेशनामानि-ग-बंग-कलिंग - गोड-चौड-कर्णाट-लाट-सौराष्ट्र-काश्मीर-सौवीर-आमीर-चीण-महाचीणगुर्जर-बंगाल-श्रीमाल-नेपाल जहाल-कौशल-माला-सिंहल-मरुस्थलादीनि ॥ (अभितिरित्ता पुगरवि लोतिपहिं जिअकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इट्टाहिं जाव वग्गूहिं सेसं तं चेव भाणियव्वं जाव दागं दाइयाण परिभाइत्ता) < अभिषिच्य पुनरपि लोकान्तिकः जितकल्पितैः देवैः ताभिः इष्टाभिः. -XI-RICA ॥३३१ Jain Educ a tional For Privale & Personal Use Only brary.org Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 श्रीकल्प-13 यावत् बल्गुभिः शेतदेव भाणयितव्यं यावत दानं दायिकेभ्यः-गोत्रिकेभ्यः परिभाज्य > (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे किरणाव परखे चित्तबहले तस्स चितवहस्स अट्ठमी पक्खे णं)<यः सःग्रीष्मस्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः चैत्रबहुल: तस्य ॥३३२॥ व्या० चैत्रबहुलस्य अष्टमी तिथी> (दिवसस्स पच्छिमे भागे सुदंसणाए सिबियाए सदेवमणुआसुराए परिसाए । समणुभम्ममाणमग्गे जाव विणीयं रायहाणि मअंमज्झेणं निग्गच्छद) <दिवसस्य पश्चिमे भागे-मध्याह्नोत्तरकाले सुदर्शनाभिधायां शिविकायां आरूढं । सदेवमनुजासुरया पर्षदा सम्यग् अनुव्रज्यमानम् अग्रभागे यावत् विनीतायां राजधान्यां मध्यं मध्येन निर्गच्छति> (निग्गच्छित्सा जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे जाब सयमेव) निर्गत्य यत्रैव सिद्धार्थवनमुद्यानं यत्रैव अशोकनामा वृक्षविशेषः तत्रैव उपागच्छति । उपागत्य च तस्याऽधः यावत स्वयमेव > (चउमुहि लोयं करेइ करेता छटेणं भत्तणं अपाणएणं आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं)<चतमृभिः अष्टाभिः लोचं करोति> एकां किल केशानां मुष्टिम् अवशिष्यमानां पवनान्दोलितां सती कनककलशोपरि नीलोत्पलपिधानानुकारिणीम् उभयतः स्कन्धोपरि लुठन्तीं विलोक्य प्रमुदितहृदयेन शक्रेण सोपरोधं विज्ञप्तो भगवान् रक्षितवान् इति [शेषम् अशेष प्राग्वत ] < लोचं कृत्वा पप्ठेन भक्तेन अपानकेन उत्तरापाटानक्षत्रेण योगमुपागतेन > (उग्गाणं भोगाणं रायन्नाणं खत्तिआणं चउहिं [पुरिस] सहस्सेहिं सद्धि एग देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिपब्वइए) < उग्राः भोगाः राजन्याः क्षत्रियाः तेषां चतुर्भिः [पुरुष] सहस्रैः सार्द्धम् > अथ चैत्रबहुलाष्टम्यां 'यथा भगवान् करिष्यति तथा वयमपि ४॥३३२ RECEN Jain Educa t ional Nabrary.org Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३३॥ ARRESTERESTEGAERI-RIKARANGABA इति कृतप्रतिज्ञैः स्वयमेव कृतचतुर्मुष्टिकलोवैः, क्वचित् कृतपञ्चमुष्टिकलोचैः उग्रादिकुलसमुत्पन्नैः चतुःसहस्रसङ्ख्याकैः आत्मीयपुरुषैः सह <एकं देवदृष्यं-दिव्यवस्रविशेषम् आदाय द्रव्यतः भावतश्च मुण्डो भूत्वा अगारात्-गृहान् निष्क्रम्य अनगारितां-साधुतां प्रवजित:-श्रमणीभूतः > स्वयमेव सामायिकं प्रतिपद्य गृहीतघोराभिग्रहो भगवान् ग्रामानुग्रामं विचरति ॥२११॥ ['उसमे गं अरहा कोसलिए' इत्यादितः 'पासमाणे विहरइ' ति यावत् ] तत्र-(उसभेणं अरहा कोसलिए एगं वाससहस्सं निच्चं वोसट्टकाए चिअत्तदेहे) < ऋषभःअहन् कौशलिकः एकं वर्षसहस्रं नित्यं व्युत्सृष्टकायः-उपेक्षितशरीरः। अत एव त्यक्तदेहः । (जाव अप्पाणं भावेमाणस्स) <यावत् आत्मानं भावयत: > तदानीं लोकस्य अति समृद्धत्वाद् अर्थिनामभागत् कीदृशी भिक्षा? कीदृशा वा भिक्षाचराः ? इति लोको न जानाति । तेन ते भिक्षामलभमानाः क्षुधादिबाधिततनवश्च मौनावलम्बिनो भगवतः सकाशात् उपदेशमलभमानाः कच्छ-महाकच्छौ प्रति विज्ञप्ति कृतवन्त:-'भो ! अस्माकम् अनाथानां भवन्तौ नाथौ भवताम् । यदस्माभिरेवं क्षुत्तबाधितैः कियत् कालं स्थातव्यम् ?'। तो अपि आहतु:-'वयमपि न जानीमः'। यदि पूर्वमेव भगवान् पृष्टोऽभविष्यत् तदा शोभनमभविष्यत् । इदानीं तु भरतलज्जया गृहे गन्तुमयुक्तम् । आहारमन्तरेण च स्थातुमप्यशक्यम् । अत:-विचार्यमाणो वनवास एव श्रेयान् । तत्राऽपि उपवासरताः परिणतशटितपत्राद्युपभोगिनो भगवन्तमेव ध्यायन्तः स्थास्याम इति सम्प्रधार्य सम्मत्या गङ्गातटे वर्द्धिताऽसंस्कृतालकत्वाज जटिलाः तापसाः सञ्जज्ञिरे । यो कच्छ-महाकच्छसुतौ नमि-विनमिनामानौ देशान्तरापाती भरते अबहीलनां कृत्वा पित्रनुरागात् ताभ्यामेव सह विहृतवन्तौ । तौ च वनाश्रयणकाले पितृभ्यामेव सम्बोधि UAGRAIGALUCRICASA ॥३३३॥ Sain Educ a tional For Privale & Personal use only D ibrary.org Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०७ 1३३४॥ तौ-'भो! दारुणः खलु इदानीम् अस्माभिः वनवासविधिराश्रितः। तस्माद् यांत यूयं वगृहाणि, उपसर्पत वा भगवन्तम् ?। स एव अभिलषितफलदो भविष्यति' इति पित्रोः वचः प्रमाणीकृत्य कृतपितृप्रणामो भगवत्समीपमागत्य प्रतिमास्थिते भगवति जलाशयेभ्यो नलिनीपत्रैः उदकमानीय सर्वतः प्रवर्षणमाजानूच्छ्रयमानं सुगन्धिकुसुमप्रकरं च कृत्वा प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं क्षितितलनिहितोत्तमाङ्गकरजानू-राज्यसंविभागप्रदो भवतु' इति विज्ञप्य उभयपाधैं खड्गव्यग्रहस्तो तस्थतुः । एवं च कियता कालेन 'धरणो' नाम नागराजा भगवन्तं वन्दितुमागतः। स च ताभ्याम् अविज्ञप्तोऽपि अबवीत्-'भो ! भगवान् त्यक्तसङ्गः, नाऽस्य किश्चिदस्ति' अतः-'मा भगवन्तं याचेथाम् । भगवतो भक्त्या अहमेव युवाभ्यां दास्यामि' इति भणित्वा अष्टचत्वारिंशत् सहस्र [सङ्ख्याका] विद्याः, तत्र-गौरी-गान्धारी-रोहिणी-प्रज्ञप्तिलक्षणाः चतस्रो महाविद्याश्च पाठसिद्धा एव दत्तवान् । उक्तवाँश्च-'इमाभिः विद्याभिः विद्याधरद्धिप्राप्तौ सन्तो, स्वजनं जनपदं च गृहीत्वा यातं युवां वैताढये नगे, दक्षिण विद्याधरश्रेण्यां गौरेय-गन्धार प्रमुखान् अष्टौ निकायान् रथनूपुरचक्रवालप्रमुखाणि च पश्चाशन्नगराणि । उत्तरश्रेण्यां च पण्ड क वंशालयप्रमुखान् अष्टौ निकायान् गगनवल्लभप्रमुखाणि च षष्टिनगराणि निवास्य विहरतम्' इति । ततः-तौ तल्लब्धप्रसादौ कामितं पुष्पकविमानं विकुळ तीर्थकरं नागराजं च प्रणम्य पुष्पकविमानाऽऽरूढौ कच्छमहाकच्छौ प्रति भगवत्प्रसाद ज्ञापयन्ती, विनीतां नगरी प्रविश्य भरतस्य राज्ञः तमर्थ निवेद्य, स्वजनं परिजनं चाऽऽदाय वैताढथे नगे-'दक्षिणस्यां नमि-उत्तरस्यां च विनमि' इति तौ तथैव कृत्वा विहरतः स्म इति । भगवाँश्च अन्नपानादिदानाऽकुशलैः समृद्रिभाग्भिः मनुष्यैः वस्त्राभरणगन्धमाल्यालङ्कारकनकमणिमौक्तिकाऽऽसनशयन 15 AMERCAMERकर ॥३३४॥ Jain E t ernational For Privale & Personal use only tainelibrary.org Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३५॥ यानवाहनकन्याप्रभृतिप्रशस्तवस्तुभिः निमन्त्र्यमानोऽपि योग्यभिक्षामलभमानः अदीनमनाः सन् गोचर्या भिक्षार्थ भ्रमन् यावत् कुरुजनपदे गजपुरे नगरे प्रविष्टः। तत्र च श्रीआवश्यकवृत्त्यनुसारेण-'बाहुवलीसुतः सोमप्रभः तस्य पुत्रः युवराजा श्रेयांसः'। श्रीआवश्यकचूणौँ तु-'भरहस्स पुत्तो सेज्जंसो'। अण्णे भणंति-'बाहुबलीस्स सुतो सोमप्पभो सेअंसो अत्ति । स च श्रेयांस:-'स्वप्ने मया श्यामवर्णो मेरुः अमृतकलशेन अभिषिक्तः अतीव शोभितवान्। सुबुद्धिनामा नगरश्रेष्टी पुनः-'सूर्यमण्डलात् सस्तं किरणसहस्रं श्रेयांसेन तत्र घटितं ततः-तदतीब शोभाभाग्' । राजाऽपि स्वप्ने-'महापुरूष एकः रिपुबलेन युद्धयमानः श्रेयांससाहाय्याजयी जातः' इति अद्राक्षीत् इति । त्रयोऽपि प्रातरन्त:सभं सम्भूय परस्परं निजं निजं स्वप्नं न्यवेदयन् । ततः राज्ञा भणितं-'कोऽपि श्रेयांसस्य महान् लाभो भावी' इति निर्णीय विसर्जितायां पर्पदि श्रेयांसोऽपि सभवने गत्वा गवाक्षस्थः-'स्वामी न किञ्चिल्लाति' इति जनोत्कलिका कोलाहलम् आकलय्य उत्थितः, स्वामिनं प्रविशन्तं प्रेक्षमाणः चिन्तयति-'मया क्वाऽपि इदृशं नेपथ्यं दृष्टपूर्व यादृशं मे पितामहस्य' इति जातिमस्मापीत-'अहो ! अहं भगवतः पूर्वभवे सारथिः' तेन समं तीर्थकरसमीपे प्रव्रज्यामात्तवान् । तत्रवज्रसेनेन तीर्थकृता कथितमासीत्-'यदयं वज्रनाभः भरतक्षेत्रे प्रथमतीर्थकृद्भावी' इति । स एष भगवान् । तदानीमेव तस्यैकः मनुष्यः प्रधानेक्षुरसकुम्मेन सह आगतः आसीत् । तमेव इक्षुरसकुम्भमादाय उपस्थितः श्रेयांसो भणति'भगवन् ! गृहाण योग्यामिमाम् इक्षुरसभिक्षा ? प्रसारय पाणी? निस्तारय माम् ? इति उक्ते-'कल्पते' इति कृत्वा स्वामिना पाणी प्रसारितो, निःसृष्टश्व तेन सर्वोऽपि रसः, न चाऽत्र बिन्दुरप्यधः क्षरति किन्तु उपरि शिखा परिवर्तते । GUAGEACHECEMARCRECAR ॥३३५॥ Jain Educ a tional For Private & Personal use only dibrary.org Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर ॥३३६॥ टीका व्या०। यतः-'माइज्ज घडसहस्सा अहवा मायंति सागरा सव्वे । जस्सेयारिसलद्धी सो पाणिपडिग्गही होइ' त्ति ॥१॥ अत्र कविघटना-'स्वाम्याह दक्षिणं हस्तं कथं भिक्षां न लासि भोः ! । स प्राह दातृहस्तस्याधो भवामि कथं ? यतः ॥२॥ पूजाभोजनदानशान्तिककलापाणिग्रहस्थापना चोक्षप्रेक्षणहस्तकार्पणमुखव्यापारबद्धस्त्वहम् । इत्युक्त्वा दक्षिणे करे स्थिते वामो ब्रूते-- वामोऽहं रणसम्मुखाङ्कगणना वामाङ्गशय्यादिकृत द्यतादिव्यसनी त्वसौ, स तु जगौ, चोक्षोऽस्मि न त्वं शुचिः ॥३॥ तत:- 'राज्यश्रीर्भवताऽजिताऽर्थिनिवहस्त्यागैः कृतार्थीकृतः सन्तुष्टोऽस्मि गृहाण दानमधुना तन्वन् दयां दानिषु। इत्यब्दं प्रतिबोध्य दक्षिणकरं श्रेयांसतः कारयन् प्रत्यग्रेचरसेन पूर्ण ऋषभः पायात्स वः श्रीजिनः' ॥४॥ श्रेयांसस्य दानावसरे- नेत्राम्बुधारा वाग्मुग्धधारा धारा रसस्य च । स्पर्द्धया वर्द्धयामासुः श्रीधर्म, तदाशये ॥५॥ ततः- तेन भगवान् सांवत्सरिकतपःपारणकं कृतवान् । तत्र पञ्चदिव्यानि प्रादुर्भूतानि । तद्यथा-वसुधारावृष्टिः, चेलोत्क्षेपः, व्याम्नि देवदुन्दुभिः, गन्धोदककुसुमवृष्टिः, आकाशे-'अहो ! दानम्' इति घोषणं चेति। तत्र वसुधाराप्रमाणम् 'अद्धतेरसकोडी उक्कोसा तत्थ होइ वसुहारा । अद्धतेरसलक्खा जहनिआ होइ वसुहारति ॥ (आव. नि. ३३२) ततः-देवसन्निपातं दृष्ट्वा राजप्रमुखः अखिलोऽपि लोकः ते च तापसाः श्रेयांसभवनमुपागताः । तान् श्रेयांस: प्रज्ञापयति-'भो! जनाः सद्गतिलिप्सया एवं भिक्षा प्रदीयते' । लोकः पृच्छति-'कथं भवता ज्ञातम् ?' । यत्स्वामिनोऽप्येवं भिक्षा प्रदीयते । सोऽवक्-'जातिस्मृत्या'। मम तु स्वामिना सह अष्टभवसम्बन्धः पूर्वमासीत् । कौतुकाजनः MALAIHAR ॥४॥३३६। Jain Education mational For Private & Personal use only wytbrary.org Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %EGECE ॥३३७॥ पृच्छति-'के ते अष्टौ भवाः । श्रेयांस आह-यदा स्वामी ईशाने ललिताङ्गनामा देवः, तदानीमहं पूर्वभवे निर्नामिकानाम्नी स्वयंप्रभादेवी १। ततः-पूर्वविदेहे पुष्पकलावतीविनये लोहार्गलनगरे भगवान् वज्रजङ्गः, तदानीमई श्रीमती भार्या २। ततः--उत्तरकुरी भगवान् युगलिकः, अहं युगलिनी ३ । ततः-सौधर्मे द्वावपि मित्रदेवौ ४ । तत:भगवान् अपरविदेहे वैद्यपुत्रः, तदाहं जीर्णश्रेष्ठिपुत्रः केशवनामा मित्रं ५ । तत:-अच्युतकल्पे देवौ ६ । ततः-पुण्ड रिकिण्यां भगवान् वज्रनाभः, तदा सारथिः ७ तत:-सर्वार्थसिद्धविमाने देवौ ८ । इह पुन:-'भगवतः प्रपौत्र' इति । तेषां च स्वप्नानामिदं फलं-'यद् भगवतो भिक्षा दत्ता' इति । एवं च श्रुत्वा सर्वोऽपि जन: 'भुवनं जसेण भयवं रसेण भवणं धणेण पडिहत्थो । अप्पा निरुषमसुक्खे सुपत्तदाणं महग्यविमं ॥१॥ रिसहेससमं पत्तं निरवज्जइक्खुरससमं दाणं । सेअंससमो भावो हविज्ज जइ मग्गि हुज्जा' ॥२॥ इत्यादिवचोभिः अभिनन्ध स्वस्थानं गतः। श्रेयांसोऽपि यत्र स्थितो भगवान् प्रतिलाभितः तत्स्थानस्य-'पादैः आक्रमणं मा भवतु' इति भक्त्या रत्नपीठं कारयित्वा उभयसन्ध्यं पूजयति । विशेषतः प्रातःकाले पूजयित्वैव भुङ्क्ते । लोकोऽपि पृच्छति-'किमेतकं ?' श्रेयांस आह-'आदिकरमण्डलकं' । ततः लोकेनाऽपि-यत्र यत्र भगवान् स्थितः, तत्र तत्र पीठं कृतं । कालेन 'आदित्यपीठम्' इति सज्ञा जाता। एवं ऋपभस्वामिना संवत्सरेण इक्षुरसभिक्षा लब्धा, शेपैस्तु-त्रयोविंशत्या जिनैः द्वितीयदिवसे एव अमृतरसोपमा पायसभिक्षा इति । यतः-'संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण । से सेहिं बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ॥आव० नि०॥३१९॥ AAAAE ६. कि. २६ ॥३३७॥ Jain Educa t ional २ For Privale & Personal Use Only Vi b rary.org Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाबली टीका ७ व्या० ॥३३८॥ CRECENE 35555 उसमस्स उ पारणए इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोरम आसी' ॥ ३२० ॥ अन्यदा च स्वामी बहलीदेशे तक्षशिला नगरी प्राप्तः। सन्ध्यायां चोद्यानपाल केन बाहुबलीनो निवेदने कृते-'प्रात: सर्बद्धर्या तातं वन्दिष्ये' इति रात्रि व्यतिक्रम्य प्रातः सर्वद्धर्या तत्र गत: 'भगवॉश्च अन्यत्र विहृतवान् । अदृष्ट्वा च भगवन्तं महतीमधृति विधाय यत्र भगवान् प्रतिमया तस्थौ, तत्र अष्टयोजनपरिमण्डलं पञ्चयोजनोच्छूयं सर्वरत्नमयं धर्मचक्र चिह्न चकार । निर्यामकानां च सहस्रं तत्र मुमोच । एवं क्रमेण जनपदेषु विहरन् विनीता नगरी प्राप्तः । कियता कालेन विहृत्य ? इत्याह-दीक्षादिनादारभ्य वर्षसहस्रं यावत् छद्मस्थकालः। तत्र प्रमादकाल: सर्वसङ्कलितोऽपि अहोरात्रमेव । (एगं वाससहस्सं वइकंत) एवमेकस्मित् वर्षसहस्रेऽतिक्रान्ते । (तओ णं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे फरगुणबहुले तस्स णं फग्गुणबहुलस्स एकारसी पक्खे ण) < ततः-यः सः हेमन्ततॊः चतुर्थों मासः सप्तमः पक्षः फाल्गुनबहुलः तस्य फाल्गुनबहुलस्य एकादश्यां तिथौ> (पुव्वण्हकालसमयंसि पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ सगडमुहंसि उज्जाणंसि नग्गोहवरपायवस्स अहे) < पूर्वाहकालसमये पुरिमतालस्य नगरस्य बहिः शकटमुखे उद्याने न्यग्रोधवरपादपस्य अध:> (अट्टमेणं भत्तण अपाणएणं आसाढाहिं नक्खत्तणं जोगमुवागएणं) <अष्टमेन भक्तेन अपानकेन उत्तराषाढानक्षत्रेण चन्द्रेण सह योगमुपागतेन> (झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ) <ध्यानान्तरं वर्तमानस्य अनन्तं यावत् तत्रागतस्य भगवतः केवलज्ञानमुत्पन्नं । जानन् पश्यश्च विचरति> ॥२१२॥ तस्मिन्नेव दिने भरतस्य राज्ञ आयुधशालायां चक्ररत्नोत्पत्तिः। युगपद् द्वयोः निवेदने-'विषमा खलु ॥३३८॥ Jain Edu c ational For Private & Personal use only Trmelibrary.org Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३३९॥ विषयतृष्णा महतामपि मतिमोहं कुरुते' इति भरतश्चिन्तयति - 'द्वयोरपि पूजार्हयोः प्रथमं किं तातम् ? उत चक्रं वा पूजयामि ?” इति चिन्तयन् - 'चक्रं तावदैहिक सुखहेतुः, तातस्तु शिवदायकत्वात् परलोकाऽनन्तानन्दहेतुः' अतः - तातं पूजयामि । यतः'ताते पूजिते चक्रमपि पूजितं भवेद्' इति विचिन्त्य भरतः सर्वद्वर्या भगवन्तं वन्दितुं प्रवृत्तः । मरुदेवा तावद् भगवति प्रत्रजिते भरतराज्यश्रियं निरीक्ष्य प्रत्यहं भणति 'पृथ्वीं प्रतिपालयन्त्यपि भरतो बाहुबली परे सुताः । न तु कोऽपि करोति सङ्कथां मम सूनोरिति धिग् विधिक्रमम् ॥ १॥ साक्षाद्भरतं प्रत्यपि - ' म्लानां मौलिखजमित्र परित्यज्य मां स्त्रां च देह-प्रादुर्भूतमलमिव जरचीरवच्चेश्वरत्वम् । एकाकी मे गहनमविशत् सोऽङ्गजस्तं शृणोमि क्षुत्तृष्णाभ्यां वत द्रुतमहो ! दुर्मरा न म्रियेऽहम् ||२|| भरतोsपि - 'अयि ! मातरहं बाहुबल्याद्याः सन्ति ते सुताः । तवैव ते स्वचित्ते तान् धेहि ताम्यसि किं सुधा ?' ||३|| इति भरतोके स्वामिन्याह- 'सहकारफलमनोरथपरम्परा किं व्यपैति चिञ्चिकया ? | नन्दकान्तगुणा यस्य कस्याऽप्यन्यस्य किं वा स्युः ? || ४ || इत्याद्युद्वेगं गता तीर्थकर विभूतिं वर्णयन्तमपि भरतं न प्रत्येति । ततः तस्याः पुत्रशोकेन तेजोहीनचक्षुपी सञ्जाते । अतः - भरतेन गच्छता भगवती विज्ञप्ता- 'अम्ब ! एहि, येन भगवतो विभूतिं दर्शयामि' । ततः- भरतः हस्तिस्कन्धे पुरतः कृत्वा निर्गतः । समवसरणे प्रत्यासन्ने च विमानारूढेनोत्तरता सुरसमूहेन विराजमानं गगनमण्डलं ध्वजपताकाकलितम् अनेक देवदुन्दुभ्यादिशब्दपूरितं दिग्मण्डलं च निरीक्ष्य भरतेन भणिता भगवती - 'अम्ब । प्रेक्षस्व पुत्रर्द्धिम्' एतया सह मम Jain Educaternational ॥३३९॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव । टीका व्या० ॥३४॥ कोटिशतभागेनाऽपि ऋद्धिः नास्ति । ततः सहर्षपुलकिताङ्गी हर्याश्रुनोराऽमृतपूरप्लावितमराभ्यां निर्मललोचनाभ्यां भगवतः छत्राऽति छत्रं पश्यन्ती, केचित्तु देशनागिरमपि श्रृण्वन्ती चिनयति-धिग मोहविकलान् जीयान् सर्वेऽपि प्राणिनः स्वार्थे स्निह्यन्ति' मोहात् मम चक्षुती अपि हीनतेजसी सञ्जाते । भरतं प्रत्यपि अहं सोपालभम भणामि-'यत् मम पुत्रं क्षुतड्बाधित शीतोष्णवर्षादिपीडासहं निरुपानहं यानवाहनादिरहितं निरशन निर्वसनं वनवासिनम् एकाकिनं गिरिकन्दरादिपु अटन्तं सन्मान्य आनय ?' । अयं पुनः ईदृशीमृद्धि प्राप्तो मनागपि मम नामापि न पृच्छति, मम दुःखं च न जानाति, सुखवार्ता-सन्देशमपि न प्रयच्छति । अहो ! अस्य वीतरागत्वं, नीरागे कः प्रतिवन्धः ? एवं सर्वत्र निर्ममत्वं गता शुभध्यानेन केवलज्ञानं प्राप्य | तत्क्षणमेव सिद्धा । ततः-'भरतक्षेत्रे प्रथम सिद्ध इति कृत्वा देवैः पूजा कृता, शरीरं पुनः क्षीरसमुद्रे क्षिप्तं । अत्र कविः 'सू नुर्युगादीशसमोन विश्वे भ्रान्वा क्षितौ येन शरत्सहस्रम् । यदर्जितं केवलरत्नमय्यं स्ने हात्तदैवार्यत मातुराशु ॥१॥ __मरुदेवासमा नाम्बा याऽगात्पूर्व किलेक्षितुम् । मुक्तिकन्या तनूजार्थ शैवमार्ग खिलं चिरात्' ॥२॥ अत्र कवेः प्रार्थनापि 'नो ददासि यदि तत्त्वधियं मे देहि मोहमपि तं जगदीश! । येन मोहितमतिर्मरुदेवा सन्मयं जगदपश्यदशेषम् ॥३॥ - भगवानपि समवसरणमध्यस्थितः सदेवमनुजायां पपदि धर्म कथयति । तत्र ऋषभसेनो नाम भरतपुत्रः पूर्वभवनिबद्धगणधरनामसत्ताकः सञ्जातसंवेगः प्रबजितो, ब्राहम्यपि, भरतः पुनः श्रावकः सञ्जातः, 'स्त्रीरत्नं भविष्यति' इति भरतेन निरुद्धा सुन्दर्यपि श्राविका सञ्जाता, इति चतुर्विधसङ्घस्थापना। ते च कच्छ-महाकच्छवर्जाः सर्वेऽपि तापसा भगवतो ॥३४॥ Jain Educa t ional womvirary.org Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४॥ ज्ञानोत्पत्तिमाकर्ण्य तत्राऽऽगत्य प्रबजिताः । एवं देवादिकृतमहिमानं दृष्ट्वा मरीचिप्रमुखा बहवः कुमाराः प्रबजिताः। यत:-'पंच य पुत्तसयाई भरहस्स य सत्तनत्तुअसयाई । सयराई पन्चइआ तंमि कुमारा समोसरणे'त्ति ॥१॥ भरतस्तु शक्रनिवारितस्वामिनीमरणशोको भगवन्तं वन्दित्वा स्वस्थानं गतः ॥२१२॥ ['उसमस्स णं अरहओ कोसलिअस्स चउरासीईगणा' इत्यादितः 'जाव० भदाणं उक्कोसिया संपया होत्थ' | त्ति पर्यन्तं त्रयोदशसूत्री सुबोधैव] तत्र-(ऋषभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स चउरासीई गणा चउरासीई गणहरा होत्था) < सूत्रमिंद सुगमं> (उसमस्स णं अरहओ कोसलिस उसमसेणपामुक्खाणं चउरासीईओ समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था)॥ (उसमस्सणं ३ बंभीसुंदरीपामोक्खाणं अजियाणं तिणि सयसाहस्सीओ उक्कोसिया अजियासंपया होत्था)॥ (उसभस्स णं ३ सिजंसपामोक्खाणं समणोवालगाणं तिषिण सयसाहस्सीओ पंचसहस्सा उकोसिया समणोवासगाणं संपया होत्था) ॥ (उस भस्स णं ३ सुभद्दापामोक्खाणं समणोवासियाणं पंच सयसाहस्सीओ च उप्पन्नं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था)॥ (उस भस्स f३चत्तारि सहस्सा सत्तसया पन्नासाच उद्दसपुचीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं जाव उक्कोसिया च उद्दसपुव्यिसंपया होत्था) ॥ (उसभस्स णं३ नव सहस्सा ओहिनाणीणं उक्कोसिया ओहिणाणी०संपया होत्था)॥ (उसभस्स णं३ वीसहस्सा केवल नाणीउकोसिया केवल नाणी संपया होत्था) ॥ (उसभस्स णं३ वीस CAAAAAAACCESA IC ॥३४१॥ Jain Educatie Rational For Privale & Personal use only wwamirary.org Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ||३४२॥ SRSAHARSA सहस्सा छच्च सया वेउब्धियाणं० उक्कोसिया वेउब्वियसंपया होत्था)॥(उसभस्स ३ बारससहस्स छच्चसया किरणावर टीका। पन्नासा विउलमईणं अड्राइज्जे सुदीवेसु दोसु य समुद्देसु सन्नीणं पचिंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाण-18 व्याः माणाणं उक्कोसिया विउलमईणं संपया होत्था)॥(उसभस्स णंबारस सहस्सा छच्च सया पन्नासा वाइणं उक्को. सिया वाइसंपया होत्या) ।। (उसभस्स णं ३ वीस अंतेवासि सहस्सा सिद्धा, चत्तालोसं अजियासाहस्सीओ सिद्धाओ) । (उसभस्स णं ३ यावीससहस्सा नवसया अणुत्तरोववाईणं गइकल्लाणाणं जाव० भद्दाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयाणं संपया होत्था)॥२१३-२१४-२१५-२१६-२२०-२२१-२२२-२२३-२२४-२२५।। <ऋषभस्य णमिति प्राग्वत् अर्हतः कौशलिकस्य चतुरशीतिः गणाः, चतुरशीतिः (८४) गणधरा अभवन् > <श्रीऋष-15 भस्य ३ ऋपभसेन प्रमुखाणि चतुरशीतिः श्रमणसहस्राणि (८४०००) उत्कृष्टा श्रमणसम्पदभवत् > <श्रीऋषभस्य ३ ब्राह्मी -सुन्दरी प्रमुखाणि त्रीणि आर्यिकाशतसहस्राणि-आर्यिकालक्षाः (३०००००) उत्कृष्टा आर्यिकासम्पदभूत > <श्रीऋषभस्य ३ श्रेयांसप्रमुखाणि त्रीणि श्रमणोपासकशतसहस्राणि पञ्च च सहस्राणि (३०५०००) श्रमणोपासकसम्पदभूत > <श्रीऋषभस्य ३ सुभद्राप्रमुखाणि पश्च श्रमणोपासिकाशतसहस्राणि चतुःपञ्चाशत्सहस्राधिकानि (५५४०००) उत्कृष्टा श्रमणोपासिकासम्पदभूत् > <श्रीऋषभस्य ३ अजिनानामपि जिनसन्निभानां यावत् चतुर्दश पूर्वधराणां चत्वारि सहस्राणि सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि (४७५०) उत्कृष्टा चतुर्दशपूर्विसम्पदभूत् > <श्रीऋषभस्य ३ नव सहस्राणि (९०००) अवधि- ॥३४२। कस्य च रशीतिः iणि 44 Jain Educa For Private & Personal use only wreterary.org Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४३॥ REACADA ज्ञानिनाम् उत्कृष्टा आधिज्ञानिनां सम्पदभूत् > <श्रीऋषभस्य ३ विंशतिः सहस्राणि (२००००) केवलज्ञानिनाम् उत्कृष्टा केवलिसम्पदभूत > <श्रीऋषभस्य ३ विंशतिः सहस्राणि षट्शतानि च (२०६००) वैक्रियल ब्धिमताम् उत्कृष्टा सम्पदभूत् > <श्रीऋषभस्य ३ द्वादशसहस्राणि षट् शतानि पञ्चाशदधिकानि (१२६५०) विपुलमतीनां नृक्षेत्रव्यवस्थितानां सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तानां मनोगतान् भावान् ज्ञायमानानाम् उत्कृष्टा विपुलमतीनां सम्पदभूत् > <श्रीऋषभस्य ३ द्वादशसहस्राणि पद शतानि पञ्चाशदधिकानि (१२६५०) वादिनाम् उत्कृष्टा वादिसम्पदभूत् > < श्रीऋपभस्य ३ विंशतिः अन्तेवासिसहस्राणि (२००००) सिद्धानि। चत्वारिंशद् आर्यिकासहस्राणि (४००००) सिद्धानि> < श्रीऋषभस्य ३ द्वाविंशतिः सहस्राणि नाशतानि (२२९००) अनुत्तरविमानेषु उत्पन्नानां गतिकल्याणी येषां यावत् आगमिष्यद् भद्राणाम् उत्कृष्टा अनुत्तरोपपातिकानां सम्पदभूत् > ॥२१३ थी २२५।। ['उसभस्स णं' इत्यादितः 'परियाए अंतमकासी' ति यावत ] तत्र-(उसभस्सणं ३ दुविहा अंतगडभूमी होत्था। तं जहा-जुगतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य । जाव असंखिजाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी । अंतोमुहुत्तपरियाए अंतमकासी) <श्रीऋषभस्य ३ भवान्तकदमः द्विधाऽभवत् । तद्यथा-युगान्तकृभूमिः पर्यायान्तकृद्भूमिश्च । > तत्र-युगान्तकृभूमिः असङ्खयेयानि पुरुषयुगानि भगवतोऽन्वयक्रमे सिद्धानि। <'चतुर्दश लक्षा' इत्यादिक्रमः> । पर्यायान्तकृभूमिस्तु -भगवतः केवले समुत्पन्ने अन्तर्मुहर्तन मरुदेवास्वामिनी अन्तकृत्केवलीतां प्राप्ता ॥२२६॥ Jain Educa t ional For Privale & Personal use only B rary.org Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प॥ ३४४ ॥ [ 'तेणं कालेणं' इत्यादितः 'सव्वदुक्खप्पहीणे' ति यावत् ] तत्र - (ते काणं तेणं समएणं उसके अरहा कोसलिए वीसं पुव्वसय सहस्साई कुमार वास मज्झे वसित्ताणं, तेवट्ठि पुत्रवसयसहस्साई रज्जवासमज्झे वसित्ता णं, तेसीइं पुच्वसय सहस्साई अगारवा समज्झे वसित्ता णं, एगं वाससहस्सं छउमत्थ परियाय पाउणत्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्सूणं केवलिपरिया पाउणित्ता, संपुष्णं पुत्र्वसयसहस्सं सामन्नपरियागं पाउणित्ता, चउरासीइ पुण्यमय सहस्साई सच्चायं पालयित्ता, खीणे वेयणिजायुनामगोते ) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये ऋषभोऽर्हन् कौशलिकः विंशतिः पूर्वशतसहस्राणि कुमारवासमध्ये उपित्वा, त्रिषष्टिं पूर्वशतसहस्राणि राज्यवासमध्ये उषित्वा त्र्यशीति पूर्वशतसहस्राणि अगारवासमध्ये उपत्वा, एक वर्षसहस्रं छद्मस्थपर्यायं पालयित्वा, एकं पूर्वशतसहस्रं वर्षसहस्रोनं केवलिपर्यायं पालयिला, सम्पूर्णम् एकं पूर्वलक्षं श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राणि सर्वाऽऽयुः पालयित्वा, क्षयं गतानि वेदनीयाssयुर्नामगोत्राणि कर्माणि यस्य (इमी से ओसपिणीए सुसमदुस्समाए समाए बहुवइकंताए तिहिं वासेहिँ अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं) तृतीयारके एकोननवतिपक्षाऽवशेषे । (जे से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे माहबहुले (९००) - तस्स णं माहबहुलस्स तेरसी पक्खे पणं) <यः सः हेमन्ततः तृतीयः मासः पञ्चमः पक्षः माघाऽसितपक्षः तस्य त्रयोदशी दिवसे (उपिं अट्ठावय सेलसिहरंसि दसहिँ अणगारसहस्सेहिं सद्धिं चउदसमे भत्तेणं अपाणएणं) उपरि अष्टापद शैलशिखरस्य चतुर्दशभक्तपरित्यागाद् - उपवासपटूकेन < अपानकेन दशभिरनगारसहस्रैः सार्द्धं भगवान् सिद्धः । Jain Education mational किरणा टीक व्या ॥३४ rary.org Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४५॥ बEARCREASISATERARMA द (अभीइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुवाहकालसमयंसि संपलियंकनिसन्ने कालगए जाव सव्वदुक्खप्पत होणे) <अभिजिता नक्षत्रेण योगमुपागतेन चन्द्रेण पूर्वाह्नकालसमये सम्यक पर्यङ्कासनेन निषण्णः कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः> ॥ "तं समयं च णं सकस्स देविंदस्स देवरनो आसणे चलिए । तए णं से सक्के देविंदे देवराया आसणं चलियं पासइ, पासिता ओहिं पउंजति, पउंजिता भगवं तित्थगरं ओहिणा आभोएति, आभोएत्ता एवं वयासी-'परिणिचुए खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे उसहे अरहा कोसलिए' तं जीअमेअं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सकाणं देविंदाणं देवराईणं तित्थगराणं परिणिव्याणमहिमं करेत्तए । तं गच्छामि णं अहंपि भगवओ तित्थगरस्स परिणिव्वाणमहिमं करेमि त्तिकटु एवं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता चउरासीईहिं सामाणियसाहस्सीहि, तायत्तीसाए तायत्तीसएहि, चउहिं लोगपालेहिं जाव चउहिं चउरासीईहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहिं बहुहिं सोहम्मकप्पवासीहि य वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिखुडे, ताए उकिट्टाए जाव तिरिअमसंखिज्जाणं दीवसमुदाणं मज्झं मज्झेणं जेणेव भगवओ तित्थकरस्स सरीरए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता विमणे णिराणंदे अंसुपुण्णणयणे तित्धगरसरीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेता णच्चासन्ने णातिदरे सुस्सूसमाणे जाव पज्जुवासइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया उत्तरड्डलोगाहिबई अट्ठावीसविमाणसयसहस्साहिबई मूलपाणी वसभवाहणे मुरिंदे अश्यंबरवत्थधरे जाव विउलाई भोगभोगाइं मुंजमाणे विहरइ । तए णं तस्स ईसाणस्स देवरण्णो आसणे चलति । तए ण से ईसाणे जाव देवराया आसणं चलियं पासइ, पासित्ता ओहि पउंजति, दा॥३४॥ Sain Edu a ternational For Privale & Personal use only M inelibrary.org Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टांका व्या०७ ॥३४६॥ उसAPA-E भगवंतं तित्थगरं ओहिणा आभोएति, जहा सक्के । णियगपरिवारेण भाणियध्वं जाव पज्जुवासति । एवं सम्वेवि देविदा जाव अच्चुए णियगपरिवारेण आणेअव्या । एवं जाव भवणवासीणवि इंदा, वाणमंतराणं सोलस, जोईसिआणं दोण्णि णियगपरिवारा णेयव्वा । तए णं से सबके देविंदे देवराया ते बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिए देवे एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! गंदणवणाओ सरसाई गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरह ? साहरित्ता तओ चियगाओ रएह ?-एगं भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अबसेसाणं अणगाराणं। तए णं ते भवणवइ जाव वेमाणिया देवा णंदणवणाओसरसाई गोसीसवरचंदणक्ट्ठाई साइरंति । साहरित्ता तो चियगाओ रएंति; एगं भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अवसेसाणं अणगाराणं । तए णं से सक्के देविंदे देवराया आभिओगे देवे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! खीरोदगसमुद्दाओ खीरोदगं साहरह? । तए णं ते आभिओगा देवा खीरोदगसमुद्दाओ खीरोदकं साहति । तए णं से सक्के देविंदे देवराया तित्थगरसरीरंग खीरोदगेणं हाणेति, पहाणेत्ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिपति, अणुलिंपित्ता हंसलक्खणपडसाडगं णिभंसेइ निभंसेचा सव्वालंकारविभूसितं करेति । तए णं भवणवइ जाव वेमाणिया गणहर-अणगारसरीरगाई पि य खीरोदएण व्हावेंति, पहावेत्ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिपति, अणुलिंपित्ता अहयाई दिव्वाइं देवदूसजुअलाई णिसें ति सव्वालंकार विभूसि आई करेंति । तए णं से सक्के देविंदे देवराया ते भवणवइ जाव वेमाणिए देवे एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! ईहामिगउसमतुरग जाव वणलयभत्तिचित्ताओ तओ सिबियाओ विउव्वह? पगं भगवतो तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अबसेसाणं अणगाराणं । तए णं ते बह वे भवणवइ जाव वेमाणिआ तओ सिबियाओ विउम्बंति RASHRSHISHARORESAGAR ॥३४६॥ Jain Edo n ational For Private & Personal use only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४७॥ ए भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अवसेसाणं अणगाराणं । तए गं से सक्के देविंदे देवराया विमणे णिराणंदे पुणraणे भगवओ तित्थगरस्स विणद्वजम्मजरामरणस्स सरीरंगं सिबिअ आरोहेति, आरोहेत्ता चिइगाए ठावेति । तए ते बहवे भवन जावेमाणिया देवा गगहराणं अगगार ण य विणट्टजम्मजरामरणाणं सरीरगाई सीअं आरोहेति आरुहेत्ता चिनाए ठवेंति । तए णं सक्के देविंदे देवराया अग्गिकुमारे देवे सहावेति, सदावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिआ ! तित्थगरचिइगाए जाव अगगारचिहगाए अ अगणिकायं विब्वह १, विउब्वेत्ता एअमाणत्तियं पञ्चष्पिणह ? । तए गं से अग्गिकुमारा देवा विमणा णिराणंदा अंसुपुण्णणयणा तित्थगर चिड़गाए जाव अणगारचिइगाए य अगणिकार्य विउव्वंति । तसे सक्के देविंदे देवराया वाउकुमारे देवे सदावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी- खिप्पामेव भो देवाणुपिआ ! तित्थगरचिइगाए जाव अगगारचिइगाए य वाउकार्यं विउव्वह ? अगणिकार्य उज्जालेह ? तित्थगरसरीरगं गणहरसरीरगाई अणगारसरीरगाणि अ झामेह ? । तए णं ते वाउकुमारा देवा विमणा निराणंद्रा अंसुपुण्णणयणा तित्थगर चिड़गाए नाव विउव्वंति । अगणिकार्य उज्जालेति, उज्जालेत्ता तित्थगरसरीरगं जाव अणगारसरीरगाणि य झार्मेति । तए णं से सक्के देविंदे देवराया ते बहवे भवणव जाव वैमाणिए एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिआ ! तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ अगुरुं तुरुक्कं घय-महुं च भारग्गसो अ साहरह ? । तए णं ते भवणवइ जाव तित्थगर० जाव भारग्गसो साहरंति । तए णं से सक्के देविंदे देवराया मेहकुमारे देवे सदावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिआ ! तित्थगरचिइगं जाव अणगारचिह्नगं च खीरोदणं णिब्ववेह ? । तए णं ते मेहकुमारा देवा तित्थगरं जाव णिव्ववेंति । तए णं से सक्के देविंदे देवराया Jain Educatio temational ॥३४७॥ nelibrary.org Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ ३४८ ॥ Jain Educat भगवओ तित्थगरस्स उवरिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हति ईसाणे देविंदे देवराया उवरिल्लं वामं सक गेण्डति, चमरे असुरिंदे असुरराया हेद्विल्लं दाहिणं सकई गेण्हति, बली वइरोअणिंदे वइरोअणराया हेट्ठिल्लं वामं सकहं गेण्हति । अवसेसा भवणवइ जा माणिया देवा जहारिहं अवसेसाई अंगुवंगाई केइ जिणभत्तीए, केइ जीअमेअं, तिकट्टु, केइ धम्मो तिकट्टु गेति । तसे सक्के देविंदे देवराया बहवे भवणवइ जाव वेमाणिए देवे जहारिहं एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पि ! सव्वरयणामए महति महालये तओ चेइअशुभ करेह । एवं भगवओ तित्थगरस्स चिइगाए, एगं गणहरचिड़गाए, एगं अवसे साणं गाणं चिगाए । तरणं ते बहवे जाव करेंति । तए णं ते बहवे भवणवइ जाव वेमाणिया देवा तित्थगरस्स परिणिव्वाणमहिमं करिति, करेत्ता जेणेव नंदीसरवरदीवे तेणेव उवागच्छति । तए णं से सक्के देविंदे देवराया पुरथिमिल्ले अंजणगपव्व ए अहि महामहिम करेंति । तए णं सकस्स देविंदस्स देवरन्नो चचारि लोगपाला चउसु दहिमुहपन्नए अद्वाहि महामहिमं करेंति । तणं ईसा उत्तरिल्ले अंजणगे अट्ठाहिअं, तस्स लोगपाला चउसु दहिमुहपव्वएस अट्ठाहिअं, चमरो अ दाहिणिल्ले तस्स लोगपाला (चउसु) दहिमुहपव्वसु, बली पञ्चत्थिमिल्ले, लोगपाला चउसु दहिमुहपव्वसु । तए णं ते बहवे भवणवइ अट्ठाहियाओ महामहिमाओ करेंति, करेत्ता जेणेव साईं साई विमाणाई, जेणेव साई साईं भवणाई, जेणेव साओ साओ सभाओ सुहम्माओ, जेणेव स-माणवगा चेइयखंभा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता वयरामएस गोलसमुग्गएसु freeकहाओ पक्खिति । पक्खिवित्ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं अ मल्लेहि अ अच्चैति ॥ २२७॥ (जंबु० प० पेज १३० ) [ 'उसभस्स णं ३' इत्यादित: 'काले गच्छइ' त्ति पर्यन्तं प्राग्वत् ] national किरणाव | टीका व्या० ॥३४८| elbrary.org Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९॥ कि. ३० १८ तत्र - (उसभस्स नं ३ जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स तिण्णि वासा अद्धनवमासा वइक्कता, तओ वि परं एगा सागरोवमकोडाकोडी तिवास-अद्धनवमासाहियबावालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कंता एवं मि समए समणे भगवं महावीरे परिनिब्बुए । तओ वि परं नववाससया वइकंता, दसमस्स य वासस्यस्स अयं असीइमे संवच्छ रे काले गच्छइ) < श्रीऋपभस्य ३ यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य त्रिवर्षाऽर्द्धनवमासाः व्यतिक्रान्ताः । ततोsपि परं एका सागरोपमकोटाकोटी त्रिवर्द्धनमासाऽधिकैर्द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैरूना व्यतिक्रान्ता । एतस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः परिनिर्वृतः । ततोऽपि परं नववर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि दशमस्य वर्षशतस्य अयम् अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति ॥ २२८ ॥ Jain Eaton International इति श्रीजैनशासन सौधस्तम्भायमान - महामहोपाध्यायश्रीधर्मसागरगणिवरविरचितायां कल्पकिरणावल्यां सप्तमं व्याख्यानं समाप्तम् । >>> ॥ ३४९ ॥ ainelibrary.org Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किल्प किरणाबली टीका ध्या०८ ३५०॥ अथाऽष्टमं व्याख्यानं प्रारभ्यते । अथ गणधरादिस्थविरावलीलक्षणे द्वितीये वाच्ये जघन्यवाचनया स्थविरावलीमाह['ते णं कालेणं' इत्यादितः 'हुत्थ' त्ति पर्यन्तं सुगमम् ] तत्र-(तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा इक्कारस गणहरा हुत्था) < तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य नव गणाः, नव गणधराश्च अभवन् ॥१॥ [से केणटेणं' इत्यादितः 'हुस्थ' ति यावत् ] तत्र- (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा इक्कारस गणहरा हत्था ?) से शब्द:-अथ शब्दाऽर्थः। < अथ केनाऽर्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य नव गणा एकादश गणधराः अभवन् ? > प्रश्नयितुः अयमभिप्रायः किल-'जावइया जस्स गणा तावइआ गणहरा तस्स' इति वचनात् । गणधरसङ्ख्याका गणा सर्वजिनानां, श्रीवीरस्य तु किमर्थं नव गणा एकादश गणधराः ? इति ॥२॥ आचार्य आह [ 'समणस्स' इत्यादितः 'इक्कारस गणहरा हुत्थ' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-(समणस्स भगवओ महावीरस्स जिढे इंदभूई अणगारे गोयमसगोत्ते णं पंचसमणसयाई वाएइ। मज्झिमए अग्गिभूई अणगारे गोयमसगोत्ते ण पंचसमणसयाई वाएइ । कणीयसे अणगारे वाउभूईनामे For Private & Personal use only OPPOREAAAA ॥३५०॥ Jain EL e mnational Digelibrary.org Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५१॥ णं गोयमसगोत्ते ण पंचसमणसथाई वाएइ) < श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठः इन्द्रभूतिः अनगारो गौतमगोत्र: पश्च श्रमणशतेभ्यः वाचनां ददाति । मध्यमः अग्निभूतिः अनगारः गौतमगोत्रः पञ्च श्रमणशतेभ्यः वाचनां ददाति । कनीयान्नाम्ना वायुभूतिः अनगारः गौतमगोत्रः पञ्च श्रमणश तेभ्यः वाचनां ददाति । > (थेरे अजवियत्ते भारघाएगोत्ते णं पंचसमणसयाई वाएइ । थेरे अजसुहम्मे अग्गिवेसायणगोत्ते णं पंचसमणसयाई वाएइ। थेरे मंडियपुत्ते वासिट्टसगोत्ते णं अदधुढाई समणसयाई वाएइ। थेरे मोरियपुत्ते कासवगोते णं अदधुढाई समणसयाई वाएइ) < स्थविरः आर्यव्यक्तः भारद्वाजगोत्रः पञ्च श्रमणशतेभ्यः वाचनां ददाति । स्थविरः आर्य सुधर्मः अग्निवैश्यायनगोत्रः पञ्च श्रमणशतेभ्यः वाचनां ददाति । स्थविरः मण्डितपुत्रः वासिष्ठसगोत्रः सार्धत्रीणि श्रमणश तेभ्यः वाचनां ददाति । स्थविरः मौर्यपुत्रः काश्यपगोत्र: साधत्रीणि श्रमणशतेभ्यः वाचनां ददाति > (थेरे अपिए गोयमसगोत्ते णं थेरे अयलभाया हारियायणगोत्ते णं एए दुन्निवि थेरा तिन्नि तिन्नि समण सयाई वाएंति । थेरे (अज्ज)मेअज्जे, थेरे (अज)पभासे एए दुन्निवि थेरा कोडिन्नगोत्ते णं तिणि तिम्णि समसयाई वाएंति) < स्थविरः अकम्पितो गौतमगोत्रः, स्थविरः अचलभ्राता हारियायनगोत्र: एतौ द्वावपि स्थविरौ त्रीणि त्रीणि श्रमणश तेभ्यः वाचनां ददतः। स्थविर मेतार्यः, स्थविरः प्रभासः एतौ द्वावपि स्थविरौ कौडिन्यगोत्रौ त्रीणि त्रीणि श्रमणशतेभ्यः वाचनां ददतः> 'अकम्पित-अचलाभ्रात्रोः' एकैव वाचना जाता । एवं 'मेतार्यप्रभासयोः अपि, इति युक्तं नव गणा एकादश गणधराः । यस्माद्-इह एकवाचनिको यतिसमुदायो गणः। मण्डिकश्चासौ BARREAKISTAPER 3 ॥३५॥ Jan E aton n ational s braryong Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥३५२॥ विमानना नाम्ना पुत्रश्च धनदेवस्य मण्डिकपुत्रः। केचिच्च-मण्डित इति नाम व्याचक्षते । अन्ये तु-'मण्डितस्य, पुत्र: मण्डितपुत्रः' /किरणावलं टीका इति समर्थयन्ति । तत्र-मण्डित इति धनदेवस्य नामान्तरमद्यम् । मण्डिक-मौर्यपुत्रयोः एकमातृकत्वेन भ्रात्रोः अपि यद् व्या०८ भिन्नगोत्राभिधानं तत् पृथग्र जनकापेक्षया । तत्र-मण्डि कस्य पिता धनदेवः, मौर्यपुत्रस्य तु मौयः, माता तु 'विजयादेवी' एवैका; 'अविरोधश्च तत्र देशे एकस्मिन् पस्यौ मृते द्वितीयपतिवरणस्य' इति वृद्धाः। (से तेणटेणं अजो! एवं बुच्चइसमणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा इक्कारस गणहरा हत्था) < अथ तेनाऽर्थेन > हे आर्य-नोदक! < एवमुच्यते श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य नव गणाः, एकादश गणधराः अभवन् ॥३॥ ['सव्वे एए समणस्स' इत्यादितः 'निरवञ्चिजा वुच्छिन्ना' इति पर्यन्तम् ] तत्र- (सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स इकारस गणहरा दुवालसंगिणो चउद्दसपुग्विणो) इन्द्रभूत्यादयः सर्वेऽपि < एते श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य एकादश > गणधराः द्वादशाऽङ्गिनः-आचाराङ्गादि-दृष्टिवादान्त श्रुतवन्तः स्वयं तत्प्रणयनात् । चतुर्दशपूर्विणः। 'द्वादशाऽङ्गिन' इति । एतेनैव चतुर्दशपूर्वित्वे लब्धे यत् पुनः एतदुपादानं, तदङ्गेषु चतुर्दशपूर्वाणां प्राधान्यख्यापनार्थ । प्राधान्यं च पूर्व प्रणयनात् , अनेकविद्यामन्त्राद्यर्थमयत्वात् , महाप्रमाणत्वाच्च । द्वादशाङ्गित्वं चतुर्दशपूर्वित्वं च सूत्रमात्रग्रहणेऽपि स्याद् इति तदपोहार्थमाह-(समत्तगणिपिडगधारगा) समस्तगणिपिटकधारका:-गणः अस्य अस्ति' इति गणि:-भावाऽऽचार्यः तस्य पिटकमिव-रत्नादिकरण्डकमिव गणिपिटकं-द्वादशाङ्गी । तदपि न देशतः स्थूलभद्रस्य इत्र, किन्तु समस्तं-सर्वाऽक्षरसन्निपातित्वात् तद्धारयन्ति सूत्रत: अर्थतश्च ये, ते तथा । 13॥३५२॥ Jain Educator Hernational For Private & Personal use only w i nelibrary.org र Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५३॥ (रायगिहे नयरे मासिएणं भत्तेणं अपाण एणं (पाओवगएणं) कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा) < राजगृहे नगरे मासिकेन भक्तेन पानीयाहारयजितेन पादपोपगम नेन कालगताः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणाः > (थेरे इंदभूई थेरे अन्जसुहम्मे सिद्धिं गए महावीरे पच्छा दुन्निवि थेरा परिनिव्वुया) तत्र-ना गणधराः भगवति जीवत्येव सिद्धि प्राप्ताः। < स्थविरौ> इन्द्रभूति-सुधर्माणौ तु तस्मिन् <महावीरे> सिद्धिं गते सिद्धौ। (जे इमे अजत्ताए समणा निग्गंधा विहरंति एए णं सब्वे अजसुहम्मस्म अणगारस्स आवच्चिजा) < ये चेमे> आर्यतया आद्यत्वे वा अद्यतनयुगे <श्रमणा निग्रन्था विहरन्ति एते सर्वे आर्यसुधर्मस्वामिनः अनगारस्य > अपत्यानि-तत्सन्तानजा इत्यर्थः। (अवसेसा गणहरा निरवचा वुच्छिन्ना) < अवशेपाः गणधराः> निरपत्या:-शिष्यसन्तानरहिताः स्पस्वमरणकाले स्वस्वगणस्य सुधर्मस्वामिनि निसर्गात् । सर्वेऽपि गणधराः पादपोगमनेन निवृताः । यदाहु:'मासं पाओवगया सव्वेवि अ सब्बलद्धिसंपन्ना । वज्जरिसह संघयणा समचउरंसा य संठाणा ॥१॥ [समणे भगवं' इत्यादितः 'संखित्तवायणाए' ति पयन्तम् ] तत्र- (समणे भगवं महाबोरे कासवगोत्ते णं) <श्रमणो भगवान् महावीरः काश्यपगोत्रः > (सपणस्स णं भगवओ महावीरस्स कासवगुत्तस्स अजसुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणगोत्ते १) <श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य काश्यपगोत्रस्य आर्यसुधर्मः स्थविरः शिष्यः अग्निवेश्यायनगोत्र:> श्री वीरपट्टे श्रीसुधर्मस्वामी पश्चमो गणधरः। तत्स्वरूपं च सङ्क्षपेणेदम्-'कुल्लागसन्निवेशे धम्मिलविप्रस्य भार्या भदिला । तस्याः कुक्षौ समुत्पन्न:, चतुर्दशविद्यानिधानं, AGACAS ॥३५३॥ AAR Jain Educa t ional For Privale & Personal Use Only w orlprary.org Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प-3ा पञ्चाशद्वर्षाऽन्ते दीक्षा, त्रिंशद्वर्षाणि यावत् श्रीवीरचरणकमलपरिचर्या, श्रीवीरमोक्षाद् द्वादशवर्षाणि छायस्थ्यम् । एवंद्र किरणावली टीका द्विनवतिवर्षाऽन्ते केवलोत्पत्तिः। तत्र-अष्टौ वर्षाणि केवलिपर्याय परिपाल्य; शतवर्षाऽऽयुः जम्बूस्वामिनं स्वपदे संस्थाप्य ॥३५४॥ व्या०८ सिद्धिसौधमध्यास्त' ॥ (थेरस्स णं अजसुहम्मस्म अग्गिवेसायणगोत्तस्त अज जंबु नामे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते ण २) < स्थविरस्य आर्यसुधमणः अग्निवेश्यायनगोत्रस्य आर्य जम्बूनामा स्थविरः शिष्यः काश्यपगोत्र: > श्री जम्बूस्वामिस्वरूपं चैवम्-राजगृहे ऋषभ-धारिण्योः पुत्रः पञ्चमस्वर्गाच्च्युतः अवतीर्णः। जम्बूनामा शैशवाऽतिक्रमे श्रीसुधर्मस्वामिसमीपे सुकृतश्रवणपुरस्सरं प्रतिपन्नशीलसम्यक्त्वोऽपि पित्रोः दृढाग्रहबशाद् अष्टौ कन्या: परिणीतः, परं न || तासां प्रेमग भिः वाग्भिः व्यामोहं गतः। यत: 'सम्यक्त्व-शीलतुम्बाभ्यां भवाब्धिस्तीर्यते मुखम् । ते दधानो मुनिजम्बूः स्त्रीनदीषु कथं ब्रूडेत् ? ॥१॥ ___ ततः-रात्रौ ताः प्रतिबोधयश्चौर्यार्थमागतं चतुःशतनवनवतिचौरपरिकरितं प्रभवमपि प्राबोधयत् । तत:-प्रातः पञ्चशतचौर--अष्टप्रिया--पोडशतजनकजननी--स्वजनकजननीभिः सह स्वयं पञ्चशतसप्तविंशतितमः, नवनवतिकनककोटीः परित्यज्य प्रवजितः । क्रमेण दुस्तपतपस्तप्यमानः केवलज्ञानं सम्प्राप्य, षोडशवर्षाणि गार्हस्थ्ये, विंशतिः छामस्थ्ये, चतुश्चत्वारिंशद्वर्षाणि केवलित्वे इति अशीतिवर्षाणि सर्वाऽऽयुः परिपाल्य श्रीप्रभवप्रभु स्वपदे संस्थाप्य सिद्धिसौधमलश्चक्रे । अत्र कविघटना-'जम्बूसमस्तलारक्षो न भूतो न भविष्यति । शिवाऽध्यवाहकान् साधून चौरानपि चकार यः ॥१॥ ॥३५४॥ RECER-CAGe RECRUARc Jain Ed e rational For Privale & Personal Use Only ODolbrary.org Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५५॥ प्रभवोऽपि प्रभुर्जी याच्चौर्येण हरता धनम् । लेभेऽनाऽचौर्यहरं रत्नत्रितयमदभुतम् ॥२॥ तत्र-'बारसबरिसेहिं गोअमु सिद्धो वीराओ वीसहि सुहम्मो । चउसट्ठीए जंबू वुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा ॥१॥ मण-परमोहि-पुलाय आहारग-खवग-उबस मे कप्पे । संजमतिअ-केवल-सिज्झणा य जंबुम्मि वुच्छिन्ना' ॥२॥ तत्र-संयमत्रिक-परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्पराय-ययाख्यातचारित्ररूपम् । अत्राऽपि कविघटना लोकोत्तरं हि सौभाग्य जम्बूस्वामिमहामुनेः। अद्यापि यं पतिं प्राप्य शिवश्री न्यमिच्छति ॥१॥ (थेरस्त णं अज जंबुनामस्स कासवगोत्तस्स अजप्पभवे थेरे अंतेवासी कच्चायणसगोत्ते णं) < स्थविरस्य आर्य जम्बूनाम्नः काश्यपगोत्रस्य आर्यप्रभवः स्थविरः शिष्यः कात्यायनगोत्र:> अन्यदा च प्रभवप्रभुणा गणे सङ्कच शिष्यार्थमुपयोगे दत्ते, तत्र च तथाग्नेियाऽदर्शने परतीर्थेषु तदुपयोगे राजगृहे-यज्ञं यजन् शय्य भवनामा भट्टो ददृशे । ततः-तत्र गत्वा साधुभ्याम्-'अहो ! कष्टम् अहो ! कष्टं तत्वं न ज्ञायते परम्' इति वचः श्रावितः, प्रतिमया प्रतिबोध्य दीक्षितः । तदनु त्रिंशद्वर्याणि गृहपासे, पञ्चाशद्वर्षाणि यतितया, इति अशीतिवर्षाणि सर्वायुः परिपाल्य श्रीशय्यंभव स्वपदे न्यस्य स्वर्गमगादिति प्रभवप्रभुखरूपम् ॥३॥ (थेरस्सणं अजप्पभवस्स कच्चायणसगोत्तस्स अजसिज्जंभवे घेरे अंतेवासी मगगपिया वच्छसगोत्ते ४) < स्थविरस्य आर्यप्रभवस्य कात्यायनगोत्रस्य आर्यशय्यंभवः स्थविरः शिष्यः मन कपिता वत्सगोत्र:> शयंभवोऽपि साधानमुकनिजभार्याप्रमूतमनकाख्यपुत्रहिताय श्रीदशवैकालिकं कृतवान् । दशवकालिकमान्तेऽपि 'सिज्जभवगणहर इत्यादि। NASAACCOREACHOTECTE | ॥३५५॥ Jain Edu ational For Privale & Personal use only brary.org Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्प ॥ ३५६ ॥ Jain Educati 222 क्रमेण श्रीयशोभद्रं स्वपदमलङ्कृतीकृत्य श्रीवीराद् अष्टनवति वर्षेः स्वर्जगाम इति ||४|| (थेरस्त णं अजसिज्जं भवस्य मणगपिउणो वच्छसगोत्तस्स अज्जजसभद्दे धेरे अंतेवासी लुंगियायणसगोते संखितवापणाए ५ ) <स्थविरस्य आर्य शय्यंभवस्य मनकपितुः वत्सगोत्रस्य आर्ययशोभद्रः स्थविरः शिष्यः तुङ्गकायन गोत्र : > श्रीयशोभद्रसूरि श्रीभद्रबाहु - संभूतविजयाख्यौ शिष्यौ स्वपदे संस्थाप्य स्वर्लोकमलङ्कृतवान् । इति सक्षिप्तवाचनायाम् ||५|| अथ मध्यमवाचनया स्थविरावलीमाह ['अजजसमदाओ अग्गओ एवं थेरावली भणिया' इत्यादितः 'अज्जतावसीसाहा निग्गया' इति पर्यन्तम् ] तत्र - (अज्जजस भद्दाओ अग्गओ एवं थेरावली भणिया । तं ० -थेरस्स णं अजजसमद्दस्स तुंगियायणसगुत्तस्स अंतेवासी दुबे थे।-थेरे अज्ञसंभूअविजए माढरसगोते, थेरे अजभद्दवाहू पाईणसगोते ६) - आर्य यशभद्रात अग्रतः एवं स्थविरावली भणिता । तद्यथा - स्थविरस्य आर्ययशोभद्रस्य तुङ्गिकायनगोत्रस्य शिष्यौ द्वौ स्थविरौ स्थविरः आर्यसम्भूतविजयः माढरगोत्रः, स्थविरः आर्यभद्रबाहु प्राचीनगोत्रः > 'अजभद्दवाहु' ति । प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिर - भद्रबाहुद्विजी बान्धवो प्रवजितौ । भद्रबाहोः आचार्यपदाने रुष्टः सन् वराहो द्विजवेषमाहत्य 'वाराहि' संहितां कृत्वा निमित्तैः जीवति । वक्ति च लोके - 'काप्यरण्ये शिलायामहं सिंहलग्नम् अमण्डयम् | शयनावसरे तदभञ्जनस्मृत्या, लग्नभक्त्या तत्र गमने सिंहं दृष्ट्वाऽपि तस्याऽधो हस्तप्रक्षेपेण लग्नभङ्गे सन्तुष्टः सूर्यः प्रत्यक्षीभूय स्त्रमण्डले नीला ational किरणावरु टीका व्या० . ॥३५६ forary.org Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५७॥ ८० सर्व ग्रहचारं ममादर्शयद्' इति । अन्यदा राज्ञः पुरो - लिखितकुण्डाल के वातप्रयोगात् पलार्द्ध टिमज्ञात्वा द्विपञ्चाशत्पलमानमत्स्यपातकथने, श्रीभद्रबाहुभिः तदन्ते पातः सार्दैकपञ्चाशत् पलमानं चाऽवादि । तथा अन्यदा तेन नृपनन्दनस्य शतवर्षाऽऽयुः वर्त्तने- 'एते न व्यवहारज्ञा' इति जैननिन्दायां च क्रियमाणायां, गुरुभिः - 'सप्तदिनैः विडालिकातः मृतिरूचे' । तदनु राजा पुरात् सर्वविडालिकाकर्षणेऽपि सप्तमदिने स्तन्यं पिवतो बालस्योपरि बिडालिकाकारवक्त्रार्गला पातेन मरणे, गुरूणां प्रशंसा तस्य च निन्दा सर्वत्र प्रससार । ततः - कोपात् मृत्वा व्यन्तरीभूय अशिवोत्पादनादिना सङ्घमुपसर्गयन्, श्रीगुरूभिः 'उपसर्ग हर स्तोत्रं' कृत्वा न्यवारि । उक्तं च 'उवसग्गहरं थोतं काऊण जेण संघकल्लाणं । करुणापरेण विहियं स भद्रबाहु गुरु जयउ || १ || ( धेरस्स णं अजसंभूअविजयस्स माढरसगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजथूलभद्दे गोयमसगोत्ते ७) < स्थविरस्य आर्यसम्भूतविजयस्य माढरगोत्रस्य शिष्यः स्थविरः आर्यस्थूलभद्रः गौतमगोत्र : > 'अज्जथूलभद्दे' ति । पाटलीपुरे शकटालमन्त्रिपुत्रः श्रीस्थूलभद्र :- द्वादशवर्णाणि कोशागृहे स्थितः । वररुचिप्रयोगान्मृते च पितरि, नन्दराज्ञाssar मन्त्रमुद्रादानाय अभ्यर्थितः सन् पितृमृत्युं चित्ते विचिन्त्य स्वयं दीक्षामादत्त । पश्चाच्च श्री सम्भूतविजयान्तिके व्रतानि प्रतिपद्य, तदादेशपुरस्सरं कोशागृहे चतुर्मासकमस्थात् । तदन्ते बहुहावभावविधायिनीमपि तां प्रतिबोध्यः गुरुसमीपमागतः सन् तैः 'दुष्कर- दुष्करकारक' इति सङ्घसमक्षं प्रोचे । तद्वचसा पूर्वायाता सिंहगुहा ऽहिबिल-कूपकाष्टस्थायिनी मुनित्रयी दूना । तेषु सिंहगुहास्थायी मुनिः मत्सरेण गुरुणा निवार्यमाणोऽपि द्वितीयचतुर्मास्यां कोशागृहे गतः । दृष्ट्वा च Jain Education nemnational ॥ ३५७॥ helibrary.org Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टोका व्या.८ ॥३५८॥ %ARRI-CHHATIS तां दिव्यरूपां चलचित्तः अजनि । तदनु तया नेपालदेशाऽऽनायितरत्नकम्बलं खाले क्षिप्त्वा प्रतिबोधितः सन्नागत्य उवाच 'स्थूलभद्रः स्थूलभद्रः स एकोऽखिलसाधुषु । युक्तं दुःकरदुःकरकारको गुरुणा जगे' ॥१॥ यतः-स्मरसिंहगुहागेहं दृष्टिदृष्टिविषाहिभूः । चित्रशाला कूपपट्टः कोशायाविष्वसौ स्थितः ॥ ___ 'पुप्फफलाणं च रसं मुराण मंसाण महिलिआणं च । जाणता जे विरया ते दुक्करकारए वंदे ॥१॥ ___ कोशाऽपि तत्प्रतिबोधिता सती स्वकामिनं पुकार्पितैः बाणैः दूरस्थाऽऽम्रलुम्ब्यानयनगर्वितं रथकारं सर्पपराशिस्थसूच्यग्रपुष्पोपरि नृत्यन्ती प्राह'न दुक्करं अंबयलुम्बितोडनं न दुकरं सरिसवनच्चियाए । तं दुकरं तं च महाणुभावं जं सो मुणि पमयवर्णमि वुच्छो ॥१॥ कवयोऽपि-'गिरौ गुहायां विजने वनान्तरे, वासं श्रयन्तो वशिनः सहस्रशः । हम्र्येऽतिरम्ये युवतिजनान्तिके, वशी स एकः शकटालनन्दनः ॥२॥ योऽग्नौ प्रविष्टोऽपि हि नैव दग्धः, छिनो न खड्गाग्रगतप्रचारः। कृष्णाहिरन्ध्रेऽप्युपितो न दष्टो, नाक्तोऽञ्जनागारनिवास्यहो ! यः॥३॥ वैश्या रागवती सदा तदनुगा एड्भी रसै जनं शुनं धाम मनोहरं वपुरहो ! नव्यो वयः सङ्गमः। कालोऽयं जलदाविलस्तदपि यः काम जिगायाऽऽदरात् तं वन्दे युवतिप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् ॥४॥ ला॥३५८॥ Sain E a tional bibrary.org Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५९॥ %A8%AA%A9-% रे ! काम ! वामनयना तव मुख्यमखं वीरा वसंतपिकपश्चमचन्द्रमुख्याः । स्वत्सेवका हरिविरंचिमहेश्वराद्या हा हा हताश ! मुनिनाऽपि कथं हतस्त्वम् ॥५॥ श्रीनन्दिषेण-रथने मि-मुनीश्वराई-बुद्धया त्वया मदन ! रे ! मुनिरेष दृष्टः। ज्ञातं न नेमि-मुनिजम्बू-सुदर्शनानां, तुर्यों भविष्यति निहत्य रणाङ्गणे माम् ॥६॥ श्रीनेमितोऽपि शकटालसुतं विचार्य, मन्यामहे वयममुं भटमेकमेव । देवोऽद्रिदर्गमधिरुह्य जिगाय मोहं, यन्मोहनालयमयं तु वशी प्रविश्य ॥७॥ स्त्रीविभ्रमैश्चलति लोलमना न धीरः, श्रीस्थूलभद्र इव तादृशसङ्कटेऽपि । चूर्णायते पदयोऽपि जलायते च, वैडूर्य मेति विकृति ज्वलनात् पविन ।।८।। अन्यदा द्वादशवर्षदुर्भिक्षप्रान्ते पाटलीपुरे अगुणनादिना विस्मृतामेकादशाङ्गी सङ्घसम्भूय संहितवान् । ततः-दृष्टिवादाय श्रोभद्रवादानयनाय श्रीसवेन मुनिद्वये प्रहिते-'महापागारम्भाः सम्प्रत्यागमनं न भावि' इति तेन ज्ञापिते पुनः प्रहितमुनिद्वन्द्वन-'सङ्घादेशं यो न कुर्यात् तस्य को दण्डः ?' इत्युक्ते गुरुभिरूचे-'म सङ्घबाह्यः क्रियते' पर श्रीसङ्घः शिष्यानत्र प्रहिणोतु यथा तेभ्यो वाचनां दद्मः। ततः-स्थूलभद्राद्याः पञ्चशतशिष्याः प्रहिताः । गुरुभिस्तु वाचनासप्तके प्रदीयमाने अन्ये उद्भग्नाः । स्थूलभद्रस्तु दशपूर्वो वस्तुयोनामध्यैष्ट । अन्यदा च स्वभगिनी: वन्दितुमायातीः ज्ञात्वा स्वशक्तिदर्शनाय सिंहरूपं चक्रे । ता भीताः प्रतिनिवृत्ताः। पुन: गुरुवचसा ज्ञात्वाऽऽयाताः । तं स्वभावस्थं ववन्दिरे । [यक्षया च प्रोचे SASARSAEBASIBASTI ४ ॥३५९॥ Jain Educ a tional Najalnselibrary.org Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०८ ॥३६०॥ AAAAAAACARE अस्माभिः समं प्रवजितः श्रीयकः, पर्वणि मयैव उपवासं कारितः, स्वर्गतः। तत:-'अहं-तत्प्रायश्चित्तयाचनार्थ, श्रीसधे | प्रतिमास्थे, शासनदेव्या श्रीसीमन्धरस्वामीपार्श्व नीता । तन्मुखाच्चूलाद्वयं लात्वाऽऽगाम्' इति] ततः-ताः स्वोपाश्रये गताः। ततः श्रीगुरुभिः तं [प्रागमित्रद्विजगृहनिधिप्रकाशनरूपं चाऽपराधमुद्भाव्य 'वाचनाया अयोग्योऽसि' इति प्रोक्ते सङ्घाऽऽग्रहाद् 'अन्यस्मै त्वया न देया' इत्युक्त्वा अग्रतः सूत्रतो वाचना ददे। केवली चरमो जम्बू-स्वाम्यथ प्रभवप्रभुः । शय्यंभवो यशोभद्रः सम्भूतविजयस्तथा ॥३३॥ भद्रबाहुः स्थूलभद्रः श्रुतकेवलिनो हि षट् । (अभि० चिं०) (थेरस्स णं अन्नथूलभद्दस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे अजमहागिरी एलावच्चसगोत्ते, थेरे अजसुहत्थी वासिढसगोत्ते ८) < स्थविरस्य आर्यस्थूलभद्रस्य गौतमगोत्रस्य शिष्यौ द्वौ स्थविरौ-स्थबिरः आर्यमहागिरिः एलापत्यगोत्रः, स्थविरः आर्यसुहस्ती वाशिष्ठगोत्र:> 'अज्जमहागिरी' ति । 'वुच्छिन्ने जिणकप्पे काही जिणकप्पतुलणमिह धीरो। तं वंदे मुणिवसहं महागिरिं परमचरणधरं ॥१॥ जिणकप्पपरीकम्मं जो कासी जस्स संथवमकासी । सिद्विघरंमि सुहत्थी तं अजमहागिरिं वंदे ॥२॥ 'अजसुहत्थी' ति । वंदे अज्जमहत्थी मुणिपवरं जेण संपईराया । रिद्धि सव्वपसिद्धं चारित्ता पाविओ परमं ॥१॥ तथाहि-दुर्भिक्षे क्वापि इभ्यगृहे विविधां भिक्षां साधुभ्यो दीयमानां वीक्ष्य कश्चिद् द्रमकः श्रीमुहस्तिसूरिशिष्यसाधुभ्यो l भिक्षा मार्गयन्-'गुरवो जानन्ति' इति तैः उक्ते गुरुपाचेऽपि आगतः, तथैव याचमानो लाभं विभाव्य, दत्तदीक्षो, यथेच्छं VACANCE ॥३६०॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only IMonalibrary.org Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३६॥ भोजितो, विसूचिकया चारित्राऽनुमोदनातो मृत्वा, उज्जयिन्यां श्रेणिकराजपट्टे कोणिकः, तत्पट्टे उदायी, तत्प? नवनन्दाः, तत्पट्टे चन्द्रगुप्तः, तत्पट्टे बिन्दुसारः, तत्पट्टे अशोकश्रीः, तस्य सुतः कुणालः, तन्नन्दनः त्रिखण्डभोक्ता सम्प्रतिनामा भूपतिरभूत् । स च जातमात्र एवं पितामहदत्तराज्यो, अन्यदा रथयात्रार्थाऽऽगत-श्रीमुहस्तिसूरीन् दृष्ट्वा जातजातिस्मृतिः'अव्यक्तसामायिकस्य किं फलम् ?' इति पृच्छन् गुरुभि:-'तत्फलं राज्यादि' इति उक्ते जातप्रत्ययः, दत्तोपयोगैः तैः प्रतिबोधितः सन् सपादकोटिबिम्ब-सपादलक्षनवीनजिनभवन-पत्रिंशत्सहस्रजीर्णप्रासादोद्धार-पश्चनवतिसहस्रपित्तलमयप्रतिमाऽनेकशतसहस्रसत्रशालादिभिः विभूषितां त्रिखण्डामपि महीमकरोत् । अनार्यदेशानपि बरं मुक्त्वा पूर्व साधुवेषभृत्स्ववण्ठप्रेषणादिना साधुविहारयोग्यान् स्वसेवकनृपान् जैनधर्मरताँश्च चकार । तथा-'वस्त्रपात्राऽनदध्यादि-प्रामुकद्रव्यविक्रयम् । ये कुर्वन्त्यथ तानुर्वीपतिः सम्प्रतिरूचिवान् ॥१॥ साधुभ्यः सञ्चरद्भयोऽग्रे, ढौकनीयं स्ववस्तु भोः। ते यदाऽऽददते पूज्या-स्तेभ्यो दातव्यमेव तत् ॥२॥ अस्मत्कोशाधिकारी च, छन्नं दास्यति याचितम् । मूल्यमभ्युलसल्लाभ, समस्तं तस्य वस्तुनः ॥३॥ अथ ते पृथिवीभर्नु-राज्ञया तद्वयधुर्मुदा । अशुद्धमपि तच्छुद्ध-बुद्धया त्वादायि साधुभिः ॥४॥ (थेरस्सणं अजसुहथिस्स वासिट्ठसगोत्तस्त अंतेवासी दुवे थेरा-सुट्टियसुप्पडिवुद्धा कोडियकाकंदगा वग्यावच्चसगुत्ता ९) <स्थविरस्य आयमुहस्तेः वाशिहगोत्रस्य शिष्यो द्वौ स्थपिरौ> 'मुद्विअ-मुप्पडियुद्ध'त्ति । सुस्थितौमुविहितक्रियानिष्ठौ सुप्रतिबुद्धौ-मुज्ञाततत्त्वौ, ततो विशेषणकर्मधारयः। 'कोटिक-काकन्दिको' इति नाम < व्याघ्रापत्यगोत्रौ । क.कि.32 ॥३६१॥ Jain Educ a tional For Private & Personal use only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hour श्रीकल्प किरणावल टीका ॥३६२॥ व्या०८ अन्ये तु 'सुस्थित-सुप्रतिबुद्धौ' इति नाम । 'कोटिककाकन्दिको' इति बिरुदनायं विशेपणं। कोटिशः सूरिमन्त्रजापपरिज्ञानादिना कोटिकौ, काकन्यां नगयों सञ्जातत्वात् काकन्दिकौ, ततो विशेषणसमासः । त्रिषष्टिकारास्तु-'मुस्थितसुप्रतिबुद्ध' इत्येकमेव नामाऽऽमनन्ति । तदाशयं वृद्धा विदन्ति येन द्वित्वव्याघातः स्यात् । यदि परं मधुकैटभन्यायेन'सुस्थितेन सहचरितः सुप्रतिबुद्धः इति पक्षाश्रयणं । तत्र च पूज्यत्वादबहुवचनम् इति ॥ (थेराणं सुट्ठिय-सुप्पडिबुद्धाणं कोडियकाकंदगाणं वग्यावच्चसगुत्ताणं अंतेवासी थेरे अजइंददिन्ने कोसियगोत्ते १०) < स्थविरयोः सुस्थित-सुप्रतिबुद्धयोः कोटिककाकन्दिकयोः व्याघ्रापत्यगोत्रयोः शिष्यः स्थविरः आर्यइन्द्रदिन्नः कौशिकगोत्र:> (थेरस्स णं अजईददिन्नस्स कोसियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अजदिन्ने गोयमसगोत्ते ११) < स्थविरस्य आर्यइन्द्रदिन्नस्य कौशिकगोत्रस्य शिष्यः स्थविरः आर्यदिन्नः गौतमगोत्र:> (थेरस्स णं अजदिन्नस्स गोयमसगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजसीहगिरी जाईस्सरे कोसियगोत्ते १२) <स्थविरस्य आर्यदिन्नस्य गौतमगोत्रस्य शिष्यः स्थविरः आर्यसिंहगिरिः जातिस्मरः कौशिकगोत्र:> (थेरस्स णं अजसीहगिरिस्स जाइस्सरस्स कोसियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरे गोयमसगोत्ते १३) <स्थविरस्य आर्यसिंह गिरेः जातिस्मरस्य कौशिकगोत्रस्य शिष्यः स्थविर आर्यवज्रः गौतमगोत्र:> (थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरसेणे उक्कोसियगोत्ते १४)< स्थविरस्य आर्यवज्रस्य गौतमगोत्रस्य शिष्यः स्थविरः आर्यवज्रसेनः उत्कौशिकगोत्र:> (थेरस्स णं अज्जवइरसेणस्स उक्कोसियगोत्तस्स अंतेवासी चत्तारि थेरा-थेरे अज्जनाइले, URUGUGURER ॥३६२॥ ( Jain Educ a tional For Private & Personal use only wwaghelibrary.org Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३६३॥ SAHARSAHARSASA थेरे अज्जपोमिले, थेरे अज्जजपंते, थेरे अज्जतावसे १५) < स्थविरस्य आर्यवज्रसेनस्य उत्कौशिकगोत्रस्य शिष्याः चत्वारः स्थविरा:- स्थविरः आर्यनागिलः, स्थविरः आर्यपोमिलः, स्थविरः आर्यजयन्तः, स्थविरः आर्यतापसः > (थेराओ अज्जनाइलाओ अज्जनाइलासाहा णिग्गया; थेराओ अज्जपोमिलाओ अज्जपोमिलासाहा णिग्गया; थेराओ अज्जजयंताओ अज्जजयंतीसाहा णिग्गया थेराओ अज्जतावसाओ अज्जतावसीसाहा णिग्गया इति) < स्थविरतः आर्यनागिलतः आर्यनागिलाशाखा निर्गता। स्थविरतः आर्यपोमिलतः आर्यपोमिलाशाखा निर्गता । स्थविरतः आर्यनयन्ततः आर्यजयन्ती शाखा निर्गता । स्थविरतः आर्यतापसतः आर्यतापसीशाखा निर्गता इति > ॥६॥ अथ विस्तरवाचनया स्थविरावलीमाह [वित्थरवायणाए पुण' इत्यादित: 'कासवगोत्ते पणिवयामि' इति पर्यन्तम] तत्र - (वित्थरवायणाए पुण अज्जजसभद्दाओ पुरओ थिरावली एवं विलोइज्जइ । तं०-थेरस्सणं अज्जजसभद्दस्स तुंगियायणगोत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हत्था। तं-थेरे अज्जभद्दबाह पाईणसगोत्ते, थेरे अजसंभूअविजए माढरसगोत्ते) < विस्तरपाचनया पुनः आर्ययशोभद्रतः पुरतः स्थविरावलिः एवं विलोक्यते- > अस्यां किल वाचनायां भूरिशो भेदा लेखकदोपहेतु का एवापसेयाः। ततत्स्थविराणां च शाखाः कुलानि च सम्प्रति नावसीयन्ते सज्ञान्तरतिरोहितानि वा भविष्यन्तीति । पाठविषय कनिर्गयं कर्तुमशक्यत्वेनाऽत्रतद्विद एवं प्रमाणम् । तत्र कुलम्-एकाचार्यसन्ततिः, गणस्तु-एकवाचनाचारमुनिसमुदायः । यदुक्तं बलकाबला Sain Educ a tional For Privale & Personal use only U www.anilibrary.org Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावल टीका व्या04 ॥३६४॥ DISSE 'तत्थ कुलं विन्नेयं एगायरियस्स संतति जाओ। दुण्हकुलाण मिहो पुण साविक्खाणं गणो होइ' ॥१॥ शाखास्तु-एकाऽऽचार्यसन्तती एव पुरुषविशेषाणं पृथक् पृथगन्धयाः। अथवा-विवक्षिताद्यपुरुषसन्ततिः शाखा । यथाअस्मदीया बैरनाम्ना वैरीशाखा । कुलानि तु-तत्तच्छिष्याणां पृथक पृथगन्वयाः। यथा-'चान्द्रकुलं नागेन्द्रकुलम् ' इत्यादि । < तद्यथा-स्थविरस्य आर्ययशोभद्रस्य तुङ्गिका यनगोत्रस्य इमो द्वौ स्थविरौ शिष्यौ > 'अहावच्चा" इति-'न पतन्ति यस्मिन्नुत्पन्ने दुर्गतौ अयशःपडू वा पूर्वजाः तदपत्यम्' सदाचारिणश्च सुशिष्याः पूर्वजान् गुरून् नोभयत्राऽपि पातयन्ति प्रत्युत प्रभासयन्ति इति यथा-'अपत्या:' नियतश्चेत्रम् । अत एव 'अभिज्ञाता:-सर्वत्र ख्यातिभाजः' इत्यर्थः। <अभूताम् > <तद्यथा--स्थविरः आर्यभद्रबाहुः प्राचीनगोत्रः। स्थविरः आर्यसम्भूतविजयः माढरगोत्र:> (थेरस्स णं अजभद्दबाहस्स पाईणसगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावचा अभिण्णाया हुत्था। तं०-थेरे गोदासे, थेरे अग्गिदत्ते, थेरे जन्नदत्ते थेरे सोमदत्ते, कासवगोत्ते णं) <स्थविरस्य आर्यभद्रबाहोः प्राचीनगोत्रस्य इमे चत्वारः स्थविराः शिष्याः यथाऽपत्याः ख्यातिभाजः अभवन् । तं०-स्थविर गोदासः, स्थविरः अग्निदत्तः, स्थविरः यज्ञदत्तः, स्थविरः सोमदत्तः काश्यपगोत्र:> (थेरेहिंतो गोदासेहिंतो कासवगुत्तेहिंतो इत्थ गोदासे नाम गणे णिग्गए । तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जंती । तं तामलित्तिया, कोडिरिसिया, पोंडवद्धणिया, दासीखब्बडिया) <स्थविरेभ्यः गोदासेभ्यः काश्यपगोत्रेभ्यः अत्र गोदासनामा गणः निर्गतः। तस्य इमाः चतस्रः शाखाः एवम् आख्यायन्ते । तद्यथा-ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीका, पौण्डूवर्द्धनिका, दासीखर्बटिका>। PASSASARA can Educ a tional For Private & Personal use only woul trary.org Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३६५॥ હા (थेरस्सणं अज संभूअविजयस्स माढरसगोत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावचा अभिण्णाया हुस्था । तं. 'नंदणभद्दे थेरे उवणंदे तीसभद्द जसभद्दे । थेरे अ सुमिणभद्दे मणिभद्दे पुण्णभद्दे अ ॥ १ ॥ थेरे अ थूलभद्दे उज्जुमई जंबुनामधेज्जे अ । थेरे अ दीहभद्दे थेरे तह पंडुभद्दे अ' ॥ २ ॥ (थेरस्त णं अज्जसंभूअविजयस्स माढरसगोत्तस्स इमाओ सत्तअंतेवासीणीओ अहावच्चाओ अभिण्णायाओ हुत्था । तं० - जक्खा य जक्खदिन्ना भूआ तह होइ भूअदिन्ना य । सेणा वेणा रेणा भगिणीओ थूलभद्दस्स ॥ < स्थविरस्य आर्यसम्भूतविजयस्य माढरगोत्रस्य इमाः सप्त शिष्यिण्यः ( शिष्याः) यथापत्याः ख्यातिभाजः अभवन् । तद्यथा-यक्षा, यक्ष दिन्ना, भूता भूतदिन्ना । सेणा वेणा रेणा भगिन्यः स्थूलभद्रस्य > । [सेणा वेणा' इत्यादी क्वचित् 'सेणा ' स्थाने 'एणा' इत्यपि ] | (थेरस्स णं अजथूलभद्दस्स गोयमसगोत्तस्स दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था । तं०-- थेरे अजमहागिरी एलाबच्च सगोत्ते, थेरे अज्जसुहत्थी वासिहसगोते ) <स्थविरस्य आर्यस्थूलभद्रस्य गौतमगोत्रस्य द्वौ स्थविरौ शिष्यौ यथापत्यौ रूपातिभाजी अभवताम् । तद्यथा - स्थविरः आर्यमहागिरिः एलापत्यगोत्रः, स्थविरः आर्यसुहस्तिः वाशिष्ठ गोत्र : > (थेरस्स णं अजमहागिरिस्स एलावच्चसगोत्तस्स इमे अड्ड थेरा अंतेवासी अभिण्णाया हुत्था । तं - थेरे उत्तरे, थेरे बलिस्सहे, थेरे धणड्ढे, थेरे सिरिड्ढे, थेरे नागे, थेरे कोडिन्ने, Jain Education national ॥ ३६५॥ eliorary.org Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका व्या०८ ॥३६६॥ ACESSE REGALOGOSTOSARIAGE थेरे नागमित्ते, थेरे छलए रोहगुत्ते कोसियगोत्ते णं) (थेरेहिंतो णं छलुएहिंतो रोहगुत्तेहिंतो कोसियगुत्तेहितो तत्थ णं तेरासिआ णिग्गया)< स्थविरेभ्यः षडुलूकेभ्यो रोहगुप्तेभ्यो कौशिकगोत्रेभ्यः तत्र त्रैराशिका निर्गता> 'छलए रोहगुत्ते' तिक-विवादावसरे द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाः पट्पदार्थप्ररूपकत्वात पट । उलूकगोत्रोत्पन्नत्वेन उलूकः। उलूकत्वमेव व्यनक्ति-'कौशिक-उलूक' शब्दयोः नाऽर्थभिन्नत्वं, त्रैराशिका-'जीव-अजीवनोजीवाऽऽख्यराशित्रयप्ररूपिणः तच्छिप्पप्रशिष्याः । तदुत्पत्तिस्त्वेवम्-श्रीवीरात् पञ्चशतचतुश्चत्वारिंशत्तमे (५४४) वर्षे अन्तरञ्जिकायां पुया (भूतमहोद्यानस्थः) भूतगुहचैत्यस्थ श्रीगुप्ताचार्यशिष्यः रोहगुप्तः अन्यदा-'विद्यया उदरं स्फुटति' इति बद्धोदरपट्टः वृश्चिक-सर्प-मूपक-मृगी-वराही-काकी-शकुनिकारूपसप्तविद्याकुशल-'पोदृशाला'भिधपरिव्राजकप्रवादिवाद्यमानपटहं पस्पर्श। तदनु गुरुः पठितसिद्धतत्प्रतिपक्ष-'मयूरी-नकुली-बिडाली-व्यानी-सिंही-उलूकी-उलावकी' (श्येनीतिनाम्ना प्रसिद्धा) इति सप्तविद्याः, शेषोपद्रवे-'इदं त्वया भ्राम्य यथा अजेयो भवसि' इत्युक्त्वा अर्पि(चि)तरजोहरण च प्राप्य ताभिः विद्याभिः विजितेन (तजितेन) तेन-'सौख्याऽसौख्ये, नीचोच्चौ, मुक्तिसंसारौ, साराऽसारी, पुण्यपापे, शुभाऽशुभे, सम्पदाऽऽपदौ, जीवितमरणे, जीवाऽजीवौ' इत्यादि राशिद्वयकक्षाया कक्षीकृतायां तत्प्रतिभापराभवार्थम्-'देवानां त्रितयं त्रयी हुतभुजां शक्तित्रयं त्रिस्वरा-स्त्रैलोक्यं त्रिपदी त्रिपुष्करमथ त्रिब्रह्म वर्णास्रयः। त्रैगुण्यं पुरुषत्रयी त्रयमथो सन्ध्यादिकालत्रयं सन्ध्यानां त्रितयं वचस्वयमथाऽप्यस्त्रियः संस्मृताः ॥१॥ 'जीवाऽजीवनोजीव' इत्यादि राशित्रयं व्यवस्थाप्य तं विजित्य महामहःपूर्व पश्चादागत्य गुरूभ्यः सर्व स्ववृत्तान्तं SHEMERA ॥३६६॥ Jain Educati Denational For Private & Personal use only i dibrary.org Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३६७॥ SHUKLAGUEUEGORELESH व्यज्ञपयत् । गुरूभिरू वे-'वत्स! वरं चक्रे, परं जीवाऽजीवनोनीव' इति राशित्रयव्यवस्थापनम् 'उत्सूत्रम्' इति तत्र गत्वा 'ददस्त मिथ्यादुष्कृतं' । ततः-कथं तथाविधपर्षदि स्वयं तथाप्रज्ञाप्य स्वयम् अप्रमाणयामि ?' इति सञ्जाताऽहङ्कारेण तेन न तथाचक्रे । ततः-षण्मासी यावद् राजसभायां वादमासूत्र्य कृत्तिकापणे-'जीवाऽजीवनोजीव'मार्गणादियुक्त्या चतुश्चत्वारिंशेन पृच्छाशतेन निर्लोठितः कथमपि स्वाग्रहमत्यजन् गुरूभिः क्रुधा खेलमात्रभस्मक्षेपेण शिरोगुण्डनपूर्व सङ्गबाह्यश्चक्रे । ततः-पष्टः निवः त्रैराशिकः । 'क्रमेण वैशेषिकदर्शनं प्रकटितम्' इति ॥ (थेरेहिंतो उत्तर-बलिस्सहेहिंतो तत्थ णं उत्तर-बलिस्सहे नामं गणे णिग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिति । तं०-कोसंविआ, सुत्तवत्तिया, कोडवाणी, चंदनागरी) (थेरस्स णं अजसुहत्थिस्स वासिट्ठसगोत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था। तं जहा-थेरे अजरोहणे, भदजसे, मेहगणि य कामिड्डी। सुट्टिय-सुप्पडिवुद्धे रक्खि अतह रोहगुत्ते अ॥१॥ इसिगुत्ते सिरिगुत्ते गणी य बंभे गणी य तह सोमे । दसदोय गणहरा खलु एए सीसा सुहथिस्स। <स्थविरस्य आर्य सुहस्तिनः वासिष्ठगोत्रस्य इमे द्वादश स्थविराः शिष्याः यथापत्या ख्यातिभान अभवन् । तद्यथा-> 'थेरे अजरोहण' इत्यादि-'आर्यरोहणः, भद्रयशाः, मेघः, कामद्धिः, सुस्थितः, सुप्रतिबुद्धः, रक्षितः, रोहगुप्तः, ऋषिगुप्तः, श्रीगुप्तः, ब्रह्मा, सोमः' इति द्वादश गणधारिणः सुहस्तिशिष्याः ॥५॥ (थेरेहिंतो अजरोहणेहिंतो कासवगुत्तहिंतो तत्थ णं उद्देहगणे नामं गणे णिग्गए । तस्सिमाओ चत्तारि EARNAMAARAMMA PH www.armedyorary:org Jain Educationminternational For Privale & Personal use only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावर टीका व्या०. ॥३६८॥ CRORSCCC HARASHTRA साहाओ णिग्गयाओ, छच्च कुलाई एवमाहिज्जंति । से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिज्जंति । तं०-उदुंबरिजिया, मासपूरिआ, मइपत्तिया, पन्नपत्तिया। सेतं साहाओ। से किं तं कुलाई ? एवमाहिज्जति । ___ तं०-पढमं च नागभूअं बीयं पुण सोमभूइ होइ । अह उल्लगच्छ तइअं चउत्थयं हत्थलिज्जं तु ॥१॥ पंचमगं नंदिज्ज छटुं पुण परिहासयं होइ । उद्देहगणस्सेए छच्च कुला हुंति नायव्वा ॥२॥) (थेरेहिंतो णं सिरिगुत्तेहिंतो हारियसगोत्तहिंतो इत्थ णं चारणगणे नाम गणे णिग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, सत्त य कुलाई एवमाहिज्जति । से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिज्जंति । तं जहा-हरिअमालागारी, संकासिआ, गवेधुआ, विजनागरी । से तं साहाओ। से किं तं कुलाई? कुलाई एवमाहिज्जति। तंजहा पढमित्थ वत्थलिज्जं बीअं पुण पीइधम्मिश्र होइ । तइ पुण हालिज्जं च उत्थयं पूसमित्तिजं ॥१॥ पंचमगं मालिज्जं छटुं पुण अजवेडयं होइ। सत्तमगं कण्हसहं सत्तकुला चारणगणस्स ॥२॥ (धेरैहितो णं भद्दजसेहितो भारद्दाय[स]गुत्तेहिंतो एत्थ णं उडुवाडियगणे नामं गणे णिग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, तिणि कुलाई एवमाहिति । से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिति । तं जहा-'चंपिज्जिआ, भद्दिजिआ, काकंदिया, मेहलिज्जिा ' से तं साहाओ। से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिति ।) तं जहा ॐ ३६८ Jain Education national For Privale & Personal use only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CREAER 'भद्दजसिअंतह भद्दगुत्तिअंतइअंच होइ जसभई । एयाई उडुवाडियगणस्स तिन्नेव य कुलाई॥१॥ (थेरेहितो णं कामिड्डीहिंतो कोडालसगुत्तेहिंतो इस्थ णं वेसवाडियगणे नामं गणे णिग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जति । से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिज्जंति। तं.-'सावस्थिआ, रज्जपालिया, अंतरिज्जिया, खेमलिज्जिया' से तं साहाओ। से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जति । तं जहा 'गणिअं मेहि कामडिअंच तह होइ इंदपुरगं च । एयाई वेसवाडिय-गणस्स चत्तारि उ कुलाई ॥१॥) 8 (थेरेहितो णं इसिगुत्तेहितो कार्कदिएहिंतो वासिट्ठसगोत्तेहिंतो इत्थ णं माणवगणे नामं गणे णिग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, तिण्णि उ कुलाई एवमाहिज्जति । से किं तं साहाओ ? साहाओ एवमाहिज्जंति । तं जहा-'कासवज्जिया, गोयमज्जिआ, वासिडिआ, सोरहिआ' से तं साहाओ । से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जंति । तं०-'इसिगुत्ति इत्थ पढम बीइअंइसित्तिअंमुणेअव्वं । तइअंच अभिजयंतं तिणि कुला माणवगणस्स' KI (धेरेहिंतो सुट्टिअ-तुप्पडिबुद्धेहितो कोडियकाकदिएहिंनो वग्यावच्चसगोत्तेहिंतो इत्थ णं कोडियगणे नाम गणे णिग्गए । तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जति । से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिज्जंति । A NGA ॥३६९॥ G h an E emational For Private & Personal use only heibrary.org Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प किरणावली टीका ३७०॥ व्या०८ AAAAAAABAR || तं०-'उच्चानागरी, विज्जाहरीअं, वयरी अ मज्झिमिल्ला य। कोडियगणस्स एआ हवंति चत्तारी साहाओ' 3 से तं साहाओ । से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जति। तं.-'पढमिस्थ बंभलिज्ज विइनामेण वत्थलिज्जंतु। तइ पुण वाणिज्जं च उत्थं पुण पण्हवाहणयं ॥