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उत्तरखण्ड ]
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पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन •
कलामें प्रवीणता दिखलाते देख पत्नी आनन्दमें निमग्न हो जाय। पतिके समीप उद्वेग और व्यग्रतापूर्ण हृदय लेकर न ठहरे। उनके साथ प्रेमशून्य कलह न करे। स्वामी कलह करनेके योग्य नहीं हैं—ऐसा जानकर स्त्री कभी अपने लिये अपने भाईके लिये या अपनी सौतके लिये क्रोधमें आकर उनसे कलह न करे। फटकारने, निन्दा करने और अत्यन्त ताड़ना देनेके कारण व्यथित होनेपर भी पत्नी अपने प्रियतमको भय छोड़कर गले लगाये स्त्री जोर-जोरसे विलाप न करे, दूसरे लोगोंको न पुकारे और अपने घरसे बाहर न भागे। पतिसे कोई विरक्ति सूचक वचन न कहे। सती स्त्री उत्सव आदिके समय यदि भाई-बन्धुओंके घर जाना चाहे, तो पतिकी आज्ञा लेकर किसी अध्यक्षके संरक्षणमें रहकर जाय वहाँ अधिक कालतक निवास न करे। शीघ्र ही अपने घर लौट आये। यदि पति कहींकी यात्रा करते हो तो उस समय मङ्गलसूचक वचन बोले 'न जाइये' कहकर पतिको न तो रोके और न यात्राके समय रोये ही।
पतिके परदेश जानेपर स्त्री कभी अङ्गराग न लगाये केवल जीवन निर्वाहके लिये प्रतिदिन कोई उत्तम कार्य करे। यदि स्वामी जीविकाका प्रबन्ध करके परदेशमें जायँ तो उनकी निश्चित की हुई जीविकासे ही गृहिणीको जीवन निर्वाह करना चाहिये। पतिके न रहनेपर स्त्री सास-ससुर के समीप ही शयन करे, और किसीके नहीं। वह प्रतिदिन प्रयत्न करके पतिके कुशल- समाचारका पता लगाती रहे। स्वामीकी कुशल जाननेके लिये दूत भेजे तथा प्रसिद्ध देवताओंसे याचना करे। इस प्रकार जिसके पति परदेश गये हों, उस पतिव्रता स्त्रीको ऐसे ही नियमोंका पालन करना चाहिये। वह अपने अङ्गको न धोये। मैले कपड़े पहनकर रहे। बेंदी और अंजन न लगाये गन्ध
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और मालाका भी त्याग करे। नख और केशोंका शृङ्गार न करे। दाँतोंको न धोये। प्रोषितभर्तृका स्त्रीके लिये पान चबाना और आलस्यके वशीभूत होना बड़ी निन्दाकी बात है। अधिक आलस्य करना, सदा नींद लेना, सर्वदा कलहमें रुचि रखना, जोर-जोरसे हँसना, दूसरोंसे हैंसीपरिहास करना, पराये पुरुषोंकी चेष्टाका चिन्तन करना, इच्छानुसार घूमना, पर-पुरुषके शरीरको दबाना, एक वस्त्र पहनकर बाहर घूमना, निर्लज्जताका बर्ताव करना और बिना किसी आवश्यकताके व्यर्थ ही दूसरेके घर जाना – ये सब युवती स्त्रीके लिये पाप बताये गये हैं, जो पतिको दुःख देनेवाले होते हैं।
सती स्त्री घरके सब कार्य पूर्ण करके शरीरमें हल्दीकी उबटन लगाये। फिर शुद्ध जलसे सब अङ्गको धोकर सुन्दर शृङ्गार करे। उसके बाद अपने मुखकमलको प्रसन्न करके प्रियतमके समीप जाय। मन, वाणी और शरीरको संयममें रखनेवाली नारी ऐसे बर्तावसे इस लोकमें उत्तम कीर्ति पाती और परलोकमें पतिका सायुज्य प्राप्त करती है। देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकोंमें पतिके समान दूसरा कोई देवता नहीं है। जब पतिदेवता सन्तुष्ट होते हैं, तो इच्छानुसार सम्पूर्ण भोगोंकी प्राप्ति कराते हैं और कुपित होनेपर सब कुछ हर लेते हैं। सन्तान, नाना प्रकारके भोग, शय्या, आसन, अद्भुत वस्त्र, माला, गन्ध, स्वर्गलोक तथा भाँति-भाँतिकी कीर्ति – ये सब पतिसे ही प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार मुनिवर मृगशृङ्ग धर्म, नय, नीति एवं गुणों में सबसे श्रेष्ठ सुवृत्ता आदि चारों पलियोंके साथ चिरकालतक अतिरात्र और वाजपेय आदि यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहे। वे नियमपूर्वक संसारी सुख भोगते थे, तथापि उनका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल था।