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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
संक्षिप्त पद्मपुराण
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सृष्टिखण्ड
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ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
स्वच्छ चन्द्रावदातं करिकरमकरक्षोभसंजातफेर्न
ब्रह्मोद्धूतिप्रसक्तैव्रतनियमपरैः सेवितं विप्रमुख्यैः । ॐकारालङ्कृतेन त्रिभुवनगुरुणा ब्रह्मणा दृष्टिपूर्त
संभोगाभोगरम्यं जलमशुभहरं पौष्करं नः पुनातु ॥ * श्रीव्यासजी के शिष्य परम बुद्धिमान् लोमहर्षणजीने एकान्तमें बैठे हुए [अपने पुत्र ] उग्रश्रवा नामक सूतसे कहा - "बेटा! तुम ऋषियोंके आश्रमोंपर जाओ और उनके पूछनेपर सम्पूर्ण धर्मोका वर्णन करो। तुमने मुझसे जो संक्षेपमें सुना है, वह उन्हें विस्तारपूर्वक सुनाओ। मैंने महर्षि वेदव्यासजीके मुखसे समस्त पुराणोंका ज्ञान प्राप्त किया है और वह सब तुम्हें बता दिया है; अतः अब मुनियोंके समक्ष तुम उसका विस्तारके साथ वर्णन करो। प्रयागमें कुछ महर्षियोंने, जो उत्तम कुलोंमें उत्पन्न हुए थे, साक्षात् भगवान्से प्रश्न किया था। वे [यज्ञ करनेके योग्य ] किसी पावन प्रदेशको जानना चाहते थे। भगवान् नारायण ही सबके हितैषी हैं, वे धर्मानुष्ठानकी इच्छा रखनेवाले उन महर्षियोंके पूछनेपर बोले— 'मुनिवरो ! यह सामने जो चक्र दिखायी दे रहा है, इसकी कहीं तुलना नहीं है। इसकी नाभि सुन्दर और स्वरूप दिव्य है। यह सत्यकी ओर जानेवाला है। इसकी गति सुन्दर एवं कल्याणमयी है। तुमलोग सावधान होकर नियमपूर्वक इसके पीछे-पीछे जाओ। तुम्हें अपने लिये हितकारी स्थानकी प्राप्ति होगी। यह धर्ममय चक्र यहाँसे जा रहा है। जाते-जाते जिस स्थानपर इसकी नेमि जीर्ण-शीर्ण होकर गिर पड़े, उसीको पुण्यमय प्रदेश समझना।' उन सभी
महर्षियोंसे ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और वह धर्म चक्र नैमिषारण्यके गङ्गावर्त नामक स्थानपर गिरा। तब ऋषियोंने निमि शीर्ण होनेके कारण उस स्थानका नाम 'नैमिष' रखा और नैमिषारण्यमें दीर्घकालतक चालू रहनेवाले यज्ञोंका अनुष्ठान आरम्भ कर दिया। वहीं तुम भी जाओ और ऋषियोंके पूछनेपर उनके धर्म-विषयक संशयोंका निवारण करो।"
तदनन्तर ज्ञानी उग्रश्रवा पिताकी आज्ञा मानकर
उन मुनीश्वरोंके पास गये तथा उनके चरण पकड़कर हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया। सूतजी बड़े बुद्धिमान् थे,
चन्द्रमाके समान उज्ज्वल और स्वच्छ है, जिसमें हाथीकी सड़के समान आकारवाले नाकोंके इधर-उधर वेगपूर्वक चलने-फिरनेसे फेन पैदा होता रहता है, ब्रह्माजीके प्रादुर्भावकी कथा वार्तामें लगे हुए व्रत नियम-परायण श्रेष्ठ ब्राह्मण जिसका सदा सेवन करते हैं, ॐकार जपसे विभूषित त्रिभुवनगुरु ब्रह्माजीने जिसे अपनी दृष्टिसे पवित्र किया है, जो पीनेमें स्वादिष्ट है और अपनी विशालताके कारण रमणीय जान पड़ता है, वह पुष्करतीर्थका पापहारी जल हमलोगोंको पवित्र करे ।
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• अर्चवस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पयपुराण
उन्होंने अपनी नम्रता और प्रणाम आदिके द्वारा महर्षियोंको उत्पत्ति कैसे हुई, उससे ब्रह्माजीका आविर्भाव किस सन्तुष्ट किया। वे यज्ञमें भाग लेनेवाले महर्षि भी प्रकार हुआ तथा कमलसे प्रकट हुए ब्रह्माजीने किस सदस्योंसहित बहुत प्रसन्न हुए तथा सबने एकत्रित होकर तरह जगत्की सृष्टि की-ये सब बातें इन्हें बताइये। सूतजीका यथायोग्य आदर-सत्कार किया।
उनके इस प्रकार पूछनेपर लोमहर्षण-कुमार ऋषि बोले-देवताओंके समान तेजस्वी सूतजी ! सूतजीने सुन्दर वाणीमें सूक्ष्म अर्थसे भरा हुआ न्याययुक्त आप कैसे और किस देशसे यहाँ आये हैं? अपने वचन कहा-'महर्षियो! आपलोगोंने जो मुझे पुराण आनेका कारण बतलाइये।
सुनानेकी आज्ञा दी है, इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। सूतजीने कहा-महर्षियो ! मेरे बुद्धिमान् पिता यह मुझपर आपका महान् अनुग्रह है। सम्पूर्ण धर्मोके व्यास-शिष्य लोमहर्षणजीने मुझे यह आज्ञा दी है कि पालनमें लगे रहनेवाले पुराणवेत्ता विद्वानोंने जिनकी 'तुम मुनियोंके पास जाकर उनकी सेवामें रहो और वे जो भलीभाँति व्याख्या की है, उन पुराणोक्त विषयोंको मैंने कुछ पूछे, उसे बताओ।' आपलोग मेरे पूज्य है। जैसा सुना है, उसी रूपमें वह सब आपको सुनाऊँगा। बताइये, मैं कौन-सी कथा कहूँ ? पुराण, इतिहास सत्पुरुषोंकी दृष्टि में सूत जातिका सनातन धर्म यही है कि अथवा भिन्न-भिन्न प्रकारके धर्म-जो आज्ञा दीजिये, वह देवताओं, ऋषियों तथा अमिततेजस्वी राजाओंकी वही सुनाऊँ।
वंश-परम्पराको धारण करे-उसे याद रखे तथा सूतजीका यह मधुर वचन सुनकर वे श्रेष्ठ महर्षि इतिहास और पुराणोंमें जिन ब्रह्मवादी महात्माओंका बहुत प्रसन्न हुए। अत्यन्त विश्वसनीय, विद्वान् लोमहर्षण- वर्णन किया गया है, उनकी स्तुति करे; क्योंकि जब पुत्र उग्रश्रवाको उपस्थित देख उनके हृदयमें पुराण वेनकुमार राजा पृथुका यज्ञ हो रहा था, उस समय सूत सुननेकी इच्छा जाग्रत् हुई। उस यज्ञमें यजमान थे महर्षि और मागधने पहले-पहल उन महाराजकी स्तुति ही की शौनक, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ, मेधावी तथा थी। उस स्तुतिसे सन्तुष्ट होकर महात्मा पृथुने उन [वेदके] विज्ञानमय आरण्यक-भागके आचार्य थे। वे दोनोंको वरदान दिया। वरदानमें उन्होंने सूतको सूत सब महर्षियोंके साथ श्रद्धाका आश्रय लेकर धर्म सुननेकी नामक देश और मागधको मगधका राज्य प्रदान किया इच्छासे बोले।
___ था। क्षत्रियके वीर्य और ब्राह्मणीके गर्भसे जिसका जन्म शौनकने कहा-महाबुद्धिमान् सूतजी ! आपने होता है, वह सूत कहलाता है। ब्राह्मणोंने मुझे पुराण इतिहास और पुराणोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये सुनानेका अधिकार दिया है। आपने धर्मका विचार ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् व्यासजीकी भलीभाँति करके ही मुझसे पुराणकी बातें पूछी हैं; इसलिये इस आराधना की है। उनकी पुराण-विषयक श्रेष्ठ बुद्धिसे भूमण्डलमें जो सबसे उत्तम एवं ऋषियोंद्वारा सम्मानित आपने अच्छी तरह लाभ उठाया है। महामते ! यहाँ जो पद्मपुराण है, उसकी कथा आरम्भ करता हूँ। श्रीकृष्णये श्रेष्ठ ब्राह्मण विराजमान हैं, इनका मन पुराणोंमें लग द्वैपायन व्यासजी साक्षात् भगवान् नारायणके स्वरूप हैं। रहा है। ये पुराण सुनना चाहते हैं। अतः आप इन्हें पुराण वे ब्रह्मवादी, सर्वज्ञ, सम्पूर्ण लोकोंमें पूजित तथा अत्यन्त सुनानेकी ही कृपा करें। ये सभी श्रोता, जो यहाँ एकत्रित तेजस्वी हैं। उन्हींसे प्रकट हुए पुराणोंका मैंने अपने हुए हैं, बहुत ही श्रेष्ठ हैं। भिन्न-भिन्न गोत्रोंमें इनका जन्म पिताजीके पास रहकर अध्ययन किया है। पुराण सब हुआ है। ये वेदवादी ब्राह्मण अपने-अपने वंशका शास्त्रोंके पहलेसे विद्यमान हैं। ब्रह्माजीने [कल्पके पौराणिक वर्णन सुनें। इस दीर्घकालीन यज्ञके पूर्ण आदिमें] सबसे पहले पुराणोंका ही स्मरण किया था। होनेतक आप मुनियोंको पुराण सुनाइये। महाप्राज्ञ ! पुराण त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामके साधक एवं आप इन सब लोगोंसे पद्मपुराणकी कथा कहिये। पयकी परम पवित्र हैं। उनकी रचना सौ करोड़ श्लोकोंमें हुई
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सृष्टिखण्ड ] • भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टि-क्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा •
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है। * समयके अनुसार इतने बड़े पुराणोंका श्रवण और पठन असम्भव देखकर स्वयं भगवान् उनका संक्षेप करनेके लिये प्रत्येक द्वापरयुगमें व्यासरूपसे अवतार लेते हैं और पुराणोंको अठारह भागों में बाँटकर उन्हें चार लाख श्लोकोंमें सीमित कर देते हैं। पुराणोंका यह संक्षिप्त संस्करण ही इस भूमण्डलमें प्रकाशित होता है। देवलोकोंमें आज भी सौ करोड़ श्लोकोंका विस्तृत पुराण मौजूद है।
सूतजी कहते हैं— महर्षियो ! जो सृष्टिरूप मूल प्रकृतिके ज्ञाता तथा इन भावात्मक पदार्थोंकि द्रष्टा हैं, जिन्होंने इस लोककी रचना की है, जो लोकतत्त्वके ज्ञाता तथा योगवेत्ता हैं, जिन्होंने योगका आश्रय लेकर सम्पूर्ण चराचर जीवोंकी सृष्टि की है और जो समस्त भूतों तथा अखिल विश्वके स्वामी हैं, उन सच्चिदानन्द परमेश्वरको में नमस्कार करता हूँ। फिर ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, अन्य लोकपाल तथा सूर्यदेवको एकाग्रचित्तसे नमस्कार करके ब्रह्मस्वरूप वेदव्यासजीको प्रणाम करता हूँ। उन्हींसे इस पुराण - विद्याको प्राप्त करके मैं आपके समक्ष प्रकाशित करता हूँ। जो नित्य, सदसत्स्वरूप, अव्यक्त एवं सबका कारण है, वह ब्रह्म ही महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त विशाल ब्रह्माण्डकी सृष्टि करता है। यह विद्वानोंका निश्चित सिद्धान्त है। सबसे पहले हिरण्यमय (तेजोमय) अण्डमें ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ। वह अण्ड सब ओर जलसे घिरा है। जलके बाहर तेजका घेरा और तेजके बाहर वायुका आवरण है। वायु आकाशसे और आकाश भूतादि (तामस अहंकार) से घिरा है
पातालखण्ड है । तदनन्तर परम उत्तम उत्तरखण्डका वर्णन आया है। इतना ही पद्मपुराण है। भगवान्की नाभिसे जो महान् पद्म (कमल) प्रकट हुआ था, जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है, उसीके वृत्तान्तका आश्रय लेकर यह पुराण प्रकट हुआ है। इसलिये इसे पद्मपुराण कहते हैं। यह पुराण स्वभावसे ही निर्मल है, उसपर भी इसमें श्रीविष्णुभगवान्के माहात्म्यका वर्णन होनेसे इसकी निर्मलता और भी बढ़ गयी है। देवाधिदेव भगवान् अब मैं परम पवित्र पद्मपुराणका वर्णन आरम्भ विष्णुने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके प्रति जिसका उपदेश किया करता हूँ। उसमें पाँच खण्ड और पचपन हजार श्लोक था तथा ब्रह्माजीने जिसे अपने पुत्र मरीचिको सुनाया था हैं। पद्मपुराणमें सबसे पहले सृष्टिखण्ड है। उसके बाद वही यह पद्मपुराण है। ब्रह्माजीने ही इसे इस जगत्में भूमिखण्ड आता है। फिर स्वर्गखण्ड और उसके पश्चात् प्रचलित किया है। भीष्म और पुलस्त्यका संवाद - सृष्टि-क्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा अहंकारको महत्तत्त्वने घेर रखा है और महत्तत्त्व अव्यक्त - मूल प्रकृतिसे घिरा है। उक्त अण्डको ही सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्तिका आश्रय बताया गया है। इसके सिवा, इस पुराणमें नदियों और पर्वतोंकी उत्पत्तिका बारम्बार वर्णन आया है। मन्वन्तरों और कल्पोंका भी संक्षेपमें वर्णन है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने महात्मा पुलस्त्यको इस पुराणका उपदेश दिया था। फिर पुलस्त्यने इसे गङ्गाद्वार (हरिद्वार) में भीष्मजीको सुनाया था। इस पुराणका पठन, श्रवण तथा विशेषतः स्मरण धन, यश और आयुको बढ़ानेवाला एवं सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला है। जो द्विज अङ्गों और उपनिषदोंसहित चारों वेदोंका ज्ञान रखता है, उसकी अपेक्षा वह अधिक विद्वान् है जो केवल इस पुराणका ज्ञाता है। इतिहास और पुराणोंके सहारे ही वेदकी व्याख्या करनी चाहिये; क्योंकि वेद अल्पज्ञ विद्वान्से यह सोचकर डरता रहता है कि कहीं यह मुझपर प्रहार न कर बैठे अर्थका अनर्थ न कर बैठे। [तात्पर्य यह कि पुराणोंका अध्ययन किये बिना वेदार्थका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता।]
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पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । त्रिवर्गसाधनं
पुण्यं
शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ (१ । ५३)
+ यो विद्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विजः । पुराणं च विजानाति यः स तस्माद् विचक्षणः ॥ (२।५०-५१ ) + इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्। विभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति ॥ (२ । ५१-५२ )
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• अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
यह सुनकर ऋषियोंने सूतजीसे पूछा-'मुने! चरणोंका मुझे दर्शन प्राप्त हुआ है। आज आपने दर्शन भीष्मजीके साथ पुलस्त्य ऋषिका समागम कैसे हुआ? दिया और विशेषतः मुझे वरदान देनेके लिये गङ्गाजीके पुलस्त्यमुनि तो ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं। मनुष्योंको तटपर पदार्पण किया; इतनेसे ही मुझे अपनी तपस्याका उनका दर्शन होना दुर्लभ है। महाभाग ! भीष्मजीको सारा फल मिल गया। यह कुशकी चटाई है, इसे मैंने जिस स्थानपर और जिस प्रकार पुलस्त्यजीका दर्शन अपने हाथों बनाया है और [जहाँतक हो सका है] इस हुआ, वह सब हमें बतलाइये।'
बातका भी प्रयत्न किया है कि यह बैठनेवालेके लिये सूतजीने कहा-महात्माओ! साधुओंका हित आराम देनेवाली हो; अतः आप इसपर विराजमान हों। करनेवाली विश्वपावनी महाभागा गङ्गाजी जहाँ पर्वत- यह पलाशके दोनेमें अर्घ्य प्रस्तुत किया गया है; मालाओंको भेदकर बड़े वेगसे बाहर निकली हैं, वह इसमें दूब, चावल, फूल, कुश, सरसों, दही, शहद, जौ महान् तीर्थ गङ्गाद्वारके नामसे विख्यात है। पितृभक्त और दूध भी मिले हुए हैं। प्राचीन कालके ऋषियोंने भीष्मजी वहीं निवास करते थे। वे ज्ञानोपदेश सुननेकी यह अष्टाङ्ग अर्घ्य ही अतिथिको अर्पण करनेयोग्य इच्छासे बहुत दिनोंसे महापुरुषोंके नियमका पालन करते बतलाया है।' थे। स्वाध्याय और तर्पणके द्वारा देवताओं और पितरोंकी अमिततेजस्वी भीष्मके ये वचन सुनकर ब्रह्माजीके तृप्ति तथा अपने शरीरका शोषण करते हुए भीष्मजीके पुत्र पुलस्त्यमुनि कुशासनपर बैठ गये। उन्होंने बड़ी ऊपर भगवान् ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए। वे अपने पुत्र प्रसन्नताके साथ पाद्य और अर्घ्य स्वीकार किया। मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजीसे इस प्रकार बोले-'बेटा ! तुम भीष्मजीके शिष्टाचारसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ। वे प्रसन्न कुरुवंशका भार वहन करनेवाले वीरवर देवव्रतके, जिन्हें होकर बोले-'महाभाग ! तुम सत्यवादी, दानशील भीष्म भी कहते हैं, समीप जाओ। उन्हें तपस्यासे निवृत्त और सत्यप्रतिज्ञ राजा हो। तुम्हारे अंदर लज्जा, मैत्री और करो और इसका कारण भी बतलाओ। महाभाग भीष्म क्षमा आदि सद्गुण शोभा पा रहे हैं। तुम अपने पराक्रमसे अपनी पितृभक्तिके कारण भगवानका ध्यान करते हुए गङ्गाद्वारमें निवास करते हैं। उनके मनमें जो-जो कामना हो, उसे शीघ्र पूर्ण करो; विलम्ब नहीं होना चाहिये।'
पितामहका वचन सुनकर मुनिवर पुलस्त्यजी गङ्गाद्वारमें आये और भीष्मजीसे इस प्रकार बोले'वीर ! तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो। तुम्हारी तपस्यासे साक्षात् भगवान् ब्रह्माजी प्रसन्न हुए है। उन्होंने ही मुझे यहाँ भेजा है। मैं तुम्हें मनोवाञ्छित वरदान दूंगा।' पुलस्त्यजीका वचन मन और कानोंको सुख पहुँचानेवाला था। उसे सुनकर भीष्मने आँखें खोल दी और देखा पुलस्त्यजी सामने खड़े हैं। उन्हें देखते ही भीष्मजी उनके चरणोपर गिर पड़े। उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीरसे पृथ्वीका स्पर्श करते हुए उन मुनिश्रेष्ठको साष्टाङ्ग प्रणाम किया और कहा-'भगवन् ! आज मेरा जन्म सफल हो गया। यह दिन बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि आज आपके विश्ववन्द्य
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सृष्टिखण्ड] . भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टि-क्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा .
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शत्रुओंको दमन करनेमें समर्थ हो। साथ ही धर्मज्ञ, आकाशको सब ओरसे आच्छादित किया। [तब शब्दकृतज्ञ, दयालु, मधुरभाषी, सम्मानके योग्य पुरुषोंको तन्मात्रारूप आकाशने विकृत होकर स्पर्श-तन्मात्राकी सम्मान देनेवाले, विद्वान्, ब्राह्मणभक्त तथा साधुओंपर रचना की।] उससे अत्यन्त बलवान् वायुका प्राकट्य स्नेह रखनेवाले हो । वत्स ! तुम प्रणामपूर्वक मेरी शरण हुआ, जिसका गुण स्पर्श माना गया है। तदनन्तर आये हो; अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो चाहो, आकाशसे आच्छादित होनेपर वायु-तत्त्वमें विकार आया पूछो; मैं तुम्हारे प्रत्येक प्रश्रका उत्तर दूंगा।' और उसने रूप-तन्मात्राकी सृष्टि की। वह वायुसे
भीष्मजीने कहा-भगवन् ! पूर्वकालमें भगवान् अग्निके रूपमें प्रकट हुई। रूप उसका गुण कहलाता है। ब्रह्माजीने किस स्थानपर रहकर देवताओं आदिकी सृष्टि तत्पश्चात् स्पर्श-तन्मात्रावाले वायुने रूप-तन्मात्रावाले की थी, यह मुझे बताइये। उन महात्माने कैसे ऋषियों तेजको सब ओरसे आवृत किया। इससे अग्नि-तत्त्वने तथा देवताओंको उत्पन्न किया ? कैसे पृथ्वी बनायी? विकारको प्राप्त होकर रस-तन्मात्राको उत्पन्न किया। किस तरह आकाशकी रचना की और किस प्रकार इन उससे जलकी उत्पत्ति हुई, जिसका गुण रस माना गया समुद्रोंको प्रकट किया? भयङ्कर पर्वत, वन और नगर है। फिर रूप-तन्मात्रावाले तेजने रस-तन्मात्रारूप जलकैसे बनाये? मुनियों, प्रजापतियों, श्रेष्ठ सप्तर्षियों और तत्त्वको सब ओरसे आच्छादित किया। इससे विकृत भिन्न-भिन्न वर्गोंको, वायुको, गन्धों, यक्षों, राक्षसों, होकर जलतत्त्वने गन्ध-तन्मात्राकी सृष्टि की, जिससे यह तीर्थों, नदियों, सूर्यादि ग्रहों तथा तारोंको भगवान् ब्रह्माने पृथ्वी उत्पन्न हुई। पृथ्वीका गुण गन्ध माना गया है। किस तरह उत्पन्न किया? इन सब बातोंका वर्णन इन्द्रियाँ तैजस कहलाती हैं [क्योंकि वे राजस अहङ्कारसे कीजिये।
प्रकट हुई है। इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता पुलस्त्यजीने कहा-पुरुषश्रेष्ठ ! भगवान् ब्रह्मा वैकारिक कहे गये हैं [क्योंकि उनकी उत्पत्ति सात्त्विक साक्षात् परमात्मा हैं। वे परसे भी पर तथा अत्यन्त श्रेष्ठ अहङ्कारसे हुई है] । इस प्रकार इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस हैं। उनमें रूप और वर्ण आदिका अभाव है। वे यद्यपि देवता और ग्यारहवाँ मन-ये वैकारिक माने गये हैं। सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि ब्रह्मरूपसे इस विश्वकी उत्पत्ति त्वचा, चक्षु, नासिका, जिह्वा और श्रोत्र-ये पाँच करनेके कारण विद्वानोंके द्वारा ब्रह्मा कहलाते हैं। उन्होंने इन्द्रियाँ शब्दादि विषयोंका अनुभव करानेके साधन हैं। पूर्वकालमें जिस प्रकार सृष्टि-रचना की, वह सब मैं बता अतः इन पाँचोंको बुद्धियुक्त अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। रहा हूँ। सुनो, सृष्टिके प्रारम्भकालमें जब जगत्के स्वामी गुदा, उपस्थ, हाथ, पैर और वाक्-ये क्रमशः मलब्रह्माजी कमलके आसनसे उठे, तब सबसे पहले उन्होंने त्याग, मैथुनजनित सुख, शिल्प-निर्माण (हस्तकौशल), महत्तत्त्वको प्रकट किया; फिर महत्तत्त्वसे वैकारिक गमन और शब्दोच्चारण-इन कर्मोमें सहायक हैं। (सात्त्विक), तैजस (राजस) तथा भूतादिरूप तामस- इसलिये इन्हें कर्मेन्द्रिय माना गया है। तीन प्रकारका अहङ्कार उत्पन्न हुआ, जो कर्मेन्द्रियोंसहित वीर ! आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियों तथा पशभूतोंका कारण है। पृथ्वी, जल, क्रमशः शब्दादि उत्तरोत्तर गुणोंसे युक्त हैं अर्थात तेज, वायु और आकाश-ये पाँच भूत हैं। इनमेंसे आकाशका गुण शब्द, वायुके गुण शब्द और स्पर्श; एक-एकके स्वरूपका क्रमशः वर्णन करता हूँ। [भूतादि तेजके गुण शब्द, स्पर्श और रूप; जलके शब्द, स्पर्श, नामक तामस अहङ्कारने विकृत होकर शब्द-तन्मात्राको रूप और रस तथा पृथ्वीके शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं उत्पन्न किया, उससे शब्द गुणवाले आकाशका प्रादुर्भाव गन्ध-ये सभी गुण है। उक्त पाँचों भूत शान्त, घोर और हुआ।] भूतादि (तामस अहङ्कार) ने शब्द-तन्मात्रारूप मूढ़ हैं* । अर्थात् सुख, दुःख और मोहसे युक्त हैं। अतः
• एक-दूसरेसे मिलनेपर सभी भूत शन्त, घोर और मूढ़ प्रतीत होते हैं। पृथक्-पृथक् देखनेपर तो पृथ्वी और जल शान्त है, तेज और वायु पोर है तथा आकाश मूढ़ है।
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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रहनेपर भिन्न-भिन्न प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न हैं। अतः परस्पर संगठित हुए बिना - पूर्णतया मिले बिना ये प्रजाकी सृष्टि करनेमें समर्थ न हो सके। इसलिये [परमपुरुष परमात्माने संकल्पके द्वारा इनमें प्रवेश किया। फिर तो ] महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी तत्त्व पुरुषद्वारा अधिष्ठित होनेके कारण पूर्णरूपसे एकत्वको प्राप्त हुए। इस प्रकार परस्पर मिलकर तथा एक दूसरेका आश्रय ले उन्होंने अण्डकी उत्पत्ति की। भीष्मजी उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीप आदिके सहित समुद्र, ग्रहों और तारोंसहित सम्पूर्ण लोक तथा देवता, असुर और मनुष्यों सहित समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं। वह अण्ड पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा दसगुने अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात् तामस अहङ्कारसे आवृत है। भूतादि महत्तत्त्वसे घिरा है। तथा इन सबके सहित महत्तत्त्व भी अव्यक्त (प्रधान या मूल प्रकृति) के द्वारा आवृत है।
ये विशेष कहलाते हैं। ये पाँचों भूत अलग-अलग रहती है, तबतक वे ही युग-युगमें अवतार धारण करके समूची सृष्टिकी रक्षा करते हैं। वे विष्णु सत्त्वगुण धारण किये रहते हैं; उनके पराक्रमकी कोई सीमा नहीं है। राजेन्द्र ! जब कल्पका अन्त होता है, तब वे ही अपना तमः प्रधान रौद्र रूप प्रकट करते हैं और अत्यन्त भयानक आकार धारण करके सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार करते हैं। इस प्रकार सब भूतोंका नाश करके संसारको एकार्णवके जलमें निमन कर वे सर्वरूपधारी भगवान् स्वयं शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं। फिर जागनेपर ब्रह्माका रूप धारण करके वे नये सिरेसे संसारकी सृष्टि करने लगते हैं। इस तरह एक ही भगवान् जनार्दन सृष्टि, पालन और संहार करनेके कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव नाम धारण करते हैं। * वे प्रभु स्रष्टा होकर स्वयं अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक होकर पालनीय रूपसे अपना ही पालन करते हैं और संहारकारी होकर स्वयं अपना ही संहार करते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाशसब वे ही हैं; क्योंकि अविनाशी विष्णु ही सब भूतोंके ईश्वर और विश्वरूप हैं। इसलिये प्राणियोंमें स्थित सर्ग आदि भी उन्हींके सहायक है।
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भगवान् विष्णु स्वयं ही ब्रह्मा होकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं तथा जबतक कल्पकी स्थिति बनी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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★ ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्वोका वर्णन
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! ब्रह्माजी सर्वज्ञ एवं साक्षात् नारायणके स्वरूप हैं। वे उपचारसेआरोपद्वारा ही 'उत्पन्न हुए' कहलाते हैं। वास्तवमें तो वे नित्य ही हैं। अपने निजी मानसे उनकी आयु सौ वर्षकी मानी गयी है। वह ब्रह्माजीकी आयु 'पर' कहलाती है, उसके आधे भागको परार्ध कहते हैं। पंद्रह निमेषकी एक काष्ठा होती है। तीस काष्ठाओंकी एक कला और तीस कलाओंका एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्तोंोंकि कालको मनुष्यका एक दिन-रात माना गया है। तीस दिन रातका एक मास होता है। एक मासमें दो पक्ष होते हैं। छः महीनोंका एक अयन और दो अयनोंका एक वर्ष होता
है अयन दो है, दक्षिणायन और उत्तरायण। दक्षिणायन देवताओंकी रात्रि है और उत्तरायण उनका दिन है। देवताओंके बारह हजार वर्षोंके चार युग होते हैं, जो क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगके नामसे प्रसिद्ध हैं। अब इन युगों का वर्ष विभाग सुनो। पुरातत्त्वके ज्ञाता विद्वान् पुरुष कहते हैं कि सत्ययुग आदिका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष हैं। प्रत्येक युगके आरम्भ में उतने ही सौ वर्षोंकी सन्ध्या कही जाती है और युगके अन्तमें सन्ध्यांश होता है। सन्ध्यांशका मान भी उतना ही है, जितना सन्ध्याका नृपश्रेष्ठ ! सन्ध्या और सन्ध्यांशके
• सृष्टिस्थित्यन्तकरणाद् ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः । स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ॥ (२ । ११४)
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सृष्टिखण्ड] • ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान, वराहद्वारा पृथ्वीका वार, ब्रह्माजीके सगोंका वर्णन .
बीचका जो समय है, उसीको युग समझना चाहिये। वही पुरुष आँचसे सन्तप्त होकर जनलोकमें चले जाते हैं। सत्ययुग और त्रेता आदिके नामसे प्रसिद्ध है। सत्ययुग, दिनके बराबर ही अपनी रात बीत जानेपर ब्रह्माजी पुनः त्रेता, द्वापर और कलियुग-ये सब मिलकर चतुर्युग संसारकी सृष्टि करते हैं। इस प्रकार [पक्ष, मास आदिके कहलाते हैं। ऐसे एक हजार चतुर्युगोंको ब्रह्माका एक क्रमसे धरि-धीर] ब्रह्माजीका एक वर्ष व्यतीत होता है दिन कहा जाता है।*
तथा इसी क्रमसे उनके सौ वर्ष भी पूरे हो जाते हैं। सौ राजन् ! ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं। वर्ष ही उन महात्माकी पूरी आयु है। उनके समयका परिमाण सुनो । सप्तर्षि, देवता, इन्द्र, मनु भीष्मजीने कहा-महामुने ! कल्पके आदिमें और मनुके पुत्र-ये एक ही समयमें उत्पन्न होते हैं तथा नारायणसंशक भगवान् ब्रह्माने जिस प्रकार सम्पूर्ण अन्तमें साथ-ही-साथ इनका संहार भी होता है। भूतोंकी सृष्टि की, उसका आप वर्णन कीजिये। इकहत्तर चतुर्युगसे कुछ अधिक कालका एक मन्वन्तर पुलस्त्यजीने कहा-राजन् ! सबकी उत्पत्तिके होता है। यही मनु और देवताओं आदिका समय है। कारण और अनादि भगवान् ब्रह्माजीने जिस प्रकार इस प्रकार दिव्य वर्षगणनाके अनुसार आठ लाख, प्रजावर्गकी सृष्टि की, वह बताता हूँ सुनो । जब पिछले बावन हजार वर्षाका एक मन्वन्तर होता है। महामते! कल्पका अन्त हुआ, उस समय रात्रिमें सोकर उठनेपर मानव-वर्षोंसे गणना करनेपर मन्वन्तरका कालमान पूरे सत्त्वगुणके उद्रेकसे युक्त प्रभु ब्रह्माजीने देखा कि सम्पूर्ण तीस करोड़, सरसठ लाख, बीस हजार वर्ष होता है। लोक सूना हो रहा है। तब उन्होंने यह जानकर कि पृथ्वी इससे अधिक नहीं। इस कालको चौदह गुना करनेपर एकार्णवके जलमें डूब गयी है और इस समय पानीके ब्रह्माके एक दिनका मान होता है। उसके अन्तमें भीतर ही स्थित है, उसको निकालनेकी इच्छासे कुछ नैमित्तिक नामवाला ब्राह्म-प्रलय होता है। उस समय देरतक विचार किया। फिर वे यज्ञमय वाराहका स्वरूप भूलोक, भुवर्लोक और स्वलोक-सम्पूर्ण त्रिलोकी दग्ध धारणकर जलके भीतर प्रविष्ट हुए। भगवान्को होने लगती है और महलोंकमें निवास करनेवाले पाताललोकमें आया देख पृथ्वीदेवी भक्तिसे विनम्र हो
• युगों तथा ब्रह्माके दिनकी वर्ष-संख्या इस प्रकार समझनी चाहिये । सत्ययुगका मान चार हजार दिव्य वर्ष है, उसके आरम्भमें चार सौ वर्षोंकी सन्ध्या और अन्तमें चार सौ वर्षोंका सन्ध्यांश होता है। इस प्रकार सन्ध्या और सन्ध्याशसहित सत्ययुगकी अवधि चार हजार आठ सौ (४८००) दिव्य वर्षोंकी है। इसी तरह त्रेताका युगमान ३००० दिव्य वर्ष, सन्ध्या-मान ३०० वर्ष और सध्यांशमान ३०० वर्ष है; अतः उसकी पूरी अवधि ३६०० दिव्य वाँकी हुई। द्वापरका युगमान २००० वर्ष, सन्ध्या-मान २०० वर्ष और सन्ध्यांश-मान २०० वर्ष है; अतः उसका मान २४००दिव्य वर्षाका हुआ। कलियुगका युगमान १००० वर्ष, सन्ध्या-मान १०० व और सन्ध्यांश-मान १०० वर्ष है; इसलिये उसकी आयु १२०० दिव्य वर्षोंकी हुई। देवताओंका वर्ष मानव-वर्षसे ३६० गुना अधिक होता है। अतः मानव-वर्षके अनुसार कलियुगकी आयु ४,३२,००० वर्षोंकी, द्वापरकी ८,६४,००० वोंकी, त्रेताको १२,९६,००० वोंकी तथा सत्ययुगकी आय १७.२८,००० वर्षोंकी है। इनका कुल योग ४३,२०,००० वर्ष हुआ। यह एक चतुर्युगका मान है। ऐसे एक हजार चतुर्युगोंका अर्थात् हमारे ४,३२,००,००,००० (चार अरब बत्तीस करोड़) वर्षाका ब्रह्माका एक दिन होता है।
ब्रह्माजीके एक दिनमें चौदह मन्वन्तर होते हैं; इकहत्तर चतुर्युगोंके हिसाबसे चौदह मन्वन्तरोंमें ९९४ चतुर्युग होते है। परन्तु ब्रह्माका दिन एक हजार चतुर्युगोंका माना गया है। अतः छः चतुर्युग और बचे। छः चतुर्युगका चौदहवाँ भाग कुछ कम पाँच हजार एक सौ तीन दिव्य वयोंका होता है। इस प्रकार एक मन्वन्तरमें इकहत्तर चतुर्युगके अतिरिक्त इतने दिव्य वर्ष और अधिक होते हैं।
यह वर्ष-संख्या पूरे इकहत्तर चतुर्युगोंका मन्वन्तर मानकर निकाली गयी है; इस हिसाबसे ब्रह्माजीके दिनका मान ४,२९,४०,८०,००० (चार अरब, उनतीस करोड़, चालीस लाख, अस्सी हजार) मानव-वर्ष होता है। परन्तु पहले अता आये है कि इकहत्तर चतुर्युगसे कुछ अधिक कालका मन्वन्तर होता है। वह अधिक काल है-छ: चतुर्युगका चौदहवाँ भाग । उसको भी जोड़ लेनेपर मन्वन्तरका काल ऊपर दी हुई संख्यासे अधिक होगा और उस हिसाबसे ब्रह्माजीका दिनमान चार अरब, बत्तीस करोड़ वर्षाका ही होगा।
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• अर्बयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
गयीं और उनकी स्तुति करने लगीं।
कान्तिमान् भगवान् धरणीधरने घर्घर स्वरमें गर्जना की। पृथ्वी बोली-भगवन् ! आप सर्वभूतस्वरूप सामवेद ही उनकी उस ध्वनिके रूपमें प्रकट हुआ। परमात्मा हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है। आप इस उनके नेत्र खिले हुए कमलके समान शोभा पा रहे थे पाताललोकसे मेरा उद्धार कीजिये । पूर्वकालमें मैं आपसे तथा शरीर कमलके पत्तेके समान श्याम रंगका था। उन ही उत्पन्न हुई थी। परमात्मन् ! आपको नमस्कार है। आप महावराहरूपधारी भगवान्ने पृथ्वीको अपनी दाढ़ोंपर सबके अन्तर्यामी हैं, आपको प्रणाम है। प्रधान (कारण) उठा लिया और रसातलसे वे ऊपरकी ओर उठे। उस
और व्यक्त (कार्य) आपके ही स्वरूप हैं । काल भी आप समय उनके मुखसे निकली हुई साँसके आघातसे उछले ही हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो! जगत्की सृष्टि हुए उस प्रलयकालीन जलने जनलोकमें रहनेवाले आदिके समय आप ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप धारण सनन्दन आदि मुनियोंको भिगोकर निष्पाप कर दिया। करके सम्पूर्ण भूतोकी उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं, [निष्पाप तो वे थे ही, उन्हें और भी पवित्र बना दिया।] यद्यपि आप इन सबसे परे हैं। मुमुक्षु पुरुष आपकी भगवान् महावराहका उदर जलसे भीगा हुआ था। जिस आराधना करके मुक्त हो परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो गये समय वे अपने वेदमय शरीरको कपाते हुए पृथ्वीको हैं। भला, आप वासुदेवकी आराधना किये बिना कौन लेकर उठने लगे, उस समय आकाशमें स्थित महर्षिगण मोक्ष पा सकता है। जो मनसे ग्रहण करनेयोग्य, नेत्र आदि उनकी स्तुति करने लगे। इन्द्रियोंद्वारा अनुभव करनेयोग्य तथा बुद्धिके द्वारा ऋषियोंने कहा-जनेश्वरोंके भी परमेश्वर विचारणीय है, वह सब आपहीका रूप है। नाथ! आप केशव ! आप सबके प्रभु हैं। गदा, शङ्ख, उत्तम खड़ ही मेरे उपादान है, आप ही आधार है, आपने ही मेरी सृष्टि और चक्र धारण करनेवाले हैं। सृष्टि, पालन और की है तथा मैं आपहीकी शरणमें हूँ; इसीलिये इस जगत्के संहारके कारण तथा ईश्वर भी आप ही हैं। जिसे परमपद लोग मुझे 'माधवी' कहते हैं।
कहते हैं, वह भी आपसे भिन्न नहीं है। प्रभो ! आपका पृथ्वीने जब इस प्रकार स्तुति की, तब उन परम प्रभाव अतुलनीय है। पृथ्वी और आकाशके बीच
जितना अन्तर है, वह सब आपके ही शरीरसे व्याप्त है। इतना ही नहीं, यह सम्पूर्ण जगत् भी आपसे व्याप्त है। भगवन् ! आप इस विश्वका हित-साधन कीजिये। जगदीश्वर ! एकमात्र आप ही परमात्मा हैं, आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। आपकी ही महिमा है, जिससे यह चराचर जगत् व्याप्त हो रहा है। यह सारा जगत् ज्ञानस्वरूप है, तो भी अज्ञानी मनुष्य इसे पदार्थरूप देखते हैं। इसीलिये उन्हें संसार-समुद्रमें भटकना पड़ता है। परन्तु परमेश्वर ! जो लोग विज्ञानवेत्ता है, जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, वे समस्त संसारको ज्ञानमय ही देखते हैं, आपका स्वरूप ही समझते हैं। सर्वभूतस्वरूप परमात्मन् । आप प्रसन्न होइये। आपका स्वरूप अप्रमेय है। प्रभो ! भगवन् ! आप सबके उद्भवके लिये इस पृथ्वीका उद्धार एवं सम्पूर्ण जगत्का कल्याण कीजिये।
राजन् ! सनकादि मुनि जब इस प्रकार स्तुति कर
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सृष्टिखण्ड ]
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B
ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान, वराहद्वारा पृथ्वीका उद्धार, ब्रह्माजीके सगका वर्णन •
रहे थे, उस समय पृथ्वीको धारण करनेवाले परमात्मा महावराह शीघ्र ही इस वसुन्धराको ऊपर उठा लाये और उसे महासागरके जलपर स्थापित किया। उस जलराशिके ऊपर यह पृथ्वी एक बहुत बड़ी नौकाकी भाँति स्थित हुई। तत्पश्चात् भगवान्ने पृथ्वीके कई विभाग करके सात द्वीपोंका निर्माण किया तथा भूलक, भुवर्लोक, स्वोंक और महलोंक-इन चारों लोकोंकी पूर्ववत् कल्पना की । तदनन्तर ब्रह्माजीने भगवान् से कहा - 'प्रभो! मैंने इस समय जिन प्रधान प्रधान असुरोंको वरदान दिया है, उनको देवताओंकी भलाईके लिये आप मार डालें। मैं जो सृष्टि रचूँगा, उसका आप पालन करें।' उनके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णु 'तथास्तु' कहकर चले गये और ब्रह्माजीने देवता आदि प्राणियोंकी सृष्टि आरम्भ की। महत्तत्त्वकी उत्पत्तिको ही ब्रह्माकी प्रथम सृष्टि समझना चाहिये। तन्मात्राओंका आविर्भाव दूसरी सृष्टि है, उसे भूतसर्ग भी कहते हैं। वैकारिक अर्थात् सात्त्विक अहङ्कारसे जो इन्द्रियोंकी उत्पत्ति हुई है, वह तीसरी सृष्टि है; उसीका दूसरा नाम ऐन्द्रिय सर्ग है। इस प्रकार यह प्राकृत सर्ग है, जो अबुद्धिपूर्वक उत्पन्न हुआ है। चौथी सृष्टिका नाम है मुख्य सर्ग पर्वत और वृक्ष आदि स्थावर वस्तुओंको मुख्य कहते हैं। तिर्यक्त्रोत कहकर जिनका वर्णन किया गया है, वे (पशु-पक्षी, कीटपतङ्ग आदि) ही पाँचवीं सृष्टिके अन्तर्गत हैं; उन्हें तिर्यक् योनि भी कहते हैं। तत्पश्चात् ऊर्ध्वरेता देवताओंका सर्ग है, वही छठी सृष्टि है और उसीको देवसर्ग भी कहते हैं। तदनन्तर सातवीं सृष्टि अर्वाक्स्रोताओंकी है, वही मानव-सर्ग कहलाता है। आठवाँ अनुग्रह सर्ग है, वह सात्त्विक भी है और तामस भी। इन आठ सगमेंसे अन्तिम पाँच वैकृत-सर्ग माने गये हैं तथा आरम्भके तीन सर्ग प्राकृत बताये गये हैं। नवाँ कौमार सर्ग है, वह प्राकृत भी है वैकृत भी इस प्रकार जगत् की रचनामें प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापतिके ये प्राकृत और वैकृत नामक नौ सर्ग तुम्हें बतलाये गये, जो जगत्के मूल कारण हैं। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
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भीष्मजीने कहा— गुरुदेव ! आपने देवताओं आदिकी सृष्टि थोड़ेमें ही बतायी है। मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं उसे आपके मुखसे विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ।
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पुलस्त्यजीने कहा- राजन् ! सम्पूर्ण प्रजा अपने पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मोंसे प्रभावित रहती है; अतः प्रलयकालमें सबका संहार हो जानेपर भी वह उन कर्मो के संस्कारसे मुक्त नहीं हो पाती। जब ब्रह्माजी सृष्टिकार्यमें प्रवृत्त हुए, उस समय उनसे देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकारकी प्रजा उत्पन्न हुई; वे चारों [ ब्रह्माजीके मानसिक संकल्पसे प्रकट होनेके कारण] मानसी प्रजा कहलायीं। तदनन्तर प्रजापतिने देवता, असुर, पितर और मनुष्य – इन चार प्रकारके प्राणियोंकी तथा जलकी भी सृष्टि करनेकी इच्छासे अपने शरीरका उपयोग किया। उस समय सृष्टिकी इच्छावाले मुक्तात्मा प्रजापतिकी जङ्घासे पहले दुरात्मा असुरोंकी उत्पत्ति हुई। उनकी सृष्टिके पश्चात् भगवान् ब्रह्माने अपनी वयस् ( आयु) से इच्छानुसार वयों (पक्षियों) को उत्पन्न किया। फिर अपनी भुजाओंसे भेड़ों और मुखसे बकरोंकी रचना की। इसी प्रकार अपने पेटसे गायों और भैंसोंको तथा पैरोंसे घोड़े, हाथी, गदहे, नीलगाय, हरिन, ऊँट, खच्चर तथा दूसरे दूसरे पशुओंकी सृष्टि की। ब्रह्माजीकी रोमावलियोंसे फल, मूल तथा भाँति-भाँतिके अन्नोंका प्रादुर्भाव हुआ। गायत्री छन्द, ऋग्वेद, त्रिवृत्स्तोम, रथन्तर तथा अग्निष्टोम यज्ञको प्रजापतिने अपने पूर्ववर्ती मुखसे प्रकट किया। यजुर्वेद, त्रिष्टुप् छन्द, पञ्चदशस्तोम, बृहत्साम और उक्थकी दक्षिणवाले मुखसे रचना की। सामवेद जगती छन्द, सप्तदशस्तोम, वैरूप और अतिरात्रभागकी सृष्टि पश्चिम मुखसे की तथा एकविंशस्तोम, अथर्ववेद, आप्तोर्याम, अनुष्टुप् छन्द और वैराजको उत्तरवर्ती मुखसे उत्पन्न किया। छोटे-बड़े जितने भी प्राणी हैं, सब प्रजापतिके विभिन्न अङ्गसे उत्पन्न हुए। कल्पके आदिमें प्रजापति ब्रह्माने देवताओं, असुरों पितरों और मनुष्योंकी सृष्टि करके फिर यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, राक्षस, सिंह, पक्षी, मृग और सर्पोको उत्पन्न किया। नित्य और अनित्य जितना
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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
भी यह चराचर जगत् है, सबको आदिकर्ता भगवान् ऋषियों तथा अन्यान्य प्राणियोंके भी वेदानुकूल नाम ब्रह्माने उत्पन्न किया। उन उत्पन्न हुए प्राणियोंमेंसे जिन्होंने और उनके यथायोग्य कर्मोको भी ब्रह्माजीने ही निश्चित पूर्वकल्पमें जैसे कर्म किये थे, वे पुनः बारम्बार जन्म किया। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुओंके बारम्बार लेकर वैसे ही कोंमें प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार भगवान् आनेपर उनके विभिन्न प्रकारके चिह्न पहलेके समान ही विधाताने ही इन्द्रियोंके विषयों, भूतों और शरीरोंमें प्रकट होते हैं, उसी प्रकार सृष्टिके आरम्भमें सारे पदार्थ विभिन्नता एवं पृथक्-पृथक् व्यवहार उत्पन्न किया। पूर्व कल्पके अनुसार ही दृष्टिगोचर होते हैं । सृष्टि के लिये उन्होंने कल्पके आरम्भमें वेदके अनुसार देवता आदि इच्छुक तथा सृष्टिकी शक्तिसे युक्त ब्रह्माजी कल्पके प्राणियोंके नाम, रूप और कर्तव्यका विस्तार किया। आदिमें बारम्बार ऐसी ही सृष्टि किया करते हैं।
___ यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्गों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा
स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन्! आपने अक्स्रिोत अनुसार रची हुई प्रजा उत्तम श्रद्धाके साथ श्रेष्ठ नामक सर्गका जो मानव सर्गके नामसे भी प्रसिद्ध है, आचारका पालन करने लगी। वह इच्छानुसार जहाँ संक्षेपसे वर्णन किया; अब उसीको विस्तारके साथ चाहती, रहती थी। उसे किसी प्रकारकी बाधा नहीं कहिये। ब्रह्माजीने मनुष्योंकी सृष्टि किस प्रकार की? सताती थी। समस्त प्रजाका अन्तःकरण शुद्ध था। वह महामुने ! प्रजापतिने चारों वर्षों तथा उनके गुणोंको कैसे स्वभावसे ही परम पवित्र थी। धर्मानुष्ठानके कारण उसकी उत्पन्न किया? और ब्राह्मणादि वर्णोक कौन-कौन-से पवित्रता और भी बढ़ गयी थी। प्रजाओंके पवित्र कर्म माने गये हैं? इन सब बातोंका वर्णन कीजिये। अन्तःकरणमें भगवान् श्रीहरिका निवास होनेके कारण
पुलस्त्यजी बोले-कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टिकी इच्छा सबको शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था, जिससे सब लोग रखनेवाले ब्रह्माजीने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और श्रीहरिके 'परब्रह्म' नामक परमपदका साक्षात्कार कर शूद्र-इन चार वर्णोको उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण लेते थे। मुखसे, क्षत्रिय वक्षःस्थलसे, वैश्य जाँघोंसे और शूद्र तदनन्तर प्रजा जीविकाके साधन उद्योग-धंधे और ब्रह्माजीके पैरोंसे उत्पन्न हुए। महाराज ! ये चारों वर्ण खेती आदिका काम करने लगी। राजन् ! धान, जौ, यज्ञके उत्तम साधन है; अतः ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानकी गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कैंगनी, ज्वार, कोदो, चेना, सिद्धिके लिये ही इन सबकी सृष्टि की। यज्ञसे तृप्त होकर उड़द, मूंग, मसूर, मटर, कुलथी, अरहर, चना और देवतालोग जलकी वृष्टि करते है, जिससे मनुष्योंकी भी सन-ये सत्रह ग्रामीण अत्रोंकी जातियाँ है। ग्रामीण तृप्ति होती है; अतः धर्ममय यज्ञ सदा ही कल्याणका हेतु और जंगली दोनों प्रकारके मिलाकर चौदह अन्न यज्ञके है। जो लोग सदा अपने वर्णोचित कर्ममें लगे रहते हैं, उपयोगमें आनेवाले माने गये हैं। उनके नाम ये हैंजिन्होंने धर्म-विरुद्ध आचरणोंका परित्याग कर दिया है धान, जौ, उड़द, गेहैं, महीन धान्य, तिल, सातवीं कैंगनी तथा जो सन्मार्गपर चलनेवाले हैं, वे श्रेष्ठ मनुष्य ही और आठवीं कुलथी-ये ग्रामीण अन्न है तथा साँवा, यज्ञका यथावत् अनुष्ठान करते हैं। राजन्! [यज्ञके तिन्नीका चावल, जर्तिल (वनतिल), गवेधु, वेणुयव द्वारा मनुष्य इस मानव-देहके त्यागके पश्चात् स्वर्ग और और मक्का-ये छः जंगली अन्न है। ये चौदह अन्न अपवर्ग भी प्राप्त कर सकते हैं तथा और भी जिस-जिस यज्ञानुष्ठानकी सामग्री है तथा यज्ञ ही इनकी उत्पत्तिका स्थानको पानेकी उन्हें इच्छा हो, उसी-उसीमें वे जा सकते प्रधान हेतु है। यज्ञके साथ ये अन्न प्रजाकी उत्पत्ति और है। नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्माजीके द्वारा चातुर्वर्ण्य-व्यवस्थाके वृद्धिके परम कारण है; इसलिये इहलोक और परलोकके
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सृष्टिखण्ड] • यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्गों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदिकी उत्पत्तिका वर्णन ...
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ज्ञाता विद्वान् पुरुष इन्हींक द्वारा यज्ञोंका अनुष्ठान करते उनका आधा शरीर स्त्रीका था और आधा पुरुषका । वे रहते हैं। नृपश्रेष्ठ ! प्रतिदिन किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान बड़े प्रचण्ड थे और उनका शरीर बड़ा विशाल था। तब मनुष्योंका परम उपकारक तथा उन्हें शान्ति प्रदान ब्रह्माजी उन्हें यह आदेश देकर कि 'तुम अपने शरीरके करनेवाला होता है। [कृषि आदि जीविकाके साधनोंके दो भाग करो' वहाँसे अन्तर्धान हो गये। उनके ऐसा सिद्ध हो जानेपर] प्रजापतिने प्रजाके स्थान और गुणोंके कहनेपर रुद्रने अपने शरीरके स्त्री और पुरुषरूप दोनों अनुसार उनमें धर्म-मर्यादाकी स्थापना की। फिर वर्ण भागोंको पृथक्-पृथक् कर दिया और फिर पुरुषभागको और आश्रमोंके पृथक्-पृथक् धर्म निश्चित किये तथा ग्यारह रूपोंमें विभक्त किया। इसी प्रकार खीभागको भी स्वधर्मका भलीभाँति पालन करनेवाले सभी वर्गों के लिये अनेकों रूपोंमें प्रकट किया। स्त्री और पुरुष दोनों पुण्यमय लोकोंकी रचना की।
भागोंके वे भिन्न-भिन्न रूप सौम्य, क्रूर, शान्त, श्याम योगियोंको अमृतस्वरूप ब्रह्मधामकी प्राप्ति होती है, और गौर आदि नाना प्रकारके थे। जो परम पद माना गया है। जो योगी सदा एकान्तमें तत्पश्चात् ब्रह्माजीने अपनेसे उत्पन्न, अपने ही रहकर यलपूर्वक ध्यानमें लगे रहते हैं, उन्हें वह उत्कृष्ट स्वरूपभूत स्वायम्भुवको प्रजापालनके लिये प्रथम मनु पद प्राप्त होता है, जिसका ज्ञानीजन ही साक्षात्कार कर बनाया। स्वायम्भुव मनुने शतरूपा नामकी स्त्रीको, जो पाते हैं। तामिस्त्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव, घोर तपस्याके कारण पापरहित थी, अपनी पत्नीके रूपमें असिपत्रवन, कालसूत्र और अवीचिमान् आदि जो नरक स्वीकार किया। देवी शतरूपाने स्वायम्भुव मनुसे दो पुत्र हैं, वे वेदोंकी निन्दा, यज्ञोंका उच्छेद तथा अपने धर्मका और दो कन्याओंको जन्म दिया। पुत्रोंके नाम थेपरित्याग करनेवाले पुरुषोंके स्थान बताये गये हैं। प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा कन्याएँ प्रसूति और
ब्रह्माजीने पहले मनके संकल्पसे ही चराचर आकूतिके नामसे प्रसिद्ध हुई। मनुने प्रसूतिका विवाह प्राणियोंकी सृष्टि की; किन्तु जब इस प्रकार उनकी सारी दक्षके साथ और आकूतिका रुचि प्रजापतिके साथ कर प्रजा [पुत्र, पौत्र आदिके क्रमसे] अधिक न बढ़ सकी, दिया। दक्षने प्रसूतिके गर्भसे चौबीस कन्याएँ उत्पन्न की। तब उन्होंने अपने ही सदृश अन्य मानस पुत्रोंको उत्पन्न उनके नाम है-श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, पुष्टि, तुष्टि, मेघा, किया। उनके नाम हैं-भृगु, पुलह, क्रतु, अङ्गिरा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवीं मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ । पुराणमें ये नौ* ब्रह्मा कीर्ति। इन दक्ष-कन्याओंको भगवान् धर्मने अपनी निश्चित किये गये हैं। इन भृगु आदिके भी पहले जिन पलियोंके रूपमें ग्रहण किया। इनसे छोटी ग्यारह कन्याएँ सनन्दन आदि पुत्रोंको ब्रह्माजीने जन्म दिया था, उनके और थीं, जो ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, मनमें पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छा नहीं हुई; इसलिये वे सन्नति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा नामसे प्रसिद्ध सृष्टि रचनाके कार्यमें नहीं फँसे । उन सबको स्वभावतः हुई। नृपश्रेष्ठ ! इन ख्याति आदि कन्याओको क्रमशः विज्ञानकी प्राप्ति हो गयी थी। वे मात्सर्य आदि दोषोंसे भृगु, शिव, मरीचि, अङ्गिरा और मैंने (पुलस्त्य) तथा रहित और वीतराग थे। इस प्रकार संसारकी सृष्टिके पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ, अग्नि तथा पितरोंने ग्रहण कार्यसे उनके उदासीन हो जानेपर महात्मा ब्रह्माजीको किया। श्रद्धाने कामको, लक्ष्मीने दर्पको, तिने महान् क्रोध हुआ, उनकी भौहे तन गयीं और ललाट नियमको, तुष्टिने सन्तोषको और पुष्टिने लोभको जन्म क्रोधसे उद्दीप्त हो उठा। इसी समय उनके ललाटसे दिया। मेधाने श्रुतको, क्रियाने दण्ड, नय और विनयको, मध्याह्नकालीन सूर्यके समान तेजस्वी रुद्र प्रकट हुए। बुद्धिने बोधको, लज्जाने विनयको, वपुने अपने पुत्र
• संभवतः पुलस्त्यजीको मिलाकर ही नौ ब्रह्मा माने गये हैं।
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• अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
व्यवसायको, शान्तिने क्षेमको, सिद्धिने सुखको और तथा वेदना नामकी कन्याओंको उत्पन्न किया। माया कीर्तिने यशको उत्पन्न किया। ये ही धर्मके पुत्र हैं। भयकी और वेदना नरककी पत्नी हुई। उनमेंसे मायाने कामसे उसकी पत्नी नन्दीने हर्ष नामक पुत्रको जन्म दिया, समस्त प्राणियोंका संहार करनेवाले मृत्यु नामक पुत्रको यह धर्मका पौत्र था। भृगुकी पत्नी ख्यातिने लक्ष्मीको जन्म दिया और वेदनासे नरकके अंशसे दुःखकी उत्पत्ति जन्म दिया, जो देवाधिदेव भगवान् नारायणकी पत्नी है। हुई। फिर मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और भगवान् रुद्रने दक्षसुता सतीको पत्नीरूपमें ग्रहण किया, क्रोधका जन्म हुआ। ये सभी अधर्मस्वरूप हैं और जिन्होंने अपने पितापर खीझकर शरीर त्याग दिया। दुःखोत्तर नामसे प्रसिद्ध है। इनके न कोई स्त्री है न पुत्र ।
अधर्मकी स्त्रीका नाम हिंसा है। उससे अनृत ये सब-के-सब नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। राजकुमार भीष्म ! नामक पुत्र और निकृति नामवाली कन्याकी उत्पत्ति हुई। ये ब्रह्माजीके रौद्र रूप है और ये ही संसारके नित्य फिर उन दोनोंने भय और नरक नामक पुत्र और माया प्रलयमें कारण होते हैं।
__लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति भीष्मजीने कहा-मुने ! मैंने तो सुना था डाल दो। फिर मन्दराचलको मथानी और वासुकि लक्ष्मीजी क्षीर-समुद्रसे प्रकट हुई है; फिर आपने यह कैसे नागको नेती (रस्सी) बनाकर समुद्रका मन्थन करते हुए कहा कि वे भृगुकी पत्नी ख्यातिके गर्भसे उत्पन्न हुई? उससे अमृत निकालो। इस कार्यमें मैं तुमलोगोंकी
पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! तुमने मुझसे जो प्रश्न सहायता करूँगा। समुद्रका मन्थन करनेपर जो अमृत किया है, उसका उत्तर सुनो। लक्ष्मीजीके जन्मका निकलेगा, उसका पान करनेसे तुमलोग बलवान् और सम्बन्ध समुद्रसे है, यह बात मैंने भी ब्रह्माजीके मुखसे अमर हो जाओगे।' सुन रखी है। एक समयकी बात है, दैत्यों और दानवोंने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओंपर चढ़ाई की। उस युद्धमें दैत्योंके सामने देवता परास्त हो गये। तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्निको आगे करके ब्रह्माजीकी शरणमें गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। ब्रह्माजीने कहा-'तुमलोग मेरे साथ भगवानकी शरणमें चलो।' यह कहकर वे सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले क्षीर-सागरके उत्तर-तटपर गये
और भगवान् वासुदेवको सम्बोधित करके बोले'विष्णो ! शीघ्र उठिये और इन देवताओंका कल्याण कीजिये | आपकी सहायता न मिलनेसे दानव इन्हें बारम्बार परास्त करते हैं। उनके ऐसा कहनेपर कमलके समान नेत्रवाले भगवान् अन्तर्यामी पुरुषोत्तमने देवताओंके शरीरकी अपूर्व अवस्था देखकर कहा'देवगण ! मैं तुम्हारे तेजकी वृद्धि करूँमा। मैं जो उपाय बतलाता है, उसे तुमलोग करो। दैत्योंके साथ मिलकर देवाधिदेव भगवानके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता सब प्रकारकी ओषधियाँ ले आओ और उन्हें क्षीरसागरमे दैत्योंके साथ सन्धि करके अमृत निकालनेके यत्नमें लग
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सृष्टिखण्ड ]
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लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र मन्थन और अमृत प्राप्ति •
गये। देव, दानव और दैत्य सब मिलकर सब प्रकारकी ओषधियाँ ले आये और उन्हें क्षीर सागरमें डालकर मन्दराचलको मथानी एवं वासुकि नागको नेती बनाकर बड़े वेग से मन्थन करने लगे। भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे सब देवता एक साथ रहकर वासुकिकी पूँछकी ओर हो गये और दैत्योंको उन्होंने वासुकिके सिरकी ओर खड़ा कर दिया। भीष्मजी ! वासुकिके मुखकी साँस तथा विषानिसे झुलस जानेके कारण सब दैत्य निस्तेज हो गये। क्षीरसमुद्रके बीचमें ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् ब्रह्मा तथा महातेजस्वी महादेवजी कच्छप रूपधारी श्रीविष्णुभगवान्की पीठपर खड़े हो अपनी भुजाओंसे कमलकी भाँति मन्दराचलको पकड़े हुए थे तथा स्वयं भगवान् श्रीहरि कूर्मरूप धारण करके क्षीर सागरके भीतर देवताओं और दैत्योंके बीचमें स्थित थे। [वे मन्दराचलको अपनी पीठपर लिये डूबनेसे बचाते थे।] तदनन्तर जब देवता और दानवोंने क्षीरसमुद्रका मन्थन आरम्भ किया, तब पहले-पहल उससे देवपूजित सुरभि (कामधेनु) का आविर्भाव हुआ, जो हविष्य (घी-दूध) की उत्पत्तिका स्थान मानी गयी है। तत्पश्चात् वारुणी (मदिरा) देवी प्रकट हुई, जिसके मदभरे नेत्र घूम रहे थे। वह पग-पगपर लड़खड़ाती चलती थी। उसे अपवित्र मानकर देवताओंने त्याग दिया। तब वह असुरोंके पास जाकर बोली- 'दानवो मैं बल प्रदान करनेवाली देवी हूँ, तुम मुझे ग्रहण करो।' दैत्योंने उसे ग्रहण कर लिया। इसके बाद पुनः मन्थन आरम्भ होनेपर पारिजात ( कल्पवृक्ष) उत्पन्न हुआ, जो अपनी शोभासे देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला था। तदनन्तर साठ करोड़ अप्सराएँ प्रकट हुईं, जो देवता और दानवोंकी सामान्यरूपसे भोग्या हैं। जो लोग पुण्यकर्म करके देवलोकमें जाते हैं, उनका भी उनके ऊपर समान अधिकार होता है। अप्सराओंके बाद शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाका प्रादुर्भाव हुआ, जो देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाले थे। उन्हें भगवान् शङ्करने अपने लिये माँगते हुए कहा- 'देवताओ! ये चन्द्रमा मेरी जटाओंके आभूषण होंगे, अतः मैंने इन्हें ले लिया ।'
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ब्रह्माजीने 'बहुत अच्छा' कहकर शङ्करजीकी बातका अनुमोदन किया। तत्पश्चात् कालकूट नामक भयङ्कर विष प्रकट हुआ, उससे देवता और दानव सबको बड़ी पीड़ा हुई। तब महादेवजीने स्वेच्छासे उस विषको लेकर पी लिया। उसके पीनेसे उनके कण्ठमें काला दाग पड़ गया, तभीसे वे महेश्वर नीलकण्ठ कहलाने लगे। क्षीरसागरसे निकले हुए उस विषका जो अंश पीनेसे बच गया था, उसे नागों (सर्पों) ने ग्रहण कर लिया।
तदनन्तर अपने हाथमें अमृतसे भरा हुआ कमण्डलु लिये धन्वन्तरिजी प्रकट हुए। वे श्वेतवस्त्र धारण किये हुए थे। वैद्यराजके दर्शनसे सबका मन स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गया। इसके बाद उस समुद्रसे उच्चैःश्रवा घोड़ा और ऐरावत नामका हाथी - ये दोनों क्रमशः प्रकट हुए। इसके पश्चात् क्षीरसागरसे लक्ष्मीदेवीका प्रादुर्भाव हुआ, जो खिले हुए कमलपर विराजमान थीं और हाथमें कमल लिये थीं। उनकी प्रभा चारों ओर छिटक रही थी। उस समय महर्षियोंने श्रीसूक्तका पाठ करते हुए बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका स्तवन किया। साक्षात् क्षीरसमुद्रने [ दिव्य पुरुषके रूपमें] प्रकट होकर लक्ष्मीजीको एक सुन्दर माला भेंट की, जिसके कमल कभी मुरझाते नहीं थे। विश्वकर्माने उनके समस्त अङ्गोंमें आभूषण पहना दिये। खानके पश्चात् दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके जब वे सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हुई, तब इन्द्र आदि देवता तथा विद्याधर आदिने भी उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा की। तब ब्रह्माजीने भगवान् विष्णुसे कहा - 'वासुदेव ! मेरे द्वारा दी हुई इस लक्ष्मीदेवीको आप ही ग्रहण करें। मैंने देवताओं और दानवोंको मना कर दिया है - वे इन्हें पानेकी इच्छा नहीं करेंगे। आपने जो स्थिरतापूर्वक इस समुद्र मन्थनके कार्यको सम्पन्न किया है, इससे आपपर मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ।' यों कहकर ब्रह्माजी लक्ष्मीजीसे बोले— 'देवि! तुम भगवान् केशवके पास जाओ। मेरे दिये हुए पतिको पाकर अनन्त वर्षोंतक आनन्दका उपभोग करो।'
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर लक्ष्मीजी समस्त
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पयपुराण
देवताओंके देखते-देखते श्रीहरिके वक्षःस्थलमें चली मग्न हो शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् गयीं और भगवानसे बोली-'देव ! आप कभी मेरा श्रीविष्णुको प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये। परित्याग न करें। सम्पूर्ण जगत्के प्रियतम ! मैं सदा तबसे सूर्यदेवकी प्रभा स्वच्छ हो गयी। वे अपने आपके आदेशका पालन करती हुई आपके वक्षःस्थलमें मार्गसे चलने लगे। भगवान् अग्निदेव भी मनोहर दीप्तिसे निवास करूंगी।' यह कहकर लक्ष्मीजीने कृपापूर्ण युक्त हो प्रज्वलित होने लगे तथा सब प्राणियोंका मन दृष्टि से देवताओंकी ओर देखा, इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता धर्ममें संलग्न रहने लगा। भगवान् विष्णुसे सुरक्षित हुई। इधर लक्ष्मीसे परित्यक्त होनेपर दैत्योंको बड़ा उद्वेग होकर समस्त त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी। उस समय हुआ। उन्होंने झपटकर धन्वन्तरिके हाथसे अमृतका पात्र समस्त लोकोंको धारण करनेवाले ब्रह्माजीने देवताओंसे छीन लिया। तब विष्णुने मायासे सुन्दरी स्त्रीका रूप कहा-देवगण ! मैंने तुम्हारी रक्षाके लिये भगवान् धारण करके दैत्योंको लुभाया और उनके निकट जाकर श्रीविष्णुको तथा देवताओंके स्वामी उमापति कहा-'यह अमृतका कमण्डलु मुझे दे दो।' उस महादेवजीको नियत किया है; वे दोनों तुम्हारे योगक्षेमका त्रिभुवनसुन्दरी रूपवती नारीको देखकर दैत्योंका चित्त निर्वाह करेंगे। तुम सदा उनकी उपासना करते रहना; कामके वशीभूत हो गया। उन्होंने चुपचाप वह अमृत क्योंकि वे तुम्हारा कल्याण करनेवाले हैं। उपासना उस सुन्दरीके हाथमें दे दिया और स्वयं उसका मुंह करनेसे ये दोनों महानुभाव सदा तुम्हारे क्षेमके साधक ताकने लगे। दानवोंसे अमृत लेकर भगवान्ने और वरदायक होंगे।' यों कहकर भगवान् ब्रह्मा अपने देवताओंको दे दिया और इन्द्र आदि देवता तत्काल उस धामको चले गये। उनके जानेके बाद इन्द्रने देवलोककी अमृतको पी गये। यह देख दैत्यगण भाँति-भांतिके राह ली। तत्पश्चात् श्रीहरि और शङ्करजी भी अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र और तलवारें हाथमें लेकर देवताओंपर टूट धाम-वैकुण्ठ एवं कैलासमें जा पहुँचे। तदनन्तर पड़े; परन्तु देवता अमृत पीकर बलवान् हो चुके थे, देवराज इन्द्र तीनों लोकोंकी रक्षा करने लगे। महाभाग ! उन्होंने दैत्य-सेनाको परास्त कर दिया। देवताओंकी मार इस प्रकार लक्ष्मीजी क्षीरसागरसे प्रकट हुई थीं। यद्यपि पड़नेपर दैत्योंने भागकर चारों दिशाओंकी शरण ली और वे सनातनी देवी है, तो भी एक समय भृगुकी पत्नी कितने ही पातालमें घुस गये। तब सम्पूर्ण देवता आनन्द- ख्यातिके गर्भसे भी उन्होंने जन्म ग्रहण किया था।
सतीका देहत्याग और दक्ष-यज्ञ-विध्वंस भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन् ! दक्षकन्या सती तो प्राचेतस, अङ्गिरा तथा महातपस्वी वसिष्ठजी भी उपस्थित बड़ी शुभलक्षणा थीं, उन्होंने अपने शरीरका त्याग क्यों हुए। वहाँ सब ओरसे बराबर वेदी बनाकर उसके ऊपर किया? तथा भगवान् रुद्रने किस कारणसे दक्षके चातुर्होत्रकी* स्थापना हुई। उस यज्ञमें महर्षि वसिष्ठ यज्ञका विध्वंस किया?
होता, अङ्गिरा अध्वर्यु, बृहस्पति उदाता तथा नारदजी पुलस्त्यजीने कहा-भीष्म ! प्राचीन कालकी ब्रह्मा हुए। जब यज्ञकर्म आरम्भ हुआ और अग्निमें हवन बात है, दक्षने गङ्गाद्वारमें यज्ञ किया। उसमें देवता, होने लगा, उस समयतक देवताओंके आनेका क्रम जारी असुर, पितर और महर्षि सब बड़ी प्रसन्नताके साथ रहा। स्थावर और जङ्गम-सभी प्रकारके प्राणी वहाँ पधारे। इन्द्रसहित देवता, नाग, यक्ष, गरुड, लताएँ, उपस्थित थे। इसी समय ब्रह्माजी अपने पुत्रोंके साथ ओषधियाँ, कश्यप, भगवान् अत्रि, मैं, पुलह, क्रतु, आकर यज्ञके सभासद् हुए तथा साक्षात् भगवान्
• होता, अध्वर्यु, उद्माता और ब्रह्मा-इन चारोंके द्वारा सम्पन्न होनेवाले यज्ञको चातुोत्र कहते हैं।
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सृष्टिखण्ड ]
• सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञविध्वंस •
श्रीविष्णु भी यज्ञकी रक्षाके लिये वहाँ पधारे। आठों वसु, बारहों आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, उनचासों मरुद्रण तथा चौदहों मनु भी वहाँ आये थे। इस प्रकार यज्ञ होने लगा, अग्निमें आहुतियाँ पड़ने लगीं। वहाँ भक्ष्यभोज्य सामग्रीका बहुत ही सुन्दर और भारी ठाट-बाट था। ऐश्वर्यकी पराकाष्ठा दिखायी देती थी। चारों ओरसे दस योजन भूमि यज्ञके समारोहसे पूर्ण थी। वहाँ एक विशाल वेदी बनायी गयी थी, जहाँ सब लोग एकत्रित थे। शुभलक्षणा सतीने इन सारे आयोजनोंको देखा और यज्ञमें आये हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंको लक्ष्य किया। इसके बाद वे अपने पितासे विनययुक्त वचन बोलीं ।
सतीने कहा - पिताजी! आपके यज्ञमें सम्पूर्ण देवता और ऋषि पधारे हैं। देवराज इन्द्र अपनी धर्मपत्नी शचीके साथ ऐरावतपर चढ़कर आये है। पापियोंका दमन करनेवाले तथा धर्मात्माओंके रक्षक परमधर्मिष्ठ यमराज भी धूमोर्णाके साथ दृष्टिगोचर हो रहे हैं। जलजन्तुओंके स्वामी वरुणदेव अपनी पत्नी गौरीके साथ इस यज्ञमण्डपमें सुशोभित है। यक्षोंके राजा कुबेर भी अपनी पत्नीके साथ आये हैं। देवताओंके मुखस्वरूप अग्निदेवने भी यज्ञ मण्डपमें पदार्पण किया है। वायु देवता अपने उनचास गणोंके साथ और लोकपावन सूर्यदेव अपनी भार्या संज्ञाके साथ पधारे हैं। महान् यशस्वी चन्द्रमा भी सपत्नीक आये हैं। आठों वसु और दोनों अश्विनीकुमार भी उपस्थित है। इनके सिवा वृक्ष, वनस्पति, गन्धर्व, अप्सराएँ, विद्याधर, भूतोंके समुदाय, वेताल, यक्ष, राक्षस, भयङ्कर कर्म करनेवाले पिशाच तथा दूसरे दूसरे प्राणधारी जीव भी यहाँ मौजूद हैं। भगवान् कश्यप, शिष्योंसहित वसिष्ठजी, पुलस्त्य, पुलह, सनकादि महर्षि तथा भूमण्डलके समस्त पुण्यात्मा राजा यहाँ पधारे हैं। अधिक क्या कहूँ, ब्रह्माजीकी बनायी हुई सारी सृष्टि ही यहाँ आ पहुँची है। ये हमारी बहिनें हैं, ये भानजे हैं और ये बहनोई हैं। ये सब-के-सब अपनी-अपनी स्त्री, पुत्र और बान्धवोंके साथ यहाँ उपस्थित दिखायी देते हैं। आपने दान-मानादिके द्वारा इन सबका यथावत् सत्कार
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किया है। केवल मेरे पति भगवान् शङ्कर ही इस यज्ञमण्डपमें नहीं पधारे हैं; उनके बिना यह सारा आयोजन मुझे सूना-सा ही जान पड़ता है। मैं समझती हूँ आपने मेरे पतिको निमन्त्रित नहीं किया है; निश्चय ही आप उन्हें भूल गये हैं। इसका क्या कारण है? मुझे सब बातें बताइये ।
पुलस्त्यजी कहते हैं - प्रजापति दक्षने सतीके वचन सुने। सती उन्हें प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय थीं, उन्होंने पतिके स्नेहमें डूबी हुई परम सौभाग्यवती पतिव्रता सतीको गोदमें बिठा लिया और गम्भीर होकर कहा'बेटी! सुनो; जिस कारणसे आज मैंने तुम्हारे पतिको निमन्त्रित नहीं किया है, वह सब ठीक-ठीक बताता हूँ। वे अपने शरीरमें राख लपेटे रहते हैं। त्रिशूल और दण्ड लिये नंग-धड़ंग सदा श्मशानभूमिमें ही विचरा करते हैं। व्याघ्रचर्म पहनते और हाथीका चमड़ा ओढ़ते हैं। कंधेपर नरमुण्डोंकी माला और हाथमें खट्वाङ्ग – यही उनके आभूषण हैं। वे नागराज वासुकिको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण किये रहते हैं और इसी रूपमें वे सदा इस पृथ्वीपर भ्रमण करते हैं। इसके सिवा और भी बहुत-से घृणित कार्य तुम्हारे पति देवता करते रहते हैं। यह सब मेरे लिये बड़ी लज्जाकी बात है। भला, इन देवताओंके निकट वे उस अभद्र वेषमें कैसे बैठ सकते हैं। जैसा उनका वस्त्र है, उसे पहनकर वे इस यज्ञमण्डपमें आने योग्य नहीं हैं। बेटी ! इन्हीं दोषोंके कारण तथा लोक- लज्जाके भयसे मैंने उन्हें नहीं बुलाया। जब यज्ञ समाप्त हो जायगा, तब मैं तुम्हारे पतिको ले आऊँगा और त्रिलोकीमें सबसे बढ़-चढ़कर उनकी पूजा करूँगा; साथ ही तुम्हारा भी यथावत् सत्कार करूँगा। अतः इसके लिये तुम्हें खेद या क्रोध नहीं करना चाहिये ।'
भीष्म ! प्रजापति दक्षके ऐसा कहनेपर सतीको बड़ा शोक हुआ, उनकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं । वे पिताकी निन्दा करती हुई बोलीं- 'तात ! भगवान् शङ्कर ही सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं, वे ही सबसे श्रेष्ठ माने गये हैं। समस्त देवताओंको जो ये उत्तमोत्तम स्थान प्राप्त हुए हैं, ये सब परम बुद्धिमान् महादेवजीके ही दिये
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
हुए हैं। भगवान् शिवमें जितने गुण हैं, उनका पूर्णतया दी। उनमें विनायक-सम्बन्धी प्रह, भूत, प्रेत तथा वर्णन करनेमें ब्रह्माजीकी जिह्वा भी समर्थ नहीं है। वे ही पिशाच-सब थे। यज्ञमण्डपमें पहुँचकर उन्होंने सब सबके धाता (धारण करनेवाले) और विधाता देवताओंको परास्त किया और उन्हें भगाकर उस यज्ञको (नियामक) हैं। वे ही दिशाओंके पालक है। भगवान् तहस-नहस कर डाला । यज्ञ नष्ट हो जानेसे दक्षका सारा रुद्रके प्रसादसे ही इन्द्रको स्वर्गका आधिपत्य प्राप्त हुआ उत्साह जाता रहा। वे उद्योगशून्य होकर देवाधिदेव है। यदि रुद्रमें देवत्व है, यदि वे सर्वत्र व्यापक और पिनाकधारी भगवान् शिवके पास डरते-डरते गये और कल्याणस्वरूप हैं, तो इस सत्यके प्रभावसे शङ्करजी इस प्रकार बोले-'देव ! मैं आपके प्रभावको नहीं आपके यज्ञका विध्वंस कर डालें।
___ जानता था; आप देवताओंके प्रभु और ईश्वर है। इस इतना कहकर सती योगस्थ हो गयीं-उन्होंने जगत्के अधीश्वर भी आप ही हैं; आपने सम्पूर्ण ध्यान लगाया और अपने ही शरीरसे प्रकट हुई अग्निके देवताओंको जीत लिया। महेश्वर ! अब मुझपर कृपा
कीजिये और अपने सब गणोंको लौटाइये।'
दक्ष प्रजापतिने भगवान् शङ्करकी शरणमें जाकर जब इस प्रकार उनकी स्तुति और आराधना की, तब भगवान्ने कहा-'प्रजापते ! मैंने तुम्हें यज्ञका पूरा-पूरा फल दे दिया। तुम अपनी सम्पूर्ण कामनाओकी सिद्धिके लिये यज्ञका उत्तम फल प्राप्त करोगे।' भगवान्के ऐसा कहनेपर दक्षने उन्हें प्रणाम किया और सब गणोंके देखतेदेखते वे अपने निवास स्थानको चले गये। उस समय भगवान् शिव अपनी पत्नीके वियोगसे गङ्गाद्वारमें ही जाकर रहने लगे। 'हाय ! मेरी प्रिया कहाँ चली गयी।' इस प्रकार कहते हुए वे सदा सतीके चिन्तनमें लगे रहते थे। तदनन्तर एक दिन देवर्षि नारद महादेवजीके समीप आये और इस प्रकार बोले- 'देवेश्वर ! आपकी पली सती देवी, जो आपको प्राणोंके समान प्रिय थीं,
देहत्यागके पश्चात् इस समय हिमवान्की कन्या होकर द्वारा अपनेको भस्म कर दिया। उस समय देवता, असुर, प्रकट हुई हैं। मेनाके गर्भसे उनका आविर्भाव हुआ है। नाग, गन्धर्व और गुहाक 'यह क्या ! यह क्या !' कहते वे लोकके तात्त्विक अर्थको जाननेवाली थीं। उन्होंने इस ही रह गये; किन्तु क्रोध भरी हुई सतीने गङ्गाके तटपर समय दूसरा शरीर धारण किया है।' अपने देहका त्याग कर दिया। गङ्गाजीके पश्चिमी तटपर नारदजीकी बात सुनकर महादेवजीने ध्यानस्थ हो वह स्थान आज भी 'सौनक तीर्थ' के नामसे प्रसिद्ध है। देखा कि सती अवतार ले चुकी हैं। इससे उन्होंने भगवान् रुद्रने जब यह समाचार सुना, तब अपनी अपनेको कृत-कृत्य माना और स्वस्थचित्त होकर रहने पत्नीकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उनके मनमें लगे। फिर जब पार्वतीदेवी यौवनावस्थाको प्राप्त हुई, तब समस्त देवताओंके देखते-देखते उस यज्ञको नष्ट कर शिवजीने पुनः उनके साथ विवाह किया। भीष्म ! डालनेका विचार उत्पन्न हुआ। फिर तो उन्होंने पूर्वकालमें जिस प्रकार दक्षका यज्ञ नष्ट हुआ था, उसका दक्षयज्ञका विनाश करनेके लिये करोड़ों गणोंको आज्ञा इस रूपमें मैंने तुमसे वर्णन किया है।
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सृष्टिखण्ड]
• देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोकी उत्पत्तिका वर्णन •
देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन भीष्मजीने कहा-गुरुदेव ! देवताओं, दानवों, शिशिर थे। अनलके कई पुत्र हुए, जो प्रायः अग्निके गन्धों, नागों और राक्षसोंकी उत्पत्तिका आप विस्तारके समान गुणवाले थे। अग्निपुत्र कुमारका जन्म सरकंडोंमें साथ वर्णन कीजिये।
हुआ। उनके शाख, उपशाख और नैगमेय-ये तीन पुत्र पुलस्त्यजी बोले-कुरुनन्दन ! कहते हैं पहलेके हुए। कृत्तिकाओंकी सन्तान होनेके कारण कुमारको प्रजा-वर्गकी सृष्टि संकल्पसे, दर्शनसे तथा स्पर्श करनेसे कार्तिकेय भी कहते हैं। प्रत्यूषके पुत्र देवल नामके मुनि होती थी; किन्तु प्रचेताओंके पुत्र दक्ष प्रजापतिके बाद हुए। प्रभाससे प्रजापति विश्वकर्माका जन्म हुआ, जो मैथुनसे प्रजाकी उत्पत्ति होने लगी। दक्षने आदिमें जिस शिल्पकलाके ज्ञाता है। वे महल, घर, उद्यान, प्रतिमा, प्रकार प्रजाकी सृष्टि की, उसका वर्णन सुनो। जब वे आभूषण, तालाब, उपवन और कूप आदिका निर्माण [पहलेके नियमानुसार सङ्कल्प आदिसे] देवता, ऋषि करनेवाले हैं। देवताओंके कारीगर वे ही हैं।
और नागोंकी सृष्टि करने लगे किन्तु प्रजाकी वृद्धि नहीं अजैकपाद्, अहिर्बुध्य, विरूपाक्ष, रैवत, हर, हुई, तब उन्होंने मैथुनके द्वारा अपनी पत्नी वीरिणीके बहुरूप, त्र्यम्बक, सावित्र, जयन्त, पिनाकी और गर्भसे साठ कन्याओंको जन्म दिया। उनमेंसे उन्होंने दस अपराजित-ये ग्यारह रुद्र कहे गये हैं; ये गणोंके स्वामी धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस चन्द्रमाको, चार हैं। इनके मानस सङ्कल्पसे उत्पन्न चौरासी करोड़ पुत्र हैं, अरिष्टनेमिको, दो भृगुपुत्रको, दो बुद्धिमान् कृशाश्वको जो रुद्रगण कहलाते हैं। वे श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किये रहते तथा दो महर्षि अङ्गिराको ब्याह दीं। वे सब देवताओंकी हैं। उन सबको अविनाशी माना गया है। जो गणेश्वर जननी हुई। उनके वंश-विस्तारका आरम्भसे ही वर्णन सम्पूर्ण दिशाओंमें रहकर सबकी रक्षा करते हैं, वे सब करता हूँ, सुनो। अरुन्धती, वसु, जामी, लंबा, भानु, सुरभिके गर्भसे उत्पन्न उन्हींके पुत्र-पौत्रादि है। अब मैं मरुत्वती, सङ्कल्पा, मुहर्ता, साध्या और विश्वा-ये दस कश्यपजीकी खियोंसे उत्पन्न पुत्र-पौत्रोंका वर्णन करूँगा। धर्मकी पत्नियाँ बतायी गयी हैं। इनके पुत्रोंके नाम सुनो। अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, सुरभि, विनता, विश्वाके गर्भसे विश्वेदेव हुए। साध्याने साध्य नामक ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रू, खसा और मुनि-ये देवताओंको जन्म दिया। मरुत्वतीसे मरुत्वान् नामक कश्यपजीकी पत्नियोंके नाम हैं। इनके पुत्रोंका वर्णन देवताओंकी उत्पत्ति हुई। वसुके पुत्र आठ वसु सुनो। चाक्षुष मन्वन्तरमें जो तुषित नामसे प्रसिद्ध देवता कहलाये। भानुसे भानु और मुहूर्तासे मुहूर्ताभिमानी थे, वे ही वैवस्वत मन्वन्तरमें बारह आदित्य हुए। उनके देवता उत्पन्न हुए। लंबासे घोष, जामीसे नागवीथी नाम है-इन्द्र, धाता, भग, त्वष्टा, मित्र, वरुण, अर्यमा, नामकी कन्या तथा अरुन्धतीके गर्भसे पृथ्वीपर होनेवाले विवस्वान्, सविता, पूषा, अंशुमान् और विष्णु। ये समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। सङ्कल्पासे सङ्कल्पोका जन्म सहस्रों किरणोंसे सुशोभित बारह आदित्य माने गये हैं। हुआ। अब वसुकी सृष्टिका वर्णन सुनो। जो देवगण इन श्रेष्ठ पुत्रोंको देवी अदितिने मरीचिनन्दन कश्यपके अत्यन्त प्रकाशमान और सम्पूर्ण दिशाओंमें व्यापक हैं, अंशसे उत्पन्न किया था। कृशाश्व नामक ऋषिसे जो पुत्र वे वसु कहलाते हैं उनके नाम सुनो। आप, ध्रुव, सोम, हुए, उन्हें देव-प्रहरण कहते हैं। ये देवगण प्रत्येक घर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास-ये आठ वसु मन्वन्तर और प्रत्येक कल्पमें उत्पन्न एवं विलीन होते हैं। 'आप' के चार पुत्र हैं-शान्त, वैतण्ड, साम्ब और रहते हैं। मुनिबधु। ये सब यज्ञरक्षाके अधिकारी है। ध्रुवके पुत्र भीष्म ! हमारे सुननेमें आया है कि दितिने काल और सोमके पुत्र वर्चा हुए। धरके दो पुत्र हुए- कश्यपजीसे दो पुत्र प्राप्त किये, जिनके नाम थेद्रविण और हव्यवाह । अनिलके पुत्र प्राण, रमण और हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष । हिरण्यकशिपुसे चार पुत्र
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
उत्पन्न हुए–प्रह्लाद, अनुहाद, संहाद और हाद। कल्पवीर्य तथा दनुवंशविवर्धन । संहाद दैत्यके वंशमें प्रहादके चार पुत्र हुए-आयुष्मान, शिबि, वाष्कलि निवातकवचोंका जन्म हुआ। वे गन्धर्व, नाग, राक्षस एवं
और चौथा विरोचन । विरोचनको बलि नामक पुत्रकी सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अवध्य थे। परन्तु वीरवर प्राप्ति हुई। बलिके सौ पुत्र हुए। उनमें बाण जेठा था। अर्जुनने संग्राम-भूमिमें उन्हें भी बलपूर्वक मार डाला। गुणोंमें भी वह सबसे बढ़ा-चढ़ा था। बाणके एक हजार ताम्राने कश्यपजीके वीर्यसे छ: कन्याओंको जन्म दिया, बाँहें थीं तथा वह सब प्रकारके अस्त्र चलानेकी कलामें जिनके नाम हैं-शुकी, श्येनी, भासी, सुगधी, गृधिका भी पूरा प्रवीण था। त्रिशूलधारी भगवान् शङ्कर उसकी और शुचि । शुकीने शुक और उल्लू नामवाले पक्षियोंको तपस्यासे सन्तुष्ट होकर उसके नगरमें निवास करते थे। उत्पन्न किया। श्येनीने श्येनों (बाजों) को तथा भासीने बाणासुरको 'महाकाल की पदवी तथा साक्षात् कुरर नामक पक्षियोंको जन्म दिया। गृध्रीसे गृध्र और पिनाकपाणि भगवान् शिवकी समानता प्राप्त हुई-वह सुगृधीसे कबूतर उत्पन्न हुए तथा शुचिने हंस, सारस, महादेवजीका सहचर हुआ। हिरण्याक्षके उलूक, कारण्ड एवं नव नामके पक्षियोंको जन्म दिया। यह शकुनि, भूतसन्तापन और महाभीम-ये चार पुत्र थे। ताम्राके वंशका वर्णन हुआ। अब विनताकी सन्तानोंका इनसे सत्ताईस करोड़ पुत्र-पौत्रोंका विस्तार हुआ। वे सभी वर्णन सुनो। पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुड और अरुण विनताके
महाबली, अनेक रूपधारी तथा अत्यन्त तेजस्वी थे। पुत्र है तथा उनके एक सौदामनी नामकी कन्या भी है, - दनुने कश्यपजीसे सौ पुत्र प्राप्त किये। वे सभी वरदान जो यह आकाशमें चमकती दिखायी देती है। अरुणके पाकर उन्मत्त थे। उनमें सबसे ज्येष्ठ और अधिक दो पुत्र हुए-सम्पाति और जटायु । सम्पातिके पुत्रोंका बलवान् विप्रचित्ति था । दनुके शेष पुत्रोंके नाम स्वर्भानु नाम बभ्रु और शीघ्रग हैं। इनमें शीघ्रग विख्यात है।
और वृषपर्वा आदि थे। स्वर्भानुसे सुप्रभा और पुलोमा जटायुके भी दो पुत्र हुए-कर्णिकार और शतगामी । वे नामक दानवसे शची नामकी कन्या हुई। मयके तीन दोनों ही प्रसिद्ध थे। इन पक्षियोंके असंख्य पुत्रकन्याएँ हुई-उपदानवी, मन्दोदरी और कुहू । वृषपर्वाक पौत्र हुए। दो कन्याएँ थीं-सुन्दरी शर्मिष्ठा और चन्द्रा । वैश्वानरके सुरसाके गर्भसे एक हजार सोकी उत्पत्ति हुई तथा भी दो पुत्रियाँ थीं-पुलोमा और कालका । ये दोनों ही उत्तम व्रतका पालन करनेवाली कद्रूने हजार मस्तकवाले बड़ी शक्तिशालिनी तथा अधिक सन्तानोंकी जननी हुई। एक सहस्र नागोंको पुत्रके रूपमें प्राप्त किया। उनमें इन दोनोंसे साठ हजार दानवोंकी उत्पत्ति हुई। पुलोमाके छब्बीस नाग प्रधान एवं विख्यात हैं-शेष, वासुकि, पुत्र पौलोम और कालकाके कालखा (या कालकेय) कोंटक, शङ्ख, ऐरावत, कम्बल, धनञ्जय, महानील, कहलाये। ब्रह्माजीसे वरदान पाकर ये मनुष्योंके लिये पद्य, अश्वतर, तक्षक, एलापत्र, महापद्म, धृतराष्ट्र, अवध्य हो गये थे और हिरण्यपुरमें निवास करते थे; बलाहक, शङ्खपाल, महाशक, पुष्पदन्त, सुभावन, फिर भी ये अर्जुनके हाथसे मारे गये।*
शङ्खरोमा, नहुष, रमण, पाणिनि, कपिल, दुर्मुख तथा विप्रचित्तिने सिंहिकाके गर्भसे एक भयङ्कर पुत्रको पतञ्जलिमुख । इन सबके पुत्र-पौत्रोंकी संख्याका अन्त जन्म दिया, जो सैहिकेय (राहु) के नामसे प्रसिद्ध था। नहीं है। इनमेंसे अधिकांश नाग पूर्वकालमें राजा हिरण्यकशिपुकी बहिन सिंहिकाके कुल तेरह पुत्र थे, जनमेजयके यज्ञ-मण्डपमें जला दिये गये। क्रोधवशाने जिनके नाम ये हैं-कंस, शङ्ख, नल, वातापि, इल्वल, अपने ही नामके क्रोधवशसंज्ञक राक्षससमूहको उत्पन्न नमुचि, खसृम, अञ्जन, नरक, कालनाभ, परमाणु, किया। उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें थीं। उनमेंसे दस लाख
* यहाँ तथा आगेके प्रसङ्गों में भी पुलस्त्यजी भविष्यकी बात भूतकालकी भाँति कह रहे है-यही समझना चाहिये।
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सृष्टिखण्ड ]
• मरुद्रणोंकी उत्पत्ति तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन .
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क्रोधवश भीमसेनके हाथसे मारे गये। सुरभिने राक्षसों और यक्षोंको जन्म दिया। भीष्म ! ये सैकड़ों कश्यपजीके अंशसे रुद्रगण, गाय, भैंस तथा सुन्दरी और हजारों कोटियाँ कश्यपजीकी सन्तानोंकी हैं। यह स्त्रियोंको जन्म दिया। मुनिसे मुनियोंका समुदाय तथा स्वारोचिष मन्वन्तरको सृष्टि बतायी गयी है। सबसे अप्सराएँ प्रकट हुई। अरिष्टाने बहुत-से किन्नरों और पीछे दितिने कश्यपजीसे उनचास मरुद्गणोंको उत्पन्न गन्धर्वोको जन्म दिया। इससे तृण, वृक्ष, लताएँ और किया, जो सब-के-सब धर्मके ज्ञाता और देवताओंके झाड़ियाँ-इन सबकी उत्पत्ति हुई। खसाने करोड़ों प्रिय हैं।
मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन्! दितिके पुत्र पुत्रकी याचना करती हूँ, जो समृद्धिशाली, अत्यन्त मरुद्रणोंकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? वे देवताओंके प्रिय तेजस्वी तथा समस्त देवताओंका संहार करनेवाला हो।' कैसे हो गये? देवता तो दैत्योंके शत्रु हैं, फिर उनके कश्यपने कहा-'शुभे! मैं तुम्हें इन्द्रका घातक साथ मरुद्गणोंकी मैत्री क्योंकर सम्भव हुई? एवं बलिष्ठ पुत्र प्रदान करूंगा।' तत्पश्चात् कश्यपने
पुलस्त्यजीने कहा-भीष्म ! पहले देवासुर- दितिके उदरमें गर्भ स्थापित किया और कहा-'देवि ! संग्राममें भगवान् श्रीविष्णु और देवताओंके द्वारा अपने तुम्हें सौ वर्षोंतक इसी तपोवनमें रहकर इस गर्भकी पुत्र-पौत्रोंके मारे जानेपर दितिको बड़ा शोक हुआ। वे रक्षाके लिये यत्न करना चाहिये। गर्भिणीको सन्ध्याके आर्त होकर परम उत्तम भूलोकमें आयीं और सरस्वतीके समय भोजन नहीं करना चाहिये तथा वृक्षकी जड़के तटपर पुष्कर नामके शुभ एवं महान् तीर्थमें रहकर पास न तो कभी जाना चाहिये और न ठहरना ही सूर्यदेवकी आराधना करने लगी। उन्होंने बड़ी उग्र चाहिये। वह जलके भीतर न घुसे, सूने घरमें न प्रवेश तपस्या की। दैत्य-माता दिति ऋषियोंके नियमोंका पालन करे । बाँबीपर खड़ी न हो। कभी मनमें उद्वेग न लाये। करतीं और फल खाकर रहती थीं। वे कृच्छ्र-चान्द्रायण सूने घरमें बैठकर नख अथवा राखसे भूमिपर रेखा न आदि कठोर व्रतोंके पालनद्वारा तपस्या करने लगी। जरा खींचे, न तो सदा अलसाकर पड़ी रहे और न अधिक और शोकसे व्याकुल होकर उन्होंने सौ वर्षों से कुछ परिश्रम ही करे, भूसी, कोयले, राख, हड्डी और खपड़ेपर अधिक कालतक तप किया। उसके बाद वसिष्ठ आदि न बैठे। लोगोंसे कलह करना छोड़ दे, अंगड़ाई न ले, महर्षियोंसे पूछा-'मुनिवरो ! क्या कोई ऐसा भी व्रत है, बाल खोलकर खड़ी न हो और कभी भी अपवित्र न जो मेरे पुत्रशोकको नष्ट करनेवाला तथा इहलोक और रहे। उत्तरकी ओर अथवा नीचे सिर करके कभी न परलोकमें भी सौभाग्यरूप फल प्रदान करनेवाला हो? सोये। नंगी होकर, उद्वेगमें पड़कर और बिना पैर धोये यदि हो तो, बताइये।' वसिष्ठ आदि महर्षियोंने ज्येष्ठकी भी शयन करना मना है। अमङ्गलयुक्त वचन मुँहसे न पूर्णिमाका व्रत बताया तथा दितिने भी उस व्रतका निकाले, अधिक हंसी-मजाक भी न करे। गुरुजनोंके साङ्गोपाङ्ग वर्णन सुनकर उसका यथावत् अनुष्ठान साथ सदा आदरका बर्ताव करे, माङ्गलिक कार्योंमें लगी किया। उस व्रतके माहात्म्यसे प्रभावित होकर कश्यपजी रहे, सौषधियोंसे युक्त जलके द्वारा स्रान करे। अपनी बड़ी प्रसन्नताके साथ दितिके आश्रमपर आये। दितिका रक्षाका प्रबन्ध रखे। गुरुजनोंकी सेवा करे और वाणीसे शरीर तपस्यासे कठोर हो गया था। किन्तु कश्यपजीने सबका सत्कार करती रहे। स्वामीके प्रिय और हितमें उन्हें पुनः रूप और लावण्यसे युक्त कर दिया और उनसे तत्पर रहकर सदा प्रसन्नमुखी बनी रहे। किसी भी वर माँगनेका अनुरोध किया। तब दितिने वर मांगते हुए अवस्थामें कभी पतिकी निन्दा न करे।' कहा-'भगवन् ! मैं इन्द्रका वध करनेके लिये एक ऐसे यह कहकर कश्यपजी सब प्राणियोंके देखते-देखते मं प प २
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• अर्बयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर, पतिकी बातें सुनकर ऐसा विचार कर इन्द्रने दितिसे कहा-'माँ ! मेरा दिति विधिपूर्वक उनका पालन करने लगीं। इससे अपराध क्षमा करो, मैने अर्थशास्त्रका सहारा लेकर यह इन्द्रको बड़ा भय हुआ। वे देवलोक छोड़कर दितिके दुष्कर्म किया है। इस प्रकार बारम्बार कहकर उन्होंने पास आये और उनकी सेवाकी इच्छासे वहाँ रहने लगे। दितिको प्रसन्न किया और मरुद्रणोंको देवताओंके समान इन्द्रका भाव विपरीत था, वे दितिका छिद्र ढूँढ़ रहे थे। बना दिया। तत्पश्चात् देवराजने पुत्रोंसहित दितिको बाहरसे तो उनका मुख प्रसन्न था, किन्तु भीतरसे वे विमानपर बिठाया और उनको साथ लेकर वे स्वर्गको भयके मारे विकल थे। वे ऊपरसे ऐसा भाव जताते थे, चले गये। मरुद्रण यज्ञ-भागके अधिकारी हुए; उन्होंने मानो दितिके कार्य और अभिप्रायको जानते ही न हों। असुरोंसे मेल नहीं किया, इसलिये वे देवताओंके परन्तु वास्तवमें अपना काम बनाना चाहते थे। तदनन्तर, प्रिय हुए। जब सौ वर्षकी समाप्तिमें तीन ही दिन बाकी रह गये, तब भीष्मजीने कह-ब्रह्मन् ! आपने आदिसर्ग दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपनेको कृतार्थ मानने और प्रतिसर्गका विस्तारके साथ वर्णन किया। अब लगीं तथा उनका हृदय विस्मयविमुग्ध रहने लगा। उस जिनके जो स्वामी हों, उनका वर्णन कीजिये। दिन वे पैर धोना भूल गयीं और बाल खोले हुए ही सो पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! जब पृथु इस पृथ्वीके गयीं। इतना ही नहीं, निद्राके भारसे दबी होनेके कारण सम्पूर्ण राज्यपर अभिषिक्त होकर सबके राजा हुए, उस दिनमें उनका सिर कभी नीचेकी ओर हो गया। यह समय ब्रह्माजीने चन्द्रमाको अन्न, ब्राह्मण, व्रत और अवसर पाकर शचीपति इन्द्र दितिके गर्भमें प्रवेश कर तपस्याका अधिपति बनाया। हिरण्यगर्भको नक्षत्र, तारे, गये और अपने वज्रके द्वारा उन्होंने उस गर्भस्थ बालकके पक्षी, वृक्ष, झाड़ी और लता आदिका स्वामी बनाया। सात टुकड़े कर डाले। तब वे सातों टुकड़े सूर्यके समान वरुणको जलका, कुबेरको धनका, विष्णुको आदित्योंका तेजस्वी सात कुमारोंके रूपमें परिणत हो गये और रोने और अप्रिको वसुओंका अधिपति बनाया। दक्षको लगे। उस समय दानवशत्रु इन्द्रने उन्हें रोनेसे मना किया प्रजापतियोंका, इन्द्रको देवताओंका, प्रह्लादको दैत्यों और तथा पुनः उनमेंसे एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दानवोंका, यमराजको पितरोंका, शूलपाणि भगवान् दिये। इस प्रकार उनचास कुमारोके रूपमें होकर वे शङ्करको पिशाच, राक्षस, पशु, भूत, यक्ष और जोर-जोरसे रोने लगे। तब इन्द्रने'मा रुदध्वम्' (मत वेतालराजोंका, हिमालयको पर्वतोंका, समुद्रको रोओ) ऐसा कहकर उन्हें बारम्बार रोनेसे रोका और नदियोंका, चित्ररथको गन्धर्व, विद्याधर और किन्नरोंका, मन-ही-मन सोचा कि ये बालक धर्म और ब्रह्माजीके भयङ्कर पराक्रमी वासुकिको नागोंका, तक्षकको सपोका, प्रभावसे पुनः जीवित हो गये हैं। इस पुण्यके योगसे ही गजराज ऐरावतको दिग्गजोंका, गरुड़को पक्षियोंका, इन्हें जीवन मिला है, ऐसा जानकर वे इस निश्चयपर उचैःश्रवाको घोड़ोंका, सिंहको मृगोंका, साँड़को गौओंका पहुंचे कि 'यह पौर्णमासी व्रतका फल है। निश्चय ही इस तथा पक्ष (पाकड़) को सम्पूर्ण वनस्पतियोंका अधीश्वर व्रतका अथवा ब्रह्माजीकी पूजाका यह परिणाम है कि बनाया। इस प्रकार पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इन सभी वज्रसे मारे जानेपर भी इनका विनाश नहीं हुआ। ये अधिपतियोंको भित्र-भिन्न वर्गके राजपदपर अभिषिक्त एकसे अनेक हो गये, फिर भी उदरकी रक्षा हो रही है। किया था। इसमें सन्देह नहीं कि ये अवध्य है, इसलिये ये देवता कौरवनन्दन ! पहले स्वायम्भुव मन्वन्तरमें याम्य हो जायें। जब ये रो रहे थे, उस समय मैंने इन गर्भके नामसे प्रसिद्ध देवता थे। मरीचि आदि मुनि ही सप्तर्षि बालकोंको 'मा रुदः' कहकर चुप कराया है, इसलिये ये माने जाते थे। आग्नीघ्र, अग्निबाहु, विभु, सवन, 'मरुत्' नामसे प्रसिद्ध होकर कल्याणके भागी बनें।' ज्योतिष्मान्, द्युतिमान्, हव्य, मेधा, मेधातिथि और
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सृष्टिखण्ड]
• मरुगणोंकी उत्पत्ति तथा चौदह मन्वन्तरोका वर्णन . MARRIA वसु-ये दस स्वायम्भुव मनुके पुत्र हुए, जिन्होंने अपने धर्म, पराक्रम और बलसे सम्पन्न थे। इसके बाद चाक्षुष वंशका विस्तार किया। ये प्रतिसर्गकी सृष्टि करके परम- मन्वन्तरमें भृगु, सुधामा, विरज, विष्णु, नारद, विवस्वान् पदको प्राप्त हुए। यह स्वायम्भुव मन्वन्तरका वर्णन हुआ। और अभिमानी-ये सात सप्तर्षि हुए। उस समय लेख इसके बाद स्वारोचिष मन्वन्तर आया। स्वारोचिष मनुके नामसे प्रसिद्ध देवता थे। इनके सिवा ऋभु, पृथग्भूत, चार पुत्र हुए, जो देवताओंके समान तेजस्वी थे। उनके वारिमूल और दिवौका नामके देवता भी थे। इस प्रकार नाम हैं-नभ, नभस्य, प्रसृति और भावन। इनमेंसे चाक्षुष मन्वन्तरमें देवताओंकी पाँच योनियाँ थीं। चाक्षुष भावन अपनी कोर्तिका विस्तार करनेवाला था। दत्तात्रेय, मनुके दस पुत्र हुए. जो रुरु आदि नामसे प्रसिद्ध थे। अत्रि, च्यवन, स्तम्ब, प्राण, कश्यप तथा बृहस्पति-ये अब सातवें मन्वन्तरका वर्णन करूँगा, जिसे सात सप्तर्षि हुए। उस समय तुषित नामके देवता थे। वैवस्वत मन्वन्तर कहते हैं। इस समय [वैवस्वत हवीन्द्र, सुकृत, मूर्ति, आप और ज्योतीरथ-ये वसिष्ठके मन्वन्तर ही चल रहा है, इसमें] अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, पाँच पुत्र ही स्वारोचिष मन्वन्तरमें प्रजापति थे। यह गौतम, योगी भरद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि-ये द्वितीय मन्वन्तरका वर्णन हुआ। इसके बाद औत्तम सात ऋषि ही सप्तर्षि है। ये धर्मकी व्यवस्था करके मन्वन्तरका वर्णन करूंगा। तीसरे मनुका नाम था परमपदको प्राप्त होते है। अब भविष्यमें होनेवाले
औत्तमि। उन्होंने दस पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम सावर्ण्य मन्वन्तरका वर्णन किया जाता है। उस समय हैं-ईष, ऊर्ज, तनूज, शुचि, शुक्र, मधु, माधव, नभस्य, अश्वत्थामा, ऋष्यशृङ्ग, कौशिक्य, गालव, शतानन्द, नभ तथा सह । इनमें सह सबसे छोटा था। ये सब-के- काश्यप तथा परशुराम-ये सप्तर्षि होंगे। धृति, सब उदार और यशस्वी थे। उस समय भानुसंज्ञक देवता वरीयान, यवसु, सुवर्ण, घृष्टि, चरिष्णु,आध, सुमति, और ऊर्ज नामके सप्तर्षि थे। कौकिभिण्डि, कुतुण्ड, वसु तथा पराक्रमी शुक्र—ये भविष्यमें होनेवाले सावर्णि दाल्भ्य, शङ्ख, प्रवाहित, मित और सम्मित-ये सात मनुके पुत्र बतलाये गये हैं। इसके सिवा रोच्य आदि योगवर्धन ऋषि थे। चौथा मन्वन्तर तामसके नामसे दूसरे-दूसरे मनुओंके भी नाम आते हैं। प्रजापति रुचिके प्रसिद्ध है। उसमें कवि, पृथु, अग्नि, अकपि, कपि, जन्य पुत्रका नाम रौच्य होगा। इसी प्रकार भूतिके पुत्र भौत्य तथा धामा-ये सात मुनि ही सप्तर्षि थे। साध्यगण नामके मनु कहलायेंगे। तदनन्तर मेरुसावर्णि नामक देवता थे। अकल्मष, तपोधन्वा, तपोमूल, तपोधन, मनुका अधिकार होगा। वे ब्रह्माके पुत्र माने गये है। तपोराशि, तपस्य, सुतपस्य, परन्तप, तपोभागी और मेरु-सावर्णिके बाद क्रमशः ऋभु, वीतधामा और तपोयोगी-ये दस तामस मनुके पुत्र थे। जो धर्म और विपक्सेन नामक मनु होंगे। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सदाचारमें तत्पर तथा अपने वंशका विस्तार करनेवाले भूत और भविष्य मनुओका परिचय दिया है। इन चौदह थे। अब पाँचवें रैवत मन्वन्तरका वृत्तान्त श्रवण करो। मनुओंका अधिकार कुल मिलाकर एक हजार चतुर्युगदेवबाहु, सुबाहु, पर्जन्य, सोमप, मुनि, हिरण्यरोमा और तक रहता है। अपने-अपने मन्वन्तरमें इस सम्पूर्ण सप्ताश्व-ये सात रैवत मन्वन्तरके सप्तर्षि माने गये हैं। चराचर जगत्को उत्पन्न करके कल्पका संहार होनेपर ये भूतरजा तथा प्रकृति नामवाले देवता थे तथा वरुण, ब्रह्माजीके साथ मुक्त हो जाते हैं। ये मनु प्रति एक सहस्र तत्त्वदर्शी. चितिमान, हव्यप, कवि, मुक्त, निरुत्सुक, सत्त्व, चतुर्युगीके बाद नष्ट होते रहते हैं तथा ब्रह्मा आदि विमोह और प्रकाशक-ये दस रैवत मनुके पुत्र हुए, जो विष्णुका सायुज्य प्राप्त करते हैं।
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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण m
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पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन भीष्पजीने पूछा-ब्रह्मन् ! सुना जाता है, है?' पृथुने कहा-'सुव्रते ! सम्पूर्ण चराचर जगत्के पूर्वकालमें बहुत-से राजा इस पृथ्वीका उपभोग कर चुके लिये जो अभीष्ट वस्तु है, उसे शीघ्र प्रस्तुत करो।' हैं। पृथ्वीके सम्बन्धसे ही राजाओंको पार्थिव या पृथ्वीने 'बहुत अच्छा' कहकर स्वीकृति दे दी। तब पृथ्वीपति कहते हैं। परन्तु इस भूमिकी जो 'पृथ्वी' संज्ञा राजाने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें है, वह किसके सम्बन्धसे हुई है? भूमिको यह पृथ्वीका दूध दुहा । वही दूध अन्न हुआ, जिससे सारी पारिभाषिक संज्ञा किसलिये दी गयी अथवा उसका 'गौ' प्रजा जीवन धारण करती है। तत्पश्चात् ऋषियोंने भी नाम भी क्यों पड़ा, यह मुझे बताइये।
भूमिरूपिणी गौका दोहन किया। उस समय चन्द्रमा ही पुलस्त्यजीने कहा-स्वायम्भुव मनुके वंशमें एक बछड़ा बने थे। दुहनेवाले थे वनस्पति, दुग्धका पात्र था अङ्ग नामके प्रजापति थे। उन्होंने मृत्युकी कन्या वेद और तपस्या ही दूध थी। फिर देवताओंने भी सुनीथाके साथ विवाह किया था। सुनीथाका मुख बड़ा वसुधाको दुहा । उस समय मित्र देवता दोग्धा हुए. इन्द्र कुरूप था। उससे वेन नामक पुत्र हुआ, जो सदा बछड़ा बने तथा ओज और बल ही दूधके रूपमें प्रकट अधर्ममें ही लगा रहता था। वह लोगोंकी बुराई करता हुआ। देवताओंका दोहनपात्र सुवर्णका था और और परायी स्त्रियोंको हड़प लेता था। एक दिन पितरोंका चाँदीका । पितरोंकी ओरसे अन्तकने दुहनेका महर्षियोंने उसकी भलाई और जगत्के उपकारके लिये काम किया, यमराज बछड़ा बने और स्वधा ही दूधके उसे बहुत कुछ समझाया-बुझाया; परन्तु उसका रूपमें प्राप्त हुई। नागोंने तूंबीको पात्र बनाया और अन्तःकरण अशुद्ध होनेके कारण उसने उनकी बात नहीं तक्षकको बछड़ा। धृतराष्ट्र नामक नागने दोग्धा बनकर मानी, प्रजाको अभयदान नहीं दिया। तब ऋषियोंने शाप विषरूपी दुग्धका दोहन किया। असुरोंने लोहेके बर्तनमें देकर उसे मार डाला। फिर अराजकताके भयसे पीड़ित इस पृथ्वीसे मायारूप दूध दुहा । उस समय प्रह्मदकुमार होकर पापरहित ब्राह्मणोंने वेनके शरीरका बलपूर्वक विरोचन बछड़ा बने थे और त्रिमूर्धाने दुहनेका काम मन्थन किया। मन्थन करनेपर उसके शरीरसे पहले किया था। यक्ष अन्तर्धान होनेकी विद्या प्राप्त करना म्लेच्छ जातियाँ उत्पन्न हुई, जिनका रङ्ग काले अञ्जनके चाहते थे; इसलिये उन्होंने कुबेरको बछड़ा बनाकर कचे समान था। तत्पश्चात् उसके दाहिने हाथसे एक दिव्य बर्तनमें उस अन्तर्धान-विद्याको ही वसुधासे दुग्धके तेजोमय शरीरधारी धर्मात्मा पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ, जो रूपमें दुहा। गन्धवों और अप्सराओंने चित्ररथको बछड़ा धनुष , बाण और गदा धारण किये हुए थे तथा रत्नमय बनाकर कमलके पत्ते में पृथ्वीसे सुगन्धोंका दोहन किया। कवच एवं अङ्गदादि आभूषणोंसे विभूषित थे। वे पृथुके उनकी ओरसे अथर्ववेदके पारगामी विद्वान् सुरुचिने दूध नामसे प्रसिद्ध हुए। उनके रूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु दुहनेका कार्य किया था। इस प्रकार दूसरे लोगोंने भी ही अवतीर्ण हुए थे। ब्राह्मणोंने उन्हें राज्यपर अभिषिक्त अपनी-अपनी रुचिके अनुसार पृथ्वीसे आयु, धन और किया। राजा होनेपर उन्होंने देखा कि इस भूतलसे धर्म सुखका दोहन किया। पृथुके शासन-कालमें कोई भी उठ गया है। न कहीं स्वाध्याय होता है, न वषट्कार मनुष्य न दरिद्ध था न रोगी, न निर्धन था न पापी तथा (यज्ञादि)। तब वे क्रोध करके अपने बाणसे पृथ्वीको न कोई उपद्रव था न पीडा । सब सदा प्रसन्न रहते थे। विदीर्ण कर डालनेके लिये उद्यत हो गये। यह देख पृथ्वी किसीको दुःख या शोक नहीं था। महाबली पृथुने गौका रूप धारण करके भाग खड़ी हुई। उसे भागते देख लोगोंके हितकी इच्छासे अपने धनुषकी नोकसे बड़े-बड़े पृथुने भी उसका पीछा किया। तब वह एक स्थानपर पर्वतोंको उखाड़कर हटा दिया और पृथ्वीको समतल खड़ी होकर बोली-'राजन् ! मेरे लिये क्या आज्ञा होती बनाया। पृथुके राज्यमें गाँव बसाने या किले बनवानेकी
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सृष्टिखण्ड ]
• पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
आवश्यकता नहीं थी। किसीको शस्त्र धारण करनेका भी कोई प्रयोजन नहीं था। मनुष्योंको विनाश एवं वैषम्यका दुःख नहीं देखना पड़ता था । अर्थशास्त्रमें किसीका आदर नहीं था। सब लोग धर्ममें ही संलग्न रहते थे। इस प्रकार मैंने तुमसे पृथ्वीके दोहन पात्रोंका वर्णन किया तथा जैसा जैसा दूध दुहा गया था, वह भी बता दिया। राजा पृथु बड़े विज्ञ थे; जिनकी जैसी रुचि थी, उसीके अनुसार उन्होंने सबको दूध प्रदान किया। यह प्रसङ्ग यज्ञ और श्राद्ध सभी अवसरोंपर सुनानेके योग्य हैं; इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। यह भूमि धर्मात्मा पृथुकी कन्या मानी गयी; इसीसे विद्वान् पुरुष 'पृथ्वी' कहकर इसकी स्तुति करते हैं।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आप तत्त्वके ज्ञाता हैं; अब क्रमशः सूर्यवंश और चन्द्रवंशका पूरा-पूरा एवं यथार्थ वर्णन कीजिये ।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालमें कश्यपजीसे अदिति के गर्भसे विवस्वान् नामक पुत्र हुए। विवस्वान्के तीन स्त्रियाँ थीं—संज्ञा, राशी और प्रभा। राशीने रैवत नामक पुत्र उत्पन्न किया। प्रभासे प्रभातकी उत्पत्ति हुई। संज्ञा विश्वकर्माकी पुत्री थी। उसने वैवस्वत मनुको जन्म दिया। कुछ काल पश्चात् संज्ञाके गर्भसे यम और यमुना नामक दो जुड़वी सन्तानें पैदा हुई। तदनन्तर वह विवस्वान् (सूर्य) के तेजोमय स्वरूपको न सह सकी, अतः उसने अपने शरीरसे अपने ही समान रूपवाली एक नारीको प्रकट किया। उसका नाम छाया हुआ। छाया सामने खड़ी होकर बोली- 'देवि ! मेरे लिये क्या आज्ञा है ?' संज्ञाने कहा – 'छाया! तुम मेरे स्वामीकी सेवा करो, साथ ही मेरे बच्चोंका भी माताकी भाँति स्नेहपूर्वक पालन करना।' 'तथास्तु' कहकर छाया भगवान् सूर्यके पास गयी। वह उनसे अपनी कामना पूर्ण करना चाहती थी। सूर्यने भी यह समझकर कि यह उत्तम व्रतका पालन करनेवाली संज्ञा ही है, बड़े आदरके साथ उसकी कामना की। छायाने सूर्यसे सावर्ण मनुको उत्पन्न किया। उनका वर्ण भी वैवस्वत मनुके समान होनेके कारण उनका नाम सावर्ण मनु पड़ गया। तत्पश्चात्
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भगवान् भास्करने छायाके गर्भसे क्रमशः शनैश्वर नामक पुत्र तथा तपती और विष्टि नामकी कन्याओंको जन्म दिया ।
एक समय महायशस्वी यमराज वैराग्यके कारण पुष्कर तीर्थमें गये और वहाँ फल, फेन एवं वायुका आहार करते हुए कठोर तपस्या करने लगे। उन्होंने सौ वर्षोंतक तपस्याके द्वारा ब्रह्माजीकी आराधना की। उनके तपके प्रभावसे देवेश्वर ब्रह्माजी सन्तुष्ट हो गये; तब यमराजने उनसे लोकपालका पद, अक्षय पितृलोकका राज्य तथा धर्माधर्ममय जगत्की देख-रेखका अधिकार माँगा। इस प्रकार उन्हें ब्रह्माजीसे लोकपाल - पदवी प्राप्त हुई। साथ ही उन्हें पितृलोकका राज्य और धर्माधर्मके निर्णयका अधिकार भी मिल गया।
छायाके पुत्र शनैश्चर भी तपके प्रभावसे ग्रहोंकी समानताको प्राप्त हुए। यमुना और तपती- ये दोनों सूर्य-कन्याएँ नदी हो गयीं। विष्टिका स्वरूप बड़ा भयंकर था; वह कालरूपसे स्थित हुई। वैवस्वत मनुके दस महाबली पुत्र हुए, उन सबमें 'इल' ज्येष्ठ थे। शेष पुत्रोंके नाम इस प्रकार है— इक्ष्वाकु, कुशनाभ, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करूष, महाबली शर्याति, पृषध तथा नाभाग । ये सभी दिव्य मनुष्य थे। राजा मनु अपने ज्येष्ठ और धर्मात्मा पुत्र 'इल' को राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं पुष्करके तपोवनमें तपस्या करनेके लिये चले गये । तदनन्तर उनकी तपस्याको सफल करनेके लिये वरदाता ब्रह्माजी आये और बोले— 'मनो! तुम्हारा कल्याण हो, तुम अपनी इच्छाके अनुसार वर माँगो।'
मनुने कहा - स्वामिन्! आपकी कृपासे पृथ्वीके सम्पूर्ण राजा धर्मपरायण, ऐश्वर्यशाली तथा मेरे अधीन हों। 'तथास्तु' कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर, मनु अपनी राजधानीमें आकर पूर्ववत् रहने लगे। इसके बाद राजा इल अर्थसिद्धिके लिये इस भूमण्डलपर विचरने लगे। वे सम्पूर्ण द्वीपोंमें घूम-घूमकर वहाँके राजाओंको अपने वशमें करते थे। एक दिन प्रतापी इल रथमें बैठकर भगवान् शङ्करके महान् उपवनमें गये, जो कल्पवृक्षकी लताओंसे व्याप्त एवं
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अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
'शरवण' के नामसे प्रसिद्ध था। उसमें देवाधिदेव चन्द्रार्धशेखर भगवान् शिव पार्वतीजीके साथ क्रीडा करते हैं। पूर्वकालमें महादेवजीने उमाके साथ 'शरवण' के भीतर प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही थी कि 'पुरुष नामधारी जो कोई भी जीव हमारे वनमें आ जायेगा, वह इस दस योजनके घेरेमें पैर रखते ही स्त्रीरूप हो जायगा।' राजा इल इस प्रतिज्ञाको नहीं जानते थे, इसीलिये 'शरवण' में चले गये। वहाँ पहुँचनेपर वे सहसा स्त्री हो गये तथा उनका घोड़ा भी उसी समय घोड़ी बन गया। राजाके जो-जो पुरुषोचित अङ्ग थे, वे सभी स्त्रीके आकार में परिणत हो गये। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। अब वे 'इला' नामकी स्त्री थे।
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इला उस वनमें घूमती हुई सोचने लगी, 'मेरे माता-पिता और भ्राता कौन है ?' वह इसी उधेड़-बुनमें पड़ी थी, इतनेमें ही चन्द्रमाके पुत्र बुधने उसे देखा [इलाकी दृष्टि भी बुधके ऊपर पड़ी।] सुन्दरी इलाका मन बुधके रूपपर मोहित हो गया; उधर बुध भी उसे देखकर कामपीड़ित हो गये और उसकी प्राप्तिके लिये यत्न करने लगे। उस समय बुध ब्रह्मचारीके वेषमें थे। वे वनके बाहर पेड़ोंके झुरमुटमें छिपकर इलाको बुलाने लगे - 'सुन्दरी ! यह साँझका समय, विहारकी वेला है जो बीती जा रही है; आओ, मेरे घरको लीप-पोतकर फूलोंसे सजा दो ।' इला बोली- 'तपोधन ! मै यह सब कुछ भूल गयी हूँ। बताओ, मैं कौन हूँ? तुम कौन हो ? मेरे स्वामी कौन है तथा मेरे कुलका परिचय क्या है ?' बुधने कहा- 'सुन्दरी । तुम इला हो, मैं तुम्हें चाहनेवाला बुध हूँ। मैंने बहुत विद्या पढ़ी है। तेजस्वीके कुलमें मेरा जन्म हुआ है। मेरे पिता ब्राह्मणोंके राजा चन्द्रमा है।'
बुधकी यह बात सुनकर इलाने उनके घरमें प्रवेश किया। वह सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न था और अपने वैभवसे इन्द्रभवनको मात कर रहा था। वहाँ रहकर इला बहुत समयतक बुधके साथ वनमें रमण करती रही। उधर इलके भाई इक्ष्वाकु आदि मनुकुमार अपने राजाकी खोज करते हुए उस 'शरवण' के निकट आ पहुँचे। उन्होंने
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे पार्वती और महादेवजीका स्तवन किया। तब वे दोनों प्रकट होकर बोले- 'राजकुमारो ! मेरी यह प्रतिज्ञा तो टल नहीं सकती; किन्तु इस समय एक उपाय हो सकता है। इक्ष्वाकु अश्वमेध यज्ञ करें और उसका फल हम दोनोंको अर्पण कर दें। ऐसा करनेसे वीरवर इल 'किम्पुरुष' हो जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है।'
'बहुत अच्छा, प्रभो !' यह कहकर मनुकुमार लौट गये। फिर इक्ष्वाकुने अश्वमेध यज्ञ किया। इससे इला 'किम्पुरुष' हो गयी। वे एक महीने पुरुष और एक महीने स्त्रीके रूपमें रहने लगे। बुधके भवनमें [स्त्रीरूपसे ] रहते समय इलने गर्भ धारण किया था। उस गर्भसे उन्होंने अनेक गुणोंसे युक्त पुत्रको जन्म दिया। उस पुत्रको उत्पन्न करके बुध स्वर्गलोकको चले गये। वह प्रदेश इलके नामपर 'इलावृतवर्ष' के नामसे प्रसिद्ध हुआ। ऐल चन्द्रमाके वंशज तथा चन्द्रवंशका विस्तार करनेवाले राजा हुए। इस प्रकार इला- कुमार पुरूरवा चन्द्रवंशकी तथा राजा इक्ष्वाकु सूर्यवंशकी वृद्धि करनेवाले बताये गये हैं। 'इल' किम्पुरुष- अवस्थामें 'सुधुन' भी कहलाते थे। तदनन्तर सुद्युम्नसे तीन पुत्र और हुए, जो किसीसे परास्त होनेवाले नहीं थे। उनके नाम उत्कल, गय तथा हरिताश्व थे। हरिताश्व बड़े पराक्रमी थे। उत्कलकी राजधानी उत्कला (उड़ीसा) हुई और गयकी राजधानी गया मानी गयी है। इसी प्रकार हरिताश्वको कुरु प्रदेशके साथ-ही-साथ दक्षिण दिशाका राज्य दिया गया। सुधुन अपने पुत्र पुरूरवाको प्रतिष्ठानपुर ( पैठन) के राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं दिव्य वर्षके फलोंका उपभोग करनेके लिये इलावृतवर्षमें चले गये।
[सुधुनके बाद] इक्ष्वाकु ही मनुके सबसे बड़े पुत्र थे। उन्हें मध्यदेशका राज्य प्राप्त हुआ। इक्ष्वाकुके सौ पुत्रोंमें पंद्रह श्रेष्ठ थे। वे मेरुके उत्तरीय प्रदेशमें राजा हुए। उनके सिवा एक सौ चौदह पुत्र और हुए, जो मेरुके दक्षिणवर्ती देशोंके राजा बताये गये हैं। इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्रसे ककुत्स्थ नामक पुत्र हुआ। ककुत्स्थका पुत्र
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सृष्टिखण्ड ]
पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
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सुयोधन था। सुयोधनका पुत्र पृथु और पृथुका विश्वावसु हुआ । उसका पुत्र आर्द्र तथा आर्द्रका पुत्र युवनाश्च हुआ। युवनाश्वका पुत्र महापराक्रमी शावस्त हुआ, जिसने अङ्गदेशमें शावस्ती नामकी पुरी बसायी शावस्तसे बृहदश्च और बृहदश्वसे कुवलाश्वका जन्म हुआ । कुवलाश्च धुन्धु नामक दैत्यका विनाश करके धुन्धुमारके नामसे विख्यात हुए। उनके तीन पुत्र हुए - दृढाश्व, दण्ड तथा कपिला। धुन्धुमारके पुत्रोंमें प्रतापी कपिलाश्च अधिक प्रसिद्ध थे । दृढाश्वका प्रमोद और प्रमोदका पुत्र हर्यश्व हर्यश्वसे निकुम्भ और निकुम्भसे संहताश्वका जन्म हुआ। संहताश्चके दो पुत्र हुए - अकृताश्व तथा रणाश्च रणाश्वके पुत्र युवनाश्व और युवनाश्वके मान्धाता थे। मान्धाताके तीन पुत्र हुए — पुरुकुत्स, धर्मसेतु तथा मुचुकुन्द। इनमें मुचुकुन्दकी ख्याति विशेष थी। वे इन्द्रके मित्र और प्रतापी राजा थे। पुरुकुत्सका पुत्र सम्भूत था, जिसका विवाह नर्मदाके साथ हुआ था। सम्भूतसे सम्भूति और सम्भूतिसे त्रिधन्वाका जन्म हुआ। त्रिधन्वाका पुत्र त्रैधारुण नामसे विख्यात हुआ। उसके पुत्रका नाम सत्यव्रत था। उससे सत्यरथका जन्म हुआ। सत्यरथके पुत्र हरिश्चन्द्र थे । हरिश्चन्द्रसे रोहित हुआ। रोहितसे वृक और वृकसे बाहुकी उत्पत्ति हुई। बाहुके पुत्र परम धर्मात्मा राजा सगर हुए। सगरकी दो स्त्रियाँ थीं-प्रभा और भानुमती । इन दोनोंने पुत्रकी इच्छासे और्व नामक अमिकी आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर और्वने उन दोनोंको इच्छानुसार वरदान देते हुए कहा- 'एक रानी साठ हजार पुत्र पा सकती है और दूसरीको एक ही पुत्र मिलेगा, जो वंशकी रक्षा करनेवाला होगा [इन दो वरोंमेंसे जिसको जो पसंद आवे, वह उसे ले ले] !' प्रभाने बहुत-से पुत्रोंको लेना स्वीकार किया तथा भानुमतीको एक ही पुत्र असमंजसकी प्राप्ति हुई। तदनन्तर प्रभाने, जो यदुकुलकी कन्या थी, साठ हजार ⭑
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पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो अश्वकी खोजके लिये पृथ्वीको खोदते समय भगवान् विष्णुके अवतार महात्मा कपिलके कोपसे दग्ध हो गये। असमंजसका पुत्र अंशुमान्के नामसे विख्यात हुआ। उसका पुत्र दिलीप था। दिलीपसे भगीरथका जन्म हुआ, जिन्होंने तपस्या करके भागीरथी गङ्गाको इस पृथ्वीपर उतारा था। भगीरथके पुत्रका नाम नाभाग हुआ। नाभागके अम्बरीष और अम्बरीषके पुत्र सिन्धुद्वीप हुए। सिन्धुद्वीपसे अयुतायु और अयुतायुसे ऋतुपर्णका जन्म हुआ। ऋतुपर्णसे कल्माषपाद और कल्माषपादसे सर्वकर्माकी उत्पत्ति हुई। सर्वकर्माका आरण्य और आरण्यका पुत्र निम्न हुआ। निम्नके दो उत्तम पुत्र हुए- अनुमित्र और रघु अनुमित्र शत्रुओंका नाश करनेके लिये वनमें चला गया। रघुसे दिलीप और दिलीपसे अज हुए। अजसे दीर्घबाहु और दीर्घबाहुसे प्रजापालकी उत्पत्ति हुई। प्रजापालसे दशरथका जन्म हुआ। उनके चार पुत्र हुए। वे सब के सब भगवान् नारायणके स्वरूप थे। उनमें राम सबसे बड़े थे, जिन्होंने रावणको मारा और रघुवंशका विस्तार किया तथा भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ वाल्मीकिने रामायणके रूपमें जिनके चरित्रका चित्रण किया। रामके दो पुत्र हुए- कुश और लव। ये दोनों ही इक्ष्वाकु वंशका विस्तार करनेवाले थे। कुशसे अतिथि और अतिथिसे निषधका जन्म हुआ। निषधसे नल, नलसे नभा, नभासे पुण्डरीक और पुण्डरीकसे क्षेमधन्वाकी उत्पत्ति हुई। क्षेमधन्वाका पुत्र देवानीक हुआ। वह वीर और प्रतापी था। उसका पुत्र अहीनगु हुआ। अहीनगुसे सहस्राश्वका जन्म हुआ। सहस्राश्वसे चन्द्रावलोक, चन्द्रावलोकसे तारापीड, तारापीडसे चन्द्रगिरि, चन्द्रगिरिसे चन्द्र तथा चन्द्रसे श्रुतायु हुए, जो महाभारत युद्धमें मारे गये। नल नामके दो राजा प्रसिद्ध हैं—एक तो वीरसेनके पुत्र थे और दूसरे निषधके। इस प्रकार इक्ष्वाकुवंशके प्रधान प्रधान राजाओंका वर्णन किया गया।
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
पितरों तथा श्राद्धके विभिन्न अङ्गोंका वर्णन
भीष्मजीने कहा- भगवन्! अब मैं पितरोंके उत्तम वंशका वर्णन सुनना चाहता हूँ।
पुलस्त्यजी बोले – राजन्! बड़े हर्षकी बात है; मैं तुम्हें आरम्भसे ही पितरोंके वंशका वर्णन सुनाता हूँ, सुनो। स्वर्गमें पितरोंके सात गण हैं। उनमें तीन तो मूर्तिरहित हैं और चार मूर्तिमान्। ये सब के सब अमिततेजस्वी हैं। इनमें जो मूर्तिरहित पितृगण है, वे वैराज प्रजापतिकी सन्तान हैं; अतः वैराज नामसे प्रसिद्ध हैं। देवगण उनका यजन करते हैं। अब पितरोंकी लोक-सृष्टिका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो। सोमपथ नामसे प्रसिद्ध कुछ लोक हैं, जहाँ कश्यपके पुत्र पितृगण निवास करते हैं। देवतालोग सदा उनका सम्मान किया करते हैं। अग्निष्वात्त नामसे प्रसिद्ध यज्वा पितृगण उन्हीं लोकोंमें निवास करते हैं। स्वर्गमें विभ्राज नामके जो दूसरे तेजस्वी लोक हैं, उनमें बर्हिषद्संज्ञक पितृगण निवास करते हैं। वहाँ मोरोंसे जुते हुए हजारों विमान हैं तथा संकल्पमय वृक्ष भी हैं, जो संकल्पके अनुसार फल प्रदान करनेवाले हैं। जो लोग इस लोकमें अपने पितरोंके लिये श्राद्ध करते हैं, वे उन विभ्राज नामके लोकोंमें जाकर समृद्धिशाली भवनोंमें आनन्द भोगते हैं तथा वहाँ मेरे सैकड़ों पुत्र विद्यमान रहते हैं, जो तपस्या और योगबलसे सम्पत्र, महात्मा, महान् सौभाग्यशाली और भक्तोंको अभयदान देनेवाले हैं। मार्तण्डमण्डल नामक लोकमें मरीचिगर्भ नामके पितृगण निवास करते हैं। वे अङ्गिरा मुनिके पुत्र है और लोकमें हविष्मान् नामसे विख्यात हैं; वे राजाओंके पितर हैं और स्वर्ग तथा मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाले हैं। तीर्थोंमें श्राद्ध करनेवाले श्रेष्ठ क्षत्रिय उन्हींके लोकमें जाते हैं। कामदुध नामसे प्रसिद्ध जो लोक हैं, वे इच्छानुसार भोगकी प्राप्ति करानेवाले हैं। उनमें सुस्वध नामके पितर निवास करते हैं। लोकमें वे आज्यप नामसे विख्यात है और प्रजापति कर्दमके पुत्र हैं। पुलहके बड़े भाईसे उत्पन्न वैश्यगण उन पितरोंकी पूजा करते हैं। श्राद्ध करनेवाले पुरुष उस लोकमें पहुँचनेपर एक ही साथ हजारों जन्मोंके परिचित
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
माता, भाई, पिता, सास, मित्र, सम्बन्धी तथा बन्धुओंका दर्शन करते हैं। इस प्रकार पितरोंके तीन गण बताये गये। अब चौथे गणका वर्णन करता हूँ। ब्रह्मलोकके ऊपर सुमानस नामके लोक स्थित हैं, जहाँ सोमप नामसे प्रसिद्ध सनातन पितरोंका निवास है। वे सब-के-सब धर्ममय स्वरूप धारण करनेवाले तथा ब्रह्माजीसे भी श्रेष्ठ हैं। स्वधासे उनकी उत्पत्ति हुई है। वे योगी हैं; अतः ब्रह्मभावको प्राप्त होकर सृष्टि आदि करके सब इस समय मानसरोवरमें स्थित है। इन पितरोंकी कन्या नर्मदा नामकी नदी है, जो अपने जलसे समस्त प्राणियोंको पवित्र करती हुई पश्चिम समुद्रमें जा मिलती है। उन सोमप नामवाले पितरोंसे ही सम्पूर्ण प्रजासृष्टिका विस्तार हुआ है, ऐसा जानकर मनुष्य सदा धर्मभावसे उनका श्राद्ध करते हैं। उन्होंके प्रसादसे योगका विस्तार होता है।
आदि सृष्टिके समय इस प्रकार पितरोंका श्राद्ध प्रचलित हुआ । श्राद्धमें उन सबके लिये चाँदीके पात्र अथवा चाँदीसे युक्त पात्रका उपयोग होना चाहिये। 'स्वधा' शब्दके उच्चारणपूर्वक पितरोंके उद्देश्यसे किया हुआ श्राद्ध-दान पितरोंको सर्वदा सन्तुष्ट करता है। विद्वान् पुरुषोंको चाहिये कि वे अग्निहोत्री एवं सोमपायी ब्राह्मणोंके द्वारा अग्निमें हवन कराकर पितरोंको तृप्त करें। अभिके अभावमें ब्राह्मणके हाथमें अथवा जलमें या शिवजीके स्थानके समीप पितरोंके निमित्त दान करे; ये ही पितरोंके लिये निर्मल स्थान हैं। पितृकार्यमें दक्षिण दिशा उत्तम मानी गयी है। यज्ञोपवीतको अपसव्य अर्थात् दाहिने कंधेपर करके किया हुआ तर्पण, तिलदान तथा 'स्वधा' के उच्चारणपूर्वक किया हुआ श्राद्ध - ये सदा पितरोंको तृप्त करते हैं। कुश, उड़द, साठी धानका चावल, गायका दूध, मधु गायका घी, सावाँ, अगहनीका चावल, जौ, तीनाका चावल, मूँग, गन्ना और सफेद फूल – ये सब वस्तुएँ पितरोंको सदा प्रिय हैं।
अब ऐसे पदार्थ बताता हूँ, जो श्राद्धमें सर्वदा वर्जित हैं। मसूर, सन, मटर, राजमाष, कुलथी, कमल,
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सृष्टिखण्ड ]
• पितरों तथा श्राद्धके विभिन्न अङ्गोंका वर्णन .
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बिल्व, मदार, धतूरा, पारिभद्राट, रूषक, भेड़-बकरीका पर्वके दिन जो श्राद्ध किया जाता है, उसे पार्वण कहते दूध, कोदो, दारवरट, कैथ, महुआ और अलसी-ये हैं। पार्वण-श्राद्धमें जो ब्राह्मण निमन्त्रित करनेयोग्य हैं, सब निषिद्ध हैं। अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको उनका वर्णन करता हूँ श्रवण करो! जो पञ्चाग्निका श्राद्धमें इन वस्तुओंका उपयोग कभी नहीं करना चाहिये। सेवन करनेवाला, स्रातक, त्रिसौपर्ण', वेदके व्याकरण जो भक्तिभावसे पितरोंको प्रसन्न करता है, उसे पितर भी आदि छहों अङ्गोंका ज्ञाता, श्रोत्रिय (वेदज्ञ), श्रोत्रियका सन्तुष्ट करते हैं। वे पुष्टि, आरोग्य, सन्तान एवं स्वर्ग पुत्र, वेदके विधिवाक्योंका विशेषज्ञ, सर्वज्ञ (सब प्रदान करते हैं। पितृकार्य देवकार्यसे भी बढ़कर है; अतः विषयोंका ज्ञाता), वेदका स्वाध्यायी, मन्त्र जपनेवाला, देवताओंको तृप्त करनेसे पहले पितरोंको ही सन्तुष्ट करना ज्ञानवान्, त्रिणाचिकेत', त्रिमधु', अन्य शास्त्रोंमें भी श्रेष्ठ माना गया है। कारण, पितृगण शीघ्र ही प्रसन्न हो परिनिष्ठित, पुराणोंका विद्वान्, स्वाध्यायशील, जाते हैं, सदा प्रिय वचन बोलते हैं, भक्तोंपर प्रेम रखते ब्राह्मणभक्त, पिताकी सेवा करनेवाला, सूर्यदेवताका है और उन्हें सुख देते हैं। पितर पकि देवता है अर्थात् भक्त, वैष्णव, ब्रह्मवेत्ता, योगशास्त्रका ज्ञाता, शान्त, प्रत्येक पर्वपर पितरोंका पूजन करना उचित है। आत्मज्ञ, अत्यन्त शीलवान् तथा शिवभक्तिपरायण हो, हविष्मानसंज्ञक पितरोंके अधिपति सूर्यदेव ही श्राद्धके ऐसा ब्राह्मण श्राद्धमें निमन्त्रण पानेका अधिकारी है। ऐसे देवता माने गये हैं।
ब्राह्मणोंको यत्नपूर्वक श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये। भीष्मजीने कहा-ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ अब जो लोग श्राद्धमें वर्जनीय हैं, उनका वर्णन सुनो। पुलस्त्यजी। आपके मुँहसे यह सारा विषय सुनकर मेरी पतित, पतितका पुत्र, नपुंसक, चुगलखोर और अत्यन्त इसमें बड़ी भक्ति हो गयी है; अतः अब मुझे श्राद्धका रोगी-ये सब श्राद्धके समय धर्मज्ञ पुरुषोंद्वारा त्याग देने समय, उसकी विधि तथा श्राद्धका स्वरूप बतलाइये। योग्य हैं। श्राद्धके पहले दिन अथवा श्राद्धके ही दिन श्राद्धमें कैसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ? तथा विनयशील ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। निमन्त्रण दिये हुए किनको छोड़ना चाहिये? श्राद्धमें दिया हुआ अन्न ब्राह्मणोंके शरीरमें पितरोंका आवेश हो जाता है। वे पितरोंके पास कैसे पहुंचता है ? किस विधिसे श्राद्ध वायुरूपसे उनके भीतर प्रवेश करते हैं और ब्राह्मणोंके करना उचित है? और वह किस तरह उन पितरोंको तृप्त बैठनेपर स्वयं भी उनके साथ बैठे रहते हैं। करता है?
किसी ऐसे स्थानको, जो दक्षिण दिशाकी ओर पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! अन्न और जलसे नीचा हो, गोबरसे लीपकर वहाँ श्राद्ध आरम्भ करे अथवा दूध एवं फल-मूल आदिसे पितरोंको सन्तुष्ट अथवा गोशालामें या जलके समीप श्राद्ध करे। करते हुए प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये। श्राद्ध तीन आहिताग्नि पुरुष पितरोंके लिये चरु (खीर) बनाये और प्रकारका होता है-नित्य, नैमित्तिक और काम्य । पहले यह कहकर कि इससे पितरोंका श्राद्ध करूँगा, वह सब नित्य श्राद्धका वर्णन करता हूँ। उसमें अर्थ्य और दक्षिण दिशामें रख दे। तदनन्तर उसमें घृत और मधु आवाहनकी क्रिया नहीं होती। उसे अदैव समझना आदि मिलाकर अपने सामनेकी ओर तीन निर्वापस्थान चाहिये-उसमें विश्वदेवोंको भाग नहीं दिया जाता। (पिण्डदानकी वेदियाँ) बनाये। उनकी लम्बाई एक बित्ता
१. 'ब्रह्ममेतु माम्' इत्यादि तीन अनुवाकोंका नियमपूर्वक अध्ययन करनेवाला त्रिसौपर्ण कहलाता है।
२. द्वितीय कठके अन्तर्गत 'अयं वाव यः पवते' इत्यादि तीन अनुवाकोको त्रिणाचिकेत कहते है। उसका स्वाध्याय अथवा अनुष्ठान करनेवाला पुरुष भी त्रिणाचिकेत कहलाता है।
३. 'मधु वाता ऋतायते' इत्यादि तीनों ऋचाओंका पाठ और अनुगमन करनेवालेको त्रिमधु कहते है।
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
और चौड़ाई चार अङ्गलकी होनी चाहिये। साथ ही, कई पिण्ड बनावे और एक-एक पिण्डको दाहिने हाथमें खैरकी तीन दवीं (कलछुल) बनवावे, जो चिकनी हों लेकर तिल और जलके साथ उसका दान करना तथा जिनमें चाँदीका संसर्ग हो । उनकी लम्बाई एक-एक चाहिये। संकल्पके समय जल-पात्रमें रखे हुए जलको रत्रिकी और आकार हाथके समान सुन्दर होना उचित बायें हाथकी सहायतासे दायें हाथमें ढाल लेना चाहिये। है। जलपात्र, कांस्यपात्र, प्रोक्षण, समिधा, कुश, श्राद्धकालमें पूर्ण प्रयत्नके साथ अपने मन और तिलपात्र, उत्तम वस्त्र, गन्ध, धूप, चन्दन-ये सब इन्द्रियोंको काबूमें रखे और मात्सर्यका त्याग कर दे। वस्तुएँ धीरे-धीरे दक्षिण दिशामें रखे। उस समय जनेऊ [पिण्डदानकी विधि इस प्रकार है-] पिण्ड देनेके दाहिने कंधेपर होना चाहिये। इस प्रकार सब सामान लिये बनायी हुई वेदियोंपर यत्नपूर्वक रेखा बनावे। इसके एकत्रित करके घरके पूर्व गोबरसे लिपी हुई पृथ्वीपर बाद अवनेजन-पात्रमें जल लेकर उसे रेखाङ्कित वेदीपर गोमूत्रसे मण्डल बनावे और अक्षत तथा फूलसहित जल गिरावे। [यह अवनेजन अर्थात् स्थान-शोधनकी क्रिया लेकर तथा जनेऊको क्रमशः बायें एवं दाहिने कंधेपर है।] फिर दक्षिणाभिमुख होकर वेदीपर कुश विछावे छोड़कर ब्राह्मणोंके पैर धोये तथा बारम्बार उन्हें प्रणाम और एक-एक करके सब पिण्डोको क्रमशः उन कुशोपर करे। तदनन्तर, विधिपूर्वक आचमन कराकर उन्हें रखे। उस समय [पिता-पितामह आदिमेंसे जिस-जिसके बिछाये हुए दर्भयुक्त आसनोंपर बिठावे और उनसे उद्देश्यसे पिण्ड दिया जाता हो, उस-उस] पितरके मन्त्रोच्चारण करावे। सामर्थ्यशाली पुरुष भी देवकार्य नाम-गोत्र आदिका उच्चारण करते हुए संकल्प पढ़ना (वैश्वदेव श्राद्ध) में दो और पितृकार्यमें तीन ब्राह्मणोंको चाहिये। पिण्डदानके पश्चात् अपने दायें हाथको ही भोजन कराये अथवा दोनों श्राद्धोंमें एक-एक पिण्डाधारभूत कुशोपर पोंछना चाहिये। यह ब्राह्मणको ही जिमाये। विद्वान् पुरुषको श्राद्धमें अधिक लेपभागभोजी पितरोंका भाग है। उस समय ऐसे ही विस्तार नहीं करना चाहिये। पहले विश्वेदेव-सम्बन्धी मन्त्रका जप अर्थात् 'लेपभागभुजः पितरस्तृप्यन्तु
और फिर पितृ-सम्बन्धी विद्वान् ब्राह्मणोंकी अर्घ्य आदिसे इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करना उचित है। इसके बाद विधिवत् पूजा करे तथा उनकी आज्ञा लेकर अग्निमें पुनः प्रत्यवनेजन करे अर्थात् अवनेजनपात्रमें जल लेकर यथाविधि हवन करे। विद्वान् पुरुष गृह्यसूत्रमें बतायी हुई उससे प्रत्येक पिण्डको नहलावे। फिर जलयुक्त पिण्डोंको विधिके अनुसार घृतयुक्त चरुका अग्नि और सोमको नमस्कार करके श्राद्धकल्पोक्त वेदमन्त्रोंके द्वारा पिण्डोपर तृप्तिके उद्देश्यसे समयपर हवन करे। इस प्रकार पितरोंका आवाहन करे और चन्दन, धूप आदि पूजनदेवताओंकी तृप्ति करके वह श्राद्धकर्ता श्रेष्ठ ब्राहाण सामग्रियोंके द्वारा उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् साक्षात् अग्निका स्वरूप माना जाता है। देवताके आहवनीयादि अग्नियोंके प्रतिनिधिभूत एक-एक उद्देश्यसे किया जानेवाला हवन आदि प्रत्येक कार्य ब्राह्मणको जलके साथ एक-एक दवी प्रदान करे । फिर जनेऊको बायें कंधेपर रखकर ही करना चाहिये। विद्वान् पुरुष पितरोंके उद्देश्यसे पिण्डोंके ऊपर कुश रखे तत्पश्चात् पितरोंके निमित्त करनेयोग्य पर्युक्षण (सेचन) तथा पितरोंका विसर्जन करे। तदनन्तर, क्रमशः सभी आदि सारा कार्य विज्ञ पुरुषको जनेऊको दायें कंधेपर पिण्डोंमेंसे थोड़ा-थोड़ा अंश निकालकर सबको एकत्र करके-अपसव्य भावसे करना उचित है। हवन तथा करे और ब्राह्मणोंको यलपूर्वक पहले वही भोजन करावे; विश्वेदेवोंको अर्पण करनेसे बचे हुए अन्नको लेकर उसके क्योंकि उन पिण्डोंका अंश ब्राह्मणलोग ही भोजन करते
१. मुट्ठी बंधे हुए हाथकी लम्बाईको रवि कहते है। २. खदिर (खैर) की बनी हुई कलछुल।
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सृष्टिखण्ड]
• पितरों तथा श्राद्धके विभिन्न अङ्गोंका वर्णन •
है। इसीलिये अमावास्याके दिन किये हुए पार्वण राह न चलें, मैथुन न करें; साथ ही उस दिन स्वाध्याय, श्राद्धको 'अन्वाहार्य' कहा गया है। पहले अपने हाथमें कलह और दिनमें शयन-इन सबको सर्वथा त्याग दें। पवित्रीसहित तिल और जल लेकर पिण्डोंके आगे छोड़ इस विधिसे किया हुआ श्राद्ध धर्म, अर्थ और कामदे और कहे-'एषां स्वधा अस्तु' (ये पिण्ड स्वधा- तीनोंकी सिद्धि करनेवाला होता है। कन्या, कुम्भ और स्वरूप हो जायें) । इसके बाद परम पवित्र और उत्तम वृष राशिपर सूर्यके रहते कृष्णपक्षमें प्रतिदिन श्राद्ध करना अन्न परोसकर उसकी प्रशंसा करते हुए उन ब्राह्मणोंको चाहिये। जहाँ-जहाँ सपिण्डीकरणरूप श्राद्ध करना हो, भोजन करावे। उस समय भगवान् श्रीनारायणका स्मरण वहाँ अग्रिहोत्र करनेवाले पुरुषको सदा इसी विधिसे करता रहे और क्रोधी स्वभावको सर्वथा त्याग दे। करना चाहिये। ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर विकिरान दान करे; यह सब अब मैं ब्रह्माजीके बताये हुए साधारण श्राद्धका वोंक लिये उचित है। विकिरान-दानकी विधि यह है। वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान तिलसहित अन्न और जल लेकर उसे कुशके ऊपर करनेवाला है। उत्तरायण और दक्षिणायनके प्रारम्भके पृथ्वीपर रख दे। जब ब्राह्मण आचमन कर ले तो पुनः दिन, विषुव नामक योग (तुला और मेषकी संक्रान्ति) पिण्डोंपर जल गिरावे। फूल, अक्षत, जल छोड़ना और में [जब कि दिन और रात बराबर होते है], प्रत्येक स्वधावाचन आदि सारा कार्य पिण्डके ऊपर करे।' पहले अमावास्याको, प्रतिसंक्रान्तिके दिन, अष्टका (पौष, देवश्राद्धकी समाप्ति करके फिर पितृश्राद्धकी समाप्ति करे, माघ, फाल्गुन तथा आश्विन मासके कृष्णपक्षकी अष्टमी अन्यथा श्राद्धका नाश हो जाता है। इसके बाद तिथि) में, पूर्णिमाको, आर्द्रा, मघा और रोहिणी-इन नतमस्तक होकर ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा करके उनका नक्षत्रोंमें, श्राद्धके योग्य उत्तम पदार्थ और सुपात्र विसर्जन करे।
ब्राह्मणके प्राप्त होनेपर, व्यतीपात, विष्टि और वैधति . यह आहिताग्नि पुरुषोंके लिये अन्वाहार्य पार्वण योगके दिन, वैशाखकी तृतीयाको, कार्तिककी नवमीको, श्राद्ध बतलाया गया। अमावास्याके पर्वपर किये जानेके माघकी पूर्णिमा तथा भाद्रपदकी त्रयोदशी तिथिको भी कारण यह पार्वण कहलाता है। यही नैमित्तिक श्राद्ध है। श्राद्धका अनुष्ठान करना चाहिये। उपर्युक्त तिथियाँ श्राद्धके पिण्ड गाय या बकरीको खिला दे अथवा युगादि कहलाती हैं। ये पितरोंका उपकार करनेवाली हैं। ब्राह्मणोंको दे दे अथवा अग्नि या जलमें छोड़ दे। यह इसी प्रकार मन्वन्तरादि तिथियोंमें भी विद्वान् पुरुष भी न हो तो खेतमें बिखेर दे अथवा जलकी धारामें बहा श्राद्धका अनुष्ठान करे। आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक दे। [सन्तानकी इच्छा रखनेवाली] पत्नी विनीत भावसे शुक्ला द्वादशी, चैत्र तथा भाद्रपदकी शुक्ला तृतीया, आकर मध्यम अर्थात् पितामहके पिण्डको ग्रहण करे फाल्गुनकी अमावास्या, पौषकी शुक्ला एकादशी, आषाढ़ और उसे खा जाय । उस समय 'आयत्त पितरो गर्भम्' शुक्ला दशमी, माघ शुक्ला सप्तमी, श्रावण कृष्णा अष्टमी, इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। श्राद्ध और आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन और ज्येष्ठकी पूर्णिमा-इन पिण्डदान आदिकी स्थिति तभीतक रहती है, जबतक तिथियोंको मन्वन्तरादि कहते हैं। ये दिये हुए दानको ब्राह्मणोंका विसर्जन नहीं हो जाता। इनके विसर्जनके अक्षय कर देनेवाली हैं। विज्ञ पुरुषको चाहिये कि पश्चात् पितृकार्य समाप्त हो जाता है। उसके बाद वैशाखकी पूर्णिमाको, ग्रहणके दिन, किसी उत्सवके बलिवैश्वदेव करना चाहिये। तदनन्तर अपने बन्धु- अवसरपर और महालय (आश्विन कृष्णपक्ष) में तीर्थ, बान्धवोंके साथ पितरोद्वारा सेवित प्रसादस्वरूप अत्र मन्दिर, गोशाला, द्वीप, उद्यान तथा घर आदिमें लिपे-पुते भोजन करे। श्राद्ध करनेवाले यजमान तथा श्राद्धभोजी एकान्त स्थानमें श्राद्ध करे।' ब्राह्मण दोनोंको उचित है कि वे दुबारा भोजन न करें, [अब श्राद्धके क्रमका वर्णन किया जाता है-]
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.अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
पहले विश्वेदेवोंके लिये आसन देकर जौ और पुष्पोंसे हो जाता है। इसलिये पितरोंके पिण्डोंपर अर्घ्य चढ़ानेके उनकी पूजा करे। [विश्वेदेवोंके दो आसन होते हैं; लिये चाँदीका ही पात्र उत्तम माना गया है। चाँदी एकपर पिता-पितामहादिसम्बन्धी विश्वेदेवोंका आवाहन भगवान् श्रीशङ्करके नेत्रसे प्रकट हुई है, इसलिये वह होता है और दूसरेपर मातामहादिसम्बन्धी विश्वेदेवोंका। पितरोंको अधिक प्रिय है। उनके लिये दो अर्य-पात्र (सिकोरे या दोने) जौ और इस प्रकार उपर्युक्त वस्तुओंमेंसे जो सुलभ हो, जल आदिसे भर दे और उन्हें कुशकी पवित्रीपर रखे। उसके अर्घ्यपात्र बनाकर उन्हें ऊपर बताये अनुसर जल, 'शन्नोदेवीरभीष्टये' इत्यादि मन्त्रसे जल तथा तिल और गन्ध-पुष्प आदिसे सुसज्जित करे; तत्पश्चात् 'यवोऽसि-' इत्यादिके द्वारा जौके दोनोंको उन पात्रोंमें 'या दिव्या आपः' इस मन्त्रको पढ़कर पिताके नाम और छोड़ना चाहिये। फिर गन्ध-पुष्प आदिसे पूजा करके वहाँ गोत्र आदिका उच्चारण करके अपने हाथमें कुश ले ले। विश्वेदेवोंकी स्थापना करे और 'विश्वे देवास'-इत्यादि फिर इस प्रकार कहे--'पितृन् आवाहयिष्यामि'दो मन्त्रोंसे विश्वेदेवोंका आवाहन करके उनके ऊपर जौ 'पितरोंका आवाहन करूँगा।' तब निमन्त्रणमें आये हुए छोड़े। जौ छोड़ते समय इस प्रकार कहे-'जौ ! तुम ब्राह्मण 'तथास्तु' कहकर श्राद्धकर्ताको आवाहनके लिये सब अन्नोंके राजा हो। तुम्हारे देवता वरुण हैं-वरुणसे आज्ञा प्रदान करें। इस प्रकार ब्राह्मणोंकी अनुमति लेकर ही तुम्हारी उत्पत्ति हुई है; तुम्हारे अंदर मधुका मेल है। 'उशन्तस्त्वा निधीमहि-' 'आयन्तुनः पितरः-'इन तुम सम्पूर्ण पापोंको दूर करनेवाले, पवित्र एवं मुनियोंद्वारा दो ऋचाओंका पाठ करते हुए वह पितरोंका आवाहन प्रशंसित अन्न हो।'* फिर अर्घ्यपात्रको चन्दन और करे। तदनन्तर, 'या दिव्या आपः-' इस मन्त्रसे फूलोंसे सजाकर 'या दिव्या आपः'-इस मन्त्रको पढ़ते पितरोंको अर्घ्य देकर प्रत्येकके लिये गन्ध-पुष्प आदि हुए विश्वेदेवोंको अर्घ्य दे। इसके बाद उनकी पूजा करके पूजोपचार एवं वस्त्र चढ़ावे तथा पृथक्-पृथक् संकल्प गन्ध आदि निवेदन कर पितृयज्ञ (पितृश्राद्ध) आरम्भ पढ़कर उन्हें समर्पित करे। [अर्घ्यदानकी प्रक्रिया इस करे। पहले पिता आदिके लिये कुशके तीन आसनोंकी प्रकार है-] पहले अनुलोमक्रमसे अर्थात् पिताके कल्पना करके फिर तीन अर्घ्यपात्रोंका पूजन करे- पन्हें उद्देश्यसे दिये हुए अर्घ्यपात्रका जल पितामहके पुष्प आदिसे सजावे। प्रत्येक अर्घ्यपात्रको कुशको अर्घ्यपात्रमें डाले और फिर पितामहके अर्घ्यपात्रका सारा पवित्रीसे युक्त करके 'शन्नोदेवीरभीष्टये-' इस मन्त्रसे जल प्रपितामहके अर्घ्यपात्रमें डाल दे, फिर सबमें जल छोड़े। फिर 'तिलोऽसि सोमदेवत्यो-' इस विलोमक्रमसे अर्थात् प्रपितामहके अर्घ्यपात्रको मन्त्रसे तिल छोड़कर [बिना मन्त्रके ही] चन्दन और पितामहके अर्घ्यपात्रमें रखे और उन दोनों पात्रोंको पुष्प आदि भी छोड़े। अर्घ्यपात्र पीपल आदिकी उठाकर पिताके अर्घ्यपात्रमें रखे। इस प्रकार तीनों लकड़ीका, पत्तेका या चाँदीका बनवावे अथवा समुद्रसे अर्घ्यपात्रोंको एक-दूसरेके ऊपर करके पिताके आसनके निकले हुए शङ्ख आदिसे अर्घ्यपात्रका काम ले। सोने, उत्तरभागमें 'पितृभ्यः स्थानमसि' ऐसा कहकर उन्हें चाँदी और ताँबेका पात्र पितरोंको अभीष्ट होता है। दुलका दे-उलटकर रख दे। ऐसा करके अन्न चाँदीकी तो चर्चा सुनकर भी पितर प्रसन्न हो जाते हैं। परोसनेका कार्य करे। चाँदीका दर्शन अथवा चाँदीका दान उन्हें प्रिय है। यदि परोसनेके समय भी पहले अग्निकार्य करना चाहिये चाँदीके बने हुए अथवा चाँदीसे युक्त पात्रमें जल भी अर्थात् थोड़ा-सा अन्न निकालकर 'अग्नये कव्यवाहनाय रखकर पितरोंको श्रद्धापूर्वक दिया जाय तो वह अक्षय स्वाहा' और 'सोमाय पितृमते स्वाहा'-इन दो मन्त्रोंसे
* यवोऽसि धान्यराजस्तु वारुणो मधुमिश्रितः । निर्णोदः सर्वपापानां पवित्रमुषिसंस्तुतम् ॥
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सृष्टिखण्ड ]
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पितरों तथा श्राद्धके विभिन्न अङ्गोका वर्णन ●
३१
I
डाले। इसके बाद दोनों हाथोंसे अन्न निकालकर परोसे। परोसते समय 'उशन्तस्त्वा निधीमहि -' इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करता रहे। उत्तम, गुणकारी शाक आदि तथा नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंके साथ दही, दूध, गौका घृत और शक्कर आदिसे युक्त अन्न पितरोंके लिये तृप्तिकारक होता है। मधु मिलाकर तैयार किया हुआ कोई भी पदार्थ तथा गायका दूध और घी मिलायी हुई खीर आदि पितरोंके लिये दी जाय तो वह अक्षय होती है - ऐसा आदि देवता पितरोंने स्वयं अपने ही मुखसे कहा है। इस प्रकार अन्न परोसकर पितृसम्बन्धी ऋचाओंका पाठ सुनावे। इसके सिवा सभी तरहके पुराण ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्र-सम्बन्धी भाँति भाँतिके स्तोत्र इन्द्र, रुद्र और सोमदेवताके सूक्त; पावमानी ऋचाएँ; बृहद्रथन्तर; ज्येष्ठसामका गौरवगान शान्तिकाध्याय, मधुब्राह्मण, मण्डलब्राह्मण तथा और भी जो कुछ ब्राह्मणोंको तथा अपनेको प्रिय लगे वह सब सुनाना चाहिये। महाभारतका भी पाठ करना चाहिये; क्योंकि वह पितरोंको अत्यन्त प्रिय है। ब्राह्मणोंके भोजन कर लेनेपर जो अन्न और जल आदि शेष रहे, उसे उनके आगे जमीनपर बिखेर दे। यह उन जीवोंका भाग है, जो संस्कार आदिसे हीन होनेके कारण अधम गतिको प्राप्त हुए हैं।
अग्नि और सोम देवताके लिये अग्निमें दो बार आहुति करके एक-एक बार सबको जल दे। फिर फूल और अक्षत देकर तिलसहित अक्षय्योदक दान करे। फिर नाम और गोत्रका उच्चारण करते हुए शक्तिके अनुसार दक्षिणा दे गौ, भूमि, सोना, वस्त्र और अच्छे-अच्छे बिछौने दे। कृपणता छोड़कर पितरोंकी प्रसन्नताका सम्पादन करते हुए जो-जो वस्तु ब्राह्मणोंको, अपनेको तथा पिताको भी प्रिय हो, वही वही वस्तु दान करे। तत्पश्चात् स्वधावाचन करके विश्वेदेवोंको जल अर्पण करे और ब्राह्मणोंसे आशीर्वाद ले । विद्वान् पुरुष पूर्वाभिमुख होकर कहे- 'अघोराः पितरः सन्तु (मेरे पितर शान्त एवं मङ्गलमय हों)।' यजमानके ऐसा कहनेपर ब्राह्मणलोग 'तथा सन्तु (तुम्हारे पितर ऐसे ही हों) – ऐसा कहकर अनुमोदन करें। फिर श्राद्धकर्ता कहे — 'गोत्रं नो वर्धताम्' (हमारा गोत्र बढ़े) । यह सुनकर ब्राह्मणोंको 'तथास्तु' (ऐसा ही हो) इस प्रकार उत्तर देना चाहिये। फिर यजमान कहे — 'दातारो मेऽभिवर्धन्ताम्' 'वेदाः सन्ततिरेव च - एताः सत्या आशिषः सन्तु (मेरे दाता बढ़ें, साथ ही मेरे कुलमें वेदोंके अध्ययन और सुयोग्य सन्तानकी वृद्धि हो – ये सारे आशीर्वाद सत्य हो) ' । यह सुनकर ब्राह्मण कहें— 'सन्तु सत्या आशिषः (ये आशीर्वाद सत्य हो'। इसके बाद भक्तिपूर्वक पिण्डोंको उठाकर सूंघे और स्वस्तिवाचन करे। फिर भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्र के साथ प्रदक्षिणा करके आठ पग चले। तदनन्तर लौटकर प्रणाम करे। इस प्रकार श्राद्धकी विधि पूरी करके मन्त्रवेत्ता पुरुष अग्रि प्रज्वलित करनेके पश्चात् बलिवैश्वदेव तथा नैत्यिक बलि अर्पण करे। तदनन्तर भृत्य, पुत्र, बान्धव तथा अतिथियोंके साथ बैठकर वही अन्न भोजन करे, जो पितरोंको अर्पण किया गया हो। जिसका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, ऐसा पुरुष भी इस श्राद्धको प्रत्येक पर्वपर कर सकता है। इसे साधारण [ या नैमित्तिक] श्राद्ध कहते हैं। यह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। राजन् ! स्त्रीरहित या विदेशस्थित मनुष्य भी भक्तिपूर्ण हृदयसे इस श्राद्धका अनुष्ठान करनेका अधिकारी है। यही नहीं, शूद्र भी इसी विधिसे श्राद्ध कर सकता है; अन्तर इतना ही है कि वह
ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर उन्हें हाथ-मुँह धोनेके लिये जल प्रदान करे। इसके बाद गायके गोबर और गोमूत्रसे लिपी हुई भूमिपर दक्षिणाय कुरा बिछाकर उनके ऊपर यत्नपूर्वक पितृयज्ञकी भाँति विधिवत् पिण्डदान करे। पिण्डदानके पहले पितरोंके नाम गोत्रका उच्चारण करके उन्हें अवनेजनके लिये जल देना चाहिये। फिर पिण्ड देनेके बाद पिण्डोपर प्रत्यवनेजनका जल गिराकर उनपर पुष्प आदि चढ़ाना चाहिये। सव्यापसव्यका विचार करके प्रत्येक कार्यका सम्पादन करना उचित है। पिताके श्राद्धकी भाँति माताका श्राद्ध भी हाथमें कुश लेकर विधिवत् सम्पन्न करे। दीप जलावे; पुष्प आदिसे पूजा करे । ब्राह्मणोंके आचमन कर लेनेपर स्वयं भी आचमन
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
वेदमन्त्रोंका उच्चारण नहीं कर सकता।
तीसरा अर्थात् काम्य श्राद्ध आभ्युदयिक है; इसे वृद्धि श्राद्ध भी कहते हैं। उत्सव और आनन्दके अवसरपर, संस्कारके समय, यज्ञमें तथा विवाह आदि माङ्गलिक कार्यों में यह श्राद्ध किया जाता है। इसमें पहले माताओंकी अर्थात् माता, पितामही और प्रपितामहीकी पूजा होती है। इनके बाद पितरों-पिता, पितामह और प्रपितामहका पूजन किया जाता है। अन्तमें मातामह आदिकी पूजा होती है। अन्य श्राद्धोंकी भाँति इसमें भी विश्वेदेवोंकी पूजा आवश्यक है। दक्षिणावर्तक क्रमसे पूजोपचार चढ़ाना चाहिये। आभ्युदयिक श्राद्धमें दही, अक्षत, फल और जलसे ही पूर्वाभिमुख होकर पितरोंको
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! अब मैं एकोद्दिष्ट श्राद्धका वर्णन करूँगा, जिसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने बतलाया था। साथ ही यह भी बताऊँगा कि पिताके मरनेपर पुत्रोंको किस प्रकार अशौचका पालन करना चाहिये। ब्राह्मणोंमें मरणाशौच दस दिनतक रखनेकी आज्ञा है, क्षत्रियोंमें बारह दिन, वैश्योंमें पंद्रह दिन तथा शूद्रोंमें एक महीनेका विधान है। यह अशौच सपिण्ड (सात पीढ़ीतक) के प्रत्येक मनुष्यपर लागू होता है। यदि किसी बालककी मृत्यु चूडाकरणके पहले हो जाय तो उसका अशौच एक रातका कहा गया है। उसके बाद -उपनयनके पहलेतक तीन राततक अशौच रहता है। जननाशौचमें भी सब वर्णोंके लिये यही व्यवस्था है। अस्थि-सञ्चयनके बाद अशौचग्रस्त पुरुषके शरीरका स्पर्श किया जा सकता है। प्रेतके लिये बारह दिनोंतक प्रतिदिन पिण्ड दान करना चाहिये; क्योंकि वह उसके लिये पाथेय ( राहखर्च) है, इसलिये उसे पाकर प्रेतको -बड़ी प्रसन्नता होती है। द्वादशाहके बाद ही प्रेतको यमपुरीमें ले जाया जाता है; तबतक वह घरपर ही रहता है। अतः दस राततक प्रतिदिन उसके लिये आकाशमें दूध देना चाहिये; इससे सब प्रकारके दाहकी शान्ति होती है तथा मार्गके परिश्रमका भी निवारण होता है। दशाहके
पिण्डदान दिया जाता है। 'सम्पन्नम्' का उच्चारण करके अर्घ्य और पिण्डदान देना चाहिये। इसमें युगल ब्राह्मणोंको अर्घ्य दान दे तथा युगल (सपत्नीक ) ब्राह्मणोंकी ही वस्त्र और सुवर्ण आदिके द्वारा पूजा करे। तिलका काम जौसे लेना चाहिये तथा सारा कार्य पूर्ववत् करना चाहिये। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा सब प्रकारके मङ्गलपाठ करावे। इस प्रकार शूद्र भी कर सकता है। यह वृद्धिश्राद्ध सबके लिये सामान्य है। बुद्धिमान् शूद्र 'पित्रे नमः' इत्यादि नमस्कार मन्त्रके द्वारा ही दान आदि कार्य करे। भगवान्का कथन है कि शूद्रके लिये दान ही प्रधान है; क्योंकि दानसे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।
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एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीथका वर्णन
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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बाद ग्यारहवें दिन, जब कि सूतक निवृत्त हो जाता है, अपने गोत्रके ग्यारह ब्राह्मणोंको ही बुलाकर भोजन कराना चाहिये। अशौचकी समाप्तिके दूसरे दिन एकोद्दिष्ट श्राद्ध करे। इसमें न तो आवाहन होता है न अनौकरण (अग्निमें हवन) । विश्वेदेवोंका पूजन आदि भी नहीं होता। एक ही पवित्री, एक ही अर्ध और एक ही पिण्ड देनेका विधान है। अर्ध और पिण्ड आदि देते समय प्रेतका नाम लेकर 'तवोपतिष्ठताम्' (तुम्हें प्राप्त हो ) ऐसा कहना चाहिये। तत्पश्चात् तिल और जल छोड़ना चाहिये। अपने किये हुए दानका जल ब्राह्मणके हाथमें देना चाहिये तथा विसर्जनके समय 'अभिरम्यताम्' कहना चाहिये। शेष कार्य अन्य श्राद्धोंकी ही भाँति जानना चाहिये। उस दिन विधिपूर्वक शय्यादान, फलवस्त्रसमन्वित काञ्चनपुरुषकी पूजा तथा द्विज-दम्पतिका पूजन भी करना आवश्यक है।
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एकादशाह श्राद्धमें कभी भोजन नहीं करना चाहिये। यदि भोजन कर ले तो चान्द्रायण व्रत करना उचित है। सुयोग्य पुत्रको पिताकी भक्तिसे प्रेरित होकर सदा ही एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना चाहिये। एकादशाहके दिन वृषोत्सर्ग करे, उत्तम कपिला गौ दान दे और उसी दिनसे आरम्भ करके एक वर्षतक प्रतिदिन भक्ष्यभोज्यके
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सृष्टिखण्ड ]
. एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीथोंका वर्णन .
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साथ तिल और जलसे भरा हुआ घड़ा दान करना लोकोंकी प्राप्ति हो, इसके लिये विधिपूर्वक आमश्राद्ध चाहिये। [इसीको कुम्भदान कहते हैं।] तदनन्तर, वर्ष करना चाहिये। कच्चे अन्नसे ही अग्नौकरणकी क्रिया करे पूरा होनेपर सपिण्डीकरण श्राद्ध होना चाहिये। और उसीसे पिण्ड भी दे। पहले या तीसरे महीने में भी सपिण्डीकरणके बाद प्रेत [प्रेतत्वसे मुक्त होकर] जब मृत व्यक्तिका पिता आदि तीन पुरुषोंके साथ पार्वणश्राद्धका अधिकारी होता है तथा गृहस्थके वृद्धि- सपिण्डीकरण हो जाता है, तब प्रेतत्वके बन्धनसे उसकी सम्बन्धी कार्योंमें आभ्युदयिक श्राद्धका भागी होता है। मुक्ति हो जाती है। मुक्त होनेपर उससे लेकर तीन सपिण्डीकरण श्राद्ध देवश्राद्धपूर्वक करना चाहिये अर्थात् पीढ़ीतकके पितर सपिण्ड कहलाते हैं तथा चौथा उसमें पहले विश्वेदेवोंकी, फिर पितरोंकी पूजा होती है। सपिण्डकी श्रेणीसे निकलकर लेपभागी हो जाता है। सपिण्डीकरणमें जब पितरोंका आवाहन करे तो प्रेतका कुशमें हाथ पोंछनेसे जो अंश प्राप्त होता है, वही उसके आसन उनसे अलग रखे। फिर चन्दन, जल और उपभोगमें आता है। पिता, पितामह और प्रपितामह-ये तिलसे युक्त चार अर्घ्यपात्र बनावे तथा प्रेतके तीन पिण्डभागी होते हैं; और इनसे ऊपर चतुर्थ व्यक्ति अर्घ्यपात्रका जल तीन भागोंमें विभक्त करके पितरोंके अर्थात् वृद्धप्रपितामहसे लेकर तीन पीढ़ीतकके पूर्वज अर्ध्य-पात्रोंमें डाले। इसी प्रकार पिण्डदान करनेवाला लेपभागभोजी माने जाते हैं। [छ: तो ये हुए.] इनमें पुरुष चार पिण्ड बनाकर 'ये समानाः' -इत्यादि दो सातवाँ है स्वयं पिण्ड देनेवाला पुरुष । ये ही सात पुरुष मन्त्रोंके द्वारा प्रेतके पिण्डको तीन भागोंमें विभक्त करे सपिण्ड कहलाते हैं। [और एक-एक भागको पितरोंके तीन पिण्डोंमें मिला भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन् ! हव्य और कव्यका दे] । इसी विधिसे पहले अर्घ्यको और फिर पिण्डोंको दान मनुष्योंको किस प्रकार करना चाहिये ? पितृलोकमें सङ्कल्पपूर्वक समर्पित करे। तदनन्तर, वह चतुर्थ व्यक्ति उन्हें कौन ग्रहण करते हैं? यदि इस मर्त्यलोकमें ब्राह्मण अर्थात् प्रेत पितरोंकी श्रेणी में सम्मिलित हो जाता है और श्राद्धके अन्नको खा जाते हैं अथवा अनिमें उसका हवन अग्निस्वात्त आदि पितरोंके बीचमें बैठकर उत्तम अमृतका कर दिया जाता है तो शुभ और अशुभ योनियोंमें पड़े हुए उपभोग करता है। इसलिये सपिण्डीकरण श्राद्धके बाद प्रेत उस अन्नको कैसे खाते हैं उन्हें वह किस प्रकार उस (प्रेत) को पृथक् कुछ नहीं दिया जाता। पितरोमे मिल पाता है? ही उसका भाग भी देना चाहिये तथा उन्हींके पिण्डोंमें पुलस्त्यजी बोले-राजन्! पिता वसुके, स्थित होकर वह अपना भाग ग्रहण करता है। तबसे पितामह रुद्रके तथा प्रपितामह आदित्यके स्वरूप लेकर जब-जब संक्रान्ति और ग्रहण आदि पर्व आवें, है-ऐसी वेदकी श्रुति है। पितरोंके नाम और गोत्र ही तब-तब तीन पिण्डोंका ही श्राद्ध करना चाहिये। केवल उनके पास हव्य और कव्य पहुँचानेवाले हैं। मन्त्रकी मृत्यु-तिथिको केवल उसीके लिये एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना शक्ति तथा हृदयकी भक्तिसे श्राद्धका सार-भाग पितरोंको उचित है। पिताके क्षयाहके दिन जो एकोद्दिष्ट नहीं प्राप्त होता है। अग्निष्वात आदि दिव्य पितर पिता-पितामह करता, वह सदाके लिये पिताका हत्यारा और भाईका आदिके अधिपति हैं-वे ही उनके पास श्राद्धका अन्न विनाश करनेवाला माना गया है। क्षयाह-तिथिको पहुँचानेकी व्यवस्था करते हैं। पितरों से जो लोग कहीं [एकोद्दिष्ट न करके] पार्वणश्राद्ध करनेवाला मनुष्य जन्म ग्रहण कर लेते हैं, उनके भी कुछ-न-कुछ नाम, नरकगामी होता है। मृत व्यक्तिको जिस प्रकार गोत्र तथा देश आदि तो होते ही हैं; [दिव्य पितरोंको प्रेतयोनिसे छुटकारा मिले और उसे स्वर्गादि उत्तम उनका ज्ञान होता है और वे उसी पतेपर सभी वस्तुएँ
१. कचे अनके द्वारा श्राद्ध।
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
पहुँचा देते हैं। अतः यह भेंट-पूजा आदिके रूपमें करता है, वह धर्मात्मा पुरुष भगवान् श्रीनारायणके दिया हुआ सब सामान प्राणियोंके पास पहुँचकर उन्हें धाममें जाता है। कोकामुख नामक क्षेत्र भी एक प्रधान तृप्त करता है। यदि शुभ कमकि योगसे पिता और माता तीर्थ है। यह इन्द्रलोकका मार्ग है। यहाँ भी ब्रह्माजीके दिव्ययोनिको प्राप्त हुए हों तो श्राद्धमें दिया हुआ अन्न पितृतीर्थका दर्शन होता है। वहाँ भगवान् ब्रह्माजी अमृत होकर उस अवस्थामें भी उन्हें प्राप्त होता है। वही पुष्करारण्यमें विराजमान हैं। ब्रह्माजीका दर्शन अत्यन्त दैत्ययोनिमें भोगरूपसे, पशुयोनिमें तृणरूपसे, सर्पयोनिमें उत्तम एवं मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। कृत वायुरूपसे तथा यक्षयोनिमें पानरूपसे उपस्थित होता है। नामक महान् पुण्यमय तीर्थ सब पापोंका नाशक है। इसी प्रकार यदि माता-पिता मनुष्य-योनिमें हों तो उन्हें वहाँ आदिपुरुष नरसिंहस्वरूप भगवान् जनार्दन स्वयं ही अन्न-पान आदि अनेक रूपोंमे श्राद्धान्नकी प्राप्ति होती है। स्थित है। इक्षुमती नामक तीर्थ पितरोंको सदा प्रिय है। यह श्राद्ध कर्म पुष्प कहा गया है, इसका फल है ब्रह्मकी गङ्गा और यमुनाके सङ्गम (प्रयाग) में भी पितर सदा प्राप्ति । राजन् ! श्राद्धसे प्रसन्न हुए पितर आयु, पुत्र, धन, सन्तुष्ट रहते हैं। कुरुक्षेत्र अत्यन्त पुण्यमय तीर्थ है। विद्या, राज्य, लौकिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष भी प्रदान वहाँका पितृ-तीर्थ सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाला है। करते है।
राजन् ! नीलकण्ठ नामसे विख्यात तीर्थ भी भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन् ! श्राद्धकर्ता पुरुष पितरोंका तीर्थ है। इसी प्रकार परम पवित्र भद्रसर तीर्थ, दिनके किस भागमें श्राद्धका अनुष्ठान करे तथा किन मानसरोवर, मन्दाकिनी, अच्छोदा, विपाशा (व्यास तीर्थोंमें किया हुआ श्राद्ध अधिक फल देनेवाला नदी), पुण्यसलिला सरस्वती, सर्वमित्रपद, महाफलहोता है?
दायक वैद्यनाथ, अत्यन्त पावन क्षिप्रा नदी, कालिञ्जर पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! पुष्कर नामका तीर्थ गिरि, तीर्थोद्वेद, हरोद्भेद, गर्भभेद, महालय, भद्रेश्वर, सब तीर्थोंमें श्रेष्ठतम माना गया है। वहाँ किया हुआ विष्णुपद, नर्मदाद्वार तथा गयातीर्थ-ये सब पितृतीर्थ दान, होम, [श्राद्ध] और जप निश्चय ही अक्षय फल हैं। महर्षियोंका कथन है कि इन तीर्थोंमें पिण्डदान प्रदान करनेवाला होता है। वह तीर्थ पितरों और करनेसे समान फलकी प्राप्ति होती है। ये स्मरण करने ऋषियोंको सदा ही परम प्रिय है। इसके सिवा नन्दा, मात्रसे लोगोंके सारे पाप हर लेते हैं; फिर जो इनमें ललिता तथा मायापुरी (हरिद्वार) भी पुष्करके ही समान पिण्डदान करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है। ओङ्कारउत्तम तीर्थ हैं। मित्रपद और केदार-तीर्थ भी श्रेष्ठ हैं। तीर्थ, कावेरी नदी, कपिलाका जल, चण्डवेगा नदीमें गङ्गासागर नामक तीर्थको परम शुभदायक और मिली हुई नदियोंके सङ्गम तथा अमरकण्टक-ये सब सर्वतीर्थमय बतलाया जाता है। ब्रह्मसर तीर्थ और शतदु पितृतीर्थ हैं। अमरकण्टकमें किये हुए स्नान आदि पुण्य(सतलज) नदीका जल भी शुभ है। नैमिषारण्य नामक कार्य कुरुक्षेत्रको अपेक्षा दसगुना उत्तम फल देनेवाले तीर्थ तो सब तीर्थोका फल देनेवाला है। वहाँ गोमतीमें है। विख्यात शुफ़तीर्थ एवं उत्तम सोमेश्वरतीर्थ अत्यन्त गङ्गाका सनातन स्रोत प्रकट हुआ है। नैमिषारण्यमें पवित्र और सम्पूर्ण व्याधियोंको हरनेवाले हैं। वहाँ श्राद्ध भगवान् यज्ञ-वराह और देवाधिदेव शूलपाणि विराजते करने, दान देने तथा होम, स्वाध्याय, जप और निवास है। जहाँ सोनेका दान दिया जाता है, वहाँ महादेवजीकी करनेसे अन्य तीर्थोकी अपेक्षा कोटिगुना अधिक फल अठारह भुजावाली मूर्ति है। पूर्वकालमें जहाँ धर्मचक्रकी होता है। नेमि जीर्ण-शीर्ण होकर गिरी थी, वही स्थान इनके अतिरिक्त एक कायावरोहण नामक तीर्थ है, नैमिषारण्यके नामसे प्रसिद्ध हुआ। वहाँ सब तीर्थोका जहाँ किसी ब्राह्मणके उत्तम भवनमें देवाधिदेव निवास है। जो वहाँ जाकर देवाधिदेव वराहका दर्शन त्रिशूलधारी भगवान् शङ्करका तेजस्वी अवतार हुआ था।
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पष्टिखण्ड]
• एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोका वर्णन •
इसीलिये वह स्थान परम पुण्यमय तीर्थ बन गया। नामधेयतीर्थ, सौमित्रिसङ्गमतीर्थ, इन्द्रनील, महानाद तथा चर्मण्वती नदी, शूलतापी, पयोष्णी, पयोष्णी-सङ्गम, प्रियमेलक-ये भी श्राद्धके लिये अत्यन्त उत्तम माने महौषधी, चारणा, नागतीर्थप्रवर्तिनी, पुण्यसलिला गये हैं। इनमें सम्पूर्ण देवताओंका निवास बताया जाता महावेणा नदी, महाशाल तीर्थ, गोमती, वरुणा, है। इन सबमें दिया हुआ दान कीटिगुना अधिक फल अग्नितीर्थ, भैरवतीर्थ, भृगुतीर्थ, गौरीतीर्थ, वैनायकतीर्थ, देनेवाला होता है। पावन नदी बाहुदा, शुभकारी, वस्त्रेश्वरतीर्थ, पापहरतीर्थ, पावनसलिला वेत्रवती सिद्धवट, पाशुपततीर्थ, पर्यटिका नदी-इन सबमें (बेतवा) नदी, महारुद्रतीर्थ, महालिङ्गतीर्थ, दशार्णा, किया हुआ श्राद्ध भी सौ करोड़ गुना फल देता है। इसी महानदी, शतरुद्रा, शताह्वा, पितृपदपुर, अङ्गारवाहिका प्रकार पञ्चतीर्थ और गोदावरी नदी भी पवित्र तीर्थ हैं। नदी, शोण (सोन) और घर्घर (घाघरा) नामवाले दो गोदावरी दक्षिण-वाहिनी नदी है। उसके तटपर हजारों नद, परमपावन कालिका नदी और शुभदायिनी पितरा शिवलिङ्ग हैं। वहीं जामदग्न्यतीर्थ और उत्तम नदी-ये समस्त पितृतीर्थ स्नान और दानके लिये उत्तम मोदायतनतीर्थ हैं, जहाँ गोदावरी नदी प्रतीकके भयसे माने गये है। इन तीर्थोमें जो पिण्ड आदि दिया जाता है, सदा प्रवाहित होती रहती हैं। इसके सिवा हव्य-कव्य वह अनन्त फल देनेवाला माना गया है। शतवटा नदी, नामका तीर्थ भी है। वहाँ किये हुए श्राद्ध. होम और दान ज्वाला, शरद्वी नदी, श्रीकृष्णतीर्थ-द्वारकापुरी, सौ करोड़ गुना अधिक फल देनेवाले होते हैं, उदक्सरस्वती, मालवती नदी, गिरिकर्णिका, दक्षिण- सहस्रलिङ्ग और राघवेश्वर नामक तीर्थका माहात्म्य भी समुद्रके तटपर विद्यमान भूतपापतीर्थ, गोकर्णतीर्थ, ऐसा ही है। वहाँ किया हुआ श्राद्ध अनन्तगुना फल देता गजकर्णतीर्थ, परम उत्तम चक्रनदी, श्रीशैल, शाकतीर्थ, है। शालग्रामतीर्थ, प्रसिद्ध शोणपात (सोनपत) तीर्थ, नारसिंहतीर्थ, महेन्द्र पर्वत तथा पावनसलिला वैश्वानराशयतीर्थ, सारस्वततीर्थ, स्वामितीर्थ, मलंदरा महानदी-इन सब तीर्थोंमें किया हुआ श्राद्ध भी सदा नदी, पुण्यसलिला कौशिकी, चन्द्रका, विदर्भा, वेगा, अक्षय फल प्रदान करनेवाला माना गया है। ये प्राङ्मुखा, कावेरी, उत्तराङ्गा और जालन्धर गिरि-इन दर्शनमात्रसे पुण्य उत्पन्न करनेवाले तथा तत्काल समस्त तीर्थोंमें किया हुआ श्राद्ध अक्षय हो जाता है। पापोंको हर लेनेवाले हैं।
लोहदण्डतीर्थ, चित्रकूट, सभी स्थानोंमें गङ्गानदीके दिव्य पुण्यमयी तुङ्गभद्रा, चक्ररथी, भीमेश्वरतीर्थ, एवं कल्याणमय तट, कुब्जाम्रक, उर्वशी-पुलिन, कृष्णवेणा, कावेरी, अञ्जना, पावनसलिला गोदावरी, संसारमोचन और ऋणमोचनतीर्थ-इनमें किया हुआ उत्तम त्रिसन्ध्यातीर्थ और समस्त तीर्थोसे नमस्कृत श्राद्ध अनन्त हो जाता है। अट्टहासतीर्थ, गौतमेश्वरतीर्थ, त्र्यम्बकतीर्थ, जहाँ 'भीम' नामसे प्रसिद्ध भगवान् शङ्कर वसिष्ठतीर्थ, भारततीर्थ-ब्रह्मावर्त, कुशावर्त, हंसतीर्थ, स्वयं विराजमान हैं, अत्यन्त उत्तम हैं। इन सबमें दिया प्रसिद्ध पिण्डारकतीर्थ, शङ्खोद्धारतीर्थ, भाण्डेश्वरतीर्थ, हुआ दान कोटिगुना अधिक फल देनेवाला है। इनके बिल्वकतीर्थ, नीलपर्वत, सब तीर्थोंका राजाधिराज स्मरण करनेमात्रसे पापोंके सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं। बदरीतीर्थ, वसुधारातीर्थ, रामतीर्थ, जयन्ती, विजय तथा परम पावन श्रीपर्णा नदी, अत्यन्त उत्तम व्यास-तीर्थ, शुक्लतीर्थ-इनमें पिण्डदान करनेवाले पुरुष परम पदको मत्स्यनदी, राका, शिवधारा, विख्यात भवतीर्थ, सनातन प्राप्त होते हैं। पुण्यतीर्थ, पुण्यमय रामेश्वरतीर्थ, वेणायु, अमलपुर, मातृगृहतीर्थ, करवीरपुर तथा सब तीर्थोका स्वामी प्रसिद्ध मङ्गलतीर्थ, आत्मदर्शतीर्थ, अलम्बुषतीर्थ, सप्तगोदावरी नामक तीर्थ भी अत्यन्त पावन है। जिन्हें वत्सवातेश्वरतीर्थ, गोकामुखतीर्थ, गोवर्धन, हरिश्चन्द्र, अनन्त फल प्राप्त करनेकी इच्छा हो, उन पुरुषोंको इन पुरश्चन्द्र, पृथूदक, सहस्राक्ष, हिरण्याक्ष, कदली नदी, तीर्थोंमें पिण्डदान करना चाहिये। मगध देशमें गया
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
नामकी पुरी तथा राजगृह नामक वन पावन तीर्थ हैं। यह तीर्थोका संग्रह मैंने संक्षेपमें बतलाया है; वहीं च्यवन मुनिका आश्रम, पुनःपुना (पुनपुन) नदी विस्तारसे तो इसे बृहस्पतिजी भी नहीं कह सकते, फिर
और विषयाराधन-तीर्थ-ये सभी पुण्यमय स्थान है। मनुष्यकी तो बात ही क्या है। सत्य तीर्थ है, दया तीर्थ राजेन्द्र ! लोगोंमें यह किंवदन्ती प्रचलित है कि एक है, और इन्द्रियोंका निग्रह भी तीर्थ है। मनोनिग्रहको भी समय सब मनुष्य यही कहते हुए तीर्थों और मन्दिरोंमें तीर्थ कहा गया है। सबेरे तीन मुहूर्त (छः घड़ी) तक आये थे कि 'क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुत्र उत्पन्न प्रातःकाल रहता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततकका समय होगा, जो गयाकी यात्रा करेगा? जो वहाँ जायगा, वह सङ्गव कहलाता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्ततक मध्याह्न सात पीढ़ीतकके पूर्वजोंको और सात पीढ़ीतककी होता है। उसके बाद उतने ही समयतक अपराह्र रहता होनेवाली सन्तानोंको तार देगा।' मातामह आदिके है। फिर तीन मुहूर्ततक सायाह होता है। सायाह्न-कालमें सम्बन्धमें भी यह सनातन श्रुति चिरकालसे प्रसिद्ध है; वे श्राद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह राक्षसी वेला है, कहते हैं-'क्या हमारे वंशमें एक भी ऐसा पुत्र होगा, अतः सभी कोंके लिये निन्दित है। दिनके पंद्रह मुहूर्त जो अपने पितरोंकी हड्डियोंको ले जाकर गङ्गामें डाले, बतलाये गये हैं। उनमें आठवाँ मुहूर्त, जो दोपहरके बाद सात-आठ तिलोंसे भी जलाञ्जलि दे तथा पुष्करारण्य, पड़ता है, 'कुतप' कहलाता है। उस समयसे धीरे-धीरे नैमिषारण्य और धर्मारण्यमें पहुँचकर भक्तिपूर्वक श्राद्ध सूर्यका ताप मन्द पड़ता जाता है। वह अनन्त फल एवं पिण्डदान करे?' गया क्षेत्रके भीतर जो धर्मपृष्ठ, देनेवाला काल है। उसीमें श्राद्धका आरम्भ उत्तम माना ब्रह्मसर तथा गयाशीर्षवट नामक तीर्थोंमें पितरोंको जाता है। खड्गपात्र, कुतप, नेपालदेशीय कम्बल, पिण्डदान किया जाता है, वह अक्षय होता है। जो घरपर सुवर्ण, कुश, तिल तथा आठवाँ दौहित्र (पुत्रीका श्राद्ध करके गया-तीर्थकी यात्रा करता है, वह मार्गमें पैर पुत्र)-ये कुत्सित अर्थात् पापको सन्ताप देनेवाले हैं; रखते ही नरकमें पड़े हुए पितरोंको तुरंत स्वर्गमें पहुँचा इसलिये इन आठोंको 'कुतप' कहते हैं। कुतप मुहूर्तके देता है। उसके कुलमें कोई प्रेत नहीं होता। गया बाद चार मुहूर्ततक अर्थात् कुल पाँच मुहूर्त स्वधा-वाचन पिण्डदानके प्रभावसे प्रेतत्वसे छुटकारा मिल जाता है। (श्राद्ध) के लिये उत्तम काल है। कुश और काले तिल [गयामें] एक मुनि थे, जो अपने दोनों हाथोंके भगवान् श्रीविष्णुके शरीरसे उत्पन्न हुए हैं। मनीषी अग्रभागमें भरा हुआ ताम्रपात्र लेकर आमोंकी जड़में पुरुषोंने श्राद्धका लक्षण और काल इसी प्रकार बताया पानी देते थे; इससे आमोंकी सिंचाई भी होती थी और है। तीर्थवासियोंको तीर्थके जलमें प्रवेश करके पितरोंके उनके पितर भी तृप्त होते थे। इस प्रकार एक ही क्रिया लिये तिल और जलकी अञ्जलि देनी चाहिये। एक दो प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाली हुई। गयामें पिण्डदानसे हाथमें कुश लेकर घरमें श्राद्ध करना चाहिये। यह बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है क्योंकि वहाँ एक ही तीर्थ-श्राद्धका विवरण पुण्यदायक, पवित्र, आयु पिण्ड देनेसे पितर तृप्त होकर मोक्षको प्राप्त होते हैं। बढ़ानेवाला तथा समस्त पापोंका निवारण करनेवाला है। कोई-कोई मुनीश्वर अनदानको श्रेष्ठ बतलाते हैं और कोई इसे स्वयं ब्रह्माजीने अपने श्रीमुखसे कहा है। वस्त्रदानको उत्तम कहते हैं। वस्तुतः गयाके उत्तम तीर्थोंमें तीर्थनिवासियोंको श्राद्धके समय इस अध्यायका पाठ मनुष्य जो कुछ भी दान करते हैं, वह धर्मका हेतु और करना चाहिये। यह सब पापोंकी शान्तिका साधन और श्रेष्ठ कहा गया है।
दरिद्रताका नाशक है।
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सृष्टिखण्ड ]
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चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन •
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चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
भीष्मजीने पूछा-समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता पुलस्त्यजी ! चन्द्रवंशकी उत्पत्ति कैसे हुई ? उस वंशमें कौन-कौन से राजा अपनी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हुए ? पुलस्त्यजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने महर्षि अत्रिको सृष्टिके लिये आज्ञा दी। तब उन्होंने सृष्टिकी शक्ति प्राप्त करनेके लिये अनुत्तर* नामका तप किया। वे अपने मन और इन्द्रियोंके संयममें तत्पर होकर परमानन्दमय ब्रह्मका चिन्तन करने लगे। एक दिन महर्षिके नेत्रोंसे कुछ जलकी बूँदें टपकने लगीं, जो अपने प्रकाशसे सम्पूर्ण चराचर जगत्को प्रकाशित कर रही थीं दिशाओं [की अधिष्ठात्री देवियों] ने स्त्रीरूपमें आकर पुत्र पानेकी इच्छासे उस जलको ग्रहण कर लिया। उनके उदरमें वह जल गर्भरूपसे स्थित हुआ। दिशाएँ उसे धारण करनेमें असमर्थ हो गयीं; अतः उन्होंने उस गर्भको त्याग दिया। तब ब्रह्माजीने उनके छोड़े हुए गर्भको एकत्रित करके उसे एक तरुण पुरुषके रूपमें प्रकट किया, जो सब प्रकारके आयुधोंको धारण करनेवाला था। फिर वे उस तरुण पुरुषको देवशक्तिसम्पन्न सहस्र नामक रथपर बिठाकर अपने लोकमें ले गये। तब ब्रह्मर्षियोंने कहा - 'ये हमारे स्वामी हैं। तदनन्तर ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ उनकी स्तुति करने लगीं। उस समय उनका तेज बहुत बढ़ गया। उस तेजके विस्तारसे इस पृथ्वीपर दिव्य औषधियाँ उत्पन्न हुई। इसीसे चन्द्रमा ओषधियोंके स्वामी हुए तथा द्विजों में भी उनकी गणना हुई। वे शुरूपक्षमें बढ़ते और कृष्णपक्षमें सदा क्षीण होते रहते हैं। कुछ कालके बाद प्रचेताओंके पुत्र प्रजापति दक्षने अपनी सत्ताईस कन्याएँ जो रूप और लावण्यसे युक्त तथा अत्यन्त तेजस्विनी थीं, चन्द्रमाको पत्नीरूपमें अर्पण कीं । तत्पश्चात् चन्द्रमाने केवल श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर होकर चिरकालतक बड़ी भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर परमात्मा
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श्रीनारायणदेवने उनसे वर माँगनेको कहा। तब चन्द्रमाने यह वर माँगा - 'मैं इन्द्रलोकमें राजसूय यज्ञ करूँगा । उसमें आपके साथ ही सम्पूर्ण देवता मेरे मन्दिरमें प्रत्यक्ष प्रकट होकर यज्ञभाग ग्रहण करें। शूलधारी भगवान् श्रीशङ्कर मेरे यज्ञकी रक्षा करें।' 'तथास्तु' कहकर भगवान् श्रीविष्णुने स्वयं ही राजसूय यज्ञका समारोह किया। उसमें अत्रि होता, भृगु अध्वर्यु और ब्रह्माजी उगाता हुए। साक्षात् भगवान् श्रीहरि ब्रह्मा बनकर यज्ञके द्रष्टा हुए तथा सम्पूर्ण देवताओंने सदस्यका काम सँभाला। यज्ञ पूर्ण होनेपर चन्द्रमाको दुर्लभ ऐश्वर्य मिला और वे अपनी तपस्याके प्रभावसे सातों लोकोंके स्वामी हुए।
चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्ति हुई। ब्रह्मर्षियोंके साथ ब्रह्माजीने बुधको भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त करके उन्हें ग्रहोंकी समानता प्रदान की। बुधने इलाके गर्भसे एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किया, जिसने सौसे भी अधिक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया। वह पुरूरवाके नामसे विख्यात हुआ। सम्पूर्ण जगत् के लोगोंने उसके सामने मस्तक झुकाया । पुरूरवाने हिमालयके रमणीय शिखरपर ब्रह्माजीकी आराधना करके लोकेश्वरका पद प्राप्त किया। वे सातों द्वीपोंके स्वामी हुए। केशी आदि दैत्योंने उनकी दासता स्वीकार की। उर्वशी नामकी अप्सरा उनके रूपपर मोहित होकर उनकी पत्नी हो गयी। राजा पुरूरवा सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी राजा थे; उन्होंने सातों द्वीप, वन, पर्वत और काननोंसहित समस्त भूमण्डलका धर्मपूर्वक पालन किया। उर्वशीने पुरूरवाके वीर्यसे आठ पुत्रोंको जन्म दिया। उनके नाम ये हैं-आयु, दृढायु, वश्यायु, धनायु, वृत्तिमान्, वसु, दिविजात और सुबाहु — ये सभी दिव्य बल और पराक्रमसे सम्पन्न थे। इनमेंसे आयुके पाँच पुत्र हुए- नहुष, वृद्धशर्मा, रजि दम्भ और विपाप्मा । ये पाँचों वीर महारथी थे। रजिके सौ पुत्र हुए, जो राजेयके नामसे विख्यात थे। राजन् ! रजिने
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• जिससे बड़ा दूसरा कोई तप न हो, वह लोकोत्तर तपस्या ही 'अनुत्तर' तपके नामसे कही गयी है।
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• अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
तपस्याद्वारा पापके सम्पर्कसे रहित भगवान् श्रीनारायणकी आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर श्रीविष्णुने उन्हें वरदान दिया, जिससे रजिने देवता, असुर और मनुष्योंको जीत लिया।
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अब मैं नहुषके पुत्रोंका परिचय देता हूँ। उनके सात पुत्र हुए और वे सब के सब धर्मात्मा थे। उनके नाम ये हैं- यति, ययाति संयाति, उद्भव, पर, वियति और विद्यसाति । ये सातों अपने वंशका यश बढ़ानेवाले थे। उनमें यति कुमारावस्थामें ही वानप्रस्थ योगी हो गये । ययाति राज्यका पालन करने लगे। उन्होंने एकमात्र धर्मकी ही शरण ले रखी थी। दानवराज वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठा तथा शुक्राचार्यकी पुत्री सती देवयानी — ये दोनों उनकी पत्नियाँ थीं । ययातिके पाँच पुत्र थे। देवयानीने यदु और तुर्वसु नामके दो पुत्रोंको जन्म दिया तथा शर्मिष्ठाने द्रुझु, अनु और पूरु नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये। उनमें यदु और पूरु—ये दोनों अपने वंशका विस्तार करनेवाले हुए। यदुसे यादवोंकी उत्पत्ति हुई, जिनमें पृथ्वीका भार उतारने और पाण्डवोंका हित करनेके लिये भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण प्रकट हुए हैं। यदुके पाँच पुत्र हुए, जो देवकुमारोंके समान थे। उनके नाम थे – सहस्रजित, क्रोष्टु, नील, अञ्जिक और रघु । इनमें सहस्रजित् ज्येष्ठ थे। उनके पुत्र राजा शतजित् हुए। शतजित्के हैहय, हय और उत्तालहय- ये तीन पुत्र हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे। हैहयका पुत्र धर्मनेत्रके नामसे विख्यात हुआ । धर्मनेत्रके कुम्भि, कुम्भिके संहत और संहतके महिष्मान् नामक पुत्र हुआ। महिष्मान्से भद्रसेन नामक पुत्रका जन्म हुआ, जो बड़ा प्रतापी था। वह काशीपुरीका राजा था। भद्रसेनके पुत्र राजा दुर्दर्श हुए। दुर्दर्शक पुत्र भीम और भीमके बुद्धिमान् कनक हुए। कनकके कृतानि कृतवीर्य, कृतधर्मा और कृतौजा – ये चार पुत्र हुए, जो संसारमें विख्यात थे। कृतवीर्यका पुत्र अर्जुन हुआ, जो एक हजार भुजाओंसे सुशोभित एवं सातों द्वीपोंका राजा था। राजा कार्तवीर्यने दस हजार वर्षोंतक दुष्कर तपस्या करके भगवान्
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
चार वरदान दिये। राजाओंमें श्रेष्ठ अर्जुनने पहले तो अपने लिये एक हजार भुजाएँ माँगी। दूसरे वरके द्वारा उन्होंने यह प्रार्थना की कि 'मेरे राज्यमें लोगोंको अधर्मकी बात सोचते हुए भी मुझसे भय हो और वे अधर्मके मार्गसे हट जायें।' तीसरा वरदान इस प्रकार था— - 'मैं युद्धमें पृथ्वीको जीतकर धर्मपूर्वक बलका संग्रह करूँ।' चौथे वरके रूपमें उन्होंने यह माँगा कि 'संग्राममें लड़ते-लड़ते मैं अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ वीरके हाथसे मारा जाऊँ राजा अर्जुनने सातों द्वीप और नगरोंसे युक्त तथा सातों समुद्रोंसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वीको क्षात्रधर्मके अनुसार जीत लिया था। उस बुद्धिमान् नरेशके इच्छा करते ही हजार भुजाएँ प्रकट हो जाती थीं। महाबाहु अर्जुनके सभी यज्ञोंमें पर्याप्त दक्षिणा बाँटी जाती थी। सबमें सुवर्णमय यूप (स्तम्भ) और सोनेकी ही वेदियाँ बनायी जाती थीं। उन यज्ञोंमें सम्पूर्ण देवता सज-धजकर विमानोंपर बैठकर प्रत्यक्ष दर्शन देते थे। महाराज कार्तवीर्यने पचासी हजार वर्षोंतक एकछत्र राज्य किया। वे चक्रवर्ती राजा थे। योगी होनेके कारण अर्जुन समय-समयपर मेघके रूपमें प्रकट हो वृष्टिके द्वारा प्रजाको सुख पहुँचाते थे। प्रत्यञ्चाके आघातसे उनकी भुजाओंकी त्वचा कठोर हो गयी थी। जब वे अपनी हजारों भुजाओंके साथ संग्राममें खड़े होते थे, उस समय सहस्रों किरणोंसे सुशोभित शरत्कालीन सूर्यके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। परम कान्तिमान् महाराज अर्जुन माहिष्मतीपुरीमें निवास करते थे और वर्षाकालमें समुद्रका वेग भी रोक देते थे। उनकी हजारों भुजाओंके आलोडनसे समुद्र क्षुब्ध हो उठता था और उस समय पातालवासी महान् असुर लुक-छिपकर निश्चेष्ट हो जाते थे 1
एक समयकी बात है, वे अपने पाँच बाणोंसे अभिमानी रावणको सेनासहित मूर्छित करके माहिष्मतीपुरीमें ले आये। वहाँ ले जाकर उन्होंने रावणको कैदमें डाल दिया। तब मैं ( पुलस्त्य) अर्जुनको प्रसन्न करनेके लिये गया। राजन्! मेरी बात मानकर दत्तात्रेयजीकी आराधना की। पुरुषोत्तम दत्तात्रेयजीने उन्हें उन्होंने मेरे पौत्रको छोड़ दिया और उसके साथ मित्रता
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सृष्टिखण्ड ]
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यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन •
कर ली। किन्तु विधाताका बल और पराक्रम अद्भुत है, जिसके प्रभावसे भृगुनन्दन परशुरामजीने राजा कार्तवीर्यकी हजारों भुजाओंको सोनेके तालवनकी भाँति संग्राममें काट डाला। कार्तवीर्य अर्जुनके सौ पुत्र थे; किन्तु उनमें पाँच महारथी, अस्त्रविद्यामें निपुण, बलवान्, शूर, धर्मात्मा और महान् व्रतका पालन करनेवाले थे। उनके नाम थे— शूरसेन, शूर, धृष्ट, कृष्ण और
जयध्वज। जयध्वजका पुत्र महाबली तालजङ्घ हुआ। तालजङ्घके सौ पुत्र हुए, जिनकी तालजङ्घके नामसे ही प्रसिद्धि हुई। उन हैहयवंशीय राजाओंके पाँच कुल हुए — वीतिहोत्र, भोज, अवन्ति, तुण्डकेर और विक्रान्त । ये सब-के-सब तालजङ्घ ही कहलाये । वीतिहोत्रका पुत्र अनन्त हुआ, जो बड़ा पराक्रमी था। उसके दुर्जय नामक पुत्र हुआ, जो शत्रुओंका संहार करनेवाला था । ★
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यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
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पुलस्त्यजी कहते हैं— राजेन्द्र ! अब यदुपुत्र क्रोष्टुके वंशका, जिसमें श्रेष्ठ पुरुषोंने जन्म लिया था, वर्णन सुनो। क्रोष्टुके ही कुलमें वृष्णिवंशावतंस भगवान् श्रीकृष्णका अवतार हुआ है। क्रोष्टुके पुत्र महामना वृजिनीवान् हुए । उनके पुत्रका नाम स्वाति था। स्वातिसे कुशङ्कुका जन्म हुआ। कुशङ्कुसे चित्ररथ उत्पन्न हुए, जो शशविन्दु नामसे विख्यात चक्रवर्ती राजा हुए शशविन्दुके दस हजार पुत्र हुए। वे बुद्धिमान्, सुन्दर, प्रचुर वैभवशाली और तेजस्वी थे। उनमें भी सौ प्रधान थे। उन सौ पुत्रोंमें भी, जिनके नामके साथ 'पृथु' शब्द जुड़ा था, वे महान् बलवान् थे। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं— पृथुश्रवा पृथुयशा पृथुतेजा, पृथूद्भव, पृथुकीर्ति और पृथुमति। पुराणोंके ज्ञाता पुरुष उन सबमें पृथुश्रवाको श्रेष्ठ बतलाते हैं। पृथुश्रवासे उशना नामक पुत्र हुआ, जो शत्रुओंको सन्ताप देनेवाला था। उशनाका पुत्र शिनेयु हुआ, जो सज्जनोंमें श्रेष्ठ था। शिनेयुका पुत्र रुक्मकवच नामसे प्रसिद्ध हुआ, वह शत्रुसेनाका विनाश करनेवाला था। राजा रुक्मकवचने एक बार अश्वमेध यज्ञका आयोजन किया और उसमें दक्षिणाके रूपमें यह सारी पृथ्वी ब्राह्मणोंको दे दी। उसके रुक्मेषु, पृथुरुक्म, ज्यामघ, परिघ और हरि — ये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए, जो महान् बलवान् और पराक्रमी थे। उनमें से परिघ और हरिको उनके पिताने विदेह देशके राज्यपर स्थापित किया। रुक्मेषु राजा हुआ और पृथुरुवम उसके अधीन होकर रहने लगा। उन दोनोंने मिलकर अपने भाई ज्यामघको घरसे निकाल दिया । ज्यामघ ऋक्षवान्
पर्वतपर जाकर जंगली फल-मूलोंसे जीवन-निर्वाह करते हुए वहाँ रहने लगे। ज्यामघकी स्त्री शैब्या बड़ी सती साध्वी स्त्री थी। उससे विदर्भ नामक पुत्र हुआ । विदर्भसे तीन पुत्र हुए — क्रथ, कैशिक और लोमपाद । राजकुमार क्रथ और कैशिक बड़े विद्वान् थे तथा लोमपाद परम धर्मात्मा थे। तत्पश्चात् राजा विदर्भने और भी अनेकों पुत्र उत्पन्न किये, जो युद्ध कर्ममें कुशल तथा शूरवीर थे। लोमपादका पुत्र बभ्रु और बभ्रुका पुत्र हेति हुआ। कैशिकके चिदि नामक पुत्र हुआ, जिससे चैद्य राजाओं की उत्पत्ति बतलायी जाती है।
विदर्भका जो क्रथ नामक पुत्र था, उससे कुन्तिका जन्म हुआ, कुन्तिसे धृष्ट और धृष्टसे पृष्टकी उत्पत्ति हुई। पृष्ट प्रतापी राजा था। उसके पुत्रका नाम निर्वृति था। वह परम धर्मात्मा और शत्रुवीरोंका नाशक था। निर्वृतिके दाशार्ह नामक पुत्र हुआ, जिसका दूसरा नाम विदूरथ था । दाशार्हका पुत्र भीम और भीमका जीमूत हुआ । जीमूतके पुत्रका नाम विकल था। विकलसे भीमरथ नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। भीमरथका पुत्र नवरथ, नवरथका दृढरथ और दृढरथका पुत्र शकुनि हुआ । शकुनिसे करम्भ और करम्भसे देवरातका जन्म हुआ। देवरातके पुत्र महायशस्वी राजा देवक्षत्र हुए। देवक्षत्रका पुत्र देवकुमारके समान अत्यन्त तेजस्वी हुआ। उसका नाम मधु था । मधुसे कुरुवशका जन्म हुआ। कुरुवशके पुत्रका नाम पुरुष था। वह पुरुषोंमें श्रेष्ठ हुआ। उससे विदर्भकुमारी भद्रवतीके गर्भसे जन्तुका जन्म हुआ। जन्तुका दूसरा नाम पुरुद्वसु था। जन्तुकी पत्नीका नाम
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SOUPSMS.
अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
वेत्रकी था। उसके गर्भ से सत्त्वगुणसम्पन्न सात्वतकी उत्पत्ति हुई। जो सात्वतवंशकी कीर्तिका विस्तार करनेवाले थे। सत्त्वगुणसम्पन्न सात्वतसे उनकी रानी कौसल्याने भजिन, भजमान, दिव्य राजा देवावृध, अन्धक, महाभोज और वृष्णि नामके पुत्रोंको उत्पन्न किया। इनसे चार वंशोंका विस्तार हुआ। उनका वर्णन सुनो। भजमानकी पत्नी सृञ्जयकुमारी सृञ्जयीके गर्भसे भाज नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। भाजसे भाजकोंका जन्म हुआ। भाजकी दो स्त्रियाँ थीं। उन दोनोंने बहुत से पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं—विनय, करुण और वृष्णि । इनमें वृष्णि शत्रुके नगरोंपर विजय पानेवाले थे। भाज और उनके पुत्र – सभी भाजक नामसे प्रसिद्ध हुए क्योंकि भजमानसे इनकी उत्पत्ति हुई थी।
देवावृधसे बभ्रु नामक पुत्रका जन्म हुआ, जो सभी उत्तम गुणोंसे सम्पन्न था। पुराणोंके ज्ञाता विद्वान् पुरुष महात्मा देवावृधके गुणोंका बखान करते हुए इस वंशके विषयमें इस प्रकार अपना उद्वार प्रकट करते हैं— 'देवावृध देवताओंके समान हैं और बभ्रु समस्त मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं। देवावृध और बभ्रुके उपदेशसे छिहत्तर हजार मनुष्य मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं।' बभ्रुसे भोजका जन्म हुआ, जो यज्ञ, दान और तपस्यामें धीर, ब्राह्मणभक्त, उत्तम व्रतोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले, रूपवान् तथा महातेजस्वी थे। शरकान्तकी कन्या मृतकावती भोजकी पत्नी हुई। उसने भोजसे कुकुर, भजमान, समीक और बलबर्हिष—ये चार पुत्र उत्पन्न किये। कुकुरके पुत्र धृष्णु, धृष्णुके धृति, धृतिके कपोतरोमा, कपोतरोमाके नैमित्ति, नैमित्तिके सुसुत और सुसुतके पुत्र नरि हुए। नरि बड़े विद्वान् थे। उनका दूसरा नाम चन्दनोदक दुन्दुभि बतलाया जाता है। उनसे अभिजित् और अभिजित्से पुनर्वसु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। शत्रुविजयी पुनर्वसुसे दो सन्तानें हुई; एक पुत्र और एक कन्या । पुत्रका नाम आहुक था और कन्याका आहुकी। भोजवंशमें कोई असत्यवादी, तेजहीन, यज्ञ न करनेवाला, हजारसे कम दान करनेवाला, अपवित्र और मूर्ख नहीं था। भोजसे बढ़कर कोई हुआ ही नहीं। यह
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
भोजवंश आहुकतक आकर समाप्त हो गया।
आहुकने अपनी बहिन आहुकीका ब्याह अवन्ती देशमें किया था। आहुककी एक पुत्री भी थी, जिसने दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम है— देवक और उग्रसेन । वे दोनों देवकुमारोंके समान तेजस्वी हैं। देवकके चार पुत्र हुए, जो देवताओंके समान सुन्दर और वीर हैं। उनके नाम हैं— देववान्, उपदेव, सुदेव और देवरक्षक उनके सात बहिनें थीं, जिनका ब्याह देवकने वसुदेवजीके साथ कर दिया। उन सातोंके नाम इस प्रकार हैं— देवकी, श्रुतदेवा, यशोदा, श्रुतिश्रवा, श्रीदेवा, उपदेवा और सुरूपा। उग्रसेनके नौ पुत्र हुए। उनमें कंस सबसे बड़ा था। शेषके नाम इस प्रकार है— न्यग्रोध, सुनामा, कङ्क, शङ्कु, सुभू, राष्ट्रपाल, बद्धमुष्टि और सुमुष्टिक। उनके पाँच बहिनें थीं— कंसा, कंसवती, सुरभी, राष्ट्रपाली और कङ्का । ये सब की सब बड़ी सुन्दरी थीं। इस प्रकार सन्तानोंसहित उग्रसेनतक कुकुर- वंशका वर्णन किया गया।
[भोजके दूसरे पुत्र ] भजमानके विदूरथ हुआ, वह रथियोंमें प्रधान था। उसके दो पुत्र हुए- राजाधिदेव और शूर। राजाधिदेवके भी दो पुत्र हुए- शोणाश्व और श्वेतवाहन वे दोनों वीर पुरुषोंके सम्माननीय और क्षत्रिय धर्मका पालन करनेवाले थे। शोणाश्वके पाँच पुत्र हुए। वे सभी शूरवीर और युद्धकर्ममें कुशल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं— शमी, गदचर्मा, निमूर्त, चक्रजित् और शुचि। शमीके पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्रके भोज और भोजके हृदिक हुए। हृदिकके दस पुत्र हुए, जो भयानक पराक्रम दिखानेवाले थे। उनमें कृतवर्मा सबसे बड़ा था । उससे छोटोंके नाम शतधन्वा, देवार्ह, सुभानु, भीषण, महाबल, अजात, विजात, कारक और करम्भक हैं। देवार्हका पुत्र कम्बलबर्हिष हुआ, वह विद्वान् पुरुष था । उसके दो पुत्र हुए- समौजा और असमौजा अजातके पुत्रसे भी समौजा नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए। समौजाके तीन पुत्र हुए, जो परम धार्मिक और पराक्रमी थे। उनके नाम है- सुदृश, सुरांश और कृष्ण ।
[ सात्वतके कनिष्ठ पुत्र] वृष्णिके वंशमें अनमित्र
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सृष्टिखण्ड]
• यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन •
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नामके प्रसिद्ध राजा हो गये हैं, वे अपने पिताके कनिष्ठ पृथाको उन्हें गोद दे दिया। इस प्रकार वसुदेवकी बहिन पुत्र थे। उनसे शिनि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अनमित्रसे पृथा कुन्तिभोजकी कन्या होनेके कारण कुन्तीके नामसे वृष्णिवीर युधाजित्का भी जन्म हुआ। उनके सिवा दो प्रसिद्ध हुई । कुन्तिभोजने महाराज पाण्डुके साथ कुन्तीका वीर पुत्र और हुए, जो ऋषभ और क्षत्रके नामसे विख्यात विवाह किया। कुन्तीसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए-युधिष्ठिर, हुए। उनमेंसे ऋषभने काशिराजकी पुत्रीको पत्नीके रूपमें भीमसेन और अर्जुन । अर्जुन इन्द्रके समान पराक्रमी हैं। ग्रहण किया। उससे जयन्तकी उत्पत्ति हुई। जयन्तने वे देवताओंके कार्य सिद्ध करनेवाले, सम्पूर्ण दानवोंके जयन्ती नामकी सुन्दरी भार्याके साथ विवाह किया। नाशक तथा इन्द्रके लिये भी अवध्य हैं। उन्होंने उसके गर्भसे एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सदा यज्ञ दानवोंका संहार किया है। पाण्डुकी दूसरी रानी माद्रवती करनेवाला, अत्यन्त धैर्यवान्, शास्त्रज्ञ और अतिथियोंका (माद्री) के गर्भसे दो पुत्रोंकी उत्पत्ति सुनी गयी है, जो प्रेमी था। उसका नाम अक्रूर था। अक्रूर यज्ञकी दीक्षा नकुल और सहदेव नामसे प्रसिद्ध हैं। वे दोनों रूपवान् ग्रहण करनेवाले और बहुत-सी दक्षिणा देनेवाले थे। और सत्त्वगुणी हैं। वसुदेवजीकी दूसरी पत्नी रोहिणीने, उन्होंने रत्नकुमारी शैव्याके साथ विवाह किया और उसके जो पुरुवंशकी कन्या हैं, ज्येष्ठ पुत्रके रूपमें बलरामको गर्भसे ग्यारह महाबली पुत्रोंको उत्पन्न किया। अक्रूरने उत्पन्न किया। तत्पश्चात् उनके गर्भसे रणप्रेमी सारण, पुनः शूरसेना नामकी पत्नीके गर्भसे देववान् और उपदेव दुर्धर, दमन और लम्बी ठोढ़ीवाले पिण्डारक उत्पन्न हुए। नामक दो और पुत्रोंको जन्म दिया। इसी प्रकार उन्होंने वसुदेवजीकी पत्नी जो देवकी देवी हैं, उनके गर्भसे पहले अश्विनी नामकी पत्नीसे भी कई पुत्र उत्पन्न किये। तो महाबाहु प्रजापतिके अंशभूत बालक उत्पन्न हुए।
[विदूरथकी पत्नी] ऐक्ष्वाकीने मीढुष नामक पुत्रको फिर [कंसके द्वारा उनके मारे जानेपर] श्रीकृष्णका जन्म दिया। उनका दूसरा नाम शूर भी था। शूरने अवतार हुआ। विजय, रोचमान, वर्द्धमान और भोजाके गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न किये। उनमें देवल-ये सभी महात्मा उपदेवीके गर्भसे उत्पन्न हुए आनकदुन्दुभि नामसे प्रसिद्ध महाबाहु वसुदेव ज्येष्ठ थे। हैं। श्रुतदेवीने महाभाग गवेषणको जन्म दिया, जो उनके सिवा शेष पुत्रोंके नाम इस प्रकार हैं-देवभाग, संग्राममें पराजित होनेवाले नहीं थे। देवश्रवा, अनाधृष्टि, कुनि, नन्दि, सकृद्यशाः, श्याम, [अब श्रीकृष्णके प्रादुर्भावकी कथा कही जाती समीद और शंसस्यु । शूरसे पाँच सुन्दरी कन्याएँ भी है।] जो श्रीकृष्णके जन्म और वृद्धिकी कथाका प्रतिदिन उत्पन्न हुई, जिनके नाम हैं-श्रुतिकीर्ति, पृथा, श्रुतदेवी, पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। ये पाँचों वीर पुत्रोंकी जननी है।* पूर्वकालमें जो प्रजाओंके स्वामी थे, वे ही महादेव थीं। श्रुतदेवीका विवाह वृद्ध नामक राजाके साथ हुआ। श्रीकृष्णलीलाके लिये इस समय मनुष्योंमें अवतीर्ण हुए उसने कारूष नामक पुत्र उत्पन्न किया। श्रुतिकीर्तिने हैं। पूर्वजन्ममें देवकी और वसुदेवजीने तपस्या की थी, केकयनरेशके अंशसे सन्तर्दनको जन्म दिया। श्रुतश्रवा उसीके प्रभावसे वसुदेवजीके द्वारा देवकीके गर्भसे चेदिराजकी पत्नी थी। उसके गर्भसे सुनीथ (शिशुपाल) भगवानका प्रादुर्भाव हुआ। उस समय उनके नेत्र का जन्म हुआ। राजाधिदेवीके गर्भसे धर्मकी भार्या कमलके समान शोभा पा रहे थे। उनके चार भुजाएँ थीं। अभिमर्दिताने जन्म ग्रहण किया। शूरकी राजा उनका दिव्य रूप मनुष्योंका मन मोहनेवाला था। कुन्तिभोजके साथ मैत्री थी, अतः उन्होंने अपनी कन्या श्रीवत्ससे चिह्नित एवं शङ्ख-चक्र आदि लक्षणोंसे युक्त
* कृष्णस्य जन्माभ्युदयं यः कीर्त्तयति नित्यशः । शृणोति वा नरो नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
(१३ । १३८)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
भगवान्के दिव्य विग्रहको देखकर वसुदेवजी पालन-पोषण किया, उन दोनों खियोंका परिचय दीजिये।
पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! पुरुष वसुदेवजी कश्यप हैं और उनकी प्रिया देवकी अदिति कही गयी है। कश्यप ब्रह्माजीके अंश हैं और अदिति पृथ्वीका। इसी प्रकार द्रोण नामक वसु ही नन्दगोपके नामसे विख्यात हुए हैं तथा उनकी पत्नी धरा यशोदा है। देवी देवकीने पूर्वजन्ममें अजन्मा परमेश्वरसे जो कामना की थी, उसकी वह कामना महाबाहु श्रीकृष्णने पूर्ण कर दी। यज्ञानुष्ठान बंद हो गया था, धर्मका उच्छेद हो रहा था; ऐसी अवस्थामें धर्मकी स्थापना और पापी असुरोंका संहार करनेके लिये भगवान् श्रीविष्णु वृष्णि-कुलमें प्रकट हुए हैं। रुक्मिणी, सत्यभामा, ननजित्की पुत्री सत्या, सुमित्रा, शैब्या, गान्धार-राजकुमारी लक्ष्मणा, सुभीमा, मद्रराजकुमारी कौसल्या और विरजा आदि
सोलह हजार देवियाँ श्रीकृष्णकी पत्नियाँ हैं। रुक्मिणीने बोले-'प्रभो ! इस रूपको छिपा लीजिये। मैं कंससे दस पुत्र उत्पन्न किये; वे सभी युद्धकर्ममें कुशल हैं। डरा हुआ हूँ, इसीलिये ऐसा कहता हूँ। उसने मेरे छः उनके नाम इस प्रकार है-महाबली प्रद्युम्न, रणशूर पुत्रोंको, जो देखनेमें बहुत ही सुन्दर थे, मार डाला है।' चारुदेष्ण, सुचारु, चारुभद्र, सदश्व, हस्व, चारुगुप्त, वसुदेवजीकी बात सुनकर भगवान्ने अपने दिव्यरूपको चारुभद्र, चारुक और चारुहास । इनमें प्रधुम्न सबसे बड़े छिपा लिया। फिर भगवान्की आज्ञा लेकर वसुदेवजी और चारुहास सबसे छोटे हैं। रुक्मिणीने एक कन्याको उन्हें नन्दके घर ले गये और नन्दगोपको देकर बोले- भी जन्म दिया, जिसका नाम चारुमती है। सत्यभामासे 'आप इस बालककी रक्षा करें; क्योंकि इससे सम्पूर्ण भानु, भीमरथ, क्षण, रोहित, दीप्तिमान्, ताम्रबन्ध और यादवोंका कल्याण होगा। देवकीका यह बालक जबतक जलन्धम-ये सात पुत्र उत्पन्न हुए। इन सातोंके एक कंसका वध नहीं करेगा, तबतक इस पृथ्वीपर भार छोटी बहिन भी है। जाम्बवतीके पुत्र साम्ब हुए, जो बड़े बढ़ानेवाले अमङ्गलमय उपद्रव होते रहेंगे। भूतलपर ही सुन्दर हैं। ये सौर-शास्त्रके प्रणेता तथा प्रतिमा एवं जितने दुष्ट राजा हैं, उन सबका यह संहार करेगा। यह मन्दिरके निर्माता हैं। मित्रविन्दाने सुमित्र, चारुमित्र और बालक साक्षात् भगवान् है। ये भगवान् कौरव- मित्रविन्दको जन्म दिया। मित्रबाहु और सुनीथ आदि पाण्डवोंके युद्धमें सम्पूर्ण क्षत्रियोंके एकत्रित होनेपर सल्याके पुत्र हैं। इस प्रकार श्रीकृष्णके हजारों पुत्र हुए। अर्जुनके सारथिका काम करेंगे और पृथ्वीको क्षत्रियहीन प्रद्युम्नके विदर्भकुमारी रुवमवतीके गर्भसे अनिरुद्ध करके उसका उपभोग एवं पालन करेंगे और अन्तमें नामक परम बुद्धिमान् पुत्र उत्पन्न हुआ। अनिरुद्ध समस्त यदुवंशको देवलोकमें पहुंचायेंगे।
संग्राममें उत्साहपूर्वक युद्ध करनेवाले वीर हैं। भीष्मने पूछा-ब्रह्मन् ! ये वसुदेव कौन थे? अनिरुद्धसे मृगकेतनका जन्म हुआ। राजा सुपार्श्वकी पुत्री यशस्विनी देवकीदेवी कौन थीं तथा ये नन्दगोप और काम्याने साम्बसे तरस्वी नामक पुत्र प्राप्त किया। प्रमुख उनकी पत्नी महाव्रता यशोदा कौन थीं? जिसने वीर एवं महात्मा यादवोंकी संख्या तीन करोड़ साठ बालकरूपमें भगवान्को जन्म दिया और जिसने उनका लाखके लगभग है। वे सभी अत्यन्त पराक्रमी और
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सृष्टिखण्ड ] • पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेके नियम तथा आश्रम-धर्मका निरूपण -
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महाबली हैं। उन सबकी देवताओंके अंशसे उत्पत्ति हुई है। देवासुर संग्राममें जो महाबली असुर मारे गये थे, वे इस मनुष्यलोकमें उत्पन्न होकर सबको कष्ट दे रहे थे; उन्हींका संहार करनेके लिये भगवान् यदुकुलमें अवतीर्ण
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★ पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! मेरु-गिरिके शिखरपर श्रीनिधान नामक एक नगर है, जो नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित, अनेक आश्चयका घर तथा बहुतेरे वृक्षोंसे हरा-भरा है। भाँति-भाँतिकी अद्भुत धातुओंसे उसकी बड़ी विचित्र शोभा होती है। वह स्वच्छ स्फटिक मणिके समान निर्मल दिखायी देता है। वहाँ ब्रह्माजीका वैराज नामक भवन है, जहाँ देवताओंको सुख देनेवाली कान्तिमती नामकी सभा है। वह मुनिसमुदायसे सेवित तथा ऋषि महर्षियोंसे भरी रहती है । एक दिन देवेश्वर ब्रह्माजी उसी सभामें बैठकर
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हुए हैं। महात्मा यादवोंके एक सौ एक कुल हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ही उन सबके नेता और स्वामी हैं तथा सम्पूर्ण यादव भी भगवान्की आज्ञाके अधीन रहकर ऋद्धि-सिद्धिसे सम्पन्न हो रहे हैं। *
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जगत्का निर्माण करनेवाले परमेश्वरका ध्यान कर रहे थे। ध्यान करते-करते उनके मनमें यह विचार उठा कि 'मैं किस प्रकार यज्ञ करूँ ? भूतलपर कहाँ और किस स्थानपर मुझे यज्ञ करना चाहिये ? काशी, प्रयाग, तुङ्गा (तुङ्गभद्रा), नैमिषारण्य, पुष्कर, काशी भद्रा, देविका, कुरुक्षेत्र, सरस्वती और प्रभास आदि बहुत-से तीर्थ हैं। भूमण्डलमें चारों ओर जितने पुण्य तीर्थ और क्षेत्र हैं, उन सबको मेरी आज्ञासे रुद्रने प्रकट किया है। जिससे मेरी उत्पत्ति हुई है, भगवान् श्रीविष्णुकी नाभिसे प्रकट हुए उस कमलको ही वेदपाठी ऋषि पुष्कर तीर्थ कहते हैं (पुष्कर तीर्थ उसीका व्यक्तरूप है)। इस प्रकार विचार करते-करते प्रजापति ब्रह्माके मनमें यह बात आयी कि अब मैं पृथ्वीपर चलूँ। यह सोचकर वे अपनी उत्पत्तिके प्राचीन स्थानपर आये और वहाँके उत्तम वनमें प्रविष्ट हुए, जो नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे व्याप्त एवं भाँति-भाँति के फूलोंसे सुशोभित था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने क्षेत्रकी स्थापना की, जिसका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ। चन्द्रनदीके उत्तर प्राची सरस्वतीतक और नन्दन नामक स्थानसे पूर्व क्रम्य या कल्प नामक स्थानतक जितनी भूमि है, वह सब पुष्कर तीर्थके नामसे प्रसिद्ध है। इसमें लोककर्ता ब्रह्माजीने यज्ञ करनेके निमित्त वेदी बनायी। ब्रह्माजीने वहाँ तीन पुष्करोंकी कल्पना की। प्रथम ज्येष्ठ पुष्कर तीर्थ समझना चाहिये, जो तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाला और विख्यात है,
* भीष्मजी भगवान् श्रीकृष्णसे अवस्थामें बहुत बड़े थे। ऐसी दशामें जिस समय उनके साथ पुलस्त्यजीका संवाद हो रहा था, उस समय संभवतः श्रीकृष्णका जन्म न हुआ हो। फिर भी पुलस्त्यजी त्रिकालदर्शी ऋषि है, इसलिये उनके लिये भावी घटनाओंका भी वर्तमान अथवा भूतकी भाँति वर्णन करना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।
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. . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण ..................................................................amretterre.....
उसके देवता साक्षात् ब्रह्माजी हैं। दूसरा मध्यम पुष्कर इस लोकमें ब्रह्माजीका भक्त कहलाता है? मनुष्योंमें है, जिसके देवता विष्णु हैं तथा तीसरा कनिष्ठ पुष्कर है, कैसे लोग ब्रह्मभक्त माने गये हैं ? यह मुझे बताइये। जिसके देवता भगवान् रुद्र हैं। यह पुष्कर नामक वन पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! भक्ति तीन प्रकारकी आदि, प्रधान एवं गुह्य क्षेत्र है। वेदमें भी इसका वर्णन कही गयी है—मानस, वाचिक और कायिक । इसके आता है। इस तीर्थमें भगवान् ब्रह्मा सदा निवास करते सिवा भक्तिके तीन भेद और हैं-लौकिक, वैदिक तथा हैं। उन्होंने भूमण्डलके इस भागपर बड़ा अनुग्रह किया आध्यात्मिक । ध्यान-धारणापूर्वक बुद्धिके द्वारा वेदार्थका है। पृथ्वीपर विचरनेवाले सम्पूर्ण जीवापर कृपा करनेके जो विचार किया जाता है, उसे मानस भक्ति कहते हैं। लिये ही ब्रह्माजीने इस तीर्थको प्रकट किया है। यहाँको यह ब्रह्माजीकी प्रसन्नता बढ़ानेवाली है। मन्त्र-जप, यज्ञवेदीको उन्होंने सुवर्ण और हीरेसे मढ़ा दिया तथा वेदपाठ तथा आरण्यकोंके जपसे होनेवाली भक्ति नाना प्रकारके रत्नोंसे सुसज्जित करके उसके फर्शको सब वाचिक कहलाती है। मन और इन्द्रियोंको रोकनेवाले प्रकारसे सुशोभित एवं विचित्र बना दिया। तत्पश्चात् व्रत, उपवास, नियम, कृच्छ्र, सान्तपन तथा चान्द्रायण लोकपितामह भगवान् ब्रह्माजी वहाँ आनन्दपूर्वक रहने आदि भिन्न-भिन्न व्रतोंसे, ब्रह्मकृच्छ्र नामक उपवाससे एवं लगे। साथ ही भगवान् श्रीविष्णु, रुद्र, आठों वसु, दोनों अन्यान्य शुभ नियमोंके अनुष्ठानसे जो भगवानकी अश्विनीकुमार, मरुद्गण तथा स्वर्गवासी देवता भी आराधना की जाती है, उसको कायिक भक्ति कहते हैं। देवराज इन्द्रके साथ वहाँ आकर विहार करने लगे। यह यह द्विजातियोंकी त्रिविध भक्ति बतायी गयी। गायके घी, तीर्थ सम्पूर्ण लोकोंपर अनुग्रह करनेवाला है। मैंने इसकी दूध और दही, रत्न, दीप, कुश, जल, चन्दन, माला, यथार्थ महिमाका तुमसे वर्णन किया है। जो ब्राह्मण विविध धातुओं तथा पदार्थ; काले अगरकी सुगन्धसे अग्निहोत्र-परायण होकर संहिताके क्रमसे विधिपूर्वक युक्त एवं घी और गूगुलसे बने हुए धूप, आभूषण, मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए इस तीर्थमें वेदोंका पाठ करते सुवर्ण और रत्न आदिसे निर्मित विचित्र-विचित्र हार, हैं, वे सब लोग ब्रह्माजीके कृपापात्र होकर उन्होंके समीप नृत्य, वाद्य, संगीत, सब प्रकारके जंगली फल-मूलोंके निवास करते हैं।
उपहार तथा भक्ष्य-भोज्य आदि नैवेद्य अर्पण करके भीष्पजीने पूछा-भगवन्! तीर्थनिवासी मनुष्य ब्रह्माजीके उद्देश्यसे जो पूजा करते हैं, वह मनुष्योंको पुष्कर वनमें किस विधिसे रहना चाहिये? लौकिक भक्ति मानी गयी है। ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा क्या केवल पुरुषोंको ही वहाँ निवास करना चाहिये या सामवेदके मन्त्रोंका जप और संहिताओंका अध्यापन स्त्रियोंको भी? अथवा सभी वर्गों एवं आश्रमोंके लोग आदि कर्म यदि ब्रह्माजीके उद्देश्यसे किये जाते हैं, तो वहाँ निवास कर सकते हैं?
वह वैदिक भक्ति कहलाती है। वेद-मन्त्रोंके उच्चारणपुलस्त्यजी बोले-राजन् ! सभी वर्गों एवं पूर्वक हविष्यकी आहुति देकर जो क्रिया सम्पन्न की आश्रमोके पुरुषों और स्त्रियोंको भी उस तीर्थमें निवास जाती है वह भी वैदिक भक्ति मानी गयी है। अमावास्या करना चाहिये। सबको अपने-अपने धर्म और आचारका अथवा पूर्णिमाको जो अग्निहोत्र किया जाता है, यज्ञोंमें पालन करते हुए दम्भ और मोहका परित्याग करके रहना जो उत्तम दक्षिणा दी जाती है, तथा देवताओंको जो उचित है। सभी मन, वाणी और कर्मसे ब्रह्माजीके भक्त पुरोडाश और चरु अर्पण किये जाते है ये सब वैदिक एवं जितेन्द्रिय हों। कोई किसीके प्रति दोष-दृष्टि न करे। भक्तिके अन्तर्गत है। इष्टि, धृति, यज्ञ-सम्बन्धी सोमपान सब मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंके हितैषी हों; किसीके भी तथा अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश, चन्द्रमा, मेघ और हृदयमें खोटा भाव नहीं रहना चाहिये।
सूर्यके उद्देश्यसे किये हुए जितने कर्म हैं, उन सबके भीष्पजीने पूछा-ब्रह्मन् ! क्या करनेसे मनुष्य देवता ब्रह्माजी ही हैं।
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सृष्टिखण्ड ] • पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेके नियम तथा आश्रम-धर्मका निरूपण
राजन् ! ब्रह्माजीकी आध्यात्मिक भक्ति दो प्रकारकी मानी गयी है— एक सांख्यज और दूसरी योगज इन दोनोंका भेद सुनो। प्रधान (मूल प्रकृति) आदि प्राकृत तत्त्व संख्यामें चौबीस हैं। वे सब-के-सब जड एवं भोग्य हैं। उनका भोक्ता पुरुष पच्चीसवाँ तत्त्व है, वह चेतन है। इस प्रकार संख्यापूर्वक प्रकृति और पुरुषके तत्त्वको ठीक-ठीक जानना सांख्यज भक्ति है। इसे सत्पुरुषोंने सांख्य-शास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक भक्ति माना है। अब ब्रह्माजीकी योगज भक्तिका वर्णन सुनो। प्रतिदिन प्राणायामपूर्वक ध्यान लगाये, इन्द्रियोंका संयम करे और समस्त इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे खींचकर हृदयमें धारण करके प्रजानाथ ब्रह्माजीका इस प्रकार ध्यान करे। हृदयके भीतर कमल है, उसकी कर्णिकापर ब्रह्माजी विराजमान है। वे रक्त वस्त्र धारण किये हुए हैं, उनके नेत्र सुन्दर हैं। सब ओर उनके मुख प्रकाशित हो रहे हैं। ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) कमरके ऊपरतक लटका हुआ है, उनके शरीरका वर्ण लाल है, चार भुजाएँ शोभा पा रही हैं तथा हाथोंमें वरद और अभयकी मुद्राएँ हैं। इस प्रकारके ध्यानकी स्थिरता योगजन्य मानस सिद्धि है; यही ब्रह्माजीके प्रति होनेवाली पराभक्ति मानी गयी है। जो भगवान् ब्रह्माजीमें ऐसी भक्ति रखता है, वह ब्रह्मभक्त कहलाता है।
राजन्! अब पुष्कर क्षेत्रमें निवास करनेवाले पुरुषोंके पालन करनेयोग्य आचारका वर्णन सुनो। पूर्वकालमें जब विष्णु आदि देवताओंका वहाँ समागम हुआ था, उस समय सबकी उपस्थितिमें ब्रह्माजीने स्वयं ही क्षेत्रनिवासियोंके कर्तव्यको विस्तारके साथ बतलाया था। पुष्कर क्षेत्रमें निवास करनेवालोंको उचित है कि वे ममता और अहंकारको पास न आने दें। आसक्ति और संग्रहकी वृत्तिका परित्याग करें। बन्धु बान्धवोंके प्रति भी उनके मनमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिये। वे ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझें प्रतिदिन नाना प्रकारके
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शुभ कर्म करते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अभय-दान दें। नित्य प्राणायाम और परमेश्वरका ध्यान करें। जपके द्वारा अपने अन्तःकरणको शुद्ध बनायें। यति-धर्मके कर्तव्योंका पालन करें। सांख्ययोगकी विधिको जानें तथा सम्पूर्ण संशयोंका उच्छेद करके ब्रह्मका बोध प्राप्त करें। क्षेत्रनिवासी ब्राह्मण इसी नियमसे रहकर वहाँ यज्ञ करते हैं।
❤ यथा महोदधेस्तुल्यो न चान्योऽस्ति जलाशयः । तथा वै पुष्करस्यापि समं तीर्थं न विद्यते ॥
अब पुष्कर वनमें मृत्युको प्राप्त होनेवाले लोगोंको जो फल मिलता है, उसे सुनो। वे लोग अक्षय ब्रह्मसायुज्यको प्राप्त होते हैं, जो दूसरोंके लिये सर्वथा दुर्लभ है। उन्हें उस पदकी प्राप्ति होती है, जहाँ जानेपर पुनः मृत्यु प्रदान करनेवाला जन्म नहीं ग्रहण करना पड़ता। वे पुनरावृत्तिके पथका परित्याग करके ब्रह्मसम्बन्धिनी परा विद्यामें स्थित हो जाते हैं।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! पुष्कर तीर्थमें निवास करनेवाली स्त्रियाँ, म्लेच्छ, शूद्र, पशु-पक्षी, मृग, गूँगे, जड, अंधे तथा बहरे प्राणी, जो तपस्या और नियमोंसे दूर हैं, किस गतिको प्राप्त होते हैं—यह बतानेकी कृपा करें। पुलस्त्यजी बोले- भीष्म ! पुष्कर क्षेत्रमें मरनेवाले म्लेच्छ, शूद्र, स्त्री, पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं। वे दिव्य शरीर धारण करके सूर्यके समान तेजस्वी विमानोंपर बैठकर ब्रह्मलोककी यात्रा करते हैं। तिर्यग्योनिमें पड़े हुएपशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, चींटियाँ, थलचर, जलचर, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुज आदि प्राणी यदि पुष्कर वनमें प्राण त्याग करते हैं तो सूर्यके समान कान्तिमान् विमानोंपर बैठकर ब्रह्मलोकमें जाते हैं ! जैसे समुद्रके समान दूसरा कोई जलाशय नहीं है, वैसे ही पुष्करके समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। * अब मैं तुम्हें अन्य देवताओंका परिचय देता हूँ, जो इस पुष्कर क्षेत्रमें सदा विद्यमान रहते हैं। भगवान् श्रीविष्णुके साथ इन्द्रादि सम्पूर्ण देवता, गणेश, कार्तिकेय, चन्द्रमा, सूर्य और
(१५।२७३-७४)
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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देवी-ये सब सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये कहे-'भगवन् ! मुझे पढ़ाइये। प्रभो! यह कार्य मैंने ब्रह्माजीके निवास स्थान पुष्कर क्षेत्रमें सदा विद्यमान पूरा कर लिया है और इस कार्यको मैं अभी करूंगा।' रहते हैं। इस तीर्थमें निवास करनेवाले लोग सत्ययुगमें इस प्रकार पहले कार्य करे और फिर किया हुआ सारा बारह वर्षातक, त्रेतामें एक वर्षतक तथा द्वापरमें एक काम गुरुको बता दे। मैंने ब्रह्मचारीके नियमोंका यहाँ मासतक तीर्थ सेवन करनेसे जिस फलको पाते थे, उसे विस्तारके साथ वर्णन किया है; गुरुभक्त शिष्यको इन कलियुगमें एक दिन-रातके तीर्थ-सेवनसे ही प्राप्त कर सभी नियमोंका पालन करना चाहिये। इस प्रकार अपनी लेते हैं।* यह बात देवाधिदेव ब्रह्माजीने पूर्वकालमें शक्तिके अनुसार गुरुकी प्रसन्नताका सम्पादन करते हुए मुझसे (पुलस्त्यजीसे) स्वयं ही कही थी। पुष्करसे शिष्यको कर्तव्यकर्ममें लगे रहना उचित है। वह एक, बढ़कर इस पृथ्वीपर दूसरा कोई क्षेत्र नहीं है; इसलिये दो, तीन या चारों वेदोंको अर्थसहित गुरुमुखसे अध्ययन पूरा प्रयत्न करके मनुष्यको इस पुष्कर वनका सेवन करे। भिक्षाके अन्नसे जीविका चलाये और धरतीपर करना चाहिये। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और शयन करे। वेदोक्त व्रतोंका पालन करता रहे और संन्यासी-ये सब लोग अपने-अपने शास्त्रोक्त धर्मका गुरु-दक्षिणा देकर विधिपूर्वक अपना समावर्तन-संस्कार पालन करते हुए इस क्षेत्रमें परम गतिको प्राप्त करते हैं। करे। फिर धर्मपूर्वक प्राप्त हुई स्त्रीके साथ गार्हपत्यादि
धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषको अनियोंकी स्थापना करके प्रतिदिन हवनादिके द्वारा चाहिये कि वह अपनी आयुके एक चौथाई भागतक उनका पूजन करे। दूसरेकी निन्दासे बचकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए आयुका [प्रथम भाग ब्रह्मचर्याश्रममें बितानेके गुरु अथवा गुरुपुत्रके समीप निवास करे तथा गुरुकी पश्चात्] दूसरा भाग गृहस्थ आश्रममें रहकर व्यतीत सेवासे जो समय बचे, उसमें अध्ययन करे, श्रद्धा और करे। गृहस्थ ब्राह्मण यज्ञ करना, यज्ञ कराना, वेद पढ़ना, आदरपूर्वक गुरुका आश्रय ले। गुरुके घरमें रहते समय वेद पढ़ाना तथा दान देना और दान लेना-इन छ: गुरुके सोनेके पश्चात् शयन करे और उनके उठनेसे पहले कोका अनुष्ठान करे। उससे भिन्न वानप्रस्थी विन उठ जाय। शिष्यके करनेयोग्य जो कुछ सेवा आदि कार्य केवल यजन, अध्ययन और दान-इन तीन कर्मोका ही हो, वह सब पूरा करके ही शिष्यको गुरुके पास खड़ा अनुष्ठान करे तथा चतुर्थ आश्रममें रहनेवाला ब्रह्मनिष्ठ होना चाहिये। वह सदा गुरुका किङ्कर होकर सब संन्यासी जपयज्ञ और अध्ययन-इन दो ही कर्मोंसे प्रकारकी सेवाएँ करे। सब कार्यों में कुशल हो। पवित्र, सम्बन्ध रखे। गृहस्थके व्रतसे बढ़कर दूसरा कोई महान कार्यदक्ष और गुणवान् बने। गुरुको प्रिय लगनेवाला तीर्थ नहीं बताया गया है। गृहस्थ पुरुष कभी केवल उत्तर दे। इन्द्रियोंको जीतकर शान्तभावसे गुरुकी ओर अपने खानेके लिये भोजन न बनाये [देवता और देखे। गुरुके भोजन करनेसे पहले भोजन और जलपान अतिथियोंके उद्देश्यसे ही रसोई करे] । पशुओंकी हिंसा करनेसे पहले जलपान न करे। गुरु खड़े हों तो स्वयं भी न करे। दिनमें कभी नींद न ले। रातके पहले और बैठे नहीं। उनके सोये बिना शयन भी न करे। उत्तान पिछले भागमें भी न सोये। दिन और रात्रिकी सन्धिमें हाथोंके द्वारा गुरुके चरणोंका स्पर्श करे। गुरुके दाहिने (सूर्योदय एवं सूर्यास्तके समय) भोजन न करे। झूठ न पैरको अपने दाहिने हाथसे और बायें पैरको बायें हाथसे बोले। गृहस्थके घरमें कभी ऐसा नहीं होना चाहिये कि धीरे-धीरे दबाये और इस प्रकार प्रणाम करके गुरुसे कोई ब्राह्मण अतिथि आकर भूखा रह जाय और उसका
'कृते तु द्वादशैवषैत्रेतायां हायनेन तु।मासेन द्वापरे भीष्म अहोरात्रेण तत्कलौ॥
(१५। २८०-८१)
in
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सृष्टिखण्ड ] • पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेके नियम तथा आश्रम- धर्मका निरूपण
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यथावत् सत्कार न हो। अतिथिको भोजन करानेसे देवता और पितर संतुष्ट होते हैं; अतः गृहस्थ पुरुष सदा ही अतिथियोंका सत्कार करे। जो वेद-विद्या और व्रतमें निष्णात, श्रोत्रिय, वेदोंके पारगामी, अपने कर्मसे जीविका चलानेवाले, जितेन्द्रिय, क्रियावान् और तपस्वी हैं, उन्हीं श्रेष्ठ पुरुषोंके सत्कारके लिये हव्य और कव्यका विधान किया गया है। जो नश्वर पदार्थोंके प्रति आसक्त है, अपने कर्मसे भ्रष्ट हो गया है, अग्निहोत्र छोड़ चुका है, गुरुकी झूठी निन्दा करता है और असत्यभाषणमें आग्रह रखता है, वह देवताओं और पितरोंको अर्पण करनेयोग्य अन्नके पानेका अधिकारी नहीं है। गृहस्थकी सम्पत्तिमें सभी प्राणियों का भाग होता है। जो भोजन नहीं बनाते, उन्हें भी गृहस्थ पुरुष अन्न दे। वह प्रतिदिन 'विघस' और 'अमृत' भोजन करे। यज्ञसे (देवताओं और पितर आदिको अर्पण करनेसे) बचा हुआ अन्न हविष्यके समान एवं अमृत माना गया है तथा जो कुटुम्बके सभी मनुष्योंके भोजन कर लेनेके पश्चात् उनसे बचा हुआ अन्न ग्रहण करता है; उसे 'विघसाशी' ('विघस' अन्न भोजन करनेवाला) कहा गया है।
गृहस्थ पुरुषको केवल अपनी ही स्त्रीसे अनुराग रखना चाहिये। वह मनको अपने वशमें रखे, किसीके गुणोंमें दोष न देखे और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको काबूमें रखे। ऋत्विक्, पुरोहित, आचार्य, मामा, अतिथि शरणागत, वृद्ध, बालक, रोगी, वैद्य, कुटुम्बी, सम्बन्धी, बान्धव, माता, पिता, दामाद, भाई, पुत्र, स्त्री, बेटी तथा दास-दासियोंके साथ विवाद नहीं करना चाहिये। जो इनसे विवाद नहीं करता, वह सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो अनुकूल बर्तावके द्वारा इन्हें अपने वशमें कर लेता है, वह सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पा जाता है— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। आचार्य ब्रह्मलोकका स्वामी है, पिता प्रजापति लोकका प्रभु है, अतिथि सम्पूर्ण लोकोंका ईश्वर है, ऋत्विक् वेदोंका अधिष्ठान और प्रभु होता है। दामाद अप्सराओंके लोकका अधिपति है। कुटुम्बी विश्वेदेवसम्बन्धी लोकोंके अधिष्ठाता हैं। सम्बन्धी और बान्धव दिशाओंके तथा
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माता और मामा भूलोकके स्वामी हैं। वृद्ध, बालक और रोगी मनुष्य आकाशके प्रभु हैं। पुरोहित ऋषिलोकके और शरणागत साध्यलोकोंके अधिपति हैं । वैद्य अश्विनीकुमारोंके लोकका तथा भाई वसुलोकका स्वामी है। पत्नी वायुलोककी ईश्वरी तथा कन्या अप्सराओंके घरकी स्वामिनी है। बड़ा भाई पिताके समान होता है। पत्नी और पुत्र अपने ही शरीर हैं। दासवर्ग परछाईके समान हैं तथा कन्या अत्यन्त दीनदयाके योग्य मानी गयी है। इसलिये उपर्युक्त व्यक्ति कोई अपमानजनक बात भी कह दें तो उसे चुपचाप सह लेना चाहिये। कभी क्रोध या दुःख नहीं करना चाहिये। गृहस्थ धर्मपरायण विद्वान् पुरुषको एक ही साथ बहुत से काम नहीं आरम्भ करने चाहिये। धर्मज्ञको उचित है कि वह किसी एक ही काममें लगकर उसे पूरा करे ।
गृहस्थ ब्राह्मणकी तीन जीविकाएँ हैं, उनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ एवं कल्याणकारक हैं। पहली है— कुम्भधान्य वृत्ति, जिसमें एक घड़ेसे अधिक धान्यका संग्रह न करके जीवन निर्वाह किया जाता है। दूसरी उञ्छशिल वृत्ति है, जिसमें खेती कट जानेपर खेतोंमें गिरी हुई अनाजकी बालें चुनकर लायी जाती हैं और उन्हींसे जीवन-निर्वाह किया जाता है। तीसरी कापोती वृत्ति है, जिसमें खलिहान और बाजारसे अनके बिखरे हुए दाने चुनकर लाये जाते हैं तथा उन्हींसे जीविका चलायी जाती है। जहाँ इन तीन वृत्तियोंसे जीविका चलानेवाले पूजनीय ब्राह्मण निवास करते हैं, उस राष्ट्रकी वृद्धि होती है। जो ब्राह्मण गृहस्थकी इन तीन वृत्तियोंसे जीवन निर्वाह करता है और मनमें कष्टका अनुभव नहीं करता, वह दस पीढ़ीतकके पूर्वजोंको तथा आगे होनेवाली संतानोंकी भी दस पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है।
अब तीसरे आश्रम - वानप्रस्थका वर्णन करता हूँ, सुनो। गृहस्थ पुरुष जब यह देख ले कि मेरे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, सिरके बाल सफेद हो गये हैं और पुत्रके भी पुत्र हो गया है, तब वह वनमें चला जाय। जिन्हें गृहस्थ आश्रमके नियमोंसे निर्वेद हो गया है, अतएव जो वानप्रस्थकी दीक्षा लेकर गृहस्थ आश्रमका
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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . मी [ संक्षिप्त पयपुराण
त्याग कर चुकते हैं, पवित्र स्थानमें निवास करते हैं, जो अगस्त्य, सप्तर्षि, मधुच्छन्दा, गवेषण, साति, सुदिव, बुद्धि-बलसे सम्पन्न तथा सत्य, शौच और क्षमा आदि भाण्डि, यवप्रोथ, कृतश्रम, अहोवीर्य, काम्य, स्थाणु, सद्गुणोंसे युक्त हैं, उन पुरुषोंके कल्याणमय नियमोंका मेधातिथि, बुध, मनोवाक, शिनीवाक, शून्यपाल और वर्णन सुनो । प्रत्येक द्विजको अपनी आयुका तीसरा भाग अकृतश्रम-ये धर्म-तत्त्वके यथार्थ ज्ञाता थे। इन्हें वानप्रस्थ-आश्रममें रहकर व्यतीत करना चाहिये। धर्मके स्वरूपका साक्षात्कार हो गया था। इनके सिवा, वानप्रस्थ-आश्रममें भी वह उन्हीं अग्नियोंका सेवन करे, धर्मकी निपुणताका ज्ञान रखनेवाले, उग्रतपस्वी ऋषियोंके जिनका गृहस्थ-आश्रममें सेवन करता था। देवताओंका जो यायावर नामसे प्रसिद्ध गण हैं, वे सभी विषयोंसे पूजन करे, नियमपूर्वक रहे, नियमित भोजन करे, उपरत हो मायाके बन्धनको तोड़कर वनमें चले गये थे। भगवान् श्रीविष्णुमें भक्ति रखे तथा यज्ञके सम्पूर्ण मुमुक्षुको उचित है कि वह सर्वस्व दक्षिणा देकरअङ्गोंका पालन करते हुए प्रतिदिन अग्निहोत्रका अनुष्ठान सबका त्याग करके सद्यस्करी (तत्काल आत्मकल्याण करे। धान और जौ वही ग्रहण करे, जो बिना जोती हुई करनेवाला) बने। आत्माका ही यजन करे, विषयोंसे जमीनमें अपने-आप पैदा हुआ हो। इसके सिवा नीवार उपरत हो आत्मामें ही रमण करे तथा आत्मापर ही निर्भर (तीना) और विघस अन्नको भी वह पा सकता है। उसे करे। सब प्रकारके संग्रहका परित्याग करके भावनाके अग्निमें देवताओंके निमित्त हविष्य भी अर्पण करना द्वारा गार्हपत्यादि अग्नियोंकी आत्मामें स्थापना करे और चाहिये। वानप्रस्थी लोग वर्षाके समय खुले मैदानमें उसमें तदनुरूप यज्ञोंका सर्वदा अनुष्ठान करता रहे। आकाशके नीचे बैठते हैं, हेमन्त ऋतुमें जलका आश्रय चतुर्थ आश्रम सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। वह लेते हैं और ग्रीष्ममें पञ्चाग्नि-सेवनरूप तपस्या करते हैं। तीनों आश्रमोंके ऊपर है। उसमें अनेक प्रकारके उत्तम उनमेंसे कोई तो धरतीपर लोटते हैं, कोई पंजोंके बल गुणोंका निवास है। वही सबकी चरम सीमा-परम खड़े रहते हैं और कोई-कोई एक स्थानपर एक आसनसे आधार है। ब्रह्मचर्य आदि तीन आश्रमोंमें क्रमशः रहनेके बैठे रह जाते हैं। कोई दाँतोंसे ही ऊखलका काम लेते पश्चात् काषाय-वस्त्र धारण करके संन्यास ले ले। है-दूसरे किसी साधनद्वारा फोड़ी हुई वस्तु नहीं ग्रहण सर्वस्व-त्यागरूप संन्यास सबसे उत्तम आश्रम है। करते। कोई पत्थरसे कूटकर खाते हैं, कोई जौके आटेको संन्यासीको चाहिये कि वह मोक्षकी सिद्धिके लिये पानी में उबालकर उसीको शुक्रपक्ष या कृष्णपक्षमें एक अकेले ही धर्मका अनुष्ठान करे, किसीको साथ न रखे। बार पी लेते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो समयपर जो ज्ञानवान् पुरुष अकेला विचरता है, वह सबका त्याग अपने-आप प्राप्त हुई वस्तुको ही भक्षण करते हैं। कोई कर देता है; उसे स्वयं कोई हानि नहीं उठानी पड़ती। मूल, कोई फल और कोई फूल खाकर ही नियमित संन्यासी अग्निहोत्रके लिये अग्निका चयन न करे, अपने जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार वे न्यायपूर्वक रहनेके लिये कोई घर न बनाये, केवल भिक्षा लेनेके वैखानसों (वानप्रस्थियों) के नियमोंका दृढ़तापूर्वक लिये ही गाँवमें प्रवेश करे, कलके लिये किसी वस्तुका पालन करते हैं। वे मनीषी पुरुष ऊपर बताये हुए तथा संग्रह न करे, मौन होकर शुद्धभावसे रहे तथा थोड़ा और अन्यान्य नाना प्रकारके नियमोंकी दीक्षा लेते हैं। नियमित भोजन करे । प्रतिदिन एक ही बार भोजन करे।
चौथा आश्रम संन्यास है। यह उपनिषदोंद्वारा भोजन करने और पानी पीनेके लिये कपाल (काठ या प्रतिपादित धर्म है। गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम प्रायः नारियल आदिका पात्रविशेष) रखना, वृक्षकी जड़में साधारण-मिलते-जुलते माने गये हैं; किन्तु संन्यास निवास करना, मलिन वस्त्र धारण करना, अकेले रहना इनसे भिन्न-विलक्षण होता है। तात ! प्राचीन युगमें तथा सब प्राणियोंकी ओरसे उदासीनता रखना-ये सर्वार्थदर्शी ब्राह्मणोंने संन्यास-धर्मका आश्रय लिया था। भिक्षु (संन्यासी) के लक्षण है! जिस पुरुषके भीतर
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सृष्टिखण्ड ]
• पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य .
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सबकी बातें समा जाती है जो सबकी सह लेता है अहिंसामें लीन रहते हैं। राजन् ! जो हिंसाका आश्रय तथा जिसके पाससे कोई बात लौटकर पुनः वक्ताके पास लेता है वह सदा ही मृतकके समान है। नहीं जाती-जो कटु वचन कहनेवालेको भी कटु उत्तर इस प्रकार जो सबके प्रति समान भाव रखता है, नहीं देता, वही संन्यासाश्रममें रहनेका अधिकारी है। भलीभाँति धैर्य धारण किये रहता है, इन्द्रियोंको अपने कभी किसीकी भी निन्दाको न तो करे और न सुने ही। वशमें रखता है तथा सम्पूर्ण भूतोको त्राण देता है, वह विशेषतः ब्राह्मणोंकी निन्दा तो किसी तरह न करे। ज्ञानी पुरुष उत्तम गतिको प्राप्त होता है। जिसका ब्राह्मणका जो शुभकर्म हो, उसीकी सदा चर्चा करनी अन्तःकरण उत्तम ज्ञानसे परितृप्त है तथा जिसमें ममताका चाहिये। जो उसके लिये निन्दाकी बात हो, उसके सर्वथा अभाव है, उस मनीषी पुरुषकी मृत्यु नहीं होती; विषयमें मौन रहना चाहिये । यही आत्मशुद्धिकी दवा है। वह अमृतत्वको प्राप्त हो जाता है। ज्ञानी मुनि सब
जो जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेता प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर आकाशकी भांति है, जो कुछ मिल जाय उसीको खाकर भूख मिटा लेता स्थित होता है। जो सबमें विष्णुकी भावना करनेवाला है तथा जहाँ कहीं भी सो रहता है, उसे देवता ब्राह्मण और शान्त होता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं। (ब्रह्मवेत्ता) समझते हैं। जो जन-समुदायको साँप जिसका जीवन धर्मके लिये, धर्म आत्मसन्तोषके लिये समझकर, नेह-सम्बन्धको नरक जानकर तथा स्त्रियोंको तथा दिन-रात पुण्यके लिये हैं, उसे देवतालोग ब्राह्मण मुर्दा समझकर उन सबसे डरता रहता है; उसे देवतालोग समझते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं होती, जो ब्राह्मण कहते हैं। जो मान या अपमान होनेपर स्वयं हर्ष कोंक आरम्भका कोई संकल्प नहीं करता तथा नमस्कार अथवा क्रोधके वशीभूत नहीं होता, उसे देवतालोग और स्तुतिसे दूर रहता है, जिसने योगके द्वारा कर्मोको ब्राह्मण मानते हैं। जो जीवन और मरणका अभिनन्दन न क्षीण कर दिया है, उसे देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं। करके सदा कालकी ही प्रतीक्षा करता रहता है, उसे सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयकी दक्षिणा देना संसारमें समस्त देवता ब्राह्मण मानते हैं। जिसका चित्त राग-द्वेषादिके दानोंसे बढ़कर है। जो किसीकी निन्दाका पात्र नहीं है वशीभूत नहीं होता, जो इन्द्रियोंको वशमें रखता है तथा तथा जो स्वयं भी दूसरोंकी निन्दा नहीं करता, वही ब्राह्मण जिसकी बुद्धि भी दूषित नहीं होती, वह मनुष्य सब परमात्माका साक्षात्कार कर पाता है। जिसके समस्त पाप पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियोंसे निर्भय नष्ट हो गये हैं, जो इहलोक और परलोकमें भी किसी है तथा समस्त प्राणी जिससे भय नहीं मानते, उस वस्तुको पानेकी इच्छा नहीं करता, जिसका मोह दूर हो देहाभिमानसे मुक्त पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता । जैसे गया है, जो मिट्टीके ढेले और सुवर्णको समान दृष्टिसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य समस्त पादचारी जीवोंके देखता है, जिसने रोषको त्याग दिया है, जो निन्दा-स्तुति पदचिह्न समा जाते हैं, तथा जिस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान और प्रिय-अप्रियसे रहित होकर सदा उदासीनकी भांति चित्तमें लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सारे धर्म और अर्थ विचरता रहता है, वही वास्तवमें संन्यासी है।
पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! आपके मुखसे यह पुष्कर क्षेत्रमें जब यज्ञ कर रहे थे, उस समय जो-जो सब प्रसङ्ग मैंने सुना; अब पुष्कर क्षेत्रमें जो ब्रह्माजीका बातें हुई उन्हें बतलाता हूँ: सुनो। पितामहका यज्ञ आदि यज्ञ हुआ था, उसका वृत्तान्त सुनाइये। क्योंकि इसका कृतयुगमें प्रारम्भ हुआ था। उस समय मरीचि, अङ्गिरा, श्रवण करनेसे मेरे शरीर [और मन] की शुद्धि होगी। मैं, पुलह, क्रतु और प्रजापति दक्षने ब्रह्माजीके पास
पुलस्त्यजीने कहा-राजन् ! भगवान् ब्रह्माजी जाकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। धाता, अर्यमा,
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण ..................... ..... ... .............................. ...... ............ सविता वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, त्वष्टा जिनका विग्रह है; उन भगवान्की हम शरण लेते हैं। जो और पर्जन्य-आदि बारहों आदित्य भी वहाँ उपस्थित भगवान् सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले हैं, हो अपने जाज्वल्यमान तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। इन जो ऋषियों और लोकोंके स्रष्टा तथा देवताओंके ईश्वर हैं, देवेश्वरोंने भी पितामहको प्रणाम किया। मृगव्याध, शर्व, जिन्होंने देवताओंका प्रिय और समस्त जगत्का पालन महायशस्वी निर्गति, अजैकपाद, अहिर्बुध्य, पिनाकी, करनेके लिये चिरकालसे पितरोंको कव्य तथा अपराजित, विश्वेश्वर भव, कपर्दी, स्थाणु और भगवान् देवताओंको उत्तम हविष्य अर्पण करनेका नियम प्रवर्तित भग-ये म्यारह रुद्र भी उस यज्ञमें उपस्थित थे। दोनों किया है, उन देवश्रेष्ठ परमेश्वरको हम सादर प्रणाम अश्विनीकुमार, आठों वसु, महाबली मरुद्गण, विश्वेदेव करते हैं। और साध्य नामक देवता ब्रह्माजीके सम्मुख हाथ तदनन्तर वृद्ध एवं बुद्धिमान् देवता भगवान् जोड़कर खड़े थे। शेषजीके वंशज वासुकि आदि बड़े- श्रीब्रह्माजी यज्ञशालामें लोकपालक श्रीविष्णुभगवान्के बड़े नाग भी विद्यमान थे। तार्थ्य, अरिष्टनेमि, महाबली साथ बैठकर शोभा पाने लगे। वह यज्ञमण्डप धन आदि गरुड़, वारुणि तथा आरुणि-ये सभी विनताकुमार वहाँ सामग्रियों और ऋत्विजोंसे भरा था। परम प्रभावशाली पधारे थे। लोकपालक भगवान् श्रीनारायणने वहाँ स्वयं भगवान् श्रीविष्णु धनुष हाथमें लेकर सब ओरसे उसकी पदार्पण किया और समस्त महर्षियोंके साथ लोकगुरु रक्षा कर रहे थे। दैत्य और दानवोंके सरदार तथा ब्रह्माजीसे कहा-'जगत्पते ! तुम्हारे ही द्वारा इस सम्पूर्ण राक्षसोंके समुदाय भी वहाँ उपस्थित थे। यज्ञ-विद्या, संसारका विस्तार हुआ है, तुम्हीने इसकी सृष्टि की है। वेद-विद्या तथा पद और क्रमका ज्ञान रखनेवाले इसलिये तुम सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर हो । यहाँ हमलोगोंके महर्षियोंके वेद-घोषसे सारी सभा गूंज उठी। यज्ञमें करनेयोग्य जो तुम्हारा महान् कार्य हो, उसे करनेकी हमें स्तुति-कर्मके जानकार, शिक्षाके ज्ञाता, शब्दोंकी व्युत्पत्ति आज्ञा दो।' देवर्षियोंके साथ भगवान् श्रीविष्णुने ऐसा एवं अर्थका ज्ञान रखनेवाले और मीमांसाके युक्तियुक्त कहकर देवेश्वर ब्रह्माजीको नमस्कार किया। वाक्योंको समझनेवाले विद्वानोंके उच्चारण किये हुए शब्द
ब्रह्माजी वहाँ स्थित होकर सम्पूर्ण दिशाओंको सबको सुनायी देने लगे। इतिहास और पुराणोंके ज्ञाता, अपने तेजसे प्रकाशित कर रहे थे तथा भगवान् श्रीविष्णु नाना प्रकारके विज्ञानको जानते हुए भी मौन रहनेवाले, भी श्रीवत्स-चिह्नसे सुशोभित एवं सुन्दर सुवर्णमय संयमी तथा उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले विद्वानोंने यज्ञोपवीतसे देदीप्यमान हो रहे थे। उनका एक-एक रोम वहाँ उपस्थित होकर जप और होममें लगे हुए परम पवित्र है। वे सर्वसमर्थ हैं, उनका वक्षःस्थल मुख्य-मुख्य ब्राह्मणोंको देखा । देवता और असुरोंके गुरु विशाल तथा श्रीविग्रह सम्पूर्ण तेजोंका पुञ्ज जान पड़ता लोक-पितामह ब्रह्माजी उस यज्ञभूमिमें विराजमान थे। है। [देवताओं और ऋषियोंने उनकी इस प्रकार स्तुति सुर और असुर दोनों ही उनकी सेवामें खड़े थे। की-] जो पुण्यात्माओंको उत्तम गति और पापियोंको प्रजापतिगण-दक्ष, वसिष्ठ, पुलह, मरीचि, अङ्गिरा, दुर्गति प्रदान करनेवाले हैं; योगसिद्ध महात्मा पुरुष जिन्हें भृगु, अत्रि, गौतम तथा नारद-ये सब लोग वहाँ उत्तम योगस्वरूप मानते हैं; जिनको अणिमा आदि आठ भगवान् ब्रह्माजीकी उपासना करते थे। आकाश, वायु, ऐश्वर्य नित्य प्राप्त हैं; जिन्हें देवताओंमें सबसे श्रेष्ठ कहा तेज, जल, पृथ्वी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, जाता है; मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले संयमी ब्राह्मण ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, व्याकरण, योगसे अपने अन्तःकरणको शुद्ध करके जिन सनातन छन्दःशास्त्र, निरुक्त, कल्प, शिक्षा, आयुर्वेद, धनुर्वेद, पुरुषको पाकर जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं; मीमांसा, गणित, गजविद्या, अश्वविद्या और इतिहासचन्द्रमा और सूर्य जिनके नेत्र हैं तथा अनन्त आकाश इन सभी अङ्गोपाङ्गोंसे विभूषित सम्पूर्ण वेद भी मूर्तिमान
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पमा
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होकर ओङ्कारयुक्त महात्मा ब्रह्माजीकी उपासना करते थे। शङ्करजीसे कहा। नय, क्रतु, संकल्प, प्राण तथा अर्थ, धर्म, काम, हर्ष, भगवान् श्रीविष्णु बोले-प्रभो! पितामहके शुक्र, बृहस्पति, संवर्त, बुध, शनैश्चर, राहु, समस्त ग्रह, यज्ञमें प्रधान-प्रधान दानव आये हैं। ब्रह्माजीने इनको भी मरुद्गण, विश्वकर्मा, पितृगण, सूर्य तथा चन्द्रमा भी इस यज्ञमें आमन्त्रित किया है। ये सब लोग इसमें विघ्न ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित थे। दुर्गम कष्टसे तारनेवाली डालनेका प्रयत्न कर रहे हैं। परन्तु जबतक यज्ञ समाप्त गायत्री, समस्त वेद-शास्त्र, यम-नियम, सम्पूर्ण अक्षर, न हो जाय तबतक हमलोगोंको क्षमा करना चाहिये । इस लक्षण, भाष्य तथा सब शास्त्र देह धारण करके वहाँ यज्ञके समाप्त हो जानेपर देवताओंको दानवोंके साथ युद्ध विद्यमान थे। क्षण, लव, मुहूर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, मास करना होगा। उस समय आपको ऐसा यत्र करना
और सम्पूर्ण ऋतुएँ अर्थात् इनके देवता महात्मा चाहिये, जिससे पृथ्वीपरसे दानवोंका नामो-निशान मिट ब्रह्माजीकी उपासना करते थे।
जाय। आपको मेरे साथ रहकर इन्द्रकी विजयके लिये इनके सिवा अन्यान्य श्रेष्ठ देवियाँ-ही, कीर्ति, प्रयत्न करना उचित है। इन दानवोंका धन लेकर द्युति, प्रभा, धृति, क्षमा, भूति, नीति, विद्या, मति, श्रुति, राहगीरों, ब्राह्मणों तथा दुःखी मनुष्योंमें बाँट दें। स्मृति, कान्ति, शान्ति, पुष्टि, क्रिया, नाच-गानमें कुशल भगवान् श्रीविष्णुकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीने समस्त दिव्य अप्सराएँ तथा सम्पूर्ण देव-माताएँ भी कहा-'भगवन् ! आपकी बात सुनकर ये दानव कुपित ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित थीं। विप्रचित्ति, शिबि, हो सकते हैं; किन्तु इस समय इन्हें क्रोध दिलाना आपको शङ्क, केतुमान, प्रह्लाद, बलि, कुम्भ, संहाद, अनुहाद, भी अभीष्ट न होगा। अतः रुद्र एवं अन्य देवताओंके वृषपर्वा, नमुचि, शम्बर, इन्द्रतापन, वातापि, केशी, राहु साथ आपको क्षमा करना चाहिये। सत्ययुगके अन्त में और वृत्र-ये तथा और भी बहुत-से दानव, जिन्हें जब यह यज्ञ समाप्त हो जायगा, उस समय मैं अपने बलपर गर्व था, ब्रह्माजीकी उपासना करते हुए इस आपलोगोंको तथा इन दानवोंको विदा कर दूंगा; उसी प्रकार बोले।
. समय आप सब लोग सन्धि या विग्रह, जो उचित हो, दानवोंने कहा-भगवन् ! आपने ही कीजियेगा।' हमलोगोंकी सृष्टि की है, हमें तीनों लोकोंका राज्य दिया पुलस्त्यजी कहते है-तदनन्तर भगवान् है तथा देवताओंसे अधिक बलवान् बनाया है। ब्रह्माजीने पुनः उन दानवोंसे कहा-'तुम्हें देवताओंके पितामह ! आपके इस यज्ञमें हमलोग कौन-सा कार्य साथ किसी प्रकार विरोध नहीं करना चाहिये । इस समय करें? हम स्वयं ही कर्तव्यका निर्णय करनेमें समर्थ हैं; तुम सब लोग परस्पर मित्रभावसे रहकर मेरा कार्य अदितिके गर्भसे पैदा हुए इन बेचारे देवताओंसे क्या सम्पन्न करो।' काम होगा; ये तो सदा हमारेद्वारा मारे जाते और दानवोंने कहा-पितामह ! आपके प्रत्येक अपमानित होते रहते हैं। फिर भी आप तो हम सबके आदेशका हमलोग पालन करेंगे। देवता हमारे छोटे भाई ही पितामह है; अतः देवताओंको भी साथ लेकर यज्ञ है, अतः उन्हें हमारी ओरसे कोई भय नहीं है। पूर्ण कीजिये। यज्ञ समाप्त होनेपर राज्यलक्ष्मीके विषयमें दानवोंकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीको बड़ा सन्तोष हमारा देवताओंके साथ फिर विरोध होगा; इसमें तनिक हुआ। थोड़ी ही देर बाद उनके यज्ञका वृत्तान्त सुनकर भी सन्देह नहीं है, किन्तु इस समय हम चुपचाप इस ऋषियोंका एक समुदाय आ पहुँचा । भगवान् श्रीविष्णुने यज्ञको देखेंगे-देवताओंके साथ युद्ध नहीं छेड़ेंगे। उनका पूजन किया। पिनाकधारी महादेवजीने उन्हें
पुलस्त्यजी कहते हैं-दानवोंके ये गर्वयुक्त वचन आसन दिया तथा ब्रह्माजीकी आज्ञासे वसिष्ठजीने उन सुनकर इन्द्रसहित महायशस्वी भगवान् श्रीविष्णुने सबको अर्घ्य निवेदित करके उनका कुशल-क्षेम पूछा संप पु. ३
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[संक्षिप्त पद्मपुराण
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और पुष्कर क्षेत्रमें उन्हें निवासस्थान देकर कहा- सुप्रभा, काञ्चना, प्राची, नन्दा और विशाला नामसे 'आपलोग आरामसे यहीं रहें।' तत्पश्चात् जटा और प्रसिद्ध पाँच धाराओंमें प्रवाहित होती हैं ! भूतलपर मृगचर्म धारण करनेवाले वे समस्त महर्षि ब्रह्माजीकी वर्तमान ब्रह्माजीकी सभामें-उनके विस्तृत यज्ञमण्डपमें यज्ञ-सभाको सुशोभित करने लगे। उनमें कुछ महात्मा जब द्विजातियोंका शुभागमन हो गया, देवतालोग वालखिल्य थे तथा कुछ लोग संप्रख्यान (एक समयके पुण्याहवाचन तथा नाना प्रकारके नियमोंका पालन करते लिये ही अन्न ग्रहण करनेवाले अथवा तत्त्वका विचार हुए जब यज्ञ-कार्यके सम्पादनमें लग गये और पितामह करनेवाले) थे। वे नाना प्रकारके नियमोंमें संलग्न तथा ब्रह्माजी यज्ञकी दीक्षा ले चुके, उस समय सम्पूर्ण वेदीपर शयन करनेवाले थे। उन सभी तपस्वियोंने भोगोंकी समृद्धिसे युक्त यज्ञके द्वारा भगवान्का यजन पुष्करके जलमें ज्यों ही अपना मुँह देखा, उसी क्षण वे आरम्भ हुआ। राजेन्द्र ! उस यज्ञमें द्विजातियोंके पास अत्यन्त रूपवान् हो गये। फिर एक दूसरेकी ओर उनकी मनचाही वस्तुएँ अपने-आप उपस्थित हो जाती देखकर सोचने लगे-'यह कैसी बात है? इस तीर्थमें थीं। धर्म और अर्थके साधनमें प्रवीण पुरुष भी स्मरण मुँहका प्रतिबिम्ब देखनेसे सबका सुन्दर रूप हो गया !' करते ही वहाँ आ जाते थे। देव, गन्धर्व गान करने लगे। ऐसा विचार कर तपस्वियोंने उसका नाम 'मुखदर्शन अप्सराएँ नाचने लगीं। दिव्य बाजे बज उठे। उस यज्ञको तीर्थ' रख दिया। तत्पश्चात् वे नहाकर अपने-अपने समृद्धिसे देवता भी सन्तुष्ट हो गये। मनुष्योंको तो नियमोंमें लग गये। उनके गुणोंकी कहीं उपमा नहीं थी। वहाँका वैभव देखकर बड़ा ही विस्मय हुआ। पुष्कर नरश्रेष्ठ ! वे सभी वनवासी मुनि वहाँ रहकर अत्यन्त तीर्थमें जब इस प्रकार ब्रह्माजीका यज्ञ होने लगा, उस शोभा पाने लगे। उन्होंने अग्निहोत्र करके नाना प्रकारकी समय ऋषियोंने सन्तुष्ट होकर सरस्वतीका सुप्रभा नामसे क्रियाएँ सम्पन्न की। तपस्यासे उनके पाप भस्म हो चुके आवाहन किया। पितामहका सम्मान करती हुई
थे। वे सोचने लगे कि 'यह सरोवर सबसे श्रेष्ठ है।' ऐसा वेगशालिनी सरस्वती नदीको उपस्थित देखकर मुनियोंको विचार करके उन द्विजातियोंने उस सरोवरका 'श्रेष्ठ बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वती पुष्कर' नाम रखा।
ब्रह्माजीकी सेवा तथा मनीषी मुनियोंकी प्रसन्नताके लिये . तदनन्तर ब्राह्मणोंको दानके रूपमें नाना प्रकारके ही पुष्कर तीर्थमें प्रकट हुई थी। जो मनुष्य सरस्वतीके पात्र देनेके पश्चात् वे सभी द्विज वहाँ प्राची सरस्वतीका उत्तर-तटपर अपने शरीरका परित्याग करता है तथा प्राची नाम सुनकर उसमें स्नान करनेकी इच्छासे गये। तीर्थोंमें सरस्वतीके तटपर जप करता है, वह पुनः जन्म-मृत्युको श्रेष्ठ सरस्वतीके तटपर बहुत-से द्विज निवास करते थे। नहीं प्राप्त होता । सरस्वतीके जलमें डुबकी लगानेवालेको नाना प्रकारके वृक्ष उस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह अश्वमेध यज्ञका पूरा-पूरा फल मिलता है। जो वहाँ तीर्थ सभी प्राणियोंको मनोरम जान पड़ता था। अनेकों नियम और उपवासके द्वारा अपने शरीरको सुखाता है, ऋषि-मुनि उसका सेवन करते थे। उन ऋषियोंमेंसे कोई केवल जल या वायु पीकर अथवा पत्ते चबाकर तपस्या वायु पीकर रहनेवाले थे और कोई जल पीकर । कुछ करता है, वेदीपर सोता है तथा यम और नियमोंका लोग फलाहारी थे और कुछ केवल पत्ते चबाकर पृथक्-पृथक् पालन करता है, वह शुद्ध हो ब्रह्माजीके रहनेवाले थे।
परम पदको प्राप्त होता है। जिन्होंने सरस्वती तीर्थम । सरस्वतीके तटपर महर्षियोंके स्वाध्यायका शब्द तिलभर भी सुवर्णका दान किया है, उनका वह दान गूंजता रहता था। मृगोंके सैकड़ों झुंड वहाँ विचरा करते मेरुपर्वतके दानके समान फल देनेवाला है-यह बात थे। अहिंसक तथा धर्मपरायण महात्माओंसे उस तीर्थकी पूर्वकालमें स्वयं प्रजापति ब्रह्माजीने कही थी। जो मनुष्य अधिक शोभा हो रही थी। पुष्कर तीर्थमें सरस्वती नदी उस तीर्थमें श्राद्ध करेंगे, वे अपने कुलकी इक्कीस
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सृष्टिखण्ड]
• पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकळा.
पीढ़ियोंके साथ स्वर्गलोकमें जायेंगे। वह तीर्थ पितरोंको और नगारोंकी ध्वनि तथा मङ्गलघोष होने लगा, जिसकी बहुत ही प्रिय है, वहाँ एक ही पिण्ड देनेसे उन्हें पूर्ण तृप्ति आवाजसे सारा जगत् गूंज उठा। सरस्वती अपने तेजसे हो जाती है। वे पुष्करतीर्थक द्वारा उद्धार पाकर सर्वत्र प्रकाश फैलाती हुई चली। उस समय गङ्गाजी ब्रह्मलोकमें पधारते हैं। उन्हें फिर अत्र-भोगोंकी इच्छा उसके पीछे हो ली। तब सरस्वतीने कहा-'सखी ! तुम नहीं होती, वे मोक्षमार्गमें चले जाते हैं। अब मैं सरस्वती कहाँ आती हो? मैं फिर तुमसे मिलेंगी।' सरस्वतीके नदी जिस प्रकार पूर्ववाहिनी हुई, वह प्रसङ्ग बतलाता ऐसा कहनेपर गङ्गाने मधुर वाणीमे कहा-'शुभे! अब हूँ सुनो।
तो तुम जब पूर्वदिशामें आओगी तभी मुझे देख पहलेकी बात है, एक बार इन्द्र आदि समस्त सकोगी। देवताओंसहित तुम्हारा दर्शन तभी मेरे लिये देवताओंकी ओरसे भगवान् श्रीविष्णुने सरस्वतीसे सुलभ हो सकेगा।' यह सुनकर सरस्वतीने कहाकहा-'देवि! तुम पश्चिम-समुद्रके तटपर जाओ और 'शुचिस्मिते ! तब तुम भी उत्तराभिमुखी होकर शोकका इस बडवानलको ले जाकर समुद्र में डाल दो। ऐसा परित्याग कर देना।' गङ्गा बोली-'सखी! मैं करनेसे समस्त देवताओंका भय दूर हो जायगा। तुम उत्तराभिमुखी होनेपर अधिक पवित्र मानी जाऊँगी और माताकी भांति देवताओंको अभय-दान दो।' सबको तुम पूर्वाभिमुखी होनेपर। उत्तरवाहिनी गङ्गा और उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुकी ओरसे यह आदेश पूर्ववाहिनी सरस्वती में जो मनुष्य श्राद्ध और दान करेंगे, मिलनेपर देवी सरस्वतीने कहा-'भगवन् ! मैं स्वाधीन वे तीनों ऋणोंसे मुक्त होकर मोक्षमार्गका आश्रय नहीं हूँ आप इस कार्यके लिये मेरे पिता ब्रह्माजीसे लेंगे-इसमें कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता अनुरोध कीजिये। पिताजीकी आज्ञाके बिना मै एक पग नहीं है।' भी कहीं नहीं जा सकती।' सरस्वतीका अभिप्राय इसपर वह सरस्वती नदीरूपमें परिणत हो गयी। जानकर देवताओंने ब्रह्माजीसे कहा-'पितामह ! देवताओंके देखते-देखते एक पाकरके वृक्षकी जड़से आपकी कुमारी कन्या सरस्वती बड़ी साध्वी है-उसमें प्रकट हुई। वह वृक्ष भगवान् विष्णुका स्वरूप है। किसी प्रकारका दोष नहीं देखा गया है; अतः उसे सम्पूर्ण देवताओंने उसकी वन्दना की है। उसकी अनेकों छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो बडवानलको ले शाखाएँ सब ओर फैली हुई है। वह दूसरे ब्रह्माजीकी जा सके।
भाँति शोभा पाता है। यद्यपि उस वृक्षमें एक भी फूल पुलस्त्यजी कहते हैं-देवताओंकी बात सुनकर नहीं है, तो भी वह डालियोंपराबैठे हुए शुक आदि ब्रह्माजीने सरस्वतीको बुलाया और उसे गोदमें लेकर पक्षियोंके कारण फूलोंसे लदा-सा जान पड़ता है। उसका मस्तक सँघा। फिर बड़े नेहके साथ कहा- सरस्वतीने उस पाकरके समीप स्थित होकर देवाधिदेव 'बेटी ! तुम मेरी और इन समस्त देवताओंकी रक्षा करो। विष्णुसे कहा-'भगवन् ! मुझे बडवाग्नि समर्पित देवताओंके प्रभावसे तुम्हें इस कार्यके करनेपर बड़ा कीजिये; मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगी। उसके सम्मान प्राप्त होगा। इस बडवानलको ले जाकर खारे ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीविष्णु बोले-'शुभे! तुम्हें पानीके समुद्रमें डाल दो।' पिताके वियोगके कारण इस बड़वानलको पशिम-समुद्रकी ओर ले जाते समय बालिकाके नेत्रोंमें आँसू छलछला आये। उसने जलनेका कोई भय नहीं होगा।' ' ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा-'अच्छ, जाती हूँ।' पुलस्त्यजी कहते हैं-तदनन्तर भगवान् उस समय सम्पूर्ण देवताओं तथा उसके पिताने भी श्रीविष्णुने बडवानलको सोनेके घड़ेमें रखकर सरस्वतीको कहा- 'भय न करो।' इससे वह भय छोड़कर प्रसन्न सौंप दिया। उसने उस घड़ेको अपने उदरमें रखकर चित्तसे जानेको तैयार हुई। उसकी यात्राके समय शङ्ख पश्चिमकी ओर प्रस्थान किया। अदृश्य गतिसे चलती हुई
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण
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वह महानदी पुष्करमें पहुंची और ब्रह्माजीने जिन-जिन रहकर श्रेष्ठ फलका उपभोग करता है। इसलिये पुरुषको कुण्डोंमें हवन किया था, उन सबको जलसे आप्लावित उचित है कि वह पूरा प्रयत्न करके पुष्कर तीर्थकी करके प्रकट हुई। इस प्रकार पुष्कर क्षेत्रमें परम पवित्र प्राप्तिके लिये-वहाँकी यात्रा करनेके लिये अपना सरस्वती नदीका प्रादुर्भाव हुआ। जगत्को जीवनदान विचार स्थिर करे। मति, स्मृति, प्रज्ञा, मेधा, बुद्धि और देनेवाली वायुने भी उसका जल लेकर वहाँके सब शुभ वाणी-ये छः सरस्वतीके पर्याय बतलाये गये हैं। तीर्थोंमें डाल दिया। उस पुण्यक्षेत्रमें पहुँचकर जो पुष्करके वनमें, जहाँ प्राची सरस्वती है, जाकर उसके पुण्यसलिला सरस्वती मनुष्योंके पापोंका नाश करनेके जलका दर्शन भर कर लेते हैं, उन्हें भी अश्वमेध यज्ञका लिये स्थित हो गयी। जो पुण्यात्मा मनुष्य पुष्कर तीर्थमें फल मिलता है तथा जो उसके भीतर गोता लगाकर विद्यमान सरस्वतीका दर्शन करते हैं, वे नारकी जीवोंकी स्नान करता है, वह तो ब्रह्माजीका अनुचर होता है। जो अधोगतिका अनुभव नहीं करते। जो मनुष्य उसमें मनुष्य वहाँ विधिपूर्वक श्राद्ध करते हैं, वे पितरोंको भक्ति-भावके साथ स्रान करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें दुःखदायी नरकसे निकालकर स्वर्गमे पहुँचा देते हैं। जो पहुँचकर ब्रह्माजीके साथ आनन्दका अनुभव करते हैं। सरस्वतीमें स्नान करके पितरोंको कुश और तिलसे युक्त जो मनुष्य ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करके पितरोंका तर्पण जल दान करते हैं, उनके पितर हर्षित हो नाचने लगते करता है, वह उन सबका नरकसे उद्धार कर देता है तथा है। यह पुष्कर तीर्थ सब तीर्थोंसे श्रेष्ठ माना गया है; स्वयं उसका भी चित्त शुद्ध हो जाता है। ब्रह्माजीके क्षेत्रमें क्योंकि यह आदि तीर्थ है। इसीलिये इस पृथ्वीपर यह पुण्यसलिला सरस्वतीको पाकर मनुष्य दूसरे किस समस्त तीर्थोंमें विख्यात है। यह मानो धर्म और मोक्षकी तीर्थकी कामना करे-उससे बढ़कर दूसरा तीर्थ है ही क्रीडास्थली है, निधि है। सरस्वतीसे युक्त होनेके कारण कौन ? सम्पूर्ण तीर्थोमें स्नान करनेसे जो फल प्राप्त होता इसकी महिमा और भी बढ़ गयी है। जो लोग पुष्कर है, वह सब-का-सब ज्येष्ठ पुष्करमें एक बार डुबकी तीर्थमें सरस्वती नदीका जल पीते हैं वे ब्रह्मा और लगानेसे मिल जाता है। अधिक क्या कहा जाय- महादेवजीके द्वारा प्रशंसित अक्षय लोकोंको प्राप्त होते जिसने पुष्कर क्षेत्रका निवास, ज्येष्ठ कुण्डका जल तथा हैं। धर्मके तत्त्वको जाननेवाले मुनियोंने जहाँ-जहाँ उस तीर्थमें मृत्यु-ये तीन बातें प्राप्त कर ली, उसने सरस्वतीदेवीका सेवन किया है, उन सभी स्थानोंमें वे परमगति पा ली। जो मनुष्य उत्तम काल, उत्तम क्षेत्र परम पवित्ररूपसे स्थित हैं; किन्तु पुष्करमें वे अन्य तथा उत्तम तीर्थमें स्रान और होम करके ब्राह्मणको दान स्थलोंकी अपेक्षा विशेष पवित्र मानी गयी हैं। पुण्यमयी देता है, वह अक्षय सुखका भागी होता है। कार्तिक और सरस्वती नदी संसारमें सुलभ है; किन्तु कुरुक्षेत्र, वैशाखके शुभ पक्षमें तथा चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके प्रभासक्षेत्र और पुष्करक्षेत्रमें तो वह बड़े भाग्यसे समय स्रान करनेयोग्य कुरुजाङ्गलदेशमें जितने क्षेत्र और प्राप्त होती है। अतः वहाँ इसका दर्शन दुर्लभ बताया तीर्थ मुनीश्वरोंद्वारा बताये गये हैं, उन सबमें यह पुष्कर गया है। सरस्वती तीर्थ इस भूतलके समस्त तीथों में तीर्थ अधिक पवित्र है-ऐसा ब्रह्माजीने कहा है। श्रेष्ठ होनेके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन
जो पुरुष कार्तिककी पूर्णिमाको मध्यम कुण्ड चारों पुरुषार्थीका साधक है। अतः मनुष्यको चाहिये कि (मध्यम पुष्कर)-में स्रान करके ब्राह्मणको धन देता है, वह ज्येष्ठ, मध्यम तथा कनिष्ठ-तीनों पुष्करोंमें उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। इसी प्रकार कनिष्ठ यापूर्वक स्नान करके उनकी प्रदक्षिणा करे। तत्पश्चात् कुण्ड (अन्त्य पुष्कर)-में एकाग्रतापूर्वक स्नान करके जो पवित्र भावसे प्रतिदिन पितामहका दर्शन करे। ब्रह्मब्राह्मणको उत्तम अगहनीका चावल दान करता है, वह लोकमें जानेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अनुलोमक्रमसे अग्निलोकमें जाता है तथा वहाँ इक्कीस पीढ़ियोंके साथ अर्थात् क्रमशः ज्येष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ पुष्करमें
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सृष्टिखण्ड ]
• सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य .
तथा विलोमक्रमसे अर्थात् कनिष्ठ, मध्यम और ज्येष्ठ सुखका भागी होता है। पुष्करमें तिल-दानकी मुनिलोग पुष्करमें स्नान करना चाहिये। इसी प्रकार वह उक्त अधिक प्रशंसा करते हैं तथा कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको तीनों पुष्करोंमेंसे किसी एकमें या सबमें नित्य स्रान वहाँ सदा ही स्नान करनेका विधान है। करता रहे।
भीष्मजी! पुष्कर वनमें पहुँचकर सरस्वती नदीके पुष्कर क्षेत्रमें तीन सुन्दर शिखर और तीन ही स्रोत प्रकट होनेकी बात बतायी गयी। अब वह पुनः अदृश्य हैं। वे सब-के-सब पुष्कर नामसे ही प्रसिद्ध हैं। उन्हें होकर वहाँसे पश्चिम दिशाकी ओर चली । पुष्करसे थोड़ी ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर कहते हैं। ही दूर जानेपर एक खजूरका वन मिला, जो फल और जो मन और इन्द्रियोंको वशमें करके सरस्वतीमें स्रान फूलोंसे सुशोभित था; सभी ऋतुओंके पुष्प उस करता और ब्राह्मणको एक उत्तम गौ दान देता है, वह वनस्थलीकी शोभा बढ़ा रहे थे, वह स्थान मुनियोंके भी शास्त्रीय आज्ञाके पालनसे शुद्धचित्त होकर अक्षय मनको मोहनेवाला था। वहाँ पहुँचकर नदियोंमें श्रेष्ठ लोकोंको पाता है। अधिक क्या कहें-जो रात्रिके समय सरस्वतीदेवी पुनः प्रकट हुई। वहाँ वे 'नन्दा'के नामसे भी स्रान करके वहाँ याचकको धन देता है, वह अनन्त तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुई।
सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य सूतजी कहते हैं-यह सुनकर देवव्रत भीष्मने बनाया है। तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है, इसलिये तू कच्चा पुलस्त्यजीसे पूछा-"ब्रह्मन् ! सरिताओंमें श्रेष्ठ नन्दा मांस खानेवाले पशुकी योनिमें पड़ेगा। इस कण्टकाकीर्ण कोई दूसरी नदी तो नहीं है? मेरे मनमें इस बातको वनमें तू व्याघ्र हो जा।। लेकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि सरस्वतीका नाम मृगीका यह शाप सुनकर सामने खड़े हुए राजाकी 'नन्दा' कैसे पड़ गया। जिस प्रकार और जिस कारणसे सम्पूर्ण इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे हाथ जोड़कर वह 'नन्दा' नामसे प्रसिद्ध हुई, उसे बतानेकी कृपा बोले-'कल्याणी ! मैं नहीं जानता था कि तू बच्चेको कीजिये।" भीष्मके इस प्रकार पूछनेपर पुलस्त्यजीने दूध पिला रही है, अनजानमें मैंने तेरा वध किया है। सरस्वतीका. 'नन्दा' नाम क्यों पड़ा, इसका प्राचीन अतः मुझपर प्रसन्न हो ! मैं व्याघ्रयोनिको त्यागकर पुनः इतिहास सुनाना आरम्भ किया। वे बोले-भीष्म ! मनुष्य-शरीरको कब प्राप्त करूँगा? अपने इस शापके पहलेकी बात है, पृथ्वीपर प्रभञ्जन नामसे प्रसिद्ध एक उद्धारकी अवधि तो बता दोम' राजाके ऐसा कहनेपर महावली राजा हो गये हैं। एक दिन वे उस वनमें मृगोंका मृगी बोली-'राजन् ! आजसे सौ वर्ष बीतनेपर यहाँ शिकार खेल रहे थे। उन्होंने देखा, एक झाड़ीके भीतर नन्दा नामकी एक गौ आयेगी। उसके साथ तुम्हारा मृगी खड़ी है। वह राजाके ठीक सामने पड़ती थी। वार्तालाप होनेपर इस शापका अन्त हो जायगा।' प्रभजनने अत्यन्त तीक्ष्ण बाण चलाकर मृगीको बींध पुलस्त्यजी कहते हैं-मृगीके कथनानुसार राजा डाला । आहत हरिणीने चकित होकर चारों ओर दृष्टिपात प्रभञ्जन व्याघ्र हो गये। उस व्याघ्रकी आकृति बड़ी ही किया। फिर हाथमें धनुष-बाण धारण किये राजाको घोर और भयानक थी। वह उस वनमें कालके वशीभूत खड़ा देख वह बोली-'ओ मूढ़ ! यह तूने क्या हुए मृगों, अन्य चौपायों तथा मनुष्योंको भी मार-मारकर किया? तुम्हारा यह कर्म पापपूर्ण है। मैं यहाँ नीचे मुँह खाने और रहने लगा। वह अपनी निन्दा करते हुए किये खड़ी थी और निर्भय होकर अपने बच्चेको दूध कहता था, 'हाय ! अब मैं पुनः कब मनुष्य-शरीर धारण पिला रही थी। इसी अवस्था तूने इस वनके भीतर मुझ करूँगा? अबसे नीच योनिमें डालनेवाला ऐसा निन्दनीय निरपराध हरिणीको अपने वज्रके समान बाणका निशाना कर्म-महान् पाप नहीं करूंगा। अब इस योनिमें मेरे
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. अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
द्वारा पुण्य नहीं हो सकता। एकमात्र हिंसा ही मेरी मेरा ग्रास नियत किया है, क्योंकि तू स्वयं यहाँ आकर जीवन-वृत्ति है, इसके द्वारा तो सदा दुःख ही प्राप्त होता है। उपस्थित हुई है।' व्याघ्रका यह रोंगटे खड़े कर देनेवाला किस प्रकार मृगीकी कही हुई बात सत्य हो सकती है?' निष्ठुर वचन सुनकर उस गायको चन्द्रमाके समान
जब व्याघ्रको उस वनमें रहते सौ वर्ष हो गये, तब कान्तिवाले अपने सुन्दर बछड़ेकी याद आने लगी। एक दिन वहाँ गौओंका एक बहुत बड़ा झुंड उपस्थित उसका गला भर आया-वह गद्गद स्वरसे पुत्रके लिये हुआ। वहाँ घास और जलकी विशेष सुविधा थी, वही हुङ्कार करने लगी। उस गौको अत्यन्त दुखी होकर गौओंके आनेमें कारण हुई। आते ही गौओंके विश्रामके क्रन्दन करते देख व्याघ्र बोला-'अरी गाय ! संसारमें लिये बाड़ लगा दी गयी। वालोंके रहनेके लिये भी सब लोग अपने कर्मोका ही फल भोगते हैं। तू स्वयं मेरे साधारण घर और स्थानकी व्यवस्था की गयी। पास आ पहुँची है, इससे जान पड़ता है तेरी मृत्यु आज गोचरभूमि तो वहाँ थी ही। सबका पड़ाव पड़ गया। ही नियत है। फिर व्यर्थ शोक क्यों करती है? अच्छा, वनके पासका स्थान गौओंके (भानेकी भारी आवाजसे यह तो बता-तू रोयी किसलिये?' गूंजने लगा। मतवाले गोप चारों ओरसे उस व्याघका प्रश्न सुनकर नन्दाने कहा-'व्याघ्र ! गो-समुदायकी रक्षा करते थे।
तुम्हें नमस्कार है, मेरा सारा अपराध क्षमा करो। मैं , गौओंके झुंडमें एक बहुत ही हृष्ट-पुष्ट तथा सन्तुष्ट जानती हूँ तुम्हारे पास आये हुए प्राणीकी रक्षा असम्भव रहनेवाली गाय थी, उसका नाम था नन्दा। वही उस है; अतः मैं अपने जीवनके लिये शोक नहीं करती। मृत्यु झुंडमें प्रधान थी तथा सबके आगे निर्भय होकर चला तो मेरी एक-न-एक दिन होगी ही [फिर उसके लिये करती थी। एक दिन वह अपने झुंडसे बिछुड़ गयी और क्या चिन्ता] । किन्तु मृगराज ! अभी नयी अवस्थामें मैंने चरते-चरते पूर्वोक्त व्याघ्रके सामने जा पहुंची। व्याघ्र उसे एक बछड़ेको जन्म दिया है। पहली बियानका बच्चा
होनेके कारण वह मुझे बहुत ही प्रिय है। मेरा बच्चा अभी दूध पीकर ही जीवन चलाता है। घासको तो वह सूंघता भी नहीं। इस समय वह गोष्ठमें बँधा है और भूखसे पीड़ित होकर मेरी राह देख रहा है। उसीके लिये मुझे बारम्बार शोक हो रहा है। मेरे न रहनेपर मेरा बच्चा कैसे जीवन धारण करेगा? मैं पुत्र-प्रेहके वशीभूत हो रही हूँ
और उसे दूध पिलाना चाहती हूँ। [मुझे थोड़ी देरके लिये जाने दो।] बछड़ेको पिलाकर प्यारसे उसका मस्तक चागी और उसे हिताहितकी जानकारीके लिये कुछ उपदेश करूँगी; फिर अपनी सखियोंकी देख-रेख में उसे सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगी। उसके बाद तुम इच्छानुसार मुझे खा जाना।'
नन्दाकी बात सुनकर व्याघने कहा-'अरी ! अब तुझे पुत्रसे क्या काम है?' नन्दा बोली-'मृगेन्द्र ! मैं
पहले-पहल बछड़ा व्यायी हूँ [अतः उसके प्रति मेरी देखते ही 'खड़ी रह, खड़ी रह' कहता हुआ उसकी ओर बड़ी ममता है, मुझे जाने दो] । सखियोंको, नन्हे बच्चेको, दौड़ा और निकट आकर बोला-'आज विधाताने तुझे रक्षा करनेवाले ग्वालों और गोपियोंको तथा विशेषतः
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सृष्टिखण्ड]
• सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य .
अपनी जन्मदायिनी माताको देखकर उन सबसे विदा मस्तक चाटो तथा माता, भाई, सखी, स्वजन एवं बन्धुलेकर आ जाऊँगी-मैं शपथपूर्वक यह बात कहती हूँ। बान्धवोंका दर्शन करके सत्यको आगे रखकर शीघ्र ही यदि तुम्हें विश्वास हो, तो मुझे छोड़ दो। यदि मैं पुनः यहाँ लौट आओ। लौटकर न आऊँ तो मुझे वही पाप लगे, जो ब्राह्मण तथा पुलस्त्यजी कहते हैं-वह पुत्रवत्सला धेनु बड़ी माता-पिताका वध करनेसे होता है। व्याधों, म्लेच्छों सत्यवादिनी थी। पूर्वोक्त प्रकारसे शपथ करके जब वह
और जहर देनेवालोको जो पाप लगता है, वही मुझे भी व्याघ्रकी आज्ञा ले चुकी, तब गोष्ठकी ओर चली । उसके लगे। जो गोशालामें विघ्न डालते हैं, सोते हुए प्राणीको मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। वह अत्यन्त दीन मारते हैं तथा जो एक बार अपनी कन्याका दान करके भावसे काँप रही थी। उसके हृदयमें बड़ा दुःख था। वह फिर उसे दूसरेको देना चाहते हैं, उन्हें जो पाप लगता है, शोकके समुद्रमें डूबकर बारम्बार ईकराती थी। नदीके वही मुझे भी लगे। जो अयोग्य बैलोंसे भारी बोझ किनारे गोष्ठपर पहुंचकर उसने सुना, बछड़ा पुकार रहा है। उठवाता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे। जो आवाज कानमें पड़ते ही वह उसकी ओर दौड़ी और कथा होते समय वित्र डालता है और जिसके घरपर निकट पहुँचकर नेत्रोंसे आँसू बहाने लगी। माताको निकट आया हुआ मित्र निराश लौट जाता है, उसको जो पाप पाकर बछड़ेने शङ्कित होकर पूछा-'माँ! [आज क्या लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ। इन भयंकर पातकोंके भयसे मैं अवश्य आऊँगी।'
नन्दाकी ये शपथें सुनकर व्याघ्रको उसपर विश्वास हो गया। वह बोला-"गाय ! तुम्हारी इन शपथोंसे मुझे विश्वास हो गया है। पर कुछ लोग तुमसे यह भी कहेंगे कि स्त्रीके साथ हास-परिहासमें, विवाहमें, गौको संकटसे बचाने में तथा प्राण-संकट उपस्थित होनेपर जो शपथ की जाती है, उसकी उपेक्षासे पाप नहीं लगता।' किन्तु तुम इन बातोंपर विश्वास न करना। इस संसारमें कितने ही ऐसे नास्तिक हैं, जो मूर्ख होते हुए भी अपनेको पण्डित समझते हैं; वे तुम्हारी बुद्धिको क्षणभरमें भ्रममें डाल देंगे। जिनके चित्तपर अज्ञानका परदा पड़ा रहता है, वे क्षुद्र मनुष्य कुतर्कपूर्ण युक्तियों और दृष्टान्तोंसे दूसरोंको मोहमें डाल देते हैं। इसलिये तुम्हारी बुद्धिमें यह बात नहीं आनी चाहिये कि मैंने शपथोंद्वारा व्याघ्रको ठग लिया। तुमने ही मुझे धर्मका सारा मार्ग दिखाया है। हो गया है ?] मैं तुम्हें प्रसन्न नहीं देखता, तुम्हारे हृदयमें अतः इस समय तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो।" शान्ति नहीं दिखायी देती। तुम्हारी दृष्टिमें भी व्यग्रता है,
नन्दा बोली-साधो ! तुम्हारा कथन ठीक है, आज तुम अत्यन्त डरी हुई दीख पड़ती हो।' तुम्हें कौन ठग सकता है। जो दूसरोंको ठगना चाहता है, नन्दा बोली-बेटा! स्तनपान करो, यह वह तो अपने-आपको ही ठगता है।
हमलोगोंकी अन्तिम भेंट है; अबसे तुम्हें माताका दर्शन व्याघ्रने कहा-गाय ! अब तुम जाओ। दुर्लभ हो जायगा । आज एक दिन मेरा दूध पीकर कल पुत्रवत्सले ! अपने पुत्रको देखो, दूध पिलाओ, उसका सबेरेसे किसका पियोगे? वत्स ! मुझे अभी लौट जाना
INORISM
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
है, मैं शपथ करके यहाँ आयी हैं। भूखसे पीड़ित बाघको जो किसी दुर्गम स्थानमें उगी हो; क्योंकि लोभसे इहलोक मुझे अपना जीवन अर्पण करना है।
और परलोकमें भी सबका विनाश हो जाता है। लोभसे बछड़ा बोला-माँ ! तुम जहाँ जाना चाहती हो; मोहित होकर लोग समुद्रमें, घोर वनमें तथा दुर्गम वहाँ मैं भी चलूँगा। तुम्हारे साथ मेरा भी मर जाना ही स्थानों में भी प्रवेश कर जाते हैं। लोभके कारण विद्वान् अच्छा है। तुम न रहोगी तो मैं अकेले भी तो मर ही पुरुष भी भयंकर पाप कर बैठता है। लोभ, प्रमाद तथा जाऊँगा, [फिर साथ ही क्यों न मसै?] यदि बाघ तुम्हारे हर एकके प्रति विश्वास कर लेना-इन तीन कारणोंसे साथ मुझे भी मार डालेगा तो निश्चय ही मुझको वह उत्तम जगत्का नाश होता है; अतः इन तीनों दोषोंका परित्याग गति मिलेगी, जो मातृभक्त पुत्रोंको मिला करती है। अतः करना चाहिये। बेटा ! सम्पूर्ण शिकारी जीवोंसे तथा मैं तुम्हारे साथ अवश्य चलूंगा। मातासे बिछुड़े हुए म्लेच्छ और चोर आदिके द्वारा संकट प्राप्त होनेपर सदा बालकके जीवनका क्या प्रयोजन है ? केवल दूध पीकर प्रयत्नपूर्वक अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये। रहनेवाले बच्चोंके लिये माताके समान दूसरा कोई बन्धु पापयोनिवाले पशु-पक्षी अपने साथ एक स्थानपर निवास नहीं है। माताके समान रक्षक, माताके समान आश्रय, करते हों, तो भी उनके विपरीत चित्तका सहसा पता नहीं माताके समान नेह, माताके समान सुख तथा माताके लगता। नखवाले जीवोंका, नदियोंका, सींगवाले समान देवता इहलोक और परलोकमें भी नहीं है। यह पशुओंका, शस्त्र धारण करनेवालोंका, स्त्रियोंका तथा ब्रह्माजीका स्थापित किया हुआ परम धर्म है। जो पुत्र दूतोंका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जिसपर पहले इसका पालन करते हैं, उन्हें उत्तम गति प्राप्त होती है।* कभी विश्वास नहीं किया गया हो, ऐसे पुरुषपर तो विश्वास
नन्दाने कहा-बेटा ! मेरी ही मृत्यु नियत है, तुम करे ही नहीं, जिसपर विश्वास जम गया हो, उसपर भी वहाँ न आना । दूसरेकी मृत्युके साथ अन्य जीवोंकी मृत्यु अत्यन्त विश्वास न करे, क्योंकि [अविश्वसनीयपर] नहीं होती [जिसकी मृत्यु नियत है, उसीकी होती है। विश्वास करनेसे जो भय उत्पन्न होता है, वह विश्वास तुम्हारे लिये माताका यह उत्तम एवं अन्तिम सन्देश है; करनेवालेका समूल नाश कर डालता है। औरोंकी तो मेरे वचनोंका पालन करते हुए यहीं रहो, यही मेरी सबसे बात ही क्या है, अपने शरीरका भी विश्वास नहीं करना बड़ी शुश्रूषा है। जलके समीप अथवा वनमें विचरते हुए चाहिये। भीरुस्वभाववाले बालकका भी विश्वास न करे; कभी प्रमाद न करना; प्रमादसे समस्त प्राणी नष्ट हो जाते क्योंकि बालक डराने-धमकानेपर प्रमादवश गुप्त बात भी है। लोभवश कभी ऐसी घासको चरनेके लिये न जाना, दूसरोंको बता सकते हैं। सर्वत्र और सदा सँघते हुए
* नास्ति मातृसमो नाथो नास्ति मातृसमा गतिः । नास्ति मातृसमः नेहो नास्ति मातृसमं सुखम् ॥
नास्ति मातृसमो देव इहलोके परत्र च। एनं वै परम धर्म प्रजापतिविनिर्मितम् ।ये तिष्ठन्ति सदा पुत्रास्ते यान्ति परमो गतिम्॥
(१८।३५३-५४) + समुद्रमटवीं दुर्ग विशन्ते लोभमोहिताः । लोभादकार्यमत्युप्रै विद्वानपि समाचरेत् ।। लोभात्प्रमादाद्विरम्भात्रिविधैः क्षीयते जगत् । तस्माल्लोभं न कुर्वीत न प्रमादं न विश्वसेत् ॥ आत्मा हि सततं पुत्र रक्षणीयः प्रयत्नतः । सर्वेभ्यः श्वापदेभ्यश्च म्लेच्छचौरादिसङ्कटे॥ तिरक्षा पापयोनीनामेका वसतामपि । विपरीतानि चित्तानि विज्ञायन्ते न पुत्रक । नतिनां च नदीनां च भूङ्गिणां शस्त्रधारिणाम्। विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च ॥ न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् । विश्वासाद्भयमुत्पत्र मूलादपि निकृन्तति । न विश्वसेत् स्वदेहेऽपि बालेऽप्याभीतवेतसि । वक्ष्यन्ति गूढमत्यर्थ सुप्रमत्ते प्रमादतः।
(१८ । ३५९-६५)
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सृष्टिखण्ड ]]
• सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य •
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ही चलना चाहिये; क्योंकि गन्धसे ही गौएँ भली-बुरी वस्तुकी परख कर पाती हैं। भयंकर वनमें कभी अकेला न रहे। सदा धर्मका ही चिन्तन करे। मेरी मृत्युसे तुम्हें घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि एक न एक दिन सबकी मृत्यु निश्चित है जैसे कोई पथिक छायाका आश्रय लेकर बैठ जाता है और विश्राम करके फिर वहाँसे चल देता है, उसी प्रकार प्राणियोंका समागम होता है।* बेटा! तुम शोक छोड़कर मेरे वचनोंका पालन करो।
पुलस्त्यजी कहते हैं - यह कहकर नन्दा पुत्रका मस्तक सूंघकर उसे चाटने लगी और अत्यन्त शोकके वशीभूत हो डबडबायी हुई आँखोंसे बारम्बार लम्बी साँस लेने लगी। तदनन्तर बारम्बार पुत्रको निहारकर वह अपनी माता, सखियों तथा गोपियोंके पास जाकर बोली- 'माताजी! मैं अपने झुंडके आगे चरती हुई चली जा रही थी। इतनेमें ही एक व्याघ्र मेरे पास आ पहुँचा। मैंने अनेकों सौगंधें खाकर उसे लौट आनेका विश्वास दिलाया है; तब उसने मुझे छोड़ा है। मैं बेटेको देखने तथा आपलोगोंसे मिलनेके लिये चली आयी थी; अब फिर वहीं जा रही हूँ माँ! मैंने अपने दुष्ट स्वभावके कारण तुम्हारा जो-जो अपराध किया हो, वह सब क्षमा करना। अब अपने इस नातीको लड़का करके मानना । [सखियोंकी ओर मुड़कर ] प्यारी सखियो ! मैंने जानकर या अनजानमें यदि तुमसे कोई अप्रिय बात कह दी हो अथवा और कोई अपराध किया हो तो उसके लिये तुम सब मुझे क्षमा करना। तुम सब सम्पूर्ण सद्गुणोंसे युक्त हो। तुममें सब कुछ देनेकी शक्ति है। मेरे बालकपर सदा क्षमाभाव रखना मेरा बच्चा दीन, अनाथ और व्याकुल है; इसकी रक्षा करना। मैं तुम्हीं लोगोंको इसे सौंप रही हूँ; अपने पुत्रकी ही भाँति इसका भी पोषण करना। अच्छा, अब क्षमा माँगती हूँ। मैं सत्यको अपना
• 'यथा हि पथिकः कश्चिच्छायामाश्रित्य तिष्ठति । विश्रम्य
चुकी हूँ, अतः व्याघ्रके पास जाऊँगी। सखियोंको मेरे लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये।'
नन्दाकी बात सुनकर उसकी माता और सखियोंको बड़ा दुःख हुआ। वे अत्यन्त आश्चर्य और विषादमें पड़कर बोलीं- 'अहो ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि व्याघ्रके कहनेसे सत्यवादिनी नन्दा पुनः उस भयङ्कर स्थानमें प्रवेश करना चाहती है। शपथ और सत्यके आश्रयसे शत्रुको धोखा दे अपने ऊपर आये हुए महान् भयका यत्नपूर्वक नाश करना चाहिये। जिस उपायसे आत्मरक्षा हो सके, वही कर्तव्य है। नन्दे ! तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिये। अपने नन्हे से शिशुको त्यागकर सत्यके लोभसे जो तू वहाँ जा रही है, यह तुम्हारे द्वारा अधर्म हो रहा है। इस विषयमें धर्मवादी ऋषियोंने पहले एक वचन कहा था, वह इस प्रकार है। प्राणसंकट उपस्थित होनेपर शपथोंके द्वारा आत्मरक्षा करनेमें पाप नहीं लगता। जहाँ असत्य बोलनेसे प्राणियोंकी प्राणरक्षा होती हो, वहाँ वह असत्य भी सत्य है और सत्य भी असत्य है।'+
च पुनर्गच्छेतद्वन्द्भूतसमागमः ॥
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नन्दा बोली- बहिनो ! दूसरोंके प्राण बचानेके लिये मैं भी असत्य कह सकती हूँ। किन्तु अपने लिये अपने जीवनकी रक्षाके लिये मैं किसी तरह झूठ नहीं बोल सकती। जीव अकेले ही गर्भमें आता है, अकेले ही मरता है, अकेले ही उसका पालन-पोषण होता है तथा अकेले ही वह सुख-दुःख भोगता है; अतः मैं सदा सत्य ही बोलूँगी। सत्यपर ही संसार टिका हुआ है, धर्मकी स्थिति भी सत्यमें ही है। सत्यके कारण ही समुद्र अपनी मर्यादाका उल्लङ्घन नहीं करता। राजा बलि भगवान् विष्णुको पृथ्वी देकर स्वयं पातालमें चले गये और छलसे बाँधे जानेपर भी सत्यपर ही डटे रहे। गिरिराज विन्ध्य अपने सौ शिखरोंके साथ बढ़ते-बढ़ते
+उक्त्वानृतं भवेद् यत्र प्राणिनां प्राणरक्षणम्। अनृतं तत्र सत्यं स्यात् सत्यमप्यनृतं भवेत् ॥
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(१८ | ३६८)
(१८ | ३९२)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
बहुत ऊँचे हो गये थे [यहाँतक कि उन्होंने सूर्यका मार्ग परम सत्यका आश्रय लेकर अपने प्राणोंका भी त्याग कर भी रोक लिया था], किन्तु सत्यमें बँध जानेके कारण ही रही हो, जिनका त्याग बड़ा ही कठिन है। कल्याणी ! वे [महर्षि अगस्त्यके साथ किये गये] अपने नियमको इस विषयमें हमलोग क्या कह सकती हैं। तुम तो नहीं तोड़ते। स्वर्ग, मोक्ष तथा धर्म-सब सत्यमें ही धर्मका बीड़ा उठा रही हो। इस सत्यके प्रभावसे प्रतिष्ठित हैं; जो अपने वचनका लोप करता है, उसने त्रिभुवनमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। इस महान् मानो सबका लोप कर दिया। सत्य अगाध जलसे भरा त्यागसे हमलोग यही समझती हैं कि तुम्हारा अपने पुत्रके हुआ तीर्थ है, जो उस शुद्ध सत्यमय तीर्थमें स्नान करता साथ वियोग नहीं होगा। जिस नारीका चित्त है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता कल्याणमार्गमें लगा हुआ है, उसपर कभी आपत्तियाँ है। एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सत्यभाषण-ये दोनों नहीं आतीं। यदि तराजूपर रखे जाये तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंसे पुलस्त्यजी कहते हैं-तदनन्तर गोपियोंसे सत्यका ही पलड़ा भारी रहेगा। सत्य ही उत्तम तप है, मिलकर तथा समस्त गो-समुदायकी परिक्रमा करके सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्रज्ञान है। सत्यभाषणमें किसी वहाँके देवताओं और वृक्षोंसे विदा ले नन्दा वहाँसे चल प्रकारका क्लेश नहीं है। सत्य ही साधुपुरुषोंकी परखके पड़ी। उसने पृथ्वी, वरुण, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, दसों लिये कसौटी है। वही सत्पुरुषोंकी वंश-परम्परागत दिक्पाल, वनके वृक्ष, आकाशके नक्षत्र तथा ग्रह-इन सम्पत्ति है। सम्पूर्ण आश्रयोंमें सत्यका ही आश्रय श्रेष्ठ सबको बारम्बार प्रणाम करके कहा-'इस वनमें जो माना गया है। वह अत्यन्त कठिन होनेपर भी उसका सिद्ध और वनदेवता निवास करते है, वे वनमें चरते हुए पालन करना अपने हाथमें है। सत्य सम्पूर्ण जगत्के मेरे पुत्रकी रक्षा करें।' इस प्रकार पुत्रके नेहवश लिये आभूषणरूप है। जिस सत्यका उच्चारण करके बहुत-सी बातें कहकर नन्दा वहाँसे प्रस्थित हुई और उस म्लेच्छ भी स्वर्गमें पहुँच जाता है, उसका परित्याग कैसे स्थानपर पहुंची, जहाँ वह तीखी दाढ़ों और भयङ्कर किया जा सकता है।*
आकृतिवाला मांसभक्षी बाघ मुँह बाये बैठा था। उसके सखियाँ बोलीं-नन्दे ! तुम सम्पूर्ण देवताओं पहुँचनेके साथ ही उसका बछड़ा भी अपनी पूँछ ऊपरको और दैत्योंके द्वारा नमस्कार करनेयोग्य हो; क्योंकि तुम उठाये अत्यन्त वेगसे दौड़ता हुआ वहाँ आ गया और
* एकः संश्लिष्यते गर्भे मरणे भरणे तथा । भुङ्क्ते वैकः सुख दुःखमतः सत्यं वदाम्यहम्॥
सत्ये प्रतिष्ठिता लोका धर्मः सत्ये प्रतिष्ठितः । उदधिः सत्यवाक्येन मर्यादा न विलयति ॥ विष्णवे पृथिवीं दत्त्वा बलि पातालमास्थितः । छानापि बलिबद्धः सत्यवाक्येन तिष्ठति ॥ प्रवर्द्धमानः शैलेन्द्रः शतङ्गः समुच्छ्रितः । सत्येन संस्थितो विध्यः प्रबन्ध नातिवर्तते ॥ स्वर्गों मोक्षस्तथा धर्मः सर्वे वाचि प्रतिष्ठिताः । यस्तो लोपयते वाचमशेष तेन लोपितम्।
अगाधसलिले शुद्धे सत्यतीर्थे क्षमाहदे । स्नात्वा पापविनिर्मुक्तः प्रयाति परमा गतिम्॥ अश्वमेधसहसं च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसाहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते ॥ सल्यं साधु तपः श्रुतं च परमं केशादिभिर्वर्जितं साधूनां निकयं सतां कुलधन सर्वाश्रयाणां वरम् । खाधीनं च सुदुर्लभं च जगतः साधारणं भूषणं यम्लेच्छोऽप्यभिधाय गच्छति दिवं तस्यज्यते वा कथम् ॥
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सृष्टिखण्ड]
सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य .
अपनी माता और व्याघ्र दोनोंके आगे खड़ा हो गया। आजसे तुम मेरी बहिन हुई और यह तुम्हारा पुत्र मेरा पुत्रको आया देख तथा सामने खड़े हुए मृत्युरूप बाघपर भानजा हो गया। शुभे! तुमने अपने आचरणसे मुझ
महान् पापीको यह उपदेश दिया है कि सत्यपर ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। सत्यके ही आधारपर धर्म टिका हुआ है। कल्याणी ! तृण और लताओंसहित भूमिके वे प्रदेश धन्य हैं, जहाँ तुम निवास करती हो। जो तुम्हारा दूध पीते हैं, वे धन्य है, कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पुण्य किया है और उन्होंने ही जन्मका फल पाया है। देवताओंने मेरे सामने यह आदर्श रखा है; गौओंमें ऐसा सत्य है, यह देखकर अब मुझे अपने जीवनसे अरुचि हो गयी। अब मैं वह कर्म करुगा, जिसके द्वारा पापसे छुटकारा पा जाऊँ। अबतक मैंने हजारों जीवोंको मारा
और खाया है। मैं महान् पापी, दुराचारी, निर्दयी और हत्यारा हूँ। पता नहीं, ऐसा दारुण कर्म करके मुझे किन लोकोंमें जाना पड़ेगा। बहिन ! इस समय मुझे अपने
पापोंसे शुद्ध होनेके लिये जैसी तपस्या करनी चाहिये, Aay
उसे संक्षेपमें बताओ; क्योंकि अब विस्तारपूर्वक सुननेका दृष्टि डालकर उस गौने कहा-'मृगराज ! मैं सत्यधर्मका समय नहीं है। पालन करती हुई तुम्हारे पास आ गयी हूँ अब मेरे मांससे गाय बोली-भाई बाघ ! विद्वान् पुरुष तुम इच्छानुसार अपनी तृप्ति करो।
सत्ययुगमें तपकी प्रशंसा करते हैं और त्रेतामें ज्ञान तथा व्याघ्र बोला-गाय ! तुम बड़ी सत्यवादिनी उसके सहायक कर्मकी। द्वापरमें यज्ञोंको ही उत्तम निकली। कल्याणी ! तुम्हारा स्वागत है। सत्यका आश्रय बतलाते हैं, किन्तु कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ माना लेनेवाले प्राणियोंका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता। गया है। सम्पूर्ण दानों में एक ही दान सर्वोत्तम है। वह तुमने लौटनेके लिये जो पहले सत्यपूर्वक शपथ की थी, है-सम्पूर्ण भूतोंको अभय-दान। इससे बढ़कर दूसरा उसे सुनकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ था कि यह जाकर कोई दान नहीं है। जो समस्त चराचर प्राणियोंको फिर कैसे लौटेगी। तुम्हारे सत्यकी परीक्षाके लिये ही मैंने अभय-दान देता है, वह सब प्रकारके भयसे मुक्त होकर पुनः तुम्हें भेज दिया था। अन्यथा मेरे पास आकर तुम परब्रह्मको प्राप्त होता है। अहिंसाके समान न कोई दान जीती-जागती कैसे लौट सकती थी। मेरा वह कौतूहल है, न कोई तपस्या । जैसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य सभी पूरा हुआ। मैं तुम्हारे भीतर सत्य खोज रहा था, वह मुझे प्राणियोंके पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसाके मिल गया। इस सत्यके प्रभावसे मैंने तुम्हें छोड़ दिया; द्वारा सभी धर्म प्राप्त हो जाते हैं।* योग एक ऐसा वृक्ष
* तपः कृते प्रशंसन्ति त्रेतायां ज्ञानकर्म च । द्वापर यशमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे । पर्वेषामेव दानानामिदमेबैकमुत्तमम् । अभयं सर्वभूतानां नास्ति दानमतः परम् ॥ चराचराणां भूतानामभयं यः प्रयच्छति । स सर्वभयसत्यक्तः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ नास्त्यहिंसासमं दानं नात्यहिंसासमं तपः । यथा हस्तिपदे ह्यन्यत्पदं सर्व प्रलीयते ॥
सर्व धर्मास्तथा व्याघ्र प्रतीवन्ते ह्यहिंसया।
(१८।४३७-४४१)
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• अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त परापुराण
है, जिसकी छाया तीनों तापोंका विनाश करनेवाली है। पुलस्त्यजी कहते हैं-नन्दाका नाम कानमें पड़ते धर्म और ज्ञान उस वृक्षके फूल हैं। स्वर्ग तथा मोक्ष ही राजा प्रभञ्जन शापसे मुक्त हो गये। उन्होंने पुनः बल उसके फल हैं। जो आध्यात्मिक, आधिदैविक और और रूपसे सम्पन्न राजाका शरीर प्राप्त कर लिया। इसी आधिभौतिक-इन तीनों प्रकारके दुःखोंसे सन्तप्त हैं, वे समय सत्यभाषण करनेवाली यशस्विनी नन्दाका दर्शन इस योगवृक्षकी छायाका आश्रय लेते हैं। वहाँ जानेसे करनेके लिये साक्षात् धर्म वहाँ आये और इस प्रकार उन्हें उत्तम शान्ति प्राप्त होती है, जिससे फिर कभी बोले-'नन्दे ! मैं धर्म हूँ, तुम्हारी सत्य वाणीसे आकृष्ट दुःखोंके द्वारा वे बाधित नहीं होते । यही परम कल्याणका होकर यहाँ आया हूँ। तुम मुझसे कोई श्रेष्ठ वर माँग लो।' साधन है, जिसे मैंने संक्षेपसे बताया है। तुम्हें ये सभी धर्मके ऐसा कहनेपर नन्दाने यह वर माँगा–'धर्मराज ! बातें ज्ञात है, केवल मुझसे पूछ रहे हो।
आपकी कृपासे मैं पुत्रसहित उत्तम पदको प्राप्त होऊँ तथा व्याघ्रने कहा-पूर्वकालमें मैं एक राजा था; यह स्थान मुनियोंको धर्मप्रदान करनेवाला शुभ तीर्थ बन किन्तु एक मृगीके शापसे मुझे बाघका शरीर धारण करना जाय । देवेश्वर ! यह सरस्वती नदी आजसे मेरे ही नामसे पड़ा। तबसे निरन्तर प्राणियोंका वध करते रहनेके कारण प्रसिद्ध हो-इसका नाम 'नन्दा' पड़ जाय। आपने वर मुझे सारी बातें भूल गयी थीं। इस समय तुम्हारे सम्पर्क देनेको कहा, इसलिये मैंने यही वर माँगा है।' और उपदेशसे फिर उनका स्मरण हो आया है, तुम भी [पुत्रसहित] देवी नन्दा तत्काल ही सत्यवादियोंके अपने इस सत्यके प्रभावसे उत्तम गतिको प्राप्त होगी। अब उत्तम लोकमें चली गयी। राजा प्रभञ्जनने भी अपने मैं तुमसे एक प्रश्न और पूछता हूँ। मेरे सौभाग्यसे तुमने पूर्वोपार्जित राज्यको पा लिया। नन्दा सरस्वतीके तटसे आकर मुझे धर्मका स्वरूप बताया, जो सत्पुरुषोंके मार्गमें स्वर्गको गयी थी, [तथा उसने धर्मराजसे इस आशयका प्रतिष्ठित है। कल्याणी ! तुम्हारा नाम क्या है? वरदान भी माँगा था। इसलिये विद्वानोंने वहाँ
नन्दा बोली-मेरे यूथके स्वामीका नाम 'नन्द' है; 'सरस्वती का नाम नन्दा रख दिया । जो मनुष्य वहाँ आते उन्होंने ही मेरा नाम 'नन्दा' रख दिया है।
समय सरस्वतीके नामका उच्चारणमात्र कर लेता है, वह जीवनभर सुख पाता है और मृत्युके पश्चात् देवता होता है। स्नान और जलपान करनेसे सरस्वती नदी मनुष्योंके लिये स्वर्गकी सीढ़ी बन जाती है। अष्टमीके दिन जो लोग एकाग्रचित होकर सरस्वतीमें स्रान करते हैं, वे मृत्युके बाद स्वर्गमें पहुँचकर सुख भोगते हुए आनन्दित होते हैं। सरस्वती नदी सदा ही खियोंको सौभाग्य प्रदान करनेवाली है। तृतीयाको यदि उसका सेवन किया जाय तो वह विशेष सौभाग्यदायिनी होती है। उस दिन उसके दर्शनसे भी मनुष्यको पाप-राशिसे छुटकारा मिल जाता है। जो पुरुष उसके जलका स्पर्श करते हैं, उन्हें भी मुनीश्वर समझना चाहिये । वहाँ चाँदी दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है। ब्रह्माकी पुत्री यह सरस्वती नदी परम पावन और पुण्यसलिला है, यही नन्दा नामसे प्रसिद्ध है। फिर जब यह स्वच्छ जलसे युक्त हो दक्षिण दिशाकी ओर प्रवाहित होती है, तब विपुला या विशाला नाम
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सृष्टिखण्ड]
• पुष्करका माहात्य, अगस्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्यके प्रभावका वर्णन .
धारण करती है। वहाँसे कुछ ही दूर आगे जाकर यह सिद्ध पुरुषोंद्वारा भलीभाँति सेवित है। नन्दा तीर्थमे नान पुनः पश्चिम दिशाकी ओर मुड़ गयी है। वहाँसे करके यदि मनुष्य सुवर्ण और पृथ्वी आदिका दान करे सरस्वतीकी धारा प्रकट देखी जाती है। उसके तटोंपर तो वह महान् अभ्युदयकारी तथा अक्षय फल प्रदान अत्यन्त मनोहर तीर्थ और देवमन्दिर है, जो मुनियों और करनेवाला होता है।
पुष्करका माहात्म्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्यके प्रभावका वर्णन भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! अब आप मुझे यह चारणोंका आगमन होता है, अतः उक्त तिथिको बतानेकी कृपा करें कि वेदवेता ब्राह्मण तीनों पुष्करोंकी देवताओं और पितरोंके पूजनमें प्रवृत्त हो मनुष्यको वहाँ यात्रा किस प्रकार करते हैं तथा उसके करनेसे मनुष्योंको स्नान करना चाहिये। इससे वह अभय पदको प्राप्त होता क्या फल मिलता है?
है और अपने कुलका भी उद्धार करता है। वहाँ पुलस्त्यजीने कहा-राजन् ! अब एकाग्रचित्त देवताओं और पितरोंका तर्पण करके मनुष्य विष्णुलोकमें होकर तीर्थ-सेवनके महान् फलका श्रवण करो। जिसके प्रतिष्ठित होता है। ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करनेसे उसका हाथ, पैर और मन संयममें रहते हैं तथा जो विद्वान्, स्वरूप चन्द्रमाके समान निर्मल हो जाता है तथा वह तपस्वी और कीर्तिमान होता है, वही तीर्थ-सेवनका फल ब्रह्मलोक एवं उत्तम गतिको प्राप्त होता है। मनुष्यप्राप्त करता है। जो प्रतिग्रहसे दूर रहता है-किसीका लोकमें देवाधिदेव ब्रह्माजीका यह पुष्कर नामसे प्रसिद्ध दिया हुआ दान नहीं लेता, प्रारब्धवश जो कुछ प्राप्त हो तीर्थ त्रिभुवनमें विख्यात है। यह बड़े-बड़े पातकोंका जाय-उसीसे सन्तुष्ट रहता है तथा जिसका अहङ्कार दूर नाश करनेवाला है। पुष्करमें तीनों सन्ध्याओंके हो गया है, ऐसे मनुष्यको ही तीर्थ-सेवनका पूरा फल समय-प्रातःकाल, मध्याह्न एवं सायंकालमें दस हजार मिलता है। राजेन्द्र ! जो स्वभावतः क्रोधहीन, सत्यवादी, करोड़ (एक खरब) तीर्थ उपस्थित रहते है तथा दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, गन्धर्व और प्राणियोंमे आत्मभाव रखनेवाला है, उसे तीर्थ-सेवनका अप्सराओंका भी प्रतिदिन आगमन होता है। वहाँ तपस्या फल प्राप्त होता है।* यह ऋषियोंका परम गोपनीय करके कितने ही देवता, दैत्य तथा ब्रह्मर्षि दिव्य योगसे सिद्धान्त है।
सम्पन्न एवं महान् पुण्यशाली हो गये। जो मनसे भी राजेन्द्र ! पुष्कर तीर्थ करोड़ों ऋषियोंसे भरा है, पुष्कर तीर्थके सेवनकी इच्छा करता है, उस मनस्वीके उसकी लम्बाई ढाई योजन (दस कोस) और चौड़ाई सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। महाराज ! उस तीर्थमें देवता आधा योजन (दो कोस) है। यही उस तीर्थका परिमाण और दानवोंके द्वारा सम्मानित भगवान् ब्रह्माजी सदा ही है। वहाँ जानेमात्रसे मनुष्यको राजसूय और अश्वमेध प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। वहाँ देवताओं और यज्ञका फल प्राप्त होता है, जहाँ अत्यन्त पवित्र सरस्वती ऋषियोंने महान् पुण्यसे युक्त होकर इच्छानुसार सिद्धियाँ नदीने ज्येष्ठ पुष्करमें प्रवेश किया है, वहाँ चैत्र शुक्रा प्राप्त की हैं। जो मनुष्य देवताओं और पितरोंके पूजनमें चतुर्दशीको ब्रह्मा आदि देवताओं, ऋषियो, सिद्धों और तत्पर हो वहाँ स्नान करता है, उसके पुण्यको मनीषी
• यस्य हस्तौ च पादौ च मनचैव सुसयतम् । विद्या तपश्च कीर्तिध स तीर्थफलमश्रुते ।। प्रतिग्रहादुपावृतः संतुष्टो येन केनचित् । अहंकारनिवृत्तथ स तीर्थफलमश्रुते॥ अक्रोधनक्ष राजेन्द्र सत्यशीलो दृढव्रतः । आत्मोपमच भूतेषु स तीर्थफलमश्रुते॥
(१९।८-१०)
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• अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
पुरुष अश्वमेध यज्ञकी अपेक्षा दसगुना अधिक बतलाते निवास करता है, उन दोनोंका फल एक-सा ही होता है। है। पुष्करारण्यमें जाकर जो एक ब्राह्मणको भी भोजन पुष्करमें निवास दुर्लभ है, पुष्करमें तपस्याका सुयोग कराता है, उसके उस अनसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको पूर्ण मिलना कठिन है। पुष्करमें दान देनेका सौभाग्य भी तृप्तिपूर्वक भोजन करानेका फल होता है तथा उस मुश्किलसे प्राप्त होता है तथा वहाँकी यात्राका सुयोग भी पुण्यकर्मके प्रभावसे वह इहलोक और परलोकमें भी दुर्लभ है।* वेदवेत्ता ब्राह्मण ज्येष्ठ पुष्करमें जाकर मान आनन्द मनाता है। [अन्न न हो तो] शाक, मूल अथवा करनेसे मोक्षका भागी होता है और श्राद्धसे वह पितरोंको फल-जिससे वह स्वयं जीवन-निर्वाह करता हो, तार देता है। जो ब्राह्मण वहाँ जाकर नाममात्रके लिये भी वही-दोष-दृष्टिका परित्याग करके श्रद्धापूर्वक सन्ध्योपासन करता है, उसे बारह वर्षोंतक सन्ध्योपासन ब्राह्मणको अर्पण करे। उसीके दानसे मनुष्य अश्वमेध करनेका फल प्राप्त हो जाता है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने यज्ञका फल प्राप्त करता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य स्वयं ही यह बात कही थी। जो अकेले भी कभी पुष्कर अथवा शूद्र-सभी इस तीर्थमें स्रान-दानादि पुण्यके तीर्थमें चला जाय, उसको चाहिये कि झारीमें पुष्करका अधिकारी है। ब्रह्माजीका पुष्कर नामक सरोवर परम जल लेकर क्रमशः सन्ध्या-वन्दन कर ले, ऐसा करनेसे पवित्र तीर्थ है। वह वानप्रस्थियों, सिद्धों तथा मुनियोंको भी उसे बारह वर्षातक निरन्तर सन्ध्योपासन करनेका भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। परम पावन सरस्वती नदी फल प्राप्त हो जाता है। जो पत्नीको पास बिठाकर दक्षिण पुष्करसे ही महासागरकी ओर गयी है। वहाँ महायोगी दिशाकी ओर मुँह करके गायत्री मन्त्रका जप करते हुए आदिदेव मधुसूदन सदा निवास करते हैं। वे वहाँ तर्पण करता है, उसके उस तर्पणद्वारा बारह वर्षोंतक आदिवराहके नामसे प्रसिद्ध हैं तथा सम्पूर्ण देवता उनकी पितरोंको पूर्ण तृप्ति बनी रहती है। फिर पिण्डदानपूर्वक पूजा करते रहते हैं। विशेषतः कार्तिककी पूर्णिमाको जो श्राद्ध करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। इसीलिये पुष्कर तीर्थकी यात्रा करता है, वह अक्षय फलका भागी विद्वान् पुरुष यह सोचकर स्त्रीके साथ विवाह करते हैं कि होता है-ऐसा मैंने सुना है।
हम तीर्थमें जाकर श्रद्धापूर्वक पिण्डदान करेंगे। जो ऐसा , कुरुनन्दन ! जो सायंकाल और सबेरे हाथ जोड़कर करते हैं, उनके पुत्र, धन, धान्य और सन्तानका कभी तीनों पुष्करोंका स्मरण करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें उच्छेद नहीं होता-यह निःसन्दिग्ध बात है। आचमन करनेका फल प्राप्त होता है। स्त्री हो या पुरुष, राजन् ! अब मैं तुमसे इस तीर्थके आश्रमोंका पुष्करमें स्नान करनेमात्रसे उसके जन्मभरका सारा पाप वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। महर्षि नष्ट हो जाता है। जैसे सम्पूर्ण देवताओंमें ब्रह्माजी श्रेष्ठ अगस्त्यने इस तीर्थमें अपना आश्रम बनाया है, जो है, उसी प्रकार सब तीर्थोंमें पुष्कर ही आदि तीर्थ बताया देवताओंके आश्रमकी समानता करता है। पूर्वकालमें गया है। जो पुष्करमें संयम और पवित्रताके साथ दस यहाँ सप्तर्षियोंका भी आश्रम था। ब्रह्मर्षियों और मनुओंने वर्षातक निवास करता हुआ ब्रह्माजीका दर्शन करता है, भी यहाँ आश्रम बनाया था। यज्ञ-पर्वतके किनारे यहाँ वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें नागोंको रमणीय पुरी भी है। महाराज! मैं महामना ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोतक अग्निहोत्र अगस्त्यजीके प्रभावका संक्षेपसे वर्णन करता हैं, ध्यान करता है और कार्तिककी एक ही पूर्णिमाको पुष्करमें देकर सुनो। पहलेकी बात है-सत्ययुगमें कालकेय
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*पुष्करे दुष्करो वासः पुष्करे दुष्करं तपः ॥ पुष्को दुष्कर दान गर्नु चैव सुदुष्करम्॥
(१९।४५-४६)
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सृष्टिखण्ड]
के प्रभावका वर्णन . • पुष्करका माहात्म्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन •
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नामसे प्रसिद्ध दानव रहते थे। उनका स्वभाव अत्यन्त पुलस्त्यजी कहते हैं-ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर कठोर था तथा वे युद्धके लिये सदा उन्मत्त रहते थे। एक समस्त देवता उनकी आज्ञा ले इन्द्रको आगे करके समय वे सभी दानव नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे दधीचिके आश्रमपर गये। वह सरस्वती नदीके उस पार सुसज्जित हो वृत्रासुरको बीचमें करके इन्द्र आदि बना हुआ था। नाना प्रकारके वृक्ष और लताएँ उसे घेरे देवताओंपर चारों ओरसे चढ़ आये। तब देवतालोग हुए थीं। वहाँ पहुँचकर देवताओंने सूर्यके समान तेजस्वी इन्द्रको आगे करके ब्रह्माजीके पास गये। उन्हें हाथ महर्षि दधीचिका दर्शन किया और उनके चरणोंमें प्रणाम जोड़कर खड़े देख ब्रह्माजीने कहा-"देवताओ! करके ब्रह्माजीके कथनानुसार वरदान मांगा। तब तुमलोग जो कार्य करना चाहते हो, वह सब मुझे मालूम दधीचिने अत्यन्त प्रसन्न होकर देवताओंको प्रणाम करके है। मैं ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे तुम वृत्रासुरका वध यह कार्य-साधक वचन कहा-'अहो ! आज इन्द्र कर सकोगे। दधीचि नामके एक महर्षि हैं, उनकी बुद्धि आदि सम्पूर्ण देवता यहाँ किसलिये पधारे हैं ? मैं देखता बड़ी ही उदार है। तुम सब लोग एक साथ जाकर उनसे हूँ आप सब लोगोंकी कान्ति फीकी पड़ गयी है, वर माँगो । वे धर्मात्मा है, अतः प्रसन्नचित्त होकर तुम्हारी आपलोग पीड़ित जान पड़ते हैं। जिस कारणसे आपके माँग पूरी करेंगे। तुम उनसे यही कहना कि 'आप हृदयको कष्ट पहुँच रहा है, उसे शान्तिपूर्वक बताइये।' त्रिभुवनका हित करनेके लिये अपनी हड्डियाँ हमें प्रदान देवता बोले-महर्षे ! यदि आपकी हड्डियोंका करें।' निश्चय ही वे अपना शरीर त्यागकर तुम्हें हड्डियाँ शस्त्र बनाया जाय तो उससे देवताओंका दुःख दूर हो अर्पण कर देंगे। उनकी हडियोसे तुमलोग अत्यन्त भयंकर सकता है। एवं सुदृढ़ वज्र तैयार करो, जो दिव्य-शक्तिसे सम्पन्न उत्तम दधीचिने कहा-देवताओ! जिससे आपअस्त्र होगा। उससे बिजलीके समान गड़गड़ाहट पैदा लोगोंका हित होगा, वह कार्य में अवश्य करूँगा। होगी और वह महान्-से-महान् शत्रुका विनाश करनेवाला आज आपलोगोंके लिये मैं अपने इस शरीरका भी त्याग होगा। उसी वज्रसे इन्द्र वृत्रासुरका वध करेंगे।" करता हूँ।
ऐसा कहकर मनुष्योंमें श्रेष्ठ महर्षि दधीचिने सहसा अपने प्राणोंका परित्याग कर दिया। तब सम्पूर्ण देवताओंने आवश्यकताके अनुसार उनके शरीरसे हड्डियाँ निकाल ली। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे विजय पानेके लिये विश्वकर्माके पास जाकर बोले-'आप इन हड्डियोंसे वनका निर्माण कीजिये।' देवताओंके वचन सुनकर विश्वकर्माने बड़े हर्षके साथ प्रयत्नपूर्वक उग्र शक्ति-सम्पन्न वज्रास्त्रका निर्माण किया और इन्द्रसे कहा-'देवेश्वर ! यह वज्र सब अस्त्रशस्त्रोमें श्रेष्ठ है, आप इसके द्वारा देवताओंके भयंकर शत्रु वृत्रासुरको भस्म कीजिये।' उनके ऐसा कहनेपर इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने शुद्ध भावसे उस वज्रको ग्रहण किया।
तदनन्तर इन्द्र देवताओंसे सुरक्षित हो, वज्र हाथमें लिये, वृत्रासुरका सामना करनेके लिये गये, जो
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पृथ्वी और आकाशको घेरकर खड़ा था। कालकेय शेष दैत्योंको मारने लगे। देवताओंकी मार पड़नेपर वे नामके विशालकाय दानव हाथोंमें शस्त्र उठाये चारों महान् असुर भयसे पीड़ित हो वायुके समान वेगसे
ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। फिर तो दानवोंके साथ भागकर अगाध समुद्रमें जा छिपे। वहाँ एकत्रित होकर देवताओंका भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। दो घड़ीतक तो सब-के-सब तीनों लोकोका नाश करनेके लिये आपसमें ऐसी मार-काट हुई, जो सम्पूर्ण लोकको महान् भयमें सलाह करने लगे। उनमें जो विचारक थे, उन्होंने नाना डालनेवाली थी। वीरोकी भुजाओंसे चलायी हुई तलवारें प्रकारके उपाय बतलाये-तरह-तरहकी युक्तियाँ जब शत्रुके शरीरपर पड़ती थीं, तब बड़े जोरका शब्द सुझायौं । अन्ततोगत्वा यह निश्चय हुआ कि 'तपस्यासे ही होता था। आकाशसे पृथ्वीपर गिरते हुए मस्तक ताड़के सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं, इसलिये उसीका क्षय करनेके फलोंके समान जान पड़ते थे। उनसे वहाँकी सारी भूमि लिये शीघ्रता की जाय । पृथ्वीपर जो कोई भी तपस्वी, पटी हुई दिखायी देती थी। उस समय सोनेके कवच धर्मज्ञ और विद्वान् हो, उनका तुरंत वध कर दिया जाय। पहने हुए कालकेय दानव दावानलसे जलते हुए वृक्षोंके उनके नष्ट हो जानेपर सम्पूर्ण जगत्का स्वयं ही नाश समान प्रतीत होते थे। वे हाथोंमें परिघ लेकर हो जायगा। देवताओंपर टूट पड़े। उन्होंने एक साथ मिलकर बड़े उन सबकी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये उपर्युक्त वेगसे धावा किया था। यद्यपि देवता भी एक साथ प्रकारसे संसारके विनाशका निश्चय करके वे बहुत प्रसन्न संगठित होकर ही युद्ध कर रहे थे, तो भी वे उन हुए। समुद्ररूप दुर्गका आश्रय लेकर उन्होंने त्रिभुवनका दानवोंके वेगको न सह सके। उनके पैर उखड़ गये, वे विनाश आरम्भ किया। वे रातमें कुपित होकर निकलते भयभीत होकर भाग खड़े हुए। देवताओंको डरकर और पवित्र आश्रमों तथा मन्दिरोंमें जो भी मुनि मिलते, भागते और वृत्रासुरको प्रबल होते देख हजार आँखोंवाले उन्हें पकड़कर खा जाते थे। उन दुरात्माओंने वसिष्ठके इन्द्रको बड़ी घबराहट हुई। इन्द्रकी ऐसी अवस्था देख आश्रममें जाकर आठ हजार आठ ब्राह्मणोंका भक्षण कर सनातन भगवान् श्रीविष्णुने उनके भीतर अपने तेजका लिया तथा उस वनमें और भी जितने तपस्वी थे, उन्हें सञ्चार करके उनके बलको बढ़ाया। इन्द्रको श्रीविष्णुके भी मौतके घाट उतार दिया। महर्षि च्यवनके पवित्र तेजसे परिपूर्ण देख देवताओं तथा निर्मल अन्तःकरण- आश्रमपर, जहाँ बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर वाले ब्रह्मर्षियोंने भी उनमें अपने-अपने तेजका सञ्चार उन्होंने फल-मूलका आहार करनेवाले सौ मुनियोंको किया। इस प्रकार भगवान् श्रीविष्णु, देवता तथा अपना ग्रास बना लिया। इस प्रकार रातमें वे मुनियोंका महाभाग महर्षियोंके तेजसे वृद्धिको प्राप्त होकर इन्द्र संहार करते और दिनमें समुद्रके भीतर घुस जाते थे। अत्यन्त बलवान् हो गये।
भरद्वाजके आश्रमपर जाकर उन दानवोंने वायु और जल देवराज इन्द्रको सबल जान वृत्रासुरने बड़े जोरसे पीकर संयम-नियमके साथ रहनेवाले बीस ब्रह्मचारियोंकी सिंहनाद किया। उसकी विकट गर्जनासे पृथ्वी, दिशाएँ, हत्या कर डाली। इस तरह बहुत दिनोंतक उन्होंने अन्तरिक्ष, धुलोक और आकाशमें सभी काँप उठे। वह मुनियोंका भक्षण जारी रखा, किन्तु मनुष्योंको इन भयंकर सिंहनाद सुनकर इन्द्रको बड़ा सन्ताप हुआ। हत्यारोंका पता नहीं चला। उस समय कालकेयोंके उनके हृदयमें भय समा गया और उन्होंने बड़ी भयसे पीड़ित होकर सारा जगत् [धर्म-कर्मकी ओरसे] उतावलीके साथ अपना महान् वज्रास्त्र उसके ऊपर छोड़ निरुत्साह हो गया। स्वाध्याय बंद हो गया। यज्ञ और दिया। इन्द्रके वज्रका आघात पाकर वह महान् असुर उत्सव समाप्त हो गये। मनुष्योंकी संख्या दिनोंदिन क्षीण निष्प्राण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तत्पश्चात् सम्पूर्ण होने लगी, वे भयभीत होकर आत्मरक्षाके लिये दसों देवता तुरंत आगे बढ़कर वृत्रासुरके वधसे सन्तप्त हुए दिशाओंमें दौड़ने लगे; कोई द्विज गुफाओंमें छिप गये,
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सृष्टिखण्ड ]
. पुष्करका माहात्म्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन •
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दूसरोंने झरनोंकी शरण ली, कितनोंने भयसे व्याकुल बताता हूँ, निश्चिन्त होकर सुनो। कालकेय नामसे होकर प्राण त्याग दिये। इस प्रकार यज्ञ और उत्सवोंसे विख्यात जो दानवोंका समुदाय है, वह बड़ा ही निष्ठुर रहित होकर जब सारा जगत् नष्ट होने लगा, तब इन्द्र- है। उन दानवोंने ही परस्पर मिलकर सम्पूर्ण जगत्को सहित सम्पूर्ण देवता व्यथित होकर भगवान् श्रीनारायणकी कष्ट पहुँचाना आरम्भ किया है। वे इन्द्रके द्वारा शरणमें गये और इस प्रकार स्तुति करने लगे। वृत्रासुरको मारा गया देख अपनी जान बचानेके लिये
देवता बोले-प्रभो! आप ही हमारे जन्मदाता समुद्रमें घुस गये थे। नाना प्रकारके प्राहोंसे भरे हुए और रक्षक हैं। आप ही संसारका भरण-पोषण करने- भयङ्कर समुद्रमें रहकर वे जगत्का विनाश करनेके वाले हैं। चर और अचर-सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि लिये रातमें मुनियोंको खा जाते हैं। जबतक वे समुद्रके आपसे ही हुई है। कमलनयन ! पूर्वकालमें यह भूमि भीतर छिपे रहेंगे, तबतक उनका नाश होना असम्भव नष्ट होकर रसातलमें चली गयी थी। उस समय आपने है, इसलिये अब तुमलोग समुद्रको सुखानेका कोई ही वराहरूप धारण करके संसारके हितके लिये इसका उपाय सोचो। समुद्रसे उद्धार किया था। पुरुषोत्तम ! आदिदैत्य पुलस्त्यजी कहते हैं-भगवान् श्रीविष्णुके ये हिरण्यकशिपु बड़ा पराक्रमी था, तो भी आपने वचन सुनकर देवता ब्रह्माजीके पास आकर वहाँसे महर्षि नरसिंहरूप धारण करके उसका वध कर डाला। इस अगस्त्यके आश्रमपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने प्रकार आपके बहुत-से ऐसे [अलौकिक] कर्म है, मित्रावरुणके पुत्र परम तेजस्वी महात्मा अगस्त्य ऋषिको जिनकी गणना नहीं हो सकती। मधुसूदन ! हमलोग देखा। अनेकों महर्षि उनकी सेवामें लगे थे। उनमें भयभीत हो रहे हैं, अब आप ही हमारी गति हैं; इसलिये प्रमादका लेश भी नहीं था। वे तपस्याकी राशि जान देवदेवेश्वर ! हम आपसे लोककी रक्षाके लिये प्रार्थना पड़ते थे। ऋषिलोग उनके अलौकिक कर्मोकी चर्चा करते हैं। सम्पूर्ण लोकोंकी, देवताओंकी तथा इन्द्रकी करते हुए उनकी स्तुति कर रहे थे। महान् भयसे रक्षा कीजिये। आपकी ही कृपासे देवता बोले-महर्षे ! पूर्वकालमें जब राजा [अण्डज, स्वेदज, जरायुज एवं उद्भिज्ज-] चार नहुषके द्वारा लोकोंको कष्ट पहुंच रहा था, उस समय भागोंमें बैंटी हुई सम्पूर्ण प्रजा जीवन धारण करती है। आपने संसारके हितके लिये उन्हें इन्द्र-पदसे भ्रष्ट किया आपकी ही दयासे मनुष्य स्वस्थ होंगे और देवताओंकी और इस प्रकार लोकका काँटा दूर करके आप जगत्के हव्य-कव्योंसे तृप्ति होगी। इस प्रकार देव-मनुष्यादि आश्रयदाता हुए। जिस समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्याचल सम्पूर्ण लोक एक-दूसरेके आश्रित हैं। आपके ही सूर्यके ऊपर क्रोध करके बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था; अनुग्रहसे इन सबका उद्वेग शान्त हो सकता है तथा उस समय आपने ही उसे नतमस्तक किया; तबसे आपके द्वारा ही इनकी पूर्णतया रक्षा होनी सम्भव है। आजतक आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ वह पर्वत भगवन् ! संसारके ऊपर बड़ा भारी भय आ पहुंचा है। बढ़ता नहीं। जब सारा जगत् अन्धकारसे आच्छादित था पता नहीं, कौन रात्रिमें जा-जाकर ब्राह्मणोंका वध कर और प्रजा मृत्युसे पीड़ित होने लगी, उस समय आपको डालता है। ब्राह्मणोंका क्षय हो जानेपर समूची पृथ्वीका ही अपना रक्षक समझकर प्रजा आपको शरणमें आयी नाश हो जायगा। अतः महाबाहो ! जगत्पते ! आप ऐसी और उसे आपके द्वारा परम आनन्द एवं शान्तिकी प्राप्ति कृपा करें, जिससे आपके द्वारा सुरक्षित होकर इन हुई। जब-जब हमलोगोंपर भयका आक्रमण हुआ, लोकोंका विनाश न हो।
तब-तब सदा ही आपने हमें शरण दी हैइसलिये आज __ भगवान् श्रीविष्णु बोले-देवताओ ! मुझे भी हम आपसे एक वरकी याचना करते हैं। आप प्रजाके विनाशका सारा कारण मालूम है। मैं तुम्हें भी वरदाता हैं [अतः हमारी इच्छा पूर्ण कीजिये] ।
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भीष्मजीने पूछा- महामुने! क्या कारण था, जिससे विन्ध्य पर्वत सहसा क्रोधसे मूर्च्छित हो बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था ?
पुलस्त्यजीने कहा- सूर्य प्रतिदिन उदय और अस्तके समय सुवर्णमय महापर्वत गिरिराज मेरुकी परिक्रमा किया करते हैं। एक दिन सूर्यको देखकर विन्ध्याचलने उनसे कहा- 'भास्कर ! जिस प्रकार आप प्रतिदिन मेरुपर्वतकी परिक्रमा किया करते हैं, उसी प्रकार मेरी भी कीजिये।' यह सुनकर सूर्यने गिरिराज विन्ध्यसे कहा- 'शैल! मैं अपनी इच्छासे मेरुकी परिक्रमा नहीं करता; जिन्होंने इस संसारकी सृष्टि की है, उन विधाताने ही मेरे लिये यह मार्ग नियत कर दिया है।' उनके ऐसा कहनेपर विन्ध्याचलको सहसा क्रोध हो आया और वह सूर्य तथा चन्द्रमाका मार्ग रोकनेके लिये बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया। तब इन्द्रादि सम्पूर्ण देवताओंने जाकर बढ़ते हुए गिरिराज विन्ध्याचलको रोका, किन्तु उसने उनकी बात नहीं मानी। तब वे महर्षि अगस्त्यके पास जाकर बोले- 'मुनीश्वर शैलराज विन्ध्य क्रोधके वशीभूत होकर सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंका मार्ग रोक रहा है; उसे कोई निवारण नहीं कर पाता।'
देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्मर्षि अगस्त्यजी विन्ध्यके पास गये और आदरपूर्वक बोले'पर्वतश्रेष्ठ ! मैं दक्षिण दिशामें जानेके लिये तुमसे मार्ग चाहता हूँ; जबतक मैं लौटकर न आऊँ, तबतक तुम नीचे रहकर ही मेरी प्रतीक्षा करो।' [मुनिकी बात मानकर विन्ध्याचलने वैसा ही किया।] महर्षि अगस्त्य दक्षिण दिशासे आजतक नहीं लौटे; इसीसे विन्ध्य पर्वत अब नहीं बढ़ता। भीष्म ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यह प्रसङ्ग मैंने सुना दिया; अब देवताओंने जिस प्रकार कालकेय दैत्योंका वध किया, वह वृत्तान्त सुनो।
देवताओंके वचन सुनकर महर्षि अगस्त्यने पूछा'आपलोग किसलिये यहाँ आये हैं और मुझसे क्या वरदान चाहते हैं?' उनके इस प्रकार पूछनेपर देवताओंने कहा-' -'महात्मन्! हम आपसे एक अद्भुत वरदान चाहते हैं। महर्षे! आप कृपा करके समुद्रको पी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
जाइये। आपके ऐसा करनेपर हमलोग देवद्रोही कालकेय नामक दानवोंको उनके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालेंगे।' महर्षिने कहा- 'बहुत अच्छा, देवराज ! मैं आपलोगोंकी इच्छा पूर्ण करूँगा। ऐसा कहकर वे देवताओं और तपःसिद्ध मुनियोंके साथ जलनिधि समुद्रके पास गये। उनके इस अद्भुत कर्मको देखनेकी इच्छासे बहुतेरे मनुष्य, नाग, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर भी उन महात्माके पीछे-पीछे गये महर्षि सहसा समुद्रके तटपर जा पहुँचे। समुद्र भीषण गर्जना कर रहा था। वह अपनी उत्ताल तरङ्गोंसे नृत्य करता हुआ-सा जान पड़ता था। महर्षि अगस्त्यके साथ सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व, नाग और महाभाग मुनि जब महासागरके किनारे पहुँच गये, तब महर्षिने समुद्रको पी जानेकी इच्छासे उन सबको लक्ष्य करके कहा - 'देवगण ! सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये इस समय मैं इस महासागरको पिये लेता हूँ; अब आपलोगोंको जो कुछ करना हो, शीघ्र ही कीजिये।' यो कहकर वे सबके देखते-देखते समुद्रको
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पी गये। यह देखकर इन्द्र आदि देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ तथा वे महर्षिकी स्तुति करते हुए कहने लगे भगवन्! आप हमारे रक्षक और लोकोंको नया
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सष्टिखण्ड ] • सप्तर्षि-आश्रमके प्रसङ्गमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन, अन्नदानादि धर्मोकी प्रशंसा.
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जन्म देनेवाले है। आपकी कृपासे देवताओंसहित सम्पूर्ण दीजिये। आपने जो जल पी लिया है, वह सब इसमें जगत्का कभी उच्छेद नहीं हो सकता।' इस प्रकार सम्पूर्ण वापस छोड़ दीजिये। देवता उनका सम्मान कर रहे थे। प्रधान-प्रधान गन्धर्व उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी बोलेहर्षनाद करते थे और महर्षिके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा 'वह जल तो मैंने पचा लिया, अब समुद्रको भरनेके हो रही थी। उन्होंने समूचे महासागरको जलशून्य कर लिये आपलोग कोई दूसरा उपाय सोचें।' महर्षिकी बात दिया। जब समुद्रमें एक बूंद भी पानी न रहा, तब सम्पूर्ण सुनकर देवताओंको विस्मय भी हुआ और विषाद भी। देवता हर्षमें भरकर हाथोंमें दिव्य आयुध लिये दानवोंपर वहाँ इकट्ठे हुए सब लोग एक दूसरेकी अनुमति ले प्रहार करने लगे। महाबली देवताओंका वेग असुरोंके मुनिवर अगस्त्यजीको प्रणाम करके जैसे आये थे, वैसे लिये असह्य हो गया। उनकी मार खाकर भी वे भीमकाय ही लौट गये। देवतालोग समुद्रको भरनेके विषयमें दानव दो घड़ीतक घमासान युद्ध करते रहे; किन्तु वे परस्पर विचार करते हुए ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ पवित्रात्मा मुनियोंकी तपस्यासे दग्ध हो चुके थे, इसलिये पहुँचकर उन्होंने हाथ जोड़ ब्रह्माजीको प्रणाम किया और पूर्ण शक्ति लगाकर यत्र करते रहनेपर भी देवताओंके समुद्रके पुनः भरनेका उपाय पूछा। तब लोकपितामह हाथसे मारे गये। जो मरनेसे बच रहे, वे पृथ्वी फाड़कर ब्रह्माने उनसे कहा-'देवताओ! तुम सब लोग पातालमें घुस गये। दानवोंको मारा गया देख देवताओंने इच्छानुसार अपने-अपने अभीष्ट स्थानको लौट जाओ, नाना प्रकारके वचनोंद्वारा मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यका स्तवन अब बहुत दिनोंके बाद समुद्र अपनी पूर्वावस्थाको प्राप्त किया तथा इस प्रकार कहा
होगा। महाराज भगीरथ अपने कुटुम्बी जनोंको तारनेके देवता बोले-महाभाग ! आपकी कृपासे लिये गङ्गाजीको लायेंगे और उन्हींके जलसे पुनः संसारके लोगोंको बड़ा सुख मिला। कालकेय दानव समुद्रको भर देंगे।' बड़े ही क्रूर और पराक्रमी थे, वे सब आपकी शक्तिसे ऐसा कहकर ब्रह्माजीने देवताओं और ऋषियोंको मारे गये। लोकरक्षक महर्षे ! अब इस समुद्रको भर भेज दिया।
सप्तर्षि-आश्रमके प्रसङ्गमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान
एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा । पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! अब मैं तुम्हारे चेष्टाके साथ तपस्या की है, जिसके फलस्वरूप उनमें लिये सप्तर्षियोंके आश्रमका वर्णन करूंगा। अत्रि, इन्द्रिय-जय, धैर्य, सत्य, क्षमा, सरलता, दया और दान वसिष्ठ, मैं, पुलह, क्रतु, अङ्गिरा, गौतम, सुमति, सुमुख, आदि सद्गुणोंकी प्रतिष्ठा हुई है। पूर्वकालकी बात है, विश्वामित्र, स्थूलशिरा, संवर्त, प्रतर्दन, रैभ्य, बृहस्पति, समाधिके द्वारा सनातन ब्रह्मलोकपर विजय प्राप्त करनेकी च्यवन, कश्यप, भृगु, दुर्वासा, जमदनि, मार्कण्डेय, अभिलाषा रखनेवाले सप्तर्षिगण तीर्थस्थानोंका दर्शन गालव, उशना, भरद्वाज, यवक्रीत, स्थूलाक्ष, मकराक्ष, करते हुए इस पृथ्वीपर विचर रहे थे। इसी बीचमें एक कण्व, मेधातिथि, नारद, पर्वत, खगन्धी, तृणाम्बु, बार बड़ा भारी सूखा पड़ा, जिसके कारण भूखसे पीड़ित शवल, धौम्य, शतानन्द, अकृतव्रण, जमदग्निकुमार होकर सम्पूर्ण जगत्के लोग बड़े कष्टमें पड़ गये। उसी परशुराम, अष्टक तथा कृष्णद्वैपायन-ये सभी ऋषि- समय उन ऋषियोंको भी कष्ट उठाते देख तत्कालीन महर्षि अपने पुत्रों और शिष्योंके साथ पुष्करमें आकर राजाने, जो प्रजाकी देख-भालके लिये भ्रमण कर रहे थे, सप्तर्षियोंके आश्रममें रह चुके हैं तथा सबने इन्द्रिय- दुःखी होकर कहा-'मुनिवरो ! ब्राह्मणोंके लिये प्रतिग्रह संयम और शौच-सन्तोषादि नियमोंके पालनपूर्वक पूरी उत्तम वृत्ति है; अतः आपलोग मुझसे दान ग्रहण
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[संक्षिप्त पापुराण
करें-अच्छे-अच्छे गाँव, धान और जौ आदि अन्न, ही कटु परिणामको उत्पन्न करता है; अतः जो सुख एवं घृत-दुग्धादि रस, तरह-तरहके रत्न, सुवर्ण तथा दूध अनन्त पदकी इच्छा रखता हो, उसे तो इसे कदापि नहीं देनेवाली गौएँ ले लें।
लेना चाहिये। ऋषियोंने कहा-राजन् ! प्रतिग्रह बड़ी भयंकर वसिष्ठजीने कहा-इस लोकमें धनसशयकी वृत्ति है। वह स्वादमें मधुके समान मधुर, किन्तु अपेक्षा तपस्याका सञ्चय ही श्रेष्ठ है। जो सब प्रकारके परिणाममें विषके समान घातक है। इस बातको स्वयं लौकिक संग्रहोंका परित्याग कर देता है, उसके सारे जानते हुए भी तुम क्यों हमें लोभमें डाल रहे हो?' दस उपद्रव शान्त हो जाते हैं। संग्रह करनेवाला कोई भी कसाइयोंके समान एक चक्री (कुम्हार या तेली), दस मनुष्य ऐसा नहीं है, जो सुखी रह सके। ब्राह्मण चक्रियोंके समान एक शराब बेचनेवाला, दस शराब जैसे-जैसे प्रतिग्रहका त्याग करता है, वैसे-ही-वैसे बेचनेवालोंके समान एक वेश्या और दस वेश्याओंके सन्तोषके कारण उसके ब्रह्म-तेजकी वृद्धि होती है। एक समान एक राजा होता है। जो प्रतिदिन दस हजार ओर अकिञ्चनता और दूसरी ओर राज्यको तराजूपर हत्यागृहोंका सञ्चालन करता है, वह शौण्डिक है; राजा रखकर तोला गया तो राज्यकी अपेक्षा अकिञ्चनताका ही भी उसीके समान माना गया है। अतः राजाका प्रतिग्रह पलड़ा भारी रहा; इसलिये जितात्मा पुरुषके लिये कुछ अत्यन्त भयङ्कर है। जो ब्राह्मण लोभसे मोहित होकर भी संग्रह न करना ही श्रेष्ठ है। राजाका प्रतिग्रह स्वीकार करता है, वह तामिस्र आदि कश्यपजी बोले-धन-सम्पत्ति मोहमें घोर नरकोंमें पकाया जाता है।* अतः महाराज ! तुम डालनेवाली होती है। मोह नरकमें गिराता है; इसलिये अपने दानके साथ ही यहाँसे पधारो। तुम्हारा कल्याण कल्याण चाहनेवाले पुरुषको अनर्थक साधन अर्थका हो। यह दान दूसरोंको देना।
दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। जिसको धर्मके लिये यह कहकर वे सप्तर्षि वनमें चले गये। तदनन्तर धन-संग्रहकी इच्छा होती है, उसके लिये उस इच्छाका राजाकी आज्ञासे उसके मन्त्रियोंने गूलरके फलोंमें त्याग ही श्रेष्ठ है; क्योंकि कीचड़को लगाकर धोनेकी सोना भरकर उन्हें पृथ्वीपर बिखेर दिया। सप्तर्षि अन्नके अपेक्षा उसका स्पर्श न करना ही उत्तम है। धनके द्वारा दाने बीनते हुए वहाँ पहुँचे तो उन फलोंको भी उन्होंने जिस धर्मका साधन किया जाता है, वह क्षयशील माना हाथमें उठाया।
या त गया है। दूसरेके लिये जो धनका परित्याग है, वही उन्हें भारी जानकर अत्रिने कहा-'ये फल अक्षय धर्म है, वही मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है। ग्रहण करनेयोग्य नहीं हैं। हमारी ज्ञानशक्तिपर मोहका भरद्वाजने कहा-जब मनुष्यका शरीर जीर्ण पर्दा नहीं पड़ा है, हम मन्दबुद्धि नहीं हो गये हैं। हम होता है, तब उसके दाँत और बाल भी पक जाते हैं; समझदार हैं, ज्ञानी हैं, अतः इस बातको भलीभाँति किन्तु धन और जीवनकी आशा बूढ़े होनेपर भी जीर्ण समझते हैं कि वे गूलरके फल सुवर्णसे भरे हैं। धन इसी नहीं होती-वह सदा नयी ही बनी रहती है। जैसे दर्जी लोकमें आनन्ददायक होता है, मृत्युके बाद तो वह बड़े सूईसे वस्त्रमें सूतका प्रवेश करा देता है, उसी प्रकार
* दशसूनासमश्चक्री दशक्रिसमो ध्वजः । दशध्वजसमा वेश्या दशवेश्यासमो नृपः ॥ दशसूनासहखाणि यो वाहयति शौण्डिकः । तेन तुल्यस्ततो राजा पोरस्तस्य प्रतिग्रहः ॥ यो राज्ञः प्रतिगृहाति ब्राह्मणो लोभमोहितः। तामिस्रादिषु घोरेषु नरकेषु स पच्यते।
(१९ । २३६-३८)
* इहैवात्तं बसु प्रीत्यै प्रेत्य वै कटुकोदयम्। तस्मान
प्राह्यमेवैतत्सुखमानन्त्यमिच्छता ॥
(१९॥ २४३)
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सृष्टिखण्ड ]
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सप्तर्षि आश्रमके प्रसङ्गमें सप्तर्षियोंके अल्लोभका वर्णन, अन्नदानादि धर्मोकी प्रशंसा •
तृष्णारूपी सूईसे संसाररूपी सूत्रका विस्तार होता है। तृष्णाका कहीं ओर-छोर नहीं है, उसका पेट भरना कठिन होता है; वह सैकड़ों दोषोंको ढोये फिरती है; उसके द्वारा बहुत से अधर्म होते हैं। अतः तृष्णाका परित्याग ही उचित है।
गौतम बोले- इन्द्रियोंके लोभग्रस्त होनेसे सभी मनुष्य सङ्कटमें पड़ जाते हैं। जिसके चित्तमें सन्तोष हैं, उसके लिये सर्वत्र धन-सम्पत्ति भरी हुई है; जिसके पैर जूतेमें हैं, उसके लिये सारी पृथ्वी मानो चमड़ेसे मढ़ी है। सन्तोषरूपी अमृतसे तृप्त एवं शान्त चित्तवाले पुरुषोंको जो सुख प्राप्त है, वह धनके लोभसे इधर-उधर दौड़नेवाले लोगोंको कहाँसे प्राप्त हो सकता है। असन्तोष ही सबसे बढ़कर दुःख है और सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है; अतः सुख चाहनेवाले पुरुषको सदा सन्तुष्ट रहना चाहिये। *
विश्वामित्रने कहा- किसी कामनाकी पूर्ति चाहनेवाले मनुष्यकी यदि एक कामना पूर्ण होती है, तो दूसरी नयी उत्पन्न होकर उसे पुनः बाणके समान बींधने लगती है। भोगोंकी इच्छा उपभोगके द्वारा कभी शान्त नहीं होती, प्रत्युत घी डालनेसे प्रज्वलित होनेवाली अफ्रिकी भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। भोगोंकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष मोहवश कभी सुख नहीं पाता।
जमदग्नि बोले- जो प्रतिग्रह लेनेकी शक्ति रखते हुए भी उसे नहीं ग्रहण करता, वह दानी पुरुषोंको मिलनेवाले सनातन लोकोंको प्राप्त होता है। जो ब्राह्मण राजासे धन लेता है, वह महर्षियोंद्वारा शोक करनेके योग्य है; उस मूर्खको नरक यातनाका भय नहीं दिखायी देता। प्रतिग्रह लेने में समर्थ होकर भी उसमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि प्रतिग्रहसे ब्राह्मणोंका ब्रह्मतेज
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नष्ट हो जाता है।
अरुन्धतीने कहा - तृष्णाका आदि अन्त नहीं है, वह सदा शरीरके भीतर व्याप्त रहती है। दुष्ट बुद्धिवाले पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो शरीरके जीर्ण होनेपर भी जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणान्तकारी रोगके समान है, उस तृष्णाका त्याग करनेवालेको ही सुख मिलता है।
पशुसख बोले- धर्मपरायण विद्वान् पुरुष जैसा आचरण करते हैं, आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाले विद्वान् पुरुषको वैसा ही आचरण करना चाहिये ।
ऐसा कहकर दृढ़तापूर्वक नियमोंका पालन करनेवाले वे सभी महर्षि उन सुवर्णयुक्त फलोंको छोड़ अन्यत्र चले गये। घूमते-घामते वे मध्य पुष्करमें गये, जहाँ अकस्मात् आये हुए शुनःसख नामक परिब्राजकसे उनकी भेंट हुई। उसके साथ वे किसी वनमें गये। वहाँ उन्हें एक बहुत बड़ा सरोवर दिखायी दिया, जिसका जल कमलोंसे आच्छादित था। वे सब-के-सब उस सरोवरके किनारे बैठ गये और कल्याणका चिन्तन करने लगे। उस समय शुनःसखने क्षुधासे पीड़ित उन समस्त मुनियोंसे इस प्रकार कहा - 'महर्षियो! आप सब लोग बताइये, भूखकी पीड़ा कैसी होती है ?'
ऋषियोंने कहा - शक्ति, खड्ग, गदा, चक्र, तोमर और बाणोंसे पीड़ित किये जानेपर मनुष्यको जो वेदना होती है, वह भी भूखकी पीड़ाके सामने मात हो जाती है। दमा, खाँसी, क्षय, ज्वर और मिरगी आदि रोगोंसे कष्ट पाते हुए मनुष्यको भी भूखकी पीड़ा उन सबकी अपेक्षा अधिक जान पड़ती है। जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे पृथ्वीका सारा जल खींच लिया जाता है, उसी प्रकार पेटकी आगसे शरीरकी समस्त नाड़ियाँ सूख जाती हैं। क्षुधासे पीड़ित मनुष्यको आँखोंसे कुछ सूझ नहीं
* सर्वत्र सम्पदस्तस्य सन्तुष्टं यस्य मानसम् । उपानद्गूढपादस्य ननु चर्मावृतेव भूः ॥ सन्तोषामृततृशानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च असन्तोषः परं दुःखं सन्तोषः परमं सुखम्। सुखार्थी पुरुषस्तस्मात्सन्तुष्टः सततं भवेत् ॥
धावताम् ॥
( १९ । २५९-६१ )
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
पड़ता, उसका सारा अङ्ग जलता और सूखता जाता है। इन्द्रियोंका दमन नहीं किया, उसके वनमें रहनेसे क्या भूखकी आग प्रज्वलित होनेपर मनुष्य गूंगा, बहरा, जड, लाभ । तथा जिसने मन और इन्द्रियोंका भलीभाँति दमन पङ्ग, भयंकर तथा मर्यादाहीन हो जाता है। लोग क्षुधासे किया है, उसको [घर छोड़कर] किसी आश्रममें रहनेकी पीड़ित होनेपर पिता-माता, स्त्री, पुत्र, कन्या, भाई तथा क्या आवश्यकता है। जितेन्द्रिय पुरुष जहाँ-जहाँ निवास स्वजनोंका भी परित्याग कर देते हैं। भूखसे व्याकुल करता है, उसके लिये वही-वही स्थान वन एवं महान् मनुष्य न पितरोंकी भलीभाँति पूजा कर सकता है न आश्रम है। जो उत्तम शील और आचरणमें रत है, देवताओंकी, न गुरुजनोंका सत्कार कर सकता है न जिसने अपनी इन्द्रियोंको काबूमें कर लिया है तथा जो ऋषियों तथा अभ्यागतोंका।
सदा सरल भावसे रहता है, उसको आश्रमोंसे क्या इस प्रकार अन्न न मिलनेपर देहधारी प्राणियोंमें ये प्रयोजन ? विषयासक्त मनुष्योंसे वनमें भी दोष बन जाते सभी दोष आ जाते हैं। इसलिये संसारमें अनसे बढ़कर हैं तथा घरमें रहकर भी यदि पाँचों इन्द्रियोका निग्रह कर न तो कोई पदार्थ हुआ है, न होगा। अन्न ही संसारका लिया जाय तो वह तपस्या ही है। जो सदा शुभ कर्ममें मूल है। सब कुछ अत्रके ही आधारपर टिका हुआ है। ही प्रवृत्त होता है, उस वीतराग पुरुषके लिये घर ही पितर, देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मनुष्य और तपोवन है। केवल शब्द-शास्त्र-व्याकरणके चिन्तनमें पिशाच-सभी अनमय माने गये हैं; इसलिये अन्नदान लगे रहनेवालेका मोक्ष नहीं होता तथा लोगोंका मन करनेवालेको अक्षय तृप्ति और सनातन स्थिति प्राप्त होती बहलाने में ही जिसकी प्रवृत्ति है, उसको भी मुक्ति नहीं है। तप, सत्य, जप, होम, ध्यान, योग, उत्तम गति, स्वर्ग मिलती। जो एकान्तमें रहकर दृढ़तापूर्वक नियमोंका
और सुखकी प्राप्ति-ये सब कुछ अन्नसे ही सुलभ होते पालन करता, इन्द्रियोंकी आसक्तिको दूर हटाता, हैं। चन्दन, अगर, धूप और शीतकालमें ईंधनका दान अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें मन लगाता और सर्वदा अन्नदानके सोलहवें हिस्सेके बराबर भी नहीं हो सकता। अहिंसा-व्रतका पालन करता है, उसीका मोक्ष निश्चित अन्न ही प्राण, बल और तेज है। अन्न ही पराक्रम है, है। जितेन्द्रिय पुरुष सुखसे सोता और सुखसे जागता है। अन्नसे ही तेजकी उत्पत्ति और वृद्धि होती है। जो मनुष्य वह सम्पूर्ण भूतोंके प्रति समान भाव रखता है। उसके श्रद्धापूर्वक भूखेको अन देता है, वह ब्रह्मस्वरूप होकर मनमें हर्ष-शोक आदि विकार नहीं आते। छेड़ा हुआ ब्रह्माजीके साथ आनन्द मनाता है। जो एकाग्रचित्त होकर सिंह, अत्यन्त रोषमें भरा हुआ सर्प तथा सदा कुपित अमावास्याको श्राद्धमें अनदानका माहात्म्यमात्र सुनाता रहनेवाला शत्रु भी वैसा अनिष्ट नहीं कर सकता, जैसा है; उसके पितर आजीवन सन्तुष्ट रहते हैं। संयमरहित चित्त कर डालता है।
इन्द्रिय-संयम और मनोनिग्रहसे युक्त ब्राह्मण सुखी मांसभक्षी प्राणियों तथा अजितेन्द्रिय मनुष्योंसे एवं धर्मके भागी होते हैं। दम, दान एवं यम-ये तीनों लोगोंको सदा भय रहता है, अतः उनके निवारणके लिये तत्त्वार्थदर्शी पुरुषोंद्वारा बताये हुए धर्म है। इनमें भी ब्रह्माजीने दण्डका विधान किया है। दण्ड ही प्राणियोंकी विशेषतः दम ब्राह्मणोंका सनातन धर्म है। दम तेजको रक्षा और प्रजाका पालन करता है। वही पापियोंको बढ़ाता है, दम परम पवित्र और उत्तम है। दमसे पुरुष पापसे रोकता है। दण्ड सबके लिये दुर्जय होता है। वह पापरहित एवं तेजस्वी होता है। संसारमें जो कुछ नियम, सब प्राणियोंको भय पहुँचानेवाला है। दण्ड ही मनुष्योंका धर्म, शुभ कर्म अथवा सम्पूर्ण यज्ञोंके फल हैं, उन शासक है, उसीपर धर्म टिका हुआ है। सम्पूर्ण आश्रमों सबकी अपेक्षा दमका महत्त्व अधिक है। दमके बिना और समस्त भूतोंमें दम ही उत्तम व्रत माना गया है। दानरूपी क्रियाकी यथावत् शुद्धि नहीं हो सकती। दमसे उदारता, कोमल स्वभाव, सन्तोष, दोष-दृष्टिका अभाव, ही यज्ञ और दमसे ही दानकी प्रवृत्ति होती है। जिसने गुरु-शुश्रूषा, प्राणियोंपर दया और चुगली न करना
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सृष्टिखण्ड ] • सप्तर्षि-आश्रमके प्रसङ्गमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन, अन्नदानादि धर्मोकी प्रशंसा .