१॥) (थेराणं सुट्टिय-सुप्पडिबुद्धाणं कोडियकाकंदगाणं वग्यावच्चसगुत्ताणं इमे पंच थेरा अंतेवासी अहाबच्चा अभिण्णाया हुत्था । तं०-थेरे अज्जइंददिन्ने, थेरे पियगंथे, थेरे विज्जाहरगोवाले कासवगोत्ते णं, थेरे इसिदत्ते, थेरे अरिहदत्ते । धेरेहिंतो णं पियगंथेहिंतो इत्थ णं मज्झिमा साहा णिग्गया। थेरेहितोणं विज्जाहरगोवालेहितो कासवगोत्तेहिंतो इत्थं णं विज्जाहरी साहा णिग्गया। तत्र-'पियगंथेत्ति-एकदा त्रिशतजिनभवन-चतु:शतलौकिकप्रासादा-ऽष्टादशशतविप्रगृह-पत्रिंशच्छतवणिग्गृह-नवशताऽऽराम-सप्तशतवापी-द्विशतकूप-सप्तशतसत्रागारविराजमाने अजमेरुनिकटवर्तिनि सुभटपाल-राज्यसम्बन्धिनि हर्षपुरे श्रीप्रियग्रन्थसूरयः अभ्येयुः। तत्र चाऽन्यदा द्विजैः यागे छागो हन्तुमारेभे । तैः श्राद्धकरार्पितवासक्षेपे तं छागमागत्य अम्बिकाऽधितस्थौ । तत:-स छागो नभसि भूत्वा बभाण'हनिष्यत नु मां हुत्यै, बध्नीताऽऽयात मां हत । युष्मद्वन्निदयः स्यां चेत् ? तदा हन्मि क्षणेन वः ॥१॥ यत्कृतं रक्षसां द्रने, कुपितेन हनुमता । तत्करोम्येव वः स्वस्थः, कृपा चेन् ? नान्तरा भवेत् ॥२॥ यावन्ति रोमकूपाणि, पशुगात्रेषु भारत ! । तावद्वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते पशुघातकाः ॥३॥ SORRRRRRRIA ६ ॥३७॥ Hemational For Privale & Personal use only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७१॥ AAAAAAAX यो दद्यात् काञ्चनं मेरु, कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् । एकस्य जीवितं दद्यान् न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥४॥ महतामपि दानानां, कालेन क्षीयते फलम् । भीताऽभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ॥५॥ कस्त्वं! प्रकाशयाऽऽत्मानं ?, तेनोतं पावकोऽस्म्यहम् । ममैनं वाहनं कस्मा-जिघांसथ पशुं वृथा ? ॥६॥ इहाऽस्ति श्रीप्रियग्रन्थ-सूरीन्द्रः समुपागतः। तं पृच्छत ? शुचिं धर्म, समाचरत शुद्धितः ॥७॥ यथा चक्री नरेन्द्राणां, धानुष्काणां धनञ्जयः। तथा धुरि स्थितः साधुः, स एकः सत्यवादिनाम् ॥८॥ तत:-ते तथा कृतवन्तः इति ॥ (थेरस्स णं अजइंददिन्नस्स कासवगोत्तस्स अजदिन्ने थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते । थेरस्स णं अजदिन्नस्स गोअमसगोत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावचा अभिण्णाया हुत्था। तं जहा-थेरे अजसंतिसेणिए माढरसगुत्ते, थेरे अजसीहगिरी जाईस्सरे कोसियगोत्ते । थेरेहितो णं अज्जसंतिसेणिएहितो माढरसगोत्तेहिंतो इत्थ णं उच्चानागरी साहा णिग्गया। थेरस्स णं अज्जसंतिसेणिअस्स माढरसगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाण हुस्था। (१०००) तं जहा-थेरे अज्जसेणिए, धेरे अन्जतावसे, थेरे अज कुबेरे, थेरे अजइसिपालिए । थेरेहिंतो णं अजसेणिएहिंतो इत्थ णं अजसेणिया साहाणिग्गया। थेरेहितो णं अज्जतावसहिंतो इत्या अज्जतावसी साहा णिग्गया। थेरेहिंतोणं अजकुबेरेहितो अजकुबेरी साहा णिग्गया । थेरेहिंतो णं अजइसिपालिएहिंतो अजइसिपालिया साहा णिग्गया) AAAAAAAAAA JORECARE ॥३७॥ J Jain Educ abrary.org a tional Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीकल्प किरणावली टीका व्या०८ ।३७२॥ AAAAAAAFRICA छ (थेरस्सणं अजसीहगिरिस्स जाईस्सरस्स कोसियगोत्तस्स चत्तारिथेरा अंतेवासी अहावचा अभिण्णाया हुस्था। तं जहा-थेरेधणगिरी, थेरे अजवइरे, थेरे अजसमिए, थेरे अरिहदिन्ने । 'थेरे अज्जवइरे' ति । तुम्बवनग्रामे सुनन्दाऽभिधानां साधानां भार्या मुक्त्वा धनगिरिणा तपस्या जगृहे । सुनन्दानन्दनस्तु-स्वजन्मसमये एव पितुः तपस्यामाकर्ण्य जातजातिस्मृतिः मातुरुद्वगाय सततं रुदन्नेवाऽऽस्ते । ततः-तया स षण्मासवया एव धनगिरिसाधोः अर्पितः। तेन च गोचरसमये-'अध त्वया सचित्तमचित्तं वा यल्लभ्यते तद ग्राह्यम्' इति गुरुवचः स्मृत्वा जगृहे । तत:-वज्रवत्प्रभूतभाराकलितत्वाद् 'वज्र' इति दत्तनामा साध्व्युपाश्रये शय्यातरीभिः वय॑मानः पालनकस्थ एव एकादशाङ्गानि अध्यष्ट । ततः-त्रिवार्षिक: सन् मात्रा राजसमक्षं विवादे अनेकसुखभक्षिकादिभिः लोभ्यमानोऽपि पितृसाध्वर्पितं रजोहरणमेवाऽग्रहीत् । ततः-माताऽपि प्रववाज । शिशुरपि अष्टवर्षान्ते-एकदा तस्य पूर्वभववयस्यैः जृम्भकैः उज्जयिनीमार्गे वृष्टिनिवृत्तौ कूष्माण्डभिक्षायां दीयमानायाम्-'अनिमिषत्वादिना देवपिण्डावगमे अग्रहणे तुष्टैः तैः 'वैक्रियलब्धि: दत्ता । पुनः तथैव-अन्यदा घृतपुरैः परीक्षायां 'नभोविद्याऽपि । अथैकदा वज्रमुनिः गुरुषु बहिभूमौ, साधुषु तु विहर्त गतेषु साघुवेष्टिकामध्यस्थितः तासां वाचनां दातुमारेभे। गुरवः तद्वयतिकरं विज्ञाय, अन्येषां तद् ज्ञापनाय 'वज्रो वो वाचनाचार्यः' इत्यादिश्य ग्रामं गतवन्तः । ततः-तेषां विनीतानां वाचनां ददौ । ते च तदेकवाचनया तावत् पेठुः यावत् गुरुभ्यो नाऽनेकवाचनाभिरपि इति । ते अन्योन्यमभ्यधु:'यदि गुरवः तत्र विलम्बते तदा वज्रान्तिके शीघ्रं श्रुतस्कन्धः समाप्यते । तत:-गुरुषु आगतेषु स प्रागपठिते च श्रुते अध्यापिते श्रीभद्रगुप्ताचार्यान्तिके दशपूर्वाण्यधीते स्म । ततः-सम्प्राप्त रिपदः पाटलीपुरे प्रवेशक्षणे-'मा भूदिव्यरूपाक्षेपान्नगरक्षोभः' SACACAREERASAR |॥३७२॥ Jain E n ternational For Private & Personal use only W anelibrary.org Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७३॥ AAAAAAA इति शङ्कया शक्त्या सक्षिप्तरूपः, क्षीराबवलब्ध्या राजादीनां धर्मोपदेशं दिदेश । द्वितीये अति-'न प्रभोः गुणानुरूप रूपम्' इति पौरालापं श्रुत्वा विकुर्वितसहस्राजस्थ: स्वाभाविकरूपेण धर्ममुपदिशन् अखिलानपि तान् विस्मापितवान् । तत्र च धनश्रेष्ठितनया रुक्मिणीनाम्नी साध्वीभ्यःप्राग-विज्ञातगुणानुरागिणी सती कोटीधनसहिता पित्रा प्रदीयमानाऽपि प्रबोध्य प्रवाजिता । __ अत्र कविः-'मोहाब्धिश्चुलुकी चक्रे येन बालेन लीलया । स्त्रीनदीस्नेहपूरस्तं वर्षि प्लावयेत्कथम् ? ॥१॥ ततः-स्वामिना पदानुसारिलब्ध्या श्रीआचाराङ्गमहापरिज्ञाऽध्ययनात् 'नभोगविद्या' उद्दभ्रे । एकदा-उत्तरस्यां दुर्भिक्षे श्रीसङ्घ पटे संस्थाप्य चारिग्रहणार्थ गतशय्यातरमपि लोचकरणेन साधर्मिकत्वं ख्यापयन्तं तत्राऽऽरोप्य च नभस्थ एव स्थाने स्थाने चैत्यादीनि वन्दमानः स मुभिक्षां पुरिकापुरी प्राप । तत्र च बौद्धराज्ञा जिनचैत्येषु पुष्पप्रतिषेधे कृते पर्युषणा-पर्वणि सखेदं श्राद्धैः विज्ञप्तः, व्योम्नोत्पत्य माहेश्वर्या पुर्या हुताशनाख्यदेवस्य बने पितृमित्रमारामिकं कुसुमप्रगुणीकरणार्थप्रादिश्य हिमवददि गतः। तत्र च श्रीदेव्या ववन्दे। तदनु प्राग देवाऽर्चार्थ विरचितमहापद्म, तदर्षितं । हुताशनवनाविंशतिलक्षाणि पुष्पाणि चादाय, विकुळ च विमानं प्रारमित्रजृम्भकाऽमरकृतगीतबादित्राद्यतुलोत्सवैः आगत्य अहन्मतं प्राभावयत् । ततःनृपतिरपि श्राद्धो बभूव । अन्यदा दक्षिणापथे बिहरन् श्रीवत्रः श्लेष्मप्रकोपे भोजनादनु ग्रहणाय कर्णे स्थापितसुण्ठयाः प्रतिक्रान्तिमुखपोतिकाप्रतिलेखनावसरे पतने प्रमादमागम्य अनशनार्थी सन् 'द्वादशाब्दं दुर्भिक्षं विभाव्य' 'लक्षमूल्यौदनाद्भिक्षा, यत्राहि त्वमवाप्नुयाः । सुमिशनवबुद्धयेथाः, तदुत्तरदिनोषसि ॥१॥ इत्युक्त्वा वज्रसेनाभिख्यं स्वशिष्यम् अन्यत्र व्यहारयत् । स्वान्तिकस्थसाधूंश्च दुर्भिक्षे भिक्षामलभमानान् विद्यापिण्डेन RAPEOBAHARHAAR 6. कि. ३२ ॥३७३॥ Sain Educ a tional For Privale & Personal Use Only library.org Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०८ ॥३७४॥ कियदिनानि भोजयित्वा संविग्नान् पञ्चशतशिष्यान् सहोदाय अनशनार्थ वार्यमाणमपि अतिष्ठन्त क्षुल्ल कथमपि विप्रतार्य गिरिमारोहत् । स च 'मा भूदगुरूणामप्रीतिः' इति गिरिमृले एवं तप्तशिलातले अनशनं कृत्वा स्वरलङ्कृतवान् । देवैस्तुतन्महिमान क्रियमाणं दृष्ट्वा साधवोऽत्यन्तं स्थिरीभूताः। तत्र च मोदकादिभिः निमन्त्रयन्त्या मिथ्यायदेव्या अप्रीति विज्ञाय अन्याऽऽसनगिरौ गत्वा अनशनेन दिवं प्रापत् । ततः-शक्रेण सरथेन गिरेः प्रदक्षिणीकरणात् 'रथावत' इति नामाऽजनि। तरूणां च नमनाद् अद्यापि तरवो नम्रीभूता एव जायन्ते। तत्र च दशमपूर्व 'तुर्य संहननं व्युच्छिन्नं । तदनु च श्रीवज्रसेन: सोपारके जिनदत्तश्राद्धभार्येश्वरीगृहं गतः। तया च लक्षमूल्यम् अन्नं पक्त्वा प्रक्षिप्यमाणं विषं गुरुवचः प्रोच्य न्यवारयत् (न्यवारि)। प्रभाते पोतेः प्रचुरधान्यागमनात् सञ्जाते सुभिक्षे जिनदत्तो भार्या-नागेन्द्र-चन्द्रादितनयपरिवृतः प्रावाजीत् । ततः-तेभ्यः चतस्रः शाखा समजायन्त इति ॥ (थेरेहितो णं अजसमिएहिंतो गोयमसगुत्तेहिंतो इत्थ णं बंदीविया साहा णिग्गया) आभीरदेशे अचलपुराऽऽसन्न कन्ना-बेन्ना'नद्योःमध्ये ब्रह्मद्वीपे पञ्चशततापसाः। तेप्चेकः पादले पेन प्रलेपमात्रेण 'बेन्ना' मुत्तीर्य पारणार्थ याति । तत:-'अहो ! अस्य तपःशक्तिः' इति सञ्जातचेतश्चित्रो विचित्रो जनः तद्भक्तिपरायणः-'भवद्गुरूणां न कोऽपि प्रभावः' इति-श्राद्धनिन्दातत्परश्वासीत् । तत:-तैः श्रीवज्रस्वामीमातुलाऽऽर्यसमितसूरयः आहूताः। तैरूचे-स्तोक| मिदं । यत:-'पादले पशक्तिः' इति । श्राद्धैः ते स्वगृहे पादपादुकाधावनपुरस्सरं भोजिताः। ततः-तैः सहैव सर्वेऽपि श्राद्धा १. दुष्कर्मावनिभिद्वजे श्रीवजे स्वर्गमीयुषि । व्युच्छिन्नं दशमं पूर्व तुर्य सहननं तथा ॥१२॥ परिशिष्टपर्वणि ॥३७४॥ Jain Educat t ational For Private & Personal use only "Mobrary.org Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३७५॥ नद्यन्तिकमगुः । ते च तत्र प्रविशन्त एव ब्रूडितुं लग्नाः । ततः - तेषां प्रावर्त्तत सर्वत्राऽपभ्राजना । इतश्च - आर्यसमित सूरयोऽपि अभ्येयुः । ततः - ते लोकबोधनाय चप्पडिकां दधा उचिवांसः - 'बेन्ने ! परं पारं यास्यामः' इत्युक्ते कुठे मिलिते बभूव पौराणां । ततः तैः परिवृताः सूरयः तापसाश्रमे गत्वा दवा धर्मोपदेशं तान् प्रत्यबुबुधन् । तदनु सर्वेऽपि प्रत्रजिताः प्रससार च प्रवचनप्रभावना । ततः - तेभ्यो ब्रह्मदीपिकाशाखा निर्गता इति ॥ ततः - 'महागिरि सुहस्ती च सूरिः श्रीगुणसुन्दरः । श्यामार्यः स्कन्दिलाचार्यों, रेवतीमित्र सूरिराट् ॥ १ ॥ भद्रगुप्त, श्रीगुप्तो वज्रसूरिराट् | युगप्रधानप्रवरा दशैते दशपूर्विणः || २ || इति ॥ श्री (थेरेहिंतो णं अजब इरेहिंतो गोयमसगुत्तेहिंतो इत्थ णं अज्जवयरीसाहा णिग्गया । थेरस्स णं अज्जवरस्स गोयमगोत्तस इमे तिन्नि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था । तं०-धेरे अज्जवइरसेणे, थेरे अज्जवमे, धेरै अजरहे । थेरेहिंतो अज्जवहर सेणेहिंतो इत्थ णं अज्जनाइली साहा णिग्गया । थेरेहिंतो अज्जपरमेहिंतो अज्जपउमासाहा णिग्गया । थेरेहिंतो णं अज्जर हेहिंतो इत्थ णं अज्जजयंती साहा णिग्गया) Jain Educatinational (थेरस्स णं अज्जरहस्स वच्छसगुत्तस्स अज्जपूसगिरी थेरे अंतेवासी कोसियगोत्ते । थेरस्स णं अजपूस गिरिस्स को सियगोत्तस्स अजफग्गुमित्ते थेरे अंतेवासी गोयमसगोते । थेरस्स णं अज्जफरगुमित्तस्स गोयमसगोत्तस्स अज्जधणगिरी थेरे अंतेवासी बासिहसगोते । थेरस्स णं अज्जधणगिरिस्स वासितगोत्तस्स अज्जसिवभूई थेरे अंतेवासी कुच्छसगोते । ॥ ३७५ www.brary.org Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प उकिरणावर टीका ॥३७६॥ व्या०८ धेरस्सणं अज्जसिवभूईस्स कुच्छसगुत्तस्स अज्जभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते। थेरस्स णं अज्जभद्दस कासवगोत्तस्स अज्जणक्खत्ते थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । धेरस्स णं अज्जणक्खत्तस्स कासवगोत्तस्स अज्जरक्खे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ता ''अज्जरक्खे'त्ति-दशपुरनगरे पुरोहितः सोमदेवः, तद्भार्या सोमरुद्रा। तस्याः तनयः आर्यरक्षितनामा विदेशे गत्वा चतुर्दशविधा अधीत्यागतः। राजादिकृतकरिस्कन्धारोपणादिबहुसन्मानो मातुःप्रणामावसरे विशेषहर्षमदृष्ट्वा तत्कारणमपृच्छत् ? तया परमाईत्या ऊचे-'किमनेन नरकपातहेतुना अधीतेन' यदि च मां मन्यसे तदा दृष्टिबादमधीव । तत:-तं बिभणिषु:'दृष्टीना-दर्शनानां वाद-विचारः' इति नामाऽप्यस्य शोभनम् इति निशि ध्यात्वा, प्रातः अम्बां पृष्ट्वा, इक्षुवाटकस्थस्वमातुलतोसलिपुत्राचार्यसमीपे गच्छन् , स्वमिलनार्थमागच्छन् मित्रहस्तेन सार्द्धनवेक्षुयष्टिः-'सार्द्धनवपूर्वाऽध्ययनसूचिका' दृष्ट्वा, शकुनं मत्वा, मातुः अर्पणाय आदिश्य, उपाश्रयद्वारं प्राप्तः । 'ढडर' श्राद्धकृतविधिना समुनीन् गुरून् नत्वा उपविवेश । तत:-श्राद्धाऽवन्दनेन गुरुभिः 'अभिनवश्राद्ध' इति उक्तः। साधुभिः उपलक्षितश्च, स्वस्वरूपं प्रोचे । गुरुभिस्तु योग्यमवगम्य स्वजनाद्युत्प्रावाजनभीत्या अन्यत्र गत्वा प्रवाजितः अध्यापितश्च स्वान्तिकस्थं श्रुतं । तदनु च पूर्वाऽध्ययनार्थ श्रीवज्रसमीपे गच्छन्नुज्जयिन्यां श्रीभद्रगुप्तमरिम् अनशनिन निरयामयत् । तत:-'यो हि सोपक्रमायुष्को वज्रेण सह यामिनीम् । एकामपि वसेत् सोऽनुम्रियतेऽत्र न संशयः ॥१॥ इतिविचिन्त्य गुरुभिः-'स्वया पृथगालये स्थित्वाऽध्ये यम्' इति पूर्वोदितः सन्नुपाश्रये उपधि मुक्त्वा श्री१ अबार्थे मूलपर्यायबोधिका कल्पावचूर्णिविलोकनीया। (कल्पकौ०) ARREARS ४॥३७६। For Private & Personal use only ibrary.org Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३७७ ॥ પ वज्र मवन्दत । ततः सः ‘अद्य अस्मत्पाय सपतद्ग्रहः केनाऽपि आगन्तुकजनेन पीतः, किञ्चिच्चाऽस्थाद्' इतिरात्रिदृष्टस्वप्नानुसारेण किञ्चिन्न्यूनदपूर्वाध्येतारं तं मत्वा स्वरूपं च पृष्ट्वा, पृथगुपाश्रयस्थितमध्यापयत् । दशमपूर्वयमकेषु अधीयमानेषु पितृभिः सन्देशकैः आकारणेऽप्यनागमनेन तल्लघुभ्राता फल्गुरक्षितः प्रपि । तेन प्रबोध्य सोऽपि प्रव्राजितः । ततः स्वजनान् प्रबोधयितुम् उत्सुकः, अध्ययनपराजितश्च - इदं पूर्वमद्यापि कियदवशिष्यते ?' इति गुरून् पप्रच्छ । 'बिन्दुमात्रमधीतम् उदधितुल्यं चावशिष्यते' इति गुरुभिः उक्ते भग्नोत्साहोऽपि गुरुगिरा कियदध्यैष्ट । ततः- दत्तोपयोगैः गुरुभिः शेषतच्छ्रतस्य स्वस्मिन्नेव व्युच्छेदं विज्ञाय, अनुज्ञातः सः सफल्गुरक्षितः दशपुरं प्राप । तत्र च राजादिनिर्मितप्रवेशमहा मातृ-भगिन्यादिस्वजनान् प्रात्रानयत् । पिता तु पुत्राद्यनुरागेण प्रत्रजितः परं स्नुषादिङ्घ्रिया धौतिक-यज्ञोपवीत- च्छत्रिको- पानह· कमण्डलूनि न मुमोच । ततः - गुरुशिक्षा बालैः सफलसाधुवन्दनेऽपि भवन्तं छत्रिकावन्तं न वन्दामहे' इत्युक्तः छत्रिकाममुचत् । क्रमेण तथैव कुण्डिकां ( कमण्डलुं यज्ञोपवीत - मुपानहावपि । धौतिकं तु तथापि न मुक्तवान् । अन्यदा च अनशनिनि साधौ मृते गुरुशिक्षया साधुषु वैयावृत्यकृते परस्परं कलहायमानेषु 'किमत्र महती निर्जराऽस्ति ?" इति गुरुं पप्रच्छ । गुरुभिः - 'ओम्' इत्युक्ते- 'अहं वहामि' इत्यूचे । 'अत्रोत्पद्यमानान् उपसर्गान् यदि सोढुं शक्नुथ तदा वहत, अपरथा अस्माकमरिष्टम् ' इति गुरुक्ते - ' स तमुत्क्षिप्य व्रजन् गुरुशिक्षया वालैः धौतिकाकर्षणे गुरुणा चोलपट्टः परिधापितः । ततः पश्चात्स्थितस्नुषादि दर्शनाल्लज्जितोऽपि - 'एप उपसर्गः सोढव्यः' इति विचिन्त्य तत्कार्यं कृत्वा पश्चादागात् । ततः किमेतद् ? आनयत घौतिकम् ? इति गुरुक्ते वभाण - 'किमद्य धौतिकेन ? यद दृष्टव्यं तत्तु दृष्टम्' इति चोलपट्ट एवाऽस्तु । तथापि त्रपया मिक्षामहिण्डमाने अस्मिन् गुरवः साधून् Jain Education national ॥ ३७७॥ rary.org Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावरु टीका ॥३७८॥ व्या . शिक्षयित्वा अन्यत्र विहृतवन्तः । साधवस्तु स्वं स्वं विहृत्य भुक्तवन्तः । स तु क्षुधित एवाऽस्थात् । द्वितीये दिने गुरुभिरागतैः कृत्रिमकोपकरणे तेषु-'किमेप स्वयं न याति?' इति प्रतिवदत्सु गुरुभिः विहत्तु गमने स एव जगाम । कस्यापि इभ्यगृहे अज्ञानाद् अपद्वारेण व्रजस्तेन-द्वारेण एहि ? इत्युक्त:-'श्रीः यतस्ततः आयान्ती सुन्दरा' इति वदस्तत्र द्वात्रिंशन्मोदकान् लब्ध्वाऽऽगतः। 'द्वात्रिंशच्छिष्या अस्माकं परम्परया भविष्यन्ति त्ति गुरुभिर प निमित्तमग्रहीत् । ततः-प्रथमलाभवाद् गुरूवत्या तेषु साधूनां दत्तेषु पुनः परमान्नमानीय स्वयं बुभुजे। लब्धिसम्पन्नत्वाद् बाल-ग्लानादीनामाधारश्च जज्ञे । तत:तस्य च गच्छे त्रयः पुष्यमित्राः-'दुर्वलिकापुष्य-घृतपुष्य-वस्त्रपुष्यमित्राश्च'। चत्वारश्च महाप्रज्ञाः-'दुईलिकापुष्यमित्र-बन्ध्य -फल्गुरक्षित-गोष्ठामाहिला बभूवुः। एकदा च 'इन्द्रः श्रीसीमन्धरवचसा कालकसूरिवत् श्रीआयरक्षितसूरीन् परीक्ष्य वन्दित्वा शालाद्वारं परावर्त्य गतः । ततः-तैः मेधाहानि विभाव्य सूत्रस्य चतुर्धाऽप्यनुयोगः पृथग्व्यवस्थापितः। इति आर्यरक्षितस्वरूपम् ।। धेरस्सणं अज्जरक्खस्स कासवगोत्तस्स अज्जनागे धेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते। धेरस्सणं अज्जनागस्स गोयमगोत्तस्स अज्जजेहिल्ले धेरे अंतेवासी वासिढसगोत्ते। थेरस्स णं अज्जजेहिल्लस्स वासिट्ठसगोत्तस्स अज्जविण्हु थेरे अंतेवासी माढरसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जविण्हुस्स माढरसगोत्तस्स अज्जकालए थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते) (थेरस्स णं अज्जकालगस्स गोयमगोत्तस्स इमे दुवे धेरा अंतेवासी गोयमसगोत्ते-धेरे अज्जसंपलिए, धेरे अज्जभद्दे । एएसिं दुण्हवि थेराणं गोयमसगोत्ताणं अज्जवुड़े थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते) 455 AAAAA ॥३७८ - Jain Educ a tional For Privale & Personal Use Only www -library.org Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७९ ॥ (थेरस्त णं अज्जवुडुस्स गोयमसगोत्तस्स अज्जसंघपालिए थेरे अंतेवासी गोयमसगोते । थेरस्त णं अज्जसंघपालियस्स गोयमसगोत्तस्स अज्जहस्थी थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । थेरस्स णं अज्जहस्थिस्स कासवगुत्तस्स अज्जधम्मे येरे अंतेवासी सुव्वयगोत्ते । थेरस्स णं अज्जधम्मस्स सुब्वयगोत्तस्स अज्जसीहे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । थेरस्स णं अज्जसीहस्स कासवगोत्तस्स अज्जधम्मे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । थेरस्स णं अज्जधम्मस्स कासवगोत्तस्स अज्जसंडिल्ले थेरे अंतेवासी ।) वंदामि फग्गुमित्तं च गोयमं घणगिरिं च वासिहं । कुच्छं सिवभूईपि अ कोसिअ दुर्जन कण्हे अ (१) ॥१॥ ते बंदि सिरसा भद्दं वंदामि कासवंगुक्तं । नक्खं कासवगोस रक्खपि अ कासवं वंदे ॥ २ ॥ वंदामि अज्जनागं गोअमं जेहिलं च वासिहं । विण्हुं माढरगोत्त कालगमवि गोअमं वंदे ॥ ३ ॥ गोजमगुत्तकुमारं संपलियं तह य भद्दयं वंदे । थेरं च अज्जवु गोअमगुत्तं नम॑सामि ||४|| ते बंदिऊण सिरसा थिरसत्तचरितनाणसंपन्नं । येरं च संघवालिअ गोअमत्तं पणिवयामि ||५|| वंदामि अज्जहत्थि च कासवं खंतिसागरं धोरं । गिम्हाण पढममासे कालगयं चैव सुद्धस्स ॥६॥ वंदामि अज्जधम्मं सुव्वयं सोललद्धिसंपन्नं । जस्स निक्खमणे देवो छत्तं वरमुत्तमं वहइ ||७|| हथ कासवगतं धम्मंथि सिवसाहगं पणिवयामि। सीहं कासवगुत्तं धम्मंपि अ कासवं वंदे ॥ ८ ॥ ॥ ३७ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ ३८० ॥ ते वंदिऊण सिरसा थिरसत्तचरित्तणाणसंपन्नं । थेरं च अज्जजंबुं गोअमगोत्तं नम॑सामि ॥९॥ मिउमद्दव संपन्नं उवउत्त नाणदंसणचरिते । थेरं च नंदिअंपि अ कासवगुक्तं पणिवयामि ॥१०॥ तत्तो अथिरचरितं उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्त । देसिगणिखमासमणं माढरगुत्तं नम॑सामि ॥ ११ ॥ तत्तो अणुओगधरं धीरं मइसागरं महासत्तं । थिरगुत्तखमासमणं वच्छसगुत्तं पणिवयामि ॥ १२ ॥ तत्तो अ नाणदंसणचरित्ततवसुट्ठि गुणमहतं । थेरं कुमारधम्मं वंदामि गणिं गुणोववेअं ॥ १३ ॥ सुत्तत्थरयण भरिए खमदममद्दवगुणेहिं संपन्ने । देवडिखमासमणे कासवगुत्ते पणिवयामि ॥ १४ ॥ 'वंदामि फरगुमितं ' इत्यादि गाथाचतुर्दशकं । तत्र - आभिः गद्योक्तोऽर्थः पुनः पद्यैः सङ्गृहीतः इति न पौनरुवत्यशङ्कापि । ‘कुच्छं’ति कुत्सगोत्रं । 'गिम्हाणं' ति ग्रीष्मस्य प्रथममासे-चैत्रे, कालगयं'ति 'कालगतं, 'सुद्धस्स'ति शुक्लपक्षे | 'वरमुत्तमं 'ति वरा-श्रेष्ठा मा लक्ष्मीः तया उत्तमं छत्रं वहति-यस्य शिरसि धारयति देवः पूर्वसङ्गतिकः कश्चिद् । 'मिउमद्दवसंपन्नं'ति मृदुना-मधुरेण मार्दवेन - मानत्यागेन सम्पन्नम् । अथवा मृदुकं - करुणार्द्रहृदयम् अद्रवसम्पन्नं- नर्मणा असम्पन्नम् इति । इति स्थविरावली सम्पूर्णा । इति श्रीजैनशासन सौधस्तम्भायमान - महामहोपाध्यायश्रीधर्मसागरगणिवरविरचितायां कल्पकिरणावल्यां अष्टमं व्याख्यानं समाप्तम् । wwwwwwwwww Jain Educationmational किरणा टीका व्या० ॥३८० www.jbrary.org Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१॥ AARRERESTECREGALBAHARHAA अथ नवमं व्याख्यानं प्रारभ्यते । अथ पर्युषणासामाचारीलक्षणं तृतीयं वाच्यं विवक्ष:- प्रथमं पर्युषणा कदा विधेया' इति शिष्य-अशिष्यादिदृष्टान्तेनाह ['तेणं कालेणं' इत्यादितः ''वासावासं पजोसवेइ' ति पर्यन्तम् ] तत्र - (तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वक्ते वासावासं पज्जोसवेइ) अषाढचतुर्मासकदिनादारभ्य सविंशतिरात्रे मासे व्यतिक्रान्ते भगवान् 'पज्जोसवेइ' तिपयुषणामकापीत् । (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वक्ते वासावासं पज्जोसवेइ ?) 'से केणढेणं' इत्यादि प्रश्नवाक्यम् ॥१॥ निर्वचनवाक्यमाह- [ 'जओ of' इत्यादितः 'पज्जोसवेइति यावत् ] __ तत्र- (जओ णं पाएणं अगारीणं अगाराई) यतः- णं वाक्यालङ्कारे, प्रायेण अगारिणां-गृहस्थानाम् अगाराणिगृहाणि (कडियाई) कटयुकानि (उकंपियाई) धवलितानि (छन्नाई) तृणादिभिः (लित्ताई) छगणाद्यैः क्वचिच्च| (गुत्ताई) त्ति पाठः तत्र गुप्तानि वृत्तिकरण-द्वार-पिधानादिभिः] (घटाई) विषमभूमिभञ्जनात् (मट्ठाई) श्लक्ष्णीकृतानि [क्यचित् (संमट्ठाई) त्ति समन्तात् मृष्टानि-ममृणीकृतानि] (संपधूमिआई) सौगन्ध्याऽऽपादनार्थ धूपनैर्वासितानि (खाओदगाई) कृतप्रणालीरूपजलमार्गाणि (खायनिद्धमणाई) ति निद्धमणं-खालं येन गृहाज्जलं निर्गच्छति (अप्पणो अट्ठाए ॥३८१॥ For Privale & Personal use only K Jan Education inational onbrary.org Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टोका व्या०९ ।३८२॥ कडाई) त्ति आत्मार्थ-स्वार्थ गृहस्थैरित्यर्थः कृतानि--'करोते' परिकार्थत्वात् परिकमितानि । चूर्णिकारस्तु-'कडिआई पासेहिं, उक्कंपिआई उवरि' इत्याह । (परिभुत्ताई) परिभुक्तानि-तैः स्वयं परिभुज्यमानत्वात् । अत एव (परिणामियाई) परिणामितानि-अचित्तीकृतानि (भवंति) भवन्ति (से तेणटेणं एवं वुच्चइ-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वइकते वासावासं पज्जोसवेइ) ततः सविंशतिरात्रै मासे गते इति ॥२॥ ['जहा णं' इत्यादितः 'थेरा वि वासावासं पज्जोसविति' ति पर्यन्तं] (जहा णं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वहकंते वासावासं पजोसवेइ, तहा णं गणहरावि वासाणं सवीसइराए मासे वक्ते वासावासं पजोसर्विति) ३ (जहा गं गणहरा वासाणं जाव पजोसर्विति तहा णं गण हरसीसावि वासाणं जाव पज्जोसर्विति) ४ (जहा णं गणहरसीसा वासाणं | जाव पज्जोसर्विति तहा णं थेरा वि वासावासं पज्जोसर्विति) त्रीणि सूत्राणि सुबोधानि, परं स्थविरा:स्थविरकल्पिकाः ॥३४॥५॥ ['जहा णं' इत्यादितः 'पज्जोसर्विति' त्ति पर्यन्तम्] तत्र-(जहा णं थेरा वासाणं जाव पज्जोसर्विति तहा णं जे इमे अज्जत्ताए) त्ति अद्यकालीना आर्यतया 'व्रतस्थविरत्वेन' इत्येके (समणा निग्गंथा विहरंति ते विअ णं वासाणं जाव पज्जोसर्विति) यदि पुन: प्रथममेव-'वयं-स्थिताः स्म' इति साधवो वदेयुः; तदा ते प्रव्रजितानामवस्थानेन सुभिक्षं सम्भाव्य, तथा-तप्ता अयोगोल BHASHASIRAMASKASIRSASAR ॥३८२॥ Jain Edetan emational For Private & Personal use only melibrary.org Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३८३॥ ENABREASEA SUGUAGREEMEER कल्पा दन्तालक्षेत्रकर्षण-गृहाच्छादनादीनि कयुः, तथा च-अधिकरणदोषाः। अत:-तत्परिहाराय पञ्चाशता दिनः 'स्थिताः स्म' इति वाच्यम् ॥६॥ तत्र- (जहा णं इमे अज्जत्ताए सपणा निग्गंथावि वासाणं सवीसइराए मासे वइकंते वासावासं पज्जोसविति तहा णं अम्हंपि आयरिया-उवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसर्विति ७ (जहा णं अम्हं आयरिया-उवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसविंति तहा णं अम्हेवि वासाणं सवीसइराए मासे वइते वासावासं पज्जोसवेमो. अंतरावि अ से कप्पइ पज्जोसवित्तए, नो से कप्पड़ तं रयणि उवायणावित्तए) ['जहा णं' इत्यादितः 'नो से कप्पइ तं रयणिं उवायणावित्तए' त्ति पर्यन्तम् ] सूत्रद्वयं ॥८॥ तत्र-अन्तराऽपि च-अर्वागपि च कल्पते पर्युषितुं, न कल्पते तां रजनि भाद्रपदशुकलपञ्चमी 'उवायणावित्तए'त्ति अतिक्रमितुं । 'उप निवासे' इति आगमिकः, 'वसं निवासे' इति गणसम्बन्धी वा धातुः । इह पर्युषणा द्विविधा-गृहिज्ञाताऽज्ञातभेदात् । तत्र गृहिणामज्ञाता-यस्यां वर्षायोग्यपीठफलकादौ प्राप्ते कल्पोक्तद्रव्यक्षेत्र-लाल-भावस्थापना क्रियते । सा च-आपाहपूर्णिमास्यां योग्यक्षेत्राऽनावे पश्च पञ्च दिनवृद्धया दश पर्वतिथिक्रमेण यावत श्रावणकृष्णपश्चदश्यामेवेति । गृहिज्ञाता तु द्विधा-सांवत्सरिककृत्य विशिष्टा, गृहिज्ञातमात्रा च । तत्र सांवत्सरिककृत्यानि 'संवत्सरप्रतिक्रान्तिलुश्चनं चाऽष्टमं तपः । सहिद्भक्तिपूजा च सङ्घस्य क्षामणं मिथः ॥१॥ एतत्कृत्यविशिष्टा च भाद्रसितपञ्चम्यामेव, कालकाचार्यादेशाच्चसाम्प्रतंचतुर्थ्यामपि जनप्रकटं कार्या। द्वितीया तु-अभिवद्धितवर्षे चतुर्मासकदिनादारभ्य ध मा ॥३८३॥ Jain Educ a tional For Privale & Personal use only library.org Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका ब्या०९ ॥३८४॥ SECRUC-%ACTERA विंशत्या दिनैः 'वयं अत्र स्थिताः स्म' इति पृच्छता गृहस्थानां पुरो वदन्ति | गृहिज्ञातमात्रमेव, तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण । यतः-तत्र युगमध्ये पौषः, युगान्ते च आषाढ एव वर्द्धते, नाऽन्ये मासाः । तच्चाऽधुना सम्यग् न ज्ञायते । अतः'पश्चाशतैव दिनैः पर्युषणा सङ्गता' इति वृद्धाः। अत्र कश्चिद् उच्छ्वणः श्रावणिकः शङ्कते-ननु भोः! श्रावणवृद्धौ श्रावणसितचतुर्थ्यामेव पर्युषणापर्व युक्तं, न पुनर्भाद्रपदसितचतुर्था । दिनानामशीत्याऽऽपत्या 'समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वइक्कते वासावासं पज्जोसवेइ'त्ति श्रीकल्पसूत्रादिप्रवचनबाधा स्याद । इति चेत् । अहोश्चिद्देवानुप्रिय! आश्विनमासवृद्धौ आश्विनमास एव चतुर्दश्यां चतुससककृत्यं कर्तव्यं स्यात् , कार्तिकसितचतुर्दश्यां तु शतदिनाऽऽपत्त्या 'समणे भगवं महावीरे सवीसइराए मासे वक्ते सत्तरि राइंदियाएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ'त्ति श्रीसमवायाङ्गादिप्रवचनबाधा स्याद् इत्यपि वक्तव्ये वाचालस्य ते किमयुक्तं स्यात् ? आगमन्यायस्य उभयत्राऽपि समानत्वात् । ननु भवेदेवं यदि चतुर्मासकानि आषाढादिमासप्रतिबद्धानि न स्युः। तस्मात् कार्तिकचतुर्मासकं कार्तिकसितचतुर्दश्यामेव युक्तं । दिनगणनायां तु-'अधिकमासः कालचूला' इति अविवक्षणादिनानां सप्ततिरेव इति कुतः प्रवचनबाधा इति चेत् ? अहो सुदृगु ! पर्युषणापर्वाऽपि भाद्रपदप्रतिबद्धं भाद्रसितचतुर्थ्यामेव युक्तं । दिनगणनायां तु-'अधिकमास कालचूला' इति पञ्चाश देव दिनाः सम्पद्यन्ते, कुतः ! अशीतिवार्तापि । न च भाद्रपदप्रतिबद्धत्वं पर्युषणापर्वणोऽनागमिक ? बहुवागमेषु प्रतिपादनात् । तथाहि-'अण्णया पज्जोसवणा दिवसे आगए अज्जकालगेण सालवाहणो भणिओ-"भदवयजुण्डपंचमीए पज्जोसवणा रण्णा भणिओ" इत्यादि श्रीपर्युषणाकल्पचूणौं। तथा ॥३८४॥ Jain Educatnternational For Privale & Personal use only remibrary.org Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||३८५॥ नछABABAAAAAAAP 'सीसो पुच्छति-इआणि कहं चउत्थीए अपव्वे पज्जोसविज्जति ? । आयरिओ भणति-कारणिआ चउत्थी, अज्जकालगायरिएण पवत्तिआ। कहं ? भण्णते कारणं । (१) कालगायरिओ विहरंतो उज्जेणि गो। तत्थ वासावासंतरं ठिओ। तत्थ नगरीए बलमित्तो राया, तस्स कणिट्ठो भाया भाणुमित्तो जुबराया । तेसिं भगिणी भाणुसिरी नाम । तस्स पुत्तो बलभाणुणाम । सो अ पगइभद्दविणीययाए साहु पज्जुवासति । आयरिएहि से धम्मो कहिओ, पडिबुद्धो, पव्वाविओ अ। तेहिं अ बलमित्त-भाणुमित्तेहिं रुटेहिं कालगज्जो अपज्जोसविओ निधिसओ को। (२) केइ आयरिआ भणंति-जहा बलमित्तभाणुमित्ता कालगायरियाआणं भागिणेज्जा भवंति, 'मातुलो त्ति काउं महंत आयरं करेति । अन्भुट्ठाणाइअं अच्चंतं च पुरोहिअस्स अप्पत्तियं, भणइ अ-एसो सूह-पासंडो वेदाइबाहिरो रण्णो अंतो पुणो पुणो उल्लवंतो आयरिएण णिप्पट्ठप्पसिणवागरणो कओ। ताहे सो पुरोहिओ आयरियस्स पदुवो रायाणं अणुलोमे हि विपरिणामेति-एरिसया महाणुभावा एते जेण पहेण गच्छंति तेण पहेण जति राया गच्छति, पयाणि वा अक्कमति तो असिवं भवति । तम्हा विसज्जेह । ताहे विसज्जिा । (३) अण्णे भणंति-रण्णा उपआएणं विसज्जिया। कहं ? सबंमि णगरे रण्णा असणा करावि । ताहे णिग्गया एवमादिआण कारणाणं अण्णतमेण णिग्गता । विहरंता विहरंता पतिवाणं नगरं ते पट्ठिआ। पतिद्वाणसमणसंघस्स य अज्ज-कालगज्जेहिं संदिटुं-जावई आगच्छामि ताव तुम्भेहिं णो पज्जोसविअ । तत्थ य सालवाहणो | राया, सो अ सावओ । सो अ कालगज्ज इंतं सोऊग णिग्गओ अभिमुहो, समणसंघो अ, महाविभूइए [पजोसविअव्वं] पविट्ठो कालगज्जो। पविटेहिं अ भणि 'भदवयमुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जइ' समणसंघेण पडिवणं, ताहे रणा AARE क.कि.33 ९७ ॥३८५॥ Jain Education national For Private & Personal use only wwwdary.org Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावल टीका व्या०९ ॥३८६॥ भणिभं-तदिवस मम लोगाणुव(वि)त्तीए इंदो अणुजाए(णे)अव्यो होहि ति साहू चेईए अ ण पज्जुवासेस्सं तो छट्ठीए पज्जी- सवणा किजउ । आयरिएहि भणि-ण वट्टति अतिक्कमिउं । ताहे रण्णा भणि-ता अणागयचउत्थीए पज्जोसविज्जति । आयरिएहिं भणिअं-एवं भवतु । ताहे चउत्थीए पज्जोसविरं । एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्थी पवत्तिा , सा चेव अणुमया सब्बसाहूणं इत्यादि । श्रीनिशीथचूणि दशमोद्देशके। तथा तत्रैव कषायविषये-'गच्छो अ दुन्निमासे' इत्यादि गाथाव्याख्याने-'भद्दवयमुद्धपंचमीए अधिकरणे उप्पण्णे संवच्छरो भवइ, छट्टीए एगदिणूणो संवच्छरो भवति । एवमिक्किक्कदिणं परिहरंतेण ताव आणेअव्वं जाव ठवणदिणु'त्ति । एवम् अन्यधपि ग्रन्थेषु यत्र क्वापि पर्युषणानिरूपणं तत्र भाद्रपदविशेषितमेव । आस्तामन्यः श्रावणिकसगोत्र: सन्देहविषौषधीकारोऽपि कल्याणकादिषु स्वमतं पोषयन्नपि पर्युषणापर्व तु भाद्रपदविशेषितमेवोक्तवान् , न पुनः क्वापि केनाप्यभिवद्धितमासे श्रावणविशेषितं । सर्वसाधुसर्वचैत्यवन्दना-आलोचना-अष्टमतपःलोच-वार्षिकप्रतिक्रमणविशिष्टं पर्युषणापर्व, प्रतिपादितं । यत्तु कश्चित्-किमधिकमासः काकेन भक्षितः ? किं वा तस्मिन् मासि पातकं न भवति ? उत बुभुक्षादिकं न लगति ? इत्याधुपहास्यवाक् भवति, स हि यक्षावेशोज्झितवसनोऽपि अलकृत पुरुष प्रति उपहसन्निवागन्तव्यः। कथमन्यथा पञ्चभिर्मासैः चतुर्मासं त्रयोदशभिश्च द्वादशमासात्मकं संवत्सरम् , अभिवदितवर्षे अवाणोऽपि इत्थमकथयिष्यत् ? । ननु सर्वत्राऽप्यागमे-'चउण्हं मासाणं, अढण्हं पक्खाणं' इत्यादि । तथा-'बारसह मासाणं, चउवीमण्हं पक्खाणं' इत्यादि-पाठ एवोपलभ्यते । न पुनः तत्स्थाने क्यापि-'पंचण्डं मासाणं, दसहं पक्खाणं, पंचासुत्तरसयराइंदियाणं' इत्यादि । तथा DAURABHARA | ॥३८६॥ JainEducebdanational For Privale & Personal Use Only Sarabrary.org Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३८७॥ 'तेरसण्डं मासाणं, छब्बीसहं पक्खाणं तिन्निसयनउइराइंदियाणं' इत्यागमपाठवलेनैव पञ्चभिरपि मासैः चतुर्मास्येव, त्रयोदशमासैश्च संवत्सर एव स्वीक्रियते इति चेत् ? । चित्रं भवद्वदनेऽपि अमृतबुदबुदोद्भवः । यतः-स्वयमेवायातोऽसि अस्मदभिमतमार्गे । नहि क्वापि आगमे-'भद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जइ' ति पाठवत् 'अभिवड्डिअवरिसे सावणसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जइ' त्ति पाठ उपलभ्यते । तस्मान्मुश्च मुश्च श्रावणपर्युषणापर्वगर्वम् । एवमन्येष्वपि स्थविरनवकल्पविहारादिलोकोत्तरकृत्येषधिको मासो न विवक्षितः। 'आसाढमासे दुपया' इत्यादि सूर्यचारेऽपि तथैव । तथा लोकेऽपि शुद्धवर्षान्तरभाविषु नियतदिनप्रतिबद्धाऽक्षततृतीय-दीपोत्सवादिषु पर्वस्वपि अधिकमासो नाऽधिक्रियते । मासानियतान्यपि कानिचित् शोभनानि कृत्यानि-'वर्द्धितमासो नपुंसक' इति कृत्वा त्यतानि, इति ज्योति शास्त्रेषु सुप्रतीतं । ननु तर्हि प्रतिदिवसाऽनुष्ठेय-साधुदान-जिनपूजाद्यनुष्ठानस्य पर्वाऽनुष्ठेय-पाक्षिकप्रतिक्रमणादेश्च प्रयासमात्रतैवाऽऽपद्यते । वर्द्धितमासस्य नपुंसकत्वेन तत्कृत्यस्यापि अकिञ्चित्करत्वादिति चेत् ? । अहो ! वैदग्ध्य-नहि नपुंसकोऽपि स्थापत्योत्पत्तिं प्रत्यकिश्चि- 2 करः सन् सर्वकार्य प्रत्यकिश्चित्कर एव । तद्वदधिकमासोऽपि न सर्वत्राप्रमाणं, किन्तु यत्कृत्यं प्रति यो मासो नामग्राहेण नियतः, तत्कृत्यं तस्मिन्नेव मासि विधेय, नाऽन्यत्र, इति विवक्षया तिथिरिख न्यूनाधिकमासोऽप्युपेक्षणीयः। अन्यत्र तु गण्यतेऽपि । तथाहि-विवक्षित हि पाक्षिकप्रतिक्रमणं । तच्च-चतुर्दश्यां नियतं, सा च यदि अभिवदिता तदा प्रथमां परित्यज्य द्वितीयाऽधिकर्तव्या । दिनगगनायां त्वस्या अन्यासां वा वृद्धौ सम्भवन्तोऽपि पोडश दिनाः पञ्चदशैव गण्यन्ते एवं क्षीणायां हैं| चतुर्दशाऽपि दिना पञ्चदशैवेति बोध्यम् । तद्वदत्रापि विवक्षितं कृत्य सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादिकं तच्च नियतं भाद्रपदे । उनकावर MORROR ॥३८७ Jain Educa t ional For Privale & Personal Use Only U W ary.org Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणार टीका व्या० ॥३८८॥ SAESAERAEAAAA स च यद्यभिवद्धितः तदा प्रथमं परित्यज्य द्वितीयोऽधिक्रियते । दिनगणनायां स्वस्य अन्यस्य वा मासस्य वृद्धौ सम्भवन्तोऽप्यशीतिदिनाः पश्चाशदेव गण्यन्ते । यथा-तवाऽप्यभिमता पञ्चमास्यपि चतुर्मासीति । यच्चोक्तं-'साधुदानादेः प्रयासमात्रता' इति, तदयुक्तमेव । यतः-साधुदानजिनपूजादिकं न मासप्रतिबद्धं, किन्तु दिनमात्रप्रतिबद्धं । तच्च यं कञ्चनदिनमवाप्याऽपि कर्तव्यमेव । तत्रापि क्षणविशेषनियतत्वेन रात्रिकदेवसिकप्रतिक्रमणयोरपि निरालम्बनं जिनोतवेलामतिक्रम्य परावर्त्य वा करणेऽना व । पाक्षिककृत्यमपि पाक्षिकप्रतिक्रमणादिकं । तच्च चतुर्दशी नियतं तच्च या काश्चनचतुर्दशीमवाप्यापि कर्त्तव्यं । तथा-तन्मासि किं पातकं न भवति ? उत बुभुक्षा न लगति ? इत्याद्युपहसनेऽपि इयमेव रीतिरनुसर्तव्या यतः-पातकं तु प्रतिपाणिनं प्रतिसमयं तथाविधाऽध्यवसायादि-सामय्यनुरूपमुत्पद्यते, न पुनर्नियतमासाद्यपेक्षया इति । एवं बुभुक्षाऽपि तथाविधवेदनीयकर्मोदयादेव भवति, न पुनर्दिवसमासाद्यपेक्षया । अन्यथा मनुष्यक्षेत्रादबहिर्वतिनां तिरश्चां दिवसमासादिरूपकालाऽसम्भवेन बुभुक्षाया अभाव एव सम्पद्यत इत्यादि स्वयमेवालोच्य बालचेष्टितं परिहर्त्तव्यं । न च पर्युषणापर्वणो मासनैयत्येऽपि तिथिरपि चूादिषु पञ्चम्येव नियता दृश्यते । तत्कथं चतुर्थी कथनम् ? इति शक्यं । युगप्रधानश्रीकालकसूरेः पूर्व पश्चम्येव, इदानीं तु सर्वसङ्गाभिमततत्प्रवर्तिता चतुर्युव । एवमागमयुक्तियुक्ते भाद्रपदविशेवितपर्युषणापर्वणि सत्यपि भो श्रावणिक ! स्वकीयकदाग्रहादश्राव्यमपि श्रावणपर्युषणापर्व न त्यक्षसि तर्हि त्वत्तः सहकारादयः प्रशस्तवनस्पतयोऽचेतना अपि शस्ताः। यतः-तेऽप्यधिकमासे प्रथमपासं परित्यज्य द्वितीयमासे एव निजपुष्पफलादिकं प्रयच्छन्ति । यत उक्तं ला॥३८८ Jain Educa For Private & Personal use only JArary.org Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। ३८९ ।। *ર 'जर फुल्ला कणिआरिया चूअग ! अहिमासयम्मि घुटुंमि । तुह न खमं फुल्लेउं जइ पच्चंता करिंति उमराई ॥ ति आवश्यक निर्युक्त त्वं तु ततोऽप्यचेतन इति लया सह विचारो न युक्तिसङ्गतः । - यतः - लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीलयन् पिबेच्च मृगतृष्णिकामु सलिलं पिपासार्दितः । कदाचिदपि पर्यटन शशविषाणमासादयेत् न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥ १॥ इत्युपेक्षैव प्रत्युत्तरं । यत्तु कश्चित् श्रावणिकविशेष:- 'अभिवडिअंमि वीसा इयरेसु सवीसमासो'त्ति अक्षरवलेन विंशत्याऽपि दिनैः लोचादि पञ्चकृत्यविशिष्टं पर्युषण पर्व करोति । तदत्यन्ताऽसङ्गतं । यतः- तदधिकरणादिदोषाद्यभावेन गृहिज्ञातमात्रापेक्षया पर्युषणा करणं, न तु सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादिविशिष्टं पर्वाऽपि । अन्यथा - 'आसाढपूणिमाए पज्जोसविंति एस उस्सग्गो, सेसकालं पज्जो सर्विताणं सव्वो अववाओ'ति । श्री निशीथ चूर्णिद समोदेशकवचनादापाढपूर्णिमायामेव औत्सर्गिककरणीयं स्यात्, नापवादिकान्यपराणि । अथवा 'इत्थ य पणगं पणगं कारणियं जा सवीसमासो । सुद्धदसमी ठिआणं आसाठी पुणिमोसरणं' ||१|| ति श्रीपर्युषण कल्पनिर्युक्त्यादिवचनादापाढशुद्धदशम्या आरभ्य पञ्चसु पञ्चसु दिनेषु गतेषु पर्युषणा कृता विलोक्यते । तथाविधाने च पर्वणोऽनैयत्यात्- 'तस्य णं बहवे भवणवइ - वाणमंतर - जोइसिअ - वेमाणि देवा चाउमासिआ पडिवएस पज्जोसवणाए (संवच्छ रेसु) अन्नेसु य बहुसु जिणजम्मण-निक्खमण - णाणुष्पाय- परिनिव्वाणमाइएस देवकज्जेसु अ देवसमुद अ देवसमिति अ देवसमवाएस अ देवपओअणेसु अ एगयओ सहिआ समुवायगया समाणा पमुइअ - पक्कीलिआ अद्वाहिआरूवाओ महामहेमाओ कारेमाणा पालेमाणा विहरंति'त्ति श्रीजीवाभिगमोक्तामष्टाहिकां देवादयः का कुर्युः ? । ततः -भाद्रपद ॥ ३८९ ॥ www.jaihaibrary.org Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ ३९० ॥ Jain Educ सितपञ्चम्या अग् आषाढ पूर्णिमाया आरभ्य ये ये पर्युषणाप्रकाराः ते सर्वेऽपि श्रीपर्युपणाकल्प कर्षणपूर्वकवर्षा सामाचारीस्थापनारूप एव न तु सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादिविशिष्टाः । त्वेते पर्युषणप्रकाराः सम्प्रति कथं न क्रियन्ते ? । उच्यतेव्यवच्छिन्नत्वात् । तथा-अभिवर्द्धितवर्षे विंशत्या दिनैः क्रियमाण गृहिज्ञातावस्थानरूपपर्युषणाप्रकारस्याऽपि व्यवच्छिन्नत्वात् । सम्प्रति तदपि कर्तुमनुचितं । प्रतिक्रमणादिकृत्यानि तु दुरापास्तानि इत्यत्र बहुवक्तव्यं, ग्रन्थगौरवभयान्नेह प्रतन्यते । अत एव कालवग्रहो जघन्यतोऽपि भाद्रसितपञ्चम्याः चतुर्थ्यां वाऽऽरभ्य कार्त्तिकचतुर्मासकान्तः सप्ततिदिनमान एवोक्तः, न पुनः शतदिनमानः । कश्चित्तु 'चाउम्मासुकोसं सत्तरिराइं दिया जहन्नेणं' ति वचनादेकसप्ततिदिनादाराभ्यैकदिनोन चतुर्मास कं यावन् मध्यममवग्रहं स्वीकृत्य पर्युषणाऽनन्तरं मासवृद्धौ दिनानां शतमपि न दोषाय इति घाष्टर्थमवलम्बते । तदयुक्तं- मध्यमत्वमपि पञ्चाशद्दिनलक्षणा नियतावग्रहमध्यात् पञ्च पञ्च दिनवृद्ध्या हान्या वा स्यात् न पुनः पर्युषणानन्तरपि दिनवृद्धया । अन्यथा कार्तिकचतुर्मास कानैयत्यं स्यादित्यलं प्रपञ्चेनेति । उत्कर्षतो वर्षायोग्यक्षेत्रान्तराभावे आषाढमासकल्पेन सह पाश्चा स्यवृष्टिसद्भावात् मार्गशीर्षेणापि सह पाण्मासिक इति । तत्र द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावस्थापना चेयं । द्रव्यस्थापना- तृण डगलछमलकादीनां परिभोगः, सचित्तादीनां च परिहारः । तत्र च सचितद्रव्यं शैक्षो न प्रत्राज्यते, अतिश्रद्धं राजानं राजाऽमात्यं विना । अतिद्रव्यं वस्त्रादि न गृह्यते । मिश्रद्रव्यं सोपधिकः शैक्षः । एवम् आहार - विकृति - संस्तारकादिद्रव्येषु परिभोगपरिहारौ योज्यौ । क्षेत्रस्थापना - सक्रोशं योजनं, ग्लानवैद्यौषधादौ च कारणे चत्वारि पञ्च वा योजनानि । कालस्थापना'चत्वारो मासाः ' तत्र कल्पन्ते । भावस्थापना - क्रोधादीनां विवेक: ईर्ष्या-भाषादिसमितिषु वा उपयोग इति ॥७८॥ mational ך' किरणावरु टीका व्या० ॥ ३९०॥ brary.org Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३९१॥ BASIROENKAR ['वासावासं' इत्यादितः 'अहालंदमवि उग्गहे' इति पर्यन्तम् ] (वासावासं पज्जोसवियाणं निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोअणं उग्गह ओगिण्हित्ता णं चिहिउं अहालंदमवि उग्गहे) ॥१॥ तत्र-वर्षावासं पर्युषितानां-स्थितानां, निग्रन्थानां निग्रन्थीनां वा, सर्वतः-चतुस दिक्षु समन्तात्-विदिक्षु च, सक्रोशं योजनम् अवग्रहमागृह्य, अथालन्दमपीति 'अत्यव्ययं निपातः लन्दमिति-कालस्याऽऽख्या' ततः-लन्दमपि-स्तोककालमपि अग्र स्थातुं कसते, न बहिन्दकालमपि स्थातुं कल्पते । तत्र-यावता कालेन उदकाः करःशुष्यति तावान् कालो जघन्यं लन्दम् , उत्कृष्ट पश्चाऽहोरात्राः । तयोः अन्तरं-मध्यं । यथा-रेफप्रकृतिरपि अरेफप्रकृतिरपीति । एवं लन्दमप्यवग्रहे स्थातुं कल्पते अजन्दमपि यावत् पग्मासान् एकत्रावग्रहे स्थातुं कल्पते । ऊर्धाऽधोमध्यग्रामान् विना चतसृषु दिक्षु, गजेन्द्रपदादिगिरेः मेख लाग्रामस्थितानां तु पदसु दिक्षु, उपाश्रयात् सार्धक्रोशद्वयं गमागमेन पञ्चक्रोशावग्रहः । यच्चाऽनन्तरं विदिक्षु इत्युकं तव्यावहारिकविदिगपेक्षयाऽवगन्तव्यं । यतः-भवन्ति हि ग्रामा मूलग्रामादाग्नेय्यादिविदिक्षु, नैश्चयिकविदिक्षु चैकप्रदेशात्मकत्वान्न गमनागमनसम्भवः । अटवी-जलादिना व्याघातेषु त्रिदिको द्विदिक्क एकदिक्को वाऽवग्रहो भाव्यः॥९॥ ___ (वासावासं पजोसवियाणं कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा सव्व ओ समंता सकोसं जोअणं भिक्खायरियाए गंतु पडिनि अत्तए) ॥१०॥ [वासावासं' इत्यादितः 'गंतुं पडिनिअत्तए' ति पर्यन्तं सुगमम् ] AAAAAAAACAR ॥३९१ Jain Educato r ational For Private & Personal use only wwindinary.org Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरणार टीका व्या ANINOR श्रीकल्प-5 (जत्थ नई निच्चोदगा निच्चसंदणा नो से कप्पइ सचओ समंता सकोसं जोअणं भिक्खायरियाए गंतुं पडिनिअत्तए)॥११॥ ॥३९२।। ['जस्थ नई' इत्यादितः 'पडिनिअत्तए' ति पर्यन्तम् ] तत्र-यदि नदी नित्योदका-नित्यमस्तोकजला, नित्यस्यन्दना-नित्यस्रवणशीला सततवाहिनीत्यर्थः। (एरावई कुणालाए जत्थ चक्किआ सिआ एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थलेकिच्चा, एवं चकिआ। | एवं पहं कप्पइ सव्वओ समंता०)॥ १२ ॥ ['एरावई' इत्यादितः 'नियत्तए त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-एरावती नामनदी कुणालापुर्या सदा विक्रोशवाहिनी तादृशी नदी लवयितुं कल्पते, स्तोकजलत्वात् । पर्युषणाटिप्पनके तु एरावती नदी वर्षाकाले अकल्पत्वेनैव व्याख्याताऽस्ति, परं बृहत्कल्पादिभिर्विसंवादित्वाद्विचार्यमेव एतद्व्याख्यानमिति । 'जत्थ चक्किम' त्ति यत्र शक्नुयात् 'सिआ' यदि-एक पादं जलमध्ये निक्षिप्य, एकं च पादं स्थले-आकाशे कृत्वा द्वाभ्यां पादाभ्यामविलोडयन् गनुं शक्नुयात् तदा तत्परतः स्थितग्रामादौ भिक्षाचर्या कल्प्या, नाऽन्यथा-एकं पादं जलान्तः प्रक्षिपति द्वितीयं च जलादुपयुत्पाटयति तदा कल्प्या, जलं विलोडय गमने त्वकल्प्या इत्यर्थः ॥१२॥ __ (एवं च नो चक्किया एवं से नो कप्पइ सव्वओ समंता०)॥१३॥ ['एवं च' इत्यादितः 'नियत्तए' ति यावत् ] तत्र-एवं च यत्र न शक्नुयात् गत्वा प्रत्यागन्तुं तत्र न गच्छेत् । यत्र च RECREAAAAAAAG - A ॥३९ CAE Jain Educa t ional For Privale & Personal use only www.l ibrary.org Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1३९३॥ REACREENSECRECIPAT जडाध यावदुदकं स दकसङ्घटः, नाभिर्यावल्लेपः, तत्परतः, लेपोपरि । तत्र-ऋतुबद्ध काले भिक्षाचर्यायां यत्र त्रयो दकसङ्घट्टाः, वर्षासु सप्त भवेयुः तत्र क्षेत्रं नोपहन्यते । चतुरादिभिः अष्टादिभिश्च तैः उपहन्यते । ते च ऋतुबद्ध गतागतेन षट् वर्षासु च चतुर्दश स्युः। लेपश्चैकोऽपि क्षेत्रं हन्ति, किं पुनः लेपोपरि । तथा यदि चतुरो मासान् एक-द्वि-व्यादिदिनान् वा उपोषित: स्थातुमशक्तः, तदा जघन्यतोऽपि पूर्वक्रियमाणनमस्कारसहितादेः पौरुष्यादि तपोवृद्धिं कुर्याद् इति ॥१३॥ (वासावासं पन्जोसवियाणं अत्थेगइयाण-एवं बुत्तपुवं भवइ-दावे भंते ?, एवं से कप्पह दावित्तए नो से कप्पह पडिगाहित्तए) ॥१४॥ [वासावासं' इत्यादितः 'पडिगाहित्तए' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-'अत्थेगइयाणं' ति अस्त्येतत् यदेकेषां साधूनां पुरतः-एवमुक्तपूर्व भवति 'गुरूभिः' इति गम्यते । चूणौँ तु-'अत्थेगइया आयरिया' इत्युक्तं । 'अस्थं भासइ आयरिओ' त्ति वचनात् । अर्थ एव-अनुयोग एव एकायिता-एकाग्रचेतसः अर्थेकायिताः तेषाम् । अथवा अस्त्येतत् एकेषाम् आचार्याणाम् इदमुकपूर्व भवतीति व्याख्येयं । तत्र च षष्ठी तृतीयार्थे । ततश्च-आचार्यैः एवमुक्तं भवति यत्- 'दावे भंते' त्ति हे भदन्त ! कल्याणिन् ! साधो ! 'दावे' इति ग्लानाय दद्याः, 'स्वार्थिक णौ वा' दापयेः-दद्याः 'अशनादिकमानीय' इति गम्यते । अनेन च ग्लानदानादेशेन अद्य-चतुर्मासकादौ स्वयं मा प्रतिगृह्णीया इत्युक्तं एवमुके 'से' तस्य साधोः कल्पते दातुम् । अर्थात ग्लानाय स्वयं प्रतिगृहीतुं गुरुणा अननुज्ञातत्वात् ॥ १४॥ (वासावासं पज्जोसवियाणं अस्थेगइयाण एवं वुत्तपुव्वं भवह-पडिगाहेहि भंते , एवं से कप्पइ ॥३९३॥ Jain Ecd emnational For Private & Personal use only W alelibrary.org Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल किरणावली टोका व्या०९ श्रीकल्प- 18 पडिगाहित्तए नो से कप्पड दावित्तए) ॥१५॥ ('वासावासं' इत्यादितः 'नो से कप्पइ दावित्तए' ति पर्यन्तम् ] तत्र-गुरुणोतं-'स्वयं प्रतिगृह्णीया' ग्लानाय ॥३९४॥ अन्यो दास्यति, नाऽसौ वा अद्य भोक्ष्यते । ततः-प्रतिग्रहीतुं कल्पते, न ग्लानाय दातुम् ॥१५॥ (वासावासं प० दावे भंते !, एवं से कप्पइ दावित्तएवि पडिगाहित्तएवि ॥१६॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'पडिगाहित्तएवि' ति पर्यन्तम् ] तत्र-गुरुणोक्तं स्याद् भदन्त ! दद्याश्च ग्लानाय प्रति| गृह्णीयाश्च । यद् अद्य त्वम् अक्षमोऽसीति । तत:-दानं तस्मै प्रतिग्रहणं च स्वयं कल्पते । गुरुभिः अनुक्ते-चेत् ग्लानाय आनयति स्वयं प्रतिगृहाति, तदा परिष्ठापनिकादिदोषोऽजीर्णादिना ग्लानत्वं वा, मोहोद्भवो वा, क्षीरादौ च धरणाऽधरणे आत्मसंयमविराधनेति ॥१६॥ (वासावासं० नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथोण वा हवाणं अरोगाणं (आरुग्गाणं) बलिअसरीराण इमाओ णव रसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहारित्तए । तं० खोरं देहि नवणीयं सपि तिल्ल गुड महुँ मज्जे मेंसं)॥१७॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'मंसं ति पर्यन्तम् ) तत्र-हृष्टानां तरुणत्वेन समर्थानां । युवानोऽपि केचित् सरोगाः स्युः? इत्याह-अरोगाणं । क्वचिद्-'आरूग्गाणं' इति पाठः । तत्र-'आरोग्यम् अस्ति एषाम्' इत्यत्र अभ्रादित्वाद् 'अ'प्रत्यये आरोग्याः तेषां । तादृशा अति केचित् कृशाङ्गाः स्युः? इत्याह-बलीकशरीरिणां रसप्रधाना बिकृतयो रसविकृतयः, ल.॥३९४॥ Jain Ec e rational NEL For Private & Personal use only MDindibrary.org Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३९५॥ SALALAAAAAAAEEOES ता अभीक्ष्णं-पुनःपुनः न कल्पन्ते । रसग्रहगं तासां मोहोद्भवहेतुत्वख्यापनार्थम् । अभीक्षणग्रहणं पुष्टालम्बने कदाचित् तासां परिभोगाऽनुज्ञार्थ । 'णव' ग्रहात् कदाचित् पक्यान्नं गृह्यतेऽपि । विकृतयो द्विधा-सश्चयिका असञ्चयिकाश्च । तत्रअसञ्चयिकाः दुग्धदधिपक्वान्नाऽऽख्या ग्लानत्वे वा गुरुबालवृद्धतपस्विगच्छोपग्रहार्थ वा श्रावकाऽऽदरनिमन्त्रणाद्वा ग्राह्याः । सञ्चयिकास्तु-घृततैलगुडाख्याः तिस्रः । ताश्च प्रतिलाभयत् गृही वाच्यः-महान् कालोऽस्ति । ततः-ग्लानादिकार्ये ग्रहिष्यामः । स वदेत्-गृहीत चतुर्मासी यावत् , प्रभूताः सन्ति, ततो ग्राह्याः, बालादीनां च देयाः, न तरुणानां । यद्यपिमद्यादिवर्जनं यावज्जीवम् अस्त्येव, तथापि कदाचिद् अत्यन्ताऽपवाददशायां ग्रहणेऽपि कृतपर्युषणानां सर्वथा निषेधः ॥१७॥ (वासावासं० अत्थेगइयाणं एवं वृत्तपुत्वं भवइ-अट्ठो भंते ! गिलाणस्स । से अ वइज्जा-अहो । से अ पुच्छइ (पुच्छेअन्चो) केवइएणं अट्ठो ? । से य वइजा-एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स । जं से पमाणं वयइ से पमाणो धित्तव्वे । से अविण्णविज्जा । से अविण्णवेमाणे लभेजा । से अपमाणपत्ते-होउ-अलाहि' इअ वत्तव्वं सिया । से किमाहु भंते ! एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स । सिया णं एवं वयं परो वइजा-पडिगाहेहि अजो ! तुम पच्छा भोक्खसि वा पाहिसि वा, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए । नो से कप्पड गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए ॥१८॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए' ति पर्यन्तम् तत्र-अस्त्येकेषांवैयावृत्त्यकरादीनाम् एवं उक्तपूर्व भवति-गुरुं प्रतीति शेषः । हे भदन्त !-भगवन् ! अर्थः-प्रयोजनं ग्लानस्य 'विकृत्या' इति छार ॥३९५॥ Sain Educatiemational For Privale & Personal use only w ibrary.org Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥३९६॥ RECEKACAARSACROMAGAR काक्या प्रश्नावगतिः। एवमुक्ते स च गुरुः वदेत्-अर्थः । 'से अपुच्छइ' ति। तं च ग्लानं स वैयावृत्यकरः पृच्छति । क्वचित् शकिरणावलो 'से पुच्छे अव्वे ति पाठ:-तत्र ग्लानः प्रष्टव्यः। किं पृच्छति ? इत्याह-'केवइएणं अट्ठो' कियता-विकृतिजातेन क्षीरा टीका व्या०९ दिना तवाऽर्थः । तेन च ग्लानेन स्वप्रमाणे उक्ते स वैयावृत्यकर:-गुरो अग्रे समागत्य ब्रूयात् 'एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स' इति-इयताऽर्थः ग्लानस्य । ततः गुरुराह-'ज से' इति यत्स ग्लानः प्रमाणं वदति तत्प्रमाणेन 'से' इति तद्विकृतिजातं ग्राह्यं त्वया। 'से अविण्णविज्जा' स च वैयावृत्यकरादिविज्ञपयेत्-याचेत गृहस्थपार्थात् 'विज्ञप्तिधातुः अत्र याश्चायां । स च याचमानो लभेत तद्वस्तु तच्च प्रमाणप्राप्तं-पर्याप्तं जातं, ततश्च-'होउ अलाहि त्ति साधुप्रसिद्धः, इत्थमिति शब्दस्यार्थे 'भवतु' इति पदं, 'अलाहि' त्ति मृतमित्यर्थः 'अलाहि निवारणे' इति वचनात् । 'अन्यन्मा दाः' इति वक्तव्यं स्यात् गृहस्थं प्रति । ततो गृही पाह-अथ किमाहुर्भदन्त !-किमर्थ मृतमिति ब्रुवते भवन्त इत्यर्थः। साधुराह'एचइएणं अट्ठो गिलाणस्स' एतावताऽर्थों ग्लानस्य । 'सिआ' कदाचित् एतं साधुमेवं वदन्तं 'परो' दाता-गृही वदेत्किम् ? इत्याह-'अज्जो' इत्यादि-हे आय ! प्रतिगृहाण त्वं, पश्चाद्यदधिकं तत्त्वं भोक्ष्यसे-भुञ्जीथाः पक्वान्नादि । पास्यसिपिबेः द्रवं-क्षीरादि । क्वचित् 'पाहिसि' स्थाने 'दाहिसि' त्ति पाठः। तत्र-अतीव हृद्यं-'अन्यस्य साधोळ दद्याः' । एवमुक्ते गृहिणा 'से' तस्य साधोः कल्पते प्रतिगृहीतुं, न पुनग्लाननिश्रया गाात् स्वयं गृहीतुं । 'ग्लानाथं याचितं मण्डल्यां नाऽऽनेयम्' इत्याकूतम् ॥१८॥ (वासावासं० अत्थि णं थेराणं तहप्पगाराई कुलाई कडाइं पत्तिआई थिजाई वेसासियाई संमयाई ॥३९६॥ AAAAAAAA Jain Educatnternational For Private & Personal use only M ibrary.org Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३९७॥ बहुमयाई अणुमयाई भवंति, तत्थ से नो कप्पइ अदक्खु वइत्तए अस्थि ते आउसो इम इमं वा। से किमाह भंते ! सड्डी गिही गिण्हइ वा तेणिअपि कुज्जा) ॥१९॥ ['वासवासं' इत्यादिः 'तेणि अपि कुजा' इति पर्यन्तम् ] तत्र-तहप्पगाराई' इत्यादि-तथाप्रकाराणि-अजुगुप्सितानि कुलानि-गृहाणि 'कडाईति तैरन्यैर्वा श्रावकीकृतानि 'पत्तिआई' ति प्रत्ययितानि प्रीतिकराणि वा। स्थैर्यमस्त्येष्विति 'स्थैर्याणि' प्रीतौ दाने वा । ध्रुवं लप्सेऽहं तत्रेति विश्वासो येष्विति वैश्वासिकानि । 'सम्मयाई' सम्मतयतिप्रवेशानि । बहवोऽपि-साधवोऽपि, नैको द्वौ वा मता येषु, बहूनां वा गृहिमानुपाणां मतः साधुप्रवेशो येषु तानि बहुमतानि । अनुमतानि-दातुमनुज्ञातानि अणुरपि-क्षुल्लकोऽपि मतो येषु सर्वसाधुसाधारणत्वात् अणुमतानीति वा । न तु मुखं दृष्ट्वा तिलकं कर्षयन्तीति । 'तत्थ' त्ति तेषु कुलेषु 'से तस्य साधोः 'अदक्खु इति याच्यं वस्तु अदृष्ट्वा न कल्पते वक्तुं, 'यथाऽस्ति ते आयुष्मन् ! अमुकम् अमुकं वा वस्तु ? इति । कुतः ? 'सड्डी' त्ति श्रद्धावान् दानवासितको गृही तत्साधुयाचितं वस्तु मूल्येन गृहीत, चौर्येणाऽप्याऽऽनीय तद्वस्तु वितरेत् । पूर्वकथिते उष्णोदके दुग्धे वा ओदनं सक्तु-मण्डकादि प्रक्षिपेद्वा, आपणाद्वा आनयेत् , प्रामित्यं वा कुर्यादिति । कृपणगृहेष्वदृष्ट्वाऽपि याचने न तथा दोष इत्यर्थः ॥१९॥ (वासावासं प०निचभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पति एगं गोयरकालं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा णण्णत्थायरियवेयावच्चेण वा । एवं उवज्झायवेयावच्चेण वा । तवस्सिा गिलाणवेयावच्चेण वा खुड्डएण वा खुड्डियाए वा अव्वंजणजायएण वा ॥२०॥ 5ASSASAR क.कि. ३४ ૧oo ॥३९॥ Sain Ed e ration For Private & Personal use only brary.org Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥ ३९८ ॥ ['वासावासं इत्यादितः 'अव्यंजणजायएण वा' इति पर्यन्तम् ] तत्र - 'निचभत्तिअस्स' ति नित्यमेकाशनिनः । ' एगं गोअरकाल' एकस्मिन् गोचरचर्याकाले-सूत्रपौरुषी - अर्थपौरुष्यनन्तरमित्यर्थः । ' गाहावइकुलं' गृहस्थवेश्म 'भत्ताए' भक्तार्थ 'पाणाए' पानार्थ 'णण्णस्थ' इत्यादि 'णं' वाक्यालङ्कारे । अन्यत्राऽऽचार्यवैयावृत्यात् तद्वर्जयित्वेत्यर्थः । एकवारमतेन यदि तत्कर्तुं न पारयति तदा द्विरपि भुङ्क्ते । यतः - 'तपोऽपेक्षया वैयावृत्यं गरीयः' । एवमुपाध्यायादिष्वपि वाच्यम् । 'अव्यंजणजायएण' ति न व्यञ्जनानि - वस्तिकूर्च कक्षादिरोमाणि जातानि यस्याऽसौ अव्यञ्जनजातः । ततःस्वार्थे कः । तस्मात् - क्षुल्लकादन्यत्र यावत् तस्य व्यञ्जनानि नो भिद्यन्ते तावत् तस्य द्विरपि भुञ्जानस्य न दोषः । यद्वा' वैयावृत्यम् अस्य अस्ति' इति अभ्रादित्वाद् 'अ' प्रत्यये वैयावृत्यः आचार्यश्च वैयावृत्त्यश्च आचार्यवैयावृत्त्यौ ताभ्यामन्यत्र । एवमुपाध्यायादिष्वपि नेयम् । आचार्योपाध्यायतपस्विग्लानक्षुल्लकानां द्विभक्तस्याऽपि अनुज्ञातत्वात् ॥२०॥ ( वासावास प० चउत्थभत्तिअस्स भिक्खुस्स अयं एवइए विसेसे-जं से पाओ निक्खम्म पुग्वामेव वियडगं भुच्चा पिचा पडिग्गहगं संलिहिअ संपमजिअ से अ संथरिजा कप्पड़ से तद्दिवसं तेणेव भत्तणं पज्जोसवित्तए, से अ नो संथरिजा एवं से कप्पइ दुच्चं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ) ॥ २१ ॥ [ 'वासवासं' इत्यादितः 'पविसित्तए वा' इति यावत् ] तत्र - 'अयं एवइए' इत्यादि । अयं वक्ष्यमाण एतावान् विशेषः - ' यत्स - आचार्योपाध्यायादिभ्यो ऽन्यः साधुचतुर्थभोजी प्रातर्निष्क्रम्य - उपाश्रयान्निर्गत्य पूर्वमेव विकटम् - Jain Educational किरणावल टीका व्या० ९ ॥ ३९८ ॥ eibrary.org Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ३९९॥ उद्गमादिशुद्धप्रासुकाहारं भुक्वा पीत्वा च तक्रादिकं संसृष्टकल्पं वा पतग्रहं - पात्रं संलिरूप - निर्लेपीकृत्य संमृज्य चप्रक्षाल्य 'से अ' ति यदि संस्तरेत् - निर्वहेत् तदा तत्र दिने तेनैव भक्तार्थेन - भोजनेन परिवसेत् । अथ न संस्तरेत् स्तोकत्वात्तदा 'दुच्चपि त्ति द्वितीयवेलायामपि भिक्षेत इत्यर्थः ॥ २१ ॥ (वासावास प० छट्ठभत्तिअस्स भिक्खुस्स कपंति दो गोयरकाला गाहा० भ० पा० नि० प० ) ॥ २२ ॥ [ 'वासावासं इत्यादितः 'पविसित्तए वा' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र 'पष्ठभक्तिकस्य द्वौ गोचरकालौ' इति ||२२|| (वासावास प० अट्ठमभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ गोयरकाला गाहा० भ० पा० नि० प० ) ||२३|| ['वासावासं' इत्यादितः 'पविसित्तए वा' इति यावत् ] तत्र - अष्टमभक्तिकस्य त्रयः । न च प्रातर्गृहीतमेव धारयेत्, सञ्चय - संसक्ति - सर्पाघ्राणादिदोषप्रसङ्गात् ||२३|| ( वासवास प० विभित्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति सब्वे वि गोयरकाला गाहा० भ० प० नि० प० ) ॥२४॥ [वासावासं' इत्यादितः 'पवि०' इति यावत् ] तत्र - 'विगिट्ठभत्तिअस्स' ति 'अष्टमादूर्ध्वं यत्तपः तद् विकृष्टभक्तम्' उच्यते । 'सव्वे गोअरकाले' त्ति चतुरोऽपि प्रहरान् ||२४|| ( वासावास प० निचभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति सव्बाई पाणगाई पडिगाहित्तए । वासावासं १० चउत्थभत्तिअस्स भिक्खुस्स तओ पाणगाई पडिगाहित्तए । तं० - उस्सेइमं, संसेइमं, चाउलोदगं । वासावास प० छट्ठभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाई पडिगाहित्तए । तं० - तिलोद्गं, तुसोदगं, Jain Educational ॥ ३९९ ॥ library.org Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावः ला टीका व्या०। ॥४०॥ प्रकाशन जवोदगं। वासावासं १० अट्ठमभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाई पढिगाहित्तए। तं०. आयाम, सोवीरं, सुद्धवियडं। वासावासं प० विगिट्ठभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति एगे उसिणवियडे पडिगाहित्तए । से वि य णं असित्थे, नो वि य णं समित्थे । वासावासं प० भत्तपडिआइक्खिअस्स भिक्खुस्स एगे उसिणवियडे पडिगाहित्तए । से वि य णं परिपूए नो चेव णं अपरिपूए । से वि य णं परिमिए, नो चेव णं अपरिमिए । से वि य णं बहुसंपन्ने, नो चेव णं अबहुसंपन्ने) ॥२५॥ एवमाहारविधिमुक्त्वा पानकविधिमाह-[ 'वासावासं' इत्यादितः 'नो चेव णं अबहुसंपन्ने' इति यावत् ] तत्रPI 'सव्वाई पाणगाई' ति पानैषणोक्तानि वक्ष्यमाणानि चोत्स्वेदिमादीनि आगमोक्तानि त्वेवम् 'उस्सेइम-संसेइम-तंदुल-तुस-तिल-जवोदगा-यामं । सोवीर-मुद्धवियडं अंबय-अंबाडग-कवि ॥१॥ मउलिंग-दक्ख-दाडिम खजुर-नालिअर-कयर-बोरजलं । आमलगं चंचा पाणगाई पढ मंगभणियाई ॥२॥ * तथा-'आयामगं चेव जवोदणं च सीअं सोचीरं च जवोदगं च । नो होलए पिंडं नीरसं तु पंत-कुलाई परिव्वए जे स भिक्खु ॥१॥ त्ति श्रीउत्तराध्ययने इत्यादि । अत्र च ग्रन्थे 'उस्सेइम संसेइम चाउर तिल तुस जवाण तह उदयं । आयामं सोवीरं सुद्धविअडं जलं नवहा' ॥१॥ त्ति । । तत्र-उत्स्वेदिम-पिष्टजलं पिष्टभृतहस्तादिक्षालनजलं वा। संस्वेदिमं संसेकिम वा-यत् पर्णाद्युत्काल्य शीतोदकेन सिच्यते । 'चाउलोदगं'-तन्दुलधावनं । तिलोदक-महाराष्ट्रादिषु निस्त्वचिततिलधावनजलं । तुषोदगं-वीह्यादिधावनं । AASHISHISHASHASHRSHASHASHREEGAOR ॥४०० Jan Edu a l For Private & Personal use only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४०॥ RECE HECRECRUAROLLEGEG 'यवोदगं'-यवधावनं । आयामका-अपश्रावणं । 'सोवीरं'-काञ्जिकं। शुद्धविकटम्-उष्णोदकं । केचित्तु-'शुद्धविक ट। शब्देन उष्णोदकं वर्णान्तरादिप्राप्त शुद्धजलं वा इति विकल्प्य व्याख्यानयन्ति तत् षट्-कल्याणकव्याख्यानवत् सन्देह विषौष धीगतमेव व्याख्यानं, न पुनरागमिकं । यतः -पर्युषणाकल्पचूाीदषु स्थानाङ्गवृत्त्यादिषु च यत्र क्वाऽपि 'शुद्धविकट शब्दस्य व्याख्यानमुपलभ्यते तदुष्णोदकपरमेव, न पुनर्वैकल्पिकमपीति । 'उसिणवियडे' इति-उष्णजलं तदपि असिक्थं । यतः-प्रायेण अष्टमोर्चतपस्विनः शरीरं देवताऽधितिष्ठति । 'भत्तपडियाइक्खिअस्स' त्ति प्रत्याख्यातभक्तस्य-अनशनिन इत्यर्थः । 'परिपूए' त्ति वस्त्रगलितम् । अपरिसूते तृणकाष्ठादेः गले लगनात् । तदपि परिमितम् , अन्यथा अजीर्ण स्यात् । क्वचित-से वि अणं बहुसंपन्ने, नो वि अ णं अबहुसंपन्ने' इति । तत्र-इषदपरिसमाप्तं सम्पूर्ण 'नाम्नः प्राग बहुर्वा' इति बहुप्रत्ययः । अतिस्तोतरे हि तृण्मात्रस्यापि नोपशम इति । एवमागमसिद्धेऽपि 'उत्स्वेदिमादि-उष्णावसाने पानीये' प्रत्यात्यानभङ्गाद्यसदोषमाविष्कृत्य वर्गान्तरमात्रापन्नं शीतलजलमेवोत्सर्गतः पिवन्तः पानीयाहारलाम्पटथात् त्रसेष्वपि अनुकम्पारहिता एवाऽवगन्तव्याः। न चैवंविधपानीयं पिबन्तः सचित्ताहारपरित्यागिनः श्रावका अप्युपलभ्यन्ते, तेषामपि त्रसानुकम्पाराहित्यं सम्पत्स्यते इति शङ्ग्यम् । यत:-तैर्वस्त्रपूतीकृतव्यापारितजलादवशिष्टस्य सत्रसजलस्य यतना कत्तुं शक्यते, न पुनस्तद्वत्साधुभिरपीति ॥२५॥ ___ (वासावासं प० संखादत्तिअस्स भिक्सुस्स कप्पंति पंचदत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए पंच पाणगस्स, अहवा बत्तारि भोयणस्स पंच पाणगस्स, अहवा पंच भोयणस्स चत्तारि पाणगस्स । तत्थ णं एगा दत्ती ૧૦ V ॥४.१॥ Jain Education national For Private & Personal use only wwwsaneligrary.org Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥४०२॥ GROUCHOREOGROCEAR-ORES लोणासायणमित्तमवि पडिगाहिया सिया, कैप्पह से तहिवसं तेणेव भत्त?ण पज्जोसवित्तए, नो से कप्पड़ ॥किरणावली दुच्चपि गाहा० भ० पा०नि०प०) ॥२६॥ टीका ['वासावासं' इत्यादितः 'पविसित्तए' ति यावत् ] तत्र-'संखादत्तिअस्स' त्ति-'सङ्ख्यया उपलक्षिता दत्तयो | व्या०९ यस्य' इति सङ्ख्यादत्तिकः तस्य-दत्तिपरिमाणवत इत्यर्थः । 'लोणासायण'त्ति लवणं किल स्तोकं दीयते, यदि तावन्मात्रं भक्तपानस्य गृह्णाति साऽपि दत्तिर्गण्यते । अतः-लवणाऽऽस्वादनमात्रमपि प्रतिगृहीता दत्तिः स्यात् । पश्चेत्युपलक्षणं तेन चतस्रः, तित्रः, द्वौ, एका, षट् वा सप्त वा यथाभिग्रहं वाच्याः। केनचित् पञ्चदत्तयो भोजनस्य लब्धाः तिस्रश्च पानकस्य । ततः-अवशिष्टाः पानसत्का भोज ने भोजनसत्का वा पाने इत्येवं समावेशोऽकल्प्य इत्यर्थः ॥२६॥ (वासावासं १० नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा जाव उवस्सयाओ सत्तघरंतरं संखडिं संनियहचारिस्स इत्तए। एगे पुण एवमाहंसु-नो कप्पइ जाव उवस्सयाओ परेणं संखडि संनियदृचारिस्सइत्तए । एगे पुण एवनाहंमु-नो कप्पड जाव उवस्सयाओ परंपरेणं संखडि संनियहचारिस्स इत्तए) ॥२७॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'संनि यदृचारिस्स इत्तए' ति यावत् ] तत्र-उपाश्रयात्-शय्यातरगृहादारभ्य यावत्सप्तगृहान्तरं-सप्तहमध्ये 'संखडिं' ति संस्क्रियन्ते इति संस्कृतिः-ओदनपाकः तां गन्तुं न कल्पते-पिण्डपानार्थ तत्र न गच्छेदित्यर्थः। तेषां गृहाणां सन्निहिततया साधुगुणहृतहृदयत्वेन उद्गमादिदोषसम्भवात् । एतावता शय्यातरगृहम् अन्यानि च पडासनगृहाणि वर्जयेदित्युक्तम् । कस्य न कल्पते ? इत्याह-'संनियहचारिस्स' त्ति निषिद्धगृहेभ्यः सन्निवृत्तश्चरति ॥४०२॥ ARROACAस्वलन Sain Et e rnational For Privale & Personal use only Pilibrary.org Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HGK ॥४०३॥ विहरति इति सनिवृत्तवारी-प्रतिषिद्धवर्जकः साधुः तस्य । बहवस्त्वेवं व्याचक्षते-सप्त गृहान्तरं सखडिं-जनसंकुलजेमनवारालक्षणां गन्तुं न कल्पते इति । द्वितीयमते-शय्यातरगृहम् अन्यानि च सप्तगृहाणि वर्जयेदित्युक्तं । तृतीयमते-'परंपरेण' इति परम्परया-व्यवधानेन सप्तगृहान्तरम् एतुं न कल्पते । परम्परता च शय्यातरगृहं तदनन्तरमेकं गृहं, ततोऽपि सप्तगृहाणि | चेति ॥२७॥ (वासावासं प० नो कप्प पाणिपडिग्गहिअस्स भिक्खुस्स कणगफुसिअमित्तमवि वुट्टिकायंसि निवयमाणंसि गाहावइकुलं भ० पा०नि० ५०) ॥२८॥ ['वासावासं' इत्यादितः पविसित्तए' ति पर्यन्तम् ] तत्र-'पाणिपडिग्गहिअस्स' ति जिनकल्पिकादेः 'कणगफुसिआ' फुसारमात्रम् अवश्यायो मिहिकावर्ष वा वृष्टिकायः-अप्कायवृष्टिः ॥२८॥ (वासावासं प. पाणिपडिग्गहिअस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ अगिहंसि पिंउवायं पडिगाहित्ता पज्जोसवेमाणस्स सहसा बुट्टिकाए निवइज्जा, देसं भुच्चा देसमादाय से पाणिणा पाणिं परिपिहिता उरंसि वाणं निलिजिजा, कक्खंसि वा णं समाहडिजा, अहाछन्नाणि लेणाणि वा उवागच्छिज्जा, रुक्खमूलाणि वा 51 उवागच्छिज्जा, जहा से तत्थ पाणिसि दए वा दगफुसिया वा णो परियावजइ) ॥२९॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'दगफुसिया वा णो परियावजई' ति यावत् ] तत्र-'अगिहंसि' क्ति अनाच्छादिते आकाशे पिण्डपातम्-आहारं प्रतिगृह्य 'पज्जोसवित्तए' आहारयितुं न कल्पते 'पज्जोसवेमाणस्स' कदाचिदाकाशे REMEMECEMBE-%ECE ॥४०० Jain Educa t ional Ud For Privale & Personal use only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव टीका व्या० ॥४०४॥ भुञानस्य यदि अर्धभुक्तेऽपि वृष्टिपातः स्यात् , तदा पिण्डपातस्य देशं भुक्त्वा देशं चादाय पाणिमाहारैकदेशसहितं पाणिना-द्वितीयहस्तेन परिधाय-आच्छाद्य, उरसि-हृदये निलीयेत-निक्षिपेद्वा। 'वाणं' इति तं साहारं पाणिं कक्षायां वा समाहरेत-अन्तर्हितं कुर्यात् । एवं च कृत्वा यथाछन्नानि-गृहिभिः स्वनिमित्तमाच्छादितानि लयनानि-गृहाणि उपागच्छेत् , वृक्षमूलानि वा यथा 'से' तस्य पाणौ दकादीनि न पर्यापद्यन्ते-न विराध्यन्ते, न पतन्ति वा तत्र दकं-बहवो बिन्दवः, दकरजः-बिन्दुमात्र, 'दगफुसिआ' 'फुसारम्-अवश्याय' इत्यर्थः । न तु जिनकल्पिकादयो देशोनदशपूर्वधरत्वेन अतिशयज्ञानिनः । तैश्च प्रागेवोपयोगः कृतो भविष्यति इति कथम् अर्द्धभुक्तेऽपि वृष्टिः सम्भवेत् ? सत्यं, छानस्थिकोपयोगः तथा (दा) स्यान्न वा इति अदोषः ॥२९॥ (वासावासं प० पाणिपडिग्गहिअस्स भिक्खुस्स जं किंचि कणगफुसिअमितपि निवडइ, नो से गाहा. भ० पा०नि०५०)॥३०॥ उक्तमेवार्थ निगमयन्नाह-['वासावासं' इत्यादितः 'पविसित्तए' ति यावत ] तत्र-'कणगफसिअमित्तपि' त्ति कण:-लेशः तन्मात्रं कं-पानीयं तस्य 'फुसिया' फुसारमात्रम् ॥३०॥ उक्तः पाणिपात्रविधिः। अथ पतद्ग्रहधारिणस्तमाह (वासावासं प० पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ वग्घारिअवुट्टिकायंसि गाहावइ कुलं भ० पा० नि०प० । कप्पइ से अपवुट्टिकायंसि संतरुत्तरसि गाहा. भ. पा. नि०प०) ॥३१॥ RRRRRREARS ॥४०४ Jain Educatoarnational For Privale & Personal use only wardi ary.org | Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५॥ SERIERECROMAL __ ['वासावासं' इत्यादितः 'पविसित्तए' ति यावत् ] तत्र-पडिग्गहधारिस्स' पतद्ग्रहधारिणः-स्थविरकल्पिकस्य 'वग्घारिअबुटिकायंसि' ति अच्छिन्नधारा वृष्टिः यस्यां वा वर्षाकल्पो नीव्र वा थोतति, वर्षाकल्पं वा भित्त्वाऽन्तःकायमा यति या वृष्टिः, तत्र विहां न कल्पते । अपवादे तु-अशिवादिकारणैः भिक्षाकालाधकालमेघाघयोग्यक्षेत्रस्थाः श्रुतपाठका-तपस्विनः क्षुदसहाश्च भिक्षार्थ पूर्वपूर्वाऽभावे औणिकेन औष्ट्रिकेन जीर्णेन [जीर्णेनेति लोकप्रसिद्धन] सौत्रेण वा कल्पेन । तथा तालपत्रेण वा पलाशछत्रेण वा प्रावृता विहरन्त्यपि । 'संतरुत्तरंसि' ति आन्तरः सौत्रकल्प उत्तर औणिकः, ताभ्यां प्रावृतस्याऽल्पवृष्टौ गन्तुं कल्पते । अथवा अन्तर इति कल्प, उत्तरं-वर्षाकल्पः कम्बल्यादि । चूर्णिकारस्तु-'अन्तरंरयहरणं पडिग्गहो वा उत्तरं-पाउरणकप्पो तेहिं सह'त्ति ॥३१॥ (वासावासं . निग्रोथस्स निग्गंथीए वा गाहा. पिंडवायपडिआए अणुपविट्ठस्स निगिज्झिअ निगिज्झिअ बुट्टिकाए निवइजा, कप्पह से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अहे विअडगिहंसि वा अहे रुक्खमूलंसि वा उवागच्छित्तए)॥३२॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'उवागच्छित्तए' ति यावत ] तत्र-निगिझिअ' त्ति-स्थित्वा स्थित्वा वर्षति ।(आरामस्य अधः उद्याने इति भाव:)-'अहे उबस्सयंसि वा' आत्मनः सम्भोगिकानाम् इतरेषां वा उपाश्रयस्याऽधः। तदभावे विकटगृहे-आस्थानमण्ड पिकायां यत्र ग्राम्यपर्षदुपविशति तत्र स्थितो वेलां वृष्टे:-'स्थिताऽस्थितस्वरूपं जानाति । यथा-अशङ्कनीयश्च स्यात् । वृक्षमूले वा-निर्गलकरीरादौ 'उवागच्छित्तए' ति उपागन्तुम् ॥३२॥ REALISARA-RRERA ૧૦૨. ॥४०५॥ Jain Educatelternational For Private & Personal use only 22 library.org Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प | ४०६ ॥ (तत्थ से पुन्वागमणेणं पुव्वाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउने भिलिंगसूवे, कप्पड़ से चाउलोदणै पडिग्गाहितर, नो कपड़ से मिलिंगसूवे पडिगाहित्तए) ||३३|| (तस्थ से पुव्वागमणेणं पुवाउने भिलिंसूबे पच्छाउने चाउलोदणे कप्पर से भिलिंगवे पडिगाहितए, नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिगाहित्तए) ||३४|| (तत्थ से पुन्वागमणेणं दोवि पुव्वाउत्ताई, कप्पंति से दोवि पडिगाहित्तए, तत्थ से पुग्वागमणेणं दोवि पच्छाउत्ताई, एवं नो से पति दोवि पडिगाहित्तए । जे से तत्थ पुन्वागमणेणं पुढवाउत्ते से कप्पइ पडिगाहितए, जे से तत्थ पुन्वागमणेणं पच्छाउत्ते नो से पडिगाहित्तए || ३५॥ ['तत्थ से पुव्वे' स्यादितः 'पडिगाहित्तए' ति यावत् सूत्रत्रयेण सम्बन्धः ] तंत्र- 'तत्थ' त्ति तत्र - विकट गृहवृक्षमूलादौ स्थितस्य तस्य साधोः 'पुन्वागमणेण' ति आगमनात् पूर्वकालं अथवा पूर्वं साधुरागतः पश्चाद् दायको राद्धं प्रवृत्त इति पूर्वागमनेन हेतुना पूर्वायुक्तः तन्दुलोदनः कल्पते, पश्चादायुक्तो भिलिंगपो दालि: मादा सस्नेहसूपो वा न कल्पते । तत्र पूर्वायुक्तः साध्वागमनात् पूर्वमेव स्वार्थे गृहस्थैः पक्तुमारब्धः, साध्वागते च यः पक्तुमारब्धः स पश्चादायुक्तः स च न कल्पते - उद्गमादिदोषसम्भवात् । पूर्वायुक्तस्तु कल्पते तदभावात् । एवं शेषालापकद्वयमपि भाव्यं । 'जे से तत्थ' इत्यादिना सङ्ग्रहस्तु स्पष्ट एव । केचित्तु यच्चुल्ल्यामारोपितं तत् पूर्वायुक्तं । अन्ये तु यत्समीहितं तत् पूर्वायुक्तं । समीहितं नाम यत्पाकार्थमुपढौकितं । एतौ च द्वावप्यनादेशौ । आदेशस्त्वयं यः साध्वागमनात्पूर्वं गृहिभिः स्वार्थमुपस्क्रियमाणं तत् पूर्वायुक्तं । तथा चाऽऽगमः Jain Educatel International किरणावली टीका व्या० ८ ॥४८६॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||४०७ ॥ 'पुत्राउत्तारहि केसिंचि समीहिअं तु जं तत्थ । एए न ढुंति दुनिवि पुव्वपवत्तं तु जं तत्थ' || १ || अनादेशे स्वयं हेतु:'पुव्वारुहिए असमीहिए अ किं न बुज्झइ न खलु अन्नं ? । तम्हा जं खलु उचित्रं तं तु पमाणं न इअरं तु ॥ २ ॥ वालपुच्छाईहिं नाउं आयरमणायरेहिं च । जं जुग्गं तं गिव्हइ दव्वपमाणं च जाणिज्जा' ॥ ३ ॥ ॥३३-३४–३५॥ (वासावास प० निग्गंथस्स निग्गंधीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडिआए अणुपविट्ठस्स निग्गिज्झिअ निग्गिझिr agarए निवइज्जा, कप्पड़ से अहे आरामंसि वा जाव उवागच्छित्तए । नो से कप्पइ पुण्यगहिएणं भत्तपाणेणं वेलं उवायणावित्तए । कप्पर से पुव्वामेव वियडगं भुचा पिच्चा पडिग्गहगं संलिहिअ संलिहिअ संपमज्जिअ संपमजिअ एगाययं भंडगं कट्टु साबसेसे सूरे, जेणेव उवस्सए तेणेव उवागच्छित्तए । नो से कप तं स्यणि तत्थेव उवायणावित्त ) ||३६|| ['वासवासं' इत्यादितः 'नो से कप्पड़ तं स्यणिं तत्थेव उवायणावित्तए' ति पर्यन्तम् ] तत्र - 'वेलं उवायणावित्तए' त्ति-वेलामतिक्रामयितुं । तत्र च तिष्ठतः कदाचिद्वर्षं नोपरमति तत्र का मेरा ? इत्याह- 'विअडगं' इत्यादि विकटम् - उद्गमादिशुद्धं भुक्त्वा पीत्वा च एकत्रायतं - सुबद्धं भाण्डकं - पात्रकाद्युपकरणं कृत्वा वपुषा सह प्रावृत्य वर्षत्यपि अनत्तमिते सूर्ये वसतावागन्तव्यमेव । बहिर्वसतस्तु - एकाकिन आत्मपरोमयसमुत्था बहवो दोषाः, वसतिस्थाः साधवश्चाऽधृतिं कुर्युरिति ||३६|| (वासावासं पज्जोसवियस्स निग्गंथस्स निग्गंथीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स Jain Education emational ॥४०७॥ www.iathaibrary.org Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावकी टीका ॥४०८॥ SAPNA व्या०९ निग्गिज्झिअ निग्गज्झि बुटिकाए निवजा, कप्पड़ से अहे आरामंसि वा जाव उवागच्छित्तए) ॥३७॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'उवागच्छित्तए' ति यावत् सुगमम् ] ॥३७॥ (तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स एगाए निग्गंधीए एगयओ चिद्वित्तए।१। तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स दुण्हं निग्गंथीणं एगयओ चिहित्तए।२। तत्थ नो कप्पइ दुहं निग्गंधाणं एगाए निग्गंधीए एगयओ चिट्टित्तए।३। तत्थ नो कप्पह दुण्हं निग्गंधाणं दुहं निग्गंधीणं एगयओ चिहित्तए ।४। अस्थि अ इत्थ केइ पंचमे खुडए वा खुडिआए वा अन्नेसिं वा संलोए सपडिदुवारे एवंण्हं कप्पइ एगयओ PI चिहित्तए)॥३८॥ अथ कथं विकटगृह-वृक्षमूलादौ स्थेयम् ? । इत्याह [ 'तत्थ नो कप्पइ एगस्स' इत्यादितः 'एगयओ चिहित्तए' त्ति यावत् व्याख्यानं सुबोधम् । एकाकित्वं तस्य साङ्घाटिके उपोषिते असुखिते वा कारणविशेषाद्वा स्यात् ।