Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 894
________________ • अर्जयस्व वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण . . . . . . . . . . . . . . . उन्हें सर्वस्व समर्पण करते हैं। सज्जन पुरुषोंपर सदा भौहोके कारण आपका मुख वक्र जान पड़ता है। आपके सन्तुष्ट रहनेवाले आप धर्मराजको बारम्बार नमस्कार है। शरीरका रंग उस समय नीला हो जाता है तथा आप जो सबके काल होते हुए भी शुभकर्म करनेवाले अपने निर्दयी दूतोके द्वारा शास्त्रोक्त नियमोंका उल्लङ्घन पुरुषोंपर कृपा करते हैं, जो पुण्यात्माओंके हितैषी, करनेवाले पापियोंको खूब कड़ाईके साथ धमकाते हैं। सत्पुरुषोंके संगी, संयमनीपुरीके स्वामी, धर्मात्मा तथा आपको सर्वदा नमस्कार है। धर्मका अनुष्ठान करनेवालोंके प्रिय हैं, उन धर्मराजको जिन्होंने पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान किया है तथा जो नमस्कार है। सदा ही अपने कर्मोक पालनमें संलग्न रहे हैं, ऐसे जिसकी पीठपर लटके हुए घण्टोंकी ध्वनिसे सारो लोगोंको दूरसे ही विमानपर आते देख आप दोनों हाथ दिशाएँ गूंज उठती है तथा जो ऊँचे-ऊँचे सींगों और जोड़े आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हैं। आपके नेत्र फुकारोंके कारण अत्यन्त भीषण प्रतीत होता है, ऐसे कमलके समान विशाल हैं तथा आप माता संज्ञाके महान् भैसेपर जो विराजमान रहते हैं तथा जिनकी आठ सुयोग्य पुत्र हैं। आपको मेरा प्रणाम है। बड़ी-बड़ी भुजाएँ क्रमशः नाराच, शक्ति, मुसल, खग, जो सम्पूर्ण विश्वसे उत्कृष्ट, निर्मल, विद्वान्, जगत्के गदा, त्रिशूल, पाश और अङ्कशसे सुशोभित है, उन पालक, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवके प्रिय, सबके शुभाशुभ भगवान् यमराजको प्रणाम है। कोंक उत्तम साक्षी तथा समस्त संसारको शरण देनेवाले __जो चौदह सत्पुरुषोंके साथ बैठकर जीवोंके हैं, उन भगवान् यमको नमस्कार है। शुभाशुभ कर्मोका भलीभांति विचार करते हैं, साक्षियों- वसिष्ठजी कहते हैं-इस प्रकार स्तुति करके द्वारा अनुमोदन कराकर उन्हें दण्ड देते हैं तथा सम्पूर्ण मृगशृङ्गने उदारता और करुणाके भण्डार तथा दक्षिण विश्वको शान्त रखते हैं, उन दक्षिण दिशाके स्वामी दिशाके स्वामी भगवान् यमका ध्यान करते हुए उन्हें शान्तस्वरूप यमराजको नमस्कार है। साष्टाङ्ग प्रणाम किया। इससे भगवान् यमको बड़ी जो कल्याणस्वरूप, भयहारी, शौच-संतोष आदि प्रसत्रता हुई। वे महान् तेजस्वी रूप धारण किये मुनिके नियमोंमें स्थित मनुष्योंके नेत्रोंको प्रिय लगनेवाले, सामने प्रकट हुए। उस समय उनका मुखकमल सावर्णि, शनैश्चर और वैवस्वत मनु-इन तीनोंकी प्रसत्रतासे खिला हुआ था और किरीट, हार, केयूर तथा माताके सौतेले पुत्र, विवस्वान् (सूर्यदेव) के आत्मज मणिमय कुण्डल धारण करनेवाले अनेक सेवक चारों तथा सदाचारी मनुष्योंको वर देनेवाले हैं, उन भगवान् ओरसे उनकी सेवामें उपस्थित थे। यमको नमस्कार है। यमराजने कहा-मुने ! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे भगवन् ! जब आपके दूत पापी जीवोंको दृढ़ता- बहुत सन्तुष्ट हूँ और तुम्हें वर देनेके लिये यहाँ आया हूँ। पूर्वक बाँधकर आपके सामने उपस्थित करते हैं, तब तुम मुझसे मनोवाञ्छित वर माँगो । मैं तुम्हें अभीष्ट वस्तु आप उन्हें यह आदेश देते हैं कि 'इन पापियोंको अनेक प्रदान करूंगा। घोर नरकोंमें गिराकर छेद डालो, टुकड़े-टुकड़े कर दो, उनकी बात सुनकर मुनीश्वर मृगशङ्ग उठकर खड़ जला दो, सुखा डालो, पीस दो।' इस प्रकारकी बातें हो गये। यमराजको सामने उपस्थित देख उन्हें बड़ा कहते हुए यमुनाजीके ज्येष्ठ भ्राता आप यमराजको मेरा विस्मय हुआ। उनके नेत्र प्रसत्रतासे खिल उठे। प्रणाम है। कृतान्तको पाकर उन्होंने अपनेको सफलमनोरथ समझा जब आप अन्तकरूप धारण करते हैं, उस समय और हाथ जोड़कर कहा-'भगवन् ! इन कन्याओंको आपके गोलाकार नेत्र किनारे-किनारेसे लाल दिखायी प्राणदान दीजिये। मैं आपसे बारम्बार यही याचना करता देते हैं। आप भीमरूप होकर भय प्रदान करते हैं। टेढ़ी हूँ।' मुनिका कथन सुनकर धर्मराजने अदृश्यरूपसे उन

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