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इन्हींको शान्त बुद्धिवाले संतों और ऋषियोंने दम कहा वालोंको स्वयं निन्दा न करे। अपने मनको रोके । जो उस है। धर्म, मोक्ष तथा स्वर्ग-ये सभी दमके अधीन हैं। समय अपने चित्तको वशमें कर लेता है, वह मानो जो अपना अपमान होनेपर क्रोध नहीं करता और सम्मान अमृतसे स्नान करता है। वृक्षोंके नीचे रहना, साधारण होनेपर हर्षसे फूल नहीं उठता, जिसकी दृष्टि में दुःख और वस्त्र पहनना, अकेले रहना, किसीकी अपेक्षा न रखना सुख समान हैं, उस धीर पुरुषको प्रशान्त कहते हैं। और ब्रह्मचर्यका पालन करना-ये सब परमगतिको जिसका अपमान होता है, वह साधु पुरुष तो सुखसे प्राप्त करानेवाले होते हैं। जिसने काम और क्रोधको जीत सोता और सुखसे जागता है तथा उसकी बुद्धि लिया, वह जंगलमें जाकर क्या करेगा? अभ्याससे कल्याणमयी होती है। परन्तु अपमान करनेवाला मनुष्य शास्त्रकी, शीलसे कुलकी, सत्यसे क्रोधका तथा मित्रके स्वयं नष्ट हो जाता है। अपमानित पुरुषको चाहिये कि द्वारा प्राणोंकी रक्षा की जाती है। जो पुरुष उत्पन्न हुए वह कभी अपमान करनेवालेकी बुराई न सोचे। अपने क्रोधको अपने मनसे रोक लेता है, वह उस क्षमाके द्वारा धर्मपर दृष्टि रखते हुए भी दूसरोंके धर्मकी निन्दा सबको जीत लेता है। जो क्रोध और भयको जीतकर न करे।*
शान्त रहता है, पृथ्वीपर उसके समान वीर और जो इन्द्रियोंका दमन करना नहीं जानते, वे व्यर्थ ही कौन है। यह ब्रह्माजीका बताया हुआ गूढ़ उपदेश शास्त्रोंका अध्ययन करते हैं; क्योंकि मन और इन्द्रियोंका है। प्यारे ! हमने धर्मका हृदय-सार तत्त्व तुम्हें संयम ही शास्त्रका मूल है, वही सनातन धर्म है। सम्पूर्ण बतलाया है। व्रतोंका आधार दम ही है। छहों अङ्गोंसहित पड़े हुए वेद यज्ञ करनेवालोंके लोक दूसरे हैं, तपस्वियोंके लोक भी दमसे हीन पुरुषको पवित्र नहीं कर सकते । जिसने दूसरे हैं तथा इन्द्रिय-संयम और मनोनिग्रह करनेवाले इन्द्रियोंका दमन नहीं किया, उसके सांख्य, योग, उत्तम लोगोंके लोक दूसरे ही हैं। वे सभी परम सम्मानित हैं। कुल, जन्म और तीर्थस्नान-सभी व्यर्थ हैं। योगवेत्ता क्षमा करनेवालेपर एक ही दोष लागू होता है, दूसरा द्विजको चाहिये कि वह अपमानको अमृतके समान नहीं; वह यह कि क्षमाशील पुरुषको लोग शक्तिहीन समझकर उससे प्रसन्नताका अनुभव करे और सम्मानको मान बैठते हैं। किन्तु इसे दोष नहीं मानना चाहिये, विषके तुल्य मानकर उससे घृणा करे। अपमानसे उसके क्योंकि बुद्धिमानोंका बल क्षमा ही है। जो शान्ति अथवा तपकी वृद्धि होती है और सम्मानसे क्षय। पूजा और क्षमाको नहीं जानता, वह इष्ट (यज्ञ आदि) और पूर्त सत्कार पानेवाला ब्राह्मण दुही हुई गायकी तरह खाली हो (तालाब आदि खुदवाना) दोनोंके फलोंसे वञ्चित हो जाता है। जैसे गौ घास और जल पीकर फिर पुष्ट हो जाता है। क्रोधी मनुष्य जो जप, होम और पूजन करता जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मण जप और होमके द्वारा पुनः है, वह सब फूटे हुए घड़ेसे जलकी भाँति नष्ट हो जाता ब्रह्मतेजसे सम्पन्न हो जाता है। संसारमे निन्दा है। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर प्रतिदिन इस पुण्यमय करनेवालेके समान दूसरा कोई मित्र नहीं है, क्योंकि वह दमाध्यायका पाठ करता है, वह धर्मको नौकापर आरूढ़ पाप लेकर अपना पुण्य दे जाता है। निन्दा करने- होकर सारी कठिनाइयोंको पार कर जाता है। जो द्विज
* अवमाने न कुप्येत सम्माने न प्रहष्यति । समदुःखसुखो धीरः प्रशान्त इति कीर्त्यते ॥ सुखं नवमतः शेते सुखं चैव प्रबुध्यति । श्रेयस्तरमतिस्तिष्ठेदवमन्ता विनश्यति ॥ अवमानी तु न ध्यायेत्तस्य पापं कदाचन । स्वधर्ममपि चावेक्ष्य परधर्म न दूषयेत् ॥
(१९ । ३३२-३४) * आक्रोशकसमो लोके सुहृदन्यो न विद्यते । यस्तु दुष्कृतमादाय सुकृतं वं प्रयच्छति ।।
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
गिरता।
सदा ही इस पुण्यप्रद दमाध्यायको दूसरोंको सुनाता है, चुराया हो, उसे ऋतुकालके बिना ही मैथुन करने, दिनमें वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है तथा वहाँसे कभी नहीं सोने, एक दूसरेके यहाँ जाकर अतिथि बनने, जिस गाँवमें
एक ही कुँआ हो वहाँ निवास करने, ब्राह्मण होकर धर्मका सार सुनो और सुनकर उसे धारण करो- शूद्रजातिकी स्त्रीसे सम्बन्ध रखनेका पाप लगे और ऐसे जो बात अपनेको प्रतिकूल जान पड़े, उसे दूसरोंके लिये लोगोंको जिन लोकोंमें जाना पड़ता है, वहीं वह भी जाय । भी काममें न लाये। जो परायी स्त्रीको माताके समान, भरद्वाज बोले-जिसने मृणाल चुराये हों, वह पराये धनको मिट्टीके ढेलेके समान और सम्पूर्ण भूतोंको सबके प्रति क्रूर, धनके अभिमानी, सबसे डाह रखनेअपने आत्माके समान जानता है, वही ज्ञानी है। जिसकी वाले, चुगलखोर और रस बेचनेवालेकी गति प्राप्त करे। रसोई बलिवैश्वदेवके लिये और जीवन परोपकारके लिये गौतमने कहा-जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, है, वही विद्वान् है। जैसे धातुओंमें सुवर्ण उत्तम है, वैसे वह सदा शूद्रका अन्न खानेवाले, परस्त्रीगामी और घरमें ही परोपकार सबसे श्रेष्ठ धर्म है, वही सर्वस्व है। सम्पूर्ण दूसरोंको न देकर अकेले मिष्टान्न भोजन करनेवालेके प्राणियोंके हितका ध्यान रखनेवाला पुरुष अमृतत्व प्राप्त समान पापका भागी हो। करता है।
विश्वामित्र बोले-जो मृणाल चुरा ले गया हो, पुलस्त्यजी कहते हैं-इस प्रकार ऋषियोंने वह सदा काम-परायण, दिनमें मैथुन करनेवाले, नित्य शुनःसखके सामने धर्मके सार-तत्त्वका प्रतिपादन करके पातकी, परायी निन्दा करनेवाले और परस्त्रीगामीकी गति उसके साथ वहाँसे दूसरे वनमें प्रवेश किया। वहाँ भी प्राप्त करे।। उन्हें एक बहुत विस्तृत जलाशय दिखायी दिया, जो पद्म जमदनिने कहा-जिसने मृणालोंकी चोरी की
और उत्पलोंसे आच्छादित था। उस सरोवरमें उतरकर हो, वह दुर्बुद्धि मनुष्य अपने माता-पिताका अपमान उन्होंने मृणाल उखाड़े और उन्हें ढेर-के-ढेर किनारेपर करनेके, अपनी कन्याके दिये हुए धनसे अपनी जीविका रखकर जलसे सम्पन्न होनेवाली पुण्यक्रिया-सन्ध्या- चलानेके, सदा दूसरेकी रसोईमें भोजन करनेके, परस्त्रीसे तर्पण आदि करने लगे। तत्पश्चात् जब वे जलसे बाहर सम्पर्क रखनेके और गौओंकी बिक्री करनेके पापका निकले तो उन मणालोको न देखकर परस्पर इस प्रकार भागी हो। कहने लगे।
पराशरजी बोले-जिसने मृणाल चुराये हों, वह ऋषि बोले-हम सब लोग क्षुधासे कष्ट पा रहे दूसरोंका दास एवं जन्म-जन्म क्रोधी हो तथा सब हैं-ऐसी दशा में किस पापी और क्रूरने मृणालोंको प्रकारके धर्मकर्मोसे हीन हो।। चुरा लिया?
शुनःसखने कहा-जिसने मृणालोंकी चोरी की जब इस तरह कुछ पता न लगा तब सबसे पहले हो, वह न्यायपूर्वक वेदाध्ययन करे, अतिथियोंमें प्रीति कश्यपजी बोले-जिसने मृणालकी चोरी की हो, उसे रखनेवाला गृहस्थ हो, सदा सत्य बोले, विधिवत् सर्वत्र सब कुछ चुरानेका, थाती रखी हुई वस्तुपर जी अग्रिहोत्र करे, प्रतिदिन यज्ञ करे और अन्तमें ललचानेका और झूठी गवाही देनेका पाप लगे। वह ब्रह्मलोकको जाय। दम्भपूर्वक धर्मका आचरण और राजाका सेवन करने, ऋषियोंने कहा-शुनःसख ! तुमने जो शपथ मद्य और मांसका सेवन करने, सदा झूठ बोलने, सूदसे की है, वह तो द्विजातिमात्रको अभीष्ट ही है; अतः तुम्हीने जीविका चलाने और रुपया लेकर लड़की बेचनेके हम सबके मृणालोंकी चोरी की है। पापका भागी हो।
शुनःसख बोले-ब्राह्मणो! मैने ही आपवसिष्ठजीने कहा-जिसने उन मृणालोंको लोगोंके मुँहसे धर्म सुननेकी इच्छासे ये मृणाल छिपा
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सृष्टिखण्ड ]
.नाना प्रकारके व्रत, सान और तर्पणकी विधि तथा धर्ममूर्तिकी कथा .
दिये थे। मुझे आप इन्द्र समझें। मुनिवरो ! आपने लोभके उपवासपूर्वक निवास करे, उसे अक्षय फलकी प्राप्ति परित्यागसे अक्षय लोकोंपर विजय पायी है। अतः इस होती है। वनवासी महर्षियोंके लिये जो बारह वर्षोंकी विमानपर बैठिये, अब हमलोग स्वर्गलोकको चलें। यज्ञ-दीक्षा बतायी गयी है, उसका पूरा-पूरा फल उस
तब महर्षियोंने इन्द्रको पहचानकर उनसे इस मनुष्यको भी मिल जाता है। उसकी कभी दुर्गति नहीं प्रकार कहा।
होती। वह सदा अपने कुलवालोंके साथ आनन्दका ऋषि बोले-देवराज ! जो मनुष्य यहाँ आकर अनुभव करता है तथा ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीके एक मध्यम पुष्करमें नान करे और तीन राततक यहाँ दिनतक (कल्पभर) वहाँ निवास करता है।
नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें
राजा धर्ममूर्तिकी कथा __पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! ज्येष्ठ पुष्करमें गौ, कहलाता है। जो चैतके महीने में दही, दूध, घी और मध्यम पुष्करमें भूमि और कनिष्ठ पुष्करमें सुवर्ण देना गुड़का त्याग करता और गौरीकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे चाहिये। यही वहाँके लिये दक्षिणा है। प्रथम पुष्करके ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके उन्हें महीन वस्त्र और देवता श्रीब्रह्माजी, दूसरेके भगवान् श्रीविष्णु तथा रससे भरे पात्र दान करता है, उसपर गौरीदेवी प्रसन्न तीसरेके श्रीरुद्र हैं। इस प्रकार तीनों देवता वहाँ होती हैं। यह 'गौरीव्रत' भवानीका लोक प्रदान पृथक्-पृथक् स्थित है। अब मैं सब व्रतोंमें उत्तम करनेवाला है। जो आषाढ़ आदि चातुर्मास्यमें कोई भी महापातकनाशन नामक व्रतका वर्णन करता हूँ। यह फल नहीं खाता तथा चौमासा बीतनेपर घी और गुड़के भगवान् शङ्करका बताया हुआ व्रत है। रात्रिको अन्न साथ एक घड़ा एवं कार्तिककी पूर्णिमाको पुनः कुछ तैयार करके कुटुम्बवाले ब्राह्मणको बुलाये और उसे सुवर्ण ब्राह्मणको दान देता है, वह रुद्रलोकको प्राप्त होता भोजन कराकर एक गौ, सुवर्णमय चक्रसे युक्त त्रिशूल है। यह 'शिवव्रत' कहलाता है। तथा दो वस्त्र-धोती और चद्दर दान करे । जो मनुष्य जो मनुष्य हेमन्त और शिशिरमें पुष्पोंका सेवन इस प्रकार पुण्य करता है, वह शिवलोकमें जाकर छोड़ देता है तथा अपनी शक्तिके अनुसार सोनेके तीन आनन्दका अनुभव करता है। यही महापातकनाशन व्रत फूल बनवाकर फाल्गुनकी पूर्णिमाको भगवान् श्रीशिव है। जो एक दिन एकभक्तव्रती रहकर-एक ही अत्रका और श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये उनका दान करता है, भोजन कर दूसरे दिन तिलमयी धेनु और वृषभका दान वह परमपदको प्राप्त होता है। यह 'सौम्यव्रत' कहलाता करता है, वह भगवान् शङ्करके पदको प्राप्त होता है। यह है। जो फाल्गुनसे आरम्भ करके प्रत्येक मासकी पाप और शोकोंका नाश करनेवाला 'रुद्रव्रत' है। जो तृतीयाको नमक छोड़ देता है और वर्ष पूर्ण होनेपर एक वर्षतक एक दिनका अन्तर दे रात्रिमें भोजन करता भवानीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन है तथा वर्ष पूरा होनेपर नील कमल, सुवर्णमय कमल करके उन्हें शय्या और आवश्यक सामग्रियोसहित गृह और चीनीसे भरा हुआ पात्र एवं बैल दान करता है, वह दान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। यह 'नीलवत' करता है। इसे 'सौभाग्यवत' कहते हैं। जो द्विज एक कहलाता है। जो मनुष्य आषाढ़से लेकर चार महीनोंतक वर्षतक मौनभावसे सन्ध्या करता है और वर्षके अन्तमें तेलकी मालिश छोड़ देता है और भोजनकी सामग्री दान घीका घड़ा, दो वस्त्र-धोती और चद्दर, तिल और करता है, वह भगवान् श्रीहरिके धाममें जाता है। यह घण्टा ब्राह्मणको दान करता है, वह सारस्वतलोकको प्राप्त मनुष्योंको प्रसन्न करनेवाला होनेके कारण 'प्रीतिव्रत' होता है, जहाँसे फिर इस संसारमें लौटना नहीं पड़ता।
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण ........................ ...................................aamanner....... यह रूप और विद्या प्रदान करनेवाला 'सारस्वत' नामक व्रतके अन्तमें फूलोंका हार, घी और घृतमिश्रित खीर व्रत है। प्रतिदिन गोबरका मण्डल बनाकर उसमें ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकमें जाता है। अक्षतोंद्वारा कमल बनाये। उसके ऊपर भगवान् श्रीशिव इसका नाम 'शीलवत' है। जो [नियत कालतक] या श्रीविष्णुकी प्रतिमा रखकर उसे घीसे स्नान कराये; प्रतिदिन सन्ध्याके समय दीप-दान करता है तथा घी और फिर विधिवत् पूजन करे। इस प्रकार जब एक वर्ष बीत तेलका सेवन नहीं करता, फिर व्रत समाप्त होनेपर जाय, तब साम-गान करनेवाले ब्राह्मणको शुद्ध सोनेका ब्राह्मणको दीपक, चक्र, शूल, सोना और धोती-चद्दर बना हुआ आठ अंगुलका कमल और तिलकी धेनु दान दान करता है, वह इस संसारमें तेजस्वी होता है तथा करे। ऐसा करनेवाला पुरुष शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता अन्तमें रुद्रलोकको जाता है। यह 'दीप्तिव्रत' है। जो है। यह 'सामव्रत' कहा गया है।
कार्तिकसे आरम्भ करके प्रत्येक मासको तृतीयाको रातके नवमी तिथिको एकभुक्त रहकर-एक ही अन्नका समय गोमूत्रमें पकायी हुई जौकी लप्सी खाकर रहता है भोजन करके कुमारी कन्याओंको भक्तिपूर्वक भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर गोदान करता है, वह एक कराये तथा गौ, सुवर्ण, सिला हुआ अंगा, धोती, चद्दर कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है तथा उसके बाद तथा सोनेका सिंहासन ब्राह्मणको दान करे; इससे वह इस लोकमें राजा होता है। इसका नाम 'रुद्रव्रत' है। यह शिवलोकको जाता है। अरबों जन्मतक सुरूपवान् होता सदा कल्याण करनेवाला है। जो चार महीनोंतक चन्दन है। शत्रु उसे कभी परास्त नहीं कर पाते। यह मनुष्योंको लगाना छोड़ देता है तथा अन्तमें सीपी, चन्दन, अक्षत सुख देनेवाला 'वीरव्रत' नामका व्रत है। चैतसे आरम्भ और दो श्वेत वस्त्र-धोती और चद्दर ब्राह्मणको दान कर चार महीनोंतक प्रतिदिन लोगोंको बिना माँगे जल करता है, वह वरुणलोकमें जाता है। यह 'दृढव्रत' पिलाये और इस व्रतको समाप्ति होनेपर अन्न-वस्त्रसहित कहलाता है। जलसे भरा हुआ माट, तिलसे पूर्ण पात्र तथा सुवर्ण दान सोनेका ब्रह्माण्ड बनाकर उसे तिलकी ढेरीमें रखे करे। ऐसा करनेवाला पुरुष ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता तथा 'मैं अहङ्काररूपी तिलका दान करनेवाला हूँ' ऐसी है। यह उत्तम 'आनन्दव्रत' है। जो पुरुष मांसका भावना करके घीसे अग्निको तथा दक्षिणासे ब्राह्मणको बिलकुल परित्याग करके व्रतका आचरण करे और तृप्त करे। फिर माला, वस्त्र तथा आभूषणोंद्वारा उसकी पूर्तिके निमित्त गौ तथा सोनेका मृग दान करे, वह ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके विश्वात्माकी तृप्तिके अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। इसका नाम उद्देश्यसे किसी शुभ दिनको अपनी शक्तिके अनुसार 'अहिंसावत' है। एक कल्पतक इसका फल भोगकर तीन तोलेसे अधिक सोना तथा तिलसहित ब्रह्माण्ड अन्तमें मनुष्य राजा होता है। मायके महीनेमें सूर्योदयके ब्राह्मणको दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष पुनर्जन्मसे पहले स्रान करके द्विज-दम्पतीका पूजन करे तथा उन्हें रहित ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। इसका नाम 'ब्रह्मव्रत' भोजन कराकर यथाशक्ति वस्त्र और आभूषण दान दे। है। यह मनुष्योंको मोक्ष देनेवाला है। जो तीन दिन यह 'सूर्यव्रत' है। इसका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष एक केवल दूध पीकर रहता है और अपनी शक्तिके अनुसार कल्पतक सूर्यलोकमें निवास करता है। आषाढ़ आदि एक तोलेसे अधिक सोनेका कल्पवृक्ष बनवाकर उसे चार महीनोंमें प्रतिदिन प्रातःस्नान करे और फिर एक सेर चावलके साथ ब्राह्मणको दान करता है, वह भी कार्तिककी पूर्णिमाके दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर ब्रह्मपदको प्राप्त होता है । यह 'कल्पवृक्षवत' है। जो एक गोदान दे तो वह मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त महीनेतक उपवास करके ब्राह्मणको सुन्दर गौ दान करता होता है। यह 'विष्णुव्रत' है। जो एक अयनसे दूसरे है, वह भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। इसका अयनतक पुष्प और घृतका सेवन छोड़ देता है और नाम 'भीमव्रत' है। जो बीस तोलेसे अधिक सोनेकी
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सृष्टिखण्ड]
नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा धर्ममूर्तिकी कथा .
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पृथ्वी बनवाकर दान करता है और दिनभर दूध पीकर करके अपनी शक्तिके अनुसार गौ, वस्त्र और सुवर्णके रहता है, वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह 'धनप्रद' द्वारा ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, वह परमपदको प्राप्त होता नामक व्रत है। यह सात सौ कल्पोंतक अपना फल देता है। यह 'विष्णुव्रत' है। जो प्रत्येक चतुर्दशीको एक बार रहता है। माघ अथवा चैतकी तृतीयाको गुड़की गौ रातमें भोजन करता और वर्षकी समाप्ति होनेपर एक गाय बनाकर दान करे। इसका नाम 'गुडव्रत' है। इसका और एक बैल दान करता है, उसे रुद्रलोककी प्राप्ति होती अनुष्ठान करनेवाला पुरुष गौरीलोकमें सम्मान पाता है। है। इसे 'त्र्यम्बक-व्रत' कहते हैं। जो सात रात उपवास
अब परम आनन्द प्रदान करनेवाले महाव्रतका करके ब्राह्मणको घीसे भरा हुआ घड़ा दान करता है, वह वर्णन करता हूँ। जो पंद्रह दिन उपवास करके ब्राह्मणको ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। इसका नाम 'वरखत' है। जो दो कपिला गौएँ दान करता है, वह देवता और असुरोंसे काशी जाकर दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह एक पूजित हो ब्रह्मलोकमें जाता है तथा कल्पके अन्तमें कल्पतक इन्द्रलोकमें निवास करता है। यह 'मित्रव्रत' सबका सम्राट् होता है। इसका नाम 'प्रभावत' भी है। है। जो एक वर्षतक ताम्बूलका सेवन छोड़कर अन्तमें जो एक वर्षतक केवल एक ही अन्नका भोजन करता है गोदान करता है, वह वरुणलोकको जाता है। इसका और भक्ष्य पदार्थोकि साथ जलका घड़ा दान करता है, नाम 'वारुणवत' है। जो चान्द्रायणवत करके सोनेका वह कल्पपर्यन्त शिवलोकमें निवास करता है। इसे चन्द्रमा बनवाकर दान देता है, उसे चन्द्रलोककी प्राप्ति 'प्राप्तिव्रत' कहते हैं। जो प्रत्येक अष्टमीको रात्रिमें एक होती है। यह 'चन्द्रव्रत' कहलाता है। जो ज्येष्ठ मासमें बार भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर दूध पञ्चाग्नि तपकर अन्तमें अष्टमी या चतुर्दशीको सोनेकी देनेवाली गौका दान करता है, वह इन्द्रलोक जाता है। गौका दान करता है, वह स्वर्गको जाता है। यह 'रुद्रव्रत' इसे 'सुगतिव्रत' कहते हैं। जो वर्षा आदि चार ऋतुओंमें कहलाता है। जो प्रत्येक तृतीयाको शिवमन्दिरमें जाकर ब्राह्मणको ईधन देता है और अन्तमें घी तथा गौका दान एक बार हाथ जोड़ता है और वर्ष पूर्ण होनेपर दूध करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त होता है। यह सब पापोंका देनेवाली गौ दान करता है, उसे देवीलोककी प्राप्ति होती नाश करनेवाला 'वैश्वानरव्रत' है।
है। इसका नाम 'भवानीव्रत' है। जो एक वर्षतक प्रतिदिन खीर खाकर रहता है और जो मायभर गीला वस्त्र पहनता और सप्तमीको व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको एक गाय और एक बैल गोदान करता है, वह कल्पपर्यन्त स्वर्गमें निवास करके दान करता है, वह एक कल्पतक लक्ष्मीलोकमें निवास अन्तमें इस पृथ्वीपर राजा होता है। इसे 'तापकवत' करता है। इसका नाम 'देवीव्रत' है। जो प्रत्येक कहते हैं। जो तीन रात उपवास करके फाल्गुनकी सप्तमीको एक बार रात्रिमें भोजन करता है और वर्ष पूर्णिमाको घरका दान करता है, उसे आदित्यलोककी समाप्त होनेपर दूध देनेवाली गौ दान करता है, उसे प्राप्ति होती है। यह 'धामव्रत' है। जो व्रत रहकर तीनों सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। यह 'भानुव्रत' है। जो प्रत्येक सन्ध्याओंमें-प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकालमें चतुर्थीको एक बार रात्रिमें भोजन करता और वर्षके भूषणोंद्वारा ब्राह्मण-दम्पतीकी पूजा करता है, उसे मोक्ष अन्तमें सोनेका हाथी दान करता है, उसे शिवलोककी मिलता है। यह 'मोक्षव्रत' है। जो शुक्लपक्षकी द्वितीयाके प्राप्ति होती है। यह 'वैनायकवत' है। जो चौमासेभर दिन ब्राह्मणको नमकसे भरा हुआ पात्र, वस्त्रसे ढका बड़े-बड़े फलोंका परित्याग करके कार्तिकमें सोनेके हुआ काँसेका बर्तन तथा दक्षिणा देता है और व्रत समाप्त फलका दान करता है तथा हवन कराकर उसके अन्तमें होनेपर गोदान करता है, वह भगवान् श्रीशिवके लोकमें ब्राह्मणको गाय-बैल देता है, उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती जाता है तथा एक कल्पके बाद राजाओंका भी राजा है। यह 'सौखत' है। जो बारह द्वादशियोंको उपवास होता है। इसका नाम 'सोमव्रत' है। जो हर प्रतिपदाको
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
एक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर कमलका तुम्हारे देवता हैं, इसीलिये तुम्हें वैष्णवी कहते हैं। देवि ! दान करता है, वह वैश्वानरलोकमें जाता है। इसे तुम जन्मसे लेकर मृत्युतक समस्त पापोंसे मेरी रक्षा 'अग्निव्रत' कहते हैं। जो प्रत्येक दशमीको एक ही करो! स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें कुल साढ़े तीन अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर दस गौएँ तथा करोड़ तीर्थ हैं, यह वायु देवताका कथन है। माता सोनेका दीप दान करता है, वह ब्रह्माण्डका स्वामी होता जाह्नवी ! वे सभी तीर्थ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। है। इसका नाम 'विश्वव्रत' है। यह बड़े-बड़े पातकोंका देवलोकमें तुम्हारा नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके नाश करनेवाला है। जो स्वयं कन्यादान करता तथा सिवा दक्षा, पृथ्वी, सुभगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, दूसरेकी कन्याओंका विवाह करा देता है, वह अपनी विद्याधरी, महादेवी, लोक-प्रसादिनी, क्षेमा, जाह्नवी, इक्कीस पीढ़ियोंसहित ब्रह्मलोकमें जाता है। कन्या-दानसे शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि तुम्हारे अनेकों नाम बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। विशेषतः पुष्करमें और हैं।'* जहाँ स्नानके समय इन पवित्र नामोंका कीर्तन वहाँ भी कार्तिकी पूर्णिमाको, जो कन्या-दान करेंगे, होता है, वहाँ त्रिपथगामिनी भगवती गङ्गा उपस्थित हो उनका स्वर्गमें अक्षय वास होगा। जो मनुष्य जलमें खड़े जाती हैं। होकर तिलको पीठीके बने हुए हाथीको रलोंसे विभूषित सात बार उपर्युक्त नामोंका जप करके सम्पुटके करके ब्राह्मणको दान देते हैं, उन्हें इन्द्रलोककी प्राप्ति आकारमें दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले। तीन, होती है। जो भक्तिपूर्वक इन उत्तम व्रतोंका वर्णन पढ़ता चार, पाँच या सात बार मस्तकपर डाले; फिर विधिपूर्वक
और सुनता है, वह सौ मन्वन्तरोंतक गन्धर्वोका स्वामी मृत्तिकाको अभिमन्त्रित करके अपने अङ्गोंमें लगाये। होता है।
अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र इस प्रकार हैसानके बिना न तो शरीर ही निर्मल होता है और अश्वक्रान्ते रथकान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे। न मनकी ही शुद्धि होती है, अतः मनकी शुद्धिके लिये मृत्तिके हर मे पापं यन्पया दुष्कृतं कृतम् ।। सबसे पहले स्नानका विधान है। घरमें रखे हुए अथवा उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना । तुरंतके निकाले हुए जलसे स्नान करना चाहिये। [किसी नमस्ते सर्वलोकानां प्रभवारणि सुव्रते ॥ जलाशय या नदीका स्नान सुलभ हो तो और उत्तम है।]
(२०।१५५. १५७) मन्त्रवेत्ता विद्वान् पुरुषको मूलमन्त्रके द्वारा तीर्थकी 'वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते कल्पना कर लेनी चाहिये। 'ॐ नमो नारायणाय'- है। भगवान् श्रीविष्णुने भी वामनरूपसे तुम्हें एक पैरसे यह मूलमन्त्र बताया गया है। पहले हाथमें कुश लेकर नापा था। मृत्तिके ! मैंने जो बुरे कर्म किये हों, मेरे उन विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्द्रियोंको सब पापोंको तुम हर लो। देवि ! भगवान् श्रीविष्णुने संयममें रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। फिर चार सैकड़ों भुजाओंवाले वराहका रूप धारण करके तुम्हें हाथका चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नाङ्कित जलसे बाहर निकाला था। तुम सम्पूर्ण लोकोंकी वाक्योंद्वारा भगवती गङ्गाका आवाहन करे-गङ्गे ! तुम उत्पत्तिके लिये अरणीके समान हो। सुव्रते ! तुम्हें मेरा भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई हो; श्रीविष्णु ही नमस्कार है।'
*विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुदेवता । पाहि नस्त्वेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् ॥ तिनः कोट्योऽर्द्धकोटी च तीर्थानां वायुरप्रवीत् । दिवि भूम्यन्तरिक्षे च तानि ते सन्ति जाह्रवि ॥ नन्दिनीत्येव ते नाम देवेषु नलिनीति च । दक्षा पृथ्वी च सुभगा विश्वकाया शिवामृता ॥ विद्याधरी महादेवी तथा लोकप्रसादिनी । क्षेमा च जाह्नवी चैव शान्ता शान्तिप्रदायिनी ॥
(२०। १४९-१५२)
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सृष्टिखण्ड ]
• नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा धर्ममूर्तिकी कथा.
इस प्रकार मृत्तिका लगाकर पुनः स्नान करे। फिर जो लोग मेरे बान्धव न हों, जो मेरे बान्धव हों तथा विधिवत् आचमन करके उठे और शुद्ध सफेद धोती एवं जो दूसरे किसी जन्ममें मेरे बान्धव रहे हों, वे सब मेरे दिये चद्दर धारण कर त्रिलोकीको तृप्त करनेके लिये तर्पण करे। हुए जलसे तृप्त हों। उनके सिवा और भी जो कोई प्राणी सबसे पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और प्रजापतिका तर्पण मुझसे जलकी अभिलाषा रखते हों, वे भी तृप्ति लाभ करे। तत्पश्चात् देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, श्रेष्ठ अप्सराएँ, करें।' (ऐसा कहकर उनके उद्देश्यसे जल गिराये।] क्रूर सर्प, गरुड़ पक्षी, वृक्ष, जम्भक आदि असुर, तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके अपने आगे विद्याधर, मेघ, आकाशचारी जीव, निराधार जीव, पापी पुष्प और अक्षतोंसे कमलकी आकृति बनाये। फिर जीव तथा धर्मपरायण जीवोंको तृप्त करनेके लिये मैं जल यलपूर्वक सूर्यदेवके नामोंका उच्चारण करते हुए अक्षत, देता हूँ-यह कहकर उन सबको जलाञ्जलि दे।* पुष्प और रक्तचन्दनमिश्रित जलसे अर्घ्य दे। देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर अर्घ्यदानका मन्त्र इस प्रकार हैडाले रहे, तत्पश्चात् उसे गले में मालाकी भाँति कर ले और नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे। मनुष्यों, ऋषियों तथा ऋषिपुत्रोंका भक्तिपूर्वक तर्पण करे। सहस्ररश्मये नित्यं नमस्ते सर्वतेजसे ॥ 'सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और नमस्ते रुद्रवपुषे नमस्ते भक्तवत्सल। पञ्चशिख-ये सभी मेरे दिये जलसे सदा तृप्त हो।' ऐसी पद्मनाभ नमस्तेऽस्तु कुण्डलाङ्गदभूषित ॥ भावना करके जल दे। इसी प्रकार मरीचि, अत्रि, नमस्ते सर्वलोकेषु सुप्तांस्तान् प्रतिबुध्यसे। अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु, नारद सुकृतं दुष्कृतं चैव सर्व पश्यसि सर्वदा ।। तथा सम्पूर्ण देवर्षियों एवं ब्रह्मर्षियोंका अक्षतसहित सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीद मम भास्कर। जलके द्वारा तर्पण करे। इसके बाद यज्ञोपवीतको दायें दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥ कंधेपर करके बायें घुटनेको पृथ्वीपर टेककर बैठे; फिर
(२०।१७२-७५) अग्निश्चात्त, सौम्य, हविष्मान्, ऊष्मप, सुकाली, बर्हिषद् 'भगवान् सूर्य ! आप विश्वरूप और ब्रह्मस्वरूप हैं, तथा आज्यप नामके पितरोंका तिल और चन्दनयुक्त इन दोनों रूपोंमें आपको नमस्कार है। आप सहस्रों जलसे भक्तिपूर्वक तर्पण करे। इसी प्रकार हाथोंमें कुश किरणोंसे सुशोभित और सबके तेजरूप हैं, आपको सदा लेकर पवित्रभावसे परलोकवासी पिता, पितामह आदि नमस्कार है। भक्तवत्सल ! रुद्ररूपधारी आप परमेश्वरको
और मातामह आदिका, नाम-गोत्रका उच्चारण करते हुए बारम्बार नमस्कार है। कुण्डल और अङ्गद आदि तर्पण करे । इस क्रमसे विधि और भक्तिके साथ सबका आभूषणोंसे विभूषित पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। तर्पण करके निम्नाङ्कित मन्त्रका उच्चारण करे- भगवन् ! आप सम्पूर्ण लोकोंके सोये हुए जीवोंको ___ येऽबान्धवा बान्धवा ये येऽन्यजन्मनि बान्धवाः ॥ जगाते हैं, आपको मेरा प्रणाम है। आप सदा सबके ते तृप्तिमखिला यान्तु येऽप्यस्मत्तोयकाङ्गिणः। पाप-पुण्यको देखा करते हैं। सत्यदेव ! आपको
(२० । १६९-७०) नमस्कार है। भास्कर ! मुझपर प्रसन्न होइये । दिवाकर !
* देवा यक्षास्तथा नागा गन्धर्वाप्सरसा वराः ।।
क्रूराः सर्पाः सुपर्णाच तरवो जम्भकादयः । विद्याधरा जलधरास्तथैवाकाशगामिनः । निराधाराश्च ये जीवा पापे धमें रताच ये। तेषामाप्यायनं चैव दीयते सलिलं मया ॥
(२०११५९-६१) + सनकक्ष सनन्दव तृतीया सनातनः । कपिलवासुरिक्षेव वोदुः पशिखस्तथा ॥ सर्वे ते तृप्तिमायान्तु महत्तेनाम्बुना सदा।
(२०। १६२-६४)
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• अर्चयख हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पदापुराण
आपको नमस्कार है। प्रभाकर ! आपको नमस्कार है।' अत्यन्त सुन्दर तथा शोभासम्पन्न थीं। धर्मका काम
इस प्रकार सूर्यदेवको नमस्कार करके तीन बार समझकर उसने उन प्रतिमाओंके बनानेकी मजदूरी नहीं उनकी प्रदक्षिणा करे । फिर द्विज, गौ और सुवर्णका स्पर्श ली थी। उस नमकके पर्वतपर जो सोनेके वृक्ष लगाये करके अपने घरमें जाय और वहाँ भगवान्की पावन गये थे, उन्हें उस सुनारकी स्त्रीने तपाकर देदीप्यमान बना प्रतिमाका पूजन करे। [तदनन्तर भगवान्को भोग दिया था। [सुनारकी पत्नी भी लीलावतीके घर लगाकर बलिवैश्वदेव करनेके पश्चात्] पहले ब्राह्मणोंको परिचारिकाका काम करती थी। उन्हीं दोनोंने ब्राह्मणोंकी भोजन करा पीछे स्वयं भोजन करे । इस विधिसे नित्य- सेवासे लेकर सारा कार्य सम्पन्न किया था। तदनन्तर कर्म करके समस्त ऋषियोंने सिद्धि प्राप्त की है। दीर्घ कालके पश्चात् लीलावती वेश्या सब पापोंसे मुक्त
पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! पूर्वकालकी बात होकर शिवजीके धामको चली गयी तथा वह सुनार, जो है-बृहत् नामक कल्पमें धर्ममूर्ति नामके एक राजा थे, दरिद्र होनेपर भी अत्यन्त सात्त्विक था और जिसने जिनकी इन्द्रके साथ मित्रता थी। उन्होंने सहस्रों दैत्योंका वेश्यासे मजदूरी नहीं ली थी, आप ही हैं। उसी पुण्यके वध किया था। सूर्य और चन्द्रमा भी उनके तेजके सामने प्रभावसे आप सातों द्वीपोंके स्वामी तथा हजारों सूर्योक प्रभाहीन जान पड़ते थे। उन्होंने सैकड़ों शत्रुओंको परास्त समान तेजस्वी हुए हैं। सुनारकी ही भांति उसकी पत्नीने किया था। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे। भी सोनेके वृक्षों और देवमूर्तियोंको कान्तिमान् बनाया मनुष्योंसे उनकी कभी पराजय नहीं हुई थी। उनकी था, इसलिये वही आपकी महारानी भानुमती हुई है। पत्नीका नाम था भानुमती । वह त्रिभुवन में सबसे सुन्दरी प्रतिमाओंको जगमग बनानेके कारण महारानीका रूप थी। उसने लक्ष्मीकी भाँति अपने रूपसे देवसुन्दरियोंको अत्यन्त सुन्दर हुआ है। और उसी पुण्यके प्रभावसे आप भी मात कर दिया था। भानुमती ही राजाकी पटरानी मनुष्यलोकमें अपराजित हुए हैं तथा आपको आरोग्य थी। वे उसे प्राणोंसे भी बढ़कर मानते थे। एक दिन और सौभाग्यसे युक्त राजलक्ष्मी प्राप्त हुई है; इसलिये राजसभामें बैठे हुए महाराज धर्ममूर्तिने विस्मय-विमुग्ध आप भी विधिपूर्वक धान्य-पर्वत आदि दस प्रकारके हो अपने पुरोहित मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको प्रणाम करके पर्वत बनाकर उनका दान कीजिये। पूछा-'भगवन् ! किस धर्मक प्रभावसे मुझे सर्वोत्तम पुलस्त्यजी कहते हैं-राजा धर्ममूर्तिने 'बहुत लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई है ? मेरे शरीरमें जो सदा उत्तम और अच्छा' कहकर वसिष्ठजीके वचनोंका आदर किया और विपुल तेज भरा रहता है-इसका क्या कारण है?' अनाज आदिके पर्वत बनाकर उन सबका विधिपूर्वक
वसिष्ठजीने कहा-राजन् । प्राचीन कालमें एक दान किया। तत्पश्चात् वे देवताओंसे पूजित होकर लीलावती नामकी वेश्या थी, जो सदा भगवान् शङ्करके महादेवजीके परम धामको चले गये। जो मनुष्य इस भजनमें तत्पर रहती थी। एक बार उसने पुष्करमें प्रसङ्गका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह भी पापरहित चतुर्दशीको नमकका पहाड़ बनाकर सोनेकी बनी हो स्वर्गलोकमें जाता है। राजन् ! अनादि पर्वतोंके देवप्रतिमाके साथ विधिपूर्वक दान किया था। शुद्ध दानका पाठमात्र करनेसे दुःस्वप्रोंका नाश हो जाता है; नामका एक सुनार था, जो लीलावतीके घरमें नौकरका फिर जो इस पुष्कर क्षेत्रमें शान्तचित्त होकर सब प्रकारके काम करता था। उसीने बड़ी श्रद्धाके साथ मुख्य-मुख्य पर्वतोंका स्वयं दान करता है, उसको मिलनेवाले फलका देवताओंकी सुवर्णमयी प्रतिमाएं बनायी थीं, जो देखनेमें क्या वर्णन हो सकता है।
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सृष्टिखण्ड ]
• भीमद्वादशी-व्रतका विधान .
भीमद्वादशी-व्रतका विधान भीष्मजीने कहा-विप्रवर ! भगवान् शङ्करने परिचय देता हूँ। उस दिन निम्नाङ्कित विधिसे उपवास जिन वैष्णव-धर्मोका उपदेश किया है, उनका मुझसे करके तुम श्रीविष्णुके परम धामको प्राप्त करो। जिस दिन वर्णन कीजिये। वे कैसे हैं और उनका फल क्या है? माघ मासकी दशमी तिथि आये, उस दिन समस्त शरीरमें
पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! प्राचीन रथन्तर घी लगाकर तिलमिश्रित जलसे स्रान करे तथा 'ॐ नमो कल्पकी बात है, पिनाकधारी भगवान् शङ्कर मन्दराचल- नारायणाय' इस मन्त्रसे भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे। पर विराजमान थे। उस समय महात्मा ब्रह्माजीने स्वयं ही 'कृष्णाय नमः' कहकर दोनों चरणोंकी और 'सर्वात्मने उनके पास जाकर पूछा-'परमेश्वर ! थोड़ी-सी तपस्यासे नमः' कहकर मस्तककी पूजा करे। 'वैकुण्ठाय नमः' मनुष्योंको मोक्षको प्राप्ति कैसे हो सकती है ?' ब्रह्माजीके इस मन्त्रसे कण्ठकी और 'श्रीवत्सबारिणे नमः' इससे
हृदयकी अर्चा करे। फिर 'शसिने नमः', 'चक्रिणे नमः', 'गदिने नमः', 'वरदाय नमः' तथा 'सर्व नारायणः' (सब कुछ नारायण ही है)-ऐसा कहकर आवाहन आदिके क्रमसे भगवानकी पूजा करे। इसके बाद 'दामोदराय नमः' कहकर उदरका, 'पञ्चजनाय नमः' इस मन्त्रसे कमरका, 'सौभाग्यनाथाय नमः' इससे दोनों जाँघोंका, 'भूतधारिणे नमः' से दोनों घुटनोंका, 'नीलाय नमः' इस मन्त्रसे पिंडलियों (घुटनेसे नीचेके भाग) का और 'विश्वसजे नमः' इससे पुनः दोनों चरणोंका पूजन करे। तत्पश्चात् 'देव्यै नमः', 'शान्त्यै नमः,' 'लक्ष्म्यै नमः', श्रियै नमः', 'तुष्टयै नमः', 'पुष्टयै नमः', 'व्युष्टयै नमः'-इन मन्त्रोंसे भगवती लक्ष्मीकी पूजा करे। इसके बाद 'वायुवेगाय नमः',
'पक्षिणे नमः,' 'विषप्रमथनाय नमः', 'विहङ्गनाथाय इस प्रकार प्रश्न करनेपर जगत्की उत्पत्ति एवं वृद्धि नमः'-इन मन्त्रोंके द्वारा गरुड़की पूजा करनी चाहिये। करनेवाले विश्वात्मा उमानाथ शिव मनको प्रिय लगने- इसी प्रकार गन्ध, पुष्प, धूप तथा नाना प्रकारके वाले वचन बोले।
पकवानोंद्वारा श्रीकृष्णकी, महादेवजीकी तथा महादेवजीने कहा-एक समय द्वारकाकी सभा गणेशजीकी भी पूजा करे। फिर गौके दूधकी बनी हुई अमिततेजस्वी भगवान् श्रीकृष्ण वृष्णिवंशी पुरुषों, खीर लेकर घीके साथ मौनपूर्वक भोजन करे । भोजनके विद्वानों, कौरवों और देव-गन्धर्वोके साथ बैठे हुए थे। अनन्तर विद्वान् पुरुष सौ पग चलकर बरगद अथवा धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली पौराणिक कथाएँ हो रही थीं। खैरेकी दाँतन ले उसके द्वारा दाँतोंको साफ करे; फिर मुँह इसी समय भीमसेनने भगवान्से परमपदकी प्राप्तिके घोकर आचमन करे। सूर्यास्त होनेके बाद उत्तराभिमुख विषयमें पूछा । उनका प्रश्न सुनकर भगवान् श्रीवासुदेवने बैठकर सायङ्कालकी सन्ध्या करे। उसके अन्तमें यह कहा-'भीम ! मैं तुम्हें एक पापविनाशिनी तिथिका कहे-'भगवान् श्रीनारायणको नमस्कार है। भगवन् !
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
मैं आपकी शरणमें आया हैं।'* [इस प्रकार प्रार्थना चौड़ा और उतना ही गहरा हो। उसके ऊपरी किनारेपर करके रात्रिमें शयन करे।]
तीन मेखलाएँ बनवाये। उसमें यथास्थान योनि और दूसरे दिन एकादशीको निराहार रहकर भगवान् मुखके चिह्न बनवाये। तदनन्तर ब्राह्मण [कुण्डमें अग्नि केशवकी पूजा करे और रातभर बैठा रहकर शेषशायी प्रज्वलित करके] जौ, घी और तिलोंका श्रीविष्णुभगवानकी आराधना करे। फिर अनिमें घीकी आहुति सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा हवन करे। इस प्रकार वहाँ विधिदेकर प्रार्थना करे कि 'हे पुण्डरीकाक्ष ! मैं द्वादशीको श्रेष्ठ पूर्वक वैष्णवयागका सम्पादन करे। फिर कुण्डके मध्य में ब्राह्मणोंके साथ ही खीरका भोजन करूंगा। मेरा यह व्रत यत्नपूर्वक घीकी धारा गिराये, देवाधिदेव भगवान्के निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण हो।' यह कहकर इतिहास-पुराणकी श्रीविग्रहपर दूधकी धारा छोड़े तथा अपने मस्तकपर कथा सुननेके पश्चात् शयन करे। सबेरा होनेपर नदीमें पूर्वोक्त जलधाराको धारण करे। घीकी धारा मटरकी जाकर प्रसन्नतापूर्वक स्नान करे। पाखण्डियोंके संसर्गसे दालके बराबर मोटी होनी चाहिये। परन्तु दूध और दूर रहे। विधिपूर्वक सन्थ्योपासन करके पितरोंका तर्पण जलकी धाराको अपनी इच्छाके अनुसार मोटी या पतली करे। फिर शेषशायी भगवान्को प्रणाम करके घरके किया जा सकता है। ये धाराएँ रातभर अविच्छित्र रूपसे सामने भक्तिपूर्वक एक मण्डपका निर्माण कराये। उसके गिरती रहनी चाहिये। फिर जलसे भरे हुए तेरह भीतर चार हाथकी सुन्दर वेदी बनवाये। वेदीके ऊपर कलशोंकी स्थापना करे। वे नाना प्रकारके भक्ष्य दस हाथका तोरण लगाये। फिर सुदृढ़ खंभोंके पदार्थोंसे युक्त और श्वेत वस्त्रोंसे अलङ्कत होने चाहिये। आधारपर एक कलश रखे, उसमें नीचेकी ओर उड़दके उनके साथ चंदोवा, उदुम्बर-पात्र तथा पश्चरत्नका होना दानेके बराबर छेद कर दे। तदनन्तर उसे जलसे भरे और भी आवश्यक है। वहाँ चार ऋग्वेदी ब्राह्मण उत्तरकी स्वयं उसके नीचे काला मृगचर्म बिछाकर बैठ जाय। ओर मुख करके हवन करें, चार यजुर्वेदी विप्र कलशसे गिरती हुई धाराको सारी रात अपने मस्तकपर रुद्राध्यायका पाठ करें तथा चार सामवेदी ब्राह्मण धारण करे। वेदवेत्ता ब्राह्मणोंने धाराओंकी अधिकताके वैष्णव-सामका गायन करते रहें। उपर्युक्त बारहों अनुपातसे फलमें भी अधिकता बतलायी है; इसलिये ब्राह्मणोंको वस्त्र, पुष्प, चन्दन, अँगूठी, कड़े, सोनेकी व्रत करनेवाले द्विजको चाहिये कि प्रयत्नपूर्वक उसे धारण जंजीर, वस्त्र तथा शय्या आदि देकर उनका पूर्ण सत्कार करे। दक्षिण दिशाकी ओर अर्धचन्द्रके समान, पश्चिमको करे। इस कार्यमें धनकी कृपणता न करे। ओर गोल तथा उत्तरकी ओर पीपलके पत्तेकी आकृतिका इस प्रकार गीत और माङ्गलिक शब्दोंके साथ रात्रि मण्डल बनवाये। वैष्णव द्विजको मध्यमें कमलके व्यतीत करे। उपाध्याय (आचार्य या पुरोहित) को सब आकारका मण्डल बनवाना चाहिये। पूर्वकी ओर जो वस्तुएँ अन्य ब्राह्मणोंकी अपेक्षा दूनी मात्रामें अर्पण करे। वेदीका स्थान है, उसके दक्षिण ओर भी एक दूसरी वेदी रात्रिके बाद जब निर्मल प्रभातका उदय हो, तब शयनसे बनवाये। भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर हो पूर्वोक्त उठकर [नित्यकर्मके पश्चात्] तेरह गौएँ दान करनी जलकी धाराको बराबर मस्तकपर धारण करता रहे। चाहिये। उनके साथकी समस्त सामग्री सोनेकी होनी दूसरी वेदी भगवान्की स्थापनाके लिये हो। उसके ऊपर चाहिये। वे सब-की-सब दूध देनेवाली और सुशीला कर्णिकासहित कमलकी आकृति बनाये और उसके हों। उनके सींग सोनेसे और खुर चाँदीसे मँढ़े हुए हों मध्यभागमें भगवान् पुरुषोत्तमको विराजमान करे । उनके तथा उन सबको वस्त्र ओढ़ाकर चन्दनसे विभूषित किया निमित्त एक कुण्ड बनवाये, जो हाथभर लम्बा, उतना ही गया हो। गौओंके साथ काँसीका दोहनपात्र भी होना
• नमो नारायणायेति त्वामहं शरणं गतः॥
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सृष्टिखण्ड ]
. आदित्य-शयन आदि ग्रत, तडागकी प्रतिष्ठा और यक्षारोपणकी विधि.
चाहिये। गोदानके पश्चात् ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे देवराज इन्द्रका भक्ष्य-भोज्य पदार्थोसे तृप्त करके नाना प्रकारके वस्त्र दान सारा पाप नष्ट हो गया था। इसीके अनुष्ठानसे मेरी प्रिया करे। फिर स्वयं भी क्षार लवणसे रहित अन्नका भोजन सत्यभामाने मुझे पतिरूपमें प्राप्त किया। इस करके ब्राह्मणोंको विदा करे । पुत्र और स्त्रीके साथ आठ कल्याणमयी तिथिको सूर्यदेवने सहस्रों धाराओंसे स्नान पगतक उनके पीछे-पीछे जाय और इस प्रकार प्रार्थना किया था, जिससे उन्हें तेजोमय शरीरकी प्राप्ति हुई। करे–'हमारे इस कार्यसे देवताओंके स्वामी भगवान् इन्द्रादि देवताओं तथा करोड़ों दैत्योंने भी इस व्रतका श्रीविष्णु, जो सबका क्लेश दूर करनेवाले हैं, प्रसन्न हों। अनुष्ठान किया है। यदि एक मुखमें दस हजार करोड़ श्रीशिवके हृदयमें श्रीविष्णु हैं और श्रीविष्णुके हृदयमें (एक खरब) जिलाएँ हों तो भी इसके फलका पूरा वर्णन श्रीशिव विराजमान हैं। मैं इन दोनोंमें अन्तर नहीं नहीं किया जा सकता। देखता-इस धारणासे मेरा कल्याण हो।'* यह महादेवजी कहते है-ब्रह्मन् ! कलियुगके कहकर उन कलशों, गौओं, शय्याओं तथा वस्त्रोंको सब पापोंको नष्ट करनेवाली एवं अनन्त फल प्रदान ब्राह्मणोंके घर पहुँचवा दे। अधिक शय्याएँ सुलभ न हों करनेवाली इस कल्याणमयी तिथिकी महिमाका वर्णन तो गृहस्थ पुरुष एक ही शय्याको सब सामानोंसे यादवराजकुमार भगवान् श्रीकृष्ण अपने श्रीमुखसे सुसज्जित करके दान करे । भीमसेन ! वह दिन इतिहास करेंगे। जो इसके व्रतका अनुष्ठान करता है, उसके और पुराणोंके श्रवणमें ही बिताना चाहिये। अतः तुम भी नरकमें पड़े हुए पितरोंका भी यह उद्धार करनेमें समर्थ सत्त्वगुणका आश्रय ले, मात्सर्यका त्याग करके इस है। जो अत्यन्त भक्तिके साथ इस कथाको सुनता तथा व्रतका अनुष्ठान करो। यह बहुत गुप्त व्रत है, किन्तु दूसरोंके उपकारके लिये पढ़ता है, वह भगवान् स्नेहवश मैंने तुम्हें बता दिया है। वीर ! तुम्हारे द्वारा श्रीविष्णुका भक्त और इन्द्रका भी पूज्य होता है। पूर्व इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध कल्पमें जो माघ मासकी द्वादशी परम पूजनीय होगा। इसे लोग 'भीमद्वादशी' कहेंगे। यह भीमद्वादशी कल्याणिनी तिथिके नामसे प्रसिद्ध थी, वही थाण्डुनन्दन सब पापोंको हरनेवाली और शुभकारिणी होगी। प्राचीन भीमसेनके व्रत करनेपर अनन्त पुण्यदायिनी कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी' व्रत कहा जाता था। 'भीमद्वादशी के नामसे प्रसिद्ध होगी।
_ आदित्य-शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन-व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि
तथा सौभाग्य-शयन-व्रतका वर्णन भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन् ! जो अभ्यास न होनेके जिसमें दिनभर उपवास करके रात्रिमें भोजनका विधान कारण अथवा रोगवश उपवास करनेमें असमर्थ है, हो; मैं ऐसे महान् व्रतका परिचय देता हूँ. सुनो। उस किन्तु उसका फल चाहता है, उसके लिये कौन-सा व्रत व्रतका नाम है-आदित्य-शयन। उसमें विधिपूर्वक उत्तम है-यह बताइये।
भगवान् शङ्करकी पूजा की जाती है। पुराणोंके ज्ञाता पुलस्त्यजीने कहा-राजन् ! जो लोग उपवास महर्षि जिन नक्षत्रोंके योगमें इस व्रतका उपदेश करते हैं, करने में असमर्थ हैं, उनके लिये वही व्रत अभीष्ट है, उन्हें बताता हूँ। जब सप्तमी तिथिको हस्त नक्षत्रके साथ
* प्रीयतामत्र देवेशः केशवः केशनाशनः ।।
शिवस्य हृदये विष्णुर्विष्णोच हृदये शिवः । यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्ति चायुषः ।। संयपु० ४
(२३ । ५९-६०)
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• अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
रविवार हो अथवा सूर्यकी संक्रान्ति हो, वह तिथि समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली होती है। उस दिन सूर्यके नामोंसे भगवती पार्वती और महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये। सूर्यदेवकी प्रतिमा तथा शिवलिङ्गका भी भक्ति पूर्वक पूजन करना उचित है। हस्त नक्षत्रमें 'सूर्याय नमः' का उच्चारण करके सूर्यदेवके चरणोंकी, चित्रा नक्षत्रमें 'अर्काय नमः' कहकर उनके गुल्फों (घुट्ठियों) की स्वाती नक्षत्रमें 'पुरुषोत्तमाय नमः 'से पिंडलियोंकी, विशाखामें 'धात्रे नमः' से घुटनोंकी तथा अनुराधामें 'सहस्रभानवे नमः 'से दोनों जाँघोंकी पूजा करनी चाहिये। ज्येष्ठा नक्षत्रमें 'अनङ्गाय नमः' से गुह्य प्रदेशकी मूलमें 'इन्द्राय नमः' और 'भीमाय नमः' से कटिभागकी, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढामें 'त्वष्ट्रे नमः' और 'सप्ततुरङ्गमाय नमः' से नाभिकी, श्रवणमें 'तीक्ष्णांशवे नमः' से उदरकी, धनिष्ठामें 'विकर्तनाय नमः' से दोनों बगलोंकी और शतभिषा नक्षत्रमें 'ध्वान्तविनाशनाय नमः 'से सूर्यके वक्षःस्थलकी पूजा करनी चाहिये । पूर्वा और उत्तरा भाद्रपदामें 'चण्डकराय नमः' से दोनों भुजाओंका रेवतीमें 'साम्नामधीशाय नमः' से दोनों हाथोंका, अश्विनीमें 'सप्ताश्वधुरन्धराय नमः' से नखोंका और भरणीमें 'दिवाकराय नमः' से भगवान् सूर्यके कण्ठका पूजन करे। कृत्तिकामें ग्रीवाकी रोहिणीमें ओठोंकी, मृगशिरामें जिह्वाकी तथा आर्द्रामें 'हरये नमः' से सूर्यदेवके दाँतोंकी अर्चना करे। पुनर्वसुमें 'सवित्रे नमः' से शङ्करजीकी नासिकाका, पुष्यमें 'अम्भोरुहवल्लभाय नमः 'से ललाटका तथा 'वेदशरीरधारिणे नमः' से बालोंका, आश्लेषामें 'विबुधप्रियाय नमः ' से मस्तकका, मघामें दोनों कानोंका, पूर्वा फाल्गुनीमें 'गोब्राह्मणनन्दनाय नमः' से शम्भुके सम्पूर्ण अङ्गका तथा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें 'विश्वेश्वराय नमः 'से उनकी दोनों भौंहोंका पूजन करे 'पाश, अङ्कुश, कमल, त्रिशूल, कपाल, सर्प, चन्द्रमा
पाशाङ्कुशपद्मशूलकपालसर्पेन्दुधनुर्धराय नमः ।
+ गयासुरानङ्गपुरान्धकादिविनाशमूलाय नमः शिवाय ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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तथा धनुष धारण करनेवाले श्रीमहादेवजीको नमस्कार है। * 'गयासुर, कामदेव, त्रिपुर और अन्धकासुर आदिके विनाशके मूल कारण भगवान् श्रीशिवको प्रणाम है।' इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करके प्रत्येक अङ्गकी पूजा करनेके पश्चात् 'विश्वेश्वराय नमः' से भगवान्के मस्तकका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर अन्न भोजन करना उचित है। भोजनमें तेल और खारे नमकका सम्पर्क नहीं रहना चाहिये। मांस और उच्छिष्ट अन्नका तो कदापि सेवन न करे।
राजन् ! इस प्रकार रात्रिमें शुद्ध भोजन करके पुनर्वसु नक्षत्रमें दान करना चाहिये। किसी बर्तनमें एक सेर अगहनीका चावल, गूलरकी लकड़ीका पात्र तथा घृत रखकर सुवर्णके साथ उसे ब्राह्मणको दान करे। सातवें दिनके पारणमें और दिनोंकी अपेक्षा एक जोड़ा वस्त्र अधिक दान करना चाहिये। चौदहवें दिनके पारणमें गुड़, खीर और घृत आदिके द्वारा ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक भोजन कराये। तदनन्तर कर्णिकासहित सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जो आठ अङ्गुलका हो तथा जिसमें पद्मरागमणि (नीलम) की पत्तियाँ अङ्कित की गयी हों। फिर सुन्दर शय्या तैयार करावे, जिसपर सुन्दर बिछौने बिछाकर तकिया रखा गया हो और ऊपरसे चंदोवा तना हो। शय्याके ऊपर पंखा रखा गया हो। उसके आस-पास खड़ाऊँ, जूता, छत्र, चंवर, आसन और दर्पण रखे गये हों। फल, वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे वह शय्या सुशोभित होनी चाहिये। ऊपर बताये हुए सोनेके कमलको उस शय्यापर रख दे। इसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूध देनेवाली अत्यन्त सीधी कपिला गौका दान करे। वह गौ उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित और बछड़ेसहित होनी चाहिये । उसके खुर चाँदीसे और सींग सोनेसे मँढ़े होने चाहिये तथा उसके साथ काँसीकी दोहनी होनी चाहिये। दिनके पूर्व भागमें ही दान करना उचित है। समयका उल्लङ्घन
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सृष्टिखण्ड ]
. आदित्य-शयन आदि व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा और वृक्षारोपणकी विधि.
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कदापि नहीं करना चाहिये। शय्यादानके पश्चात् इस पुराणवेत्ता विद्वान् ही जानते है। इस लोकमें 'रोहिणीप्रकार प्रार्थना करे-'सूर्यदेव ! जिस प्रकार आपकी चन्द्र-शयन' नामक व्रत बड़ा ही उत्तम है। इसमें शय्या कान्ति, धृति, श्री और पुष्टिसे कभी सूनी नहीं चन्द्रमाके नामोंद्वारा भगवान् नारायणकी प्रतिमाका पूजन होती, वैसे ही मेरी भी वृद्धि हो। वेदोंके विद्वान् आपके करना चाहिये। जब कभी सोमवारके दिन पूर्णिमा तिथि सिवा और किसीको निष्पाप नहीं जानते, इसलिये आप हो अथवा पूर्णिमाको रोहिणी नक्षत्र हो, उस दिन मनुष्य सम्पूर्ण दुःखोंसे भरे हुए इस संसार-सागरसे मेरा उद्धार सबेरे पञ्चगव्य और सरसोंके दानोंसे युक्त जलसे स्नान कीजिये।' इसके पश्चात् भगवान्की प्रदक्षिणा करके उन्हें करे तथा विद्वान् पुरुष 'आप्यायस्वः' इत्यादि मन्त्रको प्रणाम करनेके अनन्तर विसर्जन करे। शय्या और गौ आठ सौ बार जपे। यदि शूद्र भी इस व्रतको करे तो आदिको ब्राह्मणके घर पहुंचा दे।
अत्यन्त भक्तिपूर्वक 'सोमाय नमः', 'वरदाय नमः', भगवान् शङ्करके इस व्रतकी चर्चा दुराचारी और "विष्णवे नम:'-इन मन्त्रोंका जप करे और दम्भी पुरुषके सामने नहीं करनी चाहिये । जो गौ, ब्राह्मण, पाखण्डियोंसे-विधर्मियोंसे बातचीत न करे। जप देवता, अतिथि और धार्मिक पुरुषोंकी विशेषरूपसे करनेके पश्चात् घर आकर फल-फूल आदिके द्वारा निन्दा करता है, उसके सामने भी इसको प्रकट न करे। भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा करे। साथ ही चन्द्रमाके भगवानके भक्त और जितेन्द्रिय पुरुषके समक्ष ही यह नामोंका उच्चारण करता रहे। 'सोमाय शान्ताय नमः' आनन्ददायी एवं कल्याणमय गूढ़ रहस्य प्रकाशित कहकर भगवान्के चरणोंका, 'अनन्तधान्ने नमः'का करनेके योग्य है। वेदवेत्ता पुरुषोंका कहना है कि यह उच्चारण करके उनके घुटनों और पिंडलियोंका, व्रत महापातकी मनुष्योंके भी पापोंका नाश कर देता है। 'जलोदराय नमः' से दोनों जाँघोंका, 'कामसुखप्रदाय जो पुरुष इस व्रतका अनुष्ठान करता है, उसका बन्धु, नमः'से चन्द्रस्वरूप भगवानके कटिभागका, पुत्र, धन और स्त्रीसे कभी वियोग नहीं होता तथा वह 'अमृतोदराय नमः'से उदरका, 'शशाङ्काय नमः' से देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला माना जाता है। इसी नाभिका, 'चन्द्राय नमः'से मुखमण्डलका, प्रकार जो नारी भक्तिपूर्वक इस व्रतका पालन करती है, 'द्विजानामधिपाय नमः' से दाँतोंका, 'चन्द्रमसे नमः'से उसे कभी रोग, दुःख और मोहका शिकार नहीं होना मुँहका, 'कौमोदवनप्रियाय नमः'से ओठोंका, पड़ता। प्राचीन कालमें महर्षि वसिष्ठ, अर्जुन, कुबेर तथा 'वनौषधीनामधिनाथाय नमः'से नासिकाका, इन्द्रने इस व्रतका आचरण किया था। इस व्रतके 'आनन्दबीजाय नमः'से दोनों । भौहोका, कीर्तनमात्रसे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी 'इन्दीवरव्यासकराय नमः'से भगवान् श्रीकृष्णके सन्देह नहीं है। जो पुरुष इस आदित्यशयन नामक व्रतके कमल-सदृश नेत्रोंका, 'समस्तासुरवन्दिताय माहात्म्य एवं विधिका पाठ या श्रवण करता है, वह दैत्यनिषूदनाय नमः'से दोनों कानोंका, 'उदधिप्रियाय इन्द्रका प्रियतम होता है तथा जो इस व्रतका अनुष्ठान नमः'से चन्द्रमाके ललाटका, 'सुषुप्राधिपतये नमः'से करता है, वह नरकमें भी पड़े हुए समस्त पितरोंको केशोंका, 'शशाङ्काय नमः'से मस्तकका और स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है।
"विश्वेश्वराय नमः'से भगवान् मुरारिके किरीटका पूजन भीष्मजीने कहा-मुने ! अब आप चन्द्रमाके करे। फिर 'रोहिणीनामधेयलक्ष्मीसौभाग्यसौख्यामृतव्रतका वर्णन कीजिये।
सागराय पाश्रिये नमः" (रोहिणी नाम धारण करनेपुलस्त्यजी बोले-राजन् ! तुमने बड़ी उत्तम वाली लक्ष्मीके सौभाग्य और सुखरूप अमृतके समुद्र बात पूछी है। अब मैं तुम्हें वह गोपनीय व्रत बतलाता तथा कमलकी-सी कान्तिवाले भगवान्को नमस्कार हैं, जो अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है तथा जिसे है)-इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान के सामने
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. अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
मस्तक झुकाये। तत्पश्चात् सुगन्धित पुष्प, नैवेद्य और धूप विनय करके शय्या, प्रतिमा तथा धेनु आदि सब कुछ आदिके द्वारा इन्दुपत्नी रोहिणी देवीका भी पूजन करे। ब्राह्मणको दान कर दे।]
इसके बाद रात्रिके समय भूमिपर शयन करे और राजन् ! जो संसारसे भयभीत होकर मोक्ष पानेकी सबेरे उठकर स्नानके पश्चात् 'पापविनाशाय नमः'का इच्छा रखता है, उसके लिये यही एक व्रत सर्वोत्तम है। उच्चारण करके ब्राह्मणको घृत और सुवर्णसहित जलसे यह रूप और आरोग्य प्रदान करनेवाला है। यही पितरोको भरा कलश दान करे। फिर दिनभर उपवास करनेके सर्वदा प्रिय है। जो इसका अनुष्ठान करता है वह पश्चात् गोमूत्र पीकर मांसवर्जित एवं खारे नमकसे रहित त्रिभुवनका अधिपति होकर इक्कीस सौ कल्पोंतक चन्द्रअनके इकतीस ग्रास घीके साथ भोजन करे । तदनन्तर लोकमें निवास करता है। उसके बाद विद्युत् होकर मुक्त दो घड़ीतक इतिहास, पुराण आदिका श्रवण करे। हो जाता है। चन्द्रमाके नाम-कीर्तनद्वारा भगवान् राजन् ! चन्द्रमाको कदम्ब, नील कमल, केवड़ा, जाती श्रीमधुसूदनकी पूजाका यह प्रसङ्ग जो पढ़ता अथवा पुष्प, कमल, शतपत्रिका, बिना कुम्हलाये कुब्जके फूल, सुनता है, उसे भगवान् उत्तम बुद्धि प्रदान करते हैं तथा सिन्दुवार, चमेली, अन्यान्य श्वेत पुष्प, करवीर तथा वह भगवान् श्रीविष्णुके धाममें जाकर देवसमूहके द्वारा चम्पा-ये ही फूल चढ़ाने चाहिये। उपर्युक्त फूलोकी पूजित होता है। जातियोंमेंसे एक-एकको श्रावण आदि महीनोंमें क्रमशः भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! अब मुझे तालाब, अर्पण करे। जिस महीने में व्रत शुरू किया जाय, उस बगीचा, कुआँ, बावली, पुष्करिणी तथा देवमन्दिरकी समय जो भी पुष्प सुलभ हों, उन्हींक द्वारा श्रीहरिका प्रतिष्ठा आदिका विधान बतलाइये। पूजन करना चाहिये।
पुलस्त्यजी बोले-महाबाहो! सुनो; तालाब इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिवत् आदिको प्रतिष्ठाका जो विधान है, उसका इतिहासअनुष्ठान करके समाप्तिके समय शयनोपयोगी सामग्रियोंके पुराणोंमें इस प्रकार वर्णन है। उत्तरायण आनेपर शुभ साथ शय्यादान करे। रोहिणी और चन्द्रमाको सुवर्णमयी शुक्ल पक्षमें ब्राह्मणद्वारा कोई पवित्र दिन निश्चित करा मूर्ति बनवाये। उनमें चन्द्रमा छः अङ्गलके और रोहिणी ले। उस दिन ब्राह्मणोंका वरण करे और तालाबके चार अङ्गलकी होनी चाहिये। आठ मोतियोंसे युक्त श्वेत समीप, जहाँ कोई अपवित्र वस्तु न हो, चार हाथ लम्बी नेत्रोंवाली उन प्रतिमाओंको अक्षतसे भरे हुए काँसीके और उतनी ही चौड़ी चौकोर वेदी बनाये । वेदी सब ओर पात्रमें रखकर दुग्धपूर्ण कलशके ऊपर स्थापित कर दे। समतल हो और चारों दिशाओंमें उसका मुख हो। फिर फिर वस्त्र और दोहनीके साथ दूध देनेवाली गौ, शङ्ख सोलह हाथका मण्डप तैयार कराये। जिसके चारों ओर तथा पात्र प्रस्तुत करे। उत्तम गुणोंसे युक्त ब्राह्मण- एक-एक दरवाजा हो । वेदीके सब ओर कुण्डोंका निर्माण दम्पतीको बुलाकर उन्हें आभूषणोंसे अलङ्कत करे तथा कराये। कुण्डोंकी संख्या नौ, सात या पाँच होनी चाहिये। मनमें यह भावना रखे कि ब्राह्मण-दम्पतीके रूपमें ये कुण्डोंकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक रत्रिकी' हो तथा वे रोहिणीसहित चन्द्रमा ही विराजमान हैं। तत्पश्चात् इनकी सभी तीन-तीन मेखलाओंसे सुशोभित हों। उनमें इस प्रकार प्रार्थना करे–'चन्द्रदेव ! आप ही सबको यथास्थान योनि और मुख भी बने होने चाहिये । योनिकी परम आनन्द और मुक्ति प्रदान करनेवाले है। आपकी लम्बाई एक बित्ता और चौड़ाई छ:-सात अंगुलकी हो। कृपासे मुझे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हों। [इस प्रकार मेखलाएँ तीन पर्व' ऊँची और एक हाथ लम्बी होनी
१. कोहनीसे लेकर मुट्ठी बँधे हुए हाथतककी लम्बाईको 'रलि' या 'अरनि' कहते हैं। २. अंगुलियोंके पोरको 'पर्व' कहते है।
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सृष्टिखण्ड ]
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• आदित्य शयन आदि व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा और वृक्षारोपणकी विधि •
चाहिये। वे चारों ओरसे एक समान एक रंगकी बनी हों। सबके समीप ध्वजा और पताकाएँ लगायी जायें। मण्डपके चारों ओर क्रमशः पीपल, गूलर, पाकड़ और बरगदकी शाखाओंके दरवाजे बनाये जायें। वहाँ आठ होता, आठ द्वारपाल तथा आठ जप करनेवाले ब्राह्मणोंका वरण किया जाय। वे सभी ब्राह्मण वेदोंके पारगामी विद्वान् होने चाहिये। सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, मन्त्रोंके ज्ञाता, जितेन्द्रिय, कुलीन, शीलवान् एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको ही इस कार्यमें नियुक्त करना चाहिये । प्रत्येक कुण्डके पास कलश, यज्ञसामग्री, निर्मल आसन और दिव्य एवं विस्तृत ताम्रपात्र प्रस्तुत रहें।
तदनन्तर प्रत्येक देवताके लिये नाना प्रकारकी बलि (दही, अक्षत आदि उत्तम भक्ष्य पदार्थ) उपस्थित करे। विद्वान् आचार्य मन्त्र पढ़कर उन सामग्रियोंके द्वारा पृथ्वीपर सब देवताओंके लिये बलि समर्पण करे। अरलिके बराबर एक यूप ( यज्ञस्तम्भ ) स्थापित किया जाय, जो किसी दूधवाले, वृक्षकी शाखाका बना हुआ हो। ऐश्वर्य चाहनेवाले पुरुषको यजमानके शरीरके बराबर ऊँचा यूप स्थापित करना चाहिये। उसके बाद पच्चीस ऋत्विजोंका वरण करके उन्हें सोनेके आभूषणोंसे विभूषित करे। सोनेके बने कुण्डल, बाजूबंद, कड़े, अंगूठी, पवित्री तथा नाना प्रकारके वस्त्र – ये सभी आभूषण प्रत्येक ऋत्विजको बराबर-बराबर दे और आचार्यको दूना अर्पण करे। इसके सिवा उन्हें शय्या तथा अपनेको प्रिय लगनेवाली अन्यान्य वस्तुएँ भी प्रदान करे। सोनेका बना हुआ कछुआ और मगर, चाँदीके मत्स्य और दुन्दुभ, ताँबेके केंकड़ा और मेढक तथा लोहेके दो सूँस बनवाकर सबको सोनेके पात्रमें रखे । इसके बाद यजमान वेदज्ञ विद्वानोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार सर्वौषधि मिश्रित जलसे स्नान करके श्वेत वस्त्र और श्वेत माला धारण करे। फिर श्वेत चन्दन लगाकर पत्नी और पुत्र-पौत्रोंके साथ पश्चिमद्वारसे यज्ञ मण्डपमें प्रवेश करे। उस समय माङ्गलिक शब्द होने चाहिये और भेरी आदि बाजे बजने चाहिये।
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तदनन्तर विद्वान् पुरुष पाँच रंगके चूर्णोंसे मण्डल बनाये और उसमें सोलह अरोंसे युक्त चक्र चिह्नित करे। उसके गर्भमें कमलका आकार बनाये। चक्र देखनेमें सुन्दर और चौकोर हो। चारों ओरसे गोल होनेके साथ ही मध्यभागमें अधिक शोभायमान जान पड़ता हो। उस चक्रको वेदीके ऊपर स्थापित करके उसके चारों ओर प्रत्येक दिशामें मन्त्र-पाठपूर्वक ग्रहों और लोकपालोंकी स्थापना करे। फिर मध्यभागमें वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए एक कलश स्थापित करे और उसीके ऊपर ब्रह्मा, शिव, विष्णु, गणेश, लक्ष्मी तथा पार्वतीकी भी स्थापना करे। इसके पश्चात् सम्पूर्ण लोकोंकी शान्तिके लिये भूतसमुदायको स्थापित करे। इस प्रकार पुष्प, चन्दन और फलोंके द्वारा सबकी स्थापना करके कलशोंके भीतर पञ्चरत्न छोड़कर उन्हें वस्त्रोंसे आवेष्टित कर दे। फिर पुष्प और चन्दनके द्वारा उन्हें अलङ्कृत करके द्वार रक्षाके लिये नियुक्त ब्राह्मणोंसे वेदपाठ करनेके लिये कहे और स्वयं आचार्यका पूजन करे। पूर्व दिशाकी ओर दो ऋग्वेदी, दक्षिणद्वारपर दो यजुर्वेदी, पश्चिमद्वारपर दो सामवेदी तथा उत्तरद्वारपर दो अथर्ववेदी विद्वानोंको रखना चाहिये। यजमान मण्डलके दक्षिणभागमें उत्तराभिमुख होकर बैठे और द्वार-रक्षक विद्वानोंसे कहे- 'आपलोग वेदपाठ करें। फिर यज्ञ करानेवाले आचार्यसे कहे आप यज्ञ प्रारम्भ करायें। तत्पश्चात् जप करनेवाले ब्राह्मणोंसे कहे — 'आपलोग उत्तम मन्त्रका जप करते रहें। इस प्रकार सबको प्रेरित करके मन्त्रज्ञ पुरुष अग्रिको प्रज्वलित करे तथा मन्त्र- पाठपूर्वक घी और समिधाओंकी आहुति दे ऋत्विजोंको भी वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा सब ओरसे हवन करना चाहिये। ग्रहोंके निमित्त विधिवत् आहुति देकर उस यज्ञकर्ममें इन्द्र शिव, मरुद्रण और लोकपालोंके निमित्त भी विधिपूर्वक होम करे।
पूर्वद्वारपर नियुक्त ऋग्वेदी ब्राह्मण शान्ति, रुद्र, पवमान, सुमङ्गल तथा पुरुषसम्बन्धी सूक्तोंका पृथक्पृथक् जप करे। दक्षिणद्वारपर स्थित यजुर्वेदी विद्वान् इन्द्र, रुद्र, सोम, कूष्माण्ड, अग्नि तथा सूर्य-सम्बन्धी
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सूक्तोंका जप करे। पश्चिमद्वारपर रहनेवाले सामवेदी करना उचित है। उसमें भी यथाशक्ति दक्षिणा देनी ब्राह्मण वैराजसाम, पुरुषसूक्त, सुपर्णसूक्त, रुद्रसंहिता, चाहिये। चतुर्थी-कर्म पूर्ण करके यज्ञ-सम्बन्धी जितने शिशुसूक्त, पञ्चनिधनसूक्त, गायत्रसाम, ज्येष्ठसाम, पात्र और सामग्री हों, उन्हें ऋत्विजोंमें बराबर बाँट देना वामदेव्यसाम, बृहत्साम, रौरवसाम, रथन्तरसाम, गोव्रत, चाहिये। फिर मण्डपको भी विभाजित करे। सुवर्णपात्र विकीर्ण, रक्षोन और यम-सम्बन्धी सामोंका गान करें। और शय्या किसी ब्राह्मणको दान कर दे। इसके बाद उत्तर द्वारके अथर्ववेदी विद्वान् मन-ही-मन भगवान् अपनी शक्तिके अनुसार हजार, एक सौ आठ, पचास वरुणदेवकी शरण ले शान्ति और पुष्टि-सम्बन्धी मन्त्रोंका अथवा बीस ब्राह्मणोंको भोजन कराये। पुराणों में जप करें। इस प्रकार पहले दिन मन्त्रोंद्वारा देवताओंकी तालाबकी प्रतिष्ठाके लिये यही विधि बतलायी गयी है। स्थापना करके हाथी और घोड़ेके पैरोंके नीचेकी, जिसपर कुआँ, बावली और पुष्करिणीके लिये भी यही विधि है। रथ चलता हो-ऐसी सड़ककी, बाँबीकी, दो नदियोंके देवताओंकी प्रतिष्ठामें भी ऐसा ही विधान समझना संगमकी, गोशालाकी तथा साक्षात् गौओंके पैरके चाहिये। मन्दिर और बगीचे आदिके प्रतिष्ठा-कार्यमें नीचेकी मिट्टी लेकर कलशोंमें छोड़ दे। उसके बाद केवल मन्त्रोंका ही भेद है। विधि-विधान प्रायः एक-से सषिधि, गोरोचन, सरसोंके दाने, चन्दन और गूगल भी ही हैं। उपर्युक्त विधिका यदि पूर्णतया पालन करनेकी छोड़े। फिर पञ्चगव्य (दधि, दूध, घी, गोबर और शक्ति न हो तो आधे व्ययसे भी यह कार्य सम्पन्न हो गोमूत्र) मिलाकर उन कलशोंके जलसे यजमानका सकता है। यह बात ब्रह्माजीने कही है। विधिपूर्वक अभिषेक करे। अभिषेकके समय विद्वान् जिस पोखरेमें केवल वर्षाकालमें ही जल रहता है, पुरुष वेदमन्त्रोंका पाठ करते रहें।
वह सौ अनिष्टोम यज्ञोंके बराबर फल देनेवाला होता है। - इस प्रकार शास्त्रविहित कर्मके द्वारा रात्रि व्यतीत जिसमें शरत्कालतक जल रहता हो, उसका भी यही करके निर्मल प्रभातका उदय होनेपर हवनके अन्तमें फल है। हेमन्त और शिशिरकालतक रहनेवाला जल ब्राह्मणोंको सौ, पचास, छत्तीस अथवा पचीस गौ दान क्रमशः वाजपेय और अतिरात्र नामक यज्ञका फल देता करे। तदनन्तर शुद्ध एवं सुन्दर लग्न आनेपर वेदपाठ, है। वसन्तकालतक टिकनेवाले जलको अश्वमेध यज्ञके संगीत तथा नाना प्रकारके बाजोंकी मनोहर ध्वनिके साथ समान फलदायक बतलाया गया है तथा जो जल ग्रीष्मएक गौको सुवर्णसे अलङ्कत करके तालाबके जलमें कालतक मौजूद रहता है, वह राजसूय यज्ञसे भी अधिक उतारे और उसे सामगान करनेवाले ब्राह्मणको दान कर फल देनेवाला होता है। दे। तत्पश्चात् पञ्चरत्नोंसे युक्त सोनेका पात्र लेकर उसमें महाराज ! जो मनुष्य पृथ्वीपर इन विशेष धर्मोका पूर्वोक्त मगर और मछली आदिको रखे और उसे किसी पालन करता है—विधिपूर्वक कुआँ, बावली, पोखरा बड़ी नदीसे मैंगाये हुए जलसे भर दे। फिर उस पात्रको आदि खुदवाता है तथा मन्दिर, बगीचा आदि बनवाता दही-अक्षतसे विभूषित करके वेद और वेदाङ्गोंके विद्वान् है, वह शुद्धचित्त होकर ब्रह्माजीके लोकमें जाता है और चार ब्राह्मण हाथसे पकड़े और यजमानकी प्रेरणासे उसे वहाँ अनेकों कल्पोतक दिव्य आनन्दका अनुभव करता उत्तराभिमुख उलटकर तालाबके जलमें डाल दें। इस है। दो परार्द्ध (ब्रह्माजीकी आयु) तक वहाँका सुख प्रकार 'आपो मयोः' इत्यादि मन्त्रके द्वारा उसे जलमें भोगनेके पश्चात् ब्रह्माजीके साथ ही योगबलसे डालकर पुनः सब लोग यज्ञ-मण्डपमें आ जाये और श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। यजमान सदस्योंकी पूजा करके सब ओर देवताओंके भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! अब आप मुझे उद्देश्यसे बलि अर्पण करे। इसके बाद लगातार चार विस्तारके साथ वृक्ष लगानेकी यथार्थ विधि बतलाइये। दिनोंतक हवन होना चाहिये। चौथे दिन चतुर्थी-कर्म विद्वानोंको किस विधिसे वृक्ष लगाने चाहिये?
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सृष्टिखण्ड]
. आदित्य-शयन आदि व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा और वृक्षारोपणकी विधि.
पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! बगीचेमें वृक्षोंके अक्षय फलका भागी होता है। राजेन्द्र ! जो इस प्रकार लगानेकी विधि मैं तुम्हें बतलाता हूँ। तालाबकी वृक्षकी प्रतिष्ठा करता है, वह जबतक तीस हजार इन्द्र प्रतिष्ठाके विषयमें जो विधान बतलाया गया है, उसीके समाप्त हो जाते हैं, तबतक वर्गलोकमें निवास करता है। समान सारी विधि पूर्ण करके वृक्षके पौधोको सर्वांषधि- उसके शरीरमें जितने रोम होते हैं, अपने पहले और मिश्रित जलसे सींचे। फिर उनके ऊपर दही और अक्षत पीछेको उतनी ही पीढ़ियोंका वह उद्धार कर देता है तथा छोड़े। उसके बाद उन्हें पुष्प-मालाओंसे अलङ्कत करके उसे पुनरावृत्तिसे रहित परम सिद्धि प्राप्त होती है। जो वसमें लपेट दे। वहाँ गूगलका धूप देना श्रेष्ठ माना गया मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसङ्गको सुनता या सुनाता है, वह है। वृक्षोंको पृथक्-पृथक् ताम्रपात्रमें रखकर उन्हें भी देवताओद्वारा सम्मानित और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित सप्तधान्यसे आवृत करे तथा उनके ऊपर वस्त्र और होता है। वृक्ष पुत्रहीन पुरुषको पुत्रवान् होनेका फल देते चन्दन चढ़ाये। फिर प्रत्येक वृक्षके पास कलश स्थापन है। इतना ही नहीं, वे अधिदेवतारूपसे तीर्थोंमें जाकर करके उन कलशोकी पूजा करे । और रातमें द्विजातियों- वृक्ष लगानेवालोंको पिण्ड भी देते हैं। अतः भीष्म ! तुम द्वारा इन्द्रादि लोकपालों तथा वनस्पतिका विधिवत् यत्नपूर्वक पीपलके वृक्ष लगाओ। वह अकेला ही तुम्हें अधिवास कराये। तदनन्तर दूध देनेवाली एक गौको एक हजार पुत्रोंका फल देगा। पीपलका पेड़ लगानेसे लाकर उसे श्वेत वस्त्र ओढ़ाये। उसके मस्तकपर सोनेकी मनुष्य धनी होता है। अशोक शोकका नाश करनेवाला कलगी लगाये, सींगोंको सोनेसे मैढ़ा दे। उसको दुहनेके है। पाकड़ यज्ञका फल देनेवाला बताया गया है। लिये काँसेकी दोहनी प्रस्तुत करे। इस प्रकार अत्यन्त नीमका वृक्ष आयु प्रदान करनेवाला माना गया है। शोभासम्पन्न उस गौको उत्तराभिमुख खड़ी करके वृक्षोंके जामुन कन्या देनेवाला कहा गया है। अनारका वृक्ष पत्नी बीचसे छोड़े। तत्पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मण बाजों और प्रदान करता है। पीपल रोगका नाशक और पलाश मङ्गलगीतोंकी ध्वनिके साथ अभिषेकके मन्त्र-तीनों ब्रह्मतेज प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य बहेड़ेका वृक्ष वेदोंकी वरुणसम्बन्धिनी ऋचाएँ पढ़ते हुए उक्त कलशोंके लगाता है, वह प्रेत होता है। अङ्कोल लगानेसे वंशकी जलसे यजमानका अभिषेक करें। अभिषेकके पश्चात् वृद्धि होती है। खैरका वृक्ष लगानेसे आरोग्यकी प्राप्ति नहाकर यज्ञकर्ता पुरुष श्वेत वस्त्र धारण करे और अपनी होती है। नीम लगानेवालोंपर भगवान् सूर्य प्रसन्न होते सामर्थ्यके अनुसार गौ, सोनेकी जंजीर, कड़े, अंगूठी, है। बेलके वृक्षमें भगवान् शङ्करका और गुलाबके पेड़में पवित्री, वस्त्र, शय्या, शय्योपयोगी सामान तथा देवी पार्वतीका निवास है। अशोक वृक्ष अप्सराएँ और चरणपादुका देकर एकाग्र चित्तवाले सम्पूर्ण ऋत्विजोंका कुन्द (मोगरे) के पेड़में श्रेष्ठ गन्धर्व निवास करते हैं। पूजन करे। इसके बाद चार दिनोंतक दूधसे अभिषेक बेतका वृक्ष लुटेरोंको भय प्रदान करनेवाला है। चन्दन तथा घी, जौ और काले तिलोंसे होम करे । होममें पलाश और कटहलके वृक्ष क्रमशः पुण्य और लक्ष्मी देनेवाले (ढाक) की लकड़ी उत्तम मानी गयी है। वृक्षारोपणके है। चम्पाका वृक्ष सौभाग्य प्रदान करता है। ताड़का वृक्ष पश्चात् चौथे दिन विशेष उत्सव करे। उसमें अपनी सन्तानका नाश करनेवाला है। मौलसिरीसे कुलकी वृद्धि शक्तिके अनुसार पुनः दक्षिणा दे। जो-जो वस्तु अपनेको होती है। नारियल लगानेवाला अनेक स्त्रियोंका पति अधिक प्रिय हो, ईर्ष्या छोड़कर उसका दान करे। होता है। दाखका पेड़ सर्वाङ्गसुन्दरी स्त्री प्रदान करनेवाला आचार्यको दूनी दक्षिणा दे तथा प्रणाम करके यज्ञकी है। केवड़ा शत्रुका नाश करनेवाला है। इसी प्रकार समाप्ति करे।
अन्यान्य वृक्ष भी जिनका यहाँ नाम नहीं लिया गया है, - जो विद्वान् उपर्युक्त विधिसे वृक्षारोपणका उत्सव यथायोग्य फल प्रदान करते हैं। जो लोग वृक्ष लगाते हैं, करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं तथा वह उन्हें [परलोकमें] प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
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•अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! इसी प्रकार एक भीष्मजीने पूछा-मुने! जगद्धात्री सतीकी दूसरा व्रत बतलाता हूँ, जो समस्त मनोवाञ्छित फलोको आराधना कैसे की जाती है? जगत्की शान्तिके लिये देनेवाला है। उसका नाम है-सौभाग्यशयन। इसे जो विधान हो, वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये। पुराणोंके विद्वान् ही जानते हैं। पूर्वकालमें जब भूलोक, पुलस्त्यजी बोले-चैत्र मासके शुक्ल पक्षकी भुवलोंक, स्वलोक तथा महलोंक आदि सम्पूर्ण लोक तृतीयाको दिनके पूर्व भागमें मनुष्य तिलमिश्रित जलसे दग्ध हो गये, तब समस्त प्राणियोंका सौभाग्य एकत्रित स्नान करे। उस दिन परम सुन्दरी भगवती सतीका होकर वैकुण्ठमें जा भगवान् श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें विश्वात्मा भगवान् शङ्करके साथ वैवाहिक मन्त्रोंद्वारा स्थित हो गया। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् जब पुनः विवाह हुआ था; अतः तृतीयाको सती देवीके साथ ही सृष्टि-रचनाका समय आया, तब प्रकृति और पुरुषसे भगवान् शङ्करका भी पूजन करे । पञ्चगव्य तथा चन्दनयुक्त सम्पूर्ण लोकोंके अहङ्कारसे आवृत हो जानेपर मिश्रित जलके द्वारा गौरी और भगवान् चन्द्रशेखरकी श्रीब्रह्माजी तथा भगवान् श्रीविष्णुमें स्पर्धा जाग्रत् हुई। प्रतिमाको स्नान कराकर धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना उस समय एक पीले रंगकी भयङ्कर अग्निज्वाला प्रकट प्रकारके फलोंद्वारा उन दोनोंकी पूजा करनी चाहिये। हुई। उससे भगवान्का वक्षःस्थल तप उठा, जिससे वह 'पार्वतीदेव्यै नमः,' 'शिवाय नमः' इन मन्त्रोंसे क्रमशः सौभाग्यपुञ्ज वहाँसे गलित हो गया। श्रीविष्णुके पार्वती और शिवके चरणोंका; 'जयायै नमः', 'शिवाय वक्षःस्थलका वह सौभाग्य अभी रसरूप होकर धरतीपर :म:' से दोनोंकी घुट्ठियोंका; 'त्र्यम्बकाय नमः', गिरने नहीं पाया था कि ब्रह्माजीके बुद्धिमान् पुत्र दक्षने 'भवान्यै नमः' से पिंडलियोंका; 'भद्रेश्वराय नमः', उसे आकाशमें ही रोककर पी लिया । दक्षके पीते ही वह "विजयायै नमः'से घुटनोंका; 'हरिकेशाय नमः', अद्भुत रूप और लावण्य प्रदान करनेवाला सिद्ध 'वरदायै नमः' से जाँघोंका; 'ईशाय शङ्कराय नमः', हुआ। प्रजापति दक्षका बल और तेज बहुत बढ़ गया। 'रत्यै नमः' से दोनोंके कटिभागका; 'कोटिन्यै नमः', उनके पीनेसे बचा हुआ जो अंश पृथ्वीपर गिर पड़ा, वह 'शूलिने नमः'से कुक्षिभागका; 'शूलपाणये नमः', आठ भागोंमें बँट गया। उनमेंसे सात भागोंसे सात 'मङ्गलायै नमः'से उदरका; 'सर्वात्मने नमः', 'ईशान्यै सौभाग्यदायिनी ओषधियाँ उत्पन्न हुई, जिनके नाम इस नमः' से दोनों स्तनोंका; "चिदात्मने नमः', 'रुद्राण्यै प्रकार हैं-ईख, तरुराज, निष्पाव, राजधान्य (शालि या नमः' से कण्ठका; त्रिपुरनाय नमः, 'अनन्तायै नमः' से अगहनी), गोक्षीर (क्षीरजीरक), कुसुम्भ और कुसुम। दोनों हाथोंका; 'त्रिलोचनाय नमः', 'कालानलप्रियायै आठवाँ नमक है। इन आठोंकी सौभाग्याष्टक संज्ञा नमः' से बाँहोंका; 'सौभाग्यभवनाय नमः' से कहते हैं।
आभूषणोंका; 'स्वधायै नमः', 'ईश्वराय नमः' से दोनोंके योग और ज्ञानके तत्त्वको जाननेवाले ब्रह्मपुत्र दक्षने मुखमण्डलका; 'अशोकवनवासिन्यै नमः'-इस पूर्वकालमें जिस सौभाग्य-रसका पान किया था, उसके मन्त्रसे ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले ओठोंका; 'स्थाणवे अंशसे उन्हें सती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। नौल नमः', 'चन्द्रमुखप्रियायै नमः' से मुँहका; कमलके समान मनोहर शरीरवाली वह कन्या लोकमें 'अर्द्धनारीश्वराय नमः', 'असिताङ्ग्यै नमः' से ललिताके नामसे भी प्रसिद्ध है। पिनाकधारी भगवान् नासिकाका; 'उग्राय नमः', 'ललितायै नमः' से दोनों शङ्करने उस त्रिभुवनसुन्दरी देवीके साथ विवाह किया। भौहोका; 'शर्वाय नमः', 'वासुदेव्यै नमः' से केशोंका; सती तीनों लोकोंकी सौभाग्यरूपा हैं । वे भोग और मोक्ष 'श्रीकण्ठनाथाय नमः' से केवल शिवके बालोंका तथा प्रदान करनेवाली है। उनकी आराधना करके नर या नारी 'भीमोग्ररूपिण्यै नमः', 'सर्वात्मने नमः' से दोनोंके क्या नहीं प्राप्त कर सकती।
मस्तकोंका पूजन करे। इस प्रकार शिव और पार्वतीकी
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सष्टिखण्ड]
तीर्थमहिमाके प्रसङ्गमे वामन-अवतारकी कथा .
विधिवत् पूजा करके उनके आगे सौभाग्याष्टक रखे। सामग्रियोंसे युक्त शय्या, शिव-पार्वतीकी सुवर्णमयी निष्पाव, कुसुम्भ, क्षीरजीरक, तरुराज, इक्षु, लवण, कुसुम प्रतिमा, बैल और गौका दान करे । कृपणता छोड़कर दृढ़ तथा राजधान्य-इन आठ वस्तुओंको देनेसे सौभाग्यकी निश्चयके साथ भगवानका पूजन करे । जो स्त्री इस प्रकार प्राप्ति होती है; इसलिये इनकी 'सौभाग्याष्टक' संज्ञा है। उत्तम सौभाग्यशयन नामक व्रतका अनुष्ठान करती है, इस प्रकार शिव-पार्वतीके आगे सब सामग्री निवेदन उसकी कामनाएँ पूर्ण होती हैं । अथवा [यदि वह निष्कामकरके चैतमें सिंघाड़ा खाकर रातको भूमिपर शयन करे। भावसे इस व्रतको करती है तो उसे नित्यपदकी प्राप्ति फिर सबेरे उठकर स्नान और जप करके पवित्र हो माला, होती है। इस व्रतका आचरण करनेवाले पुरुषको एक वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करे। फलका परित्याग कर देना चाहिये। प्रतिमास इसका इसके बाद सौभाग्याष्टकसहित शिव और पार्वतीकी आचरण करनेवाला पुरुष यश और कीर्ति प्राप्त करता है। सुवर्णमयी प्रतिमाओंको ललिता देवीकी प्रसन्नताके लिये राजन् ! सौभाग्यशयनका दान करनेवाला पुरुष कभी ब्राह्मणको निवेदन करे । दानके समय इस प्रकार कहे- सौभाग्य, आरोग्य, सुन्दर रूप, वस्त्र, अलङ्कार और 'ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा, आभूषणोंसे वञ्चित नहीं होता। जो बारह, आठ या सात वासुदेवा, गौरी, मङ्गला, कमला, सती और उमा-ये वर्षोंतक सौभाग्यशयन व्रतका अनुष्ठान करता है, वह प्रसन्न हों।'
ब्रह्मलोकनिवासी पुरुषोंद्वारा पूजित होकर दस हजार बारह महीनोंकी प्रत्येक द्वादशीको भगवान् कल्पोंतक वहाँ निवास करता है। इसके बाद वह श्रीविष्णुकी तथा उनके साथ लक्ष्मीजीकी भी पूजा करे। विष्णुलोक तथा शिवलोकमें भी जाता है। जो नारी या इसी प्रकार परलोकमें उत्तम गति चाहनेवाले पुरुषको कुमारी इस व्रतका पालन करती है, वह भी ललितादेवीके प्रत्येक मासकी पूर्णिमाको सावित्रीसहित ब्रह्माजीकी अनुग्रहसे ललित होकर पूर्वोक्त फलको प्राप्त करती है। जो विधिवत् आराधना करनी चाहिये। तथा ऐश्वर्यकी इस व्रतकी कथाका श्रवण करता है अथवा दूसरोको इसे कामनावाले मनुष्यको सौभाग्याष्टकका दान भी करना करनेकी सलाह देता है, वह भी विद्याधर होकर चिरकालचाहिये। इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिपूर्वक तक स्वर्गलोकमें निवास करता है। पूर्वकालमें इस अद्भुत अनुष्ठान करके पुरुष, स्त्री या कुमारी भक्तिके साथ रात्रिमें व्रतका अनुष्ठान कामदेवने, राजा शतधन्वाने, वरुणदेवने, शिवजीकी पूजा करे। व्रतकी समाप्तिके समय सम्पूर्ण भगवान् सूर्यने तथा धनके स्वामी कुबेरने भी किया था।
तीर्थमहिमाके प्रसङ्गमें वामन अवतारकी कथा, भगवानका बाष्कलि दैत्यसे
त्रिलोकीके राज्यका अपहरण भीष्यजीने कहा-ब्रह्मन् ! अब मैं तीर्थोका तीर्थोका स्मरण करना—ये मनोवाञ्छित फलको अद्भुत माहात्म्य सुनना चाहता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य देनेवाले हैं। भीष्म ! पर्वत, नदियाँ, क्षेत्र, आश्रम और संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। आप विस्तारके साथ मानस आदि सरोवर-सभी तीर्थ कहे गये हैं, जिनमें उसका वर्णन करो।
तीर्थयात्राके उद्देश्यसे जानेवाले पुरुषको पग-पगपर पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! ऐसे अनेकों पावन अश्वमेध आदि यज्ञोंका फल होता है-इसमें तनिक भी तीर्थ हैं, जिनका नाम लेनेसे भी बड़े-बड़े पातकोंका नाश सन्देह नहीं है। हो जाता है। तीर्थोका दर्शन करना, उनमें स्नान करना, भीष्मजीने पूछा-द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपसे भगवान् वहाँ जाकर बार-बार डुबकी लगाना तथा समस्त श्रीविष्णुका चरित्र सुनना चाहता हूँ। सर्वसमर्थ एवं
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
सर्वव्यापक श्रीविष्णुने यज्ञ पर्वतपर जा वहाँ अपने चरण रखकर किस दानवका दमन किया था ? महामुने! ये सारी बातें मुझे बताइये ।
पुलस्त्यजी बोले- वत्स! तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है, एकाग्रचित्त होकर सुनो। प्राचीन सत्ययुगकी बात है—बलिष्ठ दानवोंने समूचे स्वर्गपर अधिकार जमा लिया था। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर उनसे त्रिभुवनका राज्य छीन लिया था। उनमें बाष्कलि नामका दानव सबसे बलवान् था उसने समस्त दानवोंको यज्ञका भोक्ता बना दिया। इससे इन्द्रको बड़ा दुःख हुआ। वे अपने जीवनसे निराश हो चले। उन्होंने सोचा- 'ब्रह्माजीके वरदानसे दानवराज बाष्कलि मेरे तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये युद्धमें अवध्य हो गया है। अतः मैं ब्रह्मलोकमें चलकर भगवान् ब्रह्माजीकी ही शरण लूँगा। उनके सिवा और कोई मुझे सहारा देनेवाला नहीं है।' ऐसा विचार कर देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले तुरंत उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् ब्रह्माजी विराजमान थे।
इन्द्र बोले- देव ! क्या आप हमारी दशा नहीं जानते, अब हमारा जीवन कैसे रहेगा ? प्रभो! आपके वरदानसे दैत्योंने हमारा सर्वस्व छीन लिया। मैं दुरात्मा बाष्कलिकी सारी करतूतें पहले ही आपको बता चुका हूँ। पितामह! आप ही हमारे पिता हैं। हमारी रक्षाके लिये शीघ्र ही कोई उपाय कीजिये। संसारसे वेदपाठ और यज्ञ-यागादि उठ गये । उत्सव और मङ्गलकी बातें जाती रहीं। सबने अध्ययन करना छोड़ दिया है। दण्डनीति भी उठा दी गयी है। इन सब कारणोंसे संसारके प्राणी किसी तरह साँसमात्र ले रहे हैं। जगत् पीडाग्रस्त तो था ही, अब और भी कष्टतर दशाको पहुँच गया है। इतने समयमें हमलोगोंको बड़ी ग्लानि उठानी पड़ी है।
ब्रह्माजीने कहा- देवराज! मैं जानता हूँ बाष्कलि बड़ा नीच है और वरदान पाकर घमंडसे भर गया है। यद्यपि तुमलोगोंके लिये वह अजेय है, तथापि मैं समझता हूँ भगवान् श्रीविष्णु उसे अवश्य ठीक कर देंगे।
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पुलस्त्यजी कहते हैं— उस समय ब्रह्माजी समाधिमें स्थित हो गये। उनके चिन्तन करनेपर ध्यानमात्रसे चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु थोड़े ही समयमें सबके देखते-देखते वहाँ आ पहुँचे।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- ब्रह्मन् ! इस ध्यानको छोड़ो। जिसके लिये तुम ध्यान करते हो, वही मैं साक्षात् तुम्हारे पास आ गया हूँ।
ब्रह्माजीने कहा- स्वामीने यहाँ आकर मुझे दर्शन दिया, यह बहुत बड़ी कृपा हुई । जगत्के लिये जगदीश्वरको जितनी चिन्ता है, उतनी और किसको हो सकती है। मेरी उत्पत्ति भी आपने जगत्के लिये ही की थी और जगत्की यह दशा है; अतः उसके लिये भगवान्का यह शुभागमन वास्तवमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। प्रभो! विश्वके पालनका कार्य आपके ही अधीन है। इस इन्द्रका राज्य बाष्कलिने छीन लिया है। चराचर प्राणियोंके सहित त्रिलोकीको अपने अधिकारमें कर लिया है। केशव ! अब आप ही सलाह देकर अपने इस सेवककी सहायता कीजिये।
भगवान् श्रीवासुदेवने कहा- ब्रह्मन् ! तुम्हारे वरदानसे वह दानव इस समय अवध्य है, तथापि उसे बुद्धिके द्वारा बन्धनमें डालकर परास्त किया जा सकता है मैं दानवोंका विनाश करनेके लिये वामनरूप धारण करूँगा। ये इन्द्र मेरे साथ बाष्कलिके घर चलें और वहाँ पहुँचकर मेरे लिये इस प्रकार वरकी याचना करें'राजन्! इस बौने ब्राह्मणके लिये तीन पग भूमिका दान दीजिये। महाभाग ! इनके लिये मैं आपसे याचना करता हूँ। ऐसा कहनेपर वह दानवराज अपना प्राणतक दे सकता है। पितामह! उस दानवका दान स्वीकार करके पहले उसे राज्यसे वञ्चित करूँगा, फिर उसे बाँधकर पातालका निवासी बनाऊँगा ।
यों कहकर भगवान् श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर कार्य साधनके अनुकूल समय आनेपर सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले देवाधिदेव भगवान्ने देवताओंका हित करनेके लिये अदितिका पुत्र होनेका विचार किया। भगवान् ने जिस दिन गर्भमें प्रवेश किया,
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सृष्टिखण्ड]
तीर्थमहिमाके प्रसङ्गमें वामन-अवतारकी कथा .
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उस दिन स्वच्छ वायु बहने लगी। सम्पूर्ण प्राणी बिना भगवान् सब तरहसे देवताओंका कार्य सिद्ध करेंगे।' किसी उपद्रवके अपने-अपने इच्छित पदार्थ प्राप्त करने शुद्ध चित्तवाले देवगण जब इस प्रकार सोच रहे लगे। वृक्षोंसे फूलोंकी वर्षा होने लगी, समस्त दिशाएँ थे, उसी समय भगवान् वामन इन्द्रके साथ बाष्कलिके निर्मल हो गयीं तथा सभी मनुष्य सत्य-परायण हो गये। घर गये। उन्होंने दूरसे ही बाष्कलिकी नगरीको देखा, जो देवी अदितिने एक हजार दिव्य वर्षातक भगवान्को परकोटेसे घिरी थी। सब प्रकारके रत्नोंसे सजे हुए गर्भ धारण किया। इसके बाद वे भूतभावन प्रभु ऊँचे-ऊँचे सफेद महल, जो आकाशचारी प्राणियोंके वामनरूपमें प्रकट हुए । उनके अवतार लेते ही नदियोंका लिये भी अगम्य थे, उस पुरीकी शोभा बढ़ा रहे थे। जल स्वच्छ हो गया। वायु सुगन्ध बिखेरने लगी। उस नगरकी सड़कें बड़ी ही सुन्दर एवं क्रमबद्ध बनायी गयी तेजस्वी पुत्रके प्रकट होनेसे महर्षि कश्यपको भी बड़ा थीं। कोई ऐसा पुष्प नहीं, ऐसी विद्या नहीं, ऐसा शिल्प आनन्द हुआ। तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले समस्त नहीं तथा ऐसी कला नहीं, जो बाष्कलिकी नगरीमें मौजूद प्राणियोंके मनमें अपूर्व उत्साह भर गया। भगवान् न रही हो। वहीं रहकर दानवराज बाष्कलि चराचर जनार्दनका प्रादुर्भाव होते ही स्वर्गलोकमें नगारे बज उठे। प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीका पालन करता था। वह अत्यन्त हर्षोल्लासके कारण त्रिलोकीके मोह और दुःख धर्मका ज्ञाता, कृतज्ञ, सत्यवादी और जितेन्द्रिय था। नष्ट हो गये। गन्धर्वोने अत्यन्त उच्च स्वरसे संगीत आरम्भ सभी प्राणी उससे सुगमतापूर्वक मिल सकते थे। किया। कोई ऊँचे स्वरसे भगवान्की जय-जयकार करने न्याय-अन्यायका निर्णय करनेमें उसकी बुद्धि बड़ी ही लगे, कोई अत्यन्त हर्षमें भरकर जोर-जोरसे गर्जना करते कुशल थी। वह ब्राह्मणोंका भक्त, शरणागतोंका रक्षक हुए बारम्बार भगवान्को साधुवाद देने लगे तथा कुछ तथा दीन और अनाथोपर दया करनेवाला था। मन्त्रलोग जन्म, भय, बुढ़ापा और मृत्युसे छुटकारा पानेके शक्ति, प्रभु-शक्ति और उत्साहशक्ति-इन तीनों लिये उनका ध्यान करने लगे। इस प्रकार यह सम्पूर्ण शक्तियोंसे वह सम्पन्न था। सन्धि, विग्रह, यान, आसन, जगत् सब ओरसे अत्यन्त प्रसन्न हो उठा। द्वैधीभाव और समाश्रय-राजनीतिके इन छ: गुणोंका
देवतालोग मन-ही-मन विचार करने लगे-'ये अवसरके अनुकूल उपयोग करनेमें उसका सदा उत्साह साक्षात् परमात्मा श्रीविष्णु हैं। ब्रह्माजीके अनुरोधसे रहता था। वह सबसे मुसकराकर बात करता था । वेद जगत्की रक्षाके लिये इन जगदीश्वरने यह छोटा-सा और वेदाङ्गोंके तत्त्वका उसे पूर्ण ज्ञान था। वह यज्ञोंका शरीर धारण किया है। ये ही ब्रह्मा, ये ही विष्णु और ये अनुष्ठान करनेवाला, तपस्या-परायण, उदार, सुशील, ही महेश्वर हैं। देवता, यज्ञ और स्वर्ग-सब कुछ ये ही संयमी, प्राणियोंकी हिंसासे विरत, माननीय पुरुषोंको हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यह सम्पूर्ण चराचर आदर देनेवाला, शुद्धहदय, प्रसन्नमुख, पूजनीय पुरुषोंका जगत् भगवान् श्रीविष्णुसे व्याप्त है। ये एक होते हुए भी पूजन करनेवाला, सम्पूर्ण विषयोंका ज्ञाता, दुर्दमनीय, पृथक् शरीर धारण करके ब्रह्माके नामसे विख्यात हैं। सौभाग्यशाली, देखने में सुन्दर, अत्रका बहुत बड़ा संग्रह जिस प्रकार बहुत-से रंगोवाली वस्तुओका सानिध्य रखनेवाला, बड़ा धनी और बहुत बड़ा दानी था। वह होनेपर स्फटिक मणि विचित्र-सी प्रतीत होने लगती है, धर्म, अर्थ और काम-तीनोंके साधनमें संलग्न रहता वैसे ही मायामय गुणोंके संसर्गसे स्वयम्भू परमात्माकी था। बाष्कलि त्रिलोकीका एक श्रेष्ठ पुरुष था। वह सदा नाना रूपोंमें प्रतीति होती है। जैसे एक ही गार्हपत्य अग्नि अपनी नगरी में ही रहता था। उसमें देवता और दानवोंके दक्षिणाग्नि तथा आहवनीयाग्नि आदि भिन्न-भिन्न भी घमंडको चूर्ण करनेकी शक्ति थी। ऐसे गुणोंसे संज्ञाओंको प्राप्त होती है, उसी प्रकार ये एक ही श्रीविष्णु विभूषित होकर वह त्रिभुवनकी समस्त प्रजाका पालन ब्रह्मा आदि अनेक नाम एवं रूपोंमें उपलब्ध होते हैं। ये करता था। उस दानवराजके राज्यमें कोई भी अधर्म नहीं
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
होने पाता था। उसकी प्रजामें कोई भी ऐसा नहीं था जो दीन, रोगी, अल्पायु, दुःखी, मूर्ख, कुरूप, दुर्भाग्यशाली और अपमानित हो ।
इन्द्रको आते देख दानवोंने जाकर राजा बाष्कलिसे कहा- 'प्रभो! बड़े आश्चर्यकी बात है कि आज इन्द्र एक बौने ब्राह्मणके साथ अकेले ही आपकी पुरीमें आ रहे हैं। इस समय हमारे लिये जो कर्तव्य हो, उसे शीघ्र बताइये।' उनकी बात सुनकर बाष्कलिने कहा'दानवो ! इस नगरमें देवराजको आदरके साथ ले आना चाहिये। वे आज हमारे पूजनीय अतिथि हैं।'
पुलस्त्यजी कहते हैं- १- दानवराज बाष्कलि दानवोंसे ऐसा कहकर फिर स्वयं इन्द्रसे मिलनेके लिये अकेला ही राजमहलसे बाहर निकल पड़ा और अपने शोभा सम्पन्न नगरकी सातवीं ड्योढ़ीपर जा पहुँचा। इतनेमें ही उधरसे भगवान् वामन और इन्द्र भी आ पहुँचे। दानवराजने बड़े प्रेमसे उनकी ओर देखा और प्रणाम करके अपनेको कृतार्थ माना। वह हर्षमें भरकर सोचने लगा- 'मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है, क्योंकि आज मैं त्रिभुवनकी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न होकर इन्द्रको याचकके रूपमें अपने घरपर आया देखता हूँ। ये मुझसे कुछ याचना करेंगे। घरपर आये हुए इन्द्रको मैं
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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अपनी स्त्री, पुत्र, महल तथा अपने प्राण भी दे डालूँगा; फिर त्रिलोकीके राज्यकी तो बात ही क्या है। यह सोचकर उसने सामने आ इन्द्रको अङ्कमें भरकर बड़े आदरके साथ गले लगाया और अपने राजभवनके भीतर ले जाकर अर्घ्य तथा आचमनीय आदिसे उन दोनोंका यत्नपूर्वक पूजन किया। इसके बाद बाष्कलि बोला- 'इन्द्र ! आज मैं आपको अपने घरपर स्वयं आया देखता हूँ; इससे मेरा जन्म सफल हो गया, मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। प्रभो! मेरे पास आपका किस प्रयोजनसे आगमन हुआ ? मुझे सारी बात बताइये। आपने यहाँतक आनेका कष्ट उठाया, इसे मैं बड़े आश्चर्यकी बात समझता हूँ।'
इन्द्रने कहा- बाष्कले ! मैं जानता दानव वंशके श्रेष्ठ पुरुषोंमें तुम सबसे प्रधान हो। तुम्हारे पास मेरा आना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। तुम्हारे घरपर आये हुए याचक कभी विमुख नहीं लौटते। तुम याचकोंके लिये कल्पवृक्ष हो। तुम्हारे समान दाता कोई नहीं है। तुम प्रभामें सूर्यके समान हो। गम्भीरतामें सागरकी समानता करते हो। क्षमाशीलताके कारण तुम्हारी पृथ्वीके साथ तुलना की जाती है। ये ब्राह्मणदेवता वामन कश्यपजीके उत्तम कुलमें उत्पन्न हैं। इन्होंने मुझसे तीन पग भूमिके लिये याचना की है; किन्तु बाष्कले ! मेरा त्रिभुवनका राज्य तो तुमने पराक्रम करके छीन लिया है। अब मैं निराधार और निर्धन हूँ। इन्हें देनेके लिये मेरे पास कोई भूमि नहीं है। इसलिये तुमसे याचना करता हूँ। याचक मैं नहीं, ये हैं दानवेन्द्र! यदि तुम्हें अभीष्ट हो तो इन वामनजीको तीन पग भूमि दे दो।
बाष्कलिने कहा- देवेन्द्र! आप भले पधारे, आपका कल्याण हो। जरा अपनी ओर तो देखिये; आप ही सबके परम आश्रय हैं। पितामह ब्रह्माजी त्रिभुवनकी रक्षाका भार आपके ऊपर डालकर सुखसे बैठे हैं और ध्यान धारणासे युक्त हो परमपदका चिन्तन करते हैं। भगवान् श्रीविष्णु भी अनेकों संग्रामोंसे थककर जगत्की चिन्ता छोड़ आपके ही भरोसे क्षीर सागरका आश्रय ले सुखकी नींद सो रहे हैं। उमानाथ भगवान् शङ्कर भी
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सृष्टिखण्ड ]
तीर्थमहिमाके प्रसङ्गमें वामन-अवतारकी कथा.
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आपको ही सारा भार सौंपकर कैलास पर्वतपर विहार स्त्री और भूमि दोनों दान करूंगा। आप मुझपर कृपा करते हैं। मुझसे भिन्न बहुत-से दानवोंको, जो बलवानोंसे करके यह सब स्वीकार करें। भी बलवान् थे, आपने अकेले ही मार गिराया। बारह पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! दानवराज आदित्य, ग्यारह रुद्र, दोनों अश्विनीकुमार, आठ वसु तथा बाष्कलिके ऐसा कहनेपर उसके पुरोहित शुक्राचार्यने सनातन देवता धर्म-ये सब लोग आपके ही बाहुबलका उससे कहा-'महाराज! तुम्हें उचित-अनुचितका आश्रय ले स्वर्गलोकमें यज्ञका भाग ग्रहण करते हैं। बिलकुल ज्ञान नहीं है; किसको कब क्या देना चाहियेआपने उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न सौ यज्ञोंद्वारा इस बातसे तुम अनभिज्ञ हो। अतः मन्त्रियोंके साथ भगवान्का यजन किया है। वृत्र और नमुचि-आपके भलीभाँति विचार करके युक्तायुक्तका निर्णय करनेके ही हाथसे मारे गये हैं। आपने ही पाक नामक दैत्यका पश्चात् तुम्हें कोई कार्य करना चाहिये। तुमने इन्द्रसहित दमन किया है। सर्वसमर्थ भगवान् विष्णुने आपकी ही देवताओंको जीतकर त्रिलोकीका राज्य प्राप्त किया है। आज्ञासे दैत्यराज हिरण्यकशिपुको अपनी जाँघपर अपने वचनको पूरा करते ही तुम बन्धनमें पड़ जाओगे। बिठाकर मार डाला था। आप ऐरावतके मस्तकपर राजन् ! ये जो वामन हैं, इन्हें साक्षात् सनातन विष्णु ही बैठकर वज्र हाथमें लिये जब संग्राम-भूमिमें आते हैं, उस समझो। इनके लिये तुम्हें कुछ नहीं देना चाहिये; क्योंकि समय आपको देखते ही सब दानव भाग जाते हैं। इन्होंने ही तो पहले तुम्हारे वंशका उच्छेद कराया है और पूर्वकालमें आपने बड़े-बड़े बलिष्ठ दानवोंपर विजय पायी आगे भी करायेंगे। इन्होंने मायासे दानवोंको परास्त किया है। देवराज ! आप ऐसे प्रभावशाली है। आपके सामने है और मायासे ही इस समय बौने ब्राह्मणका रूप मेरी क्या गिनती हो सकती है। आपने मेरा उद्धार करनेकी बनाकर तुम्हें दर्शन दिया है; अतः अब बहुत कहनेकी इच्छासे ही यहाँ पदार्पण किया है। निस्सन्देह मैं आपकी आवश्यकता नहीं है। इन्हें कुछ न दो। [तीन पग तो आज्ञाका पालन करूंगा। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ, बहुत है,] मक्खीके पैरके बराबर भी भूमि देना न आपके लिये अपने प्राण भी दे दूंगा। देवेश्वर ! आपने स्वीकार करो। यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो शीघ्र मुझसे इतनी-सी भूमिकी बात क्यों कही? यह स्त्री, पुत्र, ही तुम्हारा नाश हो जायगा; यह मैं तुम्हें सच्ची बात गौएँ तथा और जो कुछ भी धन मेरे पास है, वह सब एवं कह रहा हूँ।' त्रिलोकीका सारा राज्य इन ब्राह्मणदेवताको दे दीजिये। बाष्कलिने कहा-गुरुदेव ! मैंने धर्मकी इच्छासे
आप ऐसा करके मुझपर तथा मेरे पूर्वजोपर कृपा करेंगे, इन्हें सब कुछ देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है। प्रतिज्ञाका इसमें तनिक भी संशय नहीं है। क्योंकि भावी प्रजा पालन अवश्य करना चाहिये, यह सत्पुरुषोंका सनातन कहेगी- 'पूर्वकालमें राजा बाष्कलिने अपने घरपर धर्म है। यदि ये भगवान् विष्णु है और मुझसे दान लेकर आये हुए इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य दे दिया था।' [आप देवताओंको समृद्धिशाली बनाना चाहते हैं, तब तो मेरे ही क्यों, दूसरा भी कोई याचक यदि मेरे पास आये तो समान धन्य दूसरा कोई नहीं होगा। ध्यान-परायण योगी वह सदा ही मुझे अत्यन्त प्रिय होगा। आप तो उन सबमें निरन्तर ध्यान करते रहनेपर भी जिनका दर्शन जल्दी नहीं मेरे लिये विशेष आदरणीय है; अतः आपको कुछ भी पाते, उन्होंने ही यदि मुझे दर्शन दिया है, तब तो इन देने में मुझे कोई विचार नहीं करना है। परन्तु देवराज! देवेश्वरने मुझे और भी धन्य बना दिया। जो लोग हाथमें मुझे इस बातसे बड़ी लज्जा हो रही है कि इन कुश और जल लेकर दान देते हैं, वे भी मेरे दानसे ब्राह्मणदेवताके विशेष प्रार्थना करनेपर आप मुझसे तीन सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हों' इस वचनके ही पग भूमि माँग रहे हैं। मैं इन्हें अच्छे-अच्छे गाँव दूंगा कहनेपर मोक्षके भागी होते हैं। इस कार्यको निश्चित और आपको स्वर्गका राज्य अर्पण कर दूँगा। वामनजीको रूपसे करनेके लिये मेरा जो दृढ़ संकल्प हुआ है, उसमें
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
आपका उपदेश ही कारण है। बचपनमें आपने एक बार निकला। उसे ही भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट उपदेश दिया था, जिसे मैंने अच्छी तरह अपने हृदयमें धारण कर लिया था। वह उपदेश इस प्रकार था—'शत्रु भी यदि घरपर आ जाय तो उसके लिये कोई वस्तु अदेय नहीं है-उसे कुछ भी देनेसे इनकार नहीं करना चाहिये।'* गुरुदेव ! यही सोचकर मैंने इन्द्रके लिये स्वर्गका राज्य और वामनजीके लिये अपने प्राणतक दे डालनेका निश्चय कर लिया है। जिस दानके देने में कुछ भी कष्ट नहीं होता, ऐसा दान तो संसारमें सभी लोग देते हैं। - यह सुनकर गुरुजीने लज्जासे अपना मुँह नीचा कर लिया। तब बाष्कलिने इन्द्रसे कहा-'देव ! आपके माँगनेपर मैं सारी पृथ्वी दे सकता हूँ, यदि इन्हें तीन ही पग भूमि देनी पड़ी तो यह मेरे लिये लज्जाकी बात होगी।'
, इन्द्रने कहा-दानवराज ! तुम्हारा कहना सत्य है, किन्तु इन ब्राह्मणदेवताने मुझसे तीन ही पग भूमिकी याचना की है। इनको इतनी ही भूमिकी आवश्यकता है। मैंने भी इन्हींके लिये तुमसे याचना की है। अतः इन्हें होनेवाली वैष्णवी नदी गङ्गा कहते हैं। गङ्गाजी अनेक यही वर प्रदान करो।
कारणवश भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई हैं। बाष्कलिने कहा-देवराज ! आप वामनको मेरी उनके द्वारा चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकी व्याप्त ओरसे तीन पग भूमि दे दीजिये और आप भी है। तत्पश्चात् भगवान् श्रीवामनने बाष्कलिसे कहाचिरकालतक वहाँ सुखसे निवास कीजिये। 'मेरे तीन पग पूर्ण करो।' बाष्कलिने कहा- 'भगवन् !
पुलस्त्यजी कहते हैं-यह कहकर बाष्कलिने आपने पूर्वकालमें जितनी बड़ी पृथ्वी बनायी थी, उसमेंसे हाथमें जल ले 'साक्षात् श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों' ऐसा मैंने कुछ भी छिपाया नहीं है। पृथ्वी छोटी है और आप कहते हुए वामनजीको तीन पग भूमि दे दी। दानवराजके महान् हैं। मुझमें सृष्टि उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं है। दान करते ही श्रीहरिने वामनरूप त्याग दिया और [जिससे कि दूसरी पृथ्वी बनाकर आपके तीन पग पूर्ण देवताओंका हित करनेकी इच्छासे सम्पूर्ण लोकोंको नाप करूँ] । देव ! आप-जैसे प्रभुओंकी इच्छा-शक्ति ही लिया। वे यज्ञ-पर्वतपर पहुँचकर उत्तरकी ओर मुँह मनोवाञ्छित कार्य करनेमें समर्थ होती है।' करके खड़े हो गये। उस समय दानवलोक भगवानके, सत्यवादी बाष्कलिको निरुत्तर जानकर भगवान् बायें चरणके नीचे आ गया। तब जगदीश्वरने पहला पग श्रीविष्णु बोले- 'दानवराज ! बोलो, मैं तुम्हारी सूर्यलोकमें रखा और दूसरा धुवलोकमें। फिर अद्भुत कौन-सी इच्छा पूर्ण करूँ? तुम्हारा दिया हुआ कर्म करनेवाले भगवान्ने तीसरे पगसे ब्रह्माण्डपर संकल्पका जल मेरे हाथमें आया है, इसलिये तुम वर आघात किया। उनके अँगूठेके अग्रभागसे लगकर पानेके योग्य हो। वरदानके उत्तम पात्र हो। तुम्हें जिस ब्रह्माण्ड-कटाह फूट गया, जिससे बहुत-सा जल बाहर वस्तुकी इच्छा हो, माँगो; मैं उसे दूंगा।'
* शत्रावपि गृहायाते नात्यदेय तु किंचन । (२५ । १७१)
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सृष्टिखण्ड]
• सत्सङ्गके प्रभावसे पाँव प्रेतोका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य •
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बाष्कलिने कहा-देवेश्वर ! मैं आपकी भक्ति दर्शन करके पापसे छुटकारा पा जाते हैं। भीष्म ! जो चाहता हूँ। मेरी मृत्यु भी आपके ही हाथसे हो, जिससे मनुष्य मौन होकर यज्ञ-पर्वतपर चढ़ता है अथवा तीनों मुझे आपके परमधाम श्वेतद्वीपकी प्राप्ति हो, जो पुष्करोंकी यात्रा करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल तपस्वियोंके लिये भी दुर्लभ है।
मिलता है। वह सब पापोंसे मुक्त हो मृत्युके पश्चात् पुलस्त्यजी कहते हैं-बाष्कलिके ऐसा कहनेपर श्रीविष्णुधाममें जाता है। भगवान् श्रीविष्णुने कहा–'तुम एक कल्पतक ठहरे भीष्पजी बोले-भगवन्! यह तो बड़े रहो। जिस समय वराहरूप धारण करके मैं रसातलमें आश्चर्यकी बात है कि वामनजीके द्वारा दानवराज प्रवेश करूँगा, उसी समय तुम्हारा वध करूँगा; इससे बाष्कलि बन्धनमें डाला गया। मैंने तो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके तुम मेरे रूपमें लीन हो जाओगे।' भगवान्के ऐसे वचन मुखसे ऐसी कथा सुन रखी है कि भगवान्ने वामनरूप सुनकर वह दानव उनके सामनेसे चला गया। भगवान् धारण करके राजा बलिको बाँधा था और विरोचनकुमार भी उससे त्रिलोकीका राज्य छीनकर अन्तर्धान हो गये। बलि आजतक पाताल-लोकमें मौजूद हैं। अतः आप बाष्कलि पाताललोकका निवासी होकर सुखपूर्वक रहने मुझसे बलिके बाँधे जानेकी कथाका वर्णन कीजिये। लगा। बुद्धिमान् इन्द्र तीनों लोकोंका पालन करने लगे। पुलस्त्यजी बोले-नृपश्रेष्ठ ! मैं तुम्हें सब बातें यह जगद्गुरु भगवान् श्रीविष्णुके वामन-अवतारका वर्णन बताता हूँ, सुनो। पहली बारकी कथा तो तुम सुन ही है, इसमें श्रीगङ्गाजीके प्रादुर्भावकी कथा भी आ गयी है। चुके हो। दूसरी बार वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तरमें भी यह प्रसङ्ग सब पापोंका नाश करनेवाला है। यह मैंने भगवान् श्रीविष्णुने त्रिलोकीको अपने चरणोंसे नापा था। श्रीविष्णुके तीनों पगोंका इतिहास बतलाया है, जिसे उस समय उन देवाधिदेवने अकेले ही यज्ञमें जाकर राजा सुनकर मनुष्य इस संसारमें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता बलिको बाँधा और भूमिको नापा था। उस अवसरपर है। श्रीविष्णुके पगोंका दर्शन कर लेनेपर उसके दुःस्वप्र, भगवान्का पुनः वामन-अवतार हुआ तथा पुनः उन्होंने दुश्चिन्ता और घोर पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। पापी मनुष्य त्रिविक्रमरूप धारण किया था। वे पहले वामन होकर प्रत्येक युगमें यज्ञ-पर्वतपर स्थित श्रीविष्णुके चरणोंका फिर अवामन (विराट) हो गये। ............
सत्सङ्गके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन्! किस कर्मके करनेवाले एक ब्राह्मण थे, जो 'पृथु' नामसे सर्वत्र परिणामसे मनुष्य प्रेत-योनिमें जाता है तथा किस कर्मके विख्यात थे। वे सदा सन्तुष्ट रहा करते थे। उन्हें योगका द्वारा वह उससे छुटकारा पाता है-यह मुझे बतानेकी ज्ञान था। वे प्रतिदिन स्वाध्याय, होम और जप-यज्ञमें कृपा कीजिये।
संलग्न रहकर समय व्यतीत करते थे। उन्हें परमात्माके पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! मैं तुम्हें ये सब बातें तत्त्वका बोध था। वे शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रियविस्तारसे बतलाता हूँ, सुनो; जिस कर्मसे जीव प्रेत होता संयम) और क्षमासे युक्त रहते थे। उनका चित्त है तथा जिस कर्मके द्वारा देवताओंके लिये भी दुस्तर घोर अहिंसाधर्ममें स्थित था। वे सदा अपने कर्तव्यका ज्ञान नरकमें पड़ा हुआ प्राणी भी उससे मुक्त हो जाता है, रखते थे। ब्रह्मचर्य, तपस्या, पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) उसका वर्णन करता हूँ। प्रेत-योनिमें पड़े हुए मनुष्य और वैदिक कर्मोंमें उनकी प्रवृत्ति थी। वे परलोकका सत्पुरुषोंके साथ वार्तालाप तथा पुण्यतीर्थीका बारम्बार भय मानते और सत्य-भाषणमें रत रहते थे। सबसे मीठे कीर्तन करनेसे उससे छुटकारा पा जाते हैं। भीष्म ! सुना वचन बोलते और अतिथियोंके सत्कारमें मन लगाते थे। जाता है—प्राचीन कालमें कठिन नियमोंका पालन सुख-दुःखादि सम्पूर्ण द्वन्द्वोंका परित्याग करनेके लिये
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
सदा योगाभ्यासमें तत्पर रहते थे। अपने कर्तव्यके पालन और स्वाध्यायमें लगे रहना उनका नित्यका नियम था । इस प्रकार संसारको जीतनेकी इच्छासे वे सदा शुभ कर्मका अनुष्ठान किया करते थे। ब्राह्मणदेवताको वनमें निवास करते अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार उनका ऐसा विचार हुआ कि मैं तीर्थ यात्रा करूँ, तीर्थोके पावन जलसे अपने शरीरको पवित्र बनाऊँ। ऐसा सोचकर उन्होंने सूर्योदयके समय शुद्ध चित्तसे पुष्कर तीर्थमें स्नान किया और गायत्रीका जप तथा नमस्कार करके यात्राके लिये चल पड़े। जाते-जाते एक जंगलके बीच कण्टकाकीर्ण भूमिमें, जहाँ न पानी था न वृक्ष, उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषोंको खड़े देखा, जो बड़े ही भयङ्कर थे। उन विकट आकार तथा पापपूर्ण दृष्टिवाले अत्यन्त घोर प्रेतोंको देखकर उनके हृदयमें कुछ भयका सञ्चार हो आया; फिर भी वे निश्चलभावसे खड़े रहे। यद्यपि उनका चित्त भयसे उद्विग्न हो रहा था, तथापि उन्होंने धैर्य धारण करके मधुर शब्दोंमें पूछा— "विकराल मुखवाले प्राणियो ! तुमलोग कौन हो ? किसके द्वारा कौन सा ऐसा कर्म बन गया है, जिससे तुम्हें इस विकृत रूपकी प्राप्ति हुई है ?"
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
प्रेतोंने कहा- हम भूख और प्याससे पीड़ित हो सर्वदा महान् दुःखसे घिरे रहते हैं। हमारा ज्ञान और विवेक नष्ट हो गया है, हम सभी अचेत हो रहे हैं। हमें इतना भी ज्ञान नहीं है कि कौन दिशा किस ओर है। दिशाओंके बीचकी अवान्तर दिशाओंको भी नहीं पहचानते। आकाश, पृथ्वी तथा स्वर्गका भी हमें ज्ञान नहीं है। यह तो दुःखकी बात हुई। सुख इतना ही है कि सूर्योदय देखकर हमें प्रभात-सा प्रतीत हो रहा है। हममेंसे एकका नाम पर्युषित है, दूसरेका नाम सूचीमुख है, तीसरेका नाम शीघ्रग, चौथेका रोधक और पाँचवेंका लेखक है।
ब्राह्मणने पूछा- तुम्हारे नाम कैसे पड़ गये ? क्या कारण है, जिससे तुमलोगोंको ये नाम प्राप्त हुए हैं ?
प्रेतोंमेंसे एकने कहा- मैं सदा स्वादिष्ट भोजन किया करता था और ब्राह्मणोंको पर्युषित (बासी) अन्न देता था इसी हेतुको लेकर मेरा नाम पर्युषित पड़ा है। मेरे इस साथीने अन्न आदिके अभिलाषी बहुत-से ब्राह्मणोंकी हिंसा की है, इसलिये इसका नाम सूचीमुख पड़ा है। यह तीसरा प्रेत भूखे ब्राह्मणके याचना करनेपर भी [उसे कुछ देनेके भयसे] शीघ्रतापूर्वक वहाँसे चला गया था; इसलिये इसका नाम शीघ्रग हो गया। यह चौथा प्रेत ब्राह्मणोंको देनेके भयसे उद्विग्न होकर सदा अपने घरपर ही स्वादिष्ठ भोजन किया करता था; इसलिये यह रोधक कहलाता है तथा हमलोगोंमें सबसे बड़ा पापी जो यह पाँचवाँ प्रेत है, यह याचना करनेपर चुपचाप खड़ा रहता था या धरती कुरेदने लगता था, इसलिये इसका नाम लेखक पड़ गया। लेखक बड़ी कठिनाईसे चलता है। रोधकको सिर नीचा करके चलना पड़ता है। शीघ्रग पढ्नु हो गया है। सूची (हिंसा करनेवाले) का सूईके समान मुँह हो गया है तथा मुझ पर्युषितकी गर्दन लम्बी और पेट बड़ा हो गया है। अपने पापके प्रभावसे मेरा अण्डकोष भी बढ़ गया है तथा दोनों ओठ भी लम्बे होनेके कारण लटक गये हैं। यही हमारे प्रेतयोनिमें आनेका वृत्तान्त है, जो सब मैंने तुम्हें बता दिया। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो कुछ और भी पूछो। पूछनेपर उस बातको भी बतायेंगे।
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सृष्टिखण्ड ] • सत्सङ्गके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य •
ब्राह्मण बोले- इस पृथ्वीपर जितने भी जीव रहते हैं, उन सबकी स्थिति आहारपर ही निर्भर है। अतः मैं तुमलोगों का भी आहार जानना चाहता हूँ।
प्रेत बोले- विप्रवर! हमारे आहारकी बात सुनिये। हमलोगोंका आहार सभी प्राणियोंके लिये निन्दित है। उसे सुनकर आप भी बारम्बार निन्दा करेंगे। बलगम, पेशाब, पाखाना और स्त्रीके शरीरका मैल इन्हींसे हमारा भोजन चलता है। जिन घरोंमें पवित्रता नहीं है, वहीं प्रेत भोजन करते हैं। जो घर स्त्रियोंके द्वारा दग्ध और छिन्न-भिन्न है, जिनके सामान इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं तथा मल-मूत्रके द्वारा जो घृणित अवस्थाको पहुँच चुके हैं, उन्हीं घरोंमें प्रेत भोजन करते हैं। जिन घरोंमें मानसिक लज्जाका अभाव है, पतितोंका निवास है तथा जहाँकै निवासी लूट-पाटका काम करते है, वहीं प्रेत भोजन करते हैं। जहाँ बलिवैश्वदेव तथा वेद मन्त्रोंका उच्चारण नहीं होता, होम और व्रत नहीं होते, वहाँ प्रेत भोजन करते हैं। जहाँ गुरुजनोंका आदर नहीं होता, जिन घरोंमें स्त्रियोंका प्रभुत्व है, जहाँ क्रोध और लोभने अधिकार जमा लिया है, वहीं प्रेत भोजन करते हैं। तात ! मुझे अपने भोजनका परिचय देते लज्जा हो रही है, अतः इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। तपोधन! तुम नियमोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले हो, इसलिये प्रेतयोनिसे दुःखी होकर हम तुमसे पूछ रहे हैं। बताओ, कौन-सा कर्म करनेसे जीव प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता ?
ब्राह्मणने कहा- जो मनुष्य एक रात्रिका, तीन रात्रियोंका तथा कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि अन्य व्रतोंका अनुष्ठान करता है, वह कभी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता। जो प्रतिदिन तीन, पाँच या एक अफ्रिका सेवन करता है तथा जिसके हृदयमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया भरी हुई है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जो मान और अपमानमें, सुवर्ण और मिट्टीके ढेलेमें तथा शत्रु और मित्रमें समान भाव रखता है, वह प्रेत नहीं होता। देवता, अतिथि, गुरु तथा पितरोंकी पूजामें सदा प्रवृत्त रहनेवाला मनुष्य भी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता। शुक्ल पक्षमें मंगलवारके दिन
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चतुर्थी तिथि आनेपर उसमें जो श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जिसने क्रोधको जीत लिया है, जिसमें डाहका सर्वथा अभाव है, जो तृष्णा और आसक्तिसे रहित, क्षमावान् और दानशील है, वह प्रेतयोनिमें नहीं जाता। जो गौ, ब्राह्मण, तीर्थ, पर्वत, नदी और देवताओंको प्रणाम करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता।
प्रेत बोले- महामुने! आपके मुखसे नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले; हम दुःखी जीव हैं, इसलिये पुनः पूछते हैं- जिस कर्मसे प्रेतयोनिमें जाना पड़ता है, वह हमें बताइये ।
ब्राह्मणने कहा - यदि कोई द्विज और विशेषतः ब्राह्मण शूद्रका अन्न खाकर उसे पेटमें लिये ही मर जाय तो वह प्रेत होता है। जो आश्रमधर्मका त्याग करके मदिरा पीता, परायी स्त्रीका सेवन करता तथा प्रतिदिन मांस खाता है, उस मनुष्यको प्रेत होना पड़ता है। जो ब्राह्मण यज्ञके अनधिकारी पुरुषोंसे यज्ञ करवाता अधिकारी पुरुषोंका त्याग करता और शूद्रकी सेवामें रत रहता है, वह प्रेतयोनिमें जाता है। जो मित्रकी धरोहरको हड़प लेता, शूद्रका भोजन बनाता, विश्वासघात करता और कूटनीतिका आश्रय लेता है, वह निश्चय ही प्रेत होता है। ब्रह्महत्यारा, गोघाती, चोर, शराबी, गुरुपत्लीके साथ सम्भोग करनेवाला तथा भूमि और कन्याका अपहरण करनेवाला निश्चय ही प्रेत होता है। जो पुरोहित नास्तिकतामें प्रवृत्त होकर अनेकों ऋत्विजोंके लिये मिली हुई दक्षिणाको अकेले ही हड़प लेता है, उसे निश्चय ही प्रेत होना पड़ता है।
विप्रवर पृथु जब इस प्रकार उपदेश कर रहे थे, उसी समय आकाशमें सहसा नगारे बजने लगे। हजारों देवताओंके हाथसे छोड़े हुए फूलोंकी वर्षा होने लगी। प्रेतोंके लिये चारों ओरसे विमान आ गये। आकाशवाणी हुई— 'इन ब्राह्मणदेवताके साथ वार्तालाप और पुण्यकथाका कीर्तन करनेसे तुम सब प्रेतोंको दिव्यगति प्राप्त हुई है।' [ इस प्रकार सत्सङ्गके प्रभावसे उन प्रेतोंका उद्धार हो गया ।] गङ्गानन्दन ! यदि तुम्हें कल्याण
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिा पापुराण
साधनकी आवश्यकता है तो तुम आलस्य छोड़कर पूर्ण नक्षत्र हो तो भी वह तिथि मुनियोंद्वारा परम पुण्यदायिनी प्रयत्न करके सत्पुरुषोंके साथ वार्तालाप-सत्सङ्ग करो। बतलायी गयी है और यदि उस तिथिको रोहिणी नक्षत्र यह पाँच प्रेतोंकी कथा सम्पूर्ण धोका तिलक है। जो हो तो वह महाकार्तिकी पूर्णिमा कहलाती है। उस दिनका मनुष्य इसका एक लाख पाठ करता है, उसके वंशमें स्रान देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। यदि शनिवार, कोई प्रेत नहीं होता। जो अत्यन्त श्रद्धा और भक्तिके रविवार तथा बृहस्पतिवार-इन तीनों दिनों से किसी साथ इस प्रसङ्गका बारम्बार श्रवण करता है, वह भी दिन उपर्युक्त तीन नक्षत्रों से कोई नक्षत्र हो तो उस दिन प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता।
पुष्करमें स्नान करनेवालेको निश्चय ही अश्वमेध यज्ञका ... भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन् ! पुष्करकी स्थिति पुण्य होता है। उस दिन किया हुआ दान और पितरोंका अन्तरिक्षमें क्योंकर बतलायी जाती है ? धर्मशील मुनि तर्पण अक्षय होता है। यदि सूर्य विशाखा नक्षत्रपर और इस लोकमें उसे कैसे प्राप्त करते हैं और किस-किसने चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्रपर हों तो पद्मक नामका योग होता प्राप्त किया है?
है, यह पुष्करमे अत्यन्त दुर्लभ माना गया है। जो पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! एक समयकी बात आकाशसे उतरे हुए ब्रह्माजीके इस शुभ तीर्थमें स्रान है-दक्षिणभारतके निवासी एक करोड़ ऋषि पुष्कर करते हैं, उन्हें महान् अभ्युदयशाली लोकोंकी प्राप्ति होती तीर्थमें स्नान करनेके लिये आये; किन्तु पुष्कर आकाशमें है। महाराज ! उन्हें दूसरे किसी पुण्यके करने-नस्थित हो गया। यह जानकर वे समस्त मुनि प्राणायाममें करनेकी लालसा नहीं रहती। यह मैंने सच्ची बात कही तत्पर हो परब्रह्मका ध्यान करते हुए बारह वर्षोंतक वहीं है। पुष्कर इस पृथ्वीपर सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ बताया गया खड़े रह गये। तब ब्रह्माजी, इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता है। संसारमें इससे बढ़कर पुण्यतीर्थ दूसरा कोई नहीं है। तथा ऋषि-महर्षि आकाशमें अलक्षित होकर उन्हें कार्तिककी पूर्णिमाको यह विशेष पुण्यदायक होता है। [पुष्कर-प्राप्तिके लिये] अत्यन्त दुष्कर नियम बताते हुए वहाँ उदुम्बर वनसे सरस्वतीका आगमन हुआ है और बोले-'द्विजगण! तुमलोग मन्त्रद्वारा पुष्करका उसीके जलसे मुनिजन-सेवित पुष्कर तीर्थ भरा हुआ है। आवाहन करो। 'आपो हि ष्ठा मयो' इत्यादि तीन सरस्वती ब्रह्माजीकी पुत्री है। वह पुण्यसलिला एवं ऋचाओंका जप करनेसे यह तीर्थ तुम्हारे समीप आ पुण्यदायिनी नदी है। वंशस्तम्बसे विस्तृत आकार धारण जायगा और अघमर्षण-मन्त्रका जप करनेसे पूर्ण करके वह उत्तरकी ओर प्रवाहित हुई है। इस रूपमें कुछ फलदायक होगा।' उन ब्रह्मर्षियोंकी बात समाप्त होनेपर दूर जाकर वह फिर पश्चिमकी ओर बहने लगती है और उन सब मुनियोंने वैसा ही किया। ऐसा करनेसे वे परम वहाँसे प्राणियोंपर दया करनेके लिये अदृश्यभावका पावन बन गये-उन्हें पुष्कर-प्राप्तिका पूरा-पूरा फल परित्याग करके स्वच्छ जलकी धारा बहाती हुई प्रकट मिल गया।
__ रूपमें स्थित होती है। कनका, सुप्रभा, नन्दा, प्राची और राजन् ! जो कार्तिककी पूर्णिमाको पुष्करमें नान सरस्वती-ये पाँच स्रोत पुष्करमें विद्यमान हैं। इसलिये करता है, वह परम पवित्र हो जाता है। ब्रह्माजीके सहित ब्रह्माजीने सरस्वतीको पञ्चस्रोता कहा है। उसके तटपर पुष्कर तीर्थ सबको पुण्य प्रदान करनेवाला है। वहाँ अत्यन्त सुन्दर तीर्थ और मन्दिर हैं, जो सब ओरसे सिद्धों आनेवाले सभी वर्गों के लोग अपने पुण्यकी वृद्धि करते और मुनियोंद्वारा सेवित हैं। उन सब तीर्थोंमें सरस्वती ही हैं। वे मन्त्रज्ञानके बिना ही ब्राहाणोंके तुल्य हो जाते है, धर्मकी हेतु है। वहाँ स्नान करने,जल पीने तथा सुवर्ण इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यदि कार्तिककी आदि दान करनेसे महानदी सरस्वती अक्षय फल उत्पन्न पूर्णिमाको कृत्तिका नक्षत्र हो तो उसे स्नान-दानके लिये करती है। अत्यन्त उत्तम समझना चाहिये। यदि उस दिन भरणी.. मुनीश्वरगण अन्न और वस्त्रका दान श्रेष्ठ बतलाते
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सृष्टिखण्ड ] . सत्सङ्गके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य .
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है; जो मनुष्य सरस्वती-तटवर्ती तीर्थोंमें उक्त वस्तुओका ब्रह्मकुमारी सरस्वती उन सुरेश्वरोंकी पूजा करके फिर दान करते है, उनका दान धर्मका साधक और अत्यन्त अपनी सखियोंसे मिली। ज्येष्ठ और मध्यम पुष्करके उत्तम माना गया है। जो स्त्री या पुरुष संयमसे रहकर बीच उनका विश्वविख्यात समागम हुआ था। वहाँ प्रयत्नपूर्वक उन तीर्थोंमें उपवास करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें सरस्वतीका मुख पश्चिम दिशाकी ओर और गङ्गाका जाकर यथेष्ट आनन्दका अनुभव करते हैं। जो स्थावर या उत्तरकी ओर है। तदनन्तर, पुष्करमें आये हुए समस्त जङ्गम प्राणी प्रारब्ध कर्मका क्षय हो जानेपर सरस्वतीके देवता सरस्वतीके दुष्कर कर्मका महत्त्व समझकर उसकी तटपर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे सब हठात् यज्ञके सम्पूर्ण स्तुति करने लगे। श्रेष्ठ फल प्राप्त करते हैं। जिनका चित्त जन्म और मृत्यु । देवता बोले-देवि! तुम्हीं धृति, तुम्हीं मति, आदिके दुःखसे पीड़ित है, उन मनुष्यों के लिये सरस्वती तुम्हीं लक्ष्मी, तुम्ही विद्या और तुम्हीं परागति हो। श्रद्धा, नदी धर्मको उत्पन्न करनेवाली अरणीके समान है। अतः परानिष्ठा, बुद्धि, मेघा, धृति और क्षमा भी तुम्ही हो। मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक उत्तम फल प्रदान करनेवाली तुम्हीं सिद्धि हो, तुम्हीं स्वाहा और स्वधा हो तथा तुम्हीं महानदी सरस्वतीका सब प्रकारसे सेवन करना चाहिये। परम पवित्र मत (सिद्धान्त) हो। सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, जो सरस्वतीके पवित्र जलका नित्य पान करते हैं, वे भूति, मेघा, श्रद्धा, सरस्वती, यज्ञविद्या, महाविद्या, मनुष्य नहीं, इस पृथ्वीपर रहनेवाले देवता हैं। द्विजलोग गुह्यविद्या, सुन्दर आन्वीक्षिकी (तर्कविद्या), त्रयीविद्या यज्ञ, दान एवं तपस्यासे जिस फलको प्राप्त करते हैं, वह (वेदत्रयी) और दण्डनीति-ये सब तुम्हारे ही नाम हैं। यहाँ स्नान करनेमात्रसे शूद्रोंको भी सुलभ हो जाता है। समुद्रको जानेवाली श्रेष्ठ नदी ! तुम्हें नमस्कार है। महापातकी मनुष्य भी पुष्कर तीर्थक दर्शनमात्रसे पुण्यसलिला सरस्वती! तुम्हें नमस्कार है। पापोंसे पापरहित हो जाते हैं और शरीर छूटनेपर स्वर्गको जाते छुटकारा दिलानेवाली देवी! तुम्हें नमस्कार है। हैं। पुष्करमें उपवास करनेसे पौण्डरीक यज्ञका फल वराङ्गने ! तुम्हें नमस्कार है। मिलता है। जो वहाँ अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिमास... देवताओंने जब इस प्रकार उस दिव्य देवीका भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको तिलका दान करता है, वह स्तवन किया, तब वह पूर्वाभिमुख होकर स्थित हुई। वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। जो मनुष्य वहाँ शुद्ध ब्रह्माजीके कथनानुसार वही प्राची सरस्वती है। सम्पूर्ण वृत्तिसे रहकर तीन राततक उपवास करते हैं और देवताओंसे युक्त होनेके कारण देवी सरस्वती सब तीर्थोंमें ब्राह्मणोंको धन देते हैं, वे मरनेके पश्चात् ब्रह्माका रूप प्रधान हैं। वहाँ सुधावट नामका एक पितामह-सम्बन्धी धारण कर विमानपर आरूढ़ हो ब्रह्माजीके साथ सायुज्य तीर्थ है, जिसके दर्शनमात्रसे महापातकी पुरुष भी शुद्ध मोक्षको प्राप्त होते हैं।
हो जाते हैं और ब्रह्माजीके समीप रहकर दिव्य भोग ___पुष्करमें गणोद्धेद तीर्थ है, जहाँ नदियोंमें श्रेष्ठ भोगते हैं। जो नरश्रेष्ठ वहाँ उपवास करते हैं, वे मृत्युके गङ्गाजी सरस्वतीको देखनेके लिये आयी थीं। उस समय पश्चात् हंसयुक्त विमानपर आरूढ़ हो निर्भयतापूर्वक वहाँ आकर गङ्गाजीने कहा-'सखी! तुम बड़ी शिवलोकको जाते है। जो लोग वहाँ शुद्ध अन्तःकरणसौभाग्यशालिनी हो। तुमने देवताओंका वह दुष्कर कार्य वाले ब्रह्मज्ञानी महात्माओंको थोड़ा भी दान करते हैं, किया है, जिसे दूसरा कोई कभी नहीं कर सकता था। उनका वह दान उन्हें सौ जन्मोंतक फल देता रहता है। महाभागे! इसीलिये देवता भी तुम्हारा दर्शन करने जो मनुष्य वहाँ टूटे-फूटे तीर्थोका जीर्णोद्धार करते हैं, वे आये हैं। तुम मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा इनका ब्रह्मलोकमें जाकर सुखी एवं आनन्दित होते हैं। जो सत्कार करो।'
- मनुष्य वहाँ ब्रह्माजीकी भक्तिके परायण हो पूजा, जप ___पुलस्त्यजी कहते हैं-गङ्गाजीके ऐसा कहनेपर और होम करते हैं, उन्हें वह सब कुछ अनन्त पुण्यफल
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
प्रदान करता है। उस तीर्थमें दीप दान करनेसे ज्ञाननेत्रकी प्राप्ति होती है, मनुष्य अतीन्द्रिय पदमें स्थित होता है और धूप दानसे उसे ब्रह्मधाम प्राप्त होता है। अधिक क्या कहा जाय, प्राची सरस्वती और गङ्गाके सङ्गममें जो कुछ दिया जाता है, वह जीते-जी तथा मरनेके बाद भी अक्षयफल प्रदान करनेवाला होता है। वहाँ स्नान, जप और होम करनेसे अनन्त फलकी सिद्धि होती है।
भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने भी उस तीर्थमें आकर मार्कण्डेयजीके कथनानुसार अपने पिता दशरथजीके लिये पिण्ड दान और श्राद्ध किया था। वहाँ एक चौकोर बावली है, जहाँ पिण्डदान करनेवाले मनुष्य हंसयुक्त विमानसे स्वर्गको जाते हैं। यज्ञवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीने उस तीर्थके ऊपर उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त पितृमेध यज्ञ (श्राद्ध) किया था। उसमें उन्होंने वसुओंको पितर, रुद्रोंको पितामह और आदित्योंको प्रपितामह नियत किया था। फिर उन तीनोंको बुलाकर कहा - 'आपलोग सदा यहाँ विराजमान रहकर पिण्डदान आदि ग्रहण किया करें।' वहाँ जो पितृकार्य किया जाता है, उसका अक्षय फल होता है। पितर और पितामह सन्तुष्ट होकर उन्हें उत्तम जीविकाकी प्राप्तिके लिये आशीर्वाद देते हैं। वहाँ तर्पण करनेसे पितरोंकी तृप्ति होती है और पिण्डदान करनेसे उन्हें स्वर्ग मिलता है। इसलिये सब कुछ छोड़कर प्राची सरस्वती तीर्थमें तुम पिण्डदान करो। *
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
प्रत्येक पुत्रको उचित है कि वह वहाँ जाकर अपने समस्त पितरोंको यत्नपूर्वक तृप्त करे। वहाँ प्राचीनेश्वर भगवान्का स्थान है। उसके सामने आदितीर्थ प्रतिष्ठित है, जो दर्शनमात्रसे मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वहाँके जलका स्पर्श करके मनुष्य जन्म-मृत्युके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है। उसमें स्नान करनेसे वह ब्रह्माजीका अनुचर होता है। जो मनुष्य आदितीर्थमें स्नान करके एकाग्रतापूर्वक थोड़ेसे अन्नका भी दान करता है, वह स्वर्गलोकको प्राप्त होता है जो विद्वान् वहाँ स्नान करके ब्रह्माजीके भक्तोंको सुवर्ण और खिचड़ी दान करता है, वह स्वर्गलोकमें सुखी एवं आनन्दित होता है। जहाँ प्राची सरस्वती विद्यमान हैं, वहाँ मनुष्य दूसरे साधनकी खोज क्यों करते हैं। प्राची सरस्वतीमें स्नान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीके लिये तो जप-तप आदि साधन किये जाते हैं। जो भगवती प्राची सरस्वतीका पवित्र जल पीते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं, देवता समझना चाहिये- - यह मार्कण्डेय मुनिका कथन है। सरस्वती नदीके तटपर पहुँचकर स्नान करनेका कोई नियम नहीं है। भोजनके बाद अथवा भोजनके पहले, दिनमें अथवा रात्रिमें भी स्नान किया जा सकता है। वह तीर्थ अन्य सब तीर्थोकी अपेक्षा प्राचीन और श्रेष्ठ माना गया है। वह प्राणियोंके पापोंका नाशक और पुण्यजनक बतलाया गया है।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन् ! मैं तुम्हें मार्कण्डेयजीके जन्मकी उत्तम कथा सुनाता हूँ। प्राचीन कल्पकी बात है; मृकण्डु नामसे विख्यात एक मुनि थे,
भीष्मजीने पूछा- मुने! मार्कण्डेयजीने वहाँ भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको किस प्रकार उपदेश दिया तथा किस समय और कैसे उनका समागम हुआ ? मार्कण्डेयजी किसके पुत्र हैं, वे कैसे महान् तपस्वी हुए तथा उनके इस नामका क्या रहस्य है ? महामुने! इन सब बातोंका यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये ।
मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना जो महर्षि भृगुके पुत्र थे। वे महाभाग मुनि अपनी पत्नीके साथ वनमें रहकर तपस्या करते थे। वनमें रहते समय ही उनके एक पुत्र हुआ। धीरे-धीरे उसकी अवस्था पाँच वर्षकी हुई। वह बालक होनेपर भी गुणोंमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। एक दिन जब वह बालक आँगनमें घूम रहा था, किसी सिद्ध ज्ञानीने उसकी ओर देखा और बहुत देरतक ठहरकर उसके जीवनके विषयमें विचार किया। बालकके पिताने पूछा- 'मेरे पुत्रकी कितनी आयु है ?" सिद्ध बोला- 'मुनीश्वर ! विधाताने तुम्हारे पुत्रकी जो
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सृष्टिखण्ड] .मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामका पुष्करमें पिताका श्राद्ध करना .
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आयु निश्चित की है, उसमें अब केवल छ: महीने और ब्रह्माजीने उनसे पूछा-'तुमलोग किस कामसे यहाँ शेष रह गये हैं। मैंने यह सची बात बतायी है। इसके आये हो तथा यह बालक कौन है ? बताओ।' ऋषियोंने लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये।
कहा-'यह बालक मृकण्डुका पुत्र है, इसकी आयु क्षीण भीष्म ! उस सिद्ध ज्ञानीकी बात सुनकर बालकके हो चुकी है। इसका सबको प्रणाम करनेका स्वभाव हो पिताने उसका उपनयन-संस्कार कर दिया और गया है। एक दिन दैवात् तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे हमलोग कहा-'बेटा ! तुम जिस-किसी मुनिको देखो, प्रणाम उधर जा निकले। यह पृथ्वीपर घूम रहा था । हमने इसकी करो।' पिताके ऐसा कहनेपर वह बालक अत्यन्त हर्षमें ओर देखा और इसने हम सब लोगोंको प्रणाम किया। भरकर सबको प्रणाम करने लगा। धीरे-धीरे पाँच महीने, उस समय हमलोगोंके मुखसे बालकके प्रति यह वाक्य पचौस दिन और बीत गये। तदनन्तर निर्मल स्वभाववाले निकल गया-'चिरायुर्भव, पुत्र ! (बेटा ! चिरजीवी सप्तर्षिगण उस मार्गसे पधारे । बालकने उन्हें देखकर उन होओ।)' [आपने भी ऐसा ही कहा है। अतः देव ! सबको प्रणाम किया। सप्तर्षियोंने उस बालकको आपके साथ हमलोग झूठे क्यों बनें ?' 'आयुष्पान् भव, सौम्य !' कहकर दीर्घायु होनेका ब्रह्माजीने कहा-ऋषियो ! यह बालक मार्कण्डेय आशीर्वाद दिया। इतना कहनेके बाद जब उन्होंने उसकी आयुमें मेरे समान होगा। यह कल्पके आदि और अन्तमें आयुपर विचार किया, तब पाँच ही दिनकी आयु शेष भी श्रेष्ठ मुनियोंसे घिरा हुआ सदा जीवित रहेगा।
पुलस्त्यजी कहते हैं-इस प्रकार सप्तर्षियोंने ब्रह्माजीसे वरदान दिलवाकर उस बालकको पुनः पृथ्वीतलपर भेज दिया और स्वयं तीर्थयात्राके लिये चले गये। उनके चले जानेपर मार्कण्डेय अपने घर आये और पितासे इस प्रकार बोले-'तात ! मुझे ब्रह्मवादी मुनिलोग ब्रह्मलोकमें ले गये थे। वहाँ ब्रह्माजीने मुझे दीर्घायु बना दिया। इसके बाद ऋषियोंने बहुत-से वरदान देकर मुझे यहाँ भेज दिया। अतः आपके लिये जो चिन्ताका कारण था, वह अब दूर हो गया। मैं लोककर्ता ब्रह्माजीकी कृपासे कल्पके आदि और अन्तमें तथा आगे आनेवाले कल्पमें भी जीवित रहूँगा । इस पृथ्वीपर पुष्कर तीर्थ ब्रह्मलोकके समान है; अतः अब मैं वहीं जाऊँगा।' ___मार्कण्डेयजीके वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुको बड़ा हर्ष हुआ। वे एक क्षणतक चुपचाप आनन्दकी
साँस लेते रहे। इसके बाद मनके द्वारा धैर्य धारण कर जानकर उन्हें बड़ा भय हुआ। वे उस बालकको लेकर इस प्रकार बोले-'बेटा ! आज मेरा जन्म सफल हो ब्रह्माजीके पास गये और उसे उनके सामने रखकर गया तथा आज ही मेरा जीवन धन्य हुआ है; क्योंकि उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया। बालकने भी ब्रह्माजीके तुम्हें सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करनेवाले भगवान चरणोंमें मस्तक झुकाया। तब ब्रह्माजीने ऋषियोंके समीप ब्रह्माजीका दर्शन प्राप्त हुआ। तुम-जैसे वंशधर पुत्रको ही उसे चिरायु होनेका आशीर्वाद दिया। पितामहका पाकर वास्तवमें मैं पुत्रवान् हुआ हूँ। वत्स ! जाओ, वचन सुनकर ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। तत्पश्चात् पुष्करमें विराजमान देवेश्वर ब्रह्माजीका दर्शन करो।
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
उन जगदीश्वरका दर्शन कर लेनेपर मनुष्योंको बुढ़ापा मर्यादा-पर्वत और यज्ञ-पर्वत कहते हैं। उन दोनोंके और मृत्युका द्वार नहीं देखना पड़ता । उन्हें सभी प्रकारके बीचमें तीन कुण्ड हैं, जिनके नाम क्रमशः ज्येष्ठ पुष्कर, सुख प्राप्त होते हैं तथा उनका तप और ऐश्वर्य भी अक्षय मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर हैं। वहाँ जाकर अपने हो जाते हैं। तात ! जिस कार्यको मैं भी न कर सका, पिता दशरथको तुम पिण्डदानसे तृप्त करो। वह तीर्थोमें मेरे किसी कर्मसे जिसकी सिद्धि न हो सकी, उसे तुमने श्रेष्ठ तीर्थ और क्षेत्रोंमें उत्तम क्षेत्र है। रघुनन्दन ! वहाँ बिना यत्रके ही सिद्ध कर लिया। सबके प्राण लेनेवाली अवियोगा नामकी एक चौकोर बावली है तथा एक मृत्युको भी जीत लिया। अतः दूसरा कोई मनुष्य इस दूसरा जलसे युक्त कुआँ है, जिसे सौभाग्य-कूप कहते पृथ्वीपर तुम्हारी समानता नहीं कर सकता। पाँच वर्षकी हैं। वहाँपर पिण्डदान करनेसे पितरोंकी मुक्ति हो जाती अवस्थामें ही तुमने मुझे पूर्ण सन्तुष्ट कर दिया; अतः मेरे है। वह तीर्थ प्रलयपर्यन्त रहता है, ऐसा पितामहका वरदानके प्रभावसे तुम चिरजीवी महात्माओंके आदर्श कथन है। माने जाओगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मेरा तो पुलस्त्यजी कहते हैं-'बहुत अच्छा !' कहकर ऐसा आशीर्वाद है ही, तुम्हारे लिये और सब लोग भी श्रीरामचन्द्रजीने पुष्कर जानेका विचार किया। वे यही कहते है कि 'तुम अपनी इच्छाके अनुसार उत्तम ऋक्षवान् पर्वत, विदिशा नगरी तथा चर्मण्वती नदीको लोकोंमें जाओगे।'
पार करके यज्ञपर्वतके पास जा पहुंचे। फिर बड़े वेगसे पुलस्त्यजी कहते हैं-इस प्रकार ऋषियों और उस पर्वतको भी पार करके वे मध्यम पुष्कर गये। वहाँ गुरुजनोंका अनुग्रह प्राप्त करके मृकण्डुनन्दन स्नान करके उन्होंने मध्यम पुष्करके ही जलसे समस्त मार्कण्डेयजीने पुष्कर तीर्थमें जाकर एक आश्रम स्थापित देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। उसी समय किया, जो मार्कण्डेय-आश्रमके नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयजी अपने शिष्योंके साथ वहाँ आये। स्नान करके पवित्र हो मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त श्रीरामचन्द्रजीने जब उन्हें देखा तो सामने जाकर प्रणाम करता है। उसका अन्तःकरण सब पापोंसे मुक्त हो जाता किया और बड़े आदरके साथ कहा-'मुने! मैं राजा है तथा उसे दीर्घ आयु प्राप्त होती है। अब मैं दूसरे दशरथका पुत्र हूँ, मुझे लोग राम कहते हैं। मैं महर्षि प्राचीन इतिहासका वर्णन करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीने अत्रिकी आज्ञासे अवियोगा नामकी बावलीका दर्शन जिस प्रकार पुष्कर तीर्थका निर्माण किया, वह प्रसङ्ग करनेके लिये यहाँ आया हूँ। विप्रवर ! बताइये, वह आरम्भ करता हूँ। पूर्वकालमें श्रीरामचन्द्रजी जब सीता स्थान कहाँ है?' और लक्ष्मणके साथ चित्रकूटसे चलकर महर्षि अत्रिके मार्कण्डेयजीने कहा-रघुनन्दन ! इसके लिये आश्रमपर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने मुनिश्रेष्ठ अत्रिसे मैं आपको साधुवाद देता हूँ, आपका कल्याण हो। पूछा-'महामुने ! इस पृथ्वीपर कौन-कौन-से पुण्यमय आपने यह बड़े पुण्यका कार्य किया कि तीर्थ-यात्राके तीर्थ अथवा कौन-सा ऐसा क्षेत्र है, जहाँ जाकर प्रसङ्गसे यहाँतक चले आये। यहाँसे अब आप आगे मनुष्यको अपने बन्धुओंके वियोगका दुःख नहीं उठाना चलिये और 'अवियोगा' नामकी बावलीका दर्शन पड़ता? भगवन् ! यदि ऐसा कोई स्थान हो तो वह मुझे कीजिये। वहाँ सबका सभी आत्मीयजनोंके साथ संयोग बताइये।'
होता है। इहलोक या परलोकमें स्थित, जीवित या अत्रि बोले-रघुवंशका विस्तार करनेवाले वत्स मृत-सभी प्रकारके बन्धुओंसे भेट होती है। श्रीराम ! तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। मेरे पिता मुनीश्वर मार्कण्डेयजीके ये वचन सुनकर ब्रह्माजीके द्वारा निर्मित एक उत्तम तीर्थ है, जो पुष्कर श्रीरामचन्द्रजीने महाराज दशरथ, भरत, शत्रुघ्न, माताओं नामसे विख्यात है। वहाँ दो प्रसिद्ध पर्वत हैं, जिन्हें तथा अन्य पुरवासीजनोंका स्मरण किया। इस प्रकार
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सृष्टिखण्ड] • मार्कण्डेयजीके दीर्घायु ह्येनेकी कथा और श्रीरामका पुष्करमें पिताका श्राद्ध करना .
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सबका चिन्तन करते-करते उन्हें सन्ध्या हो गयी। तब मीठे बेल, शालूक, कसेरू, पीली काबरा, अच्छे-अच्छे श्रीरघुनाथजीने मुनियोंके साथ सायंकालका सन्ध्योपासन कैर, शक्कर-जैसे सिंघाड़े, पके कैथ तथा और भी जो किया। तत्पश्चात् रात्रिमें भाई और पत्नीके साथ वहीं सामयिक फल हों, उन्हें श्राद्धके लिये शीघ्र ही ले शयन किया। जब रात्रिका अन्तिम प्रहर व्यतीत होने आओ।' श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा पाकर लक्ष्मणने सारा लगा, तब श्रीरघुनाथजीने स्वप्नमें देखा वे पिताजी तथा सामान एकत्रित कर दिया। जानकीजीने भोजन बनाया अन्य सम्बन्धियोंके साथ अयोध्यामें विराजमान हैं। और तैयार हो जानेपर श्रीरामचन्द्रजीको सूचित कर वैवाहिक मङ्गल-कार्य समाप्त करके वे बहुत-से बन्धु- दिया। श्रीराम भी अवियोगा नामकी बावलीमें स्नान बान्धवोंके साथ ऋषियोंसे घिरे बैठे हैं। साथमें पत्नी करके मुनियोंके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे। सीता भी मौजूद है।' लक्ष्मण और सीताने भी इसी दुपहरीके बाद जब सूर्य ढलने लगे और कुतप नामकी रूपमें श्रीरघुनाथजीको देखा। सबेरा होनेपर उन्होंने बेला उपस्थित हुई, उस समय श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा मुनियोंसे सारी बातें निवेदन की, जिन्हें सुनकर ऋषियोंने निमन्त्रित सम्पूर्ण ऋषि वहाँ आ पहुँचे । मुनियोंको आया कहा-'रघुनन्दन ! यह स्वप्न सत्य है; परन्तु मृत देख विदेहकुमारी सीता वहाँसे दूर हट गयीं और पुरुषका जब स्वप्रमें दर्शन हो तो उसके लिये श्राद्ध करना झाड़ियोंकी आड़में छिपकर बैठ गयीं। श्रीरामचन्द्रजीने आवश्यक माना गया है। सन्तानके अभ्युदयकी कामना स्मृतियोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन रखनेवाले तथा अन्न चाहनेवाले पितर ही भक्त सन्तानको कराया तथा मनुष्योंके श्राद्धके लिये जो वैदिक क्रिया स्वप्रमें दर्शन देते हैं। आपको पितासे तो वियोग था ही, बतलायी गयी है, वह सब सम्पन्न की। फिर वैश्वदेव माता और भरतके साथ भी चौदह वर्षोतक वियोग करके पुराणोक्त विधिका भी पालन किया। ब्राह्मणोंके रहेगा। वीर ! अब आप राजा दशरथका श्राद्ध कीजिये। ये सभी ऋषि-महर्षि आपके भक्त हैं और आपके शुभ कार्यमें सहयोग देनेके लिये प्रस्तुत हैं। मैं (मार्कण्डेय), जमदग्नि, भरद्वाज, लोमश, देवरात और शमीक-ये छः श्रेष्ठ द्विज श्राद्धमें उपस्थित रहेंगे। महाबाहो ! आप केवल सामान जुटाइये। श्राद्धमें प्रधान वस्तु तो है इङ्गदी (लिसोड़े) की खली, बेर और आँवले। इनके साथ पके हुए बेल तथा भाँति-भांतिके मूल होने चाहिये। इन सब वस्तुओंसे तथा श्राद्ध-सम्बन्धी दानके द्वारा आप ब्राह्मणोंको तृप्त कीजिये । सुव्रत ! पुष्करके वनमें आकर जो नियमपूर्वक रहता और नियमित आहार करके [श्राद्ध आदिके द्वारा] पितरोंको तृप्त करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। श्रीराम! [आप श्राद्धकी सामग्री एकत्रित कराइये,] हमलोग सान ARE -- करनेके लिये ज्येष्ठ पुष्करमें जा रहे हैं।'
भोजन कर चुकनेपर क्रमशः पिण्ड देनेके पश्चात् श्रीरघुनाथजीसे ऐसा कहकर वे सभी ऋषि चले ब्राह्मणोंको विदा किया। उनके चले जानेपर गये। तब श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणसे कहा- 'सुमित्रा- श्रीरामचन्द्रजीने अपनी प्रिया सीतासे कहा-'प्रिये ! नन्दन! अच्छे-अच्छे संतरे, कटहल, पारद, यहाँ आये हुए मुनियोंको देखकर तुम छिप क्यों गयीं ?
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
इसका सारा कारण मुझे शीघ्र बताओ।'
वे दोनों भाई चले और पुष्कर क्षेत्रकी सीमा सीता बोलीं-नाथ ! मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे मर्यादा-पर्वतके पास जा पहुँचे। वहाँ देवताओंके स्वामी [बताती हूँ.] सुनिये। आपके द्वारा नामोच्चारण होते ही पिनाकधारी देवदेव महादेवजीका स्थान था। वे वहाँ स्वर्गीय महाराज यहाँ आकर उपस्थित हो गये। उनके अजगन्धके नामसे प्रसिद्ध थे। श्रीरामचन्द्रजीने वहाँ साथ उन्हीक समान रूप-रेखावाले दो पुरुष और आये जाकर त्रिनेत्रधारी भगवान् उमानाथको साष्टाङ्ग प्रणाम थे, जो सब प्रकारके आभूषण धारण किये हुए थे। वे किया। उनके दर्शनसे श्रीरघुनाथजीके श्रीविग्रहमें रोमाश तीनों ही ब्राह्मणोंके शरीरसे सटे हुए थे। रघुनन्दन ! हो आया। वे सात्त्विक भावमें स्थित हो गये। उन्होंने ब्राह्मणोंके अङ्गोंमें मुझे पितरोंके दर्शन हुए। उन्हें देखकर देवेश्वर भगवान् श्रीशिवको ही जगत्का कारण समझा मैं लज्जाके मारे आपके पाससे हट गयी। इसीलिये और विनम्रभावसे स्थित हो उनकी स्तुति करने लगे। आपने अकेले ही ब्राह्मणोंको भोजन कराया और श्रीरामचन्द्रजी बोलेविधिपूर्वक श्राद्धकी क्रिया भी सम्पन्न की। भला, मैं कृत्स्त्रस्य योऽस्य जगतः सचराचरस्य स्वर्गीय महाराजके सामने कैसे खड़ी होती। यह आपसे
कर्ता कृतस्य च तथा सुखदुःखहेतुः। मैंने सच्ची बात बतायी है।
___संहारहेतुरपि यः पुनरन्तकाले पुलस्त्यजी कहते हैं-यह सुनकर श्रीरघुनाथजी तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि । बहुत प्रसन्न हुए और प्रिय वचन बोलनेवाली प्रियतमा जो चराचर प्राणियोंसहित इस सम्पूर्ण जगत्को सीताको बड़े आदरके साथ हृदयसे लगा लिया। उत्पन्न करनेवाले हैं, उत्पन्न हुए जगत्के सुख-दुःखमें तत्पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण दोनों वीरोने भोजन किया। एकमात्र कारण हैं तथा अन्तकालमें जो पुनः इस विश्वके उनके बाद जानकीजीने स्वयं भी भोजन किया। इस संहारमें भी कारण बनते हैं, उन शरणदाता भगवान् प्रकार दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण तथा सीताने वह श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। रात वहीं बितायी। दूसरे दिन सूर्योदय होनेपर सबने यं योगिनो विगतमोहतमोरजस्का जानेका निश्चय किया। श्रीरामचन्द्रजी पश्चिमकी ओर चले
भक्त्यैकतानमनसो विनिवृत्तकामाः । और एक कोस चलकर ज्येष्ठ पुष्करके पास जा पहुंचे। ध्यायन्ति निश्चलधियोऽमितदिव्यभावं श्रीरघुनाथजी ज्यों ही जाकर पुष्करके पूर्वमें खड़े हुए, त्यों
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ही उन्हें देवदूतके कहे हुए ये वचन सुनायी दिये- जिनके हृदयसे मोह, तमोगुण और रजोगुण दूर हो 'रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो। यह तीर्थ अत्यन्त गये हैं, भक्तिके प्रभावसे जिनका चित्त भगवानके ध्यानमें दुर्लभ है। वीरवर ! इस स्थानपर कुछ कालतक निवास लीन हो रहा है, जिनकी सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत्त हो चुकी कीजिये; क्योंकि आपको देवताओंका कार्य सिद्ध है और जिनकी बुद्धि स्थिर हो गयी है, ऐसे योगी पुरुष करना-देवशत्रुओंका वध करना है।' यह सुनकर अपरिमेय दिव्यभावसे सम्पन्न जिन भगवान् शिवका श्रीरामचन्द्रजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई, उन्होंने निरन्तर ध्यान करते रहते हैं, उन शरणदाता भगवान् लक्ष्मणसे कहा- 'सुमित्रानन्दन ! देवाधिदेव ब्रह्माजीने श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हैं। हमलोगोंपर अनुग्रह किया है। अतः मैं यहाँ आश्रम यश्चेन्दुखण्डममलं विलसन्मयूखं बनाकर एक मासतक रहना तथा शरीरकी शुद्धि
बद्ध्वा सदा प्रियतमां शिरसा बिभर्ति । करनेवाले उत्तम व्रतका आचरण करना चाहता हूँ।' यश्चार्द्धदेहमददाद् गिरिराजपुत्र्यै लक्ष्मणने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी बातका
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ अनुमोदन किया। तत्पश्चात् वहाँ अपना व्रत पूर्ण करके जो सुन्दर किरणोंसे युक्त निर्मल चन्द्रमाकी कलाको
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सृष्टिखण्ड ]
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मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामका पुष्करमें पिताका श्राद्ध करना •
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जटाजूटमें बाँधकर अपनी प्रियतमा गङ्गाजीको मस्तकपर धारण करते हैं, जिन्होंने गिरिराजकुमारी उमाको अपना आधा शरीर दे दिया है; उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। योऽयं सकृद्विमलचारुविलोलतोयां
गङ्गां महोर्मिविषमां गगनात् पतन्तीम् । मूर्ध्नाऽऽददे त्रजमिव प्रतिलोलपुष्पां
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ आकाशसे गिरती हुई गङ्गाको, जो स्वच्छ, सुन्दर एवं चञ्चल जलराशिसे युक्त तथा ऊँची-ऊँची लहरोंसे उल्लसित होनेके कारण भयङ्कर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलोंसे सुशोभित मालाकी भाँति सहसा अपने मस्तकपर धारण कर लिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। कैलासशैलशिखरं
प्रतिकम्प्यमानं
यः
कैलासशृङ्गसदृशेन पादपद्मपरिवादनमादधान
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ कैलास पर्वतके शिखरके समान ऊँचे शरीरवाले दशमुख रावणके द्वारा हिलायी जाती हुई कैलास गिरिकी चोटीको जिन्होंने अपने चरणकमलोंसे ताल देकर स्थिर कर दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ।
येनासकृद् दितिसुताः समरे निरस्ता
विद्याधरोरगगणाश्च वरैः समप्राः । संयोजिता मुनिवराः फलमूलभक्षा
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ जिन्होंने अनेकों बार दैत्योंको युद्धमें परास्त किया है और विद्याधर, नागगण तथा फल मूलका आहार करनेवाले सम्पूर्ण मुनिवरोंको उत्तम वर दिये हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। दग्ध्वाध्वरं च नयने च तथा भगस्य
पूष्णस्तथा दशनपङ्क्तिमपातयच्च । तस्तम्भ यः कुलिशयुक्तमहेन्द्रहस्तं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
दशाननेन ।
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जिन्होंने दक्षका यज्ञ भस्म करके भग देवताकी आँखें फोड़ डालीं और पूषाके सारे दाँत गिरा दिये तथा वज्रसहित देवराज इन्द्रके हाथको भी स्तम्भित कर दिया - जडवत् निश्चेष्ट बना दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। एनस्कृतोऽपि विषयेष्वपि सक्तभावा
ज्ञानान्वयश्रुतगुणैरपि नैव युक्ताः । यं संश्रिताः सुखभुजः पुरुषा भवन्ति
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ जो पापकर्ममें निरत और विषयासक्त हैं, जिनमें उत्तम ज्ञान, उत्तम कुल, उत्तम शास्त्र ज्ञान और उत्तम गुणोंका भी अभाव है - ऐसे पुरुष भी जिनकी शरण में जानेसे सुखी हो जाते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। अप्रिसूतिरविकोटिसमानतेजाः
संत्रासनं विबुधदानवसत्तमानाम् । यः कालकूटमपिबत् समुदीर्णवेगं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ जो तेजमें करोड़ों चन्द्रमाओं और सूर्यके समान हैं; जिन्होंने बड़े-बड़े देवताओं तथा दानवोंका भी दिल दहला देनेवाले कालकूट नामक भयङ्कर विषका पान कर लिया था, उन प्रचण्ड वेगशाली शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुतां च सषण्मुखानां
योऽदाद् वरांश्च बहुशो भगवान् महेशः । नन्दिं च मृत्युवदनात् पुनरुज्जहार
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ जिन भगवान् महेश्वरने कार्त्तिकेयके सहित ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र तथा मरुद्रणोंको अनेकों बार वर दिये हैं तथा नन्दीका मृत्युके मुखसे उद्धार किया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। आराधितः सुतपसा हिमवन्निकुञ्जे धूम्रव्रतेन मनसापि सञ्जीवनीं समददाद् भृगवे महात्मा
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
परैरगम्यः ।
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
................. जो दूसरोंके लिये मनसे भी अगम्य हैं, महर्षि भृगुने शवेन्दुकुन्दधवल वृषभप्रवीरहिमालय पर्वतके निकुञ्जमें होमका धुआँ पीकर कठोर
मारुह्य यः क्षितिधरेन्द्रसुतानुयातः । तपस्याके द्वारा जिनकी आराधना की थी तथा जिन यात्यम्बरे हिमविभूतिविभूषिताङ्गमहात्माने भृगुको [उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर]
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि । सञ्जीवनी विद्या प्रदान की, उन शरणदाता भगवान् जो अपने श्रीविग्रहको हिम और भस्मसे विभूषित श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ।
करके शङ्ख, चन्द्रमा और कुन्दके समान श्वेत वर्णवाले नानाविधैर्गजबिडालसमानवक्त्रै
वृषभ-श्रेष्ठ नन्दीपर सवार होकर गिरिराजकिशोरी उमाके दक्षाध्वरप्रमथनैलिभिर्गणौधैः । साथ आकाशमें विचरते हैं, उन शरणदाता भगवान् योऽभ्यतेऽमरगणैच सलोकपालै
श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ शान्तं मुनि यमनियोगपरायणं तैहाथी और बिल्ली आदिकी-सी मुखाकृतिवाले
भीमर्यमस्य पुरुयैः प्रतिनीयमानम्। तथा दक्ष-यज्ञका विनाश करनेवाले नाना प्रकारके भक्त्या नतं स्तुतिपरं प्रसभं ररक्ष महाबली गणोंद्वारा जिनकी निरन्तर पूजा होती रहती है . तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ तथा लोकपालोसहित देवगण भी जिनकी आराधना यमराजकी आज्ञाके पालनमें लगे रहनेपर भी जिन्हें किया करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं वे भयङ्कर यमदूत पकड़कर लिये जा रहे थे तथा जो शरण लेता हूँ।
भक्तिसे नम्र होकर स्तुति कर रहे थे, उन शान्त मुनिकी क्रीडार्थमेव भगवान् भुवनानि सप्त जिन्होंने बलपूर्वक यमदूतोंसे रक्षा की, उन शरणदाता
नानानदीविहगपादपमण्डितानि । भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। ___सब्रह्मकानि व्यसृजत् सुकृताहितानि । - यः सव्यपाणिकमलाग्रनखेन देव... तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
स्तत् पञ्चमं प्रसभमेव पुरः सुराणाम् । जिन भगवान्ने अपनी क्रीडाके लिये ही अनेकों ब्राह्यं शिरस्तरुणपद्मनिभं चकर्त नदियों, पक्षियों और वृक्षोंसे सुशोभित एवं ब्रह्माजीसे
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ अधिष्ठित सातों भुवनोंकी रचना की है तथा जिन्होंने जिन्होंने समस्त देवताओंके सामने ही ब्रह्माजीके उस सम्पूर्ण लोकोंको अपने पुण्यपर ही प्रतिष्ठित किया है, पाँचवें मस्तकको, जो नवीन कमलके समान शोभा पा रहा उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। था, अपने बायें हाथके नखसे बलपूर्वक काट डाला था, यस्याखिलं जगदिदं वशवर्ति नित्यं . उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ।
योऽष्टाभिरेव तनुभिर्भुवनानि भुङ्क्ते। यस्य प्रणम्य चरणौ वरदस्य भक्त्या यः कारणं सुमहतामपि कारणानां
स्तुत्वा च वाग्भिरमलाभिरतन्द्रिताभिः । तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ दीप्तैस्तमांसि नुदते स्वकरैर्विवस्वायह सम्पूर्ण विश्व सदा ही जिनकी आज्ञाके अधीन
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।। है, जो [जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, जिन वरदायक भगवान्के चरणोंमें भक्तिपूर्वक वायु और प्रकृति–इन] आठ विग्रहोंसे समस्त प्रणाम करके तथा आलस्यरहित निर्मल वाणीके द्वारा लोकोंका उपभोग करते हैं तथा जो बड़े-से-बड़े जिनकी स्तुति करके सूर्यदेव अपनी उद्दीप्त किरणोंसे कारण-तत्वोंके भी महाकारण हैं, उन शरणदाता भगवान् जगत्का अन्धकार दूर करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ।
श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ।
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सृष्टिखण्ड ]
ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन
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ये त्वां सुरोत्तम गुरुं पुरुषा विमूढा
जानन्ति नास्य जगतः सचराचरस्य । ऐश्वर्यमाननिगमानुशयेन पश्चा
ते यातनां त्वनुभवन्त्यविशुद्धचित्ताः ॥ देवश्रेष्ठ ! जो मलिनहृदय मूढ पुरुष ऐश्वर्य, मान प्रतिष्ठा तथा वेदविद्याके अभिमानके कारण आपको इस चराचर जगत्का गुरु नहीं जानते, वे मृत्युके पश्चात् नरककी यातना भोगते हैं।
पुलस्त्यजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर हाथमें त्रिशूल धारण करनेवाले वृषभध्वज भगवान् श्रीशङ्करने सन्तुष्ट हो हर्षमें भरकर कहा'रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो। मैं आपके ऊपर बहुत सन्तुष्ट हूँ। आपने विमल वंशमें अवतार लिया है। आप जगत्के वन्दनीय हैं। मानव शरीरमें प्रकट होनेपर भी वास्तवमें आप देवस्वरूप हैं। आप जैसे रक्षकके द्वारा सुरक्षित हो देवता अनन्त वर्षोंतक सुखी रहेंगे। चिरकालतक उनकी वृद्धि होती रहेगी। चौदहवाँ वर्ष
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यह सुनकर श्रीरघुनाथजी श्रीशङ्करजीको प्रणाम करके शीघ्र ही वहाँसे चल दिये। इन्द्रमार्गा नदीके पास पहुँचकर उन्होंने अपनी जटा बाँधी फिर सब लोग महानदी नर्मदाके तटपर गये। वहाँ श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मण और सीताके साथ स्नान किया तथा नर्मदाके जलसे देवताओं और अपने पितरोंका तर्पण किया। इसके बाद उन दोनों भाइयोंने एकाग्र मनसे भगवान् सूर्य तथा अन्यान्य देवताओंको बारम्बार मस्तक झुकाया । जैसे भगवान् श्रीशङ्कर पार्वती और कार्तिकेयके साथ स्नान करके शोभा पाते हैं, उसी प्रकार सीता और लक्ष्मणके साथ नर्मदामें नहाकर श्रीरामचन्द्रजी भी सुशोभित हुए। —★—
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! लोकविधाता भगवान् ब्रह्माजीने किस समय यज्ञसम्बन्धी सामग्रियाँ एकत्रित करके उनसे यज्ञ करना आरम्भ किया? वह यज्ञ जैसा और जिस प्रकार हुआ था, वह सब मुझे बताइये ।
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पुलस्त्यजीने कहा- राजन् ! यह तो मैं पहले ही बता चुका हूँ कि जब स्वायम्भुव मनु भूलोकके राज्य - सिंहासनपर प्रतिष्ठित हुए, उस समय ब्रह्माजीने समस्त प्रजापतियोंको उत्पन्न करके कहा- 'तुमलोग सृष्टि करो, और स्वयं वे पुष्करमें जा यज्ञ-सामग्री एकत्रित करके अग्निशालामें स्थित हो यज्ञ करने लगे ब्रह्माजी समस्त देवताओं, गन्धर्वो तथा अप्सराओंको भी वहाँ ले गये थे। ब्रह्मा, उद्गाता, होता और अध्वर्यु — ये चार प्रधानरूपसे यज्ञके निर्वाहक होते हैं। इनमेंसे
बीतनेपर जब आप अयोध्याको लौट जायेंगे, उस समय इस पृथ्वीपर रहनेवाले जो-जो मनुष्य आपका दर्शन करेंगे, वे सभी सुखी होंगे। तथा उन्हें अक्षय स्वर्गका निवास प्राप्त होगा। अतः आप देवताओंका महान् कार्य करके पुनः अयोध्यापुरीको लौट जाइये।
ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
प्रत्येकके साथ अन्य तीन व्यक्ति परिवाररूपमें रहते हैं, जिन्हें ये स्वयं ही निर्वाचित करते हैं। ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, पोता तथा आग्नीध – इन चार व्यक्तियोंका एक समुदाय होता है। इन सबको ब्रह्माका परिवार कहते हैं। ये चारों व्यक्ति आन्वीक्षिकी (तर्क शास्त्र) तथा वेदविद्यामें प्रवीण होते हैं। उद्वाता, प्रत्युद्वाता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य – इन चार व्यक्तियोंका दूसरा समुदाय उद्गाताका परिवार कहलाता है। होता, मैत्रावरुणि, अच्छावाक और ग्रावस्तुत- इन चार व्यक्तियोंका तीसरा समुदाय उद्गाताका परिवार होता है। अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा और उन्नेता- इन चारोंका चौथा समुदाय अध्वर्युका परिवार माना गया है। शन्तनुनन्दन ! वेदके प्रधान प्रधान विद्वानोंने ये सोलह ऋत्विज् बताये हैं स्वयम्भू ब्रह्माजीने तीन सौ छाछठ
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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
यज्ञोंकी सृष्टि की है। उन सबमें इतने ही ब्राह्मण ऋत्विज् जितना हो सके दान देना चाहिये।
ब्रह्माजीके यज्ञमें देवर्षि नारदको ब्रह्मा बनाया गया। गौतम ब्राह्मणाच्छंसी हुए। देवरातको पोता और देवलको आग्नीधके पदपर प्रतिष्ठित किया गया। अङ्गिराका उद्गाताके रूपमें वरण हुआ। पुलह प्रस्तोता बनाये गये। नारायण ऋषि प्रतिहर्ता हुए और अत्रि सुब्रह्मण्य कहलाये। उस यज्ञमें भृगु होता, वसिष्ठ मैत्रावरुणि, क्रतु अच्छावाक तथा च्यवन ग्रावस्तुत बनाये गये। मैं ( पुलस्त्य) अध्वर्यु था और शिबि प्रतिष्ठाता। बृहस्पति नेष्टा, सांशपायन उन्नेता और अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ धर्म सदस्य थे। भरद्वाज, शमीक, पुरुकुत्स्य, युगन्धर, एणक, ताण्डिक, कोण, कुतप, गार्ग्य और वेदशिरा - ये दस चमसाध्वर्यु बनाये गये। कण्व आदि अन्य महर्षि तथा मार्कण्डेय और अगस्त्य मुनि अपने पुत्र, पौत्र, शिष्य तथा बान्धवोंके साथ उपस्थित होकर रात-दिन आलस्य छोड़कर उस यज्ञमें आवश्यक कार्य किया करते थे। मन्वन्तर व्यतीत होनेपर उस यज्ञका अवभृथ (यज्ञान्त-स्नान) हुआ। उस समय ब्रह्माको पूर्व दिशा, होताको दक्षिण दिशा, अध्वर्युको पश्चिम दिशा और उद्वाताको उत्तर दिशा दक्षिणाके रूपमें दी गयी ब्रह्माजीने समूची त्रिलोकी ऋत्विजोंको दक्षिणाके रूपमें दे दी। बुद्धिमान् पुरुषोंको यज्ञकी सिद्धिके लिये एक सौ दूध देनेवाली गौएँ दान करनी चाहिये। उनमेंसे यज्ञका निर्वाह करनेवाले प्रथम समुदायके ऋत्विजोंको अड़तालीस, द्वितीय समुदायवालोंको चौबीस, तृतीय समुदायको सोलह और चतुर्थ समुदायको बारह गौएँ देनी उचित हैं। इस प्रकार आग्नीध आदिको दक्षिणा देनी चाहिये। इसी संख्यामें गाँव, दास-दासी तथा भेड़ बकरियाँ भी देनी चाहिये। अवभृथ स्नानके बाद ब्राह्मणोंको षट्स भोजन देना चाहिये। स्वायम्भुव मनुका कथन है कि यजमान यज्ञके अन्तमें अपना सर्वस्व दान कर दे। अध्वर्यु और सदस्योंको अपनी इच्छाके अनुसार
बतलाये गये हैं। कोई-कोई ऊपर बताये हुए ऋत्विजोंके तदनन्तर देवाधिदेव ब्रह्माजीने भगवान् श्रीविष्णुके अतिरिक्त एक सदस्य और दस चमसाध्वर्युओंका साथ यज्ञान्त-स्नानके पश्चात् सब देवताओंको वरदान निर्वाचन चाहते हैं। दिये। उन्होंने इन्द्रको देवताओंका सूर्यको ग्रहोंसहित समस्त ज्योतिर्मण्डलका, चन्द्रमाको नक्षत्रोंका, वरुणको रसोंका, दक्षको प्रजापतियोंका, समुद्रको नदियोंका, धनाध्यक्ष कुबेरको यक्ष और राक्षसोंका, पिनाकधारी महादेवजीको सम्पूर्ण भूतगणोंका, मनुको मनुष्योंका, गरुड़को पक्षियोंका तथा वसिष्ठको ऋषियोंका स्वामी बनाया। इस प्रकार अनेकों वरदान देकर देवाधिदेव ब्रह्माजीने भगवान् विष्णु और शङ्करसे आदरपूर्वक कहा- आप दोनों पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें परम पूजनीय होंगे। आपके बिना कभी कोई भी तीर्थ पवित्र नहीं होगा। जहाँ कहीं शिवलिङ्ग या विष्णुकी प्रतिमाका दर्शन होगा, वही तीर्थ परम पवित्र और श्रेष्ठ फल देनेवाला हो सकता है। जो लोग पुष्प आदि वस्तुओंकी भेंट चढ़ाकर आपलोगोंकी तथा मेरी पूजा करेंगे, उन्हें कभी रोगका भय नहीं होगा। जिन राज्योंमें मेरा तथा आपलोगोंका पूजन आदि होगा, वहाँ भी क्रियाएँ सफल होंगी तथा और भी जिन-जिन फलोंकी प्राप्ति होगी, उन्हें सुनिये । वहाँकी प्रजाको कभी मानसिक चिन्ता, शारीरिक रोग, दैवी उपद्रव और क्षुधा आदिका भय नहीं होगा। प्रियजनोंसे वियोग और अप्रिय मनुष्योंसे संयोगकी भी सम्भावना नहीं होगी।' यह सुनकर भगवान् श्रीविष्णु ब्रह्माजीकी स्तुति करनेको उद्यत हुए।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- जिनका कभी अन्त नहीं होता, जो विशुद्धचित्त और आत्मस्वरूप हैं, जिनके हजारों भुजाएँ हैं, जो सहस्त्र किरणोंवाले सूर्यकी भी उत्पत्तिके कारण हैं, जिनका शरीर और कर्म दोनों अत्यन्त शुद्ध हैं, उन सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको नमस्कार है। जो समस्त विश्वकी पीड़ा हरनेवाले, कल्याणकारी, सहस्रों सूर्य और अग्निके समान प्रचण्ड तेजस्वी, सम्पूर्ण विद्याओंके आश्रय, चक्रधारी तथा समस्त ज्ञानेन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन परमेश्वरको सदा नमस्कार है। प्रभो! आप अनादि देव हैं। अपनी महिमासे कभी च्युत
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सृष्टिखण्ड]
• ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन •
नहीं होते। इसलिये 'अच्युत' हैं। आप शङ्कररूपसे है। अद्भुत रूप धारण करनेवाले परमेश्वर ! देवता आदि शेषनागका मुकुट धारण करते हैं, इसलिये 'शेषशेखर' भी आपके उस परम स्वरूपको नहीं जानते; अतः वे भी हैं। महेश्वर ! आप ही भूत और वर्तमानके स्वामी है। कमलासनपर विराजमान उस पुरातन विग्रहकी ही सर्वेश्वर ! आप मरुद्रणोंके, जगत्के, पृथ्वीके तथा आराधना करते हैं, जो अवतार धारण करनेसे उग्र प्रतीत समस्त भुवनोंके पति हैं। आपको सदा प्रणाम है। आप होता है। आप विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियोंके ही जलके स्वामी वरुण, क्षीरशायी नारायण, विष्णु, भी उत्पत्ति-स्थान हैं। विशुद्ध भाववाले योगीजन भी शङ्कर, पृथ्वीके स्वामी, विश्वका शासन करनेवाले, आपके तत्त्वको पूर्णरूपसे नहीं जानते। आप तपस्यासे जगत्को नेत्र देनेवाले [अथवा जगत्को अपनी दृष्टिमें विशुद्ध आदिपुरुष हैं। पुराणमें यह बात बारम्बार कही रखनेवाले], चन्द्रमा, सूर्य, अच्युत, वीर, विश्वस्वरूप, गयी है कि कमलासन ब्रह्माजी ही सबके पिता हैं, तर्कके अविषय, अमृतस्वरूप और अविनाशी हैं। उन्हींसे सबकी उत्पत्ति हुई है। इसी रूपमें आपका प्रभो! आपने अपने तेजःस्वरूप प्रज्वलित अग्निको चिन्तन भी किया जाता है। आपके उसी स्वरूपको मूढ़ ज्वालासे समस्त भुवनमण्डलको व्याप्त कर रखा है। मनुष्य अपनी बुद्धि लगाकर जानना चाहते हैं। वास्तवमें आप हमारी रक्षा करें। आपके मुख सब ओर है। आप उनके भीतर बुद्धि है ही नहीं। अनेको जन्मोंको साधनासे समस्त देवताओंकी पीड़ा हरनेवाले हैं। अमृत-स्वरूप वेदका ज्ञान, विवेकशील बुद्धि अथवा प्रकाश (ज्ञान) और अविनाशी है। मैं आपके अनेकों मुख देख रहा हूँ। प्राप्त होता है। जो उस ज्ञानकी प्राप्तिका लोभी है, वह आप शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषोंकी परमगति और फिर मनुष्य-योनिमें नहीं जन्म लेता; वह तो देवता और पुराणपुरुष हैं। आप ही ब्रह्मा, शिव तथा जगत्के गन्धर्वोका स्वामी अथवा कल्याणस्वरूप हो जाता है। जन्मदाता हैं। आप ही सबके परदादा हैं। आपको भक्तोंके लिये आप अत्यन्त सुलभ हैं; जो आपका त्याग नमस्कार है। आदिदेव ! संसारचक्रमें अनेकों बार चक्कर कर देते है-आपसे विमुख होते हैं, वे नरकमें पड़ते लगानेके बाद उत्तम मार्गके अवलम्बन और विज्ञानके हैं। प्रभो! आपके रहते इन सूर्य, चन्द्रमा, वसु, मरुद्गण द्वारा जिन्होंने अपने शरीरको विशुद्ध बना लिया है, और पृथ्वी आदिकी क्या आवश्यकता है; आपने ही उन्हींको कभी आपकी उपासनाका सौभाग्य प्राप्त होता अपने स्वरूपभूत तत्त्वोंसे इन सबका रूप धारण किया है। देववर ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। भगवन् ! जो है। आपके आत्माका ही प्रभाव सर्वत्र विस्तृत है; आपको प्रकृतिसे परे, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप समझता है, भगवन् ! आप अनन्त है-आपकी महिमाका अन्त वही सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है। गुणमय पदार्थोंमें आप नहीं है। आप मेरी की हुई यह स्तुति स्वीकार करें। मैंने विराट्प से पहचाने जा सकते हैं तथा अन्तःकरणमें हृदयको शुद्ध करके, समाहित हो, आपके स्वरूपके [बुद्धिके द्वारा] आपका सूक्ष्मरूपसे बोध होता है। चिन्तनमें मनको लगाकर यह स्तवन किया है। प्रभो ! भगवन् ! आप जिह्वा, हाथ, पैर आदि इन्द्रियोंसे रहित आप सदा मेरे हृदयमें विराजमान रहते हैं, आपको होनेपर भी पद्म धारण करते हैं। गति और कर्मसे रहित नमस्कार है। आपका स्वरूप सबके लिये सुगमहोनेपर भी संसारी हैं। देव ! इन्द्रियोंसे शून्य होनेपर भी सुबोध नहीं है; क्योंकि आप सबसे पृथक्-सबसे आप सृष्टि कैसे करते हैं? भगवन् ! विशुद्ध भाववाले परे हैं। याज्ञिक पुरुष संसार-बन्धनका उच्छेद करनेवाले ब्रह्माजी बोले-केशव ! इसमें सन्देह नहीं कि यज्ञोंद्वारा आपका यजन करते हैं, परन्तु उन्हें स्थूल आप सर्वज्ञ और ज्ञानकी राशि हैं । देवताओंमें आप सदा साधनसे सूक्ष्म परात्पर रूपका ज्ञान नहीं होता; अतः सबसे पहले पूजे जाते हैं। उनकी दृष्टि में आपका यह चतुर्मुख स्वरूप ही रह जाता भगवान् श्रीविष्णुके बाद रुद्रने भी भक्तिसे
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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नतमस्तक होकर ब्रह्माजीका इस प्रकार स्तवन किया- 'कमलके समान नेत्रोंवाले देवेश्वर ! आपको नमस्कार है। आप संसारकी उत्पत्तिके कारण हैं और स्वयं कमलसे प्रकट हुए हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो ! आप देवता और असुरोंके भी पूर्वज हैं, आपको प्रणाम है । संसारकी सृष्टि करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर! आपको प्रणाम है। सबका मोह दूर करनेवाले जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप विष्णुकी नाभिसे प्रकट हुए हैं, कमलके आसनपर आपका आविर्भाव हुआ है। आप मूँगेके समान लाल अङ्गों तथा कर पल्लवोंसे शोभायमान हैं, आपको नमस्कार है।
'नाथ! आप किन-किन तीर्थस्थानोंमें विराजमान है तथा इस पृथ्वीपर आपके स्थान किस-किस नामसे प्रसिद्ध हैं ?'
ब्रह्माजीने कहा- पुष्करमें मैं देवश्रेष्ठ ब्रह्माजीके नामसे प्रसिद्ध हूँ। गयामें मेरा नाम चतुर्मुख है। कान्यकुब्जमें देवगर्भ [ या वेदगर्भ] और भृगुकक्ष (भृगुक्षेत्र) में पितामह कहलाता हूँ। कावेरीके तटपर सृष्टिकर्ता, नन्दीपुरीमें बृहस्पति, प्रभासमें पद्मजन्मा, वानरी (किष्किन्धा) में सुरप्रिय, द्वारकामें ऋग्वेद, विदिशापुरीमें भुवनाधिप, पौण्ड्रकमें पुण्डरीकाक्ष, हस्तिनापुरमें पिङ्गाक्ष, जयन्तीमें विजय, पुष्करावतमें जयन्त, उप्रदेशमें पद्महस्त, श्यामलापुरीमें भवोरुद, अहिच्छत्रमें जयानन्द, कान्तिपुरीमें जनप्रिय, पाटलिपुत्र (पटना) में ब्रह्मा, ऋषिकुण्डमें मुनि, महिलारोप्यमें कुमुद, श्रीनिवासमें श्रीकंठ, कामरूप (आसाम) में शुभाकार, काशीमें शिवप्रिय, मल्लिकामें विष्णु, महेन्द्र पर्वतपर भार्गव, गोनर्द देशमें स्थविराकार, उज्जैनमें पितामह, कौशाम्बी में महाबोध, अयोध्यामें राघव, चित्रकूटमें मुनीन्द्र, विन्ध्यपर्वतपर वाराह गङ्गाद्वार (हरिद्वार) में परमेष्ठी, हिमालयमें शङ्कर, देविकामें स्रुचाहस्त, चतुष्पथमें स्रुवहस्त, वृन्दावनमें पद्मपाणि, नैमिषारण्यमें कुशहस्त, गोप्लक्षमें गोपीन्द्र, यमुनातटपर सुचन्द्र, भागीरथीके तटपर पद्मतनु, जनस्थानमें जनानन्द,
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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कोङ्कण देशमें मद्राक्ष, काम्पिल्यमें कनकप्रिय, खेटकमें अन्नदाता, कुशस्थलमें शम्भु, लङ्कामें पुलस्त्य, काश्मीरमें हंसवाहन, अर्बुद (आबू) में वसिष्ठ, उत्पलावतमें नारद, मेघकमें श्रुतिदाता, प्रयागमें यजुषांपति, यज्ञपर्वतपर सामवेद, मधुरमें मधुरप्रिय, अङ्कोलकमें यज्ञगर्भ, ब्रह्मवाहमें सुतप्रिय, गोमन्तमें नारायण, विदर्भ (बरार) में द्विजप्रिय, ऋषिवेदमें दुराधर्ष, पम्पापुरीमें सुरमर्दन, विरजामें महारूप, राष्ट्रवर्द्धनमें सुरूप, मालवीमें पृथूदर, शाकम्भरीमें रसप्रिय, पिण्डारक क्षेत्रमें गोपाल, भोगवर्द्धनमें शुष्कन्ध, कादम्बकमें प्रजाध्यक्ष, समस्थलमें देवाध्यक्ष, भद्रपीठमें गङ्गाधर, सुपीठमें जलमाली, त्र्यम्बकमें त्रिपुराधीश, श्रीपर्वतपर त्रिलोचन, पद्मपुरमें महादेव, कलापमें वैधस, शृङ्गवेरपुरमें शौरि, नैमिषारण्यमें चक्रपाणि, दण्डपुरीमें विरूपाक्ष, धूतपातकमें गोतम, माल्यवान् पर्वतपर हंसनाथ, वालिकमें द्विजेन्द्र, इन्द्रपुरी (अमरावती) में देवनाथ, धूताषाढीमें धुरन्धर, लम्बामें हंसवाह, चण्डामें गरुडप्रिय, महोदयमें महायज्ञ, यूपकेतनमें सुयज्ञ पद्मवनमें सिद्धेश्वर, विभामें पद्मबोधन, देवदारुवनमें लिङ्ग, उदक्पथमें उमापति, मातृस्थानमें विनायक, अलकापुरीमें धनाधिप, त्रिकूटमें गोनर्द, पातालमें वासुकि, केदार क्षेत्रमें पद्माध्यक्ष, कूष्माण्डमें सुरतप्रिय, भूतवापीमें शुभाङ्ग, सावलीमें भषक, अक्षरमें पापहा, अम्बिकामें सुदर्शन, वरदामें महावीर, कान्तारमें दुर्गनाशन, पर्णादमें अनन्त, प्रकाशामें दिवाकर, विरजामें पद्मनाभ, वृकस्थलमें सुवृद्ध, वठकमें मार्कण्ड, रोहिणीमें नागकेतन, पद्मावतीमें पद्मागृह तथा गगनमें पद्मकेतन नामसे मैं प्रसिद्ध हूँ। त्रिपुरान्तक। ये एक सौ आठ स्थान मैंने तुम्हें बताये हैं। इन स्थानोंमें तीनों सन्ध्याओंके समय मैं उपस्थित रहता हूँ। जो भक्तिमान् पुरुष इन स्थानोंमेंसे एकका भी दर्शन कर लेता है, वह परलोकमें निर्मल स्थान पाकर अनन्त वर्षोंतक आनन्दका अनुभव करता है उसके मन, वाणी और शरीरके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं- इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। और जो इन सभी तीर्थोकी यात्रा
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सृष्टिखण्ड ]
• ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन .
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करके मेरा दर्शन करता है, वह मोक्षका अधिकारी होकर पड़ती। एकान्त और सुरक्षित गृहमें ही पितरोंके श्राद्धका मेरे लोकमें निवास करता है। जो पुष्प, नैवेद्य एवं धूप विधान है; क्योंकि बाहर नीच पुरुषोंकी दृष्टि से दूषित हो चढ़ाता और ब्राह्मणोंको [भोजनादिसे] तृप्त करता है, जानेपर यह पितरोंको नहीं पहुँचता। आत्मकल्याणकी साथ ही जो स्थिरतापूर्वक ध्यान लगाता है, वह शीघ्र ही इच्छा रखनेवाले पुरुषको गुप्तरूपसे ही पिण्डदान करना परमेश्वरको प्राप्त कर लेता है। उसे पुण्यका श्रेष्ठ फल चाहिये। यदि श्राद्धमें दिया जानेवाला पक्कान्न साधारण तथा अन्तमें मोक्ष प्राप्त होता है। जो इन तीर्थोकी यात्रा मनुष्य देख लेते हैं, तो उससे कभी पितरोंकी तृप्ति नहीं करता या कराता है अथवा जो इस प्रसङ्गको सुनता है, होती। मनुजीका कथन है कि तीर्थोंमें श्राद्धके लिये वह भी समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है। शङ्कर ! ब्राह्मणकी परीक्षा नहीं करनी चाहिये। जो भी अनकी इस विषयमें अधिक क्या कहा जाय-इन तीर्थोकी यात्रा इच्छासे अपने पास आ जाय, उसे भोजन करा देना करनेसे अप्राप्य वस्तुकी प्राप्ति होती है और सारा पाप नष्ट चाहिये।'* श्राद्धके योग्य समय हो या न हो-तीर्थ में हो जाता है। जिन्होंने पुष्कर तीर्थमें अपनी पत्नीके दिये हुए पहुंचते ही मनुष्यको सर्वदा सान, तर्पण और श्राद्ध पुष्करके जलसे सन्ध्या करके गायत्रीका जप किया है, करना चाहिये। पिण्डदान करना तो बहुत ही उत्तम है, उन्होंने मानो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर लिया। वह पितरोंको अधिक प्रिय है। जब अपने वंशका कोई
पुष्कर तीर्थके पवित्र जलको झारी अथवा मिट्टीके व्यक्ति तीर्थमें जाता है तब पितर बड़ी आशासे उसकी करवेमें ले आकर सायंकालमें एकाग्र मनसे प्राणायाम- ओर देखते हैं, उससे जल पानेकी अभिलाषा रखते हैं; पूर्वक सन्ध्योपासन करना चाहिये। शङ्कर ! इस प्रकार अतः इस कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिये । और यदि सन्ध्या करनेका जो फल है, उसका अब श्रवण करो। दूसरा कोई इस कार्यको करना चाहता हो तो उसमें विघ्न उस पुरुषको एक ही दिनकी सन्ध्यासे बारह वर्षों तक नहीं डालना चाहिये। सत्ययुगमें पुष्करका, त्रेतामें सन्ध्योपासन करनेका फल मिल जाता है। पुष्करमें स्रान नैमिषारण्यका, द्वापरमें कुरुक्षेत्र तथा कलियुगमें करनेपर अश्वमेध यज्ञका फल होता है, दान करनेसे गङ्गाजीका आश्रय लेना चाहिये। अन्यत्रका किया हुआ उसके दसगुने और उपवास करनेसे अनन्तगुने फलकी पाप तीर्थमें जानेपर कम हो जाता है; किन्तु तीर्थका किया प्राप्ति होती है। यह बात मैंने स्वयं [भलीभाँति हुआ पाप अन्यत्र कहीं नहीं छूटता। जो सबेरे और सोच-विचारकर] कही है। तीर्थसे अपने डेरेपर आकर शामको हाथ जोड़कर पुष्कर तीर्थका स्मरण करता है, शास्त्रीय विधिके अनुसार पिण्डदानपूर्वक पितरोंका श्राद्ध उसे समस्त तीर्थोमें आचमन करनेका फल प्राप्त हो जाता करना चाहिये। ऐसा करनेसे उसके पितर ब्रह्माके एक है। जो पुष्करमें इन्द्रिय-संयमपूर्वक रहकर प्रातःकाल दिन (एक कल्प) तक तृप्त रहते हैं। शिवजी ! अपने और सन्ध्याके समय आचमन करता है, उसे सम्पूर्ण डेरेमें आकर पिण्डदान करनेवालोंको तीर्थकी अपेक्षा यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। तथा वह ब्रह्मलोकको जाता अठगुना अधिक पुण्य होता है; क्योंकि वहाँ द्विजातियो- है। जो बारह वर्ष, बारह दिन, एक मास अथवा पक्षभर द्वारा दिये जाते हुए पिण्डदानपर नीच पुरुषोंकी दृष्टि नहीं भी पुष्करमें निवास करता है, वह परम गतिको प्राप्त
• तीर्थेषु ब्राह्मणं नैव परीक्षेत कथंचन । अन्नार्थिनमनुप्राप्त भोज्यं तु मनुरब्रवीत् ।।
(२९ । २१२)
कृते युगे पुष्कराणि त्रेतायां नैमिषं स्मृतम् । द्वापरे च कुरुक्षेत्रं कलौ गङ्गा समाश्रयेत्॥
यदन्यत्रकृतं पापं तीथे तद्याति लापवम्।न तीर्थकृतमन्यत्र कचित् पाप व्यपोहति ॥
(२९-२२८)
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
करता है। इस पृथ्वीपर करोड़ों तीर्थ हैं। वे सब पर्यन्त वर्तमान जीवनके जितने भी पाप हैं, उन सबको तीनों सन्ध्याओंके समय पुष्करमें उपस्थित रहते हैं। पुष्करमें एक बार स्नान करके मनुष्य भस्म कर पिछले हजारों जन्मोंके तथा जन्मसे लेकर मृत्यु- डालता है।
श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हए ब्राह्मण-बालकको जीवनकी प्राप्ति
पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! पूर्वकालमें स्वयं तदनन्तर पुरोहित वसिष्ठजीने पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय भगवान्ने जब रघुवंशमें अवतार लिया था तब वहाँ वे निवेदन करके उनका आतिथ्य-सत्कार किया। तत्पश्चात् श्रीराम-नामसे विख्यात हुए। तब उन्होंने लङ्कामें जाकर श्रीरामचन्द्रजीने जब उनसे कुशल-समाचार पूछा, तब वे रावणको मारा और देवताओंका कार्य किया था। इसके वेदवेत्ता महर्षि [महर्षि अगस्त्यको आगे करके] इस बाद जब वे वनसे लौटकर पृथ्वीके राज्यसिंहासनपर प्रकार बोले- 'महाबाहो! आपके प्रतापसे सर्वत्र स्थित हुए, उस समय उनके दरबारमें [अगस्त्य आदि] कुशल है। रघुनन्दन ! बड़े सौभाग्यकी बात है कि बहुत-से महात्मा ऋषि उपस्थित हुए। महर्षि शत्रुदलका संहार करके लौटे हुए आपको हमलोग अगस्त्यजीकी आज्ञासे द्वारपालने तुरंत जाकर महाराजको सकुशल देख रहे हैं। कुलघाती, पापी एवं दुरात्मा ऋषियोंके आगमनकी सूचना दी। सूर्यके समान तेजस्वी रावणने आपकी पत्नीको हर लिया था। वह उन्हीके तेजसे महर्षियोंको द्वारपर आया जान श्रीरामचन्द्रजीने द्वारपालसे मारा गया। आपने उसे युद्ध में मार डाला। रघुसिंह ! कहा-'तुम शीघ्र ही उन्हें भीतर ले आओ। आपने जैसा कर्म किया है, वैसा कर्म करनेवाला इस
श्रीरामकी आज्ञासे द्वारपालने उन मुनियोंको सुख- संसारमें दूसरा कोई नहीं है । राजेन्द्र ! हम सब लोग यहाँ पूर्वक महलके भीतर पहुँचा दिया। उन्हें आया देख आपसे वार्तालाप करनेके लिये आये हैं। इस समय रघुनाथजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये और उनके चरणों में आपका दर्शन करके हम पवित्र हो गये। आपके दर्शनसे प्रणाम करके उन्होंने उन सबको आसनोंपर बिठाया। हम वास्तवमें आज तपस्वी हुए हैं। आपने सबसे शत्रुता
रखनेवाले रावणका वध करके हमारे आँसू पोंछे हैं और सब लोगोंको अभयदान दिया है। काकुत्स्थ ! आपके पराक्रमकी कोई थाह नहीं है। आपकी विजयसे वृद्धि हो रही है, यह बड़े आनन्दकी बात है। हमने आपका दर्शन
और आपके साथ सम्भाषण कर लिया, अब हमलोग अपने-अपने आश्रमको जायेंगे। रघुनन्दन ! आप भविष्यमें कभी हमारे आश्रमपर भी आइयेगा।'
पुलस्त्यजी कहते हैं-भीष्प ! ऐसा कहकर वे मुनि उसी समय अन्तर्धान हो गये। उनके चले जानेपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने सोचा-"अहो! मुनि अगस्त्यने मेरे सामने जो यह प्रस्ताव रखा है कि 'रघुनन्दन ! फिर कभी मेरे आश्रमपर भी आना' तब अवश्य ही मुझे महर्षि अगस्त्यके यहाँ जाना चाहिये और देवताओंकी कोई गुप्त बात हो तो उसे सुनना चाहिये। अथवा यदि वे कोई दूसरा काम बताये तो उसे भी करना
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सृष्टिखण्ड ] . श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मणवालकको जीवनकी प्राप्ति . ११५ mmmmmmmm..mernamentertainment.m.me.net.me.me...... .. चाहिये।" ऐसा विचारकर महात्मा रघुनाथजी पुनः पहले सत्ययुगमें सब ओर ब्राह्मणोंकी ही प्रधानता थी। प्रजा-पालनमें लग गये। एक दिन एक बूढ़ा ब्राह्मण, जो कोई ब्राह्मणेतर पुरुष तपस्वी नहीं होता था। उस समय उसी प्रान्तका रहनेवाला था, अपने मरे हुए पुत्रको लेकर सभी अकालमृत्युसे रहित और चिरजीवी होते थे। फिर राजद्वारपर आया और इस प्रकार कहने लगा-'बेटा! त्रेतायुग आनेपर ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनोंकी प्रधानता हो मैंने पूर्वजन्ममें ऐसा कौन-सा पाप किया है, जिससे तुझ जाती है-दोनों ही तपमें प्रवृत्त होते हैं। द्वापरमें वैश्योंमें इकलौते पुत्रको आज मैं मौतके मुखमें पड़ा देख रहा हूँ। भी तपस्याका प्रचार हो जाता है। यह तीनों युगोंके निश्चय ही यह महाराज श्रीरामका ही दोष है, जिसके धर्मकी विशेषता है। इन तीनों युगोंमें शूद्रजातिका मनुष्य कारण तेरी मृत्यु [इतनी जल्दी] आ गयी। रघुनन्दन ! तपस्या नहीं कर सकता, केवल कलियुगमें शूद्रजातिको अब मैं भी स्त्रीसहित प्राण त्याग दूंगा। फिर आपको भी तपस्याका अधिकार होगा। राजन् ! इस समय बालहत्या, ब्रह्महत्या और स्त्रीहत्या- तीन पाप लगेंगे। आपके राज्यकी सीमापर एक खोटी बुद्धिवाला शूद्र
रघुनाथजीने उस ब्राह्मणकी दुःख और शोकसे भरी अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है। उसीके शास्त्रविरुद्ध सारी बात सुनी। फिर उसे चुप कराकर महर्षि आचरणके प्रभावसे इस बालककी मृत्यु हुई है। राजाके वसिष्ठजीसे पूछा-'गुरुदेव ! ऐसी अवस्थामें इस राज्य या नगरमें जो कोई भी अधर्म अथवा अनुचित अवसरपर मुझे क्या करना चाहिये? इस ब्राह्मणकी कही कर्म करता है, उसके पापका चतुर्थांश राजाके हिस्सेमें हुई बात सुनकर मैं किस प्रकार अपने दोषका मार्जन आता है। अतः पुरुषश्रेष्ठ ! आप अपने राज्यमें घूमिये करूँ-कैसे इस बालकको जीवन-दान हूँ?' [इतने में और जहाँ कहीं भी पाप होता दिखायी दे, उसे रोकनेका ही देवर्षि नारद वहाँ आ पहुंचे। वे वसिष्ठके सामने प्रयत्न कीजिये। ऐसा करनेसे आपके धर्म, बल और खड़े हो अन्य ऋषियोंके समीप महाराज श्रीरामसे आयुकी वृद्धि होगी। साथ ही यह बालक भी जी उठेगा।
नारदजीके इस कथनपर श्रीरघुनाथजीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अत्यन्त हर्षमें भरकर लक्ष्मणसे बोले-'सौम्य ! जाकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मणको सान्त्वना दो
और उस बालकके शरीरको तेलसे भरी नावमें रखवा दो। जिस प्रकार भी उस निरपराध बालकके शरीरकी रक्षा हो सके, वह उपाय करना चाहिये।' उत्तम लक्षणोंसे युक्त सुमित्राकुमार लक्ष्मणको इस प्रकार आदेश देकर भगवान् श्रीरामने पुष्पक विमानका स्मरण किया। रघुनाथजीका
अभिप्राय जानकर इच्छानुसार चलनेवाला वह स्वर्णभूषित विमान एक ही मुहूर्तमें उनके समीप आ पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला- 'महाराज ! आपका आज्ञाकारी यह दास सेवामें उपस्थित है।' पुष्पककी सुन्दर उक्ति सुनकर महाराज श्रीराम महर्षि वसिष्ठको प्रणाम करके विमानपर आरूढ़ हुए और धनुष, भाथा एवं चमचमाता हुआ खड़
लेकर तथा लक्ष्मण और भरतको नगरका भार सौंप बोले-'रघुनन्दन ! इस बालककी जिस प्रकार दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। [दण्डकारण्यके पास अकालमृत्यु हुई है, उसका कारण बताता हूँ सुनिये। पहुँचनेपर] एक पर्वतके दक्षिण किनारे बहुत बड़ा तालाब मंन्तपु.५
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• अर्चयस्य तुषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
दिखायी दिया। रघुनाथजीने देखा उस सरोवरके तटपर एक तपस्वी नीचा मुँह किये लटक रहा है और बड़ी कठोर तपस्या कर रहा है। भगवान् श्रीराम उस तपस्वीके पास जाकर बोले- 'तापस! मैं दशरथका पुत्र राम हूँ और कौतूहलवश तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ। मैं यह जानना चाहता हूँ, तुम किसलिये तपस्या करते हो, ठीक-ठीक बताओ तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय ? तीसरे वर्णमें उत्पन्न वैश्य हो या शूद्र ? तपस्या सत्यस्वरूप और नित्य है। उसका उद्देश्य है-स्वर्गादि उत्तम लोकोंकी प्राप्ति । तप सात्त्विक, राजस और तामस तीन प्रकारका होता है। ब्रह्माजीने जगत्के उपकारके लिये तपस्याकी सृष्टि की है। [अतः परोपकारके उद्देश्यसे किया हुआ तप 'सात्त्विक' होता है; ] क्षत्रियोचित तेजकी प्राप्तिके लिये किया जानेवाला भयङ्कर तप 'राजस' कहलाता है तथा जो दूसरोंका नाश करनेके लिये [ अपने शरीरको अस्वाभाविक रूपसे कष्ट देते हुए तपस्या की जाती है, वह 'आसुर' (तामस) कही गयी है। तुम्हारा भाव आसुर जान पड़ता है; तथा मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम द्विज नहीं हो।'
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरघुनाथजीके उपर्युक्त वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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शूद्र उसी अवस्थामें बोला- 'नृपश्रेष्ठ ! आपका स्वागत है। रघुनन्दन। चिरकालके बाद मुझे आपका दर्शन हुआ है। मैं आपके पुत्रके समान हूँ, आप मेरे लिये पिताके तुल्य हैं। क्योंकि राजा तो सभीके पिता होते हैं। महाराज! आप हमारे पूजनीय हैं। हम आपके राज्यमें तपस्या करते हैं; उसमें आपका भी भाग है। विधाताने पहलेसे ही ऐसी व्यवस्था कर दी है। राजन् ! आप धन्य हैं, जिनके राज्यमें तपस्वीलोग इस प्रकार सिद्धिकी इच्छा रखते हैं। मैं शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ और कठोर तपस्यामें लगा हूँ। पृथ्वीनाथ! मैं झूठ नहीं बोलता; क्योंकि मुझे देवलोक प्राप्त करनेकी इच्छा है। काकुत्स्थ ! मेरा नाम शम्बूक है।'
वह इस प्रकार बातें कर ही रहा था कि श्रीरघुनाथजीने म्यानसे चमचमाती हुई तलवार निकाली और उसका उज्ज्वल मस्तक धड़से अलग कर दिया। उस शूद्रके मारे जानेपर इन्द्र और अग्नि आदि देवता 'साधु-साधु' कहकर बारम्बार श्रीरामचन्द्रजीकी प्रशंसा करने लगे। आकाशसे श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर वायु देवताके छोड़े हुए दिव्य फूलोंकी सुगन्धभरी वृष्टि होने लगी। जिस क्षण यह शूद्र मारा गया, ठीक उसी समय वह बालक जी उठा ।
* महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा पुलस्त्यजी कहते हैं— तदनन्तर देवतालोग अपने बहुत-से विमानोंके साथ वहाँसे चल दिये। श्रीरामचन्द्रजीने भी शीघ्र ही महर्षि अगस्त्यके तपोवनकी ओर प्रस्थान किया। फिर श्रीरघुनाथजी पुष्पक विमानसे उतरे और मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यको प्रणाम करनेके लिये उनके समीप गये।
श्रीराम बोले- मुनिश्रेष्ठ ! मैं दशरथका पुत्र राम आपको प्रणाम करनेके लिये सेवामें उपस्थित हुआ हूँ। आप अपनी सौम्य दृष्टिसे मेरी ओर निहारिये ।
इतना कहकर उन्होंने बारम्बार मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा- 'भगवन्! मैं शम्बूक नामक शूद्रका वध करके आपका दर्शन करनेकी इच्छासे यहाँ
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आया हूँ कहिये, आपके शिष्य कुशलसे हैं न ? इस वनमें तो कोई उपद्रव नहीं है ?'
अगस्त्यजी बोले – रघुश्रेष्ठ ! आपका स्वागत है। जगद्वन्द्य सनातन परमेश्वर! आपके दर्शनसे आज मैं इन मुनियोंसहित पवित्र हो गया। आपके लिये यह अर्घ्य प्रस्तुत है, इसे स्वीकार करें। आप अपने अनेकों उत्तम गुणोंके कारण सदा सबके सम्मानपात्र हैं। मेरे हृदयमें तो आप सदा ही विराजमान रहते हैं, अतः मेरे परम पूज्य हैं। आपने अपने धर्मसे ब्राह्मणके मरे हुए बालकको जिला दिया। भगवन्! आज रातको आप यहाँ मेरे पास रहिये। महामते। कल सबेरे आप पुष्पक विमानसे अयोध्याको लौट जाइयेगा। सौम्य ! यह
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सृष्टिखण्ड]
. महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा शेतके उद्धारकी कथा .
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आभूषण विश्वकर्माका बनाया हुआ है। यह दिव्य पुलस्त्यजी कहते है-राजन् ! तब आभरण है और अपने दिव्य रूप एवं तेजसे जगमगा श्रीरघुनाथजीने महात्मा अगत्यके हाथसे वह दिव्य रहा है। राजेन्द्र ! आप इसे स्वीकार करके मेरा प्रिय आभूषण ले लिया, जो बहुत ही विचित्र था और सूर्यकी कीजिये; क्योंकि प्राप्त हुई वस्तुका पुनः दान कर देनेसे तरह चमक रहा था। उसे लेकर वे निहारते रहे। फिर महान् फलकी प्राप्ति बतायी गयी है।
बारम्बार विचार करने लगे-ऐसे रत्न तो मैंने - श्रीरामने कहा-ब्रह्मन् ! आपका दिया हुआ विभीषणकी लङ्कामें भी नहीं देखे।' इस प्रकार दान लेना मेरे लिये निन्दाकी बात होगी। क्षत्रिय मन-ही-मन सोच-विचार करनेके बाद श्रीरामचन्द्रजीने जान-बूझकर ब्राह्मणका दिया हुआ दान कैसे ले सकता महर्षि अगस्त्यसे उस दिव्य आभूषणकी प्राप्तिका वृत्तान्त है, यह बात आप मुझे बताइये। किसी आपत्तिके कारण पूछना आरम्भ किया। मुझे कष्ट हो-ऐसी बात भी नहीं है; फिर दान कैसे लूं। श्रीराम बोले-ब्रह्मन् ! यह रत्न तो बड़ा अद्भुत इसे लेकर मुझे केवल दोषका भागी होना पड़ेगा, इसमें है। राजाओंके लिये भी यह अलभ्य ही है। आपको यह तनिक भी सन्देह नहीं है।
कहाँसे और कैसे मिल गया? तथा किसने इस अगस्त्यजी बोले-श्रीराम ! प्राचीन सत्ययुगमें आभूषणको बनाया है? जब अधिकांश मनुष्य ब्राह्मण ही थे, तथा समस्त प्रजा अगस्त्यजीने कहा-रघुनन्दन ! पहले त्रेतायुगमें राजासे हीन थी, एक दिन सारी प्रजा पुराणपुरुष एक बहुत विशाल वन था। इसका व्यास सौ योजनका ब्रह्माजीके पास राजा प्राप्त करनेकी इच्छासे गयी और था। किन्तु उसमें न कोई पशु रहता था, न पक्षी । उस कहने लगी-'लोकेश्वर ! जैसे देवताओंके राजा वनके मध्यभागमें चार कोस लम्बी एक झील थी, जो देवाधिदेव इन्द्र है, उसी प्रकार हमारे कल्याणके लिये भी हंस और कारण्डव आदि पक्षियोंसे संकुल थी। वहाँ मैंने इस समय एक ऐसा राजा नियत कीजिये, जिसे पूजा एक बड़े आश्चर्यकी बात देखी। सरोवरके पास ही एक
और भेंट देकर सब लोग पृथ्वीका उपभोग कर सकें।' बहुत बड़ा आश्रम था, जो बहुत पुराना होनेपर भी तब देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीने इन्द्रसहित समस्त अत्यन्त पवित्र दिखायी देता था, किन्तु उसमें कोई लोकपालोंको बुलाकर कहा-'तुम सब लोग अपने- तपस्वी नहीं था और न कोई और जीव भी थे। मैंने उस अपने तेजका अंश यहाँ एकत्रित करो।' तब सम्पूर्ण आश्रममें रहकर ग्रीष्मकालको एक रात्रि व्यतीत की। लोकपालोने मिलकर चार भाग दिये। वह भाग अक्षय सबेरे उठकर जब तालाबकी ओर चला तो रास्तेमें मुझे था। उससे अक्षय राजाकी उत्पत्ति हुई। लोकपालोके एक बहुत बड़ा मुर्दा दीख पड़ा, जिसका शरीर अत्यन्त उस अंशको ब्रह्माजीने मनुष्योंके लिये एकत्रित किया। हृष्ट-पुष्ट था। मालूम होता था किसी तरुण पुरुषकी उसीसे राजाका प्रादुर्भाव हुआ, जो प्रजाओंके लाश है। उसे देखकर मैं सोचने लगा-'यह कौन है ? हित-साधनमें कुशल होता है। इन्द्रके भागसे राजा इसकी मृत्यु कैसे हो गयी तथा यह इस महान् वनमें सबपर हुकूमत चलाता है। वरुणके अंशसे समस्त आया कैसे था? इन सारी बातोंका मुझे अवश्य पता देहधारियोंका पोषण करता है। कुबेरके अंशसे वह लगाना चाहिये।' मैं खड़ा-खड़ा यही सोच रहा था कि याचकोंको धन देता है तथा राजामें जो यमराजका अंश इतनेमें आकाशसे एक दिव्य एवं अद्भुत विमान उतरता है, उसके द्वारा वह प्रजाको दण्ड देता है। रघुश्रेष्ठ ! दिखायी दिया। वह परम सुन्दर और मनके समान उसी इन्द्रके भागसे आप भी मनुष्योंके राजा हुए हैं, वेगशाली था। एक ही क्षणमें वह विमान सरोवरके निकट इसलिये प्रभो ! मेरा उद्धार करनेके लिये यह आभूषण आ पहुँचा। मैंने देखा, उस विमानसे एक दिव्य मनुष्य ग्रहण कौजिये।
उतरा और सरोवरमें नहाकर उस मुर्देका मांस खाने
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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लगा। भरपेट उस मोटे-ताजे मुर्देका मांस खाकर वह सोचनेके बाद कहा-'तात ! पृथ्वीपर कुछ दान किये फिर सरोवरमें उतरा और उसकी शोभा निहारकर फिर बिना यहाँ कोई वस्तु खानेको नहीं मिलती। तुमने उस शीघ्र ही स्वर्गकी ओर जाने लगा। उस शोभा-सम्पन्न जन्ममें भिखमंगेको कभी भीखतक नहीं दी। [जब तुम देवोपम पुरुषको ऊपर जाते देख मैंने कहा-'स्वर्ग- राजभवनमें रहकर राज्य करते थे, उस समय भूलसे या लोकके निवासी महाभाग ! [तनिक ठहरो] । मैं तुमसे मोहवश तुम्हारे द्वारा किसी अतिथिको भोजन नहीं मिला एक बात पूछता हूँ-तुम्हारी यह कैसी अवस्था है? है। इसलिये यहाँ रहते हुए भी तुम्हें भूख-प्यासका कष्ट तुम कौन हो? देखनेमें तो तुम देवताके समान जान भोगना पड़ता है। राजेन्द्र ! भाँति-भांतिके आहारोंसे पड़ते हो; किन्तु तुम्हारा भोजन बहुत ही घृणित है। जिसको तुमने भलीभाँति पुष्ट किया था, वह तुम्हारा सौम्य ! ऐसा भोजन क्यों करते हो और कहाँ रहते हैं ?' उत्तम शरीर पड़ा हुआ है; उसीका मांस खाओ, उसीसे
रघुनन्दन ! मेरी बात सुनकर उस स्वर्गवासी पुरुषने तुम्हारी तृप्ति होगी।' हाथ जोड़कर कहा-"विप्रवर ! मेरा जैसा वृत्तान्त है, "ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मैंने पुनः उनसे निवेदन उसे आप सुनिये। पूर्वकालकी बात है, विदर्भदेशमें मेरे किया-'प्रभो ! अपने शरीरका भक्षण कर लेनेपर भी महायशस्वी पिता राज्य करते थे। वे वसुदेवके नामसे फिर मेरे लिये दूसरा कोई आहार नहीं रह जाता है। त्रिलोकीमें विख्यात और परम धार्मिक थे। उनके दो जिससे इस शरीरकी भूख मिट सके तथा जो कभी स्त्रियाँ थीं। उन दोनोंसे एक-एक करके दो पुत्र हुए। मैं चुकनेवाला न हो, ऐसा कोई भोजन मुझे देनेकी कृपा उनका ज्येष्ठ पुत्र था। लोग मुझे श्वेत कहते थे। मेरे छोटे कीजिये।' तब ब्रह्माजीने कहा-'तुम्हारा शरीर ही भाईका नाम सुरथ था। पिताकी मृत्युके बाद अक्षय बना दिया गया है। उसे प्रतिदिन खाकर तुम पुरवासियोंने विदर्भदेशके राज्यपर मेरा अभिषेक कर तृप्तिका अनुभव करते रहोगे। इस प्रकार अपने ही दिया। तब मैं वहाँ पूर्ण सावधानीके साथ राज्य सञ्चालन शरीरका मांस खाते जब तुम्हें सौ वर्ष पूरे हो जायेंगे, उस करने लगा। इस प्रकार राज्य और प्रजाका पालन करते समय तुम्हारे विशाल एवं दुर्गम तपोवनमें महर्षि अगस्त्य मुझे कई हजार वर्ष बीत गये। एक दिन किसी निमित्तको पधारेंगे। उनके आनेपर तुम संकटसे छूट जाओगे। लेकर मुझे प्रबल वैराग्य हो गया और मैं मरणपर्यन्त राजर्षे ! वे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और असुरोंका तपस्याका निश्चय करके इस तपोवनमें चला आया। भी उद्धार करने में समर्थ हैं, फिर तुम्हारे इस घृणित राज्यपर मैंने अपने भाई महारथी सुरथका अभिषेक कर आहारको छुड़ाना उनके लिये कौन बड़ी बात है।' दिया था। फिर इस सरोवरपर आकर मैंने अत्यन्त कठोर भगवान् ब्रह्माजीका यह कथन सुनकर मैं अपने शरीरके तपस्या आरम्भ की। अस्सी हजार वर्षांतक इस वनमें मांसका घृणित भोजन करने लगा। विप्रवर ! यह कभी मेरी तपस्या चालू रही। उसके प्रभावसे मुझे भुवनोंमें नष्ट नहीं होता तथा इससे मेरी पूर्ण तृप्ति भी हो जाती है। सर्वश्रेष्ठ कल्याणमय ब्रह्मलोककी प्राप्ति हुई। किन्तु वहाँ न जाने कब वे मुनि इस वनमें आकर मुझे दर्शन देंगे, पहुँचनेपर मुझे भूख और प्यास अधिक सताने लगी। यही सोचते हुए मुझे सौ वर्ष पूरे हो गये हैं। ब्रह्मन् ! मेरी इन्द्रियाँ तलमला उठीं। मैंने त्रिलोकीके सर्वश्रेष्ठ अब अगस्त्य मुनि ही मेरे सहायक होंगे, यह बिलकुल देवता ब्रह्माजीसे पूछा-'भगवन् ! यह लोक तो भूख निश्चित बात है।" और प्याससे रहित सुना गया है; यह मुझे किस कर्मका राजा श्वेतका यह कथन सुनकर तथा उनके उस फल प्राप्त हुआ है कि भूख और प्यास यहाँ भी मेरा घृणित आहारपर दृष्टि डालकर मैंने कहा-'अच्छा, तो पिण्ड नहीं छोड़ती? देव ! शीघ्र बताइये, मेरा आहार तुम्हारे सौभाग्यसे मैं आ गया, अब निःसन्देह तुम्हारा क्या है?' महामुने! इसपर ब्रह्माजीने बहुत देरतक उद्धार करूँगा।' तब वे मुझे पहचानकर दण्डकी भांति
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सृष्टिखण्ड ]
दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
मेरे सामने पृथ्वीपर पड़ गये। यह देख मैंने उन्हें उठा लिया और कहा-' - बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा उपकार करूँ ?'
राजा बोले- ब्रह्मन् ! इस घृणित आहारसे तथा जिस पापके कारण यह मुझे प्राप्त हुआ है, उससे मेरा आज उद्धार कीजिये, जिससे मुझे अक्षय लोककी प्राप्ति हो सके । ब्रह्मर्षे! अपने उद्धारके लिये मैं यह दिव्य आभूषण आपकी भेंट करता हूँ। इसे लेकर मुझपर कृपा कीजिये ।
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-* दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
पुलस्त्यजी कहते हैं— अगस्त्यजीके ये अद्भुत वचन सुनकर श्रीरघुनाथजीने विस्मयके कारण पुनः प्रश्न किया— 'महामुने! वह वन, जिसका विस्तार सौ योजनका था, पशु-पक्षियोंसे रहित, निर्जन, सूना और भयङ्कर कैसे हुआ ?'
अगस्त्यजी बोले- राजन् ! पूर्वकालके सत्ययुगकी बात है, वैवस्वत मनु इस पृथ्वीका शासन करनेवाले राजा थे। उनके पुत्रका नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु बड़े ही सुन्दर और अपने भाइयोंमें सबसे बड़े थे। महाराज उनको बहुत मानते थे। उन्होंने इक्ष्वाकुको भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त करके कहा - 'तुम पृथ्वीके राजवंशोंके अधिपति (सम्राट्) बनो।' रघुनन्दन ! 'बहुत अच्छा' कहकर इक्ष्वाकुने पिताकी आज्ञा स्वीकार की। तब वे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर बोले- 'बेटा! अब तुम दण्डके द्वारा प्रजाकी रक्षा करो। किन्तु दण्डका अकारण प्रयोग न करना। मनुष्योंके द्वारा अपराधियोंको जो दण्ड दिया जाता है, वह शास्त्रीय विधिके अनुसार [उचित अवसरपर] प्रयुक्त होनेपर राजाको स्वर्गमें ले जाता है। इसलिये महाबाहो ! तुम दण्डके समुचित प्रयोगके लिये सदा सचेष्ट रहना । ऐसा करनेपर संसारमें तुम्हारे द्वारा अवश्य परम धर्मका पालन होगा।'
इस प्रकार एकाग्र चित्तसे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको बहुत-से उपदेश दे महाराज मनु बड़ी प्रसन्नताके साथ
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रघुनन्दन ! उस स्वर्गवासी राजाकी ये दुःखभरी बातें सुनकर उसके उद्धारकी दृष्टिसे ही वह दान मैने स्वीकार किया, लोभवश नहीं उस आभूषणको लेकर ज्यों ही मैंने अपने हाथपर रखा, उसी समय उनका वह मुर्दा शरीर अदृश्य हो गया। फिर मेरी आज्ञा लेकर वे राजर्षि बड़ी प्रसन्नताके साथ विमानद्वारा ब्रह्मलोकको चले गये। इन्द्रके समान तेजस्वी राजर्षि वेतने ही मुझे यह सुन्दर आभूषण दिया था और इसे देकर वे पापसे मुक्त हो गये।
ब्रह्मलोकको सिधार गये। तत्पश्चात् राजा इक्ष्वाकुको यह चिन्ता हुई कि 'मैं कैसे पुत्र उत्पन्न करूँ ?' इसके लिये उन्होंने नाना प्रकारके शास्त्रीय कर्म (यज्ञ-यागादि) किये और उनके द्वारा राजाको अनेकों पुत्रोंकी प्राप्ति हुई। देवकुमारके समान तेजस्वी राजा इक्ष्वाकुने पुत्रोंको जन्म देकर पितरोंको सन्तुष्ट किया। रघुनन्दन ! इक्ष्वाकुके पुत्रोंमें जो सबसे छोटा था, वह [गुणों में] सबसे श्रेष्ठ था। वह शूर और विद्वान् तो था ही, प्रजाका आदर करनेके कारण सबके विशेष गौरवका पात्र हो गया था। उसके बुद्धिमान् पिताने उसका नाम दण्ड रखा और विन्ध्यगिरिके दो शिखरोंके बीचमें उसके रहनेके लिये एक नगर दे दिया। उस नगरका नाम मधुमत्त था । धर्मात्मा दण्डने बहुत वर्षोंतक वहाँका अकण्टक राज्य किया । तदनन्तर एक समय, जब कि चारों ओर चैत्र मासकी मनोरम छटा छा रही थी, राजा दण्ड भार्गव मुनिके रमणीय आश्रमके पास गया। वहाँ जाकर उसने देखा - भार्गव मुनिकी परम सुन्दरी कन्या, जिसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी, वनमें घूम रही है। उसे देखकर राजा दण्डके मनमें पापका उदय हुआ और वह कामबाणसे पीड़ित हो कन्याके पास जाकर बोलासुन्दरी! तुम कहाँसे आयी हो ? शोभामयी ! तुम किसकी कन्या हो ? मैं कामसे पीड़ित होकर तुमसे ये बातें पूछ रहा हूँ। वरारोहे! मैं तुम्हारा दास हूँ। सुन्दरि ! मुझ भक्तको अङ्गीकार करो।'
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• अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[ संक्षिप्त पापुराण
अरजा बोली-राजेन्द्र ! आपको मालूम होना गया। ] फिर तो शुक्रको बड़ा रोष हुआ, वे तीनों चाहिये कि मैं भार्गव-वंशकी कन्या हूँ। पुण्यात्मा लोकोंको दग्ध-सा करते हुए अपने शिष्योंको सुनाकर शुक्राचार्यकी मैं ज्येष्ठ पुत्री हूँ, मेरा नाम अरजा है। बोले-'धर्मके विपरीत आचरण करनेवाले अदूरदर्शी पिताजी इस आश्रमपर ही निवास करते हैं। महाराज! दण्डके ऊपर प्रज्वलित अग्निशिखाके समान भयङ्कर शुक्राचार्य मेरे पिता है और आप उनके शिष्य है। अतः विपत्ति आ रही है; तुम सब लोग देखना-वह खोटी धर्मके नाते मैं आपकी बहिन हूँ। इसलिये आपको बुद्धिवाला पापी राजा अपने देश, भृत्य, सेना और मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। यदि दूसरे कोई वाहनसहित नष्ट हो जायगा। उसका राज्य सौ योजन दुष्ट पुरुष भी मुझपर कुदृष्टि करें तो आपको सदा उनके लम्बा-चौड़ा है, उस समूचे राज्यमें इन्द्र धूलकी बड़ी हाथसे मेरी रक्षा करनी चाहिये। मेरे पिता बड़े क्रोधी भारी वर्षा करेंगे। उस राज्यमें रहनेवाले स्थावर-जङ्गम
और भयङ्कर है। वे [अपने शापसे] आपको भस्म कर जितने भी प्राणी हैं, उन सबका उस धूलकी वर्षासे शीघ्र सकते हैं। अतः नृपश्रेष्ठ ! आप मेरे महातेजस्वी पिताके ही नाश हो जायगा। जहाँतक दण्डका राज्य है, पास जाइये और धर्मानुकूल बर्तावके द्वारा उनसे मेरे वहाँतकके उपवनों और आश्रमोंमें अकस्मात् सात लिये याचना कीजिये। अन्यथा [इसके विपरीत राततक धूलकी वर्षा होती रहेगी।' आचरण करनेपर] आपपर महान् एवं घोर दुःख आ : क्रोधसे संतप्त होनेके कारण इस प्रकार शाप दे पड़ेगा। मेरे पिताका क्रोध उभड़ जानेपर वे समूची महर्षि शुक्रने आश्रमवासी शिष्योंसे कहा-'तुमलोग त्रिलोकीको भी जलाकर खाक कर सकते हैं। यहाँ रहनेवाले सब लोगोंको इस राज्यकी सीमासे बाहर .: दण्ड बोला-सुन्दरी ! तुम्हें पा लेनेपर चाहे मेरा ले जाओ।' उनकी आज्ञा पाते ही आश्रमवासी मनुष्य वध हो जाय अथवा वधसे भी महान् कष्ट भोगना पड़े शीघ्रतापूर्वक उस राज्यसे हट गये और सीमासे बाहर [मुझे स्वीकार है)। भीरु ! मैं तुम्हारा भक्त हैं, मुझे जाकर उन्होंने अपने डेरे डाल दिये। तदनन्तर शुक्राचार्य स्वीकार करो।
__ अरजासे बोले-'ओ नीच बुद्धिवाली कन्या ! तू अपने . ऐसा कहकर राजाने उस कन्याको बलपूर्वक चित्तको एकाग्र करके सदा इस आश्रमपर ही निवास बाहुपाशमें कस लिया और उस एकान्त वनमें, जहाँसे कर। यह चार कोसके विस्तारका सुन्दर शोभासम्पन्न कहीं आवाज भी नहीं पहुँच सकती थी, उसे नंगा कर सरोवर है। अरजे ! तू रजोगुणसे रहित सात्त्विक जीवन दिया। बेचारी अबला उसकी भुजाओंसे छूटनेके लिये व्यतीत करती हुई सौ वर्षोंतक यहीं रह ।' महर्षिका यह बहुत छटपटायी, परन्तु फिर भी उसने खेच्छानुसार आदेश सुन अरजाने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा उसके साथ भोग किया। राजा दण्ड वह अत्यन्त स्वीकार की। उस समय वह बहुत ही दुःखी हो रही थी। कठोरतापूर्ण और महाभयानक अपराध करके तुरंत शुक्राचार्यने कन्यासे उपर्युक्त बात कहकर वहाँसे दूसरे अपने नगरको चल दिया तथा भार्गव-कन्या अरजा आश्रमके लिये प्रस्थान किया। ब्रह्मवादी महर्षिक दीनभावसे रोती हुई अत्यन्त उद्विग्र हो आश्रमके समीप कथनानुसार विन्ध्यगिरिके शिखरोंपर फैला हुआ राजा अपने देव-तुल्य पिताके पास आयी। उसके पिता दण्डका समूचा राज्य एक सप्ताहके भीतर ही जलकर अमित तेजस्वी देवर्षि शुक्राचार्य सरोवरपर स्नान करने खाक हो गया। तबसे वह विशाल वन ‘दण्डकारण्य' गये थे। स्नान करके वे दो ही पड़ीमें शिष्योंसहित कहलाता है। रघुनन्दन ! आपने जो मुझसे पूछा था, वह आश्रमपर लौट आये। [आश्रमपर आकर] उन्होंने सारा प्रसङ्ग मैने कह सुनाया, अब सन्ध्योपासनका समय देखा-अरजाकी दशा बड़ी दयनीय है, वह धूलमें सनी बीता जा रहा है। ये महर्षिगण सब ओर जलसे भरे घड़े हुई है। [ तुरंत ही सारा रहस्य उनके ध्यानमें आ लेकर अर्घ्य दे भगवान् सूर्यको पूजा कर रहे हैं। आप
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सृष्टिखण्ड ]
• दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन .
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भी चलकर सन्ध्यावन्दन करें।
है, वे समस्त प्राणियोंमें पवित्र हैं और देवता कहलाते ___ऋषिकी आज्ञा मानकर श्रीरघुनाथजी सन्ध्योपासन हैं।* रघुश्रेष्ठ ! आप समस्त देहधारियोंके लिये परम करनेके लिये उस पवित्र सरोवरके तटपर गये। तदनन्तर पावन हैं। आपका प्रभाव ऐसा ही है। जो लोग आपकी आचमन एवं सायं-सन्ध्या करके श्रीरघुनाथजी महात्मा चर्चा करेंगे, उन्हें भी सिद्धि प्राप्त होगी। आप इस मार्गसे कुम्भजके आश्रममें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आदरके साथ शान्त एवं निर्भय होकर जाइये और धर्मपूर्वक राज्यका अधिक गुणकारी फल-मूल तथा रसीले साग भोजनके पालन कीजिये; क्योंकि आप ही इस जगत्के एकमात्र लिये अर्पण किये। नरश्रेष्ठ श्रीरामने बड़ी प्रसन्नताके साथ सहारे हैं।' उस अमृतके समान मधुर भोजनका भोग लगाया और महर्षिके ऐसा कहनेपर महाराज श्रीरामचन्द्रजीने पूर्ण तृप्त होकर रात्रिमें वहीं शयन किया। सबेरे उठकर हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा अन्यान्य मुनिवरोंको
भी, जो सब-के-सब तपस्याके धनी थे, सादर अभिवादन करके वे शान्तभावसे सुवर्णभूषित पुष्पक विमानपर चढ़ गये। यात्राके समय मुनिगणोंने सब ओरसे उनपर आशीर्वादोंकी वर्षा की। समस्त पुरुषार्थोंके ज्ञाता श्रीरघुनाथजी दोपहर होते-होते अयोध्यामें पहुँचकर सातवीं ड्योढ़ीमें उतरे। तत्पश्चात् उन्होंने इच्छानुसार चलनेवाले उस परम सुन्दर पुष्पक विमानको विदा कर दिया। फिर महाराजने द्वारपालोंसे कहा-'तुमलोग फुतींसे जाकर भरत और लक्ष्मणको मेरे आगमनकी सूचना दो और उन्हें अपने साथ ही लिवा लाओ; विलम्ब
उन्होंने अपना नित्यकर्म किया और वहाँसे विदा होनेके लिये महर्षिके पास गये। वहाँ जाकर उन्होंने मुनिको प्रणाम किया और कहा- 'ब्रह्मन् ! अब मैं आपसे विदा होना चाहता हूँ, आप आज्ञा देनेकी कृपा करें । महामुने ! आज मैं आपके दर्शनसे कृतार्थ और अनुगृहीत हुआ।'
श्रीरामचन्द्रजीके ऐसे अद्भुत वचन कहनेपर तपस्वी अगस्त्यजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-'श्रीराम ! कल्याणमय अक्षरोंसे युक्त आपका यह वचन बड़ा ही अद्भुत है। रघुनन्दन ! यह सम्पूर्ण प्राणियोंको पवित्र करनेवाला है। जो मनुष्य आपको दो घड़ी भी देख लेते
* मुहूर्तमपि राम त्वां नेत्रेणेक्षन्ति ये नराः। पाविताः सर्वभूतेषु कथ्यन्ते त्रिदिवौकसः ॥(३४।३८)
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• अयस्व ह्रषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
न करना।' द्वारपाल आज्ञाके अनुसार जाकर दोनों यथावत् सम्पादन किया है। अब मैं [प्रतिमास्थापन, कुमारोंको बुला ले आये। श्रीरघुनाथजी अपने प्रियबन्धु देवालय-निर्माण आदि] पूर्त-धर्मका अनुष्ठान करूँगा। भरत और लक्ष्मणको देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें वीरो! मेरा कान्यकुब्ज देशमें जाकर भगवान् वामनकी छातीसे लगाकर बोले-मैने ब्राह्मणके शुभ कार्यका प्रतिष्ठा करनेका विचार है।'
श्रीरामका लङ्का, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गङ्गातटपर जाकर भगवान्
श्रीवामनकी स्थापना करना भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मर्षे! श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मण मेरे बाहरी प्राण हो । मेरे मनमें इस समय सबसे कान्यकुब्ज देशमें भगवान् श्रीवामनकी प्रतिष्ठा किस बड़ी चिन्ता यह है कि विभीषण देवताओंके साथ कैसा प्रकार की, उन्हें श्रीवामनजीका विग्रह कहाँ प्राप्त बर्ताव करते हैं; क्योंकि देवताओंके हितके लिये ही मैंने हुआ-इन सब बातोंका विस्तारके साथ वर्णन रावणका वध किया था। इसलिये वत्स ! जहाँ विभीषण कीजिये। भगवन् ! श्रीरामचन्द्रजीके कीर्तनसे सम्बन्ध हैं, वहाँ मैं जाना चाहता हूँ। लङ्कापुरीको देखकर रखनेवाली कथा बड़ी ही मधुर, पावन तथा मनोरम होती राक्षसराजको उनके कर्तव्यका उपदेश करूँगा।' है। आपने जो यह कथा सुनायी है, उससे मेरे हृदय और भगवान् श्रीरामके ऐसा कहनेपर हाथ जोड़कर खड़े कानोंको बड़ा सुख मिला है। सारा संसार भगवान् हुए भरतने कहा-'मैं भी आपके साथ चलूंगा।' श्रीरामको प्रेम और अनुरागसे देखता है; वे बड़े ही धर्मज्ञ श्रीरघुनाथजी बोले-'महाबाहो ! अवश्य चलो।' फिर थे। वे जब पृथ्वीका राज्य करते थे, उस समय सभी वे लक्ष्मणसे बोले-'वीर ! तुम नगरमें रहकर हम वृक्ष फल और रससे भरे रहते थे। पृथ्वी बिना जोते ही दोनोंके लौटनेतक इसकी रक्षा करना।' लक्ष्मणको इस अन्न देती थी। उन महात्माका इस भूमण्डलपर कोई शत्रु प्रकार आदेश देकर कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले नहीं था। अतः मुनिवर ! मैं उन भगवान् श्रीरामचन्द्रजी- श्रीरामचन्द्रजीने पुष्पक विमानका स्मरण किया । का सारा चरित्र सुनना चाहता हूँ।
पुलस्त्यजी बोले-महाराज ! धर्मके मार्गपर स्थित रहनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने कुछ कालके पश्चात् जो महत्वपूर्ण कार्य किया, उसे एकाग्र मनसे सुनो। एक दिन श्रीरघुनाथजी मन-ही-मन इस बातका विचार करने लगे कि 'राक्षस-कुलोत्पन्न राजा विभीषण लङ्कामें रहकर सदा ही राज्य करते रहें-उसमें किसी प्रकारकी विघ्न-बाधा न पड़े, इसके लिये क्या उपाय हो सकता है। मुझे चलकर उन्हें हितकी बात बतानी चाहिये, जिससे उनका राज्य सदा कायम रहे।' अमित तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार विचार कर रहे थे, उसी समय भरतजी वहाँ आये और श्रीरामको विचारमग्न देख यों बोले-'देव ! आप क्या सोच रहे हैं? यदि कोई गुप्त बात न हो तो मुझे बतानेकी कृपा करें।' श्रीरघुनाथजीने कहा-'मेरी कोई भी बात तुमसे छिपानेयोग्य नहीं है। तुम और महायशस्वी
STITUTIMERA
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सृष्टिखण्ड ]
. श्रीरामका लङ्का आदि होते हुए गङ्गातटपर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना .
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विमानके आ जानेपर वे दोनों भाई उसपर आरूढ़ हुए। साधुवाद देने लगे और सबने भगवान्का दर्शन करके सबसे पहले वह विमान गान्धार देशमें गया, वहाँ प्रेमाश्रुओंसे गद्गद हो उन्हें प्रणाम किया।" भगवान्ने भरतके दोनों पुत्रोंसे मिलकर उनकी राजनीतिका निरीक्षण किया। इसके बाद पूर्व दिशामें जाकर वे लक्ष्मणके पुत्रोंसे मिले। उनके नगरोंमें छः रातें
JanamWU व्यतीत करके दोनों भाई राम और भरत दक्षिण दिशाकी ओर चले। गङ्गा-यमुनाके संगम-स्थान प्रयागमें जाकर महर्षि भरद्वाजको प्रणाम करके वे अत्रिमुनिके आश्रमपर
AMA गये। वहाँ अत्रिमुनिसे बातचीत करके दोनों भाइयोंने जनस्थानकी यात्रा की। [जनस्थानमें प्रवेश करते हुए। श्रीरामचन्द्रजी बोले-"भरत ! यही वह स्थान है, जहाँ दुरात्मा रावणने गृध्रराज जटायुको मारकर सीताका हरण किया था। जटायु हमारे पिताजीके मित्र थे। इस स्थानपर हमलोगोंका दुष्ट बुद्धिवाले कबन्धके साथ महान् युद्ध हुआ था। कबन्धको मारकर हमने उसे आगमें जला दिया था। मरते समय उसने बताया कि सीता रावणके घरमें हैं। उसने यह भी कहा कि 'आप ऋष्यमूक पर्वतपर जाइये। वहाँ सुग्रीव नामके वानर रहते हैं, वे सुग्रीव बोले-महाराज! आप दोनोंने किस आपके साथ मित्रता करेंगे।' यही वह पम्पा सरोवर है, कार्यसे यहाँ पधारनेकी कृपा की है, यह शीघ्र बताइये। जहाँ शबरी नामकी तपस्विनी रहती थी। यही वह स्थान सुग्रीवके इस प्रकार पूछनेपर श्रीरामचन्द्रजीकी है, जहाँ सुग्रीवके लिये मैने वालीको मारा था। वीर ! आज्ञासे भरतने लङ्कायात्राकी बात बतायी। तब सुग्रीवने 'वालीकी राजधानी किष्किन्धापुरी यह दिखायी दे रही कहा-'मैं भी आप दोनोंके साथ राक्षसराज विभीषणसे है। इसीमें धर्मात्मा वानरराज सुग्रीव अन्यान्य वानरोंके मिलनेके लिये लङ्कापुरीमें चलूँगा।' सुग्रीवके ऐसा साथ निवास करते हैं।' सुग्रीव उस समय अपने सभा- कहनेपर श्रीरघुनाथजीने कहा-'चलो।' फिर सुग्रीव, भवनमें विराजमान थे। इतनेमें ही भरत और श्रीरामचन्द्रजी श्रीराम और भरत-ये तीनों पुष्पक विमानपर बैठे। किष्किन्धापुरीमें जा पहुँचे। उन दोनों भाइयोंको उपस्थित तुरंत ही वह विमान समुद्रके उत्तर-तटपर जा पहुंचा। देख सुग्रीवने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर उन दोनों उस समय श्रीरामने भरतसे कहा-'यही वह स्थान है, भाइयोंको सिंहासनपर बिठाकर सुग्रीवने अर्घ्य निवेदन जहाँ राक्षसराज विभीषण अपने चार मन्त्रियोंको साथ किया और साथ ही अपने-आपको भी उनके चरणोंमें लेकर प्राण बचानेके लिये मेरे पास आये थे। उसी समय अर्पित कर दिया। इस प्रकार जब परम धर्मात्मा लक्ष्मणने लङ्काके राज्यपर उनका अभिषेक किया था। श्रीरघुनाथजी सभामें विराजमान हुए तब अङ्गद, हनुमान, यहाँ मैं समुद्रके इस पार तीन दिनतक इस आशासे ठहरा नल, नील, पाटल और ऋक्षराज जाम्बवान् आदि सभी रहा कि यह मुझे दर्शन देगा और [सगरका पुत्र होनेके वानर-वीर सेनाओसहित वहाँ आये। अन्तःपुरकी सभी नाते] अपना कुटुम्बी समझकर मेरा कार्य करेगा। किन्तु स्त्रियाँ-रुमा और तारा आदि भी उपस्थित हुई। सबको तबतक इसने मुझे दर्शन नहीं दिया। यह देखकर चौथे अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। सब लोग भगवान्को दिन मैंने बड़े वेगसे धनुष चढ़ाकर हाथमें दिव्यास्त्र ले
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
लिया। यह देख समुद्रको बड़ा भय हुआ और वह शरणार्थी होकर लक्ष्मणके पास पहुँचा। सुग्रीवने भी बहुत अनुनय-विनय की और कहा- 'प्रभो! इसे क्षमा कर दीजिये।' तब मैंने वह बाण मरुदेशमें फेंक दिया। इसके बाद समुद्रने मुझसे कहा- 'रघुनन्दन! आप मेरे ऊपर पुल बाँधकर जलराशिसे पूर्ण महासागरके पार चले जाइये।' तब मैंने वरुणके निवास स्थान समुद्रपर यह महान् पुल बाँधा था। श्रेष्ठ वानरोंने मिलकर तीन ही दिनोंमें यह कार्य पूरा किया था। पहले दिन उन्होंने चौदह योजनतक पुल बाँधा, दूसरे दिन छत्तीस योजनतक और तीसरे दिन सौ योजनतकका पूरा पुल तैयार कर दिया। देखो, यह लङ्का दिखायी दे रही है। इसका परकोटा और नगरद्वार—सब सोनेके बने हुए हैं। यहाँ वानरवीरोंने बहुत बड़ा घेरा डाला था। यहाँ नीलने राक्षसश्रेष्ठ प्रहस्तका वध किया था। इसी स्थानपर हनुमानजीने धूम्राक्षको मार गिराया था। यहीं सुग्रीवने महोदर और अतिकायको मौतके घाट उतारा था। इसी स्थानपर मैंने कुम्भकर्णको और लक्ष्मणने इन्द्रजित्को मारा था। तथा यहीं मैंने राक्षसराज दशग्रीवका वध किया था। यहाँ लोकपितामह ब्रह्माजी मुझसे वार्तालाप करनेके लिये पधारे थे। उनके साथ पार्वतीसहित त्रिशूलधारी भगवान् शङ्कर भी थे। हमारे पिता महाराज दशरथ भी स्वर्गलोकसे यहाँ पधारे थे। जानकीकी शुद्धि चाहनेवाले उन सभी लोगोंके समक्ष सीताने इस स्थानपर अग्निमें प्रवेश किया था और वे सर्वथा शुद्ध प्रमाणित हुई थीं। लङ्कापुरीके अधिष्ठाता देवताओंने भी सीताकी अग्नि परीक्षा देखी थी। पिताजीकी आज्ञासे मैंने सीताको स्वीकार किया। उसके बाद महाराजने मुझसे कहाबेटा! अब अयोध्याको जाओ।"
श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार बात कर रहे थे, पुष्पक विमान वहीं ठहरा रहा। उसी समय प्रधान प्रधान राक्षसोंने, जो वहाँ उपस्थित थे, तुरंत ही विभीषणके पास जा बड़े हर्षमें भरकर निवेदन किया- 'राक्षसराज सुग्रीवके साथ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी पधारे हैं, उनके साथ उन्हींकी-सी आकृतिवाले एक दूसरे पुरुष भी हैं।'
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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श्रीरामचन्द्रजी नगरके समीप आ गये हैं, यह समाचार सुनकर विभीषणने [प्रिय संवाद सुनानेवाले] उन दूतोंका विशेष सत्कार किया तथा उन्हें धन देकर उनके सभी मनोरथ पूर्ण किये। फिर लङ्कापुरीको सजानेकी आज्ञा देकर वे मन्त्रियोंके साथ बाहर निकले। मेरु पर्वतपर उदित हुए सूर्यकी भाँति भगवान् श्रीरामको विमानपर बैठे देख विभीषणने उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया
और कहा- 'भगवन्! आज मेरा जन्म सफल हुआ, मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये; क्योंकि आज मुझे आपके विश्व वन्द्य चरणोंका दर्शन मिला है। इस प्रकार श्रीरघुनाथजीका अभिवादन करके वे भरत और सुग्रीवसे भी गले लगकर मिले। तदनन्तर उन्होंने स्वर्गसे भी बढ़कर सुशोभित लङ्कापुरीमें सबको प्रवेश कराया और सब प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित रावणके जगमगाते हुए भवनमें उन्हें ठहराया जब श्रीरामचन्द्रजी आसनपर विराजमान हो गये, तब विभीषणने अर्घ्य निवेदन करके हाथ जोड़कर सुग्रीव और भरतसे कहा - 'यहाँ पधारे हुए भगवान् श्रीरामको भेंट करने योग्य कोई वस्तु मेरे पास नहीं है। यह लङ्कापुरी तो स्वयं भगवान्ने ही त्रिलोकीके लिये कण्टकरूप पापी शत्रुको मारकर मुझे
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सृष्टिखण्ड ]
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श्रीरामका लड्डा
आदि होते हुए गङ्गातटपर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
प्रदान की है। यह पुरी ही नहीं, ये स्त्रियाँ, वे पुत्र तथा स्वयं मैं - यह सब कुछ भगवान्की सेवामें अर्पित है। भगवन् ! आपको नमस्कार है; आप इसे स्वीकार करें।'
तदनन्तर राजा विभीषणका मन्त्रिमण्डल और लङ्काके निवासी श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनके लिये उत्सुक हो वहाँ आये और विभीषणसे बोले— 'प्रभो! हमें श्रीरामजीका दर्शन करा दीजिये।' विभीषणने महाराज श्रीरामचन्द्रजीसे उनका परिचय कराया और श्रीरामकी आज्ञासे भरतने उन राक्षस पतियोंके द्वारा भेंटमें दिये हुए धन और रत्नराशिको ग्रहण किया। इस प्रकार राक्षसराजके भवनमें श्रीरघुनाथजीने तीन दिनतक निवास किया। चौथे दिन जब श्रीरामचन्द्रजी राजसभामें विराजमान थे, राजमाता कैकसीने विभीषणसे कहा- 'बेटा! मैं भी अपनी बहुओंके साथ चलकर श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करूँगी, तुम उन्हें सूचना दे दो। ये महाभाग श्रीरघुनाथजी चार मूर्तियोंमें प्रकट हुए सनातन भगवान् श्रीविष्णु हैं तथा परम सौभाग्यवती सीता साक्षात् लक्ष्मी हैं। तुम्हारा बड़ा भाई उनके स्वरूपको नहीं पहचान पाया था। तुम्हारे पिताने देवताओंके सामने पहले ही कह दिया था कि भगवान् श्रीविष्णु रघुकुलमें राजा दशरथके पुत्ररूपसे अवतार लेंगे। वे ही दशग्रीव रावणका विनाश करेंगे।'
विभीषण बोले- माँ ! तुम श्रीरघुनाथजीके समीप अवश्य जाओ। मैं पहले जाकर उन्हें सूचना देता हूँ।
यों कहकर विभीषण जहाँ श्रीरामचन्द्रजी थे, वहाँ गये और वहाँ भगवान्का दर्शन करनेके लिये आये हुए सब लोगोंको विदा करके उन्होंने सभाभवनको सर्वथा एकान्त बना दिया। फिर श्रीरामके सम्मुख खड़े होकर कहा - 'महाराज ! मेरा निवेदन सुनिये; रावणको कुम्भकर्णको तथा मुझको जन्म देनेवाली मेरी माता कैकसी आपके चरणोंका दर्शन चाहती है; आप कृपा करके उसे दर्शन दें।' श्रीरामने कहा-'राक्षसराज ! [तुम्हारी माता मेरी भी माता ही हैं, ] मैं माताका दर्शन करनेकी इच्छासे स्वयं ही उनके पास चलूँगा। तुम शीघ्र मेरे आगे-आगे चलो।'
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ऐसा कहकर वे सिंहासनसे उठे और चल पड़े। कैकसीके पास पहुँचकर उन्होंने मस्तकपर अञ्जलि बाँध उसे प्रणाम करते हुए कहा- 'देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। [मित्रकी माता होनेके नाते] आप धर्मतः मेरी माता है। जैसे कौसल्या मेरी माता हैं, उसी प्रकार आप भी हैं।'
कैकसी बोली - वत्स! तुम्हारी जय हो, तुम चिरकालतक जीवित रहो। वीर! मेरे पतिने कहा था कि 'भगवान् श्रीविष्णु देवताओंका हित करनेके लिये रघुकुलमें मनुष्य रूपसे अवतार लेंगे। वे रावणका विनाश करके विभीषणको राज्य प्रदान करेंगे। वे दशरथनन्दन श्रीराम वालीका वध और समुद्रपर पुल बाँधने आदिका कार्य भी करेंगे!' इस समय स्वामीके वचनोंका स्मरण करके मैंने तुम्हें पहचान लिया। सीता लक्ष्मी हैं, तुम श्रीविष्णु हो और वानर देवता हैं। अच्छा, बेटा! तुम्हें अमर यश प्राप्त हो।
विभीषणकी पत्नी सरमाने कहा- भगवन् ! यहीं अशोक वाटिकामें आपकी प्रिया श्रीजानकी देवीकी मैंने पूरे एक वर्षतक सेवा की थी, वे मेरी सेवासे यहाँ सुखपूर्वक रही हैं। परंतप मैं प्रतिदिन श्रीसीताके चरणोंका स्मरण करती हूँ। रात-दिन यही सोचती रहती
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• अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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हूँ कि कब उनका दर्शन होगा। आप श्रीजनकनन्दिनीको अपने साथ ही यहाँ क्यों नहीं लेते आये ? उनके बिना अकेले आपकी शोभा नहीं हो रही है। आपके निकट सीता शोभा पाती हैं और सीताके समीप आप।
जब सरमा इस प्रकार बात कर रही थी, उस समय भरत मन-ही-मन सोचने लगे- 'यह कौन स्त्री है, जो श्रीरघुनाथजीसे वार्तालाप कर रही है ?' श्रीरामचन्द्रजी भरतका अभिप्राय ताड़ गये, वे तुरंत ही बोले– 'ये विभीषणकी पत्नी हैं, इनका नाम सरमा है। ये सीताकी प्रिय सखी हैं। वे इन्हें बहुत मानती हैं।' इतना कहकर वे सरमासे बोले – 'कल्याणी! अब तुम भी जाओ और पतिके गृहकी रक्षा करो।' इस प्रकार सीताकी प्यारी सखी सरमाको विदा करके श्रीरामने विभीषणसे कहा'निष्पाप विभीषण! तुम सदा देवताओंका प्रिय कार्य करना, कभी उनका अपराध न करना; तुम्हें देवराजके आज्ञानुसार ही चलना चाहिये। यदि लङ्कामें किसी तरह कोई मनुष्य चला आये तो राक्षसोंको उसका वध नहीं करना चाहिये, वरं मेरी ही भाँति उसका स्वागत-सत्कार करना चाहिये।'
विभीषणने कहा- नरश्रेष्ठ! आपकी आज्ञाके अनुसार ही मैं सारा कार्य करूँगा।' विभीषण जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय वायुदेवताने आकर श्रीरामसे कहा— 'महाभाग ! यहाँ भगवान् श्रीविष्णुकी वामनमूर्ति है, जिसने पूर्वकालमें राजा बलिको बाँधा था। आप उसे ले जायँ और कान्यकुब्ज देशमें स्थापित कर दें।' वायुदेवताके प्रस्तावमें श्रीरामचन्द्रजीकी सम्मति जान विभीषणने श्रीवामन भगवान् के विग्रहको सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित किया और लाकर भगवान् श्रीरामको समर्पित कर दिया। फिर उन्होंने इस प्रकार कहा- 'रघुनन्दन ! जिस समय मेघनादने इन्द्रको परास्त किया था, उस समय विजयचिह्नके रूपमें वह इस वामनमूर्तिको [इन्द्रलोकसे] उठा लाया था । देवदेव ! अब आप इन भगवान्को ले जाइये और यथास्थान इन्हें स्थापित कीजिये।'
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
'तथास्तु' कहकर श्रीरघुनाथजी पुष्पक विमानपर आरूढ हुए। उनके पीछे असंख्य धन, रत्न और देवश्रेष्ठ
वामनजीको लेकर सुग्रीव और भरत भी विमानपर चढ़े। आकाशमें जाते समय श्रीरामने विभीषणसे कहा-' - 'तुम यहीं रहो।' यह सुनकर विभीषणने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा- 'प्रभो! आपने मुझे जो-जो आज्ञाएँ दी हैं, उन सबका मैं पालन करूँगा। परन्तु महाराज ! इस सेतुके मार्गसे पृथ्वीके समस्त मानव यहाँ आकर मुझे सतायेंगे। ऐसी परिस्थितिमें मुझे क्या करना चाहिये ?' विभीषणकी बात सुनकर श्रीरघुनाथजीने हाथमें धनुष ले सेतुके दो टुकड़े कर दिये। फिर तीन विभाग करके बीचका दस योजन उड़ा दिया। उसके बाद एक स्थानपर एक योजन और तोड़ दिया। तदनन्तर वेलावन (वर्तमान रामेश्वरक्षेत्र) में पहुँचकर श्रीरामचन्द्रजीने श्रीरामेश्वरके नामसे देवाधिदेव महादेवजीकी स्थापना की तथा उनका विधिवत् पूजन किया।
भगवान् रुद्र बोले – रघुनन्दन ! मैं इस समय यहाँ साक्षात् रूपसे विराजमान हूँ। जबतक यह संसार, यह पृथ्वी और यह आपका सेतु कायम रहेगा, तबतक मैं भी यहाँ स्थिरतापूर्वक निवास करूँगा।
श्रीरामने कहा- भक्तोंको अभय करनेवाले देवदेवेश्वर! आपको नमस्कार है - दक्ष यज्ञका
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सष्टिखण्ड ]
. श्रीरामका लङ्का आदि होते हुए गङ्गातटपर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना .
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विध्वंस करनेवाले गौरीपते ! आपको नमस्कार है। आप विश्वके आत्मा, संसारकी सृष्टि करनेवाले तथा सम्पूर्ण ही शर्व', रुद्र, भव' और वरद आदि नामोंसे प्रसिद्ध विश्वको व्याप्त करके स्थित है; आपको नमस्कार है। आप है। आपको नमस्कार है। आप पशुओं (जीवों) के दिव्यस्वरूप, शरणागतका कष्ट दूर करनेवाले, भक्तोंपर स्वामी, नित्य उग्रस्वरूप तथा जटाजूट धारण करनेवाले सदा ही दया रखनेवाले तथा विश्वके तेज और मनमें व्याप्त है; आपको नमस्कार है। आप ही महादेव, भीम और रहनेवाले हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है।* त्र्यम्बक (त्रिनेत्रधारी) कहलाते हैं, आपको नमस्कार पुलस्त्यजी कहते हैं-इस प्रकार स्तुति करनेपर है। प्रजापालक, सबके ईश्वर, भग देवताके नेत्र देवाधिदेव महादेवजीने अपने सामने खड़े हुए फोड़नेवाले तथा अन्धकासुरका वध करनेवाले भी आप श्रीरामचन्द्रजीसे कहा-'रघुनन्दन ! आपका कल्याण ही हैं; आपको नमस्कार है। आप नीलकण्ठ, भीम, वेधा हो। कमलनयन परमेश्वर ! आप देवताओंके भी (विधाता), ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत, कुमार कार्तिकेयके आराध्य देव और सनातन पुरुष हैं। नररूपमें छिपे हुए शत्रुका विनाश करनेवाले, कुमारको जन्म देनेवाले, साक्षात् नारायण हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। विलोहित, धूम्र, शिव', क्रथन', नीलशिखण्ड, देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये ही आपने अवतार शूली (त्रिशूलधारी), दिव्यशायी," उग्र और त्रिनेत्र ग्रहण किया था, सो अब इस अवतारका सारा कार्य आदि नामोंसे प्रसिद्ध है। सोना और धन आपका वीर्य आपने पूर्ण कर दिया है। आपके बनाये हुए मेरे इस है। आपका स्वरूप किसीके चिन्तनमें नहीं आ सकता। स्थानपर समुद्रके समीप आकर जो मनुष्य मेरा दर्शन आप देवी पार्वतीके स्वामी हैं। सम्पूर्ण देवता आपकी करेंगे, वे यदि महापापी होंगे तो भी उनके सारे पाप नष्ट स्तुति करते हैं। आप शरण लेने योग्य, कामना करने हो जायेंगे। ब्रह्महत्या आदि जो कोई भी घोर पाप हैं, वे योग्य और सद्योजात २ नामसे प्रसिद्ध हैं, आपको मेरे दर्शनमात्रसे नष्ट हो जाते हैं-इसमें अन्यथा विचार नमस्कार है। आपकी ध्वजामें वृषभका चिह्न है। आप करनेकी आवश्यकता नहीं है। अच्छा, अब आप मुण्डित भी हैं और जटाधारी भी। आप ब्रह्मचर्यव्रतका जाइये और गङ्गाजीके तटपर भगवान् श्रीवामनकी पालन करनेवाले, तपस्वी, शान्त, ब्राह्मणभक्त, जयस्वरूप, स्थापना कीजिये। पृथ्वीके आठ भाग करके [उन्हें
१.प्रलय-कालमें संसारका संहार करनेवाले। २. जगत्को रुलानेवाले। ३. संसारकी उत्पत्तिके कारण। ४. वर देनेवाले। ५. भयंकर रूप धारण करनेवाले। ६. लाल रंगवाले। ७. धुएँके समान रंगवाले। ८, कल्याणस्वरूप । ९. मारनेवाले। १०. नीले रंगका जटाजूट धारण करनेवाले। ११. दिव्यरूपसे शयन करनेवाले। १२. भक्तोंको प्रार्थनासे तत्काल प्रकट होनेवाले।
* नमस्ते देवदेवेश भक्तानामभयंकर । गौरीकान्त नमस्तुभ्यं दक्षयज्ञविनाशन । नमः शर्वाय रुद्राय भवाय वरदाय चापशनां पतये नित्यमुयाय च कपर्दिने । महादेवाय भीमाय त्र्यम्बकाय विशाम्पते। ईशानाय भगनाय नमोऽस्त्वन्धकघातिने ॥ नीलग्रीवाय भीमाय वेधसे वेधसा स्तुत । कुमारशत्रुनिमाय कुमारजननाय च ॥ विलोहिताय भूप्राय शिवाय क्रथनाय च। नित्यं नीलशिखण्डाय शूलिने दिव्यशायिने । उपाय च त्रिनेत्राय हिरण्यवसुरेतसे । अचिन्त्यायाम्बिकाभत्रे सर्वदेवस्तुताय च॥ अभिगम्याय काम्याय सद्योजाताय वै नमः । वृषध्वजाय मुण्डाय जटिने ब्रह्मचारिणे ॥ तप्यमानाय शान्ताय ब्रह्मण्याय जयाय च । विश्वात्मने विश्वसृजे विश्वमावृत्य तिष्ठते ॥ नमो नमस्ते दिव्याय प्रपन्नार्तिहराय च। भक्तानुकम्पिने नित्यं विश्वतेजोमनोगते ।
(३५।१३९-१४७) इह खया कृते स्थाने मदीये रघुनन्दन । आगत्य मानवा राम पश्येयुरिह सागरे । महापातकयुक्ता ये तेषां पापं विनक्ष्यति । ब्रह्मवध्यादि पापानि दुष्टानि यानि कानिचित्॥ दर्शनादेव नश्यन्ति नान कार्या विचारणा । (३५।१५२-१५३)
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... . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
.. [संक्षिप्त पयपुराण
पुत्रोंको सौंप दीजिये और स्वयं] अपने परम धामको श्रीरामचन्द्रजीने कहा-मैं प्रजापतियों और पधारिये। भगवन् ! आपको नमस्कार है।'... देवताओंसे पूजित लोककर्ता ब्रह्माजीको नमस्कार करता ...तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी भगवान् शंकरको प्रणाम हूँ। समस्त देवताओं, लोकों एवं प्रजाओंके स्वामी करके वहाँसे चल दिये। ऊपर-ही-ऊपर जब वे पुष्कर जगदीश्वरको प्रणाम करता हूँ। देवदेवेश्वर ! आपको तीर्थके सामने पहुंचे तो उनके विमानकी गति रुक गयी। नमस्कार है। देवता और असुर दोनों ही आपकी वन्दना अब वह आगे नहीं बढ़ पाता था। तब श्रीरामचन्द्रजीने करते हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनों कहा-सुग्रीव ! इस निराधार आकाशमें स्थित होकर कालोंके स्वामी हैं। आप ही संहारकारी रुद्र हैं। आपके भी यह विमान कैसे आबद्ध हो गया है?' इसका कुछ नेत्र भूरे रंगके हैं। आप ही बालक और आप ही वृद्ध हैं। कारण अवश्य होगा, तुम नीचे जाकर पता लगाओ।' गलेमें नीला चिह्न धारण करनेवाले महादेवजी तथा लम्बे श्रीरघुनाथजीके आज्ञानुसार सुग्रीव विमानसे उतरकर जब उदरवाले गणेशजी भी आपके ही स्वरूप है। आप पृथ्वीपर आये तो क्या देखते हैं कि देवताओं, सिद्धों वेदोंके कर्ता, नित्य, पशुपति (जीवोंके स्वामी), और ब्रह्मर्षियोंके समुदायके साथ चारों वेदोंसे युक्त अविनाशी, हाथोमें कुश धारण करनेवाले, हंससे चिह्नित भगवान् ब्रह्माजी विराजमान हैं। यह देख वे विमानपर ध्वजावाले, भोक्ता, रक्षक, शंकर, विष्णु, जटाधारी, जाकर श्रीरामचन्द्रजीसे बोले-'भगवन् ! यहाँ समस्त मुण्डित, शिखाधारी एवं दण्ड धारण करनेवाले, महान् लोकोंके पितामह ब्रह्माजी लोकपालों, वसुओं, आदित्यों यशस्वी, भूतोंके ईश्वर, देवताओंके अधिपति, सबके
और मरुद्रणोंके साथ विराजमान हैं। इसीलिये पुष्पक आत्मा, सबको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापक, सबका विमान उन्हें लांघकर नहीं जा रहा है।' तब श्रीरामचन्द्रजी संहार करनेवाले, सृष्टिकर्ता, जगद्गुरु, अविकारी, सुवर्णभूषित पुष्पक विमानसे उतरे और देवी गायत्रीके कमण्डलु धारण करनेवाले देवता, मुक्-सुवा आदि साथ बैठे हुए भगवान् ब्रह्माको साष्टाङ्ग प्रणाम किया। धारण करनेवाले, मृत्यु एवं अमृतस्वरूप, पारियात्र इसके बाद वे प्रणतभावसे उनकी स्तुति करने लगे। पर्वतरूप, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले, ब्रह्मचारी,
व्रतधारी, हृदय-गुहामें निवास करनेवाले, उत्तम कमल धारण करनेवाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्यके समान अरुण कान्तिवाले, कमलपर वास करनेवाले, षड्विध ऐश्वर्यसे परिपूर्ण, सावित्रीके पति, अच्युत, दानवोंको वर देनेवाले, विष्णुसे वरदान प्राप्त करनेवाले, कर्मकर्ता, पापहारी, हाथमें अभय-मुद्रा धारण करनेवाले, अग्निरूप मुखवाले, अग्निमय ध्वजा धारण करनेवाले, मुनिस्वरूप, दिशाओंके अधिपति, आनन्दरूप, वेदोंकी सृष्टि करनेवाले, धर्मादि चारों पुरुषार्थोक स्वामी, वानप्रस्थ, वनवासी, आश्रमोंद्वारा पूजित, जगत्को धारण करनेवाले, कर्ता, पुरुष, शाश्वत, ध्रुव, धर्माध्यक्ष, विरूपाक्ष, मनुष्योंके गन्तव्य मार्ग, भूतभावन, ऋक्, साम और यजुः-इन तीनों वेदोंको धारण करनेवाले, अनेक रूपोंवाले, हजारों सूर्योके समान तेजस्वी, अज्ञानियोंकोविशेषतः दानवोंको मोह और बन्धनमें डालनेवाले,
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- अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको
भगवान के दर्शन तथा भगवानकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति भीष्पजी बोले-ब्राह्मन्! आपने भगवान् कुछ वस्तु है, वह सब पुरुषोत्तम नारायण ही हैं। श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाका वर्णन किया। अब पुनः उन्हीं कुरुनन्दन ! चार हजार दिव्य वर्षाका सत्ययुग श्रीविष्णुभगवान्के माहात्म्यका प्रतिपादन कीजिये। कहा गया है। उसकी सन्ध्या और सन्ध्यांश आठ सौ [उनकी नाभिसे] वह सुवर्णमय कमल कैसे उत्पन्न वर्षीक माने गये हैं। उस युगमें धर्म अपने चारों चरणोंसे हुआ, प्राचीन कालमें वैष्णवी सृष्टि कमलके भीतर कैसे मौजूद रहता है और अधर्म एक ही पैरसे स्थित होता है। हुई? धर्मात्मन् ! मैं श्रद्धापूर्वक सुननेके लिये बैठा हूँ, उस समय सब मनुष्य स्वधर्मपरायण और शान्त होते हैं। अतः आप मुझे भगवान् नारायणका यश अवश्य सुनायें। सत्ययुगमें सत्य, पवित्रता और धर्मकी वृद्धि होती है।
पुलस्त्यजीने कहा-कुरुश्रेष्ठ ! तुम उत्तम कुलमें श्रेष्ठ पुरुष जिसका आचरण करते हैं, वही कर्म उस उत्पन्न हुए हो; अतः तुम्हारे हृदयमें जो भगवान् समय सबके द्वारा किया और कराया जाता है। राजन् ! श्रीनारायणके सुयशको सुननेकी उत्कण्ठा हुई है, यह सत्ययुगमें जन्मतः धार्मिक अथवा नीच कुलमें उत्पन्न उचित ही है। पुराणोंमें जैसा वर्णन किया गया है, सभी मनुष्योंका ऐसा ही धर्मानुकूल बर्ताव होता है। देवताओंके मुखसे जैसा सुना है तथा द्वैपायन व्यासजीने त्रेतायुगका मान तीन हजार दिव्य वर्ष बतलाया जाता है। अपनी तपस्यासे देखकर जैसा बतलाया है, वह अपनी उसकी दोनों सन्ध्याएँ छः सौ वर्षोंकी होती हैं। उस समय बुद्धिके अनुसार मैं तुमसे कहूँगा। यह विश्व परम पुरुष धर्म तीन चरणोंसे और अधर्म दो पादोंसे स्थित रहता है। श्रीनारायणका स्वरूप है, इसे मेरे पिता ब्रह्माजी भी उस युगमें सत्य एवं शौचका पालन तथा यज्ञ-यागादिका ठीक-ठीक नहीं जानते, फिर दूसरा कौन जान सकता है। अनुष्ठान होता है। त्रेतामें चारों वर्णोक लोग केवल वे भगवान् नारायण ही महर्षियोंके गुप्त रहस्य, सब कुछ लोभके कारण विकारको प्राप्त होते हैं। वर्णधर्ममें विकार देखने और जाननेवालोंके परमतत्त्व, अध्यात्मवेत्ताओंके आनेसे आश्रमोंमें भी दुर्बलता आ जाती है। यह अध्यात्म, अधिदैव तथा अधिभूत है। वे ही परमर्षियोंके त्रेतायुगकी देवनिर्मित विचित्र गति है। द्वापर दो हजार परब्रह्म है। वेदोंमें प्रतिपादित यज्ञ उन्हींका स्वरूप है। दिव्य वर्षोंका होता है। इसकी सन्ध्याओंका मान चार सौ विद्वान् पुरुष उन्हींको तप मानते हैं। जो कर्ता, कारक, वर्षका बताया जाता है। उस समयके प्राणी रजोगुणसे मन, बुद्धि, क्षेत्रज्ञ, प्रणव, पुरुष, शासन करनेवाले और अभिभूत होनेके कारण अधिक अर्थ-परायण, शठ, अद्वितीय समझे जाते हैं, जो पाँच प्रकारके प्राण (प्राण, दूसरोंकी जीविकाका नाश करनेवाले तथा क्षुद्र होते है। अपान, व्यान, उदान और समान), ध्रुव एवं अक्षर-तत्त्व द्वापरमें धर्म दो चरणोंसे और अधर्म तीन पादोंसे स्थित हैं, वे ही परमात्मा नाना प्रकारके भावोंद्वारा प्रतिपादित रहता है। दोनों सन्ध्याओंसहित कलियुगका मान एक होते हैं। वे ही परब्रह्म है तथा वे ही भगवान् सबकी हजार दो सौ दिव्य वर्ष है। यह क्रूरताका युग है। इसमें सृष्टि और संहार करते हैं। उन्हीं आदि पुरुषका हमलोग अधर्म अपने चारों पादोंसे और धर्म एक ही चरणसे यजन करते हैं। जितनी कथाएँ हैं, जो-जो श्रुतियाँ हैं, स्थित रहता है। उस समय मनुष्य कामी, तमोगुणी और जिसे धर्म कहते हैं, जो धर्मपरायण पुरुष हैं और जो नीच होते हैं। इस युगमें प्रायः कोई साधक, साधु और विश्व तथा विश्वके स्वामी हैं, वे सब भगवान् नारायणके सत्यवादी नहीं होता। लोग नास्तिक होते हैं, ब्राह्मणोंके ही स्वरूप माने गये हैं। जो सत्य है, जो मिथ्या है, जो प्रति उनकी भक्ति नहीं होती। सब मनुष्य अहङ्कारके आदि, मध्य और अन्तमें है, जो सीमारहित भविष्य है, वशीभूत होते हैं। उनमें परस्पर प्रेम प्रायः बहुत ही कम जो कोई चर-अचर प्राणी हैं तथा इनके अतिरिक्त भी जो होता है। कलियुगमें ब्राह्मणोंके आचरण प्रायः शूद्रोंके-से
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सृष्टिखण्ड ] • श्रीरामका लङ्का आदि होते हुए गङ्गातटपर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
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देवताओंके भी आराध्यदेय, देवताओंसे बढ़े- चढ़े, कमलसे चिह्नित जटा धारण करनेवाले, धनुर्धर, भीमरूप और धर्मके लिये पराक्रम करनेवाले हैं।
ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीकी जब इस प्रकार स्तुति की गयी, तब वे विनीतभावसे खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीका हाथ पकड़कर बोले— 'रघुनन्दन ! आप साक्षात् श्रीविष्णु हैं। देवताओंका कार्य करनेके लिये इस पृथ्वीपर मनुष्यरूपमें अवतीर्ण हुए हैं। प्रभो! आप देवताओंका सम्पूर्ण कार्य कर चुके हैं। अब गङ्गाजीके दक्षिण किनारे श्रीवामनभगवान्की प्रतिमाको स्थापित करके आप अयोध्यापुरीको लौट जाइये और वहाँसे परमधामको सिधारिये। ब्रह्माजीसे आज्ञा पाकर श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रणाम किया और पुष्पक विमानपर चढ़कर वहाँसे मथुरापुरीकी यात्रा की। वहाँ पुत्र और स्त्रीसहित शत्रुघ्नजी से मिलकर श्रीरामचन्द्रजी भरत और सुग्रीवके साथ बहुत सन्तुष्ट हुए। शत्रुघ्नने भी अपने
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भाइयोंको उपस्थित देख उनके चरणोंमें मस्तक नवाकर प्रणाम किया। उनके पाँचों अङ्ग (दोनों हाथ, दोनों घुटने और मस्तक) धरतीका स्पर्श करने लगे। श्रीरामचन्द्रजीने भाईको उठाकर छातीसे लगा लिया। तदनन्तर भरत और सुग्रीव भी शत्रुघ्नसे मिले। जब श्रीरामचन्द्रजी आसनपर विराजमान हुए, तब शत्रुघ्नने फुर्तीसे अर्घ्य निवेदन करके सेना मन्त्री आदि आठों अङ्गोंसे युक्त अपने राज्यको उनके चरणोंमें अर्पित कर दिया। श्रीरामचन्द्रजीके आगमनका समाचार सुनकर समस्त मथुरावासी, जिनमें ब्राह्मणोंकी संख्या अधिक थी, उनके दर्शनके लिये आये भगवान्ने समस्त सचिवों, वेदके विद्वानों और ब्राह्मणोंसे बातचीत करके, पाँच दिन मथुरामें रहकर वहाँसे जानेका विचार किया। उस समय श्रीरामने अत्यन्त प्रसन्न होकर शत्रुघ्नसे कहा- 'तुमने जो कुछ मुझे अर्पण किया है, वह सब मैंने तुम्हें वापस दिया। अब मथुराके राज्यपर अपने दोनों पुत्रोंका अभिषेक करो।' ऐसा कहकर भगवान् श्रीराम वहाँसे चल दिये और दोपहर होते-होते गङ्गातटपर महोदय तीर्थपर जा पहुँचे। वहाँ भगवान् वामनजीको स्थापित करके वे ब्राह्मणों एवं भावी राजाओंसे बोले- 'यह मैंने धर्मका सेतु बनाया है, जो ऐश्वर्य एवं कल्याणकी वृद्धि करनेवाला है। समयानुसार इसका पालन करते रहना चाहिये। किसी प्रकार इसका उल्लङ्घन करना उचित नहीं है।' इसके बाद भगवान् श्रीराम वानरराज सुग्रीवको किष्किन्धा भेजकर अयोध्या लौट आये और पुष्पक विमानसे बोले - 'अब तुम्हें यहाँ आनेकी आवश्यकता नहीं होगी; जहाँ धनके स्वामी कुबेर हैं, वहीं रहना । तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी सम्पूर्ण कार्योंसे निवृत्त हो गये। अब उन्होंने अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं समझा। भीष्म ! इस प्रकार मैंने श्रीरामकी कथाके प्रसङ्गसे भगवान् श्रीवामनके प्राकट्यकी वार्ता भी तुम्हें कह दी।
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सृष्टिखण्ड ]
• भगवान् श्रीनारायणकी महिमा तथा मार्कण्डेयजीको भगवान्के दर्शन •
हो जाते हैं। आश्रमोंका ढंग भी बिगड़ जाता है। जब युगका अन्त होनेको आता है, उस समय तो वर्णोंके पहचानने में भी सन्देह हो जाता है— कौन मनुष्य किस वर्णका है, यह समझना कठिन हो जाता है। यह बारह हजार दिव्य वर्षोंका समय एक चतुर्युग (चौकड़ी) कहलाता है। इस प्रकारके हजार चतुर्युग बीतनेपर ब्रह्माका एक दिन होता है।
इस प्रकार ब्रह्माकी भी आयु जब समाप्त हो जाती है, तब काल सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरकी आयु पूरी हुई जान जगत्का संहार करनेके लिये महाप्रलय आरम्भ करता है। योग-शक्ति- सम्पन्न सर्वरूप भगवान् नारायण सूर्यरूप होकर अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्रोंको सोख लेते हैं। तदनन्तर श्रीहरि बलवान् वायुका रूप धारणकर सारे जगत्को कँपाते हुए प्राण, अपान और समान आदिके द्वारा आक्रमण करते हैं। घ्राणेन्द्रियका विषय, घ्राणेन्द्रिय तथा पार्थिव शरीर- ये गुण पृथ्वीमें समा जाते हैं। रसनेन्द्रिय, उसका विषय रस और स्रेह आदि जलके गुण जलमें लीन हो जाते हैं। नेत्रेन्द्रिय, उसका विषय रूप और मन्दता, पटुता आदि नेत्रके गुण – ये अग्नि तत्त्वमें प्रवेश कर जाते हैं। वागिन्द्रिय और उसका विषय, स्पर्श और चेष्टा आदि वायुके गुण-ये वायुमें समा जाते हैं। श्रवणेन्द्रिय और उसका विषय शब्द तथा सुननेकी क्रिया आदि गुण आकाशमें विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार कालरूप भगवान् एक ही मुहूर्तमें सम्पूर्ण लोकोंकी जीवनयात्रा नष्ट कर देते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और क्षेत्रज्ञ - ये परमेष्ठी ब्रह्माजीमें लीन हो जाते हैं और ब्रह्माजी भगवान् हृषीकेशमें लीन हो जाते हैं। पञ्च महाभूत भी उस अमित तेजस्वी विभुमें प्रवेश कर जाते हैं। सूर्य, वायु और आकाशके नष्ट हो जाने तथा सूक्ष्म जगत्के भी लीन हो जानेपर अमितपराक्रमी सनातन पुरुष भगवान् श्रीविष्णु सबको दग्ध करके अपनेमें समेटकर अकेले ही अनेक सहस्र युगोंतक एकार्णवके जलमें शयन करते हैं। उन अव्यक्त परमेश्वरके सम्बन्धमें कोई व्यक्त जीव यह नहीं जान पाता कि ये पुरुषरूप कौन हैं। उन देवश्रेष्ठके विषयमें उनके सिवा दूसरा कोई कुछ नहीं जानता ।
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भीष्म ! एक समयकी बात सुनो, महामुनि मार्कण्डेयको एकार्णवके जलमें शयन करनेवाले भगवान् कौतूहलवश अपने मुँहमें लील गये। कई हजार वर्षोंकी आयुवाले वे महर्षि भगवान्के ही उत्कृष्ट तेजसे उनके उदरमें तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे विचरते हुए पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें घूमते फिरे। अनेकों पुण्यतीर्थोक जलसे युक्त वन और नाना प्रकारके आश्रम उन्हें दृष्टिगोचर हुए। उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न यज्ञोंद्वारा यजन करनेवाले यजमानों तथा यज्ञमें सम्मिलित सैकड़ों ब्राह्मणोंको भी उन्होंने भगवान्के उदरमें देखा। वहाँ ब्राह्मण आदि सभी वर्णोंके लोग सदाचारमें स्थित थे। चारों ही आश्रम अपनी-अपनी मर्यादामें स्थित थे। इस प्रकार भगवान्के उदरमें समूची पृथ्वीपर विचरते बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीको सौ वर्षोंसे कुछ अधिक समय बीत गया। तदनन्तर वे किसी समय पुनः भगवान्के मुखसे बाहर निकले। उस समय भी सब ओर एकार्णवका जल ही दिखायी देता था। समस्त दिशाएँ कुहरेसे आच्छादित थीं । जगत् सम्पूर्ण प्राणियोंसे रहित था। ऐसी अवस्थामें मार्कण्डेयजीने देखा एक बरगदकी शाखापर एक छोटा सा बालक सो रहा है। यह देखकर मुनिको बड़ा
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
आश्चर्य हुआ। वे उस बालकका वृत्तान्त जाननेके लिये ही हूँ। मैं दयापरायण धर्म और दूधसे भरा हुआ उत्सुक हो गये। उनके मनमें यह संदेह हुआ कि मैंने महासागर हूँ तथा जो सत्यस्वरूप परम तत्त्व है, वह भी कभी इसे देखा है। यह सोचकर वे उस पूर्व-परिचित मैं ही हूँ। एकमात्र मैं ही प्रजापति हूँ। मैं ही सांख्य, मैं बालकको देखनेके लिये आगे बढ़े। उस समय उनके ही योग और मैं ही परमपद है। यज्ञ, क्रिया और नेत्र भयसे कातर हो रहे थे। उन्हें आते देख ब्राह्मणोंका स्वामी भी मैं ही हूँ। मैं ही अग्नि, मैं ही वायु, बालरूपधारी भगवान्ने कहा-'मार्कण्डेय ! तुम्हारा मैं ही पृथ्वी, मैं ही आकाश और मैं ही जल, समुद्र, स्वागत है। तुम डरो मत, मेरे पास चले आओ।' नक्षत्र तथा दसों दिशाएँ हूँ। वर्षा, सोम, मेघ और
मार्कण्डेय बोले-यह कौन है, जो मेरा तिरस्कार हविष्य-इन सबके रूपमें मैं ही हैं। क्षीरसागरके भीतर करता हुआ मुझे नाम लेकर पुकार रहा है? तथा समुद्रगत बडवाग्निके मुखमें भी मेरा ही निवास है।
भगवान्ने कहा-बेटा ! मैं तुम्हारा पितामह, मैं ही संवर्तक अग्नि होकर सारा जल सोख लेता हूँ। मैं आयु प्रदान करनेवाला पुराणपुरुष हूँ। मेरे पास तुम क्यों ही सूर्य हूँ। मैं ही परम पुरातन तथा सबका आश्रय हूँ। नहीं आते। तुम्हारे पिता आङ्गिरस मुनिने पूर्वकालमें भविष्यमें भी सर्वत्र में ही प्रकट होऊँगा। तथा भावी पुत्रकी कामनासे तीव्र तपस्या करके मेरी ही आराधना की सम्पूर्ण वस्तुओंकी उत्पत्ति मुझसे ही होती है। विप्रवर ! थी। तब मैंने उन अमिततेजस्वी महर्षिको तुम्हारे-जैसा संसारमें तुम जो कुछ देखते हो, जो कुछ सुनते हो और तेजस्वी पुत्र होनेका सच्चा वरदान दिया था। जो कुछ अनुभव करते हो उन सबको मेरा ही स्वरूप
यह सुनकर महातपस्वी मार्कण्डेयजीका हृदय समझो।* मैंने ही पूर्वकालमें विश्वकी सृष्टि की है तथा प्रसन्नतासे भर गया, उनके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। वे आज भी मैं ही करता हूँ। तुम मेरी ओर देखो। मस्तकपर अञ्जलि बाँधे नाम-गोत्रका उच्चारण करते हुए मार्कण्डेय ! मैं ही प्रत्येक युगमें सम्पूर्ण जगत्की रक्षा भक्तिपूर्वक भगवान्को नमस्कार करने लगे और करता हूँ। इन सारी बातोंको तुम अच्छी तरह समझ लो। बोले-'भगवन् ! मैं आपकी मायाको यथार्थरूपसे यदि धर्मके सेवन या श्रवणकी इच्छा हो तो मेरे उदरमें जानना चाहता हूँ: इस एकार्णवके बीच आप बालरूप रहकर सुखपूर्वक विचरो। मैं ही एक अक्षरका और मैं धरकर कैसे सो रहे हैं?'
ही तीन अक्षरका मन्त्र हैं। ब्रह्माजी भी मेरे ही स्वरूप श्रीभगवान्ने कहा-ब्रह्मन् ! मैं नारायण हूँ। है। धर्म-अर्थ-कामरूप त्रिवर्गसे परे ओङ्कारस्वरूप जिन्हें हजारों मस्तकों और हजारों चरणोंसे युक्त बताया परमात्मा, जो सबको तात्त्विक दृष्टि प्रदान करनेवाले हैं, जाता है, वह विराट परमात्मा मेरा ही स्वरूप है। मैं मैं ही हूँ। सूर्यके समान वर्णवाला तेजोमय पुरुष हैं। मैं इस प्रकार कहते हुए उन महाबुद्धिमान् पुराणपुरुष देवताओंको हविष्य पहुँचानेवाला अग्नि हूँ और मैं ही परमेश्वरने महामुनि मार्कण्डेयको तुरंत ही अपने मुँहमें ले सात घोड़ोंके रथवाला सूर्य हूँ। मैं ही इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित लिया। फिर तो वे मुनिश्रेष्ठ भगवान्के उदरमें प्रवेश कर होनेवाला इन्द्र और ऋतुओंमें परिवत्सर हूँ। सम्पूर्ण प्राणी गये और नेत्रके सामने एकान्त स्थानमें धर्म श्रवण तथा समस्त देवता मेरे ही स्वरूप है। मैं सोंमें शेषनाग करनेकी इच्छासे बैठे हए अविनाशी हंस भगवानके पास और पक्षियोंमें गरुड़ हूँ। सम्पूर्ण भूतोंका संहार उपस्थित हुए। भगवान् हंस अविनाशी और विविध करनेवाला काल भी मुझे ही समझना चाहिये। समस्त शरीर धारण करनेवाले हैं। वे चन्द्रमा और सूर्यसे रहित आश्रमोंमें निवास करनेवाले मनुष्योंका धर्म और तप मैं प्रलयकालीन एकार्णवके जलमें धीरे-धीरे विचरते तथा
• यत्किञ्चित्पश्यसे विप्र यच्छृणोषि च किंचन ॥ यच्चानुभवसे लोके तत्सर्व मामनुस्मर। (३६ । १३४-१३५)
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सृष्टिखण्ड ]
• मधु-कैटभका तथ तथा सृष्टि परम्पराका वर्णन •
जगत् की सृष्टि करनेका संकल्प लेकर विहार करते हैं तदनन्तर विमलमति महात्मा हंसने लोक-रचनाका विचार किया। उस विश्वरूप परमात्माने विश्वका चिन्तन किया। एवं भूतोंकी उत्पत्तिके विषयमें सोचा। उनके तेजसे अमृतके समान पवित्र जलका प्रादुर्भाव हुआ। अपनी
* मधु-कैटभका वध तथा गुलस्त्यजी कहते हैं— तदनन्तर अनेक योजनके विस्तारवाले उस सुवर्णमय कमलमें, जो सब प्रकारके तेजोमय गुणोंसे युक्त और पार्थिव लक्षणोंसे सम्पन्न था, भगवान् श्रीविष्णुने योगियोंमें श्रेष्ठ, महान् तेजस्वी एवं समस्त लोकोंकी सृष्टि करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्माजीको उत्पन्न किया। महर्षिगण उस कमलको श्रीनारायणकी नाभिसे उत्पन्न बतलाते हैं। उस कमलका जो सारभाग है, उसे पृथ्वी कहते हैं तथा उस सारभागमें भी जो अधिक भारी अंश हैं, उन्हें दिव्य पर्वत माना जाता है। कमलके भीतर एक और कमल है, जिसके भीतर एकार्णवके जलमें पृथ्वीकी स्थिति मानी गयी है। इस कमलके चारों ओर चार समुद्र हैं। विश्वमें जिनके प्रभावकी कहीं तुलना नहीं है, जिनकी सूर्यके समान प्रभा और वरुणके समान अपार कान्ति है तथा यह जगत् जिनका स्वरूप है, वे स्वयम्भू महात्मा ब्रह्माजी उस एकार्णवके जलमें धीरे-धीरे पद्मरूप निधिकी रचना करने लगे। इसी समय तमोगुणसे उत्पन्न मधुनामका महान् असुर तथा रजोगुणसे प्रकट हुआ कैटभ नामधारी असुर- ये दोनों ब्रह्माजीके कार्यमें विघ्नरूप होकर उपस्थित हुए। यद्यपि वे क्रमशः तमोगुण और रजोगुणसे उत्पन्न हुए थे, तथापि तमोगुणका विशेष प्रभाव पड़नेके कारण दोनोंका स्वभाव तामस हो गया था। महान् बलीतो वे थे ही, एकार्णवमें स्थित सम्पूर्ण जगत्को क्षुब्ध करने लगे। उन दोनोंके सब ओर मुख थे। एकार्णवके जलमें विचरते हुए जब वे पुष्करमें गये, तब वहाँ उन्हें अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्माजीका दर्शन हुआ।
तब वे दोनों असुर ब्रह्माजीसे पूछने लगे- 'तुम कौन हो ? जिसने तुम्हें सृष्टिकार्यमें नियुक्त किया है, वह
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महिमासे कभी च्युत न होनेवाले सर्वलोकविधाता महेश्वर श्रीहरिने उस महान् जलमें विधिवत् जलक्रीड़ा की फिर उन्होंने अपनी नाभिसे एक कमल उत्पन्न किया, जो अनेकों रंगोंके कारण बड़ी शोभा पा रहा था वह सुवर्णमय कमल सूर्यके समान तेजोमय प्रतीत होता था।
सृष्टि परम्पराका वर्णन
तुम्हारा कौन है ? कौन तुम्हारा स्रष्टा है और कौन रक्षक ? तथा वह किस नामसे पुकारा जाता है ?
ब्रह्माजी बोले- असुरो ! तुमलोग जिनके विषयमें पूछते हो, वे इस लोकमें एक ही कहे जाते हैं। जगत्में जितनी भी वस्तुएँ हैं उन सबसे उनका संयोग है-वे सबमें व्याप्त हैं। [उनका कोई एक नाम नहीं है, ] उनके अलौकिक कर्मो के अनुसार अनेक नाम है।
यह सुनकर वे दोनों असुर सनातन देवता भगवान् श्रीविष्णुके समीप गये, जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ था तथा जो इन्द्रियोंके स्वामी हैं। वहाँ जा उन दोनोंने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए कहा- हम जानते हैं, आप विश्वकी उत्पत्तिके स्थान, अद्वितीय तथा पुरुषोत्तम हैं। हमारे जन्मदाता भी आप ही हैं। हम आपको ही बुद्धिका भी कारण समझते हैं। देव! हम आपसे हितकारी वरदान चाहते हैं। शत्रुदमन ! आपका दर्शन अमोघ है। समर विजयी वीर! हम आपको नमस्कार करते हैं।'
श्रीभगवान् बोले- असुरो ! तुमलोग वर किसलिये माँगते हो ? तुम्हारी आयु समाप्त हो चुकी है, फिर भी तुम दोनों जीवित रहना चाहते हो ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है।
मधु-कैटभने कहा- प्रभो ! जिस स्थानमें किसीकी मृत्यु न हुई हो; वहीं हमारा वध हो हमें इसी वरदानकी इच्छा है।
श्रीभगवान् बोले- 'ठीक है' इस प्रकार उन महान् असुरोंको वरदान देकर देवताओंके प्रभु सनातन श्रीविष्णुने अञ्जनके समान काले शरीरवाले मधु और कैटभको अपनी जाँघोंपर गिराकर मसल डाला।
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• अर्चयख हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
तदनन्तर ब्रह्माजी अपनी बाँहें ऊपर उठाये घोर तपस्याम अभिमत, वत्सर, भूति, सर्वासुरनिषूदन, सुपर्वा, संलग्न हुए । भगवान् भास्करकी भाँति अन्धकारका नाश बृहत्कान्त और महालोकनमस्कृत । देवी (वसु) ने वसुकर रहे थे और सत्यधर्मके परायण होकर अपनी संज्ञक देवताओंको उत्पन्न किया, जो इन्द्रका अनुसरण किरणोंसे सूर्यके समान चमक रहे थे। किन्तु अकेले करनेवाले थे। धर्मकी चौथी पत्नी विश्वा (विश्वेशा) के होनेके कारण उनका मन नहीं लगा; अतः उन्होंने अपने गर्भसे विश्वेदेव नामक देवता उत्पन्न हुए। इस प्रकार यह शरीरके आधे भागसे शुभलक्षणा भार्याको उत्पन्न किया। धर्मकी सन्तानोंका वर्णन हुआ। विश्वेदेवोंके नाम इस तत्पश्चात् पितामहने अपने ही समान पुत्रोंकी सृष्टि की, प्रकार है-महाबाहु दक्ष, नरेश्वर पुष्कर, चाक्षुष मनु, जो सब-के-सब प्रजापति और लोकविख्यात योगी हुए। महोरग, विश्वानुग, वसु, बाल, महायशस्वी निष्कल,
ब्रह्माजीने [दस प्रजापतियोंके अतिरिक्त लक्ष्मी, अति सत्यपराक्रमी रुरुद तथा परम कान्तिमान् भास्कर । साध्या, शुभलक्षणा विश्वेशा, देवी तथा सरस्वती-इन इन विश्वेदेव-संज्ञक पुत्रोंको देवमाता विश्वेशाने जन्म दिया पाँच कन्याओंको भी उत्पन्न किया। ये देवताओंसे भी है। मरुत्त्वतीने महत्त्वान् नामके देवताओंको उत्पन्न किया, श्रेष्ठ और आदरणीय मानी जाती हैं। कोंके साक्षी जिनके नाम ये है-अग्नि, चक्षु ज्योति, सावित्र, मित्र, ब्रह्माजीने ये पाँचों कन्याएँ धर्मको अर्पण कर दी। अमर, शरवृष्टि, सुवर्ष, महाभुज, विराज, राज, विश्वायु, ब्रह्माजीके आधे शरीरसे जो पली प्रकट हुई थी, वह सुमति, अश्वगन्ध, चित्ररश्मि, निषध, आत्मविधि, चारित्र, इच्छानुसार रूप धारण कर लेती थी। वह सुरभिके पादमात्रग, बृहत्, बृहद्रूप तथा विष्णुसनाभिग। ये सब रूपमें ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित हुई। लोकपूजित मरुत्त्वतीके पुत्र मरुद्गण कहलाते हैं। अदितिने कश्यपके ब्रह्माजीने उसके साथ समागम किया, जिससे ग्यारह पुत्र अंशसे बारह आदित्योंको जन्म दिया। उत्पन्न हुए। पितामहसे जन्म ग्रहण करनेवाले वे सभी इस प्रकार महर्षियोंद्वारा प्रशंसित सृष्टि-परम्पराका बालक रोदन करते हुए दौड़े। अतः रोने और दौड़नेके क्रमशः वर्णन किया गया। जो मनुष्य इस श्रेष्ठ पुराणको कारण उनकी 'रुद्र' संज्ञा हुई। इसी प्रकार सुरभिके सदा सुनेगा और पर्वोक अवसरपर इसका पाठ करेगा, गर्भसे गौ, यज्ञ तथा देवताओंकी भी उत्पत्ति हुई । बकरा, वह इस लोकमें वैराग्यवान् होकर परलोकमें उत्तम हंस और श्रेष्ठ ओषधियाँ (अन्न आदि) भी सुरभिसे ही फलोंका उपभोग करेगा। जो इस पौष्कर पर्वकाउत्पन्न हुई है। धर्मसे लक्ष्मीने सोमको और साध्याने महात्मा ब्रह्माजीके प्रादुर्भावकी कथाका पाठ करता है, साध्य नामक देवताओंको जन्म दिया। उनके नाम इस उसका कभी अमङ्गल नहीं होता। महाराज ! प्रकार हैं-भव, प्रभव, कृशाश्व, सुवह, अरुण, वरुण, श्रीव्यासदेवसे जैसे मैंने सुना है, उसी प्रकार तुम्हारे विश्वामित्र, चल, धुव, हविष्मान्, तनूज, विधान, सामने मैंने इस प्रसङ्गका वर्णन किया है।
तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और
ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन् ! अत्यन्त बलवान् प्रकट होती है, उसी प्रकार दितिके गर्भसे दैत्योंकी उत्पत्ति तारक नामके दैत्यकी उत्पत्ति कैसे हुई ? कार्तिकेयजीने हुई है। पूर्वकालमें उसी शुभलक्षणा दितिको महर्षि उस महान् असुरका संहार किस प्रकार किया? भगवान् कश्यपने यह वरदान दिया था कि 'देवि ! तुम्हें वज्राङ्ग रुद्रको उमाकी प्राप्ति किस प्रकार हुई ? महामुने ! ये नामका एक पुत्र होगा, जिसके सभी अङ्ग वज्रके समान सारी बातें जिस प्रकार हुई हों, सब मुझे सुनाइये। सुदृढ़ होंगे।' वरदान पाकर देवी दितिने समयानुसार उस
पुलस्त्यजीने कहा-राजन् ! जैसे अरणीसे अग्नि पुत्रको जन्म दिया, जो वजके द्वारा भी अच्छेद्य था।
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सृष्टिखण्ड ]
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तारकासुरके जन्मकी कथा और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना •
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वह जन्मते ही समस्त शास्त्रोंमें पारङ्गत हो गया। उसने बड़ी भक्तिके साथ मातासे कहा- 'माँ मैं तुम्हारी किस आज्ञाका पालन करूँ ?' यह सुनकर दितिको बड़ा हर्ष हुआ। वह दैत्यराजसे बोली- 'बेटा! इन्द्रने मेरे बहुत-से पुत्रोंको मौतके घाट उतार दिया है। अतः उनका बदला लेनेके उद्देश्यसे तुम भी इन्द्रका वध करनेके लिये जाओ।' महाबली वज्राङ्ग 'बहुत अच्छा कहकर स्वर्गमें गया और अमोघ तेजवाले पाशसे इन्द्रको बाँधकर अपनी माँके पास ले आया- ठीक उसी तरह, जैसे कोई व्याध छोटे-से मृगको बाँध लाये। इसी समय ब्रह्माजी तथा महातपस्वी कश्यप मुनि उस स्थानपर आये, जहाँ वे दोनों माँ-बेटे निर्भय होकर खड़े थे। उन्हें देखकर ब्रह्मा और कश्यपजीने कहा- 'बेटा! इन्हें छोड़ दो, ये देवताओंके राजा हैं; इन्हें लेकर तुम क्या करोगे। सम्मानित पुरुषका अपमान ही उसका वध कहा गया है। यदि शत्रु अपने शत्रुके हाथमें आ जाय और वह दूसरेके गौरवसे छुटकारा पाये तो वह जीता हुआ भी प्रतिदिन चिन्तामग्न रहनेके कारण मृतकके ही समान हो जाता है।' यह सुनकर वज्राङ्गने ब्रह्माजी और कश्यपजीके चरणोंमें प्रणाम करते हुए कहा- 'मुझे इन्द्रको बाँधनेसे कोई मतलब नहीं है। मैंने तो माताकी आज्ञाका पालन किया है। देव! आप देवता और असुरोंके भी स्वामी तथा मेरे माननीय प्रपितामह हैं; अतएव आपकी आशाका पालन अवश्य करूँगा। यह लीजिये, मैंने इन्द्रको मुक्त कर दिया। मेरा मन तपस्यामें लगता है, अतः मेरी तपस्या ही निर्विघ्न पूरी हो -यह आशीर्वाद प्रदान कीजिये।'
ब्रह्माजी बोले- वत्स! तुम मेरी आज्ञाके अधीन रहकर तपस्या करो। तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति नहीं आ सकती। तुमने अपने इस शुद्ध भावसे जन्मका फल प्राप्त कर लिया।
यह कहकर ब्रह्माजीने बड़े-बड़े नेत्रोंवाली एक कन्या उत्पन्न की और उसे वज्राङ्गको पत्नीरूपमें अङ्गीकार करनेके लिये दे दिया। उस कन्याका नाम वराङ्गी बताकर ब्रह्माजी वहाँसे चले गये और वज्राङ्ग उसे
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साथ ले तपस्याके लिये वनमें चला गया। उस दैत्यराजके नेत्र कमलपत्रके समान विशाल एवं सुन्दर थे। उसकी बुद्धि शुद्ध थी तथा वह महान् तपस्वी था। उसने एक हजार वर्षोंतक बाँहें ऊपर उठाये खड़े होकर तपस्या की। तदनन्तर उसने एक हजार वर्षोंतक पानीके भीतर निवास किया। जलके भीतर प्रवेश कर जानेपर उसकी पत्नी वराङ्गी, जो बड़ी पतिव्रता थी, उसी सरोवरके तटपर चुपचाप बैठी रही और बिना कुछ खायेपिये घोर तपस्यामें प्रवृत्त हो गयी। उसके शरीरमें महान् तेज था। इसी बीचमें एक हजार वर्षोंका समय पूरा हो गया। तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर उस जलाशयके तटपर आये और वज्राङ्गसे इस प्रकार बोले— 'दितिनन्दन ! उठो, मैं तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी करूंगा।'
उनके ऐसा कहनेपर वज्राङ्ग बोला- 'भगवन् ! मेरे हृदयमें आसुर भाव न हो, मुझे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हो तथा जबतक यह शरीर रहे, तबतक तपस्यामें ही मेरा अनुराग बना रहे।' 'एवमस्तु' कहकर ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये और संयमको स्थिर रखनेवाला वज्राङ्ग तपस्या समाप्त होनेपर जब घर लौटनेकी इच्छा करने लगा, तब उसे आश्रमपर अपनी स्त्री नहीं दिखायी दी। भूखसे आकुल होकर उसने पर्वतके घने जंगलमें फल मूल लेनेके लिये प्रवेश किया। वहाँ जाकर देखा उसकी पत्नी वृक्षकी ओटमें मुँह छिपाये दीनभावसे रो रही है। उसे इस अवस्थामें देख दितिकुमारने सान्त्वना देते हुए पूछा - 'कल्याणी ! किसने तुम्हारा अपकार करके यमलोकमें जानेकी इच्छा की है ?'
वराङ्गी बोली - प्राणनाथ! तुम्हारे जीते जी मेरी दशा अनाथकी-सी हो रही है। देवराज इन्द्रने भयंकर रूप धारण करके मुझे डराया है, आश्रमसे बाहर निकाल दिया है, मारा है और भूरि-भूरि कष्ट दिया है। मुझे अपने दुःखका अन्त नहीं दिखायी देता था; इसलिये मैं प्राणत्याग देनेका निश्चय कर चुकी थी। आप एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो मुझे इस दुःखके समुद्रसे तार दे।
वराङ्गीके ऐसा कहनेपर दैत्यराज वज्राङ्गके नेत्र
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. . अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पद्मपुराण
क्रोधसे चञ्चल हो उठे। यद्यपि वह महान् असुर वर्षातक पञ्चाग्नि-सेवन कर, सौ वर्षांतक केवल पत्ते देवराजसे बदला लेनेकी पूरी शक्ति रखता था, तथापि चबाकर तथा सौ वर्षोंतक सिर्फ जल पीकर तपस्या उस महाबलीने पुनः तप करनेका ही निश्चय किया। करता रहा। इस प्रकार जब उसका शरीर अत्यन्त दुर्बल उसका संकल्प जानकर ब्रह्माजी वहाँ आये और उससे और तपका पुञ्ज हो गया, तब ब्रह्माजीने आकर कहापूछने लगे-'बेटा! तुम फिर किसलिये तपस्या 'दैत्यराज ! तुमने उत्तम व्रतका पालन किया है, कोई वर करनेको उद्यत हुए हो?' वज्राङ्गने कहा-'पितामह ! माँगो।' उसने कहा-'किसी भी प्राणीसे मेरी मृत्यु न आपकी आज्ञा मानकर समाधिसे उठनेपर मैंने देखा- हो।' तव ब्रह्माजीने कहा-'देहधारियोंके लिये मृत्यु इन्द्रने वराङ्गीको बहुत त्रास पहुँचाया हैअतः यह मुझसे निश्चित है; इसलिये तुम जिस किसी निमित्तसे भी, ऐसा पुत्र चाहती है, जो इसे इस विपत्तिसे उबार दे। जिससे तुम्हें भय न हो, अपनी मृत्यु माँग लो।' तब दादाजी ! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो मुझे ऐसा दैत्यराज तारकने बहुत सोच-विचारकर सात दिनके पुत्र दीजिये।'
बालकसे अपनी मृत्यु माँगी। उस समय वह महान् ब्रह्माजी बोले-वीर ! ऐसा ही होगा। अब तुम्हें असुर घमंडसे मोहित हो रहा था। ब्रह्माजी 'तथास्तु' तपस्या करनेकी आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे तारक कहकर अपने धामको चले और दैत्य अपने घर लौट नामका एक महाबली पुत्र होगा।
गया। वहाँ जाकर उसने अपने मन्त्रियोंसे कहा___ ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर दैत्यराजने उन्हें प्रणाम 'तुमलोग शीघ्र ही मेरी सेना तैयार करो।' ग्रसन नामका किया और वनमें जाकर अपनी रानीको, जिसका हृदय दानव दैत्यराज तारकका सेनापति था। उसने स्वामीकी दुःखी था, प्रसन्न किया। वे दोनों पति-पत्नी सफल- बात सुनकर बहुत बड़ी सेना तैयार की। गम्भीर स्वरमें मनोरथ होकर अपने आश्रममें गये। सुन्दरी वराङ्गी रणभेरी बजाकर उसने तुरंत ही बड़े-बड़े दैत्योंको अपने पतिके द्वारा स्थापित किये हुए गर्भको पूरे एक एकत्रित किया, जिनमें एक-एक दैत्य प्रचण्ड पराक्रमी हजार वर्षातक उदरमें ही धारण किये रही। इसके बाद होनेके साथ ही दस-दस करोड़ दैत्योंका यूथपति था। उसने पुत्रको जन्म दिया। उस दैत्यके पैदा होते ही सारी जम्भ नामक दैत्य उन सबका अगुआ था और कुजम्भ पृथ्वी डोलने लगी-सर्वत्र भूकम्प होने लगा। उसके पीछे चलनेवाला था। इनके सिवा महिष, कुञ्जर, महासागर विक्षुब्ध हो उठे। वराङ्गी पुत्रको देखकर हर्षसे मेघ, कालनेमि, निमि, मन्थन, जम्भक और शुम्भ भी भर गयी। दैत्यराज तारक जन्मते ही भयंकर पराक्रमी हो प्रधान थे। इस प्रकार ये दस दैत्यपति सेनानायक थे। गया। कुजम्भ और महिष आदि मुख्य-मुख्य असुरोंने उनके अतिरिक्त और भी सैकड़ों ऐसे दानव थे, जो मिलकर उसे राजाके पदपर अभिषिक्त कर दिया। अपनी भुजाओंपर पृथ्वीको तोलनेकी शक्ति रखते थे। दैत्योंका महान् साम्राज्य प्राप्त करके दानवश्रेष्ठ तारकने दैत्योंमें सिंहके समान पराक्रमी तारकासुरकी वह सेना कहा-'महाबली असुरो और दानवो! तुम सब लोग बड़ी भयङ्कर जान पड़ती थी। वह मतवाले गजराजों, मेरी बात सुनो। देवगण हमलोगोंके वंशका नाश घोड़ों और रथोंसे भरी हुई थी। पैदलोंकी संख्या भी करनेवाले हैं। जन्मगत स्वभावसे ही उनके साथ हमारा बहुत थी और सेनामें सब ओर पताकाएँ फहरा रही थीं। अटूट वैर बढ़ा हुआ है। अतः हम सब लोग इसी बीचमें देवताओंके दूत वायु असुरलोकमें देवताओंका दमन करनेके लिये तपस्या करेंगे।' : आये और दानव-सेनाका उद्योग देखकर इन्द्रको उसका
पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! यह सन्देश समाचार देनेके लिये गये। देवसभा पहुँचकर उन्होंने सुनाकर सबकी सम्मति ले तारकासुर पारियात्र पर्वतपर देवताओंके बीच में इस नयी घटनाका हाल सुनाया। उसे चला गया और वहाँ सौ वर्षोंतक निराहार रहकर, सौ सुनकर महाबाहु देवराजने आँखें बंद करके बृहस्पतिजीसे
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सृष्टिखण्ड ]
. • तारकासुरके जन्मकी कथा और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना •
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कहा-'गुरुदेव! इस समय देवताओंके सामने काम नहीं करते थे। उन्हें प्रहार करते देख दानवराज दानवोंके साथ घोर संग्रामका अवसर उपस्थित होना तारक रथसे कूद पड़ा और करोड़ों देवताओंको उसने चाहता है; इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। कोई अपने हाथके पृष्ठभागसे ही मार गिराया। यह देख नीतियुक्त बात बताइये।'
- देवताओंकी बची-खुची सेना भयभीत हो उठी और बृहस्पतिजी बोले-सुरश्रेष्ठ ! साम-नीति और युद्धकी सामग्री वहीं छोड़कर चारों दिशाओंमें भाग चतुरङ्गिणी सेना-ये ही दो विजयाभिलाषी वीरोंकी गयी। ऐसी परिस्थितिमें पड़ जानेपर देवताओंके हृदयमें सफलताके साधन सुने गये हैं। ये ही सनातन बड़ा दुःख हुआ और वे जगद्गुरु ब्रह्माजीकी शरणमें रक्षा-कवच है। नीतिके चार अङ्ग हैं-साम, भेद, दान जाकर सुन्दर अक्षरोंसे युक्त वाक्योंद्वारा उनकी स्तुति
और दण्ड। यदि आक्रमण करनेवाले शत्रु लोभी हों तो करने लगे। उनपर सामनीतिका प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वे एकमतके देवता बोले-सत्त्वमूर्ते! आप प्रणवरूप हैं।
और संगठित हों तो उनमें फूट भी नहीं डाली जा सकती अनन्त भेदोंसे युक्त जो यह विश्व है, उसके अङ्कर तथा जो बलपूर्वक सर्वस्व छीन लेनेकी शक्ति रखते हैं, आदिकी उत्पत्तिके लिये आप सबसे पहले ब्रह्मारूपमें उनके प्रति दाननीतिके प्रयोगसे भी सफलता नहीं मिल प्रकट हुए हैं। तदनन्तर इस जगत्की रक्षाके लिये सकती; अतः अब यहाँ एक ही उपाय शेष रह जाता है। सत्वगुणके मूलभूत विष्णुरूपसे स्थित हुए हैं। इसके वह है-दण्ड। यदि आपलोगोंको जॅचे तो दण्डका ही बाद इसके संहारकी इच्छासे आपने रुद्ररूप धारण प्रयोग करें।
किया। इस प्रकार एक होकर भी त्रिविध रूप धारण बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर इन्द्रने अपने कर्तव्यका करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। जगत्में जितने निश्चय करके देवताओंकी सभामें इस प्रकार भी स्थूल पदार्थ हैं, उन सबके आदि कारण आप ही हैं; कहा-'स्वर्गवासियो! सावधान होकर मेरी बात अतः आपने अपनी ही महिमासे सोच-विचारकर हम सुनो-इस समय युद्धके लिये उद्योग करना ही उचित देवताओंका नाम-निर्देश किया है। साथ ही इस है; अतः मेरी सेना तैयार की जाय । यमराजको सेनापति ब्रह्माण्डके दो भाग करके ऊर्ध्वलोकोंको आकाशमें तथा बनाकर सम्पूर्ण देवता शीघ्र ही संग्रामके लिये निकले।' अधोलोकोंको पृथ्वीपर और उसके भीतर स्थापित किया यह सुनकर प्रधान-प्रधान देवता कवच बाँधकर तैयार है। इससे हमें यह जान पड़ता है कि विश्वका सारा हो गये। मातलिने देवराजका दुर्जय रथ जोतकर खड़ा अवकाश आपने ही बनाया है। आप देहके भीतर किया। यमराज भैंसेपर सवार हो सेनाके आगे खड़े हुए। रहनेवाले अन्तर्यामी पुरुष है। आपके शरीरसे ही वे अपने प्रचण्ड किङ्करोंद्वारा सब ओरसे घिरे हुए थे। देवताओंका प्राकट्य हुआ है। आकाश आपका मस्तक, अग्नि, वायु, वरुण, कुबेर, चन्द्रमा तथा आदित्य-सब चन्द्रमा और सूर्य नेत्र, सर्पोका समुदाय केश और दिशाएँ लोग युद्धके लिये उपस्थित हुए। देवताओंकी वह सेना कानोंके छिद्र है। यज्ञ आपका शरीर, नदियाँ सन्धिस्थान, तीनों लोकोंके लिये दुर्जय थी। उसमें तैंतीस करोड़ पृथ्वी चरण और समुद्र उदर हैं। भगवन् ! आप देवता एकत्रित थे। तदनन्तर युद्ध आरम्भ हुआ। भक्तोंको शरण देनेवाले, आपत्तिसे बचानेवाले तथा अश्विनीकुमार, मरुद्रण, साध्यगण, इन्द्र, यक्ष और उनकी रक्षा करनेवाले हैं। आप सबके ध्यानके विषय गन्धर्व-ये सभी महाबली एक साथ मिलकर दैत्यराज हैं। आपके स्वरूपका अन्त नहीं है। तारकपर प्रहार करने लगे। उन सबके हाथोंमें नाना देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर ब्रह्माजी बहुत प्रकारके दिव्यास्त्र थे। परन्तु तारकासुरका शरीर वज्र एवं प्रसन्न हुए। उन्होंने बायें हाथसे वरद मुद्राका प्रदर्शन पर्वतके समान सुदृढ़ था। देवताओंके हथियार उसपर करते हुए देवताओंसे कहा-'देवगण ! तुम्हारा तेज
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..अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पदापुराण
किसने छीन लिया है ? तुम आज ऐसे हो रहे हो मानो प्रकार उसकी सारी उद्दण्डता मैंने बतायी है। अब आप तुममें अब कुछ भी करनेकी शक्ति ही नहीं रह गयी है; ही हमारी गति हैं।' तुम्हारी कान्ति किसने हर ली?' ब्रह्माजीके इस प्रकार यों कहकर वायुदेवता चुप हो गये। तब ब्रह्माजीने पूछनेपर देवताओंने वायुको उत्तर देनेके लिये कहा। कहा-'देवताओ ! तारक नामका दैत्य देवता और उनसे प्रेरित होकर वायुने कहा-'भगवन् ! आप असुर-सबके लिये अवध्य है। जिसके द्वारा उसका चराचर जगत्की सारी बातें जानते हैं-आपसे क्या वध हो सकता है, वह पुरुष अभीतक त्रिलोकीमें पैदा ही छिपा है। सैकड़ों दैत्योंने मिलकर इन्द्र आदि बलिष्ठ नहीं हुआ। तारकासुर तपस्या कर रहा था। उस समय देवताओंको भी बलपूर्वक परास्त कर दिया है। आपके मैंने वरदान दे उसे अनुकूल बनाया और तपस्यासे रोका। आदेशसे स्वर्गलोक सदा ही यज्ञभोगी देवताओके उस दैत्यने सात दिनके बालकसे अपनी मृत्यु होनेका अधिकारमें रहता आया है। परन्तु इस समय तारकासुरने वरदान माँगा था। सात दिनका वही बालक उसे मार देवताओंका सारा विमान-समूह छीनकर उसे दुर्लभ कर सकता है, जो भगवान् शङ्करके वीर्यसे उत्पन्न हो। दिया है। देवताओंके निवासस्थान जिस मेरु पर्वतको हिमालयकी कन्या जो उमादेवी होगी, उसके गर्भसे आपने सम्पूर्ण पर्वतोंका राजा मानकर उसे सब प्रकारके उत्पन्न पुत्र अरणिसे प्रकट होनेवाले अग्निदेवकी भांति गुणोंमें बढ़ा-चढ़ा, यज्ञोंसे विभूषित तथा आकाशमें भी तेजस्वी होगा; अतः भगवान् शङ्करके अंशसे उमादेवी ग्रहों और नक्षत्रोंकी गतिका सीमा-प्रदेश बना रखा था, जिस पुत्रको जन्म देगी, उसका सामना करनेपर उसीको उस दानवने अपने निवास और विहारके लिये तारकासुर नष्ट हो जायगा।' ब्रह्माजीके ऐसा कहनेउपयोगी बनानेके उद्देश्यसे परिष्कृत किया है, उसके पर देवता उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने स्थानको शिखरोंमें आवश्यक परिवर्तन और सुधार किया है। इस चले गये।
पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान्
शिवके साथ विवाह . तदनन्तर जगत्को शान्ति प्रदान करनेवाली लक्षणोंसे सम्पन्न हो गयी। इसी बीचमें गिरिराज हिमालयकी पत्नी मेनाने परम सुन्दर ब्राह्ममुहूर्तमें कार्य-साधन-परायण देवराज इन्द्रने देवताओद्वारा एक कन्याको जन्म दिया। उसके जन्म लेते ही समस्त सम्मानित देवर्षि नारदका स्मरण किया। इन्द्रका लोकोंमें निवास करनेवाले स्थावर, जङ्गम-सभी प्राणी अभिप्राय जानकर देवर्षि नारद बड़ी प्रसन्नताके साथ सुखी हो गये। आकाशमें भगवान् श्रीविष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, उनके भवनमें आये। उन्हें देखकर इन्द्र सिंहासनसे उठ वायु और अग्नि आदि हजारों देवता विमानोंपर बैठकर खड़े हुए और यथायोग्य पाद्य आदिके द्वारा उन्होंने हिमालय पर्वतके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। गन्धर्व नारदजीका पूजन किया। फिर नारदजीने जब उनकी गाने लगे। उस समय संसारमें हिमालय पर्वत समस्त कुशल पूछी तो इन्द्रने कहा-'मुने ! त्रिभुवनमें हमारी चराचर भूतोंके लिये सेव्य तथा आश्रय लेनेके योग्य हो कुशलका अङ्कर तो जम चुका है, अब उसमें फल गया-सब लोग वहाँ निवास और वहाँकी यात्रा करने लगनेका साधन उपस्थित करनेके लिये मैंने आपकी याद लगे। उत्सवका आनन्द ले देवता अपने-अपने स्थानको की है। ये सारी बातें आप जानते ही हैं, फिर भी आपने चले गये। गिरिराजकुमारी उमाको रूप, सौभाग्य और प्रश्न किया है इसलिये मैं बता रहा हूँ। विशेषतः अपने ज्ञान आदि गुणोंने विभूषित किया। इस प्रकार वह तीनों सुहृदोंके निकट अपना प्रयोजन बताकर प्रत्येक पुरुष लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी और समस्त शुभ बड़ी शान्तिका अनुभव करता है। अतः जिस प्रकार
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सृष्टिखण्ड ]
• पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका शिवजीके साथ विवाह .
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भी पार्वतीदेवीका पिनाकधारी भगवान् शङ्करके साथ तुम धन्य हो, जिसकी गुफामें लोकनाथ भगवान् शङ्कर
शान्तिपूर्वक ध्यान लगाये बैठे रहते हैं।'
पुलस्त्यजी कहते हैं-देवर्षि नारदकी यह बात समाप्त होनेपर गिरिराज हिमालयकी रानी मेना मुनिका दर्शन करनेकी इच्छासे उस भवनमें आयीं। वे लज्जा
और प्रेमके भारसे झकी हुई थीं। उनके पीछे-पीछे उनकी कन्या भी आ रही थी। देवर्षि नारद तेजकी राशि जान पड़ते थे, उन्हें देखकर शैलपत्नीने प्रणाम किया। उस समय उनका मुख अञ्चलसे ढका था और कमलके समान शोभा पानेवाले दोनों हाथ जुड़े हुए थे। अमिततेजस्वी देवर्षिने महाभागा मेनाको देखकर अपने अमृतमय आशीर्वादोंसे उन्हें प्रसन्न किया। उस समय गिरिराजकुमारी उमा अद्भुत रूपवाले नारद मुनिकी ओर चकित चित्तसे देख रही थी। देवर्षिने नेहमयी वाणीमें कहा-'बेटी! यहाँ आओ।' उनके इस प्रकार बुलानेपर उमा पिताके गलेमें बाँहें डालकर उनकी गोदमें
बैठ गयी। तब उसकी माताने कहा-'बेटी ! देवर्षिको संयोग हो, उसके लिये हमारे पक्षके सब लोगोंको शीघ्र प्रणाम करो।' उमाने ऐसा ही किया। उसके प्रणाम कर उद्योग करना चाहिये।
लेनेपर माताने कौतूहलवश पुत्रीके शारीरिक लक्षणोंको इन्द्रसे उनका सारा कार्य समझ लेनेके पश्चात् जाननेके लिये अपनी सखीके मुँहसे धीरसे कहलायानारदजीने उनसे विदा ली और शीघ्र ही गिरिराज 'मुने ! इस कन्याके सौभाग्यसूचक चिह्नोंको देखनेकी हिमालयके भवनके लिये प्रस्थान किया। गिरिराजके कृपा करें।' मेनाकी सखीसे प्रेरित होकर महाभाग द्वारपर, जो विचित्र बेतकी लताओंसे हरा-भरा था, मुनिवर नारदजी मुसकराते हुए बोले-'भद्रे ! इस पहुँचनेपर हिमवान्ने पहले ही बाहर निकलकर मुनिको कन्याके पतिका जन्म नहीं हुआ है, यह लक्षणोंसे रहित प्रणाम किया। उनका भवन पृथ्वीका भूषण था। उसमें है। इसका एक हाथ सदा उत्तान (सीधा) रहेगा। इसके प्रवेश करके अनुपम कान्तिवाले मुनिवर नारदजी एक चरण व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त हैं; किन्तु उनकी कान्ति बहुमूल्य आसनपर विराजमान हुए। फिर हिमवान्ने उन्हें बड़ी सुन्दर होगी। यही इसका भविष्यफल है।' यथायोग्य अर्घ्य, पाद्य आदि निवेदन किया और बड़ी नारदजीकी यह बात सुनकर हिमवान् भयसे घबरा मधुर वाणीमें नारदजीके तपकी कुशल पूछी। उस समय उठे, उनका धैर्य जाता रहा, वे आँसू बहाते हुए गद्द गिरिराजका मुखकमल प्रफुल्लित हो रहा था । मुनिने भी कण्ठसे बोले-'अत्यन्त दोषोंसे भरे हुए संसारकी गति गिरिराजकी कुशल पूछते हुए कहा-'पर्वतराज! दुर्विज्ञेय है-उसका ज्ञान होना कठिन है। शास्त्रकारोंने तुम्हारा कलेवर अद्भुत है। तुम्हारा स्थान धर्मानुष्ठानके शास्त्रोंमें पुत्रको नरकसे त्राण देनेवाला बनाकर सदा लिये बहुत ही उपयोगी है। तुम्हारी कन्दराओंका विस्तार पुत्रप्राप्तिकी ही प्रशंसा की है; किन्तु यह बात प्राणियोंको विशाल है। इन कन्दराओंमें अनेकों पावन एवं तपस्वी मोहमें डालनेके लिये है। क्योंकि स्वीके बिना किसी मुनियोंने आश्रय ले तुम्हें पवित्र बनाया है। गिरिराज ! जीवकी सृष्टि हो ही नहीं सकती। परन्तु स्त्री-जाति
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पद्मपुराण
स्वभावसे ही दीन एवं दयनीय है। शास्त्रोंमें यह महान् रहता है। किन्तु महादेवजी अचल और स्थिर है। वे जात फलदायक वचन अनेकों बार निःसन्देहरूपसे दुहराया नहीं, जनक हैं-पुत्र नहीं, पिता हैं। उनपर बुढ़ापेका गया है कि शुभलक्षणोंसे सम्पन्न सुशीला कन्या दस आक्रमण नहीं होता। वे जगत्के स्वामी और आधिपुत्रोंके समान है। किन्तु आपने मेरी कन्याके शरीरमें व्याधिसे रहित हैं। इसके सिवा जो मैंने तुम्हारी कन्याको केवल दोषोंका ही संग्रह बताया है। ओह ! यह सुनकर लक्षणोंसे रहित बताया है, उस वाक्यका ठीक-ठीक मुझपर मोह छा गया है, मैं सूख गया हूँ, मुझे बड़ी भारी विचारपूर्ण तात्पर्य सुनो। शरीरके अवयवोंमें जो चिह्न या ग्लानि और विषाद हो रहा है। मुने ! मुझपर अनुग्रह रेखाएँ होती हैं, वे सीमित आयु, धन और सौभाग्यको करके इस कन्यासम्बन्धी दुःखका निवारण कीजिये। व्यक्त करनेवाली होती है; परन्तु जो अनन्त और अप्रमेय देवर्षे ! आपने कहा है कि इसके पतिका जन्म ही नहीं है, उसके अमित सौभाग्यको सूचित करनेवाला कोई हुआ है।' यह ऐसा दुर्भाग्य है, जिसकी कहीं तुलना नहीं चिह्न या लक्षण शरीरमें नहीं होता। महामते ! इसीसे मैंने है। यह अपार और दुःसह दुःख है। हाथों और पैरोंमें बतलाया है कि इसके शरीरमें कोई लक्षण नहीं है। इसके जो रेखाएं बनी होती हैं, वे मनुष्य अथवा देवजातिके अतिरिक्त जो यह कहा गया है कि इसका एक हाथ सदा लोगोंको शुभ और अशुभ फलकी सूचना देनेवाली हैं; उत्तान रहेगा, उसका आशय यह है-वर देनेवाला हाथ सो आपने इसे लक्षणहीन बताया है। साथ ही यह भी उत्तान होता है। देवीका यह हाथ वरद मुद्रासे युक्त होगा। कहा है कि इसका एक हाथ सदा उत्तान रहेगा।' परन्तु यह देवता, असुर और मुनियोंके समुदायको वर देनेवाली उत्तान हाथ तो सदा याचकोंका ही होता है-वे ही होगी तथा जो मैंने इसके चरणोंको उत्तम कान्ति और सबके सामने हाथ फैलाकर माँगते देखे जाते है। जिनके व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त बताया है, उसकी व्याख्या भी शुभका उदय हुआ है, जो धन्य तथा दानशील हैं, उनका मेरे मुंहसे सुनो-'गिरिश्रेष्ठ ! इस कन्याके चरण हाथ उत्तान नहीं देखा जाता । आपने इसकी उत्तम कान्ति कमलके समान अरुण रंगके हैं। इनपर नखोंकी उज्ज्वल बतानेके साथ ही यह भी कहा है कि इसके चरण कान्ति पड़नेसे स्वच्छता (श्वेत कान्ति) आ गयी है। व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त है; अतः मुने ! उस चिह्नसे भी देवता और असुर जब इसे प्रणाम करेंगे, तब उनके मुझे कल्याणकी आशा नहीं जान पड़ती।' ..... किरीटमें जड़ी हुई मणियोंकी कान्ति इसके चरणोंमें . नारदजी बोले-गिरिराज ! तुम तो अपार हर्षके प्रतिबिम्बित होगी। उस समय ये चरण अपना स्वाभाविक स्थानमें दुःखकी बात कर रहे हो। अब मेरी यह बात रंग छोड़कर विचित्र रंगके दिखायी देंगे। उनके इस सुनो। मैंने पहले जो कुछ कहा था, वह रहस्यपूर्ण था। परिवर्तन और विचित्रताको ही व्यभिचार कहा गया है इस समय उसका स्पष्टीकरण करता हूँ, एकाग्रचित्त [अतः तुम्हें कोई विपरीत आशङ्का नहीं करनी चाहिये] । होकर श्रवण करो। हिमाचल ! मैंने जो कहा था कि इस महीधर ! यह जगत्का भरण-पोषण करनेवाले वृषभदेवीके पतिका जन्म नहीं हुआ है, सो ठीक ही है। इसके ध्वज महादेवजीकी पत्नी है। यह सम्पूर्ण लोकोंकी जननी पति महादेवजी हैं। उनका वास्तवमें जन्म नहीं हुआ तथा भूतोंको उत्पन्न करनेवाली है। इसकी कान्ति परम है-वे अजन्मा है। भूत, भविष्य और वर्तमान जगत्की पवित्र है। यह साक्षात् शिवा है और तुम्हारे कुलको उत्पत्तिके कारण वे ही हैं। वे सबको शरण देनेवाले एवं पवित्र करनेके लिये ही इसने तुम्हारी पत्रीके गर्भसे जन्म शासक, सनातन, कल्याणकारी और परमेश्वर हैं। यह लिया है। अतः जिस प्रकार यह शीघ्र ही पिनाकधारी ब्रह्माण्ड उन्हींक संकल्पसे उत्पन्न हुआ है। ब्रह्माजीसे भगवान् शङ्करका संयोग प्राप्त करे, उसी उपायका तुम्हें लेकर स्थावरपर्यन्त जो यह संसार है, वह जन्म, मृत्यु विधिपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये। ऐसा करनेसे आदिके दुःखसे पीड़ित होकर निरन्तर परिवर्तित होता देवताओंका एक महान् कार्य सिद्ध होगा।
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सृष्टिखण्ड] . पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका शिवजीके साथ विवाह .
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- पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! नारदजीके मुँहसे विचार करते हुए सोचा कि 'महात्मा पुरुष निष्कम्पये सारी बातें सुनकर मेनाके स्वामी गिरिराज हिमालयने अविचल होते हैं। उनके मनको वशमें करना अत्यन्त अपना नया जन्म हुआ माना। वे अत्यन्त हर्षमें भरकर दुष्कर कार्य है। उसे पहले ही क्षुब्ध करके उसके ऊपर बोले-'प्रभो! आपने घोर और दुस्तर नरकसे मेरा विजय पायी जाती है। पहले मनका संशोधन कर लेनेपर उद्धार कर दिया। मुने! आप-जैसे संतोंका दर्शन निश्चय ही प्रायः सिद्धि प्राप्त होती है। मैं महादेवजीके ही अमोघ फल देनेवाला होता है। इसलिये इस अन्तःकरणमें प्रवेश करके इन्द्रिय-समुदायको व्याप्त कर कार्यमें-मेरी कन्याके विवाहके सम्बन्धमें आप समय- रमणीय साधनोंके द्वारा अपना कार्य सिद्ध करूँगा।' यह समयपर योग्य आदेश देते रहे [जिससे यह कार्य सोचकर कामदेव भगवान् भूतनाथके आश्रमपर गया। निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हो सके।'
वह आश्रम पृथ्वीका सारभूत स्थान जान पड़ता था। गिरिराजके ऐसा कहनेपर नारदजी हर्षमें भरकर वहाँकी वेदी देवदारुके वृक्षसे सुशोभित हो रही थी। बोले-'शैलराज ! सारा कार्य सिद्ध ही समझो। ऐसा कामदेवने, जिसका अन्तकाल क्रमशः समीप आता जा करनेसे ही देवताओंका भी कार्य होगा और इसीमें रहा था, धीरे-धीरे आगे बढ़कर देखा-भगवान् शङ्कर तुम्हारा भी महान् लाभ है।' यों कहकर नारदजी ध्यान लगाये बैठे हैं। उनके अधखुले नेत्र अर्धदेवलोकमें जाकर इन्द्रसे मिले और बोले-'देवराज! विकसित कमलदलके समान शोभा पा रहे हैं। उनकी आपने मुझे जो कार्य सौंपा था, उसे तो मैंने कर ही दिया; दृष्टि सीधी एवं नासिकाके अग्रभागपर लगी हुई है। किन्तु अब कामदेवके बाणोंसे सिद्ध होने योग्य कार्य शरीरपर उत्तरीयके रूपमें अत्यन्त रमणीय व्याघ्रचर्म उपस्थित हुआ है।' कार्यदर्शी नारद मुनिके इस प्रकार लटक रहा है। कानोंमें धारण किये हुए सर्पोके फोंसे कहनेपर देवराज इन्द्रने आमकी मञ्जरीको ही अस्त्रके निकली हुई फुफकारकी आँचसे उनका मुख पिङ्गल रूपमें प्रयोग करनेवाले कामदेवका स्मरण किया। उसे वर्णका हो रहा है। हवासे हिलती हुई लम्बी-लम्बी सामने प्रकट हुआ देख इन्द्रने कहा- 'रतिवल्लभ ! जटाएँ उनके कपोल-प्रान्तका चुम्बन कर रही हैं। तुम्हें बहुत उपदेश देनेकी क्या आवश्यकता है; तुम तो वासुकि नागका यज्ञोपवीत धारण करनेसे उनकी नाभिके सङ्कल्पसे ही उत्पन्न हुए हो, इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके मूल भागमें वासुकिका मुख और पूंछ सटे हुए दिखायी मनकी बात जानते हो । स्वर्गवासियोंका प्रिय कार्य करो। देते हैं। वे अञ्जलि बाँधै ब्रह्मके चिन्तनमें स्थिर हो रहे मनोभव ! गिरिराजकुमारी उमाके साथ भगवान् शङ्करका है और सर्पोक आभूषण धारण किये हुए हैं। शीघ्र संयोग कराओ। इस मधुमास चैत्रको भी साथ लेते तदनन्तर वृक्षकी शाखासे भ्रमरकी भाँति झंकार जाओ तथा अपनी पत्नी रतिसे भी सहायता लो।' करते हुए कामदेवने भगवान् शङ्करके कानमें होकर
कामदेव बोला-देव ! यह सामग्री मुनियों और हृदयमें प्रवेश किया। कामका आधारभूत वह मधुर दानवोंके लिये तो बड़ी भयंकर है, किन्तु इससे भगवान् झंकार सुनकर शङ्करजीके मनमें रमणकी इच्छा जाग्रत् शङ्करको वशमें करना कठिन है।
हुई और उन्होंने अपनी प्राणवल्लभा दक्षकुमारी सतीका इन्द्रने कहा-'रतिकान्त ! तुम्हारी शक्तिको मैं स्मरण किया। तब स्मरण-पथमें आयी हुई सती उनकी जानता हूँ तुम्हारे द्वारा इस कार्यके सिद्ध होने में तनिक निर्मल समाधि-भावनाको धीरे-धीरे लुप्त करके स्वयं ही भी सन्देह नहीं है।'
लक्ष्य-स्थानमें आ गयीं और उन्हें प्रत्यक्ष रूपमें इन्द्रके ऐसा कहनेपर कामदेव अपने सखा उपस्थित-सी जान पड़ीं। फिर तो भगवान् शिव उनकी मधुमासको लेकर रतिके साथ तुरंत ही हिमालयके सुधमें तन्मय हो गये। इस आकस्मिक विनने उनके शिखरपर गया। वहाँ पहुँचकर उसने कार्यक उपायका अन्तःकरणको आवृत्त कर लिया। देवताओंके अधीश्वर
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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शिव क्षणभरके लिये कामजनित विकारको प्राप्त हो गये। भगवान् रुद्रका वह नेत्र ऐसा भयंकर दिखायी देने लगा, किन्तु यह अवस्था अधिक देरतक न रही, कामदेवका मानो संसारका संहार करनेके लिये खुला हो । मदन पास कुचक्र समझकर उनके हृदयमें कुछ क्रोधका सञ्चार हो ही खड़ा था। महादेवजीने उस नेत्रको फैलाकर मदनको आया। उन्होंने धैर्यका आश्रय लेकर कामदेवके ही उसका लक्ष्य बनाया। देवतालोग 'त्राहि-त्राहि' प्रभावको दूर किया और स्वयं योगमायासे आवृत होकर कहकर चिल्लाते ही रह गये और मदन उस नेत्रसे दृढ़तापूर्वक समाधिमें स्थित हो गये।... निकली हुई चिनगारियोंमें पड़कर भस्म हो गया।
उस योगमायासे आविष्ट होनेपर कामदेव जलने कामदेवको दग्ध करके वह आग समस्त जगत्को लगा, अतः वह वासनामय व्यसनका रूप धारण करके जलानेके लिये बढ़ने लगी। यह जानकर भगवान् शिवने उनके हृदयसे बाहर निकल आया। बाहर आकर वह उस कामानिको आमके वृक्ष, वसन्त, चन्द्रमा, एक स्थानपर खड़ा हुआ। उस समय उसकी सहायिका पुष्पसमूह, भ्रमर तथा कोयलके मुखमे बाँट दिया। रति और सखा वसंत-इन दोनोंने भी उसका अनुसरण महादेवजी बाहर और भीतर भी कामदेवके बाणोंसे विद्ध किया। फिर मदनने आमकी मौरका मनोहर गुच्छ लेकर थे, इसलिये उपयुक्त स्थानों में उस अग्निका विभाग करके उसमें मोहनास्त्रका आधान किया और उसे अपने वे उनमेंसे प्रत्येकको प्रज्वलित कामाग्निके ही रूपमें पुष्पमय धनुषपर रखकर तुरंत ही महादेवजीकी छातीमें देखने लगे। वह कामाग्नि सम्पूर्ण लोकको क्षोभमें मारा। इन्द्रियोंके समुदायरूप हृदयके बिंध जानेपर डालनेवाली है; उसके प्रसारको रोकना कठिन होता है।
___ कामदेवको भगवान् शिवके हारकी ज्वालासे भस्म हुआ देख रति उसके सखा वसन्तके साथ जोरजोरसे रोने लगी। फिर वह त्रिनेत्रधारी भगवान् चन्द्रशेखरकी शरणमें गयी और धरतीपर घुटने टेककर स्तुति करने लगी।
रति बोली-जो सबके मन हैं, यह जगत् जिनका स्वरूप है और जो अद्भुत मार्गसे चलनेवाले है, उन कल्याणमय शिवको नमस्कार है। जो सबको शरण देनेवाले तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, उन भगवान् शङ्करको नमस्कार है। नाना लोकोंमें समृद्धिका विस्तार करनेवाले शिवको नमस्कार है। भक्तोंको मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले महादेवजीको प्रणाम है। कोंको उत्पन्न करनेवाले महेश्वरको नमस्कार है। प्रभो ! आपका स्वरूप अनन्त है; आपको सदा ही नमस्कार है। देव ! आप ललाटमें चन्द्रमाका चिह्न धारण करते हैं; आपको
नमस्कार है। आपकी लीलाएँ असीम हैं। उनके द्वारा भगवान् शिवने कामदेवकी ओर दृष्टिपात किया। फिर आपकी उत्तम स्तुति होती रहती है। वृषभराज नन्दी तो उनका मुख क्रोधके आवेगसे निकलते हुए घोर आपका वाहन है। आप दानवोंके तीनों पुरोका अन्त हुङ्कारके कारण अत्यन्त भयानक हो उठा। उनके तीसरे करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप सर्वत्र प्रसिद्ध नेत्रमें आगकी ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। रौद्र शरीरधारी है और नाना प्रकारके रूप धारण किया करते हैं; आपको
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• पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका शिवजीके साथ विवाह -
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नमस्कार है। कालस्वरूप आपको नमस्कार है। कहा-'बेटी! 'उ' 'मा'-ऐसा न करो। तुम अभी कलसंख्यरूप आपको नमस्कार है तथा काल और कल चपल बालिका हो। तुम्हारा शरीर तपस्याका कष्ट सहन दोनोंसे अतीत आप परमेश्वरको नमस्कार है। आप करनेमें समर्थ नहीं है। बाले ! जो बात होनेवाली होती चराचर प्राणियोंके आचारका विचार करनेवालोंमें सबसे है, वह होकर ही रहती है; इसलिये तुम्हें तपस्या करनेकी बड़े आचार्य हैं। प्राणियोंकी सृष्टि आपके ही संकल्पसे कोई आवश्यकता नहीं है। अब घरको ही चलूँगा और हुई है। आपके ललाटमें चन्द्रमा शोभा पाते हैं। मैं अपने वहीं इस कार्यकी सिद्धिके लिये कोई उपाय सोचूंगा।' प्रियतमकी प्राप्तिके लिये सहसा आप महेश्वरकी शरणमें पिताके ऐसा कहनेपर भी जब पार्वती घर जानेको तैयार आयी हूँ। भगवन् ! मेरी कामनाको पूर्ण करनेवाले और नहीं हुई, तब हिमवान्ने मन-ही-मन अपनी पुत्रीके दृढ़ यशको बढ़ानेवाले मेरे पतिको मुझे दे दीजिये। मैं उनके निश्चयकी प्रशंसा की। इसी समय आकाशमें दिव्य वाणी बिना जीवित नहीं रह सकती। पुरुषेश्वर ! प्रियाके लिये प्रकट हुई, जो तीनों लोकोंमें सुनायी पड़ी। वह इस प्रियतम ही नित्य सेव्य है, उससे बढ़कर संसारमें दूसरा प्रकार थी-'गिरिराज ! तुमने 'उ' 'मा' कहकर अपनी कौन है। आप सबके प्रभु, प्रभावशाली तथा प्रिय पुत्रीको तपस्या करनेसे रोका है; इसलिये संसारमें इसका वस्तुओंकी उत्पत्तिके कारण हैं। आप ही इस भुवनके नाम उमा होगा। यह मूर्तिमती सिद्धि है। अपनी स्वामी और रक्षक हैं। आप परम दयालु और भक्तोंका अभिलषित वस्तुको अवश्य प्राप्त करेगी।' यह भय दूर करनेवाले हैं।
आकाशवाणी सुनकर हिमवान्ने पुत्रीको तप करनेकी पुलस्त्यजी कहते हैं-कामदेवकी पत्नी रतिके आज्ञा दे दी और स्वयं अपने भवनको चले गये। इस प्रकार स्तुति करनेपर मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट पार्वती अपनी दोनों सखियोंके साथ हिमालयके धारण करनेवाले भगवान् शङ्कर उसकी ओर देखकर उस प्रदेशमें गयी, जहाँ देवताओंका भी पहुँचना कठिन मधुर वाणीमें बोले-'सुन्दरी ! समय आनेपर यह था। वहाँका शिखर परम पवित्र और नाना प्रकारकी कामदेव शीघ्र ही उत्पन्न होगा। संसारमें इसकी अनङ्गके धातुओंसे विभूषित था। सब ओर दिव्य पुष्प और नामसे प्रसिद्धि होगी। भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर लताएँ फैली थीं, वृक्षोपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे। वहाँ कामवल्लभा रति उनके चरणोंमें मस्तक झुकाकर पार्वतीने अपने वस्त्र और आभूषण उतारकर दिव्य हिमालयके दूसरे उपवनमें चली गयी।
वल्कल धारण कर लिये । कटिमें कुशोंकी मेखला पहन उधर नारदजीके कथनानुसार हिमवान् अपनी ली। वह प्रतिदिन तीन बार स्नान करती और गुलाबके कन्याको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके उसकी दो फूल चबाकर रह जाती थी। इस प्रकार उसने सौ सखियोंके साथ भगवान् शङ्करके समीप ले आ रहे थे। वर्षातक तपस्या की। तत्पश्चात् सौ वर्षोंतक हिमवान्मार्गमें रतिके मुखसे मदन-दहनका समाचार सुनकर कुमारी प्रतिदिन एक पत्ता खाकर रही। तदनन्तर पुनः सौ उनके मनमें कुछ भय हुआ। उन्होंने कन्याको लेकर वर्षांतक उसने आहारका सर्वथा परित्याग कर दिया। अपनी पुरीमें लौट जानेका विचार किया। यह देख इस तरह वह तपस्याकी निधि बन गयी। उसके तपकी संकोचशीला पार्वतीने अपनी सखियोंके मुखसे पिताको आँचसे समस्त प्राणी उद्विग्न हो उठे। तब इन्द्रने कहलाया-'तपस्यासे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। सप्तर्षियोंका स्मरण किया। वे सब बड़ी प्रसत्रताके साथ तप करनेवालेके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। संसारमें एक ही समय वहाँ उपस्थित हुए। इन्द्रने उनका स्वागततपस्या-जैसे साधनके रहते लोग व्यर्थ ही दुर्भाग्यका भार सत्कार किया। इसके बाद उन्होंने अपने बुलाये जानेका ढोते हैं। अतः अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेकी प्रयोजन पूछा। तब इन्द्रने कहा- 'महात्माओ! इच्छासे मैं तपस्या ही करूँगी।' यह सुनकर हिमवान्ने आपलोगोंके आवाहनका प्रयोजन सुनिये। हिमालयपर
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अर्चेयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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पार्वतीदेवी घोर तपस्या कर रही हैं आपलोग संसारके हितके लिये शीघ्रतापूर्वक वहाँ जाकर उन्हें अभिमत वस्तुकी प्राप्तिका विश्वास दिला तपस्या बंद करा दीजिये। 'बहुत अच्छा!' कहकर सप्तर्षिगण उस सिद्धसेवित शैलपर आये और पार्वतीदेवीसे मधुर वाणीमें बोले'बेटी! तुम किस उद्देश्यसे यहाँ तप कर रही हो?' पार्वतीदेवीने मुनियोंके गौरवका ध्यान रखकर आदर पूर्वक कहा – 'महात्माओ ! आपलोग समस्त प्राणियोंके मनोरथको जानते हैं। प्रायः सभी देहधारी ऐसी ही वस्तुकी अभिलाषा करते हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ होती है। मैं भगवान् शङ्करको पतिरूपमें प्राप्त करनेका उद्योग कर रही हूँ। वे स्वभावसे ही दुराराध्य हैं। देवता और असुर भी जिनके स्वरूपको निश्चित रूपसे नहीं जानते, जो पारमार्थिक क्रियाओंके एकमात्र आधार हैं, जिन वीतराग महात्माने कामदेवको जलाकर भस्म कर डाला है, ऐसे महामहिम शिवको मेरी जैसी तुच्छ अबला किस प्रकार आराधनाद्वारा प्रसन्न कर सकती है।'
पार्वतीके यों कहने पर मुनियोंने उनके मनकी दृढ़ता जाननेके लिये कहा - ' -'बेटी! संसारमें दो तरहका सुख देखा जाता है— एक तो वह है, जिसका शरीरसे सम्बन्ध होता है और दूसरा वह, जो मनको शान्ति एवं आनन्द प्रदान करनेवाला होता है। यदि तुम अपने शरीरके लिये नित्य सुखकी इच्छा करती हो तो तुम्हें घृणित वेषमें रहनेवाले भूत-प्रेतोंके सङ्गी महादेवसे वह सुख कैसे मिल सकता है। अरी! वे फुफकारते हुए भयंकर भुजङ्गोको आभूषणरूपमें धारण करते हैं, श्मशानभूमिमें रहते हैं और रौद्ररूपधारी प्रमथगण सदा उनके साथ लगे रहते हैं। उनसे तो लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णु कहीं अच्छे हैं। वे इस जगत्के पालक हैं। उनके स्वरूपका कहीं ओर-छोर नहीं है तथा वे यज्ञभोगी देवताओंके स्वामी हैं। तुम उन्हें पानेकी इच्छा क्यों नहीं करतीं ? अथवा दूसरे किसी देवताको पानेसे भी तुम्हें मानसिक सुखकी प्राप्ति हो सकती हैं। जिस वरको तुम चाहती हो, उसके पानेमें ही बहुत क्लेश है; यदि कदाचित् प्राप्त भी हो गया तो वह निष्फल वृक्षके समान है— उससे तुम्हें
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सुख नहीं मिल सकता।'
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उन श्रेष्ठ मुनियोंके ऐसा कहनेपर पार्वतीदेवी कुपित हो उठीं, उनके ओठ फड़कने लगे और वे क्रोधसे लाल आँखें करके बोलीं- 'महर्षियो! दुराग्रहीके लिये कौन-सी नीति है। जिनकी समझ उलटी है, उन्हें आजतक किसने राहपर लगाया है। मुझे भी ऐसी ही जानिये। अतः मेरे विषयमें अधिक विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। आप सब लोग प्रजापतिके समान हैं, सब कुछ देखने और समझनेवाले हैं; फिर भी यह निश्चय है कि आप उन जगत्प्रभु सनातन देव भगवान् शङ्करको नहीं जानते। वे अजन्मा, ईश्वर और अव्यक्त हैं। उनकी महिमाका माप-तौल नहीं है। उनके अलौकिक कमका उत्तम रहस्य समझना तो दूर रहा, उनके स्वरूपका बोध भी आवृत है। श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी उन्हें यथार्थरूपसे नहीं जानते। ब्रह्मर्षियो! उनका आत्म-वैभव समस्त भुवनोंमें फैला हुआ है, सम्पूर्ण प्राणियोंके सामने प्रकट है; क्या उसे भी आपलोग नहीं जानते ? बताइये तो, यह आकाश किसका स्वरूप है ? यह अनि, यह वायु किसकी मूर्ति हैं? पृथ्वी और जल किसके विग्रह हैं ? तथा ये चन्द्रमा और सूर्य किसके नेत्र हैं ?'
पार्वतीदेवीकी बात सुनकर सप्तर्षिगण वहाँसे उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् शिव विराजमान थे। उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार करके भगवान् से कहा-' "स्वर्गके अधीश्वर महादेव! आप दयालु देवता हैं। गिरिराज हिमालयकी पुत्री आपके लिये तपस्या कर रही है। हमलोग उसका मनोरथ जानकर आपके पास आये हैं। आप योगमाया, महिमा और गुणोंके आश्रय हैं। आपको अपने निर्मल ऐश्वर्यपर गर्व नहीं है। शरीरधारियों में हमलोग अधिक पुण्यवान् हैं जो कि ऐसे महिमाशाली आपका दर्शन कर रहे हैं।' ऋषियोंके रमणीय एवं हितकर वचन सुनकर वागीश्वरोंमें श्रेष्ठ भगवान् शङ्कर मुसकराते हुए बोले 'मुनिवरो! मैं जानता हूँ लोक रक्षाकी दृष्टिसे वास्तवमें यह कार्य बहुत उत्तम है; किन्तु इस विषयमें मुझे हिमवान् पर्वतसे ही आशङ्का
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सृष्टिखण्ड]
• पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका शिवजीके साथ विवाह .
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है-शायद वे मेरे साथ अपनी कन्याके विवाहकी बात तुम निर्मल ज्ञानकी मूर्ति-सी जान पड़ती हो और स्वीकार न करें। इसमें सन्देह नहीं कि जो लोग श्रीशङ्करजीमें दृढ़ अनुराग रखनेके कारण हमारे कार्यसिद्धिके लिये उद्यत होते हैं, वे सभी उत्कण्ठित रहा अन्तःकरणको अत्यन्त प्रसन्न कर रही हो। हम भगवान् करते हैं। उत्कण्ठा होनेपर बड़े-बड़े महात्माओंके चित्तमें शिवके अद्भुत ऐश्वर्यको जानते हैं, केवल तुम्हारे भी उतावली पड़ जाती है। तथापि विशिष्ट व्यक्तियोंको निश्चयकी दृढ़ता जाननेके लिये यहाँ आये थे। अब लोक-मर्यादाका अनुसरण करना ही चाहिये। क्योंकि तुम्हारी यह कामना शीघ्र ही पूरी होगी। अपने इस इससे धर्मकी वृद्धि होती है और परवर्ती लोगोंके लिये मनोहर रूपको तपस्याकी आगमें न जलाओ। कल भी आदर्श उपस्थित होता है।'
प्रातःकाल भगवान् शङ्कर स्वयं आकर तुम्हारा पाणिग्रहण भगवान्के ऐसा कहनेपर सप्तर्षिगण तुरंत करेंगे। हमलोग पहले आकर तुम्हारे पिताजीसे भी हिमालयके भवनमें गये। वहाँ हिमवान्ने बड़े आदरके प्रार्थना कर चुके हैं। अब तुम अपने पिताके साथ घर साथ उनका पूजन किया। उससे प्रसन्न होकर वे मुनिश्रेष्ठ जाओ, हम भी अपने आश्रमको जाते हैं। उनके इस उतावलीके कारण संक्षेपसे बोले- 'गिरिराज ! तुम्हारी प्रकार कहनेपर पार्वती यह सोचकर कि तपस्याका यथार्थ पुत्रीके लिये साक्षात् पिनाकधारी भगवान् शङ्कर तुमसे फल प्राप्त हो गया, तुरंत ही पिताके शोभासम्पन्न दिव्य याचना करते है। अतः तुम अपनी पुत्री भगवान् भवनमें चली गयीं। वहाँ जानेपर गिरिजाके हृदयमें श्रीशंकरको समर्पित करके अपनेको पावन बनाओ। यह भगवान् शङ्करके दर्शनकी प्रबल उत्कण्ठा जाग्रत् हुई। देवताओंका कार्य है। जगत्का उद्धार करनेके लिये ही अतः उसे वह रात एक हजार वर्षांक समान जान पड़ी। यह उद्योग किया जा रहा है। उनके ऐसा कहनेपर तदनन्तर ब्राह्म-मुहूर्तमें उठकर सखियोंने पार्वतीका हिमवान् आनन्द-विभोर हो गये। तब वे हिमवान्को माङ्गलिक कार्य करना आरम्भ किया। क्रमशः नाना साथ ले पार्वतीके आश्रमपर गये। उमा तपस्याके कारण प्रकारके मङ्गल विधान यथार्थ-रूपसे सम्पन्न किये गये। तेजोमयी दिखायी दे रही थी। उसने अपने तेजसे सूर्य सब प्रकारको कामनाएँ पूर्ण करनेवाली ऋतुएँ मूर्तिमान् और अग्निकी ज्वालाको भी परास्त कर दिया था। होकर गिरिराज हिमालयकी उपासना करने लगीं। मुनियोंने जब रोहपूर्वक उसका मनोगत भाव पूछा तो सुखदायिनी वायु झाड़ने-बुहारनेके काममें लगी थी। उस मानिनीने यह सारगर्भित वचन कहा-'मैं चिन्तामणि आदि रत्र, तरह-तरहकी लताएँ तथा पिनाकधारी भगवान् रुद्रके सिवा दूसरे किसीको नहीं कल्पतरु आदि बड़े-बड़े वृक्ष भी वहाँ सब ओर चाहती। वे ही छोटे-बड़े सब प्राणियोंमें [आत्मारूपसे] उपस्थित थे। दिव्य ओषधियोंके साथ साधारण स्थित हैं, वे ही सबको समृद्धि प्रदान करनेवाले हैं। ओषधियाँ भी दिव्य देह धारण करके सेवामें संलग्न थीं। धीरता और ऐश्वर्य आदि गुण उन्हींमें शोभा पाते हैं; वे रस और धातुएँ भी वहाँ दास-दासीका काम करती थीं। तुलनारहितं महान् प्रमाण हैं, उनके सिवा दूसरी कोई नदियाँ, समुद्र तथा स्थावर-जङ्गम सभी प्राणी मूर्तिमान वस्तु है ही नहीं। यह सारा जगत् उन्हींसे उत्पन्न होता है। होकर हिमवान्की महिमा बढ़ा रहे थे। जिनका ऐश्वर्य आदि, अन्तसे रहित है, उन्हीं भगवान् दूसरी ओर निर्मल शरीरवाले देवता, मुनि, नाग, शङ्करकी शरणमें मैं आयी हूँ।'
यक्ष, गन्धर्व और किन्नरगण श्रीशङ्करजीके शृङ्गारकी सारी पार्वतीदेवीके ये वचन सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ बहुत सामग्री सजाये गन्धमादन पर्वतपर उपस्थित हुए। प्रसन्न हुए। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ आये ब्रह्माजीने श्रीशङ्करजीके जटा-जूटमें चन्द्रमाकी कला
और उन्होंने तपस्विनी गिरिजाकी प्रशंसा करते हुए मधुर सजायी। भगवान् श्रीविष्णु रत्नके बने कर्णभूषण, वाणीमें कहा-'अहो ! बड़ी अद्भुत बात है। बेटी ! उज्ज्वल कण्ठहार और भुजङ्गमय आभूषण लेकर
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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श्रीशङ्करजीके सामने उपस्थित हुए। अन्य देवताओंने मनके समान वेगवाले शिववाहन नन्दीको भी विभूषित किया। भाँति-भाँति की शृङ्गार सामग्रियोंसे श्रीशङ्करजीको सुसज्जित करके उन्हें सुन्दर आभूषण पहनाकर भी देवताओंकी व्यग्रता अभी दूर नहीं हुई— वे शीघ्र से शीघ्र वैवाहिक कार्य सम्पन्न कराना चाहते थे। पृथ्वीदेवी भी सर्वथा व्यग्र थीं। वे मनोरम रूप धारण करके उपस्थित हुईं और नूतन तथा सुन्दर रस और ओषधियाँ प्रदान करने लगीं। साक्षात् वरुण रत्न, आभूषण तथा भाँति-भाँतिके रत्नोंके बने हुए विचित्रविचित्र पुष्प लेकर उपस्थित हुए। समस्त देहधारियोंके भीतर रहकर सब कुछ जाननेवाले अग्निदेव भी परम पवित्र सोनेके दिव्य आभूषण लेकर विनीत भावसे सामने आये। वायु सुगन्ध बिखेरती हुई मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होने लगी, जिससे उसका स्पर्श भगवान् शङ्करको सुखद प्रतीत हो। वज्रसे सुसज्जित देवराज इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने हाथोंमें भगवान् शिवका छत्र ग्रहण किया। वह छत्र अपने उज्ज्वल प्रकाशसे चन्द्रमाकी किरणावलियोंका उपहास कर रहा था। गन्धर्व और किन्नर अत्यन्त मधुर बाजोंकी ध्वनि करते हुए गान करने लगे। मुहूर्त और ऋतुएँ मूर्तिमान् होकर गान और नृत्य करने लगीं। भगवान् शङ्कर हिमवान् के नगरमें पहुँचे। उनके चञ्चल प्रमथगण हिमालयका आलोडन करते हुए वहाँ स्थित हुए। तत्पश्चात् विश्वविधाता ब्रह्माजी तथा भगवान् शङ्कर क्रमशः विवाहमण्डपमें विराजमान हुए। शिवने अपनी
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर भगवान् शङ्कर पार्वती देवीके साथ नगरके रमणीय उद्यानों तथा एकान्त वनोंमें विहार करने लगे। देवीके प्रति उनके हृदयमें बड़ा अनुराग था। एक समयकी बात है— गिरिजाने सुगन्धित तेल और चूर्णसे अपने शरीरमें उबटन लगवाया और उससे जो मैल गिरा, उसे हाथमें उठाकर उन्होंने एक पुरुषकी आकृति बनायी, जिसका मुँह
पत्नी उमाके साथ शास्त्रोक्त रीतिसे वैवाहिक कार्य सम्पन्न किया। गिरिराजने उन्हें अर्घ्य दिया और देवताओंने
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
विनोदके द्वारा उन्हें प्रसन्न किया। शिवने पत्नीके साथ वह रात्रि वहीं व्यतीत की। सबेरे देवताओंके स्तवन करनेपर वे उठे और गिरिराजसे विदा ले वायुके समान वेगशाली नन्दीपर सवार हो पत्नीसहित मन्दराचलको चले गये। उमाके साथ भगवान् नीललोहितके चले जानेपर हिमवान्का मन कुछ उदास हो गया। क्यों न हो, कन्याकी विदाई हो जानेपर भला, किस पिताका हृदय व्याकुल नहीं होता।
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गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
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हाथीके समान था; फिर खेल करते हुए भगवती शिवाने उसे गङ्गाजीके जलमें डाल दिया। गङ्गाजी पार्वतीको अपनी सखी मानती थीं। उनके जलमें पड़ते ही वह पुरुष बढ़कर विशालकाय हो गया। पार्वती देवीने उसे पुत्र कहकर पुकारा। फिर गङ्गाजीने भी पुत्र कहकर सम्बोधित किया। देवताओंने गाङ्गेय कहकर सम्मानित किया। इस प्रकार गजानन देवताओंके द्वारा पूजित हुए।
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सृष्टिखण्ड ]
. गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध.
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ब्रह्माजीने उन्हें गणोंका आधिपत्य प्रदान किया। जलको पीनेकी इच्छा करने लगीं। इतनेमें ही उन्हें सूर्यके
तत्पश्चात् परम सुन्दरी शिवा देवीने खेलमें ही एक समान तेजस्विनी छः कृत्तिकाएँ दिखायी दीं। वे कमलके वृक्ष बनाया। उससे अशोकका मनोहर अङ्कर फूट पत्तेमें उस सरोवरका जल लेकर जब अपने घरको जाने निकला। सुन्दर मुखवाली पार्वतीने उसका मङ्गल- लगी, तब पार्वती देवीने हर्षमें भरकर कहा-'देवियो! संस्कार किया। तब इन्द्रके पुरोहित बृहस्पति आदि कमलके पत्तेमें रखे हुए जलको मैं भी देखना चाहती ब्राह्मणों, देवताओं तथा मुनियोंने कहा-'देवि! हूँ।' वे बोलीं-'सुमुखि ! हम तुम्हें इसी शर्तपर जल बताइये, वृक्षोंके पौधे लगानेसे क्या फल होगा?' यह दे सकती हैं कि तुम्हारे प्रिय गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हो, वह सुनकर पार्वती देवीका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा, वे हमारा भी पुत्र माना जाय एवं हममें भी मातृभाव अत्यन्त कल्याणमय वचन बोलीं- 'जो विज्ञ पुरुष ऐसे रखनेवाला तथा हमारा रक्षक हो । वह पुत्र तीनों लोकोंमें गाँवमें जहाँ जलका अभाव हो, कुआँ बनवाता है, वह विख्यात होगा।' उनकी बात सुनकर गिरिजाने कहाउसके जलकी जितनी बूंदें हों उतने वर्षतक स्वर्गमें 'अच्छा, ऐसा ही हो।' यह उत्तर पाकर कृत्तिकाओंको निवास करता है। दस कुओंके समान एक बावली, दस बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने कमल-पत्रमें स्थित जलमेंसे बावलियोंके समान एक सरोवर, दस सरोवरोके समान थोड़ा पार्वतीजीको भी दे दिया। उनके साथ पार्वतीने भी एक कन्या और दस कन्याओंके समान एक वृक्ष क्रमशः उस जलका पान किया। लगानेका फल होता है। यह शुभ मर्यादा नियत है। यह जल पीनेके बाद तुरंत ही रोग-शोकका नाश लोकको उन्नतिके पथपर ले जानेवाली है।' माता पार्वती करनेवाला एक सुन्दर और अद्भुत बालक भगवती देवीके यों कहनेपर बृहस्पति आदि ब्राह्मण उन्हें प्रणाम पार्वतीको दाहिनी कोख फाड़कर निकल आया। उसका करके अपने-अपने निवासस्थानको चले गये। शरीर सूर्यको किरणोंके समान प्रकाश-पुञ्जसे व्याप्त था।
उनके जानेके पश्चात् भगवान् शङ्कर पार्वतीके साथ उसने अपने हाथमें तीक्ष्ण शक्ति, शूल और अङ्कश अपने भवनमें गये। उस भवनमें चित्तको प्रसन्न करने- धारण कर रखे थे। वह अनिके समान तेजस्वी और वाले ऊँचे-ऊँचे चौबारे, अटारियाँ और गोपुर बने हुए सुवर्णके समान गोरे रंगका बालक कुत्सित दैत्योंको थे। वेदियोंपर मालाएँ शोभा पा रही थीं। सब ओर सोना मारनेके लिये प्रकट हुआ था; इसलिये उसका नाम जड़ा था। महलमें पुष्प बिखेरे हुए थे, जिनकी सुगन्धसे 'कुमार' हुआ। वह कृत्तिकाके दिये हुए जलसे उन्मत्त होकर भ्रमरगण गुंजार कर रहे थे। उस भवनमें शाखाओंसहित प्रकट हुआ था। वे कल्याणमयी शाखाएँ भगवान् श्रीशङ्करको पार्वतीजीके साथ निवास करते एक छहों मुखोंके रूपमें विस्तृत थीं; इन्हीं सब कारणोंसे वह हजार वर्ष व्यतीत हो गये। तब देवताओंने उतावले तीनों लोकोंमें विशाख, षण्मुख, स्कन्द, षडानन और होकर अग्निदेवको श्रीशङ्करजीकी चेष्टा जाननेके लिये कार्तिकेय आदि नामोंसे विख्यात हुआ। ब्रह्मा, श्रीविष्णु, भेजा। अग्निने तोतेका रूप धारण करके, जिससे पक्षी इन्द्र और सूर्य आदि समस्त देवताओंने चन्दन, माला, आते-जाते थे, उसी छिद्रके द्वारा शङ्करजीके महलमें सुन्दर धूप, खिलौने, छत्र, चैवर, भूषण और अङ्गराग प्रवेश किया और उन्हें गिरिजाके साथ एक शय्यापर आदिके द्वारा कुमार षडाननको सावधानीके साथ सोते देखा। तत्पश्चात् देवी पार्वती शय्यासे उठकर विधिपूर्वक सेनापतिके पदपर अभिषिक्त किया। भगवान कौतूहलवश एक सरोवरके तटपर गयीं, जो सुवर्णमय श्रीविष्णुने सब तरहके आयुध प्रदान किये। धनाध्यक्ष कमलोंसे सुशोभित था। वहाँ जाकर उन्होंने जलविहार कुबेरने दस लाख यक्षोंकी सेना दी। अग्निने तेज और किया। तदनन्तर वे सखियोंके साथ सरोवरके किनारे वायुने वाहन अर्पित किये। इस प्रकार देवताओंने प्रसन्न बैठी और उसके निर्मल पङ्कजोंसे सुशोभित स्वादिष्ट चित्तसे सूर्यके समान तेजस्वी स्कन्दको अनन्त पदार्थ संपन्यु-६
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
दिये। तत्पश्चात् वे सब पृथ्वीपर घुटने टेककर बैठ गये दिखायी देती हैं, श्रीविग्रहकी कान्ति नूतन एवं निर्मल
और स्तोत्र पढ़कर वरदायक देवता षडाननकी स्तुति कमलदलके समान मनोरम जान पड़ती है। आप करने लगे। स्तुति पूर्ण होनेके पश्चात् कुमारने कहा- दैत्यवंशके लिये दुःसह दावानलके समान है। प्रभो! "देवताओ! आपलोग शान्त होकर बताइये, मैं आपकी विशाख ! आपकी जय हो। तीनों लोकोंके शोकको कौन-सी इच्छा पूरी करूँ? यदि आपके मनमें शमन करनेवाले सात दिनकी अवस्थाके बालक ! चिरकालसे कोई असाध्य कार्य करनेकी भी इच्छा हो आपकी जय हो। सम्पूर्ण विश्वकी रक्षाका भार वहन तो कहिये।'
करनेवाले दैत्यविनाशक स्कन्द ! आपकी जय हो। देवता बोले-कुमार ! तारक नामसे प्रसिद्ध एक देववन्दियोंद्वारा उच्चारित यह विजयघोष सुनकर दैत्योंका राजा है, जो सम्पूर्ण देवकुलका अन्त कर रहा तारकासुरको ब्रह्माजीके वचनका स्मरण हो आया। है। वह बलवान्, अजेय, तीखे स्वभाववाला, दुराचारी बालकके हाथसे वध होनेकी बात याद करके वह
और अत्यन्त क्रोधी है। सबका नाश करनेवाला और धर्मविध्वंसी दैत्य शोकाकुल हृदयसे अपने महलके दुर्दमनीय है। अतः आप उस दैत्यका वध कीजिये । यही बाहर निकला। उस समय बहुत-से वीर उसके पीछेएक कार्य शेष रह गया है, जो हमलोगोंको बहुत ही पीछे चल रहे थे। कालनेमि आदि दैत्य भी थर्रा उठे। भयभीत कर रहा है।
उनका हृदय भयभीत हो गया। वे अपनी-अपनी सेनामें देवताओंके यों कहनेपर कुमारने 'तथास्तु' कहकर खड़े होकर व्यग्रताके कारण चकित हो रहे थे। उनकी आज्ञा स्वीकार की और जगत्के लिये कण्टकरूप तारकासुरने कुमारको सामने देखकर कहा-'बालक! तारकासुरका वध करनेके लिये वे देवताओंके पीछे-पीछे तू क्यों युद्ध करना चाहता है? जा, गेंद लेकर खेल। चले। उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। तेरे ऊपर जो यह महान् युद्धकी विभीषिका लादी गयी तदनन्तर कुमारका आश्रय मिल जानेके कारण इन्द्रने है, यह तेरे साथ बड़ा अन्याय किया गया है। तू अभी दानवराज तारकके पास अपना दूत भेजा। वहाँ जाकर निरा बच्चा है, इसीलिये तेरी बुद्धि इतनी अल्प समझ दूतने उस भयानक आकृतिवाले दैत्यसे निर्भयतापूर्वक रखनेवाली है।' कहा-'तारकासुर ! देवराज इन्द्रने तुम्हें यह कहलाया कुमार बोले-तारक ! सुनो, यहाँ [अधिक है कि देवता तुमसे युद्ध करने आ रहे हैं, तुम अपनी बुद्धि लेकर] शास्त्रार्थ नहीं करना है। भयंकर संग्राममें शक्तिभर प्राण बचानेकी चेष्टा करो।' यों कहकर जब दूत शस्त्रोंके द्वारा ही अर्थकी सिद्धि होती है [बुद्धिके द्वारा चला गया, तब दानवने सोचा, हो-न-हो, इन्द्रको कोई नहीं] । तुम मुझे शिशु समझकर मेरी अवहेलना न आश्रय अवश्य मिल गया है, अन्यथा वे ऐसी बात नहीं करो। साँपका नन्हा-सा बच्चा भी मौतका कष्ट देनेवाला कह सकते थे।' इन्द्र मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं। होता है। [प्रभातकालके] बाल-सूर्यकी ओर देखना भी वह सोचने लगा, 'ऐसा कौन अपूर्व योद्धा होगा, जिसे कठिन होता है। इसी प्रकार में बालक होनेपर भी दुर्जय मैंने अबतक परास्त नहीं किया है।' तारकासुर इसी हूँ-मुझे परास्त करना कठिन है। दैत्य ! क्या थोड़े चिन्तामें व्याकुल हो रहा था, इतनेमें ही उसे सिद्ध- अक्षरोवाले मन्त्रमें अद्भुत शक्ति नहीं देखी जाती? वन्दियोंके द्वारा गाया जाता हुआ किसीका यशोगान कुमारकी यह बात समाप्त होते ही दैत्यने उनके सुनायी पड़ा, जो हृदयको दुःखद प्रतीत होता था, जिसके ऊपर मुद्रका प्रहार किया। परन्तु उन्होंने अमोघ अक्षर कड़वे जान पड़ते थे।
तेजवाले चक्रके द्वारा उस भयंकर अखको नष्ट कर वन्दीगण कह रहे थे-महासेन ! आपकी जय दिया। तब दैत्यराजने लोहेका भिन्दिपाल चलाया, किन्तु हो। आपके मस्तककी चञ्चल शिखाएँ बड़ी सुन्दर कार्तिकेयने उसको अपने हाथसे पकड़ लिया। इसके
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सृष्टिखण्ड]
• गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध .
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बाद उन्होंने भी दैत्यको लक्ष्य करके भयानक आवाज दैत्य निष्पाण होकर प्रलयकालीन पर्वतके समान करनेवाली गदा चलायी; उसकी चोट खाकर वह धरतीपर गिर पड़ा। दानवोंके धुरन्धर वीर दैत्यराज पर्वताकार दैत्य तिलमिला उठा। अब उसे विश्वास हो तारकके मारे जानेपर सबका दुःख दूर हो गया। देवतागया कि यह बालक दुःसह एवं दुर्जय वीर है। उसने लोग कार्तिकेयजीकी स्तुति करते हुए क्रीडामें मग्न हो बुद्धिसे सोचा, अब निःसन्देह मेरा काल आ पहुंचा है। गये, उनके मुखपर मुसकान छा गयी । वे अपनी मानसिक उसे कम्पित होते देख कालनेमि आदि सभी दैत्यपति संग्राममें कठोरता धारण करनेवाले कुमारको मारने लगे। परन्तु महातेजस्वी कार्तिकेयको उनके प्रहार और विभीषिकाएँ छू भी नहीं सकीं। उन्होंने दानव-सेनाको अस्त्र-शस्त्रोंसे विदीर्ण करना आरम्भ किया। उनके अखोंका कोई निवारण नहीं हो पाता था। उनकी मार खाकर कालनेमि आदि देवशत्रु युद्धसे विमुख होकर भाग चले।
इस प्रकार जब दैत्यगण आहत होकर चारों ओर भाग गये और कित्ररगण विजय-गीत गाने लगे, उस समय अपना उपहास जानकर तारकासुर क्रोधसे अचेत-सा हो गया। उसने तपाये हुए सोनेकी कान्तिसे सुशोभित गदा लेकर कुमारपर प्रहार किया और विचित्र बाणोंसे मारकर उनके वाहन मयूरको युद्धसे भगा दिया। अपने वाहनको रक्त बहाते हुए भागते देख कार्तिकेयने सुवर्णभूषित निर्मल शक्ति हाथमें ली और दानवराज तारकसे कहा-'खोटी बुद्धिवाले दैत्य ! खड़ा रह, चिन्ताका परित्याग करके हर्षपूर्वक अपने-अपने लोकमें खड़ा रह; जीते-जी इस संसारको भर आँख देख ले। गये। सबने कार्तिकेयजीको वरदान दिये। अब मैं अपनी शक्तिके द्वारा तेरे प्राण ले रहा हैं. तू अपने देवता बोले-जो परम बुद्धिमान् मनुष्य कुकर्मोको याद कर।' यों कहकर कुमारने दैत्यके ऊपर कार्तिकेयजीसे सम्बन्ध रखनेवाली इस कथाको पढ़ेगा, शक्तिका प्रहार किया। कुमारकी भुजासे छूटी हुई वह सुनेगा अथवा सुनायेगा, वह यशस्वी होगा। उसकी शक्ति केयूरकी खन खनाहटके साथ चली और दैत्यकी आयु बढ़ेगी; वह सौभाग्यशाली, श्रीसम्पत्र, कान्तिमान, छातीमें, जो वज्र तथा गिरिराजके समान कठोर थी, जा सुन्दर, समस्त प्राणियोंसे निर्भय तथा सब दुःखोंसे लगी। उसने तारकासुरके हृदयको चीर डाला और वह मुक्त होगा।
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• अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्यपुराण
उत्तम ब्राह्मण और गायत्री-मन्त्रकी महिमा भीष्मजीने पूछा-विप्रवर! मनुष्यको भी होता । जिस घरके आँगन ब्राह्मणोंकी चरणधूलि पड़नेसे देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, पवित्र एवं शुद्ध होते रहते हैं, वे पुण्यक्षेत्रके समान हैं। आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकारके उन्हें यज्ञ-कर्मके लिये श्रेष्ठ माना गया है। भीष्म ! मङ्गलकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह बतानेकी पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मुखसे पहले ब्राह्मणका प्रादुर्भाव कृपा कीजिये।
हुआ; फिर उसी मुखसे जगत्की सृष्टि और पालनके पुलस्त्यजीने कहा-राजन् ! इस पृथ्वीपर हेतुभूत वेद प्रकट हुए। अतः विधाताने समस्त लोकोंकी ब्राह्मण सदा ही विद्या आदि गुणोंसे युक्त और श्रीसम्पन्न पूजा ग्रहण करनेके लिये और समस्त यज्ञोंके अनुष्ठानके होता है। तीनों लोकों और प्रत्येक युगमें ब्राह्मण-देवता लिये ब्राह्मणके ही मुखमें वेदोंको समर्पित किया। नित्य पवित्र माने गये हैं। ब्राह्मण देवताओंका भी देवता पितृयज्ञ (श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म है। संसारमें उसके समान दूसरा कोई नहीं है। वह तथा सब प्रकारके माङ्गलिक कार्योंमें ब्राह्मण सदा उत्तम साक्षात् धर्मकी मूर्ति है और इस पृथ्वीपर सबको मोक्ष माने गये हैं। ब्राह्मणके ही मुखसे देवता हव्यका और प्रदान करनेवाला है। ब्राह्मण सब लोगोंका गुरु, पूज्य पितर कव्यका उपभोग करते हैं। ब्राह्मणके बिना दान, और तीर्थस्वरूप मनुष्य है। ब्रह्माजीने उसे सब होम और बलि-सब निष्फल होते हैं। जहाँ ब्राह्मणोंको देवताओंका आश्रय बनाया है। पूर्वकालमें नारदजीने भोजन नहीं दिया जाता, वहाँ असुर, प्रेत, दैत्य और इसी विषयको ब्रह्माजीसे इस प्रकार पूछा था-'ब्रह्मन्! राक्षस भोजन करते हैं। अतः दान-होम आदिमें किसकी पूजा करनेपर भगवान् लक्ष्मीपति प्रसन्न ब्राह्मणको बुलाकर उन्हींसे सब कर्म कराना चाहिये। होते है?'
उत्तम देश-कालमें और उत्तम पात्रको दिया हुआ दान ब्रह्माजी बोले-जिसपर ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं, लाखगुना अधिक फलदायक होता है। ब्राह्मणको उसपर भगवान् श्रीविष्णु भी प्रसन्न हो जाते हैं। अतः देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिये। उसके ब्राह्मणकी सेवा करनेवाला मनुष्य परब्रह्म परमात्माको आशीर्वादसे मनुष्यकी आयु बढ़ती है, वह चिरजीवी प्राप्त होता है। ब्राह्मणके शरीरमें सदा ही श्रीविष्णुका होता है। ब्राह्मणको देखकर उसे प्रणाम न करनेसे, निवास है। जो दान, मान और सेवा आदिके द्वारा ब्राह्मणके साथ द्वेष रखनेसे तथा उसके प्रति अश्रद्धा प्रतिदिन ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, उसके द्वारा मानो करनेसे मनुष्योंकी आयु क्षीण होती है, उनके धनशास्त्रीय विधिके अनुसार उत्तम दक्षिणासे युक्त सौ ऐश्वर्यका नाश होता है तथा परलोकमें उनकी दुर्गति होती यज्ञोंका अनुष्ठान हो जाता है। जिसके घरपर आया हुआ है। ब्राह्मणका पूजन करनेसे आयु, यश, विद्या और विद्वान् ब्राह्मण निराश नहीं लौटता, उसके सम्पूर्ण धनकी वृद्धि होती है तथा मनुष्य श्रेष्ठ दशाको प्राप्त होता पापोंका नाश हो जाता है तथा वह अक्षय स्वर्गको प्राप्त है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जिन घरोंमें होता है। पवित्र देश-कालमें सुपात्र ब्राह्मणको जो धन ब्राह्मणके चरणोदकसे कीच नहीं होती, जहाँ वेद और दान किया जाता है, उसे अक्षय जानना चाहिये; वह शास्त्रोंकी ध्वनि नहीं सुनायी देती, जो यज्ञ, तर्पण और जन्म-जन्मान्तरोंमें भी फल देता रहता है। ब्राह्मणोंकी ब्राह्मणोंके आशीर्वादसे वञ्चित रहते हैं, वे स्मशानके पूजा करनेवाला मनुष्य कभी दरिद्र, दुःखी और रोगी नहीं समान हैं।
•न विप्रपादोदककर्दमानि न वेदशास्त्रप्रतिभोषितानि । स्वाहास्वधास्वस्तिविवर्जितानि श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि ॥
(४३ । १२७)
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सृष्टिखण्ड ]
• उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा •
नारदजीने पूछा- पिताजी! कौन ब्राह्मण अत्यन्त पूजनीय है ? ब्राह्मण और गुरुके लक्षणका यथावत् वर्णन कीजिये ।
ब्रह्माजीने कहा- वत्स ! श्रोत्रिय और सदाचारी ब्राह्मणकी नित्य पूजा करनी चाहिये। जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाला और पापोंसे मुक्त है, वह मनुष्य तीर्थस्वरूप है। उत्तम श्रोत्रियकुलमें उत्पन्न होकर भी जो वैदिक कर्मोका अनुष्ठान नहीं करता, वह पूजित नहीं होता तथा असत् क्षेत्र (मातृकुल) में जन्म लेकर भी जो वेदानुकूल कर्म करता है, वह पूजाके योग्य है— जैसे महर्षि वेदव्यास और ऋष्यशृङ्ग * विश्वामित्र यद्यपि क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हैं, तथापि अपने सत्कर्मों के कारण वे मेरे समान हैं; इसलिये बेटा! तुम पृथ्वीके तीर्थस्वरूप श्रोत्रिय आदि ब्राह्मणोंके लक्षण सुनो, इनके सुननेसे सब पापोंका नाश होता है। ब्राह्मणके बालकको जन्मसे ब्राह्मण समझना चाहिये। संस्कारोंसे उसकी 'द्विज' संज्ञा होती है तथा विद्या पढ़नेसे वह 'विप्र' नाम धारण करता है। इस प्रकार जन्म, संस्कार और विद्या - इन तीनोंसे युक्त होना श्रोत्रियका लक्षण है जो विद्या, मन्त्र तथा वेदोंसे शुद्ध होकर तीर्थस्नानादिके कारण और भी पवित्र हो गया है, वह ब्राह्मण परम पूजनीय माना गया है। जो सदा भगवान् श्रीनारायणमें भक्ति रखता है, जिसका अन्तःकरण शुद्ध है, जिसने अपनी इन्द्रियों और क्रोधको जीत लिया है, जो सब लोगोंके प्रति समान भाव रखता है, जिसके हृदयमें गुरु, देवता और अतिथिके प्रति भक्ति
* सच्छ्रोत्रियकुले जातो अक्रियो नैव पूजितः । असत्क्षेत्रकुले
पित्रोः शुश्रूषणे
+ जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते। विद्यया विद्यापूतो वेदपूतस्तथैव शुद्धान्तःकरणस्तथा। जितेन्द्रियो
मन्त्रपूतो
नारायणे
सदा भक्तः
रतः । परदारे सन्ततिः । अस्यैव
गुरुदेवातिथेर्भक्तः पुराणकथको निर्त्य धर्माख्यानस्य
है, जो पिता-माताकी सेवामें लगा रहता है, जिसका मन परायी स्त्रीमें कभी सुखका अनुभव नहीं करता, जो सदा पुराणोंकी कथा कहता और धार्मिक उपाख्यानोंका प्रसार करता है, उस ब्राह्मणके दर्शनसे प्रतिदिन अश्वमेध आदि यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। जो प्रतिदिन स्नान, ब्राह्मणोंका पूजन तथा नाना प्रकारके व्रतोंका अनुष्ठान करनेसे पवित्र हो गया है तथा जो गङ्गाजीके जलका सेवन करता है, उसके साथ वार्तालाप करनेसे ही उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। जो शत्रु और मित्र दोनोंके प्रति दयाभाव रखता है, सब लोगोंके साथ समताका बर्ताव करता है, दूसरेका धन - जंगलमें पड़ा हुआ तिनका भी नहीं चुराता, काम और क्रोध आदि दोषोंसे मुक्त है, जो इन्द्रियोंके वशमें नहीं होता, यजुर्वेद में वर्णित चतुर्वेदमयी शुद्ध तथा चौबीस अक्षरोंसे युक्त त्रिपदा गायत्रीका प्रतिदिन जप करता है तथा उसके भेदोंको जानता है, वह ब्रह्मपदको प्राप्त होता है।
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नारदजीने पूछा- पिताजी! गायत्रीका क्या लक्षण है, उसके प्रत्येक अक्षरमें कौन-सा गुण है तथा उसकी कुक्षि, चरण और गोत्रका क्या निर्णय है - इस बातको स्पष्टरूपसे बताइये ।
ब्रह्माजी बोले- वत्स ! गायत्री मन्त्रका छन्द गायत्री और देवता सविता निश्चित किये गये हैं। गायत्री देवीका वर्ण शुक्र, मुख अग्नि और ऋषि विश्वामित्र हैं। ब्रह्माजी उनके मस्तकस्थानीय हैं। उनकी शिखा रुद्र और हृदय श्रीविष्णु हैं। उनका उपनयन-कर्ममें विनियोग होता
पूज्यो व्यासवैभाण्डको
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च तीर्थस्नानादिभिर्मेध्यो
यथा ॥
याति विप्रत्वं
त्रिभिः
श्रोत्रियलक्षणम् ॥ विप्रः पूज्यतमः स्मृतः ॥ जितक्रोधः समः सर्वजनेषु च ॥ मनो यस्य कदाचित्रैव
मोदते ॥
दर्शनान्नित्यमश्वमेधादिजं
(४३ | १३१)
फलम् ॥
(४३ । १३४-३८)
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• अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
है। गायत्री देवी साख्यायन गोत्रमें उत्पन्न हुई हैं। तीनों जाता है। इतना ही नहीं, वह ब्रापदको प्राप्त होकर लोक उनके तीन चरण हैं। पृथ्वी उनके उदरमें स्थित प्रकृतिसे परे हो जाता है; इसलिये नारद ! तुम है। पैरसे लेकर मस्तकतक शरीरके चौबीस स्थानोंमें प्राणायामसहित गायत्रीका जप किया करो। गायत्रीके चौबीस अक्षरोंका न्यास करके द्विज ब्रह्म- नारदजीने पूछा-ब्रह्मन् ! प्राणायामका लोकको प्राप्त होता है तथा प्रत्येक अक्षरके देवताका क्या स्वरूप है, गायत्रीके प्रत्येक अक्षरके देवता ज्ञान प्राप्त करनेसे विष्णुका सायुज्य मिलता है। अब मैं कौन-कौन हैं तथा शरीरके किन-किन अवयवोंमें गायत्रीका दूसरा निश्चित लक्षण बतलाता हूँ। वह उनका न्यास किया जाता है ? तात ! इन सभी बातोंका अठारह अक्षरोंका यजुर्मन्त्र है। 'अग्नि' शब्दसे उसका क्रमशः वर्णन कीजिये। आरम्भ होता है और 'स्वाहा' के हकारपर उसकी ब्रह्माजी बोले-प्रत्येक देहधारीके गुदादेशमें समाप्ति । जलमें खड़ा होकर इस मन्त्रका सौ बार जप अपान और हृदयमें प्राण रहता है; इसलिये गुदाको करना चाहिये। इससे करोड़ों पातक और उपपातक सङ्कचित करके पूरक क्रियाके द्वारा अपान वायुको नष्ट हो जाते हैं तथा जप करनेवाले पुरुष ब्रह्माहत्या प्राणवायुके साथ संयुक्त करे। तत्पश्चात् वायुको रोककर आदि पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होते हैं। कुम्भक करे [और उसके बाद रेचककी क्रियाद्वारा वह मन्त्र इस प्रकार है- ॐ अग्नेर्वाक्पुंसि यजुवेदन वायुको बाहर निकाले। पूरक आदि प्रत्येक क्रियाके जुष्टा सोमं पिब स्वाहा'। इसी प्रकार विष्णु-मन्त्र, साथ तीन-तीन बार प्राणायाम-मन्त्रका जप करना माहेश्वर महामन्त्र, देवीमन्त्र, सूर्यमन्त्र, गणेश-मन्त्र तथा चाहिये] । द्विजको तीन प्राणायाम करके गायत्रीका जप अन्यान्य देवताओंके मन्त्रोंका जप करनेसे भी मनुष्य करना उचित है। इस प्रकार जो जप करता है, उसके पापरहित होकर उत्तम गति पाता है। जिस किसी महापातकोंकी राशि भस्म हो जाती है। तथा दूसरे-दूसरे कुलमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण भी यदि जप-परायण हो तो पातक भी एक ही बारके मन्त्रोच्चारणसे नष्ट हो जाते वह साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है; उसका यलपूर्वक पूजन हैं। जो प्रत्येक वर्णके देवताका ज्ञान प्राप्त करके अपने करना चाहिये। ऐसे ब्राह्मणको प्रत्येक पर्वपर शरीरमें उसका न्यास करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त विधिपूर्वक दान देना चाहिये। इससे दाताको करोड़ों होता है; उसे मिलनेवाले फलका वर्णन नहीं किया जा जन्मोतक अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। जो ब्राह्मण सकता। बेटा! प्रत्येक अक्षरके जो-जो देवता है, स्वाध्यायपरायण होकर स्वयं पढ़ता, दूसरोंको पढ़ाता उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। [इन अक्षरोंका जप
और संसारमें द्विजातियोंके यहाँ धर्म, सदाचार, श्रुति, करनेसे द्विजको फिर जन्म नहीं लेना पड़ता] । प्रथम स्मृति, पुराण-संहिता तथा धर्मसंहिताका श्रवण कराता. अक्षरके देवता अग्नि, दूसरेके वायु, तीसरेके सूर्य, है, वह इस पृथ्वीपर भगवान् श्रीविष्णुके समान है। चौथेके वियत् (आकाश), पाँचवेंके यमराज, छठेके मनुष्यों और देवताओंका भी पूज्य है। उस तीर्थस्वरूप वरुण, सातवेंके बृहस्पति, आठवेंके पर्जन्य, नवेके और निष्पाप ब्राह्मणका बल अक्षय होता है। उसका इन्द्र, दसवेके गन्धर्व, ग्यारहवेंके पूषा, बारहवेके मित्र, आदरपूर्वक पूजन करके मनुष्य श्रीविष्णुधामको प्राप्त तेरहवेंके त्वष्टा, चौदहवेंके वसु, पंद्रहवेके मरुद्गण, होता है। जो द्विज गायत्रीके प्रत्येक अक्षरका उसके सोलहवेंके सोम, सतरहवेंके अङ्गिरा, अठारहवेके देवतासहित अपने शरीरमें न्यास करके प्रतिदिन विश्वेदेव, उन्नीसवेंके अश्विनीकुमार, बीसवेंके प्रजापति, प्राणायामपूर्वक उसका जप करता है, वह करोड़ों इक्कीसवेंके सम्पूर्ण देवता, बाईसवेके रुद्र, तेईसवेंके जन्मोंके किये हुए सम्पूर्ण पापोंसे छुटकारा पा ब्रह्मा और चौबीसवेके श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार चौबीस
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सृष्टिखण्ड ]
PAKPUR-ANNA
• उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा •
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अक्षरोंके ये चौबीस देवता माने गये हैं। * गायत्री मन्त्रके इन देवताओंका ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर सम्पूर्ण वाङ्मय (वाणीके विषय) का बोध हो जाता है। जो इन्हें जानता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मपदको प्राप्त होता है।
विज्ञ पुरुषको चाहिये कि अपने शरीरके पैरसे लेकर सिरतक चौबीस स्थानोंमें पहले गायत्रीके अक्षरोंका न्यास करे । 'तत्'का पैरके अंगूठेमें, 'स' का गुल्फ (घुट्ठी) में, 'वि'का दोनों पिंडलियोंमें, 'तु'का घुटनोंमें, 'र्व'का जाँघोंमें, रे'का गुदामें 'ण्य'का अण्डकोषमें, 'म्'का कटिभागमें, 'भ'का नाभिमण्डलमें, 'ग' का उदरमें, 'दे'का दोनों स्तनोंमें, 'व'का हृदयमें 'स्य'का दोनों हाथोंमें, 'धी' का मुँहमें, 'म'का तालुमें, 'हि' का नासिकाके अग्रभागमें, 'धि'का दोनों नेत्रोंमें 'यो'का दोनों भौहोंमें, 'यो'का ललाटमें 'नः 'का मुखके पूर्वभागमें, 'प्र'का दक्षिण भागमें, 'चो'का पश्चिम भागमें और 'द'का मुखके उत्तर भागमें न्यास करे। फिर 'यात्' का मस्तकमें न्यास करके सर्वव्यापी स्वरूपसे स्थित हो जाय। धर्मात्मा पुरुष इन अक्षरोंका न्यास करके ब्रह्मा, विष्णु और शिवका स्वरूप हो जाता है। वह महायोगी और महाज्ञानी होकर परम शान्तिको प्राप्त होता है।
नारद ! अब सन्ध्या-कालके लिये एक और न्यास बतलाता हूँ, उसका भी यथार्थ वर्णन सुनो। 'ॐ भूः ' इसका हृदयमें न्यास करके, ॐ भुवः का सिरमें
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न्यास करे। फिर ॐ स्वः 'का शिखामें", 'ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम्' का समस्त शरीरमें 'ॐ भर्गो देवस्य धीमहि' इसका नेत्रोंमें' तथा 'ॐ धियो यो नः प्रचोदयात्' का 'दोनों 'हाथोंमें न्यास करे। तत्पश्चात् 'ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ' का उच्चारण करके जल-स्पर्श मात्र करनेसे द्विज पापसे शुद्ध होकर श्रीहरिको प्राप्त होता है।
इस प्रकार व्याहृति और बारह ॐकारोंसे युक्त गायत्रीका सन्ध्याके समय कुम्भक क्रियाके साथ तीन बार जप करके सूर्योपस्थानकालमें जो चौबीस अक्षरोंकी गायत्रीका जप करता है, वह महाविद्याका अधीश्वर होता है और ब्रह्मपदको प्राप्त करता है।
व्याहृतियोंसहित इस गायत्रीका पुनः न्यास करना चाहिये। ऐसा करनेसे द्विज सब पापोंसे मुक्त होकर श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। न्यास - विधि यह है— 'ॐ भूः पादाभ्याम्' का उच्चारण करके दोनों चरणोंका स्पर्श करे। इसी प्रकार 'ॐ भुवः जानुभ्याम् कहकर दोनों घुटनोंका, ॐ स्वः कट्याम्' बोलकर कटिभागका 'ॐ महः नाभी' का उच्चारण करके नाभिस्थानका, ॐ जनः हृदये' कहकर हृदयका, ॐ तपः करयो' बोलकर दोनों हाथोंका, ॐ सत्यं ललाटे' का उच्चारण करके ललाटका तथा गायत्रीमन्त्रका पाठ करके शिखाका स्पर्श करना चाहिये।
सब बीजोंसे युक्त इस गायत्रीको जो जानता है, वह मानो चारों वेदोंका, योगका तथा तीनों प्रकारके
• आप्रेयं प्रथमं ज्ञेयं वायव्यं तु द्वितीयकम्। तृतीयं सूर्यदैवत्यं चतुर्थ वैयतं तथा ॥ पञ्चमं यमदैवत्यं वारुणं षष्ठमुच्यते। सप्तमं बार्हस्पत्ये तु पार्जन्यं चाष्टमं विदुः ॥ ऐन्द्रं च नवमं ज्ञेयं गान्धवं दशमं तथा पौष्णमेकादशं विद्धि मैत्रं द्वादशकं स्मृतम् ॥ त्वाष्ट्रं त्रयोदशं ज्ञेयं वासवं तु चतुर्दशम् । मारुतं पञ्चदशकं सौम्यं षोडशकं स्मृतम् ॥ आङ्गिरसं सप्तदशं वैश्वदेवमतः परम् । आश्विनं चैकोनविंशं प्राजापत्यं तु विंशकम् ॥ सर्वदेवमयं ज्ञेयमेकविंशकमक्षरम् । रौद्रं द्वाविंशकं ज्ञेयं ब्राह्मं ज्ञेयमतः परम् ॥ वैष्णवं तु चतुर्विंशमेता अक्षरदेवताः ।
(४३ | १६९ – १७५)
१. ॐ भूरिति हृदये । २. ॐ भुवः शिरसि। ३. ॐ स्वः शिखायै ४. ॐ तत्सवितुर्वरेण्यमिति कलेवरे । ५. ॐ भर्गो देवस्य धीमहीति नेत्रयोः । ६. ॐ धियो यो नः प्रचोदयादिति करयोः इन छः वाक्योंको क्रमशः पढ़कर सिर आदि छः अङ्गका स्पर्श करना चाहिये।
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
( वाचिक, उपांशु और मानसिक) जपका ज्ञान रखता है। जो इस गायत्रीको नहीं जानता, वह शूद्रसे भी अधम माना गया है। उस अपवित्र ब्राह्मणको पितरोंके निमित्त किये हुए पार्वण श्राद्धका दान नहीं देना चाहिये। उसे कोई भी तीर्थ स्नानका फल नहीं देता। उसका किया हुआ समस्त शुभ कर्म निष्फल हो जाता है उसकी विद्या, धन-सम्पत्ति, उत्तम जन्म, द्विजत्व तथा जिस पुण्यके कारण उसे यह सब कुछ मिला है, वह भी व्यर्थ होता है। ठीक उसी तरह, जैसे कोई पवित्र पुष्प किसी गंदे स्थानमें पड़ जानेपर काममें लेनेयोग्य नहीं रह जाता। मैंने पूर्वकालमें चारों वेद और गायत्रीकी तुलना की थी, उस समय चारों वेदोंकी अपेक्षा गायत्री ही गुरुतर सिद्ध हुई; क्योंकि गायत्री मोक्ष देनेवाली मानी गयी है। गायत्री दस बार जपनेसे वर्तमान जन्मके, सौ बार जपनेसे पिछले जन्मके तथा एक हजार बार जपनेसे तीन युगोंके पाप नष्ट कर देती है। * जो सबेरे और शामको रुद्राक्षको मालापर गायत्रीका जप करता है, वह निःसन्देह चारों वेदोंका फल प्राप्त करता है। जो द्विज एक वर्षतक तीनों समय गायत्रीका जप करता है, उसके करोड़ों जन्मोंके उपार्जित पाप नष्ट हो जाते हैं। गायत्रीके उच्चारणमात्रसे पापराशिसे छुटकारा मिल जाता है— मनुष्य शुद्ध हो जाता है तथा जो द्विजश्रेष्ठ प्रतिदिन गायत्रीका जप करता है, उसे स्वर्ग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं। जो नित्यप्रति वासुदेवमन्त्रका जप और भगवान् ★
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•
—
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
चतुर्वेदाश्च गायत्री पुरा वै तुलिता मया ॥ चतुर्वेदात् परा गुर्वी गायत्री मोक्षदा स्मृता । दशभिर्जन्मजनितं शतेन च पुराकृतम् ॥ त्रियुगं तु सहस्रेण गायत्री हन्ति किल्बिषम् ।
नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥
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श्रीविष्णुके चरणोंमें प्रणाम करता है, वह मोक्षका अधिकारी हो जाता है। जिसके मुखमें भगवान् वासुदेवके स्तोत्र और उनकी उत्तम कथा रहती है, उसके शरीर में पापका लेशमात्र भी नहीं रहता। वेदशास्त्रोंका अवगाहन करने — उनके विचारमें संलग्न रहनेसे गङ्गा स्नानके समान फल होता है। लोकमें धार्मिक ग्रन्थोंका पाठ करनेवाले मनुष्योंको करोड़ों यज्ञोंका फल मिलता है। नारद! मुझमें ब्राह्मणोंके गुणोंका पूरा-पूरा वर्णन करनेकी शक्ति नहीं है। ब्राह्मणके सिवा, दूसरा कौन देहधारी है, जो विश्वस्वरूप हो। ब्राह्मण श्रीहरिका मूर्तिमान् विग्रह है। उसके शापसे विनाश होता है और वरदानसे आयु, विद्या, यश, धन तथा सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। ब्राह्मणोंके ही प्रसादसे भगवान् श्रीविष्णु सदा ब्रह्मण्य कहलाते हैं। जो ब्रह्मण्य (ब्राह्मणोंके प्रति अनुराग रखनेवाले) देव हैं, गौ और ब्राह्मणोंके हितकारी हैं तथा संसारकी भलाई करनेवाले हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्णको बारम्बार नमस्कार है। जो सदा इस मन्त्रसे श्रीहरिका पूजन करता है, उसके ऊपर भगवान् प्रसन्न होते हैं तथा वह श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त करता है जो इस धर्मस्वरूप पवित्र आख्यानका श्रवण करता है, उसके जन्म-जन्मान्तरोंके किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इसे पढ़ता, पढ़ाता तथा दूसरे लोगोंको उपदेश करता है, उसे पुनः इस संसारमें नहीं आना पड़ता। वह इस लोकमें धन, धान्य, राजोचित भोग, आरोग्य, उत्तम पुत्र तथा शुभ-कीर्ति प्राप्त करता है।
(४३ | १९२ - १९४ )
(४३ । २०३)
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सृष्टिखण्ड ]
• अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र •
नारदजीने कहा- देवेश्वर! आपकी कृपासे मुझे परम पवित्र उत्तम ब्राह्मणका परिचय तो मिल गया; अब जिस प्रकार मैं कर्मसे अधम ब्राह्मणको भी पहचान सकूँ, वह बात बताइये ।
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अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
ब्रह्माजी बोले- बेटा ! जो दस प्रकारके स्नान, सन्ध्योपासन और तर्पण आदि नहीं करता, जिसमें इन्द्रिय संयमका अभाव है, वही अधम ब्राह्मण है। जो देवताओंकी पूजा, व्रत, वेद-विद्या, सत्य, शौच, योग, ज्ञान तथा अग्रिहोत्रका त्यागी है, वह भी ब्राह्मणोंमें अधम ही है। महर्षियोंने ब्राह्मणोंके लिये पाँच स्नान बताये हैं- आग्नेय, वारुण, ब्राह्म, वायव्य और दिव्य सम्पूर्ण शरीरमें भस्म लगाना आग्नेय स्नान है; जलसे जो स्नान किया जाता है, उसे वारुण स्नान कहते हैं; 'आपो हि ष्ठा०' इत्यादि ऋचाओंसे जो अपने ऊपर अभिषेक किया जाता है, वह ब्राह्म स्नान है। शरीरपर हवासे उड़कर जो गौके चरणोंकी धूलि पड़ती है, उसे वायव्य स्नान माना गया है तथा धूप रहते हुए जो आकाशसे जलकी वर्षा होती है, उससे नहानेको दिव्य स्नान कहते हैं। उपर्युक्त वस्तुओंके द्वारा मन्त्रपाठपूर्वक स्नान करनेसे तीर्थ स्नानका फल प्राप्त होता है। तुलसीके पत्तेसे लगा हुआ जल, शालग्राम शिलाको नहलाया हुआ जल, गौओंके सींगसे स्पर्श कराया हुआ जल, ब्राह्मणका चरणोदक तथा मुख्य-मुख्य गुरुजनोंका चरणोदक — ये पवित्रसे भी पवित्र माने गये हैं। ऐसा स्मृतियोंका कथन है। [इन पाँच तरहके जलोंसे मस्तकपर अभिषेक करना पुनः पाँच प्रकारका खान - इस तरह पहलेके पाँच स्नानोंके साथ मिलकर यह दस प्रकारका स्नान माना गया है] त्याग, तीर्थ-स्नान, यज्ञ, व्रत और होम आदिके द्वारा जो फल मिलता है, वही फल धीर पुरुष उपर्युक्त स्त्रानोंसे प्राप्त कर लेता है।
जो प्रतिदिन पितरोंका तर्पण नहीं करता, वह पितृघातक है, उसे नरकमें जाना पड़ता है। सन्ध्या नहीं करनेवाला द्विज ब्रह्महत्यारा है जो ब्राह्मण, मन्त्र, व्रत,
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वेद, विद्या, उत्तम गुण, यज्ञ और दान आदिका त्याग कर देता है, वह अधमसे भी अधम है। मन्त्र और संस्कारसे हीन, शौच और संयमसे रहित, बलिवैश्व किये बिना ही अन्न भोजन करनेवाले, दुरात्मा, चोर, मूर्ख, सब प्रकारके धर्मोसे शून्य, कुमार्गगामी, श्राद्ध आदि कर्म न करनेवाले, गुरु सेवासे दूर रहनेवाले, मन्त्रज्ञानसे वञ्चित तथा धार्मिक मर्यादा भङ्ग करनेवाले ये सभी ब्राह्मण अधमसे भी अधम हैं। उन दुष्टोंसे बात भी नहीं करनी चाहिये। वे सब के सब नरकगामी होते हैं। उनका आचरण दूषित होता है; अतएव वे अपवित्र और अपूज्य होते हैं जो द्विज तलवारसे जीविका चलाते, दासवृत्ति स्वीकार करते, बैलोंको सवारीमें जोतते, बढ़ईका काम करके जीवन निर्वाह करते, ऋण देकर व्याज लेते, बालिका और वेश्याओंके साथ व्यभिचार करते, चाण्डालोंके आश्रयमें रहते, दूसरोंके उपकारको नहीं मानते और गुरुकी हत्या करते हैं, वे सबसे अधम माने गये हैं। इनके सिवा दूसरे भी जो आचारहीन, पाखण्डी, धर्मकी निन्दा करनेवाले तथा भिन्न-भिन्न देवताओंपर दोषारोपण करनेवाले हैं, वे सभी द्विज ब्रह्मद्रोही हैं। नारद! अधम होनेपर भी ब्राह्मणका कभी वध नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसको मारनेसे मनुष्यको ब्रह्महत्याका पाप लगता है 1
नारदजीने पूछा— सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ! यदि ब्राह्मण ऐसे-ऐसे दुष्कर्म करनेके पश्चात् फिर पुण्यका अनुष्ठान करे तो वह किस गतिको प्राप्त होता है ?
ब्रह्माजीने कहा- वत्स! जो सारे पाप करनेके पश्चात् भी इन्द्रियोंको वशमें कर लेता है, वह उन पापोंसे छुटकारा पा जाता है तथा पुनः ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेके योग्य बन जाता है। इस विषयमें एक प्राचीन कथा सुनो, जो बड़ी सुन्दर और विचित्र है। पूर्वकालमें किसी ब्राह्मणका एक नौजवान पुत्र था। उसने जवानीकी उमंगमें मोहके वशीभूत होकर एक बार चाण्डालीके
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अर्चयस्वषीकेश यदीच्छसि पर पदम्,
[संक्षिप्त पद्यपुराण
साथ समागम किया। चाण्डालीके गर्भसे उसने अनेकों करनेसे तेरे सारे पाप शीघ्र ही नष्ट हो जायँगे । पुण्यतीर्थों पुत्र और कन्याएँ उत्पन्न की तथा अपना कुटुम्ब छोड़कर और भगवान् श्रीगोविन्दके प्रभावसे पापोंका क्षय होगा वह चिरकालतक उसीके घरमें रहा। किन्तु घृणाके और तू ब्रह्मत्वको प्राप्त होगा। तात ! इस विषयमें हम कारण न तो वह दूसरा कोई अभक्ष्य पदार्थ खाता और तुझे एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं। पूर्वकालमें न कभी शराब ही पीता था। चाण्डाली उससे सदा ही विनतानन्दन गरुड़ जब अंडा फोड़कर बाहर निकले, तब कहा करती थी कि 'ये सब चीजें खाओ और शराब नवजात शिशुकी अवस्थामें ही उन्हें आहार ग्रहण पियो।' किन्तु वह उसे यही उत्तर देता–“प्रिये ! तुझे करनेकी इच्छा हुई। वे भूखसे व्याकुल होकर मातासे ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिये। शराबका तो नाम बोले-'माँ ! मुझे कुछ खानेको दो।' सुननेमात्रसे मुझे ओकाई आती है।'
पर्वतके समान शरीरवाले महाबली गरुड़को एक दिनकी बात है-वह थका-माँदा होनेके देखकर परम सौभाग्यवती माता विनताके मनमें बड़ा हर्ष कारण दिनमें भी घरपर ही सो रहा था। चाण्डालीने हुआ। वे अपने पुत्रसे बोलीं-'बेटा ! मुझमें तेरी भूख शराब उठायी और हँसकर उसके मुँहमें डाल दी। मिटानेकी शक्ति नहीं है। तेरे पिता धर्मात्मा कश्यप मदिराकी बूंद पड़ते ही उस ब्राह्मणके मुँहसे अग्नि साक्षात् ब्रह्माजीके समान तेजस्वी हैं। वे सोन नदीके प्रज्वलित हो उठी; उसकी ज्वालाने फैलकर कुटुम्बसहित उत्तर तटपर तपस्या करते हैं। वहीं जा और अपने पितासे उस चाण्डालीको जलाकर भस्म कर दिया तथा उसके इच्छानुसार भोजनके विषयमें परामर्श कर । तात ! उनके घरको भी फूंक डाला। उस समय वह ब्राह्मण 'हाय ! उपदेशसे तेरी भूख शान्त हो जायगी।' हाय !' करता हुआ उठा और बिलख-बिलखकर रोने ऋषि कहते हैं-माताकी बात सुनकर मनके लगा। विलापके बाद उसने पूछना आरम्भ किया- समान वेगवाले महाबली गरुड़ एक ही मुहूर्तमें पिताके 'कहाँसे आग प्रकट हुई और कैसे मेरा घर जला?' तब समीप जा पहुँचे। वहाँ प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी आकाशवाणीने उससे कहा-'तुम्हारे ब्रह्मतेजने अपने पिता मुनिवर कश्यपजीको देखकर उन्हें मस्तक चाण्डालीके घरमें आग लगायी है।' इसके बाद उसने झुका प्रणाम किया और इस प्रकार कहा-'प्रभो ! मैं ब्राह्मणके मुँहमें शराब डालने आदिका ठीक-ठीक आपका पुत्र हूँ और आहारकी इच्छासे आपके पास वृत्तान्त कह सुनाया। यह सब सुनकर ब्राह्मणको बड़ा आया हूँ। भूख बहुत सता रही है, कृपा करके मुझे कुछ विस्मय हुआ। उसने इस विषयपर भलीभाँति विचार भोजन दीजिये। करके अपने-आपको उपदेश देनेके लिये यह बात कश्यपजीने कहा-वत्स! उधर समुद्रके कही-'विप्र ! तेरा तेज नष्ट हो गया, अब तू पुनः किनारे विशाल हाथी और कछुआ रहते हैं। वे दोनों धर्मका आचरण कर।' तदनन्तर उस ब्राह्मणने बड़े-बड़े बहुत बड़े जीव हैं। उनमें अपार बल है। वे एकमुनियोंके पास जाकर उनसे अपने हितकी बात पूछी। दूसरेको मारनेकी घातमें लगे हुए हैं। तू शीघ्र ही उनके मुनियोंने कहा-'तू दान-धर्मका आचरण कर । ब्राह्मण पास जा, उनसे तेरी भूख मिट सकती है। नियम और व्रतोंके द्वारा सब पापोंसे छूट जाते हैं। अतः पिताकी बात सुनकर महान् वेगशाली और विशाल तू भी अपनी पवित्रताके लिये शास्त्रोक्त नियमोका आकारवाले गरुड़ उड़कर वहाँ गये तथा उन दोनोंको आचरण कर। चान्द्रायण, कृच्छ्र, तप्तकृच्छ्र, प्राजापत्य नखोंसे विदीर्ण करके चोच और पंजोंमें लेकर विद्युत्के तथा दिव्य व्रतोंका बारम्बार अनुष्ठान कर । ये व्रत समस्त समान वेगसे आकाशमें उड़ चले। उस समय मन्दराचल दोषोंका तत्काल शोषण कर लेते हैं। तू पवित्र तीर्थोंमें आदि पर्वत उन्हें धारण नहीं कर पाते थे। तब वे जा और वहाँ भगवान् श्रीविष्णुको आराधना कर । ऐसा वायुवेगसे दो लाख योजन आगे जाकर एक जामुनके
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सृष्टिखण्ड ]
. अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र .
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वृक्षकी बहुत बड़ी शाखापर बैठे। उनके पंजा रखते ही उनकी भुजा कॉपी नहीं। वहाँ बैठकर गरुड़ने उस वह शाखा सहसा टूट पड़ी। उसे गिरते देख महाबली शाखाको तो पर्वतके शिखरपर डाल दिया और हाथी पक्षिराज गरुड़ने गौ और ब्राह्मणोंके वधके भयसे तुरंत तथा कछुएको भक्षण किया। तत्पश्चात् वे श्रीविष्णुसे पकड़ लिया और फिर बड़े वेगसे आकाशमें उड़ने लगे। बोले-'तुम कौन हो? इस समय तुम्हारा कौन-सा उन्हें बहुत देरसे आकाशमें मँडराते देख भगवान् प्रिय कार्य करूं?' श्रीविष्णु मनुष्यका रूप धारण कर उनके पास जा इस भगवान् श्रीविष्णुने कहा-मुझे नारायण प्रकार बोले-'पक्षिराज ! तुम कौन हो और किसलिये समझो, मैं तुम्हारा प्रिय करनेके लिये यहाँ आया हूँ। यह विशाल शाखा तथा ये महान् हाथी एवं कछुआ यह कहकर भगवान्ने उन्हें विश्वास दिलानेके लिये लिये आकाशमें घूम रहे हो?' उनके इस प्रकार पूछनेपर अपना रूप दिखाया। मेघके समान श्याम विग्रहपर पक्षिराजने नररूपधारी श्रीनारायणसे कहा-'महाबाहो! पीताम्बर शोभा पा रहा था। चार भुजाओंके कारण मैं गरुड़ हूँ। अपने कर्मक अनुसार मुझे पक्षी होना पड़ा उनकी झाँकी बड़ी मनोरम जान पड़ती थी। हाथोंमें शङ्ख, है। मैं कश्यप मुनिका पुत्र हूँ और माता विनताके गर्भसे चक्र, गदा और पद्म धारण किये सर्वदेवेश्वर श्रीहरिका मेरा जन्म हआ है। देखिये, इन बड़े-बड़े जीवोंको मैंने खानेके लिये पकड़ रखा है। वृक्ष और पर्वत-कोई भी मुझे धारण नहीं कर पाते। अनेकों योजन उड़नेके बाद मैं एक विशाल जामुनका वृक्ष देखकर इन दोनोंको खानेके लिये उसकी शाखापर बैठा था; किन्तु मेरे बैठते ही वह भी सहसा टूट गयी, अतः सहस्रों ब्राह्मणों और गौओंके वधके डरसे इसे भी लिये डोलता हूँ। अब मेरे मनमें बड़ा विषाद हो रहा है कि क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कौन मेरा वेग सहन करेगा।'
श्रीविष्णु बोले-अच्छा, मेरी बाँहपर बैठकर तुम इन दोनों-हाथी और कछुएको खाओ।
गरुड़ने कहा-बड़े-बड़े पर्वत भी मुझे धारण करने में असमर्थ हो रहे हैं, फिर तुम मुझ-जैसे महाबली पक्षीको कैसे धारण कर सकोगे? भगवान् श्रीनारायणके सिवा दूसरा कौन है, जो मुझे धारण कर सके। तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो मेरा भार सह लेगा।
श्रीविष्णु बोले-पक्षिश्रेष्ठ ! बुद्धिमान् पुरुषको दर्शन करके गरुड़ने उन्हें प्रणाम किया और अपना कार्य सिद्ध करना चाहिये, अतः इस समय तुम कहा-'पुरुषोत्तम ! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय अपना काम करो। कार्य हो जानेपर निश्चय ही मुझे कार्य करूं?' जान लोगे।
श्रीविष्णु बोले-सखे ! तुम बड़े शूरवीर हो, गरुड़ने उन्हें महान् शक्तिसम्पन्न देख मन-ही-मन अतः हर समय मेरा वाहन बने रहो। कुछ विचार किया, फिर 'एवमस्तु' कहकर वे उनकी यह सुनकर पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुड़ने भगवान्से विशाल भुजापर बैठे। गरुड़के वेगपूर्वक बैठनेपर भी कहा-'देवेश्वर ! आपका दर्शन करके मैं धन्य हुआ,
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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मेरा जन्म सफल हो गया। प्रभो ! मैं पिता-मातासे आज्ञा लेकर आपके पास आऊँगा।' तब भगवान्ने प्रसन्न होकर कहा - 'पक्षिराज! तुम अजर-अमर बने रहो, किसी भी प्राणीसे तुम्हारा वध न हो। तुम्हारा कर्म और तेज मेरे समान हो । सर्वत्र तुम्हारी गति हो । निश्चय ही तुम्हें सब प्रकारके सुख प्राप्त हों तुम्हारे मनमें जो जो इच्छा हो, सब पूर्ण हो जाय। तुम्हें अपनी रुचिके अनुकूल यथेष्ट आहार बिना किसी कष्टके प्राप्त होता रहेगा। तुम शीघ्र ही अपनी माताको कष्टसे मुक्त करोगे।' ऐसा कहकर भगवान् श्रीविष्णु तत्काल अन्तर्धान हो गये। गरुड़ने भी अपने पिताके पास जाकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
गरुड़का वृत्तान्त सुनकर उनके पिता महर्षि कश्यप मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और अपने पुत्रसे इस प्रकार बोले- 'खगश्रेष्ठ ! मैं धन्य हूँ, तुम्हारी कल्याणमयी माता भी धन्य है। माताकी कोख तथा यह कुल, जिसमें तुम्हारे जैसा पुत्र उत्पन्न हुआ— सभी धन्य हैं। जिसके कुलमें वैष्णव पुत्र उत्पन्न होता है; वह धन्य है, वह वैष्णव पुत्र पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं तथा अपने कुलका उद्धार करके श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त करता है। जो प्रतिदिन श्रीविष्णुकी पूजा करता, श्रीविष्णुका ध्यान करता, उन्हींके यशको गाता, सदा उन्होंकि मन्त्रको जपता, श्रीविष्णुके ही स्तोत्रका पाठ करता, उनका प्रसाद पाता और एकादशीके दिन उपवास करता है, वह सब पापोंका क्षय हो जानेसे निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। जिसके हृदयमें सदा ही श्रीगोविन्द विराजते हैं, वह नरश्रेष्ठ विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। जलमें, पवित्र स्थानमें, उत्तम पथपर, गौमें ब्राह्मणमें, स्वर्गमें, ब्रह्माजीके भवनमें तथा पवित्र पुरुषके घरमें सदा ही भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं। इन सब स्थानोंमें जो भगवान्का जप और चिन्तन करता है, वह अपने पुण्यके द्वारा पुरुषोंमें श्रेष्ठ होता है और सब पापोंका क्षय हो जानेसे भगवान् श्रीविष्णुका किङ्कर होता है। जो श्रीविष्णुका सारूप्य प्राप्त कर ले, वही मानव संसारमें धन्य है। बड़े-बड़े देवता जिनकी पूजा करते हैं, जो इस
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
जगत्के स्वामी, नित्य, अच्युत और अविनाशी हैं, वे भगवान् श्रीविष्णु जिसके ऊपर प्रसन्न हो जायें, वही पुरुषोंमें श्रेष्ठ है। नाना प्रकारकी तपस्या तथा भाँति-भाँतिके धर्म और यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी देवतालोग भगवान् श्रीविष्णुको नहीं पाते; किन्तु तुमने उन्हें प्राप्त कर लिया। [ अतः तुम धन्य हो ।] तुम्हारी माता सौतके द्वारा घोर संकटमें डाली गयी है, उसे छुड़ाओ। माताके दुःखका प्रतीकार करके देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुके पास जाना।'
इस प्रकार श्रीविष्णुसे महान् वरदान पा और पिताकी आज्ञा लेकर गरुड़ अपनी माताके पास गये और हर्षपूर्वक उन्हें प्रणाम करके सामने खड़े हो उन्होंने पूछा—'माँ बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ? कार्य करके मैं भगवान् विष्णुके पास जाऊँगा।' यह सुनकर सती विनताने गरुड़से कहा - 'बेटा! मुझपर महान् दुःख आ पड़ा है, तुम उसका निवारण करो। बहिन कद्रू मेरी सौत है। पूर्वकालमें उसने मुझे एक बातमें अन्यायपूर्वक हराकर दासी बना लिया। अब मैं उसकी दासी हो चुकी हूँ। तुम्हारे सिवा कौन मुझे इस दुःखसे छुटकारा दिलायेगा। कुलनन्दन ! जिस समय मैं उसे मुँहमाँगी वस्तु दे दूँगी, उसी समय दासीभावसे मेरी मुक्ति हो सकती है।'
गरुड़ने कहा- माँ ! शीघ्र ही उसके पास जाकर पूछो, वह क्या चाहती है ? मैं तुम्हारे कष्टका निवारण करूँगा। तब दुःखिनी विनताने कसे कहा'कल्याणी! तुम अपनी अभीष्ट वस्तु बताओ, जिसे देकर मैं इस कष्टसे छुटकारा पा सकूँ।' यह सुनकर उस दुष्टाने कहा- 'मुझे अमृत ला दो।' उसकी बात सुनकर विनता धीरे-धीरे लौटी और बेटेसे दुःखी होकर बोली- 'तात! वह तो अमृत माँग रही है, अब तुम क्या करोगे ?'
ले
गरुड़ने कहा- 'माँ ! तुम उदास न हो, मैं अमृत आऊँगा।' यों कहकर मनके समान वेगवान् पक्षी गरुड़ सागरसे जल ले आकाशमार्गसे चले। उनके पंखोंकी हवासे बहुत-सी धूल भी उनके साथ-साथ
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सृष्टिखण्ड ]
• अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
उड़ती गयी। वह धूलराशि उनका साथ न छोड़ सकी। गन्तव्य स्थानपर पहुँचकर गरुड़ने अपनी चोंचमें रखे हुए जलसे वहाँ अग्निमय प्राकार (परकोटे) को बुझा दिया तथा अमृतकी रक्षाके लिये जो देवता नियुक्त थे, उनकी आँखोंमें पूर्वोक्त धूल भर गयी, जिससे वे गरुड़जीको देख नहीं पाते थे। बलवान् गरुड़ने रक्षकोंको मार गिराया और अमृत लेकर वे वहाँसे चल दिये। पक्षीको अमृत लेकर आते देख ऐरावतपर चढ़े हुए इन्द्रने कहा- 'अहो ! पक्षीका रूप धारण करनेवाले तुम कौन हो, जो बलपूर्वक अमृतको लिये जाते हो ? सम्पूर्ण देवताओंका अप्रिय करके यहाँसे जीवित कैसे जा सकते हो।'
यह सुनकर महाबाहु इन्द्रने गरुड़पर तीखे बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेरुगिरिके शिखरपर मेघ जलकी धाराएँ बरसा रहा हो। गरुड़ने अपने वज्रके समान तीखे नखोंसे ऐरावत हाथीको विदीर्ण कर डाला तथा मातलिसहित रथ और चक्कोंको हानि पहुँचाकर अग्रगामी देवताओंको भी घायल कर दिया। तब इन्द्रने कुपित होकर उनके ऊपर वज्रका प्रहार किया। वज्रकी चोट खाकर भी महापक्षी गरुड़ विचलित नहीं हुए। वे बड़े वेगसे भूतलकी ओर चले। तब इन्द्रने सब देवताओंके आगे स्थित होकर कहा - 'निष्पाप गरुड़! यदि तुम नागमाताको इस समय अमृत दे दोगे तो सारे साँप अमर हो जायँगे; अतः यदि तुम्हारी सम्मति हो तो इस अमृतको वहाँसे हर लाऊँगा।'
मैं
गरुड़ बोले- मेरी साध्वी माता विनता दासीभावके कारण बहुत दुःखी है। जिस समय वह दासीपनसे मुक्त हो जाय और सब लोग इस बातको जान
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लें, उस समय तुम अमृतको हर ले आना।
यों कहकर महाबली गरुड़ माताके पास जा इस प्रकार बोले- माँ! मैं अमृत ले आया हूँ, इसे नागमाताको दे दो।' अमृतसहित पुत्रको आया देख विनताका हृदय हर्षसे खिल उठा। उसने कद्रूको बुलाकर अमृत दे दिया और स्वयं दासीभावसे मुक्त हो गयी। इसी बीचमें इन्द्रने सहसा पहुँचकर अमृतका घड़ा चुरा लिया और वहाँ विषका पात्र रख दिया। उन्हें ऐसा करते कोई देख न सका। कद्रूका मन बहुत प्रसन्न था। उसने पुत्रोंको वेगपूर्वक बुलाया और उनके मुखमें अमृत जैसा दिखायी देनेवाला विष दे दिया। नागमाताने पुत्रोंसे गरुड़ने कहा- देवराज! मैं तुम्हारा अमृत लिये कहा - - तुम्हारे कुलमें होनेवाले सभी सर्पेक मुखमें ये जाता हूँ, तुम अपना पराक्रम दिखाओ। अमृतकी बूँदें नित्य निरन्तर उत्पन्न होती रहें तथा तुमलोग इनसे सदा सन्तुष्ट रहो। इसके बाद गरुड़ अपने पिता मातासे वार्तालाप करके देवताओंकी पूजा कर अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुके पास चले गये। जो गरुड़के इस उत्तम चरित्रका पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर देवलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
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ब्रह्माजी कहते हैं— ऋषियोंके मुखसे यह उपदेश और गरुड़का प्रसंग सुनकर वह पतित ब्राह्मण नाना प्रकारके पुण्य कर्मोंका अनुष्ठान करके पुनः ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुआ और तीव्र तपस्या करके स्वर्गलोकमें चला गया। सदाचारी मनुष्यका पाप प्रतिदिन क्षीण होता है और दुराचारीका पुण्य सदा नष्ट होता रहता है। अनाचारसे पतित हुआ ब्राह्मण भी यदि फिर सदाचारका सेवन करे तो वह देवत्वको प्राप्त होता है। अतः द्विज प्राणोंके कण्ठगत होनेपर भी सदाचारका त्याग नहीं करते नारद! तुम भी मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा सदाचारका पालन करो।
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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ब्राह्मणोंके जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
नारदजीने पूछा— प्रभो ! उत्तम ब्राह्मणोंकी पूजा करके तो सब लोग श्रेष्ठ गति प्राप्त करते हैं; किन्तु जो उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं, उनकी क्या गति होती है?
लात
ब्रह्माजी बोले- क्षुधासे संतप्त हुए उत्तम ब्राह्मणोंका जो लोग अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक सत्कार नहीं करते, वे नरकमें पड़ते हैं। जो क्रोधपूर्वक कठोर शब्दोंमें ब्राह्मणकी निन्दा करके उसे द्वारसे हटा देते हैं, वे अत्यन्त घोर महारौरव एवं कृच्छ्र नरकमें पड़ते हैं तथा नरकसे निकलनेपर कीड़े होते हैं। उससे छूटनेपर चाण्डालयोनिमें जन्म लेते हैं। फिर रोगी एवं दरिद्र होकर भूखसे पीड़ित होते हैं। अतः भूखसे पीड़ित हो घरपर आये हुए ब्राह्मणका कभी अपमान नहीं करना चाहिये। जो देवता, अग्नि और ब्राह्मणके लिये 'नहीं दूंगा' ऐसा वचन कहता है, वह सौ बार नीचेकी योनियोंमें जन्म लेकर अन्तमें चाण्डाल होता है। उठाकर ब्राह्मण, गौ, पिता-माता और गुरुको मारता है, उसका रौरव नरकमें वास निश्चित है; वहाँसे कभी उसका उद्धार नहीं होता। यदि पुण्यवश जन्म हो भी जाय तो वह पङ्गु होता है। साथ ही अत्यन्त दीन, विषादग्रस्त और दुःखशोकसे पीड़ित रहता है। इस प्रकार तीन जन्मोंतक कष्ट भोगनेके बाद ही उसका उद्धार होता है। जो पुरुष मुक्कों, तमाचों और कीलोंसे ब्राह्मणको मारता है, वह एक कल्पतक तापन और रौरव नामक घोर नरकमें निवास करता है और पुनः जन्म लेनेपर कुत्ता होता है। उसके बाद चाण्डालयोनिमें जन्म लेकर दरिद्र और उदरशूलसे पीड़ित होता है। माता, पिता, ब्राह्मण, स्नातक, तपस्वी और गुरुजनोंको क्रोधपूर्वक मारकर मनुष्य दीर्घकालतक कुम्भीपाक नरकमें पड़ा रहता है। इसके बाद वह कीट-योनिमें जन्म लेता है। बेटा नारद! जो ब्राह्मणोंके विरुद्ध कठोर वचन बोलता है, उसके
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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शरीरमें आठ प्रकारकी कोढ़ होती है-खुजली, दाद, मण्डल, (चकत्ता), शुक्ति (सफेदी), सिध्म (सेहुँआ ), काली कोढ़, सफेद कोढ़ और तरुण कुष्ठ – इनमें काली कोढ़, सफेद कोढ़ और अत्यन्त दारुण तरुण कुष्ठ — ये तीन महाकुष्ठ माने गये हैं। जो जान-बूझकर महापातकमें प्रवृत्त होते हैं अथवा महापातकी पुरुषोंका सङ्ग करते हैं अथवा अतिपातकका आचरण करते हैं, उनके शरीरमें ये तीनों प्रकारके कुष्ठ होते हैं। संसर्गसे अथवा परस्पर सम्बन्ध होनेसे मनुष्यों में इस रोगका संक्रमण होता है। इसलिये विवेकी पुरुष कोढ़ीसे दूर ही रहे। उसका स्पर्श हो जानेपर तुरंत स्नान कर ले। पतित, कोढ़ी, चाण्डाल, गोभक्षी, कुत्ता, रजस्वला स्त्री और भीलका स्पर्श हो जानेपर तत्काल स्नान करना चाहिये।
जो ब्राह्मणकी न्यायोपार्जित जीविका तथा उसके धनका अपहरण करते हैं, वे अक्षय नरकमें पड़ते हैं। जो चुगलखोर मनुष्य ब्राह्मणोंका छिद्र ढूँढ़ा करता है, उसे देखकर या स्पर्श करके वस्त्रसहित जलमें गोता लगाना चाहिये। ब्राह्मणके धनका यदि कोई प्रेमसे उपभोग कर ले, तो भी वह उसकी सात पीढ़ियोंतकको जला डालता है। और जो पराक्रमपूर्वक छीनकर उसका उपभोग करता है, वह तो दस पीढ़ी पहले और दस पीढ़ी पीछेतकके पुरुषोंको नष्ट करता है। विषको विष नहीं कहते, ब्राह्मणका धन ही विष कहलाता है। विष तो केवल उसके खानेवालेको ही मारता है, किन्तु ब्राह्मणका धन पुत्र-पौत्रोंका भी नाश कर डालता है। जो मोहवश माता, ब्राह्मणी अथवा गुरुकी स्त्रीके साथ समागम करता है, वह घोर रौरव नरकमें पड़ता है वहाँसे पुनः मनुष्ययोनिमें आना कठिन होता है।
नारदजीने पूछा- पिताजी! सभी ब्राह्मणोंकी हत्यासे बराबर ही पाप लगता है अथवा किसीमें कुछ
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सृष्टिखण्ड ] • ब्राह्मणोंके जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व, गौओंकी महिमा, गोदानका फल .
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अधिक या कम भी? यदि न्यूनाधिक होता है तो क्यों? ब्रह्महत्याका पाप लगता है। यदि कोई आततायी ब्राह्मण इसको यथार्थ रूपसे बताइये।
युद्धके लिये अपने पास आ रहा हो और प्राण लेनेकी ब्रह्माजीने कहा-'बेटा ! ब्रह्महत्याका जो पाप चेष्टा करता हो, तो उसे अवश्य मार डाले; इससे वह बताया गया है, वह किसी भी ब्राह्मणका वध करनेपर ब्रह्महत्याका भागी नहीं होता । जो घरमें आग लगाता है, अवश्य लागू होता है। ब्रह्महत्यारा घोर नरकमें पड़ता दूसरेको जहर देता है, धन चुरा लेता है, सोते हुएको मार है। इस विषयमें कुछ और भी कहना है, उसे सुनो। डालता है; तथा खेत और स्वीका अपहरण करता वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता, जितेन्द्रिय एवं श्रोत्रिय ब्राह्मणकी है-ये छः आततायी माने गये हैं। संसारमें ब्राह्मणके हत्या करनेपर करोड़ों ब्राह्मणोंके वधका दोष लगता है। समान दूसरा कोई पूजनीय नहीं है। वह जगत्का गुरु शैव तथा वैष्णव ब्राह्मणको मारनेपर उससे भी दसगुना है। ब्राह्मणको मारनेपर जो पाप होता है, उससे बढ़कर अधिक पाप होता है। अपने वंशके ब्राह्मणका वध दूसरा कोई पाप है ही नहीं। करनेपर तो कभी नरकसे उद्धार होता ही नहीं। तीन नारदजीने पूछा-सुरश्रेष्ठ ! पापसे दूर रहनेवाले वेदोंके ज्ञाता स्नातककी हत्या करनेपर जो पाप लगता है, द्विजको किस वृत्तिका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना उसकी कोई सीमा ही नहीं है। श्रोत्रिय, सदाचारी तथा चाहिये? इसका यथावत् वर्णन कीजिये। तीर्थ-स्रान और वेदमन्त्रसे पवित्र ब्राह्मणके वधसे ब्रह्माजीने कहा-बेटा ! बिना मांगे मिली हुई होनेवाले पापका भी कभी अन्त नहीं होता। यदि भिक्षा उत्तम वृत्ति बतायी गयी है। उञ्छवृत्ति' उससे भी किसीके द्वारा अपनी बुराई होनेपर ब्राह्मण स्वयं भी उत्तम है। वह सब प्रकारकी वृत्तियोंमें श्रेष्ठ और शोकवश प्राण त्याग दे तो वह बुराई करनेवाला मनुष्य कल्याणकारिणी है। श्रेष्ठ मुनिगण उञ्छवृत्तिका आश्रय ब्रह्महत्यारा ही समझा जाता है। कठोर वचनों और लेकर ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं। यज्ञमें आये हुए कठोर बर्तावोंसे पीड़ित एवं ताड़ित हुआ ब्राह्मण जिस ब्राह्मणको यज्ञकी समाप्ति हो जानेपर यजमानसे जो अत्याचारी मनुष्यका नाम ले-लेकर अपने प्राण त्यागता दक्षिणा प्राप्त होती है, वह उसके लिये ग्राह्य वृत्ति है। है, उसे सभी ऋषि, मुनि, देवता और ब्रह्मवेत्ताओंने द्विजोंको पढ़ाकर या यज्ञ कराकर उसकी दक्षिणा लेनी ब्रह्महत्यारा बताया है। ऐसी हत्याका पाप उस देशके चाहिये। पठन-पाठन तथा उत्तम माङ्गलिक शुभ कर्म निवासियों तथा राजाको लगता है। अतः वे ब्रह्महत्याका करके भी उन्हें दक्षिणा ग्रहण करनी चाहिये। यही पाप करके अपने पितरोंसहित नरकमें पकाये जाते हैं। ब्राह्मणोंकी जीविका है। दान लेना उनके लिये अन्तिम विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह मरणपर्यन्त उपवास वृत्ति है। उनमें जो शास्त्रके द्वारा जीविका चलाते हैं, वे (अनशन) करनेवाले ब्राह्मणको मनाये-उसे प्रसन्न धन्य है। वृक्ष और लताओंके सहारे जिनकी जीविका करके अनशन तोड़नेका प्रयत्न करे । यदि किसी निदोष चलती है, वे भी धन्य हैं। पुरुषको निमित्त बनाकर कोई ब्राह्मण अपने प्राण त्यागता ब्राह्मणोचित वृत्तिके अभावमें ब्राह्मणोंको है तो वह स्वयं ही ब्रह्महत्याके घोर पापका भागी होता क्षत्रियवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना चाहिये। उस है। जिसका नाम लेकर मरता है, वह नहीं। जो अधम अवस्थामें न्याययुक्त युद्धका अवसर उपस्थित होनेपर ब्राह्मण अपने कुटुम्बीका वध करता है, उसको भी युद्ध करना उनका कर्तव्य है। उन्हें उत्तम वीरखतका
'अग्निदो गरदथैव धनहारी च सुप्तधः । क्षेत्रदारापहारी च पडेते ह्याततायिनः ।। (४८ ॥ ५८)
१-कटे हुए खेत, खलिहान या उठे हुए बाजारसे अन्नका एक-एक दाना बीनकर लाने और उसीसे जीविका चलानेका नाम 'उच्छवृत्ति' है।
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• अर्जयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
आचरण करना चाहिये। ब्राह्मण क्षत्रियवृत्तिके द्वारा राजासे जो धन प्राप्त करता है, वह श्राद्ध और यज्ञ आदिमें दानके लिये पवित्र माना गया है। उस ब्राह्मणको सदा पापसे दूर रहकर वेद और धनुर्वेद दोनोंका अभ्यास करना चाहिये। जो ब्राह्मण न्यायोचित युद्धमें सम्मिलित होकर संग्राममें शत्रुका सामना करते हुए मारे जाते हैं, वे वेदपाठियोंके लिये भी दुर्लभ परमपदको प्राप्त होते हैं। धर्मयुद्धका जो पवित्र बर्ताव है, उसका यथार्थ वर्णन सुनो। धर्मयुद्ध करनेवाले योद्धा सामने लड़ते हैं, कभी कायरता नहीं दिखाते तथा जो पीठ दिखा चुका हो, जिसके पास कोई हथियार न हो और जो युद्धभूमिसे भागा जा रहा हो― ऐसे शत्रुपर पीछे की ओरसे प्रहार नहीं करते। जो दुराचारी सैनिक विजयको इच्छासे डरपोक, युद्धसे विमुख, पतित, मूर्च्छित, असत्शूद्र, स्तुतिप्रिय और शरणागत शत्रुको युद्धमें मार डालते हैं, वे नरकमें पड़ते हैं।
यह क्षत्रियवृत्ति सदाचारी पुरुषोंद्वारा प्रशंसित है। इसका आश्रय लेकर समस्त क्षत्रिय स्वर्गलोकको प्राप्त करते हैं। धर्मयुद्धमें शत्रुका सामना करते हुए मृत्युको प्राप्त होना क्षत्रियके लिये शुभ है। वह पवित्र होकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और एक कल्पतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। उसके बाद सार्वभौम राजा होता है। उसे सब प्रकारके भोग प्राप्त होते हैं। उसका शरीर नीरोग और कामदेवके समान सुन्दर होता है। उसके पुत्र धर्मशील, सुन्दर, समृद्धिशाली और पिताकी रुचिके अनुकूल चलनेवाले होते हैं। इस प्रकार क्रमशः सात जन्मोंतक वे क्षत्रिय उत्तम सुखका उपभोग करते हैं इसके विपरीत जो अन्यायपूर्वक युद्ध करनेवाले हैं, उन्हें चिरकालतक नरक में निवास करना पड़ता है। इस तरह
* तुलेऽसत्यं न कर्तव्यं तुला धर्मप्रतिष्ठिता ॥
छलभावं तुले कृत्वा नरकं प्रतिपद्यते। अतुलं चापि यद् द्रव्यं तत्र मिथ्या परित्यजेत् ॥ एवं मिथ्या न कर्तव्या मृषा पापप्रसूतिका नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम् ॥ अतः सर्वेषु कार्येषु सत्यमेव विशिष्यते । (४५९३ - ९६ )
+ यो वदेत् सर्वकार्येषु सत्यं मिथ्यां परित्यजेत् ॥ स निस्तरति दुर्गाणि स्वर्गमक्षयमश्रुते ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ क्षत्रिय वृत्तिका सहारा लेना उचित है। उत्तम ब्राह्मण आपत्तिकालमें वैश्यवृत्तिसे— व्यापार एवं खेती आदिसे भी जीविका चला सकता है। परन्तु उसे चाहिये कि वह दूसरोंके द्वारा खेती और व्यापारका काम कराये, स्वयं ब्राह्मणोचित कर्मका त्याग न करे। वैश्यवृत्तिका आश्रय लेकर यदि ब्राह्मण झूठ बोले या किसी वस्तुकी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा करे तो [लोगोंको ठगनेके कारण] वह दुर्गतिको प्राप्त होता है। भीगे हुए द्रव्यके व्यापारसे बचा रहकर ब्राह्मण कल्याणका भागी होता है। तौलमें कभी असत्यपूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहिये, क्योंकि तुला धर्मपर ही प्रतिष्ठित है जो तराजूपर तोलते समय छल करता है, वह नरकमें पड़ता है। जो द्रव्य तराजूपर चढ़ाये बिना ही बेचा जाता है, उसमें भी झूठ कपटका त्याग कर देना चाहिये । इस प्रकार मिथ्या बर्ताव नहीं करना चाहिये; क्योंकि मिथ्या व्यवहारसे पापकी उत्पत्ति होती है 1 'सत्यसे बढ़कर धर्म और झूठसे बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है अतः सब कार्योंमें सत्यको ही श्रेष्ठ माना गया है।* यदि एक ओर एक हजार अश्वमेध यज्ञोंका पुण्य और दूसरी ओर सत्यको तराजूपर रखकर तोला जाय तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होता है। जो समस्त कार्यों में सत्य बोलता और मिथ्याका परित्याग करता है, वह सब दुःखोंसे पार हो जाता है और अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। ब्राह्मण [ दूसरोंके द्वारा ] व्यापारका काम करा सकता है; किन्तु उसे झूठका त्याग करना ही चाहिये। उसे चाहिये कि जो मुनाफा हो उसमेंसे पहले तीर्थोंमें दान करे; जो शेष बचे, उसका स्वयं उपभोग करे। यदि ब्राह्मण वाणिज्य-वृत्तिसे न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धनको
(४५ । ९७-९८)
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सृष्टिखण्ड ] • ब्राह्मणोंके जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व, गौओंकी महिमा, गोदानका फल.
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पितरों, देवताओं और ब्राह्मणों के निमित्त यत्नपूर्वक दान सुख-दुःख होते हैं, वैसे ही गौके शरीरमें भी होते देता है, तो उसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वाणिज्य है-ऐसा समझकर गौके कष्टको दूर करने और उसे लाभकारी व्यवसाय है। किन्तु दो उसमें बहुत बड़े दोष सुख पहुँचानेकी चेष्टा करे। आ जाते हैं-लोभ न छोड़ना और झूठ बोलकर माल जो इस विधिसे खेतीका काम कराता है, वह बेचना। विद्वान् पुरुष इन दोनों दोषोंका परित्याग करके बैलको जोतनेके दोषसे मुक्त और धनवान होता है। जो धनोपार्जन करे। व्यापारमें कमाये हुए धनका दान दुर्बल, रोगी, अत्यन्त छोटी अवस्थाके और अधिक बूढ़े करनेसे वह अक्षय फलका भागी होता है।* बैलसे काम लेकर उसे कष्ट पहुँचाता है, उसे गोहत्याका
नारद ! पुण्यकर्ममें लगे हुए ब्राह्मणको इस प्रकार पाप लगता है। जो एक ओर दुर्बल और दूसरी ओर खेती करानी चाहिये। वह आधे दिन (दोपहर) तक चार बलवान् बैलको जोड़कर उनसे भूमिको जुतवाता है, उसे बैलोको हलमें जोते। चारके अभावमें तीन बैलोंको भी गोहत्याके समान पापका भागी होना पड़ता है-इसमें जोता जा सकता है। बैलोंसे इतना काम न ले कि उन्हें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो बिना चारा खिलाये ही दिनभर विश्राम करनेका मौका ही न मिले। प्रतिदिन बैलको हल जोतनेके काममें लगाता है तथा घास खाते बैलोको चोर और व्याघ्र आदिसे रहित स्थानमें, जहाँकी और पानी पीते हुए बैलको मोहवश हाँक देता है, वह घास काटी न गयी हो, ले जाकर चराये। उन्हें यथेष्ट भी गोहत्याके पापका भागी होता है। अमावास्या, घास खानेको दे और स्वयं उपस्थित रहकर उनके खाने- संक्रान्ति तथा पूर्णिमाको हल जोतनेसे दस हजार पीनेकी व्यवस्था करे। उनके रहनेके लिये गोशाला गोहत्याओंका पाप लगता है। जो उपर्युक्त तिथियोंको बनवावे, जहाँ किसी प्रकार उपद्रव न हो। वहाँसे गौओंके शरीरमें सफेद और रंग-बिरंगी रचना करके गोबर, मूत्र और बिखरी हुई घास आदि हटाकर काजल, पुष्प और तेल के द्वारा उनकी पूजा करता है, वह गोशालाको सदा साफ रखे। गोशाला सम्पूर्ण अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। जो प्रतिदिन दूसरेकी देवताओंका निवासस्थान है, अतः वहाँ कूड़ा नहीं गायको मुट्ठीभर घास देता है, उसके समस्त पापोंका नाश फेंकना चाहिये। विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह अपने हो जाता है तथा वह अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। शयन-गृहके समान गोशालाको साफ रखे। उसकी जैसा ब्राह्मणका महत्त्व है, वैसा ही गौका भी महत्त्व है; फर्शको समतल बनाये तथा यत्नपूर्वक ऐसी व्यवस्था दोनोंकी पूजाका फल समान ही है। विचार करनेपर करे, जिससे वहाँ सर्दी, हवा और धूल-धकड़से बचाव मनुष्यों में ब्राह्मण प्रधान है और पशुओंमें गौ। हो। गौको अपने प्राणोंके समान समझे। उसके शरीरको नारदजीने पूछा-नाथ ! आपने बताया है कि अपने ही शरीरके तुल्य माने। अपनी देहमें जैसे ब्राह्मणकी उत्पत्ति भगवान्के मुखसे हुई है; फिर गौओंकी
'एतौ दोषौ महान्तौ च वाणिज्ये लाभकर्मणि । लोभानामपरित्यागो मृषाग्राह्यक्ष विक्रयः॥ एतौ दोषौ परित्यज्य कुर्यादर्थार्जनं बुधः । अक्षयं लभते दानाद् .............
(४५। १०७-८)
दिद्याद् घास यथेष्टं च निल्यमातिष्ठयेत् स्वयम् । गोष्ठं च कारयेत्तत्र किशिद्विनविवर्जितम्।
* दुर्बलं पीडयेद्यस्तु तथैव गदसंयुतम् । अतिबालातिवृदय स गोहत्या समालभेत् ॥ विषम वाहयेद्यस्तु दुर्बलेन बलेन च । स गोहत्यासमं पापं प्रापोतीह न संशयः॥ यो वाहयेद्विना सस्य खादन्तं गां निवारयेत् । मोहात्तृणं जलं वापि स गोहत्यासमं लभेत् ॥
(४५। ११४-१६)
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१६४
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
+ गावो ममाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च। गावच सर्वगात्रेषु गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥
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उससे तुलना कैसे हो सकती है ? विधाता ! इस लिये एकमात्र गौ ही प्रशस्त मानी गयी है। गौ सदा और सब समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—ये चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाली है।
विषयको लेकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। ब्रह्माजीने कहा- बेटा! पहले भगवान्के मुखसे महान् तेजोमय पुञ्ज प्रकट हुआ। उस तेजसे सर्वप्रथम वेदकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् क्रमशः अनि, गौ और ब्राह्मण - ये पृथक् पृथक् उत्पन्न हुए। मैने सम्पूर्ण लोकों और भुवनोंकी रक्षाके लिये पूर्वकालमें एक वेदसे चारों वेदोंका विस्तार किया। अग्नि और ब्राह्मण देवताओंके लिये हविष्य ग्रहण करते हैं और हविष्य (घी) गौओसे उत्पन्न होता है; इसलिये ये चारों ही इस जगत् के जन्मदाता हैं। यदि ये चारों महत्तर पदार्थ विश्वमें नहीं होते तो यह सारा चराचर जगत् नष्ट हो जाता। ये ही सदा जगत्को धारण किये रहते हैं; जिससे स्वभावतः इसकी स्थिति बनी रहती है। ब्राह्मण देवता तथा असुरोंको भी गौकी पूजा करनी चाहिये; क्योंकि गौ सब कार्यों में उदार तथा वास्तवमें समस्त गुणोंकी खान है। वह साक्षात् सम्पूर्ण देवताओंका स्वरूप है। सब प्राणियोंपर उसकी दया बनी रहती है। प्राचीन कालमें सबके पोषणके लिये मैने गौकी सृष्टि की थी। गौओंकी प्रत्येक वस्तु पावन है और समस्त संसारको पवित्र कर देती है। गौका मूत्र, गोबर, दूध, दही और घी – इन पञ्चगव्योंका पान कर लेनेपर शरीरके भीतर पाप नहीं ठहरता। इसलिये धार्मिक पुरुष प्रतिदिन गौके दूध, दही और घी खाया करते हैं। गव्य पदार्थ सम्पूर्ण द्रव्योंमें श्रेष्ठ, शुभ और प्रिय हैं। जिसको गायका दूध, दही और घी खानेका सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, उसका शरीर मलके समान है। अन्न आदि पाँच रात्रितक, दूध सात रात्रितक, दही बीस रात्रितक और घी एक मासतक शरीरमें अपना प्रभाव रखता है। जो लगातार एक मासतक बिना गव्यका भोजन करता है, उस मनुष्यके भोजनमें प्रेतोंको भाग मिलता है; इसलिये प्रत्येक युगमें सब कार्योक
जो गौकी एक बार प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। जैसे देवताओंके आचार्य बृहस्पतिजी वन्दनीय हैं, जिस प्रकार भगवान् लक्ष्मीपति सबके पूज्य हैं, उसी प्रकार गौ भी वन्दनीय और पूजनीय है। जो मनुष्य प्रातः काल उठकर गौ और उसके घीका स्पर्श करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। गौएँ दूध और घी प्रदान करनेवाली हैं। वे घृतकी उत्पत्ति स्थान और घीकी उत्पत्तिमें कारण हैं। वे घीकी नदियाँ हैं, उनमें घीकी भँवरें उठती हैं। ऐसी गौएँ सदा मेरे घरपर मौजूद रहें।* घी मेरे सम्पूर्ण शरीर और मनमें स्थित हो। 'गौएँ सदा मेरे आगे रहें। वे ही मेरे पीछे रहें। मेरे सब अङ्गको गौओंका स्पर्श प्राप्त हो। मैं गौओंके बीचमें निवास करूँ।' इस मन्त्रको प्रतिदिन सन्ध्या और सबेरेके समय शुद्ध भावसे आचमन करके जपना चाहिये। ऐसा करनेसे उसके सब पापोंका क्षय हो जाता है तथा वह स्वर्गलोकमें पूजित होता है। जैसे गौ आदरणीय है वैसे ब्राह्मण; जैसे ब्राह्मण हैं वैसे भगवान् श्रीविष्णु। जैसे भगवान् श्रीविष्णु हैं वैसी ही श्रीगङ्गाजी भी हैं। ये सभी धर्मके साक्षात् स्वरूप माने गये हैं। गौएँ मनुष्योंकी बन्धु हैं और मनुष्य गौओंके बन्धु हैं। जिस घरमें गौ नहीं है, वह बन्धुरहित गृह है। छहों अङ्गों, पदों और क्रमोंसहित सम्पूर्ण वेद गौओंके मुखमें निवास करते हैं। उनके सींगोंमें भगवान् श्रीशङ्कर और श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं। गौओंके उदरमें कार्तिकेय, मस्तकमें ब्रह्मा, ललाटमें महादेवजी, सींगोंके अग्रभागमें इन्द्र, दोनों कानोंमें अश्विनीकुमार, नेत्रोंमें चन्द्रमा और सूर्य, दाँतोंमें गरुड़, जिह्वामें सरस्वती देवी, अपान (गुदा) में
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* घृतक्षीरप्रदा गावो घृतयोन्यो घृतोद्भवाः । घृतनद्यो घृतावर्तास्ता मे सन्तु सदा गृहे ॥
(४५ | १४९)
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सृष्टिखण्ड ] • ब्राह्मणोंके जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व, गौओंकी महिमा, गोदानका फल .
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सम्पूर्ण तीर्थ, मूत्रस्थानमें गङ्गाजी, रोमकूपोंमें ऋषि, मुख जाता है और दाता पुरुष विष्णुरूप होकर वैकुण्ठमें
और पृष्ठभागमें यमराज, दक्षिण पार्श्वमें वरुण और निवास करता है। जो दस गौएँ दान करता है तथा जो कुबेर, वाम पार्श्वमें तेजस्वी और महाबली यक्ष, मुखके भार ढोने में समर्थ एक ही बैल दान करता है, उन दोनोंका भीतर गन्धर्व, नासिकाके अग्रभागमें सर्प, खुरोंके पिछले फल ब्रह्माजीने समान ही बतलाया है। जो पुत्र पितरोंके भागमें अप्सराएँ, गोबरमें लक्ष्मी, गोमूत्रमें पार्वती, उद्देश्यसे साँड़ छोड़ता है, उसके पितर अपनी इच्छाके चरणोंके अग्रभागमें आकाशचारी देवता, रंभानेकी अनुसार विष्णुलोकमें सम्मानित होते हैं। छोड़े हुए साँड़ आवाजमें प्रजापति और थनोंमें भरे हुए चारों समुद्र या दान की हुई गौओंके जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार निवास करते हैं। जो प्रतिदिन स्रान करके गौका स्पर्श वर्षोंतक मनुष्य स्वर्गका सुख भोगते हैं। छोड़ा हुआ साँड़ करता है, वह मनुष्य सब प्रकारके स्थूल पापोंसे भी मुक्त अपनी पूँछसे जो जल फेंकता है, वह एक हजार वर्षांतक हो जाता है। जो गौओंके खुरसे उड़ी हुई धूलको सिरपर पितरोंके लिये तृप्तिदायक होता है। वह अपने खुरसे धारण करता है, वह मानो तीर्थक जलमें स्नान कर लेता जितनी भूमि खोदता है, जितने ढेले और कीचड़ है और सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। उछालता है, वे सब लाखगुने होकर पितरोंके लिये 'नारदजीने पूछा-गुरुश्रेष्ठ ! परमेष्ठिन् ! विभिन्न स्वधारूप हो जाते हैं। यदि पिताके जीते-जी माताकी रंगोंकी गौओंमें किसके दानसे क्या फल होता है? मृत्यु हो जाय तो उसकी स्वर्ग-प्राप्तिके लिये चन्दन-चर्चित इसका तत्त्व बतलाइये।
धेनुका दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे दाता पितरोंके ब्रह्माजीने कहा-बेटा ! ब्राह्मणको श्वेत गौका ऋणसे मुक्त हो जाता है तथा भगवान् श्रीविष्णुकी भांति दान करके मनुष्य ऐश्वर्यशाली होता है। सदा महलमें पूजित होकर अक्षय स्वर्गको प्राप्त करता है। सब प्रकारके निवास करता है तथा भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न होकर शुभ लक्षणोंसे युक्त, प्रतिवर्ष बच्चा देनेवाली नयी दुधार सुख-समृद्धिसे भरा-पूरा रहता है। धूएँके समान गाय पृथ्वीके समान मानी गयी है। उसके दानसे रङ्गवाली गौ स्वर्ग प्रदान करनेवाली तथा भयङ्कर संसारमें भूमि-दानके समान फल होता है। उसे दान करनेवाला पापोंसे छुटकारा दिलानेवाली है। कपिला गौका दान मनुष्य इन्द्रके तुल्य होता है और अपनी सौ पीढ़ियोंका अक्षय फल प्रदान करनेवाला है। कृष्णा गौका दान उद्धार कर देता है। जो गौका हरण करके उसके बछड़ेकी देकर मनुष्य कभी कष्टमें नहीं पड़ता। भूरे रङ्गकी गौ मृत्युका कारण बनता है, वह महाप्रलयपर्यन्त कीड़ोंसे भरे संसारमें दुर्लभ है। गौर वर्णकी धेनु समूचे कुलको हुए कुएँ पड़ा रहता है। गौओंका वध करके मनुष्य आनन्द प्रदान करनेवाली होती है। लाल नेत्रोंवाली गौ अपने पितरोंके साथ घोर रौरव नरकमें पड़ता है तथा रूपकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको रूप प्रदान करती है। उतने ही समयतक अपने पापका दण्ड भोगता रहता है। नीली गौ धनाभिलाषी पुरुषकी कामना पूर्ण करती है। जो इस पवित्र कथाको एक बार भी दूसरोंको सुनाता है, एक ही कपिला गौका दान करके मनुष्य सारे पापोंसे उसके सब पापोंका नाश हो जाता है तथा वह देवताओंके मुक्त हो जाता है। बचपन, जवानी और बुढ़ापेमें जो पाप साथ आनन्दका उपभोग करता है। जो इस परम पुण्यमय किया गया है, क्रियासे, वचनसे तथा मनसे भी जो पाप प्रसङ्गका श्रवण करता है, वह सात जन्मोंके पापोंसे बन गये है, उन सबका कपिला गौके दानसे क्षय हो तत्काल मुक्त हो जाता है।
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
ब्राह्मणके ब्रह्मतेजकी वृद्धि होती है ?
ब्रह्माजीने कहा- बेटा ! श्रेष्ठ ब्राह्मणको चाहिये कि वह प्रतिदिन कुछ रात रहते ही बिस्तरसे उठ जाय और गोविन्द, माधव, कृष्ण, हरि, दामोदर, नारायण, जगन्नाथ, वासुदेव, वेदमाता सावित्री, अजन्मा, विभु, सरस्वती, महालक्ष्मी, ब्रह्मा, शङ्कर, शिव, शम्भु ईश्वर, महेश्वर, सूर्य, गणेश, स्कन्द, गौरी, भागीरथी और शिवा आदि नामोंका कीर्तन करे। जो मनुष्य सबेरे उठकर इन सबका स्मरण करता है, वह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे निःसन्देह मुक्त हो जाता है। तात! एक बार भी इन नामोंका उच्चारण करनेपर सम्पूर्ण यज्ञोंका तथा लाखों गोदानका फल मिलता है।
नारदजीने पूछा- पिताजी! किस आचरणसे हाथमें तथा पुनः सात बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगानी चाहिये। 'घोड़े, रथ और भगवान् श्रीविष्णुद्वारा आक्रान्त होनेवाली मृत्तिकामयी वसुन्धरे ! मेरे द्वारा जो दुष्कर्म या पाप हुए हों, उन्हें तुम हर लो। * इस मन्त्रसे जो अपने शरीरमें मिट्टीका लेप करता है, उसके सब पापोंका क्षय होता है तथा वह मनुष्य सर्वथा शुद्ध हो जाता है। तदनन्तर विद्वान् पुरुष नद, नदी, पोखरा, सरोवर या कुएँपर जाकर वेदमन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक स्नान करे। उसे नदी आदिकी जल-राशिमें प्रवेश करके स्नान करना चाहिये और कुएँपर नहाना हो तो किनारे रहकर घड़ेसे स्नान करना उचित है। मनुष्यको अपने समस्त पापोंका नाश करनेके लिये विधिवत् स्नान करना चाहिये। सबेरेका स्नान महान् पुण्यदायक और सब पापोंका नाश करनेवाला है। जो ब्राह्मण सदा प्रातः काल स्नान करता है, वह विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। प्रातः - सन्ध्याके समय चार दण्डतक जल अमृतके समान रहता है, वह पितरोंको सुधाके समान तृप्तिदायी होता है। उसके बाद दो घड़ीतक अर्थात् कुल एक पहरतक जल मधुके समान रहता है; वह भी पितरोंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाला होता है। तत्पश्चात् डेढ़ पहरतकका जल दूधके समान माना गया है। उसके बाद चार दण्डतकका जल दुग्धमिश्रित सा रहता है।
नारदजीने कहा— देवेश्वर! अब मुझे यह बताइये कि जलके देवता कौन हैं तथा जिस प्रकार मैं तर्पणकी विधि ठीक-ठीक जान सकूँ, ऐसा उपदेश कीजिये ।
इस प्रकार उपर्युक्त नामोंका उच्चारण करके गाँवसे बाहर दूर जाकर साफ-सुथरे स्थानमें मल-मूत्रका परित्याग करे। यदि रातका समय हो तो दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके और दिनमें उत्तर दिशाकी ओर मुँह करके शौच होना चाहिये। इसके बाद [ हाथ-मुँह धो, कुल्ला करके ] गूलर आदिकी लकड़ीसे दाँत साफ करना चाहिये। तत्पश्चात् द्विजको स्नान आदि करके संयमपूर्वक बैठकर सन्ध्योपासन करना चाहिये । पूर्वाह्नकालमें रक्तवर्णा गायत्री, मध्याह्नकालमें शुक्लवर्णा सावित्री और सायंकालमें श्यामवर्णा सरस्वतीका विधिपूर्वक ध्यान करना उचित है।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
प्रतिदिनके स्नानकी विधि इस प्रकार है। अपने ज्ञानके अनुसार यत्नपूर्वक स्नान विधिका पालन करना चाहिये। पहले शरीरको जलसे भिगोकर फिर उसमें मिट्टी लगाये। मस्तक, ललाट, नासिका, हृदय, भौंह, बाहु, पसली, नाभि, घुटने और दोनों पैरोंमें मृत्तिका लगाना उचित है। मनुष्यको शुद्धिकी इच्छासे [शौच होकर ] एक बार लिङ्गमें, तीन बार गुदामें, दस बार बायें
'अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे। मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥
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ब्रह्माजीने कहा- बेटा ! सम्पूर्ण लोकोंमें भगवान् श्रीविष्णु ही जलके देवता माने गये हैं; अतः जो जलसे स्नान करके पवित्र होता है, उसका भगवान् श्रीविष्णु कल्याण करते हैं। एक घूँट जल पीकर भी मनुष्य पवित्र हो जाता है। विशेष बात यह है कि
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सृष्टिखण्ड ]
द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
कुशके संसर्गसे जल अमृतसे भी बढ़कर होता है। कुश सम्पूर्ण देवताओंका निवासस्थान है; पूर्वकालमें मैंने ही उसे उत्पन्न किया था। कुशके मूलमें स्वयं मैं (ब्रह्मा) उसके मध्यभागमें श्रीविष्णु और अग्रभागमें भगवान् श्रीशङ्कर विराजमान हैं; इन तीनोंके द्वारा कुशकी प्रतिष्ठा है। अपने हाथोंमें कुश धारण करनेवाला द्विज सदा पवित्र माना गया है; वह यदि किसी स्तोत्र या मन्त्रका पाठ करे तो उसका सौगुना महत्त्व बतलाया गया है। वही यदि तीर्थमें किया जाय तो उसका फल हजारगुना अधिक होता है। कुश, काश, दूर्वा, जौका पत्ता, धानका पत्ता, बल्वज और कमल — ये सात प्रकारके कुश बताये गये हैं। * इनमें पूर्व पूर्व कुश अधिक पवित्र माने गये हैं। ये सभी कुश लोकमें प्रतिष्ठित हैं।
तिलके सम्पर्कसे जल अमृतसे भी अधिक स्वादिष्ट हो जाता है। जो प्रतिदिन स्नान करके तिलमिश्रित जलसे पितरोंका तर्पण करता है, वह अपने दोनों कुलोंका (पितृकुल एवं मातृकुलका) उद्धार करके ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वर्षाके चार महीनोंमें दीपदान करनेसे पितरोंके ऋणसे छुटकारा मिलता है। जो एक वर्षतक प्रति अमावास्याको तिलोंके द्वारा पितरोंका तर्पण करता है, वह विनायक - पदवीको प्राप्त होता है और सम्पूर्ण देवता उसकी पूजा करते हैं। जो समस्त युगादि तिथियोंको तिलोंद्वारा पितरोंका तर्पण करता है, उसे अमावास्याकी अपेक्षा सौगुना अधिक फल प्राप्त होता है। अयन आरम्भ होनेके दिन, विषुव योगमें, पूर्णिमा तथा अमावास्याको पितरोंका तर्पण करके मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। मन्वन्तरसंज्ञक तिथियोंमें तथा अन्यान्य पुण्यपर्वोके अवसरपर भी तर्पण करनेसे यही फल होता है। चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें गया आदि पुण्य तीर्थोके भीतर पितरोंका तर्पण करके मनुष्य
वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। इसलिये कोई पुण्यदिवस प्राप्त होनेपर पितृसमुदायका तर्पण करना चाहिये । एकाग्रचित्त होकर पहले देवताओंका तर्पण करनेके पश्चात् विद्वान् पुरुष पितरोंका तर्पण करनेका अधिकारी होता है। श्राद्धमें भोजनके समय एक ही हाथसे अन्न परोसे, किन्तु तर्पणके समय दोनों हाथोंसे जल दे; यही सनातन विधि है। दक्षिणाभिमुख होकर पवित्र भावसे 'तृप्यताम्' इस वाक्यके साथ नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए पितरोंका तर्पण करना चाहिये ।
जो मोहवश सफेद तिलोंके द्वारा पितृवर्गका तर्पण करता है, उसका किया हुआ तर्पण व्यर्थ होता है। यदि दाता स्वयं जलमें स्थित होकर पृथ्वीपर तर्पणका जल गिराये तो उसका वह जलदान व्यर्थ हो जाता है, किसीके पास नहीं पहुँचता । इसी प्रकार जो स्थलमें खड़ा होकर जलमें तर्पणका जल गिराता है, उसका दिया हुआ जल भी निरर्थक होता है; वह पितरोंको नहीं प्राप्त होता । जो जलमें नहाकर भीगे वस्त्र पहने हुए ही तर्पण करता है, उसके पितर देवताओंसहित सदा तृप्त रहते हैं। विद्वान् पुरुष धोबीके धोये हुए वस्त्रको अशुद्ध मानते हैं। अपने हाथसे पुनः धोनेपर ही वह वस्त्र शुद्ध होता है। जो सूखे वस्त्र पहने हुए किसी पवित्र स्थानपर बैठकर पितरोंका तर्पण करता है, उसके पितर दसगुनी तृप्ति लाभ करते हैं। जो अपनी तर्जनी अंगुलीमें चाँदीकी अंगूठी धारण करके पितरोंका तर्पण करता है, उसका सब तर्पण लाखगुना अधिक फल देनेवाला होता है। इसी प्रकार विद्वान् पुरुष यदि अनामिका अंगुलीमें सोनेकी अंगूठी पहनकर पितृवर्गका तर्पण करे तो वह करोड़ोंगुना अधिक फल देनेवाला होता है।
'कुशाः काशास्तथा दूर्वा यवपत्राणि व्रीहयः । बल्वजाः पुण्डरीकाच कुशाः सप्त प्रकीर्तिताः ॥
जो स्नान करनेके लिये जाता है, उसके पीछे प्याससे पीड़ित देवता और पितर भी वायुरूप होकर
रजकैः क्षालितं वस्त्रमशुद्धं कवयो विदुः । हस्तप्रक्षालनेनैव पुनर्वस्त्रं च
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(४६ । ३४-३५)
शुद्धयति ॥
(४६।५३)
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• अर्चवस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
जलकी आशासे जाया करते हैं; किन्तु जब वह नहाकर सदाचार और उनके कर्तव्योंका क्रम बतलाइये, साथ ही धोती निचोड़ने लगता है, तब वे निराश लौट जाते हैं; समस्त प्रवृत्तिप्रधान कर्मोका वर्णन कीजिये। अतः पितृतर्पण किये बिना धोती नहीं निचोड़नी चाहिये। ब्रह्माजीने कहा-वत्स! मनुष्य आचारसे मनुष्यके शरीरमें जो साढ़े तीन करोड़ रोएँ हैं, वे सम्पूर्ण आयु, धन तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। आचार तीर्थोके प्रतीक हैं। उनका स्पर्श करके जो जल धोतीपर अशुभ लक्षणोंका निवारण करता है। आचारहीन पुरुष गिरता है, वह मानो सम्पूर्ण तीर्थोंका ही जल गिरता है; संसारमें निन्दित, सदा दुःखका भागी, रोगी और अल्पायु इसलिये तर्पणके पहले धोये हुए वस्त्रको निचोड़ना नहीं होता है। अनाचारी मनुष्यको निश्चय ही नरकमें निवास चाहिये। देवता स्नान करनेवाले व्यक्तिके मस्तकसे करना पड़ता है तथा आचारसे श्रेष्ठ लोककी प्राप्ति होती गिरनेवाले जलको पीते हैं, पितर मूंछ-दाढ़ीके जलसे तृप्त है; इसलिये तुम आचारका यथार्थरूपमें वर्णन सुनो। होते हैं, गन्धर्व नेत्रोंका जल और सम्पूर्ण प्राणी प्रतिदिन अपने घरको गोबरसे लीपना चाहिये। अधोभागका जल ग्रहण करते हैं। इस प्रकार देवता, उसके बाद काठका पीढ़ा, बर्तन और पत्थर धोने पितर, गन्धर्व तथा सम्पूर्ण प्राणी स्नानमात्रसे संतुष्ट होते चाहिये । काँसेका बर्तन राखसे और ताँबा खटाईसे शुद्ध हैं। सानसे शरीरमें पाप नहीं रह जाता। जो मनुष्य होता है। सोने और चाँदी आदिके बर्तन जलमात्रसे प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुरुषोंमें श्रेष्ठ है। वह सब धोनेपर शुद्ध हो जाते हैं। लोहेका पात्र आगके द्वारा पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। देवता तपाने और धोनेसे शुद्ध होता है। अपवित्र भूमि खोदने, और महर्षि तर्पणतक स्नानका ही अङ्ग मानते हैं। जलाने, लीपने तथा धोनेसे एवं वर्षासे शुद्ध होती है। तर्पणके बाद विद्वान् पुरुषको देवताओंका पूजन करना धातुनिर्मित पात्र, मणिपात्र तथा सब प्रकारके पत्थरसे चाहिये।
__बने हुए पात्रकी भस्म और मृत्तिकासे शुद्धि बतायी गयी जो गणेशकी पूजा करता है, उसके पास कोई विघ्न है। शय्या, स्त्री, बालक, वस्त्र, यज्ञोपवीत और नहीं आता। लोग धर्म और मोक्षके लिये लक्ष्मीपति कमण्डलु-ये अपने हों तो सदा शुद्ध हैं और दूसरेके भगवान् श्रीविष्णुकी, आवश्यकताओकी पूर्तिके लिये हों तो कभी शुद्ध नहीं माने जाते। एक वस्त्र धारण करके शङ्करकी, आरोग्यके लिये सूर्यकी तथा सम्पूर्ण भोजन और स्नान न करे। दूसरेका उतारा हुआ वस्त्र कामनाओंकी सिद्धिके लिये भवानीकी पूजा करते हैं। कभी न धारण करे । केशों और दाँतोंकी सफाई सबेरे ही देवताओंकी पूजा करनेके पश्चात् बलिवैश्वदेव करना करनी चाहिये। गुरुजनोंको नित्यप्रति नमस्कार करना चाहिये। पहले अग्निकार्य करके फिर ब्राह्मणोंको तृप्त नित्यका कर्तव्य होना चाहिये। दोनों हाथ, दोनों पैर और करनेवाला अतिथियज्ञ करे। देवताओं और सम्पूर्ण मुख-इन पाँचों अङ्गोंको धोकर विद्वान् पुरुष भोजन प्राणियोंका भाग देकर मनुष्य स्वर्गलोकको जाता है। आरम्भ करे। जो इन पाँचोंको धोकर भोजन करता है, इसलिये प्रतिदिन पूरा प्रयत्न करके नित्यकर्मोका अनुष्ठान वह सौ वर्ष जीता है। देवता, गुरु, स्नातक, आचार्य और करना चाहिये। जो स्नान नहीं करता, वह मल भोजन यज्ञमें दीक्षित ब्राह्मणकी छायापर जान-बूझकर पैर नहीं करता है। जो जप नहीं करता, वह पीब और रक्तपान रखना चाहिये। गौओंके समुदाय, देवता, ब्राह्मण, घी, करता है। जो प्रतिदिन तर्पण नहीं करता, वह पितृघाती मधु, चौराहे तथा प्रसिद्ध वनस्पतियोंको अपने दाहिने होता है। देवताओंकी पूजा न करनेपर ब्रह्महत्याके समान करके चलना चाहिये। गौ-ब्राह्मण, अग्नि-ब्राह्मण, दो पाप लगता है। सन्ध्योपासन न करके पापी मनुष्य ब्राह्मण तथा पति-पत्नीके बीचसे होकर नहीं निकलना सूर्यकी हत्या करता है।
चाहिये। जो ऐसा करता है, वह स्वर्गमें रहता हो तो भी नारदजीने पूछा-पिताजी ! ब्राह्मणादि वर्गों के नीचे गिर जाता है। जूठे हाथसे अग्नि, ब्राह्मण, देवता,
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सृष्टिखण्ड ]
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द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
गुरु, अपने मस्तक, पुष्पवाले वृक्ष तथा यज्ञोपयोगी पेड़का स्पर्श नहीं करना चाहिये। सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र — इन तीन प्रकारके तेजोंकी ओर जूठे मुँह कभी दृष्टि न डाले। इसी प्रकार ब्राह्मण, गुरु, देवता, राजा, श्रेष्ठ संन्यासी, योगी, देवकार्य करनेवाले तथा धर्मका उपदेश करनेवाले द्विजकी ओर भी जूठे मुँह दृष्टिपात न करे।
नदियों और समुद्र के किनारे, यज्ञ-सम्बन्धी वृक्षकी जड़के पास, बगीचेमें, फुलवारीमें, ब्राह्मणके निवास स्थानपर, गोशालामें तथा साफ-सुथरी सुन्दर सड़कोंपर तथा जलमें कभी मल त्याग न करे। धीर पुरुष अपने हाथ, पैर, मुख और केशोंको रूखे न रखे। दाँतोंपर मैल न जमने दे। नखको मुँहमें न डाले। रविवार और मंगलको तेल न लगाये। अपने शरीर और आसनपर ताल न दे। गुरुके साथ एक आसनपर न बैठे। श्रोत्रियके धनका अपहरण न करे। देवता और गुरुका भी धन न ले । राजा, तपस्वी, पशु, अंधे तथा स्त्रीका धन भी न ले। ब्राह्मण, गौ, राजा, रोगी भारसे दबा हुआ मनुष्य, गर्भिणी स्त्री तथा अत्यन्त दुर्बल पुरुष सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे होकर उन्हें जानेके लिये रास्ता दे । राजा, ब्राह्मण तथा वैद्यसे झगड़ा न करे। ब्राह्मण और गुरु- पत्नीसे दूर ही रहना चाहिये। पतित, कोढ़ी, चाण्डाल, गोमांस भक्षी और समाजबहिष्कृतको दूरसे ही त्याग दे। जो स्त्री दुष्टा, दुराचारिणी, कलङ्क लगानेवाली, सदा ही कलहसे प्रेम करनेवाली, प्रमादिनी, निडर, निर्लज्ज, बाहर घूमने-फिरनेवाली, अधिक खर्च करनेवाली और सदाचारसे हीन हो, उसको भी दूरसे ही त्याग देना चाहिये।
बुद्धिमान् शिष्यको उचित है कि वह रजस्वला अवस्थामें गुरुपत्नीको प्रणाम न करे, उसका चरण स्पर्श न करे; यदि उस अवस्थामें भी वह उसे छू ले तो पुनः स्नान करनेसे ही उसकी शुद्धि होती है। शिष्य गुरु-पत्नीके साथ खेल-कूदमें भी भाग न ले। उसकी बात अवश्य सुने; किन्तु उसकी ओर आँख उठाकर देखे नहीं । पुत्रवधू, भाईकी स्त्री, अपनी पुत्री, गुरुपली तथा
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अन्य किसी युवती स्त्रीकी ओर न तो देखे और न उसका स्पर्श करे। उपर्युक्त स्त्रियोंकी ओर भौंहें मटकाकर देखना, उनसे विवाद करना और अश्लील वचन बोलना सदा ही त्याज्य है। भूसी, अंगारे, हड्डी, राख, रूई, निर्माल्य (देवताको अर्पण की हुई वस्तु), चिताकी लकड़ी, चिता तथा गुरुजनोंके शरीरपर कभी पैर न रखे। अपवित्र, दूसरेका उच्छिष्ट तथा दूसरेकी रसोई बनानेके लिये रखा हुआ अत्र भोजन न करे। धीर पुरुष किसी दुष्टके साथ एक क्षण भी न तो ठहरे और न यात्रा ही करे। इसी प्रकार उसे दीपककी छायामें तथा बहेड़ेके वृक्षके नीचे भी खड़ा नहीं होना चाहिये ।
अपनेसे छोटेको प्रणाम न करे। चाचा और मामा आदिके आनेपर उठकर आसन दे और उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहे। जो तेल लगाये हो [किन्तु स्नान न किये हो], जिसके मुँह और हाथ जूठे हों, जो भीगे वस्त्र पहने हो, रोगी हो, समुद्रमें घुसा हो, उद्विग्न हो, भार ढो रहा हो, यज्ञ कार्यमें लिप्त हो, स्त्रियोंके साथ क्रीड़ामें आसक्त हो, बालकके साथ खेल कर रहा हो तथा जिसके हाथोंमें फूल और कुश हों, ऐसे व्यक्तिको प्रणाम न करे। मस्तक अथवा कानोंको ढककर, जलमें खड़ा होकर, शिखा खोलकर, पैरोंको बिना धोये अथवा दक्षिणाभिमुख होकर आचमन नहीं करना चाहिये। यज्ञोपवीतसे रहित या नग्न होकर, कच्छ खोलकर अथवा एक वस्त्र धारण करके आचमन करनेवाला पुरुष शुद्ध नहीं होता। पहले तर्जनी, मध्यमा और अनामिका - तीन अंगुलियोंसे मुखका स्पर्श करे, फिर अँगूठे और तर्जनीके द्वारा नासिकाका, अंगूठे और अनामिकाके द्वारा दोनों नेत्रोंका, कनिष्ठिका और अंगूठेके द्वारा दोनों कानोंका, केवल अँगूठेसे नाभिका करतलसे हृदयका सम्पूर्ण अंगुलियोंसे मस्तकका तथा अंगुलियोंके अग्रभागसे दोनों बाहुओंका स्पर्श करके मनुष्य शुद्ध होता है। इस विधिसे आचमन करके मनुष्यको संयमपूर्वक रहना चाहिये। ऐसा करनेसे वह सब पापोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। भीगे पैर सोना, सूखे पैर भोजन करना और अँधेरेमें शयन तथा भोजन करना
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
निषिद्ध है। पश्चिम और दक्षिणकी ओर मुँह करके इनके विपरीत कंजूसी, खजनोंकी निन्दा, मैले-कुचैले दन्तधावन न करे। उत्तर और पश्चिम दिशाकी ओर वस्त्र पहनना, नीच जनोंके प्रति भक्ति रखना, अत्यन्त सिरहाना करके कभी न सोये; क्योंकि इस प्रकार शयन क्रोध करना और कटुवचन बोलना-ये नरकसे लौटे करनेसे आयु क्षीण होती है। पूर्व और दक्षिण दिशाकी हुए मनुष्योंके चिह्न हैं। नवनीतके समान कोमल वाणी ओर सिरहाना करके सोना उत्तम है। मनुष्यके एक और करुणासे भरा कोमल हृदय-ये धर्मबीजसे उत्पन्न बारका भोजन देवताओंका भाग, दूसरी बारका भोजन मनुष्योंकी पहचानके चिह्न हैं। दयाशून्य हृदय और मनुष्योंका, तीसरी बारका भोजन प्रेतों और दैत्योंका तथा आरीके समान मर्मस्थानोंको विदीर्ण करनेवाला तीखा चौथी बारका भोजन राक्षसोंका भाग होता है।* वचन-ये पापबीजसे पैदा हुए पुरुषोंको पहचाननेके
जो स्वर्गमें निवास करके इस लोकमें पुनः उत्पन्न लक्षण हैं। जो मनुष्य इस आचार आदिसे युक्त प्रसङ्गको हुए हैं, उनके हृदयमें नीचे लिखे चार सद्गुण सदा सुनता या सुनाता है, वह आचार आदिका फल पाकर मौजूद रहते हैं-उत्तम दान देना, मीठे वचन बोलना, पापसे शुद्ध हो स्वर्गमें जाता है और वहाँसे भ्रष्ट देवताओंका पूजन करना तथा ब्राह्मणोंको संतुष्ट रखना। नहीं होता।
पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच
महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! जो कर्म सबसे पाँच धर्मकि आख्यान सुनाऊँगा। उन पाँचोंमेंसे एकका अधिक पुण्यजनक हो, जो संसारमें सदा और सबको भी अनुष्ठान करके मनुष्य सुयश, स्वर्ग तथा मोक्ष भी पा प्रिय जान पड़ता हो तथा पूर्व पुरुषोंने जिसका अनुष्ठान सकता है। माता-पिताकी पूजा, पतिकी सेवा, सबके किया हो, ऐसा कर्म आप अपनी इच्छाके अनुसार प्रति समान भाव, मित्रोंसे द्रोह न करना और भगवान् सोचकर बताइये।
श्रीविष्णुका भजन करना-ये पाँच महायज्ञ हैं। पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! एक समयकी बात ब्राह्मणो ! पहले माता-पिताकी पूजा करके मनुष्य जिस है, व्यासजीकी शिष्यमण्डलीके समस्त द्विज आदरपूर्वक धर्मका साधन करता है, वह इस पृथ्वीपर सैकड़ों यज्ञों उन्हें प्रणाम करके धर्मकी बात पूछने लगे-ठीक इसी तथा तीर्थयात्रा आदिके द्वारा भी दुर्लभ है। पिता धर्म है, तरह, जैसे तुम मुझसे पूछते हो।
पिता स्वर्ग है और पिता ही सर्वोत्कृष्ट तपस्या है। पिताके द्विजोंने पूछा-गुरुदेव! संसारमें पुण्यसे भी प्रसन्न हो जानेपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं। पुण्यतम और सब धर्मों में उत्तम कर्म क्या है ? किसका जिसकी सेवा और सद्गुणोंसे पिता-माता सन्तुष्ट रहते हैं, अनुष्ठान करके मनुष्य अक्षय पदको प्राप्त करते हैं? उस पुत्रको प्रतिदिन गङ्गानानका फल मिलता है। माता मर्त्यलोकमें निवास करनेवाले छोटे-बड़े सभी वर्गों के सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओका स्वरूप है; लोग जिसका अनुष्ठान कर सकें।
इसलिये सब प्रकारसे यत्नपूर्वक माता-पिताका पूजन व्यासजी बोले-शिष्यगण ! मैं तुमलोगोको करना चाहिये। जो माता-पिताकी प्रदक्षिणा करता है,
* देवात्रमेकभुक्तं तु द्विभुक्तं स्यानरस्य च । त्रिभुक्तं प्रेतदैत्यस्य चतुर्थ कौणपस्य तु॥ + स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि तेषा हदये वसन्ति । दानं प्रशस्तं मधुरा च वाणी देवार्चनं ब्राह्मणतर्पणं च ॥ कार्पण्यवृत्तिः स्वजनेषु निन्दा कुचैलता नीचजनेषु भक्तिः। अतीव रोषः कटुका च वाणी नरस्य चिहं नरकागतस्य ।
(४६ । १३१-१३२)
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सृष्टिखण्ड ]
. पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ .
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उसके द्वारा सातों द्वीपोंसे युक्त समूची पृथ्वीको परिक्रमा समझने लगा, मेरे समान पुण्यात्मा और महायशस्वी हो जाती है। माता-पिताको प्रणाम करते समय जिसके दूसरा कोई नहीं है। एक दिन वह मुख ऊपरकी ओर हाथ, घुटने और मस्तक पृथ्वीपर टिकते हैं, वह अक्षय करके यही बात कह रहा था, इतने में ही एक बगलेने स्वर्गको प्राप्त होता है।* जबतक माता-पिताके चरणोंकी उसके मुँहपर बीट कर दी। तब ब्राह्मणने क्रोधमें आकर रज पुत्रके मस्तक और शरीरमें लगती रहती है, तभीतक वह शुद्ध रहता है। जो पुत्र माता-पिताके चरणकमलोंका जल पीता है, उसके करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते है। वह मनुष्य संसारमें धन्य है। जो नीच पुरुष माता-पिताकी आज्ञाका उल्लङ्घन करता है, वह महाप्रलयपर्यन्त नरकमें निवास करता है। जो रोगी, वृद्ध, जीविकासे रहित, अंधे और बहरे पिताको त्यागकर चला जाता है वह रौरव नरकमें पड़ता है। इतना ही नहीं, उसे अन्त्यजों, म्लेच्छों और चाण्डालोंकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। माता-पिताका पालन-पोषण न करनेसे समस्त पुण्योंका नाश हो जाता है। माता-पिताकी आराधना न करके पुत्र यदि तीर्थ और देवताओंका सेवन भी करे तो उसे उसका फल नहीं मिलता।
ब्राह्मणो! इस विषयमें मैं एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ, यत्नपूर्वक उसका श्रवण करो। इसका श्रवण करके भूतलपर फिर कभी तुम्हें मोह नहीं व्यापेगा।
पूर्वकालकी बात है-नरोत्तम नामसे प्रसिद्ध एक उसे शाप दे दिया। बेचारा बगला राखकी ढेरी होकर ब्राह्मण था। वह अपने माता-पिताका अनादर करके पृथ्वीपर गिर पड़ा। बगलेकी मृत्यु होते ही नरोत्तमके तीर्थसेवनके लिये चल दिया। सब तीर्थोंमें घूमते हुए भीतर महामोहने प्रवेश किया। उसी पापसे ब्राह्मणका उस ब्राह्मणके वस्त्र प्रतिदिन आकाशमें ही सूखते थे। वस्त्र अब आकाशमें नहीं ठहरता था। यह जानकर उसे इससे उसके मनमें बड़ा भारी अहङ्कार हो गया। वह बड़ा खेद हुआ। तदनन्तर आकाशवाणीने कहा
* पित्रोरथ पत्युश्च साम्यं सर्वजनेषु च। मित्रानोहो विष्णुभक्तिरेते पञ्च महामखाः ॥ प्राक् पित्रोरर्चया विप्रा यद्धर्म साधयेन्नरः । न तत्क्रतुशतैरेव तीर्थयात्रादिभिर्भुवि ॥ पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः । पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥ पितरो यस्य तृष्यन्ति सेक्या च गुणेन च । तस्य भागीरथीनानमहन्यहनि वर्तते ॥ सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता । मातरं पितरं तस्मात् सर्वयलेन पूजयेत् ॥ मातरं पितरश्चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्। प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।। जानुनी च करौ यस्य पित्रोः प्रणमतः शिरः । निपतन्ति पृथिव्यां च सोऽक्षय लभते दिवम्॥
(४७१७-१३) + रोगिणं चापि वृद्धं च पितरं वृत्तिकर्शितम् । विकल नेत्रकर्णाभ्यां त्यक्त्वा गच्छेच रौरवम् ॥
(४७।१९)
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
'ब्राह्मण! तुम परम धर्मात्मा मूक चाण्डालके पास जाओ। वहाँ जानेसे तुम्हें धर्मका ज्ञान होगा। उसका वचन तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगा।'
यह आकाशवाणी सुनकर ब्राह्मण मूक चाण्डालके घर गया। वहाँ जाकर उसने देखा, वह चाण्डाल सब प्रकारसे अपने माता-पिताकी सेवामें लगा है। जाड़ेके
दिनोंमें वह अपने माँ-बापको स्नानके लिये गरम जल देता, उनके शरीरमें तेल मलता, तापनेके लिये अंगीठी जलाता, भोजनके पश्चात् पान खिलाता और रूईदार कपड़े पहननेको देता था। प्रतिदिन मिष्टान्न भोजनके लिये परोसता और वसन्त ऋतुमें महुएकी सुगन्धित माला पहनाता था। इनके सिवा और भी जो भोगसामग्रियाँ प्राप्त होतीं, उन्हें देता और भाँति-भाँतिकी आवश्यकताएँ पूर्ण किया करता था। गर्मीकी मौसिममें प्रतिदिन माता-पिताको पंखा झलता था। इस प्रकार नित्यप्रति उनकी परिचर्या करके ही वह भोजन करता था। माता-पिताकी थकावट और कष्टका निवारण करना उसका सदाका नियम था। इन पुण्यकमेकि कारण चाण्डालका घर बिना किसी आधार और खंभेके ही
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
आकाशमें स्थित था। उसके अंदर त्रिभुवनके स्वामी भगवान् श्रीहरि मनोहर ब्राह्मणका रूप धारण किये नित्य क्रीड़ा करते थे। वे सत्यस्वरूप परमात्मा अपने महान् सत्त्वमय तेजस्वी विग्रहसे उस चाण्डाल मन्दिरकी शोभा बढ़ाते थे। यह सब देखकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। उसने मूक चाण्डालसे कहा – 'तुम मेरे पास आओ, मैं तुमसे सम्पूर्ण लोकोंके सनातन हितकी बात पूछता हूँ; उसे ठीक-ठीक बताओ।'
मूक चाण्डाल बोला- विप्र ! इस समय मैं माता-पिताकी सेवा कर रहा हूँ, आपके पास कैसे आऊँ ? इनकी पूजा करके आपकी आवश्यकता पूर्ण करूँगा; तबतक मेरे दरवाजेपर ठहरिये, मैं आपका अतिथि सत्कार करूँगा ।
चाण्डालके इतना कहते ही ब्राह्मण देवता आगबबूला हो गये और बोले- 'मुझ ब्राह्मणकी सेवा छोड़कर तुम्हारे लिये कौन सा कार्य बड़ा हो सकता है।'
चाण्डाल बोला- बाबा! क्यों व्यर्थ कोप करते हैं, मैं बगला नहीं हूँ। इस समय आपका क्रोध बगलेपर ही सफल हो सकता है, दूसरे किसीपर नहीं। अब आपकी धोती न तो आकाशमें सूखती है और न ठहर ही पाती है। अतः आकाशवाणी सुनकर आप मेरे घरपर आये है। थोड़ी देर ठहरिये तो मैं आपके प्रश्नका उत्तर दूँगा; अन्यथा पतिव्रता स्त्रीके पास जाइये। द्विजश्रेष्ठ ! पतिव्रता स्त्रीका दर्शन करनेपर आपका अभीष्ट सिद्ध होगा।
व्यासजी कहते हैं— तदनन्तर, चाण्डालके घरसे ब्राह्मणरूपधारी भगवान् श्रीविष्णुने निकलकर उस द्विजसे कहा- चलो, मैं पतिव्रता देवीके घर चलता हूँ।' द्विजश्रेष्ठ नरोत्तम कुछ सोचकर उनके साथ चल दिया। उसके मनमें बड़ा विस्मय हो रहा था। उसने रास्तेमें भगवान्से पूछा - 'विप्रवर ! आप इस चाण्डालके घरमें जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं, किसलिये निवास करते हैं ?'
ब्राह्मणरूपधारी भगवान्ने कहा- विप्रवर ! इस समय तुम्हारा हृदय शुद्ध नहीं है; पहले पतिव्रता
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सृष्टिखण्ड ] . . पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ .
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आदिका दर्शन करो, उसके बाद मुझे ठीक-ठीक देखकर उसे भ्राता, पिता अथवा पुत्र मानती है, वह भी जान सकोगे।
__ पतिव्रता है। द्विजश्रेष्ठ ! तुम उस पतिव्रताके पास ब्राह्मणने पूछा-तात ! पतिव्रता कौन है? जाओ और उसे अपना मनोरथ कह सुनाओ। उसका उसका शास्त्र-ज्ञान कितना बड़ा है? जिस कारण मैं नाम शुभा है। वह रूपवती युवती है, उसके हृदयमें दया उसके पास जा रहा हूँ, वह भी मुझे बतलाइये। भरी है। वह बड़ी यशस्विनी है। उसके पास जाकर तुम
श्रीभगवान् बोले-ब्रह्मन् ! नदियोंमें गङ्गाजी, अपने हितकी बात पूछो। स्त्रियोंमें पतिव्रता और देवताओंमें भगवान् श्रीविष्णु श्रेष्ठ व्यासजी कहते हैं-यों कहकर भगवान् वहीं हैं। जो पतिव्रता नारी प्रतिदिन अपने पतिके हितसाधनमें अन्तर्धान हो गये। उन्हें अदृश्य होते देख ब्राह्मणको लगी रहती है, वह अपने पितृकुल और पतिकुल दोनों बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पतिव्रताके घर जाकर उसके कुलोकी सौ-सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देती है।* विषयमें पूछा। अतिथिकी बोली सुनकर पतिव्रता स्त्री
ब्राह्मणने पूछा-द्विजश्रेष्ठ ! कौन स्त्री पतिव्रता वेगपूर्वक घरसे निकली और ब्राह्मणको आया देख होती है ? पतिव्रताका क्या लक्षण है? मैं जिस प्रकार दरवाजेपर खड़ी हो गयी। ब्राह्मणने उसे देखकर इस बातको ठीक-ठीक समझ सकूँ, उस प्रकार उपदेश कीजिये।
श्रीभगवान् बोले-जो स्त्री पुत्रकी अपेक्षा सौगुने नेहसे पतिकी आराधना करती है, राजाके समान उसका भय मानती है और पतिको भगवान्का स्वरूप समझती है, वह पतिव्रता है। जो गृहकार्य करनेमें दासी, रमणकालमें वेश्या तथा भोजनके समय माताके समान आचरण करती है और जो विपत्तिमें स्वामीको नेक सलाह देकर मन्त्रीका काम करती है, वह स्त्री पतिव्रता मानी गयी है। जो मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा कभी पतिकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करती तथा हमेशा पतिके भोजन कर लेनेपर ही भोजन करती है, उस स्त्रीको पतिव्रता समझना चाहिये। जिस-जिस शय्यापर पति शयन करते हैं वहाँ-वहाँ जो प्रतिदिन यत्नपूर्वक उनकी पूजा करती है, पतिके प्रति कभी जिसके मनमें डाह नहीं पैदा होती, कृपणता नहीं आती और जो मान भी नहीं करती, पतिकी ओरसे आदर मिले या अनादर-दोनोंमें प्रसन्नतापूर्वक उससे कहा-'देवि ! तुमने जैसा देखा जिसकी समान बुद्धि रहती है, ऐसी खीको पतिव्रता और समझा है, उसके अनुसार स्वयं ही सोचकर मेरे कहते हैं। जो साध्वी स्त्री सुन्दर वेषधारी परपुरुषको लिये प्रिय और हितकी बात बताओ।'
* पतिव्रता च या नारी पत्युर्नित्यं हिते रता । कुलदयस्य पुरुषानुद्धरेल्सा शतं शतम् ॥ (४७॥ ५१) + पुत्राच्छतगुणं स्रहाद्राजानं च भयादथ । आराधयेत् पतिं शौरि या पश्येत् सा पतिव्रता ।
कायें दासी रतौ वेश्या भोजने जननीसमा। विपत्सु मन्त्रिणी भर्तुः सा च भार्या पतिव्रता ॥
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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पतिव्रता बोली- ब्रह्मन् ! इस समय मुझे पतिदेवकी पूजा करनी है, अतः अवकाश नहीं है; इसलिये आपका कार्य पीछे करूंगी। इस समय मेरा आतिथ्य ग्रहण कीजिये ।
श्रीभगवान् बोले- 'मुनिश्रेष्ठ ! आओ, मैं उसके पास चलता हूँ।' यों कहकर भगवान् जब चलने लगे, तब
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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ब्राह्मणने पूछा- 'तुलाधार कहाँ रहता है ?'
श्रीभगवान् ने कहा- जहाँ मनुष्यों की भीड़ एकत्रित है और नाना प्रकारके द्रव्योंकी बिक्री हो रही है, उस बाजारमें तुलाधार वैश्य इधर-उधर क्रय-विक्रय करता है। उसने कभी मन, वाणी या क्रियाद्वारा किसीका कुछ बिगाड़ नहीं किया, असत्य नहीं बोला और दुष्टता नहीं की। वह सब लोगोंके हितमें तत्पर रहता है। सब प्राणियोंमें समान भाव रखता तथा ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझता है। लोग जौ, नमक, तेल, घी, अनाजकी ढेरियाँ तथा अन्यान्य संगृहीत वस्तुएँ उसकी जबानपर ही लेते-देते हैं। वह प्राणान्त उपस्थित होनेपर भी सत्य छोड़कर कभी झूठ नहीं बोलता । इसीसे वह धर्म- तुलाधार कहलाता है।
श्रीभगवान् के यों कहनेपर ब्राह्मणने नाना प्रकारके रसोंको बेचते हुए तुलाधारको देखा। वह बिक्रीकी वस्तुओंके सम्बन्धमें बातें कर रहा था। बहुत से पुरुष और स्त्रियाँ उसे चारों ओरसे घेरकर खड़ी थीं। ब्राह्मणको उपस्थित देख तुलाधारने मधुर वाणीमें पूछा
ब्राह्मण बोला – कल्याणी! मेरे शरीरमें इस समय भूख, प्यास और थकावट नहीं है। मुझे अभीष्ट बात बताओ, नहीं तो तुम्हें शाप दे दूँगा ।
तब उस पतिव्रताने भी कहा – 'द्विजश्रेष्ठ ! मैं बगला नहीं हूँ, आप धर्म- तुलाधारके पास जाइये और उन्हींसे अपने हितकी बात पूछिये' यों कहकर वह महाभागा पतिव्रता घरके भीतर चली गयी। तब ब्राह्मणने चाण्डालके घरकी भाँति वहाँ भी विप्ररूपधारी भगवान्को उपस्थित देखा। उन्हें देखकर वह बड़े विस्मयमें पड़ा और कुछ सोच-विचारकर उनके समीप गया । घरमें जानेपर उसे हर्षमें भरे हुए ब्राह्मण और उस पतिव्रताके भी दर्शन हुए। उन्हें देखकर नरोत्तम ब्राह्मणने कहा - 'तात ! देशान्तरमें जो घटना घटी थी, उसे इस पतिव्रता देवीने भी बता दिया और चाण्डालने तो बताया ही था। ये लोग उस घटनाको कैसे जानते हैं? इस बातको लेकर मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है। इससे बढ़कर महान् आश्चर्य और क्या हो सकता है।
'ब्रह्मन् ! यहाँ कैसे पधारना हुआ ?"
ब्राह्मणने कहा- मुझे धर्मका उपदेश करो, मैं इसीलिये तुम्हारे पास आया हूँ।
-
श्रीभगवान् बोले – तात ! महात्मा पुरुष अत्यन्त पुण्य और सदाचारके बलपर सबका कारण जान लेते हैं, जिससे तुम्हें विस्मय हुआ है। मुने! बताओ, इस समय उस पतिव्रताने तुमसे क्या कहा है ?
तुलाधार बोला - विप्रवर! जबतक लोग मेरे पास रहेंगे, तबतक मैं निश्चिन्त नहीं हो सकूँगा। पहरभर राततक यही हालत रहेगी। अतः आप मेरा उपदेश मानकर धर्माकरके पास जाइये। बगलेकी मृत्युसे होने
ब्राह्मणने कहा- वह तो मुझे धर्म- तुलाधारसे वाला दोष और आकाशमें धोती सुखानेका रहस्य - प्रश्न करनेके लिये उपदेश देती है। सभी बातें आगे आपको मालूम हो जायेंगी। धर्माकरका नाम अद्रोहक है। वे बड़े सज्जन हैं। उनके पास जाइये। वहाँ उनके उपदेशसे आपकी कामना सफल होगी।
भर्तुराज्ञां न लया मनोवाक्कायकर्मभिः। भुक्ते पतौ सदा चाति सा च भार्या पतिव्रता ॥ यस्यां यस्यां तु शय्यायां पतिरस्वपिति यनतः । तत्र तत्र च सा भर्तुरच करोति नित्यशः ॥ नैव मत्सरतां याति न कार्पण्यं न मानिनी माने माने समानत्वं या पश्येत् सा पतिव्रता ॥ सुवेषं या नरं दृष्ट्वा भ्रातरं पितरं सुतम्। मन्यते च परं साध्वी सा च भार्या पतिव्रता ॥
(४७।५५ – ६० )
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सृष्टिखण्ड ]
. पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ .
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यों कहकर तुलाधार खरीद-बिक्रीम लग गया। भीतर भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं। सत्य और नरोत्तमने विप्ररूपधारी भगवानसे पूछा-'तात ! अब सरलता आदि गुणोंमें उसकी समानता करनेवाला इस मैं तुलाधारके कथनानुसार सज्जन अद्रोहकके पास संसारमें दूसरा कोई नहीं होता। वह साक्षात् धर्मका जाऊँगा। परन्तु मैं उनका घर नहीं जानता।' स्वरूप होता है और वही इस जगत्को धारण करता है।
श्रीभगवान् बोले-चलो, मैं तुम्हारे साथ उनके ब्राह्मणने कहा-विप्रवर ! आपकी कृपासे मुझे घर चलूँगा।
तुलाधारके सर्वज्ञ होनेका कारण ज्ञात हो गया; अब तदनन्तर मार्गमें जाते हुए भगवान्से ब्राह्मणने अद्रोहकका जो वृत्तान्त हो, वह मुझे बताइये। पूछा-'तात ! तुलाधार न तो देवताओं एवं ऋषियोंका श्रीभगवान् बोले-विप्रवर ! पूर्वकालकी बात
और न पितरोंका ही तर्पण करता है। फिर देशान्तरमें है, एक राजपुत्रकी कुलवती स्त्री बड़ी सुन्दरी और नयी संघटित हुए मेरे वृत्तान्तको वह कैसे जानता है? इससे अवस्थाकी थी। वह कामदेवकी पत्नी रति और इन्द्रकी मुझे बड़ा विस्मय होता है। आप इसका सब कारण पत्नी शचीके समान मनको हरनेवाली थी। राजकुमार बताइये।
उसे अपने प्राणोंके समान प्यार करते थे। उस सुन्दरी श्रीभगवान् बोले-ब्रह्मन् ! उसने सत्य और भार्याका नाम भी सुन्दरी ही था। एक दिन राजकुमारको समतासे तीनों लोकोंको जीत लिया है; इसीसे उसके राजकार्यके लिये ही अकस्मात् बाहर जानेके लिये उद्यत ऊपर पितर, देवता तथा मुनि भी सन्तुष्ट रहते हैं। होना पड़ा। उन्होंने मन-ही-मन सोचा-'मैं प्राणोंसे भी धर्मात्मा तुलाधार उपर्युक्त गुणोंके कारण ही भूत और बढ़कर प्यारी अपनी इस भार्याको किस स्थानपर रखें, भविष्यकी सब बातें जानता है । सत्यसे बढ़कर कोई धर्म जिससे इसके सतीत्वकी रक्षा निश्चितरूपसे हो सके।'
और झूठसे बड़ा दूसरा कोई पाप नहीं है।* जो पुरुष इस बातपर खूब विचार करके राजकुमार सहसा पापसे रहित और समभावमें स्थित है, जिसका चित्त अद्रोहकके घरपर आये और उनसे अपनी पत्नीकी शत्रु, मित्र और उदासीनके प्रति समान है, उसके सब रक्षाका प्रस्ताव करने लगे। उनकी बात सुनकर पापोंका नाश हो जाता है और वह भगवान् श्रीविष्णुके अद्रोहकको बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले-'तात ! न सायुज्यको प्राप्त होता है। समता धर्म और समता ही तो मैं आपका पिता हूँ, न भाई हूँ, न बान्धव हूँ, न उत्कृष्ट तपस्या है। जिसके हृदयमें सदा समता विराजती आपकी पत्नीके पिता-माताके कुलका ही; तथा है, वही पुरुष सम्पूर्ण लोकोंमें श्रेष्ठ, योगियोंमें गणना सुहृदोंमेंसे भी कोई नहीं हैं, फिर मेरे घरमें इसको रखनेसे करनेके योग्य और निलोंभ होता है। जो सदा इसी प्रकार आप किस प्रकार निश्चिन्त हो सकेंगे?' समतापूर्ण बर्ताव करता है, वह अपनी अनेकों राजकुमार बोले-महात्मन् ! इस संसारमें पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। उस पुरुषमें सल्य, आपके समान धर्मज्ञ और जितेन्द्रिय पुरुष दूसरा कोई इन्द्रिय-संयम; मनोनिग्रह, धीरता, स्थिरता, निर्लोभता नहीं है।
और आलस्यहीनता-ये सभी गुण प्रतिष्ठित होते हैं। यह सुनकर अद्रोहकने उस विज्ञ राजकुमारसे समताके प्रभावसे धर्मज्ञ पुरुष देवलोक और मनुष्य- कहा-'भैया ! मुझे दोष न देना । इस त्रिभुवन-मोहिनी लोकके सम्पूर्ण वृत्तान्तोंको जान लेता है। उसकी देहके भार्याकी रक्षा करने में कौन पुरुष समर्थ हो सकता है।'
* सत्येन समभावेन जितं तेन जगत्त्रयम् । तेनातृप्यन्त पितरो देवा मुनिगणैः सह ॥ भूतभव्यप्रवृत्तं च तेन जानाति धार्मिकः । नास्ति सत्यात्परो धमों नानृतात्पातकं परम्।
(४७१९२-९३)
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. . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[संक्षिप्त पापुराण
राजपुत्रने कहा-मैं सब बातोंका भलीभाँति अपनी स्त्रीके बर्तावके सम्बन्धमें पूछा। लोगोंने भी विचार करके ही आपके पास आया हूँ। यह आपके अपनी-अपनी रुचिके अनुसार उत्तर दिया। कोई घरमें रहे, अब मैं जाता हूँ।
राजकुमारके प्रबन्धको उत्तम बताते थे। कुछ नौजवान राजकुमारके यों कहनेपर वे फिर बोले- भैया ! उनकी बात सुनकर आश्चर्यमें पड़ जाते थे और कुछ लोग इस शोभासम्पन्न नगरमें बहुतेरे कामी पुरुष भरे पड़े हैं। इस प्रकार उत्तर देते थे-'भाई ! तुमने अपनी स्त्री उसे यहाँ किसी स्त्रीके सतीत्वकी रक्षा कैसे हो सकती है।' सौंप दी है और वह उसीके साथ शयन करता है। स्त्री राजकुमार पुनः बोले-'जैसे भी हो, रक्षा कीजिये। मैं और पुरुषमें एकत्र संसर्ग होनेपर दोनोंके मन शान्त कैसे तो अब जाता हूँ।' गृहस्थ अद्रोहकने धर्मसंकटमें पड़कर रह सकते हैं।' अद्रोहकने अपने धर्माचरणके बलसे कहा-'तात ! मैं उचित और हितकारी समझकर इसके लोगोंकी कुत्सित चर्चा सुन ली। तब उनके मनमें साथ सदा अनुचित बर्ताव करूँगा और उसी अवस्थामें लोकनिन्दासे मुक्त होनेका शुभ संकल्प प्रकट हुआ। ऐसी स्त्री सदा मेरे घरमें सुरक्षित रह सकती है। अन्यथा उन्होंने स्वयं लकड़ी एकत्रित करके एक बहुत बड़ी चिता इस अरक्ष्य वस्तुकी रक्षाके लिये आप ही कोई अनुकूल बनायी और उसमें आग लगा दी। चिता प्रज्वलित हो और प्रिय उपाय बतलाइये। इसे मेरी शय्यापर मेरे एक उठी। इसी समय प्रतापी राजकुमार अद्रोहकके घर आ ओर मेरी स्त्रीके साथ शयन करना होगा। फिर भी यदि पहुंचे। वहां उन्होंने अद्रोहक तथा अपनी पत्नीको भी आप इसे अपनी वल्लभा समझें, तब तो यह रह सकती देखा। पत्नीका मुख प्रसन्नतासे खिला हुआ था और है; नहीं तो यहाँसे चली जाय।'
अद्रोहक अत्यन्त विषादयुक्त थे। उन दोनोंकी मानसिक यह सुनकर राजकुमारने एक क्षणतक कुछ विचार स्थिति जानकर राजकुमारने कहा-'भाई ! मैं आपका किया; फिर बोले-'तात ! मुझे आपकी बात स्वीकार मित्र हूँ और बहुत दिनोंके बाद यहाँ लौटा हूँ। आप मुझसे है। आपको जो अनुकूल जान पड़े, वही कीजिये।' ऐसा बातचीत क्यों नहीं करते?' कहकर राजकुमार अपनी पत्नीसे बोले-'सुन्दरी ! तुम इनके कथनानुसार सब कार्य करना, तुमपर कोई दोष नहीं आयेगा। इसके लिये मेरी आज्ञा है।' यों कहकर वे अपने पिता महाराजके आदेशसे गन्तव्य स्थानको चले गये। तदनन्तर रातमें अद्रोहकने जैसा कहा था, वैसा ही किया। वे धर्मात्मा नित्यप्रति दोनों स्त्रियोंके बीच में शयन करते थे। फिर भी वे अपनी और परायी स्त्रीके विषयमें कभी धर्मसे विचलित नहीं होते थे। अपनी स्त्रीके स्पर्शसे ही उनके मनमें कामोपभोगकी इच्छा होती थी। इधर राजकुमारकी स्त्रीके स्तन भी बार-बार उनकी पीठमें लग जाते थे; किन्तु उसका उनके प्रति वैसा ही भाव होता था, जैसा बालक पुत्रका माताके स्तनोंके प्रति होता है। वे प्रतिदिन उसके प्रति मातृभावको ही दृढ़ रखते थे। क्रमशः उनके हृदयसे स्त्री-संभोगकी इच्छा ही जाती रही। इस प्रकार छः मास व्यतीत होनेपर राजकुमारीके पति अद्रोहकके नगरमें आये। उन्होंने लोगोंसे अद्रोहक तथा
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सृष्टिखण्ड ]
. पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ .
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अद्रोहकने कहा-मित्र ! मैंने आपके हितके यों कहकर देवता विमानोंपर बैठ आनन्दपूर्वक लिये जो दुष्कर कर्म किया है, वह लोक-निन्दाके कारण स्वर्गलोकको पधारे। मनुष्य भी सन्तुष्ट होकर अपनेव्यर्थ-सा हो गया है। अतः अब मैं अग्निमें प्रवेश अपने स्थानको चल दिये तथा वे दोनों स्त्री-पुरुष भी करूँगा । सम्पूर्ण देवता और मनुष्य मेरे इस कार्यको देखें। अपने राजमहलको चले गये। तबसे अद्रोहकको दिव्य ___ श्रीभगवान् कहते है-ऐसा कहकर महाभाग दृष्टि प्राप्त हो गयी है। वे देवताओंको भी देखते हैं और अद्रोहक अग्निमें प्रवेश कर गये। किन्तु अनि उनके तीनों लोकोंकी बातें अनायास ही जान लेते हैं। शरीर, वस्त्र और केशोंको जला नहीं सका। आकाशमें व्यासजी कहते हैं-तदनन्तर अद्रोहककी खड़े समस्त देवता प्रसन्न होकर उन्हें साधुवाद देने लगे। गलीमें जाकर द्विजने उनका दर्शन किया और बड़ी सबने चारों ओरसे उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा की। प्रसन्नताके साथ उनसे धर्ममय उपदेश तथा हितकी जिन-जिन लोगोंने राजकुमारकी पत्नी और अद्रोहकके बातें पूछीं। सम्बन्धमें कलङ्कपूर्ण बात कही थी, उनके मुँहपर नाना सजनाद्रोहकने कहा-धर्मज्ञ ब्राह्मण ! आप प्रकारकी कोढ़ हो गयी। देवताओंने वहाँ उपस्थित हो पुरुषोंमें श्रेष्ठ वैष्णवके पास जाइये । उनका दर्शन करनेसे अद्रोहकको आगसे खींचकर बाहर निकाला और इस समय आपका मनोरथ सफल होगा। बगलेकी मृत्यु प्रसन्नतापूर्वक दिव्य पुष्पोंसे उनका पूजन किया। उनका तथा आकाशमें वस्त्रके न सूखने आदिका कारण आपको चरित्र सुनकर मुनियोंको भी बड़ा विस्मय हुआ। समस्त विदित हो जायगा। इसके सिवा आपके हृदयमें और भी मुनिवरो तथा विभिन्न वर्णोक मनुष्योंने उन महातेजस्वी जो-जो कामनाएँ हैं, उनकी भी पूर्ति हो जायगी। महात्माका पूजन किया और उन्होंने भी सबका विशेष यह सुनकर वह ब्राह्मण द्विजरूपधारी भगवान्के आदर किया। उस समय देवताओं, असुरों और साथ प्रसन्नतापूर्वक वैष्णवके यहाँ आया। वहाँ पहुँचकर मनुष्योंने मिलकर उनका नाम सज्जनाद्रोहक रखा। उनके उसने सामने बैठे हुए शुद्ध हृदयवाले एक तेजस्वी चरणोंकी धूलिसे पवित्र हुई भूमिके ऊपर खेतीकी उपज पुरुषको देखा, जो समस्त शुद्ध लक्षणोंसे सम्पन्न एवं अधिक होने लगी। देवताओंने राजकुमारसे कहा- अपने तेजसे देदीप्यमान थे। धर्मात्मा द्विजने ध्यानमग्न 'तुम अपनी इस स्त्रीको स्वीकार करो। इन अद्रोहकके हरिभक्तसे कहा-'महात्मन् ! मैं बहुत दूरसे आपके समान कोई मनुष्य इस संसारमें नहीं हुआ है। इस समय पास आया हूँ। मेरे लिये जो-जो कर्तव्य उचित हो, इस पृथ्वीपर दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जिसे काम उसका उपदेश कीजिये।'
और लोभने परास्त न किया हो। देवता, असुर, मनुष्य, वैष्णवने कहा-देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान् राक्षस, मृग, पक्षी और कीट आदि सम्पूर्ण प्राणियोंके श्रीविष्णु तुमपर प्रसन्न हैं। इस समय तुम्हें देखकर मेरा लिये यह काम दुर्जय है। काम, लोभ और क्रोधके हृदय उल्लसित-सा हो रहा है। अतः तुम्हें अनुपम कारण ही प्राणियोंको सदा जन्म लेना पड़ता है। काम ही कल्याणकी प्राप्ति होगी। आज तुम्हारा मनोरथ सफल संसार-बन्धनमें डालनेवाला है। प्रायः कहीं भी होगा। मेरे घरमें भगवान् श्रीविष्णु विराजमान हैं। कामरहित पुरुषका मिलना कठिन है। इन अद्रोहकने वैष्णवके यों कहनेपर ब्राह्मणने पुनः उनसे सबको जीत लिया है; चौदहों भुवनोंपर विजय प्राप्त की कहा–'भगवान् श्रीविष्णु कहाँ है, आज कृपा करके है। इनके हृदयमें भगवान् श्रीवासुदेव बड़ी प्रसन्नताके मुझे उनका दर्शन कराइये।' साथ नित्य विराजमान रहते हैं। इनका स्पर्श और दर्शन वैष्णवने कहा-इस सुन्दर देवालयमें प्रवेश करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और निष्पाप करके तुम परमेश्वरका दर्शन करो। ऐसा करनेसे तुम्हें होकर अक्षय स्वर्ग प्राप्त करते हैं।'
जन्म और मृत्युके बन्धनमें डालनेवाले घोर पापसे
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
छुटकारा मिल जायगा।
लीन होता है। तुम मेरे भक्त और तीर्थस्वरूप हो; किन्तु उनकी बात सुनकर जब ब्राह्मणने देवमन्दिरमें तुमने बगलेकी मृत्युके लिये जो शाप दिया था, उसके प्रवेश किया तो देखा-वे ही विप्ररूपधारी भगवान् दोषसे छुटकारा दिलानेके लिये मैंने ही वहाँ उपस्थित कमलके आसनपर विराजमान हैं। ब्राह्मणने मस्तक होकर कहा कि 'तुम पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ और तीर्थस्वरूप झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ महात्मा मूक चाण्डालके पास जाओ।' तात ! उस उनके दोनों चरण पकड़कर कहा-'देवेश्वर ! अब महात्माका दर्शन करके तुमने देखा ही था कि वह किस मुझपर प्रसन्न होइये। मैंने पहले आपको नहीं पहचाना प्रकार अपने माता-पिताका पूजन करता था। उन सभी
था। प्रभो ! इस लोक और परलोकमें भी मैं आपका महात्माओंके दर्शनसे, उनके साथ वार्तालाप करनेसे किङ्कर बना रहूँ। मधुसूदन ! मुझे अपने ऊपर आपका और मेरा सम्पर्क होनेसे आज तुम मेरे मन्दिरमें आये हो। प्रत्यक्ष अनुग्रह दिखायी दिया है। यदि मुझपर कृपा हो करोड़ों जन्मोंके बाद जिसके पापोंका क्षय होता है, वह तो मैं आपका साक्षात् स्वरूप देखना चाहता हूँ।' धर्मज्ञ पुरुष मेरा दर्शन करता है, जिससे उसे प्रसन्नता
भगवान् श्रीविष्णु बोले-भूदेव ! तुम्हारे ऊपर प्राप्त होती है। वत्स ! मेरे ही अनुग्रहसे तुमको मेरा दर्शन मेरा प्रेम सदा ही बना रहता है। मैंने स्नेहवश ही तुम्हें हुआ है। इसलिये तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके पुण्यात्मा महापुरुषोंका दर्शन कराया है। पुण्यवान् अनुसार मुझसे वरदान माँग लो।। महात्माओंके एक बार भी दर्शन, स्पर्श, ध्यान एवं ब्राह्मण बोला-नाथ ! मेरा मन सर्वथा आपके नामोच्चारण करनेसे तथा उनके साथ वार्तालाप करनेसे ही ध्यानमें स्थित रहे, सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी माधव ! मनुष्य अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। महापुरुषोंका आपके सिवा कोई भी दूसरी वस्तु मुझे कभी प्रिय नित्य सङ्ग करनेसे सब पापोंका नाश हो जाता है तथा न लगे। मनुष्य अनन्त सुख भोगकर मेरे स्वरूपमें लीन होता श्रीभगवान्ने कहा-निष्पाप ब्राह्मण ! तुम्हारी है।* जो मनुष्य पुण्य-तीर्थोमें स्नान करके शङ्करजी तथा बुद्धिमें सदा ऐसा उत्तम विचार जाग्रत् रहता है; इसलिये पुण्यात्मा पुरुषोंके आश्रमका दर्शन करता है, वह भी मेरे तुम मेरे धाममें आकर मेरे ही समान दिव्य भोगोंका शरीरमें लीन हो जाता है। एकादशी तिथिको-जो मेरा उपभोग करोगे। किन्तु तुम्हारे माता-पिता तुमसे आदर ही दिन (हरिवासर) है-उपवास करके जो लोगोंके नहीं पा रहे हैं; अतः पहले माता-पिताकी पूजा करो, सामने पुण्यमयी कथा कहता है, वह भी मेरे स्वरूपमें इसके बाद मेरे स्वरूपको प्राप्त हो सकोगे! उनके लीन हो जाता है। मेरे चरित्रका श्रवण करते हुए जो दुःखपूर्ण उच्छ्वास और क्रोधसे तुम्हारी तपस्या प्रतिदिन रात्रिमें जागता है, उसका भी मेरे शरीरमें लय होता है। नष्ट हो रही है। जिस पुत्रके ऊपर सदा ही माता-पिताका विप्रवर ! जो प्रतिदिन ऊँचे स्वरसे गीत गाते और बाजा कोप रहता है, उसको नरकमें पड़नेसे मैं, ब्रह्मा तथा बजाते हुए मेरे नामोंका स्मरण करता है, उसका भी मेरी महादेवजी भी नहीं रोक सकते । इसलिये तुम देहमें लय होता है। जिसका मन तपस्वी, राजा और माता-पिताके पास जाओ और यन्त्रपूर्वक उनकी पूजा गुरुजनोंसे कभी द्रोह नहीं करता, वह भी मेरे स्वरूपमें करो। फिर उन्हींकी कृपासे तुम मेरे पदको प्राप्त होगे।
*दर्शनात्स्पर्शनाद्ध्यानात्कीर्तनाद्भाषणात्तथा ।सकृत्पुण्यवतामेव स्वर्ग चाक्षयमश्रुते॥ नित्यमेव तु संसर्गात् सर्वपापक्षयो भवेत् । भुक्त्वा सुखमनन्तं च मद्देहे प्रविलीयते ॥
मिन्युनिपतिते यस्मिन् पुत्रे पित्रोच नित्यशः । तत्रिरय न बाधेऽहं न धाता न च शङ्करः ॥
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सृष्टिखण्ड ]
. पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ .
१७२
AIIMSNE
व्यासजी कहते हैं-जगद्गुरु भगवान्के ऐसा विराजमान थे; इसी प्रकार पतिव्रताके घरमें, तुलाधारके कहनेपर द्विजश्रेष्ठ नरोत्तमने फिर इस प्रकार कहा- यहाँ, मित्राद्रोहकके भवनमें तथा इन वैष्णव महात्माके 'नाथ ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने मन्दिरमें भी आपका दर्शन हुआ है। इन सब बातोंका स्वरूपका दर्शन कराइये।' तब सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र यथार्थ रहस्य क्या है? मुझपर अनुग्रह करके बताइये।' कर्ता एवं ब्राह्मण-हितैषी भगवान्ने नरोत्तमके प्रेमसे प्रसन्न श्रीभगवान्ने कहा-विप्रवर ! मूक चाण्डाल होकर उस पुण्यकर्मा ब्राह्मणको शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म सदा अपने माता-पितामें भक्ति रखता है। शुभा देवी धारण किये अपने पुरुषोत्तम रूपका दर्शन कराया। उनके पतिव्रता है। तुलाधार सत्यवादी है और सब लोगोंके तेजसे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो रहा था। ब्राह्मणने प्रति समान भाव रखता है। अद्रोहकने लोभ और
कामपर विजय पायी है तथा वैष्णव मेरा अनन्य भक्त है। इन्हीं सद्गुणोंके कारण प्रसन्न होकर मैं इन सबके घरमें सानन्द निवास करता हूँ। मेरे साथ सरस्वती और लक्ष्मी भी इन लोगोंके यहाँ मौजूद रहती हैं। मूक चाण्डाल त्रिभुवनमें सबका कल्याण करनेवाला है। चाण्डाल होनेपर भी वह सदाचारमें स्थित है; इसलिये देवता उसे ब्राह्मण मानते हैं। पुण्य-कर्मद्वारा मूक चाण्डालको समानता करनेवाला इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है। वह सदा माता-पिताकी भक्तिमें संलग्न रहता है। उसने [अपनी इस भक्तिके बलसे] तीनों लोकोंको जीत लिया है। उसकी माता-पिताके प्रति भक्ति देखकर मैं बहुत सन्तुष्ट रहता हूँ और इसीलिये उसके घरके भीतर आकाशमें सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्राह्मणरूपसे निवास करता हूँ। इसी प्रकार मैं उस पतिव्रताके, तुलाधारके, अद्रोहकके और इस वैष्णवके घरमें भी सदा निवास
करता हूँ। धर्मज्ञ ! एक मुहूर्तके लिये भी मैं इन लोगोंका दण्डकी भाँति धरतीपर गिरकर भगवान्को प्रणाम किया घर नहीं छोड़ता। जो पुण्यात्मा हैं, वे ही मेरा प्रतिदिन
और कहा-'जगदीश्वर ! आज मेरा जन्म सफल हुआ; दर्शन पाते हैं; दूसरे पापी मनुष्य नहीं। तुमने अपने आज मेरे नेत्र कल्याणमय हो गये। इस समय मेरे दोनों पुण्यके प्रभावसे और मेरे अनुग्रहके कारण मेरा दर्शन हाथ प्रशस्त हो गये। आज मैं भी धन्य हो गया। मेरे किया है। अब मैं क्रमशः उन महात्माओंके सदाचारका पूर्वज सनातन ब्रह्मलोकको जा रहे हैं। जनार्दन ! आज वर्णन करूँगा, तुम ध्यान देकर सुनो। ऐसे वर्णनोंको आपकी कृपासे मेरे बन्धु-बान्धव आनन्दित हो रहे हैं! सुनकर मनुष्य जन्म और मृत्युके बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो इस समय मेरे सभी मनोरथ सिद्ध हो गये। किन्तु नाथ ! जाता है। देवताओंमें भी, पिता और मातासे बढ़कर तीर्थ मूक चाण्डाल आदि ज्ञानी महात्माओंकी बात सोचकर नहीं है। जिसने माता-पिताकी आराधना की है, वही मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है। भला, वे लोग देशान्तरमें पुरुषोंमे श्रेष्ठ है। वह मेरे हृदयमें रहता है और मैं उसके होनेवाले मेरे वृत्तान्तको कैसे जानते हैं ? मूक चाण्डालके हृदयमें । हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं रह जाता । इहलोक घरमें आप अत्यन्त सुन्दर ब्राह्मणका रूप धारण किये और परलोकमें भी वह मेरे ही समान पूज्य है। वह संप.पु. ७
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• अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
अपने समस्त बन्धु-बान्धवोंके साथ मेरे रमणीय धाममें लिये तो कहना ही क्या है। अमावास्या और युगादि पहुँचकर मुझमें ही लीन हो जाता है। माता-पिताकी तिथियोंको तथा चन्द्रमा और सूर्य-ग्रहणके दिन जो आराधनाके बलसे ही वह नरश्रेष्ठ मूक चाण्डाल तीनों पार्वण श्राद्ध करता है, वह अक्षय लोकका भागी होता लोकोंकी बातें जानता है। फिर इस विषयमें तुम्हें विस्मय है। उसके पितर उसे प्रिय आशीर्वाद और अनन्त भोग क्यों हो रहा है?
प्रदान करके दस हजार वर्षातक तप्त रहते हैं। इसलिये ब्राह्मणने पूछा-जगदीश्वर ! मोह और प्रत्येक पर्वपर पुत्रोंको प्रसन्नतापूर्वक पार्वण श्राद्ध करना अज्ञानवश पहले माता-पिताकी आराधना न करके फिर चाहिये। माता-पिताके इस श्राद्ध-यज्ञका अनुष्ठान करके भले-बुरेका ज्ञान होनेपर यदि मनुष्य पुनः माता-पिताकी मनुष्य सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है। सेवा करना चाहे तो उसके लिये क्या कर्तव्य है? जो श्राद्ध प्रतिदिन किया जाता है, उसे नित्य श्राद्ध
श्रीभगवान् बोले-विप्रवर ! एक वर्ष, एक माना गया है। जो पुरुष श्रद्धापूर्वक नित्य श्राद्ध करता है, मास, एक पक्ष, एक सप्ताह अथवा एक दिन भी जिसने वह अक्षय लोकका उपभोग करता है। इसी प्रकार माता-पिताकी भक्ति की है, वह मेरे धामको प्राप्त होता कृष्णपक्षमें विधिपूर्वक काम्य श्राद्धका अनुष्ठान करके है।* तथा जो उनके मनको कष्ट पहुँचाता है, वह मनुष्य मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है। आषाढ़की अवश्य नरकमें पड़ता है। जिसने पहले अपने पूर्णिमाके बाद जो पाँचवाँ पक्ष आता है, [जिसे महालय माता-पिताकी पूजा की हो या न की हो, यदि उनकी या पितृपक्ष कहते हैं] उसमें पितरोंका श्राद्ध करना मृत्युके पश्चात् वह साँड़ छोड़ता है, तो उसे पितृभक्तिका चाहिये। उस समय सूर्य कन्याराशिपर गये हैं या फल मिल जाता है। जो बुद्धिमान् पुत्र अपना सर्वस्व नहीं-इसका विचार नहीं करना चाहिये। जब सूर्य लगाकर माता-पिताका श्राद्ध करता है, वह जातिस्मर कन्याराशिपर स्थित होते हैं, उस समयसे लेकर सोलह (पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण करनेवाला) होता है और दिन उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न यज्ञोंके समान महत्त्व उसे पितृ-भक्तिका पूरा फल मिल जाता है। श्राद्धसे रखते हैं। उन दिनोंमें इस परम पवित्र काम्य श्राद्धका बढ़कर महान् यज्ञ तीनों लोकोंमें दूसरा कोई नहीं है। अनुष्ठान करना उचित है। इससे श्राद्धकर्ताका मङ्गल इसमें जो कुछ दान दिया जाता है, वह सब अक्षय होता होता है। यदि उस समय श्राद्ध न हो सके तो जब सूर्य है। दूसरोंको जो दान दिया जाता है; उसका फल दस तुलाराशिपर स्थित हों, उसी समय कृष्णपक्ष आदिमें उक्त हजारगुना होता है। अपनी जातिवालोंको देनेसे लाख- श्राद्ध करना उचित है। गुना, पिण्डदानमें लगाया हुआ धन करोड़गुना और चन्द्रग्रहणके समय सभी दान भूमिदानके समान ब्राह्मणको देनेपर वह अनन्त गुना फल देनेवाला बताया होते हैं, सभी ब्राह्मण व्यासके समान माने जाते हैं और गया हैं। जो गङ्गाजीके जलमें और गया, प्रयाग, पुष्कर, समस्त जल गङ्गाजलके तुल्य हो जाता है। चन्द्रग्रहणमें काशी, सिद्धकुण्ड तथा गङ्गा-सागर-सङ्गम तीर्थमें दिया हुआ दान और समयकी अपेक्षा लाखगुना तथा पितरोंके लिये अन्नदान करता है, उसकी मुक्ति निश्चित है सूर्य-ग्रहण दस लाखगुना अधिक फल देनेवाला बताया तथा उसके पितर अक्षय स्वर्ग प्राप्त करते हैं। उनका गया है। और यदि गङ्गाजीका जल प्राप्त हो जाय, तब जन्म सफल हो जाता है। जो विशेषतः गङ्गाजीमें तो चन्द्रग्रहणका दान करोड़गुना और सूर्यग्रहणमें दिया तिलमिश्रित जलके द्वारा तर्पण करता है, उसे भी मोक्षका हुआ दान दस करोड़गुना अधिक फल देनेवाला होता मार्ग मिल जाता है। फिर जो पिण्डदान करता है, उसके है। विधिपूर्वक एक लाख गोदान करनेसे जो फल प्राप्त
*दिनैक मासपक्षं वा पक्षाद्धं वापि वत्सरम् । पित्रोभक्तिः कृता येन स च गच्छेन्ममालयम् ॥ (४७ । २०८)
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सृष्टिखण्ड]
• पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्च महायज्ञ.
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RamannamruRA
होता है, वह चन्द्रग्रहणके समय गङ्गाजीमें स्नान करनेसे काशीमें रहकर प्राण-त्याग करता है, वह मनोवाञ्छित मिल जाता है। जो चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें गङ्गाजीके फल भोगकर मेरे स्वरूपमें लीन हो जाता है।* योगयुक्त जलमें डुबकी लगाता है, उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान नैष्ठिक ब्रह्मचारी मुनियोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, करनेका फल प्राप्त होता है। यदि रविवारको सूर्यग्रहण वही गति ब्रह्मपुत्र नदीकी सात धाराओंमें प्राणत्याग और सोमवारको चन्द्रग्रहण हो तो वह चूड़ामणि नामक करनेवालेको मिलती है। विशेषतः [अन्तकालमें] जो योग कहलाता है; उसमें स्नान और दानका अनन्त फल सोन नदीके उत्तर तटका आश्रय लेकर विधिपूर्वक माना गया है। उस समय पुण्य तीर्थमें पहले उपवास प्राण-त्याग करता है, वह मेरी समानताको प्राप्त होता है। करके जो पुरुष पिण्डदान, तर्पण तथा धन-दान करता है, जिस मनुष्यकी मृत्यु घरके भीतर होती है, उस घरके वह सत्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
छप्परमें जितनी गाँठे बँधी रहती हैं, उतने ही बन्धन ब्राह्मणने पूछा-देव ! आपने पिताके लिये उसके शरीरमें भी बँध जाते हैं। एक-एक वर्षके बाद किये जानेवाले श्राद्ध नामक महायज्ञका वर्णन किया। उसका एक-एक बन्धन खुलता है। पुत्र और भाई-बन्धु अब यह बताइये कि पुत्रको पिताके जीते-जी क्या करना देखते रह जाते हैं; किसीके द्वारा उसे उस बन्धनसे चाहिये; कौन-सा कर्म करके बुद्धिमान् पुत्रको जन्म- छुटकारा नहीं मिलता। पर्वत, जंगल, दुर्गम भूमि या जन्मान्तरोंमें परम कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है। ये सब जलरहित स्थानमें प्राणत्याग करनेवाला मनुष्य दुर्गतिको बातें यत्नपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये। प्राप्त होता है। उसे कीड़े आदिकी योनिमें जन्म लेना
श्रीभगवान् बोले-विप्रवर ! पिताको देवताके पड़ता है। जिस मरे हुए व्यक्तिके शवका दाह-संस्कार समान समझकर उनकी पूजा करनी चाहिये और पुत्रकी मृत्युके दूसरे दिन होता है, वह साठ हजार वर्षातक भाँति उनपर स्नेह रखना चाहिये। कभी मनसे भी उनकी कुम्भीपाक नरकमें पड़ा रहता है। जो मनुष्य अस्पृश्यका आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। जो पुत्र रोगी स्पर्श करके या पतितावस्थामें प्राण-त्याग करता है, वह पिताकी भलीभांति परिचर्या करता है, उसे अक्षय चिरकालतक नरकमें निवास करके म्लेच्छयोनिमें जन्म स्वर्गकी प्राप्ति होती है और वह सदा देवताओद्वारा पूजित लेता है। पुण्यसे अथवा पुण्य-कर्मोका अनुष्ठान करनेसे होता है। पिता जब मरणासत्र होकर मृत्युके लक्षण देख मर्त्यलोकनिवासी सब मनुष्योंकी मृत्युके समय जैसी रहे हों, उस समय भी उनका पूजन करके पुत्र बुद्धि होती है, वैसी ही गति उन्हें प्राप्त होती है। देवताओंके समान हो जाता है। [पिताकी सद्गतिके पिताके मरनेपर जो बलवान् पुत्र उनके शरीरको निमित्त] विधिपूर्वक उपवास करनेसे जो लाभ होता है, कंधेपर ढोता है, उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल अब उसका वर्णन करता हैं; सुनो । हजार अश्वमेध और प्राप्त होता है। पुत्रको चाहिये कि वह पिताके शवको सौ राजसूय यज्ञ करनेसे जो पुण्य होता है, वही पुण्य चितापर रखकर विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए पहले [पिताके निमित्त] उपवास करनेसे प्राप्त होता है। वही उसके मुखमें आग दे, उसके बाद सम्पूर्ण शरीरका दाह उपवास यदि तीर्थमें किया जाय तो उन दोनों यज्ञोंसे करे। [उस समय इस प्रकार कहे-] 'जो लोभकरोड़गुना अधिक फल होता है। जिस श्रेष्ठ पुरुषके प्राण मोहसे युक्त तथा पाप-पुण्यसे आच्छादित थे, उन गङ्गाजीके जलमें छूटते हैं, वह पुनः माताके दूधका पान पिताजीके इस शवका, इसके सम्पूर्ण अङ्गोंका मैं दाह नहीं करता, वरं मुक्त हो जाता है। जो अपने इच्छानुसार करता हूँ वे दिव्य लोकोमें जायें। इस प्रकार दाह
* वाराणस्यां त्यजेद्यस्तु प्राणांचैव यदृच्छया । अभीष्टं च फलं भुक्त्वा मद्देहे प्रविलीयते ।। (४७।२५२) + लोभमोहसमायुक्तं पापपुण्यसमावृतम् । दहेयं सर्वगात्राणि दिव्याल्लोकान् स गच्छतु ।। (४७ । २६६)
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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करके पुत्र अस्थि सञ्चयके लिये कुछ दिन प्रतीक्षामें व्यतीत करे। फिर यथासमय अस्थि-सञ्चय करके दशाह (दसवाँ दिन ) आनेपर स्नान कर गीले वस्त्रका परित्याग कर दे। फिर विद्वान् पुरुष ग्यारहवें दिन एकादशाह श्राद्ध करे और प्रेतके शरीरकी पुष्टिके लिये एक ब्राह्मणको भोजन कराये। उस समय वस्त्र, पीढ़ा और चरणपादुका आदि वस्तुओंका विधिपूर्वक दान करे। दशाहके चौथे दिन किया जानेवाला श्राद्ध (चतुर्थीह), तीन पक्षके बाद किया जानेवाला (त्रैपाक्षिक अथवा सार्धमासिक), छः मासके भीतर होनेवाला ( ऊनषाण्मासिक) तथा वर्षके भीतर किया जानेवाला (ऊनाब्दिक) श्राद्ध और इनके अतिरिक्त बारह महीनोंके बारह श्राद्ध-कुल सोलह श्राद्ध माने गये हैं। जिसके लिये ये सोलह श्राद्ध यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक नहीं किये जाते, उसका पिशाचत्व स्थिर हो जाता है। अन्यान्य सैकड़ों श्राद्ध करनेपर भी प्रेतयोनिसे उसका उद्धार नहीं होता। एक वर्ष व्यतीत होनेपर विद्वान् पुरुष पार्वण श्राद्धकी विधिसे सपिण्डीकरण नामक श्राद्ध करे।
ब्राह्मणने पूछा - केशव ! तपस्वी, वनवासी और गृहस्थ ब्राह्मण यदि धनसे हीन हो तो उसका पितृ कार्य कैसे हो सकता है ?
श्रीभगवान् बोले – जो तृण और काष्ठका उपार्जन करके अथवा कौड़ी कौड़ी माँगकर पितृ कार्य करता है, उसके कर्मका लाखगुना अधिक फल होता है। कुछ भी न हो तो पिताकी तिथि आनेपर जो मनुष्य
तदनन्तर, ब्राह्मणके उपदेशसे वह वनमें गया और घासका बोझा लेकर बड़े हर्षके साथ पिताकी तृप्तिके लिये उसे गौको खिला दिया। इस पुण्यके प्रभावसे वह देवलोकको चला गया। पितृयज्ञसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है; इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके अपनी शक्तिके अनुसार मात्सर्यभावका त्याग करके श्राद्ध करना चाहिये। जो मनुष्य लोगोंके सामने इस धर्मसन्तान (धर्मका विस्तार करनेवाले) अध्यायका पाठ करता है, उसे प्रत्येक लोकमें गङ्गाजीके जलमें स्नान करनेका फल प्राप्त होता है। जिसने प्रत्येक जन्ममें महापातकोंका संग्रह किया हो, उसका वह सारा संग्रह इस अध्यायका एक बार पाठ या श्रवण करनेपर नष्ट हो जाता है । ★ पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा - नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
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नरोत्तमने पूछा- नाथ पतिव्रता स्त्री मेरे बीते हुए वृत्तान्तको कैसे जानती है? उसका प्रभाव कैसा है? यह सब बतानेकी कृपा करें।
श्रीभगवान् बोले- वत्स! मैं यह बात तुम्हें पहले बता चुका हूँ। किन्तु फिर यदि सुननेका कौतूहल हो रहा है तो सुनो; तुम्हारे मनमें जो कुछ प्रश्न है, सबका
केवल गौओंको घास खिला देता है, उसे पिण्डदानसे भी अधिक फल प्राप्त होता है। पूर्वकालकी बात है, विराटदेशमें एक अत्यन्त दीन मनुष्य रहता था। एक दिन पिताकी तिथि आनेपर वह बहुत रोया रोनेका कारण यह था कि उसके पास [ श्राद्धोपयोगी ] सभी वस्तुओंका अभाव था। बहुत देरतक रोनेके पश्चात् उसने किसी विद्वान् ब्राह्मणसे पूछा- 'ब्रह्मन् ! आज मेरे पिताजीकी तिथि है, किन्तु मेरे पास धनके नामपर कौड़ी भी नहीं है; ऐसी दशामें क्या करनेसे मेरा हित होगा ? आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मैं धर्ममें स्थित रह सकूँ।' विद्वान् ब्राह्मणने कहा- -तात! इस समय 'कुतप' नामक मुहूर्त बीत रहा है, तुम शीघ्र ही वनमें जाओ और पितरोंके उद्देश्यसे घास लाकर गौको खिला दो।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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उत्तर दे रहा हूँ। जो स्त्री पतिव्रता होती है, पतिको प्राणोंके समान समझती है और सदा पतिके हित साधनमें संलग्न रहती है, वह देवताओं और ब्रह्मवादी मुनियोंकी भी पूज्य होती है। जो नारी एक ही पुरुषकी सेवा स्वीकार करती है—दूसरेकी ओर दृष्टि भी नहीं डालती, वह संसारमे परम पूजनीय मानी जाती है।
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सृष्टिखण्ड ]
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पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, महिमा और कन्यादानका फल
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तात ! प्राचीन कालकी बात है, मध्यदेशमें एक तुम उसे मिलाकर मेरा हितसाधन करो।
अत्यन्त शोभायमान नगरी थी। उसमें एक पतिव्रता ब्राह्मणी रहती थी, उसका नाम था शैब्या। उसका पति पूर्वजन्मके पापसे कोढ़ी हो गया था। उसके शरीरमें अनेकों घाव हो गये थे, जो बराबर बहते रहते थे। शैब्या अपने ऐसे पतिकी सेवामें सदा संलग्न रहती थी। पतिके मनमें जो-जो इच्छा होती, उसे वह अपनी शक्तिके अनुसार अवश्य पूर्ण करती थी। प्रतिदिन देवताकी भाँति स्वामीकी पूजा करती और दोषबुद्धि त्यागकर उसके प्रति विशेष स्नेह रखती थी। एक दिन उसके पतिने सड़कसे जाती हुई एक परम सुन्दरी वेश्याको देखा। उसपर दृष्टि पड़ते ही वह अत्यन्त मोहके वशीभूत हो गया। उसकी चेतनापर कामदेवने पूरा अधिकार कर लिया। वह दीर्घ कालतक लम्बी साँस खींचता रहा और अन्तमें बहुत उदास हो गया। उसका उच्छ्वास सुनकर पतिव्रता घरसे बाहर आयी और अपने पतिसे पूछने लगी- 'नाथ! आप उदास क्यों हो गये ? आपने लम्बी साँस कैसे खींची ? प्रभो! आपको जो प्रिय हो वह कार्य मुझे बताइये। वह करनेयोग्य हो या न हो, मैं आपके प्रियकार्यको अवश्य पूर्ण करूँगी। एकमात्र आप ही मेरे गुरु हैं, प्रियतम हैं।'
पलीके इस प्रकार पूछनेपर उसके पतिने कहा- 'प्रिये ! उस कार्यको न तुम्हीं पूर्ण कर सकती हो और न मैं ही; अतः व्यर्थ बात करनी उचित नहीं है।'
पतिव्रता बोली - नाथ ! [ मुझे विश्वास है] मैं आपका मनोरथ जानकर उस कार्यको सिद्ध कर सकूँगी, आप मुझे आज्ञा दीजिये। जिस किसी उपायसे हो सके मुझे आपका कार्य सिद्ध करना है। यदि आपके दुष्कर कार्यको मैं यत्न करके पूर्ण कर सकूँ तो इस लोक और परलोकमें भी मेरा परम कल्याण होगा।
कोढ़ीने कहा- साध्वि ! अभी-अभी इस मार्गसे एक परम सुन्दरी वेश्या जा रही थी। उसका शरीर सब ओरसे मनोरम था। उसे देखकर मेरा हृदय कामाग्निसे दग्ध हो रहा है। यदि तुम्हारी कृपासे मैं उस नवयौवनाको प्राप्त कर सकूँ तो मेरा जन्म सफल हो जायगा। देवि!
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पतिकी कही हुई बात सुनकर पतिव्रता बोली'प्रभो! इस समय धैर्य रखिये। मैं यथाशक्ति आपका कार्य सिद्ध करूंगी।'
यह कहकर पतिव्रताने मन-ही-मन कुछ विचार किया और रात्रिके अन्तिम भाग - उषः कालमें उठकर वह गोबर और झाडू ले तुरंत ही चल दी। जाते समय उसके मनमें बड़ी प्रसन्नता थी। वेश्याके घर पहुँचकर उसने उसके आँगन और गली-कूचे में झाडू लगायी तथा गोबर से लीप-पोतकर लोगोंकी दृष्टि पड़नेके भयसे वह शीघ्रतापूर्वक अपने घर लौट आयी। इस प्रकार लगातार तीन दिनोंतक पतिव्रताने वेश्याके घरमें झाडू देने और लीपनेका काम किया। उधर वह वेश्या अपने दासदासियोंसे पूछने लगी- आज आँगनकी इतनी बढ़िया सफाई किसने की है ? सेवकोंने परस्पर विचार करके वेश्यासे कहा- 'भद्रे ! घरकी सफाईका यह काम हमलोगोंने तो नहीं किया है।' यह सुनकर वेश्याको बड़ा विस्मय हुआ। उसने बहुत देरतक इसके विषयमें विचार किया और रात्रि बीतनेपर ज्यों ही वह उठी तो उसकी दृष्टि उस पतिव्रता ब्राह्मणीपर पड़ी। वह पुनः टहल बजानेके लिये आयी थी उस परम साध्वी पतिव्रता ब्राह्मणीको देखकर 'हाय! हाय! आप यह क्या करती हैं। क्षमा कीजिये, रहने दीजिये।' यह कहती हुई वेश्याने उसके पैर पकड़ लिये और पुनः कहा'पतिव्रते! आप मेरी आयु, शरीर, सम्पत्ति, यश तथा कीर्ति — इन सबका विनाश करनेके लिये ऐसी चेष्टा कर रही हैं। साध्वि! आप जो-जो वस्तु माँगें, उसे निश्चय दूँगी — यह बात मैं दृढ़ निश्चयके साथ कह रही हूँ। सुवर्ण, रत्न, मणि, वस्त्र तथा और भी जिस किसी वस्तुकी आपके मनमें अभिलाषा हो, उसे माँगिये।'
तब पतिव्रताने उस वेश्यासे कहा- 'मुझे धनकी आवश्यकता नहीं है, तुम्हींसे कुछ काम है; यदि करो तो उसे बताऊँ। उस कार्यकी सिद्धि होनेपर ही मेरे हृदयमें सन्तोष होगा और तभी मैं यह समझँगी कि तुमने इस समय मेरा सारा मनोरथ पूर्ण कर दिया।'
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
वेश्या बोली-पतिव्रते ! आप जल्दी बताइये। राजाके कानोंमें पड़ी, तब उन्होंने रातमें घूमनेवाले समस्त मैं सच-सच कहती हूँ आपका अभीष्ट कार्य अवश्य गुप्तचरोंको बुलाया और कुपित होकर कहा–'यदि तुम्हें करूंगी। माताजी ! आप तुरंत ही अपनी आवश्यकता जीवित रहनेकी इच्छा है तो आज चोरको पकड़कर मेरे बतायें और मेरी रक्षा करें।
हवाले करो।' राजाकी यह आज्ञा पाकर सभी गुप्तचर __पतिव्रताने लजाते-लजाते वह कार्य, जो उसके व्याकुल हो उठे और चोरको पकड़नेकी इच्छासे चल पतिको श्रेष्ठ एवं प्रिय जान पड़ता था, कह सुनाया। उसे दिये । उस नगरके पास ही एक घना जंगल था, जहाँ सुनकर वेश्या एक क्षणतक अपने कर्तव्य और उसके एक वृक्षके नीचे महातेजस्वी मुनिवर माण्डव्य समाधि पतिकी पीड़ापर कुछ विचार करती रही। दुर्गन्धयुक्त लगाये बैठे थे। वे योगियोंमें प्रधान महर्षि अनिके समान कोढ़ी मनुष्यके साथ संसर्ग करनेकी बात सोचकर उसके देदीप्यमान हो रहे थे। ब्रह्माजीके समान तेजस्वी उन मनमें बड़ा दुःख हुआ। वह पतिव्रतासे इस प्रकार महामुनिको देखकर दुष्ट गुप्तचरोंने आपसमें कहाबोली-'देवि ! यदि आपके पति मेरे घरपर आयें तो मैं 'यही चोर है। यह धूर्त अद्भुत रूप बनाये इस जंगलमें एक दिन उनकी इच्छा पूर्ण करूंगी।'
निवास करता है।' यों कहकर उन पापियोंने मुनिश्रेष्ठ ____पतिव्रताने कहा-सुन्दरी ! मैं आज ही रातमें माण्डव्यको बाँध लिया। किन्तु उन कठोर स्वभाववाले
अपने पतिको लेकर तुम्हारे घरमें आऊँगी और जब वे मनुष्योंसे न तो उन्होंने कुछ कहा और न उनकी ओर अपनी अभीष्ट वस्तुका उपभोग करके सन्तुष्ट हो जायेंगे, दृष्टिपात ही किया। जब गुप्तचर उन्हें बाँधकर राजाके तब पुनः उनको अपने घर ले जाऊँगी।
पास ले गये तो राजाने कहा-'आज मुझे चोर मिला वेश्या बोली-महाभागे। अब शीघ्र ही अपने है। तुमलोग इसे नगरके निकटवर्ती प्रवेशद्वारके मार्गपर घरको पधारो। तुम्हारे पति आज आधी रातके समय मेरे ले जाओ और चोरके लिये जो नियत दण्ड है, वह इसे महलमें आये।
दो।' उन्होंने माण्डव्य मुनिको वहाँ ले जाकर मार्गमें ' यह सुनकर वह पतिव्रता स्त्री अपने घर चली आयी। वहाँ पहुँचकर उसने पतिसे निवेदन किया'प्रभो! आपका कार्य सफल हो गया। आज ही रातमें आपको उसके घर जाना है।' . कोढ़ी ब्राह्मण बोला-देवि ! मैं कैसे उसके घर जाऊँगा, मुझसे तो चला नहीं जाता। फिर किस प्रकार वह कार्य सिद्ध होगा? ___पतिव्रता बोली-प्राणनाथ ! मैं आपको अपनी पीठपर बैठाकर उसके घर पहुँचाऊँगी और आपका मनोरथ सिद्ध हो जानेपर फिर उसी मार्गसे लौटा ले आऊँगी।
ब्राह्मणने कहा- कल्याणी ! तुम्हारे करनेसे ही मेरा सब कार्य सिद्ध होगा। इस समय तुमने जो काम किया है, वह दूसरी स्त्रियोंके लिये दुष्कर है।
श्रीभगवान् कहते हैं-उस नगरमें किसी धनीके घरसे चोरोंने बहुत-सा धन चुरा लिया। यह बात जब
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सृष्टिखण्ड ]
• पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, महिमा और कन्यादानका फल
गड़े हुए शूलपर रख दिया। वह शूल मुनिके गुदाद्वारसे प्रविष्ट होकर मस्तकके पार हो गया। उनका सारा शरीर शूलसे बिंध गया, इसी बीचमें आधी रातके घोर अन्धकारमें, जब कि आकाशमें घटाएँ घिरी हुई थीं, वह पतिव्रता ब्राह्मणी अपने पतिको पीठपर बिठाकर वेश्याके घर जा रही थी। वह मुनिके निकटसे होकर निकली, अतः उस कोढ़ीका शरीर माण्डव्य मुनिके शरीरसे छू गया। कोढ़ीके संसर्गसे उनकी समाधि भङ्ग हो गयी। वे कुपित होकर बोले— 'जिसने इस समय मुझे गाढ़ वेदनाका अनुभव करानेवाली कष्टमय अवस्थामें पहुँचा दिया, वह सूर्योदय होते-होते भस्म हो जाय।'
माण्डव्य इतना कहते ही वह कोढ़ी पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब पतिव्रताने कहा- -'आजसे तीन दिनोंतक सूर्यका उदय ही न हो।' यों कहकर वह अपने पतिको घर ले गयी और एक सुन्दर शय्यापर सुला स्वयं उसे थामकर बैठी रही। उधर मुनिश्रेष्ठ माण्डव्य उस कोढ़ीको शाप दे अपने अभीष्ट स्थानको चले गये। संसारमें तीन दिनोंके समयतक सूर्यका उदय होना रुक गया। चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण त्रिलोकी व्यथित हो उठी। यह देख समस्त देवता इन्द्रको आगे करके ब्रह्माजीके पास गये और सूर्योदय न होनेका समाचार निवेदन करते हुए बोले- 'भगवन् ! सूर्यके उदय न होनेका क्या कारण है, यह हमारी समझमें नहीं आता। इस समय आप जो उचित हो, करें।' उनकी बात सुनकर ब्रह्माजीने पतिव्रता ब्राह्मणी और माण्डव्य मुनिका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। तदनन्तर देवता विमानोंपर आरूढ़ हो प्रजापतिको आगे करके शीघ्र ही पृथ्वीपर उस कोढ़ी ब्राह्मणके घरके पास गये। उनके विमानोंकी कान्ति तथा मुनियोंके तेजसे पतिव्रताके घरके भीतर सैकड़ों सूर्योका सा प्रकाश छा गया; उस समय हंसके समान तेजस्वी विमानोंद्वारा आये हुए देवताओंको पतिव्रताने देखा वह [अपने पतिके समीप ] लेटी हुई थी। ब्रह्माजीने उसे सम्बोधित करके कहा- 'माता ! सम्पूर्ण देवताओं, ब्राह्मणों और गौ आदि प्राणियोंकी जिससे मृत्यु होनेकी सम्भावना है - ऐसा कार्य तुम्हें क्योंकर पसंद आया ? सूर्योदयके
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विरुद्ध जो तुम्हारा क्रोध है, उसे त्याग दो।' पतिव्रता बोली- भगवन्! एकमात्र पति ही
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मेरे गुरु हैं। ये मेरे लिये सम्पूर्ण लोकोंसे बढ़कर हैं। सूर्योदय होते ही मुनिके शापसे उनकी मृत्यु हो जायगी। इसी हेतुसे मैंने सूर्यको शाप दिया है। क्रोध, मोह, लोभ, मात्सर्य अथवा कामके वशमें होकर मैंने ऐसा नहीं किया है।
ब्रह्माजीने कहा- माता! जब एककी मृत्युसे तीनों लोकोंका हित हो रहा है, ऐसी दशामें तुम्हें बहुत अधिक पुण्य होगा।
पतिव्रता बोली - पतिका त्याग करके मुझे आपका परम कल्याणमय सत्यलोक भी अच्छा नहीं लगता।
ब्रह्माजीने कहा- देवि! सूर्योदय होनेपर जब सारी त्रिलोकी स्वस्थ हो जायगी, तब तुम्हारे पतिके भस्म हो जानेपर भी मैं तुम्हारा कल्याण साधन करूँगा । हमलोगोंके आशीर्वादसे यह कोढ़ी ब्राह्मण कामदेवके समान सुन्दर हो जायगा ।
ब्रह्माजीके यों कहनेपर उस सतीने क्षणभर कुछ विचार किया; उसके बाद 'हाँ' कहकर उसने स्वीकृति
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• अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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दे दी। फिर तो तत्काल सूर्योदय हुआ और मुनिके बालक थे, तब उन्होंने अज्ञान और मोहवश एक शापसे पीड़ित ब्राह्मण राखका ढेर हो गया। फिर उस झींगुरके गुदादेशमें तिनका डालकर छोड़ दिया था। राखसे कामदेवके समान सुन्दर रूप धारण किये वह यद्यपि उन्हें उस समय धर्मका ज्ञान नहीं था, तथापि उस ब्राह्मण प्रकट हुआ। यह देखकर समस्त पुरवासी बड़े दोषके कारण उन्हें एक दिन और रात वैसा कष्ट भोगना विस्मयमें पड़े। देवता प्रसन्न हो गये। सब लोगोंका चित्त पड़ा। किन्तु माण्डव्य मुनिने समाधिस्थ होनेके कारण पूर्ण स्वस्थ हुआ। उस समय स्वर्गलोकसे सूर्यके समान शूलाघातजनित वेदनाका पूरी तरह अनुभव नहीं किया। तेजस्वी एक विमान आया और वह साध्वी अपने पतिके इसी प्रकार पतिव्रताके पतिने भी पूर्वजन्ममें एक कोढ़ी
ब्राह्मणका वध किया था, इसीसे उसके शरीरमें दुर्गन्धयुक्त कोढ़का रोग उत्पन्न हो गया था। किन्तु उसने ब्राह्मणको चार गौरीदान और तीन कन्यादान किये थे; इसीसे उसकी पत्नी पतिव्रता हुई। उस पत्नीके कारण ही वह मेरी समताको प्राप्त हुआ।
ब्राह्मणने कहा-नाथ ! यदि पतिव्रताका ऐसा माहात्म्य है; तब तो जिस पुरुषकी भी स्त्री व्यभिचारिणी न हो उसे स्वर्गकी प्राप्ति निश्चित है। सती स्त्रीसे सबका कल्याण होना चाहिये।
भगवान् श्रीविष्णु बोले-ठीक है। संसारमें कुछ स्त्रियाँ ऐसी कुलटा होती हैं, जो सर्वस्व अर्पण करनेवाले पुरुषके प्रतिकूल आचरण करती हैं। उनमें जो सर्वथा अरक्षणीय हो-जिसकी दुराचारसे रक्षा करना असम्भव हो, ऐसी स्त्रीको तो मनसे भी स्वीकार नहीं करना चाहिये। जो नारी कामके वशीभूत हो जाती है,
वह निर्धन, कुरूप, गुणहीन तथा नीच कुलके नौकर साथ उसपर बैठकर देवताओंके साथ स्वर्गको पुरुषको भी स्वीकार कर लेती है। मृत्युतकसे सम्बन्ध चली गयी।
जोड़नेमें उसे हिचक नहीं होती। वह गुणवान्, कुलीन, शुभा भी ऐसी ही पतिव्रता है; इसलिये वह मेरे अत्यन्त धनी, सुन्दर और रतिकार्यमें कुशल पतिका भी समान है। उस सतीत्वके प्रभावसे ही वह भूत, भविष्य परित्याग करके नीच पुरुषका सेवन करती है। विप्रवर ! और वर्तमान-तीनों कालोंकी बातें जानती है। जो इस विषयमें उमा-नारद-संवाद ही दृष्टान्त है; क्योंकि मनुष्य इस परम उत्तम पुण्यमय उपाख्यानको लोकमें नारदजी स्त्रियोंकी बहुत-सी चेष्टाएँ जानते हैं। नारद मुनि सुनायेगा, उसके जन्म-जन्मके किये हुए पाप नष्ट स्वभावसे ही संसारकी प्रत्येक बात जाननेकी इच्छा रखते हो जायेंगे।
हैं। एक बार वे अपने मनमें कुछ सोच-विचारकर ब्राह्मणने पूछा-भगवन् ! माण्डव्य मुनिके पर्वतोंमें उत्तम कैलासगिरिपर गये। वहाँ उन महात्मा शरीरमें शूलका आघात कैसे लगा? तथा पतिव्रता मुनिने पार्वतीजीको प्रणाम करके पूछा-'देवि ! मैं स्त्रीके पतिको कोढ़का रोग क्यों हुआ?
कामिनियोंकी कुचेष्टाएँ जानना चाहता हूँ। मैं इस विषयमें भगवान् श्रीविष्णु बोले-माण्डव्य मुनि जब बिलकुल अनजान हूँ और विनीत भावसे प्रश्न कर रहा
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सृष्टिखण्ड ]
HUMMANNI
• पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, महिमा और कन्यादानका फल
हूँ; अतः आप मुझे यह बात बताइये।'
पार्वती देवीने कहा-नारद! युवती स्त्रियोंका चित्त सदा पुरुषोंमें ही लगा रहता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। नारी घीसे भरे हुए घड़ेके समान है और पुरुष दहकते हुए अंगारेके समान; इसलिये घी और अग्रिको एक स्थानपर नहीं रखना चाहिये। * जैसे मतवाले हाथीको महावत अङ्कुश और मुगदरकी सहायतासे अपने वशमें करता है, उसी प्रकार स्त्रियोंका रक्षक उन्हें दण्डके बलसे ही काबूमें रख सकता है। बचपनमें पिता, जवानी में पति और बुढ़ापेमें पुत्र नारीकी रक्षा करता है; उसे कभी स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिये। सुन्दरी स्त्रीको यदि उसकी इच्छाके अनुसार स्वतन्त्र छोड़ दिया जाय तो पर-पुरुषकी प्रार्थनासे अधीर होकर वह उसके आदेशके अनुसार व्यभिचारमें प्रवृत्त हो जाती है। जैसे तैयार की हुई रसोईपर दृष्टि न रखनेसे उसपर कौए और कुत्ते अधिकार जमा लेते हैं, उसी प्रकार युवती नारी स्वच्छन्द होनेपर व्यभिचारिणी हो जाती है। फिर उस कुलटाके संसर्गसे सारा कुल दूषित हो जाता है। पराये बीजसे उत्पन्न होनेवाला मनुष्य वर्णसंकर कहलाता है। सदाचारिणी स्त्री पितृकुल और पतिकुल – दोनों कुलोंका सम्मान बढ़ाती हुई उन्हें कायम रखती है। साध्वी नारी अपने कुलका उद्धार करती और दुराचारिणी उसे नरकमें गिराती है। कहते हैं— संसारमें स्त्रीके ही अधीन स्वर्ग, कुल, कलङ्क, यश, अपयश, पुत्र, पुत्री और मित्र आदिकी स्थिति है। इसलिये विद्वान् पुरुष सन्तानकी इच्छासे विवाह करे। जो पापी पुरुष मोहवश किसी साध्वी स्त्रीको दूषित करके छोड़ देता है, वह उस स्त्रीकी हत्याका पाप भोगता हुआ नरकमें गिरता है। जो परायी
'घृतकुम्भसमा नारी तप्ताङ्गारसमः पुमान् । तस्माद् घृतं च वह्नि च ह्येकस्थाने न धारयेत् ॥
+ पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। पुत्राश्च स्थाविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥
+ अरक्षणाद्यथा पाकः श्वकाकवशगो पुनरेव कुलं दुष्टं तस्याः संसर्गतो
स्त्रीके साथ बलात्कार करता अथवा उसे धनका लालच देकर फँसाता है, वह इस संसारमें स्त्री-हत्यारा कहलाता है और मरनेके पश्चात् घोर नरकमें पड़ता है। परायी स्त्रीका अपहरण करके मनुष्य चाण्डाल-कुलमें जन्म लेता है। इसी प्रकार पतिके साथ वञ्चना करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्री चिरकालतक नरक भोगकर कौएकी योनिमें जन्म लेती है और उच्छिष्ट एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थ खा-खाकर जीवन बिताती है। तदनन्तर, मनुष्य योनिमें जन्म लेकर विधवा होती है जो माता, गुरुपत्नी, ब्राह्मणी, राजाकी रानी या दूसरी किसी प्रभु-पत्नीके साथ समागम करता है, वह अक्षय नरकमें गिरता है। बहिन, भानजेकी स्त्री, बेटी, बेटेकी बहू, चाची, मामी, बुआ तथा मौसी आदि अन्यान्य स्त्रियोंके साथ समागम करनेपर भी कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। यही नहीं, उसे ब्रह्महत्याका पाप भी लगता है तथा वह अंधा, गूँगा और बहरा होकर निरन्तर नीचे गिरता जाता है; उस अधःपतनसे उसका कभी बचाव नहीं हो पाता।
ब्राह्मणने पूछा- भगवन्! ऐसा पाप करके मनुष्यका उससे किस प्रकार उद्धार हो सकता है ?
श्रीभगवान् ने कहा- उपर्युक्त स्त्रियोंके साथ समागम करनेवाला पुरुष लोहेकी स्त्री प्रतिमा बनवाकर उसे आगमें खूब तपाये; फिर उसका गाढ़ आलिङ्गन करके प्राण त्याग दे और शुद्ध होकर परलोककी यात्रा करे। जो मनुष्य गृहस्थाश्रमका परित्याग करके मुझमें मन लगाता है और प्रतिदिन मेरे 'गोविन्द' नामका स्मरण करता है, उसके सब पापोंका नाश हो जाता है। उसके द्वारा की हुई हजारों ब्रह्महत्याएँ, सौ बार किया हुआ गुरुपत्नी-समागम, लाख बार किया हुआ पैष्टी मदिराका
वसेत् । तथैव युक्ती नारी स्वच्छन्दाद्दुष्टतां व्रजेत् ॥ भवेत् । परबीजे नरो जातः स च स्वाद्वर्णसंकरः ॥
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(४९ । २१)
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• अर्बयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
सेवन, सुवर्णकी चोरी, पापियोंके साथ चिरकालतक प्रकारके पापोंसे लदे हुए पतिको भी पापमुक्त करके संसर्ग रखना-ये तथा और भी जितने बड़े-बड़े पाप अपने साथ स्वर्गमें ले जाती है। जो मरे हुए पतिके पीछे एवं पातक हैं, वे सब मेरा नाम लेनेसे तत्काल नष्ट हो प्राण-त्याग करके जाती है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति निश्चित है। जाते हैं; ठीक उसी तरह जैसे अग्निके पास पहुँचनेपर जो नारी पतिका अनुगमन करती है, वह मनुष्यके शरीरमें रूईके ढेर जल जाते हैं। अतः मनुष्यको उचित है कि जितने (साढ़े तीन करोड़) रोम होते हैं, इतने ही वर्षातक वह मेरे 'गोविन्द' नामका स्मरण करके पवित्र हो जाय स्वर्गलोकमें निवास करती है। यदि पतिकी मृत्यु कहीं दूर [परन्तु जो नामके भरोसे पाप करता है, नाम उसकी रक्षा हो जाय तो उसका कोई चिह्न पाकर जो स्त्री चिताकी कभी नहीं करता।] अथवा जो प्रतिदिन मुझ गोविन्दका अग्निमें प्राण-त्याग करती है, वह अपने पतिका पापसे कीर्तन और पूजन करते हुए गृहस्थाश्रममें निवास करता उद्धार कर देती है। जो स्त्री पतिव्रता होती है, उसे चाहिये है, वह पापसे तर जाता है। तात ! गङ्गाके रमणीय कि यदि पतिकी मृत्यु परदेशमें हो जाय तो उसका कोई तटपर चन्द्रग्रहणकी मङ्गलमयी वेलामें करोड़ों गोदान चिह्न प्राप्त करे और उसे ही ले अग्निमें शयन करके करनेसे मनुष्यको जो फल मिलता है, उससे हजारगुना स्वर्गलोककी यात्रा करे। यदि ब्राह्मण जातिकी स्त्री मरे अधिक फल 'गोविन्द' का कीर्तन करनेसे प्राप्त होता है। हुए पतिके साथ चिताग्निमें प्रवेश करे तो उसे कीर्तन करनेवाला मनुष्य मेरे वैकुण्ठधाममें सदा निवास आत्मघातका दोष लगता है, जिससे न तो वह अपनेको करता है।* पुराणमें मेरी कथा सुननेसे मानव मेरी और न अपने पतिको ही स्वर्गमें पहुँचा पाती है। इसलिये समानता प्राप्त करता है। जो पुराणकी कथा सुनाता है, ब्राह्मण जातिकी स्त्री अपने मरे हुए पतिके साथ जलकर उसे मेरा सायुज्य प्राप्त होता है; अतः प्रतिदिन पुराणका न मरे–यह ब्रह्माजीकी आज्ञा है। ब्राह्मणी विधवाको श्रवण करना चाहिये। पुराण धर्मोका संग्रह है। वैधव्य-व्रतका आचरण करना चाहिये। जो विधवा
विप्रवर ! अब मैं सती स्त्रियोंमें जो अत्यन्त उत्कृष्ट एकादशीका व्रत नहीं रखती, वह दूसरे जन्ममें भी गुण होते हैं, उनका वर्णन करता हूँ। सती स्त्रीका वंश विधवा ही होती है तथा प्रत्येक जन्ममें दुर्भाग्यसे पीड़ित शुद्ध होता है। वहाँ सदा लक्ष्मी निवास करती हैं। रहती है। मछली-मांस खाने और व्रत न करनेसे वह सतीके पितृकुल और पतिकुल-दोनों कुलोंको तथा चिरकालतक नरकमें रहकर फिर कुत्तेकी योनिमें जन्म उसके स्वामीको भी स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। जो लेती है। जो कुलनाशिनी विधवा दुराचारिणी होकर स्त्रियाँ अपने जीवनका पूर्वकाल पुण्य-पापमिश्रित कर्मोंमें मैथुन कराती है, वह नरक-यातना भोगनेके पश्चात् दस व्यतीत करके पीछे भी पतिव्रता होती है, उन्हें भी मेरे जन्मोतक गीधिनी होती है। फिर दो जन्मोतक लोमड़ी लोककी प्राप्ति हो जाती है। जो स्त्री अपने स्वामीका होकर पीछे मनुष्य-योनिमें जन्म लेती है। उसमें भी अनुगमन करती है, वह शराबी, ब्रह्महत्यारे तथा सब बाल-विधवा होकर दासीभावको प्राप्त होती है।
*यो वै गृहाश्रमं त्यक्त्वा मचित्तो जायते नरः । नित्यं स्मरति गोविन्दं सर्वपापक्षयो भवेत्॥ ब्रह्महत्यायुतं तेन कृर्त गुर्वङ्गनागमः । शतं शतसहस्रं च पैष्टीमद्यस्य भक्षणम् ।। वदिहरणं चैव तेषां संसर्गकश्चिरम् । एतान्यन्यानि पापानि महान्ति पातकानि च। अग्निं प्राप्य यथा तूलं तृणमाशु प्रणश्यति । तस्मात्मनाम गोविन्दं स्मृत्वा पूतो भवेत्ररः॥ यो वा गृहाश्रमे तिष्ठेत्रित्य गोविन्दधोषणम् । कृत्वा च पूजयित्वा च स पापात्सतरो भवेत्॥ भागीरथीतटे रम्ये खगस्य ग्रहणे शिवे । गर्या कोटिप्रदानेन यत्फलं लभते नरः ॥ तत्फलं समवाप्नोति सहस्र चाधिक च यत् । गोविन्दकीर्तने तात मत्पुरे चाक्षय वसत् ॥
(४९:५०-५६)
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सृष्टिखण्ड ]
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• तुलाधारके सत्य, समताकी प्रशंसा; मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन •
ब्राह्मणने कहा - भगवन्! यदि आपका मुझपर अनुग्रह है तो अब कन्यादानके फलका वर्णन कीजिये साथ ही उसकी यथार्थ विधि भी बतलाइये ।
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श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन् ! रूपवान् गुणवान् कुलीन, तरुण, समृद्धिशाली और धन-धान्यसे सम्पन्न वरको कन्यादान करनेका जो फल होता है, उसे श्रवण करो। जो मनुष्य आभूषणोंसे युक्त कन्याका दान करता है, उसके द्वारा पर्वत, वन और काननोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वीका दान हो जाता है जो पिता कन्याका शुल्क लेकर खाता है, वह नरकमें पड़ता है। जो मूर्ख अपनी पुत्रीको बेच देता है, उसका कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। जो लोभवश अयोग्य पुरुषको कन्यादान देता है, वह रौरव नरकमें पड़कर अन्तमें चाण्डाल होता है। * इसीसे विद्वान् पुरुष दामादसे शुल्क लेनेका कभी विचार भी मनमें नहीं लाते। अपनी ओरसे दामादको जो कुछ दिया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। पृथ्वी, गौ, सोना, धन-धान्य और वस्त्र आदि जो कुछ दामादको दहेजके रूपमें दिया जाता है, सब अक्षय फलका देनेवाला होता है। जैसे कटी हुई डोर घड़े के साथ स्वयं
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ब्राह्मणने कहा – प्रभो! यदि मुझपर आपकी कृपा हो तो अब तुलाधारके चरित्र और अनुपम प्रभावका पूरा-पूरा वर्णन कीजिये ।
श्रीभगवान् बोले- जो सत्यका पालन करते हुए लोभ और दोषबुद्धिका त्याग करके प्रतिदिन कुछ दान करता है, उसके द्वारा मानो नित्यप्रति उत्तम दक्षिणासे युक्त सौ यज्ञोंका अनुष्ठान होता रहता है। सत्यसे सूर्यका उदय होता है, सत्यसे ही वायु चलती रहती है, सत्यके
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भी कुऍमें डूब जाती है, उसी प्रकार यदि दाता संकल्प किये हुए दानको भूल जाता है और दान लेनेवाला पुरुष फिर उसे याद दिलाकर माँगता नहीं तो वे दोनों नरकमें पड़ते हैं। सात्त्विक पुरुषको उचित है कि वह जामाताको दहेज में देनेके लिये निश्चित की हुई सभी वस्तुएँ अवश्य दे डाले। न देनेपर पहले तो वह नरकमें पड़ता है; फिर प्रतिग्रह लेनेवालेके दासके रूपमें जन्म ग्रहण करता है। जो बहुत खाता हो, अधिक दूर रहता हो, अत्यधिक धनवान् हो, जिसमें अधिक दुष्टता हो, जिसका कुल उत्तम न हो तथा जो मूर्ख होइन छः मनुष्योंको कन्या नहीं देनी चाहिये। इसी प्रकार अतिवृद्ध, अत्यन्त दीन, रोगी, अति निकट रहनेवाले, अत्यन्त क्रोधी और असन्तुष्ट - इन छः व्यक्तियोंको भी कन्यादान नहीं करना चाहिये। इन्हें कन्या देकर मनुष्य नरकमें पड़ता है। धनके लोभसे या सम्मान मिलनेकी आशासे जो कन्या देता या एक कन्या दिखाकर दूसरीका विवाह कर देता है, वह भी नरकगामी होता है। जो प्रतिदिन इस परम उत्तम पुण्यमय उपाख्यानका श्रवण करता है, उसके जन्म-जन्मके पाप नष्ट हो जाते हैं।
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तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषयमें एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
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* यः पुनः शुल्कमश्रति स याति नरकं नरः। विक्रीत्वा चात्मजां मूढो नरकान्न निवर्तते ॥ लोभादसदृशे पुंसि कन्यां यस्तु प्रयच्छति । रौरवं नरकं प्राप्य चाण्डाललं च गच्छति ॥
ही प्रभावसे समुद्र अपनी मर्यादाका उल्लङ्घन नहीं करता और भगवान् कच्छप इस पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण किये रहते हैं। सत्यसे ही तीनों लोक और समस्त पर्वत टिके हुए हैं। जो सत्यसे भ्रष्ट हो जाता है, उस प्राणीको निश्चय ही नरकमें निवास करना पड़ता है। जो सत्य वाणी और सत्य कार्यमें सदा संलग्न रहता है, वह इसी शरीरसे भगवान् के धाममें जाकर भगवत्स्वरूप हो जाता है। सत्यसे ही समस्त ऋषि-मुनि मुझे प्राप्त होकर
(४९ । ९०-९१)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
शाश्वत गतिमें स्थित हुए हैं। सत्यसे ही राजा युधिष्ठिर एक महान् भाग्यशाली शूद्र था, जो कभी लोभमें सशरीर स्वर्गमें चले गये।* उन्होंने समस्त शत्रुओंको नहीं पड़ता था। वह साग खाकर, बाजारसे अन्नके दाने जीतकर धर्मके अनुसार लोकका पालन किया । अत्यन्त चुनकर तथा खेतोंसे धानकी बालें बीनकर बड़े दुःखसे दुर्लभ एवं विशुद्ध राजसूय यज्ञका अनुष्ठान किया। वे जीवन-निर्वाह करता था। उसके पास दो फटे-पुराने वस्त्र प्रतिदिन चौरासी हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराते और थे तथा वह अपने हाथोंसे ही सदा पात्रका काम लेता उनकी इच्छाके अनुसार पर्याप्त धन दान करते थे। जब था। उसे कभी किसी वस्तुका लाभ नहीं हुआ, तथापि यह जान लेते कि इनमेंसे प्रत्येक ब्राह्मणकी दरिद्रता दूर वह पराया धन नहीं लेता था। एक दिन मैं उसकी परीक्षा हो चुकी है, तभी उस ब्राह्मण-समुदायको विदा करते करनेके लिये दो नवीन वस्त्र लेकर गया और नदीके थे। यह सब उनके सत्यका ही प्रभाव था। राजा तीरपर एक कोनेमें उन्हें आदरपूर्वक रखकर अन्यत्र जा हरिश्चन्द्र सल्यका आश्रय लेनेसे ही वाहन, परिवार तथा खड़ा हुआ। शूद्रने उन दोनों वस्त्रोंको देखकर भी मनमें अपने विशुद्ध शरीरके साथ सत्यलोकमें प्रतिष्ठित हैं। लोभ नहीं किया और यह समझकर कि ये किसी औरके इनके सिवा और भी बहुत-से राजा, सिद्ध, महर्षि, ज्ञानी पड़े होंगे चुपचाप घर चला गया। तब यह सोचकर कि और यज्ञकर्ता हो चुके हैं, जो कभी सत्यसे विचलित नहीं बहुत थोड़ा लाभ होनेके कारण ही उसने इन वस्त्रोंको हुए। अतः लोकमें जो सत्यपरायण है, वही संसारका नहीं लिया होगा, मैंने गूलरके फलमें सोनेका टुकड़ा उद्धार करनेमें समर्थ होता है। महात्मा तुलाधार डालकर उसे वहीं रख दिया। मगध प्रदेश, नदीका तट सत्यभाषणमें स्थित हैं। सत्य बोलनेके कारण ही इस और कोनेका निर्जन स्थान-ऐसी जगह पहुँचकर उसने जगत्में उनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। उस अद्भुत फलको देखा। उसपर दृष्टि पड़ते ही वह ये तुलाधार कभी झूठ नहीं बोलते । महँगी और सस्ती बोल उठा-'बस, बस; यह तो कोई कृत्रिम विधान सब प्रकारकी वस्तुओंके खरीदने-बेचनेमें ये बड़े दिखायी देता है। इस समय इस फलको ग्रहण कर बुद्धिमान् हैं।
लेनेपर मेरी अलोभवृत्ति नष्ट हो जायगी। इस धनकी विशेषतः साक्षीका सत्य वचन ही उत्तम माना गया रक्षा करनेमें बड़ा कष्ट होता है। यह अहंकारका स्थान है। कितने ही साक्षी सत्यभाषण करके अक्षय स्वर्गको है। जितना ही लाभ होता है, उतना ही लोभ बढ़ता जाता प्राप्त कर चुके हैं। जो वक्ता विद्वान् सभामें पहुँचकर सत्य है। लाभसे ही लोभकी उत्पत्ति होती है। लोभसे ग्रस्त बोलता है, वह ब्रह्माजीके धामको, जो अन्यान्य यज्ञोंद्वारा मनुष्यको सदा ही नरकमें रहना पड़ता है। यदि यह दुर्लभ है, प्राप्त होता है। जो सभामें सत्यभाषण करता है, गुणहीन द्रव्य मेरे घरमें रहेगा तो मेरी स्त्री और पुत्रोंको उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। लोभ और द्वेषवश उन्माद हो जायगा । उन्माद कामजनित विकार है। उससे झूठ बोलनेसे मनुष्य रौरव नरकमें पड़ता है। तुलाधार बुद्धिमें भ्रम हो जाता है, भ्रमसे मोह और अहंकारको सबके साक्षी हैं, वे मनुष्योंमें साक्षात् सूर्य ही हैं। विशेष उत्पत्ति होती है। उनसे क्रोध और लोभका प्रादुर्भाव होता बात यह है कि लोभका परित्याग कर देनेके कारण है। इन सबकी अधिकता होनेपर तपस्याका नाश हो मनुष्य स्वर्गमे देवता होता है।
जायगा। तपस्याका क्षय हो जानेपर चित्तको मोहमें
*सत्येनोदयते सूगे वाति वातस्तथैव च। न लक्षयेत् समुद्रस्तु कूमों या धरणी यथा ॥
सत्येन लोकास्तिष्ठन्ति सर्वे च वसुधाधराः । सत्याप्रष्टोऽथ यः सत्त्वोऽप्यधोवासी भवेधुवम् ॥ सत्यवाचि रतो यस्तु सल्यकार्यरतः सदा । सशरीरेण स्वलोकमागल्याच्युततां व्रजेत् ॥ सत्येन मुनयः सर्वे मां च गत्वा स्थिराः स्थिताः । सत्याद् बुधिष्ठिरो राजा सशरीरो दिवं गतः ॥
(५०।३-६)
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सृष्टिखण्ड ]
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तुलाधारके सत्य, समताकी प्रशंसा; मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन •
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डालनेवाला मालिन्य पैदा होगा। उस मलिनता रूप साँकलमें बँध जानेपर मनुष्य फिर ऊपर नहीं
उठ सकता।'
यह विचारकर वह शूद्र उस फलको वहीं छोड़ घर चला गया। उस समय स्वर्गस्थ देवता प्रसन्नताके साथ 'साधु-साधु' कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे। तब मैं एक क्षपणकका रूप धारण करके उसके घरके पास गया और लोगोंको उनके भाग्यकी बातें बताने लगा। विशेषतः भूतकालकी बात बताया करता था। फिर लोगोंके बारम्बार आने-जानेसे यह समाचार सब ओर फैल गया। यह सुनकर उस शूद्रकी स्त्री भी मेरे पास आयी और अपने भाग्यका कारण पूछने लगी। तब मैंने तुरंत ही उसके मनकी बात बता दी और एकान्तमें स्थित होकर कहा - 'महाभागे ! विधाताने आज तेरे लिये बहुत धन दिया था, किन्तु तेरे पतिने मूर्खकी भाँति उसका परित्याग कर दिया है। तेरे घरमें धनका बिलकुल अभाव है। अतः जबतक तेरा पति जीवित रहेगा, तबतक उसे दरिद्रता ही भोगनी पड़ेगी- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। माता ! तू शीघ्र ही अपने घर जा और पतिसे उस धनके विषयमें पूछ।' इस मङ्गलमय वचनको सुनकर वह अपने पतिके पास गयी और उस दुःखद वृत्तान्तकी चर्चा करने लगी। उसकी बातको सुनकर शूद्रको बड़ा विस्मय हुआ। वह कुछ सोचकर पत्नीको साथ लिये मेरे पास आया और एकान्तमें मुझसे बोला- ' क्षपणक ! बताओ, तुम क्या कहते थे ?'
क्षपणक बोला - तात! तुम्हें प्रत्यक्ष धन प्राप्त हुआ था; फिर भी तुमने अवज्ञापूर्वक तिनकेकी भाँति उसका त्याग कर दिया। ऐसा क्यों किया ? जान पड़ता है तुम्हारे भाग्यमें भोग नहीं बदा है। धनके अभाव में तुम्हें जन्मसे लेकर मृत्युतक अपने और बन्धु बान्धवोंके दुःख देखने पड़ेंगे; प्रतिदिन मृतकोंकी-सी अवस्था भोगनी पड़ेगी। इसलिये शीघ्र ही उस धनको ग्रहण करो और निष्कण्टक भोग भोगो।
शूद्रने कहा- - क्षपणक ! मुझे धनकी इच्छा नहीं । धन संसार-बन्धनमें डालनेवाला एक जाल है।
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उसमें फँसे हुए मनुष्यका फिर उद्धार नहीं होता। इस लोक और परलोकमें भी धनके जो दोष हैं, उन्हें सुनो। धन रहनेपर चोर, बन्धु बान्धव तथा राजासे भी भय प्राप्त होता है। सब मनुष्य [उस धनको हड़प लेनेके लिये ] धनी व्यक्तिको मार डालनेकी अभिलाषा रखते हैं; फिर धन कैसे सुखद हो सकता है ? धन प्राणोंका घातक और पापका साधक है। धनीका घर काल एवं काम आदि दोषोंका निकेतन बन जाता है। अतः धन दुर्गतिका प्रधान कारण है।
क्षपणक बोला- जिसके पास धन होता है, उसीको मित्र मिलते हैं। जिसके पास धन है, उसके सभी भाई-बन्धु हैं। कुल, शील, पाण्डित्य, रूप, भोग, यश और सुख - ये सब धनवान्को ही प्राप्त होते हैं। धनहीन मनुष्यको तो उसके स्त्री-पुत्र भी त्याग देते हैं; फिर उसे मित्रोंकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। जो जन्मसे दरिद्र हैं, वे धर्मका अनुष्ठान कैसे कर सकते हैं। स्वर्गप्राप्तिमें उपकारक जो सात्त्विक यज्ञकार्य तथा पोखरे खुदवाना आदि कर्म हैं, वे भी धनके अभावमें नहीं हो सकते। दान संसारके लिये स्वर्गकी सीढ़ी है; किन्तु निर्धन व्यक्तिके द्वारा उसकी भी सिद्धि होनी असम्भव है। व्रत आदिका पालन, धर्मोपदेश आदिका श्रवण, पितृ-यज्ञ आदिका अनुष्ठान तथा तीर्थ सेवन-ये शुभकर्म धनहीन मनुष्यके किये नहीं हो सकते। रोगोंका निवारण, पथ्यका सेवन, औषधोंका संग्रह, अपने शरीरकी रक्षा तथा शत्रुओं पर विजय आदि कार्य भी धनसे ही सिद्ध होते हैं, इसलिये जिसके पास बहुत धन हो, उसीको इच्छानुसार भोग प्राप्त हो सकते हैं। धन रहनेपर तुम दानसे ही शीघ्र स्वर्गकी प्राप्ति कर सकते हो।
शूने कहा- कामनाओंका त्याग करनेसे ही समस्त व्रतोंका पालन हो जाता है। क्रोध छोड़ देनेसे तीथका सेवन हो जाता है। दया ही जपके समान है। सन्तोष ही शुद्ध धन है, अहिंसा ही सबसे बड़ी सिद्धि है, शिलोञ्छवृत्ति ही उत्तम जीविका है। सागका भोजन ही अमृतके समान है। उपवास ही उत्तम तपस्या है। सन्तोष ही मेरे लिये बहुत बड़ा भोग है। कौड़ीका दान
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
ही मुझ-जैसे व्यक्तिके लिये महादान है। परायी स्त्रियाँ साक्षात् धर्म ही तो यहाँ नहीं आये हैं?' शूद्रके ऐसे माता और पराया धन मिट्टीके ढेलेके समान है। परस्त्री वचन सुनकर क्षपणकके रूपमें उपस्थित हुआ मैं हैंसकर सर्पिणीके समान भयङ्कर है। यही सब मेरा यज्ञ है। बोला-'महामुने ! मैं साक्षात् विष्णु हूँ, तुम्हारे धर्मको गुणनिधे ! इसी कारण मैं उस धनको नहीं ग्रहण करता। जाननेके लिये यहाँ आया था। अब तुम अपने परिवारयह मैं सच-सच बता रहा हूँ। कीचड़ लगाकर धोनेकी सहित विमानपर बैठकर स्वर्गको जाओ।'
अपेक्षा दूरसे उसका स्पर्श न करना ही अच्छा है। तदनन्तर वह शूद्र दिव्य आभूषण और दिव्य ___ श्रीभगवान् कहते हैं-नरश्रेष्ठ ! उस शूद्रके वस्त्रोंसे सुशोभित हो सहसा परिवारसहित स्वर्गलोकको
इतना कहते ही सम्पूर्ण देवता उसके शरीर और चला गया। इस प्रकार उस शूद्रपरिवारके सब लोग मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। देवताओंके नगारे लोभ त्याग देनेके कारण स्वर्ग सिधारे। बुद्धिमान् बज उठे। गन्धर्वोका गान होने लगा। तुरंत ही तुलाधार धर्मात्मा हैं। वे सत्यधर्ममें प्रतिष्ठित हैं।
इसीलिये देशान्तरमें होनेवाली बातें भी उन्हें ज्ञात हो जाती हैं। तुलाधारके समान प्रतिष्ठित व्यक्ति देवलोकमें भी नहीं है। जो मनुष्य सब धर्मोंमें प्रतिष्ठित होकर इस पवित्र उपाख्यानका श्रवण करता है, उसके जन्म-जन्मके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। एक बारके पाठसे उसे सब यज्ञोंका फल मिल जाता है। वह लोकमें श्रेष्ठ और देवताओंका भी पूज्य होता है।
व्यासजी कहते हैं-तदनन्तर, मूक चाण्डाल आदि सभी धर्मात्मा परमधाम जानेकी इच्छासे भगवानके पास आये। उनके साथ उनकी स्त्रियाँ तथा अन्यान्य परिकर भी थे। इतना ही नहीं, उनके घरके आस-पास जो छिपकलियाँ तथा नाना प्रकारके कीड़े-मकोड़े आदि थे, वे देवस्वरूप होकर उनके पीछे-पीछे जानेको उपस्थित थे। उस समय देवता, सिद्ध और महर्षिगण 'धन्य-धन्य' के नारे लगाते हुए फूलोंकी वर्षा करने
लगे। विमानों और वनोंमें देवताओंके नगारे बजने लगे। आकाशसे विमान उतर आया। देवताओंने कहा- वे सब महात्मा अपने-अपने विमानपर आरूढ़ हो 'धर्मात्मन् ! इस विमानपर बैठो और सत्यलोकमें विष्णुधामको पधारे। ब्राह्मण नरोत्तमने यह अद्भुत दृश्य चलकर दिव्य भोगोंका उपभोग करो। तुम्हारे उपभोग- देखकर श्रीजनार्दनसे कहा-'देवेश ! मधुसूदन !! मुझे कालका कोई परिमाण नहीं है-अनन्त कालतक तुम्हें कोई उपदेश दीजिये।' पुण्योंका फल भोगना है।' देवगणोंके यों कहनेपर शूद्र श्रीभगवान् बोले-तात ! तुम्हारे माताबोला-'इस क्षपणकको ऐसा ज्ञान, ऐसी चेष्टा और इस पिताका चित्त शोकसे व्याकुल हो रहा है। उनके पास प्रकार भाषणकी शक्ति कैसे प्राप्त हुई है? इसके रूपमें जाओ। उनकी यत्नपूर्वक आराधना करके तुम शीघ्र ही भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा, शुक्र अथवा बृहस्पति- मेरे धाममें जाओगे। माता-पिताके समान देवता इनमेंसे तो कोई नहीं है? अथवा मुझे छलनेके लिये देवलोकमें भी नहीं हैं। उन्होंने शैशवकालमें तुम्हारे
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सृष्टिखण्ड ] . पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपल और देवताओंकी पूजा करने आदिका माहात्म्य.
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घिनौने शरीरका सदा पालन किया है। उसका पोषण ऊपर स्थित हुए। नरोत्तम ब्राह्मणने भी यत्नपूर्वक करके बढ़ाया है। तुम अज्ञान-दोषसे युक्त थे, माता- माता-पिताकी आराधना करके थोड़े कालमें ही कुटुम्बपिताने तुम्हें सज्ञान बनाया है। चराचर प्राणियों- सहित भगवद्धामको प्राप्त किया। शिष्यगण ! यह पाँच सहित समस्त त्रिलोकीमें भी उनके समान पूज्य कोई महात्माओंका पवित्र उपाख्यान मैंने तुम्हें सुनाया है। जो नहीं है।
___इसका पाठ अथवा श्रवण करेगा, उसकी कभी दुर्गति व्यासजी कहते हैं-तदनन्तर देवगण मूक नहीं होगी। वह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे कभी लिप्त नहीं चाण्डाल, पतिव्रता शुभा, तुलाधार वैश्य, सज्जनाद्रोहक हो सकता। मनुष्य करोड़ों गोदान करनेसे जिस फलको और वैष्णव संत-इन पाँचों महात्माओंको साथ ले प्राप्त करता है, पुष्कर तीर्थ और गङ्गानदीमें स्नान करनेसे प्रसन्नतापूर्वक भगवान्की स्तुति करते हुए वैकुण्ठधाममें उसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही फल एक बार इस पधारे। वे सभी अच्युत-स्वरूप होकर सम्पूर्ण लोकोंके उपाख्यानके सुनने मात्रसे मिल जाता है।
पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पौंसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि
छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
ब्राह्मणोंने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! यदि हमलोगोंपर इतना पुण्य प्राप्त होता है, जिससे वह एक-एक दिनके आपका अनुग्रह हो तो उन श्रेष्ठ कर्मोका वर्णन कीजिये, पुण्यके बदले एक-एक कल्पतक स्वर्गमें निवास करता जिनसे संसारमें कीर्ति और धर्मकी प्राप्ति होती है। है। जो पुरुष प्रतिदिन दूसरोंके उपकारके लिये चार हाथ
व्यासजीने कहा-जिसके खुदवाये हुए पोखरेमें कुआँ खोदता है, वह एक-एक वर्षके पुण्यका एक-एक अथवा वनमें गौएँ एक मास या सात दिनोंतक तृप्त रहती कल्पतक स्वर्गमें रहकर उपभोग करता है। जलाशय हैं, वह पवित्र होकर सम्पूर्ण देवताओंद्वारा पूजित होता बनानेका उपदेश देनेवालेको एक करोड़ वर्षातक स्वर्गका है। विशेषतः प्रतिष्ठाके द्वारा पवित्र हुई पोखरीके जलका निवास प्राप्त होता है तथा जो स्वयं जलाशय बनवाता है, दान करनेसे जो फल होता है, वह सब सुनो । पोखरेमें उसका पुण्य अक्षय होता है। जब मेघ वर्षा करता है, उस समय जलके जितने छोटे पूर्वकालकी बात है, किसी धनीके पुत्रने एक उछलते हैं, उतने ही हजार वर्षों तक पोखरा बनवानेवाला विख्यात जलाशयका निर्माण कराया, जिसमें उसने दस मनुष्य स्वर्गलोकका सुख भोगता है। जलसे खेती पकती हजार सोनेकी मुहरें व्यय की थीं। धनीने अपनी पूरी है, जिससे मनुष्यको प्रसन्नता होती है। जलके बिना शक्ति लगाकर प्राणपणसे चेष्टा करके बड़ी श्रद्धाके साथ प्राणोंका धारण करना असम्भव है। पितरोंका तर्पण, सम्पूर्ण प्राणियोंके उपकारके लिये वह कल्याणमय शौच, सुन्दर रूप और दुर्गन्धका नाश-ये सब जलपर जलाशय तैयार कराया था। कुछ कालके पश्चात् वह ही निर्भर हैं। इस जगत्में संग्रह किये हुए सम्पूर्ण निर्धन हो गया। उसके बाद एक दूसरा धनी उसके बीजोंका आधार जल ही है। कपड़े धोना और बर्तनोंको बनवाये हुए जलाशयका मूल्य देनेको उद्यत हुआ और मांज-धोकर चमकीला बनाना भी जलके ही अधीन है। कहा–'मैं इस जलाशयके लिये दस हजार स्वर्ण-मुद्राएँ इसीसे प्रत्येक कार्यमें जलको पवित्र माना गया है। अतः दूँगा। इसे खुदवानेका पुण्य तो तुम्हें मिल ही चुका है। सब प्रकारसे प्रयत्न करके सारा बल और सारा धन मैं केवल मूल्य देकर इसके ऊपर अपना अधिकार लगाकर बावली, कुआँ तथा पोखरा बनवाने चाहिये। करना चाहता हूँ। यदि तुम्हें लाभ जान पड़े तो मेरा जो निर्जल प्रदेशमें जलाशय बनवाता है, उसे प्रतिदिन प्रस्ताव स्वीकार करो।' धनीके ऐसा कहनेपर जलाशय
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
निर्माण करानेवालेने उसे इस प्रकार उत्तर दिया- और सुखी होता है। अपने गोत्रके मनुष्य, माताके 'भाई ! दस हजारका पुण्यफल तो इस जलाशयसे मुझे कुटुम्बी, राजा, सगे-सम्बन्धी, मित्र और उपकारी पुरुषोंके रोज ही प्राप्त होता है। पुण्यवेत्ताओंने जलाशय-निर्माणका खुदवाये हुए जलाशयका जीर्णोद्धार करनेसे अक्षय ऐसा ही पुण्य माना है। इस निर्जल प्रदेशमें मैंने यह फलकी प्राप्ति होती है। तपस्वियों, अनाथों और विशेषतः कल्याणमय सरोवर निर्माण कराया है, इसमें सब लोग ब्राह्मणोंके लिये जलाशय खुदवानेसे भी मनुष्य अक्षय अपनी इच्छाके अनुसार नान और जलपान आदि कार्य स्वर्गका सुख भोगता है। इसलिये ब्राह्मणो ! जो अपनी करते है।
शक्तिके अनुसार जलाशय आदिका निर्माण कराता है, उसकी यह बात सुनकर लोगोंने खूब हँसी उड़ायी। वह सब पापोंके क्षय हो जानेसे [अक्षय] पुण्य तथा तब वह लज्जासे पीड़ित होकर बोला-'हमारी यह बात मोक्षको प्राप्त होता है। जो धार्मिक पुरुष लोकमें इस सच है; विश्वास न हो तो धर्मानुसार इसकी परीक्षा कर महान् धर्ममय उपाख्यानको सुनाता है, उसे सब प्रकारके लो।' धनीने ईर्ष्यापूर्वक कहा- 'बाबू ! मेरी बात जलाशय-दान करनेका फल होता है। सूर्यग्रहणके समय सुनो। मैं पहले तुम्हें दस हजार स्वर्णमुद्राएँ देता हूँ। गङ्गाजीके उत्तम तटपर एक करोड़ गोदान करनेका जो इसके बाद मैं पत्थर लाकर तुम्हारे जलाशयमें डालूँगा। फल होता है; वही इस प्रसङ्गको सुननेसे मनुष्य प्राप्त कर पत्थर स्वाभाविक ही पानीमें डूब जायगा। फिर यदि वह लेता है। समयानुसार पानीके ऊपर आकर तैरने लगेगा तो मेरा अब मैं सम्पूर्ण वृक्षोंके लगानेका अलग-अलग रुपया मारा जायगा। नहीं तो इस जलाशयपर धर्मतः मेरा फल कहूँगा। जो जलाशयके तटपर चारों ओर पवित्र अधिकार हो जायगा।' जलाशय बनवानेवालेने 'बहुत वृक्षोंको लगाता है, उसके पुण्यफलका वर्णन नहीं किया अच्छा' कहकर उससे दस हजार मुद्राएँ ले ली और जा सकता । अन्य स्थानोंमें वृक्ष लगानेसे जो फल प्राप्त अपने घरको चल दिया। धनीने कई गवाह बुलाकर होता है, जलके समीप लगानेपर उसकी अपेक्षा करोड़ोंउनके सामने उस महान् जलाशयमें पत्थर गिराया। गुना अधिक फल होता है। अपने बनवाये हुए पोखरेके उसके इस कार्यको मनुष्यों, देवताओं और असुरोंने भी किनारे वृक्ष लगानेवाला मनुष्य अनन्त फलका भागी देखा। तब धर्मके साक्षीने धर्मतुलापर दस हजार स्वर्ण- होता है। मुद्राएँ और जलाशयके जलको तोला; किन्तु वे मुद्राएँ जलाशयके समीप पीपलका वृक्ष लगाकर मनुष्य जलाशयसे होनेवाले एक दिनके जल-दानकी भी तुलना जिस फलको प्राप्त करता है, वह सैकड़ों यज्ञोंसे भी नहीं न कर सकीं। अपने धनको व्यर्थ जाते देख धनीके मिल सकता। प्रत्येक पर्वके दिन जो उसके पत्ते जलमें हृदयको बड़ा दुःख हुआ। दूसरे दिन वह पत्थर भी गिरते हैं, वे पिण्डके समान होकर पितरोंको अक्षय तृप्ति द्वीपकी भाँति जलके ऊपर तैरने लगा। यह देख लोगोंमें प्रदान करते हैं तथा उस वृक्षपर रहनेवाले पक्षी अपनी बड़ा कोलाहल मचा । इस अद्भुत घटनाकी बात सुनकर इच्छाके अनुसार जो फल खाते हैं, उसका ब्राह्मणधनी और जलाशयका स्वामी दोनों ही प्रसन्नतापूर्वक वहाँ भोजनके समान अक्षय फल होता है। गर्मीक समयमें आये। पत्थरको उस अवस्था देख धनीने अपनी दस गौ, देवता और ब्राह्मण जिस पीपलकी छायामें बैठते हैं, हजार मुद्राएँ उसीकी मान लीं। तत्पश्चात् जलाशयके उसे लगानेवाले मनुष्यके पितरोंको अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति स्वामीने ही वह पस्थर उठाकर दूर फेंक दिया। होती है। अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके पीपलका वृक्ष
नष्ट होते हुए जलाशयको पुनः खुदवाकर उसका लगाना चाहिये। एक वृक्ष लगा देनेपर भी मनुष्य स्वर्गसे उद्धार करनेसे जो पुण्य होता है, उसके द्वारा मनुष्य भ्रष्ट नहीं होता। रसोंके क्रय-विक्रयके लिये नियत स्वर्गमें निवास करता है तथा प्रत्येक जन्ममें वह शान्त रमणीय स्थानपर, मार्गमे और जलाशयके किनारे जो
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सृष्टिखण्ड ] • पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपल और देवताओंकी पूजा करने आदिका माहाव्य
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वृक्ष लगाता है, वह मनोरम स्वर्गको प्राप्त होता है।
ब्राह्मणो ! पीपलके वृक्षकी पूजा करनेसे जो पुण्य होता है, उसे बतलाता हूँ सुनो। जो मनुष्य स्नान करके पीपल के वृक्षका स्पर्श करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो बिना नहाये पीपलका स्पर्श करता है, उसे स्नानजन्य फलकी प्राप्ति होती है। अश्वत्थके दर्शनसे पापका नाश और स्पर्शसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है, उसकी प्रदक्षिणा करनेसे आयु बढ़ती है। अश्वत्थ वृक्षको हविष्य, दूध, नैवेद्य, फूल, धूप और दीपक अर्पण करके मनुष्य स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। पीपलकी जड़के पास बैठकर जो जप, होम, स्तोत्र पाठ और यन्त्रमन्त्रादिके अनुष्ठान किये जाते हैं, उन सबका फल करोड़गुना होता है। जिसकी जड़में श्रीविष्णु, तनेमें भगवान् शङ्कर तथा अग्रभागमें साक्षात् ब्रह्माजी स्थित हैं, उसे संसारमें कौन नहीं पूजेगा सोमवती अमावास्याको मौन होकर स्नान और एक हजार गौओंका दान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वही फल अश्वत्थ वृक्षको प्रणाम करनेसे मिल जाता है। अश्वत्थकी सात बार प्रदक्षिणा करनेसे दस हजार गौओंके और इससे अधिक अनेकों बार परिक्रमा करनेपर करोड़ों गौओके दानका फल प्राप्त होता है। अतः पीपल वृक्षकी परिक्रमा सदा ही करनी चाहिये।
विप्रगण ! पीपल के वृक्षके नीचे जो फल मूल और जल आदिका दान किया जाता है, वह सब अक्षय होकर जन्म-जन्मान्तरोंमें प्राप्त होता रहता है। पीपलके समान दूसरा कोई वृक्ष नहीं है। अश्वत्थ वृक्षके रूपमें साक्षात् श्रीहरि ही इस भूतलपर विराजमान हैं जैसे संसारमें ब्राह्मण, गौ तथा देवता पूजनीय होते हैं, उसी प्रकार पीपलका वृक्ष भी अत्यन्त पूजनीय माना गया है। पीपलको रोपने, रक्षा करने, छूने तथा पूजनेसे वह क्रमशः धन, पुत्र, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करता है। जो मनुष्य अश्वत्थ वृक्षके शरीरमें कहीं कुछ चोट पहुँचाता है— उसकी डाली या टहनी काट लेता है, वह एक कल्पतक नरक भोगकर चाण्डाल आदिकी योनिमें जन्म ग्रहण करता है और जो कोई पीपलको जड़से काट
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देता है, उसका कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। यही नहीं, उसकी पहली कई पीढ़ियाँ भयंकर रौरव नरकमें पड़ती हैं। बेलके आठ, बरगदके सात और नीमके दस वृक्ष लगानेका जो फल होता है, पीपलका एक पेड़ लगानेसे भी वही फल होता है।
अब मैं पौसले (प्याऊ) का लक्षण बताता हूँ। जहाँ जलका अभाव हो, ऐसे मार्गमें पवित्र स्थानपर एक मण्डप बनाये। वह मार्ग ऐसा होना चाहिये, जहाँ बहुत से पथिकोंका आना-जाना लगा रहता हो । वहाँ मण्डपमें जलका प्रबन्ध रखे और गर्मी, बरसात तथा शरदऋतुमें बटोहियोंको जल पिलाता रहे। तीन वर्षोंतक इस प्रकार पौसलेको चालू रखनेसे पोखरा खुदवानेका पुण्य प्राप्त होता है। जो जलहीन प्रदेशमें ग्रीष्मके समय एक मासतक पौसला चलाता है, वह एक कल्पतक स्वर्गमें सम्मानपूर्वक निवास करता है। जो पोखरे आदिके फलको पढ़ता अथवा सुनाता है, वह पापसे मुक्त होता है और उसके प्रभावसे उसकी सद्गति हो जाती है। अब ब्रह्माजीने सेतु बाँधनेका जैसा फल बताया है, वह सुनो। जहाँका मार्ग दुर्गम हो, दुस्तर कीचड़से भरा हो तथा जो प्रचुर कण्टकोंसे आकीर्ण हो, वहाँ पुल बँधवाकर मनुष्य पवित्र हो जाता है तथा देवत्वको प्राप्त होता है। जो एक बित्तेका भी पुल बँधवा देता है, वह सौ दिव्य वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। अतः जिसने पहले कभी एक बित्तेका भी पुल बँधवाया है, वह राजवंशमें जन्म ग्रहण करता है और अन्तमें महान् स्वर्गको प्राप्त होता है।
इसी प्रकार जो गोचरभूमि छोड़ता है, वह कभी स्वर्गसे नीचे नहीं गिरता। गोदान करनेवालेकी जो गति होती है, वही उसकी भी होती है। जो मनुष्य यथाशक्ति गोचरभूमि छोड़ता है, उसे प्रतिदिन सौसे भी अधिक ब्राह्मणोंको भोजन करानेका पुण्य होता है। जो पवित्र वृक्ष और गोचरभूमिका उच्छेद करता है, उसकी इक्कीस पीढ़ियाँ रौरव नरकमें पकायी जाती हैं। गाँवके गोपालकको चाहिये कि गोचरभूमिको नष्ट करनेवाले मनुष्यका पता लगाकर उसे दण्ड दे।
जो मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुकी प्रतिमाके लिये तीन
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अर्जयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
या पाँच खंभोंसे युक्त, शोभासम्पन्न और सुन्दर कलशसे विभूषित मन्दिर बनवाता है, अथवा इससे भी बढ़कर जो मिट्टी या पत्थरका देवालय निर्माण कराता है, उसके खर्चके लिये धन और वृत्ति लगाता है तथा मन्दिरमें अपने इष्टदेवकी, विशेषतः भगवान् श्रीविष्णुकी प्रतिमा स्थापित करके शास्त्रोक्त विधिसे उसकी प्रतिष्ठा कराता है, वह नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। श्रीविष्णु या श्रीशिवकी प्रतिमा बनवाकर उसके साथ अन्य देवताओंकी भी मनोहर मूर्ति निर्माण करानेसे मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वह इस पृथ्वीपर हजारों यज्ञ, दान और व्रत आदि करनेसे भी नहीं मिलता। अपनी शक्तिके अनुसार श्रीशिवलिङ्गके लिये मन्दिर बनवाकर धर्मात्मा पुरुष वही फल प्राप्त करता है, जो श्रीविष्णु प्रतिमाके लिये मन्दिर बनवानेसे मिलता है। [वह शिव-सायुज्यको प्राप्त होता है।] जो मनुष्य अपने घरमें भगवान् श्रीशङ्करकी सुन्दर प्रतिमा स्थापित करता है, वह एक करोड़ कल्पोंतक देवलोकमें निवास करता है। जो मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक श्रीगणेशजीका मन्दिर बनवाता है, वह देवलोकमें पूजित होता है। इसी प्रकार जो नरश्रेष्ठ भगवान् सूर्यका मन्दिर बनवाता है, उसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। सूर्य प्रतिमाके लिये पत्थरका मन्दिर बनवाकर मनुष्य सौ करोड़ कल्पोंतक स्वर्ग भोगता है।
जो इष्टदेवके मन्दिरमें एक मासतक अहर्निश घीका दीपक जलाता है, वह उत्तम देवताओंसे पूजित होकर दस हजार दिव्य वर्षोंतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। तिलके अथवा दूसरे किसी तेलसे दीपक जलानेका फल घीकी अपेक्षा आधा होता है। एक मासतक जल चढ़ानेसे
ब्राह्मणोंने पूछा— द्विजश्रेष्ठ ! इस मर्त्यलोकमें कौन ऐसा मनुष्य है, जो पुण्यात्माओंमें श्रेष्ठ, परम पवित्र, सबके लिये सुलभ, मनुष्योंके द्वारा पूजन करने योग्य
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
जो फल मिलता है, उससे मनुष्य ईश्वर-भावको प्राप्त होता है। शीत कालमें देवताको रूईदार कपड़ा चढ़ाकर मनुष्य सब दुःखोंसे मुक्त हो जाता है। देव विग्रहको ढकनेके लिये चार हाथका सुन्दर वस्त्र अर्पण करके मनुष्य कभी स्वर्गसे नहीं गिरता । उन्नतिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको स्वयम्भू शिव लिङ्गोंकी पूजा करनी चाहिये। जो विद्वान् एक बार भी शिवलिङ्गकी परिक्रमा करता है, वह सौ दिव्य वर्षोंतक स्वर्गलोकका सुख भोगता है। इसी प्रकार क्रमशः स्वयम्भू लिङ्गको नमस्कार करके मनुष्य विश्ववन्द्य होकर स्वर्गलोकको जाता है; इसलिये प्रतिदिन उन्हें प्रणाम करना चाहिये ।
जो मनुष्य लिङ्गस्वरूप भगवान् श्रीशङ्करके धनका अपहरण करता है, वह रौरव नरककी यातना भोगकर अन्तमें कीड़ा होता है। जो शिवलिङ्ग अथवा भगवान् श्रीविष्णुकी पूजाके लिये मिले हुए दाताके द्रव्यको स्वयं ही हड़प लेता है, वह अपने कुलकी करोड़ों पीढ़ियोंके साथ नरकसे उद्धार नहीं पाता। जो जल, फूल और धूप-दीप आदिके लिये धन लेकर फिर लोभवश उसे उस कार्यमें नहीं लगाता, वह अक्षय नरकमें पड़ता है। भगवान् शिवके अन्न-पानका भक्षण करनेसे मनुष्यकी बड़ी दुर्गति होती है। अतः जो ब्राह्मण शिवमन्दिरमें पूजाकी वृत्तिसे जीविका चलाता है, उसका कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। अनाथ, दीन और विशेषतः श्रोत्रिय ब्राह्मणके लिये सुन्दर घर निर्माण कराकर मनुष्य कभी स्वर्गलोकसे नहीं गिरता जो इस परम उत्तम पवित्र उपाख्यानका प्रतिदिन श्रवण करता है, उसे अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है तथा मन्दिर निर्माण आदिका फल भी प्राप्त हो जाता है।
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रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँवलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
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तथा मुनियों और तपस्वियोंका भी आदरपात्र हो ?
व्यासजी बोले- विप्रगण ! रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाला पुरुष सब प्राणियोंमें श्रेष्ठ है। उसके
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सृष्टिखण्ड]
- रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँवलेके फल और तुलसीदलका माहात्म्य .
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दर्शनमात्रसे लोगोंकी पाप-राशि विलीन हो जाती है। पुण्यका भागी होता है। रुद्राक्षमालाका एक-एक बीज रुद्राक्षके स्पर्शसे मनुष्य स्वर्गका सुख भोगता है और उसे एक-एक देवताके समान है। जो मनुष्य अपने शरीरमें धारण करनेसे वह मोक्षको प्राप्त होता है। जो मस्तकपर रुद्राक्ष धारण करता है, वह देवताओमें श्रेष्ठ होता है। तथा हृदय और बाँहमें भी रुद्राक्ष धारण करता है, वह ब्राह्मणोंने पूछा-गुरुदेव ! रुद्राक्षकी उत्पत्ति इस संसारमें साक्षात् भगवान् शङ्करके समान है। कहाँसे हुई है ? तथा वह इतना पवित्र कैसे हुआ ? रुद्राक्षधारी ब्राह्मण जहाँ रहता है, वह देश पुण्यवान् होता , व्यासजी बोले-ब्राह्मणो! पहले किसी है। रुद्राक्षका फल तीथोंमें महान् तीर्थक समान है। सत्ययुगमें एक त्रिपुर नामका दानव रहता था, वह ब्रह्म-प्रन्थिसे युक्त मङ्गलमयी रुद्राक्षकी माला लेकर जो देवताओंका वध करके अपने अन्तरिक्षचारी नगरमें छिप जप-दान-स्तोत्र, मन्त्र और देवताओंका पूजन तथा दूसरा जाता था। ब्रह्माजीके वरदानसे प्रबल होकर वह सम्पूर्ण कोई पुण्य कर्म करता है, वह सब अक्षय हो जाता है लोकोंके 'विनाशकी चेष्टा कर रहा था। एक समय तथा उससे पापोंका क्षय होता है।
देवताओंके निवेदन करनेपर भगवान् शङ्करने यह भयंकर २८ श्रेष्ठ द्विजगण ! अब मैं मालाका लक्षण बतलाता समाचार सुना । सुनते ही उन्होंने अपने आजगव नामक हूँ, सुनो। उसका लक्षण जानकर तुमलोग मोक्ष-मार्ग धनुषपर विकराल बाण चढ़ाया और उस दानवको दिव्य प्राप्त कर लोगे। जिस रुद्राक्षमें योनिका चिह्न न हो, दृष्टि से देखकर मार डाला। दानव आकाशसे टूटकर जिसमें कीड़ोंने छेद कर दिया हो, जिसका लिङ्गचिह्न मिट गिरनेवाली बहुत बड़ी लूकाके समान इस पृथ्वीपर गिरा । गया हो तथा जिसमें दो बीज एक साथ सटे हुए हों, ऐसे इस कार्यमें अत्यन्त श्रम होनेके कारण रुद्रदेवके शरीरसे रुद्राक्षके दानेको मालामें नहीं लेना चाहिये। जो माला पसीनेकी बूंदें टपकने लगीं। उन बूंदोंसे तुरंत ही पृथ्वीपर अपने हाथसे गूंथी हुई और ढीली-ढाली हो, जिसके दाने रुद्राक्षका महान् वृक्ष प्रकट हुआ। इसका फल अत्यन्त एक-दूसरेसे सटे हुए हों अथवा शूद्र आदि नीच मनुष्योंने गुप्त होनेके कारण साधारण जीव उसे नहीं जानते। जिसे गूंथा हो-ऐसी माला अशुद्ध होती है। उसका तदनन्तर एक दिन कैलासके शिखरपर विराजमान हुए दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। जो सर्पके समान देवाधिदेव भगवान् शङ्करको प्रणाम करके कार्तिकेयजीने आकारवाली (एक ओरसे बड़ी और क्रमशः छोटी), कहा-'तात ! मैं रुद्राक्षका यथार्थ फल जानना चाहता नक्षत्रोंकी-सी शोभा धारण करनेवाली, सुमेरुसे युक्त तथा हूँ। उसपर जप करने तथा उसका धारण, दर्शन अथवा सटी हुई प्रन्थिके कारण शुद्ध है, वही माला उत्तम मानी स्पर्श करनेसे क्या फल मिलता है?' गयी है। विद्वान् पुरुषको वैसी ही मालापर जप करना भगवान् शिवने कहा-रुद्राक्षके धारण करनेसे चाहिये। उपर्युक्त लक्षणोंसे शुद्ध रुद्राक्षकी माला हाथमें मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है। यदि कोई हिंसक लेकर मध्यमा अङ्गलिसे लगे हुए दानोंको क्रमशः पशु भी कण्ठमें रुद्राक्ष धारण करके मर जाय तो अँगूठेसे सरकाते हुए जप करना चाहिये। मेरुके पास रुद्रस्वरूप हो जाता है, फिर मनुष्य आदिके लिये तो पहुँचनेपर मालाको हाथसे बार-बार घुमा लेना चाहिये- कहना ही क्या है। जो मनुष्य मस्तक और हृदयमें मेरुका उल्लङ्घन करना उचित नहीं है। वैदिक, पौराणिक रुद्राक्षकी माला धारण करके चलता है, उसे पग-पगपर तथा आगमोक्त जितने भी मन्त्र हैं, सब रुद्राक्षमालापर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। [रुद्राक्षमें एकसे जप करनेसे अभीष्ट फलके उत्पादक और मोक्षदायक लेकर चौदहतक मुख होते हैं।] जो कितने भी मुखवाले होते हैं। जो रुद्राक्षमालासे चूते हुए जलको मस्तकपर रुद्राक्षोंको धारण करता है, वह मेरे समान होता है; धारण करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर अक्षय इसलिये पुत्र ! तुम पूरा प्रयत्न करके रुद्राक्ष धारण करो।
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
जो रुद्राक्ष धारण करके इस भूतलपर प्राण-त्याग करता करता है, उसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु बहुत सन्तुष्ट है; वह सब देवताओंसे पूजित होकर मेरे रमणीय होते हैं। उतना सन्तोष उन्हें सैकड़ों यज्ञ करनेपर भी नहीं धामको जाता है। जो मृत्युकालमें मस्तकपर एक हो सकता। रुद्राक्षकी माला धारण करता है, वह शैव, वैष्णव, स्कन्द ! योगी, मुनियों तथा ज्ञानियोंको जो गति शाक्त, गणेशोपासक और सूर्योपासक सब कुछ है। जो प्राप्त होती है, वही आँवलेका सेवन करनेवाले मनुष्यको इस प्रसङ्गको पढ़ता-पढ़ाता, सुनता और सुनाता है, वह भी मिलती है। तीर्थोमे वास एवं तीर्थ-यात्रा करनेसे तथा सब पापोंसे मुक्त होकर सुखपूर्वक मोक्ष-लाभ करता है। नाना प्रकारके व्रतोंसे मनुष्यको जो गति प्राप्त होती है,
कार्तिकेयजीने कहा-जगदीश्वर ! मैं अन्यान्य वही आँवलेके फलका सेवन करनेसे भी मिल जाती है। फलोकी पवित्रताके विषयमें भी प्रश्न कर रहा हूँ। सब तात ! प्रत्येक रविवार तथा विशेषतः सप्तमी तिथिको लोगोंके हितके लिये यह बतलाइये कि कौन-कौन-से आँवलेका फल दूरसे ही त्याग देना चाहिये । संक्रान्तिके फल उत्तम हैं।
दिन, शुक्रवारको तथा षष्ठी, प्रतिपदा, नवमी और ईश्वरने कहा-बेटा ! आँवलेका फल समस्त अमावास्याको आँवलेका दूरसे ही परित्याग करना उचित लोकोंमें प्रसिद्ध और परम पवित्र है। उसे लगानेपर स्त्री है। जिस मृतकके मुख, नाक, कान अथवा बालोंमें और पुरुष सभी जन्म-मृत्युके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। आँवलेका फल हो, वह विष्णुलोकको जाता है। यह पवित्र फल भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्न करनेवाला आँवलेके सम्पर्कमात्रसे मृत व्यक्ति भगवद्धामको प्राप्त एवं शुभ माना गया है, इसके भक्षणमात्रसे मनुष्य सब होता है। जो धार्मिक मनुष्य शरीरमें आँवलेका रस पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। आँवला खानेसे आयु बढ़ती है, लगाकर स्रान करता है, उसे पद-पदपर अश्वमेध यज्ञका उसका जल पीनेसे धर्म-सञ्चय होता है और उसके द्वारा फल प्राप्त होता है। उसके दर्शन मात्रसे जितने भी पापी स्नान करनेसे दरिद्रता दूर होती है तथा सब प्रकारके जन्तु हैं, वे भाग जाते हैं तथा कठोर एवं दुष्ट ग्रह ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। कार्तिकेय ! जिस घरमें आँवला सदा पलायन कर जाते हैं। मौजूद रहता है, वहाँ दैत्य और राक्षस नहीं जाते। स्कन्द ! पूर्वकालकी बात है-एक चाण्डाल एकादशीके दिन यदि एक ही आँवला मिल जाय तो शिकार खेलनेके लिये वनमें गया। वहाँ अनेकों मृगों उसके सामने गङ्गा, गया, काशी और पुष्कर आदि तीर्थ और पक्षियोंको मारकर जब वह भूख-प्याससे अत्यन्त कोई विशेष महत्त्व नहीं रखते। जो दोनों पक्षोंकी पीड़ित हो गया, तब सामने ही उसे एक आँवलेका वृक्ष एकादशीको आँवलेसे स्रान करता है, उसके सब पाप दिखायी दिया। उसमें खूब मोटे-मोटे फल लगे थे। नष्ट हो जाते हैं और वह श्रीविष्णुलोकमें सम्मानित होता चाण्डाल सहसा वृक्षके ऊपर चढ़ गया और उसके है। षडानन ! जो आँवलेके रससे सदा अपने केश साफ उत्तम-उत्तम फल खाने लगा। प्रारब्धवश वह वृक्षके करता है, वह पुनः माताके स्तनका दूध नहीं पीता। शिखरसे पृथ्वीपर गिर पड़ा और वेदनासे व्यथित होकर आँवलेका दर्शन, स्पर्श तथा उसके नामका उच्चारण इस लोकसे चल बसा। तदनन्तर सम्पूर्ण प्रेत, राक्षस, करनेसे सन्तुष्ट होकर वरदायक भगवान् श्रीविष्णु भूतगण तथा यमराजके सेवक बड़ी प्रसन्नताके साथ अनुकूल हो जाते हैं। जहाँ आँवलेका फल मौजूद होता वहाँ आये; किन्तु उसे ले न जा सके। यद्यपि वे महान है, वहाँ भगवान् श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं तथा बलवान् थे, तथापि उस मृतक चाण्डालकी ओर आँख उस घरमें ब्रह्मा एवं सुस्थिर लक्ष्मीका भी वास होता है। उठाकर देख भी नहीं सकते थे। जब कोई भी उसे इसलिये अपने घरमें आँवला अवश्य रखना चाहिये। पकड़कर ले जा न सका, तब वे अपनी असमर्थता देख जो आँवलेका बना मुरब्बा एवं बहुमूल्य नैवेद्य अर्पण मुनियोंके पास जाकर बोले-'ज्ञानी महर्षियो !
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सृष्टिखण्ड ]
. रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँवलेके फल और तुलसीदलका माहात्म्य .
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चाण्डाल तो बड़ा पापी था; फिर क्या कारण है कि रक्षा नहीं करते, जो अपनी प्रतिज्ञाका त्याग करते, हमलोग तथा ये यमराजके सेवक उसकी ओर देख भी असत्य बोलते और व्रत भङ्ग करते हैं तथा जो कमलके न सके ?' 'यह मेरा है, यह मेरा है' कहते हुए हमलोग पत्तेपर भोजन करते हैं, वे सब इस पृथ्वीपर कर्मानुसार झगड़ा कर रहे हैं, किन्तु उसे ले जानेकी शक्ति नहीं प्रेत होते हैं। जो अपने चाचा और मामा आदिकी रखते। क्यों और किसके प्रभावसे वह सूर्यकी भाँति सदाचारिणी कन्या तथा साध्वी स्त्रीको बेच देते हैं, वे दुष्प्रेक्ष्य हो रहा है-उसकी ओर दृष्टिपात करना भी भूतलपर प्रेत होते हैं। कठिन जान पड़ता है।
प्रेतोंने पूछा-ब्राह्मणो ! किस प्रकार और किस ____ मुनियोंने कहा-प्रेतगण ! इस चाण्डालने कर्मके आचरणसे मनुष्य प्रेत नहीं होते?
आँवलेके पके हुए फल खाये थे। उसकी डाल टूट ब्राह्मणोंने कहा-जिस बुद्धिमान् पुरुषने तीर्थोके जानेसे उसके सम्पर्कमें ही इसकी मृत्यु हुई है। जलमें स्रान तथा शिवको नमस्कार किया है, वह मनुष्य मृत्युकालमें भी इसके आस-पास बहुत-से फल बिखरे प्रेत नहीं होता। जो एकादशी अथवा द्वादशीको उपवास पड़े थे। इन्हीं सब कारणोंसे तुमलोगोंका इसकी ओर करके विशेषतः भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करते हैं तथा देखना कठिन हो रहा है। इस पापीका आँवलेसे सम्पर्क जो वेदोंके अक्षर, सूक्त, स्तोत्र और मन्त्र आदिके द्वारा रविवारको या और किसी निषिद्ध वेलामें नहीं हुआ है; देवताओंके पूजनमें संलग्न रहते हैं, उन्हें भी प्रेत नहीं इसलिये यह दिव्य लोकको प्राप्त होगा।
होना पड़ता। पुराणोंके धर्मयुक्त दिव्य वचन सुनने, पढ़ने प्रेत बोले-मुनीश्वरो ! आपलोगोंका ज्ञान उत्तम और पढ़ानेसे तथा नाना प्रकारके व्रतोंका अनुष्ठान करने है, इसलिये हम आपसे एक प्रश्न पूछते हैं। जबतक यहाँ और रुद्राक्ष धारण करनेसे जो पवित्र हो चुके हैं एवं जो श्रीविष्णुलोकसे विमान नहीं आता, तबतक आपलोग रुद्राक्षकी मालापर जप करते हैं, वे प्रेतयोनिको नहीं प्राप्त हमारे प्रश्नका उत्तर दे दें। जहाँ वेदों और नाना प्रकारके होते। जो आँवलेके फलके रससे स्नान करके प्रतिदिन मन्त्रोंका गम्भीर घोष होता है, जहाँ पुराणों और आँवला खाया करते हैं तथा आँवलेके द्वारा भगवान् स्मृतियोंका स्वाध्याय किया जाता है, वहाँ हम एक श्रीविष्णुका पूजन भी करते हैं, वे कभी पिशाचयोनिमें क्षणके लिये भी नहीं ठहर सकते। यज्ञ, होम, जप तथा नहीं जाते। देवपूजा आदि शुभ कार्योंके सामने हमारा ठहरना प्रेत बोले-महर्षियो ! संतोंके दर्शनसे पुण्य असम्भव है; इसलिये हमें यह बताइये कि कौन-सा कर्म होता है-इस बातको पौराणिक विद्वान् जानते हैं। हमें करके मनुष्य प्रेतयोनियोंको प्राप्त होते हैं। हमें यह भी आपका दर्शन हुआ है; इसलिये आपलोग हमारा सुननेकी भी इच्छा है कि उनका शरीर विकृत क्योंकर हो कल्याण करें। धीर महात्माओ ! जिस उपायसे हम सब जाता है।
लोगोंको प्रेतयोनिसे छुटकारा मिले, उसका उपदेश ब्रह्मर्षियोंने कहा-जो झूठी गवाही देते तथा कीजिये । हम आपलोगोंकी शरणमें आये हैं। वध और बन्धनमें पड़कर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे नरकमें ब्राह्मण बोले-हमारे वचनसे तुमलोग पड़े हुए जीव ही प्रेत होते हैं। जो ब्राह्मणोंके दोष दूँढ़नेमें आँवलेका भक्षण कर सकते हो। वह तुम्हारे लिये लगे रहते हैं और गुरुजनोंके शुभ कर्मोमें बाधा पहुँचाते कल्याणकारक होगा। उसके प्रभावसे तुम उत्तम लोकमें हैं तथा जो श्रेष्ठ ब्राह्मणको दिये जानेवाले दानमें रुकावट जानेके योग्य बन जाओगे। डाल देते हैं, वे चिरकालतक प्रेतयोनिमें पड़कर नरकसे महादेवजी कहते हैं-इस प्रकार ऋषियोंसे कभी उद्धार नहीं पाते। जो मूर्ख अपने और दूसरेके सुनकर पिशाच आँवलेके वृक्षपर चढ़ गये और उसका बैलोंको कष्ट दे उनसे बोझ ढोनेका काम लेकर उनकी फल ले-लेकर उन्होंने बड़ी मौजके साथ खाया। तब
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• अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
देवलोकसे तुरंत ही एक पीले रङ्गका सुवर्णमय विमान हाथ गौएँ बेच देते हैं, जो जीवनभर स्नान, सन्ध्या, उतरा, जो परम शोभायमान था। पिशाचोंने उसपर वेद-पाठ, यज्ञानुष्ठान और अक्षरज्ञानसे दूर रहते हैं, जो आरूढ़ होकर स्वर्गलोककी यात्रा की। बेटा ! अनेक लोग जूठे शकोरे आदि और शरीरके मल-मूत्र तीर्थव्रतों और यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी जो अत्यन्त दुर्लभ है, भूमिमें गिराते हैं, वे निस्सन्देह प्रेत होते हैं। जो स्त्रियाँ वही लोक उन्हें आँवलेका भक्षण करने मात्रसे मिल गया। पतिका परित्याग करके दूसरे लोगोंके साथ रहती हैं, वे
कार्तिकेयजीने पूछा-पिताजी ! जब आँवलेके चिरकालतक प्रेतलोकमें निवास करनेके पश्चात् फलका भक्षण करने मात्रसे प्रेत पुण्यात्मा होकर स्वर्गको चाण्डालयोनिमें जन्म लेती हैं। जो विषय और इन्द्रियोंसे चले गये, तब मनुष्य आदि जितने प्राणी हैं, वे भी मोहित होकर पतिको धोखा देकर स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती आँवला खानेसे क्यों नहीं तुरंत स्वर्गमें चले जाते? हैं, वे पापाचारिणी स्त्रियाँ चिरकालतक इस पृथ्वीपर प्रेत
महादेवजीने कहा-बेटा ! [स्वर्गकी प्राप्ति तो होती हैं। जो मनुष्य बलपूर्वक दूसरेकी वस्तुएँ लेकर उन्हें उन्हें भी होती है; किन्तु] तुरंत ऐसा न होनेमें एक कारण अपने अधिकारमें कर लेते हैं और अतिथियोंका अनादर है-उनका ज्ञान लुप्त रहता है, वे अपने हित और करते हैं, वे प्रेत होकर नरकमें पड़े रहते हैं। अहितकी बात नहीं जानते। [इसलिये आँवलेके इसलिये जो आँवला खाकर उसके रससे स्नान महत्त्वमें उनकी श्रद्धा नहीं होती।]
करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें जिस घरकी मालकिन सहज ही काबूमें न आने- प्रतिष्ठित होते हैं। अतः सब प्रकारसे प्रयल करके तुम वाली, पवित्रता और संयमसे रहित, गुरुजनोंद्वारा निकाली आँवलेके कल्याणमय फलका सेवन करो। जो इस हुई तथा दुराचारिणी होती है, वहाँ प्रेत रहा करते हैं। जो पवित्र और मङ्गलमय उपाख्यानका प्रतिदिन श्रवण करता कुल और जातिसे नीच, बल और उत्साहसे रहित, बहरे, है, वह सम्पूर्ण पापोंसे शुद्ध होकर भगवान् श्रीविष्णुके दुर्बल और दीन हैं, वे कर्मजनित पिशाच है। जो माता, लोकमें सम्मानित होता है। जो सदा ही लोगोंमें, पिता, गुरु और देवताओंकी निन्दा करते हैं, पाखण्डी और विशेषतः वैष्णवोंमें आँवलेके माहात्म्यका श्रवण कराता वाममार्गी हैं, जो गलेमें फाँसी लगाकर, पानीमें डूबकर, है, वह भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता तलवार या छुरा भोंककर अथवा जहर खाकर आत्मघात है-ऐसा पौराणिकोंका कथन है। कर लेते हैं, वे प्रेत होनेके पश्चात् इस लोकमें चाण्डाल कार्तिकेयजीने कहा-प्रभो! रुद्राक्ष और आदि योनियोंके भीतर जन्म ग्रहण करते हैं। जो आँवला-इन दोनों फलोंकी पवित्रताको तो मैं जान माता-पिता आदिसे द्रोह करते, ध्यान और अध्ययनसे गया। अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि कौन-सा ऐसा दूर रहते हैं, व्रत और देवपूजा नहीं करते, मन्त्र और वृक्ष है, जिसका पत्ता और फूल भी मोक्ष प्रदान सानसे हीन रहकर गुरुपत्नी-गमनमें प्रवृत्त होते हैं तथा करनेवाला है। जो दुर्गतिमें पड़ी हुई चाण्डाल आदिकी स्त्रियोंसे समागम महादेवजी बोले-बेटा! सब प्रकारके पत्तों करते हैं, वे भी प्रेत होते है। म्लेच्छोंके देशमें जिनकी और पुष्पोंकी अपेक्षा तुलसी ही श्रेष्ठ मानी गयी है। वह मृत्यु होती है, जो म्लेच्छोंके समान आचरण करते और परम मङ्गलमयी, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली, स्त्रीके धनसे जीविका चलाते हैं, जिनके द्वारा स्त्रियोंकी शुद्ध, श्रीविष्णुको अत्यन्त प्रिय तथा 'वैष्णवी' नाम रक्षा नहीं होती, वे निःसन्देह प्रेत होते हैं। जो क्षुधासे धारण करनेवाली है। वह सम्पूर्ण लोकमें श्रेष्ठ, शुभ तथा पीड़ित, थके-माँदे, गुणवान् और पुण्यात्मा अतिथिके भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। भगवान् श्रीविष्णुने रूपमें घरपर आये हुए ब्राह्मणको लौटा देते हैं-उसका पूर्वकालमें सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये तुलसीका यथावत् सत्कार नहीं करते, जो गो-भक्षी म्लेच्छोंके वृक्ष रोपा था। तुलसीके पते और पुष्प सब धर्मों में
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सृष्टिखण्ड ] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँवलेके फल और तुलसीदलका माहात्म्य •
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प्रतिष्ठित हैं। जैसे भगवान् श्रीविष्णुको लक्ष्मी और मैं दोनों प्रिय हैं, उसी प्रकार यह तुलसीदेवी भी परम प्रिय है। हम तीनके सिवा कोई चौथा ऐसा नहीं जान पड़ता, जो भगवान्को इतना प्रिय हो। तुलसीदलके बिना दूसरे दूसरे फूलों, पत्तों तथा चन्दन आदिके लेपोंसे भगवान् श्रीविष्णुको उतना सन्तोष नहीं होता। जिसने तुलसीदलके द्वारा पूर्ण श्रद्धाके साथ प्रतिदिन भगवान् श्रीविष्णुका पूजन किया है, उसने दान, होम, यज्ञ और व्रत आदि सब पूर्ण कर लिये। तुलसीदलसे भगवान्की पूजा कर लेनेपर कान्ति, सुख, भोगसामग्री, यश, लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल, शील, पत्नी, पुत्र, कन्या, धन, राज्य, आरोग्य, ज्ञान, विज्ञान, वेद, वेदाङ्ग, शास्त्र, पुराण, तन्त्र और संहिता – सब कुछ मैं करतलगत समझता हूँ। जैसे पुण्यसलिला गङ्गा मुक्ति प्रदान करनेवाली हैं, उसी प्रकार यह तुलसी भी कल्याण करनेवाली है। स्कन्द ! यदि मञ्जरीयुक्त तुलसीपत्रोंके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा की जाय तो उसके पुण्यफलका वर्णन करना असम्भव है। जहाँ तुलसीका वन है, वहीं भगवान् श्रीकृष्णकी समीपता है। तथा वहीं ब्रह्मा और लक्ष्मीजी भी सम्पूर्ण देवताओंके साथ विराजमान हैं। इसलिये अपने निकटवर्ती स्थानमें तुलसीदेवीको रोपकर उनकी पूजा करनी चाहिये । तुलसीके निकट जो स्तोत्र-मन्त्र आदिका जप किया जाता है, वह सब अनन्तगुना फल देनेवाला होता है।
प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, भूत और दैत्य आदि सब तुलसीके वृक्षसे दूर भागते हैं। ब्रह्महत्या आदि पाप तथा पाप और खोटे विचारसे उत्पन्न होनेवाले रोग – ये सब तुलसीवृक्षके समीप नष्ट हो जाते हैं। जिसने श्रीभगवान्की पूजाके लिये पृथ्वीपर तुलसीका बगीचा लगा रखा है, उसने उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त सौ यज्ञोंका विधिवत् अनुष्ठान पूर्ण कर लिया है। जो
श्रीभगवान्की प्रतिमाओं तथा शालग्राम शिलाओंपर चढ़े हुए तुलसीदलको प्रसादके रूपमें ग्रहण करता है, वह श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। जो श्रीहरिकी पूजा करके उन्हें निवेदन किये हुए तुलसीदलको अपने मस्तकपर धारण करता है, वह पापसे शुद्ध होकर स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। कलियुगमें तुलसीका पूजन, कीर्तन, ध्यान, रोपण और धारण करनेसे वह पापको जलाती और स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करती है। जो तुलसीके पूजन आदिका दूसरोंको उपदेश देता और स्वयं भी आचरण करता है, वह भगवान् श्रीलक्ष्मीपतिके परम धामको प्राप्त होता है।* जो वस्तु भगवान् श्रीविष्णुको प्रिय जान पड़ती है, वह मुझे भी अत्यन्त प्रिय है। श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्योंमें तुलसीका एक पत्ता भी महान् पुण्य प्रदान करनेवाला है। जिसने तुलसीकी सेवा की है, उसने गुरु, ब्राह्मण, देवता और तीर्थ — सबका भलीभाँति सेवन कर लिया। इसलिये षडानन ! तुम तुलसीका सेवन करो। जो शिखामें तुलसी स्थापित करके प्राणोंका परित्याग करता है, वह पापराशिसे मुक्त हो जाता है। राजसूय आदि यज्ञ, भाँति-भाँतिके व्रत तथा संयमके द्वारा धीर पुरुष जिस गतिको प्राप्त करता है, वही उसे तुलसीकी सेवासे मिल जाती है। तुलसीके एक पत्रसे श्रीहरिकी पूजा करके मनुष्य वैष्णवत्वको प्राप्त होता है। उसके लिये अन्यान्य शास्त्रोंके विस्तारकी क्या आवश्यकता है। जिसने तुलसीकी शाखा तथा कोमल पत्तियोंसे भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा की है, वह कभी माताका दूध नहीं पीता उसका पुनर्जन्म नहीं होता। कोमल तुलसीदलोंके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा करके मनुष्य अपनी सैकड़ों और हजारों पीढ़ियोंको पवित्र कर सकता है। तात! ये मैंने तुमसे तुलसीके प्रधान प्रधान गुण बतलाये हैं। सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो बहुत अधिक समय लगानेपर भी नहीं हो सकता। यह उपाख्यान
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* पूजने कीर्तने ध्याने रोपणे धारणे कलौ तुलसी दहते उपदेशं ददेदस्याः स्वयमाचरते पुनः । स याति
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पापं स्वर्ग मोक्षं ददाति च ॥ स्थानं माधवस्य निकेतनम् ॥
(५८ । १३१-१३२)
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
पुण्यराशिका सञ्चय करनेवाला है। जो प्रतिदिन इसका अध्यायके पाठ करनेवाले पुरुषको कभी रोग नहीं श्रवण करता है, वह पूर्वजन्मके किये हुए पाप तथा सताते, अज्ञान उसके निकट नहीं आता। उसकी सदा जन्म-मृत्युके बन्धनसे मुक्त हो जाता है। बेटा ! इस विजय होती है।
तुलसी-स्तोत्रका वर्णन
ब्राह्मणोंने कहा-गुरुदेव ! हमने आपके मुखसे सकते हैं। 'तुलसी ! तुम अमृतसे उत्पन्न हो और तुलसीके पत्र और पुष्पका शुभ माहात्म्य सुना, जो केशवको सदा ही प्रिय हो। कल्याणी ! मैं भगवान्की भगवान् श्रीविष्णुको बहुत ही प्रिय है। अब हमलोग पूजाके लिये तुम्हारे पत्तोंको चुनता हूँ। तुम मेरे लिये तुलसीके पुण्यमय स्तोत्रका श्रवण करना चाहते हैं। वरदायिनी बनो। तुम्हारे श्रीअङ्गोंसे उत्पन्न होनेवाले पत्रों
व्यासजी बोले-ब्राह्मणो ! पहले स्कन्दपुराणमें और मारियोंद्वारा मैं सदा ही जिस प्रकार श्रीहरिका पूजन मैं जो कुछ बतला आया हूँ, वही यहाँ कहता हूँ। कर सकूँ, वैसा उपाय करो। पवित्राङ्गी तुलसी ! तुम शतानन्द मुनिके शिष्य कठोर व्रतका पालन करनेवाले कलि-मलका नाश करनेवाली हो।'* इस भावके थे। उन सबोंने एक दिन अपने गुरुको प्रणाम करके परम मन्त्रोंसे जो तुलसीदलोंको चुनकर उनसे भगवान् पुण्य और हितकी बात पूछी।
वासुदेवका पूजन करता है, उसकी पूजाका करोड़ोंगुना शिष्योंने कहा-नाथ ! ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! फल होता है। आपने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मुखसे तुलसीजीके जिस देवेश्वरी ! बड़े-बड़े देवता भी तुम्हारे प्रभावका स्तोत्रका श्रवण किया था, उसको हम आपसे सुनना गायन करते हैं। मुनि, सिद्ध, गन्धर्व, पाताल-निवासी चाहते है।
साक्षात् नागराज शेष तथा सम्पूर्ण देवता भी तुम्हारे शतानन्दजी बोले-शिष्यगण! तुलसीका प्रभावको नहीं जानते; केवल भगवान् श्रीविष्णु ही नामोच्चारण करनेपर असुरोंका दर्प दलन करनेवाले तुम्हारी महिमाको पूर्णरूपसे जानते हैं। जिस समय भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। मनुष्यके पाप नष्ट हो क्षीर-समुद्रके मन्थनका उद्योग प्रारम्भ हुआ था, उस जाते हैं तथा उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। जिसके समय श्रीविष्णुके आनन्दांशसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ दर्शनमात्रसे करोड़ों गोदानका फल होता है, उस था। पूर्वकालमें श्रीहरिने तुम्हें अपने मस्तकपर धारण तुलसीका पूजन और वन्दन लोग क्यों न करें। किया था। देवि ! उस समय श्रीविष्णुके शरीरका सम्पर्क कलियुगके संसारमें वे मनुष्य धन्य हैं, जिनके घरमें पाकर तुम परम पवित्र हो गयी थीं। तुलसी ! मैं तुम्हें शालग्राम-शिलाका पूजन सम्पन्न करनेके लिये प्रतिदिन प्रणाम करता हूँ। तुम्हारे श्रीअङ्गसे उत्पन्न पत्रोंद्वारा जिस तुलसीका वृक्ष भूतलपर लहलहाता रहता है। जो प्रकार श्रीहरिकी पूजा कर सकूँ, ऐसी कृपा करो, जिससे कलियुगमें भगवान् श्रीकेशवकी पूजाके लिये पृथ्वीपर मैं निर्वित्रतापूर्वक परम गतिको प्राप्त होऊँ। साक्षात् तुलसीका वृक्ष लगाते हैं, उनपर यदि यमराज अपने श्रीकृष्णने तुम्हें गोमतीतटपर लगाया और बढ़ाया था। किङ्करोंसहित रुष्ट हो जाये तो भी वे उनका क्या कर वृन्दावनमें विचरते समय उन्होंने सम्पूर्ण जगत् और
* तुलस्यमृतजन्मासि सदा वं केशवप्रिये। केशवार्थ चिनोमि त्वां वरदा भव शोभने । त्वदङ्गसम्भवैर्नित्यं पूजयामि यथा हरिम् । तथा कुरु पवित्राङ्गि कली मलविनाशिनि ।
(५९।११-१३)
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सृष्टिखण्ड ]
. श्रीगङ्गाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति .
गोपियोंके हितके लिये तुलसीका सेवन किया। ब्रह्महत्या भी दूर हो जाती है। तुलसीके पत्तेसे टपकता जगत्प्रिया तुलसी! पूर्वकालमें वसिष्ठजीके कथनानुसार हुआ जल जो अपने सिरपर धारण करता है, उसे गङ्गाश्रीरामचन्द्रजीने भी राक्षसोंका वध करनेके उद्देश्यसे स्नान और दस गोदानका फल प्राप्त होता है। देवि ! सरयूके तटपर तुम्हें लगाया था। तुलसीदेवी ! मैं तुम्हें मुझपर प्रसन्न होओ। देवेश्ररि ! हरिप्रिये ! मुझपर प्रसन्न प्रणाम करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीसे वियोग हो जानेपर हो जाओ। क्षीरसागरके मन्थनसे प्रकट हुई तुलसीदेवि ! अशोकवाटिकामें रहते हुए जनककिशोरी सीताने तुम्हारा मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। ही ध्यान किया था, जिससे उन्हें पुनः अपने प्रियतमका द्वादशीकी रात्रि जागरण करके जो इस तुलसीसमागम प्राप्त हुआ। पूर्वकालमें हिमालय पर्वतपर स्तोत्रका पाठ करता है, भगवान् श्रीविष्णु उसके बत्तीस भगवान् शङ्करकी प्राप्तिके लिये पार्वतीदेवीने तुम्हें लगाया अपराध क्षमा करते हैं। बाल्यावस्था, कुमारावस्था, और अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये तुम्हारा सेवन किया जवानी और बुढ़ापेमें जितने पाप किये होते हैं, वे सब था। तुलसीदेवी ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। सम्पूर्ण तुलसी-स्तोत्रके पाठसे नष्ट हो जाते हैं। तुलसीके स्तोत्रसे देवाङ्गनाओं और किन्नरोंने भी दुःस्वप्रका नाश करनेके सन्तुष्ट होकर भगवान् सुख और अभ्युदय प्रदान करते हैं। लिये नन्दनवनमें तुम्हारा सेवन किया था। देवि! तुम्हें जिस घरमें तुलसीका स्तोत्र लिखा हुआ विद्यमान रहता है, मेरा नमस्कार है। धर्मारण्य गयामें साक्षात् पितरोने उसका कभी अशुभ नहीं होता, उसका सब कुछ मङ्गलतुलसीका सेवन किया था। दण्डकारण्यमें भगवान् मय होता है, किञ्चित् भी अमङ्गल नहीं होता । उसके लिये श्रीरामचन्द्रजीने अपने हित-साधनकी इच्छासे परम सदा सुकाल रहता है। वह घर प्रचुर धन-धान्यसे भर पवित्र तुलसीका वृक्ष लगाया तथा लक्ष्मण और सीताने रहता है। तुलसी-स्तोत्रका पाठ करनेवाले मनुष्यके भी बड़ी भक्तिके साथ उसे पोसा था। जिस प्रकार हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुके प्रति अविचल भक्ति होती है। शास्त्रोंमें गङ्गाजीको त्रिभुवनव्यापिनी कहा गया है, उसी तथा उसका वैष्णवोंसे कभी वियोग नहीं होता । इतना ही प्रकार तुलसीदेवी भी सम्पूर्ण चराचर जगत्में दृष्टिगोचर नहीं, उसकी बुद्धि कभी अधर्ममें नहीं प्रवृत्त होती। जो होती हैं। तुलसीका ग्रहण करके मनुष्य पातकोंसे मुक्त द्वादशीकी रात्रिमें जागरण करके तुलसी-स्तोत्रका पाठ हो जाता है। और तो और, मुनीश्वरो ! तुलसीके सेवनसे करता है, उसे करोड़ों तीर्थोक सेवनका फल प्राप्त होता है।
श्रीगङ्गाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति ब्राह्मण बोले-गुरुदेव ! अब आप हमें कोई कीर्तनसे अतिपातक और दर्शनसे भारी-भारी पाप ऐसा तीर्थ बतलाइये, जहाँ डुबकी लगानेसे निश्चय ही (महापातक) भी नष्ट हो जाते हैं। गङ्गाजीमें स्नान, समस्त पाप तथा दूसरे-दूसरे महापातक भी नष्ट हो जलपान और पितरोंका तर्पण करनेसे महापातकोंकी जाते हैं।
राशिका प्रतिदिन क्षय होता रहता है। जैसे अग्निका __ व्यासजी बोले-ब्राह्मणो ! अविलम्ब सद्गतिका संसर्ग होनेसे रूई और सूखे तिनके क्षणभरमें भस्म हो उपाय सोचनेवाले सभी स्त्री-पुरुषोंके लिये गङ्गाजी ही जाते हैं, उसी प्रकार गङ्गाजी अपने जलका स्पर्श होनेपर एक ऐसा तीर्थ हैं, जिनके दर्शनमात्रसे सारा पाप नष्ट हो मनुष्योंके सारे पाप एक ही क्षणमें दग्ध कर देती हैं।* जाता है। गङ्गाजीके नामका स्मरण करनेमात्रसे पातक, जो विधिपूर्वक सङ्कल्पवाक्यका उच्चारण करते हुए
*गनेति स्मरणादेव क्षयं याति च पातकम्। कीर्तनादतिपापानि दर्शनाद् गुरुकल्मषम्॥ स्रानात् पानाच जाह्नव्या पितॄणां तर्पणात्तथा । महापातकवृन्दानि क्षयं यान्ति दिने दिने । अमिना दाते तूलं तृणं शुष्क क्षणाद् यथा । तथा गङ्गाजलस्पर्शात् पुंसां पापं दहेत् क्षणात् ॥ (६०।५-७)
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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गङ्गाजीके जलमें पितरोंके उद्देश्यसे पिण्डदान करता है, उसे प्रतिदिन सौ यज्ञोंका फल होता है। जो लोग गङ्गाजीके जलमें अथवा तटपर आवश्यक सामग्रियोंसे तर्पण और पिण्डदान करते हैं, उन्हें अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जो अकेला भी गङ्गाजीकी यात्रा करता है, उसके पितरोंकी कई पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं। एकमात्र इसी महापुण्यके बलपर वह स्वयं भी तरता है और पितरोंको भी तार देता है। ब्राह्मणो! गङ्गाजीके सम्पूर्ण गुणों का वर्णन करनेमें चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं। इसलिये मैं भागीरथीके कुछ ही गुणोंका दिग्दर्शन कराता हूँ।
मुनि, सिद्ध, गन्धर्व तथा अन्यान्य श्रेष्ठ देवता गङ्गाजीके तीरपर तपस्या करके स्वर्गलोकमें स्थिर भावसे विराजमान हुए हैं। आजतक वे वहाँसे इस संसारमें नहीं लौटे। तपस्या, बहुत-से यज्ञ, नाना प्रकारके व्रत तथा पुष्कल दान करनेसे जो गति प्राप्त होती है, गङ्गाजीका सेवन करके मनुष्य उसी गतिको पा लेता है। *
पिता पुत्रको, पत्नी प्रियतमको सम्बन्धी अपने सम्बन्धीको तथा अन्य सब भाई-बन्धु भी अपने प्रिय बन्धुको छोड़ देते हैं, किन्तु गङ्गाजी उनका परित्याग नहीं करतीं। जिन श्रेष्ठ मनुष्योंने एक बार भी भक्तिपूर्वक गङ्गामें स्नान किया है, कल्याणमयी गङ्गा उनकी लाख पीढ़ियोंका भवसागरसे उद्धार कर देती हैं। संक्रान्ति, व्यतीपात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण और पुष्य नक्षत्रमें गङ्गाजीमें स्नान करके मनुष्य अपने कुलकी करोड़ पीढ़ियोंका उद्धार कर सकता है। जो मनुष्य [ अन्तकालमें] अपने हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए उत्तरायणके शुक्लपक्षमें दिनको गङ्गाजीके जलमें देह त्याग करते हैं, वे धन्य हैं। जो इस प्रकार भागीरथीके शुभ जलमें प्राण त्याग करते हैं, उन्हें पुनरावृत्ति रहित स्वर्गकी प्राप्ति होती है। गङ्गाजीमें पितरोंको पिण्डदान तथा तिलमिश्रित जलसे तर्पण
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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करनेपर वे यदि नरकमें हों तो स्वर्गमें जाते हैं और स्वर्गमें हों तो मोक्षको प्राप्त होते हैं।
पर - स्त्री और पर धनका हरण करने तथा सबसे द्रोह करनेवाले पापी मनुष्योंको उत्तम गति प्रदान करनेका साधन एकमात्र गङ्गाजी ही हैं। वेद-शास्त्रके ज्ञानसे रहित, गुरु-निन्दापरायण और सदाचार शून्य मनुष्यके लिये गङ्गाके समान दूसरी कोई गति नहीं है। गङ्गाजीमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्योंके अनेक जन्मोंकी पापराशि नष्ट हो जाती है तथा वे तत्काल पुण्यभागी होते हैं।
प्रभासक्षेत्र में सूर्यग्रहणके समय एक सहस्र गोदान करनेपर जो फल मिलता है, वह गङ्गाजीमें स्नान करनेसे प्रतिदिन प्राप्त होता है। गङ्गाजीका दर्शन करके मनुष्य पापोंसे छूट जाता है और उसके जलका स्पर्श करके स्वर्ग पाता है। अन्य कार्यके प्रसङ्गसे भी गङ्गाजीमें गोता लगानेपर वे मोक्ष प्रदान करती हैं। गङ्गाजीके दर्शनमात्रसे पर धन और परस्त्रीकी अभिलाषा तथा पर-धर्मविषयक रुचि नष्ट हो जाती है। अपने आप जो कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तोष करना, अपने धर्ममें प्रवृत्त रहना तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समान भाव रखना—ये सद्गुण गङ्गाजीमें स्नान करनेवाले मनुष्यके हृदयमें स्वभावतः उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्य गङ्गाजीका आश्रय लेकर सुखपूर्वक निवास करता है, वही इस लोकमें जीवन्मुक्त और सर्वश्रेष्ठ है। उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। गङ्गाजीमें या उनके तटपर किया हुआ यज्ञ, दान, तप, जप, श्राद्ध और देवपूजन प्रतिदिन कोटि-कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। अपने जन्म नक्षत्रके दिन गङ्गाजीके सङ्गममें स्नान करके मनुष्य अपने कुलका उद्धार कर देता है। जो बिना श्रद्धाके भी पुण्यसलिला गङ्गाजीके नामका कीर्तन करता है, वह निश्चय ही स्वर्गका अधिकारी है। वे पृथ्वीपर मनुष्योंको, पातालमें नागोंको और स्वर्गमें देवताओंको तारती है। जानकर या अनजानमें, इच्छासे या
* तपोभिर्बहुभिर्यज्ञैर्वतैर्नानाविधैस्तथा
। पुरुदानैर्गतिर्या च गङ्गो संसेव्यतां लभेत् ॥ (६० २४) + व्यजन्ति पितरं पुत्राः प्रियं पल्यः सुहद्रणाः । अन्ये च बान्धवाः सर्वे गङ्गा तान्न परित्यजेत् ॥ (६० | २६)
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सृष्टिखण्ड ]
• श्रीगङ्गाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति .
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अनिच्छासे गङ्गामें मरनेवाला मनुष्य स्वर्ग और मोक्षको श्रीनारायणसे प्रकट हुई विश्वरूपिणी गङ्गाजीको बारंबार भी प्राप्त करता है। सत्त्वगुणमें स्थित योगयुक्त मनीषी नमस्कार है।) पुरुषको जो गति मिलती है, वही गङ्गाजीमें प्राण जो मनुष्य गङ्गातीरकी मिट्टी अपने मस्तकपर धारण त्यागनेवाले देहधारियोंको प्राप्त होती है। एक मनुष्य करता है, वह गङ्गामें नान किये बिना ही सब पापोंसे अपने शरीरका शोधन करनेके लिये हजारों चान्द्रायण- मुक्त हो जाता है। गङ्गाजीकी लहरोंसे सटकर बहनेवाली व्रत करता है और दूसरा मनचाहा गङ्गाजीका जल पीता वायु यदि किसीके शरीरका स्पर्श करती है, तो वह घोर है-उन दोनोंमें गङ्गाजलका पान करनेवाला पुरुष ही पापसे शुद्ध होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। श्रेष्ठ है। मनुष्यके ऊपर तभीतक तीथों, देवताओं और मनुष्यको हड्डी जबतक गङ्गाजीके जलमें पड़ी रहती है, वेदोंका प्रभाव रहता है, जबतक कि वह गङ्गाजीको नहीं उतने ही हजार वर्षांतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता प्राप्त कर लेता।
है। माता-पिता, बन्धु-बान्धव, अनाथ तथा गुरुजनोंकी ___ भगवती गङ्गे ! वायु देवताने स्वर्ग, पृथ्वी और हड्डी गङ्गाजीमे गिरानेसे मनुष्य कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं आकाशमें साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बतलाये हैं; वे सब होता। जो मानव अपने पितरोंकी हड्डियोंके टुकड़े तुम्हारे जलमें विद्यमान हैं। गङ्गे ! तुम श्रीविष्णुका बटोरकर उन्हें गङ्गाजीमें डालनेके लिये ले जाता है, वह चरणोदक होनेके कारण परम पवित्र हो। तीनों लोकोंमें पग-पगपर अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त करता है। गङ्गागमन करनेसे त्रिपथगामिनी कहलाती हो। तुम्हारा जल तीरपर बसे हुए गाँव, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े तथा धर्ममय है; इसलिये तुम धर्मद्रवीके नामसे विख्यात हो। चर-अचर-सभी प्राणी धन्य हैं। जाह्नवी ! मेरे पाप हर लो। भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे विप्रवरो ! जो गङ्गाजीसे एक कोसके भीतर प्राणतुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम श्रीविष्णुद्वारा सम्मानित त्याग करते हैं, वे मनुष्य देवता ही हैं; उससे बाहरके तथा वैष्णवी हो। मुझे जन्मसे लेकर मृत्युतकके पापोंसे मनुष्य ही इस पृथ्वीपर मानव हैं। गङ्गानानके लिये यात्रा बचाओ। महादेवी ! भागीरथी ! तुम श्रद्धासे, करता हुआ यदि कोई मार्गमें ही मर जाता है, तो वह भी शोभायमान रजःकणोंसे तथा अमृतमय जलसे मुझे स्वर्गको प्राप्त होता है। ब्राहाणो ! जो लोग गङ्गाजीकी पवित्र करो।* इस भावके तीन श्लोकोंका उच्चारण यात्रा करनेवाले मनुष्योंको वहाँका मार्ग बता देते हैं, उन्हें करते हुए जो गङ्गाजीके जलमें स्रान करता है, वह करोड़ भी परमपुण्यकी प्राप्ति होती है और वे भी गङ्गास्रानका जन्मोंके पापसे निःसन्देह मुक्त हो जाता है। अब मैं फल पा लेते हैं। जो पाखण्डियोंके संसर्गसे विचारशक्ति गङ्गाजीके मूल-मन्त्रका वर्णन करूँगा, जिसे साक्षात् खो बैठनेके कारण गङ्गाजीकी निन्दा करते है, वे घोर श्रीहरिने बतलाया है। उसका एक बार भी जप करके नरकमें पड़ते हैं तथा वहाँसे फिर कभी उनका उद्धार मनुष्य पवित्र हो जाता तथा श्रीविष्णुके श्रीविग्रहमें होना कठिन है। जो सैकड़ों योजन दूरसे भी 'गङ्गा-गङ्गा' प्रतिष्ठित होता है। वह मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ नमो कहता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको प्राप्त गङ्गायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः ।' (भगवान् होता है। जो मनुष्य कभी गङ्गाजीमें स्नानके लिये
* विष्णुपादार्घसम्पूते गङ्गे त्रिपथगामिनि । धर्मद्रवीति विख्याते पार्य मे हर जाह्रवि ॥ विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुपूजिता । त्राहि मामेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् ।। श्रद्धया धर्मसम्पूर्णे श्रीमता रजसा च ते। अमृतेन महादेवि भागीरथि पुनीहि माम्।।
(६० । ६०-६२) गङ्गा गनेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥
(६०।७८)
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
नहीं गये हैं, वे अंधे और पशुके समान हैं। उनका इस संसारमें जन्म लेना व्यर्थ है। जो गङ्गाजीके नामका कीर्तन नहीं करते, वे नराधम जडके समान हैं। जो लोग श्रद्धाके साथ गङ्गाजीके माहात्म्यका पठन-पाठन करते हैं, वे धीर पुरुष स्वर्गको जाते और पितरों तथा गुरुओंका उद्धार कर देते हैं। जो पुरुष गङ्गाजीकी यात्रा करनेवाले लोगोंको राह- खर्च के लिये अपनी शक्तिके अनुसार धन देता है, उसे भी गङ्गाजीमें स्नान करनेका फल मिलता है। दूसरेके खर्चसे जानेवालेको स्नानका जितना फल मिलता है, उससे दूना फल खर्च देकर भेजनेवालोंको प्राप्त होता है। इच्छासे या अनिच्छासे, किसीके भेजनेसे या दूसरेकी सेवाके मिससे भी जो परम पवित्र गङ्गाजीकी यात्रा करता है, वह देवताओंके लोकमें जाता है।
ब्राह्मणोंने पूछा- व्यासजी ! हमने आपके मुँहसे गङ्गाजीके गुणोंका अत्यन्त पवित्र कीर्तन सुना। अब हम यह जानना चाहते हैं कि गङ्गाजी कैसे इस रूपमें प्रकट हुई, उनका स्वरूप क्या है तथा वे क्यों अत्यन्त पावन मानी जाती हैं।
व्यासजी बोले- द्विजवरो! सुनो, मैं एक परम पवित्र प्राचीन कथा सुनाता हूँ। प्राचीन कालकी बात है, मुनिश्रेष्ठ नारदजीने ब्रह्मलोकमें जाकर त्रिलोकपावन ब्रह्माजीको नमस्कार किया और पूछा- 'तात! आपने ऐसी कौन-सी वस्तु उत्पन्न की है, जो भगवान् शङ्कर और श्रीविष्णुको भी अत्यन्त प्रिय हो तथा जो भूतलपर सब लोगोंका हित करनेके लिये अभीष्ट मानी गयी हो ?'
ब्रह्माजीने कहा- बेटा ! पूर्वकालमें सृष्टि आरम्भ करते समय मैने मूर्तिमती प्रकृतिसे कहा- देवि! तुम सम्पूर्ण लोकोंका आदि कारण बनो। मैं तुमसे ही संसारकी सृष्टि आरम्भ करूँगा।' यह सुनकर परा प्रकृति सात स्वरूपोंमें अभिव्यक्त हुई; गायत्री, वाग्देवी (सरस्वती), सब प्रकारके धन-धान्य प्रदान करनेवाली लक्ष्मी, ज्ञान- विद्यास्वरूपा उमादेवी, शक्तिबीजा तपस्विनी और धर्मद्रवा - ये ही सात परा प्रकृतिके स्वरूप हैं। इनमें गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और वेदसे सारे जगत्की स्थिति है। स्वस्ति, स्वाहा स्वधा और
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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दीक्षा – ये भी गायत्रीसे ही उत्पन्न मानी गयी हैं। अतः यज्ञमें मातृका आदिके साथ सदा ही गायत्रीका उच्चारण करना चाहिये। भारती (सरस्वती) सब लोगोंके मुख और हृदयमें स्थित हैं तथा वे ही समस्त शास्त्रों में धर्मका उपदेश करती हैं। तीसरी प्रकृति लक्ष्मी हैं, जिनसे वस्त्र और आभूषणोंकी राशि प्रकट हुई है। सुख और त्रिभुवनका राज्य भी उन्हींकी देन है। इसीसे वे भगवान् श्रीविष्णुकी प्रियतमा हैं। चौथी प्रकृति उमाके द्वारा ही संसारमें भगवान् शङ्करके स्वरूपका ज्ञान होता है। अतः उमाको ज्ञानकी जननी (ब्रह्मविद्या) समझना चाहिये। वे भगवान् शिवके आधे अङ्गमें निवास करती हैं। शक्तिबीजा नामकी जो पाँचवीं प्रकृति है, वह अत्यन्त उम्र और समूचे विश्वको मोहमें डालनेवाली है। समस्त लोकोंमें वही जगत्का पालन और संहार करती है। [ तपस्विनी तपस्याकी अधिष्ठात्री देवी है।] सातवीं प्रकृति धर्मद्रवा है, जो सब धर्मो में प्रतिष्ठित है । उसे सबसे श्रेष्ठ देखकर मैंने अपने कमण्डलुमें धारण कर लिया। फिर परम प्रभावशाली भगवान् श्रीविष्णुने बलिके यज्ञके समय इसे प्रकट किया। उनके दोनों चरणोंसे सम्पूर्ण महीतल व्याप्त हो गया था। उनमेंसे एक चरण आकाश एवं ब्रह्माण्डको भेदकर मेरे सामने स्थित हुआ। उस समय मैंने कमण्डलुके जलसे उस चरणका पूजन किया। उस चरणको धोकर जब मैं पूजन कर चुका, तब उसका धोवन हेमकूट पर्वतपर गिरा। वहाँसे भगवान् शङ्करके पास पहुँचकर वह जल गङ्गाके रूपमें उनकी जटामें स्थित हुआ। गङ्गा बहुत कालतक उनकी जटामें ही भ्रमण करती रहीं। तत्पश्चात् महाराज भगीरथने भगवान् शङ्करकी आराधना करके गङ्गाको पृथ्वीपर उतारा। वे तीन धाराओंमें प्रकट होकर तीनों लोकोंमें गयीं; इसलिये संसारमें त्रिस्रोताके नामसे विख्यात हुईं। शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु — तीनों देवताओंके संयोगसे पवित्र होकर वे त्रिभुवनको पावन करती हैं। भगवती भागीरथीका आश्रय लेकर मनुष्य सम्पूर्ण धर्मोका फल प्राप्त करता है। पाठ, यज्ञ, मन्त्र, होम और देवार्चन आदि समस्त शुभ कर्मोंसे भी जीवको वह गति नहीं
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सृष्टिखण्ड]
. गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल .
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मिलती, जो श्रीगङ्गाजीके सेवनसे प्राप्त होती है।* जाओ। विशेषतः इस कलिकालमें सत्त्वगुणसे रहित गङ्गाजीके सेवनसे बढ़कर धर्म-साधनका दूसरा कोई मनुष्योंको कष्टसे छुड़ाने और मोक्ष प्रदान करनेवाली उपाय नहीं है। इसलिये नारद ! तुम भी गङ्गाजीका गङ्गाजी ही हैं। गङ्गाजीके सेवनसे अनन्त पुण्यका उदय आश्रय लो। हड्डियोंमें गङ्गाजीके जलका स्पर्श होनेसे होता है। राजा सगरके पुत्र अपने पितरों तथा वंशजोंके साथ पुलस्त्यजी कहते हैं-भीष्म ! तदनन्तर वे स्वर्गलोकमें पहुंच गये।
ब्राह्मण व्यासजीकी कल्याणमयी वाणी सुनकर बड़े व्यासजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ नारद ब्रह्माजीके प्रसन्न हुए और गङ्गाजीके तटपर तपस्या करके मुखसे यह बात सुनकर गङ्गाद्वार (हरिद्वार) में गये और मोक्षमार्गको पा गये। जो मनुष्य इस उत्तम परम पवित्र वहाँ तपस्या करके ब्रह्माजीके समान हो गये। गङ्गाजी उपाख्यानका श्रवण करता है, वह समस्त दुःख-राशिसे सर्वत्र सुलभ होते हुए भी गङ्गाद्वार, प्रयाग और गङ्गा- पार हो जाता है तथा उसे गङ्गाजीमें स्रान करनेका फल सागर-संगम-इन तीन स्थानोंमें दुर्लभ हैं-वहाँ मिलता है। एक बार भी इस प्रसङ्गका पाठ करनेपर इनकी प्राप्ति बड़े भाग्यसे होती है। वहाँ तीन रात्रि या एक सम्पूर्ण यज्ञोंका फल मिल जाता है। जो गङ्गाजीके रात निवास करनेसे भी मनुष्य परम गतिको प्राप्त होता है; तटपर ही दान, जप, ध्यान, स्तोत्र, मन्त्र और देवार्चन इसलिये धर्मज्ञ ब्राह्मणो! सब प्रकारसे प्रयत्न करके आदि कर्म कराता है, उसे अनन्त फलकी प्राप्ति तुमलोग परम कल्याणमयी भगवती भागीरथीके तीरपर होती है।
गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल पुलस्त्यजी कहते हैं-भीष्प ! इसके बाद एक एक दिव्य मोदक (लठ्ठ) पार्वतीके हाथमें दिया। मोदक दिन व्यासजीके शिष्य महामुनि संजयने अपने गुरुदेवको देखकर दोनों बालक मातासे माँगने लगे। तब प्रणाम करके प्रश्न किया।
___ पार्वतीदेवी विस्मित होकर पुत्रोंसे बोलीं-'मैं पहले संजयने पूछा-गुरुदेव ! आप मुझे देवताओंके इसके गुणोंका वर्णन करती हूँ, तुम दोनों सावधान होकर पूजनका सुनिश्चित क्रम बतलाइये। प्रतिदिनकी पूजामें सुनो। इस मोदकके सूंघनेमात्रसे अमरत्व प्राप्त होता है; सबसे पहले किसका पूजन करना चाहिये? जो इसे सूंघता या खाता है, वह सम्पूर्ण शास्त्रोंका मर्मज्ञ,
व्यासजी बोले-संजय ! विनोंको दूर करनेके सब तन्त्रोंमें प्रवीण, लेखक, चित्रकार, विद्वान्, लिये सर्वप्रथम गणेशजीकी पूजा करनी चाहिये। ज्ञान-विज्ञानके तत्त्वको जाननेवाला और सर्वज्ञ होता पार्वतीदेवीने पूर्वकालमें भगवान् शङ्करजीके संयोगसे है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पुत्रो ! तुममेंसे जो स्कन्द (कार्तिकेय) और गणेश नामके दो पुत्रोंको जन्म धर्माचरणके द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आयेगा, उसीको मैं दिया। उन दोनोंको देखकर देवताओंको पार्वतीजीपर यह मोदक दूँगी। तुम्हारे पिताकी भी यही सम्मति है।' बड़ी श्रद्धा हुई और उन्होंने अमृतसे तैयार किया हुआ माताके मुखसे ऐसी बात सुनकर परम चतुर स्कन्द
* पाठयज्ञपरैः सर्वमन्त्रहोमसुराचनैः । सा गतिर्न भवेजन्तोर्गङ्गासंसेवया च या॥
(६०।११६) + विशेषात्कलिकाले च गङ्गा मोक्षप्रदा नृणाम् । कृच्छत्रस क्षीणसत्त्वानामनन्तः पुण्यसम्भवः ।
(६० । १२३)
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" . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्यपुराण
मयूरपर आरूढ़ हो तुरंत ही त्रिलोकीके तीर्थोकी यात्राके सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है। चतुर्थीको दिनभर लिये चल दिये। उन्होंने मुहूर्तभरमें सब तीर्थोंमें स्नान कर उपवास करके श्रीगणेशजीका पूजन करे और रातमें अन्न लिया। इधर लम्बोदरधारी गणेशजी स्कन्दसे भी बढ़कर ग्रहण करे। 'गणेशजीकी स्तुति इस प्रकार करनी बुद्धिमान् निकले। वे माता-पिताकी परिक्रमा करके बड़ी चाहिये-'श्रीगणेशजी ! आपको नमस्कार है। आप प्रसन्नताके साथ पिताजीके सम्मुख खड़े हो गये। फिर सम्पूर्ण विनोंकी शान्ति करनेवाले हैं। उमाको आनन्द स्कन्द भी आकर पिताके सामने खड़े हुए और बोले, प्रदान करनेवाले परम बुद्धिमान् प्रभो ! भवसागरसे मेरा 'मुझे मोदक दीजिये। तब पार्वतीजीने दोनों पुत्रोंकी ओर उद्धार कीजिये। आप भगवान् शङ्करको आनन्दित देखकर कहा-'समस्त तीर्थोंमें किया हुआ सान, करनेवाले हैं। अपना ध्यान करनेवालोंको ज्ञान और सम्पूर्ण देवताओंको किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञोका विज्ञान प्रदान करते हैं। विघ्रराज! आप सम्पूर्ण दैत्योंके अनुष्ठान तथा सब प्रकारके व्रत, मन्त्र, योग और एकमात्र संहारक हैं, आपको नमस्कार है। आप सबको संयमका पालन-ये सभी साधन माता-पिताके पूजनके प्रसन्नता और लक्ष्मी देनेवाले हैं, सम्पूर्ण यज्ञोंके एकमात्र सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकते । इसलिये यह रक्षक तथा सब प्रकारके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणोंसे भी बढ़कर है। गणपते ! मैं प्रेमपूर्वक आपको प्रणाम करता हूँ।'* जो अतः देवताओंका बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेशको मनुष्य उपर्युक्त भावके मन्त्रोंसे गणेशजीका पूजन करता ही अर्पण करती हूँ। माता-पिताको भक्तिके कारण ही है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित इसकी प्रत्येक यज्ञमें सबसे पहले पूजा होगी।' होता है। अब मैं गणेशजीके बारह नामोंका कल्याणमय
महादेवजी बोले-इस गणेशके ही अप्रपूजनसे स्तोत्र सुनाता है। उनके बारह नाम ये हैं-गणपति, सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हों।
विघ्रराज, लम्बतुण्ड, गजानन, द्वैमातुर, हेरम्ब, एकदन्त, व्यासजी कहते हैं-अतः द्विजको उचित है कि गणाधिप, विनायक, चारुकर्ण, पशुपाल और भवात्मज । वह सब यज्ञोंमें पहले गणेशजीका ही पूजन करे। ऐसा जो प्रातःकाल उठकर इन बारह नामोंका पाठ करता है, करनेसे उन यज्ञोंका फल कोटि-कोटि गुना अधिक सम्पूर्ण विश्व उसके वशमें हो जाता है तथा उसे कभी होगा। सम्पूर्ण देवी-देवताओंका कथन भी यही है। विनका सामना नहीं करना पड़ता।' देवाधिदेवी पार्वतीने सर्वगुणदायक पवित्र मोदक उपनयन, विवाह आदि सम्पूर्ण माङ्गलिक कार्योंमें गणेशजीको ही दिया तथा बड़ी प्रसन्नताके साथ सम्पूर्ण जो श्रीगणेशजीका पूजन करता है, वह सबको अपने देवताओंके सामने ही उन्हें समस्त गणोंका अधिपति वशमें कर लेता है और उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती बनाया। इसलिये विस्तृत यज्ञों, स्तोत्रपाठों तथा है। जो मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञके कलशोंमें 'गणानां त्वा-' नित्यपूजनमें भी पहले गणेशजीकी पूजा करके ही मनुष्य इस मन्त्रसे श्रीगणेशजीका आवाहन करके उनकी पूजा
* गणाधिप नमस्तुभ्यं सर्वविभप्रशान्तिद । उमानन्दप्रद प्राज्ञ त्राहि मां भवसागरात् ॥ हरानन्दकर ध्यानज्ञानविज्ञानद प्रभो । विश्वराज नमस्तुभ्यं सर्वदैत्यैकसूदन ।। सर्वप्रीतिप्रद श्रीद सर्वयजैकरक्षक । सर्वाभीष्टप्रद प्रीत्या नमामि त्वां गणाधिप ।।
___-(६१।२६-२८) + गणपतिर्विनराजो लम्बतुण्डो गजाननः । द्वैमातुरच हेरम्ब एकदन्तो गणाधिपः ॥ विनायकश्चारुकर्णः पशुपालो भवात्मजः । द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ॥ विश्वं तस्य भवेदश्यं न च विघ्नं भवेत् क्वचित्।
(६१ । ३१-३३).
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सृष्टिखण्ड ] • संजय-व्यास-संवाद-मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण. २०९ .......................................tarametermerimeterinterneteenternment... करता है, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त होती है तथा वह तथा वह तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लेता है। स्वर्ग और मोक्षको भी पा लेता है। विद्वान् पुरुषको सम्पूर्ण देवता अपने अभीष्टकी सिद्धिके लिये जिनका चाहिये कि वह मिट्टीकी दीवारोंमें, प्रतिमा अथवा चित्रके पूजन करते हैं, समस्त विघ्नोंका उच्छेद करनेवाले उन रूपमें पत्थरपर, दरवाजेकी लकड़ीमें तथा पात्रोंमें श्रीगणेशजीको नमस्कार है।* जो भगवान् श्रीविष्णुको श्रीगणेशजीकी मूर्ति अङ्कित करा ले। इनके सिवा प्रिय लगनेवाले पुष्पों तथा अन्यान्य सुगन्धित फूलोंसे, दूसरे-दूसरे स्थानमें भी, जहाँ हमेशा दृष्टि पड़ सके, फल, मूल, मोदक और सामयिक सामग्रियोंसे, दही श्रीगणेशजीकी स्थापना करके अपनी शक्तिके अनुसार और दूधसे, प्रिय लगनेवाले बाजोंसे तथा धूप और दीप उनका पूजन करे । जो ऐसा करता है उसके समस्त प्रिय आदिके द्वारा गणेशजीकी पूजा करता है, उसे सब कार्य सिद्ध होते हैं। उसके सामने कोई विघ्न नहीं आता प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
संजय-व्यास-संवाद-मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
संजयने पूछा-ब्रह्मन् !सात्त्विक पुरुष मनुष्योंमें नाश हो जाता है, तब एक ही धर्मात्मा पुरुष समस्त पुर, असुर आदिके लक्षणोंको कैसे जान सकते हैं ? नाथ! प्राम, जनसमुदाय और कुलकी रक्षा करता है। मेरे इस संशयको दूर कीजिये।
जो मनुष्य अपवित्र एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थोके व्यासजी बोले-द्विजों तथा अन्य जातियोंमें भक्षणमें आनन्द मानता है, बराबर पाप करता है और अपने पूर्वकृत पापोंके अनुरूप असुर, राक्षस और प्रेत रातमें घूम-घूमकर चोरी करता रहता है, उसे विद्वान् भी जन्म ग्रहण करते हैं; किन्तु वे अपना स्वभाव नहीं पुरुषोंको वञ्चक समझना चाहिये। जो सम्पूर्ण कर्तव्य छोड़ते। मनुष्योंमें जो असुर जन्मते हैं, वे सदा ही कार्योंसे अनभिज्ञ तथा सब प्रकारके कर्मोंसे अपरिचित लड़ाई-झगड़ा करनेको उत्सुक रहते हैं। जो मायावी, है, जिसे समयोचित सदाचारका ज्ञान नहीं है, वह मूर्ख दुराचारी और क्रूर हों, उन्हें इस पृथ्वीपर राक्षस वास्तवमें पशु ही है। जो हिंसक, सजातीय मनुष्योंको समझना चाहिये।
उद्वेजित करनेवाला, कलह-प्रिय, कायर और उच्छिष्ट इसके विपरीत एक भी बुद्धिमान् एवं सुयोग्य पुत्र भोजनका प्रेमी है, वह मनुष्य कुत्ता कहा गया है। जो हो तो उसके द्वारा समूचे कुलकी रक्षा होती है। एक भी स्वभावसे ही चशल, भोजनके लिये सदा लालायित वैष्णव पुत्र अपने कुलकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर रहनेवाला, कूद-कूदकर चलनेवाला और जंगलमें देता है। जो पुण्यतीथों और मुक्तिक्षेत्रमें ज्ञानपूर्वक रहनेका प्रेमी है, उस मनुष्यको इस पृथ्वीपर बंदर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे संसार-सागरसे तर जाते हैं। समझना चाहिये। जो वाणी और बुद्धिद्वारा अपने
और जो ब्रह्मज्ञानी होते हैं, वे स्वयं तो तरते ही है, कुटुम्बियों तथा दूसरे लोगोंकी भी चुगली खाता और दूसरोंको भी तार देते हैं। एक पतिव्रता स्त्री अपने सबके लिये उद्वेगजनक होता है, वह पुरुष सर्पके समान कुलकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर देती है। इसी माना गया है। जो बलवान्, आक्रमण करनेवाला, प्रकार द्विज और देवताओंके पूजनमें तत्पर रहनेवाला नितान्त निर्लज्ज, दुर्गन्धयुक्त मांसका प्रेमी और भोगासक्त धर्मात्मा जितेन्द्रिय पुरुष भी अपने कुलका उद्धार करता होता है, वह मनुष्योंमें सिंह कहा गया है। उसकी है। कलियुगके अन्तमें जब शहर और गाँवोंमें धर्मका आवाज सुनते ही दूसरे भेड़िये आदिकी श्रेणीमें गिने
* अभिप्रेतार्थसिस्यर्थ पूजितो यः सुरैरपि । सर्वविघ्नच्छिदे तस्मै गणाधिपतये नमः ॥ (६३ । १०)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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जानेवाले लोग भयभीत और दुःखी हो जाते हैं। जिनकी उनकी मृत्यु जल्दी होती है। सत्ययुगमें देवजातिके दृष्टि दूरतक नहीं जाती, ऐसे लोग हाथी माने जाते मनुष्य ही इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। दैत्य अथवा अन्य हैं। इसी क्रमसे मनुष्योंमें अन्य पशुओंका विवेक कर जातिके नहीं। त्रेतामें एक चौथाई, द्वापरमें आधा तथा लेना चाहिये।
कलियुगकी सन्ध्यामें समूचा भूमण्डल दैत्य आदिसे अब हम नररूपमें स्थित देवताओंका लक्षण व्याप्त हो जाता है। देवता और असुर जातिके मनुष्योंका बतलाते हैं। जो द्विज, देवता, अतिथि, गुरु, साधु और समान संख्यामें जन्म होनेके कारण ही महाभारतका युद्ध तपस्वियोंके पूजनमें संलग्न रहनेवाला, नित्य छिड़नेवाला है। दुर्योधनके योद्धा और सेना आदि जितने तपस्यापरायण, धर्मशास्त्र एवं नीतिमें स्थित, क्षमाशील, भी सहायक हैं, वे दैत्य आदि ही हैं। कर्ण आदि वीर क्रोधजयी, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, लोभहीन, प्रिय सूर्य आदिके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। गङ्गानन्दन भीष्म बोलनेवाला, शान्त धर्मशास्त्रप्रेमी, दयालु, लोकप्रिय, वसुओंमें प्रधान हैं। आचार्य द्रोण देवमुनि बृहस्पतिके मिष्टभाषी, वाणीपर अधिकार रखनेवाला, सब कार्योंमें अंशसे प्रकट हुए हैं। नन्द-नन्दन श्रीकृष्णके रूपमें दक्ष, गुणवान्, महाबली, साक्षर, विद्वान्, आत्मविद्या साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु है। विदुर साक्षात् धर्म हैं। आदिके लिये उपयोगी कार्योंमें संलग्न, घी और गायके गान्धारी, द्रौपदी और कुन्ती-इनके रूपमें देवियाँ ही दूध-दही आदिमें तथा निरामिष भोजनमें रुचि रखने- धरातलपर अवतीर्ण हुई हैं। वाला, अतिथिको दान देने और पार्वण आदि कर्मोमें जो मनुष्य जितेन्द्रिय, दुर्गुणोंसे मुक्त तथा प्रवृत्त रहनेवाला है, जिसका समय स्नान-दान आदि शुभ नीतिशास्त्रके तत्त्वको जाननेवाला है और ऐसे ही नाना कर्म, व्रत, यज्ञ, देवपूजन तथा स्वाध्याय आदिमें ही प्रकारके उत्तम गुणोंसे सन्तुष्ट दिखायी देता है, वह व्यतीत होता है, कोई भी दिन व्यर्थ नहीं जाने पाता, वही देवस्वरूप है। स्वर्गका निवासी हो या मनुष्यलोककामनुष्य देवता है। यही मनुष्योंका सनातन सदाचार है। जो पुराण और तन्त्रमें बताये हुए पुण्यकर्मोका स्वयं श्रेष्ठ मुनियोंने मानवोंका आचरण देवताओके ही समान आचरण करता है, वही इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें बतलाया है। अन्तर इतना ही है कि देवता सत्त्वगुणमें समर्थ है। जो शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेशका बढ़े-चढ़े होते हैं [इसलिये निर्भय होते हैं, और उपासक है, वह समस्त पितरोंको तारकर इस पृथ्वीका मनुष्योंमें भय अधिक होता है । देवता सदा गम्भीर रहते उद्धार करनेमें समर्थ है। विशेषतः जो वैष्णवको देखकर हैं और मनुष्योंका स्वभाव सर्वदा मृदु होता है। इस प्रसन्न होता और उसकी पूजा करता है, वह सब पापोंसे प्रकार पुण्यविशेषके तारतम्यसे सामान्यतः सभी मुक्त हो इस भूतलका उद्धार कर सकता है। जो ब्राह्मण जातियोंमें विभिन्न स्वभावके मनुष्योंका जन्म होता है; यजन-याजन आदि छः कर्मोंमें संलग्न, सब प्रकारके उनके प्रिय-अप्रिय पदार्थोंको जानकर पुण्य-पाप तथा यज्ञोंमें प्रवृत्त रहनेवाला और सदा धार्मिक उपाख्यान गुण-अवगुणका निश्चय करना चाहिये।
सुनानेका प्रेमी है, वह भी इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें __ मनुष्योंमें यदि पति-पलीके अंदर जन्मगत समर्थ है।। संस्कारोंका भेद हो तो उन्हें तनिक भी सुख नहीं मिलता। जो लोग विश्वासघाती, कृतघ्न, व्रतका उल्लङ्घन सालोक्य आदि मुक्तिकी स्थितिमें रहना पड़े अथवा करनेवाले तथा ब्राह्मण और देवताओंके द्वेषी हैं, वे नरकमें, सजातीय संस्कारवालोंमें ही परस्पर प्रेम होता मनुष्य इस पृथ्वीका नाश कर डालते हैं। जो माताहै। शुभ कार्यमें संलग्न रहनेवाले पुण्यात्मा मनुष्योंको पिता, स्त्री, गुरुजन और बालकोंका पोषण नहीं करते, अत्यन्त पुण्यके कारण दीर्घायुकी प्राप्ति होती है तथा जो देवता, ब्राह्मण और राजाओंका धन हर लेते हैं तथा जो दैत्य आदिकी श्रेणीमें गिने जानेवाले पापात्मा मनुष्य हैं, मोक्षशास्त्र में श्रद्धा नहीं रखते, वे मनुष्य भी इस पृथ्वीका
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सृष्टिखण्ड ]
• भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहाल्य
नाश करते हैं। जो पापी मदिरा पीने और जुआ खेलनेमें आसक्त रहते और पाखण्डियों तथा पतितोंसे वार्तालाप करते हैं, जो महापातकी और अतिपातकी हैं, जिनके द्वारा बहुत-से जीव-जन्तु मारे जाते हैं, वे लोग इस भूतलका विनाश करनेवाले हैं। जो सत्कर्मसे रहित, सदा दूसरोंको उद्विग्न करनेवाले और निर्भय हैं, स्मृतियों तथा धर्मशास्त्रोंमें बताये हुए शुभकमका नाम सुनकर जिनके हृदयमें उद्वेग होता है, जो अपनी उत्तम जीविका छोड़कर नीच वृत्तिका आश्रय लेते हैं तथा द्वेषवश गुरुजनोंकी निन्दामें प्रवृत्त होते हैं, वे मनुष्य इस भूलोकका नाश कर
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⭑ भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्य
प्रतिदिन जिसका उदय होता है, यह कौन है ? इसका क्या प्रभाव है ? तथा इस किरणोंके स्वामीका प्रादुर्भाव कहाँसे हुआ है? मैं देखता हूँ — देवता, बड़े-बड़े मुनि सिद्ध, चारण, दैत्य, राक्षस तथा ब्राह्मण आदि समस्त मानव इसकी सदा ही आराधना किया करते हैं।
डालते हैं जो दाताको दानसे रोकते और पापकर्मकी ओर प्रेरित करते हैं तथा जो दीनों और अनाथोंको पीड़ा पहुँचाते हैं, वे लोग इस भूतलका सत्यानाश करते हैं। ये तथा और भी बहुत-से पापी मनुष्य हैं, जो दूसरे लोगोंको पापोंमें ढकेलकर इस पृथ्वीका सर्वनाश करते हैं।
जो मानव इस प्रसङ्गको सुनता है, उसे इस भूतलपर दुर्गत, दुःख, दुर्भाग्य और दीनताका सामना नहीं करना पड़ता। उसका दैत्य आदिके कुलमें जन्म नहीं होता तथा वह स्वर्गलोकमें शाश्वत सुखका उपभोग करता है।
व्यासजी बोले- वैशम्पायन! यह ब्रह्मके स्वरूपसे प्रकट हुआ ब्रह्मका ही उत्कृष्ट तेज है। इसे साक्षात् ब्रह्ममय समझो। यह धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थीको देनेवाला है। निर्मल किरणोंसे सुशोभित यह तेजका पुञ्ज पहले अत्यन्त प्रचण्ड और दुःसह था। इसे देखकर इसकी प्रखर रश्मियोंसे पीड़ित हो सब लोग इधर-उधर भागकर छिपने लगे यें ओरके समुद्र, समस्त बड़ी-बड़ी नदियाँ और ५ आदि सूखने लगे। उनमें रहनेवाले प्राणी मृत्युके ग्रास बनने लगे। मानव समुदाय भी शोकसे आतुर हो उठा। यह देख इन्द्र आदि देवता ब्रह्माजीके पास गये और उनसे यह सारा हाल कह सुनाया। तब ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा- 'देवगण! यह तेज आदि ब्रह्मके स्वरूपसे जलमें प्रकट हुआ है। यह तेजोमय पुरुष उस ब्रह्मके ही समान है। संन्पत्पु० ८
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वैशम्पायनजीने पूछा- विप्रवर! आकाशमें इसमें और आदि ब्रह्ममें तुम अन्तर न समझना। ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त चराचर प्राणियोंसहित समूची त्रिलोकीमें इसीकी सत्ता है। ये सूर्यदेव सत्त्वमय हैं। इनके द्वारा चराचर जगत्का पालन होता है। देवता, जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज आदि जितने भी प्राणी है— सबकी रक्षा सूर्यसे ही होती है। इन सूर्य देवताके प्रभावका हम पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकते। इन्होंने ही लोकोंका उत्पादन और पालन किया है सबके रक्षक होनेके कारण इनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। पौ फटनेपर इनका दर्शन करनेसे राशि राशि पाप विलीन हो जाते हैं। द्विज आदि सभी मनुष्य इन सूर्यदेवकी आराधना करके मोक्ष पा लेते हैं। सन्ध्योपासनके समय ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण अपनी भुजाएँ ऊपर उठाये इन्हीं सूर्यदेवका उपस्थान करते हैं और उसके फलस्वरूप समस्त देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। सूर्यदेवके ही मण्डलमें रहनेवाली सन्ध्यारूपिणी देवीकी उपासना करके सम्पूर्ण द्विज स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस भूतलपर जो पतित और जूठन खानेवाले मनुष्य हैं, वे भी भगवान् सूर्यकी किरणोंके स्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं। सन्ध्याकालमें सूर्यकी उपासना करनेमात्रसे द्विज सारे पापोंसे शुद्ध
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२१२ - अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण ........ ................... हो जाता है।* जो मनुष्य चाण्डाल, गोधाती (कसाई), हो। तुम्हारे बिना समस्त संसारका जीवन एक दिन भी पतित, कोढ़ी, महापातकी और उपपातकीके दीख नहीं रह सकता । तुम्हीं सम्पूर्ण लोकोंके प्रभु तथा चराचर जानेपर भगवान् सूर्यका दर्शन करते हैं, वे भारी-से- प्राणियोंके रक्षक, पिता और माता हो। तुम्हारी ही कृपासे भारी पापसे मुक्त हो पवित्र हो जाते हैं। सूर्यको उपासना यह जगत् टिका हुआ है। भगवन् ! सम्पूर्ण देवताओंमें करनेमात्रसे मनुष्यको सब रोगोंसे छुटकारा मिल जाता तुम्हारी समानता करनेवाला कोई नहीं है। शरीरके भीतर, है। जो सूर्यको उपासना करते हैं, वे इहलोक और बाहर तथा समस्त विश्वमें-सर्वत्र तुम्हारी सत्ता है। परलोकमे भी अंधे, दरिद्र, दुःखी और शोकप्रस्त नहीं तुमने ही इस जगत्को धारण कर रखा है। तुम्हीं रूप होते। श्रीविष्णु और शिव आदि देवताओंके दर्शन सब और गन्ध आदि उत्पन्न करनेवाले हो । रसोंमें जो स्वाद लोगोंको नहीं होते, ध्यानमें ही उनके स्वरूपका है, वह तुम्हींसे आया है। इस प्रकार तुम्ही सम्पूर्ण साक्षात्कार किया जाता है; किन्तु भगवान् सूर्य प्रत्यक्ष जगत्के ईश्वर और सबकी रक्षा करनेवाले सूर्य हो। देवता माने गये हैं।
प्रभो ! तीर्थों, पुण्यक्षेत्रों, यज्ञों और जगत्के एकमात्र - देवता बोले-ब्रान् ! सूर्य देवताको प्रसन्न कारण तुम्हीं हो। तुम परम पवित्र, सबके साक्षी और करनेके लिये आराधना, उपासना अथवा पूजा तो दूर गुणोंके धाम हो । सर्वज्ञ, सबके कर्ता, संहारक, रक्षक, रहे, इनका दर्शन ही प्रलयकालकी आगके समान है। अन्धकार, कीचड़ और रोगोंका नाश करनेवाले तथा भूतलके मनुष्य आदि सम्पूर्ण प्राणी इनके तेजके प्रभावसे दरिद्रताके दुःखोंका निवारण करनेवाले भी तुम्ही हो। इस मृत्युको प्राप्त हो गये। समुद्र आदि जलाशय नष्ट हो लोक तथा परलोकमें सबसे श्रेष्ठ बन्धु एवं सब कुछ गये। हमलोगोंसे भी इनका तेज सहन नहीं होता; फिर जानने और देखनेवाले तुम्ही हो। तुम्हारे सिवा दूसरा दूसरे लोग कैसे सह सकते हैं। इसलिये आप ही ऐसी कोई ऐसा नहीं है, जो सब लोकोंका उपकारक हो।। कृपा करें, जिससे हमलोग भगवान् सूर्यका पूजन कर आदित्यने कहा-महाप्राज्ञ पितामह ! आप सकें। सब मनुष्य भक्तिपूर्वक सूर्यदेवकी आराधना कर विश्वके स्वामी तथा स्रष्टा हैं, शीघ्र अपना मनोरथ सकें-इसके लिये आप ही कोई उपाय करें। बताइये। मैं उसे पूर्ण करूंगा।
व्यासजी कहते हैं-देवताओंके वचन सुनकर ब्रह्माजी बोले-सुरेश्वर ! तुम्हारी किरणे अत्यन्त ब्रह्माजी ग्रहोंके स्वामी भगवान् सूर्यके पास गये और सम्पूर्ण प्रखर हैं। लोगोंके लिये वे अत्यन्त दुःसह हो गयी जगत्का हित करनेके लिये उनकी स्तुति करने लगे। हैं। अतः जिस प्रकार उनमें कुछ मृदुता आ सके, वही
ब्रह्माजी बोले-देव ! तुम सम्पूर्ण संसारके उपाय करो। नेत्रस्वरूप और निरामय हो। तुम साक्षात् ब्रह्मरूप हो। आदित्यने कहा-प्रभो! वास्तवमे मेरी तुम्हारी ओर देखना कठिन है। तुम प्रलयकालकी कोटि-कोटि किरणें संसारका विनाश करनेवाली ही है। अग्निके समान तेजस्वी हो। सम्पूर्ण देवताओंके भीतर अतः आप किसी युक्तिद्वारा इन्हें खरादकर कम कर दें। तुम्हारी स्थिति है। तुम्हारे श्रीविग्रहमें वायुके सखा अग्नि तब ब्रह्माजीने सूर्यके कहनेसे विश्वकर्माको बुलाया निरन्तर विराजमान रहते हैं। तुम्हींसे अन्न आदिका पाचन और वज्रकी सान बनवाकर उसीके ऊपर प्रलयकालके तथा जीवनकी रक्षा होती है। देव ! तुम्हींसे उत्पत्ति और समान तेजस्वी सूर्यको आरोपित करके उनके प्रचण्ड प्रलय होते हैं। एकमात्र तुम्ही सम्पूर्ण भुवनोंके स्वामी तेजको छाँट दिया। उस छैटे हुए तेजसे ही भगवान्
* सन्ध्योपासनमात्रेण कल्मषात् पूतां व्रजेत्। (७५ ॥ १६)
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सृष्टिखण्ड ]
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भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल - भद्रेश्वरकी कथा •
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श्रीविष्णुका सुदर्शनचक्र बनाया गया। अमोघ यमदण्ड, शङ्करजीका त्रिशूल, कालका खड्ग, कार्तिकेयको आनन्द प्रदान करनेवाली शक्ति तथा भगवती दुर्गाके विचित्र शूलका भी उसी तेजसे निर्माण हुआ। ब्रह्माजीकी आज्ञासे विश्वकर्माने उन सब अस्त्रोंको फुर्तीसे तैयार किया था। सूर्यदेवकी एक हजार किरणें शेष रह गयीं, बाकी सब छाँट दी गयीं। ब्रह्माजीके बताये हुए उपायके अनुसार ही ऐसा किया गया।
कश्यपमुनिके अंश और अदिति के गर्भसे उत्पन्न होनेके कारण सूर्य आदित्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। भगवान् सूर्य विश्वकी अन्तिम सीमातक विचरते और मेरु गिरिके शिखरों पर भ्रमण करते रहते हैं। ये दिन-रात इस पृथ्वीसे लाख योजन ऊपर रहते हैं। विधाताकी प्रेरणा से चन्द्रमा आदि ग्रह भी वहीं विचरण करते हैं। सूर्य बारह स्वरूप धारण करके बारह महीनोंमें बारह राशियों में संक्रमण करते रहते हैं। उनके संक्रमणसे ही संक्रान्ति होती है, जिसको प्रायः सभी लोग जानते हैं।
मुने! संक्रान्तियोंमें पुण्यकर्म करनेसे लोगोंको जो फल मिलता है, वह सब हम बतलाते हैं। धन, मिथुन, मीन और कन्या राशिकी संक्रान्तिको षडशीति कहते हैं तथा वृष, वृश्चिक, कुम्भ और सिंह राशिपर जो सूर्यको संक्रान्ति होती है, उसका नाम विष्णुपदी है। षडशीति नामकी संक्रान्तिमें किये हुए पुण्यकर्मका फल छियासी हजारगुना, विष्णुपदीमें लाखगुना और उत्तरायण या दक्षिणायन आरम्भ होनेके दिन कोटि-कोटिगुना अधिक
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व्यासजी कहते हैं— कैलासके रमणीय शिखरपर भगवान् महेश्वर सुखपूर्वक बैठे थे। इसी समय स्कन्दने उनके पास जा पृथ्वीपर मस्तक टेककर उन्हें प्रणाम किया और कहा- 'नाथ! मैं आपसे रविवार आदिका यथार्थ फल सुनना चाहता हूँ।'
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★ भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
महादेवजीने कहा- बेटा! रविवारके दिन मनुष्य व्रत रहकर सूर्यको लाल फूलोंसे अर्घ्य दे और
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होता है। दोनों अयनोंके दिन जो कर्म किया जाता है, वह अक्षय होता है। मकरसंक्रान्तिमें सूर्योदयके पहले स्नान करना चाहिये। इससे दस हजार गोदानका फल प्राप्त होता है। उस समय किया हुआ तर्पण, दान और देवपूजन अक्षय होता है। विष्णुपदी नामक संक्रान्तिमें किये हुए दानको भी अक्षय बताया गया है। दाताको प्रत्येक जन्ममें उत्तम निधिकी प्राप्ति होती है। शीतकालमें रूईदार वस्त्र दान करनेसे शरीरमें कभी दुःख नहीं होता। तुला दान और शय्या दान दोनोंका ही फल अक्षय है। माघमासके कृष्णपक्षकी अमावास्याको सूर्योदयके पहले जो तिल और जलसे पितरोंका तर्पण करता है, वह स्वर्गमें अक्षय सुख भोगता है जो अमावास्याके दिन सुवर्णजटित सींग और मणिके समान कान्तिवाली शुभलक्षणा गौको, उसके खुरोंमें चाँदी मँढ़ाकर काँसेके बने हुए दुग्धपात्रसहित श्रेष्ठ ब्राह्मणके लिये दान करता है, वह चक्रवर्ती राजा होता है। जो उक्त तिथिको तिलकी गौ बनाकर उसे सब सामग्रियोंसहित दान करता है, वह सात जन्मके पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें अक्षय सुखका भागी होता है। ब्राह्मणको भोजनके योग्य अन्न देनेसे भी अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जो उत्तम ब्राह्मणको अनाज, वस्त्र घर आदि दान करता है, उसे लक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती। माघमासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको मन्वन्तर- तिथि कहते हैं; उस दिन जो कुछ दान किया जाता है, वह सब अक्षय बताया गया है। अतः दान और सत्पुरुषोंका पूजनपरलोकमें अनन्त फल देनेवाले हैं।
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रातको हविष्यात्र भोजन करे। ऐसा करनेसे वह कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। रविवारका व्रत परम पवित्र और हितकर है। वह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, पुण्यप्रद, ऐश्वर्यदायक, रोगनाशक और स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। यदि रविवारके दिन सूर्यकी संक्रान्ति तथा शुक्लपक्षकी सप्तमी हो तो उस दिन किया हुआ व्रत, पूजा और जप- सब अक्षय होता है।
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
शुक्लपक्षके रविवारको ग्रहपति सूर्यकी पूजा करनी चाहिये। हाथमें फूल ले, लाल कमलपर विराजमान, सुन्दर श्रीवासे सुशोभित, रक्तवस्त्रधारी और लाल रंगके आभूषणोंसे विभूषित भगवान् सूर्यका ध्यान करे और फूलोंको सूंघकर ईशान कोणकी ओर फेंक दे। इसके बाद 'आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुः प्रचोदयात्' इस सूर्य गायत्रीका जप करे। तदनन्तर गुरुके उपदेशके अनुसार विधिपूर्वक पूजा करे। भक्तिके साथ पुष्प और केले आदिके सुन्दर फल अर्पण करके जल चढ़ाना चाहिये। जलके बाद चन्दन, चन्दनके बाद धूप, धूपके बाद दीप, दीपके पश्चात् नैवेद्य तथा उसके बाद जल निवेदन करना चाहिये। तत्पश्चात् जप, स्तुति, मुद्रा और नमस्कार करना उचित है। पहली मुद्राका नाम अञ्जलि और दूसरीका नाम धेनु है। इस प्रकार जो सूर्यका पूजन करता है, वह उन्हींका सायुज्य प्राप्त करता है।
भगवान् सूर्य एक होते हुए भी कालभेदसे नाना रूप धारण करके प्रत्येक मासमें तपते रहते हैं। एक ही सूर्य बारह रूपोंमें प्रकट होते हैं। मार्गशीर्षमें मित्र, पौष में सनातन विष्णु, माघमें वरुण, फाल्गुनमें सूर्य, चैत्रमासमें भानु, वैशाखमें तापन, ज्येष्ठमें इन्द्र, आषाढ़ में रवि, श्रावणमें गभस्ति, भादोंमें यम, आश्विनमें हिरण्यरेता और कार्तिकमें दिवाकर तपते हैं। इस प्रकार बारह महीनोंमें भगवान् सूर्य बारह नामोंसे पुकारे जाते हैं। इनका रूप अत्यन्त विशाल, महान् तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्निके समान देदीप्यमान है। जो इस प्रसङ्गका नित्य पाठ करता है, उसके शरीरमें पाप नहीं रहता। उसे रोग दरिद्रता और अपमानका कष्ट भी कभी नहीं उठाना पड़ता। वह क्रमशः यश, राज्य, सुख तथा अक्षय स्वर्ग प्राप्त करता है।
अब मैं सबको प्रसन्नता प्रदान करनेवाले सूर्यके उत्तम महामन्त्रका वर्णन करूँगा। उसका भाव इस प्रकार
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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है— 'सहस्र भुजाओं (किरणों) से सुशोभित भगवान् आदित्यको नमस्कार है। हाथमें कमल धारण करनेवाले वरुणदेवको बारंबार नमस्कार है। अन्धकारका विनाश करनेवाले श्रीसूर्यदेवको अनेक बार नमस्कार है। रश्मिभयी सहस्रों जिह्वाएँ धारण करनेवाले भानुको नमस्कार है। भगवन्! तुम्हीं ब्रह्मा, तुम्हीं विष्णु और तुम्हीं रुद्र हो; तुम्हें नमस्कार है। तुम्हीं सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर अग्नि और वायुरूपसे विराजमान हो; तुम्हें बारंबार प्रणाम है तुम्हारी सर्वत्र गति और सब भूतोंमें स्थिति है, तुम्हारे बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है। तुम इस चराचर जगत्में समस्त देहधारियोंके भीतर स्थित हो। * इस मन्त्रका जप करके मनुष्य अपने सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थों तथा स्वर्ग आदिके भोगको प्राप्त करता है। आदित्य, भास्कर, सूर्य, अर्क, भानु, दिवाकर, सुवर्णरता, मित्र, पूषा, त्वष्टा, स्वयम्भू और तिमिराश-ये सूर्यके बारह नाम बताये गये हैं। जो मनुष्य पवित्र होकर सूर्यके इन बारह नामोंका पाठ करता है, वह सब पापों और रोगोंसे मुक्त हो परम गतिको प्राप्त होता है।
षडानन ! अब मैं महात्मा भास्करके जो दूसरे दूसरे प्रधान नाम हैं, उनका वर्णन करूँगा। तपन, तापन, कर्ता, हर्ता, महेश्वर, लोकसाक्षी, त्रिलोकेश, व्योमाधिप, दिवाकर, अग्निगर्भ, महाविप्र, खग, सप्ताश्ववाहन, पद्महस्त, तमोभेदी, ऋग्वेद, यजुःसामग, कालप्रिय, पुण्डरीक, मूलस्थान और भावित जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इन नामोंका सदा स्मरण करता है, उसे रोगका भय कैसे हो सकता है। कार्तिकेय ! तुम यत्नपूर्वक सुनो। सूर्यका नाम स्मरण सब पापोंको हरनेवाला और शुभ है। महामते ! आदित्यकी महिमाके विषयमें तनिक भी सन्देह नहीं करना चाहिये। 'ॐ इन्द्राय नमः स्वाहा', 'ॐ विष्णवे नमः' – इन मन्त्रोंका जप, होम और सन्ध्योपासन करना चाहिये। ये मन्त्र सब प्रकारले शान्ति
पद्महस्ताय वरुणाय नमो नमः ॥
* ॐ नमः सहस्रबाहवे आदित्याय नमो नमः । नमस्ते नमस्तिमिरनाशाय श्रीसूर्याय नमो नमः । नमः सहस्रजिह्वाय भानवे च नमो नमः ॥ त्वं च ब्रह्मा त्वं च विष्णू रुद्रस्त्वं च नमो नमः । त्वमग्निस्सर्वभूतेषु वायुस्त्वं च नमो नमः ॥
सर्वगः सर्वभूतेषु न हि किचित्त्वया विना चराचरे जगत्यरिमन् सर्वदेहे व्यवस्थितः ॥ (७६ । ३१–३४ )
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सृष्टिखण्ड]
• भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल-भद्रेश्वरकी कथा .
देनेवाले और सम्पूर्ण विनोंके विनाशक हैं। ये सब सुशील और शास्त्रोंके तात्पर्य तथा विधानके पारगामी रोगोंका नाश कर डालते हैं।
विद्वान् थे। सदा सद्भावपूर्वक प्रजाजनोंका पालन करते अब महात्मा भास्करके मूलमन्त्रका वर्णन करूँगा, थे। एक समयकी बात है, उनके बायें हाथमें श्वेत कुष्ठ हो जो सम्पूर्ण कामनाओं एवं प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाला गया। वैद्योंने बहुत कुछ उपचार किया; किन्तु उससे तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वह मन्त्र इस कोढ़का चिह्न और भी स्पष्ट दिखायी देने लगा। तब प्रकार है-'ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः।' इस मन्त्रसे राजाने प्रधान-प्रधान ब्राह्मणों और मन्त्रियोंको बुलाकर सदा सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त होती है-यह निश्चित बात कहा-'विप्रगण ! मेरे हाथमें एक-ऐसा पापका चिह्न है। इसके जपसे रोग नहीं सताते तथा किसी प्रकारके प्रकट हो गया है, जो लोकमें निन्दित होनेके कारण मेरे अनिष्टका भय नहीं होता। यह मन्त्र न किसीको देना लिये दुःसह हो रहा है। अतः मैं किसी महान् पुण्यक्षेत्रमें चाहिये और न किसीसे इसकी चर्चा करनी चाहिये; जाकर अपने शरीरका परित्याग करना चाहता हूँ।' अपितु प्रयत्नपूर्वक इसका निरन्तर जप करते रहना ब्राह्मण बोले-महाराज ! आप धर्मशील और चाहिये। जो लोग अभक्त, सन्तानहीन, पाखण्डी और बुद्धिमान् हैं। यदि आप अपने राज्यका परित्याग कर देंगे लौकिक व्यवहारोंमें आसक्त हों, उनसे तो इस मन्त्रकी तो यह सारी प्रजा नष्ट हो जायगी। इसलिये आपको ऐसी कदापि चर्चा नहीं करनी चाहिये । सन्ध्या और होमकर्ममें बात नहीं कहनी चाहिये। प्रभो ! हमलोग इस रोगको मूलमन्त्रका जप करना चाहिये। उसके जपसे रोग और दबानेका उपाय जानते हैं; वह यह है कि आप यत्नपूर्वक क्रूर ग्रहोंका प्रभाव नष्ट हो जाता है। वत्स ! दूसरे-दूसरे महान् देवता भगवान् सूर्यकी आराधना कीजिये। अनेकों शास्त्रों और बहुतेरे विस्तृत मन्त्रोंकी क्या राजाने पूछा-विप्रवरो! किस उपायसे मैं आवश्यकता है; इस मूलमन्त्रका जप ही सब प्रकारकी भगवान् भास्करको सन्तुष्ट कर सकूँगा? शान्ति तथा सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाला है। ब्राह्मण बोले-राजन् ! आप अपने राज्यमें ही देवता और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाले नास्तिक पुरुषको रहकर सूर्यदेवकी उपासना कीजिये; ऐसा करनेसे आप इसका उपदेश नहीं देना चाहिये । जो प्रतिदिन एक, दो या भयङ्कर पापसे मुक्त हो स्वर्ग और मोक्ष दोनों प्राप्त तीन समय भगवान् सूर्यके समीप इसका पाठ करता है, कर सकेंगे। उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। पुत्रकी कामनावालेको यह सुनकर सम्राट्ने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रणाम पुत्र, कन्या चाहनेवालेको कन्या, विद्याकी अभिलाषा किया और सूर्यकी उत्तम आराधना आरम्भ की। वे रखनेवालेको विद्या और धनार्थीको धन मिलता है। जो प्रतिदिन मन्त्रपाठ, नैवेद्य, नाना प्रकारके फल, अर्घ्य, शुद्ध आचार-विचारसे युक्त हो संयम तथा भक्तिपूर्वक अक्षत, जपापुष्प, मदारके पत्ते, लाल चन्दन, कुंकुम, इस प्रसङ्गका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो सिन्दूर, कदली-पत्र तथा उसके मनोहर फल आदिके द्वारा सूर्यलोकको जाता है। सूर्य देवताके व्रतके दिन तथा भगवान् सूर्यकी पूजा करते थे। राजा गूलरके पात्रमें अर्घ्य अन्यान्य व्रत, अनुष्ठान, यज्ञ, पुण्यस्थान और तीर्थोंमें जो सजाकर सदा सूर्य देवताको निवेदन किया करते थे। इसका पाठ करता है, उसे कोटिगुना फल मिलता है। अर्घ्य देते समय वे मन्त्री और पुरोहितोंके साथ सदा
व्यासजी कहते हैं-मध्यदेशमें भद्रेश्वर नामसे सूर्यके सामने खड़े रहते थे। उनके साथ आचार्य, रानियाँ, प्रसिद्ध एक चक्रवर्ती राजा थे। वे बहुत-सी तपस्याओं अन्तःपुरमें रहनेवाले रक्षक तथा उनकी पलियाँ, दासवर्ग तथा नाना प्रकारके व्रतोंसे पवित्र हो गये थे। प्रतिदिन तथा अन्य लोग भी रहा करते थे। वे सब लोग प्रतिदिन देवता, ब्राह्मण, अतिथि और गुरुजनोंका पूजन करते थे। साथ-ही-साथ अर्घ्य देते थे। सूर्यदेवताके अङ्गभूत उनका बर्ताव न्यायके अनुकूल होता था। वे स्वभावके जितने व्रत थे, उनका भी उन्होंने एकाग्रचित्त होकर
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
अनुष्ठान किया। क्रमशः एक वर्ष व्यतीत होनेपर राजाका श्रवण करता है, उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। इस रोग दूर हो गया। इस प्रकार उस भयङ्कर रोगके नष्ट हो अत्यन्त गोपनीय रहस्यका भगवान् सूर्यने यमराजको जानेपर राजाने सम्पूर्ण जगत्को अपने वशमें करके सबके उपदेश दिया था। भूमण्डलपर तो व्यासके द्वारा ही इसका द्वारा प्रभातकालमें सूर्यदेवताका पूजन और व्रत कराना प्रचार हुआ है।
२. । आरम्भ किया। सब लोग कभी हविष्यान खाकर और ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! इस तरह नाना कभी निराहार रहकर सूर्यदेवताका पूजन करते थे। इस प्रकारके धर्मोका निर्णय सुनाकर भगवान् व्यास शम्याप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन तीन वर्गोके द्वारा प्राशमें चले गये । तुम भी इस तत्त्वको श्रद्धापूर्वक जानकर पूजित होकर भगवान् सूर्य बहुत सन्तुष्ट हुए और सुखसे विचरो और समयानुसार भगवान् श्रीविष्णुके कृपापूर्वक राजाके पास आकर बोले- 'राजन् ! तुम्हारे सुयशका सानन्द गान करते रहो। साथ ही जगत्को मनमें जिस वस्तुकी इच्छा हो, उसे वरदानके रूपमें माँग धर्मका उपदेश देते हुए जगद्गुरु भगवानको प्रसन्न करो। लो। सेवको और पुरवासियोसहित तुम सब लोगोंका हित पुलस्त्यजी कहते हैं-भीष्म ! ब्रह्माजीके ऐसा करनेके लिये मैं उपस्थित हूँ।'
कहनेपर देवर्षि नारद मुनिवर श्रीनारायणका दर्शन करनेके . राजाने कहा-सबको नेत्र प्रदान करनेवाले लिये गन्धमादन पर्वतपर बदरिकाश्रम तीर्थमें चले गये। भगवन् ! यदि आप मुझे अभीष्ट वरदान देना चाहते हैं, महाराज ! इस प्रकार यह सारा सृष्टिखण्ड मैंने तो ऐसी कृपा कीजिये कि हम सब लोग आपके पास क्रमशः तुम्हें सुना दिया। यह सम्पूर्ण वेदार्थोंका सार है, रहकर ही सुखी हों।
इसे सुनकर मनुष्य भगवानका सान्निध्य प्राप्त करता है। - सूर्य बोले-राजन् ! तुम्हारे मन्त्री, पुरोहित, यह परम पवित्र, यशका निधान तथा पितरोंको अत्यन्त ब्राह्मण, खियाँ तथा अन्य परिवारके लोग-सभी शुद्ध प्रिय है। यह देवताओंके लिये अमृतके समान मधुर तथा होकर कल्पपर्यन्त मेरे रमणीय धाममें निवास करें। पापी पुरुषोंको भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य
व्यासजी कहते हैं-यों कहकर संसारको नेत्र ऋषियोंके इस शुभ चरित्रका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह प्रदान करनेवाले भगवान् सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये। सब पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर राजा भद्रेश्वर अपने पुरवासियोंसहित सत्ययुगमें तपस्या, त्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ तथा दिव्यलोकमें आनन्दका अनुभव करने लगे। वहाँ जो कलियुगमें एकमात्र दानकी विशेष प्रशंसा की गयी है। कीड़े-मकोड़े आदि थे, वे भी अपने पुत्र आदिके साथ सम्पूर्ण दानों में भी समस्त भूतोंको अभय देना-यही प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गको सिधारे। इसी प्रकार राजा, ब्राह्मण, सर्वोत्तम दान है; इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है।* कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले मुनि तथा क्षत्रिय आदि तीर्थ और श्राद्धके वर्णनसे युक्त यह पुराण-खण्ड कहा अन्य वर्ण सूर्यदेवताके धाममें चले गये। जो मनुष्य गया। यह पुण्यजनक, पवित्र, आयुवर्धक और सम्पूर्ण पवित्रतापूर्वक इस प्रसङ्गका पाठ करता है, उसके सब पापोंका नाशक है। जो मनुष्य इसका पाठ या श्रवण पापोंका नाश हो जाता है तथा वह रुद्रकी भाँति इस करता है, वह श्रीसम्पन्न होता है तथा सब पापोंसे मुक्त हो पृथ्वीपर पूजित होता है। जो मानव संयमपूर्वक इसका लक्ष्मीसहित भगवान् श्रीविष्णुको प्राप्त कर लेता है।
॥ सृष्टिखण्ड सम्पूर्ण ॥
* सर्वेषामेव दानानामिदमेवैकमुत्तमम् । अभयं सर्वभूतानां नास्ति दानमतः परम् ॥(८२ । ३९)
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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः॥ संक्षिप्त पद्मपुराण ..
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भूमिखण्ड
शिवशर्माके चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना ये सर्वदेव परमेश्वरं हि निष्केवल ज्ञानमयं प्रधानम्। विचार किया और वेदशर्माके पास जाकर वदन्ति नारायणमादिसिद्ध सिद्धेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ॥* कहा-'बेटा ! मैं स्त्रीके बिना नहीं रह सकता। तुम मेरी
(१६।३५) आज्ञा मानकर जाओ और समस्त सौभाग्य-सम्पत्तिसे सूतजी कहते हैं-पश्चिम-समुद्रके तटपर द्वारका युक्त जो स्त्री मैंने देखी है, उसे मेरे लिये यहाँ बुला नामसे प्रसिद्ध एक नगरी है। वहाँ योगशास्त्रके ज्ञाता एक लाओ।' पिताके ऐसा कहनेपर वेदशर्मा बोले-'मैं ब्राह्मण-देवता सदा निवास करते थे। उनका नाम था आपका प्रिय कार्य करूँगा।' यों कहकर वे पिताको शिवशर्मा। वे वेद-शास्त्रोंके अच्छे विद्वान् थे। उनके प्रणाम करके चले गये और उस स्त्रीके पास पहुँचकर पाँच पुत्र हुए, जिन्हें शास्त्रोंका पूर्ण ज्ञान था। उनके नाम बोले-'देवि! मेरे पिता तुम्हारे लिये प्रार्थना करते हैं; इस प्रकार है-यज्ञशर्मा, वेदशर्मा, धर्मशर्मा, विष्णुशर्मा यद्यपि वे वृद्ध हैं तथापि तुम मेरे अनुरोधसे उनपर कृपा तथा सोमशर्मा-ये सभी पिताके भक्त थे। द्विजश्रेष्ठ करके उनके अनुकूल हो जाओ।' शिवशर्माने उनकी भक्ति देखकर सोचा-'पितृभक्त वेदशर्माकी ऐसी बात सुनकर मायासे प्रकट हुई पुरुषोंके हदयमें जो भाव होना चाहिये, वह मेरे इन उस स्त्रीने कहा-'ब्रह्मन् ! तुम्हारे पिता बुढ़ापेसे कष्ट पा पुत्रोंके हृदयमें है या नहीं इस बातको बुद्धिपूर्वक रहे हैं; अतः मैं कदापि उन्हें पति बनाना नहीं चाहती। परीक्षा करके जाननेका प्रयत्न करूँ।' शिवशर्मा ब्रह्म- उन्हें खाँसीका रोग है, उनके मुँहमें कफ भरा रहता है। वेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे। उन्हें उपायका ज्ञान था। उन्होंने इस समय दूसरी-दूसरी बीमारियोंने भी उन्हें पकड़ रखा मायाद्वारा अपने पुत्रोंके सामने एक घटना उपस्थित की। है। रोगके कारण वे शिथिल एवं आर्त हो गये हैं; अतः पुत्रोंने देखा, उनकी माता महान् ज्वररोगसे पीड़ित होकर मुझे उनका समागम नहीं चाहिये। मैं तुम्हारे साथ रमण मृत्युको प्राप्त हो गयी। तब वे पिताके पास जाकर करना चाहती हूँ। तुम्हारा प्रिय कार्य करूँगी। तुम दिव्य बोले-'तात ! हमारी माता अपने शरीरका परित्याग लक्षणोंसे सम्पन्न, दिव्यरूपधारी तथा महान् तेजस्वी हो; करके चली गयी। अब उसके विषयमें आप हमें क्या अतः मैं तुम्हींको पाना चाहती हूँ। मानद ! उस बूढ़ेको आज्ञा देते हैं ?' द्विजश्रेष्ठ शिवशर्माने अपने भक्तिपरायण लेकर क्या करोगे। मेरे शरीरका उपभोग करनेसे तुम्हें ज्येष्ठ पुत्र यज्ञशर्माको सम्बोधित करके कहा-'बेटा! समस्त दुर्लभ सुखोकी प्राप्ति होगी, विप्रवर ! तुम्हें इस तीखे हथियारसे अपनी माताके सारे अङ्गोंको टुकड़े- जिस-जिस वस्तुकी इच्छा होगी, वह सब ला दूँगी; इसमें टुकड़े करके इधर-उधर फेंक दो। पुत्रने पिताकी आज्ञाके तनिक भी सन्देह नहीं है।' अनुसार ही कार्य किया। पिताने भी यह बात सुनी। यह महान् पापपूर्ण अप्रिय वचन सुनकर वेदशर्माने इससे उन्हें उस पुत्रकी भक्तिके विषयमें पूर्ण निश्चय हो कहा-'देवि! तुम्हारा वचन अधर्मयुक्त, पापमिश्रित गया। अब उन्होंने दूसरे पुत्रकी पितृ-भक्ति जाननेका और अनुचित है। मैं पिताका भक्त और निरपराध हूँ
___* जिन्हें सर्वदेवस्वरूप, परमेश्वर, केवल, ज्ञानमय और प्रधानरूप कहते हैं, उन सिद्धोंके स्वामी आदिसिद्ध भगवान् श्रीनारायणकी मैं शरण हूँ।
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२१८
• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
मुझसे ऐसी बात न कहो। शुभे ! मैं पिताके लिये ही उस मस्तकको देखकर वेदशर्माके चारों भाई काँप यहाँ आया हूँ और उन्हींके लिये तुमसे प्रार्थना करता हूँ। उठे। उन पुण्यात्मा बन्धुओंमें इस प्रकार बात होने इसके विपरीत दूसरी कोई बात न कहो । मेरे पिताजीको लगी-'अहो! धर्म ही जिसका सर्वस्व था, वह हमारी ही स्वीकार करो। देवि ! इसके लिये तुम चराचर माता सत्य समाधिके द्वारा मृत्युको प्राप्त हो गयी। प्राणियोंसहित त्रिलोकीकी जो-जो वस्तु चाहोगी, वह सब हमलोगोंमें ये वेदशर्मा ही परम सौभाग्यशाली थे, निस्सन्देह तुम्हें अर्पण करूँगा। अधिक क्या कहूँ, जिन्होंने पिताके लिये प्राण दे दिये। ये धन्य तो थे ही देवताओंका राज्य आदि भी यदि चाहो तो तुम्हें दे और अधिक धन्य हो गये।' शिवशमनि उस स्त्रीकी बात सकता हूँ।'
सुनकर जान लिया कि वेदशर्मा पूर्ण भक्त था। तत्पश्चात् स्त्री बोली-यदि तुम अपने पिताके लिये इस उन्होंने अपने तृतीय पुत्र धर्मशर्मासे कहा-'बेटा ! यह प्रकार दान देनेमें समर्थ हो तो मुझे इन्द्रसहित सम्पूर्ण अपने भाईका मस्तक लो और जिस प्रकार यह जी सके, दवताओंका अभी दर्शन कराओ।
वह उपाय करो।' वेदशर्मा बोले-देवि ! मेरा बल, मेरी तपस्याका सूतजी कहते हैं-धर्मशर्मा भाईके मस्तकको प्रभाव देखो। मेरे आवाहन करनेपर ये इन्द्र आदि श्रेष्ठ लेकर तुरंत ही वहाँसे चल दिये। उन्होंने पिताकी भक्ति, देवता यहाँ आ पहुंचे।
तपस्या, सत्य और सरलताके बलसे धर्मको आकर्षित देवताओंने वेदशर्मासे कहा- द्विजश्रेष्ठ ! हम किया। उनकी तपस्यासे खिंचकर धर्मराज धर्मशर्माके तुम्हारा कौन-सा कार्य करें?'
पास आये और इस प्रकार बोले-'धर्मशर्मन् ! तुम्हारे वेदशर्मा बोले-देवगण ! यदि आपलोग आवाहन करनेसे मैं यहाँ उपस्थित हुआ हूँ मुझे अपना मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने पिताके चरणोमे पूर्ण भक्ति कार्य बताओ, मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूँगा।' प्रदान करें। 'एवमस्तु' कहकर सम्पूर्ण देवता जैसे आये धर्मशर्माने कहा-धर्मराज ! यदि मैंने गुरुकी थे, वैसे लौट गये। तब उस स्त्रीने हर्षमें भरकर कहा- सेवा की हो, यदि मुझमें पिताके प्रति निष्टा और 'तुम्हारी तपस्याका बल देख लिया। देवताओंसे मुझे अविचल तपस्या हो तो इस सत्यके प्रभावसे मेरे भाई कोई काम नहीं है। यदि तुम मुझे मुंहमांगी वस्तु देना वेदशर्मा जी उठे। चाहते हो और अपने पिताके लिये मुझे ले जाना चाहते धर्म बोले-महामते ! मैं तुम्हारी तपस्या और हो तो अपना सिर अपने ही हाथसे काटकर मुझे अर्पण पितृभक्तिसे सन्तुष्ट हूँ, तुम्हारे भाई जी जायेंगे; तुम्हारा कर दो।'
कल्याण हो। धर्मवेत्ताओंके लिये जो दुर्लभ है, ऐसा वेदशर्माने कहा-देवि ! आज मैं धन्य हो कोई उत्तम वरदान मुझसे और माँग लो। गया। शुभे ! मैं पिताके लिये अपना मस्तक भी दे दूंगा; धर्मशर्माने जब धर्मका यह उत्तम वचन सुना तो ले लो, ले लो। यह कहकर द्विजश्रेष्ठ वेदशर्माने तीखी उस महायशस्वीने महात्मा वैवस्वतसे कहा-'धर्मराज! धारवाली तेज तलवार उठायी और हँसते-हँसते अपना यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो पिताके चरणोंकी पूजामें मस्तक काटकर उस स्त्रीको दे दिया। खूनमें डूबे हुए उस अविचल भक्ति, धर्ममें अनुराग तथा अन्तमें मोक्षका मस्तकको लेकर वह शिवशर्माके पास गयी। वरदान मुझे दीजिये।' तब धर्मने कहा-'मेरी कपासे
स्त्रीने कहा-विप्रवर ! तुम्हारे पुत्र वेदशर्माने मुझे यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त होगा। उनके मुखसे यह तुम्हारी सेवाके लिये यहाँ भेजा है; यह उनका मस्तक है, महावाक्य निकलते ही वेदशर्मा उठकर खड़े हो गये। इसे ग्रहण करो। इसको उन्होंने अपने हाथसे काटकर मानो वे सोतेसे जाग उठे हों। उठते ही महाबुद्धिमान दिया है।
वेदशर्माने धर्मशर्मासे कहा-'भाई ! वे देवी कहाँ
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भूमिखण्ड ]
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शिवशर्माके चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
गयीं? पिताजी कहाँ हैं ?' धर्मशर्माने थोड़ेमें सब हाल कह सुनाया। सब हाल जानकर वेदशर्माको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने धर्मशर्मासे कहा- 'प्रिय बन्धु ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे जैसा मेरा हितैषी कौन है ?' तदनन्तर दोनों भाई प्रसन्न होकर अपने पिता शिवशर्माके पास गये। उस समय धर्मशर्माने तेजस्वी पितासे कहा— 'महाभाग ! आज मैंने आपके पुत्र वेदशर्माको मस्तक और जीवनके साथ यहाँ ला दिया है। आप इन्हें स्वीकार कीजिये।'
हुए चौथे पुत्र महामति विष्णुशर्मा से कहा-' -'बेटा! मेरा कहना करो। आज ही इन्द्रलोकको जाओ और वहाँसे अमृत ले आओ। मैं अपनी इस प्रियतमाके साथ इस समय अमृत पीना चाहता हूँ; क्योंकि अमृत सब रोगोंको दूर करनेवाला है।' महात्मा पिताका यह वचन सुनकर विष्णुशर्माने उनसे कहा- 'पिताजी! मैं आपके कथनानुसार सब कार्य करूँगा।' यह कहकर परम बुद्धिमान् धर्मात्मा विष्णुशर्माने पिताको प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा करके अपने महान् बल, तपस्या
UURDER LANTISGA
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LASTRELOC
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अन्तरिक्षमार्गसे जब वे आकाशके भीतर घुसे, तब देवराज इन्द्रने उन्हें देखा और उनका उद्देश्य जानकर उसमें विघ्न डालना आरम्भ किया। उन्होंने मेनकासे कहा- 'सुन्दरी! मेरी आज्ञासे शीघ्रतापूर्वक जाओ और विप्रवर विष्णुशर्माके कार्यमें बाधा डालो।' देवराजकी आज्ञा पाकर मेनका बड़ी उतावलीके साथ चली। उसका सुन्दर रूप था और वह सब प्रकारके आभूषणोंसे तदनन्तर, शिवशर्माने विनीत भावसे सामने खड़े विभूषित थी । नन्दनवनके भीतर पहुँचकर वह झूलेमें जा बैठी और मधुर स्वरसे गीत गाने लगी। उसका संगीत बीणाके स्वरके समान था। विष्णुशर्माने उसे देखा और उसके मनोभावको समझ लिया। उन्होंने सोचा - 'यह एक बहुत बड़े विघ्नके रूपमें उपस्थित हुई है, इन्द्रने इसे विचारकर वे शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ गये। मेनकाने उन्हें भेजा है; यह मेरी भलाई नहीं कर सकती। यह जाते देखा और पूछा - 'महामते ! कहाँ जाओगे ?' जाऊँगा, वहाँ पहुँचनेके लिये मुझे बड़ी जल्दी है।' विष्णुशर्मा बोले- मैं पिताके कार्यसे इन्द्रलोकमें मेनकाने कहा – 'विप्रवर! मैं कामदेवके बाणोंसे घायल होकर इस समय तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। यदि धर्मका पालन करना चाहते हो तो मेरी रक्षा करो।'
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तथा नियमके प्रभावले आकाशमार्गद्वारा इन्द्रलोककी यात्रा की।
विष्णुशर्मा बोले— सुमुखि ! मुझे देवराजका सारा चरित्र मालूम है; तुम्हारे मनमें क्या है, यह भी मुझसे छिपा नहीं है। तुम्हारे तेज और रूपसे विश्वामित्र आदि दूसरे लोग ही मोहित होते हैं। मैं शिवशर्माका पुत्र हूँ, मुझपर तुम्हारा जादू नहीं चल सकता। अबले ! मैं योगसिद्धिको प्राप्त हूँ, तपस्यासे सिद्ध हो चुका हूँ। काम आदि बड़े-बड़े दोषोंको मैंने पहले ही जीत लिया है। तुम किसी दूसरे पुरुषका आश्रय लो, मैं इन्द्रलोकको जा रहा हूँ।
यों कहकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुशर्मा शीघ्रतापूर्वक चले गये। मेनकाका प्रयत्न निष्फल हुआ। देवराजके पूछनेपर उसने सब कुछ बता दिया। तब इन्द्रने बारंबार विन उपस्थित किया, किन्तु महायशस्वी ब्राह्मणने अपने तेजसे
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२२०
• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
उन सब विनोंका नाश कर दिया। उनके उपस्थित किये क्रोधसे लाल हो रही थीं। [किन्तु आपके आनेसे मेरा हुए भयंकर विनोंका विचार करके महातेजस्वी भाव बदल गया।] देवेन्द्र ! आप आकर मुझे वर देना विष्णुशर्माको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सोचा-'मैं चाहते हैं तो अमृत दीजिये; साथ ही पिताके चरणोंमें इन्द्रलोकसे इन्द्रको गिरा दूंगा और देवताओंकी रक्षाके अविचल भक्ति प्रदान कीजिये।' लिये दूसरा इन्द्र बनाऊँगा।' वे इस प्रकार विचार कर ही इस प्रकार बातचीत होनेपर इन्द्रने प्रसन्न चित्तसे रहे थे कि देवराज इन्द्र वहाँ आ पहुँचे और बोले- ब्राह्मणको अमृतसे भरा घड़ा लाकर दिया तथा वरदान 'महाप्राज्ञ विप्र ! तपस्या, नियम, इन्द्रियसंयम, सत्य और देते हुए कहा-'विप्रवर ! अपने पिताके प्रति तुम्हारे शौचके द्वारा तुम्हारी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं हृदयमें सदा अविचल भक्ति बनी रहेगी।' यों कहकर है। तुम्हारी इस पितृभक्तिसे मैं देवताओसहित परास्त हो इन्द्रने ब्राह्मणको विदा किया। तदनन्तर विष्णुशर्मा अपने गया। साधुश्रेष्ठ ! तुम मेरे सारे अपराध क्षमा करो और पिताके पास जाकर बोले-'तात ! मैं इन्द्रके यहाँसे मुझसे कोई वर माँगो। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे अमृत ले आया हूँ। इसका सेवन करके आप सदाके माँगनेपर मैं दुर्लभ-से-दुर्लभ वर भी दे दूँगा।' यह लिये नीरोग हो जाइये।' शिवशर्मा पुत्रकी यह बात सुनकर विष्णुशनि देवराजसे कहा-'आपको महात्मा सुनकर बहुत सन्तुष्ट हुए और सब पुत्रोंको बुलाकर ब्राह्मणोंके तेजका विनाश करनेकी कभी चेष्टा नहीं करनी कहने लगे-'तुम सब लोग पितृभक्तिसे युक्त और मेरी चाहिये; क्योंकि यदि श्रेष्ठ ब्राह्मण क्रोधमे भर जायें तो आज्ञाके पालक हो । अतः प्रसन्नतापूर्वक मुझसे कोई वर समस्त पुत्र-पौत्रोंके साथ अपराधी व्यक्तिका संहार कर माँगो। इस भूतलपर जो दुर्लभ वस्तु होगी, वह भी तुम्हें सकते हैं-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यदि आप मिल जायगी।' पिताकी यह बात सुनकर वे सभी पुत्र इस समय यहाँ न आये होते तो मैं अपनी तपस्याके एक-दूसरेकी ओर देखते हुए उनसे बोले-'सुव्रत ! प्रभावसे आपके इस उत्तम राज्यको छीनकर किसी आपकी कृपासे हमारी माता, जो यमलोकको चली गयी दूसरेको दे डालनेका विचार कर चुका था। मेरी आँखें हैं, जी जायें।'
शिवशर्माने कहा-'पुत्रो! तुम्हारी मरी हुई पुत्रवत्सला माता अभी जीवित होकर हर्षमें भरी हुई यहाँ आयेगी-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।' ऋषि शिवशर्माके मुखसे यह शुभ वाक्य निकलते ही उन पुत्रोंकी माता हर्षमें भरी हुई वहाँ आ पहुँची और बोली-'मेरे सौभाग्यशाली पुत्रो! इसीलिये संसारमें पुण्यात्मा स्त्रियाँ पुण्यसाधक पुत्रकी इच्छा करती हैं। जिसका कुलके अनुरूप आचरण हो, जो अपने कुलका आधार तथा माता-पिताको तारनेवाला हो-ऐसे उत्तम पुत्रको कोई भी स्त्री पुण्यके बिना कैसे पा सकती है। न जाने मैंने कैसे-कैसे पुण्य किये थे, जिनके फलस्वरूप ये धर्मप्राण, धर्मात्मा, धर्मवत्सल तथा अत्यन्त पुण्यभागी महात्मा मुझे पतिरूपमें प्राप्त हुए। मेरे सभी पुत्र पितृभक्तिमें रत है; इससे बढ़कर प्रसन्नताकी बात और
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भूमिखण्ड]
• सोमशर्माकी पितृ-भक्ति.
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क्या होगी। अहो ! संसारमें पुण्यके ही बलसे उत्तम वैष्णवधामको जाओ। पुत्रकी प्राप्ति होती है। मुझे पाँच पुत्र प्राप्त हुए हैं, जिनका महर्षि शिवशर्माके यह उत्तम वचन कहते ही हृदय विशाल है तथा जिनमें एक-से-एक बढ़कर है। भगवान् श्रीविष्णु अपने हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और मेरे सभी पुत्र यज्ञ करनेवाले, पुण्यात्मा, तपस्वी, तेजस्वी पद्म धारण किये गरुड़पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे और और पराक्रमी हैं।'
पुत्रोंसहित शिवशर्मासे बारंबार कहने लगे-'विप्रवर ! इस प्रकार माताके कहनेपर पुत्रोंको बड़ा हर्ष हुआ पुत्रोंसहित तुमने भक्तिके बलसे मुझे अपने वशमें कर और वे अपनी माताको प्रणाम करके बोले-'माँ! लिया है। अतः इन पुण्यात्मा पुत्रों तथा पतिके साथ अच्छे माता-पिताकी प्राप्ति बड़े पुण्यसे होती है। तुम रहनेकी इच्छावाली इस पुण्यमयी पलीको साथ लेकर सदा पुण्य कर्म करती रहती हो। हमारे बड़े भाग्य थे, जो तुम मेरे परमधामको चलो।' तुम हमें माताके रूपमें प्राप्त हुई, जिनके गर्भमें आकर शिवशर्माने कहा-भगवन् ! ये मेरे चारों पुत्र ही हमलोग उत्तम पुण्योंसे वृद्धिको प्राप्त हुए हैं। हमारी यही इस समय परम उत्तम वैष्णवधाममें चलें।मैं पत्नीके साथ अभिलाषा है कि प्रत्येक जन्ममें तुम्हीं हमारी माता और अभी भूलोकमें ही कुछ काल व्यतीत करना चाहता हूँ। ये ही हमारे पिता हो।'
मेरे साथ मेरा कनिष्ठ पुत्र सोमशर्मा भी रहेगा। पिता बोले-पुत्रो! तुमलोग मुझसे कोई परम सत्यभाषी महर्षि शिवशर्माके यों कहनेपर देवेश्वर उत्तम और पुण्यदायक वरदान मांगो। मेरे सन्तुष्ट होनेपर भगवान् श्रीविष्णुने उनके चार पुत्रोंसे कहा-'तुमलोग तुमलोग अक्षय लोकोंका उपभोग कर सकते हो। दाह और प्रलयसे रहित मोक्षदायक गोलोकधामको
पुत्रोंने कहा-पिताजी ! यदि आप हमपर प्रसन्न चलो।' भगवान्के इतना कहते ही उन चारों सत्यतेजस्वी हैं और वर देना चाहते हैं तो हमें भगवान् श्रीविष्णुके ब्राह्मणोंका तत्काल विष्णुके समान रूप हो गया, उनके गोलोकधाममें भेज दीजिये, जहाँ किसी प्रकारको चिन्ता शरीरका श्यामवर्ण इन्द्र नीलमणिके समान शोभा पाने और व्याधि नहीं फटकने पाती।
लगा। उनके हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित पिता बोले-पुत्रो ! तुमलोग सर्वथा निष्पाप हो; होने लगे। वे विष्णुरूपधारी महान् तेजस्वी द्विज इसलिये मेरे प्रसाद, तपस्या और इस पितृभक्तिके बलसे पितृभक्तिके प्रभावसे विष्णुधामको प्राप्त हो गये।
. सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
सूतजी कहते हैं-भगवान् श्रीविष्णुका रहे। धर्मात्मा सोमशर्मा दिन-रात आलस्य छोड़कर उस गोलोकधाम तमसे परे परम प्रकाशरूप है। पूर्वोक्त चारों अमृत-कुम्भकी रक्षा करते रहे। दस वर्षोके पश्चात् ब्राह्मण जब उस लोकमें चले गये, तब महाप्राज्ञ महायशस्वी शिवशर्मा पुनः लौटकर वहाँ आये। ये शिवशनि अपने छोटे पत्रसे कहा-'महामते! मायाका प्रयोग करके भार्यासहित कोढ़ी बन गये। जैसे सोमशर्मन् ! तुम पिताकी भक्ति में रत हो। मैं इस समय वे स्वयं कुष्ठरोगसे पीड़ित थे, उसी प्रकार उनकी स्त्री भी तुम्हें यह अमृतका घड़ा दे रहा हूँ, तुम सदा इसकी रक्षा थीं। दोनों ही मांसके पिण्डकी भाँति त्याग देनेयोग्य करना । मैं पलीके साथ तीर्थयात्रा करने जाऊँगा।' यह दिखायी देते थे। वे धीरचित्त ब्राह्मण महात्मा सोमशर्माके सुनकर सोमशर्माने कहा-'महाभाग ! ऐसा ही होगा।' समीप आये। वहाँ पधारे हुए माता-पिताको सर्वथा बुद्धिमान् शिवशर्मा सोमशर्माके हाथमें वह घड़ा देकर दुःखसे पीड़ित देख महायशस्वी सोमशर्माको बड़ी दया वहाँसे चल दिये और दस वर्षोतक निरन्तर तपस्या में लगे आयी । भक्तिसे उनका मस्तक झुक गया। वे उन दोनोंके
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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चरणों में पड़ गये और बोले— 'पिताजी! मैं दूसरे किसीको ऐसा नहीं देखता, जो तपस्या, गुण-समुदाय और उत्तम पुण्यसे युक्त होकर आपकी समानता कर
सके। फिर भी आपको यह क्या हो गया ? विप्रवर! सम्पूर्ण देवता सदा दासकी भाँति आपकी आज्ञाके पालनमें लगे रहते हैं। वे आपके तेजसे खिंचकर यहाँ आ जाते हैं। आप इतने शक्तिशाली हैं तो भी किस पापके कारण आपके शरीरमें यह पीड़ा देनेवाला रोग हो गया ? ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इसका कारण बताइये। यह मेरी माता भी पुण्यवती है, इसका पुण्य महान् है; यह पतिव्रत धर्मका पालन करनेवाली है। यह अपने स्वामीकी कृपासे समूची त्रिलोकीको भी धारण करनेमें समर्थ है। जो राग-द्वेषका परित्याग करके भाँति-भाँति के कमद्वारा अपने पतिदेवका पूजन करती है, देवताओंकी ही भाँति गुरुजनोंके प्रति भी जिसके हृदयमें आदरका भाव है, वह मेरी माता क्यों इस कष्टकारी कुष्ठरोगका दुःख भोग रही है ?"
शिवशर्मा बोले - महाभाग ! तुम शोक न करो; सबको अपने कमौका ही फल भोगना पड़ता है; क्योंकि मनुष्य प्रायः [ पूर्वकृत ] पाप और पुण्यमय कर्मोंसे युक्त
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
होता ही है। अब तुम हम दोनों रोगियोंके घावोंको धोकर साफ करो ।
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पिताका यह शुभ वाक्य सुनकर महायशस्वी सोमशर्माने कहा1- आप दोनों पुण्यात्मा हैं; मैं आपकी सेवा अवश्य करूंगा। माता-पिताकी शुश्रूषाके सिवा मेरा और कर्तव्य ही क्या है।' सोमशर्मा उन दोनोंके दुःखसे दुःखी थे। वे माता-पिताके मल-मूत्र तथा कफ आदि धोते अपने हाथसे उनके चरण पखारते और दवाया करते थे। उनके रहने और नहाने आदिका प्रबन्ध भी वे पूर्ण भक्तिके साथ स्वयं ही करते थे। विप्रवर सोमशर्मा बड़े यशस्वी, धर्मात्मा और सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ थे। वे अपने दोनों गुरुजनोंको कंधेपर बिठाकर तीर्थो में ले जाया करते थे। वे वेदके ज्ञाता थे; अतः माङ्गलिक मन्त्रोका उच्चारण करके दोनोंको अपने हाथसे विधिपूर्वक नहलाते और स्वयं भी स्नान करते थे। फिर पितरोंका तर्पण और देवताओंका पूजन भी वे उन दोनोंसे प्रतिदिन कराया करते थे। स्वयं अग्निमें होम करते और अपने दोनों महागुरु माता-पिताको प्रसन्न करते हुए अपने सब कार्य उन्हें बताया करते थे। सोमशर्मा उन दोनोंको प्रतिदिन शय्यापर सुलाते और उन्हें वस्त्र तथा पुष्प आदि सब सामग्री निवेदन करते थे। परम सुगन्धित पान लगाकर माता-पिताको अर्पण करते तथा नित्यप्रति उनकी इच्छाके अनुसार फल, मूल, दूध आदि उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थ खानेको देते थे। इस क्रमसे वे सदा ही माता-पिताको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे। पिता सोमशर्माको बुलाकर उन्हें नाना प्रकारके कठोर एवं दुःखदायी वचनोंसे पीड़ित करते और आतुर होकर उन्हें डंडोंसे पीटते भी थे। यह सब करनेपर भी धर्मात्मा सोमशर्मा कभी पिताके ऊपर क्रोध नहीं करते थे। वे सदा सन्तुष्ट रहकर मन, वाणी और क्रिया- तीनोंके ही द्वारा पिताकी पूजा करते थे।
ये सब बातें जानकर शिवशर्मा अपने चरित्रपर विचार करने लगे। उन्होंने सोचा- 'सोमशर्माका मेरी सेवामें अधिक अनुराग दिखायी देता है, इसीलिये
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भूमिखण्ड ]
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सोमशर्माकी पितृ-भक्ति •
समयपर मैंने इसके तपकी परीक्षा की है; किन्तु मेरा पुत्र भक्ति-भाव तथा सत्यपूर्ण बर्तावसे भ्रष्ट नहीं हो रहा है।
Mitra
निन्दा करने और मारनेपर भी सदा मीठे वचन बोलता है। इस प्रकार मेरा बुद्धिमान् पुत्र दुष्कर सदाचारका पालन कर रहा है। अतः अब मैं भगवान् श्रीविष्णुके प्रसादसे इसके दुःख दूर करूँगा।' इस प्रकार बहुत देरतक सोच-विचार करनेके पश्चात् परम बुद्धिमान् शिवशर्माने पुनः मायाका प्रयोग किया। अमृतके घड़ेसे अमृतका अपहरण कर लिया। उसके बाद सोमशर्माको बुलाकर कहा - 'बेटा! मैंने तुम्हारे हाथमें रोगनाशक अमृत सौपा था, उसे शीघ्र लाकर मुझे अर्पण करो, जिससे मैं इस समय उसका पान करूँ।'
पिताके यों कहनेपर सोमशर्मा तुरंत उठकर चल दिये । अमृतके घड़ेके पास जाकर उन्होंने देखा कि वह
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खाली पड़ा है— उसमें अमृतकी एक बूँद भी नहीं है। यह देखकर परम सौभाग्यशाली सोमशर्माने मन-ही-मन कहा - 'यदि मुझमें सत्य और गुरु-शुश्रूषा है, यदि मैंने पूर्वकालमें निश्छल हृदयसे तपस्या की है, इन्द्रियसंयम, सत्य और शौच आदि धर्मोका ही सदा पालन किया है, तो यह घड़ा निश्चय ही अमृतसे भर जाय' महाभाग सोमशर्माने इस प्रकार विचार करके ज्यों ही उस घड़ेकी ओर देखा, त्यों ही वह अमृतसे भर गया। घड़ेको भरा देख उसे हाथमें ले महायशस्वी सोमशर्मा तुरंत ही पिताके पास गये और उन्हें प्रणाम करके बोले'पिताजी! लीजिये, यह अमृतसे भरा घड़ा आ गया। महाभाग ! अब इसे पीकर शीघ्र ही रोगसे मुक्त हो जाइये।' पुत्रका यह परम पुण्यमय तथा सत्य और धर्मके उद्देश्यसे युक्त मधुर वचन सुनकर शिवशर्माको बड़ा हर्ष हुआ। वे बोले- 'पुत्र ! आज मैं तुम्हारी तपस्या, इन्द्रियसंयम, शौच, गुरुशुश्रूषा तथा भक्तिभावसे विशेष संतुष्ट हूँ। लो, अब मैं इस विकृत रूपका त्याग करता हूँ।'
यों कहकर ब्राह्मण शिवशर्माने पुत्रको अपने पहले रूपमें दर्शन दिया। सोमशर्माने माता-पिताको पहले जिस रूपमें देखा था, उसी रूपमें उस समय भी देखा। वे दोनों महात्मा सूर्यमण्डलकी भाँति तेजसे दिप रहे थे। सोमशर्माने बड़ी भक्तिके साथ उन महात्माओंके चरणोंमें मस्तक झुकाया । तदनन्तर वे दोनों पति-पत्नी पुत्रसे बातचीत करके अत्यन्त प्रसन्न हुए। फिर धर्मात्मा ब्राह्मण भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे अपनी पत्नीको साथ ले विष्णुधामको चले गये। अपने पुण्य और योगाभ्यासके प्रभावसे उन महर्षिने दुर्लभ पद प्राप्त कर लिया।
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अर्चस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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ऋषियोंने कहा- सूतजी ! अब हम महात्मा सुव्रतका चरित्र सुनना चाहते हैं। वे महाप्राज्ञ किस गोत्रमें उत्पन्न हुए और किसके पुत्र थे ? ब्राह्मण सुत्रतकी क्या तपस्या थी और किस प्रकार उन्होंने भगवान् श्रीहरिकी आराधना की थी ?