-'अस्थि अ इत्थ केइ' ति अस्ति चात्र कश्चित्पञ्चमः क्षुल्लकः साधनां, साधीनां च क्षुल्लिका । उत्सर्गतः साधुरात्मना द्वितीयः, संयत्यस्तु ज्यादयः, षट्कों भिद्यते मन्त्र' इति न्यायात् 'अन्नेसिं वा संलोए' त्ति-यत्र क्षुल्लिकादिर्न स्यात् , तत्र अन्येषांध्रवकम्मिकलोहकारादीनां वर्षत्यपि अमुक्तस्वकर्मणां संलोके-दृष्टिपथे, तत्राऽपि सप्रतिद्वारे-सर्वतो द्वारे सर्वगृहाणां वा द्वारे 'एवण्ह' ति एवं कल्पते स्थातुं 'हं' इत्यलङ्कारे॥३८॥ (वासावासं प० निग्गंधस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडिआए जाव उवागच्छित्तए। तत्थ नो कप्पड़ RECARRAHATECARRORE ॥४०८॥ Jain Ecc l emational For Private & Personal use only M ainelibrary.org Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४०९॥ SHASHA UGUSARAM एगस्स निग्गंथस्स य एगाए अगारीए एगयओ चिहित्तए । एवं चउभगी। अस्थि अ इत्थ के पंचमे थेरे वा थेरिया वा, अन्नेसिं वा संलोए सपडिदुवारे, एवं कप्पइ एगयओ चिहित्तए । एवं चेव निग्गंधीए अगारस्स य भाणिअव्वं ॥३९॥ ['वासावास' इत्यादितः 'भाणिअवं' ति यावत् ] तत्र-निर्ग्रन्थस्य अगारीसूत्रे, निग्रन्थ्याश्च अगारसूत्रे प्रागुक्तरितिरेव । 'अगारमस्याऽस्ति' इति अभ्रादित्वाद् 'अ' प्रत्यये अगारः-गृही ॥३९॥ (वासावासं प० नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा अपरिणएणं अपरिणयस्स अट्ठाए असणं वा ४ जाव पडिगाहित्तए)॥४०॥ (से (किमाहु भंते ! इच्छा परो अपरिणए भुजिज्जा, इच्छा परो न भुजिज्जा) ॥४१॥ ['वासावासं इत्यादितः 'इच्छा परो न भुजिज्ज' त्ति पर्यन्तं सूत्रद्वयम् ] तत्र-'अपरिणएणं' इत्यादि 'मम योग्यमशनादिकं त्वमानयेः' इत्यपरिज्ञप्तेन-अभणि तेन अहं तव योग्यमशनाद्यानेष्ये इत्यपरिज्ञप्तस्य अर्थाय-कृते अशनादि परिगृहीतुं न कल्पते ॥४०॥ प्रश्नपर आह-'से किमाहु भंते !' ति अत्र किं कारणं भदन्त ! आहुः । गुरुराह-'इच्छे त्यादि इच्छा चेदस्ति तदा 'परो-यस्मै आनीतं स भुञ्जीत, इच्छा अभोजनरुचिश्चेत् तदा न भुञ्जीत यदि च परोऽनिच्छन् दाक्षिण्याद् भुङ्क्ते, ततः-ग्लानिः तस्य । अजीर्णादिना न भुङ्क्ते चेत् तदा वर्षामु जल हरितवाहुल्येन स्थण्डिलदौर्लभ्यात परिष्ठापनादोषः तस्मात् पृष्ट्वा आनेयमिति ॥४१॥ (वासावासं प० नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा, उदउल्लेण वा ससिणिद्वेण वा काएणं, असणं क.कि.34 ७ ॥४०९॥ १०३ in Educ a tional For Privale & Personal use only www.jairnelibrary.org Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोकल्प ॥ ४१० ॥ वा ४, आहारितए) ॥ ४२ ॥ ( से किमाहु ? भंते !, सत्त सिणेहाययणा पन्नत्ता । तं जहा-पाणी, पाणीलेहा, नहा, नहसिहा, भमुहा, अहरुट्ठा, उत्तरुडा । अह पुण एवं जाणिज्जा - बिगओदए मे काए छिन्नसिणेहे । एवं से कप्पर असणं वा ४ आहारित्तए) ॥ ४३ ॥ (वासावास प० इह खलु निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा, इमाई अट्ठ सुमाई, जाई छउमत्थेणं fariथेण वा निriथीए वा, अभिक्खणं अभिक्खणं जाणिघव्वाई पासियन्वाई पडिलेहियव्वाईं भवति । तं जहा-पाणसुहुमं, पणगसुहुमं, बीअसुहुमं, हरिअसुहुमं, पुष्पसुहुर्म, अंडसुहुमं, लेणसुहुमं, सिणेहसुहुमं ॥ ४४ ॥ से किं तं पाणसुहुमे ? पाणसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते । तं जहा - किण्हे, नीले, लोहिए, हालिदे किल्ले | अस्थि कुंथू अणुद्धरी नाम समुप्पन्ना, जा ठिआ अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा नो चक्खुकासं हव्वमागच्छंति, जाव छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंधीए वा अभिक्खणं अभिक्खणं जाणिअव्वा पासिअव्वा पडिलेहिअव्वा भवइ । से तं पाणसुहुमे १) (से किं तं पणगहुमे ? पगमे पंचविहे पन्नते । तं जहा कि हे जाव सुक्किल्ले । अस्थि पणगहुमे तद्दव्वसमाणवन्नए नाम पन्नन्ते । जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियव्वे भवइ । से तं पणगसुहुमे २ । से किं तं बीहुमे ? बीयसहमे पंचविपन्नन्ते । तं जहा - किन्हे जाव सुकिल्ले । अस्थि बीयसुहुमे कणियासमाणवन्नए नामं पन्नन्ते । जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहिअब्वे भवइ । से तं बीयसुहुमे ३ । से किं तं हरिअसुहुमे ? हरिअसुहुमे Jain Education international . किरणावली टीका व्या० ९ ॥४१०॥ elbrary.org Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४१॥ पंचविहे पन्नत्ते । तं जहा-किण्हे जाव सुकिल्ले । अस्थि हरिअसुहुमे पुढवीसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते । जे निग्गंथेण वा निग्गंधीए वा जाव पडिलेहिअव्वे भवइ । से तं हरिअसुहमे ४ । से किं तं पुष्फसुहुमे ? पुप्फसुहमे पंचविहे पन्नत्ते । तं जहा-किण्हे जाव सुकिल्ले । अस्थि पुप्फसुहमे रूक्खसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते । जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहिअवे भवइ । से तं पुप्फसुहमे ५। से किं तं अंडसुहुमे ? अंडसुहुमे पंचबिहे पन्नत्ते । तं जहा-उइंसंडे, उक्कलिअंडे, पिपीलिअंडे, हलिअंडे, हल्लोहल्लि अंडे । जे निग्गंथेण वा जाव पडिलेहिअव्वे भवइ । से तं अंडसुहमे ६। से किं तं लेणसुहमे ? लेणसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते । तं जहाउत्तिंगलेणे, भिंगुलेणे, उज्जुए, तालमूलए, संयुकाव नामं पंचमे । जे छ उमस्थेणं जाव पडिलेहिअव्वे भवइ । से तं लेणसुहमे ७ । से किं तं सिणेहसुहमे ? सिणेहसुहमे पंचविहे पन्नत्ते । तं जहा-उस्सा, हिमए महिआ, करए, हरतणुए। जे छ उमत्थेणं जाव पडिलेहिअव्वे भवद । से तं सिणेहसुहमे ८)॥४४-४५॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'से तं सिणेहसुहुमे त्ति पर्यन्तं] सूत्रचतुष्टयेन सम्बन्धः। तत्र-'उदउल्लेण' इत्यादि उदकाऽऽ→ण-गलद्विन्दुयुक्तेन सस्निग्धेन-इषदविन्दुयुक्तेन ॥४२॥ 'से किमाह भंते !-स भगवान् तीर्थकरः। किं कारणम् ? अत्राह-गुरुराह-'सत्त' इत्यादि सप्त स्नेहायतनानि-जलावस्थानानि येषु जलं चिरेण शुष्यति । पाणी-दस्तौ, पाणिरेखा-आयुरेखादयः तासु चिरमुदकस्थितिः, नखा:-अखण्डाः, नखशिखा:-तदग्रभागाः, भ्रः-नेत्रो+रोमानि, 'अहरुट्ठा-दाढिका, 'उत्तरुट्ठा' श्मश्रुणि । विगतोदक:-जलबिन्दुरहितः, छिमस्नेहः-सर्वथा उद्वातः ॥४३॥ TAGRECRECRAAR Jain Educa t ional For Private & Personal use only wwi ary.org Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥४१२।। REASEAAAAA 'अट्ट सुहमाई' इत्यादि । श्लक्ष्णत्वाद् अल्पाधारवाच सूक्ष्माणि । अभीक्ष्णं-पुनः पुनः। यत्र यत्र स्थाननिषीदनाऽऽदान किरण टीक निक्षेपादिकं करोति तानि ज्ञातव्यानि-सूत्रोपदेशेन, द्रष्टव्यानि-चक्षुषा, ज्ञात्वा दृष्ट्वा च प्रतिले खितव्यानि-परिहर्त्तव्यतया व्या विचारणीयानि ॥४४॥'तं.' इति-तद्यथा-प्राणसूक्ष्म, पञ्चविधं प्रज्ञप्तं तीर्थकरगणधरैः। एकैकवणे सहस्रशो भेदाः बहुप्रकाराश्च संयोगाः। ते सर्वेऽपि पञ्चसु कृष्णादिषु अवतरन्ति । प्राणसूक्ष्मं तु द्वीन्द्रियादयः प्राणाः। यथा-अनुदरी कुन्थुः। स हि चलन्नेव सम्भाव्यते, न स्थितः, सूक्ष्मत्वात् । पन उल्लिः। स च प्रायः प्रावृपि भूमि-काष्ठ-भाण्डादिषु जायते । यत्रोत्पद्यते तद्र्व्यसमानवर्णश्च 'नामं पन्नत्ते' ति नामेति-प्रसिद्धौ । बीजसूक्ष्म-कणिका-शाल्यादि बीजानां मुखमूले र नखिका 'नही' ति लोकरूढिः। हरितसूक्ष्म-पृथिवीसमानवणं हरितं । तच्च अल्पसंहननत्वात् स्तोकेनाऽपि विनश्यति । पुष्पसूक्ष्म-वटोदुम्बरादीनां तत्समवर्णवादलक्ष्यं तच्चोच्छ्वासेनापि विराध्यते । अण्डसूक्ष्म - उदंशा-मधुमक्षिका-मत्कुणाद्याः तेषाम् अण्डं उदंशाण्डं । उत्कलिकाण्ड-लूतापुटाण्डं, पिपीलिकाण्ड-कीटिकाण्डं, हलिका-गृहकोकिला ब्राह्मणी वा तस्या अण्डं-हलिकाण्डं, हल्लोहलिआ-अहि-लोडी-सरडी-ककिंडी इत्येकार्थाः। तस्या अण्डं । एतानि हि सूक्ष्माणि स्युः । लयनम्-आश्रयः सत्त्वानां । यत्र कीटिकाद्यनेकसूक्ष्मसच्चा भवन्ति इति लयनसूक्ष्म । 'उतिंगा-भूअका-गईभाऽऽकृतयो जीवाः तेषां लयन-भूमावुत्कीर्ण गृहम्-उत्तिंगलयनं । भृगुः-शुष्कभूराजी, जलशोषानन्तरं केदारादिषु स्फुटिता दालिरित्यर्थः। 'उज्जुए' त्ति बिलं । तालमूलक-तालमूलाकारम् , अधः पृथु, उपरि च सूक्ष्म विवरं। शम्बूकावत्त-भ्रमरगृहं स्नेहसूक्ष्म । 'उस्म' त्ति अवश्यायो यो गगनात्पतति । हिमं-स्त्यानोदबिन्दुः । मिहिका-धूमरी, करका-घनोपला हरतनुः ABHASHASARASWASISASAR ॥४१६ Jain Educa NA t ional For Privale & Personal use only www.sanslitrary.org. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४१३॥ ૧૦૪ भूनिःसृततृणबिन्दुरूपो यो यत्राङ्कुरादौ दृश्यते, अष्टास्वपि 'से तं' ति तदेतत् ॥ ४४-४५ ॥ (वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा गाहा० भ० पा० नि० प० । नो से कप्पड़ अणापुच्छित्ता आयरिअं वा उवज्झायं वा थेरं पविति गणि गणहरं गणावच्छेययं जं वा पुरओ काउं बिहरइ । कप्पड़ से आपुच्छिउं आयरियं वा० जं वा पुरओ काउं विहरइ । इच्छामि णं भंते ! तुन्भेहिं अन्भणुष्णाए समाणे गाहा० भ० पा०नि० प० । ते य से वियरिज्जा । एवं से कप्पइ गाहा० भ० पा०नि० प०। ते य से नो वियरिजा । एवं से नो कप्पड़ भ० पा०नि० प०। से किमाहु भंते ! आयरिया पञ्चवायं जाणंति) ॥ ४६ ॥ [ 'वासावासं' इत्यादितः 'आयरिया पञ्चवायं जाणंति' इति पर्यन्तम् ] तत्र - एतत्सूत्रम् एतत्सूत्रातिरिक्तानि च अनन्तरं वक्ष्यमाणानि त्रोणि सूत्राणि, यद्यपि ऋतुबद्ध-वर्षालक्षण कालद्वयसाधारणसामाचारीविपयाणि, तथापि वर्षा विशेषेणोच्यते- 'आयरिया पच्चचायं जाणंति' ति आचार्य:- सूत्रार्थदाता दिगाचार्यो वा उपाध्यायः - सूत्राऽध्यापकः, स्थविरः- ज्ञानादिषु सीदतां स्थिरीकर्ता उद्यतानामुपबृंहकश्च । प्रवर्तकः - ज्ञानादिषु प्रवर्त्तयिता, तत्र ज्ञाने- पठ ? गुणय ? शृणु ? उद्देशादीन् कुरु ? इति । दर्शने - दर्शनप्रभावकान् सम्मत्यादितर्कान् अभ्यस्य ? इति । चारित्रे - 'प्रायश्चित्तम् उद्रह ? इति । अनेषणीयं दुःप्रत्युपेक्षितादि च मा कृथाः ? यथाशक्ति द्वादशधा तपो विधेहि ? इत्यादि । गणि:-यस्य पार्श्वे आचार्याः सूत्राद्यभ्यस्यन्ति, गणिनो वा अन्ये आचार्याः सूत्राद्यर्थमुपसम्पन्नाः । गणधरः- तीर्थकृत् शिष्यादि । गणावच्छेदका - यः साधून गृहीत्वा वहिः क्षेत्रे आस्ते गच्छाद्युपष्टम्भार्थ क्षेत्रोपधिमार्गणादौ प्रधावनादिकर्त्ता सूत्रार्थोभयवित् Jain Educatinational ॥ ४१३॥ elbrary.org Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्प ॥ ४१४ ॥ यं वा अन्यसामान्यसाधुमपि वयः - पर्यायाभ्यां डीनमपि गीतार्थतया प्रदीपकल्पं पुरतः कृत्वा गुरुत्वेन गृहीसा विहरति । 'ते असे विअरिज्जा' ते वा आचार्यादयः 'से' - तस्य वितरेयुः - अनुज्ञां दद्युः । 'से किमाहु भंते !" ति प्राग्वत् । . आचार्य आह- 'आपरिया पचवायं जाणंति' 'त्ति 'बहुवचनान्ता गणस्य संस्तव (सूच) का भवन्ति' इतिन्यायात् आचार्याःआचार्यादयः प्रत्यपायम् - अपायं तत्परिहारं च जानन्ति । प्रतिकूलः अपायस्य प्रत्यपाय इतिविग्रहेण अपापपरिहारेऽपि दोऽवगन्तव्यः । अनापृच्छय गतानां वृष्टि भवेत्, प्रत्यनीकाः शैक्षस्वजना वा उपद्रवेयुः, कलहो वा केनचित्, आचार्य बालग्नक्षपकप्रायोग्यं ग्राह्यं वाऽभविष्यत् । ते च अतिशयशालिनः, तत्सर्वं विदित्वा तस्मै अदापयिष्यन् ॥ ४६ ॥ ( एवं विहारभूमिं वा विआरभूमिं वा अन्नं वा जं किंचि पओयणं एवं गामाणुगामं दूइज्जितए) ॥४७॥ [ 'एवं विहार:' इत्यादित: 'दृइज्जित्तए' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र - विहारभूमि ः 'बिहारो जिनसद्मनि ' इति वचनात् चैत्यादिगमनं, विचारभूमिः - शरीर चिन्ताद्यर्थं गमनं, अन्यद्वा प्रयोजनं, लेप-सीवन-लिखनादिकमुच्छ्वासादिवर्जे सर्वमापृछत्र कर्त्तव्यमिति । तत्रं गुरुपारतन्त्र्यस्यैव ज्ञानादिरूपत्वात् 'दूइज्जित्तए त्ति - हिण्डितुं भिक्षाद्यर्थं कारणे वा Jorarat | अन्यथा हि वर्षासु ग्रामानुग्रामं हिण्डनमनुचितमेव ॥ ४७॥ (वासावास प० भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरिं विगई आहारितए, नो से कप्पर अणापुच्छित्ता आयरिअं वा जाव जं वा पुरओ काउं विहरइ, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव आहारितए । इच्छामि णं भंते! तुभेहिं अम्भणुण्णाए समाणे अण्णयरिं विगई आहारित्तए । तं एवइअं वा एवइखुत्तो Jain Educatiemational किरणावली टीका व्या० ९ ॥४१४ ॥ library.org Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४१५॥ GROCEROCCOUCHECRENCRECORROCCOM वा ते य से वियरिज्जा, एवं से कपइ अन्नयरिं विगई आहारित्तए । ते य से नो वियरिज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नयरिं विगई आहारित्तए । से किमाहुभंते । आयरिया पच्चवायं जाणंति) ॥४८॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'जाणंति' ति यावत् ] तत्र-'एवइ वा-इअती वा 'एवइखुत्तो वा' त्ति-एतावतो | वारान् । अत्र प्रत्यपाया अस्या विकृतेहणे 'अस्य अयम् अपाय:-मोहोद्भवादि' ग्लानत्वादस्य गुणो वेति ॥४८॥ (वासावासं प०भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरिं तेगिच्छि अं आउहित्तए । तं चेव सवं भाणिय)॥४९॥ वामावासं प. भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरं उरालं कल्लाणं सिवं धनं मंगल्लं सस्प्तिरीयं महाणुभावं तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । तं चेव सव्वं भाणियन्वं) ॥५०॥ (वासावासं प० भिक्खू इच्छिज्जा अपच्छिममारणंतिभं संलेहणा झूसणाजूसिए भत्तपाणपडिआइक्खिए पाओवगए कालं अणवखमाणे विहरित्तए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा असणं वा ४ आहारित्तए वा, उच्चारं | वा पासवणं वा परिहावित्तए, सज्झायं वा करित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए । नो से कप्पइ | अणापुच्छित्ता तं चेव) ॥५१॥ 'वासावासं' इत्यादितः 'तं चेव' ति यावत् सूत्रत्रयी] तत्र- 'तेगिच्छि अं' ति वातिक-पैतिक-लेष्मिकसान्निपातिकरोगाणाम् आतुर-वैद्य-प्रतिचारक-भैषज्यरूपां चतुष्पादां चिकित्सां । तथा चोक्तम् 'भिषकूदव्याण्युपस्थाता रोगो पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्ट प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ॥१॥ FAFACEAECEREM- MECG ॥४१ Sain Educat Weational For Privale & Personal use only Hary.org Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणार टीका ।।४१६॥ व्या० दक्षो' विज्ञातशास्त्रार्थों दृष्टकर्मा शुचि भिषक् । बहुकल्प' बहुगुणं सम्पन्न योग्यमौषधम् ॥२॥ अनुरक्तः शुचि दक्षो बुद्धिमान् प्रतिचारकः । आद्यो रोगी भिषग् वश्यो ज्ञापकः सच्चवानपि ॥३॥ 'आउद्वित्तए' त्ति कारयितुं 'आउट्टि' धातुरागमिकः करणार्थे ॥४९॥ 'तवोकम्म ति अर्द्धमासिकादि तपः। | अत्र प्रत्यपायात् -समर्थो वाऽसमर्थों वाऽयं, वैयावृत्त्यकरो वा अन्यो वा, वैयावृत्त्यकरोऽस्ति नास्ति वा, पारणकादि योग्यं क्षेत्रमस्ति नास्ति वेत्यादिकान् आचार्या एव विदन्ति ॥५०॥ अपश्चिम-चरमं मरणम् अपश्चिममरणं । न पुनः यत् प्रतिक्षणमायुर्दलिकानुभवलक्षणमावीचि(क)मरणं । तदेवान्तः-अपश्चिममरणान्तः । तत्र भवा-आर्षवादुत्तरपदवृद्धौ-अपश्चिममारणान्तिकी सा चाऽसौ संलेखना च 'संलिख्यते-कुशीक्रियन्ते शरीरकपायादि अनया' इति । सा च द्रव्यभावभेदभिन्ना | 'चत्तारि विचित्ताइ' इत्यादिका अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना तस्या । 'झुसण' ति जोषणं-सेवा' तया 'झुसिए' त्ति क्षपितशरीरः । अत एव प्रत्याख्यातभक्तपानः। पादपोपगतः-कृतपादपोपगमनः । अत एव कालं-जीवितं कालंगरणकालं वा अनश्कासन्-अनभिलषन् विहर्तुमिच्छेत् । अत्र प्रत्यपाया-अयं निस्तारको न वा, समाधिपानकं निर्याम का वा सन्ति न वा इत्यादयः । क्षपास्य ह्युदरमलशोधनार्थ त्वगेलानागकेसरतमालपत्रमिश्रशर्कराक्यथितशीतलक्षीरलक्षणं समाधि पानकं पाययित्वा पूगोफलादिद्रव्यैः मधुरविरेचः कार्यते, निर्यामकास्तु-उद्वर्तनाद्यर्थमष्टचत्वारिंशत् । 'परिहावित्तए' त्ति व्युत्स्रष्टुं । धर्मजागरिकां-आज्ञा'ऽपाय विपाक संस्थान विचयभेद-धर्मध्यानविधानादिना जागरणं धर्मजागरिकां तां जागरयितुम्-अनुष्ठातुमिति ॥५१॥ RORERSAHARSARORA SASARA ॥४१६ Jain Educativ ational For Privale & Personal use only wimirmalbrary.org Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४१७॥ ARRAAMA-ARESAR (वासावासं प.भिक्खू इच्छिजा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अन्ययरिं वा उवहिं, आयावित्तए वा पयावित्तए वा नो से कप्पाइ एगं वा अणेग वा अपडिन्नवित्ता गाहावइकुलं भ.पा. नि०प०, असणं वा ४ आहारित्तए । बहिआ विहारभूमि वा विआरभूमि वा सज्झायं वा करित्तए, काउ-18 स्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए, अस्थि अ इत्थ केइ अभिसमन्नागए, अहासंनिहिए, एगे वा अणेगे वा । कप्पाल से एवं वइत्तए-इमं ता अज्जो! तुम मुहत्तगं जाणाहि जाव ताव अहं गाहावइकुलं, जाव काउस्सग्गं वा, ठाणं वा ठाइत्तए । से अ से पडिसुणिजा, एवं से कप्पइ गाहावइकुलं तं च सव्वं भाणियव्वं । से अ से नो पडिसुणिज्जा एवं से नो कप्पइ गाहावइकुलं, जाव काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए)॥५२॥ | [वासावासं' इत्यादितः 'ठाणं वा ठाइत्तए' ति पर्यन्तम् ] तत्र-'वत्थं वा' इत्यादि पादप्रोञ्छन-रजोहरणम् आतापयितुम्-एकवारम् आतषे दातुं, प्रतापयितुं-पुनः पुनः, अनातापनाच कुत्सा-पनकादयो दोषाः । वस्त्राद्युपधौ आतपे दत्ते बहिर्गनुं यावत् कायोत्सर्गेऽपि स्थातुं न कल्पते वृष्टिभयात् । यदि सन्निहितयतिः तिम्यन्तम् उपधि चिन्तयति तदा कल्पते । चिन्तकाऽभावे तु जलक्लेद-चौरहरणाऽकायविराधनोपकरणहान्यादयो दोषाः । स्थानम्-ऊर्ध्वस्थानं तच्च कायोत्सर्गलक्षणं । 'इमं ता' इत्यादि इदं वस्त्रादि तावत् मुहर्तक-मुहूतमात्र जानीहि-विभावय ? 'जाव ताव' त्ति भाषामात्रं यावदर्थे । स च सन्निहितसाधुः 'से' तस्य-उपधि चिन्तनेच्छाकारकर्तु: प्रतिशृणुयाद्-अङ्गीकुर्यात् । वचन मिति शेषः । शेषं स्पष्टम् ॥५२॥ ।॥४१७॥ बब-ACCICOLA Jain Educ a tional For Privale & Personal use only orary.org Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणावली टीका व्या०९ ॥४१८॥ (वासावासं प० नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अणभिग्गहिअसिज्जासणिएणं (याणं) हुत्तए । आयाणमेयं । अणभिग्गहिअसिज्जासणियस्स अणुच्चाकूइअस्स अणटाबंधियस्स अमिआसणिअस्स अणाताविअस्स असमिअस्स अभिक्खणं अभिक्खणं अपडिलेहणासीलस्स अपमज्जणासीलस्स तहा तहा णं संजमे दुराराहए भवइ) ॥५३॥ [वासवासं' इत्यादिः 'संजमे दुराराहए भवई' ति यावत् ] तत्र-अनभिगृहीतशय्याऽऽसनक एव अनभिगृहीतशय्याऽऽसनिकः 'स्वार्थे इक:' तथाविधेन भवितुं न कल्पते-न युक्तं । वर्षासु यतिना मणिकुट्टिमेऽपि पीठफलकाभिग्रहवतैव भाव्यम् । अन्यथा शीतलायां भूमौ शयने कुन्थ्वादिप्राणविराधना अजीर्णादिदोषाश्च स्युः। आसने तु-कुन्थ्वादिसङ्घट्टनिषद्यामालिन्यात् कायवधादयः । 'आदाणमेयं' ति कर्मणां दोषाणां वा आदानम्-उपादानकारणम् । एतदनभिगृहीतशय्यासनिकत्वं । अथवा-अभिग्रहः-निश्चयः स्वपरिगृहीतमेव शय्यासनं मया भोक्तव्यं, नाऽन्यपरिगृहीतम् । आदानत्वमेव दृढयति'अणभिग्गहिअ' इत्यादि सुगमन् । अनुच्चाकुचिकस्य-'कुच परिस्पन्दे' अकुच्चा-अपरिस्पन्दा, निश्चला, यस्याः कम्बिका न चलति । अदृढबन्धने हि सङ्घर्षात् मत्कुणकुन्थ्वादिवधः स्यात् । 'उच्चा' हस्तादि यावत् येन पिपीलिकादिवधो न स्यात् सर्पादिर्वा न दशेत् , उच्चा बाऽऽसौ अकुचा च उच्चाकुचाकम्बादिमयी शय्या सा विद्यते यस्याऽसौ उच्चाकुचिकः, न उच्चाकुचिकोऽनुच्चाकुचिक:-नीचासपरिस्पन्दशय्याकः तस्य । 'अणट्ठाबंधियस्स' ति अनर्थवन्धिनः-पक्षमध्ये अनर्थकंनिष्प्रयोजनम् एकवारोपरि द्वौ त्रीश्चनुरो वा वारान कम्बासु बन्धान् ददाति चतुरुपरि बहुनि वा अडकानि बध्नाति । NERSARACTERIAL ॥४१८॥ For Privale & Personal use only brary.org Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४१९॥ तथा च स्वाध्यायपलिमन्थादयो दोषाः। यदि वा एकाङ्गि चम्पकादिपट्टकं लभ्यते तदा तदेव ग्राह्य, बन्धनादिप्रक्रिया|| परिहारात् । 'अमिआसणिअस्स' त्ति अमितासनिकस्य-अबद्धासनस्य स्थानात् स्थानान्तरं हि मुहुर्मुहुः सङ्कामन् सत्यवधः || स्यात् , अनेकानि वा सेवमानस्य । 'अणाताविअस्स' ति अनातापिन:-संस्तारकपात्रादीनामातपेऽदातुः। तत्र च पनकसंसक्त्यादयो दोषाः, उपभोगे च जीववधः, उपभोगाऽभावे च उपकरणमधिकरणमेवेति । असमितस्य ईर्यादिषु तत्रआद्यतुर्यपञ्चमसमितिष्यसमितो जीवान् हन्ति, भाषाऽसमितः सम्पातिमान् , एषणा असमितो हस्तमात्रादौ अप्कायः परिणतो न वा इति न वेत्ति । अभीक्ष्णम् अभीक्ष्णं-पुनः पुनरप्रतिलेखनाशीलस्य-चक्षुषा अदृष्ट्वा । अप्रमार्जनाशीलस्य-रजोहरणादिनाः अप्रमृज्य, स्थानादिकर्तुः। आभ्यां च दुःप्रतिलेखितदुःप्रमाणिते सङ्गृहीते। नत्रः कुत्सार्थत्वात् । तथा तथा-तेन तेन प्रकारेण संयमो दुराराध्यो दुःप्रतिपाल्यो भवति । यथा यथा तानि तानि स्थानानि करोति, तथा तथा संयमाराधना दुष्करा इत्यर्थः ॥५३॥ (अगायाणमेअं अभिग्गहिअसिज्जासणिअस्स उच्चाकूइ अस्स अट्टाबंधिअस्स मियासणियस्स आयाविअस्स समियस्स अभिक्खणं अभिक्खणं पडिलेहणासीलस्स पमजणासीलस्स तहा तहा णं सुआराहए संजमे भवइ) ॥५४॥ आदानमुक्त्वाऽनादानमाह-[ 'अणायाणं' इत्यादितः 'संजमे सुआराहए भवई' ति पर्यन्तम् ] तत्र-कर्मणाम् असंयमस्य वा अनादानमेतत्-शय्याऽऽसनाभिग्रहवता भाव्यम् । उच्चाकुचा शय्या कर्तव्या, अर्थाय-सकृच्च पक्षान्तवन्धनाय ॥४१९ NAGEMARACAAAAACC Jain Education Acational For Private & Personal use only www.a library.org Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प टीका ॥४२०॥ RECE अड्डकानि चत्वारि कार्याणि । अथ संयमाराधनाय चत्वारि स्थानान्याह-कारण एवोत्थानाद् बद्धासनेन भाव्यं १। किरणाः संस्तारकादीनि तापनीयानि २। ईर्यादिषु समितेन-यतनावता भाव्यं ३ । प्रतिलेखना-प्रमार्जनाशीलेन भाव्यं ४ । यथा व्या० यथा एतानि स्थानानि करोति, तथा तथा संयमः मुखाराध्यः सुकरो वा भवति इति । ततश्च मोक्षः ॥५४॥ | (वासावासं १० कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा तओ उच्चार-पासवणभूमीओ पडिलेहित्तए; न तहा हेमंतगिम्हासु। जहा णं वासावासासु । से किमाहु भंते! वासासु णं ओसन्नं पाणा य बीया य पणगा य हरिआणि य भवंति ) ॥५५॥ (वासावासं प० कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा तओ | मत्तगाई गिण्हित्तए । तं जहा-उच्चारमत्तए १ पासवणमत्तए २ खेलमत्तए ३) ॥५६॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'खेलमत्तए' ति यावत् सूत्रद्वयो] तत्र-'तओ उच्चारपासवणभूमीओ' त्ति अनधिसहिष्णोः तिस्रोऽन्तः, अधिसहिष्णोश्च बहिः तिस्रः। दूरव्याधाते मध्या भूमिः तयाघाते चाऽऽसन्नेति । आसन्नमध्यदृरभेदात्तिस्रः ग्रीष्मेति प्राग्वत् । 'ओसन्नं' इत्यादि ओसन्नं ति-प्रायेण-बाहुल्येन इत्यर्थः। प्राणाश्च शङ्खनकेन्द्रगोपककृम्यादयः, तृणानि-प्रतीतानि, बीजानि-तत्तद्वनस्पतीनां नवोद्भिनकिसलयानि, पनका-उल्लयः, हरितानि-बीजेभ्यो जातानि । अथवा-'पाणायतणा य'त्ति प्राणानां-जीवानाम् आयतनानि-स्थानभूतानि बीजानि पनका हरितानि वा इति डू योज्यम् । क्वचित्-'पाणायतण' त्ति पाठः। तत्र-प्राणायतनमिति व्याख्येयं । 'तओ मत्तगाई' ति त्रीणि मात्रकाणि । तदभावे वेलातिक्रमणे वेगधारणे आत्मविराधना। वर्षति च बहिर्गमने संयमविराधना। अत्र चूर्णिः-'बाहि तस्स १२२२२२ % A ॥४२८ Sain Educ a tional For Privale & Personal Use Only wwwbary.org Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४२१॥ . कि. ३९ ૧૦૬ Jain Edu गुम्मआइगहणं तेण मत्तए वोसिरिता वाहिं णित्ता परिवेइ' । पासवणे वि अभिग्गहिओ घरेइ, तस्सासई जो जाहे चोसिर सो ताहे धारेइ ण निक्खिवइ, सुवंतो वा उच्छंगे ठितयं चेत्र उवरि दंडए वा दोरेणं बंधइ, गोसे असंसत्तिआभूमीए अन्नत्थ परिठवेइ' त्ति ।। ५५-५६ ॥ (वासावास प० नो कपड़ नियंत्रण वा निग्गंयोग वा परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते केसे तं स्यणि उवायणावित्तए । अज्जेणं खुरमुंडेण वा लुकसिरएण होयव्वं सिया । पक्खिया आरोवणे, मासिए खुरमुंडे, अद्धमासिए कत्तरिमुंडे, छम्मासिए लोए संवच्छरिए वा थेरकप्पे ) ॥ ५७ ॥ [ 'वासवास' इत्यादितः 'संवच्छरिए वा थेरकंप्पे' ति यावत् ] तत्र - पर्युषणातः परम् - आषाढचतुर्मास कादनन्तरम् । आसतां दीर्घा 'घुवलोओ उ जिणाणं निच्चं, थेराण वासासु' ति वचनात् । गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीयाः, यावत्तां रजनीं भाइसितपञ्चमीं नातिक्रामयेत् तत्पञ्चम्यां रात्रेर्वागेव लोचं कारयेत् । इदानीं तु भाद्रसितचतुर्थ्या रात्रेर्वागेवेति । अयं भावः - समर्थो वर्षासु नित्यं लोचं कारयेत्, असमर्थोऽपि तां रात्रिं नोल्लङ्घयेत् । पर्युषणायां लोचं विना अवश्यं प्रतिक्रमणस्य अकल्प्यत्वात् । केशेषु हि अष्कायविराधना तत्संसर्गाच्च यूकाः संमूर्च्छन्ति, ताश्च कण्डूयमानो हन्ति, शिरसि नखक्षतं वा स्यात् । यदि क्षुरेण मुण्डापयति कर्त्तर्या वा तदाऽऽज्ञाभङ्गाद्याः, संयमात्मविराधना, यूकाछिद्यन्ते, नापितच पश्चात्कर्म करोति, अपभ्राजना च शासनस्य । ततः - लोच एव श्रेयान् । यदि वा असहिष्णोः लोचे कृते ज्वरादिर्वा स्याद्, बालो वा रुद्यात्, धर्मं त्यजेत् । ततो न तस्य लोचः कार्य इत्याह- 'अज्जेणं' इत्यादि आर्येण साधुना क्षुरमुण्डेन foninternational ॥४२१॥ nelibrary.org Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥४२२॥ । वा लुश्चितशिरोजेन वा भवितव्यं स्यात् । 'लुक' ति लुञ्चिताः शिरोजाः केशा यस्य अपवादतो बालग्लानादिना ॥3 किरणावली क्षुरमुण्डेन; उत्सर्गतो-लुञ्चितशिरोजेन इत्यर्थः। तत्र च केवलं प्रामुकोदकेनात्मनो गृहीत्वा शिरःप्रक्षाल्य नापितस्याऽपि टीका तेन करौ क्षालयति । यस्तु क्षुरेणापि कारयितुमक्षमः व्रणादिमच्छिरो वा तस्य केशाः कर्तर्या कल्पनीयाः। 'पक्खिआ व्या०९ आरोवेण' त्ति पाक्षिकं बन्धदानं-संस्तारकदवरकाणां पक्षे पक्षे बन्धा मोक्तव्याः प्रतिलेखितव्याश्च इत्यर्थः। अथवाआरोपणाप्रायश्चित्तं पक्षे पक्षे ग्राह्यं सर्वकालं, वर्षासु विशेषतः। 'मासिए खुरमुंडे' ति-मासि मासि असहिष्णुना मुण्डनं कारणीयं । 'अद्धमासिए कर्तरिमुंडे' त्ति यदि कर्तर्या कारयति, तदा पक्षे पक्षे गुप्तं कारणीय, क्षुरकर्तर्योश्च लोचे प्रायश्चित्तं निशीथोक्तं यथासङ्खयं लघु-गुरुमासलक्षणं ज्ञेयं । 'छम्मासिए लोए' ति पाण्मासिको लोचः 'संबछरिए थेरकप्पे' त्ति स्थविराणां-वृद्धानां जराजर्जरत्वेनाऽसामर्थ्यात् , दृष्टिरक्षार्थ वा अर्थात् तरुणानां चातुर्मासिकः । अत्र संवत्सरो वर्षारात्रः 'संवच्छरं वा वि परे पमाणं । बी व वासं न तहिं वसिज' ति वचनात् । तत:-संवत्सरे-वर्षासु भवः सांवत्सरिको वा लोचः कार्यः । स्थविरकल्पे-स्थविरकल्पस्थितानां ध्रुवो लोचः इति 'वा' शब्दो विकल्पार्थः । अपवादतो नित्यलोचाऽकरणेऽपि पर्युषणापर्वण्यवश्य लोचः कार्य इति सूचयति । अथवा-एष सर्वोऽपि उक्तविधिः-आपृच्छय भिक्षाचर्यागमनं विकृतिग्रहणादिः मात्रकावसानः सांवत्सरिकः-वर्षाकालसम्बन्धी स्थविरकल्पः-स्थविरमर्यादा । 'वा' शब्दः किश्चिज्जिनकल्पिकानामपि सामान्यमिति सूचयति । प्रायः स्थविराणामेवाऽयं कल्प इत्यर्थः ॥५॥ ॥४ ॥४२२॥ (वासावासं प० नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वइत्तए । जे णं नवनवख Jain Eda Inamational For Privale & Personal use only MAimplibrary.org Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४२३॥ निग्गंथो वा निग्गंधी वा परंपज्जोसवणाओ अहिगरणं वयइ,सेणं अकप्पेणं अजो! वयसीति बत्तन्वं सिया; जे णं निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं क्यह, से निज्जूहियव्वे सिया)॥५८॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'से निज्जूहियवे सिआ' ति पर्यन्तम् ] तत्र-'अहिगरणं त्ति अधिकरणं-रादिः तत्कर वचनमप्यधिकरणं । 'वइत्तए' ति वदितुं । 'अकप्पेणं' त्ति हे आर्य ! अकल्पेन-अनाचारेण वदतीति वक्तव्यः । यत:पर्युषणादिनतोऽर्वाग् पर्युषणादिन एव वा यदधिकरणमुत्पन्नं तत्पर्युषणायां क्षामितं, यच्च त्वं पर्युषणानः परमधिकरणं | वदसि, सोऽयमकल्प्य [अनाचार] इति भावः । 'निज्जूहियव्वे सिआ' इति निहितव्यः-जाम्बूलिपत्रदृष्टान्तेन सङ्घाद् बहिः कर्त्तव्यः । यथा-ताम्बूलिकेन विनष्ट पत्रम् अन्यानि पत्राणि विनाशयद बहिरेव क्रियते, तद्वदयमपि अनन्तानुबन्धिक्रोधाधाविष्टो विनष्ट एवेत्यतो बहिः कर्तव्य हति भावः । तथा-अन्योऽपि द्विजदृष्टान्तो यथा-खेटवास्तव्यो रुद्रनामा द्विजो वर्षाकाले केदारान् क्रष्टुं हलं लाथा क्षेत्रं गतः। हलं वाहयतस्तस्य गलिबलिवई उपविष्टः, तोत्रेण ताडयमानोऽपि यावन्नोत्तिष्ठति, तदा क्रुधाऽऽकुलेन केदारत्रय[स्थ] मृत्खण्डैरेवाऽऽहन्यमानो निःश्वासरोधान्मृतः। पश्चात्स पश्चात्तापं विदधानो महास्थाने गत्वा स्ववृत्तान्तं कथयन्नुपशान्तोऽनुपशान्तो वेति ? महास्थानस्थैः पुरुषैः पृष्टे 'नाऽद्यापि ममोपशान्तिः' इत्युक्तेऽयोग्योऽयम् अनुपशान्तकषायत्वाद् अपाङ्कतेयो द्विजैश्चक्रे । एवं वार्षिकपर्वण्यपि 'साहम्मिए अहिगरणं करेमाणे' ति वचनात् साधर्मिकैः सममधिकरणं कुर्वाणः सङ्घबाह्यो भवति । अत एव सापराधोऽपि 'चण्डप्रद्योतः साधर्मिक' इतिकृत्वा उदयनराज्ञा मुक्तः । तद्वयतिकरस्त्वेवम्-सिन्धुदेशे महसेनप्रभृति-दश-मुकुटबद्धनृपसेव्यमानो वीतभयपुरा मा॥४२३॥ Sain Educa t ional For Privale & Personal Use Only WWW rary.org Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प॥४२४ ॥ धिपतिः उदयनराजा । स हि विद्युन्माल्यर्पितदेवाधिदेवप्रतिमाऽर्चक श्राद्धार्पितगुटिका जाताऽद्भुतरूपाया देवदत्ताया दास्या अपहर्त्तारं चतुर्दशमुकुटवद्ध राजसेव्यं मालवाधिपं चण्डप्रद्योतं सङ्ग्रामे बद्ध्वा पश्चादागच्छन् दशपुरस्थाने वार्षिकपर्वणि कृतोपवासः सूपैः पृथग्रभोजनाय पृष्टे - विषभ्रान्त्या ममाऽप्यद्योपवासोऽस्तीति वदति धूर्तसाधम्मिकेऽपि अस्मिन् वद्धे मम कथं प्रतिक्रान्तिशुद्धिः ? इति विचिन्त्य तं मुक्त्वा क्षमयित्वा च 'मम दासीपतिः' इति पूर्वलिखिताक्षरस्थगनाथ भाले पवन्धं दत्त्वा अवन्तिदेशं दत्तवान् इति । न पुनः कुम्भकार - क्षुल्लकदृष्टान्तेन द्रव्यत एव क्षामणकं विधेयं । स चैवम् - कश्चित्कः कुम्भकारभाण्डानि कर्करैः सच्छिद्रीकुर्वन् ' मा कुरु इत्थं' कुलालेन निवारितो 'मिच्छामि दुक्कडं' इति वाङ्मात्रेण वदन्नपि पुनः पुनः तथाकुर्वन् एकदा कुलालेन कर्णमोटनपुरस्सरं कथमहं पीडये त्वया ? इति भणन् 'मिच्छामि दुकडं' इति क्षुल्लकवत् पाठमात्रमुच्चरता शिक्षितः । एवं मिथ्यादुष्कृतं द्रव्यतो न देयम् । उपशान्तोपस्थितस्य च मूलं दातव्यम् ||५८ ॥ ( वासावास प० इह खलु निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा अज्जेव कक्खडे कडुए विग्गहे समुप्पज्जिज्जा; सेहे राइणिअं खामिजा, राइणिए वि सेहं खामिज्जा (१२०० ) । खमियन्वं खमावियन्धं उवसमियन्वं उवसमावयवं संमुइ (सुमइ) संपुच्छणाबहुलेण होयव्वं । जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा, जो उन उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा; तम्हा अध्पणा चेव उवसमियन्वं । से किमाह भंते ! उवसमसारं खु सामण्णं) ।। ५९ ।। Jain Educationernational किरणाव टीका व्या० ॥४२४॥ orary.org Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४२५॥ AAR-AROR ['वासावासं' इत्यादितः 'उवसमसारं खु सामण्णं' इति पर्यन्तम् ] तत्र-इह-प्रवचने अद्यैव पर्युषणा दिने 'कक्खड'-उच्चैः शब्दः कटुकः-जकारमकारादिरूपः विग्रहः-कलहः समुत्पद्यते शैक्ष:-अवमरात्निकः रात्निक-रत्निाधिकं । यद्यपि रात्निकः प्रथमं सामाचारीवितयकरणेऽपराधः, तथाऽपि शैक्षेण रात्निकः क्षामणीयः । अथ शैक्षोऽपुष्टधर्मा तदा रात्नि करतं प्रथमं क्षमयति । तस्मात् क्षमितव्यं स्वयमेव, क्षामयितव्यः परः, अव्यक्तत्वान्नपुंसकत्वं 'किं तस्या गर्ने जातम् ?' इतिवत् । तथा उपशमितव्यम् -आत्मना उपशमः कर्तव्यः । उपशमयितव्यः पर:___ 'जं अजिअं समीपत्तएहिं तवनियमबंभमइएहिं । मा हुतयं कलहंता उल्लिंचह सागपत्तेहिं ॥१॥ जं अज्जिभ चरितं देसूणाए वि पुचकोडीए । तंपि कसाइअमित्तो हारेइ नरो मुहुत्तेणं' ॥२॥ इत्यादिभिः उपदेशः 'संमुइ' ति [शोभना मतिः] रागद्वेषरहितता तत्पूर्व या सम्पृच्छना-सूत्राऽर्थेषु ग्लानाऽग्लानानां वा तद् बहुलेन भवितव्यं । रागद्वेषौ विहाय येन साकमधिकरणमासीत् , तेन सह सूत्राऽर्थेषु स प्रश्नः कार्यः। न तु एकतरस्य क्षमयतोऽपि । यद्यको नोपशाम्यति तदा का गतिः ? इत्याह-'जो उसमई' इत्यादि य उपशाम्यति उपशमयति वा कषायान् तस्याऽस्त्याराधना ज्ञानादीनां। विपर्ययः सुगम एव । 'सामण्णं' ति श्रमणभाव उपशमसारम्-उपशमप्रधानं खु-निश्चये। 'सामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा हुंति । मन्नामि उच्छुपुप्फ व निप्फलं तस्स सामण्णं ॥१॥ इति वचनात् उपशम एव श्रामण्यसारं, मृगावत्या इव, केवलज्ञान हेतुत्वात् । तच्वेवम्-अन्यदा श्री महावीरः कौशाम्ब्यां समवसृतः । तत्र- सविमानौ चन्द्राकौं वन्दितुं समायातौ । चन्दना च दक्षत्वाद अस्तसमयं ज्ञात्वा स्वस्थाने गता । मृगावती तु स्वस्थानं AALAAAAAACAE १०७ -42-ARSA १ ॥४२५ Jain Educa De national For Private & Personal use only w aalbrary.org Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥४२६॥ गतयोः चन्द्रसूर्ययोः तमसि विस्तृते भीता सती द्रुतं साध्वीनामुपाश्रये गता । स्थानाङ्गवृत्तौ तु सः साध्वीभिः आर्यचन्दनासमीपं गतेति । तदनु च तत्रेर्यापथिकीं प्रतिक्रम्य शयनस्थां प्रवर्त्तिनीं प्रणम्य 'क्षम्यतामयमपराध' इत्युक्तवतीं मृगावतीं प्रति चन्दनाऽपि चन्दनशीतलाभिर्वाणीभिः वदतिस्म भद्रे ! भद्रकुलोत्पन्ने ! तवेदृशं न युक्तम् । साऽप्यूचे 'मयका महदेतत्वातकं कृतं नेदं भूयः करिष्ये' इत्युक्त्वा पादयोः पतिता । तात्रता प्रवर्त्तिन्या निद्राऽगात् । तया च तथैव स्थितया शुभभावतः मन केवलज्ञानमाप्तं । सर्पव्यतिकरेण प्रबुद्धा सती - 'कथं सर्पोऽज्ञायि ?' इति प्रश्नेन केवलज्ञानमवगम्य मृगावतीं क्षमयन्ती चन्दनापि केवलज्ञानमापेति दृष्टान्तेन 'मिध्यादुष्कृतं ' देयम् ॥ ५९॥ ( वासावास प० निरगंधाण वा निग्गंधीण वा कप्पर तओ उवस्सया गिव्हित्तए । तं० वेउब्विआ, पडिलेहा, साइज्जिया पमज्जणा ) ॥ ६० ॥ ['वासावास' इत्यादित: 'पमजणे 'ति यावत् ] तत्र - वर्षासु उपाश्रयाः त्रयो ग्राह्याः । संसक्तजलप्लावनादिदोषभयाद् । 'तं' इतिपदं तत्रायें सम्भाव्यते 'वेडन्विआ' क्वाऽपि 'वेउद्दिअ'ति उभयत्रापि पुनः पुनरित्यर्थः 'साइजिआ मज्जण' ति आ 'साइज्ज धातुरास्वादने' वर्त्तते । तत्र - उपभुज्यमानो य उपाश्रयः स च 'कडेमाणे कडे' इतिन्यायात् 'साइज्जिओ' त्ति भण्यते । तत्सम्बन्धिनी प्रमार्जनाऽपि 'साइज्जिआ' अयं भावः - यस्मिन्नुपाचये स्थिताः साधवस्तु - प्रातः प्रमार्जयन्ति १, पुनर्भिक्षागतेषु साधुषु २, पुनः प्रतिलेखनाकाले तृतीयप्रहरान्ते ३, चेति वास्त्रयं प्रमार्जयन्ति वर्षासु । ऋतुबद्धे तु द्विः । यतु सन्देहविषौषध्यां - वारवतुष्टयप्रमार्जनमुकं । तदयुकं । चूर्णी - वारत्रयस्यैवोक्तत्वात् । अयं च विधिः किरणावली टीका व्या० ९ ॥४२६॥ library.org Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||४२७॥ REASEAR असंसके, संपके तु पुनः पुनः प्रमायनि । शेगोपाश्रयद्वयं प्रतिदिनं प्रतिलिखन्ति प्रत्यवेक्षन्ते । मा कोऽपि तत्र स्थास्यति, ममत्वं वा करिष्यति इति । तृतीयविसे पाइपोछनकेन प्रमार्जयन्ति । अत उक्तं-'वेउबिआ पडिले ह' त्ति ॥६॥ (वासावासं प. निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा कप्पइ अन्नयरिं दिसं वा अणुदिसं वा अवगिज्झिय अवगिज्झिय भत्तपाणं गवेसित्तए। से किमाह भंते ! ओसन्नं समणा भगवंतो वासासु तवसंपउत्ता भवंति । तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिल वा पवडिज वा तामेव दिसंवा अणुदिसंवा समणा भगवंतो पडिजागरंति)॥६१॥ ['वासावासं' इत्यादितः पिडिजागति' इतिपर्यन्तम् ] तत्र-'अन्नयरिं'ति अन्यतरां दिशे-पूर्वादिकां अनुदिशंविदिशमाग्नेय्यादि काम् । अगृह्य-उदिश्य 'अहममुका दिशमनुदिशं वा यास्यामि' इत्यन्यसाधुभ्यः कथयित्वा भक्तपानं गवेषयितुं विहां कल्पते । 'से किमाहुभंते !' ति किमत्र कारणं ? । आचार्य आह-ओसन्न-प्रायेण श्रमणा भगवन्तो वर्षासु तपःसम्प्रयुका-प्रायश्चित्तवहनाथ, संयमार्थ, स्निग्धकाले मोहजयार्थ वा षष्ठादितपश्चारिणो भवन्ति । ते तपस्विनी दुर्बलाः-तपसैव कृशाङ्गा । अत एव-क्लान्ताः सन्नो मृर्छ येयुः प्रपतेयुर्वा । तत्र-मृग-इन्द्रियमनोबैकल्यं, प्रपतनंदौर्बल्यात् प्रस्खल्प भूमौ पतनं । तामेव दिशमनुदिशं वा श्रमणा भगवन्तः प्रतिजामति-प्रतिचरन्ति गवेषयन्ति । अयं भावार्थ:-भकाद्ययं यस्यां दिशि विदिशि वा गच्छेयुः, तां गुर्वादिभ्यः कथयिता गाउन्ति येन तेषां तत्र गतानां तपालमादिमूच्छितानां वा पाश्चात्या साधवः, तस्यां दिशि विदिशि वाऽभ्येत्य सारां कुर्वन्ति । अकथयित्वा तु गतानां ECRETARIAGRECAPESALES ॥४२७) JainEduces For Privale & Personal use only brary.org Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प किरणाव टीका व्या . 18| दिगपरिज्ञानात् कथं ते तां कुर्युः ? इति ॥६१।। (वासावासं प० कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा जाव चत्तारि पंच जोयणाई गंतु पडिनियत्तए । ॥४२८॥ अंतरा वि असे कप्पइ वधवए । नो से कप्पइ तं रयणिं तत्थेव उवायणावित्तए ॥६२॥ ['वासावासं' इत्यादितः 'उवायणावित्तए' त्ति पर्यन्तम् ] तत्र-वर्षाकल्पौषधवैद्याद्यर्थ ग्लानसाराकरणार्थ वा यावच्चत्वारि पञ्च योजनानि गत्वा प्रतिनिवर्तेत, तत्प्राप्तौ तदैव व्याघुटयेत । न तु यत्र लब्धं तत्रैव वसेत् । स्वस्थानं प्राप्तुमक्षमश्वेत तदा अन्तराऽपि वसेत्, न पुनस्तत्रैव । एवं हि वीर्याचार आराधितो भवति इति । यत्र दिने वर्षाकल्पादिलब्ध तदिनरात्रि तत्रैव नाऽतिक्रमेत् । यस्यां वेलायां तल्लब्धं तस्यामेव वेलायां ततो निर्गत्य बहिस्तिष्ठेत् । कारणे तु तादृशे तत्रापि वसेदिति हृदयम् ॥६२॥ इति पर्युषणा सामाचारीमभिधाय तत्पालनायां फलमाह (इच्चेइ अं संवच्छरियं थेरकप्पं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्च सम्मं कारण फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरित्ता किहित्ता आराहित्ता आणाए अणुपालित्ता अस्थेगइया समणा निग्गंथा तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति बुजगंति मुच्चति परिनिव्वाइंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति, अत्थेगइया दुच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झंति जाव अंतं करेंति, अत्थेगइया तच्चेणं जाव अंत करेंति, सत्तभवग्गहणाइं पुण नाइकमंति)॥६३॥ ['इच्चेअं' इत्यादित: 'पुण नाइकमंति' ति यावत् ] तत्र-इति:-उपदर्शने । एवं पूर्वोक्तं सांवत्सरिक-वर्षारात्रिकं NCRECTECECRECICIA ॥४२८ Sain Education national For Private & Personal use only WWW.FTlitary.org Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९॥ ACCOECREGIONEERSACRECISocc स्थविरकल्पं । यद्यपि किश्चिन्जिनकल्पिकानामपि सामान्य, तथापि भूम्ना स्थविराणामेवाऽत्र सामाचारीति स्थविरकल्पमर्यादा, यथासूत्रं-यथा सूत्रेण भणितं, न सूत्रव्यपेतं । तथाकुर्वतः कल्पो भवति । अन्यथा त्वकल्प इति । यथाकल्पम् । एवं कुर्वतश्च| ज्ञानादित्रयलक्षणो मार्ग इति यथामार्गः । यत एवं यथामार्ग अत एव यथातथ्यं-यथैव सत्यमुपदिष्टं भगवद्भिः, तथैव तं च सम्यक् यथावस्थितम् । 'काएण'त्ति उपलक्षणत्वात् कायवाङ्मनोभिः। अथवा-कायशब्देनैव योगत्रयं व्याख्यायते । तथाहिकायेन-शरीरेण । 'कै गै रै शब्दे' इति धातोः कायते-उच्चार्यते इति कायः-वचनं तेन । कं-ज्ञानं तदेव आत्मा-स्वरूपं यस्य तत कात्म-मनो बुद्धथात्मकत्वात्मनसः तेन । ततश्च कायवाडू-मनोभिः इत्यर्थः। स्पृष्टा-आसेव्य, पालयित्वा-अतिचारेभ्यो ६) रक्षयित्वा, शोधयित्वा शोभयित्वा वा-विधिवत्करणेन, तीरयित्वा-यावज्जीवमाराध्य, यावज्जीवमाराधनेन अन्तं नीत्वा वा, कीर्तयित्वा-अन्येभ्य उपदिश्य, आराध्य अविराध्य यथावत्करणात् , आज्ञया-भगवदुपदेशेन, अनुपाल्य-अन्यैः पूर्व पालित. | स्य पश्चात्पालनेन, तस्येवं पालितस्य फलमाह-'अत्थेगइया' इति सन्त्येके-अत्युत्तमया तदुनुपालनया तस्मिन्नेव 'भवग्गहणे' भवे सिद्धयन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति, बुद्ध्यन्ते-केवलज्ञानेन, मुच्यन्ते-भवोपग्राहिकर्मा शेभ्यः, परिनिर्धान्ति-कर्मकृतसकलसन्तापपरिहाराच्डीतिभवन्ति, किमुक्तं भवति-सर्वदुःखाना-शारीरमानसानाम् अन्तं-विनाशं कुर्वन्ति इति उत्तमया अनुपालनया, द्वितीयभवे, मध्यमया अनुपालनया, तृतीयभवे तु जघन्ययाप्यनुपालनया, सप्ताऽष्टौ वा भवग्रहणानि नाऽतिक्रामन्ति ॥६३।। (तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे, गुणसिलए चेइए, बहूणं समणाणं, ૧૦૮ ॥४२९॥ Jain Ed e rational For Privale & Personal use only M anelibrary.org Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प ४३०॥ बहूर्ण समणीणं, बहणं सावयाणं, बढणं सावियाणं, बहणं देवाणं, बहणं देवीणं मज्झगए चेव एवमाइ. लकिरणावली क्खह, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ, पज्जोसवणा कप्पो नाम अज्झयणं सअटुं, सहेउयं, सकारणं, टीका व्या०९ ससुतं, सअत्थं, सउभयं, सवागरणं, भुजो भुज्जो उवदंसेइ त्ति बेमि) ॥ ६४ ॥ * इति श्री पज्जोसवणाकप्पो दसामुअक्खंधस्स अट्ठमं अज्झयणं सम्मत्तं * न चैतत्स्वमनीषिकया उच्यते, किन्तु 'भगवदुपदेशपारतन्त्र्येण' इत्याह['तेगं कालेणं' इत्यादितः 'बेमि' ति यावत् ] तत्र-तस्मिन् काले-चतुर्थाऽऽरकमान्ते, तस्मिन् समये-राजगृहसमवसरणावसरे । मध्यगत:-श्रमणादि-देव्यन्तपरिषन्मध्यवर्ती 'चेव' ति अवधारणे, मध्यगत एव: न पुनरेकान्ते । अनेन 'उद्घाटथ शिरः' इत्युक्तं । क्वचिच्च ‘स देवमणुासुराए परिसाए मज्झगए' इति पाठः । तत्र परि-सर्वतः सीदतीति परिषत् । परिषद् ग्रहणात् समवसरणे गृहिणामपि कथ्यते इत्युक्तम् । एवमाख्याति-यथोक्तं कथयति, एवं भाषते-बाग्योगेन, एवं प्रज्ञापयति-अनुज्ञापितस्य फलं ज्ञापयति । पवं प्ररूपयति-दर्पणतल इव प्रतिरूपं श्रोतृणां हृदये सङ्क्रमयति । इदानीं आख्येयस्य नामधेयमाह-'पज्जोसवणाकप्पो नाम अज्झयणं' त्ति पर्युषणा-वर्षास्वेकक्षेत्रनिवासः, तस्याः कल्पः-सामाचारी, साधुसाध्वीराश्रित्य विधि-प्रतिषेधरूपाणि कर्तव्यानि तदभिधेययोगात् अध्ययनमपि पर्युषणाकल्पः। तथा च पर्युषणाकल्पनामाध्ययनं भूयो भूय उपदर्शयति-विस्मरणशीलश्रोत्रनुग्रहार्थमनेकशः प्रदर्शयति । द्विवचनं निकाचनार्थमिति संबंधः। 'स अटुं' ति सार्थ-प्रयोजनयुक्तं, न पुनः अन्तर्गडुकण्टकशाखामर्दनवदभिधेयशुन्यः । तथाविधवर्णानुपूर्वीमात्रबद्धं 'सहेउयं' AAAAAAAEESAR Jain E n terational For Private & Personal use only www.aimelibrary.org Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४३१॥ ति 'अननुपालयतः अमी दोषाः' इति दोषदर्शन हेतुः। अथवा-हेतुः-निमित्तं यथा-'सविसइराए मासे वइक्कंते पज्जोसवेअव्वं' इत्युक्ते किं निमित्त ? 'पाएणं अगारीणं अगाराई' इत्यादिको हेतुः। तेन सहितं सहेतुकं । तथा सकारणं-कारणम्अपवादः। यथा-'आरेणापि कप्पइ पज्जोसवित्तए' ति तेन सहितं सकारणं । ससूत्रं सार्थ सोभयमिति प्रतीतम् । अथ सार्थत्वं कथमध्ययनस्य ? नात्र टीकादाविव अर्थः पृथग व्याख्यातोऽस्ति । सत्यं, सूत्रस्य अर्थनान्तरीयकत्वाददोषः । तथा सव्याकरणं-पृष्टाऽपृष्टार्थकथनं व्याकरणं तत्सहितमिति । इति भद्रबाहुस्वामी स्वशिष्यान् ब्रूते, नेदं स्वमनीषिकया ब्रवीमि, किन्तु तीर्थकरगणधरोपदेशेन इति । अनेन च गुरुपारतन्त्र्यमभिहितमिति ॥६४॥ CRETTEHREHSAAGAGANA इति श्री जैनशासनसौधसम्भायमानः महामहोपाध्याय-श्री धर्मसागरगणिवरविरचितायां कल्पकिरणावल्यां नवमं व्याख्यानं समाप्तम् । व्याख्योपयोगिनिश्शेष-वाच्यरुच्या वचस्विनाम् । स्फूर्तिकी सदस्येपा श्री कल्पकिरणावलिः ॥१॥ विक्रमादष्टयुक्षक-शशाङ्काङ्कित (१६२८) वत्सरे । दीपोत्सवदिने दृब्धा राजधन्यपुरे पुरे ॥२॥ युग्मम् ॥ अनुष्टुभां द्विपश्चाशच्छतान्यक्षरसङ्ख्यया । पोडशोपरि वर्णाश्च ग्रन्धमानमिहोदितम् ॥३॥ इति श्री कल्पकिरणावलीनाम्नी वृत्तिः सम्पूर्णा । 15AP ॥४३१॥ Jan EPA For Private & Personal use only KEnelbrary.org Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्प ॥४३२॥ SECRECRAAAAAAAAS अथ प्रशस्तिः 18किरणावळी टीका श्री वर्द्धमान प्रभुशासनाऽभ्र--प्रभासने नव्यसहस्रभानोः । लीलां दधानोऽपि सुधैकधामा सुधर्मनामा गणभृद्धभूव ॥१॥ व्या०९ तत्पट्टपूर्वाऽचलचित्रभानवो-ऽनेके बभूवुभूवि सरिशेखराः। सम्प्राप्नुवन्तो गुणजां नवां नवां गच्छस्य सञज्ञां किल कौटिकादिकाम् ॥२॥ बृहदगणाम्भोनिधिचन्द्रसनिभाः श्रीमज्जगच्चन्द्रगुरुत्तमा क्रमात । तेषामशेषागमपारगामिनो समुदबभूवुर्भुवनैकभूषकाः॥३॥ तपोभिदुस्तपैः प्रापुर्येन 'तपा' इति विश्रुतम् । बिरुदं वाण नागेन्द्र द्वि'चन्द्राङ्कितवत्सरे (१२८५) ॥४॥ ततःप्रभृति गच्छोऽयं 'तपागच्छ' इति क्षितौ । विख्यातोऽभूज्जनानन्द-कन्दकन्दलनैकभूः ॥५॥ तत्परम्परया श्रीमदानन्दविमलाहयाः। मरीन्द्राः समजायन्त जगदानन्ददायिनः ॥६॥ मिथ्यामततमस्तोम-समाक्रान्तमिदं जगत् । पतत्श्वभ्रे समुद्दधे यैः कियोद्धारपूर्वकम् ॥७॥ तत्पट्टकुम्भिकुम्भस्थलैकसिन्दूरपूरसङ्काशाः । श्री विजयदानसूरीश्वरा बभूवुर्जगद्विदिताः ॥८॥ तेषां पट्टे सम्प्रति विजयन्ते हीरविजयसूरीशाः । ये श्वेताम्बरयतिनां सर्वेषामाधिपत्यभृतः ॥९॥ कलिकालेऽपि प्रकटीकृत-तीर्थकरसमानमहिमानः । सङ्गीयन्ते सकलैरद्भुतमाहात्म्यदर्शनतः ॥१०॥ तेषां विजयिनि राज्ये राजन्ते सकलवाचकोत्तंसाः । श्री धर्मसागराहाः निखिलागमकनककषपट्टाः ॥११॥ कुमतिमतङ्गजकुम्भस्थलपाटनपाटवेन सिंहसमाः । दुर्दमवादिविवादादपि सततं लब्धजयवादाः ॥१२॥ ॥४३२॥ AIRIRLARGAUGERRIGLICKS Jain Educatie mational For Private & Personal use only nelibrary.org Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४३३॥ RASHISARSHAST श्री कल्पसूत्रगतसंशयतामसाली-नाशे नवीनतरणेः किरणालिकल्पा । एषा विशेरचना रुचिरा वितेने, तैरत्र कल्पकिरणावली नाम वृत्तिः ॥१३॥ यावत्तिष्ठति मेरुवन्जिनशासनं जगन्मध्ये । तावत्तिष्ठतु शिष्टैनिरन्तरं वाच्यमानाऽसौ ॥१४॥ श्रीमहम्मदावदवास्तव्यः सङ्घनायक: जपालनामाऽऽसीत् पुण्यप्राग्भारमासुरः ॥१५॥ सतीजनशिरोरत्नं 'मजा' इति तदङ्गना । 'कुंअरजी' ति सन्नामा तयोः पुत्रोऽभवत्पुनः ॥१६॥ आबालादपि पुण्यात्मा धर्नामेरायगः । सप्तक्षेव्यां वपन् वित्तं स चक्रे सफलं जनुः ॥१७॥ तथाहि-विजयदानपूरीगां समीपे साहोत्सवम् । प्रतिष्ठा कारयित्वाऽऽसौ प्रतिष्ठा प्राप भूयसीम् ॥१८॥ विमानप्रतिमानं स प्रतिश्रयमचीकरत् । स्थितये धर्मराज्यस्य राजधानी मिवोत्तमाम् ॥१९॥ स च सरतीभूय यात्रां सिद्धगिरेwधात् । ततः सहस्पतिख्याति विशेषाल्लब्धवान् भुविः॥२०॥ शत्रुञ्जये महातीर्थे पद्यावन्धपुरस्सरम् । स चैत्यं कारयामास यशःपुनमिवात्मनः ॥२१॥ तालध्वजोजयन्तादि-नाम्नोः प्रथिततीर्थयोः । जीर्णोदारं स चक्रेऽष्टापदे भरतभूपवत् ॥२२॥ ज्ञानावरण कर्मोत्य-धान्तध्वंसविधित्सया । गुरूणामुपदेशेन स सङ्कपतिरादरात् :॥२३॥ 'पदमाई' प्रियापुत्र-विमलदाससंयुतः । अलेखयत् स्वयं वृत्ते-रमुष्या शतशः प्रतीः ॥२४॥ इति प्रशस्ति: ॐSSSSSSSSSSS |॥४३३॥ RS For Private & Personal use only विsary.org Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 434 // HTTEREDDRESTHETICTERESERECTRE आगनोद्धारक-ग्रन्थमालायाः माणिक्यं-४ इति श्रीकल्पकिरणावलीवृत्ति: समाप्ता॥ REERREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER // 434 // JainEducati For Privale & Personal use only