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• अचंयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
[ संक्षिप्त पापुराण
सीताके प्रति स्वयं ही प्रतीति हो जायगी। जैसे कच्चा चित्तको संतुष्ट कर दिया। अभी-अभी रातमें जानकीने घाव चिकित्साके योग्य नहीं होता, समयानुसार जब वह तापसी खियोंके दर्शनको इच्छा प्रकट की थी, इसीलिये पक जाता है तभी दवासे नष्ट होता है, उसी प्रकार रथपर बिठाकर जंगलमें छोड़ आओ।' फिर सुमन्त्रको समयसे ही इस कलङ्कका मार्जन होगा। इस समय मेरो बुलाकर उन्होंने कहा-'मेरा रथ अच्छे-अच्छे घोड़ों आज्ञाका उल्लङ्घन न करो। पतिव्रता सीताको जंगलमें और वस्त्रोंसे सजाकर तैयार करो।' श्रीरघुनाथजीका छोड़ आओ।' यह आदेश सुनकर लक्ष्मण एक क्षणतक आदेश सुनकर वे उनका उत्तम रथ तैयार करके ले शोकाकुल हो दुःखमें डूबे रहे, फिर मन-ही-मन विचार आये। रथको आया देख भ्रातृ-भक्त लक्ष्मण उसपर किया-'परशुरामजीने पिताको आज्ञासे अपनी माताका सवार हुए और जानकीजीके महलकी ओर चले। भी वध कर डाला था; इससे जान पड़ता है, गुरुजनोंको अन्तःपुरमें पहुँचकर वे मिथिलेशकुमारी सीतासे आज्ञा उचित हो या अनुचित, उसका कभी उल्लङ्घन बोले-'माता जानकी ! श्रीरघुनाथजीने मुझे आपके नहीं करना चाहिये। अतः श्रीरामचन्द्रजीका प्रिय करनेके महलमें भेजा है। आप तापसी स्त्रियोंके दर्शनके लिये लिये मुझे सीताका त्याग करना ही पड़ेगा।' वनमें चलिये।
यह सोचकर लक्ष्मण अपने भाई श्रीरघुनाथजीसे जानकी बोलीं- श्रीरघुनाथजीके चरणोंका बोले-'सुव्रत ! गुरुजनोंके कहनेसे नहीं करनेयोग्य चिन्तन करनेवाली यह महारानी मैथिली आज धन्य हो कार्य भी कर लेना चाहिये, किन्तु उनकी आज्ञाका गयी, जिसका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये स्वामीने उल्लङ्घन कदापि उचित नहीं है। इसलिये आप जो कुछ लक्ष्मणको भेजा है ! आज मैं वनमें रहनेवाली सुन्दरी कहते हैं, उस आदेशका मै पालन करूँगा।' लक्ष्मणके तपस्विनियोंको, जो पतिको ही देवता मानती हैं, मुखसे ऐसी बात सुनकर श्रीरघुनाथजीने उनसे कहा- मस्तक झुकाऊँगी और वस्त्र आदि अर्पण करके उनकी 'बहुत अच्छा; बहुत अच्छा; महामते ! तुमने मेरे पूजा करूंगी।
ऐसा कहकर उन्होंने सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, बहुमूल्य आभूषण, नाना प्रकारके रत्न, उज्ज्वल मोती, कपूर आदि सुगन्धित पदार्थ तथा चन्दन आदि सहस्रों प्रकारकी 'विचित्र वस्तुएँ साथ ले ली। ये सारी चीजें दासियोंके हाथों उठवाकर वे लक्षमणकी ओर चलीं। अभी घरका चौकठ भी नहीं लाँधने पायी थीं कि लड़खड़ाकर गिर पड़ीं। यह एक अपशकुन था; परन्तु वनमें जानेको उत्कण्ठाके कारण सीताजीने इसपर विचार नहीं किया। वे अपना प्रिय कार्य करनेवाले देवरसे बोली-'वत्स ! कहाँ वह रथ है, जिसपर मुझे ले चलोगे?' लक्ष्मणने सुवर्णमय रथको ओर संकेत किया और जानकीजीके साथ उसपर बैठकर सुमन्त्रसे बोले-'चलाओ घोड़ोको।' इसी समय सीताका दाहिना नेत्र फड़क उठा, जो भावी दुःखकी सूचना देनेवाला था। साथ ही पुण्यमय पक्षी विपरीत दिशासे होकर जाने लगे। यह सब देखकर जानकीने देवरसे कहा-'वत्स ! मैं तो
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