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
सूतजी बोले- विप्रगण ! मैं सुव्रतके दिव्य एवं पावन चरित्रका वर्णन करता हूँ। यह प्रसङ्ग परम कल्याणकारी तथा भगवान् श्रीविष्णुकी चर्चासे युक्त है। पूर्व कल्पकी बात है, नर्मदाके पापनाशक तटपर अमरकण्टक तीर्थके भीतर कौशिक-वंशमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए थे। उनका नाम था सोमशर्मा। उनके कोई पुत्र नहीं था। इस कारण वे बहुत दुःखी रहा करते थे। उनकी पत्नीका नाम था सुमना। वह उत्तम व्रतका आचरण करनेवाली थी। एक दिन उसने अपने पतिको चिन्तित देखकर कहा- 'नाथ! चिन्ता छोड़िये चिन्ताके समान दूसरा कोई दुःख नहीं है, क्योंकि वह शरीरको सुखा डालती है जो उसे त्यागकर यथोचित बर्ताव करता है, वह अनायास ही आनन्दमें मस्त रहता है। * विप्रवर! मेरे सामने आप अपनी चित्ताका कारण बताइये।'
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शाखाओंपर बसेरे लेते हैं। अज्ञान उस वृक्षका फल है और अधर्मको उसका रस बताया गया है। दुर्भावरूप जलसे सींचनेपर उसकी वृद्धि होती है। अश्रद्धा उसके फूलने-फलनेकी ऋतु है। जो मनुष्य उस वृक्षकी छायाका आश्रय लेकर संतुष्ट रहता है, उसके पके हुए फलोंको प्रतिदिन खाता है और उन फलोंके अधर्मरूप रससे पुष्ट होता है, वह ऊपरसे कितना ही प्रसन्न क्यों न हो, वास्तवमें पतनकी ओर ही जाता है। इसलिये पुरुषको चिन्ता छोड़कर लोभका भी त्याग कर देना चाहिये । स्त्री, पुत्र और धनकी चिन्ता तो कभी करनी ही नहीं चाहिये। प्रियतम ! कितने ही विद्वान् भी मूर्खोके मार्गका अवलम्बन करते हैं। दिन-रात मोहमें डूबे रहकर निरन्तर इसी चिन्तामें पड़े रहते हैं कि किस प्रकार मुझे अच्छी स्त्री मिले और कैसे मैं बहुत-से पुत्र प्राप्त करूँ । ब्रह्मन् ! आप चिन्ता और मोहका त्याग करके विवेकका आश्रय लौजिये ।
कोई पूर्वजन्ममें ऋण देनेके कारण इस जन्ममें अपने सम्बन्धी होते हैं और कोई-कोई धरोहर हड़प लेनेके कारण भी सम्बन्धीके रूपमें जन्म लेते हैं। पत्नी, पिता, माता, भृत्य, स्वजन और बान्धव-सब लोग अपने-अपने ऋणानुबन्धसे ही इस पृथ्वीपर उत्पन्न होते हैं। जिसने जिसकी जिस भावसे धरोहर हड़प ली है, वह उसी भावसे उसके यहाँ जन्म लेता है। धरोहरका स्वामी रूपवान् और गुणवान् पुत्र होकर पृथ्वीपर उत्पन्न होता है और धरोहरके अपहरणका बदला लेनेके लिये दारुण दुःख देकर चला जाता है।
जो किसीका ऋण लेकर मर जाता है, उसके यहाँ दूसरे जन्ममें ऋणदाता पुरुष पुत्र, भाई, पिता, पत्नी और मित्ररूपसे उत्पन्न होता है। वह सदा ही अत्यन्त दुष्टतापूर्ण बर्ताव करता है। गुणोंकी ओर तो वह कभी
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सोमशर्माने कहा – सुव्रते न जाने किस पापसे मैं निर्धन और पुत्रहीन हूँ। यही मेरे दुःखका कारण है। सुमना बोली- प्राणनाथ ! सुनिये। मैं एक ऐसी बात बताती हूँ, जो सब सन्देहोंका नाश करनेवाली है। पाप एक वृक्षके समान है, उसका बीज है लोभ मोह उसकी जड़ है। असत्य उसका तना और माया उसकी शाखाओंका विस्तार है। दम्भ और कुटिलता पत्ते हैं। कुबुद्धि फूल है और अनृत उसकी गन्ध है। छल, पाखण्ड, चोरी, ईर्ष्या, क्रूरता, कूटनीति और पापाचारसे युक्त प्राणी उस मोहमूलक वृक्षके पक्षी हैं, जो मायारूपी
* नास्ति चिन्तासमं दुःखं कायशोषणमेव हि । यस्तो संत्यज्य वर्तेत स सुखेन प्रमोदते ॥ (११ । ११)
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भूमिखण्ड ]
सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें सुमना और शिवशर्माका संवाद •
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देखता ही नहीं। क्रूर स्वभाव और निष्ठुर आकृति बनाये अपने स्वजनोंको सदा कठोर बातें सुनाया करता है। प्रतिदिन मीठी-मीठी वस्तुएँ स्वयं खाता है। घरमें रहते हुए धनका बलपूर्वक उपभोग करता है और रोकनेपर कुपित हो जाता है।
विप्रवर! अब मैं आपके सामने शत्रु स्वभाववाले पुत्रका वर्णन करती हूँ। वह बाल्यावस्थासे ही सदा शत्रुओंका-सा बर्ताव करता है। खेल-कूदमें भी पिता माताको मार-मारकर भागता है और बारंबार हँसा करता है। क्रोधयुक्त स्वभावको लेकर ही बड़ा होता है और सदा वैरके काममें लगा रहता है। वह प्रतिदिन पिता और माताकी निन्दा करता है। फिर विवाह सम्बन्ध हो जानेपर नाना प्रकारसे धनका अपव्यय करता है। 'घर और खेत आदि सब मेरा ही है' [तुमलोग कौन हो मेरा हाथ रोकनेवाले ?] यों कहकर पिता और माताको प्रतिदिन पीटता रहता है। उनकी मृत्युके पश्चात् न वह श्राद्ध करता है और न कभी दान ही देता है। ऐसे बहुतेरे पुत्र इस पृथ्वीपर उत्पन्न होते रहते हैं।
अब मैं उस पुत्रका वर्णन करती हूँ, जिसके द्वारा प्रिय वस्तुकी प्राप्ति होती है। वैसा बालक बचपनसे ही माता- पिताका प्रिय करता है। वयस्क (बड़ा ) होनेपर भी उनके प्रियसाधनमें लगा रहता है और सदा अपनी भक्तिसे माता- पिताको सन्तुष्ट रखता है। स्नेहसे, मीठी वाणीसे तथा प्रिय लगनेवाली बातचीतसे उन्हें प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करता है। माता-पिताकी मृत्युके पश्चात् सम्पूर्ण श्राद्धकर्म और पिण्डदान आदिका कार्य करता है तथा उनकी सद्गतिके लिये तीर्थयात्रा भी करता है।
प्रियतम ! अब इस समय आपके सामने उदासीन पुत्रका वर्णन करती हूँ-विप्रवर! उदासीन बालक सदा उदासीन भावसे ही रहता है। वह न कुछ देता है और न लेता है। न रुष्ट होता है और न सन्तुष्ट। इस प्रकार मैंने पुत्रोंके सम्बन्धमें सब कुछ बता दिया। पुत्रोंकी ऐसी ही गति है। जैसे पुत्र होते हैं, वैसे ही पिता, माता, पत्नी, बन्धु बान्धव तथा भृत्य आदि अन्य लोग भी बताये गये हैं। [ इनमें भी शत्रु मित्र और उदासीन आदि भेद होते
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हैं।] मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, पशु-घोड़े, हाथी, भैंस आदि भी ऐसे ही होते हैं। नौकरोंकी भी यही स्थिति है; ये सब ऋणके सम्बन्धसे ही प्राप्त होते हैं।
हम दोनोंने पूर्वजन्ममें न तो किसीसे ऋण लिया है और न किसीकी धरोहर ही हड़पी है। इतना ही नहीं, हमने किसीके साथ वैर भी नहीं किया है। [इसीलिये हमें धन और पुत्र आदि किसी भी वस्तुकी प्राप्ति नहीं हुई है।] यह जानकर आप शान्ति धारण करें और व्यर्थकी चिन्ता छोड़ दें। आपने किसीको दान नहीं दिया है, तब धन कैसे आये। अतः प्राणनाथ ! दुःखी न होइये। द्विजश्रेष्ठ ! जिस पुरुषको धन मिलना निश्चित है, उसके हाथमें अनायास ही धन आ जाता है। मनुष्य उस धनकी बड़े यनसे रक्षा करता है। किन्तु जब वह जानेको होता है, तब चला ही जाता है। ऐसा समझकर आप शान्त हो जाइये। निरर्थक चिन्ता छोड़िये महान् मोहसे मूढ़ (विवेकशून्य) हुए मानव पापमें आसक्तचित्त होकर कहने लगते हैं कि 'यह घर, यह पुत्र और ये स्त्रियाँ मेरी ही हैं।' किन्तु प्राणनाथ ! संसारका यह बन्धन सदा झूठा ही दिखायी देता है।
सोमशर्मा बोले – कल्याणी! तुम ठीक कहती हो; तुम्हारा यह वचन सब प्रकारके सन्देहोंका नाश करनेवाला है तथापि सत्यके ज्ञाता साधु पुरुष वंशकी इच्छा रखते हैं। प्रिये! मुझे पुत्रकी चिन्ता है; जीमें आता है— जिस किसी उपायसे सम्भव हो, मैं पुत्र अवश्य उत्पन्न करूँ।
सुमनाने कहा - महाभाग ! एक ही विद्वान् पुत्र श्रेष्ठ है, बहुत से गुणहीन पुत्रोंको लेकर क्या करना है ? एक ही पुत्र कुलका उद्धार करता है; दूसरे तो केवल कष्ट देनेवाले होते हैं। पुण्यसे ही पुत्र प्राप्त होता है, पुण्यसे ही अच्छा कुल मिलता है तथा पुण्यसे ही उत्तम गर्भकी प्राप्ति होती है। इसलिये आप पुण्यका अनुष्ठान कीजिये प्राणनाथ! पुण्यकर्म करनेवाले मनुष्य ही सुख राशिका उपभोग करते हैं।
सोमशर्मा बोले- भद्रे मुझे पुण्यका अनुष्ठान बताओ उत्तम पुण्य कैसा होता है ? पुण्यके लक्षणोंका वर्णन करो।
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सुमनाने कहा-प्राणनाथ ! पुरुष या स्त्रीको सदा विद्वान् ब्राह्मणके रूपमें आये। नियमने महाप्राज्ञ जिस प्रकार बर्ताव करना चाहिये तथा जिस प्रकार पुण्य पण्डितका रूप धारण कर रखा था और दान अग्निकरनेसे कीर्ति, पुत्र, प्यारी स्त्री और धनकी प्राप्ति होती है, होत्रीका स्वरूप धारण किये महर्षि दुर्वासाके निकट वह सब मैं बताती हूँ तथा पुण्यका लक्षण भी कहती हूँ। उपस्थित हुआ था। क्षमा, शान्ति, लज्जा, अहिंसा और ब्रह्मचर्य, तपस्या, पञ्चयज्ञोंका अनुष्ठान, दान, नियम, अकल्पना (निःसंकल्प अवस्था)-ये सब स्त्री रूप क्षमा, शौच, अहिंसा, उत्तम शक्ति और चोरीका धारण किये वहाँ आयी थीं। बुद्धि, प्रज्ञा, दया, श्रद्धा, अभाव-ये पुण्यके अङ्ग हैं; इनके अनुष्ठानसे धर्मकी मेधा, सत्कृति और शान्ति–इनका भी वही रूप था। पूर्ति करनी चाहिये।* धर्मात्मा पुरुष मन, वाणी और पाँचों अग्नियाँ, परम पावन वेद और वेदाङ्ग-ये भी शरीर-तीनोंकी क्रियासे धर्मका सम्पादन करता है। अपना-अपना दिव्य रूप धारण किये उपस्थित थे। इस फिर वह जिस-जिस वस्तुका चिन्तन करता है, वह दुर्लभ प्रकार धर्म अपने परिवारके साथ वहाँ आये थे। ये होनेपर भी उसे प्राप्त हो जाती है।
सब-के-सब मुनिको सिद्ध हो गये थे। सोमशर्माने पूछा-भामिनि ! धर्मका स्वरूप धर्म बोले-ब्रह्मन् ! आपने तपस्वी होकर भी कैसा है? और उसके कौन-कौन-से अङ्ग है? प्रिये! क्रोध क्यों किया है? क्रोध तो मनुष्यके श्रेय और इस विषयको सुननेकी मेरे मनमें बड़ी रुचि हो रही है; तपस्या-दोनोंका ही नाश कर डालता है; इसलिये अतः तुम प्रसन्नतापूर्वक इसका वर्णन करो। तपस्याके समय इस सर्वनाशी क्रोधको अवश्य त्याग
सुमना बोली-ब्रह्मन् ! जिनका अत्रिवंशमें जन्म देना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ ! स्वस्थ होइये; आपकी हुआ है तथा जो अनसूयाके पुत्र हैं, उन भगवान् तपस्याका फल बहुत उत्तम है। दत्तात्रेयजीने ही सदा धर्मका साक्षात्कार किया है। महर्षि दुर्वासाने कहा-आप कौन हैं, जो इन श्रेष्ठ दुर्वासा और दत्तात्रेय-इन दोनोंने उत्तम तपस्या की है। ब्राह्मणोंके साथ यहाँ पधारे हैं? तथा आपके साथ ये उन्होंने तपस्या और आत्मबलके साथ धर्मानुकूल बर्ताव सुन्दर रूप और अलंकारोंसे सुशोभित स्त्रियाँ कैसे किया है। उन्होंने वनमें रहकर दस हजार वर्षांतक तपस्या खड़ी हैं? की, बिना कुछ खाये-पीये केवल हवा पीकर जीवन- धर्म बोले-मुने! ये जो आपके सामने निर्वाह किया; इससे वे दोनों शुभदशी हो गये हैं। ब्राह्मणके रूपमें सम्पूर्ण तेजसे युक्त दिखायी देते है, जो तत्पश्चात् उतने ही समय (दस हजार वर्ष) तक उन हाथमें दण्ड और कमण्डलु लिये अत्यन्त प्रसन्न जान दोनोंने पञ्चाग्निसेवन किया। उसके बाद वे जलके भीतर पड़ते हैं; इनका नाम 'ब्रह्मचर्य' है। इसी प्रकार ये जो खड़े हो उतने ही वर्षांतक तपस्यामें लगे रहे। यतिवर दूसरे तेजस्वी ब्राह्मण खड़े हैं, इनपर भी दृष्टिपात दत्तात्रेय और मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा बहुत दुर्बल हो गये। तब कीजिये। इनके शरीरका रङ्ग पीला और आँखें भूरे रंगकी मुनिवर दुर्वासाके मनमें धर्मके प्रति बड़ा क्रोध हुआ। हैं; ये 'सत्य' कहलाते हैं। धर्मात्मन् ! इन्हींक समान जो इसी समय बुद्धिमान् धर्म साक्षात् वहाँ आ पहुंचे। उनके अपनी दिव्य प्रभासे विश्वेदेवोंकी समानता कर रहे हैं साथ ब्रह्मचर्य और तप आदि भी मूर्तिमान् होकर आये। तथा जिनका आपने सदा ही आश्रय लिया है, वही ये सत्य, ब्रह्मचर्य, तप और इन्द्रियसंयम-ये उत्तम एवं आपके मूर्तिमान् 'तप' हैं; इनका दर्शन कीजिये। जिनकी
* ब्रह्मचर्येण तपसा मखपज्ञकवर्तनः । दानेन नियमैश्वापि क्षमाशीचेन वल्लभ ॥ अहिंसया सुशक्त्या च हस्तेयेनापि वर्तनः । एतैर्दशभिरङ्गैस्तु धर्ममेव प्रपूरयेत् ॥
(१२।४४-४५)
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भूमिखण्ड]
• सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें सुमना और शिवशर्माका संवाद .
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वाणी प्रसाद-गुणसे युक्त है, जो दीप्तिमान् दिखायी देते हैं, गौरवर्णा है। इधर यह मेधा उपस्थित है, जिसके शरीरका सम्पूर्ण जीवोंपर दया करना जिनका स्वभाव है तथा जो रंग हंस और चन्द्रमाके समान श्वेत है, गलेमें मोतियोंका सर्वदा आपका पोषण करते हैं, वे ही 'दम' (इन्द्रिय- हार लटक रहा है और हाथमें पुस्तक तथा स्फटिकाक्षकी संयम) यहाँ व्यक्तरूप धारण करके उपस्थित हैं। जिनके माला शोभा पा रही है। यह प्रज्ञा है, जो सदा ही अत्यन्त मस्तकपर जटा है, जिनका स्वभाव कुछ कठोर जान प्रसत्र रहा करती है; यह प्रज्ञादेवी पीत वस्त्रसे शोभा पा पड़ता है, जिनके शरीरका रंग कुछ पीला है, जो अत्यन्त रही है। द्विजश्रेष्ठ ! जो त्रिभुवनका उपकार और पोषण तीव्र और महान् सामर्थ्यशाली प्रतीत होते हैं तथा जिन्होंने करनेमें अद्वितीय है, जिसके शीलकी सदा ही प्रशंसा श्रेष्ठ ब्राह्मणका रूप धारण कर हाथमें तलवार ले रखी है, होती रहती है, वह दया भी आपके पास आयी है। यह वे पापोंका नाश करनेवाले 'नियम' हैं। जो अत्यन्त श्वेत वृद्धा, परम विदुषी, तपस्विनी, भावकी भार्या और मेरी
और महान् दीप्तिमान् हैं, जिनके शरीरका रंग शुद्ध माता है। सुव्रत ! मैं आपका मूर्तिमान् धर्म हूँ। ऐसा स्फटिक मणिके समान जान पड़ता है, जिनके हाथमें समझकर शान्त होइये। मेरी रक्षा कीजिये। विप्रवर ! जलसे भरा कमण्डलु है तथा जिन्होंने दाँतन ले रखी है, आप कुपित क्यों हो रहे हैं? वे शौच' ही यहाँ ब्राह्मणका रूप धारण करके आये हैं। दुर्वासाने कहा-देव ! जिससे मुझे क्रोध हुआ __ स्त्रियोंमें यह शुश्रूषा है, जो सत्यसे विभूषित, परम है, वह कारण सुनिये । मैंने इन्द्रियसंयम और शौच आदि सौभाग्यवती और अत्यन्त साध्वी है। जिसका स्वभाव केशमय साधनोंद्वारा अपने शरीरका शोधन किया तथा अत्यन्त धीर है, जिसके सारे अङ्गोंसे प्रसन्नता टपक रही तपस्या की; किन्तु ऐसा करनेपर भी देख रहा हूँ-केवल है, जिसका रंग गोरा और मुखपर हास्यकी छटा छा रही मेरे ही ऊपर आपकी दया नहीं हो रही है। धर्मराज ! मैं है, वह कमललोचना सरस्वती है। द्विजश्रेष्ठ ! यह दिव्य आपके इस बर्तावको न्याययुक्त नहीं मानता। यही मेरे आभूषणोंसे युक्त क्षमा उपस्थित है, जो परम शान्त, क्रोधका कारण है, दूसरा कुछ नहीं; इसलिये मैं आपको सुस्थिर और अनेकों मङ्गलमय विधानोंसे सुशोभित है। तीन शाप दूंगा। महाप्राज्ञ! तुम्हारी ज्ञानस्वरूपा शान्ति भी दिव्य 'धर्म ! अब आप राजा और दासीपुत्र होइये । साथ आभूषणोंसे विभूषित होकर यहाँ आयी है। यह तुम्हारी ही स्वेच्छानुसार चाण्डाल-योनिमें भी प्रवेश कीजिये।' प्रज्ञा है, जो परोपकारमें संलग्र, सत्यपरायण तथा स्वल्प इस प्रकार तीन शाप देकर द्विजश्रेष्ठ दुर्वासा चले गये।। भाषण करनेवाली है। यह क्षमाके साथ बड़ी प्रसन्न सोमशर्माने पूछा-भामिनि ! महात्मा दुर्वासाका रहती है। इस यशस्विनीके शरीरका वर्ण श्याम है। शाप पाकर धर्मकी क्या अवस्था हुई? उन शापोंका जिसका शरीर तपाये हुए सोनेके समान उद्दीप्त दिखायी दे उपभोग उन्होंने किस प्रकार किया? यदि जानती हो रहा है, वह महाभागा अहिंसा है। यह अत्यन्त प्रसन्न तो बताओ।
और अच्छी मन्त्रणासे युक्त है। यह यत्र-तत्र दृष्टि नहीं सुमना बोली-प्राणनाथ ! धर्मने भरतवंशमें डालती। ज्ञानभावसे आक्रान्त हो सदा तपस्यामें लगी राजा युधिष्ठिरके रूपमें जन्म ग्रहण किया। दासीपुत्र रहती है। महाभाग ! यह देखिये-आपकी श्रद्धा भी होकर जब वे उत्पन्न हुए, तब विदुर नामसे उनकी आयी है, जो नाना प्रकारकी बुद्धिसे आक्रान्त और प्रसिद्धि हुई। अब तीसरे शापका उपभोग बतलाती अनेकों ज्ञानोंसे आकुल होनेपर भी सुस्थिर है। यह श्रद्धा हूँ-जिस समय महर्षि विश्वामित्रने राजा हरिश्चन्द्रको मनोहर और मङ्गलमयी है। सबका शुभ चिन्तन बहुत कष्ट पहुँचाया, उस समय परम बुद्धिमान् धर्म करनेवाली, सम्पूर्ण जगत्की माता, यशस्विनी तथा चाण्डालके स्वरूपको प्राप्त हुए थे।
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, साङ्गोपाङ्ग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी
मृत्युका
वर्णन
सोमशर्माने कहा - भामिनि ! ब्रह्मचर्यके आनन्दका अनुभव करता है जो दान और स्वाध्याय आदि शुभ कर्मोंके द्वारा अपने प्रत्येक दिनको सफल बनाता है, वह इस जगत् में मनुष्य होकर भी देवता ही है— इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है।
लक्षणका विस्तारपूर्वक वर्णन करो।
सुमना बोली- नाथ ! सदा सत्यभाषणमें जिसका अनुराग है, जो पुण्यात्मा होकर साधुताका आश्रय लेता है, ऋतुकाल प्राप्त होनेपर अपनी स्त्रीके साथ समागम करता है, स्वयं दोषोंसे दूर रहता है और अपने कुलके सदाचारका कभी त्याग नहीं करता, वही सच्चा ब्रह्मचारी है। द्विजश्रेष्ठ ! यह मैंने गृहस्थके ब्रह्मचर्यका वर्णन किया है। यह ब्रह्मचर्य गृहस्थ पुरुषोंको सदा मुक्ति प्रदान करनेवाला है। अब मैं यतियों (संन्यासियों) के ब्रह्मचर्य का वर्णन करूंगी, आप ध्यान देकर सुनें । यतिको चाहिये कि वह इन्द्रियसंयम और सत्यसे युक्त हो पापसे सदा डरता रहे तथा स्त्रीके सङ्गका परित्याग करके ध्यान और ज्ञानमें निरन्तर संलग्न रहे। यह यतियोंका ब्रह्मचर्य बतलाया गया। अब आपके समक्ष वानप्रस्थके ब्रह्मचर्यका वर्णन करती हूँ, सुनिये। वानप्रस्थीको सदाचारसे रहना और काम-क्रोधका परित्याग करना चाहिये। वह उञ्छवृत्तिसे जीविका चलाये और प्राणियोंके उपकारमें संलग्न रहे। यह वानप्रस्थका ब्रह्मचर्य बताया गया।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
अब सत्यका वर्णन करती हूँ। जिसकी बुद्धि पराये धन और परायी स्त्रियोंको देखकर लोलुपतावश उनके प्रति आसक्त नहीं होती, वही पुरुष सत्यनिष्ठ कहा गया है। अब दानका वर्णन करती हूँ; जिससे मनुष्य जीवित रहता है। भूखसे पीड़ित मनुष्यको भोजनके लिये अन्न अवश्य देना चाहिये । उसको देनेसे महान् पुण्य होता है तथा दाता मनुष्य सदा अमृतका उपभोग करता है। अपने वैभवके अनुसार प्रतिदिन कुछ न कुछ दान करना चाहिये। सहानुभूतिपूर्ण वचन, तृण, शय्या, घरकी शीतल छाया, पृथ्वी, जल, अन्न, मीठी बोली, आसन, वस्त्र या निवासस्थान और पैर धोनेके लिये जल-ये सब वस्तुएँ जो प्रतिदिन अतिथिको निष्कपट भावसे अर्पण करता है; वह इहलोक और परलोकमें भी
अब मैं साङ्गोपाङ्ग धर्मके साधनभूत उत्तम नियमोंका वर्णन करती हूँ। जो देवताओं और ब्राह्मणोंकी पूजामें संलग्न रहता है, नित्य निरन्तर शौच, सन्तोष आदि नियमोंका पालन करता है तथा दान, व्रत और सब प्रकारके परोपकारी कार्योंमें योग देता है, उसके इस कार्यको नियम कहा गया है। द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं क्षमाका स्वरूप बतलाती हूँ, सुनिये। दूसरोंद्वारा की हुई अपनी निन्दा सुनकर अथवा किसीके द्वारा मार खाकर भी जो क्रोध नहीं करता और स्वयं मार खाकर भी मारनेवाले व्यक्तिको नहीं मारता, वह क्षमाशील कहलाता है। अब शौचका वर्णन करती हूँ। जो राग-द्वेषसे रहित होकर प्रतिदिन स्नान और आचमन आदिका व्यवहार करता है और इस प्रकार जो बाहर तथा भीतरसे भी शुद्ध है, उसे शौचयुक्त (पवित्र) माना गया है। अब मैं अहिंसाका रूप बतलाती हूँ। विज्ञ पुरुषको किसी विशेष आवश्यकता के बिना एक तिनका भी नहीं तोड़ना चाहिये। संयमके साथ रहकर प्रत्येक जीवकी हिंसासे दूर रहना चाहिये और अपने प्रति जैसे बर्तावकी इच्छा होती है वैसा ही बर्ताव दूसरोंके साथ स्वयं भी करना चाहिये। अब शान्तिके स्वरूपका वर्णन करती हूँ। शान्तिसे सुखकी प्राप्ति होती है। अतः शान्तिपूर्ण आचरण अपना कर्तव्य है। कभी खिन्न नहीं होना चाहिये। प्राणियोंके साथ वैरभावका सर्वथा परित्याग करके मनमें भी कभी वैरका भाव नहीं आने देना चाहिये। अब अस्तेयका स्वरूप बतलाती हूँ। परधन और परस्त्रीका कदापि अपहरण न करे। मन, वाणी तथा शरीरके द्वारा भी कभी किसी दूसरेकी वस्तु लेनेकी चेष्टा न करे। अब दमका वर्णन करती हूँ। इन्द्रियोंका दमन करके मनके द्वारा उन्हें प्रकाश देते रहना और उनकी चञ्चलताका नाश
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भूमिखण्ड]
• सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन .
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करना चाहिये। इससे मनुष्यमें चेतनाका विकास होता... अनुष्ठानसे ही स्त्री, पुत्र और धन-धान्यकी प्राप्ति होती है। अब मैं शुश्रूषाका स्वरूप बतलाती हूँ। मन, वाणी है।' उनके उपदेशसे वेदशर्मान धर्मका अनुष्ठान पूरा
और शरीरसे गुरुके कार्य-साधनमें लगे रहना शुश्रूषा है। किया। उस धर्मसे उन्हें महान् सुख और सुयोग्य पुत्रकी द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने आपसे धर्मका साङ्गोपाङ्ग प्राप्ति हुई। उन सिद्ध महात्माके सत्सङ्गसे ही धर्मके वर्णन किया । जो मनुष्य ऐसे धर्ममें सदा संलग्न रहता है, विषयमें मेरी बुद्धिका ऐसा निश्चय हुआ है। उसे संसारमें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता—यह मैं सोमशर्माने पूछा-प्रिये ! धर्मसे कैसी मृत्यु आपसे सच-सच कह रही हूँ। महाप्राज्ञ ! यह जानकर और कैसा जन्म होता है? शास्त्रके अनुसार उस मृत्यु आप धर्मका अनुसरण करें।
.. और जन्मका लक्षण जैसा निश्चित किया गया हो, वह सोमशर्माने पूछा-देवि ! तुम्हारा कल्याण हो, सब मुझे बताओ। , तुम इस प्रकार धर्मकी परम पुण्यमयी उत्तम व्याख्या कैसे सुमना बोली-प्राणनाथ ! जिसने सत्य, शौच, जानती हो? किसके मुँहसे तुमने यह सब सुना है? क्षमा, शान्ति, तीर्थ और पुण्य आदिके द्वारा धर्मका
सुमना बोली-महामते! मेरे पिताका जन्म पालन किया है, उसकी मृत्युका लक्षण बतलाती हूँ। भार्गव-वंशमें हुआ है। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण धर्मात्मा पुरुषको मृत्युके समय कोई रोग नहीं होता, हैं। उनका नाम है महर्षि च्यवन । मैं उन्हींकी कन्या हूँ। उसके शरीरमें कोई पीड़ा नहीं होती; श्रम, ग्लानि, स्वेद वे मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानते थे। जिस-जिस और भ्रान्ति आदि उपद्रव भी नहीं होते। गीत-ज्ञानतीर्थ, मुनि-समाज अथवा देवालयमें वे जाते, मैं भी विशारद दिव्यरूपधारी गन्धर्व और वेदपाठी ब्राह्मण उनके साथ वहाँ जाया करती थी। मेरे पिताजीके एक उसके पास आकर मनोहर स्तुति किया करते हैं। वह मित्र हैं, जिनका नाम है वेदशर्मा । कौशिकवंशमें उनका स्वस्थ रहकर सुखदायक आसनपर विराजमान होता है। जन्म हुआ है । एक दिन वे घूमते-घामते पिताजीके पास अथवा देवपूजामें बैठा होता है। ऐसा भी हुआ करता है आये। उस समय वे बहुत दुःखी थे और बारंबार कि धर्मपरायण बुद्धिमान् पुरुष [मृत्युकालमें] नानके चिन्तामग्न हो जाते थे। तब उनसे मेरे पिताने लिये तीर्थ-स्थानमें पहुँचा हो। अग्निहोत्र-गृह, गोशाला, कहा-'सुव्रत ! मालूम होता है आप किसी दुःखसे देवमन्दिर, बगीचा, पोखरा, पीपल या बड़का वृक्ष तथा संतप्त है। आपको दुःख कैसे प्राप्त हुआ है, मुझे इसका पाकर अथवा बेलका पेड़-ये मृत्युके लिये पवित्र कारण बतलाइये।' यह सुनकर वेदशर्माने कहा-'मेरी स्थान माने गये हैं। धर्मात्मा पुरुष धर्मराजके दूतोंको स्त्री बड़ी साध्वी और पतिव्रता है, किन्तु अबतक उसे प्रत्यक्ष देखता है। वे नेहसे युक्त और मुसकराते हुए कोई पुत्र नहीं हुआ। मेरा वंश चलानेवाला कोई नहीं है। दिखायी देते हैं। वह मरनेवाला जीव स्वप्न, मोह तथा यही मेरे दुःखका कारण है; आपने पूछा था, इसलिये केशके अधीन नहीं होता। धर्मराजके दूत उससे कहते बताया है।'
हैं-'महाभाग ! परम बुद्धिमान् धर्मराज आपको बुला इसी बीचमें कोई सिद्ध पुरुष मेरे पिताके आश्रमपर रहे हैं।' दूतोंकी यह बात सुनकर उसे मोह और सन्देह आये। पिताजी और वेदशर्मा दोनोंने खड़े होकर नहीं होता। उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है। वह भक्तिपूर्वक सिद्धका पूजन किया। भोजन आदि उपचारों ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न हो भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण और मीठे वचनोंसे उनका स्वागत किया। फिर आपने करता है और संतुष्ट एवं हृष्टचित्त होकर उन दूतोंके साथ पहले जिस प्रकार प्रश्न किया था, उसी प्रकार उन दोनोंने चला जाता है। भी सिद्धसे अपने मनकी बात पूछी । तब धर्मात्मा सिद्धने . सोमशर्माने पूछा-भद्रे ! पापियोंकी मृत्यु किन मेरे पिता और उनके मित्रसे इस प्रकार कहा–'धर्मके लक्षणोंसे युक्त होती है, इसका विस्तारके साथ वर्णन करो।
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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सुमना बोली- प्राणनाथ ! महापातकी मनुष्योंकी मृत्युके स्थान और चेष्टाका वर्णन करती हूँ। दुष्टात्मा पुरुष विष्ठा और मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओंसे युक्त और पापियोंसे भरे हुए भूभागमें रहकर बड़े दुःखसे प्राण त्याग करता है। चाण्डालके स्थानपर जाकर दुःखपूर्वक मरता है। गदहोंसे घिरी हुई भूमिमें वेश्या भवनमें तथा चमारके घरमें जाकर वह मृत्युको प्राप्त होता है। हड्डी, चमड़े और नखोंसे भरी हुई पृथ्वीपर पहुँचकर दुष्टात्मा पुरुषकी मृत्यु होती है। अब मैं उसे ले जानेकी इच्छासे आये हुए यमदूतोंकी चेष्टाका वर्णन करती हूँ। वे अत्यन्त भयानक, घोर और दारुण रूप धारण किये आते हैं। उनके शरीर अत्यन्त काले, पेट लंबे-लंबे और आँखें कुछ-कुछ पीली होती हैं। कोई पीले, कोई नीले और कोई अत्यन्त सफेद होते हैं। पापी मनुष्य उन्हें देखकर काँप उठता है, उसके शरीरसे • बारंबार पसीना छूटने लगता है।
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अब मैं दुःखी जीवकी चेष्टा बताती हूँ। लोभ और स्वादसे मोहित होकर पापी पुरुष जो पराये धन और पराथी स्त्रियोंका अपहरण किये रहते हैं, पहले दूसरेसे ऋण लेकर बादमें उसे चुका नहीं पाते तथा असत्प्रतिग्रह आदि जो अन्य बड़े-बड़े पाप किये रहते हैं—सारांश यह कि मृत्युसे पहले वे जितने भी पापोंका आचरण किये रहते हैं, वे सभी महापापीके कण्ठमें आकर उसके कफको रोक देते और दुःसह दुःख पहुँचाते हैं। असह्य पीडाओंसे उसका कण्ठ घरघराने लगता है। वह बारंबार रोता और माता, पिता, भाई, पत्नी तथा पुत्रोंका स्मरण करता है। फिर महापापसे मोहित होकर वह सबको भूल जाता है। अत्यन्त पीडासे व्याकुल होनेपर भी उसके प्राण शीघ्रतापूर्वक नहीं निकलते वह काँपता तलमलाता और रह-रहकर मूर्छित हो जाता है। इस प्रकार लोभ और मोहसे युक्त मनुष्य सदा मूर्छित होकर ही प्राण त्यागता है। तत्पश्चात् यमराजके दूत उसे यमलोकमें ले जाते हैं।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सुनिये, मैं होते हैं, उस मार्गपर पापीको घसीटते हुए ले जाया जाता है। वहाँ वह दुष्टात्मा जीव बारंबार आगमें जलता और छटपटाया करता है। जहाँ बारह सूर्योकि तापसे युक्त अत्यन्त तीव्र धूप पड़ती है, उसी मार्गसे उसे पहुँचाया जाता है। वहाँ वह सूर्यकी प्रचण्ड किरणोंसे संतप्त और भूख-प्याससे पीड़ित होता रहता है। यमदूत उसे गदा, डंडे और फरसोंसे मारते, कोड़ोंसे पीटते तथा गालियाँ सुनाते हैं। तदनन्तर वे पापीको उस मार्गपर ले जाते हैं, जहाँ जाड़ा अधिक पड़ता है और ठंडी हवाका झोंका सहना पड़ता है। पापी पुरुष शीतसे पीड़ित होकर उस मार्गको तय करता है; यमदूत उसे घसीटते हुए नाना प्रकारके दुर्गम स्थानोंमें ले जाते हैं। इस प्रकार देवता और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाले, सम्पूर्ण पापोंसे युक्त दुष्टात्मा पापी पुरुषको यमराजके दूत यमलोकमें ले जाते हैं।
वहाँ पहुँचकर वह दुष्टात्मा यमराजको काले अञ्जनकी राशिके समान देखता है। वे उग्र, दारुण और भयङ्कर रूप धारण किये भैंसेपर सवार दिखायी देते हैं। अनेकों यमदूत उन्हें घेरे खड़े रहते हैं। उनके साथ सब प्रकारके रोग और चित्रगुप्त भी उपस्थित होते हैं। द्विजश्रेष्ठ ! उस समय भगवान् धर्मराजका मुख विकराल दादोंके कारण अत्यन्त भयानक और कालके समान प्रतीत होता है। यमराज धर्ममें बाधा डालनेवाले उस महापापी दुष्टको देखते और अत्यन्त दुःखदायी, दुस्सह अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा पीडा पहुँचाते हुए उसे कठोर दण्ड देते हैं। वह पापी एक हजार युगोंतक नाना प्रकारकी यातनाओंमें पकाया जाता है। इस प्रकार दुष्ट बुद्धिवाला पापात्मा मनुष्य अपने पापका उपभोग करता है। तत्पश्चात् वह जिन-जिन योनियोंमें जन्म लेता है, उसका भी वर्णन करती हूँ कुछ कालतक कुत्तेकी योनिमें रहकर वह दुष्टात्मा अपना पाप भोगता है। उसके बाद व्याघ्र और फिर गदहा होता है। तदनन्तर बिलाव, सूअर और साँपकी योनिमें जन्म लेता है। इस तरह अनेक भेदोंवाली सम्पूर्ण पापयोनियोंमें उसे बारंबार जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार मैंने आपसे पापियोंके जन्मका सारा वृत्तान्त भी बतला दिया ।
उस समय उसको जो दुःख भोगना पड़ता है, उसका वर्णन करती हूँ। जहाँ ढेर के ढेर अंगारे बिछे
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भूमिखण्ड ]
. वसिष्ठजीके द्वारा सोमशर्माके पूर्वजन्मका वर्णन तथा उन्हें भगवळजनका उपदेश .
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वसिष्ठजीके द्वारा सोमशर्माके पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें
भगवानके भजनका उपदेश
सोमशर्माने पूछा-कल्याणी ! मैं किस प्रकार त्यागी, प्रिय वचन बोलनेवाला, भगवान् श्रीविष्णुके सर्वज्ञ और गुणवान् पुत्र प्राप्त कर सकूँगा? ध्यानमें तत्पर, नित्य शान्त, जितेन्द्रिय, सदा जप
सुमना बोली-स्वामिन्! आप महामुनि करनेवाला, पितृभक्तिपरायण, सदा समस्त स्वजनोंपर वसिष्ठजीके पास जाइये; वे धर्मके ज्ञाता है, उन्हींसे नेह रखनेवाला, कुलका उद्धारक, विद्वान् तथा कुलको प्रार्थना कीजिये। उनसे आपको धर्मज्ञ एवं धर्मवत्सल सन्तुष्ट करनेवाला हो-ऐसे गुणोंसे युक्त उत्तम पुरुष ही पुत्रकी प्राप्ति होगी।
सुख देनेवाला होता है। इसके सिवा दूसरे तरहके पुत्र सूतजी कहते हैं-पत्नीके यों कहनेपर द्विजश्रेष्ठ सम्बन्ध जोड़कर केवल शोक और सन्ताप देते हैं। ऐसा सोमशर्मा सब बातोंके जाननेवाले, तेजस्वी और तपस्वी पुत्र किस कामका । उसके होनेसे कोई लाभ नहीं है। महात्मा वसिष्ठजीके पास गये। वे गङ्गाजीके तटपर स्थित महाप्राज्ञ ! तुम पूर्वजन्ममें शूद थे। तुम्हें धर्माधर्मका ज्ञान अपने पवित्र आश्रममें विराजमान थे। सोमशर्माने बड़ी नहीं था, तुम बड़े लोभी थे। तुम्हारे एक स्त्री और भक्तिके साथ बारंबार उन्हें दण्डवत्-प्रणाम किया। तब बहुत-से पुत्र थे। तुम दूसरोंके साथ सदा द्वेष रखते थे। पापरहित महातेजस्वी ब्रह्मपुत्र वसिष्ठजी उनसे बोले- तुमने सत्यका कभी श्रवण नहीं किया था। तीर्थोंकी यात्रा 'महामते ! इस पवित्र आसनपर सुखसे बैठो।' यह नहीं की थी। महामते ! तुमने एक ही काम किया कहकर उन योगीश्वरने पूछा-'महाभाग ! तुम्हारे था-खेती करना । बार-बार तुम उसीमें लगे रहते थे। पुण्यकर्म और अग्निहोत्र आदि कार्य कुशलसे हो रहे हैं द्विजश्रेष्ठ ! तुम पशुओंका पालन भी करते थे। पहले न? शरीरसे तो नीरोग रहते हो न? धर्मका पालन तो गाय पालते थे, फिर भैस और घोड़ोंको भी पालने लगे। सदा करते ही होगे। द्विजश्रेष्ठ ! बताओ, मैं तुम्हारी तुमने अन्नको बहुत महँगा कर रखा था। तुम इतने कौन-सी प्रिय कामना पूर्ण करूँ?' इस प्रकार संभाषण निर्दयी थे कि कभी किसीको किश्चित् भी दान नहीं करके वसिष्ठजी चुप हो गये। तब सोमशर्माने कहा- किया। देवताओंकी पूजा नहीं की। पर्व आनेपर 'तात ! किस पापके कारण मुझे दरिद्रताका कष्ट भोगना ब्राह्मणोंको धन नहीं दिया तथा श्राद्धकाल उपस्थित पड़ता है? मुझे पुत्रका सुख क्यों नहीं मिलता, इस होनेपर भी तुमने श्रद्धापूर्वक कुछ नहीं किया। तुम्हारी बातका मेरे मनमें बड़ा सन्देह है। किस पापसे ऐसा हो साध्वी स्त्री कहती थी-'आज श्राद्धका दिन है। यह रहा है, यह बताइये। महामते ! मैं महान् पापसे मोहित श्वशुरके श्राद्धका समय है और यह सासके।' महामते ! एवं विवेकशून्य हो गया था, अपनी प्यारी पत्नीके उसकी ये बातें सुनकर तुम घर छोड़ कहीं अन्यत्र भाग समझाने और भेजनेसे आज आपके पास आया हूँ। जाते थे। तुमने धर्मका मार्ग न कभी देखा था, न सुना
वसिष्ठजीने कहा-द्विजश्रेष्ठ ! मैं तुम्हारे सामने ही था । लोभ ही तुम्हारी माता, लोभ ही पिता, लोभ ही पुत्रके पवित्र लक्षणका वर्णन करता हूँ। जिसका मन आता और लोभ ही स्वजन एवं बन्धु था। तुमने सदाके पुण्यमें आसक्त हो, जो सदा सत्यधर्मके पालनमें तत्पर लिये धर्मको तिलाअलि देकर एकमात्र लोभका ही रहता हो और जो बुद्धिमान, ज्ञानसम्पन्न, तपस्वी, आश्रय लिया था; इसीलिये तुम दुःखी और गरीबीसे वक्ताओंमें श्रेष्ठ, सब कोंमें कुशल, धीर, वेदाध्ययन- पीड़ित हुए हो। परायण, सम्पूर्ण शास्त्रोंका वक्ता, देवता और ब्राह्मणोंका तुम्हारे हदयमें प्रतिदिन महातृष्णा बढ़ती जाती थी। पुजारी, समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला, ध्यानी, रातमें सो जानेपर भी तुम सदा धनकी ही चिन्तामें लगे
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
रहते थे। इस प्रकार क्रमशः हजार, लाख, करोड़, आपके दर्शनसे तीर्थसेवनका फल प्राप्त हो गया।' यह अरब, खरब और दस खरब सोनेकी मुहरें तुम्हें प्राप्त हो कहकर तुमने उन्हें ठहरनेके लिये परम पवित्र गोशालाका गयीं; फिर भी तृष्णा तुम्हारा पिंड नहीं छोड़ती थी। वह स्थान दिखलाया और वहाँ ठहराकर उनके शरीरकी सेवा सदा बढ़ती ही रहती थी। तुमने कभी दान, होम या करके दोनों पैरोंको भी दबाया। फिर उनके चरणोंको धनका उपभोग भी नहीं किया। जितना कमाया, सब जलसे धोकर चरणोदकसे अपने मस्तकका अभिषेक जमीनके अंदर गाड़ दिया। तुम्हारे पुत्रोंको भी उस गड़े किया। तत्पश्चात् तुरंत ही दूध, दही, घी और मटेके साथ हुए धनका पता न था। तुम्हारे हदयमें तृष्णाकी आग उन ब्राह्मण-देवताको अन्न अर्पण किया। प्रज्वलित होती रहती थी। उसीके दुःखसे तुम्हें कभी महामते ! इस प्रकार अपनी स्त्रीसहित सेवा करके सुख नहीं मिलता था। तृष्णाकी आगसे संतप्त होकर तुम तुमने ब्राह्मणको बहुत सन्तुष्ट कर लिया। दूसरे दिन हाहाकार मचाते और अचेत रहते थे। विप्रवर ! इस प्रातःकाल अत्यन्त शुभकारक पुण्य दिवस आया। उस प्रकार मोहमें पड़े-पड़े ही तुम कालके अधीन हो गये। दिन शुद्ध आषाढ मासकी शुक्ला द्वादशी थी, जो सब स्त्री और पुत्र पूछते ही रह गये; किन्तु तुमने उन्हें न तो पापोंका नाश करनेवाली है; उसी तिथिको भगवान् उस धनका पता बताया और न उन्हें दिया ही। तुम प्राण श्रीविष्णु योगनिद्राका आश्रय लेते हैं। वह तिथि आनेपर त्यागकर यमलोकमें चले गये। इस प्रकार मैंने तुम्हारे बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुष घरके सारे काम छोड़कर पूर्वजन्मका सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न हो गये। गीत और _ विप्रवर ! उसी कर्मके कारण तुम निर्धन और दरिद्र मङ्गलवाद्योंके द्वारा परम उत्सव मनाने लगे। समस्त हो। जिसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं, ब्राह्मण वेदके सूक्तों और मङ्गलमय स्तोत्रोद्वारा भगवानकी उसीके घरमें सदा सुशील, ज्ञानी और सत्यधर्मपरायण स्तुति करने लगे। ऐसे महोत्सवका अवसर पाकर वे श्रेष्ठ पुत्र होते हैं। संसारमें जिसको भक्तिमान् श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्ति ब्राह्मण उस दिन वहीं ठहर गये। उन्होंने एकादशीका व्रत हुई है, वह भगवानका कृपापात्र है। भगवान् श्रीविष्णुकी किया और उसका माहात्म्य भी पढ़कर सुनाया। तुमने कृपाके बिना कोई भी स्त्री, पुत्र, उत्तम जन्म तथा उत्तम अपनी स्त्री और पुत्रोंके साथ एकादशीसे होनेवाले उत्तम कुलको और श्रीविष्णुके परम धामको नहीं पा सकता। पुण्यका वर्णन सुना । उस महापुण्यमय प्रसङ्गको सुनकर
सोमशर्माने पूछा-ज्ञान-विज्ञानके पण्डित स्त्री और पुत्रोंसे प्रेरित हो श्राह्मणके संसर्गसे तुमने भी विप्रवर वसिष्ठजी ! यदि ऐसी बात है तो मुझे ब्राह्मण- एकादशी-व्रतका आचरण किया। स्त्री और पुत्रोंके साथ वंशमें जन्म कैसे मिला ? इसका सारा कारण बतलाइये। जाकर प्रातःकाल स्नान किया और प्रसन्न मनसे गन्ध-पुष्प
वसिष्ठजी बोले-ब्रह्मन् ! पूर्वजन्ममें तुम्हारे द्वारा आदि पवित्र उपचारों तथा सब प्रकारके नैवेद्योंद्वारा एक धर्मसम्बन्धी कार्य भी बन गया था, उसे बताता हूँ; भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा की। फिर नृत्य और गीत उन दिनों एक निष्पाप, सदाचारी, अच्छे विद्वान्, आदिके द्वारा उत्सव मनाते हुए रात्रिमें जागरण किया। विष्णुभक्त और धर्मात्मा ब्राह्मण थे, जो तीर्थ-यात्राके तत्पश्चात् भगवानको स्नान कराकर भक्तिके साथ बारंबार व्याजसे समूची पृथ्वीपर अकेले विचरण किया करते उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया और महात्मा ब्राह्मणके थे। एक दिन वे महामुनि घूमते-घामते तुम्हारे घरपर दिये हुए भगवान्के चरणोदकका पान किया, जो परम आये। द्विजश्रेष्ठ ! उस समय उन्होंने अपने ठहरनेके शान्ति प्रदान करनेवाला है। इसके बाद ग्राह्मणको लिये तुमसे कोई स्थान माँगा। तुम बड़ी प्रसन्नताके साथ भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तुमने उन्हें उत्तम दक्षिणा दी और बोले-'विद्वन् ! अहा, आज मैं धन्य हो गया। आज पुत्र एवं पत्नी आदिके साथ व्रतका पारण किया। इस मैंने पावन तीर्थकी यात्रा कर ली तथा इस समय मुझे प्रकार भक्ति और सद्भावके द्वारा तुमने ब्राह्मणको
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सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना
भलीभाँति प्रसन्न कर लिया। अतः ब्राह्मणके सङ्ग और भगवान् श्रीविष्णुके प्रसादसे सत्यधर्ममें स्थित होनेके कारण तुम्हें ब्राह्मणका शरीर प्राप्त हुआ है।
तुमने धनके लालच में आकर पुत्रका स्नेह त्याग दिया। उसी पापका यह फल है कि तुम पुत्रहीन हो गये। विप्रवर! उत्तम पुत्र, उत्तम कुल, धन, धान्य, पृथ्वी, स्त्री, उत्तम जन्म, श्रेष्ठ मृत्यु, सुन्दर भोग, सुख, राज्य, स्वर्ग तथा मोक्ष आदि जो-जो दुर्लभ वस्तुएँ हैं, वे सभी परमात्मा भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे प्राप्त होती हैं। इसलिये अबसे भगवान् नारायणकी आराधना करके तुम
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उस उत्कृष्ट पदको प्राप्त कर सकोगे, जो श्रीविष्णुका परमपद कहलाता है। महाभाग ! यह जानकर तुम श्रीनारायणके भजनमें लग जाओ।
सूतजी कहते हैं - वसिष्ठजीके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर वे महानुभाव ब्राह्मण हर्षमें भर गये और भक्तिपूर्वक महर्षि वसिष्ठके चरणोंमें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले अपने घरको पधारे। वहाँ पहुँचकर अपनी स्त्री सुमनासे प्रसन्नतापूर्वक बोले- 'प्रिये ! तुम्हारी कृपासे ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीके द्वारा ही मुझे अपने पूर्वजन्मकी सारी चेष्टाएँ ज्ञात हो गयीं।
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सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
सूतजी कहते हैं— तदनन्तर सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ भयंकर गर्जना करता हुआ वहाँ आया; उसे देखकर महाबुद्धिमान् सोमशर्मा अपनी स्त्री सुमनाके साथ नर्मदाके अत्यन्त पुण्यदायक तटपर गये और कपिलासंगम नामक पुण्यतीर्थमें नहाकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करके शान्तचित्तसे भगवान् नारायणके मङ्गलमय नामका जप करते हुए तपस्या करने लगे। महामना सोमशर्मा द्वादशाक्षर मन्त्रका जप और भगवान् का ध्यान करते थे। वे सदा निश्चिन्त होकर बैठने, सोने, चलने और स्वप्रके समय भी केवल भगवान् श्रीविष्णुकी ओर ही दृष्टि रखते थे। उन्होंने काम-क्रोधका परित्याग कर दिया था। साथ ही पातिव्रत्य धर्ममें तत्पर रहनेवाली परम सौभाग्यवती सती साध्वी सुमना भी अपने तपस्वी पतिकी सेवामें लगी रहती थी। सोमशर्मा जब भगवान्का ध्यान करने लगे, उस समय अनेक प्रकारके विघ्नोंने सामने आकर उन्हें भय दिखाया। भयंकर विषवाले काले साँप उनके पास पहुँच जाते थे। सिंह, बाघ और हाथी उनकी दृष्टिमें आकर भय उत्पन्न करते थे। इस प्रकार बड़े-बड़े विघ्नोंसे घिरे रहनेपर भी वे महाबुद्धिमान् धर्मात्मा ब्राह्मण भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानसे कभी विचलित नहीं होते थे ।
एक दिनकी बात है, एक महाभयानक सिंह
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सोमशर्मा भयसे थर्रा उठे और भगवान् श्रीनरसिंह (विष्णु) का ध्यान करने लगे। इन्द्रनीलमणिके समान श्याम विग्रहपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। श्रीभगवान्का बल और तेज महान् है। वे अपने चारों हाथोंमें क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
हुए हैं। मोतियोंका विशाल हार चन्द्रमाकी भाँति चमक थे, उन शरणागतवत्सल प्रभुकी मैं शरणमें आया हूँ। रहा है। उसके साथ ही कौस्तुभमणि भी भगवान्के हिरण्याक्षका वध करनेवाले भगवान् श्रीवराहकी मैं श्रीविग्रहको उद्भासित कर रही है। श्रीवत्सका चिह्न शरणमें हूँ। ये सब जीव मृत्युका रूप धारण करके मुझे वक्षःस्थलकी शोभा बढ़ा रहा है। श्रीभगवान् सब भय दिखा रहे हैं, किन्तु मैं अमृतकी शरणमें पड़ा हूँ। प्रकारके आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न हैं। कमलके श्रीहरि वेदोंका ज्ञान प्रदान करनेवाले, ब्राह्मण-भक्त, ब्रह्मा समान खिले हुए नेत्र, मुखपर मुसकानकी मनोहर छटा, तथा ब्रह्मज्ञानस्वरूप हैं; मैं उनकी शरणमें पड़ा हूँ। जो स्वाभाविक प्रसन्नता और रत्नमय हार उनकी शोभाको निर्भय, संसारका भय दूर करनेवाले और भयदाता हैं, दुगुनी कर रहे हैं। इस प्रकार परम शोभायमान भगवान् उन भयरूप भगवान्की मैं शरणमें हूँ, भय मेरा क्या श्रीविष्णुकी मनोहर झाँकीका सोमशर्माने ध्यान किया। करेगा। जो समस्त पुण्यात्माओंका उद्धार और सम्पूर्ण __ तत्पश्चात् वे उनकी स्तुति करने लगे-'शरणागत- पापियोंका विनाश करनेवाले हैं, उन धर्मरूप भगवान् वत्सल श्रीकृष्ण ! आप ही मुझे शरण देनेवाले हैं। श्रीविष्णुकी मैं शरणमें पड़ा हूँ। देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है। जिन परमात्माके 'यह परम प्रचण्ड आँधी मेरे शरीरको अत्यन्त पीड़ा उदरमें तीनों लोक और सात भुवन स्थित हैं, उन्हींकी दे रही है, मैं इसे भी भगवान्का ही स्वरूप मानकर शरणमें मैं आ पड़ा हूँ, भय मेरा क्या करेगा। कृत्या इसकी शरणमें हूँ, अतः ये भगवान् वायु मुझे सदा ही आदि प्रबल विघ्न भी जिनसे भय मानते हैं तथा जो आश्रय प्रदान करें। अत्यन्त शीत, अधिक वर्षा और सबको दण्ड देनेमें समर्थ हैं, उन भगवान्के मैं शरणागत दुःसह ताप देनेवाली धूप-इन सबके रूपमें जिन हूँ। जो समस्त देवताओं, महाकाय दानवों तथा क्लेश भगवान्का साक्षात्कार हो रहा है, मैं उन्हींकी शरणमें उठानेवाले भक्तोंके भी आश्रय है, उन भगवान्की मैं आया हूँ। ये जो कालरूपधारी जीव यहाँ आकर मुझे शरणमें आया हूँ। जो भयका नाश करनेके लिये भय देते हुए विचलित कर रहे है, सब-के-सब भगवान् अभयरूप बने हुए हैं और पापोंके नाशके लिये ज्ञानवान् श्रीविष्णुके स्वरूप है; मैं सर्वदा इनकी शरणमें हूँ। जिन्हें हैं तथा जो ब्रह्मरूपसे एक-अद्वितीय हैं, उन सर्वदेवस्वरूप, परमेश्वर, केवल, ज्ञानमय और प्रधानरूप भगवान्की मैं शरणमें हूँ। जो रोगोंका नाश करनेके लिये बतलाते हैं, उन सिद्धोंके स्वामी आदिसिद्ध भगवान् औषधरूप हैं, जिनमें रोग-शोकका नाम भी नहीं है, जो श्रीनारायणकी मैं शरणमें हूँ।' लौकिक आनन्दसे भी शून्य हैं, उन भगवान्की मैं इस प्रकार प्रतिदिन भगवान् श्रीकेशवका ध्यान शरणमें हूँ। जो अविचल लोकोको भी विचलित कर और स्तवन करते हुए सोमशर्माने अपनी भक्तिके बलसे सकते हैं, उन भगवान्की मैं शरणमें आया हूँ भय मेरा भगवान्को हदयमें बिठा लिया। उनका उद्यम और क्या करेगा। जो समस्त साधुओंका पालन करनेवाले हैं, पुरुषार्थ देखकर भगवान् श्रीहषीकेश प्रकट हो गये और जिनकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति हुई है तथा जो उन्हें हर्ष प्रदान करते हुए बोले-'महाप्राज्ञ सोमशर्मन् ! विश्वात्मा इस विश्वकी सदा ही रक्षा करते हैं, उन अपनी पत्नीके साथ मेरी बात सुनो; विप्रवर ! मैं वासुदेव भगवान्की मैं शरणमें आया हूँ।
हूँ, सुव्रत ! तुम मुझसे कोई उत्तम वर मांगो।' 'जो सिंहके रूपमें मेरे सामने उपस्थित होकर भय श्रीभगवान्का यह कथन सुनकर द्विजश्रेष्ठ सोमशर्माने दिखा रहे हैं, उन भक्तभयहारी भगवान् श्रीनरसिंहजीकी अपने नेत्र खोले; देखा तो विश्वके स्वामी श्रीभगवान् मैं शरणमें आया हूँ। ग्राहसे युद्ध करते समय आपत्तिमें दिव्यरूप धारण किये सामने खड़े हैं। उनके शरीरकी पड़ा हुआ विशालकाय गजराज जिनकी शरणमें आया कान्ति मेषके समान श्याम है, वे महान् अभ्युदयशाली था और जो गजेन्द्रमोक्षकी लीलामें स्वयं उपस्थित हुए और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं। सम्पूर्ण
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सोमशर्मा के द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना •
आयुध उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उनका श्रीविग्रह दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न है। नेत्र खिले हुए कमलके समान हैं। पीतवस्त्र श्री अङ्गोंकी शोभा बढ़ा रहा है। देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णु शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये गरुड़पर विराजमान हैं। वे इस जगत् तथा ब्रह्मा आदिके भी भलीभाँति भरण-पोषण करनेवाले हैं। यह विश्व उन्हींका स्वरूप है। वे सनातन रूप धारण करनेवाले हैं। वे विश्वसे अतीत, निराकार परमात्मा हैं।
भगवान् श्रीजनार्दनको इस रूपमें उपस्थित देख विप्रवर सोमशर्मा महान् हर्षमें भर गये और करोड़ों सूर्योकि समान तेजस्वी एवं लक्ष्मीसहित शोभा पानेवाले श्रीभगवान्को साष्टाङ्ग प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़े अपनी स्त्री सुमनाके साथ उनकी स्तुति करने लगे'देव ! जगन्नाथ! आपकी जय हो, सबको सम्मान देनेवाले लक्ष्मीपते ! आपकी जय हो। योगियोंके स्वामिन्! योगीन्द्र ! आपकी जय हो यज्ञके स्वामी हरे ! आपकी जय हो। विष्णुरूपसे यज्ञेश्वर ! और शिवरूपसे यज्ञविध्वंसक ! सनातन और सर्वव्यापक परमेश्वर ! आपकी जय हो, जय हो। सर्वेश्वर ! अनन्त ! आपकी जय हो। जयस्वरूप प्रभो! आपको मेरा प्रणाम है। ज्ञानवानों में श्रेष्ठ! आपकी जय हो। ज्ञाननायक! आपकी जय हो सब कुछ देनेवाले सर्वज्ञ परमेश्वर ! आपकी जय हो । सत्त्वगुणको उत्पन्न करनेवाले प्रभो ! आपकी जय हो ।
'यज्ञव्यापी परमेश्वर ! आप प्रज्ञास्वरूप हैं, आपकी जय हो । प्राण प्रदान करनेवाले प्रभो! आपकी जय हो। पापनाशक ! पुण्येश्वर ! आपकी जय हो। पुण्यपालक हरे ! आपकी जय हो। ज्ञानस्वरूप ईश्वर ! आपकी जय हो आप ज्ञानगम्य हैं, आपको नमस्कार है कमललोचन ! आपकी जय हो। आपकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव हुआ था अतः पद्मनाभ नामसे प्रसिद्ध ! आपको प्रणाम है। गोविन्द! आपकी जय हो। गोपाल ! आपकी जय हो। शङ्ख धारण करनेवाले निर्मलस्वरूप परमात्मन्! आपकी जय हो चक्र धारण करनेवाले अव्यक्तरूप परमेश्वर ! व्यक्तरूपधारी आपको
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नमस्कार है। प्रभो ! आपके अङ्ग पराक्रमसे शोभा पा रहे हैं, आपकी जय हो। विक्रम नायक ! आपकी जय हो । विद्यासे विलसित रूपवाले देवेश्वर! आपकी जय हो । वेदमय परमेश्वर ! आपको नमस्कार है। पराक्रमसे सुशोभित अङ्गवाले प्रभो! आपकी जय हो। उद्यम प्रदान करनेवाले देव! आपकी जय हो। आप ही उद्यमके योग्य समय और उद्यमरूप हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। भगवन् ! आप उद्यममें समर्थ है, आपकी जय हो। उद्यम करानेवाले भी आप ही है, आपकी जय हो। युद्धोद्योगमें प्रवृत्त होनेवाले आप सर्वात्माको नमस्कार है।
'सुवर्ण आपका तेज है, आपको नमस्कार है। आप विजयी वीर हैं, आपको नमस्कार है। आप अत्यन्त तेजःस्वरूप और सर्वतेजोमय हैं, आपको प्रणाम है। आप दैत्य तेजके विनाशक और पापमय तेजका अपहरण करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। गौओं और ब्राह्मणोंका हित साधन करनेवाले आप परमात्माको प्रणाम है। आप हविष्य भोजी तथा हव्य और कव्यका वहन करनेवाले अग्रि हैं, आप ही स्वधारूप हैं; आपको नमस्कार है। आप स्वाहारूप, यज्ञस्वरूप और योगके बीज हैं; आपको नमस्कार है। हाथमें शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले, आप पापहारी हरिको प्रणाम है।
'कार्य-कारण-रूप जगत्को प्रेरित करनेवाले विज्ञानशाली परमेश्वरको नमस्कार है। वेदस्वरूप भगवान्को प्रणाम है। सबको पवित्र करनेवाले प्रभुको नमस्कार है। सबके क्लेशोंका अपहरण करनेवाले, हरित केशोंसे युक्त श्रीभगवान्को प्रणाम है। विश्वके आधारभूत परमात्मा केशवको नमस्कार है। कृपामय और आनन्दमय ईश्वरको नमस्कार है। फ्रेशोंका नाश करनेवाले नित्यशुद्ध भगवान् श्री अनन्तको नमस्कार है। जिनका स्वरूप नित्य आनन्दमय है, जो दिव्य होनेके साथ ही दिव्यरूप धारण करते हैं, ग्यारह रुद्र जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं तथा ब्रह्माजी भी जिनके सामने मस्तक झुकाते हैं, उन भगवान्को प्रणाम है। प्रभो ! देवता और असुरोंके स्वामी भी आपके चरणकमलों में
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+ अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
माथा टेकते हैं। आप देवेश, अमृत और अमृतात्मा है; भगवानको प्रणाम है।' आपको बारंबार नमस्कार है। आप क्षीरसागरमें निवास इस प्रकार इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीजनार्दनका करनेवाले और लक्ष्मीके प्रियतम हैं, आपको नमस्कार स्तवन करके सोमशर्माने फिर कहा-'प्रभो ! ब्रह्माजी है। आप ओंकार, विशुद्ध तथा अविचलरूप हैं; आपको भी आपके पावन गुणोंकी सीमाको नहीं जानते तथा बारंबार प्रणाम है। आप व्यापी, व्यापक और सब सर्वेश्वर ! रुद्र और इन्द्र भी आपकी स्तुति करने में प्रकारके दुःखोंको दूर करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है। असमर्थ हैं; फिर दूसरा कौन आपके गुणोंका वर्णन कर
'वराहरूपधारी आपको प्रणाम है। महाकच्छपके सकता है। मुझमें बुद्धि ही कौन-सी है, जो मैं आपकी रूपमें आपको नमस्कार है। वामन और नृसिंहका रूप स्तुति कर सकूँ। केशव ! मैंने अपनी छोटी बुद्धिके धारण करनेवाले आप परमात्माको प्रणाम है। सर्वज्ञ अनुसार आपके निर्गुण और सगुण रूपोंका स्तवन किया मत्स्यभगवान्को प्रणाम है। श्रीराम, कृष्ण, ब्राह्मणश्रेष्ठ है। सर्वेश ! मैं जन्म-जन्मसे आपका ही दास हूँ। कपिल और हयग्रीवके रूपमें अवतीर्ण हुए आप लोकेश ! मुझपर दया कीजिये।'
श्रीभगवानके वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे
माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
श्रीहरि बोले-ब्रह्मन् ! मैं तुम्हारी इस तपस्या, मनुष्योचित भोगोंका उपभोग करोगे। तदनन्तर तुम पुण्य, सत्य तथा पावन स्तोत्रसे बहुत सन्तुष्ट हूँ। परमगतिको प्राप्त होगे। मुझसे कोई वर माँगो।
इस प्रकार भगवान् श्रीहरि स्त्रीसहित ब्राह्मणको सोमशर्माने कहा-प्रभो! पहले तो आप वरदान देकर अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर द्विजश्रेष्ठ मुझे भलीभाँति निश्चित किया हुआ एक वर यह सोमशर्मा अपनी पत्नी सुमनाके साथ नर्मदाके दीजिये कि मैं प्रत्येक जन्ममें आपकी भक्ति करता रहूँ। पुण्यदायक तटपर उस परमपावन उत्तम तीर्थ दूसरा यह कि मुझे मोक्ष प्रदान करनेवाले अपने अमरकण्टकमें रहकर दान-पुण्य करने लगे। इस अविचल परमधामका दर्शन कराइये। तीसरे वरके प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जानेपर एक दिन रूपमें मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो अपने वंशका सोमशर्मा कपिला और नर्मदाके सङ्गममें स्नान करके उद्धारक, दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न, विष्णुभक्तिपरायण, निकले और घर आकर ब्राह्मणोचित कर्ममें लग गये। मेरे कुलको धारण करनेवाला, सर्वज्ञ, सर्वस्व-दान उस दिन व्रतसे शोभा पानेवाली परम सौभाग्यवती करनेवाला, जितेन्द्रिय, तप और तेजसे युक्त, देवता, सुमनाने पतिके सहवाससे गर्भ धारण किया। समय ब्राह्मण तथा इस जगत्का पालन करनेवाला, आनेपर उस बड़भागिनीने देवताओंके समान श्रीभगवान् (आप)का पुजारी और शुभ सङ्कल्पवाला कान्तिमान् उत्तम पुत्रको जन्म दिया, जिसके शरीरसे हो। इसके सिवा, श्रीकेशव ! आप मेरी दरिद्रता तेजोमयी किरणे छिटक रही थीं। उसके जन्मके समय हर लीजिये।
आकाशमें बारंबार देवताओंके नगारे बजने लगे। ___ श्रीहरि बोले-द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा ही होगा, इसमें तत्पश्चात् ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर वहाँ तनिक भी सन्देह नहीं है। मेरे प्रसादसे तुमको सुयोग्य आये और स्वस्थ चित्तसे उस बालकका नाम उन्होंने पुत्रकी प्राप्ति होगी, जो तुम्हारे वंशका उद्धार करनेवाला 'सुव्रत' रखा। नामकरण करके महाबली देवता होगा। तुम इस मनुष्यलोकमें भी परम उत्तम दिव्य एवं स्वर्गको चले गये।
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भूमिखण्ड] • श्रीभगवानके वरसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा वैकुण्ठमें जाना •
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उनके जानेके पश्चात् द्विजश्रेष्ठ सोमशर्माने सूतजी कहते हैं-एक समय महर्षि व्यासने
अत्यन्त विस्मित होकर लोकनाथ ब्रह्माजीसे सुव्रतका सारा उपाख्यान पूछा।
ब्रह्माजीने कहा-सुव्रत बड़ा मेधावी बालक था। वह बाल्यकालसे ही भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करने लगा। उसने गर्भमें ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीनारायणका दर्शन किया था। पूर्वकर्मोके प्रभावसे वह सदा भगवानके ध्यानमें लगा रहता था। वह गान, विद्याभ्यास और अध्यापन करते समय भी शङ्खचक्रधारी, उत्तम पुण्यदायी भगवान् श्रीपद्मनाभका ध्यान और चिन्तन किया करता था। इस प्रकार वह द्विजश्रेष्ठ सदा श्रीभगवान्का ध्यान करते हुए ही बच्चोंके साथ
खेला करता था। वह मेधावी, पुण्यात्मा और पुण्यमें प्रेम रखनेवाला था। उसने अपने साथी बालकोका नाम
अपनी ओरसे परमात्मा श्रीहरिके नामपर ही रख दिया बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये। उस बड़भागी था। वह महामुनि था और भगवान्के ही नामसे अपने पुत्र सुव्रतके, जो भगवान्की कृपासे प्राप्त हुआ था, जन्म मित्रोंको भी पुकारा करता था। 'ओ केशव ! यहाँ लेनेपर ब्राह्मणके घरमें धन-धान्यसे परिपूर्ण महालक्ष्मी आओ, चक्रधारी माधव ! बचाओ, पुरुषोत्तम ! तुम्ही निवास करने लगी। हाथी, घोड़े, भैंसे, गौएँ, सोने और मेरे साथ खेलो, मधुसूदन ! हम दोनोंको वनमें ही रत्न आदि किसी भी वस्तुकी कमी न रही। सोमशर्माका चलना चाहिये।' इस प्रकार श्रीहरिके नाम ले-लेकर वह घर रत्नराशिसे कुबेर-भवनकी भाँति शोभा पाने लगा। ब्राह्मणबालक मित्रोंको बुलाया करता था। खेलने, ब्राह्मणने दान-पुण्य आदि धर्मोका अनुष्ठान किया। पढ़ने, हंसने, सोने, गीत गाने, देखने, चलने, बैठने, तीर्थोंमें जाकर वे नाना प्रकारके पुण्योंमें लगे रहे और ध्यान करने, सलाह करने, ज्ञान अर्जन करने तथा शुभ भी जो-जो दान-पुण्य हो सकते हैं, उन सबका उन्होंने कर्माका अनुष्ठान करनेके समय भी वह श्रीभगवान्को ही अनुष्ठान किया। मेधावी सोमशर्माका सारा जीवन ही देखता और जगन्नाथ, जनार्दन आदि नामोंका उच्चारण ज्ञान और पुण्यके उपार्जनमें लगा रहा। उन्होंने बड़े हर्षके किया करता था। विश्वके एकमात्र स्वामी श्रीपरमेश्वरका साथ पुत्रका विवाह किया। फिर पुत्रके भी पुत्र उत्पन्न ध्यान करता रहता था। तृण, काष्ठ, पत्थर तथा सूखे हुए, जो बड़े ही पुण्यात्मा और उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न और गीले सभी पदार्थोंमें वह धर्मात्मा बालक थे। वे भी सदा सत्यवादी, धर्मात्मा, तपस्वी तथा दान- श्रीकेशवको ही देखता, कमललोचन श्रीगोविन्दका ही धर्ममें संलग्न थे। उन पौत्रोंके भी पुण्यसंस्कार सोमशर्माने साक्षात्कार किया करता था। सुमनाका पुत्र ब्राह्मण सुव्रत ही सम्पन्न किये। सुमना और सोमशर्मा दोनों ही बड़ा बुद्धिमान् था; वह आकाशमें, पृथ्वीपर, पर्वतोंमें, सौभाग्यशाली थे। वे महान् अभ्युदयसे युक्त होकर सदा वनोंमें, जल, थल और पाषाणमें तथा सम्पूर्ण जीवोंके हर्षमें भरे रहते थे।
भीतर भी भगवान् श्रीनरसिंहका ही दर्शन करता था।*
* क्रीडने पठने हास्ये शयने गीतप्रेक्षणे । याने च ह्यासने ध्याने मन्त्र ज्ञाने सुकर्मसु ॥
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. अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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इस प्रकार बालकोंके साथ खेलमें सम्मिलित उन भगवान्के सुयशका मैं सुमधुर रससे युक्त संगीत होकर वह प्रतिदिन खेलता तथा मधुर अक्षर और उत्तम एवं ताल-लयके साथ गान करता हूँ। मैं अखिल रागसे युक्त गीतोंद्वारा श्रीकृष्णका गुणगान किया करता भुवनके स्वामी भगवान् श्रीविष्णुका ध्यान करता हूँ, जो था। उसके गीत-ताल, लय, उत्तम स्वर और मूर्च्छनासे इस लोकमें दुःखरूपी अन्धकारका नाश करनेके लिये युक्त होते थे। सुव्रत कहता-'सम्पूर्ण देवता सदा चन्द्रमाके समान है। जो अज्ञानमय तिमिरका ध्वंस भगवान् श्रीमुरारिका ध्यान करते हैं। जिनके श्रीअङ्गोंके करनेके लिये साक्षात् सूर्यके तुल्य हैं तथा आनन्दके भीतर सम्पूर्ण जगत् स्थित है, जो योगके स्वामी, पापोंका अखण्ड मूल और महिमासे सुशोभित हैं, जो अमृतमय नाश करनेवाले और शरणागतोके रक्षक हैं, उन भगवान् आनन्दसे परिपूर्ण, समस्त कलाओंके आधार तथा श्रीमधुसूदनका मैं भजन करता हूँ।* जो सम्पूर्ण जगत्के गीतके कौशल हैं, उन श्रीभगवानका मैं अनन्य अनुरागसे भीतर सदा जागते और व्याप्त रहते हैं, जिनमें समस्त गान करता हूँ। जो उत्तम योगके साधनोंसे युक्त हैं, गुणवानोंका निवास है तथा जो सब दोषोंसे रहित हैं, उन जिनकी दृष्टि परमार्थकी ओर लगी रहती है, जो सम्पूर्ण परमेश्वरका चिन्तन करके मैं सदा उनके युगल चरणोंमें चराचर जगत्को एक साथ देखते रहते हैं तथा पापी मस्तक झुकाता हूँ। जो गुणोंके अधिष्ठान हैं, जिनके लोगोंको जिनके स्वरूपका दर्शन नहीं होता, उन एकमात्र पराक्रमका अन्त नहीं है, वेदान्तज्ञानसे विशुद्ध बुद्धिवाले भगवान् श्रीकेशवकी मैं सदाके लिये शरण लेता हूँ।' पुरुष जिनका सदा स्तवन किया करते हैं, इस अपार, इस प्रकार सुमनाका पुत्र सुव्रत दोनों हाथोंसे ताली अनन्त और दुर्गम संसारसागरसे पार होनेके लिये जो बजाकर ताल देते हुए श्रीकृष्णके सुयशका गान करता नौकाके समान हैं, उन सर्वस्वरूप भगवान् श्रीनारायणकी और बालकोंके साथ सदा प्रसन्न रहता था। प्रतिदिन मैं शरण लेता हूँ। मैं श्रीभगवान्के उन निर्मल युगल बालस्वभावके अनुसार खेलता और भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंको प्रणाम करता हूँ, जो योगीश्वरोंके हृदयमें निवास ध्यानमें लगा रहता था। अपने सुलक्षण पुत्र सुव्रतको करते हैं, जिनका शुद्ध एवं पूर्ण प्रभाव सदा और सर्वत्र खेलते देख माता सुमना कहती-बेटा ! आ, कुछ विख्यात है। देव ! मैं दीन हैं, आप अशुभके भयसे मेरी भोजन कर ले; तुझे भूख सता रही होगी।' यह सुनकर रक्षा कीजिये। संसारका पालन करनेके लिये जिन्होंने वह बुद्धिमान् बालक सुमनाको उत्तर देता-'माँ ! धर्मको अङ्गीकार किया है, जो सत्यसे युक्त, सम्पूर्ण भगवान्का ध्यान महान् अमृतके तुल्य है, मैं उसीसे तृप्त लोकोंके गुरु, देवताओंके स्वामी, लक्ष्मीजीके एकमात्र रहता हूँ-मुझे भूख नहीं सताती।' भोजनके आसनपर निवासस्थान, सर्वस्वरूप और सम्पूर्ण विश्वके आराध्य हैं; बैठकर जब वह अपने सामने मिष्टान्न परोसा हुआ
पश्यत्येवं यदत्येवं जगन्नाथं जनार्दनम् । स ध्यायते तमेकं हि विश्वनाथ महेश्वरम् ॥ तृणे काष्ठे च पाषाणे शुष्के सादें ही केशवम् । पश्यत्येवं स धर्मात्मा गोविन्दं कमलेक्षणम् ॥ आकाशे भूमिमध्ये तु पर्वतेषु बनेषु च ।जले स्थले च पाषाणे जोवेषु च महामतिः ॥ नृसिह पश्यते विप्रः सुवतः सुमनासुतः। .
(२० । ११-१५) * ध्यायन्ति देवाः सततं मुरारि यस्याङ्गमध्ये सकलं निविष्टम् । योगेश्वर पापविनाशनं च भजे शरण्य मधुसूदनाख्यम्।।
(२०१७) नारायणं गुणनिधानमनन्तवीर्य वेदान्तशुद्धमतयः प्रपठन्ति नित्यम् । संसारसागरमपारमनन्तदुर्गमुत्तारणार्थमखिलं शरणं प्रपद्ये ॥ योगीन्द्रमानससरोवरराजहंस शुद्ध प्रभावमखिलं सततं हि यस्य । तस्यैव पादयुगलं हमलं नमामि दीनस्थ मेऽशुभभयात् कुरु देव रक्षाम् ।
(२० । १९-२०)
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भूमिखण्ड]
• श्रीभगवानके वरसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा वैकुण्ठमें जाना .
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देखता, तब कहता-'इस अन्नसे भगवान् श्रीविष्णु तृप्त कर्माम्बुदे महति गर्जति वर्वतीव हों।' वह धर्मात्मा बालक जब सोनेके लिये जाता, तब
विद्युल्लतोल्लसति पातकसञ्चयमें। वहाँ भी श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए कहता-'मैं मोहान्धकारपटलैर्मम नष्टदृष्टेयोगनिद्रापरायण भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आया हूँ।'
र्दीनस्य तस्य मधुसूदन देहि हस्तम् ॥ इस प्रकार भोजन करते, वस्त्र पहनते, बैठते और सोते कर्मरूपी बादलोंकी भारी घटा घिरी हुई है, जो समय भी वह श्रीवासुदेवका चिन्तन करता और उन्हींको गरजती और बरसती भी है। मेरे पातकोंकी राशि सब वस्तुएँ समर्पित कर देता था। धर्मात्मा सुव्रत विद्युल्लताकी भाँति उसमें थिरक रही है। मोहरूपी युवावस्था आनेपर काम-भोगका परित्याग करके वैडूर्य अन्धकार-समूहसे मेरी दृष्टि-विवेकशक्ति नष्ट हो गयी पर्वतपर जा भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें लग गया। वहीं है, मैं अत्यन्त दीन हो रहा हूँ; मधुसूदन ! मुझे अपने उस मेधावीने श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए तपस्या हाथका सहारा दीजिये। आरम्भ कर दी। उस श्रेष्ठ पर्वतपर सिद्धेश्वर नामक संसारकाननवरं बहुदुःखवृक्षः स्थानके पास वह निर्जन वनमें रहता और काम-क्रोध
संसेव्यमानमपि मोहमयैश्च सिंहैः । आदि सम्पूर्ण दोषोंका परित्याग करके इन्द्रियोंको संयममें संदीप्तमस्ति करुणाबहुवह्नितेजः रखते हुए तपस्या करता था। उसने अपने मनको एकाग्र
संतप्यमानमनसं परिपाहि कृष्ण ॥ करके भगवान् श्रीविष्णुके साथ जोड़ दिया। इस प्रकार यह संसार एक महान् वन है, इसमें बहुत-से दुःख परमात्माके ध्यानमें सौ वर्षातक लगे रहनेपर उसके ऊपर ही वृक्षरूपमें स्थित हैं। मोहरूपी सिंह इसमें निर्भय शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् होकर निवास करते हैं; इसके भीतर शोकरूपी प्रचण्ड श्रीजगन्नाथ बहुत प्रसन्न हुए तथा लक्ष्मीजीके साथ दावानल प्रज्वलित हो रहा है, जिसकी आँचसे मेरा चित्त उसके सामने प्रकट होकर बोले-'धर्मात्मा सुव्रत ! सन्तप्त हो उठा है। कृष्ण ! इससे मुझे बचाइये। अब ध्यानसे उठो, तुम्हारा कल्याण हो; मैं विष्णु तुम्हारे संसारवृक्षमतिजीर्णमपीह उच्च पास आया हूँ, मुझसे वर माँगो ।' मेधावी सुव्रत भगवान्
मायासुकन्दकरुणाबहुदुःखशाखम् । श्रीविष्णुके ये उत्तम वचन सुनकर अत्यन्त हर्षमें भर जायादिसपछदनं फलितं मुरारे गये। उन्होंने आँख खोलकर देखा, जनार्दन सामने खड़े
तं चाधिरूढपतितं भगवन् हि रक्ष । हैं; फिर तो दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने श्रीभगवानको संसार एक वृक्षके समान है, यह अत्यन्त पुराना प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। होनेके साथ बहुत ऊँचा भी है; माया इसकी जड़ है, शोक सुव्रत बोले
तथा नाना प्रकारके दुःख इसकी शाखाएँ हैं, पत्नी आदि संसारसागरमतीव गभीरपारं
परिवारके लोग पत्ते हैं और इसमें अनेक प्रकारके फल दुःखोर्मिभिविविधमोहमयैस्तरङ्गैः । लगे हैं। मुरारे ! मैं इस संसार-वृक्षपर चढ़कर गिर रहा हूँ; सम्पूर्णमस्ति निजदोषगुणैस्तु प्राप्त
भगवन् ! इस समय मेरी रक्षा कीजिये-मुझे बचाइये। तस्मात् समुद्धर जनार्दन मां सुदीनम् ॥ दुःखानलैर्विविधमोहमयैः सधूमः जनार्दन ! यह संसार-समुद्र अत्यन्त गहरा है, इसका
शोकैर्वियोगमरणान्तकसंनिभैश्च । पार पाना कठिन है। यह दुःखमयी लहरों और मोहमयी दग्धोऽस्मि कृष्ण सततं मम देहि मोक्षं भांति-भांतिकी तरङ्गोंसे भरा है। मैं अत्यन्त दीन हूँ और
ज्ञानाम्बुनाथ परिषिच्य सदैव मां त्वम् ।। अपने ही दोषों तथा गुणोंसे--पाप-पुण्योंसे प्रेरित होकर कृष्ण ! मैं दुःखरूपी अग्नि, विविध प्रकारके इसमें आ फँसा हूँ; अतः आप मेरा इससे उद्धार कीजिये। मोहरूपी धुएँ तथा वियोग, मृत्यु और कालके समान
सुयूपः
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• अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पद्मपुराण
शोकोंसे जल रहा हैं; आप सर्वदा ज्ञानरूपी जलसे एवं हि मामुपगतं शरणं च रक्ष सींचकर मुझे सदाके लिये संसार-बन्धनसे छुड़ा दीजिये। __दूरेण यान्तु मम पातकसञ्चयास्ते । मोहान्धकारपटले महतीव गते
दासोऽस्मि भृत्यवदहं तव जन्म जन्म संसारनानि सततं पतितं हि कृष्ण । __स्वत्पादपद्मयुगलं सततं नमामि ।। कृत्वा तरी मम हि दीनभयातुरस्य
(२१ ।२०-२७) तस्माद् विकृष्य शरणं नय मामितस्त्वम्॥ मैं न तो दूसरेका नाम लेता हूँ न दूसरेको भजता कृष्ण ! मैं मोहरूपी अन्धकार-राशिसे भरे हुए हूँ और न दूसरेका चिन्तन ही करता हूँ; नित्य-निरन्तर संसार नामक महान् गड्ढे में सदासे गिरा हुआ हूँ, दीन आपके युगल चरणोंको प्रणाम करता रहता हूँ। इस हूँ और भयसे अत्यन्त व्याकुल हूँ आप मेरे लिये नौका प्रकार मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें, बनाकर मुझे उस गड्ढेसे निकालिये, वहाँसे खींचकर मेरे पातकसमूह शीघ्र दूर हो जायें। मैं नौकरकी भाँति अपनी शरणमें ले लीजिये।
जन्म-जन्म आपका दास बना रहूँ। भगवन् ! आपके त्वामेव ये नियतमानसभावयुक्ता
युगल चरण-कमलोंको सदा प्रणाम करता हूँ। ध्यायन्त्यनन्यमनसा पदवीं लभन्ते। श्रीकृष्ण ! यदि आप मुझपर प्रसन्न है, तो मुझे यह नत्वैव पादयुगलं च महत्सुपुण्यं
उत्तम वरदान दीजिये--मेरे माता-पिताको सशरीर अपने ___ ये देवकिन्नरगणाः परिचिन्तयन्ति ॥ परमधाममें पहुँचाइये। मेरे ही साथ मेरी पत्नीको भी
जो संयमशील हृदयके भावसे युक्त होकर अनन्य अपने लोकमें ले चलिये। चित्तसे आपका ध्यान करते हैं। वे आपकी पदवीको प्राप्त श्रीहरि बोले-ब्रह्मन् ! तुम्हारी यह उत्तम कामना हो जाते है। तथा जो देवता और किन्नरगण आपके दोनों अवश्य पूर्ण होगी। परम पवित्र चरणोंको प्रणाम करके उनका चिन्तन करते इस प्रकार सुव्रतकी भक्तिसे सन्तुष्ट होकर भगवान् हैं, वे भी आपकी पदवीको प्राप्त होते हैं।
श्रीविष्णु उन्हें उत्तम वरदान दे दाह और प्रलयसे रहित नान्यं वदामि न भजामि न चिन्तयामि
वैष्णवधामको चले गये । सुव्रतके साथ ही सुमना और त्वत्पादपद्मयुगलं सततं नमामि। सोमशर्मा भी वैकुण्ठधामको प्राप्त हुए।
राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
ऋषियोंने कहा-महाभाग सूतजी! आप कथाको विस्तारपूर्वक कहेगा, उसके सात जन्मके पाप महात्मा राजा पृथुके जन्मका विस्तारके साथ वर्णन नष्ट हो जायेंगे। पृथुका जनम-वृत्तान्त तथा सम्पूर्ण चरित्र कीजिये। हम उनकी कथा सुननेके लिये उत्सुक है। ही पापोंका नाश करनेवाला और पवित्र है। महाराज पृथुने जिस प्रकार इस पृथ्वीका दोहन किया पूर्वकालमें अङ्ग नामके प्रजापति थे, जिनका जन्म तथा देवताओं, पितरों और तत्त्ववेत्ता मुनियोंने भी जिस अत्रिवंशमें हुआ था। वे अत्रिके समान ही प्रभावशाली, प्रकार उसको दुहा था, वह सब प्रसङ्ग मुझे सुनाइये। धर्मके रक्षक, परम बुद्धिमान् तथा वेद और शास्त्रोंके
सूतजी बोले-द्विजवरो! मैं वेनकुमार पृथुके तत्वज्ञ थे। उन्होंने ही सम्पूर्ण धोकी सृष्टि की थी। जन्म, पराक्रम और क्षत्रियोचित पुरुषार्थका विस्तारके मृत्युकी एक परम सौभाग्यवती कन्या थी, जिसका नाम साथ वर्णन करूँगा । ऋषियोंने जो रहस्यकी बातें कही हैं, था सुनीथा। महाभाग अङ्गने उसीके साथ विवाह किया उन्हें भी बताऊँगा। जो प्रतिदिन वेननन्दन पृथुकी और उसके गर्भसे वेननामक पुत्रको जन्म दिया, जो
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भूमिखण्ड ]
• राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन .
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धर्मका नाश करनेवाला था। राजा वेन वेदोक्त कौन है। मैं ही सम्पूर्ण भूतों और विशेषतः सब धर्मोकी सदाचाररूप धर्मका परित्याग करके काम, लोभ और उत्पत्तिका कारण हूँ। यदि चाहूँ तो इस पृथ्वीको जला महामोहवश पापका ही आचरण करता था। मद और सकता हूँ, जलमें डुबा सकता हूँ तथा पृथ्वी और मात्सर्यसे मोहित होकर पापके ही रास्ते चलता था। उस आकाशको बैध सकता हूँ।' समय सम्पूर्ण द्विज वेदाध्ययनसे विमुख हो गये। वेनके जब वेनको किसी प्रकार भी अधर्म-मार्गसे हटाया राजा होनेपर प्रजाजनोंमें स्वाध्याय और यज्ञका नाम भी न जा सका, तब महर्षियोंने क्रोधमें भरकर उसे बलनहीं सुनायी पड़ता था। यज्ञमें आये हुए देवता पूर्वक पकड़ लिया। वह विवश होकर छटपटाने लगा। यजमानके द्वारा अर्पण किये हुए सोमरसका पान नहीं उधर क्रोधमें भरे हुए ऋषियोंने राजा वेनकी बायीं करते थे। वह दुष्टात्मा राजा ब्राह्मणोंसे प्रतिदिन यही जाँघको मथना आरम्भ किया। उससे काले अञ्जनकी कहता था कि 'स्वाध्याय न करो, होम करना छोड़ दो, राशिके समान एक नाटे कदका मनुष्य प्रकट हुआ। दान न दो और यज्ञ भी न करो।' प्रजापति वेनका उसकी आकृति विलक्षण थी। लंबा मुँह, विकराल विनाशकाल उपस्थित था; इसीलिये उसने यह क्रूर आँखें, नीले कवचके समान काला रंग, मोटे और चौड़े घोषणा की थी। वह सदा यही कहा करता था कि 'मैं कान, बेडौल बढ़ी हुई बाँहें और विशाल भद्दा-सा ही यजन करनेके योग्य देवता, मैं ही यज्ञ करनेवाला पेट-यही उसका हुलिया था। ऋषियोंने उसकी ओर यजमान तथा मैं ही यज्ञ-कर्म हैं। मेरे ही उद्देश्यसे यज्ञ देखा और कहा–'निषीद (बैठ जाओ)।' उनकी बात
और होमका अनुष्ठान होना चाहिये। मैं ही सनातन सुनकर वह भयसे व्याकुल हो बैठ गया। [ऋषियोंने विष्णु, मैं ही ब्रह्मा, मैं ही रुद्र, मैं ही इन्द्र तथा सूर्य और 'निषीद' कहकर उसे बैठनेकी आज्ञा दी थी; इसलिये वायु हूँ। हव्य और कव्यका भोक्ता भी सदा मैं ही हूँ। उसका नाम 'निषाद' पड़ गया।] पर्वतों और वनोंमें ही मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है।'
उसके वंशकी प्रतिष्ठा हुई। निषाद, किरात, भील, यह सुनकर महान् शक्तिशाली मुनियोंको वेनके प्रति नाहलक, भ्रमर, पुलिन्द तथा और जितने भी बड़ा क्रोध हुआ। वे सब एकत्रित हो उस पापबुद्धि , म्लेच्छजातिके पापाचारी मनुष्य हैं, वे सब वेनके उसी राजाके पास जाकर बोले-राजाको धर्मका मूर्तिमान् अङ्गसे उत्पन्न हुए हैं। स्वरूप माना गया है। इसलिये प्रत्येक राजाका यह कर्तव्य तब यह जानकर कि राजा वेनका पाप निकल है कि वह धर्मकी रक्षा करे। हमलोग बारह वर्षों में समाप्त गया, समस्त ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। अब उन्होंने होनेवाले यज्ञकी दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं। तुम अधर्म न राजाके दाहिने हाथका मन्थन आरम्भ किया। उससे करो; क्योंकि ऐसा करना सत्पुरुषोंका धर्म नहीं है। पहले तो पसीना प्रकट हुआ; किन्तु जब पुनः जोरसे महाराज ! तुमने यह प्रतिज्ञा की है कि 'मैं राजा होकर मन्थन किया गया, तब वेनके उस सुन्दर हाथसे एक धर्मका पालन करूँगा, अतः उस प्रतिज्ञाके अनुसार धर्म पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ, जो बारह आदित्योंके समान करो और सत्य एवं पुण्यको आचरणमें लाओ।' तेजस्वी थे। उनके मस्तकपर सूर्यके समान चमचमाता
ऋषियोंकी उपर्युक्त बातें सुनकर वह क्रोधसे हुआ मुकुट और कानोंमें कुण्डल शोभा पा रहे थे। उन आगबबूला हो उठा और उनकी ओर दृष्टिपात करके महाबली राजकुमारने आजगव नामका आदि धनुष, द्वितीय यमराजकी भाँति बोला-'अरे ! तुमलोग मूर्ख दिव्य बाण और रक्षाके लिये कान्तिमान्, कवच धारण हो, तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। अतः निश्चय ही तुमलोग कर रखे थे। उनका नाम 'पृथु' हुआ। वे बड़े मुझे नहीं जानते। भला ज्ञान, पराक्रम, तपस्या और सौभाग्यशाली, वीर और महात्मा थे। उनके जन्म लेते ही सत्यके द्वारा मेरी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसरा सम्पूर्ण प्राणियोंमें हर्ष छा गया। उस समय समस्त
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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ब्राह्मणोंने मिलकर पृथुका राज्याभिषेक किया। तदनन्तर मिला । अन्तमें अपनी रक्षाका कोई उपाय न देखकर वह ब्रह्माजी, सब देवता तथा नाना प्रकारके स्थावर-जङ्गम वेनकुमार पृथुकी ही शरणमें आयी और बाणोंके प्राणियोंने महाराज पृथुका अभिषेक किया। उनके पिताने आधातसे व्याकुल हो उन्हींके पास खड़ी हो गयी। उसने कभी भी सम्पूर्ण प्रजाको प्रसन्न नहीं किया था। किन्तु नमस्कार करके राजा पृथुसे कहापृथुने सबका मनोरञ्जन किया । इसलिये सारी प्रजा सुखी 'महाराज ! रक्षा करो' रक्षा करो। महाप्राज्ञ ! मैं होकर आनन्दका अनुभव करने लगी। प्रजाका अनुरञ्जन करनेके कारण ही वीर पृथुका नाम 'राजराज' हो गया।
द्विजवरो! उन महात्मा नरेशके भयसे समुद्रका जल भी शान्त रहता था। जब उनका रथ चलता, उस समय पर्वत दुर्गम मार्गको छिपाकर उन्हें उत्तम मार्ग देते थे। पृथ्वी बिना जोते ही अनाज तैयार करके देती थी। सर्वत्र गौएँ कामधेनु हो गयी थीं। मेघ प्रजाकी इच्छाके अनुसार वर्षा करता था। सम्पूर्ण ब्राह्मण और क्षत्रिय देवयज्ञ तथा बड़े-बड़े उत्सव किया करते थे। राजा पृथुके शासनकालमें वृक्ष इच्छानुसार फलते थे, उनके पास जानेसे सबकी इच्छा पूर्ण होती थी । देशमें न कभी अकाल पड़ता, न कोई बीमारी फैलती और न मनुष्योंकी अकाल मृत्यु ही होती थी। सब लोग सुखसे जीवन बिताते और धर्मानुष्ठानमें लगे रहते थे।*
ब्राह्मणो! प्रजाओंने अपनी जीवन-रक्षाके लिये धारण करनेवाली भूमि हूँ। मेरे ही आधारपर सब लोग पहले जो अन्नका बीज बो रखा था, उसे एक बार यह टिके हुए हैं। राजन् ! यदि मैं मारी गयी तो सातों लोक पृथ्वी पचाकर स्थिर हो गयी। उस समय सारी प्रजा राजा नष्ट हो जायेंगे। गौओंकी हत्यामें बहुत बड़ा पाप है, इस पृथुके पास दौड़ी गयी और मुनियोंके कथनानुसार बातका श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। मेरा बोली-'राजन् ! हमारे लिये उत्तम जीविकाका प्रबन्ध नाश होनेपर सारी प्रजा नष्ट हो जायगी। राजन् ! यदि मैं कीजिये।' राजाओंमें श्रेष्ठ पृथुने देखा-प्रजाके ऊपर न रही तो तुम प्रजाको कैसे धारण कर सकोगे। अतः बहुत बड़ा भय उपस्थित हुआ है। यह देखकर तथा यदि तुम प्रजाका कल्याण करना चाहते हो तो मुझे महर्षियोंकी बात मानकर महाराज पृथुने धनुष और बाण मारनेका विचार छोड़ दो। भूपाल ! मैं तुम्हें हितको बात हाथमें लिया और क्रोधमें भरकर बड़े वेगसे पृथ्वीके बताती हूँ, सुनो। अपने क्रोधका नियन्त्रण करो, मैं ऊपर धावा किया । पृथ्वी गायका रूप धारण करके तीव्र अन्नमयी हो जाऊँगी, समस्त प्रजाको धारण करूँगी। मैं गतिसे स्वर्गकी ओर भागी। फिर क्रमशः ब्रह्माजी, स्त्री हूँ। स्त्री अवध्य मानी गयी है। मुझे मारकर तुम्हें भगवान् श्रीविष्णु तथा रुद्र आदि देवताओंकी शरणमें प्रायश्चित्तका भागी होना पड़ेगा। गयी; किन्तु कहीं भी उसे अपने बचावका स्थान न राजा पृथु बोले-यदि किसी एक महापापी एवं
* न दुर्भिक्षं न च व्याधि कालमरणं नृणाम्। सर्वे सुखेन जीवन्ति लोका धर्मपरायणाः ॥ (२७ । ६४)
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• राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन.
दुराचारीका वध कर डालनेपर सब लोग सुखसे जी सकें, तथा पुण्यदर्शी साधु पुरुषोंको सुख मिलता हो तो एक पापिष्ठ पुरुषका विनाश करना कर्तव्य माना गया है। वसुधे ! तुमने भी प्रजाके सम्पूर्ण स्वार्थीका विनाश किया है। इस समय जितने भी बीज थे, उन सबको तुम पचा गयीं। बीजोंको हड़पकर स्वयं तो स्थिर हो गयीं और प्रजाको मार रही हो। ऐसी दशामें [मेरे हाथसे बचकर ] अब कहाँ जाओगी। वसुन्धरे ! संसारके हितके लिये मेरा यह कार्य उत्तम ही माना जायगा। तुमने मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है, इसलिये इन तीखे बाणोंसे मारकर मैं तुम्हें मौत के घाट उतार दूँगा। तुम्हारे न रहनेपर मैं त्रिलोकीमें रहनेवाली पावन प्रजाको अपने ही तेज और धर्मके बलसे धारण करूँगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। वसुन्धरे ! मेरा शासन धर्मके अनुकूल है, अतः इसे मानकर मेरी आज्ञासे तुम प्रजाके जीवनकी सदा ही रक्षा करो। भद्रे ! यदि इस प्रकार आज ही मेरी आज्ञा मान लोगी तो मैं प्रसन्न होकर सदा तुम्हारी रखवाली करूँगा ।
पृथ्वी देवी गौके रूपमें खड़ी थीं। उनका शरीर बाणोंसे आच्छादित हो रहा था। उन्होंने धर्मात्मा और परम बुद्धिमान् राजा पृथुसे कहा - 'महाराज ! तुम्हारी आज्ञा सत्य और पुण्यसे युक्त है। अतः प्रजाके लिये मैं उसका विशेषरूपसे पालन करूँगी। राजेन्द्र ! तुम स्वयं ही कोई उपाय सोचो, जिससे तुम्हारे सत्यका पालन हो सके और तुम इन प्रजाओंको भी धारण कर सको। मैं भी जिस प्रकार समूची प्रजाकी वृद्धि कर सकूँ — ऐसा कोई उपाय बताओ। महाराज ! मेरे शरीरमें तुम्हारे उत्तम बाण धँसे हुए हैं, उन्हें निकाल दो और सब ओरसे मुझे समतल बना दो, जिससे मेरे भीतर दुग्ध स्थिर रह सके।'
सूतजी कहते हैं - ब्राह्मणो! पृथ्वीकी बात सुनकर राजा पृथुने अपने धनुषके अग्रभागसे विभिन्न रूपवाले भारी-भारी पर्वतोंको उखाड़ डाला और भूमिको समतल बना दिया। राजकुमार पृथुने पृथ्वीके शरीरसे अपने बाणोंको स्वयं ही निकाल लिया। उनके आविर्भावसे पहले केवल प्रजाओंकी ही उत्पत्ति हुई सं०प०पु० ९
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थी। कोई सच्चा राजा नहीं हुआ था। उन दिनों यह सारी प्रजा कहीं भूमिमें गुफा बनाकर, कहीं पर्वतपर, कहीं नदीके किनारे, जंगली झाड़ियोंमें, सम्पूर्ण तीर्थोंमें तथा समुद्र के किनारोंपर निवास करती थी। सब लोग पुण्यकर्मोंमें लगे रहते थे। फल, फूल और मधु—यही उनका आहार था। वेनकुमार पृथुने प्रजाके इस कष्टको देखा और उसे दूर करनेके लिये स्वायम्भुव मनुको बछड़ा तथा अपने हाथको ही दुग्धपात्र बनाकर पृथ्वीसे सब प्रकारके धान्य और गुणकारी अन्नमय दूधका दोहन किया। सुधाके समान लाभ पहुँचानेवाले उस पवित्र अन्नसे प्रजा पितरों तथा ब्रह्मा आदि देवताओंका यजन पूजन करने लगी। द्विजवरो! उस समयकी सारी प्रजा पुण्यकर्ममें संलग्न रहती थी; अतः देवताओं, पितरों, विशेषतः ब्राह्मणों और अतिथियोंको अन्न देकर पश्चात् स्वयं भोजन करती थी। उसी अन्नसे अन्यान्य यज्ञोंका अनुष्ठान करके वह देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुका यजन और तर्पण करती तथा उसी अन्नके द्वारा सम्पूर्ण देवता तृप्त होते थे। फिर श्रीभगवान्की प्रेरणासे मेघ पानी बरसाता और उससे पवित्र अन्न आदि उत्पन्न होता था ।
तदनन्तर समस्त ऋषियों, महामना ब्राह्मणों तथा सत्यवादी देवताओंने भी इस पृथ्वीका दोहन किया। अब मैं यह बताता हूँ कि पितर आदिने किस प्रकार बछड़ोंकी कल्पना करके पूर्वकालमें वसुधाको दुहा था। द्विजोत्तमो ! पितरोंने चाँदीका दोहन पात्र बनाकर यमको बछड़ा बनाया, अन्तकने दुहनेवाले ग्वालेका काम किया और 'स्वधा' रूपी दुग्धको दुहा। इसके बाद सर्पों और नागोने तक्षकको बछड़ा बनाकर तूंबीका पात्र हाथमें ले विषरूपी दूध दुहा। वे महाबली और महाकाय भयानक सर्प उस विषसे ही जीवन धारण करते हैं। विष ही उनका आधार, विष ही आचार, विष ही बल और विष ही पराक्रम है। इसी प्रकार समस्त असुरों और दानवोंने भी अनके अनुरूप लोहेका पात्र बनाकर सम्पूर्ण कामनाओंके साधनभूत मायामय दूधका दोहन किया, जो उनके समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला है। वही उनका बल और पुरुषार्थ है, उसीसे दानव जीवन धारण
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.अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
करते हैं। उसीको पाकर आज भी समस्त दानव मायामें यही पाँचों भूतोंका प्रकाश और रूप है। यह समुद्रपर्यन्त प्रवीण देखे जाते हैं। इसके बाद गन्धर्वो और पृथ्वी पहले 'मेदिनी के नामसे प्रसिद्ध थी। फिर अप्सराओंने पृथ्वीका दोहन किया। नृत्य और संगीतको अपनेको वेनकुमार राजा पृथुकी पुत्री स्वीकार करनेके विद्या ही उनका दूध थी। उसीसे गन्धर्व, यक्ष और कारण यह 'पृथ्वी' कहलाने लगी। अप्सराओंकी जीविका चलती है। परम पुण्यमय पर्वतोंने ब्राह्मणो ! पृथुके प्रयत्नसे इस पृथ्वीपर घर और भी इस पृथ्वीसे नाना प्रकारके रत्न और अमृतके समान गाँवोंकी नींव पड़ी। फिर बड़े-बड़े कस्बे और शहर ओषधियोंका दोहन किया। वृक्षोंने पत्तोंके पात्रमें इसकी शोभा बढ़ाने लगे। यह धन-धान्यसे सम्पन्न हुई पृथ्वीका दूध दुहा । जलने और कटनेके बाद भी फिरसे और सब प्रकारके तीर्थ इसके ऊपर प्रकट हुए। इस अङ्कर निकल आना-यही उनका दूध था। उस समय वसुमती देवीको ऐसी ही महिमा बतलायी गयी है। यह पाकरका पेड़ बछड़ा बना था और शालके पवित्र वृक्षने सर्वदा सर्वलोकमयी मानी गयी है। वेनकुमार महाराज दुहनेका काम किया था।
पृथुका ऐसा ही प्रभाव पुराणोंमें वर्णित है। ये महाभाग गुह्यक, चारण, सिद्ध और विद्याघरोंने भी सबको नरेश सम्पूर्ण धर्मोके प्रकाशक, वर्णों और आश्रमोंके धारण करनेवाली इस पृथ्वीको दुहा था। उस समय यह संस्थापक तथा समस्त लोकोंके धारण-पोषण करनेवाले वसुन्धरा सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थों को देनेवाली थे। जो सौभाग्यशाली राजा इस लोकमें वास्तविक कामधेनु बन गयी थी। जो लोग जिस-जिस वस्तुकी राजपद प्राप्त करना चाहते हों, उन्हें परम प्रतापी राजा इच्छा करते थे, उन्हें भिन्न-भिन्न पात्र और बछड़ोंके द्वारा वेनकुमार पृथुको नमस्कार करना चाहिये । जो धनुर्वेदका वह वस्तु यह दूधके रूपमें प्रदान करती थी। यह धात्री ज्ञान और युद्धमें सदा ही विजय प्राप्त करना चाहते हो, (धारण करनेवाली) और विधात्री (उत्पन्न करनेवाली) उन्हें भी महाराज पृथुको प्रणाम करना चाहिये । सम्राट है। यह श्रेष्ठ वसुन्धरा है, यह समस्त कामनाओंको पूर्ण पृथु राजा-महाराजाओंको भी जीविका प्रदान करनेवाले करनेवाली धेनु है तथा यह पुण्योंसे अलङ्कत, परम थे। द्विजवरो! यह प्रसङ्ग धन, यश, आरोग्य और पुण्य पावन, पुण्यदायिनी, पुण्यमयी और सब प्रकारके प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य महाराज पृथुके चरित्रका धान्योंको अङ्कुरित करनेवाली है। यह सम्पूर्ण चराचर श्रवण करता है, उसे प्रतिदिन गङ्गास्नानका फल मिलता जगत्की प्रतिष्ठा और योनि (उत्पत्तिस्थान) है। यही है तथा वह सब पापोंसे शुद्ध होकर भगवान् श्रीविष्णुके महालक्ष्मी और सब प्रकारके कल्याणकी जननी है। परमधामको जाता है।
मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अङ्गकी तपस्या और भगवानसे वर-प्राप्ति
ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! पापाचारपूर्ण बर्ताव होनेसे पुण्यकी ही वृद्धि होती रहती है। पापियोंसे करनेवाले जिस राजा वेनका आपने परिचय दिया है, उस बातचीत करने, उन्हें देखने, स्पर्श करने, उनके साथ पापीको उस व्यवहारका कैसा फल मिला? बैठने, भोजन करने तथा उनके सङ्गमें रहनेसे पापका
सूतजी बोले-ब्राह्मणो! पृथु-जैसे संचार होता है और पुण्यात्माओंके सङ्गसे केवल पुण्यका सौभाग्यशाली और महात्मा पुत्रके जन्म लेनेपर राजा वेन ही प्रसार होता है, जिससे सारे पाप धुल जानेके कारण पापरहित हो गया। उसे धर्मका फल प्राप्त हुआ। जिन मनुष्य पुण्य-गतिको ही प्राप्त करते हैं। नरेशोंने समस्त महापापोंका उपार्जन किया है, उनके वे ऋषियोंने पूछा-महामते ! पापी मनुष्योंको पाप तीर्थयात्रासे नष्ट हो जाते हैं और संतोंका सङ्ग प्राप्त परम सिद्धिकी प्राप्ति कैसे होती है, यह बात [भी] हमें
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भूमिखण्ड ]
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मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप तथा अङ्गकी तपस्या
विस्तारके साथ बतलाइये।
सूतजी बोले – नर्मदा, यमुना और गङ्गा- इन नदियोंकी धाराके आस-पास जो महापापी रहते हैं, वे जान-बूझकर या बिना जाने भी इनके जलमें नहाते और क्रीड़ा करते हैं; अतः महानदीके संसर्गसे उन्हें परम गतिकी प्राप्ति हो जाती है। द्विजवरो महानदीके सम्पर्क से अथवा अन्यान्य नदियोंके परम पवित्र जलका दर्शन, स्पर्श और पान करनेसे पापियोंका पाप नष्ट हो जाता है। तीर्थोके प्रभाव तथा संतोंके सङ्गसे पापियोंका पाप उसी प्रकार नष्ट होता है, जैसे आग ईंधनको जला डालती है। महात्मा ऋषियोंके संसर्ग, उनके साथ वार्तालाप करनेसे, दर्शन और स्पर्शसे तथा पूर्वकालमें सत्सङ्ग प्राप्त होनेसे राजा वेनका सारा पाप नष्ट हो गया था। पुण्यका संसर्ग हो जानेपर अत्यन्त भयङ्कर पापका भी संचार नहीं होता।
पूर्वकालमें मृत्युके एक सौभाग्यशालिनी कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम सुनीथा रखा गया था। वह पिताके कार्योंको देखती और खेल-कूदमें सदा उन्हींका अनुकरण किया करती थी। एक दिन सुनीथा अपनी सखियोंके साथ खेलती हुई वनमें गयी। वहाँ गीतकी ध्वनि उसके कानोंमें पड़ी। तब सुनीथाने उस ओर दृष्टिपात किया। देखा, गन्धर्वकुमार महाभाग सुशङ्ख भारी तपस्यामें लगा हुआ है। उसके सारे अङ्ग बड़े ही मनोहर थे। सुनीथा प्रतिदिन वहाँ जाकर उस तपस्वीको सताने लगी। सुशङ्ख रोज-रोज उसके अपराधको क्षमा कर देता और कहता- 'जाओ, चली जाओ यहाँसे । उसके यों कहने पर वह बालिका कुपित हो जाती और बेचारे तपस्वीको पीटने लगती थी। उसका यह बर्ताव देखकर एक दिन सुशङ्ख क्रोधसे मूर्च्छित हो उठा और बोला- 'कल्याणी ! श्रेष्ठ पुरुष मारनेके बदले न तो मारते हैं और न किसीके गाली देनेपर क्रोध ही करते हैं; यही धर्मकी मर्यादा है।' पाप करनेवाली सुनीथासे ऐसा कहकर वह धर्मात्मा गन्धर्व क्रोधसे निवृत्त हो रहा और उसे अबला स्त्री जानकर बिना कुछ दण्ड दिये लौट गया।
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सुनीथाने पिताके पास जाकर कहा- 'तात! मैने वनमें जाकर एक गन्धर्वकुमारको पीटा है, वह काम-क्रोधसे रहित हो तपस्या कर रहा था। मेरे पीटनेपर उस धर्मात्माने कहा है-मारनेवालेको मारना और गाली देनेवालेको गाली देना उचित नहीं है। पिताजी! बताइये, उसके इस कथनका क्या कारण है ?' सुनीथाके इस प्रकार पूछनेपर धर्मात्मा मृत्युने उससे कुछ भी नहीं कहा। उसके प्रश्नका उत्तर ही नहीं दिया। तदनन्तर वह फिर वनमें गयी। सुशङ्ख तपस्यामें लगा था। दुष्ट स्वभाववाली सुनीथाने उस श्रेष्ठ तपस्वीके पास जाकर उसे कोड़ोंसे पीटना आरम्भ किया। अब वह महातेजस्वी
गन्धर्व अपने क्रोधको न रोक सका। उस सुन्दरी बालिकाको शाप देते हुए बोला- 'गृहस्थ धर्ममें प्रवेश करनेपर जब तुम्हारा अपने पतिके साथ सम्पर्क होगा, तब तुम्हारे गर्भसे देवताओं और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाला, पापाचारी, सब प्रकारके पापोंमें आसक्त और दुष्ट पुत्र उत्पन्न होगा।' इस प्रकार शाप दे वह पुनः जाकर तपस्यामें ही लग गया।
महाभाग गन्धर्वकुमारके चले जानेपर सुनीथा अपने घर आयी। वहाँ उसने पितासे सारा वृत्तान्त कह
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
सुनाया। मृत्युने कहा- 'अरी! उस निर्दोष तपस्वीको तुमने क्यों मारा है ? भद्रे तपस्यामें लगे हुए पुरुषको मारना - यह तुम्हारे द्वारा उचित कार्य नहीं हुआ धर्मात्मा मृत्यु ऐसा कहकर बहुत दुःखी हो गये ।
सूतजी कहते हैं - एक समयकी बात है, महर्षि अत्रिके पुत्र महातेजस्वी राजा अङ्ग नन्दन वनमें गये थे। वहाँ उन्होंने गन्धवों, किन्नरों और अप्सराओंके साथ देवराज इन्द्रका दर्शन किया। उनके वैभव, उनके भोगविलास और उनकी लीला देखकर धर्मात्मा अङ्ग सोचने लगे - "किस उपायसे मुझे इन्द्रके समान पुत्रकी प्राप्ति हो ?' क्षणभर इस बातका विचार करके राजा अङ्ग खिन्न हो उठे। नन्दन-वनसे जब वे घर लौटे तो अपने पिता अत्रिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर बोले'पिताजी! आप ज्ञानवानों में श्रेष्ठ और पुत्रपर स्नेह रखनेवाले हैं। मुझे इन्द्रके समान वैभवशाली पुत्र कैसे प्राप्त हो, इसका कोई उपाय बताइये।'
अत्रिने कहा – साधुश्रेष्ठ ! भक्ति करने और श्रद्धापूर्वक ध्यान लगानेसे भगवान् श्रीविष्णु संतुष्ट होते हैं और संतुष्ट होनेपर वे सदा सब कुछ देते रहते हैं। भगवान् श्रीगोविन्द सब वस्तुओंके दाता, सबकी उत्पत्तिके कारण, सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, सर्वेश्वर और परमपुरुष हैं। इसलिये तुम उन्हींकी आराधना करो। बेटा! तुम जो जो चाहते हो, वह सब उनसे प्राप्त होगा। भगवान् श्रीविष्णु सुख, परमार्थ और मोक्ष देनेवाले तथा इस जगत्के ईश्वर हैं। अतः जाओ, उनकी आराधना करो; उनसे तुम्हें इन्द्रके समान पुत्र प्राप्त होगा।
ब्रह्माजीके पुत्र अङ्गके पिता महर्षि अत्रि ब्रह्माके समान ही तेजस्वी थे। उनसे आज्ञा लेकर अङ्गने प्रस्थान किया। वे सुवर्ण और रत्नमय शिखरोंसे सुशोभित मेरुगिरिके मनोहर शिखरपर चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने गङ्गाजीके पवित्र तटपर एकान्तमें स्थित रत्नमय कन्दरामें प्रवेश किया। महामुनि अङ्ग बड़े मेधावी और धर्मात्मा थे। वे काम-क्रोधका त्याग करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको काबू में रखकर भगवान् के मनोमय स्वरूपका
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
ध्यान करने लगे। क्लेशहारी भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते-करते वे ऐसे तन्मय हो गये कि बैठने, सोने, चलने तथा चिन्तन करनेके समय भी उन्हें नित्य निरन्तर
भगवान् श्रीमधुसूदन ही दिखायी देते थे। उनका मन भगवान्में लग गया था। वे योगयुक्त और जितेन्द्रिय होकर चराचर जीवों तथा सूखे और गीले आदि समस्त पदार्थोंमें केवल भगवान् श्रीविष्णुका ही दर्शन करते थे। इस प्रकार तपस्या करते उन्हें सौ वर्ष बीत गये। नियम, संयम तथा उपवासके कारण उनका सारा शरीर दुर्बल हो गया था; तो भी वे अपने तेजसे सूर्य और अनिके समान देदीप्यमान दिखायी दे रहे थे। इस तरह तपस्यामें प्रवृत्त हो ध्यानमें लगे हुए राजा अङ्गके सामने भगवान् श्रीविष्णु प्रकट हुए और बोले- मानद ! वर माँगो, इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीवासुदेवको उपस्थित देख राजा अङ्गको बड़ा हर्ष हुआ, उनका चित्त प्रसन्न हो गया। वे भगवान्को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे ।
अङ्ग बोले- भूतभावन! आप ही सम्पूर्ण भूतोंकी गति हैं। पावन परमेश्वर! आप प्राणियोंके आत्मा, सब भूतोंके ईश्वर और सगुण स्वरूप धारण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। आप गुणस्वरूप,
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भूमिखण्ड ]
• मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप तथा अङ्गकी तपस्या ,
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गुह्य तथा गुणातीत हैं; आपको नमस्कार है। गुण, विस्तार करनेवाले), वासव (वसुपुत्र इन्द्र) तथा गुणकर्ता, गुणसम्पन्न और गुणात्मा भगवान्को प्रणाम है। वसुस्वरूप है; आपको नमस्कार है। आप वासुदेव, आप भव (संसाररूप), भवकर्ता तथा भक्तोंके संसार- विश्वरूप और वह्निस्वरूप है; आपको प्रणाम है। हरि, बन्धनका अपहरण करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है। कैवल्यरूप तथा वामनभगवान्को नमस्कार है। भवकी उत्पत्तिके कारण होनेसे आपका नाम 'भव' है; इस सत्त्वगुणकी रक्षा करनेवाले भगवान् नृसिंहदेवको प्रणाम भवमें आप अव्यक्तरूपसे छिपे हुए हैं, इसलिये आपको है। गोविन्द एवं गोपालको नमस्कार है। भगवन् ! आप 'भवगुह्य' कहा गया है तथा आप रुद्ररूपसे इस भव- एकाक्षर (प्रणव), सर्वाक्षर (वर्णरूप) और हंसस्वरूप संसारका विनाश करते हैं, इससे आपका नाम भव- हैं; आपको प्रणाम है। तीन, पाँच और पचीस तत्त्व विनाशी है। आपको प्रणाम है। आप यज्ञ, यज्ञरूप, आपके ही रूप हैं; आप समस्त तत्त्वोंके आधार हैं। यज्ञेश्वर और यज्ञकर्ममें संलग्न हैं; आपको नमस्कार है। आपको नमस्कार है। आप कृष्ण (सच्चिदानन्दस्वरूप), शङ्ख धारण करनेवाले भगवान्को प्रणाम है। सोनेके कृष्णरूप (श्यामविग्रह) तथा लक्ष्मीनाथ हैं; आपको समान वर्णवाले परमात्माको नमस्कार है। चक्रधारी प्रणाम है। कमललोचन ! आप परमानन्दमय प्रभुको श्रीविष्णुको प्रणाम है। सत्य, सत्यभाव, सर्वसत्यमय, नमस्कार है। आप विश्वके भरण-पोषण करनेवाले तथा धर्म, धर्मकर्ता और सर्वविधाता आप भगवान्को प्रणाम पापोंके नाशक है, आपको प्रणाम है। पुण्योंमें भी उत्तम है। धर्म आपका अङ्ग है, आप श्रेष्ठ वीर और धर्मके पुण्य तथा सत्यधर्मरूप आप परमात्माको नमस्कार है। आधारभूत है; आपको नमस्कार है। आप माया-मोहके शाश्वत, अविनाशी एवं पूर्ण आकाशस्वरूप परमेश्वरको नाशक होते हुए भी सब प्रकारकी मायाओके उत्पादक है; प्रणाम है। महेश्वर श्रीपद्मनाभको नमस्कार है। केशव ! आपको नमस्कार है। आप मायाधारी, मूर्त (साकार) आपके चरणकमलोंमें मैं प्रणाम करता हूँ। और अमूर्त (निराकार) भी हैं। आपको प्रणाम है। आप आनन्दकन्द ! कमलाप्रिय ! वासुदेव ! सर्वेश्वर ! ईश ! सब प्रकारकी मूर्तियोंको धारण करनेवाले और मधुसूधन ! मुझे अपनी दासता प्रदान कीजिये। शङ्ख कल्याणकारी हैं, आपको नमस्कार है। ब्रह्मा, ब्रहारूप धारण करनेवाले शान्तिदायी केशव ! आपके चरणोंमें
और परब्रह्मस्वरूप आप परमात्माको प्रणाम है। आप मस्तक झुकाता हूँ। प्रत्येक जन्ममें मुझपर कृपा कीजिये। सबके धाम तथा धामधारी हैं, आपको नमस्कार है । आप मेरे स्वामी पद्मनाभ ! संसाररूपी दुःसह अग्निके तापसे मैं श्रीमान्, श्रीनिवास, श्रीधर, क्षीरसागरवासी और अमृत- दग्ध हो रहा हूँ: आप ज्ञानरूपी मेघकी धारासे मेरे तापको स्वरूप हैं; आपको प्रणाम है। [संसाररूपी रोगके लिये] शान्त कीजिये तथा मुझ दीनके लिये शरणरूप हो जाइये। महान् औषध, दुष्टोंके लिये घोररूपधारी, महाप्रज्ञापरायण, अङ्गके मुखसे यह स्तोत्र सुनकर भगवान्ने अङ्गको अक्रूर (सौम्य), प्रमेध्य (परम पवित्र) तथा मेध्यों अपने श्रीविग्रहका दर्शन कराया। उनका मेघके समान (पावन वस्तुओं) के स्वामी आप परमेश्वरको नमस्कार है। श्याम वर्ण तथा महान् ओजस्वी शरीर था तथा हाथोंमें आपका कहीं अन्त नहीं है, आप अशेष (पूर्ण) और शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म शोभा दे रहे थे। सब ओर अनघ (पापरहित) हैं; आपको प्रणाम है। आकाशको महान् प्रकाश छा रहा था। श्रीभगवान् गरुड़की पीठपर प्रकाशित करनेवाले सूर्य-चन्द्रस्वरूप आपको नमस्कार बैठे थे। अङ्गोंमें सब प्रकारके आभूषण शोभा पा रहे है। आप हवनकर्म, हुतभोजी अग्नि तथा हविष्यरूप हैं; थे। हार, कण और कुण्डलोंसे सुशोभित तथा आपको नमस्कार है। आप बुद्ध (ज्ञानी), बुध (विद्वान्) वनमालासे उज्ज्वल उनका अत्यन्त दिव्यरूप बड़ा सुन्दर तथा सदा बुद्ध (नित्यज्ञानी) है; आपको प्रणाम है। जान पड़ता था। भगवान् श्रीजनार्दन अङ्गके सामने
स्वाहाकार, शुद्ध अव्यक्त, महात्मा, व्यास (वेदोंका विराजमान थे। श्रीवत्स नामक चिह्न और पुण्यमय
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
कौस्तुभमणिसे उनकी अपूर्व शोभा हो रही थी वे सर्वदेवमय श्रीहरि समस्त अलङ्कारोंकी शोभासे सम्पन्न अपने श्रीविग्रहकी झाँकी कराकर ऋषिश्रेष्ठ अङ्गसे बोले— 'महाभाग ! मैं तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट हूँ, तुम कोई उत्तम वर माँग लो।'
अङ्गने भगवान्के चरणकमलोंमें बारंबार प्रणाम किया और अत्यन्त हर्षमें भरकर कहा-' - 'देवेश्वर ! मैं आपका दास हूँ; यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो जैसी शोभा स्वर्ग में सम्पूर्ण तेजसे सम्पन्न इन्द्रकी है, वैसी ही शोभा पानेवाला एक सुन्दर पुत्र मुझे देनेकी कृपा करें। वह पुत्र सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेवाला होना चाहिये। इतना ही नहीं, वह बालक समस्त देवताओंका
ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! गन्धर्वश्रेष्ठ सुशङ्खने जब सुनीथाको शाप दे दिया, तब वह शाप उसके ऊपर किस प्रकार लागू हुआ ? उसके बाद सुनीथाने कौन-कौन-सा कार्य किया? और उसको कैसा पुत्र प्राप्त हुआ ?
सूतजी बोले- ब्राह्मणो हम पहले बता आये हैं कि सुशङ्खके शाप देनेपर सुनीथा दुःखसे पीड़ित हो अपने पिताके निवासस्थानपर आयी और वहाँ उसने पितासे अपनी सारी करतूतें कह सुनायीं। मृत्युने सब बातें सुनकर अपनी पुत्री सुनीथासे कहा- 'बेटी! तूने बड़ा भारी पाप किया है। तेरा यह कार्य धर्म और तेजका नाश करनेवाला है। काम-क्रोधसे रहित, परम शान्त धर्मवत्सल और परब्रह्ममें स्थित तपस्वीको जो चोट पहुँचाता है, उसके पापात्मा पुत्र होता है तथा उसे उस पापका फल भोगना पड़ता है। वही जितेन्द्रिय और शान्त है, जो मारनेवालेको भी नहीं मारता । किन्तु तूने निर्दोष होनेपर भी उन्हें मारा है; अतः तेरे द्वारा यह महान् पाप हो गया है। पहले तूने ही अपराध किया है; फिर
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
प्रिय, ब्राह्मण-भक्त, दानी, त्रिलोकीका रक्षक, सत्यधर्मका निरन्तर पालन करनेवाला, यजमानोंमें श्रेष्ठ, त्रिभुवनकी शोभा बढ़ानेवाला, अद्वितीय शूरवीर, वेदोंका विद्वान्, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, शान्त, तपस्वी और सर्वशास्त्रविशारद हो । प्रभो! यदि आप वर देनेके लिये उत्सुक हों तो मुझे ऐसा ही पुत्र होनेका वरदान दीजिये।'
भगवान् वासुदेव बोले- महामते ! तुम्हें इन सद्गुणोंसे युक्त उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होगी, वह अत्रिवंशका रक्षक और सम्पूर्ण विश्वका पालन करनेवाला होगा। तुम भी मेरे परम धामको प्राप्त होगे।
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सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अङ्गके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
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इस प्रकार वरदान देकर भगवान् श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये।
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उन्होंने भी शाप दे दिया। इसलिये अब तू पुण्यकर्मोका आचरण कर, सदा साधु पुरुषोंके सङ्गमें रहकर जीवन व्यतीत कर प्रतिदिन योग, ध्यान और दानके द्वारा काल यापन करती रह ।
बाले ! सत्सङ्ग महान् पुण्यदायक और परम कल्याणकारक होता है। सत्सङ्गका जो गुण है, उसके विषयमें एक सुन्दर दृष्टान्त देख जल एक सद्वस्तु है; उसके स्पर्शसे, उसमें स्नान करनेसे उसे पीनेसे तथा उसका दर्शन करनेसे भी बाहर और भीतरके दोष धुल जानेके कारण मुनिलोग सिद्धि प्राप्त करते हैं। तथा समस्त चराचर प्राणी भी जल पीते रहनेसे दीर्घायु होते हैं। [इसी प्रकार संतोंके सङ्गसे मनुष्य शुद्ध एवं सफलमनोरथ होते हैं।] पुत्री ! सत्सङ्गसे मनुष्य संतोषी, मृदुगामी, सबका प्रिय करनेवाला, शुद्ध, सरस, पुण्यबलसे सम्पन्न, शारीरिक और मानसिक मलको दूर करनेवाला, शान्तस्वभाव तथा सबको सुख देनेवाला होता है जैसे सुवर्ण अनिके सम्पर्क में आनेपर मैल त्याग देता है, उसी प्रकार मनुष्य संतोंके सङ्गसे पापका
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भूमिखण्ड ]
• सुनीथाकी तपस्या, अङ्गके साथ उसका गान्धर्वविवाह और वेनका जन्म .
परित्याग कर देता है।* जिसमें सत्यकी अग्नि प्रज्वलित मायाको त्याग दिया। एक दिन उसके पास उसकी रम्भा रहती है, वह अपने पुण्यमय तेजसे प्रकाशमान होता आदि सखियाँ, जो तपःशक्तिसे सम्पन्न थीं, आयीं उन्होंने रहता है। जिसमें सत्यकी दीप्ति है, जो ज्ञानके द्वारा भी देखा, सुनीथा दुःखका अनुभव कर रही है। ध्यानके ही अत्यन्त निर्मल हो गया है तथा ध्यानके द्वारा अत्यन्त साथ उसे चिन्ता करते देख वहाँ आयी हुई सलेहियोंने तेजस्वी प्रतीत होता है, पापसे पैदा हुए मनुष्य उसका कहा–'सखी ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम चिन्ता स्पर्श नहीं कर सकते। सत्यरूपी अग्निसे महात्मा पुरुष किसलिये करती हो? इस चिन्तामें क्यों डूबी हुई हो? पापरूपी ईधनको भस्म कर डालना चाहता है। इसलिये अपने सन्तापका कारण बताओ। चिन्ता तो केवल दुःख बेटी ! तुझे सत्यका संसर्ग करना चाहिये, असत्यका देनेवाली होती है। एक ही चिन्ता सार्थक मानी गयी है, नहीं। महाभागे ! जाओ, भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन जो धर्मके लिये की जाती है। धर्मनन्दिनी ! दूसरी चिन्ता करो; पापभावको छोड़कर केवल पुण्यका आश्रय लो।' जो योगियोंके हृदयमें होती है, [जिसके द्वारा वे ब्रह्मका
पिताके इस प्रकार समझानेपर दुःखमें पड़ी हुई चिन्तन करते हैं] वह भी सार्थक है। इनके सिवा और सुनीथा उनके चरणोंमें प्रणाम करके निर्जन वनमें चली जितनी भी चित्ताएँ हैं, सब निरर्थक है। उसकी कल्पना गयी और वहाँ एकान्तमें रहकर तपस्या करने लगी। भी नहीं करनी चाहिये। चिन्ता शरीर, बल और तेजका उसने काम, क्रोध, बालोचित चपलता, मोह, द्रोह और नाश करनेवाली है; वह सारे सुखोंको नष्ट कर डालती
है। साथ ही रूपको भी हानि पहुँचाती है। चिन्ता तृष्णा, मोह और लोभ-इन तीन दोषोंको ले आती है तथा प्रतिदिन उसीमें घुलते रहनेपर वह पापको भी उत्पन्न करती है। चिन्ता रोगोंकी उत्पत्ति और नरककी प्राप्तिका कारण है। अतः चिन्ताको छोड़ो जीव पूर्वजन्ममें अपने कर्मोद्वारा जिन शुभाशुभ भोगोंका उपार्जन करता है, उन्हींका वह दूसरे जन्ममें उपभोग करता है। अतः समझदारको चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम चिन्ता छोड़कर अपने सुख-दुःख आदिकी ही बात बताओ।
सखियोंके ये वचन सुनकर सुनीथाने अपना वृत्तान्त कहना आरम्भ किया। पहले सुशङ्खने उसे वनमें जिस प्रकार शाप दिया था, वह सारी घटना उसने सहेलियोंसे कह सुनायी। उसने अपने अपराधोंका भी वर्णन किया। उस समय महाभागा सुनीथा मानसिक दुःखसे बड़ा कष्ट
* सता सङ्गो महापुण्यो बहुक्षेमप्रदायकः । बाले पश्य सुदृष्टान्तं सतां सहस्य यद्गुणम्॥
अपां संस्पर्शनात्मानापानाद् दर्शनतोऽपि वा।। मुनयः सिद्धिमायान्ति बाह्याभ्यन्तरक्षालिताः । आयुष्मन्तो भवत्येते लोकाः सर्वे चराचराः ॥ अपि सन्तोषशीलश मृदुगामी प्रियङ्करः । निर्मलो रसाशासौ पुण्यवीयों मलापहः ॥ तथा शान्तो भवेत् पुत्रि सर्वसौख्यप्रदायकः। यथा वहिप्रसंगाच मलं त्यजति काश्चनम् ॥
तथा सती हि संसर्गात् पापं त्यजति मानवः ।।
(३२ ॥ १४-१९)
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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पा रही थी उसका सारा वृत्तान्त सुनकर सखियोंने कहा - 'महाभागे ! तुम्हें दुःखको तो त्याग ही देना चाहिये, क्योंकि वह शरीरका नाश करनेवाला है। शुभे तुम्हारे अङ्गोंमें सती स्त्रियोंके जो उत्तम गुण हैं, उन्हें हम अन्यत्र कहीं नहीं देखतीं । उत्तम स्त्रियोंका पहला आभूषण रूप है, दूसरा शील, तीसरा सत्य, चौथा आर्यता (सदाचार), पाँचवाँ धर्म, छठा सतीत्व, सातवाँ दृढ़ता, आठवाँ साहस (कार्य करनेका उत्साह), नवाँ मङ्गलगान, दसवाँ कार्य कुशलता, ग्यारहवाँ कामभावका आधिक्य और बारहवाँ गुण मीठे वचन बोलना है। बाले ! इन सभी गुणोंने तुम्हारा सम्मान बढ़ाया है; अतः देवि! तुम तनिक भी भय न करो। वरानने ! जिस उपायसे तुम्हें धर्मात्मा पतिकी प्राप्ति होगी, उसे हम जानती हैं। तुम्हारा काम तो हमलोग ही सिद्ध कर देंगी। महाभागे ! अब तुम स्वस्थ एवं निश्चिन्त हो जाओ। हम तुम्हें एक ऐसी विद्या प्रदान करेंगी, जो पुरुषोंको मोहित कर लेती है।
यह कहकर सखियोंने सुनीथाको वह सुखदायक विद्याबल प्रदान किया और कहा - 'कल्याणी! तुम देवता आदिमेंसे जिस-जिस पुरुषको मोहित करना चाहो, उसे उसे तत्काल मोहित कर सकती हो।' सखियोंके यों कहनेपर सुनीथाने उस विद्याका अभ्यास किया। जब वह विद्या भलीभाँति सिद्ध हो गयी, तब सुनीथा बड़ी प्रसन्न हुई। वह सखियोंके साथ ही पुरुषोंको देखती हुई वनमें घूमने लगी। तदनन्तर उसने गङ्गाजीके तटपर एक रूपवान् ब्राह्मणको देखा, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और सूर्यके समान तेजस्वी थे। वे तपस्या कर रहे थे। उनका प्रभाव दिव्य था। उन तपस्वी महर्षिका रूप देखकर सुनीथाका मन मोह गया। उसने अपनी सखी रम्भासे पूछा - 'ये देवताओंसे भी श्रेष्ठ महात्मा कौन हैं ?' रम्भा बोली- 'सखी ! अव्यक्त परमेश्वरसे ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई है। उनसे प्रजापति अत्रिका जन्म हुआ, जो बड़े धर्मात्मा हैं। ये महामना तपस्वी उन्होंके पुत्र हैं, इनका नाम अङ्ग है। भद्रे ! ये नन्दनवनमें आये थे। वहाँ नाना प्रकारके तेजसे सम्पन्न इन्द्रका वैभव
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
देखकर इन्होंने भी उनके समान पद पानेकी अभिलाषा की। सोचा- जब मुझे भी वंशको बढ़ानेवाला ऐसा ही पुत्र प्राप्त हो, तब मेरा जन्म कल्याणकारी हो सकता है, साथ ही यश और कीर्ति भी मिल सकती है। ऐसा विचार करके इन्होंने तपस्या और नियमोंके द्वारा भगवान् हृषीकेशकी आराधना की है जब भगवान् अत्यन्त प्रसन्न होकर इनके सामने प्रकट हुए, तब इन महर्षिने इस प्रकार वर माँगा - 'मधुसूदन ! मुझे इन्द्रके समान वैभवशाली तथा अपने समान तेजस्वी एवं पराक्रमी पुत्र प्रदान कीजिये । वह पुत्र आपका भक्त एवं सब पापोंका नाश करनेवाला होना चाहिये।' श्रीभगवान्ने कहा'महात्मन्! मैंने तुम्हें ऐसा पुत्र होनेका वर दिया। वह सबका पालन करनेवाला होगा।' [यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।] तबसे विप्रवर अङ्ग किसी पवित्र कन्याकी तलाशमें हैं। जैसी तुम सब अङ्गोंसे मनोहर हो, वैसे ही कन्या वे चाहते हैं; अतः इन्हींको पतिरूपमें प्राप्त करो। इनसे तुम्हें पुण्यात्मा पुत्रकी प्राप्ति होगी। ये महाभाग तपस्वी और पुण्यबलसे सम्पन्न हैं। इनके वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र इन्हींकी गुणसम्पत्तिसे युक्त, महातेजस्वी, समस्त धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ, परम सौभाग्यशाली, युक्तात्मा और योगतत्त्वका ज्ञाता होगा।'
सुनीथा बोली- भद्रे ! तुमने ठीक कहा है, मैं ऐसा ही करूंगी। इस विद्यासे ब्राह्मणको मोहमें डालूँगी । तुम मुझे सहायता प्रदान करो; जिससे इस समय मैं उनके पास जाऊँ ।
रम्भाने कहा- 'मैं तुम्हारी सहायता करूंगी, तुम मुझे आज्ञा दो।' सुनीथाके नेत्र बड़े-बड़े थे। वह रूप और यौवनसे शोभा पा रही थी। उसने सद्भावनापूर्वक मायासे दिव्यरूप धारण किया। उसका मुख बड़ा ही मनोहर था। संसारमें उसके सुन्दर रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। वह तीनों लोकोंको मोहित करने लगी। सुन्दरी सुनीथा झूलेपर जा बैठी और वीणा बजाती हुई मधुर स्वरमें गीत गाने लगी। उसका स्वर बड़ा मोहक था । उस समय महर्षि अङ्ग अपनी पवित्र गुफाके भीतर एकान्तमें ध्यान लगाये बैठे थे। वे काम-क्रोधसे रहित
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भूमिखण्ड ]
• सुनीथाकी तपस्या, अनके साथ उसका गान्धर्व विवाह और वेनका जन्म
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होकर भगवान् श्रीजनार्दनका चिन्तन कर रहे थे। उत्तम प्राप्तिके लिये मैं अदेय वस्तु भी दे सकता हूँ। ताल-स्वरके साथ गाया हुआ वह मधुर और मनोहर रम्भा बोली-'द्विजश्रेष्ठ ! आपको इसी प्रकार गीत सुनकर अङ्गका चित्त ध्यानसे विचलित हो गया। उदारतापूर्वक इसकी अभीष्ट वस्तु इसे देनी चाहिये। यह उस मायामय सङ्गीतने उन्हें मोह लिया था। वे तुरंत ही सदाके लिये आपकी धर्मपत्नी हो रही है। आप कभी आसनसे उठे और वारंबार इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे। इसका परित्याग न करें। इसके दोष-गुणोंपर कभी मायासे उनका मन चञ्चल हो उठा था। वे बड़े वेगसे आपको ध्यान नहीं देना चाहिये । विप्रवर ! इस विषयमें बाहर निकले और झूलेपर बैठी हुई वीणाधारिणी स्त्रीकी आप मुझे प्रत्यक्ष विश्वास दिलाइये। सत्यकी प्रतीति ओर देखा । वह मुसकराती हुई गा रही थी। महायशस्वी दिलानेवाला अपना हाथ इसके हाथमें दीजिये।' अङ्गने अन उसके गीत और रूप दोनोंपर मुग्ध हो गये। कहा-'एवमस्तु । निश्चय ही अपना हाथ मैंने इसे दे तत्पश्चात् वे महान् मोहके वशीभूत हो उस तरुणीके पास दिया।' गये। विशाल नेत्र और मनोहर मुसकानवाली मृत्युकी इस प्रकार सत्यका विश्वास करानेवाला सम्बन्ध यशस्विनौ कन्या सुनीथाको देखकर अङ्गने पूछा- करके अङ्गने सुनीथाको गान्धर्व-विवाहको प्रणालीके 'सुन्दरी ! तुम कौन हो? किसकी कन्या हो? सखियोंसे अनुसार ग्रहण किया। सुनीथाको उन्हें सौपकर रम्भाके घिरी हुई यहाँ किस कामसे आयी हो? किसने तुम्हें इस हृदयमें बड़ा हर्ष हुआ। वह अपनी सखीसे आज्ञा लेकर वनमें भेजा है?'
घरको चली गयी। दूसरी-दूसरी सखियोंने भी प्रसन्न परम बुद्धिमान् अङ्गका यह महत्त्वपूर्ण वचन होकर अपने-अपने घरकी राह ली। उन सब सहेलियोंके सुनकर सुनीथा उनसे कुछ न बोली। उसने केवल चले जानेपर द्विजश्रेष्ठ अङ्ग अपनी प्यारी पत्नीके साथ सखीके मुखकी ओर देखा । रम्भाने इशारेसे कुछ कहकर विहार करने लगे। उसके गर्भसे उन्होंने एक सर्वलक्षणसुनीथाको समझा दिया और वह स्वयं ही उन श्रेष्ठ सम्पन्न पुत्र उत्पन्न किया और उसका नाम वेन रखा। ब्राह्मणसे आदरपूर्वक बोली-'महर्षे ! यह मृत्युकी सुनीथाका वह महातेजस्वी बालक दिनोंदिन बढ़ने लगा परम सौभाग्यवती कन्या है, लोकमें इसकी सुनीथाके और वेद-शास्त्र तथा उपकारी धनुर्वेदका अध्ययन करके नामसे प्रसिद्धि है। यह सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है। समस्त विद्याओंका पारगामी विद्वान् हो गया। क्योंकि इस समय यह बाला अपने लिये धर्मात्मा, तपस्वी, वह वड़ा मेधावी था। अङ्गकुमार वेन सज्जनोचित शान्त, जितेन्द्रिय, महाप्राज्ञ और वेदविद्या-विशारद आचारसे रहता था। वह क्षत्रियधर्मका पालन करने पतिको खोजमें है।'
लगा। वैवस्वत मन्वन्तर आनेपर संसारकी सारी प्रजा यह सुनकर अङ्गने अप्सराओंमें श्रेष्ठ रम्भासे राजाके बिना निरन्तर कष्ट पाने लगी। उस समय सब कहा-'भद्रे ! मैंने सर्वविश्वमय भगवान् श्रीहरिकी लोगोंने वेनको ही सब लक्षणोंसे सम्पन्न देखा । तब श्रेष्ठ आराधना की है। उन्होंने मुझे पुत्र होनेका वरदान दिया है, ब्राह्मणोंने उन्हें प्रजापतिके पदपर अभिषिक्त कर दिया। जो सम्पूर्ण सिद्धियोंका दाता है। अतः इस वरदानकी तत्पश्चात् समस्त ऋषि अपने-अपने तपोवनमें चले गये। सफलताके निमित्त-उत्तम पुत्रकी प्राप्तिके लिये मैं उन सबके जानेके पश्चात् अकेले वेन ही राज्यका पालन किसी पुण्यबलसे सम्पन्न महापुरुषकी कन्याके साथ करने लगे। इस प्रकार वेन भूमण्डलके प्रजापालक हुए। विवाहका विचार कर रहा था; किन्तु कहीं भी अपने उनके समयमें सब लोग सुखसे जीवन विताते थे। प्रजा लिये परम मङ्गलमयी कन्या नहीं पा सका । यह धर्मकी उनके धर्मसे प्रसन्न रहती थी। वेनके राज्यका प्रभाव सुमुखी कन्या धर्माचारपरायणा है। यदि वास्तवमें यह ऐसा ही था। उनके शासनकालमें सर्वत्र धर्मका प्रभाव पतिकी ही तलाशमें है तो मुझे ही स्वीकार करे। इसकी छा रहा था।
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• अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
छद्मवेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावेमें आकर वेनकी पापमें
प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! जब इस प्रकार राजा वेनका वचन सुनकर उस पुरुषने उत्तर दिया-'तुम इस वेनकी उत्पत्ति ही महात्मा पुरुषसे हुई थी, तब उन्होंने प्रकार धर्मके पचड़ेमें पड़कर जो राज्य चला रहे हो, वह धर्ममय आचरणका परित्याग करके पापमें कैसे मन सब व्यर्थ है। तुम बड़े मूढ़ जान पड़ते हो। [मेरा लगाया?
परिचय जानना चाहते हो तो सुनो] मैं देवताओंका परम सूतजी बोले-वेनकी जिस प्रकार पापाचारमें पूज्य हूँ। मैं ही ज्ञान, मैं ही सत्य और मैं ही सनातन ब्रह्म प्रवृत्ति हुई, वह सब बात मैं बता रहा हूँ। धर्मके ज्ञाता हूँ। मोक्ष भी मैं ही हूँ। मैं ब्रह्माजीके देहसे उत्पन्न प्रजापालक राजा वेन जब शासन कर रहे थे, उस समय सत्यप्रतिज्ञ पुरुष हूँ। मुझे जिनस्वरूप जानो। सत्य और कोई पुरुष छद्मवेष धारण किये उनके दरबारमें आया। धर्म ही मेरा कलेवर है। ज्ञानपरायण योगी मेरे ही उसका नंग-धडंग रूप, विशाल शरीर और सफेद सिर स्वरूपका ध्यान करते हैं। था। वह बड़ा कान्तिमान् जान पड़ता था। काँखमें वेनने पूछा-आपका धर्म कैसा है? आपका मोरपंखकी बनी हुई मार्जनी (ओघा) दबाये और एक शास्त्र क्या है ? तथा आप किस आचारका पालन करते हाथमें नारियलका जलपात्र (कमण्डलु) धारण किये हैं? ये सब बातें बताइये। वह वेद-शास्त्रोको दूषित करनेवाले शास्त्रका पाठ कर जिन बोला-जहाँ 'अर्हन्' देवता, निर्ग्रन्थ गुरु रहा था। जहाँ महाराज वेन बैठे थे, उसी स्थानपर वह और दयाको ही परम धर्म बताया गया है, वहीं मोक्ष बड़ी उतावलीके साथ पहुँचा। उसे आया देख वेनने देखा जाता है। यही जैन-दर्शन है। इसमें तनिक भी पूछा-'आप कौन हैं, जो ऐसा अद्भुत रूप धारण किये सन्देह नहीं है। अब मैं अपने आचार बतला रहा हूँ। मेरे यहाँ आये हैं ? मेरे सामने सब बातें सच-सच बताइये।' मतमें यजन-याजन और वेदाध्ययन नहीं है ।
सन्ध्योपासन भी नहीं है। तपस्या, दान, स्वधा (श्राद्ध)
और स्वाहा (अग्निहोत्र)का भी परित्याग किया गया है। हव्य-कव्य आदिकी भी आवश्यकता नहीं है। यज्ञयागादि क्रियाओंका भी अभाव है। पितरोंका तर्पण, अतिथियोंका सत्कार तथा बलिवैश्वदेव आदि कोका भी विधान नहीं किया गया है। केवल 'अर्हन्' का ध्यान ही उत्तम माना गया है। जैन-मार्गमें प्रायः ऐसे धर्मका आचरण ही दृष्टिगोचर होता है।
प्राणियोंका यह शरीर पाँचों तत्त्वोंसे ही बनता और परिपुष्ट होता है। आत्मा वायुस्वरूप है; अतः श्राद्ध और यज्ञ आदि क्रियाओंकी कोई आवश्यकता नहीं है। जैसे पानीमें जल-जन्तुओंका समागम होता है तथा जिस प्रकार बुलबुले पैदा होते और विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार संसारमें समस्त प्राणियोंका आवागमन होता
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भूमिखण्ड ] .
. छपवेषधारी पुरुषद्वारा जैन-धर्म-वर्णन और वेनकी पापमें प्रवृत्ति •
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रहता है। अन्तकाल आनेपर वायुरूप आत्मा शरीर समुद्र-सभी जलके आश्रय हैं, पृथ्वीको धारण छोड़कर चला जाता है और पञ्चतत्त्व पाँचों भूतोंमें मिल करनेवाले पर्वत भी केवल पत्थरकी राशि हैं, इनमें तीर्थ जाते हैं। फिर मोहसे मुग्ध मनुष्य परस्पर मिलकर मरे नामकी कोई वस्तु नहीं है। यदि समुद्र आदिमें मान हुए जीवके लिये श्राद्ध आदि पारलौकिक कृत्य करते हैं। करनेसे सिद्धि मिलती है तो मछलियोंको सबसे पहले मोहवश क्षयाह तिथिको पितरोंका तर्पण करते हैं। भला, सिद्ध होना चाहिये; पर ऐसा नहीं देखा जाता । राजेन्द्र ! मरा हुआ मनुष्य कहाँ रहता है? किस रूपमें आकर एकमात्र भगवान् जिन ही सर्वमय है, उनसे बढ़कर न श्राद्ध आदिका उपभोग करता है ? मिष्टान्न खाकर तो कोई धर्म है न तीर्थ । संसारमें जिन ही सर्वश्रेष्ठ है। ब्राह्मणलोग तृप्त होते हैं। [मृतात्माको क्या मिलता अतः उन्हींका ध्यान करो, इससे तुम्हें नित्य सुखकी है?] इसी प्रकार दानकी भी आवश्यकता नहीं जान प्राप्ति होगी। पड़ती । दान क्यों दिया जाता है ? दान देना उत्कृष्ट कर्म इस प्रकार उस पुरुषने वेद, दान, पुण्य तथा नहीं समझना चाहिये। यदि अत्रका भोजन किया जाय यज्ञरूप समस्त धर्मोकी निन्दा करके अङ्ग-कुमार राजा तो इसीमें उसकी सार्थकता है। यदि दान ही देना हो तो वेनको पापके भावोद्वारा बहुत कुछ समझाया-बुझाया। दयाका दान देना चाहिये, दयापरायण होकर प्रतिदिन उसके इस प्रकार समझानेपर वेनके हृदयमें पापभावका जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष उदय हो गया। वेन उसकी बातोंसे मोहित हो गया। चाण्डाल हो या शूद्र, उसे ब्राह्मण ही कहा गया है। उसने उसके चरणोंमें प्रणाम करके वैदिक धर्म तथा दानका भी कोई फल नहीं है, इसलिये दान नहीं देना सत्य-धर्म आदिकी क्रियाओंको त्याग दिया। पापात्मा चाहिये। जैसा श्राद्ध, वैसा दान; दोनोंका एक ही उद्देश्य वेनके शासनसे संसार पापमय हो गया-उसमें सब है। केवल भगवान् जिनका बताया हआ धर्म ही भोग तरहके पाप होने लगे। वेनने वेद, यज्ञ और उत्तम तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है । मैं तुम्हारे सामने उसीका धर्मशास्त्रोंका अध्ययन बंद करा दिया। उसके शासनमें वर्णन करता हूँ। वह बहुत पुण्यदायक है। पहले शान्त- ब्राह्मणलोग न दान करने पाते थे न स्वाध्याय। इस चित्तसे सबपर दया करनी चाहिये। फिर हृदयसे- प्रकार धर्मका सर्वथा लोप हो गया और सब ओर महान् मनके शुद्ध भावसे चराचरस्वरूप एकमात्र जिनकी पाप छा गया । वेन अपने पिता अङ्गके मना करनेपर भी आराधना करनी चाहिये। उन्हींको नमस्कार करना उचित उनकी आज्ञाके विपरीत ही आचरण करता था। वह है। नृपश्रेष्ठ वेन ! माता-पिताके चरणोंमें भी कभी दुरात्मा न पिताके चरणोंमें प्रणाम करता था न माताके। मस्तक नहीं झुकाना चाहिये; फिर औरोंकी तो बात ही वह पुण्य, तीर्थ-स्नान और दान आदि भी नहीं करता क्या है?
था। उसके महायशस्वी पिताने अपने भाव और वेनने पूछा-ये ब्राह्मण तथा आचार्यगण गङ्गा स्वरूपपर बहुत कालन्तक विचार किया, किन्तु किसी आदि नदियोंको पुण्यतीर्थ बतलाते हैं। इनका कहना है, तरह उनकी समझमें यह बात नहीं आयी कि वेन पापी ये तीर्थ महान् पुण्य प्रदान करनेवाले हैं। इसमें कहांतक कैसे हो गया। सत्य है, यह बतानेकी कृपा कीजिये।
- तदनन्तर एक दिन सप्तर्षि अङ्ग-कुमार वेनके पास जिन बोला-महाराज ! आकाशसे बादल एक आये और उसे आश्वासन देते हुए बोले-'वेन ! ही समय जो पानी बरसाते हैं, वह पृथ्वी और पर्वत- दुःसाहस न करो, तुम यहाँ समस्त प्रजाके रक्षक बनाये सभी स्थानोंमें गिरता है। वही बहकर नदियोंमें एकत्रित गये हो; यह सारा जगत् तुमपर ही अवलम्बित है, होता है और वहाँसे सर्वत्र जाता है। नदियाँ तो जल धर्माधर्मरूप सम्पूर्ण विश्वका भार तुम्हारे ही ऊपर है। बहानेवाली हैं ही, उनमें तीर्थ कैसा। सरोवर और अतः पाप-कर्म छोड़कर धर्मका आचरण करो।'
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
सप्तर्षियोंके यों कहने पर वेन हँसकर बोला मैं ही परम धर्म हूँ और मैं ही सनातन देवता अर्हन् हूँ। धाता,
100 are
सूतजी कहते हैं— द्विजवरो! ऋषियोंके पुण्यमय संसर्गसे, उनके साथ वार्तालाप करनेसे तथा उनके द्वारा शरीरका मन्थन होनेसे, वेनका पाप निकल गया। तत्पश्चात् उसने नर्मदाके दक्षिण तटपर रहकर तपस्या आरम्भ की। तृणविन्दु ऋषिके पापनाशक आश्रमपर निवास करते हुए वेनने काम-क्रोधसे रहित हो सौ वर्षोंसे
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
इसलिये तुम सत्यका आचरण करो। यह जैनधर्म सत्ययुग, त्रेता और द्वापरका धर्म नहीं है; कलियुगका प्रवेश होनेपर ही कुछ मनुष्य इसका आश्रय लेंगे। जैनधर्म ग्रहण करके सब मनुष्य पापले मोहित हो जायँगे वे वैदिक आचारका त्याग करके पाप बटोरेंगे। भगवान् श्रीगोविन्द सब पापोंके हरनेवाले हैं। वे ही कलियुगमें पापोंका संहार करेंगे। पापियोंके एकत्रित होनेपर म्लेच्छोंका नाश करनेके लिये साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु ही कल्किरूपमें अवतीर्ण होंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः वेन ! तुम कलियुगके व्यवहारको त्याग दो और पुण्यका आश्रय लो।
वेनने कहा- ब्राह्मणो! मैं ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हूँ, विश्वका ज्ञान मेरा ही ज्ञान है जो मेरी आज्ञाके विपरीत बर्ताव करता है, वह निश्चय ही दण्डका पात्र है।
पापबुद्धि राजा वेनको बहुत बढ़ बढ़कर बातें करते देख ब्रह्माजीके पुत्र महात्मा सप्तर्षि कुपित हो उठे। उनके शापके भयसे वेन एक बाँबीमें घुस गया; किन्तु वे ब्रह्मर्षि उस क्रूर पापीको वहाँसे बलपूर्वक पकड़ लाये और क्रोधमें भरकर राजाके बायें हाथका मन्थन करने लगे। उससे एक नीच जातिका मनुष्य पैदा हुआ, जो बहुत ही नाटा, काला और भयङ्कर था। वह निषादों और विशेषतः म्लेच्छोंका धारण-पोषण करनेवाला राजा हुआ। तत्पश्चात् ऋषियोंने दुरात्मा वेनके दाहिने हाथका मन्थन किया। उससे महात्मा राजा पृथुका जन्म हुआ, जिन्होंने वसुन्धराका दोहन किया था। उन्होंके पुण्यप्रसादसे राजा बेन धर्म और अर्थका ज्ञाता हुआ।
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रक्षक और सत्य भी मैं ही हूँ। मैं परम पुण्यमय सनातन जैनधर्म हूँ। ब्राह्मणो ! मुझ धर्मरूपी देवताका हो तुमलोग अपने कर्मोद्वारा भजन करो।'
ऋषि बोले- राजेन्द्र ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। इन सभी वर्णोंके लिये सनातन श्रुति ही परम प्रमाण है। समस्त प्राणी वैदिक आचारसे ही रहते हैं और उसीसे जीविका चलाते हैं। राजाके पुण्यसे प्रजा सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करती है और राजाके पापसे उसका नाश हो जाता है; ★ वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
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कुछ अधिक कालतक तप किया। राजा वेन निष्पाप हो गया था। अतः उसकी तपस्यासे प्रसन्न होकर शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'राजन् ! तुम मुझसे कोई उत्तम वर माँगो।'
वेनने
कहा
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- देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे
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भूमिखण्ड ]
. वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान-तीर्थ आदिका उपदेश.
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यह उत्तम वर दीजिये। मैं पिता और माताके साथ इसी भक्तिके साथ स्नान करता तथा पितरों और देवताओंका शरीरसे आपके परमपदको प्राप्त करना चाहता हूँ । देव ! पूजन करके दान देता है, जो अपनी शक्ति और प्रभावके आपके ही तेजसे आपके परमधाममें जाना चाहता हूँ। अनुसार दयाई-चित्तसे अत्र-जल, फल-फूल, वस्त्र,
भगवान् श्रीविष्णुबोले-महाभाग ! पूर्वकालमें पान, आभूषण, सुवर्ण आदि वस्तुएँ दान करता है, तुम्हारे महात्मा पिता अङ्गने भी मेरी आराधना की थी। उसका पुण्य अनन्त होता है। राजन् ! मध्याह्न और उसी समय मैंने उन्हें वरदान दिया था कि तुम अपने तीसरे पहरमें भी जो मेरे उद्देश्यसे खान-पान आदि वस्तुएँ पुण्यकर्मसे मेरे परम उत्तम धामको प्राप्त होगे। वेन ! मैं दान करता है, उसके पुण्यका भी अन्त नहीं है। अतः तुम्हें पहलेका वृत्तान्त बतला रहा हूँ। तुम्हारी माता जो अपना कल्याण चाहता है, उस पुरुषको तीनों समय सुनीथाको बाल्यकालमें सुशङ्खने कुपित होकर शाप निश्चय ही दान करना चाहिये। अपना कोई भी दिन दिया था। तदनन्तर तुम्हारा उद्धार करनेकी इच्छासे मैंने दानसे खाली नहीं जाने देना चाहिये। राजन् ! दानके ही राजा अङ्गको वरदान दिया कि 'तुम्हें सुयोग्य पुत्रकी प्रभावसे मनुष्य बहुत बड़ा बुद्धिमान, अधिक प्राप्ति होगी।' गुणवत्सल ! तुम्हारे पितासे तो मैं ऐसा कह सामर्थ्यशाली, धनाढ्य और गुणवान् होता है। यदि एक ही चुका था, इस समय तुम्हारे शरीरसे भी मै हो [पृथुके पक्ष या एक मासतक मनुष्य अत्रका दान नहीं करता तो रूपमें) प्रकट होकर लोकका पालन कर रहा हूँ। पुत्र मैं उसे भी उतने ही समयतक भूखा रखता हूँ। उत्तम दान अपना ही रूप होता है-यह श्रुति सत्य है। अतः न देनेवाला मनुष्य अपने मलका भक्षण करता है। मैं राजन् ! मेरे वरदानसे तुम्हें उत्तम गति मिलेगी। अब तुम उसके शरीरमें ऐसा रोग उत्पन्न कर देता है, जिससे उसके एकमात्र दान-धर्मका अनुष्ठान करो। दान ही सबसे श्रेष्ठ सब भोगोंका निवारण हो जाता है। जो तीनों कालोंमें धर्म है; इसलिये तुम दान दिया करो। दानसे पुण्य होता ब्राह्मणों और देवताओंको दान नहीं देता तथा स्वयं ही है, दानसे पाप नष्ट हो जाता है, उत्तम दानसे कीर्ति होती मिष्टान्न खाता है, उसने महान् पाप किया है। महाराज ! है और सुख मिलता है। जो श्रद्धायुक्त चित्तसे सुपात्र शरीरको सुखा देनेवाले उपवास आदि भयंकर प्रायश्चित्तोंके ब्राह्मणको गौ, भूमि, सोने और अन्न आदिका महादान द्वारा उसको अपने देहका शोषण करना चाहिये। देता है, वह अपने मनसे जिस-जिस वस्तुकी इच्छा नरश्रेष्ठ ! अब मैं तुम्हारे सामने नैमित्तिक करता है, वह सब मैं उसे देता हूँ।
पुण्यकालका वर्णन करता हूँ, मन लगाकर सुनो। वेनने कहा-जगन्नाथ ! मुझे दानोपयोगी महाराज ! अमावास्या, पूर्णिमा, एकादशी, संक्रान्ति, कालका लक्षण बतलाइये, साथ ही तीर्थका स्वरूप और व्यतीपात और वैधृति नामक योग तथा माघ, आषाढ़, पात्रके उत्तम लक्षणका भी वर्णन कीजिये। दानकी वैशाख और कार्तिककी पूर्णिमा, सोमवती अमावास्या, विधिको विस्तारके साथ बतलानेकी कृपा कीजिये। मेरे मन्वादि एवं युगादि तिथियाँ, गजच्छाया (आश्विन कृष्णा मनमें यह सब सुननेकी बड़ी श्रद्धा है।
त्रयोदशी) तथा पिताकी क्षयाह तिथि दानके नैमित्तिक भगवान् श्रीविष्णु बोले-राजन् ! मैं दानका काल बताये गये हैं। नृपश्रेष्ठ ! जो मेरे उद्देश्यसे समय बताता है। महाराज ! नित्य, नैमित्तिक और भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको दान देता है, उसे मैं निश्चयपूर्वक काम्य-ये दानकालके तीन भेद हैं। चौथा भेद प्रायिक महान् सुख और स्वर्ग, मोक्ष आदि बहुत कुछ प्रदान (मृत्यु) सम्बन्धी कहलाता है। भूपाल ! मेरे अंशभूत करता हूँ। सूर्यको उदय होते देख जो जलमात्र भी अर्पण करता है, अब दानका फल देनेवाले काम्य-कालका वर्णन उसके पुण्यवर्द्धक नित्यकर्मकी कहाँतक प्रशंसा की करता हूँ। समस्त व्रतों और देवता आदिके निमित्त जब जाय। उस उत्तम बेलाके प्राप्त होनेपर जो श्रद्धा और सकामभावसे दान दिया जाता है, उसे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
दानका काम्यकाल बताया है। राजन्! मैं तुमसे आभ्युदयिक कालका भी वर्णन करता हूँ। सम्पूर्ण शुभकर्मोका अवसर, उत्तम वैवाहिक उत्सव, नवजात पुत्रके जातकर्म आदि संस्कार तथा चूड़ाकर्म और उपनयन आदिका समय, मन्दिर, ध्वजा, देवता, बावली, कुआं, सरोवर और बगीचे आदिकी प्रतिष्ठाका शुभ अवसर – इन सबको आभ्युदयिक काल कहा गया है। उस समय जो दान दिया जाता है, वह सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला होता है।
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नृपश्रेष्ठ! अब मैं पाप और पीड़ाका निवारण करनेवाले अन्य कालका वर्णन करता हूँ। मृत्युकाल प्राप्त होनेपर अपने शरीरके नाशको समझकर दान देना चाहिये। वह दान यमलोकके मार्गमें सुख पहुँचानेवाला होता है। महाराज ! नित्य, नैमित्तिक और काम्याभ्युदयिक कालसे भिन्न अन्त्यकाल ( मृत्युसम्बन्धी काल ) का तुम्हें परिचय दिया गया। ये सभी काल अपने कर्मोंका फल देनेवाले बताये गये हैं।
राजन् ! अब मैं तुम्हें तीर्थका लक्षण बताता हूँ। उत्तम तीर्थोंमें ये गङ्गाजी बड़ी पावन जान पड़ती हैं इनके सिवा सरस्वती, नर्मदा, यमुना, तापी (ताप्ती), चर्मण्वती सरयू घाघरा और वेणा नदी भी पुण्यमयी तथा पापोंका नाश करनेवाली हैं। कावेरी, कपिला, विशाला, गोदावरी और तुङ्गभद्रा – ये भी जगत्को पवित्र करनेवाली मानी गयी हैं। भीमरथी नदी सदा पापोंको भय देनेवाली बतायी गयी है। वेदिका, कृष्णगङ्गा तथा अन्यान्य श्रेष्ठ नदियाँ भी उत्तम हैं। पुण्यपर्व के अवसरपर स्नान करनेके लिये इनसे सम्बद्ध अनेक तीर्थ हैं। गाँव अथवा जंगलमें जहाँ भी नदियाँ हों, सर्वत्र ही वे पावन मानी गयी हैं। अतः वहाँ जाकर स्नान, दान आदि कर्म करने चाहिये। यदि नदियोंके तीर्थका नाम ज्ञात न हो तो उसका 'विष्णुतीर्थ' नाम रख लेना चाहिये। सभी तीर्थोंमें मैं ही देवता हूँ। तीर्थ भी मुझसे भिन्न नहीं हैं यह निश्चित बात है जो साधक तीर्थ-देवताओंके पास जाकर मेरे ही नामका उच्चारण करता है, उसे मेरे नामके अनुसार ही पुण्य फल प्राप्त होता है। नृपनन्दन । अज्ञात
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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तीर्थों और देवताओंकी संनिधिमें स्नान-दान आदि करते हुए मेरे ही नामका उच्चारण करना चाहिये। विधाताने तीर्थोका नाम ही ऐसा रखा है।
भूमण्डलपर सात सिन्धु परम पवित्र और सर्वत्र स्थित हैं। जहाँ कहीं भी उत्तम तीर्थ प्राप्त हो, वहाँ स्नान-दान आदि कर्म करना चाहिये। उत्तम तीर्थोक प्रभावसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। राजन् ! मानस आदि सरोवर भी पावन तीर्थ बताये गये है तथा जो छोटी-छोटी नदियाँ हैं, उनमें भी तीर्थ प्रतिष्ठित है। कुएँको छोड़कर जितने भी खोदे हुए जलाशय हैं, उनमें तीर्थकी प्रतिष्ठा है। भूतलपर जो मेरु आदि पर्वत हैं, वे भी तीर्थरूप हैं। यज्ञभूमि, यज्ञ और अग्निहोत्रमें भी तीर्थकी प्रतिष्ठा है। शुद्ध श्राद्धभूमि, देवमन्दिर, होमशाला, वैदिक स्वाध्यायमन्दिर, घरका पवित्र स्थान और गोशाला - ये सभी उत्तम तीर्थ हैं। जहाँ सोमयाजी ब्राह्मण निवास करता हो, वहाँ भी तीर्थकी प्रतिष्ठा है। जहाँ पवित्र बगीचे हों, जहाँ पीपल, ब्रह्मवृक्ष (पाकर ) और बरगदका वृक्ष हो तथा जहाँ अन्य जंगली वृक्षोंका समुदाय हो, उन सब स्थानोंपर तीर्थका निवास है। इस प्रकार इन तीर्थोका वर्णन किया गया। जहाँ पिता और माता रहते हैं, जहाँ पुराणोंका पाठ होता है, जहाँ गुरुका निवास है तथा जहाँ सती स्त्री रहती है वह स्थान निस्संदेह तीर्थ हैं। जहाँ श्रेष्ठ पिता और सुयोग्य पुत्र निवास करते हैं, वहाँ भी तीर्थ है। ये सभी स्थान तीर्थ माने गये हैं।
महाप्राज्ञ ! अब तुम दानके उत्तम पात्रका लक्षण सुनो दान श्रद्धापूर्वक देना चाहिये। उत्तम कुलमें उत्पन्न, वेदाध्ययनमें तत्पर, शान्त, जितेन्द्रिय, दयालु, शुद्ध, बुद्धिमान् ज्ञानवान्, देवपूजापरायण, तपस्वी, विष्णुभक्त, ज्ञानी, धर्मज्ञ, सुशील और पाखण्डियोंके संगसे रहित ब्राह्मण ही दानका श्रेष्ठ पात्र है। ऐसे पात्रको पाकर अवश्य दान देना चाहिये। अब मैं दूसरे दान पात्रोको बताता हूँ। उपर्युक्त गुणोंसे युक्त बहिनके पुत्र ( भानजे) को तथा पुत्रीके पुत्र ( दौहित्र) को भी दानका उत्तम पात्र समझो। इन्हीं भावोंसे युक्त दामाद, गुरु और यशकी
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भूमिखण्ड ] . श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आध्युदयिक आदि दानोका वर्णन, सती सुकलाकी कथा .
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दीक्षा लेनेवाला पुरुष भी उत्तम पात्र है। नरश्रेष्ठ ! ये दान हो, वह श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करनेयोग्य कदापि देनेयोग्य श्रेष्ठ पात्र बताये गये हैं। जो वेदोक्त आचारसे नहीं है। श्रद्धापूर्वक उत्तम कालमें, उत्तम तीर्थ में और युक्त हो, वह भी दान-पात्र है। धूर्त और काने ब्राह्मणको उत्तम पात्रको दान देनेसे उत्तम फल मिलता है। राजन् ! दान न दे। जिसकी स्त्री अन्याययुक्त दुष्कर्ममें प्रवृत्त हो, संसारमें प्राणियोंके लिये श्रद्धाके समान पुण्य, श्रद्धाके जो स्त्रीके वशीभूत रहता हो, उसे दान देना निषिद्ध है। समान सुख और श्रद्धाके समान तीर्थ नहीं है।* चोरको भी दान नहीं देना चाहिये। उसे दान देनेवाला नृपश्रेष्ठ ! श्रद्धा-भावसे युक्त होकर मनुष्य पहले मेरा मनुष्य तत्काल चोरके समान हो जाता है। अत्यन्त जड स्मरण करे, उसके बाद सुपात्रके हाथमें द्रव्यका दान दे। और विशेषतः शठ ब्राह्मणको भी दान देना उचित नहीं इस प्रकार विधिवत् दान करनेका जो अनन्त फल है, है। वेद-शास्त्रका ज्ञाता होनेपर भी जो सदाचारसे रहित उसे मनुष्य पा जाता है और मेरी कृपासे सुखी होता है।
श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दानोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके
प्रसङ्गमें सती सुकलाकी कथा
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-नृपश्रेष्ठ ! अब मैं धाममें निवास करता है। पुनः नैमित्तिक दानका वर्णन करता हूँ। जो सत्पात्रको अब आभ्युदयिक दानका वर्णन करता हूँ। हाथी, घोड़ा और रथ दान करता है, वह भृत्योंसहित नृपश्रेष्ठ ! यज्ञ आदिमें जो दान दिया जाता है, वह यदि पुण्यमय प्रदेशका राजा होता है। राजा होनेके साथ ही शुद्धभावसे दिया गया हो तो उससे मनुष्यकी बुद्धि वह धर्मात्मा, विवेकी, बलवान्, उत्तम बुद्धिसे युक्त, बढ़ती है तथा दाताको कभी दुःख नहीं उठाना पड़ता। सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अजेय और महान् तेजस्वी होता वह जीवनभर सुख भोगता है और मृत्युके पश्चात् दिव्य है। महाराज ! जो महान् पर्व आनेपर भूमिदान अथवा गतिको प्राप्त होकर इन्द्रलोकके भोगोंका अनुभव करता गोदान करता है, वह सब भोगोंका अधीश्वर होता है। जो है। इतना ही नहीं, वह हजार कल्पोंतकके लिये अपने पर्व आनेपर तीर्थमे गुप्त दान देता है, उसे शीघ्र ही अक्षय कुलको स्वर्गमें ले जाता है। अब दूसरे प्रकारका दान निधियोंकी प्राप्ति होती है। जो तीर्थोमें महापर्वके प्राप्त बताता हूँ। शरीरको बुढ़ापेसे पीड़ित और क्षीण जानकर होनेपर ब्राह्मणको सुन्दर वस्त्र और सुवर्णका महादान मनुष्यको [अपने कल्याणके लिये] दान अवश्य करना देता है, उसके बहुत-से सद्गुणी और वेदोंके पारगामी पुत्र चाहिये, उसे किसीकी भी आशा नहीं रखनी चाहिये। उत्पन्न होते हैं। वे सभी आयुष्मान, पुत्रवान्, यशस्वी, 'मेरे मर जानेपर ये मेरे पुत्र तथा अन्यान्य पुण्यात्मा, यज्ञ करनेवाले तथा तत्त्वज्ञानी होते हैं। स्वजन-सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव कैसे रहेंगे; मेरे बिना मेरे महामते! दान करनेवालेको सुख, पुण्य एवं घनकी मित्रोंकी क्या दशा होगी?' इत्यादि बातें सोचकर उनके प्राप्ति होती है। महाराज ! कपिला गौका दान करनेवाले मोहसे मुग्ध हुआ मनुष्य कुछ भी दान नहीं कर पाता। पुरुष महान् सुख भोगते हैं; ब्रह्माकी आयुपर्यन्त वे भी ऐसा जीव यमलोकके मार्गमें पहुंचकर बहुत दुःखी हो ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं। सुशील ब्राह्मणको जाता है। वह भूख-प्याससे व्याकुल तथा नाना प्रकारके वस्त्रसहित सुवर्णका दान देकर मनुष्य अनिके समान दुःखोंसे पीड़ित रहता है । संसारमें कोई भी किसीका नहीं तेजस्वी होता है और अपनी इच्छाके अनुसार वैकुण्ठ- है; अतः जीते-जी स्वयं ही अपने लिये दान करना
* नास्ति श्रद्धासम पुण्यं नास्ति श्रद्धासमं सुखम् । नास्ति श्रद्धासमं तीर्थ संसारे प्राणिनां नृप । (३९।७८)
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. अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पञ्चपुराण
चाहिये । अन्न, जल, सोना, बछड़ेसहित उत्तम गौ, भूमि सुकलाने कहा-प्राणनाथ ! मैं आपकी तथा नाना प्रकारके फल दान करने चाहिये। यदि धर्मपत्नी हैं, अतः आपके साथ रहकर पुण्य करनेका मेरा अधिक शुभ फलकी इच्छा हो तो पैरोंको आराम अधिकार है। मैं आपके मार्गपर चलती हूँ। इस देनेवाले जूते भी दान देने चाहिये।
सद्भावके कारण मैं कभी आपको अपनेसे अलग नहीं - वेनने पूछा-भगवन् ! पुत्र, पत्नी, माता, पिता कर सकती। आपकी छायाका आश्रय लेकर मैं
और गुरु-ये सब तीर्थ कैसे हैं-इस विषयका पातिव्रत्यके उत्तम व्रतका पालन करूंगी, जो नारियोंके विस्तारके साथ वर्णन कीजिये।
पापका नाशक और उन्हें सद्गति प्रदान करनेवाला है। जो . भगवान् श्रीविष्णु बोले-[राजन् ! पहले इस स्त्री पतिपरायणा होती है, वह संसारमें पुण्यमयी बातको सुनो कि पली कैसे तीर्थ है।] काशी नामकी एक कहलाती है। युवतियोंके लिये पतिके सिवा दूसरा कोई बहुत बड़ी पुरी है, जो गङ्गासे सटकर बसी होनेके कारण ऐसा तीर्थ नहीं है, जो इस लोकमें सुखद और परलोकमें बहुत सुन्दर दिखायी देती है। उसमें एक वैश्य रहते थे, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला हो। साधुश्रेष्ठ ! जिनका नाम था कृकल । उनकी पत्नी परम साध्वी तथा स्वामीके दाहिने चरणको प्रयाग समझिये और बायेंको उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी। वह सदा धर्माचरणमें पुष्कर। जो स्त्री ऐसा मानती है तथा इसी भावनाके रत और पतिव्रता थी। उसका नाम था सुकला। अनुसार पतिके चरणोदकसे स्नान करती है, उसे उन सुकलाके अङ्ग पवित्र थे। वह सुयोग्य पुत्रोंकी जननी, तीर्थोंमें स्नान करनेका पुण्य प्राप्त होता है। इसमें तनिक सुन्दरी, मङ्गलमयी, सत्यवादिनी, शुभा और शुद्ध भी सन्देह नहीं कि स्त्रियोंके लिये पतिके चरणोदकका स्वभाववाली थी। उसकी आकृति देखनेमें बड़ी मनोहर अभिषेक प्रयाग और पुष्करतीर्थमें स्नान करनेके समान थी। व्रतोंका पालन करना उसे अत्यन्त प्रिय था। इस है। पति समस्त तीर्थोके समान है। पति सम्पूर्ण धर्मोका प्रकार वह मनोहर मुसकानवाली सुन्दरी अनेक गुणोंसे स्वरूप है। यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले पुरुषको यज्ञोंके युक्त थी। वे वैश्य भी उत्तम वक्ता, धर्मज्ञ, अनुष्ठानसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य साध्वी स्त्री विवेक-सम्पन्न और गुणी थे। वैदिक तथा पौराणिक अपने पतिकी पूजा करके तत्काल प्राप्त कर लेती है।* धर्मोके श्रवणमें उनकी बड़ी लगन थी। उन्होंने अतः प्रियतम ! मैं भी आपकी सेवा करती हुई तीर्थोमें तीर्थयात्राके प्रसङ्गमें यह बात सुनी थी कि 'तीर्थोंका चलूंगी और आपकी ही छायाका अनुसरण करती हुई सेवन यहुत पुण्यदायक है, वहाँ जानेसे पुण्यके साथ ही लौट आऊँगी। मनुष्यका कल्याण भी होता है।' इस बातपर उनके मनमें कृकलने अपनी पत्नीके रूप, शील, गुण भक्ति श्रद्धा तो थी ही, ब्राह्मणों और व्यापारियोंका साथ भी और सुकुमारता देखकर बारंबार उसपर विचार कियामिल गया। इससे वे धर्मके मार्गपर चल दिये। उन्हें 'यदि मैं अपनी पलीको साथ ले लूं तो मैं तो अत्यन्त जाते देख उनकी पतिव्रता पत्नी पतिके स्नेहसे मुग्ध दुःखदायो दुर्गम मार्गपर भी चल सकूँगा, किन्तु वहाँ होकर बोली।
सर्दी और धूपके कारण इस बेचारीका तो हुलिया ही
* सव्यं पाद स्वभर्तुच प्रयाग विद्धि सत्तम । वामं च पुष्कर तस्य या नारी परिकल्पयेत्॥
तस्य पादोदकनानात्तत्पुण्य परिजायते । प्रयागपुष्करसमै साने स्त्रीणां न संशयः ॥ सर्वतीर्थसमो भर्ता सर्वधर्ममयः पतिः । मखानां यजनात् पुण्यं यद् वै भवति दीक्षिते। तत् पुण्यं समवाप्रोति भर्तुचैव हि साम्प्रतम् ।।
(४१।१३-१५)
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भूमिखण्ड ] . श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दानोंका वर्णन, सती सुकलाकी कथा .
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बिगड़ जायगा। रास्तेमें कठोर पत्थरोंसे ठोकर खाकर भी छोड़ दूंगी। जबतक मेरे स्वामीका पुनः यहाँ आगमन इसके कोमल चरणोंको बड़ी पीड़ा होगी। उस अवस्थामें नहीं होगा, तबतक एक समय भोजन करूंगी अथवा इसका चलना असम्भव हो जायगा। भूख-प्याससे जब उपवास करके रह जाऊंगी।' इसके शरीरको कष्ट पहुँचेगा तो न जाने इसकी क्या दशा इस प्रकार नियम लेकर सुकला बड़े दुःखसे दिन होगी। यह सदा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय है तथा बिताने लगी। उसने एक वेणी धारण करना आरम्भ कर नित्य-निरन्तर मेरे गार्हस्थ्यधर्मका यही एक आधार है। दिया। एक ही अंगियासे वह अपने शरीरको ढकने यह बाला यदि मर गयी तो मेरा तो सर्वनाश ही हो लगी। उसका वेष मलिन हो गया। वह एक ही मलिन जायगा। यही मेरे जीवनका अवलम्बन है, यही मेरे वस्त्र धारण करके रहती और अत्यन्त दुःखित हो लंबी प्राणोंकी अधीश्वरी है। अतः मैं इसे तीर्थोंमें नहीं ले साँस खींचती हुई हाहाकार किया करती थी। विरहानिसे जाऊँगा, अकेला ही यात्रा करूंगा।'
दग्ध होनेके कारण उसका शरीर काला पड़ गया। उसपर - यह सोचकर उन्होंने अपनी पत्नीसे कहा-मैं तेरा मैल जम गया। इस तरह दुःखमय आचारका पालन कभी त्याग नहीं करूंगा। पता दिये बिना ही वे चुपकेसे करनेसे वह अत्यन्त दुबली हो गयी । निरन्तर पतिके लिये साथियोंके साथ चले गये। महाभाग कृकल बड़े व्याकुल रहने लगी। दिन-रात रोती रहती थी। रातको उसे पुण्यात्मा थे; उनके चले जानेपर सुन्दरी सुकला कभी नींद नहीं आती थी और न भूख ही लगती थी। देवाराधनको बेलामें पुण्यमय प्रभातके समय जब सोकर सुकलाकी यह अवस्था देख उसकी सहेलियोने उठी, तब उसने स्वामीको घरमें नहीं देखा। फिर तो वह आकर पूछा-'सखी सुकला ! तुम इस समय रो क्यों हड़बड़ाकर उठ बैठी और अत्यन्त शोकसे पीड़ित होकर रही हो? सुमुखि ! हमें अपने दुःखका कारण बताओ।' रोने लगी। वह बाला अपने पतिके साथियोंके पास सुकला बोली-सखियो! मेरे धर्मपरायण जा-जाकर पूछने लगी- 'महाभागगण ! आपलोग मेरे स्वामी मुझे छोड़कर धर्म कमाने गये हैं। मैं निदोष, बन्धु हैं, मेरे प्राणनाथ कृकल मुझे छोड़कर कहीं चले साध्वी, सदाचार-परायणा और पतिव्रता हूँ। फिर भी मेरे गये हैं; यदि आपने उन्हें देखा हो तो बताइये। जिन प्राणाधार मेरा त्याग करके तीर्थ-यात्रा कर रहे हैं; इसीसे महात्माओंने मेरे पुण्यात्मा स्वामीको देखा हो, वे मुझे मैं दुःखी हूँ। उनके वियोगसे मुझे बड़ी पीड़ा हो रही है। बतानेकी कृपा करें।' उसकी बात सुनकर जानकार सखी ! प्राण त्याग देना अच्छा है, किन्तु प्राणाधार लोगोंने उससे परम बुद्धिमान् कृकलके विषयमें इस स्वामीका त्यागना कदापि अच्छा नहीं है। प्रतिदिनका यह प्रकार कहा-'शुभे! तुम्हारे स्वामी कृकल धार्मिक दारुण वियोग अब मुझसे नहीं सहा जाता। सखियो ! यात्राके प्रसङ्गसे तीर्थसेवनके लिये गये है। तुम शोक यही मेरे दुःखका कारण है। नित्यके विरहसे ही मैं कष्ट क्यों करती हो? भद्रे ! वे बड़े-बड़े तीर्थोकी यात्रा पूरी पा रही हैं। करके फिर लौट आयेंगे।'
सखियोंने कहा-बहिन! तुम्हारे पति राजन् ! विश्वासी पुरुषोंके द्वारा इस प्रकार विश्वास तीर्थ यात्राके लिये गये हैं। यात्रा पूरी होनेपर वे घर लौट दिलाये जानेपर सुकला पुनः अपने घरमें गयी और करुण आयेंगे। तुम व्यर्थ ही शोक कर रही हो। वृथा ही अपने स्वरसे फूट-फूटकर रोने लगी। वह पतिपरायणा नारी थी। शरीरको सुखा रही हो तथा अकारण ही भोगोंका परित्याग उसने यह निश्चय कर लिया कि 'जबतक मेरे स्वामी कर रही हो। अरी ! मौजसे खाओ-पीयो; क्यों कष्ट लौटकर नहीं आयेंगे, तबतक मैं भूमिपर चटाई बिछाकर उठाती हो। कौन किसका स्वामी, कौन किसके पुत्र और सोऊँगी। घी, तेल और दूध-दी नहीं खाऊँगी। पान और कौन किसके सगे-सम्बन्धी हैं? संसारमें कोई किसीका नमकका भी त्याग कर दूंगी। गुड़ आदि मीठी वस्तुओंको नहीं है। किसीके साथ भी नित्य सम्बन्ध नहीं है। बाले!
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. अर्चयस्व बीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
खाना-पीना और मौज उड़ाना, यही इस संसारका फल तेज, फल, यश, कीर्ति और उत्तम गुण प्राप्त करती है। है। मनुष्यके मर जानेपर कौन इस फलका उपभोग पतिकी प्रसन्नतासे उसे सब कुछ मिल जाता है, इसमें करता है और कौन उसे देखने आता है।
तनिक भी सन्देह नहीं है । जो स्त्री पतिके रहते हुए उसकी सुकला बोली-सखियो ! तुमलोगोंने जो बात सेवाको छोड़कर दूसरे किसी धर्मका अनुष्ठान करती है, कही है, वह वेदोंको मान्य नहीं है। जो नारी अपने उसका वह कार्य निष्फल होता है तथा लोकमें वह स्वामीसे पृथक् होकर सदा अकेली रहती है, उसे पापिनी व्यभिचारिणी कही जाती है।* नारियोंका यौवन, रूप समझा जाता है। श्रेष्ठ पुरुष उसका आदर नहीं करते। और जन्म-सब कुछ पतिके लिये होते हैं; इस वेदोंमें सदा यही बात देखी गयी है कि पतिके साथ भूमण्डलमें नारीकी प्रत्येक वस्तु उसके पतिकी नारीका सम्बन्ध पुण्यके संसर्गसे ही होता है और किसी आवश्यकता-पूर्तिका ही साधन है। जब स्त्री पतिहीन हो कारणसे नहीं। [अतः उसे सदा पतिके ही साथ रहना जाती है, तब उसे भूतलपर सुख, रूप, यश, कीर्ति और चाहिये।] शास्त्रोका वचन है कि पति ही सदा नारियोंके पुत्र कहाँ मिलते हैं। वह तो संसारमें परम दुर्भाग्य और लिये तीर्थ है। इसलिये स्त्रीको उचित है कि वह सच्चे महान् दुःख भोगती है। पापका भोग ही उसके हिस्से में भावसे पति-सेवामें प्रवृत्त होकर प्रतिदिन मन, वाणी, पड़ता है। उसे सदा दुःखमय आचारका पालन करना शरीर और क्रियाद्वारा पतिका ही आवाहन करे और सदा पड़ता है। पतिके संतुष्ट रहनेपर समस्त देवता स्त्रीसे संतुष्ट पतिका ही पूजन करे। पति स्त्रीका दक्षिण अङ्ग है। रहते हैं। ऋषि और मनुष्य भी प्रसन्न रहते हैं। राजन् ! उसका वाम पार्श्व ही पत्नीके लिये महान् तीर्थ है । गृहस्थ पति ही स्त्रीका स्वामी, पति ही गुरु, पति ही देवताओंनारी पतिके वाम भागमें बैठकर जो दान-पुण्य और यज्ञ सहित उसका इष्टदेव और पति ही तीर्थ एवं पुण्य है। करती है, उसका बहुत बड़ा फल बताया गया है; पतिके बाहर चले जानेपर यदि स्त्री पार करती है तो काशीको गङ्गा, पुष्कर तीर्थ, द्वारकापुरी, उज्जैन तथा उसका रूप, वर्ण-सब कुछ भाररूप हो जाता है। केदार नामसे प्रसिद्ध महादेवजीके तीर्थमे स्नान करनेसे पृथ्वीपर लोग उसे देखकर कहते हैं कि यह निश्चय ही भी वैसा फल नहीं मिल सकता। यदि स्त्री अपने पतिको व्यभिचारिणी है, इसलिये किसी भी पलीको अपने साथ लिये बिना ही कोई यज्ञ करती है, तो उसे उसका सनातन धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये । सखियो ! इस फल नहीं मिलता। पतिव्रता स्त्री उत्तम सुख, पुत्रका विषयमें एक पुराना इतिहास सुना जाता है, जिसमें रानी सौभाग्य, सान, पान, वस्त्र, आभूषण, सौभाग्य, रूप, सुदेवाके पापनाशक एवं पवित्र चरित्रका वर्णन है।
* स्वभर्तुर्वा पृथग्भूता तिष्ठत्येका सदैव हि । पापरूपा भवेत्रारी तो न मन्यन्ति सज्जनाः ॥
भतुंः साद्धं सदा सख्यो दृष्टो वेदेषु सर्वदा । सम्बन्यः पुण्यसंसर्गाज्जायते नान्यकारणात् ॥ नारीणां च सदा तीर्थ भर्ती शालेषु पठ्यते । यमेवावाहयेत्रित्य वाचा कायेन कर्मभिः । मनसा पूजयेन्नित्यं सत्यभावेन तत्परा । एतत्याचे महातीर्थ दक्षिणाझं सदैव हि॥ तमाश्रित्य यदा नारी गृहस्था परिवर्तते । यजते दानपुण्यैश्च तस्य दानस्य यत्फलम्॥ वाराणस्यां च गायां यत्फलं न च पुष्करे। द्वारकायां न चावत्या केदारे शशिभूषणे॥ लभते नैव सा नारी यजमाना सदा किल । तादृशं फलमेवं सा न प्राप्नोति कदा सखि ॥ . सुसुख पुत्रसौभाग्य स्नान दानं च भूषणम्। वस्त्रालंकारसौभाग्य रूपं तेजः फलं सदा ।। यशः कीर्तिमवाप्नोति गुणं च वरवर्णिनि । भर्तुः प्रसादाच सर्व लभते नात्र संशयः ॥ विद्यमाने यदा कान्ते अन्यधर्म करोति या। निष्फलं जायते तस्याः पुंथली परिकथ्यते ॥ (४१।६०-६९) * भर्ता नायो गुरुर्भा देवता दैवतैः सह । भर्ता तीर्थच पुण्यश्च नारीणां नृपनन्दन ॥ (४१।७५)
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भूमिखण्ड ] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर-शूकरीका उपाख्यान सुनाना • २६१
सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
मिली
सखियोंने पूछा- महाभागे ! ये रानी सुदेवा कौन थीं? उनका आचार-विचार कैसा था ? यह हमें बताओ ।
सुकला बोली- सखियो ! पहलेकी बात है, अयोध्यापुरीमें मनुपुत्र महाराज इक्ष्वाकु राज्य करते थे। वे धर्मके तत्त्वज्ञ, परम सौभाग्यशाली, सब धर्मोक अनुष्ठानमें रत, सर्वज्ञ और देवता तथा ब्राह्मणोंके पुजारी थे। काशीके राजा वीरवर महात्मा देवराजकी सदाचारपरायणा कन्या सुदेवाके साथ उन्होंने विवाह किया था। सुदेवा सत्यव्रतके पालनमें तत्पर रहती थीं। पुण्यात्मा राजा इक्ष्वाकु उनके साथ अनेक प्रकारके उत्तम पुण्य और यज्ञ किया करते थे।
एक दिन महाराज अपनी रानीके साथ गङ्गाके तटवर्ती वनमें गये और वहाँ शिकार खेलने लगे। उन्होंने बहुत-से सिंहों और शूकरोंको मारा। वे शिकारमें लगे ही हुए थे कि इतनेमें उनके सामने एक बहुत बड़ा सूअर आ निकला उसके साथ झुंड के झुंड सूअर थे। वह अपने पुत्र-पौत्रोंसे घिरा था। उसकी प्रियतमा शूकरी भी उसके बगलमें मौजूद थी । उस समय सूअरने राजाको देखकर अपने पुत्रों, पौत्रों तथा पत्नीसे कहा- 'प्रिये! कोसलदेशके वीर सम्राट् महातेजस्वी इक्ष्वाकु यहाँ शिकार खेलनेके लिये पधारे हैं। उनके साथ बहुत से कुत्ते और व्याध हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये मुझपर भी प्रहार करेंगे। महाराज इक्ष्वाकु बड़े पुण्यात्मा हैं, ये राजाओंके भी राजा और समस्त विश्वके अधिपति हैं प्रिये ! मैं इन महात्माके साथ रणभूमिमें पुरुषार्थ और पराक्रम दिखाता हुआ युद्ध करूंगा। यदि मैंने अपने तेजसे इन्हें जीत लिया तो पृथ्वीपर अनुपम कीर्ति भोगूँगा और यदि वीरवर महाराजके हाथसे मैं ही युद्धमें मारा गया तो भगवान् श्रीविष्णुके लोकमें जाऊंगा। न जाने पूर्वजन्ममें मैंने कौन-सा पाप किया था, जिससे सूअरकी योनिमें मुझे आना पड़ा। आज मैं महाराजके अत्यन्त
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भयंकर, पैने और तेज धारवाले सैकड़ों वाणोंकी जलधारासे अपने पूर्वसचित घोर पातकको धो डालूँगा । तुम मेरा मोह छोड़ दो और इन पुत्रों पौत्रों तथा श्रेष्ठ कन्याको और बाल-वृद्धसहित समूचे कुटुम्बको साथ लेकर पर्वतकी कन्दरामें चली जाओ। इस समय मेरा स्नेह त्यागकर इन बालकोंकी रक्षा करो।'
शूकरी बोली - नाथ! मेरे बच्चे तुम्हारे ही बलसे पर्वतपर गर्जना करते हुए विचरते हैं। तुम्हारे तेजसे ही निर्भय होकर यहाँ कोमल मूल फलोंका आहार करते हैं। महाभाग ! बीहड़ वनोंमें, झाड़ियोंमें, पर्वतोंपर और गुफाओंमें तथा यहाँ भी जो ये सिंहों और मनुष्योंके तीव्र भयकी परवा नहीं करते, उसका यही कारण है कि ये तुम्हारे तेजसे सुरक्षित हैं। तुम्हारे त्याग देनेपर मेरे सभी बच्चे दीन, असहाय और अचेत हो जायँगे। [तुमसे अलग रहनेमें मेरी भी शोभा नहीं है।] उत्तम सोनेके बने हुए दिव्य आभूषणों, रत्नमय उपकरणों तथा सुन्दर वस्त्रोंसे विभूषित होकर और पिता, माता, भाई, सास, ससुर तथा अन्य सम्बन्धियोंसे आदर पाकर भी पतिहीना स्त्री शोभा नहीं पाती। जैसे आचारके बिना मनुष्य, ज्ञानके बिना संन्यासी तथा गुप्त मन्त्रणाके बिना राज्यकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार तुम्हारे बिना इस यूथकी शोभा नहीं हो सकती। प्रिय ! प्राणेश्वर! तुम्हारे बिना मैं अपने प्राण नहीं रख सकती। महामते। मैं सच कहती हूँ तुम्हारे साथ यदि मुझे नरकमें भी निवास करना पड़े तो उसे सहर्ष स्वीकार करूँगी। यूथपते ! हम दोनों ही अपने पुत्र-पौत्रोसहित इस उत्तम यूथको लेकर किसी पर्वतकी दुर्गम कन्दरामें घुस जायें, यही अच्छा है। तुम जीवनकी आशा छोड़कर मरनेके लिये जा रहे हो; बताओ, इसमें तुम्हें क्या लाभ दिखायी देता है ?
सूअर बोला – प्रिये ! तुम वीरोंके उत्तम धर्मको नहीं जानती सुनो, मैं इस समय तुम्हें वही बताता हूँ। यदि योद्धा शत्रुके प्रार्थना करने या ललकारनेपर भी
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२६२
SHIVIC
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अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
TRUM
काम, लोभ, भय अथवा मोहके कारण उसे युद्धका अवसर नहीं देता, वह एक हजार युगोंतक कुम्भीपाक नामक नरक में निवास करता है। वीर पुरुष युद्धमें शत्रुका सामना करके यदि उसे जीत लेता है तो यश और कीर्तिका उपभोग करता है; अथवा निर्भयतापूर्वक लड़ता हुआ यदि स्वयं ही मारा जाता है, तो वीरलोकको प्राप्त हो दिव्य भोगोंका उपभोग करता है। प्रिये ! बीस हजार वर्णेतिक वह इस सुखका अनुभव करता है। मनुपुत्र राजा इक्ष्वाकु यहाँ पधारे हैं, जो स्वयं बड़े वीर हैं। ये मुझसे युद्ध चाहें तो मुझे अवश्य ही इन्हें युद्धका अवसर देना चाहिये। शुभे ! महाराज युद्धके अतिथि होकर आये हैं और अतिथि सनातन श्रीविष्णुका स्वरूप होता है; अतः युद्धरूपसे इनका सत्कार करना मेरा आवश्यक कर्तव्य है।
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शूकरी बोली- प्राणनाथ! यदि आप महात्मा राजाको युद्धका अवसर प्रदान करेंगे तो मैं भी आपके साथ रहकर आपका पराक्रम देखूँगी ।
यों कहकर शूकरीने तुरंत अपने प्यारे पुत्रोंको बुलाया और कहा - 'बच्चो ! मेरी बात सुनो; युद्धभूमिमें सनातन विष्णुरूप अतिथि पधारे हैं, उनके सत्कारके लिये मेरे स्वामी जायँगे; इनके साथ मुझे भी वहाँ जाना चाहिये। तुम्हारी रक्षा करनेवाले प्राणनाथ जबतक यहाँ उपस्थित हैं, तभीतक तुम दूरके पर्वतकी किसी दुर्गम गुफायें चले जाओ । पुत्रो ! मनुपुत्र इक्ष्वाकु बड़े बलवान् और दुर्दमनीय राजा हैं; ये हमलोगोंके लिये कालस्वरूप हैं, सबका संहार कर डालेंगे। अतः तुम दूर भाग जाओ।
पुत्रोंने कहा—जो माता-पिताको [संकटमें] छोड़कर जाता है, वह पापात्मा है, उसे महारौद्र एवं अत्यन्त घोर नरकमें गिरना पड़ता है, यह उसके लिये अनिवार्य गति है। जो निर्दयी अपनी माताके पवित्र दूधको पीकर परिपुष्ट होता है और माँ-बापको [विपत्तिमें] छोड़कर चल देता है, वह कीड़ों और दुर्गन्धसे परिपूर्ण नरकमें पड़कर सदा पीबका भोजन करता है। इसलिये माँ हमलोग पिताको और तुम्हें
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
यहाँ छोड़कर नहीं जायेंगे।
ऐसा निश्चय करके समस्त शूकर मोर्चा बाँधकर खड़े हो गये। वे सभी बल और तेजसे सम्पन्न थे ।
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उधर अयोध्याके वीर महाराज मनुकुमार इक्ष्वाकु अपनी सुन्दरी भार्या तथा चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आखेटके लिये चले। उनके आगे-आगे व्याध, कुत्ते और तेज चलनेवाले वीर योद्धा थे । वे लोग उस स्थानके समीप गये, जहाँ बलवान् शूकर अपनी पत्नीके साथ मौजूद था। छोटे-बड़े बहुत-से सूअर सब ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। गङ्गाके किनारे मेरु पर्वतकी तराईमें पहुँचकर महाराज इक्ष्वाकुने व्याधोंसे कहा'बड़े-बड़े वीर योद्धाओंको शूकरका सामना करनेके लिये भेजो।' इस प्रकार महाराजकी आज्ञासे भेजे हुए बलवान्, तेजस्वी तथा पराक्रमी योद्धा हाँका डालते हुए दौड़े और वायुके समान वेगसे चलकर तत्काल शूकरके पास जा पहुँचे। वनचारी व्याध अपने तीखे बाणों तथा चमचमाते हुए नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे वीरोंका बाना बाँधकर खड़े हुए और उस वराहको बींधने लगे।
यह देख वह यूथपति वराह अपने सैकड़ों पुत्र, पौत्र तथा बान्धवोंके साथ युद्धके मैदानमें आ धमका और शत्रुओंपर टूट पड़ा। वह बड़े वेगसे उनका संहार करने लगा। व्याध उसकी पैनी दाढ़ोंसे घायल हो-होकर समरभूमिमें गिरने लगे। तदनन्तर शूकरों और व्याधोंमें भयानक संग्राम आरम्भ हुआ। वे क्रोधसे लाल आँखें किये एक-दूसरेको मारने लगे। व्याधोंने बहुतेरे शूकरोंको और शूकरोंने अनेक व्याधोंको मार गिराया। वहाँकी जमीन खूनसे रंग गयी। कितने ही सूअर मर-खप गये, कितने घायल हुए और कितने ही भाग भागकर बीहड़ स्थानों, झाड़ियों, कन्दराओं और अपनी-अपनी माँदोंमें जा घुसे। यही दशा व्याधोंकी भी हुई। कितने ही मर गये, कितने ही सूअरोंकी पैनी दाढ़ोंके आघातसे कट गये और कितने ही टुकड़े-टुकड़े होकर प्राण त्याग स्वर्गलोकको चले गये। केवल वह बलाभिमानी वराह अपनी पत्नी तथा पाँच-सात
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भूमिखण्ड ]" • सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर-शूकरीका उपास्यान सुनाना •
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पुत्र-पौत्रोंके साथ युद्धकी इच्छासे मैदानमें डटा रहा । उस युद्धके लिये ललकार रहा है। समय शूकरीने उससे कहा-'नाथ ! मुझे और इन अपनी दुर्द्धर सेनाको उस दुर्द्धर्ष वराहके द्वारा बालकोको साथ लेकर अब यहाँसे चले चलो।' परास्त होते देख राजा इक्ष्वाकुको बड़ा क्रोध हुआ।
शूकरने कहा-महाभागे ! दो सिंहोंके बीचमें उन्होंने धनुष और कालके समान भयंकर बाण लेकर सूअर पानी पी सकता है, किन्तु दो सूअरोके बीचमें सिंह अश्वके द्वारा बड़े वेगसे शूकरपर आक्रमण किया। उन्हें नहीं पी सकता। सूअर-जातिमें ऐसा उत्तम बल देखा आते देख सूअर भी आगे बढ़ा। वह घोड़ेके पैरोंके नीचे जाता है। यदि मैं संग्राममें पीठ दिखाकर चला जाऊँ तो आ गया, इतनेमें ही राजाने उसे अपनी तीखे बाणका उस बलका नाश हो करूंगा-मेरी जातिको प्रसिद्धि ही निशाना बनाया। सूअर घायल होकर बड़े वेगसे उछला नष्ट हो जायगी। मुझे परम कल्याणदायक धर्मका ज्ञान और घोड़ेसहित राजाको लाँध गया। उसने अपनी है। जो योद्धा काम, लोभ अथवा भयसे युद्धतीर्थका दाढ़ोसे मारकर घोड़ेके पैरोंमें घाव कर दिया था। इससे त्याग करके भाग जाता है, वह निःसन्देह पापी है। जो उसको बड़ी पौड़ा हो रही थी, उससे चला नहीं जाता था; तीखे शस्त्रोका व्यूह देखकर प्रसन्न होता है और अन्ततोगत्वा वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब राजा एक रणसिन्धुमें गोता लगाकर तीर्थके पार पहुंच जाता है, वह छोटे-से रथपर सवार हो गये। यूथपति सूअर अपनी अपने आगेकी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है और जातिके स्वभावानुसार रणभूमिमें भयंकर गर्जना कर रहा अन्तमें विष्णुधामको जाता है। जो अस्त्र-शस्त्रोंसे था, इतनेमें हो कोसलसम्राट्ने उसके ऊपर गदासे प्रहार सुसज्जित योद्धाको सामने आते देख प्रसन्नतापूर्वक किया। गदाका आघात पाकर उसने शरीर त्याग दिया उसकी ओर बढ़ता है, उसके पुण्य-फलका वर्णन सुनो-'उसे पग-पगपर गङ्गा-स्नानका महान् फल प्राप्त होता है। जो काम या लोभवश युद्धसे भागकर घरको चला जाता है, वह अपनी माताके दोषको प्रकाशित करता है और व्यभिचारसे उत्पन्न कहलाता है। मैं इस वीर-धर्मको जानता हूँ, अतः युद्ध छोड़कर भाग कैसे सकता हूँ। तुम बच्चोंको लेकर यहाँसे चली जाओ और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो।
पतिकी बात सुनकर शूकरी बोली-'प्रिय ! मैं तुम्हारे स्नेह-बन्धनमें बँधी हूँ; तुमने प्रेम, आदर, हास-परिहास तथा रति-क्रीड़ा आदिके द्वारा मेरे मनको बाँध लिया है। अतः मैं पुत्रोंके साथ तुम्हारे सामने प्राण त्याग करूँगी।' इस तरह बातचीत करके एक-दूसरेका हित चाहनेवाले दोनों पति-पत्नीने युद्धका ही निश्चय किया। कोसलसम्राट् इक्ष्वाकुने देखा-वर्षाक समय और भगवान् श्रीविष्णुके श्रेष्ठ धाममें प्रवेश किया। इस आकाशमें मेघ जिस प्रकार बिजलीकी चमकके साथ प्रकार महाराज इक्ष्वाकुके साथ युद्ध करके वह गर्जते हैं, उसी तरह अपनी पत्नीके साथ शूकर भी गर्जना शूकरराज हवाके वेगसे उखड़कर गिरे हुए वृक्षकी भांति करता है और अपने स्खुरोंके अग्रभागसे मानो महाराजको पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय देवता उसके ऊपर
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. अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
फूलोकी वर्षा कर रहे थे।
तीखे बाणसे शूकरपर प्रहार किया। उसकी छाती छिद तदनन्तर वे समस्त शूर, क्रूर और भयंकर व्याध गयी और वह राजाके हाथसे घायल होकर पृथ्वीपर गिर हाथोंमें पाश लिये उस शूकरीकी ओर चले। शूकरी पड़ा। गिरते ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। पुत्रके अपने चार बच्चोंको घेरकर खड़ी थी। उस महासमरमें शोक और मोहसे अत्यन्त व्याकुल होकर शूकरी उसकी कुटुम्बसहित अपने पतिको मारा गया देख वह शोकसे लाशपर गिर पड़ी; फिर संभलकर उसने अपने थुथूनसे मोहित होकर पुत्रोंसे बोली-'बच्चो ! जबतक मैं यहाँ ऐसा प्रहार किया, जिससे अनेकों शूरवीर धरतीपर सो खड़ी हैं, तबतक शीघ्र गतिसे अन्यत्र भाग जाओ।' यह गये। कितने ही व्याध धराशायी हुए, कितने ही भाग सुनकर उनमेंसे ज्येष्ठ पुत्रने कहा-'मैं जीवनके लोभसे गये और कितने ही कालके गालमें चले गये। शूकरी अपनी माताको संकटमें छोड़कर चला जाऊँ, यह कैसे अपने दाढ़ोंके प्रहारसे राजाकी विशाल सेनाको हो सकता है। माँ! यदि मैं ऐसा करूँ तो मेरे जीवनको खदेड़ने लगी। धिक्कार है। मैं अपने पिताके वैरका बदला लूँगा। युद्धमें यह देख काशीनरेश देवराजकी पुत्री महारानी शत्रुको परास्त करूँगा। तुम मेरे तीनों छोटे भाइयोंको सुदेवाने अपने पतिसे कहा-'प्राणनाथ ! इस शूकरीने लेकर पर्वतकी कन्दरामें चली जाओ। जो माता-पिताको आपकी बहुत बड़ी सेनाका विध्वंस कर डाला; फिर भी विपत्तिमें छोड़कर जाता है, वह पापात्मा है। उसे आप इसकी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? मुझे इसका कारण कोटि-कोटि कोड़ोंसे भरे हुए नरकमें गिरना पड़ता है।' बताइये।' महाराजने उत्तर दिया-'प्रिये ! यह स्त्री है। बेटेकी बात सुनकर शूकरी दुःखसे आतुर होकर स्त्रीके वधसे देवताओंने बहुत बड़ा पाप बताया है; बोली-'आह, मेरे बच्चे ! मैं महापापिनी तुझे छोड़कर इसीलिये मैं इस शूकरीको न तो स्वयं मारता हूँ और न कैसे जा सकती है। मेरे ये तीन पुत्र भले ही चले जायें। किसी दूसरेको ही इसे मारनेके लिये भेज रहा हूँ। इसके
ऐसा निश्चय करके उन दोनों माँ-बेटेने शेष तीन वधके कारण होनेवाले पापसे मुझे भय लगता है।' यों बच्चोंको आगे कर लिया और व्याधोंके देखते-देखते वे कहकर महाबुद्धिमान् राजा चुप हो गये। व्याधोंमें एकका विकट मार्गसे जाने लगे। समस्त शुकर अपने तेज और नाम भार्गव था; उसने देखा-शूकरी समस्त वीरोंका बलसे जोशमें आकर वारंवार गरज रहे थे। इसी बीचमें संहार कर रही है, बड़े-बड़े सूरमा भी उसके सामने टिक वे शूरवीर व्याध वेगसे चलकर वहाँ आ पहुँचे। शूकरी नहीं पाते हैं। यह देख व्याधने बड़े वेगसे एक पैने
और शूकर-दोनों माँ-बेटे व्याधोका मार्ग रोककर खड़े बाणका प्रहार किया और उस शूकरीको बाँध डाला। हो गये। व्याध तलवार, बाण और धनुष लिये अधिक शूकरीने भी झपटकर व्याधको पछाड़ दिया। व्याधने समीप आ गये और तीखे तोमर, चक्र तथा मुसलोंका गिरते-गिरते शूकरीपर तेज धारवाली तलवारका भरपूर प्रहार करने लगे। ज्येष्ठ पुत्र माताको पीछे करके हाथ जमाया। वह बुरी तरहसे घायल होकर गिर पड़ी व्याधोंके साथ युद्ध करने लगा। कितनोंको दाढ़ोंसे और धीरे-धीरे साँस लेती हुई मूर्च्छित हो गयी। कुचलकर उसने मार डाला । कितनोंको थूथुनोंको चोटसे रानी सुदेवाने उस पुत्रवत्सला शूकरीको जब धराशायी कर दिया और कितनोंको खुरोंके अप्रभागसे धरतीपर गिरकर बेहोश होते और ऊपरको श्वास लेते मारकर मौतके घाट उतार दिया। बहुत-से शूरवीर देखा तो उनका हृदय करुणासे भर आया। वे उस रणभूमिमें ढेर हो गये। राजा इक्ष्वाकु संग्राममें सूअरको दुःखिनौके पास गयीं और ठंडे जलसे उसका मुंह धोया, युद्ध करते देखकर और उसे पिताके समान ही शूरवीर फिर समस्त शरीरपर पानी डाला। इससे शूकरीको कुछ जानकर स्वयं उसके सामने आये। महातेजस्वी, प्रतापी होश हुआ। उसने रानीको पवित्र एवं शीतल जलसे मनुकुमारके हाथमें धनुष-बाण थे। उन्होंने अर्धचन्द्राकार अपने शरीरका अभिषेक करते देख मनुष्योंकी बोलीमें
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भूमिखण्ड ] • सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर-शूकरीका उपाख्यान सुनाना •
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कहा-'देवि ! तुमने मेरा अभिषेक किया है, इसलिये मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी मनोहर कन्दराओं और झरनोंसे तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे दर्शन और स्पर्शसे आज सुशोभित गिरिवर मेरुपर निष्कपट भावसे तपस्या कर रहे
थे। रङ्गविद्याधर अपनी इच्छाके अनुसार उस स्थानपर गये और एक वृक्षकी छायामें बैठकर गानेका अभ्यास करने लगे। उनका मधुर संगीत सुनकर मुनिका चित्त ध्यानसे विचलित हो गया । वे गायकके पास जाकर बोले- “विद्वन् ! तुम्हारे गीतके उत्तम स्वर, ताल, लय
और मूर्च्छनायुक्त भावसे मेरा मन ध्यानसे विचलित हो गया है। जब मन निश्चल होता है, तभी समस्त विद्याएँ प्राणियोंको सिद्धि प्रदान करती है। मन एकाग्र होनेपर ही तप और मन्त्रोंकी सिद्धि होती है। इन्द्रियोंका यह महान् समुदाय अधम और चाल है; यह मनको ध्यानसे हटाकर सदा विषयोंकी ओर ही ले जाता है। इसलिये जहाँ शब्द, रूप तथा युवती स्त्रीका अभाव होता है, वहीं मुनिलोग अपने तपकी सिद्धिके लिये जाया करते है। [तुम्हारे इस संगीतसे मेरे ध्यानमें बाधा पड़ती है] अतः
मेरा अनुरोध है कि तुम इस स्थानको छोड़कर कहीं मेरी पापराशि नष्ट हो गयी।' पशुके मुखसे यह अद्भुत अन्यन्त्र चले जाओ; अन्यथा मुझे ही यह स्थान छोड़कर वचन सुनकर रानी सुदेवाको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे दूसरी जगह जाना पड़ेगा।' मन-ही-मन कहने लगी-'यह तो आज मैने विचित्र बात देखी; पशु-जातिकी यह मादा इतनी स्पष्ट, सुन्दर, स्वर और व्यञ्जनसे युक्त तथा उत्तम संस्कृत बोल रही है!' महाभागा सुदेवा इस घटनासे हर्ष-मग्न होकर अपने पतिसे बोली-'राजन् ! इधर देखिये, यह अपूर्व जीव है; पशु-जातिकी स्त्री होकर भी मानवीकी भाँति उत्तम संस्कृत बोल रही है। इसके बाद रानीने शूकरीसे उसका परिचय पूछा-'भद्रे ! तुम कौन हो? तुम्हारा बर्ताव तो बड़ा विचित्र दिखायी देता है; तुम पशुयोनिकी स्त्री होकर भी मनुष्योंकी तरह बोलती हो। अपने और अपने स्वामीके पूर्व-जन्मका वृत्तान्त सुनाओ।'
शूकरी बोली-देवि ! मेरे पति पूर्वजन्ममें संगीत-कुशल गन्धर्व थे; इनका नाम रङ्ग विद्याधर था। [कुछ लोग इन्हें गीतविद्याधर भी कहते थे। ये सब शास्त्रोंके मर्मज्ञ थे। एक समयकी बात है, महातेजस्वी
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. अर्जयस्व हुयीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
NEXANE
गीतविद्याधरने कहा-महामते! जिस ही रूपमें वे फिर वहाँ गये और बारंबार अट्टहास करने महात्माने इन्द्रियोंके समुदाय तथा उसके बलको जोत लगे। कभी ठहाका मारकर हँसते, कभी रोते और कभी लिया है, उसीको तपस्वी, योगी, धीर और साधक कहते मधुर स्वरसे गीत गाते थे। है। आप जितेन्द्रिय नहीं हैं, इसीलिये तेजसे हीन है। ब्रह्मन् ! यह वन सबके लिये साधारण है-इसपर सबका समान अधिकार है। इसमें कोई 'ननु नच' नहीं हो सकता। जैसे इसके ऊपर देवताओं और सम्पूर्ण जीवोंका स्वत्व है, उसी प्रकार मेरा और आपका भी है। ऐसी दशामें मैं इस उत्तम वनको छोड़कर क्यों चला जाऊँ ? आप जायें, चाहे रहे; मुझे इसकी परवा नहीं है।
विप्रवर पुलस्त्यजी धर्मात्मा है; इसलिये वे क्षमा करके स्वयं ही उस स्थानको छोड़कर अन्यत्र चले गये
और योगासनसे बैठकर तपस्या करने लगे। महाभाग मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यके चले जानेपर दीर्घकालके पश्चात् गन्धर्वको पुनः उनका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे-'मुनि मेरे ही भयसे भाग गये थे-चलें, देखें। कहाँ गये? क्या करते है और कहाँ रहते हैं? यह विचारकर गीतविद्याधरने पहले महर्षिके स्थानका पता लगाया और फिर वराहका रूप धारण करके वे उनके सूअरकी चेष्टा छिपी देखकर मुनि समझ गये कि उत्तम आश्रमपर गये, जहाँ पुलस्त्यजी आसनपर हो-न-हो, यह वही नीच गन्धर्व है और मुझे ध्यानसे विराजमान थे। उनके शरीरसे तेजकी ज्वाला उठ रही विचलित करनेकी चेष्टा कर रहा है। फिर तो उन्हें बड़ा थी। किन्तु मेरे पतिपर इसका कुछ प्रभाव न पड़ा, वे क्रोध हुआ। वे शाप देते हुए बोले-'ओ महापापी ! कुचेष्टापूर्वक थूथुनके अग्रभागसे उन नियमशील तू शूकरका रूप धारण करके मुझे इस प्रकार विचलित ब्राह्मणका तिरस्कार करने लगे। यहाँतक कि उनके आगे कर रहा है, इसलिये अब शूकरको हो योनिमें जा।' जाकर उन्होंने मल-मूत्रतक कर दिया; किन्तु पशु देवि ! यही मेरे पतिके शूकरयोनिमें पड़नेका वृत्तान्त है। जानकर मुनिने उनको छोड़ दिया-दण्ड नहीं दिया। यह सब मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अपना हाल बताती [मुनिकी इस क्षमाका मेरे पतिपर उलटा ही असर हुआ, हूँ, सुनो। पूर्वजन्ममें मुझ पापिनीने भी घोर पातक उनकी उद्दण्डता और भी बढ़ गयी । एक दिन शूकरके किया है।
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शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मका वर्णन तथा रानी सुदेवाके पुण्यसे उसका उद्धार
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शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
शूकरी बोली- कलिङ्ग (उड़ीसा) नामसे प्रसिद्ध एक सुन्दर देश है, वहाँ श्रीपुर नामका एक नगर था। उसमें वसुदत्त नामके एक ब्राह्मण निवास करते थे। वे सदा सत्यधर्म में तत्पर, वेदवेत्ता, ज्ञानी, तेजस्वी, गुणवान् और धनधान्यसे भरे-पूरे थे। अनेक पुत्र-पौत्र उनके घरकी शोभा बढ़ाते थे। मैं वसुदत्तकी पुत्री थी; मेरे और भी कई भाई, स्वजन तथा बान्धव थे। परम बुद्धिमान् पिताने मेरा नाम सुदेवा रखा। मैं अप्रतिम सुन्दरी थी। संसारमें दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं थी, जो रूपमें मेरी समानता कर सके। रूपके साथ ही चढ़ती जवानी पाकर मैं गर्वसे उन्मत्त हो उठी। मेरी मुसकान बड़ी मनोहर थी। बचपनके बाद जब मुझे हाव-भावसे युक्त यौवन प्राप्त हुआ, तब मेरा भरा-पूरा रूप देखकर मेरी माताको बड़ा दुःख हुआ। वह पितासे बोली'महाभाग ! आप कन्याका विवाह क्यों नहीं कर देते ? अब यह जवान हो चुकी है, इसे किसी योग्य वरको सौंप दीजिये।' वसुदत्तने कहा- 'कल्याणी ! सुनो मैं उसी वरके साथ इसका विवाह करूँगा, जो विवाहके पश्चात् मेरे ही घरपर निवास करे; क्योंकि सुदेवा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी है। मैं इसे आँखोंसे ओट नहीं होने देना चाहता।'
तदनन्तर एक दिन सम्पूर्ण विद्याओंमें विशारद एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण भिक्षाके लिये मेरे द्वारपर आये उन्होंने वेदोंका पूर्ण अध्ययन किया था। वे बड़े अच्छे स्वरसे वेद मन्त्रोंका उच्चारण करते थे। उन्हें आया देख मेरे पिताने पूछा- 'आप कौन हैं? आपका नाम, कुल, गोत्र और आचार क्या है ? यह बताइये।' पिताकी बात सुनकर ब्राह्मण कुमारने उत्तर दिया- 'कौशिकवंशमें मेरा जन्म हुआ है। मैं वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् हूँ मेरा नाम शिवशर्मा है; मेरे माता-पिता अब इस संसार में नहीं हैं।' शिवशर्माने जब इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब मेरे पिताने शुभ लग्नमें उनके साथ मेरा विवाह
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कर दिया। अब उनके साथ ही मैं पिताके घरपर रहने लगी। परन्तु मैं माता-पिताके धनके घमंडसे अपनी विवेकशक्ति खो बैठी थी। मुझ पापिनीने कभी भी अपने स्वामीकी सेवा नहीं की। मैं सदा उन्हें क्रूर दृष्टिसे ही देखा करती थी। कुछ व्यभिचारिणी स्त्रियोंका साथ हो गया था, अतः सङ्ग-दोषसे मेरे मनमें भी वैसा ही नीच भाव आ गया था। मैं जहाँ-तहाँ स्वच्छन्दतापूर्वक घूमती-फिरती और माता-पिता, पति तथा भाइयोंके हितकी परवा नहीं करती थी। शिवशर्माका शील और उनकी साधुता सबको ज्ञात थी, अतः माता-पिता आदि सब लोग मेरे पापसे दुःखी रहते थे। मेरा दुष्कर्म देख पतिदेव उस घरको छोड़कर चले गये। उनके जानेसे पिताजीको बड़ी चिन्ता हुई। उन्हें दुःखसे व्याकुल देख माताने पूछा- 'नाथ! आप चिन्तित क्यों हो रहे हैं ?' वसुदत्तने कहा- 'प्रिये! सुनो, दामाद मेरी पुत्रीको त्यागकर चले गये। सुदेवा पापाचारिणी है और वे पण्डित तथा बुद्धिमान् थे। मैं क्या जानता था कि यह मेरी कन्या सुदेवा ऐसी दुष्टा और कुलनाशिनी होगी।'
ब्राह्मणी बोली - नाथ! आज आपको पुत्रीके गुण और दोषका ज्ञान हुआ है— इस समय आपकी आँखें खुली हैं; किन्तु सच तो यह है कि आपके ही मोह और स्नेहसे- लाड़ और प्यारसे यह इस प्रकार बिगड़ी है। अब मेरी बात सुनिये - सन्तान जबतक पाँच वर्षकी न हो जाय, तभीतक उसका लाड़-प्यार करना चाहिये। उसके बाद सदा सन्तानकी शिक्षाकी ओर ध्यान देते हुए उसका पालन-पोषण करना उचित है। नहलाना-धुलाना, उत्तम वस्त्र पहनाना, अच्छे खान-पानका प्रबन्ध करना – ये सब बातें सन्तानकी पुष्टिके लिये आवश्यक हैं। साथ ही पुत्रोंको उत्तम गुण और विद्याकी ओर भी लगाना चाहिये। पिताका कर्तव्य है कि वह सन्तानको सद्गुणोंकी शिक्षा देनेके लिये सदा कठोर बना रहे। केवल पालन-पोषणके लिये उसके प्रति मोह ममता
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[संक्षिप्त पापुराण
रखे। पुत्रके सामने कदापि उसके गुणोंका वर्णन न करे। राजा थे। उनकी एक पुत्री थी, जिसका नाम पद्मावती उसे राहपर लानेके लिये कड़ी फटकार सुनाये तथा इस था। वह सत्य-धर्ममें तत्पर तथा स्त्री-समुचित गुणोंसे प्रकार उसे साधे, जिससे वह विद्या और गुणोंमें सदा ही युक्त होनेके कारण दूसरी लक्ष्मीके समान थी। मथुराके निपुण होता जाय। जब माता अपनी कन्याको, सास राजा उग्रसेनने उस मनोहर नेत्रोंवाली पद्मावतीसे विवाह अपनी पुत्र-वधूको और गुरु अपने शिष्योंको ताड़ना देता किया। उसके नेह और प्रेमसे मथुरानरेश मुग्ध हो गये। है, तभी वे सीधे होते हैं। इसी प्रकार पति अपनी पत्नोको पद्मावतीको वे प्राणोंके समान प्यार करने लगे। उसे और राजा अपने मन्त्रीको दोषोंके लिये कड़ी फटकार साथ लिये विना भोजनतक नहीं करते थे। उसके साथ सुनायें। शिक्षा-बुद्धिसे ताड़न और पालन करनेपर क्रीड़ा-विलासमें ही राजाका समय बीतने लगा। सन्तान सद्गुणोद्वारा प्रसिद्धि लाभ करती है। पद्यावतीके बिना उन्हें एक क्षण भी चैन नहीं पड़ता था। ... शिवशर्मा उत्तम ब्राह्मण थे। उनके साथ रहनेपर भी इस प्रकार उस दम्पतिमें परस्पर बड़ा प्रेम था। इस कन्याको आपने घरमें निरङ्कश-स्वछन्द बना रखा कुछ कालके पश्चात् विदर्भनरेश सत्यकेतुने अपनी था। इसीसे उच्छृङ्खल हो जानेके कारण यह नष्ट हुई है। पुत्री पद्मावतीको स्मरण किया। उसकी माता उसे न पुत्री अपने पिताके घरमें रहकर जो पाप करती है. उसका देखनेके कारण बहुत दुःखी थी। उन्होंने मथुरानरेश फल माता-पिताको भी भोगना पड़ता है। इसलिये समर्थ उग्रसेनके पास अपने दूत भेजे। दूतोंने वहाँ जाकर पुत्रीको अपने घरमें नहीं रखना चाहिये। जिससे उसका आदरपूर्वक राजासे कहा-'महाराज ! विदर्भनरेश ब्याह किया गया है, उसीके घरमें उसका पालन-पोषण सत्यकेतुने अपनी कुशल कहलायी है और आपका होना उचित है। वहाँ रहकर वह भक्तिपूर्वक जो उत्तम कुशल-समाचार वे पूछ रहे हैं। यदि उनका प्रेम और गुण सीखती और पतिकी सेवा करती है, उससे कुलकी स्नेहपूर्ण अनुरोध आपको स्वीकार हो तो राजकुमारी कीर्ति बढ़ती है और पिता भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत पद्मावतीको उनके यहाँ भेजनेकी व्यवस्था कीजिये। वे करता है। ससुरालमें रहकर यदि वह पाप करती है तो अपनी पुत्रीको देखना चाहते हैं।' नरश्रेष्ठ उग्रसेनने जब उसका फल पतिको भोगना पड़ता है। वहाँ सदाचार- दूतोंके मुँहसे यह बात सुनी तो प्रीति, स्नेह और पूर्वक रहनेसे वह सदा पुत्र-पौत्रोंके साथ वृद्धिको प्राप्त उदारताके कारण अपनी प्रिय पत्नी पद्मावतीको होती है। प्राणनाथ ! पुत्रीके उत्तम गुणोंसे पिताकी कीर्ति विदर्भराजके यहाँ भेज दिया। पतिके भेजनेपर पद्मावती बढ़ती है। इसलिये दामादके साथ भी कन्याको अपने बड़े हर्षके साथ अपने मायके गयी । वहाँ पहुँचकर उसने घर नहीं रखना चाहिये। इस विषयमें एक पौराणिक पिताके चरणोंमें प्रणाम किया। उसके आनेसे महाराज इतिहास सुना जाता है, जो अट्ठाईसवें द्वापरके आनेपर सत्यकेतुको बड़ी प्रसन्नता हुई। पद्यावती वहाँ अपनी संघटित होनेवाला है। यदुकुलश्रेष्ठ वीरवर उग्रसेनके सखियोंके साथ निःशङ्क होकर घूमने लगी। पहले की ही यहाँ जो घटना घटित होनेवाली है, उसीका मैं भाँति घर, वन, तालाब और चौबारोंमें विचरण करने [भूतकालके रूपमें] वर्णन करूंगी।
लगी। यहाँ आकर वह पुनः बालिका बन गयी; उसके ... माथुर प्रदेशमें मथुरा नामकी नगरी है, वहाँ उग्रसेन बर्तावमें लाज या सङ्कोचका भाव नहीं रहा। नामवाले यदुवंशी राजा राज्य करते थे। वे शत्रुविजयी, एक दिनकी बात है-'पद्मावती [अपनी सम्पूर्ण धर्मोक तत्त्वज्ञ, बलवान्, दाता और सद्गुणोंके सखियोंके साथ] एक सुन्दर पर्वतपर सैर करनेके लिये जानकार थे। मेधावी राजा उग्रसेन धर्मपूर्वक राज्यका गयी। उसकी तराईमें एक रमणीय वन दिखायी दिया, सञ्चालन और प्रजाका पालन करते थे। उन्हीं दिनों परम जो केलोंके उद्यानसे शोभा पा रहा था। पहाड़पर भी पवित्र विदर्भदेशमें सत्यकेतु नामसे प्रसिद्ध एक प्रतापी फूलोकी बहार थी। राजकुमारीने देखा-एक ओर ऐसा
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रमणीय पर्वत, दूसरी ओर मनोहर वनस्थली और बीचमें वास्तवमें तो वह राजाके वेषमें नीच दानव गोभिल ही स्वच्छ जलसे भरा सर्वतोभद्र नामक तालाब है। था। पद्मावती विचार करने लगी-मेरे धर्मपरायण बालोचित चपलता, नारी-स्वभाव और खेल-कूदकी स्वामी मथुरानरेश अपना राज्य छोड़कर इतनी दूर कब रुचि-इन सबका प्रभाव उसके ऊपर पड़ा। वह और कैसे चले आये? वह इस प्रकार सोच ही रही थी सहेलियोंके साथ तालावमें उतर पड़ी और हँसती-गाती कि उस पापीने स्वयं ही पुकारा-'प्रिये ! आओ, आओ; हुई जल-क्रीड़ा करने लगी।
देवि ! तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता । सुन्दरी ! तुमसे इसी समय कुबेरका सेवक गोभिल नामक दैत्य अलग रहकर मेरे लिये इस प्रिय जीवनका भार वहन दिव्य विमानपर बैठकर आकाशमार्गसे कहीं जा रहा करना भी असम्भव हो गया है। तुम्हारे नेहने मुझे मोह था। तालावके ऊपर आनेपर उसकी दृष्टि विशाल लिया है; अतः मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं रह सकता।' नेत्रोंवाली विदर्भ-राजकुमारी पद्मावतीपर पड़ी, जो निर्भय पतिरूपधारी दैत्यके ऐसा कहनेपर पद्मावती कुछ होकर स्रान कर रही थी। गोभिलकी ज्ञान-शक्ति बहुत लज्जित-सी होकर उसके सामने गयी। वह पद्मावतीका बढ़ी हुई थी, उसने निश्चित रूपसे जान लिया कि 'यह हाथ पकड़कर उसे एकान्त स्थानमें ले गया और वहाँ विदर्भ-नरेशकी कन्या और महाराज उग्रसेनकी प्यारी अपनी इच्छाके अनुसार उसका उपभोग किया। महाराज पत्नी है। परन्तु यह तो पतिव्रता होनेके कारण उग्रसेनके गुप्त अङ्गमें कुछ खास निशानी थी, जो उस आत्मवलसे ही सुरक्षित है, परपुरुषोंके लिये इसे प्राप्त पुरुषमें नहीं दिखायी दी। इससे सुन्दरी पद्मावतीके मनमें करना नितान्त कठिन है। उग्रसेन महामूर्ख है, जो उसने उसके प्रति सन्देह उत्पन्न हुआ। राजकुमारीने अपने वल ऐसी सुन्दरी पत्नीको मायके भेज दिया है। आह ! यह सँभालकर पहन लिये; किन्तु उसके हृदयमें इस घटनासे पतिव्रता नारी पराये पुरुषके लिये दुर्लभ है, इधर बड़ा दुःख हुआ। वह क्रोधमें भरकर नीच दानव कामदेव मुझे अत्यन्त पीड़ा दे रहा है। मैं किस प्रकार गोभिलसे बोली-'ओ नीच ! जल्दी बता, तू कौन इसके निकट जाऊँ और कैसे इसका उपभोग करूँ?' है? तेरा आकार दानव-जैसा है, तू पापाचारी और इसी उधेड़-बुनमें पड़े-पड़े उसने अपने लिये एक उपाय निर्दयी है।' यह कहते-कहते आत्मग्लानिके कारण निकाल लिया। गोभिलने महाराज उप्रसेनका मायामय उसकी आँखें भर आयीं। वह शाप देनेको उद्यत होकर रूप धारण किया। वह ज्यों-का-त्यों उग्रसेन बन गया। बोली-दुरात्मन् ! तूने मेरे पतिके रूपमें आकर मेरे वही अङ्ग, वही उपाङ्ग, वैसे ही वस्त्र, उसी तरहका वेष साथ छल किया और इस धर्ममय शरीरको अपवित्र
और वही अवस्था । पूर्णरूपसे उग्रसेन-सा होकर वह करके मेरे उत्तम पातिव्रत्यका नाश कर डाला है। अब पर्वतके शिखरपर उतरा और एक अशोकवृक्षकी छायामें यहीं तू मेरा भी प्रभाव देख ले, मैं तुझे अत्यन्त कठोर शिलाके ऊपर बैठकर उसने मधुर स्वरसे सङ्गीत शाप दूंगी।' छेड़ दिया। वह गीत सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाला उसकी बात सुनकर गोभिलने कहा-'पतिव्रता था। ताल, लय और उत्तम स्वरसे युक्त उस मधुर स्त्री, भगवान् श्रीविष्णु तथा उत्तम ब्राह्मणके भयसे तो गानको सखियोंके मध्य में बैठी हुई सुन्दरी पद्यावतीने भी समस्त राक्षस और दानव दूर भागते हैं। मैं दानव-धर्मके सुना । वह सोचने लगी-कौन गायक यह गीत गा रहा अनुसार ही इस पृथ्वीपर विचर रहा हूँ। पहले मेरे दोषका है? राजकुमारीके मनमें उसे देखनेकी उत्कण्ठा हुई। विचार करो, किस अपराधपर तुम मुझे शाप देनेको उसने सखियोंके साथ जाकर देखा, अशोककी छायामें उद्यत हुई हो?' उज्ज्वल शिलाखण्डके ऊपर बैठा हुआ कोई पुरुष गा पद्मावती बोली-पापी ! मैं साध्वी और रहा है; वह महाराज उग्रसेन-सा ही जान पड़ता है। पतिव्रता हूँ, मेरे मन में केवल अपने पतिकी कामना
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[संक्षिप्त पद्मपुराण
रहती है; मै सदा उन्हींके लिये तपस्या किया करती हूँ। तुम्हें लाज नहीं आती, अपने बर्तावपर घृणा नहीं होती? मैं अपने धर्ममार्गपर स्थित थी, किन्तु तूने माया रचकर तुम क्या मेरे सामने बोलती हो। कहाँ है तुम्हारी मेरे धर्मके साथ ही मुझे भी नष्ट कर दिया । इसलिये रे तपस्थाका प्रभाव । कहाँ है तुम्हारा तेज और बल । आज
दुष्ट ! तुझे भी मैं भस्म कर डालेंगी। ... ही मुझे अपना बल, वीर्य और पराक्रम दिखाओ। ____गोभिल बोला-राजकुमारो! यदि उचित पद्मावती बोली-ओ नीच असुर ! सुन; पिताने
समझो तो सुनो; मैं धर्मकी ही बात कह रहा हूँ। जो स्त्री स्नेहवश मुझे पतिके घरसे बुलाया है, इसमें कहाँ पाप प्रतिदिन मन, वाणी और क्रियाद्वारा अपने स्वामीकी सेवा है। मैं काम, लोभ, मोह तथा डाहके वश पतिको करती है, पतिके संतुष्ट रहनेपर स्वयं भी संतोषका छोड़कर नहीं आयी हूँ; मैं यहाँ भी पतिका चिन्तन करतो अनुभव करती है, पतिके क्रोधी होनेपर भी उसका त्याग हुई ही रहती हूँ। तुमने भी छलसे मेरे पतिका रूप धारण नहीं करती, उसके दोषोंकी ओर ध्यान नहीं देती, उसके करके ही मुझे धोखा दिया है। मारनेपर भी प्रसन्न होती है और स्वामीके सब कामोंमें गोभिलने कहा-पद्यावती ! मेरी युक्तियुक्त बात आगे रहती है, वही नारी पतिव्रता कही गयी है। यदि स्त्री सुनो। अंधे मनुष्योंको कुछ दिखायी नहीं देता; तुम इस लोकमें अपना कल्याण करना चाहती हो तो वह धर्मरूपी नेत्रसे हीन हो, फिर कैसे मुझे यहाँ पहचान पतित, रोगी, अङ्गहीन, कोढ़ी, सब धर्मोसे रहित तथा पाती । जिस समय तुम्हारे मनमें पिताके घर आनेका भाव पापी पतिका भी परित्याग न करे । जो स्वामीको छोड़कर उदय हुआ, उसी समय तुम पतिकी भावना छोड़कर जाती और दूसरे-दूसरे कामोमें मन लगाती है, वह उनके ध्यानसे मुक्त हो गयी थी। पतिका निरन्तर चिन्तन संसारमें सब धर्मोसे बहिष्कृत व्यभिचारिणी समझी जाती ही सतियोंके ज्ञानका तत्त्व है। जब वही नष्ट हो गया, है। जो पतिकी अनुपस्थितिमें लोलुपतावश ग्राम्य-भोग जब तुम्हारे हृदयकी आँख ही फूट गयी, तब ज्ञान-नेत्रसे तथा शृङ्गारका सेवन करती है, उसे मनुष्य कुलटा कहते हीन होनेपर तुम मुझे कैसे पहचानतीं। हैं। मुझे वेद और शास्त्रोद्वारा अनुमोदित धर्मका ज्ञान है। ब्राह्मणी कहती है-प्राणनाथ ! गोभिलको वात गृहस्थ-धर्मका परित्याग करके पतिको सेवा छोड़कर सुनकर राजकुमारी पद्मावती धरतीपर बैठ गयी। उसके यहाँ किसलिये आयौं ? इतनेपर भी अपने ही मुँहसे हृदयमें बड़ा दुःख हो रहा था। गोभिलने फिर कहाकहती हो-मैं पतिव्रता हूँ। कर्मसे तो तुममें पातिव्रत्यका 'शुभे! मैंने तुम्हारे उदरमें जो अपने वीर्यको स्थापना की लेशमात्र भी नहीं दिखायी देता। तुम डर-भय छोड़कर है, उससे तीनों लोकोंको त्रास पहुँचानेवाला पुत्र उत्पन्न पर्वत और वनमे मतवाली होकर घूमती-फिरती हो, होगा। यों कहकर वह दानव चला गया। गोभिल बड़ा इसलिये पापिनी हो। मैंने यह महान् दण्ड देकर तुम्हें दुराचारी और पापात्मा था। उसके चले जानेपर पद्मावती सीधी राहपर लगाया है-अब कभी तुमसे ऐसी धृष्टता महान् दुःखसे अभिभूत होकर रोने लगी। रोनेका शब्द नहीं हो सकती। बताओ तो, पतिको छोड़कर किसलिये सुनकर सखियाँ उसके पास दौड़ी आयीं और पूछने यहाँ आयी हो? यह शृङ्गार, ये आभूषण तथा यह लगीं- 'राजकुमारी ! रोती क्यों हो? मथुरानरेश मनोहर वेष धारण करके क्यों खड़ी हो ? पापिनी ! बोलो महाराज उग्रसेन कहाँ चले गये?' पद्यावतीने अत्यन्त न, किसलिये और किसके लिये यह सब किया है? दुःखसे रोते-रोते अपने छले जानेकी सारी बात बता दी। कहाँ है तुम्हारा पातिव्रत्य ? दिखाओ तो मेरे सामने। सहेलियाँ उसे पिताके घर ले गयीं। उस समय वह व्यभिचारिणी स्त्रियोंके समान बर्ताव करनेवाली नारी ! शोकसे कातर हो थर-थर कांप रही थी। सखियोंने तुम इस समय अपने पतिसे चार सौ कोस दूर हो; कहाँ पद्मावतीको माताके सामने सारी घटना कह दी। सुनते है तुममें पतिको देवता माननेका भाव। दुष्ट कहींकी ! हो महारानी अपने पतिके महलमे गयीं और उनसे
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. शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्यका वर्णन तथा रानी सुदेवाके पुण्यसे उसका दार .
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कन्याका सारा वृत्तान्त उन्होंने कह सुनाया । उसे सुनकर कुटुम्बके लोगोंने मुझे त्याग दिया। मैं तो अपनी महाराज सत्यकेतुको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सवारी लाज-हया खो चुकी थी, शीघ्र ही वहाँसे चल दी। किन्तु
और वस्त्र आदि देकर कुछ लोगोंके साथ पुत्रीको कहीं भी मुझे ठहरनेके लिये स्थान और सुख नहीं मथुरामें उसके पतिके घर भेज दिया।
मिलता था। लोग मुझे देखते ही 'यह कुलटा आयी !' धर्मात्मा राजा उग्रसेन पद्मावतीको आयो देख बहुत कहकर दुत्कारने लगते थे। .. प्रसन्न हुए। वे रानीसे बार-बार कहने लगे-'सुन्दरी ! कुल और मानसे वञ्चित होकर घूमती-फिरती मैं मैं तुम्हारे बिना जीवन धारण नहीं कर सकता। प्रिये ! प्रान्तसे बाहर निकल गयी और गुर्जर देश (गुजरात तुम अपने गुण, शील, भक्ति, सत्य और पातिव्रत्य आदि प्रान्त) के सौराष्ट्र (प्रभास) नामक पुण्यतीर्थमें जा सद्गुणोंसे मुझे अत्यन्त प्रिय लगती हो।' अपनी प्यारी पहुंची, जहाँ भगवान् शिव (सोमनाथ) का मन्दिर है। भार्या पद्मावतीसे यों कहकर नृपश्रेष्ठ महाराज उग्रसेन मन्दिरके पास ही वनस्थल नामसे विख्यात एक नगर था, उसके साथ विहार करने लगे। सब लोगोंको भय जिसकी उस समय बड़ी उन्नति थी। मैं भूखसे अत्यन्त पहुँचानेवाला उसका भयंकर गर्भ दिन-दिन बढ़ने लगा। पीड़ित थी, इसलिये खपरा लेकर भीख माँगने चली। किन्तु उस गर्भका कारण केवल पद्मावती ही जानती थी। परन्तु सब लोग मुझसे घृणा करते थे। 'यह पापिनी अपने उदरमें बढ़ते हुए उस गर्भक विषयमें पद्मावतीको आयी [भगाओ इसे]' यों कहकर कोई भी मुझे भिक्षा दिन-रात चिन्ता बनी रहती थी। दस वर्षतक वह गर्भ नहीं देता था। इस प्रकार दुःखमय जीवन व्यतीत करती बढ़ता ही गया। तत्पश्चात् उसका जन्म हुआ। वहीं मैं बड़े भारी रोगसे पीड़ित हो गयी। उस नगरमें महान् तेजस्वी और महाबली कंस था, जिसके भयसे घूमते-घूमते मैंने एक बड़ा सुन्दर घर देखा, जहाँ वैदिक तीनों लोकोंके निवासी थर्रा उठे थे तथा जो भगवान् पाठशाला थी। वह घर अनेक ब्राह्मणोंसे भरा था और श्रीकृष्णके हाथसे मारा जाकर मोक्षको प्राप्त हुआ। वहाँ सब ओर वेदमन्त्रोंकी ध्वनि हो रही थी। लक्ष्मीसे स्वामिन् ! ऐसी घटना भविष्यमें संघटित होनेवाली है, युक्त और आनन्दसे परिपूर्ण उस रमणीय गृहमें मैंने यह मैंने सुन रखा है। मैंने आपसे जो कुछ कहा है, वह समस्त पुराणोंका निश्चित मत है। इस प्रकार पिताके घरमें रहनेवाली कन्या बिगड़ जाती है। अतः कन्याको घरमें रखनेका मोह नहीं करना चाहिये। यह सुदेवा बड़ी दुष्टा
और महापापिनी है। अतः इसका परित्याग करके आप निश्चिन्त हो जाइये।
शूकरी कहती है-माताकी यह बात-यह उत्तम सलाह सुनकर मेरे पिता द्विजश्रेष्ठ वसुदत्तने मुझे त्याग देनेका ही निश्चय किया। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा-'दुष्टे ! कुलमें कलङ्क लगानेवाली दुराचारिणी ! तेरे ही अन्यायसे परम बुद्धिमान् शिवशर्मा चले गये। जहाँ तेरे स्वामी रहते हैं, वहीं तू भी चली जा; अथवा जो स्थान तुझे अच्छा लगे, वहीं जा, जैसा जीमें आये, वैसा कर ।' महारानीजी ! यों कहकर पिता-माता और
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. अर्जयस्व हुपीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ...
[संक्षिप्त पापुराण
प्रवेश किया। वह सब ओरसे मङ्गलमय प्रतीत होता आ गयी। मैं ऐसी पापिनी थी कि पतिसे कभी मीठे था। मेरे पति शिवशर्माका ही वह घर था। मैं दुःखसे वचनतक नहीं बोली । उलटे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके विपरीत पीड़ित होकर बोली-'भिक्षा दीजिये।' द्विजश्रेष्ठ बुरे काँका ही आचरण करती रही। इस प्रकार चिन्ता शिवशर्माने भिक्षाका शब्द सुना । उनको एक भार्या थी, करते-करते मेरा हृदय फट गया और प्राण शरीर छोड़कर जो साक्षात् लक्ष्मीके समान रूपवती थी। उसका मुख चल बसे। बड़ा ही सुन्दर था। वह मङ्गला नामसे प्रसिद्ध थी। परम तदनन्तर यमराजके दूत आये और मुझे साँकलके बुद्धिमान् धर्मात्मा शिवशनि मन्द-मन्द मुसकराती हुई दृढ़ बन्धनमें बाँधकर यमपुरीको ले चले। मार्गमें जब मैं अपनी पत्नी मङ्गलासे कहा-'प्रिये ! वह देखो-एक अत्यन्त दुःखी होकर रोती तब वे मुझे मुगदरोंसे पीटते दुबली-पतली स्त्री आयी है, जो भिक्षाके लिये द्वारपर और दुर्गम मार्गसे ले जाकर कष्ट पहुँचाते थे। बीचखड़ी है; इसे घरमें बुलाकर भोजन दो।' मुझे आयी जान मङ्गलाका हृदय अत्यन्त करुणासे भर आया। उसने मुझ दीन-दुर्बल भिक्षुकीको मिष्टान्न भोजन कराया। मैं अपने पतिको पहचान गयी थी, उन्हें देखकर लज्जासे मेरा मस्तक झुक गया। परम सुन्दरी मङ्गलाने मेरे इस भावको लक्ष्य किया और स्वामीसे पूछा-'प्राणनाथ ! यह कौन है. जो आपको देखकर लजा रही है? मुझपर कृपा करके इसका यथार्थ परिचय दीजिये।' ।
शिवशर्माने कहा-प्रिये ! यह विप्रवर वसुदत्तकी कन्या है। बेचारी इस समय भिक्षुकीके रूपमें यहाँ आयी है। इसका नाम सुदेवा है। यह मेरी कल्याणमयी भार्या है, जो मुझे सदा ही प्रिय रही है। किसी विशेष कारणसे यह अपना देश छोड़कर आज यहाँ आयी है, ऐसा समझकर तुम्हें इसका अच्छे ढंगसे स्वागत-सत्कार करना चाहिये। यदि तुम मेरा भलीभाँति बीचमे मुझे फटकारें भी सुनाते जाते थे। उन्होंने मुझे प्रिय करना चाहती हो तो इसके आदरभावमें कमी यमराजके सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। महात्मा न करना।
, यमराजने बड़ी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे मेरी ओर देखा और मुझे पतिकी बात सुनकर मङ्गलमयी मङ्गला बहुत प्रसन्न अँगारोंकी ढेरीमें फेंकवा दिया। उसके बाद मैं कई हुई। उसने अपने ही हाथों मुझे स्रान कराकर उत्तम वस्त्र नरकोंमें डाली गयी। मैंने अपने स्वामीके साथ धोखा पहननेको दिया और स्वयं भोजन बनाकर खिलाने- किया था, इसलिये एक लोहेका पुरुष बनाकर उसे पिलाने लगी। रानीजी ! अपने स्वामीके द्वारा इतना आगसे तपाया गया और वह मेरी छातीपर सुला दिया सम्मान पाकर मुझे अपार दुःख हुआ। मेरे हृदयमें गया। नरककी प्रचण्ड आगमें तपायी जानेपर मैं नाना पश्चात्तापकी तीव्र अग्नि प्रज्वलित हो उठी। मैंने मङ्गलाके प्रकारको पीड़ाओंसे अत्यन्त कष्ट पाने लगी। किये हुए सम्मान और अपने दुष्कर्मकी ओर देखा; इससे असिपत्र-वनमें पड़कर मेरा सारा शरीर छिन्न-भिन्न हो मनमें दुःसह चिन्ता हुई, यहाँतक कि प्राण जानेकी नौबत गया। फिर मैं पीब, रक्त और विष्ठामें डाली गयी।
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भूमिखण्ड ]
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• सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा
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कीड़ोंसे भरे हुए कुण्डमें रहना पड़ा। आरीसे मुझे चीरा गया। शक्ति नामक अस्त्रका भलीभाँति मुझपर प्रहार किया गया। दूसरे दूसरे नरकोंमें भी मैं गिरायी गयी। अनेक योनियोंमें जन्म लेकर मुझे असह्य दुःख भोगना पड़ा। पहले सियारकी योनिमें पड़ी, फिर कुत्तेकी योनिमें जन्म लिया। तत्पश्चात् क्रमशः साँप, मुर्गे, बिल्ली और चूहेकी योनिमें जाना पड़ा। इस प्रकार धर्मराजने पीड़ा देनेवाली प्रायः सभी पापयोनियोंमें मुझे डाला। उन्होंने ही मुझे इस भूतलपर शूकरी बनाया है। महाभागे ! तुम्हारे हाथमें अनेक तीर्थोका वास है। देवि! तुमने अपने हाथके जलसे मुझे सींचा है, इसलिये तुम्हारी कृपासे मेरा सब पाप दूर हो गया। तुम्हारे तेज और पुण्यसे मुझे अपने पूर्वजन्मकी बातोंका ज्ञान हुआ है। रानीजी ! इस समय संसारमें केवल तुम्हीं सबसे बड़ी पतिव्रता हो । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि तुमने अपने स्वामीकी बहुत बड़ी सेवा की है। सुन्दरी । यदि मेरा प्रिय करना चाहती हो तो अपने एक दिनकी पतिसेवाका पुण्य मुझे अर्पण कर दो। इस समय तुम्हीं मेरी माता, पिता और सनातन गुरु हो। मैं पापिनी, दुराचारिणी, असत्यवादिनी और ज्ञानहीना हूँ। महाभागे ! मेरा उद्धार करो।
सुकला बोली- सखियो ! शूकरीकी यह बात सुनकर रानी सुदेवाने राजा इक्ष्वाकुकी ओर देखकर पूछा— 'महाराज ! मैं क्या करूँ ? यह शूकरी क्या कहती है ?' इक्ष्वाकुने कहा- शुभे ! यह बेचारी
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं- राजेन्द्र ! सुकलाकेमनमें केवल पतिका ही ध्यान था और पतिकी ही कामना थी। उसके सतीत्वका प्रभाव देवराज इन्द्रने भी भलीभाँति देखा तथा उसके विषयमें पूर्णतया विचार करके वे मन-ही-मन कहने लगे- 'मैं इसके अविचल धैर्य [और धर्म] को नष्ट कर दूंगा।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने तुरंत ही कामदेवका स्मरण किया। महाबली
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पाप-योनिमें पड़कर दुःख उठा रही है; तुम अपने पुण्योंसे इसका उद्धार करो, इससे महान् कल्याण होगा।
महाराजकी आज्ञा लेकर रानी सुदेवाने शूकरीसे कहा – 'देवि! मैंने अपना एक वर्षका पुण्य तुम्हें अर्पण किया।' रानी सुदेवाके इतना कहते ही वह शूकरी तत्काल दिव्य देह धारण कर प्रकट हुई। उसके शरीरसे तेजकी ज्वाला निकल रही थी। सब प्रकारके आभूषण और भाँति-भाँतिके रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह साध्वी दिव्यरूपसे युक्त हो दिव्य विमानपर बैठी और अन्तरिक्ष लोकको चलने लगी। जाते समय उसने मस्तक झुकाकर रानीको प्रणाम किया और कहा'महाभागे तुम्हारी कृपासे आज मैं पापमुक्त होकर परम पवित्र एवं मङ्गलमय वैकुण्ठको जा रही हूँ।' यो कहकर वह वैकुण्ठको चली गयी।
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सुकला कहने लगी- इस प्रकार पहले मैंने पुराणोंमें नारीधर्मका वर्णन सुना है। ऐसी दशामें जब पतिदेव यहाँ उपस्थित नहीं हैं, मैं किस प्रकार भोगोंका उपभोग करूँ। मेरे लिये ऐसा विचार निश्चय ही पापपूर्ण होगा।
सुकलाके मुखसे इस प्रकार उत्तम पातिव्रत्य - धर्मका वर्णन सुनकर सखियोंको बड़ा हर्ष हुआ । नारियोंको सद्गति प्रदान करनेवाले उस परम पवित्र धर्मका श्रवण करके समस्त ब्राह्मण और पुण्यवती स्त्रियाँ धर्मानुरागिणी महाभागा सुकलाकी प्रशंसा करने लगीं।
★ सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
कामदेव अपनी प्रिया रतिके साथ वहाँ आ गये और हाथ जोड़कर इन्द्रसे बोले नाथ! इस समय किसलिये आपने मुझे याद किया है? आज्ञा दीजिये, मैं सब प्रकारसे उसका पालन करूँगा।'
इन्द्रने कहा- कामदेव ! यह जो पातिव्रत्यमें तत्पर रहनेवाली महाभागा सुकला है, वह परम पुण्यवती और मङ्गलमयी है; मैं इसे अपनी ओर आकर्षित करना
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ...... [संक्षिप्त पापुराण
चाहता हूँ। इस कार्यमें तुम मेरी पूरी तरहसे सहायता इस पृथ्वीपर पुण्यका भागी है।' करो।
दूतीकी बात सुनकर मनस्विनी सुकलाने कहाकामदेवने उत्तर दिया-'सहस्रलोचन ! मैं 'देवि ! मेरे पति वैश्य जातिमें उत्पन्न, धर्मात्मा और आपकी इच्छा-पूर्तिके लिये आपकी सहायता अवश्य सत्यप्रेमी हैं, उन्हें लोग कृकल कहते हैं। मेरे स्वामीकी करूंगा। देवराज ! मैं देवताओं, मुनियों और बड़े-बड़े बुद्धि उत्तम है, उनका चित्त सदा धर्ममें ही लगा रहता ऋषीश्वरोको भी जीतनेकी शक्ति रखता है फिर एक है। वे इस समय तीर्थ-यात्राके लिये गये हैं। उन्हें गये साधारण कामिनीको, जिसके शरीरमें कोई बल ही नहीं आज तीन वर्ष हो गये। अतः उन महात्माके बिना मैं होता, जीतना कौन बड़ी बात है। मैं कामिनियोंके विभिन्न बहत दुःखी हैं। यही मेरा हाल है। अब यह बताओ कि अङ्गोंमें निवास करता हूँ। नारी मेरा घर है, उसके भीतर तुम कौन हो, जो मुझसे मेरा हाल पूछ रही हो?' मैं सदा मौजूद रहता हूँ। अतः भाई, पिता, स्वजन- सुकलाका कथन सुनकर दूतीने पुनः इस प्रकार कहना सम्बन्धी या बन्धु-बान्धव-कोई भी क्यों न हो, यदि आरम्भ किया-'सुन्दरी ! तुम्हारे स्वामी बड़े निर्दयी हैं, उसमें रूप और गुण है तो वह उसे देखकर मेरे बाणोंसे जो तुम्हें अकेली छोड़कर चले गये। वे अपनी प्रिय घायल हो ही जाती है। उसका चित्त चञ्चल हो जाता है, पत्रीके घातक जान पड़ते हैं, अब उन्हें लेकर क्या वह परिणामको चिन्ता नहीं करती। इसलिये देवेश्वर ! मैं करोगी। जो तुम-जैसी साध्वी और सदाचार-परायणा सुकलाके सतीत्वको अवश्य नष्ट करूँगा। पत्नीको छोड़कर चले गये, वे पापी नहीं तो क्या है।
इन्द्र बोले-मनोभव ! मैं रूपवान्, गुणवान् और बाले ! अब तो वे गये; अब उनसे तुम्हारा क्या नाता है। धनी बनकर कौतूहलवश इस नारीको [धर्म और] कौन जाने वे वहाँ जीवित हैं या मर गये। जीते भी हो धैर्यसे विचलित करूँगा।
तो उनसे तुम्हें क्या लेना है। तुम व्यर्थ ही इतना खेद कामदेवसे यो कहकर देवराज इन्द्र उस स्थानपर करती हो। इस सोने-जैसे शरीरको क्यों नष्ट करती हो। गये, जहाँ कृकल वैश्यकी प्यारी पत्नी सुकला देवी मनुष्य बचपनमें खेल-कूदके सिवा और किसी सुखका निवास करती थी । वहाँ जाकर वे अपने हाव-भाव, रूप अनुभव नहीं करता। बुढ़ापा आनेपर जब जरावस्था
और गुण आदिका प्रदर्शन करने लगे। रूप और शरीरको जीर्ण बना देती है, तब दुःख-ही-दुःख उठाना सम्पत्तिसे युक्त होनेपर भी उस पराये पुरुषपर सुकला रह जाता है। इसलिये सुन्दरी ! जबतक जवानी है, दृष्टि नहीं डालती थी; परन्तु वह जहाँ-जहाँ जाती, तभीतक संसारके सम्पूर्ण सुख और भोग भोग लो। वहीं-वहीं पहुँचकर इन्द्र उसे निहारते थे। इस प्रकार मनुष्य जबतक जवान रहता है, तभीतक वह भोग सहस्रनेत्रधारी इन्द्र अपने सम्पूर्ण भावोंसे कामजनित भोगता है। सुख-भोग आदिकी सब सामग्रियोंका चेष्टा प्रदर्शित करते हुए चाहभरे हृदयसे उसकी ओर इच्छानुसार सेवन करता है। इधर देखो-ये एक पुरुष देखते थे। इन्द्रने उसके पास अपनी दूती भी भेजी । वह आये हैं, जो बड़े सुन्दर, गुणवान, सर्वज्ञ, धनी तथा मुसकराती हुई गयी और मन-ही-मन सुकलाको प्रशंसा पुरुषों में श्रेष्ठ है। तुम्हारे ऊपर इनका बड़ा स्रेह है; ये सदा करती हुई बोली-'अहो ! इस नारीमें कितना सत्य, तुम्हारे हित-साधनके लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इनके कितना धैर्य, कितना तेज और कितना क्षमाभाव है। शरीरमें कभी बुढ़ापा नहीं आता । स्वयं तो ये सिद्ध है ही, संसारमें इसके रूपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई दूसरोंको भी उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं। उत्तम भी सुन्दरी नहीं है।' इसके बाद उसने सुकलासे सिद्ध और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है। लोकमें अपने स्वरूपसे पूछा-'कल्याणी ! तुम कौन हो, किसकी पत्नी हो? सबकी कामना पूर्ण करते हैं। जिस पुरुषको तुम-जैसी गुणवती भार्या प्राप्त है, वही सुकला बोली-दूती! यह शरीर मल-मूत्रका
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• सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा •
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खजाना है, अपवित्र है; सदा ही क्षय होता रहता है। और धर्मसे युक्त था। उसके साहस, धैर्य और ज्ञानको शुभे ! यह पानीके बुलबुले के समान क्षणभङ्गर है। फिर आलोचना करके इन्द्र मन-ही-मन सोचने लगे-'इस इसके रूपका क्या वर्णन करती हो। पचास वर्षको पृथ्वीपर दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं है, जो इस तरहकी अवस्थातक ही यह देह दृढ़ रहती है, उसके बाद प्रतिदिन बात कह सके। इसका वचन योगस्वरूप, निश्चयात्मक क्षीण होती जाती है। भला, बताओ तो, मेरे इस शरीरमें तथा ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षालित है। इसमें सन्देह नहीं कि ही तुमने ऐसी क्या विशेषता देखी है, जो अन्यत्र नहीं है। यह महाभागा सुकला परम पवित्र और सत्यस्वरूपा है। उस पुरुषके शरीरसे मेरे शरीरमें कोई भी वस्तु अधिक यह समस्त त्रिलोकीको धारण करनेमें समर्थ है।' यह नहीं है। जैसी तुम, जैसा वह पुरुष, वैसी ही मैं—इसमें विचारकर इन्द्रने कामदेवसे कहा-'अब मैं तुम्हारे साथ तनिक ही सन्देह नहीं है, ऊँचे उठनेका परिणाम पतन ही कल-पली सुकलाको देखने चलेंगा।' कामदेवको है। ये बड़े-बड़े वृक्ष और पर्वत कालसे पीड़ित होकर अपने बलपर बड़ा घमंड था। वह जोशमें आकर इन्द्रसे नष्ट हो जाते हैं। यही दशा सम्पूर्ण भूतोंकी है-इसमें बोला-'देवराज ! जहाँ वह पतिव्रता रहती है, उस रत्तीभर भी संदेह नहीं। दूती ! आत्मा दिव्य है। वह स्थानपर चलिये। मैं अभी चलकर उसके ज्ञान, वीर्य, रूपहीन है। स्थावर-जङ्गम सभी प्राणियोंमें वह व्याप्त है। बल, धैर्य, सत्य और पातिव्रत्यको नष्ट कर डालेंगा। जैसे एक ही जल भिन्न-भिन्न घड़ोंमें रहता है, उसी प्रकार उसकी क्या शक्ति है, जो मेरे सामने टिक सके। एक ही शुद्ध आत्मा सम्पूर्ण भूतोंमें निवास करता है। कामदेवकी बात सुनकर इन्द्रने कहा-'काम ! मैं घड़ोंका नाश होनेसे जैसे सब जल मिलकर एक हो जाता जानता हूँ. यह पतिव्रता तुमसे परास्त होनेवाली नहीं है। है, उसी प्रकार आत्माकी भी एकता समझो। [स्थूल, यह अपने धर्ममय पराक्रमसे सुरक्षित है। इसका भाव सूक्ष्म और कारणरूप] त्रिविध शरीरका नाश होनेपर बहुत सच्चा है। यह नाना प्रकारके पुण्य किया करती है। पञ्चकोशके सम्बन्धसे पाँच प्रकारका प्रतीत होनेवाला फिर भी मैं यहाँसे चलकर तुम्हारे तेज, बल और भयंकर आत्मा एकरूप हो जाता है। संसारमें निवास करनेवाले पराक्रमको देखूगा।' यह कहकर इन्द्र धनुर्धर वीर प्राणियोंका मैंने सदा एक ही रूप देखा है। [किसीमें कोई कामदेवके साथ चले। उनके साथ कामकी पत्नी रति अपूर्वता नहीं है।] कामकी खुजलाहट सब प्राणियोंको और दूती भी थी। वह परम पुण्यमयी पतिव्रता अपने होती है। उस समय स्त्री और पुरुष दोनोकी इन्द्रियोमे घरके द्वारपर अकेली बैठी थी और केवल पतिके ध्यानमें उत्तेजना पैदा हो जाती है, जिससे वे दोनों प्रमत्त होकर तन्मय हो रही थी। वह प्राणोंको वशमें करके स्वामीका एक-दूसरेसे मिलते हैं। शरीरसे शरीरको रगड़ते हैं। चिन्तन करती हुई विकल्प-शून्य हो गयी थी। कोई भी इसीका नाम मैथुन है। इससे क्षणभरके लिये सुख होता पुरुष उसकी स्थितिकी कल्पना नहीं कर सकता था। उस है, फिर वैसी ही दशा हो जाती है। दूती ! सर्वत्र यही समय इन्द्र अनुपम तेज और सौन्दर्यसे युक्त, विलास बात देखी जाती है। इसलिये अब तुम अपने स्थानको तथा हाव-भावसे सुशोभित अत्यन्त अद्भुत रूप धारण लौट जाओ। तुम्हारे प्रस्तावित कार्यमें कोई नवीनता नहीं करके सुकलाके सामने प्रकट हुए । उत्तम विलास और है। कम-से-कम मेरे लिये तो इसमें कोई अपूर्व बात नहीं कामभावसे युक्त महापुरुषको इस प्रकार सामने विचरण जान पड़ती; अतः मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती। करते देख महात्मा कृकल वैश्यकी पत्नीने उसके रूप,
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-सुकलाके यों गुण और तेजका तनिक भी सम्मान नहीं किया। जैसे कहनेपर दूती चली गयी। उसने इन्द्रसे उसकी कही हुई कमलके पत्तेपर छोड़ा हुआ जल उस पत्तेको छोड़कर दूर सारी बातें संक्षेपमें सुना दी। सुकलाका भाषण सत्य चला जाता है--उसमें ठहरता नहीं, उसी प्रकार वह संप पु. १०
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. अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
सती भी उस पुरुषकी ओर आकृष्ट नहीं हुई। महासती इन्द्रको इस प्रकार समझा-बुझाकर कामदेवने पुष्पयुक्त सुकलाका तेज सत्यकी रज्जुसे आबद्ध था। [उस धनुष और बाण हाथमें ले लिये तथा सामने खड़ी हुई पुरुषकी दृष्टिसे बचनेके लिये] वह घरके भीतर चली अपनी सखी क्रीड़ासे कहा-'प्रिये ! तुम माया रचकर गयी और अपने पतिमें ही अनुरक्त हो उन्हींका चिन्तन वैश्यपली सुकलाके पास जाओ। वह अत्यन्त पुण्यवती, करने लगी।
सत्यमें स्थित, धर्मका ज्ञान रखनेवाली और गुणज्ञ है। इन्द्र सुकलाके शुद्ध भावको समझकर सामने खड़े यहाँसे जाकर तुम मेरी सहायताके लिये उत्तम-से-उत्तम हुए कामदेवसे बोले-'इस सतीने सत्यरूप पतिक कार्य करो।' क्रीड़ासे यों कहकर वे पास ही खड़ी हुई ध्यानका कवच धारण कर रखा है। [तुम्हारे बाण इसे प्रीतिको सम्बोधित करके बोले-'तुम्हें भी मेरी चोट नहीं पहुंचा सकते,] अतः सुकलाको परास्त करना सहायताके लिये उत्तम कार्य करना होगा; तुम अपनी असम्भव है। यह पतिव्रता अपने हाथमें धर्मरूपी धनुष चिकनी-चुपड़ी बातोंसे सुकलाको वशमे करो।' इस और ध्यानरूपी उत्तम बाण लेकर इस समय रणभूमिमें प्रकार अपने-अपने कार्यमें लगे हुए वायु आदिके साथ तुमसे युद्ध करनेको उद्यत है। अज्ञानी पुरुष ही उपर्युक्त व्यक्तियोंको भेजकर कामदेवने उस महासतोको त्रिलोकोके महात्माओंके साथ वैर बाँधते हैं। कामदेव ! मोहित करनेके लिये इन्द्रके साथ पुनः प्रयाण किया। इस सतीके तपका नाश करनेसे हम दोनोंको अनन्त एवं सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके उद्देश्यसे जब इन्द्र अपार दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये अब हमें इसे और कामदेव प्रस्थित हुए; तब सत्यने धर्मसे कहाछोड़कर यहाँसे चल देना चाहिये। तुम जानते हो, पहले 'महाप्राज्ञ धर्म ! कामदेवकी जो चेष्टा हो रही है, उसपर एक बार मैं सतीके साथ समागम करनेका पापमय दृष्टिपात करो। मैंने तुम्हारे, अपने तथा महात्मा पुण्यके परिणाम-असह्य दुःख भोग चुका हूँ। महर्षि गौतमने लिये जो स्थान बनाया था, उसे यह नष्ट करना चाहता मुझे भयंकर शाप दिया था। आगकी लपटको छूनेका है। दुष्टात्मा काम हमलोगोंका शत्रु है, इसमें तनिक भी साहस कौन करेगा। कौन ऐसा मूर्ख है, जो अपने गले में सन्देह नहीं है। सदाचारी पति, तपस्वी ब्राह्मण और भारी पत्थर बाँधकर समुद्रमें उतरना चाहेगा तथा किसको पतिव्रता पत्नी- ये तीन मेरे निवास स्थान हैं। जहाँ मेरी मौतके मुखमें जानेकी इच्छा है, जो सती स्त्रीको विचलित वृद्धि होती है-जहाँ मैं पुष्ट और सन्तुष्ट रहता हूँ, वहीं करनेका प्रयत्न करेगा।
तुम्हारा भी निवास होता है। श्रद्धाके साथ पुण्य भी वहाँ इन्द्रने कामदेवको उत्तम शिक्षा देनेके लिये बहुत ही आकर क्रीड़ा करते हैं। मेरे शान्तियुक्त मन्दिरमें क्षमाका नीति-युक्त बात कही; उसे सुनकर कामदेवने इन्द्रसे भी आगमन होता है। जहाँ मैं रहता हूँ, वहीं सन्तोष, कहा-'सुरेश ! मैं तो आपके ही आदेशसे यहाँ आया इन्द्रिय-संयम, दया, प्रेम, प्रज्ञा और लोभहीनता आदि था। अव आप धैर्य, प्रेम तथा पुरुषार्थका त्याग करके गुण भी निवास करते हैं। वहीं पवित्र भाव रहता है। ये ऐसी पौरुषहीनता और कायरताकी बातें क्यों करते हैं। सभी सत्यके वन्धु-बान्धव है। धर्म ! चोरी न करना, पूर्वकालमें मैंने जिन-जिन देवताओं, दानवों और अहिंसा, सहनशीलता और बुद्धि-ये सब मेरे ही घरमें तपस्यामें लगे हुए मुनीश्वरोंको परास्त किया है, वे सब आकर धन्य होते हैं। गुरु-शुश्रूषा, लक्ष्मीके साथ मेरा उपहास करते हुए कहेंगे कि 'यह कामदेव बड़ा भगवान् श्रीविष्णु तथा अनि आदि देवता भी मेरे घरमें डरपोक है, एक साधारण स्त्रीने इसको क्षणभरमें परास्त पधारते हैं। मोक्ष-मार्गको प्रकाशित करनेवाले ज्ञान और कर दिया।' इसलिये मैं अपने सम्मानरूपी धनकी रक्षा उदारता आदिसे युक्त हो पूर्वोक्त व्यक्तियोंके साथ मैं करूंगा और आपके साथ चलकर इस सतोके तेज, बल धर्मात्मा पुरुषों और सती स्त्रियोंके भीतर निवास करता और धैर्यका नाश करूँगा। आप डरते क्यों हैं। देवराज हूँ। ये जितने भी साधु-महात्मा है, सब मेरे गृहस्वरूप हैं;
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भूमिखण]
• सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा .
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इन सबके भीतर मैं उक्त कुटुम्बियोंके साथ वास करता उसकी पुण्यमयी वाणीसे पूजित होकर क्रीड़ा मुसकराती हूँ। जो जगत्के स्वामी, त्रिशूलधारी, वृषभवाहन तथा हुई बातचीत करने लगी। उसका मायामय वचन विश्वको साक्षात् ईश्वर हैं, वे कल्याणमय भगवान् शिव भी मेरे मोहित करनेवाला था। सुननेपर सत्य और विश्वासके निवास-स्थान है। कृकल वैश्यको प्रियतमा भार्या योग्य जान पड़ता था। क्रीड़ा बोली- 'देवि ! मेरे स्वामी मङ्गलमयी सुकला भी मेरा उत्तम गृह है; किन्तु आज पापी बड़े बलवान्, गुणज्ञ, धीर तथा अत्यन्त पुण्यात्मा है; परन्तु काम इसे भी जला डालनेको उद्यत हुआ है। ये बलवान् मुझे छोड़कर न जाने कहाँ चले गये हैं। वह मेरे इन्द्र भी कामका साथ दे रहे हैं; कामकी ही करतूतसे पूर्वजन्मके कोका फल है, जो आज इस रूपमें सामने अहल्याका सङ्ग करनेपर एक बार जो हानि उठानी पड़ी आया है; मैं कैसी मन्दभागिनी हूँ। महाभागे ! नारियोंके है, उस प्राचीन घटनाका इन्हें स्मरण क्यों नहीं होता। लिये रूप, सौभाग्य, शृङ्गार, सुख और सम्पति-सब सतीके सतीत्वका नाश करनेसे ही इन्हें महान् दुःखमें कुछ पति ही है; यही शास्त्रोका मत है।' पड़कर दुःसह शापका उपभोग करना पड़ा था। फिर भी पतिव्रता सुकलाने क्रीडाकी ये सारी बातें सुनीं । उसे आज कामदेवके साथ आकर ये धर्मचारिणी कृकल-पत्नी विश्वास हो गया कि यह सब कुछ इस दुःखिनी नारीके सुकलाका अपहरण करनेको उतारू हुए है। हृदयका सच्चा भाव है। वह उसके दुःखसे दुःखी हो गयी,
धर्मने कहा-मैं कामका तेज कम कर दूंगा; [मैं और अपनी बातें भी उसे बताने लगी। उसने पहलेका यदि चाहूँ तो] उसकी मृत्युका भी कारण उपस्थित कर अपना सारा हाल थोड़ेमें कह सुनाया। अपने दुःखसकता हूँ। मैंने एक ऐसा उपाय सोच लिया है, जिससे सुखकी बात बताकर मनस्विनी सुकला चुप हो गयी; तब यह काम आज ही भाग खड़ा होगा। यह महाप्रज्ञा क्रीडाने उस पतिव्रताको सारखना दी और बहुत कुछ पक्षिणीका रूप धारण करके सुकलाके घर जाय और समझाया-बुझाया। तदनन्तर एक दिन उसने सुकलासे अपने मङ्गलमय शब्दसे उसको स्वामीके शुभागमनको कहा-'सखी ! देखो, वह सामने बड़ा सुन्दर वन सूचना दे।
दिखायी दे रहा है; अनेको दिव्य वृक्ष उसकी शोभा बढ़ा र धर्मके भेजनेसे प्रज्ञा सुकलाके घरमे गयी और वहाँ रहे हैं। वहाँ एक परम पवित्र पापनाशन तीर्थ है; वरानने ! मङ्गलजनक शब्दका उच्चारण किया। सुकलाने धूप-गन्ध चलो, हम दोनों भी वहाँ पुण्य-सञ्चय करनेके लिये चलें।' आदिके द्वारा उसका समादर और पूजन किया तथा यह सुनकर सुकला उस मयामयी स्त्रीके साथ वहाँ सुयोग्य ब्राह्मणको बुलाकर पूछा-'इस शकुनका क्या जानेको राजी हो गयी। उसने वनमें प्रवेश करके देखा तात्पर्य है? मेरे पतिदेव कब आयेंगे?'
तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसमें नन्दन-वनकी शोभा ब्राह्मणने कहा-भद्रे! यह शकुन तुम्हारे उतर आयी है। सभी ऋतुओंके फूल खिले थे सैकड़ों स्वामीके शुभागमनकी सूचना दे रहा है। वे सात दिनसे कोकिलोंके कलरवसे सारा वन-प्रान्त गूंज रहा था। पहले-पहले यहाँ अवश्य आ जायेंगे। इसमें अन्तर नहीं माधवी लता और माधव (वसत्त) ने उस उपवनकी हो सकता।
शोभाको सब भावोंसे परिपूर्ण बनाया था ! सुकलाको - ब्राह्मणका यह मङ्गलमय वचन सुनकर सुकलाको मोहित करनेके लिये ही उसकी सृष्टि की गयी थी। उसने बड़ी प्रसन्नता हुई।
क्रीड़ाके साथ सबके मनको भानेवाले उस वनमें घूमउधर कामदेवकी भेजी हुई क्रीड़ा सती स्त्रीका रूप घूमकर अनेको दिव्य कौतुक देखे। इसी समय रतिके धारण करके उस सुन्दरी पतिव्रताके घर गयी। उस साथ काम और इन्द्र भी वहाँ आये । इन्द्र सम्पूर्ण भोगोंके रूपवती नारीको आयो देख सुकलाने आदरयुक्त वचन अधिपति होकर भी काम-क्रीडाके लिये व्यग्र थे। उन्होंने कहकर उसका सम्मान किया और अपनेको धन्य माना। कामदेवको पुकारकर कहा-'लो, यह सुकला आ
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . का
. [संक्षिप्त पयपुराण
गयी, क्रीड़ाके आगे खड़ी है। इस महाभागा सतीपर तुम रति और प्रीतिके साथ यहाँ रमण करो। सुकलाने प्रहार करो।'
कहा-'जहाँ मेरे स्वामी है, वहीं मैं भी हैं। मैं सदा कामदेव बोला-सहस्रलोचन ! लीला और पतिके साथ रहती हूँ। मेरा काम, मेरी प्रीति सब वहीं है। चातुरीसे युक्त अपने दिव्य रूपको प्रकट कौजिये, यह शरीर तो निराश्रय है-छायामात्र है।' यह सुनकर जिसका आश्रय लेकर मैं इसके ऊपर अपने पाँचों रति और प्रीति दोनों लज्जित हो गयीं तथा महाबली बाणोंका पृथक्-पृथक् प्रहार करूँ। त्रिशूलधारी कामके पास जाकर बोली-'महाप्राज्ञ ! अब आप महादेवने मेरे रूपको पहले ही हर लिया। मेरा शरीर है अपना पुरुषार्थ छोड़ दीजिये, इस नारीको जीतना कठिन ही नहीं। जब मैं किसी नारीको अपने बाणोंका निशाना है। यह महाभागा पतिव्रता सदैव अपने पतिको हो बनाना चाहता हूँ, उस समय पुरुष-शरीरका आश्रय कामना रखती है। का, उस ITE लेकर अपने रूपको प्रकट करता हूँ। इसी तरह पुरुषपर कामदेवने कहा-देवि ! जब यह इन्द्रके रूपको प्रहार करनेके लिये मैं नारी-देहका आश्रय लेता हूँ। देखेगी, उस समय मैं अवश्य इसे घायल करूंगा। पुरुष जब पहले-पहल किसी सुन्दरी नारीको देखकर । तदनन्तर देवराज इन्द्र परम सुन्दर दिव्य वेष धारण बारम्बार उसीका चिन्तन करने लगता है, तब मैं चुपकेसे किये रतिके पोछे-पीछे चले; उनको गतिमें अत्यन्त उसके भीतर घुसकर उसे उन्मत्त बना देता हूँ। स्मरण- ललित विलास दृष्टिगोचर होता था। सब प्रकारके चिन्तनसे मेरा प्रादुर्भाव होता है। इसीलिये मेरा नाम आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य माला, दिव्य 'स्मर' हो गया है। आज मैं आपके रूपका आश्रय लेकर वस्त्र और दिव्य गन्धसे सुसज्जित हो वे पतिव्रता इस नारीको अपनी इच्छाके अनुसार नचाऊँगा। सुकलाके पास आये और उससे इस प्रकार बोलेर यो कहकर कामदेव इन्द्रके शरीरमें घुस गया 'भद्रे ! मैंने पहले तुम्हारे सामने दूतो भेजी थी, फिर और पुण्यमयी क्कल-पत्नी सती सुकलाको घायल प्रीतिको रवाना किया। मेरो प्रार्थना क्यों नहीं मानती ? मैं करनेके लिये हाथमें याण ले उत्कण्ठापूर्वक अवसरकी स्वयं तुम्हारे पास आया हूँ, मुझे स्वीकार करो।' प्रतीक्षा करने लगा। वह उसके नेत्रोंको ही लक्ष्य सकला बोली-मेरे स्वामीके महात्मा पुत्र बनाये बैठा था। 17
(सल्य, धर्म आदि) मेरी रक्षा कर रहे हैं। मुझे किसीका - भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन् ! क्रीड़ाकी भय नहीं है। अनेक शूरवीर पुरुष सर्वत्र मेरी रक्षाके प्रेरणासे उस सुन्दर वनमें गयी हुई वैश्यपनी सुकलाने लिये उद्यत रहते हैं। जबतक मेरे नेत्र खुले रहते हैं, पूछा-'सखी ! यह मनोरम दिव्य वन किसका है?' तबतक मैं निरन्तर पतिके ही कार्यमें लगी रहती हूँ। आप
क्रीड़ा बोली-यह स्वभावसिद्ध दिव्य गुणोंसे कौन हैं, जो मृत्युका भी भय छोड़कर मेरे पास आये हैं ? युक्त सारा वन कामदेवका है, तुम भलीभाँति इसका इन्द्रने कहा-तुमने अपने स्वामीके जिन शूरवीर निरीक्षण करो।
- पुत्रोंकी चर्चा की है, उन्हें मेरे सामने प्रकट करो ! मैं कैसे R दुरात्मा कामकी यह चेष्टा देखकर सुन्दरी सुकलाने उन्हें देख सकूँगा। वायुके द्वारा लायी हुई वहाँके फूलोंकी सुगन्धको नहीं सुकला बोली-इन्द्रिय-संयमके ... विभिन्न ग्रहण किया। उस सतीने वहाँके रसोंका भी आस्वादन गुणोंद्वारा उत्तम धर्म सदा मेरी रक्षा करता है। वह देखो, नहीं किया। यह देख कामदेवका मित्र वसन्त बहुत शान्ति और क्षमाके साथ सत्य मेरे सामने उपस्थित है। लज्जित हुआ। तत्पश्चात् कामदेवकी पत्नी रति-प्रीतिको महाबली सत्य बड़ा यशस्वी है। यह कभी मेरा त्याग साथ लेकर आयी और सुकलासे हँसकर बोली- नहीं करता। इस प्रकार धर्म आदि रक्षक सदा मेरी 'भद्रे । तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ। देख-भाल किया करते हैं; फिर क्यों आप बलपूर्वक मुझे
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भूमिखण्ड ]
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सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रा से लौटना और देवताओंसे वरदान प्राप्त करना •
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— राजन् ! कृकल वैश्य सब तीर्थोंकी यात्रा पूरी करके अपने साथियोंके साथ बड़े आनन्दसे घरकी ओर लौटे। वे सोचते थे— मेरा संसारमें जन्म लेना सफल हो गया; मेरे सब पितर स्वर्गको चले गये होंगे। वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि एक दिव्य रूपधारी विशालकाय पुरुष उनके पिता पितामहोंको प्रत्यक्षरूपसे बाँधकर सामने प्रकट हुए और बोले— 'वैश्य! तुम्हारा पुण्य उत्तम नहीं है। तुम्हें तीर्थ- - यात्राका फल नहीं मिला। तुमने व्यर्थ ही इतना परिश्रम किया।' यह सुनकर कृकल वैश्य दुःखसे पीड़ित हो गये। उन्होंने पूछा- 'आप कौन हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं? मेरे पिता पितामह क्यों बाँधे गये हैं? मुझे तीर्थका फल क्यों नहीं मिला ?"
प्राप्त करना चाहते हैं। आप कौन हैं, जो निडर होकर दूतीके साथ यहाँ आये हैं ? सत्य, धर्म, पुण्य और ज्ञान आदि बलवान् पुत्र मेरे तथा मेरे स्वामीके सहायक हैं। वे सदा मेरी रक्षामें तत्पर रहते हैं। मैं नित्य सुरक्षित हूँ। इन्द्रिय- संयम और मनोनिग्रहमें तत्पर रहती हूँ। साक्षात् शचीपति इन्द्र भी मुझे जीतनेकी शक्ति नहीं रखते। यदि महापराक्रमी कामदेव भी आ जाय तो मुझे कोई परवा नहीं है; क्योंकि मैं अनायास ही सतीत्वरूपी कवचसे सदा सुरक्षित हूँ। मुझपर कामदेवके बाण व्यर्थ हो जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उलटे महाबली धर्म आदि तुम्हींको मार डालेंगे। दूर हटो, भाग जाओ, मेरे सामने न खड़े होओ। यदि मना करनेपर भी खड़े 201 * सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
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रहोगे तो जलकर खाक हो जाओगे। मेरे स्वामीकी अनुपस्थितिमें यदि तुम मेरे शरीरपर दृष्टि डालोगे तो जैसे आग सूखी लकड़ीको जला देती है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हें भस्म कर डालूंगी। *
सुकलाने जब यह कहा, तब तो उस सतीके भयंकर शापके डरसे व्याकुल हो सब लोग जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये । इन्द्र आदिने अपने-अपने लोककी राह ली। सबके चले जानेपर पुण्यमयी पतिव्रता सुकला पतिका ध्यान करती हुई अपने घर लौट आयी। वह घर पुण्यमय था। वहाँ सब तीर्थ निवास करते थे। सम्पूर्ण यज्ञोंकी भी वहाँ उपस्थिति थी। राजन् ! पतिको ही देवता माननेवाली वह सती अपने उसी घरमें आकर रहने लगी।
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* अहं रक्षापरा नित्यं दमशान्तिपरायणा न मां जेतुं समर्थच अपि साक्षाच्छ्चीपतिः ॥ यदि वा मन्मथो वापि समागच्छति वीर्यवान्। दंशिताहं सदा सत्यमल्याकष्टेन सर्वदा ॥ निरर्थकास्तस्य बाणा भविष्यन्ति न संशयः । त्वामेवं हि हनिष्यन्ति धर्माद्यास्ते महाबलाः ॥ दूरं गच्छ पलायस्व नात्र तिष्ठ ममाग्रतः । वार्यमाणो यदा तिष्ठेर्भस्मीभूतो भविष्यसि ॥ भर्त्रा बिना निरीक्षेत मम रूपं यदा भवान्। यथा दारू दहेद्वह्निस्तथा धक्ष्यामि नान्यथा ॥
धर्मने कहा- जो धार्मिक आचार और उत्तम व्रतका पालन करनेवाली, श्रेष्ठ गुणोंसे विभूषित, पुण्यमें अनुराग रखनेवाली तथा पुण्यमयी पतिव्रता पत्नीको अकेली छोड़कर धर्म करनेके लिये बाहर जाता है, उसका किया हुआ सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो सब प्रकारके सदाचारमे संलग्र रहनेवाली प्रशंसाके योग्य आचरणवाली, धर्मसाधनमें तत्पर सदा पातिव्रत्यका पालन करनेवाली, सब बातोंको जाननेवाली तथा ज्ञानको अनुरागिणी है, ऐसी गुणवती, पुण्यवती और महासती नारी जिसकी पत्नी हो, उसके घरमें सर्वदा देवता निवास करते हैं। पितर भी उसके घरमें रहकर निरन्तर उसके यशकी कामना करते रहते हैं। गङ्गा आदि पवित्र नदियाँ,
(५८ । ३२ – ३६ )
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. अचंयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
सागर, यज्ञ, गौ, ऋषि तथा सम्पूर्ण तीर्थ भी उस घरमें भोजन करते हैं तथा उसौसे उन्हें विशेष संतोष और मौजूद रहते है। पुण्यमयी पत्नीके सहयोगसे गृहस्थ- तृप्ति होती है। अतः पत्नीके बिना जो धर्म किया जाता है, धर्मका पालन अच्छे ढंगसे होता है। इस भूमण्डलमें वह निष्फल होता है। गृहस्थधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। वैश्य ! कृकलने पूछा-धर्म ! अब कैसे मुझे सिद्धि गृहस्थका घर यदि सत्य और पुण्यसे युक्त हो तो परम प्राप्त होगी और किस प्रकार मेरे पितरोंको बन्धनसे पवित्र माना गया है, वहाँ सब तीर्थ और देवता निवास छुटकारा मिलेगा? करते हैं। गृहस्थका सहारा लेकर सब प्राणी जीवन धारण धर्मने कहा-महाभाग ! अपने घर जाओ। करते हैं। गृहस्थ-आश्रमके समान दूसरा कोई उत्तम तुम्हारी धर्मपरायणा, पुण्यवती पत्नी सुकला तुम्हारे बिना आश्रम मुझे नहीं दिखायी देता ।* जिसके घरमें साध्वी बहुत दुःखी हो गयी थी; उसे सान्त्वना दो और उसीके स्त्री होती है, उसके यहाँ मन्त्र, अग्रिहोत्र, सम्पूर्ण देवता, हाथसे श्राद्ध करो। अपने घरपर ही पुण्यतीर्थोका स्मरण सनातन धर्म तथा दान एवं आचार सब मौजूद रहते हैं। करके तुम श्रेष्ठ देवताओंका पूजन करो, इससे तुम्हारी इसी प्रकार जो पत्नीसे रहित है, उसका घर-जंगलके की हुई तीर्थ यात्रा सफल हो जायगी। समान है। वहाँ किये हुए यज्ञ तथा भाँति-भाँतिके दान “भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन्! यों सिद्धिदायक नहीं होते। साध्वी पत्नीके समान कोई तीर्थ कहकर धर्म जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये; परम नहीं है, पत्रीके समान कोई सुख नहीं है तथा संसारसे बुद्धिमान् कृकल भी अपने घर गये और पतिव्रता तारनेके लिये और कल्याण-साधनके लिये पत्नीके समान पत्नीको देखकर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए । सुकलाने कोई पुण्य नहीं है। जो अपनी धर्मपरायणा सती नारीको स्वामीको आया देख उनके शुभागमनके उपलक्ष में छोड़कर चला जाता है, वह मनुष्योंमें अधम है। माङ्गलिक कार्य किया। तत्पश्चात् धर्मात्मा वैश्यने धर्मकी गृह-धर्मका परित्याग करके तुम्हे धर्मका फल कहाँ सारी चेष्टा बतलायी। स्वामीके आनन्ददायक वचन मिलेगा। अपनी पत्नीको साथ लिये बिना जो तुमने सुनकर महाभागा सुकलाको बड़ा हर्ष हुआ। उसके बाद तीर्थमें श्राद्ध और दान किया है, उसी दोषसे तुम्हारे पूर्वज कृकलने घरपर ही रहकर पत्नीके साथ श्रद्धापूर्वक श्राद्ध बाँधे गये हैं। तुम चोर हो और तुम्हारे ये पितर भी चोर और देवपूजन आदि पुण्यकर्मका अनुष्ठान किया। इससे हैं; क्योंकि इन्होंने लोलुपतावश तुम्हारा दिया हुआ प्रसन्न होकर देवता, पितर और मुनिगण विमानोंके द्वारा श्राद्धका अन्न खाया है। तुमने श्राद्ध करते समय अपनी वहाँ आये और महात्मा कृकल और उसकी महानुभावा पत्नीको साथ नहीं रखा था। जो सुयोग्य पुत्र श्रद्धासे युक्त पत्री दोनोंकी सराहना करने लगे। मैं, ब्रह्मा तथा हो अपनी पत्नीके दिये हुए पिण्डसे श्राद्ध करता है, उससे महादेवजी भी अपनी-अपनी देवीके साथ वहाँ गये। पितरोंको वैसी ही तृप्ति होती है, जैसी अमृत पीनेसे- सम्पूर्ण देवता उस सतीके सत्यसे सन्तुष्ट थे। सबने उन इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पत्नी ही गार्हस्थ्य-धर्मकी दोनों पति-पत्नीसे कहा-'सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो, स्वामिनी है। उसके बिना ही जो तुमने शुभ कर्मोका तुम अपनी पत्नीके साथ वर माँगो।' । अनुष्ठान किया है, यह स्पष्ट ही तुम्हारी चोरी है। जब पत्नी कृकलने पूछा-देववरो ! मेरे किस पुण्य और अपने हाथसे अन्न तैयार करके देती है, तो वह अमृतके तपके प्रसङ्गसे पत्नीसहित मुझे वर देनेको आपलोग समान मधुर होता है। उसी अन्नको पितर प्रसन्न होकर पधारे हैं?
* गार्हस्थ्यं च समाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः । तादृशं नैव पश्यामि शन्यमाश्रममुत्तमम्।।
(५९ ॥ १९)
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पितृतीर्थके प्रसङ्गमें पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन
इन्द्रने कहा- यह महाभागा सुकला सती है। इसके सत्यसे सन्तुष्ट होकर हमलोग तुम्हें वर देना चाहते हैं।
यह कहकर इन्द्रने उसके सतीत्वकी परीक्षाका सारा वृत्तान्त थोड़े में कह सुनाया। उसके सदाचारका माहात्म्य सुनकर उसके स्वामीको बड़ी प्रसन्नता हुई। हर्षोल्लाससे कृकलके नेत्र डबडबा आये। धर्मात्मा वैश्यने पत्नीके साथ समस्त देवताओंको बारम्बार साष्टाङ्ग प्रणाम किया और कहा - 'महाभाग देवगण! आप सब लोग प्रसन्न हो; तीनों सनातन देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हमपर सन्तुष्ट हों तथा अन्य जो पुण्यात्मा ऋषि मुझपर कृपा करके यहाँ पधारे हैं, वे भी प्रसन्नता प्राप्त करें। मैं सदा भगवान्की भक्ति करता रहूँ। आपलोगोंकी कृपासे धर्म तथा सत्यमें मेरा निरन्तर अनुराग बना रहे। तत्पश्चात् अन्तमें पत्नी और पितरके साथ मैं भगवान् श्रीविष्णुके
वेनने कहा -भगवन्! आपने सब तीर्थोंमें उत्तम भार्या तीर्थका वर्णन तो किया, अब पुत्रोंको तारनेवाले पितृ तीर्थका वर्णन कीजिये ।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें कुण्डल नामके एक ब्राह्मण रहते थे। उनके सुयोग्य पुत्रका नाम सुकर्मा था। सुकर्माके माता और पिता दोनों ही अत्यन्त वृद्ध, धर्मज्ञ और शास्त्रवेत्ता थे। सुकर्माको भी धर्मका पूर्ण ज्ञान था। वे श्रद्धायुक्त होकर बड़ी भक्तिके साथ दिन-रात माता-पिताकी सेवामें लगे रहते थे। उन्होंने पितासे ही सम्पूर्ण वेद और अनेक शास्त्रोंका अध्ययन किया। वे पूर्णरूपसे सदाचारका पालन करनेवाले, जितेन्द्रिय और सत्यवादी थे। अपने ही हाथों माता-पिताका शरीर दबाते पैर धोते और उन्हें स्नान- भोजन आदि कराते थे। राजेन्द्र सुकर्मा स्वभावसे ही भक्तिपूर्वक माता-पिताकी परिचर्या करते और सदा उन्हींके ध्यानमें लीन रहते थे ।
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पितृतीर्थके प्रसङ्गमें पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहने से पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
धाममें जाना चाहता हूँ।'
देवता बोले- महाभाग ! एवमस्तु यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त होगा।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- -राजन् ! यह कहकर देवताओंने उन दोनों पति-पत्नीके ऊपर फूलांकी वर्षा की तथा ललित, मधुर और पवित्र संगीत सुनाया। वर देकर वे उस पतिव्रताकी स्तुति करते हुए अपने-अपने लोकको चले गये। इस परम उत्तम और पवित्र उपाख्यानको मैंने पूर्णरूपसे तुम्हें सुना दिया। राजन्! जो मनुष्य इसे सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। स्त्रीमात्रको सुकलाका उपाख्यान श्रद्धापूर्वक सुनना चाहिये। इसके श्रवणसे वह सौभाग्य, सतीत्व तथा पुत्र-पौत्रोंसे युक्त होती है। इतना ही नहीं, पतिके साथ सुखी रहकर वह निरन्तर आनन्दका अनुभव करती है।
उन्हीं दिनों कश्यप-कुलमें उत्पन्न एक ब्राह्मण थे, जो पिप्पल नामसे प्रसिद्ध थे। वे सदा धर्म-कर्ममें लगे रहते थे और इन्द्रिय-संयम, पवित्रता तथा मनोनिग्रहसे सम्पन्न थे। एक समयकी बात है, वे महामना बुद्धिमान् ब्राह्मण दशारण्यमें जाकर ज्ञान और शान्तिके साधनमें तत्पर हो तपस्या करने लगे। उनकी तपस्याके प्रभावसे आस-पासके समस्त प्राणियोंका पारस्परिक वैर-विरोध शान्त हो गया। वे सब वहाँ एक पेटसे पैदा हुए भाइयोंको तरह हिल-मिलकर रहते थे। पिप्पलकी तपस्या देख मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओंको भी बड़ा विस्मय हुआ ।
देवता कहने लगे- 'अहो ! इस ब्राह्मणकी कितनी तीव्र तपस्या है। कैसा मनोनिग्रह है और कितना इन्द्रियसंयम है ! मनमें विकार नहीं चित्तमें उद्वेग नहीं।' काम-क्रोधसे रहित हो, सर्दी-गर्मी और हवाका झोंका सहते हुए वे तपस्वी ब्राह्मण पर्वतकी भाँति अविचल
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अवयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भावसे स्थित रहे। ऐसी अवस्थामें पहुँचकर उनका चित्त एकाग्र हो गया। वे ब्रह्मके ध्यानमें तन्मय थे। उनका मुख- कमल प्रसन्नतासे खिल उठा था। वे पत्थर और काठकी भाँति निश्चेष्ट एवं सुस्थिर दिखायी देते थे। धर्ममें उनका अनुराग था। तपसे शरीर दुर्बल हो गया था और हृदयमें पूर्ण श्रद्धा थी। इस प्रकार उन बुद्धिमान् ब्राह्मणको तपस्या करते एक हजार वर्ष बीत गये ।
वहाँ बहुत-सी चींटियोंने मिलकर मिट्टीका ढेर लगा दिया। उनके ऊपर बाँबीका विशाल मन्दिर-सा बन गया। काले साँपोंने आकर उनके शरीरको लपेट लिया। भयंकर विषवाले सर्प उन उग्र तेजस्वी ब्राह्मणको डँस लेते थे; किन्तु जहर उनके शरीरपर गिर जाता था, उनकी त्वचाको भेदकर भीतर नहीं फैलने पाता था। उनके सम्पर्क में आकर साँप स्वयं ही शान्त हो जाते थे। उनकी देहसे नाना प्रकारकी तेजोमयी लपटें निकलती दिखायी देती थीं। पिप्पल तीनों काल तपमें प्रवृत्त रहते थे। वे तीन हजार वर्षोंतक केवल वायु पोकर रह गये। तब देवताओंने उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा की और कहा - 'महाभाग ! तुम जिस-जिस वस्तुको प्राप्त करना चाहते हो, वह सब निश्चय ही प्राप्त होगी। तुम्हें समस्त अभिलषित पदार्थोको देनेवाली सिद्धि स्वतः ही प्राप्त हो जायगी।'
यह वाक्य सुनकर महामना पिप्पलने भक्तिपूर्वक मस्तक झुका समस्त देवताओंको प्रणाम किया और बड़े हर्षमें भरकर कहा-' — 'देवताओ! यह सारा जगत् मेरे वशमें हो जाय - ऐसा वरदान दीजिये: मैं विद्याधर होना चाहता हूँ।' 'एवमस्तु' कहकर देवताओंने उन ब्राह्मणको अभीष्ट वरदान दिया और अपने-अपने स्थानको चले गये। राजेन्द्र ! तबसे द्विजश्रेष्ठ पिप्पल विद्याधरका पद पा गये और इच्छानुसार विचरते हुए सर्वत्र सम्मानित होने लगे। एक दिन महातेजस्वी पिप्पलने विचार किया- 'देवताओंने मुझे वर दिया है कि सम्पूर्ण विश्व तुम्हारे वशमें हो जायगा। अतः उसकी परीक्षा करनी चाहिये।' यह सोचकर वे उसे आजमानेको तैयार हुए। जिस-जिस व्यक्तिका वे मनसे चिन्तन करते, वही वही
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
उनके वशमें हो जाता था। इस प्रकार जब उन्हें देवताओंकी बातपर विश्वास हो गया, तब वे [ अहंकारके वशीभूत हो] सोचने लगे— 'मेरे समान श्रेष्ठ पुरुष इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है।'
पिप्पल जब इस प्रकारकी भावना करने लगे, तब उनके मनका भाव जानकर एक सारसने कहा'ब्राह्मण! तुम ऐसा अहंकार क्यों कर रहे हो कि 'मैं ही सबसे बड़ा हूँ।' मैं तो ऐसा नहीं मानता कि सबको वशमें करनेकी सिद्धि केवल तुम्हींको प्राप्त हुई है। पिप्पल ! मेरी समझमें तुम्हारी बुद्धि मूढ़ है, तुम पराचीन तत्त्वको नहीं जानते। तुमने तीन हजार वर्षोंतक तप किया है, इसीका तुम्हें गर्व है; फिर भी तुम यहाँ मूढ़ ही रह गये। कुण्डलके जो सुकर्मा नामक पुत्र हैं, वे विद्वान् पुरुष हैं; उनकी बुद्धि उत्तम है। वे अर्वाचीन तथा पराचीन तत्त्वको जानते हैं। पिप्पल! तुम कान खोलकर सुन लो, संसारमें सुकर्माके समान महाज्ञानी दूसरा कोई नहीं है। उन्होंने दान नहीं दिया; ध्यान, होम और यज्ञ आदि कर्म भी कभी नहीं किया। न तीर्थ करने गये, न गुरुकी उपासना ही की। वे केवल माता- पिताके हितैषी हैं, वेदाध्ययनसम्पन्न हैं तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता हैं। यद्यपि सुकर्मा अभी बालक हैं, तो भी उन्हें जैसा ज्ञान प्राप्त है, वैसा तुम्हें अबतक नहीं हुआ। ऐसी दशामें तुम व्यर्थ ही यह गर्वका बोझ ढो रहे हो।
पिप्पल बोले- आप कौन हैं, जो पक्षीके रूपमें आकर इस प्रकार मेरी निन्दा कर रहे हैं? इस समय मुझे अर्वाचीन और पराचीनका स्वरूप पूर्णतया समझाइये।
सारसने कहा — द्विजश्रेष्ठ ! कुण्डलके बालक पुत्रको जैसा ज्ञान प्राप्त है, वैसा तुममें नहीं है। यहाँसे जाओ और अर्वाचीन एवं पराचीनका स्वरूप तथा मेरा परिचय भी उन्हींसे पूछो। वे धर्मात्मा हैं, तुम्हें सारा ज्ञान बतलायेंगे।
सारसकी यह बात सुनकर विप्रवर पिप्पल बड़े वेगसे कुण्डलके आश्रमकी ओर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, सुकर्मा माता पिताकी सेवामें लगे हैं। वे सत्यपराक्रमी महात्मा अपने माता-पिताके चरणोंके
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भूमिखण्ड ] . पितृतीर्थक प्रसङ्गमें पिप्पलकी तपस्या और सकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन • २८३ ....................................................................................................... निकट बैठे थे। उनके भीतर बड़ी भक्ति थी। वे परम हैं कि सम्पूर्ण विश्व मेरे वशमें कैसे है। इन्हें विश्वास शान्त और सम्पूर्ण ज्ञानकी महान् निधि जान पड़ते थे। दिलानेके लिये ही मैंने आपलोगोंका आवाहन किया है। कुण्डल-कुमार सुकर्माने जब पिप्पलको अपने द्वारपर अब आप अपने-अपने स्थानको पधारें ।' आया देखा, तब वे आसन छोड़कर तुरंत खड़े हो गये तब देवताओंने कहा-'ब्रह्मन् ! हमारा दर्शन और आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। फिर उनको निष्फल नहीं होता । तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनको आसन, पाद्य और अर्घ्य आदि निवेदन करके पूछा- जो रुचिकर प्रतीत हो, वही वरदान हमसे माँग लो।' तब 'महाप्राज्ञ ! आप कुशलसे तो हैं न? मार्गमें कोई कष्ट द्विजश्रेष्ठ सुकर्माने देवताओंको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तो नहीं हुआ? जिस कारणसे आपका यहाँ आना हुआ यह वरदान माँगा-'देवेश्वरो ! माता-पिताके चरणों में है, वह सब मैं बताता हूँ। महाभाग ! आपने तीन हजार मेरी उत्तम भक्ति सदा सुस्थिर रहे तथा मेरे माता-पिता वर्षातक तपस्या करके देवताओंसे वरदान प्राप्त भगवान् श्रीविष्णुके धाममें पधारें।' किया-सबको वशमें करनेकी शक्ति और इच्छानुसार देवता बोले-विप्रवर ! तुम माता-पिताके भक्त गति पायी है। इससे उन्मत्त हो जानेके कारण आपके तो हो ही, तुम्हारी उत्तम भक्ति और भी बढ़े। मनमें गर्व हो आया। तब महात्मा सारसने आपकी सारी यों कहकर सम्पूर्ण देवता स्वर्गलोगको चले गये। चेष्टा देखकर आपको मेरा नाम बताया और मेरे उत्तम पिप्पलने भी वह महान् और अद्भुत कौतुक प्रत्यक्ष ज्ञानका परिचय दिया।
देखा। तत्पश्चात् उन्होंने कुण्डलपुत्र सुकर्मासे कहापिप्पलने पूछा-ब्रह्मन् ! नदीके तीरपर जो 'वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! परमात्माका अर्वाचीन और पराचीन सारस मिला था, जिसने मुझे यह कहकर आपके पास रूप कैसा होता है, दोनोंका प्रभाव क्या है? यह भेजा कि वे सब ज्ञान बता सकते हैं, वह कौन था? बताइये।'
सुकर्माने कहा-विप्रवर ! सरिताके तटपर सुकर्माने कहा-ब्रह्मन् ! मैं पहले आपको जिन्होंने सारसके रूपमें आपसे बात की थी, वे साक्षात् पराचीन रूपकी पहचान बताता हूँ, उसोसे इन्द्र आदि महात्मा ब्रह्माजी थे।
देवता तथा चराचर जगत् मोहित होते हैं। ये जो जगत्के यह सुनकर धर्मात्मा पिप्पलने कहा-ब्रह्मन्! स्वामी परमात्मा हैं, वे सबमें मौजूद और सर्वव्यापक है। मैंने सुना है, सारा जगत् आपके अधीन है। इस बातको उनके रूपको किसी योगीने भी नहीं देखा है। श्रुति भी देखने के लिये मेरे मनमें उत्कण्ठा हो रही है। आप यत्न ऐसा कहती है कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। करके मुझे अपनी यह शक्ति दिखाइये। तब सुकर्मान उनके न हाथ है न पैर, न नाक है न कान और न मुख पिप्पलको विश्वास दिलानेके लिये देवताओंका स्मरण ही है। फिर भी वे तीनों लोकोंके निवासियोंके सारे कर्म किया। उनके आवाहन करनेपर सम्पूर्ण देवता वहाँ आये देखा करते हैं। कान न होनेपर भी सबकी कही हुई
और सुकर्मासे इस प्रकार बोले-'ब्रह्मन् ! तुमने बातोको सुनते हैं। वे परम शान्ति प्रदान करनेवाले है। किसलिये हमें याद किया है, इसका कारण बताओ।' हाथ न होनेपर भी काम करते और पैरोंसे रहित होकर भी
सुकर्माने कहा-देवगण ! विद्याधर पिप्पल सब ओर दौड़ते हैं।* वे व्यापक, निर्मल, सिद्ध, सिद्धिआज मेरे अतिथि हुए हैं, ये इस बातका प्रमाण चाहते दायक और सबके नायक हैं। आकाशस्वरूप और अनन्त
* पराचीनस्य रूपस्य लिङ्गमेवं वदामि ते। येन लोकाः प्रमोहान्त इन्द्रायाः सचराचराः ॥
अयमेष जगन्नाथः सर्वगो व्यापकः परः । अस्य रूप न दृष्टं हि केनाप्येव हि योगिना । श्रुतिरेव यदस्येवं न वक्तुं शक्यतेऽपि सः । अपादा करीनासो ह्यकर्णो मुखवर्जितः ।।
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. अर्चयस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
.. [संक्षिप्त पापुराण
हैं। व्यास तथा मार्कण्डेय उनके स्वरूपको जानते हैं। चराचर प्राणी, इन्द्रादि लोकपाल तथा अग्नि आदि
अब मैं भगवान्के अर्वाचीन रूपका वर्णन करूँगा, देवताओंका जन्म हुआ। इस प्रकार मैंने यह तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो । 'जिस समय सम्पूर्ण भूतोंके अर्वाचीनका स्वरूप बतलाया है। अर्वाचीन रूप आत्मा प्रजापति ब्रह्माजी स्वयं ही सबका संहार करके शरीरधारी है और पराचीन रूप शरीररहित है, अतः ब्रह्मा श्रीभगवान्के स्वरूपमें स्थित होते हैं और भगवान् आदि सम्पूर्ण देवता अर्वाचीन हैं। ये लोक भी, जो तीनो श्रीजनार्दन उन्हें अपनेमें लोन करके पानीके भीतर भुवनोंमें स्थित हैं, अर्वाचीन ही माने गये है। विद्याधर ! शेषनागकी शय्यापर दीर्घकालतक अकेले सोये रहते हैं, मोक्षरूप जो परम स्थान है; जिसे परब्रह्म कहते हैं, जो उस समयकी बात है। महामुनि मार्कण्डेयजी जल और अव्यक्त, अक्षर, हंसस्वरूप, शुद्ध और सिद्धियुक्त है, अन्धकारसे व्याकुल हो इधर-उधर भटक रहे थे। उन्होंने वही पराचीन है। इस प्रकार तुम्हारे सामने पराचीन देखा सर्वव्यापी ईश्वर शेषनागकी शय्यापर सो रहे हैं। स्वरूपका वर्णन किया गया। उनका तेज करोड़ों सूर्योके समान जान पड़ता है। वे विद्याधरने पूछा-सुव्रत ! आप अर्वाचीन और दिव्य आभूषण, दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण पराचीन स्वरूपके विद्वान् हैं। तीनों लोकोंका उत्तम ज्ञान किये योगनिद्रामें स्थित हैं। उनका श्रीविग्रह बड़ा ही आपमें वर्तमान है। फिर भी मैं आपमें तपस्याकी कमनीय है। उनके हाथोमे शङ्ख, चक्र और गदा पराकाष्ठा नहीं देखता । ऐसी दशामें आपके इस प्रभावका विराजमान है।* उनके पास ही उन्होंने एक विशालकाय क्या कारण है? कैसे आपको सब बातोका ज्ञान स्वी देखी, जो काली अञ्जन-राशिके समान थी। उसका प्राप्त हुआ? रूप बड़ा भयंकर था। उसने मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयसे सुकर्माने कहा-ब्रह्मन् ! मैंने यजन-याजन, कहा-'महामुने ! डरो मत। तब उन योगीश्वरने धर्मानुष्ठान ज्ञानोपार्जन और तीर्थ-सेवन-कुछ भी नहीं पूछा-'देवि! तुम कौन हो?' मुनिके इस प्रकार किया। इनके सिवा और भी किसी शुभकर्मजनित पूछनेपर देवीने बड़े आदरके साथ कहा-'ब्रह्मन् ! जो पुण्यका अर्जन मेरे द्वारा नहीं हुआ। मैं तो स्पष्टरूपसे शेषनागकी शय्यापर सो रहे हैं, वे भगवान् श्रीविष्णु हैं। एक ही बात जानता हूँ-वह है पिता और माताको मैं उन्हींको वैष्णवी शक्ति कालरात्रि हैं।
सेवा-पूजा। पिप्पल ! मैं स्वयं ही अपने हाथसे पिप्पलजी! यो कहकर वह देवी अन्तर्धान हो माता-पिताके चरण धोनेका पुण्यकार्य करता हैं। उनके गयी। उसके चले जानेपर मार्कण्ड्यजीने देखा- शरीरकी सेवा करता तथा उन्हें स्नान और भोजन आदि भगवान्की नाभिसे एक कमल प्रकट हुआ, जिसकी कराता हूँ । प्रतिदिन तीनों समय माता-पिताकी सेवामें ही कान्ति सुवर्णके समान थी। उसीसे महातेजस्वी लगा रहता हूँ। जबतक मेरे माँ-बाप जीवित हैं, तबतक लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। फिर ब्रह्माजीसे समस्त मुझे यह अतुलनीय लाभ मिल रहा है कि तीनों समय
सर्व पश्यति वै कर्म कृतं त्रैलोक्यवासिनाम् । तेषामुक्तमकर्णश्च स शृणाति सुशान्तिदः ।। .... । पाणिहीनः पादहीनः कुरुतं च प्रधावति ।।
(६२।२८-३२) * भ्रममाणः म ददश पर्यवशायिनम् । सूर्यकोटिपतीका दिव्याभरणभूषितम् ।। दिव्यमाल्याम्बरधर सर्वव्यापिनमीश्वरम् । योगनिद्रागर्त कानं शङ्खचक्रगदाधरम् ।।
(६२ । ३९-४०) • मोक्षरूपं पर स्थान परब्रह्मस्वरूपकम् । अव्यक्तमक्षर हंस शुद्ध सिद्धिसमन्वितम्।
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भूमिखण्ड ]
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• पितृतीर्थके प्रसङ्गमें पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन
मैं शुद्धभावसे मन लगाकर इन दोनोंकी पूजा करता हूँ। पिप्पल ! मुझे दूसरी तपस्यासे क्या लेना है। तीर्थयात्रा तथा अन्य पुण्यकर्मोसे क्या प्रयोजन है। विद्वान् पुरुष सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान करके जिस फलको प्राप्त करते हैं, वही मैंने पिता मताकी सेवासे पा लिया है। जहाँ माता-पिता रहते हों, वहीं पुत्रके लिये गङ्गा, गया और पुष्करतीर्थ है - इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। माता-पिताकी सेवासे पुत्रके पास अन्यान्य पवित्र तीर्थ भी स्वयं ही पहुँच जाते हैं। जो पुत्र माता-पिताके जीते जी उनकी सेवा करता है, उसके ऊपर देवता तथा पुण्यात्मा महर्षि प्रसन्न होते हैं। पिताकी सेवासे तीनों लोक संतुष्ट हो जाते हैं। जो पुत्र प्रतिदिन माता-पिताके चरण पखारता है, उसे नित्यप्रप्ति गङ्गास्नानका फल मिलता है। * जिस पुत्रने ताम्बूल, वस्त्र, खान-पानको विविध सामग्री तथा पवित्र अत्रके द्वारा भक्तिपूर्वक माता-पिताका पूजन किया है, वह सर्वज्ञ होता है।
द्विजश्रेष्ठ ! माता-पिताको स्नान कराते समय जब उनके शरीरसे जलके छोटे उछटकर पुत्रके सम्पूर्ण अङ्गपर पड़ते हैं, उस समय उसे सम्पूर्ण तीर्थो में स्नान करनेका फल होता है। यदि पिता पतित, भूखसे व्याकुल, वृद्ध सब कार्यों में असमर्थ, रोगी और कोढ़ी हो गये हों तथा माताकी भी वही अवस्था हो, उस समयमें भी जो
जायते । (६२ । ७४)
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* मातापित्रोस्तु यः पादौ नित्यं प्रक्षालयेत्सुतः । तस्य भागीरथी स्वानमहन्यहनि + तयोश्चापि द्विजश्रेष्ठ मातापित्रोश्च स्नातयोः पुत्रस्यापि हि सर्वाङ्गे पतन्त्यम्युकणा यदा ॥ सर्वतीर्थसमं स्नानं पुत्रस्यापि प्रजायते।.... पतितं क्षुधितं वृद्धमशक्तं सर्वकर्मसु व्याधितं कुष्ठिनं तातं मातरं च तथाविधाम् ॥ उपाचरति यः पुत्रस्तस्य पुण्यं वदाम्यहम्। विष्णुस्तस्य प्रसन्नात्मा जायते नात्र संशयः ॥ प्रयाति वैष्णवं लोकं यदप्राप्यं हि योगिभिः । पितरी विकली दोनों वृद्धौ दुःखितमानसौ ॥ महागदेन संतप्तौ परित्यजति पापधीः । स पुत्रो नरकं याति दारुणं कृमिसंकुलम् ॥ वृद्धाभ्यां यः समाहूतो गुरुभ्यामिह साम्प्रतम्। न प्रयाति सुतो भूत्वा तस्य पापं वदाम्यहम् ॥ विष्ठाशी जायते मूढोऽमेध्यभोजी न संशयः । यावज्जन्मसहस्रं तु पुनः श्वानोऽभिजायते ॥ पुत्रगेहे स्थितौ मातापितरौ वृद्धको तथा स्वयं ताभ्यां विना भुक्त्वा प्रथमं जायते घृणिः ॥ सूत्रं विष्ठां च भुञ्जीत यावज्जन्मसहस्रकम् कृष्णसपों भवेत्पापी यावज्जन्मशतत्रयम् ॥ (६३ । १ – १० ) पितरौ कुत्सते पुत्रः कटुकैर्वचनैरपि। स च पापी भवेद्व्याघ्रः पचाद्दुःखी प्रजायते । मातरं पितरं पुत्रो न नमस्यति पापधीः कुम्भीपाके नास्ति मातुः परं तीर्थ पुत्राणां च पितुस्तथा। नारायणसमावेताविह चैव परत्र च ।। (६३ । ११-१३)
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वसेत्तावद्यावद्युगसहस्वकम् ॥
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पुत्र उनकी सेवा करता है, उसपर निस्सन्देह भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। वह योगियोंके लिये भी दुर्लभ भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। जो किसी अङ्गसे हीन, दीन, वृद्ध, दुःखी तथा महान् रोगसे पीड़ित माता-पिताको त्याग देता है, वह पापात्मा पुत्र कीड़ोंसे भरे हुए दारुण नरकमें पड़ता है। जो पुत्र बूढ़े माँ-बापके बुलानेपर भी उनके पास नहीं जाता, वह मूर्ख विष्ठा खानेवाला कीड़ा होता है तथा हजार जन्मोंतक उसे कुत्तेकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। वृद्ध माता-पिता जब घरमें मौजूद हो, उस समय जो पुत्र पहले उन्हें भोजन कराये बिना स्वयं अन्न ग्रहण करता है, वह घृणित कीड़ा होता है और हजार जन्मोंतक मल-मूत्र भोजन करता है। इसके सिवा वह पापी तीन सौ जन्मोंतक काला नाग होता है। जो पुत्र कटु वचनोंद्वारा माता-पिताकी निन्दा करता है, वह पापी बाघकी योनिमें जन्म लेता है तथा और भी बहुत दुःख उठाता है। जो पापात्मा पुत्र माता-पिताको प्रणाम नहीं करता, वह हजार युगोंतक कुम्भीपाक नरकमें निवास करता है। पुत्रके लिये माता-पितासे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। माता-पिता इस लोक और परलोकमें भी नारायणके समान हैं। इसलिये महाप्राज्ञ ! मैं प्रतिदिन माता-पिताकी पूजा करता और उनके योग क्षेमकी चिन्तामें लगा रहता हूँ। इसीसे तीनों लोक मेरे वशमें हो
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अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
गये हैं। माता-पिताके प्रसादसे ही मुझे पराचीन तथा वासुदेवस्वरूप अर्वाचीन तत्त्वका उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ है मेरी सर्वज्ञतामें माता-पिताकी सेवा ही कारण है। भला कौन ऐसा विद्वान् पुरुष होगा, जो पिता-माताकी पूजा नहीं करेगा। ब्रह्मन्! श्रुति (उपनिषद्) और शास्त्रोंसहित सम्पूर्ण वेदोंके साङ्गोपाङ्ग अध्ययनसे ही क्या
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सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख — मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म-मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
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सुकर्मा कहते हैं- अब मैं इस विषयमें पुण्यात्मा राजा ययातिके चरित्रका वर्णन करूँगा, जो सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला है। सोमवंशमें एक नहुष नामके राजा हो गये हैं। उन्होंने अनेकों दानधर्मोका अनुष्ठान किया, जिनकी कहीं तुलना नहीं थी। उन्होंने अपने पुण्यके प्रभावसे इन्द्रलोकपर अधिकार प्राप्त किया था। उन्होंके पुत्र राजा ययाति हुए, जो शत्रुओंका मानमर्दन करनेवाले थे। वे सत्यका आश्रय ले धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते थे। प्रजाके सब कार्योंकी स्वयं ही देख-भाल किया करते थे। वे उत्तम धर्मकी महिमा सुनकर सब प्रकारके दान-पुण्य, यज्ञानुष्ठान एवं तीर्थ सेवन आदिमें लगे रहते थे। महाराज ययातिने अस्सी हजार वर्षोंतक इस पृथ्वीका राज्य किया। उनके चार पुत्र हुए, जो उन्होंके समान शूरवीर, बलवान् और पराक्रमी थे। तेज और पुरुषार्थमें भी वे पिताकी समानता करते थे। इस प्रकार ययातिने दीर्घकालतक धर्मपूर्वक राज्य किया।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
एक समयकी बात है, ब्रह्माजीके पुत्र नारदजी इन्द्रलोकमें गये। उन्हें आया देख इन्द्रने भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और मधुपर्क आदिसे उनकी पूजा करके उन्हें एक पवित्र आसनपर बिठाया। तत्पश्चात् वे उन महामुनिसे पूछने लगे- 'देवर्षे! किस लोकसे आपका यहाँ आना हुआ है ? तथा यहाँ पदार्पण करनेका क्या उद्देश्य है ?"
लाभ हुआ, यदि उसने माता-पिताका पूजन नहीं किया। उसका वेदाध्ययन व्यर्थ है। उसके यज्ञ, तप, दान और पूजनसे भी कोई लाभ नहीं। जिसने माँ-बापका आदर नहीं किया, उसके सभी शुभकर्म निष्फल होते हैं। माता-पिता ही पुत्रके लिये धर्म, तीर्थ, मोक्ष, जन्मके उत्तम फल, यज्ञ और दान आदि सब कुछ हैं।
रहा हूँ। नहुष पुत्र ययातिसे मिलकर अब आपसे मिलनेके लिये आया हूँ।
इन्द्रने पूछा - इस समय पृथ्वीपर कौन राजा सत्य और धर्मके अनुसार प्रजाका पालन करता है ? कौन सब धर्मोसे युक्त, विद्वान्, ज्ञानवान्, गुणी, ब्राह्मणोंके कृपापात्र, ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, शूरवीर, दाता, यज्ञ करनेवाला और पूर्ण भक्तिमान् है ?
नारदजीने कहा - नहुषके बलवान् पुत्र ययाति इन गुणोंसे युक्त हैं। वे अपने पितासे भी बढ़े- चढ़े हैं। उन्होंने सौ अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ किये हैं। भक्तिपूर्वक अनेक प्रकारके दान दिये हैं। उनके द्वारा लाखों-करोड़ों गौएँ दानमें दी जा चुकी हैं। उन्होंने कोटिहोम तथा लक्षहोम भी किये हैं। ब्राह्मणोंको भूमि आदिका दान भी दिया है। उन्होंने ही धर्मके साङ्गोपाङ्ग स्वरूपका पालन किया है। ऐसे गुणोंसे युक्त नहुष- पुत्र राजा ययाति अस्सी हजार वर्षोंसे सत्य धर्मके अनुसार विधिवत् राज्य करते आ रहे हैं। इस कार्यमें वे आपकी समानता करते हैं।
सुकर्मा कहते हैं- मुनीश्वर नारदके मुखसे ऐसी बात सुनकर बुद्धिमान् इन्द्र कुछ सोचने लगे। वे ययातिके धर्म- पालनसे भयभीत हो उठे थे। उनके मनमें यह बात आयी कि 'पूर्वकालमें राजा नहुष सौ यज्ञोंके प्रभावसे मेरे इन्द्रपदपर अधिकार करके देवताओंके राजा बन बैठे थे। शचीकी बुद्धिके प्रभावसे उन्हें पदभ्रष्ट होना नारदजीने कहा- मैं इस समय भूलोकसे आ पड़ा था ये महाराज ययाति भी ऐसे ही सुने जाते हैं।
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भूमिखण्ड ]
• सुकर्माद्वारा ग्रयाति और मातलिके संवादका उल्लेख .
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि ये इन्द्रपदपर अधिकार शरीरका निर्माण हुआ है तथा पाँच विषयोंसे यह घिरा कर लेंगे। अतः जिस-किसी उपायसे सम्भव हो, उन्हें हुआ है। वीर्य और रक्तका नाश होनेसे प्रायः शरीर स्वर्गमे लाऊँगा।
- खोखला हो जाता है, उसमें प्रचण्ड वायुका प्रकोप होता र ययातिसे डरे हुए देवराजने ऐसा विचार करके उन्हे है। इससे मनुष्यका रंग बदल जाता है। वह दुःखसे बुलानेके लिये दूत भेजा। अपने सारथि मातलिको संतप्त और हतबुद्धि हो जाता है। जो स्त्री देखी-सुनी होती विमानके साथ रवाना किया। मातलि उस स्थानपर गये, है, उसमें चित्त आसक्त होनेसे वह सदा भटकता रहता जहाँ नहुष-पुत्र धर्मात्मा ययाति अपनी राजसभामें है। शरीरमें तृप्ति नहीं होती; क्योंकि उसका चित्त सदा विराजमान थे। सत्य ही उन श्रेष्ठ नरेशका आभूषण था। लोलुप रहा करता है। जब कामी मनुष्य मांस और रक्त देवराजके सारथिने उनसे कहा-'राजन् ! मेरी बात क्षीण होनेसे दुर्वल हो जाता है, तब उसके बाल पक सुनिये, देवराज इन्द्रने मुझे इस समय आपके पास भेजा जाते हैं। कामाग्निसे शरीरका शोषण हो जाता है। वृद्ध है। उनका अनुरोध है कि अब आप पुत्रको राज्य दे होनेपर भी दिन-दिन उसकी कामना बढ़ती ही जाती है। आज ही इन्द्रलोकको पधारें। महीपते ! वहाँ इन्द्रके बूढ़ा मनुष्य ज्यों-ज्यों स्त्रीके सहवासका चिन्तन करता है, साथ रहकर आप स्वर्गका आनन्द भोगिये।' का त्यों-त्यों उसके तेजकी हानि होती है। अतः काम
ययातिने पूछा-मातले! मैंने देवराज इन्द्रका नाशस्वरूप है, यह नाशके लिये ही उत्पन्न होता है। काम कौन-सा ऐसा कार्य किया है, जिससे तुम ऐसी प्रार्थना एक भयंकर ज्वर है, जो प्राणियोंका काल बनकर उत्पन्न कर रहे हो?
होता है। इस प्रकार इस शरीरमें जीर्णता-जरावस्था . मातलिने कहा-राजन् ! लगभग एक लाख आती है। वर्षोंसे आप दान-यज्ञ आदि कर्म कर रहे है। इन कोंक ययातिने कहा-मातले! आत्माके साथ यह फलस्वरूप इस समय स्वर्गलोग चलिये और देवराज शरीर ही धर्मका रक्षक है, तो भी यह स्वर्गको नहीं इन्द्रके सखा होकर रहिये। इस पाञ्चभौतिक शरीरको जाता-इसका क्या कारण है? यह बताओ। भूमिपर ही त्याग दीजिये और दिव्य रूप धारण करके मातलि बोले-महाराज ! पाँचों भूतोंका आपसमें मनोरम भोगोंका उपभोग कीजिये।
ही मेल नहीं है। फिर आत्माके साथ उनका मेल कैसे हो - ययातिने प्रश्न किया-मनुष्य जिस शरीरसे सकता है। आत्माके साथ इनका सम्बन्ध बिलकुल नहीं सत्यधर्म आदि पुण्यका उपार्जन करता है, उसे वह कैसे है। शरीर-समुदायमें भी सम्पूर्ण भूतोंका पूर्ण संघट नहीं है। छोड़ सकता है।
__ क्योंकि जरावस्थासे पीड़ित होनेपर सभी अपने-अपने मातलिने कहा-राजन् ! तुम्हारा कथन ठीक है, स्थानको चले जाते हैं। इस शरीरमें अधिकांश पृथ्वीका तथापि मनुष्यको अपना यह शरीर छोड़कर ही जाना भाग है। यह पृथ्वीको समानताको लेकर ही प्रतिष्ठित है। पड़ता है [क्योंकि आत्माका शरीरके साथ कोई सम्बन्ध जैसे पृथ्वी स्थित है, उसी प्रकार यह भी यहीं स्थित रहता नहीं है] । शरीर पशभूतोंसे बना हुआ है; जब इसकी है। अतः शरीर स्वर्गको नहीं जाता। संधियाँ शिथिल हो जाती है, उस समय वृद्धावस्थासे ययातिने कहा-मातले ! मेरी बात सुनो। जब
पीड़ित मनुष्य इस शरीरको त्याग देना चाहता है। पापसे भी शरीर गिर जाता है और पुण्यसे भी, तब मैं - ययातिने पूछा-साधुश्रेष्ठ! वृद्धावस्था कैसे इस पृथ्वीपर पुण्यमें कोई विशेषता नहीं देखता । जैसे उत्पन्न होती है तथा वह क्यों शरीरको पीड़ा देती है ? इन पहले शरीरका पतन होता है, उसी प्रकार पुनः दूसरे सब बातोंको विस्तारसे समझाओ।
- शरीरका जन्म भी हो जाता है। किन्तु उस देहकी उत्पत्ति मातलिने कहा-राजन् ! पञ्चभूतोंसे इस कैसे होती है? मुझे इसका कारण बताओ। "
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• अयस्व इवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
मातलि बोले-राजन्! नारकी पुरुषोंके जलके नीचे स्थित हो धीरे-धीरे जठराग्निको प्रज्वलित अधर्ममात्रसे एक ही क्षणमें भूतोंके द्वारा नूतन शरीरका करता है। वायुसे उद्दीप्त की हुई अनि जलको अधिक निर्माण हो जाता है। इसी प्रकार एकमात्र धर्मसे ही गर्म कर देती है। उसकी गर्मकि कारण अत्र सब ओरसे देवत्वकी प्राप्ति करानेवाले दिव्य शरीरको तत्काल उत्पत्ति भलीभांति पच जाता है। पचा हुआ अत्र कीट और हो जाती है। उसका आविर्भाव भूतोंके सारतत्त्वसे होता रस-इन दो भागोंमें विभक्त होता है। इनमें कीट है। कोंक मेलसे जो शरीर उत्पन्न होता है, उसे रूपके मलरूपसे बारह छिद्रोंद्वारा शरीरके बाहर निकलता है। परिमाणसे चार प्रकारका समझना चाहिये। [उद्भिज्ज, दो कान, दो नेत्र, दो नासा-छिद्र, जिला, दाँत, ओठ, स्वेदज, अण्डज और जरायुज-ये ही चार प्रकारके लिङ्ग, गुदा और रोमकूप-ये ही मल निकलनेके बारह शरीर हैं।] स्थावरोको उद्भिज्ज कहते हैं। उन्हें तृण, मार्ग हैं। इनके द्वारा कफ, पसीने और मल-मूत्र आदिके गुल्म और लता आदिके रूपमें जानना चाहिये। कृमि, रूपमें शरीरका मैल निकलता है। हृदयकमलमें शरीरकी कीट और पतङ्ग आदि प्राणी स्वेदज कहलाते हैं। समस्त सब नाड़ियाँ आबद्ध हैं। उनके मुखमें प्राण अत्रका पक्षी, नाके और मछली आदि जीव अण्डज है। मनुष्यों सूक्ष्म रस डाला करता है। वह बारम्बार उस रससे और चौपायोंको जरायुज जानना चाहिये। नाड़ियोंको भरता रहता है तथा रससे भरी हुई नाड़ियाँ
भूमिके पानीसे सींचे जानेपर बोये हुए अन्नमें सम्पूर्ण देहको तृप्त करती रहती है। उसकी गर्मी चली जाती है। फिर वायुसे संयुक्त होनेपर नाड़ियोंके मध्यमें स्थित हुआ रस शरीरकी गर्मीसे क्षेत्रमें बीज जमने लगता है। पहले तपे हुए बीज जब पकने लगता है। उस रसके जब दो पाक हो जाते हैं, पुनः जलसे सींचे जाते हैं, तब गर्मकि कारण उनमें मृदुता तब उससे त्वचा, मांस, हड्डी, मज्जा, मेद और रुधिर आ जाती है। फिर वे जड़के रूप में बदल जाते हैं। उस आदि उत्पन्न होते हैं। रक्तसे रोम और मांस, मांससे केश मूलसे अङ्करकी उत्पत्ति होती है। अङ्करसे पते निकलते और सायु, सायुसे मज्जा और हड्डी तथा मज्जा और हैं, पत्तेसे तना, तनेसे काण्ड, काण्डसे प्रभव, प्रभवसे हड्डीसे वसाको उत्पत्ति होती है। मज्जासे शरीरकी दूध और दूधसे तण्डुल उत्पन्न होता है। तण्डुलके पक उत्पत्तिका कारणभूत वीर्य बनता है। इस प्रकार अनके जानेपर अनाजकी खेती तैयार हुई समझी जाती है। बारह परिणाम बताये गये हैं।* जब ऋतुकालमें अनाजोंमें शालि (अगहनी धान)से लेकर जौतक दस दोषरहित वीर्य स्त्रीकी योनिमें स्थित होता है, उस समय अत्र श्रेष्ठ माने गये हैं। उनमें फलकी प्रधानता होती है। वह वायुसे प्रेरित हो रजके साथ मिलकर एक हो जाता शेष अन्न क्षुद्र बताये गये हैं। भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य, है। वीर्य-स्थापनके समय कारण-शरीरयुक्त जीव अपने चोष्य और खाद्य-ये अत्रके छ: भेद हैं तथा मधुर कर्मोंसे प्रेरित होकर योनिमें प्रवेश करता है। आदि छः प्रकारके रस हैं। देहधारी उस अन्नको पिण्डके वीर्य और रज दोनों एकत्र होकर एक ही दिनमें समान कौर या ग्रास बनाकर खाते हैं। वह अन्न शरीरके कललके आकारमें परिणत हो जाते हैं, फिर पाँच रातमें भीतर उदरमें पहुँचकर समस्त प्राणोंको क्रमशः स्थिर उनका बुबुद बन जाता है। तत्पश्चात् एक महीनेमें करता है। खाये हुए अपक्व भोजनको वायु दो भागोंमें ग्रीवा, मस्तक, कंधे, रीड़की हड्डी तथा उदर-ये पाँच बाँट देती है। अन्नके भीतर प्रवेश करके उसे पचाती अङ्ग उत्पन्न होते हैं; फिर दो महीनेमे हाथ, पैर, पसली, और पृथक्-पृथक् गुणोंसे युक्त करती है। अग्निके ऊपर कमर और पूरा शरीर-ये सभी क्रमशः सम्पन्न होते हैं। जल और जलके ऊपर अन्नको स्थापित करके प्राण स्वयं तीन महीने बीतते-बीतते सैकड़ों अङ्करसंधियाँ प्रकट हो
• अश्के बारह परिणाम ये है-पाक, रस, मल, रक्त, रोम, मांस, केश, स्नायु, मज्जा, हड्डी, वसा और वीर्य ।
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भूमिखण्ड ]
. सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख .
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जाती हैं। चार महीनोंमें क्रमशः अंगुली आदि अवयव जाय, उसी प्रकार गर्भरूपी कुम्भमें डाला हुआ जीव भी उत्पन्न हो जाते हैं। पांच महीनोंमें मुँह, नाक और जठराग्निसे पकाया जाता है। आगमें तपाकर लाल-लाल कान तैयार हो जाते हैं; छः महीनोंके भीतर दाँतोंके की हुई बहुत-सी सूइयोंसे निरन्तर शरीरको छेदनेपर मसूड़े, जिला तथा कानोंके छिद्र प्रकट होते हैं। सात जितना दुःख होता है, उससे आठगुना अधिक कष्ट महीनोंमें गुदा, लिङ्ग, अण्डकोष, उपस्थ तथा शरीरको गर्भमें होता है। गर्भवाससे बढ़कर कष्ट कहीं नहीं होता। सन्धियाँ प्रकट होती हैं। आठ मास बीतते-बीतते देहधारियोंके लिये गर्भ में रहना इतना भयंकर कष्ट है, शरीरका प्रत्येक अवयव, केशोसहित पूरा मस्तक तथा जिसकी कहीं तुलना नहीं है। इस प्रकार प्राणियोंके अङ्गोंकी पृथक्-पृथक् आकृतियाँ स्पष्ट हो जाती है। गर्भजनित दुःखका वर्णन किया गया। स्थावर और . माताके आहारसे जो छः प्रकारका रस मिलता है, जङ्गम-सभी प्राणियोंको अपने-अपने गर्भके अनुरूप उसीके बलसे गर्भस्थ बालककी प्रतिदिन पुष्टि होती है। कष्ट होता है। नाभिमें जो नाल बैंधा होता है, उसीके द्वारा बालकको जीवको जन्मके समय गर्भवासकी अपेक्षा करोड़रसकी प्राप्ति होती रहती है। तदनन्तर शरीरका पूर्ण गुनी अधिक पीड़ा होती है। जन्म लेते समय वह मूर्छित विकास हो जानेपर जीवको स्मरण-शक्ति प्राप्त होती है हो जाता है। उस समय उसका शरीर हड्डियोंसे युक्त तथा वह दुःख-सुखका अनुभव करने लगता है। उसे गोल आकारका होता है। स्नायुबन्धनसे बँधा रहता है। पूर्वजन्मके किये हुए कोका, यहाँतक कि निद्रा और रक्त, मांस और वसासे व्याप्त होता है। मल और मूत्र शयन आदिका भी स्मरण हो आता है। वह सोचने आदि अपवित्र वस्तुएँ उसमें जमा रहती हैं। केश, रोम लगता है-'मैंने अबतक हजारों योनियों में अनेकों बार और नखोसे युक्त तथा रोगका आश्रय होता है। चक्कर लगाया। इस समय अभी-अभी जन्म ले रहा हूँ, मनुष्यका यह शरीर जरा और शोकसे परिपूर्ण तथा मुझे पूर्वजन्मोकी स्मृति हो आयी है; अतः इस जन्म में मैं कालके अग्निमय मुखमें स्थित है। इसपर काम और वह कल्याणकारी कार्य करूँगा, जिससे मुझे फिर गर्भमे क्रोधके आक्रमण होते रहते है। यह भोगको तृष्णासे न आना पड़े। मैं यहाँसे निकलनेपर संसार-बन्धनकी आतुर, विवेकशून्य और रागद्वेषके वशीभूत होता है। निवृत्ति करनेवाले उत्तम ज्ञानको प्राप्त करनेका प्रयल इस देहमें तीन सौ साठ हड्डियाँ तथा पाँच सौ मांसकरूंगा।'
पेशियाँ हैं. ऐसा समझना चाहिये। यह सब ओरसे साढ़े जीव गर्भवासके महान् दुःखसे पीड़ित हो कर्मवश तीन करोड़ रोमोंद्वारा व्याप्त है तथा स्थूल-सूक्ष्म एवं माताके उदरमें पड़ा-पड़ा अपने मोक्षका उपाय सोचता दृश्य-अदृश्यरूपसे उतनी ही नाड़ियाँ भी इसके भीतर रहता है। जैसे कोई पर्वतको गुफामें बंद हो जानेपर बड़े फैली हुई हैं। उन्होंक द्वारा भीतरका अपवित्र मल पसीने दुःखसे समय बिताता है, उसी प्रकार देहधारी जीव आदिके रूपमें निकलता रहता है। शरीरमें बत्तीस दाँत जरायु (जेर) के बन्धनमें बैंधकर बहुत दुःखी होता और और बीस नख होते हैं। देहके अंदर पित्त एक कुडव' बड़े कष्टसे उसमें रह पाता है। जैसे समुद्र गिरा हुआ और कफ आधा आढक' होता है। वसा तीन पल', मनुष्य दुःखसे छटपटाने लगता है, वैसे ही गर्भके जलसे कलल पंद्रह पल, वात अर्बुद पल, मेद दस पल, अभिषिक्त जीव अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। जिस महारक्त तीन पल, मज्जा उससे चौगुनी (बारह पल), प्रकार किसीको लोहेके घड़े में बंद करके आगसे पकाया वीर्य आधा कुडव, बल चौथाई कुडव, मांस-पिण्ड
१-आयुर्वेदके अनुसार ३२ तोले (६ छटाक २ तोले)का एक वजन । २-चार सेरके लगभगका एक तौल। ३-आयुर्वेदक अनुसार ८ तोलेका १ पल होता है। अन्यत्र ४ तोलेका एक पल माना गया है।
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२९०
• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
हजार पल तथा रक्त सौ पल होता है और मूत्रका कोई वैराग्य नहीं होता। अहो ! मोहका कैसा माहात्म्य है, नियत माप नहीं है।
जिससे सारा जगत् मोहित हो रहा है। अपने शरीरके राजन् ! आत्मा परम शुद्ध है और उसका यह दोषोंको देखकर और सँघकर भी वह उससे विरक्त नहीं देहरूपी घर, जो कोंक बन्धनसे तैयार किया गया है, होता। जो मनुष्य अपने देहकी अपवित्र गन्धसे घृणा नितान्त अशुद्ध है। इस बातको सदा ही याद रखना करता है, उसे वैराग्यके लिये और क्या उपदेश दिया जा चाहिये। वीर्य और रजका संयोग होनेपर ही किसी भी सकता है। सारा संसार पवित्र है, केवल शरीर ही योनिमें देहकी उत्पत्ति होती है तथा यह हमेशा पेशाब अत्यन्त अपवित्र है; क्योंकि जन्मकालमें इस शरीरके और पाखानेसे भरा रहता है; इसलिये इसे अपवित्र माना अवयवोंका स्पर्श करनेसे शुद्ध मनुष्य भी अशुद्ध हो गया है। जैसे बड़ा बाहरसे चिकना होनेपर भी यदि जाता है। अपवित्र वस्तुको गन्ध और लेपको दूर करनेके विष्ठासे भरा हो तो वह अपवित्र ही समझा जाता है, उसी लिये शरीरको नहलाने-धोने आदिका विधान है। गन्ध प्रकार यह देह ऊपरसे पञ्चभूतोंद्वारा शुद्ध किया जानेपर और लेपकी निवृत्ति हो जानेके पश्चात् भावशुद्धिसे भी भीतरकी गंदगीके कारण अपवित्र ही माना गया है। वस्तुतः मनुष्य शुद्ध होता है। जिसमें पहुँचकर पञ्चगव्य और हविष्य आदि अत्यन्त जिसका भीतरी भाव दूषित है, वह यदि आगमें पवित्र पदार्थ भी तत्काल अपवित्र हो जाते हैं, उस प्रवेश कर जाय तो भी न तो उसे स्वर्ग मिलता है और शरीरसे बढ़कर अशुद्ध दूसरा क्या हो सकता है।* न मोक्षकी ही प्राप्ति होती है उसे सदा देहके बन्धनमें ही जिसके द्वारोंसे निरन्तर क्षण-क्षणमें कफ-मूत्र आदि जकड़े रहना पड़ता है। भावकी शुद्धि ही सबसे बड़ी अपवित्र वस्तुएँ बहती रहती हैं, उस अत्यन्त अपावन पवित्रता है और वही प्रत्येक कार्य में श्रेष्ठताका हेतु है। शरीरको कैसे शुद्ध किया जा सकता है। शरीरके पत्नी और पुत्री-दोनोंका ही आलिङ्गन किया जाता है; छिद्रोंका स्पर्शमात्र कर लेनेपर हाथको जलसे शुद्ध किया किन्तु पत्नीके आलिङ्गनमें दूसरा भाव होता है और जाता है, तथापि मनुष्य अशुद्ध ही बने रहते हैं। किन्तु पुत्रीके आलिङ्गनमें दूसरा । भिन्न-भिन्न वस्तुओंके प्रति फिर भी उन्हें देहसे वैराग्य नहीं होता। जैसे जन्मसे ही मनको वृत्ति में भी भेद हो जाता है। नारी अपने पतिका काले रंगकी ऊन धोनेसे कभी सफेद नहीं होती, उसी और भावसे चिन्तन करती है और पुत्रका और भावसे।x प्रकार यह शरीर धोनेसे भी पवित्र नहीं हो सकता। तुम यत्नपूर्वक अपने मनको शुद्ध करो, दूसरी-दूसरी मनुष्य अपने शरीरके मलको अपनी आँखों देखता है, बाह्य शुद्धियोंसे क्या लेना है। जो भावसे पवित्र है, उसको दुर्गन्धका अनुभव करता है और उससे बचनेके जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वही स्वर्ग तथा लिये नाक भी दबाता है किन्तु फिर भी उसके मनमें मोक्षको प्राप्त करता है। उत्तम वैराग्यरूपी मिट्टी तथा
*यं प्राप्यातिपवित्राणि पञ्चगव्यं हवींषि च । अशुचित्वं क्षणाधान्ति कोऽन्योऽस्मादशुचिस्ततः ।। (६६।६९) * स्रोर्तासि यस्य सततं प्रवहन्ति क्षणे क्षणे । कफमूत्राद्यत्यशुचिः स देहः शुध्यते कथम् ॥ (६६।७३) + स्पृष्टा च देहस्रोतांसि मृदादिभिः शोध्यते करः । तथाप्यशुचिभाजश्च न विरज्यन्ति ते नराः ॥ (६६/७५) इजिप्रापि स्वदुर्गन्ध पश्यन्नपि मलं स्वकम् ।न विरज्येत लोकोऽय पीडयनपि नासिकाम्॥
अहो मोहस्य माहात्य येन व्यामोहितं जगत् । जिमन् पश्यन् स्वकान् दोषान् कायस्य न विरज्यते ॥ स्वदेहाशुचिगभेन यो विरज्येत मानवः । विरागकारणं तस्य किमन्यदुपदिश्यते ।।(६६॥ ७८-८०) ४ अन्तर्भावप्रदुष्टस्य विशतोऽपि हुताशनम् ।न वर्गों नापवर्गश देहनिर्बन्धन परम्॥ भावशुद्धिः परं शौच प्रमाण सर्वकर्मसु । अन्यथाऽऽलियते कान्ता भावेन दुहितान्यथा ॥ मनसो भिद्यते वृत्तिभित्रपि च वस्तुषु । अन्यथैव ततः पुत्रं भावयत्यन्यथा पतिम् ।।(६६।८५-८७)
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भूमिखण्ड ]
• सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख .
२९१
ज्ञानरूप निर्मल जलसे माँजने-धोनेपर पुरुषके अविद्या जाता है।* बाल्यकालमें इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ पूर्णतयाँ तथा रागरूपी मल-मूत्रका लेप नष्ट होता है। इस प्रकार व्यक्त नहीं होती; इसलिये बालक महान्-से-महान् इस शरीरको स्वभावतः अपवित्र माना गया है। केलेके दुःखको सहन करता है, किन्तु इच्छा होते हुए भी न तो वृक्षकी भांति यह सर्वथा सारहीन है; अध्यात्म-ज्ञान ही उसे कह सकता है और न उसका कोई प्रतिकार ही कर इसका सार है। देहके दोषको जानकर जिसे इससे वैराग्य पाता है। शैशवकालीन रोगसे उसको भारी कष्ट भोगना हो जाता है, वह विद्वान् संसार-सागरसे पार हो जाता है। पड़ता है। भूख-प्यासकी पीड़ासे उसके सारे शरीरमें दर्द इस प्रकार महान् कष्टदायक जन्मकालीन दुःखका वर्णन होता है। बालक मोहवश मल-मूत्रको भी खानेके लिये किया गया।
मुंहमें डाल लेता है । कुमारावस्थामें कान बिंधानेसे कष्ट गर्भमें रहते समय जीवको जो विवेक-बुद्धि प्राप्त होता है। समय-समयपर उसे माता-पिताकी मार भी होती है, वह उसके अज्ञान-दोषसे या नाना प्रकारके सहनी पड़ती है। अक्षर लिखने-पढ़नेके समय गुरुका कोकी प्रेरणासे जन्म लेनेके पश्चात् नष्ट हो जाती है। शासन दुःखद जान पड़ता है। योनि-यन्त्रसे पीड़ित होनेपर जब वह दुःखसे मूर्च्छित हो जवानीमें भी इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ कामना और रागकी जाता है और बाहर निकलकर बाहरी हवाके सम्पर्कमें प्रेरणासे इधर-उधर विषयोंमें भटकती हैं; फिर मनुष्य आता है, उस समय उसके चित्तपर महान् मोह छा जाता रोगोंसे आक्रान्त हो जाता है। अतः युवावस्थामें भी सुख है। मोहग्रस्त होनेपर उसकी स्मरणशक्तिका भी शीघ्र ही कहाँ है। युवकको ईर्ष्या और मोहके कारण महान् नाश हो जाता है; स्मृति नष्ट होनेसे पूर्वकोंकी वासनाके दुःखका सामना करना पड़ता है। कामाग्निसे संतप्त रहनेके कारण उस जन्ममें भी ममता और आसक्ति बढ़ जाती है। कारण उसे रातभर नींद नहीं आती। दिनमें भी फिर संसारमें आसक्त होकर मूढ जीव न आत्माको जान अर्थोपार्जनकी चिन्तासे सुख कहाँ मिलता है । कीड़ोंसे पाता है न परमात्माको, अपितु निषिद्ध कर्ममें प्रवृत्त हो पीड़ित कोढ़ी मनुष्यको अपनी कोढ़ खुजलानेमें जो सुख
* चित्तं शोधय यत्नेन किमन्यैर्वाह्यशोधनैः । भावतः शुचिः शुद्धात्मा स्वर्ग मोक्षं च विन्दति ।।
शानामलाम्भसा पुंसः सद्वैराग्यमृदा पुनः । अविद्यारागविण्मूत्रलेपो नश्येद्विशोधनैः ।। एवमेतच्छरीरं हि निसर्गादशुचि विदुः । अध्यात्मसारनिस्सारं कदलीसारसंनिभम् । ज्ञात्वैव देहदोषं यः प्राज्ञः स शिथिलो भवेत् । सोऽतिकामति संसार ........... एवमेत पहाकष्टं जन्मदुःख प्रकीर्तितम् । पुंसामज्ञानदोषेण नानाकर्मवशेन च। गर्भस्थस्य मतिर्याऽऽसीत् संजातस्य प्रणश्यति । सम्मूर्छितस्य दुःखेन योनियन्त्रप्रपीडनात् ।। बाह्येन वायुना तस्य मोहसङ्गेन देहिनाम् । स्पृष्टमात्रेण घोरेण ................... ||
.............. महामोहः प्रजायते । सम्मूतस्य स्मृतिभ्रंशः शीघ्र संजायते पुनः॥ स्मृतिभ्रंशात्तस्य पूर्वकर्मज्ञानसमुदया। रतिः संजायते पूर्णा जन्तोस्तत्रैव जन्मनि ।। रक्तो मूढा लोकोऽयमकायें सम्प्रवर्तते । न चाहमानं विजानाति न परं न च दैवतम्।
(६६।९०-९९) * अव्यक्तेन्द्रियवृत्तित्वाद्वाल्ये दुःखं महत्पुनः । इच्छापि न शक्नोति वक्तुं कर्तुं च संस्कृतम्। भुङ्क्ते तेन महददुःख बाल्येन व्याधिनान्यथा । बाल्यरोगैच विविधैः पीडा ............ ॥ तृड्बुभुक्षापरीताङ्गः क्वचिदच्छति तिष्ठति । विष्णूत्रभक्षणाय च मोहावाल: समाचरेत् ॥ कौमारः कर्णवेधेन मात्रापित्रोश ताडनम् । अक्षराध्ययनाच दुःखं स्याद्गुरुशासनम् ॥ अन्यत्रेन्द्रियवृत्तिच कामरागप्रयोजनात्। रोगावृत्तस्य सततं कुतः सौख्य च यौवने ॥ ईय॑या सुमहदुःख मोहाददुःखं सुजायते । तत्र स्यात्कुपितस्यैव रागे दुःखाय केवलम्॥ रात्रौ न कुरुते निद्रां कामाग्निपरिखेदितः । दिवा वापि कुतः सौरख्यमथोपार्जनचिन्तया ॥
(६६।१०४-११०
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२९२
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
प्रतीत होता है, वही स्त्रियोंके साथ सम्भोग करनेमें भी है। * जवानीके बाद जब वृद्धावस्था मनुष्यको दबा लेती है, तब असमर्थ होनेके कारण उसे पत्नी पुत्र आदि बन्धु बान्धव तथा दुराचारी भृत्य भी अपमानित कर बैठते हैं। बुढ़ापेसे आक्रान्त होनेपर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – इनमेंसे किसीका भी साधन नहीं कर सकता; इसलिये युवावस्थामें ही धर्मका आचरण कर लेना चाहिये।।
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प्रारब्ध कर्मका क्षय होनेपर जो जीवोंका भिन्न-भिन्न देहोंसे वियोग होता है, उसीको मरण कहा गया 弯 वास्तवमें जीवका नाश नहीं होता। मृत्युके समय जब शरीरके मर्मस्थानोंका उच्छेद होने लगता है और जीवपर महान् मोह छा जाता है, उस समय उसको जो दुःख होता है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। वह अत्यन्त दुःखी होकर 'हाय बाप! हाय मैया! हा प्रिये !' आदिकी पुकार मचाता हुआ बारम्बार विलाप करता है। जैसे साँप मेढकको निगल जाता है, उसी प्रकार वह सारे संसारको निगलनेवाली मृत्युका ग्रास बना हुआ है भाई बन्धुओंसे उसका साथ छूट जाता है; प्रियजन उसे घेरकर बैठे रहते हैं। वह गरम-गरम लम्बी साँसें खींचता है, जिससे उसका मुँह सूख जाता है। रह-रहकर उसे मूर्च्छा आ जाती है। बेहोशीकी हालतमें वह जोर-जोरसे इधर उधर हाथ-पैर पटकने लगता है। अपने काबू में नहीं रहता। लाज छूट जाती है और वह मल- -मूत्रमें सना पड़ा रहता है। उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूख जाते हैं। वह बार-बार पानी माँगता है। कभी धनके विषयमें
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* कृमिभिः पीड्यमानस्य कुष्ठिनः पामरस्य च। कण्डूयनाभितापेन यत्सुखं स्त्रीषु तद्विदुः ॥
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
चिन्ता करने लगता है— 'हाय! मेरे मरनेके बाद यह किसके हाथ लगेगा ?' यमदूत उसे कालपाशमें बाँधकर घसीट ले जाते हैं। उसके कण्ठमें घरघर आवाज होने लगती है; दूतोंके देखते-देखते उसकी मृत्यु होती है। जीव एक देहसे दूसरी देहमें जाता है। सभी जीव सबेरे मल-मूत्रकी हाजतका कष्ट भोगते हैं; मध्याह्नकालमें उन्हें भूख-प्यास सताती है और रात्रिमें वे काम-वासना तथा नींदके कारण क्लेश उठाते हैं [ इस प्रकार संसारका सारा जीवन ही कष्टमय है] ।
पहले तो धनको पैदा करनेमें कष्ट होता है, फिर पैदा किये हुए धनकी रखवालीमें क्लेश उठाना पड़ता है; इसके बाद यदि कहीं वह नष्ट हो जाय तो दुःख और खर्च हो जाय तो भी दुःख होता है। भला, धनमें सुख है ही कहाँ जैसे देहधारी प्राणियोंको सदा मृत्युसे भय होता है; उसी प्रकार धनवानोंको चोर, पानी, आग, कुटुम्बियों तथा राजासे भी हमेशा डर बना रहता है। जैसे मांसको आकाशमें पक्षी, पृथ्वीपर हिंसक जीव और जलमें मत्स्य आदि जन्तु भक्षण करते हैं, उसी प्रकार सर्वत्र धनवान् पुरुषको लोग नोंचते-खसोटते रहते हैं। सम्पत्तिमें धन सबको मोहित करता - उन्मत्त बना देता है, विपत्तिमें सन्ताप पहुँचाता है और उपार्जनके समय दुःखका अनुभव कराता है; फिर धनको कैसे सुखदायक कहा जाय। हेमन्त और शिशिरमें जाड़ेका कष्ट रहता है। गर्मी में दुस्सह तापसे संतप्त होना पड़ता है और वर्षाकालमें अतिवृष्टि तथा अल्पवृष्टिसे दुःख होता है; इस प्रकार विचार करनेपर कालमें भी सुख कहाँ है।
+ धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं न जरया पुनः शक्तः साधयितुं तस्माद् युवा धर्म समाचरेत् ॥ + अर्थस्योपार्जन दुःखं दुःखमर्जितरक्षणे नाशे दुःखं व्यये दुःखमर्थस्यैव कुतः सुखम् ॥ चौरभ्यः सलिलेभ्योऽग्नेः स्वजनात् पार्थिवादपि भयमर्थवतां नित्य मृत्योर्देहभृतामिव ॥ खे यथा पक्षिभिमस भुज्यते श्वापदैर्भुवि। जले च भक्ष्यते मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान् ॥ विमोहयन्ति सम्पत्सु तापयन्ति विपत्सु च वेदयन्त्यर्जने दुःखं कथमर्थाः सुखावहाः ॥
(६६ / ११२)
(६६ / ११७)
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(६६ । १४८ - १५१)
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भूमिखण्ड]
• सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख .
यही दशा कुटुम्बकी भी है। पहले तो विवाहमें लाभ करना है कि मेरे महलमें सदा शहनाई बजती है। विस्तारपूर्वक व्यय होनेपर दुःख होता है; फिर पत्नी जब समस्त आभूषण भारमात्र हैं, सब प्रकारके अङ्गराग गर्भ धारण करती है, तब उसे उसका भार ढोने में कष्टका मैलके समान हैं, सारे गीत प्रलापमात्र है और नृत्य अनुभव होता है। प्रसवकालमें अत्यन्त पीड़ा भोगनी पागलोकी-सी चेष्टा है। इस प्रकार विचार करके देखा पड़ती है तथा फिर सन्तान होनेपर उसके मल-मूत्र उठाने जाय, तो राजोचित भोगोंसे भी क्या सुख मिलता है। आदिमें क्लेश होता है। इसके सिवा हाय ! मेरी स्त्री भाग राजाओंका यदि किसीके साथ युद्ध छिड़ जाय तो एक गयी, मेरी पत्नीकी सन्तान अभी बहुत छोटी है, वह दूसरेको जीतनेकी इच्छासे वे सदा चिन्तामग्न रहते हैं। बेचारी क्या कर सकेगी? कन्याके विवाहका समय आ नहुष आदि बड़े-बड़े सम्राट भी राज्य-लक्ष्मीके मदसे रहा है, उसके लिये कैसा वर मिलेगा?-इत्यादि उन्मत्त होनेके कारण स्वर्गमें जाकर भी वहाँसे भ्रष्ट हो चिन्ताओंके भारसे दबे हुए कुटुम्बीजनोंको कैसे सुख गये। भला, लक्ष्मीसे किसको सुख मिलता है।* मिल सकता है।
स्वर्गमें भी सुख कहाँ है। देवताओंमें भी एक ___ राज्यमें भी सुख कहाँ है। सदा सन्धि-विग्रहकी देवताकी सम्पत्ति दूसरेकी अपेक्षा बढ़ी-चढ़ी तो होती ही चिन्ता लगी रहती है। जहाँ पुत्रसे भी भय प्राप्त होता है, है, वे अपनेसे ऊपरकी श्रेणीवालोंके बढ़े हुए वैभवको वहाँ सुख कैसा । एक द्रव्यकी अभिलाषा रखनेके कारण देख-देखकर जलते हैं। मनुष्य तो स्वर्गमें जाकर अपना आपसमें लड़नेवाले कुतोंकी तरह प्रायः सभी मूल गवाते हुए ही पुण्यफलका भी उपभोग करते हैं। देहधारियोंको अपने सजातियोंसे भय बना रहता है। जैसे जड़ कट जानेपर वृक्ष विवश होकर धरतीपर गिर कोई भी राजा राज्य छोड़कर वनमें प्रवेश किये बिना इस जाता है, उसी प्रकार पुण्य क्षीण होनेपर मनुष्य भी भूतलपर विख्यात न हो सका। जो सारे सुखोंका स्वर्गसे नीचे आ जाते हैं। इस प्रकार विचारसे परित्याग कर देता है, वही निर्भय होता है। राजन्! देवताओंके स्वर्गलोकमें भी सुख नहीं जान पड़ता। पहननेके लिये दो वस्त्र हों और भोजनके लिये सेर भर स्वर्गसे लौटनेपर देहधारियोंको मन, वाणी और शरीरसे अन्न-इतनेमें ही सुख है। मान-सम्मान, छत्र-चैवर किये हुए नाना प्रकारके भयंकर पाप भोगने पड़ते हैं। और राज्यसिंहासन तो केवल दुःख देनेवाले हैं। समस्त उस समय नरककी आगमें उन्हें बड़े भारी कष्ट और भूमण्डलका राजा ही क्यों न हो, एक खाटके नापको दुःखका सामना करना पड़ता है। जो जीव स्थावरभूमि ही उसके उपभोगमें आती है। जलसे भरे हजारों योनिमें पड़े हुए हैं, उन्हें भी सब प्रकारके दुःख प्राप्त होते घड़ोंद्वारा अभिषेक कराना केश और श्रमको ही बढ़ाना है। कभी उन्हें कुल्हाड़ीके तीव्र प्रहारसे काटा जाता है है। [सान तो एक घड़ेसे भी हो सकता है। प्रातःकाल तो कभी उनकी छाल काटी जाती है और कभी उनकी पुरवासियोंके साथ शहनाईका मधुर शब्द सुनना अपने डालियों, पत्तों और फलोंको भी गिराया जाता है; कभी राजत्वका अभिमानमात्र है। केवल यह कहकर सन्तोष प्रचण्ड आँधीसे वे अपने-आप उखड़कर गिर जाते हैं तो
*एवं वस्त्रयुगं राजन् प्रस्थमात्र तु भोजनम् । मानं छत्रासनं चैव सुखदुःखाय केवलम्॥ सार्वभौमोऽपि भवति खट्वामात्रपरिग्रहः । उदकुम्भसहसेभ्यः केशायासप्रविस्तरः॥ प्रत्यूषे तूर्यनिमोपः सम पुरनिवासिभिः । राज्येऽभिमानमात्रं हि ममेदं वाद्यते गृहे ।। सर्वमाभरणं भारः सर्वमालेपनं मलम् । सर्व संलपितं गीतं नृतमुन्मत्तचेष्टितम्॥ इत्येवं राज्यसम्भोगैः कुतः सौख्यं विचारतः । नृपाणां विद्महे चिन्ता वान्योन्यविजिगीषया । प्रायेण श्रीमदालेपानहुषाद्या महानृपाः । स्वर्ग प्राप्ता निपतिताः क्व श्रिया विन्दते सुखम्॥
(६६।१७५-१८०)
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
कभी हाथी या दूसरे जन्तु उन्हें समूल नष्ट कर डालते दुःखोंसे ग्रस्त है; इसलिये विद्वान् पुरुषको सबका त्याग हैं। कभी वे दावानलकी आँचमें झुलसते हैं तो कभी कर देना चाहिये। जैसे मनुष्य इस कंधेका भार उस पाला पड़नेसे कष्ट भोगते हैं। पशु-योनिमें पड़े हुए कंधेपर लेकर अपनेको विश्राम मिला समझता है, उसी जीवोंकी कसाइयोंद्वारा हत्या होती है, उन्हें डंडोंसे पीटा प्रकार संसारके सब लोग दुःखसे ही दुःखको शान्त जाता है, नाक छेदकर त्रास दिया जाता है, चाबुकोंसे करनेकी चेष्टा कर रहे हैं। अतः सबको दुःखसे व्याकुल मारा जाता है, बेत या काठ आदिकी बेड़ियोंसे अथवा जानकर विचारवान् पुरुषको परम निर्वेद धारण करना अंकुशके द्वारा उनके शरीरको बन्धनमें डाला जाता है चाहिये, निवेदसे परम वैराग्य होता है और उससे ज्ञान । तथा बलपूर्वक मनमाने स्थानमें ले जाया जाता और ज्ञानसे परमात्माको जानकर मनुष्य कल्याणमयी मुक्तिको बाँधा जाता है तथा उन्हें अपने टोलोंसे अलग किया प्राप्त होता है। फिर वह समस्त दुःखोंसे मुक्त होकर सदा जाता है। इस प्रकार पशुओंके शरीरको भी अनेक सुखी, सर्वज्ञ और कृतार्थ हो जाता है। ऐसे ही पुरुषको प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं।
मुक्त कहते हैं। राजन् ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने सब देवताओंसे लेकर सम्पूर्ण चराचर जगत् पूर्वोक्त बातें तुम्हें बता दीं।
पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
ययाति बोले-मातले ! मर्त्यलोकके मानव बड़े गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रको उचित है भयानक पाप करते हैं; उन्हें उन कर्मोका क्या फल कि वह प्रत्येक पुण्यपर्वके अवसरपर निर्धन ब्राह्मणकी मिलता है ? इस समय यही बात बताओ। पूजा करें तथा जहाँतक हो सके, उसे धनकी प्राप्ति
मातलिने कहा-राजन् ! जो लोग वेदोंकी निन्दा कराये। श्राद्धके समय निमन्त्रित ब्राह्मणके अतिरिक्त यदि और वेदोक्त सदाचारकी गर्हणा करते हैं तथा जो अपने दूसरा कोई ब्राह्मण आ जाय तो उन दोनोंकी ही भोजन, कुलके आचारका त्याग करके दूसरोंका आचार ग्रहण वस्त्र, ताम्बूल और दक्षिणाके द्वारा पूजा करनी चाहिये; करते हैं, जो सब साधुओंको पीड़ा देते हैं, वे सब पातकी इससे श्राद्धकर्ताके पितरोंको बड़ा हर्ष होता है। यदि हैं। तत्त्ववेत्ता पुरुषोंने इन दुष्कर्मोको पातक नाम दिया श्राद्धकर्ता धनहीन हो तो वह एककी ही पूजा कर सकता है। जो माता-पिताकी निन्दा करते, बहिनको सदा मारते है। जो श्राद्धमें ब्राह्मणको भोजन कराकर आदरपूर्वक
और उसकी गर्हणा करते हैं, उनका यह कार्य निश्चय ही दक्षिणा नहीं देता, उसे गोहत्या आदिके समान पाप पातक है। जो श्राद्धकाल आनेपर भी काम, क्रोध लगता है। महाराज ! व्यतीपात और वैधृति योग अथवा भयसे, पाँच कोसके भीतर रहनेवाले दामाद, आनेपर अथवा अमावास्या तिथिको या पिताकी क्षयाहभांजे तथा बहिनको नहीं बुलाता और सदा दूसरोंको ही तिथि प्राप्त होनेपर अपराहकालमें ब्राह्मण आदि वर्णोको भोजन कराता है, उसके श्राद्धमें पितर अन्न ग्रहण नहीं अवश्य श्राद्ध करना चाहिये। करते, उसमें विघ्न पड़ जाता है। दामाद आदिकी उपेक्षा विज्ञ पुरुषको उचित है कि वह अपरिचित श्राद्धकर्ता पुरुषके लिये पितृहत्याके समान है, उसे बहुत ब्राह्मणको श्राद्धमें निमन्त्रित न करे। अपरिचितोंमें भी बड़ा पातक माना गया है। इसी प्रकार यदि दान देते यदि कोई वेद-वेदाङ्गोंका पारगामी विद्वान् हो तो उस समय बहुत-से ब्राह्मण आ जायें तथा उनमेंसे एकको तो ब्राह्मणको श्राद्धमें निमन्वित करना और दान देना दान दिया जाय और दूसरोको न दिया जाय तो यह उचित है। राजन् ! निमन्त्रित ब्राह्मणका अपूर्व दानके फलको नष्ट करनेवाला बहुत बड़ा पातक माना आतिथ्य-सत्कार करना चाहिये । जो पापी इसके विपरीत
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भूमिखण्ड ]
. पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन ,
आचरण करता है, उसे निश्चय ही नरकमें जाना पड़ता आयु पूरी नहीं हो जाती। जो स्त्री, पुत्र और मित्रोंकी है। इसलिये दान, श्राद्ध तथा पर्वके अवसरपर अवहेलना करता है, उसके इस कार्यको भी गुरुनिन्दाके ब्राह्मणको निमन्त्रित करना आवश्यक है। पहले समान महान् पातक समझना चाहिये। ब्राह्मणकी हत्या ब्राह्मणकी भलीभाँति जाँच और परख कर लेनी चाहिये, करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी, गुरुकी शय्यापर उसके बाद उसे श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करना सोनेवाला तथा इनका सहयोगी-ये पाँच प्रकारके उचित है। जो बिना ब्राह्मणके श्राद्ध करता है, उसके मनुष्य महापातकी माने गये हैं। जो क्रोध, द्वेष, भय घरमें पितर भोजन नहीं करते, शाप देकर लौट जाते हैं। अथवा लोभसे विशेषतः ब्राह्मणके मर्म आदिका उच्छेद ब्राह्मणहीन श्राद्ध करनेसे मनुष्य महापापी होता है तथा करता है, दरिद्र भिक्षुक ब्राह्मणको द्वारपर बुलाकर पीछे ब्राह्मणघाती कहलाता है। राजन् ! जो पितृकुलके कोरा जवाब दे देता है, जो विद्याके अभिमानमें आकर आचारका परित्याग करके स्वेच्छानुसार बर्ताव करता है, सभा उदासीन भावसे बैठे हुए ब्राह्मणोंको भी निस्तेज उसे महापापी समझना चाहिये; वह सब धर्मोसे बहिष्कृत कर देता है तथा जो मिथ्या गुणोंद्वारा अपनेको जबर्दस्ती है। जो पापी मनुष्य शिवकी परिचर्या छोड़कर ऊँचा सिद्ध करता है और गुरुको ही उपदेश करने लगता शिवभक्तोंसे द्वेष रखते हैं तथा जो ब्राह्मणोंसे द्रोह करते है-इन सबको ब्राह्मणघाती माना गया है। हुए सदा भगवान् श्रीविष्णुकी निन्दा करते हैं, वे महापापी जिनका शरीर भूख और प्याससे पीड़ित है, जो हैं, सदाचारको निन्दा करनेवाले पुरुषोंकी गणना भी इसी अत्र खाना चाहते हैं, उनके कार्यमें विन खड़ा करनेवाला श्रेणीमें है।
मनुष्य भी ब्राहाणघाती ही है। जो चुगलखोर, सब सर्वप्रथम उत्तम ज्ञानस्वरूप पुण्यमय भागवत लोगोंके दोष ढूँढ़ने में तत्पर, सबको उद्वेगमें डालनेवाला पुराणकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् विष्णुपुराण, और क्रूर है तथा जो देवताओं, ब्राह्मणों और गौओंके हरिवंश, मत्स्यपुराण और कूर्मपुराणका पूजन करना निमित्त पहलेकी दी हुई भूमिको हर लेता है, उसे उचित है। जो पद्मपुराणकी पूजा करते हैं, उनके द्वारा ब्रह्मघाती कहते हैं। दूसरोंके द्वारा उपार्जित द्रव्यका और भगवान् श्रीमधुसूदनकी प्रत्यक्ष पूजा हो जाती है। जो ब्राह्मणके धनका अपहरण भी ब्रह्महत्याके समान ही श्रीभगवान्के ज्ञानस्वरूप पुराणकी पूजा किये बिना ही भारी पातक है। जो अग्निहोत्र तथा पञ्चयज्ञादि कर्मोका उसे पढ़ते और लिखते हैं, लोभमें आकर बेच देते हैं, परित्याग करके माता, पिता और गुरुका अनादर करता अपवित्र स्थानमें मनमाने ढंगसे रख देते हैं तथा स्वयं है, झूठी गवाही देता है, शिवभक्तोंकी बुराई और अशुद्ध रहकर अशुद्ध स्थानमें पुराणकी कथा कहते और अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करता है, वनमें जाकर निरपराध सुनते हैं, उनका यह सब कार्य गुरुनिन्दाके समान माना प्राणियोंको मारता है तथा गोशाला, देवमन्दिर, गाँव और गया है। जो गुरुकी पूजा किये बिना ही उनसे शास्त्र नगरमें आग लगाता है, उसके ये भयङ्कर पाप पूर्वोक्त श्रवण करना चाहता है, गुरुकी सेवा नहीं करता, उनकी पापोंके ही समान हैं। आज्ञा भङ्ग करनेका विचार रखता है, उनकी बातका दीनोंका सर्वस्व छीन लेना, परायी स्त्री, दूसरेके अभिनन्दन नहीं करता, अपितु प्रतिवाद कर देता है, हाथी, घोड़े, गौ, पृथ्वी, चाँदी, रत्न, अनाज, रस, चन्दन, गुरुके कार्यकी, करनेयोग्य होनेपर भी, उपेक्षा करता है अरगजा, कपूर, कस्तूरी, मालपूआ और वस्त्रको चुरा तथा जो गुरुको रोगादिसे पीड़ित, असमर्थ, विदेशकी लेना तथा परायी धरोहरको हड़प लेना-ये सब पाप ओर प्रस्थित और शत्रुओद्वारा अपमानित देखकर भी सुवर्णकी चोरीके समान माने गये हैं। विवाह करनेयोग्य उनका साथ छोड़ देता है, वह पापी तबतक कुम्भीपाक कन्याका योग्य वरके साथ विवाह न करना, पुत्र एवं नरकमें निवास करता है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकी मित्रकी भार्याओं और अपनी बहिनोंके साथ समागम
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
करना, कुमारी कन्याके साथ बलात्कार करना, अन्त्यज अन्न भी नहीं देते, उन सबको पृथक्पाकी समझना जातिकी स्त्रीका सेवन तथा सवर्णा स्त्रीके साथ चाहिये। वेदज्ञ पुरुषों में उनकी बड़ी निन्दा की गयी है। सम्भोग-ये पाप गुरु-पत्नी-गमनके समान बताये गये जो स्वयं ही नियम लेकर फिर उन्हें छोड़ देते हैं, जिन्होंने हैं। जो ब्राह्मणको धन देनेकी प्रतिज्ञा करके न तो उसे दूसरोंके साथ धोखा किया है, जो मदिरा पीनेवालोंसे देता है और न फिर उसको याद ही रखता है, उसका यह संसर्ग रखते और घाव एवं रोगसे पीड़ित तथा भूखकार्य उपपातकोंकी श्रेणीमें रखा गया है। ब्राह्मणके प्याससे व्याकुल गौका यत्नपूर्वक पालन नहीं करते, वे धनका अपहरण, मर्यादाका उल्लङ्घन, अत्यन्त मान, गो-हत्यारे माने गये हैं। उन्हें नरकको यातना भोगनी अधिक क्रोध, दम्भ कृतघ्नता, अत्यन्त विषयासक्ति, पड़ती है। जो सब प्रकारके पापोंमें डूबे रहते; साधु, कृपणता, शठता, मात्सर्य, परस्त्री-गमन और साध्वी ब्राह्मण, गुरु और गौको मारते तथा सन्मार्गमें स्थित कन्याको कलङ्कित करना; परिवित्ति', परिवेत्ता तथा निर्दोष स्त्रीको पीटते हैं, जिनका सारा शरीर आलस्यसे उसकी पत्नी-इनसे सम्पर्क रखना, इन्हें कन्या देना व्याप्त रहता है, अतएव जो बार-बार सोया करते हैं, जो अथवा इनका यज्ञ कराना; धनके अभावमें पुत्र, मित्र दुर्बल पशुओंको काममें लगाते, बलपूर्वक हाँकते,
और पत्नीका परित्याग करना; बिना किसी कारणके ही अधिक भार लादकर कष्ट देते और घायल होनेपर भी स्त्रीको छोड़ देना, साधु और तपस्वियोंकी उपेक्षा करना; उन्हें जोतते रहते है, जो दुरात्मा मनुष्य बैलोंको बधिया गौ, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री तथा शूद्रोंके प्राण लेना; करते हैं तथा गायके बछड़ोंको नाथते हैं, वे सभी शिवमन्दिर, वृक्ष और फुलवाड़ीको नष्ट करना; महापापी हैं। उनके ये कार्य महापातकोंके तुल्य हैं। आश्रमवासियोंको थोड़ा-सा भी कष्ट पहुँचाना, जो भूख-प्यास और परिश्रमसे पीड़ित एवं आशा भृत्यवर्गको दुःख देना; अन्न, वस्त्र और पशुओकी चोरी लगाकर घरपर आये हुए अतिथिका अनादर करते हैं, वे करना; जिनसे माँगना उचित नहीं है, ऐसे लोगोंसे याचना नरकगामी होते हैं। जो मूर्ख, अनाथ, विकल, दीन, करना; यज्ञ, बगीचा, पोखरा, स्त्री और सन्तानका विक्रय बालक, वृद्ध और क्षुधातुर व्यक्तिपर दया नहीं करते, करना; तीर्थयात्रा, उपवास, व्रत और शुभ कर्मोका फल उन्हें नरकके समुद्रमें गिरना पड़ता है। जो नीतिशास्त्रकी बेचना, स्त्रियोंके धनसे जीविका चलाना, स्त्रीद्वारा आज्ञाका उल्लङ्घन करके प्रजासे मनमाना कर वसूल उपार्जित अन्नसे जीवन-निर्वाह करना तथा किसीके छिपे करते हैं और अकारण ही दण्ड देते हैं, उन्हें नरकमें हुए अधर्मको लोगोंके सामने खोलकर रख देना-इन पकाया जाता है। जिस राजाके राज्यमें प्रजा सूदखोरों, सब पापोंमें जो लोग रचे-पचे रहते हैं, जो दूसरोंके दोष अधिकारियों और चोरोंद्वारा पीड़ित होती है, उसे नरकोंमें बताते, पराये छिद्रपर दृष्टि रखते, औरोंका धन हड़पना पकना पड़ता है। जो ब्राह्मण अन्यायी राजासे दान लेते चाहते और परस्त्रियोंपर कुदृष्टि रखते हैं-इन सभी हैं, उन्हें भी घोर नरकोंमें जाना पड़ता है। पापाचारी पापियोंको गोघातकके तुल्य समझना चाहिये। पुरवासियोंका पाप राजाका ही समझा जाता है। अतः
जो मनुष्य झूठ बोलता, स्वामी, मित्र और गुरुसे राजाको उस पापसे डरकर प्रजाको शासनमें रखना द्रोह रखता, माया रचना और शठता करता है; जो स्त्री, चाहिये। जो राजा भलीभाँति विचार न करके, जो चोर पुत्र, मित्र, बालक, वृद्ध, दुर्बल मनुष्य, भृत्य, अतिथि नहीं है उसे भी चोरके समान दण्ड देता और चोरको भी
और बन्धु-बान्धवोंको भूखे छोड़, अकेले भोजन कर साधु समझकर छोड़ देता है, वह नरकमें जाता है। लेता है; जो अपने तो खूब मिठाई उड़ाते और दूसरोंको जो मनुष्य दूसरोके घी, तेल, मधु, गुड़, ईख, दूध,
१-बड़े भाईके अविवाहित रहते यदि छोटे भाईका विवाह हो जाय तो बड़ा भाई परिवित्ति' और छोटा भाई परिवेत्ता' कहलाता है।
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भूमिखण्ड ]
• पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन •
०९७
साग, दही, मूल, फल, घास, लकड़ी, फूल, पत्ती, वस्त्र-दान करनेवाले मनुष्य दिव्य वस्त्र धारण करके काँसा, चाँदी, जूता, छाता, बैलगाड़ी, पालकी, मुलायम परलोकमें जाते हैं। पालकी दान करनेसे भी जीव आसन, ताँबा, सीसा, राँगा, शङ्ख, वंशी आदि बाजा, विमानद्वारा सुखपूर्वक यात्रा करता है। सुखासन (गद्दे, घरकी सामग्री, ऊन, कपास, रेशम, रङ्ग, पत्र आदि तथा कुर्सी आदि)के दानसे भी वह सुखपूर्वक जाता है। महीन वस्त्र चुराते हैं या इसी तरहके दूसरे-दूसरे द्रव्योंका बगीचा लगानेवाला पुरुष शीतल छायामें सुखसे अपहरण करते हैं, वे सदा नरकमें पड़ते हैं। दूसरेकी परलोककी यात्रा करता है। फूल-माला दान करनेवाले वस्तु थोड़ी हो या बहुत-जो उसपर ममता करके उसे पुरुष पुष्पक विमानसे जाते हैं। जो देवताओंके लिये चुराता है, वह निस्सन्देह नरकमें गिरता है। इस तरहके मन्दिर, संन्यासियोंके लिये आश्रम तथा अनाथों और पाप करनेवाले मनुष्य मृत्युके पश्चात् यमराजकी आज्ञासे रोगियोंके लिये घर बनवाते हैं, वे परलोकमें उत्तम यमलोकमें जाते हैं। यमराजके महाभयंकर दूत उन्हें ले महलोंके भीतर रहकर विहार करते हैं। जो देवता, अग्नि, जाते हैं। उस समय उनको बहुत दुःख उठाना पड़ता है। गुरु, ब्राह्मण, माता और पिताकी पूजा करता है तथा देवता, मनुष्य तथा पशु-पक्षी-इनमेंसे जो भी अधर्ममें गुणवानों और दीनोंको रहनेके लिये घर देता है, वह सब मन लगाते हैं, उनके शासक धर्मराज माने गये हैं। वे कामनाओंको पूर्ण करनेवाले ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। भाँति-भांतिके भयानक दण्ड देकर पापोंका भोग कराते राजन् ! जिसने श्रद्धाके साथ ब्राह्मणको एक कौड़ीका भी हैं। विनय और सदाचारसे युक्त मनुष्य यदि भूलसे दान किया है, वह स्वर्गलोकमें देवताओंका अतिथि होता मलिन आचारमें लिप्त हो जायें तो उनके लिये गुरु ही है तथा उसकी कीर्ति बढ़ती है। अतः श्रद्धापूर्वक दान शासक माने गये हैं; वे कोई प्रायश्चित्त कराकर उनके पाप देना चाहिये। उसका फल अवश्य होता है। धो सकते हैं। ऐसे लोगोंको यमराजके पास नहीं जाना अहिंसा, क्षमा, सत्य, लज्जा, श्रद्धा, इन्द्रिय-संयम, पड़ता। परस्त्री-लम्पट, चोर तथा अन्यायपूर्ण बर्ताव दान, यज्ञ, ध्यान [और ज्ञान]-ये धर्मके दस साधन करनेवाले पुरुषोपर राजाका शासन होता है-राजा ही है। अन्न देनेवालेको प्राणदाता कहा गया है और जो उनके दण्ड-विधाता माने गये हैं; परन्तु जो पाप छिपकर प्राणदाता है, वही सब कुछ देनेवाला है। अतः अत्रकिये जाते हैं, उनके लिये धर्मराज ही दण्डका निर्णय दान करनेसे सब दानोंका फल मिल जाता है। अनसे करते हैं। इसलिये अपने किये हुए पापोंके लिये पुष्ट होकर ही मनुष्य पुण्यका संचय करता है; अतः प्रायश्चित्त करना चाहिये। अन्यथा वे करोड़ों कल्पोंमे भी पुण्यका आधा अंश अन्न-दाताको और आधा भाग [फल-भोग कराये बिना] नष्ट नहीं होते। मनुष्य मन, पुण्यकर्ताको प्राप्त होता-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं वाणी तथा शरीरसे जो कर्म करता है, उसका फल उसे है। धर्म, अर्थ काम और मोक्षका सबसे बड़ा साधन है स्वयं भोगना पड़ता है; कोंके अनुसार उसकी सद्गति या शरीर और शरीर स्थिर रहता है अन्न तथा जलसे; अतः अधोगति होती है। राजन् ! इस प्रकार संक्षेपसे मैंने तुम्हें अन्न और जल ही सब पुरुषार्थोक साधन हैं। अन्न पापोंके भेद बताये हैं; बोलो, अब और क्या सुनाऊँ? दानके समान दान न हुआ है न होगा। जल तीनों
ययातिने कहा-मातले ! अधर्मके सारे फलोंका लोकोंका जीवन माना गया है। वह परम पवित्र, दिव्य, वर्णन तो मैंने सुन लिया; अब धर्मका फल बताओ। शुद्ध तथा सब रसोंका आश्रय है।
मातलिने कहा-राजन् ! जो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको अन्न, पानी, घोड़ा, गौ, वस्त्र शय्या, सूत और जूता और खड़ाऊँ दान करता है, वह बहुत बड़े आसन-इन आठ वस्तुओका दान प्रेतलोकके लिये विमानपर बैठकर सुखसे परलोककी यात्रा करता है, बहुत उत्तम है। इस प्रकार दानविशेषसे मनुष्य
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
धर्मराजके नगरमें सुखपूर्वक जाता है; इसलिये धर्मका श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न रहनेवाले वैष्णव वैकुण्ठधाममें अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। राजन् ! जो लोग क्रूर चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके समीप जाते हैं। श्रीविष्णुका कर्म करते और दान नहीं देते हैं, उन्हें नरकमें दुःसह उत्तम लोक श्रीशङ्करजीके निवासस्थानसे ऊपर समझना दुःख भोगना पड़ता है। दान करके मनुष्य अनुपम सुख चाहिये। वहाँ श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर रहनेवाले वैष्णव भोगते है।
मनुष्य ही जाते हैं। मनुष्योंमें श्रेष्ठ, सदाचारी, यज्ञ जो एक दिन भी भक्तिपूर्वक भगवान् शिवकी पूजा करानेवाले, सुनौतियुक्त और विद्वान् ब्राह्मण ब्रह्मलोकको करता है, वह भी शिवलोकको प्राप्त होता है; फिर जो जाते हैं। युद्धमें उत्साहपूर्वक जानेवाले क्षत्रियोंको अनेकों बार उनकी अर्चना कर चुका है, उसके लिये तो इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है तथा अन्यान्य पुण्यकर्ता भी कहना ही क्या है। श्रीविष्णुकी भक्तिमें तत्पर और पुण्यलोकोंमें गमन करते हैं।
मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ-तुल्य
बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
ययाति बोले-मातले। तुमने धर्म और भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करते हैं और सदा उन्हींमें अधर्म-सबका उत्तम प्रकारसे वर्णन किया। अब मन लगाये रहते हैं, वे उन्हीं के परम पदको प्राप्त होते हैं। देवताओंके लोकोंकी स्थितिका वर्णन करो। उनकी नरश्रेष्ठ ! श्रीशिव और भगवान् श्रीविष्णुके लोक एक-से संख्या बताओ। जिस पुण्यके प्रसङ्गसे जिसने जो लोक ही हैं, उन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि उन दोनों प्राप्त किया हो, उसका भी वर्णन करो।
महात्माओं-श्रीशिव तथा श्रीविष्णुका स्वरूप भी एक मातलिने कहा-राजन् ! देवताओंके लोक ही है। श्रीविष्णुरूपधारी शिव और श्रीशिवरूपधारी भावमय हैं। भावोंके अनेक रूप दिखायी देते हैं; अतः विष्णुको नमस्कार है। श्रीशिवके हृदयमें विष्णु और भावात्मक जगत्की संख्या करोड़ोंतक पहुँच जाती है। श्रीविष्णुके हृदयमें भगवान् शिव विराजमान हैं। ब्रह्मा, परन्तु पुण्यात्माओंके लिये उनमेंसे अट्ठाईस लोक ही विष्णु और शिव-ये तीनों देवता एकरूप ही हैं। इन प्राप्य हैं, जो एक-दूसरेके ऊपर स्थित और अत्यन्त तीनोंके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है, केवल गुणोंका भेद विशाल हैं। जो लोग भगवान् शङ्करको नमस्कार करते बतलाया गया है।* राजेन्द्र ! आप श्रीशिवके भक्त तथा हैं, उन्हें शिवलोकका विमान प्राप्त होता है। जो भगवान् विष्णुके अनुरागी हैं; अतः आपपर ब्रह्मा, विष्णु प्रसङ्गवश भी शिवका स्मरण या नाम-कीर्तन अथवा और शिव-तीनों देवता प्रसन्न हैं। मानद ! मैं इन्द्रकी उन्हें नमस्कार कर लेता है, उसे अनुपम सुखकी प्राप्ति आज्ञासे इस समय आपके पास आया हूँ। अतः पहले होती है। फिर जो निरन्तर उनके भजनमें ही लगे रहते इन्द्रलोकमें चलिये; उसके बाद क्रमशः ब्रह्मलोक, हैं, उनके विषयमें तो कहना ही क्या है। जो ध्यानके द्वारा शिवलोक तथा विष्णुलोकको जाइयेगा। वे लोक दाह
* शैव च वैष्णवं लोकमेकरूपं नरोत्तम । द्वयोश्चाप्यन्तर नास्ति एकरूपं महात्मनोः । शिवाय विष्णुरूपाय विष्णवे शिवरूपिणे । शिवस्य हृदये विष्णुर्विष्णोक्ष हृदये शिवः ॥ एकमूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । त्रयाणामन्तरं नास्ति गुणभेदाः प्रकीर्तिताः ।।
(७१ । १८-२०)
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भूमिखण्ड ]
• मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन
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और प्रलयसे रहित हैं।
पिप्पलने पूछा- ब्रह्मन् ! मातलिकी बात सुनकर नहुषपुत्र राजा ययातिने क्या किया ? इसका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये।
सुकर्मा बोले - विप्रवर! सुनिये, उस समय सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नृपवर ययातिने मातलिसे इस प्रकार कहा - 'देवदूत ! तुमने स्वर्गका सारा गुणअवगुण मुझे पहले ही बता दिया है। अतः अब मैं शरीर छोड़कर स्वर्गलोक में नहीं जाऊँगा । देवाधिदेव इन्द्रसे तुम यही जाकर कह देना। भगवान् हृषीकेशके नामोंका उच्चारण ही सर्वोत्तम धर्म है। मैं प्रतिदिन इसी रसायनका सेवन करता हूँ। इससे मेरे रोग, दोष और पापादि नष्ट हो गये हैं। संसारमें श्रीकृष्णका नाम सबसे बड़ी औषध है। इसके रहते हुए भी मनुष्य पाप और व्याधियोंसे पीड़ित होकर मृत्युको प्राप्त हो रहे हैं—यह कितने आश्चर्यकी बात है। लोग कितने बड़े मूर्ख हैं कि श्रीकृष्ण नामका रसायन नहीं पीते। * भगवान्की पूजा, ध्यान, नियम, सत्य भाषण तथा दानसे शरीरकी शुद्धि होती है। इससे रोग और दोष नष्ट हो जाते हैं। तदनन्तर भगवान् के प्रसादसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है। इसलिये मैं अब स्वर्गलोकको नहीं चलूँगा। अपने तपसे, भावसे और धर्माचरणके द्वारा भगवत् कृपासे इस पृथ्वीको ही स्वर्ग बनाऊँगा। यह जानकर तुम यहाँसे जाओ और सारी बातें इन्द्रसे कह सुनाओ।'
राजा ययातिकी यह बात सुनकर मातलि चले गये। उन्होंने इन्द्रसे सब बातें निवेदन कीं। उन्हें सुनकर इन्द्र पुनः राजाको स्वर्ग में लाने के विषयमें विचार करने लगे।
पिप्पलने पूछा- ब्रह्मन् ! इन्द्रके दूत महाभाग मातलिके चले जानेपर धर्मात्मा ययातिने कौन-सा कार्य किया ?
