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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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नतमस्तक होकर ब्रह्माजीका इस प्रकार स्तवन किया- 'कमलके समान नेत्रोंवाले देवेश्वर ! आपको नमस्कार है। आप संसारकी उत्पत्तिके कारण हैं और स्वयं कमलसे प्रकट हुए हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो ! आप देवता और असुरोंके भी पूर्वज हैं, आपको प्रणाम है । संसारकी सृष्टि करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर! आपको प्रणाम है। सबका मोह दूर करनेवाले जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप विष्णुकी नाभिसे प्रकट हुए हैं, कमलके आसनपर आपका आविर्भाव हुआ है। आप मूँगेके समान लाल अङ्गों तथा कर पल्लवोंसे शोभायमान हैं, आपको नमस्कार है।
'नाथ! आप किन-किन तीर्थस्थानोंमें विराजमान है तथा इस पृथ्वीपर आपके स्थान किस-किस नामसे प्रसिद्ध हैं ?'
ब्रह्माजीने कहा- पुष्करमें मैं देवश्रेष्ठ ब्रह्माजीके नामसे प्रसिद्ध हूँ। गयामें मेरा नाम चतुर्मुख है। कान्यकुब्जमें देवगर्भ [ या वेदगर्भ] और भृगुकक्ष (भृगुक्षेत्र) में पितामह कहलाता हूँ। कावेरीके तटपर सृष्टिकर्ता, नन्दीपुरीमें बृहस्पति, प्रभासमें पद्मजन्मा, वानरी (किष्किन्धा) में सुरप्रिय, द्वारकामें ऋग्वेद, विदिशापुरीमें भुवनाधिप, पौण्ड्रकमें पुण्डरीकाक्ष, हस्तिनापुरमें पिङ्गाक्ष, जयन्तीमें विजय, पुष्करावतमें जयन्त, उप्रदेशमें पद्महस्त, श्यामलापुरीमें भवोरुद, अहिच्छत्रमें जयानन्द, कान्तिपुरीमें जनप्रिय, पाटलिपुत्र (पटना) में ब्रह्मा, ऋषिकुण्डमें मुनि, महिलारोप्यमें कुमुद, श्रीनिवासमें श्रीकंठ, कामरूप (आसाम) में शुभाकार, काशीमें शिवप्रिय, मल्लिकामें विष्णु, महेन्द्र पर्वतपर भार्गव, गोनर्द देशमें स्थविराकार, उज्जैनमें पितामह, कौशाम्बी में महाबोध, अयोध्यामें राघव, चित्रकूटमें मुनीन्द्र, विन्ध्यपर्वतपर वाराह गङ्गाद्वार (हरिद्वार) में परमेष्ठी, हिमालयमें शङ्कर, देविकामें स्रुचाहस्त, चतुष्पथमें स्रुवहस्त, वृन्दावनमें पद्मपाणि, नैमिषारण्यमें कुशहस्त, गोप्लक्षमें गोपीन्द्र, यमुनातटपर सुचन्द्र, भागीरथीके तटपर पद्मतनु, जनस्थानमें जनानन्द,
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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कोङ्कण देशमें मद्राक्ष, काम्पिल्यमें कनकप्रिय, खेटकमें अन्नदाता, कुशस्थलमें शम्भु, लङ्कामें पुलस्त्य, काश्मीरमें हंसवाहन, अर्बुद (आबू) में वसिष्ठ, उत्पलावतमें नारद, मेघकमें श्रुतिदाता, प्रयागमें यजुषांपति, यज्ञपर्वतपर सामवेद, मधुरमें मधुरप्रिय, अङ्कोलकमें यज्ञगर्भ, ब्रह्मवाहमें सुतप्रिय, गोमन्तमें नारायण, विदर्भ (बरार) में द्विजप्रिय, ऋषिवेदमें दुराधर्ष, पम्पापुरीमें सुरमर्दन, विरजामें महारूप, राष्ट्रवर्द्धनमें सुरूप, मालवीमें पृथूदर, शाकम्भरीमें रसप्रिय, पिण्डारक क्षेत्रमें गोपाल, भोगवर्द्धनमें शुष्कन्ध, कादम्बकमें प्रजाध्यक्ष, समस्थलमें देवाध्यक्ष, भद्रपीठमें गङ्गाधर, सुपीठमें जलमाली, त्र्यम्बकमें त्रिपुराधीश, श्रीपर्वतपर त्रिलोचन, पद्मपुरमें महादेव, कलापमें वैधस, शृङ्गवेरपुरमें शौरि, नैमिषारण्यमें चक्रपाणि, दण्डपुरीमें विरूपाक्ष, धूतपातकमें गोतम, माल्यवान् पर्वतपर हंसनाथ, वालिकमें द्विजेन्द्र, इन्द्रपुरी (अमरावती) में देवनाथ, धूताषाढीमें धुरन्धर, लम्बामें हंसवाह, चण्डामें गरुडप्रिय, महोदयमें महायज्ञ, यूपकेतनमें सुयज्ञ पद्मवनमें सिद्धेश्वर, विभामें पद्मबोधन, देवदारुवनमें लिङ्ग, उदक्पथमें उमापति, मातृस्थानमें विनायक, अलकापुरीमें धनाधिप, त्रिकूटमें गोनर्द, पातालमें वासुकि, केदार क्षेत्रमें पद्माध्यक्ष, कूष्माण्डमें सुरतप्रिय, भूतवापीमें शुभाङ्ग, सावलीमें भषक, अक्षरमें पापहा, अम्बिकामें सुदर्शन, वरदामें महावीर, कान्तारमें दुर्गनाशन, पर्णादमें अनन्त, प्रकाशामें दिवाकर, विरजामें पद्मनाभ, वृकस्थलमें सुवृद्ध, वठकमें मार्कण्ड, रोहिणीमें नागकेतन, पद्मावतीमें पद्मागृह तथा गगनमें पद्मकेतन नामसे मैं प्रसिद्ध हूँ। त्रिपुरान्तक। ये एक सौ आठ स्थान मैंने तुम्हें बताये हैं। इन स्थानोंमें तीनों सन्ध्याओंके समय मैं उपस्थित रहता हूँ। जो भक्तिमान् पुरुष इन स्थानोंमेंसे एकका भी दर्शन कर लेता है, वह परलोकमें निर्मल स्थान पाकर अनन्त वर्षोंतक आनन्दका अनुभव करता है उसके मन, वाणी और शरीरके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं- इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। और जो इन सभी तीर्थोकी यात्रा