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अक्षयत्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
लोहेको निकालकर बाणके आगेका फल बनवा लिया। कुछ दिनोंके बाद समस्त यादव परस्पर आक्षेपयुक्त वचन कहते हुए उन सरकंडोंद्वारा एक दूसरेसे लड़कर नष्ट हो गये । भगवान् श्रीकृष्ण युद्धसे श्रान्त होकर कल्पवृक्षकी छायामें सो रहे थे। उसी समय वह निषाद धनुष-बाण लेकर शिकार खेलनेके लिये आया। भगवान् श्रीकृष्णके सिवा समस्त यादव युद्धमें काम आये थे, वे सभी मरनेके पश्चात् अपने-अपने देवस्वरूपमें मिल गये। इस प्रकार मूसलद्वारा सबका संहार करके अकेले भगवान् श्रीकृष्ण अनेक लताओंसे व्याप्त महान् कल्पवृक्षकी छायामें लेटे हुए अपने चतुर्व्यूहगत वासुदेवस्वरूपका चिन्तन कर रहे थे। वे घुटनेपर अपना एक पैर रखे मानव लोकका त्याग करनेको उद्यत थे। उसी समय मृगयासे जीविका चलानेवाले उस निषादने कालके प्रभावसे चक्र, वज्र, ध्वजा और अङ्कुरा आदि चिह्नोंसे अङ्कित भगवान्के अत्यन्त लाल तलवेको (मृग जानकर) लक्ष्य करके बींध डाला। उसके बाद उसने भगवान् श्रीकृष्णको पहचाना। फिर तो महान् भयसे पीड़ित हो वह थर-थर काँपने लगा और दोनों हाथ जोड़कर बोला- 'नाथ ! मुझसे बड़ा अपराध हुआ, क्षमा करें।' यों कहकर वह भगवान्के चरणोंमें पड़ गया।
निषादको इस अवस्थामें देख भगवान् श्रीकृष्णने अपने अमृतमय हाथोंसे उठाया और यह कहकर कि 'तुमने कोई अपराध नहीं किया है। उसे आश्वासन दिया। इसके बाद उसे योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य पुनरावृत्तिरहित सनातन विष्णुलोक प्रदान किया। फिर तो वह स्त्री और पुत्रोंसहित मानव शरीरका त्याग करके दिव्य विमानपर बैठा तथा सहस्रों सूर्योके समान प्रकाशमान हिरण्मय वासुदेव नामक विष्णुधामको चला गया। इसी समय दारुक रथ लेकर भगवान् श्रीकृष्णके समीप आये। भगवान्ने कहा-' - 'मेरे स्वरूपभूत अर्जुनको यहाँ बुला ले आओ।' आज्ञा पाकर दारुक मनके समान वेगशाली रथपर आरूढ़ हो तुरंत ही अर्जुनके समीप जा पहुँचे। अर्जुन उस रथपर बैठकर आये और भगवान्को प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले,
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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'मेरे लिये क्या आज्ञा है ?' भगवान् श्रीकृष्णने कहा 'मैं परमधामको जाऊँगा। तुम द्वारका जाकर वहाँसे रुक्मिणी आदि आठ पटरानियोंको यहाँ ले आकर मेरे शरीरके साथ भेजो।' अर्जुन दारुकके साथ द्वारकापुरीको गये। इधर भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्के सृष्टि, पालन और संहारके हेतुभूत, सम्पूर्ण क्षेत्रोंके ज्ञाता, अन्तर्यामी, योगियोंद्वारा ध्यान करनेके योग्य, अपने वासुदेवात्मक स्वरूपको धारण करके गरुड़पर आरूढ़ हो महर्षियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए परमधामको चले गये। अर्जुनने द्वारकामें वसुदेव और उग्रसेनसे तथा रुक्मिणी आदि पटरानियोंसे सारा हाल कह सुनाया। यह सुनकर श्रीकृष्णमें अनुराग रखनेवाले समस्त पुरवासी पुरुष और अन्तःपुरकी स्त्रियाँ द्वारकापुरी छोड़कर बाहर निकल आयीं तथा वसुदेव, उग्रसेन और अर्जुनके साथ शीघ्र ही श्रीहरिके समीप आयीं, वहाँ पहुँचकर आठों रानियाँ श्रीकृष्णके स्वरूपमें मिल गयीं। वसुदेव, उग्रसेन और अक्रूर आदि सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादव अपना-अपना शरीर त्यागकर सनातन वासुदवको प्राप्त हुए। रेवती देवीने बलरामजीके शरीरको अङ्कमे लेकर चिताकी अग्रिमें प्रवेश किया और दिव्य विमानपर बैठकर वे अपने स्वामीके निवासस्थान दिव्य सङ्कर्षण लोकमें चली गयीं। इसी प्रकार रुक्मीकी पुत्री प्रधुनके साथ, ऊषा अनिरुद्धके साथ तथा यदुकुलकी अन्य स्त्रियाँ अपने-अपने पतियोंके शरीरके साथ अप्रिप्रवेश कर गयीं। उन सबका और्ध्वदैहिक कर्म अर्जुनने ही सम्पन्न किया। उस समय दारुक भी दिव्य अश्वोंसे जुते हुए सुग्रीव नामक दिव्य रथपर आरूढ़ हो परमधामको चले गये। पारिजात वृक्ष और देवताओंकी सुधर्मा सभा-ये दोनों इन्द्रलोकमें पहुँच गये। तत्पश्चात् द्वारकापुरी समुद्रमें डूब गयी! अर्जुन भी यह कहते हुए कि 'अब मेरा भाग्य नष्ट हो गया' सायंकालीन सूर्यकी भाँति तेजोहीन होकर अपनी पुरीमें चले आये।
इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंके हितके लिये तथा पृथ्वीके समस्त भारका नाश करनेके लिये भगवान्ने यदुकुलमें अवतार लिया और सम्पूर्ण राक्षसों तथा