सुकर्मा बोले - विप्रवर! देवराजके दूत मातलि जब चले गये, तब राजा ययातिने मन-ही-मन कुछ
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* विद्यमाने हि संसारे कृष्णनाम्नि महौषधे मानवा मरणं यान्ति पापव्याधिप्रपीडिताः ।
न पिवन्ति महामूढाः कृष्णनामरसायनम् ॥ (७२ । १८)
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विचार किया और तुरंत ही प्रधान प्रधान दूतोंको बुलाकर उन्हें धर्म और अर्थसे युक्त उत्तम आदेश दिया- 'दूतो! तुमलोग मेरी आज्ञा मानकर अपने और दूसरे देशोंमें जाओ; तुम्हारे मुखसे वहाँके सब लोग मेरी धर्मयुक्त बात सुनें और सुनकर उसका पालन करें। जगत्के मनुष्य परम पवित्र और अमृतके समान सुखदायी भगवत् सम्बन्धी भावोंद्वारा उत्तम मार्गका आश्रय लें। सदा तत्पर होकर शुभ कर्मोंका अनुष्ठान, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, भगवान्का ध्यान और तपस्या करें। सब लोग विषयोंका परित्याग करके यज्ञ और दानके द्वारा एकमात्र मधुसूदनका पूजन करें। सर्वत्र सूखे और गीलेमें, आकाश और पृथ्वीपर तथा चराचर प्राणियों में केवल श्रीहरिका दर्शन करें। जो मानव लोभ या मोहवश लोकमें मेरी इस आज्ञाका पालन नहीं करेगा, उसे निश्चय ही कठोर दण्ड दिया जायगा। मेरी दृष्टिमें वह चोरकी भाँति निकृष्ट समझा जायगा।'
राजाके ये वचन सुनकर दूतोंका हृदय प्रसन्न हो गया। वे समूची पृथ्वीपर घूम-घूमकर समस्त प्रजाको महाराजका आदेश सुनाने लगे- 'ब्राह्मणादि चारों वर्णोंके मनुष्यो ! राजा ययातिने संसारमें परम पवित्र अमृत ला दिया है। आप सब लोग उसका पान करें। उस अमृतका नाम है- पुण्यमय वैष्णव धर्म। वह सब दोषोंसे रहित और उत्तम परिणामका जनक है। भगवान् केशव सबका क्लेश हरनेवाले, सर्वश्रेष्ठ, आनन्दस्वरूप और परमार्थ तत्त्व हैं। उनका नाममय अमृत सब दोषोंको दूर करनेवाला है। महाराज ययातिने उस अमृतको यहीं सुलभ कर दिया है। संसारके लोग इच्छानुसार उसका पान करें। भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है। उनके नेत्र कमलके समान सुन्दर हैं। वे जगत्के आधारभूत और महेश्वर हैं पापोंका नाश करके आनन्द प्रदान करते हैं। दानवों और दैत्योंका संहार करनेवाले हैं। यज्ञ उनके अङ्गस्वरूप हैं, उनके
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
हाथमें सुदर्शन चक्र शोभा पाता है। वे पुण्यकी निधि और सुखरूप हैं। उनके स्वरूपका कहीं अन्त नहीं है। सम्पूर्ण विश्व उनके हृदयमें निवास करता है। वे निर्मल सबको आराम देनेवाले, 'राम' नाम से विख्यात, सबमें रमण करनेवाले, मुर दैत्यके शत्रु, आदित्यस्वरूप, अन्धकारके नाशक, मलरूप कमलोंके लिये चाँदनीरूप, लक्ष्मी निवासस्थान, सगुण और देवेश्वर हैं। उनका नामामृत सब दोषोंको दूर करनेवाला है। राजा ययातिने उसे यहीं सुलभ कर दिया है, सब लोग उसका पान करें। यह नामामृतस्तोत्र दोषहारी और उत्तम पुण्यका जनक है। लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुमें भक्ति रखनेवाला जो महात्मा पुरुष प्रतिदिन प्रातः काल नियमपूर्वक इसका पाठ करता है, वह मुक्त हो जाता है। *
सुकर्मा कहते हैं - राजा ययातिके दूत सम्पूर्ण देशों, द्वीपों, नगरों और गाँवोंमें कहते फिरते थे'लोगो ! महाराजकी आज्ञा सुनो, तुमलोग पूरा जोर लगाकर सर्वतोभावेन भगवान् विष्णुकी पूजा करो। दान, यज्ञ, शुभकर्म, धर्म और पूजन आदिके द्वारा भगवान् मधुसूदनकी आराधना करते हुए मनकी सम्पूर्ण वृत्तियोंसे उन्हींका ध्यान - चिन्तन करो।' इस प्रकार राजाके उत्तम आदेशका, जो शुभ पुण्य उत्पन्न करनेवाला था, भूतल निवासी सब लोगोंने श्रवण किया। उसी समयसे सम्पूर्ण मनुष्य एकमात्र भगवान् मुरारिका ध्यान, गुणगान, जप और तप करने लगे। वेदोक्त सूक्तों और मन्त्रोंद्वारा, जो कानोंको पवित्र करनेवाले तथा अमृतके समान मधुर थे, श्रीकेशवका यजन करने लगे। उनका चित्त सदा
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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भगवान्में ही लगा रहता था। वे समस्त विषयों और दोषोंका परित्याग करके व्रत, उपवास, नियम और दानके द्वारा भक्तिपूर्वक जगन्निवास श्रीविष्णुका पूजन करते थे राजाका भगवदाराधन सम्बन्धी आदेश भूमण्डलपर प्रवर्तित हो गया। सब लोग वैष्णव प्रभावके कारण भगवान्का यजन करने लगे। यज्ञविधिको जाननेवाले विद्वान् नाम और कर्मोंक द्वारा श्रीविष्णुका यजन करते और उन्होंके ध्यानमें संलग्न रहते थे। उनका सारा उद्योग भगवान्के लिये ही होता था। वे विष्णु पूजामें निरन्तर लगे रहते थे। जहाँतक यह सारा भूमण्डल है और जहाँतक प्रचण्ड किरणोंवाले भगवान् सूर्य तपते हैं, वहाँतक समस्त मनुष्य भगवद्भक्त हो गये। श्रीविष्णुके प्रभावसे, उनका पूजन, स्तवन और नाम कीर्तन करनेसे सबके शोक दूर हो गये। सभी पुण्यात्मा और तपस्वी बन गये। किसीको रोग नहीं सताता था। सब-के-सब दोष और रोषसे शून्य तथा समस्त ऐश्वयोंसे सम्पन्न हो गये थे।
महाभाग ! उन लोगोंके घरोंके दरवाजोंपर सदा ही पुण्यमय कल्पवृक्ष और समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली गौएँ रहती थीं। उनके घरमें चिन्तामणि नामकी मणि थी, जो परम पवित्र और सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली मानी गयी है। भगवान् विष्णुकी कृपासे पृथ्वीके समस्त मानव सब प्रकारके दोषोंसे रहित हो गये
थे पुत्र तथा पौत्र उनकी शोभा बढ़ाते थे। वे मङ्गलसे युक्त, परम पुण्यात्मा, दानी ज्ञानी और ध्यानपरायण थे। धर्मके ज्ञाता महाराज ययातिके शासनकालमें दुर्भिक्ष
* श्रीकेशवं शहर वरेण्यमानन्दरूपं परमार्थमेव नामामृतं दोषहरं तु राज्ञा आनीतमत्रैव पिबन्तु लोकाः ॥ श्रीपद्मनाभं कमलेक्षणं च आधाररूपं जगतां महेशम्। नामामृतं दोषहरं तु राज्ञा आनीतमत्रैव पिबन्तु लोकाः ॥ पापापहं व्याधिविनाशरूपमानन्ददं दानवदैत्यनाशनम्। नामामृतं दोषहरं तु राज्ञा आनीतमत्रैव पिवन्तु लोकाः ॥ यज्ञाङ्गरूपं च रथाङ्गपाणिं पुण्याकरं सौख्यमनन्तरूपम्। नामामृतं दोषहरं तु राज्ञा आनीतमत्रैव पिवन्तु लोकाः ॥ विश्वाधिवासं विमलं विरामं रामाभिधानं रमणं मुरारिम् । नामामृतं दोषहरं तु राज्ञा आनीतमत्रैव पिबन्तु लोकाः ॥ आदित्यरूपं तमसां विनाशं चन्द्रप्रकाशं मलपङ्कजानाम् । नामामृतं दोषहरं तु राज्ञा आनीतमत्रैव पिबन्तु लोकाः ॥ सखङ्गपाणि मधुसूदनाख्यं तं श्रीनिवासं सगुणं सुरेशम् । नामामृतं दोषहरं तु राज्ञा आनीतमत्रैव पिबन्तु लोकाः ॥ नामामृतं दोषहरं सुपुण्यमधीत्य यो माधवविष्णुभक्तः । प्रभातकाले नियतो महात्मा स याति मुक्ति न हि कारणं च ।।
(७३ | १०- १७)
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भूमिखण्ड ] . मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन . ....................................................................................................
और व्याधियोंका भय नहीं था। मनुष्योंकी अकाल-मृत्यु लगे हुए बालक गोविन्दको मस्तक झुकाते और नहीं होती थी। सब लोग विष्णु-सम्बन्धी व्रतोंका पालन दिन-रात मधुर हरिनामका कीर्तन करते रहते थे। करनेवाले और वैष्णव थे। भगवान्का ही ध्यान और द्विजश्रेष्ठ ! सर्वत्र भगवान् विष्णुके नामको ही ध्वनि उन्हींके नामोंका जप उनकी दिनचर्याका अङ्ग बन गया सुनायी पड़ती थी। भूतलके समस्त मानव वैष्णवोचित था। वे सब लोग भाव-भक्तिके साथ भगवान्को भावसे रहा करते थे। महलों और देवमन्दिरोंके आराधनामें तत्पर रहते थे। द्विजश्रेष्ठ ! उस समय सब कलशोपर सूर्यमण्डलके समान चक्र शोभा पाते थे। लोगोंके घरोंमें तुलसीके वृक्ष और भगवान्के मन्दिर पृथ्वीपर सर्वत्र श्रीकृष्णका भाव दृष्टिगोचर होता था । यह शोभा पाते थे। सबके घर साफ-सुथरे और चमकीले थे भूतल विष्णुलोककी समानताको पहुँच गया था। तथा उत्तम गुणोंके कारण दिव्य दिखायी देते थे। सर्वत्र वैकुण्ठमें वैष्णव लोग जैसे विष्णुका उच्चारण करते हैं, वैष्णव भाव छा रहा था। नाना प्रकारके माङ्गलिक उसी प्रकार इस पृथ्वीपर मनुष्य कृष्ण-नामका कीर्तन उत्सवोका दर्शन होता था। विप्रवर ! भूलोकमें सदा करते थे। भूतल और वैकुण्ठ दोनों लोकोंका एक ही शकोंकी ध्वनियाँ सुनायी पड़ती थीं, जो आपसमें भाव दिखायी देता था । वृद्धावस्था और रोगका भय नहीं टकराया करती थीं। वे ध्वनियाँ समस्त दोषों और था; क्योंकि मनुष्य अजर-अमर हो गये थे। भूलोकमें पापोका विनाश करनेवाली थीं। भगवान् विष्णुमें भक्ति दान और भोगका अधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता था। रखनेवाली स्त्रियोंने अपने-अपने घरके दरवाजेपर शङ्ख, प्रायः सब मनुष्य-द्विजमात्र वेदोंके विद्वान् और ज्ञानस्वस्तिक और पद्यकी आकृतियाँ लिख रखी थीं। सब ध्यानपरायण थे। सब यज्ञ और दानमें लगे रहते थे। लोग केशवका गुणगान करते थे। कोई 'हरि' और सबमें दयाका भाव था। सभी परोपकारी, शुभ विचार'मुरारि' का उच्चारण करता तो कोई 'श्रीश', 'अच्युत' सम्पन्न और धर्मनिष्ठ थे। महाराज ययातिके उपदेशसे तथा माधवका नाम लेता था। कितने ही श्रीनरसिंह, भूमण्डलके समस्त मानव वैष्णव हो गये थे। कमलनयन, गोविन्द, कमलापति, कृष्ण और राम- भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-नृपश्रेष्ठ वेन ! नामकी रट लगाते हुए भगवान्की शरणमें जाते, मन्त्रोंके नहुषपुत्र महाराज ययातिका चरित्र सुनो; वे सर्वधर्मद्वारा उनका जप करते तथा पूजन भी करते थे। परायण और निरन्तर भगवान् विष्णुमें भक्ति रखनेवाले सब-के-सब वैष्णव थे; अतः वे श्रीविष्णुके ध्यानमें मग्न थे। उन्हें इस पृथ्वीपर रहते एक लाख वर्ष व्यतीत खे रहकर उन्हींको दण्डवत् प्रणाम किया करते थे। गये। परन्तु उनका शरीर नित्य-नूतन दिखायी देता था,
कृष्ण, विष्णु, हरि, राम, मुकुन्द, मधुसूदन, मानो वे पच्चीस वर्षके तरुण हो। भगवान् विष्णुके नारायण, हृषीकेश, नरसिंह, अच्युत, केशव, पद्मनाभ, प्रसादसे राजा ययाति बड़े ही प्रशस्त और प्रौढ़ हो गये वासुदेव, वामन, वाराह, कमठ, मत्स्य, कपिल, थे। भूमण्डलके मनुष्य कामनाओंके बन्धनसे रहित सुराधिप, विश्वेश, विश्वरूप, अनन्त, अनघ, शुचि, पुरुष, होनेके कारण यमराजके पास नहीं जाते थे। वे दानपुष्कराक्ष, श्रीधर, श्रीपति, हरि, श्रीद, श्रीश, श्रीनिवास, पुण्यसे सुखी थे और सब धर्मोक अनुष्ठानमें संलग्न रहते सुमोक्ष, मोक्षद और प्रभु-इन नामोंका उच्चारण करते थे। जैसे दूर्वा और वटवृक्ष पृथ्वीपर विस्तारको प्राप्त होते हुए पृथ्वीके समस्त मानव-बाल, वृद्ध और कुमार भी है, उसी प्रकार वे मनुष्य पुत्र-पौत्रोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त भगवान्का भजन करते थे। घरके काम-धंधोंमें लगी हुई हो रहे थे। मृत्युरूपी दोषसे हीन होनेके कारण वे स्त्रियाँ सदा भगवान् श्रीहरिको प्रणाम करती और बैठते, दीर्घजीवी होते थे। उनका शरीर अधिक कालतक दृढ़ सोते, चलते, ध्यान लगाते तथा ज्ञान प्राप्त करते समय रहता था। वे सुखी थे और बुढ़ापेका रोग उन्हें छू भी भी वे लक्ष्मीपतिका स्मरण करती रहती थीं। खेल-कूदमें नहीं गया था। पृथ्वीके सभी मनुष्य पच्चीस वर्षकी
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• अर्वयस्व हषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
अवस्थाके दिखायी देते थे। सबका आचार-विचार एक उत्तम नाटक खेलना चाहते है। राजा ययाति सत्यसे युक्त था। सभी भगवान्के ध्यानमें तन्मय रहते ज्ञान-विज्ञानमें कुशल थे। उन्होंने नटोंको बात सुनकर थे। समूची पृथ्वीपर जगत्में किसीकी मृत्यु नहीं सुनी सभा एकत्रित को और स्वयं भी उसमें उपस्थित हुए। जाती थी। किसीको शोक नहीं देखना पड़ता था। कोई नटोंने विप्ररूपधारी भगवान् वामनके अवतारकी लीला भी दोषसे लिप्त नहीं होते थे।
उपस्थित की। राजा उनका नाटक देखने लगे। उस ___एक समय इन्द्रने कामदेव और गन्धर्वोको बुलाया नाटकमें साक्षात् कामदेवने सूत्रधारका काम किया। तथा उनसे इस प्रकार कहा–'तुम सब लोग मिलकर वसन्त पारिपार्थक बना। अपने वल्लभको प्रसत्र ऐसा कोई उपाय करो, जिससे राजा ययाति यहाँ आ करनेवाली रति-नटीके वेषमें उपस्थित हुई । नाटकमें सब जायें।' इन्द्रके यों कहनेपर कामदेव आदि सब लोग लोग पात्रके अनुरूप वेष धारण किये अभिनय करने नटके वेपमें राजा ययातिके पास आये और उन्हें लगे। मकरन्द (वसन्त) ने महाप्राज्ञ राजा ययातिके आशीर्वादसे प्रसन्न करके बोले-महाराज! हमलोग चित्तको क्षोभमें डाल दिया।
ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान,
ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम-गमन
सुकर्मा कहते हैं-पिप्पल ! महाराज ययाति जो सभी गुणोंसे युक्त था। उसके भीतर राजाने एक कामदेवके गीत, नृत्य और ललित हास्यसे मोहित होकर बहुत सुन्दर तालाब देखा, जो दस योजन लंबा और स्वयं भी नट-स्वरूप हो गये। वे मल-मूत्रका त्याग पाँच योजन चौड़ा था। सब ओर कल्याणमय जलसे करके आये और पैरोंको धोये बिना ही आसनपर बैठ भरा वह सर्वतोभद्र नामक तालाब दिव्य भावोंसे शोभा गये। यह छिद्र पाकर वृद्धावस्था तथा कामदेवने राजाके पा रहा था। राजा रथके वेगपूर्वक चलनेसे खिन्न हो गये शरीरमें प्रवेश किया। नृपश्रेष्ठ ! उन सबने मिलकर थे। परिश्रमके कारण उन्हें कुछ पीड़ा हो रही थी; अतः इन्द्रका कार्य पूरा कर दिया। नाटक समाप्त हो गया। सब सरोवरके तटपर ठंडी छायाका आश्रय लेकर बैठ गये। लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मा थोड़ी देर बाद स्रान करके उन्होंने कमलकी राजा ययाति जरावस्थासे पराजित हुए। उनका चित्त सुगन्धसे सुवासित सरोवरका शीतल जल पिया। इतनेमें काम-भोगमें आसक्त हो गया।
ही उन्हें अत्यन्त मधुर स्वरमें गाया जानेवाला एक दिव्य एक दिन वे कामयुक्त होकर वनमें शिकार खेलनेके संगीत सुनायी पड़ा, जो ताल और मूर्च्छनासे युक्त था। लिये गये। उस समय उनके सामने एक हिरन निकला, राजा तुरंत उठकर उस स्थानकी ओर चल दिये, जहाँ जिसके चार सींग थे। उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं गीतकी मनोहर ध्वनि हो रही थी। जलके निकट एक थी। उसके सभी अङ्ग सुन्दर थे। रोमावलियाँ सुनहरे विशाल एवं सुन्दर भवन था । उसीके ऊपर बैठकर रूप, रंगकी थी, मस्तकपर रन-सा जड़ा हुआ प्रतीत होता शील और गुणसे सुशोभित एक सुन्दरी नारी मनोहर गीत था। सारा शरीर चितकबरे रंगका था। वह मनोहर मृग गा रही थी। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं। रूप और तेज देखने ही योग्य था । राजा धनुष-बाण लेकर बड़े वेगसे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चराचर जगत्में उसके-जैसी उसके पीछे दौड़े। मृग भी उन्हें बहुत दूर ले गया और सुन्दरी स्त्री दूसरी कोई नहीं थी। महाराज ययातिके उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गया। राजाको शरीरमें जरायुक्त कामका सञ्चार पहले ही हो चुका था। वहाँ नन्दनवनके समान एक अद्भुत वन दिखायी दिया, उस स्त्रीको देखते ही वह काम विशाल रूपमें प्रकट
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भूमिखण्ड ]
• ययातिका प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन •
हुआ। राजा कामाग्निसे जलने और कामज्वरसे पीड़ित होने लगे। उन्होंने उस सुन्दरीसे पूछा - शुभे ! तुम कौन हो ? किसकी कन्या हो ? तुम्हारे पास यह कौन बैठी है ? कल्याणी ! मुझे सब बातोंका परिचय दो। मैं नहुषका पुत्र हूँ। मेरा जन्म चन्द्रवंशमें हुआ है। पृथ्वीके सातों द्वीपोंपर मेरा अधिकार है। मैं तीनों लोकोंमें विख्यात हूँ। मेरा नाम ययाति है। सुन्दरी ! मुझे दुर्जय काम मारे डालता है। मैं उत्तम शीलसे युक्त हूँ। मेरी रक्षा करो। तुम्हारे समागमके लिये मैं अपना राज्य, समूची पृथ्वी और यह शरीर भी अर्पण कर दूँगा। यह त्रिलोकी तुम्हारी ही है।
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पहले जिन-जिन गुणोंकी चर्चा की है, वे सभी आपके भीतर विद्यमान हैं; केवल एक ही दोषके कारण यह मेरी सखी आपको पसंद नहीं करती। आपके शरीरमें वृद्धावस्थाका प्रवेश हो गया है। यदि आप उससे मुक्त हो सकें, तो यह आपकी प्रियतमा हो सकती है। राजन् ! यही इसका निश्चय है। मैंने सुना है, पुत्र, भ्राता और भृत्य — जिसके शरीरमें भी इस जरावस्थाको डाला जाय, उसीमें इसका संचार हो जाता है। अतः भूपाल ! आप अपना बुढ़ापा तो पुत्रको दे दीजिये और स्वयं उसका यौवन लेकर परम सुन्दर बन जाइये मेरी सखी जिस रूपमें आपका उपभोग करना चाहती है, उसीके अनुकूल व्यवस्था कीजिये ।
ययाति बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा ।
राजा ययाति काम भोगमें आसक्त होकर अपनी विवेकशक्ति खो बैठे थे। वे घर जाकर अपने पुत्रोंसे बोले- 'तुमलोगोमेंसे कोई एक मेरी दुःखदायिनी जरावस्थाको ग्रहण कर ले और अपनी जवानी मुझे दे दे, जिससे मैं इच्छानुसार भोग भोग सकूँ। जो मेरी वृद्धावस्थाको ग्रहण करेगा, वह पुत्रोंमें श्रेष्ठ समझा जायगा और वही मेरे राज्यका स्वामी होगा। उसको सुख, सम्पत्ति, धन-धान्य, बहुत-सी सन्तानें तथा यश और कीर्ति प्राप्त होगी।'
तुरुने कहा - पिताजी! इसमें सन्देह नहीं कि पिता-माताकी कृपासे ही पुत्रको शरीरकी प्राप्ति होती है; अतः उसका कर्तव्य है कि वह विशेष चेष्टाके साथ माता-पिताकी सेवा करे। परन्तु महाराज यौवन-दान करनेका यह मेरा समय नहीं है।
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तुरुकी बात सुनकर धर्मात्मा राजाको बड़ा क्रोध हुआ। वे उसे शाप देते हुए बोले- 'तूने मेरी आशाका अनादर किया है, अतः तू सब धर्मोसे बहिष्कृत और ययाति बोले- मुझे इन सभी गुणोंसे युक्त पापी हो जा तेरा हृदय पवित्र ज्ञानसे शून्य हो जाय और तू कोढ़ी हो जा।' तुरुको इस प्रकार शाप देकर वे अपने दूसरे पुत्र यदुसे बोले – 'बेटा! तू मेरी जरावस्थाको ग्रहण कर और मेरा अकण्टक राज्य भोग।' यह सुनकर
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समझो । मैं इसके योग्य पति हो सकता हूँ।
-
विशालाने कहा- राजन्! मैं जानती हूँ, आप अपने पुण्यके लिये तीनों लोकोंमें विख्यात हैं। मैंने
राजाकी बात सुनकर सुन्दरीने अपनी सखी विशालाको उत्तर देनेके लिये प्रेरित किया। तब विशालाने कहा-' -'नरश्रेष्ठ! यह रतिकी पुत्री है। इसका नाम अश्रुबिन्दुमती है। मैं इसके प्रेम और सौहार्दवश सदा इसके साथ रहती हूँ। हम दोनोंमें स्वाभाविक मित्रता है, जिससे मैं सर्वदा प्रसन्न रहती हूँ। मेरा नाम विशाला है। मैं वरुणकी पुत्री हूँ महाराज! मेरी यह सुन्दरी सखी योग्य वरकी प्राप्तिके लिये तपस्या कर रही है। इस प्रकार मैंने आपसे अपनी इस सखीका तथा अपना भी पूरा-पूरा परिचय दे दिया।'
The Fat
यह
ययाति बोले- शुभे ! मेरी बात सुनो सुन्दर मुखवाली रतिकुमारी मुझे ही पतिरूपमें स्वीकार करे। यह बाला जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करेगी, वह सब मैं इसे प्रदान करूंगा।
३०३
PAW
विशालाने कहा- राजन्! मैं इसका नियम बतलाती हूँ, पहले उसे सुन लीजिये। यह स्थिर यौवनसे युक्तः सर्वज्ञ, वीरके लक्षणोंसे सुशोभित, देवराजके समान तेजस्वी, धर्मका आचरण करनेवाले, त्रिलोकपूजित, सुबुद्धि, सुप्रिय तथा उत्तम गुणोंसे युक्त पुरुषको अपना पति बनाना चाहती है 1 1757,44
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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यदुने हाथ जोड़कर कहा - 'पिताजी! कृपा कीजिये। मैं बुढ़ापेका भार नहीं ढो सकता। शीतका कष्ट सहना, अधिक राह चलना, कदन भोजन करना, जिनकी जवानी बीत गयी हो ऐसी स्त्रियोंसे सम्पर्क रखना और मनकी प्रतिकूलताका सामना करना - ये वृद्धावस्थाके पाँच हेतु हैं।' यदुके यों कहनेपर महाराज ययातिने कुपित होकर उन्हें भी शाप दिया- 'जा, तेरा वंश राज्यहीन होगा, उसमें कभी कोई राजा न होगा।'
यदुने कहा- -महाराज! मैं निर्दोष हूँ। आपने मुझे शाप क्यों दे दिया ? मुझ दीनपर दया कीजिये, प्रसन्न हो जाइये।
ययाति बोले- बेटा ! महान् देवता भगवान् विष्णु जब तेरे वंशमें अपने अंशसहित अवतार लेंगे, उस समय तेरा कुल पवित्र - शापसे मुक्त हो जायगा ।
राजा ययातिने कुरुको शिशु समझकर छोड़ दिया और शर्मिष्ठाके पुत्र पुरुको बुलाकर कहा - 'बेटा! तू मेरी वृद्धावस्था ग्रहण कर ले।' पूरुने कहा- 'राजन्! मैं आपकी आशाका पालन करूंगा। मुझे अपनी वृद्धावस्था दीजिये और आज ही मेरी युवावस्थासे सुन्दर रूप धारण कर उत्तम भोग भोगिये।' यह सुनकर महामनस्वी राजाका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वे पूरुसे बोले- 'महामते ! तूने मेरी वृद्धावस्था ग्रहण की और अपना यौवन मुझे दिया; इसलिये मेरे दिये हुए राज्यका उपभोग कर।' अब राजाकी बिलकुल नयी अवस्था हो गयी। वे सोलह वर्षके तरुण प्रतीत होने लगे। देखनेमें अत्यन्त सुन्दर, मानो दूसरे कामदेव हों। महाराजने पूरुको अपना धनुष, राज्य, छत्र, घोड़ा, हाथी, धन, खजाना, देश, सेना, चँवर और व्यजन - सब कुछ दे डाला। धर्मात्मा नहुषकुमार अब कामात्मा हो गये। वे कामासक्त होकर बारंबार उस स्त्रीका चिन्तन करने लगे। उन्हें अपने पहले वृत्तान्तका स्मरण न रहा नयी जवानी पाकर वे बड़ी शीघ्रताके साथ कदम बढ़ाते हुए अश्रुबिन्दुमतीके पास गये। उस समय उनका चित्त कामसे उन्मत्त हो रहा था। वे विशाल नेत्रोंवाली विशालाको देखकर बोले- 'भद्रे ! मैं प्रबल दोषरूप
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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वृद्धावस्थाको त्यागकर यहाँ आया हूँ। अब मैं तरुण हूँ, अतः तुम्हारी सखी मुझे स्वीकार करे।'
विशाला बोली- राजन् ! आप दोषरूपा जरावस्थाको त्यागकर आये हैं, यह बड़ी अच्छी बात है; परन्तु अब भी आप एक दोषसे लिप्त हैं, जिससे यह आपको स्वीकार करना नहीं चाहती। आपकी दो सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ हैं— शर्मिष्ठा और देवयानी। ऐसी दशामें आप मेरी इस सखीके वशमें कैसे रह सकेंगे ? जलती हुई आगमें समा जाना और पर्वतके शिखरसे कूद पड़ना अच्छा है; किन्तु रूप और तेजसे युक्त होनेपर भी ऐसे पतिसे विवाह करना अच्छा नहीं है, जो सौतरूपी विषसे युक्त हो । यद्यपि आप गुणोंके समुद्र हैं, तो भी इसी एक दोषके कारण यह आपको पति बनाना पसंद नहीं करती।
ययातिने कहा- - शुभे! मुझे देवयानी और शर्मिष्ठासे कोई प्रयोजन नहीं है। इस बात के लिये मैं सत्यधर्मसे युक्त अपने शरीरको छूकर शपथ करता हूँ।
अश्रुबिन्दुमती बोली- राजन्! मैं ही आपके राज्य और शरीरका उपभोग करूंगी। जिस-जिस कार्यके लिये मैं कहूँ, उसे आपको अवश्य पूर्ण करना होगा। इस बातका विश्वास दिलानेके लिये अपना हाथ मेरे हाथमें दीजिये।
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ययातिने कहा- राजकुमारी! मैं तुम्हारी सिवा किसी दूसरी स्त्रीको नहीं ग्रहण करूंगा। वरानने! मेरा राज्य, समूची पृथ्वी, मेरा यह शरीर और खजाना - सबका तुम इच्छानुसार उपभोग करो। सुन्दरी! लो, मैंने तुम्हारे हाथमें अपना हाथ दे दिया।
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अशुबिन्दुमती बोली- महाराज ! अब मैं आपकी पत्नी बनूँगी। इतना सुनते ही महाराज ययातिकी आँखें हर्षसे खिल उठीं; उन्होंने गान्धर्व विवाहकी विधिसे काम कुमारी अश्रुबिन्दुमतीको ग्रहण किया और युवावस्थाके द्वारा वे उसके साथ विहार करने लगे। अश्रुबिन्दुमतीमें आसक्त होकर वहाँ रहते हुए राजाको बीस हजार वर्ष बीत गये। इस प्रकार इन्द्रके लिये किये हुए कामदेवके प्रयोगसे उस स्त्रीने महाराजको भलीभाँति
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भूमिखण्ड ]
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ययातिका प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन •
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मोहित कर लिया। एक दिनकी बात है - कामनन्दिनी नहीं कि यह कार्य दूसरे मनुष्योंके लिये सर्वथा असाध्य है; पर आपके लिये तो साध्य ही है - यह मैं बिलकुल सच-सच कह रही हूँ। इसी उद्देश्यसे मैंने आपको अपना स्वामी बनाया था; आप सब प्रकारके शुभलक्षणोंसे सम्पन्न और सब धर्मोसे युक्त हैं। मैं जानती
-आप भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वैष्णवोंमें परम श्रेष्ठ हैं। जिसके ऊपर भगवान् विष्णुकी कृपा होती है, वह सर्वत्र जा सकता है। इसी आशासे मैंने आपको पतिरूपमें अङ्गीकार किया था। राजन् ! केवल आपने ही मृत्युलोकमें आकर सम्पूर्ण मनुष्योंको जरावस्थाकी पीड़ासे रहित और मृत्युहीन बनाया है। नरश्रेष्ठ! आपने इन्द्र और यमराजका विरोध करके मर्त्यलोकको रोग और पापसे शून्य कर दिया है। महाराज! आपके समान दूसरा कोई भी राजा नहीं है। बहुत से पुराणोंमें भी आपके जैसे राजाका वर्णन नहीं मिलता। मैं अच्छी तरह जानती हूँ, आप सब धर्मोक ज्ञाता हैं ।
अश्रुबिन्दुमतीने मोहित हुए राजा ययातिसे कहा'प्राणनाथ ! मेरे हृदयमें कुछ अभिलाषा जाग्रत् हुई है। आप मेरे उस मनोरथको पूर्ण कीजिये। पृथ्वीपते ! आप यज्ञोंमें प्रधान अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करें।'
राजा बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूंगा।
ऐसा कहकर महाराजने राज्य-भोगसे निःस्पृह अपने पुत्र पूरुको बुलाया। पिताका आह्वान सुनकर पूरु आये उन्होंने भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर राजाके चरणोंमें प्रणाम किया और अश्रुबिन्दुमतीके युगल चरणोंमें भी मस्तक झुकाया। इसके बाद वे पितासे बोले'महाप्राज्ञ ! मैं आपका दास हूँ बताइये, मेरे लिये आपकी क्या आज्ञा है, मैं कौन-सा कार्य करूँ ?'
राजाने कहा- बेटा! पुण्यात्मा द्विजों, ऋत्विजों और भूमिपालोंको आमन्त्रित करके तुम अश्वमेध यज्ञकी तैयारी करो।
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महातेजस्वी पूरु बड़े धार्मिक थे। उन्होंने पिताके कहनेपर उनकी आज्ञाका पूर्णतया पालन किया। तत्पश्चात् राजा ययातिने काम कन्याके साथ यज्ञकी दीक्षा ली। उन्होंने अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणों और दोनोंको अनेक प्रकारके दान दिये। यज्ञ समाप्त होनेपर महाराजने उस सुमुखीसे पूछा- 'बाले! और कोई कार्य भी, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हो, बताओ मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य करूँ ?' यह सुनकर उसने राजासे कहा'महाराज ! मैं इन्द्रलोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक तथा विष्णुलोकका दर्शन करना चाहती हूँ।' राजा बोले – 'महाभागे ! तुमने जो प्रस्ताव किया है, वह इस समय मुझे असाध्य प्रतीत होता है वह तो पुण्य, दान, यज्ञ और तपस्यासे ही साध्य है। मैंने आजतक ऐसा कोई मनुष्य नहीं देखा या सुना है, जो पुण्यात्मा होकर भी मर्त्यलोकसे इस शरीरके साथ ही स्वर्गको गया हो। अतः सुन्दरी! तुम्हारा बताया हुआ कार्य मेरे लिये असाध्य है। प्रिये ! दूसरा कोई कार्य बताओ, उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।' अश्रुबिन्दुमती बोली- राजन् ! इसमें सन्देह
राजाने कहा - भद्रे ! तुम्हारा कहना सत्य है, मेरे लिये कोई साध्य असाध्यका प्रश्न नहीं है। जगदीश्वरकी कृपासे मुझे स्वर्गलोकमें सब कुछ सुलभ हैं। तथापि मैं स्वर्गमें जो नहीं जाता हूँ, इसका कारण सुनो। मेरे छोड़ देनेपर मानवलोककी सारी प्रजा मृत्युका शिकार हो जायगी, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं हैं। सुमुखि ! यही सोचकर मैं स्वर्गमें नहीं चलता हूँ; यह मैंने तुम्हें सची बात बतायी है।
रानी बोली- महाराज ! उन लोकोंको देखकर मैं फिर मर्त्यलोकमें लौट आऊँगी। इस समय उन्हें देखनेके लिये मेरे मनमें इतनी उत्सुकता हुई है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है।
राजाने कहा- देवि! तुमने जो कुछ कहा है, उसे निःसन्देह पूर्ण करूँगा ।
अपनी प्रिया अश्रुबिन्दुमतीसे यों कहकर राजा सोचने लगे- 'मत्स्य पानीके भीतर रहता है, किन्तु वह भी जालसे बँध जाता है। स्वर्गमें या पृथ्वीपर जो स्थावर आदि प्राणी हैं, उन सबपर कालका प्रभाव है। एकमात्र काल ही इस जगत्के रूपमें उपलब्ध होता है। कालसे
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. अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
पीड़ित मनुष्यको मन्त्र, तप, दान, मित्र और बन्धु- दिया हो, उसकी रक्षा नहीं देखी जाती। यह मेरे बान्धव-कोई भी नहीं बचा सकते । विवाह, जन्म और पूर्वकर्मोका परिणाम ही है, दूसरा कुछ नहीं है। इस स्त्रीके मृत्यु-ये कालके रचे हुए तीन बन्धन है। ये जहाँ, जैसे रूपमें दैव ही यहाँ आ पहुँचा है, इसमें तनिक भी सन्देह
और जिस हेतुसे होनेको होते हैं, होकर ही रहते हैं; कोई नहीं है। मेरे घरमें जो नाटक खेलनेवाले नट और नर्तक मेट उन्हें नहीं सकता।* उपद्रव, आघातदोष, सर्प और आये थे, उन्हींकि सङ्गसे मेरे शरीरमें जरावस्थाने प्रवेश व्याधियाँ-ये सभी कर्मसे प्रेरित होकर मनुष्यको प्राप्त किया है। इन सब बातोंको मैं अपने कर्मोका ही परिणाम होते हैं। आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु-ये पाँच मानता हूँ।' बातें जीवके गर्भ में रहते समय ही रच दी जाती हैं। इस प्रकारकी चिन्तामें पड़कर राजा ययाति बहुत जीवको देवत्व, मनुष्यत्व, पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनियाँ दुःखी हो गये। उन्होंने सोचा-'यदि मैं प्रसन्नतापूर्वक
और स्थावर योनि-ये सब कुछ अपने-अपने इसकी बात नहीं मानूँगा तो मेरे सत्य और धर्म-दोनों कर्मानुसार ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य जैसा करता है, वैसा ही चले जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसा भोगता है; उसे अपने किये हुएको ही सदा भोगना पड़ता कर्म मैंने किया था, उसके अनुरूप ही फल आज है। वह अपना ही बनाया हुआ दुःख और अपना ही रचा दृष्टिगोचर हुआ है। यह निश्चित बात है कि दैवका विधान हुआ सुख भोगता है। जो लोग अपने धन और बुद्धिसे टाला नहीं जा सकता है।' किसी वस्तुको अन्यथा करनेकी युक्ति रखते हैं, वे भी इस तरह सोच-विचारमें पड़े हुए राजा ययाति अपने उपार्जित सुख-दुःखोंका उपभोग करते हैं। जैसे सबके केश दूर करनेवाले भगवान् श्रीहरिको शरणमें बछड़ा हजारों गौओंके बीचमें खड़ी होनेपर भी अपने गये। उन्होंने मन-ही-मन भगवान् मधुसूदनका ध्यान माताको पहचानकर उसके पास पहुँच जाता है, उसी और नमस्कारपूर्वक स्तवन किया तथा कातरभावसे प्रकार पूर्व-जन्मके किये हुए शुभाशुभ कर्म कर्ताका कहा-'लक्ष्मीपते ! मैं आपकी शरणमें आया हैं, आप अनुसरण करते हैं। पहलेका किया हुआ कर्म कर्ताके मेरा उद्धार कीजिये। सोनेपर उसके साथ ही सोता है, उसके खड़े होनेपर खड़ा सुकर्मा कहते हैं-परम धर्मात्मा राजा ययाति होता है और चलनेपर पीछे-पीछे चलता है। तात्पर्य यह इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि रतिकुमारी देवी कि कर्म छायाकी भाँति कर्ताक साथ लगा रहता है। जैसे अश्रुबिन्दुमतीने कहा-'राजन्! अन्यान्य प्राकृत छाया और धूप सदा एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं, उसी मनुष्योंकी भाँति आप दुःखपूर्ण चिन्ता कैसे कर रहे हैं। प्रकार कर्म और कर्ताका भी परस्पर सम्बन्ध है। शस्त्र, जिसके कारण आपको दुःख हो, वह कार्य मुझे कभी नहीं अग्नि, विष आदिसे जो बचाने योग्य वस्तु है, उसको करना है। उसके यो कहनेपर राजाने उस वराङ्गनासे भी दैव ही बचाता है। जो वास्तवमें अरक्षित वस्तु है, कहा-'देवि ! मुझे जिस बातकी चिन्ता हुई है, उसे उसकी दैव ही रक्षा करता है। दैवने जिसका नाश कर बताता हैं, सुनो। मेरे स्वर्ग चले जानेपर सारी प्रजा दीन
* न मन्त्रा न तपो दानं न मित्राणि न बान्धवाः । शकुवन्ति परित्रातु + कालेन पीडितम्॥ प्रयः कालकृताः पाशाः शक्यते न निवर्तितुम् । विवाो जन्म मरणं यथा यत्र च येन च।
(८१ । ३३-३४) + पञ्चैतानि विसृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः । आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च ॥
(८१।४१) * देवत्वमथ मानुष्यं पशुत्वं पक्षिता तथा । निर्यकत्वं स्थावरत्वं च प्राप्यते वै स्वकर्मभिः ।।
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भूमिखण्ड]
• ययातिका प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम-गमन .
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हो जायगी। तथापि अब मैं तुम्हारे साथ स्वर्गलोकको बड़े हर्षमें भरकर यह वचन कहा-'सज्जनो! मैं चलूंगा।' यों कहकर राजाने अपने उत्तम पुत्र पूरुको, जो अपनी इस पलीके साथ पहले इन्द्रलोकमें जाता हूँ, फिर सब धर्मोके ज्ञाता, वृद्धावस्थासे युक्त और परम बुद्धिमान् क्रमशः ब्रह्मलोक और शिवलोकमे जाऊँगा। इसके बाद थे, बुलाया और इस प्रकार कहा-'धर्मात्मन् ! मेरी समस्त लोकोंके पाप दूर करनेवाले तथा जीवोंको सद्दति आज्ञासे तुमने धर्मका पालन किया है, अब मेरी प्रदान करनेवाले विष्णुधामको प्राप्त होऊँगा-इसमें वृद्धावस्था दे दो और अपनी युवावस्था ग्रहण करो। तनिक भी सन्देह नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और खजाना, सेना तथा सवारियोंसहित मेरा यह राज्य तथा शूद्र-मेरी समस्त प्रजाको कुटुम्बसहित यहीं सुखपूर्वक समुद्रसहित समूची पृथ्वीको भोगो। मैंने इसे तुम्हें ही रहना चाहिये। यही मेरी आज्ञा है। आजसे ये महाबाहु दिया है। दुष्टोको दण्ड देना और साधु पुरुषोंकी रक्षा पूरु आपलोगोंके रक्षक हैं। इनका स्वभाव धीर है, मैंने करना तुम्हारा कर्तव्य है। .
इन्हें शासनका अधिकार देकर राजाके पदपर प्रतिष्ठित तात ! तुम्हें धर्मशास्त्रको प्रमाण मानकर उसीके किया है।' अनुसार सब कार्य करना चाहिये। महाभाग ! शास्त्रीय महाराजके यो कहनेपर प्रजाजनोंने कहा- नृपश्रेष्ठ विधिके अनुसार भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका पूजन करना, सम्पूर्ण वेदोंमें धर्मका ही श्रवण होता है, पुराणों में भी क्योंकि वे तीनों लोकोंमें पूजनीय हैं। पाँचवे-सातवें दिन धर्मकी ही व्याख्या की गयी है, किन्तु पूर्वकालमें किसीने खजानेकी देखभाल करते रहना, सेवकोको धन और धर्मका साक्षात् दर्शन नहीं किया। केवल हमलोगोंने ही भोजन आदिसे प्रसन्न करके सदा इनका आदर करना। चन्द्रवंशमें राजा नहुषके घर उत्पन्न हुए आपके रूपमें गुप्तचरोंको नियुक्त करके राज्यके प्रत्येक अङ्गपर दृष्टि उस दशाङ्ग धर्मका साक्षात्कार किया है। महाराज ! रखना, सदा दान देते रहना, शत्रुपर अनुराग या विश्वास आप सत्यप्रिय, ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न, पुण्यकी महान् न करना, विद्वान् पुरुषोंके द्वारा सदा अपनी रक्षाका प्रबन्ध राशि, गुणोंके आधार तथा सत्यके ज्ञाता हैं। सत्यका रखना। बेटा ! अपने मनको काबूमें रखना, कभी पालन करनेवाले महान् ओजस्वी पुरुष परम-धर्मका शिकार खेलनेके लिये न जाना । स्त्री, खजाना, सेना और अनुष्ठान करते हैं। आपसे बढ़कर दूसरा कोई पुरुष हमारे शत्रुपर कभी विश्वास न करना। सुयोग्य पात्रों और सब देखने में नहीं आया है। आप-जैसे धर्मपालक एवं प्रकारके बलोंका संग्रह करना। यज्ञोंके द्वारा भगवान् सत्यवादी राजाको हम मन, वाणी और शरीरहषीकेशका पूजन करना और सदा पुण्यात्मा बने रहना। किसीकी भी क्रियाद्वारा छोड़ने में असमर्थ है। महाराज ! प्रजाको जिस वस्तुको इच्छा हो, वह सब उन्हें प्रतिदिन जब आप ही नहीं रहेंगे, तब स्त्री, धन, भोग और जीवन देते रहना। बेटा ! तुम प्रजाको सुख पहुँचाओ, प्रजाका लेकर हम क्या करेंगे। अतः राजेन्द्र ! अब हमें यहाँ पालन-पोषण करो। परायें धन और परायी स्त्रियोंके रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आपके साथ ही हम प्रति कभी दूषित विचार मनमें न लाना। वेद और भी चलेंगे।' शास्त्रोका निरन्तर चिन्तन करना और सदा अस्त्र-शस्त्रोंके प्रजाजनोंकी यह बात सुनकर राजा ययातिको बड़ा अभ्यासमें लगे रहना । हाथी और रथ हाँकनेका अभ्यास हर्ष हुआ। वे बोले-'आप सब लोग परम पुण्यात्मा भी बढ़ाते रहना।'
है, मेरे साथ चलें। यों कहकर वे कामकन्याके साथ पुत्रको ऐसा आदेश देकर राजाने आशीर्वादके द्वारा रथपर सवार हुए। वह रथ चन्द्रमण्डलके समान जान उसे प्रसन्न किया और अपने हाथसे राजसिंहासनपर पड़ता था। सेवकगण हाथमें चैवर और व्यजन लेकर बिठाया। फिर अपनी वृद्धावस्था ले पुत्रको यौवन महाराजको हवा कर रहे थे। राजाके मनमें किसी समर्पित करके महाराजने समस्त प्रजाओंको बुलाया और प्रकारकी पीड़ा नहीं थी। उनके राज्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, संपन्यु० ११
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• अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
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वैश्य तथा शूद्र-सभी वैष्णव थे। इनके सिवा, जो विष्णु और शिव-तीन रूपोंमें अभिव्यक्ति हुई है। अन्त्यज थे, उनके मनमें भी भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति तथापि मेरी विष्णुलोकमें जानेको इच्छा है, अतः आपके थी। सभी दिव्य माला धारण किये तुलसीदलोंसे शोभा चरणोंमें प्रणाम करता है। भगवान् शिव बोलेपा रहे थे। उनकी संख्या अरबों-खरबोतक पहुँच गयी। 'महाराज ! एवमस्तु, तुम विष्णुलोकको जाओ।' उनकी सभी भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर और जप एवं दानमें आशा पाकर राजाने कल्याणमयी भगवती उमाको संलग्न रहनेवाले थे। सब-के-सब विष्णु-भक्त और नमस्कार किया और उन परमपावन विष्णुभक्तोंके साथ पुण्यात्मा थे। उन सबने महाराजके साथ दिव्य लोकोंकी वे विष्णुधामको चल दिये। ऋषि और देवता सब ओर यात्रा की। उस समय सबके हृदयमें महान् आनन्द छा खड़े हो उनकी स्तुति कर रहे थे। गन्धर्व, किनर, सिद्ध, रहा था। राजा ययाति सबसे पहले इन्द्रलोकमें गये, पुण्यात्मा, चारण, साध्य, विद्याधर, उनचास मरुद्गण, उनके तेज, पुण्य, धर्म और तपोबलसे और लोग भी आठों वसु, ग्यारहों रुद्र, बारहों आदित्य, लोकपाल तथा साथ-साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर देवता, गन्धर्व, किन्नर समस्त त्रिलोकी चारों ओर उनका गुणगान कर रही थी। तथा चारणोंसहित देवराज इन्द्र उनके सामने आये और महाराज ययातिने रोग-शोकसे रहित अनुपम विष्णुउनका सम्मान करते हुए बोले-'महाभाग ! आपका लोकका दर्शन किया। सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न स्वागत है ! आइये, मेरे घरमें पधारिये और दिव्य, पावन सोनेके विमान उस लोककी सुषमा बढ़ा रहे थे। चारों एवं मनोरम भोगोंका उपभोग कीजिये।
ओर दिव्य छटा छा रही थी। वह मोक्षका उत्तम धाम - राजाने कहा-देवराज ! आपके चरणारविन्दोंमें वैष्णवोंसे शोभा पा रहा था। देवताओंकी वहाँ भीड़-सी प्रणाम करके हमलोग सनातन ब्रह्मलोकमें जा रहे हैं। लगी थी। - यह कहकर देवताओके मुखसे अपनी स्तुति सुनते नहुषनन्दन ययातिने सब प्रकारके दाहसे रहित उस हुए वे ब्रह्मलोकमे गये। वहाँ मुनिवरोंके साथ दिव्य धाममें प्रवेश करके केशहारी भगवान् नारायणका महातेजस्वी ब्रह्माजीने अर्ध्यादि सुविस्तृत उपचारोंके द्वारा दर्शन किया। भगवान्के ऊपर चैदोवे तने हुए थे, जिनसे उनका आतिथ्य-सत्कार किया और कहा-'राजन् ! उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। वे सब प्रकारके आभूषण तुम अपने शुभ कर्मोके फलस्वरूप विष्णुलोकको और पीत वस्त्रोंसे विभूषित थे। उनके वक्षःस्थलमें जाओ।' ब्रह्माजीके यों कहनेपर वे पहले शिवलोकमें श्रीवत्सका चिह्न शोभा पा रहा था। सबके महान् आश्रय गये, वहाँ भगवान् शङ्करने पार्वतीजीके साथ उनका भगवान जगन्नाथ लक्ष्मीके साथ गरुड़पर विराजमान थे। स्वागत-सत्कार किया और इस प्रकार कहा- वे ही परात्पर परमेश्वर हैं। सम्पूर्ण देवलोकोंकी गति हैं। 'महाराज ! तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो, अतः मेरे भी परमानन्दमय कैवल्यसे सुशोभित है। बड़े-बड़े लोक, अत्यन्त प्रिय हो, क्योंकि मुझमें और विष्णुमें कोई अन्तर पुण्यात्मा वैष्णव, देवता तथा गन्धर्व उनकी सेवामें रहते नहीं है। जो विष्णु हैं, वही मैं हूँ तथा मुझीको विष्णु हैं। राजा ययातिने अपनी पत्नीसहित निकट जाकर समझो. पुण्यात्मा विष्णुभक्तके लिये भी यही स्थान है। गन्धर्वोद्वारा सेवित, देववृन्दसे घिरे, दुःख-क्लेशहारी प्रभु अतः महाराज ! तुम यहाँ इच्छानुसार रह सकते हो।' नारायणको नमस्कार किया तथा उनके साथ जो अन्य - भगवान् शिवके यों कहनेपर श्रीविष्णुके प्रिय भक्त वैष्णव पधारे थे, उन्होंने भी भक्तिपूर्वक भगवान्के दोनों ययातिने मस्तक झुकाकर उनके चरणोंमें भक्तिपूर्वक चरण-कमलोंमें मस्तक झुकाया। परम तेजस्वी राजाको प्रणाम किया और कहा-'महादेव ! आपने इस समय प्रणाम करते देख भगवान् हषीकेशने कहा-'महाराज ! जो कुछ भी कहा है, सत्य है, आप दोनोंमें वस्तुतः कोई मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। तुम मेरे भक्त हो; अतः तुम्हारे अन्तर नहीं है। एक ही परमात्माके स्वरूपकी ब्रह्मा, मनमें यदि कोई दुर्लभ मनोरथ हो तो उसके लिये वर
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• ययातिका प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
माँगो मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूंगा।'
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राजा बोले- मधुसूदन ! जगत्पते! देवेश्वर ! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो सदाके लिये मुझे अपना दास बना लीजिये ।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- महाभाग ! ऐसा ही होगा। तुम मेरे भक्त हो, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। राजन् ! तुम अपनी पत्नीके साथ सदा मेरे लोकमें निवास करो।
भगवान्की ऐसी आज्ञा पाकर उनकी कृपासे महाराज ययाति परम प्रकाशमान विष्णुलोकमें निवास करने लगे ।
सुकर्मा कहते हैं-पिप्पलजी ! यह सम्पूर्ण पापनाशक चरित्र मैंने आपको सुना दिया। संसारमें राजा ययातिका दिव्य एवं शुभ जीवनचरित्र परम कल्याण दायक तथा पितृभक्त पुत्रोंका उद्धार करनेवाला है। पिताकी सेवाके प्रभावसे पूरुको राज्य प्राप्त हुआ। पिता-माताके समान अभीष्ट फल देनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जो पुत्र माताके बुलानेपर हर्षमें भरकर उसकी ओर जाता है, उसे गङ्गास्नानका फल मिलता है। जो माता और पिताके चरण पखारता है, वह महायशस्वी पुत्र उन दोनोंकी कृपासे समस्त तीर्थोक सेवनका फल भोगता है। उनके शरीरको दबाकर व्यथा दूर करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है जो भोजन और वस्त्र देकर माता-पिताका पालन करता है, उसे पृथ्वीदानका पुण्य प्राप्त होता है। गङ्गा और माता सर्वतीर्थमयी मानी गयी है,
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इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसे जगत्में समुद्र परम पुण्यमय एवं प्रतिष्ठित माना गया है, उसी प्रकार इस संसारमें पिता-माताका भी महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसा पौराणिक विद्वानोंका कथन है। जो पुत्र माता-पिताको कटुवचन सुनाता और कोसता है, वह बहुत दुःख देनेवाले नरकमें पड़ता है। जो गृहस्थ होकर भी बूढ़े माता-पिताका पालन नहीं करता, वह पुत्र नरकमें पड़ता और भारी यातना भोगता है। जो दुर्बुद्धि एवं पापाचारी पुरुष पिताकी निन्दा करता है, उसके उस पापका प्रायश्चित्त प्राचीन विद्वानोंको भी कभी दृष्टिगोचर नहीं हुआ है। *
पितृमातृसमे नास्ति अभीष्टफलदायकम् ।।
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समाहूतो यदा पुत्रः प्रयाति मातरं प्रति यो याति हर्यसंयुक्तो गङ्गास्त्रानफलं लभेत् ॥ पादप्रक्षालन यश्च कुरुते च महायशाः । सर्वतीर्थफलं भुङ्गे प्रसादादुभयोः सुतः ॥ अङ्गसंवाहनासाथ अश्वमेधफलं लभेत्। भोजनाच्छादनश्चैव गुरु च परिपोषयेत् ॥ पृथ्वीदानस्य यत्पुण्यं तत्पुण्यं तस्य जायते सर्वतीर्थमयी गङ्गा तथा माता न संशयः ॥ बहुपुण्यमयः सिन्धुर्यथा लोके प्रतिष्ठितः । अस्मिन्नेव पिता तद्वत् पुराणाः कवयो विदुः ॥ शंसते क्रोशते यस्तु पितरं मातरं पुनः स पुत्रो नरकं याति बहुदुःखप्रदायकम् ॥ मातरं पितरं वृद्ध गृहस्थो यो न पोषयेत्। स पुत्रो नरकं याति वेदनां प्राप्नुयाद् ध्रुवम् ॥ कुत्सते पापकर्ता यो गुरुं पुत्रः सुदुर्मतिः। निष्कृतिस्तस्य नोद्दिष्टा पुराणैः कविभिः कदा || (८४ ॥५-१३)
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+ एवं मत्वा त्वहं विप्र पूजयामि दिने दिने। मातरं पितरं भक्त्या पादसंवाहनादिभिः ॥ कृत्याकृत्यं वदेचैव समाहूय गुरुर्मम । तत्करोम्यविचारेण शक्त्या स्वस्य च पिप्पल ॥ तेन मे परमं ज्ञानं संजातं गतिदायकम्। एतयोश्च प्रसादेन संसारे परिवर्तते ॥
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विप्रवर! यही सब सोचकर मैं प्रतिदिन मातापिताकी भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ और चरण दबाने आदिकी सेवामें लगा रहता हूँ। मेरे पिता मुझे बुलाकर जो कुछ भी आज्ञा देते हैं, उसे मैं अपनी शक्तिके अनुसार बिना विचारे पूर्ण करता हूँ। इससे मुझे सद्गति प्रदान करनेवाला उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ है। पिता-माताकी कृपासे संसारमें तीनों कालोंका ज्ञान सुलभ हो जाता है। पृथ्वीपर रहनेवाले जो मनुष्य माता-पिताकी भक्ति करते हैं, उन्हें यह ज्ञान प्राप्त होता है मैं यहीं रहकर स्वर्गलोकतककी बातें जानता हूँ। विद्याधर श्रेष्ठ ! आप भी जाइये और भगवत्स्वरूप माता-पिताकी आराधना कीजिये देखिये इन माता-पिताके प्रसादसे ही मुझे ऐसा ज्ञान मिला है।
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भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— राजन् ! विप्रवर
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• अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
सुकर्माके मुखसे ये उपदेश सुनकर पिप्पलको अपनी सुकर्मा माता-पिताकी सेवामें लग गये। महामते ! करतूतपर बड़ी लज्जा आयी और वे द्विजश्रेष्ठ सुकर्माको पितृतीर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली ये सारी बातें मैंने तुम्हे प्रणाम करके स्वर्गको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मा बता दी; बोलो अब और किस विषयका वर्णन कसै?
गुरुतीर्थके प्रसङ्गमें महर्षि च्यवनकी कथा-कुञ्जल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको
ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
वेनने कहा-भगवन् ! देवदेवेश्वर ! आपने देनेवाली है।' ऐसा निश्चय करके वे पिता आदिको तथा मुझपर कृपा करके भार्यातीर्थ, परम उत्तम पितृतीर्थ एवं पली, पुत्र और धनको भी घरपर ही छोड़कर तीर्थयात्राके परम पुण्यदायक मातृतीर्थका वर्णन किया। हृषीकेश! प्रसङ्गसे भूतलपर विचरने लगे। मुनीश्वर च्यवनने नर्मदा, अब प्रसन्न होकर मुझे गुरुतीर्थकी महिमा बतलाइये। सरस्वती तथा गोदावरी आदि समस्त नदियों और
भगवान् श्रीविष्णु बोले-राजन् ! गुरुतीर्थ समुद्रके तटोंकी यात्रा की। अन्यान्य क्षेत्रों, सम्पूर्ण तीर्थों बड़ा उत्तम तीर्थ है, मैं उसका वर्णन करता हूँ। गुरुके तथा पुण्यमय देवताओंके स्थानोंमें भ्रमण किया। इस अनुग्रहसे शिष्यको लौकिक आचार-व्यवहारका ज्ञान प्रकार यात्रा करते हुए वे ओंकारेश्वर तीर्थमें आये और होता है, विज्ञानकी प्राप्ति होती है और वह मोक्ष प्राप्त कर एक बरगदकी शीतल छायामें बैठकर सुखपूर्वक विश्राम लेता है। जैसे सूर्य सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करते हैं, करने लगे। उस वृक्षकी छाया ठंडी और थकावटको दूर उसी प्रकार गुरु शिष्योंको उत्तम बुद्धि देकर उनके करनेवाली थी। मुनिश्रेष्ठ च्यवन वहाँ लेट गये। अन्तर्जगत्को प्रकाशपूर्ण बनाते हैं* । सूर्य दिनमें प्रकाश लेटे-लेटे ही उनके कानोंमें पक्षियोंका मनोहर शब्द करते हैं, चन्द्रमा रातमें प्रकाशित होते हैं और दीपक सुनायी पड़ा, जो ज्ञान-विज्ञानसे युक्त था। उस वृक्षके केवल घरके भीतर उजाला करता है; परन्तु गुरु अपने ऊपर अपनी पत्नीके साथ एक दीर्घजीवी तोता रहता था, शिष्यके हृदयमें सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे जो कुचलके नामसे प्रसिद्ध था। वह तोता बड़ा ज्ञानी शिष्यके अज्ञानमय अन्धकारका नाश करते हैं; अतः था। उसके उज्ज्वल, समुज्ज्वल, विज्ज्वल और शिष्योंके लिये गुरु ही सबसे उत्तम तीर्थ हैं। यह कपिञ्जल-ये चार पुत्र थे। चारों ही माता-पिताके बड़े समझकर शिष्यको उचित है कि वह सब तरहसे गुरुको भक्त थे। वे भूखसे आकुल होनेपर चारा चुगनेके लिये प्रसन्न रखे। गुरुको पुण्यमय जानकर मन, वाणी और पर्वतीय कुलों और समस्त द्वीपोंमें भ्रमण किया करते थे। शरीर-तीनोंकी क्रियासे उनकी आराधना करता रहे। उनका चित्त बहुत एकाग्र रहता था। सन्ध्याके समय
नृपश्रेष्ठ ! भार्गव-वंशमें उत्पन्न महर्षि च्यवन मुनिवर च्यवनके देखते-देखते वे चारों तोते अपने मुनियों में श्रेष्ठ थे। एक दिन उनके मनमें यह विचार हुआ पिताके सुन्दर घोसलेमें आये। वहाँ आकर उन सबने कि 'मैं इस पृथ्वीपर कब ज्ञानसम्पन्न होऊँगा।' इस माता-पिताको प्रणाम किया और उन्हें चारा निवेदन प्रकार सोचते-सोचते उनके मनमें यह बात आयी कि 'मैं करके उनके सामने खड़े हो गये। तत्पश्चात् अपने तीर्थयात्राको चलें, क्योंकि तीर्थयात्रा अभीष्ट फलको पंखोंकी शीतल हवासे माता-पिताकी सेवा करने लगे।
ये विप्रभक्तिं कुर्वन्ति मानवा भुवि संस्थिताः । अप्रस्थस्तदहं जाने अधिस्वर्गे प्रवर्तते ॥ एतयोश्च प्रसादेन ज्ञानं मम प्रदृश्यताम् । गच्छ विद्याधरश्रेष्ठ भवानचंतु माधवम् ॥(८४ १४-१८) * सर्वेषामेव लोक्यना यथा सूर्यः प्रकाशकः । गुरुः प्रकाशकस्तद्वच्छियाणां बुद्धिदानतः ॥ (८५। ८)
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• गुरुतीर्थक प्रसङ्गमें महर्षि च्यवनकी कथा .
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कुञ्जल पक्षी अपनी पत्नीके साथ भोजन करके जब तृप्त क्रोध आदि दोषोंका अभाव है। केश नामक वायु उसका हुआ, तव पुत्रोंके साथ बैठकर परम पवित्र दिव्य कथाएँ स्पर्श नहीं करती। वह निःस्पृह और निश्चल होकर स्वयं कहने लगा।
अपने तेजसे प्रकाशमान रहता है। स्वकीय स्थानपर उज्ज्वलने कहा-पिताजी ! इस समय पहले मेरे स्थित रहकर ही अपने तेजसे सम्पूर्ण त्रिलोकीको देखा लिये उत्तम ज्ञानका वर्णन कीजिये; इसके बाद ध्यान, करता है। यह आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप है [इसीको व्रत, पुण्य तथा भगवान्के शत-नामका भी उपदेश परमात्मा कहते है] । इस परमात्माका ही मैंने तुमसे दीजिये।
वर्णन किया है। कुञ्जल बोला-बेटा ! मैं तुम्हें उस उत्तम अब मैं चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानका ज्ञानका उपदेश देता हूँ, जिसे किसीने इन चर्मचक्षुओंसे वर्णन आरम्भ करता हूँ। वह ध्यान दो प्रकारका नहीं देखा है; उसका नाम है-कैवल्य (मोक्ष) । वह है-निराकार और साकार । निराकारका ध्यान केवल केवल-अद्वितीय और दुःखसे रहित है। जैसे ज्ञानरूपसे होता है, ज्ञाननेत्रसे उनका दर्शन किया जाता वायुशून्य प्रदेशमें रखा हुआ दीपक हवाका झोंका न है। योगयुक्त महात्मा तथा परमार्थपरायण संन्यासी उन लगनेके कारण स्थिर भावसे जलता है और घरके समूचे सर्वज्ञ एवं सर्वद्रष्टा परमेश्वरका साक्षात्कार करते हैं। अन्धकारका नाश करता रहता है, उसी प्रकार कैवल्य- वत्स ! वे हाथ-पैरसे हीन होकर भी सर्वत्र जाते और स्वरूप ज्ञानमय आत्मा सब दोषोंसे रहित और स्थिर है। समस्त चराचर त्रिलोकीको ग्रहण करते है। उनके मुख उसका कोई आधार नहीं है [वही सबका आधार और नाक नहीं है, फिर भी वे खाते और सँघते है। बिना है।* बेटा ! वह आशा-तृष्णासे रहित और निश्चल कानके ही सब कुछ श्रवण करते हैं। वे सबके साक्षी है। आत्मा न किसीका मित्र है न शत्रु । उसमें न शोक और जगत्के स्वामी हैं। रूपहीन होते हुए भी पाँच है, न हर्ष, न लोभ है न मात्सर्य । वह भ्रम, प्रलाप, मोह इन्द्रियोंसे युक्त रूप धारण करते हैं। समस्त लोकोंके तथा सुख-दुःखसे रहित है। जिस समय इन्द्रियाँ सम्पूर्ण प्राण हैं। चराचर जगत्के जीव उनकी पूजा करते हैं। विषयोंमें भोग-बुद्धिका त्याग कर देती हैं, उस समय बिना जिह्नाके ही वे बोलते हैं। उनकी सब बातें [सब प्रकारकी आसक्तियोंसे रहित] केवल आत्मा रह वेदशास्त्रोंके अनुकूल होती है। उनके त्वचा नहीं है, फिर जाता है; उसे कैवल्य-रूपकी प्राप्ति हो जाती है। जैसे भी वे सबके स्पर्शका अनुभव करते हैं। उनका स्वरूप दीपक प्रज्वलित होकर जब प्रकाश फैलाता है, तब सत् और आनन्दमय है; वे विरक्तात्मा हैं। उनका रूप बत्तीके आधारसे वह तेलको सोखता रहता है। फिर उस एक है। वे आश्रयरहित और जरावस्थासे शून्य है। तेलको भी काजलके रूपमे उगल देता है। महामते ! ममता तो उन्हें छू भी नहीं गयी है। वे सर्वव्यापक, दीपक स्वयं ही तेलको खींचता और अपने तेजसे निर्मल सगुण, निर्गुण और निर्मल हैं। वे किसीके वशमें नहीं है बना रहता है। इसी प्रकार देहरूपी वत्तीमें स्थित हुआ तो भी उनका मन सब भक्तोंके अधीन रहता है। वे सब आत्मा कर्मरूपी तेलका शोषण करता रहता है। वह कुछ देनेवाले और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं। उनका पूर्णरूपसे विषयोंका काजल बनाकर प्रत्यक्ष दिखा देता है और ध्यान करनेवाला कोई नहीं है। वे सर्वमय और सर्वत्र जपसे निर्मल होकर स्वयं ही प्रकाशित होता है। उसमें व्यापक हैं।
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• यथा दीपो निवातस्थो निश्चलो वायुवर्जितः । प्रज्वलनाशयेत्सर्वमन्धकार महामते॥
तावदोषविहीनात्मा भवत्येव निराश्रयः । (८६ ॥ ५९-६०) * ध्यानं चैव प्रवक्ष्यामि द्विविधं तस्य चक्रिणः । केवलं ज्ञानरूपेण दृश्यते ज्ञानचक्षुषा ।।
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
इस प्रकार जो परमात्माके सर्वमय स्वरूपका ध्यान करता है, वह अमृतके समान सुखदायी और आकार रहित परम पद (मोक्ष) को प्राप्त होता है। *
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अब परमात्मा ध्यानका दूसरा रूप साकार ध्यान बतलाता हूँ । मूर्तिमान् आकारके चिन्तनको साकार ध्यान कहते हैं तथा जो निरामय तत्त्वका चिन्तन है, उसे निराकार ध्यान कहा गया है। यह समस्त ब्रह्माण्ड, जिसकी कहीं तुलना नहीं है, भगवान्की वासनासे ही वासित हैभगवान् में ही इसका निवास है; इसीलिये उन्हें 'वासुदेव' कहते हैं । वर्षाके लिये उन्मुख मेघका जैसा वर्ण होता है, वैसा ही उनका भी वर्ण है। वे सूर्यके समान तेजस्वी, चतुर्भुज और देवताओंके स्वामी हैं। उनके दाहिने हाथोंमेंसे एक सुवर्ण और रत्नोंसे विभूषित शङ्ख शोभा पा रहा है। बायें हाथोंमेंसे एकमें चक्र प्रतिष्ठित है, जिसकी तेजोमयी आकृति सूर्यमण्डलके समान है। कौमोदकी गदा, जो बड़े-बड़े असुरोंका विनाश करनेवाली है, उन परमात्माके दूसरे बायें हाथमें सुशोभित है तथा उनके दूसरे दाहिने हाथमें सुगन्धपूर्ण महान् पद्म शोभा पा रहा है। इस प्रकार आयुधोसहित भगवान् कमलापतिका ध्यान करना चाहिये। शङ्खके समान ग्रीवा, गोल-गोल मुख और पद्मपत्रके समान बड़ी-बड़ी आँखें अत्यन्त मनोहर जान
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पड़ती है। रलोके समान चमकीले दाँतोंसे भगवान् हृषीकेशकी बड़ी शोभा हो रही है। उनके घुँघराले बाल हैं, बिम्बाफलके समान लाल-लाल ओठ हैं तथा मस्तकपर धारण किये हुए किरीटसे कमल नयन श्रीहरि अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं। विशाल रूप, सुन्दर नेत्र तथा कौस्तुभमणिसे उनको कान्ति बहुत बढ़ गयी है। सूर्यके समान तेजसे प्रकाशित होनेवाले कुण्डल और पुण्यमय श्रीवत्स चिह्नसे श्रीहरि सदा देदीप्यमान दिखायी देते हैं। उनके श्यामविग्रहपर बाजूबन्द, कंगन और मोतियोंके हार नक्षत्रोंके समान छबि पा रहे हैं। इनसे सुशोभित भगवान् विजय विजयी पुरुषोंमें सर्वश्रेष्ठ जान पड़ते हैं। सोनेके समान रंगवाले पीताम्बरसे गोविन्दकी सुषमा और भी बढ़ गयी है। रत्नजटित मुंदरियोंसे सुशोभित अँगुलियोंके कारण भगवान् बड़े सुन्दर प्रतीत होते हैं। सब प्रकारके आयुधों से पूर्ण और दिव्य आभूषणोंसे विभूषित श्रीहरि गरुड़की पीठपर विराजमान हैं। वे इस विश्वके स्रष्टा और जगत्के स्वामी हैं जो मनुष्य इस प्रकार भगवान्की मनोहर झाँकीका प्रतिदिन अनन्य चित्तसे ध्यान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो अन्तमें भगवान् श्रीविष्णुके लोकको जाता है। बेटा! इस जगदीश्वरके ध्यानका यह सारा प्रकार मैंने तुम्हें बता दिया।
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परमार्थपरायणाः। यं पश्यन्ति यतीन्द्रास्ते सर्वज्ञ सर्वदर्शकम् ॥ परिगच्छति । सबै गृह्णाति त्रैलोक्यं स्थावरं जङ्गमं सुत ॥
योगयुक्ता महात्मानः हस्तपादादिहीनश्च सर्वत्र मुखनासाविहीनस्तु घाति भुझे हि पुत्रक । अकर्णः शृणुते सर्व सर्वसाक्षी जगत्पतिः ॥ अरूपो रूपसम्पन्नः पञ्चवर्गसमन्वितः । सर्वलोकस्य यः प्राणः पूजितः सचराचरैः ॥ अजिह्नो वदते सर्व वेदशास्त्रानुगं सुत। अत्वचः स्पर्शमेवापि सर्वेषामेव जायते ॥ सदानन्दो विरक्तात्मा एकरूपो निराश्रयः। निर्जरो निर्ममो व्यापी सगुणो निर्गुणोऽमलः ॥
८६ । ७७)
अवश्यः सर्ववश्यात्मा सर्वदः सर्ववित्तमः । तस्य ध्याता न चैवास्ति स वै सर्वमयो विभुः ॥ ( ८६ । ६९-७६) * एवं सर्वमयं ध्यानं पश्यते यो महात्मनः। स याति परमं स्थानममूर्तममृतोपमम् ॥ + द्वितीयं तु प्रवक्ष्यामि ह्यस्य ध्यानं महात्मनः। मूर्ताकारं तु साकारं निराकारं निरामयम् ॥ ब्रह्माण्डं सर्वमतुलं वासितं यस्य वासनात्। स तस्माद् वासुदेवेति उच्यते मम नन्दन ॥ वर्षमाणस्य मेघस्य यद्वर्षं तस्य तद्भवेत् सूर्यतेजःप्रतीकाशं चतुर्बाहुं सुरेश्वरम् ॥ दक्षिणे शोभते शङ्खो हेमरत्नविभूषितः । सूर्यबिम्बासमाकारं चक्रं पद्मप्रतिष्ठितम् ॥ कौमोदकीं गदा तस्य महासुरविनाशिनी। वामे च शोभते वत्स करे तस्य महात्मनः । महापद्मं तु गन्धाढ्यं तस्य दक्षिणहस्तगम् । शोभमानं सदा ध्यायेत् सायुधं कमलाप्रियम् ॥ कम्बुग्रीवं वृत्तमास्यं पद्मपत्रनिभेक्षणम् । राजमानं हथोकेशं दशनैः रत्नसन्निभैः ॥
Vitte
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भूमिखण्ड] -
• गुरुतीर्थक प्रसङ्गमें महर्षि च्यवनका कथा .
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अव व्रतोंके भेद बताता हूँ, जिनके द्वारा भगवान् ज्ञानद, ज्ञानदायक, अच्युत, सबल, चन्द्रवक्त्र श्रीविष्णुको आराधना होती है। जया, विजया, (चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाले), व्याप्तपरावर पापनाशिनी, जयन्ती, त्रिःस्पृशा, वञ्जुली, तिलगन्धा, (कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त), योगेश्वर, अखण्डा तथा मनोरक्षा-ये सब एकादशी या जगद्योनि (जगत्की उत्पत्तिके स्थान), ब्रह्मरूप, महेश्वर, द्वादशियोंके भेद है। इनके सिवा और भी बहुत-सी ऐसी मुकुन्द, वैकुण्ठ, एकरूप, कवि, धुव, वासुदेव, महादेव, तिथियाँ हैं, जिनका प्रभाव दिव्य है। अशून्यशयन और ब्राह्मण्य ब्राह्मण-प्रिय, गोप्रिय, गोहित, यज्ञ, यज्ञाङ्ग. जन्माष्टमी--ये दोनों महान् व्रत है। इन व्रतोंका आचरण यज्ञवर्धन (यज्ञोंका विस्तार करनेवाले), यज्ञ-भोक्ता, करनेसे प्राणियोंके सब पाप दूर हो जाते है। 1... वेद-वेदाङ्गपारग, वेदज्ञ, वेदरूप, विद्यावास, सुरेश्वर, ___पुत्र ! अब भगवान्के शतनाम स्तोत्रका वर्णन प्रत्यक्ष, महाहस, शङ्खपाणि, पुरातन, पुष्कर, पुष्कराक्ष,
करता हूँ। यह मनुष्योंकी पापराशिका नाशक और उत्तम वाराह, धरणीधर, प्रद्युम्न, कामपाल, व्यासध्यात गति प्रदान करनेवाला है। विष्णुके इस शतनाम स्तोत्रके (व्यासजीके द्वारा चिन्तित), महेश्वर (महान् ईश्वर). ऋषि ब्रह्मा, देवता ओंकार तथा छन्द अनुष्टुप् है । सम्पूर्ण सर्वसौख्य, महासौख्य, सांख्य, पुरुषोत्तम, योगरूप, कामनाओंकी सिद्धि तथा मोक्षके निमित्त इसका महाज्ञान, योगीश्वर, अजित, प्रिय, असुरारि, लोकनाथ, विनियोग किया जाता है।*
... पद्महस्त, गदाधर, गुहावास, सर्ववास, पुण्यवास, ____ हृषीकेश (इन्द्रियोंके स्वामी), केशव, मधुसूदन महाजन, वृन्दानाथ, बृहत्काय, पावन, पापनाशन,
(मधु दैत्यको मारनेवाले), सर्वदैत्यसूदन (सम्पूर्ण गोपीनाथ, गोपसख, गोपाल, गोगणाश्रय, परात्मा, दैत्योंके संहारक), नारायण, अनामय (रोग-शोकसे पराधीश, कपिल तथा कार्यमानुष (संसारका उद्धार रहित), जयन्त, विजय, कृष्ण, अनन्त, वामन, विष्णु, करनेके लिये मानव-शरीर धारण करनेवाले) आदि विश्वेश्वर, पुण्य, विश्वात्मा, सुरार्चित (देवताओंद्वारा नामोंसे प्रसिद्ध सर्वस्वरूप परमेश्वरको मैं प्रतिदिन मन, पूजित), अनघ (पापरहित), अपहर्ता, नारसिंह, श्रीप्रिय वाणी तथा क्रियाद्वारा नमस्कार करता हूँ। जो पुण्यात्मा (लक्ष्मीके प्रियतम), श्रीपति, श्रीधर, श्रीद (लक्ष्मी पुरुष शतनामस्तोत्र पढ़कर स्थिरचित्तसे भगवान प्रदान करनेवाले), श्रीनिवास, महोदय (महान् श्रीकृष्णकी स्तुति करता है, वह सम्पूर्ण दोषोंका त्याग अभ्युदयशाली), श्रीराम, माधव, मोक्ष, क्षमारूप, करके इस लोकमें पुण्यस्वरूप हो जाता है तथा अन्तमें जनार्दन, सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, सर्वेश्वर, सर्वदायक, हरि, वह भगवान् मधुसूदनके लोकको प्राप्त होता है। यह मुरारि, गोविन्द, पद्मनाभ, प्रजापति, आनन्द, ज्ञानसम्पत्र, शतनाम स्तोत्र महान् पुण्यका जनक और समस्त
गुडाकेशाः सन्ति यस्य अधरं बिम्बसन्निभम्। शोभते पुण्डरीकाक्षः किरौटेनापि पुरक ।। विशालेनापि रूपेण केशवस्तु सुचक्षुषा । कौस्तुभेनापि वै तेन राजमानो जनार्दनः । सूर्यतेजःप्रकाशाभ्यां कुण्डलाभ्यां प्रभाति च। श्रीवत्साडून पुण्येन सर्वदा राजते हरिः ।। केयूरकणहरिमौक्तिकैप्रक्षसनिमः । वपुषा प्राजमानस्तु विजयो जयतां वरः ॥ राजते सोऽपि गोबिन्दो हेमवणेन वासना । मुद्रिकारत्रयुक्ताभिरङ्गालीभिर्विराजते ॥ सर्वायुधैः सुसंपूर्णो दिव्यैराभरणैर्हरिः । वैनतेयसमारूदो लोककर्ता जगत्पतिः ॥ एवं तं ध्यायते नित्यमनन्यमनसा नरः । मुख्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ एतत्ते सर्वमाख्यातं ध्यानमेवं जगत्पतेः ॥
८६॥ ७८-९२) * शतनाम स्तोत्रका विनियोग इस प्रकार है-ॐ अस्य श्रीविष्णुशतनामस्तोत्रस्य ब्रह्मा ऋपिरनुष्टुप् छन्दः प्रणवो देवता सर्वकामिकसंसिय मोक्षार्थे च जपे विनियोगः ।
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३१४
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पातकोंकी शुद्धि करनेवाला है। मनुष्यको ध्यानयुक्त होकर अनन्यचित्तसे इसका जप और चिन्तन करना चाहिये । प्रतिदिन इसका जप करनेवाले पुरुषको नित्यप्रति गङ्गास्नानका फल मिलता है। इसलिये सुस्थिर और एकाग्रचित होकर इसका जप करना उचित है।*
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अवयस्य इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
शतनाम स्तोत्रको पढ़ता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। बेटा! माघ स्नान करनेवाला पुरुष यदि भगवान्की पूजा करके उनका ध्यान करता और इस स्तोत्रका जप अथवा श्रवण करता है तो वह मदिरा पान आदिसे होनेवाले पापोंका भी त्याग करके परमपदको प्राप्त होता है। बिना किसी विघ्नके उसे विष्णुपदकी प्राप्ति हो जाती है जो मनुष्य श्राद्ध कालमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंके सामने इस पापनाशक शतनाम स्तोत्रका पाठ करता है, उसके पितर संतुष्ट होकर परमगतिको प्राप्त होते हैं। यह स्तोत्र सुख तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। निश्चय ही इसका जप करना चाहिये। जपकर्ता मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे पूर्ण सिद्ध हो जाता है—उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
सुखकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको चाहिये कि जहाँ शालग्रामकी शिला तथा द्वारकाकी शिला (गोमतीचक्र) हों, उन दोनों शिलाओंके समीप पूर्वोक्त स्तोत्रका जप करे। ऐसा करनेसे वह संसारमें नाना प्रकारके सुख भोगकर अन्तमें अपने सहित एक सौ एक पीढ़ीका उद्धार कर देता है। जो कार्तिकमें प्रतिदिन प्रातः स्नान करके मधुसूदनकी पूजा करता और भगवान् के सामने
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+
इस प्रकार
शतनामस्तोत्रका पाठ मूल नमाम्यहं हषीकेशं केशवं जयन्तं विजय कृष्णमनन्तं अनर्थ स्वपहर्तार नारसिंहं श्रीराम माधवं मोक्षं हरि मुरारिं गोविन्दं पद्मनाभं अच्युत सबलं चन्द्रवक्त्रं मुकुन्द चापि वैकुण्ठमेकरूपं
FF TH
क्षमारूपं
गोप्रियं गोहित
य यज्ञाङ्गं
वेदर्श वेदरूपं तं विद्यावासं च वाराहं
पुष्करं पुष्कराक्षे सर्वसौख्यं महासौख्यं सांख्ये च
असुरारि
लोकनार्थ पद्महस्तं
गदाधरम् । गुहावासं
महाजनम् ॥
वृन्दानार्थ
गोगणाश्रयम् ॥
बृहत्कार्य परात्मानं पराधी
पापनाशनम् । गोपीनार्थ कार्यमानुषम् । नमामि
कपिलं
नित्यं
मनोवाक्कायकर्मभिः ॥
नानी शतेनापि तु पुण्यकर्ता यः स्तौति कृष्णं मनसा स्थिरेण स याति लोकं मधुसूदनस्य विहाय दोषानिह पुण्यभूतः ॥ नाम्रां शतं महापुण्यं सर्वपातकशोधनम् । अनन्यमनसा नित्यमेव नरः
पुण्य गङ्गास्नानफलं लभेत् । तस्मात्तु
ध्यायेज्जपेद्धधानसमन्वितः ॥ समाहितमना जपेत् ॥
सुस्थिरो भूत्वा
(८७ १९ – २५)
पावनं
-
वामनं
मधुसूदनम् । सूदनं
तथा विष्णुं श्रियः प्रियम् । श्रीपति
जनार्दनम् । सर्वज्ञ
कवि
प्रजापतिम् आनन्द
व्याप्तपरावरम् । योगेश्वरं
धुवम्। वासुदेवं यशवर्धनम् । यज्ञस्यापि सुरेश्वरम् । प्रत्यक्ष धरणीधरम् । प्रद्युनं पुरुषोत्तमम् | योगरूपं
सर्वदैत्यानां
पुण्यं
श्रीद
विश्वेश्वरं
श्रीधरं
सर्ववेत्तारं
ज्ञानसम्पन्न
जगद्योनि
महादेवं
7812 च कामपाले
सुभोक्तार
महास
च
महाशानं
सर्ववास
गोपस
निखिल
सर्वेशं
विश्वात्मानं
श्रीनिवास
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
ज्ञानद
ब्रह्मरूपं
ब्रह्मण्यं
पुण्यवास
गोपाल
--------------
अफ
शङ्खपाणि
व्यासध्यात
योगीशमजितं
नारायणमनामयम् ॥
सुरार्चितम् ॥
महोदयम् ॥
सर्वदायकम् ॥
197
ज्ञानदायकम् ॥
महेश्वरम् ॥ ब्राह्मणप्रियम् ॥
वेदवेदाङ्गपारगम् ॥
421
पुरातनम् ॥
महेश्वरम् ॥
प्रियम् ॥
67
314 Y
अपन
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भूमिखण्ड ]
• कुशलका अपने पुत्र विज्वलको उपदेश .
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कुञ्जलका अपने पुत्र विज्वलको उपदेश-महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा
कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले पुरुषोंका वर्णनं:
- तदनन्तर कुञ्जलने अपने पुत्र विज्वलको उपदेश दिन पुरोहितने राजा सुबाहुको सम्बोधित करके कहादेते हुए कहा-'बेटा ! प्रत्येक भोगमें शुभ और अशुभ 'राजन् ! आप उत्तम-उत्तम दान दीजिये। दानके ही कर्म ही कारण है। पुण्य-कर्मसे जीव सुख भोगता है प्रभावसे सुख भोगा जाता है। मनुष्य मरनेके पश्चात्
और पाप-कर्मसे दुःखका अनुभव करता है। किसान दानके ही बलसे दुर्गम लोकोंको प्राप्त होता है। दानसे अपने खेतमें जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त सुख और सनातन यशकी प्राप्ति होती है। दानसे ही होता है। इसी प्रकार जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही मर्त्यलोकमें मनुष्यको उत्तम कीर्ति होती है। जबतक इस फलका उपभोग किया जाता है। इस शरीरके विनाशका जगत्में कीर्ति स्थिर रहती है, तबतक उसका कर्ता कारण भी कर्म ही है। हम सब लोग कर्मके अधीन हैं। स्वर्गलोकमें निवास करता है। अतः मनुष्योंको चाहिये संसारमें कर्म ही जीवोंकी संतान है। कर्म ही उनके कि वे पूर्ण प्रयत्न करके सदा दान करते रहें। वन्धु-बान्धव हैं तथा कर्म ही यहाँ पुरुषको सुख-दुःखमें राजाने पूछा-द्विजश्रेष्ठ ! दान और तपस्याप्रवृत्त करते हैं। जैसे किसानको उसके प्रयलके अनुसार इन दोमें दुष्कर कौन है? तथा परलोकमें जानेपर कौन
खेतीका फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार पूर्वजन्मका किया महान् फलको देनेवाला होता है? यह मुझे बतलाइये। हुआ कर्म ही कर्ताको मिलता है। जीव अपने कर्मोंके जैमिनि बोले-राजन् ! इस पृथ्वीपर दानसे अनुसार ही देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी और स्थावर बढ़कर दुष्कर कार्य दूसरा कोई नहीं है। यह बात प्रत्यक्ष योनियोंमें जन्म लेता है तथा उन योनियोंमें वह सदा देखी जाती है। सारा लोक इसका साक्षी है। संसारमें अपने किये हुए कर्मको ही भोगता है। दुःख और सुख लोभसे मोहित मनुष्य धनके लिये अपने प्यारे प्राणोकी दोनों अपने ही किये हुए कर्मोक फल हैं। जीव गर्भको भी परवा न करके समुद्र और घने जंगलों में प्रवेश कर शय्यापर सोकर पूर्व-शरीरके किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका जाते हैं। कितने ही मनुष्य धनके लिये दूसरोंकी सेवातक फल भोगता है। पृथ्वीपर कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जो स्वीकार कर लेते हैं। विद्वान् लोग धनके लिये पाठ करते पूर्वजन्मके किये हुए कर्मको अन्यथा कर सके। सभी हैं तथा दूसरे-दूसरे लोग धनकी इच्छासे ही हिंसापूर्ण जीव अपने कमाये हुए सुख-दुःखको ही भोगते है। और कष्टसाध्य कार्य करते हैं। इसी प्रकार कितने ही भोगके बिना किये हुए कर्मका नाश नहीं होता। लोग खेतीके कार्य में संलग्न होते हैं। इस तरह दुःख पूर्वजन्मके बन्धनस्वरूप कर्मको कौन मेटा सकता है। उठाकर कमाया हुआ धन प्राणोसे भी अधिक प्रिय जान - वेटा ! विषय एक प्रकारके विघ्न हैं। जरा आदि पड़ता है। ऐसे धनका परित्याग करना अत्यन्त कठिन अवस्थाएँ उपद्रव हैं। ये पूर्वजन्मके कर्मोंसे पीड़ित है। महाराज ! उसमें भी जो न्यायसे उपार्जित धन है, मनुष्यको पुनः-पुनः पीड़ा पहुंचाते रहते हैं। जिसको जहाँ उसे यदि श्रद्धापूर्वक विधिके अनुसार सुपात्रको दान भी सुख या दुःख भोगना होता है, दैव उसे बलपूर्वक दिया जाय तो उसका फल अनन्त होता है। श्रद्धा देवी वहाँ पहुँचा देता है, जीव कर्मोसे बँधा रहता है। धर्मकी पुत्री हैं, वे विश्वको पवित्र एवं अभ्युदयशील प्रारब्धको ही जीवोंके सुख-दुःखका उत्पादक बताया बनानेवाली हैं। इतना ही नहीं, वे सावित्रीके समान गया है।
पावन, जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा संसारसागरसे महाप्राज्ञ ! चोल देशमें सुबाहु नामके एक राजा हो उद्धार करनेवाली हैं। आत्मवादी विद्वान् श्रद्धासे ही गये हैं। जैमिनि नामके ब्राह्मण उनके पुरोहित थे। एक धर्मका चिन्तन करते हैं। जिनके पास किसी भी वस्तुका
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. अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
संग्रह नहीं है, ऐसे अकिञ्चन मुनि श्रद्धालु होनेके कारण आधारपर रहनेवाले, शूर, दयालु, क्षमाशील, याज्ञिक ही स्वर्गको प्राप्त हुए है।*
तथा दानशील हैं, वे ही मनुष्य वहाँ जाने पाते हैं। वहाँ नृपश्रेष्ठ ! दानके कई प्रकार हैं। परन्तु अत्रदानसे किसीको रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, जाड़ा, गर्मी, भूख, बढ़कर प्राणियोंको सद्गति प्रदान करनेवाला दूसरा कोई प्यास और ग्लानि नहीं सताती । राजन् ! ये तथा और भी दान नहीं है। इसलिये जलसहित अन्नका दान अवश्य बहुत-से स्वर्गलोकके गुण हैं। अब वहाँकै दोषोंका करना चाहिये। दानके समय मधुर और पवित्र वचन वर्णन सुनिये। वहाँ सबसे बड़ा दोष यह है कि दूसरोंकी बोलनेकी भी आवश्यकता है। अन्नदान संसार-सागरसे अपनेसे बढ़ी हुई सम्पत्ति देखकर मनमें असंतोष होता है तारनेवाला, हितसाधक तथा सुख-सम्पत्तिका हेतु है। तथा स्वर्गीय सुखमें आसक्त चित्तवाले प्राणियोंका [पुण्य यदि शुद्ध चित्तसे श्रद्धापूर्वक सुपात्र व्यक्तिको एक बार क्षीण होते ही] सहसा वहाँसे पतन हो जाता है। यहाँ जो भी अनका दान दिया जाय तो मनुष्य सदा ही उसका शुभ कर्म किया जाता है, उसका फल वहीं (स्वर्गमें) उत्तम फल भोगता रहता है। अपने भोजनमेंसे मुट्ठीभर भोगा जाता है। राजन् ! यह कर्मभूमि है और स्वर्गको अन्न 'अप्रयास के रूपमें अवश्य दान करना चाहिये। भोगभूमि माना गया है। उस दानका बहुत बड़ा फल है, उसे अक्षय बताया गया सुबाहुने कहा-ब्रह्मन् ! स्वर्गके अतिरिक्त जो है। जो प्रतिदिन सेरभर या मुट्ठीभर भी अन्न न दे सके, दोषरहित सनातन लोक हों, उनका मुझसे वर्णन कीजिये। वह मनुष्य पर्व आनेपर आस्तिकता, श्रद्धा तथा भक्तिके जैमिनि बोले-राजन् ! ब्रह्मलोकसे ऊपर साथ एक ब्राह्मणको भोजन करा दे। राजन् ! जो भगवान् श्रीविष्णुका परम पद है। वह शुभ, सनातन एवं प्रतिदिन ब्राह्मणको अन्न देते और जलसहित मिष्टान ज्योतिर्मय धाम है। उसीको परब्रह्म कहा गया है। भोजन कराते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। वेदोंके विषयासक्त मूढ़ पुरुष वहाँ नहीं जा सकते। दम्भ, लोभ, पारगामी ऋषि अत्रको हो प्राणस्वरूप बतलाते है; भय, क्रोध, द्रोह और द्वेषसे आक्रान्त मनुष्योंका वहाँ अन्नकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है। महाराज ! जिसने प्रवेश नहीं हो सकता । जो ममता और अहंकारसे रहित, किसीको अन्नका दान किया है, उसने मानो प्राणदान निर्द्वन्द्र, जितेन्द्रिय तथा ध्यान-योगपरायण हैं, वे साधु दिया है। इसलिये आप यल करके अन्नका दान दीजिये। पुरुष ही उस धाममें प्रवेश करते हैं।
सुबाहुने कहा-द्विजश्रेष्ठ ! अब मुझसे स्वर्गके सुबाहुने कहा-महाभाग ! मैं स्वर्गमें नहीं गुणोंका वर्णन कीजिये।
जाऊँगा, मुझे उसकी इच्छा नहीं है। जिस स्वर्गसे एक जैमिनि बोले-राजन् ! स्वर्गमे नन्दनवन आदि दिन नीचे गिरना पड़ता है, उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म अनेकों दिव्य उद्यान हैं, जो अत्यन्त मनोहर, पवित्र और ही मैं नहीं करूंगा। मैं तो ध्यानयोगके द्वारा देवेश्वर समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इनके सिवा वहाँ लक्ष्मीपतिका पूजन करूँगा और दाह तथा प्रलयसे रहित परम सुन्दर दिव्य विमान भी हैं। पुण्यात्मा मनुष्य उन विष्णु-लोकमें जाऊँगा। विमानोंपर सुखपूर्वक विचरण किया करते हैं। वहाँ जैमिनि बोले-राजन् ! तुम्हारा कहना ठीक है, नास्तिक नहीं जाते; चोर, असंयमी, निर्दय, चुगलखोर, तुमने सबके कल्याणकी बात कही है। वास्तवमें राजा कृतन और अभिमानी भी नहीं जाने पाते। जो सत्यके दानशील हुआ करते हैं। वे बड़े-बड़े यशोद्वारा भगवान्
* श्रद्धा धर्मसुता देवी पावनी विश्वभाविनी ॥ - सावित्री प्रसवित्री च संसारार्णवतारिणी । श्रद्धया ध्यायते धमों विद्भिश्चात्मवादिभिः॥ निष्किचनास्तु मुनयः श्रद्धावन्तो दिवं गताः ।
(९४ । ४४-४६)
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भूमिखण्ड ]
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कुञ्जलका अपने पुत्र
श्रीविष्णुका यजन करते हैं। यज्ञोंमें सब प्रकारके दान दिये जाते हैं। उत्तम यज्ञोंमें पहले अन्न और फिर वस्त्र एवं ताम्बूलका दान किया जाता है। इसके बाद सुवर्णदान, भूमिदान और गोदानकी बात कही जाती है। इस प्रकार उत्तम यज्ञ करके राज़ालोग अपने शुभ कर्मो के फलस्वरूप विष्णुलोकमें जाते हैं। दानसे तृप्तिलाभ करते और संतुष्ट रहते हैं। अतः राजेन्द्र ! आप भी न्यायोपार्जित धनका दान कीजिये। दानसे ज्ञान और ज्ञानसे आपको सिद्धि प्राप्त होगी
जो मनुष्य इस उत्तम और पवित्र आख्यानका श्रवण करेगा, वह सब पापों से मुक्त होकर विष्णुलोकमें जायगा ।
सुबाहुने पूछा- ब्रह्मन् ! मनुष्य किस दुष्कर्मसे नरक में पड़ते हैं और किस शुभकर्मके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं? यह बात मुझे बताइये।
जैमिनिने कहा- जो द्विज लोभसे मोहित हो पावन ब्राह्मणत्वका परित्याग करके कुकर्मसे जीविका चलाते हैं, वे नरकगामी होते हैं। जो नास्तिक हैं, जिन्होंने धर्मकी मर्यादा भङ्ग की है; जो काम भोगके लिये उत्कण्ठित, दाम्भिक और कृतघ्न हैं; जो ब्राह्मणोंको धन देनेकी प्रतिज्ञा करके भी नहीं देते, चुगली खाते अभिमान रखते और झूठ बोलते हैं; जिनकी बातें परस्पर विरुद्ध होती हैं; जो दूसरोंका धन हड़प लेते, दूसरोंपर कलङ्क लगानेके लिये उत्सुक रहते और परायी सम्पत्ति देखकर जलते हैं, वे नरकमें जाते हैं। जो मनुष्य सदा प्राणियों के प्राण लेनेमें लगे रहते, परायी निन्दामें प्रवृत्त होते; कुएँ, बगीचे, पोखरे और पौसलेको दूषित करते; सरोवरोंको नष्ट-भ्रष्ट करते तथा शिशुओं, भृत्यों और अतिथियोंको भोजन दिये बिना ही स्वयं भोजन कर लेते हैं; जिन्होंने पितृयाग (श्राद्ध) और देवयाग (यज्ञ) का त्याग कर दिया है, जो संन्यास तथा अपने रहनेके आश्रमको कलङ्कित करते हैं और मित्रोंपर लाच्छन लगाते हैं, वे सब-के-सब नरकगामी होते हैं।
जो प्रयाज नामक यज्ञों, शुद्ध चित्तवाली कन्याओं साधु पुरुषों और गुरुजनोंको दूषित करते हैं; जो काठ, कील, शूल अथवा पत्थर गाड़कर रास्ता रोकते हैं,
विज्वलको उपदेश •
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कामसे पीड़ित रहते और सब वर्णोंकि यहाँ भोजन कर लेते हैं तथा जो भोजनके लिये द्वारपर आये हुए जीविकाहीन ब्राह्मणोंकी अवहेलना करते हैं, वे नरकों में पड़ते हैं। जो दूसरोंके खेत जीविका, घर और प्रेमको नष्ट करते हैं; जो हथियार बनाते और धनुष-बाणका विक्रय करते हैं, जो मूह मानव अनाथ, वैष्णव, दीन, रोगातुर और वृद्ध पुरुषोंपर दया नहीं करते तथा जो पहले कोई नियम लेकर फिर संयमहीन होनेके कारण चञ्चलतावश उसका परित्याग कर देते हैं, वे नरकगामी होते हैं।
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अब मैं स्वर्गगामी पुरुषोंका वर्णन करूंगा। जो मनुष्य सत्य, तपस्या, ज्ञान, ध्यान तथा स्वाध्यायके द्वारा धर्मका अनुसरण करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं। जो प्रतिदिन हवन करते तथा भगवान्के ध्यान और देवताओंके पूजनमें संलग्न रहते हैं, वे महात्मा स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं जो बाहर भीतरसे पवित्र रहते, पवित्र स्थानमें निवास करते, भगवान् वासुदेवके भजनमें लगे रहते तथा भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी शरण में जाते हैं; जो सदा आदरपूर्वक माता-पिताकी सेवा करते और दिनमें नहीं सोते; जो सब प्रकारकी हिंसासे दूर रहते, साधुओंका सङ्ग करते और सबके हितमें संलग्र रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं जो गुरुजनोंकी सेवामें संलग्न, बड़ोंको आदर देनेवाले, दान न लेनेवाले, सहस्रों मनुष्योंको भोजन परोसनेवाले, सहस्रों मुद्राओंका दान करनेवाले तथा सहस्रों मनुष्योंको दान देनेवाले हैं, वे पुरुष स्वर्गलोकको जाते हैं। जो युवावस्थामें भी क्षमाशील और जितेन्द्रिय हैं; जिनमें वीरता भरी है; जो सुवर्ण, गौ, भूमि, अन और वस्त्रका दान करते हैं; जो अपनेसे द्वेष रखनेवालोंके भी दोष कभी नहीं कहते, बल्कि उनके गुणोंका ही वर्णन करते हैं; जो विज्ञ पुरुषोंको देखकर प्रसन्न होते, दान देकर प्रिय वचन बोलते तथा दानके फलकी इच्छाका परित्याग कर देते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो पुरुष प्रवृत्ति-मार्गमें तथा निवृत्तिमार्गमें भी मुनियों और शास्त्रोके कथनानुसार ही आचरण करते हैं, वे स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं।
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अर्थयस्व वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
जो मनुष्योंसे कटु वचन बोलना नहीं जानते, जो प्रिय वचन बोलनेके लिये प्रसिद्ध हैं; जिन्होंने बावली, कुआं, सरोवर, पाँसला, धर्मशाला और बगीचे बनवाये हैं; जो मिथ्यावादियोंके लिये भी सत्यपूर्ण बर्ताव करनेवाले और कुटिल मनुष्योंके लिये भी सरल हैं, वे दयालु तथा सदाचारी मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं।
जो एकमात्र धर्मका अनुष्ठान करके अपने प्रत्येक दिवसको सदा सफल बनाते हैं तथा नित्य ही व्रतका पालन करते हैं; जो शत्रु और मित्रको समान भावसे सराहना करते और सबको समान दृष्टिसे देखते हैं; जिनका चित्त शान्त है, जो अपने मनको वशमें कर चुके हैं, जिन्होंने भयसे डरे हुए ब्राह्मणों तथा स्त्रियोंकी रक्षाका नियम ले रखा है; जो गङ्गा, पुष्कर तीर्थ और विशेषतः गया में पितरोंको पिण्ड दान करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं। जो इन्द्रियोंके वशमें नहीं रहते, जिनकी संयममें प्रवृत्ति है; जिन्होंने लोभ, भय और क्रोधका परित्याग कर दिया है; जो शरीरमें पीड़ा देनेवाले जूँ, खटमल और डाँस आदि जन्तुओंका भी पुत्रकी भाँति पालन करते हैं— उन्हें मारते नहीं; सर्वदा मन और इन्द्रियोंके निग्रहमें लगे रहते हैं और परोपकारमें ही जीवन व्यतीत करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं। जो विशेष विधिके अनुसार यज्ञोंका अनुष्ठान करते, सब प्रकारके
कुञ्जलका अपने पुत्र
M
तदनन्तर वक्ताओंमें श्रेष्ठ कुञ्जलने विज्वलको परम पवित्र श्रीवासुदेवाभिधान स्तोत्रका उपदेश किया
कुञ्जल कहता है-धर्म-अधर्मकी सम्पूर्ण गतिके विषयमें महर्षि जैमिनिका भाषण सुनकर राजा सुबाहुने कहा- 'द्विजश्रेष्ठ ! मैं भी धर्मका ही अनुष्ठान करूँगा, पापका नहीं । जगत्की उत्पत्तिके स्थानभूत भगवान् वासुदेवका निरन्तर भजन करूंगा।'
इस निश्चयके अनुसार राजा सुबाहुने धर्मके द्वारा भगवान् मधुसूदनका पूजन किया तथा नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान्की आराधना करके तथा सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर वे शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक विष्णुलोकको पधार गये। ★विज्वलको श्रीवासुदेवाभिधान स्तोत्र सुनाना
इस श्रीवासुदेवाभिधान स्तोत्रके अनुष्टुप् छन्द नारद ऋषि और ओंकार देवता हैं; सम्पूर्ण पातकोंके नाश
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
द्वन्द्वोंको सहते तथा इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं; जो पवित्र और सत्त्वगुणमें स्थित रहकर मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा भी कभी परायी स्त्रियोंके साथ रमण नहीं करते; निन्दित कमसे दूर रहते, विहित कर्मोंका अनुष्ठान करते तथा आत्माकी शक्तिको जानते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं।
जो दूसरोंके प्रतिकूल आचरण करता है, उसे अत्यन्त दुःखदायी घोर नरकमें गिरना पड़ता है तथा जो सदा दूसरोंके अनुकूल चलता है, उस मनुष्यके लिये सुखदायिनी मुक्ति दूर नहीं है। राजन्! कमद्वारा जिस प्रकार दुर्गति और सुगति प्राप्त होती है, वह सब मैंने तुम्हें यथार्थरूपसे बतला दिया।
तथा चतुर्वर्गकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग है। * ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' – यही इस स्तोत्रका मूलमन्त्र है।
+ जो परम पावन पुण्यस्वरूप, वेदके ज्ञाता,
* ॐ अस्य श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्रस्यानुष्टुप् छन्दः, नारद ऋषिः, ओंकारी देवता, सर्वपातकनाशाय चतुर्वर्गसाधने च विनियोगः ॥
+ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इति मन्त्रः । (९८।३८)
+ परमं पावनं पुण्यं वेदशे वेदमन्दिरम् विद्याधारं मखाधारं प्रणव तं नमाम्यहम् ॥ निरावास निराकार सुप्रकाश महोदयम्। निर्गुण गुणकर्तारं नमामि प्रणवं परम् ॥ गायत्रीसाम गाया गीतज्ञ गीतसुप्रियम् । गन्धर्वगीतभोक्तारं प्रणवं तं नमाम्यहम् ॥
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भूमिखण्ड ]
• कुञ्जलका अपने पुत्र विज्वलको श्रीवासुदेवाभिधान स्तोत्र सुनाना •
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प्रणवस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। जो आवास (गृह) और आकारसे रहित, उत्तम प्रकाशरूप महान् अभ्युदयशाली, निर्गुण तथा गुणोंके उत्पादक
वेदमन्दिर, विद्याके आधार तथा यज्ञके आश्रय हैं, उन हैं, उन प्रणवस्वरूप परमात्माको मैं प्रणाम करता हूँ। जो गायत्री सामका गान करनेवाले, गीतके ज्ञाता, गीतप्रेमी तथा गन्धर्वगीतका अनुभव करनेवाले हैं, उन प्रणवस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ।
1st
महाकान्तं महोत्साहं भाति सर्वत्र यो भूत्वा भूतानां विचार वेदरूपं तं यज्ञाख्यं
नौरूपेण
३१९
तारकं
वसते
महामोहविनाशनम्। आचिन्वन्तं जगत् सबै गुणातीतं नमाम्यहम् ॥ भूतिवर्धनः समभावाय सद्धम नमामि प्रणवं परम् ॥ यज्ञवल्लभम्। योनिं सर्वस्य लोकस्य ओंकार प्रणमाम्यहम् ॥ विराजितम् । संसारार्णवमग्रानी नमामि प्रणव हरिम् ॥
एकरूपेण
सुखम् ॥
नैकधा । धामकैवल्यरूपेण गुणनायकम् । वर्जित तुष्टिभिस्तथा । वेदै
नमाम्यहम् ॥
नमामि वरदं प्राकृतैर्भावैर्वेदाख्यं तं योगिभिर्येयं तमोङ्कारे शिवगुणं शान्तं वन्दे
नमाम्यहम् ॥ प्रणवमीश्वरम् ॥
नमाम्यहम् ॥
ST
सूक्ष्म सूक्ष्मतरं शुद्धं निर्गुण देवदैत्यवियोगक्ष वर्जित व्यापकं विश्ववेत्तारं विज्ञानं परमं पदम्। शिवं यस्य मायां प्रविष्टास्तु ब्रह्माद्याथ सुरासुराः। न विन्दन्ति परं शुद्धं मोक्षद्वारं आनन्दकन्दाय व केवलाय शुद्धाय हंसाय परावराय नमोऽस्तु तस्मै गुणनायकाय श्रीवासुदेवाय महाप्रभाय ॥ श्रीपाञ्चजन्येन विराजमानं रविप्रभेणापि सुदर्शनेन । गदाख्यकेनापि विशोभमानं विष्णुं सदैवं शरणं प्रपद्ये ॥ 13 यं वेद कोशं सुगुणं गुणानामाधारभूतं सचराचरस्य ये सूर्यवैश्वानरतुल्यतेजसे ते वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ तमोघनानां स्वकरैर्विनाशं करोति नित्यं यतिधर्महेतुम् उद्योतमानं रवितेजसोध्यं तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ सुधानिधानं विमलांशुरूपमानन्दमानेन विराजमानम्। यं प्राप्य जीवन्ति सुरादिकास्तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ यो भाति सर्वत्र रविप्रभावैः करोति शोषं च रसं ददाति यः प्राणिनामन्तरणः स वायुस्तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ ज्येष्ठस्तु रूपेण स देवदेवो बिभर्ति लोकान् सकलान् महात्मा एकार्णवे नौरिव वर्तते यस्तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ अन्तर्गतो लोकमयः सदैव भवत्यसौ स्थावरजङ्गमानाम् स्वाहामुखो देवगणस्य हेतुस्तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ रसैः सुपुण्यैः सकलैस्तु पुष्टः ससौम्यरूपैर्गुणवित् स लोके । रत्नाधिपो निर्मलतेजसैव तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ अस्त्येव सर्वत्र विनाशहेतुः सर्वाश्रयः सर्वमयः स सर्वः । विना हृषीकैर्विषयान् प्रभुङ्क्ते तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ तेजः स्वरूपेण बिभर्ति लोकान् सत्त्वान् समस्तान् स चराचरस्य निष्केवल ज्ञानमयः सुशुद्धस्तं वासुदेव शरणं प्रपद्ये ॥ दैत्यान्तकं दुःखविनाशमूलं शान्तं परं शक्तिमयं विशालम्। संप्राप्य देवा विलयं प्रयान्ति तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ सुखं सुखा सुहृदं सुरेशं ज्ञानार्णवं तं सुहित हितं च सत्याश्रयं सत्यगुणोपविष्टं तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ यज्ञस्वरूपं पुरुषार्थरूपं सत्यान्वितं मापतिमेव पुण्यम् विज्ञानमेतं जगतां निवासं तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ अम्भोधिमध्ये शयनं हि यस्य नागाङ्गभोगे शयने विशाले श्रीः पादपद्मद्वयमेव सेवते तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ पुण्यान्वितं शङ्करमेव नित्यं तीर्थैरनेकैः परिसेव्यमानम् । तत्पादपद्मद्वयमेव तस्य श्रीवासुदेवस्य नमामि नित्यम् ॥ अाप का यदि वाम्बुजं तद्रक्तोत्पलाभं ध्वजवायुयुक्तम् अलंकृतं नूपुरमुद्रिकाभिः श्रीवासुदेवस्य नमामि पादम् ॥ देवैस्तु सिद्धैर्मुनिभिः सदैव तुतं सुभक्त्या भुजगाधिपैच तत्पादपङ्केरुहमेव पुण्यं श्रीवासुदेवस्य नमामि नित्यम् ॥ यस्यापि पादाम्भसि मज्जमानाः पूतं दिवं यान्ति विकल्मषास्ते मोक्षं लभन्ते मुनयः सुतुष्टास्ते वासुदेव शरणं प्रपद्ये ॥ पादोदकं तिष्ठति यत्र विष्णोर्गङ्गादितीर्थानि सदैव तत्र पिबन्ति येऽद्यापि सपापदेाः प्रयान्ति शुद्धाः सुगृहं मुरारेः ॥ पादोदकेनाप्यभिषिच्यमाना अत्युग्रपापैः परिलिप्सदेहाः । ते यान्ति मुक्ति परमेश्वरस्य तस्यैव पादौ सततं नमामि ॥ नैवेद्यमात्रेण सुभक्षितेन सुचक्रिणस्तस्य महात्मनश्च ते वाजपेयस्य फलं लभन्ते सर्वार्थयुक्ताश्च नरा भवन्ति ॥ नारायण दुःखविनाशनं तं मायाविहीनं सकलं गुणज्ञम्। यं ध्यायमानाः सुगति व्रजन्ति तं वासुदेवं सततं नमामि ॥ यो वन्द्यस्त्वपिसिद्धचारणगणैर्देवैः सदा पूज्यते यो विश्वस्य हि सृष्टिहेतुकरणे ब्रह्मादिकानां प्रभुः । यः संसारमहार्णवे निपतितस्योद्धारको वत्सलस्तस्यैवापि नमाम्यह सुचरणौ भक्त्या वरौ साधकौ ॥ यो दृष्टो निजमण्डपेऽसुरगणैः श्रीवामनः सामगः सामोद्गीतकुतूहलः सुरगणैस्त्रैलोक्य एकः प्रभुः । कुर्वस्तु ध्वनितैः स्वकैर्गतभयान् यः पापभीतान् रणे तस्याहं चरणारविन्दयुगलं वन्दे परं पावनम् ॥
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सर्वलोकान
सर्वभूतेषु
STE
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....... अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
BALRAM
जो महान् कान्तिमान, अत्यन्त उत्साही, महामोहके परिपूर्ण हैं, उन श्रीवासुदेवको नमस्कार है। जो पाञ्चजन्य नाशक, सम्पूर्ण जगत्में व्यापक तथा गुणातीत है; जो नामक शङ्ख और सूर्यके समान तेजस्वी सुदर्शन चक्रसे सर्वत्र विद्यमान रहकर शोभायमान हो रहे हैं, प्राणियोंके विराजमान हैं तथा कौमोदकी गदा जिनकी शोभा बढ़ा ऐश्वर्य एवं कल्याणकी वृद्धि करते हैं तथा समताका भाव रही है, उन भगवान् श्रीविष्णुकी मैं सदा शरण लेता हूँ। उत्पन्न करनेके लिये सद्धर्मका प्रसार करनेवाले हैं, उन जो उत्तम गुणोंसे सम्पन्न हैं, जिन्हें गुणोंका कोश माना प्रणवरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। जो विचारक जाता है, जो चराचर जगत्के आधार तथा सूर्य एवं हैं, वेद जिनका स्वरूप है, जो 'यज्ञ' के नामसे पुकारे अग्निके समान तेजस्वी हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं जाते हैं, यज्ञ जिन्हें अत्यन्त प्रिय है, जो सम्पूर्ण विश्वकी शरण लेता हूँ। जो अपने प्रकाशकी किरणोंसे अविद्याके उत्पत्तिके स्थान तथा समस्त जगत्का उद्धार करनेवाले बादलोको छिन्न-भिन्न कर देते हैं, सन्यास-धर्मके प्रवर्तक हैं: संसार-सागरमें डूबे हुए प्राणियोंको बचानेके लिये जो हैं तथा सूर्यके समान तेजसे सबसे ऊँचे लोकमें नौकारूपसे विराजमान हैं, उन प्रणवस्वरूप श्रीहरिको मैं प्रकाशित होते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण प्रणाम करता हूँ। जो सम्पूर्ण भूतोंमें निवास करते हैं, प्रहण करता है। जो चन्द्रमाके रूपमें अमृतके भंडार हैं, नाना रूपोंमें प्रतीत होते हुए भी एक रूपसे विराजमान आनन्दकी मात्रासे जिनकी विशेष शोभा हो रही है, हैं तथा जो परमधाम और कैवल्य (मोक्ष) के रूपमें देवताओंसे लेकर सम्पूर्ण जीव जिनका आश्रय पाकर ही प्रतिष्ठित हैं, उन सुखस्वरूप वरदाता भगवान्को मैं जीवन धारण करते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण प्रणाम करता हूँ।
- ग्रहण करता हूँ। जो सूर्यके रूपमें सर्वत्र विराजमान । जो सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, शुद्ध, निर्गुण, गुणोंके नियन्ता रहकर पृथ्वीके रसको सोखते और पुनः नवीन रसकी और प्राकृत भावोंसे रहित हैं, उन वेदसंज्ञक परमात्माको वृष्टि करते हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर प्राणरूपसे नमस्कार करता हूँ। जो देवताओं और दैत्योंके वियोगसे व्याप्त हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो वर्जित (सर्वदा सबसे संयुक्त), तुष्टियोंसे रहित तथा महात्मा स्वरूपसे सबकी अपेक्षा ज्येष्ठ है, देवताओके भी वेदों और योगियोंके ध्येय हैं, उन ॐकारस्वरूप आराध्य देव है, सम्पूर्ण लोकोका पालन करते हैं तथा परमेश्वरको नमस्कार करता हूँ। व्यापक, विश्वके ज्ञाता, प्रलयकालीन जलमें नौकाकी भाँति स्थित रहते हैं, उन विज्ञानस्वरूप, परमपदरूप, शिव, कल्याणमय गुणोंसे भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। सम्पूर्ण विश्व युक्त, शान्त एवं प्रणवरूप ईश्वरको मैं प्रणाम करता हूँ। जिनका स्वरूप है, जो स्थावर और जङ्गम-सभी जिनको मायाके प्रभावमें आकर ब्रह्मा आदि देवता और प्राणियोंके भीतर निवास करते हैं, स्वाहा जिनका मुख है असुर भी उनके परम शुद्ध रूपको नहीं जानते तथा जो तथा जो देववृन्दकी उत्पत्तिके कारण हैं, उन भगवान् मोक्षके द्वार हैं, उन परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ।। वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो सब प्रकारके . जो आनन्दके मूलस्रोत, केवल (अद्वितीय) तथा परम पवित्र रसोंसे परिपुष्ट और शान्तिमय रूपोंसे युक्त शुद्ध हंसस्वरूप हैं; कार्य-कारणमय जगत् जिनका हैं, संसारमें गुणज्ञ माने जाते हैं, रत्नोंके अधीश्वर हैं और स्वरूप है; जो गुणोंके नियन्ता तथा महान् प्रभा-पुञ्जसे निर्मल तेजसे शोभा पाते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं
राजन्त दिजमण्डले मखमुखे ब्रह्मश्रिया पूजितं दिव्येनापि सुतेजसा करमयं यं चेन्द्रनीलोपमम् । देवानां हितकाम्यया सुतनुर्ज वैरोचनस्यार्पक याचनं मम दीयतां त्रिपदक बन्दे पर वामनम्। तं दृष्टं रविमण्डले मुनिगणः सम्पासवन्त दिवं चन्द्राकों तु तपन्तमेव सहसा सम्प्राप्तवन्तौ सदा। तस्यैवापि सुरक्रिणः सुरगणाः प्रापुर्लय साम्प्रतं काये विश्वविकोशके तमतुलं भौमि प्रभोविक्रमम् ॥
(१८।३१-७७)
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भूमिखण्ड ] • कुञ्जालका अपने पुत्र विज्वालको श्रीवासुदेवाभिमान-स्तोत्र समाना •
...
.. .. A I IIIIIII शरण लेता हूँ। जो सर्वत्र विद्यमान, सबकी मृत्युके हेतु, उसमें अवगाहन करके मोक्ष प्राप्त करते हैं, उन भगवान् सबके आश्रय, सर्वमय तथा सर्वस्वरूप हैं, जो इन्द्रियोंके वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जहाँ भगवान् श्रीविष्णुका बिना ही विषयोंका अनुभव करते हैं, उन भगवान् चरणोदक रहता है, वहाँ गङ्गा आदि तीर्थ सदैव मौजूद वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो अपने तेजोमय रहते हैं; आज भी जो लोग उसका पान करते हैं, वे पापी स्वरूपसे समस्त लोकों तथा चराचर जगत्के सम्पूर्ण रहे हों तो भी शुद्ध होकर श्रीविष्णुभगवानके उत्तम जीवोंका पालन करते है तथा केवल ज्ञान ही जिनका धामको जाते हैं। जिनका शरीर अत्यन्त भयंकर पापस्वरूप है, उन परम शुद्ध भगवान् वासुदेवकी मैं शरण पङ्कमे सना है, वे भी जिनके चरणोदकसे अभिषिक्त लेता हूँ।
होनेपर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, उन परमेश्वरके जो दैत्योंका अन्त करनेवाले, दुःख-नाशके मूल युगलचरणोको मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ। उत्तम कारण, परम शान्त, शक्तिशाली और विराटपधारी हैं; सुदर्शन चक्र धारण करनेवाले महात्मा श्रीविष्णुके जिनको पाकर देवता भी मुक्त हो जाते हैं, उन भगवान् नैवेद्यका भक्षण करनेमात्रसे मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो सुखस्वरूप और प्राप्त करते हैं तथा सम्पूर्ण पदार्थ पा जाते हैं। दुःखोका सुखसे पूर्ण हैं, सबके अकारण प्रेमी हैं, जो देवताओंके नाश करनेवाले, मायासे रहित, सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त स्वामी और ज्ञानके महासागर हैं, जो परम हितैषी, तथा समस्त गुणोंके ज्ञाता जिन भगवान् नारायणका ध्यान कल्याणस्वरूप, सत्यके आश्रय और सत्त्व गुणमें स्थित करके मनुष्य उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं. उन हैं, उन भगवान् वासुदेवका मैं आश्रय लेता हूँ। यज्ञ और श्रीवासुदेवको मैं सदा प्रणाम करता हूँ। पुरुषार्थ जिनके रूप हैं; जो सत्यसे युक्त, लक्ष्मीके पति, जो ऋषि, सिद्ध और चारणोंके वन्दनीय हैं: देवगण पुण्यस्वरूप, विज्ञानमय तथा सम्पूर्ण जगत्के आश्रय हैं, सदा जिनकी पूजा करते हैं, जो संसारको सृष्टिका साधन उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो क्षीर- जुटानेमें ब्रह्मा आदिके भी प्रभु हैं, संसाररूपी सागरके बीचमें शेषनागकी विशाल शय्यापर शयन करते महासागरमें गिरे हुए जीवका जो उद्धार करनेवाले हैं, हैं तथा भगवती लक्ष्मी जिनके युगल चरणारविन्दोंकी जिनमें वत्सलता भरी हुई है, जो श्रेष्ठ और समस्त सेवा करती रहती हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण कामनाओंको सिद्ध करनेवाले हैं; उन भगवान्के उत्तम लेता हूँ। श्रीवासुदेवके दोनों चरण-कमल पुण्यसे युक्त, चरणोंको मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ। जिन्हें असुरोंने सबका कल्याण करनेवाले तथा सर्वदा अनेकों तीर्थोंसे अपने यज्ञमण्डपमें देवताओंसहित सामगान करते हुए सुसेवित है, मैं उन्हें प्रतिदिन प्रणाम करता हूँ। वामन ब्रह्मचारीके रूपमें देखा था; जो सामगानके लिये श्रीवासुदेवका चरण समस्त पापोंको हरनेवाला है, वह उत्सुक रहते हैं, त्रिलोकीके जो एकमात्र स्वामी हैं तथा लाल कमलकी शोभा धारण करता है उसके तलवेमे युद्धमे पाप या मृत्युसे डरे हुए आत्मीयजनोंको जो अपनी ध्वजा और वायुके चिह्न है; वह नपुरों तथा मुद्रिकाओंसे ध्वनिमात्रसे निर्भय बना देते हैं, उन भगवानके परम विभूषित है। ऐसी सुषमासे युक्त भगवान् वासुदेवके पावन युगल चरणारविन्दोकी मै वन्दना करता हूँ। जो चरणको मैं प्रणाम करता हूँ। देवता, उत्तम सिद्ध, मुनि यज्ञके मुहानेपर विप्र-मण्डलीमें खड़े हो अपने तथा नागराज वासुकि आदि जिसका भक्तिपूर्वक सदा ही ब्राह्मणोचित तेजसे देदीप्यमान एवं पूजित हो रहे हैं, स्तवन करते हैं, श्रीवासुदेवके उस पवित्र चरणकमलको दिव्य तेजके कारण किरणोंके समूह-से जान पड़ते है मैं प्रतिदिन प्रणाम करता हूँ। जिनकी चरणोदकस्वरूपा तथा इन्द्रनील मणिके समान दिखायी देते हैं, जो गङ्गाजीमें गोते लगानेवाले प्राणी पवित्र एवं निष्पाप देवताओंके हितकी इच्छासे विरोचनके दानी पुत्र बलिके होकर स्वर्गलोकको जाते हैं तथा परम संतुष्ट मुनिजन समक्ष 'मुझे तीन पग भूमि दीजिये। ऐसा कहकर
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• अर्थपस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
याचना करते हैं, उन श्रेष्ठ ब्राह्मण श्रीवामनजीको मैं प्रणाम भगवान् वामनके उस विक्रमकी कहीं तुलना नहीं है, मैं इस करता है। भगवान्ने जब वामनसे विराट्प होकर अपना समय उस विक्रमका स्तवन करता हूँ। पैर बढ़ाया, तब उनका विक्रम (विशाल डग) आकाशको भगवान् श्रीविष्णु कहते है-राजन् ! इस आच्छादित करके सहसा तपते हुए सूर्य और चन्द्रमातक प्रकार यह सारा वृत्तान्त मैंने तुम्हें सुना दिया। पहुँच गया; इस बातकोसूर्यमण्डलमें स्थित हुए मुनिगणोंने कुञ्जल पक्षी तथा महात्मा च्यवनका चरित्र नाना भी देखा। फिर उन चक्रधारी भगवान्के विराट्पमें, जो प्रकारकी कल्याणमयी वार्ताओंसे युक्त है। मैं इसका समस्त विश्वका खजाना है, सम्पूर्ण देवता भी लीन हो गये। वर्णन करूंगा, तुम सुनो।
कुञ्जल पक्षी और उसके पुत्र कपिञ्जलका संवाद-कामोदाकी कथा
और विहुण्ड दैत्यका वध
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-धर्मात्मा कुञ्जलने कहते हैं। वह तालाब परम पवित्र और निर्मल जलसे अपने चौथे पुत्र कपिालको पुकार कर बड़ी प्रसन्नताके सुशोभित है। साथ कहा-'बेटा ! तुम मेरे उत्तम पुत्र हो; बोलो, महामते ! गङ्गाहदके सामने ही शिलाके ऊपर एक आहार लानेके लिये यहाँसे किस स्थानपर जाते हो? कन्या बैठी थी, जिसके केश खुले थे। रूपके वैभवसे वहाँ तुमने कौन-सी अपूर्व बात देखी अथवा सुनी है ? वह मुझे बताओ।' - कपिझलने कहा-पिताजी ! मैंने जो अपूर्व बात देखी है, उसे बताता हैं. सुनिये। कैलास सब पर्वतोंमें श्रेष्ठ है। उसकी कान्ति चन्द्रमाके समान श्वेत है। वह नाना प्रकारको धातुओंसे व्याप्त है। भाँति-भांतिके वृक्ष उसकी शोभा बढ़ाते हैं। गङ्गाजीका शुभ्र एवं पावन जल सब ओरसे उस पर्वतको नहलाता रहता है। वहाँसे सहस्रों विख्यात नदियोंका प्रादुर्भाव हुआ है। उस पर्वत-शिखरपर भगवान् शिवका मन्दिर है, जहाँ कोटिकोटि शिवगण भरे रहते हैं। पिताजी ! एक दिन मैं उसी कैलासपर, जो शङ्करजीका घर है, गया था। वहाँ मुझे एक ऐसा आश्चर्य दिखायी दिया, जो पहले कभी देखने या सुनने में नहीं आया था। मैं उस अद्भुत घटनाका वर्णन करता हूँ, सुनिये। गिरिराज मेरुका पवित्र शिखर महान् अभ्युदयसे युक्त है; वहाँसे हिम और दूधके समान रंगवाला गङ्गानदीका प्रवाह बड़े वेगसे पृथ्वीकी ओर उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वह कन्या दिव्य रूप गिरता है। वह स्रोत कैलासके शिखरपर पहुँचकर सब और सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उसने
ओर फैल जाता है। उस जलसे दस योजनका लंबा- दिव्य आभूषण धारण कर रखे थे। उस स्थानपर वह चौड़ा एक भारी तालाब बन गया है, उसे 'गङ्गाहद' बड़ी शोभासम्पन्न दिखायी देती थी। पता नहीं, वह
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भूमिखण्ड ]
. कुजल पक्षी और उसके पुत्र कपिालका संवाद .
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गिरिराज हिमालयकी कन्या पार्वती थी या समुद्र-तनया लिये कण्टकरूप उस पापी दैल्यने उपद्रव मचाना आरम्भ लक्ष्मी। इन्द्र या यमराजकी पत्नी भी ऐसी सुन्दरी नहीं किया। समस्त प्रजाको पीडा देने लगा। उसके तेजसे दिखायी देतीं। उसके शील, सद्भाव, गुण तथा रूप जैसे संतप्त होकर इन्द्र आदि देवता परम तेजस्वी देवाधिदेव दीख पड़ते थे, वैसे अन्य दिव्याङ्गनाओंमें नहीं दृष्टिगोचर भगवान् श्रीविष्णुकी शरणमें गये और बोले-'भगवन् ! होते। शिलाके ऊपर बैठी हुई वह कन्या किसी भारी विहुण्डके महान् भयसे आप हमारी रक्षा करें। दुःखसे व्याकुल थी और फूट-फूटकर रो रही थी और भगवान् विष्णु बोले-पापी विहुण्ड देवताओंके कोई स्वजन-सम्बन्धी उसके पास नहीं थे। नेत्रोंसे गिरते लिये कण्टकरूप है, मैं अवश्य उसका नाश करूँगा। हुए निर्मल अश्रुविन्दु मोतीके दाने-जैसे चमक रहे थे। देवताओंसे यों कहकर भगवान् श्रीविष्णुने मायाको वे सब-के-सब गङ्गाजीके स्रोतमें ही गिरते और सुन्दर प्रेरित किया। सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाली कमल-पुष्पके रूपमें परिणत हो जाते थे। इस प्रकार महाभागा विष्णुमायाने विहुण्डका वध करनेके लिये रूप अगणित सुन्दर पुष्प गङ्गाजीके जलमें पड़े थे और और लावण्यसे सुशोभित तरुणी स्त्रीका रूप धारण पानीके वेगके साथ वह रहे थे।
किया। वह नन्दनवनमें आकर तपस्या करने लगी। इसी पिताजी ! इस प्रकार मैंने यह अपूर्व बात देखी है। समय दैत्यराज विहुण्ड देवताओंका वध करनेके लिये आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; यदि इसका कारण जानते हों तो दिव्य मार्गसे चला । नन्दनवनमें पहुँचनेपर उसकी दृष्टि मुझपर कृपा करके बतायें। गङ्गाके मुहानेपर जो सुन्दरी तपस्विनी मायापर पड़ी। वह इस बातको नहीं जान सका स्त्री रो रही थी, जिसके नेत्रोंसे गिरे हुए आँसू सुन्दर कि यह मेरा ही नाश करनेके लिये उत्पन्न हुई है। यह कमलके फूल बन जाते थे, वह कौन थी? यदि मैं सुन्दरी स्त्री कालरूपा है, यह बात उसकी समझमें नहीं आपका प्रिय हूँ तो मुझे यह सारा रहस्य बताइये। आयी। मायाका शरीर तपाये हुए सुवर्णके समान दमक
कुञ्जल बोला-बेटा ! बता रहा हूँ, सुनो। यह रहा था। रूपका वैभव उसकी शोभा बढ़ा रहा था। देवताओका रचा हुआ वृत्तान्त है। इसमें महात्मा पापात्मा विहुण्ड उस सुन्दरी युवतीको देखते ही लुभा श्रीविष्णुके चरित्रका वर्णन है, जो सब पापोका नाश गया और बोला-'भद्रे ! तुम कौन हो? कौन हो? करनेवाला है। एक समयकी बात है, राजा नहुषने तुम्हारे शरीरका मध्यभाग बड़ा सुन्दर है, तुम मेरे चित्तको संग्राममें महापराक्रमी हुंड नामक दैत्यको मार डाला। मथे डालती हो । सुमुखि ! मुझे संगम प्रदान करो और उस दैत्यके पुत्रका नाम विहुण्ड था, वह भी बड़ा कामजनित वेदनासे मेरी रक्षा करो। देवेश्वरि ! अपने पराक्रमी और तपस्वी था। उसने जब सुना कि राजा समागमके बदले इस समय तुम जिस-जिस वस्तुकी नहुषने उसके पिताका मन्त्री तथा सेनासहित वध किया इच्छा करो, वह सब तुम्हे देनेको तैयार हैं। है, तब उसे बड़ा क्रोध हुआ और वह देवताओंका माया बोली-दानव ! यदि तुम मेरा ही उपभोग विनाश करनेके लिये उद्यत होकर तपस्या करने लगा। करना चाहते हो, तो सात करोड़ कमलके फूलोंसे तपसे बढ़े हुए उस दुष्ट दैत्यका पुरुषार्थ सम्पूर्ण भगवान् शङ्करकी पूजा करो। वे फूल कामोदसे उत्पन्न, देवताओंको विदित था। वे जानते थे कि समरभूमिमें दिव्य, सुगन्धित और देवदुर्लभ होने चाहिये। उन्हीं विहुण्डके वेगको सहन करना अत्यन्त कठिन है। उधर, फूलोकी सुन्दर माला बनाकर मेरे कण्ठमें भी पहनाओ। विहुण्डके मनमें त्रिलोकीका नाश कर डालनेकी इच्छा तभी मैं तुम्हारी प्रिय भार्या बनूंगी। हुई। उसने निश्चय किया, मैं मनुष्यों और देवताओको विहुण्डने कहा-देवि ! मैं ऐसा ही करूंगा। मारकर पिताके वैरका बदला लँगा। इस प्रकार तुम्हारा माँगा हुआ वर तुम्हें दे रहा हूँ। अत्याचारके लिये उद्यत हो देवताओं और ब्राह्मणोंके यह कहकर दैत्यराज विहुण्ड जितने भी दिव्य एवं
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अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
पवित्र वन थे, उनमें विचरण करने लगा। उसके चित्तपर कामका आवेश छा रहा था। बहुत खोजनेपर भी उसे कामोद नामक वृक्ष कहीं नहीं दिखायी दिया। वह स्वयं इधर-उधर जाकर पूछ-ताछ करता रहा; किन्तु सर्वत्र लोगों के मुँहसे उसे यही उत्तर मिलता था कि 'यहाँ कामोद वृक्ष नहीं है।' दुष्टात्मा विहुण्ड उस वृक्षका पता लगाता हुआ शुक्राचार्यके पास गया और भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर पूछने लगा - - ब्रह्मन् ! मुझे फूलोंसे लदे सुन्दर कामोद वृक्षका पता बताइये।'
शुक्राचार्य बोले- दानव ! कामोद नामका कोई वृक्ष नहीं है। कामोदा तो एक स्त्रीका नाम है। वह जब किसी प्रसङ्गसे अत्यन्त हर्षमें भरकर हँसती है, तब उसके मनोहर हास्यसे सुगन्धित, श्रेष्ठ तथा दिव्य कामोद पुष्प उत्पन्न होते हैं। उनका रंग अत्यन्त पीला होता है तथा वे दिव्य गन्धसे युक्त होते हैं। उनमेंसे एक फूलके द्वारा भी जो भगवान् शङ्करकी पूजा करता है, उसकी बड़ी से बड़ी कामनाको भी भगवान् शिव पूर्ण कर देते हैं। कामोदाके रोदनसे भी वैसे ही सुन्दर फूल उत्पन्न होते हैं; किन्तु उनमें सुगन्ध नहीं होती। अतः उनका स्पर्श नहीं करना चाहिये।
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
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जो पवित्र, दिव्यगन्धसे युक्त और देवता तथा दानवोंके लिये दुर्लभ सुन्दर फूल उत्पन्न होते हैं, उन्हें सम्पूर्ण देवता क्यों चाहते हैं ? उन हास्यजनित फूलोंसे पूजित होनेपर भगवान् शङ्कर क्यों सन्तुष्ट होते हैं ? उस फूलका क्या गुण है ? कामोदा कौन है और वह किसकी पुत्री है ?
कुञ्जल बोला- पूर्वकालकी बात है, देवताओं और बड़े-बड़े दैत्योंने अमृतके लिये परस्पर उत्तम सौहार्द स्थापित करके उद्यमपूर्वक क्षीरसागरका मन्थन किया। देवताओं और दैत्योंके मथनेसे चार कन्याएँ प्रकट हुई। फिर कलशमें रखा हुआ पुण्यमय अमृत दिखायी पड़ा। उपर्युक्त कन्याओंमेंसे एकका नाम लक्ष्मी था, दूसरी वारुणी नामसे प्रसिद्ध थी, तीसरीका नाम कामोदा और चौथीका ज्येष्ठा था। कामोदा अमृतकी लहरसे प्रकट हुई थी । वह भविष्यमें भगवान् श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये वृक्षरूप धारण करेगी और सदा ही श्रीविष्णुको आनन्द देनेवाली होगी। वृक्षरूपमें वह परम पवित्र तुलसीके नामसे विख्यात होगी। उसके साथ भगवान् जगन्नाथ सदा ही रमण करेंगे। जो तुलसीका एक पत्ता भी ले जाकर श्रीकृष्णभगवान्को समर्पित करेगा, उसका भगवान् बड़ा उपकार मानेंगे और 'मैं इसे क्या दे डालूँ ?' यह सोचते हुए वे उसके ऊपर बहुत प्रसन्न होंगे।
शुक्राचार्यकी यह बात सुनकर विहुण्डने पूछा'भृगुनन्दन ! कामोदा कहाँ रहती है ?"
शुक्राचार्य बोले – सम्पूर्ण पातकोंका शोधन करनेवाले परम पावन गङ्गाद्वार (हरिद्वार) नामक तीर्थके पास कामोद नामक पुर है, जिसे विश्वकर्माने बनाया था। उस कामोद नगरमें दिव्य भोगोंसे विभूषित एक सुन्दरी स्त्री रहती है, जो सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित है। वह भाँति-भाँति के आभूषणोंसे अत्यन्त सुशोभित जान पड़ती है। तुम वहीं चले जाओ और उस युवतीकी पूजा करो। साथ ही किसी पवित्र उपायका अवलम्बन करके उसे हँसाओ ।
इस प्रकार पूर्वोक्त चार कन्याओंमेंसे जो कामोदा नामसे प्रसिद्ध देवी है, वह जब हर्षसे गद्रद होकर बोलती और हँसती है, तब उसके मुखसे सुनहरे रंगके सुगन्धित फूल झड़ते हैं। वे फूल बड़े सुन्दर होते हैं। कभी कुम्हलाते नहीं हैं। जो उन फूलोंका यत्नपूर्वक संग्रह करके उनके द्वारा भगवान् शङ्कर, ब्रह्मा तथा विष्णुकी पूजा करता है, उसके ऊपर सब देवता संतुष्ट होते हैं और वह जो-जो चाहता है, वही वही उसे अर्पण करते हैं। इसी प्रकार जब कामोदा किसी दुःखसे दुःखी होकर रोने लगती है, तब उसकी आँखोंके आँसुओंसे भी फूल पैदा होते और झड़ते हैं। महाभाग ! वे फूल भी देखने में बड़े मनोहर होते हैं; किन्तु उनमें सुगन्ध नहीं कपिञ्जलने पूछा—पिताजी! कामोदाके हास्यसे होती। वैसे फूलोंसे जो शङ्करका पूजन करता है, उसे
यह कहकर शुक्राचार्य चुप हो गये और वह महातेजस्वी दानव अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये उद्यत हुआ।
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भूमिखण्ड ]
• कुञ्जल पक्षी और उसके पुत्र कपिछलका संवाद .
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दुःख और संताप होता है। जो पापात्मा एक बार भी उस प्रश्नका समाधान कीजिये। मुने ! सोते समय मैंने एक तरहके फूलोंसे देवताओंकी पूजा करता है, उसे वे निश्चय दारुण स्वप्न देखा है, मानो किसीने मेरे सामने आकर ही दुःख देते है।
- कहा है-'अव्यक्तस्वरूप भगवान् हृषीकेश संसारमे - भगवान् श्रीविष्णुने पापी विहुण्डके पराक्रम और जायेंगे-वहाँ जन्म: ग्रहण करेंगे। महामते! दुःसाहसपर दृष्टि डालकर देवर्षि नारदको उसके पास ऐसा स्वप्र देखनेका क्या कारण है? आप ज्ञानवानोंमें भेजा। उस समय वह दुरात्मा दानव कामोदाके पास जा श्रेष्ठ हैं, कृपया बताइये। रहा था। नारदजी उसके समीप जाकर हंसते हुए बोले- नारदजीने कहा-भद्रे ! मनुष्य जो स्वप्र देखते 'दैत्यराज ! कहाँ जा रहे हो? इस समय तुम बड़े हैं, वह तीन प्रकारका होता है-वातिक (वातज); उतावले और व्यग्र जान पड़ते हो।' विहुण्डने ब्रह्मकुमार पैत्तिक (पित्तज) और कफज । सुन्दरी ! देवताओंको न नारदजीको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा- नींद आती है न स्वप्न । मनुष्य शुभ और अशुभ नाना "द्विजश्रेष्ठ ! मैं कामोद पुष्पके लिये चला हूँ।' यह प्रकारके स्वप्न देखता है। वे सभी स्वप्न कर्मसे प्रेरित सुनकर नारदजीने कहा-दैत्य ! तुम कामोद नामक होकर दृष्टिपथमें आते हैं। पर्वत तथा ऊँचे-नीचे नाना श्रेष्ठ नगरमे कदापि न जाना; क्योंकि वहाँ सम्पूर्ण प्रकारके दुर्गम स्थानोंका दर्शन होना वातिक स्वप्न है। देवताओंको विजय दिलानेवाले परम बुद्धिमान् भगवान् अब कफाधिक्यके कारण दिखायी देनेवाले स्वप्न बता श्रीविष्णु रहते हैं। दानव ! जिस उपायसे कामोद नामक रहा हूँ। जल, नदी, तालाब तथा पानीके विभिन्न फूल तुम्हारे हाथ लग सकते हैं, वह मैं बता रहा हूँ। वे स्थान-ये सब कफज स्वपके अन्तर्गत है। देवि ! दिव्य पुष्प गङ्गाजीके जलमें गिरेंगे और प्रवाहके पावन अग्नि तथा बहुत-से उत्तम सुवर्णका जो दर्शन होता है, जलके साथ बहते हुए तुम्हारे पास आ जायेंगे। वे उसे पैत्तिक स्वप्न समझो। अब मैं भावी (भविष्यमें तुरंत देखनेमें बड़े सुन्दर होंगे। तुम उन्हें पानीसे निकाल फल देनेवाले) स्वप्रका वर्णन करता है-प्रातःकाल जो लाना। इस प्रकार उन फूलोंका संग्रह करके अपना कर्मप्रेरित शुभ या अशुभ स्वप्न दिखायी देता है, वह मनोरथ सिद्ध करो।'
क्रमशः लाभ और हानिको व्यक्त करनेवाला है। दानवश्रेष्ठ विहुण्डसे यह कहकर धर्मात्मा नारदजी सुन्दरी ! इस प्रकार मैंने तुमसे स्वप्रकी अवस्थाएँ कामोद नगरकी ओर चल दिये। जाते-जाते उन्हें वह बतायीं। भगवान् श्रीविष्णुके सम्बन्धमें यह बात अवश्य दिव्य नगर दिखायी दिया। उस नगरमें प्रवेश करके वे होनेवाली है, इसी कारण तुम्हें दुःस्वप्न दिखायी दिया है। कामोदाके घर गये और उससे मिले। कामोदाने स्वागत कामोदा बोली-नारदजी ! सम्पूर्ण देवता भी आदिके द्वारा मुनिको प्रसत्र किया और मीठे वचनोंमें जिनका अन्त नहीं जानते, उन्हें भी जिनके स्वरूपका ज्ञान कुशलसमाचार पूछा । द्विजश्रेष्ठ नारदजीने कामोदाके दिये नहीं है, जिनमें सम्पूर्ण विश्वका लय होता है, जिन्हें हुए दिव्य सिंहासनपर बैठकर उससे पूछा-'भगवान् विश्वात्मा कहते हैं और सारा संसार जिनकी मायासे मुग्ध श्रीविष्णुके तेजसे प्रकट हुई कल्याणमयी देवी! हो रहा है, वे मेरे स्वामी जगदीश्वर श्रीविष्णु संसारमें क्यों तुम यहाँ सुखसे रहती हो न? किसी तरहका कष्ट तो जन्म ले रहे हैं? नहीं है?' -*
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नारदजीने कहा-देवि ! इसका कारण सुनो; कामोदा बोली-महाभाग ! मैं आप-जैसे महर्षि भृगुके शापसे भगवान् संसारमें अवतार लेनेवाले महात्माओं तथा भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे सुखपूर्वक हैं। [यही बात बतानेके लिये उन्होंने मुझे तुम्हारे पास जीवन व्यतीत कर रही हूँ। इस समय आपसे कुछ भेजा है। इसीलिये तुम्हें दुःस्वप्रका दर्शन हुआ है। प्रश्नोत्तर करनेका कारण उपस्थित हुआ है; आप मेरे बेटा ! यों कहकर नारदजी ब्रह्मलोकको चले गये।
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. . अर्थयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पयपुराण
उस समय कामोदा भगवान्के दुःखसे दुःखी हो गयो फूलोसे अपने स्वामी शङ्करजीकी पूजा करने लगी।
और गङ्गाजीके तटपर जलके समीप बैठकर बारंबार इतनेमें ही उस पापी दानवने आकर देवीकी दिव्य हाहाकार करती हुई करुण स्वरसे विलाप करने लगी। पूजाको नष्ट कर दिया। वह दुष्टात्मा कालके वशीभूत हो वह अपने नेत्रोंसे जो दुःखके आँसू बहाती थी, वे हो चुका था। उसने पार्वतीद्वारा पारिजातके फूलोंसे की हुई गङ्गाजीके जलमें गिरते थे। पानीमें पड़ते ही वे पुनः पूजाको मिटा दिया और स्वयं लोभवश शोकजनित पद्य-पुष्पके रूपमें प्रकट होते और धाराके साथ बह पुष्पोंसे शङ्करजीका पूजन करने लगा। उस समय जाते थे। दानवश्रेष्ठ विहुण्ड भगवान् श्रीविष्णुकी मायासे उस दुष्टके नेत्रोंसे आँसूकी अविरल बूँदें निकलकर मोहित था। उसने उन फूलोंको देखा; किन्तु महर्षि शिवलिङ्गाके मस्तकपर पड़ रही थीं। यह देखकर देवीने शुक्राचार्यके बतानेपर भी वह इस बातको न जान सका ब्राह्मणके रूपमें ही पूछा-आप कौन है, जो शोकाकुल कि ये दुःखके आँसुओंसे उत्पन्न फूल हैं। उन्हें देखकर चित्तसे भगवान् शिवकी पूजा कर रहे हैं? ये शोकजनित वह असुर बड़े हर्षमें भर गया और उन सबको जलसे अपवित्र आँसू भगवान्के मस्तकपर पड़ रहे हैं। आप निकाल लाया। फिर वह उन खिले हुए पद्म-पुष्पोंसे ऐसा क्यों करते हैं? मुझे इसका कारण बताइये। गिरिजापतिकी पूजा करने लगा। विष्णुको मायाने उसके विहुण्ड बोला-ब्रह्मन् ! कुछ दिन हुए मैने एक मनको हर लिया था; अतः विवेकशून्य होकर उस सुन्दरी स्त्री देखी, जो सब प्रकारको सौभाग्य-सम्पदासे दैत्यराजने सात करोड़ फूलोंसे भगवान् शिवका पूजन युक्त और समस्त शुभ लक्षणोसे सम्पन्न थी। देखने में किया। यह देख जगन्माता पार्वतीको बड़ा क्रोध हुआ; वह कामदेवका विशाल निकेतन जान पड़ती थी। उसके उन्होंने शङ्करजीसे कहा-'नाथ ! इस दुर्बुद्धि दानवका मोहसे मैं संतप्त हो उठा, कामसे मेरा चित्त व्याकुल हो कुकर्म तो देखिये-यह शोकसे उत्पन्न फूलोद्वारा गया। जब मैंने उससे समागमको प्रार्थना की, तब वह आपका पूजन कर रहा है, इसे दुःख और संताप ही बोली-'कामोदके फूलोसे भगवान् शङ्करकी पूजा करो मिलेगा; यह सुख पानेका अधिकारी नहीं है।' तथा उन्हीं फूलोको माला बनाकर मेरे कण्ठमें पहनाओ।
भगवान् शिव बोले-भद्रे! तुम सच कहती सात करोड़ पुष्पोंसे महेश्वरका पूजन करो।' उस स्त्रीको हो, इस पापीने सत्यपूर्ण उद्योगको पहलेसे ही छोड़ रखा पानेके लिये ही मैं पूजा करता हूँ क्योंकि भगवान् शिव है। इसकी चेतना कामसे आकुल है; अतः यह दुष्टात्मा अभीष्ट फलके दाता हैं। गङ्गाजीके जलमें पड़े हुए शोकजनित फूलोंको ग्रहण देवीने कहा-अरे ! कहाँ तेरा भाव है, कहाँ करता है तथा उनसे मेरा पूजन भी करता है। दुःख और ध्यान है और कहाँ तुझ दुरात्माका ज्ञान है ? [तू कामोद शोकसे उत्पन्न ये फूल तो शोक और संताप ही देनेवाले पुष्पोंसे पूजा कर रहा है न?] अच्छा, बता, कामोदाका है; इनके द्वारा किसीका कल्याण कैसे हो सकता है। सुन्दर रूप कैसा है? तूने उसके हास्यसे उत्पन्न सुन्दर देवि ! मैं तो समझता हूँ, यह ध्यानहीन है; क्योंकि फूल कहाँ पाये हैं? .....। अब पापाचारी हो गया है। अतः तुम इसे अपने ही विहुण्ड बोला-'ब्रह्मन् ! मैं भाव और ध्यान तेजसे मार डालो।
कुछ नहीं जानता । कामोदाको मैंने कभी देखा भी नहीं भगवान् शङ्करके ये वचन सुनकर भगवती पार्वतीने है। गङ्गाजीके जलमें जो फूल बहकर आते हैं, उन्हींका कहा-'नाथ ! मैं आपकी आज्ञासे इसका अवश्य में प्रतिदिन संग्रह करता हूँ और उन्हींसे एकमात्र संहार करूंगी।' यो कहकर देवी वहाँ गयीं और शङ्करजीका पूजन करता हूँ। महात्मा शुक्राचार्यने मेरे विहुण्डके वधका उपाय सोचने लगी। वे एक महात्मा सामने इस फूलका परिचय दिया था। मैं उन्हींकी ब्राह्मणका मायामय रूप बनाकर पारिजातके सुन्दर आज्ञासे नित्यप्रति पूजा करता हूँ।
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भूमिखण्ड ] - • कुअलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर ज्ञानका उपदेश करना .
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। देवीने कहा-पापी ! ये फूल कामोदाके रोदनसे खड़ी हुई भगवती परमेश्वरी कुपित हो उठी और ज्यों ही उत्पन्न हुए हैं। इनकी उत्पत्ति दुःखसे हुई है। इन्हींसे तू वह दैत्य उनके पास पहुंचा त्यों ही उन्होंने अपने मुँहसे पापपूर्ण भावना लेकर, प्रतिदिन भगवानकी पूजा करता 'हुंकार' का उच्चारण किया। हुंकारकी ध्वनि होते ही वह है, किन्तु दिव्य पूजा नष्ट करके तू शोकजनित पुष्पोंसे अधम दानव निश्चेष्ट होकर गिर पड़ा, मानो वनके पूजन कर रहा है-यह आज तेरे द्वारा भयंकर अपराध आघातसे पर्वत फट पड़ा हो। उस लोक-संहारक हुआ है। इसके लिये मैं तुझे दण्ड दूंगा। दानवके मारे जानेपर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ हो गया, सबके • यह सुनकर कालके वशीभूत हुआ दानव विहुण्ड दुःख और सन्ताप दूर हो गये। बेटा ! गङ्गाजीके तीरपर बोला-रे दुष्ट ! रे अनाचारी ! तू मेरे कर्मकी निन्दा दुःखसे व्याकुलचित्त होकर बैठी हुई जो सुन्दरी स्त्री रो करता है? तुझे अभी इस तलवारसे मौतके घाट उतारता रही थी, [वह कामोदा ही थी;] उसके रोनेका यही हूँ।' यों कहकर वह ब्राह्मणको मारनेके लिये तीखी कारण था। यह सारा रहस्य जो तुमने पूछा था, मैंने तलवार ले उसकी ओर झपटा। यह देख ब्राह्मणरूपमें कह सुनाया।
कुजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा
पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्य
भगवान् श्रीविष्णु कहते है-राजन् ! धर्मात्मा पक्षी महाप्राज्ञ कुञ्जल अपने पुत्रोंसे यों कहकर चुप हो गया। तब वटके नीचे बैठे हुए द्विजश्रेष्ठ च्यवनने उस महाशुकसे कहा-'महात्मन् ! आप कौन है, जो पक्षीके रूपसे धर्मका उपदेश कर रहे हैं? आप देवता, गन्धर्व अथवा विद्याधर तो नहीं है? किसके शापसे आपको यह तोतेकी योनि प्राप्त हुई है? यह अतीन्द्रिय ज्ञान आपको किससे प्राप्त हुआ है?'
कुडाल बोला-सिद्धपुरुष ! मैं आपको जानता। हूँ आपके कुल, उत्तम गोत्र, विद्या, तप और प्रभावसे भी परिचित हूँ तथा आप जिस उद्देश्यसे पृथ्वीपर विचरण करते हैं, उसका भी मुझे ज्ञान है। श्रेष्ठ व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण ! आपका स्वागत है। मैं आपकी पूछी हुई सब बातें बताऊँगा। इस पवित्र आसनपर बैठकर शीतल छायाका आश्रय लीजिये। अव्यक्त परमात्मासे ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ। उनसे प्रजापति भृगु प्रकट हुए, जो ब्रह्माजीके समान गुणोंसे युक्त हैं। भृगुसे भार्गव (शुक्राचार्य) का जन्म हुआ, जो सम्पूर्ण धर्म और अर्थशास्त्र के तत्त्वज्ञ है। उन्हींक वंशमे
आपने जन्म ग्रहण किया है। पृथ्वीपर आप च्यवनके नामसे विख्यात है। [अब मेरा परिचय सुनिये- मैं देवता, गन्धर्व या विद्याधर नहीं हैं। पूर्वजन्ममें कश्यपजीके कुल में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए थे। उन्हें वेद-वेदाङ्गोंके तत्त्वका ज्ञान था। वे सब धर्मोको प्रकाशित करनेवाले थे। उनका नाम विद्याधर था; वे कुल, शील और गुण-सबसे युक्त थे। विप्रवर विद्याधर अपनी तपस्याके प्रभावसे सदा शोभायमान दिखायी देते थे। उनके तीन पुत्र हुए-वसुशर्मा, नामशर्मा और धर्मशर्मा । उनमें धर्मशर्मा मैं ही था, अवस्थामें सबसे छोटा और गुणोंसे हीन । मेरे बड़े भाई वसुशर्मा वेद-शास्त्रोंके पारगामी विद्वान् थे। विद्या आदि सद्गुणोंके साथ उनमें सदाचार भी था। नामशर्मा भी उन्हींकी भाँति महान् पण्डित थे। केवल मैं ही महामूर्ख निकला। विप्रवर ! मैं विद्याके उत्तम भाव और शुभ अर्थको कभी नहीं सुनता था और गुरुके घर भी कभी नहीं जाता था।
यह देख मेरे पिता मेरे लिये बहुत चिन्तित रहने लगे। वे सोचते-'मेरा यह पुत्र धर्मशर्मा कहलाता है,
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
- [संक्षिप्त पद्मपुराण
पर इसके लिये यह नाम व्यर्थ है। इस पृथ्वीपर न तो आ पहुंचे। मानो मेरे भाग्यने ही उन्हें भेज दिया था। यह विद्वान् हुआ और न गुणोका आधार ही।' यह उनका कहीं आश्रय नहीं था, वे निराहार रहते थे। सदा विचारकर मेरे धर्मात्मा पिताको बड़ा दुःख हुआ। वे आनन्दमें मन और निःस्पृह थे। प्रायः एकान्तमें ही रहा मुझसे बोले-'बेटा ! गुरुके घर जाओ और विद्या करते थे। बड़े दयालु और जितेन्द्रिय थे। परब्रह्ममें सीखो।' उनका यह कल्याणमय वचन सुनकर मैने उत्तर लीन, ज्ञानी, ध्यानी और समाधिनिष्ठ थे। मैं उन परम दिया-'पिताजी ! गुरुके घरपर बड़ा कष्ट होता है। बुद्धिमान् ज्ञान-स्वरूप महात्माकी शरणमें गया और वहाँ प्रतिदिन मार खानी पड़ती है, धमकाया जाता है। भक्तिसे मस्तक झुका उन्हें प्रणाम करके सामने खड़ा हो नींद लेनेकी भी फुरसत नहीं मिलती। इन गया। मैं दीनताको साक्षात् मूर्ति और मन्दभागी था। असुविधाओंके कारण मैं गुरुके मन्दिरपर नहीं जाना महात्माने मुझसे पूछा-'ब्रह्मन् ! तुम इतने शोकमग्न चाहता, मैं तो आपकी कृपासे यहीं स्वच्छन्दतापूर्वक कैसे हो रहे हो? किस अभिप्रायसे इतना दुःख भोगते खेलेंगा, खाऊँगा और सोऊँगा।'
हो ?' मैंने अपनी मूर्खताका सारा पूर्व-वृत्तान्त उनसे कह धर्मात्मा पिता मुझे मूर्ख समझकर बहुत दुःखी हुए सुनाया और निवेदन किया- 'मुझे सर्वज्ञता कैसे प्राप्त और बोले-'बेटा ! ऐसा दुःसाहस न करो। विद्या हो? इसीके लिये मैं दुःखी हूँ। अब आप ही मुझे सीखनेका प्रयत्न करो। विद्यासे सुख मिलता है, यश आश्रय देनेवाले हैं।'
और अतुलित कीर्ति प्राप्त होती है तथा ज्ञान, स्वर्ग और सिद्ध महात्माने कहा-ब्रह्मन् ! सुनो, मैं तुम्हारे उत्तम मोक्ष मिलता है; अतः विद्या सीखो* । विद्या सामने ज्ञानके स्वरूपका वर्णन करता हूँ। ज्ञानका कोई पहले तो दुःखका मूल जान पड़ती है, किन्तु पीछे वह आकार नहीं है [ज्ञान परमात्माका स्वरूप है । वह सदा बड़ी सुखदायिनी होती है। इसलिये तुम गुरुके घर जाओ सबको जानता है, इसलिये सर्वज्ञ है। मायामोहित मूढ़
और विद्या सीखो।' पिताके इतना समझानेपर भी मैं पुरुष उसे नहीं प्राप्त कर सकते। ज्ञान भगवतत्त्वके उनकी बात नहीं मानता और प्रतिदिन इधर-उधर चिन्तनसे उद्दीप्त होता है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। घूम-फिरकर अपनी हानि किया करता था। विप्रवर ! ज्ञानसे ही परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार होता है। मेरा बर्ताव देखकर लोगोंने मेरा बड़ा उपहास किया, मेरो चन्द्रमा और सूर्य आदिके प्रकाशसे उसका दर्शन नहीं बड़ी निन्दा हुई । इससे मैं बहुत लजित हुआ। जान पड़ा किया जा सकता। ज्ञानके न हाथ हैं न पैर; न नेत्र है न यह लज्जा मेरे प्राण लेकर रहेगी। तब मैं विद्या पढ़नेको कान । फिर भी वह सर्वत्र गतिशील है। सबको ग्रहण तैयार हुआ। [अवस्था अधिक हो चुकी थी,] सोचने करता और देखता है। सब कुछ संघता तथा सबकी लगा-'किस गुरुके पास चलकर पढ़ानेके लिये प्रार्थना बातें सुनता है। स्वर्ग, भूमि और पाताल-तीनों लोकोंमें करूँ?' इस चिन्तामें पड़कर मैं दुःख-शोकसे व्याकुल प्रत्येक स्थानपर वह व्यापक देखा जाता है। जिनकी हो उठा। 'कैसे मुझे विद्या प्राप्त हो? किस प्रकार मैं बुद्धि दूषित है, वे उसे नहीं जानते । ज्ञान सदा प्राणियोंके गुणोंका उपार्जन करूँ? कैसे मुझे स्वर्ग मिले और किस हृदयमें स्थित होकर काम आदि महाभोगों तथा महामोह तरह मैं मोक्ष प्राप्त करू?' यही सब सोचते-विचारते आदि सब दोषोंको विवेककी आगसे दग्ध करता रहता मेरा बुढ़ापा आ गया।
है। अतः पूर्ण शान्तिमय होकर इन्द्रियोंके विषयोंका एक दिनकी बात है, मैं बहुत दुःखी होकर एक मर्दन-उनकी आसक्तिका नाश करना चाहिये। इससे देवालयमें बैठा था; वहाँ अकस्मात् कोई सिद्ध महात्मा समस्त तात्त्विक अर्थोका साक्षात्कार करानेवाला ज्ञान
* विद्यया प्राप्यते सौख्यं यशः कीर्तिस्तथातुला । ज्ञानं स्वर्गः सुमोक्षच तस्माद्विद्या प्रसाधय। (१२२ । २५-२६)
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भूमिखण्ड]
• कुखालका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर जानका उपदेश करना .
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प्रकट होता है। यह शान्तिमूलक ज्ञान निर्मल तथा वाग्विनोदमें पड़कर मेरा सारा उत्तम ज्ञान चला गया। पापनाशक है। इसलिये तुम शान्ति धारण करो; वह सब एक दिन मैं फूल और फलं लानेके लिये वनमें प्रकारके सुखोंको बढ़ानेवाली है। शत्रु और मित्रमें समान गया था। इसी बीचमें एक बिलाव आकर तोतेको उठा भाव रखो। तुम अपने प्रति जैसा भाव रखते हो, वैसा ले गया। यह दुर्घटना मुझे केवल दुःख देनेका कारण ही दूसरोके प्रति भी बनाये रहो । सदा नियमपूर्वक रहकर हुई। बिलाव उस पक्षीको मारकर खा गया। इस प्रकार आहारपर विजय प्राप्त करो, इन्द्रियोंको जीतो। किसीसे उस तोतेकी मृत्यु सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। असह्य मित्रता न जोड़ो; वैरका भी दूरसे ही त्याग करो। निसंग शोकके कारण अत्यन्त पीडा होने लगी। मैं महान्
और निःस्पृह होकर एकान्त स्थानमें रहो। इससे तुम मोह-जालमें बैंधकर उसके लिये प्रलाप करने लगा। सबको प्रकाश देनेवाले ज्ञानी, सर्वदर्शी बन जाओगे। सिद्ध महात्माने जिस ज्ञानका उपदेश दिया था, उसकी बेटा ! उस स्थितिमें पहुँचनेपर तुम मेरी कृपासे एक ही याद जाती रही। तब तो मीठे वचन बोलनेवाले उस स्थानपर बैठे-बैठे तीनों लोकोंमें होनेवाली बातोंको जान तोतेको तथा उसके ज्ञानको याद करके मैं 'हा वत्स ! हा लोगे-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
वत्स !' कहकर प्रतिदिन विलाप करने लगा। कुशल कहता है-विप्रवर ! उन सिद्ध महात्माने इस प्रकार विलाप करता हुआ मैं शोकसे अत्यन्त ही मेरे सामने ज्ञानका रूप प्रकाशित किया था। उनको पीडित हो गया। अन्ततोगत्वा उसो दुःखसे मेरी मृत्यु हो आशामें स्थित होकर मैं पूर्वोक्त भावनाका ही चित्तन करने गयी। उसीकी भावनासे मोहित होकर मुझे प्राण त्यागना लगा। इससे सद्गुरुकी कृपा हुई, जिससे एक ही स्थानमें पड़ा। द्विजश्रेष्ठ ! मृत्युके समय मेरा जैसा भाव था, जैसी रहकर मै त्रिभुवनमें जो कुछ हो रहा है, सबको जानता हूँ। बुद्धि थी, उसी भाव और बुद्धिके अनुसार मेरा तोतेकी
च्यवनने पूछा-खगश्रेष्ठ ! आप तो ज्ञानवानोंमें योनिमें जन्म हुआ है । परन्तु मुझे जो गर्भवास प्राप्त हुआ, श्रेष्ठ है, फिर आपको यह तोतेकी योनि कैसे प्राप्त हुई? वह मेरे ज्ञान और स्मरण-शक्तिको जाग्रत् करनेवाला
कुजलने कहा-ब्रह्मन् ! संसर्गसे पाप और था। गर्भमें स्वयं ही मुझे अपने पूर्वकर्मका स्मरण हो संसर्गसे पुण्य भी होता है। अतः शुद्ध आचार- आया। मैंने सोचा-'ओह ! मुझ मूर्ख, अजितेन्द्रिय विचारवाले कल्याणमय पुरुषको कुसङ्गका त्याग कर तथा पापीने यह क्या कर डाला।' फिर गुरुदेवके देना चाहिये। एक दिन कोई पापी व्याध एक तोतेके अनुग्रहसे मुझे उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ। उनके वाक्यरूपी बच्चेको बाँधकर उसे वैचनेके लिये आया। वह बधा स्वच्छ जलसे मेरे शरीरके भीतर और बाहरका सारा मल देखने में बड़ा सुन्दर और मीठी बोली बोलनेवाला था। धुल गया। मेरा अन्तःकरण निर्मल हो गया। पूर्वजन्ममें एक ब्राह्मणने उसे खरीद लिया और मेरी प्रसन्नताके लिये मृत्युकाल उपस्थित होनेपर मैंने तोतेका ही चिन्तन किया उसको मुझे दे दिया। मैं प्रतिदिन ज्ञान और ध्यानमें स्थित और उसीकी भावनासे भावित होकर मैं मृत्युको प्राप्त रहता था। उस समय वह तोतेका बच्चा बाल-स्वभावके हुआ । यही कारण है कि मुझे पृथ्वीपर तोतेके रूपमें पुनः कारण कौतूहलवश मेरे हाथपर आ बैठता और बोलने जन्म लेना पड़ा। मृत्युके समय प्राणियोंका जैसा भाव लगता–'तात ! मेरे पास आओ, बैठो; नानके लिये रहता है, वे वैसे ही जीवके रूपमें उत्पन्न होते हैं। उनका जाओ और अब देवताओंका पूजन करो।' इस तरहको शरीर, पराक्रम, गुण और स्वरूप-सब उसी तरहके मीठी-मीठी बातें वह मुझसे कहा करता था। उसके होते हैं। वे भाव-स्वरूप होकर ही जन्म लेते हैं।*
* मरणे यादृशो भावः प्राणिना परिजायते ॥ तादृशाः स्युस्तु सत्त्वास्ते तद्रूपास्तत्पराक्रमाः । तद्गुणास्तत्स्वरूपाच भावभूता भवन्ति हि॥ (१२३ ॥ ४६-४७)
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. अर्चयस्व हवीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
महामते ! इस तोतेके शरीरमें मुझे अतुलित ज्ञान प्राप्त शरीरमें आ मिलोगे। हुआ है, जिसके प्रभावसे मैं भूत, भविष्य और वेनसे यों कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। उनके वर्तमान-तीनों कालोको प्रत्यक्ष देखता हूँ। यहाँ रहकर अदृश्य हो जानेपर नृपश्रेष्ठ वेन बड़े हर्षके साथ घर आये भी उसी ज्ञानके प्रभावसे मुझे सब कुछ ज्ञात हो जाता और कुछ सोच-विचारकर अपने पुत्र पृथुको निकट बुला है। विप्रवर ! संसारमें भटकनेवाले मनुष्योंको तारनेके मधुर वाणीमें बोले-'बेटा ! तुम वास्तवमें पुत्र हो। लिये गुरुके समान वन्धन-नाशक तीर्थ दूसरा कोई नहीं तुमने इस भूलोकमें बहुत बड़े पातकसे मेरा उद्धार कर है।* भूतलपर प्रकट हुए जलसे बाहरका ही सारा मल दिया। मेरे वंशको उज्ज्वल बना दिया। मैंने अपने नष्ट होता है; किन्तु गुरुरूपी तीर्थ जन्म-जन्मान्तरके दोषोंसे इस कुलका नाश कर दिया था, किन्तु तुमने फिर पापोंका भी नाश कर डालता है। संसारमें जीवोंका उद्धार इसे चमका दिया है। अब मैं अश्वमेध यज्ञके द्वारा करनेके लिये गुरु चलता-फिरता उत्तम तीर्थ है। भगवान्का यजन करूँगा और नाना प्रकारके दान दूंगा।
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-नृपश्रेष्ठ ! वह फिर भगवान् विष्णुकी कृपासे उनके उत्तम धामको परम ज्ञानी शुक महात्मा च्यवनको इस प्रकार तत्त्वज्ञानका जाऊँगा। अतः महाभाग ! अब तुम यज्ञको उत्तम उपदेश देकर चुप हो गया। यह सब परम उत्तम जङ्गम सामग्रियोंको जुटाओ और वेदोंके पारगामी विद्वान् तीर्थकी महिमाका वर्णन किया गया। राजन् ! तुम्हारा ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करो।' कल्याण हो! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसे वरके सूतजी कहते हैं-वेनकी आज्ञा पाकर परम रूपमें माँग लो।
धर्मात्मा राजकुमार पृथुने नाना प्रकारको पवित्र सामग्रियाँ वेनने कहा-जनार्दन ! मुझे राज्य पानेकी एकत्रित की तथा नाना देशोंमें उत्पन्न हुए समस्त अभिलाषा नहीं है। मैं दूसरी कोई वस्तु भी नहीं चाहता। ब्राह्मणोंको नियन्त्रित किया। तदनन्तर राजा वेनने केवल आपके शरीरमें प्रवेश करना चाहता हूँ। अश्वमेध यज्ञ किया और ब्राह्मणोंको अनेक प्रकारके दान
भगवान् श्रीविष्णुबोले-राजन् ! तुम अश्वमेध दिये। इसके बाद वे भगवान् विष्णुके धामको चले गये। और राजसूय यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करो। गौ, भूमि, महर्षियो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे राजा पृथुके सुवर्ण, अन्न और जलका दान दो। महामते ! दानसे समस्त चरित्रका वर्णन किया। यह सब पापोंकी शान्ति ब्रह्महत्या आदि घोर पाप भी नष्ट हो जाते है। दानसे और सम्पूर्ण दुःखोंका विनाश करनेवाला है। धर्मात्मा चारों पुरुषार्थोकी भी सिद्धि होती है, इसलिये मेरे राजा पृथुने इस प्रकार पृथ्वीका राज्य किया और तीनों उद्देश्यसे दान अवश्य करना चाहिये। जो जिस भावसे लोकोसहित भूमण्डलकी रक्षा की। उन्होंने पुण्य-धर्ममय मेरे लिये दान देता है, उसके उस भावको मैं सत्य कर कोंक द्वारा समस्त प्रजाका मनोरञ्जन किया। देता हूँ। ऋषियोंके दर्शन और स्पर्शसे तुम्हारी पापराशि यह मैंने आपलोगोंसे परम उत्तम भूमिखण्डका नष्ट हो चुकी है। यज्ञोंके अन्तमें तुम निश्चय ही मेरे वर्णन किया है। पहला सृष्टिखण्ड है और दूसरा
* तारणाय मनुष्याणां संसारे परिवर्तताम् । नास्ति तीर्थ गुरुसमै बन्धच्छेदकर द्विज ॥ (१२३ । ५०) + स्थलजाचोदकात् सर्वं बाह्य मलं प्रणश्यति । जन्मान्तरक्ता-पापान् गुरुतीर्थ प्रणाशयेत्॥
संसारे तारणायैव जङ्गमं तीर्थमुत्तमम्। (१२३ । ५२-५३) * यादृशेनापि भावेन मामुद्दिश्य ददाति यः॥ तादर्श तस्य वै भावं सत्यमेव कोम्यहम्। (१२३ । ५८-५९)
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भूमिखण्ड]
• कुचलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर ज्ञानका उपदेश करना.
३१
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भूमिखण्ड । अब भूमिखण्डके माहात्म्यका वर्णन आरम्भ साधक इस पुण्यमय पुराणका श्रवण करें। जिसने पुण्यके करता हूँ। जो श्रेष्ठ मनुष्य इस खण्डके एक श्लोकका भी साधनभूत इस पद्मपुराणका श्रवण किया, उसने चतुर्वर्गक श्रवण करता है, उसके एक दिनका पाप नष्ट हो जाता है। समस्त साधनोंको सिद्ध कर लिया। इसका श्रवण जो श्रेष्ठ बुद्धिसे युक्त पुरुष इसके एक अध्यायको सुनता करनेवाले मनुष्यके ऊपर कभी भारी वित्रका आक्रमण है, उसे पर्वके अवसरपर ब्राह्मणोंको एक हजार गोदान नहीं होता। धर्मपरायण पुरुषोंको पूरी पुराणसंहिताका देनेका फल मिलता है। साथ ही उसपर भगवान् श्रीविष्णु श्रवण करना चाहिये। इससे धर्म, अर्थ, काम और भी प्रसन्न होते हैं। जो इस पद्मपुराणका प्रतिदिन पाठ मोक्षकी भी सिद्धि होती है। भूमिखण्डका श्रवण करके करता है, उसपर कलियुगमें कभी विनोका आक्रमण नहीं मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा रोग, दुःख और होगा। ब्राह्मणो ! अश्वमेध यज्ञका जो फल बतलाया शत्रुओके भयसे भी छुटकारा पाकर सदा सुखका अनुभव जाता है, इस पद्मपुराणके पाठसे उसी फलकी प्राप्ति होती करता है। पदापुराणमें पहला सृष्टिखण्ड, दूसरा है। पुण्यमय अश्वमेध यज्ञ कलियुगमें नहीं होता, अतः भूमिखण्ड, तीसरा स्वर्गखण्ड, चौथा पातालखण्ड और उस समय यह पुराण ही अवमेधके समान फल देनेवाला पाँचवाँ सब पापोंका नाश करनेवाला उत्तरखण्ड है।* है। कलियुगमें मनुष्य प्रायः पापी होते हैं, अतः उन्हें ब्राह्मणो! इन पाँचों खण्डोंको सुननेका अवसर बड़े नरकके समुद्र में गिरना पड़ता है। इसलिये उनको चाहिये भाग्यसे प्राप्त होता है। सुननेपर ये मोक्ष प्रदान करते कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थकि है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
२
॥भूमिखण्ड समाप्त ।
*प्रथम सृष्टिखण्ड हि भूमिखण्ड द्वितीयकम् । तृतीयं स्वर्गखण्डं च पातालं च चतुर्थकम् ॥ (पशम चोत्तर खण्डं सर्वपापप्रणाशनम् । .........
...... ॥ (१२५।४८-४९)
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705
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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
संक्षिप्त पद्मपुराण
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आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
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पश्चात् इस सृष्टिकी कोई भी वस्तु शेष नहीं रह गयी थी। उस समय केवल ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म ही शेष था, जो सबको उत्पन्न करनेवाला है। वह ब्रह्म नित्य, निरञ्जन, शान्त, निर्गुण, सदा ही निर्मल, आनन्दधाम और शुद्धस्वरूप है। संसार -बन्धनसे मुक्त होनेकी अभिलाषा रखनेवाले साधु पुरुष उसीको जाननेकी इच्छा करते हैं। वह ज्ञानस्वरूप होनेके कारण सर्वज्ञ, अनन्त, अजन्मा, अविकारी, अविनाशी, नित्यशुद्ध, अच्युत व्यापक तथा सबसे महान् है। सृष्टिका समय आनेपर उस ब्रह्मने वैकारिक जगत्को अपनेमें लीन जानकर पुनः उसे उत्पन्न करनेका विचार किया। तब ब्रह्मसे प्रधान (मूल प्रकृति ) प्रकट हुआ। प्रधानसे महत्तत्त्वकी उत्पत्ति हुई, जो सात्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है। यह महत्तत्त्व प्रधानके द्वारा सब ओरसे आवृत है। फिर महत्तत्त्वसे वैकारिक (सात्त्विक), तैजस ( राजस) और भूतादिरूप तामस - तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार प्रधानसे महत्तत्त्व आवृत है, उसी प्रकार महत्तत्त्वसे अहंकार भी आवृत है। तत्पश्चात् भूतादि नामक तामस अहंकारने विकृत होकर भूत और तन्मात्राओंकी सृष्टि की।
इन्द्रियाँ तैजस कहलाती हैं—वे राजस अहंकारसे प्रकट हुई हैं। इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता वैकारिक कहे गये हैं— उनकी उत्पत्ति सात्त्विक अहंकारसे हुई है तत्वका विचार करनेवाले विद्वानोंने मनको ग्यारहवीं
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नमामि गोविन्दपदारविन्दं सवेन्दिरानन्दनमुत्तमाढ्यम् । जगजनानां हृदि संनिविष्टं महाजनैकायनमुत्तमोत्तमम् ॥ *
ऋषि बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले रोमहर्षणजी ! आप पुराणोंके विद्वान् तथा परम बुद्धिमान् हैं। आजसे पहले हमलोग आपके मुँहसे पुराणोंकी अनेकों परम पावन कथाएँ सुन चुके हैं तथा इस समय भी भगवान्को कथा वार्तामें ही लगे हैं। tai लिये सबसे महान् धर्म वही है, जिससे उनकी भगवान्मे भक्ति हो । अतः सूतजी ! आप फिर हमें श्रीहरिकी कथा सुनाइये; क्योंकि भगवचर्चाके अतिरिक्त दूसरी कोई बातचीत श्मशानभूमिके समान मानी गयी है। हमने सुना है तीर्थोके रूपमें स्वयं भगवान् विष्णु ही इस भूतलपर विराजमान हैं; इसलिये आप पुण्य प्रदान करनेवाले तीर्थोकि नाम बताइये। साथ ही यह भी कहने की कृपा कीजिये कि यह चराचर जगत् किससे उत्पन्न हुआ हैं, किसके द्वारा इसका पालन होता है तथा प्रलयके समय किसमें यह लीन होता है। जगत्में कौन कौन से पुण्यक्षेत्र हैं ? किन-किन पर्वतोंके प्रति पूज्यभाव रखना चाहिये ? और मनुष्योंके पाप दूर करनेवाली परम पवित्र नदियाँ कौन-कौन-सी है ? महाभाग ! इन सबका आप क्रमशः वर्णन कीजिये ।
सूतजीने कहा- -द्विजवरो! पहले मैं आदि सर्गका वर्णन करता हूँ, जिसके द्वारा षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न सनातन परमात्माका ज्ञान होता है। प्रलयकालके
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* मैं भगवान् विष्णुके उन चरण कमलोको [भक्तिपूर्वक] प्रणाम करता हूँ, जो भगवती लक्ष्मीजीको सदा ही आनन्द प्रदान करनेवाले और उत्तम शोभासे सम्पन्न हैं, जिनका संसारके प्रत्येक जीवके हृदय में निवास है तथा जो महापुरुषोंके एकमात्र आश्रय और श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ हैं।
१. स्वर्गखडसे लेकर आगेका अंश रोमहर्षणजीका सुनाया हुआ है। इसके पहलेका भाग इनके पुत्रने सुनाया था।
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स्वर्गखण्ड ]
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• भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
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इन्द्रिय बताया है। विप्रगण ! आकाश, वायु, तेज, जल कर उस अण्डके भीतर विराजमान हुए।
और पृथ्वी – ये क्रमशः शब्दादि उत्तरोत्तर गुणोंसे युक्त हैं। ये पाँचों भूत पृथक्-पृथक् नाना प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न हैं, किन्तु परस्पर संघटित हुए बिना वे प्रजाकी सृष्टि करनेमें समर्थ न हुए। इसलिये महत्तत्त्वसे लेकर पञ्चभूतपर्यन्त सभी तत्त्व परम पुरुष परमात्माद्वारा अधिष्ठित और प्रधानद्वारा अनुगृहीत होनेके कारण पूर्णरूपसे एकत्वको प्राप्त हुए। इस प्रकार एक दूसरेसे संयुक्त होकर परस्परका आश्रय ले उन्होंने अण्डकी उत्पत्ति की। महाप्राज्ञ महर्षियो ! इस तरह भूतोंसे प्रकट हो क्रमशः वृद्धिको प्राप्त हुआ वह विशाल अण्ड पानीके बुलबुलेकी तरह सब ओरसे समान - गोलाकार दिखायी देने लगा। वह पानीके ऊपर स्थित होकर ब्रह्मा (हिरण्यगर्भ) के रूपमें प्रकट हुए भगवान् विष्णुका उत्तम स्थान बन गया। सम्पूर्ण विश्वके स्वामी अव्यक्त स्वरूप भगवान् विष्णु स्वयं ही ब्रह्माजीका रूप धारण
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३३३
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उस समय मेरु पर्वतने उन महात्मा हिरण्यगर्भके लिये गर्भको ढकनेवाली झिल्लीका काम दिया, अन्य पर्वत जरायु— जेरके स्थानमें थे और समुद्र उसके भीतरका जल था। उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीप आदिके सहित समुद्र, ग्रहों और ताराओंके साथ सम्पूर्ण लोक तथा देवता, असुर और मनुष्योंसहित सारी सृष्टि प्रकट हुई। आदि-अन्तरहित सनातन भगवान् विष्णुकी नाभिसे जो कमल प्रकट हुआ था, वही उनकी इच्छासे सुवर्णमय अण्ड हो गया। परमपुरुष भगवान् श्रीहरि स्वयं ही रजोगुणका आश्रय ले ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट होकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं। वे परमात्मा नारायणदेव ही सृष्टिके समय ब्रह्मा होकर समस्त जगत्की रचना करते हैं, वे ही पालनकी इच्छासे श्रीराम आदिके रूपमें प्रकट हो इसकी रक्षामें तत्पर रहते हैं तथा अन्तमें वे ही इस जगत्का संहार करनेके लिये रुद्रके रूपमें प्रकट हुए हैं। ★ -
भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
सूतजी कहते हैं— महर्षिगण ! अब मैं आपलोगों से परम उत्तम भारतवर्षका वर्णन करूँगा। राजा प्रियमित्र देव, वैवस्वत मनु पृथु इक्ष्वाकु ययाति, अम्बरीष, मान्धाता नहुष, मुचुकुन्द, कुबेर, उशीनर, ऋषभ, पुरूरवा राजा नृग, राजर्षि कुशिक, गाधि, सोम तथा राजर्षि दिलीपको, अन्यान्य बलिष्ठ क्षत्रिय राजाओंको एवं सम्पूर्ण भूतोंको ही यह उत्तम देश भारतवर्ष बहुत ही प्रिय रहा। इस देशमें महेन्द्र, मलय, सह्य शुक्तिमान् ऋक्षवान्, विन्ध्य तथा पारियात्र—ये सात कुल पर्वत हैं। इनके आसपास और भी हजारों पर्वत है। भारतवर्षके लोग जिन विशाल नदियोंका जल पीते हैं, उनके नाम ये हैं- गङ्गा, सिन्धु, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, बाहुदा, शतद्रु (सतलज), चन्द्रभागा, यमुना, दृषद्वती, विपाशा (व्यास), वेत्रवती (बेतवा, कृष्णा, वेणी, इरावती, ( इरावदी), वितस्ता (झेलम), पयोष्णी, देविका, वेदस्मृति, वेदशिरा, त्रिदिवा,
सिन्धुलाकृमि, करीषिणी, चित्रवहा, त्रिसेना, गोमती, चन्दना, कौशिकी (कोसी), हृद्या, नाचिता, रोहितारणी, रहस्या, शतकुम्भा, सरयू, चर्मण्वती, हस्तिसोमा, दिशा, शरावती, भीमरथी, कावेरी, बालुका, तापी (ताप्ती), नीवारा, महिता, सुप्रयोगा, पवित्रा, कृष्णला, वाजिनी, पुरुमालिनी, पूर्वाभिरामा, वीरा, मालावती, पापहारिणी, पलाशिनी, महेन्द्रा, पाटलावती, असिक्री, कुशवीरा, मरुत्वा प्रवरा, मेना, होरा, घृतवती, अनाकती, अनुष्णी, सेव्या, कापी, सदावीरा, अधृष्या, कुशचीरा, रथचित्रा, ज्योतिरथा, विश्वामित्रा, कपिञ्जला, उपेन्द्रा, बहुला, कुवीरा, वैनन्दी, पिञ्जला, वेणा, तुङ्गवेगा, महानदी, विदिशा, कृष्णवेगा, ताम्रा, कपिला, धेनु, सकामा, वेदस्वा, हविः सावा, महापथा, क्षिप्रा (सिप्रा), पिच्छला, भारद्वाजी, कौर्णिकी, शोणा (सोन), चन्द्रमा, अन्तः शिला, ब्रह्ममेध्या, परोक्षा, रोही, जम्बूनदी (जम्मू), सुनासा, तपसा दासी, सामान्या, वरुणा, असी, नीला, धृतिकरी,
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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
मुनिवरो ! अब दक्षिण भारतके जनपदोंका वर्णन किया जाता है। द्रविड (तमिलनाड), केरल (मलावार ), प्राच्य, मूषिक, बालमूषिक, कर्णाटक, महिषक किष्किन्ध, झल्लिक, कुन्तल, सौहृद
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पर्णाशा, मानवी, वृषभा तथा भाषा द्विजवरो! ये तथा नलकानन, कोकुट्टक, चोल, कोण, मणिवालव, सभङ्ग,
और भी बहुत-सी बड़ी-बड़ी नदियाँ है।
कलङ्क, कुकुर, अङ्गार, मारिष ध्वजिनी, उत्सव, संकेत, त्रिगर्भ, माल्यसेनि, व्यूढक, कोरक, प्रोष्ठ, सङ्गवेगघर, विन्द्य, रुलिक, बल्वल, मलर, अपरवर्तक, कालद, चण्डक, कुरट, मुशल, तनवाल, सतीर्थ, पूर्ति, सृञ्जय, अनिदाय, शिवाट तपान, सूतप ऋषिक, विदर्भ ( बरार), तङ्गण और परतङ्गण अब उत्तर एवं अन्य दिशाओंमें रहनेवाले म्लेच्छोंके स्थान बताये जाते हैं— यवन (यूनानी) और काम्बोज – ये बड़े क्रूर म्लेच्छ हैं। कृषृह, पुलट्य, हूण, पारसिक (ईरान) तथा दशमानिक इत्यादि अनेकों जनपद हैं। इनके सिवा क्षत्रियोंके भी कई उपनिवेश हैं वैश्यों और शूद्रोंके भी स्थान हैं। शूरवीर आभीर, दरद तथा काश्मीर जातिके लोग पशुओंके साथ रहते हैं। खाण्डीक, तुषार, पद्माव गिरिगह्वर, आत्रेय, भारद्वाज, स्तनपोषक, द्रोषक और कलिङ्ग – ये किरातोंकी जातियाँ हैं और इनके नामसे भित्र-भित्र जनपद हुए हैं] तोमर, हन्यमान और करभञ्जक आदि अन्य बहुत-से जनपद हैं। यह पूर्व और उत्तरके जनपदोंका वर्णन हुआ। ब्राह्मणो! इस प्रकार संक्षेपसे ही मैंने सब देशोंका परिचय दिया है। इस अध्यायका पाठ और श्रवण त्रिवर्ग, (धर्म, अर्थ और काम) रूप महान् फलको देनेवाला है।
अब जनपदोंका वर्णन करता हूँ, सुनिये। कुरु, पाचाल, शाल्व, मात्रेय, जाङ्गल, शूरसेन (मथुराके आसपासका प्रान्त), पुलिन्द, बौध, माल, सौगन्ध्य, चेदि, मत्स्य (जयपुरके आसपासका भूखण्ड), करूष, भोज, सिन्धु (सिंध), उत्तम, दशार्ण, मेकल, उत्कल, कोशल, नैकपृष्ठ, युगंधर, मद्र, कलिङ्ग, काशि, अपरकाशि, जठर, कुकुर, कुन्ति, अवन्ति (उज्जैनके आसपासका देश), अपरकुन्ति, गोमन्त मल्लक, पुण्ड्र, नृपवाहिक, अश्मक, उत्तर, गोपराष्ट्र, अधिराज्य, कुशट्ट, मल्लराष्ट्र, मालव (मालवा), उपवास्य, वक्रा, वक्रातप, मागध, सद्य, मलज, विदेह ( तिरहुत), विजय, अङ्ग (भागलपुर के आसपासका प्रान्त), वङ्ग (बंगाल), यकृल्लोमा, मल्ल, सुदेष्ण, प्रह्लाद, महिष, शशक, बाह्निक (बलख), वाटधान, आभीर, कालतोयक, अपरान्त, परान्त, पङ्कल, चर्मचण्डक, अटवीशेखर, मेरुभूत, उपावृत्त, अनुपावृत्त, सुराष्ट्र (सूरतके आसपासका देश), (केकय, कुट्ट, माहेय, कक्ष, सामुद्र, निष्कुट, अन्ध, बहु, अन्तर्गिरि, बहिर्गिरि, मलद, सत्वतर, प्रावृषेय, भार्ग, भार्गव, भासुर, शक, निषाद, निषेध, आनर्स (द्वारकाके आसपासका देश), नैर्ऋत पूर्णल, पूतिमत्स्य, कुन्तल, कुशक, तीरग्रह, ईजिक, कल्पकारण, तिलभाग, मसार, मधुमत्त, ककुन्दक काश्मीर, सिन्धुसौवीर, गान्धार (कंधार), दर्शक, अभीसार, कुद्रुत, सौरिल दव, दर्वावात, जामरथ, उरग, बलरट्ट, सुदामा, सुमल्लिक, बन्ध, करीकष, कुलिन्द, गन्धिक, वानायु दश, पार्श्वरोमा कुशबिन्दु कच्छ, गोपालकच्छ, कुरुवर्ण, किरात, बर्बर, सिद्ध, ताम्रलिप्तिक, औइम्लेच्छ, सैरिन्द्र और पर्वतीय। ये सब उत्तर भारतके जनपद बताये गये हैं।
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द्विजवरो ! प्राचीन कालमें राजा युधिष्ठिरके साथ जो देवर्षि नारदका संवाद हुआ था, उसका वर्णन करता हूँ; आपलोग श्रवण करें। महारथी पाण्डवोंके राज्यका अपहरण हो चुका था। वे द्रौपदीके साथ वनमें निवास करते थे। एक दिन उन्हें परम महात्मा देवर्षि नारदजीने दर्शन दिया। पाण्डवोंने उनका स्वागत-सत्कार किया । नारदजी उनकी की हुई पूजा स्वीकार करके युधिष्ठिरसे बोले – 'धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ ! तुम क्या चाहते हो ?' यह सुनकर धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिरने भाइयोंसहित हाथ जोड़ देवतुल्य नारदजीको प्रणाम किया और कहा'महाभाग ! आप सम्पूर्ण लोकोंद्वारा पूजित है। आपके संतुष्ट हो जानेपर मैं अपनेको कृतार्थ मानता हूँ मुझे किसी बातको आवश्यकता नहीं है। मुनिश्रेष्ठ ! जो
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स्वर्गखण्ड ]
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• भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान •
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तीर्थयात्रामें प्रवृत्त होकर समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करता है, उसको क्या फल मिलता है ? ब्रह्मन् ! इस बातको आप पूर्णरूपसे बतानेकी कृपा करें।'
नारदजी बोले – राजन्! पहलेकी बात है, राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप धर्मानुकूल व्रतका नियम लेकर गङ्गाजीके तटपर मुनियोंकी भाँति निवास करते थे। कुछ कालके बाद एक दिन जब महामना दिलीप जप कर रहे थे, उसी समय उन्हें ऋषियोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठजीका दर्शन हुआ। महर्षिको उपस्थित देख राजाने उनका विधिवत् पूजन किया और कहा – 'उत्तम व्रतका पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ ! मैं आपका दास दिलीप हूँ। आज आपका दर्शन पाकर मैं सब पापोंसे मुक्त हो गया।'
वसिष्ठजीने कहा- महाभाग ! तुम धर्मके ज्ञाता हो। तुम्हारे विनय, इन्द्रियसंयम तथा सत्य आदि गुणोंसे मैं सर्वथा संतुष्ट हूँ। बोलो, तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ ?
दिलीप बोले- मुने! आप प्रसन्न हैं, इतनेसे ही मैं अपनेको कृतकृत्य समझता हूँ। तपोधन! जो (तीर्थ यात्राके उद्देश्यसे ) सारी पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करता है, उसको क्या फल मिलता है ? यह मुझे बताइये ।
वसिष्ठजीने कहा - तात! तीथका सेवन करनेसे जो फल मिलता है, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो। तीर्थं ऋषियोंके परम आश्रय है। मैं उनका वर्णन करता हूँ। वास्तवमें तीर्थसेवनका फल उसे ही मिलता है जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह अपने वशमें हों; जो विद्वान्, तपस्वी और कीर्तिमान् हो तथा जिसने दान लेना छोड़ दिया हो। जो संतोषी, नियमपरायण, पवित्र, अहंकारशून्य और उपवास (व्रत) करनेवाला हो; जो अपने आहार और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर चुका हो, जो सब दोषोंसे मुक्त हो तथा जिसमें क्रोधका अभाव हो जो सत्यवादी, दृढप्रतिज्ञ तथा सम्पूर्ण भूतोंके प्रति अपने जैसा भाव रखनेवाला हो, उसीको तीर्थका पूरा फल प्राप्त होता है। राजन् ! दरिद्र मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते; क्योंकि उसमें नाना प्रकारके साधन और
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सामग्रीको आवश्यकता होती है। कहीं कोई राजा या धनवान् पुरुष ही यशका अनुष्ठान कर पाते हैं। इसलिये मैं तुम्हें वह शास्त्रोक्त कर्म बतला रहा हूँ, जिसे दरिद्र मनुष्य भी कर सकते हैं तथा जो पुण्यकी दृष्टिसे यज्ञफलोंकी समानता करनेवाला है; उसे ध्यान देकर सुनो। पुष्कर तीर्थमें जाकर मनुष्य देवाधिदेवके समान हो जाता है। महाराज! दिव्यशक्तिसे सम्पन्न देवता, दैत्य तथा ब्रह्मर्षिगण वहाँ तपस्या करके महान् पुण्यके भागी हुए हैं; जो मनीषी पुरुष मनसे भी पुष्कर तीर्थके सेवनकी इच्छा करता है, उसके सब पाप धुल जाते हैं तथा वह स्वर्गलोकमें पूजित होता है। इस तीर्थ में पितामह ब्रह्माजी सदा प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। महाभाग ! पुष्करमें आकर देवता और ऋषि भी महान् पुण्यसे युक्त हो परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। जो वहाँ स्नान करके पितरों और देवताओंके पूजनमें प्रवृत्त होता है, उसके लिये मनीषी विद्वान् अश्वमेधसे दसगुने पुण्यकी प्राप्ति बतलाते हैं। जो पुष्करके वनमें जाकर एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, वह उसके पुण्यसे ब्रह्मधाममें स्थित अजित लोकोंको प्राप्त होता है। जो सायंकाल और प्रातः कालमें हाथ जोड़कर पुष्कर तीर्थका चिन्तन करता है, वह सब तीथोंमें स्नान करनेका फल प्राप्त करता है। पुष्करमें जाने मात्र से स्त्री या पुरुषके जन्मभरके किये हुए सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओंके आदि हैं, उसी प्रकार पुष्कर भी समस्त तीर्थोका आदि कहलाता है। पुष्करमें नियम और पवित्रतापूर्वक बारह वर्षतक निवास करके मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोंतक अग्रिहोत्रका अनुष्ठान करता है अथवा केवल कार्तिकको पूर्णिमाको पुष्करमें निवास करता है, उसके ये दोनों कर्म समान ही हैं। पहले तो पुष्करमें जाना ही कठिन है। जानेपर भी वहाँ तपस्या करना और भी कठिन है। पुष्करमें दान देना उससे भी कठिन है और सदा वहाँ निवास करना तो बहुत ही मुश्किल है।
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- अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . . [ संक्षिप्त पयपुराण ............... ..............................mmmmmmmmmmmmmmm जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी-सङ्गमकी महिमा
वसिष्ठजी कहते हैं-राजन् ! पृथ्वीको परिक्रमा गोदानका फल मिलता है तथा महादेवजीकी कृपासे आरम्भ करनेवाले मनुष्यको पहले जम्बूमार्गमें प्रवेश शिवगणोंका आधिपत्य प्राप्त होता है। नर्मदा नदीमें करना चाहिये। वह पितरों, देवताओं तथा ऋषियोंद्वारा जाकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करके मनुष्य पूजित तीर्थ है। जम्बूमार्गमें जाकर मनुष्य अश्वमेघ अनिष्टोम यज्ञका फल पाता है। यज्ञका फल प्राप्त करता है और अन्तमें विष्णुलोकको युधिष्ठिर बोले-द्विजश्रेष्ठ नारदजी! मैं पुनः जाता है। जो मनुष्य प्रतिदिन छठे पहरमें एक बार भोजन नर्मदाका माहात्म्य सुनना चाहता हूँ। करते हुए पाँच गततक उस तीर्थमें निवास करता है,, नारदजीने कहा-राजन् ! नर्मदा सब नदियोंमें उसकी कभी दुर्गति नहीं होती तथा वह परम उत्तम श्रेष्ठ है। वह समस्त पापोंका नाश करनेवाली तथा सिद्धिको प्राप्त होता है। जम्बूमार्गसे चलकर स्थावर-जङ्गम सम्पूर्ण भूतोंको तारनेवाली है। सरस्वतीका तुण्डूलिकाश्रमकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ जानेसे जल तीन सप्ताहतक स्रान करनेसे, यमुनाका जल एक मनुष्य दुर्गतिमें नहीं पड़ता तथा स्वर्गलोक उसका सप्ताहतक गोता लगानेसे और गङ्गाजीका जल स्पर्शके सम्मान होता है। राजन् ! जो अगस्त्याश्रममें जाकर समय ही पवित्र करता है; किन्तु नर्मदाका जल देवताओं और पितरोंकी पूजा करता और वहाँ तीन रात दर्शनमात्रसे पवित्र कर देता है। नर्मदा तीनों लोकोंमें उपवास करके रहता है, उसे अप्रिष्टोम यज्ञका फल रमणीय तथा पावन नदी है। महाराज ! देवता, असुर, मिलता है। तथा जो शाक या फलसे जीवन-निर्वाह गन्धर्व और तपोधन ऋषि- ये नर्मदाके तटपर तपस्या करते हुए वहाँ निवास करता है, वह परम उत्तम करके परम सिद्धिको प्राप्त हो चुके हैं। युधिष्ठिर ! वहाँ कार्तिकेयजीके धामको प्राप्त होता है। राजाओंमें श्रेष्ठ स्रान करके शौच-संतोष आदि नियमोंका पालन करते दिलीप ! लक्ष्मीसे सेवित तथा समस्त लोकोद्वारा पूजित हुए जो जितेन्द्रियभावसे एक रात भी उसके तटपर कन्याश्रम तीर्थ धर्मारण्यके नामसे प्रसिद्ध है, वह निवास करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर पुण्यदायक और प्रधान क्षेत्र है; वहाँ पहुँचकर उसमें देता है। जो मनुष्य जनेश्वर तीर्थमें स्रान करके प्रवेश करने मात्रसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। विधिपूर्वक पिण्डदान देता है, उसके पितर महाप्रलयतक जो नियमानुकूल आहार करके शौच-संतोष आदि तृप्त रहते हैं। अमरकण्टक पर्वतके चारों ओर कोटि नियमोका पालन करते हुए वहाँ देवता तथा पितरोंका रुद्रोंकी प्रतिष्ठा हुई है; जो वहाँ सान करता और चन्दन पूजन करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले एवं फूल-माला आदि चढ़ाकर रुद्रकी पूजा करता है, यज्ञका फल पाता है। उस तीर्थकी परिक्रमा करके उसपर रुद्रकोटिस्वरूप भगवान् शिव प्रसन्न होते हैं, ययाति-पतन नामक स्थानको जाना चाहिये। वहाँको इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पर्वतके पश्चिम भागमें यात्रा करनेसे अश्वमेघ यज्ञका फल प्राप्त होता है। - स्वयं भगवान् महेश्वर विराजमान हैं। वहाँ स्नान करके ___तदनन्तर, नियमानुकूल आहार और आचारका पवित्र हो ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए जितेन्द्रियभावसे पालन करते हुए [उज्जैनमें स्थित] महाकाल तीर्थकी शास्त्रीय विधिके अनुसार श्राद्ध करना चाहिये तथा वहीं यात्रा करे । वहाँ कोटितीर्थमें नान करके मनुष्य अश्वमेध तिल और जलसे पितरों तथा देवताओंका तर्पण भी यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँसे धर्मश पुरुषको करना चाहिये। पाण्डुनन्दन | जो ऐसा करता है, उसकी भद्रवट नामक स्थानमें जाना चाहिये, जो भगवान् सातवीं पीढ़ीतकके सभी लोग स्वर्गमें निवास करते हैं। उमापतिका तीर्थ है। वहाँकी यात्रा करनेसे एक हजार राजा युधिष्ठिर ! सरिताओंमें श्रेष्ठ नर्मदाकी लंबाई
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स्वर्गखण्ड] • जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अपरकष्टक पर्वत तथा कावेरी-सङ्गमकी महिमा .
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सौ योजनसे कुछ अधिक सुनी जाती है तथा चौड़ाई दो महाराज ! अमरकण्टक पर्वत सब ओरसे पुण्यमय योजनकी है। अमरकण्टक पर्वतके चारों ओर साठ है। जो चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहणके अवसरपर अमरकरोड़ और साठ हजार तीर्थ हैं। वहाँ रहनेवाला पुरुष कण्टककी यात्रा करता है, उसके लिये मनीषी पुरुष ब्रह्मचर्यका पालन करे, पवित्र रहे, क्रोध और इन्द्रियोंको अश्वमेधसे दसगुना पुण्य बताते हैं। वहाँ महेश्वरका दर्शन काबूमें रखे तथा सब प्रकारकी हिंसाओंसे दूर रहकर सब करनेसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। जो लोग सूर्यप्राणियोंके हित-साधनमें संलग्न रहे। इस प्रकार समस्त ग्रहणके समय समुदायके साथ अमरकण्टक पर्वतकी सदाचारोंका पालन करते हुए क्षेत्रपालो (तीर्थ- यात्रा करते हैं, उन्हें पुण्डरीक यज्ञका सम्पूर्ण फल प्राप्त देवताओं) के दर्शनके लिये यात्रा करनी चाहिये। होता है। उस पर्वतपर ज्वालेश्वर नामक महादेव हैं, वहाँ नर्मदाके दक्षिण-भागमें थोड़ी ही दूरपर एक कपिला स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकको प्राप्त होते हैं तथा नामकी बहुत बड़ी नदी है, जो अपने तटपर उगे हुए जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे पुनः जन्म-मरणके बन्धनमें देवदार एवं अर्जुनके वृक्षोंसे आच्छादित रहती है। वह नहीं पड़ते। मनुष्यके हृदयमें सकाम भाव हो या परम सौभाग्यवती पावन नदी तीनों लोकोमें विख्यात है। निष्काम, वह नर्मदाके शुभ जलमें स्नान करके सब युधिष्ठिर ! उसके तटपर सौ करोड़से अधिक तीर्थ हैं। पापोंसे मुक्त हो जाता है और अन्तमें रुद्रलोकको कपिलाके तीरपर जो वृक्ष कालचक्रके प्रभावसे गिर जाते जाता है। हैं, वे भी नर्मदाके जलसे संयुक्त होनेपर परम गतिको सूतजी कहते हैं-युधिष्ठिर आदि सब महात्मा प्राप्त होते हैं। एक दूसरी भी नदी है, जिसका नाम पुरुषोंने नारदजीसे पूछा-'भगवन् ! सम्पूर्ण लोकोंके विशल्यकरणा है। उस शुभ नदीके किनारे स्नान करनेसे हितके उद्देश्यसे तथा हमलोगोंके ज्ञान एवं पुण्यकी मनुष्य तत्काल शल्यरहित-शोकहीन हो जाता है। वृद्धिके लिये आप [कृपापूर्वक) नर्मदा-कावेरीनर्मदासे मिली हुई विशल्या नामकी नदी सब पापोंका संगमको यथार्थ महिमाका वर्णन कीजिये।' नाश करनेवाली है। राजन् ! जो मनुष्य वहाँ स्रान करके नारदजीने कहा-राजन् ! लोक-विख्यात ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए जितेन्द्रियभावसे एक रात कावेरी नदी जहाँ नर्मदामें मिली है, उसी स्थानपर पहले निवास करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंको तार देता है। कभी सत्यपराक्रमी कुबेर स्नान करके पवित्र हो तपस्या महाराज ! जो उस तीर्थमें उपवास करता है, वह सब करते थे। उन्होंने सौ दिव्य वर्षातक भारी तपस्या की। पापोंसे शुद्ध होकर इन्द्रलोकको जाता है। नर्मदामें स्रान इससे प्रसन्न होकर महादेवजीने उन्हें उत्तम वर प्रदान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। किया। वे बोले-'महान् सत्त्वशाली यक्ष ! तुम अमरकण्टक पर्वतपर जिसकी मृत्यु होती है, वह सौ इच्छानुसार वर माँगो; तुम्हारे मनमे जो अभीष्ट कार्य हो, करोड़ वर्षासे अधिक कालतक इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित उसे बताओ।' होता है। फेन और लहरोंसे सुशोभित नर्मदाका पावन कुबेरने कहा-देवेश्वर ! यदि आप संतुष्ट हैं जल मस्तकपर चढ़ानेयोग्य है; ऐसा करनेसे सब पापोंसे और मुझे वर देना चाहते हैं तो ऐसी कृपा कीजिये कि छुटकारा मिल जाता है। नर्मदा सब प्रकारके पुण्य मैं सब यक्षोंका स्वामी बनें। देनेवाली और ब्रह्महत्याका पाप दूर करनेवाली है। जो कुबेरकी बात सुनकर भगवान् महेश्वर बहुत प्रसन्न नर्मदा-तटपर एक दिन और एक रात उपवास करता है, हुए, वे 'एवमस्तु' कहकर वहीं अन्तर्धान हो गये। वर वह ब्रह्महत्यासे छूट जाता है । पाण्डुनन्दन ! इस प्रकार पाकर कुबेर यक्षपुरी-अलकापुरीमे गये। वहाँ श्रेष्ठ नर्मदा परम पावन एवं रमणीय नदी है। यह महानदी यक्षोंने उनका बड़ा सम्मान किया और उन्हें 'राजा के तीनों लोकोंको पवित्र करती है।
पदपर अभिषिक्त कर दिया। जहाँ कुबेरने तपस्या की थी,
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त... -
• अर्बयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
वहाँ कावेरी-संगमका जल सब पापोंका नाश पुरुष अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करके रुद्रलोकमें करनेवाला है। जो लोग उस संगमको महिमाको नहीं पूजित होता है। गङ्गा और यमुनाके संगममें स्नान जानते, वे बड़े भारी लाभसे वञ्चित रह जाते हैं। अतः करके मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वही फल मनुष्यको सर्वथा प्रयत्न करके वहाँ स्नान करना उसे कावेरी-नर्मदा-संगममें स्नान करनेसे भी मिलता चाहिये। कावेरी और महानदी नर्मदा दोनों ही परम है। राजेन्द्र ! इस प्रकार नर्मदा-कावेरी-संगमकी बड़ी पुण्यदायिनी हैं। महाराज ! वहाँ स्नान करके वृषभध्वज महिमा है। वहाँ सब पापोंका नाश करनेवाला महान् भगवान् शङ्करका पूजन करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुण्यफल प्राप्त होता है।
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नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोका वर्णन नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! नर्मदाके उत्तर वहाँसे पिप्पलेश्वर तीर्थको यात्रा करे, वह सब पापोंका तटपर 'पत्रेश्वर' नामसे विख्यात एक तीर्थ है, जिसका नाश करनेवाला तीर्थ है । वहाँ जानेसे रुद्रलोकमें सम्मानविस्तार चार कोसका है। वह सब पापोंका नाश पूर्वक निवास प्राप्त होता है। इसके बाद विमलेश्वर तीर्थमें करनेवाला उत्तम तीर्थ है। राजन् ! वहाँ स्नान करके जाय; वह बड़ा निर्मल तीर्थ है; उस तीर्थमें मृत्यु होनेपर मनुष्य देवताओंके साथ आनन्दका अनुभव करता है। रुद्रलोककी प्राप्ति होती है। तदनन्तर पुष्करिणीमें जाकर वहाँसे 'गर्जन' नामक तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ सान करना चाहिये; वहाँ स्रान करनेमात्रसे मनुष्य इन्द्रके [रावणका पुत्र] मेघनाद गया था; उसी तीर्थके प्रभावसे आधे सिंहासनका अधिकारी हो जाता है। नर्मदा समस्त उसको 'इन्द्रजित्' नाम प्राप्त हुआ था। वहाँसे 'मेघराव' सरिताओमें श्रेष्ठ है, वह स्थावर-जङ्गम समस्त प्राणियोंका तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ मेघनादने मेषके समान उद्धार कर देती है। मुनि भी इस श्रेष्ठ नदी नर्मदाका स्तवन गर्जना की थी तथा अपने परिकरोंसहित उसने अभीष्ट करते है। यह समस्त लोकोंका हित करनेकी इच्छासे वर प्राप्त किये थे। राजा युधिष्ठिर ! उस स्थानसे भगवान् रुद्रके शरीरसे निकली है । यह सदा सब पापोंका 'ब्रह्मावर्त' नामक तीर्थको जाना चाहिये, जहाँ ब्रह्माजी अपहरण करनेवाली और सब लोगोके द्वारा अभिवन्दित सदा निवास करते हैं। वहाँ सान करनेसे मनुष्य है। देवता, गन्धर्व और अप्सरा--सभी इसकी स्तुति ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
करते रहते हैं-'पुण्यसलिला नर्मदा ! तुम सब नदियोंमें तदनन्तर अङ्गारेश्वर तीर्थमें जाकर नियमित आहार प्रधान हो, तुम्हें नमस्कार है। सागरगामिनी ! तुमको ग्रहण करते हुए नियमपूर्वक रहे। ऐसा करनेवाला मनुष्य प्रणाम है। ऋषिगणोंसे पूजित तथा भगवान् शङ्करके सब पापोंसे शुद्ध हो रुद्रलोकमें जाता है। वहाँसे परम श्रीविग्रहसे प्रकट हुई नर्मदे ! तुम्हें बारंबार नमस्कार है। उत्तम कपिला तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्रान करनेसे सुमुखि ! तुम धर्मको धारण करनेवाली हो, तुम्हें प्रणाम मनुष्यको गोदानका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् है। देवताओंका समुदाय तुम्हारे चरणोंमें मस्तक झुकाता कुण्डलेश्वर नामक उत्तम तीर्थमें जाय, जहाँ भगवान् शङ्कर है, तुम्हें नमस्कार है। देवि! तुम समस्त पवित्र पार्वतीजीके साथ निवास करते हैं। राजेन्द्र ! वहाँ स्रान वस्तुओंको भी परम पावन बनानेवाली हो, सम्पूर्ण संसार करनेसे मनुष्य देवताओंके लिये भी अवध्य हो जाता है। तुम्हारी पूजा करता है; तुम्हें यारंवार नमस्कार है।*
* नमः पुण्यजले आधे नमः सागरगामिनि । नमोऽस्तु ते ऋषिगणैः शंकरदेहनिःसृते ॥ - नमोऽस्तु ते धर्मभृते वरानने नमोऽस्तु ते देवगणैकवन्दिते । नमोऽस्तु तो सर्वपवित्रपावने नमोऽस्तु ते सर्वजगत्सुपूजिते ।
। (१८।१७-१८)
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स्वर्गखण्ड]
• नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोका वर्णन .
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जो मनुष्य प्रतिदिन शुद्धभावसे इस स्तोत्रका पाठ वहाँ सवारी, जूते, छाता, घृतपूर्ण सुवर्णपात्र तथा करता है, वह ब्राह्मण हो तो वेदका विद्वान् होता है, भोजन-सामग्री ब्राह्मणोंको दान करता है, उसका यह क्षत्रिय हो तो युद्धमें विजय प्राप्त करता है, वैश्य हो तो सारा दान कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। [व्यापारमें] लाभ उठाता है और शूद्र हो तो उत्तम राजेन्द्र ! अगस्त्येश्वर तीर्थसे चलकर रविस्तव गतिको प्राप्त होता है। साक्षात् भगवान् शङ्कर भी नर्मदा नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ सान करनेसे नदीका नित्य सेवन करते हैं; अतः इस नदीको परम मनुष्य राजा होता है। नर्मदाके दक्षिण किनारे एक इन्द्रपावन समझना चाहिये। यह ब्रह्महत्याको भी दूर तीर्थ है, जो सर्वत्र प्रसिद्ध है; वहाँ एक रात उपवास करनेवाली है।
करके स्रान करना चाहिये। नानके पश्चात् विधिपूर्वक शूलभद्र नामसे विख्यात एक परम पवित्र तीर्थ है। भगवान् जनार्दनका पूजन करे। ऐसा करनेसे उसे एक वहाँ सान करके भगवान् शिवका पूजन करना चाहिये। हजार गोदानका फल मिलता है तथा अन्तमें वह इससे एक हजार गोदानका फल मिलता है। राजन् ! जो विष्णुलोकको प्राप्त होता है। इसके बाद ऋषितीर्थ में उस तीर्थमें महादेवजीकी पूजा करते हुए तीन राततक जाना चाहिये; वहाँ स्रान करने मात्रसे मनुष्य शिवलोकमें निवास करता है, उसका इस संसारमें फिर जन्म नहीं प्रतिष्ठित होता है। वहीं परम कल्याणमय नारदतीर्थ भी होता। तदनन्तर क्रमशः भीमेश्वर, परम उत्तम नर्मदेश्वर है; वहाँ नहाने मात्रसे एक हजार गोदानका फल मिलता तथा महापुण्यमय आदित्येश्वरकी यात्रा करनी चाहिये। है। तदनन्तर देवतीर्थकी यात्रा करे, जिसे पूर्वकालमें
आदित्येश्वर तीर्थ में नानके पश्चात् घी और मधुसे साक्षात् ब्रह्माजीने उत्पन्न किया था; वहाँ स्नान करनेसे शिवजीका पूजन करना उचित है। मल्लिकेश्वर तीर्थमें मनुष्य ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता है। जाकर उसकी परिक्रमा करनेसे जन्मका पूर्ण फल प्राप्त हो महाराज ! इसके बाद परम उत्तम वामनेश्वर तीर्थम जाता है। वहाँसे वरुणेश्वरमें तथा वरुणेश्वरसे परम उत्तम जाना चाहिये; वहाँके मन्दिरका दर्शन करनेसे ब्रह्मनौराजेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। नौराजेश्वरके पञ्चायतन हत्याका पाप छूट जाता है। वहाँसे मनुष्यको निश्चय ही (पञ्चदेवमन्दिर) का दर्शन करनेसे सब तीर्थीका फल ईशानेश्वरकी यात्रा करनी चाहिये। तत्पश्चात् वटेश्वरमें प्राप्त हो जाता है। राजेन्द्र ! वहाँसे कोटितीर्थकी यात्रा जाकर भगवान् शिवका दर्शन करनेसे जन्म लेनेका सारा करनी चाहिये; वह तीर्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है। वहाँ भगवान् फल मिल जाता है। वहाँसे भीमेश्वर तीर्थ में जाना शिवने करोड़ों दानवोंका वध किया था; इसीलिये उन्हें चाहिये, वह सब प्रकारकी व्याधियोंका नाश करनेवाला कोटीश्वर कहा गया है। उस तीर्थका दर्शन करनेसे मनुष्य है। उस तीर्थमें स्नान मात्र करके मनुष्य सब दुःखोसे सशरीर स्वर्गको चला जाता है। वहाँ त्रयोदशीको छुटकारा पा जाता है। तत्पश्चात् वारणेश्वर नामक उत्तम महादेवजीकी उपासना करके स्रान करने मात्रसे तीर्थकी यात्रा करे, वहाँ स्नान करनेसे भी सब दुःख छूट मनुष्यको सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त हो जाता है। जाते है। उसके बाद सोमतीर्थमें जाकर चन्द्रमाका दर्शन तत्पश्चात् परम शोभायमान और उत्तम तीर्थ करना चाहिये; वहाँ परम भक्तिपूर्वक नान करनेसे मनुष्य अगस्त्येश्वरकी यात्रा करे, वह पापोंका नाश करनेवाला तत्काल दिव्य देह धारण करके शिवलोकको चला जाता है। वहाँ स्नान करके मनुष्यको ब्रह्महत्यासे छुटकारा मिल है और वहाँ भगवान् शिवकी ही भाँति चिरकालतक जाता है। जो कार्तिक मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशी आनन्दका अनुभव करता है। शिवलोकमें वह साठ तिथिको उस तीर्थमें इन्द्रियसंयमपूर्वक एकाग्रचित्त हो हजार वर्षातक सम्मानपूर्वक निवास करता है। वहाँसे घृतसे भगवान् शिवको स्नान कराता है, वह इक्कीस परम उत्तम पिङ्गलेश्वर तीर्थको जाय। वहाँ एक पीढ़ियोंतक शिव-धामकी प्राप्तिसे वञ्चित नहीं होता। जो दिन-रातके उपवाससे त्रिरात्र-व्रतका फल मिलता है। संपापु० १२
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अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
राजन् ! जो उस तीर्थमें कपिला गौका दान करता है, वह जाना चाहिये । वहाँ नान करनेसे मनुष्य गणपति-पदको उस गौके तथा उससे होनेवाले गोवंशके शरीरमे जितने प्राप्त होता है। तत्पश्चात् स्कन्दतीर्थकी यात्रा करे। वह रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षातक रुद्रलोकमें सम्मान- सब पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करने मात्रसे पूर्वक रहता है।
जन्मभरका किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। पुनः तदनन्तर नन्दि-तीर्थमें जाकर वहाँ स्रान करे; इससे वहाँके आङ्गिरस तीर्थमें जाकर स्नान करे, इससे एक उसपर नन्दीश्वर प्रसन्न होते है और वह सोमलोकमें हजार गोदानका फल मिलता है तथा रुद्रलोकमें सम्मान सम्मानपूर्वक निवास करता है। इसके बाद व्यासतीर्थकी प्राप्त होता है। आङ्गिरस तीर्थसे लागल तीर्थमें जाना यात्रा करे। व्यासतीर्थ एक तपोवनके रूपमें है। चाहिये। वह भी सब पापोंका नाश करनेवाला है। पूर्वकालमें वहाँ महानदी नर्मदाको व्यासजीके भयसे महाराज ! वहाँ जाकर यदि मनुष्य स्रान करे तो सात लौटना पड़ा था । व्यासजीने हुंकार किया, जिससे नर्मदा जन्मके किये हुए पापोंसे छुटकारा पा जाता है-इसमें उनके स्थानसे दक्षिण दिशाकी ओर होकर बहने लगी। तनिक भी सन्देह नहीं है। वहाँसे वटेश्वर तीर्थ और राजन् ! जो उस तीर्थको परिक्रमा करता है, उसपर सर्वतीर्थकी यात्रा करे । सर्वतीर्थ अत्युत्तम तीर्थ है। वहाँ व्यासजी संतुष्ट होते और उसे मनोवाञ्छित फल प्रदान नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। उसके करते हैं। जो मनुष्य परम तेजस्वी भगवान् व्यासको बाद सङ्गमेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। यह सब पापोंका प्रतिमाको वेदीसहित सूत्रसे आवेष्टित करता है, वह अपहरण करनेवाला उत्तम तीर्थ है। वहाँसे भद्रतीर्थ में शङ्करजीकी भाँति अनन्त कालतक शिवलोकमें विहार जाकर जो मनुष्य दान करता है, उसका वह सारा दान करता है । इसके बाद एरण्डीतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, कोटिगुना अधिक हो जाता है। वह एक उत्तम तीर्थ है। वहाँ नर्मदा-एरण्डी-संगमके तत्पश्चात् अङ्गारेश्वर तीर्थमे जाकर स्नान करे। वहाँ जलमें स्नान करनेसे मनुष्य सब पातकोंसे मुक्त हो जाता नहानेमात्रसे मनुष्य रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है, जो है। एरण्डी नदी तीनों लोकोंमें विख्यात और सब पापोंका अङ्गारक-चतुर्थीको वहाँ स्रान करता है, वह भगवान् नाश करनेवाली है। आश्विन मासमें शुक्लपक्षकी अष्टमी विष्णुके शासनमें रहकर अनन्त कालतक आनन्दका तिथिको वहाँ पवित्र भावसे स्रान करके उपवास अनुभव करता है। अयोनि-सङ्गम-तीर्थमें स्नान करनेसे करनेवाला मनुष्य यदि एक ब्राह्मणको भी भोजन करा दे मनुष्य गर्भमें नहीं आता । जो पाण्डवेश्वर तीर्थमें जाकर तो उसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल प्राप्त वहाँ स्नान करता है, वह अनन्त कालतक सुखी तथा होता है। जो मनुष्य भक्तिभावसे युक्त होकर नर्मदा- देवता और असुरोंके लिये अवध्य होता है। उत्तरायण एरण्डी-संगममें स्नान करता है अथवा मस्तकपर आनेपर कम्बोजकेश्वर तीर्थमें जाकर स्नान करे। ऐसा नर्मदेश्वरकी मूर्ति रखकर नर्मदाके जलसे मिले हुए करनेसे मनुष्य जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वही उसे एरण्डीके जलमें गोता लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त प्राप्त हो जाती है। तदनन्तर चन्द्रभागामें जाकर स्रान हो जाता है। राजन् ! जो उस तीर्थकी परिक्रमा करता है, करे । वहाँ नहानेमानसे मनुष्य सोमलोकमें प्रतिष्ठित होता उसके द्वारा सात द्वीपोंसे युक्त समूची पृथ्वीकी परिक्रमा है। इसके बाद शक्रतीर्थकी यात्रा करे। वह सर्वत्र हो जाती है।
विख्यात, देवराज इन्द्रद्वारा सम्मानित तथा सम्पूर्ण - तदनन्तर सुवर्णतिलक नामक तीर्थमें स्रान करके देवताओंसे भी अभिवन्दित है। जो मनुष्य वहाँ स्नान सुवर्ण दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष सोनेके विमानपर करके सुवर्ण दान करता है अथवा नीले रंगका साँड़ बैठकर रुद्रलोकमें जाता और सम्मानपूर्वक वहाँ निवास छोड़ता है, वह उस साँड़के तथा उससे उत्पन्न होनेवाले करता है। उसके बाद नर्मदा और इक्षुनदीके सङ्गममें गोवंशके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षातक
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स्वर्गखण्ड ]
• नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोका वर्णन .
भगवान् शिवके धाममें निवास करता है। चाहिये। माघकृष्ण चतुर्दशीको जो वहाँ स्नान करता और
राजेन्द्र ! शक्रतीर्थसे कपिलातीर्थकी यात्रा करनी दिनमें उपवास करके रातमें भोजन करता है, उसे चाहिये। वह बड़ा ही उत्तम तीर्थ है। जो वहाँ नानके गर्भवासकी पीड़ा नहीं भोगनी पड़ती। पश्चात् कपिला गौका दान करता है, उसे सम्पूर्ण पृथ्वीके तदनन्तर ! सोमतीर्थमें जाकर स्रान करे। वहाँ दानका फल प्राप्त होता है। नर्मदेश्वर नामक तीर्थ सबसे गोता लगाने मात्रसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता श्रेष्ठ है। ऐसा तीर्थ आजतक न हुआ है न होगा। वहाँ है। महाराज ! जो उस तीर्थमें चान्द्रायण व्रत करता है, स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है तथा वह सब पापोंसे शुद्ध होकर सोमलोकमें जाता है। मनुष्य इस पृथ्वीपर सर्वत्र प्रसिद्ध राजाके रूपमें जन्म सोमतीर्थसे स्तम्भतीर्थमें जाकर स्नान करे । ऐसा करनेसे ग्रहण करता है। वह सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न मनुष्य सोमलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद तथा समस्त व्याधियोंसे रहित होता है। नर्मदाके उत्तर विष्णुतीर्थकी यात्रा करे । वह बहुत ही उत्तम तीर्थ है और तटपर एक बहुत ही सुन्दर तथा रमणीय तीर्थ है, उसका योधनीपुरके नामसे विख्यात है। वहाँ भगवान् वासुदेवने नाम है-आदित्यायतन । उसे साक्षात् भगवान् शङ्करने करोड़ों असुरोंके साथ युद्ध किया था। युद्धभूमिमें उस प्रकट किया है। वहाँ स्नान करके यथाशक्ति दिया हुआ तीर्थकी उत्पत्ति हुई है। वहाँ स्रान करनेसे भगवान् विष्णु दान उस तीर्थक प्रभावसे अक्षय हो जाता है। दरिद्र, प्रसन्न होते हैं। जो वहाँ एक दिन-रात उपवास करता है, रोगी तथा पापी मनुष्य भी वहाँ स्रान करके सब पापोंसे उसका ब्रह्महत्या-जैसा पाप भी दूर हो जाता है। तत्पश्चात् मुक्त होते और भगवान् सूर्यके लोकमें जाते हैं। वहाँसे तापसेश्वर नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये; वह मासेश्वर तीर्थमें जाकर स्रान करना चाहिये। वहाँके अमोहक तीर्थके नामसे विख्यात है। वहाँ पितरोका जलमें डुबकी लगाने मात्रसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है तर्पण तथा पूर्णिमा और अमावास्याको विधिपूर्वक श्राद्ध तथा जबतक चौदह इन्द्रोंकी आयु व्यतीत नहीं होती, करना चाहिये। वहाँ स्रानके पश्चात् पितरोंको पिण्डदान तबतक मनुष्य स्वर्गलोकमें निवास करता है। तदनन्तर करना आवश्यक है। उस तीर्थमे जलके भीतर हाथीके मासेश्वर तीर्थके पास ही जो नागेश्वर नामका तपोवन है, समान आकारवाली बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं। उनके ऊपर उसमें निवास करे और वहाँ एकाग्रचित्त हो नान करके विशेषतः वैशाख मासमें पिण्डदान करना चाहिये। ऐसा पवित्र हो जाय। जो ऐसा करता है, वह अनन्त कालतक करनेसे जबतक यह पृथ्वी कायम रहती है, तबतक नाग-कन्याओंके साथ विहार करता है। तत्पश्चात् पितरोंको पूर्ण तृप्ति बनी रहती है। महाराज ! वहाँसे कुबेरभवन नामक तीर्थकी यात्रा करे। वहाँसे कालेश्वर सिद्धेश्वर नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्रान नामक उत्तम तीर्थमें जाय, जहाँ महादेवजीने कुबेरको वर करनेसे मनुष्य गणेशजीके निकट जाता है। उस तीर्थमे देकर संतुष्ट किया था। महाराज ! वहाँ स्नान करनेसे जहाँ जनार्दन नामसे प्रसिद्ध लिङ्ग है, वहाँ स्नान करनेसे सब प्रकारकी सम्पत्ति प्राप्त होती है। उसके बाद पश्चिम विष्णुलोकमें प्रतिष्ठा होती है। सिद्धेश्वरमें अन्धोन तीर्थके दिशाको ओर मारुतालय नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे समीप स्नान, दान, ब्राह्मण-भोजन तथा पिण्डदान करना
और वहाँ स्रान करके पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर उचित है। उसके आधे योजनके भीतर जिसकी मृत्यु बुद्धिमान् पुरुष यथाशक्ति सुवर्ण और अनका दान करे। होती है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है। अन्धोनमें विधिपूर्वक ऐसा करनेसे वह पुष्पक विमानके द्वारा वायुलोकमें जाता पिण्डदान देनेसे पितरोंको तबतक तृप्ति बनी रहती है, है। युधिष्ठिर ! माघ मासमें यमतीर्थकी यात्रा करनी जबतक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता है। उत्तरायण प्राप्त
१. यह सोमतीर्थ दूसरा है। पहले जिसका वर्णन आया है, वह इससे भिन्न है।
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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होनेपर जो स्त्री या पुरुष वहाँ स्नान करते और पवित्रभावसे भगवान् सिद्धेश्वरके मन्दिरमें रहकर प्रातः काल उनकी पूजा करते हैं, उन्हें सत्पुरुषोंकी गति प्राप्त होती है। वैसी गति सम्पूर्ण महायज्ञोंके अनुष्ठानसे भी दुर्लभ है। नारदजी कहते हैं— युधिष्ठिर ! तदनन्तर, भक्तिपूर्वक भार्गवेश्वर तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। पाण्डुनन्दन ! अब शुक्रतीर्थकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग श्रवण करो। एक समयकी बात है, हिमालयके रमणीय शिखरपर भगवान् शङ्कर अपनी पत्नी उमा तथा पार्षदगणोंके साथ बैठे थे। उस समय मार्कण्डेयजीने उनसे पूछा - 'देवदेव महादेव! मैं संसारके भयसे डरा हुआ हूँ। आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे सुख प्राप्त हो सके। महेश्वर ! जो तीर्थ सम्पूर्ण तीर्थोंमें श्रेष्ठ हो, उसका मुझे परिचय दीजिये ।
भगवान् शिव बोले- बह्मन् ! तुम महान् पण्डित और सम्पूर्ण शास्त्रोंमें कुशल हो; मेरी बात सुनो। दिनमें या रातमें- किसी भी समय शुक्लतीर्थका सेवन किया जाय तो वह महान् फलदायक होता है। उसके दर्शन और स्पर्शसे तथा वहाँ स्नान, ध्यान, तपस्या, होम एवं उपवास करनेसे शुक्रतीर्थ महान् फलका साधक होता है। नर्मदा नदीके तटपर स्थित शुक्लतीर्थ महान् पुण्यदायक है। चाणिक्य नामके राजर्षिने वहीं सिद्धि प्राप्त की थी। यह क्षेत्र चार कोसके घेरेमें प्रकट हुआ है। शुक्लतीर्थ परम पुण्यमय तथा सब पापोका नाशक है। वहाँके वृक्षोंकी शिखाका भी दर्शन हो जाय तो ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। मुनिश्रेष्ठ ! इसीलिये मैं यहाँ निवास करता हूँ। परम निर्मल वैशाख मासके कृष्ण पक्षकी चतुर्दशीको तो मैं कैलाससे भी निकलकर यहाँ आ जाता हूँ। जैसे धोबीके द्वारा जलसे धोया हुआ वस्त्र सफेद हो जाता है, उसी प्रकार शुक्रतीर्थ भी जन्मभरके सञ्चित पापको दूर कर देता है। मुनिवर मार्कण्डेय! वहाँका स्नान और दान अत्यन्त पुण्यदायक है। शुक्रतीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न तो हुआ है और न होगा ही।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
मनुष्य अपनी पूर्वावस्थामें जो-जो पाप किये होता है. उन्हें वह शुक्रतीर्थमें एक दिन रातके उपवाससे नष्ट कर डालता है। वहाँ मेरे निमित्त दान देनेसे जो पुण्य होता है, वह सैकड़ों यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी नहीं हो सकता । जो मनुष्य कार्तिक मासके कृष्णपक्षकी चतुदर्शीको वहाँ उपवास करके घीसे मुझे खान कराता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंके साथ मेरे लोकमें रहकर कभी वहाँसे भ्रष्ट नहीं होता । शुकतीर्थ अत्यन्त श्रेष्ठ है। ऋषि और सिद्धगण उसका सेवन करते हैं। वहाँ खान करनेसे पुनर्जन्म नहीं होता। जिस दिन उत्तरायण या दक्षिणायनका प्रारम्भ हो, चतुर्दशी हो, संक्रान्ति हो अथवा विषुव नामक योग हो, उस दिन स्नान करके उपवासपूर्वक मनको वशमें रखकर समाहितचित्त हो यथाशक्ति वहाँ दान दे तो भगवान् विष्णु तथा हम प्रसन्न होते हैं। शुकतीर्थके प्रभावसे वह सब दान अक्षय पुण्यका देनेवाला होता है जो अनाथ, दुर्दशाग्रस्त अथवा सनाथ ब्राह्मणका भी उस तीर्थमें विवाह कराता है, उस ब्राह्मणके तथा उसकी संतानोंके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होता है।
नारदजी कहते हैं— राजा युधिष्ठिर ! शुरूतीर्थसे गोतीर्थमें जाना चाहिये। उसका दर्शन करने मात्रसे मनुष्य पापरहित हो जाता है। वहाँसे कपिलातीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वह एक उत्तम तीर्थ है। राजन् ! वहाँ स्नान करके मानव सहस्र गो-दानका फल प्राप्त करता है। ज्येष्ठ मास आनेपर विशेषतः चतुर्दशी तिथिको उस तीर्थमें उपवास करके जो मनुष्य भक्तिपूर्वक घीका दीपक जलाता; घृतसे भगवान् शङ्करको स्नान कराता, घीसहित श्रीफलका दान करता तथा अन्तमें प्रदक्षिणा करके घण्टा और आभूषणोंके सहित कपिला गौको दानमें देता है, वह साक्षात् भगवान् शिवके समान होता है तथा इस लोकमें पुनः जन्म नहीं लेता।
राजेन्द्र ! वहाँसे परम उत्तम ऋषितीर्थकी यात्रा करे, उस तीर्थके प्रभावसे द्विज पापमुक्त हो जाता है। ऋषितीर्थसे गणेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। वह बहुत
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स्वर्गखण्ड]
• नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोका वर्णन .
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उत्तम तीर्थ है। श्रावण मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको बैठकर ब्रह्मलोकमें जाता है। तदनन्तर धौतपाप नामक वहाँ स्रान करनेमात्रसे मनुष्य रुद्रलोकमें सम्मानित होता तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे ब्रह्महत्या दूर है। वहाँ पितरोंका तर्पण करनेपर तीनों ऋणोंसे छुटकारा होती है। इसके बाद हिरण्यद्वीप नामसे विख्यात तीर्थमें मिल जाता है। गयेश्वरके पास ही गङ्गावदन नामक उत्तम जाय । वह सब पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान तीर्थ है; वहाँ निष्काम या सकामभावसे भी स्नान करनेसे मनुष्य धनी तथा रूपवान् होता है। वहाँसे करनेवाला मानव जन्मभरके पापोंसे मुक्त हो जाता कनखलको यात्रा करे। वह बहुत बड़ा तीर्थ है। वहाँ है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पर्वके दिन वहाँ गरुड़ने तपस्या की थी। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, सदा स्नान करना चाहिये। उस तीर्थमें पितरोंका तर्पण उसकी रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा होती है। तदनन्तर करनेपर मनुष्य तीनों ऋणोंसे मुक्त होता है। उसके पश्चिम सिद्धजनार्दन तीर्थकी यात्रा करे । वहाँ परमेश्वर श्रीविष्णु और थोड़ी ही दूरपर दशाश्वमेधिक तीर्थ है; वहाँ भादोंके वाराहरूप धारण करके प्रकट हुए थे। इसीलिये उसे महीने में एक रात उपवास करके जो अमावास्याको सान वाराहतीर्थ भी कहते हैं। उस तीर्थमें विशेषतः द्वादशीको करता है, वह भगवान् शङ्करके धामको जाता है। वहाँ स्नान करनेसे विष्णुलोककी प्राप्ति होती है। भी पर्वके दिनोंमें सदा ही स्नान करना चाहिये। उस राजेन्द्र ! तदनन्तर देवतीर्थमें जाना चाहिये, जो तीर्थमें पितरोका तर्पण करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त सम्पूर्ण देवताओद्वारा अभिवन्दित है। वहाँ स्रान करके होता है।
मनुष्य देवताओंके साथ आनन्द भोगता है। तत्पश्चात् - दशाश्वमेधसे पश्चिम भृगुतीर्थ है, जहाँ ब्राह्मणश्रेष्ठ शिखितीर्थकी यात्रा करे, यह बहुत ही उत्तम तीर्थ है। भृगुने एक हजार दिव्य वर्षातक भगवान् शङ्करकी वहाँ जो कुछ दान किया जाता है, वह सब-का-सब उपासना की थी। तभीसे ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता और कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। जो किन्नर भृगुतीर्थका सेवन करते हैं। यह वही स्थान है, कृष्णपक्षमें अमावास्याको वहाँ स्नान करता और एक जहाँ भगवान् महेश्वर भृगुजीपर प्रसन्न हुए थे। उस ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, उसे कोटि ब्राह्मणों के तीर्थका दर्शन होनेपर तत्काल पापोंसे छुटकारा मिल भोजन करानेका फल प्राप्त होता है। जाता है। जिन प्राणियोंकी वहाँ मृत्यु होती है, उन्हें राजा युधिष्ठिर ! तदनन्तर, नर्मदेश्वर तीर्थकी यात्रा गुह्यातिगुह्य गतिकी प्राप्ति होती है-इसमें तनिक भी करनी चाहिये । वह भी उत्तम तीर्थ है। वहाँ स्नान करके सन्देह नहीं है। यह क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत तथा सम्पूर्ण मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करके मनुष्य पितामह-तीर्थमें जाना चाहिये, जिसे पूर्वकालमें साक्षात् स्वर्गको जाते हैं; तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर ब्रह्माजीने उत्पन्न किया था। मनुष्यको उचित है कि वहाँ संसारमें जन्म नहीं लेते-मुक्त हो जाते हैं। उस तीर्थ में स्नान करके भक्तिपूर्वक पितरोंको पिण्डदान दे तथा तिल अन्न, सुवर्ण, जूता और यथाशक्ति भोजन देना चाहिये। और कुशमिश्रित जलसे पितरोंका तर्पण करे। उस इसका पुण्य अक्षय होता है। जो सूर्यग्रहणके समय वहाँ तीर्थके प्रभावसे वह सब कुछ अक्षय हो जाता है। जो स्नान करके इच्छानुसार दान करता है, उसके तीर्थस्नान सावित्री-तीर्थमें जाकर स्नान करता है, वह सब पापोंको
और दानका पुण्य अक्षय होता है। जो मनुष्य एक बार धोकर ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता है। वहाँसे मानस भृगुतीर्थका माहात्म्य श्रवण कर लेता है, वह सब पापोंसे नामक उत्तम तीर्थको यात्रा करनी चाहिये। उस तीर्थमें मुक्त होकर रुद्रलोकमें जाता है। राजेन्द्र ! वहाँसे परम स्नान करके मनुष्य रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। उत्तम गौतमेश्वर तीर्थको यात्रा करनी चाहिये। जो मनुष्य तत्पश्चात् क्रतुतीर्थको यात्रा करनी चाहिये । वह बहुत ही वहाँ नहाकर उपवास करता है, वह सुवर्णमय विमानपर उत्तम, तीनों लोकोंमें विख्यात और सम्पूर्ण पापोका नाश
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. अर्थयस्व बीकेशं यदीच्छमि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्यपुराण
करनेवाला तीर्थ है। इसके बाद स्वर्गबिन्दु नामसे प्रसिद्ध आहारपर भी संयम रखता है, वह उस तीर्थके प्रभावसे तीर्थमें जाना उचित है । वहाँ स्रान करनेसे मनुष्यको कभी ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता है। जो सागरेश्वरका दर्शन दुर्गति नहीं देखनी पड़ती । वहाँसे भारभूत नामक तीर्थको करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें स्नान करनेका फल मिल यात्रा करे और वहाँ पहुँचकर उपवासपूर्वक भगवान् जाता है। केशिनी-तीर्थसे एक योजनके भीतर समुद्रके विरूपाक्षकी पूजा करे। ऐसा करनेसे वह रुद्रलोकमें 8वरमें साक्षात् भगवान् शिव विराजमान हैं। उनको सम्मानित होता है। राजन् ! जो उस तीर्थ उपवास करता देखनेसे सब तीर्थोके दर्शनका फल प्राप्त हो जाता है तथा है, वह पुनः गर्भ में नहीं आता। वहाँसे परम उत्तम अटवी दर्शन करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो रुद्रलोकमें तीर्थमें जाय । वहाँ स्रान करके मनुष्य इन्द्रका आधा जाता है। महाराज ! अमरकण्टकसे लेकर नर्मदा और सिंहासन प्राप्त करता है। तदनन्तर, सब पापोंका नाश समुद्रके सङ्गमतक जितनी दूरी है, उसके भीतर दस करोड़ करनेवाले शङ्गतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ सान करनेमात्रसे तीर्थं विद्यमान है। एक तीर्थसे दूसरे तीर्थको जानेके जो निश्चय ही गणेशपदकी प्राप्ति होती है। पश्चिम-समुद्रके मार्ग हैं, उनका करोड़ों ऋषियोंने सेवन किया है। साथ जो नर्मदाका सङ्गम है, वह तो मुक्तिका दरवाजा ही अग्निहोत्री, दिव्यज्ञान-सम्पत्र तथा ज्ञानी-सब प्रकारके खोल देता है। वहाँ देवता, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और मनुष्योंने तीर्थयात्राएँ की है। इससे तीर्थयात्रा मनोवाञ्छित चारण तीनों सन्ध्याओंके समय उपस्थित होकर फलको देनेवाली मानी गयी है। पाण्डुनन्दन ! जो पुरुष देवताओंके स्वामी भगवान् विमलेश्वरकी आराधना करते प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस अध्यायका पाठ या श्रवण करता हैं। विमलेश्वरसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न हुआ है न है, वह समस्त तीर्थोंमें स्नानके पुण्यका भागी होता है। होगा। जो लोग वहाँ उपवास करके विमलेश्वरका दर्शन साथ ही नर्मदा उसके ऊपर सदा प्रसन्न रहती है। इतना ही करते हैं, वे सब पापोंसे शुद्ध हो रुद्रलोकमें जाते हैं। नहीं, भगवान् रुद्र तथा महामुनि मार्कण्डेयजी भी उसके
राजेन्द्र ! वहाँसे परम उत्तम केशिनी-तीर्थकी यात्रा ऊपर प्रसन्न होते हैं। जो तीनों सन्ध्याओंके समय इस करनी चाहिये। जो मनुष्य वहाँ स्रान करके एक रात प्रसङ्गका पाठ करता है, उसे कभी नरकका दर्शन नहीं उपवास करता है तथा मन और इन्द्रियोंको वशमें करके होता तथा वह किसी कुत्सित योनिमें भी नहीं पड़ता।
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विविध तीर्थोकी महिमाका वर्णन
युधिष्ठिर बोले-नारदजी ! महर्षि वसिष्ठके वहाँ साक्षात् अग्निदेव नित्य निवास करते हैं। उस श्रेष्ठ बताये हुए अन्यान्य तीर्थोंका, जिनका नाम श्रवण करनेसे तीर्थमें शुद्ध एवं एकाग्रचित्त होकर स्रान करनेसे मानव ही पाप नष्ट हो जाते हैं, मुझसे वर्णन कीजिये। नारदजीने अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञका फल प्राप्त करता है। कहा-'धर्मज्ञ युधिष्ठिर ! हिमालयके पुत्र अर्बुद उसके बाद सरस्वती और समुद्रके सङ्गममें जाकर स्रान पर्वतकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें पृथ्वीमें करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता और स्वर्गछेद था। वहाँ महर्षि वसिष्ठका आश्रम है, जो तीनों लोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो वरुण देवताके उस तीर्थमें लोकोंमें विख्यात है। वहाँ एक रात निवास करनेसे स्नान करके एकाग्रचित्त हो तीन राततक वहाँ निवास सहस्र गोदानका फल मिलता है। ब्रह्मचर्यके पालन- तथा देवता और पितरोंका तर्पण करता है, वह चन्द्रमाके पूर्वक पिङ्गातीर्थमें आचमन करनेसे कपिला जातिकी सौ समान कान्तिमान् होता और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त गौओके दानका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् करता है। प्रभासक्षेत्रमें जाना चाहिये। वह विश्वविख्यात तीर्थ है। भरतश्रेष्ठ ! वहाँसे वरदान नामक तीर्थकी यात्रा
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स्वर्गखण्ड ]
• विविध तीथोंकी महिमाका वर्णन
करनी चाहिये। वरदानमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल प्राप्त करता है। तदनन्तर नियमपूर्वक रहकर नियमित आहारका सेवन करते हुए द्वारकापुरीमें जाना चाहिये। उस तीर्थमें आज भी कमलके चिह्नसे चिह्नित मुद्राएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यह एक अद्भुत बात है। वहाँकै कमलदलोंमें त्रिशूलके चिह्न दिखायी देते हैं। वहाँ महादेवजीका निवास है। जो समुद्र और सिन्धु नदीके संगमपर जाकर वरुण तीर्थमें नहाता और एकाग्रचित्त हो देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करता है, वह अपने तेजसे देदीप्यमान हो वरुणलोकमें जाता है। युधिष्ठिर! मनीषी पुरुष कहते हैं कि भगवान् शङ्कुकर्णेश्वरकी पूजा करनेसे दस अश्वमेधोंका फल होता है । । शङ्कुकर्णेश्वर तीर्थको प्रदक्षिणा करके तीनों लोकोंमें विख्यात तिमि नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वह सब पापको दूर करनेवाला तीर्थ है। वहाँ स्नान करके देवताओं सहित रुद्रकी पूजा करनेसे मनुष्य जन्मभरके किये हुए पापोंको नष्ट कर डालता है। धर्मज्ञ ! तदनन्तर, सबके द्वारा प्रशंसित वसुधारा तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ जानेमात्रसे ही अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। कुरुश्रेष्ठ ! जो मानव वहाँ स्नान करके एकाग्रचित्त हो देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करता है, वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहाँ वसुओंका एक दूसरा तीर्थ भी है, जहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य वसुओंका प्रिय होता है। तथा ब्रह्मतुङ्ग नामक तीर्थमें जाकर पवित्र, शुद्धचित्त पुण्यात्मा तथा रजोगुणरहित पुरुष ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वहीं रेणुकाका भी तीर्थ है, जिसका देवता भी सेवन करते हैं। वहाँ स्नान करके ब्राह्मण चन्द्रमाकी भाँति निर्मल होता है।
तदनन्तर, पञ्चनद-तीर्थमें जाकर नियमित आहार ग्रहण करते हुए नियमपूर्वक रहना चाहिये। इससे पञ्चयज्ञोंके अनुष्ठानका फल प्राप्त होता है। भरतश्रेष्ठ तत्पश्चात् भीमा नदीके उत्तम स्थानपर जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य कभी गर्भमें नहीं आता। तथा एक लाख गोदानोंका फल प्राप्त करता है। गिरिकुञ्ज नामक
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तीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर पितामहको नमस्कार करनेसे सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त होता है। उसके बाद परम उत्तम विमलतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ आज भी सोने और चाँदी जैसे मत्स्य दिखायी देते हैं। नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करनेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है और मनुष्य सब पापोंसे शुद्ध हो परम गतिको प्राप्त होता है।
काश्मीरमें जो वितस्ता नामक तीर्थ है, वह नागराज तक्षकका भवन है। वह तीर्थ समस्त पापको दूर करनेवाला है। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, वह निश्चय ही वाजपेय यज्ञका फल पाता है। उसका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है तथा वह परम उत्तम गतिको प्राप्त होता है। वहाँसे मलद नामक तीर्थको यात्रा करे। राजन् ! वहाँ सायं सन्ध्याके समय विधिपूर्वक आचमन करके जो अग्निदेवको यथाशक्ति चरु निवेदन करता है तथा पितरोंके निमित्त दान देता है, उसका वह दान आदि अक्षय हो जाता है - ऐसा विद्वान् पुरुषोंका कथन है। वहाँ अप्रिको दिया हुआ चरु एक लाख गोदान, एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा एक सौ राजसूय यज्ञोंसे भी श्रेष्ठ
है
धर्मके ज्ञाता युधिष्ठिर वहाँसे दीर्घसत्र नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ जानेमात्रसे मानव राजसूय और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। शशयान - तीर्थ बहुत ही दुर्लभ है। उस तीर्थमें प्रतिवर्ष कार्तिकी पूर्णिमाको लोग सरस्वती नदीमें स्नान करते हैं। जो बहाँ स्नान करता है, वह साक्षात् शिवकी भाँति कान्तिमान् होता है; साथ ही उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। कुरुनन्दन। जो कुमारकोटि नामक तीर्थमें जाकर नियमपूर्वक स्नान करता और देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें संलग्न होता है, उसे दस हजार गोदानका फल मिलता है तथा वह अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। महाराज ! वहाँसे एकाग्रचित्त होकर रुद्रकोटि तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें करोड़ ऋषियोंने भगवान् शिक्के दर्शनकी इच्छासे बड़े हर्षके साथ ध्यान लगाया था। वहाँ स्नान करके पवित्र हुआ मनुष्य अश्वमेध
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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यज्ञका फल पाता और अपने कुलका भी उद्धार करता शरीरकी शुद्धि होती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। है। तदनन्तर लोकविख्यात सङ्गम-तीर्थमें जाना चाहिये तथा जिसका शरीर शुद्ध हो जाता है, वह कल्याणमय
और वहाँ सरस्वती नदीमें परम पुण्यमय भगवान् उत्तम लोकोंको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् लोकोद्धार नामक जनार्दनकी उपासना करनी चाहिये। उस तीर्थमें स्नान तीर्थको यात्रा करनी चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें सबको करनेसे मनुष्यका चित्त सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है और उत्पत्तिके कारणभूत भगवान् विष्णुने समस्त लोकोंका वह शिवलोकको प्राप्त होता है।
उद्धार किया था। राजन् ! वहाँ पहुँचकर उस उतम तीर्थमें राजेन्द्र ! तदनन्तर कुरुक्षेत्रको यात्रा करनी स्नान करके मनुष्य आत्मीय जनोंका उद्धार कर देता है। जो चाहिये। उसकी सब लोग स्तुति करते हैं। वहाँ गये हुए कपिला-तीर्थमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए समस्त प्राणी पापमुक्त हो जाते हैं। धीर पुरुषको उचित एकाप्रचित्त होकर स्नान तथा देवता-पितरोंका पूजन करता है कि वह कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदीके तटपर एक मासतक है, वह मानव एक सहस्र कपिला-दानका फल पाता है। निवास करे । युधिष्ठिर ! जो मनसे भी कुरुक्षेत्रका चिन्तन जो सूर्यतीर्थमें जाकर स्नान करता और मनको काबूमें रखते करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह हुए उपवास-परायण होकर देवताओं तथा पितरोंकी पूजा ब्रह्मलोकको जाता है। धर्मज्ञ ! वहाँसे भगवान् विष्णुके करता है, उसे अग्रिष्टोम यज्ञका फल मिलता है तथा वह उत्तम स्थानको, जो 'सतत' नामसे प्रसिद्ध है, जाना सूर्यलोकको जाता है। गोभवन नामक तीर्थमें जाकर स्नान चाहिये। वहाँ भगवान् सदा मौजूद रहते हैं। जो उस करनेवालेको सहल गोदानका फल मिलता है। तीर्थमें नहाकर त्रिभुवनके कारण भगवान् विष्णुका दर्शन तदनन्तर ब्रह्मावर्तकी यात्रा करे । ब्रह्मावर्तमें स्नान करता है, वह विष्णुलोकमें जाता है। तत्पश्चात् पारिणवमें करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वहाँसे अन्यान्य जाना चाहिये। वह तीनों लोकोंमें विख्यात तीर्थ है। तोोंमें घूमते हुए क्रमशः काशीश्वरके तीर्थोंमें पहुंचकर उसके सेवनसे मनुष्यको अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञोंका स्रान करनेसे मनुष्य सब प्रकारके रोगोंसे छुटकारा पाता फल मिलता है। तत्पश्चात् तीर्थसेवी मनुष्यको और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर शौचशाल्विकिनि नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ सन्तोष आदि नियमोंका पालन करते हुए शीतवनमें जाय। दशाश्वमेध घाटपर नान करनेसे भी वही फल प्राप्त होता वहाँ बहुत बड़ा तीर्थ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है । वह दर्शनहै। तदनन्तर पचनदमें जाकर नियमित आहार करते हुए मात्रसे एक दण्डमें पवित्र कर देता है। वहाँ एक दूसरा भी नियमपूर्वक रहे। वहाँ कोटि-तीर्थमें स्नान करनेसे श्रेष्ठ तीर्थ है, जो नान करनेवाले लोगोंका दुःख दूर अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। तत्पश्चात् परम उत्तम करनेवाला माना गया है। वहाँ तत्त्वचिन्तन-परायण विद्वान् वाराह-तीर्थकी यात्रा करे, जहाँ पूर्वकालमें भगवान् विष्णु ब्राह्मण स्रान करके परम गतिको प्राप्त होते हैं। वराहरूपसे विराजमान हुए थे। उस तीर्थमें निवास स्वर्णलोमापनयन नामक तीर्थमें प्राणायामके द्वारा जिनका करनेसे अनिष्टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है। तदनन्तर अन्तःकरण पवित्र हो चुका है, वे परम गतिको प्राप्त होते जयिनीमे जाकर सोमतीर्थमें प्रवेश करे । वहाँ स्रान करके हैं। दशाश्वमेध नामक तीर्थमें भी स्रान करनेसे उत्तम मानव राजसूय यज्ञका फल प्राप्त करता है। कृतशौच- गतिकी प्राप्ति होती है। तीर्थमें जाकर उसका सेवन करनेवाला पुरुष पुण्डरीक तत्पश्चात् लोकविख्यात मानुष-तीर्थकी यात्रा करे। यज्ञका फल पाता है और स्वयं भी पवित्र हो जाता है। राजन् ! पूर्वकालमें एक व्याधके बाणोंसे पीड़ित हुए कुछ 'पम्पा' नामका तीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है, वहाँ जाकर कृष्णमृग उस सरोवरमें कूद पड़े थे और उसमें गोता स्नान करनेसे मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त लगाकर मनुष्य-शरीरको प्राप्त हुए थे। [तभीसे वह कर लेता है। कायशोधन-तीर्थमें जाकर स्नान करनेवालेके मानुष-तीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ।) इस तीर्थमें स्नान
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स्वर्गखण्ड ]
• विविध तीर्थोकी महिमाका वर्णन
करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जो ध्यान लगाता है, उसका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है तथा वह स्वर्गलोक प्रतिष्ठित होता है। राजन् ! मानुष तीर्थसे पूर्व दिशामें एक कोसकी दूरीपर आपगा नामसे विख्यात एक नदी बहती है। उसके तटपर जाकर जो मानव देवता और पितरोंके उद्देश्यसे साँवाका बना हुआ भोजन दान देता है, वह यदि एक ब्राह्मणको भोजन कराये तो एक करोड़ ब्राह्मणोंके भोजन करानेका फल प्राप्त होता है। वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरोंके पूजन तथा एक रात निवास करनेसे अमिष्टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् उस तीर्थमें जाना चाहिये, जो इस पृथ्वीपर ब्रह्मानुस्वर तीर्थके नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ सप्तर्षियोंके कुण्डोंमें तथा महात्मा कपिलके क्षेत्रमें स्नान करके जो ब्रह्माजीके पास जा उनका दर्शन करता है, वह पवित्र एवं जितेन्द्रिय होता है तथा उसका चित्त सब पापोंसे शुद्ध होनेके कारण वह अन्तमें ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है।
राजन्! शुरूपक्षकी दशमीको पुण्डरीक तीर्थमें प्रवेश करना चाहिये। वहाँ स्नान करके मनुष्य पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँसे त्रिविष्टप नामक तीर्थको जाय, वह तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ वैतरणी नामकी एक पवित्र नदी है, जो सब पापोंसे छुटकारा दिलानेवाली है। वहाँ स्नान करके शूलपाणि भगवान् शङ्करका पूजन करनेसे मनुष्यका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है तथा वह परम गतिको प्राप्त होता है। पाणिख्यात नामसे विख्यात तीर्थमें स्नान और देवताओंका तर्पण करके मानव राजसूय यज्ञका फल प्राप्त करता है। तत्पश्चात् विश्वविख्यात मिश्रक (मिश्रिख ) में जाना चाहिये। नृपश्रेष्ठ ! हमारे सुननेमें आया है कि महात्मा व्यासजीने द्विजातिमात्रके लिये वहाँ सब तीर्थोंका सम्मेलन किया था, अतः जो मिश्रिखमें स्नान करता है, वह मानो सब तीर्थोंमें स्नान कर लेता है।
नरेश्वर ! जो ऋणान्त कूपके पास जाकर वहाँ एक सेर तिलका दान करता है, वह ऋणसे मुक्त हो परम सिद्धिको प्राप्त होता है। वेदीतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानका फल मिलता है। अहन् और
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सुदिन – ये दो तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ हैं। उनमें स्नान करनेसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। मृगधूम तीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ रुद्रपदमें स्नान और महात्मा शूलपाणिका पूजन करके मानव अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। कोटितीर्थमें स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। वामनतीर्थ भी तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर विष्णुपदमें स्नान और भगवान् वामनका पूजन करनेसे तीर्थयात्रीका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है। कुलम्पुन तीर्थमें स्नान करके मनुष्य अपने कुलको पवित्र करता है। शालिहोत्रका एक तीर्थ है, जो शालिसूर्य नामसे प्रसिद्ध है। उसमें विधिपूर्वक स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। राजन् ! सरस्वती नदीमें एक श्रीकुञ्ज नामक तीर्थ है। वहाँ स्नान करके मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त करता है। तत्पश्चात् ब्रह्माजीके उत्तम स्थान (पुष्कर) की यात्रा करनी चाहिये। छोटे वर्णका मनुष्य वहाँ स्नान करनेसे ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है और ब्राह्मण शुद्धचित होकर परमगतिको प्राप्त होता है।
कपालमोचन तीर्थ सब पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। वहाँसे कार्तिकेयके पृथूदक तीर्थमें जाना चाहिये, वह तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ देवता और पितरोंके पूजनमें तत्पर होकर स्नान करना चाहिये। स्त्री हो या पुरुष, वह मानवबुद्धिसे प्रेरित हो जान-बूझकर या बिना जाने जो कुछ भी अशुभ कर्म किये होता है, वह सब वहाँ स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, उसे अश्वमेध यज्ञके फल तथा स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। कुरुक्षेत्रको परम पवित्र कहते हैं, कुरुक्षेत्रसे भी पवित्र है सरस्वती नदी, उससे भी पवित्र हैं वहाँके तीर्थ और उन तीर्थोंसे भी पावन है पृथूदक। पृथूदक तीर्थमें जप करनेवाले मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। राजन् ! श्रीसनत्कुमार तथा महात्मा व्यासने इस तीर्थकी महिमा गायी है। वेदमें भी इसे निश्चित रूपसे महत्त्व दिया गया है। अतः पृथूदक- तीर्थमें अवश्य जाना चाहिये । पृथूदकतीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई परम पावन तीर्थ नहीं है।
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• अर्चयस्व हपीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
निःसन्देह यही मेध्य, पवित्र और पावन है। वहीं मधुपुर होता है। समस्त देवताओंके तीर्थोंमें स्नान करनेमात्रसे नामक तीर्थ है, वहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानोंका फल मनुष्य सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त होकर श्रीशिवकी भांति प्राप्त होता है। नरश्रेष्ठ ! वहाँसे सरस्वती और अरुणाके क्रान्तिमान् होता है। तत्पश्चात् तीर्थसेवी पुरुष अस्थिपुरमें सङ्गममें, जो विश्वविख्यात तीर्थ है, जाना चाहिये। वहाँ जाय और उस पावन तीर्थमें पहुँचकर देवताओं तथा तीन राततक उपवास करके रहने और नान करनेसे पितरोका तर्पण करे। इससे उसे अनिष्टोम यज्ञका फल ब्रह्महत्या छूट जाती है। साथ ही तीर्थसेवी पुरुषको मिलता है। भरतश्रेष्ठ ! वहीं गङ्गाह्रद नामक कूप है, अमिष्टोम और अतिरात्र यज्ञका फल मिलता है और वह जिसमें तीन करोड़ तीर्थोका निवास है। राजन् ! उसमें अपनी सात पीढ़ियोतकका उद्धार कर देता है, इसमें स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। तनिक भी सन्देह नहीं है। वहाँसे शतसहस्र तथा आपगामें नान और महेश्वरका पूजन करके मनुष्य परम साहस्त्रक-इन दोनों तीर्थोंमें जाना चाहिये। वे दोनों गतिको पाता है और अपने कुलका भी उद्धार कर देता तीर्थ भी वहीं है तथा सम्पूर्ण लोकोंमें उनकी प्रसिद्धि है। है। तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें विख्यात स्थाणुवट-तीर्थ में उन दोनोंमें स्रान करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल जाना चाहिये; वहाँ स्रान करके रात्रिमें निवास करनेसे पाता है। वहाँ जो दान या उपवास किया जाता है, वह मनुष्य रुद्रलोकको प्राप्त होता है। जो नियम-परायण, सहसगुना अधिक फल देनेवाला होता है। तदनन्तर सत्यवादी पुरुष एकरात्र नामक तीर्थमें जाकर एक रात परम उत्तम रेणुकातीर्थमें जाना चाहिये और वहाँ निवास करता है, वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर हो स्रान करना राजेन्द्र ! वहाँसे उस त्रिभुवनविख्यात तीर्थमें जाना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यका हृदय सब पापोंसे शुद्ध चाहिये, जहाँ तेजोराशि महात्मा आदित्यका आश्रम है। हो जाता है तथा उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। जो मनुष्य उस तीर्थमें स्नान करके भगवान् सूर्यका पूजन जो क्रोध और इन्द्रियोंको जीतकर विमोचन-तीर्थमें स्नान करता है, वह सूर्यलोकमें जाता और अपने कुलका करता है, वह प्रतिग्रहजनित समस्त पापोंसे मुक्त हो उद्धार कर देता है। जाता है।
युधिष्ठिर ! इसके बाद सत्रिहिता नामक तीर्थकी तदनन्तर जितेन्द्रिय हो ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए यात्रा करनी चाहिये, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा पञ्चवट-तीर्थमें जाकर [स्रान करनेसे] मनुष्यको महान् तपोधन ऋषि महान् पुण्यसे युक्त हो प्रतिमास एकत्रित पुण्य होता है तथा वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। होते हैं। सूर्यग्रहणके समय सत्रिहितामें नान करनेसे सौ जहाँ स्वयं योगेश्वर शिव विराजमान हैं, वहाँ उन अश्वमेध यज्ञोंके अनुष्ठानका फल होता है । पृथ्वीपर तथा देवेश्वरका पूजन करके मनुष्य वहाँको यात्रा करनेमात्रसे आकाशमें जितने भी तीर्थ, जलाशय, कूप तथा पुण्यसिद्धि प्राप्त कर लेता है। कुरुक्षेत्रमें इन्द्रिय-निग्रह तथा मन्दिर हैं, वे सब प्रत्येक मासकी अमावास्याको निशय ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए स्नान करनेसे मनुष्यका ही सत्रिहितामें एकत्रित होते हैं। अमावास्या तथा हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है और वह रुद्रलोकको सूर्यग्रहणके समय वहाँ केवल स्रान तथा श्राद्ध प्राप्त होता है। इसके बाद नियमित आहारका भोजन तथा करनेवाला मानव सहस्र अश्वमेध यज्ञके अनुष्ठानका शौचादि नियमोंका पालन करते हुए स्वर्गद्वारकी यात्रा फल प्राप्त करता है। स्त्री अथवा पुरुषका जो कुछ भी करे। ऐसा करनेसे मनुष्य अनिष्टोम यज्ञका फल पाता दुष्कर्म होता है, वह सब वहाँ स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो
और ब्रह्मलोकको जाता है। महाराज ! नारायण तथा जाता है इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उस तीर्थमें पद्मनाभके क्षेत्रोंमें जाकर उनका दर्शन करनेसे तीर्थसेवी स्नान करनेवाला पुरुष विमानपर बैठकर ब्रह्मलोकमें पुरुष शोभायमान रूप धारण करके विष्णुधामको प्राप्त जाता है। पृथ्वीपर नैमिषारण्य पवित्र है; तथा तीनों
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स्वर्गखण्ड ] . धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कमोंका वर्णन •
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लोकोंमें कुरुक्षेत्रको अधिक महत्व दिया गया है। हवासे तरह शोकके योग्य नहीं होते। तरण्डकसे लेकर उड़ायी हुई कुरुक्षेत्रको धूलि भी यदि देहपर पड़ जाय तो अरण्डकतक तथा रामहद (परशुराम-कुण्ड) से लेकर वह पापीको भी परमगतिकी प्राप्ति करा देती है। कुरुक्षेत्र मचक्रुकतकके भीतरका क्षेत्र समन्तपञ्चक कहलाता है। ब्रह्मवेदीपर स्थित है। वह ब्रह्मर्षियोंसे सेवित पुण्यमय यही कुरुक्षेत्र है। इसे ब्रह्माजीके यज्ञकी उत्तर-वेदी कहा तीर्थ है। राजन् । जो उसमें निवास करते हैं, वे किसी गया है।
धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना-स्त्रानका माहात्म्य-हेमकुण्डल वैश्य और उसके ,
पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन
नारदजी कहते हैं-धर्मके ज्ञाता युधिष्ठिर ! (हरिद्वार) को यात्रा करे तथा वहाँ एकाग्रचित हो कुरुक्षेत्रसे तीर्थयात्रीको परम प्राचीन धर्मतीर्थमें जाना कोटितीर्थमें स्रान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष पुण्डरीक चाहिये, जहां महाभाग धर्मने उत्तम तपस्या की थी। यज्ञका फल पाता और अपने कुलका भी उद्धार कर देता धर्मशील मनुष्य एकाग्रचित्त हो वहाँ स्नान करके अपनी है। वहाँ एक रात निवास करनेसे सहस्र गोदानोंका फल सात पीढ़ियोंतकको पवित्र कर देता है। वहाँसे उत्तम मिलता है। सप्तगङ्ग, त्रिगङ्ग और शक्रावर्त नामक तीर्थमें कलाप-वनकी यात्रा करनी उचित है; उस तीर्थमे देवता तथा पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करनेवाला पुरुष एकाग्रतापूर्वक स्रान करके मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल पुण्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद कनखलमें पाता और विष्णुलोकको जाता है। राजन् ! तत्पश्चात् स्नान करके तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य मानव सौगन्धिक-वनकी यात्रा करे। उस वनमें प्रवेश अश्वमेध यज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। करते ही वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। उसके बाद वहाँसे ललितिका-(ललिता) में, जो राजा शन्तनुका नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वती आती हैं, जिन्हें प्लक्षा देवी भी उत्तम तीर्थ है, जाना चाहिये । राजन् ! वहाँ सान करनेसे कहते हैं। उनमें जहाँ वल्मीक-(बाँबी )से जल निकला मनुष्यकी कभी दुर्गति नहीं होती। है, वहाँ स्नान करे। फिर देवताओं तथा पितरोका पूजन महाराज युधिष्ठिर ! तत्पश्चात् उत्तम कालिन्दीकरके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। भारत! तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये । वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य सुगन्धा, शतकुम्भा तथा पञ्चयज्ञकी यात्रा करके मनुष्य दुर्गतिमें नहीं पड़ता। नरश्रेष्ठ ! पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
पृथूदक, अविमुक्त क्षेत्र (काशी) तथा सुवर्ण नामक तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें विख्यात सुवर्ण नामक तीर्थमें भी जिस फल की प्राप्ति नहीं होती, वह यमुनामें तीर्थमें जाय; वहाँ पहुँचकर भगवान् शङ्करकी पूजा स्नान करनेसे मिल जाता है। निष्काम या सकाम भावसे करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और भी जो यमुनाजीके जलमें गोता लगाता है, उसे इस गणपति-पदको प्राप्त होता है। वहाँसे धूमवन्तीको प्रस्थान लोक और परलोकमें दुःख नहीं देखना पड़ता। जैसे करे। वहाँ तीन रात निवास करनेवाला मनुष्य कामधेनु और चिन्तामणि मनोगत कामनाओंको पूर्ण कर मनोवाञ्छित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है, इसमें देती हैं, उसी प्रकार यमुनामें किया हुआ स्नान सारे तनिक भी सन्देह नहीं है। देवीके दक्षिणार्ध भागमें मनोरथोंको पूर्ण करता है। सत्ययुगमे तप, त्रेतामें ज्ञान, रथावर्त नामक स्थान है। वहाँ जाकर श्रद्धालु एवं द्वापरमें यज्ञ तथा कलियुगमे दान सर्वश्रेष्ठ माने गये है। जितेन्द्रिय पुरुष महादेवजीकी कृपासे परमगतिको प्राप्त किन्तु कलिन्द-कन्या यमुना सदा ही शुभकारिणी हैं। होता है। तत्पश्चात् महागिरिको नमस्कार करके गङ्गाद्वार राजन् ! यमुनाके जलमें स्नान करना सभी वर्गों तथा
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.. अर्चयवाचीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .. .
[ संक्षिप्त पयपुराण
समस्त आश्रमोंके लिये धर्म है। मनुष्यको चाहिये कि इतिहासका वर्णन करता हूँ। पूर्वकालके सत्ययुगकी बात वह भगवान् वासुदेवको प्रसन्नता, समस्त पापोंकी है। निषध नामक सुन्दर नगरमें एक वैश्य रहते थे। निवृत्ति तथा स्वर्गलोककी प्राप्तिके लिये यमुनाके जलमें उनका नाम हेमकुण्डल था। वे उत्तम कुलमें उत्पत्र सान करे। यदि यमुना-सानका अवसर न मिला तो होनेके साथ ही सत्कर्म करनेवाले थे। देवता, ब्राह्मण सुन्दर, सुपुष्ट, बलिष्ठ एवं नाशवान् शरीरकी रक्षा और अग्निकी पूजा करना उनका नित्यका नियम था । वे करनेसे क्या लाभ।
खेती और व्यापारका काम करते थे। पशुओंके पालनविष्णुभक्तिसे रहित ब्राह्मण, विद्वान् पुरुषोंसे रहित पोषणमें तत्पर रहते थे। दूध, दही, मट्ठा, घास, लकड़ी, श्राद्ध, ब्राह्मणभक्तिसे शून्य क्षत्रिय, दुराचारसे दूषित फल, मूल, लवण, अदरख, पीपल, धान्य, शाक, तैल, कुल, दम्भयुक्त धर्म, क्रोधपूर्वक किया हुआ तप, भाँति-भांतिके वस्त्र, धातुओंके सामान और ईखके रससे दृढ़तारहित ज्ञान, प्रमादपूर्वक किया हुआ शास्त्राध्ययन, बने हुए खाद्य पदार्थ (गुड़, खाँड़, शक्कर आदि)परपुरुषमें आसक्ति रखनेवाली नारी, मदयुक्त ब्रह्मचारी, इन्हीं सब वस्तुओंको सदा बेचा करते थे। इस तरह नाना बुझी हुई आगमें किया हुआ हवन, कपटपूर्ण भक्ति, प्रकारके अन्यान्य उपायोंसे वैश्यने आठ करोड़ जीविकाका साधन बनी हुई कन्या, अपने लिये बनायी स्वर्णमुद्राएँ पैदा की। इस प्रकार व्यापार करते-करते हुई रसोई, शूद्र संन्यासीका साधा हुआ योग, कृपणका उनके कानोतकके बाल सफेद हो गये। तदनन्तर उन्होंने धन, अभ्यासरहित विद्या, विरोध पैदा करनेवाला ज्ञान, अपने चित्तमें संसारकी क्षणभङ्गरताका विचार करके उस जीविकाके साधन बने हुए तीर्थ और व्रत, असत्य और धनके छठे भागसे धर्मका कार्य करना आरम्भ किया। चुगलीसे भरी हुई वाणी, छ: कानोंमें पहुँचा हुआ गुप्त भगवान् विष्णुका मन्दिर तथा शिवालय बनवाये, पोखरा मन्त्र, चञ्चल चित्तसे किया हुआ जप, अश्रोत्रियको दिया खुदवाया तथा बहुत-सी बावलियाँ बनवायीं। इतना ही हुआ दान, नास्तिक मनुष्य तथा अश्रद्धापूर्वक किया नहीं, उन्होंने बरगद, पीपल, आम, जामुन और नीम हुआ समस्त पारलौकिक कर्म-ये सब-के-सब जिस आदिके जंगल लगवाये तथा सुन्दर पुष्पवाटिका भी प्रकार नष्टप्राय माने गये हैं, वैसे ही यमुना-सानके बिना तैयार करायी। सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्ततक अन्न-जल मनुष्योंका जन्म भी नष्ट ही है। मन, वाणी और क्रिया- बाँटनेकी उन्होंने व्यवस्था कर रखी थी। नगरके बाहर द्वारा किये हुए आई, शुष्क, लघु और स्थूल-सभी चारों ओर अत्यन्त शोभायमान पौंसले बनवा दिये थे। प्रकारके पापोंको यमुनाका स्रान दग्ध कर देता है; ठीक राजन् ! पुराणों में जो-जो दान प्रसिद्ध हैं, वे सभी दान उन उसी तरह, जैसे आग लकड़ीको जला डालती है। धर्मात्मा वैश्यने दिये थे। वे सदा ही दान, देवपूजा तथा राजन् ! जैसे भगवान् विष्णुको भक्तिमें सभी मनुष्योंका अतिथि-सत्कारमें लगे रहते थे। अधिकार है, उसी प्रकार यमुनादेवी सदा सबके पापोंका इस प्रकार धर्मकार्यमें लगे हुए वैश्यके दो पुत्र नाश करनेवाली हैं। यमुनामें किया हुआ स्नान ही हुए। उनके नाम थे-श्रीकुण्डल और विकुण्डल । उन सबसे बड़ा मन्त्र, सबसे बड़ी तपस्या और सबसे बढ़कर दोनोंके सिरपर घरका भार छोड़कर हेमकुण्डल तपस्या प्रायश्चित्त है। यदि मथुराको यमुना प्राप्त हो जाये तो करनेके लिये वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने सर्वश्रेष्ठ वे मोक्ष देनेवाली मानी गयी हैं। अन्यत्रकी यमुना देवता वरदायक भगवान् गोविन्दकी आराधनामें संलग्न पुण्यमयी तथा महापातकोंका नाश करनेवाली हैं, हो तपस्याद्वारा अपने शरीरको क्षीण कर डाला । तथा किन्तु मथुरामें बहनेवाली यमुनादेवी विष्णुभक्ति प्रदान निरन्तर श्रीवासुदेवमें मन लगाये रहनेके कारण वे करती है।
वैष्णव-धामको प्राप्त हुए, जहाँ जाकर मनुष्यको शोक राजन्! इस विषयमें मैं तुमसे एक प्राचीन नहीं करना पड़ता । तत्पश्चात् उस वैश्यके दोनों पुत्र जब
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स्वर्गखण्ड ] .धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन .
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तरुण हुए तो उन्हें बड़ा अभिमान हो गया। वे धनके जाकर वे यमराजसे बोले-'धर्मराज ! आपकी आज्ञासे गर्वसे उन्मत्त हो उठे। उनका आचरण बिगड़ गया। वे हम इन दोनों मनुष्योंको ले आये हैं। अब आप प्रसन्न दुर्व्यसनोंमें आसक्त हो गये। धर्म-कर्मोकी ओर उनकी होकर अपने इन किङ्करोंको आज्ञा दीजिये, कौन-सा कार्य दृष्टि नहीं जाती थी। वे माताकी आज्ञा तथा वृद्ध करें?' तब यमराजने दूतोंसे कहा-'वीरो ! एकको तो पुरुषोंका कहना नहीं मानते थे। दोनों ही दुरात्मा और दुःसह पीड़ा देनेवाले नरकमें डाल दो और दूसरेको कुमार्गगामी हो गये। वे अधर्ममें ही लगे रहते थे। उन स्वर्गलोकमें, जहाँ उत्तम-उत्तम भोग सुलभ है, स्थान दुष्टोंने परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार आरम्भ कर दिया। दो।' यमराजकी आज्ञा सुनकर शीघ्रतापूर्वक काम वे गाने-बजानेमें मस्त रहते और सैकड़ों वेश्याओंको करनेवाले दूतोंने वैश्यके ज्येष्ठ पुत्रको भयंकर रौरव साथ रखते थे। चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर 'हा-में-हाँ नरकमें डाल दिया। इसके बाद उनमेंसे किसी श्रेष्ठ दूतने मिलानेवाले चापलूस ही उनके सङ्गी थे। उन्हें मद्य दूसरे पुत्रसे मधुर वाणीमें कहा-'विकुण्डल ! तुम मेरे पीनेका चस्का लग गया था। इस प्रकार सदा साथ आओ, मैं तुम्हें स्वर्गमें स्थान देता हूँ। तुम भोगपरायण होकर पिताके धनका नाश करते हुए वे दोनों वहाँ अपने पुण्यकर्मद्वारा उपार्जित दिव्य भोगोंका भाई अपने रमणीय भवनमें निवास करते थे। धनका उपभोग करो।' दुरुपयोग करते हुए उन्होंने वेश्याओं, गुंडों, नटों, मल्लों, यह सुनकर विकुण्डलके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। चारणों तथा बन्दियोंको अपना सारा धन लुटा दिया। मार्गमें अत्यन्त विस्मित होकर उसने दूतसे पूछाऊसरमें डाले हुए बीजकी भाँति सारा धन उन्होंने 'दूतप्रवर ! मैं आपसे अपने मनका एक सन्देह पूछ रहा अपात्रोंको ही दिया। सत्पात्रको कभी दान नहीं दिया, हूँ। हम दोनों भाइयोंका एक ही कुलमें जन्म हुआ। ब्राह्मणके मुखमें अन्नका होम नहीं किया तथा समस्त हमने कर्म भी एक-सा ही किया तथा दुर्मुत्यु भी हमारी भूतोंका भरण-पोषण करनेवाले सर्वपापनाशक भगवान् एक-सी ही हुई; फिर क्या कारण है कि मेरे ही समान विष्णुको कभी पूजा नहीं की।
कर्म करनेवाला मेरा बड़ा भाई नरकमें डाला गया और इस प्रकार उन दोनोंका धन थोड़े ही दिनोंमें समाप्त मुझे स्वर्गकी प्राप्ति हुई ? आप मेरे इस संशयका निवारण हो गया। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उनके घरमें ऐसी कीजिये । बाल्यकालसे ही मेरा मन पापोंमें लगा रहा। कोई भी वस्तु नहीं बची, जिससे वे अपना निर्वाह करते। पुण्य-कर्मोंमें कभी संलग्न नहीं हुआ। यदि आप मेरे द्रव्यके अभावमें समस्त स्वजनों, बान्धवों, सेवकों तथा किसी पुण्यको जानते हों तो कृपया बतलाइये।' आश्रितोंने भी उन्हें त्याग दिया। उस नगरमें उनकी बड़ी देवदूतने कहा-वैश्यवर ! सुनो। हरिमित्रके पुत्र शोचनीय स्थिति हो गयी। इसके बाद उन्होंने चोरी करना स्वमित्र नामक ब्राह्मण वनमें रहते थे। वे वेदोंके पारगामी आरम्भ किया। राजा तथा लोगोंके भयसे डरकर वे विद्वान् थे। यमुनाके दक्षिण किनारे उनका पवित्र आश्रम अपने नगरसे निकल गये और वनमें जाकर रहने लगे। था। उस वनमें रहते समय ब्राह्मणदेवताके साथ तुम्हारी अब वे सबको पीड़ा पहुँचाने लगे। इस प्रकार पापपूर्ण मित्रता हो गयी थी। उन्हींके सङ्गसे तुमने कालिन्दीके आहारसे उनकी जीविका चलने लगी। तदनन्तर, एक पवित्र जलमें, जो सब पापोंको हरनेवाला और श्रेष्ठ है, दिन उनमेंसे एक तो पहाड़पर गया और दूसरेने वनमें दो बार माघ-नान किया है। एक माघ-सानके पुण्यसे प्रवेश किया। राजन् ! उन दोनोंमें जो बड़ा था, उसे तुम सब पापोंसे मुक्त हो गये और दूसरेके पुण्यसे तुम्हें सिंहने मार डाला और छोटेको साँपने डस लिया। उन स्वर्गकी प्राप्ति हुई है। इसी पुण्यके प्रभावसे तुम सदा दोनों महापापियोंकी एक ही दिन मृत्यु हुई। इसके बाद स्वर्गमें रहकर आनन्दका अनुभव करो। तुम्हारा भाई यमदूत उन्हें पाशोंमें बाँधकर यमपुरीमें ले गये। वहाँ नरकमें बड़ी भारी यातना भोगेगा। असिपत्र-वनके
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..... अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ,
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[संक्षिप्त पापुराण
पत्तोंसे उसके सारे अङ्ग छिद जायेंगे। मुगदरोंकी मारसे तिर्यग्योनियोंमें जन्म लेते हैं और अन्तमें मनुष्य-योनिके उसकी धज्जियाँ उड़ जायेंगी। शिलाकी चट्टानोंपर भीतर जन्मसे अंधे, काने, कुबड़े, पङ्ग, दरिद्र तथा पटककर उसे चूर-चूर कर दिया जायगा तथा वह अङ्गहीन होकर उत्पन्न होते हैं। दहकते हुए अङ्गारोंमें भूना जायगा।
• इसलिये जो दोनों लोकोंमें सुख पाना चाहता है, . दूतकी यह बात सुनकर विकुण्डलको भाईके उस धर्मज्ञ पुरुषको उचित है कि इस लोक और दुःखसे बड़ा दुःख हुआ। उसके सारे शरीरके रोंगटे खड़े परलोकमें मन, वाणी तथा क्रियाके द्वारा किसी भी हो गये। वह दीन और विनीत होकर बोला-'साधो! जीवकी हिंसा न करे । प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले लोग सत्पुरुषोंमें सात पग साथ चलनेमात्रसे मैत्री हो जाती है दोनों लोकोंमें कहीं भी सुख नहीं पाते। जो किसी तथा वह उत्तम फल देनेवाली होती है; अतः आप जीवकी हिंसा नहीं करते, उन्हें कहीं भी भय नहीं होता। मित्रभावका विचार करके मेरा उपकार करें। मैं आपसे जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलती हैं, उसी प्रकार समस्त धर्म उपदेश सुनना चाहता हूँ। मेरी समझमें आप सर्वज्ञ है; अहिंसामें लय हो जाते हैं-यह निश्चित बात है। अतः कृपा करके बताइये, मनुष्य किस कर्मके वैश्यप्रवर ! जिसने इस लोकमें सम्पूर्ण भूतोंको अनुष्ठानसे यमलोकका दर्शन नहीं करते तथा कौन-सा अभयदान कर दिया है, उसीने सम्पूर्ण तीर्थोमें स्नान कर्म करनेसे वे नरकमें जाते हैं?'
किया है तथा वह सम्पूर्ण यज्ञोंकी दीक्षा ले चुका है। देवदूतने कहा-जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा वर्णाश्रमधर्ममें स्थित होकर शास्त्रोक्त आज्ञाका पालन कभी किसी भी अवस्थामें दूसरोंको पीड़ा नहीं देते, वे करनेवाले समस्त जितेन्द्रिय मनुष्य सनातन ब्रह्मलोकको यमराजके लोकमें नहीं जाते। अहिंसा परम धर्म है, प्राप्त होते हैं। जो इष्ट' और पूर्तमें लगे रहते हैं, अहिंसा ही श्रेष्ठ तपस्या है तथा अहिंसाको ही मुनियोंने पञ्चयज्ञोंका अनुष्ठान किया करते हैं, जिनके मनमें सदा सदा श्रेष्ठ दान बताया है।* जो मनुष्य दयालु हैं वे दया भरी रहती है, जो विषयोंकी ओरसे निवृत्त, मच्छर, साँप, डाँस, खटमल तथा मनुष्य-सबको सामर्थ्यशाली, वेदवादी तथा सदा अग्निहोत्रपरायण हैं, वे अपने ही समान देखते हैं। जो अपनी जीविकाके लिये ब्राह्मण स्वर्गगामी होते हैं। शत्रुओंसे घिरे होनेपर भी जलचर और थलचर जीवोंकी हत्या करते हैं, वे जिनके मुखपर कभी दीनताका भाव नहीं आता, जो कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर दुर्गति भोगते हैं। वहाँ शूरवीर हैं, जिनकी मृत्यु संग्राममें ही होती है; जो अनाथ उन्हें कुत्तेका मांस खाना तथा पीब और रक्त पीना पड़ता स्त्रियों, ब्राह्मणों तथा शरणागतोंकी रक्षाके लिये अपने है। वे चबींकी कीचमें डूबकर अधोमुखी कीड़ोंके द्वारा प्राणोंकी बलि दे देते हैं तथा जो पङ्ग, अन्ध, बाल-वृद्ध,
से जाते हैं। अँधेरेमें पड़कर वे एक-दूसरेको खाते और अनाथ, रोगी तथा दरिद्रोंका सदा पालन-पोषण करते हैं, परस्पर आघात करते हैं। इस अवस्थामें भयङ्कर चीत्कार वे सदा स्वर्गमें रहकर आनन्द भोगते हैं। जो कीचड़में करते हुए वे एक कल्पतक वहाँ निवास करते हैं। फँसी हुई गाय तथा रोगसे आतुर ब्राह्मणको देखकर नरकसे निकलनेपर उन्हें दीर्घकालतक स्थावर-योनिमें उनका उद्धार करते हैं, जो गौओंको ग्रास अर्पण करते, रहना पड़ता है। उसके बाद वे क्रूर प्राणी सैकड़ों बार गौओंकी सेवा-शुश्रूषामें रहते तथा गौओंकी पीठपर
• अहिंसा परमो धर्मो ह्यहिसैव परं तपः । अहिंसा परमं दानमित्याहुर्मुनयः सदा ॥ (३१४२७)
१. अग्रिहोत्र, तप, सत्य, यज्ञ, दान, वेदरक्षा, आतिथ्य, वैश्वदेव और ध्यान आदि धार्मिक कार्योको 'इष्ट' कहते हैं। २. बावली, कुआँ, तालाब, देवमन्दिर और धर्मशाला बनवाना तथा बगीचे लगाना आदि कार्य पूर्त कहलाते हैं । ३. बहायज्ञ, देवयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ तथा भूतयज्ञ-ये ही पञ्चयज्ञ कहे गये है।
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स्वर्गखण्ड ] . धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरक में ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन .
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कभी सवारी नहीं करते, वे स्वर्गलोकके निवासी होते हैं। देखनेवाले, सदा सब प्राणियोंपर दया करनेवाले, जो ब्राह्मण प्रतिदिन अग्निपूजा, देवपूजा, गुरुपूजा और दूसरोंकी गुप्त बातोंको प्रकट न करनेवाले तथा दूसरोंके द्विजपूजामें तत्पर रहते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं। गुणोंका बखान करनेवाले हैं; जो दूसरेके धनको
बावली, कुआँ और पोखरे बनवाने आदिके तिनकेके समान समझकर मनसे भी उसे लेना नहीं पुण्यका कभी अन्त नहीं होता; क्योंकि वहाँ जलचर और चाहते, ऐसे लोगोंको नरक-यातनाका अनुभव नहीं थलचर जीव सदा अपनी इच्छाके अनुसार जल पीते करना पड़ता। जो दूसरोंपर कलङ्क लगानेवाला, रहते हैं। देवता भी बावली आदि बनवानेवालेको नित्य पाखण्डी, महापापी और कठोर वचन बोलनेवाला है, दानपरायण कहते है। वैश्यवर ! प्राणी जैसे-जैसे वह प्रलयकालतक नरकमें पकाया जाता है। कृतघ्न बावली आदिका जल पीते हैं, वैसे-ही-वैसे धर्मकी वृद्धि पुरुषका तीर्थोके सेवन तथा तपस्यासे भी उद्धार नहीं होनेसे उसके बनवानेवाले मनुष्यके लिये स्वर्गका निवास होता। उसे नरकमें दीर्घकालतक भयङ्कर यातना सहन अक्षय होता जाता है। जल प्राणियोंका जीवन है। करनी पड़ती है। जो मनुष्य जितेन्द्रिय तथा मिताहारी जलके ही आधारपर प्राण टिके हुए हैं। पातकी मनुष्य होकर पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें स्नान करता है, वह भी प्रतिदिन स्नान करनेसे पवित्र हो जाते हैं। प्रातः- यमराजके घर नहीं जाता। तीर्थमें कभी पातक न करे, कालका स्रान बाहर और भीतरके मलको भी धो डालता तीर्थको कभी जीविकाका साधन न बनाये, तीर्थमें दान है। प्रातःस्नानसे निष्पाप होकर मनुष्य कभी नरकमें नहीं न ले तथा वहाँ धर्मको बेचे नहीं। तीर्थमें किये हुए पड़ता। जो बिना स्नान किये भोजन करता है, वह सदा पातकका क्षय होना कठिन है। तीर्थमें लिये हुए दानका मलका भोजन करनेवाला है। जो मनुष्य स्नान नहीं पचाना मुश्किल है। करता, देवता और पितर उससे विमुख हो जाते हैं। वह जो एक बार भी गङ्गाजीके जलमें स्नान करके अपवित्र माना गया है। वह नरक भोगकर कीट-योनिको गङ्गाजलसे पवित्र हो चुका है, उसने चाहे राशि-राशि प्राप्त होता है।
पाप किये हों, फिर भी वह नरकमें नहीं पड़ता। हमारे जो लोग पर्वके दिन नदीकी धारामें स्नान करते हैं, सुननेमें आया है कि व्रत, दान, तप, यज्ञ तथा पवित्रताके वे न तो नरकमें पड़ते हैं और न किसी नीच योनिमें ही अन्यान्य साधन गङ्गाकी एक बूंदसे अभिषिक्त हुए जन्म लेते हैं। उनके लिये बुरे स्वप्र और बुरी चिन्ताएँ पुरुषकी समानता नहीं कर सकते।* जो धर्मद्रव सदा निष्फल होती हैं। विकुण्डल ! जो पृथ्वी, सुवर्ण (धर्मका ही द्रवीभूतस्वरूप) है, जलका आदि कारण है,
और गौ-इनका सोलह बार दान करते हैं, वे स्वर्ग- भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुआ है तथा जिसे लोकमें जाकर फिर वहाँसे वापस नहीं आते। विद्वान् भगवान् शङ्करने अपने मस्तकपर धारण कर रखा है, वह पुरुष पुण्य तिथियोंमें, व्यतीपात योगमें तथा संक्रान्तिके गङ्गाजीका निर्मल जल प्रकृतिसे परे निर्गुण ब्रह्म ही हैसमय स्नान करके यदि थोड़ा-सा भी दान करे तो कभी इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः ब्रह्माण्डके भीतर दुर्गतिमें नहीं पड़ता। जो मनुष्य सत्यवादी, सदा मौन ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो गङ्गाजलकी समानता कर धारण करनेवाले, प्रियवक्ता, क्रोधहीन, सदाचारी, सके। जो सौ योजन दूरसे भी 'गङ्गा, गङ्गा' कहता है, अधिक बकवाद न करनेवाले, दूसरोंके दोष न वह मनुष्य नरकमें नहीं पड़ता। फिर गङ्गाजीके समान
* सकृद्रनाम्भसि सातः पूतो गाङ्गेयवारिणा । न नरो नरकं याति अपि पातकराशिकृत् ॥ व्रतदानतपोयज्ञाः पवित्राणीतराणि च। गङ्गाविन्दुभिषिक्तस्य न समा इति नः श्रुतम् ॥
(३१ ॥७२-७३)
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. अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
' [संक्षिप्त पद्यपुराण
कौन हो सकता है।* नरक देनेवाला पापकर्म दूसरे जो क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर भी कभी किसी उपायसे तत्काल दग्ध नहीं हो सकता; इसलिये क्रोधके वशीभूत नहीं होता, उस अक्रोधी पुरुषको इस मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक गङ्गाजीके जलमें स्रान करना पृथ्वीपर स्वर्गका विजेता समझना चाहिये। जो पुत्र चाहिये।
माता-पिताकी देवताके समान आराधना करता है, वह जो ब्राह्मण दान लेनेमें समर्थ होकर भी उससे कभी यमराजके घर नहीं जाता। स्त्रियाँ अपने अलग रहता है, वह आकाशमें तारा बनकर शील-सदाचारकी रक्षा करनेसे इस लोकमें धन्य मानी चिरकालतक प्रकाशित होता रहता है। जो कीचड़से जाती हैं। शील भङ्ग होनेपर स्त्रियोंको अत्यन्त भयङ्कर गौका उद्धार करते हैं, रोगियोंकी रक्षा करते हैं तथा यमलोककी प्राप्ति होती है। अतः स्त्रियोंको दुष्टोंके गोशालामें जिनकी मृत्यु होती है, उन्हीं लोगोंके लिये सङ्गका परित्याग करके सदा अपने शीलकी रक्षा करनी आकाशमें स्थित तारामय लोक हैं। सदा प्राणायाम चाहिये। वैश्यवर ! शीलसे नारियोंको उत्तम स्वर्गकी करनेवाले द्विज यमलोकका दर्शन नहीं करते। वे पापी प्राप्ति होती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। हों तो भी प्राणायामसे ही उनका पाप नष्ट हो जाता है। जो शास्त्रका विचार करते हैं, वेदोंके अभ्यासमें वैश्यवर ! यदि प्रतिदिन सोलह प्राणायाम किये जाये तो लगे रहते हैं, पुराण-संहिताको सुनाते तथा पढ़ते हैं, वे साक्षात् ब्रह्मघातीको भी पवित्र कर देते हैं। जिन-जिन स्मृतियोंकी व्याख्या और धर्मोका उपदेश करते हैं तथा तपोंका अनुष्ठान किया जाता है, जो-जो व्रत और नियम वेदान्तमें जिनकी निष्ठा है, उन्होंने इस पृथ्वीको धारण कर कहे गये हैं, वे तथा एक सहस्र गोदान-ये सब एक रखा है। उपर्युक्त विषयोंके अभ्यासको महिमासे उन साथ हों तो भी प्राणायाम अकेला ही इनकी समानता सबके पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वे ब्रह्मलोकको जाते हैं, कर सकता है। जो मनुष्य सौसे अधिक वर्षातक जहाँ मोहका नाम भी नहीं है। जो अनजान मनुष्यको प्रतिमास कुशके अग्रभागसे एक बूंद पानी पीकर रहता वेद-शास्त्रका ज्ञान प्रदान करता है, उसकी वेद भी है, उसकी कठोर तपस्याके बराबर केवल प्राणायाम ही प्रशंसा करते हैं; क्योंकि वह भव-बन्धनको नष्ट है। प्राणायामके बलसे मनुष्य अपने सारे पातकोंको करनेवाला है। क्षणभरमें भस्म कर देता है। जो नरश्रेष्ठ ! परायी वैष्णव पुरुष यम, यमलोक तथा वहाँक भयङ्कर स्त्रियोंको माताके समान समझते हैं, वे कभी प्राणियोंका कदापि दर्शन नहीं करते-यह बात मैंने यम-यातनामें नहीं पड़ते। जो पुरुष मनसे भी परायी बिलकुल सच-सच बतायी है। यमुनाके भाई यमराज स्त्रियोंका सेवन नहीं करता, उसने इस लोक और हमलोगोंसे सदा ही और बारंबार कहा करते हैं कि परलोकके साथ समूची पृथ्वीको धारण कर रखा है। 'तुमलोग वैष्णवोंको छोड़ देना; ये मेरे अधिकारमें नहीं इसलिये परस्त्री-सेवनका परित्याग करना चाहिये। परायी हैं। जो प्राणी प्रसङ्गवश एक बार भी भगवान् केशवका खियाँ इक्कीस पीढ़ियोंको नरकोंमें ले जाती है। स्मरण कर लेते हैं, उनकी समस्त पापराशि नष्ट हो जाती
* धर्मद्रवं झपां बीजं वैकुण्ठचरणच्युतम् । घृतं मूर्ध्नि महेशेन यदाङ्गममल जलम्॥ तौवन सन्देहो निर्गण प्रकृतेः परम। तेन कि समतो गच्छेदपि ब्रह्माण्डगोचरे । गङ्गा गनेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि । नरो न नरकं याति किं तया सदृशं भवेत् ॥
(३१।७५-७७) + इह चैव स्त्रियो धन्याः शीलस्व परिरक्षणात्। शीलभङ्गे च नारीणां यमलोकः सुदारुणः ॥ शीलं रक्ष्यं सदा स्त्रीभिर्दुष्टसङ्गविवर्जनात् । शीलेन हि परः स्वर्गः स्त्रीणां वैश्य न संशयः ।।
(३१।९३-९४)
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स्वर्गखण्ड ] . धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन .
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है तथा वे श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं।* छन्द और देवतासहित द्वादशाक्षर मन्त्रकी दीक्षा लेकर दुराचारी, पापी अथवा सदाचारी-कैसा भी क्यों न हो, उसका विधिवत् जप करना चाहिये। जो श्रेष्ठ मानव जो मनुष्य भगवान् विष्णुका भजन करता है, उसे [ॐ नमो नारायणाय"] इस अष्टाक्षर मन्त्रका जप तुमलोग सदा दूरसे ही त्याग देना । जिनके घरमें वैष्णव करते हैं, उनका दर्शन करके ब्राह्मणघाती भी शुद्ध हो भोजन करता हो, जिन्हें वैष्णवोंका सङ्ग प्राप्त हो, वे भी जाता है तथा वे स्वयं भी भगवान् विष्णुकी भाँति तेजस्वी तुम्हारे लिये त्याग देने योग्य हैं; क्योंकि वैष्णवोंके सङ्गसे प्रतीत होते हैं। उनके पाप नष्ट हो गये हैं।' पापिष्ठ मनुष्योंको नरक- जो मनुष्य हृदय, सूर्य, जल, प्रतिमा अथवा वेदीमें समुद्रसे पार जानेके लिये भगवान् विष्णुकी भक्तिके भगवान् विष्णुकी पूजा करते हैं, वे वैष्णवधामको प्राप्त सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है। वैष्णव पुरुष चारों होते हैं। अथवा मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे वोंसे बाहरका हो तो भी वह तीनों लोकोंको पवित्र शालग्राम-शिलाके चक्रमें सर्वदा वासुदेव भगवान्का कर देता है। मनुष्योंके पाप दूर करनेके लिये भगवानके पूजन करें। वह श्रीविष्णुका अधिष्ठान है तथा सब गुण, कर्म और नामोंका सङ्कीर्तन किया जाय-इतने प्रकारके पापोंका नाशक, पुण्यदायक एवं सबको मुक्ति बड़े प्रयासकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि प्रदान करनेवाला है। जो शालग्राम-शिलासे उत्पन्न हुए अजामिल-जैसा पापी भी मृत्युके समय 'नारायण' नामसे चक्रमें श्रीहरिका पूजन करता है, वह मानो प्रतिदिन एक अपने पुत्रको पुकारकर भी मुक्ति पा गया। जिस समय सहस्र राजसूय यज्ञोंका अनुष्ठान करता है। जिन शान्त मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक भगवान् श्रीहरिकी पूजा करते हैं, ब्रह्मस्वरूप अच्युतको उपनिषद् सदा नमस्कार करते हैं, उसी समय उनके मातृकुल और पितृकुल दोनों कुलोंके उन्हींका अनुग्रह शालग्राम-शिलाकी पूजा करनेसे पितर, जो चिरकालसे नरकमें पड़े होते हैं, तत्काल मनुष्योंको प्राप्त होता है। जैसे महान् काष्ठमें स्थित अग्नि स्वर्गको चले जाते हैं। जो विष्णुभक्तोंके सेवक तथा उसके अग्रभागमें प्रकाशित होती है, उसी प्रकार सर्वत्र वैष्णवोंका अन्न भोजन करनेवाले हैं, वे शान्तभावसे व्यापक भगवान् विष्णु शालग्राम-शिलामें प्रकाशित होते देवताओंकी गतिको प्राप्त होते हैं। अतः विद्वान् पुरुष हैं। जिसने शालग्राम-शिलासे उत्पन्न चक्रमें श्रीहरिका समस्त पापोंकी शुद्धिके लिये प्रार्थना और यत्नपूर्वक पूजन कर लिया उसने अग्निहोत्रका अनुष्ठान पूर्ण कर वैष्णवका अन्न प्राप्त करे; अन्नके अभावमें उसका जल लिया तथा समुद्रोंसहित सारी पृथ्वी दान दे दी। जो माँगकर ही पी ले। यदि 'गोविन्द' इस मन्त्रका जप करते नराधम इस लोकमें काम, क्रोध और लोभसे व्याप्त हो हुए कहीं मृत्यु हो जाय तो वह मरनेवाला मनुष्य न तो रहा है, वह भी शालग्राम-शिलाके पूजनसे श्रीहरिके स्वयं यमराजको देखता है और न हमलोग ही उसकी लोकको प्राप्त होता है। वैश्य ! शालग्राम-शिलाकी पूजा ओर दृष्टि डालते हैं। अङ्ग, मुद्रा, ध्यान, ऋषि, करनेसे मनुष्य तीर्थ, दान, यज्ञ और व्रतोंके बिना ही
* प्राहास्मान् यमुनाभ्राता सदैव हि पुनः पुनः । भवद्धिवैष्णवास्त्याज्या न ते स्युर्मम गोचराः॥ स्मरन्ति ये सकृद्भूताः प्रसङ्गेनापि केशवम्। ते विध्वस्ताखिलाघौघा यान्ति विष्णोः परं पदम्॥
(३१।१०२-१०३) +एतावतालमधनिर्हरणाय
पुंसा संकीर्तन भगवतो गुणकर्मनानाम्। विक्रुश्य पुत्रमघवान् यदजामिलोऽपि नारायणेति प्रियमाण इयाय मुक्तिम् ॥
(३१ | १०९)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। शालग्राम-शिलाकी पूजा करता है वह भगवान् विष्णुको नमस्कार करनेसे ही मिल करनेवाला मानव पापी हो तो भी नरक, गर्भवास, जाता है।* मनुष्य मोहके वशीभूत होकर अनेकों पाप तिर्यग्योनि तथा कीट-योनिको नहीं प्राप्त होता। गङ्गा, करके भी यदि सर्वपापापहारी श्रीहरिके चरणों में मस्तक गोदावरी और नर्मदा आदि जो-जो मुक्तिदायिनी नदियाँ झुकाता है तो वह नरकमें नहीं जाता। भगवान् विष्णुके हैं, वे सब-की-सब शालग्राम-शिलाके जलमें निवास नामोंका संकीर्तन करनेसे मनुष्य भूमण्डलके समस्त करती हैं। शालग्राम-शिलाके लिङ्गका एक बार भी तीर्थों और पुण्यस्थानोंके सेवनका पुण्य प्राप्त कर लेता पूजन करनेपर ज्ञानसे रहित मनुष्य भी मोक्ष प्राप्त कर लेते है। जो शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान् विष्णुकी हैं। जहाँ शालग्राम-शिलारूपी भगवान् केशव शरणमें जा चुके हैं, वे शरणागत मनुष्य न तो यमराजके विराजमान रहते हैं, वहाँ सम्पूर्ण देवता, यज्ञ एवं चौदह लोकमें जाते हैं और न नरकमें ही निवास करते हैं। भुवनोंके प्राणी वर्तमान रहते हैं। जो मनुष्य शालग्राम- वैश्य ! जो वैष्णव पुरुष शिवकी निन्दा करता है, शिलाके निकट श्राद्ध करता है, उसके पितर सौ वह विष्णुके लोकमें नहीं जाता; उसे महान् नरकमें गिरना कल्पोतक धुलोकमें तृप्त रहते हैं। जहाँ शालग्राम-शिला पड़ता है। जो मनुष्य प्रसङ्गवश किसी भी एकादशीको रहती है, वहाँकी तीन योजन भूमि तीर्थस्वरूप मानी गयी उपवास कर लेता है, वह यमयातनामें नहीं पड़ता-यह है। वहाँ किये हुए दान और होम सब कोटिगुना अधिक बात हमने महर्षि लोमशके मुखसे सुनी है। एकादशीसे फल देते हैं। जो एक बूंदके बराबर भी शालग्राम- बढ़कर पावन तीनों लोकोंमें दूसरा कुछ भी नहीं है। शिलाका जल पी लेता है, उसे फिर माताके स्तनोंका दूध एकादशी और द्वादशी–दोनों ही भगवान् विष्णुके दिन नहीं पीना पड़ता; वह मनुष्य भगवान् विष्णुको प्राप्त कर हैं और समस्त पातकोंका नाश करनेवाले हैं। इस शरीरमें लेता है। जो शालग्राम-शिलाके चक्रका उत्तम दान देता तभीतक पाप निवास करते हैं, जबतक प्राणी भगवान् है, उसने पर्वत, वन और काननोंसहित मानो समस्त विष्णुके शुभ दिन एकादशीको उपवास नहीं करता। भूमण्डलका दान कर दिया। जो मनुष्य शालग्राम- हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ एकादशीके शिलाको बेचकर उसकी कीमत उगाहता है, वह विक्रेता, उपवासकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है। मनुष्य उसकी बिक्रीका अनुमोदन करनेवाला तथा उसकी परख अपनी ग्यारहों इन्द्रियोंसे जो पाप किये होता है, वह सब करते समय अधिक प्रसन्न होनेवाला-ये सभी नरकमें एकादशीके अनुष्ठानसे नष्ट हो जाता है। एकादशी व्रतके जाते हैं और जबतक सम्पूर्ण भूतोंका प्रलय नहीं हो समान दूसरा कोई पुण्य इस संसारमें नहीं है। यह जाता, तबतक वहीं बने रहते हैं।
एकादशी शरीरको नीरोग बनानेवाली और स्वर्ग तथा वैश्य ! अधिक कहनेसे क्या लाभ? पापसे मोक्ष प्रदान करनेवाली है। वैश्य ! एकादशीको दिनमें डरनेवाले मनुष्यको सदा भगवान् वासुदेवका स्मरण उपवास और रातमें जागरण करके मनुष्य पितृकुल, करना चाहिये। श्रीहरिका स्मरण समस्त पापोंको मातृकुल तथा पत्नीकुलकी दस-दस पूर्व पीढ़ियोंका हरनेवाला है। मनुष्य वनमें रहकर अपनी इन्द्रियोंका निश्चय ही उद्धार कर देता है। संयम करते हुए घोर तपस्या करके जिस फलको प्राप्त मन, वाणी, शरीर तथा क्रियाद्वारा किसी भी
* बहुनोक्तेन कि वैश्य कर्तव्य पापभीरुणा । स्मरणं वासुदेवस्य सर्वपापहरे हरेः ।। तपस्तप्त्वा नरो पोरमरण्ये नियतेन्द्रियः । यत्फलं समवाप्रोति तत्रत्वा गरुडध्वजम्॥
(३१ । १४८-१४९)
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स्वर्गखण्ड ] • धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन •
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प्राणीके साथ द्रोह न करना, इन्द्रियोंको रोकना, दान देना, पाँच पुत्र अग्निहोत्री हुए। उनका मन गृहस्थधर्मके श्रीहरिकी सेवा करना तथा वर्णों और आश्रमोंके अनुष्ठानमें लगता था। शेष चार ब्राह्मण-कुमार-जो कर्तव्योंका सदा विधिपूर्वक पालन करना-ये दिव्य निर्मोह, जितकाम, ध्यानकाष्ठ और गुपाधिकके नामसे गतिको प्राप्त करानेवाले कर्म हैं। वैश्य ! स्वर्गार्थी प्रसिद्ध थे-घरकी ओरसे विरक्त हो गये। वे सब मनुष्यको अपने तप और दानका अपने ही मुँहसे बखान सम्पूर्ण भोगोंसे निःस्पृह हो चतुर्थ-आश्रम-संन्यासमें नहीं करना चाहिये; जैसी शक्ति हो उसके अनुसार अपने प्रविष्ट हुए। वे सब-के-सब आसक्ति और परिग्रहसे हितकी इच्छासे दान अवश्य करते रहना चाहिये। दरिद्र शून्य थे। उनमें आकाङ्क्षा और आरम्भका अभाव था। पुरुषको भी पत्र, फल, मूल तथा जल आदि देकर वे मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णमें समान भाव रखते अपना प्रत्येक दिन सफल बनाना चाहिये। अधिक क्या थे। जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेते थे। कहा जाय, मनुष्य सदा और सर्वत्र अधर्म करनेसे जो कुछ भी खाकर पेट भर लेते थे। जहाँ साँझ हुई, वहीं दुर्गतिको प्राप्त होते हैं और धर्मसे स्वर्गको जाते है। ठहर जाते थे। वे नित्य भगवान्का ध्यान किया करते इसलिये बाल्यावस्थासे ही धर्मका संचय करना उचित थे। उन्होंने निद्रा और आहारको जीत लिया था। वे बात है। वैश्य ! ये सब बातें हमने तुम्हें बता दीं, अब और और शीतका कष्ट सहन करनेमें पूर्ण समर्थ थे तथा क्या सुनना चाहते हो?
समस्त चराचर जगत्को विष्णुरूप देखते हुए लीलापूर्वक वैश्य बोला-सौम्य ! आपकी बात सुनकर मेरा पृथ्वीपर विचरते रहते थे। उन्होंने परस्पर मौनव्रत धारण चित्त प्रसन्न हो गया। गङ्गाजीका जल और सत्पुरुषोंका कर लिया था। वे स्वल्प मात्रामें भी कभी किसी क्रियाका वचन-ये शीघ्र ही पाप नष्ट करनेवाले हैं। दूसरोंका अनुष्ठान नहीं करते थे। उन्हें तत्त्वज्ञानका साक्षात्कार हो उपकार करना और प्रिय वचन बोलना-यह साधु गया था। उनके सारे संशय दूर हो चुके थे और वे पुरुषोंका स्वाभाविक गुण है। अतः देवदूत ! आप कृपा चिन्मय तत्वके विचारमें अत्यन्त प्रवीण थे। करके मुझे यह बताइये कि मेरे भाईका नरकसे तत्काल वैश्य ! उन दिनों तुम अपने पूर्ववर्ती आठवें उद्धार कैसे हो सकता है?
जन्ममें एक गृहस्थ ब्राह्मणके रूपमें थे। तुम्हारा निवास देवदूतने कहा-वैश्य ! तुमने पूर्ववर्ती आठवें मध्यप्रदेशमें था। एक दिन उपर्युक्त चारों ब्राह्मण जन्ममें जिस पुण्यका संचय किया है, वह सब अपने संन्यासी किसी प्रकार घूमते-घामते मध्याह्नके समय भाईको दे डालो। यदि तुम चाहते हो कि उसे भी स्वर्गकी तुम्हारे घरपर आये। उस समय उन्हें भूख और प्यास प्राप्ति हो जाय तो तुम्हें यही करना चाहिये। सता रही थी। वलिवैश्वदेवके पश्चात् तुमने उन्हें अपने
विकुण्डलने पूछा-देवदूत ! वह पुण्य क्या घरके आँगनमें उपस्थित देखा। उनपर दृष्टि पड़ते ही है? कैसे हुआ? मेरे प्राचीन जन्मका परिचय क्या है? तुम्हारे नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। तुम्हारी ये सब बातें बताइये; फिर मैं शीघ्र ही वह पुण्य भाईको वाणी गद्गद हो गयी, तुमने बड़े वेगसे दौड़कर उनके अर्पण कर दूंगा।
चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम किया। फिर बड़े आदरभावके देवदूतने कहा-पूर्वकालकी बात है, पुण्यमय साथ दोनों हाथ जोड़कर मधुर वाणीसे उन सबका मधुवनमें एक ऋषि रहते थे, जिनका नाम शाकुनि था, अभिनन्दन करते हुए कहा-महानुभाव ! आज मेरा वे तपस्या और स्वाध्यायमें लगे रहते थे और तेजमें जन्म और जीवन सफल हो गया। आज मुझपर भगवान् ब्रह्माजीके समान थे। उनके रेवती नामकी पत्नीके गर्भसे विष्णु प्रसन्न हैं। मैं सनाथ और पवित्र हो गया। आज नौ पुत्र उत्पन्न हुए, जो नवग्रहोंके समान शक्तिशाली थे। मैं, मेरा घर तथा मेरे सभी कुटुम्वी धन्य हो गये। आज उनमेंसे ध्रुव, शाली, बुध, तार और ज्योतिष्मान्–ये मेरे पितर धन्य हैं, मेरी गौएँ धन्य हैं, मेरा शास्त्राध्ययन
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
तथा धन भी धन्य है; क्योंकि इस समय आपलोगोंके इन करनेवाला है। यदि कभी किसी गृहस्थके घरपर ब्रह्मचरणोंका दर्शन हुआ, जो तीनों तापोंका विनाश ज्ञानी महात्मा आकर संतोषपूर्वक विश्राम करें तो वे करनेवाला है। भगवान् विष्णुकी भाँति आपलोगोंका उसके जन्मभरके पापोंका अपने दृष्टिपातमात्रसे नाश दर्शन भी किसी धन्य व्यक्तिको ही होता है। कर डालते हैं।* एक रात गृहस्थके घरपर विश्राम
इस प्रकार उनका पूजन करके तुमने अतिथियोंके करनेवाला संन्यासी उसके जीवनभरके सारे पापोंको पाँव पखारे और चरणोदक लेकर बड़ी श्रद्धाके साथ भस्म कर देता है। वैश्य ! वही पुण्य तुम अपने भाईको अपने मस्तकपर चढ़ाया। फिर चन्दन, फूल, अक्षत, दे दो, जिसके द्वारा उसका नरकसे उद्धार हो जाय। धूप और दीप आदिके द्वारा भक्ति-भावके साथ उन देवदूतकी यह बात सुनकर विकुण्डलने तत्काल ही यतियोंकी पूजा करके उन्हें उत्तम अन्न भोजन कराया। वे वह पुण्य अपने भाईको दे दिया। तब उसका भाई भी चारों परमहंस तृप्त होकर रातको तुम्हारे भवनमें विश्राम प्रसन्न होकर नरकसे निकल आया। फिर तो देवताओंने
और सूर्य आदिके भी प्रकाशक परब्रह्मका ध्यान करते उन दोनोंपर पुष्पोंकी वृष्टि करते हुए उनका पूजन किया रहे। उनका आतिथ्य-सत्कार करनेसे जो पुण्य तुम्हें प्राप्त तथा वे दोनों भाई स्वर्गलोकमें चले गये। तदनन्तर हुआ है, उसका एक हजार मुखोंसे भी वर्णन करनेमें मैं दोनोंसे सम्मानित होकर देवदूत यमलोकमें लौट आया। असमर्थ हूँ। भूतोंमें प्राणधारी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी नारदजी कहते हैं-राजन् । देवदूतका वचन बुद्धिजीवी, बुद्धिजीवियोंमें भी मनुष्य और मनुष्योंमें भी वेद-वाक्यके समान था, उसमें सम्पूर्ण लोकका ज्ञान भरा ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणोंमें विद्वान्, विद्वानोंमें पवित्र था, उसे वैश्यपुत्र विकुण्डलने सुना और अपने किये हुए बुद्धिवाले पुरुष, उनमें भी कर्म करनेवाले व्यक्ति तथा पुण्यका दान देकर अपने भाईको भी तार दिया। उनमें भी ब्रह्मज्ञानी पुरुष सबसे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार तत्पश्चात् वह भाईके साथ ही देवराज इन्द्रके श्रेष्ठ लोकमें ब्रह्मज्ञानी तीनों लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं, अतः गया। जो इस इतिहासको पढ़ेगा या सुनेगा, वह सबके परमपूज्य हैं। उनका सङ्ग महान् पातकोंका नाश शोकरहित होकर सहस्र गोदानका फल प्राप्त करेगा।
सुगन्ध आदि तीर्थोकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
नारदजी कहते हैं-राजेन्द्र ! तदनन्तर तीर्थयात्री करनेवाला पुरुष अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। पुरुष विश्वविख्यात सुगन्ध नामक तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ कर्णहदमें स्नान और भगवान् शङ्करकी पूजा करके वहाँ सब पापोंसे चित्त शुद्ध हो जानेपर वह ब्रह्मलोकमें मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। इसके बाद क्रमशः प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् रुद्रावर्त तीर्थमें जाय । वहाँ कुब्जाम्रक-तीर्थको प्रस्थान करना चाहिये। वहाँ स्नान स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है और मनुष्य नरश्रेष्ठ ! गङ्गा और सरस्वतीके सङ्गममें स्नान स्वर्गलोकमें जाता है। राजन् ! इसके बाद अरुन्धतीवटमें
___* भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां मतिजीविनः ॥ मतिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राजातयः । ब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुद्धयः॥ कृतबुद्धिषु कर्तारः कर्तषु ब्रह्मवेदिनः । अत एव सुपूज्यास्ते तस्मालेष्ठा जगत्त्रये ॥
सत्संगतिर्विशी श्रेष्ठ महापातकनाशिनी॥ विश्रान्ता गृहिणो गेहे संतुष्टा ब्रह्मवेदिनः । आजन्मसंचितं पापं नाशयन्तीक्षणेन वै॥
(३१ । २००-२०४).
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स्वर्गखण्ड]
- सुगन्ध आदि तीर्थोकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य .
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जाना चाहिये। वहाँ समुद्रके जलमें स्नान करके तीन निवास करते हैं। नैमिष-तीर्थमें जानेकी इच्छा राततक उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका करनेवालेका ही आधा पाप नष्ट हो जाता है तथा उसमें फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। तदनन्तर प्रविष्ट हुआ मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। ब्रह्मावर्त तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ ब्रह्मचर्यका पालन भारत ! धीर पुरुषको उचित है कि वह तीर्थ-सेवनमें करते हुए एकाग्रचित्त हो नान करनेसे मनुष्य अश्वमेध तत्पर हो एक मासतक नैमिषारण्यमें निवास करे। यज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकमें जाता है। उसके बाद भूमण्डलमें जितने तीर्थ हैं, वे सभी नैमिषारण्यमें यमुनाप्रभव नामक तीर्थमें जाय । वहाँ यमुनाजलमें स्नान विद्यमान रहते हैं। जो वहाँ स्नान करके नियमपूर्वक रहते करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाकर ब्रह्मलोकमें हुए नियमानुकूल आहार ग्रहण करता है, वह मानव प्रतिष्ठित होता है। दवीसंक्रमण नामक तीर्थ तीनों राजसूय यज्ञका फल पाता है। इतना ही नहीं, वह अपने लोकोंमें विख्यात है। वहाँ पहुँचकर स्नान करनेसे कुलकी सात पीढ़ियोंतकको पवित्र कर देता है। अश्वमेध यज्ञके फल और स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। गोद्रेद-तीर्थमें जाकर तीन राततक उपवास भृगुतुङ्ग-तीर्थमें जानेसे भी अश्वमेध यज्ञका फल मिलता करनेवाला मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता और है। वीरप्रमोक्ष नामक तीर्थकी यात्रा करके मनुष्य सब सदाके लिये ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। सरस्वतीके तटपर पापोंसे छुटकारा पा जाता है। कृत्तिका और मघाके दुर्लभ जाकर देवता और पितरोका तर्पण करना चाहिये। ऐसा तीर्थमें जाकर पुण्य करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम और करनेवाला पुरुष सारस्वत-लोकोंमें जाकर आनन्द भोगता अतिरात्र यज्ञोका फल पाता है।
है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तत्पश्चात् बाहुदा तत्पश्चात् सन्ध्या-तीर्थमें जाकर जो परम उत्तम नदीकी यात्रा करे। वहाँ एक रात निवास करनेवाला विद्या-तीर्थमें स्नान करता है, वह सम्पूर्ण विद्याओमें मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है और उसे देवसत्र पारंगत होता है। महाश्रम तीर्थ सब पापोंसे छुटकारा नामक यज्ञका फल मिलता है । इसके बाद सरयू नदीके दिलानेवाला है। वहाँ रात्रिमें निवास करना चाहिये । जो उत्तम तीर्थ गोप्रतार (गुप्तार) घाटपर जाना चाहिये । जो मनुष्य वहाँ एक समय भी उपवास करता है, उसे उत्तम मनुष्य उस तीर्थमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध लोकोंमें निवास प्राप्त होता है। जो तीन दिनपर एक समय होकर स्वर्गलोकमें पूजित होता है। कुरुनन्दन ! गोमती उपवास करते हुए एक मासतक महाश्रम-तीर्थमें निवास नदीके रामतीर्थमें स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका करता है, वह स्वयं तो भवसागरके पार हो ही जाता है, फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है। वहीं अपने आगे-पीछेकी दस-दस पीढ़ियोंको भी तार देता शतसाहस्रक नामका तीर्थ है; जो वहाँ स्नान करके है। परमपवित्र देववन्दित महेश्वरका दर्शन करके मनुष्य नियमसे रहता और नियमानुकूल भोजन करता है, उसे सब कर्तव्योंसे उऋण हो जाता है। उसके बाद सहस्र गोदानोंका पुण्य-फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ पितामहद्वारा सेवित वेतसिका-तीर्थके लिये प्रस्थान करे। युधिष्ठिर ! वहाँसे ऊर्ध्वस्थान नामक उत्तम तीर्थमें जाना वहाँ जानेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और चाहिये। वहाँ कोटितीर्थमें स्नान करके कार्तिकेयजीका परमगतिको प्राप्त होता है।
पूजन करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है तत्पश्चात् ब्राह्मणिका-तीर्थमें जाकर ब्रह्मचर्यका तथा वह तेजस्वी होता है। उसके बाद काशीमें जाकर पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो स्नानादि करनेसे मनुष्य भगवान् शंकरकी पूजा और कपिलाकुण्डमें स्नान करनेसे कमलके समान रंगवाले विमानपर बैठकर ब्रह्मलोकको राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है। जाता है। उसके बाद द्विजोंद्वारा सेवित पुण्यमय नैमिष- युधिष्ठिर बोले-मुने ! आपने काशीका माहात्म्य तीर्थकी यात्रा करे । वहाँ ब्रह्माजी देवताओंके साथ सदा बहुत थोड़ेमें बताया है, उसे कुछ विस्तारके साथ कहिये।
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• अर्चयस्व हषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
नारदजीने कहा-राजन् ! मैं इस विषयमें एक निवास करता है, वह उस परमपदको प्राप्त होता है जहाँ संवाद सुनाऊँगा, जो वाराणसीके गुणोंसे सम्बन्ध जानेपर शोकसे पिण्ड छूट जाता है। काशीपुरीमें रखनेवाला है। उस संवादके श्रवणमात्रसे मनुष्य ब्रह्म- रहनेवाले जीव जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थासे रहित हत्याके पापसे छुटकारा पा जाता है। पूर्वकालकी बात परमधामको प्राप्त होते हैं। उन्हें वही गति प्राप्त होती है, है, भगवान् शङ्कर मेरुगिरिके शिखरपर विराजमान थे जो पुनः मृत्युके बन्धनमें न आनेवाले मोक्षाभिलाषी तथा पार्वती देवी भी वहीं दिव्य सिंहासनपर बैठी थीं। पुरुषोंको मिलती है तथा जिसे पाकर जीव कृतार्थ हो उन्होंने महादेवजीसे पूछा-'भक्तोंके दुःख दूर करनेवाले जाता है। अविमुक्त क्षेत्रमें जो उत्कृष्ट गति प्राप्त होती है देवाधिदेव ! मनुष्य शीघ्र ही आपका दर्शन कैसे पा वह अन्यत्र दान, तपस्या, यज्ञ और विद्यासे भी नहीं मिल सकता है? समस्त प्राणियोंके हितके लिये यह बात सकती। जो चाण्डाल आदि घृणित जातियोंमें उत्पन्न हैं मुझे बताइये।
तथा जिनकी देह विशिष्ट पातकों और पापोंसे परिपूर्ण है, भगवान् शिव बोले-देवि! काशीपुरी मेरा उन सबकी शुद्धिके लिये विद्वान् पुरुष अविमुक्त क्षेत्रको परम गुह्यतम क्षेत्र है। वह सम्पूर्ण भूतोंको संसार- ही श्रेष्ठ औषध मानते हैं। अविमुक्त क्षेत्र परम ज्ञान है, सागरसे पार उतारनेवाली है। वहाँ महात्मा पुरुष अविमुक्त क्षेत्र परम पद है, अविमुक्त क्षेत्र परम तत्त्व है भक्तिपूर्वक मेरी भक्तिका आश्रय ले उत्तम नियमोंका और अविमुक्त क्षेत्र परम शिव-परम कल्याणमय है। पालन करते हुए निवास करते हैं। वह समस्त तीर्थों और जो मरणपर्यन्त रहनेका नियम लेकर अविमुक्त क्षेत्रमें सम्पूर्ण स्थानोंमें उत्तम है। इतना ही नहीं, अविमुक्त क्षेत्र निवास करते हैं, उन्हें अन्तमें मैं परमज्ञान एवं परमपद मेरा परम ज्ञान है। वह समस्त ज्ञानोंमें उत्तम है। देवि! प्रदान करता हूँ। वाराणसीपुरीमें प्रवेश करके बहनेवाली यह वाराणसी सम्पूर्ण गोपनीय स्थानोंमें श्रेष्ठ तथा मुझे त्रिपथगामिनी गङ्गा विशेषरूपसे सैकड़ों जन्मोंका पाप अत्यन्त प्रिय है। मेरे भक्त वहाँ जाते तथा मुझमें ही नष्ट कर देती हैं। अन्यत्र गङ्गाजीका स्रान, श्राद्ध, दान, प्रवेश करते हैं। वाराणसीमें किया हुआ दान, जप, होम, तप, जप और व्रत सुलभ हैं; किन्तु वाराणसीपुरीमें रहते यज्ञ, तपस्या, ध्यान, अध्ययन और ज्ञान-सब अक्षय हुए इन सबका अवसर मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। होता है। पहलेके हजारों जन्मोंमें जो पाप संचित किया वाराणसीपुरीमें निवास करनेवाला मनुष्य जप, होम, दान गया हो, वह सब अविमुक्त क्षेत्रमें प्रवेश करते ही नष्ट एवं देवताओंका नित्यप्रति पूजन करनेका तथा निरन्तर हो जाता है। वरानने ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वायु पीकर रहनेका फल प्राप्त कर लेता है। पापी, शठ वर्णसङ्कर, स्त्रीजाति, म्लेच्छ तथा अन्यान्य मिश्रित और अधार्मिक मनुष्य भी यदि वाराणसीमें चला जाय तो जातियोंके मनुष्य, चाण्डाल आदि, पापयोनिमें उत्पन्न वह अपने समूचे कुलको पवित्र कर देता है। जो जीव, कीड़े, चीटियाँ तथा अन्य पशु-पक्षी आदि जितने वाराणसीपुरीमे मेरी पूजा और स्तुति करते हैं, वे सब भी जीव हैं, वे सब समयानुसार अविमुक्त क्षेत्रमें मरनेपर पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। देवदेवेश्वरि ! जो मेरे भक्तजन मेरे अनुप्रहसे परम गतिको प्राप्त होते हैं। मोक्षको वाराणसीपुरीमें निवास करते हैं, वे एक ही जन्ममें परम अत्यन्त दुर्लभ और संसारको अत्यन्त भयानक समझकर मोक्षको पा जाते हैं। परमानन्दकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको काशीपुरीमें निवास करना चाहिये । जहाँ-तहाँ ज्ञाननिष्ठ पुरुषोंके लिये शास्त्रोंमें जो गति प्रसिद्ध है, वही मरनेवालेको संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाली सद्गति तपस्यासे अविमुक्त क्षेत्रमें मरनेवालेको प्राप्त हो जाती है। भी मिलनी कठिन है। [किन्तु वाराणसीपुरीमें बिना अविमुक्त क्षेत्रमें देहावसान होनेपर साक्षात् परमेश्वर मैं तपस्याके ही ऐसी गति अनायास प्राप्त हो जाती है।] जो स्वयं ही जीवको तारक ब्रह्म (राम-नाम) का उपदेश विद्वान् सैकड़ों विघ्नोंसे आहत होनेपर भी काशीपुरीमें करता हूँ। वरणा और असी नदियोंके बीचमें वाराणसीपुरी
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स्वर्गखण्ड ]
- पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपर्दीवरका माहात्म्य.
स्थित है तथा उस पुरीमें ही नित्य-विमुक्त तत्त्वकी स्थिति और शरीरके द्वारा कभी पाप नहीं करना चाहिये। है। वाराणसीसे उत्तम दूसरा कोई स्थान न हुआ है और नारदजी कहते हैं-राजन् ! जैसे देवताओंमें न होगा। जहाँ स्वयं भगवान् नारायण और देवेश्वर मैं पुरुषोत्तम नारायण श्रेष्ठ हैं, जिस प्रकार ईश्वरोमें विराजमान हूँ। देवि ! जो महापातकी हैं तथा जो उनसे महादेवजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार समस्त तीर्थस्थानोंमें यह भी बढ़कर पापाचारी हैं, वे सभी वाराणसीपुरीमें जानेसे काशीपुरी उत्तम है। जो लोग सदा इस पुरीका स्मरण परमगतिको प्राप्त होते हैं। इसलिये मुमुक्षु पुरुषको और नामोच्चारण करते हैं, उनका इस जन्म और मृत्युपर्यन्त नियमपूर्वक वाराणसीपुरीमें निवास करना पूर्वजन्मका भी सारा पातक तत्काल नष्ट हो जाता है; चाहिये। वहाँ मुझसे ज्ञान पाकर वह मुक्त हो जाता है।* इसलिये योगी हो या योगरहित, महान् पुण्यात्मा हो किन्तु जिसका चित्त पापसे दूषित होगा, उसके सामने अथवा पापी-प्रत्येक मनुष्यको पूर्ण प्रयत्न करके नाना प्रकारके विघ्न उपस्थित होंगे। अतः मन, वाणी वाराणसीपुरीमें निवास करना चाहिये।
पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपर्दीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शङ्ककर्ण मुनिके मुक्त
होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! वाराणसीपुरीमे पूर्वकालकी बात है, कपीश्वर क्षेत्रमें उत्तम व्रतका कपर्दीश्वरके नामसे प्रसिद्ध एक शिवलिङ्ग है, जो पालन करनेवाले एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। उनका अविनाशी माना गया है। वहाँ स्नान करके पितरोंका नाम था-शङ्ककर्ण। वे प्रतिदिन भगवान् शङ्करका विधिवत् तर्पण करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो पूजन, रुद्रका पाठ तथा निरन्तर ब्रह्मस्वरूप प्रणवका जप जाता है तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। करते थे। उनका चित्त योगमें लगा हुआ था। वे काशीपुरीमें निवास करनेवाले पुरुषोंके काम, क्रोध आदि मरणपर्यन्त काशीमें रहनेका नियम लेकर पुष्प, धूप दोष तथा सम्पूर्ण विघ्न कपीश्वरके पूजनसे नष्ट हो जाते आदि उपचार, स्तोत्र, नमस्कार और परिक्रमा आदिके हैं। इसलिये परम उत्तम कपर्दीश्वरका सदैव दर्शन करना द्वारा भगवान् कपर्दीश्वरकी आराधना करते थे। एक दिन चाहिये। यत्नपूर्वक उनका पूजन तथा वेदोक्त स्तोत्रों- उन्होंने देखा, एक भूखा प्रेत सामने आकर खड़ा है। उसे द्वारा उनका स्तवन भी करना चाहिये। कपर्दीश्वरके देख मुनिश्रेष्ठ शङ्ककर्णको बड़ी दया आयी। उन्होंने स्थानमें नियमपूर्वक ध्यान लगानेवाले शान्तचित्त पूछा-'तुम कौन हो? और किस देशसे यहाँ आये योगियोंको छः मासमें ही योगसिद्धि प्राप्त होती है- हो?' पिशाच भूखसे पीड़ित हो रहा था। उसने इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पिशाचमोचन कुण्डमें शकर्णसे कहा-'मुने! मैं पूर्वजन्ममें धन-धान्यसे नहाकर कपर्दीश्वरके पूजनसे मनुष्यके ब्रह्महत्या आदि सम्पन्न ब्राह्मण था। मेरा घर पुत्र-पौत्रादिसे भरा था। पाप नष्ट हो जाते हैं।
किन्तु मैंने केवल कुटुम्बके भरण-पोषणमें आसक्त
* यत्र साक्षान्महादेवो देहान्ते स्वयमीश्वरः । व्याचष्टे तारकं ब्रह्म तत्रैव विमुक्तके।
वरणायास्तथा चास्या मध्ये वाराणसी पुरी। तत्रैव संस्थितं तत्त्वं नित्यमेवं विमुक्तकम्। वाराणस्याः परं स्थानं न भूतं न भविष्यति । यत्र नारायणो देवो महादेवो दिवीश्वरः॥ महापातकिनो देवि ये तेभ्यः पापकृतमाः । वाराणसी समासाद्य ते यान्ति परमां गतिम्॥ तस्मा मुमुक्षुनियतो वसे? मरणान्तकम् । वाराणस्यां महादेवाज्ज्ञानं लब्ध्या विमुच्यते ॥
(३३ । ४६, ४९, ५०, ५२-५३)
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[संक्षिप्त परापुराण
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रहनेके कारण कभी देवताओं, गौओं तथा अतिथियोंका हिरण्यगर्भ आदि देवताओंके स्वामी तथा तीन नेत्रोंसे पूजन नहीं किया। कभी थोड़ा-बहुत भी पुण्यका कार्य सुशोभित हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। जिनमें इस नहीं किया। अतः इस समय भूख-प्याससे व्याकुल जगत्की उत्पत्ति और लय होते हैं, जिन शिवस्वरूप होनेके कारण मैं हिताहितका ज्ञान खो बैठा हूँ। प्रभो! परमात्माने इस समस्त दृश्य-प्रपञ्चको व्याप्त कर रखा है यदि आप मेरे उद्धारका कोई उपाय जानते हों तो कीजिये। तथा जो वेदोंकी सीमासे भी परे हैं, उन भगवान् शङ्करको आपको नमस्कार है। मैं आपकी शरणमें आया हूँ।' प्रणाम करके मैं सदाके लिये उनकी शरणमें आ पड़ा हैं।
शङ्ककर्णने कहा-तुम शीघ्र ही एकाग्रचित्त जो लिङ्गरहित (किसीकी पहचानमें न आनेवाले) होकर इस कुण्डमें स्नान करो, इससे शीघ्र ही इस घृणित आलोकशून्य (जिन्हें कोई प्रकाशित नहीं कर सकतायोनिसे छुटकारा पा जाओगे।
जो स्वयंप्रकाश है), स्वयंप्रभु, चेतनाके स्वामी, एकरूप दयालु मुनिके इस प्रकार कहनेपर पिशाचने तथा ब्रह्माजीसे भी उत्कृष्ट परमेश्वर हैं, जिनके सिवा त्रिनेत्रधारी देववर भगवान् कपर्दीश्वरका स्मरण किया दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं तथा जो वेदसे भी परे हैं,
और चित्तको एकाग्र करके उस कुण्डमें गोता लगाया। उन्हीं आप भगवान् कपर्दीश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। मुनिके समीप गोता लगाते ही उसने पिशाचका शरीर सबीज समाधिका त्याग करके निर्बीज समाधिको सिद्ध त्याग दिया। भगवान् शिवकी कृपासे उसे तत्काल बोध कर परमात्मरूप हुए योगीजन जिसका साक्षात्कार करते प्राप्त हुआ और मुनीश्वरोका समुदाय उसकी स्तुति करने हैं और जो वेदसे भी परे है, वह आपका ही स्वरूप है; लगा। तत्पश्चात् जहाँ भगवान् शङ्कर विराजते हैं, उस मैं आपको सदा प्रणाम करता हूँ। जहाँ नाम आदि त्रयीमय श्रेष्ठ धाममें वह प्रवेश कर गया। पिशाचको इस विशेषणोंकी कल्पना नहीं है, जिनका स्वरूप इन प्रकार मुक्त हुआ देख मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने चर्म-चक्षुओका विषय नहीं होता तथा जो स्वयम्भूमन-ही-मन भगवान् महेश्वरका चिन्तन करके कारणहीन तथा वेदसे परे हैं, उन्हीं आप भगवान् शिवकी कपर्दीश्वरको प्रणाम किया तथा उनकी इस प्रकार स्तुति मैं शरणमें हूँ और सदा आपको प्रणाम करता हूँ। जो करने लगे-'भगवन् ! आप जटा-जूट धारण करनेके देहसे रहित, ब्रह्म (व्यापक), विज्ञानमय, भेदशून्य, कारण कपर्दी कहलाते हैं, आप परात्पर, सबके रक्षक, और एक-अद्वितीय है; तथापि वेदवादमें आसक्त एक-अद्वितीय, पुराण-पुरुष, योगेश्वर, ईश्वर, आदित्य मनुष्य जिसमें अनेकता देखते हैं, उस आपके वेदातीत
और अग्निरूप तथा कपिल वर्णके वृषभ नन्दीश्वरपर स्वरूपको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। जिससे प्रकृतिकी आरूढ़ हैं; मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप सबके उत्पत्ति हुई है, स्वयं पुराणपुरुष आप जिसे तेजके रूपमें हृदयमें स्थित सारभूत ब्रह्म है, हिरण्यमय पुरुष हैं, योगी धारण करते हैं, जिसे देवगण सदा नमस्कार करते हैं हैं तथा सबके आदि और अन्त हैं। आप 'रु'- तथा जो आपकी ज्योतिमें सन्निहित है, उस आपके दुःखको दूर करनेवाले हैं, अतः आपको रुद्र कहते हैं; स्वरूपभूत बृहत् कालको मैं नमस्कार करता हूँ। मैं आप आकाशमें व्यापकरूपसे स्थित, महामुनि, सदाके लिये कार्तिकेयके स्वामीकी शरण जाता हैं। ब्रह्मस्वरूप एवं परम पवित्र है; मैं आपकी शरणमें आया स्थाणुका आश्रय लेता हूँ, कैलाश पर्वतपर शयन हूँ। आप सहस्रों चरण, सहस्रों नेत्र तथा सहस्रों करनेवाले पुराणपुरुष शिवकी शरणमें पड़ा हूँ। भगवन् ! मस्तकोंसे युक्त हैं; आपके सहस्रों रूप हैं, आप आप कष्ट हरनेके कारण 'हर' कहलाते हैं, आपके अन्धकारसे परे और वेदोंकी भी पहुँचके बाहर हैं, मस्तकमें चन्द्रमाका मुकुट शोभा पा रहा है तथा आप कल्याणोत्पादक होनेसे आपको 'शम्भु' कहते हैं, आप पिनाक नामसे प्रसिद्ध धनुष धारण करनेवाले हैं; मैं
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स्वर्गखण्ड ]
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पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपर्दीश्वरका माहात्य •
आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।*
इस प्रकार भगवान् कपर्दीकी स्तुति करके शङ्कुकर्ण प्रणवका उच्चारण करते हुए पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़ गये। उसी समय शिवस्वरूप उत्कृष्ट लिङ्गका प्रादुर्भाव हुआ, जो ज्ञानमय तथा अनन्त आनन्दस्वरूप था। आगकी भाँति उससे करोड़ों लपटें निकल रही थीं। महात्मा शङ्कुकर्ण मुक्त होकर सर्वव्यापी निर्मल शिवस्वरूप हो गये और उस विमल लिङ्गमें समा गये। राजन् ! यह मैंने तुम्हें कपर्दीका गूढ़ माहात्म्य बतलाया है। जो प्रतिदिन इस पापनाशिनी कथाका श्रवण करता है, वह निष्पाप एवं शुद्धचित्त होकर भगवान् शिवके समीप जाता है। जो प्रातः काल और मध्याह्नके समय शुद्ध होकर सदा ब्रह्मपार नामक इस महास्तोत्रका पाठ करता है, उसे परम योगकी प्राप्ति होती है।
तदनन्तर गयामें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त होकर स्नान करे। भारत! वहाँ जानेमात्रसे मनुष्यको अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। वहाँ अक्षयवट नामका वटवृक्ष है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। राजन् ! वहाँ पितरोंके लिये जो पिण्डदान किया जाता है, वह अक्षय होता है। उसके बाद महानदीमें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। इससे मनुष्य अक्षय लोकोंको प्राप्त होता तथा अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। तत्पश्चात् ब्रह्मारण्यमें स्थित ब्रह्मसरकी यात्रा करे। वहाँ जानेसे पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त होता है।
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राजेन्द्र ! वहाँसे विश्वविख्यात धेनुक तीर्थको प्रस्थान करे और वहाँ एक रात रहकर तिलकी धेनु दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष सब पापोंसे शुद्ध हो निश्चय ही सोमलोकमें जाता है। वहाँ बछड़ेसहित कपिला गौके पदचिह्न आज भी देखे जाते हैं। उन पदचिह्नोंमेंसे जल लेकर आचमन करनेसे जो कुछ घोर पाप होता है, वह नष्ट हो जाता है वहाँसे गृधवटकी यात्रा करे। वह शूलधारी भगवान् शङ्करका स्थान है। वहाँ शङ्करजीका दर्शन करके भस्म स्नान करे – सारे अङ्गोंमें भस्म लगाये। ऐसा करनेवाला यदि ब्राह्मण हो तो उसे बारह वर्षोंतक व्रत करनेका फल प्राप्त होता है और अन्य वर्णके मनुष्योंका सारा पाप नष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् उदय पर्वतपर जाय वहाँ सावित्रीके चरणचिह्नोंका दर्शन होता है। उस तीर्थमें सन्ध्योपासन करना चाहिये। इससे एक ही समयमें बारह वर्षोंतक सन्ध्या करनेका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् वहीं योनिद्वारके पास जाय। वह विख्यात स्थान है। उसके पास जानेमात्रसे मनुष्य गर्भवासके कष्टसे छुटकारा पा जाता है। राजन् ! जो मनुष्य शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षोंमें गयामें निवास करता है, वह अपने कुलकी सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
राजन् ! तत्पश्चात् तीर्थसेवी मनुष्य फल्गु नदीके किनारे जाय। वहाँ जानेसे वह अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परम सिद्धिको प्राप्त होता है। तदनन्तर एकाग्रचित्त हो धर्मपृष्ठको यात्रा करे, जहाँ धर्मका
* कपर्दिनं त्वां परतः परस्ताद् गोप्तारमेकं पुरुषं पुराणम्। व्रजामि योगेश्वरमीशितारमादित्यमग्नि कपिलाधिरूढम् ॥ त्वां ब्रह्मसारं हृदि संनिविष्टं हिरण्मयं योगिनमादिमन्तम् । व्रजामि रुद्रं शरणं दिविष्ठं महामुनिं ब्रह्ममयं पवित्रम् ॥ सहस्रपादाक्षिशिरोऽभियुक्तं सहस्ररूपं तमसः परस्तात् । तं ब्रह्मपारं प्रणमामि शम्भुं हिरण्यगर्भादिपतिं त्रिनेत्रम् ॥ यत्र प्रसूतिर्जगतो विनाशो येनावृतं सर्वमिदं शिवेन तं ब्रह्मपारं भगवन्तमीशं प्रणम्य नित्यं शरणं प्रपद्ये ॥ अलिङ्गमालोकविहीनरूपं स्वयंप्रभुं चित्पतिमेकरूपम्। तं ब्रह्मपारं परमेश्वरं त्वां नमस्करिष्ये न यतोऽन्यदस्ति ॥ यं योगिनस्त्यक्तसबीजयोगा लब्ध्वा समाधिं परमात्मभूताः । पश्यन्ति देवं प्रणतोऽस्मि नित्यं तं ब्रह्मपारं भवतः स्वरूपम् ॥ न यत्र नामादिविशेषप्तिर्न संदृशे तिष्ठति यत्स्वरूपम्। तं ब्रह्मपारं प्रणतोऽस्मि नित्यं स्वयम्भुवं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ यद् वेदवादाभिरता विदेहं सब्रह्मविज्ञानमभेदमेकम् । पश्यन्त्यनेकं भवतः स्वरूपं तं ब्रह्मपारं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ॥ यतः प्रधानं पुरुषः पुराणो विभर्ति तेजः प्रणमन्ति देवाः नमामि तं ज्योतिषि संनिविष्टं कालं वृहन्तं भवतः स्वरूपम् ॥ व्रजामि नित्यं शरणं गुहेशं स्थाणुं प्रपद्ये गिरिशं पुराणम् । शिवं प्रपद्ये हरमिन्दुमौलिं पिनाकिनं त्वां शरणं व्रजामि ॥
(३५ । ३४ - ४३ )
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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नित्य-निवास है । वहाँ धर्मके समीप जानेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वहाँसे ब्रह्माजीके उत्तम तीर्थको प्रस्थान करे और वहाँ पहुँचकर व्रतका पालन करते हुए ब्रह्माजीकी पूजा करे। इससे राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल मिलता है। इसके बाद मणिनाग तीर्थमें जाय। वहाँ सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त होता है। उस तीर्थमें एक रात निवास करनेपर सब पापोंसे छुटकारा मिल जाता है। इसके बाद ब्रह्मर्षि गौतमके वनमें जाय। वहाँ अहल्याकुण्डमें स्नान करनेसे परम गतिकी प्राप्ति होती है। उसके बाद राजर्षि जनकका कूप है, जो देवताओंद्वारा भी पूजित है। वहाँ स्नान करके मनुष्य विष्णुलोकको प्राप्त कर लेता है। वहाँसे विनाशन तीर्थको जाय, जो सब पापोंसे मुक्त करनेवाला है। वहाँकी यात्रासे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और सोमलोकको जाता है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण तीर्थोके जलसे प्रकट हुई गण्डकी नदीकी यात्रा करे। वहाँ जानेसे मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता और सूर्यलोकको जाता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर! वहाँसे ध्रुवके तपोवनमें प्रवेश करे। महाभाग ! वहाँ जानेसे मनुष्य यक्षलोकमें आनन्दका अनुभव करता है । तदनन्तर सिद्धसेवित कर्मदा नदीकी यात्रा करे। वहाँ जानेवाला मनुष्य पुण्डरीक यज्ञका फल पाता और सोमलोकको जाता है।
राजा युधिष्ठिर ! तत्पश्चात् माहेश्वरी धाराके समीप जाना चाहिये। वहाँ यात्रीको अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है और वह अपने कुलका उद्धार कर देता है। देवपुष्करिणी तीर्थमें जाकर स्नानसे पवित्र हुआ मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और वाजपेय यज्ञका फल पाता है। इसके बाद ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो माहेश्वर पदकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ! माहेश्वर पदमें एक करोड़ तीर्थ सुने गये हैं, उनमें स्नान करना चाहिये, इससे पुण्डरीक यज्ञके फल और विष्णु लोककी प्राप्ति होती है, तदनन्तर भगवान् नारायणके स्थानको जाना चाहिये, जहाँ सदा ही भगवान् श्रीहरि निवास करते हैं। ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन ऋषि
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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बारहों आदित्य, आठों वसु और ग्यारहों रुद्र वहाँ उपस्थित होकर भगवान् जनार्दनकी उपासना करते हैं। वहाँ अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णुका विग्रह शालग्रामके नामसे विख्यात है, उस तीर्थमें अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले और भक्तोंको वर प्रदान करनेवाले त्रिलोकीपति श्रीविष्णुका दर्शन करनेसे मनुष्य विष्णुलोकको प्राप्त होता है। वहाँ एक कुआँ है, जो सब पापोंको हरनेवाला है। उसमें सदा चारों समुद्रोंके जल मौजूद रहते हैं। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अविनाशी एवं महान् देवता वरदायक विष्णुके पास पहुँचकर तीनों ऋणोंसे मुक्त हो चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाता है। जातिस्मर तीर्थमें स्नान करके पवित्र एवं शुद्धचित्त हुआ मनुष्य पूर्वजन्मके स्मरणकी शक्ति प्राप्त करता है। वटेश्वरपुरमें जाकर उपवासपूर्वक भगवान् केशवकी पूजा करनेसे मनुष्य मनोवाच्छित लोकोंको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् सब पापोंसे छुटकारा दिलानेवाले वामन- -तीर्थमें जाकर भगवान् श्रीहरिको प्रणाम करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता । भरतका आश्रम भी सब पापोंको दूर करनेवाला है। वहाँ जाकर महापातकनाशिनी कौशिकी (कोसी) नदीका सेवन करना चाहिये। ऐसा करनेवाला मानव राजसूय यज्ञका फल पाता है।
तदनन्तर परम उत्तम चम्पकारण्य (चम्पारन ) की यात्रा करे। वहाँ एक रात उपवास करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता है। तत्पश्चात् कन्यासंवेद्य नामक तीर्थमें जाकर नियमसे रहे और नियमानुकूल भोजन करे। इससे प्रजापति मनुके लोकोंकी प्राप्ति होती है। जो कन्यातीर्थमें थोड़ा सा भी दान करते हैं, उनका वह दान अक्षय होता है। निष्ठावास नामक तीर्थमें जानेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और विष्णुलोकको जाता है। नरश्रेष्ठ! जो मनुष्य निष्ठाके सङ्गममें दान करते हैं, वे रोग-शोकसे रहित ब्रह्मलोकमें जाते हैं। निष्ठा सङ्गमपर महर्षि वसिष्ठका आश्रम है। देवकूट तीर्थकी यात्रा करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है। वहाँसे कौशिक मुनिके
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स्वर्गखण्ड ]
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पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपर्दीश्वरका माहात्म्य •
कुण्डपर जाना चाहिये, जहाँ कुशिक गोत्रमें उत्पन्न महर्षि विश्वामित्र ने परम सिद्धि प्राप्त की थी। भरतश्रेष्ठ ! वहाँ धीर पुरुषको कौशिकी नदीके तटपर एक मासतक निवास करना चाहिये। एक ही मासमें वहाँ अश्वमेध यज्ञका पुण्य प्राप्त हो जाता है। कालिका सङ्गम एवं कौशिकी तथा अरुणाके सङ्गममें स्नान करके तीन राततक उपवास करनेवाला विद्वान् सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। सकृन्त्रदी नामक तीर्थमें जानेसे द्विज कृतार्थ हो जाता है तथा सब पापोंसे शुद्ध हो स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। मुनिजनसेवित औद्यानक तीर्थमें जाकर स्नान करना चाहिये; इससे सब पाप छूट जाते हैं।
तदनन्तर चम्पापुरीमें जाकर गङ्गाजीके तटपर तर्पण करना चाहिये । वहाँसे दण्डार्पणमें जाकर मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त करता है। तदनन्तर संध्यामें जाकर सद्विद्या नामक उत्तम तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य विद्वान् होता है। उसके बाद गङ्गासागर संगममें स्नान करना चाहिये। इससे विद्वान् लोग दस अश्वमेध यज्ञोंके फलकी प्राप्ति बतलाते हैं। तत्पश्चात् पाप दूर करनेवाली वैतरणी नदीमें जाकर विरज-तीर्थमें स्नान करे इससे मनुष्य चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाता है। प्रभाव क्षेत्रके भीतर कुल नामक तीर्थमें जाकर मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता है तथा सहस्र गोदानोंका फल पाकर अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। सोन नदी और ज्योतिरथीके सङ्गमपर निवास करनेवाला पवित्र मनुष्य देवताओं और पितरोंका तर्पण करके अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त करता है। सोन और नर्मदाके उद्गम स्थानपर वंशगुल्म तीर्थमें आचमन करके मनुष्य अश्वमेघ यज्ञका फल प्राप्त करता है। कोशलाके तटपर ऋषभ तीर्थमें जाकर तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य अश्वमेध
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यज्ञका फल पाता है। कोशलाके किनारे कालतीर्थमें जाकर स्नान करे तो ग्यारह बैल दान करनेका पुण्य प्राप्त होता है। पुष्पवतीमें स्नान करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता और अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। तदनन्तर जहाँ परशुरामजी निवास करते हैं, उस महेन्द्र पर्वतपर जाकर रामतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। वहीं मतङ्गका क्षेत्र है, जहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। उसके बाद श्रीपर्वतपर जाकर नदीके किनारे स्नान करे। वहाँ देवहदमें स्नान करनेसे मनुष्य पवित्र एवं शुद्धचित्त हो अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परम सिद्धिको प्राप्त होता है। तदनन्तर कावेरी नदीकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता है। वहाँसे आगे समुद्रके तटवर्ती तीर्थमें, जिसे कन्यातीर्थ कहते हैं, जाकर स्नान करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। तदनन्तर समुद्र मध्यवर्ती गोकर्णतीर्थमें जा भगवान् शंकरकी पूजा करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य दस अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता और गणपति पदको प्राप्त होता है। बारह राततक वहाँ उपवास करनेवाला मनुष्य कृतार्थ हो जाता है— उसे कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। उसी तीर्थमें गायत्री देवीका भी स्थान है, जहाँ तीन रात उपवास करनेवालेको सहस्र गोदानका फल मिलता है। तत्पश्चात् सदा सिद्ध पुरुषोंद्वारा सेवित गोदावरीकी यात्रा करनेसे मनुष्य गवामय यज्ञका फल पाता और वायुलोकको जाता है। वेणाके सङ्गममें स्नान करनेसे वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त होता है और वरदा सङ्गममें नहानेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है।
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अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थों तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसङ्गके पाठका माहात्म्य
स्मरणशक्ति और मेधाकी प्राप्ति होती है। वहीं कालञ्जरतीर्थमें जानेसे सहस्र गोदानोंका फल मिलता है।
नारदजी कहते हैं - युधिष्ठिर! ब्रह्मस्थूणा नामक तीर्थमें जाकर तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। कुब्जा वनमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो स्नान करके तीन रात उपवास करनेवालेको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। इसके बाद देवहृदमें जहाँसे कृष्णवेणा नदी निकलती है, स्नान करे। फिर ज्योतिर्मात्र ( जातिमात्र) हृदमें तथा कन्याश्रममें स्नान करे। कन्याश्रममें जानेमात्रसे सौ अग्निष्टोम यज्ञोंका फल मिलता है। सर्वदेवहदमें स्नान करनेसे सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त होता है तथा जातिमात्र हृदमें नहानेसे मनुष्यको पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है। इसके बाद परम पुण्यमयी वाणी तथा नदियोंमें श्रेष्ठ पयोष्णी (मन्दाकिनी) में जाकर देवताओं तथा पितरोंका पूजन करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता है।
महाराज ! तदनन्तर, दण्डकारण्य में जाकर गोदावरीमें स्नान करना चाहिये। वहाँ शरभङ्ग मुनि तथा महात्मा शुकके आश्रमकी यात्रा करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अपने कुलको पवित्र कर देता है। तत्पश्चात् सप्तगोदावरीमें स्नान करके नियमोंका पालन करते हुए नियमानुकूल भोजन करनेवाला पुरुष महान् पुण्यको प्राप्त होता और देवलोकको जाता है। वहाँसे देवपथकी यात्रा करे। इससे मानव देवसत्रका पुण्य प्राप्त कर लेता है। तुङ्गकारण्यमें जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जितेन्द्रिय भावसे रहे। युधिष्ठिर! तुङ्गकारण्यमें प्रवेश करनेवाले पुरुष अथवा स्त्रीका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। धीर पुरुषको उचित है कि वह नियमोंका पालन तथा नियमानुकूल भोजन करते हुए एक मासतक वहाँ निवास करे। इससे वह ब्रह्मलोकको जाता और अपने कुलको भी पवित्र कर देता है। मेधा-वनमें जाकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करना चाहिये। इससे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता तथा
महाराज ! तत्पश्चात् पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूटपर मन्दाकिनी नदीकी यात्रा करे। वह सब पापोंको दूर करनेवाली है। उसमें स्नान करके देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर रहनेवाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परम गतिको प्राप्त होता है। वहाँसे परम उत्तम भर्तृस्थान नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ जानेमात्रसे ही मनुष्यको सिद्धि प्राप्त होती है। उस तीर्थकी प्रदक्षिणा करके शिवस्थानकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ एक विख्यात कूप है, जिसमें चारों समुद्रोंका निवास है। वहाँ स्नान करके उस कूपकी प्रदक्षिणा करे; इससे पवित्र हुआ जितात्मा पुरुष परम गतिको प्राप्त होता है। तदनन्तर, महान् शृङ्गवेरपुरकी यात्रा करे। वहाँ गङ्गामें स्नान करके ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले पुरुषके पाप धुल जाते हैं और वह वाजपेय यज्ञका फल पाता है। वहाँसे परम बुद्धिमान् भगवान् शङ्करके मुञ्जवट नामक स्थानकी यात्रा करे। वहाँ जाकर महादेवजीकी पूजा और प्रदक्षिणा करनेसे मनुष्य गणपति पदको प्राप्त होता है।
इसके बाद ऋषियोंद्वारा प्रशंसित प्रयागतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ ब्रह्माजीके साथ साक्षात् भगवान् माधव विराजमान हैं। गङ्गा सब तीर्थोके साथ प्रयागमें आयी हैं। और वहाँ तीनों लोकोंमें विख्यात तथा सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करनेवाली सूर्यनन्दिनी यमुना गङ्गाजीके साथ मिली हैं। गङ्गा और यमुनाके बोचकी भूमि पृथ्वीका जघन (कटिसे नीचेका भाग) मानी गयी है। और प्रयाग जघनके बीचका उपस्थ भाग है, ऐसी ऋषियोंकी मान्यता है। वहाँ प्रयाग, उत्तम प्रतिष्ठानपुर (झूसी), कम्बल और अश्वतर नामक नागोका स्थान, भोगवतीतीर्थ तथा प्रजापतिकी वेदी आदि पवित्र स्थान बताये गये हैं। वहाँ यज्ञ और वेद मूर्तिमान् होकर रहते हैं। प्रयागसे बढ़कर पवित्र तीर्थ तीनों लोकोंमें नहीं है। प्रयाग अपने प्रभावके
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स्वर्गखण्ड ] • ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसङ्गके पाठका माहाय्य
कारण सब तीर्थोंसे बढ़कर है। प्रयागतीर्थके नामको सुनने, कीर्तन करने तथा उसे मस्तक झुकानेसे भी मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो उत्तम व्रतका पालन करते हुए वहाँ संगममें स्नान करता है, उसे महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है; क्योंकि प्रयाग देवताओंकी भी यज्ञभूमि है। वहाँ थोड़ेसे दानका भी महान् फल होता है । कुरुनन्दन ! प्रयागमें साठ करोड़ और दस हजार तीर्थोका निवास बताया गया है। चारों विद्याओंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है तथा सत्यवादी पुरुषोंको जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, वह वहाँ गङ्गायमुना-संगममें स्नान करनेसे ही मिल जाता है। प्रयागमें भोगवती नामक उत्तम बावली है जो वासुकि नागका उत्तम स्थान माना गया है। जो वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वहाँ हंसप्रपतन तथा दशाश्वमेध नामक तीर्थ हैं। गङ्गामें कहीं भी स्नान करनेपर कुरुक्षेत्र में स्नान करनेके समान पुण्य होता है।
गङ्गाजीका जल सारे पापोंको उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे आग रूईके ढेरको जला डालती है। सत्ययुगमें सभी तीर्थ, त्रेतामें पुष्कर, द्वापरमें कुरुक्षेत्र तथा कलियुगमें गङ्गा ही सबसे पवित्र तीर्थ मानी गयी हैं। पुष्करमें तपस्या करे, महालयमें दान दे और भृगुतुङ्गपर उपवास करे तो विशेष पुण्य होता है। किन्तु पुष्कर, कुरुक्षेत्र और गङ्गाके जलमें स्नान करनेमात्रसे प्राणी अपनी सात पहलेकी तथा सात पीछेकी पीढ़ियोंको भी तत्काल ही तार देता है। गङ्गाजी नाम लेनेमात्रसे पापोंको धो देती हैं, दर्शन करनेपर कल्याण प्रदान करती हैं तथा स्नान करने और जल पीनेपर सात पीढ़ियोंतकको पवित्र कर देती हैं। राजन्! जबतक मनुष्यकी हड्डीका गङ्गाजलसे स्पर्श बना रहता है, तबतक वह पुरुष स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहता है। ब्रह्माजीका कथन है कि
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गङ्गाके समान तीर्थ, श्रीविष्णुसे बढ़कर देवता तथा ब्राह्मणोंसे बढ़कर पूज्य कोई नहीं है। महाराज! जहाँ गङ्गा बहती हैं, वहाँ उनके किनारेपर जो-जो देश और तपोवन होते हैं, उन्हें सिद्ध क्षेत्र समझना चाहिये। *
जो मनुष्य प्रतिदिन तीर्थोके इस पुण्य प्रसङ्गका श्रवण करता है, वह सदा पवित्र होकर स्वर्गलोकमें आनन्दका अनुभव करता है तथा उसे अनेकों जन्मोंकी बातें याद आ जाती हैं। जहाँकी यात्रा की जा सकती है। और जहाँ जाना असम्भव है, उन सभी प्रकारके तीर्थोका मैंने वर्णन किया है। यदि प्रत्यक्ष सम्भव न हो तो मानसिक इच्छाके द्वारा भी इन सभी तीर्थोकी यात्रा करनी चाहिये। पुण्यकी इच्छा रखनेवाले देवोपम ऋषियोंने भी इन तीर्थोका आश्रय लिया है।
वसिष्ठ मुनि बोले- राजा दिलीप ! तुम भी उपर्युक्त विधिके अनुसार मनको वशमें करके तीर्थोंकी यात्रा करो; क्योंकि पुण्य पुण्यसे ही बढ़ता है। पहलेके बने हुए कारणोंसे, आस्तिकतासे और श्रुतियोंको देखनेसे शिष्ट पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले सज्जनों को उन तीर्थोंकी प्राप्ति होती है।
नारदजी कहते हैं— राजा युधिष्ठिर! इस प्रकार दिलीपको तीर्थोकी महिमा बताकर मुनि वसिष्ठ उनसे विदा ले प्रातःकाल प्रसन्न हृदयसे वहीं अन्तर्धान हो गये। राजा दिलीपने शास्त्रोंके तात्त्विक अर्थका ज्ञान हो जाने और वसिष्ठजीके कहनेसे सारी पृथ्वीपर तीर्थयात्राके लिये भ्रमण किया। महाभाग ! इस प्रकार सब पापोंसे छुड़ानेवाली यह परमपुण्यमयी तीर्थयात्रा प्रतिष्ठानपुर (झूसी) में आकर प्रतिष्ठित - समाप्त होती है। जो मनुष्य इस विधिसे पृथ्वीकी परिक्रमा करेगा, वह मृत्युके पश्चात् सौ अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करेगा, युधिष्ठिर! तुम ऋषियोंको भी साथ ले जाओगे, इसलिये
* पुनाति कीर्तिता पापं दृष्ट्वा भद्रं प्रयच्छति। अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥ यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गायाः स्पृशते जलम् । तावत्स पुरुषो राजन् स्वर्गलोके महीयते ॥ न गङ्गासदृशं तीर्थं न देवः केशवात्परः । ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः ॥ यत्र गङ्गा महाराज स देशस्तत्तपोवनम्। सिद्धक्षेत्रं च विज्ञेयं गङ्गातीरसमाश्रितम् ॥
(स्वर्ग- ३९।८६-८७, ८९-९०)
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पयपुराण
तुम्हें औरोंकी अपेक्षा आठगुना फल होगा। और महातपस्वी जाबालि-इन सभी तपस्वी ऋषियोंकी
सूतजी कहते हैं-समस्त तीथेकि वर्णनसे तुम प्रतीक्षा करो तथा इन सबको साथ लेकर उपर्युक्त सम्बन्ध रखनेवाले देवर्षि नारदके इस चरित्रका जो सबेरे तीर्थोकी यात्रा करो।' राजा युधिष्ठिरसे यों कहकर देवर्षि उठकर पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। नारद उनसे विदा ले वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् नारदजीने यह भी कहा–'राजन् ! वाल्मीकि, कश्यप, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले धर्मात्मा युधिष्ठिरने बड़े आत्रेय, कौण्डिन्य, विश्वामित्र, गौतम असित, देवल, आदरके साथ समस्त तीर्थोकी यात्रा की । ऋषियो ! मेरी मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज-शिष्य उद्दालक मुनि, कही हुई इस तीर्थयात्राकी कथाका जो पाठ या श्रवण शौनक, पुत्रसहित महान् तपस्वी व्यास, मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा करता है, वह सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है।
मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! पापराशिका पूर्वकालमें महाभारत-युद्ध समाप्त हो जानेपर जब निवारण करनेके लिये तीर्थोकी महिमाका श्रवण श्रेष्ठ है कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको अपना राज्य प्राप्त हो गया, उस तथा तीर्थोंका सेवन भी प्रशस्त है। जो मनुष्य प्रतिदिन समय मार्कण्डेयजीने पाण्डुकुमारसे प्रयागकी महिमाका यह कहता है कि मैं तीथोंमें निवास करूँ और तीर्थोंमें जो वर्णन किया था, वही प्रसङ्ग मैं आपलोगोको सुनाता स्नान करूँ, वह परमपदको प्राप्त होता है। तीर्थोकी चर्चा हूँ। राज्य प्राप्त हो जानेपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको बारंबार करनेमात्रसे उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं; अतः तीर्थ चिन्ता होने लगी। उन्होंने सोचा-'राजा दुर्योधन ग्यारह धन्य हैं। तीर्थसेवी पुरुषोंके द्वारा जगत्कर्ता भगवान् अक्षौहिणी सेनाका स्वामी था। उसने हमलोगोको नारायणका सेवन होता है। ब्राह्मण, तुलसी, पीपल, अनेकों बार कष्ट पहुँचाया। किन्तु अब वे सब-के-सब तीर्थसमुदाय तथा परमेश्वर श्रीविष्णु-ये सदा ही मौतके मुँहमें चले गये। भगवान् वासुदेवका आश्रय मनुष्योंके लिये सेव्य है।* पीपल, तुलसी, गौ तथा लेनेके कारण हम पाँच पाण्डव शेष रह गये हैं। सूर्यकी परिक्रमा करनेसे मनुष्य सब तीर्थोका फल पाकर द्रोणाचार्य, भीष्प, महाबली कर्ण, भ्राता और पुत्रोंसहित विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसलिये विद्वान् पुरुष राजा दुर्योधन तथा अन्यान्य जितने वीर राजा मारे गये हैं निश्चय ही पुण्य-तीर्थोंका सेवन करे।
उन सबके बिना यह राज्य, भोग अथवा जीवन लेकर ऋषि बोले-सूतजी ! हमने माहात्म्यसहित क्या करना है। हाय ! धिक्कार है, इस सुखको; मेरे लिये समस्त तीर्थोका श्रवण किया; किन्तु आपने प्रयागकी यह प्रसङ्ग बड़ा कष्टदायक है।' यह विचारकर राजा महिमाको पहले थोड़ेमें बताया है, उसे हमलोंग व्याकुल हो उठे। वे उत्साहहीन होकर नीचे मुँह किये विस्तारके साथ सुनना चाहते हैं। अतः आप कृपापूर्वक बैठे रहते थे। उन्हें बारंबार इस बातकी चिन्ता होने लगी उसका वर्णन कीजिये।
कि 'अब मैं किस योग, नियम एवं तीर्थका सेवन करूँ, सूतजी बोले-महर्षियो ! बड़े हर्षकी बात है। जिससे महापातकोंकी राशिसे मुझे शीघ्र ही छुटकारा मैं अवश्य ही प्रयागकी महिमाका वर्णन करूँगा। मिले। कौन-सा ऐसा तीर्थ है, जहाँ स्रान करके मनुष्य
* ब्राह्मणस्तुलसी चैव अश्वत्थस्तीर्थसंचयः । विष्णुच परमेशानः सेव्य एव नृभिः सदा ।। (४०।६) + अश्वत्थस्य तुलस्याश्च गवा सूर्यात् प्रदक्षिणात् । सर्वतीर्थफल प्राप्य विष्णुलोके महीयते ।। (४०।९)
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. मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना .
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RAO
परम उत्तम विष्णुलोकको प्राप्त होता है?' इस प्रकार प्रसङ्गको जानकर ही आप यहाँ पधारे हैं [फिर आपसे सोचते हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर अत्यन्त विकल हो गये। क्या कहना है । , उस समय महातपस्वी मार्कण्डेयजी काशीमें थे। मार्कण्डेयजीने कहा-महाबाहो ! सुनोउन्हें युधिष्ठिरकी अवस्थाका ज्ञान हो गया; इसलिये वे जहाँ धर्मकी व्यवस्था है, उस शास्त्र में संग्राममें युद्ध तुरंत ही हस्तिनापुरमें जा पहुँचे और राजमहलके द्वारपर करनेवाले किसी भी बुद्धिमान् पुरुषके लिये पापकी बात खड़े हो गये। द्वारपालने जब उन्हें देखा तो शीघ्र ही नहीं देखी गयी है। फिर विशेषतः क्षत्रियके लिये जो महाराजके पास जाकर कहा-'राजन् ! मार्कण्डेय मुनि राजधर्मके अनुसार युद्धमें प्रवृत्त हुआ है, पापकी आपसे मिलनेके लिये आये हैं और द्वारपर खड़े हैं। यह आशङ्का कैसे हो सकती है। अतः इस बातको हृदयमें
रखकर पापकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। महाभाग युधिष्ठिर ! तुम तीर्थकी बात जानना चाहते हो तो सुनो-पुण्य-कर्म करनेवाले मनुष्योंके लिये प्रयागकी यात्रा करना सर्वश्रेष्ठ है।
युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि प्रयागकी यात्रा कैसे की जाती है, वहाँ कैसा पुण्य होता है, प्रयागमें जिनकी मृत्यु होती है, उनकी क्या गति होती है तथा जो वहाँ स्नान और निवास करते हैं, उन्हें किस फलकी प्राप्ति होती है। ये सब बातें बताइये। मेरे मन में इन्हें सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है। ___ मार्कण्डेयजीने कहा-वत्स! पूर्वकालमें ऋषियों और ब्राह्मणोंके मुँहसे जो कुछ मैंने सुना है, वह प्रयागका फल तुम्हें बताता हूँ। प्रयागसे लेकर प्रतिष्ठानपुर (झूसी), तक धर्मकी हृदसे लेकर वासुकिह्रदतक तथा कम्बल और अश्वतर नागोंके स्थान एवं
बहुमूलिक नामवाले नागोंका स्थान- यह सब समाचार सुनते ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत राजद्वारपर आ प्रजापतिका क्षेत्र है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ पहुँचे और उनके शरणागत होकर बोले-'महामुने! स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं और जिनकी आपका स्वागत है। महाप्राज्ञ ! आपका स्वागत है। आज वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर जन्म नहीं लेते। प्रयागमें ब्रह्मा मेरा जन्म सफल हुआ। आज मेरा कुल पवित्र हो गया। आदि देवता एकत्रित होकर प्राणियोंकी रक्षा करते हैं। आज आपका दर्शन होनेसे मेरे पितर तृप्त हो गये।' यों वहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापोंको कहकर युधिष्ठिरने मुनिको सिंहासनपर बिठाया और पैर हरनेवाले तथा कल्याणकारी हैं। उनका कई सौ वर्षोंमे घोकर पूजन-सामग्रियोंसे उनकी पूजा की। तब भी वर्णन नहीं किया जा सकता। स्वयं इन्द्र विशेषरूपसे मार्कण्डेयजीने कहा-'राजन् ! तुम व्याकुल क्यों हो रहे प्रयागतीर्थकी रक्षा करते हैं तथा भगवान् विष्णु हो? मेरे सामने अपना मनोभाव प्रकट करो।' देवताओंके साथ प्रयागके सर्वमान्य मण्डलकी रक्षा
युधिष्ठिर बोले-महामुने ! राज्यके लिये करते हैं। हाथमें शूल लिये हुए भगवान् महेश्वर प्रतिदिन हमलोगोंकी ओरसे जो बर्ताव हुआ है, उस सारे वहाँकै वटवृक्ष (अक्षयवट) की रक्षा करते हैं तथा
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
देवता समूचे तीर्थस्थानकी रक्षामें रहते हैं। वह स्थान बीचकी भूमिमें दान देता है, वह सद्गतिको प्राप्त होता सब पापोंको हरनेवाला और शुभ है। जो प्रयागका है। जो अपने कार्यके लिये या पितृकार्यके लिये अथवा स्मरण करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उस देवताकी पूजाके लिये प्रयागमें सुवर्ण, मणि, मोती तीर्थके दर्शन और नाम-कीर्तनसे तथा वहाँकी मिट्टी प्राप्त अथवा धान्यका दान ग्रहण करता है, उसका तीर्थ-सेवन करनेसे भी मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। महाराज! व्यर्थ होता है; वह जबतक दूसरेका द्रव्य भोगता है, प्रयागमें पाँच कुण्ड हैं, जिनके बीचसे होकर गङ्गाजी तबतक उसके तीर्थ-सेवनका कोई फल नहीं है। बहती हैं। प्रयागमें प्रवेश करनेवाले मनुष्यका पाप अतः इस प्रकार तीर्थ अथवा पवित्र मन्दिरोंमें तत्काल नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य सहस्रों योजन दूरसे जाकर किसीसे कुछ ग्रहण न करे। कोई भी निमित्त हो, भी गङ्गाजीका स्मरण करता है, वह पापाचारी होनेपर भी द्विजको प्रतिग्रहसे सावधान रहना चाहिये । प्रयागमें भूरी परमगतिको प्राप्त होता है। मनुष्य गङ्गाका नाम लेनेसे अथवा लाल रंगकी गायके, जो दूध देनेवाली हो, पापमुक्त होता है, दर्शन करनेसे कल्याणका दर्शन करता सींगोंको सोनेसे और खुरोंको चाँदीसे मढ़ा दे; फिर उसके है तथा स्नान करने और जल पीनेसे अपने कुलकी सात गलेमें वस्त्र लपेटकर श्वेतवस्त्रधारी, शान्त धर्मज्ञ, वेदोंके पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है। जो सत्यवादी, क्रोधजयी, पारगामी तथा साधु श्रोत्रिय ब्राह्मणको बुलाकर गङ्गाअहिंसा-धर्ममें स्थित, धर्मानुगामी, तत्त्वज्ञ तथा गौ और यमुनाके संगममें वह गौ उसे विधिपूर्वक दान कर दे। ब्राह्मणोंके हितमें तत्पर होकर गङ्गा-यमुनाके बीचमें नान साथ ही बहुमूल्य वस्त्र तथा नाना प्रकारके रन भी देने करता है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है तथा मन-चीते चाहिये। इससे उस गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, समस्त भोगोंको पूर्णरूपसे प्राप्त कर लेता है।* उतने हजार वर्षांतक मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता
तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवताओंसे रक्षित प्रयागमें जाकर है। वह उस पुण्यकर्मके प्रभावसे भयङ्कर नरकका दर्शन ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एक मासतक निवास करे नहीं करता। लाख गौओंकी अपेक्षा वहाँ एक ही दूध
और देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे। इससे मनुष्य देनेवाली गौ देना उत्तम है। वह एक ही पुत्र, स्त्री तथा मनोवाञ्छित पदार्थोको प्राप्त करता है। युधिष्ठिर! भृत्योंतकका उद्धार कर देती है। इसलिये सब दानोंमें प्रयागमें साक्षात् भगवान् महेश्वर सदा निवास करते हैं। गोदान ही सबसे बढ़कर है। महापातकके कारण वह परम पावन तीर्थ मनुष्योंके लिये दुर्लभ है। राजेन्द्र ! मिलनेवाले दुर्गम, विषम तथा भयङ्कर नरकमें गौ ही देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चारण वहाँ मनुष्यकी रक्षा करती है। इसलिये ब्राह्मणको गोदान स्नान करके स्वर्गलोकमें जा सुख भोगते हैं। करना चाहिये।
प्रयागमे जानेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो कुरुश्रेष्ठ ! जो देवताओंके द्वारा सेवित प्रयागतीर्थमें जाता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मनुष्य अपने बैल अथवा बैलगाड़ीपर चढ़कर जाता है, वह पुरुष देशमें हो या वनमें, विदेशमें हो या घरमें, जो प्रयागका गौओंका भयङ्कर क्रोध होनेपर घोर नरकमें निवास करता स्मरण करते हुए मृत्युको प्राप्त होता है, वह ब्रह्मलोकमें है तथा उसके पितर उसका दिया जलतक नहीं ग्रहण जाता है-यह श्रेष्ठ ऋषियोंका कथन है। जो मन, वाणी करते। जो ऐश्वर्यके लोभसे अथवा मोहवश सवारीसे तथा क्रियाद्वारा सत्यधर्ममें स्थित हो गङ्गा-यमुनाके तीर्थयात्रा करता है, उसके तीर्थसेवनका कोई फल नहीं
* योजनानां सहस्तेषु गङ्गा स्मरति यो नरः । अपि दुष्कृतकर्मासौं लभते परमां गतिम् ।। कीर्तनामुच्यते पापैदृष्टा भद्राणि पश्यति । अवगाह्य च पीत्वा च पुनात्यासतम कुलम्॥ सत्यवादी जितक्रोधो अहिंसा परमां स्थितः । धर्मानुसारी तत्त्वज्ञो गोब्राह्मणहिते रतः॥ गङ्गायमुनयोर्मध्ये स्नातो मुच्येत किल्बिषात् । मनसा चिन्तितान् कामान् सम्यक् प्राप्रोति पुष्कलान् ॥ (४१ । १४-१७)
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SHROOMSOGONDOR
मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना •
होता; इसलिये सवारीको त्याग देना चाहिये। जो गङ्गा-यमुनाके बीच ऋषियोंकी बतायी हुई विधि तथा अपनी सामर्थ्यके अनुसार कन्यादान करता है, वह उस कर्मके प्रभावसे यमराज तथा भयङ्कर नरकको नहीं देखता । जिस मनुष्यकी अक्षयवटके नीचे मृत्यु होती है, वह सब लोकोंको लाँघकर रुद्रलोकमें जाता है। वहाँ रुद्रका आश्रय लेकर बारह सूर्य तपते हैं और सारे जगत्को जला डालते हैं। परन्तु वटकी जड़ नहीं जला पाते। जब सूर्य, चन्द्रमा और वायुका विनाश हो जाता है और सारा जगत् एकार्णवमें मन दिखायी देता है, उस समय भगवान् विष्णु यहीं अक्षयवटपर शयन करते हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चारण- सभी गङ्गा-यमुनाके संगममें स्थित तीर्थका सेवन करते हैं। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, दिशाएँ, दिक्पाल, लोकपाल, साध्य, पितर, सनत्कुमार आदि परमर्षि, अङ्गिरा आदि ब्रह्मर्षि, नाग, सुपर्ण (गरुड़) पक्षी, नदियाँ, समुद्र, पर्वत, विद्याधर तथा साक्षात् भगवान् विष्णु प्रजापतिको आगे रखकर निवास करते हैं। उस तीर्थका नाम सुनने, नाम लेने तथा वहाँकी मिट्टीका स्पर्श करनेसे भी मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जो वहाँ कठोर व्रतका पालन करते हुए संगममें स्नान करता है, वह राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञोंके समान फल पाता है। योगयुक्त विद्वान् पुरुषको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वह गति गङ्गा और यमुनाके संगममें मृत्युको प्राप्त होनेवाले प्राणियोंकी भी होती है।
इस प्रकार परमपदके साधनभूत प्रयागतीर्थका दर्शन करके यमुनाके दक्षिण किनारे, जहाँ कम्बल और अश्वतर नागोके स्थान हैं, जाना चाहिये। वहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य सब पातकोंसे छुटकारा पा जाता है। वह परम बुद्धिमान् महादेवजीका स्थान है। वहाँकी यात्रा करनेसे मनुष्य अपने कुलकी दस पहलेकी और दस पीछेकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है तथा वह प्रलयकालतक स्वर्गलोकमें स्थान पाता है। भारत ! गङ्गाके पूर्वतटपर तीनों लोकोंमें विख्यात समुद्रकूप और प्रतिष्ठानपुर (झूसी) हैं। यदि कोई सं०प०पु० १३
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ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए क्रोधको जीतकर तीन रात वहाँ निवास करता है, तो वह सब पापोंसे शुद्ध होकर अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। प्रतिष्ठानसे उत्तर और भागीरथीसे पूर्व हंसप्रपतन नामक तीर्थ है, उसमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्यको अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है तथा जबतक सूर्य और चन्द्रमाकी स्थिति है, तबतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
रमणीय अक्षयवटके नीचे ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय एवं योगयुक्त होकर उपवास करनेवाला मनुष्य ब्रह्मज्ञानको प्राप्त होता है। कोटितीर्थमें जाकर जिनकी मृत्यु होती है, वह करोड़ों वर्षतक स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। चारों वेदोंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है, सत्य बोलनेसे जो फल होता है तथा अहिंसाके पालनसे जो धर्म होता है, वह दशाश्वमेध घाटकी यात्रा करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। गङ्गामें जहाँ कहीं भी स्नान किया जाय, वे कुरुक्षेत्रके समान फल देनेवाली हैं; किन्तु जहाँ वे समुद्रसे मिली हैं, वहाँ उनका माहात्म्य कुरुक्षेत्रसे दसगुना है। महाभागा गङ्गा जहाँ कहीं भी बहती हैं, वहाँ बहुत से तीर्थ और तपस्वी रहते हैं। उस स्थानको सिद्धक्षेत्र समझना चाहिये। इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। गङ्गा पृथ्वीपर मनुष्योंको, पातालमें नागोंको और स्वर्गमें देवताओंको तारती हैं; इसलिये वे त्रिपथगा कहलाती हैं। किसी भी जीवकी हड्डियाँ जितने समयतक गङ्गामें रहती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। गङ्गा तीथोंमें श्रेष्ठ तीर्थ, नदियोंमें उत्तम नदी तथा सम्पूर्ण भूतों महापातकियोंको भी मोक्ष देनेवाली हैं। गङ्गा सर्वत्र सुलभ हैं, केवल तीन स्थानोंमें वे दुर्लभ मानी गयी हैं गङ्गाद्वार, प्रयाग तथा गङ्गा-सागर सङ्गममें वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गको जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर कभी जन्म नहीं लेते। जिनका चित्त पापसे दूषित है, ऐसे समस्त प्राणियों और मनुष्योंकी गङ्गाके सिवा अन्यत्र गति नहीं है। गङ्गाके सिवा दूसरी कोई गति है ही नहीं। भगवान् शंकरके मस्तकसे निकली हुई गङ्गा सब पापोंको हरनेवाली और शुभकारिणी हैं। वे पवित्रोंको भी पवित्र
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• अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
करनेवाली और मङ्गलमय पदार्थोंके लिये भी जानकर प्रयागके प्रति सदा श्रद्धा रखनी चाहिये । जिनका मङ्गलकारिणी हैं।*
चित्त पापसे दूषित है, वे अश्रद्धालु पुरुष उस राजन् ! पुनः प्रयागका माहात्म्य सुनो, जिसे सुनकर स्थानको-देवनिर्मित प्रयागको नहीं पा सकते। मनुष्य सब पापोंसे निःसंदेह मुक्त हो जाता है। गङ्गाके राजन् ! अब मैं अत्यन्त गोपनीय रहस्यकी बात उत्तर-तटपर मानस नामक तीर्थ है। वहाँ तीन रात बताता हूँ, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है; सुनो। जो उपवास करनेसे समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। प्रयागमें इन्द्रिय-संयमपूर्वक एक मासतक निवास करता मनुष्य गौ, भूमि और सुवर्णका दान करनेसे जिस है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है-ऐसा ब्रह्माजीका फलको पाता है, वह उस तीर्थका बारंवार स्मरण करनेसे कथन है। वहाँ रहनेसे मनुष्य पवित्र, जितेन्द्रिय, ही मिल जाता है। जो गङ्गामें मृत्युको प्राप्त होता है, वह अहिंसक और श्रद्धालु होकर सब पापोंसे छूट जाता और मृत व्यक्ति स्वर्गमें जाता है। उसे नरक नहीं देखना परमपदको प्राप्त होता है। वहाँ तीनों काल स्नान और पड़ता । माघ मासमें गङ्गा और यमुनाके संगमपर छाछठ भिक्षाका आहार करना चाहिये; इस प्रकार तीन महीनोंहजार तीर्थोंका समागम होता है। विधिपूर्वक एक लाख तक प्रयागका सेवन करनेसे वे मुक्त हो जाते हैंगौओंका दान करनेसे जो फल मिलता है, वह माघ इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तत्त्वके ज्ञाता युधिष्ठिर ! मासमें प्रयागके भीतर तीन दिन स्नान करनेसे ही प्राप्त हो तुम्हारी प्रसन्नताके लिये मैंने इस धर्मानुसारी सनातन गुह्य जाता है। जो गङ्गा-यमुनाके बीचमें पञ्चाग्निसेवनकी रहस्यका वर्णन किया है। साधना करता है, वह किसी अङ्गसे हीन नहीं होता; युधिष्ठिर बोले-धर्मात्मन् ! आज मेरा जन्म उसका रोग दूर हो जाता है तथा उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ सफल हुआ, आज मेरा कुल कृतार्थ हो गया। आज सबल रहती हैं। इतना ही नहीं, उस मनुष्यके शरीरमें आपके दर्शनसे मैं प्रसन्न हूँ, अनुगृहीत हूँ तथा सब जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षांतक वह पातकोंसे मुक्त हो गया हूँ। महामुने ! यमुनामें स्नान स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यमुनाके उत्तर-तटपर और करनेसे क्या पुण्य होता है, कौन-सा फल मिलता है? प्रयागके दक्षिण भागमें ऋणप्रमोचन नामक तीर्थ है, जो ये सब बातें आप अपने प्रत्यक्ष अनुभव एवं श्रवणके अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है। वहाँ एक रात निवास करनेसे आधारपर बताइये। मनुष्य समस्त ऋणोंसे मुक्त हो जाता है। उसे मार्कण्डेयजीने कहा-राजन्! सूर्य-कन्या सूर्यलोककी प्राप्ति होती है तथा वह सदाके लिये ऋणसे यमुना देवी तीनों लोकोंमें विख्यात हैं। जिस हिमालयसे छूट जाता है। प्रयागका मण्डल पाँच योजन विस्तृत है, गङ्गा प्रकट हुई हैं, उसीसे यमुनाका भी आगमन हुआ उसमें प्रवेश करनेवाले पुरुषको पग-पगपर अश्वमेध है। सहस्रों योजन दूरसे भी नामोच्चारण करनेपर वे यज्ञका फल प्राप्त होता है। जिस मनुष्यको वहाँ मृत्यु पापोंका नाश कर देती हैं। युधिष्ठिर ! यमुनामें नहाने, होती है, वह अपनी पिछली सात पीढ़ियोंको और आगे जल पीने और उनके नामका कीर्तन करनेसे मनुष्य आनेवाली चौदह पीढ़ियोंको तार देता है। महाराज ! यह पुण्यका भागी होकर कल्याणका दर्शन करता है।
* यावदस्थानि गङ्गायां तिष्ठन्ति तस्य देहिनः । तावद्वर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ तीर्थानां तु पर तीर्थ नदीनामुत्तमा नदी । मोक्षदा सर्वभूतानी महापातकिनामपि ।। सर्वत्र सुलभा गङ्गा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा । गङ्गाद्वारे प्रयागे च गङ्गासागरसङ्गमे ।
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः । सर्वेषां चैव भूतानां पापापहतचेतसाम। गतिरन्यत्र मत्यांनी नास्ति गङ्गासमा गतिः ॥ पवित्राणां पवित्रं या मङ्गलानां च मङ्गलम्।महेश्वरशिरोभ्रष्टा सर्वपापहरा शुभा ॥(४३ । ५२-५६)
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. मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना .
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यमुनामें गोता लगाने और उनका जल पीनेसे कुलकी अनुष्ठानके द्वारा अधिक धर्मकी प्राप्ति बताते हुए सात पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती है। जिसकी वहाँ मृत्यु होती प्रयागकी ही अधिक प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? यह मेरा है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। यमुनाके दक्षिण संशय हैं। इस सम्बन्धमें आपने जैसा देखा और सुना किनारे विख्यात अग्नितीर्थ है; उसके पश्चिम धर्मराजका हो, उसके अनुसार इस संशयका निवारण कीजिये। तीर्थ है, जिसे हरवरतीर्थ भी कहते हैं। वहाँ स्नान करनेसे मार्कण्डेयजीने कहा-राजन् ! मैंने जैसा देखा मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं तथा जो वहाँ मृत्युको प्राप्त होते हैं, और सुना है, उसके अनुसार प्रयागका माहात्म्य बतलाता वे फिर जन्म नहीं लेते।
हूँ, सुनो। प्रत्यक्षरूपसे, परोक्ष तथा और जिस प्रकार इसी प्रकार यमुनाके दक्षिण-तटपर हजारों तीर्थ हैं। सम्भव होगा, मैं उसका वर्णन करूंगा। शास्त्रको प्रमाण अब मैं उत्तर-तटके तीर्थोका वर्णन करता हूँ। युधिष्ठिर! मानकर आत्माका परमात्माके साथ जो योग किया जाता उत्तरमें महात्मा सूर्यका विरज नामक तीर्थ है, जहाँ इन्द्र है, उस योगकी प्रशंसा की जाती है। हजारों जन्मोंके
आदि देवता प्रतिदिन सन्ध्योपासन करते हैं। देवता तथा पश्चात् मनुष्योंको उस योगकी प्राप्ति होती है। इसी प्रकार विद्वान् पुरुष उस तीर्थका सेवन करते हैं। तुम भी सहस्रों युगोंमें योगकी उपलब्धि होती है। ब्राह्मणोंको श्रद्धापूर्वक दानमें प्रवृत्त होकर उस तीर्थमें स्नान करो। सब प्रकारके रत्न दान करनेसे मानवोंको योगकी वहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापोंको उपलब्धि होती है। प्रयागमें मृत्यु होनेपर यह सब कुछ हरनेवाले और शुभ हैं। उनमें स्नान करके मनुष्य स्वर्गमे स्वतः सुलभ हो जाता है। जैसे सम्पूर्ण भूतोंमें व्यापक जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे मोक्ष प्राप्त कर ब्रह्मकी सर्वत्र पूजा होती है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकोंमें लेते हैं। गङ्गा और यमुना-दोनों ही समान फल विद्वानोद्वारा प्रयाग पूजित होता है। नैमिषारण्य, पुष्कर, देनेवाली मानी गयी हैं; केवल श्रेष्ठताके कारण गङ्गा गोतीर्थ, सिन्धु-सागर संगम, कुरुक्षेत्र, गया और सर्वत्र पूजित होती हैं। कुन्तीनन्दन ! तुम भी इसी प्रकार गङ्गासागर तथा और भी बहुत-से तीर्थ एवं पवित्र सब तीर्थोंमें स्नान करो, इससे जीवनभरका पाप तत्काल पर्वत-कुल मिलाकर तीस करोड़ दस हजार तीर्थ नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस प्रसङ्गका प्रयागमें सदा निवास करते है। ऐसा विद्वानोंका कथन पाठ या श्रवण करता है, वह भी सब पापोंसे मुक्त होकर है। वहाँ तीन अग्निकुण्ड हैं, जिनके बीच होकर गङ्गा स्वर्गलोकको जाता है।
प्रयागसे निकलती हैं। वे सब तीथोंसे युक्त हैं। वायु युधिष्ठिर बोले-मुने ! मैंने ब्रह्माजीके कहे हुए देवताने देवलोक, भूलोक तथा अन्तरिक्षमें साढ़े तीन पुण्यमय पुराणका श्रवण किया है, उसमें सैकड़ों, हजारों करोड़ तीर्थ बतलाये हैं। गङ्गाको उन सबका स्वरूप
और लाखों तीर्थोका वर्णन आया है। सभी तीर्थ माना गया है।* प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर (झूसी), कम्बल पुण्यजनक और पवित्र बताये गये हैं तथा सबके द्वारा और अश्वतर नागोंके स्थान तथा भोगवती-ये उत्तम गतिकी प्राप्ति बतायी गयी है। पृथ्वीपर नैमिषारण्य प्रजापतिकी वेदियाँ हैं। युधिष्ठिर ! वहाँ देवता, मूर्तिमान और आकाशमें पुष्करतीर्थ पवित्र है। लोकमें प्रयाग यज्ञ तथा तपस्वी ऋषि रहते और प्रयागकी पूजा करते और कुरुक्षेत्र दोनोंको ही विशेष स्थान दिया गया है। हैं। प्रयागका यह माहात्म्य धन्य है, यही स्वर्ग प्रदान आप उन सबको छोड़कर केवल एककी ही प्रशंसा क्यों करनेवाला है, यही सेवन करनेयोग्य है, यही सुखरूप है, कर रहे हैं? आप प्रयागसे परम दिव्य गति तथा यही पुण्यमय है, यही सुन्दर है और यही परम उत्तम, मनोवाञ्छित भोगोंकी प्राप्ति बताते हैं। थोड़े-से धर्मानुकूल एवं पावन है। यह महर्षियोंका गोपनीय
* तिसः कोट्यर्द्धकोटीश तीर्थानां वायुरब्रवीत् दिवि भुष्यन्तरिक्षे च तत्सर्व जाह्नवी स्मृता ।। (४७१७)
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
रहस्य है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। इस भगवान् रुद्र सम्पूर्ण जगत्का संहार करते हैं। ये ब्रह्मा, प्रसङ्गका पाठ करनेवाला द्विज सब प्रकारके पापोंसे विष्णु और महादेवजी प्रयागमें सदा निवास करते हैं। रहित हो जाता है। कुरुनन्दन ! तुम प्रयागके तीर्थोंमें प्रयागमण्डलका विस्तार पाँच योजन (बीस कोस) है। स्नान करो। राजन् ! तुमने विधिपूर्वक प्रश्न किया था, उपर्युक्त देवता पापकोंका निवारण करते हुए उस इसलिये मैंने तुमसे प्रयाग-माहात्म्यका वर्णन किया है। मण्डलकी रक्षाके लिये वहाँ मौजूद रहते है। अतः इसे सुनकर तुमने अपने समस्त पितरों और पितामहोंका प्रयागमें किया हुआ थोड़ा-सा भी पाप नरकमे उद्धार कर दिया।
गिरानेवाला होता है। युधिष्ठिर बोले-महामुने! आपने प्रयाग- सूतजी कहते हैं-तदनन्तर, धर्मपर विश्वास माहात्म्यकी यह सारी कथा सुनायी; इसी प्रकार और सब करनेवाले समस्त पाण्डवोंने भाइयोसहित ब्राह्मणोंको बातें भी बताइये, जिससे मेरा उद्धार हो सके। नमस्कार करके गुरुजनों और देवताओंको तृप्त किया।
मार्कण्डेयजीने कहा-राजन् ! सुनो, बताता उसी समय भगवान् वासुदेव भी वहाँ आ पहुँचे। फिर हूँ। ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेवजी-ये तीनों देवता समस्त पाण्डवोंने मिलकर भगवान् श्रीकृष्णका पूजन सबके प्रभु और अविनाशी हैं। ब्रह्मा इस सम्पूर्ण किया। तत्पश्चात् कृष्णसहित सब महात्माओने धर्मपुत्र जगत्की, यहाँक चराचर प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं और युधिष्ठिरको स्वराज्यपर अभिषिक्त किया। इसके बाद परमेश्वर विष्णु उन सबका, समस्त प्रजाओंका पालन भाइयोसहित धर्मात्मा युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंको बड़े-बड़े करते हैं। फिर जब कल्पका अन्त उपस्थित होता है, तब दान दिये। जो सबेरे उठकर इस प्रसङ्गका पाठ अथवा
श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें जाता है। ___तत्पश्चात् भगवान् वासुदेव बोले-राजा युधिष्ठिर ! मैं आपके रोहवश कुछ निवेदन करता हूँ, आपको मेरी बात माननी चाहिये। महाराज ! आप प्रतिदिन हमारे साथ प्रयागका स्मरण करनेसे स्वयं सनातन लोकको प्राप्त होंगे। जो मनुष्य प्रयागको जाता अथवा वहाँ निवास करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर दिव्यलोकको जाता है। जो किसीका दिया हुआ दान नहीं लेता, संतुष्ट रहता, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखता, पवित्र रहता और अहङ्कारका त्याग कर देता है, उसीको तीर्थका पूरा फल मिलता है। राजेन्द्र ! जो क्रोधहीन, सत्यवादी, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मभाव रखनेवाला है, वही तीर्थके फलका उपभोग करता है।* ऋषियों और देवताओंने भी क्रमशः यज्ञोंका वर्णन किया है, किन्तु
* प्रतिप्रहादुपावृत्तः संतुष्टो नियतः शुचिः । अहंकारनिवृत्तश्च स तीर्थफलमश्रुते॥
अकोपनश्च राजेन्द्र सत्यवादी दृढव्रतः । आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलम श्रुते ॥ (स्वर्ग०४९ । १०-११)
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स्वर्गखण्ड ]
• भगवानके भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा .
३७५
महाराज ! दरिद्र मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते । यज्ञमें बहुत यह ऋषियोंका गोपनीय रहस्य है; तीर्थयात्राका पुण्य सामग्रीकी आवश्यकता होती है। नाना प्रकारको यज्ञोंसे भी बढ़कर होता है। एक खरब, तीस करोड़से भी तैयारियाँ और समारोह करने पड़ते हैं। कहीं कोई धनवान् अधिक तीर्थ माघमासमें गङ्गाजीके भीतर आकर स्थित मनुष्य ही भाँति-भाँतिके द्रव्योंका उपयोग करके यज्ञ कर होते हैं [अतः माघमें गङ्गा-स्रान परम पुण्यका साधक सकता है। नरेश्वर ! जिसे विद्वान् पुरुष दरिद्र होनेपर भी होता है] * महाराज! अब आप निश्चिन्त होकर कर सकें तथा जो पुण्य और फलमें यज्ञकी समानता अकण्टक राज्य भोगिये। अब फिर अश्वमेध यज्ञके करता हो, वह उपाय बताता हूँ; सुनिये। भरतश्रेष्ठ ! समय मुझसे आपकी भेंट होगी।
भगवानके भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
ऋषय ऊचुः
भक्ति की है, उसने बाजी मार ली, उसने विजय प्राप्त कर भवता कथितं सर्व यत्किञ्चित् पृष्टमेव च। ली, उसकी निश्चय ही जीत हो गयी-इसमें तनिक भी इदानीमपि पच्छाम एकं वद महामते ॥ १॥ सन्देह नहीं है।
ऋषियोंने कहा-महामते ! हमलोगोंने जो कुछ हरिरेव समाराध्यः सर्वदेवेश्वरेश्वरः । पूछा था, वह सब आपने कह सुनाया। अब भी आपसे हरिनाममहामन्त्रैश्येत् पापपिशाचकम् ॥५॥ एक प्रश्न करते हैं, उसका उत्तर दीजिये।
सम्पूर्ण देवेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीहरिकी ही एतेषां खलु तीर्थानां सेवनायत् फलं भवेत् । भलीभाँति आराधना करनी चाहिये। हरिनामरूपी सर्वेषां किल कृत्वैकं कर्म केन च लभ्यते। महामन्त्रोंके द्वारा पापरूपी पिशाचोंका समुदाय नष्ट हो एतन्नो ब्रूहि सर्वज्ञ कमैंवं यदि वर्तते ॥ २॥ जाता है।
इन सभी तीर्थोक सेवनसे जो फल होता है, वही हरेः प्रदक्षिणां कृत्वा सक्दप्यमलाशयाः । कौन-सा एक कर्म करनेसे प्राप्त हो सकता है ? सर्वज्ञ सर्वतीर्थसमागाह्य लभन्ते यन्न संशयः ॥६॥ सूतजी ! यदि ऐसा कोई कर्म हो तो उसे हमें बताइये। एक बार भी श्रीहरिकी प्रदक्षिणा करके मनुष्य शुद्ध सूत उवाच
हो जाते हैं तथा सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्रान करनेका जो फल कर्मयोगः किल प्रोक्तो वर्णानां द्विजपूर्वशः। होता है, उसे प्राप्त कर लेते हैं-इसमें तनिक भी सन्देह नानाविधो महाभागास्तत्र चैक विशिष्यते ॥३॥ नहीं है। __महाभाग महर्षिगण ! [शास्त्रोंमें] ब्राह्मणादि प्रतिमां च हरेर्दृष्ट्वा सर्वतीर्थफलं लभेत् । वर्गों के लिये निश्चय ही नाना प्रकारके कर्मयोगका विष्णुनाम परं जप्त्वा सर्वमन्त्रफलं लभेत् ॥७॥ वर्णन किया गया है, परन्तु उसमें एक ही बात सबसे मनुष्य श्रीहरिकी प्रतिमाका दर्शन करके सब बढ़कर है।
तीर्थोका फल प्राप्त करता है तथा विष्णुके उत्तम नामका हरिभक्तिः कृता येन मनसा कर्मणा गिरा। जप करके सम्पूर्ण मन्त्रोंके जपका फल पा लेता है। जितं तेन जितं तेन जितमेव न संशयः ।। ४ ॥ विष्णुप्रसादतुलसीमानाय द्विजसत्तमाः । _जिसने मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीहरिकी प्रचण्डं विकरालं तद् यमस्यास्यं न पश्यति ।। ८॥
* प्राषीणां परमं दशकोटिसहस्राणि
गुह्यमिदं भरतसत्तम । तीर्थाभिगमनं पुर्य यज्ञैरपि विशिष्यते ॥
शिस्कोट्यस्तथापरे । माघमासे तु गङ्गायो गमिष्यन्ति नरर्षभ ।। (स्वर्ग:४९।१५-१६)
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पापुराण
द्विजवरो! भगवान् विष्णुके प्रसादस्वरूप जो श्रीहरिकी प्रदक्षिणा करते हुए करताल आदि तुलसीदलको सँघकर मनुष्य यमराजके प्रचण्ड एवं बजाकर मधुर स्वर तथा मनोहर शब्दोंमें उनके नामोंका विकराल मुखका दर्शन नहीं करता।
कीर्तन करता है, उसने ब्रह्महत्या आदि पापोंको मानो सकृत्प्रणामी कृष्णस्य मातुः स्तन्यं पिबेन्न हि। ताली बजाकर भगा दिया। हरिपादे मनो येषां तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥९॥ हरिभक्तिकथामुक्ताख्यायिका श्रृणुयाच यः ।
एक बार भी श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला मनुष्य तस्य संदर्शनादेव पूतो भवति मानवः ॥ १५॥ पुनः माताके स्तनोंका दूध नहीं पीता-उसका दूसरा जो हरिभक्ति-कथारूपी मुक्तामयी आख्यायिकाका जन्म नहीं होता। जिन पुरुषोंका चित्त श्रीहरिके चरणोंमें श्रवण करता है, उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य पवित्र हो लगा है, उन्हें प्रतिदिन मेरा बारंबार नमस्कार है। जाता है। पुल्कसः श्वपचो वापि ये चान्ये म्लेच्छजातयः। किं पुनस्तस्य पापानामाशङ्का मुनिपुङ्गवाः । तेऽपि वन्द्या महाभागा हरिपादैकसेवकाः ॥ १०॥ तीर्थानां च परं तीर्थ कृष्णनाम महर्षयः ॥ १६ ॥
पुल्कस, श्वपच (चाण्डाल) तथा और भी जो मुनिवरो ! फिर उसके विषयमें पापोंकी आशङ्का म्लेच्छ जातिके मनुष्य हैं, वे भी यदि एकमात्र श्रीहरिके क्या रह सकती है। महर्षियो ! श्रीकृष्णका नाम सब चरणोंकी सेवामें लगे हों तो वन्दनीय और परम तीर्थों में परम तीर्थ है। सौभाग्यशाली हैं।
तीर्थीकुर्वन्ति जगतीं गृहीतं कृष्णनाम यैः । किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। तस्मान्मुनिवरा: पुण्यं नातः परतरं विदुः ॥ १७ ॥ हरौ भक्ति विधायैव गर्भवासं न पश्यति ॥ ११॥ जिन्होंने श्रीकृष्ण-नामको अपनाया है, वे पृथ्वीको
फिर जो पुण्यात्मा ब्राह्मण और राजर्षि भगवान्के तीर्थ बना देते हैं। इसलिये श्रेष्ठ मुनिजन इससे बढ़कर भक्त हों, उनकी तो बात ही क्या है। भगवान् श्रीहरिकी पावन वस्तु और कुछ नहीं मानते। भक्ति करके ही मनुष्य गर्भवासका दुःख नहीं देखता। विष्णुप्रसादनिर्माल्य भुक्त्वा धृत्वा च मस्तके। हरेरणे स्वनैरुचैर्नृत्यस्तन्नामकृन्नरः। विष्णुरेव भवेन्मयों यमशोकविनाशनः । पुनाति भुवनं विप्रा गङ्गादि सलिलं यथा ॥ १२ ॥ अर्चनीयो नमस्कार्यो हरिरेव न संशयः ॥ १८॥
ब्राह्मणो ! भगवान्के सामने उधस्वरसे उनके श्रीविष्णुके प्रसादभूत निर्माल्यको खाकर और नामोका कीर्तन करते हुए नृत्य करनेवाला मनुष्य गङ्गा मस्तकपर धारण करके मनुष्य साक्षात् विष्णु ही हो जाता आदि नदियोंके जलकी भाँति समस्त संसारको पवित्र कर है। वह यमराजसे होनेवाले शोकका नाश करनेवाला देता है।
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होता है; वह पूजन और नमस्कारके योग्य साक्षात् दर्शनात् स्पर्शनात्तस्य आलापादपि भक्तितः। श्रीहरिका ही स्वरूप है-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। ब्रह्महत्यादिभिः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ॥ १३ ॥ ये हीमं विष्णुमव्यक्तं देवं वापि महेश्वरम् ।
उस भक्तके दर्शन और स्पर्शसे, उसके साथ एकीभावेन पश्यन्ति न तेषां पुनरुद्धवः ॥ १९ ॥ वार्तालाप करनेसे तथा उसके प्रति भक्तिभाव रखनेसे जो इन अव्यक्त विष्णु तथा भगवान् महेश्वरको एक मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है-इसमें भावसे देखते हैं, उनका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं तनिक भी संदेह नहीं है।
होता। हरेः प्रदक्षिणं कुर्वन्नुवैस्तन्नामकृन्नरः। तस्मादनादिनिधनं विष्णुमात्मानमव्ययम्। करतालादिसंधानं सुस्वरं कलशब्दितम्। हरे चैकं प्रपश्यध्यं पूजयध्यं तथैव हि ॥ २०॥ ब्रह्महत्यादिकं पापं तेनैव करतालितम् ॥ १४ ॥ अतः महर्षियो! आप आदि-अन्तसे रहित
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स्वर्गखण्ड]
• भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा .
अविनाशी परमात्मा विष्णु तथा महादेवजीको एक हरिनाममहावनं पापपर्वतदारणम्। भावसे देखें तथा एक समझकर ही उनका पूजन करें। तस्य पादौ तु सफलौ तदर्थगतिशालिनौ ।। २७ ।। येऽसमानं प्रपश्यन्ति हरिं वै देवतान्तरम्।
हरिनामरूपी महान् वज्र पापोंके पहाड़को विदीर्ण ते यान्ति नरकान् घोरान्न तांस्तु गणयेद्धरिः ।। २१॥ करनेवाला है। जो भगवान्की ओर आगे बढ़ते हों,
जो 'हरि' और 'हर' को समान भावसे नहीं देखते, मनुष्यके वे ही पैर सफल हैं। श्रीहरिको दूसरा देवता समझते हैं, वे घोर नरकमें पड़ते तावेव धन्यावाख्यातौ यौ तु पूजाकरौ करौ। हैं; उन्हें श्रीहरि अपने भक्तोंमें नहीं गिनते। उत्तमानमुत्तमाकं तद्धरौ नप्रमेव यत् ।। २८॥ मूर्ख वा पण्डितं वापि ब्राह्मणं केशवप्रियम्।
वे ही हाथ धन्य कहे गये हैं, जो भगवान्की पूजामें वपाकं वा मोचयति नारायणः स्वयं प्रभुः ॥ २२ ॥ संलग्न रहते हैं। जो मस्तक भगवानके आगे झुकता हो,
पण्डित हो या मूर्ख, ब्राहाण हो या चाण्डाल, यदि वही उत्तम अङ्ग है। वह भगवान्का प्यारा भक्त है तो स्वयं भगवान् नारायण सा जिह्वा या हरि स्तौति तन्मनस्तत्पदानुगम् । उसे संकटोंसे छुड़ाते हैं।
तानि लोमानि चोच्यन्ते यानि तन्नानि चोस्थितम् ।। २९ ॥ नारायणात्परो नास्ति पापराशिदवानलः। कुर्वन्ति तव नेत्राम्बु यदच्युतप्रसङ्गतः। कृत्वापि पातकं घोरं कृष्णनाना विमुच्यते ॥ २३ ॥ जीभ वही श्रेष्ठ है, जो भगवान् श्रीहरिकी स्तुति
भगवान् नारायणसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं करती है। मन भी वही अच्छा है, जो उनके चरणोंका है, जो पापपुञ्जरूपी वनको जलानेके लिये दावानलके अनुगमन-चिन्तन करता है तथा रोएँ भी वे ही सार्थक समान हो। भयङ्कर पातक करके भी मनुष्य श्रीकृष्ण- कहलाते हैं, जो भगवान्का नाम लेनेपर खड़े हो जाते नामके उच्चारणसे मुक्त हो जाता है। .. . है। इसी प्रकार आँसू वे ही सार्थक हैं, जो भगवान्की स्वयं नारायणो देवः स्वनाम्नि जगतां गुरुः। चर्चाके अवसरपर निकलते हैं। आत्मनोऽभ्यधिकां शक्ति स्थापयामास सुव्रताः ॥ २४ ॥ अहो लोका अतितरां देवदोषेण वञ्चिताः ॥३०॥
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो ! जगद्गुरु नामोशारणमात्रेण मुक्तिदं न भजन्ति वै। भगवान् नारायणने स्वयं ही अपने नाममें अपनेसे भी अहो ! संसारके लोग भाग्यदोषसे अत्यन्त वञ्चित अधिक शक्ति स्थापित कर दी है।
हो रहे हैं, क्योंकि वे नामोच्चारणमात्रसे मुक्ति देनेवाले अत्र ये विवदन्ते वा आयासलघुदर्शनात् । भगवान्का भजन नहीं करते। फलानां गौरवाच्चापि ते यान्ति नरकं बहु ॥ २५ ॥ वञ्चितास्ते च कलुषाः स्त्रीणां सङ्गप्रसङ्गतः ॥ ३१ ॥
नाम-कीर्तनमें परिश्रम तो थोड़ा होता है, किन्तु प्रतिष्ठन्ति च लोमानि येषां नो कृष्णशब्दने। फल भारी-से-भारी प्राप्त होता है-यह देखकर जो लोग स्त्रियोंके स्पर्श एवं चर्चासे जिन्हें रोमाञ्च हो आता इसकी महिमाके विषयमें तर्क उपस्थित करते हैं, वे है, श्रीकृष्णका नाम लेनेपर नहीं, वे मलिन तथा अनेकों बार नरकमें पड़ते हैं।
कल्याणसे वञ्चित हैं। तस्माद्धरौ भक्तिमान् स्याद्धरिनामपरायणः। ते मूर्खा ाकृतात्मानः पुत्रशोकादिविह्वलाः ।। ३२ ।। पूजकं पृष्ठतो रक्षेन्नामिनं वक्षसि प्रभु ॥ २६ ॥ रुदन्ति बहुलालापर्न कृष्णाक्षरकीर्तने ।
इसलिये हरिनामकी शरण लेकर भगवानकी जो अजितेन्द्रिय पुरुष पुत्रशोकादिसे व्याकुल भक्ति करनी चाहिये। प्रभु अपने पुजारीको तो पीछे होकर अत्यन्त विलाप करते हुए रोते हैं, किन्तु रखते हैं; किन्तु नाम-जप करनेवालेको छातीसे लगाये श्रीकृष्णनामके अक्षरोंका कीर्तन करते हुए नहीं रोते, वे रहते हैं।
मूर्ख हैं।
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+ अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त परापुराण
जिह्वां लब्ध्वापि लोकेऽस्मिन् कृष्णनाम जपेन हि ॥ ३३ ॥ अधिक पावन तीर्थ कहा गया है। लक्वापि मुक्तिसोपानं हेलयैव च्यवन्ति ते। सर्वेषां खलु तीर्थानां नानपानावगाहनैः । जो इस लोकमें जीभ पाकर भी श्रीकृष्णनामका जप
यत्फलं लभते मर्त्यस्तत्फलं कृष्णसेवनात् ॥३६॥ नहीं करते, वे मोक्षतक पहुँचनेके लिये सीढ़ी पाकर भी
सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्रान करने, उनका जल पीने और अवहेलनावश नीचे गिरते हैं।
उनमें गोता लगानेसे मनुष्य जिस फलको पाता है, वह तस्माद्यनेन वै विष्णुं कर्मयोगेन मानवः ॥ ३४ ॥ कर्मयोगार्चितो विष्णुः प्रसीदत्येव नान्यथा।
श्रीकृष्णके सेवनसे प्राप्त हो जाता है। तीर्थादप्यधिक तीर्थ विष्णोर्भजनमच्यते ॥ ३५॥ यजन्ते कर्मयोगेन धन्या एव नरा हरिम् ।
इसलिये मनुष्यको उचित है कि वह कर्मयोगके तस्माद्यजध्वं मुनयः कृष्णं परममङ्गलम् ।। ३७ ॥ द्वारा भगवान् विष्णुकी यत्नपूर्वक आराधना करे। भाग्यवान् मनुष्य ही कर्मयोगके द्वारा श्रीहरिका कर्मयोगसे पूजित होनेपर ही भगवान् विष्णु प्रसन्न होते पूजन करते हैं। अतः मुनियो ! आपलोग परम मङ्गलमय है, अन्यथा नहीं। भगवान् विष्णुका भजन तीर्थोंसे भी श्रीकृष्णकी आराधना करें।
ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! कर्मयोग कैसे किया श्रवण करो। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह अपने जाता है, जिसके द्वारा आराधना करनेपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं? महाभाग ! आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; अतः हमें यह बात बताइये। जिसके द्वारा मुमुक्षु पुरुष सबके ईश्वर भगवान् श्रीहरिकी आराधना कर सकें, वह समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाला धर्म क्या वस्तु है? उसका वर्णन कीजिये। उसके श्रवणकी इच्छासे ये ब्राह्मणलोग आपके सामने बैठे है।
सूतजी बोले-महर्षियो ! पूर्वकालमें अग्निके समान तेजस्वी ऋषियोंने सत्यवतीके पुत्र व्यासजीसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा था, उसे आपलोग सुनिये।
व्यासजीने कहा-ऋषियो! मैं सनातन कर्मयोगका वर्णन करूँगा, तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। कर्मयोग ब्राह्मणोंको अक्षय फल प्रदान करनेवाला है। पहलेकी बात है, प्रजापति मनुने श्रोता बनकर बैठे हए ऋषियोंके समक्ष ब्राह्मणोंके लाभ के लिये वेदप्रसिद्ध
र सम्पूर्ण विषयोका उपदेश किया था। वह उपदेश सम्पूर्ण गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार गर्भ या जन्मसे पापोंको हरनेवाला, पवित्र और मुनि-समुदायद्वारा सेवित आठवें वर्षमें उपनयन होनेके पश्चात् वेदोंका अध्ययन है; मैं उसीका वर्णन करता हूँ, तुमलोग एकाग्रचित्त होकर आरम्भ करे। दण्ड, मेखला, यज्ञोपवीत और हिंसारहित
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स्वर्गखण्ड ]
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ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
काला मृगचर्म धारण किये मुनिवेषमें रहे, भिक्षाका अत्र ग्रहण करे और गुरुका मुँह जोहते हुए सदा उनके हितमें संलग्न रहे। ब्रह्माजीने पूर्वकालमें यज्ञोपवीत बनानेके लिये ही कपास उत्पन्न किया था ब्राह्मणोंके लिये तीन आवृत्ति करके बनाया हुआ यज्ञोपवीत शुद्ध माना गया है। द्विजको सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहना चाहिये। अपनी शिखाको सदा बाँधे रखना चाहिये। इसके विपरीत बिना यज्ञोपवीत पहने और बिना शिखा बाँधे जो कर्म किया जाता है, वह विधिपूर्वक किया हुआ नहीं माना जाता । वस्त्र रूई जैसा सफेद हो या गेरुआ । फटा न हो, तभी उसे ओढ़ना चाहिये तथा वही पहननेके योग्य माना गया है। इनमें भी श्वेत वस्त्र अत्यन्त उत्तम है। उससे भी उत्तम और शुभ आच्छादन काला मृगचर्म माना गया है। जनेऊ गलेमें डालकर दाहिना हाथ उसके ऊपर कर ले और बायीं बाँह [ अथवा कंधे] पर उसे रखे तो वह 'उपवीत' कहलाता है। यज्ञोपवीतको सदा इसी तरह रखना चाहिये। कण्ठमें मालाकी भाँति पहना हुआ जनेऊ 'निवीत' कहा गया है। ब्राह्मणो! बाय बाँह बाहर निकालकर दाहिनी बाँह या कंधेपर रखे हुए जनेऊको 'प्राचीनावीत' (अपसव्य) कहते हैं। इसका पितृ कार्य (श्राद्ध-तर्पण आदि) में उपयोग करना चाहिये। हवनगृहमें, गोशालामें, होम और जपके समय, स्वाध्यायमें भोजनकालमें, ब्राह्मणोंके समीप रहनेपर, गुरुजनों तथा दोनों कालकी संध्याकी उपासनाके समय तथा साधु पुरुषोंसे मिलने पर सदा उपवीतके ढंगसे ही जनेऊ पहनना
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चाहिये – यही सनातन विधि है। ब्राह्मणके लिये तीन आवृत्ति की हुई मूँजकी ही मेखला बनानी चाहिये। पूँज न मिलनेपर कुशसे भी मेखला बनानेका विधान है। मेखलामें गाँठ एक या तीन होनी चाहिये। द्विज बाँस अथवा पलाशका दण्ड धारण करे। दण्ड उसके पैरसे लेकर सिरके केशतक लंबा होना चाहिये। अथवा किसी भी यज्ञोपयोगी वृक्षका दण्ड, जो सुन्दर और छिद्र आदिसे रहित हो, वह धारण कर सकता है।
द्विज सबेरे और सायंकालमें एकाग्रचित्त होकर संध्योपासन करे। जो काम, लोभ, भय अथवा मोहवश संध्योपासन त्याग देता है, वह गिर जाता है। संध्या करनेके पश्चात् द्विज प्रसन्नचित्त होकर सायंकाल और प्रातःकालमें अग्निहोत्र करे। फिर दुबारा स्नान करके देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। इसके बाद पत्र, पुष्प, फल, जौ और जल आदिसे देवताओंकी पूजा करे। प्रतिदिन आयु और आरोग्यकी सिद्धिके लिये तन्द्रा और आलस्य आदिका परित्याग करके 'मैं अमुक हूँ। और आपको प्रणाम करता हूँ' इस प्रकार अपने नाम, गोत्र आदिका परिचय देते हुए धर्मतः अपनेसे बड़े पुरुषोंको विधिपूर्वक प्रणाम करे और इस प्रकार गुरुजनोंको नमस्कार करनेका स्वभाव बना ले। नमस्कार करनेवाले ब्राह्मणको बदलेमें 'आयुष्मान् भव सौम्य !' कहना चाहिये तथा उसके नामके अन्तमें लुताकारका उच्चारण करना चाहिये। यदि नाम हलन्त हो, तो अन्तिम हल्के आदिका अक्षर प्लुत बोलना चाहिये। * जो
* पाणिनिने भी 'प्रत्यभिवादेऽशूद्रे' (८ । २ । ८३ ) – इस सूत्रके द्वारा इस नियमका उल्लेख किया है। इसके अनुसार आशीर्वाद वाक्यके 'टि' को 'भुत' स्वरसे बोला जाता है। किन्तु उस वाक्य के अन्तमें प्रणाम करनेवालेका नाम या 'सौम्य' आदि पद ही प्रयुक्त होते हैं। यदि नाम स्वरान्त हो तो अन्तिम अक्षरको ही 'टि' संज्ञा प्राप्त होगी और यदि हलन्त हुआ तो अन्तिम अक्षरके पूर्ववर्ती स्वरको 'टि' माना जायगा; उसीका लुत उच्चारण होगा। हस्वका उच्चारण एक मात्राका, दीर्घका दो मात्राका और भुतका तीन मात्राका होता है। अतः ह्रस्वके उच्चारणमें जितना समय लगता है, उससे तिगुने समयमें श्रुतका ठीक उच्चारण होता है। यह नियम ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य तीनों वर्णोंक पुरुषोंके लिये लागू होता है। यदि प्रणाम करनेवाला शूद्र या स्त्री हो तो उसे आशीर्वाद देते समय उसके नामका अन्तिम अक्षर त नहीं बोला जाता प्रणाम वाक्य इस प्रकार होना चाहिये – 'अमुक गोत्रः अमुकशर्मा (वर्माहं गुप्तोऽहं वा) भवन्तमभिवादये। आशीर्वाद वाक्य ऐसा होना चाहिये- 'आयुष्मान् भव सौम्य ३ आयुष्मानेधीन्द्रशर्म ३ न, आयुष्मानेधीन्द्रवर्म ३ न् अथवा आयुष्मानेधीन्द्रगुप्त ३, इत्यादि। जो इस प्रकार आशीर्वाद देना जानता हो उसीको उक्त विधिसे नाम गोत्रादिका उच्चारण करके प्रणाम करना चाहिये; जो न जाने, उससे 'अयमहं प्रणमामि' आदि साधारण वाक्य बोलना चाहिये।
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
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ब्राह्मण प्रणामके बदले उक्तरूपसे आशीर्वाद देनेकी द्वारा ऊँचा उठा हुआ पुरुष भी गुरुजनोंसे द्वेष करनेके विधि नहीं जानता, वह विद्वान् पुरुषके द्वारा प्रणाम कारण नीचे गिर जाता है। समस्त गुरुजनोंमें भी पाँच करनेके योग्य नहीं है। जैसा शूद्र है, वैसा ही वह भी है। विशेष रूपसे पूज्य हैं। उन पाँचोंमें भी पहले पिता, माता अपने दोनों हाथोंको विपरीत दिशामें करके गुरुके और आचार्य-ये तीन सर्वश्रेष्ठ हैं। उनमें भी माता चरणोंका स्पर्श करना उचित है। अर्थात् अपने बायें सबसे अधिक सम्मानके योग्य है। उत्पन्न करनेवाला हाथसे गुरुके बायें चरणका और दाहिने हाथसे दाहिने पिता, जन्म देनेवाली माता, विद्याका उपदेश देनेवाला चरणका स्पर्श करना चाहिये। शिष्य जिनसे लौकिक, गुरु, बड़ा भाई और स्वामी-ये पाँच परमपूज्य गुरु माने वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, उन गये है। कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि अपने पूर्ण गुरुदेवको वह पहले प्रणाम करे।
प्रयत्नसे अथवा प्राण त्यागकर भी इन पाँचोंका विशेष जल, भिक्षा, फूल और समिधा---इन्हें दूसरे रूपसे सम्मान करे । जबतक पिता और माता-ये दोनों दिनके लिये संग्रह न करे-प्रतिदिन जाकर जीवित हों, तबतक सब कुछ छोड़कर पुत्र उनकी सेवामें आवश्यकताके अनुसार ले आये। देवताके निमित्त किये संलग्न रहे। पिता-माता यदि पुत्रके गुणोंसे भलीभांति जानेवाले कार्योंमें भी जो इस तरहके दूसरे-दूसरे प्रसन्न हों, तो वह पुत्र उनकी सेवारूप कर्मसे ही सम्पूर्ण आवश्यक सामान हैं, उनका भी अन्य समयके लिये धर्मोका फल प्राप्त कर लेता है। माताके समान देवता संग्रह न करे। ब्राह्मणसे भेंट होनेपर कुशल पूछे, और पिताके समान गुरु दूसरा नहीं है। उनके किये हुए क्षत्रियसे अनामय, वैश्यसे क्षेम और शूद्रसे आरोग्यका उपकारोंका बदला भी किसी तरह नहीं हो सकता। अतः प्रश्न करे। उपाध्याय (गुरु), पिता, बड़े भाई, राजा, मन, वाणी और क्रियाद्वारा सदा उन दोनोंका प्रिय करना मामा, श्वशुर, नाना, दादा, वर्णमें अपनेसे श्रेष्ठ व्यक्ति चाहिये; उनकी आज्ञाके बिना दूसरे किसी धर्मका तथा पिताका भाई-ये पुरुषोंमें गुरु माने गये हैं। माता, आचरण न करे।* परन्तु यह निषेध मोक्षरूपी फल नानी, गुरुपत्नी, बुआ, मौसी, सास, दादी, बड़ी बहिन देनेवाले नित्य-नैमित्तिक कोंको छोड़कर ही लागू होता
और दूध पिलानेवाली धाय-इन्हें स्त्रियोंमें गुरु माना है। [मोक्षके साधनभूत नित्य-नैमित्तिक कर्म अनिवार्य गया है। यह गुरुवर्ग माता और पिताके सम्बन्धसे है, हैं, उनका अनुष्ठान होना ही चाहिये; उनके लिये ऐसा जानना चाहिये तथा मन, वाणी और शरीरकी किसीकी अनुमति लेना आवश्यक नहीं है।] यह धर्मके क्रियाद्वारा इनके अनुकूल आचरण करना चाहिये। सार-तत्त्वका उपदेश किया गया है। यह मृत्युके बाद भी गुरुजनोंको देखते ही उठकर खड़ा हो जाय और हाथ अनन्त फलको देनेवाला है। उपदेशक गुरुकी विधिवत् जोड़कर प्रणाम करे । इनके साथ एक आसनपर न बैठे। आराधना करके उनकी आज्ञासे घर लौटनेवाला शिष्य इनसे विवाद न करे । अपने जीवनकी रक्षाके लिये भी इस लोकमें विद्याका फल भोगता है और मृत्यु के पश्चात् गुरुजनोंके साथ द्वेषपूर्वक बातचीत न करे । अन्य गुणोंके स्वर्गमें जाता है।
* गुरूणामपि सर्वेषां पश पूज्या विशेषतः । तेषामाद्यास्त्रयः श्रेष्ठास्तेषां माता सुपूजिता ॥ यो भावयति या सूते येन विद्योपदिश्यते । ज्येष्ठो भ्राता च भर्ता च पीते गुरवः स्मृताः। आत्मनः सर्वबनेन प्राणत्यागेन वा पुनः । पूजनीया विशेषेण पछते भूतिमिच्छता ।। यावत् पिता च माता च द्वावेतौ निर्विकारिणौ । तावत्सर्व परित्यज्य पुत्रः स्यात्तत्परायणः ॥ पिता माता च सुप्रीती स्यातां पुत्रगुणैर्यदि। स पुत्रः सकलं धर्म प्राप्नुयात्तेन कर्मणा ।। नास्ति मातृसमं दैवं नास्ति पितृसमो गुरुः । तयोः प्रत्युपकारोऽपि न कथंचन विद्यते ॥ तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यात् कर्मणा मनसा गिरा। न ताभ्यामननुज्ञातो धर्ममन्य समाचरेत् ।।(५१ । ३५-४१)
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स्वर्गखण्ड]
• ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम .
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ज्येष्ठ भ्राता पिताके समान है; जो मूर्ख उसका रखते हुए शिष्ट पुरुषोंके घरोंसे भिक्षा ले आये तथा अपमान करता है, वह उस पापके कारण मृत्युके बाद गुरुको निवेदन कर दे। फिर गुरु उसमेसे जितना घोर नरकमें पड़ता है। सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले भोजनके लिये दें, उनकी आज्ञाके अनुसार उतना ही पुरुषको स्वामीका सदा सम्मान करना चाहिये। इस लेकर मौनभावसे भोजन करे। उपनयन-संस्कारसे युक्त संसारमें माताका अधिक उपकार है; इसलिये उसका श्रेष्ठ ब्राह्मण भवत' शब्दका पहले प्रयोग करके अर्थात् अधिक गौरव माना गया है। मामा, चाचा, श्वशुर, 'भवति भिक्षा मे देहि' कहकर भिक्षा मांगे। क्षत्रिय ऋत्विज और गुरुजनोंसे 'मैं अमुक हूँ' ऐसा कहकर ब्रह्मचारी वाक्यके बीचमें और वैश्य अन्तमें 'भवत्' बोले और खड़ा होकर उनका स्वागत करे । यज्ञमें दीक्षित शब्दका प्रयोग करे, अर्थात् क्षत्रिय 'भिक्षा भवति मे पुरुष यदि अवस्थामें अपनेसे छोटा हो, तो भी उसे नाम देहि' और वैश्य 'भिक्षा मे देहि भवति' कहे। ब्रह्मचारी लेकर नहीं बुलाना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुषको उचित है कि सबसे पहले अपनी माता, बहिन अथवा मौसीसे भिक्षा वह उससे 'भोः !' और 'भवत्' (आप) आदि मांगे। अपने सजातीय लोगोंके घरोंमें ही भिक्षा मांगे कहकर बात करे। ब्राह्मण और क्षत्रिय आदिके द्वारा भी अथवा सभी वर्णकि घरसे भिक्षा ले आये। भिक्षाके वह सदा सादर नमस्कारके योग्य और पूजनीय है। उसे सम्बन्धमें दोनों ही प्रकारका विधान मिलता है। किन्तु मस्तक झुकाकर प्रणाम करना चाहिये। क्षत्रिय आदि पतित आदिके घरसे भिक्षा लाना वर्जित है। जिनके यहाँ यदि ज्ञान, उत्तम कर्म एवं श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त होते हुए वेदाध्ययन और यज्ञोंकी परम्परा बंद नहीं है, जो अपने अनेक शास्त्रोंके विद्वान् हों, तो भी ब्राह्मणके द्वारा कर्मके लिये सर्वत्र प्रशंसित है, उन्हींके घरोंसे जितेन्द्रिय नमस्कारके योग्य कदापि नहीं है। ब्राह्मण अन्य सभी ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षा ले आये। गुरुके कुलमें भिक्षा वोंके लोगोंसे स्वस्ति कहकर बोले-यह श्रुतिकी न माँगे। अपने कुटुम्ब, कुल और सम्बन्धियोंके यहाँ भी आज्ञा है। एक वर्णके पुरुषको अपने समान वर्णवालोंको भिक्षाके लिये न जाय। यदि दूसरे घर न मिले तो प्रणाम ही करना चाहिये । समस्त वर्णोके गुरु ब्राह्मण हैं, यथासम्भव ऊपर बताये हुए पूर्व-पूर्व गृहोंका परित्याग ब्राह्मणोंके गुरु अग्नि, हैं, स्त्रीका एकमात्र गुरु पति है और करके भिक्षा ले सकता है। यदि पूर्वकथनानुसार योग्य अतिथि सबका गुरु है। विद्या, कर्म, वय, भाई-बन्धु घर मिलना असम्भव हो जाय तो समूचे गाँवमें भिक्षाके और कुल-ये पाँच सम्मानके कारण बताये गये हैं। लिये विचरण करे। उस समय मनको काबूमें रखकर इनमें पिछलोकी अपेक्षा पहले उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।* मौन रहे और इधर-उधर दृष्टि न डाले। ब्राह्मणादि तीन वर्णोंमें जहाँ इन पाँचों से अधिक एवं इस प्रकार सरलभावसे आवश्यकतानुसार प्रबल गुण होते है, वही सम्मानके योग्य समझा जाता भिक्षाका संग्रह करके भोजन करे। सदा जितेन्द्रिय रहे। है। दसवीं (९० वर्षसे ऊपरकी) अवस्थाको प्राप्त हुआ मौन रहकर एवं एकाग्रचित्त हो व्रतका पालन करनेवाला शूद्र भी सम्मानके योग्य होता है। ब्राह्मण, स्त्री, राजा, ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षाके अन्नसे ही जीवन-निर्वाह करे, नेत्रहीन, वृद्ध, भारसे पीड़ित मनुष्य, रोगी तथा दुर्बलको एक स्थानका अन्न न खाय। भिक्षासे किया हुआ निर्वाह जानेके लिये मार्ग देना चाहिये। . ....ब्रह्मचारीके लिये उपवासके समान माना गया है।
ब्रह्मचारी प्रतिदिन मन और इन्द्रियोंको संयममें ब्रह्मचारी भोजनको सदा सम्मानकी दृष्टि से देखे। गर्वमें
* गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः । पतिरेको गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ॥
विद्या कर्म वयो बन्धुः कुलं भवति पचमम्। मान्यस्थानानि पश्चाहुः पूर्व पूर्व गुरूत्तरात् ॥(५१ । ५१-५२) + पन्धा देयो ब्राह्मणाय स्त्रियै राज्ञे विचक्षुषे । वृद्धाय भारभन्नाय रोगिणे दुर्वलाय च ॥(५१ । ५४)
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
आकर अन्नको गर्हणा न करे। उसे देखकर हर्ष प्रकट दिये हुए जलके द्वारा अथवा बिना यज्ञोपवीतके भी करे। मनमें प्रसन्न हो और सब प्रकारसे उसका आचमन करना निषिद्ध है। खड़ाऊँ पहने हुए अथवा अभिनन्दन करे। अधिक भोजन आरोग्य, आयु और घुटनोंके बाहर हाथ करके भी आचमन नहीं करना स्वर्गलोककी प्राप्तिमें हानि पहुँचानेवाला है; वह पुण्यका चाहिये। बोलते, हँसते, किसीकी ओर देखते तथा नाशक और लोक-निन्दित है। इसलिये उसका परित्याग बिछौनेपर लेटे हुए भी आचमन करना निषिद्ध है। जिस कर देना चाहिये। पूर्वाभिमुख होकर अथवा सूर्यकी ओर जलको अच्छी तरह देखा न गया हो, जिसमें फेन आदि मुँह करके अन्नका भोजन करना उचित है। उत्तराभिमुख हों, जो शूद्रके द्वारा अथवा अपवित्र हाथोंसे लाया गया होकर कदापि भोजन न करे। यह भोजनकी सनातन हो तथा जो खारा हो, ऐसे जलसे भी आचमन करना विधि है। भोजन करनेवाला पुरुष हाथ-पैर धो, शुद्ध अनुचित है। आचमनके समय अँगुलियोंसे शब्द न करे, स्थानमें बैठकर पहले जलसे आचमन करे; फिर मनमें दूसरी कोई बात न सोचे। हाथसे बिलोड़े हुए भोजनके पश्चात् भी उसे दो बार आचमन करना चाहिये। जलके द्वारा भी आचमन करना निषिद्ध है। ब्राह्मण उतने
भोजन करके, जल पीकर, सोकर उठनेपर और ही जलसे आचमन करनेपर पवित्र हो सकता है, जो स्रान करनेपर, गलियोंमें घूमनेपर, ओठ चाटने या स्पर्श हृदयतक पहुँच सके। क्षत्रिय कण्ठतक पहुँचनेवाले करनेपर, वस्त्र पहननेपर, वीर्य, मूत्र और मलका त्याग आचमनके जलसे शुद्ध होता है। वैश्य जिह्वासे जलका करनेपर, अनुचित बात कहनेपर, थूकनेपर, अध्ययन आस्वादन मात्र कर लेनेसे पवित्र होता है और स्त्री तथा आरम्भ करनेके समय, खाँसी तथा दम उठनेपर, चौराहे शूद्र जलके स्पर्शमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं। या श्मशानभूमिमें घूमकर लौटनेपर तथा दोनों अंगूठेकी जड़के भीतरकी रेखामें ब्राह्मतीर्थ बताया संध्याओंके समय श्रेष्ठ द्विज आचमन किये होनेपर भी जाता है। अँगूठे और तर्जनीके बीचके भागको पितृतीर्थ फिर आचमन करे । चाण्डालों और म्लेच्छोंके साथ बात कहते हैं। कानी अँगुलीके मूलसे पीछेका भाग करनेपर, स्त्रियों, शूद्रों तथा जूठे मुँहवाले पुरुषोंसे प्राजापत्यतीर्थ कहलाता है। अँगुलियोंका अग्रभाग वार्तालाप होनेपर, जूठे मुँहवाले पुरुष अथवा जूठे देवतीर्थ माना गया है। उसीको आर्षतीर्थ भी कहते हैं। भोजनको देख लेनेपर तथा आँसू या रक्त गिरनेपर भी अथवा अँगुलियोंके मूलभागमें दैव और आर्षतीर्थ तथा आचमन करना चाहिये। अपने शरीरसे स्त्रियोंका स्पर्श मध्यमें आग्रेय तीर्थ है। उसीको सौमिक तीर्थ भी कहते हो जानेपर, अपने बालों तथा खिसककर गिरे हुए हैं। यह जानकर मनुष्य मोहमें नहीं पड़ता। ब्राह्मण सदा वस्त्रका स्पर्श कर लेनेपर धर्मकी दृष्टिसे आचमन करना ब्राह्मतीर्थसे ही आचमन करे अथवा देवतीर्थसे उचित है। आचमनके लिये जल ऐसा होना चाहिये, जो आचमनकी इच्छा रखे। किन्तु पितृ-तीर्थसे कदापि गर्म न हो, जिसमें फेन न हो तथा जो खारा न हो। आचमन न करे। पहले मन और इन्द्रियोको संयममें पवित्रताकी इच्छा रखनेवाला पुरुष सर्वदा पूर्वाभिमुख या रखकर ब्राह्मतीर्थसे तीन बार आचमन करे। फिर उत्तराभिमुख बैठकर ही आचमन करे। उस समय सिर अंगूठेके मूलभागसे मुँहको पोंछते हुए उसका स्पर्श
अथवा गलेको ढके रहे तथा बाल और चोटीको खुला करे। तत्पश्चात् अँगूठे और अनामिका अँगुलियोंसे रखे। कहींसे आया हुआ पुरुष दोनों पैरोंको धोये बिना दोनों नेत्रोंका स्पर्श करे। फिर तर्जनी और अंगूठेके पवित्र नहीं होता। विद्वान् पुरुष सीढ़ीपर या जलमें खड़ा योगसे नाकके दोनों छिद्रोंका, कनिष्ठा और अँगूठेके होकर अथवा पगड़ी बाँधे आचमन न करे। बरसती हुई संयोगसे दोनों कानोंका, सम्पूर्ण अंगुलियोंके योगसे धाराके जलसे अथवा खड़ा होकर या हाथसे उलीचे हुए हृदयका, करतलसे मस्तकका और अँगूठेसे दोनों जलके द्वारा आचमन करना उचित नहीं है। एक हाथसे कंधोंका स्पर्श करे।
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स्वर्गखण्ड ]
• ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म .
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द्विज तीन बार जो जलका आचमन करता है, मूत्रका त्याग करना चाहिये। किसी पेड़की छायामें, उससे ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी तृप्त होते हैं-ऐसा कुएँके पास, नदीके किनारे, गोशाला, देवमन्दिर तथा हमारे सुननेमें आया है। मुखका परिमार्जन करनेसे गङ्गा जलमें, रास्तेपर, राखपर, अग्निमें तथा शमशान-भूमिमें और यमुनाको तृप्ति होती है। दोनों नेत्रोंके स्पर्शसे सूर्य भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये। गोबरपर, और चन्द्रमा प्रसन्न होते हैं। नासिकाके दोनों छिद्रोंका काठपर, बहुत बड़े वृक्षपर तथा हरी-भरी घासमें भी स्पर्श करनेसे अश्विनीकुमारोंकी तथा कानोंके स्पर्शसे मल-मूत्र करना निषिद्ध है। खड़े होकर तथा नग्न होकर वायु और अग्निकी तृप्ति होती है। हृदयके स्पर्शसे सम्पूर्ण भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये । पर्वतमण्डलमें, देवता प्रसन्न होते हैं और मस्तकके स्पर्शसे वह अद्वितीय पुराने देवालयमें, बाँबीपर तथा किसी भी गड्डेमें मलपुरुष (अन्तर्यामी) प्रसन्न होता है। मधुपर्क, सोमरस, मूत्रका त्याग वर्जित है। चलते-चलते भी पाखाना और पान, फल, मूल तथा गन्ना-इन सबके खाने-पीनेमें पेशाब नहीं करना चाहिये। भूसी, कोयले तथा ठीकरेपर, मनुजीने दोष नहीं बताया है-उससे मुँह जूठा नहीं खेतमें, बिलमें, तीर्थमें, चौराहेपर अथवा सड़कपर, होता। अन्न खाने या जल पीनेके लिये प्रवृत्त होनेवाले बगीचेमें, जलके निकट, ऊसर भूमिमें तथा नगरके मनुष्यके हाथमें यदि कोई वस्तु हो तो उसे पृथ्वीपर भीतर-इन सभी स्थानोंमें मल-मूत्रका त्याग मना है। रखकर आचमनके पश्चात् उसपर भी जल छिड़क देना खड़ाऊँ या जूता पहनकर, छाता लगाकर, चाहिये। जिस-जिस वस्तुको हाथमें लिये हुए मनुष्य अन्तरिक्षमें, स्त्री, गुरु, ब्राह्मण, गौ, देवता, देवालय तथा अपना मुँह जूठा करता है, उसे यदि पृथ्वीपर न रखे तो जलकी ओर मुँह करके, नक्षत्रों तथा ग्रहोंको देखते हुए वह स्वयं भी अशुद्ध ही रह जाता है । वस्त्र आदिके विषयमें अथवा उनकी ओर मुँह करके तथा सूर्य, चन्द्रमा और विकल्प है-उसे पृथ्वीपर रखा भी जा सकता है और अग्निकी ओर दृष्टि करके भी कभी मल-मूत्रका त्याग नहीं भी। उसका स्पर्श करके आचमन करना चाहिये। नहीं करना चाहिये। शौच आदि होनेके पश्चात् कहीं रातके समय जंगलमें चोर और व्याघोंसे भरे हुए रास्तेपर किनारेसे लेप और दुर्गन्धको मिटानेवाली मिट्टी लेकर चलनेवाला पुरुष द्रव्य हाथमें लिये हुए भी मल-मूत्रका आलस्यरहित हो विशुद्ध एवं बाहर निकाले हुए जलसे त्याग करके दूषित नहीं होता। यदि दिनमें शौच जाना हो हाथ आदिकी शुद्धि करे। ब्राह्मणको उचित है कि वह तो जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ाकर उत्तराभिमुख हो रेत मिली हुई अथवा कीचड़की मिट्टी न ले। रास्तेसे, मल-मूत्रका त्याग करे। यदि रात्रिमें जाना पड़े तो ऊसर भूमिसे तथा दूसरोंके शौचसे बची हुई मिट्टीको भी दक्खिनकी ओर मुँह करके बैठना चाहिये। पृथ्वीको काममें न ले। देवमन्दिरसे, कुएँसे, घरकी दीवारसे और लकड़ी, पत्ते, मिट्टी, ढेले अथवा घाससे ढककर तथा जलसे भी मिट्टी न ले। तदनन्तर, हाथ-पैर धोकर अपने मस्तकको भी वस्त्रसे आच्छादित करके मल- प्रतिदिन पूर्वोक्त विधिसे आचमन करना चाहिये ।
ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
, व्यासजी कहते हैं-महर्षियो ! इस प्रकार दण्ड, आज्ञा दें, तब उनके सामने बैठे। गुरुकी बातका श्रवण मेखला, मृगचर्म आदिसे युक्त तथा शौचाचारसे सम्पन्न और गुरुके साथ वार्तालाप-ये दोनों कार्य लेटे-लेटे न ब्रह्मचारी गुरुके मुँहकी ओर देखता रहे और जब वे करे और भोजन करते समय भी न करे। उस समय न बुलायें तभी उनके पास जाकर अध्ययन करे। सदा हाथ तो खड़ा रहे और न दूसरी ओर मुख ही फेरे। गुरुके जोड़े रहे, सदाचारी और संयमी बने । जब गुरु बैठनेकी समीप शिष्यकी शय्या और आसन सदा नीचे रहने
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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चाहिये। जहाँतक गुरुकी दृष्टि पड़ती हो, वहाँतक कुश-इन वस्तुओंका आवश्यकताके अनुसार संग्रह मनमाने आसनपर न बैठे। गुरुके परोक्षमें भी उनका करे तथा अन्नकी भिक्षा लेनेके लिये प्रतिदिन जाय । घी, नाम न ले। उनकी चाल, उनकी बोली तथा उनकी नमक और बासी अन्न ब्रह्मचारीके लिये वर्जित हैं। वह चेष्टाका अनुकरण न करे । जहाँ गुरुपर लाञ्छन लगाया कभी नृत्य न देखे। सदा सङ्गीत आदिसे निःस्पृह रहे। जाता हो अथवा उनकी निन्दा हो रही हो, वहाँ कान मूंद न सूर्यकी ओर देखे न दाँतन करे। उसके लिये स्त्रियोंके लेने चाहिये अथवा वहाँसे अन्यत्र हट जाना चाहिये। दूर साथ एकान्तमें रहना और शूद्र आदिके साथ वार्तालाप खड़ा होकर, क्रोधमें भरकर अथवा स्त्रीके समीप रहकर करना भी निषिद्ध है। वह गुरुके उच्छिष्ट औषध और गुरुकी पूजा न करे । गुरुकी बातोंका प्रत्युत्तर न दे। यदि अत्रका स्वेच्छासे उपयोग न करे। गुरु पास ही खड़े हों तो स्वयं भी बैठा न रहे। गुरुके . ब्राह्मण गुरुके परित्यागका किसी तरह विचार भी लिये सदा पानीका घड़ा, कुश, फूल और समिधा लाया मनमें न लाये। यदि मोह या लोभवश वह उन्हें त्याग करे। प्रतिदिन उनके आँगनमें झाड़ देकर उसे लीप-पोत दे तो पतित हो जाता है। जिनसे लौकिक, वैदिक तथा दे। गुरुके उपभोगमें आयी हुई वस्तुओंपर, उनकी आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उन गुरुदेवसे शव्या, खड़ाऊँ, जूते, आसन तथा छाया आदिपर कभी कभी द्रोह न करे। गुरु यदि घमंडी, कर्तव्यपैर न रखे। गुरुके लिये दाँतन आदि ला दिया करे। जो अकर्तव्यको न जाननेवाला और कुमार्गगामी हो तो कुछ प्राप्त हो, उन्हें निवेदन कर दे। उनसे पूछे बिना कहीं मनुजीने उसका त्याग करनेका आदेश दिया है। गुरुके न जाय और सदा उनके प्रिय एवं हितमें संलग्न रहे। गुरु समीप आ जाये तो उनके प्रति भी गुरुकी ही भांति गुरुके समीप कभी पैर न फैलाये। उनके सामने जंभाई बर्ताव करना चाहिये। नमस्कार करनेके पश्चात् जब वे लेना, हँसना, गला बैंकना और अंगड़ाई लेना सदाके गुरुजी आज्ञा दें, तब आकर अपने गुरुओंको प्रणाम लिये छोड़ दे। समयानुसार गुरुसे, जबतक कि वे करना चाहिये। जो विद्यागुरु हों, उनके प्रति भी यही पढ़ानेसे उदासीन न हो जायँ, अध्ययन करे । गुरुके पास बर्ताव करना चाहिये । जो योगी हों, जो अधर्मसे रोकने नीचे बैठे। एकाग्र चित्तसे उनकी सेवामें लगा रहे । गुरुके और हितका उपदेश करनेवाले हों, उनके प्रति भी सदा आसन, शय्या और सवारीपर कभी न बैठे। गुरु यदि गुरुजनोचित बर्ताव करना चाहिये। गुरुके पुत्र, गुरुकी दौड़ते हों तो उनके पीछे-पीछे स्वयं भी दौड़े। वे चलते पत्नी तथा गुरुके बन्धु-बन्धवोंके साथ भी सदा अपने हों तो स्वयं भी पीछे-पीछे जाय । बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, गुरुके समान ही बर्ताव करना उचित है। इससे कल्याण ऊँटगाड़ी, महलकी अटारी, कुशकी चटाई, शिलाखण्ड होता है। बालक अथवा शिष्य यज्ञकर्ममें माननीय तथा नावपर गुरुके साथ शिष्य भी बैठ सकता है। पुरुषोंका आदर करे। यदि गुरुका पुत्र भी पढ़ाये तो
शिष्यको सदा जितेन्द्रिय, जितात्मा, क्रोधहीन और गुरुके समान ही सम्मान पानेका अधिकारी है। किन्तु पवित्र रहना चाहिये। वह सदा मधुर और हितकारी गुरुपुत्रके शरीर दबाने, नहलाने, उच्छिष्ट भोजन करने वचन बोले। चन्दन, माला, स्वाद, शृङ्गार, सीपी, तथा चरण धोने आदिका कार्य न करे । गुरुकी स्त्रियोंमें प्राणियोंकी हिंसा, तेल की मालिश, सुरमा, शर्बत आदि जो उनके समान वर्णकी हों, उनका गुरुकी भाँति सम्मान पेय, छत्रधारण, काम, लोभ, भय, निद्रा, गाना-बजाना, करना चाहिये तथा जो समान वर्णकी न हो, उनका दूसरोंको फटकारना, किसीपर लाञ्छन लगाना, खीकी अभ्युत्थान और प्रणाम आदिके द्वारा ही सत्कार करना
ओर देखना, उसका स्पर्श करना, दूसरेका घात करना चाहिये। गुरुपत्नीके प्रति तेल लगाने, नहलाने, शरीर तथा चुगली खाना-इन दोषोंका यत्नपूर्वक परित्याग दबाने और केशोंका शृङ्गार करने आदिकी सेवा न करे । करे। जलसे भरा हुआ घड़ा, फूल, गोबर, मिट्टी और यदि गुरुकी स्त्री युवती हो तो उसका चरण-स्पर्श करके
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स्वर्गखण्ड]
. ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म .
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प्रणाम नहीं करना चाहिये; अपितु 'मैं अमुक है, यह ब्राह्मणो ! विप्रको अध्ययनके आदि और अन्तमें भी कहकर पृथ्वीपर ही मस्तक टेकना चाहिये। सत्पुरुषोंके विधिपूर्वक प्रणवका जप करना चाहिये। प्रतिदिन पहले धर्मका निरन्तर स्मरण करनेवाले शिष्यको उचित है कि वेदको अञ्जलि देकर उसका अध्ययन कराना चाहिये। वह बाहरसे आनेपर प्रतिदिन गुरुपत्नीका चरण-स्पर्श एवं वेद सम्पूर्ण भूतोंके सनातन नेत्र है; अतः प्रतिदिन उनका प्रणाम करे। मौसी, मामी, सास, बुआ-ये सब अध्ययन करे अन्यथा वह ब्राह्मणत्वसे गिर जाता है। जो गुरुपत्नीके समान है। अतः गुरुपत्रीकी भाँति इनका भी नित्यप्रति ऋग्वेदका अध्ययन करता है, वह दूधकी आदर करना चाहिये। अपने बड़े भाइयोंकी सवर्ण आहुतिसे; जो यजुर्वेदका पाठ करता है, वह दहीसे; जो स्त्रियोंका प्रतिदिन चरण-स्पर्श करना उचित है। परदेशसे सामवेदका अध्ययन करता है, वह घीकी आहुतियोंसे
आनेपर अपने कुटुम्बी और सम्बन्धियोंकी सभी श्रेष्ठ तथा जो अथर्ववेदका पाठ करता है, वह सदा मधुसे स्त्रियोंके चरणोंमें मस्तक झुकाना चाहिये। बुआ, मौसी देवताओंको तृप्त करता है। उन देवताओंके समीप तथा बड़ी बहिनके साथ माताकी ही भाँति बर्ताव करना नियमपूर्वक नित्यकर्मका आश्रय ले वनमें जा एकाग्र चाहिये, इन सबकी अपेक्षा माताका गौरव अधिक है। चित्त हो गायत्रीका जप करे। प्रतिदिन अधिक
जो इस प्रकार सदाचारसे सम्पन्न, अपने मनको से-अधिक एक हजार, मध्यम स्थितिमें एक सौ अथवा वशमें रखनेवाला और दम्भहीन शिष्य हो, उसे प्रतिदिन कम-से-कम दस बार गायत्री देवीका जप करना चाहिये; वेद, धर्मशास्त्र और पुराणोंका अध्ययन कराना चाहिये। यह जपयज्ञ कहा गया है। भगवान्ने गायत्री और जब शिष्य सालभरतक गुरुकुलमें निवास कर ले और वेदोंको तराजूपर रखकर तोला था, एक ओर चारों वेद उस समयतक गुरु उसे ज्ञानका उपदेश न करे तो वह थे और एक ओर केवल गायत्री मन्त्र । दोनोंका पलड़ा अपने पास रहनेवाले शिष्यके सारे पापोंको हर लेता है। बराबर रहा। द्विजको चाहिये कि वह श्रद्धालु एवं आचार्यका पुत्र, सेवापरायण, ज्ञान देनेवाला, धर्मात्मा, एकाग्र चित्त होकर पहले ओङ्कारका और फिर पवित्र, शक्तिशाली, अन्न देनेवाला, पानी पिलानेवाला, व्याहृतियोंका उच्चारण करके गायत्रीका उच्चारण करे । पूर्व साधु पुरुष और अपना शिष्य-ये दस प्रकारके पुरुष कल्पमें 'भूः', 'भुवः' और 'स्व:'-ये तीन सनातन धर्मतः पढ़ानेके योग्य हैं।* कृतज्ञ, द्रोह न रखनेवाला, महाव्याहतियाँ उत्पन्न हुई, जो सब प्रकारके अमङ्गलका मेधावी, गुरु बनानेवाला, विश्वासपात्र और प्रिय-ये छः नाश करनेवाली हैं। ये तीनों व्याहृतियाँ क्रमशः प्रधान, प्रकारके द्विज विधिपूर्वक अध्ययन करानेके योग्य हैं। पुरुष और कालका, विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीका शिष्य आचमन करके संयमशील हो उत्तराभिमुख तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका प्रतीक मानी बैठकर प्रतिदिन स्वाध्याय करे। गुरुके चरणोंमें प्रणाम गयी हैं। पहले 'ओं उसके बाद 'ब्रह्म' तथा उसके करके उनका मुँह जोहता रहे । जब गुरु कहें-'सौम्य ! पश्चात् गायत्रीमन्त्र-इन सबको मिलाकर यह महायोग आओ, पढ़ो,' तब उनके पास जाकर पाठ पढ़े और जब नामक मन्त्र बनता है, जो सारसे भी सार बताया गया वे कहें कि 'अब पाठ बंद करना चाहिये', तब पाठ बंद है। जो ब्रह्मचारी प्रतिदिन इस वेदमाता गायत्रीका अर्थ कर दे। अग्निके पूर्व आदि दिशाओंमें कुश बिछाकर समझकर जप करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। उनकी उपासना करे। तीन प्राणायामोंसे पवित्र होकर गायत्री वेदोंकी जननी है, गायत्री सम्पूर्ण संसारको पवित्र ब्रह्मचारी ॐकारके जपका अधिकारी होता है। करनेवाली है। गायत्रीसे बढ़कर दूसरा कोई जपने योग्य
* आचार्यपुत्रः शुश्रपुर्शानदो धार्मिकः शुचिः । शक्तोऽन्नदोऽम्युदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश धर्मतः ॥(५३ । ४०) * गायत्री चैव वेदांश तुलयातोलयत्प्रभुः । एकतश्चतुरो वेदा गायत्री च तथैकतः ॥(५३ । ५२)
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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मन्त्र नहीं है। यह जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। * द्विजवरो! आषाढ़, श्रावण अथवा भादोंकी पूर्णिमाको वेदोंका उपाकर्म बताया गया है अर्थात् उक्त तिथिसे वेदोंका स्वाध्याय प्रारम्भ किया जाता है। जबतक सूर्य दक्षिणायनके मार्गपर चलते हैं, तबतक अर्थात् साढ़े चार महीने प्रतिदिन पवित्र स्थानमें बैठकर ब्रह्मचारी एकाग्रतापूर्वक वेदोंका स्वाध्याय करे। तत्पश्चात् द्विज पुष्यनक्षत्रमें घरके बाहर जाकर वेदोंका उत्सर्ग— स्वाध्यायकी समाप्ति करे। शुक्लपक्षमें प्रातःकाल और कृष्णपक्षमें संध्याके समय वेदोंका स्वाध्याय करना चाहिये ।
ओङ्कारस्तत्परं ब्रह्म सावित्री योऽधीते ऽहन्यहन्येतां गायत्री गायत्री वेदजननी गायत्री
वेदोंका अध्ययन, अध्यापन प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाले पुरुषको नीचे लिखे अनध्यायोंके समय सदा ही अध्ययन बंद रखना चाहिये। यदि रातमें ऐसी तेज हवा चले, जिसकी सनसनाहट कानोंमें गूँज उठे तथा दिनमें धूल उड़ानेवाली आँधी चलने लगे तो अनध्याय होता है। यदि बिजलीकी चमक, मेघोंकी गर्जना, वृष्टि तथा महान् उल्कापात हो तो प्रजापति मनुने अकालिक अनध्याय बताया है - ऐसे अवसरोंपर उस समयसे लेकर दूसरे दिन उसी समयतक अध्ययन रोक देना उचित है। यदि अग्निहोत्रके लिये अग्नि प्रज्वलित करनेपर इन उत्पातोंका उदय जान पड़े तो वर्षाकालमें अनध्याय समझना चाहिये तथा वर्षासे भिन्न ऋतुमें यदि बादल दीख भी जाय तो अध्ययन रोक देना चाहिये। वर्षाऋतुमें और उससे भिन्न कालमें भी यदि उत्पात सूचक शब्द, भूकम्प, चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिर्मय ग्रहोंके उपद्रव हों तो अकालिक (उस समयसे लेकर दूसरे दिन उसी समयतक ) अनध्याय समझना चाहिये। यदि प्रातः कालमें होमानि प्रज्वलित होनेपर बिजलीकी गड़गड़ाहट और मेघकी गर्जना सुनायी दे तो सज्योति अनध्याय होता है अर्थात् ज्योति — सूर्यके रहनेतक ही
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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अध्ययन बंद रहता है। इसी प्रकार रातमें भी अग्नि प्रज्वलित होनेके पश्चात् यदि उक्त उत्पात हो तो दिनकी ही भाँति सज्योति-ताराओंके दीखनेतक अनध्याय माना जाता है। धर्मकी निपुणता चाहनेवाले पुरुषोंके लिये गाँवों, नगरों तथा दुर्गन्धपूर्ण स्थानोंमें सदा ही अनध्याय रहता है। गाँवके भीतर मुर्दा रहनेपर, शूद्रकी समीपता होनेपर रोनेका शब्द कानमें पड़नेपर तथा मनुष्योंकी भारी भीड़ रहनेपर भी सदा ही अनध्याय होता है। जलमें, आधी रातके समय, मल-मूत्रका त्याग करते समय, जूठा मुँह रहनेपर तथा श्राद्धका भोजन कर लेनेपर मनसे भी वेदका चिन्तन नहीं करना चाहिये। विद्वान् ब्राह्मण एकोद्दिष्ट श्राद्धका निमन्त्रण लेकर तीन दिनोंतक वेदोंका अध्ययन बंद रखे। राजाके यहाँ सूतक (जननाशौच ) हो या ग्रहणका सूतक लगा हो, तो भी तीन दिनोंतक वेद मन्त्रोंका उच्चारण न करे। एकोद्दिष्टमें सम्मिलित होनेवाले विद्वान् ब्राह्मणके शरीरमें जबतक श्राद्धके चन्दनकी सुगन्ध और लेप रहे, तबतक वह वेद मन्त्रका उच्चारण न करे। लेटकर, पैर फैलाकर, घुटने मोड़कर तथा शूद्रका श्राद्धात्र भोजन करके वेदाध्ययन न करे। कुहरा पड़नेपर, बाणका शब्द होनेपर, दोनों संध्याओंके समय, अमावास्या, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा अष्टमीको भी वेदाध्ययन निषिद्ध है। वेदोंके उपाकर्मके पहले और उत्सर्गके बाद तीन राततक अनध्याय माना गया है। अष्टका तिथियोंको एक दिन-रात तथा ऋतुके अन्तकी रात्रियोंको रातभर अध्ययन निषिद्ध है। मार्गशीर्ष पौष और माघ मासके कृष्णपक्षमें जो अष्टमी तिथियाँ आती हैं, उन्हें विद्वान् पुरुषोंने तीन अष्टकाओंके नामसे कहा है। बहेड़ा, सेमल, महुआ, कचनार और कैथ-इन वृक्षोंकी छायामें कभी वेदाध्ययन नहीं करना चाहिये। अपने सहपाठी अथवा साथ रहनेवाले ब्रह्मचारी या आचार्यकी
स्यात्तदुत्तरम् एव मन्त्रो महायोगः सारात् सार उदाहृतः ॥ वेदमातरम्। विज्ञायार्थं ब्रह्मचारी स याति परमां गतिम् ॥ लोकपावनी गायत्र्या न परं जप्यमेतद्विज्ञाय मुच्यते ॥ ( ५३ । ५६ – ५८ )
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स्वर्गखण्ड]
• स्नातक और गृहस्थके धोका वर्णन .
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मृत्यु हो जानेपर तीन राततक अनध्याय माना गया है। बात नहीं करनी चाहिये। द्विजको केवल वेदोंके पाठ ये अवसर वेदपाठी ब्राह्मणोंके लिये छिद्ररूप है, अतः मात्रसे ही संतोष नहीं कर लेना चाहिये। जो केवल पाठ अनध्याय कहे गये हैं। इनमें अध्ययन करनेसे राक्षस मात्रमें लगा रह जाता है, वह कीचड़में फँसी हुई गौकी हिंसा करते हैं; अतः इन अनध्यायोंका त्याग कर देना भाँति कष्ट उठाता है। जो विधिपूर्वक वेदका अध्ययन चाहिये। नित्य कर्ममें अनध्याय नहीं होता । संध्योपासन करके उसके अर्थका विचार नहीं करता, वह मूढ़ एवं भी बराबर चलता रहता है। उपाकर्ममें, उत्सर्गमें, शूद्रके समान है। वह सुपात्र नहीं होता* । यदि कोई होमके अन्तमें तथा अष्टकाकी आदि तिथियोंको वायुके सदाके लिये गुरुकुलमें वास करना चाहे तो सदा उद्यत चलते रहनेपर भी स्वाध्याय करना चाहिये। वेदाङ्गों, रहकर शरीर छूटनेतक गुरुकी सेवा करता रहे। वनमें इतिहास-पुराणों तथा अन्य धर्मशास्त्रोंके लिये भी जाकर विधिवत् अग्निमें होम करे तथा ब्रह्मनिष्ठ एवं अनध्याय नहीं है। इन सबको अनध्यायकी कोटिसे एकाग्रचित्त होकर सदा स्वाध्याय करता रहे । वह भिक्षाके पृथक् समझना चाहिये।
अन्नपर निर्भर रहकर योगयुक्त हो सदा गायत्रीका जप और यह मैंने ब्रह्मचारीके धर्मका संक्षेपसे वर्णन किया शतरुद्रिय तथा विशेषतः उपनिषदोंका अभ्यास करता है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने शुद्ध अन्तःकरणवाले ऋषियोंके रहे । वेदाध्ययनके विषयमें जो यह परम प्राचीन विधि है, सामने इस धर्मका प्रतिपादन किया था। जो द्विज वेदका इसका भलीभाँति मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। अध्ययन न करके दूसरे शास्त्रोंमें परिश्रम करता है, वह पूर्वकालमें श्रेष्ठ महर्षियोंके पूछनेपर दिव्यशक्तिसम्पन्न मूढ़ और वेदबाह्य माना गया है। द्विजातियोंको उससे स्वायम्भुव मनुने इसका प्रतिपादन किया था।
स्नातक और गृहस्थके धर्मोका वर्णन
व्यासजी कहते हैं-ब्राह्मणो! श्रेष्ठ ब्रह्मचारी जूता तथा सोनेके कुण्डल धारण करने चाहिये । ब्राह्मण अपनी शक्तिके अनुसार एक, दो, तीन अथवा चारों वेदों सोनेकी मालाके सिवा दूसरी कोई लाल रङ्गकी माला न तथा वेदाङ्गोंका अध्ययन करके उनके अर्थको भलीभांति धारण करे। वह सदा श्वेत वस्त्र पहने, उत्तम गन्धका हृदयङ्गम करके ब्रह्मचर्य-व्रतकी समाप्तिका स्रान करे ।। सेवन करे और वेष-भूषा ऐसी रखे, जो देखने में प्रिय गुरुको। दक्षिणारूपमें धन देकर उनकी आज्ञा ले सान जान पड़े। धन रहते हुए फटे और मैले वस्त्र न पहने। करना चाहिये। व्रतको पूरा करके मनको काबूमे अधिक लाल और दूसरेके पहने हुए वस्त्र, कुण्डल, रखनेवाला समर्थ पुरुष स्नातक होनेके योग्य है। वह माला, जूता और खड़ाऊँको अपने काममें न लाये। बाँसकी छड़ी, अधोवस्त्र तथा उत्तरीय (चादर) धारण यज्ञोपवीत, आभूषण, कुश और काला मृगचर्म-इन्हें करे। एक जोड़ा यज्ञोपवीत और जलसे भरा हुआ अपसव्य भावसे न धारण करे। अपने योग्य स्त्रीसे कमण्डलु धारण करे। बाल और नख कटाकर स्नान विधिपूर्वक विवाह करे । स्त्री शुभ गुणोंसे युक्त, रूपवती, आदिसे शुद्ध हो उसे छाता, साफ पगड़ी, खड़ाऊँ या सुलक्षणा और योनिगत दोषोंसे रहित होनी चाहिये।
* योऽन्यत्र कुरुते यलमनधीत्य श्रुति द्विजः । स सम्मूढो न सम्भाष्यो वेदबायो द्विजातिभिः॥ न वेदपाठमात्रेण संतुष्टो वै भवेत् द्विजः । पाठमात्रावसनस्तु पङ्के गौरिव सीदति ॥ योऽधीत्य विधिवद्वेद वेदार्थ न विचारयेत् । स सम्मूढः शूद्रकल्पः पात्रतां न प्रपद्यते ॥ (५३ । ८४-८६) विदं वेदी तथा वेदान् वेदाङ्गानि तथा द्विजाः । अधीत्य चाधिगम्याथै ततः सायाद् द्विजोत्तमः ॥ (५४ । १)
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• अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
माताके गोत्रमें जिसका जन्म न हुआ हो, जो अपने गोत्रमें पितरोंका श्राद्ध करनेवाला गृहस्थ मुक्त हो जाता है। उत्पन्न न हुई हो तथा उत्तम शील और पवित्रतासे युक्त माता-पिताके हितमें संलग्न, ब्राह्मणोंके कल्याणमें तत्पर, हो, ऐसी भार्यासे ब्राह्मण विवाह करे। जबतक पुत्रका दाता, याज्ञिक और वेदभक्त गृहस्थ ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित जन्म न हो, तबतक केवल ऋतुकालमें स्त्रीके साथ होता है। सदा ही धर्म, अर्थ एवं कामका सेवन करते समागम करे। इसके लिये शास्त्रोंमें जो निषिद्ध दिन हैं, हुए प्रतिदिन देवताओंका पूजन करे और शुद्धभावसे उनका यलपूर्वक त्याग करे। षष्ठी, अष्टमी, पूर्णिमा, उनके चरणोंमें मस्तक झुकाये। बलिवैश्वदेवके द्वारा द्वादशी तथा चतुर्दशी-ये तिथियाँ स्त्री-समागमके लिये सबको अन्नका भाग दे। निरन्तर क्षमाभाव रखे और निषिद्ध हैं। उक्त नियमोंका पालन करनेसे गृहस्थ भी सबपर दयाभाव बनाये रहे। ऐसे पुरुषको ही गृहस्थ सदा ब्रह्मचारी ही माना जाता है। विवाह-कालकी कहा गया है; केवल घरमें रहनेसे कोई गृहस्थ नहीं अग्निको सदा स्थापित रखे और उसमें अग्निदेवताके हो सकता। निमित्त प्रतिदिन हवन करे। स्नातक पुरुष इन पावन क्षमा, दया, विज्ञान, सत्य, दम, शम, सदा नियमोंका सदा ही पालन करे।
अध्यात्मचिन्तन तथा ज्ञान-ये ब्राह्मणके लक्षण हैं। अपने [वर्ण और आश्रमके लिये विहित] वेदोक्त श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह विशेषतः इन गुणोंसे कर्मका सदा आलस्य छोड़कर पालन करना चाहिये। जो कभी च्युत न हो। अपनी शक्तिके अनुसार धर्मका नहीं करता, वह अत्यन्त भयंकर नरकोंमें पड़ता है। सदा अनुष्ठान करते हुए निन्दित कोको त्याग दे। मोहरूपी संयमशील रहकर वेदोंका अभ्यास करे, पञ्च महायज्ञोंका कीचड़को धोकर परम उत्तम ज्ञानयोगको प्राप्त करके त्याग न करे, गृहस्थोचित समस्त शुभ कार्य और गृहस्थ पुरुष संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है-इसमें संध्योपासन करता रहे। अपने समान तथा अपनेसे बड़े अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। पुरुषोंके साथ मित्रता करे, सदा ही भगवानकी शरणमें निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वधको रहे। देवताओंके दर्शनके लिये यात्रा करे तथा पत्नीका तथा दूसरोंके क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको सह लेना पालन-पोषण करता रहे। विद्वान् पुरुष लोगोंमें अपने क्षमा है। अपने दुःखमें करुणा तथा दूसरोके दुःखमें किये हुए धर्मकी प्रसिद्धि न करे तथा पापको भी न सौहार्द-नेहपूर्ण सहानुभूतिके होनेको मुनियोंने दया छिपाये। सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करते हुए सदा अपने कहा है, जो धर्मका साक्षात् साधन है। छहों अङ्ग, चारों हितका साधन करे। अपनी वय, कर्म, धन, विद्या, उत्तम वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय-शास्त्र, पुराण और कुल, देश, वाणी और बुद्धिके अनुरूप आचरण करते धर्मशास्त्र-ये चौदह विद्याएँ हैं। इन चौदह विद्याओंको हुए सदा विचरण करता रहे। श्रुतियों और स्मृतियोंमें यथार्थरूपसे धारण करना-इसीको विज्ञान समझना जिसका विधान हो तथा साधु पुरुषोंने जिसका भलीभाँति चाहिये। जिससे धर्मकी वृद्धि होती है। विधिपूर्वक सेवन किया हो, उसी आचारका पालन करे; अन्य विद्याका अध्ययन करके तथा धनका उपार्जन कर कार्योंके लिये कदापि चेष्टा न करे। जिसका उसके धर्म-कार्यका अनुष्ठान करे-इसे भी विज्ञान कहते हैं। पिताने अनुसरण किया हो तथा जिसका पितामहोंने सत्यसे मनुष्यलोकपर विजय पाता है, वह सत्य ही परम किया हो, उसी वृत्तिसे वह भी सत्पुरुषोंके मार्गपर चले; पद है। जो बात जैसे हुई हो उसे उसी रूपमें कहनेको उसका अनुसरण करनेवाला पुरुष दोषका भागी नहीं मनीषी पुरुषोंने सत्य कहा है। शरीरकी उपरामताका नाम होता। प्रतिदिन स्वाध्याय करे, सदा यज्ञोपवीत धारण दम है। बुद्धिकी निर्मलतासे शम सिद्ध होता है। अक्षर किये रहे तथा सर्वदा सत्य बोले। क्रोधको जीते और (अविनाशी) पदको अध्यात्म समझना चाहिये; जहाँ लोभ-मोहका परित्याग कर दे। गायत्रीका जप तथा जाकर मनुष्य शोकमें नहीं पड़ता। जिस विद्यासे षड्विध
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स्वर्गखण्ड]
• स्नातक और गृहस्थके धोका वर्णन .
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ऐश्वर्ययुक्त परम देवता साक्षात् भगवान् हषीकेशका ज्ञान मनसे चिन्तन भी न करे। धर्मपर चलनेसे कष्ट हो, तो होता है, उसे ज्ञान कहा गया है। जो विद्वान् ब्राह्मण उस भी अधर्मका आचरण नहीं करना चाहिये, क्योंकि ज्ञानमें स्थित, भगवत्परायण, सदा ही क्रोधसे दूर धर्म-देवता साक्षात् भगवान के स्वरूप हैं; वे ही सब रहनेवाला, पवित्र तथा महायज्ञके अनुष्ठानमें तत्पर प्राणियोंकी गति हैं। द्विज सब भूतोंका प्रिय करनेवाला रहनेवाला है, वह उस उत्तम पदको प्राप्त कर लेता है। बने; दूसरोंके प्रति द्रोहभावसे किये जानेवाले कर्ममें मन यह मनुष्य-शरीर धर्मका आश्रय है, इसका यत्नपूर्वक न लगाये; वेदों और देवताओंकी निन्दा. न करे तथा पालन करना चाहिये; क्योंकि देहके बिना कोई भी पुरुष निन्दा करनेवालोंके साथ निवास भी न करे । जो ब्राह्मण परमात्मा श्रीविष्णुका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। द्विजको प्रतिदिन नियमपूर्वक रहकर पवित्रताके साथ इस चाहिये कि वह सदा नियमपूर्वक रहकर धर्म, अर्थ और धर्माध्यायको पढ़ता, पढ़ाता अथवा सुनाता है, वह कामके साधनमें लगा रहे। धर्महीन काम या अर्थका कभी ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है।* .
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... * श्रुतिस्मृत्युदितः सम्यक्साधुभिर्यच सेवितः । तमाचार निषेवेत नेहेतान्यत्र कहिंचित्॥
येनास्य पितरो माता येन याताः पितामहाः । तेन यायात् सतां मार्ग तेन गच्छन्न दुष्यति ॥ .... नित्य स्वाध्यायशीलः स्थानिय यज्ञोपवीतवान् । सत्यवादी जितक्रोधो लोभमोहविवर्जितः ॥ सावित्रीजापनिरतः श्राद्धन्मुच्यते गृही। मातापित्रोहिते युक्तो ब्राह्मणस्य हिते रतः॥ दाता यज्वा वेदभक्तो ब्रह्मलोके महीयते । त्रिवर्गसेवी सततं देवानां च समर्चनम् ॥ कुर्यादाहरहर्नित्यं नमस्येत्प्रयतः सुरान् । विभागशीलः सततं क्षमायुक्तो दयालुकः ॥ "" गृहस्थस्तु समाख्यातो न गृहेण गृही भवेत्।। क्षमा दया च विज्ञानं सत्यं चैव दमः शमः । अध्यात्मनित्यता ज्ञानमेतद् ब्राह्मणलक्षणम्॥ एतस्मान प्रमाद्येत विशेषेण हिजोत्तमः । यथाशक्ति चरन् धर्म निन्दितानि विवर्जयेत् ॥ विधूय मोहकलिलं लश्या योगमनुत्तमम्। गृहस्थो मुख्यते बन्धानात्र कार्या विचारणा ॥ विगहाँतिजयापहिसाबन्धवधात्मनाम अन्यमन्यसमत्थानां दोषाणां मर्यण भमा स्वदुःखेषु च कारुण्यं परदुःखेषु सौहदम्। दयेति मुनयः प्राहः साक्षाद्धर्मस्य साधनम्॥ . .. अङ्गानि वेदासत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः । पुराण धर्मशास्त्रं च विद्या एताश्चतुर्दश॥-- - चतुर्दशानां विद्यानां धारणा हि यथार्थतः । विज्ञानमिति तद्विद्याधेन धर्मो विवर्धते ॥...... अधील्य विधिवद्विद्यामर्थ चैवोपलभ्य तु । धर्मकर्माणि कुर्वीत ह्येतद्विज्ञानमुच्यते॥ सत्यन लाक जयति सत्यं तत् परमं पदमा यथाभताप्रमाद त सत्यमार्गीषिणः दमः शरीरोपरतिः शमः प्रज्ञाप्रसादतः । अध्यात्ममक्षरं विद्यात्तत्र गत्वा न शोचति ॥ यया स देवो भगवान् विद्यया विद्यते परः । साक्षादेव हृषीकेशाज्ञानमिति कीर्तितम् ।। तनिष्ठस्तत्परो विद्वान् नित्यमक्रोधनः शुचिः । महायज्ञपरो विप्रो लभते तदनुत्तमम्॥ धर्मस्यायतनं . यत्राच्छरीर परिपालयेत्। न हि देहं विना विष्णुः पुरुर्विद्यते परः ॥ ........ नित्यं धर्मार्थकामेषु युज्येत नियतो द्विजः । न धर्मवर्जितं काममथै वा मनसा स्मरेत् ॥ सीदनपि हि धर्मेण न स्वधर्म समाचरेत् । धर्मो हि भगवान् देवो गतिः सर्वेषु जन्तुए॥ भूतानां प्रियकारी स्थान परद्रोहकर्मधीः । न वेददेवतानिन्दा कुर्यातक्ष न सवसेत्॥ यस्त्विम नियतो विप्रो धर्माध्यायं पठेच्छुचिः । अध्यापयेच्वयेद् वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ . .
.. - (५४ । १८-४१), .
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
व्यासजी कहते है-ब्राह्मणो! किसी भी अधिकारी नहीं है-यही मर्यादा है। जो वास्तवमें प्राणीकी हिंसा न करे। कभी झूठ न बोले। अहित अलिङ्गी है-जिसने किसी आश्रमका चिह्न नहीं ग्रहण करनेवाला तथा अप्रिय वचन मुंहसे न निकाले। कभी किया है, वह भी यदि दिखावेके तौरपर आश्रमविशेषका चोरी न करे। किसी दूसरेकी वस्तु-चाहे वह तिनका, चिह्न-उसकी वेष-भूषा धारण करके जीविका चलाता साग, मिट्टी या जल ही क्यों न हो-चुरानेवाला मनुष्य है तो वह वास्तविक लिङ्गी (आश्रमचिहधारी) पुरुषके नरकमें पड़ता है। राजासे, शूद्रसे, पतितसे तथा दूसरे पापको ग्रहण करता है तथा तिर्यम्योनिमें जन्म लेता है। किसीसे भी दान न ले। यदि विद्वान् ब्राह्मण असमर्थ नीच पुरुषसे याचना, योनिसम्बन्ध, सहवास और हो-उसका दान लिये बिना काम न चले, तो भी उसे बातचीत करनेवाला द्विज गिर जाता है; अतः इन सब निन्दित पुरुषोंको तो त्याग ही देना चाहिये। कभी याचक बातोंसे यत्नपूर्वक दूर रहना चाहिये। देवद्रोह और न बने; [याचना करे भी, तो] एक ही पुरुषसे दुबारा गुरुद्रोह न करे; देवद्रोहसे भी गुरुद्रोह कोटि-कोटिगुना याचना न करे। इस प्रकार सदा या बारंबार मांगनेवाला अधिक है। तथा उससे भी करोड़गुना अधिक है दूसरे याचक कभी-कभी दुर्बुद्धि दाताका प्राण भी ले लेता है। लोगोंपर लाञ्छन लगाना और ईश्वर तथा परलोकपर श्रेष्ठ द्विज विशेषतः देवसम्बन्धी द्रव्यका अपहरण न करे अविश्वास करना । कुत्सित विचार, क्रियालोप, वेदोंके न तथा ब्राह्मणका धन तो कभी आपत्ति पड़नेपर भी न ले। पढ़ने और ब्राह्मणका तिरस्कार करनेसे उत्तम कुल भी विषको विष नहीं कहते; ब्राह्मण और देवताका धन अधम हो जाते हैं। असत्यभाषण, परस्त्रीसंगम, ही विष कहलाता है; अतः सर्वदा प्रयलपूर्वक उससे अभक्ष्यभक्षण तथा अपने कुलधर्मके विरुद्ध आचरण बचा रहे।*
करनेसे कुलका शीघ्र ही नाश हो जाता है। द्विजो ! देवपूजाके लिये सदा एक ही स्थानसे जो गाँव अधार्मिकोंसे भरा हो तथा जहाँ रोगोंकी मालिककी आज्ञा लिये बिना फूल नहीं तोड़ने चाहिये। अधिकता हो, वहाँ निवास न करे। शूद्रके राज्यमें तथा विद्वान् पुरुष केवल धर्मकार्यके लिये दूसरेके घास, पाखण्डियोंसे घिरे हुए स्थानमें भी न रहे। द्विज हिमालय लकड़ी, फल और फूल ले सकता हैकिन्तु इन्हें सबके और विन्ध्याचलके तथा पूर्वसमुद्र और पश्चिमसमुद्रके सामने-दिखाकर ले जाना चाहिये । जो इस प्रकार नहीं बीचके पवित्र देशको छोड़कर अन्यत्र निवास न करे। करता, वह गिर जाता है। विप्रगण ! जो लोग कहीं जिस देशमें कृष्णसार मृग सदा स्वभावतः विचरण करता मार्गमें हों और भूखसे पीडित हों, वे ही किसी खेतसे है अथवा पवित्र एवं प्रसिद्ध नदियाँ प्रवाहित होती हैं, मुट्ठीभर तिल, मूंग या जौ आदि ले सकते हैं अन्यथा वहीं द्विजको निवास करना चाहिये। श्रेष्ठ द्विजको उचित जो भूखे एवं राही न हों, वे उन वस्तुओंको लेनेके है कि नदी-तटसे आधे कोसकी भूमि छोड़कर अन्यत्र
* न हिस्यात् सर्वभूतानि नानृतं वा वदेत् क्वचित् । नाहितं नाप्रियं वाच्यं न स्तेनः स्यात् कदाचन ॥
तृणं वा यदि वा शार्क मृद वा जलमेव वा । परस्यापहरजन्तुर्नरक प्रतिपद्यते ॥ न राज्ञः प्रतिगृहीयान शूद्रात् पतितादपि । न चान्यस्मादशक्तश्चेनिन्दितान् वर्जयेद् बुधः ।। नित्यं याचनको न स्थात् पुनस्तं नैव याचयेत् । प्राणानपहरत्येवं याचकस्तस्य दुर्मतेः ॥ न देवद्रव्यहारी स्याद् विशेषेण द्विजोत्तमः । ब्रह्मस्व वा नापहरेदापत्स्वपि कदाचन ॥ न विष विषमित्याहुब्रह्मस्वं विषमुच्यते । देवस्वं चापि यत्नेन सदा परिहरेत्ततः ॥ (५५।१-६) + अनृतात् पारदार्याक्ष तथाभक्ष्यस्य भक्षणात् । अगोत्रधर्माचरणात् क्षिप्रं नश्यति वै कुलम्॥ (५५।१८)
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स्वर्गखण्ड ]
• व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन •
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निवास न करे। चाण्डालोंके गाँवके समीप नहीं रहना गुरु और ब्राह्मणके लिये किये जानेवाले दानमें रुकावट चाहिये। पतित, चाण्डाल, पुल्कस (निषादसे शूद्रामें न डाले। अपनी प्रशंसा न करे तथा दूसरेकी निन्दाका उत्पन्न), मूर्ख, अभिमानी, अन्त्यज तथा अन्त्यावसायी त्याग कर दे। वेदनिन्दा और देवनिन्दाका यत्नपूर्वक (निषादकी स्त्रीमें चाण्डालसे उत्पन्न) पुरुषोंके साथ त्याग करे।* मुनीश्वरो ! जो द्विज देवताओं, ऋषियों कभी निवास न करे । एक शय्यापर सोना, एक आसनपर अथवा वेदोंकी निन्दा करता है, शास्त्रोंमें उसके उद्धारका स्थित होना, एक पंक्तिमें बैठना, एक बर्तनमें खाना, कोई उपाय नहीं देखा गया है। जो गुरु, देवता, वेद दूसरोंके पके हुए अन्नको अपने अन्नमें मिलाकर भोजन अथवा उसका विस्तार करनेवाले इतिहास-पुराणकी करना, यज्ञ करना, पढ़ाना, विवाह-सम्बन्ध स्थापित निन्दा करता है, वह मनुष्य सौ करोड़ कल्पसे अधिक करना, साथ बैठकर भोजन करना, साथ-साथ पढ़ना कालतक रौरव नरकमें पकाया जाता है। जहाँ इनकी और एक साथ यज्ञ कराना ये संकरताका प्रसार निन्दा होती हो, वहाँ चुप रहे; कुछ भी उत्तर न दे। कान करनेवाले ग्यारह सांकर्यदोष बताये गये हैं। समीप बंद करके वहाँसे चला जाय । निन्दा करनेवालेकी ओर रहनेसे भी मनुष्योंके पाप एक-दूसरेमें फैल जाते हैं। दृष्टिपात न करे । विद्वान् पुरुष दूसरोंकी निन्दा न करे। इसलिये पूरा प्रयत्न करके सांकर्यदोषसे बचना चाहिये। अच्छे पुरुषोंके साथ कभी विवाद न करे, पापियोंके जो राख आदिसे सीमा बनाकर एक पंक्तिमें बैठते और पापकी चर्चा न करे। जिनपर झूठा कलङ्क लगाया जाता एक-दूसरेका स्पर्श नहीं करते, उनमें संकरताका दोष है; उन मनुष्योंके रोनेसे जो आँसू गिरते हैं, वे मिथ्या नहीं आता। अग्नि, भस्म, जल, विशेषतः द्वार, खंभा कलङ्क लगानेवालोंके पुत्रों और पशुओका विनाश कर तथा मार्ग-इन छःसे पंक्तिका भेद (पृथक्करण) डालते हैं। ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी और गुरुपत्रीगमन होता है।
आदि पापोंसे शुद्ध होनेका उपाय वृद्ध पुरुषोंने देखा है; अकारण वैर न करे, विवादसे दूर रहे, किसीकी किन्तु मिथ्या कलङ्क लगानेवाले मनुष्यकी शुद्धिका कोई चुगली न करे, दूसरेके खेतमे चरती हुई गौका समाचार उपाय नहीं देखा गया है। कदापि न कहे। चुगलखोरके साथ न रहे, किसीको बिना किसी निमित्तके सूर्य और चन्द्रमाको चुभनेवाली बात न कहे। सूर्यमण्डलका घेरा, इन्द्रधनुष- उदयकालमें न देखे; उसी प्रकार अस्त होते हुए. जलमें बाणसे प्रकट हुई आग, चन्द्रमा तथा सोना-इन प्रतिबिम्बित, मेघसे ढके हुए, आकाशके मध्यमें स्थित, सबकी ओर विद्वान् पुरुष दूसरेका ध्यान आकृष्ट न करे। छिपे हुए तथा दर्पण आदिमें छायाके रूपमें दृष्टिगोचर बहुत-से मनुष्यों तथा भाई-बन्धुओंके साथ विरोध न होते हुए सूर्य-चन्द्रमाको भी न देखे। नंगी स्त्री और नंगे करे। जो बर्ताव अपने लिये प्रतिकूल जान पड़े, उसे पुरुषकी ओर भी कभी दृष्टिपात न करे। मल-मूत्रको न दूसरोके लिये भी न करे। द्विजवरो ! रजस्वला स्त्री देखे; मैथुनमें प्रवृत्त पुरुषकी ओर दृष्टि न डाले। विद्वान् अथवा अपवित्र मनुष्यके साथ बातचीत न करे । देवता, पुरुष अपवित्र अवस्थामें सूर्य, चन्द्रमा आदि ग्रहोंकी
*न चात्मानं प्रशंसेता परनिन्दी च वर्जयेत् । वेदनिन्दा देवनिन्दा प्रयत्नेन विवर्जयेत् ॥ (५५१३५) + निन्दयेदा गुरुं देवं वेदं वा सोपवृंहणम् । कल्पकोटिशर्त साग्रं रौरवे पच्यते नरः॥
तूष्णीमासीत निन्दायर्या न ब्रूयात् किञ्चिदुतरम् । कर्णी पिधाय गन्तव्यं न चैनमवलोकयेत् ॥ (५५ । ३७-३८) * नृणां मिथ्याभिशस्ताना पतन्त्यणि रोदनात् । तानि पुत्रान् पशून् घन्ति तेषां मिथ्याभिशंसिनाम्॥ ब्रह्महत्यासुरापाने स्तेये गुङ्गिनागमे । दृष्ट वै शोधन वृद्धनास्ति मिथ्याभिशंसिनि ॥ (५५।४१-४२)
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
ओर न देखे । उच्छिष्ट अवस्थामें या कपड़ेसे अपने सारे बदनको ढककर दूसरेसे बात न करे। क्रोधमें भरे हुए गुरुके मुखपर दृष्टि न डाले। तेल और जलमें अपनी परछाई न देखे। भोजन समाप्त हो जानेपर जूठी पंक्तिकी ओर दृष्टिपात न करे। बन्धनसे खुले हुए और मतवाले हाथीकी ओर दृष्टि न डाले। पत्नीके साथ भोजन न करे। भोजन करती, छकती, जंभाई लेती और अपनी मौजसे आसनपर बैठी हुई भार्याकी ओर दृष्टिपात न करे। बुद्धिमान् पुरुष किसी शुभ या अशुभ वस्तुको न तो लाँघे और न उसपर पैर ही रखे। कभी क्रोधके अधीन नहीं होना चाहिये। राग और द्वेषका त्याग करना चाहिये तथा लोभ, दम्भ, अवज्ञा, दोषदर्शन, ज्ञाननिन्दा, ईर्ष्या, मद, शोक और मोह आदि दोषोंको छोड़ देना चाहिये। किसीको पीड़ा न दे। पुत्र और शिष्यको शिक्षाके लिये ताड़ना दे। नीच पुरुषोंकी सेवा न करे तथा कभी तृष्णामें मन न लगाये। दीनताको यलपूर्वक त्याग दे विद्वान् पुरुष किसी विशिष्ट व्यक्तिका अनादर न करे।
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नखसे धरती न कुरेदे । गौको जबर्दस्ती न बिठाये। साथ-साथ यात्रा करनेवालेको कहीं ठहरने या भोजन करनेके समय छोड़ न दे। नग्न होकर जलमें प्रवेश न करे। अग्निको न लाँगे। मस्तकपर लगानेसे बचे हुए तेलको शरीरमें न लगाये।* साँपों और हथियारोंसे खिलवाड़ न करें। अपनी इन्द्रियोंका स्पर्श न करें। रोमावलियों तथा गुप्त अङ्गोको भी न छूए अशिष्ट मनुष्यके साथ यात्रा न करे। हाथ, पैर, वाणी, नेत्र, शिश्र, उदर तथा कान आदिको चञ्चल न होने दे। अपने शरीर और नत्र आदिसे बाजेका काम न ले। अञ्जलिसे जलन पीये। पानीपर कभी पैर या हाथसे आघात न करे। ईंटें मारकर कभी फल या मूल न तोड़े। म्लेच्छोंकी भाषा न सीखे। पैरसे आसन न खींचे। बुद्धिमान् पुरुष अकारण नख तोड़ना, ताल ठोंकना, धरतीपर रेखा खींचना या अङ्गको मसलना आदि व्यर्थका कार्य न करे। खाद्य
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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व्यर्थकी चेष्टा न करे ।
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पदार्थको गोदमें लेकर न खाय नाच-गान न करे। बाजे न बजाये। दोनों हाथ सटाकर अपना सिर न खुजलाये। जुआ न खेले। दौड़ते हुए न चले पानीमें पेशाब या पाखाना न करे। जूठे मुँह बैठना या लेटना निषिद्ध है। नग्न होकर स्नान न करे। चलते हुए न पढ़े। दाँतोंसे नख और रोएँ न काटे सोये हुएको न जगाये। सबेरेकी धूपका सेवन न करे। चिताके धुएँसे बचकर रहे। सूने घरमें न सोये। अकारण न थूके । भुजाओंसे तैरकर नदी पार न करे। पैरसे कभी पैर न धोये पैरोंको आगमें न तपाये। काँसीके बर्तनमें पैर न धुलाये। देवता, ब्राह्मण, गौ, वायु, अग्नि, राजा, सूर्य तथा चन्द्रमाकी ओर पाँव न पसारे अशुद्ध अवस्थामें शयन, यात्रा, स्वाध्याय, स्नान, भोजन तथा बाहर प्रस्थान न करे। दोनों संध्याओं तथा मध्याह्नके समय शयन, क्षौरकर्म, स्नान, उबटन, भोजन तथा यात्रा न करे। ब्राह्मण जूठे मुँह गौ, ब्राह्मण तथा अग्रिका स्पर्श न करे । उन्हें पैरसे कभी न छेड़े तथा देवताकी प्रतिमाका भी जूठे मुँह स्पर्श न करे । अशुद्धावस्थामें अग्निहोत्र तथा देवता और ऋषियोंका कीर्तन न करे। अगाध जलमें न घुसे तथा अकारण न दौड़े। बायें हाथसे जल उठाकर या पानीमें मुँह लगाकर न पिये। आचमन किये बिना जलमें न उतरे। पानीमें वीर्य न छोड़े। अपवित्र तथा बिना लिपी हुई भूमि, रक्त तथा विषको लाँघकर न चले। रजस्वला स्त्रीके साथ अथवा जलमें मैथुन न करे। देवालय या श्मशानभूमिमें स्थित वृक्षको न काटे। जलमें न थूके। हड्डी, राख, ठीकरे, बाल, काटे, भूसी, कोयले तथा कंडोंपर कभी पैर न रखे।
बुद्धिमान् पुरुष न तो अग्निको लाँघे और न कभी उसे नीचे रखे। अग्निकी ओर पैर न करे तथा मुँहसे उसे कभी न फूँके । पेड़पर न चढ़े। अपवित्रावस्थामें किसीकी ओर दृष्टिपात न करे। आगमें आग न डाले तथा उसे पानी डालकर न बुझाये। अपने किसी सुहकी
* नावगाहेदपो नग्नो वहिं नातिव्रजेत्तथा । शिरोऽभ्यङ्गावशिष्टेन तैलेनाङ्गे न लेपयेत् ॥ (५५ । ५६-५७) न चाग्निं लङ्घयेद्धीमान् नोपदध्यादधः कचित्। न चैनं पादतः कुर्यान्मुखेन न धमेद् बुधः ॥
५५ ॥ ७७)
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स्वर्गखण्ड ]
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गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
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मृत्युका समाचार स्वयं दूसरोंको न सुनाये। माल बेचते समय बेमोलका भाव अथवा झूठा मूल्य न बतावे। विद्वान्को उचित है कि वह मुखके निःश्वाससे और अपवित्रावस्थामें अग्निको प्रज्वलित न करे। पहलेकी की हुई प्रतिज्ञा भङ्ग न करे। पशुओं, पक्षियों तथा व्याघ्रोंको परस्पर न लड़ाये। जल, वायु और धूप आदिके द्वारा दूसरेको कष्ट न पहुँचाये। पहले अच्छे कर्म करवाकर बादमें गुरुजनोंको धोखा न दे। सबेरे और सायंकालको रक्षाके लिये घरके दरवाजोंको बंद कर दे। विद्वान् ब्राह्मणको भोजन करते समय खड़ा होना और बातचीत करते समय हँसना उचित नहीं है। अपनेद्वारा स्थापित अभिको हाथसे न छूए तथा देरतक जलके भीतर न रहे। अग्रिको पंखेसे, सूपसे, हाथसे अथवा मुँहसे न फूँके । विद्वान् पुरुष परायी स्त्रीसे वार्तालाप न करे। जो यज्ञ
★ गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
व्यासजी कहते हैं— द्विजवरो ! ब्राह्मणको शूद्रका अन नहीं खाना चाहिये; जो ब्राह्मण आपत्तिकालके बिना ही मोहवश या स्वेच्छासे शूद्रान्न भक्षण करता है, वह मरकर शूद्र- योनिमें जन्म लेता है जो द्विज छः मासतक शूद्रके कुत्सित अन्नका भोजन करता है, वह जीते जी ही शूद्रके समान हो जाता है और मरनेपर कुत्ता होता है। मुनीश्वरो ! मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रजिसके अन्नको पेटमें रखकर प्राण त्याग करता है, उसीकी योनिमें जन्म लेता है। नट, नाचनेवाला, चाण्डाल, चमार, समुदाय तथा वेश्या - इन छः के अन्नका परित्याग करना चाहिये। तेली, धोबी, चोर, शराब बेचनेवाले, नाचनेगानेवाले, लुहार तथा मरणाशौचसे युक्त मनुष्यका अन्न भी त्याग देना चाहिये। * कुम्हार, चित्रकार, सूदखोर पतित, द्वितीय पति स्वीकार करनेवाली स्त्रीके पुत्र,
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कराने योग्य नहीं है, उसका यज्ञ न कराये। ब्राह्मण कभी अकेला न चले और समुदायसे भी दूर रहे। कभी देवालयको बायें रखकर न जाय, वस्त्रोंको कूटे नहीं और देवमन्दिरमें सोये नहीं। अधार्मिक मनुष्योंके साथ भी न चले। रोगी, शूद्र तथा पतित मनुष्योंके साथ भी यात्रा करना मना है। द्विज बिना जूतेके न चले। जल आदिका प्रबन्ध किये बिना यात्रा न करे। मार्गमें चिताको बायें करके न जाय योगी, सिद्ध, व्रतधारी, संन्यासी, देवालय, देवता तथा याज्ञिक पुरुषोंकी कभी निन्दा न करे। जान-बूझकर गौ तथा ब्राह्मणकी छायापर पैर न रखे। झाड़की धूलसे बचकर रहे स्नान किया हुआ वस्त्र तथा घड़ेसे छलकता हुआ जल— इन दोनोंके स्पर्शसे बचना चाहिये। द्विजको उचित है कि वह अभक्ष्य वस्तुका भक्षण और नहीं पीने योग्य वस्तुका पान न करे।
अभिशापग्रस्त सुनार, रङ्गमञ्चपर खेल दिखाकर जीवननिर्वाह करनेवाले, व्याध, वन्ध्या, रोगी, चिकित्सक (वैद्य या डाक्टर), व्यभिचारिणी स्त्री, हाकिम, नास्तिक, देवनिन्दक, सोमरसका विक्रय करनेवाले, स्त्रीके वशीभूत रहनेवाले, स्त्रीके उपपतिको घरमें रखनेवाले, पुरुषपरित्यक्त, कृपण, जूठा, खानेवाले, महापापी, शस्त्रोंसे जीविका चलानेवाले, भयभीत तथा रोनेवाले मनुष्यका अन भी त्याज्य है। ब्रह्मद्वेषी और पापमें रुचि रखनेवालेका अन्न, मृतकके श्राद्धका अन्न, बलिवैश्वदेवरहित रसोईका अन्न तथा रोगीका अन भी नहीं खाना चाहिये। संतानहीन स्त्री, कृतघ्न, कारीगर और नाजिर तथा परिवेत्ता (बड़े भाईको अविवाहित छोड़कर अपना विवाह करनेवाले) का अन्न भी खाने योग्य नहीं है। पुनर्विवाहिता स्त्री तथा दिधिषूपतिका अन्न भी त्याज्य है अवहेलना,
विवर्जयेत् ॥
* नटानं नर्तकात्रं च चाण्डालचर्मकारिणाम् । गणात्रं गणिकात्रं च षडनं च चक्रोपजीविरजकतस्करध्वजिनां तथा। गान्धर्वलोहकारात्रं
मृतकानं विवर्जयेत् ॥ ( ५६ ॥ ४-५ )
+ जो कामवश भाईकी विधवा पत्नीके साथ सम्भोग करता है, उसे 'दिधिषूपति' कहते हैं। बड़ी बहिनके अविवाहित होनेपर भी यदि छोटी बहिन विवाह कर ले तो बड़ी बहिन 'दिधिषू' कहलाती है, उसका पति 'दिधिपू-पति' है।
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
अनादर तथा रोषपूर्वक मिला हुआ अन्न भी नहीं खाना दूध पीने योग्य नहीं है-यह मनुका कथन है। मांसचाहिये। गुरुका अन्न भी यदि संस्काररहित हो तो वह भक्षण न करे । द्विजातियोंके लिये मदिरा किसीको देना, भोजन करनेयोग्य नहीं है। क्योंकि मनुष्यका सारा पाप स्वयं उसे पीना, उसका स्पर्श करना तथा उसकी ओर अनमें स्थित होता है। जो जिसका अन्न खाता है, वह देखना भी मना है-पाप है; उससे सदा दूर ही रहना उसका पाप भोजन करता है।
चाहिये-यही सनातन मर्यादा है। इसलिये पूर्ण प्रयत्न आधिक (किसान), कुलमित्र (कुमी), गोपाल करके सर्वदा मद्यका त्याग करे। जो द्विज मद्य-पान (ग्वाला), दास, नाई तथा आत्मसमर्पण करनेवाला करता है, वह द्विजोचित कर्मोंसे भ्रष्ट हो जाता है; उससे पुरुष—इनका अन्न भोजन करनेके योग्य है। बात भी नहीं करनी चाहिये।* अतः ब्राह्मणको सदा कुशीलब-चारण और क्षेत्रकर्मक-(खेतमें काम यलपूर्वक अभक्ष्य एवं अपेय वस्तुओंका परित्याग करना करनेवाले) इनका भी अन्न खानेयोग्य है। विद्वान् पुरुष उचित है । यदि त्याग न करके उक्त निषिद्ध वस्तुओंका इन्हें थोड़ी कीमत देकर इनका अन्न ग्रहण कर सकते हैं। सेवन करता है तो वह रौरव नरकमें जाता है। तेलमें पकायी हुई वस्तु, गोरस, सतू, तिलकी खली अब मैं परम उत्तम दानधर्मका वर्णन करूँगा।
और तेल-ये वस्तुएँ द्विजातियोंद्वारा शूद्रसे ग्रहण करने इसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने ब्रह्मवादी ऋषियोंको उपदेश योग्य है। भाँटा, कमलनाल, कुसुम्भ, प्याज, लहसुन, किया था। योग्य पात्रको श्रद्धापूर्वक धन अर्पण करना शुक्त और गोंदका त्याग करना चाहिये। छत्राक तथा दान कहलाता है। ओंकारके उच्चारणपूर्वक किया हुआ यन्त्रसे निकाले हुए आसव आदिका भी परित्याग करना दान भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला होता उचित है। गाजर, मूली, कुम्हड़ा, गूलर और लौकी है। दान तीन प्रकारका बतलाया जाता है—नित्य, खानेसे द्विज गिर जाता है। रातमें तेल और दहीका नैमित्तिक और काम्य। एक चौथा प्रकार भी है, जिसे यत्रपूर्वक त्याग करना चाहिये। दूधके साथ मट्ठा और "विमल' नाम दिया गया है। विमल दान सब प्रकारके नमकीन अन्न नहीं मिलाना चाहिये।
दानोंमें परमोत्तम है। जिसका अपने ऊपर कोई उपकार जिस अन्नके प्रति दूषित भावना हो गयी हो, जो न हो, ऐसे ब्राह्मणको फलकी इच्छा न रखकर प्रतिदिन दुष्ट पुरुषोंके सम्पर्कमें आ गया हो, जिसे कुत्तेने संघ जो कुछ दिया जाता है, वह नित्यदान है। जो पापोंकी लिया हो, जिसपर चाण्डाल, रजस्वला स्त्री अथवा शान्तिके लिये विद्वानोंके हाथमें अर्पण किया जाता है, पतितोंकी दृष्टि पड़ गयी हो, जिसे गायने संघ लिया हो, उसे श्रेष्ठ पुरुषोंने नैमित्तिक दान बताया है; वह भी उत्तम जिसे कौए अथवा मुर्गेन छू लिया हो, जिसमें कीड़े पड़ दान है। जो सन्तान, विजय, ऐश्वर्य और सुखकी प्राप्तिके गये हों, जो मनुष्योद्वारा सँघा अथवा कोढ़ीसे छू गया हो, उद्देश्यसे दिया जाता है, उसे धर्मका विचार करनेवाले जिसे रजस्वला, व्यभिचारिणी अथवा रोगिणी स्त्रीने दिया ऋषियोंने 'काम्य' दान कहा है तथा जो भगवान्की हो, ऐसे अन्नको त्याग देना चाहिये। दूसरेका वस्त्र भी प्रसन्नताके लिये धर्मयुक्त चित्तसे ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंको त्याज्य है। बिना बछड़ेकी गायका, ऊँटनीका, एक कुछ अर्पण किया जाता है, वह कल्याणमय दान खुरवाले पशु-घोड़ी आदिका, भेड़का तथा हथिनीका 'विमल' (सात्त्विक) माना गया है।
*अदेय वाप्यपेयं च तथैवास्पृश्यमेव वा। द्विजातीनामनालोक्य नित्य मद्यमिति स्थितिः ॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन मद्यं नित्यं विवर्जयेत् । पीत्वा पतति कर्मभ्यस्त्वसंभाष्यो भवेद् द्विजः ॥ (५६ । ४३-४) + तस्मात् परिहरेत्रित्यमभक्ष्याणि प्रयत्नतः । अपेयानि च विप्रो वै तथा चेद् याति रौरवम्॥ (५६।४६) * नित्यं नैमित्तिक काम्यं त्रिविधं दानमुच्यते । चतुर्थ विमर्ल प्रोक्तं सर्वदानोत्तमोत्तमम् ॥
अहन्यहनि यत्किंचिद् दीयतेऽनुपकारिणे । अनुद्दिश्य फलं तस्माद् ब्राह्मणाय तु नित्यकम्।
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स्वर्गखण्ड ] • गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान-धर्मका वर्णन . namaARRITAMARIKAAREntent..............teentertainmentarnarana.............
सुयोग्य पात्रके मिलनेपर अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको घी और अन्नसहित जलका घड़ा दान करता दान अवश्य करना चाहिये। कुटुम्बको भोजन और वस्त्र है, वह भयसे छुटकारा पा जाता है। जो सुवर्ण और देनेके बाद जो बच रहे, उसीका दान करना चाहिये; तिलसहित जलके पात्रोंसे सात या पाँच ब्राह्मणोंको तृप्त अन्यथा कुटुम्बका भरण-पोषण किये बिना जो कुछ करता है, वह ब्रह्महत्यासे छूट जाता है। माघ मासके दिया जाता है, वह दान दानका फल देनेवाला नहीं कृष्णपक्ष द्वादशी तिथिको उपवास करे और श्वेत वस्त्र होता। वेदपाठी, कुलीन, विनीत, तपस्वी, व्रतपरायण धारण करके काले तिलोंसे अग्निमें हवन करे। तत्पश्चात् एवं दरिद्रको भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये।* जो एकाग्रचित्त हो ब्राह्मणोंको तिलोंका ही दान करे। इससे अग्निहोत्री ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक पृथ्वीका दान करता है; द्विज जन्मभरके किये हुए सब पापोंको पार कर जाता है। वह उस परमधामको प्राप्त होता है जहाँ जाकर जीव कभी अमावास्या आनेपर देवदेवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुके शोक नहीं करता । जो मनुष्य वेदवेत्ता ब्राह्मणको गत्रोंसे उद्देश्यसे जो कुछ भी बन पड़े, तपस्वी ब्राह्मणको दान दे भरी हुई तथा जौ और गेहूँकी खेतीसे लहलहाती हुई और सबका शासन करनेवाले इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् भूमि दान करता है, वह फिर इस संसारमें जन्म नहीं श्रीविष्णु प्रसन्न हों, यह भाव रखे। ऐसा करनेसे सात लेता। जो दरिद्र ब्राह्मणको गौके चमड़े बराबर भूमि भी जन्मोंका किया हुआ पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। प्रदान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको सान करके भूमिदानसे बढ़कर इस संसारमें दूसरा कोई दान नहीं है। ब्राह्मणके मुखमें अन्न डालकर इस प्रकार भगवान् केवल अन्नदान उसकी समानता करता है और विद्यादान शङ्करकी आराधना करता है, उसका पुनः इस संसारमें उससे अधिक है। जो शान्त, पवित्र और धर्मात्मा जन्म नहीं होता । विशेषतः कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथिको ब्राह्मणको विधिपूर्वक विद्यादान करता है, वह ब्रह्म- नान करके चरण धोने आदिके द्वारा विधिपूर्वक पूजा लोकमें प्रतिष्ठित होता है। गृहस्थ ब्राह्मणको अत्रदान करनेके पश्चात् धार्मिक ब्राह्मणको 'मुझपर महादेवजी करके मनुष्य उत्तम फलको प्राप्त होता है। गृहस्थको अन्न प्रसन्न हों इस उद्देश्यसे अपना द्रव्य दान करना चाहिये। ही देना चाहिये, उसे देकर मानव परमगतिको प्राप्त होता ऐसा करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो परमगतिको है। वैशाखकी पूर्णिमाको विधिपूर्वक उपवास करके प्राप्त होता है। भक्त द्विजोंको उचित है कि वे कृष्ण
शान्त, पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर काले तिलों और पक्षकी चतुर्दशी, अष्टमी तथा विशेषतः अमावास्याके विशेषतः मधुसे सात या पाँच ब्राह्मणोंकी पूजा करे तथा दिन भगवान् महादेवजीकी पूजा करें। जो एकादशीको इससे धर्मराज प्रसन्न हों-ऐसी भावना करे। जब मनमें निराहार रहकर द्वादशीको ब्राह्मणके मुखमें अन्न दे यह भाव स्थिर हो जाता है, उसी क्षण मनुष्यके इस प्रकार पुरुषोत्तमकी अर्चना करता है, वह परमपदको जीवनभरके किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। काले प्राप्त होता है। यह शुक्लपक्षकी द्वादशी भगवान् विष्णुकी मृगचर्मपर तिल, सोना, मधु और घी रखकर जो तिथि है। इस दिन भगवान् जनार्दनकी प्रयत्नपूर्वक ब्राह्मणको दान देता है, वह सब पापोंसे तर जाता है। जो आराधना करनी चाहिये। भगवान् शङ्कर अथवा विशेषतः वैशाखकी पूर्णिमाको धर्मराजके उद्देश्यसे श्रीविष्णुके उद्देश्यसे जो कुछ भी पवित्र ब्राह्मणको दान
यतु पापोपशान्त्यर्थं दीयो विदुषां करे । नैमित्तिकं तदुदिष्टं दानं सद्धिरनुत्तमम्॥ अपत्यविजयैश्वर्यसुखार्थ यत्प्रदीयते । दान तत्काम्यमाख्यातमूपिभिर्धर्मचित्तकैः ॥ यदीश्वरस्य प्रीत्यर्थ ब्रह्मवित्सु प्रदीयते । चेतसा धर्मयुक्तेन दानं तद् विमलं शिवम् ॥ (५७।४-८) * श्रोत्रियाय कुलीनाय विनीताय तपस्विने । व्रतस्थाय दरिद्राय प्रदेयं भक्तिपूर्वकम् ॥ (५७।११)
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• अर्जयस्व एषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
दिया जाता है, उसका अक्षय फल माना गया है। जो करनेवाले पुरुषको पत्नी मिलती है। अभय-दान मनुष्य जिस देवताकी आराधना करना चाहे, उसके करनेवालेको ऐश्वर्य प्राप्त होता है। धान्य-दाताको सनातन उद्देश्यसे ब्राह्मणोंका ही यत्नपूर्वक पूजन करे, इससे वह सुख और ब्रह्म (वेद) दान करनेवालेको शाश्वत उस देवताको संतुष्ट कर लेता है। देवता सदा ब्राह्मणोंके ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है। शरीरका आश्रय लेकर ही रहते हैं। ब्राह्मणोंके न जो वेदविद्याविशिष्ट ब्राह्मणोंको अपनी शक्तिके मिलनेपर वे कहीं-कहीं प्रतिमा आदिमें भी पूजित होते अनुसार अनाज देता है, वह मृत्युके पश्चात् स्वर्गका सुख हैं। प्रतिमा आदिमें बहुत यत्न करनेपर अभीष्ट फलकी भोगता है। गौओंको अन्न देनेसे मनुष्य सब पापोंसे प्राप्ति होती है। अतः सदा विशेषतः द्विजोंमें ही छुटकारा पा जाता है; ईंधन दान करनेसे मनुष्यकी जठराग्नि देवताओंका पूजन करना उचित है।
दीप्त होती है। जो ब्राह्मणोंको फल, मूल, पीनेयोग्य पदार्थ ऐश्वर्य चाहनेवाला मनुष्य इन्द्रकी पूजा करे। और तरह-तरहके शाक-दान करता है, वह सदा आनन्दित ब्रह्मतेज और ज्ञान चाहनेवाला पुरुष ब्रह्माजीकी होता है। जो रोगीके रोगको शान्त करनेके लिये उसे आराधना करे। आरोग्यको अभिलाषा रखनेवाला पुरुष औषध, तेल और आहार प्रदान करता है, वह रोगहीन, सूर्यकी, धनकी कामनावाला मनुष्य अग्रिकी तथा सुखी और दीर्घायु होता है। जो छत्र और जूते दान करता कोंकी सिद्धि चाहनेवाला पुरुष गणेशजीका पूजन करे। है, वह नरकोंके अन्तर्गत असिपत्रवन, छूरेकी धारसे जो भग चाहता हो, वह चन्द्रमाकी, बल चाहनेवाला युक्त मार्ग तथा तीखे तापसे बच जाता है। संसारमें वायुकी तथा सम्पूर्ण संसार-बन्धनसे छूटनेकी अभिलाषा जो-जो वस्तु अत्यन्त प्रिय मानी गयी है तथा जो मनुष्यके रखनेवाला मनुष्य यत्नपूर्वक श्रीहरिकी आराधना करे। घरमें अपेक्षित है, उसीको यदि अक्षय बनानेकी इच्छा जो योग, मोक्ष तथा ईश्वरीय ज्ञान-तीनोंकी इच्छा हो तो गुणवान् ब्राह्मणको उसका दान करना चाहिये। रखता हो, वह यत्न करके देवताओंके स्वामी अयन-परिवर्तनके दिन, विषुव' नामक योग आनेपर, महादेवजीकी अर्चना करे । जो महान् भोग तथा विविध चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें तथा संक्रान्ति आदिके प्रकारके ज्ञान चाहते हैं, वे भोगी पुरुष श्रीभूतनाथ महेश्वर अवसरोंपर दिया हुआ दान अक्षय होता है। प्रयाग तथा भगवान् श्रीविष्णुकी भी पूजा करते हैं। जल आदि तीर्थों, पुण्य-मन्दिरों, नदियों तथा वनोंमें भी दान देनेवाले मनुष्यको तृप्ति होती है; अतः जलदानका महत्त्व करके मनुष्य अक्षय फलका भागी होता है। प्राणियोंके अधिक है। तेल दान करनेवालेको अनुकूल संतान और लिये इस संसारमें दानधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म दीप देनेवालेको उत्तम नेत्रकी प्राप्ति होती है। भूमि-दान नहीं है। इसलिये द्विजातियोंको चाहिये कि वे श्रोत्रिय करनेवालोंको सब कुछ सुलभ होता है। सुवर्ण-दाताको ब्राह्मणको अवश्य दान दें। ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले दीर्घ आयु प्राप्त होती है। गृह-दान करनेवालेको श्रेष्ठ पुरुष स्वर्गकी प्राप्तिके लिये तथा मुमुक्षु पुरुष पापोंकी भवन और चाँदी दान करनेवालेको उत्तम रूप मिलता शान्तिके लिये प्रतिदिन ब्राह्मणोंको दान देते रहें। है। वस्त्र-दान करनेवाला चन्द्रमाके लोकमें जाता है। जो पापात्मा मानव गौ, ब्राह्मण, अग्नि और देवताके अश्व-दान करनेवालेको उत्तम सवारी मिलती है। अन्न- लिये दी जानेवाली वस्तुको मोहवश रोक देता है, उसे दाताको अभीष्ट सम्पत्ति और गोदान करनेवालेको पशु-पक्षियोंकी योनिमें जाना पड़ता है। जो द्रव्यका सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। सवारी और शय्या-दान उपार्जन करके ब्राह्मणों और देवताओंका पूजन नहीं
१. तुला और मेघको संक्रान्तिको, जब कि दिन और रात बराबर होते हैं, 'विषुव' कहते है। + अयने विषुवे चैव ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः । संक्रान्त्यादिषु कालेषु दतं भवति चाक्षयम् । (५७ । ५३)
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स्वर्गखण्ड]
• वानप्रस्थ-आश्रमके धर्मका वर्णन .
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करता, उसका सर्वस्व छीनकर राजा उसे राज्यसे बाहर संतोषसे पा लेता है।* दान लेनेकी रुचि न रखे। निकाल दे। जो अकालके समय ब्राह्मणोंके मरते जीवन-निर्वाहके लिये जितना आवश्यक है, उससे रहनेपर भी अन्न आदिका दान नहीं करता, वह ब्राह्मण अधिक धन ग्रहण करनेवाला ब्राह्मण अधोगतिको प्राप्त निन्दित है। ऐसे ब्राह्मणसे दान नहीं लेना चाहिये तथा होता है। जो संतोष नहीं धारण करता, वह स्वर्गलोकको उसके साथ निवास भी नहीं करना चाहिये। राजाको पानेका अधिकारी नहीं है। वह लोभवश प्राणियोको उचित है वह उसके शरीरमें कोई चिह्न अङ्कित करके उद्विग्न करता है; चोरकी जैसी स्थिति है, वैसी ही उसकी उसे अपने राज्यसे बाहर कर दे। द्विजोत्तमगण ! जो भी है। गुरुजनों और भृत्यजनोंके उद्धारकी इच्छा ब्राह्मण स्वाध्यायशील, विद्वान, जितेन्द्रिय तथा सत्य रखनेवाला पुरुष देवताओं और अतिथियोंका तर्पण
और संयमसे युक्त हों, उन्हें दान करना चाहिये। जो करनेके लिये सब ओरसे प्रतिग्रह ले; किन्तु उसे अपनी सम्मानपूर्वक देता और सम्मानपूर्वक ग्रहण करता है, वे तृप्तिका साधन न बनाये-स्वयं उसका उपभोग न करे। दोनों स्वर्गमें जाते हैं। इसके विपरीत आचरण करनेपर इस प्रकार गृहस्थ पुरुष मनको वशमें करके देवताओं उन्हें नरकमें गिरना पड़ता है, यदि अविद्वान् ब्राह्मण और अतिथियोंका पूजन करता हुआ जितेन्द्रियभावसे रहे चाँदी, सोना, गौ, घोड़ा, पृथिवी और तिल आदिका तो वह परमपदको प्राप्त होता है। दान ग्रहण करे तो सूखे ईधनकी भाँति भस्म हो जाता तदनन्तर गृहस्थ पुरुषको उचित है कि पत्नीको है। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह उत्तम ब्राह्मणोंसे पुत्रोंके हवाले कर दे और स्वयं वनमें जाकर तत्त्वका ज्ञान धन लेनेकी इच्छा रखे। क्षत्रिय और वैश्योंसे भी वह प्राप्त करके सदा एकाग्रचित्त हो उदासीन भावसे अकेला धन ले सकता है; किन्तु शूद्रसे तो वह किसी प्रकार विचरे। द्विजवरो! यह गृहस्थोंका धर्म है, जिसका मैंने धन न ले।
आपलोगोंसे वर्णन किया है। इसे जानकर नियमपूर्वक अपनी जीविका-वृत्तिको कम करनेकी ही इच्छा आचरणमें लाये और दूसरे द्विजोंसे भी इसका अनुष्ठान रखे, धन बढ़ानेकी चेष्टा न करे; धनके लोभमें फंसा कराये। जो इस प्रकार गृहस्थधर्मके द्वारा निरन्तर एक, हुआ ब्राह्मण ब्राह्मणत्वसे ही भ्रष्ट हो जाता है। सम्पूर्ण अनादि देव ईश्वरका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको पढ़कर और सब प्रकारके यज्ञोंका पुण्य पाकर भूतयोनियोंका अतिक्रमण करके परमात्माको प्राप्त होता भी ब्राह्मण उस गतिको नहीं पा सकता, जिसे वह है, फिर संसारमें जन्म नहीं लेता।
वानप्रस्थ-आश्रमके धर्मका वर्णन
र व्यासजी कहते हैं-द्विजवरो! इस प्रकार पूर्वाह्न-भागमें वनमें जाय और वहाँ नियमोंका पालन आयुके दो भाग व्यतीत होनेतक गृहस्थ-आश्रममें रहकर करते हुए एकाग्रचित्त होकर तपस्या करे। प्रतिदिन पत्नी तथा अग्निसहित वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे फल-मूलका पवित्र आहार ग्रहण करे। जैसा अपना अथवा पत्नीका भार पुत्रोंपर रखकर या पुत्रके पुत्रको देख आहार हो, उसीसे देवताओं और पितरोंका पूजन किया लेनेके पश्चात् जरा-जीर्ण कलेवरको लेकर वनके लिये करे। नित्यप्रति अतिथि-सत्कार करता रहे । स्नान करके प्रस्थान करे। उत्तरायणका श्रेष्ठ काल आनेपर शुक्लपक्षके देवताओंकी पूजा करे । घरसे लाकर एकाग्रचित्त हो आठ
* वेदानधीत्य सकलान् यज्ञांशावाप्य सर्वशः। न तो गतिमवाप्रोति संतोषाद् यामवाप्नुयात् ॥ (५७१७१) । यस्तु याति न संतोषं न स स्वर्गस्य भाजनम् । उद्वेजयति भूतानि यथा चौरस्तथैव सः ।। (५७१७३)
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३९८
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अवयव हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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ग्रास भोजन करे। सदा जटा धारण किये रहे। नख और रोएँ न कटाये। सर्वथा स्वाध्याय किया करे। अन्य समयमें मौन रहे। अग्निहोत्र करता रहे तथा अपने-आप उत्पन्न हुए भाँति-भाँति के पदार्थों और शाक या मूल फलके द्वारा पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे। सदा फटा पुराना वस्त्र पहने तीनों समय स्नान करे। पवित्रतासे रहे। प्रतिग्रह न लेकर सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करता रहे।
द्विजको चाहिये कि वह नियमपूर्वक दर्श एवं पौर्णमास नामक यज्ञोंका अनुष्ठान करे। ऋत्विष्टि, आग्रयण तथा चातुर्मास्य व्रतोंका भी आचरण करे। क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायन यज्ञ करे। वसन्त और शरद् ऋतुओंमें उत्पन्न हुए पवित्र पदार्थोंको स्वयं लाकर उनके द्वारा पुरोडाश और चरु बनाये और विधिपूर्वक पृथक्-पृथक् देवताओंको अर्पण करे। परम पवित्र जंगली अत्रद्वारा निर्मित हविष्यका देवताओंके निमित्त हवन करके स्वयं भी यज्ञ -शेष अन्नका भोजन करे। मद्यमांसका त्याग करे। जमीनपर उगा हुआ तृण, घास तथा बहेड़ेके फल न खाय हलसे जोते हुए खेतका अन्न किसीके देनेपर भी न खाय, कष्टमें पड़नेपर भी ग्रामीण फूलों और फलोंका उपभोग न करे। श्रौत विधिके अनुसार सदा अग्निदेवकी उपासना अग्निहोत्र करता रहे। किसी भी प्राणीसे द्रोह न करे। निर्द्वन्द्व और निर्भय रहे। रातमें कुछ भी न खाय, उस समय केवल परमात्माके ध्यानमें संलग्न रहे। इन्द्रियोंको वशमें करके क्रोधको काबू में रखे । तत्त्वज्ञानका चिन्तन करे। सदा ब्रह्मचर्य का पालन करता रहे। अपनी पत्नीसे भी संसर्ग न करे। जो पत्नीके साथ वनमें जाकर कामनापूर्वक मैथुन करता है, उसका वानप्रस्थ-व्रत नष्ट हो जाता है तथा वह द्विज प्रायश्चित्तका भागी होता है। वहाँ उससे जो बच्चा पैदा होता है, वह द्विजातियोंके स्पर्श करनेयोग्य नहीं रहता। उस बालकका वेदाध्ययनमें अधिकार नहीं होता। यही बात उसके वंशमें होनेवाले अन्य लोगोंके लिये भी लागू होती है। वानप्रस्थीको सदा भूमिपर शयन करना और गायत्रीके जपमें तत्पर रहना चाहिये। वह
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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सब भूतोंकी रक्षामें तत्पर रहे तथा सत्-पुरुषोंको सदा अन्नका भाग देता रहे उसे निन्दा, मिथ्या अपवाद, अधिक निद्रा और आलस्यका परित्याग करना चाहिये। वह एकमात्र अनिका सेवन करे। कोई घर बनाकर न रहे। भूमिपर जल छिड़ककर बैठे। जितेन्द्रिय होकर मृगोंके साथ विचरे और उन्होंके साथ निवास करे। एकाग्रचित्त होकर पत्थर या कंकड़पर सो रहे । वानप्रस्थ आश्रम नियममें स्थित होकर केवल फूल, फल और मूलके द्वारा सदा जीवन निर्वाह करे। वह भी तोड़कर नहीं; जो स्वभावतः पककर अपने-आप झड़ गये हों, उन्हींका उपभोग करे। पृथ्वीपर लोटता रहे अथवा पंजोंके बलपर दिनभर खड़ा रहे। कभी धैर्यका त्याग न करे ।
गर्मी में पचानिका सेवन करे। वर्षाके समय खुले मैदानमें रहे। हेमन्त ऋतुमें भीगा वस्त्र पहने रहे। इस प्रकार क्रमशः अपनी तपस्याको बढ़ाता रहे। तीनों समय स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। एक पैरसे खड़ा रहे अथवा सदा सूर्यकी किरणोंका पान करे। पञ्चानिके धूम, गर्मी अथवा सोमरसका पान करे। शुक्लपक्षमें जल और कृष्णपक्षमें गोबरका पान करे अथवा सूखे पत्ते चबाकर रहे अथवा और किसी क्लेशमय वृत्तिसे सदा जीवन निर्वाह करे। योगाभ्यासमें तत्पर रहे। प्रतिदिन रुद्राष्टाध्यायीका पाठ किया करे। अथर्ववेदका अध्ययन और वेदान्तका अभ्यास करे। आलस्य छोड़कर सदा यम-नियमोंका सेवन करे। काला मृगचर्म और उत्तरीय वस्त्र धारण करे। श्वेत यज्ञोपवीत पहने अग्नियोंको अपने आत्मामें आरोपित करके ध्यानपरायण हो जाय अथवा अभि और गृहसे रहित हो मुनिभावसे रहते हुए मोक्षपरायण हो जाय। यात्राके समय तपस्वी ब्राह्मणोंसे ही भिक्षा ग्रहण करे अथवा वनमें निवास करनेवाले अन्य गृहस्थ द्विजोंसे भी वह भिक्षा ले सकता है। यह भी सम्भव न हो तो वह गाँवसे ही आठ ग्रास लाकर भोजन करे और सदा वनमें ही रहे। दोनेमें, हाथमें अथवा टुकड़ेमें लेकर खाय । आत्मज्ञानके लिये नाना प्रकारके उपनिषदोंका अभ्यास
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स्वर्गखण्ड]
• संन्यास-आश्रमके धर्मका वर्णन •
करे। किसी विशेष मन्त्र, गायत्रीमन्त्र तथा रुद्राष्टाध्यायीका आरम्भ करके निरन्तर उपवास करे अथवा ब्रह्मार्पणजप करता रहे अथवा वह महाप्रस्थान आमरण यात्रा विधिमें स्थित होकर और कोई ऐसा ही कार्य करे।
+1
=
संन्यास-आश्रमके धर्मका वर्णन
व्यासजी कहते हैं-इस प्रकार आयुके तीसरे चाहिये। वह ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए आहारको भागको वानप्रस्थ-आश्रममें व्यतीत करके क्रमशः चतुर्थ जीते और भोजनके लिये बस्तीसे अन्न माँग लाया करे । भागको संन्यासके द्वारा बिताये। उस समय द्विजको वह अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें अनुरक्त हो सब ओरसे उचित है कि वह अग्नियोंको अपनेमें स्थापित करके निरपेक्ष रहे और भोग्य वस्तुओंका परित्याग कर दे। परिव्राजक-संन्यासी हो जाय और योगाभ्यासमें तत्पर, केवल आत्माको ही सहायक बनाकर आत्मसुखके लिये शान्त तथा ब्रह्मविद्या-परायण रहे। जब मनमें सब इस संसारमें विचरता रहे। जीवन या मृत्यु-किसीका वस्तुओंकी ओरसे वैराग्य हो जाय, उस समय संन्यास अभिनन्दन न करे। जैसे सेवक स्वामीके आदेशकी लेनेकी इच्छा करे। इसके विपरीत आचरण करनेपर वह प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार संन्यासी कालकी ही गिर जाता है। प्राजापत्य अथवा आग्नेयी इष्टिका अनुष्ठान प्रतीक्षा करे । उसे कभी अध्ययन, प्रवचन अथवा श्रवण करके मनकी वासना धुल जानेपर जितेन्द्रियभावसे नहीं करना चाहिये। ब्रह्माश्रम-संन्यासमें प्रवेश करे । संन्यासी तीन प्रकारके इस प्रकार ज्ञानपरायण योगी ब्रह्मभावका बताये गये है-कोई तो ज्ञानसंन्यासी होते हैं, कुछ अधिकारी होता है। विद्वान् संन्यासी एक वस्त्र धारण करे वेदसंन्यासी होते हैं तथा कुछ दूसरे कर्मसंन्यासी होते हैं। अथवा केवल कौपीन धारण किये रहे । सिर मुंडाये रहे जो सब ओरसे मुक्त, निर्द्वन्द्व और निर्भय होकर आत्मामें या बाल बढ़ाये रखे। त्रिदण्ड धारण करे, किसी वस्तुका ही स्थित रहता है, उसे 'ज्ञानसंन्यासी' कहा जाता है। जो संग्रह न करे। गेरुए रङ्गका वस्त्र पहने और सदा कामना और परिग्रहका त्याग करके मुक्तिको इच्छासे ध्यानयोगमें तत्पर रहे। गाँवके समीप किसी वृक्षके नीचे जितेन्द्रिय होकर सदा वेदका ही अभ्यास करता रहता है, अथवा देवालयमें रहे। शत्रु और मित्रमें तथा मान और वह 'वेदसंन्यासी' कहलाता है। जो द्विज अग्निको अपमानमें समानभाव रखे। सदा भिक्षासे ही जीवनअपनेमें लीन करके स्वयं ब्रह्ममें समर्पित हो जाता है, निर्वाह करे। कभी एक स्थानके अन्नका भोजन न करे। उसे महायज्ञपरायण 'कर्मसंन्यासी' जानना चाहिये।* जो संन्यासी मोहवश या और किसी कारणसे एक इन तीनोंमें ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ माना गया है। उस विद्वान्के जगहका अन्न खाने लगता है, धर्मशास्त्रोंमें उसके लिये कोई कर्तव्य या आश्रम-चिह्न आवश्यक नहीं उद्धारका कोई उपाय नहीं देखा गया है। संन्यासीका रहता। संन्यासीको ममता और भयसे रहित, शान्त एवं चित्त राग-द्वेषसे रहित होना चाहिये। उसे मिट्टीके ढेले, निर्द्वन्द्व होना चाहिये। वह पत्ता खाकर रहे, पुराना कौपीन पत्थर और सुवर्णको एक-सा समझना चाहिये तथा पहने अथवा नंगा रहे। उसे ज्ञानपरायण होना प्राणियोंकी हिंसासे दूर रहना चाहिये। वह मौनभावका
* ज्ञानसन्यासिनः केचिद् वेदर्सन्यासिनोऽपरे । कर्मसंन्यासिनस्त्वन्ये त्रिविधाः परिकीर्तिताः ।।
यः सर्वत्र विनिर्मुक्तो निईन्द्रव निर्भयः । प्रोच्यते ज्ञानसंन्यासी आत्मन्येव व्यवस्थितः ॥ वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं निराशीनिष्परिग्रहः । प्रोच्यते वेदसंन्यासी मुमुक्षुर्विजितेन्द्रियः ।। यस्त्वग्निमात्मसात् कृत्वा ब्रह्मार्पणपणे द्विजः । ज्ञेयः स कर्मसंन्यासी महायज्ञपरायणः ॥ (५९।५-८)
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४००
• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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आश्रय ले सबसे निःस्पृह रहे। संन्यासी भलीभांति यज्ञोपवीतधारी एवं शान्त-चित्त होकर हाथमें कुश धारण देख-भालकर आगे पैर रखे । वस्त्रसे छानकर जल पिये। करके धुला हुआ गेरुआ वस्त्र पहने, सारे शरीरमें भस्म सत्यसे पवित्र हुई वाणी बोले तथा मनसे जो पवित्र जान रमाये, वेदान्तप्रतिपादित अधियज्ञ, आधिदैविक तथा पड़े, उसीका आचरण करे।*
आध्यात्मिक ब्रह्मका एकाग्रभावसे चिन्तन करे । जो सदा संन्यासीको उचित है कि वह वर्षाकालके सिवा वेदका ही अभ्यास करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता और किसी समय एक स्थानपर निवास न करे। सान है। अहिंसा, सत्य, चोरीका अभाव, ब्रह्मचर्य, उत्तम तप, करके शौचाचारसे सम्पन्न रहे। सदा हाथमें कमण्डलु क्षमा, दया और संतोष-ये संन्यासीके विशेष व्रत है। लिये रहे। ब्रह्मचर्य-पालनमें संलग्न होकर सदा वनमें ही वह प्रतिदिन स्वाध्याय तथा दोनों संध्याओंके समय निवास करे। मोक्षसम्बन्धी शास्त्रोंके विचारमें तत्पर गायत्रीका जप करे । एकान्तमें बैठकर निरन्तर परमेश्वरका रहे। ब्रह्मसूत्रका ज्ञान रखे और जितेन्द्रियभावसे रहे। ध्यान करता रहे । सदा एक स्थानके अन्नका त्याग करे; संन्यासी यदि दम्भ एवं अहङ्कारसे मुक्त, निन्दा और साथ ही काम, क्रोध तथा संग्रहको भी त्याग दे। वह चुगलीसे रहित तथा आत्मज्ञानके अनुकूल गुणोंसे युक्त एक या दो वस्त्र पहनकर शिखा और यज्ञोपवीत धारण हो तो वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यति विधिपूर्वक स्नान किये हाथमें कमण्डलु लिये रहे। इस प्रकार त्रिदण्ड
और आचमन करके पवित्र हो देवालय आदिमें प्रणव धारण करनेवाला विद्वान् संन्यासी परमपदको प्राप्त नामक सनातन देवताका निरन्तर जप करता रहे। वह होता है।
संन्यासीके नियम
व्यासजी कहते हैं-द्विजवरो! इस प्रकार भोजन करे ।। पहले वह अन्न सूर्यको दिखा ले; फिर आश्रममें निष्ठा रखनेवाले तथा नियमित जीवन पूर्वाभिमुख हो पाँच बार प्राणाग्निहोत्र करके अर्थात् बितानेवाले संन्यासियोंके लिये फल-मूल अथवा 'प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, भिक्षासे जीवन-निर्वाहकी बात कही गयी। उसे एक ही व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा' इन मन्त्रोंसे पाँच ग्रास समय भिक्षा माँगनी चाहिये। अधिक भिक्षाके संग्रहमें अन्न मुँहमें डालकर एकाग्र चित्त हो आठ ग्रास अन्न आसक्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि भिक्षामें आसक्त भोजन करे। भोजनके पश्चात् आचमन करके भगवान् होनेवाला संन्यासी विषयोंमें भी आसक्त हो जाता है। ब्रह्माजी एवं परमेश्वरका ध्यान करे । तूंबी, लकड़ी, मिट्टी सात घरोंतक भिक्षाके लिये जाय । यदि उनमें न मिले तो तथा बाँस-इन्हीं चारोंके बने हुए पात्र संन्यासीके फिर न माँगे। भिक्षुको चाहिये कि वह एक बार भिक्षाका उपयोगमें आते हैं, ऐसा प्रजापति मनुका कथन है। नाम लेकर चुप हो जाय और नीचे मुँह किये एक द्वारपर रातके पहले पहरमें, मध्यरात्रिमें तथा रातके पिछले पहरमें उतनी ही देरतक खड़ा रहे, जितनी देरमें एक गाय दुही विश्वकी उत्पत्तिके कारण एवं विश्व-नामसे प्रसिद्ध ईश्वरको जाती है। भिक्षा मिल जानेपर हाथ-पैर धोकर अपने हृदय-कमलमें स्थापित करके ध्यान-सम्बन्धी विधिपूर्वक आचमन करे और पवित्र हो मौन-भावसे विशेष श्लोकों एवं मन्त्रोंके द्वारा उनका इस प्रकार
* दृष्टिपूर्त न्यसेत्पादं वस्त्रपूर्त जल पिबेत् । सत्यपूर्ता वदेहाणी मनःपूत समाचरेत् ।। (५९ ॥ १९) + सप्तागार चरेद् भैक्ष्यमलाभे न पुनश्चरेत् । गोदोहमात्र तिष्ठेत कालं भिक्षुरधोमुखः॥ भिक्षेत्युक्त्वा सकतूष्णीमश्रीयाद् वाम्यतः शुचिः । प्रक्षाल्य पाणिपादं च समाचम्य यथाविधि ।। (६०१३-४)
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स्वर्गखण्ड ]
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संन्यासीके नियम •
चिन्तन करे। परमेश्वर सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, अज्ञानमय अन्धकारसे परे विराजमान, सबके आधार, अव्यक्तस्वरूप, आनन्दमय, ज्योतिर्मय अविनाशी, प्रकृति और पुरुषसे अतीत, आकाशकी भाँति निर्लेप, परम कल्याण मय, समस्त भावोंकी चरम सीमा, सबका शासन करने वाले तथा ब्रह्मरूप हैं।
1
तदनन्तर प्रणव जपके पश्चात् आत्माको आकाश स्वरूप परमात्मामें लीन करके उनका इस प्रकार ध्यान करे - 'परमात्मदेव सबके ईश्वर, हृदयाकाशके बीच विराजमान, समस्त भावोंकी उत्पत्तिके कारण, आनन्दके एकमात्र आधार तथा पुराणपुरुष श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार ध्यान करनेवाला पुरुष भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है जो समस्त प्राणियोंका जीवन है, जहाँ जगत्का लय होता है तथा मुमुक्षु पुरुष जिसे ब्रह्मका सूक्ष्म आनन्द समझते हैं, उस परम व्योमके भीतर केवल - अद्वितीय ज्ञान स्वरूप ब्रह्म स्थित है, जो अनन्त, सत्य एवं ईश्वररूप है।' इस प्रकार ध्यान करके मौन हो जाय। यह संन्यासियोंके लिये गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय ज्ञानका वर्णन किया गया। जो सदा इस ज्ञानमें स्थित रहता है, वह इसके द्वारा ईश्वरीय योगका अनुभव करता है। इसलिये संन्यासीको उचित है कि वह सदा ज्ञानके अभ्यासमें तत्पर और आत्मविद्यापरायण होकर ज्ञानस्वरूप ब्रह्मका चिन्तन करे, जिससे भव-बन्धनसे छुटकारा मिले।
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पहले आत्माको सब (दृश्य-पदार्थों) से पृथक्, केवल- अद्वितीय, आनन्दमय, अक्षर- अविनाशी एवं ज्ञानस्वरूप जान ले; इसके बाद उसका ध्यान करे। जिनसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति होती है, जिन्हें जानकर मनुष्य पुनः इस संसारमें जन्म नहीं लेता, वे परमात्मा इसलिये ईश्वर कहलाते हैं कि वे सबसे परे स्थित हैं— सबके ऊपर अध्यक्षरूपसे विराजमान हैं। उन्होंके भीतर उस शाश्वत, कल्याणमय अविनाशी ब्रह्मका ज्ञान होता है, जो इस दृश्य जगत्के रूपमें प्रत्यक्ष और स्वस्वरूपसे परोक्ष हैं, वे ही महेश्वर देव हैं। संन्यासियोंके जो व्रत बताये गये हैं, वैसे ही उनके भी व्रत हैं उन व्रतोंमेंसे एक एकका उल्लङ्घन करनेपर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है।
संन्यासी यदि कामनापूर्वक स्त्रीके पास चला जाय तो एकाग्रचित्त होकर प्रायश्चित्त करे। उसे पवित्र होकर प्राणायामपूर्वक सांतपन' - व्रत करना चाहिये। सांतपनके बाद चित्तको एकाग्र करके शौच संतोषादि नियमोंका पालन करते हुए वह कृच्छ्रवतका अनुष्ठान करे। तदनन्तर आश्रममें आकर पुनः आलस्यरहित हो भिक्षुरूपसे विचरता रहे। असत्यका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि यह झूठका प्रसङ्ग बड़ा भयङ्कर होता है। धर्मकी अभिलाषा रखनेवाला संन्यासी यदि झूठ बोल दे तो उसे उसके प्रायश्चित्तके लिये एक रात
१- ओंकारान्तेऽथ चात्मानं समाप्य परमात्मनि । आकाशे देवमीशानं ध्यायेदाकाशमध्यगम् ॥ कारण सर्वभावानामानन्दैकसमाश्रयम्। पुराणपुरुषं विष्णुं ध्यायन्मुच्येत बन्धनात् ॥ जीवन सर्वभूतानां यत्र लोकः प्रलीयते । आनन्दं ब्रह्मणः सूक्ष्मं यत्पश्यन्ति मुमुक्षवः ॥ तन्मध्ये निहितं ब्रह्म केवलं ज्ञानलक्षणम्। अनन्तं सत्यमीशानं विचिन्त्यासीत वाग्यतः ॥ गुह्याद् गुह्यतमं ज्ञानं यतीनामेतदीरितम् । योऽत्र तिष्ठेत्सदानेन सोऽश्रुते योगमैश्वरम् ॥ तस्माज्ज्ञानरतो नित्यमात्मविद्यापरायणः । ज्ञानं समभ्यसेद् ब्रह्म येन मुच्येत बन्धनात् ॥ मत्वा पृथक् तमात्मानं सर्वस्मादेव केवलम् । आनन्दमक्षरं ज्ञानं ध्यायेत् च ततः परम् ॥ यस्माद् भवन्ति भूतानि यज्ज्ञात्वा नेह जायते ।
स तस्मादीश्वरो देवः परस्ताद् योऽधितिष्ठति । यदन्तरे तद्गमनं शाश्वतं
शिवमव्ययम् ॥
य इदं स्वपरोक्षस्तु स देवः स्यान्महेश्वरः । व्रतानि यानि भिक्षूणां तथैवास्य व्रतानि च । (६० । ११-१२, १४ - २० ) २- गोमूत्र, गोबर, गायका दूध, गायका दही, गायका घी और कुशका जल— इन सबको मिलाकर पी ले तथा उस दिन और कुछ भी न खाय; फिर दूसरे दिन चौबीस घंटे उपवास करे। यह दो दिनका सांतपन व्रत होता है। ३ यदि उपर्युक्त छः वस्तुओंमेंसे एक एकको एक-एक दिन खाकर रहे और सातवें दिन उपवास करे तो यह कृच्छ्र या महासांतपन व्रत कहलाता है।
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४०२
• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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उपवास और सौ प्राणायाम करने चाहिये। हो जाते हैं। इसलिये महेश्वरका चिन्तन करते हुए सदा
बहुत बड़ी आपत्तिमें पड़नेपर भी संन्यासीको किसी उन्हींके ध्यानमें संलग्न रहना चाहिये । जो परम ज्योतिःदूसरेके यहाँसे चोरी नहीं करनी चाहिये। स्मृतियोंका स्वरूप ब्रह्म, सबका आश्रय, अक्षर, अव्यय, अन्तरात्मा कथन है कि चोरीसे बढ़कर दूसरा कोई अधर्म नहीं है* तथा परब्रह्म है, उन्हींको भगवान् महेश्वर समझना चाहिये। हिंसा, तृष्णा और याचना-ये आत्मज्ञानका नाश ये महादेवजी केवल परम शिवरूप हैं। ये ही अक्षर, करनेवाली हैं। जिसे धन कहते हैं, वह मनुष्योंका बाह्य अद्वैत एवं सनातन परमपद हैं। वे देव स्वप्रकाशस्वरूप है, प्राण ही है। जो जिसके धनका अपहरण करता है, वह ज्ञान उनकी संज्ञा है, वे ही आत्मयोगरूप तत्त्व है, उनमें मानो उसके प्राण ही हर लेता है। ऐसा करके दुष्टात्मा सबकी महिमा-प्रतिष्ठा होती है, इसलिये उन्हें महादेव पुरुष आचारभ्रष्ट हो अपने व्रतसे गिर जाता है। यदि कहा गया है। जो महादेवजीके सिवा दूसरे किसी संन्यासी अकस्मात् किसी जीवकी हिंसा कर बैठे तो देवताको नहीं देखता, अपने आत्मस्वरूप उन कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र अथवा चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान महादेवजीका ही अनुसरण करता है, वह परमपदको प्राप्त करे। यदि भिक्षुका उसकी अपनी इन्द्रियोंकी होता है। जो अपनेको उन परमेश्वरसे भिन्न मानते हैं, वे उन दुर्बलताके कारण किसी स्त्रीको देखकर वीर्यपात हो जाय महादेवजीका दर्शन नहीं पाते; उनका परिश्रम व्यर्थ हो तो उसे सोलह प्राणायाम करने चाहिये। विद्वानो ! दिनमें जाता है। एकमात्र परब्रह्म ही जानने योग्य अविनाशी तत्त्व वीर्यपात होनेपर वह तीन रातका व्रत और सौ प्राणायाम हैं, वे ही देवाधिदेव महादेवजी हैं। इस बातको जान करे। यदि वह एक स्थानका अन्न, मधु, नवीन श्राद्धका लेनेपर मनुष्य कभी बन्धनमें नहीं पड़ता। इसलिये अन्न तथा खाली नमक खा ले तो उसकी शुद्धिके लिये संन्यासी अपने मनको वशमें करके नियमपूर्वक साधनमें प्राजापत्यव्रत बताया गया है।
लगा रहे तथा शान्तभावसे महादेवजीके शरणागत होकर सदा ध्यानमें स्थित रहनेवाले पुरुषके सारे पातक नष्ट ज्ञानयोगमें तत्पर रहे।x
* परमापतेनापि न कार्य स्तेषमन्यतः । स्तेयादभ्यधिकः कचिन्नास्त्यधर्म इति स्मृतिः ॥ (६० । २५)
कृच्छत पहले बताया जा चुका है। तीन दिन सबेरे, तीन दिन शामको और तीन दिन बिना माँगे एक-एक ग्रास अन्न खाय और अन्तमें तीन दिनोंतक उपवास करे-यह अतिकृच्नत है। चान्द्रायणव्रत कई प्रकारका होता है; एक वृद्धि-क्रमसे किया जाता है और दूसरा हास-क्रमसे। प्रतिदिन सायं, प्रातः और मध्याह्नकालमें स्नान करते हुए. पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास भोजन करे; तदनन्तर कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे एक-एक ग्रास घटाये। चतुर्दशीको एक ग्रास भोजन करके अमावास्याको उपवास करे। फिर शुक्रपक्षकी प्रतिपदाको एक प्रास भोजन करके प्रतिदिन एक-एक ग्रास बढ़ाता रहे। पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास खाकर व्रत पूर्ण किया जाता है। यह एक प्रकार है। दूसरा अमावास्याको उपवास करके आरम्भ किया जाता है। इसमें पहले एक-एक प्रास बढ़ाया जाता है, फिर पूर्णिमाके बाद एक-एक प्रास घटाते हुए अमावास्याको उपवास करके समाप्त किया जाता है।
* तीन दिन सबेरे, तीन दिन शामको और तीन दिन अयाचित अन्न भोजन करके अन्तमें तीन दिनोंतक लगातार उपवास करे; यह प्राजापत्यव्रत है।
ध्याननिष्ठस्य सततं नश्यते सर्वपातकम्। तस्मान्महेश्वरं ध्यात्वा तस्य ध्यानपरो भवेत् ॥ यद् ब्रह्म परमं ज्योतिः प्रतिष्ठाक्षरमव्ययम्। योऽन्तरात्मा परं ब्रह्म स विज्ञेयो महेश्वरः । एष देवो महादेवः केवलः परमः शिवः । तदेवाक्षरमद्वैतं सदानिस्यं परं पदम्॥
तस्मिन्महीयते देवे खधाग्नि ज्ञानसंज्ञिते । आत्मयोगात्मके तत्त्वे महादेवस्ततः स्मृतः ॥ (६० । ३२-३५) ४ एकमेव परं ब्रह्म विज्ञेयं तत्त्वमव्ययम् । स देवस्तु महादेवो नैतद् विज्ञाय यध्यते ॥
तस्माद् यतेत नियतं यतिः संयतमानसः । ज्ञानयोगरतः शान्तो महादेवपरायणः ।। (६० । ३८-३९)
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स्वर्गखण्ड ]
• भगवद्भक्तिकी प्रशंसा तथा हरिभजनकी आवश्यकता.
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कल्याणमय आश्रम- धर्मका वर्णन किया। इसे मुनिवर भगवान् ब्रह्माजीने पूर्वकालमें उपदेश किया था। संन्यासधर्मसे संबन्ध रखनेवाला यह परम उत्तम कल्याणमय ज्ञान साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजीका बताया हुआ है; अतः पुत्र,
ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे संन्यासियोंके शिष्य तथा योगियोंके सिवा दूसरे किसीको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। द्विजवरो ! इस प्रकार मैंने संन्यासियोंके नियमोंका विधान बताया है; यह देवेश्वर ब्रह्माजीके संतोषका एकमात्र साधन है। जो मन लगाकर प्रतिदिन इन नियमोंका पालन करते हैं, उनका जन्म अथवा मरण नहीं होता। *
भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-सङ्गकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गङ्गाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
सूतजी कहते हैं - ब्राह्मणो! पूर्वकालमें अमित तेजस्वी व्यासजीने इस प्रकार आश्रम धर्मका वर्णन किया था। इतना उपदेश करनेके पश्चात् उन सत्यवती नन्दन भगवान् व्यासने समस्त मुनियोंको भलीभाँति आश्वासन दिया और जैसे आये थे, वैसे ही वे चले गये। वही यह वर्णाश्रम धर्मकी विधि है, जिसका मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। इस प्रकार वर्ण धर्म तथा आश्रम- धर्मका पालन करके ही मनुष्य भगवान् विष्णुका प्रिय होता है, अन्यथा नहीं द्विजवरो! अब इस विषयमें मैं आपलोगोंको रहस्यकी बात बताता हूँ, सुनिये। यहाँ वर्ण और आश्रमसे सम्बन्ध रखनेवाले जो धर्म बताये गये हैं, वे सब हरि-भक्तिकी एक कलाके अंशके अंशकी भी समानता नहीं कर सकते। कलियुगमें मनुष्योंके लिये इस मर्त्यलोकमें एकमात्र हरि-भक्ति ही साध्य है। जो कलियुगमें भगवान् नारायणका पूजन करता है, वह धर्मके फलका भागी होता है। अनेकों नामोंद्वारा जिन्हें पुकारा जाता है तथा जो इन्द्रियोंके नियन्ता हैं, उन परम शान्त सनातन भगवान् दामोदरको हृदयमें स्थापित करके मनुष्य तीनों लोकोंपर विजय पा जाता है। जो द्विज हरिभक्तिरूपी अमृतका पान कर लेता है, वह कलिकालरूपी साँपके डँसनेसे फैले
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हुए पापरूपी भयंकर विषसे आत्मरक्षा करनेके योग्य हो जाता है। यदि मनुष्योंने श्रीहरिके नामका आश्रय ग्रहण कर लिया तो उन्हें अन्य मन्त्रोंके जपकी क्या आवश्यकता है। * जो अपने मस्तकपर श्रीविष्णुका चरणोदक धारण करता है, उसे स्नानसे क्या लेना है। जिसने अपने हृदयमें श्रीहरिके चरणकमलोंको स्थापित कर लिया है, उसको यज्ञसे क्या प्रयोजन है। जिन्होंने सभामें भगवान्की लीलाओंका वर्णन किया है, उन्हें दानकी क्या आवश्यकता है जो श्रीहरिके गुणोंका श्रवण करके बारंबार हर्षित होता है, भगवान् श्रीकृष्णमें चित्त लगाये रखनेवाले उस भक्त पुरुषको वही गति प्राप्त होती है, जो समाधिमें आनन्दका अनुभव करनेवाले योगीको मिलती है। पाखण्डी और पापासक्त पुरुष उस आनन्दमें विघ्न डालनेवाले बताये गये हैं। नारियाँ तथा उनका अधिक सङ्ग करनेवाले पुरुष भी हरिभक्तिमें बाधा पहुँचानेवाले हैं।
स्त्रियाँ नेत्रोंके कटाक्षसे जो संकेत करती हैं, उसका उल्लङ्घन करना देवताओंके लिये भी कठिन होता है। जिसने उसपर विजय पा ली है, वही संसारमें भगवान्का भक्त कहलाता है। मुनि भी इस लोकमें नारीके चरित्रपर लुभाकर मतवाले हो उठते हैं। ब्राह्मणो ! जो लोग
हृषीकेशं पुरुहूतं सनातनम् ॥
* कलौ नारायणं देवं यजते यः स धर्मभाक्। दामोदरं हृदि कृत्वा परं शान्तं जितमेव जगत्त्रयम्। कलिकालोरगादेशात् किल्विषात् कालकूटतः ॥ हरिभक्तिसुधां पीत्वा उल्लङ्घ्यो भवति द्विजः । किं जपैः श्रीहरेर्नाम गृहीतं यदि मानुषैः ॥ संप०पु० १४
(६१ / ६–८)
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अवयव हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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नारीकी भक्तिका आश्रय लेते हैं, उन्हें भगवान्की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है। * द्विजो! बहुत-सी राक्षसियाँ कामिनीका वेष धारण करके इस संसारमें विचरती रहती हैं, वे सदा मनुष्योंकी बुद्धि एवं विवेकको अपना ग्रास बनाया करती हैं।
विप्रगण ! जबतक किसी सुन्दरी स्त्रीके चञ्चल नेत्रोंका कटाक्ष, जो सम्पूर्ण धर्मोका लोप करनेवाला है, मनुष्यके ऊपर नहीं पड़ता तभीतक उसकी विद्या कुछ करनेमें समर्थ होती है, तभीतक उसे ज्ञान बना रहता है। तभीतक सब शास्त्रोंको धारण करनेवाली उसकी मेधा शक्ति निर्मल बनी रहती है। तभीतक जप तप और तीर्थसेवा बन पड़ती है। तभीतक गुरुकी सेवा संभव है और तभीतक इस संसार सागरसे पार होनेके साधनमें मनुष्यका मन लगता है। इतना ही नहीं, बोध, विवेक, सत्सङ्गकी रुचि तथा पौराणिक बातोंको सुननेकी लालसा भी तभीतक रहती है।
जो भगवच्चरणारविन्दोंके मकरन्दका लेशमात्र भी पाकर आनन्दमन हो जाते हैं, उनके ऊपर नारियोंके चञ्चल कटाक्ष-पातका प्रभाव नहीं पड़ता। द्विजो ! जिन्होंने प्रत्येक जन्ममें भगवान् हृषीकेशका सेवन किया है, ब्राह्मणोंको दान दिया है तथा अग्निमें हवन किया है, उन्हींको उन उन विषयोंकी ओरसे वैराग्य होता है। स्त्रियोंमें सौन्दर्य नामकी वस्तु ही क्या है? पीब, मूत्र, विष्ठा, रक्त, त्वचा, मेदा, हड्डी और मज्जा - इन सबसे युक्त जो ढाँचा है, उसीका नाम है शरीर भला इसमें सौन्दर्य कहाँसे आया। उपर्युक्त वस्तुओंको पृथक्-पृथक् करके यदि छू लिया जाय तो स्नान करके ही मनुष्य शुद्ध
* नारीणां नयनादेशः सुराणामपि दुर्जयः। स येन विजितो लोके हरिभक्तः स उच्यते ॥ माद्यन्ति मुनयोऽप्यत्र नारीचरितलोलुपाः । हरिभक्तिः कुतः पुंसां नारीभक्तिजुषां द्विजाः ॥
होता है। किन्तु ब्राह्मणो! इन सभी वस्तुओंसे युक्त जो अपवित्र शरीर है, वह लोगोंको सुन्दर दिखायी देता है। अहो! यह मनुष्योंकी अत्यन्त दुर्दशा है, जो दुर्भाग्यवश घटित हुई है। पुरुष उभरे हुए कुचोंसे युक्त शरीरमें स्त्री-बुद्धि करके प्रवृत्त होता है; किन्तु कौन स्त्री है ? और कौन पुरुष ? विचार करनेपर कुछ भी सिद्ध नहीं होता। इसलिये साधु पुरुषको सब प्रकारसे स्त्रीके सङ्गका परित्याग करना चाहिये। भला, स्त्रीका आश्रय लेकर कौन पुरुष इस पृथ्वीपर सिद्धि पा सकता है। कामिनी और उसका सङ्ग करनेवाले पुरुषका सङ्ग भी त्याग देना चाहिये। उनके सङ्गसे रौरव नरककी प्राप्ति होती है, यह बात प्रत्यक्ष प्रतीत होती है। जो लोग अज्ञानवश स्त्रियोंपर लुभाये रहते हैं, उन्हें दैवने ठग लिया है। नारीकी योनि साक्षात् नरकका कुण्ड है। कामी पुरुषको उसमें पकना पड़ता है। क्योंकि जिस भूमिसे उसका आविर्भाव हुआ है, वहीं वह फिर रमण करता है। अहो ! जहाँसे मलजनित मूत्र और रज बहता है, वहीं मनुष्य रमण करता है! उससे बढ़कर अपवित्र कौन होगा। वहाँ अत्यन्त कष्ट है; फिर भी मनुष्य उसमें प्रवृत्त होता है! अहो! यह दैवकी कैसी विडम्बना है ? उस अपवित्र योनिमें बारंबार रमण करना - यह मनुष्योंकी कितनी निर्लज्जता है! अतः बुद्धिमान् पुरुषको स्त्रीप्रसङ्गसे होनेवाले बहुतेरे दोषोंपर विचार करना चाहिये ।
मैथुनसे बलकी हानि होती है और उससे उसको अत्यन्त निद्रा (आलस्य) आने लगती है। फिर नींदसे बेसुध रहनेवाले मनुष्यकी आयु कम हो जाती है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि वह नारीको
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
तत्र ये हरिपादाब्जमधुलेशप्रमोदिताः । तेषां न नारीलोलाक्षिक्षेपण हि प्रभुर्भवेत् ॥ जन्म जन्म इषीकेशसेवनं यैः कृतं द्विजाः । द्विजे दत्तं हुतं वह्नौ विरतिस्तत्र
तत्र
हि ॥
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(६१ । १२-१३)
* कामिनीकामिनीसङ्गसङ्गमित्यपि संत्यजेत् । तत्सङ्गाद् रौरवमिति साक्षादेव प्रतीयते ॥
(६१ । १९-२० )
(६१ । २७)
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स्वर्गखण्ड]
• भगवद्धक्तिकी प्रशंसा तथा हरिभजनकी आवश्यकता .
४०५
अपनी मृत्युके समान समझे और मनको प्रयत्नपूर्वक मेरे विचारसे इस संसारमें श्रीहरिकी भक्ति दुर्लभ भगवान् गोविन्दके चरण-कमलोंमें लगावे । श्रीगोविन्दके है। जिसकी भगवान्में भक्ति होती है, वह मनुष्य चरणोंकी सेवा इहलोक और परलोकमें भी सुख निःसंदेह कृतार्थ हो जाता है। उसी-उसी कर्मका अनुष्ठान देनेवाली है। उसे छोड़कर कौन महामूर्ख पुरुष स्त्रीके करना चाहिये, जिससे भगवान् प्रसन्न हों। भगवान्के चरणोंका सेवन करेगा। भगवान् जनार्दनके चरणोंकी संतुष्ट और तृप्त होनेपर सम्पूर्ण जगत् संतुष्ट एवं तृप्त होता सेवा मोक्ष प्रदान करनेवाली है तथा स्त्रियोंकी योनिका है। श्रीहरिकी भक्तिके बिना मनुष्योंका जन्म व्यर्थ बताया सेवन योनिके ही संकटमें डालनेवाला है।* योनिसेवी गया है। जिनकी प्रसन्नताके लिये ब्रह्मा आदि देवता भी पुरुषको बार-बार योनिमें ही गिरना पड़ता है; यन्त्रमें कसे यजन करते हैं, उन आदि-अन्तरहित भगवान् नारायणका जानेवालेको जैसा कष्ट होता है, वैसी ही यातना उसे भी भजन कौन नहीं करेगा? जो अपने हृदयमें श्रीजनार्दनके भोगनी पड़ती है। परन्तु फिर भी वह योनिकी ही युगल चरणोंकी स्थापना करता है, उसकी माता परम अभिलाषा करता है। यह पुरुषकी कैसी विडम्बना है। सौभाग्यशालिनी और पिता महापुण्यात्मा हैं। 'जगद्वन्द्य इसे जानना चाहिये। मैं अपनी भुजाएँ ऊपर उठाकर जनार्दन ! शरणागतवत्सल !' आदि कहकर जो मनुष्य कहता हूँ, मेरी उत्तम बात सुनो-श्रीगोविन्दमें मन भगवान्को पुकारते हैं, उनको नरकमें नहीं जाना लगाओ, यातना देनेवाली योनिमें नहीं
पड़ता। जो स्त्रीकी आसक्ति छोड़कर विचरता है, वह मानव विशेषतः ब्राहाणोंका, जो साक्षात् भगवानके पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। यदि स्वरूप हैं, जो लोग यथायोग्य पूजन करते हैं, उनके दैवयोगसे उत्तम कुलमें उत्पन्न सती-साध्वी स्त्रीसे ऊपर भगवान् प्रसन्न होते हैं। भगवान् विष्णु ही मनुष्यका विवाह हो जाय तो उससे पुत्रका जन्म होनेके ब्राह्मणोंके रूपमें इस पृथ्वीपर विचरते हैं। ब्राह्मणके पश्चात् फिर उसके साथ समागम न करे। ऐसे पुरुषपर बिना कोई भी कर्म सिद्ध नहीं होता । जिन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान् जगदीश्वर संतुष्ट होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह ब्राह्मणोंका चरणोदक पीकर उसे मस्तकपर चढ़ाया है, नहीं है। धर्मज्ञ पुरुष स्त्रीके सङ्गको असत्सङ्ग कहते हैं। उन्होंने अपने पितरोंको तृप्त कर दिया तथा आत्माका भी उसके रहते भगवान् श्रीहरिमें सुदृढ़ भक्ति नहीं होती। उद्धार कर लिया। जिन्होंने ब्राह्मणोंके मुखमे इसलिये सब प्रकारके सङ्गोंका परित्याग करके सम्मानपूर्वक मधुर अन्न अर्पित किया है, उनके द्वारा भगवान्की भक्ति ही करनी चाहिये।
साक्षात् श्रीकृष्णके ही मुखमें वह अत्र दिया गया है।
* मैथुनाद् बलहानिः स्थानिद्रातितरुणायते । निद्रयापहतज्ञानो झल्पायुजर्जायते नरः ॥
तस्मात् प्रयततो धीमात्रारी मृत्युमिवात्मनः । पश्येदगोविन्दपादाब्जे मनो वै रमयेद बधः॥ इहामुत्र सुखं तद्धि गोविन्दपदसेवनम् । विहाय को महामहो नारीपाद ही सेवते ॥
जनार्दनाङ्घिसेवा हि पुनर्भवदायिनी । नारीणां योनिसेवा हि योनिसंकटकारिणी ॥ (६१ । ३२-३५) + ऊर्ध्वबाहुरहं वच्मि शृणु मे परम वचः । गोविन्दे घेहि हदयं न योनौ यातनाजुषि ॥ (६१ । ३७)
हरिभक्तिक्ष लोकेत्र दुर्लभा हि मता मम । हरौ यस्य भवेद् भक्तिः स कृतार्थो न संशयः ।। ततदेवाचरेत्कर्म हरिः प्रीणाति येन हि । तस्मिंस्तुष्टे जगन्तुष्ट प्रीणिते प्रीणितं जगत्॥ हरौ भक्ति विना नृणां वृथा जन्म प्रकीर्तितम् । ब्रह्मादयः सुरा यस्य यजन्ते प्रीतिहेतवे।
नारायणमनाद्यन्तं न त सेवेत को जनः। तस्य माता महाभागा पिता तस्य महाकृती। जनार्दनपदद्वन्द्व हृदये येन धार्यते ॥ जनार्दन जगद्वन्ध शरणागतवत्सल । इतीरयन्ति ये मां न तेषी निरये गतिः ।। (६१।४२-४६)
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण
इसमें सन्देह नहीं कि साक्षात् श्रीहरि ही उस अन्नको अत्यन्त दुर्लभ है। पुराणकी कथा बड़ी निर्मल है तथा भोग लगाते हैं। ब्राह्मणोंके रहनेसे ही यह पृथ्वी धन्य अन्तःकरणको निर्मल बनानेका उत्कृष्ट साधन है। मानी गयी है। उनके हाथमें जो कुछ दिया जाता है, वह व्यासरूपधारी श्रीहरिने वेदार्थोका संग्रह करके पुराणकी भगवान्के हाथमें ही समर्पित होता है। उनको नमस्कार रचना की है; अतः उसके श्रवणमें तत्पर रहना चाहिये। करनेसे पापोका नाश होता है। ब्राह्मणकी वन्दना करनेसे पुराण में धर्मका निश्चय किया गया है और धर्म साक्षात् मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है। केशवका स्वरूप है; अतः विद्वान् पुरुष पुराण सुन लेनेपर इसलिये ब्राह्मण सत्पुरुषोंके लिये विष्णुबुद्धिसे आराधना विष्णुरूप हो जाता है। एक तो ब्राह्मण ही साक्षात् करनेके योग्य हैं। भूखे ब्राह्मणके मुखमें यदि कुछ अन्न श्रीहरिका रूप है, दूसरे पुराण भी वैसा ही है; अतः उन दिया जाय तो दाता मृत्युके पश्चात् परलोकमें जानेपर दोनोंका सङ्ग पाकर मनुष्य विष्णुरूप ही हो जाता है। करोड़ कल्पोंतक अमृतकी धारासे अभिषिक्त होता है। इसी प्रकार गङ्गाजीके जलसे अभिषिक्त होनेपर ब्राह्मणोंका मुख ऊसर और काँटोंसे रहित बहुत बड़ा मय पर
as मनुष्य अपने पापोंको दूर भगा देता है; भगवान् केशव है; वहाँ यदि कुछ बोया जाता है तो उसका कोटि
ही जलके रूपमें इस भूमण्डलका पापसे उद्धार कर रहे कोटिगुना अधिक फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणको
हैं। यदि वैष्णव पुरुष विष्णुके भजनकी अभिलाषा घृतसहित भोजन देकर मनुष्य एक कल्पतक आनन्दका
रखता हो तो उसे गङ्गाजीके जलका निर्मल अभिषेक अनुभव करता है। जो ब्राह्मणको संतुष्ट करनेके लिये
प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि वह अन्तःकरणको शुद्ध नाना प्रकारके सुन्दर मिष्टान्न दान करता है, उसे कोटि कल्पोंतक महान् भोग-सम्पन्न लोक प्राप्त होते हैं।
करनेका उत्तम साधन है। इस पृथ्वीपर भगवती गङ्गा
विष्णुभक्ति प्रदान करनेवाली बतायी जाती हैं। लोकोंका ब्राह्मणको आगे करके ब्राह्मणके द्वारा ही कही हुई
उद्धार करनेवाली गङ्गा वास्तवमें श्रीविष्णुका ही स्वरूप पुराण-कथाका प्रतिदिन श्रवण करना चाहिये। पुराण बड़े-बड़े पापोंके वनको भस्म करनेके लिये महान्
है। ब्राह्मणोंमें, पुराणोंमें, गङ्गामें, गौओंमें तथा पीपलके दावानलके समान है। पुराण सब तीर्थोकी अपेक्षा श्रेष्ठ वृक्षमें नारायण-बुद्धि करके मनुष्योंको उनके प्रति तीर्थ बताया जाता है, जिसके चतुर्थाशका श्रवण करनेसे
निष्काम भक्ति करनी चाहिये।* तत्त्वज्ञ पुरुषोंने इन्हें श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं। जैसे भगवान् श्रीहरि सम्पूर्ण विष्णु
विष्णुका प्रत्यक्ष स्वरूप निश्चित किया है। अतः विष्णुजगत्को प्रकाश देने तथा सबको दृष्टि प्रदान करनेके भक्तिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंको सदा इनकी पूजा लिये सूर्यका स्वरूप धारण करके विचरते हैं. उसी प्रकार करना चाहिये। श्रीहरि ही अन्तःकरणमें ज्ञानका प्रकाश फैलानेके लिये विष्णुमें भक्ति किये बिना मनुष्योंका जन्म निष्फल पुराणोंका रूप धारण करके जगत्में विचरते हैं। पुराण बताया जाता है। कलिकाल ही जिसके भीतर जल-राशि परम पावन शास्त्र है। अतः यदि श्रीहरिकी प्रसन्नता प्राप्त है, जो पापरूपी ग्रहोंसे भरा हुआ है, विषयासक्ति ही करनेका मन हो तो मनुष्योंको निरन्तर श्रीकृष्णरूपी जिसमें भँवर है, दुर्बोध ही फेनका काम देता है, परमात्माके पुराणका श्रवण करना चाहिये। विष्णुभक्त महादुष्टरूपी सोके कारण जो अत्यन्त भयानक प्रतीत पुरुषको शान्तभावसे पुराण सुनना उचित है; क्योंकि वह होता है, उस दुस्तर भवसागरको हरिभक्तिकी नौकापर
* विष्णुभक्तिपदा देवी गङ्गा भुवि च गीयते । विष्णुरूपा हि सा गङ्गा लोकनिस्तारकारिणी ॥ ब्राह्मणेषु पुराणेषु गङ्गाया गोषु पिप्पले । नारायणधिया पुम्भिर्भक्तिः कार्या ह्यहैतुकी ।।
(६१।६९-७०)
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स्वर्गखण्ड]
• भगवद्धक्तिको प्रशंसा तथा हरिभजनकी आवश्यकता .
Yous
बैठे हुए मनुष्य पार कर जाते हैं। इसलिये लोगोंको करे।* क्योंकि नाना प्रकारके नरकोंमें गिरनेके पश्चात् हरिभक्तिकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये। लोग यदि पुनः उत्थान होता है, तभी मनुष्यका जन्म मिलता बुरी-बुरी बातोंको सुननेमें क्या सुख पाते हैं, जो अद्भुत है। वहाँ उसे गर्भवासका अत्यन्त दुःखदायी कष्ट तो लीलाओंवाले श्रीहरिकी लीलाकथामें आसक्त नहीं होते। भोगना ही पड़ता है। द्विजो ! फिर कर्मवश जीव यदि यदि मनुष्योंका मन विषयमें ही आसक्त हो तो लोकमें इस पृथ्वीपर जन्म लेता है, तो बाल्यावस्था आदिके नाना प्रकारके विषयोंसे मिश्रित उनकी विचित्र अनेक दोषोंसे उसे पीडा सहनी पड़ती है। फिर कथाओका ही श्रवण करना चाहिये। द्विजो ! यदि युवावस्थामें पहुँचनेपर यदि दरिद्रता हुई तो उससे बहुत निर्वाणमें ही मन रमता हो, तो भी भगवत्कथाओंको कष्ट होता है। भारी रोगसे तथा अनावृष्टि आदि सुनना उचित है; उन्हें अवहेलनापूर्वक सुननेपर भी आपत्तियोंसे भी केश उठाना पड़ता है। वृद्धावस्था में श्रीहरि संतुष्ट हो जाते हैं। भक्तवत्सल भगवान् हषीकेश मनके इधर-उधर भटकनेसे जो कष्ट उसे प्राप्त होता है, यद्यपि निष्क्रिय हैं, तथापि उन्होंने श्रवणकी इच्छावाले उसका वर्णन नहीं हो सकता। तदनन्तर व्याधिके कारण भक्तोंका हित करनेके लिये नाना प्रकारकी लीलाएँ की समयानुसार मनुष्यकी मृत्यु हो जाती है । संसारमें मृत्युसे हैं। सौ वाजपेय आदि कर्म तथा दस हजार राजसूय बढ़कर दूसरे किसी दुःखका अनुभव नहीं होता।। यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी भगवान् उतनी सुगमतासे नहीं तत्पश्चात् जीव अपने कर्मवश यमलोकमें पीड़ा मिलते, जितनी सुगमतासे वे भक्तिके द्वारा प्राप्त होते हैं। भोगता है; वहाँ अत्यन्त दारुण यातना भोगकर फिर जो हृदयसे सेवन करने योग्य, संतोंके द्वारा बारंबार संसारमें जन्म लेता है। इस प्रकार वह बारंबार जन्मता सेवित तथा भवसागरसे पार होनेके लिये सार वस्तु हैं, और मरता तथा मरता और जन्मता रहता है। जिसने श्रीहरिके उन चरणोंका आश्रय लो। रे विषयलोलुप भगवान् गोविन्दके चरणोंकी आराधना नहीं की है, पामरो ! अरे निष्ठुर मनुष्यो ! क्यों स्वयं अपने-आपको उसीकी ऐसी दशा होती है। गोविन्दके चरणोंकी रौरव नरकमें गिरा रहे हो। यदि तुम अनायास ही आराधना न करनेवाले मनुष्यकी बिना कष्टके मृत्यु नहीं दुःखोके पार जाना चाहते हो तो गोविन्दके चारु चरणोंका होती तथा बिना कष्टके उसे जीवन भी नहीं मिलता। सेवन किये बिना नहीं जा सकोगे। भगवान् श्रीकृष्णके यदि घरमें धन हो तो उसे रखनेसे क्या फल हुआ। जिस युगल चरण मोक्षके हेतु हैं; उनका भजन करो। मनुष्य समय यमराजके दूत आकर जीवको खींचते हैं, उस कहाँसे आया है और कहाँ पुनः उसे जाना है, इस समय धन क्या उसके पीछे-पीछे जाता है? अतः बातका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष धर्मका संग्रह ब्राह्मणोंके सत्कारमें लगाया हुआ धन ही सब प्रकारके
* किं सुखं लभते जन्तुरसद्वार्तावधारणे । हरेरद्भुतलीलस्य लीलाख्यान न सज्जते ।।
तद्विचित्रकथा लोक नाना विषयमिश्रिताः । श्रोतव्या यदि वैनणां विषये सजते मनः॥ निर्वाणे यदि वा चितं श्रोतव्या तदपि द्विजाः । हेलया अवणाचापि तस्य तुष्टी भवेद्धरिः ॥ निस्क्रियाऽपि हृषीकशा नाना कर्म चकार सः । शुश्रूषणां हितार्थाय भक्तानां भक्तवत्सलः॥ न लभ्यते कर्मणापि वाजपेयशतादिना । राजसूयायुतेनापि यथा भक्त्या स लभ्यते ॥ यत्पदं चेतसा सव्यं सद्धिराचरितं मुहुः । भवाब्धितरण सारमाश्रयध्यं हरेः पदम् ॥ रे रे विषयसंलुब्धाः पामरा निष्ठुरा नराः । गैरवे हि किमात्मानमात्मना पातयिष्यथ । विना गोविन्दसौम्याधिसवनं मा गमिष्यथ । अनायासेन दुःखाना तरण यदि वाञ्छथ ॥ भजध्वं कृष्णचरणावपुनर्भवकारणे । कुत एवागतो मर्त्यः कुत एव पुनर्बजेत् ॥ एतद्विचार्य मतिमानाश्रयेद् धर्मसंग्रहम् । (६१ । ७५-८४)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
सुख देनेवाला है। दान स्वर्गकी सीढ़ी है, दान सब तथा मनसे भगवान्के चरणोंका ध्यान करके जीव पापोंका नाश करनेवाला है। गोविन्दका भक्तिपूर्वक कृतार्थ हो जाता है-इसमें अन्यथा विचार करनेकी किय हुआ भजन महान् पुण्यकी वृद्धि करनेवाला है। आवश्यकता नहीं है। विद्वान् पुरुष भगवान्में ही मन यदि मनुष्यमें बल हो तो उसे व्यर्थ ही नष्ट न करे। लगाये और हृदयमें उन्हींकी भावना करे; ऐसा आलस्य छोड़कर भगवान्के सामने नृत्य करे और गीत करनेवाला मनुष्य अन्तमें भगवान्को ही प्राप्त होता गाये। मनुष्यके पास जो कुछ हो, उसे भगवान् है-इसमें कुछ विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। श्रीकृष्णको समर्पित कर दे। श्रीकृष्णको समर्पित की हुई जो मनसे भी निरन्तर चिन्तन करनेपर भक्तको अपना पद वस्तु कल्याणदायिनी होती है और किसीको दी हुई वस्तु प्रदान कर देते हैं, उन आदि-अन्तरहित भगवान् केवल दुःख देनेवाली होती है। नेत्रोंसे श्रीहरिकी ही नारायणका कौन मनुष्य सेवन नहीं करेगा। जो प्रतिमा आदिका दर्शन तथा कानोंसे श्रीकृष्णके गुण और श्रीविष्णुके चरणारविन्दोंमें निरन्तर चित्त लगाये रहता है, नामोंका ही अहर्निश श्रवण करे। विद्वान् पुरुषोंको अपनी भगवान्की प्रसन्नताके लिये अपनी शक्तिके अनुसार दान जिलासे श्रीहरिके चरणोदकका आस्वादन करना चाहिये। किया करता है तथा उन्हीके युगल चरणोंमें प्रणाम नासिकासे श्रीगोविन्दके चरणारविन्दोंपर चढ़े हुए करता, मन लगाता और अनुराग रखता है, वह इस श्रीतुलसीदलको सँघकर, त्वचासे हरिभक्तका स्पर्श कर मनुष्यलोकमें निश्चय ही पूज्यभावको प्राप्त होता है।*
श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
सूतजी कहते है-ब्राह्मणो ! इस प्रकार संसारमें (५) श्रीमद्भागवतको भगवान्का ऊरुयुगल कहा गया जिनकी महिमा समस्त लोकोंका उद्धार करनेवाली है, है। (६) नारदीय पुराण नाभि है। (७) मार्कण्डेयपुराण उन नानारूपधारी परमेश्वर विष्णुका एक विग्रह पुराण भी दाहिना तथा (८) अग्निपुराण बायाँ चरण है। है। पुराणोंमें पापुराणका बहुत बड़ा महत्त्व है। (९) भविष्यपुराण महात्मा श्रीविष्णुका दाहिना घुटना (१) ब्रह्मपुराण श्रीहरिका मस्तक है। (२) पद्मपुराण है। (१०) ब्रह्मवैवर्तपुराणको बायाँ घुटना बताया गया हृदय है। (३) विष्णुपुराण उनकी दाहिनी भुजा है। है। (११) लिङ्गपुराण दाहिना और (१२) वाराहपुराण (४) शिवपुराण उन महेश्वरकी बायीं भुजा है। बायाँ गुल्फ (घुडी) है। (१३) स्कन्दपुराण रोएँ तथा
* यदासौ कृष्यते याम्यैर्दूतैः किं धनमन्वियात् । तस्माद् द्विजातिसत्कार्य द्रविणं सर्वसौख्यदम्॥ दानं स्वर्गस्य सोपान दान किल्विषनाशनम । गोविन्दभक्तिभजन महापण्यविवर्धनम् ॥ बलं यदि भवेन्मल्ये न वृथा तव्ययं चरेत् । हरेरने नल्यगीतं कर्यादेवमतन्द्रितः ।। यत्किञ्चिद् विद्यते पुंसां तच कृष्णे समर्पयेत् । कृष्णार्पितं कुशलदमन्यार्पितमसौख्यदम्।। चक्षुभ्यां श्रीहरेरेव प्रतिमादिनिरूपणम् । श्रोत्राभ्यां कलयेत्कृष्णगुणनामान्यहर्निशम् ॥ जिदया हरिपादाम्बु स्वादितव्यं विचक्षणैः । प्राणेनानाय गोविन्दपादायतुलसीदलम् ॥ खचाऽऽस्पृश्य हरेर्भक्तं मनसाऽऽध्याय तत्पदम् । कृतार्थों जायते जन्तुर्नात्र कार्या विचारणा ॥ तन्मना हि भवेत्प्रज्ञस्तथा स्यात्तद्गताशयः । तमेवान्तेऽभ्येति लोको नात्र कार्या विचारणा ॥ चेतसा चाप्यनुध्यातः स्वपदं यः प्रयच्छति । नारायणमनाद्यन्तं न तं सेवेत को जनः॥ सततनियतचित्तो विष्णुपादारविन्दे वितरणमनुशक्ति प्रीतये तस्थ कुर्यात् । नतिमतिरतिमस्याभिद्ये संविदध्यान् स हि खलु नरलोके पूज्यतामामुयाच ॥
(६१ ॥ ९३-१०२)
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स्वर्गखण्ड]
. श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य .
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(१४) वामनपुराण त्वचा माना गया है। (१५) है, उसने मानो समूची पृथ्वी दानमें दे दी है, निरन्तर कूर्मपुराणको पीठ तथा (१६) मत्स्यपुराणको मेदा कहा भगवान् विष्णुके सहस्र-नामोंका पाठ किया है, सम्पूर्ण जाता है। (१७) गरुडपुराण मज्जा बताया गया है और वेदोंका अध्ययन तथा उसमें बताये हुए भिन्न-भिन्न (१८) ब्रह्माण्डपुराणको अस्थि (हड्डी) कहते हैं। इसी पुण्यकर्मोका अनुष्ठान कर लिया है, बहुत-से प्रकार पुराणविग्रहधारी सर्वव्यापक श्रीहरिका आविर्भाव अध्यापकोंको वृत्ति देकर पढ़ानेके कार्यमें लगाया है, हुआ है।* उनके हृदय-स्थानमें पदापुराण है, जिसे भयभीत मनुष्योंको अभयदान किया है, गुणवान् ज्ञानी सुनकर मनुष्य अमृतपद-मोक्ष-सुखका उपभोग करता तथा धर्मात्मा पुरुषोंको आदर दिया है, ब्राह्मणों और है। यह पद्मपुराण साक्षात् भगवान् श्रीहरिका स्वरूप है; गौओंके लिये प्राणोंका परित्याग किया है तथा उस इसके एक अध्यायका भी पाठ करके मनुष्य सब पापोंसे बुद्धिमान्ने और भी बहुतेरे उत्तम कर्म किये हैं। तात्पर्य मुक्त हो जाता है।
.. यह कि स्वर्गखण्डके श्रवणसे उक्त सभी शुभकर्मोंका स्वर्गखण्डका श्रवण करके महापातकी मनुष्य भी फल प्राप्त हो जाता है। स्वर्गखण्डका पाठ करनेसे केंचुलसे छूटे हुए सर्पकी भाँति समस्त पापोंसे मुक्त हो मनुष्यको नाना प्रकारके भोग प्राप्त होते हैं तथा वह जाते हैं। कितना ही बड़ा दुराचारी और सब धर्मोसे तेजोमय शरीर धारण करके ब्रह्मलोकमें जाता और वहीं बहिष्कृत क्यों न हो, स्वर्गखण्डका श्रवण करके वह ज्ञान पाकर मोक्षको प्राप्त हो जाता है। बुद्धिमान् मनुष्य पवित्र हो जाता है—इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। उत्तम पुरुषोंके साथ निवास, उत्तम तीर्थमें स्रान, उत्तम द्विजो ! समस्त पुराणोंको सुनकर मनुष्य जिस फलको वार्तालाप तथा उत्तम शास्त्रका श्रवण करे। उन प्राप्त करता है, वह सब केवल पद्मपुराणको सुनकर ही शास्त्रोंमें पद्मपुराण महाशास्त्र है, यह सम्पूर्ण वेदोंका फल प्राप्त कर लेता है। कैसी अद्भुत महिमा है! समूचे देनेवाला है। इसमें भी स्वर्गखण्ड महान् पुण्यका फल पद्मपुराणको सुननेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वहीं प्रदान करनेवाला है। फल मनुष्य केवल स्वर्गखण्डको सुनकर प्राप्त कर लेता ओ संसारके मनुष्यो! मेरी बात सुनोहै। माघमासमें मनुष्य प्रतिदिन प्रयागमें स्नान करके जैसे गोविन्दको भजो और एकमात्र देवेश्वर विष्णुको प्रणाम पापसे मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार इस स्वर्गखण्डके करो। यदि कामनाकी उत्ताल तरङ्गोंको सुखपूर्वक पार श्रवणसे भी वह पापोंसे छुटकारा पा जाता है। जिस करना चाहते हो तो एकमात्र हरिनामका, जिसकी कहीं पुरुषने भरी सभामें इस स्वर्गखण्डको सुना और सुनाया तुलना नहीं है, उच्चारण करो।
स्वर्गखण्ड समाप्त
* एक पुराण रूप वै तत्र पायं परं महत् । ब्राह्म मूर्धा हरेरेव हदयं पद्मसंज्ञकम्॥
वैष्णवं दक्षिणो बाहुः शैवं वामो महेशितुः । ऊरू भागवतं प्रोक्तं नाभिः स्थानारदीयकम्। मार्कण्डेयं च दक्षाशिर्वामो ह्यानेयमुच्यते । भविष्य दक्षिणो जानुर्विष्णोरेव महात्मनः ।। ब्रह्मवैवर्तसंशं तु वामजानुल्दाहतः । लैनं तु गुल्फकं दक्षं वाराहं वामगुल्फकम्॥ स्कान्दं पुराणं लोमानि त्वगस्य वामनं स्मृतम् । कौम पृष्ठ समाख्यातं मात्स्य मेदः प्रकीर्पते ॥
मज्जा तु गारुडं प्रोक्तं ब्रह्माण्डमस्थि गीयते । एवमेवाभवद्विष्णुः पुराणावयवो हरिः ॥ (६२।२-७) सिद्धिः सह बसेद्धीमान् सत्तीर्थे सानमाचरेत् । कुदिव सदालाप सच्छासं शृणुयानरः ।।(६२ । २४)
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॥ॐ श्रीपरमात्मने नमः॥ संक्षिप्त पद्मपुराण
पाताल-खण्ड
शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका
लङ्कासे अयोध्याके लिये विदा होना
PHE
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। आपको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है, जो श्रीरामचन्द्रजीके देवी सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥* युगल चरणारविन्दोंका मकरन्द पान करनेके लिये
ऋषि बोले-महाभाग सूतजी ! हमने आपके लोलुप रहती है। सभी ऋषि-महर्षि साधु पुरुषोंके मुखसे समूचे स्वर्ग-खण्डकी मनोहर कथा सुनी; LIN आयुष्मन् ! अब हमलोगोंको श्रीरामचन्द्रजीका चरित्र | सुनाइये।
सूतजीने कहा-महर्षिगण ! एक समय मुनिवर वात्स्यायनने पृथ्वीको धारण करनेवाले नागराज भगवान् अनन्तसे इस परम निर्मल कथाके विषयमें प्रश्न किया।
श्रीवात्स्यायन बोले-भगवन् ! शेषनाग ! मैंने आपके मुखसे संसारकी सृष्टि और प्रलय आदिके विषयकी सब बातें सुनौं; भूगोल, खगोल, ग्रह-तारे और नक्षत्र आदिकी गतिका निर्णय, महत्तत्त्व आदिकी सृष्टियोंके तत्त्वका पृथक्-पृथक् निरूपण तथा सूर्यवंशी राजाओंके अद्भुत चरित्रका भी मैंने श्रवण किया है। इसी प्रसङ्गमें आपने भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी कथाका भी वर्णन किया है, जो अनेकों महापापोंको दूर करनेवाली है। परन्तु उन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके अश्वमेध यज्ञकी EिAM कथा संक्षेपसे ही सुननेको मिली, अतः अब मैं उसे समागमको श्रेष्ठ बतलाते हैं। इसका कारण यही है कि आपके द्वारा विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। यह वही सत्सङ्ग होनेपर श्रीरघुनाथजीकी उस कथाके लिये कथा है जो कहने, सुनने तथा स्मरण करनेसे बड़े-बड़े अवसर मिलता है, जो समस्त पापोंका नाश करनेवाली पातकोको भी नष्ट कर डालती है। इतना ही नहीं, वह है। देवता और असुर प्रणाम करते समय अपने मनोवाञ्छित वस्तुको देनेवाली तथा भक्तोंके चित्तको मुकुटोंकी मणियोंसे जिनके चरणोंकी आरती उतारते हैं, प्रसन करनेवाली है।
उन्हीं भगवान् श्रीरामका स्मरण कराकर आपने मुझपर भगवान् शेषने कहा-ब्रह्मन्! आप बहुत बड़ा अनुग्रह किया है। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता भी ब्राह्मणकुलमें श्रेष्ठ एवं धन्यवादके पात्र है; क्योंकि मोहित होकर कुछ नहीं जान पाते, उसी श्रीरघुनाथ
Milijan
* भगवान् नारायण, पुरुषश्रेष्ठ र, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती तथा उसके वक्ता महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (इतिहास-पुराण) का पाठ करना चाहिये।
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पातालखण्ड]
• शेषजीका रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना .
कथारूपी महासागरकी थाह लगानेके लिये मेरे-जैसे जानेपर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंको बड़ा सुख मिला। मशक-समान तुच्छ जीवको कितनी शक्ति है। तथापि मैं वे आनन्द-मग्न होकर दासकी भाँति भगवान्के चरणों में अपनी शक्तिके अनुसार आपसे श्रीराम-कथाका वर्णन पड़ गये और उनकी स्तुति करने लगे। करूँगा; क्योंकि अत्यन्त विस्तृत आकाशमें भी तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी धर्मात्मा विभीषणको पक्षी अपनी गमन-शक्तिके अनुसार उड़ते ही हैं। लङ्काके राज्यपर स्थापित करके सीताके साथ पुष्पक श्रीरघुनाथजीका चरित्र करोड़ों श्लोकोंमें वर्णित है। विमानपर आरूढ़ हुए। उनके साथ लक्ष्मण, सुग्रीव और जिनकी जैसी बुद्धि होती है, वे वैसा ही उसका वर्णन हनुमान् आदि भी विमानपर जा बैठे। उस समय करते हैं। जैसे अग्निके सम्पर्कसे सोना शुद्ध हो जाता है, भगवान्के विरहके भयसे विभीषणके मनमें भी साथ उसी प्रकार श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कीर्ति मेरी बुद्धिको भी जानेकी उत्कण्ठा हुई और उन्होंने अपने मन्त्रियोंके साथ निर्मल बना देगी।
श्रीरघुनाथजीका अनुसरण किया। इसके बाद लङ्का और सूतजी कहते हैं-महर्षियो! मुनिवर अशोक-वाटिकापर दृष्टि डालते हुए भगवान् श्रीराम तुरंत वात्स्यायनसे यों कहकर भगवान् शेषने ध्यानस्थ हो ही अयोध्यापुरीकी ओर प्रस्थित हुए। साथ ही ब्रह्मा अपनी आँखें बंद कर ली और ज्ञानदृष्टिके द्वारा उस आदि देवता भी अपने-अपने विमानोंपर बैठकर यात्रा लोकोत्तर कल्याणमयी कथाका अवलोकन किया। फिर करने लगे। उस समय भगवान् श्रीराम कानोंको सुख तो अत्यन्त हर्षके कारण उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया पहुंचानेवाली देव-दुन्दुभियोंकी मधुर ध्वनि सुनते तथा और वे गद्दवाणीसे युक्त होकर दशरथ-नन्दन मार्गमें सीताजीको अनेकों आश्रमोंसे युक्त तीर्थों, मुनियों, श्रीरघुनाथजीको विशद कथाका वर्णन करने लगे। मुनि-पुत्रों तथा पतिव्रता मुनि-पलियोंका दर्शन कराते हुए
भगवान् शेष बोले-वात्स्यायनजी ! देवता चल रहे थे। परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीने पहले और दानवोंको दुख देनेवाले लङ्कापति रावणके मारे लक्ष्मणके साथ जिन-जिन स्थानोंपर निवास किया था,
वे सभी सीताजीको दिखाये। इस प्रकार उन्हें मार्गके स्थानोंका दर्शन कराते हुए श्रीरामचन्द्रजीने अपनी पुरी अयोध्याको देखा; फिर उसके निकट नन्दिग्रामपर दृष्टिपात किया, जहाँ भाईके वियोग-जनित अनेकों दुःखमय चिह्नोंको धारण करके धर्मका पालन करते हुए राजा भरत निवास कर रहे थे। उन दिनों वे जमीनमें गड्ढा खोदकर उसीमें सोया करते थे। ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक मस्तकपर जटा और शरीरमें वल्कल वस्त्र धारण किये रहते थे। उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजीकी चर्चा करते हुए दुःखसे आतुर रहते थे। अन्नके नामपर तो वे जो भी नहीं ग्रहण करते थे तथा पानी भी बारंबार नहीं पीते थे। ____ जब सूर्यदेवका उदय होता, तब वे उन्हें प्रणाम करके कहते-'जगत्को नेत्र प्रदान करनेवाले भगवान् सूर्य ! आप देवताओंके स्वामी हैं; मेरे महान् पापको हर लीजिये [हाय ! मुझसे बढ़कर पापी कौन होगा] । मेरे
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४१२ • अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पद्मपुराण .....................AMARINA ............................................... ........ ही कारण जगत्पूज्य श्रीरामचन्द्रजीको भी वनमें जाना शास्त्र-चतुर, नीतिज्ञ और विद्वान् मन्त्री जब भरतजीको पड़ा। सुकुमार शरीरवाली सीतासे सेवित होकर वे इस सान्त्वना देते हुए कुछ कहते तब वे उन्हें इस प्रकार उत्तर समय वनमें रहते हैं। अहो ! जो सीता फूलकी शय्यापर देते थे-'अमात्यगण ! मुझ भाग्यहीनसे आपलोग क्यों पुष्पोंकी डंठलके स्पर्शसे भी व्याकुल हो उठती थीं और बातचीत करते हैं? मैं संसारके सब लोगोंसे अधम हूँ जो कभी सूर्यकी धूपमें घरसे बाहर नहीं निकलीं, वे ही क्योंकि मेरे ही कारण मेरे बड़े भाई श्रीराम आज वनमें पतिव्रता जनक-किशोरी आज मेरे कारण जंगलोंमें भटक जाकर कष्ट उठा रहे हैं। मुझ अभागेके लिये अपने पापोंके रही है ! जिनके ऊपर कभी राजाओंकी भी दृष्टि नहीं पड़ी प्रायश्चित्त करनेका यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मैं थी, उन्हीं सीताको आज किरातलोग प्रत्यक्ष देखते हैं। जो श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका निरन्तर आदरपूर्वक स्मरण यहाँ मीठे-मीठे पकवानोंको भोजनके लिये आग्रह करते हुए अपने दोषोंका मार्जन करूंगा। इस जगत्में माता करनेपर भी नहीं खाना चाहती थीं, वे जानको आज जंगली सुमित्रा भी धन्य हैं ! वे ही अपने पतिसे प्रेम करनेवाली फलोंके लिये स्वयं याचना करती होंगी।' इस प्रकार तथा वीर पुत्रकी जननी हैं, जिनके पुत्र लक्ष्मण सदा श्रीरामके प्रति भक्ति रखनेवाले महाराज भरत प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवामें रहते हैं।' इस प्रकार प्रातःकाल सूर्योपस्थानके पश्चात् उपर्युक्त बातें कहा करते भ्रातृ-वत्सल भरत जहाँ रहकर उच्चस्वरसे विलाप किया थे। उनके दुःख-सुखमें समान रूपसे हाथ बँटानेवाले करते थे, उस नन्दिग्रामको भगवान् श्रीरामने देखा।
भरतसे मिलकर भगवान श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
शेषजी कहते हैं-मुने ! नन्दिग्रामपर दृष्टि पड़ते आ पहुँचे हैं।' इससे मेरा आगमन जानकर मेरे छोटे भाई ही श्रीरघुनाथजीका चित्त भरतको देखनेकी उत्कण्ठासे भरत शीघ्र ही प्रसन्न हो जायेंगे।" विह्वल हो गया। उन्हें धर्मात्माओंमें अग्रगण्य भाई परम बुद्धिमान् श्रीरघुवीरके ये वचन सुनकर भरतको बारंबार याद आने लगी। तब वे महाबली हनुमानजी उनकी आज्ञाका पालन करते हुए भरतजीके वायु-नन्दन हनुमानजीसे बोले, "वीर ! तुम मेरे भाईके निवास स्थान नन्दिप्रामको गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने पास जाओ। उनका शरीर मेरे वियोगसे क्षीण होकर देखा, भरतजी बूढ़े मन्त्रियोंके साथ बैठे हैं और अपने छड़ीके समान दुबला-पतला हो गया है और वे उसे पूज्य भाताके वियोगसे अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। उस किसी प्रकार हठपूर्वक धारण किये हुए है। जो वल्कल समय उनका मन श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्दोंके पहनते हैं, मस्तकपर जटा धारण करते हैं, जिनकी दृष्टि में मकरन्दमें डूबा हुआ था और वे अपने वृद्ध मन्त्रियोंसे परायी स्त्री माता और सुवर्ण मिट्टीके ढेलेके समान है उन्हींकी कथा-वार्ता कह रहे थे। वे ऐसे जान पड़ते थे तथा जो प्रजाजनोको अपने पुत्रोंकी भांति स्नेह-दृष्टि से मानो धर्मके मूर्तिमान् स्वरूप हों अथवा विधाताने मानो देखते हैं, वे मेरे धर्मज्ञ भ्राता भरत दुःखी हैं। उनका सम्पूर्ण सत्त्वगुणको एकत्रित करके उसीके द्वारा उनका शरीर मेरे वियोगजनित दुःखरूप अग्निकी ज्वालामें दग्ध निर्माण किया हो। भरतजीको इस रूपमें देखकर हो रहा है; अतः इस समय तुम तुरंत जाकर मेरे हनुमान्जीने उन्हें प्रणाम किया तथा भरतजी भी उन्हें आगमनके संदेशरूपी जलकी वर्षासे उन्हें शान्त करो। देखते ही तुरंत हाथ जोड़कर खड़े हो गये और उन्हें यह समाचार सुनाओ कि 'सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव बोले-'आइये, आपका स्वागत है; श्रीरामचन्द्रजीकी आदि कपीश्वरों तथा विभीषणसहित राक्षसोंको साथ ले कुशल कहिये। वे इस प्रकार कह ही रहे थे कि इतनेमे तुम्हारे भाई श्रीराम पुष्पक विमानपर बैठकर सुखपूर्वक उनकी दाहिनी बाँह फड़क उठी। हृदयसे शोक निकल
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पातालखण्ड
. भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन •
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गया और उनके मुखपर आनन्दके आँसुओकी धारा बह मस्तकपर भी जटा थी तथा वे भी निरन्तर तपस्यासे केश चली। उनकी ऐसी अवस्था देख वानरराज हनुमान्ने उठानेके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। राजा भरतको
इस अवस्थामें देखकर श्रीरघुनाथजीको बड़ी चिन्ता हुई, वे कहने लगे-'अहो! राजाओंके भी राजा महाबुद्धिमान् महाराज दशरथका यह पुत्र आज जटा
और वल्कल आदि तपस्वीका वेष धारण किये पैदल ही मेरे पास आ रहा है। मित्रो ! मैं वनमें गया था; किन्तु मुझे भी ऐसा दुःख नहीं उठाना पड़ा, जैसा कि मेरे वियोगके कारण इस भरतको भोगना पड़ रहा है।
अहो ! देखो तो सही, प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारा और हितैषी मेरा भाई भरत मुझे निकट आया सुनकर हर्षमें भरे हुए वृद्ध मन्त्रियों तथा महर्षि वसिष्ठजीको साथ लेकर मुझसे मिलनेके लिये आ रहा है।' इस प्रकार भगवान् श्रीराम आकाशमें स्थित पुष्पक विमानसे उपर्युक्त बातें कह रहे थे और विभीषण, हनुमान् तथा लक्ष्मण उनके प्रति आदरका भाव प्रकट कर रहे थे। निकट आनेपर भगवान्का हदय विरहसे कातर हो उठा
और वे 'भैया ! भैया भरत ! तुम कहाँ हो' इस प्रकार कहा-'लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी इस प्रामके निकट कहते तथा बारंबार 'भाई! भाई !! भाई !!!' की रट आ गये हैं। श्रीरघुनाथजीके आगमनके संदेशने भरतके शरीरपर मानो अमृत छिड़क दिया, वे हर्षमें भरकर बोले-'श्रीरामका संदेश लानेवाले हनुमान्जी ! मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे यह प्रिय समाचार सुनानेके बदलेमें मैं आपको दे सकूः इस उपकारके कारण मैं जीवनभर आपका दास बना रहूँगा।' महर्षि वसिष्ठ तथा वृद्ध मन्त्री भी अत्यन्त हर्षमें भरकर अर्घ्य हाथमें लिये हनुमान्जीके दिखाये हुए मार्गसे श्रीरामचन्द्रजीके पास चल दिये। भरतजीकी दृष्टि दूरसे आते हुए परम मनोरम भगवान् श्रीरामपर पड़ी। वे पुष्पक विमानके मध्यभागमें सीता और लक्ष्मणके साथ बैठे थे।
श्रीरामचन्द्रजीने भी जटा, वल्कल और कौपीन धारण किये हुए भरतको पैदल ही आते देखा; साथ ही उनकी दृष्टि उन मन्त्रियोंपर भी पड़ी, जिन्होंने भाईके वेषके समान ही वेष धारण कर रखा था। उनके
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________________ 14 * अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण लगाते हुए तुरंत ही विमानसे उतर पड़े। सहायकोसहित करुणासागर श्रीरघुनाथजीने अपने छोटे भाईको गले श्रीरामचन्द्रजीको भूमिपर उतरे देख भरतजी हर्षके आँसू लगाकर प्रधान मन्त्रियोंको भी प्रणाम किया तथा सबसे बहाते हुए उनके सामने दण्डकी भाँति धरतीपर पड़ गये। आदरपूर्वक कुशल-समाचार पूछा। इसके बाद भाई श्रीरघुनाथजीने भी उन्हें दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़ा देख भरतके साथ वे पुष्पक विमानपर जा बैठे। वहाँ भरतजीने हर्षपूर्ण दृष्टि से देखते हुए अपनी दोनों भुजाओंसे उठाकर अपनी प्रातृ-पत्नी पतिव्रता सीताजीको देखा, जो अत्रिकी छातीसे लगा लिया। आरम्भमें श्रीरामचन्द्रजीके बारंबार भार्या अनसूया तथा अगस्त्यकी पत्नी लोपामुद्राकी भाँति उठानेपर भी भरतजी उठे नहीं, अपितु अपने दोनों जान पड़ती थीं। पतिव्रता जनक-किशोरीका दर्शन करके हाथोंसे भगवान्के चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोते रहे। भरतजीने उन्हें सम्मानपूर्वक प्रणाम किया और कहा , भरतजीने कहा-महाबाहु भगवान् श्रीराम ! मैं 'माँ ! मैं महामूर्ख हैं: मेरे द्वारा जो अपराध हो गया है, दुष्ट, दुराचारी और पापी हूँ मुझपर कृपा कीजिये। आप उसे क्षमा करना; क्योंकि आप-जैसी पतिव्रताएँ सबका दयाके सागर हैं, अपनी दयासे ही मुझे अनुगृहीत भला करनेवाली ही होती हैं।' परम सौभाग्यवती जनककीजिये। भगवन् ! जिन्हें सीताजीके कोमल हाथोंका किशोरीने भी अपने देवर भरतकी ओर आदरपूर्ण दृष्टि स्पर्श भी कठोर जान पड़ता था, आपके उन्हीं चरणोंको डालकर उन्हें आशीर्वाद दिया तथा उनका कुशल-मङ्गल मेरे कारण वनमें भटकना पड़ा! पूछा। उस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ होकर सब-के-सब यों कहकर भरतजीने दीनभावसे आँसू बहाते हुए आकाशमें आ गये; फिर एक ही क्षणमें श्रीरामचन्द्रजीने बारबार श्रीरघुनाथजीके चरणोंका आलिङ्गन किया और देखा कि पिताकी राजधानी अयोध्या अब बिलकुल हर्षसे विह्वल होकर उनके सामने हाथ जोड़े खड़े हो गये। अपने निकट है। श्रीरामका नगर-प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य-ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था शेषजी कहते हैं-अपनी राजधानीको देखकर शेषजी कहते हैं-भरतजीके ये वचन सुनकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। इधर मन्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ सुमुखने अयोध्यापुरीको अनेक भरतने अपने मित्र एवं सचिव सुमुखको नागरिक- प्रकारकी सजावट एवं तोरणोंसे सुशोभित करनेके लिये उत्सवका प्रबन्ध करनेके लिये नगरके भीतर भेजा। उसके भीतर प्रवेश किया। नगरमें जाकर उसने सब भरतजी बोले-नगरके सब लोग शीघ्र ही लोगोंमें श्रीरामके आगमन-महोत्सवकी घोषणा करा दी। श्रीरघुनाथजीके आगमनका उत्सव आरम्भ करें। लोगोंने जब सुना कि श्रीरघुनाथजी अयोध्यापुरीके निकट घर-घरमें सजावट की जाय, सड़कें झाड़-बुहारकर साफ आ गये हैं, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ; क्योंकि वे पहले की जायें और उनपर चन्दन-मिश्रित जलका छिड़काव भगवान्के विरहसे दुःखी हो अपने सुखभोगका परित्याग करके उनके ऊपर फूल बिछा दिये जायें। हर एक घरके कर चुके थे। वैदिक ज्ञानसे सम्पन्न पवित्र ब्राह्मण आँगनमें नाना प्रकारकी ध्वजाएँ फहरायी जायें, हाथोंमें कुश लिये धोती और चादरसे सुसज्जित हो प्रकाशका प्रबन्ध हो और सर्वतोभद्र आदि चित्र अङ्कित श्रीरामचन्द्रजीके पास गये। जिन्होंने संग्राम-भूमिमें किये जायें। श्रीरामका आगमन सुनकर हर्षमें भरे हुए अनेकों वीरोंपर विजय पायी थी, वे धनुष-बाण धारण लोग मेरे कथनानुसार नगरकी शोभा बढ़ानेवाली करनेवाले श्रेष्ठ और सूरमा क्षत्रिय भी उनके समीप गये। भाँति-भांतिकी रचना करें। धन-धान्यसे समृद्ध वैश्य भी सुन्दर वस्त्र पहनकर
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________________ पातालखण्ड ] * श्रीरामका नगर-प्रवेश, माताओंसे मिलना,राज्य-ग्रहण तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था . 415 महाराज श्रीरामके निकट उपस्थित हुए। उस समय उनके पुरवासिनी स्त्रियाँ बोलीं-सखियो ! वनवासिनी हाथ सोनेकी मुद्राओंसे सुशोभित हो रहे थे तथा वे शूद्र, भीलोंकी कन्याएँ भी धन्य हो गयीं, जिन्होंने अपने जो ब्राह्मणोंके भक्त, अपने जातीय आचारमें दृढ़तापूर्वक नीलकमलके समान लोचनोंद्वारा श्रीरामचन्द्रजीके स्थित और धर्म-कर्मका पालन करनेवाले थे, अयोध्या- मुखारविन्दका मकरन्द पान किया है। अपने सौभाग्यसे पुरीके स्वामी श्रीरामचन्द्रजीके पास गये / व्यवसायी लोग इन कन्याओने महान् अभ्युदय प्राप्त किया है। अरी! जो अपने-अपने कर्ममें स्थित थे, वे सब भी भेंटमें देनेके वीरोचित तेजसे युक्त श्रीरघुनाथजीके मुखकी ओर तो लिये अपनी-अपनी वस्तु लेकर महाराज श्रीरामके समीप देखो, जो कमलकी सुषमाको लज्जित करनेवाले सुन्दर गये। इस प्रकार राजा भरतका संदेश पाकर आनन्दकी नेत्रोंसे सुशोभित हो रहा है। उसे देखकर धन्य हो बाढ़में डूबे हुए पुरवासी नाना प्रकारके कौतुकोंमें प्रवृत्त जाओगी। अहो ! ब्रह्मा आदि देवता भी जिनका दर्शन होकर अपने महाराजके निकट आये। तदनन्तर नहीं कर पाते, वे ही आज हमारी आँखोंके सामने हैं। श्रीरामचन्द्रजीने भी अपने-अपने विमानपर बैठे हुए अवश्य ही हमलोग अत्यन्त बड़भागिनी है। देखो, इनके सम्पूर्ण देवताओंसे घिरकर मनोहर रचनासे सुशोभित मुखपर कैसी सुन्दर मुसकान है, मस्तकपर किरीट शोभा अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया। आकाशमार्गसे विचरण पा रहा है; ये लाल-लाल ओठ बन्धूक-पुष्पकी अरुण करनेवाले वानर भी उछलते-कूदते हुए श्रीरघुनाथजीके प्रभाको अफ्नी शोभासे तिरस्कृत कर रहे हैं तथा इनकी पीछे-पीछे उस उत्तम नगरमें गये / उस समय उन सबकी ऊँची नासिका मनोहर जान पड़ती है। पृथक्-पृथक् शोभा हो रही थी। कुछ दूर जाकर इस प्रकार अधिक प्रेमके कारण उपर्युक्त बातें श्रीरामचन्द्रजी पुष्पक विमानसे उतर गये और शीघ्र ही कहनेवाली अवधपुरीकी रमणियाँ भगवान्के दर्शनकर श्रीसीताके साथ पालकीपर सवार हुए: उस समय वे प्रसन्न होने लगीं। तदनन्तर, जिनका प्रेम बहुत बढ़ा हुआ अपने सहायक परिवारद्वारा चारों ओरसे घिरे हुए थे। था, उन पुरवासी मनुष्योंको अपने दृष्टिपातसे संतुष्ट जोर-जोरसे बजाये जाते हुए वीणा, पणव और भेरी आदि बाजोंके द्वारा उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी स्तुति कर रहे थे; सब लोग कहते थे-'रघुनन्दन ! आपकी जय हो, सूर्य-कुलभूषण श्रीराम ! आपकी जय हो, देव ! दशरथ-नन्दन ! आपकी जय हो, जगत्के स्वामी श्रीरघुनाथजी ! आपकी जय हो।' इस प्रकार हर्षमें भरे पुरवासियोंकी कल्याणमयी बातें भगवान्को सुनायी दे रही थीं। उनके दर्शनसे सब लोगोंके शरीरमें रोमाश हो आया था, जिससे वे बड़ी शोभा पा रहे थे। क्रमशः आगे बढ़कर भगवान्की सवारी गली और चौराहोंसे सुशोभित नगरके प्रधान मार्गपर जा पहुँची, जहाँ चन्दन-मिश्रित जलका छिड़काव हुआ था और सुन्दर फूल तथा पल्लव बिछे थे। उस समय नगरकी कुछ स्त्रियाँ खिड़कीके सामनेकी छज्जोंका सहारा लेकर भगवानकी मनोहर छवि निहारती हुई आपसमें कहने लगी
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________________ 416 अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण करके सम्पूर्ण जगत्को मर्यादाका पाठ पढ़नेवाले उत्कण्ठासे विह्वल हो रहा था; उन्होंने अपने रामको श्रीरघुनाथजीने माताके भवनमें जानेका विचार किया। वे बारंबार छातीसे लगाया और बहुत प्रसन्न हुई। उनके राजाओंके राजा तथा अच्छी नीतिका पालन करनेवाले BIDO थे; अतः पालकीपर बैठे हुए ही सबसे पहले अपनी माता कैकेयीके घरमें गये। कैकेयी लज्जाके भारसे दबी हुई थी, अतः श्रीरामचन्द्रजीको सामने देखकर भी वह कुछ न बोली। बारंबार गहरी चिन्तामें डूबने लगी। सूर्य-वंशकी पताका फहरानेवाले श्रीरामने माताको लज्जित देखकर उसे विनययुक्त वचनोंद्वारा सान्त्वना देते श्रीराम बोले-माँ! मैंने वनमें जाकर तुम्हारी आज्ञाका पूर्णरूपसे पालन किया है। अब बताओ, तुम्हारी आज्ञासे इस समय कौन-सा कार्य करूं? श्रीरामकी यह बात सुनकर भी कैकेयी अपने मुँहको ऊपर न उठा सकी, वह धीरे-धीरे बोली-'बेटा राम ! तुम निष्पाप हो। अब तुम अपने महलमें जाओ।' माताका यह वचन सुनकर कृपा-निधान श्रीरामचन्द्रजीने भी उन्हें नमस्कार किया और वहाँसे सुमित्राके भवनमें Poe गये। सुमित्राका हृदय बड़ा उदार था, उन्होंने अपने पुत्र शरीरमें रोमाञ्च हो आया, वाणी गद्गद हो गयी और लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीको उपस्थित देख आशीर्वाद नेत्रोंसे आनन्दके आँसू प्रवाहित होकर चरणोंको भिगोने देते हुए कहा-'बेटा ! तुम चिरजीवी हो।' लगे। विनयशील श्रीरघुनाथजीने देखा कि 'माता श्रीरामचन्द्रजीने भी माता सुमित्राके चरणोंमें प्रणाम करके अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं। मुझे देखकर ही इन्हें बारबार प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा-'माँ ! कुछ-कुछ हर्ष हुआ है।' उनकी इस अवस्थापर दृष्टिपात लक्ष्मण-जैसे पुत्ररत्नको जन्म देनेके कारण तुम रत्नगर्भा करके उन्होंने कहा। हो; बुद्धिमान् लक्ष्मणने जिस प्रकार हमारी सेवा की है, श्रीराम बोले-माँ ! मैने बहुत दिनोंतक तुम्हारे जिस तरह इन्होंने मेरे कष्टोंका निवारण किया है वैसा चरणोंकी सेवा नहीं की है, निश्चय ही मैं बड़ा भाग्यहीन कार्य और किसीने कभी नहीं किया। रावणने सीताको हूँ तुम मेरे इस अपराधको क्षमा करना / जो पुत्र अपने हर लिया। उसके बाद मैंने पुनः जो इन्हें प्राप्त किया है, माता-पिताकी सेवाके लिये उत्सुक नहीं रहते, उन्हें वह सब तुम लक्ष्मणका ही पराक्रम समझो।' यों कहकर रज-वीर्यसे उत्पन्न हुआ कीड़ा ही समझना चाहिये। क्या तथा सुमित्राके दिये हुए आशीर्वादको शिरोधार्य करके वे करूँ, पिताजीकी आज्ञासे मैं दण्डकारण्यमें चला गया देवताओंके साथ अपनी माता कौसल्याके महलमें गये। था। वहाँसे रावण सीताको हरकर लङ्कामें ले गया था; माताको अपने दर्शनके लिये उत्कण्ठित तथा हर्षमग्न किन्तु तुम्हारी कृपासे उस राक्षसराजको मारकर मैंने पुनः देख भगवान् श्रीराम तुरंत ही पालकीसे उतर पड़े और इन्हें प्राप्त किया है। ये पतिव्रता सीता भी तुम्हारे चरणोंमें निकट पहुँचकर उन्होंने माताके चरणोंको पकड़ लिया। पड़ी हैं, इनका चित्त सदा तुम्हारे इन चरणोंमें ही लगा माता कौसल्याका हृदय बेटेका मुंह देखनेके लिये रहता है।
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________________ पातालखण्ड] * देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान तथा रामराज्यका वर्णन . 417 . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . श्रीरामचन्द्रजीकी बात सुनकर माता कौसल्याने बड़े हर्षके साथ राजा श्रीरामचन्द्रजीका अभिषेक अपने पैरोंपर पड़ी हुई पतिव्रता बहू सीताको आशीर्वाद कराया। सुन्दर व्याघ्रचर्मके ऊपर सातों द्वीपोंसे युक्त देते हुए कहा-'मानिनी सीते ! तुम चिरकालतक अपने पृथ्वीका नकशा बनाकर राजाधिराज महाराज श्रीराम पतिकी जीवन-सङ्गिनी बनी रहो। मेरी पवित्र स्वभाव- उसपर विराजमान हुए। उसी दिनसे साधु पुरुषोंके वाली बहू ! तुम दो पुत्रोंकी जननी होकर अपने इस हृदयमें आनन्द छा गया। सभी स्त्रियाँ पतिके प्रति कुलको पवित्र करो। बेटी ! दुःख-सुखमें पतिका साथ भक्ति रखती हुई पतिव्रत-धर्मके पालनमें संलग्न देनेवाली तुम्हारी-जैसी पतिव्रता स्त्रियाँ तीनों लोकोंमें हो गयीं। संसारके मनुष्य कभी मनसे भी पापका कहीं भी दुःखकी भागिनी नहीं होतीं-यह सर्वथा सत्य आचरण नहीं करते थे। देवता, दैल्य, नाग, यक्ष, असुर है। विदेहकुमारी ! तुमने महात्मा रामके चरणकमलोंका तथा बड़े-बड़े सर्प-ये सभी न्यायमार्गपर स्थित होकर अनुसरण करके अपने ही द्वारा अपने कुलको पवित्र कर श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाको शिरोधार्य करने लगे। सभी दिया।' सुन्दर नेत्रोंवाली श्रीरघुनाथपत्नी सीतासे यों परोपकारमें लगे रहते थे। सबको अपने धर्मके कहकर माता कौसल्या चुप हो गयीं। हर्षके कारण पुनः अनुष्ठानमें ही सुख और संतोषकी प्राप्ति होती थी। उनका सर्वाङ्ग पुलकित हो गया। विद्यासे ही सबका विनोद होता था। दिन-रात तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीके भाई भरतने उन्हें शुभ कर्मोंपर ही सबकी दृष्टि रहती थी। श्रीरामके पिताजीका दिया हुआ अपना महान् राज्य निवेदन कर राज्यमें चोरोंकी तो कहीं चर्चा ही नहीं थी। जोरसे दिया। इससे मन्त्रियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने चलनेवाली हवा भी राह चलते हुए पथिकोंके सूक्ष्ममन्त्रके जाननेवाले ज्योतिषियोंको बुलाकर से-सूक्ष्म वस्त्रको भी नहीं उड़ाती थी। कृपानिधान राज्याभिषेकका मुहूर्त पूछा और उद्योग करके उनके श्रीरामचन्द्रजीका स्वभाव बड़ा दयालु था। वे याचकोंके बताये हुए उत्तम नक्षत्रसे युक्त अच्छे दिनको शुभ मुहूर्तमें लिये कुबेर थे। देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन __ शेषजी कहते हैं-मुने ! जब श्रीरामचन्द्रजीका समुद्रमें प्रकट होनेवाले अजर-अमर और अच्युत राज्याभिषेक हो गया तो राक्षसराज रावणके वधसे परमेश्वर ! आपकी जय हो। भगवन् ! आप देवताओंसे प्रसन्नचित्त हुए देवताओंने प्रणाम करके उनका इस प्रकार श्रेष्ठ हैं। आपका नाम लेकर अनेकों प्राणी पवित्र हो गये; स्तवन किया। फिर जिन्होंने श्रेष्ठ द्विज-वंशमें जन्म ग्रहण करके उत्तम देवता बोले-देवताओंकी पीड़ा दूर करनेवाले मानव-शरीरको प्राप्त किया है, उनका उद्धार होना कौन दशरथनन्दन श्रीराम ! आपकी जय हो। आपके द्वारा जो बड़ी बात है? शिव और ब्रह्माजी भी जिनको मस्तक राक्षसराजका विनाश हुआ है, उस अद्भुत कथाका झुकाते हैं, जो पवित्र यव आदिके चिह्नोंसे सुशोभित तथा समस्त कविजन उत्कण्ठापूर्वक वर्णन करेंगे। भुवनेश्वर ! मनोवाञ्छित कामना एवं समृद्धि देनेवाले हैं, उन आपके प्रलयकालमें आप सम्पूर्ण लोकोंकी परम्पराको चरणोंका हम निरन्तर अपने हृदयमें चिन्तन करते रहे, लीलापूर्वक ग्रस लेते हैं। प्रभो! आप जन्म और जरा यही हमारी अभिलाषा है। आप कामदेवकी भी शोभाको आदिके दुःखोंसे सदा मुक्त हैं। प्रबल शक्तिसम्पन्न तिरस्कृत करनेवाली मनोहर कान्ति धारण करते हैं। परमात्मन् ! आपकी जय हो, आप हमारा उद्धार परमपावन दयामय ! यदि आप इस भूमण्डलके कीजिये, उद्धार कीजिये। धार्मिक पुरुषोंके कुलरूपी अभयदान न दें तो देवता कैसे सुखी हो सकते हैं?
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________________ * अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पयपुराण नाथ ! जब-जब दानवी शक्तियां हमें दुःख देने लगे करके विनीत भावसे श्रीरघुनाथजीको बारंबार प्रणाम तब-तब आप इस पृथ्वीपर अवतार ग्रहण करें। विभो! किया। महायशस्वी श्रीरामचन्द्रजी देवताओंकी इस यद्यपि आप सबसे श्रेष्ठ, अपने भक्तोंद्वारा पूजित, स्तुतिसे बहुत सन्तुष्ट हुए और उन्हें मस्तक झुकाकर अजन्मा तथा अविकारी है तथापि अपनी मायाका चरणोंमें पड़े देख बोले। आश्रय लेकर भिन्न-भिन्न रूपमें प्रकट होते हैं। आपके श्रीरामने कहा-देवताओ! तुमलोग मुझसे सुन्दर चरित्र (पवित्र लीलाएँ) मरनेवाले प्राणियोंके लिये कोई ऐसा वर माँगो जो तुम्हें अत्यन्त दुर्लभ हो तथा जिसे अमृतके समान दिव्य जीवन प्रदान करनेवाले हैं। उनके अबतक किसी देवता, दानव, यक्ष और राक्षसने भी नहीं श्रवणमात्रसे समस्त पापोंका नाश हो जाता है। आपने प्राप्त किया हो। अपनी इन लीलाओंसे समस्त भूमण्डलको व्याप्त कर देवता बोले-स्वामिन् ! आपने हमलोगोंके इस रखा है तथा गुणोंका गान करनेवाले देवताओद्वारा भी शत्रु दशाननका जो वध किया है, उसीसे हमें सब उत्तम आपकी स्तुति की गयी है। जो सबके आदि हैं, परन्तु वरदान प्राप्त हो गया। अब हम यही चाहते हैं कि जिनका आदि कोई नहीं है, जो अजर (तरुण) रूप जब-जब कोई असुर हमलोगोंको क्लेश पहुंचावे तब-तब धारण करनेवाले हैं, जिनके गलेमें हार और मस्तकपर आप इसी तरह हमारे उस शत्रुका नाश किया करें। किरीट शोभा पाता है, जो कामदेवकी भी कान्तिको वीरवर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने 'बहुत अच्छा' लज्जित करनेवाले हैं, साक्षात् भगवान् शिव जिनके कहकर देवताओंकी प्रार्थना स्वीकार की और फिर इस चरणकमलोंकी सेवामें लगे रहते है तथा जिन्होंने अपने प्रकार कहा। शत्रु रावणका बलपूर्वक वध किया है, वे श्रीरघुनाथजी श्रीराम बोले-देवताओ! तुम सब लोग सदा ही विजयी हों। आदरपूर्वक मेरा वचन सुनो, तुमलोगोंने मेरे गुणोंको ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओंने इस प्रकार स्तुति प्रथित करके जो यह अद्भुत स्तोत्र बनाया है, इसका जो ESTATATE AC - मनुष्य प्रातःकाल तथा रात्रिमें एक बार प्रतिदिन पाठ करेगा, उसको कभी अपने शत्रुओंसे पराजित होनेका भयङ्कर कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा। उसके घरमें दरिद्रताका प्रवेश नहीं होगा तथा उसे रोग नहीं सतायेंगे। इतना ही नहीं, इसके पाठसे मनुष्योंके उल्लासपूर्ण हदयमें मेरे युगल-चरणोंकी गाढ़ भक्तिका उदय होगा! ___ यह कहकर नरदेवशिरोमणि श्रीरघुनाथजी चुप हो गये तथा सम्पूर्ण देवता अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने-अपने लोकको चले गये। इधर लोकनाथ श्रीरामचन्द्रजी अपने विद्वान् भाइयोंका पिताकी भांति पालन करते हुए प्रजाको अपने पुत्रके समान मानकर सबका लालन-पालन करने लगे। उनके शासनकालमें जगतके मनुष्योंकी कभी अकाल मृत्यु नहीं होती थी। किसीके घरमें रोग आदिका प्रकोप नहीं होता था। न
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________________ पातालखण्ड] * देवताओद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान तथा रामराज्यका वर्णन . ........................... ..................................................mammeen. कभी ईति' दिखायी देती और न शत्रसे ही कोई भय था)। उस राज्यकी स्त्रियोंमें ही विभ्रम (हाव-भाव या होता। वृक्षोंमें सदा फल लगे रहते और पृथ्वीपर अधिक विलास) था; विद्वानोंमें कहीं विभ्रम (भ्रान्ति या भूल) मत्रामें अनाजकी उपज होती थी। स्त्रियोंका जीवन पुत्र- का नाम भी नहीं था। वहाँकी नदियाँ ही कुटिल मार्गसे पौत्र आदि परिवारसे सनाथ रहता था। उन्हें निरन्तर जाती थीं, प्रजा नहीं; अर्थात् प्रजामें कुटिलताका सर्वथा अपने प्रियतमका संयोगजनित सुख मिलते रहनेके अभाव था। श्रीरामके राज्यमें केवल कृष्णपक्षकी रात्रि ही कारण विरहका क्लेश नहीं भोगना पड़ता था। सब लोग तम (अन्धकार) से युक्त थी, मनुष्योंमें तम (अज्ञान या सदा श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंकी कथा सुननेके लिये दुःख) नहीं था। वहाँको स्त्रियोंमें ही रजका संयोग देखा उत्सुक रहते थे। उनकी वाणी कभी परायी निन्दामें नहीं जाता था, धर्म-प्रधान मनुष्योंमें नहीं; अर्थात् मनुष्योंमें प्रवृत्त होती थी। उनके मनमें भी कभी पापका संकल्प धर्मकी अधिकता होनेके कारण सत्त्वगुणका ही उद्रेक नहीं होता था। सीतापति श्रीरामके मुखकी ओर निहारते होता था [रजोगुणका नहीं] / धनसे वहाँक मनुष्य ही समय लोगोंकी आँखें स्थिर हो जाती-वे एकटक अनन्ध थे (मदान्ध होनेसे बचे थे); उनका भोजन अनन्ध नेत्रोंसे उन्हें देखते रह जाते थे। सबका हृदय निरन्तर (अनरहित) नहीं था। उस राज्यमें केवल रथ ही 'अनय' करुणासे भरा रहता था। सदा इष्ट (यज्ञ-यागादि) और (लोह-रहित) था; राजकर्मचारियोंमें 'अनय' (अन्याय) आपूर्त (कुएँ खुदवाने, बगीचे लगवाने आदि) के का भाव नहीं था। फरसे, फावड़े, चैवर तथा छत्रोंमें ही अनुष्ठान करनेवाले लोगोंके द्वारा उस राज्यकी जड़ और दण्ड (डंडा) देखा जाता था; अन्यत्र कहीं भी क्रोध या मजबूत होती थी। समूचे राष्ट्रमें सदा हरी-भरी खेती बन्धन-जनित दण्ड देखनेमें नहीं आता था। जलोंमें ही लहराती रहती थी। जहाँ सुगमतापूर्वक यात्रा की जा जडता (या जलत्व) की बात सुनी जाती थी; मनुष्योंमें सके, ऐसे क्षेत्रोंसे वह देश भरा हुआ था। उस राज्यका नहीं। स्वीके मध्यभाग (कटि) में ही दुर्बलता देश सुन्दर और प्रजा उत्तम थी। सब लोग स्वस्थ रहते (पतलापन) थी; अन्यत्र नहीं / वहाँ ओषधियोंमें ही कुष्ठ थे। गौएँ अधिक थीं और घास-पातका अच्छा सुभीता (कूट या कूठ नामक दवा) का योग देखा जाता था, था। स्थान-स्थानपर देव-मन्दिरोंकी श्रेणियाँ रामराज्यकी मनुष्योंमें कुष्ठ (कोढ़)का नाम भी नहीं था। रलोमें ही शोभा बढ़ाती थीं। उस राज्यमें सभी गाँव भरे-पूरे और वेध (छिद्र) होता था, मूर्तियोंके हाथोंमें ही शूल धन-सम्पत्तिसे सुशोभित थे। वाटिकाओंमें सुन्दर-सुन्दर (त्रिशूल) रहता था, प्रजाके शरीरमें वेध या शूलका रोग फूल शोभा पाते और वृक्षोंमे स्वादिष्ट फल लगते थे। नहीं था। रसानुभूतिके समय सात्त्विक भावके कारण ही कमलोंसे भरे हुए तालाब वहाँकी भूमिका सौन्दर्य बढ़ा शरीरमें कम्प होता था; भयके कारण कहीं किसीको कैंपकैपी होती हो-ऐसी बात नहीं देखी जाती थी। रामराज्यमें केवल नदी ही सदम्भा (उत्तम राम-राज्यमें केवल हाथी ही मतवाले होते थे, मनुष्योंमें जलवाली) थी, वहाँकी जनता कहीं भी सदम्भा (दम्भ कोई मतवाला नहीं था। तरङ्गे जलाशयोंमें ही उठती थीं, या पाखण्डसे युक्त) नहीं दिखायी देती थी। ब्राह्मण, किसीके मनमें नहीं; क्योंकि सबका मन स्थिर था। दान क्षत्रिय आदि वर्गों के कुल (समुदाय) ही कुलीन (उत्तम (मद) का त्याग केवल हाथियोंमें ही दृष्टिगोचर होता था; कुलमें उत्पन्न) थे, उनके धन नहीं कुलीन थे (अर्थात् राजाओंमें नहीं / काँटे ही तीखे होते थे, मनुष्योंका स्वभाव उनके धनका कुत्सित मार्गमें लय-उपयोग नहीं होता नहीं। केवल बाणोंका ही गुणोंसे वियोग होता था 1. ईति' कई प्रकारको होती है-अवृष्टि (सूखा पड़ना), अतिवृष्टि (अधिक वर्षा के कारण बाढ़ आना), खेतोंमें चूहोंका लगना, टिहियोंका उपद्रव, सुग्गोसे हानि और राजासे वैर इत्यादि। २-धनुषको डोरीको गुण कहते हैं, छूटते समय बाणका उससे वियोग होता है।
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________________ 420 * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण मनुष्योंका नहीं। दृढ़ बन्धोक्ति (सुश्लिष्ट प्रबन्धरचना या प्रजाको सदा ही श्रीरामचन्द्रजीसे लाड़-प्यार प्राप्त कमल-बन्ध आदि श्लोकोंकी रचना) केवल पुस्तकोंमें होता था। अपने द्वारा लालित प्रजाका निरन्तर ही उपलब्ध होती थी; लोकमें कोई सुदृढ़ बन्धनमें बाँधा लालन-पालन करते हुए वे उस सम्पूर्ण देशकी रक्षा या कैद किया गया हो-ऐसी बात नहीं सुनी जाती थी। करते थे। श्रीरामके दरबारमें अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओंकी प्रार्थनासे भगवानका अवतार लेना शेषजी कहते हैं-एक बार एक नीचके मुखसे खड़े हो गये। फिर स्वागत-सत्कारके द्वारा उन्हें सम्मानित श्रीसीताजीके अपमानकी बात सुनकर-धोबीके करके भगवान्ने उनकी कुशल पूछी और जब वे आक्षेपपूर्ण वचनसे प्रभावित होकर श्रीरघुनाथजीने सुखपूर्वक आसनपर बैठकर विश्राम कर चुके तो अपनी पत्नीका परित्याग कर दिया। इसके बाद वे श्रीरघुनन्दनने उनसे वार्तालाप आरम्भ किया। .. सीतासे रहित एकमात्र पृथ्वीका, जो उनके आदेशसे ही श्रीरामने कहा-महाभाग कुम्भज ! आपका सुरक्षित थी, धर्मानुसार पालन करने लगे। एक दिन स्वागत है। तपोनिधे ! निश्चय ही आज आपके दर्शनसे महामति श्रीरामचन्द्रजी राजसभामें बैठे हुए थे, इसी हम सब लोग कुटुम्बसहित पवित्र हो गये। इस समय मुनियोंमें श्रेष्ठ अगस्त्य ऋषि, जो बहुत बड़े भूमण्डलपर कहीं कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो आपकी महात्मा थे, वहाँ पधारे। समुद्रको सोख लेनेवाले उन तपस्यामें विघ्न डाल सके / आपकी सहधर्मिणी लोपामुद्रा भी बड़ी सौभाग्यशालिनी हैं, जिनके पातिव्रत्य-धर्मके प्रभावसे सब कुछ शुभ ही होता है। मुनीश्वर ! आप धर्मके साक्षात् विग्रह और करुणाके सागर हैं। लोभ तो आपको छू भी नहीं गया है। बताइये, मैं आपका कौन-सा कार्य करूं? महामुने! यद्यपि आपकी तपस्याके प्रभावसे ही सब कुछ सिद्ध हो जाता है, आपके संकल्पमात्रसे ही बहुत कुछ हो सकता है; तथापि मुझपर कृपा करके ही मेरे लिये कोई सेवा बतलाइये। शेषजी कहते है-मुने! राजाओंके भी राजा परम बुद्धिमान् जगद्गुरु श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर महर्षि अगस्त्यजी अत्यन्त विनययुक्त वाणीमें बोले।। अगस्त्यजीने कहा-स्वामिन् ! आपका दर्शन देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; यही सोचकर मैं यहाँ आया हूँ। राजाधिराज ! मुझे अपने दर्शनके लिये ही आया हुआ समझिये। कृपानिधे ! आपने रावण नामक अद्भुत महर्षिको आया देख महाराज श्रीरामचन्द्रजी अर्घ्य असुरका, जो समस्त लोकोंके लिये कण्टकरूप था, वध लिये सम्पूर्ण सभासदों तथा गुरु वसिष्ठके साथ उठकर कर डाला—यह बहुत अच्छा हुआ। अब देवगण
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________________ पातालखण्ड ] * श्रीराम-दरबारमें अगस्त्यजीका आगमन, देवताओंकी प्रार्थनासे भगवानका अवतार . 421 सुखी और विभीषण राजा हुए-यह बड़े सौभाग्यको महान् सौभाग्यजनक फलको प्रकट करनेवाला है; बात है। श्रीराम ! आज आपका दर्शन पाकर मेरे मनका खाली खजाना भर गया। मेरे सारे पाप नष्ट हो गये। यो कहकर महर्षि कुम्भज चुप हो गये। भगवान्के दर्शनजनित आहादसे उनका चित्त विह्वल हो रहा था। उस समय श्रीरघुनाथजीने उन ज्ञान-विशारद मुनिसे पुनः इस प्रकार प्रश्न किया- 'मुने ! मैं आपसे कुछ बातें पूछ रहा हूँ, आप उन्हें विस्तारपूर्वक बतलावें। देवताओंको पीड़ा देनेवाला वह रावण, जिसे मैंने मारा है, कौन था ? तथा उस दुरात्माका भाई कुम्भकर्ण भी कौन था? उसकी जाति-उसके बन्धु-बान्धव कौन थे? सर्वज्ञ ! आप इन सब बातोंको विस्तारके साथ जानते हैं, अतः मुझे सब बताइये।' भगवान्की ये बातें सुनकर तपोनिधि कुम्भज ऋषिने इन सबका उत्तर देना आरम्भ किया"राजन् ! सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करनेवाले जो ब्रह्माजी हैं, उनके पुत्र महर्षि पुलस्त्य हुए। पुलस्त्यजीसे मुनिवर विश्रवाका जन्म हुआ, जो वेदविद्यामें अत्यन्त प्रवीण थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं, जो बड़ी पतिव्रता और सदाचारिणी क्योंकि इस समय मुझे आपके इन युगल चरणोंका दर्शन थीं। उनमेसे एकका नाम मन्दाकिनी था और दूसरी मिला है जो अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाला है। इस कैकसी नामसे प्रसिद्ध थी। पहली स्त्री मन्दाकिनीके प्रकार स्तुतियुक्त पदोंसे माता-पिताका स्तवन करके कुबेर गर्भसे कुबेरका जन्म हुआ, जो लोकपालके पदको प्राप्त पुनः अपने भवनको लौट गये। रावण बड़ा बुद्धिमान् हुए हैं। उन्होंने भगवान् शङ्करके प्रसादसे लङ्कापुरीको था, उसने कुबेरको देखकर अपनी मातासे पूछा-'माँ ! अपना निवास स्थान बनाया था। कैकसी विद्युन्माली ये कौन है, जो मेरे पिताजीके चरणोंकी सेवा करके फिर नामक दैत्यकी पुत्री थी, उसके गर्भसे रावण, कुम्भकर्ण लौट गये है? इनका विमान तो वायुके समान वेगवान् तथा पुण्यात्मा विभीषण-ये तीन महाबली पुत्र उत्पन्न है। इन्हें किस तपस्यासे ऐसा विमान प्राप्त हुआ है?' हुए। महामते ! इनमें रावण और कुम्भकर्णकी बुद्धि शेषजी कहते हैं-मुने ! रावणका वचन सुनकर अधर्ममें निपुण हुई; क्योंकि वे दोनों जिस गर्भसे उत्पन्न उसकी माता रोषसे विकल हो उठी और कुछ आँखें टेढ़ी हुए थे, उसकी स्थापना सन्ध्याकालमें हुई थी। करके अनमनी होकर बेटेसे बोली- अरे ! मेरी बात एक समयकी बात है, कुबेर परम शोभायमान सुन, इसमें बहुत शिक्षा भरी हुई है। जिनके विषयमें तू पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो माता-पिताका दर्शन करनेके पूछ रहा है, वे मेरी सौतकी कोखके रन-कुबेर यहाँ लिये उनके आश्रममें गये। वहाँ जाकर वे अधिक उपस्थित हुए थे, जिन्होंने अपनी माताके विमल वंशको कालतक माता-पिताके चरणोंमें पड़े रहे। उस समय अपने जन्मसे और भी उज्ज्वल बना दिया है। परन्तु तू उनका हदय हर्षसे विह्वल हो रहा था और सम्पूर्ण तो मेरे गर्भका कीड़ा है, केवल अपना पेट भरनेमें ही शरीरमें रोमाञ्च हो आया था। वे बोले-'माता और लगा हुआ है। कुवेरने तपस्यासे भगवान् शङ्करको सन्तुष्ट पिताजी ! आजका दिन मेरे लिये बहुत ही सुन्दर तथा करके लङ्काका निवास, मनके समान वेगशाली विमान
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________________ * अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण तथा राज्य और सम्पत्तियाँ प्राप्त की हैं। संसारमें वही विभीषण तो धर्मात्मा थे; अतः उन्होंने उत्तम तपस्याका माता धन्य, सौभाग्यवती तथा महान् अभ्युदयसे अनुष्ठान किया। तदनन्तर देवाधिदेव भगवान् ब्रह्माजीने सुशोभित होनेवाली है, जिसके पुत्रने अपने गुणोंसे प्रसन्न होकर रावणको बहुत बड़ा राज्य दिया और उसका महापुरुषोंका पद प्राप्त कर लिया हो।' रावण दुरात्माओंमें स्वरूप तीनों लोकोंमें प्रकाशमान एवं सुन्दर बना दिया, सबसे श्रेष्ठ था, उसने अपनी माताके क्रोधपूर्ण वचन जो देवता और दानव दोनोंसे सेवित था। कुबेरकी बुद्धि सुनकर तपस्या करनेका निश्चय किया और उससे कहा। सदा धर्ममें ही लगी रहती थी। रावणने वर पानेके रावण बोला-माँ ! कौड़ेकी-सी हस्ती रखने- अनन्तर अपने भाई कुबेरको बहुत सताया। उनका वाला वह कुबेर क्या चीज है? उसकी थोड़ी-सी तपस्या विमान छीन लिया तथा उनकी लङ्कानगरीपर भी हठात् किस गिनतीमें है ? लङ्काकी क्या बिसात है? तथा बहुत अधिकार जमा लिया। उसने समस्त लोकोंको सन्ताप थोड़े सेवकोंवाला उसका राज्य भी किस कामका है? पहुँचाया। देवता स्वर्गसे भाग गये। उस निशाचरने यदि मैं अन्न, जल, निद्रा और क्रीडाका सर्वदा परित्याग ब्राह्मण-वंशका भी विनाश किया और मुनियोंकी तो वह करके ब्रह्माजीको सन्तुष्ट करनेवाली दुष्कर तपस्याके द्वारा जड़ ही काटता फिरता था। तब उसके अत्याचारसे सम्पूर्ण लोकोंको अपने वशमें न कर लूँ तो मुझे अत्यन्त दुःखी होकर इन्द्र आदि समस्त देवता ब्रह्माजीके पितृलोकके विनाशका पाप लगे। पास गये तथा दण्डवत्-प्रणाम करके उनकी स्तुति करने तत्पश्चात् कुम्भकर्ण और विभीषणने भी तपस्याका लगे। जब सबने आदरपूर्वक प्रिय वचनोंद्वारा उनका निश्चय किया। फिर रावण अपने भाइयोंको साथ लेकर स्तवन किया तो भगवान् ब्रह्माने प्रसन्न होकर कहापर्वतीय वनमें चला गया। वहाँ उसने सूर्यकी ओर ऊपर 'देवगण ! मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य करूं?' तब दृष्टि लगाये एक पैरसे खड़ा होकर दस हजार वर्षांतक देवताओंने ब्रह्माजीसे अपना अभिप्राय निवेदन कियाघोर तपस्या की। कुम्भकर्णने भी बड़ा कठोर तप किया। रावणसे प्राप्त होनेवाले अपने कष्ट और पराजयका वर्णन किया। उनकी बातें सुनकर ब्रह्माजीने क्षणभर विचार किया, फिर देवताओंको साथ लेकर वे कैलास-पर्वतपर गये। उस पर्वतके पास पहुँचकर इन्द्र आदि देवता वहाँकी विचित्रता देखकर मुग्ध हो गये और खड़े होकर उन्होंने शङ्करजीकी इस प्रकार स्तुति की-'भगवन् ! आप भव (उत्पादक), शर्व (संहारक) तथा नीलग्रीव (कण्ठमें नील चिह्न धारण करनेवाले) आदि नामसे प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है। स्थूल और सूक्ष्मरूप धारण करनेवाले आपको प्रणाम है तथा अनेकों रूपोंमें प्रतीत होनेवाले आपको नमस्कार है।' सब देवताओंके मुखसे यह स्तुतियुक्त वाणी सुनकर भगवान् शङ्करने नन्दीसे कहा-'देवताओंको मेरे पास बुला लाओ।' आज्ञा पाकर नन्दीने उसी समय देवताओंको बुलाया। अन्तःपुरमें पहुँचकर उन्होंने आश्चर्यचकित दृष्टिसे भगवान्का दर्शन किया। देवताओंके साथ प्रणाम करके ब्रह्माजी शिवजीके सामने
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________________ पातालखण्ड ] , श्रीराम-दरबारमें अगस्त्यजीका आगमन, देवताओंकी प्रार्थनासे भगवान्का अवतार . 423 खड़े हो गये और उन देवदेवेश्वरसे बोले- करूँगा। भूमण्डलमें एक अयोध्या नामकी पुरी है, जो 'शरणागतवत्सल महादेव ! आप देवताओंकी अवस्था- बड़े-बड़े दान और यज्ञ आदि शुभ-कर्मोका अनुष्ठान पर दृष्टि डालिये और इनके ऊपर कृपा कीजिये। दुष्ट करनेवाले सूर्यवंशी राजाओंद्वारा सुरक्षित है; वह अपनी राक्षस रावणका वध करनेके लिये जो उद्योग हो सके, रजतमयी भूमिसे सुशोभित हो रही है। उस पुरीमें दशरथ वह कीजिये।' ब्रह्माजीके दैन्य और शोकसे युक्त वचन नामसे प्रसिद्ध एक राजा है, जो इस समय दसों दिशाओंको सुनकर शङ्करजी भी देवताओंके साथ भगवान् जीतकर पृथ्वीके राज्यका पालन कर रहे हैं। यद्यपि वे श्रीविष्णुके स्थानपर आये। वहाँ देवता, नाग किन्नर और राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न और शक्तिशाली हैं, तथापि मुनि सबने मिलकर भगवान्की स्तुति की-देवताओंके अभीतक उन्हें कोई सन्तान नहीं है। महान् बलशाली राजा स्वामी माधव ! आपकी जय हो, भक्तजनोंका दुःख दूर दशरथ पुत्र-प्राप्तिकी इच्छासे वन्दनीय ऋष्यशृङ्गमुनिको करनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो, महादेव ! हमपर प्रार्थनापूर्वक बुलावेंगे और उनके आचार्यत्वमें विधिपूर्वक कृपा कीजिये और अपने इन सेवकोंपर दृष्टि डालिये।' पुत्रेष्टि यज्ञका अनुष्ठान करेंगे। तदनन्तर मैं आपलोगोंके हितके लिये राजाकी तीन रानियोंके गर्भसे चार स्वरूपोंमें प्रकट होऊँगा। राजा भी पूर्व-जन्ममें तपस्या करके मुझसे इस बातके लिये प्रार्थना कर चुके हैं। मेरे चारों स्वरूप क्रमशः, राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नके नामसे प्रसिद्ध होंगे। उस समय मैं रावणका बल, वाहन और जड़-मूलसहित संहार कर डालूंगा। आपलोग भी अपने-अपने अंशसे भालू और वानरके रूपमें प्रकट होकर पृथ्वीपर सर्वत्र विचरते रहिये।' ___ इस प्रकार आकाशवाणी करके भगवान् मौन हो गये। उनका वचन सुनकर सब देवताओंका चित्त प्रसन्न हो गया। परम मेधावी देवाधिदेव भगवान्ने जैसा कहा था, उसीके अनुसार देवताओंने कार्य किया। उन्होंने अपने-अपने अंशसे ऋक्ष और वानरका रूप धारण करके समूची पृथ्वीको भर दिया / महाराज ! देवताओंका दुःख दूर करनेवाले जो महान् देव श्रीविष्णु कहलाते हैं, वे आप A. ही हैं। आप ही मानवशरीरधारी भगवान् है / महामते ! ये रुद्र आदि सम्पूर्ण देवताओंने जब इस प्रकार उच्च- भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न आपहीके अंश है। आपने स्वरसे स्तवन किया तो उनके वचन सुनकर देवाधिदेव देवताओंको पीड़ा देनेवाले दशाननका वध किया है। उस श्रीविष्णुने देवसमुदायके दुःखपर अच्छी तरह विचार दैत्यकी ब्रह्म-राक्षस जाति थी, उसीका आपके द्वारा वध किया। तत्पश्चात् वे मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनका हुआ है। नरश्रेष्ठ ! आप जगत्के उत्पत्ति-स्थान और शोक शान्त करते हुए बोले-ब्रह्मा, रुद्र और इन्द्र आदि सम्पूर्ण विश्वके आत्मा हैं। आपके राजा होनेसे देवता, देवताओ ! मैं आपलोगोंके हितकी बात बता रहा हूँ, असुर और मनुष्योंसहित समस्त संसारको सुख प्राप्त हुआ सुनिये; रावणके द्वारा जो आपको भय प्राप्त हुआ है, उसे मैं है। पापके स्पर्शसे रहित श्रीरघुनाथजी ! आपने जो कुछ जानता हूँ, अब अवतार धारण करके मैं उस भयका नाश पूछा है, वह सब मैंने बतला दिया।"
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________________ 424 . . अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . .. [संक्षिप्त पापुराण अगस्त्यका अश्वमेध यज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा श्रीराम बोले-विप्रवर ! इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न आवश्यकता है? हुए किसी पुरुषके मुखसे कभी ब्राह्मणोंने कटुवचनतक अगस्त्यजीने कहा-रघुनन्दन ! जिसका रङ्ग नहीं सुना था [किन्तु मैंने उनकी हत्या कर डाली।] वर्ण गङ्गाजलके समान उज्ज्वल तथा शरीर सुन्दर हो, और आश्रमके भेदसे भिन्न-भिन्न धर्मोके मूल हैं वेद और जिसका कान श्याम, मुँह लाल और पूँछ पीले रङ्गकी हो वेदोंके मूल हैं ब्राह्मण / ब्राह्मणवंश ही वेदोंकी सम्पूर्ण तथा जो देखनेमें भी अच्छा जान पड़े, वह उत्तम शाखाओंको धारण करनेवाला एकमात्र वृक्ष है। ऐसे लक्षणोंसे लक्षित अश्व ही अश्वमेधमें ग्राह्य बतलाया ब्राह्मण-कुलका मेरेद्वारा संहार हुआ है; ऐसी अवस्थामें गया है। वैशाखमासकी पूर्णिमाको अश्वकी विधिवत् मैं क्या करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो? पूजा करके एक ऐसा पत्र लिखे जिसमें अपने नाम और अगस्त्यजीने कहा-राजन् ! आप अन्तर्यामी बलका उल्लेख हो, वह पत्र घोड़ेके ललाटमें बाँधकर आत्मा एवं प्रकृतिसे परे साक्षात् परमेश्वर हैं। आप ही उसे स्वछन्द विचरनेके लिये छोड़ देना चाहिये तथा इस जगत्के कर्ता, पालक और संहारक हैं। साक्षात् बहुत-से रक्षकोंको तैनात करके उसकी सब ओरसे गुणातीत परमात्मा होते हुए भी आपने स्वेच्छासे प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये। यज्ञका घोड़ा जहाँ-जहाँ सगुणस्वरूप धारण किया है। शराबी, ब्रह्महत्यारा, सोना जाय, उन सब स्थानोंपर रक्षकोंको भी जाना चाहिये। जो चुरानेवाला तथा महापापी (गुरुवीगामी)-ये सभी कोई राजा अपने बल या पराक्रमके घमंडमें आकर उस आपके नामका उच्चारण करनेमात्रसे तत्काल पवित्र हो घोड़ेको जबरदस्ती बाँध ले, उससे लड़-भिड़कर उस जाते हैं।* महामते ! ये जनककिशोरी भगवती सौता अश्वको बलपूर्वक छीन लाना रक्षकोंका कर्तव्य है। महाविद्या है; जिनके स्मरणमात्रसे मनुष्य मुक्त होकर जबतक अश्व लौटकर न आ जाय, तबतक यज्ञ-कर्ताको सद्गति प्राप्त कर लेंगे। लोगोंपर अनुग्रह करनेवाले उत्तम विधि एवं नियमोंका पालन करते हुए राजधानीमें महावीर श्रीराम ! जो राजा अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान ही रहना चाहिये। वह ब्रह्मचर्यका पालन करे और करता है, वह सब पापोंके पार हो जाता है। राजा मनु, मृगका सींग हाथमें धारण किये रहे। यज्ञ-सम्बन्धी सगर, मरुत्त और नहुषनन्दन ययाति-ये आपके सभी व्रतका पालन करनेके साथ ही एक वर्षतक दीनों, अंधों पूर्वज यज्ञ करके परमपदको प्राप्त हुए हैं। महाराज ! और दुःखियोंको धन आदि देकर सन्तुष्ट करते रहना आप सर्वथा समर्थ हैं, अतः आप भी यज्ञ करिये। चाहिये। महाराज ! बहुत-सा अन्न और धन दान करना परम सौभाग्यशाली श्रीरघुनाथजीने महर्षि अगस्त्यजीकी उचित है। याचक जिस-जिस वस्तु के लिये याचना करे, बात सुनकर यज्ञ करनेका ही विचार किया और उसकी बुद्धिमान् दाताको उसे वही-वही वस्तु देनी चाहिये / इस विधि पूछी। प्रकारका कार्य करते हुए यजमानका यज्ञ जब भलीभांति श्रीराम बोले-महर्षे ! अश्वमेध यज्ञमें कैसा पूर्ण हो जाता है, तो वह सब पापोंका नाश कर डालता अश्व होना चाहिये? उसके पूजनकी विधि क्या है? है। शत्रुओंका नाश करनेवाले रघुनाथजी ! आप यह किस प्रकार उसका अनुष्ठान किया जा सकता है सब कुछ करने, सब नियमोंको पालने तथा अश्वका तथा उसके लिये किन-किन शत्रुओंको जीतनेकी विधिवत् पूजन करनेमें समर्थ हैं; अतः इस यज्ञके द्वारा * सुरापो ब्रह्महत्याकृत्स्वर्णस्तेयो महायकृत् / सर्वे त्वन्नामवादेन पूताः शीघ्रं भवन्ति हि // (8 / 19)
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________________ पातालखण्ड ] . अगस्त्यका अश्वमेध यज्ञकी सलाह देना तथा ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा . 425 अपनी विशद कीर्तिका विस्तार करके दूसरे मनुष्योंको भी अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। मुनिके इस वचनसे पवित्र कीजिये। उन्होंने यज्ञके सभी मनोहर सम्भार एकत्रित किये। श्रीरामचन्द्रजीने कहा-विप्रवर ! आप इस तत्पश्चात् महाराज श्रीराम मुनियोंके साथ समय मेरी अश्वशालाका निरीक्षण कीजिये और देखिये, सरयू-तटपर आये और सोनेके हलोसे चार योजन उसमें ऐसे उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न घोड़े हैं या नहीं। लंबी-चौड़ी बहुत बड़ी भूमिको जोता। इसके बाद उन भगवान्की बात सुनकर दयालु महर्षि उठकर खड़े I हो गये और यज्ञके योग्य उत्तम घोड़ोंको देखनेके लिये चल दिये। श्रीरामचन्द्रजीके साथ अश्वशालामें जाकर TUDIO SIDHDSSSSSSSS पुरुषोत्तमने यज्ञके लिये अनेकों मण्डप बनवाये और योनि एवं मेखलासे युक्त कुण्डका विधिवत् निर्माण LATLAMPAIDA] करके उसे अनेकों रत्रोंसे सुसज्जित एवं सब प्रकारकी उन्होंने देखा, वहाँ चित्र-विचित्र शरीरवाले अनेकों शोभासे सम्पन्न बनाया। महान् तपस्वी एवं परम प्रकारके अश्व थे, जो मनके समान वेगवान् और अत्यन्त सौभाग्यशाली मुनिवर वसिष्ठने सब कार्य वेदशास्त्रकी बलवान् प्रतीत होते थे। उसमें ऊपर बताये हुए रंगके विधिके अनुसार सम्पन्न कराया। उन्होंने अपने शिष्योंको एक-दो नहीं, सैकड़ों घोड़े थे, जिनकी पूँछ पीली और महर्षियोंके आश्रमोंपर भेजकर कहलाया कि श्रीरघुनाथजी मुख लाल थे। साथ ही वे सभी तरहके शुभ लक्षणोंसे अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये उद्यत हुए हैं। सम्पन्न दिखायी देते थे। उन्हें देखकर अगस्त्यजी अतः आप सब लोग उसमें पधारें। इस प्रकार आमन्त्रित बोले-'रघुनन्दन ! आपके यहाँ अश्वमेधके योग्य होकर वे सभी तपस्वी महर्षि भगवान् श्रीरामके दर्शनके बहुत-से सुन्दर घोड़े हैं; अतः आप विस्तारके साथ उस लिये अत्यन्त उत्कण्ठित होकर वहाँ आये। नारद, यज्ञका अनुष्ठान कीजिये / महाराज श्रीराम ! आप महान् असित, पर्वत, कपिलमुनि, जातूकर्ण्य, अङ्गिरा, सौभाग्यशाली हैं। देवता और असुर-सभी आपके आष्टिषेण, अत्रि, गौतम, हारीत, याज्ञवल्क्य तथा संवर्त चरणोंपर मस्तक झुकाते हैं; अतः आपको इस यज्ञका आदि महात्मा भी भगवान् श्रीरामके अश्वमेध यज्ञमें
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________________ 426 * अजयस्व हकिशे यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. आये। श्रीरघुनाथजीने बड़े आनन्दके साथ उठकर उनका ऋषि बोले-ब्राह्मणको सदा यज्ञ करना और वेद स्वागत किया और उन्हें प्रणाम करके अर्घ्य तथा आसन पढ़ाना आदि कार्य करना चाहिये। वह ब्रह्मचर्यआदि देकर उन सबकी विधिवत् पूजा की। फिर गौ और आश्रममें वेदोंका अध्ययन पूर्ण करके इच्छा हो तो सुवर्ण निवेदन करके वे बोले-'महर्षियो / मेरे बड़े विरक्त हो जाय और यदि ऐसी इच्छा न हो तो भाग्य हैं, जो आपके दर्शन हुए।' गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करे। नीच पुरुषोंकी सेवासे शेषजी कहते हैं-ब्रह्मन् ! इस प्रकार जब वहाँ जीविका चलाना ब्राह्मणके लिये सदा त्याज्य है। वह बड़े-बड़े ऋषियोंका समुदाय एकत्रित हुआ तो उनमें वर्ण आपत्तिमें पड़नेपर भी कभी सेवा-वृत्तिसे जीवन-निर्वाह और आश्रमके अनुकूल धर्मविषयक चर्चा होने लगी। न वात्स्यायनजीने पूछा-भगवन् ! वहाँ धर्मके . र सन्तान-प्राप्तिकी इच्छासे ऋतुकालमें अपनी पत्नीके साथ समागम करना उचित माना गया है। दिनमें स्त्रीके सम्बन्धमें क्या-क्या बातें हुई? कौन-सी अद्भुत बात साथ सम्पर्क करना पुरुषोंकी आयुको नष्ट करनेवाला है। बतायी गयी ? उन महात्माओने सब लोगोंपर दया करके श्राद्धका दिन और सभी पर्व स्त्री-समागमके लिये किस विषयका वर्णन किया ? निषिद्ध है, अतः बुद्धिमान् पुरुषोंको इनका त्याग करना शेषजीने कहा-मुने! महापुरुषोंमें श्रेष्ठ चाहिये। जो मोहवश उक्त समयमें भी स्त्रीके साथ दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामने सब मुनियोंको एकत्रित सम्पर्क करता है; वह उत्तम धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है। जो देखकर उनसे समस्त वर्णों और आश्रमोंके धर्म पूछे। पुरुष केवल ऋतुकालमें स्त्रीके साथ समागम करता है श्रीरघुनाथजीके पूछनेपर उन महर्षियोंने जिन-जिन महान् तथा अपनी ही पत्नीमें अनुराग रखता है [परायी स्त्रीकी गुणकारी धर्मोका वर्णन किया, उन सबको मैं विधिपूर्वक ओर कुदृष्टि नहीं डालता], उस उत्तम गृहस्थको इस बतलाऊँगा, आप ध्यान देकर सुनें। जगत्में सदा ब्रह्मचारी ही समझना चाहिये। स्त्रीके रजस्वला होनेसे लेकर सोलह रात्रियाँ ऋतु कहलाती हैं, उनमें पहली चार रातें निन्दित हैं; [अतः उनमें स्त्रीका स्पर्श नहीं करना चाहिये] शेष बारह रातोंमेंसे जो सम संख्यावाली अर्थात् छठी और आठवीं आदि रातें हैं, उनमें स्त्री-समागम करनेसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है तथा विषम संख्यावाली अर्थात् पाँचवीं, सातवीं आदि रात्रियाँ कन्याकी उत्पत्ति करानेवाली हैं। जिस दिन चन्द्रमा अपने लिये दूषित हों, उस दिनको छोड़कर तथा मघा और मूलनक्षत्रका भी परित्याग करके विशेषतः पुंल्लिङ्ग नामवाले श्रवण आदि नक्षत्रोंमें शुद्ध भावसे पत्नीके साथ समागम करे: इससे चारों पुरुषार्थकि साधक शुद्ध एवं सदाचारी पुत्रका जन्म होता है। थोड़ी-सी भी कीमत लेकर कन्याको बेचनेवाला पुरुष पापी माना गया है। ब्राह्मणके लिये व्यापार, राजाकी सेवा, वेदाध्ययनका त्याग, निन्दित विवाह और नित्य कर्मका लोप-ये दोष कुलको नीचे गिरानेवाले
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________________ पातालखण्ड ] * यज्ञ-सम्बन्धी अवका छोड़ा जाना, श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये उपदेश करना. 427 ............... ............. है।* गृहस्थाश्रममें रहनेवाले पुरुषको अत्र, जल, दूध, दही खाना सर्वथा निषिद्ध है। आगमें अपने पैर न सेंके, मूल अथवा फल आदिके द्वारा अतिथिका सत्कार करना उसमें कोई अपवित्र वस्तु न डाले। किसी भी जीवकी चाहिये। आया हुआ अतिथि सत्कार न पाकर जिसके हिंसा तथा दोनों सन्ध्याओंके समय भोजन न करे। घरसे निराश लौट जाता है, वह गृहस्थ जीवनभरके रात्रिको खूब पेट भरके भोजन करना उचित नहीं है। कमाये हुए पुण्यसे क्षणभरमें वंचित हो जाता है। पुरुषको नाचने, गाने और बजानेमें आसक्ति नहीं रखनी गृहस्थको उचित है कि वह बलिवैश्वदेव-कर्मके द्वारा चाहिये। काँसके बर्तनमें पैर धुलाना निषिद्ध है। दूसरेके देवताओं, पितरों तथा मनुष्योंको उनका भाग देकर शेष पहने हुए कपड़े और जूते न धारण करे / फूटे अथवा अनका भोजन करे, वही उसके लिये अमृत है। जो दूसरेके जूठे किये हुए बर्तनमें भोजन न करे, भीगे पैर केवल अपना पेट भरनेवाला है जो अपने ही लिये न सोये। हाथ और मुंहके जूठे रहते हुए कहीं न जाय। भोजन बनाता और खाता है, वह पापका ही भोजन सोते-सोते न खाय / उच्छिष्ट-अवस्थामें मस्तकका स्पर्श करता है। तेलमें षष्ठी और अष्टमीको तथा मांसमें सदा न करे। दूसरोंके गुप्त भेद न खोले। इस प्रकार ही पापका निवास है। चतुर्दशीको क्षौर-कर्म तथा गृहस्थ-धर्मका समय पूरा करके वानप्रस्थ-आश्रममें अमावस्याको स्त्री-समागमका त्याग करना चाहिये। प्रवेश करे। उस समय इच्छा हो तो वैराग्यपूर्वक स्त्रीके रजस्वला-अवस्थामें स्त्रीके सम्पर्कसे दूर रहे। पत्नीके साथ रहे, अथवा स्त्रीको साथ न रखकर उसे पुत्रोंके साथ भोजन नं करे। एक वस्त्र पहनकर तथा चटाईके अधीन सौप दे। वानप्रस्थ-धर्मका पूर्ण पालन करनेके आसनपर बैठकर भोजन करना निषिद्ध है। अपनेमें पश्चात् विरक्त हो जाय-संन्यास ले ले।। तेजकी इच्छा रखनेवाले श्रेष्ठ पुरुषको भोजन करती हुई वात्स्यायनजी! उस समय महर्षियोंने उपर्युक्त स्त्रीकी ओर नहीं देखना चाहिये। मुँहसे आगको न फेंके, प्रकारसे अनेकों धर्मोका वर्णन किया तथा सम्पूर्ण नंगी स्त्रीकी ओर दृष्टि न डाले। बछड़ेको दूध पिलाती जगत्के महान् हितैषी भगवान् श्रीरामने उन सबको हुई गौको न छेड़े। दूसरेको इन्द्र-धनुष न दिखावे / रातमें ध्यानपूर्वक सुना। यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना शेषजी कहते है-मुने ! इस प्रकार भगवान् समय आ गया है, जब कि यज्ञके लिये निश्चित किये हुए श्रीराम ऋषियोंके मुखसे कुछ कालन्तक धर्मकी व्याख्या अश्वकी भलीभांति पूजा करके उसे पृथ्वीपर भ्रमण सुनते रहे; इतनेमें वसन्तका समय उपस्थित हुआ जब करनेके लिये छोड़ा जाय। इसके लिये सामग्री एकत्रित कि महापुरुषोंके यज्ञ आदि शुभ कर्मोका प्रारम्भ होता है। हो, अच्छे-अच्छे ब्राह्मण बुलाये जायें तथा स्वयं आप ही वह समय आया देख बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठने सम्पूर्ण उन ब्राह्मणोंकी यथोचित पूजा करें। दीनों, अंधों और जगत्के सम्राट् श्रीरामचन्द्रजीसे यथोचित वाणीमें दुःखियोंका विधिवत् सत्कार करके उन्हें रहनेको स्थान दें कहा-'महाबाहु रघुनाथजी! अब आपके लिये वह और उनके मनमें जिस वस्तुके पानेकी इच्छा हो, वही * वाणिज्यं नृपतेः सेवा वेदानध्ययन तथा / कुविवाहः क्रियालोपः कुलपातनहेतवः // (949) + अनर्चितोऽतिथिर्गेहाद् भग्नाशो यस्य गच्छति / आजन्मसञ्चितात् पुण्यात् क्षणात् स हि बहिर्भवेत्॥ (9 / 51) + षष्ठयाटम्योक्शेित् पापं तैले मासे सदैव हि / चतुर्दश्यां तथामायां त्यजेत क्षुरमानाम्॥ (9 / 53)
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________________ 428 * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण उन्हें दान करें। आप सुवर्णमयी सीताके साथ यज्ञकी यह कि उस अश्वका सारा शरीर ही नाना प्रकारके दीक्षा लेकर उसके नियमोंका पालन करें-पृथ्वीपर शोभासाधनोंसे सम्पन्न था। जिस प्रकार देवतालोग सोवें, ब्रह्मचारी रहें तथा धन-सम्बन्धी भोगोंका परित्याग सेवाके योग्य श्रीहरिकी सब ओरसे सेवा करते हैं। उसी करें। आपके कटिभागमें मेखला सुशोभित हो, आप प्रकार बहुत-से सैनिक उस घोड़ेके आगे-पीछे और हरिणका सींग, मृगचर्म तथा दण्ड धारण करें तथा सब बीचमें रहकर उसकी रक्षा कर रहे थे। प्रकारके सामान और द्रव्य एकत्रित करके यज्ञका तदनन्तर सेनापति कालजित्ने अपनी विशाल आरम्भ करें।' सेनाको कूच करनेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर जनमहर्षि वसिष्ठके ये उत्तम और यथार्थ वचन सुनकर समुदायसे भरी हुई वह विशाल वाहिनी छत्रोंसे सूर्यको परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणसे अभिप्राययुक्त ओटमें करके अपनी छावनीसे निकली। उस सेनाके बात कही। सभी श्रेष्ठ वीर श्रीरघुनाथजीके यज्ञके लिये सुसज्जित हो श्रीराम बोले-लक्ष्मण ! मेरी बात सुनो और गर्जते तथा युद्धके लिये उत्साह प्रकट करते हुए बड़े सुनकर तुरंत उसका पालन करो। जाओ, प्रयत्न करके हर्षमें भरकर चले। सभी सैनिक हाथोंमें धनुष, पाश अश्वमेध यज्ञके लिये उपयोगी अश्व ले आओ। और खड्ग धारण किये सैनिक-शिक्षाके अनुसार स्फुट शेषजी कहते हैं-श्रीरामचन्द्रजीके वचन सुनकर गतिसे चलते हुए बड़ी तेजीके साथ महाराज श्रीरामके शत्रु-विजयी लक्ष्मणने सेनापतिसे कहा-'वीर ! मैं पास उपस्थित हुए। वह घोड़ा भी आकाशमें उछलता तुम्हें एक अत्यन्त प्रिय वचन सुना रहा हूँ, सुनो; तथा पृथ्वीको अपनी टापसे खोदता हुआ धीरे-धीरे श्रीरघुनाथजीकी आज्ञाके अनुसार शीघ्र ही हाथी, घोड़े, यश-चिह्नसे युक्त मण्डपके पास पहुँचा / घोड़ेको आया रथ तथा पैदलसे युक्त चतुरङ्गिणी सेना तैयार करो, जो देख श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठको समयोचित कार्य कालकी सेनाका भी विनाश करने में समर्थ हो।' महात्मा करानेके लिये प्रेरित किया। महर्षि वसिष्ठने लक्ष्मणका यह कथन सुनकर कालजित् नामवाले श्रीरामचन्द्रजीको स्वर्णमयी पत्नीके साथ बुलाकर सेनापतिने सेनाको सुसज्जित किया। उस समय अनुष्ठान आरम्भ कराया। उस यज्ञमें वेद-शास्त्रोका लक्ष्मणके आदेशानुसार सजकर आये हुए अश्वमेध विवेचन करनेवाले बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठ, जो यज्ञके अश्वकी बड़ी शोभा हुई। एक श्रेष्ठ पुरुषने उसकी श्रीरघुनाथजीके वंशके आदि गुरु थे, आचार्य हुए। बागडोर पकड़ रखी थी। दस ध्रुवक (चिह्न-विशेष) तपोनिधि अगस्त्यजीने ब्रह्माका [कृताकृतावेक्षणरूप] उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। अपने छोटे-छोटे रोएंके कार्य सँभाला। वाल्मीकि मुनि अध्वर्यु बनाये गये और कारण भी वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। उसके गलेमें कण्व द्वारपाल। उस यज्ञ-मण्डपके आठ द्वार थे जो घुघुरू पहनाये गये थे, जो एक-दूसरेसे मिले नहीं थे। तोरण आदिसे सुसज्जित होनेके कारण बहुत सुन्दर विस्तृत कण्ठ-कोशमें मणि सुशोभित थी। मुखकी दिखायी देते थे। वात्स्यायनजी ! उनमेंसे प्रत्येक द्वारपर कान्ति भी बड़ी विशद थी और उसके दोनों कान दो-दो मन्त्रवेता ब्राह्मण बिठाये गये थे। पूर्व द्वारपर छोटे-छोटे तथा काले थे। घासके ग्राससे उसका मुँह मुनिश्रेष्ठ देवल और असित थे। दक्षिण द्वारपर तपस्याके बड़ा सुहावना जान पड़ता था और चमकीले रत्नोंसे भंडार महात्मा कश्यप और अत्रि विराजमान थे। पश्चिम उसको सजाया गया था। इस प्रकार सज-धजकर द्वारपर श्रेष्ठ महर्षि जातूकर्ण्य और जाजलिको उपस्थिति मोतियोंकी मालाओंसे सुशोभित हो वह अश्व बाहर थी तथा उत्तर द्वारपर द्वित और एकत नामके दो तपस्वी निकला। उसके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। दोनों मुनि विराज रहे थे। ओरसे दो सफेद चैवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। सारांश - ब्रह्मन् ! इस प्रकार द्वारकी विधि पूर्ण करके महर्षि
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________________ पातालखण्ड ] * यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना, श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये उपदेश करना * 429 वसिष्ठने उस यज्ञसम्बन्धी श्रेष्ठ अश्वका विधिवत् पूजन सम्बन्धी अश्व, जो समस्त अश्वोंमें श्रेष्ठ तथा सभी वाहनोंमें प्रधान है, पृथ्वीपर भ्रमण करनेके लिये छोड़ा है। श्रीरामके ही भाई शत्रुघ्न, जिन्होंने लवणासुरका विनाश किया है, इस अश्वके रक्षक हैं। उनके साथ हाथी, घोड़े और पैदलोंकी विशाल सेना भी है। जिन राजाओंको अपने बलके घमंडमें आकर ऐसा अभिमान होता हो कि हमलोग ही सबसे बढ़कर शूर, धनुर्धर तथा प्रचण्ड बलवान् हैं, वे ही रत्नकी मालाओंसे विभूषित इस यज्ञसम्बन्धी अश्वको पकड़नेका साहस करें। वीर शत्रुघ्न उनके हाथसे इस अश्वको हठात् छुड़ा लेंगे।' इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंके पराक्रमसे शोभा पानेवाले उनके प्रखर प्रतापका परिचय देते हुए महामुनि वसिष्ठजीने और भी अनेकों बातें लिखीं। इसके बाद अश्वको, जो शोभाका भंडार तथा वायुके समान बल और वेगसे युक्त था, छोड़ दिया। उसकी भू-लोक तथा पातालमें समानरूपसे तीव्र गति थी। तदनन्तर शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने शत्रुघ्नको आज्ञा आरम्भ किया। फिर सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे दी-'सुमित्रानन्दन ! यह अश्व अपनी इच्छाके अनुसार सुशोभित सुवासिनी स्त्रियोंने वहाँ आकर हल्दी, अक्षत विचरनेवाला है, तुम इसकी रक्षाके लिये पीछे-पीछे और चन्दन आदिके द्वारा उस पूजित अश्वका पुनः पूजन जाओ। जो योद्धा संग्राममें तुम्हारा सामना करनेके लिये किया तथा अगुरुका धूप देकर उसकी आरती उतारी। आवे, उन्हींको तुम अपने पराक्रमसे रोकना। इस इस तरह पूजा करनेके पश्चात् महर्षि वसिष्ठने अश्वके विशाल भू-मण्डलमें विचरते हुए अश्वकी तुम अपने उज्ज्वल ललाटपर, जो चन्दनसे चर्चित, कुङ्कम आदि वीरोचित गुणोंसे रक्षा करना / जो सोये हों, गिर गये हों, गन्धोंसे युक्त तथा सब प्रकारकी शोभाओंसे सम्पन्न था, जिनके वस्त्र खुल गये हों और जो अत्यन्त भयभीत एक चमचमाता हुआ पत्र बाँध दिया जो तपाये हुए होकर चरणोंमें पड़े हों, उनको न मारना / साथ ही जो सुवर्णका बना था। उस पत्रपर महर्षिने दशरथ-नन्दन अपने पराक्रमकी झूठी प्रशंसा नहीं करते, उन श्रीरघुनाथजीके बढ़े हुए बल और प्रतापका इस प्रकार पुण्यात्माओंपर भी हाथ न उठाना / शत्रुघ्न ! यदि तुम उल्लेख किया-'सूर्य-वंशकी पताका फहरानेवाले रथपर रहो और तुम्हारे विपक्षी रथहीन हो जाये तो उन्हें महाराज दशरथ बहुत बड़े धनुर्धर हो गये हैं। वे न मारना / यदि पुण्य चाहो तो जो शरणागत होकर कहें धनुषकी दीक्षा देनेवाले गुरुओंके भी गुरु थे, उन्हींक पुत्र कि 'हम आपहीके है, उनका भी तुम्हें वध नहीं करना महाभाग श्रीरामचन्द्रजी इस समय रघुवंशके स्वामी हैं। चाहिये। जो योद्धा उन्मत्त, मतवाले, सोये हुए, भागे वे सब सूरमाओंके शिरोमणि तथा बड़े-बड़े वीरोंके हुए, भयसे आतुर हुए तथा 'मैं आपका ही हैं ऐसा बल-सम्बन्धी अभिमानको चूर्ण करनेवाले हैं। महाराज कहनेवाले मनुष्यको मारता है, वह नीच-गतिको प्राप्त श्रीरामचन्द्र ब्राह्मणोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार होता है। कभी पराये धन और परायी स्त्रीकी ओर चित्त अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ कर रहे हैं। उन्होंने ही यह यज्ञ- न ले जाना / नीचोंका सङ्ग न करना, सभी अच्छे गुणोंको
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________________ * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण . . . . . . . अपनाये रहना, बड़े-बूढ़ोंके ऊपर पहले प्रहार न करना, रहते हैं, उनसे भेट होनेपर तुम उनके सामने मस्तक पूजनीय पुरुषोंकी पूजाका उल्लङ्घन न हो, इसके लिये झुकाना। जिनकी दृष्टि में शिव और विष्णु तथा ब्रह्मा सचेष्ट रहना तथा कभी दयाभावका परित्याग न करना। और शिवमें भी कोई भेद नहीं है, उनके चरणोंकी पवित्र गौ, ब्राह्मण तथा धर्मपरायण वैष्णवको नमस्कार करना। धूलि मैं अपने शीश चढ़ाता हूँ, वह समस्त पापोका इन्हें मस्तक झुकाकर मनुष्य जहाँ कहीं जाता है, वहीं उसे विनाश करनेवाली है।* गौरी, गङ्गा तथा महालक्ष्मीसफलता प्राप्त होती है। इन तीनोंमें जो भेद नहीं समझते, उन सभी मनुष्योंको 'महाबाहो ! भगवान् श्रीविष्णु सबके ईश्वर, साक्षी स्वर्गलोकसे भूमिपर आये हुए देवता समझना चाहिये। तथा सर्वत्र व्यापक स्वरूप धारण करनेवाले हैं। जो जो अपनी शक्तिके अनुसार भगवान्को प्रसन्नताके लिये उनके भक्त हैं, वे भी उन्हींके रूपमें सर्वत्र विचरते हैं। शरणागतोंकी रक्षा तथा बड़े-बड़े दान किया करता है, जो लोग सम्पूर्ण भूतोंके हदयमें स्थित रहनेवाले उसे वैष्णवोंमें सर्वश्रेष्ठ समझो। जिनका नाम महान् महाविष्णुका स्मरण करते हैं, उन्हें साक्षात् महाविष्णुके पापोंकी राशिको तत्काल भस्म कर देता है, उन समान ही समझना चाहिये। जिनके लिये कोई अपना या भगवान्के युगल चरणोंमें जिसकी भक्ति है, वही वैष्णव पराया नहीं है तथा जो अपने साथ शत्रुता रखनेवालेको है। जिनकी इन्द्रियाँ वशमें हैं और मन भगवान्के भी मित्र ही मानते हैं, वे वैष्णव एक ही क्षणमें पापीको चिन्तनमें लगा रहता है, उनको नमस्कार करके मनुष्य पवित्र कर देते हैं। जिन्हें भागवत प्रिय है तथा जो अपने जन्मसे लेकर मृत्युतकके सम्पूर्ण जीवनको पवित्र ब्राहाणोंसे प्रेम करते हैं, वे वैकुण्ठलोकसे इस संसारको बना लेता है। परायी स्त्रियोंको तलवारकी धार समझकर पवित्र करनेके लिये यहाँ आये हैं। जिनके मुखमें यदि तुम उनका परित्याग करोगे तो संसारमें तुम्हें भगवान्का नाम, हृदयमें सनातन श्रीविष्णुका ध्यान तथा सुयशसे सुशोभित ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी। इस प्रकार मेरे उदरमें उन्हींका प्रसाद है, वे यदि जातिके चाण्डाल हों तो आदेशका पालन करते हुए तुम उत्तम योगके द्वारा प्राप्त भी वैष्णव ही हैं। जिन्हें वेद ही अत्यन्त प्रिय है संसारके होनेवाले परम धामको पा सकते हो, जिसकी सभी सुख नहीं, तथा जो निरन्तर अपने धर्मका पालन करते महात्माओंने प्रशंसा की है।' शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़ेके साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार शेषजी कहते हैं-मुने! शत्रुघ्नको इस प्रकार वह मेरे हाथपर रखा हुआ यह बीड़ा उठा ले।' आदेश देकर भगवान् श्रीरामने अन्य योद्धाओंकी ओर श्रीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर भरत-कुमार पुष्कलने देखते हुए पुनः मधुर वाणीमें कहा-'वीरो ! मेरे भाई आगे बढ़कर उनके कर-कमलसे वह बीड़ा उठा लिया शत्रुघ्न घोड़ेकी रक्षाके लिये जा रहे हैं, तुमलोगोंमेंसे कौन और कहा-'स्वामिन् ! मैं जाता हूँ; मैं ही कवच वीर इनके आदेशका पालन करते हुए पीछेकी ओरसे आदिके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित हो तलवार आदि शरूप इनकी रक्षा करनेके लिये जायगा? जो अपने मर्मभेदी तथा धनुष-बाण धारण करके अपने चाचा शत्रुघ्नके अस्त्र-शस्त्रोद्वारा सामने आये हुए सब वीरोंको जीतने पृष्ठभागकी रक्षा करूँगा। इस समय आपका प्रताप ही तथा भूमण्डलमें अपने सुयशको फैलानेमें समर्थ हो, समूची पृथ्वीपर विजय प्राप्त करेगा; ये सब लोग तो * शिवे विष्णौ न वा भेदो न च ब्रह्ममहेशयोः / तेषां पादरजः पूतं वहाम्यविनाशनम्॥ (10 / 68)
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________________ पातालखण्ड] . शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका घोडेके साथ जाना तथा राजा समुदकी कथा . 431 . . . . . . . . . . Antarmanasant.m..marrianR.. केवल निमित्तमात्र हैं। यदि देवता, असुर और निपुण, महान् विद्वान, धनुर्धर तथा अच्छी प्रकार मनुष्योंसहित सारी त्रिलोकी युद्धके लिये उपस्थित हो जाय बाणोंका सन्धान करनेवाले अनेकों वीर उपस्थित हैं। तो उसे भी मैं आपकी कृपासे रोकने में समर्थ हो सकता हैं उनके नाम ये हैं- प्रतापाय, नीलरत्न, लक्ष्मीनिधि, ये सब बातें कहनेकी आवश्यकता नहीं है, मेरा पराक्रम रिपुताप, उग्राश्व और शस्त्रवित्-ये सभी बड़े-चढ़े राजा देखकर प्रभुको स्वयं ही सब कुछ ज्ञात हो जायगा।' चतुरङ्गिणी सेनाके साथ कवच आदिसे सुसज्जित होकर ऐसा कहते हुए भरत-कुमारकी बातें सुनकर जायें और आपके घोड़ेकी रक्षा करते हुए शत्रुघ्रजीकी भगवान् श्रीरामने उनकी प्रशंसा की तथा 'साधु-साधु' आज्ञा शिरोधार्य करें।' मन्त्रीकी यह बात सुनकर कहकर उनके कथनका अनुमोदन किया। इसके बाद श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने उनके बताये वानरवीरोंमें प्रधान हनुमान्जी आदि सब लोगोंसे हुए सभी योद्धाओंको जानेके लिये आदेश दिया। कहा—'महावीर हनुमान् ! मेरी बात ध्यान देकर सुनो, श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई, मैंने तुम्हारे ही प्रसादसे यह अकण्टक राज्य पाया है। क्योंकि वे बहुत दिनोंसे युद्धकी इच्छा रखते थे और हमलोगोंने मनुष्य होकर भी जो समुद्रको पार किया तथा रणमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले थे। श्रीसीतापतिकी सीताके साथ जो मेरा मिलाप हुआ; यह सब कुछ मैं प्रेरणासे वे सभी राजा कवच आदिसे सुसज्जित हो तुम्हारे ही बलका प्रभाव समझता हूँ। मेरी आज्ञासे तुम अस्त्र-शस्त्र लेकर शत्रुनके निवासस्थानपर गये। भी सेनाके रक्षक होकर जाओ। मेरे भाई शत्रुघ्नकी मेरी तदनन्तर ऋषिकी आज्ञा पाकर श्रीरामचन्द्रजीने ही भांति तुम्हें रक्षा करनी चाहिये / महामते ! जहाँ-जहाँ आचार्य आदि सभी ऋत्विज महर्षियोंको शास्त्रोक्त उत्तम भाई शत्रुघ्नकी बुद्धि विचलित हो वहाँ-वहाँ तुम इन्हें दक्षिणाएँ देकर उनका विधिवत् पूजन किया। उस समय समझा-बुझाकर कर्तव्यका ज्ञान कराना।' श्रीरघुनाथजीके यज्ञमें सब ओर यही बात सुनायी देती - परमबुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीका यह श्रेष्ठ वचन थी-देते जाओ, देते जाओ, खूब धन लुटाओ, सुनकर हनुमान्जीने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और किसीसे 'नहीं' मत करो, साथ ही समस्त भोगजानेके लिये तैयार होकर प्रणाम किया। तब महाराजने सामग्रियोंसे युक्त अन्नका दान करो, अन्नका दान करो।' जाम्बवान्को भी साथ जानेका आदेश दिया और इस प्रकार वह यज्ञ चल रहा था। उसमें दक्षिणा पाये हुए कहा-'अङ्गद, गवय, मयन्द, दधिमुख, वानरराज श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी भरमार थी। वहाँ सभी तरहके शुभ सुग्रीव, शतबलि, अक्षिक, नील, नल, मनोवेग तथा कर्मोका अनुष्ठान हो रहा था / इधर श्रीरामचन्द्रजीके छोटे अधिगन्ता आदि सभी वानर सेनाके साथ जानेको तैयार भाई शत्रुघ्न अपनी माताके पास जा उन्हें प्रणाम करके हो जायें। सब लोग रथों तथा सुवर्णमय आभूषणोंसे बोले-'कल्याणमयी माँ ! मैं घोड़ेको रक्षाके लिये जा विभूषित अच्छे-अच्छे घोड़ोंपर सवार हो बख्तर और रहा हूँ, मुझे आज्ञा दो। तुम्हारी कृपासे शत्रुओंको टोपसे सज-धजकर शीघ्र यहाँसे यात्रा करें।' जीतकर विजयको शोभासे सम्पन्न हो अन्य महाराजाओं शेषजी कहते हैं-तत्पश्चात् बल और पराक्रमसे तथा घोड़ेको साथ लेकर लौट आऊँगा।' शोभा पानेवाले श्रीरामचन्द्रजीने अपने उत्तम मन्त्री माता बोली-बेटा ! जाओ, महावीर ! तुम्हारा सुमन्त्रको बुलाकर कहा-'मन्त्रिवर ! बताओ, इस मार्ग मङ्गलमय हो, सुमते ! तुम अपने समस्त शत्रुओंको कार्यमें और किन-किन लोगोंको नियुक्त करना चाहिये? जीतकर फिर यहाँ लौट आओ। तुम्हारा भतीजा पुष्कल कौन-कौन मनुष्य अश्वकी रक्षा करने में समर्थ हैं?' धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ है, उसकी रक्षा करना। बेटा ! तुम उनका प्रश्न सुनकर सुमन्त्र बोले-'श्रीरघुनाथजी। पुष्कलके साथ सकुशल लौटकर आओगे, तभी मुझे सुनिये, आपके यहाँ सम्पूर्ण शस्त्र और अस्त्रके ज्ञानमें अधिक प्रसन्नता होगी।
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________________ * अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण अपनी माताकी ऐसी बात सुनकर शत्रुघ्नने उत्तर सत्कार करना तथा चरण दबाना आदि सभी प्रकारकी दिया-'माँ ! मैं अपने शरीरकी भाँति पुष्कलकी रक्षा सेवाएँ करना। उनके प्रत्येक कार्य-उनकी आज्ञाका पालन करनेमें आदर एवं उत्साहके साथ प्रवृत्त होना। यहाँ लोपामुद्रा आदि जितनी पतिव्रता देवियाँ आयी हुई हैं, वे सभी अपने तपोबलसे सुशोभित एवं कल्याणमयी है; तुम्हारे द्वारा उनमेंसे किसीका अपमान न हो जाय, इसके लिये सदा सावधान रहना।' शेषजी कहते हैं-पुष्कल जब इस प्रकार उपदेश दे चुके तो उनकी पतिव्रता पत्नी कान्तिमतीने पतिकी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा तथा अत्यन्त विश्वस्त होकर मन्द-मन्द मुसकराती हुई वह गद्गद वाणीमें बोली-'नाथ ! संग्राममें आपकी सर्वत्र विजय हो, आपको चाचा शत्रुघ्नजीकी आज्ञाका सर्वथा पालन करना चाहिये तथा जिस प्रकार भी घोड़ेकी रक्षा हो उसके लिये सचेष्ट रहना चाहिये। स्वामिन् ! आप शत्रुओपर विजय प्राप्त करके अपने श्रेष्ठ कुलकी शोभा बढ़ाइये। महाबाहो ! जाइये, इस यात्रामें आपका कल्याण हो। यह है आपका धनुष, जो उत्तम गुण (सुदृढ़ प्रत्यञ्चा) करूँगा तथा जैसा मेरा नाम है उसके अनुसार शत्रुओंका से सुशोभित है; इसे शीघ्र ही हाथमें लीजिये, इसकी नाश करके प्रसन्नतापूर्वक लौटूंगा। तुम्हारे इन युगल टङ्कार सुनकर आपके शत्रुओंका दल भयसे व्याकुल हो चरणोंका स्मरण करके मैं कल्याणका ही भागी होऊँगा।' उठेगा। वीर ! ये आपके दोनों तरकश हैं। इन्हें बाँध ऐसा कहकर वीर शत्रुघ्न वहाँसे चल दिये तथा यज्ञ- लीजिये, जिससे युद्ध में आपको सुख मिले। इसमें मण्डपसे छोड़ा हुआ वह यज्ञका अश्व अस्त्र-शस्त्रोंकी वैरियोंको टुकड़े-टुकड़े कर डालनेवाले अनेक बाण भरे विद्यामें प्रवीण सम्पूर्ण योद्धाओद्वारा चारों ओरसे घिरकर हैं। प्राणनाथ ! कामदेवके समान सुन्दर अपने शरीरपर सबसे पहले पूर्व दिशाकी ओर गया। उसका वेग वायुके यह सुदृढ़ कवच धारण कीजिये, जो विद्युत्की प्रभाके समान था। जब वे चलनेको उद्यत हुए तो उनकी दाहिनी समान अपने महान् प्रकाशसे अन्धकारको दूर किये देता बाँह फड़क उठी और उन्हें कल्याण तथा विजयकी है। प्रियतम अपने मस्तकपर यह शिरस्त्राण (मुकुट) सूचना देने लगी। उधर पुष्कल अपने सुन्दर एवं भी पहन लीजिये, जो मनको लुभानेवाला है। साथ ही समृद्धिशाली महलमें गये और वहाँ अपनी पतिव्रता मणियों और रत्नोंसे विभूषित ये दो उज्ज्वल कुण्डल हैं, पलीसे मिले, जो स्वामीके दर्शनके लिये उत्कण्ठित थी इन्हें कानोंमें धारण कीजिये। और उन्हें देखकर हर्ष भर गयी थी। उससे मिलकर पुष्कलने कहा-प्रिये ! तुम जैसा कहती हो, पुष्कलने कहा-'भद्रे ! मैं चाचा शत्रुघ्नका पृष्ठ-पोषक वह सब मैं करूँगा। वीरपत्नी कान्तिमती ! तुम्हारी होकर रथपर सवार हो यज्ञके घोड़ेकी रक्षाके लिये जा इच्छाके अनुसार मेरी उत्तम कीर्तिका विस्तार होगा। रहा हूँ इस कार्यके लिये मुझे श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा ऐसा कहकर पराक्रमी वीर पुष्कलने कान्तिमतीके मिल चुकी है। तुम यहाँ रहकर मेरी समस्त माताओंका दिये हुए कवच, सुन्दर मुकुट, धनुष और विशाल
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________________ पातालखण्ड ] . शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका घोड़ेके साथ जाना तथा राजा सुमदकी कथा . 433 तरकश-इन सभी वस्तुओंको ले लिया। उन सबको शूरवीरों, अच्छे-अच्छे घोड़ों और सवारोंसे घिरकर बड़ी धारण करके वे वीरोचित शोभासे सम्पन्न दिखायी देने प्रसन्नताके साथ आगे बढ़े। वे घोड़ेके साथ-साथ लगे। उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञानमें प्रवीण, पाञ्चाल, कुरु, उत्तरकुरु और दशार्ण आदि देशोंमें, जो उत्तम योद्धा पुष्कलकी शोभा बहुत बढ़ गयी। पतिव्रता सम्पत्तिमें बहुत बढ़े-चढ़े थे, भ्रमण करते रहे। शत्रुघ्नजी कान्तिमतीने अस्त्र-शस्त्रोंसे शोभायमान अपने पतिको सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न थे। उन्हें उन सभी देशोंमें वीरमालासे विभूषित किया तथा कुङ्कम, अगुरु, कस्तूरी श्रीरामचन्द्रजीके सम्पूर्ण सुयशकी कथा सुनायी पड़ती और चन्दन आदिसे उनकी पूजा करके अनेकों फूलोंके थी, लोग कहते थे-'श्रीरघुनाथजीने रावण नामक हार पहनाये, जो घुटनेतक लटककर पुष्कलकी कान्ति असुरको मारकर अपने भक्तजनोंकी रक्षा की है, अब बढ़ा रहे थे। पूजनके पश्चात् उस सतीने बारम्बार पतिकी पुनः अश्वमेध आदि पवित्र कार्योंका अनुष्ठान आरम्भ आरती उतारी। उसके बाद पुष्कल बोले-'भामिनि ! करके भगवान् श्रीराम त्रिभुवनमें अपने सुयशका विस्तार करते हुए सम्पूर्ण लोकोंकी भयसे रक्षा करेंगे।' इस तरह भगवान्का यशोगान करनेवाले लोगोंपर सन्तुष्ट होकर पुरुषश्रेष्ठ शत्रुघ्रजी उन्हें पुरस्कारके रूपमें सुन्दर हार, नाना प्रकारके रत्न और बहुमूल्य वस्त्र देते थे। श्रीरघुनाथजीके एक सचिव थे, जिनका नाम था सुमति / वे सम्पूर्ण विद्याओंमें प्रवीण और तेजस्वी थे। वे भी शत्रुघ्नजीके अनुगामी होकर आये थे। महाधीर शत्रुघ्न उनके साथ अनेकों गाँवों और जनपदोंमें गये, किन्तु श्रीरघुनाथजीके प्रतापसे कोई भी उस घोड़ेका अपहरण न कर सका। भिन्न-भिन्न देशोंके जो बहुत-से राजे-महाराजे थे, वे यद्यपि महान् बलसे विभूषित तथा चतुरङ्गिणी सेनासे सम्पन्न थे, तथापि मोती और मणियोंसहित बहुत-सी सम्पत्ति साथ ले घोड़ेकी रक्षामें आये हुए शत्रुघ्रजीके चरणोंमें गिर जाते और बारम्बार कहने लगते थे-'रघुनन्दन ! यह राज्य तथा पुत्र, पशु और बान्धवोसहित सारा धन भगवान् श्रीरामका ही है, अब मैं तुम्हारे सामने ही यात्रा करता हूँ।' पत्नीसे ऐसा हमारा इसमें कुछ भी नहीं है।' उनकी ऐसी बातें सुनकर कहकर वे सुन्दर रथपर आरूढ़ हुए और अपने पिता विपक्षी वीरोंका हनन करनेवाले शत्रुघ्रजी वहाँ अपनी भरत तथा नेहविह्वला माता माण्डवीका दर्शन करनेके आज्ञा घोषित कर देते और उन्हें साथ ले आगेके मार्गपर लिये गये। वहाँ जाकर उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ बढ़ जाते थे। पिता और माताके चरणोंमें मस्तक झुकाया। फिर पिता ब्रह्मन् ! इस प्रकार क्रमशः आगे-आगे बढ़ते हुए और माताकी आज्ञा लेकर वे पुलकित शरीरसे शत्रुघ्नकी शत्रुघ्नजी घोड़ेके साथ अहिच्छत्रा नगरीके पास जा पहुँचे, सेनामें गये, जो बड़े-बड़े वीरोंसे सुशोभित थी। जो नाना प्रकारके मनुष्योंसे भरी हुई थी। उसमें ब्राह्मणों तदनन्तर शत्रुघ्न श्रीरघुनाथजीके महायज्ञ-सम्बन्धी तथा अन्यान्य द्विजोंका निवास था। अनेकों प्रकारके घोड़ेको आगे करके अनेकों रथियों, पैदल चलनेवाले रत्नोंसे वह पुरी सजायी गयी थी। सोने और स्फटिक HARI
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________________ 434 * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण मणिके बने हुए महल तथा गोपुर (फाटक) उस लोकोंकी जननी कामाक्षा देवी सन्तुष्ट होकर यहाँ विराज नगरीकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँकै मनुष्य सब प्रकारके रही हैं ?' भोग भोगनेवाले तथा सदाचारसे सुशोभित थे। वहाँ सुमतिने कहा-हेमकूट नामसे प्रसिद्ध एक बाण सन्धान करनेमें चतुर वीर हाथोंमें धनुष लिये उस पवित्र पर्वत है, जो सम्पूर्ण देवताओंसे सुशोभित रहा पुरीके श्रेष्ठ राजा सुमदको प्रसत्र किया करते थे। शत्रुघ्नने करता है। वहाँ ऋषि-मुनियोंसे सेवित विमल नामका दूरसे ही उस नगरीको देखा। उसके पास ही एक उद्यान एक तीर्थ है। वहीं राजा सुमदने तपस्या की थी। उनके था, जो उस नगरमें सबसे श्रेष्ठ और शोभायमान दिखायी राज्यकी सीमापर रहनेवाले सम्पूर्ण सामन्त नरेशोंने, जो देता था। तमाल और ताल आदिके वृक्ष उसकी वास्तवमें शत्रु थे, एक साथ मिलकर उनके राज्यपर सुषमाको और भी बढ़ा रहे थे। यज्ञका घोड़ा उस चढ़ाई की। उस युद्धमें उनके पिता, माता तथा उपवनके बीच में घुस गया तथा उसके पीछे-पीछे वीर प्रजावर्गके लोग भी शत्रुओंके हाथसे मारे गये। तब शत्रुघ्न भी, जिनके चरण-कमलोंकी सेवामें अनेकों सर्वथा असहाय होकर राजा सुमद तपस्याके लिये धनुर्धर क्षत्रिय मौजूद थे, उसमें जा पहुंचे। वहाँ जानेपर उपयोगी विमलतीर्थमें गये और वहाँ तीन वर्षतक एक उन्हें एक देव-मन्दिर दिखायी दिया, जिसकी रचना पैरसे खड़ा हो मन-ही-मन जगदम्बाका ध्यान करते रहे। अद्भुत थी। वह कैलास-शिखरके समान ऊँचा तथा उस समय उनकी आँखें नासिकाके अग्रभागपर जमी शोभासे सम्पन्न था। देवताओंके लिये भी वह सेव्य जान रहती थीं। इसके बाद तीन वर्षांतक उन्होंने सूखे पत्ते पड़ता था। उस सुन्दर देवालयको देखकर श्रीरघुनाथजीके चबाकर अत्यन्त उग्र तपस्या की, जिसका अनुष्ठान भाई शत्रुघ्नने अपने सुमति नामक मन्त्रीसे, जो अच्छे दूसरेके लिये अत्यन्त कठिन था। तत्पश्चात् पुनः तीन वक्ता थे, पूछा। वर्षातक उन्होंने और भी कठोर नियम धारण कियेशत्रुन बोले-मन्त्रिवर ! बताओ, यह क्या है? जाड़ेके दिनोंमें वे पानीमें डूबे रहते, गर्मीमें पञ्चाग्निका किस देवताका मन्दिर है? किस देवताका यहाँ पूजन सेवन करते तथा वर्षाकालमें बादलोंकी ओर मुँह किये होता है तथा वे देवता किस हेतुसे यहाँ विराजमान है? मैदानमें खड़े रहते थे। तदनन्तर पुनः तीन वर्षांतक वे मन्त्री सब बातोंके जानकार थे, उन्होंने शत्रुघ्नका धीर राजा अपने हृदयान्तर्वी प्राणवायुको रोककर केवल प्रश्न सुनकर कहा-'वीरवर ! एकाग्रचित्त होकर सुनो, भवानीके ध्यानमें संलग्न रहे। उस समय उन्हें मैं सब बातोंका यथावत् वर्णन करता हूँ, इसे तुम जगदम्बाके सिवा दूसरा कुछ दिखलायी नहीं देता था। कामाक्षा देवीका उत्तम स्थान समझो। यह जगत्को इस प्रकार जब बारहवाँ वर्ष व्यतीत हो गया, तो उनकी एकमात्र कल्याण प्रदान करनेवाला है। पूर्वकालमें भारी तपस्या देखकर इन्द्रने मन-ही-मन उसपर विचार अहिच्छत्रा नगरीके स्वामी राजा सुमदकी प्रार्थनासे किया और भयके कारण वे उनसे डाह करने लगे। भगवती कामाक्षा यहाँ विराजमान हुई, जो भक्तोंका दुःख उन्होंने अप्सराओंके साथ कामदेवको, जो ब्रह्मा और दूर करती हुई उनकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करती हैं। इन्द्रको भी परास्त करनेके लिये उद्यत रहता था, वीरशिरोमणि शत्रुघ्न ! तुम इन्हें प्रणाम करो।' मन्त्रीके परिवारसहित बुलाकर इस प्रकार आज्ञा दी-'सखे वचन सुनकर शत्रुओंको ताप देनेवाले नरश्रेष्ठ शत्रुनने कामदेव ! तुम सबका मन मोहनेवाले हो, जाओ, मेरा भगवती कामाक्षाको प्रणाम किया और उनके प्रकट एक प्रिय कार्य करो, जैसे भी हो सके राजा सुमदकी होनेके सम्बन्धकी सब बातें पूछी-'मन्त्रिवर! तपस्यामें विघ्न डालो।' अहिच्छवाके स्वामी राजा सुमद कौन हैं? उन्होंने कामदेवने कहा-देवराज ! मुझ सेवकके रहते कौन-सी तपस्या की है, जिसके प्रभावसे ये सम्पूर्ण हुए आप चिन्ता न कीजिये, आर्य ! मैं अभी सुमदके
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________________ पातालखण्ड] . शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका घोड़ेके साथ जाना तथा राजा सुमदकी कथा . 435 पास जाता हूँ। आप देवताओंकी रक्षा कीजिये। है। मैं भक्ति-भावसे जिनकी आराधनामें लगा हूँ, वे मेरी ऐसा कहकर कामदेव अपने सखा वसन्त तथा स्वामिनी जगदम्बा मुझे उत्तम वरदान देंगी। जिनकी अप्सराओंके समूहको साथ लेकर हेमकूट पर्वतपर गया। कृपासे सत्यलोकको पाकर ब्रह्माजी महान् बने हैं, वे ही वसन्तने जाते ही वहाँकै सारे वृक्षोंको फल और फूलोंसे मुझे सब कुछ देंगी; क्योंकि वे भक्तोंका दुःख दूर सुशोभित कर दिया। उनकी डालियोंपर कोयल कूकने करनेवाली हैं। भगवतीकी कृपाके सामने नन्दन-वन तथा भ्रमर गुंजार करने लगे। दक्षिण दिशाकी ओरसे अथवा सुवर्णमण्डित मेरुगिरि क्या है ? और वह सुधा ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। जिसमें कृतमाला नदीके भी किस गिनतीमें है, जो थोड़े-से पुण्यके द्वारा प्राप्त तीरपर खिले हुए लवङ्ग-कुसुमोंकी सुगन्ध आ रही थी। होनेवाली और दानवोंको दुःखमें डालनेवाली है?' इस प्रकार जब समूचे वनमें वसन्तकी शोभा छा गयी, तो राजाका यह वचन सुनकर कामदेवने उनपर अनेकों अप्सराओंमें श्रेष्ठ रम्भा अपनी सखियोंसे घिरकर सुमदके बाणोंका प्रहार किया; किन्तु वह उनकी कुछ भी हानि न पास गयी। रम्भाका स्वर किन्नरोंके समान मनोहर था। कर सका। वे सुन्दरी अप्सराएँ अपने कुटिल-कटाक्ष, वह मृदङ्ग और पणव आदि नाना प्रकारके बाजे बजानेमें नूपुरोंकी झनकार, आलिङ्गन तथा चितवन आदिके द्वारा भी निपुण थी। राजाके समीप पहुँचकर उसने गाना उनके मनको मोहमें न डाल सकी। अन्तमें निराश होकर आरम्भ कर दिया। महाराज सुमदने जब वह मधुर गान जैसे आयी थीं, वैसे ही लौट गयीं और इन्द्रसे सुना, वसन्तकी मनोहारिणी छटा देखी तथा मनको बोलीं-'राजा सुमदको बुद्धि स्थिर है, उनपर हमारा लुभानेवाली कोयलकी मीठी तान सुनी तो चारों ओर दृष्टि जादू नहीं चल सकता।' अपने प्रयत्नके व्यर्थ होनेकी दौड़ायी, फिर सारा रहस्य उनकी समझमें आ गया। बात सुनकर इन्द्र डर गये। इधर जगदम्बाने महाराज राजाको ध्यानसे जगा देख फूलोंका धनुष धारण सुमदको जितेन्द्रिय तथा अपने चरण-कमलोंके ध्यानमें करनेवाले कामदेवने बड़ी फुती दिखायी। उसने उनके दृढ़तापूर्वक स्थित देख उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनकी पीछेकी ओर खड़ा होकर तत्काल अपना धनुष चढ़ा लिया। इतनेहीमें एक अप्सरा अपने नेत्रपल्लवोंको नचाती हुई राजाके दोनों चरण दबाने लगी। दूसरी सामने खड़ी होकर कटाक्ष-पात करने लगी तथा तीसरी शरीरकी शृङ्गार-जनित चेष्टाएँ (तरह-तरहके हाव-भाव) प्रदर्शित करने लगी। इस प्रकार अप्सराओंसे घिरकर जितेन्द्रियोंके शिरोमणि बुद्धिमान् राजा सुमद यों चिन्ता करने लगे-'ये सुन्दरी अप्सराएँ मेरी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये यहाँ आयी हैं। इन्हें इन्द्रने भेजा है। ये सब-की-सब उनकी आज्ञाके अनुसार ही कार्य करेंगी।' इस प्रकार चिन्तासे आकुल होकर धीरचित्त, मेधावी तथा वीर राजा सुमदने अपने हृदयमें अच्छी तरह विचार किया। इसके बाद वे देवाङ्गनाओंसे बोले'देवियो! आपलोग मेरे हृदय-मन्दिरमें विराजमान जगदम्बाकी स्वरूप है। आपलोगोंने जिस स्वर्गीय सुखकी चर्चा की है, वह अत्यन्त तुच्छ और अनिश्चित संप पु० 15
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________________ .अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . कान्ति करोड़ों सूर्योके समान थी। वे अपनी चार पराजय न हो। जिस समय महायशस्वी श्रीरघुनाथजी भुजाओंमें धनुष, बाण, अङ्कश और पाश धारण किये रावणको मारकर सब सामग्रियोंसे सुशोभित अश्वमेध हुए थीं। माताका दर्शन पाकर बुद्धिमान् राजाको बड़ी यज्ञका अनुष्ठान करेंगे, उस समय शत्रुओंका दमन प्रसन्नता हुई। उन्होंने बारम्बार मस्तक झुकाकर करनेवाले उनके महावीर प्राता शत्रुघ्न वीर आदिसे भक्तिभावनासे प्रकट हुई माता दुर्गाको प्रणाम किया। वे घिरकर घोड़ेकी रक्षा करते हुए यहाँ आयेंगे। तुम उन्हें बारम्बार राजाके शरीरपर अपने कोमल हाथ फेरती हुई अपना राज्य, समृद्धि और धन आदि सब कुछ सौंपकर हँस रही थीं। महामति राजा सुमदके शरीरमें रोमाञ्च हो उनके साथ पृथ्वीपर भ्रमण करोगे तथा अन्तमें ब्रह्मा, आया। उनके अन्तःकरणकी वृत्ति भक्ति-भावसे इन्द्र और शिव आदिसे सेवित भगवान् श्रीरामको प्रणाम उत्कण्ठित हो गयी और वे गद्गद स्वरसे माताकी इस करके ऐसी मुक्ति प्राप्त करोगे, जो यम-नियमोंका साधन प्रकार स्तुति करने लगे-'देवि ! आपकी जय हो। करनेवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। " महादेवि ! भक्त-जन सदा आपकी ही सेवा करते हैं। ऐसा कहकर देवता और असुरोंसे अभिवन्दित ब्रह्मा और इन्द्र आदि समस्त देवता आपके युगल- कामाक्षा देवी वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं तथा सुमद चरणोकी आराधनामें लगे रहते हैं। आप पापके स्पर्शसे भी अपने शत्रुओंको मारकर अहिच्छत्रा नगरीके राजा रहित हैं। आपहीके प्रतापसे अग्निदेव प्राणियोंके भीतर हुए। वही ये इस नगरीके स्वामी राजा सुमद हैं। यद्यपि और बाहर स्थित होकर सारे जगत्का कल्याण करते हैं। ये सब प्रकारसे समर्थ तथा बल और वाहनोंसे सम्पन्न महादेवि ! देवता और असुर-सभी आपके चरणोंमें हैं तथापि तुम्हारे यज्ञ-सम्बन्धी घोड़ेको नहीं पकड़ेंगे; नतमस्तक होते हैं। आप ही विद्या तथा आप ही भगवान् क्योंकि महामायाने इस बातके लिये इनको भलीभांति विष्णुकी महामाया है। एकमात्र आप ही इस जगत्को शिक्षा दी है। पवित्र करनेवाली हैं। आप ही अपनी शक्तिसे इस शेषजी कहते हैं-सुमतिके मुखसे राजा सुमदका संसारकी सृष्टि और पालन करती हैं। जगत्के जीवोंको यह वृत्तान्त सुनकर महान् यशस्वी, बुद्धिमान् और मोहमें डालनेवाली भी आप ही हैं। सब देवता आपहीसे बलवान् शत्रुनजी बड़े प्रसन्न हुए तथा 'साधु-साधु' सिद्धि पाकर सुखी होते हैं। मातः ! आप दयाकी कहकर उन्होंने अपना हर्ष प्रकट किया। उधर स्वामिनी, सबकी वन्दनीया तथा भक्तोंपर स्नेह रखनेवाली अहिच्छत्राके स्वामी अपने सेवकगणोंसे घिरकर सेवक हूँ। मेरी रक्षा कीजिये। तथा धन-धान्यसे सम्पन्न वैश्य भी उनके पास बैठे थे; सुमतिने कहा-इस प्रकार की हुई स्तुतिसे इससे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इसी समय किसीने सन्तुष्ट होकर जगन्माता कामाक्षा अपने भक्त सुमदसे, आकर राजासे कहा-'स्वामिन् ! न जाने किसका घोड़ा बोलीं-'बेटा ! कोई उत्तम वर मांगो।' माताका यह है।' यह सुनकर राजाने तुरंत ही एक अच्छे सेवकको वचन सुनकर राजा सुमदको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने भेजा और कहा-'जाकर पता लगाओ, किस राजाका अपना खोया हुआ अकण्टक राज्य, जगन्माता भवानीके घोड़ा मेरे नगरके निकट आया है।' सेवकने जाकर सब चरणोंमें अविचल भक्ति तथा अन्तमें संसारसागरसे पार बातका पता लगाया और महान् क्षत्रियोंसे सेवित राजा उतारनेवाली मुक्तिका वरदान माँगा। सुमदके पास आ आरम्भसे ही सारा वृत्तान्त कह कामाक्षाने कहा-सुमद ! तुम सर्वत्र अकण्टक सुनाया। श्रीरघुनाथजीका घोड़ा है' यह सुनकर बुद्धिमान् राज्य प्राप्त करो और शत्रुओंके द्वारा तुम्हारी कभी राजाको चिरकालकी पुरानी बातका स्मरण हो आया
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________________ पातालखण्ड ] * शत्रुनका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवनका सुकन्यासे ब्याह . 437 कालमSRA और उन्होंने सब लोगोंको आज्ञा दी-'धन-धान्यसे प्रकट की तथा वे वीरोंसे सुशोभित हो अपने अश्वरनको सम्पन्न जो मेरे आत्मीय जन हैं, वे सब लोग अपने-अपने घरोंपर तोरण आदि माङ्गलिक वस्तुओंकी रचना करें।' इन सब बातोंके लिये आज्ञा देकर स्वयं राजा सुमद अपने पुत्र-पौत्र और रानी आदि समस्त परिवारको साथ लेकर शत्रुघ्रके पास गये। शत्रुघ्नने पुष्कल आदि योद्धाओं तथा मन्त्रियोंके साथ देखा, वीर राजा सुमद आ रहे हैं। राजाने आकर बड़ी प्रसन्नताके साथ शत्रुघ्नको प्रणाम किया और कहा-'प्रभो! आज मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। आपने यहाँ दर्शन देकर मेरा बड़ा सत्कार किया। मैं चिरकालसे इस अश्वके आगमनकी प्रतीक्षा कर रहा था। माता कामाक्षा देवीने पूर्वकालमें जिस बातके लिये मुझसे कहा था, वह आज और इस समय पूरी हुई है। श्रीरामके छोटे भाई महाराज शत्रुनजी ! अब चलकर मेरी नगरीको देखिये, यहाँके मनुष्योंको कृतार्थ कीजिये तथा मेरे समस्त कुलको पवित्र बनाइये।' ऐसा कहकर राजाने चन्द्रमाके समान कान्तिवाले श्वेत गजराजपर शत्रुघ्न और महावीर पुष्कलको चढ़ाया तथा पीछे स्वयं भी सवार हुए। फिर साथ लिये राज-मन्दिरमें उतरे / उस समय सारा राजभवन महाराज सुमदकी आज्ञासे भेरी और पणव आदि बाजे तोरण आदिसे सजाया गया था तथा स्वयं राजा सुमद बजने लगे, वीणा आदिकी मधुर ध्वनि होने लगी तथा इन शत्रुघ्नजीको आगे करके चल रहे थे। महलमें पहुंचकर समस्त वाद्योंकी तुमुल ध्वनि चारों ओर व्याप्त हो गयी। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अर्घ्य आदिके द्वारा शत्रुघ्नजीका धीरे-धीरे नगरमें आकर सब लोगोंने शत्रुनजीका पूजन किया और अपना सब कुछ भगवान् श्रीरामकी अभिनन्दन किया-उनकी वृद्धिके लिये शुभकामना सेवामे अर्पण कर दिया। शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना-च्यवनका सुकन्यासे ब्याह शेषजी कहते हैं-तदनन्तर नरश्रेष्ठ राजा सुमदने न? ये सब लोग धन्य हैं, जो सदा आनन्दमग्न होकर श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कथा सुननेके लिये उत्सुक होकर अपने नेत्र-पुटोंके द्वारा श्रीरघुनाथजीके मुखारविन्दका स्वागत-सत्कारसे सन्तुष्ट हुए शत्रुघ्नजीसे वार्तालाप मकरन्द पान करते रहे हैं। नरश्रेष्ठ ! अब मेरी आरम्भ किया। कुल-परम्परा तथा राज्य-भूमि आदि सब वस्तुएँ पूर्ण सुमद बोले-महामते ! सम्पूर्ण लोकोंके सफल हो गयीं। दयासे द्रवित होनेवाली माता शिरोमणि, भक्तोंकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण कामाक्षा देवीने पूर्वकालमें मुझपर बड़ी कृपा की थी। करनेवाले तथा मुझपर निरन्तर अनुग्रह रखनेवाले राजाओंमें श्रेष्ठ वीर सुमदके ऐसा कहनेपर शत्रुनने भगवान् श्रीराम अयोध्यामें सुखपूर्वक तो विराज रहे हैं श्रीरघुनाथजीके गुणोंको प्रकट करनेवाली सब कथाएँ
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________________ 438 * अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण कह सुनायीं / वे तीन रात्रितक वहाँ ठहरे रहे। इसके बाद किसीसे भय नहीं था। गौओंके थन घड़ोंके समान उन्होंने राजाके साथ वहाँसे जानेका विचार किया। उनका ARATRINASI अभिप्राय जानकर सुमदने शीघ्र ही अपने पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया तथा उन महाबुद्धिमान् नरेशने शत्रुनके सेवकोंको बहुत-से वस्त्र, रत्न और नाना प्रकारके धन दिये। तत्पश्चात् शत्रुघ्रने धनुष धारण किये हुए राजा सुमदको साथ लेकर अपने बहुज्ञ मन्त्रियों, पैदल योद्धाओं, हाथियों और अच्छे घोड़े जुते हुए अनेकों रथोंके साथ वहाँसे यात्रा आरम्भ की। श्रीरघुनाथजीके प्रतापका आश्रय लेकर वे हँसते-हँसते मार्ग तय करने लगे। पयोष्णी नदीके तीरपर पहुंचकर उन्होंने अपनी चाल तेज कर दी तथा शत्रुओपर प्रहार करनेवाले समस्त योद्धा भी पीछे-पीछे उनका साथ देने लगे। वे तपस्वी ऋषियोंके भाँति-भाँतिके आश्रम देखते तथा वहाँ श्रीरघुनाथजीके गुणगान सुनते हुए यात्रा कर रहे थे। उस समय उन्हें चारों ओर मुनियोंकी यह कल्याणमयी वाणी सुनायी पड़ती थी-'यह यज्ञका अश्व चला जा रहा है, जो श्रीहरिके अंशावतार दिखायी देते थे। उनका विग्रह नन्दिनीकी भाँति सम्पूर्ण श्रीशत्रुघ्नजीके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित है। भगवान्का कामनाओंको पूर्ण करनेवाला था और वे अपने खुरोंसे अनुसरण करनेवाले वानर तथा भगवद्भक्त भी उसकी उठी हुई धूलके द्वारा वहाँको भूमिको पवित्र करती थीं। रक्षा कर रहे हैं।' जिनकी चित्तवृत्तियाँ भक्तिसे निरन्तर हाथोंमें समिधा धारण करनेवाले श्रेष्ठ मुनिवरोंने वहाँकी प्रभावित रहती हैं, उन महर्षियोंकी पूर्वोक्त बातें सुनकर भूमिको धार्मिक क्रियाओंका अनुष्ठान करनेके योग्य बना शत्रुनजीको बड़ा सन्तोष हुआ। आगे जाकर उन्होंने एक रखा था। उस आश्रमको देखकर शत्रुघ्रजीने सब विशुद्ध आश्रम देखा, जो निरन्तर होनेवाली वेदोंकी बातोंको जाननेवाले श्रीराममन्त्री सुमतिसे पूछा। ध्वनिसे उसको श्रवण करनेवाले मनुष्योंका सारा शत्रुघ्रजी बोले-सुमते ! यह सामने किस अमङ्गल नष्ट किये देता था। वहाँका सम्पूर्ण आकाश मुनिका आश्रम शोभा पा रहा है? यहाँ सब जन्तु अग्निहोत्रके समय दी जानेवाली आहुतिके धूमसे पवित्र आपसका वैर-भाव छोड़कर एक ही साथ निवास करते हो गया था। श्रेष्ठ मुनियोंके द्वारा स्थापित किये हुए है तथा यह मुनियोंकी मण्डलीसे भी भरा-पूरा दिखायी अनेकों यज्ञसम्बन्धी यूप उस आश्रमको सुशोभित कर देता है। मैं मुनिकी वार्ता सुनूंगा तथा उनका वृत्तान्त रहे थे। वहाँ सिंह भी पालन करनेयोग्य गौओंकी रक्षा श्रवण करके अपनेको पवित्र करूंगा। करते थे। चूहे अपने रहनेके लिये बिल नहीं खोदते थे; महात्मा शत्रुघ्नके ये उत्तम वचन सुनकर परम क्योंकि वहाँ उन्हें बिल्लियोंसे भय नहीं था। साँप सदा मेधावी श्रीरघुनाथजीके मन्त्री सुमतिने कहामोरों और नेवलोंके साथ खेलते रहते थे। हाथी और 'सुमित्रानन्दन ! इसे महर्षि च्यवनका आश्रम समझो। सिंह एक-दूसरेके मित्र होकर उस आश्रमपर निवास यह बड़े-बड़े तपस्वियोंसे सुशोभित तथा वैरशून्य करते थे। मृग वहाँ प्रेमपूर्वक चरते रहते थे, उन्हें जन्तुओंसे भरा हुआ है। मुनियोकी पत्रियाँ भी यहाँ
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________________ पातालखण्ड ] * शत्रुनका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवनका सुकन्यासे ब्याह - 439 . . . निवास करती है। महामुनि च्यवन वे ही हैं, जिन्होंने दुष्टात्मा ! तू सर्वभक्षी हो जा (पवित्र, अपवित्र-सभी मनुपुत्र शतिके महान् यज्ञमें इन्द्रका मान भङ्ग किया वस्तुओंका आहार कर)।' यह शाप सुनकर अग्निदेवको और अश्विनीकुमारोंको यज्ञका भाग दिया था। बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने मुनिके चरण पकड़ लिये और शत्रुघ्नने पूछा-मन्त्रिवर ! महर्षि च्यवनने कब कहा-प्रभो ! तुम दयाके सागर हो / महामते ! मुझपर अश्विनीकुमारोको देवताओंकी पङ्क्तिमें बिठाकर उन्हें अनुग्रह करो। धार्मिकशिरोमणे ! मैंने झूठ बोलनेके यज्ञका भाग अर्पण किया था? तथा देवराज इन्द्रने उस भयसे उस राक्षसको आपकी पत्नीका पता बता दिया था, महान् यज्ञमें क्या किया था? इसलिये मुझपर कृपा करो।' सुमतिने कहा-सुमित्रानन्दन ! ब्रह्माजीके वंशमें अग्निकी प्रार्थना सुनकर तपस्वी मुनि दयासे द्रवित महर्षि भृगु बड़े विख्यात महात्मा हुए हैं। एक दिन हो गये और उनपर अनुग्रह करते हुए इस प्रकार सन्ध्याके समय समिधा लानेके लिये वे आश्रमसे दूर बोले-'अग्ने! तुम सर्वभक्षी होकर भी पवित्र ही चले गये थे। उसी समय दमन नामका एक महाबली रहोगे।' तत्पश्चात् परम मङ्गलमय विप्रवर भृगुने स्रान राक्षस उनके यज्ञका नाश करनेके लिये आया और उच्च आदिसे पवित्र हो हाथमें कुश लेकर गर्भसे गिरे हुए स्वरसे अत्यन्त भयङ्कर वचन बोला-'कहाँ है वह अपने पुत्रका जातकर्म आदि संस्कार किया। उस समय अधम मुनि और कहाँ है उसकी पापरहित पली?' वह सम्पूर्ण तपस्वियोंने गर्भसे च्युत होनेके कारण उस रोषमें भरकर जब बारम्बार इस प्रकार कहने लगा तो बालकका नाम च्यवन रख दिया। भृगु-कुमार च्यवन अग्निदेवताने अपने ऊपर राक्षससे भय उपस्थित जानकर शुरूपक्षको प्रतिपदाके चन्द्रमाको भाँति धीर-धीरे बढ़ने मुनिकी पत्नीको उसे दिखा दिया / वह सती-साध्वी नारी लगे। कुछ बड़े हो जानेपर वे तपस्या करनेके लिये गर्भवती थी। राक्षसने उसे पकड़ लिया। बेचारी अबला जगत्को पवित्र करनेवाली नर्मदा नदीके तटपर गये। कुररीकी भाँति विलाप करने लगी-'महर्षि भृगु ! रक्षा वहाँ पहुँचकर उन्होंने दस हजार वर्षांतक तपस्या की। करो, पतिदेव ! बचाओ, प्राणनाथ ! तपोनिधे !! मेरी ह रक्षा करो।' इस प्रकार वह आर्तभावसे पुकार रही थी, तथापि राक्षस उसे लेकर आश्रमसे बाहर चला गया और दुष्टताभरी बातोंसे महात्मा भृगुकी उस पतिव्रता पत्नीको अपमानित करने लगा। उस समय महान् भयसे त्रस्त होकर वह गर्भ मुनिपत्नीके पेटसे गिर गया। उस नवजात शिशुके नेत्र प्रज्वलित हो रहे थे, मानो सतीके शरीरसे अग्निदेव ही प्रकट हुए हों। उसने राक्षसकी ओर देखकर कहा-'ओ दुष्ट ! अब तू यहाँसे न जा, अभी जलकर भस्म हो जा। सतीका स्पर्श करनेके कारण तेरा कल्याण न होगा।' बालकके इतना कहते ही वह राक्षस गिर पड़ा और तुरंत जलकर राखका ढेर हो गया। तब माता अपने बच्चेको गोदमें लेकर उदास मनसे आश्रमपर आयी। महर्षि भृगुको जब मालूम हुआ कि यह सब अग्निदेवकी ही करतूत है तो वे क्रोधसे व्याकुल हो उठे और शाप देते हुए बोले-'शत्रुको घरका भेद बतानेवाले
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________________ * अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण उनके दोनों कंधोंपर दीमकोंने मिट्टीकी ढेरी जमा गया। राजाके कितने ही घोड़े नष्ट हो गये, बहुतेरे हाथी कर दी और उसपर दो पलाशके वृक्ष उग आये। हरिण मर गये, धन और रत्नका नाश हो गया तथा उनके साथ उत्सुकतापूर्वक वहाँ आते और मुनिके शरीरमें अपनी देह आये हुए लोगोंमें परस्पर कलह होने लगा। रगड़कर खुजली मिटाते थे; किन्तु उनको इन सब वह उत्पात देखकर राजा डर गये, उनका मन कुछ बातोंका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता था। वे अविचलभावसे उद्विग्न हो गया। वे सब लोगोंसे पूछने लगे-'किसीने स्थिर रहते थे। . मुनिका अपराध तो नहीं किया है?' परम्परासे उन्हें एक समयकी बात है। मनुके पुत्र राजा शर्याति अपनी पुत्रीकी करतूत मालूम हो गयी और वे अत्यन्त तीर्थयात्राके लिये तैयार होकर परिवारसहित नर्मदाके दुःखी होकर सेना और सवारियोसहित मुनिके पास तटपर गये, उनके साथ बहुत बड़ी सेना थी। महानदी गये। भारी तपस्यामें लगे हुए तपोनिधि च्यवन मुनिको 'नर्मदामें नान करके उन्होंने देवता और पितरोंका तर्पण देखकर राजाने स्तुतिके द्वारा उन्हें प्रसन्न किया और किया तथा भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्नताके लिये कहा-'मुनिवर ! दया कीजिये।' तब महातपस्वी ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके दान दिये। राजाके एक कन्या मुनिश्रेष्ठ च्यवनने सन्तुष्ट होकर कहा-'महाराज ! तुम्हें थी, जो तपाये हुए सोनेके आभूषण पहनकर बड़ी सुन्दरी मालूम होना चाहिये कि यह सारा उत्पात तुम्हारी पुत्रीका दिखायी देती थी। वह अपनी सखियोंके साथ वनमें ही किया हुआ है। तुम्हारी कन्याने मेरी आँखें फोड़ इधर-उधर विचरने लगी। वहाँ उसने महान् वृक्षोंसे डाली हैं, इनसे बहुत खून गिरा है, इस बातको जानते सुशोभित वल्मीक (मिट्टीका ढेर) देखा, जिसके भीतर हुए भी उसने तुमसे नहीं बताया है; इसलिये अब तुम एक ऐसा तेज दीख पड़ा, जो निमेष और उन्मेषसे रहित शास्त्रीय विधिके अनुसार मुझे उस कन्याका दान कर था (उसमें खुलने-मिचनेकी क्रिया नहीं होती थी)। दो, तब सारे उत्पातोंकी शान्ति हो जायगी।' यह सुनकर राजकन्या कौतूहलवश उसके पास गयी और राजाको बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने उत्तम कुल, नयी शलाकाओंसे दबाकर उसे फोड़ डाला। फूटनेपर उससे अवस्था, सुन्दर रूप, अच्छे स्वभाव तथा शुभ लक्षणोंसे खून निकलने लगा। यह देखकर राजकुमारीको बड़ा सम्पन्न अपनी प्यारी पुत्री उन अंधे महर्षिको ब्याह दी। खेद हुआ और वह दुःखसे कातर हो गयी। अपराधसे राजाने कमलके समान नेत्रोंवाली उस कन्याका जब दान दबी होनेके कारण उसने माता और पिताको इस कर दिया तो मुनिके क्रोधसे प्रकट हुए सारे उत्पात दुर्घटनाका हाल नहीं बताया। वह भयसे आतुर होकर तत्काल शान्त हो गये। इस प्रकार तपोनिधि मुनिवर स्वयं ही अपने लिये शोक करने लगी। उस समय पृथ्वी च्यवनको अपनी कन्या देकर राजा शर्याति फिर अपनी काँपने लगी, आकाशसे उल्कापात होने लगा, सारी राजधानीको लौट आये। पुत्रीपर दया आनेके कारण वे दिशाएँ धूमिल हो गयीं तथा सूर्यके चारों ओर घेरा पड़ बहुत दुःखी थे। सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग-अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन सुमतिने कहा-सुमित्रानन्दन ! राजा शर्यातिके होनेके कारण उनके सारे पाप धुल गये थे। वह कन्या चले जानेके पश्चात् महर्षि च्यवन पनीरूपमें प्राप्त हुई अपने श्रेष्ठ पतिकी भगवबुद्धिसे सेवा करने लगी। उनकी कन्याके साथ अपने आश्रमपर रहने लगे। उसको यद्यपि वे नेत्रोंसे हीन थे और बुढ़ापाके कारण उनकी पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। योगाभ्यासमें प्रवृत्त शारीरिक शक्ति जवाब दे चुकी थी, तथापि वह उन्हें
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________________ पातालखण्ड ] * सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा तथा अश्विनीकुमारोंका च्यवनको यौवन-दान . अपने अभीष्ट पूर्ण करनेवाले कुलदेवताके समान भाग अर्पण कर सकें तो हम इनके नेत्रोंमें स्पष्टरूपसे समझकर उनकी शुश्रूषा करती थी। जैसे शची इन्द्रकी सेवामें तत्पर होकर प्रसन्नता प्राप्त करती हैं, उसी प्रकार उस सुन्दरी सतीको अपने प्रियतम पतिकी सेवामें बड़ा आनन्द आता था। पति भी साधारण नहीं, तपस्याके भण्डार थे और उनका आशय (मनोभाव) बहुत ही गम्भीर था, तो भी वह उनकी प्रत्येक चेष्टाको जानती-हर एक अभिप्रायको समझती हुई शुश्रूषामें संलग्न रहती थी। वह सुन्दर शरीरवाली राजकुमारी सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और कृशाङ्गी थी, तो भी फल, मूल और जलका आहार करती हुई अपने स्वामीके चरणोंकी सेवा करती थी। सदा पतिकी आज्ञा पालन करनेके लिये तैयार रहती और उन्हींके पूजन (आदरसत्कार) में समय बिताती थी। सम्पूर्ण प्राणियोंका हितसाधन करनेमें उसका अनुराग था। वह काम, दम्भ, द्वेष, लोभ, भय और मदका परित्याग करके सावधानीके साथ उद्यत रहकर सर्वदा च्यवन मुनिको सन्तुष्ट रखनेका यत्न करती थी। महाराज ! इस प्रकार वाणी, शरीर और देखनेकी शक्ति पैदा कर सकते हैं।' च्यवनने भी उन क्रियाके द्वारा मुनिकी सेवा करती हुई उस राजकुमारीने तेजस्वी देवताओंको यज्ञमें भाग देनेके लिये हामी भर एक हजार वर्ष व्यतीत कर दिये तथा अपनी कामनाको दी। तब वे दोनों अश्विनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न होकर मनमें ही रखा [मुनिपर कभी प्रकट नहीं किया। महान् तपस्वी च्यवनसे बोले-'मुने ! सिद्धोंद्वारा तैयार एक समयकी बात है, मुनिके आश्रमपर देववैद्य किये हुए इस कुण्डमें आप गोता लगावें। ऐसा कहकर अश्विनीकुमार पधारे। सुकन्याने स्वागतके द्वारा उनका उन्होंने च्यवन मुनिको, जिनका शरीर वृद्धावस्थाका ग्रास सम्मान करके उन दोनोंका पूजन (आतिथ्य-सत्कार) बन चुका था तथा जिनकी नस-नाड़ियाँ साफ दिखायी किया। शर्याति-कुमारी सुकन्याके किये हुए पूजन तथा दे रही थीं, उस कुण्डमें प्रवेश कराया और स्वयं भी अर्ध्य-पाद्य आदिसे उन सुन्दर शरीरवाले अश्विनी- उसमें गोता लगाया। तत्पश्चात् उस कुण्डमेंसे तीन पुरुष कुमारोंके मनमें प्रसन्नता हुई। उन्होंने नेहवश उस प्रकट हुए जो अत्यन्त सुन्दर और नारियोंका मन सुन्दरीसे कहा-'देवि ! तुम कोई वर माँगो।' उन दोनों मोहनेवाले थे। उनका रूप एक ही समान था। सोनेके देववैद्योंको सन्तुष्ट देख बुद्धिमती नारियोंमें श्रेष्ठ हार, कुण्डल तथा सुन्दर वस्त्र-तीनोंके शरीरपर शोभा राजकुमारी सुकन्याने उनसे वर माँगनेका विचार किया। पा रहे थे। सुन्दर शरीरवाली सुकन्या उन तीनोंको अपने पतिके अभिप्रायको लक्ष्य करके उसने कहा- अत्यन्त रूपवान् और सूर्यके समान तेजस्वी देखकर 'देवताओ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मेरे पतिको अपने पतिको पहचान न सकी। तब वह साध्वी दोनों नेत्र प्रदान कीजिये।' सुकन्याका यह मनोहर वचन अश्विनीकुमारोंकी शरणमें गयी। सुकन्याके पातिव्रत्यसे सुनकर तथा उसके सतीत्वको देखकर उन श्रेष्ठ वैद्योंने सन्तुष्ट होकर उन्होंने उसके पतिको दिखा दिया और कहा-'यदि तुम्हारे पति यज्ञमें हमलोगोंको देवोचित ऋषिसे विदा ले वे दोनों विमानपर बैठकर स्वर्गको
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________________ 442 . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण चले गये। अब उन्हें इस बातकी आशा हो गयी थी कि हुआ है, फिर ऐसी उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई ? जब मुनि यज्ञ करेंगे तो उसमें हमलोगोंको भी अवश्य ऐसा करके तू तो अपने पिता तथा पति-दोनोंके भाग देंगे। कुलको नरकमें ले जा रही है?' पिताके ऐसा कहनेपर तदनन्तर, किसी समय राजा शर्यातिकें मनमें यह पवित्र मुसकानवाली सुकन्या किञ्चित् मुसकराकर इच्छा हुई कि मैं यज्ञद्वारा देवताओंका पूजन करूँ / उस बोली-'पिताजी ! ये जार पुरुष नहीं-आपके समय उन्होंने महर्षि च्यवनको बुलानेके लिये अपने कई जामाता भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं।' इसके बाद सेवक भेजे। उनके बुलानेपर महातपस्वी विप्रवर च्यवन उसने पतिकी नयी अवस्था और सौन्दर्य-प्राप्तिका सारा वहाँ गये। साथमें उनकी धर्मपत्नी सुकन्या भी थी, जो समाचार पितासे कह सुनाया। सुनकर राजा शर्यातिको मुनियोंके समान आचार-विचारका पालन करनेमें पक्की बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर हो गयी थी। जब पत्नीके साथ वे महर्षि राजभवनमें पुत्रीको छातीसे लगा लिया। इसके बाद च्यवनने राजासे पधारे, तब महायशस्वी राजा शर्यातिने देखा कि मेरी सोमयागका अनुष्ठान कराया और सोमपानके अधिकारी कन्याके पास एक सूर्यके समान तेजस्वी पुरुष खड़ा है। न होनेपर भी दोनों अश्विनीकुमारोंके लिये उन्होंने सोमका सुकन्याने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया, किन्तु शर्यातिने भाग निश्चित किया। महर्षि तपोबलसे सम्पन्न थे, अतः उसे आशीर्वाद नहीं दिया। वे कुछ अप्रसन-से होकर उन्होंने अपने तेजसे अश्विनीकुमारोंको सोमरसका पान कराया। अश्विनीकुमार वैद्य होनेके कारण पङ्क्तिपावन देवताओमें नहीं गिने जाते थे-उन्हें देवता अपनी पङ्क्तिमें नहीं बिठाते थे; परन्तु उस दिन ब्राह्मणश्रेष्ठ च्यवनने उन्हें देवपङ्क्तिमें बैठनेका अधिकारी बनाया। यह देखकर इन्द्रको क्रोध आ गया और वे हाथमें वज्र लेकर उन्हें मारनेको तैयार हो गये। वज्रधारी इन्द्रको अपना वध करनेके लिये उद्यत देख बुद्धिमान् महर्षि च्यवनने एक बार हुंकार किया और उनकी भुजाओंको स्तम्भित कर दिया। उस समय सब लोगोंने देखा, इन्द्रकी भुजाएँ जडवत् हो गयी हैं। बाहें स्तम्भित हो जानेपर इन्द्रकी आँखें खुली और उन्होंने मुनिकी स्तुति करते हुए कहा-'स्वामिन् ! आप अश्विनीकुमारोंको यज्ञका भाग अर्पण कीजिये, मैं नहीं रोकता। तात ! एक बार मैंने जो अपराध किया है, उसको क्षमा कीजिये।' उनके ऐसा कहनेपर दयासागर महर्षिने तुरंत क्रोध त्याग दिया और इन्द्रकी भुजाएँ भी पुत्रीसे बोले-'अरी ! तूने यह क्या किया? अपने पति तत्काल बन्धनमुक्त हो गयीं-उनकी जडता दूर हो महर्षि च्यवनको, जो सब लोगोंके वन्दनीय हैं, धोखा तो गयी। यह देखकर सब लोगोंका हृदय विस्मयपूर्ण नहीं दे दिया ? क्या तूने उन्हें बूढ़ा और अप्रिय जानकर कौतूहलसे भर गया। वे ब्राह्मणोंके बलकी, जो देवता छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी आदिके लिये भी दुर्लभ है, सराहना करने लगे। सेवा कर रही है? तेरा जन्म तो श्रेष्ठ पुरुषोंके कुलमें तदनन्तर शत्रुओंको ताप देनेवाले महाराज शर्यातिने X. . -- - U
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________________ पातालखण्ड] . सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा तथा अश्विनीकुमारोंका च्यवनको यौवन-दान , 443 . ........ ब्राह्मणोंको बहुत-सा धन दिया और यज्ञके अन्तमें नाम बतलाते हुए मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और अवभृथ-स्नान किया। कहा- 'मुने! मैं श्रीरघुनाथजीका भाई और इस सुमित्रानन्दन ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह अश्वका रक्षक शत्रुघ्न हूँ। अपने महान् पापोंकी शान्तिके सब मैने कह सुनाया। महर्षि च्यवन तपस्या और लिये आपको नमस्कार करता हूँ।' यह वचन सुनकर योगवलसे सम्पत्र हैं। इन तपोमूर्ति महात्माको प्रणाम मुनिवर च्यवनने कहा-'नरश्रेष्ठ शत्रुघ्न ! तुम्हारा करके तुम विजयका आशीर्वाद ग्रहण करो और कल्याण हो। इस यज्ञरूपी अश्वका पालन करनेसे श्रीरामचन्द्रजीके मनोहर यज्ञमें इन्हें पत्नीसहित पधारनेके संसारमें तुम्हारे महान् यशका विस्तार होगा।' शत्रुघ्नसे लिये प्रार्थना करो। ऐसा कहकर महर्षिने आश्रमवासी ब्राहाणोंसे कहाशेषजी कहते हैं-शत्रुघ्न और सुमतिमें इस 'ब्रह्मर्षियो ! यह आश्चर्यकी बात देखो, जिनके नामोंके प्रकार वार्तालाप हो रहा था, इतनेहीमें यज्ञका घोड़ा स्मरण और कीर्तन आदि मनुष्यके समस्त पापोंका नाश आश्रमके पास जा पहुंचा और उस महान् आश्रममें घूम- कर देते हैं, वे भगवान् श्रीराम भी यज्ञ करनेवाले हैं। घूमकर मुखके अग्रभागसे दूबके अङ्कर चरने लगा। महान् पातकी और परस्त्री-लम्पट पुरुष भी जिनका नाम इसी बीचमें शत्रुघ्न भी च्यवन मुनिके शोभायमान स्मरण करके आनन्दपूर्वक परमगतिको प्राप्त होते हैं।* आश्रमपर पहुँच गये। वहाँ जाकर उन्होंने सुकन्याके पास जिनके चरण-कमलोंकी धूलि पड़नेसे पत्थरकी मूर्ति बनी बैठे हुए महर्षि च्यवनका दर्शन किया, जो तपस्याके हुई अहल्या तत्क्षण मनोहर रूप धारण करके महर्षि मूर्तिमान स्वरूप-से जान पड़ते थे। सुमित्राकुमारने अपना गौतमकी धर्मपत्नी हो गयी। रणक्षेत्रमें जिनके मनोहारी रूपका दर्शन करके दैत्योंने उन्हींके निर्विकार स्वरूपको प्राप्त कर लिया तथा योगीजन समाधिमें जिनका ध्यान करके योगारूढ-अवस्थाको पहुँच गये और संसारके भयसे छुटकारा पाकर परमपदको प्राप्त हो गये, वे ही श्रीरघुनाथजी यज्ञ कर रहे है-यह कैसी अद्भुत बात है ! मेरा धन्य भाग, जो अब श्रीरामचन्द्रजीके उस सुन्दर मुखकी झाँकी करूँगा, जिसके नेत्रोंका प्रान्तभाग मेघके जलकी समानता करता है। जिसकी नासिका मनोहर और भौंहें सुन्दर हैं तथा जो विनयसे कुछ झुका हुआ है। जिह्वा वही उत्तम है जो श्रीरघुनाथजीके नामोंका आदरके साथ कीर्तन करती है। जो इसके विपरीत आचरण करती है, वह तो साँपकी जीभके समान है। आज मुझे अपनी तपस्याका पवित्र फल प्राप्त हो गया। अब मेरे सारे मनोरथ पूरे हो गये; क्योंकि ब्रह्मादि देवताओंको भी / जिसका दर्शन दुर्लभ है, भगवान् श्रीरामके उसी मुखको __ मैं इन नेत्रोंसे निहारूँगा। उनके चरणोंकी रजसे अपने * महापातकसंयुक्ताः परदाररता नराः / यत्रामस्मरणे युक्ता मुदा यान्ति परा गतिम्॥ (16 / 33) +सा जिह्वा रघुनाथस्य नामकीर्तनमादरात् / करोति विपरीता या फणिनो रसनासमा // (16 / 39)
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________________ * अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्यपुराण SAXE शरीरको पवित्र करूँगा तथा उनकी अत्यन्त विचित्र बहुत प्रसन्न हुए और प्रेमसे विह्वल होकर उन्होंने उनके वार्ताओंका वर्णन करके अपनी रसनाको पावन बनाऊँगा।' A TTA इस प्रकारकी बातें करते-करते श्रीरामके चरणोंका स्मरण होनेसे महर्षिका प्रेम-भाव जाग्रत् हो उठा। उनकी वाणी गदगद हो गयी और नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह चली। वे मुनियोंके सामने ही अश्रुपूर्ण कण्ठसे पुकारने लगे-हे श्रीरामचन्द्र ! हे रघुनाथ ! हे धर्ममूर्ते ! हे / भक्तोंपर दया करनेवाले परमेश्वर ! इस संसारसे मेरा उद्धार कीजिये।' इतना कहते-कहते महर्षि ध्यानमग्न हो गये, उन्हें अपने-परायेका ज्ञान न रहा। उस समय शत्रुनने मुनिसे कहा-'स्वामिन् ! आप हमारे श्रेष्ठ यज्ञको अपने चरणोंकी धूलिसे पवित्र कीजिये। सब लोगोंके द्वारा एकमात्र पूजित होनेवाले महाबाहु श्रीरघुनाथजीका भी बड़ा सौभाग्य है कि वे आप-जैसे महात्माके अन्तःकरणमें निवास करते हैं।' शत्रुनके ऐसा कहनेपर मुनिवर च्यवन आनन्दमग्न हो गये और अपने सम्पूर्ण अग्नियोंको साथ ले परिवारसहित वहाँसे चल दिये। उन्हें पैदल जाते देख और श्रीरामचन्द्रजीका भक्त लिये अर्ध्य-पाद्य आदि अर्पण किया। तत्पश्चात् वे जान हनुमान्जीने शत्रुघ्नसे विनयपूर्वक कहा- बोले-'मुनिश्रेष्ठ ! इस समय आपका दर्शन पाकर मैं 'स्वामिन् ! यदि आप कहें तो महापुरुषोंमें श्रेष्ठ इन धन्य हो गया। आपने सब सामग्रियोसहित मेरे यज्ञको राम-भक्त महर्षिको मैं ही अपनी पुरीमें पहुँचा दूं।' वानर पवित्र कर दिया।' वीरके ये उत्तम वचन सुनकर शत्रुघ्नने उन्हें आज्ञा भगवान्का यह वचन सुनकर मुनिवर च्यवन बहुत दी-'हनुमान्जी ! जाइये, मुनिको पहुँचा आइये। तब सन्तुष्ट हुए। प्रेमोद्रेकके कारण उनके शरीरमें रोमाञ्च हो हनुमान्जीने मुनिको कुटुम्बसहित अपनी पीठपर बिठा आया। वे बोले-'प्रभो! आप ब्राह्मणोंपर प्रेम लिया और सर्वत्र विचरनेवाले वायुकी भांति उन्हें शीघ्र रखनेवाले और धर्ममार्गके रक्षक है; अतः आपके द्वारा ही अयोध्या पहुंचा दिया। मुनिको आया देख, श्रीराम ब्राह्मणका सम्मान होना उचित ही है।' सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना शेषजी कहते हैं-मुने ! महर्षि च्यवनके तपोबलसे हीन मनुष्योंकी भोगेच्छा !' इस प्रकार सोचते अचिन्तनीय तपोबलको देखकर शत्रुघ्नने विश्व-वन्दित हुए शत्रुघ्नने च्यवन मुनिके आश्रमपर थोड़ी देरतक ब्राह्मबलकी बड़ी प्रशंसा की। वे मन-ही-मन कहने ठहरकर जल पीया और सुख एवं आरामका अनुभव लगे-'कहाँ तो विशुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियोंको किया। उनका घोड़ा पुण्यसलिला पयोष्णी नदीका जल स्वतः प्राप्त होनेवाली महान् भोगोंकी सिद्धि और कहाँ पीकर आगेके मार्गपर चल पड़ा। सैनिकोंने जब उसे
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________________ पातालखण्ड] * सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन . 445 AJAL आश्रमसे निकलते देखा, तो वे भी उसके पीछे-पीछे बहुमूल्य रत्न एवं धन भेंट देते थे। इस प्रकार अश्वके चल दिये। कुछ लोग हाथीपर थे और कुछ लोग मार्गपर जाते हुए शत्रुघ्नने एक बहुत ऊँचा पर्वत देखा। रथोंपर / कुछ घोड़ोंपर सवार थे और कुछ लोग पैदल उसे देखकर उनका मन आश्चर्यचकित हो गया; अतः वे ही जा रहे थे। शत्रुघ्नने भी मन्त्रिवर सुमतिके साथ मन्त्री सुमतिसे बोले-'मन्त्रिवर ! यह कौन-सा पर्वत घोड़ोंसे सुशोभित होनेवाले रथपर बैठकर बड़ी शीघ्रताके है, जो मेरे मनको विस्मयमें डाल रहा है। इसके बड़े-बड़े साथ यज्ञसम्बन्धी अश्वका अनुसरण किया। वह घोड़ा शिखर चाँदीके समान चमक रहे हैं। मार्गमें इस पर्वतकी आगे बढ़ता हुआ राजा विमलके रत्नातट नामक नगरमें बड़ी शोभा हो रही है। मुझे तो यह बड़ा अद्भुत जान जा पहुँचा / राजाने जब अपने सेवकके मुँहसे सुना कि पड़ता है। क्या यहाँ देवताओंका निवासस्थान है या यह श्रीरघुनाथजीका श्रेष्ठ अश्व सम्पूर्ण योद्धाओंके साथ उनकी क्रीड़ास्थली है? यह पर्वत अपनी सब प्रकारकी अपने नगरके निकट आया है, तो वे शत्रुघ्रके पास गये शोभासे मेरे मनको मोहे लेता है।' और उन्हें प्रणाम करके अपना रत्न, कोष, धन और सारा शत्रुघ्नजीका यह प्रश्न सुनकर मन्त्री सुमति, जिनका राज्य सौंपते हुए सामने खड़े होकर बोले-'मैं कौन-सा चित्त सदा श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें लगा रहता था, बोले-राजन् ! हमलोगोंके सामने यह नीलपर्वत शोभा पा रहा है। इसके चारों ओर फैले हुए बड़े-बड़े शिखर स्फटिक आदि मणियोंके समूह हैं; अतएव वे बड़े मनोहर प्रतीत होते हैं। पापी और पर-स्त्री-लम्पट मनुष्य इस पर्वतको नहीं देख पाते। जो नीच मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके गुणोंपर विश्वास या आदर नहीं करते, सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए श्रौत और स्मार्त धोको नहीं मानते तथा सदा अपने बौद्धिक तर्कके आधारपर ही विचार करते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं होता। नील और लाहकी बिक्री करनेवाले मनुष्य, घी आदि बेचनेवाला ब्राह्मण तथा शराबी मनुष्य भी इसके दर्शनसे वञ्चित रहते हैं। जो पिता अपनी रूपवती कन्याका किसी कुलीन वरके साथ ब्याह नहीं करता, बल्कि पापसे मोहित होकर धनके लोभसे उसको बेच देता है, उसे भी इसका दर्शन नहीं होता / जो मनुष्य उत्तम कुल और शीलसे युक्त सती साध्वी स्त्रीको कार्य करू-मेरे लिये क्या आज्ञा होती है ?' शत्रुघ्नने कलङ्कित करता है तथा भाई-बन्धुओंको न देकर स्वयं ही भी उन्हें अपने चरणोंमें नतमस्तक देख दोनों भुजाओंसे मीठे पकवान उड़ाता है, जो ब्राह्मणका धन हड़प लेनेके उठाकर छातीसे लगा लिया। इसके बाद राजा विमल भी लिये जालसाजी करता है, रसोईमें भेद करता है तथा जो पुत्रको राज्य देकर अनेको धनुर्धर योद्धाओंसहित दूषित विचार रखनेके कारण केवल अपने लिये खिचड़ी शत्रुघ्रजीके साथ गये। सबके मन और कानोंको प्रिय या खीर बनाता है, वह भी इस पर्वतको नहीं देख पाता। लगनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका मधुर नाम सुनकर प्रायः महाराज ! जो मध्याह्नकालमें भूखसे पीड़ित होकर आये सभी राजा उस यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको प्रणाम करते और हुए अतिथियोंका अपमान करते हैं, दूसरोंके साथ
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________________ * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त परापुराण विश्वासघात करते रहते हैं तथा जो श्रीरघुनाथजीके रहनेवाले थे। वैश्य भी व्याज, खेती और व्यापार भजनसे विमुख होते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं आदि शुभ वृत्तियोंसे जीविका चलाते हुए निरन्तर होता। यह श्रेष्ठ पर्वत बड़ा ही पवित्र है, पुरुषोत्तमका श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें अनुराग रखते थे। शूद्रनिवासस्थान होनेसे इसकी शोभा और भी बढ़ गयी है। जातिके मनुष्य रात-दिन अपने शरीरसे ब्राह्मणोंकी सेवा अपने दर्शनसे यह मनोहर शैल हम सब लोगोंको पवित्र करते और जिह्वासे 'राम-राम' की रट लगाये रहते थे। कर रहा है। देवताओंके मुकुटोंसे जिनके चरणोंकी पूजा वहाँ नीच श्रेणीके मनुष्योंमें भी कोई ऐसा नहीं था, जो होती है-जहाँ देवता अपने मुकुट-मण्डित मस्तक मनसे भी पाप करता हो। उस नगरीमें दान, दया, दम झुकाया करते हैं, पुण्यात्मा पुरुष ही जिनका दर्शन पानेके और सत्य-ये सदा विराजमान रहते थे। कोई भी अधिकारी है, वे पुण्य-प्रदाता भगवान् पुरुषोत्तम इस मनुष्य ऐसी बात नहीं बोलता था, जो दूसरोंको कष्ट पर्वतपर विराजमान हैं। वेदकी श्रुतियाँ 'नेति-नेति' पहुँचानेवाली हो। वहाँके लोग न तो पराये धनका लोभ कहकर निषेधकी अवधिरूपसे जिनको जानती हैं, रखते और न कभी पाप ही करते थे। इस प्रकार राजा इन्द्रादि देवता भी जिनके चरणोंकी रज ढूँढ़ा करते हैं फिर रत्नग्रीव प्रजाका पालन करते थे। वे लोभसे रहित होकर भी उन्हें सुगमतासे प्राप्त नहीं होती तथा विद्वान् पुरुष केवल प्रजाकी आयके छठे अंशको 'कर' के रूपमें वेदान्त आदिके महावाक्योद्वारा जिनका बोध प्राप्त करते ग्रहण करते थे, इससे अधिक कुछ नहीं लेते थे। इस हैं, वे ही श्रीमान् पुरुषोत्तम इस महान् पर्वतपर विराज रहे तरह धर्मपूर्वक प्रजाका पालन और सब प्रकारके हैं। जो इस नीलगिरिपर चढ़कर भगवान्को नमस्कार भोगोंका उपभोग करते हुए राजाके अनेकों वर्ष व्यतीत करता और पुण्य कर्म आदिके द्वारा उनकी पूजा करके हो गये। एक दिन उन्होंने अपनी धर्मपत्नी विशालाक्षीसे, उनका प्रसाद ग्रहण करता है, वह साक्षात् भगवान् जो पातिव्रत्य-धर्मका पालन करनेवाली पतिव्रता थी, चतुर्भुजका स्वरूप हो जाता है। कहा-'प्रिये ! अब अपने पुत्र प्रजाकी रक्षाका भार महाराज ! इस विषय में जानकार लोग एक प्राचीन संभालनेवाले हो गये / भगवान् महाविष्णुके प्रसादसे मेरे इतिहास कहा करते हैं, उसको सुनो। राजा रत्नग्रीवको पास किसी बातकी कमी नहीं है। अब मेरे मनमें केवल अपने परिवारके साथ ही जो 'चार भुजा' आदि एक ही अभिलाषा रह गयी है, वह यह कि मैंने भगवान्का सारूप्य प्राप्त हुआ था, उसीका इस आजतक किसी परम कल्याणमय उत्तम तीर्थका सेवन उपाख्यानमें वर्णन है। ऐसा सौभाग्य देवता और नहीं किया। जो मनुष्य जन्मभर अपना पेट ही भरता दानवोंके लिये भी दुर्लभ है। यह आश्चर्यपूर्ण वृत्तान्त इस रहता है, भगवानकी पूजा नहीं करता वह बैल माना गया प्रकार है-तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध जो काञ्ची नामकी है, इसलिये कल्याणी ! मैं राज्यका भार पुत्रको सौपकर नगरी है, वह पूर्वकालमें बड़ी सम्पन्न-अवस्थामें थी, अब कुटुम्बसहित तीर्थयात्राके लिये चलना चाहता हूँ।' वहाँ बहुत अधिक मनुष्योंकी आबादी थी। सेना और ऐसा निश्चय करके उन्होंने सन्ध्याकालमें भगवान्का सवारी सभी दृष्टियोंसे काञ्ची बड़ी समृद्धिशालिनी पुरी ध्यान किया और आधी रातको सोते समय स्वप्रमें थी। वहाँ ब्राह्मणोचित छः कर्मों में निरन्तर लगे रहनेवाले एक श्रेष्ठ तपस्वी ब्राह्मणको देखा। फिर सबेरे उठकर श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे, जो सब प्राणियोंके हितमें उन्होंने सन्ध्या आदि नित्यकर्म पूरे किये और सभामें संलग्न और श्रीरामचन्द्रजीके भजनके लिये सदा जाकर मन्त्रीजनोंके साथ वे सुखपूर्वक विराजमान हुए। उत्कण्ठित रहनेवाले थे। वहाँकै क्षत्रिय युद्धमें लोहा इतनेमें ही उन्हें एक दुर्बल शरीरवाले तपस्वी ब्राह्मण लेनेवाले थे। वे संग्राममें कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। दिखायी दिये, जो जटा, वल्कल और कौपीन धारण परायी स्त्री, पराये धन और परद्रोहसे वे सदा दूर किये हुए थे। उनके हाथमें एक छड़ी थी तथा अनेकों
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________________ पातालखण्ड] . सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन . 447 तीर्थोंके सेवनसे उनका शरीर पवित्र हो गया था। कलियुग कभी अपना प्रभाव नहीं डाल पाता। जहाँके महाबाहु राजा रत्नग्रीवने उन्हें देख मस्तक झुकाकर पत्थर भी चक्रसे चिह्नित होते हैं, मनुष्य तो चक्रका चिह्न प्रणाम किया और प्रसन्नचित्त होकर अर्घ्य, पाद्य आदि धारण करते ही हैं; वहाँकै पशु-पक्षी और कीट-पतङ्ग निवेदन किया। जब ब्राह्मण सुखपूर्वक आसनपर बैठकर आदि सबके शरीर चक्रसे अङ्कित होते हैं। उस पुरीमें विश्राम कर चुके तो राजाने उनका परिचय जानकर इस सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र रक्षक भगवान् त्रिविक्रम निवास प्रकार प्रश्न किया-'स्वामिन् ! आज आपके दर्शनसे करते हैं। मुझे बड़े पुण्यके प्रभावसे उस द्वारकापुरीका मेरे शरीरका समस्त पाप निवृत्त हो गया। वास्तवमें दर्शन हुआ है। साथ ही जो सब प्रकारकी हत्याओंका महात्मा पुरुष दीन-दुःखियोंकी रक्षाके लिये ही उनके घर दोष दूर करनेवाला है तथा जहाँ महान् पातकोंका नाश जाते हैं। ब्रह्मन् ! अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ; इसलिये मुझे करनेवाला स्यमन्तपञ्चक नामक तीर्थ है, उस कुरुक्षेत्रका एक बात बताइये। कौन-सा देवता अथवा कौन ऐसा भी मैंने दर्शन किया है। इसके सिवा, मैंने वाराणसीतीर्थ है जो गर्भवासके कष्टसे बचाने में समर्थ हो सकता पुरीको भी देखा है, जिसे भगवान् विश्वनाथने अपना है ? आपलोग समाधि और ध्यानमें तत्पर रहनेवाले हैं; निवासस्थान बनाया है। जहाँ भगवान् शङ्कर मुमूर्षु अतः सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं।' प्राणियोंको तारक ब्रह्मके नामसे प्रसिद्ध 'राम' मन्त्रका ब्राह्मणने कहा-महाराज! आपने तीर्थ- उपदेश देते हैं। जिसमें मरे हुए कीट, पतङ्ग, भृङ्ग, सेवनके विषयमें जिज्ञासा करते हुए जो यह प्रश्न किया पशु-पक्षी आदि तथा असुर-योनिके प्राणी भी अपनेहै कि किस देवताकी कृपासे गर्भवासके कष्टका निवारण अपने कर्मोके भोग और सीमित सुखका परित्याग करके हो सकता है? सो उसके विषयमें बता रहा हूँ, दुःख-सुखसे परे हो कैलासको प्राप्त हो जाते हैं तथा जहाँ सुनिये-'भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी ही सेवा करनी मणिकर्णिकातीर्थ और उत्तरवाहिनी गङ्गा हैं, जो चाहिये; क्योंकि वे ही संसाररूपी रोगका नाश करनेवाले पापियोंका भी संसारबन्धन काट देती हैं। राजन् ! इस हैं। वे ही भगवान् पुरुषोत्तमके नामसे प्रसिद्ध हैं, उन्हींकी प्रकार मैंने अनेकों तीर्थोका दर्शन किया है; परन्तु पूजा करनी चाहिये। मैंने सब पापोंका क्षय करनेवाली नीलगिरिपर भगवान् पुरुषोत्तमके समीप जो महान् अनेकों पुरियों और नदियोंका दर्शन किया है- आचर्यकी घटना देखी है वह अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर अयोध्या, सरयू, तापी, हरिद्वार, अवन्ती, विमला, नहीं हुई है। काञ्ची, समुद्रगामिनी नर्मदा, गोकर्ण और करोड़ों पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिपर जो वृत्तान्त घटित हुआ था, हत्याओका विनाश करनेवाला हाटकतीर्थ-इन सबका उसे सुनिये; इसपर श्रद्धा और विश्वास करनेवाले पुरुष दर्शन पापको दूर करनेवाला है। मल्लिका-नामसे सनातन ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। मैं सब तीर्थोंमें भ्रमण प्रसिद्ध महान् पर्वत मनुष्योंको दर्शनमात्रसे मोक्ष करता हुआ नीलगिरिपर गया, जिसका आँगन सदा देनेवाला है तथा वह पातकोंका भी नाश करनेवाला तीर्थ गङ्गासागरके जलसे धुलता रहता है। वहाँ पर्वतके है, उसका भी मैने दर्शन किया है। देवता और शिखरपर मुझे कुछ ऐसे भील दिखायी दिये, जिनकी चार असुर-दोनों जिसका सेवन करते हैं, उस द्वारवती भुजाएँ थीं और वे धनुष धारण किये हुए थे। वे (द्वारकापुरी) तीर्थका भी मैंने दर्शन किया है। वहाँ फल-मूलका आहार करके वहाँ जीवन-निर्वाह करते थे, कल्याणमयी गोमती नामकी नदी बहती है, जिसका जल उस समय उन्हें देखकर मेरे मनमें यह महान् सन्देह खड़ा साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। उसमें शयन करना (डूबना) हुआ कि ये धनुष-बाण धारण करनेवाले जंगली मनुष्य लय कहलाता है और मृत्युको प्राप्त होना मोक्ष; ऐसा चतुर्भुज कैसे हो गये? वैकुण्ठलोकमें निवास करनेवाले श्रुतिका वचन है। उस पुरीमें निवास करनेवाले मनुष्योंपर जितेन्द्रिय पुरुषोंका जैसा स्वरूप शास्त्रोंमें देखा जाता है
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________________ 448 * अर्बयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण तथा जो ब्रह्मा आदिके लिये भी दुर्लभ है, ऐसा स्वरूप तुलसीको सुगन्धसे मतवाले हुए भंवरे मड़राया करते हैं। इन्हें कैसे प्राप्त हो गया ? भगवान् विष्णुके निकट शङ्ख, चक्र, गदा और कमल आदि परिकर दिव्य शरीर रहनेवाले उनके पार्षदोंके हाथ, जिस प्रकार शङ्ख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष तथा कमलसे सुशोभित होते हैं तथा उनके शरीरपर जैसे वनमाला शोभा पाती है, उसी प्रकार ये भील भी क्यों दिखायी दे रहे हैं? इस प्रकार सन्देहमें पड़ जानेपर मैंने उनसे पूछा- 'सज्जनो ! आपलोग कौन हैं? और यह चतुर्भुज स्वरूप आपको कैसे प्राप्त हुआ है?' मेरा प्रश्न सुनकर वे लोग बहुत हंसे और कहने लगे-'ये महाशय ब्राह्मण होकर भी यहाँक पिण्डदानकी अद्भुत महिमा नहीं जानते।' यह सुनकर मैंने कहा-'कैसा पिण्ड और किसको दिया जाता है? चतुर्भुज-शरीर धारण करनेवाले महात्माओ! मुझे इसका रहस्य बताओ। मेरी बात सुनकर उन महात्माओंने, जिस तरह उन्हें चतुर्भुज स्वरूपकी प्राप्ति हुई थी, वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया। किरात बोले-ब्राह्मण ! हमलोगोंका वृत्तान्त सुनो; हमारा एक बालक प्रतिदिन जामुन आदि वृक्षोंके फल खाता और अन्य बालकोंके साथ विचरा करता धारण करके जिनके चरणोंकी आराधना करते हैं तथा था। एक दिन घूमता-धामता वह यहाँ आया और नारद आदि देवर्षि जिनके श्रीविग्रहकी सेवामें लगे रहते शिशुओंके साथ ही इस पर्वतके मनोहर शिखरपर चढ़ हैं, ऐसे भगवान्की उस बालकने झाँकी की। वहाँ गया। ऊपर जाकर उसने देखा, एक अद्भुत देव-मन्दिर भगवान्की उपासनामें लगे हुए देवताओंमेंसे कुछ लोग है, उसकी दीवार सोनेकी बनी हुई है। जिसमें गारुत्मत गाते थे, कुछ नाच रहे थे और कुछ लोग अद्भुत रूपसे आदि नाना प्रकारकी मणियाँ जड़ी हुई हैं। वह अपनी अट्टहास कर रहे थे। वे सभी विश्व-वन्दित भगवान्को मनोहर कान्तिसे सूर्यकी भांति अन्धकारका नाश कर रहा रिझाने में ही लगे हुए थे। भगवान्को देखकर हमारा है। उसे देखकर बालकको बड़ा विस्मय हुआ और उसने बालक उनके निकट चला गया। देवताओने अच्छी तरह मन-ही-मन सोचा-'यह क्या है, किसका घर है? पूजा करके श्रीरमा-वल्लभ भगवान्को धूप और नैवेद्य जरा चलकर देखू तो सही, यह महात्माओंका कैसा अर्पण किया तथा आदरपूर्वक उनकी आरती करके स्थान है?' ऐसा विचारकर वह बड़भागी बालक भगवत्-कृपाका अनुभव करते हुए वे सब लोग मन्दिरके भीतर घुस गया। वहाँ जाकर उसने देवाधिदेव अपने-अपने स्थानको चले गये। उस बालकके पुरुषोत्तमका दर्शन किया, जिनके चरणोंमें देवता और सौभाग्यवश वहाँ भगवान्को भोग लगाया हुआ भात असुर सभी मस्तक झुकाते हैं। जिनका श्रीविग्रह किरीट, (महाप्रसाद) गिरा हुआ था, जो मनुष्योंके लिये अलभ्य हार, केयूर और अवेयक (कण्ठा) आदिसे सुशोभित और देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; वही उसे मिल रहता है। जो कानों में अत्यन्त उज्ज्वल और मनोहर गया। उसको खाकर बालकने भगवान्के श्रीविग्रहका कुण्डल धारण करते हैं। जिनके युगल चरण-कमलोंपर दर्शन किया। इससे उसे चतुर्भुज रूपकी प्राप्ति हो गयी
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________________ पातालखण्ड - तीर्थयात्राकी विधि एवं शालग्रामशिलाकी महिमा . और वह अत्यन्त सुन्दर दिखायी देने लगा। चार भुजा परिवर्तनपर विस्मय-विमुग्ध हो रहा हूँ।' बालककी बात आदि भगवत्सारूप्यको प्राप्त हो शङ्ख, चक्र आदि धारण सुनकर हम सब लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और हमने किये जब वह बालक घर आया तो हमलोगोंने बारम्बार भी इन परम दुर्लभ भगवान्का दर्शन किया। साथ ही सब उसकी ओर देखकर पूछा-'तुम्हारा यह अद्भुत खरूप प्रकारके स्वादसे परिपूर्ण जो अन्न आदिका प्रसाद मिला, कैसे हो गया?' तब बालक अपने आश्चर्ययुक्त वृत्तान्तका उसको भी खाया। उसके खाते ही भगवान्की कृपासे हम वर्णन करने लगा-'मैं नीलगिरिके शिखरपर गया था, सब लोग चार भुजाधारी हो गये। साधुश्रेष्ठ ! तुम भी वहाँ मैंने देवाधिदेव भगवानका दर्शन किया है, वहीं जाकर भगवानका दर्शन करो, वहाँ अन्नका प्रसाद ग्रहण भगवान्को भोग लगाया हुआ मनोहर प्रसाद भी मुझे करके तुम भी चतुर्भुज हो जाओगे। विप्रवर ! तुमने मिल गया था, जिसके भक्षण करनेमात्रसे इस समय मेरा हमलोगोंसे जो बात पूछी और जिसको कहनेके लिये हमें ऐसा चतुर्भुज खरूप हो गया है। मैं स्वयं ही अपने इस आज्ञा दी थी, वह सब वृत्तान्त हमलोगोंने कह सुनाया। तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा ब्राह्मण कहते हैं-राजन् ! भीलोंके ये अद्भुत शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हो, सिरके बाल पक गये हों वचन सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, साथ ही मैं बहुत अथवा वह अभी नौजवान हो, आयी हुई मौतको कोई प्रसन्न भी हुआ। पहले गङ्गा-सागर-संगममें स्नान करके नहीं टाल सकता; ऐसा समझकर भगवान्की शरणमें मैंने अपने शरीरको पवित्र किया। फिर मणियों और जाना चाहिये।* भगवान्के कीर्तन, श्रवण-वन्दन तथा माणिक्योंसे चित्रित नीलाचलके शिखरपर चढ़ गया। पूजनमें ही अपना मन लगाना चाहिये / स्त्री, पुत्रादि, अन्य महाराज ! वहाँ जाकर मैंने देवता आदिसे वन्दित संसारी वस्तुओंमें नहीं, यह सारा प्रपञ्च नाशवान, क्षणभर भगवानका दर्शन किया और उन्हें प्रणाम करके कृतार्थ हो रहनेवाला तथा अत्यन्त दुःख देनेवाला है, परन्तु भगवान् गया। भगवान्का प्रसाद ग्रहण करनेसे मुझे शङ्ख, चक्र जन्म, मृत्यु और जरा-तीनों ही अवस्थाओंसे परे हैं, वे आदि चिह्नोंसे सुशोभित चतुर्भुज स्वरूपकी प्राप्ति हुई। भक्ति-देवीके प्राणवल्लभ और अच्युत (अविनाशी) पुरुषोत्तमके दर्शनसे पुनः मुझको गर्भ में नहीं प्रवेश करना हैं-ऐसा विचारकर भगवानका भजन करना उचित है। पड़ेगा। राजन् ! तुम भी शीघ्र ही नीलाचलको जाओ और मनुष्य काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ और दम्भसे अथवा गर्भवासके दुःखसे छूटकर अपने आत्माको कृतार्थ करो। जिस किसी प्रकारसे भी यदि भगवान्का भजन करे तो ___ उन परम बुद्धिमान् श्रेष्ठ ब्राह्मणके वचन सुनकर उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता। भगवान्का ज्ञान होता है राजा रत्नग्रीवका सारा शरीर पुलकित हो गया और पापरहित साधुसंग करनेसे; साधु वे ही हैं जिनकी कृपासे उन्होंने मुनिसे तीर्थयात्राकी विधि पूछी। मनुष्य संसारके दुःखसे छुटकारा पा जाते हैं। महाराज ! तब ब्राह्मणने कहा-राजन् ! तीर्थयात्राकी काम और लोभसे रहित तथा वीतराग साधु पुरुष जिस उत्तम विधिका वर्णन आरम्भ करता हूँ, सुनो; इससे विषयका उपदेश देते हैं, वह संसार-बन्धनकी निवृत्ति देव-दानववन्दित भगवानकी प्राप्ति हो जाती है। मनुष्यके करनेवाला होता है। / तीर्थो में श्रीरामचन्द्रजीके भजनमें * वलीपलितदेहो वा यौवनेनान्वितोऽपि वा। ज्ञात्वा मृत्युमनिस्तीर्य हरि शरणमाव्रजेत् // (19 / 10) +स हरियिते साधुसंगमात् पापवर्जितात् / येषां कृपातः पुरुषा भवन्त्यसुखवर्जिताः // ते साधवः शान्तरागाः कामलोभविवर्जिताः / अवन्ति यन्महाराज तत्संसारनिवर्तकम्। (19 / 14-15)
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________________ * अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् , [संक्षिप्त पद्यपुराण लगे हुए साधु पुरुष मिलते है, जिनका दर्शन मनुष्योंकी जानेवाले पुरुषको गोहत्या आदिका पाप लगता है। जो पापराशिको भस्म करनेके लिये अग्निका काम देता है; अनिच्छासे भी तीर्थयात्रा करता है, उसे उसका आधा इसलिये संसार-बन्धनसे डरे हुए मनुष्योंको पवित्र फल मिल जाता है तथा पापक्षय भी होता ही है; किन्तु जलवाले तीर्थोंमें, जो सदा साधु-महात्माओंके विधिके साथ तीर्थदर्शन करनेसे विशेष फल की प्राप्ति सहवाससे सुशोभित रहते हैं, अवश्य जाना चाहिये। होती है [यह ऊपर बताया जा चुका है / इस प्रकार नृपश्रेष्ठ ! यदि तीर्थोका विधिपूर्वक दर्शन किया मैंने थोड़ेहीमें यह तीर्थकी विधि बतायी है, इसका जाय तो वे पापका नाश कर देते हैं, अब तीर्थसेवनको विस्तार नहीं किया है। इस विधिका आश्रय लेकर तुम विधिका श्रवण करो। पहले स्त्री, पुत्रादि कुटुम्बको पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये जाओ। महाराज ! मिथ्या समझकर उसकी ओरसे अपने मनमें वैराग्य भगवान् प्रसन्न होकर तुम्हें अपनी भक्ति प्रदान करेंगे, उत्पन्न करे और मन-ही-मन भगवान्का स्मरण करता जिससे एक ही क्षणमें तुम्हारे संसार-बन्धनका नाश हो रहे। तदनन्तर 'राम-राम' की रट लगाते हुए तीर्थयात्रा जायगा। नरश्रेष्ठ ! तीर्थयात्राकी यह विधि सम्पूर्ण आरम्भ करे, एक कोस जानेके पश्चात् वहाँ तीर्थ (पवित्र पातकोंका नाश करनेवाली है, जो इसे सुनता है वह जलाशय) आदिमें स्नान करके क्षौर करा डाले / यात्राकी अपने सारे भयङ्कर पापोंसे छुटकारा पा जाता है। विधि जाननेवाले पुरुषके लिये ऐसा करना नितान्त सुमति कहते हैं-सुमित्रानन्दन ! ब्राह्मणकी यह आवश्यक है। तीर्थोकी ओर जाते हुए मनुष्योंके पाप बात सुनकर राजा रत्नग्रोवने उनके चरणोंमें प्रणाम उसके बालोंपर ही स्थित रहते हैं, अतः उनका मुण्डन किया। उस समय पुरुषोत्तमतीर्थके दर्शनकी उत्कण्ठासे अवश्य करावे। उसके बाद बिना गाँठका डंडा, उनका चित्त विहल हो रहा था। राजाके मन्त्री मन्त्रज्ञोंमें कमण्डलु और मृगचर्म धारण करे तथा लोभका त्याग श्रेष्ठ और अच्छे स्वभावके थे। राजाने समस्त करके तीर्थोपयोगी वेष बना ले। विधिपूर्वक यात्रा पुरवासियोंको तीर्थयात्राकी इच्छासे साथ ले जानेका करनेवाले मनुष्योंको विशेषरूपसे फलकी प्राप्ति होती है, विचार करते हुए अपने मन्त्रीको आज्ञा दी–'अमात्य ! इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके तीर्थयात्राको विधिका पालन तुम नगरके सब लोगोंको मेरा यह आदेश सुना दो कि करे। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर तथा मन अपने वशमें सबको भगवान् पुरुषोत्तमके चरणारविन्दोका दर्शन होते हैं तथा जिसके भीतर विद्या, तपस्या और कीर्ति करनेके लिये चलना है। मेरे नगरमें जो श्रेष्ठ मनुष्य रहती है, वही तीर्थक वास्तविक फलका भागी होता निवास करते हैं तथा जो लोग मेरी आज्ञाका पालन है।* 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण भक्तवत्सल गोपते / शरण्य करनेवाले है वे सब मेरे साथ ही यहाँसे निकले। उन भगवन् विष्णो मां पाहि बहुसंसृतेः' (19 / 25) पुत्रोंसे तथा सदा अनीतिमें लगे रहनेवाले बन्धुजिह्वासे इस मन्त्रका पाठ तथा मनसे भगवानका स्मरण बान्धवोंसे क्या लेना है, जिन्होंने आजतक अपने नेत्रोंसे करते हुए पैदल ही तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये; तभी पुण्यदायक पुरुषोत्तमका दर्शन नहीं किया ? जिनके पुत्र वह महान् अभ्युदयका साधक होता है। जो मनुष्य और पौत्र भगवानकी शरणमें नहीं गये, उनकी वे सन्ताने सवारीसे यात्रा करता है उसका फल सवारी ढोनेवाले सूकरोंके झुंडके समान हैं। मेरी प्रजाओ ! जो भगवान् प्राणीके साथ बराबर-बराबर बँट जाता है। जूता पहनकर अपना नाम लेनेमात्रसे सबको पवित्र कर देनेकी शक्ति जानेवालेको चौथाई फल मिलता है और बैलगाड़ीपर रखते हैं, उनके चरणोंमें शीघ्र मस्तक झुकाओ।' * यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंहितम् / विद्यातपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमभुते // (19 / 24) हरे कृष्ण ! भक्तवत्सल गोपाल ! सबको शरण देनेवाले भगवन् ! विष्णो ! मुझे अनेकों जन्मोंके चक्करमें पड़नेसे बचाइये।
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________________ पातालखण्ड] . तीर्थयात्राकी विधि एवं शालग्रामशिलाकी महिमा * राजाका यह मनोहर वचन भगवान्के गुणोंसे गुंथा चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे। एक कोस जानेके बाद हुआ था। इसे सुनकर सत्यनामवाले प्रधान मन्त्रीको उन्होंने विधिके अनुसार मुण्डन कराया और दण्ड, बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने हाथीपर बैठकर ढिंढोरा पीटते कमण्डलु तथा सुन्दर मृग-चर्म धारण किये। इस प्रकार हुए सारे नगरमें घोषणा करा दी। तीर्थयात्राकी इच्छासे वे महायशस्वी राजा उत्तम वेषसे युक्त होकर भगवान्के महाराजने जो आज्ञा दी थी उसके अनुसार सब प्रजाको ध्यानमें तत्पर हो गये और उन्होंने अपने मनको कामयह आदेश दिया- 'पुरवासियो! आप सब लोग क्रोधादि दोषोंसे रहित बना लिया। उस समय भिन्न-भिन्न महाराजके साथ तुरंत नीलगिरिको चलें और सब पापोंके बाजोंको बजानेवाले लोग बारंबार दुन्दुभि, भेरी, आनक, हरनेवाले पुरुषोत्तम भगवान्का दर्शन करें। ऐसा करके पणव, शङ्ख और वीणा आदिकी ध्वनि फैला रहे थे। आपलोग समस्त संसार-समुद्रको अपने लिये गायकी सभी यात्री यही कहते हुए आगे बढ़ रहे थे कि 'समस्त खुरके समान बना लें। साथ ही सब लोग अपने-अपने दुःखोंको दूर करनेवाले देवेश्वर ! आपकी जय हो, शरीरको शङ्ख, चक्र आदि चिह्नोंसे विभूषित करें।' इस पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध परमेश्वर ! मुझे अपने स्वरूपका प्रकार प्रधान सचिवने, जो श्रीरघुनाथजीके चरणोंका दर्शन कराइये।' ध्यान करनेके कारण अपने शोक-सन्तापको दूर कर चुके तदनन्तर जब महाराज रत्नग्रीव सब लोगोंके साथ थे, राजा रत्नप्रीवके अद्भुत आदेशकी सर्वत्र घोषणा करा यात्राके लिये चल दिये तो मार्गमें उन्हें अनेकों स्थानोपर दी। उसे सुनकर सारी प्रजा आनन्द-रसमें निमग्न हो महान् सौभाग्यशाली वैष्णवोंके द्वारा किया जानेवाला गयी। सबने पुरुषोत्तमका दर्शन करके अपना उद्धार श्रीकृष्णका कीर्तन सुनायी पड़ा। जगह-जगह गोविन्दका करनेका निश्चय किया। पुरवासी ब्राह्मण सुन्दर वेष धारण गुणगान हो रहा था-'भक्तोंको शरण देनेवाले करके राजाको आशीर्वाद और वरदान देते हुए शिष्योंके पुरुषोत्तम ! लक्ष्मीपते ! आपकी जय हो।' काञ्चीनरेश साथ नगरसे बाहर निकले, क्षत्रियवीर धनुष धारण यात्राके पथमें अनेकों अभ्युदयकारी तीथोंका सेवन और करके चले और वैश्य नाना प्रकारकी उपयोगी वस्तुएँ दर्शन करते तथा तपस्वी ब्राह्मणके मुखसे उनकी महिमा लिये आगे बढ़े। शूद्र भी संसार-सागरसे उद्धार पानेकी भी सुनते जाते थे। भगवान् विष्णुसे सम्बन्ध रखनेवाली बात सोचकर पुलकित हो रहे थे। धोबी, चमार, शहद अनेकों प्रकारकी विचित्र बातें सुननेसे राजाका भलीभांति बेचनेवाले, किरात, मकान बनानेवाले कारीगर, दर्जी, मनोरञ्जन होता था और वे मार्गक बीच-बीचमें अपने पान बेचनेवाले, तबला बजानेवाले, नाटकसे जीविका गायकोंद्वारा महाविष्णकी महिमाका गान कराया करते निभानेवाले नट आदि, तेली, बजाज, पुराणकी कथा थे। महाराज रत्नग्रीव बड़े बुद्धिमान् और जितेन्द्रिय थे, सुनानेवाले सूत, मागध तथा वन्दी-ये सभी हर्षमें वे स्थान-स्थानपर दीनों, अंधों, दुःखियों तथा पङ्गओंको भरकर राजधानीसे बाहर निकले। वैद्य-वृत्तिसे जीविका उनकी इच्छाके अनुकूल दान देते रहते थे। साथ आये चलानेवाले चिकित्सक तथा भोजन बनाने और स्वादिष्ट हुए सब लोगोंके सहित अनेकों तीर्थोंमें नान करके वे रसोंका ज्ञान रखनेवाले रसोइये भी महाराजकी प्रशंसा अपनेको निर्मल एवं भव्य बना रहे थे और भगवान्का करते हुए पुरीसे बाहर निकले। राजा रत्नग्रीवने भी ध्यान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। जाते-जाते महाराजने प्रातःकाल सन्ध्योपासन आदि करके शुद्ध अन्तःकरण- अपने सामने एक ऐसी नदी देखी जो सब पापोंको दूर वाले ब्राह्मण देवताको, जो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ थे, करनेवाली थी। उसके भीतरके पत्थर (शालग्राम) अपने पास बुलाया और उनकी आज्ञा लेकर वे नगरसे चक्रके चिह्नसे अङ्कित थे। वह मुनियोंके हृदयकी भांति बाहर निकले। आगे-आगे राजा थे और पीछे-पीछे स्वच्छ दिखायी देती थी। उस नदीके किनारे अनेकों पुरवासी मनुष्य। उस समय वे ताराओंसे घिरे हुए महर्षियोंके समुदाय कई पङ्क्तियोंमें बैठकर उसे
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________________ 452 . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण सुशोभित कर रहे थे। उस सरिताका दर्शन करके सकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा वेदोक्त मार्गपर महाराजने धर्मके ज्ञाता तपस्वी ब्राह्मणसे उसका परिचय स्थित रहनेवाला शूद्र गृहस्थ भी शालग्रामकी पूजा करके पूछा; क्योंकि वे अनेकों तीर्थोकी विशेष महिमाके ज्ञानमें मोक्ष प्राप्त कर सकता है। परन्तु स्त्रीको कभी बढ़े-चढ़े थे। राजाने प्रश्न किया-'स्वामिन् ! शालग्रामशिलाका पूजन नहीं करना चाहिये। विधवा हो महर्षि-समुदायके द्वारा सेवित यह पवित्र नदी कौन या सुहागिन, यदि वह स्वर्गलोक एवं आत्मकल्याणकी है? जो अपने दर्शनसे मेरे चित्तमें अत्यन्त आह्वाद इच्छा रखती है तो शालग्रामशिलाका स्पर्श न करे / यदि उत्पन्न कर रही है।' बुद्धिमान् महाराजका यह वचन मोहवश उसका स्पर्श करती है तो अपने किये हुए पुण्यसुनकर विद्वान् ब्राह्मणने उस तीर्थका अद्भुत माहात्म्य समूहका त्याग करके तुरंत नरकमें पड़ती है। कोई बतलाना आरम्भ किया। कितना ही पापाचारी और ब्रह्महत्यारा क्यों न हो, ब्राह्मणने कहा-राजन्! यह गण्डकी नदी है शालग्रामशिलाको स्नान कराया हुआ जल (भगवान्का [इसे शालग्रामी और नारायणी भी कहते हैं), देवता चरणामृत) पी लेनेपर परमगतिको प्राप्त होता है। और असुर सभी इसका सेवन करते हैं। इसके पावन भगवान्को निवेदित तुलसी, चन्दन, जल, शङ्ख, घण्टा, जलकी उत्ताल तरङ्गे राशि-राशि पातकोंको भी भस्म कर चक्र, शालग्रामशिला, ताप्रपात्र, श्रीविष्णुका नाम तथा डालती हैं। यह अपने दर्शनसे मानसिक, स्पर्शसे उनका चरणामृत-ये सभी वस्तुएँ पावन हैं। उपर्युक्त नौ कर्मजनित तथा जलका पान करनेसे वाणीद्वारा होनेवाले वस्तुओंके साथ भगवानका चरणामृत पापराशिको दग्ध पापोंके समुदायको दग्ध करती है। पूर्वकालमें प्रजापति करनेवाला है। ऐसा सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले ब्रह्माजीने सब प्रजाको विशेष पापमें लिप्त देखकर अपने शान्तचित्त महर्षियोंका कथन है। राजन् ! समस्त तीर्थोंमें गण्डस्थल (गाल) के जलकी बूंदोंसे इस पापनाशिनी स्नान करनेसे तथा सब प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान्का नदीको उत्पन्न किया। जो उत्तम लहरोंसे सुशोभित इस पूजन करनेसे जो अद्भुत पुण्य होता है, वह भगवान्के पुण्यसलिला नदीके जलका स्पर्श करते हैं, वे मनुष्य चरणामृतकी एक-एक बूंदमें प्राप्त होता है। पापी हों तो भी पुनः माताके गर्भ में प्रवेश नहीं करते। [चार, छः, आठ आदि] समसंख्या में शालग्रामइसके भीतरसे जो चक्रके चिह्नोंद्वारा अलङ्कत पत्थर मूर्तियोंकी पूजा करनी चाहिये। परन्तु समसंख्यामें दो प्रकट होते हैं, वे साक्षात् भगवान्के ही विग्रह है- शालग्रामोंकी पूजा उचित नहीं है। इसी प्रकार भगवान् ही उनके रूपमें प्रादुर्भूत होते हैं। जो मनुष्य विषमसंख्यामें भी शालग्राममूर्तियोंकी पूजा होती है, प्रतिदिन चक्रके चिह्नसे युक्त शालग्रामशिलाका पूजन किन्तु विषममें तीन शालग्रामोंकी नहीं। द्वारकाका चक्र करता है वह फिर कभी माताके उदरमें प्रवेश नहीं तथा गण्डकी नदीके शालग्राम-इन दोनोंका जहाँ करता। जो बुद्धिमान् श्रेष्ठ शालग्रामशिलाका पूजन समागम हो, वहाँ समुद्रगामिनी गङ्गाकी उपस्थिति मानी करता है, उसको दम्भ और लोभसे रहित एवं सदाचारी जाती है। यदि शालग्रामशिलाएँ रूखी हों तो वे पुरुषोंको होना चाहिये / परायी स्त्री और पराये धनसे मुँह मोड़कर आयु, लक्ष्मी और उत्तम कीर्तिसे वञ्चित कर देती हैं; यत्नपूर्वक चक्राङ्कित शालग्रामका पूजन करना चाहिये। अतः जो चिकनी हों, जिनका रूप मनोहर हो, उन्हींका द्वारकामें लिया हुआ चक्रका चिह्न और गण्डकी नदीसे पूजन करना चाहिये / वे लक्ष्मी प्रदान करती हैं। पुरुषको उत्पन्न हुई शालग्रामको शिला-ये दोनों मनुष्योंके सौ आयुकी इच्छा हो या धनकी, यदि वह शालग्रामजन्मोंके पाप भी एक ही क्षणमें हर लेते हैं। हजारों शिलाका पूजन करता है तो उसकी ऐहलौकिक और पापोंका आचरण करनेवाला मनुष्य क्यों न हो, पारलौकिक-सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। राजन् ! शालग्रामशिलाका चरणामृत पीकर तत्काल पवित्र हो जो मनुष्य बड़ा भाग्यवान् होता है, उसीके प्राणान्तके
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________________ पातालखण्ड] * तीर्थयात्राकी विधि एवं शालग्रामशिलाकी महिमा . 453 समय जिह्वापर भगवान्का पवित्र नाम आता है और बारंबार पीटते हुए लोहशङ्क, कुम्भीपाक अथवा अतिरौरव उसीकी छातीपर तथा आसपास शालग्रामशिला मौजूद नरकमें ले जायेंगे।' ऐसा कहकर यमदूत ज्यों ही उसे ले रहती है। प्राणोंके निकलते समय अपने विश्वास या जानेको उद्यत हुए त्यों ही महाविष्णुके चरणकमलोंकी भावनामें ही यदि शालग्रामशिलाकी स्फुरणा हो जाय तो सेवा करनेवाले एक भक्त महात्मा वहाँ आ पहुँचे। उन उस जीवकी निःसन्देह मुक्ति हो जाती है। पूर्वकालमें वैष्णव महात्माने देखा कि यमदूत पाश, मुगर और दण्ड भगवान्ने बुद्धिमान् राजा अम्बरीषसे कहा था कि आदि कठोर आयुध धारण किये हुए हैं तथा पुल्कसको 'ब्राह्मण, संन्यासी तथा चिकनी शालग्रामशिला-ये लोहेकी साँकलोंसे बांधकर ले जानेको उद्यत हैं। तीन इस भूमण्डलपर मेरे स्वरूप हैं। पापियोंका पाप भगवद्भक्त महात्मा बड़े दयालु थे। उस समय नाश करनेके लिये मैंने ही ये स्वरूप धारण किये हैं।' पुल्कसकी अवस्था देखकर उनके हृदयमें अत्यन्त करुणा जो अपने किसी प्रिय व्यक्तिको शालग्रामकी पूजा भर आयी और उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार करनेका आदेश देता है वह स्वयं तो कृतार्थ होता ही है, किया-यह पुल्कस मेरे समीप रहकर अत्यन्त कठोर अपने पूर्वजोंको भी शीघ्र ही वैकुण्ठमें पहुँचा देता है। यातनाको प्राप्त न हो, इसलिये मैं अभी यमदूतोंसे इसको इस विषयमें काम-क्रोधसे रहित वीतराग महर्षिगण छुटकारा दिलाता हूँ।' ऐसा सोचकर वे कृपालु मुनीश्वर एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। पूर्व- हाथमें शालग्रामशिला लेकर पुल्कसके निकट गये और कालकी बात है, धर्मशून्य मगधदेशमें एक पुल्कस- भगवान् शालग्रामका पवित्र चरणामृत, जिसमें तुलसीदल जातिका मनुष्य रहता था, जो लोगोंमें शबरके नामसे भी मिला हुआ था, उसके मुखमें डाल दिया। फिर प्रसिद्ध था। सदा अनेकों जीव-जन्तुओंकी हत्या करना और दूसरोंका धन लूटना, यही उसका काम था। राग-द्वेष और काम-क्रोधादि दोष सर्वदा उसमें भरे रहते थे। एक दिन वह व्याध समस्त प्राणियोंको भय पहुँचाता हुआ घूम रहा था, उसके मनपर मोह छाया हुआ था; इसलिये वह इस बातको नहीं जानता था कि उसका काल समीप आ पहुँचा है। यमराजके भयङ्कर दूत हाथों में मुद्र और पाश लिये वहाँ पहुँचे। उनके ताँबे-जैसे लाल-लाल केश, बड़े-बड़े नख तथा लंबी-लंबी दाढ़ें थीं। वे सभी काले-कलूटे दिखायी देते थे तथा हाथोंमें लोहेकी साँकलें लिये हुए थे। उन्हें देखते ही प्राणियोंको मूर्छा आ जाती थी। वहाँ पहुँचकर वे कहने लगे-'सम्पूर्ण जीवोंको भय पहुँचानेवाले इस पापीको बाँध लो।' तदनन्तर सब यमदूत उसे लोहेके पाशसे बाँधकर बोले-'दुष्ट ! दुरात्मा ! तूने कभी मनसे भी शुभकर्म नहीं किये; इसलिये हम तुझे रौरव-नरकमें डालेंगे। जन्मसे / लेकर अबतक तूने कभी भगवान्की सेवा नहीं की। उसके कानमें उन्होंने राम-नामका जप किया, मस्तकपर समस्त पापोंको दूर करनेवाले श्रीनारायणदेवका कभी तुलसी रखी और छातीपर महाविष्णुकी शालग्रामशिला स्मरण नहीं किया; अतः धर्मराजकी आज्ञासे हम तुझे रखकर कहा-'यातना देनेवाले यमदूत यहाँसे चले
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________________ 454 अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण जायें। शालग्रामशिलाका स्पर्श इस पुल्कसके महान् जैसे आगकी चिनगारी रूईको।* जिसके मस्तकपर पातकको भस्म कर डाले।' वैष्णव महात्माके इतना तुलसी, छातीपर शालग्रामकी मनोहर शिला तथा मुख या कहते ही भगवान् विष्णुके पार्षद, जिनका स्वरूप बड़ा कानमें रामनाम हो वह तत्काल मुक्त हो जाता है। इस अद्भुत था, उस पुल्कसके निकट आ पहुँचे; पुल्कसके मस्तकपर भी पहलेसे ही तुलसी रखी हुई है, शालग्रामको शिलाके स्पर्शसे उसके सारे पाप नष्ट हो इसकी छातीपर शालग्रामकी शिला है तथा अभी तुरंत ही गये थे। वे पार्षद पीताम्बर धारण किये शङ्ख, चक्र, गदा इसको श्रीरामका नाम भी सुनाया गया है; अतः इसके और पद्मसे सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने आते ही उस पापोंका समूह दग्ध हो गया और अब इसका शरीर पवित्र दुःसह लोहपाशसे पुल्कसको मुक्त कर दिया। उस हो चुका है। तुमलोगोंको शालग्रामशिलाकी महिमाका महापापीको छुटकारा दिलानेके बाद वे यमदूतोंसे ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है; यह दर्शन, स्पर्श अथवा पूजन बोले-'तुमलोग किसकी आज्ञाका पालन करनेवाले करनेपर तत्काल ही सारे पापोंको हर लेती है। हो, जो इस प्रकार अधर्म कर रहे हो? यह पुल्कस तो इतना कहकर भगवान् विष्णुके पार्षद चुप हो गये। किसलिये तुमने इसे बन्धनमें डाला था ?' उनकी बात सुनायी तथा श्रीरघुनाथजीके भजनमें लगे रहनेवाले वे सुनकर यमदूत बोले-'यह पापी है, हमलोग वैष्णव महात्मा भी यह सोचकर कि 'यह यमराजके धर्मराजकी आज्ञासे इसे ले जानेको उद्यत हुए हैं, इसने पाशसे मुक्त हो गया और अब परमपदको प्राप्त होगा' कभी मनसे भी किसी प्राणीका उपकार नहीं किया है। बहुत प्रसन्न हुए। इसी समय देवलोकसे बड़ा ही इसने जीवहिंसा जैसे बड़े-बड़े पाप किये हैं। तीर्थ- मनोहर, अत्यन्त अद्भुत और उज्ज्वल विमान आया तथा यात्रियोंको तो इसने अनेकों बार लूटा है। यह सदा वह पुल्कस उसपर आरूढ हो बड़े-बड़े पुण्यवानोंद्वारा परायी स्त्रियोंका सतीत्व नष्ट करनेमें ही लगा रहता था। सेवित स्वर्गलोकको चला गया। वहाँ प्रचुर भोगोंका सभी तरहके पाप इसने किये है; अतः हमलोग इस उपभोग करके वह फिर इस पृथ्वीपर आया और पापीको ले जानेके उद्देश्यसे ही यहाँ उपस्थित हुए काशीपुरीके भीतर एक शुद्ध ब्राह्मणवंशमें जन्म लेकर हैं। आपलोगोंने सहसा आकर क्यों इसे बन्धनसे मुक्त उसने विश्वनाथजीकी आराधना की एवं अन्तमें कर दिया ?' परमपदको प्राप्त कर लिया। वह पुल्कस पापी था तो भी विष्णुदूत बोले-यमदूतो ! ब्रह्महत्या आदिका साधु-संगके प्रभावसे शालग्रामशिलाका स्पर्श पाकर पाप हो या करोड़ों प्राणियोंके वध करनेका, शालग्राम- यमदूतोंकी भयङ्कर पीड़ासे मुक्त हो परमपदको पा गया। शिलाका स्पर्श सबको क्षणभरमें जला डालता है। राजन् ! यह मैंने तुम्हें शालग्रामशिलाके पूजनकी महिमा जिसके कानोंमें अकस्मात् भी रामनाम पड़ जाता है, बतलायी है, इसका श्रवण करके मनुष्य सब पापोंसे छूट उसके सारे पापोंको वह उसी प्रकार भस्म कर डालता है, जाता और भोग तथा मोक्षको प्राप्त होता है। * रामेति नाम यच्ोत्रे विश्रम्भादागतं यदि / करोति पापसंदाहं तूलं वहिकणो यथा // (20 / 80)
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________________ पातालखण्ड ] * राजा रत्नप्रीवका भगवानका दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना . 455 राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्रका नीलपर्वतपर पहुँचना सुमति कहते हैं-सुमित्रानन्दन ! गण्डकी हैं। वे भक्तवत्सल नाम धारण करते हैं; अतः नदीका यह अनुपम माहात्म्य सुनकर राजा रत्नग्रीवने हमलोगोंपर शीघ्र ही कृपा करेंगे। वे देवाधिदेवोंके भी अपनेको कृतार्थ माना। उन्होंने उस तीर्थमें स्नान करके शिरोमणि हैं, अपने भक्तोंका कभी परित्याग नहीं करते। अपने समस्त पितरोंका तर्पण किया। इससे उनको बड़ा अबतक उन्होंने अनेकों भक्तोंकी रक्षा की है, इसलिये हर्ष हुआ। फिर शालग्रामशिलाकी पूजाके उद्देश्यसे महामते ! तुम उन्हींका गुणगान करो।' ब्राह्मणकी बात उन्होंने गण्डकी नदीसे चौबीस शिलाएँ ग्रहण की और सुनकर राजाने व्यथित चित्तसे गङ्गा-सागर-सङ्गममें स्नान चन्दन आदि उपचार चढ़ाकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा किया। इसके बाद उन्होंने उपवासका व्रत लिया। 'जब की। तत्पश्चात् वहाँ दीनों और अंधोको विशेष दान देकर भगवान् पुरुषोत्तम दर्शन देनेकी कृपा करेंगे तभी उनकी राजाने पुरुषोत्तममन्दिरको जानेके लिये प्रस्थान किया। पूजा करके भोजन करूंगा, अन्यथा निराहार ही रहूँगा।' इस प्रकार क्रमशः यात्रा करते हुए वे उस तीर्थमें पहुँचे, ऐसा नियम करके वे गङ्गासागरके तटपर बैठ गये और जहाँ गङ्गा और समुद्रका सङ्गम हुआ है। वहाँ जाकर भगवान्का गुणगान करते हुए उपवासव्रतका पालन उन्होंने ब्राह्मणोंसे प्रसन्नतापूर्वक पूछा-'स्वामिन् ! करने लगे। बताइये, नीलाचल यहाँसे कितनी दूर है? जहाँ साक्षात् राजा बोले-प्रभो! आप दीनोंपर दया भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं तथा देवता और करनेवाले हैं; आपकी जय हो। भक्तोंका दुःख दूर असुर भी जिनके सामने मस्तक नवाते हैं।' करनेवाले पुरुषोत्तम ! आपका नाम मङ्गलमय है, उस समय तपस्वी ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ। आपकी जय हो। भक्तजनोंकी पीड़ाका नाश करनेके उन्होंने राजासे बड़े आदरके साथ कहा-'राजन् ! लिये ही आपने सगुण विग्रह धारण किया है, आप नीलपर्वतका विश्ववन्दित स्थान है तो यही; किन्तु न जाने दुष्टोंका विनाश करनेवाले हैं; आपकी जय हो ! जय वह हमें दिखायी क्यों नहीं देता।' वे बारंबार इस बातको हो !! आपके भक्त प्रह्लादको उसके पिता दैत्यराजने बड़ी दुहराने लगे कि 'नीलाचलका वह स्थान, जो महान् व्यथा पहुँचायी-शूलीपर चढ़ाया, फाँसी दी, पानीमें पुण्यफल प्रदान करनेवाला है तथा जहाँ भगवान् डुबोया, आगमें जलाया और पर्वतसे नीचे गिराया; किन्तु पुरुषोत्तमका निवास है, यही है। उसका दर्शन क्यों नहीं आपने नृसिंहरूप धारण करके प्रह्लादको तत्काल होता? यह बात समझमें नहीं आती। इसी स्थानपर मैंने संकटसे बचा लिया; उसका पिता देखता ही रह गया। नान किया था, यहीं मुझे वे भील दिखायी दिये थे और मतवाले गजराजका पैर ग्राहके मुखमें पड़ा था और वह इसी मार्गसे मैं पर्वतके ऊपर चढ़ा था। यह बात सुनकर अत्यन्त दुःखी हो रहा था; उसकी दशा देख आपके राजाके मनमें बड़ी व्यथा हुई, वे कहने लगे- हृदयमें करुणा भर आयी और आप उसे बचानेके लिये 'विप्रवर ! मुझे पुरुषोत्तमका दर्शन कैसे होगा? तथा शीघ्र ही गरुड़पर सवार हुए; किन्तु आगे चलकर आपने वह नीलपर्वत कैसे दिखायी देगा? मुझे इसका कोई पक्षिराज गरुड़को भी छोड़ दिया और हाथमे चक्र लिये उपाय बताइये।' तब तपस्वी ब्राह्मणने विस्मित होकर बड़े वेगसे दौड़े। उस समय अधिक वेगके कारण कहा-'राजन् ! हमलोग गङ्गासागर-सङ्गममें स्नान आपकी वनमाला जोर-जोरसे हिल रही थी और करके यहाँ तबतक ठहरे रहे जबतक कि नीलाचलका पीताम्बरका छोर आकाशमें फहरा रहा था। आपने दर्शन न हो जाय / भगवान् पुरुषोत्तम पापहारी कहलाते तत्काल पहुँचकर गजराजको ग्राहके चंगुलसे छुड़ाया
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________________ * अर्चयस्व हृषीकेशं बदीच्छसि पर पदम् . ........ [संक्षिप्त पयपुराण .. . . . . . . . . . . . और ग्राहको मौतके घाट उतार दिया / जहाँ-जहाँ आपके संन्यासी बावाको नमस्कार किया और अर्घ्य, पाद्य तथा सेवकोपर सङ्कट आता है वहीं-वहीं आप देह धारण आसन आदि निवेदन करके उनका विधिवत् पूजन करके अपने भक्तोंकी रक्षा करते हैं। आपकी लीलाएँ किया। इसके बाद वे बोले-'महात्मन् ! आज मेरे मनको मोहने तथा पापको हर लेनेवाली हैं। उन्हींके द्वारा सौभाग्यकी कोई तुलना नहीं है; क्योंकि आज आप-जैसे आप भक्तोंका पालन करते हैं। भक्तवल्लभ ! आप साधु पुरुषने कृपापूर्वक मुझे दर्शन दिया है। मैं समझता दीनोंके नाथ हैं, देवताओंके मुकुटमें जड़े हुए हीरे आपके हूँ, इसके बाद अब भगवान् गोविन्द भी मुझे अपना चरणोंका स्पर्श करते हैं। प्रभो! आप करोड़ों पापोंको दर्शन देंगे।' यह सुनकर संन्यासी बाबाने कहाभस्म करनेवाले हैं। मुझे अपने चरण-कमलोका दर्शन 'राजन् ! मेरी बात सुनो, मैं अपनी ज्ञानशक्तिसे भूत, दीजिये। यदि मैं पापी हूँ तो भी आपके मानसमें- भविष्य और वर्तमान-तीनों कालकी बात जानता हूँ, आपको प्रिय लगनेवाले इस पुरुषोत्तमक्षेत्रमें आया हूँ, इसलिये जो कुछ भी कहूँ, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनना, अतः अब मुझे दर्शन दीजिये। देव-दानव-वन्दित कल दोपहरके समय भगवान् तुम्हें दर्शन देंगे, वही परमेश्वर ! हम आपके ही हैं। आप पाप-राशिका नाश दर्शन, जो ब्रह्माजीके लिये भी दुर्लभ है, तुम्हें सुलभ करनेवाले हैं। आपको यह महिमा मुझे भूली नहीं है। होगा। तुम अपने पाँच आत्मीय-जनोंके साथ परमपदको सबके दुःखोंको दूर करनेवाले दयामय ! जो लोग प्राप्त होओगे। तुम, तुम्हारे मन्त्री, तुम्हारी रानी, ये तपस्वी आपके पवित्र नामोंका कीर्तन करते हैं, वे पाप-समुद्रसे ब्राह्मण तथा तुम्हारे नगरमें रहनेवाला करम्ब नामका तर जाते हैं। यदि संतोंके मुखसे सुनी हुई मेरी यह बात साधु, जो जातिका तन्तुवाय-कपड़ा बुननेवाला सच्ची है तो आप मुझे प्राप्त होइये-मुझे दर्शन देकर जुलाहा है-इन सबके साथ तुम पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिपर कृतार्थ कीजिये। जा सकोगे। वह पर्वत देवताओद्वारा पूजित तथा ब्रह्मा सुमति कहते हैं-इस प्रकार राजा रत्नग्रीव और इन्द्रद्वारा अभिवन्दित है।' यह कहकर संन्यासी रात-दिन भगवान्का गुणगान करते रहे। उन्होंने बाबा अन्तर्धान हो गये, अब वे कहीं दिखायी नहीं देते क्षणभरके लिये भी न तो कभी विश्राम किया, न नींद ली थे। उनकी बात सुनकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। साथ और न कोई सुख ही उठाया। वे चलते-फिरते, ठहरते, ही विस्मय भी। उन्होंने तपस्वी ब्राह्मणसे पूछागीत गाते तथा वार्तालाप करते समय भी निरन्तर यही स्वामिन् ! वे संन्यासी कौन थे, जो यहाँ आकर मुझसे कहते कि–'पुरुषोत्तम ! कृपानाथ ! आप मुझे अपने बात कर गये हैं, इस समय वे फिर दिखायी नहीं देते, स्वरूपकी झाँकी कराइये। इस तरह गङ्गासागरके तटपर कहाँ चले गये? उन्होंने मेरे चित्तको बड़ा हर्ष प्रदान रहते हुए राजाके पाँच दिन व्यतीत हो गये। तब किया है।' दयासागर श्रीगोपालने कृपापूर्वक विचार किया कि 'यह तपस्वी ब्राह्मणने कहा-राजन् ! वे समस्त राजा मेरी महिमाका गान करनेके कारण सर्वथा पापरहिन्न पापोंका नाश करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तम ही थे, जो हो गया है; अतः अब इसे मेरे देव-दानव-वन्दित तुम्हारे महान् प्रेमसे आकृष्ट होकर यहाँ आये थे। कल प्रियतम विग्रहका दर्शन होना चाहिये।' ऐसा सोचकर दोपहरके समय महान् पर्वत नीलगिरि तुम्हारे सामने भगवान्का हृदय करुणासे भर गया और वे संन्यासीका प्रकट होगा, तुम उसपर चढ़कर भगवान्का दर्शन करके वेष धारण करके राजाके समीप गये। तपस्वी ब्राह्मणने कृतार्थ हो जाओगे। देखा, भगवान् अपने भक्तपर कृपा करनेके लिये हाथमें ब्राह्मणका यह वचन अमृत-राशिके समान त्रिदण्ड ले यतिका वेष बनाये यहाँ उपस्थित हुए हैं। सुखदायी प्रतीत हुआ; उसने राजाके हृदयकी सारी नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने 'ॐ नमो नारायणाय' कहकर चिन्ताओंका नाश कर दिया। उस समय काञ्ची-नरेशको
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पातालखण्ड ] • राजा रत्नप्रीवका भगवानका दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना .
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जो आनन्द मिला, उसका ब्रह्माजी भी अनुभव नहीं कर महाबुद्धिमान् राजाने अपनेको उनका कृपापात्र माना । सकते। दुन्दुभी बजने लगी तथा वीणा, पणव और स्वप्रमें ये सारी बातें देखकर जब वे प्रातःकाल नींदसे उठे गोमुख आदि बाजे भी बज उठे। महाराज रत्नग्रीवके तो तपस्वी ब्राह्मणको बुलाकर उन्होंने अपने देखे हुए मनमें उस समय बड़ा उल्लास छा गया था। वे प्रतिक्षण सपनेका सारा समाचार उनसे कह सुनाया। उसे सुनकर भगवान्का गुणगान करते हुए, नाचते, खड़े होते, हँसते, बुद्धिमान् ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने बोलते और बात करते थे। उन्हें सब सन्तापोंका नाश कहा-'राजन् ! तुमने जिन भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन करनेवाले घनीभूत आनन्दकी प्राप्ति हुई थी। तदनन्तर किया है, वे तुम्हें अपना शङ्ख, चक्र आदि चिह्नोंसे सारा दिन भगवान्के कीर्तन और स्मरणमें बिताकर राजा विभूषित स्वरूप प्रदान करना चाहते हैं।' यह सुनकर रत्नग्रीव रातमें गङ्गाजीके तटपर, जो महान् फल प्रदान महामना रत्नग्रीवने दीन-दुःखियोंको उनकी इच्छाके करनेवाला है, सो रहे। सपनेमें उन्होंने देखा, 'मेरा स्वरूप अनुसार दान दिलाया। फिर गङ्गासागर-सङ्गममें नान चतुर्भुज हो गया है। मैं शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और शाह- करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया तथा धनुष धारण किये हुए हूँ तथा भगवान् पुरुषोत्तमके भगवान्के गुणोंका गान करते हुए वे उनके दर्शनकी सामने रुद्र आदि देवताओंके साथ नृत्य कर रहा हूँ।' प्रतीक्षा करने लगे। तदनन्तर, जब दोपहरका समय हुआ
तो आकाशमें बारंबार दुन्दुभियाँ बजने लगीं। देवताओंके हाथसे बजाये जानेके कारण उनसे बड़े जोरकी आवाज होती थी। सहसा राजाके मस्तकपर फूलोकी वर्षा हुई। देवता कहने लगे--'नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो! नौलाचलका प्रत्यक्ष दर्शन करो।' देवताओंकी कही हुई यह बात ज्यों ही राजाके कानोंमें पड़ी, त्यों ही नीलगिरिके नामसे प्रसिद्ध वह महान् पर्वत उनकी आँखोंके समक्ष प्रकट हो गया। करोड़ों सूर्योक समान उसका प्रकाश छा रहा था। चारों ओरसे सोने
और चाँदीके शिखर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। राजा सोचने लगे-क्या यह अग्नि प्रज्वलित हो रहा है या दूसरे सूर्यका उदय हुआ है? अथवा स्थिर कान्ति धारण करनेवाला विद्युतपुञ्ज ही सहसा सामने प्रकट हो गया है?' _तपस्वी ब्राह्मणने अत्यन्त शोभासम्पन्न नीलगिरिको
देखकर राजासे कहा-'महाराज ! यही वह परम पवित्र उन्हें यह भी दिखायी दिया कि शङ्ख, चक्र, गदा और पद्य महान् पर्वत है।' यह सुनकर नृपश्रेष्ठ रत्नगीवने मस्तक आदि आयुध तथा विश्वक्सेन आदि पार्षदगण परम झुकाकर उसे प्रणाम किया और कहा- 'मैं धन्य और सुन्दर दिव्य स्वरूपसे प्रकट हो सदा श्रीलक्ष्मीपतिकी कृतकृत्य हो गया; क्योंकि इस समय मुझे नीलाचलका उपासनामें संलग्न रहते हैं। यह सब देखकर उन्हें अद्भुत प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है। राजमन्त्री, रानी और करम्ब हर्ष और आश्चर्य हुआ। अपनी मनोवाञ्छित कामना नामका जुलाहा-ये भी नीलाचलका दर्शन पाकर बड़े पूर्ण करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन पाकर प्रसन्न हुए। नरश्रेष्ठ ! उपर्युक्त पाँचों व्यक्तियोंने
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
विजयनामक मुहूर्तमें नीलगिरिपर चढ़ना आरम्भ किया। प्रणामके पश्चात् वेदोक्त मन्त्रोंद्वारा उन्हें विधिवत् स्नान उस समय उन्हें देवताओंद्वारा बजायी हुई महान् कराया और प्रसन्न चित्तसे अर्घ्य, पाद्य आदि उपचार दुन्दुभियोंकी ध्वनि सुनायी दे रही थी। पर्वतके ऊपरी अर्पण किये। इसके बाद भगवान्के श्रीविग्रहमें चन्दन शिखरपर, जो विचित्र वृक्षोंसे सुशोभित हो रहा था, लगाकर उन्हें वस्त्र निवेदन किया तथा धूप-आरती करके उन्होंने एक सुवर्णजटित परम सुन्दर देवालय देखा । जहाँ सब प्रकारके स्वादसे युक्त मनोहर नैवेद्य भोग लगाया। प्रतिदिन ब्रह्माजी आकर भगवान्की पूजा करते हैं तथा अन्तमें पुनः प्रणाम करके तापस ब्राह्मणके साथ वे श्रीहरिको सन्तोष देनेवाला नैवेद्य भोग लगाते हैं। वह भगवान्की स्तुति करने लगे। उसमें उन्होंने अपनी अद्भुत एवं उज्ज्वल देवालय देखकर राजा सबके साथ बुद्धिके अनुसार श्रीहरिके गुण-समुदायसे ग्रथित उसके भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ एक सोनेका सिंहासन था, स्तोत्रोंका संग्रह सुनाया था। जो बहुमूल्य मणियोंसे जटित होनेके कारण अत्यन्त राजा बोले-भगवन् ! एकमात्र आप ही पुरुष विचित्र दिखायी दे रहा था। उसके ऊपर भगवान् (अन्तर्यामी) हैं। आप ही प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् चतुर्भुज रूपसे विराजमान थे ! उनकी झांकी बड़ी हैं। आप कार्य और कारणसे भिन्न तथा महत्तत्त्व आदिसे मनोहर दिखायी देती थी। चण्ड, प्रचण्ड और विजय पूजित हैं। सृष्टि-रचनामे कुशल ब्रह्माजी आपहीके आदि पार्षद उनकी सेवामें खड़े थे। नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने नाभि-कमलसे उत्पन्न हुए हैं तथा संहारकारी रुद्रका अपनी रानी और सेवकोंसहित भगवानको प्रणाम किया। आविर्भाव भी आपहीके नेत्रोंसे हुआ है। आपकी ही
आज्ञासे ब्रह्माजी इस संसारकी सृष्टि करते हैं। पुराणपुरुष ! आदिकालका जो स्थावर-जङ्गमरूप जगत् दिखायी देता है, वह सब आपसे ही उत्पन्न हुआ है। आप ही इसमें चेतनाशक्ति डालकर इस संसारको चेतन बनाते हैं। जगदीश्वर ! वास्तवमें आपका जन्म तो कभी होता ही नहीं है; अतएव आपका अन्त भी नहीं है। प्रभो! आपमें वृद्धि, क्षय और परिणाम-इन तीनों विकारोंका सर्वथा अभाव है, तथापि आप भक्तोंकी रक्षा
और धर्मकी स्थापनाके लिये अपने अनुरूप गुणोंसे युक्त दिव्य जन्म-कर्म स्वीकार करते हैं। आपने मत्स्यावतार धारण करके शवासुरको मारा और वेदोंकी रक्षा की। ब्रह्मन् ! आप महापुरुष (पुरुषोत्तम) और सबके पूर्वज हैं। महाविष्णो ! शेष भी आपकी महिमाको नहीं जानते। भगवती वाणी भी आपको समझ नहीं पाती, फिर मेरे-जैसे अन्यान्य अज्ञानी जीव कैसे आपकी स्तुति करनेमें समर्थ हो सकते हैं?*
एकस्त्वं पुरुषः साक्षाद् भगवान् प्रकृतेः परः । कार्यकारणतो भिन्नो महतत्वादिपूजितः ।। त्वन्नाभिकमलाजशे ब्रह्मा सृष्टिविचक्षणः । तथा संहारकर्ता च रुद्रस्त्वन्नेत्रसंभवः ॥
त्वयाऽज्ज्ञप्तः करोत्यस्य विश्वस्य परिचेष्टितम्॥
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पातालखण्ड ] . राजा रत्रग्रीवका भगवानका दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना .
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इस प्रकार स्तुति करके राजाने भगवान्के चरणोंमें थीं। सबके हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा मस्तक नवाकर पुनः प्रणाम किया। उस समय उनका रहे थे। सभी मेघके समान श्यामसुन्दर और विशुद्ध स्वर गद्गद हो रहा था । समस्त अङ्गोंमें रोमाश हो आया स्वभाववाले थे। सबके हाथ कमलोंकी भाँति सुशोभित था। उनकी इस स्तुतिसे भगवान् पुरुषोत्तम बहुत प्रसन्न थे। हार, केयूर और कड़ोंसे सभीके अङ्ग विभूषित थे। हुए। उन्होंने राजासे सत्य और सार्थक वचन कहा। इस प्रकार उन सब लोगोंने वैकुण्ठधामकी यात्रा की।
श्रीभगवान् बोले-राजन् ! तुम्हारे द्वारा की हुई साथमें आये हुए प्रजावर्गक लोगोंने विमानोंकी पंक्तियाँ इस स्तुतिसे मुझे बड़ा हर्ष हुआ है। महाराज ! तुम यह देखीं तथा दुन्दुभीकी ध्वनिको भी श्रवण किया। उस जान लो कि मैं प्रकृतिसे परे रहनेवाला परमात्मा हूँ। अब समय एक ब्राह्मण भी वहाँ गये थे, जो भगवान्के तुम शीघ्र ही मेरा नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करो। इससे चरणारविन्दोंमें बड़ा प्रेम रखनेवाले थे। उनके चित्तपर परम मनोहर चतुर्भुज रूपको प्राप्त होकर परमपदको भगवविरहका इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वे जाओगे। जो मनुष्य तुम्हारे किये हुए इस स्तोत्ररत्नसे मेरी चतुर्भुज-स्वरूप हो गये। यह अद्भुत बात देखकर सब स्तुति करेगा; उसे भी मैं अपना उत्तम दर्शन दूंगा, जो लोग ब्राह्मणके महान् सौभाग्यकी सराहना करने लगे भोग और मोक्ष-दोनों प्रदान करनेवाला है। और गङ्गासागर-सङ्गममें स्नान करके काशीनगरीमें लौट
भगवान्के कहे हुए इस वचनको सुनकर राजाने आये। सब लोग कहते थे कि 'उत्तम बुद्धिवाले महाराज अपनी सेवामें रहनेवाले चारों स्वजनोंके साथ नैवेद्य रलग्रीवका अहोभाग्य है, जो वे इसी शरीरसे श्रीविष्णुके भक्षण किया। तदनन्तर क्षुद्रघण्टिकाओंसे सुशोभित परमधामको चले गये।' सुन्दर विमान उपस्थित हुआ। उस समय धर्मात्मा राजा [सुमति कहते हैं-]राजन् ! यही वह रत्नग्रीवने, जो भगवान्के कृपापात्र हो चुके थे, नीलगिरि है, जिसका भगवान् पुरुषोत्तमने आदर बढ़ाया श्रीपुरुषोत्तमदेवका दर्शन करके उनके चरणोंमें प्रणाम है। इसका दर्शन करनेमात्रसे मनुष्य परमपदकिया तथा उनकी आज्ञा ले अपनी रानीके साथ वैकुण्ठधामको प्राप्त हो जाते हैं। जो सौभाग्यशाली पुरुष विमानपर जा बैठे। फिर भगवान्के देखते-देखते अद्भुत नीलगिरिके इस माहात्म्यको सुनता है तथा जो दूसरे वैकुण्ठलोकमें चले गये। राजाके मन्त्री भी धर्मपरायण लोगोंको सुनाता है, वे दोनों ही परमधामको प्राप्त होते तथा धर्मवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ थे; अतः वे भी विमानपर हैं। इसका श्रवण और स्मरण करनेमात्रसे बुरे सपने नष्ट बैठकर उनके साथ ही गये। सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्रान हो जाते हैं तथा अन्तमें भगवान् पुरुषोत्तम इस संसारसे करनेवाले तपस्वी ब्राह्मण भी चतुर्भुज-स्वरूपको प्राप्त उद्धार कर देते हैं। ये नीलाचलनिवासी पुरुषोत्तम होकर वैकुण्ठको चले गये। इसी प्रकार करम्बने भी श्रीरामचन्द्रके ही स्वरूप हैं तथा देवी सीता साक्षात् भगवान्के गुणोंका गायन करनेके पुण्यसे उनका दर्शन महालक्ष्मी हैं। ये दोनों दम्पत्ति ही समस्त कारणोंके भी पाया और सम्पूर्ण देवताओंके लिये दुर्लभ भगवद्- कारण हैं। भगवान् श्रीराम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान धामको प्रस्थान किया। सभी एक ही साथ परम अद्भुत करके सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र कर देंगे। उनका नाम विष्णुलोककी ओर प्रस्थित हुए। सबके चार-चार भुजाएँ ब्रह्महत्याके प्रायश्चित्तमें भी जपनेके लिये बताया गया
* त्यतो जातं पुराणायं जगत् स्थानु चरिष्णु च । चेतनाशक्तिमाविश्य खमेन चेतयस्यहो ।
तव जन्म तु नास्त्येव नान्तस्तव जगत्पते । वृद्धिक्षयपरीणामास्त्वयि सन्त्येव नो विभो । तथापि भक्तरक्षार्थ धर्मस्थापनहेतवे । करोषि जन्मकर्माणि हानुरूपगुणानि च॥ त्वया मात्स्य वपुर्धत्वा शबस्तु निहतोऽसुरः । वेदाः सुरक्षिता अहान् महापुरुषपूर्वज ॥ शेषो न वेति मह ते भारत्यपि महेश्वरी । किमुतान्ये महाविष्णो मादृशास्तु कुबुद्धयः ॥ (२२ ॥ २८-३४)
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• अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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है। [राम-नाम लेनेसे ब्रह्महत्या जैसे पातक भी दूर हो जाते हैं।] सुमित्रानन्दन! इस समय तुम्हारा यज्ञ सम्बन्धी घोड़ा पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिके निकट जा पहुँचा है। महामते। तुम भी वहाँ चलकर भगवान् पुरुषोत्तमको नमस्कार करो। वहाँ जानेसे हम सब लोग निष्पाप होकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होंगे; क्योंकि भगवान्के प्रसादसे अबतक अनेक मनुष्य भवसागरके पार हो चुके हैं। [शेषजी कहते हैं- ] वात्स्यायनजी! इस प्रकार
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
शेषजी कहते हैं—मुने! तदनन्तर वह घोड़ा नीलाचलपर थोड़ी देर ठहरकर घास चरता हुआ आगे बढ़ गया। उसका वेग मनके समान तीव्र था श्रेष्ठ वीर शत्रुघ्न, राजा लक्ष्मीनिधि, भयङ्कर वाहनवाले राजकुमार पुष्कल तथा राजा प्रतापाग्रय- ये सभी उसकी रक्षा कर रहे थे। कई करोड़ वीरोंसे सुरक्षित वह यज्ञसम्बन्धी अश्व क्रमशः आगे बढ़ता हुआ राजा सुबाहुद्वारा परिपालित चक्राङ्का नगरीके पास जा पहुँचा। उस समय राजाका पुत्र दमन शिकार खेल रहा था। उसकी दृष्टि उस घोड़ेपर पड़ी, जो चन्दन आदिसे चर्चित तथा मस्तकमें सुवर्णमय पत्रसे शोभायमान था। राजकुमार दमनने उस पत्रको बाँचा, सुन्दर अक्षरोंमें लिखा होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्रका अभिप्राय समझकर वह बोला- 'अहो ! भूमण्डलपर मेरे पिताजीके जीते जी यह इतना बड़ा अहङ्कार कैसा ? जिसने यह घमण्ड दिखाया है उसे मेरे धनुषसे छूटे हुए बाण इस उद्दण्डताका फल चखायेंगे। आज मेरे तीखे बाण शत्रुनके समस्त शरीरको घायल करके उन्हें लहू-लुहान कर देंगे, जिससे वे फूले हुए पलाशकी भांति दिखायी देंगे। आज सभी श्रेष्ठ योद्धा मेरी भुजाओंका महान् बल देखें ! मैं अपने धनुर्दण्डसे करोड़ों बाणोंकी वर्षा करूंगा।'
सुमति भगवान्की महिमाका वर्णन कर रहे थे इतनेहीमें वह अश्व पृथ्वीको अपनी टापोंसे खोदता हुआ वायुके समान वेगसे चलकर नीलाचलपर पहुँच गया। तब राजा शत्रुघ्न भी उसके पीछे-पीछे जाकर नीलगिरिपर पहुँचे और गङ्गासागर सङ्गममें स्नान करके पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये गये निकट जाकर उन्होंने देव-दानववन्दित भगवान्को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ माना ।
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चक्राङ्का नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापाश्यको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
नगरमें भेज दिया और स्वयं हर्ष तथा उत्साहमें भरकर सेनापतिसे कहा- 'महामते ! शत्रुओंका सामना करनेके लिये मेरी सेना तैयार कर दो।' इस प्रकार सेनाको सुसज्जित करके वह शीघ्र ही युद्ध क्षेत्रमें सामने जाकर डट गया। उस समय उसका स्वरूप बड़ा उम्र दिखायी देता था। इसी बीचमें घोड़ेके पीछे चलनेवाले योद्धा भी वहाँ आ पहुँचे और अत्यन्त व्याकुल होकर बारम्बार एक-दूसरेसे पूछने लगे- 'महाराजका वह यज्ञसम्बन्धी अश्व, जो भालपत्रसे चिह्नित था, कहाँ चला गया ?" इतनेहीमें शत्रुओंको ताप देनेवाले राजा प्रतापाय्यने देखा, सामने ही कोई सेना तैयार होकर खड़ी है, जो वीरोचित शब्दोंका उच्चारण करती हुई गर्जना कर रही है। प्रतापाश्यके सिपाहियोंने उनसे कहा- 'महाराज जान पड़ता है, यही राजा घोड़ा ले गया है; अन्यथा यह वीर अपने सैनिकोंके साथ हमारे सामने क्यों खड़ा होता ?" यह सुनकर प्रतापाय्यने अपना एक सेवक भेजा। उसने जाकर पूछा- महाराज श्रीरामचन्द्रजीका अश्व कहाँ है ? कौन ले गया है ? क्यों ले गया है ? क्या वह भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको नहीं जानता ?'
राजकुमार दमन बड़ा बलवान् था, वह सेवकका ऐसा वचन सुनकर बोला- 'अरे! भाल-पत्र आदि चिह्नोंसे अलङ्कृत उस यज्ञसम्बन्धी अश्वको मैं ले गया राजकुमार दमनने ऐसा कहकर घोड़ेको तो अपने हूँ। उसकी सेवामें जो शूरवीर हों, वे आवें और मुझे
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पातालखण्ड ] • राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा पुष्कलद्वारा पराजित होना
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जीतकर बलपूर्वक यहाँसे घोड़ेको छुड़ा ले जायें।' राजकुमारका वचन सुनकर सेवकको बड़ा रोष हुआ, तथापि वह हँसता हुआ वहाँसे लौट गया और राजाके पास जाकर उसने दमनकी कही हुई सारी बातें ज्यों की त्यों सुना दीं। उसे सुनते ही महाबली प्रतापाग्र्यकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं और वे चार घोड़ोंसे सुशोभित सुवर्णमय रथपर सवार हो बड़े-बड़े वीरोंको साथ ले राजकुमारसे युद्ध करनेके लिये चले। उनकी सहायतामें बहुत बड़ी सेना थी। आगे बढ़कर वे धनुषपर टङ्कार देने लगे। उस समय रोषपूर्ण नेत्रोंवाले राजा प्रतापाय्यके पीछे-पीछे बहुत से घुड़सवार और हाथीसवार भी गये । निकट जाकर प्रतापाभ्यने युद्धके लिये उद्यत राजकुमारको सम्बोधित करके कहा-' - कुमार! तू तो अभी बालक है। क्या तूने ही हमारे श्रेष्ठ घोड़ेको बाँध रखा है ? अरे! समस्त वीरशिरोमणि जिनके चरणोंकी सेवा करते हैं, उन महाराज श्रीरामचन्द्रजीको तू नहीं जानता ? दैत्यराज रावण भी जिनके अद्भुत प्रतापको नहीं सह सका, उन्होंके घोड़ेको ले जाकर तूने अपने नगरमें पहुँचा दिया है! जान ले, मैं तेरे सामने आया हुआ काल हूँ, तेरा घोर शत्रु हूँ। छोकरे! तू अब तुरंत चला जा और घोड़े को छोड़ दे, फिर जाकर बालकोंकी भाँति खेल-कूदमें जी बहला।'
दमनका हृदय बड़ा विशाल था, वह प्रतापाय्यकी ऐसी बातें सुनकर मुसकराया और उनकी सेनाको तिनकेके समान समझता हुआ बोला- 'महाराज ! मैंने बलपूर्वक आपके घोड़ेको बाँधा और अपने नगरमें पहुँचा दिया है, अब जीते जी उसे लौटा नहीं सकता। आप बड़े बलवान् हैं तो युद्ध कीजिये। आपने जो यह कहा- 'तू अभी बालक है, इसलिये जाकर खेल कूदमें जी बहला' उसके लिये इतना ही कहना है कि अब आप युद्धके मुहानेपर ही मेरा खेल देखिये।'
इतना कहकर सुबाहु कुमारने अपने धनुषपर प्रत्यचा चढ़ायी और राजा प्रतापाश्यकी छातीको लक्ष्य करके सौ बाणोंका संधान किया। परन्तु राजा प्रतापायने अपने हाथकी फुर्ती दिखाते हुए उन सभी
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बाणोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। यह देखकर राजकुमार दमनको बड़ा क्रोध हुआ और वह बाणोंकी वर्षा करने लगा। तदनन्तर, दमनने अपने धनुषपर तीन सौ बाणोंका संधान किया और उन्हें शत्रुपर चलाया। उन्होंने प्रतापाय्यकी छाती छेद डाली और रक्तमें नहाकर वे उसी भाँति नीचे गिरे, जैसे श्रीरामचन्द्रजीकी भक्तिसे विमुख हुए पुरुषोंका पतन हो जाता है। इसके बाद राजकुमारने शङ्खध्वनिके साथ गर्जना की। उसका पराक्रम देखकर प्रतापाग्र्य क्रोधसे जल उठे और बोले— 'वीर! अब तू मेरा अद्भुत पराक्रम देख।' यो कहकर उन्होंने तुरंत तीखे बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। वे बाण घोड़े और पैदल-सबके ऊपर पड़ते दिखायी देने लगे। उस समय राजकुमार दमनने प्रतापाग्र्यकी बाणवर्षाको रोककर कहा - 'आर्य ! यदि आप शूरवीर हैं तो मेरी एक ही मार सह लीजिये। मैं अभिमानपूर्वक प्रतिज्ञा करके एक बात कहता हूँ, इसे सुनिये - वीरवर! यदि मैं इस बाणके द्वारा आपको रथसे नीचे न गिरा दूँ तो जो लोग युक्तिवादमें कुशल होनेके कारण मतवाले होकर वेदोंकी निन्दा करते हैं, उनका वह नरकमें डुबोनेवाला पाप मुझे ही लगे।' यह कहकर उसने कालके समान भयङ्कर, आगकी ज्वालाओंसे व्याप्त एवं अत्यन्त तीक्ष्ण बाण तरकशसे निकालकर अपने धनुषपर चढ़ाया। वह कालाग्निके समान देदीप्यमान हो रहा था। राजकुमारने अपने शत्रुके हृदयको निशाना बनाया और बाण छोड़ दिया। वह बड़े वेगसे शत्रुकी ओर चला। प्रतापाग्र्यने जब देखा कि शत्रुका बाण मुझे गिरानेके लिये आ रहा है, तो उन्होंने उसे काट डालनेके लिये कई तीखे बाण अपने धनुषपर चढ़ाये। किन्तु राजकुमारका बाण प्रतापाश्यके सब बाणोंको बीचसे काटता हुआ उनके धैर्ययुक्त हृदयतक पहुँच ही गया। हृदयपर चोट करके वह उसके भीतर घुस गया। राजा प्रतापाग्र्य उसकी चोट खाकर पृथ्वीपर गिर पड़े। उन्हें मूर्च्छित - चेतनाहीन एवं रथकी बैठकसे धरतीपर गिरा देख सारथिने उठाकर रथपर बिठाया और युद्धभूमिसे बाहर ले गया। उस समय राजाकी सेनामें
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
बड़ा हाहाकार मचा। समस्त योद्धा भागकर वहाँ पहुँचे जहाँ करोड़ों वीरोंसे घिरे हुए शत्रुघ्रजी मौजूद थे। प्रतापायको परास्त करके राजकुमार दमनने विजय पायी और अब वह शत्रुनकी प्रतीक्षा करने लगा ।
उधर शत्रुघ्रको जब यह हाल मालूम हुआ तो वे क्रोधमें भरकर दाँतोंसे दाँत पीसते हुए बारंबार सैनिकोंसे पूछने लगे — 'कौन मेरा घोड़ा ले गया है ? किसने शूर - शिरोमणि राजा प्रतापाग्र्यको परास्त किया है ?' तब सेवकोंने कहा- 'राजा सुबाहुके पुत्र दमनने प्रतापायको पराजित किया है और वे ही यज्ञका घोड़ा ले गये हैं।' यह सुनकर शत्रुघ्न बड़े वेगसे चलकर युद्धभूमिमें आये। वहाँ उन्होंने देखा, कितने ही हाथियोंके गण्डस्थल विदीर्ण हो गये हैं, घोड़े अपने सवारोंसहित घायल होकर मरे पड़े हैं। यह सब देखकर शत्रुनके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये; वे अपने योद्धाओंसे बोले- 'यहाँ मेरी सेनामें सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान रखनेवाला कौन ऐसा वीर है, जो राजकुमार दमनको परास्त कर सकेगा ?' शत्रुघ्रका यह वचन सुनकर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले पुष्कलके हृदयमें दमनको जीतनेका उत्साह हुआ और उन्होंने इस प्रकार कहा - 'स्वामिन्! कहाँ यह छोटा सा राजकुमार दमन और कहाँ आपका असीम बल! महामते ! मैं अभी जा रहा हूँ, आपके प्रतापसे दमनको परास्त करूँगा। युद्धके लिये मुझ सेवकके उद्यत रहते हुए कौन घोड़ा ले जायेगा ? श्रीरघुनाथजीका प्रताप ही सारा कार्य सिद्ध करेगा। स्वामिन्! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये इससे आपको प्रसन्नता होगी। यदि मैं दमनको परास्त न करूँ तो श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंके रसास्वादनसे विलग (श्रीरामचरणचिन्तनसे दूर) रहनेवाले पुरुषोंको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। यदि मैं दमनपर विजय न पाऊँ तो जो पुत्र माताके चरणोंसे पृथक् दूसरा कोई तीर्थ मानकर उसके साथ विरोध करता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे।'
पुष्कलकी यह प्रतिज्ञा सुनकर शत्रुघ्नजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उन्हें युद्धमें जानेकी आज्ञा
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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दे दी। आज्ञा पाकर पुष्कल बहुत बड़ी सेनाके साथ उस स्थानपर गये, जहाँ वीरवंशमें उत्पन्न राजकुमार दमन मौजूद था। युद्धक्षेत्रमें पुष्कलको आया जान वीराग्रगण्य दमन भी अपनी सेनासे घिरा हुआ आगे बढ़ा। दोनोंका एक-दूसरेसे सामना हुआ। अपने-अपने रथपर बैठे हुए दोनों वीर बड़ी शोभा पा रहे थे, उस समय पुष्कलने महाबली राजकुमारसे कहा- 'दमन ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि मैं तुम्हारे साथ युद्ध करनेके लिये प्रतिज्ञा करके आया हूँ, मेरा नाम पुष्कल है, मैं भरतजीका पुत्र हूँ; तुम्हें अपने शस्त्रोंसे परास्त करूंगा। महामते ! तुम भी हर तरहसे तैयार हो जाओ।' पुष्कलकी उपर्युक्त बात सुनकर उसने हँसते-हँसते उत्तर दिया- 'भरतनन्दन ! मुझे राजा सुबाहुका पुत्र समझो, मेरा नाम दमन है; पिताके प्रति भक्ति रखनेके कारण मेरे सारे पाप दूर हो गये हैं, महाराज शत्रुनका घोड़ा ले जानेवाला मैं ही हूँ। विजय तो दैवके अधीन है, दैव जिसे देगा - जिसे अपनी कृपासे अलङ्कृत करेगा, उसे ही विजय मिलेगी। परन्तु तुम युद्धके मुहानेपर डटे रहकर मेरा पराक्रम देखो।'
यों कहकर दमनने धनुष चढ़ाया और उसे कानतक खींचकर शत्रुओंके प्राण लेनेवाले तीखे बाणोंको छोड़ना आरम्भ किया। उन बाणोंने आकाशमण्डलको ढक लिया और उनकी छायासे सूर्यदेवकी किरणोंका प्रकाश भी रुक गया। राजकुमारके चलाये हुए उन बाणोंकी चोट खाकर कितने ही मनुष्य, रथ, हाथी और घोड़े धरतीपर लोटते दिखायी देने लगे। शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले पुष्कलने उसका वह पराक्रम देखा तथा आचमन करके एक बाण हाथमें लिया और उसे अग्निदेवके मन्त्रसे विधिपूर्वक अभिमन्त्रित करके अपने धनुषपर रखा । तदनन्तर भलीभाँति खींचकर उसे शत्रुओंके ऊपर छोड़ दिया। धनुषसे छूटते ही उस बाणसे युद्धके मुहानेपर भयङ्कर आग प्रकट हुई। वह अपनी ज्वालाओंसे आकाशको चाटती हुई प्रलयानिके समान प्रज्वलित हो उठी। फिर तो दमनकी सेना रणभूमिमें दग्ध होने लगी, उसके ऊपर त्रास छा गया और वह आगकी लपटोंसे पीड़ित होकर भाग चली।
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पातालखण्ड] • राजा सुबाहुका भाई और पुत्रोसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौञ्च-व्यूहनिर्माण +
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राजकुमार दमनके छोड़े हुए सभी बाण अग्निकी अब हवा कहीं भी नहीं जा पाती थी। यह देख ज्वालाओंमें झुलसकर सब ओरसे नष्ट हो गये। अपनी पुष्कलने अपने धनुषपर वज्रास्त्रका प्रयोग किया। तब सेना दग्ध होती देख दमन क्रोधसे भर गया। वह सभी क्ब्रके आघातसे वे सभी पर्वत क्षणभरमें तिलके समान अस्त्र-शस्त्रोंका विद्वान् था; इसलिये उसने वह आग टुकड़े-टुकड़े हो गये। साथ ही वह वज्र उच्चस्वरसे बुझानेके लिये वरुणास्त्र हाथमें लिया और शत्रुपर छोड़ गर्जना करता हुआ राजकुमार दमनकी छातीपर बड़े दिया। उसके छोड़े हुए वरुणास्त्रने रथ और घोड़े वेगसे गिरा। छातीके बिंध जानेके कारण राजकुमारको आदिसे भरी हुई पुष्कलकी सेनाको जलसे आप्लावित गहरी चोट पहुंची, इससे उस बलवान् वीरको बड़ी कर दिया। शत्रुओंके रथ और हाथी पानीमें डूबते व्यथा हुई। उसका हृदय व्याकुल हो उठा और वह दिखायी देने लगे तथा अपने पक्षके योद्धाओंको शान्ति मूर्च्छित हो गया। दमनका सारथि युद्धनीतिमें निपुण मिली। पुष्कलने देखा, मेरी सेना जलराशिसे पीड़ित था। वह राजकुमारको मूर्च्छित देखकर उसे रणभूमिसे होकर काँपती, क्षुब्ध होती और नष्ट होती जा रही है एक कोस दूर हटा ले गया। फिर तो उसके योद्धा तथा मेरा आग्नेयास्त्र शत्रुके वरुणास्त्रसे शान्त हो गया अदृश्य हो गये-इधर-उधर भाग खड़े हुए और है। तब अत्यन्त क्रोधके कारण उसकी आँखें लाल हो राजधानीमें जाकर उन्होंने राजकुमारके मूर्छित होनेका गयीं और उसने वायव्यास्त्रसे अभिमन्त्रित करके एक समाचार कह सुनाया। पुष्कल धर्मके ज्ञाता थे; उन्होंने बहुत बड़ा बाण अपने धनुषपर रखा। तदनन्तर संग्राम-भूमिमें इस प्रकार विजय पाकर श्रीरघुनाथजीके वायव्यास्त्रकी प्रेरणासे बड़े जोरकी हवा उठी और उसने वचनोंका स्मरण करते हुए फिर किसीपर प्रहार नहीं अपने वेगसे वहाँ घिरी हुई मेघोंकी घटाको छिन्न-भिन्न किया। तदनन्तर दुन्दुभि बज उठी, जोर-जोरसे जयकर दिया। राजकुमार दमनने अपने सैनिकोंको वायुसे जयकार होने लगा। सब ओरसे साधुवादके मनोहर पराजित होते देख अपने धनुषपर पर्वतास्त्रका संधान वचन सुनायी देने लगे। पुष्कलको विजयी देखकर किया। फिर तो शत्रुयोद्धाओंके मस्तकपर पर्वतोंकी वर्षा शत्रुघ्न बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सुमति आदि मन्त्रियोंसे होने लगी। उन पर्वतोंने वायुकी गतिको रोक दिया। घिरकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
राजा सुबाहुका भाई और पुत्रोंसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौञ्च-व्यूहनिर्माण
शेषजी कहते हैं-मुने ! उधर राजा सुबाहुने जब पहुँचा। उसके साथ राजकुमारका बड़ा भारी युद्ध हुआ, देखा कि मेरे सैनिक रक्तमें डूबे हुए आ रहे हैं तो उनका जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। आपके पुत्र दमन शोक शान्त-सा करते हुए उन्होंने अपने पुत्रकी करतूत अपने बाणोंसे उस अश्व-रक्षकको मूर्छित करके ज्यों ही पूछी। राजाका प्रश्न सुनकर उनके सेवकोंने, जो खूनसे स्थिर हुए त्यों ही शत्रुघ्न भी अपनी सेनाओंसे घिरे हुए लथपथ हो रहे थे तथा जिन्होंने रक्तसे भीगे हुए वस्त्र उपस्थित हो गये। तदनन्तर दोनों दलोंमें बड़ा भयङ्कर धारण कर रखा था, इस प्रकार उत्तर दिया-'राजन् ! युद्ध छिड़ा, उसमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोका प्रयोग आपके पुत्रने स्वर्णमय पत्र आदिके चिह्नोंसे अलङ्कत होने लगा। उस युद्धमें आपके महाबली पुत्रने अनेकों यज्ञसम्बन्धी अश्वको जब आते देखा तो वीरताके गर्वसे बार विजय पायी है, किन्तु इस समय शत्रुघ्नके भतीजेने शत्रुघ्रको तिनकेके समान समझकर-उनकी कुछ भी वज्रास्त्र छोड़कर आपके वीर पुत्रको रणभूमिमें मूर्च्छित परवा न करके उसे पकड़वा लिया। इतनेहीमें घोड़ेके कर दिया है।' पीछे चलनेवाला रक्षक थोड़ी-सी सेनाके साथ वहाँ आ सेवकोंकी यह बात सुनकर राजा सुबाहु राजधानीसे
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
निकलकर उस स्थानको चले, जहाँ उनके पुत्रको पीड़ा उठ बैठा और बोला-'मेरा धनुष कहाँ है? और पहुँचानेवाले शत्रुघ्न मौजूद थे।
पुष्कल यहाँसे कहाँ चला गया? मुझसे भिड़कर मेरे 'राजा सुबाहुको सुवर्णभूषित रथपर सवार हो नगरसे बाणोंके आघातसे पीड़ित होकर वह युद्ध छोड़कर कहाँ निकलते देख समस्त शत्रुओंपर प्रहार करनेवाली शत्रुघ्नकी भाग गया ?' पुत्रके ये वचन सुनकर राजा सुबाहु बड़े सेना युद्धके लिये तैयार हो गयी। राजा सुबाहके भाईका प्रसन्न हुए और उसे छातीसे लगा लिया। पिताको नाम था सुकेतु, वे गदायुद्धमें प्रवीण थे। वे भी अपने उपस्थित देख दमनने लज्जासे गर्दन झुका ली। उसका रथपर सवार होकर युद्धके लिये आये। राजाका पुत्र सारा शरीर अस्त्रोंकी मारसे घायल हो गया था, तो भी चित्राङ्ग सब प्रकारकी युद्धकलामें निपुण था। वह भी उसने बड़ी भक्तिके साथ पिताके चरणोंमें मस्तक रखकर रथारूढ़ होकर शीघ्र ही शत्रुघ्नकी मतवाली सेनापर चढ़ प्रणाम किया। बेटेको पुनः रथपर बिठाकर युद्धकर्ममें आया। उसके छोटे भाईका नाम था विचित्र । वह विचित्र कुशल राजा सुबाहुने सेनापतिसे कहा-'इस युद्ध में तुम प्रकारसे संग्राम करनेमें कुशल था। अपने भाईका दुःख अपनी सेनाको क्रौश-व्यूहके रूपमें खड़ी करो; उस सुनकर उसके मनमें बड़ी व्यथा हो रही थी, इसलिये वह व्यूहको जीतना शत्रुके लिये अत्यन्त कठिन है। उसीका भी सोनेके रथपर सवार हो । युद्धके लिये उपस्थित हुआ। आश्रय लेकर मैं राजा शत्रुघ्रकी सेनापर विजय प्राप्त इनके सिवा और भी अनेकों धनुर्धर वीर, जो सभी अस्त्र- करूंगा।' महाराज सुबाहुकी बात सुनकर सेनापतिने शस्त्रोंके ज्ञाता थे, राजाकी आज्ञा पाकर वीरोंसे भरी हुई अपने सैनिकोंका क्रौञ्च नामक सुन्दर व्यूह बनाया । उसमें संग्राम-भूमिमें गये। राजा सुबाहुने बड़े रोषमें भरकर मुखके स्थानपर सुकेतु और कण्ठकी जगह चित्राङ्ग खड़े युद्धक्षेत्रमें पदार्पण किया और वहाँ अपने पुत्रको बाणोंसे हुए। पंखोंके स्थानपर दोनों राजकुमार-दमन और पीड़ित एवं मूर्च्छित देखा । अपने प्यारे पुत्र दमनको रथको विचित्र थे। स्वयं राजा सुबाहु व्यूहके पुच्छ भागमें स्थित बैठकमें मूर्छित होकर पड़ा देख राजाको बड़ा दुःख हुआ हुए। मध्यभागमें उनकी विशाल सेना थी, जो रथ, गज, और वे पल्लवोंसे उसके ऊपर हवा करने लगे। उन्होंने अश्व और पैदल-इन चारों अङ्गोंसे शोभा पा रही कुमारके शरीरपर जलका छींटा दिया और अपने कोमल थी। इस प्रकार विचित्र क्रौञ्चव्यूहकी रचना करके हाथसे उसका पर्श किया। इससे महान् अत्रवेत्ता वीरवर सेनाध्यक्षने राजासे निवेदन किया-'महाराज! व्यूह दमनको धीरे-धीरे चेत हो आया। होशमें आते ही दमन सम्पन्न हो गया।'
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राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
शेषजी कहते हैं-मुनिवर ! राजा सुबाहुकी मनुष्य निवास करते हैं, जो भगवान् विष्णुकी भक्तिसे सेनाका आकार बड़ा भयंकर दिखायी देता था, वह पापरहित हो गये हैं। ये धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ राजा सुबाहु उसी मेघोंकी घटाके समान जान पड़ती थी। उसे देखकर नगरीके स्वामी हैं। इस समय ये अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ शत्रुघ्नने अपने मन्त्री सुमतिसे गम्भीर वाणीमें तुम्हारे सामने विराजमान हैं। ये नरेश सदा अपनी ही कहा-'मन्त्रिवर ! मेरा घोड़ा किसके नगरमें जा पहुँचा स्त्रीके प्रति अनुराग रखते हैं। परायी स्त्रियोंपर कभी दृष्टि है? यह सेना तो समुद्रकी लहरोंके समान दिखायी नहीं डालते। इनके कानोंमें सदा विष्णुकी ही कथा पड़ती है।'
- गूंजती है। अन्य विषयोंका प्रतिपादन करनेवाली सुमतिने कहा-राजन् ! यहाँसे पास ही चक्राङ्का कथा-वार्ता ये कभी नहीं सुनते। प्रजाकी आयके छठे नामवाली सुन्दर नगरी विराजमान है। उसके भीतर ऐसे भागसे अधिक दूसरेका धन कभी नहीं ग्रहण करते। ये
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पातालखण्ड ].
• राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका इन्द्र युद्ध •
धर्मात्मा हैं और विष्णु-बुद्धिसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं। सदा भगवान्की सेवामें लगे रहते और भगवान् विष्णुके चरणारविन्दोंका मकरन्द पान करनेके लिये भ्रमरकी भाँति लोलुप बने रहते हैं। परधर्मसे विमुख हो सदा स्वधर्मका ही सेवन करते हैं। वीरोंमें कहीं भी इनके बलकी समानता नहीं है। इस समय अपने पुत्रका युद्ध के मैदानमें गिरना सुनकर ये क्रोध और शोकसे व्याकुल होकर युद्धके लिये उपस्थित हुए हैं। मन्त्रीकी बात सुनकर शत्रुघ्नने अपने श्रेष्ठ योद्धाओंसे कहा-' -वीरो! राजा सुबाहुके सैनिकोंने आज क्रौञ्चव्यूहका निर्माण किया है। इसके मुख और पक्षभागमें प्रधान प्रधान योद्धा खड़े हुए हैं। तुमलोगों में कौन ऐसा शस्त्रवेत्ता है, जो उन वीरोंका भेदन करेगा ? जिसमें व्यूहका भेदन करनेकी शक्ति हो, जो वीरोंपर विजय पानेके लिये उद्यत हो, वह मेरे हाथसे पानका बीड़ा उठा ले।' उस समय वीर लक्ष्मीनिधिने क्रौञ्च व्यूहको तोड़नेकी प्रतिज्ञा करके बीड़ा उठा लिया। पुष्कलने उनके पीछे सहायताके लिये जानेका विचार किया। तदनन्तर शत्रुघ्रकी आज्ञासे रिपुताप, नीलरत्न, उग्रास्य और वीरमर्दन – ये सब लोग क्रौञ्चव्यूहका भेदन करनेके लिये लक्ष्मीनिधिके साथ गये ।
व्यूहके मुख-भागमें सुकेतु खड़े थे, उनसे लक्ष्मीनिधिने कहा- 'मैं राजा जनकका पुत्र हूँ, मेरा नाम लक्ष्मीनिधि है; मैं कहता हूँ, समस्त दानवकुलका विनाश . करनेवाले भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञसम्बन्धी अश्वको छोड़ दो, नहीं तो मेरे बाणोंसे घायल होकर तुम्हें यमराजके लोकमें जाना पड़ेगा।' वीराग्रगण्य लक्ष्मीनिधिके ऐसा कहनेपर महाबली सुकेतुने बड़े वेगसे अपना धनुष चढ़ाया और तुरंत ही रण क्षेत्रमें बाणोंकी झड़ी लगा दी। यह देख लक्ष्मीनिधिने भी अपने धनुषकी प्रत्यचा चढ़ायी और सुकेतुके बाण समूहको वेगपूर्वक नष्ट करके उनकी छातीमें छः तीखे बाण मारे। उनके प्रहारसे सुकेतुकी छाती
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छिद गयी। इससे क्रोधमें भरकर उन्होंने बीस तीखे बाणोंसे लक्ष्मीनिधिको मारा। तब लक्ष्मीनिधिने अपने धनुषपर अनेकों सुदृढ़ एवं तेज धारवाले बाण चढ़ाये । उनमेंसे चार सायकोंद्वारा उन्होंने सुकेतुके घोड़ोंको मार डाला, एकसे उनकी भयङ्कर ध्वजाको हँसते-हँसते काट गिराया, एक बाणसे सारथिका मस्तक धड़से अलग करके पृथ्वीपर डाल दिया, एकके द्वारा उन्होंने रोषमें भरकर प्रत्यञ्चासहित सुकेतुके धनुषको काट डाला तथा एक वाणसे उनकी छातीमें बड़े वेगसे प्रहार किया। लक्ष्मीनिधिके इस अद्भुत कर्मको देखकर समस्त वीरोंको बड़ा विस्मय हुआ ।
धनुष, रथ, घोड़े और सारथिके नष्ट हो जानेपर सुकेतु बहुत बड़ी गदा हाथमें लेकर युद्धके लिये आगे बढ़े। गदायुद्धमें कुशल शत्रुको विशाल गदा लिये आते देख लक्ष्मीनिधि भी लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर रथसे उतर पड़े और गदायुद्धमें प्रवीण वे दोनों वीर एक-दूसरेको जीतनेके लिये अत्यन्त क्रोधपूर्वक युद्ध करने लगे। उस समय लक्ष्मीनिधिने कुपित होकर गदा ऊपर उठायी और सुकेतुकी छातीपर गहरी चोट पहुँचानेके लिये वे बड़े वेगसे उनकी ओर झपटे; किन्तु महाबली सुकेतुने उनकी चलायी हुई गदाको अपने हाथमें पकड़ लिया और पुनः वही गदा उनकी छातीमें दे मारी। अपनी गदाको शत्रुके हाथमें गयी देख राजा लक्ष्मीनिधिने बाहु युद्धके द्वारा लड़नेका विचार किया। फिर तो दोनों एक-दूसरेसे गुथ गये, पैरमें पैर, हाथमें हाथ और छातीमें छाती सटाकर बड़े वेग से युद्ध करने लगे । इस प्रकार एक-दूसरेका वध करनेकी इच्छासे परस्पर भिड़े हुए वे दोनों वीर आपसके बलसे आक्रान्त होकर मूर्च्छित हो गये, यह देखकर हजारों योद्धा विस्मय-विमुग्ध हो उन दोनोंकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे 'राजा लक्ष्मीनिधि धन्य हैं तथा महाराज सुबाहुके बलवान् भ्राता सुकेतु भी धन्य हैं !! '
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• अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
पुष्कलके द्वारा चित्राङ्गका वध, हनुमानजीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका
शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
- शेषजी कहते हैं-मुने ! राजकुमार चित्राङ्ग रथपर सवार हुआ; परन्तु पुष्कलने लगे हाथ उसे भी क्रौञ्चव्यूहके कण्ठभागमें रथपर विराजमान था। अनेकों अपने बाणोंसे नष्ट कर डाला। इस प्रकार उस युद्धके वीरोंसे घिरे हुए होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही मैदानमें वीर पुष्कलने राजकुमार चित्राङ्गके दस रथ थी। वाराहावतारधारी भगवान् विष्णुने जिस प्रकार चौपट कर दिये। तब चित्राङ्ग एक विचित्र रथपर सवार समुद्रमें प्रवेश किया था, उसी प्रकार उसने भी शत्रुघ्नको होकर पुष्कलके साथ युद्ध करनेके लिये बड़े वेगसे सेनामें प्रवेश किया। उसका धनुष अत्यन्त सुदृढ़ और आया। उसने क्रोधमें भरकर पाँच भल्ल हाथमें लिये मेघ-गर्जनाके समान टङ्कार करनेवाला था। चित्राङ्गने और महातेजस्वी भरत-पुत्रके मस्तकको उनका निशाना उसे खींचकर चढ़ाया और करोड़ों शत्रुओंको भस्म बनाया। उन भल्लोंकी चोट खाकर पुष्कल क्रोधसे जल करनेवाले तीखे बाणोंका प्रहार आरम्भ किया। उन उठे और धनुषपर बाणका सन्धान करके चित्राङ्गको मार बाणोंसे समस्त शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण डालनेकी प्रतिज्ञा करते हुए बोले-'चित्राङ्ग ! यदि इस बहुत-से योद्धा धराशायी हो गये। इस प्रकार घोर संग्राम बाणसे मैं तुम्हारे प्राण न ले लूं तो शील और सदाचारसे आरम्भ हो जानेपर पुष्कल भी युद्धके लिये गये। चित्राङ्ग शोभा पानेवाली सती नारीको कलङ्कित करनेसे और पुष्कल दोनों एक-दूसरेसे भिड़ गये। उस समय यमराजके वशमें पड़े हुए पापी मनुष्योंको जिस लोककी उन दोनोंका स्वरूप बड़ा ही मनोहर दिखायी देता था। प्राप्ति होती है, वही मुझे भी मिले ! मेरी यह प्रतिज्ञा सत्य पुष्कलने सुन्दर भ्रामकास्त्रका प्रयोग करके चित्राङ्गके हो।' पुष्कलका यह उत्तम वचन सुनकर शत्रुपक्षके दिव्य रथको आकाशमें घुमाना आरम्भ किया। यह एक वीरोंका नाश करनेवाला बुद्धिमान् वीर चित्राङ्ग हँसकर अद्भुत-सी बात हुई। एक मुहूर्ततक आकाशमें चक्कर बोला-'शूरशिरोमणे! प्राणियोंकी मृत्यु सदा और लगानेके बाद घोड़ोंसहित वह रथ बड़े कष्टसे स्थिर हुआ सर्वत्र ही हो सकती है; अतः मुझे अपने मरनेका दुःख और युद्धभूमिमें आकर ठहरा। उस समय चित्राङ्गने नहीं है; किन्तु तुम मेरे वधके लिये जो बाण छोड़ोगे, उसे कहा–'पुष्कल ! तुमने बड़ा उत्तम पराक्रम दिखाया। मैं यदि काट न डालूँ तो उस अवस्थामें मेरी प्रतिज्ञा श्रेष्ठ योद्धा संग्राममें ऐसे कर्मोकी बड़ी सराहना करते हैं। सुनो-जो मनुष्य तीर्थ-यात्राकी इच्छा रखनेवाले तुम घोड़ोसहित मेरे रथको आकाशमें घुमाते रह गये! पुरुषका मानसिक उत्साह नष्ट करता है, उसको किन्तु अब मेरा भी पराक्रम देखो, जिसकी शूरवीर लगनेवाला पाप मुझे भी लगे; क्योंकि उस दशामें मैं प्रशंसा करते हैं। ऐसा कहकर चित्राङ्गने युद्धमें बड़े प्रतिज्ञा-भङ्गका अपराधी समझा जाऊँगा।' इतना कहकर भयङ्कर अस्त्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आबद्ध चित्राङ्ग चुप हो गया। उसने अपने धनुषको संभाला। होकर पुष्कलका रथ आकाशमें पक्षीकी भाँति घोड़े और तब पुष्कल बोले-'यदि मैंने निष्कपट भावसे सारथिसहित चक्कर लगाने लगा। पुत्रका यह पराक्रम श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणोंकी उपासना की हो तो मेरी देखकर राजा सुबाहुको बड़ा विस्मय हुआ। बात सच्ची हो जाय । यदि मैं अपनी स्त्रीके सिवा दूसरी
शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले पुष्कल जब किसी किसी स्त्रीका मनमें भी विचार न करता होऊँ तो इस तरह धरतीपर आकर ठहरे तो उन्होंने घोड़े और सत्यके प्रभावसे युद्धमें मेरा वचन सत्य हो।' यह सारथिसहित चित्राङ्गके रथको अपने बाणोंसे नष्ट कर कहकर पुष्कलने तुरंत ही अपने धनुषपर एक बाण दिया। जब वह रथ टूट गया तो वीर चित्राङ्ग पुनः दूसरे चढ़ाया, जो कालाग्निके समान तेजस्वी तथा वीरोंके
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पातालखण्ड ] • पुष्कलके द्वारा चित्राङ्गका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार
मस्तकका उच्छेद करनेवाला था। उस बाणको उन्होंने चित्राङ्गके ऊपर छोड़ दिया। वह बाण छूटता देख बलवान् राजकुमारने भी धनुषपर कालाग्निके समान एक तीक्ष्ण बाण रखा और उससे अपने वधके लिये आते हुए पुष्कलके बाणको काट डाला। उस समय बाणके कट जानेपर पुष्कलकी सेनामें भारी हाहाकार मचा। कटे हुए बाणका पिछला आधा भाग धरतीपर गिर पड़ा किन्तु पूर्वार्ध भाग, जिसमें बाणका फल (नॉक) जुड़ा हुआ था, आगे बढ़ा। उसने एक ही क्षणमें कमलकी नालके समान चित्राङ्गका गला काट डाला। राजकुमारका सुन्दर मस्तक किरीट और कुण्डलोंसहित पृथ्वीपर गिर पड़ा और आकाशसे गिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगा। भरतकुमार वीरवर पुष्कलने राजकुमार चित्राङ्गको भूमिपर पड़ा देख उस क्रौञ्च व्यूहके भीतर प्रवेश किया, जो समस्त वीरोंसे सुशोभित हो रहा था।
तदनन्तर अपने पुत्र चित्राङ्गको प्राणहीन होकर धरतीपर पड़ा देख राजा सुबाहु पुत्रशोकसे अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगे। उस समय राजकुमार विचित्र और दमन अपने-अपने रथपर बैठकर आये और पिताके चरणों में प्रणाम करके समयोचित वचन बोले'राजन् ! हमलोगोंके जीते जी आपके हृदयमें दुःख क्यों हो रहा है। वीर पुरुषोंको तो युद्धमें मृत्यु अत्यन्त अभीष्ट होती है। यह चित्राङ्ग धन्य है, जो वीर भूमिमें शोभा पा रहा है। महामते ! आप शोक छोड़िये, दुःखसे इतने आतुर क्यों हो रहे हैं ? मान्यवर ! हम दोनोंको युद्धके लिये आज्ञा दीजिये और स्वयं भी युद्धमें मन लगाइये।' अपनी वीरतापर गर्व करनेवाले दोनों पुत्रोंका यह वचन सुनकर महाराजने शोक छोड़ दिया और युद्धके लिये निश्चय किया। साथ ही संग्राममें उन्मत्त होकर लड़नेवाले वे दोनों भाई विचित्र और दमन भी अपने समान योद्धाकी अभिलाषा करते हुए असंख्य सैनिकोंसे भरी हुई शत्रुकी सेनामें घुस गये। दमनने रिपुतापके और विचित्रने नीलरत्नके साथ लोहा लिया। वे दोनों वीर रणभूमिमें उत्साहपूर्वक युद्ध करने लगे। स्वयं राजा
संव्यव्य० १६
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सुबाहु सुवर्णजटित रथपर सवार हो करोड़ों वीरोंसे घिरे हुए शत्रुघ्नके साथ युद्ध करनेके लिये चले। सुबाहुको पुत्रवधके कारण रोषमें भरकर युद्धके लिये आते और सैनिकोंका नाश करते देखकर शत्रुघ्नके पार्श्वभागकी रक्षा करनेवाले हनुमानजी उनकी ओर दौड़े। नख ही उनके आयुध थे और वे युद्धमें मेघकी भाँति विकट गर्जना कर रहे थे। उस समय सुबाहुने दस बाणोंसे हनुमान्जीकी छातीमें बड़े वेगसे चोट की। परन्तु हनुमानजी बड़े भयंकर वीर थे। उन्होंने सुबाहुके छोड़े हुए सभी बाण अपने हाथसे पकड़ लिये और उन्हें तिल-तिल करके तोड़ डाला। वे महान् बलवान् तो थे ही; राजाके रथको अपनी पूँछमें लपेटकर वेगपूर्वक खींच ले चले। उन्हें रथ लेकर जाते देख नृपश्रेष्ठ सुबाहु आकाशमें ही खड़े हो गये और तीखी नोंकवाले सायकोंसे उनकी पूँछ, मुख, हृदय, बाहु और चरणोंमें बारम्बार चोट पहुँचाने लगे। तब कपिवर हनुमानजीको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने वेगसे उछलकर उत्तम योद्धाओंसे सुशोभित राजा सुबाहुकी छातीमें लात मारी। राजा उनके चरण- प्रहारसे मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर पड़े और मुखसे गरम-गरम रक्त वमन करने लगे। उस समय वे जोर-जोरसे साँस लेते हुए काँप रहे थे। मूर्च्छावस्थामें ही राजाने एक स्वप्र देखा – 'अयोध्यापुरीमें सरयूके तटपर भगवान श्रीरामचन्द्रजी यज्ञ मण्डपके भीतर विराजमान हैं। यज्ञ करानेवालोंमें श्रेष्ठ अनेक ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे हुए हैं। ब्रह्मा आदि देवता और करोड़ों ब्रह्माण्डके प्राणी हाथ जोड़े खड़े हैं तथा बारम्बार भगवान्की स्तुति कर रहे हैं। भगवान् श्रीरामका विग्रह श्याम रंगका है, उनके नेत्र सुन्दर हैं। उन्होंने अपने हाथमें मृगका सींग धारण कर रखा है। नारद आदि देवर्षिगण हाथोंसे वीणा बजाते हुए उनका सुयश गान कर रहे हैं। चारों वेद मूर्तिमान् होकर रघुनाथजीकी उपासना करते हैं। संसारमें जो कुछ भी सुन्दर वस्तुएँ हैं, उन सबके दाता पूर्ण ब्रह्म भगवान् श्रीराम ही हैं।'
इस प्रकार स्वप्न देखते-देखते वे जाग उठे, उन्हें चेत हो आया। फिर तो वे शत्रुघ्रजीके चरणोंकी ओर
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
पैदल ही चल दिये। धर्मज्ञ महाराजने युद्धके लिये उद्यत हुए सुकेतु, विचित्र और दमनको बुलाकर लड़नेसे रोका और कहा - " अब शीघ्र ही युद्ध बंद करो, दमन! यह बहुत बड़ा अन्याय हुआ, जो तुमने भगवान् श्रीरामके तेजस्वी अश्वको पकड़ लिया। ये श्रीरामचन्द्रजी कार्य और कारणसे परे साक्षात् परब्रह्म हैं, चराचर जगत्के स्वामी हैं, मानव शरीर धारण करनेपर भी वे वास्तवमें मनुष्य नहीं हैं। इन्हें इस रूपमें जान लेना ही ब्रह्मज्ञान है। इस तत्त्वको मैं अभी समझ पाया हूँ। मेरे पापहीन पुत्रो ! पूर्वकालमें असिताङ्गमुनि के शापसे मेरा ज्ञानरूपी धन नष्ट हो गया था। [ वह प्रसङ्ग मैं सुना रहा हूँ-] प्राचीन समयकी बात है, मैं तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे तीर्थयात्रा के लिये निकला था। उस यात्रामें मुझे अनेकों धर्मज्ञ ऋषि महर्षियोंके दर्शन हुए। एक दिन ज्ञान-प्राप्तिकी इच्छासे मैं असिताङ्गमुनिकी सेवामें गया। उस समय उन ब्रह्मर्षिने मेरे ऊपर कृपा करके इस प्रकार उपदेश देना आरम्भ किया— 'वे जो अयोध्यापुरीके स्वामी महाराज श्रीरामचन्द्रजी हैं, उन्हींका नाम परब्रह्म है तथा जो उनकी धर्मपत्री जनककिशोरी भगवती सीता हैं, वें भगवान्की साक्षात् चिन्मयी शक्ति मानी गयी हैं। दुस्तर एवं अपार संसार सागरसे पार जानेकी इच्छा रखनेवाले योगीजन यम-नियम आदि साधनोंके द्वारा साक्षात् श्रीरघुनाथजीकी ही उपासना करते हैं। वे ही ध्वजामें गरुड़का चिह्न धारण करनेवाले भगवान् नारायण हैं। स्मरण करनेमात्रसे ही वे बड़े-बड़े पापोंको हर लेते हैं। जो विद्वान् उनकी उपासना करेगा, वह इस संसार समुद्रसे तर जायगा।' मुनिकी बात सुनकर मैंने उनका उपहास करते हुए कहा-' - राम कौन बड़े शक्तिशाली हैं। ये तो एक साधारण मनुष्य हैं! इसी प्रकार हर्ष और शोकमें डूबी हुई ये जानकीदेवी भी क्या चीज हैं? जो अजन्मा है, उसका जन्म कैसा ? तथा जो अकर्ता है, उसके लिये संसारमें आनेका क्या प्रयोजन है ? मुने! मुझे तो आप उस तत्त्वत्का उपदेश दीजिये, जो जन्म, दुःख और जरावस्थासे परे हो।' मेरे ऐसा कहनेपर उन विद्वान् मुनीश्वरने मुझे शाप दे दिया। वे बोले – 'ओ
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
नीच ! तू श्रीरघुनाथजीके स्वरूपको नहीं जानता तो भी मेरे कथनका प्रतिवाद कर रहा है, इन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी निन्दा करता है और ये साधारण मनुष्य हैं ऐसा कहकर उनका उपहास कर रहा है; इसलिये तू तत्त्वज्ञानसे शून्य होकर केवल पेट पालनेमें लगा रहेगा।' यह सुनकर मैंने महर्षिके चरण पकड़ लिये और अपने प्रति उनके हृदयमें दयाका सञ्चार किया। वे करुणाके सागर थे, मेरी प्रार्थनासे पिघल गये और बोले— 'राजन्! जब तुम श्रीरघुनाथजीके यज्ञमें विघ्न डालोगे और हनुमानजी वेगपूर्वक तुम्हारे ऊपर चरण-प्रहार करेंगे, उसी समय तुम्हें भगवान् श्रीरामके स्वरूपका ज्ञान होगा; अन्यथा अपनी बुद्धिसे तुम उन्हें नहीं जान सकोगे।' मुनिवर असिताङ्गने पहले ही जो बात बतायी थी, उसका इस समय मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। अतः अब मेरे महाबली सैनिक रघुनाथजीके शोभायमान अश्वको ले आवें। उसके साथ ही मैं बहुत सा धन-वस्त्र तथा यह राज्य भी भगवान्को अर्पण कर दूंगा। वह यश अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाला है। उसमें श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करके मैं कृतार्थ हो जाऊँगा, इसलिये घोड़ेसहित अपना सर्वस्व समर्पण कर देना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है।"
उत्तम रीति से युद्ध करनेवाले सुबाहुपुत्रोंने पिताकी बात सुनकर बड़ा हर्ष प्रकट किया। वे महाराज सुबाहुको श्रीरघुनाथजीके दर्शनके लिये उत्कण्ठित देखकर उनसे बोले – 'राजन्! हमलोग आपके चरणोंके सिवा और कुछ नहीं जानते, अतः आपके हृदयमें जो शुभ सङ्कल्प प्रकट हुआ है, वह शीघ्र ही पूर्ण होना चाहिये। सफेद चैवरसे सुशोभित, रत्न और माला आदिकी शोभासे सम्पन्न तथा चन्दन आदिके द्वारा चर्चित यह यज्ञ सम्बन्धी अश्व शत्रुघ्नजीके पास ले जाइये। आपकी आज्ञाके अनुसार उपयोग होनेमें ही इस राज्यकी सार्थकता है। स्वामिन्! प्रचुर समृद्धियोंसे भरे हुए कोष, हाथी, घोड़े, वस्त्र, रत्न, मोती तथा मूँगे आदि द्रव्य लाखोंकी संख्यामें प्रस्तुत हैं। इनके सिवा और भी जो-जो महान् अभ्युदयकी वस्तुएँ हैं, उन सबको
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पातालखण्ड ] पुष्कलके द्वारा चित्राङ्गका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार
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श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें समर्पित कीजिये। महामते ! हम सभी पुत्र आपके किङ्कर हैं, हमें भी भगवान्की सेवामें अर्पण कीजिये ।'
पुत्रोंके ये वचन सुनकर महाराज सुबाहुको बड़ा हर्ष हुआ। वे आज्ञा-पालनके लिये उद्यत हुए अपने वीर पुत्रोंसे इस प्रकार बोले- 'तुम सब लोग हाथोंमें हथियार ले नाना प्रकारके रथोंसे घिरकर कवच आदिसे सुसज्जित हो घोड़ेको यहाँ ले आओ। तत्पश्चात् मैं राजा शत्रुघ्नके पास चलूँगा।'
शेषजी कहते हैं- - राजा सुबाहुके वचन सुनकर विचित्र, दमन, सुकेतु तथा अन्यान्य शूरवीर उनकी आशाका पालन करनेके लिये उद्यत हो नगरमें गये और उस मनोहर अश्वको, जो सफेद चैवरसे संयुक्त और स्वर्णपत्र आदिसे अलङ्कृत था, राजाके सामने ले आये। रत्नमाला आदिसे विभूषित और मनके समान वेगवान् उस अश्वमेध यज्ञके घोड़ेको लाया गया देख बुद्धिमान् राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ परम धार्मिक शत्रुघ्नजीके समीप पैदल ही चले। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि 'यह धन नश्वर है, जो लोग
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इसमें आसक्त होते हैं; उन्हें यह दुःख ही देता है। यही सोचकर वे विनाशकी ओर जानेवाले धनका सदुपयोग करनेके लिये वहाँसे चले। निकट जाकर उन्होंने देखा – शत्रुघ्नजी श्वेतछत्रसे सुशोभित हैं तथा मन्त्री सुमतिसे भगवान् श्रीरामकी कथावार्ता पूछ रहे हैं। भयकी बात तो उन्हें छू भी नहीं सकी थी। वे वीरोचित शोभासे उद्दीप्त हो रहे थे |
उनका दर्शन करके पुत्रसहित राजा सुबाहुने शत्रुघ्नजीके चरणों में प्रणाम किया और अत्यन्त हर्षमे भरकर कहा- 'मैं धन्य हो गया।' उस समय उनका मन एकमात्र श्रीरघुनाथजीके चिन्तनमें लगा हुआ था। शत्रुघ्नने देखा ये उद्धट राजा सुबाहु मेरे प्रेमी होकर मिलने आये हैं, तो वे आसनसे उठ खड़े हुए और सबके साथ बाँहें पसारकर मिले। विपक्षी वीरोंका नाश करनेवाले राजा सुबाहुने शत्रुनजीका भलीभाँति पूजन करके अत्यन्त हर्ष प्राप्त किया और गद्गद स्वरसे कहा'करुणानिधे! आज मैं पुत्र, कुटुम्ब और वाहनसहित धन्य हो गया; क्योंकि इस समय मुझे करोड़ों राजाओंद्वारा अभिवन्दित आपके चरणोंका दर्शन हो रहा है। मेरा पुत्र दमन अभी नादान है, इसीलिये इसने इस श्रेष्ठ अश्वको पकड़ लिया है; आप इसके अनीतिपूर्ण बर्तावको क्षमा कीजिये। जो सम्पूर्ण देवताओंके भी देवता हैं तथा जो लीलासे ही इस जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले हैं, उन रघुवंशशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीको यह नहीं जानता, इसीसे इसके द्वारा यह अपराध हो गया है। हमारे इस राज्यका प्रत्येक अङ्ग समृद्धिशाली है। सेना और सवारियोंकी संख्या भी बहुत बढ़ी चढ़ी है। ये सब श्रीरामकी सेवामें समर्पित हैं। मेरे पुत्र और हम भी आपहीके हैं। हम सब लोगोंके स्वामी भगवान् श्रीराम ही हैं। हम आपकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करेंगे। मेरी दी हुई ये सभी वस्तुएं स्वीकार करके इन्हें सफल बनाइये। मेरे पास कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो ग्रहण करनेके योग्य न हो श्रीरामजीके चरणारविन्दोंके मधुकर हनुमानजी कहाँ हैं ? उन्हींकी कृपासे मैं राजाधिराज भगवान् रामका दर्शन
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
करूँगा। साधुओंका सङ्ग हो जानेपर इस पृथ्वीपर क्या-क्या नहीं मिल जाता ! मैं महामूढ़ था; किन्तु संतके प्रसादसे ही आज मेरा ब्रह्मशापसे उद्धार हुआ है। अब मैं पद्मपत्रके समान विशाल लोचनोंवाले महाराज श्रीरघुनाथजीका दर्शन करके इस लोकमें जन्म लेनेका सम्पूर्ण एवं दुर्लभ फल प्राप्त करूँगा। मेरी आयुका बहुत बड़ा भाग श्रीरामके वियोगमें ही बीत गया। अब थोड़ी-सी ही आयु शेष रह गयी है; इसमें मैं श्रीरघुनाथजीका कैसे दर्शन करूँगा ? मुझे यज्ञकर्ममें कुशल श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन कराइये, जिनके चरणोंकी धूलिसे पवित्र होकर शिला भी मुनिपत्नी हो गयी तथा युद्धमें जिनके मुखारविन्दका अवलोकन करके अनेकों वीर परमपदको प्राप्त हो गये। जो लोग आदरपूर्वक श्रीरघुनाथजीके नाम लेते हैं, वे उसी परम धामको प्राप्त होते हैं, जिसका योगी लोग चिन्तन किया करते हैं। अयोध्याके लोग धन्य हैं, जो अपने नेत्र पुटोंके द्वारा श्रीरामके मुखकमलका मकरन्द पान करके सुख पाते और महान् अभ्युदयको प्राप्त होते हैं।'
शत्रुघ्न ने कहा- राजन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं? आप वृद्ध होनेके नाते मेरे पूज्य हैं। आपका यह सारा राज्य राजकुमार दमनके अधिकारमें रहना चाहिये। क्षत्रियोंका कर्तव्य ही ऐसा है, जो युद्धका अवसर उपस्थित कर देता है। सम्पूर्ण राज्य और यह धन- सब मेरी आज्ञासे लौटा ले जाइये। महीपते। जिस प्रकार
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शेषजी कहते हैं— मुनिवर ! सुवर्णपत्रसे शोभा पानेवाला यह यज्ञसम्बन्धी अश्व पूर्वोक्त देशोंमें भ्रमण करता हुआ तेजःपुरमें गया, जहाँकै राजा सत्यवान् सत्यधर्मका आश्रय लेकर प्रजाका पालन करते थे। तदनन्तर शत्रुके नगरका विध्वंस करनेवाले श्रीरघुनाथजीके भाई शत्रुघ्रजी करोड़ों वीरोंसे घिरकर घोड़े के पीछे-पीछे उस राजाके नगरसे होकर निकले। वह नगर बड़ा रमणीय था। चित्र-विचित्र प्राकार उसकी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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श्रीरघुनाथजी मेरे लिये मन-वाणीद्वारा सदा ही पूज्य हैं, उसी प्रकार आप भी पूजनीय होंगे। इस घोड़ेके पीछे चलनेके लिये आप भी तैयार हो जाइये ।
परम बुद्धिमान् शत्रुघ्रजीका कथन सुनकर सुबाहुने अपने पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। उस समय शत्रुघ्रजीने उनकी बड़ी सराहना की। तदनन्तर वे महारथियोंसे घिरकर रणभूमिमें गये और पुष्कलके हाथसे मरे हुए अपने पुत्रका विधिपूर्वक दाह-संस्कार करके कुछ देरतक शोकमें डूबे रहे; उनका वह शोक साधारण लोगोंकी ही दृष्टिमें था। वास्तवमें तो वे महारथी नरेश तत्त्वज्ञानी थे; अतः श्रीरघुनाथजीका निरन्तर स्मरण करते हुए उन्होंने ज्ञानके द्वारा अपना समस्त शोक दूर कर दिया। फिर अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित होकर रथपर बैठे और विशाल सेनाके साथ महारथियोंको आगे करके शत्रुनके पास आये। राजा शत्रुघ्नने सुबाहुको सम्पूर्ण सेनाके साथ उपस्थित देख घोड़ेकी रक्षाके लिये जानेका विचार किया। सुबाहुके यहाँसे छूटनेपर वह भालपत्रसे चिह्नित अश्व भारतवर्षकी वामावर्त परिक्रमा करता हुआ पूर्वदिशाके अनेकों देशोंमें गया। उन सभी देशों में बड़े-बड़े शूरवीरोंद्वारा पूजित भूपाल उस अश्वको प्रणाम करते थे। कोई भी उसे पकड़ता नहीं था। कोई विचित्रविचित्र वस्त्र, कोई अपना महान् राज्य तथा कोई धन-वैभव या और कोई वस्तु भेंटके लिये लाकर अश्वसहित शत्रुघ्नको प्रणाम करते थे।
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तेजः पुरके राजा सत्यवान्की जन्मकथा - सत्यवान्का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
शोभा बढ़ा रहे थे। हजारों देव मन्दिरोंके कारण वह सब ओरसे शोभायमान दिखायी देता था। भगवान् शङ्करके मस्तकपर निवास करनेवाली महादेवी भगवती भागीरथी वहाँ प्रवाहित हो रही थीं। उनके तटपर ऋषि महर्षियोंका समुदाय निवास करता था। तेजःपुरमें रहनेवाले प्रत्येक ब्राह्मणके घरमें जो अग्निहोत्रका धुआं उठता था, वह पापमें डूबे हुए बड़े-बड़े पातकियोंको भी पवित्र कर देता था
उस नगरको देखकर शत्रुघने सुमतिसे पूछा
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पातालखण्ड ] .
तेजःपुरके राजा सत्यवान्की जन्मकथा-सत्यवान्का शत्रुघ्रको सर्वस्व समर्पण
'मन्त्रिवर! यह सामने दिखायी देनेवाला नगर किसका है, जो धर्मपूर्वक पालित होनेके कारण मेरे मनको अपार आनन्द प्रदान करता है ?"
सुमतिने कहा- -स्वामिन्! यहाँके राजा भगवान् विष्णुके भक्त हैं। आप सावधान होकर उनकी कल्याणमयी कथाओंको सुनें। उनका श्रवण करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे पापसे भी मुक्त हो जाता है। इस नगरके राजाका नाम 唐 सत्यवान् । वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंका रस पान करनेके लिये भ्रमर एवं जीवन्मुक्त हैं। उन्हें यज्ञ और उसके अङ्गका पूर्ण ज्ञान है। वे महान् कर्मठ और प्रजाजनोंके रक्षक हैं। पूर्वकालमें यहाँ ऋतम्भर नामके एक राजा हो गये हैं। उन्हें कोई सन्तान नहीं थी। उनके कई स्त्रियाँ थीं, परन्तु उनमें से किसीके गर्भसे भी राजाको पुत्रकी प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन दैववश उनके यहाँ जाबालि नामक मुनि पधारे। राजाने कुशल प्रश्नके पश्चात् उनसे पुत्र उत्पन्न होनेका उपाय पूछा।
ऋतम्भरने कहा - स्वामिन्! मैं सन्तानहीन हूँ; मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये, जो पुत्र उत्पन्न होनेमें सहायक हो। जिसका प्रयोग करनेसे मेरी वंश परम्पराकी रक्षा करनेवाला एक श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हो ।
राजाकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ जाबालिने कहा—“राजन् ! सन्तान प्राप्तिकी इच्छावाले मनुष्यके लिये तीन प्रकारके उपाय बताये गये हैं- भगवान् विष्णुकी, गौकी अथवा भगवान् शिवकी कृपा; अतः तुम देवस्वरूपा गौकी पूजा करो; क्योंकि उसकी पूँछ मुँह, सींग तथा पृष्ठभागमें भी देवताओंका निवास है। जो प्रतिदिन अपने घरपर घास आदिके द्वारा गौकी पूजा करता है, उसपर देवता और पितर सदा सन्तुष्ट रहते हैं जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाला मनुष्य प्रतिदिन
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नियमपूर्वक गौको भोजन देता है, उसके सभी मनोरथ उस सत्य धर्मका अनुष्ठान करनेके कारण पूर्ण हो जाते हैं। यदि घरमें प्यासी हुई गाय बँधी रहे, रजस्वला कन्या अविवाहित हो तथा देवताके विग्रहपर दूसरे दिनका चढ़ाया हुआ निर्माल्य पड़ा रहे तो ये सभी दोष पहलेके किये हुए पुण्यको नष्ट कर डालते हैं। जो मनुष्य घास चरती हुई गौको रोकता है, उसके पूर्वज पितर पतनोन्मुख होकर कांप उठते हैं। मूढबुद्धि मानव गौको लाठीसे मारता है, उसे हाथसे हीन होकर यमराजके नगरमें जाना पड़ता है।* जो गौके शरीरसे डाँस और मच्छरोंको हटाता है, उसके पूर्वज कृतार्थ होकर अधिक प्रसन्नताके कारण नाच उठते हैं और कहते हैं 'हमारा यह वंशज बड़ा भाग्यवान् है, अपनी गो-सेवाके द्वारा यह हमें तार देगा।'
"इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो धर्मराजके नगरमें राजा जनकके सामने अद्भुत रूपसे घटित हुआ था। एक समयकी बात है, राजा जनकने योगके द्वारा अपने शरीरका परित्याग कर दिया। उस समय उनके पास एक विमान आया, जो क्षुद्र घण्टिकाओंसे शोभा पा रहा था। राजा दिव्य-देहसे विमानपर आरूढ़ होकर चल दिये और उनके त्यागे हुए शरीरको सेवकगण उठा ले गये । राजा जनक धर्मराजकी संयमनीपुरीके निकटवर्ती मार्गसे जा रहे थे। उस समय करोड़ों नरकोंमें जो पापाचारी जीव यातना भोग रहे थे, वे जनकके शरीरकी वायुका स्पर्श पाकर सुखी हो गये। परन्तु जब वे उस स्थानसे आगे निकले तो पापपीड़ित प्राणी उन्हें जाते देख भयभीत होकर जोर-जोरसे चीत्कार करने लगे। वे नहीं चाहते थे कि राजा जनकसे वियोग हो। उन्होंने करुणा-जनक वाणीमें कहा - 'पुण्यात्मन्! यहाँसे न जाओ। तुम्हारे
* तृषिता गौर्गृहे बद्धा गेहे कन्या रजस्वला देवताश्च सनिर्माल्या हन्ति पुण्यं पुराकृतम् ॥ यो वै गां प्रतिषिध्येत चरन्तीं स्वं तृर्ण नरः । तस्य पूर्वे च पितरः कम्पन्ते पतनोन्मुखाः ॥
यो वै ताडयते यष्ट्या धेनुं मत्यों विमूढधीः। धर्मराजस्य नगरे स याति करवर्जितः ॥ (३० | २७ - २९ )
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• अर्जयस्व हबीकेशं यदीच्छसि पर पदम् ........ [संक्षिप्त पापुराण
शरीरको छूकर चलनेवाली वायुका स्पर्श पाकर हम भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण किया है, वे मेरे स्थानको यातनापीड़ित प्राणियोंको बड़ा सुख मिल रहा है।' छोड़कर बहुत शीघ्र वैकुण्ठधामको प्राप्त होते हैं।
"राजा बड़े धर्मात्मा थे, उन दुःखी जीवोंकी पुकार मनुष्योंके शरीरमें तभीतक पाप ठहर पाता है, जबतक सुनकर उनके हृदयमे करुणा भर आयी। वे सोचने कि वे अपनी जिह्वासे श्रीराम-नामका उच्चारण नहीं लगे-'यदि मेरे रहनेसे इन प्राणियोंको सुख होता है, तो करते।* महामते ! जो बड़े-बड़े पापोंका आचरण अब मैं इसी नगरमें निवास करूंगा; यही मेरे लिये करनेवाले हैं, उन्हीं लोगोंको मेरे दूत यहाँ ले आते मनोहर स्वर्ग है।' ऐसा विचार करके राजा जनक दुःखी है! तुम्हारे-जैसे पुण्यात्माओंकी ओर तो वे देख ही प्राणियोंको सुख पहुँचानेके लिये वहीं-नरकके नहीं सकते; अतः महाराज ! यहाँसे जाओ और अनेक दरवाजेपर ही ठहर गये । उस समय उनका हृदय दयासे प्रकारके दिव्य भोगोंका उपभोग करो। इस श्रेष्ठ परिपूर्ण हो रहा था। इतनेहीमें नरकके उस दुःखदायी विमानपर आरूढ़ होकर अपने उपार्जित किये हुए द्वारपर नाना प्रकार पातकके करनेवाले प्राणियोंको कठोर पुण्यको भोगो।' यातना देते हुए स्वयं धर्मराज उपस्थित हुए। उन्होंने "जनकने कहा-'नाथ ! मुझे इन दुःखी देखा, महान् पुण्यात्मा तथा दयालु राजा जनक विमानपर जीवोंपर दया आती है, अतः इन्हें छोड़कर मैं नहीं जा आरूढ़ हो नरकके दरवाजेपर खड़े हैं। उन्हें देखकर सकता। मेरे शरीरकी वायुका स्पर्श पाकर इन लोगोंको प्रेतराज हैंस पड़े और बोले-'राजन् ! तुम तो समस्त सुख मिल रहा है। धर्मराज ! यदि आप नरकमें पड़े हुए धर्मात्माओंके शिरोमणि हो, भला तुम यहाँ कैसे आये? इन सभी प्राणियोंको छोड़ दें, तो मैं पुण्यात्माओके यह स्थान तो प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले पापाचारी एवं निवासस्थान स्वर्गको सुखपूर्वक जा सकता हूँ।' दुष्टात्मा जीवोंके लिये है। यहाँ तुम्हारे समान पुण्यात्मा "धर्मराज बोले-राजन् ! [यह जो तुम्हारे पुरुष नहीं आते। यहाँ उन्हीं मनुष्योंका आगमन होता है, सामने खड़ा है] इस पापीने अपने मित्रकी पत्नीके साथ, जो अन्य प्राणियोंसे द्रोह करते, दूसरोपर कलङ्क लगाते जो इसके ऊपर पूर्ण विश्वास करती थी, बलात्कार किया तथा औरोंका धन लूट-खसोटकर जीविका चलाते हैं। है; इसलिये मैंने इसे लोहशङ्क नामक नरकमें डालकर जो अपनी सेवामें लगी हुई धर्म-परायणा पत्नीको बिना दस हजार वर्षातक पकाया है। इसके पश्चात् इसे किसी अपराधके त्याग देता है, उसको भी यहाँ आना सूअरकी योनिमें डालकर अन्तमें मनुष्य के शरीरमें उत्पन्न पड़ता है। जो धनके लालचमें फंसकर मित्रके साथ करना है। मनुष्य-योनिमें यह नपुंसक होगा। इस दूसरे धोखा करता है, वह मनुष्य यहाँ आकर मेरे हाथसे पापीने अनेकों बार बलपूर्वक परायी स्त्रियोंका आलिङ्गन भयङ्कर यातना प्राप्त करता है। जो मूढचित्त मानव दम्भ, किया है; इसलिये यह सौ वर्षोंतक रौरव नरकमें पकाया द्वेष अथवा उपहासवश मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा कभी जायगा और यह जो पापी खड़ा है, यह बड़ी नीच भगवान् श्रीरामका स्मरण नहीं करता, उसे बाँधकर मैं बुद्धिका है। इसने दूसरोका धन चुराकर स्वयं भोगा है; नरकोंमें डाल देता हूँ और अच्छी तरह पकाता हूँ। इसलिये इसके दोनों हाथ काटकर मैं इसे पूयशोणित जिन्होंने नरकके कष्टका निवारण करनेवाले रमानाथ नामक नरकमें पकाऊँगा। इसने सायंकालके समय
* यो राम मनसा वाचा कर्मणा दम्भतोऽपि वा । द्वेषादा चोपहासाद्वा न स्मरत्येव मूढधीः ॥ तं बध्नामि पुनस्त्वेषु निक्षिप्य श्रपयामि च ।यैः स्मृतो वै रमानाथो नरकोशवारकः ॥ ते मत्स्थान बिहायाशु वैकुण्ठायं प्रयान्त्यहो । तावत्पापं मनुष्याणामडेय नृप तिष्ठति ॥
यावद्राम : रसनया . न गृह्णाति सुदुर्मतिः ॥
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पातालखण्ड] • तेजःपुरके राजा सत्यवान्की जन्मकथा-सत्यवान्का शत्रुघ्नको सर्वस्व-समर्पण •
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भूखसे पीड़ित हो घरपर आये हुए अतिथिका वचनद्वारा पर दया करनेवाले थे; उन्होंने नरकसे निकले हुए भी स्वागत-सत्कार नहीं किया है; अतः इसे अन्धकारसे प्राणियोंका सूर्यके समान तेजस्वी रूप देखकर मन-हीभरे हुए तामिस नामक नरकमें गिराना उचित है। वहाँ मन बड़े सन्तोषका अनुभव किया। वे सभी प्राणी भ्रमरोंसे पीड़ित होकर यह सौ वर्षोंतक यातना भोगे। यह दयासागर महाराज जनककी प्रशंसा करते हुए दिव्य पापी उच्च स्वरसे दूसरोंकी निन्दा करते हुए कभी लज्जित लोकको चले गयोनरकस्थ प्राणियोंके चले जानेपर राजा नहीं हुआ है तथा उसने भी कान लगा-लगाकर अनेकों जनकने सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ यमराजसे प्रश्न किया। बार दूसरोंकी निन्दा सुनी है; अतः ये दोनों पापी राजाने कहा-धर्मराज ! आपने कहा था कि अन्धकूपमें पड़कर दुःख-पर-दुःख उठा रहे हैं। यह जो पाप करनेवाले मनुष्य ही आपके स्थानपर आते हैं, अत्यन्त उद्विग्न दिखायी दे रहा है, मित्रोंसे द्रोह करनेवाला धार्मिक चर्चामें लगे रहनेवाले जीवोंका यहाँ आगमन है, इसीलिये इसे रौरव नरकमें पकाया जाता है। नहीं होता। ऐसी दशामें मेरा यहाँ किस पापके कारण नरश्रेष्ठ ! इन सभी पापियोंको इनके पापोंका भोग आना हुआ है? आप धर्मात्मा हैं; इसलिये मेरे पापका कराकर छुटकारा दूंगा। अतः तुम उत्तम लोकोमें जाओ; समस्त कारण आरम्भसे ही बतायें। क्योंकि तुमने पुण्य-राशिका उपार्जन किया है।
धर्मराज बोले-राजन् ! तुम्हारा पुण्य बहुत बड़ा "जनकने पूछा-धर्मराज ! इन दुःखी जीवोंका है। इस पृथ्वीपर तुम्हारे समान पुण्य किसीका नहीं है। नरकसे उद्धार कैसे होगा? आप वह उपाय बतायें, तुम श्रीरघुनाथजीके युगलचरणारविन्दोंका मकरन्द पान जिसका अनुष्ठान करनेसे इन्हें सुख मिले। करनेवाले भ्रमर हो। तुम्हारी कीर्तिमयी गङ्गा मलसे भरे
"धर्मराज बोले-महाराज! इन्होंने कभी हुए समस्त पापियोंको पवित्र कर देती है। वह अत्यन्त भगवान् विष्णुकी आराधना नहीं की, उनकी कथा नहीं आनन्द प्रदान करनेवाली और दुष्टोंको तारनेवाली है। सुनी, फिर इन पापियोंको नरकसे छुटकारा कैसे मिल तथापि तुम्हारा एक छोटा-सा पाप भी है, जिसके कारण सकता है ! इन्होंने बड़े-बड़े पाप किये हैं तो भी यदि तुम तुम पुण्यसे भरे होनेपर भी संयमनीपुरीके पास आये हो। इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य अर्पण करो। एक समयकी बात है-एक गाय कहीं चर रही थी, कौन-सा पुण्य ? सो मैं बतलाता हूँ। एक दिन प्रातः- तुमने पहुंचकर उसके चरनेमें रुकावट डाल दी। उसी काल उठकर तुमने शुद्ध चित्तसे श्रीरघुनाथजीका ध्यान पापका यह फल है कि तुम्हें नरकका दरवाजा देखना किया था, जिनका नाम महान् पापोंका भी नाश करनेवाला पड़ा है। इस समय तुम उससे छुटकारा पा गये तथा है। नरश्रेष्ठ ! उस दिन तुमने जो अकस्मात् 'राम-राम' का तुम्हारा पुण्य पहलेसे बहुत बढ़ गया; अतः अपने उच्चारण किया था, उसीका पुण्य इन पापियोंको दे डालो; पुण्यद्वारा उपार्जित नाना प्रकारके उत्तम भोगोंका उपभोग जिससे इनका नरकसे उद्धार हो जाय।"
करो। श्रीरघुनाथजी करुणाके सागर हैं। उन्होंने इन दुःखी जाबालि कहते हैं-महाराज! बुद्धिमान् जीवोंका दुःख दूर करनेके लिये ही संयमनीके इस धर्मराजके उपर्युक्त वचन सुनकर राजा जनकने अपने महामार्गमें तुम-जैसे वैष्णवको भेज दिया है। सुव्रत ! जीवनभरका कमाया हुआ पुण्य उन पापियोंको दे डाला। यदि तुम इस मार्गसे नहीं आते तो इन बेचारोंका नरकसे उनके सङ्कल्प करते ही नरकमें पड़े हुए जीव तत्क्षण उद्धार कैसे होता ! महामते ! दूसरोंके दुःखसे दुःखी वहाँसे मुक्त हो गये और दिव्य शरीर धारण करके होनेवाले तुम्हारे-जैसे दया-धाम महात्मा आर्त प्राणियोंका जनकसे बोले-'राजन् ! आपकी कृपासे हमलोग एक दुःख दूर करते ही हैं। ही क्षणमें इस दुःखदायी नरकसे छुटकारा पा गये, अब जाबालि कहते हैं-ऐसा कहते हुए यमराजको हम परमधामको जा रहे हैं। राजा जनक सम्पूर्ण प्राणियों- प्रणाम करके राजा जनक परमधामको चले गये।
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★ अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
होनेपर तुम्हें शीघ्र ही धर्मपरायण पुत्र देगी।
इसलिये नृपश्रेष्ठ ! तुम गौकी पूजा करो; वह सन्तुष्ट समान पराक्रमी हुए। उनको पुत्रके रूपमें पाकर राजा ऋतम्भरको बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने पुत्रको धार्मिक जानकर राजा हर्षमें मग्न रहते थे। वे राज्यका भार सत्यवान्को ही सौंप स्वयं तपस्याके लिये वनमें चले गये। वहाँ भक्तिपूर्ण हृदयसे भगवान् हृषीकेशकी आराधना करके वे निष्पाप हो गये और शरीरसहित भगवद्धामको प्राप्त हुए ।
सुमति कहते हैं— सुमित्रानन्दन ! जाबालिके मुँहसे धेनु पूजाकी बात सुनकर राजा ऋतम्भरने आदर पूर्वक पूछा- 'मुने! गौकी किस प्रकार यत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये ? पूजा करनेसे वह मनुष्यको कैसा बना देती है ?' तब जाबालिने विधिके अनुसार धेनु-पूजाका इस प्रकार वर्णन किया— 'राजन् ! गो-सेवाका व्रत लेनेवाला पुरुष प्रतिदिन गौको चरानेके लिये जंगलमें जाय । गायको यव खिलाकर उसके गोबरमें जो यव आ जायें, उनका संग्रह करे। पुत्रकी इच्छा रखनेवाले पुरुषके लिये उन्हीं यवोंको भक्षण करनेका विधान है। जब गौ जल पीये तभी उसको भी पवित्र जल पीना चाहिये। जब वह ऊँचे स्थानमें रहे तो उसको उससे नीचे स्थानमें रहना चाहिये, प्रतिदिन गौके शरीरसे डाँस और मच्छरोंको हटावे और स्वयं ही उसके खानेके लिये घास ले आवे । इस प्रकार सेवामें लगे रहनेपर गौ तुम्हें धर्मपरायण पुत्र प्रदान करेगी।'
शत्रुघ्नजी ऋतम्भरके चले जानेपर राजा सत्यवान्ने भी अपने धर्मके अनुष्ठानसे लोकनाथ श्रीरघुनाथजीको सन्तुष्ट किया। भगवान् रमानाथने प्रसन्न होकर सत्यवान्को अपने चरणकमलोंमें अविचल भक्ति प्रदान की, जो यज्ञ करनेवाले पुरुषोंके लिये करोड़ों पुण्योंके द्वारा भी दुर्लभ है। वे प्रतिदिन सुस्थिर चित्तसे सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र करनेवाली श्रीरघुनाथजीकी कथाका आयोजन करते हैं। उनके हृदयमें सबके प्रति दया भरी हुई है। जो लोग रमानाथ श्रीरघुनाथजीका पूजन नहीं करते, उनको वे इतना कठोर दण्ड देते हैं, जो यमराजके लिये भी भयङ्कर है। आठ वर्षके बाद अस्सी वर्षकी अवस्था होनेतक सभी मनुष्योंसे वे एकादशीका व्रत कराया करते हैं। तुलसीकी सेवा उन्हें बड़ी प्रिय है। लक्ष्मीपतिके चरणकमलोंमें चढ़ी हुई उत्तम माला उनके गलेसे कभी दूर नहीं होती है [अपनी भक्तिके कारण ] वे ऋषियोंके भी पूजनीय हो गये हैं, फिर औरोके लिये क्यों न होंगे। श्रीरघुनाथजीके स्मरणसे तथा उनके प्रति प्रेम करनेसे राजा सत्यवान्के सारे पाप धुल गये हैं, सम्पूर्ण अमङ्गल नष्ट हो गये हैं। ये श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत अश्वको पहचानकर यहाँ आयेंगे और तुम्हें अपना यह अकण्टक राज्य समर्पित करेंगे। राजन् ! जिसके विषयमें तुमने पूछा था, वह उत्तम प्रसंग मैंने तुमको सुना दिया।
शेषजी कहते हैं- तदनन्तर नाना प्रकारके आश्चर्योंसे युक्त वह यशसम्बन्धी अश्व राजा सत्यवान्के नगरमें प्रविष्ट हुआ। उसे देखकर वहाँकी सारी जनताने राजाके पास जा निवेदन किया- 'महाराज ! भगवान् श्रीरामका अश्व इस नगरके मध्यसे होकर आ रहा है। शत्रुघ्न उसके रक्षक हैं।' 'राम' यह दो अक्षरोंका
जाबालि मुनिकी यह बात सुनकर राजा ऋतम्भरने श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया और शुद्धचित्त होकर व्रतका पालन आरम्भ किया। वे पहले बताये अनुसार धेनुकी रक्षा करते हुए उसे चरानेके लिये प्रतिदिन महान् वनमें जाया करते थे। श्रीरामचन्द्रजीके नामका स्मरण करना और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगे रहना — यही उनका प्रतिदिनका कार्य था। उनकी सेवासे सन्तुष्ट होकर सुरभिने कहा- 'राजन् ! तुम अपने हार्दिक अभिप्रायके अनुसार मुझसे कोई वर माँगो, जो तुम्हारे मनको प्रिय लगे।' तब राजा बोले- 'देवि ! मुझे ऐसा पुत्र दो, जो परम सुन्दर, श्रीरघुनाथजीका भक्त, पिताका सेवक तथा अपने धर्मका पालन करनेवाला हो।' पुत्रकी इच्छा रखनेवाले राजाको मनोवाञ्छित वरदान देकर दयामयी देवी कामधेनु वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं। समय आनेपर राजाको पुत्रकी प्राप्ति हुई, जो परम वैष्णवश्रीरामचन्द्रजीका सेवक हुआ। पिताने उसका नाम सत्यवान् रखा। सत्यवान् बड़े ही पितृभक्त और इन्द्रके
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पातालखण्ड ] • शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली, उग्रदंष्ट्रका वध, उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति •
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अत्यन्त मनोरम नाम सुनकर सत्यवान्के हृदयमें बड़ी शत्रुनके पास चल दिये। इतनेहीमें श्रीरामके छोटे भाई प्रसन्नता हुई। उनकी वाणी गद्गद हो गयी। वे कहने शत्रुघ्न भी राजधानीमें आ पहुंचे। राजा सत्यवान् लगे-'जिन भगवान् श्रीरामको मैं सदा अपने हृदयमें मन्त्रियोंके साथ उनके पास आये और चरणोंमें पड़कर धारण करता हूँ, मनमें चिन्तन करता हूँ, उन्हींका अश्व उन्हें अपना समृद्धिशाली राज्य अर्पण कर दिया। शत्रुनजीके साथ मेरे नगरमें आया है। उसके पास शत्रुघ्नने राजा सत्यवानको श्रीरामभक्त जानकर उनका श्रीरामके चरणोंकी सेवा करनेवाले हनुमानजी भी होंगे, विशाल राज्य उन्हींके पुत्रको, जिसका नाम रुक्म था, दे जो कभी भी श्रीरघुनाथजीको अपने मनसे नहीं बिसारते। दिया। सत्यवान् हनुमानजीसे मिलनेके पश्चात् जहाँ शत्रुघ्न है, जहाँ वायुनन्दन हनुमान्जी है तथा जहाँ श्रीरामसेवक सुबाहुसे मिले तथा और भी जितने रामश्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंकी सेवामें रहनेवाले अन्य भक्त वहाँ पधारे थे, उन सबको हृदयसे लगाकर उन्होंने लोग मौजूद हैं, वहीं मैं भी जाता हूँ।' उन्होंने मन्त्रीको अपने-आपको कृतार्थ माना। फिर शत्रुघ्नजीके साथ आज्ञा दी–'तुम समूचे राज्यका बहुमूल्य धन लेकर होकर वे मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। इतनेहीमें वीर शीघ्र ही मेरे साथ आओ। मैं श्रीरघुनाथजीके श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सुरक्षित वह अश्व दूर निकल गया; अतः अश्वकी रक्षा अथवा श्रीरामचरणोंकी सुदुर्लभ सेवा शूरवीरोंसे घिरे हुए शत्रुघ्नजी भी राजा सत्यवान्को साथ करनेके लिये जाऊँगा।' यह कहकर वे सैनिकोंके साथ लेकर वहाँसे चल दिये।
शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और उग्रदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति ___ शेषजी कहते हैं-मुनिवर ! रथियोंमें श्रेष्ठ शत्रुघ्न चारों ओरसे घेरकर खड़े थे। उन राक्षसोंके मुख दूषित
आदि बहुसंख्यक राजे-महाराजे करोड़ों रथोंके साथ चले एवं विकराल थे, दाढ़ें लम्बी थीं और आकृति बड़ी जा रहे थे, इसी समय उस मार्गपर सहसा अत्यन्त भयानक थी। वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो शत्रुघ्नकी भयङ्कर अन्धकार छा गया; जिसमें बुद्धिमान् पुरुषोंको भी सेनाको निगल जानेके लिये तैयार हों। तब सैनिकोंने अपने या परायेकी पहचान नहीं हो पाती थी। तदनन्तर राजाओंमें श्रेष्ठ शत्रुघ्नसे निवेदन किया-राजन् ! एक पातालनिवासी विद्युन्माली नामक राक्षस निशाचरोंके राक्षसने घोड़ेको पकड़ लिया है, अब आपको जैसा समुदायसे घिरा हुआ वहाँ आया। वह रावणका हितैषी उचित जान पड़े वैसा कीजिये।' उनकी बात सुनकर सुहृद् था। उसने घोड़ेको चुरा लिया। फिर तो दो ही शत्रुघ्न अत्यन्त रोषमें भर गये और बोले- 'कौन ऐसा अड़ीके पश्चात् वह सारा अन्धकार नष्ट हो गया। आकाश पराक्रमी राक्षस है, जिसने मेरे घोड़ेको पकड़ रखा है?' स्वच्छ दिखायी देने लगा। शत्रुन आदि वीरोंने एक- फिर वे मन्त्रीसे बोले- 'मन्त्रिवर ! बताओ, इस दूसरेसे पूछा-'घोड़ा कहाँ है?' उस अश्वराजके राक्षससे लोहा लेनेके लिये किन-किन वीरोंको नियुक्त विषयमें परस्पर पूछ-ताछ करते हुए वे सब लोग कहने करना चाहिये, जो उसका वध करनेके लिये उत्साह लगे-'अश्वमेधका अश्व कहाँ है? किस दुर्बुद्धिने रखनेवाले, अत्यन्त शूर, महान् शस्त्र धारण करनेवाले उसका अपहरण किया है ?' वे इस प्रकार कह ही रहे तथा प्रधान अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हो।' थे कि राक्षसराज विद्युन्माली अपने समस्त योद्धाओंके सुमतिने कहा-हमारी सेनामें कुमार पुष्कल साथ दिखायी दिया। उसके योद्धा रथपर विराजमान हो महान् वीर, अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता और शत्रुओंको ताप अपने शौर्यसे शोभा पा रहे थे। विद्युन्माली स्वयं एक देनेवाले हैं; अतः ये ही विजयके लिये उद्यत हो युद्धमें श्रेष्ठ विमानपर बैठा था और प्रधान-प्रधान राक्षस उसे उस राक्षसको जीतनेके लिये जायें। इनके सिवा
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
... [ संक्षिप्त पापुराण
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लक्ष्मीनिधि, हनुमान्जी तथा अन्य योद्धा भी युद्धके काममोहित शूद्रको मोहवश ब्राह्मणोके साथ समागम लिये प्रस्थित हो। वीरोंमें अग्रगण्य अमात्य सुमतिके करनेसे लगता है। जिसको सँघनेसे मनुष्य नरकमें पड़ता ऐसा कहनेपर शत्रुघ्नने संग्राम-कुशल वीर योद्धाओंसे है, जिसका स्पर्श करनेसे रौरव नरककी यातना भोगनी कहा-'सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण पुष्कल पड़ती है, उस मदिराका जो पुरुष जिह्वाके स्वादके आदि जो-जो वीर यहाँ उपस्थित हैं, वे राक्षसको मारनेके वशीभूत होकर लोलुपतावश पान करता है, उसको जो विषयमें मेरे सामने कोई प्रतिज्ञा करें।'
पाप होता है वह मुझे ही लगे, यदि मैं श्रीरामजीकी पुष्कल बोले-राजन् ! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये, मैं कृपाके बलसे अपनी प्रतिज्ञाको सत्य न कर सकूँ तो अपने पराक्रमके भरोसे सब लोगोंके सुनते हुए यह निश्चय ही उपयुक्त पापोंका भागी होऊँ। अद्भुत प्रतिज्ञा कर रहा हूँ। यदि मैं अपने धनुषसे छूटे उनके ऐसा कहनेपर दूसरे-दूसरे महावीर योद्धाओंने हुए बाणोंकी तीखी धारसे उस दैत्यको मूर्छित न कर आवेशमें आकर अपने-अपने पराक्रमसे शोभा पानेवाली +-मुखपर बाल छितराये यदि वह धरतीपर न पड़ बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएँ कीं। उस समय शत्रुघ्नने भी उन जाय, यदि उनके महाबली सैनिक मेरे बाणोंसे छिन्न- युद्धविशारद वीरोंको साधुवाद देकर उनकी प्रशंसा की भिन्न होकर धराशायी न हो जाये तथा यदि मैं अपनी और सबके देखते-देखते प्रतिज्ञा करते हुए कहाबात सधी करके न दिखा सकूँ तो मुझे वही पाप लगे, 'वीरो! अब मैं तुमलोगोंके सामने अपनी प्रतिज्ञा बता जो विष्णु और शिवमें तथा शिव और शक्तिमें भेद-दृष्टि रहा हूँ। यदि मैं उसके मस्तकको अपने सायकोंसे रखनेवालेको लगता है। श्रीरघुनाथजीके चरण-कमलोंमें काटकर, छिन्न-भिन्न करके धड़ और विमानसे नीचे मेरी निश्चल भक्ति है, वही मेरी कही हुई सब बातें पृथ्वीपर न गिरा दूँ। तो आज निश्चय ही मुझे वह पाप सत्य करेगी।
लगे, जो झूठी गवाही देने, सुवर्ण चुराने और ब्राह्मणकी __पुष्कलको प्रतिज्ञा सुनकर युद्ध-कुशल हनुमानजीने निन्दा करनेसे लगता है।' । श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका स्मरण करते हुए यह शत्रुघ्नके ये वचन सुनकर वीर-पूजित योद्धा कहने कल्याणमय वचन कहा-'योगीजन अपने हृदयमें लगे-'श्रीरघुनाथजीके अनुज ! आप धन्य हैं। आपके नित्य-निरन्तर जिनका ध्यान किया करते हैं, देवता और सिवा दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। यह दुष्ट असुर भी अपना मुकुटमण्डित मस्तक झुकाकर जिनके राक्षस क्या चीज है ! इसका तुच्छ बल किस गिनतीमें चरणोंमें प्रणाम करते हैं तथा बड़े-बड़े लोकेश्वर जिनकी है! महामते ! आप एक ही क्षणमें इसका नाश कर पूजा करते हैं, वे अयोध्याके अधिनायक भगवान् डालेंगे।' ऐसा कहकर वे महावीर योद्धा अस्त्र-शस्त्रोसे श्रीरामचन्द्रजी मेरे स्वामी है। मैं उनका स्मरण करके जो सुसज्जित हो गये और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेके लिये कुछ कहता हूँ, वह सब सत्य होगा। राजन् ! अपनी युद्धके मैदानमें उस राक्षसकी ओर प्रसन्नतापूर्वक चले। इच्छाके अनुसार चलनेवाले विमानपर बैठा हुआ यह वह इच्छानुसार चलनेवाले विमानपर बैठा था। पुष्कल दुर्बल एवं तुच्छ दैत्य किस गिनतीमें है! शीघ्र आज्ञा आदि वीरोंको उपस्थित देख उस राक्षसने कहादीजिये, मैं अकेला ही इसे मार गिराऊँगा। राजा 'अरे ! राम कहाँ है? मेरे सखा रावणको मारकर वह श्रीरघुनाथजी तथा महारानी जनककिशोरीकी कृपासे इस कहाँ चला गया है? आज उसको और उसके भाईको पृथ्वीपर कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो मेरे लिये कभी भी भी मारकर उन दोनोंके कण्ठसे निकलती हुई रक्तकी असाध्य हो। यदि मेरी कही हुई यह बात झूठी हो तो धाराका पान करूंगा और इस प्रकार रावण-वधका मैं तत्काल श्रीरामचन्द्रजीकी भक्तिसे दूर हो जाऊँ। यदि बदला चुकाऊँगा।' मैं अपनी बात झूठी कर दूं, तो मुझे वही पाप लगे, जो पुष्कलने कहा-दुर्बुद्धि निशाचर ! क्यों इतनी
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पातालखण्ड ] • शत्रुनके द्वारा विद्युन्माली, उपदंष्ट्रका वध, उसके द्वारा चुराये हुए अवकी प्राप्ति . ४७० ............................................................... ..................... शेखी बघार रहा है? अच्छे योद्धा संग्राममें डींग नहीं विमानपर बैठे हुए शत्रुपक्षके योद्धा महान् दैत्योंको हाँकते, अपने अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करके पराक्रम दिखाते नखोंसे विदीर्ण करके मौतके घाट उतारने लगे। हैं। जिन्होंने सुहृद, सेना और सवारियोंसहित रावणका किन्हींको पूँछसे मार डाला, किन्हींको पैरोंसे कुचल संहार किया है, उन भगवान् श्रीरामके अश्वको लेकर तू डाला तथा कितनोंको उन्होंने दोनों हाथोंसे चीर डाला। कहाँ जा सकता है?
जहाँ-जहाँ वह विमान जाता था, वहीं-वहीं वायु-नन्दन - शेषजी कहते हैं-युद्धमे उन्मत्त होकर हनुमानजी इच्छानुसार रूप धारण करके प्रहार करते हुए लड़नेवाले वीर पुष्कलको ऐसी बाते करते देख ही दिखायी देते थे। इस प्रकार जब विमानपर बैठे हुए राक्षसराज विद्युन्मालीने उनकी छातीको लक्ष्य करके बड़े बड़े-बड़े योद्धा व्याकुल हो गये तब दैत्यराज उग्रर्दष्ट्रने वेगसे शक्तिका प्रहार किया। उसे आती देख पुष्कलने हनुमान्जीपर आक्रमण किया। उस दुर्बुद्धिने प्रज्वलित तेज धारवाले तीखे बाणोंसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर अग्निके समान कान्ति धारण करनेवाले अत्यन्त तीखें डाले तथा अपने धनुषपर बहुत-से बाणोंका सन्धान त्रिशूलसे उनके ऊपर प्रहार किया; परन्तु महाबली किया, जो बड़े ही तीक्ष्ण और मनके समान वेगशाली हनुमानजीने अपने पास आये हुए उस त्रिशूलको अपने थे। वे बाण राक्षसकी छातीमें लगकर तुरंत ही रक्तकी मुंहमें ले लिया। यद्यपि वह सारा-सा-सारा लोहेका बना धारा बहाने लगे; पुष्कलके बाणप्रहारसे राक्षसपर मोह हुआ था, तथापि उसे दाँतोंसे चबाकर उन्होंने चूर्ण कर छा गया, उसके मस्तिष्कमें चक्कर आने लगा तथा वह डाला तथा उस दैत्यको कई तमाचे जड़ दिये। उनके अचेत होकर अपने कामग विमानसे धरतीपर गिर पड़ा। थप्पड़ोंकी मार खाकर राक्षसको बड़ी पीड़ा हुई और विद्युन्मालीका छोटा भाई उग्रर्दष्ट्र वहाँ मौजूद था। उसने उसने सम्पूर्ण लोकोंमें भय उत्पन्न करनेवाली मायाका अपने बड़े भाईको जब गिरते देखा तो उसे पकड़ लिया प्रयोग किया। उस समय चारों ओर घोर अन्धकार छा और पुनः विमानके भीतर ही पहुँचा दिया; क्योंकि गया, जिसमें कोई भी दिखायी नहीं देता था। इतने बड़े विमानके बाहर उसे शत्रुकी ओरसे अनिष्ट प्राप्त होनेकी जनसमुदायमें वहाँ अपना या पराया कोई भी किसीको आशङ्का थी। उसने बलवानोंमें श्रेष्ठ पुष्कलसे बड़े रोषके पहचान नहीं पाता था। चारों ओर नंगे, कुरूप, उग्र एवं साथ कहा- 'दुर्मते ! मेरे भाईको गिराकर अब तू कहाँ भयंकर दैत्य दिखायी देते थे। उनके बाल बिखरे हुए थे जायगा।' पुष्कलके नेत्र भी क्रोधसे लाल हो उठे थे। और मुख विकराल प्रतीत होते थे। उस समय सब लोग उग्रदंष्ट्र उपर्युक्त बातें कह ही रहा था कि उन्होंने दस व्याकुल हो गये, सबको एक-दूसरेसे भय होने लगा। बाणोंसे उस दुष्टको छातीमें वेगपूर्वक प्रहार किया। सभी यह समझकर कि कोई महान् उत्पात आया हुआ उनकी चोटसे व्यथित होकर दैत्यने एक जलता हुआ है, वहाँसे भागने लगे। तब महायशस्वी शत्रुघ्नजी रथपर त्रिशूल हाथमें लिया, जिससे अग्निकी तीन शिखाएँ उठ बैठकर वहाँ आये और भगवान् श्रीरामका स्मरण करके रही थीं। महावीर पुष्कलके हृदयमें वह भयङ्कर त्रिशूल उन्होंने अपने धनुषपर बाणोंका सन्धान किया। वे बड़े लगा और वे गहरी मूर्छाको प्राप्त हो रथपर गिर पड़े। पराक्रमी थे। उन्होंने मोहनास्त्रके द्वारा राक्षसी मायाका पुष्कलको मूर्च्छित जानकर पवननन्दन हनुमानजी नाश कर दिया और आकाशमें उस असुरको लक्ष्य मन-ही-मन क्रोधसे अस्थिर हो उठे और उस राक्षससे करके बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। उस समय सारी बोले-'दुर्बुद्धे ! मैं युद्धके लिये उपस्थित हूँ, मेरे रहते दिशाएँ प्रकाशमय हो गयीं, सूर्यके चारों ओर पड़ा हुआ तू कहाँ जा सकता है ? तू घोड़ेका चोर है और सामने घेरा निवृत्त हो गया। सुवर्णमय पङ्खसे शोभा पानेवाले आ गया है, अतः मैं लातोंसे मारकर तेरे प्राण ले लूंगा।' लाखों बाण उस राक्षसके विमानपर पड़ने लगे। कुछ ही ऐसा कहकर हनुमान्जी आकाशमें स्थित हो गये और देरमे वह विमान टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। वह इतना
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अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
ऊँचा दिखायी देता था, मानो अमरावतीपुरीका एक भाग शान्त कर दिया। निशाचरोके छोड़े हुए सभी बाण ही टूटकर भूतलके एक स्थानमें पड़ा हो। तब उस विलीन हो गये। तब विद्युन्मालीने क्रोधमें भरकर दैत्यको बड़ा क्रोध हुआ और उसने अपने धनुषपर शत्रुघ्नको मारनेके लिये एक तीक्ष्ण एवं भयङ्कर त्रिशूल अनेकों बाणोंका सन्धान किया तथा राम-भ्राता शत्रुघ्नको हाथमें लिया। उसे शूल हाथमे लिये आते देख शत्रुघ्नने उन बाणोंका निशाना बनाकर बड़ी विकट गर्जना की। अर्धचन्द्राकार बाणसे उसकी भुजा काट डाली। फिर शत्रुघ्न बड़े शक्तिशाली थे, उन्होंने अपने धनुषपर कुण्डलोंसहित उसके मस्तकको भी धड़से अलग कर वायव्यास्त्रका प्रयोग किया, जो राक्षसोंको कंपा देनेवाला दिया। भाईका मस्तक कट गया, यह देखकर प्रतापी था। उस अखकी मार खाकर व्योमचारी भूत-बेताल उग्रदंष्ट्रने शूरवीरोंद्वारा सेवित शत्रुघ्रको मुक्केसे मारना मस्तकके बाल छितराये आकाशसे पृथ्वीपर गिरते आरम्भ किया। किन्तु शत्रुघ्नने क्षुरप नामक सायकसे दिखायी देने लगे। राम-भ्राता शत्रुघ्नके उस अस्त्रको उसका भी मस्तक उड़ा दिया। तदनन्तर मरनेसे बचे हुए देखकर राक्षस-कुमारने अपने धनुषपर पाशुपतास्त्रका सभी राक्षस अनाथ हो गये; इसलिये उन्होंने शत्रुनके प्रयोग किया। समस्त वीरोंका विनाश करनेवाले उस चरणोंमें पड़कर वह यज्ञका घोड़ा उन्हें अर्पण कर दिया। अखको चारों ओर फैलते देखकर उसका निवारण फिर तो विजयके उपलक्ष्यमें वीणा झंकृत होने लगी। करनेके लिये शत्रुघ्नने नारायण नामक अस्त्र छोड़ा। सब ओर शङ्ख बज उठे तथा शूरवीरोंका मनोहर नारायणास्त्रने एक ही क्षणमें शत्रुपक्षके सभी अस्त्रोको विजयनाद सुनायी देने लगा।
शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्म-कथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
शेषजी कहते हैं-राक्षसोंद्वारा अपहरण किये हुए बताओ, यह पवित्र आश्रम किसका है?' घोड़ेको पाकर पुष्कलसहित राजा शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष सुमतिने कहा-महाराज ! यहाँ एक श्रेष्ठ मुनि हुआ। दुर्जय दैत्य विद्युन्मालीके मारे जानेपर समस्त रहते हैं, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके विद्वान् है; इनका दर्शन देवता निर्भय हो गये। उन्हें बड़ा सुख मिला। तदनन्तर करके हमलोगोंके समस्त पाप धुल जायेंगे। इसलिये तुम शत्रुघ्नने उस उत्तम अश्वको छोड़ा। फिर तो वह इन्हें प्रणाम करके इन्हींसे पूछो। ये तुम्हें सब कुछ बता उत्तर-दिशामें भ्रमण करने लगा। सब प्रकारके देंगे। इनका नाम आरण्यक है, ये श्रीरघुनाथजीके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण श्रेष्ठ रथी, घुड़सवार और पैदल चरणोंके सेवक हैं तथा उनके चरणकमलोंके मकरन्दका सिपाही उसकी रक्षामें नियुक्त थे। घूमता-घामता वह आस्वादन करनेके लिये सदा लोलुप बने रहते हैं। इन्होंने नर्मदाके तटपर जा पहुंचा, जहाँ बहुत-से ऋषि-महर्षि बड़ी उग्र तपस्या की है और ये समस्त शास्त्रोंके मर्मज्ञ है। निवास करते हैं। नर्मदाका जल ऐसा जान पड़ता था, सुमतिका यह धर्मयुक्त वचन सुनकर शत्रुघ्नजी मानो पानीके व्याजसे नील-रत्नोंका रस ही दिखायी दे थोड़े-से सेवकोंको साथ ले मुनिका दर्शन करनेके लिये रहा हो । वहाँ तटपर उन्होंने एक पुरानी पर्णशाला देखी, गये। पास जा उन सभी वीरोंने विनीतभावसे मस्तक जो पलाशके पत्तोंसे बनी हुई थी और नर्मदाकी लहरें उसे झुकाकर तापसोंमें श्रेष्ठ आरण्यक मुनिको नमस्कार अपने जलसे सींच रही थीं । शत्रुघ्नजी सम्पूर्ण धर्म, अर्थ, किया। मुनिने उन सब लोगोंसे पूछा-'आपलोग कहाँ कर्म और कर्तव्यके ज्ञानमें निपुण थे; उन्होंने सर्वज्ञ एवं एकत्रित हुए हैं तथा कैसे यहाँ पधारे है ? ये सब नीतिकुशल मन्त्री सुमतिसे पूछा-'मन्त्रिवर ! बातें स्पष्टरूपसे बताइये।'
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पातालखण्ड ]
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• शत्रुन आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना
सुमतिने कहा- मुने! ये सब लोग रघुकुल- श्रीराम स्मरण करनेमात्र से सारे पापोंको दूर कर देते हैं। *
पूर्वकालकी बात है, मैं तत्त्वज्ञानकी इच्छासे ज्ञानी गुरुका अनुसन्धान करता हुआ बहुत से तीर्थोंमें भ्रमण करता रहा; किन्तु किसीने मुझे भी तत्त्वत्का उपदेश नहीं दिया। उसी समय एक दिन भाग्यवश मुझे लोमश मुनि मिल गये। वे स्वर्गलोकसे तीर्थयात्राके लिये आये थे। उन महर्षिको प्रणाम करके मैंने पूछा - 'स्वामिन्! मैं इस अद्भुत और दुर्लभ मनुष्य शरीरको पाकर भयङ्कर भव-सागरके पार जाना चाहता हूँ, ऐसी दशामें मुझे क्या करना चाहिये ?' मेरी यह बात सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ बोले- 'विप्रवर! एकाग्रचित्त होकर पूर्ण श्रद्धाके साथ सुनो, संसार-समुद्रसे तरनेके लिये दान, तीर्थ, व्रत, नियम, यम, योग तथा यज्ञ आदि अनेकों साधन हैं। ये सभी स्वर्ग प्रदान करनेवाले हैं; किन्तु महाभाग ! मैं तुमसे एक परम गोपनीय तत्त्वका वर्णन करता हूँ, जो सब पापों का नाश करनेवाला और संसार सागर से पार उतारनेवाला है। नास्तिक और श्रद्धाहीन पुरुषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। निन्दक, शठ तथा भक्तिसे द्वेष रखनेवाले पुरुषके लिये भी इस तत्त्वत्का उपदेश करना मना है जो काम और क्रोधसे रहित हो, जिसका चित्त शान्त हो तथा जो भगवान् श्रीरामका भक्त हो उसीके सामने इस गूढ़ तत्त्वका वर्णन करना चाहिये। यह समस्त दुःखोंका नाश करनेवाला सर्वोत्तम साधन है। श्रीरामसे बड़ा कोई देवता नहीं, श्रीरामसे बढ़कर कोई व्रत नहीं, श्रीरामसे बड़ा कोई योग नहीं तथा श्रीरामसे बढ़कर कोई यज्ञ नहीं है। श्रीरामका स्मरण, जप और पूजन करके मनुष्य परम पदको प्राप्त होता है। उसे इस लोक और परलोककी उत्तम समृद्धि मिलती है। श्रीरघुनाथजी सम्पूर्ण कामनाओं और फलोंके दाता हैं। मनके द्वारा स्मरण और ध्यान करनेपर वे अपनी उत्तम भक्ति प्रदान करते हैं, जो संसार-समुद्रसे तारनेवाली है। चाण्डाल भी
नरेशके अश्वकी रक्षा कर रहे हैं। वे इस समय सब सामग्रियोंसे युक्त अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करनेवाले हैं।
आरण्यक बोले-सब सामग्रियोंको एकत्रित करके भाँति-भाँति के सुन्दर यज्ञोंका अनुष्ठान करनेसे क्या लाभ ? वे तो अत्यन्त अल्प पुण्य प्रदान करनेवाले हैं तथा उनसे क्षणभङ्गुर फलकी ही प्राप्ति होती है। स्थिर ऐश्वर्यपदको देनेवाले तो एकमात्र रमानाथ भगवान् श्रीरघुवीर ही हैं। जो लोग उन भगवान्को छोड़कर दूसरेकी पूजा करते हैं, वे मूर्ख हैं। जो मनुष्योंके स्मरण करनेमात्रसे पहाड़ जैसे पापोंका भी नाश कर डालते हैं, उन भगवान्को छोड़कर मूढ़ मनुष्य योग याग और व्रत आदिके द्वारा क्लेश उठाते हैं। सकाम पुरुष अथवा निष्काम योगी भी जिनका अपने हृदयमें चिन्तन करते हैं तथा जो मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, वे भगवान्
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मूढो लोको हरिं त्यक्त्वा करोत्यन्यसमर्चनम्। रघुवीर रमानार्थ स्थिरैश्वर्यपदप्रदम् ॥ यो नरैः स्मृतमात्रोऽसौ हरते पापपर्वतम्। तं मुक्त्वा विश्यते मूढो योगयागव्रतादिभिः ॥ सकामैयोगिभिर्वापि चिन्त्यते कामवर्जितैः । अपवर्गप्रदे नृणां स्मृतमात्राखिलाघहम् ॥ (३५ । ३१–३४)
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीरामका स्मरण करके परमगतिको प्राप्त कर लेता है। अष्टमीके अर्धचन्द्रकी सुषमा धारण करता है । मस्तकपर फिर तुम्हारे-जैसे वेद-शास्त्रपरायण पुरुषोंके लिये तो काले-काले धुंघराले केश शोभा पा रहे हैं। मुकुटकी कहना ही क्या है ? यह सम्पूर्ण वेद और शास्त्रोंका रहस्य मणियोंसे उनका मुख-मण्डल उद्भासित हो रहा है। हैं, जिसे मैंने तुमपर प्रकट कर दिया। अब जैसा तुम्हारा कानोंमें पहने हुए मकराकार कुण्डल अपने सौन्दर्यसे विचार हो, वैसा ही करों। एक ही देवता हैं-श्रीराम, भगवान्की शोभा बढ़ा रहे हैं। मूंगेके समान सुन्दर एक ही व्रत है-उनका पूजन, एक ही मन्त्र है- कान्ति धारण करनेवाले लाल-लाल ओठ बड़े मनोहर उनका नाम, तथा एक ही शास्त्र है-उनकी स्तुति । जान पड़ते है। चन्द्रमाकी किरणोंसे होड़ लगानेवाली अंतः तुम सब प्रकारसे परममनोहर श्रीरामचन्द्रजीका दन्तपङ्क्तियों तथा जपा-पुष्पके समान रंगवाली जिह्वाके भजन करो; इससे तुम्हारे लिये यह महान् संसार-सागर कारण उनके श्रीमुखका सौन्दर्य और भी बढ़ गया है। गायके खुरके समान तुच्छ हो जायगा।'*
शङ्खके आकारवाला कमनीय कण्ठ, जिसमें ऋक् आदि महर्षि लोमशका वचन सुनकर मैंने पुनः प्रश्न चारों वेद तथा सम्पूर्ण शास्त्र निवास करते हैं, उनके किया-'मुनिवर ! मनुष्योंको भगवान् श्रीरामका ध्यान श्रीविग्रहको सुशोभित कर रहा है। श्रीरघुनाथजी सिंहके
और पूजन कैसे करना चाहिये?' यह सुनकर उन्होंने समान ऊँचे और मांसल कंधेवाले हैं। वे केयूर एवं स्वयं श्रीरामका ध्यान करते हुए मुझे सब बातें कड़ोंसे विभूषित विशाल भुजाएँ धारण किये हुए हैं। बतायों-'साधकको इस प्रकार ध्यान करना चाहिये; उनकी दोनों बाहें अंगूठीमें जड़े हुए हीरेकी शोभासे रमणीय अयोध्या नगरी परम चित्र-विचित्र मण्डपोंसे देदीप्यमान और घुटनोंतक लंबी हैं। विस्तृत वक्षःस्थल शोभा पा रही है। उसके भीतर एक कल्पवृक्ष है, जिसके लक्ष्मीके निवाससे शोभा पा रहा है। श्रीवत्स आदि मूलभागमें परम मनोहर सिंहासन विराजमान है। वह चिह्नोंसे अङ्कित होनेके कारण भगवान् अत्यन्त मनोहर सिंहासन बहुमूल्य मरकत-मणि, सुवर्ण तथा नीलमणि जान पड़ते हैं। महान् उदर, गहरी नाभि तथा सुन्दर आदिसे सुशोभित है और अपनी कान्तिसे गहन कटिभाग उनकी शोभा बढ़ाते हैं। रत्नोंकी बनी हुई अन्धकारका नाश कर रहा है। वह सब प्रकारकी करधनीके कारण श्रीअङ्गोंकी सुषमा बहुत बढ़ गयी है। मनोभिलषित समृद्धियोंको देनेवाला है। उसके ऊपर निर्मल ऊरु और सुन्दर घुटने भी सौन्दर्यवृद्धिमें सहायक भक्तोंका मन मोहनेवाले श्रीरघुनाथजी बैठे हुए हैं। उनका हो रहे हैं। भगवान्के चरण, जिनका योगीलोग ध्यान दिव्य विग्रह दूर्वादलके समान श्याम है, जो देवराज करते हैं, बड़े कोमल हैं। उनके तलवेमें वज्र, अङ्कश इन्द्रके द्वारा पूजित होता है। भगवान्का सुन्दर मुख और यव आदिकी उत्तम रेखाएँ हैं। उन युगल चरणोंसे अपनी शोभासे राकाके पूर्ण चन्द्रकी कमनीय कान्तिको श्रीरघुनाथजीके विग्रहकी बड़ी शोभा हो रही है। भी तिरस्कृत कर रहा है। उनका तेजस्वी ललाट 'इस प्रकार ध्यान और स्मरण करके तुम संसार
* रामानास्ति परो देवो रामानास्ति परं व्रतम् । न हि रामात्परो योगो न हि रामात्परो मखः ॥ तं स्मृत्वा चैव जप्त्वा च पूजयित्वा नरः पदम् । प्राप्नोतिः परमामृद्धिमैहिकामुष्णिकी तथा ॥ संस्मृतो मनसा ध्यातः सर्वकामफलपदः । ददाति परमा भक्ति संसाराम्भोधितारिणीम् ॥ भ्रपाकोऽपि हि संस्मृत्य रामं याति पगं गतिम् ।ये वेदशास्वनिरतास्त्वादशास्तत्र किं पुनः ।। सर्वेषा वेदशास्त्राणां रहस्य ते प्रकाशितम्। समाचर तथा त्वं वै यथा स्याते मनीषितम्॥ एको देवो रामचन्द्रो वतमेकं तदर्चनम् । मन्त्रोऽप्यका तन्नाम शास्त्रं तद्धयव तत्स्तुतिः ॥ तस्मात्सर्वात्पना रामचन्द्र भज मनोहरम् । यथा गोष्पदवतुष्छो भवेत्ससारसागरः ॥ (३५४४६-५२) * अयोध्यानगरे रम्ये चित्रमण्डपशोभिते । ध्यायेत्कल्पतरार्मूल सर्वकामसमृद्धिदम्॥
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पातालखण्ड]
• शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्चमपर जाना •
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सागरसे तर जओगे। जो मनुष्य प्रतिदिन चन्दन आदि हादिनी शक्ति लक्ष्मी भी अवतीर्ण हुई। पूर्वकालमें सामग्रियोंसे इच्छानुसार श्रीरामचन्द्रजीका पूजन करता है, त्रेतायुग आनेपर सूर्यवंशमें श्रीरघुनाथजीका पूर्णावतार उसे इहलोक और परलोकको उत्तम समृद्धि प्राप्त होती हुआ। उनकी श्रीरामके नामसे प्रसिद्धि हुई। श्रीरामके है, तुमने श्रीरामके ध्यानका प्रकार पूछा था । सो मैंने तुम्हें नेत्र कमलके समान शोभायमान थे। लक्ष्मण सदा उनके बता दिया। इसके अनुसार ध्यान करके भवसागरके पार साथ रहते थे। धीरे-धीरे उन्होंने यौवनमें प्रवेश किया। हो जाओ।'
तत्पश्चात् पिताकी आज्ञासे दोनों भाई-श्रीराम और आरण्यकने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! मैं आपसे पुनः लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्रके अनुगामी हुए। राजा कुछ प्रश्न करता हूँ, मुझे उनका उत्तर दीजिये। महामते! दशरथने यज्ञकी रक्षाके लिये अपने दोनों कुमारोंको गुरुजन अपने सेवकपर कृपा करके उन्हें सब बातें बता विश्वामित्रके अर्पण कर दिया था। वे दोनों भाई देते हैं। महाभाग ! आप प्रतिदिन जिनका ध्यान करते हैं जितेन्द्रिय, धनुर्धर और वीर थे। मार्गमें जाते समय उन्हें वे श्रीराम कौन हैं तथा उनके चरित्र कौन-कौन से हैं? भयङ्कर वनके भीतर ताड़का नामकी राक्षसी मिली। यह बतानेकी कृपा कोजिये। द्विजश्रेष्ठ ! श्रीरामने उसने उनके रास्तेमें विघ्न डाला। तब महर्षि विश्वामित्रकी किसलिये अवतार लिया था? वे क्यों मनुष्यशरीरमें आज्ञासे रघुकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजीने ताड़काको प्रकट हुए थे? आप मेरा सन्देह निवारण करनेके लिये परलोक भेज दिया। गौतम-पत्नी अहल्या, जो इन्द्रके सब बातोंको शीघ्र बताइये।
साथ सम्पर्क करनेके कारण पत्थर हो गयी थी, श्रीरामके _ मुनिके परम कल्याणमय वचन सुनकर महर्षि चरण-स्पर्शसे पुनः अपने स्वरूपको प्राप्त हो गयी। लोमशने श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत चरित्रका वर्णन किया। विश्वामित्रका यज्ञ प्रारम्भ होनेपर श्रीरघुनाथजीने अपने वे बोले-'योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान्ने सम्पूर्ण लोकोंको श्रेष्ठ बाणोंसे मारीचको घायल किया और सुबाहुको मार दुःखी जानकर संसारमें अपनी कीर्ति फैलानेका विचार डाला। तदनन्तर राजा जनकके भवनमें रखे हुए किया। ऐसा करनेका उद्देश्य यह था कि जगत्के मनुष्य शङ्करजीके धनुषको तोड़ा। उस समय श्रीरामचन्द्रजीकी मेरी कीर्तिका गान करके घोर संसारसे तर जायेंगे। यह अवस्था पंद्रह वर्षकी थी। उन्होंने छः वर्षकी समझकर भक्तोंका मन लुभानेवाले दयासागर भगवान्ने अवस्थावाली मिथिलेशकुमारी सीताको, जो परम सुन्दरी चार विग्रहोंमें अवतार धारण किया। साथ ही उनकी और अयोनिजा थी, वैवाहिक विधिके अनुसार ग्रहण
___महामरक्तस्वर्णनीलरत्नादिशोभितम्॥ सिंहासनं चित्तहरं कात्या तामिसनाशनम् । तत्रोपरि समासीनं रघुराज मनोरमम् ।। दूर्वादलश्यामतनुं देवं देवेन्द्रपूजितम् । राकायां पूर्णशीतांशुकान्तिधिकारिवत्रिणम्॥ अष्टमीचन्द्रशकलसमभालाधिधारिणम्। नीलकुन्तलशोभाक्य किरीटमणिरञ्जितम् ॥
मकराकारसौन्दर्यकुण्डलाभ्यां विराजितम्॥
विद्रुमप्रभसत्कातिरदच्छदविराजितम् । तारापतिकराकारद्विजराजिसुशोभितम् ।जपापुष्पाभया माध्व्या जिलया शोभिताननम्॥ यस्यां वसन्ति निगमा ऋगाद्याः शास्त्रसंयुताः । कम्बुकान्तिधरप्रीवाशोभया समलङ्कतम्॥ सिंहवदुखको स्कन्धौ मांसलौ बिभ्रतं वरम् । बाहू दधानं दीर्घाङ्गनै केयूरकटकाङ्कितौ ॥ मुद्रिकाहीरशोभाभिर्भूषितौ जानुलम्बिनौ । वक्षो दधानं विपुलं लक्ष्मीवासेन शोभितम् ॥ श्रीवत्सादिविचित्राबैरङ्कितं सुमनोहरम्। महोदरं महानाभिं शुभकट्या विराजितम् । काश्चया वै मणिमय्या च विशेषेण श्रियान्वितम्। ऊरुभ्यां विमलाभ्यां च जानुभ्यां शोभितं श्रिया ॥ .. . चरणाभ्यां वज्ररेखाययाङ्कशसुरेखया । युताभ्यां योगिध्येयाभ्या कोमलाभ्यां विराजितम् ॥ (३५। ५७-६८)
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४८२
• अर्चयस्व हयीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्यपुराण
किया। इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी बारह वर्षातक सीताके वे लङ्कापुरीके भीतर सीताकी खोज करते रहे। रात्रिके साथ रहे । सत्ताईसवें वर्षकी उनमें उन्हें युवराज बनानेकी अन्तिम भागमें हनुमान्जीको सीताका दर्शन हुआ। तैयारी हुई। इसी बीचमें रानी कैकेयीने राजा दशरथसे दो द्वादशीके दिन वे शिशपा नामक वृक्षपर बैठे रहे। उसी वर मांगे। उनमेंसे एकके द्वारा उन्होंने यह इच्छा प्रकट दिन रातमें जानकीजीको विश्वास दिलानेके लिये उन्होंने की कि 'श्रीराम मस्तकपर जटा धारण करके चौदह श्रीरामचन्द्रजीकी कथा सुनायी। फिर त्रयोदशीको अक्ष वर्षोंतक वनमें रहें।' तथा दूसरे वरके द्वारा यह माँगा कि आदिके साथ उनका युद्ध हुआ। चतुर्दशीके दिन 'मेरे पुत्र भरत युवराज बनाये जायें', राजा दशरथने इन्द्रजित्ने आकर ब्रह्मास्त्रसे उन्हें बाँध लिया। इसके श्रीरामको वनवास दे दिया। श्रीरामचन्द्रजी तीन रात्रितक बाद उनकी पूँछमें आग लगा दी गयी और उसी आगके केवल जल पीकर रहे, चौथे दिन उन्होंने फलाहार किया द्वारा उन्होंने लङ्कापुरीको जला डाला। पूर्णिमाको वे पुनः
और पाँचवें दिन चित्रकूटपर पहुँचकर अपने लिये महेन्द्र पर्वतपर आ गये। फिर मार्गशीर्ष कृष्णपक्षको रहनेका स्थान बनाया। [इस प्रकार वहाँ बारह वर्ष बीत प्रतिपदासे लेकर पाँच दिन उन्होंने मार्गमें बिताये। छठे गये।] तदनन्तर तेरहवें वर्षके आरम्भमें वे पञ्चवटीमें दिन मधुवनमें पहुँचकर उसका विध्वंस किया और जाकर रहने लगे। महामुने ! वहाँ श्रीरामने [लक्ष्मणके सप्तमीको श्रीरामचन्द्रजीके पास पहुंचकर सीताजीका द्वारा] शूर्पणखा नामकी राक्षसीको [उसकी नाक दिया हुआ चिह्न उन्हें अर्पण किया तथा वहाँका सारा कटाकर] कुरूप बना दिया। तत्पश्चात् वे जानकीके समाचार कह सुनाया। तत्पश्चात् अष्टमीको उत्तरासाथ वनमें विचरण करने लगे। इसी बीचमें अपने फाल्गुनी नक्षत्र और विजय नामक मुहूर्तमें दोपहरके पापोंका फल उदय होनेपर दस मस्तकोंवाला राक्षसराज समय श्रीरघुनाथजीका लङ्काके लिये प्रस्थान हुआ। रावण सीताको हर ले जानेके लिये वहाँ आया और माघ श्रीरामचन्द्रजी यह प्रतिज्ञा करके कि 'मैं समुद्रको कृष्णा अष्टमीको वृन्द नामक मुहूर्तमें, जब कि श्रीराम लाँधकर राक्षसराज रावणका वध करूँगा', दक्षिण
और लक्ष्मण आश्रमपर नहीं थे, उन्हें हर ले गया। दिशाको ओर चले। उस समय सुग्रीव उनके सहायक उसके द्वारा अपहरण होनेपर देवी सीता कुररीकी भाँति हुए। सात दिनोंके बाद समुद्रके तटपर पहुंचकर उन्होंने विलाप करने लगीं-'हा राम ! हा राम ! मुझे राक्षस सेनाको ठहराया। पौष-शुक्ला प्रतिपदासे लेकर हरकर लिये जा रहा है, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।' तृतीयातक श्रीरघुनाथजी सेनासहित समुद्र-तटपर टिके रावण कामके अधीन होकर जनककिशोरी सीताको लिये रहे। चतुर्थीको विभीषण आकर उनसे मिले। फिर जा रहा था। इतनेहीमें पक्षिराज जटायु वहाँ आ पहुँचे। पशमीको समुद्र पार करनेके विषयमें विचार हुआ। उन्होंने राक्षसराज रावणके साथ युद्ध किया, किन्तु स्वयं इसके बाद श्रीरामने चार दिनोंतक अनशन किया। फिर ही उसके हाथसे मारे जाकर धरतीपर गिर पड़े। इसके समुद्रसे वर मिला और उसने पार जानेका उपाय भी बाद दसवें महीनेमें अगहन' शुक्ला नवमीके दिन दिखा दिया। तदनन्तर दशमीको सेतु बाँधनेका कार्य सम्पातिने वानरोंको इस बातकी सूचना दी कि 'सीता आरम्भ होकर त्रयोदशीको समाप्त हुआ। चतुर्दशीको देवी रावणके भवनमें निवास कर रही हैं। श्रीरामने सुवेल पर्वतपर अपनी सेनाको ठहराया।
फिर एकादशीको हनुमानजी महेन्द्र पर्वतसे पूर्णिमासे द्वितीयातक तीन दिनोंमें सारी सेना समुद्रके पार उछलकर सौ योजन चौड़ा समुद्र लाँघ गये। उस रातमें हुई। समुद्र पार करके लक्ष्मणसहित श्रीरामने वानरराजकी
१-यह गणना शुक्लपक्षसे महीनेका आरम्भ मानकर की गयी है; अतः यहाँ अगहन शुकाका अर्थ यहाँकी प्रचलित गणनाके अनुसार कार्तिक शुरूपक्ष समझना चाहिये । तथा इसी प्रकार आगे बतायी जानेवाली अन्य तिथियोंको भी जानना चाहिये।
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पातालखण्ड ]
. शत्रुन आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना .
४८३
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सेना साथ ले सीताके लिये लङ्कापुरीको चारों ओरसे घेर अतिकायका वध हुआ। अष्टमीसे द्वादशीतक पाँच लिया। तृतीयासे दशमीपर्यन्त आठ दिनोंतक सेनाका दिनोंमें निकुम्भ और कुम्भ मौतके घाट उतारे गये। उसके घेरा पड़ा रहा। एकादशीके दिन शुक और सारण सेनामें बाद तीन दिनोंमें मकराक्षका वध हुआ। फाल्गुन कृष्ण घुस आये थे। पौष-कृष्ण द्वादशीको शार्दूलके द्वारा द्वितीयाके दिन इन्द्रजित्ने लक्ष्मणपर विजय पायी। फिर वानर-सेनाकी गणना हुई। साथ ही उसने प्रधान-प्रधान तृतीयासे सप्तमीतक पाँच दिन लक्ष्मणके लिये दवा वानरोंकी शक्तिका भी वर्णन किया। शत्रुसेनाकी संख्या आदिके प्रवन्धमें व्यय रहनेके कारण श्रीरामने युद्धको जानकर रावणने त्रयोदशीसे अमावास्यापर्यन्त तीन बंद रखा। तदनन्तर त्रयोदशीपर्यन्त पाँच दिनोंतक युद्ध दिनोंतक लङ्कापुरीमें अपने सैनिकोंको युद्धके लिये करके लक्ष्मणने विख्यात बलशाली इन्द्रजित्को युद्धमें उत्साहित किया। माघ-शुक्ल प्रतिपदाको अङ्गद दूत मार डाला। चतुर्दशीको दशग्रीव रावणने यज्ञकी दीक्षा बनकर रावणके दरबारमें गये। उधर रावणने मायाके ली और युद्धको स्थगित रखा। फिर अमावास्याके दिन द्वारा सीताको, उनके पतिके कटे हुए मस्तक आदिका वह युद्धके लिये प्रस्थित हुआ। चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे दर्शन कराया। माघकी द्वितीयासे लेकर अष्टमीपर्यन्त लेकर पञ्चमीतक रावण युद्ध करता रहा; उसमें पाँच सात दिनोंतक राक्षसों और वानरोंमें घमासान युद्ध होता दिनोंके भीतर बहुत-से राक्षसोंका विनाश हुआ। षष्ठीसे रहा । माघ शुक्ला नवमीको रात्रिके समय इन्द्रजित्ने युद्धमे अष्टमीतक महापार्श्व आदि राक्षस मारे गये। चैत्र शुक्ल श्रीराम और लक्ष्मणको नाग-पाशसे बाँध लिया। इससे नवमीके दिन लक्ष्मणजीको शक्ति लगी। तब श्रीरामने प्रधान-प्रधान वानर जब सब ओरसे व्याकुल और क्रोधमें भरकर दशशीशको मार भगाया। फिर अञ्जनाउत्साहहीन हो गये तो दशमीको नाग-पाशका नाश नन्दन हनुमानजी लक्ष्मणकी चिकित्साके लिये द्रोण पर्वत करनेके लिये वायुदेवने श्रीरामचन्द्रजीके कानमें गरुड़के उठा लाये । दशमीके दिन श्रीरामचन्द्रजीने भयङ्कर युद्ध मन्त्रका जप और उनके स्वरूपका ध्यान बता दिया। किया, जिसमें असंख्य राक्षसोंका संहार हुआ। ऐसा करनेसे एकादशीको गरुड़जीका आगमन हुआ। एकादशीके दिन इन्द्रके भेजे हुए मातलि नामक सारथि फिर द्वादशीको श्रीरामचन्द्रजीके हाथसे धूम्राक्षका वध श्रीरामचन्द्रजीके लिये रथ ले आये और उसे युद्धक्षेत्रमें हुआ। त्रयोदशीको भी उन्हींके द्वारा कम्पन नामका भक्तिपूर्वक उन्होंने श्रीरघुनाथजीको अर्पण किया। राक्षस युद्धमें मारा गया। माघ शुक्ल चतुर्दशीसे कृष्ण तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी चैत्र शुक्ल द्वादशीसे कृष्णपक्षकी पक्षकी प्रतिपदातक तीन दिनमें नीलके द्वारा प्रहस्तका चतुर्दशीतक अठारह दिन रोषपूर्वक युद्ध करते रहे। वध हुआ। माघ कृष्ण द्वितीयासे चतुर्थीपर्यन्त तीन अन्ततोगत्वा उस द्वैरथयुद्धमें रामने रावणका वध किया। दिनोंतक तुमुल युद्ध करके श्रीरामने रावणको रणभूमिसे उस तुमुल संग्राममें श्रीरघुनाथजीने ही विजय प्राप्त की। भगा दिया। पञ्चमीसे अष्टमीतक चार दिनोंमें रावणने माघ शुक्ल द्वितीयासे लेकर चैत्रकृष्ण चतुर्दशीतक सतासी कुम्भकर्णको जगाया और जागनेपर उसने आहार ग्रहण दिन होते हैं, इनके भीतर केवल पंद्रह दिन युद्ध बंद किया। फिर नवमीसे चतुर्दशीपर्यन्त छः दिनोंतक युद्ध रहा। शेष बहत्तर दिनोंतक संग्राम चलता रहा। रावण करके श्रीरामने कुम्भकर्णका वध किया। उसने बहुत-से आदि राक्षसोंका दाहसंस्कार अमावास्याके दिन हुआ। वानरोंको भक्षण कर लिया था। अमावास्याके दिन वैशाख शुक्ल प्रतिपदाको श्रीरामचन्द्रजी युद्धभूमिमें ही कुम्भकर्णकी मृत्युके शोकसे रावणने युद्धको बंद रखा। ठहरे रहे। द्वितीयाको लङ्काके राज्यपर विभीषणका उसने अपनी सेना पीछे हटा ली। फाल्गुन शुक्ल अभिषेक किया गया । तृतीयाको सीताजीकी अग्निपरीक्षा प्रतिपदासे चतुर्थीतक चार दिनोंके भीतर विसतन्तु आदि हुई और देवताओंसे वर मिला। इस प्रकार लक्ष्मणके पाँच राक्षस मारे गये। पञ्चमीसे सप्तमीतकके युद्धमें बड़े भाई श्रीरामने लङ्कापति रावणको थोड़े ही दिनोंमें
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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मारकर परमपवित्र जनककिशोरी सीताको ग्रहण किया, प्रसादसे मैं उनके चरणकमलोंको भी प्राप्त करूंगा।' जिन्हें राक्षसने बहुत कष्ट पहुँचाया था। जानकीजीको ऐसा कहकर मैंने मुनीश्वरको प्रणाम किया। तत्पश्चात् वे पाकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे लङ्कासे चले गये। उन्हींकी कृपासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीके लौटे। वैशाख शुक्ल चतुर्थीको पुष्पकविमानपर आरूढ़ चरणोंकी पूजन-विधि भी प्राप्त हुई है। तबसे मैं सदा ही होकर वे आकाशमार्गसे पुनः अयोध्यापुरीकी ओर चले। श्रीरामके चरणोंका चिन्तन करता हूँ तथा आलस्य वैशाख शुक्ल पञ्चमीको भगवान् श्रीराम अपने छोड़कर बारम्बार उन्हींके चरित्रका गान करता रहता हूँ। दल-बलके साथ भरद्वाजमुनिके आश्रमपर आये और उनके गुणोंका गान मेरे चित्तको लुभाये रहता है। मैं चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर षष्ठीको नन्दिग्राममें जाकर उसके द्वारा दूसरे लोगोंको भी पवित्र किया करता हूँ तथा भरतसे मिले। फिर सप्तमीको अयोध्यापुरीमें मुनिके वचनोंका बारम्बार स्मरण करके भगवत्-दर्शनकी श्रीरघुनाथजीका राज्याभिषेक हुआ। मिथिलेशकुमारी उत्कण्ठासे पुलकित हो उठता हूँ। इस पृथ्वीपर मैं धन्य सीताको अधिक दिनोंतक रामसे अलग होकर रावणके हैं कृतकृत्य हूँ और परम सौभाग्यशाली हूँ; क्योंकि मेरे यहाँ रहना पड़ा था। बयालिसवें वर्षकी उपमें हृदयमें श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंको देखनेकी जो श्रीरामचन्द्रजीने राज्य ग्रहण किया, उस समय सीताकी अभिलाषा है, वह निश्चय ही पूर्ण होगी। अतः सब अवस्था तैतीस वर्षकी थी। रावणका संहार करनेवाले प्रकारसे परम मनोहर श्रीरामचन्द्रजीका ही भजन करना भगवान् श्रीराम चौदह वर्षेकि बाद पुनः अपनी पुरी चाहिये। संसार-समुद्रके पार जानेकी इच्छासे सब अयोध्यामें प्रविष्ट होकर बड़े प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् वे लोगोंको श्रीरघुनाथजीकी ही वन्दना करनी चाहिये।* भाइयोंके साथ राज्यकार्य देखने लगे। श्रीरघुनाथजीके राज्य करते समय ही अगस्त्यजी, जो एक अच्छे वक्ता हैं तथा जिनकी उत्पत्ति कुम्भसे हुई है, उनके पास पधारेंगे। उनके कहनेसे श्रीरघुनाथजी अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करेंगे। सुव्रत ! भगवान्का वह यज्ञसम्बन्धी अश्व तुम्हारे आश्रमपर आवेगा तथा उसकी रक्षा करनेवाले योद्धा भी बड़े हर्षके साथ तुम्हारे आश्रमपर पधारेंगे। उनके सामने तुम श्रीरामचन्द्रजीकी मनोहर कथा सुनाओगे तथा उन्हीं लोगोंके साथ अयोध्यापुरीको भी जाओगे। द्विजश्रेष्ठ ! अयोध्यामें कमलनयन श्रीरामका दर्शन करके तुम तत्काल ही संसारसागरसे पार हो जाओगे।'
मुनिश्रेष्ठ लोमश सर्वज्ञ हैं; उन्होंने मुझसे उपर्युक्त बातें कहकर पूछा-'आरण्यक! तुम्हें अपने कल्याणके लिये और क्या पूछना है?' तब मैंने उनसे कहा-'महर्षे ! आपकी कृपासे मुझे भगवान् श्रीरामके अद्भुत चरित्रका पूर्ण ज्ञान हो गया। अब आपहीके
* धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं सभाम्योऽहं महीतले । रामचन्द्रपदाम्भोजदिदृक्षा मे भविष्यति ॥ तस्मात्सर्वात्मना रामो भजनीयो मनोहरः । वन्दनीयो हि सर्वेषां संसाराब्धितितीर्षया ।। (३६ । ८९-९०)
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पातालखण्ड]
. शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना .
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अच्छा, अब तुमलोग बताओ, किसलिये यहाँ आये खड़ा हूँ। मुनीश्वर ! मुझे श्रीरघुनाथजीके दासकी हो? कौन धर्मात्मा राजा अश्वमेध नामक महान् यज्ञका चरण-धूलि समझिये।' हनुमानजी श्रीरामभक्त होनेके अनुष्ठान कर रहा है? ये सब बातें यहाँ बतलाकर कारण अत्यन्त शोभा पा रहे थे। उनकी उपर्युक्त बातें अश्वकी रक्षाके लिये जाओ और श्रीरघुनाथजीके सुनकर आरण्यक मुनिको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने चरणोंका निरन्तर स्मरण करते रहो।
हनुमान्जीको हृदयसे लगा लिया। दोनोंके हृदयसे आरण्यक मुनिके ये वचन सुनकर सब लोगोंको प्रेमको धारा फूटकर बह रही थी। दोनों ही आनन्दबड़ा विस्मय हुआ। वे श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हुए सुधामें निमग्न होकर शिथिल एवं चित्रलिखित-से प्रतीत उनसे बोले-'ब्रह्मर्षिवर! इस समय आपका दर्शन हो रहे थे। श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंके प्रेमसे दोनोंका पाकर हम सब लोग पवित्र हो गये; क्योंकि आप ही मानस भरा हुआ था। अतः दोनों ही बैठकर आपसमें श्रीरामचन्द्रजीकी कथा सुनाकर यहाँ सब लोगोंको पवित्र भगवानकी मनोहारिणी कथाएँ कहने लगे। मुनिश्रेष्ठ करते रहते हैं। आपने हमलोगोंसे जो कुछ पूछा है, वह आरण्यक श्रीरामके चरणोंका ध्यान कर रहे थे। सब हम बता रहे हैं। आप हमारे यथार्थ वचनको श्रवण हनुमान्जीने उनसे यह मनोहर वचन कहा—'महर्षे ! ये करें। महर्षि अगस्त्यजीके कहनेसे भगवान् श्रीराम ही श्रीरघुनाथजीके भ्राता महावीर शत्रुघ्न आपको प्रणाम कर सब सामग्री एकत्रित करके अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कर रहे हैं। ये उद्धट वीरोंसे सेवित भरतकुमार पुष्कल भी रहे हैं। उन्हींका यज्ञसम्बन्धी अश्व यहाँ आया है और आपके चरणोंमें शीश झुकाते हैं तथा इधरकी ओर जो उसीकी रक्षा करते हुए हम सब लोग भी अश्वके साथ ये महान् बली और अनेक गुणोंसे विभूषित सज्जन खड़े ही आपके आश्रमपर आ पहुंचे हैं। महामते ! यही हैं, इन्हें श्रीरघुनाथजीके मन्त्री समझिये। अत्यन्त भयङ्कर हमारा वृत्तान्त है; औप इसे हृदयङ्गम करें।' योद्धा महायशस्वी राजा सुबाहु भी आपको प्रणाम करते
रसायनके समान मनको प्रिय लगनेवाला यह उत्तम हैं। ये श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका मकरन्द पान वचन सुनकर राम-भक्त ब्राह्मण आरण्यक मुनिको बड़ा करनेवाले मधुकर है। ये राजा सुमद हैं, जिन्हें हर्ष हुआ। वे कहने लगे-'आज मेरे मनोरथरूपी पार्वतीजीने श्रीरघुनाथजीके चरणोंकी भक्ति प्रदान की है, वृक्षमें फल आ गया, वह उत्तम शोभासे सम्पन्न हो जिससे ये संसार-समुद्रके पार हो चुके है; ये भी आपके गया। मेरी माताने जिसके लिये मुझे उत्पन्न किया था, चरणोंमें नमस्कार करते हैं। जिन्होंने अपने सेवकके वह शुभ उद्देश्य.आज पूरा हो गया। आजतक हविष्यके मुखसे श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको आया हुआ सुनकर द्वारा मैंने जो हवन किया है, उस अग्निहोत्रका फल आज अपना सारा राज्य ही भगवानको समर्पण कर दिया है, मुझे मिल गया; क्योंकि अब मैं श्रीरामचन्द्रजीके वे राजा सत्यवान् भी पृथ्वीपर माथा टेककर आपके युगल-चरणारविन्दोंका दर्शन करूँगा। अहा ! जिनका चरणोंमें प्रणाम करते हैं।' मैं प्रतिदिन अपने हृदयमें ध्यान करता था, वे मनोहर हनुमान्जीके ये वचन सुनकर आरण्यक मुनिने बड़े रूपधारी अयोध्यानाथ भगवान् श्रीराम निश्चय ही मेरे आदरके साथ सबको हदयसे लगाया और फल-मूल नेत्रोंके समक्ष होकर दर्शन देंगे। हनुमानजी मुझे हृदयसे आदिके द्वारा सबका स्वागत-सत्कार किया। फिर शत्रुघ्न लगाकर मेरी कुशल पूछेगे। वे संतोंके शिरोमणि हैं; मेरी आदि सब लोगोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ महर्षिके भक्ति देखकर उन्हें बड़ा सन्तोष होगा।' आरण्यक आश्रमपर निवास किया। प्रातःकाल नर्मदामें नित्यकर्म मुनिके ये वचन सुनकर कपिश्रेष्ठ हनुमान्जीने उनके दोनों करके वे महान् उद्योगी सैनिक आगे जानेको उद्यत हुए। चरण पकड़ लिये और कहा-'ब्रह्मर्षे ! मैं ही हनुमान् शत्रुघ्ने आरण्यक मुनिको पालकीपर बिठाकर अपने हूँ, स्वामिन् ! मैं आपका सेवक हैं और आपके सामने सेवकोंद्वारा उन्हें श्रीरघुनाथजीकी निवासभूत अयोध्या
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. अर्वयस्थ हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
पुरीको पहुँचवा दिया। सूर्यवंशी राजाओंने जिसे अपना . श्रीरामचन्द्रजी भी अपने तेजसे जाज्वल्यमान निवास स्थान बनाया था, उस अवधपुरीको दूरसे ही तपोमूर्ति विप्रवर आरण्यक मुनिको आया देख उनके देखकर आरण्यक मुनि सवारीसे उतर पड़े और स्वागतके लिये उठकर खड़े हो गये। वे बड़ी देरतक श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी इच्छासे पैदल ही चलने लगे। उनके चरणोंमें मस्तक झुकाये रहे। देवता और असुर जन-समुदायसे शोभा पानेवाली उस रमणीय नगरीमें अपनी मुकुट-मणियोंसे जिनके युगल-चरणोंकी आरती पहुँचकर उनके मनमें श्रीरामको देखनेके लिये हजार- उतारते हैं, वे ही प्रभु श्रीरघुनाथजी मुनिके पैरोंपर पड़कर हजार अभिलाषाएँ उत्पन्न हुई। थोड़ी ही देरमें वहाँ कहने लगे-'ब्राह्मणदेव ! आज आपने मेरे शरीरको यज्ञमण्डपसे सुशोभित सरयूके पावन तटपर उन्हें पवित्र कर दिया।' ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ महातपस्वी आरण्यक श्रीरामचन्द्रजीकी झाँकी हुई। भगवान्का श्रीविग्रह मुनिने राजाओंके शिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीको चरणोंमें दूर्वादलके समान श्यामसुन्दर दिखायी देता था। उनके पड़ा देख उनका हाथ पकड़कर उठाया और अपने नेत्र खिले हुए कमलके समान शोभा पा रहे थे। वे अपने प्रियतम प्रभुको छातीसे लगा लिया। कौसल्यानन्दन कटिभागमें मृगशृङ्ग धारण किये हुए थे। व्यास' आदि श्रीरामने ब्राह्मणको मणिनिर्मित ऊँचे आसनपर बिठाया महर्षि उन्हें घेरकर विराजमान थे और बहुत-से शूरवीर और स्वयं ही जल लेकर उनके दोनों पैर धोये। फिर उनकी सेवामें उपस्थित थे। उनके दोनों पार्श्वभागोंमें भरत चरणोदक लेकर भगवान्ने उसे अपने मस्तकपर चढ़ाया
और सुमित्रानन्दन लक्ष्मण खड़े थे तथा श्रीरघुनाथजी और कहा–'आज मैं अपने कुटुम्ब और सेवकोंसहित दीनजनोंको मुंहमांगा दान दे रहे थे।
पवित्र हो गया।' तत्पश्चात् देवाधिदेवोंसे सेवित भगवान्का दर्शन करके आरण्यक मुनिने अपनेको श्रीरघुनाथजीने मुनिके ललाटमें चन्दन लगाया और उन्हें कृतार्थ माना । वे कहने लगे-'आज मेरे नेत्र सफल हो दूध देनेवाली गौ दान की। फिर मनोहर वचनोंमें गये, क्योंकि ये श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन कर रहे हैं। मैंने कहा-'स्वामिन् ! मैं अश्वमेधयज्ञ कर रहा हूँ। आपके जो सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया था, वह आज चरण यहाँ आ गये, इससे अब यह यज्ञ पूर्ण हो सार्थक हो गया; क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाको जायगा। मेरे अश्वमेध-यज्ञको आपने चरणोंसे पवित्र कर जानकर इस समय मैं अयोध्यापुरीमें आ पहुँचा हूँ।' इस दिया।' राजाधिराजोंसे सेवित श्रीरघुनाथजीके ये वचन प्रकार हर्षमें भरकर उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। सुनकर आरण्यक मुनिने हंसते हुए मधुर वाणीमें श्रीरघुनाथजीके चरणोंका दर्शन करके उनके समस्त कहा-'स्वामिन् ! आप ब्राह्मणोंके हितैषी और इस शरीरमें रोमाश हो आया था। इस अवस्थामें वे रमानाथ पृथ्वीके रक्षक हैं; अतः यह वचन आपहीके योग्य है। भगवान् श्रीरामके समीप गये, जो दूसरोंके लिये अगम्य महाराज ! वेदोंके पारगामी ब्राह्मण आपके ही विग्रह है। हैं तथा विचारपरायण योगेश्वरोंसे भी जो बहुत दूर हैं। यदि आप ब्राह्मणोंकी पूजा आदि कर्तव्य-कर्मोका भगवान्के निकट पहुँचकर वे बोल उठे-'अहा ! आज आचरण करेंगे तो अन्य सब राजा भी ब्राह्मणोंका आदर मैं धन्य हो गया; क्योंकि श्रीरघुनाथजीके चरण मेरे नेत्रोंके करेंगे। शास्त्रोंके ज्ञानसे रहित मूढ़ मनुष्य भी यदि आपके समक्ष विराजमान हैं। अब मैं श्रीरामचन्द्रजीको देखकर नामका स्मरण करता है तो वह सम्पूर्ण पापोंके इनसे वार्तालाप करके अपनी वाणीको पवित्र बनाऊँगा।' महासागरको पार करके परम पदको प्राप्त होता है। सभी
१-यहाँ 'व्यास' शब्दका अर्थ शास्त्रको व्याख्या करनेवाले विद्वान् महर्षि वसिष्ठ या अगस्त्य आदिका वाचक है, श्रीकृष्णद्वैपायनका नहीं; क्योंकि उस समयतक उनका प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। 'विस्तारो विग्रहो व्यासः' इस कोषके अनुसार 'व्याख्याकारक' अर्थ मानना सुसंगत है। पुराण आदि कथा बाचनेवाले ब्राह्मणको भी 'व्यास' कहते हैं; 'य एवं वाचयेद् विप्रः स ब्रह्मन् व्यास उच्यते। इस पौराणिक वचनसे इसका समर्थन होता है।
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पातालखण्ड]
• शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना .
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वेदों और इतिहासोंका यह स्पष्ट सिद्धान्त है कि राम- श्रुतियाँ भी जिनके चरणकमलोंकी रजको सदा ही ढूँढ़ा नामका जो स्मरण किया जाता है, वह पापोंसे उद्धार करती हैं, उन्हीं भगवान्ने आज मेरे चरणोंका जल पीकर करनेवाला है। श्रीरघुनाथजी! ब्रह्महत्या-जैसे पाप भी अपनेको पवित्र माना है।' तभीतक गर्जना करते हैं, जबतक आपके नामोंका ऐसा कहते-कहते उनका ब्रह्मरन्ध फूट गया तथा स्पष्टरूपसे उच्चारण नहीं किया जाता । महाराज ! आपके उससे जो तेज निकला वह श्रीरघुनाथजीमें समा गया। नामोंकी गर्जना सुनकर महापातकरूपी गजराज कहीं इस प्रकार सरयूके तटवर्ती यज्ञ-मण्डपमें सब लोगोंके छिपनेके लिये स्थान ढूँढ़ते हुए भाग खड़े होते हैं।* देखते-देखते आरण्यक मुनिको सायुज्यमुक्ति प्राप्त हुई, श्रीराम ! आपकी कथा सुनकर सब लोग पवित्र हो जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। उस समय आकाशमें जायेंगे। पूर्वकालमें जब कि सत्ययुग चल रहा था, मैंने तूर्य और वीणा आदि बाजे बजने लगे। भगवान्के आगे गङ्गातीरपर निवास करनेवाले पुराणवेत्ता ऋषियोंके फूलोंकी वर्षा हुई। दर्शकोंके लिये यह विचित्र एवं मुखसे यह बात सुनी थी-'महान् पाप करनेके कारण अद्भुत घटना थी। मुनियोंने भी यह दृश्य देखकर कातर हृदयवाले पुरुषोंको तभीतक पापका भय बना मुनीश्वर आरण्यककी प्रशंसा करते हुए कहा-'ये रहता है जबतक वे अपनी जिह्वासे परम मनोहर मुनिश्रेष्ठ कृतार्थ हो गये! क्योंकि श्रीरघुनाथजीके राम-नामका उच्चारण नहीं करते। अतः स्वरूपमें मिल गये हैं।' श्रीरामचन्द्रजी ! इस समय मैं धन्य हो गया। आपके दर्शनसे मेरे संसार-बन्धनका नाश सुलभ हो गया।'
मुनिके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने उनका पूजन किया। उस समय सभी महर्षि उन्हें साधुवाद देने लगे। इसी बीच में वहाँ जो अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना घटी, उसे मैं बतला रहा हूँ। मुनिश्रेष्ठ वात्स्यायन ! तुम श्रीरामके भजनमें तत्पर रहनेवाले हो; मेरी बातोंको ध्यान देकर सुनो। आरण्यक मुनिको ध्यानमें श्रीरघुनाथजीका जैसा स्वरूप दिखायी देता था; उसी रूपमें महाराज श्रीरामचन्द्रजीको प्रत्यक्ष देखकर उन्हें अत्यन्त हर्ष हुआ। वे वहाँ बैठे हुए महर्षियोंसे बोले-'मुनीश्वरो ! आपलोग मेरे मनोहर वचन सुनें। भला, इस भूमण्डलमें मेरे-जैसा सौभाग्यशाली मनुष्य कौन होगा ? श्रीरामचन्द्रजीने मुझे नमस्कार करके अपने श्रीमुखसे मेरा स्वागत एवं कुशल-समाचार पूछा है। अतः आज मेरी समानता करनेवाला न कोई है न हुआ है और न होगा। .
EURAEDS
* स्वनामस्मरणान्मूढः सर्वशास्त्रविवर्जितः । सर्वपापाब्धिमुत्तीर्य स गच्छेत्परमं पदम्।।
सर्ववेदेतिहासानां सारार्थोऽयमिति स्फुटम् । यद्रामनामस्मरण क्रियते पापतारकम् ॥ तावद्गन्ति पापानि ब्रह्महत्यासमानि च।न यावत्योच्यते नाम रामचन्द्र तव स्फुटम्॥ त्वन्नामगर्जनं श्रुत्वा महापातककुञ्जराः । पलायन्ते महाराज कुत्रचिरस्थानलिप्सया ॥ (३७ । ५०-५३) तावत्पापभियः पुंसां कातराणां सुपापिनाम् । यावत्र बदते वाचा रामनाम मनोहरम्॥ (३७। ५६)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पयपुराण
देवपुरके राजकुमार रुक्माङ्गदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और
पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूर्छित होना
वात्स्यायन बोले-फणीश्वर ! जो भक्तोकी पीड़ा श्रीरामचन्द्रजीका वह शोभाशाली अश्व उस वनमें आ दूर करनेके लिये नाना प्रकारकी कीर्ति किया करते हैं, पहुँचा। उसके ललाटमें स्वर्णपत्र बँधा हुआ था। उन श्रीरघुनाथजीकी कथा सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं शरीरका रंग गङ्गाजलके समान स्वच्छ था । परन्तु केसर होती-अधिकाधिक सुननेकी इच्छा बढ़ती जाती है। और कुङ्कमसे चर्चित होनेके कारण कुछ पीला दिखायी वेदोको धारण करनेवाले आरण्यक मुनि धन्य थे, देता था। वह अपनी तीव्र गतिसे वायुके वेगको भी जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन करके उनके सामने ही तिरस्कृत कर रहा था। उसका स्वरूप अत्यन्त कौतूहलसे अपने नश्वर शरीरका परित्याग किया था। शेषजी ! अब भरा हुआ था। उसे देखकर राजकुमारकी स्त्रियोंने यह बताइये कि महाराजका वह यज्ञ-सम्बन्धी अश्व कहा-'प्रियतम ! स्वर्णपत्रसे शोभा पानेवाला यह वहाँसे किस ओर गया, किसने उसे पकड़ा तथा महान् अश्व किसका है? यह देखने में बड़ा सुन्दर है। वहाँ रमानाथ श्रीरघुनाथजीको कीर्तिका किस प्रकार आप इसे बलपूर्वक पकड़ ले।' विस्तार हुआ?
राजकुमारके नेत्र लीलायुक्त चितवनके कारण बड़े शेषजीने कहा-ब्रह्मर्षे! आपका प्रश्न बड़ा सुन्दर जान पड़ते थे। उसने स्त्रियोंकी बातें सुनकर सुन्दर है। आप श्रीरघुनाथजीके सुने हुए गुणोंको भी नहीं खेल-सा करते हुए एक ही हाथसे घोड़ेको पकड़ लिया। सुने हुएके समान मानकर उनके प्रति अपना लोभ प्रकट उसके भालपत्रपर स्पष्ट अक्षर लिखे हुए थे। राजकुमार करते हैं और बारम्बार उन्हें पूछते हैं। अच्छा, अब उसे बाँचकर हंसा और उस महिला-मण्डलमें इस प्रकार आगेकी कथा सुनिये। बहुतेरे सैनिकोंसे घिरा हुआ वह बोला-'अहो ! शौर्य और सम्पत्तिमें मेरे पिता महाराज घोड़ा आरण्यक मुनिके आश्रमसे बाहर निकला और वीरमणिकी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसरा कोई नर्मदाके मनोहर तटपर भ्रमण करता हुआ देवनिर्मित नहीं है, तथापि उनके जीते-जी ये राजा रामचन्द्र इतना देवपुर नामक नगरमें जा पहुँचा । जहाँ मनुष्योंके घरोकी अहङ्कार. कैसे धारण करते है ? पिनाकधारी भगवान् दीवारें स्फटिक मणिकी बनी हुई थीं तथा वे गृह अपनी शङ्कर जिनकी सदा रक्षा करते रहते हैं तथा देवता, दानव ऊँचाईके कारण हाथियोंसे भरे हुए विन्ध्याचल पर्वतका और यक्ष-अपने मणिमय मुकुटोंद्वारा जिनके चरणोंकी उपहास करते थे। वहाँकी प्रजाके घर भी चाँदीके बने वन्दना किया करते हैं, वे महाबली मेरे पिताजी ही इस हुए दिखायी देते थे तथा उनके गोपुर नाना प्रकारके घोड़ेके द्वारा अश्वमेध यज्ञ करें। इस समय यह माणिक्योंद्वारा बने हुए थे जिनमें भाँति-भांतिकी विचित्र घुड़सालमें जाय और मेरे सैनिक इसे ले जाकर वहाँ मणियाँ जड़ी हुई थीं। उस नगरमें महाराज वीरमणि राज्य बाँध दें।' इस प्रकार उस घोड़ेको पकड़कर राजा करते थे, जो धर्मात्माओंमें अग्रगण्य थे। उनका विशाल वीरमणिका ज्येष्ठ पुत्र रुक्माङ्गद अपनी पलियोंके साथ राज्य सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न था। राजाके पुत्रका नगरमें आया। उस समय उसके मनमें बड़ा उत्साह भरा नाम था रुक्माङ्गद । वह महान् शूरवीर और बलवान् हुआ था। उसने पितासे जाकर कहा-'मैं रघुकुलके था। एक दिन वह सुन्दर शरीरवाली रमणियोंके साथ स्वामी श्रीरामचन्द्रका घोड़ा ले आया हूँ। यह इच्छानुसार विहार करनेके लिये वनमें गया और वहाँ प्रसन्नचित्त चलनेवाला अद्भुत अश्व अश्वमेध यज्ञके लिये छोड़ा होकर मधुर वाणीमें मनोहर गान करता हुआ विचरने गया था। रामके भाई शत्रुघ्न अपनी विशाल सेनाके साथ लगा। इसी समय परम बुद्धिमान् राजाधिराज इसकी रक्षाके लिये आये हैं।' महाराज वीरमणि बड़े
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पातालखण्ड ]
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देवपुरके राजकुमार रुक्माङ्गदद्वारा अश्वका अपहरण
बुद्धिमान् थे। पुत्रकी बात सुनकर उन्होंने उसके कार्यकी प्रशंसा नहीं की। सोचा कि 'यह घोड़ा लेकर चुपकेसे चला आया है। इसका यह कार्य तो चोरके समान है।' अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् शङ्कर राजाके इष्टदेव थे। उनसे राजाने सारा हाल कह सुनाया।
तब भगवान् शिवने कहा- राजन् ! तुम्हारे पुत्रने बड़ा अद्भुत काम किया है। यह परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीरामचन्द्रके महान् अश्वको हर लाया है, जिनका मैं अपने हृदयमें ध्यान करता हूँ, जिहासे जिनके नामका उच्चारण करता हूँ, उन्हीं श्रीरामके यज्ञ सम्बन्धी अश्वका तुम्हारे पुत्रने अपहरण किया है। परन्तु इस युद्धक्षेत्रमें एक बहुत बड़ा लाभ यह होगा कि हमलोग भक्तोंद्वारा सेवित श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका दर्शन कर सकेंगे। परन्तु अब हमें अश्वकी रक्षाके लिये महान् प्रयत्न करना होगा। इतनेपर भी मुझे संदेह है कि शत्रुघ्रके सैनिक मेरे द्वारा रक्षा किये जानेपर भी इसे बलपूर्वक पकड़ ले जायेंगे। इसलिये महाराज [ मैं तो यही सलाह दूंगा कि ] तुम विनीत होकर जाओ और राज्यसहित इस सुन्दर अश्वको भगवान्की सेवामें अर्पण करके उनके चरणोंका दर्शन करो।
वीरमणि बोले- भगवन्! क्षत्रियोंका यह धर्म है कि वे अपने प्रतापकी रक्षा करें, अतः हर एक मानी पुरुषके लिये अपने प्रतापकी रक्षा करना कर्तव्य है; इसके लिये उसे अपनी शक्तिभर पराक्रम करना चाहिये। आवश्यकता हो तो शरीरको भी होम देना चाहिये। सहसा किसीकी शरणमें जानेसे शत्रु उपहास करते हैं। वे कहते हैं— 'यह कायर है, राजाओंमें अधम है, क्षुद्र है। इस नीचने भयसे विह्वल होकर अनार्यपुरुषोंकी भाँति शत्रुके चरणोंमें मस्तक झुकाया है।' अतः अब युद्धका अवसर उपस्थित हो गया है। इस समय जैसा उचित हो, वही आप करें। कर्तव्यका विचार करके आपको अपने इस भक्तकी रक्षा करनी चाहिये।
शेषजी कहते हैं-राजाकी बात सुनकर भगवान् चन्द्रमौलि अपनी मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनका मन लुभाते हुए हँसकर बोले- 'राजन् ! यदि तैंतीस
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करोड़ देवता भी आ जायें तो भी किसमें इतनी शक्ति है जो मेरे द्वारा रक्षित रहनेपर तुमसे घोड़ा ले सके। यदि साक्षात् भगवान् यहाँ आकर अपने स्वरूपकी झाँकी करायेंगे तो मैं उनके कोमल चरणों में मस्तक झुकाऊँगा; क्योंकि सेवकका स्वामीके साथ युद्ध करना बहुत बड़ा अन्याय बताया गया है। शेष जितने वीर हैं, वे मेरे लिये तिनकेके समान हैं—कुछ भी नहीं कर सकते। अतः राजेन्द्र ! तुम युद्ध करो, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। मेरे रहते कौन ऐसा वीर है जो बलपूर्वक घोड़ा ले जा सके ? यदि त्रिलोकी भी संगठित होकर आ जाय तो मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।'
इधर श्रीरघुनाथजीके जितने सैनिक थे, वे अवका मार्ग ढूँढ रहे थे। इतनेहीमें महाराज शत्रुघ्र भी अपनी विशाल सेनाके साथ आ पहुँचे। आते ही उन्होंने सभी सेवकोंसे प्रश्न किया- 'कहाँ है मेरा अक्ष ? स्वर्णपत्रसे सुशोभित वह यज्ञ सम्बन्धी घोड़ा इस समय दिखायी क्यों नहीं देता ?' उनकी बात सुनकर अश्वके पीछे चलनेवाले सेवकोंने कहा-'नाथ! उस मनके समान तीव्रगामी अश्वको इस जंगलमें किसीने हर लिया। हमें भी वह कहीं दिखायी नहीं देता।' सेवकोंके वचन सुनकर राजा शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा - 'मन्त्रिवर! यहाँ कौन राजा निवास करता है? हमें अश्वकी प्राप्ति कैसे होगी ? जिसने आज हमारे अश्वका अपहरण किया है, उस राजाके पास कितनी सेना है ?' इस प्रकार शत्रुघ्रजी मन्त्रीके साथ परामर्श कर रहे थे, इतनेहीमें देवर्षि नारद युद्ध देखनेके लिये उत्सुक होकर वहाँ आये। शत्रुघ्नने उन्हें स्वागत-सत्कारसे सन्तुष्ट किया। वे बातचीत करनेमें बड़े चतुर थे; अतः अपनी वाणीसे नारदजीको प्रसन्न करते हुए बोले— 'महामते ! बताइये, मेरा अश्व कहाँ है ? उसका कुछ पता नहीं चलता। मेरे कार्य कुशल अनुचर भी उसके मार्गका अनुसन्धान नहीं कर पाते।'
नारदजी वीणा बजाते और श्रीराम कथाका बारम्बार गान करते हुए बोले- 'राजन्! यहाँ देवपुर नामका नगर है उसमें वीरमणि नामसे विख्यात एक बहुत बड़े राजा रहते हैं। उनका पुत्र इस वनमें आया था, उसीने
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
अश्वको पकड़ लिया है। आज उस राजाके साथ वीरताके अभिमानमें आकर राजाज्ञाका उल्लङ्घन करेंगे, तुमलोगोंका बड़ा भयङ्कर युद्ध होगा। उसमें बड़े-बड़े वे महाराजके पुत्र या भाई ही क्यों न हो, वधके योग्य
समझे जायेंगे। फिरसे डंका बजाकर उपर्युक्त घोषणा CrimaAR
दुहराई जाती है-सभी वीर सुन लें और सुनकर शीघ्र ही अपने कर्तव्यका पालन करें। विलम्ब नहीं होना चाहिये।' नरश्रेष्ठ वीरमणिके सैनिक श्रेष्ठ योद्धा थे। उन्होंने यह घोषणा अपने कानों सुनी और कवच आदिसे सुसज्जित होकर वे महाराजके पास गये। उनकी दृष्टि में युद्ध एक महान् उत्सवके समान था; उसका अवसर पाकर उनका हृदय हर्ष और उत्साहसे भर गया था। राजकुमार रुक्माङ्गद भी अपने मनके समान वेगशाली रथपर सवार होकर आये। उनके छोटे भाई शुभाङ्गद भी अपने सुन्दर शरीरपर बहुमूल्य रत्नमय कवच धारण करके रणोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये प्रस्थित हुए। महाराजके भाईका नाम था वीरसिंह। वे सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्या प्रवीण थे। राजाज्ञाके अनुसार वे भी दरबारमें गये; क्योंकि महाराजका शासन कोई लाँघ
नहीं सकता था। राजाका भानजा बलमित्र भी उपस्थित बलवान् और शूरवीर मारे जायेंगे। इसलिये तुम पूरी हुआ तथा सेनापति रिपुवारने भी चतुरङ्गिणी सेना तैयार तैयारीके साथ यहाँ स्थिरतापूर्वक खड़े रहो तथा सेनाका करके महाराजको इसकी सूचना दी। ऐसा व्यूह बनाओ; जिसमें शत्रुके सैनिकोंका प्रवेश करना तदनन्तर राजा वीरमणि सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे अत्यन्त कठिन हो । श्रेष्ठ राजा वीरमणिसे युद्ध करते समय भरे हुए अपने श्रेष्ठ रथपर सवार हुए । वह रथ बहुत ऊँचा तुम्हें बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ेगा; तथापि था और उसके ऊँचे-ऊँचे पहिये मणियोंके बने हुए थे। अन्तमें विजय तुम्हारी ही होगी। भला, सम्पूर्ण जगत्में चारों ओरसे भेरियाँ बज उठीं। उनके बजानेवाले बहुत कौन ऐसा वीर है, जो भगवान् श्रीरामको पराजित कर अच्छे थे। भेरी बजते ही राजाकी सेना संग्रामके लिये सके।' ऐसा कहकर नारदजी वहाँसे अन्तर्धान हो गये प्रस्थित हुई। सर्वत्र कोलाहल छा गया। महाराज वीरमणि
और देवता तथा दानवोंके समान उन दोनों पक्षोंका युद्धके उत्साहसे युक्त होकर रणक्षेत्रकी ओर गये। राजाकी भयङ्कर युद्ध देखनेके लिये आकाशमें ठहर गये। सेना आ पहुंची। शस्त्र-सञ्चालनमें चतुर रथियोंके द्वारा
उधर शूरशिरोमणि राजा वीरमणिने रिपुवार नामक समूची सेनामें महान् कोलाहल छा रहा है, यह देखकर सेनापतिको बुलाया और उसे अपने नगरमें ढिंढोरा शत्रुघ्नने सुमतिसे कहा- 'मन्त्रिवर ! मेरे अश्वको पिटवानेका आदेश दिया। सेनापतिने राजाको आज्ञाका पकड़नेवाले बलवान् राजा वीरमणि मुझसे युद्ध करनेके पालन किया। प्रत्येक घर, गली और सड़कपर डंकेकी लिये विशाल चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आ गये; अब किस आवाज सुनायी देने लगी। लोगोंको जो घोषणा सुनायी तरह युद्ध आरम्भ करना चाहिये। कौन-कौन महाबली गयी, वह इस प्रकार थी- 'राजधानीमें जो-जो वीर योद्धा इस समय युद्ध करेंगे? उन सबको आदेश दो; उपस्थित हैं, वे सभी शत्रुघ्रपर चढ़ाई करें। जो लोग जिससे इस संग्राममें हमें मनोवाञ्छित विजय प्राप्त हो।'
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पातालखण्ड ]
. देवपुरके राजकुमार रुक्माङ्गदद्वारा अश्वका अपहरण .
सुमतिने कहा-स्वामिन् ! वीर पुष्कल श्रेष्ठ अब तुम बलपूर्वक किया हुआ मेरा पराक्रम देखो। अस्त्रोंके ज्ञाता हैं। इस समय ये ही युद्ध करें। नीलरत्न सम्हलकर बैठ जाओ, मैं तुम्हारे रथको आकाशमें आदि दूसरे योद्धा भी संग्राममें कुशल हैं; अतः वे भी उड़ाता हूँ।' ऐसा कहकर उसने मन्त्र पढ़ा और पुष्कलके लड़ सकते हैं। आपको तो भगवान् शङ्कर अथवा राजा रथपर भ्रामकास्त्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आहत वीरमणिके साथ ही युद्ध करना चाहिये। वे राजा बड़े होकर पुष्कलका रथ चक्कर काटता हुआ एक योजन दूर बलवान् और पराक्रमी हैं; उन्हें द्वन्द्वयुद्धके द्वारा जीतना जा पड़ा। सारथिने बड़ी कठिनाईसे रथको रोका तो भी चाहिये। इस उपायसे काम लेनेपर आपकी विजय वह पृथ्वीपर ही चक्कर लगाता रहा। किसी तरह होगी। इसके बाद आपको जैसा जंचे, वैसा ही कीजिये; पूर्वस्थानपर रथको ले जाकर उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता क्योंकि आप तो स्वयं ही परम बुद्धिमान् हैं। पुष्कलने कहा-'राजकुमार ! तुम्हारे जैसे वीर पृथ्वीपर
मन्त्रीकी यह बात सुनकर शत्रुवीरोंका दमन रहनेके योग्य नहीं हैं। तुम्हें तो इन्द्रकी सभामें रहना करनेवाले शत्रुघ्नने युद्धके लिये निश्चय किया और श्रेष्ठ चाहिये, इसलिये अब देवलोकको ही चले जाओ।' योद्धाओंको लड़नेकी आज्ञा दी। संग्रामके लिये उनकी ऐसा कहकर उन्होंने आकाशमें उड़ा देनेवाले महान् आज्ञा सुनकर युद्ध-कुशल वीर अत्यन्त उत्साहसे भर अस्त्रका प्रयोग किया। उस बाणकी चोटसे रुक्माङ्गदका गये और शत्रुसैनिकोंके साथ युद्ध करनेके लिये चले। रथ सीधे आकाशमें उड़ चला और समस्त लोकोंको वे हाथोंमें धनुष धारण किये युद्धके मैदानमें दिखायी लाँघता हुआ सूर्यमण्डलतक जा पहुँचा । वहाँको प्रचण्ड दिये और बाणोंकी बौछार करके बहुतेरे विपक्षी ज्वालासे राजकुमारका रथ घोड़े और सारथिसहित दग्ध योद्धाओंको विदीर्ण करने लगे। उनके द्वारा अपने हो गया तथा वह स्वयं भी सूर्यको किरणोंसे झुलस सैनिकोंका संहार सुनकर मणिमय रथपर बैठा हुआ जानेके कारण बहुत दुःखी हो गया। अन्तमें वह दग्ध बलवान् राजकुमार रुक्माङ्गद उनका सामना करनेके होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय युद्धके अग्रभागमें लिये आगे बढ़ा। उसने अपने अनेकों बाणोंकी मारसे महान् हाहाकार मचा। राजा वीरमणि अपने पुत्रको शत्रुपक्षके हजारों वीरोंको उद्विग्न कर दिया। उनमें मूर्छित देखकर क्रोधमें भर गये और रणभूमिके हाहाकार मच गया। राजकुमार बलवान् था; उसने बल, मध्यभागमें खड़े हुए पुष्कलकी ओर चले। यश और सम्पत्तिमें अपनी समानता रखनेवाले शत्रुघ्न इधर कपिवर हनुमान्जीने जब देखा कि समुद्रके तथा भरत-कुमार पुष्कलको युद्धके लिये ललकारा- समान विशाल सेनाके भीतर स्थित हुए राजा वीरमणि 'वीररत्न ! मुझसे युद्ध करनेके लिये आओ। इन करोड़ों भरतकुमार पुष्कलको ललकार रहे हैं तब वे उनकी ओर मनुष्योंको डराने या मारनेसे क्या लाभ? मेरे साथ घोर दौड़े। उन्हें आते देख पुष्कलने कहा-'महाकपे ! आप संग्राम करके विजय प्राप्त करो।'
क्यों युद्धभूमिमें लड़नेके लिये आ रहे हैं? राजा रुक्माङ्गदके ऐसा कहनेपर बलवान् वीर पुष्कल वीरमणिकी यह सेना है ही कितनी ! मैं तो इसे बहुत हँस पड़े। उन्होंने अपने तीखे बाणोंसे राजकुमारकी थोड़ी-अत्यन्त तुच्छ समझता हूँ। जिस प्रकार आपने छातीमें बड़े वेगसे प्रहार किया। राजकुमार शत्रुके इस भगवान् श्रीरामकी कृपासे राक्षस-सेनारूपी समुद्रको पार पराक्रमको नहीं सह सका । उसने अपने महान् धनुषपर किया था, उसी प्रकार मैं भी श्रीरघुनाथजीका स्मरण बाणोंका सन्धान किया और दस सायकोंसे वीर करके इस दुस्तर संकटके पार हो जाऊँगा। जो लोग पुष्कलकी छातीको बींध डाला। दोनों ही युद्धमें एक दुस्तर अवस्थामें पड़कर श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हैं, दूसरेपर कुपित थे। दोनोंहीके हृदयमें विजयकी उनका दुःखरूपी समुद्र सूख जाता है-इसमें तनिक भी अभिलाषा थी। रुक्माङ्गदने पुष्कलसे कहा-'वीर ! सन्देह नहीं है; इसलिये महावीर ! आप चाचा शत्रुघ्नके
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[संक्षिप्त पद्मपुराण
पास जाइये। मैं अभी एक क्षणमें राजा वीरमणिको आते देख राजाने अत्यन्त कुपित होकर अपने तीक्ष्ण जीतकर आ रहा हूँ।
सायकोंसे उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। बाणोंका काटा हनुमानजी बोले-बेटा ! राजा वीरमणिसे जाना देख शत्रु-वीरोंका विनाश करनेवाले भरतकुमारके भिड़नेका साहस न करो। ये दानी, शरणागतकी रक्षामें हृदयमें बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तीन बाणोंसे राजाके कुशल, बलवान् और शौर्यसे शोभा पानेवाले हैं। तुम ललाटको बींध डाला । उन बाणोंकी चोटसे राजाको बड़ी अभी बालक हो और राजा वृद्ध। ये सम्पूर्ण अस्त्र- व्यथा हुई। वे प्रचण्ड क्रोधमें भर गये और वीर वेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। इन्होंने युद्धमें अनेकों शूरवीरोंको पुष्कलकी छातीमें उन्होंने नौ बाण मारे। तब तो परास्त किया है। तुम्हें मालूम होना चाहिये कि भगवान् पुष्कलका क्रोध भी बढ़ा। उन्होंने तीखे पर्ववाले सौ सदाशिव इनके रक्षक हैं और सदा इनके पास रहते हैं। बाण मारकर तुरंत ही राजाको घायल कर दिया। उन वे राजाकी भक्तिके वशीभूत होकर इनके नगरमें पार्वती- बाणोंके प्रहारसे राजाका कवच, किरीट, शिरस्त्राण तथा सहित निवास करते हैं।
रथ-सभी छिन्न-भिन्न हो गये। तब वीरमणि दूसरे पुष्कलने कहा-कपिश्रेष्ठ ! माना कि राजाने रथपर सवार होकर भरत-कुमारके सामने आये और भगवान् शङ्करको भक्तिसे वशमें करके अपने नगरमें बोले-'श्रीरामचन्द्रजीके चरण-कमलोंमें भ्रमरके समान स्थापित कर रखा है; परन्तु भगवान् शङ्कर स्वयं जिनकी अनुराग रखनेवाले वीर पुष्कल ! तुम धन्य हो !' ऐसा आराधना करके सर्वोत्कृष्ट स्थानको प्राप्त हुए हैं, वे कहकर अस्त्र-विद्यामें कुशल राजाने उनपर असंख्य श्रीरघुनाथजी मेरा हृदय छोड़कर कहीं नहीं जाते। जहाँ बाणोंका प्रहार किया। वहाँ पृथ्वीपर और दिशाओंमें श्रीरघुनाथजी हैं, वहीं सम्पूर्ण चराचर जगत् है; अतः मैं उनके बाणोंके सिवा दूसरा कुछ नहीं दिखायी देता था। राजा वीरमणिको युद्धमें जीत लूंगा।
अपनी सेनाका यह संहार देखकर रथियोंमें अग्रगण्य . धीरतापूर्वक कही हुई पुष्कलकी ऐसी वाणी सुनकर पुष्कलने भी शत्रुपक्षके योद्धाओंका विनाश आरम्भ हनुमान्जी राजाके छोटे भाई वीरसिंहसे युद्ध करनेके किया। हाथियोंके मस्तक विदीर्ण होने लगे, उनके मोती लिये चले गये। पुष्कल द्वैरथ-युद्धमें कुशल थे और बिखर-बिखरकर गिरने लगे। उस समय क्रोधमें भरे हुए सुवर्णजटित रथपर विराजमान थे। वे राजाको ललकारते पुष्कलने राजा वीरमणिको सम्बोधित करके शङ्ख देख उनका सामना करनेके लिये गये। उन्हें आया बजाकर निर्भयतापूर्वक कहा-'राजन् ! आप वृद्ध देखकर राजा वीरमणिने कहा- 'बालक ! मेरे सामने न होनेके कारण मेरे मान्य हैं, तथापि इस समय युद्धमें मेरा आओ, मैं इस समय क्रोधमें भरा हूँ युद्धमें मेरा क्रोध महान् पराक्रम देखिये। वीरवर ! यदि तीन बाणोंसे मैं और भी बढ़ जाता है; यदि प्राण बचानेकी इच्छा हो तो आपको मूर्च्छित न कर दूं तो जो महापापी मनुष्य लौट जाओ। मेरे साथ युद्ध मत करो।' राजाका यह पापहारिणी गङ्गाजीके तटपर जाकर भी उनकी निन्दा वचन सुनकर पुष्कलने कहा- 'राजन् ! आप युद्धके करके उनके जलमें डुबकी नहीं लगाता, उसको लगनेमुहानेपर संभलकर खड़े होइये। मैं श्रीरामका भक्त हूँ; वाला पाप मुझे ही लगे।' मुझे कोई युद्धमें जीत नहीं सकता, चाहे वह इन्द्र-पदका यह कहकर पुष्कलने राजाके महान् वक्षःस्थलको, ही अधिकारी क्यों न हो।' पुष्कलका ऐसा वचन सुनकर जो किवाड़ोंके समान विस्तृत था निशाना बनाया और राजाओंमें अग्रगण्य वीरमणि उन्हें निरा बालक समझकर एक अग्निके समान तेजस्वी एवं तीक्ष्ण बाण छोड़ा। हँसने लगे, तत्पश्चात् उन्होंने अपना क्रोध प्रकट किया। किन्तु राजाने अपने बाणसे पुष्कलके उस बाणके दो राजाको कुपित जानकर रणोन्मत्त वीर भरतकुमारने उनकी टुकड़े कर डाले। उनमेंसे एक टुकड़ा तो भूमण्डलको छातीमें बीस तीखे बाणोंका प्रहार किया। उन बाणोंको प्रकाशित करता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा और दूसरा
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पातालखण्ड ]
• हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय और वीरमणिका आत्मसमर्पण .
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राजाके रथपर गिरा। तब पुष्कलने अपना मातृ- करनेवाले श्रीरघुनाथजीका उन्होंने मन-ही-मन स्मरण भक्तिजनित पुण्य अर्पण करके दूसरा बाण चलाया; किन्तु किया और तीसरा बाण छोड़ दिया। वह बाण सर्पके राजाने अपने महान् बाणसे उसको भी काट दिया। इससे समान विषैला और सूर्यके समान प्रज्वलित था। उसने पुष्कलके मनमें बड़ा खेद हुआ। वे सोचने लगे-'अब राजाकी छातीमें चोट पहुँचाकर उन्हें मूर्च्छित कर दिया। क्या करना चाहिये ?' इतनेहीमें उन्हें एक उपाय सूझ राजाके मूर्छित होते ही उनकी सारी सेना हाहाकार मचाती गया। वे श्रेष्ठ अस्त्रोंके ज्ञाता तो थे ही, अपनी पीड़ा दूर हुई भाग चली और पुष्कल विजयी हुए।
हनुमानजीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शङ्करजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्छित होना, हनुमानके पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव
और वीरमणिका आत्मसमर्पण
शेषजी कहते हैं-मुने ! हनुमान्जीने वीरसिंहके उस विशाल सेनामें शत्रुघ्नके सैनिकोंके साथ युद्ध पास जाकर कहा-'वीरवर ! ठहरो, कहाँ जाते हो? मैं करनेके लिये गये। उनका उद्देश्य था भक्तोंकी रक्षा एक ही क्षणमें तुम्हें परास्त करूंगा।' वानरके मुखसे करना। वे पूर्वकालमें जैसे त्रिपुरसे युद्ध करनेके लिये ऐसी बढ़ी-चढ़ी बात सुनकर वीरसिंह क्रोधमें भर गये गये थे, उसी प्रकार वहाँ भी अपने पार्षदों और और मेघके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले धनुषको प्रमथ-गणोंसहित पृथ्वीतलको कैंपाते हुए जा पहुंचे। खींचकर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा करने लगे। उस समय महाबली शत्रुघ्नने जब देखा कि सर्वदेवशिरोमणि साक्षात् रणभूमिमें उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो आषाढ़के महेश्वर पधारे हैं, तब वे भी उनका सामना करनेके लिये महीनेमें धारावाहिक वृष्टि करनेवाला मनोहर मेघ शोभा रणभूमिमें गये। शत्रुघ्नको आया देख पिनाकधारी रुद्रने पा रहा हो। उन तीखे बाणोंको अपने शरीरपर लगते देख वीरभद्रसे कहा-'तुम मेरे भक्तको पीड़ा देनेवाले हनुमान्जीने वज्रके समान मुक्का वीरसिंहकी छातीमें पुष्कलसे युद्ध करो।' फिर नन्दीको उन्होंने महाबली मारा । मुष्टिका-प्रहार होते ही वे मूर्च्छित होकर धरतीपर हनुमान्से लड़नेके लिये भेजा। तदनन्तर कुशध्वजके गिर पड़े। अपने चाचाको मूर्च्छित देख राजकुमार पास प्रचण्डको, सुबाहुके पास भृङ्गीको और सुमदके शुभाङ्गद वहाँ आ पहुँचा । रुक्माङ्गदकी भी मूर्छा दूर हो पास चण्डनामक अपने गणको भेजकर युद्धके लिये चुकी थी; अतः वह भी युद्ध क्षेत्रमें आ धमका। वे दोनों आदेश दिया। महारुद्रके प्रधान गण वीरभद्रको आया भाई भयङ्कर संग्राम करते हुए हनुमान्जीके पास गये। देख पुष्कल अत्यन्त उत्साहपूर्वक उनसे युद्ध करनेको उन दोनों वीरोंको समर-भूमिमें आया देख हनुमानजीने आगे बढ़े। उन्होंने पाँच बाणोंसे वीरभद्रको घायल उन्हें रथ और धनुषसहित अपनी पूँछमें लपेट लिया और किया। उनके बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर वीरभद्रने पृथ्वीपर बड़े वेगसे पटका। इससे वे दोनों राजकुमार त्रिशूल हाथमें लिया; किन्तु महाबली पुष्कलने एक ही तत्काल मूर्छित हो गये। इसी प्रकार बलमित्र भी क्षणमें उस त्रिशूलको काटकर विकट गर्जना की। सुमदके साथ बहुत देरतक युद्ध करके अन्तमें मूर्छाको अपने त्रिशूलको कटा देख रुद्रके अनुगामी महाबली प्राप्त हुए।
वीरभद्रको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने महारथी तदनन्तर, अपने आत्मीय जनोंको मूर्च्छित देख पुष्कलके रथको तोड़ डाला । वीरभद्रके वेगसे चकनाचूर भक्तोंकी पीड़ा दूर करनेवाले भगवान् महेश्वर स्वयं ही हुए रथको त्याग कर महाबली पुष्कल पैदल हो गये
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . 1 [संक्षिप्त पापुराण ..... .............................................. ...............
और वीरभद्रको मुक्केसे मारने लगे। फिर दोनोंने एक किया, किन्तु महादेवजी उस महान् अस्त्रको हँसते-हँसते दूसरेपर मुष्टिकाप्रहार आरम्भ किया। दोनों ही परस्पर पी गये। इससे शत्रुघ्नको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने विजयके अभिलाषी और एक-दूसरेके प्राण लेनेको लगे-'अब क्या करना चाहिये?' वे इस प्रकार विचार उतारू थे। इस प्रकार रात-दिन लगातार युद्ध करते उन्हें कर ही रहे थे कि देवाधिदेवोंके शिरोमणि भगवान् शिवने चार दिन व्यतीत हो गये। पाँचवें दिन पुष्कलको बड़ा शत्रुघ्नकी छातीमें एक अग्निके समान तेजस्वी बाण भोंक क्रोध हुआ और उन्होंने वीरभद्रका गला पकड़कर उन्हें दिया। उससे मूर्च्छित होकर शत्रुघ्न रणभूमिमें गिर पड़े। पृथ्वीपर दे मारा। उनके प्रहारसे महाबली वीरभद्रको उस समय योद्धाओंसे भरी हुई उनकी सारी सेनामें बड़ी पीड़ा हुई। फिर उन्होंने भी पुष्कलके पैर पकड़कर हाहाकार मच गया। शत्रुधको बाणोंसे पीड़ित एवं उन्हें बारम्बार घुमाया और पृथ्वीपर पछाड़कर मार मूर्छित होकर गिरा देख हनुमान्जीने पुष्कलके शरीरको डाला। महाबली वीरभद्रने पुष्कलके मस्तकको, जिसमें रथपर सुला दिया और सेवकोंको उनकी रक्षामें तैनात कुण्डल जगमगा रहे थे, त्रिशूलसे काट दिया। इसके करके वे स्वयं संहारकारी शिवसे युद्ध करनेके लिये बाद वे जोर-जोरसे गर्जना करने लगे। यह देखकर सभी आये। हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके अपने लोग थर्रा उठे। रणभूमिमें जो युद्ध-कुशल वीर थे, पक्षके योद्धाओंका हर्ष बढ़ाते हुए रोषके मारे अपनी उन्होंने वीरभद्रके द्वारा पुष्कलके मारे जानेका समाचार पूँछको जोर-जोरसे हिला रहे थे। शत्रुघ्रसे कहा।
युद्धके मुहानेपर रुद्रके समीप पहुँचकर महावीर पुष्कलके वधका वृत्तान्त सुनकर महावीर शत्रुघ्नको हनुमानजी देवाधिदेव महादेवजीका वध करनेकी इच्छासे बड़ा दुःख हुआ। वे शोकसे काँप उठे। उन्हें दुःखी बोले-'रुद्र ! तुम रामभक्तका वध करनेके लिये उद्यत जानकर भगवान् शङ्करने कहा- शत्रुघ्न ! तू युद्धमे होकर धर्मके प्रतिकूल आचरण कर रहे हो; इसलिये मैं शोक न कर । वीर पुष्कल धन्य है, जिसने महाप्रलयकारी तुम्हें दण्ड देना चाहता हूँ। मैंने पूर्वकालमें वैदिक वीरभद्रके साथ पाँच दिनोंतक युद्ध किया। ये वीरभद्र वे ऋषियोंके मुंहसे अनेकों बार सुना है कि पिनाकधारी रुद्र ही हैं, जिन्होंने मेरे अपमान करनेवाले दक्षको क्षणभरमें सदा ही श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण करते रहते हैं; मार डाला था; अतः महाबलवान् राजेन्द्र ! तू शोक त्याग किन्तु वे सभी बातें आज झूठी साबित हुई। क्योंकि दे और युद्ध कर । शत्रुघ्नने शोक छोड़ दिया। उन्हें शङ्करके तुमने राम भक्त शत्रुनके साथ युद्ध किया है।' प्रति बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने चढ़ाये हुए धनुषको हाथमें हनुमानजीके ऐसा कहनेपर महेश्वर बोले-'कपिश्रेष्ठ ! लेकर महेश्वरपर बाणोका प्रहार आरम्भ किया। उधरसे तुम वीरोमें प्रधान और धन्य हो । तुमने जो कुछ कहा है, शङ्करने भी बाण छोड़े। दोनोंके बाण आकाशमें छा गये। वह सत्य है । देवदानव-वन्दित ये भगवान् श्रीरामचन्द्रजी वाण-युद्धमें दोनोंकी क्षमता देखकर सब लोगोंको यह वास्तवमें मेरे स्वामी हैं। किन्तु मेरा भक्त वीरमणि उनके विश्वास हो गया कि अब सबको मोहमें डालनेवाला अश्वको ले आया है और उस अश्वके रक्षक शत्रुघ्न, जो लोक-संहारकारी प्रलयकाल आ पहुँचा । दर्शक कहने शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले हैं, इसके ऊपर चढ़ आये लगे-'ये तीनों लोकोंकी उत्पत्ति और प्रलय करनेवाले हैं। इस अवस्थामें मैं वीरमणिकी भक्तिके वशीभूत होकर रुद्र हैं, तो वे भी महाराज श्रीरामचन्द्रके छोटे भाई है। न उसकी रक्षाके लिये आया हूँ; क्योंकि भक्त अपना ही जाने क्या होगा। इस भूतलपर किसकी विजय होगी?' स्वरूप होता है। अतः जिस किसी तरह भी सम्भव हो,
इस प्रकार शत्रुघ्न और शिवमें ग्यारह दिनोंतक उसकी रक्षा करनी चाहिये; यही मर्यादा है।' परस्पर युद्ध होता रहा । बारहवें दिन राजा शत्रुघ्नने क्रोध चण्डीपति भगवान् शङ्करके ऐसा कहनेपर भरकर महादेवजीका वध करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोग हनुमानजी बहुत कुपित हुए और उन्होंने एक बड़ी शिला
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पातालखण्ड]
• हनुमानजीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय और वीरमणिका आत्मसमर्पण .
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लेकर उसे उनके रथपर दे मारा। शिलाका आघात इससे मुझे बड़ा सन्तोष हुआ है। महान् वेगशाली वीर ! पाकर महादेवजीका रथ घोड़े, सारथि, ध्वजा और मैं दान, यज्ञ या थोड़ी-सी तपस्यासे सुलभ नहीं हूँ; अतः पताकासहित चूर-चूर हो गया। शिवजीको रथहीन मुझसे कोई वर माँगो।' देखकर नन्दी दौड़े हुए आये और बोले-'भगवन् ! भगवान् शिव सन्तुष्ट होकर जब ऐसी बात कहने मेरी पीठपर सवार हो जाइये।' भूतनाथको वृषभपर लगे, तब हनुमानजीने हंसकर निर्भय वाणीमें कहाआरूढ़ देख हनुमान्जीका क्रोध और भी बढ़ गया। 'महेश्वर ! श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे मुझे सब कुछ प्राप्त उन्होंने शालका वृक्ष उखाड़कर बड़े वेगसे उनकी है; तथापि आप मेरे युद्धसे सन्तुष्ट हैं, इसलिये मैं आपसे छातीपर प्रहार किया। उसकी चोट खाकर भगवान् यह वर माँगता हूँ। हमारे पक्षके ये वीर पुष्कल युद्धमें भूतनाथने एक तीखा शूल हाथमे लिया, जिसकी तीन मारे जाकर पृथ्वीपर पड़े हैं, श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई शिखाएँ थीं तथा जो अग्रिकी ज्वालाकी भांति शत्रुघ्न भी रणमें मूर्च्छित हो गये हैं तथा दूसरे भी जाज्वल्यमान हो रहा था। अग्नितुल्य तेजस्वी उस महान् बहुत-से वीर बाणोंकी मारसे क्षत-विक्षत एवं मूर्च्छित शूलको अपनी ओर आते देख हनुमान्जीने वेगपूर्वक होकर धरतीपर गिरे हुए हैं। इन सबकी आप अपने हाथसे पकड़ लिया और उसे क्षणभरमें तिल-तिल करके गणोंके साथ रहकर रक्षा करें। इनके शरीरका खण्डतोड़ डाला। कपिश्रेष्ठ हनुमान्ने जब वेगके साथ खण्ड न हो, इस बातकी चेष्टा करें। मैं अभी द्रोणगिरिको त्रिशूलके टुकड़े-टुकड़े कर डाले, तब भगवान् शिवने लाने जा रहा हूँ, उसपर मरे हुए प्राणियोंको जिलानेवाली तुरंत ही शक्ति हाथमें ली, जो सब-की-सब लोहेकी बनी ओषधियाँ रहती है।' यह सुनकर शङ्करजीने कहाहुई थी। शिवजीकी चलायी हुई वह शक्ति बुद्धिमान् 'बहुत अच्छा, जाओ।' उनकी स्वीकृति पाकर हनुमानजी हनुमान्जीकी छातीमें आ लगी। इससे वे कपिश्रेष्ठ सम्पूर्ण द्वीपोंको लांघते हुए क्षीरसागरके तटपर गये। क्षणभर बड़े विकल रहे। फिर एक ही क्षणमें उस इधर भगवान् शिव अपने गणोंके साथ रहकर पुष्कल पीडाको सहकर उन्होंने एक भयङ्कर वृक्ष उखाड़ लिया आदिकी रक्षा करने लगे। हनुमानजी द्रोण नामक महान्
और बड़े-बड़े नागोंसे विभूषित महादेवजीको छातीमें पर्वतपर पहुँचकर जब उसे लानेको उद्यत हुए, तब वह प्रहार किया। वीरवर हनुमान्जीकी मार खाकर शिवजीके काँपने लगा। उस पर्वतको काँपते देख उसकी रक्षा शरीरमें लिपटे हुए नाग थर्रा उठे और वे उन्हें छोड़कर करनेवाले देवताओंने कहा–'छोड़ दो इसे, किसलिये इधर-उधर होते हुए बड़े वेगसे पातालमें घुस गये। यहाँ आये हो? क्यों इसे ले जाना चाहते हो?' उनकी इसके बाद शिवजीने उनके ऊपर मुशल चलाया, किन्तु बात सुनकर महायशस्वी हनुमानजी बोले-'देवताओ! वे उसका वार बचा गये। उस समय रामसेवक राजा वीरमणिके नगरमें जो संग्राम हो रहा है, उसमें हनुमान्जीको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने हाथपर पर्वत रुद्रके द्वारा हमारे पक्षके बहुत-से योद्धा मारे गये है। लेकर उसे शिवजीकी छातीपर दे मारा । तदनन्तर, उनके उन्हींको जीवित करनेके लिये मैं यह द्रोण पर्वत ले ऊपर दूसरी-दूसरी शिलाओं, वृक्षों और पर्वतोंकी वृष्टि जाऊँगा। जो लोग अपने बल और पराक्रमके घमंडमें आरम्भ कर दी। वे भगवान् भूतनाथको अपनी पूँछमें आकर इसे रोकेंगे, उन्हें एक ही क्षणमें मैं यमराजके घर लपेटकर मारने लगे। इससे नन्दीको बड़ा भय हुआ। भेज दूंगा। अतः तुमलोग मुझे समूचा द्रोण पर्वत अथवा उन्होंने एक-एक क्षणमें प्रहार करके शिवजीको अत्यन्त वह औषध दे दो, जिससे मैं रणभूमिमें मरे हुए वीरोंको ध्याकुल कर दिया। तब वे वानरराज हनुमान्जीसे जीवन-दान कर सकूँ।' पवनकुमारके ये वचन सुनकर बोले-'रघुनाथजीकी सेवामें रहनेवाले भक्तप्रवर तुम सबने उन्हें प्रणाम किया और संजीवनी नामक ओषधि धन्य हो। आज तुमने महान् पराक्रम कर दिखाया। उन्हें दे दी। हनुमानजी औषध लेकर युद्धक्षेत्रमें आये।
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....... • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ... .......
[संक्षिप्त पद्मपुराण
उन्हें आया देख समस्त वैरी भी साधु-साधु कहकर शत्रुनको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने राजाके ऊपर उनकी प्रशंसा करने लगे तथा सबने उन्हें एक अद्भुत आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया, जिससे उनकी सेना दग्ध होने शक्तिशाली वीर माना। हनुमान्जी बड़ी प्रसन्नताके साथ लगी। शत्रुके छोड़े हुए उस महान् दाहक अस्त्रको मरे हुए वीर पुष्कलके पास आये और महापुरुषोंके भी देखकर राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने आदरणीय मन्त्रिवर सुमतिको बुलाकर बोले-'आज मैं वारुणास्त्रका प्रयोग किया। वारुणाखद्वारा अपनी सेनाको युद्धमें मरे हुए सम्पूर्ण वीरोंको जिलाऊँगा।' शीतके कष्टसे पीड़ित देख महाबली शत्रुघ्नने उसपर
ऐसा कहकर उन्होंने पुष्कलके विशाल वक्षःस्थल- वायव्यास्त्रका प्रहार किया। इससे बड़े जोरोंकी हवा पर औषध रखा और उनके सिरको धड़से जोड़कर यह चलने लगी। वायुके वेगसे मेघोंकी घिरी हुई घटा कल्याणमय वचन कहा–'यदि मैं मन, वाणी और छिन्न-भिन्न हो गयी। वे चारों ओर फैलकर विलीन हो क्रियाके द्वारा श्रीरघुनाथजीको ही अपना स्वामी समझता गये। अब शत्रुघ्नके सैनिक सुखी दिखायी देने लगे। हूँ तो इस दवासे पुष्कल शीघ्र ही जीवित हो जायें।' इस उधर महाराज वीरमणिने जब देखा कि मेरी सेना आँधीसे बातको ज्यों ही उन्होंने मुँहसे निकाला त्यों ही कष्ट पा रही है, तब उन्होंने अपने धनुषपर शत्रुओंका वीरशिरोमणि पुष्कल उठकर खड़े हो गये और रणभूमिमें संहार करनेवाले पर्वताखका प्रयोग किया । पर्वतोंके द्वारा रोषके मारे दाँत कटकटाने लगे। वे बोले-'मुझे युद्धमें वायुकी गति रुक गयी। अब वह युद्धक्षेत्रमें फैल नहीं मूर्च्छित करके वीरभद्र कहाँ चले गये? मैं अभी उन्हें पाती थी। यह देख शत्रुघ्नने वज्रास्त्रका सन्धान किया। मार गिराता हूँ। कहाँ है मेरा उत्तम धनुष !' उन्हें ऐसा वज्रास्त्रकी मार पड़नेपर समस्त पर्वत तिल-तिल करके कहते देख कपिराज हनुमानजीने कहा-'वीरवर ! तुम्हें चूर्ण हो गये। शत्रुवीरोंके अङ्ग विदीर्ण होने लगे। खूनसे वीरभद्रने मार डाला था। श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे पुनः लथपथ होनेके कारण उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। नया जीवन प्राप्त हुआ है। शत्रुघ्न भी मूर्च्छित हो गये हैं। उस समय युद्धका अद्भुत दृश्य था। राजा वीरमणिका चलो, उनके पास चलें।' यों कहकर वे युद्धके मुहानेपर क्रोध सीमाको पार कर गया। उन्होंने अपने धनुषपर पहुँचे, जहाँ भगवान् श्रीशिवके बाणोंसे पीड़ित होकर ब्रह्मास्त्रका सन्धान किया, जो वैरियोंको दग्ध करनेवाला शत्रुघ्नजी केवल साँस ले रहे थे। साँस आनेपर अद्भुत अस्त्र था। ब्रह्मास्त्र उनके हाथसे छूटकर शत्रुकी हनुमान्जीने उनकी छातीपर दवा रख दी और कहा- ओर चला। तबतक शत्रुघ्नने भी मोहनास्त्र छोड़ा। 'भैया शत्रुघ्न ! तुम तो महाबलवान् और पराक्रमी हो, मोहनास्त्रने एक ही क्षणमें ब्रह्मास्त्रके दो टुकड़े कर डाले रणभूमिमें मूर्छित होकर कैसे पड़े हो? यदि मैंने तथा राजाकी छातीमें चोट करके उन्हें तुरंत मूर्च्छित कर प्रयत्नपूर्वक आजन्म ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन किया है तो दिया। तब शिवजीको बड़ा क्रोध हुआ और वे रथपर वीर शत्रुघ्न क्षणभरमें जीवित हो उठे।' इतना कहते ही बैठकर राजाके पास आये। उस समय शत्रुघ्न सहसा वे क्षणमात्रमें जीवित हो बोल उठे-'शिव कहाँ हैं, उनसे युद्धके लिये आगे बढ़ आये और अपने धनुषपर शिव कहाँ है? वे रणभूमि छोड़कर कहाँ चले गये?' प्रत्यञ्चा चढ़ाकर युद्ध करने लगे। उन दोनोंमें बड़ा
. पिनाकधारी रुद्रने युद्धमें अनेकों वीरोंका सफाया भयङ्कर संग्राम छिड़ा, जो वैरियोंको विदीर्ण करनेवाला कर डाला था, किन्तु महात्मा हनुमानजीने उन सबको था। नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग होनेके कारण जीवित कर दिया। तब वे सभी वीर कवच आदिसे सारी दिशाएँ उद्दीप्त हो उठी थीं। शिवके साथ युद्ध सुसज्जित हो अपने-अपने रथपर बैठकर रोषपूर्ण हृदयसे करते-करते शत्रुघ्न अत्यन्त व्याकुल हो गये। तब शत्रुओंकी ओर चले। अबकी बार राजा वीरमणि स्वयं हनुमानजीके उपदेशसे उन्होंने अपने स्वामी ही शत्रुघ्नका सामना करनेके लिये गये। उन्हें देखकर श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया-'हा नाथ ! हा भाई ! ये
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हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय और वीरमणिका आत्मसमर्पण •
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अत्यन्त भयङ्कर शिव धनुष उठाकर मेरे प्राण लेनेपर उतारू हो गये हैं; आप युद्धमें मेरी रक्षा कीजिये। राम! आपका नाम लेकर अनेकों दुःखी जीव दुःख सागरके पार हो चुके हैं। कृपानिधे! मुझ दुःखियाको भी उबारिये।' शत्रुघ्रने ज्यों ही उपर्युक्त बात मुँहसे निकाली त्यों ही नील कमल दलके समान श्यामसुन्दर कमल नयन भगवान् श्रीराम मृगका शृङ्ग हाथमें लिये यज्ञदीक्षित पुरुषके वेषमें वहाँ आ पहुँचे। समरभूमिमें उन्हें देखकर शत्रुनको बड़ा विस्मय हुआ।
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प्रणतजनोंका क्लेश दूर करनेवाले अपने भाई श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पाकर शत्रुघ्र सभी दुःखोंसे मुक्त हो गये। हनुमानजी भी श्रीरघुनाथजीको देखकर सहसा उनके चरणों में गिर पड़े। उस समय उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे भक्तकी रक्षाके लिये आये हुए भगवान् से बोले- 'स्वामिन्! अपने भक्तोंका सब प्रकारसे पालन करना आपके लिये सर्वथा योग्य ही है। हम धन्य हैं, जो इस समय श्रीचरणोंका दर्शन पा रहे हैं। श्रीरघुनन्दन ! अब आपकी कृपासे हमलोग क्षणभरमें ही शत्रुओंपर विजय पा जायँगे।' इसी समय योगियोंके
ध्यानगोचर श्रीरामचन्द्रजीको आया जान श्रीमहादेवजी भी आगे बढ़े और उनके चरणोंमें प्रणाम करके शरणागतभयहारी प्रभुसे बोले - "भगवन् ! एकमात्र आप ही साक्षात् अन्तर्यामी पुरुष हैं, आप ही प्रकृतिसे
पर परब्रह्म कहलाते हैं। जो अपनी अंश- कलासे इस विश्वकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं, वे परमात्मा आप ही हैं। आप सृष्टिके समय विधाता, पालनके समय स्वयंप्रकाश राम और प्रलयके समय शर्व नामसे प्रसिद्ध साक्षात् मेरे स्वरूप हैं। मैंने अपने भक्तका उपकार करनेके लिये आपके कार्यमें बाधा डालनेवाला आयोजन किया है। कृपालो ! मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये क्या करूँ, मैंने अपने सत्यकी रक्षाके लिये ही यह सब कुछ किया है। आपके प्रभावको जानकर भी भक्तकी रक्षाके लिये यहाँ आया हूँ। पूर्वकालकी बात है, इस राजाने क्षिप्रा नदीमें स्नान करके उज्जयिनीके महाकाल मन्दिरमें बड़ी अद्भुत तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर मैंने कहा- 'महाराज ! वर माँगो' इसने अद्भुत राज्य माँगा।' मैंने कहा- 'देवपुरमें तुम्हारा राज्य होगा और जबतक वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञ सम्बन्धी अश्वका आगमन होगा, तबतक मैं भी तुम्हारी रक्षाके लिये उस स्थानपर निवास करूँगा।' इस प्रकार मैंने इसे वरदान दे दिया था। उसी सत्यसे मैं इस समय बँधा हूँ। अब यह राजा अपने पुत्र, पशु और बान्धवोंसहित यज्ञका घोड़ा आपको समर्पित करके आपके ही चरणोंकी सेवा करेगा।"
श्रीरामने कहा- भगवन्! देवताओंका तो यह धर्म ही है कि वे अपने भक्तोंका पालन करें। आपने जो इस समय अपने भक्तकी रक्षा की है, यह आपके द्वारा बहुत उत्तम कार्य हुआ है। मेरे हृदयमें शिव हैं और शिवके हृदयमें मैं हूँ। हम दोनोंमें भेद नहीं है। जो मूर्ख हैं, जिनकी बुद्धि दूषित है; वे ही भेददृष्टि रखते हैं। हम दोनों एकरूप हैं। जो हमलोगों में भेद-बुद्धि करते हैं, वे मनुष्य हजार कल्पोंतक कुम्भीपाकमें पकाये जाते हैं। महादेवजी ! जो सदा आपके भक्त रहे हैं, वे धर्मात्मा पुरुष मेरे भी भक्त हैं तथा जो मेरे भक्त हैं, वे भी बड़ी
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भक्तिसे आपके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। *
शेषजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीका ऐसा वचन सुनकर भगवान् शिवने मूर्च्छित पड़े हुए राजा वीरमणिको अपने हाथके स्पर्श आदिसे जीवित किया। इसी प्रकार उनके दूसरे पुत्रोंको भी, जो बाणोंसे पीड़ित होकर अचेत अवस्थामें पड़े थे, जिलाया। भगवान् भूतनाथने राजाको तैयार करके पुत्र-पौत्रोंसहित उन्हें श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें गिराया । वात्स्यायनजी! धन्य हैं राजा वीरमणि, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन किया। जो लाखों योगियोंके लिये उनकी योगनिष्ठाके द्वारा भी दुर्लभ हैं, उन्हीं भगवान् श्रीरामको प्रणाम करके समस्त राज परिवारके लोग कृतार्थ हो गये उनका शरीर धारण करना सफल हो गया। इतना ही नहीं, वे ब्रह्मादि देवताओंके भी पूजनीय बन गये। शत्रुघ्न, हनुमान् और पुष्कल आदि उद्भट योद्धा जिनकी स्तुति करते हैं, उन श्रीरामचन्द्रजीको राजा वीरमणिने शिवजीकी प्रेरणासे वह उत्तम अश्व दे दिया
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
शेषजी कहते हैं— द्विजश्रेष्ठ ! तदनन्तर बँधे हुए चँवरसे सुशोभित वह यज्ञ सम्बन्धी अश्व हजारों योद्धाओंसे सुरक्षित होकर भारतवर्षके अन्तमें स्थित हेमकूट पर्वतपर गया, जो चारों ओरसे दस हजार योजन लंबा-चौड़ा है। उसके सुन्दर शिखर सोने-चाँदी आदि धातुओंके हैं। वहाँ एक विशाल उद्यान है, जो बहुत ही सुन्दर और भाँति-भाँतिके वृक्षोंसे सुशोभित है। घोड़ा उसमें प्रवेश कर गया। वहाँ जानेपर उस अश्वके सम्बन्धमें सहसा एक आश्चर्यजनक घटना हुई उसे बतलाता हूँ, सुनिये - अकस्मात् उसका सारा शरीर अकड़ गया, वह हिल-डुल नहीं पाता था। मार्ग में
साथ ही पुत्र, पशु और बान्धवों सहित अपना सारा राज्य भी समर्पण कर दिया। तदनन्तर, श्रीरामचन्द्रजी समस्त शत्रुओं तथा सेवकोंसे अभिवन्दित होकर मणिमय रथपर बैठे-बैठे ही अन्तर्धान हो गये। मुने! विश्ववन्दित श्रीरामको तुम मनुष्य न समझो। जलमें, थलमें, सब जगह तथा सबके भीतर सदा वे ही स्थित रहते हैं। भगवान् शङ्करने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके सेवक राजासे विदा ली और कहा- 'राजन् ! श्रीरामचन्द्रजीका आश्रय ही संसारमें सबसे दुर्लभ वस्तु है, अतः तुम श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें रहो।' यों कहकर प्रलय और उत्पत्तिके कर्ता-धर्ता भगवान् शिव स्वयं भी अदृश्य हो समस्त पार्षदोंके साथ कैलासको चले गये। इसके बाद राजा वीरमणि श्रीरामके चरण कमलोंका ध्यान करते हुए स्वयं भी अपनी सेना लेकर महाबली शत्रुघ्नके साथ-साथ गये। जो श्रेष्ठ मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके इस चरित्रका श्रवण करेंगे, उन्हें कभी सांसारिक दुःख नहीं होगा ।
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अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
खड़ा खड़ा वह हेमकूट पर्वतकी ही भाँति अविचल प्रतीत होने लगा। अक्षके रक्षकोंने शत्रुनके पास जाकर पुकार मचायी - 'स्वामिन्! हम नहीं जानते घोड़ेको क्या हो गया। अकस्मात् उसका सम्पूर्ण शरीर स्तब्ध हो गया है। इस बातपर विचार कर जो कुछ करना उचित जान पड़े, कीजिये।' यह सुनकर राजा शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ वे अपने समस्त सैनिकोंके साथ अश्वके निकट गये। पुष्कलने अपनी बाँहसे पकड़कर उसके दोनों चरणोंको धरतीसे ऊपर उठानेका प्रयत्न किया। परन्तु वे अपने स्थानसे हिल भी न सके। तब शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा—'मन्त्रिवर! घोड़ेको क्या हुआ है, जो इसका
* ममास्ति हृदये शवों भवतो हृदये त्वहम् । आवयोरन्तरं नास्ति मूढाः पश्यन्ति दुर्धियः ॥
ये भेदं विदधत्यद्धा आवयोरेकरूपयोः कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते नराः कल्पसहस्रकम् ॥
ये त्वद्भक्ताः सदासंस्ते मद्भक्ता धर्मसंयुताः । मद्भक्ता अपि भूयस्या भक्त्या तव नतिङ्कराः ॥ (४६ । २०-२२ )
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पातालखण्ड ]
. अश्वका गात्र-स्तम्ब तथा एक ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार .
सारा शरीर अकड़ गया? अब यहाँ क्या उपाय करना शत्रुनके इस प्रकार पूछनेपर परम बुद्धिमान् चाहिये, जिससे इसमें चलनेकी शक्ति आ जाय?' मुनिश्रेष्ठ शौनकने थोड़ी देरतक ध्यान किया। फिर एक __ सुमतिने कहा-स्वामिन् ! किन्हीं ऐसे ऋषि- ही क्षणमें सारा रहस्य समझमें आ गया। उनकी आँखें मुनिकी खोज करनी चाहिये, जो सब बातोंको जाननेमें आश्चर्यसे खिल उठी तथा वे दुःख और संशयमें पड़े हुए कुशल हो। मैं तो लोकमें होनेवाले प्रत्यक्ष विषयोंको ही राजा शत्रुघ्नसे बोले-राजन् ! मैं अश्वके गात्र-स्तम्भका जानता हूँ: परोक्षमें मेरी गति नहीं है।
कारण बताता हूँ, सुनो। गौड़ देशके सुरम्य प्रदेशमें, शेषजी कहते हैं-सुमतिकी यह बात सुनकर कावेरीके तटपर सात्त्विक नामका एक ब्राह्मण बड़ी भारी धर्मके ज्ञाता शत्रुघने अपने सेवकोंद्वारा ऋषिकी खोज तपस्या कर रहा था। वह एक दिन जल पीता, दूसरे दिन करायी। एक सेवक वहाँसे एक योजन दूर पूर्व दिशाकी हवा पीकर रहता और तीसरे दिन कुछ भी नहीं खाता
ओर गया। वहाँ उसे एक बहुत बड़ा आश्रम दिखायी था। इस प्रकार तीन-तीन दिनका व्रत लेकर वह समय दिया, जहाँके पशु और मनुष्य-सभी परस्पर वैर- व्यतीत करता था। उसका यह व्रत चल ही रहा था कि भावसे रहित थे। गङ्गाजीमें नान करनेके कारण उनके सबका विनाश करनेवाले कालने उसे अपने दाढ़ोंमें ले समस्त पाप दूर हो गये थे तथा वे सब-के-सब बड़े लिया। उस महान् व्रतधारी तपस्वीकी मृत्यु हो गयी। मनोहर दिखायी देते थे। वह शौनक मुनिका मनोहर तत्पश्चात् वह सात्त्विक नामका ब्राह्मण सब प्रकारके आश्रम था। उसका पता लगाकर सेवक लौट आया रत्नोसे विभूषित तथा सब तरहकी शोभासे सम्पन्न और विस्मित होकर उसने राजा शत्रुघ्नसे उस आश्रमका विमानपर बैठकर मेरुगिरिके शिखरपर गया। वहाँ जम्बू समाचार निवेदन किया। सेवककी बात सुनकर नामकी नदी बहती थी, जिसके किनारे तप और ध्यानमें अनुचरोंसहित शत्रुमको बड़ा हर्ष हुआ और वे हनुमान् संलग्न रहनेवाले ऋषि महर्षि निवास करते थे। वह तथा पुष्कल आदिके साथ ऋषिके आश्रमपर गये। वहाँ ब्राह्मण वहीं आनन्दमग्न होकर अपनी इच्छाके अनुसार जाकर उन्होंने मुनिके पापहारी चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम अप्सराओंके साथ विहार करने लगा। अभिमान और किया। बलवानोंमें श्रेष्ठ राजा शत्रुघ्नको आया जान मदसे उन्मत्त होकर उसने वहाँ रहनेवाले ऋषियोंके शौनक मुनिने अर्ध्य, पाद्य आदि देकर उनका स्वागत प्रतिकूल बर्ताव किया। इससे रुष्ट होकर उन ऋषियोंने किया। उनके दर्शनसे मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। शाप दिया-'जा, तू राक्षस हो जा; तेरा मुख विकृत हो शत्रुघ्नजी सुखपूर्वक बैठकर जब विश्राम कर चुके तो जाय।' यह शाप सुनकर ब्राह्मणको बड़ा दुःख हुआ और मुनीश्वरने पूछा-'राजन् ! तुम किसलिये भ्रमण कर रहे उसने उन विद्वान् एवं तपस्वी ब्राह्मणोंसे कहाहो? तुम्हारी यह यात्रा तो बड़ी दूरकी जान पड़ती है।' 'ब्रह्मर्षियो! आप सब लोग दयालु है; मुझपर कृपा मुनिकी यह बात सुनकर राजा शत्रुघ्नका शरीर हर्षसे कीजिये। तब उन्होंने उसपर अनुग्रह करते हुए पुलकित हो उठा। वे अपना परिचय देते हुए गद्गद कहा-“जिस समय तुम श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको अपने वाणीमें बोले-'महर्षे ! मेरा अश्व अकस्मात् एक वेगसे स्तब्ध कर दोगे, उस समय तुम्हें श्रीरामकी कथा फूलोंसे सुशोभित उद्यानमें चला गया। उसके भीतर एक सुननेका अवसर मिलेगा। उसके बाद इस भयङ्कर किनारेपर पहुँचते ही तत्काल उसका शरीर अकड़ गया। शापसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी।' मुनियोंके कथनानुसार इसके कारण हमलोग अपार दुःखके समुद्रमें डूब रहे हैं; उसीने यहाँ राक्षस होकर श्रीरघुनाथजीके अश्वको आप नौका बनकर हमें बचाइये। हमारे बड़े भाग्य थे, स्तम्भित किया है; अतः तुम कीर्तनके द्वारा घोड़ेको उसके जो दैवात् आपका दर्शन हुआ। घोड़ेकी इस अवस्थाका चंगुलसे छुड़ाओ।' । प्रधान कारण क्या है ? यह बतानेकी कृपा कीजिये।' मुनिका यह कथन सुनकर शत्रुवीरोंका दमन संध्यपु०१७
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• अर्चयस्थ हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त परापुराण
करनेवाले शत्रुघ्रके मनमें बड़ा विस्मय हुआ। वे नरकमें, जिसका विस्तार दस हजार योजन है, पड़ता है। शौनकसे बोले-'कर्मकी बात बड़ी गहन है, जिससे जो गौओंसे द्रोह करता है, उसे यमराजके किङ्कर नरकमें सात्त्विक नामधारी ब्राह्मण अपने महान् कर्मसे स्वर्गमें डालकर पकाते हैं; वह भी थोड़े समयतक नहीं, गौओंके पहुँचकर भी पुनः राक्षसभावको प्राप्त हो गया। स्वामिन् ! शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने ही हजार वर्षांतक । जो आप कोंक अनुसार जैसी गति होती है, उसका वर्णन इस पृथ्वीका राजा होकर दण्ड न देने योग्य पुरुषको दण्ड कीजिये ! जिस कर्मके परिणामसे जैसे नरककी प्राप्ति देता है तथा लोभवश (अन्यायपूर्वक) ब्राह्मणको भी होती है, उसे बताइये।'
शारीरिक दण्ड देता है, उसे सूअरके समान मुँहवाले दुष्ट शौनकने कहा-रघुकुलश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, जो यमदूत पीड़ा देते हैं। तत्पश्चात् वह शेष पापोंसे छुटकारा तुम्हारी बुद्धि सदा ऐसी बातोंको जानने और सुनने में लगी पानेके लिये दुष्ट योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। जो रहती है। इसमें संदेह नहीं कि तुम इस विषयको मनुष्य मोहवश ब्राह्मणों तथा गौओंके थोड़े-से भी द्रव्य, भलीभांति जानते हो; तो भी लोगोंके हितके लिये मुझसे धन अथवा जीविकाको लेते या लूटते हैं, वे परलोकमें पूछ रहे हो। महाराज ! कोंके स्वरूप विचित्र हैं तथा जानेपर अन्धकूप नामक नरकमें गिराये जाते हैं। वहाँ उनकी गति भी नाना प्रकारको है; मैं उसका वर्णन करता उनको महान् कष्ट भोगना पड़ता है। जो जीभके लिये हूँ, सुनो। इस विषयका श्रवण करनेसे मनुष्यको मोक्षकी आतुर हो लोलुपतावश स्वयं ही मधुर अन्न लेकर खा प्राप्ति हो सकती है।
जाता है, देवताओं तथा सुहदोंको नहीं देता, वह निश्चय जो दुष्ट बुद्धिवाला पुरुष पराये धन, परायी संतान ही 'कृमिभोजन' नामक नरकमें पड़ता है। जो मनुष्य और परायी स्त्रीको भोग-बुद्धिसे बलात्पूर्वक अपने सुवर्ण आदिका अपहरण अथवा ब्राह्मणके धनकी चोरी अधिकारमें कर लेता है, उसको महाबली यमदूत काल- करता है, वह अत्यन्त दुःखदायक 'संदंश' नामक पाशमें बाँधकर तामिस्र नामक नरकमें गिराते हैं और नरकमें गिरता है। जबतक एक हजार वर्ष पूरे नहीं हो जाते, तबतक उसीमें जो मूढ बुद्धिवाला पुरुष केवल अपने शरीरका रखते हैं। यमराजके प्रचण्ड दूत वहाँ उस पापीको खूब पोषण करता है, दूसरेको नहीं जानता, वह तपाये हुए पीटते हैं। इस प्रकार पाप-भोगके द्वारा भलीभाँति केश तेलसे पूर्ण अत्यन्त भयंकर कुम्भीपाक नरकमें डाला उठाकर अन्तमें वह सूअरकी योनिमें जन्म लेता है और जाता है। जो पुरुष मोहवश अगम्या स्त्रीको भार्याउसमें भी महान् दुःख भोगनेके पश्चात् वह फिर मनुष्यको बुद्धिसे भोगना चाहता है, उसे यमराजके दूत उसी स्त्रीकी योनिमें जाता है; परन्तु वहाँ भी अपने पूर्वजन्मके लोहमयी तपायी हुई प्रतिमाके साथ आलिङ्गन करवाते कलङ्कको सूचित करनेवाला कोई रोग आदिका चिह्न हैं। जो अपने बलसे उन्मत्त होकर बलपूर्वक वेदकी धारण किये रहता है। जो केवल दूसरे प्राणियोंसे द्रोह मर्यादाका लोप करते हैं, वे वैतरणी नदीमें डूबकर मांस करके ही अपने कुटुम्बका पोषण करता है, वह और रक्त भोजन करते हैं । जो द्विज होकर शूद्रकी स्त्रीको पापपरायण पुरुष अन्धतामिस्र नरकमें पड़ता है। जो अपनी भार्या बनाकर उसके साथ गृहस्थी चलाता है, वह लोग यहाँ दूसरे प्राणियोंका वध करते हैं, वे रौरव नरकमें निश्चय ही 'पूयोद' नामक नरकमें गिरता है। वहाँ उसे गिराये जाते हैं तथा रुरु नामक पक्षी रोषमें भरकर उनका बहुत दुःख भोगना पड़ता है। जो धूर्त लोगोंको धोखेमें शरीर नोचते हैं। जो अपने पेटके लिये दूसरे जीवोंका डालनेके लिये दम्भका आश्रय लेते हैं, वे मूढ वैशस वध करता है, उसे यमराजकी आज्ञासे महारैरव नामक नामक नरकमें डाले जाते हैं और वहाँ उनपर यमराजकी नरकमें डाला जाता है। जो पापी अपने पिता और मार पड़ती है। जो मूढ सवर्णा (समान गोत्रवाली) ब्राह्मणसे द्वेष करता है, वह महान् दुःखमय कालसूत्र स्त्रीको योनिमें वीर्यपात करते हैं, उन्हें वीर्यकी नहरमें
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पातालखण्ड ]
. अश्वका गात्र-स्तम्भ तथा एक ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार .
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डाला जाता है और वे वीर्य पीकर ही रहते हैं। जो लोग मनुष्योंके लिये सब उपायोंसे श्रेष्ठ है। वह पापियोंके सारे चोर, आग लगानेवाले, दुष्ट, जहर देनेवाले और पाप-पङ्कको धो डालती है। इस विषयमें कोई अन्यथा गाँवोंको लूटनेवाले हैं, वे महापातकी जीव 'सारमेयादन' विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।* जो भगवान्का नरकमें गिराये जाते हैं। जो पापराशिका संचय अपमान करता है, उसे गङ्गा भी नहीं पवित्र कर सकती। करनेवाला पुरुष झूठी गवाही देता या बलपूर्वक दूसरोका पवित्रसे पवित्र तीर्थ भी उसे पावन बनानेकी शक्ति नहीं धन छीन लेता है, वह पापी 'अवीचि' नामक नरकमें रखते। जो ज्ञानहीन होनेके कारण भगवान्के लीलानीचे सिर करके डाल दिया जाता है। उसमें महान् दुःख कीर्तनका उपहास करता है, उसको कल्पके अन्ततक भी भोगनेके पश्चात् वह पुनः अत्यन्त पापमयी योनिमें जन्म नरकसे छुटकारा नहीं मिलता। राजन् ! अब तुम जाओ लेता है। जो मूढ सुरापान करता है, उसे धर्मराजके दूत और घोड़ेको संकटसे छुड़ानेके लिये सेवकोंसहित गरम-गरम लोहेका रस पिलाते है। जो। अपनी विद्या भगवान्का चरित्र सुनाओ, जिससे अश्वमें पुनः चलनेऔर आचारके घमंडमें आकर गुरुजनोंका अनादर करता फिरनेकी शक्ति आ जाय। है, वह मनुष्य मृत्युके पश्चात् 'क्षार' नरकमें नीचे मुँह शेषजी कहते है-शौनकजीकी उपर्युक्त बात करके गिराया जाता है। जो लोग धर्मसे बहिष्कृत होकर सुनकर शत्रुघ्नको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे मुनिको प्रणाम विश्वासघात करते हैं, उन्हें अत्यन्त यातनापूर्ण 'शूलपोत' और परिक्रमा करके सेवकोंसहित चले गये। वहाँ जाकर नरकमें डाला जाता है। जो चुगली करके सब लोगोंको हनुमान्जीने घोड़ेके पास श्रीरघुनाथजीके चरित्रका वर्णन अपने वचनसे उद्वेगमें डाला करता है, वह 'दंदशूक' किया, जो बड़ी-से-बड़ी दुर्गतिका नाश करनेवाला है। नामक नरकमें पड़कर दंदशूको (सो) द्वारा इंसा जाता अन्तमें उन्होंने कहा- 'देव ! आप श्रीरामचन्द्रजीके है। राजन् ! इस प्रकार पापियोंके लिये अनेकों नरक है; कीर्तनके पुण्यसे अपने विमानपर सवार होइये और पाप करके वे उन्हीं में जाते और अत्यन्त भयङ्कर यातना स्वेच्छानुसार अपने लोकमें विचरण कीजिये। इस भोगते हैं। जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजीको कथा नहीं सुनी है कुत्सित योनिसे अब आपका छुटकारा हो जाय।' यह तथा दूसरोंका उपकार नहीं किया है, उनको नरकके वाक्य सुनकर देवताने कहा-'राजन् ! मैं श्रीरामचन्द्रजीभीतर सब तरहके दुःख भोगने पड़ते हैं। इस लोकमें भी का कीर्तन सुननेसे पवित्र हो गया। महामते ! अब मैं जिसको अधिक सुख प्राप्त है, उसके लिये वह अपने लोकको जा रहा हूँ आप मुझे आज्ञा दीजिये।' स्वर्ग कहलाता है तथा जो रोगी और दुःखी हैं, वे यह कहकर देवता विमानपर बैठे हुए स्वर्ग चले गये। नरकमें ही हैं।
उस समय यह दृश्य देखकर शत्रुघ्न और उनके दान-पुण्यमें लगे रहने, तीर्थ आदिका सेवन करने, सेवकोंको बड़ा विस्मय हुआ। तदनन्तर, वह अश्व श्रीरघुनाथजीकी लीलाओंको सुनने अथवा तपस्या गात्रस्तम्भसे मुक्त होकर पक्षियोंसे भरे हुए उस उद्यानमें करनेसे पापोंका नाश होता है। हरिकीर्तनरूपी नदी ही सब ओर भ्रमण करने लगा।
* दानपुण्यप्रसंगेन सर्वेषामप्युपायानां
तीर्थादिक्रियया तथा । रामचारित्रसंश्रुत्या तपसा वा क्षयं ब्रजेत्॥ हरिकीर्तिधुनी नृणाम् । क्षालयेत् पापिना पटू नात्र कार्या विचारणा ॥ (४८।६५-६६)
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• अर्चयस्व वषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अङ्गदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
- शेषजी कहते है-उस श्रेष्ठ अश्वको अनेको मनको मोहनेवाला अश्व श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ है। राजाओसे भरे हुए भारतवर्ष में लीलापूर्वक भ्रमण करते यह जानकर वे बड़े प्रसन्न हुए और उत्सुक-भावसे सात महीने व्यतीत हो गये। उसने हिमालयके निकट राजसभामें जा वहाँ बैठे हुए महाराजको सूचना देते बहुत-से देशोंमें विचरण किया, किन्तु श्रीरामचन्द्रजीके हुए बोले-'स्वामिन् ! अयोध्या-नगरीके स्वामी जो बलका स्मरण करके कोई उसे पकड़ न सका । अङ्ग, श्रीरघुनाथजी हैं, उनका छोड़ा हुआ अश्वमेधयोग्य अश्व बङ्ग और कलिङ्ग-देशके राजाओंने तो उस अश्वका सर्वत्र भ्रमण कर रहा है। वह अनुचरोंसहित आपके भलीभाँति स्तवन किया। वहाँसे आगे बढ़नेपर वह राजा नगरके निकट आ पहुंचा है। महाराज ! वह अश्व सुरथके मनोहर नगरमें पहुँचा, जो अदितिका कुण्डल अत्यन्त मनोहर है, आप उसे पकड़ें।' गिरनेके कारण कुण्डलके ही नामसे प्रसिद्ध था। वहाँके सुरथ बोले-हम सेवकोंसहित धन्य है; क्योंकि लोग कभी धर्मका उल्लङ्घन नहीं करते थे। वहाँको हमें श्रीरामचन्द्रजीके मुखचन्द्रका दर्शन होगा। करोड़ों जनता प्रतिदिन प्रेमपूर्वक श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया योद्धाओंसे घिरे हुए उस अश्वको आज मैं पकडूंगा और करती थी। उस नगरके मनुष्य नित्यप्रति अश्वस्थ और तभी छोड़ेगा जब श्रीरघुनाथजी चिरकालसे अपना तुलसीकी पूजा करते थे। वे सब-के-सब श्रीरघुनाथजीके चिन्तन करनेवाले मुझ भक्तपर कृपा करनेके लिये स्वयं सेवक थे। पापसे कोसों दूर रहते थे। वहाँकै सुन्दर यहाँ पदार्पण करें। देवालयोंमें श्रीरघुनाथजीकी प्रतिमा शोभा पाती थी तथा शेषजी कहते हैं-ऐसा कहकर राजाने सेवकोंको कपटरहित शुद्ध चितवाले नगर-निवासी प्रतिदिन वहाँ आज्ञा दी-'जाओ, अश्वको बलपूर्वक पकड़ लाओ। जाकर भगवान की पूजा करते थे। उनकी जिह्वापर केवल सामने पड़ जानेपर उसे कदापि न छोड़ना। मुझे ऐसा भगवानका नाम शोभा पाता था, झगड़े-फसादकी चर्चा विश्वास है कि इससे अपना महान् लाभ होगा। ब्रह्मा नहीं। उनके हृदयमें भगवान्का ही ध्यान होता; कामना और इन्द्रके लिये भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, उन्हीं या फलकी स्मृति नहीं होती थी। वहाँके सभी देहधारी श्रीराम-चरणोंकी झाँकी हमारे लिये सुलभ होगी। वही पवित्र थे। श्रीरामचन्द्रजीकी कथा-वार्तासे ही उनका स्वजन, पुत्र, बान्धव, पशु अथवा वाहन धन्य है, जिससे मनबहलाव होता था। वे सब प्रकारके दुर्व्यसनोंसे रहित श्रीरामचन्द्रजीकी प्राप्ति सम्भव हो; अतः जो स्वर्णपत्रसे थे; अतः कभी भी जुआ नहीं खेलते थे। उस नगरमें शोभा पा रहा है, इच्छानुसार वेगसे चलता है तथा धर्मात्मा, सत्यवादी एवं महाबली राजा सुरथ निवास देखने में अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है, उस यज्ञकरते थे, जिनका चित्त श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण सम्बन्धी अश्वको पकड़कर घुड़सालमें बाँध दो।' करके सदा आनन्दमन रहा करता था। वे भगवद्-प्रेममें महाराजके ऐसा कहनेपर सेवकोंने जाकर श्रीरामचन्द्रजीके मस्त रहते थे। राम-भक्त राजा सुरथकी महिमाका मैं क्या सुन्दर अश्वको पकड़ लिया और दरबारमें लाकर उन्हें वर्णन करूँ? उनके समस्त गुण भूमण्डलमे विस्तृत अर्पण कर दिया। वात्स्यायनजी! आप एकाग्रचित्त होकर सबके पापोंका परिमार्जन कर रहे हैं। होकर सुनें । राजा सुरथके राज्यमें कोई भी ऐसा मनुष्य
एक समय राजाके कुछ सेवक टहल रहे थे। नहीं था, जो परायी स्त्रीसे अनुराग रखता हो। दूसरोंके उन्होंने देखा, चन्दनसे चर्चित अश्वमेधका अश्व आ रहा धन लेनेवाले तथा कामलम्पट पुरुषका वहाँ सर्वथा है। निकटसे देखनेपर उन्हें मालूम हुआ कि यह नेत्र और अभाव था। जिह्वासे श्रीरघुनाथजीका कीर्तन करनेके
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. राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार .
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सिवा दूसरी कोई अनुचित बात किसीके मुंहसे नहीं वे तपस्याके साक्षात् विग्रह-से जान पड़ते थे। उन्होंने निकलती थी। वहाँ सभी एकपत्नीव्रतका पालन मुनिके चरणोंमें प्रणाम करके उन्हें अर्थ्य, पाद्य आदि करनेवाले थे। दूसरोंपर झूठा कलङ्क लगानेवाला और निवेदन किया। तत्पश्चात् जब वे सुखपूर्वक आसनपर वेदविरुद्ध पथपर चलनेवाला उस राज्यमें एक भी मनुष्य विराजमान हो विश्राम कर चुके, तब राजाओमें अग्रगण्य नहीं था। राजाके सभी सैनिक प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीका सुरथने उनसे कहा- 'मुनिवर ! आज मेरा जीवन धन्य स्मरण करते रहते थे। उनके देशमें पापिष्ठ नहीं थे, है! आज मेरा घर धन्य हो गया !! आप मुझे किसीके मनमें भी पापका विचार नहीं उठता था। श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कथाएँ सुनाइये। जिन्हें सुननेवाले भगवान्का ध्यान करनेसे सबके समस्त पाप नष्ट हो गये मनुष्योंका पद-पदपर पाप नाश होता है।' राजाका ऐसा थे। सभी आनन्दमग्न रहते थे।
___ वचन सुनकर मुनि अपने दाँत दिखाते हुए जोर-जोरसे उस देशके राजा जब इस प्रकार धर्मपरायण हो हंसने और ताली पीटने लगे। राजाने पूछा-'मुने ! गये तो उनके राज्यमें रहनेवाले सभी मनुष्य मरनेके बाद आपके हँसनेका क्या कारण है? कृपा करके बताइये, शान्ति प्राप्त करने लगे। सुरथके नगरमें यमदूतोका प्रवेश जिससे मनको सुख मिले।' तब मुनि बोले-'राजन् ! नहीं होने पाता था। जब ऐसी अवस्था हो गयी, तो एक बुद्धि लगाकर मेरी बात सुनो, मैं तुम्हें अपने हंसनेका दिन यमराज मुनिका रूप धारण करके राजाके पास उत्तम कारण बताता हूँ। तुमने अभी कहा है कि 'मेरे गये। उनके शरीरपर वल्कल-वस्त्र और मस्तकपर जटा सामने भगवान्को कीर्तिका वर्णन कीजिये।' मगर मैं शोभा पा रही थी। राजसभामें पहुँचकर वे भगवद्भक्त पूछता हूँ-भगवान् है कौन? वे किसके हैं और उनकी महाराज सुरथसे मिले। उनके मस्तकपर तुलसी और कीर्ति क्या है ? संसारके सभी मनुष्य अपने कर्मोक जिह्वापर भगवान्का उत्तम नाम था। वे अपने सैनिकोंको अधीन हैं। कर्मसे ही स्वर्ग मिलता है, कर्मसे ही नरकमें धर्म-कर्मको बात सुना रहे थे। राजाने भी मुनिको देखा; जाना पड़ता है तथा कर्मसे ही पुत्र, पौत्र आदि सभी
वस्तुओकी प्राप्ति होती है। इन्द्रने सौ यज्ञ करके स्वर्गका उत्कृष्ट स्थान प्राप्त किया तथा ब्रह्माजीको भी कर्मसे ही सत्य नामक अद्भुत लोक उपलब्ध हुआ। कर्मसे बहुतोंको सिद्धि प्राप्त हुई है। मरुत् आदि कर्मसे ही लोकेश्वर-पदको प्राप्त हुए हैं। इसलिये तुम भी यज्ञकाँमें लगो, देवताओंका पूजन करो। इससे सम्पूर्ण भूमण्डलमें तुम्हारी उज्ज्वल कीर्तिका विस्तार होगा।' ।
राजा सुरथका मन एकमात्र श्रीरघुनाथजीमें लगा हुआ था; अतः मुनिके उपर्युक्त वचन सुनकर उनका हृदय क्रोधसे क्षुब्ध हो उठा और वे कर्मविशारद ब्राह्मणदेवतासे इस प्रकार बोले-'ब्राह्मणाधम ! यहाँ नश्वर फल देनेवाले कर्मकी बात न करो। तुम लोकमें निन्दाके पात्र हो, इसलिये मेरे नगर और प्रान्तसे बाहर चले जाओ [इन्द्र और ब्रह्माका दृष्टान्त क्या दे रहे हो?] इन्द्र शीघ्र ही अपने पदसे भ्रष्ट होंगे, किन्तु श्रीरामचन्द्रजीकी सेवा करनेवाले मनुष्य कभी नीचे नहीं गिरेंगे। धुव,
MSRARY
RECENT
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• अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
प्रहाद और विभीषणको देखो तथा अन्य रामभक्तोंपर भी सेवकोंसे पूछा-'यज्ञ-सम्बन्धी अश्व कहाँ है?' वे दृष्टिपात करो; वे कभी अपनी स्थितिसे भ्रष्ट नहीं होते। बोले-'महाराज ! हमलोग पहचानते तो नहीं, परन्तु जो दुष्ट श्रीरामकी निन्दा करते हैं, उन्हें यमराजके दूत कुछ योद्धा आये थे, जो हमें हटाकर घोड़ेको साथ ले कालपाशसे बाँधकर लोहेके मुद्गरोंसे पीटते हैं। तुम इस नगरमें गये हैं। उनकी बात सुनकर शत्रुघ्रने ब्राह्मण हो, इसलिये तुम्हें शारीरिक दण्ड नहीं दे सकता। सुमतिसे कहा-'मन्त्रिवर! यह किसका नगर है? मेरे सामनेसे जाओ, चले जाओ; नहीं तो तुम्हारी ताड़ना कौन इसका स्वामी है, जिसने मेरे अश्वका अपहरण करुंगा।' महाराज सुरथके ऐसा कहनेपर उनके सेवक किया है?' मन्त्री बोले-'राजन् ! यह परम मनोहर मुनिको हाथसे पकड़कर निकाल देनेको उद्यत हुए। तब नगर कुण्डलपुरके नामसे प्रसिद्ध है। इसमें महाबली यमराजने अपना विश्ववन्दित रूप धारण करके राजासे धर्मात्मा राजा सुरथ निवास करते हैं। वे सदा धर्ममें लगे कहा-'श्रीरामभक्त ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारी रहते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणोंके उपासक हैं। जो इच्छा हो, माँगो। सुव्रत | मैंने बहुत-सी बातें बनाकर श्रीहनुमान्जीकी भाँति ये भी मन, वाणी और क्रियाद्वारा तुम्हें प्रलोभनमें डालनेका प्रयत्न किया, किन्तु तुम भगवानको सेवामें ही तत्पर रहते हैं।' श्रीरामचन्द्रजीको सेवासे विचलित नहीं हुए। क्यों न हो, शत्रुघ्न बोले-यदि इन्होंने ही श्रीरघुनाथजीके तुमने साधु पुरुषोंका सेवन-महात्माओंका सत्सङ्ग अश्वका अपहरण किया हो तो इनके साथ कैसा बर्ताव किया है।' यमराजको संतुष्ट देखकर राजा सुरथने करना चाहिये? कहा-'धर्मराज ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो यह सुमतिने कहा-महाराज ! राजा सुरथके पास उत्तम वर प्रदान कीजिये-जबतक मुझे श्रीराम न मिले, कोई बातचीत करनेमें कुशल दूत भेजना चाहिये। तबतक मेरी मृत्यु न हो। आपसे मुझे कभी भय न हो।' यह सुनकर शत्रुघ्नने अङ्गदसे विनययुक्त तब यमराजने कहा-'राजन् ! तुम्हारा यह कार्य सिद्ध वचन कहा-'बालिकुमार ! यहाँसे पास ही जो राजा होगा। श्रीरघुनाथजी तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण करेंगे।' यों सुरथका विशाल नगर है, वहाँ दूत बनकर जाओ और कहकर धर्मराजने हरिभक्तिपरायण राजाको प्रशंसा की राजासे कहो कि आपने जानकर या अनजानमें यदि और वहाँसे अदृश्य होकर वे अपने लोकको चले गये। श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको पकड़ लिया हो तो उसे लौटा
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें लगे रहनेवाले दे अथवा वीरोंसे भरे हुए युद्धक्षेत्रमें पधारे।' अङ्गदने धर्मात्मा राजाने अत्यन्त हर्षमें भरकर अपने सेवकोंसे 'बहुत अच्छा' कहकर शत्रुघ्नकी आज्ञा स्वीकार की और कहा-'मैंने महाराज श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको पकड़ा राजसभामें गये। वहाँ उन्होंने राजा सुरथको देखा, जो है; इसलिये तुम सब लोग युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। वीरोंके समूहसे घिरे हुए थे। उनके मस्तकपर तुलसीकी मैं जानता हूँ, तुमने युद्ध-कलामें पूरी प्रवीणता प्राप्त की मञ्जरी थी और जिलासे श्रीरामचन्द्रजीका नाम लेते हुए वे है।' महाराजकी ऐसी आज्ञा पाकर उनके सभी महाबली अपने सेवकोंको उन्हींकी कथा सुना रहे थे। राजा भी योद्धा थोड़ी ही देरमें तैयार हो गये और शीघ्रतापूर्वक मनोहर शरीरधारी वानरको देखकर समझ गये कि ये दरबारके सामने उपस्थित हुए। राजाके दस वीर पुत्र थे, शत्रुघ्नके दूत है; तथापि बालिकुमारसे इस प्रकार, जिनके नाम थे-चम्पक, मोहक, रिपुञ्जय, दुर्वार, बोले-'वानरराज ! बताओ, तुम किसलिये और कैसे प्रतापी, बलमोदक, हर्यक्ष, सहदेव, भूरिदेव तथा यहाँ आये हो ! तुम्हारे आनेका सारा कारण जानकर मैं असुतापन। ये सभी अत्यन्त उत्साहपूर्वक तैयार हो उसके अनुसार कार्य करूंगा।' यह सुनकर वानरराज युद्धक्षेत्रमें जानेकी इच्छा प्रकट करने लगे।
अङ्गद मन-ही-मन बहुत विस्मित हुए और इधर शत्रुघ्नने शीघ्रताके साथ आकर अपने श्रीरामचन्द्रजीकी उपासनामें लगे रहनेवाले उन नरेशसे
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पातालखण्ड ] • राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना।
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बोले— 'नृपश्रेष्ठ ! मुझे बालिपुत्र अङ्गद समझो। श्रीशत्रुजीने मुझे दूत बनाकर तुम्हारे निकट भेजा है।
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1865
इस समय तुम्हारे कुछ सेवकोंने आकर मेरे यज्ञ-सम्बन्धी घोड़ेको पकड़ लिया है। अज्ञानवश उनके द्वारा सहसा यह बहुत बड़ा अन्याय हो गया है अब तुम प्रसन्नता पूर्वक श्रीशत्रुघ्रजीके पास चलो और उनके चरणोंमें पड़कर अपने राज्य और पुत्रोंसहित वह अश्व शीघ्र ही समर्पित कर दो। अन्यथा श्रीशत्रुघ्रके बाणोंसे घायल होकर पृथ्वीतलकी शोभा बढ़ाते हुए सदाके लिये सो जाओगे; तुम्हें अपना मस्तक कटा देना होगा।'
अङ्गदके मुखसे इस तरहकी बातें सुनकर राजा सुरथने उत्तर दिया – 'कपिश्रेष्ठ! तुम सब कुछ ठीक ही कह रहे हो, तुम्हारा कहना मिथ्या नहीं है; परंतु मैं शत्रुम आदिके भयसे उस अश्वको नहीं छोड़ सकता। यदि भगवान् श्रीराम स्वयं ही आकर मुझे दर्शन दें तो मैं उनके चरणोंमें प्रणाम करके पुत्रोंसहित अपना राज्य, कुटुम्ब, धन, धान्य तथा प्रचुर सेना- सब कुछ समर्पण कर दूँगा। क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा है कि उन्हें स्वामीसे भी विरोध करना पड़ता है। उसमें भी यह धार्मिक युद्ध है।
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मैं केवल श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी इच्छासे ही युद्ध कर रहा हूँ। यदि श्रीरघुनाथजी मेरे घरपर नहीं पधारेंगे तो मैं इस समय शत्रुघ्र आदि सभी प्रधान वीरोंको क्षणभरमें जीतकर कैद कर लूंगा ।'
अङ्गद बोले- राजन् ! जिन्होंने मान्धाताके शत्रु लवण नामक दैत्यको खेलमें ही मार डाला था, जिनके द्वारा संग्राममें कितने ही बलवान् वैरी परास्त हुए हैं तथा जिन्होंने इच्छानुसार चलनेवाले विमानपर बैठे हुए विद्युन्माली नामक राक्षसका वध किया है, उन्हीं वीरशिरोमणि श्रीशत्रुनको तुम कैद करोगे! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। श्रेष्ठ अस्त्रोंका ज्ञाता महाबली पुष्कल, जिसने युद्धमें रुद्रके प्रधान गण वीरभद्रके छक्के छुड़ा दिये थे, श्रीशत्रुमका भतीजा है। श्रीरघुनाथजीके चरण कमलोका चिन्तन करनेवाले हनुमान्जी भी सदा उनके निकट ही रहते हैं। तुमने हनुमान्जीके अनेकों पराक्रम सुने होंगे। उन्होंने त्रिकूट पर्वतसहित समूची लङ्कापुरीको क्षणभरमें फूंक डाला और दुष्ट बुद्धिवाले राक्षसराज रावणके पुत्र अक्षकुमारको मौतके घाट उतार दिया। अपने सैनिकोंकी जीवन रक्षाके लिये वे देवताओं सहित द्रोण पर्वतको अपनी पूँछके अग्रभागमें लपेटकर कई बार लाये हैं। हनुमान्जीका चरित्र वल कैसा है, इस बातको श्रीरघुनाथजी ही जानते हैं; इसीलिये अपने प्रिय सेवक इन पवनकुमारको थे मनसे तनिक भी नहीं बिसारते। वानरराज सुग्रीव आदि वीर, जो सारी पृथ्वीको ग्रस लेनेकी शक्ति रखते हैं, राजा शत्रुनका रुख जोहते हुए उनकी सेवा करते हैं। कुशध्वज, नीलरल, महान् अस्त्रवेत्ता रिपुताप, प्रतापाश्य, सुबाहु, विमल, सुमद और श्रीरामभक्त सत्यवादी राजा वीरमणि – ये तथा अन्य भूपाल श्रीशत्रुघ्रकी सेवामें रहते हैं। इन वीरोंके समुद्रमें एक मच्छरके समान तुम्हारी क्या हस्ती है। इन बातोंको भलीभाँति समझकर चलो। शत्रुघ्नजी बड़े दयालु हैं; उन्हें पुत्रोंसहित अश्व समर्पित करके तुम कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीके पास जाना। वहीं उनका दर्शन करके अपने शरीर और जन्म दोनोंको सफल बना सकते हो।
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अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
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शेषजी कहते हैं— इस प्रकार अनेक तरहकी बातें करते हुए दूतसे राजाने कहा- 'यदि मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीरामका ही भजन करता हूँ, तो वे मुझे शीघ्र दर्शन देंगे, अन्यथा श्रीरामभक्त हनुमान् आदि वीर मुझे बलपूर्वक बाँध लें और घोड़ेको छीन ले जायें।
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युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमान्जीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
शेषजी कहते हैं— अङ्गदके मुखसे सुरथका सन्देश सुनकर युद्धकी कलामें निपुणता रखनेवाले समस्त योद्धा संग्रामके लिये तैयार हो गये। सभी वीर उत्साहसे भरे थे, सब-के-सब रण-कर्म में कुशल थे। वे नाना प्रकारके स्वरोंमें ऐसी गर्जनाएँ करते थे, जिन्हें सुनकर कायरोको भय होता था। इसी समय राजा सुरथ अपने पुत्रों और सैनिकोंके साथ युद्धक्षेत्रमें आये। जैसे समुद्र प्रलयकालमें पृथ्वीको जलसे आप्लावित कर देता है, उसी प्रकार वे हाथी, रथ, घोड़े और पैदल योद्धाओंको साथ ले सारी पृथ्वीको आच्छादित करते हुए दिखायी दिये। उनकी सेनामें शङ्ख-नाद और विजयगर्जनाका कोलाहल छा रहा था। इस प्रकार राजा सुरथको युद्धके लिये उद्यत देख शत्रुघ्नने सुमतिसे - 'महामते। ये राजा अपनी विशाल सेनासे घिरकर आ पहुँचे अब हमलोगोंका जो कर्तव्य हो उसे बताओ।'
कहा
सुमतिने कहा- - अब यहाँ सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान रखनेवाले पुष्कल आदि युद्ध-विशारद वीरोंको अधिक संख्यामें उपस्थित होकर शत्रुओंसे लोहा लेना चाहिये। वायुनन्दन हनुमानजी महान् शौर्यसे सम्पन्न हैं; अतः ये ही राजा सुरथके साथ युद्ध करें।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
शेषजी कहते हैं- प्रधान मन्त्री सुमति इस प्रकारकी बातें बता ही रहे थे कि सुरथके उद्धत राजकुमार रण भूमिमें पहुँचकर अपनी धनुषकी टङ्कार
दूत ! तुम जाओ, राजा शत्रुघ्रसे मेरी कही हुई बातें सुना दो अच्छे-अच्छे योद्धा तैयार हों, मैं अभी युद्धके लिये चलता हूँ।' यह सुनकर वीर अङ्गद मुस्कराते हुए वहाँसे चल दिये। वहाँ पहुँचकर राजा सुरथकी कही हुई बातें उन्होंने ज्यों-की-त्यों कह सुनायीं।
करने लगे। उन्हें देखकर पुष्कल आदि महाबली योद्धा धनुष लिये अपने-अपने रथोंपर बैठकर आगे बढ़े। उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता वीर पुष्कल चम्पकके साथ भिड़ गये और महावीरजीसे सुरक्षित होकर द्वैरथ युद्धकी रीतिसे लड़ने लगे। जनककुमार लक्ष्मीनिधिने कुशध्वजको साथ लेकर मोहकका सामना किया। रिपुञ्जयके साथ विमल, दुर्वारके साथ सुबाहु, प्रतापीके साथ प्रतापाश्य, बलमोदसे अङ्गद, हर्यक्षसे नीलरल, सहदेवसे सत्यवान्, भूरिदेवसे महाबली राजा वीरमणि और असुतापके साथ उग्राश्व युद्ध करने लगे। ये सभी युद्ध कर्ममें कुशल, सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण तथा बुद्धिविशारद थे; अतः सबने घोर द्वन्द्वयुद्ध किया । वात्स्यायनजी ! इस प्रकार घमासान युद्ध छिड़ जानेपर सुरथके पुत्रोंद्वारा शत्रुघ्नकी सेनाका भारी संहार हुआ। युद्ध आरम्भ होनेके पहले पुष्कलने चम्पकसे कहा'राजकुमार ! तुम्हारा क्या नाम है ? तुम धन्य हो, जो मेरे साथ युद्ध करनेके लिये आ पहुँचे।'
चम्पकने कहा - वीरवर ! यहाँ नाम और कुलसे युद्ध नहीं होगा; तथापि मैं तुम्हें अपने नाम और बलका परिचय देता हूँ। श्रीरघुनाथजी ही मेरी माता तथा वे ही मेरे पिता हैं, श्रीराम हो मेरे बन्धु और श्रीराम ही मेरे स्वजन हैं। मेरा नाम रामदास है, मैं सदा श्रीरामचन्द्रजीकी ही सेवामें रहता हूँ। भक्तोंपर कृपा करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी ही मुझे इस युद्धसे पार लगायेंगे। अब लौकिक दृष्टिसे अपना परिचय देता
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पातालखण्ड ] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा •
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-------------------------------------------------------------------------RAN-SONG
-मैं राजा सुरथका पुत्र हूँ, मेरी माताका नाम वीरवती है। [ अपने नामका उच्चारण निषिद्ध है, इसलिये मैं उसे सङ्केतसे बता रहा हूँ] मेरे नामका एक वृक्ष होता है, जो वसन्तऋतुमें खिलकर अपने आस-पासके सभी प्रदेशोंको शोभासम्पन्न बना देता है। यद्यपि उसका पुष्प रसका भण्डार होता है; तथापि मधुसे मोहित भ्रमर उसका परित्याग कर देते हैं—उससे दूर ही रहते हैं। वह फूल जिस नामसे पुकारा जाता है, उसे ही मेरा भी मनोहर नाम समझो। अच्छा, अब तुम इस संग्राममें अपने बाणोंद्वारा युद्ध करो; मुझे कोई भी जीत नहीं सकता। मैं अभी अपना अद्भुत पराक्रम दिखाता हूँ।
चम्पककी बात सुनकर पुष्कलका चित्त सन्तुष्ट हो गया। अब वे उसके ऊपर करोड़ों बाणोंकी वर्षा करने लगे। तब चम्पकने भी कुपित होकर अपने धनुषपर प्रत्यशां चढ़ायी और शत्रु समुदायको विदीर्ण करनेवाले तीखे बाणोंको छोड़ना आरम्भ किया। किन्तु महावीर पुष्कलने उसके उन बाणोंको काट डाला। यह देख चम्पकने पुष्कलकी छातीमें प्रहार करनेके लिये सौ बाणोंका सन्धान किया; किन्तु पुष्कलने तुरंत ही उनके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा अत्यन्त कोपमें भरकर बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। बाणोंकी वह वर्षा अपने ऊपर आती देख चम्पकने 'साधु-साधु' कहकर पुष्कलकी प्रशंसा करते हुए उन्हें अच्छी तरह घायल किया। पुष्कल सब शस्त्रोंके ज्ञाता थे। उन्होंने चम्पकको महापराक्रमी जानकर अपने धनुषपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। उधर चम्पक भी कुछ कम नहीं था, उसने भी सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्वत्ता प्राप्त की थी पुष्कलके छोड़े हुए अस्त्रको देखकर उसे शान्त करनेके लिये उसने भी ब्रह्मास्त्रका ही प्रयोग किया। दोनों अस्त्रोंके तेज जब एकत्रित हुए, तो लोगोंने समझा अब प्रलय हो जायगा । किन्तु जब शत्रुका अस्त्र अपने अवसे मिलकर एक हो गया तो चम्पकने पुनः उसे शान्त कर दिया।
चम्पकका वह अद्भुत कर्म देखकर पुष्कलने 'खड़ा रह खड़ा रह कहते हुए उसपर असंख्य बाणोंका प्रहार
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किया । किन्तु महामना चम्पकने पुष्कलके छोड़े हुए बाणोंकी परवा न करके उनके प्रति भयङ्कर बाण --- रामास्त्रका प्रयोग किया। पुष्कल उसे काटनेका विचार कर रहे थे कि उस बाणने आकर उन्हें बाँध लिया। इस प्रकार वीरवर चम्पकने पुष्कलको बाँधकर अपने रथपर बिठा लिया। उनके बाँधे जानेपर सेनामें महान् हाहाकार मचा। समस्त योद्धा भागकर शत्रुघ्नके पास चले गये। उन्हें भागते देख शत्रुघ्नने हनुमानजीसे पूछा- 'मेरी सेना तो बहुतेरे वीरोंसे अलङ्कृत है; फिर किस वीरने उसे भगाया है।' तब हनुमानजीने कहा- 'राजन् ! शत्रुवीरोंका दमन करनेवाला वीरवर चम्पक पुष्कलको बाँधकर लिये जा रहा है। उनकी ऐसी बात सुनकर शत्रुघ्न क्रोधसे जल उठे और पवनकुमारसे बोलेआप शीघ्र ही पुष्कलको राजकुमारके बन्धनसे छुड़ाइये।' यह सुनकर हनुमानजीने कहा - — 'बहुत अच्छा। फिर वे पुष्कलको चम्पककी कैदसे मुक्त करनेके लिये चल दिये। हनुमानजीको उन्हें छुड़ानेके लिये आते देख चम्पकको बड़ा क्रोध हुआ और उसने उनके ऊपर सैकड़ों-हजारों बाणोंका प्रहार किया। परन्तु उन्होंने शत्रुके छोड़े हुए समस्त सायकोंको चूर्ण कर डाला और एक शाल हाथमें लेकर राजकुमारपर दे मारा। चम्पक भी बड़ा बलवान् था। उसने हनुमान्जीके चलाये हुए शालको तिल-तिल करके काट डाला। तब हनुमानजीने उसके ऊपर बहुत-सी शिलाएँ फेंकी; परन्तु उन सबको भी उसने क्षणभरमें चूर्ण कर दिया। यह देख हनुमान्जीके हृदयमें बहुत क्रोध हुआ। वे यह सोचकर कि यह राजकुमार बहुत पराक्रमी है; उसके पास आये और उसे हाथसे पकड़कर आकाशमें उड़ गये। अब चम्पक आकाशमें ही खड़ा होकर हनुमानजीसे युद्ध करने लगा। उसने बाहुयुद्ध करके कपिश्रेष्ठ हनुमानजीको बहुत चोट पहुँचायी। उसका बल देखकर हनुमान्जीने हँसते-हँसते पुनः उसका एक पैर पकड़ लिया और उसे सौ बार घुमाकर हाथीके हौदेपर पटक दिया। वहाँसे धरतीपर गिरकर वह बलवान् राजकुमार मूर्च्छित हो गया। उस समय चम्पकके अनुगामी सैनिक
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
हाहाकर करके चीख उठे और हनुमानजीने चम्पकके गये। फिर अत्यन्त क्रोध भर उन्होंने राजाका रथ पकड़ पाशमें बँधे हुए पुष्कलको छुड़ा लिया। लिया और उसे लेकर बड़े वेगसे आकाशमें उड़ गये।
चम्पकको पृथ्वीपर पड़ा देख बलवान् राजा सुरथ ऊपर जाकर बहुत दूरसे उन्होंने रथको छोड़ दिया और पुत्रके दुःखसे व्याकुल हो उठे और रथपर सवार हो वह रथ धरतीपर गिरकर क्षणभरमें चकनाचूर हो गया। हनुमान्जीके पास गये। वहां पहुंचकर उन्होंने कहा- राजा दूसरे रथपर जा चढ़े और बड़े वेगसे हनुमान्जीका 'कपिश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो! तुम्हारा बल और पराक्रम सामना करनेके लिये आये। किन्तु क्रोधमें भरे हुए महान् हैं; जिसके द्वारा राक्षसोंकी पुरी लझमें तुमने पवनकुमारने तुरंत ही उस रथको भी चौपट कर डाला। श्रीरघुनाथजीके बड़े-बड़े कार्य सिद्ध किये हैं। निःसन्देह इस प्रकार उन्होंने राजाके उनचास रथ नष्ट कर दिये। तुम श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंके सेवक और भक्त हो। उनका यह पराक्रम देखकर राजाके सैनिकों तथा स्वयं तुम्हारी वीरताके लिये क्या कहना है । तुमने मेरे बलवान् राजाको भी बड़ा विस्मय हुआ। वे कुपित होकर पुत्र चम्पकको रण-भूमिमें गिरा दिया है। कपीश्वर ! अय बोले-'वायुनन्दन ! तुम धन्य हो ! कोई भी पराक्रमी तुम सावधान हो जाओ। मैं इस समय तुम्हे बाँधकर ऐसा कर्म न तो कर सकता है और न करेगा। अब तुम अपने नगरमें ले जाऊँगा । मैंने बिलकुल सत्य कहा है।' एक क्षणके लिये ठहर जाओ, जबतक कि मैं अपने
हनुमानजीने कहा-राजन् ! तुम श्रीरघुनाथजीके धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ा रहा हूँ। तुम वायुदेवताके सुपुत्र चरणोंका चिन्तन करनेवाले हो और मैं भी उन्हींका श्रीरघुनाथजीके चरण-कमलोंके चञ्चरीक हो [अतः सेवक हैं। यदि मुझे बाँध लोगे तो मेरे प्रभु बलपूर्वक मेरी बात मान लो] ।' ऐसा कहकर रोषमें भरे हुए राजा तुम्हारे हाथसे छुटकारा दिलायेंगे। वीर ! तुम्हारे मनमे सुरथने अपने धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और भयङ्कर जो बात है, उसे पूर्ण करो। अपनी प्रतिज्ञा सत्य करो। बाणमें पाशुपत अस्त्रका सन्धान किया। लोगोंने देखा वेद कहते हैं, जो श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करता है, उसे हनुमान्जी पाशुपत अस्त्रसे बँध गये। किन्तु दूसरे ही कभी दुःख नहीं होता।
क्षण उन्होंने मन-ही-मन भगवान् श्रीरामका स्मरण करके शेषजी कहते हैं-उनके ऐसा कहनेपर राजा उस बन्धनको तोड़ डाला और सहसा मुक्त होकर वे सुरथने पवनकुमारकी बड़ी प्रशंसा की और सानपर राजासे युद्ध करने लगे। सुरथने जब उन्हें बन्धनसे मुक्त चढ़ाकर तेज किये हुए भयंकर बाणोंद्वारा उन्हें अच्छी देखा तो महाबलवान् मानकर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। तरह घायल किया। वे बाण हनुमान्जीके शरीरसे रक्त परन्तु महावीर पवनकुमार उस अस्त्रको हँसते-हँसते निकाल रहे थे तो भी उन्होंने उनकी परवा न की और निगल गये। यह देख राजाने श्रीरघुनाथजीका स्मरण राजाके धनुषको अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर तोड़ किया। उनका स्मरण करके उन्होंने अपने धनुषपर डाला। हनुमान्जीके द्वारा अपने धनुषको प्रत्यञ्चासहित रामास्त्रका प्रयोग किया और हनुमानजीसे कहाटूटा हुआ देख राजाने दूसरा धनुष हाथमे लिया। किन्तु 'कपिश्रेष्ठ ! अब तुम बँध गये।' हनुमान्जी बोलेपवनकुमारने उसे भी छीनकर क्रोधपूर्वक तोड़ डाला। 'राजन् ! क्या करूँ, तुमने मेरे स्वामीके अस्वसे ही मुझे इस प्रकार उन्होंने राजाके अस्सी धनुष खण्डित कर दिये बाँधा है, किसी दूसरे प्राकृत अस्त्रसे नहीं; अतः मैं तथा क्षण-क्षणपर महान् रोषमें भरकर वे बारम्बार गर्जना उसका आदर करता हूँ। अब तुम मुझे अपने नगरमें ले करते थे। तब राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने चलो। मेरे प्रभु दयाके सागर हैं; वे स्वयं ही आकर मुझे भयंकर शक्ति हाथमें ली। उस शक्तिसे आहत होकर छुड़ायेंगे।' हनुमान्जी गिर पड़े, किन्तु थोड़ी ही देरमें उठकर खड़े हो हनुमान्जीके बाँधे जानेपर पुष्कल कुपित हो
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पातालखण्ड ] • युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा •
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राजाके सामने आये। उन्हें आते देख राजाने आठ हुए कहा-"मैं श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके ही मोहित बाणोंसे बीध डाला। यह देख बलवान पुष्कलने राजापर रहता है, दूसरी कोई वस्तु मुझे मोहनेवाली नहीं जान कई हजार वाणोका प्रहार किया। दोनों एक-दूसरेपर मन्त्र- पड़ती। माया भी मुझसे भय खाती है।' वीर राजाके पाठपूर्वक दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करते और दोनों ही शान्त ऐसा कहनेपर भी शत्रुघ्नने वह महान् अस्त्र उनके ऊपर करनेवाले अस्त्रोंका प्रयोग करके एक-दूसरेके चलाये छोड़ ही दिया। किन्तु राजा सुरथके बाणसे कटकर वह हुए अस्त्रोंका निवारण करते थे। इस प्रकार उन दोनोंमें रण-भूमिमें गिर पड़ा। तदनन्तर, सुरथने अपने धनुषपर बड़ा घमासान युद्ध हुआ, जो वीरोंके रोंगटे खड़े कर एक प्रज्वलित वाण चढ़ाया और शत्रुघ्रको लक्ष्य करके देनेवाला था। तब राजाको बड़ा क्रोध हआ और उन्होंने छोड़ दिया। शत्रुघ्नने अपने पास पहँचनेसे पहले उसे एक नाराचका प्रयोग किया। पुष्कल उसको काटना ही मार्गमें ही काट दिया, तो भी उसका फलवाला अग्रिम चाहते थे कि वह नाराच उनकी छातीमें आ लगा। वे भाग उनकी छातीमें भैंस गया। उस बाणके आघातसे महान् तेजस्वी थे, तो भी उसका आघात न सह सके, मूर्छित होकर शत्रुघ्न रथपर गिर पड़े; फिर तो सारी सेना उन्हें मूळ आ गयी!
हाहाकार करती हुई भाग चली। संग्राममें रामभक्त - पुष्कलके गिर जानेपर शत्रुओंको ताप देनेवाले सुरथको विजय हुई। उनके दस पुत्रोंने भी अपने साथ शत्रुघ्रको बड़ा क्रोध हुआ। वे रथपर बैठकर राजा लड़नेवाले दस वीरोंको मूर्च्छित कर दिया था। वे सुरथके पास गये और उनसे कहने लगे-'राजन् ! रणभूमिमें ही कहीं पड़े हुए थे। तुमने यह बड़ा भारी पराक्रम कर दिखाया, जो तदनन्तर, सुग्रीवने जब देखा कि सारी सेना भाग पवनकुमार हनुमानजीको बाँध लिया। अभी ठहरो, मेरे गयी और स्वामी भी मूर्च्छित होकर पड़े हैं, तो वे स्वयं वीरोंको रण-भूमिमें गिराकर तुम कहाँ जा रहे हो। अब हो राजा सुरथसे युद्ध करनेके लिये गये और बोलेमेरे सायकोंकी मार सहन करो।' शत्रुघ्नका यह वीरोचित 'राजन् ! तुम हमारे पक्षके सब लोगोंको मूर्च्छित करके भाषण सुनकर बलवान् राजा सुरथ मन-ही-मन कहाँ चले जा रहे हो? आओ और शीघ्र ही मेरे साथ श्रीरामचन्द्रजीके मनोहर चरण-कमलोंका चिन्तन करते युद्ध करो।' यों कहकर उन्होंने डालियोसहित एक हुए बोले- 'वीरवर ! मैंने तुम्हारे पक्षके प्रधान वीर विशाल वृक्ष उखाड़ लिया और उसे बलपूर्वक राजाके हनुमान् आदिको रणमें गिरा दिया; अब तुम्हे भी मस्तकपर दे मारा । उसकी चोट खाकर महाबली नरेशने समराङ्गणमें सुलाऊँगा । श्रीरघुनाथजीका स्मरण करो, जो एक बार सुग्रीवकी ओर देखा और फिर अपने धनुषपर यहाँ आकर तुम्हारी रक्षा करेंगे; अन्यथा मेरे सामने तीखे बाणोंका सन्धान करके अत्यन्त बल तथा पौरुषका युद्धमें आकर जीवनको रक्षा असम्भव है। ऐसा कहकर परिचय देते हुए रोषमें भरकर उनको छातीमें प्रहार राजा सुरथने शत्रुघ्नको हजारों बाणोंसे घायल किया। किया। किन्तु सुग्रोवने हंसते-हँसते उनके चलाये हुए उन्हें बाण-समूहोंको बौछार करते देख शत्रुघ्नने सभी बाणोंको नष्ट कर दिया। इसके बाद वे राजा आनेयास्त्रका प्रयोग किया। वे शत्रुके बाणोंको दग्ध सुरथको अपने नखोंसे विदीर्ण करते हुए पर्वतों, शिखरों, करना चाहते थे। शत्रुघ्रके छोड़े हुए उस अस्त्रको राजा वृक्षों तथा हाथियोंको फेंक-फेंककर उन्हें चोट पहुँचाने सुरथने वारुणास्त्रके द्वारा बुझा दिया और करोड़ों बाणोंसे लगे। तब सुरथने अपने भयङ्कर रामाखसे सुप्रीवको भी उन्हें घायल किया। तब शत्रुघ्नने अपने धनुषपर मोहन तुरंत ही बाँध लिया। बन्धनमें पड़ जानेपर कपिराज नामक महान् अस्त्रका सन्धान किया। वह अद्भुत अस्त्र सुग्रीवको यह विश्वास हो गया कि राजा सुरथ वास्तवमें समस्त वीरोंको मोहित करके उन्हें निद्रामें निमन कर श्रीरामचन्द्रजीके सच्चे सेवक हैं। देनेवाला था। उसे देख राजाने भगवान्का स्मरण करते इस प्रकार महाराज सुरथने विजय प्राप्त की। वे
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
शत्रुपक्षके सभी प्रधान वीरोंको रथपर बिठाकर अपने हैं, मुनीश्वरोंके साथ धर्मका विचार कर रहे हैं और यहाँ नगरमें ले गये। वहाँ जाकर वे राज-सभामें बैठे और मैं सुरथके द्वारा गाढ बन्धनमें बांधा गया हूँ। महापुरुष ! बँधे हुए हनुमानजीसे बोले- पवनकुमार ! अब तुम देव ! शीघ्र आकर मुझे छुटकारा दीजिये। प्रभो ! भक्तोंकी रक्षा करनेवाले परमदयालु श्रीरघुनाथजीका सम्पूर्ण देवेश्वर भी आपके चरण-कमलोंकी अर्चना करते स्मरण करो, जिससे सन्तुष्ट होकर वे तुम्हें तत्काल इस हैं। यदि इतने स्मरणके बाद भी आप हमलोगोको इस बन्धनसे मुक्त कर दें।' उनका कथन सुनकर हनुमानजीने बन्धनसे मुक्त नहीं करेंगे तो संसार खुश हो-होकर अपनेसहित समस्त वीरोंको बँधा देख रघुकुलमें आपकी हंसी उड़ायेगा; इसलिये अब आप विलम्ब न अवतीर्ण, कमलके समान नेत्रोंवाले, परमदयालु कीजिये, हमें शीघ्र छुड़ाइये।'* | सीतापति श्रीरामचन्द्रजीका सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे स्मरण जगत्के स्वामी कृपानिधान श्रीरघुवीरजीने किया। वे मन-ही-मन कहने लगे-'हा नाथ ! हा हनुमान्जीकी प्रार्थना सुनी और अपने भक्तको बन्धनसे पुरुषोत्तम !! हा दयालु सीतापते !!! [आप कहाँ है? मुक्त करनेके लिये वे तीव्रगामी पुष्पक विमानपर चढ़कर मेरी दशापर दृष्टिपात करें] प्रभो ! आपका मुख तुरंत चल दिये। हनुमान्जीने देखा, भगवान् आ गये। स्वभावसे ही शोभासम्पन्न है, उसपर भी सुन्दर उनके पीछे लक्ष्मण और भरत हैं तथा साथमें मुनियोंका कुण्डलोंके कारण तो उसकी सुषमा और भी बढ़ गयी समुदाय शोभा पा रहा है। अपने स्वामीको आया देख है। आप भक्तोंकी पीड़ाका नाश करनेवाले हैं। मनोहर हनुमानजीने सुरथसे कहा-'राजन् ! देखो, भगवान् रूप धारण करते हैं। दयामय ! मुझे इस बन्धनसे शीघ्र दया करके अपने भक्तको छुड़ानेके लिये आ गये। मुक्त कीजिये; देर न लगाइये। आपने गजराज आदि पूर्वकालमें जिस प्रकार इन्होंने स्मरण करनेमात्रसे भक्तोंको संकटसे बचाया है, दानव-वंशरूपी अनिकी पहुँचकर अनेक भक्तोंको संकटसे मुक्त किया है, उसी ज्यालामें जलते हुए देवताओंकी रक्षा की है तथा प्रकार आज बन्धनमें पड़े हुए मुझको भी छुड़ानेके लिये दानवोंको मारकर उनकी पत्नियोंके मस्तककी केश- मेरे प्रभु आ पहुंचे। राशिको भी बन्धनसे मुक्त किया है [वे विधवा होनेके श्रीरामचन्द्रजी एक ही क्षणमें यहाँ आ पहुँचे, यह कारण कभी केश नहीं बाँधती]; करुणानिधे ! अब मेरी देखकर राजा सुरथ प्रेममग्न हो गये और उन्होंने भी सुध लीजिये। नाथ ! बड़े-बड़े सम्राट् भी आपके भगवान्को सैकड़ो बार प्रणाम किया। श्रीरामने भी चरणोंका पूजन करते हैं, इस समय आप यज्ञकर्ममें लगे चतुर्भुज रूप धारणकर अपने भक्त सुरथको भुजाओंमें
* इत्युक्तमाकर्ण्य समीरजस्तदा सुबद्धमात्मानमवेक्ष्य वीरान्। समूचिईताशत्रुशराविघातपीडायुतान् बन्धनमुक्तयेऽस्मरत् ॥
श्रीरामचन्द्रं रघुवंशजातं सीतापति पङ्कजपत्रनेत्रम्। स्वमुक्तये बन्धनतः कृपालु सस्मार सर्वैः करणैर्विशोकैः । हनुमानुवाच
हा नाथ हा नरवरोतम हा दयालो सौतापते रुचिरकुण्डलशोभिवका । भक्तार्तिदाहक मनोहररूपधारिन् मां बन्धनात् सपदि मोचय मा विलम्बम् ॥ संमोचितास्त भवता गजपङवाचा देवाच दानवकलानिसदह्यमानाः । तत्सुन्दरीशिरसि संस्थितकेशबन्धसंमोचितासि करुणालय मां सरस्व ॥ त्वं यागकर्मनिरतोऽसि मुनीश्वरेन्द्रधर्म विचारयसि भूमिपतोडापाद। अत्राहमद्य सुरथेन विगाढपाशबद्धोऽस्मि मोचय महापुरुषाशु देव ॥ नो मोचयस्यथ यदि स्मरणातिरेकात्वं सर्वदेववरपूजितपादपद्य। लोको भवत्तमिदमुल्लसितो हसिष्यत्तस्माद् विलम्बमिह मा चर मोचयाशु॥
(५३ । १२-१७)
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पातालखण्ड ] वाल्मीकि आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
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कसकर छातीसे लगा लिया और आनन्दके आँसुओंसे उनका मस्तक भिगोते हुए कहा-' - 'राजन् ! तुम धन्य
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शेषजी कहते हैं - एक दिन प्रातःकाल वह अश्व गङ्गाके किनारे महर्षि वाल्मीकिके श्रेष्ठ आश्रमपर जा पहुँचा, जहाँ अनेकों ऋषि-मुनि निवास करते थे और अग्निहोत्रका धुंआ उठ रहा था। जानकीजीके पुत्र लव अन्य मुनिकुमारोंके साथ प्रातः कालीन हवन कर्म करनेके उद्देश्यसे उसके योग्य समिधाएँ लानेके लिये
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कर उठ खड़े हुए और मनोहर रूपधारी श्रीरघुनाथजोकी झाँकी करके उनके चरणोंमें पड़ गये। भगवान्ने उनसे कुशल पूछी तो वे सुखी होकर बोले- 'भगवन् ! आपकी कृपासे सब कुशल है।' राजा सुरथने सेवकपर कृपा करनेके लिये आये हुए श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करके उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपना सारा राज्य समर्पित कर दिया और कहा - ' रघुनन्दन ! मैंने आपके साथ अन्याय किया है, उसे क्षमा कीजिये।'
हो। आज तुमने बड़ा भारी पराक्रम कर दिखाया कपिराज हनुमान् सबसे बढ़कर बलवान् हैं, किन्तु इनको भी तुमने बाँध लिया।' यह कहकर श्रीरघुनाथजीने वानरश्रेष्ठ हनुमान्को बन्धनसे मुक्त किया तथा जितने योद्धा मूर्च्छित पड़े थे, उन सबपर अपनी दयादृष्टि डालकर उन्हें जीवित कर दिया। असुरोंका विनाश करनेवाले श्रीरामकी दृष्टि पड़ते ही वे सब मूर्च्छा त्याग =★ वाल्मीकि आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
श्रीराम बोले- राजन् ! क्षत्रियोंका यह धर्म ही है। उन्हें स्वामीके साथ भी युद्ध करना पड़ता है। तुमने संग्राममें समस्त वीरोंको सन्तुष्ट करके बड़ा उत्तम कार्य किया ।
भगवान् के ऐसा कहनेपर राजा सुरथने अपने पुत्रोंके साथ उनका पूजन किया। तदनन्तर, श्रीरामचन्द्रजी तीन दिनतक वहाँ ठहरे रहे। चौथे दिन राजाकी अनुमति लेकर वे इच्छानुसार चलनेवाले पुष्पक विमानद्वारा वहाँसे चले गये। उनका दर्शन करके सबको बड़ा विस्मय हुआ और सब लोग उनकी मनोहारिणी कथाएँ कहने-सुनने लगे। इसके बाद महाबली राजा सुरथने चम्पकको अपने नगरके राज्यपर स्थापित कर दिया और स्वयं शत्रुघ्नके साथ जानेका विचार किया। शत्रुघ्नने अपना अश्व पाकर भेरी बजवायी तथा सब ओर नाना प्रकारके शङ्खोंकी ध्वनि करायी। तत्पश्चात् उन्होंने यज्ञ-संबन्धी अश्वको आगे जानेके लिये छोड़ा और स्वयं राजा सुरथके साथ अनेको देशोंमें भ्रमण करते रहे, किन्तु कहीं किसी भी बलवान्ने घोड़ेको नहीं पकड़ा।
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वनमें गये थे। वहाँ सुवर्णपत्रसे चिह्नित उस यज्ञ सम्बन्धी अश्वको उन्होंने देखा, जो कुङ्कुम, अगरु और कस्तूरीकी दिव्य गन्धसे सुवासित था। उसे देखकर उनके मनमें कौतूहल पैदा हुआ और वे मुनिकुमारोंसे बोले- 'यह मनके समान शीघ्रगामी अश्व किसका है, जो दैवात् मेरे आश्रमपर आ पहुँचा है ? तुम सब लोग
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. . अर्चयस्वाषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
मेरे साथ चलकर इसे देखो, डरना नहीं।' यह कहकर लवसे बोले-'अहो ! किसने इस घोड़ेको यहाँ बाँध लव तुरंत ही घोड़ेके समीप गये । रघुकुलमें उत्पन्न कुमार E
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T ER लव कंधेपर धनुष-बाण धारण किये उस घोड़ेके समीप ऐसे सुशोभित हुए मानो दुर्जय वीर जयन्त दिखायी दे रहा हो। घोड़ेके ललाटमें जो पत्र बँधा था, उसमें सुस्पष्ट वर्णमालाओंद्वारा कुछ पङ्क्तियाँ लिखी थीं; जिनसे उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। लवने पहुंचकर मुनिपुत्रोंके साथ वह पत्र पढ़ा। पढ़ते ही उन्हें क्रोध आ गया
और वे हाथमें धनुष लेकर ऋषिकुमारोंसे बोले, उस समय रोषके कारण उनकी वाणी स्पष्ट नहीं निकल पाती थी। उन्होंने कहा-'अरे ! इस क्षत्रियकी धृष्टता तो देखो, जो इस घोड़ेके भाल-पत्रपर इसने अपने प्रताप
और बलका उल्लेख किया है। राम क्या है, शत्रुघ्नकी क्या हस्ती है? क्या ये ही लोग क्षत्रियके कुलमें उत्पन्न हुए हैं? हमलोग श्रेष्ठ क्षत्रिय नहीं है?' इस प्रकारकी बहुत-सी बातें कहकर लवने उस घोड़ेको पकड़ लिया और समस्त राजाओंको तिनकेके समान समझकर हाथमें
पायकर हाथ में
5 धनुष-बाण ले वे युद्धके लिये तैयार हो गये। मुनिपुत्रोंने रखा है? किसके ऊपर आज यमराज कुपित हुए है? देखा कि लव घोड़े का अपहरण करना चाहते हैं, तो वे लवने तुरंत उत्तर दिया-'मैंने इस उत्तम अश्वको बाँध उनसे बोले-'कुमार ! हम तुम्हें हितकी बात बता रहे रखा है, जो इसे छुड़ाने आयेगा, उसके ऊपर मेरे बड़े हैं, सुनो, अयोध्याके राजा श्रीराम बड़े बलवान् और भाई कुश शीघ्र ही क्रोध करेंगे। यमराज भी आ पराक्रमी हैं। अपने बलका घमंड रखनेवाले इन्द्र भी जाये तो क्या कर लेंगे? हमारे बाणोंकी बौछारसे उनका घोड़ा नहीं छू सकते [फिर दूसरेकी तो बात ही सन्तुष्ट होकर स्वयं ही माथा टेक देंगे और तुरंत अपनी क्या है ?]; अतः तुम इस अश्वको न पकड़ो।' राह लेंगे।'
यह सुनकर लवने कहा-'तुमलोग ब्राह्मण- लवकी बात सुनकर सेवकोंने आपसमें कहाबालक हो; क्षत्रियोंका बल क्या जानो। क्षत्रिय अपने 'यह बेचारा बालक है! [इसकी बातपर ध्यान नहीं देना पराक्रमके लिये प्रसिद्ध होते हैं, किन्तु ब्राह्मणलोग केवल चाहिये] ।' तत्पश्चात् वे बैंधे हए घोड़ेको खोलनेके लिये भोजनमें ही पटु हुआ करते हैं। इसलिये तुमलोग घर आगे बढ़े। यह देख लवने दोनों हाथोंमें धनुष धारणकर जाकर माताका परोसा हुआ पक्कान्न उड़ाओ!' लवके शत्रुपके सेवकोपर क्षुरपोका प्रहार आरम्भ किया। इससे ऐसा कहनेपर मुनिकुमार चुप हो रहे और उनका पराक्रम उनकी भुजाएँ कट गयीं और वे शोकसे व्याकुल होकर देखनेके लिये दूर जाकर खड़े हो गये। तदनन्तर, राजा शत्रुनके पास गये। पूछनेपर सबने लवके द्वारा अपनी शत्रुघ्नके सेवक वहाँ आये और घोड़ेको बैंधा देखकर बहि काटी जानेका समाचार कह सुनाया।
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पातालखण्ड]
• गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश.
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गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़
आनेका आदेश और भरतकी मूर्छा
वात्स्यायनजी बोले-भगवन् ! पहले आप नहीं है। जिस स्त्रीको आप-जैसे स्वामी मिले, जिनके बता चुके हैं कि श्रीरामचन्द्रजीने एक धोबीके निन्दा चरणोंकी देवता भी स्तुति करते हैं; उसको सभी कुछ करनेपर सीताको अकेली वनमें छोड़ दिया। फिर कहाँ प्राप्त है, कुछ भी बाकी नहीं है। फिर भी यदि आप उनके पुत्र हुए, कहाँ उन्हें धनुष-धारणकी क्षमता प्राप्त आग्रहपूर्वक मुझसे मेरे मनकी अभिलाषा पूछ रहे है तो हुई तथा कहाँ उन्होंने अस्त्रविद्याकी शिक्षा पायी, जिससे मैं आपके सामने सच्ची बात कहती हूँ नाथ ! बहुत दिन वे श्रीरामचन्द्रजीके अश्वका अपहरण कर सके? हुए, मैंने लोपामुद्रा आदि पतिव्रताओंके दर्शन नहीं
शेषजीने कहा-मुने! श्रीरामचन्द्रजी धर्मपूर्वक किये। मेरा मन इस समय उन्हींको देखनेके लिये सारी पृथ्वीका पालन करते हुए अपनी धर्मपत्नी महारानी उत्कण्ठित है। वे सब तपस्याकी भंडार है, मैं वहाँ जाकर सौता और भाइयोंके साथ अयोध्याका राज्य करने लगे। वस्त्र आदिसे उनकी पूजा करूंगी और उन्हें चमकीले रत्न इसी बीच में सीताजीने गर्भ धारण किया। धीरे-धीरे पाँच तथा आभूषण भेट दूँगी; यही मेरा मनोरथ है । प्रियतम ! महीने बीत गये। एक दिन श्रीरामने सीताजीसे पूछा- इसे पूर्ण कीजिये।। 'देवि ! इस समय तुम्हारे मनमें किस बातकी अभिलाषा इस प्रकार सीताजीके मनोहर वचन सुनकर है, बताओ; मैं उसे पूर्ण करूँगा।'
श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अपनी प्रियतमासे बोले-'जनककिशोरी ! तुम धन्य हो ! कल प्रातःकाल जाना और उन तपस्विनी स्त्रियोंका दर्शन करके कृतार्थ होना । श्रीरामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर सीताजीको बड़ा हर्ष हुआ। वे सोचने लगीं, कल प्रातःकाल मुझे तपस्विनी देवियोंके दर्शन होंगे। तदनन्तर, उस रातमें श्रीरामचन्द्रजीके भेजे हुए गुप्तचर नगरमें गये, उन्हें भेजनेका उद्देश्य यह था कि वे लोग घर-घर जाकर महाराजकी कीर्ति सुनें और देखें [जिससे उनके प्रति लोगोंके मनमें क्या भाव हैं, इसका पता लग सके । वे दूत आधी रातके समय चुपकेसे गये। उन्हें प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीकी मनोहर कथाएँ सुननेको मिलती थीं। उस दिन वे एक धनाढ्यके विशाल भवनमें प्रविष्ट हुए और थोड़ी देरतक वहाँ रुककर
श्रीरामचन्द्रजीके सुयशका श्रवण करने लगे। वहाँ सुन्दर - नेत्रोवाली कोई युवती बड़े हर्षमें भरकर अपने नन्हे-से
शिशुको दूध पिला रही थी। उसने बालकको लक्ष्य सीताजीने कहा-प्राणनाथ ! आपकी कृपासे करके बड़ी मनोहर बात कही-'बेटा ! तू जी भरकर मैंने सभी उत्तम भोग भोगे हैं और भविष्यमें भी भोगती मेरा मीठा दूध पी ले, पीछे यह तेरे लिये दुर्लभ हो रहँगी। इस समय मेरे मन में किसी विषयकी इच्छा शेष जायगा। नील कमल-दलके समान श्याम वर्णवाले
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
PAGANORANJA
श्रीरामचन्द्रजी इस अयोध्यापुरीके स्वामी हैं; उनके नगरमें निवास करनेवाले लोगोंका फिर इस संसारमें जन्म नहीं
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होगा। जन्म न होनेपर यहाँ दूध पीनेका अवसर कैसे मिलेगा। इसलिये मेरे लाल ! तू इस दुर्लभ दूधका बारम्बार पान कर ले। जो लोग श्रीरामका भजन, ध्यान और कीर्तन करेंगे, उन्हें भी कभी माताका दूध सुलभ न होगा।' इस तरह श्रीरामचन्द्रजीके यशरूपी अमृतसे भरे हुए वचन सुनकर वे गुप्तचर बहुत प्रसन्न हुए और दूसरे किसी भाग्यशाली पुरुषके घरमें गये। वे पृथक्-पृथक् विभिन्न घरोंमें जाकर श्रीरामके यशका श्रवण करते थे। एक घरकी बात है, एक गुप्तचर श्रीरघुनाथजीका यश सुननेकी इच्छासे वहाँ आया और क्षणभर रुका रहा। उस घरकी एक सुन्दरी नारी, जिसके नेत्र बड़े मनोहर थे, पलंगपर बैठे हुए कामदेवके समान सुन्दर अपने पतिकी ओर देखकर बोली- 'नाथ! आप मुझे ऐसे लगते हैं, मानो साक्षात् श्रीरघुनाथजी हो।' प्रियतमाके ये मनोहर वचन सुनकर उसके पतिने कहा - "प्रिये ! मेरी बात सुनो, तुम साध्वी हो; अतः तुमने जो कुछ कहा है, वह मनको बहुत ही प्रिय लगनेवाला है। पतिव्रताओंके योग्य
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
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ही यह बात है। सती नारीके लिये उसका पति श्रीरघुनाथजीका ही स्वरूप है; परन्तु कहाँ मेरे जैसा मन्दभाग्य और कहाँ महाभाग्यशाली श्रीराम कहाँ कीड़ेकी-सी हस्ती रखनेवाला मैं एक तुच्छ जीव और कहाँ ब्रह्मादि देवताओंसे भी पूजित परमात्मा श्रीराम। कहाँ जुगनू और कहाँ सूर्य ? कहाँ पामर पतिंगा और कहाँ गरुड़। कहाँ बुरे रास्तेसे बहनेवाला गलियोंका गेंदला पानी और कहाँ भगवती भागीरथीका पावन जल। इसी प्रकार कहाँ मैं और कहाँ भगवान् श्रीराम, जिनके चरणोंकी धूलि पड़नेसे शिलामयी अहल्या क्षणभरमें भुवन मोहन सौन्दर्यसे युक्त युवती बन गयी !'
इसी समय दूसरा गुप्तचर दूसरेके घरमें कुछ और ही बातें सुन रहा था। वहाँ कोई कामिनी पलंगपर बैठकर वीणा बजाती हुई अपने पतिके साथ
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MUCOS
श्रीरामचन्द्रजीकी कीर्तिका गान कर रही थी'स्वामिन्! हमलोग धन्य हैं, जिनके नगरके स्वामी साक्षात् भगवान् श्रीराम हैं, जो अपनी प्रजाको पुत्रोंकी भाँति पालते और उसके योगक्षेमकी व्यवस्था करते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े दुष्कर कर्म किये हैं, जो दूसरोंके लिये
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पातालखण्ड]
- गुप्तचरोसे अपवादकी बात सुनकर सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश .
असाध्य है। उदाहरणके लिये-'उन्होंने समुद्रको वशमें इसके सिवा, एक अन्य गुप्तचर अपने सामने किया और उसपर पुल बाँधा । फिर वानरोंसे लङ्कापुरीका धोबीका घर देखकर वहीं महाराज श्रीरामका यश विध्वंस कराया और अपने शत्रु रावणको मारकर वे सुननेकी इच्छासे गया। किन्तु उस घरका स्वामी धोबी जानकीजीको यहाँ ले आये। इस प्रकार श्रीरामने क्रोधमें भरा था। उसकी पत्नी दूसरेके घरमे दिनका महापुरुषोंके आचारका पालन किया है।' पत्नीके ये मधुर अधिक समय व्यतीत करके आयी थी। उसने आँखें वचन सुनकर पति मुसकराये और उससे इस प्रकार लाल-लाल करके पल्लीको धिक्कारा और उसे लात बोले-'मुग्धे रावणको मारना और समुद्रका दमन मारकर कहा-“निकल जा मेरे घरसे; जिसके यहाँ सारा आदि जितने कार्य हैं, वे श्रीरामचन्द्रजीके लिये कोई दिन बिताया है, उसीके घर चली जा । तू दुष्टा है, पतिकी महान् कर्म नहीं है। महान् परमेश्वर ही ब्रह्मा आदिकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेवाली है; इसलिये मैं तुझे नहीं प्रार्थनासे लीलापूर्वक इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं और रसूंगा।' उस समय उसकी माताने कहा-'बेटा ! बहू बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाले उत्तम चरित्रका विस्तार घरमें आ गयी है, इस बेचारीका त्याग मत करो। यह करते हैं। कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले श्रीरामको तुम सर्वथा निरपराध है: इसने कोई कुकर्म नहीं किया है।' मनुष्य न समझो। वे ही इस जगत्को सृष्टि, पालन और धोबी क्रोधमें तो था ही, उसने माताको जवाब संहार करते हैं। केवल लीला करनेके लिये ही उन्होंने दिया-'मैं राम-जैसा नहीं हूँ, जो दूसरेके घरमें रही हुई मनुष्य-विग्रह धारण किया है। हमलोग धन्य हैं, जो प्यारी पल्लीको फिरसे ग्रहण कर लूँ। वे राजा हैं; जो कुछ प्रतिदिन श्रीरामके मुख-कमलका दर्शन करते हैं, जो भी करेंगे, सब न्याययुक्त ही माना जायगा। मैं तो दूसरेके ब्रह्मादि देवोंके लिये भी दुर्लभ है। हमें यह सौभाग्य प्राप्त घरमें निवास करनेवाली भार्याको कदापि नहीं ग्रहण कर है, इसलिये हम बड़े पुण्यात्मा है।' गुप्तचरने दरवाजेपर सकता।' धोबीकी बात सुनकर गुप्तचरको बड़ा क्रोध खड़े होकर इस प्रकारकी बहुत-सी बातें सुनी। हुआ और उसने तलवार हाथमें लेकर उसे मार M u nni डालनेका विचार किया। परन्तु सहसा उसे
श्रीरामचन्द्रजीके आदेशका स्मरण हो आया। उन्होंने आज्ञा दी थी, 'मेरी किसी भी प्रजाको प्राणदण्ड न देना।' इस बातको समझकर उसने अपना क्रोध शान्त कर लिया। उस समय रजककी बातें सुनकर उसे बहुत दुःख हुआ था, वह कुपित हो बारम्बार उच्छ्वास खींचता हुआ उस स्थानपर गया, जहाँ उसके साथी अन्य गुप्तचर मौजूद थे। वे सब आपसमें मिले और सबने एकदूसरेको अपना सुना हुआ श्रीरामचन्द्रजीका विश्ववन्दित चरित्र सुनाया। अन्तमें उस धोबीकी बात सुनकर उन्होंने आपसमें सलाह की और यह निश्चय किया कि दुष्टोंकी कही हुई बातें श्रीरघुनाथजीसे नहीं कहनी चाहिये। ऐसा विचार करके वे घरपर जाकर सो रहे। उन्होंने अपनी बुद्धिसे यह स्थिर किया था कि कल प्रातःकाल महाराजसे यह समाचार कहा जायगा।
शेषजी कहते हैं-श्रीरघुनाथजीने प्रातःकाल
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अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
नित्यकर्मसे निवृत्त होकर वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक सुवर्णदानसे संतुष्ट किया। उसके बाद वे राजसभायें गये। श्रीरामचन्द्रजी सारी प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते थे। अतः सब लोग उनको प्रणाम करनेके लिये वहाँ गये। लक्ष्मणने राजाके मस्तकपर छत्र लगाया और भरत शत्रुघ्नने दो चंवर धारण किये। वसिष्ठ आदि महर्षि तथा सुमन्त्र आदि न्यायकर्ता मन्त्री भी वहाँ उपस्थित हो भगवान् की उपासना करने लगे।
इसी समय वे गुप्तचर अच्छी तरह सज-धजकर सभामें बैठे हुए महाराजको नमस्कार करनेके लिये आये। उत्तम बुद्धिवाले महाराज श्रीरामने [सभाविसर्जनके पश्चात् ] उन सभी गुप्तचरों को एकान्तमें बुलाकर पूछा- तुमलोग सच सच बताओ। नगरके लोग मेरे विषयमें क्या कहते हैं? मेरी धर्मपत्नीके विषयमें उनकी कैसी धारणा है ? तथा मेरे मन्त्रियोंका बर्ताव थे लोग कैसा बतलाते हैं ?' गुप्तचर बोले5- नाथ! आपकी कीर्ति इस भूमण्डलके सब लोगोंको पवित्र कर रही है। हमलोगोंने घर-घरमें प्रत्येक पुरुष और स्त्रीके मुखसे आपके यशका
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
बखान सुना है। राजा सगर आदि आपके अनेकानेक पूर्वज अपने मनोरथको सिद्ध करके कृतार्थ हो चुके हैं; किन्तु उनकी भी ऐसी कीर्ति नहीं छायी थी, जैसी इस समय आपकी है। आप जैसे स्वामीको पाकर सारी प्रजा कृतार्थ हो रही है। उन्हें न तो अकाल मृत्युका कष्ट है और न रोग आदिका भय। आपकी विस्तृत कीर्ति सुनकर ब्रह्मादि देवताओंको बड़ी लज्जा होती है [ क्योंकि आपके सुयशसे उनका यश फीका पड़ गया है] । इस प्रकार आपकी कीर्ति सर्वत्र फैलकर इस समय जगत्के सब लोगोंको पावन बना रही है। महाराज ! हम सभी गुप्तचर धन्य हैं कि क्षण-क्षणमें आपकी मनोहर मुखका अवलोकन करते हैं।
उन गुप्तचरोंके मुखसे इस तरहकी बातें सुनकर श्रीरघुनाथजीने अन्तमें एक दूसरे दूतपर दृष्टि डाली; उसके मुखकी आभा कुछ और ढंगकी हो रही थी। उन्होंने पूछा - 'महामते ! तुम सच सच बताओ । लोगोंके मुखसे जो कुछ जैसा भी सुना हो, वह ज्यों-का-त्यों सुना दो; अन्यथा तुम्हें पाप लगेगा ।'
गुप्तचरने कहा - स्वामिन्! राक्षसोंके वध आदिसे सम्बन्ध रखनेवाली आपकी सभी कथाओंका सर्वत्र गान हो रहा है- केवल एक बातको छोड़कर। आपकी धर्मपत्नीने जो राक्षसके घरमें कुछ कालतक निवास किया था, उसके सम्बन्धमें लोगोंका अच्छा भाव नहीं है। गत आधी रातकी बात है - एक धोबीने अपनी पत्त्रीको, जो दिनमें कुछ देरतक दूसरेके घरमें रहकर आयी थी, धिक्कारा और मारा। यह देखकर उसकी माता बोली- 'बेटा! यह बेचारी निरपराध है, इसे क्यों मारते हो ? तुम्हारी स्त्री है, रख लो; निन्दा न करो, मेरी बात मानो।' तब धोबी कहने लगा- - मैं राजा राम नहीं हूँ कि इसे रख लूँ। उन्होंने राक्षसके घरमें रही हुई सीताको फिरसे ग्रहण कर लिया, मैं ऐसा नहीं कर सकता। राजा समर्थ होता है, उसका किया हुआ सारा काम न्याययुक्त ही माना जाता है। दूसरे लोग पुण्यात्मा हों, तो भी उनका कार्य अन्याययुक्त ही समझ लिया जाता है।' उसने बारंबार इस बातको दुहराया कि 'मैं राजा राम नहीं हूँ।'
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पातालखण्ड ]
. गुप्तचरोसे अपवादकी बात सुनकर सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश .
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उस समय मुझे बड़ा क्रोध हुआ, किन्तु सहसा आपका बड़ा भय हुआ। उन्होंने महाराजसे कहा-'स्वामिन् ! आदेश स्मरण हो आया [इसलिये मैं उसे दण्ड न दे सुखसे आराधनाके योग्य आपका यह सुन्दर मुख इस सका]; अब यदि आप आज्ञा दें तो मैं उसे मार गिराऊँ। समय नीचेकी ओर क्यों झुका हुआ है? यह आँसुओंसे यह बात न कहनेयोग्य और न्यायके विपरीत थी, तो भी भींगा कैसे दिखायी दे रहा है? मुझे इसका पूरा-पूरा मैंने आपके आग्रहसे कह डाली है। अब इस विषयमें यथार्थ कारण बताइये और आज्ञा दीजिये, मैं क्या महाराज ही निर्णायक है; जो उचित कर्तव्य हो, उसका करूँ ?' भाई भरतने जब गद्गद वाणीसे इस प्रकार विचार करें।
कहा, तब धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी बोले-'प्रिय बन्धु ! गुप्तचरका यह वाक्य, जिसका एक-एक अक्षर इस पृथ्वीपर उन्हीं मनुष्योंका जीवन उत्तम है, जिनके महाभयानक वज्रके समान मर्मपर आघात करनेवाला सुयशका विस्तार हो रहा हो। अपकीर्तिके मारे हुए था, सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बारम्बार उच्छ्वास खींचते हुए मनुष्योंका जीवन तो मरे हुएके ही समान है। आज उन सब दूतोंसे बोले-'अब तुमलोग जाओ और सम्पूर्ण संसारमें विस्तृत मेरी कीर्तिमयी गङ्गा कलुषित हो भरतको मेरे पास भेज दो।' वे दूत दुःखी होकर तुरंत ही गयी। इस नगरमें रहनेवाले एक धोबीने आज भरतजीके भवनमें गये और वहाँ उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीका जानकीजीके सम्बन्धको लेकर कुछ निन्दाकी बात कह संदेश कह सुनाया। श्रीरघुनाथजीका संदेश सुनकर डाली है; इसलिये भाई! बताओ, अब मैं क्या करूं? बुद्धिमान् भरतजी बड़ी उतावलीके साथ राजसभामें गये क्या आज अपने शरीरको त्याग दूं या अपनी धर्मपत्नी और वहाँ द्वारपालसे बोले-'मेरे भ्राता कृपानिधान जानकीका ही परित्याग कर दूं? दोनोंके लिये मुझे क्या श्रीरामचन्द्रजी कहाँ हैं?' द्वारपालने एक रलनिर्मित करना चाहिये, इस बातको ठीक-ठीक बताओ।' । मनोहर गृहकी ओर संकेत किया। भरतजी वहाँ जा भरतजीने पूछा-आर्य ! कौन है यह धोबी तथा पहुँचे। श्रीरामचन्द्रजीको विकल देखकर उनके मनमें इसने कौन-सी निन्दाकी बात कही है?
तव श्रीरामचन्द्रजीने धोबीके मुँहसे निकली हुई सारी बातें, जो दूतके द्वारा सुनी थीं, महात्मा भरतसे कह सुनायीं। उन्हें सुनकर भरतने दुःख और शोकमें पड़े हुए भाई श्रीरामसे कहा-'वीरोंद्वारा सुपूजित जानकीदेवी लङ्कामें अग्नि-परीक्षाद्वारा शुद्ध प्रमाणित हो चुकी हैं। ब्रह्माजीने भी इन्हें शुद्ध बतलाया है तथा पूज्य पिता स्वर्गीय महाराज दशरथजीने भी इस बातका समर्थन किया है। यह सब होते हुए भी केवल एक धोबीके कहनेसे विश्ववन्दित सीताका परित्याग कैसे किया जा सकता है? ब्रह्मादि देवताओंने भी आपकी कीर्तिका गान किया है, वह इस समय सारे जगत्को पवित्र कर रही है। ऐसी पावन कीर्ति आज केवल एक धोबीके कहनेसे कलुषित या कलङ्कित कैसे हो जायगी? भला, आप अपने इस कल्याणमय विग्रहका परित्याग क्यों करना चाहते हैं। आप ही हमारे दुःखोंको दूर करनेवाले हैं। आपके बिना तो हम सब लोग आज ही मर जायेंगे।
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. अर्जयस्व हृषीकेशं यदीलांस परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण .............................. .................................................................. महान् अभ्युदयसे शोभा पानेवाली सौताजी तो आपके परन्तु इस समय मैं जो बात कह रहा हूँ, उसोको मेरी विना क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकतीं । इसलिये मेरा आशा मानकर करो। मैं जानता हूँ मेरी सीता अनिद्वारा अनुरोध तो यही है कि आप पतिव्रता श्रीसौताके साथ शुद्ध, पवित्र और लोकपूजित है, तथापि मैं रहकर इस विशाल राज्य-लक्ष्मीकी रक्षा कीजिये।' लोकापवादके कारण आज उसका त्याग करता हूँ।
भरतके ये वचन सुनकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ, परम इसलिये तुम जनककिशोरीको वनमें ले जाकर छोड़ धार्मिक श्रीरघुनाथजी इस प्रकार बोले-'भाई ! तुम जो आओ। श्रीरामका यह आदेश सुनते ही भरतजी कुछ कह रहे हो, वह धर्मसम्मत और युक्तियुक्त है। मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े।
सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
वात्स्यायनजीने पूछा-स्वामिन् ! जिनको उत्तम प्रादुर्भाव हुआ, जो रतिसे भी बढ़कर सुन्दर थी। इससे कौर्ति सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करनेवाली है, उन्हीं राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने भुवनमोहिनी जानकीदेवोके प्रति उस धोबीने निन्दायुक्त वचन क्यों शोभासे सम्पन्न उस कन्याका नाम सीता रख दिया । परम कहे? इसका रहस्य बतलाइये।
सुन्दरी सीता एक दिन सखियोंके साथ उद्यान में खेल रही शेषजीने कहा-मिथिला नामकी महापुरीमें थीं। वहाँ उन्हे शुक पक्षीका एक जोड़ा दिखायी दिया, महाराज जनक राज्य करते थे। उनका नाम था REASON सीरध्वज। एक बार वे यज्ञके लिये पृथ्वी जोत रहे थे। उस समय चौड़े मुँहवाली सीता (फालके धंसनेसे
जो बड़ा मनोरम था । वे दोनों पक्षी एक पर्वतकी चोटीपर बैठकर इस प्रकार बोल रहे थे-'पृथ्वीपर श्रीराम
नामसे प्रसिद्ध एक बड़े सुन्दर राजा होंगे। उनकी बनी हुई गहरी रेखा) के द्वारा एक कुमारी कन्याका महारानी सीताके नामसे विख्यात होंगी। श्रीरामचन्द्रजी
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पातालखण्ड ]
. सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका कृतान्त •
बड़े बुद्धिमान् और बलवान् होंगे तथा समस्त राजाओंको श्रीमान् राम महर्षि विश्वामित्रके साथ भाई लक्ष्मणसहित अपने वशमें रखते हुए सीताके साथ ग्यारह हजार हाथमें धनुष लिये मिथिला पधारेंगे। उस समय वहाँ वर्षातक राज्य करेंगे। धन्य हैं वे जानकीदेवी और धन्य एक ऐसे धनुषको, जिसका धारण करना दूसरोंके लिये है श्रीराम, जो एक-दूसरेको प्राप्त होकर इस पृथ्वीपर कठिन है, देखकर वे उसे तोड़ डालेंगे और अत्यन्त आनन्दपूर्वक विहार करेंगे।'
मनोहर रूपवाली जनककिशोरी सीताको अपनी धर्मतोतेके उस जोड़ेको ऐसी बातें करते देख सौताने पत्नीके रूपमें ग्रहण करेंगे। फिर उन्हींके साथ सोचा कि 'ये दोनों मेरे ही जीवनकी मनोहर कथा कह श्रीरामचन्द्रजी अपने विशाल साम्राज्यका पालन करेंगे।' रहे हैं इन्हें पकड़कर सभी बातें पूहूँ।' ऐसा विचार कर ये तथा और भी बहुत-सी बातें वहाँ रहते समय हमारे उन्होंने अपनी सखियोंसे कहा, "यह पक्षियोंका जोड़ा सुनने में आयी हैं। सुन्दरी ! हमने तुम्हें सब कुछ बता बहुत सुन्दर है, तुमलोग चुपकेसे जाकर इसे पकड़ दिया। अब हम जाना चाहते हैं, हमें छोड़ दो। लाओ।' सखियाँ उस पर्वतपर गयीं और दोनों सुन्दर कानोंको अत्यन्त मधुर प्रतीत होनेवाली पक्षियोंकी पक्षियोंको पकड़ लायीं। लाकर उन्होंने सीताको अर्पण ये बातें सुनकर सीताने उन्हें मनमें धारण किया और पुनः कर दिया। सीता उन पक्षियोंसे बोलीं-'तुम दोनों बड़े उन दोनोंसे इस प्रकार पूछा-'राम कहाँ होंगे? किसके सुन्दर हो; देखो, डरना नहीं। बताओ, तुम कौन हो और पुत्र हैं और कैसे वे दुलह-वेषमें आकर जानकीको ग्रहण कहाँसे आये हो? राम कौन हैं? और सीता कौन है ? करेंगे? तथा मनुष्यावतारमें उनका श्रीविग्रह कैसा तुम्हें उनकी जानकारी कैसे हुई? इस सारी बातोंको होगा?' उनके प्रश्न सुनकर शुकी मन-ही-मन जान गयी जल्दी-जल्दी बताओ। मेरी ओरसे तुम्हें भय नहीं होना कि ये ही सीता हैं। उन्हें पहचानकर वह सामने आ उनके चाहिये।' सीताके इस प्रकार पूछनेपर दोनों पक्षी सब चरणोपर गिर पड़ी और बोली-'श्रीरामचन्द्रजीका मुख बातें बताने लगे-'देवि ! वाल्मीकि नामसे प्रसिद्ध एक कमलको कलोके समान सुन्दर होगा। नेत्र बड़े-बड़े बहुत बड़े महर्षि हैं, जो धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ माने जाते हैं। हम तथा खिले हुए पङ्कजकी शोभाको धारण करनेवाले दोनों उन्हीक आश्रम में रहते हैं। महर्षिने रामायण नामका होंगे। नासिका ऊँची, पतली और मनोहारिणी होगी। एक ग्रन्थ बनाया है, जो सदा ही मनको प्रिय जान पड़ता दोनों भौहे सुन्दर हंगसे परस्पर मिली होनेके कारण है। उन्होंने शिष्योंको उस रामायणका अध्ययन कराया मनोहर प्रतीत होंगी। भुजाएँ घुटनोंतक लटकी हुई एवं है। तथा प्रतिदिन वे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें सलय मनको लुभानेवाली होंगी। गला शङ्खके समान सुशोभित रहकर उस रामायणके पद्योंका चिन्तन किया करते हैं। और छोटा होगा। वक्षःस्थल उत्तम, चौड़ा एवं रामायणका कलेवर बहुत बड़ा है। हमलोगोंने उसे शोभासम्पन्न होगा। उसमें श्रीवत्सका चिह्न होगा । सुन्दर पूरा-पूरा सुना है। बारम्बार उसका गान और पाठ जाँघों और कटिभागकी शोभासे युक्त उनके दोनों घुटने सुननेसे हमें भी उसका अभ्यास हो गया है। राम और अत्यन्त निर्मल होंगे, जिनकी भक्तजन आराधना करेंगे। जानकी कौन हैं, इस बातको हम बताते हैं तथा इसको श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्द भी परम शोभायुक्त होंगे; भी सूचना देते हैं कि श्रीरामके साथ क्रीडा करनेवाली और समस्त भक्तजन उनकी सेवामें सदा संलग्न रहेंगे। जानकीके विषयमें क्या-क्या बातें होनेवाली है; तुम श्रीरामचन्द्रजी ऐसा ही मनोहर रूप धारण करनेवाले हैं। ध्यान देकर सुनो। 'महर्षि ऋष्यभङ्गके द्वारा कराये हुए मैं उनका क्या वर्णन कर सकती हैं। जिसके सौ मुख हैं, पुत्रेष्टि-यज्ञके प्रभावसे भगवान् विष्णु राम, लक्ष्मण, वह भी उनके गुणोंका बखान नहीं कर सकता। फिर भरत और शत्रुघ्न-ये चार शरीर धारण करके प्रकट हमारे-जैसे पक्षीकी क्या बिसात है। परम सुन्दर रूप होंगे। देवाङ्गनाएँ भी उनकी उत्तम कथाका गान करेंगी। धारण करनेवाली लावण्यमयी लक्ष्मी भी जिनकी झाँकी
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• अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
करके मोहित हो गयी, उन्हें देखकर पृथ्वीपर दूसरी कौन उन्मत्त प्राणी अपने वचनरूपी दोषके कारण ही बन्धनमें स्त्री है, जो मोहित न हो । उनका बल और पराक्रम महान् पड़ता है। यदि हम इस पर्वतके ऊपर बैठकर वार्तालाप है। वे अत्यन्त मोहक रूप धारण करनेवाले हैं। मैं न करते होते तो हमारे लिये यह बन्धन कैसे प्राप्त होता। श्रीरामका कहाँतक वर्णन करूँ। वे सब प्रकारके इसलिये मौन ही रहना चाहिये।' इतना कहकर पक्षी पुनः ऐश्वर्यमय गुणोंसे युक्त है। परम मनोहर रूप धारण बोला-'सुन्दरी ! मैं अपनी इस भार्याके बिना जीवित करनेवाली वे जानकीदेवी धन्य हैं, जो श्रीरघुनाथजीके नहीं रह सकता, इसलिये इसे छोड़ दो। सीता ! तुम साथ हजारों वर्षातक प्रसन्नतापूर्वक विहार करेंगी। परन्तु बड़ी अच्छी हो [मेरी प्रार्थना मान लो]।' इस तरह नाना सुन्दरी ! तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है, जो इतनी प्रकारकी बाते कहकर उसने समझाया, किन्तु सीताने चतुरता और आदरके साथ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका उसकी पत्नीको नहीं छोड़ा, तब उसकी भार्याने क्रोध और कीर्तन सुननेके लिये प्रश्न कर रही हो।'
दुःखसे आकुल होकर जानकीको शाप दिया- 'अरी ! पक्षियोंकी ये बातें सुनकर जनककुमारी सीता अपने जिस प्रकार तू मुझे इस समय अपने पतिसे विलग कर जन्मकी ललित एवं मनोहर चर्चा करती हुई बोलीं- रही है, वैसे ही तुझे स्वयं भी गर्भिणीकी अवस्थामें "जिसे तुमलोग जानकी कह रहे हो, वह जनककी पुत्री मैं श्रीरामसे अलग होना पड़ेगा।' यों कहकर पतिही हूँ। मेरे मनको लुभानेवाले श्रीराम जब यहाँ आकर वियोगके शोकसे उसके प्राण निकल गये। उसने मुझे स्वीकार करेंगे, तभी मैं तुम दोनोंको छोईंगी, अन्यथा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण तथा पुनः-पुनः राम-नामका नहीं; क्योंकि तुमने अपने वचनोंसे मेरे मनमें लोभ उत्पन्न उच्चारण करते हुए प्राण त्याग किया था, इसलिये उसे ले कर दिया है। अब तुम इच्छानुसार खेल करते हुए मेरे जानेके लिये एक सुन्दर विमान आया और वह पक्षिणी घरमें सुखसे रहो और मीठे-मीठे पदार्थ भोजन करो।' यह उसपर बैठकर भगवान्के धामको चली गयी। सुनकर सुग्गीने जानकोसे कहा-'साध्वी ! हम वनके भार्याकी मृत्यु हो जानेपर पक्षी शोकसे आतुर पक्षी हैं, पेड़ोंपर रहते हैं और सर्वत्र विचरा करते हैं। हमें होकर बोला-'मैं मनुष्योंसे भरी हुई श्रीरामकी नगरी तुम्हारे घरमें सुख नहीं मिलेगा। मैं गर्भिणी हूँ, अपने अयोध्याम जन्म लूँगा तथा मेरे ही वाक्यसे उद्वेगमें स्थानपर जाकर बच्चे पैदा करूंगी। उसके बाद फिर तुम्हारे पड़कर इसे पतिके वियोगका भारी दुःख उठाना पड़ेगा।' यहाँ आ जाऊँगी। उसके ऐसा कहनेपर भी सीताने उसे यह कहकर वह चला गया। क्रोध और सीताजीका न छोड़ा। तब उसके पतिने विनीत वाणीमें उत्कण्ठित अपमान करनेके कारण उसका धोबीको योनिमें जन्म होकर कहा-'सीता ! मेरी सुन्दरी भार्याको छोड़ दो। हुआ। जो बड़े लोगोंकी बुराई करते हुए क्रोधपूर्वक इसे क्यों रख रही हो । शोभने ! यह गर्भिणी है, सदा मेरे अपने प्राणोंका परित्याग करता है, वह द्विजोंमें श्रेष्ठ ही मनमें बसी रहती है। जब यह बच्चोंको जन्म दे लेगी, तब क्यों न हो, मरनेके बाद नीच-योनिमें उत्पन्न होता है। इसे लेकर फिर तुम्हारे पास आ जाऊँगा।' तोतेके ऐसा यही बात उस तोतेके लिये भी हुई। उस धोबीके कहनेपर जानकीने कहा-'महामते ! तुम आरामसे जा कथनसे ही सीताजी निन्दित हुई और उन्हें पतिसे वियुक्त सकते हो, मगर तुम्हारी यह भार्या मेरा प्रिय करनेवाली होना पड़ा। धोबीके रूपमें उत्पन्न हुए उस तोतेका शाप है। मैं इसे अपने पास बड़े सुखसे रखूगी।' ही सीताका पतिसे विछोह कराने में कारण हुआ और
यह सुनकर पक्षी दुःखी हो गया। उसने करुणायुक्त इसीसे वे वनमें गयीं। विप्रवर ! विदेहनन्दिनी सीताके वाणीमें कहा-'योगीलोग जो बात कहते हैं, वह सत्य सम्बन्धमे तुमने जो बात पूछी थी वह कह दी। अब फिर ही है-किसीसे कुछ न कहे, मौन होकर रहे, नहीं तो आगेका वृत्तान्त कहता हूँ, सुनो।
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पातालखण्ड ] - सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी मूळ; वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म +
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सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रनकी भी मूच्र्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोडना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
शेषजी कहते हैं-मुने ! भरतको मूर्छित देख मू» आदिका दारुण दृश्य कैसे दिखायी दे रहा है ? श्रीरघुनाथजीको बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने द्वारपालसे इसका सब कारण मुझे शीघ्र बताइये।' कहा-'शत्रुघ्नको शीघ्र मेरे पास बुला लाओ।' आज्ञा उनके ऐसा कहनेपर महाराज श्रीरामने लक्ष्मणको पाकर वह क्षणभरमें शत्रुघ्रको बुला लाया। आते ही वह सारा दुःखमय वृत्तान्त आरम्भसे ही कह सुनाया। उन्होंने भरतको अचेत और श्रीरघुनाथजीको दुःखी देखा; सीताके परित्यागसे सम्बन्ध रखनेवाली बात सुनकर वे इससे उन्हें भी बड़ा दुःख हुआ और वे श्रीरामचन्द्रजीको बारम्बार उच्छ्वास खींचते हुए सन्न हो गये। उन्हें कुछ प्रणाम करके बोले-'आर्य ! यह कैसा दारुण दृश्य भी उत्तर देते न देख श्रीरामचन्द्रजी शोकसे पीड़ित होकर है?' तब श्रीरामने धोबीके मुखसे निकला हुआ वह बोले-'मैं अपयशसे कलङ्कित हो इस पृथ्वीपर रहकर लोकनिन्दित वचन कह सुनाया तथा जानकीको क्या करूंगा। मेरे बुद्धिमान् भ्राता सदा मेरी आज्ञाका त्यागनेका विचार भी प्रकट किया।
पालन करते थे, किन्तु इस समय दुर्भाग्यवश वे भी मेरे तब शत्रुघ्नने कहा-स्वामिन् ! आप प्रतिकूल बातें करते हैं। कहाँ जाऊँ? कैसे करूं? जानकोजीके प्रति यह कैसी कठोर बात कह रहे हैं! पृथ्वीके सभी राजा मेरी हंसी उड़ायेंगे। श्रीरामको ऐसी भगवान् सूर्यका उदय सारे संसारको प्रकाश पहुँचानेके बातें करते देख लक्ष्मणने आँसू रोककर व्यथित स्वरमें लिये होता है; किन्तु उल्लुओंको वे पसंद नहीं आते, कहा-'स्वामिन् ! विषाद न कीजिये। मैं अभी उस इससे जगत्की क्या हानि होती है? इसलिये आप भी घोबीको बुलाकर पूछता है, संसारकी सभी स्त्रियोंमें श्रेष्ठ सीताको स्वीकार करें, उनका त्याग न करें; क्योंकि वे जानकीजीको निन्दा उसने कैसे की है? आपके राज्यमें सती-साध्वी स्त्री हैं। आप कृपा करके मेरो यह बात किसी छोटे-से-छोटे मनुष्यको भी बलपूर्वक कष्ट नहीं मान लीजिये।
पहुँचाया जाता । अतः उसके मन में जिस तरह प्रतीति हो, महात्मा शत्रुघ्नकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी जैसे वह संतुष्ट रहे, वैसा ही उसके साथ बर्ताव कीजिये बारम्बार वही (सीताके त्यागकी) बात दुहराने लगे, जो [परंतु एक बार उससे पूछना आवश्यक है। एक बार भरतसे कह चुके थे। भाईको वह कठोर बात जनककुमारी सीता मनसे अथवा वाणीसे भी आपके सुनते ही शत्रुघ्न दुःखके अगाध जलमें डूब गये और सिवा दूसरेको नहीं जानती; अतः उन्हें तो आप स्वीकार जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर ही करें, उनका त्याग न करें। मेरे ऊपर कृपा करके मेरी पड़े। भाई शत्रुघ्नको भी अचेत होकर गिरा देख बात माने।' श्रीरामचन्द्रजीको बहुत दुःख हुआ और वे द्वारपालसे ऐसा कहते हुए लक्ष्मणसे श्रीरामने शोकातुर होकर बोले-'जाओ, लक्ष्मणको मेरे पास बुला लाओ।' कहा-'भाई ! मैं जानता हूँ सीता निष्पाप है; तो भी द्वारपालने लक्ष्मणजीके महलमें जाकर उनसे इस प्रकार लोकापवादके कारण उसका त्याग करूँगा । लोकापवादसे निवेदन किया-'स्वामिन् ! श्रीरघुनाथजी आपको याद निन्दित हो जानेपर मैं अपने शरीरको भी त्याग सकता हूँ; कर रहे है। श्रीरामका आदेश सुनकर वे शीघ्र उनके फिर घर, पुत्र, मित्र तथा उत्तम वैभव आदि दूसरी-दूसरी पास गये। वहाँ भरत और शत्रुघ्नको मूर्छित तथा वस्तुओंकी तो बात ही क्या है। इस समय धोबीको श्रीरामचन्द्रजीको दुःखसे व्याकुल देखकर लक्ष्मण भी बुलाकर पूछनेकी आवश्यकता नहीं है। समय आनेपर दुःखी हो गये। वे श्रीरघुनाथजीसे बोले-'राजन् ! यह सब कुछ अपने-आप हो जायगा; लोगोंके चित्तमें
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• अचंयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
[ संक्षिप्त पापुराण
सीताके प्रति स्वयं ही प्रतीति हो जायगी। जैसे कच्चा चित्तको संतुष्ट कर दिया। अभी-अभी रातमें जानकीने घाव चिकित्साके योग्य नहीं होता, समयानुसार जब वह तापसी खियोंके दर्शनको इच्छा प्रकट की थी, इसीलिये पक जाता है तभी दवासे नष्ट होता है, उसी प्रकार रथपर बिठाकर जंगलमें छोड़ आओ।' फिर सुमन्त्रको समयसे ही इस कलङ्कका मार्जन होगा। इस समय मेरो बुलाकर उन्होंने कहा-'मेरा रथ अच्छे-अच्छे घोड़ों आज्ञाका उल्लङ्घन न करो। पतिव्रता सीताको जंगलमें और वस्त्रोंसे सजाकर तैयार करो।' श्रीरघुनाथजीका छोड़ आओ।' यह आदेश सुनकर लक्ष्मण एक क्षणतक आदेश सुनकर वे उनका उत्तम रथ तैयार करके ले शोकाकुल हो दुःखमें डूबे रहे, फिर मन-ही-मन विचार आये। रथको आया देख भ्रातृ-भक्त लक्ष्मण उसपर किया-'परशुरामजीने पिताको आज्ञासे अपनी माताका सवार हुए और जानकीजीके महलकी ओर चले। भी वध कर डाला था; इससे जान पड़ता है, गुरुजनोंको अन्तःपुरमें पहुँचकर वे मिथिलेशकुमारी सीतासे आज्ञा उचित हो या अनुचित, उसका कभी उल्लङ्घन बोले-'माता जानकी ! श्रीरघुनाथजीने मुझे आपके नहीं करना चाहिये। अतः श्रीरामचन्द्रजीका प्रिय करनेके महलमें भेजा है। आप तापसी स्त्रियोंके दर्शनके लिये लिये मुझे सीताका त्याग करना ही पड़ेगा।' वनमें चलिये।
यह सोचकर लक्ष्मण अपने भाई श्रीरघुनाथजीसे जानकी बोलीं- श्रीरघुनाथजीके चरणोंका बोले-'सुव्रत ! गुरुजनोंके कहनेसे नहीं करनेयोग्य चिन्तन करनेवाली यह महारानी मैथिली आज धन्य हो कार्य भी कर लेना चाहिये, किन्तु उनकी आज्ञाका गयी, जिसका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये स्वामीने उल्लङ्घन कदापि उचित नहीं है। इसलिये आप जो कुछ लक्ष्मणको भेजा है ! आज मैं वनमें रहनेवाली सुन्दरी कहते हैं, उस आदेशका मै पालन करूँगा।' लक्ष्मणके तपस्विनियोंको, जो पतिको ही देवता मानती हैं, मुखसे ऐसी बात सुनकर श्रीरघुनाथजीने उनसे कहा- मस्तक झुकाऊँगी और वस्त्र आदि अर्पण करके उनकी 'बहुत अच्छा; बहुत अच्छा; महामते ! तुमने मेरे पूजा करूंगी।
ऐसा कहकर उन्होंने सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, बहुमूल्य आभूषण, नाना प्रकारके रत्न, उज्ज्वल मोती, कपूर आदि सुगन्धित पदार्थ तथा चन्दन आदि सहस्रों प्रकारकी 'विचित्र वस्तुएँ साथ ले ली। ये सारी चीजें दासियोंके हाथों उठवाकर वे लक्षमणकी ओर चलीं। अभी घरका चौकठ भी नहीं लाँधने पायी थीं कि लड़खड़ाकर गिर पड़ीं। यह एक अपशकुन था; परन्तु वनमें जानेको उत्कण्ठाके कारण सीताजीने इसपर विचार नहीं किया। वे अपना प्रिय कार्य करनेवाले देवरसे बोली-'वत्स ! कहाँ वह रथ है, जिसपर मुझे ले चलोगे?' लक्ष्मणने सुवर्णमय रथको ओर संकेत किया और जानकीजीके साथ उसपर बैठकर सुमन्त्रसे बोले-'चलाओ घोड़ोको।' इसी समय सीताका दाहिना नेत्र फड़क उठा, जो भावी दुःखकी सूचना देनेवाला था। साथ ही पुण्यमय पक्षी विपरीत दिशासे होकर जाने लगे। यह सब देखकर जानकीने देवरसे कहा-'वत्स ! मैं तो
यल
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पातालखण्ड ] • सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी मूा; वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म.
५२३
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तपस्विनियोंके दर्शनकी इच्छासे यात्रा करना चाहती हूँ. महापातक पलायन कर जाते हैं उन्हें वहाँ चारों ओर
अपने रहने योग्य कोई स्थान नहीं दिखायी देता । गङ्गाके किनारे पहुँचकर लक्ष्मणजीने रथघर बैठी हुई सीताजीसे
आँसू बहाते हुए कहा-'भाभी ! चलो, लहरोंसे भरी हुई गङ्गाको पार करो।' सीताजी देवरकी बात सुनकर तुरंत रथसे उतर गयौं।
। तदनन्तर, नावसे गङ्गाके पार होकर लक्ष्मणजी जानकोजीको साथ लिये वनमें चले। वे श्रीरामचन्द्रजीकी
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फिर ये दुःख देनेवाले अपशकुन कैसे हो रहे हैं! श्रीरामका, भरतका तथा तुम्हारे छोटे भाई शत्रुघ्रका कल्याण हो, उनकी प्रजामें सर्वत्र शान्ति रहे, कहीं कोई विप्लव या उपद्रव न हो।'
जानकीजीको ऐसी बातें करते देख लक्ष्मण कुछ बोल न सके, आँसुओंसे उनका गला भर आया। इसी प्रकार आगे जाकर सीताजीने फिर देखा, बहुत-से मृग बायीं ओरसे घूमकर निकले जा रहे हैं। वे भारी दुःखको आज्ञाका पालन करनेमें कुशल थे; अतः सौताको सूचना देनेवाले थे। उन्हें देखकर जानकोजी कहने अत्यन्त भयंकर एवं दुःखदायी जंगलमें ले गये-जहाँ लगीं- 'आज ये मृग जो मेरी बायीं ओरसे निकल रहे बबूल, खैरा और धव आदिके महाभयानक वृक्ष थे, जो हैं, सो ठीक ही है; श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको छोड़कर दावानलसे दग्ध होनेके कारण सूख गये थे। ऐसा जंगल अन्यत्र जानेवाली सौताके लिये ऐसा होना उचित ही है। देखकर सीता भयके कारण बहुत चिन्तित हुई। काँटोसे नारियोंका सबसे बड़ा धर्म है-अपने स्वामीके चरणोंका उनके कोमल चरणोंमें घाव हो गये। वे लक्ष्मणसे पूजन, उसीको छोड़कर मैं अन्यत्र जा रही हैं; अतः मेरे बोली- वीरवर ! यहाँ अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनियोके लिये जो दण्ड मिले, उचित ही है।' इस प्रकार मार्गमें रहने योग्य आश्रम मुझे नहीं दिखायी देते, जो नेत्रोंको पारमार्थिक विचार करती हुई देवी जानकीने गङ्गाजीको सुख प्रदान करनेवाले हैं तथा महर्षियोंकी तपस्विनी देखा, जिनके तटपर मुनियोका समुदाय निवास करता स्त्रियोंके भी दर्शन नहीं होते। यहाँ तो केवल भयंकर है। जिनके जलकणोंका स्पर्श होते ही राशि-राशि पक्षी, सूखे वृक्ष और दावानलसे सब ओर जलता हुआ
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• अर्चयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
यह वन ही दृष्टिगोचर हो रहा है। इसके सिवा, मैं तुमको आपके सिवा और सब कुछ मैंने अपने मनसे तुच्छ भी किसी भारी दुःखसे आतुर देखती हूँ। तुम्हारी आँखें समझा है। महेश्वर ! प्रत्येक जन्ममें आप ही मेरे पति हो आँसुओंसे भरी है, इनसे व्याकुलताके भाव प्रकट होते हैं और मैं आपके ही चरणोंके चिन्तनसे अपने अनेको और मुझे भी पग-पगपर हजारों अपशकुन दिखायी देते पापोंका नाश कर आपकी सती-साध्वी पत्नी बनी है। सच बताओ, क्या बात है?'
रहूँ-यही मेरी प्रार्थना है।' सीताजीके इतना कहनेपर भी लक्ष्मणजीके मुखसे "लक्ष्मण! मेरी सासुओंसे भी यह संदेश कोई भी बात नहीं निकली, वे चुपचाप उनकी ओर देखते कहना- 'माताओ ! अनेकों जन्तुओंसे भरे हुए इस घोर हुए खड़े रहे। तब जानकोजीने बारम्बार प्रश्न करके उनसे जंगलमें मैं आप सब लोगोंके चरणोंका स्मरण करती हूँ। उत्तर देनेके लिये बड़ा आग्रह किया। उनके आग्रहपूर्वक मैं गर्भवती हैं, तो भी महात्मा रामने मुझे इस वनमें त्याग पूछनेपर लक्ष्मणजीका गला भर आया। उन्होंने शोक दिया है।' 'सौमित्रे ! अब तुम मेरी बात सुनोप्रकट करते हुए सीताजीको उनके परित्यागकी बात श्रीरघुनाथजीका कल्याण हो। मैं अभी प्राण त्याग देती, बतायो । मुनिवर ! वह वनके तुल्य कठोर वचन सुनकर किन्तु विवश हैं: अपने गर्भ में श्रीरामचन्द्रजीके तेजकी रक्षा सीताजी जड़से कटी हुई लताकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ीं। कर रही हूँ। तुम जो उनके वचनोंको पूर्ण करते हो, सो विदेहकुमारीको पृथ्वीपर पड़ी देख लक्ष्मणजीने पल्लवोंसे ठीक ही है; इससे तुम्हारा कल्याण होगा। तुम श्रीरामके हवा करके उन्हें सचेत किया । होशमें आनेपर जानकीजीने चरणकमलोंके सेवक और उनके अधीन हो, अतः तुम्हें कहा-"देवर ! मुझसे परिहास न करो। मैंने कोई पाप ऐसा ही करना उचित है। अच्छा, अव श्रीरामचन्द्रजीके नहीं किया है, फिर श्रीरघुनाथजी मुझे कैसे छोड़ देंगे। वे समीप जाओ; तुम्हारे मार्ग मङ्गलमय हों। मुझपर कृपा परम बुद्धिमान् और महापुरुष है, मेरा त्याग कैसे कर करके कभी-कभी मेरी याद करते रहना।" सकते हैं। वे जानते हैं मैं निष्पाप हैं, फिर भी एक धोबीके कहनेसे मुझे छोड़ देंगे? [ऐसी आशा नहीं है।]" इतना कहते-कहते वे फिर बेहोश हो गयीं। इस बार उन्हें मूर्छित देख लक्ष्मणजी फूट-फूटकर रोने लगे। जब पुनः उनको चेत हुआ, तब लक्ष्मणजीको दुःखसे आतुर और रुद्धकण्ठ देखकर वे बहुत दुःखी हुई और बोली"सुमित्रानन्दन ! जाओ, तुम धर्मके स्वरूप और यशके सागर श्रीरामचन्द्रजीसे तपोनिधि वसिष्ठ मुनिके सामने ही मेरी एक बात पूछना--'नाथ ! यह जानते हुए भी कि सौता निष्पाप है, जो आपने मुझे त्याग दिया है, यह बर्ताव आपके कुलके अनुरूप हुआ है या शास्त्र-ज्ञानका फल है? मैं सदा आपके चरणोंमें ही अनुराग रखती हूँ तो भी जो आपके द्वारा मेरा त्याग हुआ है, इसमें आपका कोई दोष नहीं है। यह सब मेरे भाग्य-दोषसे हुआ है, इसमें मेरा प्रारव्य ही कारण है। वीरवर ! आपका सदा और सर्वत्र कल्याण हो। मैं इस वनमें आपका ही स्मरण करती हुई ।
SNE प्राण धारण करूंगी। मन, वाणी और क्रियाके द्वारा इतना कहकर सीताजी लक्ष्मणजीके सामने ही एकमात्र आप ही मेरे सर्वोत्तम आराध्यदेव हैं। रघुनन्दन ! अचेत हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। उन्हें मूर्च्छित
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पातालखण्ड ]• सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी पूर्छा; वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म.
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देख लक्ष्मणजी पुनः दुःखमें डूब गये और वस्त्रके लिये मन्द-मन्द वायु चलने लगी तथा हाथी भी अपनी अग्रभागसे पंखा झलने लगे। जब होशमें आयीं, तब सँडोमें जल लिये सब ओरसे वहाँ आकर खड़े हो गये, उन्हें प्रणाम करके वे बोले- 'देवि ! अब मैं श्रीरामके पास जाता हूँ, वहाँ जाकर मैं आपका सब संदेश कहूँगा। आपके समीप ही महर्षि वाल्मीकिका बहुत बड़ा आश्रम है।' यों कहकर लक्ष्मणने उनको परिक्रमा की
और दुःखमग्न हो आँसू बहाते हुए ये महाराज श्रीरामके पास चल दिये। जानकोजीने जाते हुए देवरको ओर विस्मित दृष्टिसे देखा। वे सोचने लगी-'महाभाग
बर
मानो धूलिसे भरे हुए सीताके शरीरको धोनेके लिये आये हो। इसी समय सती सीता होशमें आयीं और बारम्बार राम-रामकी रट लगाती हुई बड़े दुःखसे विलाप करने लगीं-'हा राम ! हा दीनबन्धो !! हा करुणानिधे !!! बिना अपराधके ही क्यों मुझे इस वनमें त्याग रहे हो।' इस प्रकारको बहुत-सी बातें कहती हुई वे बार-बार
विलाप करती और इधर-उधर देखती हुई रह-रहकर लक्ष्मण मेरे देवर हैं, शायद परिहास करते हो; भला, मूर्छित हो जाती थीं। उस समय भगवान् वाल्मीकि श्रीरघुनाथजी अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मुझ शिष्योंके साथ वनमें गये थे। वहां उन्हें करुणाजनक पापरहित पत्नीको कैसे त्याग सकते हैं।' यही विचार स्वरमें विलाप और रोदन सुनायी पड़ा। वे शिष्योंसे करती हुई वे निर्निमेष नेत्रोंसे उनकी ओर देखती रहीं; बोले-'वनके भीतर जाकर देखो तो सही, इस महाघोर किन्तु जब वे गङ्गाके उस पार चले गये, तब उन्हें सर्वथा जंगलमे कौन रो रहा है? उसका स्वर दुःखसे पूर्ण जान विश्वास हो गया कि सचमुच ही मैं त्याग दी गयी। अब पड़ता है।' मुनिके भेजनेसे वे उस स्थानपर गये, जहाँ मेरे प्राण बचेंगे या नहीं, इस संशयमें पड़कर वे पृथ्वीपर जानकी राम-रामकी पुकार मचाती हुई आँसुओंमें डूब गिर पड़ों और तत्काल उन्हें मूने आ दवाया। रही थीं। उन्हें देखकर वे शिष्य उत्कण्ठावश वाल्मीकि
उस समय हंस अपने पंखोंसे जल लाकर सीताके मुनिके पास लौट गये। उनकी बातें सुनकर मुनि स्वयं ही शरीरपर सब ओरसे छिड़कने लगे। फूलोंकी सुगन्ध उस स्थानपर गये। पतिव्रता जानकीने देखा एक महर्षि
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. अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
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आ रहे है, जो तपस्याके पुञ्ज जान पड़ते हैं। उन्हें देख जानो कि दूसरे स्थानपर बना हुआ मेरे पिताका ही सीताजीने हाथ जोड़कर कहा-व्रतके सागर और यह घर है। वेदोंके साक्षात् स्वरूप महर्षिको नमस्कार है। उनके सती सौताका मुख शोकके आँसुओंसे भीगा था।
मुनिका सान्त्वनापूर्ण वचन सुनकर उन्हें कुछ सुख मिला । उनके नेत्रोंमें इस समय भी दुःखके आँसू छलक रहे थे। वाल्मीकिजी उन्हें आश्वासन देकर तापसी स्त्रियोंसे भरे हुए अपने पवित्र आश्रमपर ले गये। सीता महर्षिके पीछे-पीछे गयीं और वे मुनिसमुदायसे भरे हुए अपने आश्रमपर पहुँचकर तापसियोंसे बोले-'अपने
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यों कहनेपर महर्षिने आशीर्वादके द्वारा उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा-'बेटी ! तुम अपने पतिके साथ चिरकालतक जीवित रहो। तुम्हें दो सुन्दर पुत्र प्राप्त हों। बताओ, तुम कौन हो? इस भयङ्कर वनमें क्यों आयी हो तथा क्यों ऐसी हो रही हो? सब कुछ बताओ, जिससे मैं तुम्हारे दुःखका कारण जान सकूँ।' तब श्रीरघुनाथजीकी पली सीताजी एक दीर्घ निःश्वास ले कांपती हुई आश्रमपर जानकी आयी हैं [उनका स्वागत करो] । करुणामयी वाणीमें बोलौं—'महर्षे ! मुझे श्रीरघुनाथजीकी महामना सीताने सब तपस्विनियोंको प्रणाम किया और सेविका समझिये। मैं बिना अपराधके ही त्याग दी उन्होंने भी प्रसन्न होकर उन्हें छातीसे लगाया। तपोनिधि गयी हूँ। इसका कारण क्या है, यह मैं बिलकुल नहीं वाल्पोकिने अपने शिष्योंसे कहा-'तुम जानकीके लिये जानती। श्रीरामचन्द्रजौकी आज्ञासे लक्ष्मण मुझे यहाँ एक सुन्दर पर्णशाला तैयार करो।' आज्ञा पाकर उन्होंने छोड़ गये हैं।'
पत्तों और लकड़ियोंके द्वारा एक सुन्दर कुटी निर्माण की। वाल्मीकिजी बोले-विदेहकुमारी ! मुझे अपने पतिव्रता जानकी उसीमें निवास करने लगीं। वे पिताका गुरु समझो, मेरा नाम वाल्मीकि है। अब तुम वाल्मीकि मुनिकी टहल बजाती हुई फलाहार करके दुःख न करो, मेरे आश्रमपर आओ। पतिव्रते ! तुम यही रहती थी तथा मन और वाणीसे निरन्तर राम-मन्त्रका
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पातालखण्ड ]. सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्रकी मूर्च्छा वाल्मीकिके आश्रमपर लव कुशका जन्म •
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जप करती हुई दिन व्यतीत करती थीं, समय आनेपर उन्होंने दो सुन्दर पुत्रोंको जन्म दिया, जो आकृतिमें
श्रीरामचन्द्रजीके समान तथा अश्विनीकुमारोंकी भाँति मनोहर थे। जानकीके पुत्र होनेका समाचार सुनकर मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे मन्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे, अतः उन बालकोंके जातकर्म आदि संस्कार उन्होंने हो सम्पन्न किये। महर्षि वाल्मीकिने उन बालकोंके संस्कार-सम्बन्धी सभी कर्म कुशों और उनके लवों (टुकड़ों) द्वारा ही किये थे अतः उन्होंक नामपर उन दोनोंका नाम क्रमशः कुश और लव रखा। जिस समय उन शुद्धात्मा महर्षिने पुत्रोंका मङ्गल कार्य सम्पन्न किया, उस समय सीताजीका हृदय आनन्दसे भर गया। उनके मुख और नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे। उसी दिन लवणासुरको मारकर शत्रुघ्नजी भी अपने थोड़े-से सैनिकोंके साथ वाल्मीकि मुनिके सुन्दर आश्रमपर रात्रिमें आये थे। उस समय वाल्मीकिजीने उन्हें सिखा दिया था कि तुम श्रीरघुनाथजीको जानकीके पुत्र होनेकी बात न बताना, मैं ही उनके सामने सारा वृत्तान्त कहूँगा।' जानकीके वे दोनों पुत्र वहाँ बढ़ने लगे। उनका
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रूप बड़ा ही मनोहर था। सीता उन्हें कन्द, मूल और फल खिलाकर पुष्ट करने लगीं। वे दोनों परम सुन्दर और अपनी रूप-माधुरीसे उन्मत्त बना देनेवाले थे। शुक्ल पक्षको प्रतिपदाके चन्द्रमाकी भाँति मनको मोहनेवाले दोनों कुमारोंका समयानुसार उपनयन संस्कार हुआ, इससे उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयो । महर्षि वाल्मीकिने उपनयनके पश्चात् उन्हें अङ्गसहित वेद और रहस्योंसहित धनुर्वेदका अध्ययन कराया। उसके बाद स्वरचित रामायण - काव्य भी पढ़ाया। उन्होंने भी उन बालकोंको सुवर्णभूषित धनुष प्रदान किये, जो अभेद्य और श्रेष्ठ थे। जिनकी प्रत्यञ्चा बहुत ही उत्तम थी तथा जो शत्रु समुदायके लिये अत्यन्त भयंकर थे। धनुषके साथ ही बाणोंसे भरे दो अक्षय तरकश, दो खड्ग तथा बहुत-सी अभेद्य ढालें भी उन्होंने जानकीकुमारोको अर्पण किये। धनुर्वेदके पारगामी होकर वे दोनों बालक धनुष धारण किये बड़ी प्रसन्नताके साथ आश्रममें विचरा करते थे। उस समय सुन्दर अश्विनीकुमारोंकी भाँति उनकी बड़ी शोभा होती थी। जानकीजी ढाल-तलवार धारण किये अपने दोनों सुन्दर कुमारोंको देख-देखकर THI
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अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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बहुत प्रसन्न रहा करती थीं। वात्स्यायनजी ! यह मैंने आपको जानकीके पुत्र जन्मका प्रसङ्ग सुनाया है। अब
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
अवकी रक्षा करनेवाले वीरोंकी भुजाओंके काटे जाने के पश्चात् जो घटना हुई, उसका वर्णन सुनिये । ★
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शेषजी कहते हैं— मुनिवर ! अपने वीरोंकी भुजाएँ कटी देख शत्रुनजीको बड़ा क्रोध हुआ। वे रोषके मारे दाँतोंसे ओठ चबाते हुए बोले- 'योद्धाओ ! किस वीरने तुम्हारी भुजाएँ काटी है? आज मैं उसकी बाँहें काट डालूँगा देवताओंद्वारा सुरक्षित होनेपर भी वह छुटकारा नहीं पा सकता। शत्रुघ्नजीके इस प्रकार कहनेपर वे योद्धा विस्मित और अत्यन्त दुःखी होकर बोले- 'राजन् ! एक बालकने, जिसका स्वरूप श्रीरामचन्द्रजीसे बिलकुल मिलता-जुलता है, हमारी यह दुर्दशा की है।' बालकने घोड़ेको पकड़ रखा है, यह सुनकर शत्रुघ्रजीकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं और उन्होंने युद्धके लिये उत्सुक होकर कालजित् नामक सेनाध्यक्षको आदेश दिया- 'सेनापते! मेरी आज्ञासे सम्पूर्ण सेनाका व्यूह बना लो इस समय अत्यन्त बलवान् और पराक्रमी शत्रुपर चढ़ाई करनी है। यह घोड़ा पकड़नेवाला वीर कोई साधारण बालक नहीं है। निश्चय ही उसके रूपमें साक्षात् इन्द्र होंगे।' आज्ञा पाकर सेनापतिने चतुरङ्गिणी सेनाको दुर्भेद्य व्यूहके रूपमें सुसज्जित किया। सेनाको सजी देख शत्रुनजीने उसे उस स्थानपर कूच करनेकी आज्ञा दी, जहाँ अवका अपहरण करनेवाला बालक खड़ा था। तब वह चतुरङ्गिणी सेना आगे बढ़ी। सेनापतिने श्रीरामके समान रूपवाले उस बालकको देखा और कहा-' - कुमार! यह पराक्रमसे शोभा पानेवाले श्रीरामचन्द्रजीका श्रेष्ठ अश्व है, इसे छोड़ दो। तुम्हारी आकृति श्रीरामचन्द्रजीसे बहुत मिलती जुलती है, इसलिये तुम्हें देखकर मेरे हृदयमें दया आती है। यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारे जीवनकी रक्षा नहीं हो सकती।'
युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित्का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूर्च्छित होना
शत्रुघ्नजीके योद्धाकी यह बात सुनकर कुमार
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लव किञ्चित् मुसकराये और कुछ रोषमें आकर यह अद्भुत वचन बोले- "जाओ, तुम्हें छोड़ देता हूँ, श्रीरामचन्द्रजीसे इस घोड़ेके पकड़े जानेका समाचार कहो वीर! तुम्हारे इस नीतियुक्त वचनको सुनकर मैं तुमसे भय नहीं खाता। तुम्हारे जैसे करोड़ों योद्धा आ जायें, तो भी मेरी दृष्टिमें यहाँ उनकी कोई गिनती नहीं है। मैं अपनी माताके चरणोंकी कृपासे उन सबको रूईकी ढेरीके तुल्य मानता हूँ, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तुम्हारी माताने जो तुम्हारा नाम 'कालजित्' रखा है, उसे सफल बनाओ। मैं तुम्हारा काल हूँ, मुझे जीत लेनेपर ही तुम अपना नाम सार्थक कर सकोगे।”
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पातालखण्ड]
. युद्धमे लवके द्वारा सेनाका संहार और कालजिनका वध .
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कालजित्ने कहा-बालक ! तुम्हारा जन्य किस दाहिनी भुजाको बीचसे काट डाला। कटा हुआ हाथ वंशमें हुआ है? तुम किस नामसे प्रसिद्ध हो? मुझे तलवारसहित पृथ्वीपर जा पड़ा। खड्गधारी हाथको तुम्हारे कुल, शील, नाम और अवस्थाका कुछ भी पता कटा देख सेनापतिने क्रोधमें भरकर बायें हाथसे लवपर नहीं है। इसके सिवा, मैं रथपर बैठा हूँ और तुम पैदल गदा मारनेकी तैयारी की। इतनेहीमें लवने अपने तीखे हो । ऐसी दशा में मैं तुम्हें अधर्मपूर्वक कैसे परास्त करूँ ?
लव बोले-कुल, शील, नाम और अवस्थासे क्या लेना है? मैं लव हूँ और लवमात्रमें ही समस्त शत्रु-योद्धाओंको जीत लूंगा [मुझे पैदल जानकर संकोच मत करो], लो, तुम्हें भी अभी पैदल किये देता है।
ऐसा कहकर बलवान् लवने धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी तथा पहले अपने गुरु वाल्मीकिका, फिर माता जानकीका स्मरण करके तीखे बाणोंको छोड़ना आरम्भ किया, जो तत्काल ही शत्रुके प्राण लेनेवाले थे। तब कालजित्ने भी कुपित होकर अपना धनुष चढ़ाया तथा अपने युद्ध-कौशलका परिचय देते हुए बड़े वेगसे लवपर बाणोंका प्रहार किया। किन्तु कुशके छोटे भाईने क्षणभरमें उन सभी बाणोंको काटकर एक-एकके सौ-सौ टुकड़े कर दिये और आठ बाण मारकर सेनापतिको भी रथहीन कर दिया। रथके नष्ट हो जानेपर वे अपने सैनिकोद्वारा लाये हुए हाथीपर सवार हुए। वह हाथी H D बड़ा ही वेगशाली और मदसे उन्मत्त था। उसके बाणोसे उनकी उस याँहको भी भुजबंदसहित काट मस्तकसे मदकी सात धाराएँ फूटकर बह रही थीं। गिराया। तदनन्तर, कालानिके समान प्रज्वलित खड्ग कालजित्को हाथीपर बैठे देख सम्पूर्ण शत्रुओपर विजय हाथमें लेकर उन्होंने सेनापतिके मुकुटमण्डित मस्तकको पानेवाले वीर लवने हंसकर उन्हें दस याणोंसे वींध भी धड़से अलग कर दिया। डाला। लवका पराक्रम देख कालजितके मनमें बड़ा सेनाध्यक्षके मारे जानेपर सेनामें महान् हाहाकार विस्मय हुआ और उन्होंने एक तीक्ष्ण एवं भयङ्कर मचा। सारे सैनिक क्रोधमें भरकर लवका वध करनेके परिघका प्रहार किया, जो शत्रुके प्राणोंका अपहरण लिये क्षणभरमें आगे बढ़ आये, परन्तु लवने अपने करनेवाला था। किन्तु लवने तुरंत ही उसे काट गिराया। बाणोंकी मारसे उन सबको पीछे खदेड़ दिया। कितने ही फिर उसी क्षण तलवारसे हाथीकी सँड़ काट डाली और छिन्न-भिन्न होकर वहीं ढेर हो गये और कितने ही उसके दाँतोपर पैर रखकर वे तुरंत उसके मस्तकपर चढ़ रणभूमि छोड़कर भाग गये। इस प्रकार सम्पूर्ण गये। वहाँ सेनापतिके मुकटके सौ और कवचके हजार योद्धाओंको पीछे हटाकर लव बड़ी प्रसनताके साथ टुकड़े करके उनके मस्तकका बाल खींचकर उन्हें सेनामें जा घुसे। किन्हींकी बहि, किन्हींक पैर, किन्हींक धरतीपर गिरा दिया। फिर तो सेनापतिको बड़ा क्रोध कान, किन्हींकी नाक तथा किन्हींके कवच और कुण्डल हुआ और उन्होंने लवका वध करनेके लिये तलवार कट गये। इस प्रकार सेनापतिके मारे जानेपर सैनिकोंका हाथमें ली। उन्हें तलवार लेकर आते देख लवने उनकी भयङ्कर संहार हुआ। युद्धमें आये हुए प्रायः सभी वीर
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
मारे गये, कोई भी जीवित न बचा। इस प्रकार लवने शत्रु समुदायको परास्त करके युद्धमें विजय पायी तथा दूसरे योद्धाओंके आने की आशङ्कासे वे खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे। कोई-कोई योद्धा भाग्यवश उस युद्ध से बच गये। उन्होंने ही शत्रुघ्रके पास जाकर रण भूमिका सारा समाचार सुनाया। बालकके हाथसे कालजित्की मृत्यु तथा उसके विचित्र रण कौशलका वृत्तान्त सुनकर शत्रुघ्रको बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले- 'वीरो ! तुमलोग छल तो नहीं कर रहे हो ? तुम्हारा चित्त विकल तो नहीं है ? कालजित्का मरण कैसे हुआ ? वे तो यमराजके लिये भी दुर्धर्ष थे? उन्हें एक बालक कैसे परास्त कर सकता है ?" शत्रुघ्रकी बात सुनकर खूनसे लथपथ हुए उन योद्धाओंने कहा'राजन् ! हम छल या खेल नहीं कर रहे हैं; आप विश्वास कीजिये । कालजितकी मृत्यु सत्य है और वह लवके हाथसे ही हुई है। उसका युद्धकौशल अनुपम है। उस बालकने सारी सेनाको मथ डाला। इसके बाद अब जो कुछ करना हो, खूब सोच-विचारकर करें। जिन्हें युद्धके लिये भेजना हो, वे सभी श्रेष्ठ पुरुष होने चाहिये।' उन वीरोंका कथन सुनकर शत्रुघ्नने श्रेष्ठ बुद्धिवाले मन्त्री सुमतिसे युद्धके विषय में पूछा- 'मन्त्रिवर! क्या तुम जानते हो कि किस बाल्कने मेरे अश्वका अपहरण किया है ? उसने मेरी सारी सेनाका, जो समुद्रके समान विशाल थी, विनाश कर डाला है।'
सुमतिने कहा - स्वामिन्! यह मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिका महान् आश्रम है, क्षत्रियोंका यहाँ निवास नहीं है। सम्भव है इन्द्र हों और अमर्षमें आकर उन्होंने घोड़ेका अपहरण किया हो। अथवा भगवान् शङ्कर ही बालक-वेषमें आये हों अन्यथा दूसरा कौन ऐसा है, जो तुम्हारे अश्वका अपहरण कर सके। मेरा तो ऐसा विचार है कि अब तुम्हीं वीर योद्धाओं तथा सम्पूर्ण राजाओंसे घिरे हुए वहाँ जाओ और विशाल सेना भी अपने साथ ले लो। तुम शत्रुका उच्छेद करनेवाले हो, अतः वहाँ जाकर उस वीरको जीते-जी बाँध लो। मैं उसे ले जाकर कौतुक देखनेकी इच्छा रखनेवाले श्रीरघुनाथजीको दिखाऊँगा ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मन्त्रीका यह वचन सुनकर शत्रुघ्नने सम्पूर्ण वीरोंको आज्ञा दी – 'तुमलोग भारी सेनाके साथ चलो, मैं भी पीछेसे आता हूँ।' आज्ञा पाकर सैनिकोंने कूच किया। वीरोंसे भरी हुई उस विशाल सेनाको आते देख ल सिंहके समान उठकर खड़े हो गये। उन्होंने समस्त योद्धाओंको मृगोंके समान तुच्छ समझा। वे सैनिक उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। उस समय उन्होंने घेरा डालनेवाले समस्त सैनिकोंको प्रज्वलित अग्रिकी भाँति भस्म करना आरम्भ किया। किन्हींको तलवारके घाट उतारा, किन्हींको बाणोंसे मार परलोक पहुँचाया तथा किन्हींको प्रास, कुन्त, पट्टिश और परिघ आदि शस्त्रोंका निशाना बनाया। इस प्रकार महात्मा लवने सभी घेरोंको तोड़ डाला। सातों घेरोंसे मुक्त होनेपर कुशके छोटे भाई लव शरद् ऋतु मेघोंके आवरणसे उन्मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगे। उनके बाणोंसे पीड़ित होकर अनेकों वीर धराशायी हो गये। सारी सेना भाग चली। यह देख वीरवर पुष्कल युद्धके लिये आगे बढ़े। उनके नेत्र क्रोधसे भरे थे और वे 'खड़ा रह, खड़ा रह कहकर लवको ललकार रहे थे। निकट आनेपर पुष्कलने लवसे कहा - ' -'वीर! मैं तुम्हें उत्तम घोड़ोंसे सुशोभित एक रथ प्रदान करता हूँ, उसपर बैठ जाओ। इस समय तुम पैदल हो ऐसी दशामें मैं तुम्हारे साथ युद्ध कैसे कर सकता हूँ इसलिये पहले रथपर बैठो, फिर तुम्हारे साथ लोहा लूँगा।'
यह सुनकर लवने पुष्कलसे कहा- 'वीर! यदि मैं तुम्हारे दिये हुए रथपर बैठकर युद्ध करूंगा, तो मुझे पाप ही लगेगा और विजय मिलनेमें भी सन्देह रहेगा। हमलोग दान लेनेवाले ब्राह्मण नहीं हैं, अपितु स्वयं ही प्रतिदिन दान आदि शुभकर्म करनेवाले क्षत्रिय हैं [तुम मेरे पैदल होनेकी चिन्ता न करो]। मैं अभी क्रोधमें भरकर तुम्हारा रथ तोड़ डालता हूँ, फिर तुम भी पैदल ही हो जाओगे। उसके बाद युद्ध करना।' लवका यह धर्म और धैर्यसे युक्त वचन सुनकर पुष्कलका चित्त बहुत देरतक विस्मयमें पड़ा रहा। तत्पश्चात् उन्होंने धनुष चढ़ाया। उन्हें धनुष उठाते देख लवने कुपित होकर बाण
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पातालखण्ड ] . शनके बाणसे लवकी मूछा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवको विजय .
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मारा और पुष्कलके हाथका धनुष काट डाला। फिर जब गया और वह महावीरशिरोमणि मूर्छित होकर पृथ्वीपर वे दूसरे धनुषपर प्रत्यशा चढ़ाने लगे तबतक उस उद्धत गिर पड़ा। पुष्कलको मूर्छित होकर गिरा देख पवनएवं बलवान् वीरने हँसते-हंसते उनके रथको भी तोड़ कुमारने उठा लिया और श्रीरघुनाथजीके भ्राता शत्रुघ्रको दिया। महात्मा लवके द्वारा अपने धनुषको छिन्न-भिन्न अर्पित कर दिया। उन्हें अचेत देख शत्रुघ्नका चित्त हुआ देख पुष्कल क्रोधमें भर गये और उस महाबली शोकसे विट्ठल हो गया। उन्होंने क्रोधमें भरकर वीरके साथ बड़े वेगसे युद्ध करने लगे। लवने हनुमानजीको लवका वध करनेकी आज्ञा दी। हनुमानजी लवमात्रमें तरकशसे तीर निकाला, जो विषैले साँपकी भी कुपित होकर महाबली लवको युद्धमें परास्त करनेके भांति जहरीला था। उसने वह तेजस्वी बाण क्रोधपूर्वक लिये बड़े वेगसे गये और उनके मस्तकको लक्ष्य करके छोड़ा। धनुषसे छूटते ही वह पुष्कलको छातीमें धंस उन्होंने वृक्षका प्रहार किया। वृक्षको अपने ऊपर आते
देख लवने अपने बाणोंसे उसको सौ टुकड़े कर डाले।
तब हनुमानजीने बड़ी-बड़ी शिलाएँ उखाड़कर बड़े वेगसे मिका
लवके मस्तकपर फेकीं। शिलाओंका आधात पाकर उन्होंने अपना धनुष ऊपरको उठाया और बाणोंकी वर्षासे शिलाओंको चूर्ण कर दिया। फिर तो हनुमान्जीके क्रोधकी सीमा न रही; उन्होंने बलवान् लवको पूँछमें लपेट लिया। यह देख लवने अपनी माता जानकीका स्मरण किया और हनुमानजीको पूँछपर मुकेसे मारा। इससे उनको बड़ी व्यथा हुई और उन्होंने लवको बन्धनसे मुक्त कर दिया। पूँछसे छूटनेपर उस बलवान् वीरने हनुमान्जीपर बाणोंको बौछार आरम्भ कर दी। जिससे उनके समस्त शरीरमें बड़ी पीड़ा होने लगी। उन्होंने लवकी बाणवर्षाको अपने लिये अत्यन्त दुःसह समझा
और समस्त वीरोंके देखते-देखते वे मूर्छित होकर
रणभूमिमे गिर पड़े। फिर लव अन्य सब राजाओंको M मारने लगे। वे बाण छोड़ने में बड़े निपुण थे।
शत्रुनके बाणसे लवकी मूर्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा
सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
शेषजी कहते हैं-मुने ! वायुनन्दन हनुमान्जीके 'श्रीरामचन्द्रजौके सदृश स्वरूप धारण करनेवाला यह मूर्छित होनेका समाचार सुनकर शत्रुघ्नको बड़ा शोक बालक कौन है? इसका नीलकमल-दलके समान हुआ। अब वे स्वयं सुवर्णमय रथपर विराजमान हुए श्याम शरीर कितना मनोहर है! हो न हो, यह
और श्रेष्ठ वीरोंको साथ ले युद्धके लिये उस स्थानपर विदेहकुमारी सीताका ही पुत्र है। भीतर-ही-भीतर ऐसा गये, जहाँ विचित्र रणकुशल वीरवर लय मौजूद थे। उन्हें सोचकर वे बालकसे बोले-'वत्स ! तुम कौन हो, जो देखकर शत्रुघ्नने मन-ही-मन विचार किया कि रणभूमिमें हमारे योद्धाओंको गिरा रहे हो? तुम्हारे संप पु० १८
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. अर्चयस हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पद्मपुराण
माता-पिता कौन हैं? तुम बड़े सौभाग्यशाली हो; क्योंकि बाणोंद्वारा ही प्रहार करने लगे। किसीने प्रास, किसीने इस युद्धमें तुमने विजय पायी है। महाबली वीर ! कुन्त और किसीने फरसोंसे ही काम लिया। सारांश यह तुम्हारा लोक-प्रसिद्ध नाम क्या है? मैं जानना चाहता कि राजालोग सब ओरसे लवपर प्रहार करने लगे। हूँ।' शत्रुघ्नके इस प्रकार पूछनेपर वीर बालक लवने उत्तर वीरशिरोमणि लवने देखा कि ये क्षत्रिय अधर्मपूर्वक युद्ध दिया-'वीरवर ! मेरे नामसे, पितासे, कुलसे तथा करनेको तैयार हैं तो उन्होंने दस-दस बाणोसे सबको अवस्थासे तुम्हें क्या काम है? यदि तुम स्वयं बलवान् घायल कर दिया। लवकी वाणवर्षासे आहत होकर हो तो समरमें मेरे साथ युद्ध करो, यदि शक्ति हो तो कितने ही क्रोधी राजा रणभूमिसे पलायन कर गये और बलपूर्वक अपना घोड़ा छुड़ा ले जाओ। ऐसा कहकर कितने ही युद्धक्षेत्रमें ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े। उस उदट वीरने अनेकों बाणोंका सन्धान करके शत्रुघ्रकी इतनेहीमें राजा शत्रुघ्रकी मूर्छा दूर हुई और वे महावीर छाती, मस्तक और भुजाओंपर प्रहार किया। तब राजा लवसे बलपूर्वक युद्ध करनेके लिये आगे बढ़े तथा शत्रुघ्रने भी अत्यन्त कोपमें भरकर अपना धनुष चढ़ाया सामने आकर बोले-'वीर ! तुम धन्य हो ! देखने में ही
और बालकको त्रास-सा देते हुए मेघके समान गम्भीर बालक-जैसे जान पड़ते हो, [वास्तवमें तुम्हारी वीरता वाणीमें टङ्कार की । बलवानोंमें श्रेष्ठ तो वे थे ही, असंख्य अद्भुत है !] अब मेरा पराक्रम देखो; मैं अभी तुम्हें बाणोंकी वर्षा करने लगे। परन्तु बालक लवने उनके युद्धमें गिराता हूँ। ऐसा कहकर शत्रुघ्नने एक बाण सभी सायकोंको बलपूर्वक काट दिया । तत्पश्चात् लवके हाथमें लिया, जिसके द्वारा लवणासुरका वध हुआ था छोड़े हुए करोड़ों बाणोंसे वहाँकी सारी पृथ्वी आच्छादित तथा जो यमराजके मुखकी भाँति भयङ्कर था। उस तीखे हो गयी।
बाणको धनुषपर चढ़ाकर शत्रुघ्नने लवकी छातीको इतने बाणोंका प्रहार देखकर शत्रुघ्न दंग रह गये। विदीर्ण करनेका विचार किया। वह बाण धनुषसे छुटते फिर उन्होंने लवके लाखों बाणोंको काट गिराया । अपने ही दसों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ प्रज्वलित हो समस्त सायकोंको कटा देख कुशके छोटे भाई लवने उठा। उसे देखकर लवको अपने बलिष्ठ भ्राता कुशकी राजा शत्रुनके धनुषको वेगपूर्वक काट डाला। वे दूसरा याद आयो, जो वैरियोंको मार गिरानेवाले थे। वे सोचने धनुष लेकर ज्यों ही वाण छोड़नेको उद्यत होते हैं, त्यों लगे, यदि इस समय मेरे बलवान् भाई वीरवर कुश होते ही लवने तीक्ष्ण सायकोंसे उनके रथको भी खण्डित कर तो मुझे शत्रुनके अधीन न होना पड़ता तथा मुझपर यह दिया। रथ, घोड़े, सारथि और धनुषके कट जानेपर वे दारुण भय न आता। इस प्रकार विचारते हुए महात्मा दूसरे रथपर सवार हुए और बलपूर्वक लवका सामना लवको छातीमें वह महान् बाण आ लगा। जो करनेके लिये चले। उस समय शत्रुघ्नने अत्यन्त कोपमें कालाग्निके समान भयङ्कर था। उसकी चोट खाकर वीर भरकर लवके ऊपर दस तीखे बाण छोड़े, जो प्राणोंका लव मूर्च्छित हो गये। संहार करनेवाले थे। परन्तु लवने तीखी गाँठवाले बलवान् वैरियोंको विदीर्ण करनेवाले लवको बाणोंसे उनके टुकड़े-टुकड़े करके एक अर्धचन्द्राकार मूर्छित देख महावली शत्रुघ्ने युद्धमें विजय प्राप्त की। बाणसे शत्रुघ्रकी छाती प्रहार किया, उससे उनकी वे शिरस्त्राण आदिसे अलङ्कत बालक लवको, जो छातीमें गहरी चोट पहुँची और उन्हें बड़ी भयङ्कर पीड़ा स्वरूपसे श्रीरामचन्द्रजीकी समानता करता था, रथपर हुई। वे हाथमें धनुष लिये ही रथको बैठकमें गिर पड़े। बिठाकर वहाँसे जानेका विचार करने लगे। अपने
शत्रुघ्रको मूर्च्छित देख सुरथ आदि राजा युद्धमें मित्रको शत्रुके चंगुलमे फँसा देख आश्रमवासी विजय प्राप्तिके लिये उद्यत हो लवपर टूट पड़े। किसीने ब्राह्मण-बालकोंको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने तुरंत जाकर क्षुरप्र और मुशल चलाये तो कोई अत्यन्त भयानक लवकी माता सीतासे सब समाचार कह सुनाया-'मा
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पातालखण्ड ] • शत्रुनके बाणसे लवकी मूळ, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवको विजय .
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जानकी ! तुम्हारे पुत्र लवने किसी बड़े राजा महाराजाके अत्यन्त व्याकुल हैं तथा उनके नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं। घोड़ेको जबरदस्ती पकड़ लिया है। राजाके पास सेना भी तब वे अपनी जननीसे बोले-'माँ ! मुझ पुत्रके रहते है तथा उनका मान-सम्मान भी बहुत है। घोड़ा पकड़नेके हुए तुमपर कैसा दुःख आ पड़ा? शत्रुओंका मर्दन बाद लवका राजाकी सेनाके साथ भयङ्कर युद्ध हुआ। करनेवाला मेरा भाई लव कहाँ है? वह बलवान् वीर किन्तु सीता मैया ! तुम्हारे वीर पुत्रने सब योद्धाओंको दिखायी क्यों नहीं देता? कहाँ घूमने चला गया? मेरी मार गिराया। उसके बाद वे लोग फिर लड़ने आये। माँ ! तुम रोती क्यों हो? बताओ न, लव कहाँ है?' परन्तु उसमें भी तुम्हारे सुन्दर पुत्रकी ही जीत हुई । उसने जानकीने कहा-बेटा ! किसी राजाने लवको राजाको बेहोश कर दिया और युद्धमें विजय पायी। पकड़ लिया है। वह अपने घोड़ेकी रक्षाके लिये यहाँ तदनन्तर, कुछ ही देरके बाद उस भयङ्कर राजाको मू» आया था। सुना है, मेरे बोने उसके यज्ञसम्बन्धी दूर हो गयी और उसने क्रोधमें भरकर तुम्हारे पुत्रको अश्वको पकड़कर बाँध लिया था। लव बलवान् है, उसे रणभूमिमें मूर्च्छित करके गिरा दिया है।
अकेले ही अनेकों शत्रुओंसे लड़ना पड़ा है। फिर भी सीता बोलीं-हाय ! राजा बड़ा निर्दयी है, वह उसने बहुत-से अश्व-रक्षकोंको परास्त किया है। परन्तु बालकके साथ क्यों युद्ध करता है ? अधर्मके कारण अन्तमें उस राजाने लवको युद्धमें मूर्छित करके बाँध उसकी बुद्धि दूषित हो गयी है, तभी उसने मेरे बच्चेको लिया है, यह बात इन बालकोंने बतायी है, जो उसके धराशायी किया है। बालको ! बताओ, उस राजाने मेरे साथ ही गये थे। यही सुनकर मुझे दुःख हुआ है। पुत्रको कैसे युद्धमें गिराया है तथा अब वह कहाँ जायगा? वत्स! तुम समयपर आ गये। जाओ और उस श्रेष्ठ
पतिव्रता जानकी बालकोसे इस प्रकारकी बाते कह राजाके हाथसे लवको बलपूर्वक छुड़ा लाओ। रही थीं, इतनेहीमें वीरवर कुश भी महर्षियोंके साथ कुश बोले-माँ ! तुम जान लो कि लव अब आश्रमपर आ पहुँचे। उन्होंने देखा, माता जानकी उस राजाके बन्धनसे मुक्त हो गया। मैं अभी जाकर
राजाको सेना और सवारियोंसहित अपने बाणोंका निशाना बनाता हूँ। यदि कोई अमर देवता या साक्षात् रुद्र आ गये हों तो भी अपने तीखे बाणोंकी मारसे उन्हें व्यथित करके मैं लवको छुड़ा लैंगा। माता! तम रोओ मत; वीर पुरुषोंका संग्राममें मूर्छित होना उनके यशका कारण होता है। युद्धसे भागना ही उनके लिये कलङ्ककी बात है। ___ शेषजी कहते हैं-मुने ! कुशके इस वचनसे शुभलक्षणा सीताको बड़ी प्रसत्रता हुई। उन्होंने पुत्रको सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र दिये और विजयके लिये आशीर्वाद देकर कहा-'बेटा ! युद्ध-क्षेत्रमें जाकर मूर्छित हुए लवको बन्धनसे छुड़ाओ।' माताकी यह आज्ञा पाकर कुशने कवच और कुण्डल धारण किये तथा जननीके चरणों में प्रणाम करके बड़े वेगसे रणकी
ओर प्रस्थान किया। वे वेगपूर्वक युद्धके लिये संग्रामभूमिमें उपस्थित हुए, वहाँ पहुँचते ही उनकी दृष्टि
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. अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
लवके ऊपर पड़ी, जिन्हें शत्रुओंने मूर्छित करके गिराया तुम अपने भाई लवके ही समान जान पड़ते हो। तुम्हारा था। [वे रथपर बँधे पड़े थे और उनकी मूर्छा दूर हो बल भी महान् है । बताओ तुम्हारा नाम क्या है ? तुम्हारी चुकी थी] अपने महाबली प्राता कुशको आया देख माता कहाँ है ? और पिता कौन हैं?' लव युद्धभूमिमें चमक उठे; मानो वायुका सहयोग पाकर कुशने कहा-राजन् ! पातिव्रत्य धर्मका पालन अग्नि प्रज्वलित हो उठी हो । वे रथसे अपनेको छुड़ाकर करनेवाली केवल माता सीताने हमें जन्म दिया है। हम युद्धके लिये निकल पड़े। फिर तो कुशने रणभूमिमें खड़े दोनों भाई महर्षि वाल्मीकिके चरणोंका पूजन करते हुए हुए समस्त वीरोंको पूर्व दिशाकी ओरसे मारना आरम्भ इस वनमें रहते हैं और माताकी सेवा किया करते हैं। किया और लवने कोपमें भरकर सबको पश्चिम ओरसे हम दोनोंने सब प्रकारकी विद्याओंमें प्रवीणता प्राप्त की पीटना शुरू किया। एक ओर कुशके बाणोंसे व्यथित है। मेरा नाम कुश है और इसका नाम लव । अब तुम
और दूसरी ओर लवके सायकोंसे पीड़ित हो सेनाके अपना परिचय दो, कौन हो? युद्धकी श्लाघा रखनेवाले समस्त योद्धा उत्ताल तरङ्गोंसे युक्त समुद्रकी भंवरके वीर जान पड़ते हो। यह सुन्दर अश्व तुमने किसलिये समान क्षुब्ध हो गये। सारी सेना इधर-उधर भाग चलो। छोड़ रखा है? भूपाल ! यदि वास्तवमें वीर हो तो मेरे
साथ युद्ध करो। मैं अभी इस युद्धके मुहानेपर तुम्हारा वध कर डालूँगा।
शत्रुघको जब यह मालूम हुआ कि यह श्रीरामचन्द्रजीके वीर्यसे उत्पन्न सौताका पुत्र है, तो उनके चित्तमें बड़ा विस्मय हुआ [किन्तु उस बालकने उन्हें युद्धके लिये ललकारा था; इसलिये] उन्होंने क्रोधमें भरकर धनुष उठा लिया। उन्हें धनुष लेते देख कुशको भी क्रोध हो आया और उसने अपने सुदृढ़ एवं उत्तम धनुषको खींचा। फिर तो कुश और शत्रुनके धनुषसे लाखों बाण छूटने लगे। उनसे वहाँका सारा प्रदेश व्याप्त हो गया। यह एक अद्भुत बात थी। उस समय उट वोर कुशने शत्रुघ्नपर नारायणास्त्रका प्रयोग किया; किन्तु वह अस्त्र उन्हें पीड़ा देनेमें समर्थ न हो सका। यह देख कुशके क्रोधकी सीमा न रही। वे महान् बल और
पराक्रमसे सम्पन्न राजा शत्रुघ्रसे बोले-'राजन् ! मैं
Pint-. जानता हूँ, तुम संग्राममें जीतनेवाले महान् वीर हो; सबके ऊपर आतङ्क छा रहा था। कोई भी बलवान् क्योंकि मेरे इस भयङ्कर अस्त्र-नारायणास्त्रने भी तुम्हें रणभूमिमें कहीं भी खड़ा होकर युद्ध करना नहीं तनिक बाधा नहीं पहुँचायी; तथापि आज इसी समय मैं चाहता था।
अपने तीन बाणोंसे तुम्हें गिरा दैगा। यदि ऐसा न करूँ - इसी समय शत्रुओंको ताप देनेवाले राजा शत्रुघ्न तो मेरी प्रतिज्ञा सुनो, जो करोड़ों पुण्योंसे भी दुर्लभ लवके समान ही प्रतीत होनेवाले वीरवर कुशसे युद्ध मनुष्य-शरीरको पाकर मोहवश उसका आदर नहीं करता करनेके लिये आगे बढ़े। समीप पहुँचकर उन्होंने [भगवद्भजन आदिके द्वारा उसको सफल नहीं बनाता] पूछा-'महावीर ! तुम कौन हो? आकार-प्रकारसे तो उस पुरुषको लगनेवाला पातक मुझे भी लगे। अच्छा,
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पातालखण्ड ] • शत्रुनके बाणसे लवकी मूर्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय •
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अब तुम सावधान हो जाओ ! मैं तत्काल ही तुम्हें किया त्यों ही वह महाबाण तुरंत उनको छातीमें आ पृथ्वीपर गिराता हूँ।' ऐसा कहकर कुशने अपने धनुषपर लगा। सुरथ मूर्छित होकर रथपर गिर पड़े। यह देख एक बाण चढ़ाया, जो कालाग्निके समान भयङ्कर था। सारथि उन्हें रणभूमिसे बाहर ले गया। उन्होंने शत्रुके अत्यन्त कठोर एवं विशाल वक्षःस्थलको सुरथके गिर जानेपर कुश विजयी हुए—यह देख लक्ष्य करके छोड़ दिया। कुशको उस बाणका सन्धान पवनकुमार हनुमानजीने सहसा एक विशाल शालका करते देख शत्रुघ्र कोपमें भर गये तथा श्रीरामचन्द्रजीका वृक्ष उखाड़ लिया । महान् बलवान् तो वे थे ही, कुशकी स्मरण करके उन्होंने तुरंत ही उसे काट डाला। बाणके छातीको लक्ष्य बनाकर उनसे युद्ध करनेके लिये गये। कटनेसे कुशका क्रोध और भी भड़क उठा तथा उन्होंने निकट जाकर उन्होंने कुशकी छातीपर वह शालवृक्ष दे धनुषपर दूसरा बाण चढ़ाया। उस बाणके द्वारा वे मारा । उसकी चोट खाकर वीर कुशने संहारास्त्र उठाया। शत्रुधको छाती छेद डालनेका विचार कर हो रहे थे कि उनका छोड़ा हुआ संहारास्त्र दुर्जय (अमोघ) था। उसे शत्रुघ्नने उसको भी काट गिराया। तब तो कुशको और देखकर हनुमानजी मन-ही-मन भक्तोंका विघ्न नष्ट भी क्रोध हुआ। अब उन्होंने अपनी माताके चरणोंका करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान करने लगे। इतनेहीमें स्मरण करके धनुषपर तीसरा उत्तम बाण रखा। शत्रुनने उनकी छातीपर उस अस्त्रकी करारी चोट पड़ी। वह बड़ी उसको भी शीघ्र ही काट डालनेके विचारसे बाण हाथमें व्यथा पहुँचानेवाला अस्त्र था। उसके लगते ही लिया; किन्तु उसे छोड़नेके पहले ही वे कुशके बाणसे हनुमान्जीको मूर्छ आ गयी। तत्पश्चात् उस रणक्षेत्रमें घायल होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। शत्रुघ्नके गिरनेपर सेनामें कुशके चलाये हुए हजारों बाणोंकी मार खाकर सारी बड़ा भारी हाहाकार मचा। उस समय अपनी भुजाओंके सेनाके पाँव उखड़ गये। समूची चतुरङ्गिणी सेना बलपर गर्व रखनेवाले वीरवर कुशकी विजय हुई। भाग चली।
शेषजी कहते हैं-मुने ! राजाओंमें श्रेष्ठ सुरथने उस समय वानरराज सुग्रीव उस विशाल वाहिनीके जब शत्रुघ्रको गिरा देखा तो वे अत्यन्त अद्भुत मणिमय संरक्षक हुए। वे अनेकों वृक्ष उखाड़कर उद्धट वीर रथपर बैठकर युद्धके लिये गये। वे महान् वीरोंके कुशकी ओर दौड़े। परन्तु कुशने हँसते-हँसते खेलमे ही शिरोमणि थे। कुशके पास पहुँचकर उन्होंने अनेकों बाण वे सारे वृक्ष काट गिराये। तब सुग्रीवने एक भयंकर छोड़े और समरभूमिमें कुशको व्यथित कर दिया। तब पर्वत उठाकर कुशके मस्तकको उसका निशाना बनाया। कुशने भी दस वाण मारकर सुरथको रथहीन कर दिया उस पर्वतको आते देख कुशने शीघ्र ही अनेकों बाणोंका
और प्रत्यञ्चा चढ़ाये हुए उनके सुदृढ़ धनुषको भी प्रहार करके उसे चूर्ण कर डाला। वह पर्वत महारुद्रके वेगपूर्वक काट डाला ! जब एक किसी दिव्य अस्त्रका शरीरमें लगाने योग्य भस्म-सा बन गया । बालकका यह प्रयोग करता, तो दूसरा उसके बदलेमें संहारास्त्रका महान् पराक्रम देखकर सुग्रीवको बड़ा अमर्ष हुआ और उपयोग करता था और जब दूसरा किसी अस्त्रको फेंकता उन्होंने कुशको मारनेके लिये रोषपूर्वक एक वृक्ष हाथमें तो पहला भी वैसा ही अस्त्र चलाकर तुरंत उसका बदला लिया। इतनेहीमें लवके बड़े भाई वीरवर कुशने चुकाता था। इस प्रकार उन दोनोंमें घोर घमासान युद्ध वारुणास्त्रका प्रयोग किया और सुग्रीवको वरुण-पाशसे हुआ, जो वीरोंके रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। कुशने दृढतापूर्वक बाँध लिया। बलशाली कुशके द्वारा कोमल सोचा, अब मुझे क्या करना चाहिये? कर्तव्यका निश्चय पाशोंसे बाँधे जानेपर सुग्रीव रणभूमिमें गिर पड़े। करके उन्होंने एक तीक्ष्ण एवं भयङ्कर सायक हाथमें सुग्रीवको गिरा देख सभी योद्धा इधर-उधर भाग गये। लिया। छूटते ही वह कालानिके समान प्रज्वलित हो महावीशिरोमणि कुशने विजय पायी । इसी समय लवने उठा। उसे आते देख सुरथने ज्यों ही काटनेका विचार भी पुष्कल, अङ्गद, प्रतापाय, वीरमणि तथा अन्य
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
लवने कहा- भैया ! आपकी कृपासे मैं युद्धरूपी समुद्रके पार हुआ। अब हमलोग इस रणकी स्मृतिके लिये कोई सुन्दर चिह्न तलाश करने चलें। ऐसा कहकर लव अपने भाई कुशके साथ पहले राजा शत्रुघ्रके निकट गये। वहाँ कुशने उनकी सुवर्णमण्डित मनोहर मुकुटमणि ले ली। फिर वीरवर लवने पुष्कलका सुन्दर किरीट उतार लिया। इसके बाद दोनों भाइयोंने उनके बहुमूल्य भुजबंद तथा हथियारोंको भी हथिया लिया। तदनन्तर हनुमान् और सुग्रीवके पास जाकर उन दोनोंको बाँधा। फिर लवने अपने भाईसे कहा- 'भैया! मैं इन दोनोंको अपने आश्रममें ले चलूँगा। वहाँ मुनियोंके बालक इनसे खेलेंगे और मेरा भी मनोरञ्जन होगा।' इस तरहकी बातें करते हुए उन दोनों महाबली वानरोंको पकड़कर वे आश्रमकी ओर चले और माताकी कुटीपर जा पहुँचे। अपने दोनों मनोहर बालकोंको आया देख माता जानकीको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बड़े स्नेहके साथ उन्हें छातीसे लगाया। किन्तु जब उनके लाये हुए दोनों वानरोंपर उनकी दृष्टि पड़ी
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राजाओंको जीतकर रणमें विजय पायी। फिर दोनों भाई तो उन्होंने हनुमान् और वानरराज सुग्रीवको सहसा बड़े हर्षमें भरकर एक-दूसरेसे मिले।
पहचान लिया। अब वे उन्हें छोड़ देनेकी आज्ञा देती हुई यह श्रेष्ठ वचन बोलीं- 'पुत्रो ! ये दोनों वानर बड़े वीर
और महाबलवान् हैं; इन्हें छोड़ दो। ये वीर हनुमानजी हैं, जिन्होंने रावणकी पुरी लङ्काको भस्म किया था तथा ये भी वानर और भालुओंके राजा सुग्रीव हैं। इन दोनोंको तुमने किसलिये पकड़ा है? अथवा क्यों इनके साथ अनादरपूर्ण बर्ताव किया है ?"
पुत्रोंने कहा- 'माँ एक राम नामसे प्रसिद्ध बलवान् राजा हैं, जो महाराज दशरथके पुत्र हैं। उन्होंने एक सुन्दर घोड़ा छोड़ रखा है, जिसके ललाटपर सोनेका पत्र बँधा है। उसमें यह लिखा है कि 'जो सच्चे क्षत्रिय हों, वे इस घोड़ेको पकड़ें अन्यथा मेरे सामने मस्तक झुकावें।' उस राजाकी ढिठाई देखकर मैंने घोड़े को पकड़ लिया। सारी सेनाको हमलोगोंने युद्धमें मार गिराया है। यह राजा शत्रुघ्नका मुकुट है तथा यह दूसरे वीर महात्मा पुष्कलका किरीट है।
सीताने कहा- पुत्रो ! तुम दोनोंने बड़ा अन्याय किया। श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ महान् अश्व तुमने
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पातालखण्ड]
• शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना •
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पकड़ा, अनेकों वीरोंको मार गिराया और इन कपीश्वरोको लौटाये देते है तथा इन वानरोंको भी छोड़ देंगे। तुमने भी बाँध लिया-यह सब अच्छा नहीं हुआ। वीरो! जो कुछ कहा है, सबका हम पालन करेंगे।' तुम नहीं जानते, वह तुम्हारे पिताका ही घोड़ा है [श्रीराम मातासे ऐसा कहकर वे दोनों वीर पुनः रणभूमिमें तुम्हारे पिता हैं], उन्होंने अश्वमेध-यज्ञके लिये उस गये और वहाँ उन दोनों कपीश्वरों तथा उस अश्वमेधअश्वको छोड़ रखा था। इन दोनों वानर वीरोको छोड़ दो योग्य अश्वको भी छोड़ आये। अपने पुत्रोंके द्वारा सेनाका तथा उस श्रेष्ठ अश्वको भी खोल दो।
मारा जाना सुनकर सीतादेवीने मन-ही-मन श्रीरामचन्द्रजीमाताकी बात सुनकर उन बलवान् बालकोने का ध्यान किया और सबके साक्षी भगवान् सूर्यकी ओर कहा-'माँ ! हमलोगोंने क्षत्रिय-धर्मके अनुसार उस देखा। वे कहने लगी- 'यदि मैं मन, वाणी तथा बलवान् राजाको परास्त किया है। क्षात्रधर्मके अनुसार क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीका ही भजन करती हूँ, युद्ध करनेवालोको अन्यायका भागी नहीं होना पड़ता। दूसरे किसीको कभी मनमें भी नहीं लाती तो ये राजा आजके पहले जब हमलोग पढ़ रहे थे, उस समय महर्षि शत्रुघ्न जीवित हो जायें तथा इनकी वह विशाल सेना भी, वाल्मीकिजीने भी हमसे ऐसा ही कहा था-'क्षात्र- जो मेरे पुत्रोंके द्वारा बलपूर्वक नष्ट की गयी है, मेरे धर्मके अनुसार पुत्र पितासे, भाई भाईसे और शिष्य सत्यके प्रभावसे जी उठे।' पतिव्रता जानकीने ज्यों ही गुरुसे भी युद्ध कर सकता है, इससे पाप नहीं होता।' यह वचन मुँहसे निकाला, त्यों ही वह सारी सेना, जो तुम्हारी आज्ञासे हमलोग अभी उस उत्तम अश्वको संग्राम-भूमिमें नष्ट हुई थी, जीवित हो गयी। .
शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री समतिका
उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
शेषजी कहते हैं-मुने ! रणभूमिमें पड़े हुए वीर निवाससे शोभा पा रहा था। शत्रुघ्न मणिमय रथपर बैठे शत्रुघ्नने क्षणभरमें मूर्छा त्याग दी तथा अन्यान्य बलवान् महान् कोदण्ड धारण किये हुए जा रहे थे। उनके साथ वीर भी, जो मूछमें पड़े थे, जीवित हो गये। शत्रुधने भरतकुमार पुष्कल और राजा सुरथ भी थे। चलतेदेखा अश्वमेधका श्रेष्ठ अश्व सामने खड़ा है, मेरे चलते क्रमशः वे अपनी नगरी अयोध्या में पहुँचे, जो मस्तकका मुकुट गायब है तथा मरी हुई सेना भी जी उठी सूर्यवंशी क्षत्रियोंसे सुशोभित थी। वहाँ फहराती हुयी है। यह सब देखकर उनके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ और अनेकों ऊंची-ऊंची पताकाएँ उस नगरकी शोभा बढ़ा वे मूछासे जगे हुए बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सुमतिसे बोले- रही थीं। दुर्गके कारण उसकी सुषमा और भी बढ़ गयी 'मन्त्रिवर ! इस बालकने कृपा करके यज्ञ पूर्ण करनेके थी। श्रीरामचन्द्रजौने जब सुना कि महात्मा शत्रुघ्न और लिये यह घोड़ा दे दिया है। अब हमलोग जल्दी ही वौर पुष्कल के साथ अश्व आ पहुंचा तो उन्हें बड़ा हर्ष श्रीरघुनाथजीके पास चलें। वे घोड़ेके आनेकी प्रतीक्षा हुआ और बलवानोंमें श्रेष्ठ भाई लक्ष्मणको उन्होंने करते होंगे।' यों कहकर वे अपने रथपर जा बैठे और शत्रुघ्नके पास भेजा। लक्ष्मण सेनाके साथ जाकर घोड़ेको साथ लेकर वेगपूर्वक उस आश्रमसे दूर चले प्रवाससे आये हुए भाई शत्रुघ्नसे बड़ी प्रसन्नताके साथ गये। भेरी और शङ्खकी आवाज बंद थी। उनके मिले। शत्रुघ्रका शरीर अनेको घावोंसे सुशोभित था। पीछे-पीछे विशाल चतुरङ्गिणी सेना चली जा रही थी। उन्होंने कुशल पूछी और तरह-तरहकी बातें की। उनसे तरङ्ग-मालाओसे सुशोभित गङ्गा नदीको पार करके मिलकर शत्रुधको बड़ी प्रसन्नता हुई। महामना लक्ष्मणने उन्होंने अपने राज्य में प्रवेश किया, जो आत्मीयजनोंके भाई शत्रुघ्नके साथ अपने रथपर बैठकर विशाल
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. अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सेनासहित नगरमें प्रवेश किया; जहाँ तीनों लोकोंको राजाओंको श्रीरघुनाथजीने अपने हदयसे लगाया। सुमति पवित्र करनेवाली पुण्यसलिला सरयू श्रीरघुनाथजीकी भी भक्तोपर अनुग्रह करनेवाले श्रीरघुनाथजीका गाद चरण-रजसे पवित्र होकर शरत्कालीन चन्द्रमाके समान आलिङ्गन करके प्रसन्नतापूर्वक उनके सामने खड़े हो स्वच्छ जलसे शोभा पा रही हैं। श्रीरघुनाथजी शत्रुघ्नको गये। तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी समीप आये हुए पुष्कलके साथ आते देख अपने आनन्दोल्लासको रोक अपने मन्त्रीको ओर देख अत्यन्त हर्षमें भरकर बोलेन सके । वे अपने अश्वरक्षक बन्धुसे मिलनेके लिये ज्यो 'मन्त्रिवर ! बताओ, ये कौन-कौन-से राजा हैं ? तथा ये ही खड़े हुए त्यों ही भ्रातृभक्त शत्रुघ्न उनके चरणोमें पड़ सब लोग यहाँ कैसे पधारे हैं? अपना अश्व कहाँ-कहाँ
गया, किसने किसने उसे पकड़ा तथा मेरे महान् बलशाली बन्धुने किस प्रकार उसको छुड़ाया?'
सुमतिने कहा-भगवन् ! आप सर्वज्ञ है, भला आपके सामने आज मैं इन सब बातोंका वर्णन कैसे करूँ। आप सबके द्रष्टा है, सब कुछ जानते हैं, तो भी लौकिक रौतिका आश्रय लेकर मुझसे पूछ रहे हैं। तथापि मैं सदाकी भाँति आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके कहता हूँ, सुनिये- 'स्वामिन् ! आप समस्त राजाओंके शिरोमणि हैं। आपकी कृपासे आपके अश्वने, जो भालपत्रके कारण बड़ी शोभा पा रहा था, इस पृथ्वीपर सर्वत्र भ्रमण किया है। प्रायः कोई राजा ऐसा नहीं निकला, जिसने अपने मान और बलके घमंडमें आकर अश्वको पकड़ा हो । सबने अपना-अपना राज्य समर्पण करके आपके चरणोंमें मस्तक झुकाया। भला, विजयको अभिलाषा रखनेवाला कौन ऐसा राजा होगा, जो
राक्षसराज रावणके प्राण-हन्ता श्रीरघुनाथजीके श्रेष्ठ गये। घावके चिह्नोंसे सुशोभित अपने विनयशील अश्वको पकड़ सके? प्रभो ! आपका मनोहर अश्व भाईको पैरोंपर पड़ा देख श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रेमपूर्वक सर्वत्र घूमता हुआ अहिच्छत्रा नगरीमें पहुंचा। वहाँके उठाकर भुजाओंमें कस लिया और उनके मस्तकपर राजा सुमदने जब सुना कि श्रीरामचन्द्रजीका अश्व आया हर्षके आँसू गिराते हुए परमानन्दमें निमग्न हो गये। उस है, तो उन्होंने सेना और पुत्रोंके साथ आकर अपना सारा समय उन्हें जितनी प्रसन्नता हुई, वह वाणीसे परे है- अकण्टक राज्य आपकी सेवामें समर्पित कर दिया। ये उसका वर्णन नहीं हो सकता। तत्पश्चात् पुष्कलने हैं राजा सुमद, जो बड़े-बड़े राजा-प्रभुओंके सेव्य विनयसे विह्वल होकर भगवान्के चरणों में प्रणाम किया। आपके चरणोंमें प्रणाम करते हैं। इनके हृदयमें बहुत उन्हें अपने चरणोंमें पड़ा देख श्रीरघुनाथजीने गोदमें उठा दिनोंसे आपके दर्शनकी अभिलाषा थी। आज अपनी लिया और कसकर छातीसे लगाया। इसी प्रकार कृपादृष्टिसे इन्हें अनुगृहीत कीजिये। अहिच्छत्रा नगरीसे हनुमान्, सुग्रीव, अङ्गद, लक्ष्मीनिधि, प्रतापाग्य, सुबाहु, आगे बढ़नेपर वह अश्व राजा सुबाहुके नगरमें गया, जो सुमद, विमल, नीलरत्न, सत्यवान, वीरमणि, श्रीरामभक्त सब प्रकारके बलसे सम्पन्न हैं। वहाँ राजकुमार दमनने सुरथ तथा अन्य बड़भागी स्नेहियों और चरणोंमें पड़े हुए उस श्रेष्ठ अश्वको पकड़ लिया। फिर तो युद्ध छिड़ा और
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पातालखण्ड ]
• वाल्मीकिजीके द्वारा सीताकी शुद्धताका परिचय .
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पुष्कलने सुबाहु-पुत्रको मूर्च्छित करके विजय प्राप्त की। उसको ध्यान देकर सुनिये। वहाँ एक सोलह वर्षका तब महाराज सुबाहु भी क्रोधमें भरकर रणभूमिमें आये बालक आया, जो रूप-रंगमें हू-बहू आपहीके समान
और पवनकुमार हनुमान्जोसे बलपूर्वक युद्ध करने लगे। था। वह बलवानोंमें श्रेष्ठ था। उसने भालपत्रसे चिह्नित उनका ज्ञान शापसे विलुप्त हो गया था। हनुमानजीके अश्वको देखा और उसे पकड़ लिया। वहाँ सेनापति चरण-प्रहारसे उनका शाप दूर हुआ और वे अपने खोये कालजित्ने उसके साथ घोर युद्ध किया। किन्तु उस वीर हुए ज्ञानको पाकर अपना सब कुछ आपकी सेवामें बालकने अपनी तीखी तलवारसे सेनापतिका काम अर्पण करके अश्वके रक्षक बन गये। ये ऊँचे डौल- तमाम कर दिया। फिर उस वीरशिरोमणिने पुष्कल आदि डौलवाले राजा सुबाहु हैं, जो आपको नमस्कार करते हैं। अनेकों बलवानोंको युद्धमें मार गिराया और शत्रुघ्नको ये युद्धकी कलामें बड़े निपुण है। आप अपनी दया- भी मूर्च्छित किया। तब राजा शत्रुघ्नने अपने हृदयमें दृष्टिसे देखकर इनके ऊपर स्नेहकी वर्षा कीजिये। महान् दुःखका अनुभव करके क्रोध किया और तदनन्तर, अपना यज्ञसम्बन्धी अश्व देवपुरमें गया, जो बलवानोंमें श्रेष्ठ उस वीरको मूर्छित कर दिया। शत्रुघ्नके भगवान् शिवका निवासस्थान होनेके कारण अत्यन्त द्वारा ज्यों ही वह मूर्छित हुआ त्यों ही उसीके आकारका शोभा पा रहा था। वहाँका हाल तो आप जानते ही हैं, एक दूसरा बालक वहाँ आ पहुंचा। फिर तो उसने और क्योंकि स्वयं आपने पदार्पण किया था। तत्पश्चात् इसने भी एक-दूसरेका सहारा पाकर आपकी सारी विद्युन्माली दैत्यका वध किया गया। उसके बाद राजा सेनाका संहार कर डाला । मू में पड़े हुए सभी वोरोके सत्यवान् हमलोगोंसे मिले। महामते ! वहाँसे आगे अस्त्र और आभूषण उतार लिये। फिर सुग्रीव और जानेपर कुण्डलनगरमें राजा सुरथके साथ जो युद्ध हुआ, हनुमान्-इन दो वानरोंको उन्होंने पकड़कर बांधा और उसका हाल भी आपको मालूम ही है। कुण्डलनगरसे इन्हें वे अपने आश्रमपर ले गये। पुनः कृपा करके छूटनेपर अपना घोड़ा सब ओर बेखटके विचरता रहा। उन्होंने स्वयं ही यह यज्ञका महान् अश्व लौटा दिया और किसीने भी अपने पराक्रम और बलके घमण्डमें आकर मरी हुई समस्त सेनाको जीवन-दान दिया। तत्पश्चात् उसे पकड़नेका नाम नहीं लिया। नरश्रेष्ठ ! तदनन्तर, घोड़ा लेकर हमलोग आपके समीप आ गये। इतनी ही लौटते समय जब आपका मनोरम अश्व महर्षि वाल्मीकिके बातें मुझे ज्ञात हैं, जिन्हें मैंने आपके सामने प्रकट रमणीय आश्रमपर पहुंचा, तो वहाँ जो कौतुक हुआ, कर दिया।
वाल्मीकिजीके द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको
जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
शेषजी कहते हैं-मुने ! सुमतिने जो वाल्मीकि किसलिये रहते हैं ? सुननेमें आया है, वे धनुर्विद्यामें बड़े मुनिके आश्रमपर रहनेवाले दो बालकोंकी चर्चा की, उसे प्रवीण हैं। अमात्यके मुखसे उनका वर्णन सुनकर मुझे सुनकर श्रीरामचन्द्रजी समझ गये वे दोनों मेरे ही पुत्र हैं, बड़ा आश्चर्य हो रहा है ! वे कैसे बालक है, जिन्होंने तो भी उन्होंने अपने यज्ञमें पधारे हुए महर्षि वाल्मीकिसे खेल-खेलमें ही शत्रुघ्नको भी मूर्छित कर दिया और पूछा-मुनिवर ! आपके आश्रमपर मेरे समान रूप हनुमानजीको भी बाँध लिया था? महर्षे ! कृपा करके धारण करनेवाले दो महाबली बालक कौन हैं? वहाँ उन बालकोंका सारा चरित्र सुनाइये।
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अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
वाल्मीकिने कहा - प्रभो ! आप अन्तर्यामी हैं; मनुष्योंके सम्बन्धकी हर एक बातका ज्ञान आपको क्यों न होगा ? तथापि आपके सन्तोषके लिये मैं कह रहा हूँ। जिस समय आपने जनककिशोरी सीताको बिना किसी अपराधके वनमें त्याग दिया, उस समय वह गर्भवती थी और बारम्बार विलाप करती हुई घोर वनमें भटक रही थी। परमपवित्र जनककिशोरीको दुःखसे आतुर होकर कुररीकी भाँति रोती-बिलखती देख मैं उसे अपने आश्रमपर ले गया। मुनियोंके बालकोंने उसके रहनेके लिये एक बड़ी सुन्दर पर्णशाला तैयार कर दी। उसीमें उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए। जो अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। उनमेंसे एकका नाम मैंने कुश रख दिया और दूसरेका लव वे दोनों बालक शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति वहाँ प्रतिदिन बढ़ने लगे। समय- समयपर उनके उपनयन आदि जो-जो आवश्यक संस्कार थे, उनको भी मैंने सम्पन्न किया तथा उन्हें अङ्गसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कराया। इसके सिवा आयुर्वेद, धनुर्वेद और शस्त्रविद्या आदि सभी शास्त्रोंकी उनके रहस्योंसहित शिक्षा दी। इस प्रकार सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान कराकर मैंने उनके मस्तकपर हाथ रखा। वे दोनों संगीतमें भी बड़े प्रवीण हुए। उन्हें देखकर सब लोगोंको विस्मय होने लगा। षडज, मध्यम, गान्धार आदि स्वरोंकी विद्यामें उन्होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। उनकी ऐसी योग्यता देखकर मैं प्रतिदिन उनसे परम मनोहर रामायण-काव्यका गान कराया करता हूँ। भविष्य-ज्ञानकी शक्ति होनेके कारण इस रामायणको मैंने पहलेसे बना रखा था। मृदङ्ग, पणव, यन्त्र और वीणा आदि बाजे बजाने में भी वे दोनों बालक बड़े चतुर हैं। वन-वनमें घूमकर रामायण गाते हुए वे मृग और पक्षियोंको भी मोहित कर लेते है। श्रीराम ! उन बालकोंके प्रीतका माधुर्य अद्भुत है। एक दिन उनका संगीत सुननेके लिये वरुणदेवता उन दोनों बालकोंको विभावरी पुरीमें ले गये। उनकी अवस्था, उनका रूप सभी मनोहर हैं। वे गान- विद्यारूपी समुद्रके पारगामी हैं। लोकपाल वरुणके आदेशसे उन्होंने मधुरस्वरमें
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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आपके परम सुन्दर, मृदु एवं पवित्र चरित्रका गान किया। वरुणने दूसरे दूसरे गायकों तथा अपने समस्त परिवारके साथ सुना। मित्र देवता भी उनके साथ थे। रघुनन्दन ! आपका चरित्र सुधासे भी अधिक सरस एवं स्वादिष्ट है। उसे सुनते-सुनते मित्र और वरुणकी तृप्ति नहीं हुई।
तत्पश्चात् मैं भी उत्तम वरुणलोकमें गया। वहाँ वरुणने प्रेमसे द्रवीभूत होकर मेरी पूजा की। वे उन दोनों बालकोंके गाने-बजानेकी विद्या, अवस्था और गुणोंसे बहुत प्रसन्न थे उस समय उन्होंने सीताके सम्बन्धमें [आपसे कहनेके लिये] मुझसे इस प्रकार बातचीत की— सीता पतिव्रताओंमें अग्रगण्य हैं। वे शील, रूप और अवस्था – सभी सद्गुणोंसे सम्पन्न है। उन्होंने वीर पुत्रोंको जन्म दिया है। वे बड़ी सौभाग्यशालिनी हैं; कदापि त्याग करनेके योग्य नहीं है। उनका चरित्र सदासे ही पवित्र है— इस बातके हम सभी देवता साक्षी हैं। जो लोग सीताजीके चरणोंका चिन्तन करते हैं, उन्हें तत्काल सिद्धि प्राप्त होती है। सीताके सङ्कल्पमात्रसे ही संसारकी सृष्टि, स्थिति और लय आदि कार्य होते हैं। ईश्वरीय व्यापार भी उन्हींसे सम्पन्न होते हैं। सीता ही मृत्यु और अमृत हैं। वे ही ताप देती और वे ही वर्षा करती हैं। श्रीरघुनाथजी ! आपकी जानकी ही स्वर्ग, मोक्ष, तप और दान हैं। ब्रह्मा, शिव तथा हम सभी लोकपालोंको वे ही उत्पन्न करती हैं। आप सम्पूर्ण जगत्के पिता और सीता सबकी माता हैं। आप सर्वज्ञ हैं, साक्षात् भगवान् है; अतः आप भी इस बातको जानते हैं कि सीता नित्य शुद्ध हैं। वे आपको प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हैं; इसलिये जनककिशोरी सीताको शुद्ध एवं अपनी प्रिया जानकर आप सदा उनका आदर करें। प्रभो! आपका या सीताका किसी शापके कारण पराभव नहीं हो सकतामुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिजी मेरी ये सभी बातें आप साक्षात् महाराज श्रीरामचन्द्रजीसे कहियेगा।'
इस प्रकार सीताको स्वीकार करनेके सम्बन्धमें वरुणने मुझसे अपना विचार प्रकट किया था। इसी तरह अन्य सब लोकपालोंने भी अपनी-अपनी सम्मति दी है।
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पातालखण्ड]
• वाल्मीकिजीके द्वारा सीताकी शुद्धताका परिचय .
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देवता, असुर और गन्धर्व-सबने कौतूहलवश आपके चाहिये ?' ऐसा विचार करनेसे उनके हृदयमें कभी हर्ष पुत्रोंके मुखसे रामायणका गान सुना है। सुनकर सभी होता था और कभी संकोच । वे दोनों भावोंके बीचकी प्रसन्न ही हुए हैं ! उन्होंने आपके पुत्रोंकी बड़ी प्रशंसा की स्थितिमें थे। इसी अवस्थामें सीताके आश्रमपर पहुंचे, है। उन दोनों बालकोंने अपने रूप, गान, अवस्था और जो उनके श्रमको दूर करनेवाला था। वहाँ लक्ष्मण रथसे गुणोंके द्वारा तीनों लोकोको मोह लिया है। लोकपालोंने उतरकर सीताके समीप गये और आँखोंमें आँसू भरकर आशीर्वादरूपसे जो कुछ दिया, उसे आपके पुत्रोंने 'आयें! पूजनीये !! भगवति !! कल्याणमयी ! स्वीकार किया। उन्होंने ऋषियों तथा अन्य लोकोंसे भी इत्यादि सम्बोधनोंका बारम्बार उच्चारण करते हुए उनके बढ़कर कीर्ति पायी है। पुण्यश्लोक (पवित्र यशवाले) चरणोंमें गिर पड़े। भगवती सीताने वात्सल्य-प्रेमसे पुरुषोंके शिरोमणि श्रीरघुनाथजी! आप त्रिलोकीनाथ विह्वल होकर लक्ष्मणको उठाया और इस प्रकार होकर भी इस समय गृहस्थ-धर्मकी लीला कर रहे हैं; पूछा-'सौम्य ! मुनिजनोंको ही प्रिय लगनेवाले इस अतः विद्या, शील एवं सद्गुणोंसे विभूषित अपने दोनों वनमें तुम कैसे आये? बताओ, माता कौसल्याके पुत्रोंको उनकी मातासहित ग्रहण कीजिये। सीताने हो गर्भरूपी शुक्तिसे जो मौक्तिकके समान प्रकट हुए हैं, वे आपकी मरी हुई सेनाको जिलाकर उसे प्राण-दान दिया मेरे आराध्यदेव श्रीरघुनाथजी तो कुशलसे है न? देवर ! है-इससे सब लोगोंको उनकी शद्धिका विश्वास हो उन्होंने अकीर्तिसे डरकर तुम्हें मेरे परित्यागका कार्य सौंपा गया है। [यह लोगोंकी प्रतीतिके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण था। यदि इससे भी संसारमें उनकी निर्मल कीर्तिका है] यह प्रसङ्ग पतित पुरुषोंको भी पावन बनानेवाला है। विस्तार हो सके तो मुझे संतोष ही होगा। मैं अपने प्राण मानद ! सौताको शुद्धिके विषयमें न तो आपसे कोई देकर भी पतिदेवके सुयशको स्थिर रखना चाहती हूँ। बात छिपी है, न हमलोगोंसे और न देवताओंसे ही। उन्होंने मुझे त्याग दिया है तो भी मैंने उनका थोड़ी देरके केवल साधारण लोगोंको कुछ भ्रम हो गया था, किन्तु लिये भी कभी त्याग नहीं किया है। [निरन्तर उन्हींका उपर्युक्त घटनासे वह भी अवश्य दूर हो गया। चिन्तन करती रहती हूँ] मेरे ऊपर सदा कृपा रखनेवाली
शेषजी कहते हैं-मुने ! भगवान् श्रीराम यद्यपि माता कौसल्याको तो कोई कष्ट नहीं है ? वे कुशलसे हैं सर्वज्ञ हैं, तो भी जब वाल्पीकिजीने उन्हें इस प्रकार न? भरत आदि भाई भी तो सकुशल हैं न? तथा समझाया, तो वे उनकी स्तुति और नमस्कार करके महाभागा सुमित्रा, जो मुझे अपने प्राणोंसे भी बढ़कर लक्ष्मणसे बोले-'तात ! तुम सुमित्रसहित रथपर प्रिय मानती हैं, कैसी हैं? उनकी कुशल बताओ।' बैठकर धर्मचारिणी सीताको पुत्रोसहित ले आनेके इस प्रकार सीताने जब बारम्बार सबकी कुशल लिये अभी जाओ। वहाँ मेरे तथा मुनिके इन वचनोको पूछी तो लक्ष्मणने कहा-'देवि ! महाराज कुशलसे हैं सुनाना और सीताको समझा-बुझाकर शीघ्र ही और आपकी भी कुशलता पूछ रहे हैं। माता कौसल्या, अयोध्यापुरीमें ले आना।'
सुमित्रा तथा राजभवनकी अन्य सभी देवियोंने प्रेमपूर्वक लक्ष्मणने कहा-प्रभो ! मैं अभी जाऊँगा, यदि आशीर्वाद देते हुए आपकी कुशल पूछी है। भरत और आप सब लोगोंका प्रिय संदेश सुनकर महारानी सीताजी शत्रुनने कुशल-प्रश्रके साथ ही आपके श्रीचरणोंमें यहाँ पधारेंगी तो समझूगा, मेरी यात्रा सफल हो गयी। प्रणाम कहलाया है, जिसे मैं सेवामें निवेदन करता हूँ।
श्रीरामचन्द्रजीसे ऐसा कहकर लक्ष्मण उनकी गुरुओं तथा समस्त गुरुपनियोंने भी आशीर्वाद दिया है, आज्ञासे रथपर बैठे और मुनिके एक शिष्य तथा साथ ही कुशल-मङ्गल भी पूछा है। महाराज श्रीराम सुमित्रको साथ लेकर आश्रमको गये। रास्ते में यह सोचते आपको बुला रहे हैं। हमारे स्वामीने कुछ रोते-रोते जाते थे कि 'भगवती सीताको किस प्रकार प्रसन्न करना आपके प्रति जो सन्देश दिया है, उसे सुनिये। वक्ताके
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
हृदय जो बात रहती है, वह उसकी वाणीमें निस्सन्देह उज्ज्वल हैं तथा हमारे सम्पूर्ण कर्म भी उज्ज्वल हैं। इस व्यक्त हो जाती है [श्रीरघुनाथजीने कहा है-] पृथ्वीपर जो हम दोनोंकी कौर्तिका गान करनेवाले पुरुष 'सतीशिरोमणि सीते! लोग मुझे ही सबके ईश्वरका है, वे भी उज्ज्वल रहेंगे। जो हम दोनोंके प्रति भक्ति भी ईश्वर कहते हैं; किन्तु मैं कहता हैं, जगत्में जो रखते हैं, वे संसार-सागरसे पार हो जायेंगे।' इस प्रकार कुछ हो रहा है, इसका स्वतन्त्र कारण अदृष्ट (प्रारब्ध) आपके गुणोंसे प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथजीने यह संदेश ही है। जो सबका ईश्वर है, वह भी प्रत्येक कार्यमें दिया है; अतः अब आप अपने पतिदेवके चरणअदृष्टका ही अनुसरण करता है। मेरे धनुष तोड़नेमें, कमलोंका दर्शन करनेके लिये अपने मनको उनके प्रति कैकेयीकी बुद्धि भ्रष्ट होनेमें, पिताकी मृत्युमें, मेरे वन सदय बनाइये। महारानी ! आपके दोनों कुमार हाथीपर जानेमें, वहाँ तुम्हारा हरण होनेमें, समुद्रके पार जानेमें, बैठकर आगे-आगे चलें, आप शिविकामें आरूढ़ होकर राक्षसराज रावणके मारनेमें, प्रत्येक युद्धके अवसरपर मध्यमें रहे और मैं आपके पीछे-पीछे चलें। इस तरह वानर, भालू और राक्षसोंकी सहायता मिलने में, तुम्हारी आप अपनी पुरी अयोध्यामें पधारें। वहाँ चलकर जव प्राप्तिमें, मेरी प्रतिज्ञाके पूर्ण होनेमें, पुनः अपने बन्धुओंके आप अपने प्रियतम श्रीरामसे मिलेंगी, उस समय साथ संयोग होनेमें, राज्यकी प्राप्तिमें तथा फिर मुझसे यज्ञशालामें सब ओरसे आयी हुई सम्पूर्ण राजमेरी प्रियाका वियोग होने में एकमात्र अदृष्ट ही अनिवार्य महिलाओंको, समस्त ऋषि-पत्नियोंको तथा माता कारण है। देवि ! आज वही अदृष्ट फिर हम दोनोंका कौसल्याको भी बड़ा आनन्द होगा। नाना प्रकारके संयोग करानेके लिये प्रसन्न हो रहा है। ज्ञानीलोग भी बाजे बजेंगे, मङ्गलगान होंगे तथा अन्य ऐसे ही अदृष्टका हो अनुसरण करते हैं। उस अदृष्टका भोगसे समारोहोंके द्वारा आज आपके शुभागमनका महान् ही क्षय होता है; अतः तुमने वनमें रहकर उसका भोग उत्सव मनाया जायगा। पूरा कर लिया है। सीते ! तुम्हारे प्रति जो मेरा अकृत्रिम शेषजी कहते हैं-मुने! यह सन्देश सुनकर स्रेह है, वह निरन्तर बढ़ता रहता है, आज वही स्नेह महारानी सीताने कहा-'लक्ष्मण ! मैं धर्म, अर्थ और निन्दा करनेवाले लोगोंकी उपेक्षा करके तुम्हें आदरपूर्वक कामसे शून्य हूँ। भला मेरे द्वारा महाराजका कौन-सा बुला रहा है। दोषको आशङ्का-मात्रसे भी स्रेहकी कार्य सिद्ध होगा? पाणिग्रहणके समय जो उनका निर्मलता नष्ट हो जाती है। इसलिये विद्वानोंको [दोषके मनोहर रूप मेरे हृदयमें बस गया, वह कभी अलग नहीं मार्जनद्वारा] स्नेहको शुद्ध करके ही उसका आस्वादन होता। ये दोनों कुमार उन्हींके तेजसे प्रकट हुए हैं। ये करना चाहिये। कल्याणी ! [तुम्हें वनमें भेजकर] मैंने वंशके अङ्कर और महान् वीर है। इन्होंने धनुर्विद्यामे तुम्हारे प्रति अपने स्नेहकी शुद्धि ही की है; अतः तुम्हें विशिष्ट योग्यता प्राप्त की है। इन्हें पिताके समीप ले इस विषयमें कुछ अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। जाकर यत्नपूर्वक इनका लालन-पालन करना । मैं तो [मैंने तुम्हारा त्याग किया है-ऐसा नहीं मानना अब यहीं रहकर तपस्याके द्वारा अपनी इच्छाके अनुसार चाहिये] । शिष्ट पुरुषोंके मार्गका अनुसरण करके मैंने श्रीरघुनाथजीकी आराधना करूंगी। महाभाग ! तुम वहाँ निन्दा करनेवाले लोगोंकी भी रक्षा ही की है। देवि ! जाकर सभी पूज्यजनोंके चरणोंमें मेरा प्रणाम कहना हम दोनोंकी जो निन्दा की गयी है, इससे हमारी तो और सबसे कुशल बताकर मेरी ओरसे भी सबकी प्रत्येक अवस्थामें शुद्धि ही होगी; किन्तु ये मूर्खलोग जो कुशल पूछना।' महापुरुषोंके चरित्रको लेकर निन्दा करते हैं; इससे वे इसके बाद सीताने अपने दोनों बालकोंको आदेश स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे। हम दोनोंको कीर्ति उज्ज्वल है, दिया-'पुत्रो ! अब तुम अपने पिताके पास जाओ। हम दोनोंका नेह-रस उज्ज्वल है, हमलोगोंके वंश उनकी सेवा-शुश्रूषा करना। वे तुम दोनोंको अपना पद
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पातालखण्ड ]
• वाल्मीकिजीके द्वारा सीताकी शुद्धताका परिचय .
प्रदान करेंगे।' कुमार कुश और लव नहीं चाहते थे कि इच्छाके कारण यहाँसे मुनियोंको प्रिय लगनेवाले वनमें
गयी थीं। वहाँ तुमने मुनिपलियोंका पूजन किया और मुनियोंके भी दर्शन किये; अब तो तुम्हारी इच्छा पूरी हुई ! अब क्यों नहीं आती? जानकी ! स्त्री कहीं भी क्यों न जाय, पति ही उसके लिये एकमात्र गति है। वह गुणहीन होनेपर भी पत्नीके लिये गुणोंका सागर है। फिर यदि वह मनके अनुकूल हुआ तब तो उसकी मान्यताके विषयमें कहना ही क्या है। उत्तम कुलकी स्त्रियाँ जो-जो कार्य करती हैं, वह सब पतिको सन्तुष्ट करनेके लिये ही होता है। परन्तु मैं तो तुमपर पहलेसे ही विशेष सन्तुष्ट हूँ और इस समय वह सन्तोष और भी बढ़ गया है। त्याग, जप, तप, दान, व्रत, तीर्थ और दया आदि सभी साधन मेरे प्रसन्न होनेपर ही सफल होते हैं। मेरे सन्तुष्ट होनेपर सम्पूर्ण देवता सन्तुष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।' __ लक्ष्मणने कहा-भगवन् ! सीताको ले आनेके
उद्देश्यसे प्रसन्न होकर आपने जो-जो बातें कहीं है, वह हम माताके चरणोंसे अलग हों; फिर भी उनकी आज्ञा सब मैं उन्हें विनयपूर्वक सुनाऊँगा। मानकर वे लक्ष्मणके साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर भी वे ऐसा कहकर लक्ष्मणने श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें वाल्मीकिजीके ही चरणोंके निकट गये। लक्ष्मणने भी प्रणाम किया और अत्यन्त वेगशाली रथपर सवार हो वे बालकोंके साथ जाकर पहले महर्षिको ही प्रणाम किया। तुरंत सीताके आश्रमपर चल दिये। तदनन्तर फिर वाल्मीकि, लक्ष्मण तथा वे दोनों कुमार सब एक वाल्मीकिजीने श्रीरामचन्द्रजीके दोनों पुत्रोंको ओर, जो साथ मिलकर चले और श्रीरामचन्द्रजीको सभामें स्थित परम शोभायमान और अत्यन्त तेजस्वी थे, देखा तथा जान उनके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हो वहीं गये। किञ्चित् मुसकराकर कहा- 'वत्स ! तुम दोनों वीणा लक्ष्मणने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रणाम करके सीताके बजाते हुए मधुर स्वरसे श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत चरित्रका साथ जो कुछ बातचीत हुई थी, वह सब उनसे कह गान करो।' महर्षिके इस प्रकार आज्ञा देनेपर उन सुनायी। उस समय परम बुद्धिमान् लक्ष्मण हर्ष और बड़भागी बालकोंने महान् पुण्यदायक श्रीरामचरित्रका शोक-दोनों भावोंमें मन हो रहे थे।
गान किया, जो सुन्दर वाक्यों और उत्तम पदोंमें चित्रित श्रीरामचन्द्रजीने कहा-सखे ! एक बार फिर हुआ था, जिसमें धर्मकी साक्षात् विधि, पातिव्रत्यके वहाँ जाओ और महान् प्रयत्न करके सीताको शीघ्र यहाँ उपदेश, महान् धातनेह तथा उत्तम गुरुभक्तिका वर्णन ले आओ। तुम्हारा कल्याण हो । मेरी ये बातें जानकीसे हैं। जहाँ स्वामी और सेवककी नीति मूर्तिमान् दिखायी कहना-देवि ! क्या वनमें तपस्या करके तुमने मेरे देती है तथा जिसमें साक्षात् श्रीरघुनाथजीके हाथसे सिवा कोई दूसरी गति प्राप्त करनेका विचार किया है? पापाचारियोंको दण्ड मिलनेका वर्णन है। वालकोंके उस अथवा मेरे अतिरिक्त और कोई गति सुनी या देखी है जो गानसे सारा जगत् मुग्ध हो गया। स्वर्गके देवता भी मेरे बुलानेपर भी नहीं आ रही हो? तुम अपनी ही विस्मयमें पड़ गये। किनर भी वह गान सुनकर मूर्छित
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अर्चयस्त्र हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
हो गये। श्रीराम आदि सभी राजा नेत्रोंसे आनन्दके आँसू वाल्मीकिने इस रामायण नामक महान् काव्यकी रचना
किस समय की, किस कारणसे की तथा इसके भीतर किन-किन बातोंका वर्णन है ?"
बहाने लगे। वे गीतके पञ्चम स्वरका आलाप सुनकर ऐसे मोहित हुए कि हिल-डुल नहीं सकते थे: चित्रलिखित से जान पड़ते थे। I
तत्पश्चात् महर्षि वाल्मीकिने कुश और लवसे कृपापूर्वक कहा- 'वत्स ! तुमलोग नीतिके विद्वानोंमें श्रेष्ठ हो, अपने पिताको पहचानो [ये श्रीरघुनाथजी तुम्हारे पिता हैं; इनके प्रति पुत्रोचित बर्ताव करो]।' मुनिका यह वचन सुनकर दोनों बालक विनीतभावसे पिताके चरणों में लग गये। माताकी भक्तिके कारण उन दोनोंके हृदय अत्यन्त निर्मल हो गये थे। श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने दोनों बालकोंको छातीसे लगा लिया। उस समय उन्होंने ऐसा माना कि मेरा धर्म ही इन दोनों पुत्रोंके रूपमें मूर्तिमान् होकर उपस्थित हुआ है । वात्स्यायनजी ! सभामें बैठे हुए लोगोंने भी श्रीरामचन्द्र जीके पुत्रोंका मनोहर मुख देखकर जानकीजीकी पतिभक्तिको सत्य माना।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
शेषजीके मुखसे इतनी कथा सुनकर वात्स्यायनको सम्पूर्ण धर्मोसे युक्त रामायणके विषयमें कुछ सुननेकी इच्छा हुई अतएव उन्होंने पूछा - 'स्वामिन्! महर्षि
शेषजीने कहा- एक समयकी बात है, वाल्मीकिजी महान् वनके भीतर गये, जहाँ ताल, तमाल और खिले हुए पलाशके वृक्ष शोभा पा रहे थे। कोयलकी मीठी तान और भ्रमरोकी गुंजारसे गुंजते रहने के कारण वह वन्यप्रदेश सब ओरसे रमणीय जान पड़ता था। कितने ही मनोहर पक्षी वहाँ बसेरा ले रहे थे। महर्षि जहाँ खड़े थे, उसके पास ही दो सुन्दर क्रौञ्चपक्षी कामबाणसे पीड़ित हो रमण कर रहे थे। दोनोंमें परस्पर स्नेह था और दोनों एक-दूसरेके सम्पर्कमें रहकर अत्यन्त हर्षका अनुभव करते थे। इसी समय एक व्याध वहाँ आया और उस निर्दयीने उन पक्षियोंमेंसे
एकको जो बड़ा सुन्दर था, बाणसे मार गिराया। यह देख मुनिको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने सरिताका पावन जल हाथमें लेकर क्रौञ्चकी हत्या करनेवाले उस निषादको शाप दिया—ओ निषाद ! तुझे कभी भी शाश्वत शान्ति नहीं मिलेगी; क्योंकि तूने इन क्रौन पक्षियोंमेंसे एककी, जो कामसे मोहित हो रहा था,
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पातालखण्ड]
. वाल्मीकिजीके द्वारा सीनाकी शुद्धताका परिचय .
[बिना किसी अपराधके] हत्या कर डाली है।* तदनन्तर, एक दिन वाल्मीकिजी नदीके मनोहर
यह वाक्य छन्दोबद्ध श्लोकके रूपमें निकला; इसे तटपर ध्यान लगा रहे थे। उस समय उनके हृदयमें सुन्दर सुनकर मुनिके शिष्योंने प्रसन्न होकर कहा- 'स्वामिन् ! रूपधारी श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हुए। नील पद्य-दलके आपने शाप देनेके लिये जिस वाक्यका प्रयोग किया है, समान श्याम विग्रहवाले कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीका उसमें सरस्वती देवीने श्लोकका विस्तार किया है। मुनिश्रेष्ठ ! यह वाक्य अत्यन्त मनोहर श्लोक बन गया है।' उस समय ब्रह्मर्षि वाल्मीकिजीके मनमें भी बड़ी प्रसत्रता हुई। उसो अवसरपर ब्रह्माजीने आकर
दर्शन पाकर मुनिने उनके भूत, वर्तमान और भविष्य
तीनों कालके चरित्रोंका साक्षात्कार किया। फिर तो उन्हें वाल्मीकिजीसे कहा-'मुनीश्वर ! तुम धन्य हो। आज बड़ा आनन्द मिला और उन्होंने मनोहर पदों तथा नाना सरस्वती तुम्हारे मुखमें स्थित होकर श्लोकरूपमें प्रकट प्रकारके छन्दोंमें रामायणकी रचना की। उसमें अत्यन्त हुई है। इसलिये अब तुम मधुर अक्षरों में सुन्दर मनोरम छ: काण्ड है-बाल, आरण्यक, किष्किन्धा, रामायणकी रचना करो। मुखसे निकलनेवाली वही वाणी सुन्दर, युद्ध तथा उत्तर । महामते ! जो इन काण्डोंको घन्य है, जो श्रीरामनामसे युक्त हो। इसके सिवा, अन्य सुनता है, वह मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जितनी बातें हैं, सब कामकी कथाएँ हैं, ये मनुष्योंके लिये बालकाण्डमें-राजा दशरथने प्रसन्नतापूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ केवल सूतक (अपवित्रता) उत्पन्न करती हैं। अतः तुम करके चार पुत्र प्राप्त किये, जो साक्षात् सनातन ब्रह्म श्रीरामचन्द्रजीके लोकप्रसिद्ध चरित्रको लेकर काव्य रचना श्रीहरिके अवतार थे। फिर श्रीरामचन्द्रजीका विश्वामित्रके करो, जिससे पद-पदपर पापियोंके पापका निवारण यज्ञमें जाना, वहाँसे मिथिलामें जाकर सीतासे विवाह होगा।' इतना कहकर ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओके साथ करना, मार्गमें परशुरामजीसे मिलते हुए अयोध्यापुरीमें अन्तर्धान हो गये।
आना, वहाँ युवराजपदपर अभिषेक होनेकी तैयारी, फिर
* मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्रौशपक्षिणोरेकमयधीः
काममोहितम् ॥
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• अर्चवस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
माता कैकेयीके कहनेसे वनमें जाना, गङ्गापार करके समुद्र-लखन और दूसरे तटपर उनका पहुँचना-ये सब चित्रकूट पर्वतपर पहुँचना तथा वहाँ सौता और लक्ष्मणके प्रसङ्ग किष्किन्धाकाण्डके अन्तर्गत हैं। यह काण्ड अद्भुत साथ निवास करना-इत्यादि प्रसङ्गोका वर्णन है। इसके है। अब सुन्दरकाण्डका वर्णन सुनिये, जहाँ श्रीरामअतिरिक्त न्यायके अनुसार चलनेवाले भरतने जब अपने चन्द्रजीकी अद्भुत कथाका उल्लेख है। हनुमान्जीका भाई श्रीरामके वनमें जानेका समाचार सुना तो वे भी उन्हें सीताकी खोजके लिये लङ्काके प्रत्येक घरमें घूमना तथा लौटानेके लिये चित्रकूट पर्वतपर गये, किन्तु उन्हें जब न वहाँके विचित्र-विचित्र दृश्योंका देखना, फिर सीताका लौटा सके तो स्वयं भी उन्होंने अयोध्यासे बाहर नन्दिग्राममें दर्शन, उनके साथ बातचीत तथा वनका विध्वंस, कुपित वास किया। ये सब बाते भी बालकाण्डके ही अन्तर्गत है। हुए राक्षसोके द्वारा हनुमान्जीका बन्धन, हनुमान्जीके इसके बाद आरण्यककाण्डमें आये हुए विषयोंका वर्णन द्वारा लङ्काका दाह, फिर समुद्रके इस पार आकर उनका सुनिये। सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका भिन्न-भिन्न वानरोंसे मिलना। श्रीरामचन्द्रजीको सीताकी दी हुई मुनियोंके आश्रमोंमें निवास करना, वहाँ-वहाँक स्थान पहचान अर्पण करना, सेनाका लङ्काके लिये प्रस्थान, आदिका वर्णन, शूर्पणखाको नाकका काटा जाना, खर समुद्रमें पुल बाँधना तथा सेनामें शुक और सारणका और दूषणका विनाश, मायामय मृगके रूपमें आये हुए आना-ये सब विषय सुन्दरकाण्डमें हैं। इस प्रकार मारीचका मारा जाना, राक्षस रावणके द्वारा राम-पनी सुन्दरकाण्डका परिचय दिया गया। युद्धकाण्डमें युद्ध सीताका हरण, श्रीरामका विरहाकुल होकर वनमें भटकना और सीताकी प्राप्तिका वर्णन है। उत्तरकाण्डमें श्रीरामका और मानवोचित लीलाएँ करना, फिर कबन्धसे भेंट होना, ऋषियोंके साथ संवाद तथा यज्ञका आरम्भ आदि है। पम्पासरोवरपर जाना और श्रीहनुमान्जोसे मिलाप उसमें श्रीरामचन्द्रजीको अनेकों कथाओंका वर्णन है, जो होना-ये सभी कथाएँ आरण्यककाण्डके नामसे प्रसिद्ध श्रोताओंके पापको नाश करनेवाली हैं। इस प्रकार मैंने हैं। तदनन्तर श्रीरामद्वारा सप्त ताल-वृक्षोंका भेदन, छः काण्डोंका वर्णन किया। ये ब्रह्महत्याके पापको भी दूर बालिका अद्भुत वध, सुग्रीवको राज्यदान, लक्ष्मणके द्वारा करनेवाले हैं। उनकी कथाएँ बड़ी मनोहर हैं। मैंने यहाँ सुग्रीवको कर्तव्य-पालनका सन्देश देना, सुग्रीवका नगरसे संक्षेपसे ही इनका परिचय दिया है। जो छः काण्डोंसे निकलना, सैन्यसंग्रह, सीताको खोजके लिये वानरोका चिह्नित और चौबीस हजार श्लोकोंसे युक्त है, उसी भेजा जाना । वानरोंकी सम्पातिसे भेंट, हनुमान्जीके द्वारा वाल्मीकिनिर्मित ग्रन्थको रामायण नाम दिया गया है।
सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका
उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
शेषजी कहते हैं-मुने! तदनन्तर लक्ष्मणने 'माताजी! आप पतिव्रता हैं, श्रीरघुनाथजी बारम्बार आकर पुनः जानकीके चरणोंमें प्रणाम किया। आपको बुला रहे है। पतिव्रता स्त्री अपने पतिके विनयशील लक्ष्मणको आया देख पुनः अपने बुलाये अपराधको मनमें नहीं लाती; इसलिये इस उत्तम रथपर जानेकी बात सुनकर सौताने कहा-'सुमित्रानन्दन ! बैठिये और मेरे साथ चलनेकी कृपा कीजिये।' पतिको मुझे श्रीरामचन्द्रजीने महान् वनमें त्याग दिया है, अतः ही देवता माननेवाली जानकीने लक्ष्मणकी ये सब बातें अब मैं कैसे चल सकती हूँ? यहीं महर्षि वाल्मीकिके सुनकर आश्रमकी सम्पूर्ण तपस्विनी स्त्रियों तथा वेदवेत्ता आश्रमपर रहूँगी और निरन्तर श्रीरामका स्मरण किया मुनियोंको प्रणाम किया और मन-ही-मन श्रीरामका करूंगी।' उनकी बात सुनकर लक्ष्मणने कहा- स्मरण करती हुई वे रथपर बैठकर अयोध्यापुरीकी ओर
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पातालखण्ड ]
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सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ तथा अश्वमेध कथा श्रवणकी महिमा
चलीं। उस समय उन्होंने बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण धारण किये थे। क्रमशः नगरीमें पहुँचकर वे सरयू नदीके तटपर गयीं, जहाँ स्वयं श्रीरघुनाथजी विराजमान थे। पातिव्रत्य में तत्पर रहनेवाली सुन्दरी सीता वहाँ जाकर रथसे उतर गयीं और लक्ष्मणके साथ श्रीराम चन्द्रजीके समीप पहुँचकर उनके चरणोंमें लग गयीं
प्रेमविहला जानकीको आयी देख श्रीरामचन्द्रजी बोले- 'साध्वि ! इस समय तुम्हारे साथ मैं यशकी समाप्ति करूंगा।'
तत्पश्चात् सीता महर्षि वाल्मीकि तथा अन्यान्य ब्रह्मर्षियोंको नमस्कार करके माताओंके चरणोंमें प्रणाम करनेके लिये उत्कण्ठापूर्वक उनके पास गयीं। वीर पुत्रोंको जन्म देनेवाली अपनी प्यारी बहू जानकीको आती देख कौसल्याको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने सीताको बहुत आशीर्वाद दिया। कैकेयीने भी विदेहनन्दिनीको अपने चरणोंमें प्रणाम करती देखकर आशीर्वाद देते हुए कहा- 'बेटी! तुम अपने पति और पुत्रोंके साथ चिरकालतक जीवित रहो।' इसी प्रकार सुमित्राने भी पुत्रवती जानकीको अपने पैरपर पड़ी देख उत्तम
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आशीर्वाद प्रदान किया। श्रीरामचन्द्रजीको प्यारी पत्नी सती-साध्वी सीता सबको प्रणाम करके बहुत प्रसन्न हुई। श्रीरघुनाथजीकी धर्मपत्नीको उपस्थित देख महर्षि कुम्भजने सोनेकी सीताको हटा दिया और उसकी जगह उन्हींको बिठाया। उस समय यज्ञमण्डपमें सीताके साथ बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजीकी बड़ी शोभा हुई। फिर उत्तम समय आनेपर श्रीरघुनाथजीने यज्ञका कार्य आरम्भ किया। उन्होंने उत्तम बुद्धिवाले वसिष्ठसे पूछा'स्वामिन्! अब इस श्रेष्ठ यज्ञमें कौन-सा आवश्यक कर्तव्य बाकी रह गया है ?' रामकी बात सुनकर महाबुद्धिमान् गुरुदेवने कहा- अब आपको ब्राह्मणोंकी सन्तोषजनक पूजा करनी चाहिये। यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि कुम्भजको पूज्य मानकर सबसे पहले उन्हींका पूजन किया। रत्न और सुवर्णोंकि अनेकों
भार, मनुष्योंसे भरे हुए कई देश तथा अत्यन्त प्रीतिदायक वस्तुएँ दक्षिणामें देकर उन्होंने पत्नीसहित अगस्त्य मुनिका सत्कार किया। फिर उत्तम रत्न आदिके द्वारा पत्नीसहित महर्षि च्यवनका पूजन किया। इसी प्रकार अन्यान्य महर्षियों तथा सम्पूर्ण तपस्वी ऋत्विजोंका
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
. [संक्षिप्त परापुराण
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भी उन्होंने अनेकों भार सुवर्ण और रत्न आदिके द्वारा श्रीरामके हाथका स्पर्श होते ही उस अश्वने पशु-शारीरका सत्कार किया। उस यज्ञमें श्रीरामने ब्राह्मणोंको बहुत IRAN TS दक्षिणा दी। दीनों, अंधों और दुःखियोंको भी नाना प्रकारके दान दिये। विचित्र-विचित्र वस्त्र तथा मधुर भोजन वितीर्ण किये। भगवान्ने शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार ऐसा दान किया, जो सबको सन्तोष देनेवाला था। उन्हें सबको दान देते देख महर्षि कुम्भजको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अचको नहलानेके निमित्त अमृतके समान जल मंगानेके लिये चौसठ राजाओंको उनकी रानियोंसहित बुलाया। श्रीरामचन्द्रजी सब प्रकारके अलङ्कारोंसे सुशोभित सीताजीके साथ सोनेके घड़ेमें जल ले आनेके लिये गये। उनके पीछे माण्डवीके साथ भरत, उर्मिलाके साथ लक्ष्मण, श्रुतिकीर्तिके साथ शत्रुघ्न, कान्तिमतौके साथ पुष्कल, कोमलाके साथ लक्ष्मीनिधि, महामूर्तिके साथ विभीषण, सुमनोहारीके साथ सुरथ तथा मोहनाके साथ सुग्रीव भी चले। इसी प्रकार और कई राजाओंको वसिष्ठ ऋषिने भेजा। उन्होंने स्वयं भी शीतल एवं पवित्र जलसे भरी हुई सरयूमें जाकर वेदमन्त्रके परित्याग करके तुरंत दिव्यरूप धारण कर लिया। द्वारा उसके जलको अभिमन्त्रित किया। वे बोले-'हे घोड़ेका शरीर छोड़कर दिव्यरूपधारी मनुष्यके रूपमें जल! तुम सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेवाले प्रकट हुए उस अश्वको देखकर यज्ञमें आये हुए सब श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञके लिये निश्चित किये हुए इस लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ। यद्यपि श्रीरामचन्द्रजी स्वयं अश्वको पवित्र करो।
सब कुछ जानते थे, तो भी सब लोगोंको इस रहस्यका मुनिके अभिमन्त्रित किये हुए उस जलको राम ज्ञान करानेके लिये उन्होंने पूछा- दिव्य शरीर आदि सभी राजा ब्राह्मणोंद्वारा सुसंस्कृत यज्ञ-मण्डपमें ले धारण करनेवाले पुरुष ! तुम कौन हो? अश्व-योनिमें आये। उस निर्मल जलसे दूधके समान वेत अश्वको क्यों पड़े थे तथा इस समय क्या करना चाहते हो? ये नहलाकर महर्षि कुम्भजने मन्त्रद्वारा रामके हाथसे उसे सब बातें बताओ।' अभिमन्त्रित कराया। श्रीरामचन्द्रजी अश्वको लक्ष्य रामकी बात सुनकर दिव्यरूपधारी पुरुषने कहाकरके बोले-'महाबाह ! ब्राह्मणोंसे भरे हुए इस 'भगवन् ! आप बाहर और भीतर सर्वत्र व्याप्त हैं; अतः यज्ञ-मण्डपमें तुम मुझे पवित्र करो।' ऐसा कहकर आपसे कोई बात छिपी नहीं है। फिर भी यदि पूछ रहे श्रीरामने सीताके साथ उस अश्वका स्पर्श किया। उस हैं तो मैं आपसे सब कुछ ठीक-ठीक बता रहा हूँ। समय सम्पूर्ण ब्राह्मणोंको कौतूहलवश यह बड़ी विचित्र पूर्वजन्ममें मैं एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण था, किन्तु मुझसे बात मालूम पड़ी। वे आपसमें कहने लगे-'अहो! एक अपराध हो गया। महाबाहो ! एक दिन मैं जिनके नामका स्मरण करनेसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे पापहारिणी सरयूके तटपर गया और वहाँ सान, पितरोंका छुटकारा पा जाते हैं, वे ही श्रीरामचन्द्रजी यह क्या कह तर्पण तथा विधिपूर्वक दान करके वेदोक्त रीतिसे आपका रहे हैं [क्या अश्व इन्हें पवित्र करेगा ?] ।' यज्ञ-मण्डपमें ध्यान करने लगा। महाराज ! उस समय मेरे पास
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पातालखण्ड]
• सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ तथा अश्वमेध-कथा-प्रवणकी महिमा .
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बहुत-से मनुष्य आये और उन सबको ठगनेके लिये मैंने स्मरण करना चाहिये, जिससे उस परमपदकी प्राप्ति होती कई प्रकारका दम्भ प्रकट किया। इसी समय महातेजस्वी है, जो देवता आदिके लिये भी दुर्लभ है। अश्वकी महर्षि दुर्वासा अपनी इच्छाके अनुसार पृथ्वीपर विचरते मुक्तिरूप विचित्र व्यापार देखकर मुनियोंने अपनेको भी हुए वहाँ आये और सामने खड़े होकर मुझ दम्भीको कृतार्थ समझा; क्योंकि वे स्वयं भी श्रीरामचन्द्रजीके देखने लगे। मैंने मौन धारण कर रखा था; न तो उठकर चरणोंके दर्शन और करस्पर्शसे पवित्र हो रहे थे। उन्हें अर्घ्य दिया और न उनके प्रति कोई स्वागतपूर्ण तदनन्तर, मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी, जो सम्पूर्ण देवताओंका वचन ही मुंहसे निकाला । मैं उन्मत्त हो रहा था । महामति मनोभाव समझनेमें निपुण थे, बोले-'रघुनन्दन ! आप दुर्वासाका स्वभाव तो यों ही तीक्ष्ण है, मुझे दम्भ करते देवताओंको कर्पूर भेंट कीजिये, जिससे वे स्वयं प्रत्यक्ष देख वे और भी प्रचण्ड क्रोधके वशीभूत हो गये तथा प्रकट होकर हविष्य प्रहण करेंगे।' यह सुनकर शाप देते हुए बोले-'तापसाधम ! यदि तू सरयूके श्रीरामचन्द्रजीने देवताओंकी प्रसन्नताके लिये शीघ्र ही तटपर ऐसा घोर दम्भ कर रहा है तो पशु-योनिको प्राप्त बहुत सुन्दर कर्पूर अर्पण किया। इससे महर्षि वसिष्ठके हो जा।' मुनिके दिये हुए शापको सुनकर मुझे बड़ा दुःख हृदयमें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अद्भुतरूपधारी हुआ और मैंने उनके चरण पकड़ लिये । रघुनन्दन ! तब देवताओंका आवाहन किया। मुनिके आवाहन करनेपर मुनिने मुझपर महान् अनुग्रह किया। वे बोले- एक ही क्षणमें सम्पूर्ण देवता अपने-अपने परिवारसहित 'तापस ! तू श्रीरामचन्द्रजीके अश्वमेध यज्ञका अश्व वहाँ आ पहुँचे। बनेगा; फिर भगवान्के हाथका स्पर्श होनेसे तू दम्भहीन, शेषजी कहते हैं-मुने ! उस यज्ञमें दी जानेवाली दिव्य एवं मनोहर रूप धारण कर परमपदको प्राप्त हो हवि श्रीरामचन्द्रजीकी दृष्टि पड़नेसे अत्यन्त पवित्र हो जायगा।' महर्षिका दिया हुआ यह शाप भी मेरे लिये गयी थी। देवताओसहित इन्द्र उसका आस्वादन करने अनुग्रह बन गया। राम ! अनेकों जन्मोंके पश्चात् देवता लगे, उन्हें तृप्ति नहीं होती थी-अधिकाधिक लेनेकी आदिके लिये भी जिसकी प्राप्ति होनी कठिन है वही इच्छा बनी रहती थी। नारायण, महादेव, ब्रह्मा, वरुण, आपकी अङ्गुलियोका अत्यन्त दुर्लभ सर्श आज मुझे कुबेर तथा अन्य लोकपाल सब-के-सब तृप्त हो अपनाप्राप्त हुआ है। महाराज ! अब आज्ञा दीजिये, मैं आपकी अपना भाग लेकर अपने धामको चले गये। होताका कृपासे महत् पदको प्राप्त हो रहा हूँ। जहाँ न शोक है, कार्य करनेवाले जो प्रधान-प्रधान ऋषि थे, उन सबको न जरा; न मृत्यु है, न कालका विलास-उस स्थानको भगवान्ने चारों दिशाओंमें राज्य दिया तथा उन्होंने भी जाता हूँ। राजन् ! यह सब आपका ही प्रसाद है।' सन्तुष्ट होकर श्रीरघुनाथजीको उत्तम आशीर्वाद दिये।
यह कहकर उसने श्रीरघुनाथजीकी परिक्रमा की तत्पश्चात् वसिष्ठजीने पूर्णाहुति करके कहाऔर श्रेष्ठ विमानपर बैठकर भगवान्के चरणोंकी कृपासे 'सौभाग्यवती स्त्रियाँ आकर यज्ञकी पूर्ति करनेवाले वह उनके सनातन धामको चला गया। उस दिव्य महाराजको संवर्द्धना (अभ्युदय-कामना) करें।' उनकी पुरुषकी बातें सुनकर अन्य साधारण लोगोंको भी बात सुनकर खियाँ उठी और बड़े-बड़े राजाओद्वारा श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाका ज्ञान हुआ और वे पूजित श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर, जो अपने सौन्दर्यसे सब-के-सब परस्पर आनन्दमग्न होकर बड़े विस्मयमें कामदेवको भी परास्त कर रहे थे, अत्यत्त हर्षके साथ पड़े। महाबुद्धिमान् वात्स्यायनजी ! सुनिये; दम्भपूर्वक लाजा (खील) की वर्षा करने लगी। इसके बाद स्मरण करनेपर भी भगवान् श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं, महर्षिने श्रीरामचन्द्रजीको अवभृथ (यज्ञान्त) नानके फिर यदि दम्भ छोड़कर उनका भजन किया जाय तब तो लिये प्रेरित किया। तब श्रीरघुनाथजी आत्मीयजनोंके कहना ही क्या है ? जैसे भी हो, श्रीरामचन्द्रजीका निरन्तर साथ सरयूके उतम तटपर गये। उस समय जो लोग
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• अर्जयस्व हबीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त परापुराण
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सीतापतिके मुखचन्द्रका अवलोकन करते, वे एकटक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया तथा त्रिभुवनमें अत्यन्त दृष्टि से देखते ही रह जाते थे; उनकी आँखें स्थिर हो जाती दुर्लभ और अनुपम कीर्ति प्राप्त की। थीं। जिनके हृदयमें चिरन्तन कालसे भगवान्के दर्शनकी वात्स्यायनजी ! आपने जो श्रीरामचन्द्रजीको उत्तम लालसा लगी हुई थी, वे लोग महाराज श्रीरामको कथाके विषयमें प्रश्न किया था, उसका उपर्युक्त प्रकारसे सीताके साथ सरयूकी ओर जाते देखकर आनन्दमें मग्न वर्णन किया गया। अश्वमेध यज्ञका वृत्तान्त मैंने हो गये। अनेकों नट और गन्धर्व उज्ज्वल यशका गान विस्तारके साथ कहा है; अब आप और क्या पूछना करते हुए सर्वलोक-नमस्कृत महाराजके पीछे-पीछे गये। चाहते हैं? जो मनुष्य भगवान्के प्रति भक्ति रखते हुए नदीका मार्ग झुंड-के-झुंड स्त्री-पुरुषोंसे भरा था। उसीसे श्रीरामचन्द्रजीके इस उत्तम यज्ञका श्रवण करता है, वह चलकर वे शीतल एवं पवित्र जलसे परिपूर्ण सरयू नदीके ब्रह्महत्या-जैसे पापको भी क्षणभरमें पार करके सनातन समीप पहुँचे, वहाँ पहुँचकर कमलनयन श्रीरामने सीताके ब्रह्मको प्राप्त होता है। इस कथाके सुननेसे पुत्रहीन साथ सरयूके पावन जलमें प्रवेश किया। तत्पशात् पुरुषको पुत्रोंकी प्राप्ति होती है, धनहीनको धन मिलता है, भगवान्के चरणोंकी धूलिसे पवित्र हुए उस विश्ववन्दित रोगी रोगसे और कैदमें पड़ा हुआ मनुष्य बन्धनसे जलमें सम्पूर्ण राजा तथा साधारण जन-समुदायके लोग छुटकारा पा जाता है। जिनकी कथा सुननेसे दुष्ट भी उतरे। धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी सरयूके पावन चाण्डाल भी परम पदको प्राप्त होता है, उन्हीं जलप्रवाहमें सीताके साथ चिरकालतक क्रौड़ा करके श्रीरामचन्द्रजीको भक्ति में यदि श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रवृत्त हो तो बाहर निकले। फिर उन्होंने धौत-वस्त्र धारण किया, उसके लिये क्या कहना? महाभाग श्रीरामका स्मरण किरीट और कुण्डल पहने तथा केयूर और कणकी करके पापी भी उस परम पद या परम स्वर्गको प्राप्त होते शोभाको भी अपनाया। इस प्रकार वस्त्र और हैं, जो इन्द्र आदि देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। आभूषणोंसे विभूषित होकर करोड़ों कन्दर्पोकी सुषमा संसारमें वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो श्रीरघुनाथजीका स्मरण धारण करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त सुशोभित हुए। करते हैं ! वे लोग क्षणभरमें इस संसार-समुद्रको पार उस समय कितने ही राजे-महाराजे उनकी स्तुति करने करके अक्षय सुखको प्राप्त होते हैं। इस अश्वमेधको लगे। महामना श्रीरघुनाथजीने सरयूके पावन तटपर कथाको सुनकर वाचकको दो गौ प्रदान करे तथा वस्त्र, उत्तम वर्णसे सुशोभित यज्ञयूपको स्थापना करके अपनी अलङ्कार और भोजन आदिके द्वारा उसका तथा उसकी भुजाओंके बलसे तीनों लोकोंकी अद्भुत सम्पत्ति प्राप्त पत्रीका सत्कार करे। यह कथा ब्रह्महत्याको राशिका को, जो दूसरे नरेशोंके लिये सर्वथा दुर्लभ है। इस तरह विनाश करनेवाली है। जो लोग इसका श्रवण करते हैं, भगवान् श्रीरामने जनकनन्दिनी सीताके साथ तीन वे देवदुर्लभ परम पदको प्राप्त होते हैं।
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वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
ऋषियोंने कहा-सूतजी ! महाराज! हमने अपने पतिको प्रेमपूर्वक नमस्कार करके इस प्रकार आपके मुखसे रामाश्वमेधकी कथा अच्छी तरह सुन ली; बोली-'प्रभो! वृन्दावनका माहात्म्य अथवा अद्भुत अव परमात्मा श्रीकृष्णके माहात्म्यका वर्णन कीजिये। रहस्य क्या है, उसे मैं सुनना चाहती हूँ?'
सूतजी बोले-महर्षियो । जिनका हृदय भगवान् महादेवजीने कहा-देवि ! मैं यह बता चुका हूँ शङ्करके प्रेममें डूबा रहता है, वे पार्वती देवी एक दिन कि वृन्दावन ही भगवानका सबसे प्रियतम धाम है। यह
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पातालखण्ड
• वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहास्य .
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गुह्यसे भी गुहा, उत्तम-से-उत्तम और दुर्लभसे भी ही स्वरूपकी स्फुरणा होती है। वास्तवमें वह वन
ब्रह्मानन्दमय ही है। वहाँ प्रतिदिन पूर्ण चन्द्रमाका उदय होता है । सूर्यदेव अपनी मन्द रश्मियोंके द्वारा उस वनकी सेवा करते हैं। वहाँ दुःखका नाम भी नहीं है। उसमे जाते ही सारे दुःखोंका नाश हो जाता है। वह जरा और मृत्युसे रहित स्थान है। वहाँ क्रोध और मत्सरताका प्रवेश नहीं है। भेद और अहङ्कारको भी वहाँ पहुँच नहीं होती। वह पूर्ण आनन्दमय अमृत-रससे भरा हुआ अखण्ड प्रेमसुखका समुद्र है, तीनों गुणोंसे परे है और महान् प्रेमधाम है। वहाँ प्रेमको पूर्णरूपसे अभिव्यक्ति हुई है। जिस वृन्दावनके वृक्ष आदिने भी पुलकित होकर प्रेमजनित आनन्दके आँसू बरसाये हैं; वहाँक चेतन वैष्णवोंकी स्थितिके सम्बन्धमें क्या कहा जा सकता है?
भगवान् श्रीकृष्णकी चरण-रजका स्पर्श होनेके कारण वृन्दावन इस भूतलपर नित्य धामके नामसे
प्रसिद्ध है। वह सहस्त्रदल-कमलका केन्द्रस्थान है।
- उसके स्पर्शमात्रसे यह पृथ्वी तीनों लोकोंमें धन्य समझो दुर्लभ है। तीनों लोकोंमें अत्यन्त गुप्तस्थान है। बड़े-बड़े जाती है। भूमण्डलमें वृन्दावन गुहासे भी गुहातम, देवेश्वर भी उसकी पूजा करते हैं। ब्रह्मा आदि भी उसमें रमणीय, अविनाशी तथा परमानन्दसे परिपूर्ण स्थान है। रहनेकी इच्छा करते हैं। वहाँ देवता और सिद्धोंका वह गोविन्दका अक्षयधाम है। उसे भगवान्के स्वरूपसे निवास है। योगीन्द्र और मुनीन्द्र आदि भी सदा उसके भित्र नहीं समझना चाहिये। वह अखण्ड ब्रह्मानन्दका ध्यानमें तत्पर रहते हैं। श्रीवृन्दावन बहुत ही सुन्दर और आश्रय है। जहाँकी धूलिका स्पर्श होनेमानसे मोक्ष हो पूर्णानन्दमय रसका आश्रय है। वहाँकी भूमि चिन्तामणि जाता है. उस वृन्दावनके माहात्म्यका किस प्रकार वर्णन है, और जल रससे भरा हुआ अमृत है। वहाँके पेड़ किया जा सकता है। इसलिये देवि ! तुम सम्पूर्ण चितसे कल्पवृक्ष हैं, जिनके नीचे झुंड-की-झंड कामधेनु गौएँ अपने हृदयके भीतर उस वृन्दावनका चिन्तन करो तथा निवास करती हैं। वहाँको प्रत्येक स्त्री लक्ष्मी और हरेक उसकी विहारस्थलियोंमें किशोरविग्रह श्रीकृष्णचन्द्रका पुरुष विष्णु हैं; क्योंकि वे लक्ष्मी और विष्णुके दशांशसे ध्यान करती रहो। पहले वता आये हैं कि वृन्दावन प्रकट हुए हैं। उस वृन्दावनमें सदा श्याम तेज विराजमान सहस्रदल-कमलका केन्द्रस्थान है। कलिन्द-कन्या रहता है, जिसकी नित्य-निरन्तर किशोरावस्था (पंद्रह यमुना उस कमल-कर्णिकाकी प्रदक्षिणा किया करती है। वर्षकी उम्र) बनी रहती है। वह आनन्दका मूर्तिमान् उनका जल अनायास ही मुक्ति प्रदान करनेवाला और विग्रह है। उसमें संगीत, नृत्य और वार्तालाप आदिकी गहरा है। वह अपनी सुगन्धसे मनुष्योंका मन मोह लेता अद्भुत योग्यता है। उसके मुखपर सदा मन्द मुस्कानकी है। उस जलमै आनन्ददायिनी सुधासे मिश्रित घनीभूत छटा छायी रहती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, जो मकरन्द (रस) की प्रतिष्ठा है। पद्म और उत्पल आदि प्रेमसे परिपूर्ण हैं, ऐसे वैष्णवजन ही उस वनका आश्रय नाना प्रकारके पुष्पोंसे यमुनाका स्वच्छ सलिल अनेक लेते हैं। वह वन पूर्ण ब्रह्मानन्दमें निमग्न है। वहाँ ब्रह्मके रंगका दिखायी देता है। अपनी चाल तरङ्गोंके कारण
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अचयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
वह जल अत्यन्त मनोहर एवं रमणीय प्रतीत होता है। पार्वतीजीने पूछा- दयानिधे ! भगवान् श्रीकृष्णका आश्चर्यमय सौन्दर्य और श्रीविग्रह कैसा है, मैं उसे सुनना चाहती हूँ, कृपया बतलाइये। महादेवजीने कहा- देवि ! परम सुन्दर वृन्दावनके मध्यभागमें एक मनोहर भवनके भीतर अत्यन्त उज्ज्वल योगपीठ है। उसके ऊपर माणिक्यका बना हुआ सुन्दर सिंहासन है, सिंहासनके ऊपर अष्टदल कमल है, जिसकी कर्णिका अर्थात् मध्यभागमें सुखदायी आसन लगा हुआ है; वही भगवान् श्रीकृष्णका उत्तम स्थान है। उसकी महिमाका क्या वर्णन किया जाय ? वहीं भगवान् गोविन्द विराजमान होते हैं। वैष्णववृन्द उनकी सेवामें लगा रहता है। भगवान्का व्रज, उनकी अवस्था और उनका रूप - ये सभी दिव्य हैं। श्रीकृष्ण ही वृन्दावनके अधीश्वर हैं, वे ही व्रजके राजा हैं। उनमें सदा षड्विध ऐश्वर्य विद्यमान रहते हैं। वे व्रजकी बालक-बालिकाओंके एकमात्र प्राण-वल्लभ है और किशोरावस्थाको पार करके यौवनमें पदार्पण कर रहे हैं। उनका शरीर अद्भुत है, वे सबके आदि कारण हैं, किन्तु उनका आदि कोई भी नहीं है। वे नन्दगोपके प्रिय पुत्ररूपसे प्रकट हुए हैं; परन्तु वास्तवमें अजन्मा एवं नित्य ब्रह्म हैं, जिन्हें वेदकी श्रुतियाँ सदा ही खोजती रहती हैं। उन्होंने गोपीजनोंका चित्त चुरा लिया है। वे ही परमधाम हैं। उनका स्वरूप सबसे उत्कृष्ट हैं। उनका श्रीविग्रह दो भुजाओंसे सुशोभित है। वे गोकुलके अधिपति हैं। ऐसे गोपीनन्दन श्रीकृष्णका इस प्रकार ध्यान करना चाहिये
भगवान्को कान्ति अत्यन्त सुन्दर और अवस्था नूतन है। वे बड़े स्वच्छ दिखायी देते हैं। उनके शरीरकी आभा श्याम रङ्गकी है, जिसके कारण उनकी झाँकी बड़ी मनोहर जान पड़ती है। उनका विग्रह नूतन मेघ मालाके समान अत्यन्त स्निग्ध है। वे कानोंमें मनोहर कुण्डल धारण किये हुए हैं। उनकी कान्ति खिले हुए नील कमलके समान जान पड़ती है। उनका स्पर्श सुखद है। वे सबको सुख पहुँचानेवाले हैं। वे अपनी साँवली
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
छटासे मनको मोहे लेते हैं। उनके केश बहुत ही चिकने, काले और घुंघराले हैं। उनसे सब प्रकारकी सुगन्ध निकलती रहती है। केशोंके ऊपर ललाटके दक्षिण भागमें श्याम रङ्गकी चूड़ाके कारण वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। नाना रंगके आभूषण धारण करनेसे उनकी दीप्ति बड़ी उज्ज्वल दिखायी देती है। सुन्दर मोरपस उनके मस्तककी शोभा बढ़ाता है। उनकी सज-धज बड़ी सुन्दर है। वे कभी तो मन्दारपुष्पोंसे सुशोभित गोपुच्छके आकारकी बनी हुई चूड़ा (चोटी) धारण करते हैं, कभी मोरपङ्क्के मुकुटसे अलङ्कृत होते हैं और कभी अनेकों मणिमाणिक्योंके बने हुए सुन्दर किरीटोसे विभूषित होते हैं। चञ्चल अलकावली उनके मस्तककी शोभा बढ़ाती है। उनका मनोहर मुख करोड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्तिमान् है। ललाटमें कस्तूरीका तिलक है, साथ ही सुन्दर गोरोचनकी बिंदी भी शोभा दे रही है। उनका शरीर इन्दीवरके समान स्निग्ध और नेत्र कमल दलकी भाँति विशाल हैं। वे कुछ-कुछ भौहें नचाते हुए मन्द मुसकानके साथ तिरछी चितवनसे देखा करते हैं। उनकी नासिकाका अग्रभाग रमणीय सौन्दर्यसे युक्त है, जिसके कारण वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। उन्होंने नासाग्रभागमें गजमोती धारण करके उसकी कान्तिसे त्रिभुवनका मन मोह लिया है। उनका नीचेका ओठ सिन्दूरके समान लाल और चिकना है, जिससे उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयी है। वे अपने कानोंमें नाना प्रकारके वर्णोंसे सुशोभित सुवर्णनिर्मित मकराकृत कुण्डल पहने हुए हैं। उन कुण्डलोंकी किरण पड़नेसे उनका सुन्दर कपोल दर्पणके समान शोभा पा रहा है। वे कानोंमें पहने हुए कमल, मन्दारपुष्प और मकराकार कुण्डलसे विभूषित हैं। उनके वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि और श्रीवत्सचिह्न शोभा पा रहे हैं। गलेमें मोतियोंका हार चमक रहा है। उनके विभिन्न अङ्गोंमें दिव्य माणिक्य तथा मनोहर सुवर्णमिश्रित आभूषण सुशोभित हैं। हाथोंमें कड़े, भुजाओंमें बाजूबन्द तथा कमरमें करधनी शोभा दे रही है। सुन्दर मञ्जीरकी सुषमासे चरणोंकी श्री बहुत बढ़ गयी है, जिससे भगवान्का श्रीविग्रह अत्यन्त
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पातालखण्ड ]
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शोभायमान दिखायी दे रहा है। श्रीअङ्गोंमें कर्पूर, अगरु, हैं। प्रभो ! अब मैं यह सुनना चाहती हूँ कि श्रीकृष्णका कस्तूरी और चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्य शोभा पा रहे गूढ रहस्य, माहात्म्य और सुन्दर ऐश्वर्य क्या है। आप हैं। गोरोचन आदिसे मिश्रित दिव्य अङ्गरागोंद्वारा विचित्र उसका वर्णन कीजिये।। पत्र-भङ्गो (रंग-बिरंगे चित्र) आदिकी रचना की गयी महादेवजीने कहा-देवि ! जिनके चन्द्र-तुल्य है। कटिसे लेकर पैरोंके अग्रभागतक चिकने पीताम्बरसे चरण-नखोंकी किरणोंके माहात्म्यका भी अन्त नहीं है, शोभायमान है। भगवान्का नाभि-कमल गम्भीर है, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको महिमाके सम्बन्धमें मैं कुछ उसके नीचेकी रोमावलियोंतक माला लटक रही है। बातें बता रहा हूँ, तुम आनन्दपूर्वक श्रवण करो। सृष्टि, उनके दोनों घुटने सुन्दर गोलाकार है तथा कमलोको पालन और संहारकी शक्तिसे युक्त, जो ब्रह्मा आदि शोभा धारण करनेवाले चरण बड़े मनोहर जान पड़ते हैं। देवता हैं, वे सब श्रीकृष्णके ही वैभव है। उनके रूपका हाथ और पैरोंके तलुवे ध्वज, वन, अङ्कश और जो करोड़वाँ अंश है, उसके भी करोड़ अंश करनेपर कमलके चिह्नसे सुशोभित हैं तथा उनके ऊपर नखरूपी एक-एक अंश कलासे असंख्य कामदेवोंकी उत्पत्ति चन्द्रमाकी किरणावलियोंका प्रकाश पड़ रहा है। होती है, जो इस ब्रह्माण्डके भीतर व्याप्त होकर जगत्के सनक-सनन्दन आदि योगीश्वर अपने हृदयमें भगवान्के जीवोको मोहमें डालते रहते हैं। भगवान्के श्रीविग्रहकी इसी स्वरूपको झाँकी करते हैं। उनकी त्रिभङ्गी छवि है। शोभामयी कान्तिके कोटि-कोटि अंशसे चन्द्रमाका उनके श्रीअङ्ग इतने सुन्दर, इतने मनोहर है, मानो सृष्टिकी आविर्भाव हुआ है। श्रीकृष्णके प्रकाशके करोड़वें समस्त निर्माण सामग्रीका सार निकालकर बनाये गये अंशसे जो किरणें निकलती हैं, वे ही अनेकों सूर्योक हों। जिस समय वे गर्दन मोड़कर खड़े होते हैं, उस रूपमें प्रकट होती हैं। उनके साक्षात् श्रीअङ्गसे जो समय उनका सौन्दर्य इतना बढ़ जाता है कि उसके रश्मियाँ प्रकट होती हैं, वे परमानन्दमय रसामृतसे सामने अनन्तकोटि कामदेव लज्जित होने लगते हैं। बायें परिपूर्ण हैं, परम आनन्द और परम चैतन्य ही उनका कंधेपर झुका हुआ उनका सुन्दर कपोल बड़ा भला स्वरूप है। उन्हींसे इस विश्वके ज्योतिर्मय जीव जीवन मालूम होता है। उनके सुवर्णमय कुण्डल जगमगाते धारण करते हैं, जो भगवान्के ही कोटि-कोटि अंश हैं। रहते हैं। वे तिरछी चितवन और मंद मुसकानसे उनके युगल चरणारविन्दोंके नस्वरूपी चन्द्रकान्तमणिसे सुशोभित होनेवाले करोड़ों कामदेवोंसे भी अधिक सुन्दर निकलनेवाली प्रभाको ही सबका कारण बताया गया है। हैं। सिकोड़े हुए ओठपर वंशी रखकर बजाते हैं और वह कारण-तत्त्व वेदोंके लिये भी दुर्गभ्य है। विश्वको उसकी मीठी तानसे त्रिभुवनको मोहित करते हुए सबको विमुग्ध करनेवाले जो नाना प्रकारके सौरभ (सुगन्ध) हैं, प्रेम-सुधाके समुद्रमें निमग्न कर रहे हैं।
वे सब भगवद्विग्रहकी दिव्य सुगन्धके अनन्तकोटि पार्वतीजीने कहा-देवदेवेश्वर ! आपके अंशमात्र हैं। भगवान के स्पर्शसे ही पुष्पगन्ध आदि नाना उपदेशसे यह ज्ञात हुआ कि गोविन्द नामसे प्रसिद्ध सौरभोंका प्रादुर्भाव होता है। श्रीकृष्णको प्रियतमाभगवान् श्रीकृष्ण ही इस जगत्के परम कारण हैं। वे ही उनकी प्राणवल्लभा श्रीराधा हैं, वे ही आद्या प्रकृति कही परमपद हैं, वृन्दावनके अधीश्वर हैं तथा नित्य परमात्मा गयी हैं।
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण
श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
पार्वती बोलीं-दयानिधे! अब, भगवान् उम्र) वाली हैं। उन सबको कान्ति उज्ज्वल है। वे श्रीकृष्णके जो पार्षद हैं, उनका वर्णन सुननेकी इच्छा हो सब-की-सब श्याममय अमृतरसमें निमग्न रहती हैं। रही है; अतः बतलाइये।
उनके हृदयमे श्रीकृष्णके ही भाव स्फुरित होते हैं। वे महादेवजीने कहा-देवि! भगवान् श्रीकृष्ण अपने कमलवत् नेत्रोंके द्वारा पूजित श्रीकृष्णके श्रीराधाके साथ सुवर्णमय सिंहासनपर विराजमान हैं। चरणारविन्दोंमें अपना-अपना चित्त समर्पित कर उनका रूप और लावण्य वैसा ही है, जैसा कि पहले चुकी हैं। बताया गया है। वे दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण और श्रीराधा और चन्द्रावलीके दक्षिण भागमें श्रुतिदिव्य हारसे विभूषित हैं। उनकी त्रिभङ्गी छबि बड़ी कन्याएँ रहती हैं [वेदकी श्रुतियाँ ही इन कन्याओंके मनोहर जान पड़ती है। उनका स्वरूप अत्यन्त स्निग्ध है। रूपमें प्रकट हुई हैं] इनकी संख्या सहस्र अयुत (एक वे गोपियोंकी आँखोके तारे हैं। उपर्युक्त सिंहासनसे करोड़) है। इनकी मनोहर आकृति संसारको मोहित कर पृथक् एक योगपीठ है। वह भी सोनेके सिंहासनसे लेनेवाली है। इनके हृदयमें केवल श्रीकृष्णको लालसा आवृत है। उसके ऊपर ललिता आदि प्रधान-प्रधान है। ये नाना प्रकारके मधुर स्वर और आलाप आदिके सखियाँ, जो श्रीकृष्णको बहुत ही प्रिय हैं, विराजमान द्वारा त्रिभुवनको मुग्ध करनेकी शक्ति रखती हैं तथा प्रेमसे होती हैं। उनका प्रत्येक अङ्ग भगवन्पिलनको उत्कण्ठा विहल होकर श्रीकृष्णके गूढ़ रहस्योंका गान किया करती तथा रसावेशसे युक्त होता है। ये ललिता आदि सखियाँ हैं। इसी प्रकार श्रीराधा आदिके वामभागमें दिव्यवेषप्रकृतिको अंशभूता है। श्रीराधिका ही इनकी मूलप्रकृति धारिणी देवकन्याएं रहती हैं, जो रसातिरेकके कारण है। श्रीराधा और श्रीकृष्ण पश्चिमाभिमुख विराजमान हैं, अत्यन्त उज्ज्वल प्रतीत होती हैं। वे भाँति-भाँतिको उनकी पश्चिम दिशामें ललितादेवी विद्यमान है, प्रणयचातुरीमे निपुण तथा दिव्य भावसे परिपूर्ण हैं। वायव्यकोणमें श्यामला नामवाली सखी हैं। उत्तरमें उनका सौन्दर्य चरम सीमाको पहुँचा हुआ है। वे श्रीमती धन्या है। ईशानकोणमें श्रीहरिप्रियाजी विराज रही कटाक्षपूर्ण चितवनके कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ती हैं। पूर्वमें विशाखा, अग्निकोणमें शैव्या, दक्षिणमें पद्मा हैं। उनके मनमें श्रीकृष्णके प्रति तनिक भी संकोच नहीं तथा नैत्यकोणमें भद्रा हैं। इसी क्रमसे ये आठों है; उनके अङ्गोंका स्पर्श प्राप्त करनेके लिये सदा सखियाँ योगपीठपर. विराजमान हैं। योगपीठको उत्कण्ठित रहती है। उनका हृदय निरन्तर श्रीकृष्णके ही कर्णिकामें परमसुन्दरी चन्द्रावलीकी स्थिति है-वे भी चिन्तनमें मग्न रहता है। वे भगवान्की ओर मंद-मंद श्रीकृष्णकी प्रिया हैं। उपर्युक्त आठ सखियाँ श्रीकृष्णको मुसकाती हुई तिरछी चितवनर्स निहारा करती है। प्रिय लगनेवाली परमपवित्र आठ प्रधान प्रकृतियाँ हैं। तदनन्तर, मन्दिरके बाहर गोपगण स्थित होते है, वे वृन्दावनकी अधीश्वरी श्रीराधा तथा चन्द्रावली दोनों ही भगवान्के प्रिय सखा है, उन सबके वेष, अवस्था, बल, भगवान्की प्रियतमा है। इन दोनोंके आगे चलनेवाली पौरुष, गुण, कर्म तथा वस्त्राभूषण आदि एक समान है। हजारों गोपकन्याएँ हैं, जो गुण, लावण्य और सौन्दर्यमें वे एक समान स्वरसे गाते हुए वेणु बजाया करते हैं। एक समान हैं। उन सबके नेत्र विस्मयकारी गुणोंसे युक्त मन्दिरके पश्चिम द्वारपर श्रीदामा, उत्तरमें वसुदामा, पूर्वमें हैं। वे बड़ी मनोहर हैं। उनका वेष मनको मुग्ध कर सुदामा तथा दक्षिण द्वारपर किङ्किणीका निवास है। उस लेनेवाला है। वे सभी किशोर-अवस्था (पंद्रह वर्षकी स्थानसे पृथक् एक सुवर्णमय मन्दिरके भीतर सुवर्णवेदी
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पातालखण्ड ]
• श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन .
बनी हुई है। उसके ऊपर सोनेके आभूषणोंसे विभूषित समूचे घरके भीतरी भागमें प्रकाश फैला रहे थे। नग्न सुवर्णपीठ है, जिसके ऊपर अंशुभद्र आदि हजारों शिशुके रूपमें भगवान्की झाँकी करके नारदजोको बड़ा ग्वालबाल विराजते हैं। वे सब-के-सब एक समान सौंग, वीणा, वेणु, बेतकी छड़ी, किशोरावस्था, मनोहर वेष, सुन्दर आकार तथा मधुर स्वर धारण करते हैं। वे भगवान्के गुणोंका चिन्तन करते हुए उनका गान करते हैं तथा भगवत्-प्रेममय रससे विह्वल रहते हैं। ध्यानमें स्थिर होनेके कारण वे चित्र-लिखित-से जान पड़ते है। उनका रूप आश्चर्यजनक सौन्दर्यसे युक्त होता है। वे सदा आनन्दके आँसू बहाया करते हैं। उनके सम्पूर्ण अङ्गोंमें रोमाश छाया रहता है तथा वे योगीश्वरोकी भांति सदा विस्मयविमुग्ध रहते हैं। अपने थनोंसे दूध बहानेवाली असंख्य गौएँ उन्हें घेरे रहती है। वहाँसे बाहरके भागमें एक सोनेको चहारदिवारी है, जो करोड़ सूर्योक समान देदीप्यमान दिखायी देती है। उसके चारों
ओर बड़े-बड़े उद्यान हैं, जिनकी मनोहर सुगन्ध सब ओर फैली रहती है।
- . ---- जो मन और इन्द्रियोको वशमे रखते हुए सदा
.. पवित्र भावसे श्रीकृष्णचरित्रका भक्तिपूर्वक पाठ या हर्ष हुआ। वे भगवान्के प्रिय भक्त तो थे ही, गोपति श्रवण करता है, उसे भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है। नन्दजीसे बातचीत करके सब बातें बताने लगे,
पार्वतीजीने पूछा-भगवन् ! अत्यन्त मोहक 'नन्दरायजी ! भगवान्के भक्तोंका जीवन अत्यन्त दुर्लभ रूप धारण करनेवाले श्रीकृष्णने गोपियोंके साथ किन- होता है। आपके इस बालकका प्रभाव अनुपम है, इसे किन विशेषताओके कारण क्रीड़ा की, इस रहस्यका कोई नहीं जानता। शिव और ब्रह्मा आदि देवता भी मुझसे वर्णन कीजिये।
इसके प्रति सनातन प्रेम चाहते हैं। इस बालकका चरित्र - महादेवजीने कहा-देवि ! एक समयकी यात सवको हर्ष प्रदान करनेवाला होगा। भगवद्भक्त पुरुष है, मुनिश्रेष्ठ नारद यह जानकर कि श्रीकृष्णका प्राकटर इस बालककी लीलाओका श्रवण, गायन और हो चुका है, वीणा बजाते हुए नन्दजीके गोकुलमें पहुँचे। अभिनन्दन करते हैं। आपके पुत्रका प्रभाव अचिन्त्य है। वहाँ जाकर उन्होंने देखा महायोगमायाके स्वामी जिनका इसके प्रति हार्दिक प्रेम होगा, वे संसार-समुद्रसे सर्वव्यापी भगवान् अच्युत बालकका स्वाँग धारण किये तर जायेंगे। उन्हें इस जगत्की कोई बाधा नहीं सतायेगी; नन्दजीके घरमें कोमल बिछौनोंसे युक्त सोनेके पलंगपर अतः नन्दजी ! आप भी इस बालकके प्रति निरन्तर सो रहे हैं और गोपकन्याएँ बड़ी प्रसन्नताके साथ निरन्तर अनन्य भावसे प्रेम कीजिये।' उनकी ओर निहार रही हैं। भगवानका श्रीविग्रह अत्यन्त यों कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी नन्दके घरसे निकले। सुकुमार था। उनके काले-काले धुंघराले बाल सब ओर नन्दने भी भगवबुद्धिसे उनका पूजन किया और प्रणाम बिखरे हुए थे। किशित्-किशित् मुसकराहटके कारण करके उन्हें विदा दी। तदनन्तर वे महाभागवत मुनि उनके दो-एक दाँत दिखायी दे जाते थे। वे अपनी प्रभासे मन-ही-मन सोचने लगे, 'जब भगवान्का अवतार हो
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
हो चुका है, तो उनकी परम प्रियतमा भगवती भी अवश्य अवतीर्ण हुई होंगी। वे भगवान्की क्रीड़ाके लिये गोपी रूप धारण करके निश्चय ही प्रकट हुई होंगी, इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है; इसलिये अब मैं व्रजवासियोंके घर-घरमें घूमकर उनका पता लगाऊँगा।' ऐसा विचारकर मुनिवर नारदजी व्रजवासियोंके घरोंमें अतिथिरूपसे जाने और उनके द्वारा विष्णु-बुद्धिसे पूजित होने लगे। नन्द कुमार श्रीकृष्णमें समस्त गोप गोपियोंका प्रगाढ़ प्रेम देखकर नारदजीने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया।
तदनन्तर, बुद्धिमान् नारदजी किसी श्रेष्ठ गोपके विशाल भवनमें गये । वह नन्दके सखा महात्मा भानुका घर था। वहाँ जानेपर भानुने नारदजीका विधिवत् सत्कार किया। तत्पश्चात् महामना नारदजीने पूछा—'साधो ! तुम अपनी धर्मनिष्ठताके लिये इस भूमण्डलपर विख्यात हो, बताओ, क्या तुम्हें कोई योग्य पुत्र अथवा उत्तम लक्षणोंवाली कन्या है ?' मुनिके ऐसा कहनेपर भानुने अपने पुत्रको लाकर दिखाया। उसे देखकर नारदजीने कहा - 'तुम्हारा यह पुत्र बलराम और श्रीकृष्णका
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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श्रेष्ठ सखा होगा तथा आलस्यरहित होकर सदा उन दोनोंके साथ विहार करेगा।'
भानुने कहा- मुनिवर ! मेरे एक पुत्री भी है, जो इस बालककी छोटी बहिन है, कृपया उसपर भी दृष्टिपात कीजिये।
यह सुनकर नारदजीके मनमें बड़ा कौतूहल हुआ । उन्होंने घरके भीतर प्रवेश करके देखा, भानुकी कन्या धरतीपर लोट रही है। नारदजीने उसे अपनी गोद में उठा लिया। उस समय उनका चित्त अत्यधिक स्नेहके कारण विह्वल हो रहा था। महामुनि नारद भगवत्प्रेमके साक्षात् स्वरूप हैं। बालरूप श्रीकृष्णको देखकर उनकी जो अवस्था हुई थी, वही इस कन्याको भी देखकर हुई। उनका मन मुग्ध हो गया। वे एकमात्र रसके आश्रयभूत परमानन्दके समुद्रमें डूब गये। चार घड़ीतक नारदजी पत्थरकी भाँति निश्चेष्ट बैठे रहे। उसके बाद उन्हें चेत हुआ। फिर मुनीश्वरने धीरे-धीरे अपने दोनों नेत्र खोले और महान् आश्चर्यमें मन होकर वे चुपचाप स्थित हो गये। तत्पश्चात् वे महाबुद्धिमान् महर्षि मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगे- 'मैं सदा स्वच्छन्द विचरनेवाला हूँ, मैंने सभी लोकोंमें भ्रमण किया है, परन्तु रूपमें इस बालिकाकी समानता करनेवाली स्त्री कहीं नहीं देखी है। महामायास्वरूपिणी गिरिराज कुमारी भगवती उमाको भी देखा है, किन्तु वे भी इस बालिकाकी शोभाको कदापि नहीं पा सकतीं। लक्ष्मी, सरस्वती, कान्ति तथा विद्या आदि सुन्दरी स्त्रियाँ तो कभी इसके सौन्दर्यकी छायाका भी स्पर्श करती नहीं दिखायी देतीं; अतः मुझमें इसके तत्त्वको समझनेकी किसी प्रकार शक्ति नहीं है। यह भगवान्की प्रियतमा है, इसे प्रायः दूसरे लोग भी नहीं जानते। इसके दर्शनमात्रसे ही श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें मेरे प्रेमकी जैसी वृद्धि हुई है, वैसी आजके पहले कभी भी नहीं हुई थी; अतः अब मैं एकान्तमें इस देवीकी स्तुति करूंगा। इसका रूप श्रीकृष्णको अत्यन्त आनन्द प्रदान करनेवाला होगा।'
ऐसा विचारकर मुनिने गोप- प्रवर भानुको कहीं भेज दिया और स्वयं एकान्तमें उस दिव्य रूपधारिणी
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पातालखण्ड ]
• श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन •
बालिकाकी स्तुति करने लगे-'देवि ! तुम महायोगमयी मेरी धारणा है-मेरी बुद्धिमें यही बात आती है।
मायासे बालकरूप धारण करनेवाले परमेश्वर महाविष्णुकी जो मायामयी अचिन्त्य विभूतियाँ हैं, वे सब तुम्हारी अंशभूता हैं। तुम आनन्दरूपिणी शक्ति और सबकी ईश्वरी हो; इसमें तनिक भी संदेहकी बात नहीं है। निश्चय ही, भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनमें तुम्हारे ही साथ क्रीडा करते हैं। कुमारावस्थामें भी तुम अपने रूपसे विश्वको मोहित करनेकी शक्ति रखती हो। तुम्हारा जो स्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको परम प्रिय है. मैं उसका दर्शन करना चाहता हूँ। महेश्वरि ! मैं तुम्हारी शरणमें आया हूँ, चरणोंमें पड़ा हूँ मुझपर दया करके इस समय अपना वह मनोहर रूप प्रकट करो, जिसे देखकर नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण भी मोहित हो जायेंगे।'
यों कहकर देवर्षि नारदजी श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए इस प्रकार उनके गुणोंका गान करने लगे-'भक्तोंके चित्त चुरानेवाले श्रीकृष्ण ! तुम्हारी जय हो, वृन्दावनके
प्रेमी गोविन्द ! तुम्हारी जय हो। बाँकी भौहोंके कारण हो, मायाको अधीश्वरी हो। तुम्हारा तेजःपुञ्ज महान् है। अत्यन्त सुन्दर, वंशी बजानेमें व्यग्र, मोरपंखका मुकुट तुम्हारे दिव्याङ्ग मनको अत्यन्त मोहित करनेवाले हैं। तुम धारण करनेवाले गोपीमोहन ! तुम्हारी जय हो, जय हो। महान् माधुर्यकी वर्षा करनेवाली हो। तुम्हारा हृदय अपने श्रीअङ्गोंमें कुङ्कम लगाकर रत्नमय आभूषण धारण अत्यन्त अद्भुत रसानुभूति-जनित आनन्दसे शिथिल करनेवाले नन्दनन्दन ! तुम्हारी जय हो, जय हो। अपने रहता है। मेरा कोई महान् सौभाग्य था, जिससे तुम मेरे किशोरस्वरूपसे प्रेमीजनोंका मन मोहनेवाले जगदीश्वर ! नेत्रोंके समक्ष प्रकट हुई हो। देवि! तुम्हारी दृष्टि सदा वह दिन कब आयगा, जब कि मैं तुम्हारी ही कृपासे तुम्हें आन्तरिक सुखमें निमग्न दिखायी देती है। तुम भीतर-ही- अभिनव तरुणावस्थाके कारण अङ्ग-अङ्गमें मनोहरण भीतर किसी महान् आनन्दसे परितृप्त जान पड़ती हो। शोभा धारण करनेवाली इस दिव्यरूपा वालिकाके तुम्हारा यह प्रसन्न, मधुर एवं शान्त मुखमण्डल तुम्हारे साथ देखूगा।' अन्तःकरणमें किसी परम आश्चर्यमय आनन्दके उद्रेककी नारदजी जब इस प्रकार कीर्तन कर रहे थे, उसी सूचना दे रहा है। सृष्टि, स्थिति और संहार-तुम्हारे ही समय वह बालिका क्षणभरमें अत्यन्त मनोहर दिव्यरूप स्वरूप हैं, तुम्हीं इनका अधिष्ठान हो। तुम्हीं विशुद्ध धारण करके पुनः उनके सामने प्रकट हुई। वह रूप सत्त्वमयी हो तथा तुम्हीं पराविद्यारूपिणी उत्तम शक्ति हो। चौदह वर्षकी अवस्थाके अनुरूप और सौन्दर्यको चरम तुम्हारा वैभव आश्चर्यमय है। ब्रा और रुद्र आदिके सीमाको पहुँचा हुआ था। तत्काल ही उसीके समान लिये भी तुम्हारे तत्त्वका बोध होना कठिन है। बड़े-बड़े अवस्थावाली दूसरी व्रज-बालाएँ भी दिव्य वस्त्र, योगीश्वरोंके ध्यानमें भी तुम कभी नहीं आतीं। तुम्हीं आभूषण और मालाओसे सुसज्जित हो वहाँ आ पहुँचौं सबकी अधीश्वरी हो। इच्छा-शक्ति, ज्ञानशक्ति और तथा भानुकुमारीको सब ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं। क्रिया-शक्ति-ये सब तुम्हारे अंशमात्र हैं। ऐसी ही मुनीश्वर नारदजीकी स्तवन-शक्तिने जवाब दे दिया। वे
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• अर्धग्रस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्यपुराण
आश्चर्यसे मोहित हो गये, तब उन व्रजबालाओंने कृपा- अवस्था और रूपसे सबको मोहित करनेवाली यह पूर्वक अपनी सखीका चरणोदक लेकर मुनिके ऊपर छींटा श्रीकृष्णकी प्रियतमा हमारी सखी आज तुम्हारे समक्ष दिया। इस प्रकार जब वे होशमें आये तो बालिकाओंने प्रकट हुई है। निश्चय ही यह तुम्हारे किसी अचिन्त्य
सौभाग्यका प्रभाव है। ब्रह्मर्षे ! धैर्य धारण करके शीघ्र ही उठो, खड़े हो जाओ और इस देवीको प्रदक्षिणा करो; इसके चरणों में बारम्बार मस्तक झुका लो। फिर समय नहीं मिलेगा, यह अभी इसी क्षण अन्तर्धान हो जायगी। अब इसके साथ तुम्हारी बातचीत किसी तरह नहीं हो सकेगी।' ___व्रज-बालाओंका चित्त स्नेहसे विह्वल हो रहा था। उनकी बातें सुनकर नारदजी नाना प्रकारके वेषविन्याससे शोभा पानेवाली उस दिव्य बालाके चरणोंमें दो मुहूर्ततक पड़े रहे। तदनन्तर उन्होंने भानुको बुलाकर उस सर्वशोभा-सम्पन्न कन्याके सम्बन्धमें इस प्रकार कहा-'गोपश्रेष्ठ ! तुम्हारी इस कन्याका स्वरूप और स्वभाव दिव्य है। देवता भी इसे अपने वशमें नहीं कर सकते। जो घर इसके चरण-चिह्नोंसे विभूषित होगा,
वहाँ भगवान् नारायण सम्पूर्ण देवताओके साथ निवास
- करेंगे और भगवती लक्ष्मी भी सब प्रकारकी सिद्धियोंके कहा-मुनिश्रेष्ठ ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, महान् साथ वहाँ मौजूद रहेगी। अब तुम सम्पूर्ण आभूषणोंसे योगेश्वरोंके भी ईश्वर हो । तुम्हीने पराभक्तिके साथ सर्वेश्वर विभूषित इस सुन्दरी कन्याको परा देवीकी भांति भगवान् श्रीहरिकी आराधना की है। भक्तोंकी इच्छा पूर्ण समझकर इसको अपने घरमें यत्नपूर्वक रक्षा करो। करनेवाले भगवान्की उपासना वास्तवमें तुम्हारे ही द्वारा ऐसा कहकर भगवद्भक्तोमे श्रेष्ठ नारदजौने हुई है। यही कारण है कि ब्रह्मा और रुद्र आदि देवता, मन-ही-मन उस देवीको प्रणाम किया और उसीके सिद्ध, मुनीश्वर तथा अन्य भगवद्भक्तोंके लिये भी जिसे स्वरूपका चिन्तन करते हुए वे गहन वनके भीतर देखना और जानना कठिन है, वही अपनी अद्भुत चले गये।
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भगवानके परात्पर स्वरूप-श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्यका वर्णन
श्रीमहादेवजीने कहा-देवि ! महर्षि वेदव्यासने उनका स्तवन करते हुए कहा-भगवन् ! आप विषयोंसे विष्णुभक्त महाराज आम्बरीषसे जिस रहस्यका वर्णन विरक्त हैं। मैं आपको वारम्बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! किया था, वही मैं तुम्हें भी बतला रहा हूँ। एक समयकी जो परमपद, उद्वेगशून्य-शान्त है, जो सच्चिदानन्दबात है, राजा अम्बरीष बदरिकाश्रममें गये। वहाँ परम स्वरूप और परब्रह्मके नामसे प्रसिद्ध है, जिसे 'परम जितेन्द्रिय महर्षि वेदव्यास विराजमान थे। राजाने आकाश' कहा गया है, जो इस भौतिक जड आकाशसे विष्णु-धर्मको जाननेकी इच्छासे महर्षिको प्रणाम करके सर्वथा विलक्षण है, जहाँ किसी रोग-व्याधिका प्रवेश
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पातालखण्ड ] . भगवान के परात्पर स्वरूप-श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन .
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नहीं है तथा जिसका साक्षात्कार करके मुनिगण हो आया; मैंने श्रीकृष्णसे कहा-'मधुसूदन ! मैं भवसागरसे पार हो जाते है, उस अव्यक्त परमात्मामें मेरे आपहीके तत्त्वका यथार्थरूपसे साक्षात्कार करना चाहता मनकी नित्य स्थिति कैसे हो?'
हूँ। नाथ ! जो इस जगत्का पालक और प्रकाशक है; उपनिषदोमे जिसे सत्यस्वरूप परब्रह्म बतलाया गया है; आपका वही अद्भुत रूप मेरे समक्ष प्रकट हो-यही मेरी प्रार्थना है।'
श्रीभगवान्ने कहा-महर्षे ! [मेरे विषयमें लोगोंको भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं] कोई मुझे 'प्रकृति' कहते हैं, कोई पुरुष। कोई ईश्वर मानते हैं. कोई धर्म । किन्हीं-किन्हीक मतमें मैं सर्वथा भयरहित मोक्षस्वरूप हूँ। कोई भाव (सत्तास्वरूप) मानते है और कोई-कोई कल्याणमय सदाशिव बतलाते हैं। इसी प्रकार दूसरे लोग मुझे वेदान्तप्रतिपादित अद्वितीय सनातन ब्रह्म मानते हैं। किन्तु वास्तवमें जो सत्तास्वरूप और निर्विकार है, सत्-चित् और आनन्द ही जिसका विग्रह है तथा वेदोंमें जिसका रहस्य छिपा हुआ है, अपना वह पारमार्थिक स्वरूप आज तुम्हारे सामने प्रकट करता हूँ, देखो।।
राजन् ! भगवान्के इतना कहते ही मुझे एक
बालकका दर्शन हुआ, जिसके शरीरकी कान्ति नील वेदव्यासजी बोले-राजन् ! तुमने अत्यन्त गोपनीय प्रश्न किया है, जिस आत्मानन्दके विषयमें मैंने अपने पुत्र शुकदेवको भी कुछ नहीं बतलाया था, वही आज तुमको बता रहा हूँ; क्योंकि तुम भगवान्के प्रिय भक्त हो। पूर्वकालमें यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड जिसके रूपमें स्थित रहकर अव्यक्त और अविकारी स्वरूपसे प्रतिष्ठित था, उसी परमेश्वरके रहस्यका वर्णन किया जाता है, सुनो-प्राचीन समयमें मैंने फल, मूल, पत्र, जल, वायुका आहार करके कई हजार वर्षांतक भारी तपस्या की। इससे भगवान मुझपर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने ध्यानमें लगे रहनेवाले मुझ भक्तसे कहा'महामते ! तुम कौन-सा कार्य करना अथवा किस विषयको जानना चाहते हो? मैं प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे कोई वर माँगो। संसारका बन्धन तभीतक रहता है, जबतक कि मेरा साक्षात्कार नहीं हो जाता; यह मैं तुमसे सच्ची बात बता रहा हूँ।' यह सुनकर मेरे शरीरमें रोमाञ्च
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.अर्चयस्व पीकेशं यदीलसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
मेघके समान श्याम थी। वह गोपकन्याओं और ग्वाल- भी अनादिकालसे मेरा भक्त है, इसमें तनिक भी सन्देह बालोंसे घिरकर हंस रहा था । वे भगवान् श्यामसुन्दर थे, नहीं है। अहो ! कितने आश्चर्यकी बात है कि दूषित चित्तजो पीत वस्त्र धारण किये कदम्बकी जड़पर बैठे हुए थे। वाले मनुष्य मेरी इस उत्कृष्ट, सनातन एवं मनोरम पुरीको, उनकी झाँकी अद्भुत थी। उनके साथ ही नूतन पल्लवोंसे जिसको देवराज इन्द्र, नागराज अनन्त तथा बड़े-बड़े अलङ्कत 'वृन्दावन' नामवाला वन भी दृष्टिगोचर हुआ। मुनीश्वर भी स्तुति करते हैं, नहीं जानते। यद्यपि काशी इसके बाद मैंने नौल कमलकी आभा धारण करनेवाली आदि अनेकों मोक्षदायिनी पुरियाँ विद्यमान हैं, तथापि उन कलिन्दकन्या यमुनाके दर्शन किये। फिर गोवर्धन- सबमें मथुरापुरी ही धन्य है; क्योंकि यह अपने क्षेत्रमें जन्म, पर्वतपर दृष्टि पड़ी, जिसे श्रीकृष्ण तथा बलरामने इन्द्रका उपनयन, मृत्यु और दाह-संस्कार-इन चारों ही कारणोंसे घमंड चूर्ण करनेके लिये अपने हाथोंपर उठाया था। वह मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करती है। जब तप आदि साधनोंके पर्वत गौओं तथा गोपोंको बहुत सुख देनेवाला है । गोपाल द्वारा मनुष्योंके अन्तःकरण शुद्ध एवं शुभसङ्कल्पसे युक्त हो श्रीकृष्ण अबलाओंके साथ बैठकर बड़ी प्रसन्नताके साथ जाते हैं और वे निरन्तर ध्यानरूपी धनका संग्रह करने वेणु बजा रहे थे, उनके शरीरपर सब प्रकारके आभूषण लगते हैं, तभी उन्हें मथुराकी प्राप्ति होती है। मथुरावासी शोभा पा रहे थे। उनका दर्शन करके मुझे बड़ा हर्ष हुआ। धन्य है, वे देवताओंके भी माननीय हैं, उनकी महिमाकी तब वृन्दावनमें विचरनेवाले भगवान्ने स्वयं मुझसे गणना नहीं हो सकती। मथुरावासियोंके जो दोष हैं; वे नष्ट कहा-'मुने ! तुमने जो इस दिव्य सनातनरूपका दर्शन हो जाते हैं; उनमें जन्म लेने और मरनेका दोष नहीं देखा किया है, यही मेरा निष्कल, निष्क्रिय, शान्त और जाता । जो निरन्तर मथुरापुरीका चिन्तन करते हैं, वे निर्धन सच्चिदानन्दमय पूर्ण विग्रह है। इस कमललोचनस्वरूपसे होनेपर भी धन्य है, क्योंकि मथुरामें भगवान् भूतेश्वरका बढ़कर दूसरा कोई उत्कृष्ट तत्त्व नहीं है। वेद इसी निवास है, जो पापियोंको भी मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। स्वरूपका वर्णन करते हैं। यही कारणोंका भी कारण है। देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान् भूतेश्वर मुझको सदा ही प्रिय हैं; यही सत्य, परमानन्दस्वरूप, चिदानन्दघन, सनातन और क्योंकि वे मेरी प्रसन्नताके लिये कभी भी मथुरापुरीका शिवतत्व है। तुम मेरी इस मथुरापुरीको नित्य समझो। यह परित्याग नहीं करते। जो भगवान् भूतेश्वरको नमस्कार, वृन्दावन, यह यमुना, ये गोपकन्याएँ तथा ग्वाल-बाल उनका पूजन अथवा स्मरण नहीं करता, वह मनुष्य सभी नित्य है। यहाँ जो मेरा अवतार हुआ है, यह भी दुराचारी है। जो मेरे परम भक्त शिवका पूजन नहीं करता, नित्य है। इसमें संशय न करना। राधा मेरी सदाकी उस पापीको किसी तरह मेरी भक्ति नहीं प्राप्त होती । धुवने प्रियतमा है। मैं सर्वज्ञ, परात्पर, सर्वकाम, सर्वेश्वर तथा बालक होनेपर भी जहाँ मेरी आराधना करके उस परम सर्वानन्दमय परमेश्वर हूँ। मुझमें ही यह सारा विश्व, जो विशुद्ध स्थानको प्राप्त किया, जो उसके बाप-दादोंको भी मायाका विलासमात्र है, प्रतीत हो रहा है।
नहीं नसीब हुआ था; वह मेरी मथुरापुरी देवताओंके लिये " तब मैंने जगत्के कारणोंके भी कारण भगवानसे भी दुर्लभ है। वहाँ जाकर मनुष्य यदि लैंगड़ा या अंधा कहा-'नाथ ! ये गोपियाँ और स्वाल कौन है? तथा यह होकर भी प्राणोंका परित्याग करे तो उसकी भी मुक्ति हो वृक्ष कैसा है?' तब वे बड़े प्रेमसे बोले-'मुने! जाती है। महामना वेदव्यास ! तुम इस विषयमें कभी गोपियोंको श्रुतियाँ समझो तथा देवकन्याएँ भी इनके रूपमें सन्देह न करना । यह उपनिषदोंका रहस्य है, जिसे मैंने प्रकट हुई हैं। तपस्यामें लगे हुए मुमुक्षु मुनि ही इन ग्वाल- तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है। बालोंके रूपमें दिखायी दे रहे हैं। ये सभी मेरे आनन्दमय . जो मनुष्य पवित्र होकर भगवान्के श्रीमुखसे कहे हुए विग्रह हैं। यह कदम्ब कल्पवृक्ष है, जो परमानन्दमय इस अध्यायका भक्तिपूर्वक पाठ या श्रवण करता है, उसे श्रीकृष्णका एकमात्र आश्रय बना हुआ है तथा यह पर्वत भी सनातन मोक्षकी प्राप्ति होती है।
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पानालखण्ड ]
. श्रीकृष्णके द्वारा ब्रज तथा द्वारकामे निवास करनेवालोकी मुक्तिका वर्णन .
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भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
महादेवजी कहते हैं-देवि ! एक समयकी बात ब्रज और द्वारकापुरीमे निवास करनेवाले समस्त चराचर है, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकासे मथुरामें आये और वहाँसे प्राणियोंको भवबन्धनसे मुक्त करके उन्हें योगियोंके यमुना पार करके नन्दके ब्रजमें गये। वहाँ उन्होंने अपने ध्येयभूत परम सनातन धाममें स्थापित कर दिया। पिता नन्दजी तथा यशोदा मैयाको प्रणाम करके उन्हें तदनन्तर, वे स्वयं भी अपने परम धामको पधारे।। भलीभाँति सान्त्वना दी, फिर पिता-माताने भी उन्हें पार्वतीने कहा-भगवन् ! वैष्णवोंका जो यथार्थ छातीसे लगाया। इसके बाद वे बड़े-बूढ़े गोपोंसे मिले। धर्म है, जिसका अनुष्ठान करके सब मनुष्य भवसागरसे उन सबको आश्वासन दिया तथा बहुत-से वस्त्र और पार हो जाते हैं, उसका मुझसे वर्णन कीजिये। आभूषण आदि भेटमें देकर वहाँ रहनेवाले सब लोगोंको महादेवजीने कहा-देवि! प्रथम वैष्णवोंकी सन्तुष्ट किया।
द्वादश' प्रकारको शुद्धि बतायी जाती है। भगवान्के - तत्पश्चात् पावन वृक्षोंसे भरे हुए यमुनाके रमणीय मन्दिरको लोपना, भगवानकी प्रतिमाके पीछे-पीछे जाना तटपर गोपाङ्गनाओके साथ श्रीकृष्णने तीन राततक वहाँ तथा भक्तिपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा करना-ये तीन कर्म सुखपूर्वक निवास किया। उस समय उस स्थानपर अपने चरणोंकी शुद्धि करनेवाले हैं। भगवान्की पूजाके लिये पुत्रों और स्त्रियोंसहित नन्दगोप आदि सब लोग, यहाँतक भक्तिभावके साथ पत्र और पुष्पोंका संग्रह करना-यह कि पशु, पक्षी और मृग आदि भी भगवान् वासुदेवकी हाथोंकी शुद्धिका उपाय है। यह शुद्धि सब प्रकारको कृपासे दिव्य रूप धारण कर विमानपर आरूढ़ हुए और शुद्धियोंसे बढ़कर है। भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णके परम धाम-वैकुण्ठलोकको चले गये। इस प्रकार नाम और गुणोंका कीर्तन वाणीको शुद्धिका उपाय बताया नन्दके व्रजमें निवास करनेवाले सब लोगोंको अपना गया है। उनकी कथाका श्रवण और उत्सवका दर्शननिरामय पद प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण देवियों और ये दो कार्य क्रमशः कानों और नेत्रोंकी शुद्धि करनेवाले देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए शोभा-सम्पन्न कहे गये हैं। मस्तकपर भगवान्का चरणोदक, निर्माल्य द्वारकापुरीमें आये।
तथा माला धारण करना-ये भगवान्के चरणोंमें पड़े वहाँ वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध हुए पुरुषके लिये सिरकी शुद्धिके साधन हैं। भगवान्के और अक्रूर आदि यादव प्रतिदिन उनकी पूजा करते थे निर्माल्यभूत पुष्प आदिको सूंघना अन्तःशुद्धि तथा तथा वे विश्वरूपधारी भगवान् दिव्य रत्रोंद्वारा बने घ्राणशुद्धिका उपाय माना गया है। श्रीकृष्णके युगल लतागृहोंमें पारिजात-पुष्प बिछाये हुए मृदुल पलंगोंपर चरणोंपर चढ़ा हुआ पत्र-पुष्प आदि संसारमें एकमात्र शयन करके अपनी सोलह हजार आठ रानियोंके साथ पावन है, वह सभी अङ्गोंको शुद्ध कर देता है। विहार किया करते थे। इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंका, भगवानकी पूजा पाँच प्रकारकी बतायी गयी है। उन हित और समस्त भूभारका नाश करनेके लिये भगवान् पाँचों भेदोंको सुनो-अभिगमन, उपादान, योग, यदुवंशमें अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने सभी राक्षसोंका स्वाध्याय और इज्या-ये ही पूजाके पाँच प्रकार हैं; अब संहार करके पृथ्वीके महान् भारको दूर किया तथा नन्दके तुम्हें इनका क्रमशः परिचय दे रहा हूँ। देवताके स्थानको
१-दो पैर, दो हाथ, दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक मस्तक और एक अन्तःकरण-इन बारह अङ्गोंकी शुद्धि ही द्वादश शुद्धि है।
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
झाड़-बुहारकर साफ करना, उसे लीपना तथा पहलेके त्रिविक्रमको तथा चक्र, गदा, पद्य और शङ्खधारी चढ़े हुए निर्माल्यको दूर हटाना-'अभिगमन' कहलाता वामनमूर्तिको प्रणाम है। चक्र, पय, शङ्ख और गदा है। पूजाके लिये चन्दन और पुष्पादिके संग्रहका नाम धारण करनेवाले श्रीधररूपको नमस्कार है। चक्र, गदा, 'उपादान' है। अपने साथ अपने इष्टदेवकी आत्मभावना शङ्ख तथा पद्मधारी हृषीकेश ! आपको प्रणाम है। पद्य, करना अर्थात् मेरा इष्टदेव मुझसे भिन्न नहीं है, वह मेरा शङ्ख. गदा और चक्र ग्रहण करनेवाले पद्मनाभविग्रहको ही आत्मा है; इस तरहकी भावनाको दृढ़ करना 'योग' नमस्कार है। शङ्ख, गदा, चक्र और पद्मधारी दामोदर ! कहा गया है। इष्टदेवके मन्त्रका अर्थानुसन्धानपूर्वक आपको मेरा प्रणाम है। शङ्ख, कमल, चक्र तथा गदा जप करना 'स्वाध्याय' है। सूक्त और स्तोत्र आदिका धारण करनेवाले संकर्षणको नमस्कार है। चक्र, शङ्ख पाठ, भगवान्का कीर्तन तथा भगवत्-तत्त्व आदिका गदा तथा पासे युक्त भगवान् वासुदेव ! आपको प्रणाम प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका अभ्यास भी 'स्वाध्याय' है। शङ्ख, चक्र, गदा और कमल आदिके द्वारा प्रद्युम्नमूर्ति कहलाता है। अपने आराध्यदेवकी यथार्थ विधिसे पूजा धारण करनेवाले भगवान्को नमस्कार है। गदा, शङ्ख, करनेका नाम 'इज्या' है। सुव्रते! यह पाँच प्रकारकी कमल तथा चक्रधारी अनिरुद्धको प्रणाम है। पद्म, शद्ध, पूजा मैंने तुम्हें बतायी। यह क्रमशः सार्टि, सामीप्य, गदा और चक्रसे चिह्नित पुरुषोत्तमरूपको नमस्कार है। सालोक्य, सायुज्य और सारूप्य नामक मुक्ति प्रदान गदा, शङ्ख, चक्र और पद्य ग्रहण करनेवाले अधोक्षजको करनेवाली है।
प्रणाम है। पद्य, गदा, शङ्ख और चक्र धारण करनेवाले अव प्रसङ्गवश शालग्राम-शिलाकी पूजाके नृसिंह भगवान्को नमस्कार है। पद्म, चक्र, शङ्ख और सम्बन्धमें कुछ निवेदन करूंगा। चार भुजाधारी भगवान् गदा लेनेवाले अच्युतस्वरूपको प्रणाम है। गदा, पद्म, विष्णुके दाहिनी एवं ऊर्ध्वभुजाके क्रमसे अस्त्रविशेष चक्र और शङ्खधारी श्रीकृष्णविग्रहको नमस्कार है। ग्रहण करनेपर केशव आदि नाम होते हैं अर्थात्, दाहिनी जिस शालग्राम-शिलामें द्वार-स्थानपर परस्पर सटे
ओरका ऊपरका हाथ, दाहिनी ओरका नीचेका हाथ, हुए दो चक्र हो, जो शुरुवर्णकी रेखासे अङ्कित और बायों ओरका ऊपरका हाथ और बायीं ओरका नीचेका शोभासम्पन्न दिखायी देती हों, उसे भगवान् श्रीगदाधरका हाथ-इस क्रमसे चारों हाथोंमें शङ्ख, चक्र आदि स्वरूप समझना चाहिये । सङ्कर्षणमूर्तिमें दो सटे हुए चक्र आयुधोंको क्रम या व्यतिक्रमपूर्वक धारण करनेपर होते हैं, लाल रेखा होती है और उसका पूर्वभाग कुछ भगवान्की भिन्न-भिन्न संज्ञाएँ होती है। उन्हीं संज्ञाओंका मोटा होता है। प्रद्युम्नके स्वरूपमें कुछ-कुछ पीलापन निर्देश करते हुए यहाँ भगवान्का पूजन बतलाया जाता होता है और उसमें चक्रका चिह्न सूक्ष्म रहता है। है। उपर्युक्त क्रमसे चारों हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और अनिरुद्धकी मूर्ति गोल होती है और उसके भीतरी भागमें पद्म धारण करनेवाले विष्णुका नाम 'केशव' है। पद्य, गहरा एवं चौड़ा छेद होता है; इसके सिवा, वह गदा, चक्र और शङ्कके क्रमसे शस्त्र धारण करनेपर उन्हें द्वारभागमें नौलवर्ण और तीन रेखाओंसे युक्त भी होती 'नारायण' कहते हैं। क्रमशः चक्र, शङ्ख, पद्म और गदा है। भगवान् नारायण श्यामवर्णके होते हैं, उनके ग्रहण करनेसे वे 'माधव' कहलाते हैं। गदा, पद्म, शङ्ख मध्यभागमें गदाके आकारकी रेखा होती है और उनका
और चक्र—इस क्रमसे आयुध धारण करनेवाले नाभि-कमल बहुत ऊँचा होता है। भगवान् नृसिंहकी भगवान्का नाम 'गोविन्द है। पद्य, शङ्ख, चक्र और मूर्तिमें चक्रका स्थूल चिह्न रहता है, उनका वर्ण कपिल गदाघारी विष्णुरूप भगवानको प्रणाम है। शङ्ख, पद्म, होता है तथा वे तीन या पाँच विन्दुओंसे युक्त होते हैं। गदा और चक्र धारण करनेवाले मधुसूदन-विग्रहको ब्रह्मचारीके लिये उन्हींका पूजन विहित है। वे भक्तोंकी नमस्कार है। गदा, चक्र, शङ्ख और पद्मसे युक्त रक्षा करनेवाले हैं। जिस शालग्राम-शिलामें दो चक्रके
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पातालखण्ड]
• श्रीकृष्णके द्वारा ब्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्तिका वर्णन .
५६३
चिह्न विषमभावसे स्थित हो, तीन लिङ्ग हो तथा तीन चतुर्वृह चारसे, वासुदेव पाँचसे, प्रद्युम्न छ-से, संकर्षण रेखाएं दिखायी देती हो; वह वाराह भगवान्का स्वरूप है, सातसे, पुरुषोत्तम आठसे, नवव्यूह नवसे, दशावतार उसका वर्ण नील तथा आकार स्थूल होता है। भगवान् दससे, अनिरुद्ध ग्यारहसे और द्वादशात्मा बारह चक्रोंसे वाराह भी सबकी रक्षा करनेवाले हैं। कच्छपकी मूर्ति युक्त होकर जगत्की रक्षा करते हैं। इससे अधिक चक्रश्यामवर्णकी होती है। उसका आकार पानीको भंवरके चिह्न धारण करनेवाले भगवान्का नाम अनन्त है। दण्ड, समान गोल होता है। उसमें यत्र-तत्र विन्दुओंके चिह्न कमण्डलु और अक्षमाला धारण करनेवाले चतुर्मुख देखे जाते हैं तथा उसका पृष्ठ-भाग श्वेत रंगका होता है। ब्रह्मा तथा पाँच मुख और दस भुजाओंसे सुशोभित श्रीधरकी मूर्तिमें पाँच रेखाएँ होती हैं, वनमालीके वृषध्वज महादेवजी अपने आयुधोंसहित शालग्रामस्वरूपमें गदाका चिह्न होता है। गोल आकृति, शिलामें स्थित रहते हैं। गौरी, चण्डी, सरस्वती और मध्यभागमें चक्रका चिह्न तथा नीलवर्ण, यह वामन- महालक्ष्मी आदि माताएँ, हाथमें कमल धारण करनेवाले मूर्तिकी पहचान है। जिसमें नाना प्रकारको अनेको सूर्यदेव, हाथीके समान कंधेवाले गजानन गणेश, छः मूर्तियो तथा सर्प-शरीरके चिह्न होते हैं, वह भगवान् मुखोवाले स्वामी कार्तिकेय तथा और भी बहुत-से अनन्तकी प्रतिमा है। दामोदरकी मूर्ति स्थूलकाय एवं देवगण शालग्राम-प्रतिमामें मौजूद रहते हैं, अतः नीलवर्णकी होती है। उसके मध्यभागमें चक्रका चिह्न मन्दिरमें शालग्रामशिलाको स्थापना अथवा पूजा करनेपर होता है। भगवान् दामोदर नौल चिह्नसे युक्त होकर ये उपर्युक्त देवता भी स्थापित और पूजित होते हैं। जो सङ्कर्षणके द्वारा जगत्की रक्षा करते हैं। जिसका वर्ण पुरुष ऐसा करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लाल है, तथा जो लम्बी-लम्बी रेखा, छिद्र, एक चक्र आदिकी प्राप्ति होती है।
और कमल आदिसे युक्त एवं स्थूल है, उस शालग्रामको गण्डकी अर्थात् नारायणी नदीके एक प्रदेशमें ब्रह्माकी मूर्ति समझनी चाहिये। जिसमें बृहत् छिद्र, स्थूल शालग्रामस्थल नामका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँसे चक्रका चिह्न और कृष्ण वर्ण हो, वह श्रीकृष्णका स्वरूप निकलनेवाले पत्थरको शालग्राम कहते हैं। शालग्रामहै। वह विन्दुयुक्त और विन्दुशून्य दोनों ही प्रकारका देखा शिलाके स्पर्शमात्रसे करोड़ों जन्मोंके पापका नाश हो जाता है। हयग्रीव मूर्ति अङ्कशके समान आकारवाली जाता है। फिर यदि उसका पूजन किया जाय, तब तो और पाँच रेखाओंसे युक्त होती है। भगवान् वैकुण्ठ उसके फलके विषयमें कहना ही क्या है; वह भगवान्के कौस्तुभमणि धारण किये रहते हैं। उनकी मूर्ति बड़ी समीप पहुँचानेवाला है। बहुत जन्मोंके पुण्यसे यदि कभी निर्मल दिखायी देती है। वह एक चक्रसे चिह्नित और गोष्पदके चिह्नसे युक्त श्रीकृष्ण-शिला प्राप्त हो जाय तो श्याम वर्णकी होती है। मत्स्य भगवान्की मूर्ति बृहत् उसीके पूजनसे मनुष्यके पुनर्जन्मकी समाप्ति हो जाती है। कमलके आकारकी होती है। उसका रंग श्वेत होता है पहले शालग्राम-शिलाको परीक्षा करनी चाहिये; यदि तथा उसमें हारकी रेखा देखी जाती है। जिस शालग्रामका वह काली और चिकनी हो तो उत्तम है। यदि उसकी वर्ण श्याम हो, जिसके दक्षिण भागमें एक रेखा दिखायी कालिमा कुछ कम हो तो वह मध्यम श्रेणीको मानी गयी देती हो तथा जो तीन चक्रोंके चिह्नसे युक्त हो, वह है और यदि उसमें दूसरे किसी रंगका सम्मिश्रण हो तो भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका स्वरूप है. वे भगवान् सबकी वह मिश्रित फल प्रदान करनेवाली होती है। जैसे सदा रक्षा करनेवाले हैं। द्वारकापुरीमें स्थित शालग्रामस्वरूप काठके भीतर छिपी हुई आग मन्थन करनेसे प्रकट होती भगवान् गदाधरको नमस्कार है, उनका दर्शन बड़ा ही है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी उत्तम है। वे भगवान् गदाधर एक चक्रसे चिह्नित देखे शालग्रामशिलामें विशेषरूपसे अभिव्यक्त होते है। जो जाते हैं। लक्ष्मीनारायण दो चक्रोसे, त्रिविक्रम तीनसे, प्रतिदिन द्वारकाकी शिला-गोमतीचक्रसे युक्त बारह संप पुः १९
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अर्चयव वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
शालग्राममूर्तियोंका पूजन करता है, वह वैकुण्ठलोकमें यदि पी लिया जाय तो वह करोड़ों जन्मोंके पापका नाश प्रतिष्ठित होता है। जो मनुष्य शालग्राम-शिलाके भीतर करनेवाला होता है। गुफाका दर्शन करता है, उसके पितर तृप्त होकर कल्पके भगवान्के मन्दिरमें खड़ाऊँ या सवारीपर चढ़कर अन्ततक स्वर्गमें निवास करते हैं। जहाँ द्वारकापुरीकी जाना, भगवत्-सम्बन्धी उत्सवोंका सेवन न करना, शिला-अर्थात् गोमतीचक्र रहता है, वह स्थान भगवान्के सामने जाकर प्रणाम न करना, उच्छिष्ट या वैकुण्ठलोक माना जाता है; वहाँ मृत्युको प्राप्त हुआ अपवित्र अवस्थामें भगवान्की वन्दना करना, एक मनुष्य विष्णुधाममें जाता है। जो शालग्राम-शिलाकी हाथसे प्रणाम करना, भगवान के सामने ही एक स्थानपर कीमत लगाता है, जो बेचता है, जो विक्रयका अनुमोदन खड़े-खड़े प्रदक्षिणा करना, भगवान्के आगे पाँव करता है तथा जो उसकी परीक्षा करके मूल्यका समर्थन फैलाना, पलंगपर बैठना, सोना, खाना, झूठ बोलना, करता है, वे सब नरकमें पड़ते हैं। इसलिये देवि! जोर-जोरसे चिल्लाना, परस्पर बात करना, रोना, झगड़ा शालग्रामशिला और गोमतीचक्रकी खरीद-विक्री छोड़ करना, किसीको दण्ड देना, अपने बलके घमंडमें आकर देनी चाहिये। शालग्राम-स्थलसे प्रकट हुए भगवान् किसीपर अनुग्रह करना, स्त्रियोंके प्रति कठोर बात शालग्राम और द्वारकासे प्रकट हुए गोमतीचक्र-इन कहना, कम्बल ओढ़ना, दूसरेकी निन्दा, परायी स्तुति, दोनों देवताओंका जहाँ समागम होता है, वहाँ मोक्ष गाली बकना, अधोवायुका त्याग (अपशब्द) करना मिलनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। द्वारकासे प्रकट हुए शक्ति रहते हुए गौण उपचारोसे पूजा करना-मुख्य गोमतीचक्रसे युक्त, अनेको चक्रोसे चिहित तथा उपचारोंका प्रबन्ध न करना, भगवान्को भोग लगाये चकासन-शिलाके समान आकारवाले भगवान् शालग्राम बिना ही भोजन करना, सामयिक फल आदिको साक्षात् चित्स्वरूप निरञ्जन परमात्मा ही हैं। ओङ्काररूप भगवान्की सेवामें अर्पण न करना, उपयोगमें लानेसे तथा नित्यानन्दस्वरूप शालग्रामको नमस्कार है। बचे हुए भोजनको भगवान्के लिये निवेदन करना, महाभाग शालग्राम ! मैं आपका अनुग्रह चाहता हूँ। भोजनका नाम लेकर दूसरेकी निन्दा तथा प्रशंसा करना, प्रभो ! मैं ऋणसे ग्रस्त हूँ, मुझ भक्तपर अनुग्रह कीजिये। गुरुके समीप मौन रहना, आत्म-प्रशंसा करना तथा
अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तिलककी विधिका वर्णन देवताओंको कोसना-ये विष्णुके प्रति बत्तीस अपराध करता हूँ। ललाटमें केशव, कण्ठमें श्रीपुरुषोत्तम, नाभिमें बताये गये है। 'मधुसूदन ! मुझसे प्रतिदिन हजारों नारायणदेव, हृदयमें वैकुण्ठ, बायीं पसलीमें दामोदर, अपराध होते रहते हैं; किन्तु मैं आपका ही सेवक हूँ, दाहिनी पसलीमें त्रिविक्रम, मस्तकपर हषीकेश, पीठमें ऐसा समझकर मुझे उनके लिये क्षमा करें। * इस पद्मनाभ, कानोंमें गङ्गा-यमुना तथा दोनों भुजाओंमें मन्त्रका उच्चारण करके भगवान्के सामने पृथ्वीपर श्रीकृष्ण और हरिका निवास समझना चाहिये। उपर्युक्त दण्डकी भाँति पड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम करना चाहिये। स्थानोंमें तिलक करनेसे ये बारह देवता संतुष्ट होते हैं। ऐसा करनेसे भगवान् श्रीहरि सदा हजारों अपराध क्षमा तिलक करते समय इन बारह नामोंका उच्चारण करना करते हैं। द्विजातियोंके लिये सबेरे और शाम-दो ही चाहिये। जो ऐसा करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर समय भोजन करना वेदविहित है। गोल लौकी, लहसुन, विष्णुलोकको जाता है। भगवान्के चरणोदकको पीना ताड़का फल और भाँटा-इन्हें वैष्णव पुरुषोंको नहीं चाहिये और पुत्र, मित्र तथा स्त्री आदि समस्त परिवारके खाना चाहिये। वैष्णवके लिये बड़, पीपल, मदार, शरीरपर उसे छिड़कना चाहिये। श्रीविष्णुका चरणोदक कुम्भी, तिन्दुक, कोविदार (कचनार) और कदम्बके
* अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निश
मया । तवाहमिति मा मत्वा क्षमस्व मधुसूदन ॥ (७९ । ४४)
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पातालखण्ड ]
नाम-कीर्तनकी महिमा तथा भगवान्की विशेष आराधनाका वर्णन .
पत्तेमें भोजन करना निषिद्ध है। जला हुआ तथा भगवान्को अर्पण न किया हुआ अत्र, जम्बीर और बिजौरा नीबू, शाक तथा खाली नमक भी वैष्णवको नहीं खाना चाहिये। यदि दैवात् कभी खा ले तो भगवन्नामका स्मरण करना चाहिये। हेमन्त ऋतुमें उत्पन्न होनेवाला सफेद धान जो सड़ा हुआ न हो, मूँग, तिल, यव, केराव, कंगनी, नीवार (तीना), शाक, हिलमोचिका (हिलसा), कालशाक, बथुवा, मूली, दूसरे दूसरे मूल-शाक, सेंधा और साँभर नमक, गायका दही, गायका घी, बिना माखन निकाला हुआ गायका दूध, कटहल, आम, हरें, पिप्पली, जीरा, नारङ्गी, इमली, केला, लवली (हरफा रेवरी), आँवलेका फल, गुड़के सिवा इखके रससे तैयार होनेवाली अन्य सभी वस्तुएँ तथा विना तेलके पकाया हुआ अत्र – इन सभी खाद्य पदार्थोंको मुनिलोग हविष्यात्र कहते हैं।
जो मनुष्य तुलसीके पत्र और पुष्प आदिसे युक्त माला धारण करता है, उसको भी विष्णु ही समझना चाहिये। आँवलेका वृक्ष लगाकर मनुष्य विष्णुके समान हो जाता है। आँवलेके चारों ओर साढ़े तीन सौ हाथकी
भूमिको कुरुक्षेत्र जानना चाहिये। तुलसीकी लकड़ीके रुद्राक्षके समान दाने बनाकर उनके द्वारा तैयार की हुई माला कण्ठमें धारण करके भगवान्का पूजन आरम्भ करना चाहिये। भगवान्को चढ़ायी हुई तुलसीकी माला मस्तकपर धारण करे तथा भगवान्को अर्पण किये हुए चन्दनके द्वारा अपने अङ्गपर भगवान्का नाम लिखे । यदि तुलसीके काष्ठकी बनी हुई मात्रओंसे अलङ्कृत होकर मनुष्य देवताओं और पितरोंके पूजनादि कार्य करे तो वह कोटिगुना फल देनेवाला होता है। जो मनुष्य तुलसीके काष्ठकी बनी हुई माला भगवान् विष्णुको अर्पित करके पुनः प्रसादरूपसे उसको भक्तिपूर्वक धारण करता है, उसके पातक नष्ट हो जाते हैं। पाद्य आदि उपचारोंसे तुलसीकी पूजा करके इस मन्त्रका उच्चारण करे – जो दर्शन करनेपर सारे पापसमुदायका नाश कर देती है, स्पर्श करनेपर शरीरको पवित्र बनाती है, प्रणाम करनेपर रोगोंका निवारण करती है, जलसे सींचनेपर यमराजको भी भय पहुँचाती है, आरोपित करनेपर भगवान् श्रीकृष्णके समीप ले जाती है और भगवान्के चरणोंमें चढ़ानेपर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवीको नमस्कार है। * ⭑
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पार्वतीजीने पूछा- कृपानिधे ! विषयरूपी माहोंसे भरे हुए भयङ्कर कलियुगके आनेपर संसारके सभी मनुष्य पुत्र, स्त्री और धन आदिकी चिन्तासे व्याकुल रहेंगे, ऐसी दशामें उनके उद्धारका क्या उपाय है ? यह बतानेकी कृपा कीजिये 1
महादेवजीने कहा-देवि ! कलियुगमें केवल हरिनाम ही संसारसमुद्रसे पार लगानेवाला है। जो लोग प्रतिदिन 'हरे राम हरे कृष्ण' आदि प्रभुके मङ्गलमय नामोंका उच्चारण करते हैं, उन्हें कलियुग बाधा नहीं
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नाम - कीर्तनकी महिमा, भगवान्के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्की विशेष आराधनाका वर्णन
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पहुँचाता, अतः बीच-बीचमें जो आवश्यक कर्म प्राप्त हों, उन्हें करते-करते भगवान्के नामोंका भी स्मरण करते रहना चाहिये। जो बारम्बार 'कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण' की रट लगाता रहता है तथा मेरे और तुम्हारे नामका भी व्यतिक्रमपूर्वक अर्थात् गौरीशङ्कर आदि कहकर जप किया करता है, वह भी जैसे आग रूईकी ढेरीको जला डालती है उसी प्रकार अपनी पाप राशिको भस्म करके उससे मुक्त हो जाता है। जय अथवा श्रीशब्दपूर्वक जो तुम्हारा मेरा या श्रीकृष्णका मङ्गलमय नाम है, उसका
* या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी । प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता न्यस्ता तचरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः ॥
(७९ । ६६)
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. अर्चयस्थ हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
जप करनेसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। दिन, रात और बीचकी ओर अङ्कशका चिह्न है, जो भक्तोंके चित्तरूपी सन्ध्या-सभी समय नाम-स्मरण करना चाहिये । दिन- हाथीका दमन करनेवाला है। श्रीहरि अपने अङ्गष्टके रात हरि-नामका जप करनेवाला पुरुष श्रीकृष्णका प्रत्यक्ष पर्वमें भोग-सम्पत्तिके प्रतीकभूत यवका चिह्न धारण दर्शन पाता है। अपवित्र हो या पवित्र, सब समय, करते हैं तथा मूल-भागमें गदाकी रेखा है, जो समस्त निरन्तर भगवन्नामका स्मरण करनेसे वह क्षणभरमें देहधारियोंके पापरूपी पर्वतको चूर्ण कर डालनेवाली है। भव-बन्धनसे छुटकारा पा जाता है।* भगवानका नाम इतना ही नहीं, वे अजन्मा भगवान् सम्पूर्ण विद्याओंको नाना प्रकारके अपराधोंसे युक्त मनुष्यका पाप भी हर प्रकाशित करनेके लिये भी पद्म आदि चिह्नको धारण लेता है। कलियुगमे यज्ञ, व्रत, तप और दान-कोई भी करते हैं। दाहिने पैरमें जो-जो चिह्न हैं, उन्हीं-उन्हीं कर्म सब अङ्गोंसे पूर्ण नहीं उतरता; केवल गङ्गाका स्रान चिह्नोंको करुणानिधान प्रभु अपने बायें पैरमें भी धारण
और हरि-नामका कीर्तन-ये ही दो साधन विघ्न- करते हैं। इसलिये गोविन्दके माहात्म्यका, जो आनन्दमय बाधाओंसे रहित हैं। कल्याणी ! हत्याजनित हजारों रसके कारण अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है, सदा श्रवण भयङ्कर पाप तथा दूसरे-दूसरे पातक भी भगवान्के और कीर्तन करना चाहिये। ऐसा करनेवाले मनुष्यकी गोविन्द नामका उच्चारण करनेसे नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य मुक्ति होने में तनिक भी सन्देह नहीं है। अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी दशा में क्यों न अब मैं प्रत्येक मासका वह कृत्य बतला रहा है, स्थित हो, जो पुण्डरीकाक्ष (कमल-नयन) भगवान् जो भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाला है। जेठके विष्णुका स्मरण करता है, वह बाहर और भीतर-सब महीनेमें पूर्णिमा तिथिको स्रान आदिसे पवित्र होकर
ओरसे पवित्र हो जाता है। । केवल भगवन्नामोंके यापूर्वक श्रीहरिका स्नानोत्सव मनाना चाहिये, इससे स्मरणसे तथा भगवान्के चरणोंका चिन्तन करनेसे शुद्धि दिन, पक्ष, मास, ऋतु और वर्षभरके पाप नष्ट हो जाते होती है। सोने, चाँदी, भिगोये हुए आटे अथवा हैं। कोटि-कोटि सहस्र जो पातक और उपपातक होते पुष्प-मालाके द्वारा भगवान्के चरणोंकी आकृति बनाकर हैं, उन सबका नाश हो जाता है। नानके समय कलशमें उसे चक्र आदि चिह्नोंसे अङ्कित कर ले, उसके बाद जल लेकर भगवान्के मस्तकपर धीरे-धीरे गिराना पूजन आरम्भ करे। पूजनके समय भगवचरणोंका इस चाहिये और पुरुषसूक्तके मन्त्रों तथा पावमानी प्रकार ध्यान करे-भगवान् अपने दाहिने पैरके ऋचाओंका क्रमशः पाठ करते रहना चाहिये । नारियलअँगूठेकी जड़में प्रणतजनोंके संसार-बन्धनका उच्छेद युक्त जल, तालफलसे युक्त जल, रत्लमिश्रित जल, करनेके लिये चक्रका चिह्न धारण करते हैं। मध्यमा चन्दनमिश्रित जल तथा पुष्पयुक्त जल-इन पाँच अँगुलीके मध्यभागमें अच्युतने अत्यन्त सुन्दर कमलका उपचारोंसे स्नान कराकर अपने वैभव-विस्तारके अनुसार चिह्न धारण कर रखा है; उसका उद्देश्य है-ध्यान भगवानकी आराधना करे। तत्पश्चात् 'घं घण्टायै नमः' करनेवाले भक्तोंके चित्तरूपी भ्रमरको लुभाना। कमलके इस मन्त्रको पढ़कर घण्टा बजावे और इस प्रकार नीचे वे ध्वजका चिह्न धारण करते हैं, जो मानो समस्त प्रार्थना करे-'अपनी ऊँची आवाजसे पतितोंकी अनर्थोंको परास्त करके फहरानेवाली विजय-ध्वजा है। पातकराशिका निवारण करनेवाली घण्टे! घोर कनिष्ठिका अँगुलोको जड़मे वनका चिह्न है, जो भक्तोंकी संसारसागरमें पड़े हुए मुझ पापीकी रक्षा करो।' जो पापराशिको विदीर्ण करनेवाला है। पैरके पार्श्व-भागमें श्रोत्रिय विद्वान् ब्राह्मण पवित्रभावसे इस प्रकार भगवानकी
* अशुचिर्वा शुचिर्वापि सर्वकालेषु सर्वदा । नामसंस्मरणादेव संसारापुच्यते क्षणात् ।। (८०।७.८) + अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽगि या । यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाहाभ्यन्तरः शुचिः ।। (८०।११)
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पातालखण्ड ]
• नाम-कीर्तनकी महिमा तथा भगवानकी विशेष आराधनाका वर्णन .
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आराधना करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णु- करानेसे अवश्य पूर्ण हो जाती है। माधके शुक्लपक्षमें लोकमें जाता है।
वसन्त पञ्चमीको भगवान् केशवको नहलाकर आमके आषाढ़ शुक्ला द्वितीयाको भगवान्को सवारी पल्लव तथा भाँति-भांतिके सुगन्धित चूर्ण आदिके द्वारा निकालकर रथयात्रा-सम्बन्धी उत्सव करना चाहिये। विधिपूर्वक उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् 'जय कृष्ण' तथा आषाढ़ शुक्रा एकादशीको भगवान्के शयनका कहकर भगवान्का स्मरण करते हुए उन्हें एक मनोहर उत्सव मनाना चाहिये फिर श्रावणके महीनेमें श्रावणीकी उपवन में प्रदक्षिणभावसे ले जाय और वहाँ दोलोत्सव विधिका पालन करना उचित है। भाद्रपद कृष्ण मनावे। उक्त उपवनको प्रज्वलित दीपकोंके द्वारा अष्टमीको भगवान् श्रीकृष्ण जन्मका दिन है, उस दिन प्रकाशित किया जाय । उसमें ऐसे-ऐसे वृक्ष हों, जो सभी व्रत रखना चाहिये। तत्पश्चात् आश्विनके महीनेमें सोये ऋतुओंमें फूलोंसे भरे रहें । फल-फूलोंसे सुशोभित नाना हुए भगवान्के करवट बदलनेका उत्सव मनाना उचित प्रकारके वृक्ष, पुष्पनिर्मित चैदोवे, जलसे भरे हुए घट, है। उसके बाद समयानुसार श्रीहरिके शयनसे उठनेका आमकी छोटी-बड़ी शाखाएँ तथा छत्र और चैवर आदि उत्सव करे, अन्यथा वह मनुष्य विष्णुका द्रोह करनेवाला वस्तुएँ उस वनकी शोभा बढ़ा रही हो। कलियुगमें माना जाता है। आश्विनके शुक्लपक्षमें भगवती विशेषरूपसे दोलोत्सवका विधान है। फाल्गुनकी महामायाका भी पूजन करना कर्तव्य है। उस समय चतुर्दशीको आठवें पहरमें अथवा पूर्णमासी या विष्णुरूपा भगवतीकी सोने या चाँदीकी प्रतिमा बना लेनी प्रतिपदाकी सन्धिमें भगवान्की भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा चाहिये। हिंसा और द्वेषका परित्याग करना चाहिये; करे। उस समय श्वेत, लाल, गौर तथा पीले-इन चार क्योंकि विष्णुकी पूजा करनेवाला पुरुष धर्मात्मा होता है प्रकारके चूोका उपयोग करे, उनमें कर्पूर आदि [और हिंसा, द्वेष आदि महान् अधर्म है] । कार्तिक सुगन्धित पदार्थ मिले होने चाहिये। हल्दीका रंग मिला पुण्यमास है; उसमें इच्छानुसार पुण्य करे। भगवान् देनेसे उन चूणोंक रंग तथा रूप और भी मनोहर हो जाते दामोदरके लिये प्रतिदिन किसी ऊँचे स्थानपर दीपदान है। इनके सिवा, अन्य प्रकारके रंग-रूपवाले चूर्णोद्वारा करना उचित है। दीपक चार अङ्गलका चौड़ा हो और भी परमेश्वरको प्रसन्न करे । एकादशीसे लेकर पञ्चमीतक उसमें सात बत्तियाँ जलायी जाय। फिर पक्षके अन्तमें इस उत्सवको पूरा करे अथवा पाँच या तीन दिनतक अमावास्याको सुन्दर दीपावलीका उत्सव मनाया जाय। दोलोत्सव करना उचित है। यदि मनुष्य एक बार भी अगहनके शुक्लपक्षमें षष्ठी तिथिको सफेद वस्त्रोंके द्वारा झूलेमें झूलते हुए दक्षिणाभिमुख श्रीकृष्णका दर्शन कर भगवान् जगदीशकी और विशेषतः ब्रह्माजीकी पूजा लें तो वे पापराशिसे मुक्त हो जाते हैं। इसमें तनिक भी करे। पौष मासमें भगवान्का पुष्पमिश्रित जलसे सन्देह नहीं है। अभिषेक तथा तरल चन्दन वर्जित है। मकरसंक्रान्तिके महाभागे ! जो मनुष्य वैशाख-मासमें जलसे भरे दिन तथा माघके महीनेमें अधिवासित तण्डुलका हुए सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीके पात्रमें भगवान्के लिये नैवेद्य लगावे और 'ॐ विष्णवे नमः' श्रीशालग्रामको या भगवान्की प्रतिमाको पधराकर इस मन्त्रका उच्चारण करे। फिर ब्राह्मणोंको देवाधिदेव जलमें ही उसका पूजन करता है, उसके पुण्यकी गणना भगवानके सामने बिठाकर भक्तिपूर्वक भोजन करावे नहीं हो सकती। 'दमन' (दौना) नामक पुष्पका तथा उन भगवद्भक्त द्विजोंकी भगवद्बुद्धिसे पूजा करे। आरोपण करके उसे श्रीविष्णुको अर्पित करना चाहिये। एक भगवद्भक्त पुरुषके भोजन करा देनेपर करोड़ों वैशाख, श्रावण अथवा भाद्रपद मासमें 'दमनार्पण' मनुष्योंके भोजन करानेका फल होता है। यदि पूजामें करना उचित है। पूर्वी हवा चलनेपर ही दमनार्पण आदि किसी अङ्गकी कमी रह गयी हो तो वह ब्राह्मण-भोजन कर्म होते हैं; उस समय विधिपूर्वक भगवान्का पूजन
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. अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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करना चाहिये; अन्यथा सब कुछ निष्फल हो जाता है। नारियलका फल अर्पण करे अथवा उसे फोड़कर उसकी वैशाखकी तृतीयाको विशेषतः जलमें अथवा मण्डल, गरी निकाल कर दे। बेरका फल निवेदन करे । कटहलका मण्डप या बहुत बड़े वनमें यह कार्य सम्पन्न करना कोया निकालकर भोग लगावे तथा दहीयुक्त अन्नको घीसे चाहिये। वैशाख-मासमें प्रतिदिन भगवान्के अङ्गको तर करके भगवान्के आगे रखे। कहाँतक कहा जाय? सुगन्धित चन्दन आदि लगाकर परिपुष्ट करे। प्रयलपूर्वक जो-जो वस्तु अपनेको विशेष प्रिय हो, वह सब भगवान्को ऐसा कार्य करे, जो भगवान्के कृश शरीरके लिये पुष्टि- अर्पण करे। नैवेद्य और वस्त्र आदि भगवान्को अर्पण कारक जान पड़े। चन्दन, अगरु, हीवेर, कालागरु, करे। पुनः उसे स्वयं उपयोगमें न लावे। विष्णुके उद्देश्यसे कुङ्कम, रोचना, जटामांसी और मुरा-ये विष्णुके दी हुई वस्तु विशेषतः उनके भक्तोंको ही देनी चाहिये। उपयोगमें आनेवाले आठ गन्ध माने गये हैं। उन सुगन्धित महेश्वरि ! इस प्रकार संक्षेपसे ही मैंने तुम्हारे सामने ये कुछ पदार्थोका भगवान् विष्णुके अङ्गोंपर लेप करे । तुलसीके बातें बतायी हैं। जिन शास्त्रों में श्रीकृष्णके रूप और काष्ठको चन्दनकी भाँति घिसकर उसमें कर्पूर और अगरु गुणोंका वर्णन है, उन्हें समझनेकी शक्ति हो जाय तो और मिला दे अथवा केसर ही मिलावे तो वह भगवान के लिये कोई शास्त्र पढ़नेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। 'हरिचन्दन' हो जाता है । जो मनुष्य यात्राके समय भक्ति- भगवान के प्रेम, भाव, रस, भक्ति, विलास, नाम तथा पूर्वक श्रीकृष्णका दर्शन करते हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं हारोंमें यदि मन लग गया तो कामिनियोंसे क्या लेना है ? होती। जो लोग सुगन्धमिश्रित जलसे भगवान्को नहलाते अतः ब्रज-बालकोंके स्वामी श्रीकृष्णको, उनके क्रीडाहैं; उनके लिये भी यही फल है। अथवा वैशाख-मासमें निकेतन वृन्दावनको, व्रजभूमिको तथा यमुना-जलको मन भगवानको फूलोंके भीतर रखना चाहिये। वृन्दावनमें लगाकर भजो। यदि इस शरीरमे त्रिभुवनके स्वामी जाकर तरह-तरहके फल जुटावे और भगवानको भोग भगवान् गोविन्दके चरणारविन्दोंकी धूलि लिपटी हो तो लगाकर किसी सुयोग्य भगवद्भक्तको सब खिला दे। इसमें अगरु और चन्दन आदि लगाना व्यर्थ है।
मन्त्रचिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
HARSIN
MINS सूतजी कहते है-महर्षियो ! एक समयकी बात
है, देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् सदाशिव यमुनाजीके तटपर बैठे हुए थे। उस समय नारदजीने उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा-'देवदेव महादेव ! आप सर्वज्ञ, जगदीश्वर, भगवद्धर्मका तत्त्व जाननेवाले तथा श्रीकृष्णमन्त्रका ज्ञान रखनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ है। देवेश्वर ! यदि मैं सुननेका अधिकारी होऊँ तो कृपा करके मुझे वह मन्त्र बताइये, जो एक बारके उच्चारण मात्रसे मनुष्योंको उत्तम फल प्रदान करता है।
शिवजी बोले-महाभाग ! तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। क्यों न हो, तुम सम्पूर्ण जगत्के हितैषी जो ठहरे | मैं तुम्हें मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश दे रहा हूँ। यद्यपि वह बहुत ही गोपनीय है तो भी मैं तुमसे । उसका वर्णन करूंगा। कृष्णके दो मन्त्र अत्यन्त उत्तम
COM
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पातालखण्ड]
• मन्त्रचिन्तामणिका उपदेश तथा उसके भ्यान आदिका वर्णन •
हैं, उन दोनोंको तुम्हें बताता हूँ, मन्त्र-चिन्तामणि, युगल, सर्वथा मुक्त हो, उसे यत्नपूर्वक इस मन्त्रका उपदेश देना द्वय और पञ्चपदी-ये इन दोनों मन्त्रोंके पर्यायवाची नाम चाहिये। इस मन्त्रका ऋषि मैं ही हूँ। बल्लवी-वल्लभ हैं। इनमें पहले मन्त्रका प्रथम पद है-'गोपीजन', श्रीकृष्ण इसके देवता हैं तथा प्रिया-सहित भगवान् द्वितीय पद है-'वल्लभ', तृतीय पद है-'चरणान्', गोविन्दके दास्यभावकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग चतुर्थ पद है-'शरणम्' तथा पश्चम पद है 'प्रपो।' किया जाता है। यह मन्त्र एक बारके ही उच्चारणसे इस प्रकार यह ('गोपीजनवल्लभवरणान् शरणं कृतकृत्यता प्रदान करनेवाला है। प्रपद्ये) मन्त्र पाँच पदोंका है। इसका नाम मन्त्र- द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं इस मन्त्रका ध्यान बतलाता हूँ। चिन्तामणि है। इस महामन्त्रमें सोलह अक्षर है। दूसरे वृन्दावनके भीतर कल्पवृक्षके मूलभागमें रलमय मन्त्रका स्वरूप इस प्रकार है-'नमो गोपीजन' इतना सिंहासनके ऊपर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिया कहकर पुनः 'वल्लभाभ्याम्' का उच्चारण करना श्रीराधिकाजीके साथ विराजमान हैं। श्रीराधिकाजी उनके चाहिये। तात्पर्य यह कि 'नमो गोपीजनकल्लभाभ्याम्' वामभागमें बैठी हुई हैं। भगवान्का श्रीविग्रह मेघके के रूपमें यह दो पदोंका मन्त्र है, जो दस अक्षरोंका समान श्याम है। उसके ऊपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। बताया गया है। जो मनुष्य श्रद्धा या अश्रद्धासे एक बार उनके दो भुजाएँ है। गलेमें वनमाला पड़ी हुई है। भी इस पञ्चपदीका जप कर लेता है, उसे निश्चय ही मस्तकपर मोरपंखका मुकुट शोभा दे रहा है। श्रीकृष्णके प्यारे भक्तोंका सान्निध्य प्राप्त होता है इसमें मुख-मण्डल करोड़ों चन्द्रमाओंकी भाँति कान्तिमान् है। तनिक भी सन्देह नहीं है। इस मन्त्रको सिद्ध करनेके लिये वे अपने चञ्चल नेत्रोंको इधर-उधर घुमा रहे हैं। उनके न तो पुरश्चरणकी अपेक्षा पड़ती है और न न्यास- कानोंमें कनेर-पुष्पके आभूषण सुशोभित है। ललाटमें विधानका क्रम ही अपेक्षित है। देश-कालका भी कोई दोनों ओर चन्दन तथा बीचमें कुङ्कम-विन्दुसे तिलक नियम नहीं है। अरि और मित्र आदिके शोधनकी भी लगाया गया है, जो मण्डलाकार जान पड़ता है। दोनों आवश्यकता नहीं है। मुनीश्वर ! ब्राह्मणसे लेकर कुण्डलोंकी प्रभासे वे प्रातःकालीन सूर्यके समान तेजस्वी चाण्डालतक सभी मनुष्य इस मन्त्रके अधिकारी हैं। दिखायी दे रहे हैं। उनके कपोल दर्पणकी भाँति स्वच्छ हैं, स्त्रियाँ, शूद्र आदि, जड, मूक, अन्ध, पङ्ग, हूण, किरात, जो पसीनेकी छोटी-छोटी बूंदोंके कारण बड़े शोभायमान पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, यवन, कडू एवं खश आदि प्रतीत होते हैं। उनके नेत्र प्रियाके मुखपर लगे हुए हैं। पापयोनिके दम्भी, अहङ्कारी, पापी, चुगुलखोर, गोघाती, उन्होंने लोलवश अपनी भौहें ऊँची कर ली हैं। ऊँची ब्रह्महत्यारे, महापातकी, उपपातकी, ज्ञान-वैराग्यहीन, नासिकाके अग्रभागमें मोतीकी बुलाक चमक रही है। श्रवण आदि साधनोंसे रहित तथा अन्य जितने भी निकृष्ट पके हुए कुंदरूके समान लाल ओठ दाँतोंका प्रकाश श्रेणीके लोग हैं, उन सबका इस मन्त्रमें अधिकार है। पड़नेसे अधिक सुन्दर दिखायी देते हैं। केयूर, अङ्गद, मुनिश्रेष्ठ ! यदि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें उनकी भक्ति अच्छे-अच्छे रन तथा मुंदरियोंसे भुजाओं और हाथोंकी है तो वे सब-के-सब अधिकारी हैं, अन्यथा नहीं; शोभा यहुत बढ़ गयी है। वे बायें हाथमे मुरली तथा इसलिये भगवान्में भक्ति न रखनेवाले कृतघ्र, मानी, दाहिनेमें कमल लिये हुए हैं। करधनीकी प्रभासे शरीरका श्रद्धाहीन और नास्तिकको इस मन्त्रका उपदेश नहीं देना मध्यभाग जगमगा रहा है। नूपुरोसे चरण सुशोभित हो चाहिये। जो सुनना न चाहता हो, अथवा जिसके हृदयमें रहे है। भगवान् क्रीड़ा-रसके आवेशसे चञ्चल प्रतीत होते गुरुके प्रति सेवाका भाव न हो उसे भी यह मन्त्र नहीं है। उनके नेत्र भी चपल हो रहे हैं। वे अपनी प्रियाको बताना चाहिये। जो श्रीकृष्णका अनन्य भक्त हो, जिसमें बारंबार हैंसाते हुए स्वयं भी उनके साथ हँस रहे हैं। इस दम्भ और लोभका अभाव हो तथा जो काम और क्रोधसे प्रकार श्रीराधाके साथ श्रीकृष्णका चिन्तन करना चाहिये।
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• अर्चयस्व सबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[ संक्षिप्त पपपुराण
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तदनन्तर श्रीराधाकी सखियोंका ध्यान करे। उनकी भी मथुरापुरी श्रेष्ठ है। मथुरामें भी वृन्दावन, वृन्दावनमें अवस्था और गुण श्रीराधाजीके ही समान हैं। वे चैवर भी गोपियोंका समुदाय, उस समुदायमें भी श्रीराधाको और पंखी आदि लेकर अपनी स्वामिनीकी सेवामे लगी सखियोंका वर्ग तथा उसमें भी स्वयं श्रीराधिका सर्वश्रेष्ठ
है। श्रीकृष्णके अत्यधिक निकट होनेके कारण नारदजी ! श्रीकृष्णप्रिया राधा अपनी चैतन्य आदि श्रीराधाका महत्त्व सबकी अपेक्षा अधिक है। पृथ्वी अन्तरङ्ग विभूतियोंसे इस प्रपञ्चका गोपन-संरक्षण आदिकी उत्तरोत्तर श्रेष्ठताका इसके सिवा दूसरा कोई करती है; इसलिये उन्हें 'गोपी' कहते हैं। वे श्रीकृष्णको कारण नहीं है। वही ये श्रीराधिका है, जो 'गोपी' कही आराधनामें तन्मय होनेके कारण 'राधिका' कहलाती हैं। गयी हैं। इनकी सखियाँ ही 'गोपीजन' कहलाती हैं। इन श्रीकृष्णमयी होनेसे ही वे परादेवता हैं। पूर्णतः लक्ष्मी- सखियोंके समुदायके दो ही प्रियतम है, दो ही उनके स्वरूपा हैं। श्रीकृष्णके आह्वादका मूर्तिमान् स्वरूप प्राणोंके स्वामी है-श्रीराधा और श्रीकृष्ण । उन दोनोंके होनेके कारण मनीषीजन उन्हें 'हादिनी शक्ति' कहते हैं। चरण ही इस जगत्में शरण देनेवाले हैं। मैं अत्यन्त श्रीराधा साक्षात् महालक्ष्मी हैं और भगवान् श्रीकृष्ण दुःखी जीव हूँ, अतः उन्हींका आश्रय लेता हूँ-उन्हींकी साक्षात् नारायण हैं। मुनिश्रेष्ठ ! इनमें थोड़ा-सा भी भेद शरणमें पड़ा हूँ। शरणमें जानेवाला मैं जो कुछ भी हूँ नहीं है। श्रीराधा दुर्गा हैं तो श्रीकृष्ण रुद्र । वे सावित्री हैं तथा मेरी कहलानेवाली जो कोई भी वस्तु है, वह सब तो ये साक्षात् ब्रह्मा हैं। अधिक क्या कहा जाय, उन श्रीराधा और श्रीकृष्णको ही समर्पित है-सब कुछ दोनोंके बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है। उन्हकि लिये है, उन्हींकी भोग्य वस्तु है। मैं और मेरा जड़-चेतनमय सारा संसार श्रीराधा-कृष्णका ही स्वरूप कुछ भी नहीं है। विप्रवर ! इस प्रकार मैंने थोड़ेमें है। इस प्रकार सबको उन्हीं दोनोंकी विभूति समझो। मैं 'गोपीजनवल्लभवरणान् शरणं प्रपद्ये' इस मन्त्रके नाम ले-लेकर गिनाने लगूं तो सौ करोड़ वर्षों में भी उस अर्थका वर्णन किया है। युगलार्थ, न्यास, प्रपत्ति, विभूतिका वर्णन नहीं कर सकता।* तीनों लोकोंमें पृथ्वी शरणागति तथा आत्मसमर्पण-ये पाँच पर्याय बतलाये सबसे श्रेष्ठ मानी गयी है। उसमें भी जम्बूद्वीप सब गये हैं। साधकको रात-दिन आलस्य छोड़कर यहाँ द्वीपोंसे श्रेष्ठ है। जम्बूद्वीपमें भी भारतवर्ष और भारतवर्षमे बताये हुए विषयका चिन्तन करना चाहिये।
*देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता । सर्वलक्ष्मीस्वरूपा सा कृष्णाहादस्वरूपिणी ॥ ततः सा प्रोच्यते विप्र सादिनीति मनीषिभिः । तत्कलाकोटिकोट्यंशा दुर्गाद्यास्त्रिगुणात्मिकाः ।। सा तु साक्षान्महालक्ष्मीः कृष्णो नारायणः प्रभुः । नैतयोर्विद्यते भेदः खल्पोऽपि मुनिसत्तम । इयं दुर्गा हरी रुद्रः कृष्णः शक्र इयं शची। सावित्रीय हरिवह्या धूमोर्णासौ यमो हरिः ॥ बहुना किं मुनिश्रेष्ठ विना ताभ्यां न किंचन । चिदचिल्लक्षणं सर्व राधाकृष्णमयं जगत् ॥ इत्थं सर्व तयोरेव विभूति विद्धि नारद । न शक्यते मया वक्तुं वर्षकोटिशतैरपि ॥
(८१ । ५३-५८)
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पातालखण्ड ]
. दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुखको युगल-मन्त्रकी प्राप्ति •
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दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल-मन्त्रकी प्राप्ति
शिवजी कहते हैं-नारद ! अब मैं दीक्षाकी सेवाके लिये इच्छुक, गुरुका नितान्त भक्त तथा मुमुक्षु यथार्थ विधिका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो। इस होना चाहिये। जिसमें ऐसी योग्यता हो, वही शिष्य विधिका अनुष्ठान न करके केवल श्रवण मात्रसे भी कहलाता है। प्रेमपूर्ण हृदयसे भगवान् श्रीकृष्णको मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। विद्वान् पुरुष इस साक्षात् सेवाका जो अवसर मिलता है, उसीको वेदबातको समझ ले कि साधारण कीटसे लेकर ब्रह्माजीतक वेदाङ्गका ज्ञान रखनेवाले विद्वानोंने मोक्ष कहा है।* यह सम्पूर्ण जगत् नश्वर है; इसमें आध्यात्मिक, शिष्यको चाहिये कि वह गुरुके चरणोंकी शरणमें
आधिदैविक तथा आधिभौतिक-इन तीन प्रकारके जाकर उनसे अपना वृत्तान्त निवेदन करे तथा गुरुको दुःखोंका ही अनुभव होता है। यहाँके जितने सुख हैं, वे उचित है कि वे अत्यन्त प्रसन्न होकर बारम्बार समझाते सभी अनित्य है; अतः उन्हें भी दुःखोंकी ही श्रेणी में रखे। हुए शिष्यके सन्देहोंका निराकरण करें, तत्पश्चात् उसे फिर विरक्त होकर उनसे अलग हो जाय और संसार- मन्त्रका उपदेश दें। चन्दन या मिट्टी लेकर शिष्यकी बन्धनसे छूटनेके लिये उपायोंका विचार करे; साथ ही बायीं और दाहिनी भुजाओंके मूल-भागमें क्रमशः शङ्ख सर्वोत्तम सुखकी प्राप्तिके साधनोंको भी सोचे तथा पूर्ण और चक्रका चिह्न अङ्कित करें। फिर ललाट आदिमें शान्त बना रहे। नाना प्रकारके कर्मोका ठीक-ठीक विधिपूर्वक ऊर्ध्वपुण्ड्र लगायें। तदनन्तर पहले बताये सम्पादन बहुत कठिन है, ऐसा समझकर परम बुद्धिमान् हुए दोनों मन्त्रोंका शिष्यके दाहिने कानमें उपदेश करें पुरुषको चाहिये कि वह अत्यन्त चिन्तित होकर तथा क्रमशः उन मन्त्रोंका अर्थ भी उसे अच्छी तरह श्रीगुरुदेवकी शरणमें जाय। जो शान्त हों, जिनमें समझा दें। फिर यत्नपूर्वक उसका कोई नूतन नाम रखें, मात्सर्यका नितान्त अभाव हो, जो श्रीकृष्णके अनन्य जिसके अन्तमें 'दास' शब्द जुड़ा हो। इसके बाद विद्वान् भक्त हो, जिनके मनमें श्रीकृष्ण-प्राप्तिके सिवा दूसरी कोई शिष्य प्रेमपूर्वक वैष्णवोंको भोजन कराये तथा अत्यन्त कामना न हो, जो भगवत्कृपाके सिवा दूसरे किसी भक्ति के साथ वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा श्रीगुरुका साधनका भरोसा न करते हों, जिनमें क्रोध और लोभ पूजन करे। इतना ही नहीं, अपने शरीरको भी गुरुकी लेशमात्र भी न हो, जो श्रीकृष्णरसके तत्त्वज्ञ और सेवामें समर्पित कर दे। श्रीकृष्णमन्त्रकी जानकारी रखनेवालोंमें श्रेष्ठ हो, जिन्होंने नारद ! अब मैं तुम्हें शरणागत पुरुषोंके धर्म बताना श्रीकृष्णमन्त्रका ही आश्रय लिया हो, जो सदा मन्त्रके चाहता हूँ, जिनका आश्रय लेकर कलियुगके मनुष्य प्रति श्रद्धा-भक्ति रखते हों, सर्वदा पवित्र रहते हो, भगवान्के धाममे पहुँच जायेंगे। ऊपर बताये अनुसार प्रतिदिन सद्धर्मका उपदेश देते और लोगोंको सदाचारमें गुरुसे मन्त्रका उपदेश पाकर गुरु-भक्त शिष्य प्रतिदिन प्रवृत्त करते हों, ऐसे कृपालु एवं विरक्त महात्मा ही गुरु गुरुकी सेवामें संलग्न हो अपने ऊपर उनकी पूर्ण कृपा कहलाते हैं। शिष्य भी ऐसा होना चाहिये, जिसमें प्रायः समझे। तदनन्तर सत्पुरुषोंके, उनमें भी विशेषतः उपर्युक्त गुण मौजूद हो। इसके सिवा उसे गुरुचरणोंकी शरणागतोके धर्म सीखे और वैष्णवोंको अपना इष्टदेव
* शान्तो विमत्सरः कृष्णे भक्तोऽनन्याप्रयोजनः । अनन्यसाधनः श्रीमान् क्रोधलोभक्विर्जितः ॥ श्रीकृष्णरसतत्त्वज्ञः कृष्णमविदां वरः । कृष्णमन्वाश्रयो नित्यं मन्त्र भक्तः सदा शुचिः ।। सद्धर्मशासको नित्यं सदाचारनियोजकः । सम्प्रदायी कृपापूर्णो विरागी गुरुरुध्यते ॥ एवमादिगुणः प्रायः शुश्रूष्णुरुपादयोः । गुरौ नितान्तभक्तश्च मुमुक्षः शिष्य उच्यते ।। पत्साक्षात्सेवनं तस्य प्रेम्णा भगवतो भवेत् । स मोक्षः प्रोच्यते प्रावेदवेदाङ्वेदिभिः ॥ (८२।६-१०)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
समझकर सदा उन्हें संतुष्ट रखे । शरणागत शिष्यको कभी तो कान बंद करके वहाँसे अन्यत्र चला जाय। इहलोक और परलोककी चिन्ता नहीं करनी चाहिये: विप्रवर नारद ! मेरा तो ऐसा विचार है कि शरणागत क्योंकि इहलोकके जितने भी सुख भोग हैं, वे पूर्वजन्ममें भक्तको मृत्युपर्यन्त चातकी वृत्तिका आश्रय लेकर युगल किये हुए कोंके अनुसार प्राप्त होते हैं। [अतः जितना मन्त्रके अर्थका विचार करते हुए रहना चाहिये। जैसे प्रारब्ध होगा, उतना अपने-आप मिल जायगा) और चातक सरोवर, समुद्र और नदी आदिको छोड़कर केवल जो परलोकका सुख है, उसे तो भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही मेघसे पानीको याचना करता है अथवा प्यासा ही मर पूर्ण करेंगे। अतः मनुष्यको इहलोक और परलोकके जाता है, उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक भगवत्प्राप्तिके साधनोंपर सुखोंके लिये किये जानेवाले प्रयत्नका सर्वथा त्याग कर विचार करना चाहिये। अपने इष्टदेव श्रीराधा और देना चाहिये। सब प्रकारके उपायोंका परित्याग करके श्रीकृष्णसे इस बातकी याचना करनी चाहिये कि वे उसे अपनेको श्रीकृष्णका सेवक समझकर निरन्तर उन्हींकी आश्रय प्रदान करें। सदा अपने इष्टदेवके, उनके भक्तोंके आराधनामें संलग्न रहना चाहिये। जैसे पतिव्रता स्त्री और विशेषतः गुरुके अनुकूल रहना चाहिये । प्रतिकूलताचिरकालसे परदेश गये हुए अपने पतिके लिये सदा दीन का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये।मैं एक बार शरणमें बनी रहती है, प्रियतममें अनुराग रखती हुई केवल उसीसे जाकर अनुभवपूर्वक कहता हूँ-श्रीराधा और श्रीकृष्ण मिलनेकी आकाङ्क्षा रखती है, निरन्तर उसीके गुणोंका दोनोंके गुण परम कल्याणमय हैं; मेरी बातफर विचार चिन्तन, गायन और श्रवण करती है, उसी प्रकार करके शरणागत पुरुष उनपर विश्वास करे कि ये दोनों शरणागत भक्तको भी सदा श्रीकृष्णके गुण तथा लीला इष्टदेव निश्चय ही मेरा उद्धार करेंगे। फिर विनीत भावसे आदिका स्मरण, कीर्तन और श्रवण करते रहना चाहिये। प्रार्थना करते हुए कहे- 'नाथ ! आप ही दोनों पुत्र, मित्र परन्तु यह सब किसी दूसरे फलका साधन बनाकर और गृह आदिकी ममतासे पूर्ण इस संसारसागरसे मेरी कदापि नहीं करना चाहिये। जैसे पतिव्रता कामिनी रक्षा करनेवाले हैं। आप ही शरणागतोका भय दूर करते चिरकाल के बाद परदेशसे लौटे हुए पतिको एकान्तमें हैं। मैं जैसा भी है, इस लोक और परलोकमें मेरा जो कुछ पाकर उसे छातीसे लगाती तथा नेत्रोंसे उसकी रूप- भी है, वह सब आज मैंने आप दोनोंके चरणों में समर्पित सुधाका पान करती है, साथ ही वह अधिक प्रसन्नताके कर दिया। मैं अपराधोंका घर हैं। मैंने सब साधन छोड़ साथ उसकी सेवामें लग जाती है, उसी प्रकार अर्चा- रखे हैं। अब मुझे कोई सहारा देनेवाला नहीं है, इसलिये विग्रह (स्वयं प्रकट हुई मूर्ति) के रूपमें अवतीर्ण हुए नाथ ! अब आप ही दोनों मेरे आश्रय हैं। राधिकाकान्त ! भगवानके साथ रहकर भक्तको निरन्तर उनकी परिचर्यामें मैं मन, वाणी और कर्मसे आपका हूँ। कृष्णप्रिया राधे ! लगे रहना चाहिये। वह सदा अनन्य भावसे भगवान्की मैं आपका ही हूँ, आप ही दोनों मेरी गति है। मैं आपकी शरणमें रहे। भगवानकी आराधनाके सिवा दूसरे किसी शरणमें पड़ा हूँ। आप दोनों करुणाके भंडार-दयाके साधनका न तो आश्रय ले और न दूसरे साधनकी इच्छा सागर हैं; मुझपर कृपा करें। मैं दुष्ट हैं, अपराधी हूँ; तो भी करे। भगवान्के सिवा अन्य किसी वस्तुसे प्रयोजन न कृपा करके मुझे अपना दास्यभाव प्रदान करें।' मुनिश्रेष्ठ ! रखे। कभी किसीकी निन्दा न करे। न तो दूसरेका जूठा जो भक्त शीघ्र ही दास्यभावकी प्राप्ति चाहता हो, उसे खाय और न दूसरेका प्रसाद ही ग्रहण करे । भगवान् और भगवान्के चरण-कमलोका चिन्तन करते हुए प्रतिदिन वैष्णवोंकी निन्दा कभी न सुने । यदि कहीं निन्दा होती हो उपर्युक्त प्रार्थना करनी चाहिये।*
*संसारसागरात्राचौ पुत्रमित्रगृहाकुल्लात् । गोठारी में युवामेव प्रपन्नभयभञ्जनौ ।। योऽहं ममास्ति यत्किंचिदिह लोके परत्र च। तत्सर्व भवतोरा चरणेषु समर्पितम्।
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पातालखण्ड]
. दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुटको युगल-मन्त्रकी प्राप्ति .
यहाँतक मैंने शरणागतोके बाह्य धर्मोका संक्षेपसे प्रणाम करके लक्ष्मीपतिसे कहा-'कृपासिन्धो ! आपका वर्णन किया है। अब उनके अत्यन्त उत्कृष्ट आन्तरिक धर्मका परिचय दिया जाता है। अन्तरङ्ग भक्तको यत्नपूर्वक कृष्णप्रिया श्रीराधाके सखीभावका आश्रय लेकर निरन्तर उन दोनोंकी सेवा करनी चाहिये तथा आलस्यको अपने पास फटकने नहीं देना चाहिये । मन्त्र और उसके अङ्गोंका पहले वर्णन किया जा चुका है। उसके अधिकारी, अधिकारियोंके धर्म तथा उन्हें मिलनेवाले फलका भी प्रतिपादन किया गया है। नारद ! तुम भी इस साधनाका अनुष्ठान करो; तुम्हें श्रीराधा और श्रीकृष्णके दास्य भावकी प्राप्ति अवश्य होगी-इसमें कोई संदेह नहीं है। जो एक बार भी शरणमें जा 'मैं आपका हूँ' ऐसा कहकर याचना करता है, उसे भगवान् अवश्य ही अपना दासत्व प्रदान करते है। मेरे मनमें इसके लिये अन्यथा विचार करनेकी गुंजाइश नहीं है ।* मुनिवर ! यह मैंने तुमसे शरणागत भक्तके आन्तरिक धर्मका वर्णन किया है। यह गुह्यसे भी बढ़कर अत्यन्त गुह्यतम विषय है, इसलिये इसे जो रूप परम आनन्ददायक, सम्पूर्ण आनन्दोंका आश्रय, प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये-सर्वत्र प्रकाशित नहीं नित्य, मनोहर मूर्तिधारी, सबसे श्रेष्ठ निर्गुण, निष्क्रिय और करना चाहिये।
शान्त है, जिसे विद्वान् पुरुष ब्रह्म कहते हैं, उसको मैं इस प्रसङ्गमे मैं तुम्हे अत्यन्त अद्भुत रहस्यकी बात अपने नेत्रोंसे देखना चाहता हूँ।' यह सुनकर भगवान् बतलाता हूँ, जिसे मैंने साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके कमलापतिने मुझ शरणागत भक्तसे कहा-'महादेव ! मुखसे सुना था। पूर्वकालकी बात है, मैं कैलाश पर्वतके तुम्हारे मनमें मेरे जिस रूपको देखनेकी इच्छा है, उसका शिखरपर एक सघन वनमें रहता था और यहाँ भगवान् अभी दर्शन करोगे। यमुनाके पश्चिम तटपर मेरा श्रीनारायणका ध्यान करते हुए उनके श्रेष्ठ मन्त्रका जप लोला-धाम वृन्दावन है वहीं चले जाओ। यो कहकर वे करता था। इससे संतुष्ट होकर भगवान् मेरे सामने जगदीश्वर अपनी प्रियाके साथ अन्तर्धान हो गये। तब मैं प्रकट हुए और बोले-'वर माँगो।' उनके यों कहनेपर भी यमुनाके सुन्दर तटपर चला आया। वहाँ मुझे सम्पूर्ण मैंने आँखें खोलकर देखा, भगवान् अपनी प्रिया देवेश्वरोके भी ईश्वर श्रीकृष्णका दर्शन हुआ, जो श्रीलक्ष्मीजीके साथ गरुड़पर विराजमान थे। मैने बारम्बार किशोरावस्थासे युक्त, कमनीय गोपवेष धारण किये,
अहमस्म्यपराधानामालयस्त्यक्तसाधनः ।अगतिक ततो नायौं भवन्तावेव में गतिः ।। तवास्मि राधिकानाथ कर्मणा मनसा गिरा । कृष्णकान्ते तवैवास्मि युवामेव गतिर्मम ॥ शरण वो प्रपत्रोऽस्मि करुणानिकराकरौ । प्रसाद कुरुतं दास्यं मयि दुष्टेऽपराधिनि ॥ इत्येवं अपता नित्यं स्थातव्यं पदपङ्कजम् । अचिरादेव तद्दास्यमिच्छता मुनिसत्तम । (८२ । ४२-४७) * सकपात्रप्रपत्राय तवास्मीत्यभियाचते । निजदास्य हरिदयान मेऽनास्ति विचारणा ॥ (८२ ॥ ५२)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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अपनी प्रियाके कंधेपर बायाँ हाथ रखकर खड़े थे। अंशसे सर्वत्र व्यापक हूँ। इससे विद्वान् लोग मुझे उनकी वह झाँकी बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। चारों 'ब्रह्म'के नामसे पुकारते हैं। मैं इस प्रपञ्चका कर्ता नहीं हूँ, ओरसे गोपियोंका समुदाय था और बीचमें भगवान् खड़े इसलिये शास्त्र मुझे निष्क्रिय बताते हैं। शिव ! मेरे अंश
ही मायामय गुणोंके द्वारा सृष्टि आदि कार्य करते हैं। मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता । महादेव ! मैं तो इन गोपियोंके प्रेम में विह्वल होकर न तो दूसरी कोई क्रिया जानता हूँ और न मुझे अपने-आपका ही भान रहता है। ये मेरी प्रिया श्रीराधिका हैं, इन्हें परा देवता समझो। मैं इनके प्रेमके वशीभूत होकर सदा इन्हीके साथ विचरण करता हूँ। इनके पीछे और अगल-बगलमें जो लाखों सखियाँ है, ये सब-की-सब नित्य हैं। जैसे मेरा विग्रह नित्य है, वैसे ही इनका भी है। मेरे सखा, पिता, गोप, गौएँ तथा वृन्दावन-ये सब नित्य हैं। इन सबका स्वरूप चिदानन्दरसमय ही है। मेरे इस वृन्दावनका नाम
आनन्दकन्द समझो। इसमें प्रवेश करने मात्रसे मनुष्यको पुनः संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता । मैं वृन्दावन छोड़कर कहीं नहीं जाता। अपनी इस प्रियाके साथ सदा यहीं
निवास करता हूँ। रुद्र ! तुम्हारे मनमें जिस-जिस बातको
_. ..] जाननेकी इच्छा थी, वह सब मैंने बता दिया। बोलो, इस होकर श्रीराधिकाजीको हँसाते हुए स्वयं ही हँस रहे थे। समय मुझसे और क्या सुनना चाहते हो?' उनका श्रीविग्रह सजल मेघके समान श्यामवर्ण तथा मुनिश्रेष्ठ नारद ! तब मैंने भगवान्से कहाकल्याणमय गुणोंका धाम था। श्रीकृष्ण मुझे देखकर 'प्रभो ! आपके इस स्वरूपकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? हैंसे । उनकी वाणीमें अमृत भरा था। वे मुझसे बोले- इसका उपाय मुझे बताइये।' भगवान्ने कहा-'रुद्र ! 'रुद्र ! तुम्हारा मनोरथ जानकर आज मैंने तुम्हें दर्शन तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है; किन्तु यह विषय अत्यन्त दिया। इस समय मेरे जिस अलौकिक रूपको तुम देख रहस्यका है, इसलिये इसे यत्रपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। रहे हो, यह निर्मल प्रेमका पुञ्ज है । इसके रूपमें सत्, चित् देवेश्वर ! जो दूसरे उपायोंका भरोसा छोड़कर एक बार हम
और आनन्द ही मूर्तिमान् हुए है। उपनिषदोंके समूह मेरे दोनोंकी शरणमें आ जाता है और गोपीभावसे मेरी इसी स्वरूपको निराकार, निर्गुण, व्यापक, निष्क्रिय और उपासना करता है, वही मुझे पा सकता है। जो एक बार परात्पर बतलाते हैं। मेरे दिव्य गुणोंका अन्त नहीं है तथा हम दोनोंकी शरणमें आ जाता है अथवा अकेली मेरी इस उन गुणोंको कोई सिद्ध नहीं कर सकता; इसीलिये वेदान्त प्रियाको ही अनन्यभावसे उपासना करता है, वह मुझे शास्त्र मुझ ईश्वरको निर्गुण बतलाता है। महेश्वर ! मेरा यह अवश्य प्राप्त होता है। जो एक बार भी शरणमें आकर 'मैं रूप चर्मचक्षुओंसे नहीं देखा जा सकता; अतः सम्पूर्ण वेद आपका हैं' ऐसा कह देता है, वह साधनके बिना भी मुझे मुझे अरूप-निराकार कहते हैं। मैं अपने चैतन्य- प्राप्त कर लेता है-इसमें संशय नहीं है। इसलिये
* सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति वदेदपि । साधनेन विनाप्येव मामानोति न संशयः ।। (८२ । ८५)
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पातालखण्ड] • अम्बरीष-नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्णन .
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सर्वथा प्रयत्न करके मेरी प्रियाकी शरण ग्रहण करनी अद्भुत रहस्यको सदा गोपनीय रखें-इसे हर एकके चाहिये। रुद्र ! मेरी प्रियाका आश्रय लेकर तुम भी मुझे सामने प्रकट न करें। अपने वशमें कर सकते हो। यह बड़े रहस्यकी बात है, शौनकने कहा-गुरुदेव ! आपकी कृपासे आज जिसे मैंने तुम्हें बता दिया है। तुम्हें यत्नपूर्वक इसे छिपाये मैं कृतकृत्य हो गया, क्योंकि आपने मेरे सामने यह रखना चाहिये। अब तुम भी मेरी प्रियतमा श्रीराधाकी रहस्योंका भी रहस्य प्रकाशित किया है। शरण लो और मेरे युगल-मन्त्रका जप करते हुए सदा सूतजी कहते हैं-ब्रह्मन् ! आप भी अहर्निश मेरे इस धाममें निवास करो।'
युगल-मन्त्रका जप करते हुए इन धोका पालन कीजिये। यह कहकर दयानिधान श्रीकृष्ण मेरे दाहिने कानमें थोड़े ही दिनोंमें आपको भगवान्के दास्यभावकी प्राप्ति हो पूर्वोक्त युगल-मन्त्रका उपदेश देकर मेरे देखते-देखते वहीं जायगी। मैं भी यमुनाके तट पर भगवान् गोपीनाथके नित्यअपने गणोंसहित अन्तर्धान हो गये। तबसे मैं भी निरन्तर धाम वृन्दावनमें जा रहा हूँ। महादेवजीके मुखसे निकला यहीं रहता हूँ। नारद ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पूछे हुए हुआ यह उत्तम चरित्र परम पवित्र है, इसमें महान् अनुभव विषयका साङ्गोपाङ्ग वर्णन कर दिया।
भरा हुआ है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करते हैं, सूतजी कहते हैं-शौनकजी! पूर्वकालमें वे अवश्य ही भगवान्के परमपदको प्राप्त होते हैं। यह स्वर्ग भगवान् शङ्करने साक्षात् श्रीकृष्णके मुखसे इस रहस्यका तथा मोक्षकी प्राप्तिका भी कारण और समस्त पापोंका ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने नारदजीसे कहा और नारदजीने नाशक है। जो लोग सदा भगवान् विष्णुकी सेवामें तत्पर मुझे इसका उपदेश दिया था। [वही आज मैंने यहाँ रहकर इसका भक्तिपूर्वक पाठ करते हैं, उन्हें विष्णुलोकसे आपको सुनाया है।] आपको भी उचित है कि इस परम कभी किसी तरह भी पुनः इस संसारमें नहीं आना पड़ता।
अम्बरीष-नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्णन
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ऋषियोंने कहा-महाभाग ! हमलोगोंने आपके मुखसे भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त अद्भुत चरित्र सुना है
और इससे हमें पूरा संतोष हुआ है। अहो ! भगवान् श्रीकृष्णका माहात्म्य भक्तोंको सदति प्रदान करनेवाला है, उससे किसको तृप्ति हो सकती है। अतः हम पुनः श्रीकृष्णका चरित्र सुनना चाहते है।
सूतजी बोले-द्विजवरो! आपने बहुत उत्तम प्रश्न किया, यह जगत्को तारनेवाला है। आपलोग स्वयं तो कृतार्थ ही हैं। क्योंकि श्रीकृष्णके भक्तोंका मनोरथ सदा पूर्ण रहता है। श्रीकृष्णका पावन चरित्र साधु पुरुषोंको अत्यन्त हर्ष प्रदान करनेवाला है। अब मैं इस विषयमें एक अत्यन्त अद्भुत उपाख्यान सुनाता हूँ। एक समयकी बात है, भगवान्के प्रिय भक्त देवर्षि नारदजी सब लोकोमे घूमते हुए मथुरामें गये और वहाँ राजा अम्बरीषसे मिले, जिनका चित्त श्रीकृष्णकी आराधनामें ,
MINISTRITI
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• अवस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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लगा हुआ था। मुनिश्रेष्ठ नारदके पधारनेपर साधु राजा किस प्रकार कर सकते है ? नारदजी! आप वैष्णव है, अम्बरीषने उनका सत्कार किया और प्रसन्नचित्त होकर भगवानके प्रिय भक्त है, परमार्थतत्त्वके ज्ञाता तथा श्रद्धाके साथ आपलोगोंकी ही भाँति प्रश्न किया- ब्रह्मवेताओमे श्रेष्ठ है; इसलिये मैं आपसे ही यह बात 'मुने ! वेदोंके वक्ता विद्वान् पुरुष जिन्हें परम ब्रह्म कहते पूछता हूँ। भगवान् श्रीकृष्णके विषयमें किया हुआ प्रश्न है, वे स्वयं भगवान् कमलनयन नारायण ही हैं। जो वक्ता, श्रोता और प्रश्रकर्ता-इन तीनों पुरुषोको पवित्र सबसे परे हैं, जिनकी कोई मूर्ति न होनेपर भी जो करता है; ठीक उसी तरह, जैसे उनके चरणोका जल मूर्तिमान् स्वरूप धारण करते हैं, जो सबके ईश्वर, व्यक्त श्रीगङ्गाजीके रूपमें प्रवाहित होकर तीनों लोकोंको पावन
और अव्यक्तस्वरूप है, सनातन हैं, समस्त भूत जिनके बनाता है। देहधारियोंका यह देह क्षणभङ्गर है, इसमें स्वरूप है, जिनका चित्तद्वारा चिन्तन नहीं किया जा मनुष्य-शरीरका मिलना बड़ा दुर्लभ है, उसमें भी सकता, ऐसे भगवान् श्रीहरिका ध्यान किस प्रकार हो भगवान्के प्रेमी भक्तोंका दर्शन तो मैं और भी दुर्लभ सकता है ? जिनमें यह सारा विश्व ओतप्रोत है, जो समझता हूँ। इस संसारमें यदि क्षणभरके लिये भी अव्यक्त, एक, पर (उत्कृष्ट) और परमात्माके नामसे सत्सङ्ग मिल जाय तो वह मनुष्योंके लिये निधिका काम प्रसिद्ध हैं, जिनसे इस जगत्का जन्म, पालन और संहार देता है; क्योंकि उससे चारों पुरुषार्थ प्राप्त हो जाते हैं। होता है, जिन्होंने ब्रह्माजीको उत्पन्न करके उन्हें अपने ही भगवन् ! आपकी यात्रा सम्पूर्ण प्राणियोंका मङ्गल भीतर स्थित वेदोंका ज्ञान दिया, जो समस्त पुरुषार्थीको करनेके लिये होती है। जैसे माता-पिताका प्रत्येक देनेवाले हैं, योगीजनोंको भी जिनके तत्त्वका बड़ी विधान बालकोंके हितके लिये ही होता है, उसी प्रकार कठिनाईसे बोध होता है, उनकी आराधना कैसे की जा भगवान्के पथपर चलनेवाले संत-महात्माओंकी हर सकती है? कृपया यह बात बताइये। जिसने एक क्रिया जगत्के जीवोका कल्याण करनेके लिये ही श्रीगोविन्दकी आराधना नहीं की, वह निर्भय पदको नहीं होती है। देवताओका चरित्र प्राणियोंके लिये कभी 'प्राप्त कर सकता। इतना ही नहीं, उसे तप, यज्ञ और दुःखका कारण होता है और कभी सुखका; किन्तु दानका भी उत्तम फल नहीं मिलता । जिसने श्रीगोविन्दके आप-जैसे भगवत्परायण साधुपुरुषोंका प्रत्येक कार्य चरणारविन्दोका रसास्वादन नहीं किया, उसे मनोवाञ्छित जीवोंके सुखका ही साधक होता है। जो देवताओंकी फलकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? भगवान्की आराधना जैसी सेवा करते हैं, देवता भी उन्हें उसी प्रकार सुख समस्त पापोंको दूर करनेवाली है, उसे छोड़कर मैं पहुँचानेकी चेष्टा करते हैं। जैसे छाया सदा शरीरके साथ मनुष्योंके लिये दूसरा कोई प्रायश्चित्त नहीं देखता।* ही रहती है, उसी प्रकार देवता भी कोंक साथ रहते जिनके भ्रूभङ्ग मात्रसे समस्त सिद्धियोकी प्राप्ति सुनी जाती हैं-जैसा कर्म होता है, वैसी ही सहायता उनसे प्राप्त है, उन शहारी केशवकी आराधना कैसे होती है? होती है, किन्तु साधु पुरुष स्वभावसे ही दीनोपर दया स्त्रियाँ भी किस प्रकारसे उनकी उपासना कर सकती हैं? करनेवाले होते हैं। इसलिये भगवन् ! मुझे वैष्णवये सब बातें संसारकी भलाईके लिये आप मुझे बताइये। धोका उपदेश कीजिये, जिससे वेदोंके स्वाध्यायका भगवान् भक्तिके प्रेमी हैं। सब लोग उनकी आराधना फल प्राप्त होता है।
• अनाराधितगोविन्दो न विन्दति यतोऽभयम्।न तपोयज्ञदानानां लभते फलमुत्तमम्॥
अनास्वादितगोविन्दपादाम्बुजरसो नरः । मनोरथकथानीतं कथमाकलयेत्फलम्॥ हरेराराधनं हित्वा दुरितीघनिवारणम्। नान्यत्पश्यामि जन्तूनां प्रायश्चित्तं परं मुने । (४।१५-१७) +श्रोतारमथ वक्तारं प्रष्ट्रारं पुरुष हरेः । प्रश्नः पुनाति कृष्णस्य तदधिसलिल यथा ॥ दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः । तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ॥
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पातालखण्ड ] • अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्णन
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नारदजीने कहा- राजन् ! तुमने बहुत उत्तम प्रश्न किया है। तुम भगवान् श्रीविष्णुके भक्त हो और एकमात्र लक्ष्मीपतिका सेवन ही परमधर्म है— इस बातको जानते हो। जिन विष्णुकी आराधना करनेपर समस्त विश्वकी आराधना हो जाती है तथा जिन सर्वदेवमय श्रीहरिके संतुष्ट होनेपर सारा जगत् संतुष्ट हो जाता है, जिनके स्मरण मात्रसे महापातकोंकी सेना तत्काल थर्रा उठती है, वे भगवान् श्रीनारायण ही सेवनके योग्य हैं। राजन्! सब ओर मृत्युसे घिरा हुआ कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो अपनी इन्द्रियोंके सकुशल रहते हुए श्रीमुकुन्दके चरणारविन्दोंका सेवन न करे। भगवान् तो ऋषियों और देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। * भगवान्के नाम और लीलाओंका श्रवण, उनका निरन्तर पाठ, श्रीहरिके स्वरूपका ध्यान, उनका आदर तथा उनकी भक्तिका अनुमोदन - ये सब मनुष्यको तत्काल पवित्र कर देते हैं। वीर भगवान् उत्तम धर्मस्वरूप हैं, वे विश्व द्रोहियोंको भी पावन बना देते हैं। कारण कार्य आदिके भी जो कारण हैं, भगवान् उनके भी कारण हैं; किन्तु उनका कोई कारण नहीं है। वे योगी हैं। जगत्के जीव उन्होंके स्वरूप हैं। सम्पूर्ण जगत् ही उनका रूप है। श्रीहरि अणु, बृहत्, कृश, स्थूल, निर्गुण, गुणवान् महान्, अजन्मा तथा जन्म-मृत्युसे परे हैं; उनका सदा ही ध्यान करना चाहिये। सत्पुरुषोंके सङ्गसे कीर्तन करने योग्य भगवान् श्रीकृष्णकी निर्मल कथाएँ सुननेको मिलती हैं, जो आत्मा, मन तथा कानोंको अत्यन्त सरस एवं मधुर जान पड़ती हैं। भगवान् भावसे– हृदयके प्रगाढ़ प्रेमसे प्राप्त होते हैं, इस बातको तुम स्वयं भी
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जानते हो; तथापि तुम्हारे गौरवका खयाल करके संसारके हितके लिये मैं भी कुछ निवेदन करूँगा। जिसे परब्रह्म कहते हैं, जो पुरुषसे परे और सर्वोत्कृष्ट है तथा जिसकी मायासे ही इस सम्पूर्ण जगत्की सत्ता प्रतीत होती है, वह तत्त्व भगवान् अच्युत ही हैं। वे भक्तिपूर्वक पूजित होनेपर सभी मनोवाञ्छित वस्तुएँ प्रदान करते हैं। राजन्! जो मनुष्य मन, वाणी और क्रियासे भगवान्की आराधनामें लगे हैं, उनके व्रत-नियम बतलाया हूँ, इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरी न करना) तथा निष्कपटभावसे रहना – ये भगवान्की प्रसन्नताके लिये मानसिक व्रत कहे गये हैं। नरेश्वर ! दिनमें एक बार भोजन करना, रात्रिमें उपवास करना और बिना माँगे जो अपने आप प्राप्त हो जाय उसी अत्रका उपयोग करना - यह पुरुषोंके लिये कायिक व्रत बताया गया है। वेदोंका स्वाध्याय, श्रीविष्णुके नाम एवं लीलाओंका कीर्तन तथा सत्यभाषण करना एवं चुगली न करना - यह वाणीसे सम्पन्न होनेवाला व्रत कहा गया है। चक्रधारी भगवान् विष्णुके नामोंका सदा और सर्वत्र कीर्तन करना चाहिये। वे नित्य शुद्धि करनेवाले हैं; अतः उनके कीर्तनमें कभी अपवित्रता आती ही नहीं। वर्ण और आश्रम-सम्बन्धी आचारोंका विधिवत् पालन करनेवाले पुरुषके द्वारा परम पुरुष श्रीविष्णुकी सम्यक् आराधना होती है। यह मार्ग भगवान्को संतुष्ट करनेवाला है। स्त्रियाँ मन, वाणी और शरीरके संयमरूप व्रतों तथा हितकारी आचरणोंके द्वारा अपने पतिरूपी दयानिधान वासुदेवकी उपासना करती हैं। शूद्रोंके लिये द्विजाति तथा स्त्रियोंके लिये पति ही श्रीकृष्णचन्द्रके
संसारेऽस्मिन् क्षणाद्धोऽपि सत्सङ्गः शेवधिर्नृणाम् । यस्मादवाप्यते सर्व पुरुषार्थचतुष्टयम् ॥ भगवन् भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम्। बालानां च यथा पित्रोरुत्तमश्लोकवर्त्मनाम् ॥ भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च। सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम् ॥ भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान् । छायेव * साधु पृष्टं महीपाल विष्णुभक्तिमता त्वया। जानता यस्मिन्त्राराधिते विष्णो विश्वमाराधितं भवेत् । तुष्टं च सकलं तुष्टे यस्य स्मरणमात्रेण महापातकसंहतिः । तत्क्षणात् त्रासमायाति स को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकुन्दचरणाम्बुजम् । न
कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः ॥ ( ८४ । २२ – २७) परम धर्ममेकं माधवसेवनम् ॥
सर्वदेवमये हरौ ॥ सेव्यो हरिरव हि ॥
भजेत् सर्वतोमृत्युरुपास्यमृषिदैवतैः ॥ ( ८४ । २९ - ३२)
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् । नाम
- [संक्षिप्त पापुराण
स्वरूप हैं; अतः उनको शास्त्रोक्त मार्गसे इन्हींका पूजन प्राणी--ये भगवान्की पूजाके स्थान हैं। सूर्यमें त्रयीविद्या करना चाहिये ।* ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन तीन (ऋक्, यजु, साम) के द्वारा और अग्निमें हविष्यकी वों के लोग ही वेदोक्त मार्गसे भगवानकी आराधना आहृतिके द्वारा भगवान्की पूजा करनी चाहिये। श्रेष्ठ करें। स्त्री और शूद्र आदि केवल नाम-जप या नाम- ब्राह्मणमें आवभगतके द्वारा, गौओंमें घास और जल कीर्तनके द्वारा ही भगवदाराधनके अधिकारी हैं। भगवान् आदिके द्वारा, वैष्णवमें बन्धुजनोचित आदरके द्वारा तथा लक्ष्मीपति केवल पूजन, यजन तथा व्रतोंसे ही नहीं हृदयाकाशमें ध्याननिष्ठाके द्वारा श्रीहरिकी आराधना संतुष्ट होते। वे भक्ति चाहते है क्योंकि उन्हें 'भक्तिप्रिय' करनी उचित है। वायुमें मुख्य प्राण-बुद्धिके द्वारा, जलमें कहा गया है। पतिव्रता स्त्रियोका तो पति ही देवता है। जलसहित पुष्पादि द्रव्योंके द्वारा, पृथ्वी अर्थात् वेदी या उन्हें पतिमें ही श्रीविष्णुके समान भक्ति रखनी चाहिये मृन्मयी मूर्ति मन्त्रपाठपूर्वक हार्दिक श्रद्धाके साथ तथा मन, वाणी, शरीर और क्रियाओंद्वारा पतिकी ही समस्त भोग-समर्पणके द्वारा, आत्मामें अभेद-बुद्धिसे पूजा करनी चाहिये। अपने पतिका प्रिय करने में लगी हुई क्षेत्रज्ञके चिन्तनद्वारा तथा सम्पूर्ण भूतोंमें भगवानको स्त्रियोंके लिये पति-सेवा ही विष्णुको उत्तम आराधना है। व्यापक मानकर उनके प्रति समतापूर्ण भावके द्वारा यह सनातन श्रुतिका आदेश है। विद्वान् पुरुष अग्निमें श्रीहरिका पूजन करना चाहिये । इन सभी स्थानोंमें शङ्क, हविष्यके द्वारा, जलमें पुष्पोंके द्वारा, हृदयमें ध्यानके द्वारा चक्र, गदा और पद्यसे सुशोभित भगवान्के चतुर्भुज एवं तथा सूर्यमण्डलमें जपके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा शान्त रूपका ध्यान करते हुए एकाग्रचित्त होकर आराधन करते हैं।
___ करना उचित है। ब्राह्मणोंके पूजनसे भगवान्की भी पूजा अहिंसा पहला, इन्द्रिय-संयम दूसरा, जीवोपर दया हो जाती है। तथा ब्राह्मणोंके फटकारे जानेपर भगवान् करना तीसरा, क्षमा चौथा, शम पाँचवाँ, दम छठा, ध्यान भी तिरस्कृत होते है। वेद और धर्मशास्त्र जिनके सातवाँ और सत्य आठवाँ पुष्प है। इन पुष्पोंके द्वारा आधारपर टिके हुए हैं, वे ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ही भगवान् श्रीकृष्ण संतुष्ट होते हैं। नृपश्रेष्ठ ! अन्य पुष्प तो स्वरूप हैं; उनका नामोच्चारण करनेसे मनुष्य पवित्र हो पूजाके बाह्य अङ्ग हैं, भगवान् उपर्युक्त पुष्पोंसे ही प्रसन्न जाते हैं। राजन् ! संसारमें धर्मसे ही सब प्रकारके शुभ होते हैं, क्योंकि वे भक्तिके प्रेमी है। जल वरुण देवताका फलोंकी प्राप्ति होती है और धर्मका ज्ञान वेद तथा [प्रिय] पुष्प है, घी, दूध और दही-चन्द्रमाके पुष्य हैं, “धर्मशास्त्रसे होता है। उन दोनोंके भी आधार इस अन्न आदि प्रजापतिके, धूप-दीप अग्निका और फल- पृथ्वीपर ब्राह्मण ही हैं; अतः उनकी पूजा करनेसे पुष्पादि वनस्पतिका पुष्प है ! कुश-मूलादि पृथ्वीका, जगदीश्वर ही पूजित होते हैं। देवाधिदेव विष्णु यज्ञ और गन्ध और चन्दन वायुका तथा श्रद्धा विष्णुका पुष्प है। दानोंसे, उग्र तपस्यासे, योगके अभ्याससे तथा सम्यक् बाजा विष्णुपद (विष्णु-प्राप्तिका साधन) माना गया है। पूजनसे भी उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना ब्राह्मणोंको इन आठ पुष्मोसे पूजित होनेपर भगवान् विष्णु तत्काल संतुष्ट करनेसे होते है। वेदोंके जाननेवाले ब्रह्माजी भी प्रसन्न होते हैं। सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, ब्राह्मणोंके भक्त हैं। ब्राह्मण देवता हैं, इस बातके वे ही हदयाकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और सम्पूर्ण प्रवर्तक हैं। वे ब्राह्मणोंको देवता मानते हैं; अतः
• पतिरूपो हिताचारैर्मनोवाकायसंयमैः । व्रतैराराध्यते स्त्रीभिर्वासुदेवो दयानिधिः ।।
त्यागमोक्तेन मार्गेण स्त्रीशूदैरपि पूजनम् । कर्तव्य कृष्णचन्द्रस्य द्विजातिवररूपिणः ॥ (८४:४७-४८) स्त्रिीणा परिवताना तु पतिरेव हि देवतम् । स तु पूज्यो विष्णुभक्त्या मनोवाकायकर्मभिः ॥
सीणामथाधिकतया विष्णोराराधनादिकम् । पतिप्रियरतानां च श्रुतिरेषा सनातनी ॥ हविषाग्नौ जले पुष्पैनिन हृदये हरिम् । यजन्ति सूरयो नित्यं जपेन रविमण्डले ॥ (८४ । ५१-५२, ५५)
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पातालखण्ड ] • अम्बरीष-नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण थ्यानका वर्णन .
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ब्राह्मणोंके संतुष्ट होनेपर ही उन्हें भी संतोष होता है। जगतके प्राणी उसकी पूजा करते हैं। बिना जीभके ही
मातृकुल और पितृकुल-दोनों कुलोंके पूर्वज वह सब कुछ वेद-शास्त्रोंके अनुकूल बोलता है। उसके चिरकालसे नरकमें डूबे हों तो भी जब उनका वंशधर त्वचा नहीं है, तथापि वह शीत-उष्ण आदि सब प्रकारके पुत्र श्रीहरिको पूजा आरम्भ करता है, उसी समय वे स्पर्शका अनुभव करता है। सत्ता और आनन्द उसके स्वर्गमें चले जाते हैं। जिनका चित्त विश्वरूप वासुदेवमें स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रयविहीन, आसक्त नहीं हुआ, उनके जीवनसे तथा पशुओंकी भांति निर्गुण, ममतारहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, आहार-विहार आदि चेष्टाओंसे क्या लाभ।* राजन् ! सबको वशमें करनेवाला, सब कुछ देनेवाला और अब मैं विष्णुका ध्यान बतलाता हूँ, जो अबतक किसीने सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है । वह सर्वत्र व्यापक एवं सर्वमय है। इस देखा न होगा, वह नित्य, निर्मल एवं मोक्ष प्रदान प्रकार जो अनन्य-बुद्धिसे उस सर्वमय ब्रह्मका ध्यान करनेवाला ध्यान तुम सुनो। जैसे वायुहीन स्थानमें रखा करता है, वह निराकार एवं अमृततुल्य परम पदको प्राप्त हुआ दीपक स्थिरभावसे अग्निमय स्वरूप धारण करके होता है। प्रज्वलित होता रहता है और घरके समूचे अन्धकारका महामते ! अब मैं द्वितीय अर्थात् सगुण ध्यानका नाश करता है, उसी प्रकार ध्यानस्थ आत्मा सब प्रकारके वर्णन करता हूँ, इसे सुनो। इस ध्यानका विषय दोषोंसे रहित, निरामय, निष्काम, निश्चल तथा वैर और भगवान्का मूर्त किंवा साकार रूप है। वह निरामयमैत्रीसे शून्य हो जाता है। श्रीकृष्णका ध्यान करनेवाला रोग-व्याधिसे रहित है, उसका दूसरा कोई आलम्बपुरुष शोक, दुःख, भय, द्वेष, लोभ, मोह तथा भ्रम आधार नहीं है [वह स्वयं ही सबका आधार है] । आदिसे और इन्द्रियोंके विषयोंसे भी मुक्त हो जाता है। राजन् ! जिनकी वासनासे यह सारा ब्रह्माण्ड वासित जैसे दीपक जलते रहनेसे तेलको सोख लेता है, उसी है-जिनके संकल्पमें इस जगत्का वास है, वे भगवान् प्रकार ध्यान करनेसे कर्मका भी क्षय हो जाता है। श्रीहरि इस विश्वको वासित करनेके कारण ही वासुदेव
मानद । भगवान् शङ्कर आदिने ध्यान दो प्रकारका कहलाते हैं। उनका श्रीविग्रह वर्षाऋतुके सजल मेघके बतलाया है-निर्गुण और सगुण। उनमेंसे प्रथम समान श्याम है, उनकी प्रभा सूर्यके तेजको भी लज्जित अर्थात् निर्गुण ध्यानका वर्णन सुनो। जो लोग योग- करती है। उनके दाहिने भागके एक हाथमें बहुमूल्य शास्त्रोक्त यम-नियमादि साधनोंके द्वारा परमात्म- मणियोंसे चित्रित शङ्ख शोभा पा रहा है और दूसरेमें साक्षात्कारका प्रयत्न कर रहे हैं, वे ही सदा ध्यानपरायण बड़े-बड़े असुरोका संहार करनेवाली कौमोदकी गदा होकर केवल ज्ञानदृष्टि से परमात्माका दर्शन करते हैं। विराजमान है। उन जगदीश्वरके बाये हाथोंमें पद्म और परमात्मा हाथ और पैरसे रहित है, तो भी वह सब कुछ चक्र सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार उनके चार भुजाएँ ग्रहण करता और सर्वत्र जाता है। मुखके बिना ही भोजन हैं। वे सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी है। 'शाई' नामक करता और नाकके बिना ही संघता है। उसके कान नहीं धनुष धारण करनेके कारण उन्हें शाी भी कहते हैं। वे हैं, तथापि वह सब कुछ सुनता है। वह सबका साक्षी लक्ष्मीके स्वामी हैं। [उनकी झांकी बड़ी सुन्दर है-]
और इस जगत्का स्वामी है। रूपहीन होकर भी रूपसे शङ्कके समान मनोहर ग्रीवा, सुन्दर गोलाकार मुखमण्डल सम्बद्ध हो पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत हुआ-सा प्रतीत तथा पद्म-पत्रके समान बड़ी-बड़ी आँखें [-सभी होता है। वह समस्त लोकोंका प्राण है, सम्पूर्ण चराचर आकर्षक है] । कुन्द-जैसे चमकते हुए दाँतोंसे भगवान्
• नरकेऽपि चिरं मनाः पूर्वजा ये कुलहये । तदैव यान्ति ते स्वर्ग यदार्चति सुतो हरिम् ॥ किं तेषां जीवितेनेह पशुवचेष्टितेन किम् । येषां न प्रवणं चितं वासुदेवे जगन्मये ।। (८४१७२-७३)
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• अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . . . .
. [ संक्षिप्त पयपुराण
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हृषीकेशको बड़ी शोभा हो रही है। राजन् ! श्रीहरि गयी है। भगवान् तपाये हुए सुवर्णके रंगका पीताम्बर निद्राके ऊपर शासन करनेवाले हैं, उनका नीचेका ओठ पहने हुए हैं और गरुड़की पीठपर विराजमान हैं। वे मुंगेकी तरह लाल है। नाभिसे कमल प्रकट होनेके भक्तोंकी पापराशिको दूर करनेवाले हैं। इस प्रकार कारण उन्हें पद्मनाभ कहते हैं। वे अत्यन्त तेजस्वी श्रीहरिके सगुण स्वरूपका ध्यान करना चाहिये। . किरीटके कारण बड़ी शोभा पा रहे हैं। श्रीवत्सके चिह्नने राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें दो तरहका ध्यान उनकी छविको और बढ़ा दिया है। श्रीकेशवका बतलाया है। इसका अभ्यास करके मनुष्य मन, वाणी वक्षःस्थल कौस्तुभमणिसे अलङ्कत है। वे जनार्दन सूर्यके तथा शरीरद्वारा होनेवाले सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। समान तेजस्वी कुण्डलोद्वारा अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे वह जिस-जिस फलको प्राप्त करना चाहता है, वह सब हैं। केयूर, हार, कड़े, कटिसूत्र, करधनी तथा अंगूठियोंसे उसे निश्चितरूपसे मिल जाता है, देवता भी उसका आदर उनके श्रीअङ्ग विभूषित हैं, जिससे उनकी शोभा बहुत बढ़ करते हैं तथा अन्तमें वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है।
। भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख-स्नानकी महिमा
अम्बरीष बोले-मुनिश्रेष्ठ ! आपने बड़ी अच्छी नाम 'वाचिकी' भक्ति है। व्रत, उपवास और नियमोंके बात बतायी, इसके लिये आपको धन्यवाद है ! आप पालन तथा पाँचों इन्द्रियोंके संयमद्वारा की जानेवाली सम्पूर्ण लोकोपर अनुग्रह करनेवाले हैं। आपने भगवान् आराधना [शरीरसे साध्य होनेके कारण] 'कायिकी' विष्णुके सगुण एवं निर्गुण ध्यानका वर्णन किया; अब भक्ति कही गयी है; यह सब प्रकारकी सिद्धियोंका आप भक्तिका लक्षण बतलाइये। साधुओपर कृपा सम्पादन करनेवाली है। पाद्य, अयं आदि उपचार, करनेवाले महर्षे! मुझे यह समझाइये कि किस नृत्य, वाद्य, गीत, जागरण तथा पूजन आदिके द्वारा जो मनुष्यको कब, कहाँ, कैसी और किस प्रकार भक्ति भगवान्की सेवा की जाती है, उसे लौकिकी भक्ति कहते करनी चाहिये।
हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके जप, संहिताओंके सूतजी कहते है-राजाओंमें श्रेष्ठ महाराज अध्ययन आदि तथा हविष्यकी आहुति-यज्ञ-यागादिके अम्बरीषके ये वचन सुनकर देवर्षि नारदजीको बड़ी द्वारा की जानेवाली उपासनाका नाम 'वैदिकी' भक्ति है। प्रसन्नता हुई। वे उनसे बोले-राजन् ! सुनो- विज्ञ पुरुषोंने अमावस्या, पूर्णिमा तथा विषुव' (तुला और भगवानकी भक्ति समस्त पापोंका नाश करनेवाली है, मैं मेषकी संक्रान्ति) आदिके दिन जो याग करनेका आदेश तुमसे उस भक्तिका भलीभाँति वर्णन करता है। भक्ति दिया है, वह वैदिकी भक्तिका साधक है। अनेकों प्रकारकी बतायी गयी है-मानसी, वाचिकी, अब मैं योगजन्य आध्यात्मिकी भक्तिका भी वर्णन कायिकी, लौकिकी, वैदिकी तथा आध्यात्मिकी । ध्यान, करता हूँ, सुनो। योगज भक्तिका साधक सदा अपनी धारणा, बुद्धि तथा वेदार्थके चिन्तनद्वारा जो विष्णुको इन्द्रियोको संयममें रखकर प्राणायामपूर्वक ध्यान किया प्रसन्न करनेवाली भक्ति की जाती है, उसे 'मानसी भक्ति करता है। विषयोंसे अलग रहता है। वह ध्यानमें देखता कहते है। दिन-रात अविश्रान्त भावसे वेदमन्बोंके है-भगवानका मुख अनन्त तेजसे उद्दीप्त हो रहा है, उच्चारण, जप तथा आरण्यक आदिके पाठद्वारा जो उनकी कटिके ऊपरी भागतक लटका हुआ यज्ञोपवीत भगवान्की प्रसत्रताका सम्पादन किया जाता है, उसका शोभा पा रहा है। उनका शुक्ल वर्ण है, चार भुजाएं हैं।
१-अब दिन और रात बराबर हों, उस दिन विशुव-योग होता है।
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पातालखण्ड]
. भगवडक्तिके लक्षण तथा वैशाख-स्त्रानकी महिमा •
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उनके हाथोंमे वरद एवं अभयकी मुद्राएँ हैं। वे पीत वस्त्र भक्तिके द्वारा ही प्राप्त करते हैं, इस बातको तुम भी जानते धारण किये हुए है तथा उनके नेत्र अत्यन्त सुन्दर हैं। वे हो । राजन् ! धर्मका कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है, जो तुम्हें प्रसन्नतासे परिपूर्ण दिखायी देते हैं। राजन् ! इस प्रकार ज्ञात न हो। फिर भी जिनके चरण ही तीर्थ हैं, उन योगयुक्त पुरुष अपने हृदयमें परमेश्वरका ध्यान करता है। भगवान्की चर्चा का प्रसङ्ग उठाकर जो तुम उनकी सरस
जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठको भस्म कर डालती है, कथाको मुझसे विस्तारके साथ पूछ रहे हो-उसमें यही उसी प्रकार भगवान्की भक्ति मनुष्यके पापोंको तत्काल कारण है कि तुम वैष्णवोंका गौरव बढ़ाना चाहते होदग्ध कर देती है। भगवान् श्रीविष्णुकी भक्ति साक्षात् मुझ-जैसे लोगोंको आदर दे रहे हो। साधु-संत जो सुधाका रस है, सम्पूर्ण रसोका एकमात्र सार है। इस एक-दूसरेसे मिलनेपर अधिक श्रद्धाके साथ भगवान् पृथ्वीपर मनुष्य जबतक उस भक्तिका श्रवण नहीं अनन्तके कल्याणमय गुणोंका कीर्तन और श्रवण करते करता-उसका आश्रय नहीं लेता, तभीतक उसे सैकड़ों हैं, इससे बढ़कर परम संतोषकी बात तथा समुचित पुण्य बार जन्म, मृत्यु और जराके आघातसे होनेवाले नाना मुझे और किसी कार्यमें नहीं दिखायी देता । ब्राह्मण, गौ, प्रकारके दैहिक दुःख प्राप्त होते हैं। यदि महान् सत्य, श्रद्धा, यज्ञ, तपस्या, श्रुति, स्मृति, दया, दीक्षा और प्रभावशाली भगवान् अनन्तका कीर्तन और स्मरण किया संतोष-ये सब श्रीहरिके स्वरूप हैं। सूर्य, चन्द्रमा, जाय तो वे समस्त पापोंका नाश कर देते हैं, ठीक उसी वायु, पृथ्वी, जल, आकाश, दिशाएँ, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तरह, जैसे वायु मेघका तथा सूर्यदेव अन्धकारका विनाश तथा सम्पूर्ण प्राणी उस परमेश्वरके ही स्वरूप हैं। इस कर डालते हैं। राजन् ! देवपूजा, यज्ञ, तीर्थ-सान, चराचर जगत्को उत्पत्र करनेकी शक्ति रखनेवाले वे व्रतानुष्ठान, तपस्या और नाना प्रकारके कर्मोसे भी विश्वरूप भगवान् स्वयं ही ब्राह्मणके शरीरमें प्रवेश करके अन्तःकरणकी वैसी शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् सदा उन्हें खिलाया जानेवाला अन्न भोजन करते हैं। अनन्तका ध्यान करनेसे होती है।* नरनाथ ! जिनमें इसलिये जिनकी चरण-रेणु तीर्थक समान है, भगवान् पवित्र यशवाले तथा अपने भक्तोंको भक्ति प्रदान अनन्त ही जिनके आधार हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके करनेवाले विशुद्धस्वरूप भगवान् श्रीविष्णुका कीर्तन आत्मा तथा पुण्यमयी लक्ष्मीके सर्वस्व हैं, उन होता है, वे ही कथाएँ शुद्ध है तथा वे ही यथार्थ, वे ही ब्राह्मणोका आदरपूर्वक पूजन करो । जो विद्वान् ब्राह्मणको लाभ पहुँचानेवाली और वे ही हरिभक्तोंके कहने-सुनने विष्णुबुद्धिसे देखता है, वही सच्चा वैष्णव है तथा वही योग्य होती है। भूमण्डलके राज्यका भार सम्हालनेवाले अपने धर्ममें भलीभांति स्थित माना जाता है। तुमने धीरचित्त महाराज अम्बरीष ! तुम धन्य हो; क्योंकि भक्तिके लक्षण सुननेके लिये प्रार्थना की थी, सो सब तुम्हारा हृदय पुरुषोत्तमके ध्यानमें एकतान हो रहा है तथा मैंने तुम्हें सुना दिया। अब गङ्गा-नान करनेके लिये जा सौभाग्यलक्ष्मीसे सुशोभित होनेवाली तुम्हारी नैष्ठिक रहा हूँ। बुद्धि श्रीकृष्णचन्द्रकी पुण्यमयी लीलाओंके श्रवणमें 'यह वैशाखका महीना उपस्थित है, जो भगवान् प्रवृत्त हो रही है। भूपते ! भक्तोंको वरदान देनेवाले लक्ष्मीपतिको अत्यन्त प्रिय है। इसकी भी आज शुक्ला अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुको भक्तिपूर्वक आराधना सप्तमी है; इसमें गङ्गाका स्नान अत्यन्त दुर्लभ है। किये बिना अहङ्कारवश अपनेको ही बड़ा माननेवाले पूर्वकालमें राजा जड्ने वैशाख शुक्ला सप्तमीको क्रोध पुरुषका कल्याण कैसे होगा। भगवान् मायाके जन्मदाता आकर गङ्गाजीको पी लिया था और फिर अपने दाहिने हैं, उनपर मायाका प्रभाव नहीं पड़ता। साधु पुरुष उन्हें कानके छिद्रसे उन्हें बाहर निकाला था; अतः जझुकी
___ * न भूप देवार्चनयज्ञतीर्थमानवताचारक्रियातपोभिः । तथा विशुद्धि लभतेऽन्तरात्मा यथा हदिस्थे भगवल्पनने ।। (८५। २८)
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• अयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
कन्या होनेके कारण गङ्गाको 'जाह्नवी' कहते हैं। इस हुए मनुष्यके लिये माधव ही जहाजका काम देते हैं। तिथिको लान करके जो आकाशकी मेखलाभूत गङ्गा- माधव मासमें जो भक्तिपूर्वक दान, जप, हवन और स्नान देवीका उत्तम विधानके साथ पूजन करता है, वह मनुष्य आदि शुभकर्म किये जाते हैं, उनका पुण्य अक्षय तथा धन्य एवं पुण्यात्मा है। जो वैशाख शुक्ला सप्तमीको सौ करोड़गुना अधिक होता है। जिस प्रकार देवताओंमें विधिपूर्वक गङ्गामें देवताओं और पितरोंका तर्पण करता विश्वात्मा भगवान् नारायणदेव श्रेष्ठ हैं, जैसे जप करने है, उसे गङ्गादेवी कृपा-दृष्टि से देखती है तथा वह स्रानके योग्य मन्त्रोंमें गायत्री सबसे उत्कृष्ट है, उसी प्रकार पश्चात् सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। वैशाखके समान नदियोंमें गङ्गाजीका स्थान सबसे ऊंचा है। जैसे सम्पूर्ण कोई मास नहीं है तथा गङ्गाके सदृश दूसरी कोई नदी स्त्रियोंमें पार्वती, तपनेवालोंमें सूर्य, लाभोंमें आरोग्यलाभ, नहीं है। इन दोनोंका संयोग दुर्लभ है। भगवान्की मनुष्योंमें ब्राह्मण, पुण्योंमें परोपकार, विद्याओंमें वेद, भक्तिसे ही ऐसा सुयोग प्राप्त होता है। गङ्गाजीका मन्त्रोंमें प्रणव, ध्यानों में आत्मचिन्तन, तपस्याओंमें सत्य प्रादुर्भाव भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे हुआ है। वे और स्वधर्म-पालन, शुद्धियोंमें आत्मशुद्धि, दानोंमें ब्रह्मलोकसे आकर भगवान् शङ्करके जटा-जूटमें निवास अभयदान तथा गुणोंमें लोभका त्याग ही सबसे प्रधान करती हैं। गङ्गा समस्त दुःखोंका नाश करनेवाली हैं। वे माना गया है, उसी प्रकार सब मासोंमें वैशाख मास अपने तीन स्रोतोंसे निरन्तर प्रवाहित होकर तीनों अत्यन्त श्रेष्ठ है। पापोंका अन्त वैशाख मासमें प्रातःस्नान लोकोंको पवित्र करती रहती हैं। उन्हें स्वर्गपर चढ़नेके करनेसे होता है। अन्धकारका अन्त सूर्यके उदयसे तथा लिये सीढ़ी माना गया है। वे सदा आनन्द देनेवाली, पुण्योंका अन्त दूसरोंकी बुराई और चुगली करनेसे होता नाना प्रकारके पापोको हरनेवाली, संकटसे तारनेवाली, है। राजन् ! कार्तिक मासमें जब सूर्य तुलाराशिपर स्थित भक्तजनोंके अन्तःकरणमें दिव्य प्रकाश फैलानेकी हों, उस समय जो नान-दान आदि पुण्यकार्य किया लीलासे सुशोभित होनेवाली, सगरके पुत्रोंको मोक्ष प्रदान जाता है, उसका पुण्य परार्धगुना अधिक होता है। माध करनेवाली, धर्म-मार्गमें लगानेवाली तथा तीन मार्गोसे मासमें जब पकरराशिपर सूर्य हो तो कार्तिककी अपेक्षा प्रवाहित होनेवाली हैं। गङ्गादेवी तीनों लोकोंका शृङ्गार भी हजारगुना उत्तम फल होता है और वैशाख मासमें हैं। वे अपने दर्शन, स्पर्श, नान, कीर्तन, ध्यान और मेषको संक्रान्ति होनेपर माघसे भी सौगुना अधिक पुण्य सेवनसे हजारों पवित्र तथा अपवित्र पुरुषोंको पावन होता है। वे ही मनुष्य पुण्यात्मा और धन्य है, जो वैशाख बनाती रहती हैं। जो लोग दूर रहकर भी तीनों समय मासमें प्रातःकाल खान करके विधि-विधानसे भगवान् 'गङ्गा, गङ्गा, गङ्गा' इस प्रकार उचारण करते हैं, उनके लक्ष्मीपतिकी पूजा करते हैं। वैशाख मासमें सवेरेका तीन जन्मोंका पाप गङ्गाजी नष्ट कर देती हैं। जो मनुष्य सान, यज्ञ, दान, उपवास, हविष्य-भक्षण तथा हजार योजन दूरसे भी गङ्गाका स्मरण करता है, वह पापी ब्रह्मचर्यका पालन-ये महान् पातकोंका नाश करनेवाले होनेपर भी उत्तम गतिको प्राप्त होता है।
हैं। राजन् ! कलियुगमें वैशाखकी महिमा गुप्त नहीं रहने * 'राजन् ! वैशाख शुक्ला सप्तमीको गङ्गाजीका दर्शन पायगी; क्योंकि उस समय वैशाखस्रानका माहात्म्य विशेष दुर्लभ है। भगवान् श्रीविष्णु और ब्राह्मणोंकी अश्वमेध-यज्ञके अनुष्ठानसे भी बढ़कर है। कलियुगमें कपासे ही उस दिन उनकी प्राप्ति होती है। माधव परमपावन अश्वमेध-यज्ञका अनुष्ठान नहीं हो सकता। (वैशाख) के समान महीना और माधव (विष्णु) के उस समय वैशाख मासका स्रान ही अश्वमेध-यज्ञके समान कोई देवता नहीं है; क्योंकि पापके समुद्र में डूबते समान विहित है। कलियुगके अधिकांश मनुष्य पापी
१. संख्याको पराकाष्टाका नाम 'पराध है। आधुनिक गणनाके अनुसार यह संख्या 'शर' या 'महार' कहलाती है।
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पातालखण्ड]
.वैशाख-माहात्म्य.
होंगे। उनकी बुद्धि पापमें ही आसक्त होगी; अतः वे पापोंके कारण नरकमें पड़ेंगे। अतएव कलियुगके लिये अश्वमेधके पुण्यको, जो स्वर्ग और मोक्षरूप फल प्रदान अश्वमेधका प्रचार कम कर दिया गया [और उसके करनेवाला है, नहीं जान सकेंगे। उस समयके लोग अपने स्थानपर वैशाख मासके स्नानका विधान किया गया ।
वैशाख-माहात्म्य
सूतजी कहते है-महात्मा नारदके ये वचन धर्माचरणके अभिलाषी बन जाते हैं। वैशाख मासके जो सुनकर राजर्षि अम्बरीषने विस्मित होकर कहा- एकादशीसे लेकर पूर्णिमातक अन्तिम पाँच दिन हैं, वे 'महामुने! आप मार्गशीर्ष (अगहन) आदि पवित्र समूचे महीनेके समान महत्त्व रखते हैं। राजेन्द्र ! जिन महीनोंको छोड़कर वैशाख मासकी ही इतनी प्रशंसा क्यों लोगोंने वैशाख मासमें भाँति-भांतिके उपचारों द्वारा मधु करते है ? उसीको सब मासोंमें श्रेष्ठ क्यों बतलाते हैं? दैत्यके मारनेवाले भगवान् लक्ष्मीपतिका पूजन कर यदि माधव मास सबसे श्रेष्ठ और भगवान् लक्ष्मीपतिको लिया, उन्होंने अपने जन्यका फल पा लिया। भला, अधिक प्रिय है तो उस समय स्रान करनेकी क्या विधि कौन-सी ऐसी अत्यन्त दुर्लभ वस्तु है जो वैशाखके स्नान है? वैशाख मासमें किस वस्तुका दान, कौन-सी तपस्या तथा विधिपूर्वक भगवानके पूजनसे नहीं प्राप्त होती। तथा किस देवताका पूजन करना चाहिये? कृपानिधे! जिन्होंने दान, होम, जप, तीर्थमें प्राणत्याग तथा सम्पूर्ण उस समय किये जानेवाले पुण्यकर्मका आप मुझे उपदेश पापोंका नाश करनेवाले भगवान् श्रीनारायणका ध्यान कीजिये । सद्गुरुके मुखसे उपदेशकी प्राप्ति दुर्लभ होती नहीं किया, उन मनुष्योंका जन्म इस संसारमें व्यर्थ हो है। उत्तम देश और कालका मिलना भी बड़ा कठिन समझना चाहिये । जो धनके रहते हुए भी कंजूसी करता होता है। राज्य-प्राप्ति आदि दूसरे कोई भी भाव हमारे है, दान आदि किये बिना ही मर जाता है, उसका धन हृदयको इतनी शीतलता नहीं प्रदान करते, जितनी कि व्यर्थ है। आपका यह समागम।
राजन् ! उत्तम कुलमें जन्म, अच्छी मृत्यु, श्रेष्ठ नारदजीने कहा-राजन् ! सुनो, मैं संसारके भोग, सुख, सदा दान करने में अधिक प्रसन्नता, उदारता हितके लिये तुमसे माधव मासकी विधिका वर्णन करता तथा उत्तम धैर्य-ये सब कुछ भगवान् श्रीविष्णुकी हूँ। जैसा कि पूर्वकालमें ब्रह्माजीने बतलाया था। पहले कृपासे ही प्राप्त होते हैं। महात्मा नारायणके अनुग्रहसे ही तो जीवका भारतवर्षमें जन्म होना ही दुर्लभ है, उससे भी मनोवाञ्छित सिद्धियाँ मिलती है। जो कार्तिकमें, माघमें अधिक दुर्लभ है-वहाँ मनुष्यकी योनिमें जन्म । मनुष्य तथा माधवको प्रिय लगनेवाले वैशाख मासमें स्नान होनेपर भी अपने-अपने धर्मके पालनमें प्रवृत्ति होनी तो करके मधुहन्ता लक्ष्मीपति दामोदरकी विशेष विधिके
और भी कठिन है। उससे भी अत्यन्त दुर्लभ है- साथ भक्तिपूर्वक पूजा करता है और अपनी शक्तिके भगवान् वासुदेवमें भक्ति और उसके होनेपर भी माधव अनुसार दान देता है, वह मनुष्य इस लोकका सुख मासमें स्नान आदिका सुयोग मिलना तो और भी कठिन भोगकर अन्तमें श्रीहरिके पदको प्राप्त होता है। भूप ! है। माधव मास माधव (लक्ष्मीपति) को वहुत प्रिय है। जैसे सूर्योदय होनेपर अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी माधव (वैशाख) मासको पाकर जो विधिपूर्वक स्नान, प्रकार वैशाख मासमें प्रातःस्रान करनेसे अनेक जन्मोंकी दान तथा जप आदिका अनुष्ठान करते हैं, वे ही मनुष्य उपार्जित पापराशि नष्ट हो जाती है। यह बात ब्रह्माजीने धन्य एवं कृतकृत्य हैं। उनके दर्शन मात्रसे पापियोंके भी मुझे वतायी थी। भगवान् श्रीविष्णुने माधव मासको पाप दूर हो जाते हैं और वे भगवद्भावसे भावित होकर महिमाका विशेष प्रचार किया है। अतः इस महीने के
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. अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पणपुराण
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आनेपर मनुष्योको पवित्र करनेवाले पुण्यजलसे परिपूर्ण असम्भव-सी बात है; तथापि इसपर विश्वास करो, गङ्गातीर्थ, नर्मदातीर्थ, यमुनातीर्थ अथवा सरस्वतीतीर्थमें क्योंकि यह ब्रह्माजीकी बतायी हुई बात है। धर्मकी गति सूर्योदयके पहले स्नान करके भगवान् मुकुन्दकी पूजा सूक्ष्म होती है, उसे समझनेमें बड़े-बड़े पुरुषोंको भी करनी चाहिये। इससे तपस्याका फल भोगनेके पश्चात् कठिनाई होती है। श्रीहरिकी शक्ति अचिन्त्य है, उनकी अक्षय स्वर्गको प्राप्ति होती है। भगवान् श्रीनारायण कृतिमें विद्वानोंको भी मोह हो जाता है। विश्वामित्र आदि अनामय-रोग-व्याधिसे रहित हैं, उन गोविन्ददेवकी क्षत्रिय थे, किन्तु धर्मका अधिक अनुष्ठान करनेके कारण आराधना करके तुम भगवान्का पद प्राप्त कर लोगे। वे ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो गये; अतः धर्मकी गति अत्यन्त राजन् ! देवाधिदेव लक्ष्मीपति पापोंका नाश करनेवाले सूक्ष्म है। भूपाल ! तुमने सुना होगा, अजामिल अपनी है, उन्हें नमस्कार करके चैत्रकी पूर्णिमाको इस व्रतका धर्मपत्नीका परित्याग करके सदा पापके मार्गपर हो आरम्भ करना चाहिये। व्रत लेनेवाला पुरुष यम- चलता था। तथापि मृत्युके समय उसने केवल पुत्रके नियमोंका पालन करे, शक्तिके अनुसार कुछ दान दे, नेहवश 'नारायण' कहकर पुकारा-पुत्रका चिन्तन हविष्यात्र भोजन करे, भूमिपर सोये, ब्रह्मचर्यव्रतमें करके 'नारायण'का नाम लिया; किन्तु इतनेसे ही उसको दृढ़तापूर्वक स्थित रहे तथा हृदयमें भगवान् अत्यन्त दुर्लभ पदकी प्राप्ति हुई । जैसे अनिच्छापूर्वक भी श्रीनारायणका ध्यान करते हुए कृच्छ्र आदि तपस्याओंके यदि आगका स्पर्श किया जाय तो वह शरीरको जलाती द्वारा शरीरको सुखाये। इस प्रकार नियमसे रहकर जब ही है, उसी प्रकार किसी दूसरे निमित्तसे भी यदि वैशाखको पूर्णिमा आये, उस दिन मधु तथा तिल श्रीगोविन्दका नामोच्चारण किया जाय तो वह पापराशिको आदिका दान करे, श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक भोजन भस्म कर डालता है।* जीव विचित्र हैं, जीवोंकी कराये, उन्हें दक्षिणासहित धेनु-दान दे तथा भावनाएँ विचित्र है, कर्म विचित्र है तथा कर्मोकी वैशाखस्रानके व्रतमें जो कुछ त्रुटि हुई हो उसकी शक्तियाँ भी विचित्र हैं। शास्त्रमें जिसका महान् फल पूर्णताके लिये ब्राह्मणोंसे प्रार्थना करे। भूपाल ! जिस बताया गया हो, वही कर्म महान् है [फिर वह अल्प प्रकार लक्ष्मीजी जगदीश्वर माधवकी प्रिया है, उसी प्रकार परिश्रम-साध्य हो या अधिक परिश्रम-साध्य] । छोटीमाधव मास भी मधुसूदनको बहुत प्रिय है। इस तरह सी वस्तुसे भी बड़ी-से-बड़ी वस्तुका नाश होता देखा उपर्युक्त नियमोंके पालनपूर्वक बारह वर्षातक जाता है। जरा-सी चिनगारीसे बोझ-के-बोझ तिनके वैशाखस्नान करके अन्तमें मधुसूदनकी प्रसन्नताके लिये स्वाहा हो जाते हैं। जो श्रीकृष्णके भक्त हैं, उनके अपनी शक्तिके अनुसार व्रतका उद्यापन करे। अम्बरीष ! अनजानमें किये हुए हजारों हत्याओंसे युक्त भयङ्कर पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मुखसे मैंने जो कुछ सुना था, वह पातक तथा चोरी आदि पाप भी नष्ट हो जाते हैं। वीर ! सब वैशाख मासका माहात्म्य तुम्हें बता दिया। जिसके हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुको भक्ति है वह विद्वान्
अम्बरीषने पूछा-मुने! स्नानमें परिश्रम तो पुरुष यदि थोड़ा-सा भी पुण्य-कार्य करता है तो वह बहुत थोड़ा है, फिर भी उससे अत्यन्त दुर्लभ फलको अक्षय फल देनेवाला होता है। अतः माधव मासमें प्राप्ति होती है-मुझे इसपर विश्वास क्यों नहीं होता? माधवकी भक्तिपूर्वक आराधना करके मनुष्य अपनी मुझे मोह क्यों हो रहा है?
मनोवाञ्छित कामनाओको प्राप्त कर लेता है-इस नारदजीने कहा-राजन् ! तुम्हारा संदेह ठीक विषयमें संदेह नहीं करना चाहिये। शास्त्रोक्त विधिसे है। थोड़े-से परिश्रमके द्वारा महान् फलकी प्राप्ति किया जानेवाला छोटे-से-छोटा कर्म क्यों न हो, उसके
* अनिच्छयापि दहति स्पृष्टो हुतवहो यथा। तथा दहति गोविन्दनाम व्याजादपीरितम् ॥ (८७।८)
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पातालखण्ड ] • वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा 'पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन •
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द्वारा बड़े-से-बड़े पापका भी क्षय हो जाता है तथा उत्तम कर्मकी वृद्धि होने लगती है। राजन् ! भाव तथा भक्ति दोनोंकी अधिकतासे फलमें अधिकता होती है। धर्मकी गति सूक्ष्म है, वह कई प्रकारोंसे जानी जाती है। महाराज ! जो भावसे हीन है— जिसके हृदयमें उत्तम भाव एवं भगवान्की भक्ति नहीं है, वह अच्छे देश और कालमें जा जाकर जीवनभर पवित्र गङ्गा-जलसे नहाता और दान देता रहे तो भी कभी शुद्ध नहीं हो सकता— ऐसा मेरा विचार है। अतः अपने हृदय कमलमें शुद्ध भावकी स्थापना करके वैशाख मासमें प्रातः स्नान करनेवाला जो विशुद्धचित्त पुरुष भक्तिपूर्वक भगवान् लक्ष्मीपतिकी पूजा करता है, उसके पुण्यका वर्णन करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। अतः भूपाल ! तुम वैशाख मासके फलके विषयमें विश्वास करो। छोटा-सा
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⭑ वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा 'पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
अम्बरीषने कहा- मुने! जिसके चिन्तन मात्रसे पापराशिका लय हो जाता है, उस पाप प्रशमन नामक स्तोत्रको मैं भी सुनना चाहता हूँ। आज मैं धन्य हूँ अनुगृहीत हूँ आपने मुझे उस शुभ विधिका श्रवण कराया, जिसके सुनने मात्रसे पापोंका क्षय हो जाता है। वैशास्त्र मासमें जो भगवान् केशवके कल्याणमय नामोंका कीर्तन किया जाता है, उसीको मैं संसारमें सबसे बड़ा पुण्य, पवित्र, मनोरम तथा एकमात्र सुकृतसे ही सुलभ होनेवाला शुभ कर्म मानता हूँ। अहो ! जो लोग माधव मासमें भगवान् मधुसूदनके नामोंका स्मरण करते हैं, वे धन्य है। अतः यदि आप उचित समझें तो मुझे पुनः माधव मासकी ही पवित्र कथा सुनायें।
सूतजी कहते हैं— राजाओंमें श्रेष्ठ हरिभक्त अम्बरीषका वचन सुनकर नारद मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। यद्यपि वे वैशाख स्नानके लिये जानेको उत्कण्ठित थे, तथापि सत्सङ्गमें आनन्द आनेके कारण रुक गये
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शुभ कर्म भी सैकड़ों पापकर्मोंका नाश करनेवाला होता है। जैसे हरिनामके भयसे राशि राशि पाप नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्यके मेषराशिपर स्थित होनेके समय प्रातः स्नान करनेसे तथा तीर्थमें भगवान्की स्तुति करनेसे भी समस्त पापोंका नाश हो जाता है। * जिस प्रकार गरुड़के तेजसे साँप भाग जाते हैं, उसी तरह प्रातः काल वैशाख स्नान करनेसे पाप पलायन कर जाते हैं—यह निश्चित बात है जो मनुष्य मेषराशिके सूर्यमें गङ्गा या नर्मदाके जलमें नहाकर एक, दो या तीनों समय भक्तिभावके साथ पापप्रशमन नामक स्तोत्रका पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम पदको प्राप्त होता है। अम्बरीष! इस प्रकार मैंने थोड़ेमें यह वैशाखस्नानका सारा माहात्म्य सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ?'
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और राजासे बोले ।
नारदजीने कहा- महीपाल ! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि यदि दो व्यक्तियोंमें परस्पर भगवत्कथासम्बन्धी सरस वार्तालाप छिड़ जाय तो वह अत्यन्त विशुद्ध - अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला होता है। आज तुम्हारे साथ जो माधव मासके माहात्यकी चर्चा चल रही है, यह वैशाख खानकी अपेक्षा भी अधिक पुण्य प्रदान करनेवाली है; क्योंकि माधव मासके देवता भगवान् श्रीविष्णु हैं [अतः उसका कीर्तन भगवान्का ही कीर्तन है]। जिसका जीवन धर्मके लिये और धर्म भगवान्की प्रसन्नताके लिये है तथा जो रातों-दिन पुण्योपार्जनमें ही लगा रहता है, उसीको इस पृथ्वीपर मैं वैष्णव मानता हूँ। राजन्! अब मैं वैशाख स्नानसे होनेवाले पुण्य फलका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ; विस्तारके साथ सारा वर्णन तो मेरे पिता - ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते। वैशाखमें डुबकी लगाने मात्रसे समस्त
* यथा हरेर्नामभयेन भूप नश्यन्ति सर्वे दुरितस्य वृन्दाः । नूनं रवौ मेषगते विभाते स्नानेन तीर्थे च हरिस्तवेन ॥
(८७ । ३४)
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
पाप छूट जाते हैं। पूर्वकालकी बात है, कोई मुनीश्वर होकर इस पृथ्वीपर घूमता हूँ और सबसे कहता फिरता तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे सर्वत्र घूम रहे थे। उनका नाम था हूँ कि 'मैं ब्रह्महत्यारा हूँ।' मुझ महापापी ब्रह्मघातीको मुनिशर्मा । वे बड़े धर्मात्मा, सत्यवादी, पवित्र तथा शम, आप कृपाकी भिक्षा दें। इस दशामें पड़े-पड़े मुझे एक दम एवं शान्तिधर्मसे युक्त थे। वे प्रतिदिन पितरोंका वर्ष बीत गया। मैं पापसे जल रहा हूँ। मेरा चित्त शोकसे तर्पण और श्राद्ध करते थे। उन्हें वेदों और स्मृतियोंके व्याकुल है। तथा ये जो सामने दिखायी देते हैं, इनका विधानोंका सम्यक् ज्ञान था। वे मधुर वाणी बोलते और नाम चन्द्रशर्मा है। ये जातिके ब्राह्मण हैं। इन्होंने मोहसे भगवानका पूजन करते रहते थे। वैष्णवोंके संसर्गमें ही मलिन होकर गुरुका वध किया है। ये मगधदेशके उनका समय व्यतीत होता था। वे तीनों कालोंके ज्ञाता, निवासी हैं। इनके स्वजनोंने इनका परित्याग कर दिया मुनि, दयालु, अत्यन्त तेजस्वी, तत्त्वज्ञानी और ब्राह्मण- है। ये भी घूमते-घामते दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं। इनके भक्त थे। वैशाखका महीना था, मुनिशर्मा नानके लिये भी न शिखा है न सूत्र । ब्राह्मणका कोई भी चिह्न इनके नर्मदाके किनारे जा रहे थे। उसी समय उन्होंने अपने शरीरमें नहीं रह गया है। इनके सिवा जो ये तीसरे व्यक्ति सामने पाँच पुरुषोंको देखा, जो भारी दुर्गतिमें फंसे हुए हैं, इनका नाम देवशर्मा है। स्वामिन् ! ये भी बड़े कष्टमें थे। वे अभी-अभी एक-दूसरेसे मिले थे। उनके हैं। ये भी जातिके ब्राह्मण हैं, किन्तु मोहवश वेश्याकी शरीरका रंग काला था। वे एक बरगदकी छायामें बैठे आसक्तिमें फंसकर शराबी हो गये थे। इन्होंने भी थे और पापोंके कारण उद्विम होकर चारों ओर दृष्टिपात पूछनेपर अपना सारा हाल सच-सच कह सुनाया है। कर रहे थे। उन्हें देखकर द्विजवर मुनिशर्मा बड़े विस्मयमें अपने प्रथम पापाचारको याद करके इनके हृदयमें बड़ा पड़े और सोचने लगे-इस भयानक वनमें ये मनुष्य संताप होता है। ये सदा मनस्तापसे पीड़ित रहते हैं। कहाँसे आये? इनकी चेष्टा बड़ी दयनीय है, किन्तु इनको इनकी स्त्रीने, बन्धु-बान्धवोंने तथा गाँवके सब इनका आकार बड़ा भयङ्कर दिखायी देता है। ये लोगोंने वहाँसे निकाल दिया है। ये अपने उसी पापके पापभागी चोर तो नहीं है? विप्रवर मुनिशर्माकी बुद्धि साथ भ्रमण करते हुए यहाँ आये हैं। ये चौथे महाशय बड़ी स्थिर थी, वे ज्यों ही इस प्रकार विचार करने लगे, जातिके वैश्य है। इनका नाम विधुर है। ये गुरुपत्नीके उसी समय उपर्युक्त पाँचों पुरुष उनके पास आये और साथ समागम करनेवाले हैं। इनकी माता मिथिलामें हाथ जोड़कर मुनिशर्मासे बोले।
जाकर वेश्या हो गयी थी। इन्होंने मोहवश तीन उन पुरुषोंने कहा-विप्रवर ! हमें आप महीनोंतक उसीका उपभोग किया है। परन्तु जब असली कल्याणमय पुरुषोत्तम जान पड़ते हैं। हम दुःखी जीव बातका पता लगा है तो बहुत दुःखी होकर पृथ्वीपर हैं। अपना दुःख विचारकर आपको बताना चाहते हैं। विचरते हुए ये भी यहाँ आ पहुँचे हैं। हममेंसे ये जो द्विजराज ! आप कृपा करके हमारी कष्ट-कथा सुनें। पाँचवें दिखायी दे रहे हैं, ये भी वैश्य ही हैं। इनका नाम
दैववश जिनके पाप प्रकट हो गये हैं, उन दीन-दुःखी नन्द है। ये पापियोका संसर्ग करनेवाले महापापी है। प्राणियोंके आधार आप-जैसे संत-महात्मा ही हैं। साधु इन्होंने प्रतिदिन धनके लालचमें पड़कर बहुत चोरी की पुरुष अपनी दृष्टिमात्रसे पीड़ितोंकी पौड़ाएँ हर लेते हैं। है। पातकोंसे आक्रान्त हो जानेपर इन्हें स्वजनोंने त्याग [अब उनमेंसे एकने सबका परिचय देना आरम्भ दिया है। तब ये स्वयं भी खिन्न होकर दैवात् यहाँ आ किया-1 मैं पञ्चाल देशका क्षत्रिय हूँ, मेरा नाम पहुंचे हैं। इस प्रकार हम पाँचों महापापी एक स्थानपर नरवाहन है। मैंने मार्गमें मोहवश बाणद्वारा एक जुट गये हैं। हम सब-के-सब दुःखोंसे घिरे हुए हैं। ब्राह्मणकी हत्या कर डाली । मुझसे ब्रह्म-हत्याका पाप हो अनेकों तीर्थोमें घूम आये, मगर हमारा घोर पातक नहीं गया है। इसलिये शिखा, सूत्र और तिलकसे रहित मिटता। आपको तेजसे उद्दीप्त देखकर हमलोगोंका मन
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पातालखण्ड ] • वैशाख-स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा 'पाप-प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन .
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प्रसन्न हो गया है। आप-जैसे साधु पुरुषके पुण्यमय लगाओ। नर्मदाके जलका मुनिलोग भी सेवन करते हैं, दर्शनसे हमारे पातकोंके अन्त होनेको सूचना मिल रही वह समस्त पापोंके भयका नाश करनेवाला है। मुनिके यों है। स्वामिन् ! कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे कहनेपर वे सब पापी उनके साथ अद्भुत पुण्य प्रदान हमलोगोंके पापोंका नाश हो जाय। प्रभो! आप करनेवाली नर्मदाकी प्रशंसा करते हुए उसके तटपर गये। वेदार्थके ज्ञाता और परम दयालु जान पड़ते हैं; आपसे किनारे पहुँचकर ब्राह्मणश्रेष्ठ मुनिशर्माका चित्त प्रसन्न हो हमें अपने उद्धारको बड़ी आशा है।
गया। उन्होंने वेदोक्त विधिके अनुसार नर्मदाके जलमें मुनिशर्माने कहा-तुमलोगोंने अज्ञानवश पाप प्रातःस्रान किया। उपर्युक्त पाँचों पापियोंने भी ब्राह्मणके किया, किन्तु इसके लिये तुम्हारे हदयमें अनुताप है तथा कहनेसे ज्यों ही नर्मदामें डुबकी लगायी, त्यों ही उनके तुम सब-के-सव सत्य बोल रहे हो; इस कारण तुम्हारे शरीरका रंग बदल गया; वे तत्काल सुवर्णक समान ऊपर अनुग्रह करना मेरा कर्तव्य है। मैं अपनी भुजा कान्तिमान् हो गये। फिर मुनिशर्माने सब लोगोंके सामने ऊपर उठाकर कहता हूँ, मेरी सत्य बातें सुनो । पूर्वकालमें उन्हें पापप्रशमन नामक स्तोत्र सुनाया। जब मुनियोंका समुदाय एकत्रित हुआ था, उस समय भूपाल ! अब तुम पापप्रशमन नामक स्तोत्र सुनो। मैंने महर्षि अङ्गिराके मुखसे जो कुछ सुना था, वहीं इसका भक्तिपूर्वक श्रवण करके भी मनुष्य पापराशिसे वेद-शास्त्रों में भी देखा; वह सबके लिये विश्वास करने मुक्त हो जाता है। इसके चिन्तन मात्रसे बहुतेरे पापी शुद्ध योग्य है। मेरी आराधनासे संतुष्ट हुए स्वयं भगवान् हो चुके हैं। इसके सिवा, और भी बहुत-से मनुष्य इस विष्णुने भी पहले ऐसी ही बात बतायी थी। वह इस स्तोत्रका सहारा लेकर अज्ञानजनित पापसे मुक्त हो गये प्रकार है। भोजनसे बढ़कर दूसरा कोई तृप्तिका साधन है। जब मनुष्योंका चित्त परायी स्त्री, पराये धन तथा नहीं है। पितासे बढ़कर कोई गुरु नहीं है। ब्राह्मणोंसे जीव-हिंसा आदिकी ओर जाय तो इस प्रायश्चित्तरूपा उत्तम दूसरा कोई पात्र नहीं है तथा भगवान् विष्णुसे श्रेष्ठ स्तुतिकी शरण लेनी चाहिये। यह स्तुति इस प्रकार हैदूसरा कोई देवता नहीं है। गङ्गाको समानता करनेवाला विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः। कोई तीर्थ, गोदानको तुलना करनेवाला कोई दान, नमामि विष्णु चित्तस्थमहङ्कारगतं हरिम् ॥ गायत्रीके समान जप, एकादशीके तुल्य व्रत, भार्याके चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम् । सदृश मित्र, दयाके समान धर्म तथा स्वतन्त्रताके समान विष्णुमीयमशेषाणामनादिनिधनं हरिम् ॥ सुख नहीं है। गार्हस्थ्यसे बढ़कर आश्रम और सत्यसे सम्पूर्ण विश्वमें व्यापक भगवान् श्रीविष्णुको सर्वदा बढ़कर सदाचार नहीं है। इसी प्रकार संतोषके समान नमस्कार है। विष्णुको बारम्बार प्रणाम है। मैं अपने सुख तथा वैशाख मासके समान महान् पापोंका अपहरण चित्तमें विराजमान विष्णुको नमस्कार करता है। अपने करनेवाला दूसरा कोई मास नहीं है। वैशाख मास अहङ्कारमें व्याप्त श्रीहरिको मस्तक झुकाता हूँ। श्रीविष्णु भगवान् मधुसूदनको बहुत ही प्रिय है। गङ्गा आदि चित्तमें विराजमान ईश्वर (मन और इन्द्रियोंके शासक), तीर्थोंमें तो वैशाख-नानका सुयोग अत्यन्त दुर्लभ है। अव्यक्त, अनन्त, अपराजित, सबके द्वारा स्तवन उस समय गङ्गा, यमुना तथा नर्मदाकी प्राप्ति कठिन होती करनेयोग्य तथा आदि-अन्तसे रहित हैं; ऐसे श्रीहरिको मैं है। जो शुद्ध हृदयवाला मनुष्य भगवान्के भजनमें तत्पर नित्य-निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हो पूरे वैशाखभर प्रातःकाल गङ्गास्नान करता है, वह विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् । सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है। योऽहङ्कारगतो विष्णुयों विष्णुमयि संस्थितः ॥
इसलिये पुण्यके सारभूत इस वैशाख मासमें तुम करोति कर्तभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च। सभी पातकी मेरे साथ नर्मदा-तटपर चलो और उसमें गोते तत्पापं नाशमायाति तस्मिन् विष्णौ विचिन्तिते ॥
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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जो विष्णु मेरे चित्तमें विराजमान हैं, जो विष्णु मेरी बुद्धिमें स्थित हैं, जो विष्णु मेरे अहङ्कारमें व्याप्त हैं तथा जो विष्णु सदा मेरे स्वरूपमें स्थित हैं, वे ही कर्ता होकर सब कुछ करते हैं। उन विष्णुभगवान्का चिन्तन करनेपर चराचर प्राणियोंका सारा पाप नष्ट हो जाता है।
ध्यातो हरति यः पापं स्वप्रे दृष्टश्च पापिनाम् । तमुपेन्द्रमहं विष्णुं नमामि प्रणतप्रियम् ॥
जो ध्यान करने और स्वप्रमें दीख जानेपर भी पापियोंके पाप हर लेते हैं तथा चरणों में पड़े हुए शरणागत भक्त जिन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, उन वामनरूपधारी भगवान् श्रीविष्णुको नमस्कार करता हूँ।
जगत्यस्मिन्निरालम्बे हाजमक्षरमव्ययम् । हस्तावलम्बनं स्तोत्रं विष्णुं वन्दे सनातनम् ॥ जो अजन्मा, अक्षर और अविनाशी हैं तथा इस अवलम्बशून्य संसारमें हाथका सहारा देनेवाले हैं, स्तोत्रोंद्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, उन सनातन श्रीविष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ। सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज । हृषीकेश हषीकेश हवीकेश नमोऽस्तु ते ॥ हे सर्वेश्वर ! हे ईश्वर ! हे व्यापक परमात्मन् ! हे अधोक्षज ! हे इन्द्रियोंका शासन करनेवाले अन्तर्यामी हृषीकेश ! आपको बारम्बार नमस्कार है। नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव । दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाशु जनार्दन ॥ हे नृसिंह ! हे अनन्त ! हे गोविन्द ! हे भूतभावन ! हे केशव ! हे जनार्दन! मेरे दुर्वचन, दुष्कर्म और दुचिन्तनको शीघ्र नष्ट कीजिये ।
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना । आकर्णय महाबाहो तच्छमं नय केशव ॥ महाबाहो ! मेरी प्रार्थना सुनिये - अपने चित्तके वशमें होकर मैंने जो कुछ बुरा चिन्तन किया हो, उसको शान्त कर दीजिये।
ब्रह्मण्यदेव गोविन्द
परमार्थपरायण । जगन्नाथ जगद्धातः पापं शमय मेऽच्युत ॥ 'ब्राह्मणोंका हित साधन करनेवाले देवता गोविन्द !
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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परमार्थमें तत्पर रहनेवाले जगन्नाथ ! जगत्को धारण करनेवाले अच्युत ! मेरे पापोंका नाश कीजिये ।
यथापराहे सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि । कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥ जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव । नामत्रयोच्चारणतः सर्व यातु मम क्षयम् ॥
मैंने पूर्वाह्न, सायाह, मध्याह तथा रात्रिके समय शरीर, मन और वाणीके द्वारा, जानकर या अनजानमें जो कुछ पाप किया हो, वह सब 'हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष और माधव' – इन तीन नामोंके उच्चारणसे नष्ट हो जाय। शारीरं मे हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष मानसम् । पापं प्रशममायातु वाकृतं मम माधव ॥
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हृषीकेश ! आपके नामोच्चारणसे मेरा शारीरिक पाप नष्ट हो जाय, पुण्डरीकाक्ष ! आपके स्मरणसे मेरा मानस पाप शान्त हो जाय तथा माधव! आपके नाम कीर्तनसे मेरे वाचिक पापका नाश हो जाय।
यद् भुञ्जानः पिबंस्तिष्ठन् स्वपञ्जाप्रद् यदा स्थितः । अकार्य पापमर्थार्थं कायेन मनसा गिरा ॥ महदल्प च यत्पापं दुर्योनिनरकावहम् । तत्सर्व विलयं यातु वासुदेवस्य कीर्तनात् ॥
मैंने खाते पीते, खड़े होते, सोते जागते तथा ठहरते समय मन, वाणी और शरीरसे, स्वार्थ या धनके लिये जो कुत्सित योनियों और नरकोंकी प्राप्ति करानेवाला महान् या थोड़ा पाप किया है, वह सब भगवान् वासुदेवका नामोच्चारण करनेसे नष्ट हो जाय।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत् । अस्मिन् सङ्कीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु ।।
जिसे परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र कहते हैं, वह तत्त्व भगवान् विष्णु ही हैं; इन श्रीविष्णुभगवान्का कीर्तन करनेसे मेरे जो भी पाप हों, वे नष्ट हो जायें। यत्प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शविवर्जितम् । सूरयस्तत्पदं विष्णोस्तत्सर्वं मे भवत्वलम् ॥
जो गन्ध और स्पर्शसे रहित है, ज्ञानी पुरुष जिसे पाकर पुनः इस संसारमें नहीं लौटते, वह श्रीविष्णुका ही परम पद है। वह सब मुझे पूर्णरूपसे प्राप्त हो जाय।
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. वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा .
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पापप्रशमनं स्तोत्रं यः पठेणुयानरः। पापराशिका प्रायश्चित्त है; इसलिये श्रेष्ठ मनुष्योंको पूर्ण शारीरैर्मानसैर्वाचा कृतैः पापैः प्रमुच्यते ॥ प्रयत्न करके इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये। मुक्तः पापप्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम् । राजन् ! इस स्तोत्रके श्रवणमात्रसे पूर्वजन्म तथा तस्मात्सर्वप्रयनेन स्तोत्रं सर्वाधनाशनम् ॥ इस जन्मके किये हुए पाप भी तत्काल नष्ट हो जाते हैं। प्रायश्चित्तमघौघानां पठितव्यं नरोत्तमैः । - यह स्तोत्र पापरूपी वृक्षके लिये कुठार और पापमय
यह 'पापप्रशमन' नामक स्तोत्र है। जो मनुष्य इसे ईंधनके लिये दावानल है। पापराशिरूपी अन्धकारपढ़ता और सुनता है, वह शरीर, मन और वाणीद्वारा समूहका नाश करनेके लिये यह स्तोत्र सूर्यके समान है। किये हुए पापोंसे मुक्त हो जाता है। इतना ही नहीं, वह मैंने सम्पूर्ण जगत्पर अनुग्रह करनेके लिये इसे तुम्हारे पापग्रह आदिके भयसे भी मुक्त होकर विष्णुके परम सामने प्रकाशित किया है। इसके पुण्यमय माहात्म्यका पदको प्राप्त होता है। यह स्तोत्र सब पापोंका नाशक तथा वर्णन करनेमें स्वयं श्रीहरि भी समर्थ नहीं है।
वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
अम्बरीषने पूछा-मुने ! वैशाख मासके व्रतका इस प्रकार कहकर मौनभावसे उस तीर्थक किनारे क्या विधान है? इसमें किस तपस्याका अनुष्ठान करना अपने दोनों पैर धो ले; फिर भगवान् नारायणका स्मरण पड़ता है? क्या दान होता है? कैसे स्नान किया जाता करते हुए विधिपूर्वक स्नान करे। नानकी विधि इस प्रकार है और किस प्रकार भगवान् केशवको पूजा की जाती है-विद्वान् पुरुषको मूल-मन्त्र पढ़कर तीर्थकी कल्पना है? ब्रह्मर्षे ! आप श्रीहरिके प्रिय भक्त तथा सर्वज्ञ है; कर लेनी चाहिये। 'ॐ नमो नारायणाय' यह मन्त्र ही अतः कृपा करके मुझे ये सब बातें बताइये। मूल-मन्त्र कहा गया है। पहले हाथमें कुश लेकर
नारदजीने कहा-साधुश्रेष्ठ ! सुनो-वैशाख विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें मासमें जब सूर्य मेषराशिपर चले जाय तो किसी बड़ी रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। फिर चार हाथका नदीमें, नदीरूप तीर्थमें, नदमें, सरोवरमें, झरनेमें, चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नाङ्कित मन्त्रोंद्वारा भगवती देवकुण्डमें, स्वतः प्राप्त हुए किसी भी जलाशयमे, श्रीगङ्गाजीका आवाहन करे। बावड़ीमें अथवा कुएँ आदिपर जाकर नियमपूर्वक विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुदेवता ।। भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण करते हुए स्रान करना त्राहि नस्त्वेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् । चाहिये। स्रानके पहले निम्नाङ्कित श्लोकका उच्चारण तिस्रःकोट्योऽर्धकोटी व तीर्थानां वायुरब्रवीत् ।। करना चाहिये
दिवि भुष्यन्तरिक्षे च तानि ते सन्ति जाह्रवि । ___ यथा ते माधवो मासो वल्लभो मधुसूदन। नन्दिनीति च ते नाम देवेषु नलिनीति च ।। प्रातःस्रानेन मे तस्मिन् फलदः पापहा भव ।। दक्षा पृथ्वी वियना विश्वकाया शिवामृता।
(८९ । ११) विद्याधरी महादेवी तथा लोकप्रसादिनी ।। 'मधुसूदन ! माधव (वैशाख) मास आपको विशेष क्षेमकरी जाह्नवी च शान्ता शान्तिप्रदायिनी। प्रिय है, इसलिये इसमें प्रातःस्नान करनेसे आप शास्त्रोक्त
(८९ | १५-१९) फलके देनेवाले हों और मेरे पापोंका नाश कर दें।' 'गङ्गे ! तुम भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई
* अध्याय ८८ श्लोक ७२ से ९१ तक।
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
हो। श्रीविष्णु ही तुम्हारे देवता है; इसीलिये तुम्हें वैष्णवी वस्त्र-धोती-चादर धारण करे। तदनन्तर त्रिलोकीको कहते हैं। देवि ! तुम जन्मसे लेकर मृत्युतक समस्त तृप्त करनेके लिये तर्पण करे। सबसे पहले श्रीब्रह्माका पापोंसे मेरी रक्षा करो। स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें तर्पण करे; फिर श्रीविष्णु, श्रीरुद्र और प्रजापतिका । कुल साढ़े तीन करोड़ तीर्थ है-ऐसा वायु देवताका तत्पश्चात् 'देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, अप्सरा, असुरगण, कथन है। माता जाह्नवी ! वे सभी तीर्थ तुम्हारे अंदर क्रूर सर्प, गरुड, वृक्ष, जीव-जन्तु, पक्षी, विद्याधर, मेघ, मौजूद है। देवलोकमें तुम्हारा नाम नन्दिनी और नलिनी आकाशचारी जीव, निराधार जीव, पापी जीव तथा है। इनके सिवा दक्षा, पृथ्वी, वियद्गङ्गा, विश्वकाया, धर्मपरायण जीवोंको तृप्त करनेके लिये मैं उन्हें जल शिवा, अमृता, विद्याधरी, महादेवी, लोकप्रसादिनी अर्पण करता हूँ।' यह कहकर उन सबको जलाञ्जलि दे। क्षेमकरी, जाह्नवी, शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें तुम्हारे अनेकों नाम है।'
कंधेपर डाले रहे। तत्पश्चात् उसे गलेमें मालाको भाँति सानके समय इन पवित्र नामोंका कीर्तन करना कर ले और दिव्य मनुष्यों, ऋषि-पुत्रों तथा ऋषियोंका चाहिये; इससे त्रिपथगामिनी भगवती गङ्गा उपस्थित हो भक्तिपूर्वक तर्पण करे। सनक, सनन्दन, सनातन और जाती हैं। सात बार उपर्युक्त नामोंका जप करके संपुटके सनत्कुमार-ये दिव्य मनुष्य हैं। कपिल, आसुरि, बोदु आकारमें दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले और तथा पञ्चशिख- ये प्रधान ऋषिपुत्र हैं। ये सभी मेरे चार, छ: या सात बार मस्तकपर डाले। इस प्रकार स्रान दिये हुए जलसे तृप्त हों' ऐसा कहकर इन्हें जल दे। इसी करके पूर्ववत् मृत्तिकाको भी विधिवत् अभिमन्त्रित करे प्रकार मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, और उसे शरीरमें लगाकर नहा ले। मृत्तिकाको प्रचेता, वसिष्ठ, नारद तथा अन्यान्य देवर्षियों एवं अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र इस प्रकार है- ब्रह्मर्षियोंका अक्षतसहित जलके द्वारा तर्पण करे।
अश्वक्रान्ते रथकाने विष्णुकाते वसुन्धरे। इस प्रकार ऋषि-तर्पण करनेके पश्चात् यज्ञोपवीतको मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥ दायें कंधेपर करके बायें घुटनेको पृथ्वीपर टेककर बैठे। उद्घृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना। फिर अग्निपात्त, सौम्य, हविष्मान्, उष्मप, कव्यवाद् नमस्ते सर्वलोकानां प्रभवारणि सुव्रते ॥ अनल, बर्हिषद्, पिता-पितामह आदि तथा मातामह
(८९ । २२-२३) आदि सब लोगोंका विधिवत् तर्पण करके निम्नाङ्कित वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते मन्त्रका उच्चारण करेहैं। भगवान् श्रीविष्णुने भी वामन-अवतार धारण करके येऽवान्धवा बान्धवा ये येऽन्यजन्पनि बान्धवाः । तुम्हें एक पैरसे नापा था। मृत्तिके ! मैंने जो बुरे कर्म ते तृप्तिमखिला यान्तु येऽप्यस्मत्तोयकाक्षिणः ॥ किये हों, मेरे उस सब पापोंको तुम हर लो। देवि! सैकड़ों भुजाओंवाले भगवान् श्रीविष्णुने वराहका रूप 'जो लोग मेरे बान्धव न हो, जो मेरे बान्धव हों तथा धारण करके तुम्हें जलसे बाहर निकाला था। तुम सम्पूर्ण जो दूसरे किसी जन्म में मेरे बान्धव रहे हो, वे सब मेरे लोकोंकी उत्पत्तिके लिये अरणीके समान हो- अर्थात् दिये हुए जलसे तृप्त हो। उनके सिवा और भी जो जैसे अरणी-काष्ठसे आग प्रकट होती है, उसी प्रकार कोई प्राणी मुझसे जलकी अभिलाषा रखते हों, वे भी तुमसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते हैं। सुव्रते! तुम्हें मेरा तृप्ति लाभ करें।' नमस्कार है।'
यों कहकर उनकी तृप्तिके उद्देश्यसे जल गिराना इस प्रकार स्रान करनेके पश्चात् विधिपूर्वक चाहिये। तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके अपने आचमन करके जलसे बाहर निकले और दो शुद्ध श्वेत आगे कमलकी आकृति बनावे और सूर्यदेवके नामोंका
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. वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा .
उच्चारण करते हुए अक्षत, फूल, लाल चन्दन और आदिका दान करना चाहिये; इस कार्यमें धनकी कंजूसी जलके द्वारा उन्हें यत्नपूर्वक अर्घ्य दे। अर्घ्यदानका मन्त्र उचित नहीं है। जो समूचे वैशाखभर प्रतिदिन सबेरे स्नान इस प्रकार है
करता, जितेन्द्रियभावसे रहता, भगवान के नाम जपता नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे॥ और हविष्य भोजन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो सहस्त्ररश्मये नित्यं नमस्ते. सर्वतेजसे। जाता है। नमस्ते रुद्रवपुषे नमस्ते , भक्तवत्सल ।। जो वैशाख मासमे आलस्य त्याग कर एकभुक्त पद्मनाभ नमस्तेऽस्तु कुण्डलाङ्गदभूषित। (चौबीस घंटेमें एक बार भोजन), नक्तवत (केवल नमस्ते सर्वलोकानां सप्तानामुपबोधन ॥ रातमें एक बार भोजन) अथवा अयाचितव्रत (बिना सकृतं दुष्कृतं चैव सर्व पश्यसि सर्वदा। माँगे मिले हुए अन्नका एक समय भोजन) करता है, वह सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीद मम भास्कर ।। अपनी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है। दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते। वैशाख मासमें प्रतिदिन दो बार गाँवसे बाहर नदीके
(८९ ॥ ३७-४१) जलमें स्नान करना, हविष्य खाकर रहना, ब्रह्मचर्यका 'भगवान् सूर्य ! आप विश्वरूप और ब्रह्मस्वरूप पालन करना, पृथ्वीपर सोना, नियमपूर्वक रहना, व्रत, हैं। इन दोनों रूपोंमें आपको नमस्कार है। आप सहस्रो दान, जप, होम और भगवान् मधुसूदनकी पूजा किरणोंसे सुशोभित और सबके तेजरूप हैं, आपको सदा करना-ये नियम हजारों जन्मोंके भयंकर पापको भी हर नमस्कार है । भक्तवत्सल ! रुद्ररूपधारी आप परमेश्वरको लेते हैं। जैसे भगवान् माधव ध्यान करनेपर सारे पाप बारम्बार नमस्कार है। कुण्डल और अङ्गद आदि नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार नियमपूर्वक किया हुआ आभूषणोंसे विभूषित पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। माधव मासका स्रान भी समस्त पापोंको दूर कर देता है। भगवन् ! आप सोये हुए सम्पूर्ण लोकोको जगानेवाले हैं। प्रतिदिन तीर्थ-स्रान, तिलोंद्वारा पितरोंका तर्पण, धर्मघट आपको मेरा प्रणाम है। आप सदा सबके पाप-पुण्यको आदिका दान और श्रीमधुसूदनका पूजन-ये भगवान्को देखा करते हैं। सत्यदेव ! आपको नमस्कार है। संतोष प्रदान करनेवाले हैं; वैशाख मासमें इनका पालन भास्कर ! मुझपर प्रसन्न होइये। दिवाकर ! आपको अवश्य करना चाहिये। वैशाखमें तिल, जल, सुवर्ण, नमस्कार है। प्रभाकर ! आपको नमस्कार है।' अन्न, शक्कर, वस्त्र, गौ, जूता, छाता, कमल या शङ्ख
इस प्रकार सूर्यदेवको नमस्कार करके सात बार तथा घड़े-इन वस्तुओंका ब्राह्मणोंको दान करे। तीनों उनकी प्रदक्षिणा करे। फिर द्विज, गौ और सुवर्णका सन्ध्याओंके समय एकाग्रचित्त हो विमलस्वरूपा साक्षात् स्पर्श करके अपने घरमें जाय। वहाँ आश्रमवासी भगवती लक्ष्मीके साथ परमेश्वर श्रीविष्णुका भक्तिपूर्वक अतिथियोंका सत्कार तथा भगवानकी प्रतिमाका पूजन पूजन करना चाहिये। सामयिक फूलों और फलोंसे करे। राजन् ! घरमें पहले भक्तिपूर्वक जितेन्द्रियभावसे भक्तिपूर्वक श्रीहरिका पूजन करनेके पश्चात् यथाशक्ति भगवान् गोविन्दकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मणोंको भी पूजा करनी चाहिये। पाखण्डियोंसे विशेषतः वैशाखके महीनेमें जो श्रीमधुसूदनका पूजन वार्तालाप नहीं करना चाहिये। जो फूलोद्वारा विधिवत् करता है, उसके द्वारा पूरे एक वर्षतक श्रीमाधवकी पूजा अर्चन करके श्रीमधुसूदनकी आराधना करता है; वह सम्पन्न हो जाती है। वैशाख मास आनेपर जब सूर्यदेव सब पापोंसे मुक्त हो परम पदको प्राप्त होता है ! मेषराशिपर स्थित हो तो श्रीकेशवकी प्रसन्नताके लिये श्रीनारदजी कहते हैं-राजेन्द्र! सुनो, मैं उनके व्रतोंका सञ्चय करना चाहिये। अपने अभीष्टको संक्षेपसे माधवके पूजनकी विधि बतला रहा हूँ। सिद्धिके लिये अन्न, जल, शक्कर, धेनु तथा तिलकी धेनु महाराज ! जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो अनन्त और
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[संक्षिप्त पयपुराण
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अपार हैं, उन भगवान् अनन्तकी पूजा-विधिका अन्त आदि मन्त्रोद्वारा श्रीहरिको सान कराये। तत्पश्चात् नहीं है। श्रीविष्णुका पूजन तीन प्रकारका होता है- विष्णुभक्त पुरुष वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, हार, गन्ध वैदिक, तान्त्रिक तथा मिश्र। तीनोंके ही बताये हुए तथा अनुलेपनके द्वारा प्रेमपूर्वक भगवान्का यथायोग्य विधानसे श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। वैदिक और शृङ्गार करे । पुजारीको उचित है कि वह श्रद्धापूर्वक पाद्य, मित्र पूजनकी विधि ब्राह्मण आदि तीन वर्णोक ही लिये आचमनीय, गन्ध, पुष्प, अक्षत तथा धूप आदि उपहार बतायी गयी है, किन्तु तान्त्रिक पूजन विष्णुभक्त शूद्रके अर्पण करे। उसके बाद गुड़, खीर, घी, पूड़ी मालपूआ, लिये भी विहित है। साधक पुरुषको उचित है कि लड्डू, दूध और दही आदि नाना प्रकारके नैवेद्य निवेदन शास्त्रोक्त विधिका ज्ञान प्राप्त करके एकाग्रचित्त हो करे। पर्वके अवसरोंपर अङ्गराग लगाना, दर्पण दिखाना, ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए श्रीविष्णुका विधिवत् पूजन दन्तधावन कराना, अभिषेक करना, अत्र आदिके बने करे। भगवान्की प्रतिमा आठ प्रकारकी मानी गयी हुए पदार्थ भोग लगाना, कीर्तन करते हुए नृत्य करना है-शिलामयी, धातुमयी, लोहेकी बनी हुई, लीपने और गीत गाना आदि सेवाएँ भी करनी चाहिये । सम्भव योग्य मिट्टीकी बनी हुई, चित्रमयी, बालूकी बनायी हुई, हो तो प्रतिदिन ऐसी ही व्यवस्था रखनी चाहिये। मनोमयी तथा मणिमयी। इन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा पूजनके पश्चात् इस प्रकार ध्यान करे-भगवान् (स्थापना) दो प्रकारकी होती है-एक चल प्रतिष्ठा श्रीविष्णुका श्रीविग्रह श्यामवर्ण एवं तपाये हुए जाम्बूनद और दूसरी अचल प्रतिष्ठा ।
नामक सुवर्णके समान तेजस्वी है; भगवान्के शव राजन् ! भक्त पुरुषको चाहिये कि वह जो कुछ भी चक्र, गदा और पद्यसे सुशोभित चार भुजाएँ हैं; उनकी सामग्री प्राप्त हो, उसीसे भक्तिभावके साथ पूजन करे। आकृति शान्त है, उनका वस्त्र कमलके केसरके समान प्रतिमा-पूजनमें स्नान और अलंकार ही अभीष्ट हैं अर्थात् पीले रंगका है; वे मस्तकपर किरीट, दोनों हाथोंमें कड़े, भगवद्विग्रहको नान कराकर पुष्प आदिसे शृङ्गार कर गलेमें यज्ञोपवीत तथा अँगुलियोंमें अंगूठी धारण किये देना ही प्रधान सेवा है। श्रीकृष्णमें भक्ति रखनेवाला हुए हैं। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न है, मनुष्य यदि केवल जल भी भगवान्को अर्पण करे तो कौस्तुभमणि उनकी शोभा बढ़ाता है तथा वे वनमाला वह उनकी दृष्टि में श्रेष्ठ है; फिर गन्ध, धूप, पुष्प, दीप धारण किये हुए हैं।
और अत्र आदिका नैवेद्य अर्पण करनेपर तो कहना ही इस प्रकार ध्यान करते हुए पूजन समाप्त करके घीमें क्या है। पवित्रतापूर्वक पूजनकी सारी सामग्री एकत्रित डुबोयी हुई समिधाओं तथा हविष्यद्वारा अग्निमें हवन करके पूर्वाग्र कुशोंका आसन बिछाकर उसपर बैठे; करे। 'आज्यभाग' तथा 'आधार' नामक आहुतियाँ पूजन करनेवालेका मुख उत्तर दिशाकी ओर या प्रतिमाके देनेके पश्चात् घृतपूर्ण हविष्यका होम करे । तदनन्तर पुनः सामने हो। फिर पाद्य, अर्थ्य, स्नान तथा अर्हण आदि भगवान्का पूजन करके उन्हें प्रणाम करे और पार्षदोको उपचारोंको व्यवस्था करे। उसके बाद कर्णिका और नैवेद्य अर्पण करे। उसके बाद मुख-शुद्धिके लिये केसरसे सुशोभित अष्टदल कमल बनावे और उसके सुगन्धित द्रव्योंसे युक्त ताम्बूल निवेदन करना चाहिये। ऊपर श्रीहरिके लिये आसन रखे। तदनन्तर चन्दन, फिर ोटे-बड़े पौराणिक तथा अर्वाचीन स्तोत्रोंद्वारा उशीर (खस) कपूर, केसर तथा अरगजासे सुवासित भगवानकी स्तुति करके 'भगवन् ! प्रसीद' (भगवन् ! जलके द्वारा मन्त्रपाठपूर्वक श्रीहरिको स्नान कराये। वैभव प्रसन्न होइये) यों कहकर प्रतिदिन दण्डवत् प्रणाम करे। हो तो प्रतिदिन इस तरहकी व्यवस्था करनी चाहिये। अपना मस्तक भगवान्के चरणोंमें रखकर दोनों 'स्वर्णधर्म' नामक अनुवाक, महापुरुष-विद्या, भुजाओंको फैलाकर परस्पर मिला दे और इस प्रकार 'सहस्रशीर्षा' आदि पुरुषसूक्त तथा सामवेदोक्त नीराजना कहे-'परमेश्वर ! मैं मृत्युरूपी ग्रह तथा समुद्रसे
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पातालखण्ड]
• यम-ब्राह्मण-संवाद-नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोका वर्णन •
भयभीत होकर आपकी शरणमें आया हूँ आप मेरी करनेसे किसीको भक्तियोगकी प्राप्ति नहीं होती; भक्तिरक्षा कीजिये।
योगको तो वही प्राप्त करता है, जो पूर्वोक्त रीतिसे - तदनन्तर भगवान्को अर्पण की हुई प्रसाद-माला प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा करता है। आदिको आदरपूर्वक सिरपर चढ़ाये तथा यदि मूर्ति राजन् ! वही शरीर शुभ-कल्याणका साधक है, विसर्जन करने योग्य हो तो उसका विसर्जन भी करे। जो भगवान् श्रीकृष्णको साष्टाङ्ग प्रणाम करनेके कारण ईश्वरीय ज्योतिको आत्म-ज्योतिमें स्थापित कर ले । प्रतिमा धूलि-धूसरित हो रहा है; नेत्र भी वे ही अत्यन्त सुन्दर आदिमें जहाँ भगवान्का चरण हो, वहीं श्रद्धापूर्वक पूजन और तपःशक्तिसे सम्पन्न हैं, जिनके द्वारा श्रीहरिका दर्शन करना चाहिये तथा मनमें यह विश्वास रखना चाहिये कि होता है; वही बुद्धि निर्मल और चन्द्रमा तथा शसके 'जो सम्पूर्ण भूतोंमें तथा मेरे आत्मामें भी रम रहे हैं, वे ही समान उज्वल है, जो सदा श्रीलक्ष्मीपतिके चिन्तनमें सर्वात्मा परमेश्वर इस मूर्तिमें विराजमान हैं।' संलग्न रहती है तथा वही जिला मधुरभाषिणी है, जो
इस प्रकार वैदिक तथा तान्त्रिक क्रियायोगके बारम्बार भगवान् नारायणका स्तवन किया करती है।* मार्गसे जो भगवान्की पूजा करता है, वह सब ओरसे स्त्री और शूद्रोंको भी मूलमन्त्रके द्वारा श्रीहरिका अभीष्ट सिद्धिको प्राप्त होता है। श्रीविष्णु-प्रतिमाकी पूजन करना चाहिये तथा अन्यान्य वैष्णवजनोंको भी स्थापना करके उसके लिये सुदृढ़ मन्दिर बनवाना चाहिये गुरुकी बतायी हुई पद्धतिसे श्रद्धापूर्वक भगवानकी पूजा तथा पूजाकर्मकी सुव्यवस्थाके लिये सुन्दर फुलवाड़ी भी करनी उचित है। राजन् ! यह सब प्रसङ्ग मैंने तुम्हे बता लगवानी चाहिये। बड़े-बड़े पर्वोपर तथा प्रतिदिन दिया। श्रीमाधवका पूजन परम पावन है। विशेषतः पूजाकार्यका भलीभाँति निर्वाह होता रहे, इसके लिये वैशाख मासमें तुम इस प्रकार पूजन अवश्य करना। भगवान्के नामसे खेत, बाजार, कसबा और गाँव आदि सूतजी कहते हैं-महर्षिगण ! इस प्रकार पलीभी लगा देने चाहिये। यों करनेसे मनुष्य भगवान्के सहित मन्त्रवेत्ता महाराज अम्बरीषको उपदेश दे, उनसे सायुज्यको प्राप्त होता है। भगवद्विग्रहकी स्थापना करनेसे पूजित हो, विदा लेकर देवर्षि नारदजी वैशाख मासमें सार्वभौम (सम्राट्) के पदको, मन्दिर बनवानेसे तीनों गङ्गा-स्रान करनेके लिये चले गये। लोकमें जिनका लोकोंके राज्यको, पूजा आदिकी व्यवस्था करनेसे पावन सुयश फैला हुआ था, उन राजा अम्बरीषने भी ब्रह्मलोकको तथा इन तीनों कार्योक अनुष्ठानसे मनुष्य मुनिकी बतायी हुई वैशाख मासकी विधिका पुण्यभगवत्सायुज्यको प्राप्त कर लेता है। केवल अश्वमेध यज्ञ बुद्धिसे पत्नीसहित पालन किया।
यम-ब्राह्मण-संवाद-नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कोका वर्णन
ऋषियोंने कहा-सूतजी ! इस विषयको पुनः महात्मा धर्मराजके संवादका वर्णन है। विस्तारके साथ कहिये । आपके उत्तम वचनामृतोका पान . ब्राह्मणने पूछा-धर्मराज ! धर्म और अधर्मके करते-करते हमें तृप्ति नहीं होती है।
निर्णयमें आप सबके लिये प्रमाणस्वरूप है; अतः सूतजी बोले-महर्षियो ! इस विषयमे एक बताइये, मनुष्य किस कर्मसे नरकमें पड़ते है? तथा प्राचीन इतिहास कहा करते हैं, जिसमें एक ब्राह्मण और किस कर्मके अनुष्ठानसे वे स्वर्गमें जाते हैं? कृपा करके
• यत्कृष्णप्रणिपातधूलिधबलं तदर्थ तदन्छुभं ने चेत्तपसोर्जिति सुरुचिरे याभ्यां हरिदश्यते।
सा बुद्धिर्विमलेन्दुशङ्खधवला या माधवव्यापिनी सा जिला मृदुभाषिणी नृप मुहुर्या स्तौति नारायणम्॥ (९० । ४७)
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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इन सब बातोंका वर्णन कीजिये ।
यमराज बोले- ब्रह्मन् ! जो मनुष्य मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा धर्मसे विमुख और श्रीविष्णुभक्तिसे रहित हैं; जो ब्रह्मा, शिव तथा विष्णुको भेदबुद्धिसे देखते हैं; जिनके हृदयमें विष्णु-विद्यासे विरक्ति है; जो दूसरोंके खेत, जीविका, घर, प्रीति तथा आशाका उच्छेद करते हैं, वे नरकोंमें जाते हैं। जो मूर्ख जीविकाका कष्ट भोगनेवाले ब्राह्मणोंको भोजनकी इच्छासे दरवाजेपर आते देख उनकी परीक्षा करने लगता है—उन्हें तुरंत भोजन नहीं देता, उसे नरकका अतिथि समझना चाहिये। जो मूढ़ अनाथ, वैष्णव, दीन, रोगातुर तथा वृद्ध मनुष्यपर दया नहीं करता तथा जो पहले कोई नियम लेकर पीछे अजितेन्द्रियता के कारण उसे छोड़ देता है, वह निश्चय ही नरकका पात्र है।
जो सब पापोंको हरनेवाले, दिव्यस्वरूप, व्यापक, विजयी, सनातन, अजन्मा, चतुर्भुज, अच्युत, विष्णुरूप, दिव्य पुरुष श्रीनारायणदेवका पूजन, ध्यान और स्मरण करते हैं, वे श्रीहरिके परम धामको प्राप्त होते हैं- - यह सनातन श्रुति है। भगवान् दामोदरके गुणोंका कीर्तन ही मङ्गलमय है, वही धनका उपार्जन है तथा वही इस जीवनका फल है। अमिततेजस्वी देवाधिदेव श्रीविष्णुके कीर्तनले सब पाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे दिन निकलनेपर अन्धकार जो प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक भगवान् श्रीविष्णुकी यशोगाथाका गान करते और सदा स्वाध्यायमें लगे रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। विप्रवर!
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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* येऽर्चयन्ति हरिं देवं विष्णुं जिष्णुं सनातनम् । नारायणमजं देवं विष्णुरूपं चतुर्भुजम् ॥ ध्यायन्ति पुरुषं दिव्यमच्युतं ये स्मरन्ति च लभन्ते ते हरिस्थानं श्रुतिरेषा सनातनी ॥ इदमेव हि माङ्गल्यमिदमेव धनार्जनम् । जीवितस्य फलं चैतद् यद्दामोदरकीर्तनम् ॥ कीर्तनाद्देवदेवस्य विष्णोरमिततेजसः । दुरितानि विलीयन्ते तमांसीव दिनोदये ॥ गाथा गायन्ति ये नित्यं वैष्णवीं श्रद्धयान्विताः । स्वाध्यायनिरता नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ वासुदेवजपासक्तानपि पापकृतो जनान् । नोपसर्पन्ति तान् विप्र यमदूताः सुदारुणाः ॥ नान्यत्पश्यामि जन्तूनां विहाय हरिकीर्तनम् । सर्वपापप्रशमनं प्रायश्चितं द्विजोत्तम ।
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भगवान् वासुदेवके नाम-जपमें लगे हुए मनुष्य पहलेके पापी रहे हों, तो भी भयानक यमदूत उनके पास नहीं फटकने पाते। द्विजश्रेष्ठ ! हरिकीर्तनको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा साधन मैं नहीं देखता, जो जीवोंक सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला प्रायश्चित्त हो।'
जो माँगनेपर प्रसन्न होते हैं, देकर प्रिय वचन बोलते हैं तथा जिन्होंने दानके फलका परित्याग कर दिया है, वे मनुष्य स्वर्गमें जातें हैं। जो दिनमें सोना छोड़ देते हैं, सब कुछ सहन करते हैं, पर्वके अवसरपर लोगोंको आश्रय देते हैं, अपनेसे द्वेष रखनेवालोंके प्रति भी कभी द्वेषवश अहितकारक वचन मुँहसे नहीं निकालते अपितु सबके गुणोंका ही बखान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं। जो परायी स्त्रियोंकी ओरसे उदासीन होते हैं और सत्त्वगुणमें स्थित होकर मन, वाणी अथवा क्रियाद्वारा कभी उनमें रमण नहीं करते, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं।
जिस किसी कुलमें उत्पन्न होकर भी जो दयालु. यशस्वी उपकारी और सदाचारी होते हैं, वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं। जो व्रतको क्रोधसे, लक्ष्मीको डाइसे, विद्याको मान और अपमानसे, आत्माको प्रमादसे, बुद्धिको लोभसे, मनको कामसे तथा धर्मको कुसङ्गसे बचाये रखते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। विप्र ! जो शुरू और कृष्णपक्षमें भी एकादशीको विधिपूर्वक उपवास करते हैं, वे मानव स्वर्गमें जाते हैं। समस्त बालकोंका पालन करनेके लिये जैसे माता बनायी गयी है तथा रोगियोंकी रक्षाके लिये जैसे औषधकी रचना हुई है, उसी
लग
९२ । १० - १६ ).
यस्मिन् कस्मिन् कुले जाता दयावन्तो यशस्विनः । सानुक्रोशः सदाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ वतं रक्षन्ति ये कोपाच्छ्रियं रक्षन्ति मत्सरात्। विद्यां मानापमानाभ्यां ह्यात्मानं तु प्रमादतः ॥ मति रक्षन्ति ये लोभान्मनो रक्षन्ति कामतः । धर्म रक्षन्ति दुःसङ्गाते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ( ९२ । २१ - २३ )
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पातालखण्ड]
. यम-ब्राह्मण-संवाद-नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोका वर्णन .
प्रकार सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके निमित्त एकादशी तिथिका विधाताने तराजूपर रखकर तोला था, उस समय इनमेंसे निर्माण हुआ है। एकादशीके व्रतके समान पापसे रक्षा पहलेका ही पलड़ा भारी रहा । ब्रह्मन् ! जो एकादशीका करनेवाला दूसरा कोई साधन नहीं है। अतः एकादशीको सेवन करते हैं तथा जो 'अच्युत-अच्युत' कहकर विधिपूर्वक उपवास करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं। भगवन्नामका कीर्तन करते है, उनपर मेरा शासन नहीं
अखिल विश्वके नायक भगवान् श्रीनारायणमें चलता। मैं तो स्वयं ही उनसे बहुत डरता हूँ। जिनकी भक्ति है, वे सत्यसे हीन और रजोगुणसे युक्त जो मनुष्य प्रत्येक मासमें एक दिन-अमावास्याको होनेपर भी अनन्त पुण्यशाली हैं तथा अन्तमें वे श्राद्धके नियमका पालन करते हैं और ऐसा करनेके वैकुण्ठधाममें पधारते हैं।* जो वेतसी, यमुना, सीता कारण जिनके पितर सदा तृप्त रहते हैं, वे धन्य हैं। वे (गङ्गा) तथा पुण्यसलिला गोदावरीका सेवन और स्वर्गगामी होते हैं। भोजन तैयार होनेपर जो आदरपूर्वक सदाचारका पालन करते हैं; जिनकी सान और दानमें उसे दूसरोंको परोसते हैं और भोजन देते समय जिनके सदा प्रवृत्ति है, वे मनुष्य कभी नरकके मार्गका दर्शन चेहरेके रंगमें परिवर्तन नहीं होता, वे शिष्ट पुरुष नहीं करते। जो कल्याणदायिनी नर्मदा नदीमें गोते स्वर्गलोकमें जाते हैं। जो मर्त्यलोकके भीतर भगवान् लगाते तथा उसके दर्शनसे प्रसन्न होते हैं, वे पापरहित श्रीनर-नारायणके आवासस्थान बदरिकाश्रममें और नन्दा हो महादेवजीके लोकमें जाते और चिरकालतक वहाँ (सरस्वती) के तटपर तीन रात निवास करते हैं, वे आनन्द भोगते हैं। जो मनुष्य चर्मण्वती (चम्बल) धन्यवादके पात्र और भगवान् श्रीविष्णुके प्रिय हैं। नदीमें स्नान करके शौचसंतोषादि नियमोंका पालन करते ब्रह्मन् ! जो भगवान् पुरुषोतमके समीप (जगत्राथहुए उसके तटपर-विशेषतः व्यासाश्रममें तीन रात पुरीमे) छ: मासतक निवास कर चुके हैं, वे अच्युतनिवास करते हैं, वे स्वर्गलोकके अधिकारी माने गये हैं। स्वरूप हैं और दर्शनमात्रसे समस्त पापोंको हर जो गङ्गाजीके जलमें अथवा प्रयाग, केदारखण्ड, पुष्कर, लेनेवाले हैं। व्यासाश्रम या प्रभासक्षेत्रमें मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे जो अनेक जन्मोंमें उपार्जित पुण्यके प्रभावसे विष्णुलोक में जाते हैं। जिनको द्वारका या कुरुक्षेत्रमें मृत्यु काशीपुरीमें जाकर मणिकर्णिकाके जलमें गोते लगाते हुई है अथवा जो योगाभ्याससे मृत्युको प्राप्त हुए हैं और श्रीविश्वनाथजीके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं, वे भी अथवा मृत्युकालमें जिनके मुखसे 'हरि' इन दो अक्षरोंका इस लोकमें आनेपर मेरे वन्दनीय होते हैं। जो श्रीहरिकी उच्चारण हुआ है, वे सभी भगवान् श्रीहरिके प्रिय है। पूजा करके पृथ्वीपर कुश और तिल बिछाकर चारों ओर
विप्र ! जो द्वारकापुरीमें तीन रात भी ठहर जाता है, तिल बिखेरते और लोहा तथा दूध देनेवाली गौ दान वह अपनी ग्यारह इन्द्रियोंद्वारा किये हुए सारे पापोंको नष्ट करके विधिपूर्वक मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे मनुष्य स्वर्गमें करके स्वर्गमें जाता है-ऐसी वहाँको मर्यादा है। जाते हैं। जो पुत्रोंको उत्पन्न करके उन्हें पिता-पितामहोंके वैष्णवव्रत (एकादशी) के पालनसे होनेवाला धर्म तथा पदपर बिठाकर ममता और अहंकारसे रहित होकर मरते यज्ञादिके अनुष्ठानसे उत्पन्न होनेवाला धर्म-इन दोनोंको है, वे भी स्वर्गलोकके अधिकारी होते हैं। जो चोरी
* ये भक्तिमन्तो मधुसूदनस्य नारायणस्याखिलनायकस्य । सत्येन हीना रजस्यापि युक्ता गच्छन्ति ते नाकमनन्तपुण्याः ।।
(९२ । २७) * वेतसों यमुनां सीता पुण्यां गोदावरीनदीम् । सेवन्ते ये शुभाचाराः सानदानपरायणाः ॥ ....... ।न ते पश्यन्ति पन्थानं नरकस्य कदाचन ।।
(९२२८-२९)
संप पु० २०
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पदापुराण
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इकैतीसे दूर रहकर सदा अपने ही धनसे संतुष्ट रहते हैं भक्तिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह निश्चय ही देवलोकका अथवा अपने भाग्यपर ही निर्भर रहकर जीविका चलाते भागी होता है। दरिद्रका दान, सामर्थ्यशालीकी क्षमा, हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो स्वागत करते हुए नौजवानोंको तपस्या, ज्ञानियोंका मौन, सुख भोगनेके शुद्ध पौड़ारहित मधुर तथा पापरहित वाणीका प्रयोग योग्य पुरुषोंको सुखेच्छा-निवृत्ति तथा सम्पूर्ण प्राणियोपर करते हैं, वे लोग स्वर्गमें जाते हैं। जो दान-धर्ममें प्रवृत्त दया-ये सद्गुण स्वर्गमें ले जाते हैं।* तथा धर्ममार्गके अनुयायी पुरुषोंका उत्साह बढ़ाते हैं, वे ध्यानयुक्त तप भवसागरसे तारनेवाला है और चिरकालतक स्वर्गमें आनन्द भोगते हैं। जो हेमन्त ऋतु पापको पतनका कारण बताया गया है; यह बिलकुल सत्य (शीतकाल) में सूखी लकड़ी, गमि शीतल जल तथा है, इसमें संदेहकी गुंजाइश नहीं है। ब्रह्मन् ! स्वर्गको वर्षामें आश्रय प्रदान करता है, वह स्वर्गलोगमें सम्मानित राहपर ले जानेवाले समस्त साधनोंका मैंने यहाँ संक्षेपसे होता है। जो नित्य-नैमित्तिक आदि समस्त पुण्यकालोंमें वर्णन किया है; अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?
तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख-माहात्म्यके सम्बन्धमें
तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
ब्राह्मणने पूछा-धर्मराज! वैशाख मासमें शुद्ध होता है। जैसे हरे बहुतेरे रोगोंको तत्काल हर लेती प्रातःकाल स्नान करके एकाग्रचित्त हुआ पुरुष भगवान् है, उसी प्रकार तुलसी दरिद्रता और दुःखभोग आदिसे माधवका पूजन किस प्रकार करे ? आप इसकी विधिका सम्बन्ध रखनेवाले अधिक-से-अधिक पापोंको भी शीघ्र वर्णन करें।
ही दूर कर देती है। तुलसी काले रंगके पत्तोंवाली हो धर्मराजने कहा-ब्रह्मन् ! पत्तोंकी जितनी या हरे रंगकी, उसके द्वारा श्रीमधुसूदनकी पूजन करनेसे जातियाँ हैं, उन सबमें तुलसी भगवान् श्रीविष्णुको प्रत्येक मनुष्य-विशेषतः भगवान्का भक्त नरसे अधिक प्रिय है। पुष्कर आदि जितने तीर्थ है, गङ्गा आदि नारायण हो जाता है। जो पूरे वैशाखभर तीनों जितनी नदियाँ हैं तथा वासुदेव आदि जो-जो देवता है, सन्ध्याओंके समय तुलसीदलसे मधुहन्ता श्रीहरिका वे सभी तुलसीदलमें निवास करते हैं। अतः तुलसी पूजन करता है, उसका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं सर्वदा 3. सब समय भगवान् श्रीविष्णुको प्रिय है। होता। फूल और पत्तोंके न मिलनेपर अन्न आदिके कमल और मालतीका फूल छोड़कर तुलसीका पत्ता द्वारा-धान, गेहूँ, चावल अथवा जौके द्वारा भी सदा ग्रहण करे और उसके द्वारा भक्तिपूर्वक माधवकी पूजा श्रीहरिका पूजन करे। तत्पश्चात् सर्वदेवमय भगवान् करे। उसके पुण्यफलका पूरा-पूरा वर्णन करनेमें शेष भी विष्णुको प्रदक्षिणा करे। इसके बाद देवताओं, मनुष्यों, समर्थ नहीं है। जो बिना स्नान किये ही देवकार्य या पितरों तथा चराचर जगत्का तर्पण करना चाहिये। पितृकार्यके लिये तुलसीका पता तोड़ता है, उसका सारा पीपलको जल देनेसे, दरिद्रता, कालकर्णी (एक कर्म निष्फल हो जाता है तथा वह पञ्चगव्य पान करनेसे तरहका रोग), दुःस्वप्र, दुश्चिन्ता तथा सम्पूर्ण दुःख नष्ट
_* दानं दरिद्रस्य विभोः क्षमित्वं यूनां तपो ज्ञानयतां च मौनम् । इन्झनिवृतिश्च सुखोचितानां दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।।
+ तपो ध्यानसमायुक्त तारणाय भवाम्बुधः । पाप तु पतनायोक्तं सत्यमेव न संशयः ॥ (९२ । ६०) दारिद्र्यदुःखभोगादिपापानि सुबहून्यपि ॥ तुलसी हरते क्षिप्रं रोगानित्र हरीतको । (९४ । ८-९)
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पातालखण्ड ] • तुलसीदल-अश्वस्थकी महिमा, वैशाख-माहात्म्यके सम्बन्ध में तीन प्रेतोका उद्धार .
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हो जाते हैं। जो बुद्धिमान् पीपलके पेड़की पूजा करता है, नारको अवस्था तुम्हें कैसे प्राप्त हुई ? मैं भयसे आतुर उसने अपने पितरोंको तृप्त कर दिया, भगवान् विष्णुकी और दुःखी हूँ, दयाका पात्र हैं; मेरी रक्षा करो। मैं
आराधना कर ली तथा सम्पूर्ण ग्रहोंका भी पूजन कर भगवान् विष्णुका दास हूँ, मेरी रक्षा करनेसे भगवान् लिया। अष्टाङ्गयोगका साधन, स्नान करके पोपलके तुमलोगोंका भी कल्याण करेंगे। भगवान् विष्णु वृक्षका सिंचन तथा श्रीगोविन्दका पूजन करनेसे मनुष्य ब्राह्मणों के हितैषी हैं, मुझपर दया करनेसे वे तुम्हारे ऊपर कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता । जो सब कुछ करनेमें संतुष्ट होंगे। श्रीविष्णुका अलसौके पुष्पके समान श्याम असमर्थ हो, वह स्त्री या पुरुष यदि पूर्वोक्त नियमोंसे युक्त वर्ण है, वे पीताम्बरधारी हैं, उनका नाम श्रवण करनेहोकर वैशाखकी त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा- मात्रसे सब पापोंका क्षय हो जाता है। भगवान् आदि तीनों दिन भक्तिसे विधिपूर्वक प्रातःस्रान करे तो सब और अत्तसे रहित, शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण पातकोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। करनेवाले, अविनाशी, कमलके समान नेत्रोंवाले तथा जो वैशाख मासमें प्रसन्नताके साथ भक्तिपूर्वक प्रेतोंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। ब्राह्मणोंको भोजन कराता है तथा तीन राततक प्रातःकाल यमराज कहते हैं-ब्रह्मन् ! भगवान् विष्णुका एक बार भी स्नान करके संयम और शौचका पालन नाम सुननेमात्रसे वे पिशाच संतुष्ट हो गये। उनका भाव करते हुए श्वेत या काले तिलोंको मधुमें मिलाकर बारह पवित्र हो गया। वे दया और उदारताके वशीभूत हो ब्राह्मणोंको दान देता है और उन्हींक द्वारा स्वस्तिवाचन गये। ब्राह्मणके कहे हुए वचनसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई कराता है तथा 'मुझपर धर्मराज प्रसन्न हों' इस उद्देश्यसे थी। उसके पूछनेपर वे प्रेत इस प्रकार बोले। .. देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, उसके प्रेतोंने कहा-विप्र ! तुम्हारे दर्शनमात्रसे तथा जीवनभरके किये हुए पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो भगवान् श्रीहरिका नाम सुननेसे हम इस समय दूसरे ही वैशाखकी पूर्णिमाको मणिक (मटका), जलके घड़े, भावको प्राप्त हो गये-हमारा भाव बदल गया, हम पकवान तथा सुवर्णमय दक्षिणा दान करता है, उसे दयालु हो गये। वैष्णव पुरुषका समागम निश्चय ही अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है।
पापोंको दूर भगाता, कल्याणसे संयोग कराता तथा शीघ्र इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास कहा जाता है, ही यशका विस्तार करता है।* अब हमलोगोका जिसमें एक ब्राह्मणका महान् वनके भीतर प्रेतोके साथ परिचय सुनो। यह पहला 'कृतन' नामका प्रेत है, इस संवाद हुआ था। मध्यदेशमें एक धनशर्मा नामक ब्राह्मण दूसरेका नाम 'विदैवत' है तथा तीसरा मैं हूँ, मेरा नाम रहता था; उसमें पापका लेशमात्र भी नहीं था। एक दिन 'अवैशाख' है, मैं तीनोंमें अधिक पापी हूँ। इस प्रथम वह कुश आदिके लिये वनमें गया। वहाँ उसने एक पापीने सदा ही कृतघ्नता की है; अतः इसके कर्मके अद्भुत बात देखी। उसे तीन महाप्रेत दिखायी दिये, जो अनुसार ही इसका 'कृतघ्न' नाम पड़ा है। ब्रह्मन् ! यह बड़े ही दुष्ट और भयंकर थे। घनशर्मा उन्हें देखकर डर पूर्वजन्ममें 'सुदास' नामक द्रोही मनुष्य था, सदा गया । उन प्रेतोंके केश ऊपरको उठे हुए थे। लाल-लाल कृतघ्नता किया करता था, उसी पापसे यह इस आँखें, काले-काले दाँत और सूखा हुआ उनका पेट था। अवस्थाको पहुँचा है। अत्यन्त पापी, धूर्त तथा गुरु और
धनशर्माने पूछा-तुमलोग कौन हो? यह स्वामीका अहित करनेवाले मनुष्यके लिये भी पापोंसे
• दर्शननैव ते विप्र नामश्रवणतो हरेः । भावमन्यमानुप्राप्ता वयं जाता दयालयः॥ __ अपाकरोति दुरितं श्रेयः संयोजयत्यपि । यशो विस्तारपत्याशु नूनं वैष्णवसङ्गमः ।। (९४ । ५४-५५)
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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इस दूसरे पापीने देवताओंका पूजन किये बिना ही सदा अन्न भोजन किया है, इसने गुरु और ब्राह्मणोंको कभी दान नहीं दिया है; इसीलिये इसका नाम 'विदैवत' हुआ है। यह पूर्वजन्ममें 'हरिवीर' नामसे विख्यात राजा था। दस हजार गाँवोंपर इसका अधिकार था। यह रोष, अहंकार तथा नास्तिकताके कारण गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेमें तत्पर रहता था। प्रतिदिन पञ्च महायज्ञोंका अनुष्ठान किये बिना ही खाता और ब्राह्मणोकी निन्दा किया करता था। उसी पापकर्मके कारण यह बड़े-बड़े नरकोंका कष्ट भोगकर इस समय 'विदैवत' नामक प्रेत हुआ है।
'अवैशाख' नामक तीसरा प्रेत मैं हूँ। मैं पूर्वजन्ममें ब्राह्मण था । मध्यदेशमें मेरा जन्म हुआ था। मेरा नाम भी गौतम था और गोत्र भी मैं 'वासपुर गाँवमें निवास करता था। मैंने वैशाख मासमें भगवान् माधवको प्रसन्नताके उद्देश्यसे कभी स्नान नहीं किया। दान और हवन भी नहीं किया। विशेषतः वैशाख माससे सम्बन्ध रखनेवाला कोई कर्म नहीं किया। वैशाखमें भगवान् मधुसूदनका पूजन नहीं किया तथा विद्वान् पुरुषोंको दान आदिसे संतुष्ट नहीं किया। वैशाख मासकी एक भी पूर्णिमाको, जो पूर्ण फल प्रदान करनेवाली है, मैंने स्नान दान, शुभकर्म, पूजा तथा पुण्यके द्वारा उसके व्रतका पालन नहीं किया। इससे मेरा सारा वैदिक कर्म निष्फल हो गया। मैं 'अवैशाख' नामक प्रेत होकर सब ओर विचरता हूँ ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
छूटनेका उपाय है; परन्तु कृतप्रके लिये कोई प्रायश्चित्त गङ्गा आदि सम्पूर्ण तीर्थो में स्नान करता है तथा जो केवल नहीं है। *
साधु पुरुषोंका सङ्ग करता है, उनमें साधु-सङ्ग करनेवाला पुरुष ही श्रेष्ठ है। अतः तुम मेरा उद्धार करो अथवा मेरा एक पुत्र है, जो धनशर्मा नामसे विख्यात है: स्वामिन्! तुम उसीके पास जाकर ये सब बातें समझाओ। हमारे लिये इतना परिश्रम करो। जो दूसरोंका कार्य उपस्थित होनेपर उसके लिये उद्योग करता है, उसे उसका पूरा फल मिलता है; वह यज्ञ, दान और शुभकर्मोंसे भी अधिक फलका भागी होता है।
यमराज कहते हैं— ब्रह्मन् ! उस प्रेतका वचन सुनकर धनशर्माको बड़ा दुःख हुआ। उसने यह जान लिया कि ये मेरे पिता हैं, जो नरकमें पड़े हुए हैं। तब वह सर्वथा अपनी निन्दा करते हुए बोला ।
धनशर्माने कहा - स्वामिन्! मैं ही गौतमका - आपका पुत्र धनशर्मा हूँ। मैं आपके किसी काम न आया, मेरा जन्म निरर्थक है। जो पुत्र आलस्य छोड़कर अपने पिताका उद्धार नहीं करता, वह अपनेको पवित्र नहीं कर पाता। जो इस लोक और परलोकमें भी सुखका संतान - विस्तार कर सके, वही संतान या तनय माना गया है। इस लोकमें धर्मकी दृष्टिसे पुरुषके दो ही गुरु हैं—पिता और माता। इनमें भी पिता ही श्रेष्ठ है; क्योंकि सर्वत्र बीजकी ही प्रधानता देखी जाती है। पिताजी ! क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? कैसे आपको गति होगी ? मैं धर्मका तत्त्व नहीं जानता, केवल आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
हम तीनोंके प्रेतयोनिमें पड़नेका जो कारण है, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया। अब तुम हमलोगोंका पापसे उद्धार करो; क्योंकि तुम विप्र हो। ब्रह्मन् ! पुण्यात्मा साधु पुरुष तोर्थोंसे भी बढ़कर हैं। वे शरणमें आये हुए महान् पापियोंको भी नरकसे तार देते हैं। जो मनुष्य सदा
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प्रेत बोला- बेटा! घर जाओ और यमुनामें विधिपूर्वक स्नान करो। आजसे पाँचवें दिन वैशाखकी पूर्णिमा आनेवाली है, जो सब प्रकारकी उत्तम गति प्रदान करनेवाली तथा देवता और पितरोंके पूजनके लिये उपयुक्त है। उस दिन पितरोंके निमित्त भक्तिपूर्वक तिलमिश्रित जल, जलका घड़ा, अन्न और फल दान करना चाहिये। उस दिन जो श्राद्ध किया जाता है, वह
* अतिपापिनि धूर्तच गुरुस्वाम्यहितेऽपि वा । निष्कृतिविद्यते विप्र कृतघ्नं नास्ति निष्कृतिः ।। ९४ । ६०) गङ्गादिसर्वतीर्थेषु यो नरः स्नाति सर्वदा यः करोति सतां स तयोः सत्सङ्गमो वरः ॥ (९४ । ७६)
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पातालखण्ड ]
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वैशाख माहात्म्य प्रसङ्गमें महीरथकी कथा, यम ब्राह्मण संवादका उपसंहार •
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पितरोंको हजार वर्षोंतक आनन्द प्रदान करनेवाला होता है। जो वैशाखकी पूर्णिमाको विधि पूर्वक स्नान करके दस ब्राह्मणोंको खीर भोजन कराता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो धर्मराजकी प्रसन्नताके लिये जलसे भरे हुए सात घड़े दान करता है, वह अपनी सात पीढ़ियोंको तार देता है। बेटा! त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमाको भक्तिपरायण होकर स्नान, जप, दान, होम और श्रीमाधवका पूजन करो और उससे जो फल हो, वह हमलोगों को समर्पित कर दो। ये दोनों प्रेत भी मेरे परिचित हो गये हैं; अतः इनको इसी अवस्थामें छोड़कर मैं स्वर्गमें नहीं जा सकता। इन दोनोंके पापका भी अन्त आ गया है।
यमराज कहते हैं— ब्रह्मन् ! 'बहुत अच्छा' कहकर वह श्रेष्ठ ब्राह्मण अपने घर गया और वहाँ जाकर उसने सब कुछ उसी तरह किया। वह प्रसन्नतापूर्वक परम भक्तिके साथ वैशाख स्नान और दान करने लगा। वैशाखकी पूर्णिमा आनेपर उसने आनन्दपूर्वक भक्तिसे स्वान किया और बहुत-से दान करके उन सबको पृथक् पृथक् पुण्य प्रदान किया। उस पवित्र दानके संयोगसे वे सब आनन्दमय हो विमानपर बैठकर तत्क्षण ही स्वर्गको चले गये ।
जो वैशाख मासमें प्रातः काल स्नान करके नियमोंके पालनसे विशुद्धचित्त हो भगवान् मधुसूदनकी पूजा करते हैं, वे ही पुरुष धन्य हैं, वे ही पुण्यात्मा हैं तथा वे ही संसारमें पुरुषार्थके भागी हैं। जो मनुष्य वैशाख मासमें सबेरे स्नान करके सम्पूर्ण यम-नियमोंसे युक्त हो भगवान् लक्ष्मीपतिकी आराधना करता है, वह निश्चय ही अपने पापोंका नाश कर डालता है। जो प्रातःकाल उठकर श्रीविष्णुकी पूजाके लिये गङ्गाजीके जलमें डुबकी लगाते हैं, उन्हीं पुरुषोंने समयका सदुपयोग किया है, वे ही मनुष्योंमें धन्य तथा पापरहित हैं। वैशाख मासमें प्रातःकाल नियमयुक्त हो मनुष्य जब तीर्थमें स्नान करनेके लिये पैर बढ़ाता है, उस समय श्रीमाधवके स्मरण और नामकीर्तनसे उसका एक-एक पग अश्वमेध यज्ञके समान पुण्य देनेवाला होता है। श्रीहरिके प्रियतम वैशास्त्र मासके व्रतका यदि पालन किया जाय तो यह मेरुपर्वतके समान बड़े उग्र पापोंको भी जलाकर भस्म कर डालता है विप्रवर! तुमपर अनुग्रह होनेके कारण मैंने यह प्रसङ्ग संक्षेपसे तुम्हें बता दिया है। जो मेरे कहे हुए इस इतिहासको भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह भी सब पापोंसे मुक्त हो जायगा तथा उसे मेरे लोक - यमलोकमें नहीं आना पड़ेगा। वैशाख मासके व्रतका विधिपूर्वक पालन करनेसे अनेकों बारके किये हुए ब्रह्महत्यादि पाप भी नष्ट हो जाते हैं - यह निश्चित बात है। वह पुरुष अपने तीस पीढ़ी पहलेके पूर्वजों और तीस पीढ़ी बादकी संतानोंको भी तार देता है; क्योंकि अनायास ही नाना प्रकारके कर्म करनेवाले भगवान् श्रीहरिको वैशाख मास बहुत ही प्रिय है अतएव वह सब मासोंमें श्रेष्ठ है।
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⭑
वैशाख माहात्म्यके प्रसङ्गमें राजा महीरथकी कथा और यम- ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ धनशर्मा भी श्रुति स्मृति और पुराणोंका ज्ञाता था। वह चिरकालतक उत्तम भोग भोगकर अन्तमें ब्रह्मलोकको प्राप्त हुआ। अतः यह वैशाखकी पूर्णिमा परम पुण्यमयी और समस्त विश्वको पवित्र करनेवाली है। इसका माहात्म्य बहुत बड़ा है, अतएव मैंने संक्षेपसे तुम्हें इसका महत्त्व बतला दिया है।
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यमराज कहते हैं - ब्रह्मन् ! पूर्वकालकी बात है, महीरथ नामसे विख्यात एक राजा थे। उन्हें अपने पूर्वजन्मके पुण्योंके फलस्वरूप प्रचुर ऐश्वर्य और सम्पत्ति प्राप्त हुई थी। परन्तु राजा राज्यलक्ष्मीका सारा भार मन्त्रीपर रखकर स्वयं विषयभोगमें आसक्त हो रहे थे।
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वे न प्रजाकी ओर दृष्टि डालते थे न धनकी ओर । धर्म और अर्थका काम भी कभी नहीं देखते थे। उनकी वाणी तथा उनका मन कामिनियोंकी क्रीड़ामें ही आसक्त था । राजाके पुरोहितका नाम कश्यप था जब राजाको विषयोंमें रमते हुए बहुत दिन व्यतीत हो गये, तब
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६०० . अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण ....... .................................... ............................................ पुरोहितने मनमें विचार किया— 'जो गुरु मोहवश पृथ्वीपर फेंक, उसके बन्धु-वाधव मुँह फेरकर चल देते राजाको अधर्मसे नहीं रोकता, वह भी उसके पापका हैं; केवल धर्म ही उसके पीछे-पीछे जाता है। सब कुछ भागी होता है; यदि समझानेपर भी राजा अपने पुरोहितके जा रहा है, आयु प्रतिदिन क्षीण हो रही है तथा यह वचनोंकी अवहेलना करता है तो पुरोहित निर्दोष हो जाता जीवन भी लुप्त होता जा रहा है; ऐसी अवस्थामें भी तुम है। उस दशामें राजा ही सारे दोषोंका भागी होता है।' उठकर भागते क्यों नहीं ? स्त्री-पुत्र आदि कुटुम्ब, शरीर यह सोचकर उन्होंने राजासे धर्मानुकूल वचन कहा। तथा द्रव्य-संग्रह-ये सब पराये हैं, अनित्य है; किन्तु
कश्यप बोले-राजन् ! मैं तुम्हारा गुरु हूँ, अतः पुण्य और पाप अपने हैं। जब एक दिन सब कुछ धर्म और अर्थसे युक्त मेरे वचनोंको सुनो । राजाके लिये छोड़कर तुम्हें विवशतापूर्वक जाना ही है तो तुम अनर्थमें यही सबसे बड़ा धर्म है कि वह गुरुकी आज्ञामें रहे। फँसकर अपने धर्मका अनुष्ठान क्यों नहीं करते? मरनेके गुरुकी आज्ञाका आंशिक पालन भी राजाओंकी आयु, बाद उस दुर्गम पथपर अकेले कैसे जा सकोगे, जहाँ न लक्ष्मी तथा सौख्यको बढ़ानेवाला है। तुमने दानके द्वारा ठहरनेके लिये स्थान, न खानेयोग्य अत्र, न पानी, न कभी ब्राह्मणोंको तृप्त नहीं किया; भगवान् श्रीविष्णुकी राहखर्च और न राह बतानेवाला कोई गुरु ही है। यहाँसे
आराधना नहीं की; कोई व्रत, तपस्या तथा तीर्थ भी नहीं प्रस्थान करनेके बाद तुम्हारे पीछे कुछ भी नहीं जायगा, किया। महाराज ! कितने खेदकी बात है कि तुमने केवल पाप और पुण्य जाते समय तुम्हारे पीछे-पीछे कामके अधीन होकर कभी भगवानके नामका स्मरण जायेंगे। नहीं किया। अबलाओंकी संगतिमें पड़कर विद्वानोंको अतः अब तुम आलस्य छोड़कर वेदों तथा संगति नहीं की। जिसका मन स्त्रियोंने हर लिया, उसे स्मृतियोंमे बताये हुए देश और कुलके अनुरूप अपनी विद्या, तपस्या, त्याग, नीति तथा विवेकशील हितकारक कर्मका अनुष्ठान करो, धर्ममूलक सदाचारका चित्तसे क्या लाभ हुआ।* एकमात्र धर्म ही सबसे महान् सेवन करो। अर्थ और काम भी यदि धर्मसे रहित हों तो
और श्रेष्ठ है, जो मृत्युके बाद भी साथ जाता है। शरीरके उनका परित्याग कर देना चाहिये। दिन-रात इन्द्रियउपभोगमें आनेवाली अन्य जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब यहीं विजयरूपी योगका अनुष्ठान करना चाहिये; क्योंकि नष्ट हो जाती हैं। धर्मकी सहायतासे ही मनुष्य दुर्गतिसे जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाको अपने वशमें रख सकता है। पार होता है। राजेन्द्र ! क्या तुम नहीं जानते, मनुष्योंके लक्ष्मी अत्यन्त प्रगल्भ रमणीके कटाक्षके समान चञ्चल जीवनका विलास जलकी उत्ताल तरङ्गोंके समान चञ्चल होती है, विनयरूपी गुण धारण करनेसे ही वह राजाओंके एवं अनित्य है। जिनके लिये विनय ही पगड़ी और पास दीर्घकालतक ठहरती है। जो अत्यन्त कामी और मुकुट हैं, सत्य और धर्म ही कुण्डल हैं तथा त्याग ही घमंडी हैं, जिनका सारा कार्य बिना विचारे ही होता है, कंगन है, उन्हें जड़ आभूषणोंकी क्या आवश्यकता है। उन मूढ़चेता राजाओंकी सम्पत्ति उनकी आयुके साथ ही मनुष्यके निर्जीव शरीरको ढेले और काठके समान नष्ट हो जाती है। व्यसन और मृत्यु-इनमें व्यसनको ही
* कि विद्यया कि तपसा कि त्यागेन नयेन बा। किं विविक्तेन मनसा स्त्रीभिर्यस्य मनो इतम् ।। (२५ । १४) + मृत शरीरमुत्सृज्य लोष्टकाष्ठसमं भुवि । विमुखा बान्धवा यानि धर्मस्तमनुगच्छति ।। गम्यमानेषु सर्वेषु क्षीयमाणे तथायुषि । जीविते लुप्यमाने च किमुत्थाय न धावसि ।। कुटुम्ब पुत्रदारादि शरीर द्रव्यसज्ञयः । पारक्यमधुवं किन्तु स्वीये सुक्तदुष्कृते ।। यदा सर्व परित्यज्य गन्तव्यमवशेन ते। अनर्थे कि प्रसक्तस्त्वं स्वधर्म नानुतिष्ठास।. .......... अविनाममभक्ष्याम्बुमपाथेयमदेशिकम् ।मृतः कान्तारमध्यानं कथमेको गमिष्यसि ।। न हि त्वां प्रस्थितं किञ्चित् पृष्ठतोऽनुगमिष्यति । दुष्कृतं सुकृतं च त्वां यास्यन्तमनुयास्यति ।। (९५। १९-२४)
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पातालखण्ड] - वैशाख-माहात्म्यके प्रसङ्गमें राजा महीरथकी कथा और यम-ब्राह्मण-संवादका उपसंहार .
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कष्टदायक बताया गया है। व्यसनमें पड़े हुए राजाकी बड़ा चञ्चल है, जीवन उसीके अधीन है। ऐसी स्थितिमें अधोगति होती है और जो व्यसनसे दूर रहता है, वह भी कौन मनुष्य धर्मके आचरणमें विलम्ब करेगा। स्वर्गलोकमें जाता है।* व्यसन और दुःख विशेषतः राजन् ! जो वृद्धावस्थाको प्राप्त हो चुका है, उसका चित्त कामसे ही उत्पन्न होते हैं; अतः कामका परित्याग करो। भी इन निषिद्ध विषयोंकी ओरसे नहीं हटता; हाय ! यह पापोंमें फंस जानेपर वैभव एवं भोग स्थिर नहीं रहते; वे कितने शोककी बात है। पृथ्वीनाथ ! इस कामके मोहमें शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। चलते, रुकते, जागते और पड़कर तुम्हारी सारी उम्र व्यर्थ बीत-गयी, अब भी तो सोते समय भी जिसका चित्त विचारमें संलग्न नहीं रहता अपने हित-साधनमें लगो। राजन् ! तुम्हारे लिये वह जीते-जी भी मरे हुएके ही तुल्य है। विद्वान् पुरुष सर्वोत्तम हितकी बात कहता हूँ; क्योंकि मैं तुम्हारा विषय-चिन्ता छोड़कर समतापूर्ण, स्थिर एवं व्यावहारिक पुरोहित और तुम्हारे भले-बुरे कर्मोका भागी हूँ। युक्तिसे परमार्थका साधन करते हैं। जीवका चित्त मुनीश्वरोंने ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुपत्नीगमन आदि बालककी भाँति चपल होता है; अतः उससे बलपूर्वक महापातक बताये है; उनमेसे मनुष्योद्वारा मन, वाणी और काम लेना चाहिये। राजन् ! धर्मके तत्त्वदर्शी वृद्ध शरीरसे भी किये हुए जो पाप हैं, उन्हें वैशाख मास नष्ट पुरुषोंकी बुद्धिका सहारा ले पराबुद्धिके द्वारा अपने कर देता है। जैसे सूर्य अन्धकारका नाश करता है, उसी कुपथगामी चितको वशमे करना चाहिये। लौकिक धर्म, प्रकार वैशाख मांस पापरूपी महान् अन्धकारको सर्वथा मित्र, भाई-बन्धु, हाथ-पैरोंका चलाना, देशान्तरमें जाना, नष्ट कर डालता है। इसलिये तुम विधिपूर्वक वैशाखशरीरसे केश उठाना तथा तीर्थके लिये यत्न करना आदि व्रतका पालन करो। राजन् ! मनुष्य वैशाख मासकी कोई भी परमपदको प्राप्तिमें सहायता नहीं कर सकते; विधिके अनुष्ठानद्वारा होनेवाले पुण्यके प्रभावसे केवल परमात्मामें मन लगाकर उनका नाम-जप करनेसे जन्मभरके किये हुए घोर पापोका परित्याग करके ही उस पदकी प्राप्ति होती है।
.. परमधामको प्राप्त होता है। इसलिये महाराज ! तुम भी इसलिये राजन् ! विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह इस वैशाख मासमे प्रातःस्रान करके विधिपूर्वक भगवान् विषयोंमें प्रवृत्त हुए चित्तको रोकनेके लिये यन करे। मधुसूदनकी पूजा करो। जिस प्रकार कूटने-अँटनेकी यत्नसे वह अवश्य ही वशमें हो जाता है। यदि मनुष्य क्रियासे चावलकी भूसी छूट जाती है, मांजनेसे ताँबेकी मोहमें पड़ जाय-स्वयं विचार करने में असमर्थ हो जाय कालिख मिट जाती है, उसी प्रकार शुभ कर्मका अनुष्ठान तो उसे विद्वान् सुहृदोंके पास जाकर प्रश्न करना चाहिये। करनेसे पुरुषके अन्तःकरणका मल घुल जाता है। वे पूछनेपर यथोचित कर्तव्यका उपदेश देते हैं। राजाने कहा-सौम्य स्वभाववाले गुरुदेव ! कल्याणको इच्छा रखनेवालेको हर एक उपायसे काम आपने मुझे वह अमृत पिलाया, जिसका आविर्भाव
और क्रोधका निग्रह करना चाहिये; क्योंकि वे दोनों समुद्रसे नहीं हुआ है। आपका वचन संसाररूपी रोगका कल्याणका विघात करनेके लिये उद्यत रहते हैं। राजन् ! निवारण तथा दुव्र्यसनोंसे मुक्त करनेवाला द्रव्यभिन्न काम बड़ा बलवान् है; वह शरीरके भीतर रहनेवाला औषध है। आपने कृपा करके मुझे आज इस औषधका महान् शत्रु है। श्रेयकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको पान कराया है। विप्रवर ! सत्पुरुषोंका समागम उसके अधीन नहीं होना चाहिये। अतः विधिपूर्वक मनुष्योंको हर्ष प्रदान करनेवाली, उनके पापको दूर पालन किया हुआ धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है । इसलिये तुम भगानेवाली तथा जरा-मृत्युका अपहरण करनेवाली धैर्य धारण करके धर्मका ही आचरण करो। यह श्वास संजीवनी बूटी है। इस पृथ्वीपर जो-जो मनोरथ दुर्लभ
• व्यसनस्य च मूल्योश व्यसनं कष्टमुच्यते । व्यसन्यधोऽधो बजति स्थर्याल्पव्यसनी नृपः ।। (९५। ३१)
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. अर्थयस्व हषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
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माने गये हैं, वे सब यहाँ साधु पुरुषोंके सङ्गसे प्राप्त हो वैशाख-सानके उत्तम व्रतका पालन कराऊँगा। जाते हैं। जो पापोंका अपहरण करनेवाली सत्सङ्गकी तदनन्तर पुरोहित कश्यपने राजा महीरथसे वैशाख गङ्गामें स्रान कर चुका है, उसे दान, तीर्थसेवन, तपस्या मासमें स्नान, दान और पूजन कराया। शास्त्रमें वैशाखतथा यज्ञ करनेकी क्या आवश्यकता है।* प्रभो! नानकी जैसी विधि उन्होंने देखी थी, उसका पूरा-पूरा आजके पहले मेरे मनमें जो-जो भाव उठते थे, वे सब पालन कराया। राजा महीरथने भी गुरुकी प्रेरणासे उस केवल काम-सुखके प्रति लोभ उत्पन्न करनेवाले थे; समय विधिपूर्वक सब नियमोंका पालन किया तथा परन्तु आज आपके दर्शनसे तथा वचन सुननेसे उनमें माधव मासका जो-जो विधान उन्होंने बताया, वह सब विपरीत भाव आ गया। मूर्ख मनुष्य एक जन्मके सुखके आदरपूर्वक सुना। उन नृपश्रेष्ठने प्रातःकाल स्रान करके लिये हजारों जन्मोंका सुख नष्ट करता है और विद्वान् भक्ति-भावके साथ पाद्य और अर्थ्य आदि देकर पुरुष एक जन्मसे हजारों जन्म बना लेते हैं। हाय ! श्रीहरिका पूजन किया तथा नैवेद्य भोग लगाया। हाय ! कितने खेदकी बात है कि मुझ मूर्खने अपने यमराज कहते है-ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् राजाके मनको सदा कामजनित रसके आस्वादन-सुखमें ही ऊपर कालकी दृष्टि पड़ी। अधिक मात्रामें रतिका सेवन फंसाये रखनेके कारण कभी कुछ भी आत्म-कल्याणका करनेसे उन्हें क्षयका रोग हो गया था, जिससे उनका कार्य नहीं किया। अहो ! मेरे मनका कैसा मोह है, शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया; अन्ततोगत्वा उनको मृत्यु जिससे मैंने खियोंके फेरमें पड़कर अपने आत्माको घोर विपत्तिमें डाल दिया, जिसका भविष्य अत्यन्त दुःखमय है तथा जिससे पार पाना बहुत कठिन है। भगवन् ! आपने स्वतः संतुष्ट होकर अपनी वाणीसे आज मुझे मेरी स्थितिका बोध करा दिया। अब उपदेश देकर मेरा उद्धार कीजिये। पूर्वजन्ममें मैंने कोई पुण्य किया था, जिससे आपने मुझे बोध कराया है। विशेषतः आपके चरणोंकी धूलिसे आज मैं पवित्र हो गया। वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब आप मुझे वैशाख मासकी विधि बताइये।
कश्यपजी बोले-राजन् ! बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह बिना पूछे अथवा अन्यायपूर्वक पूछनेपर किसीको उपदेश न दे। लोकमें जानते हुए भी जडवत्
अनजानकी भाँति आचरण करे । परन्तु विद्वानो, शिष्यो, पुत्रों तथा श्रद्धालु पुरुषोंको उनके हितकी बात कृपापूर्वक बिना पूछे भी बतानी चाहिये । राजन् ! इस समय तुम्हारा मन धर्ममें स्थित हुआ है, अतः तुम्हे
* हर्षप्रटो नृणां पापहानिकृजीवनौषधम्। जगमृत्युहरो विप्र सद्धिः सह समागमः ।। यानि यानि दुरापानि वाञ्छितानि महीतले । प्राप्यन्ते तानि तान्येव साधुनापोह संगमात् ॥
सः स्नातः पापहरया साधुसंगमगङ्गया। किं तस्य दानः किं तीर्थः किं तपोभिः किमध्वः॥ (९६ । ३-५) + नापृष्टः कस्यचिद् बयान चान्यायेन पृच्छतः । जाननपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत् ॥ (९६ । १७) # विदुषामथ शिष्याणां पुत्राणां च कृपायता । अपृष्टमपि वक्तव्यं श्रेयः श्रतायतां हितम् ।। (९६ । १८)
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पातालखण्ड ]- वैशाख-माहात्म्यके प्रसङ्गमें राजा महीरथकी कथा और यम-ब्राह्मण-संवादका उपसंहार .
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हो गयी। उस समय मेरे तथा भगवान् विष्णुके दूत भी तेलके, मेदाके, तपे हुए स्तम्भके तथा कूट-शाल्पलि उन्हें लेने पहुंचे। विष्णुदूतोंने 'ये राजा धर्मात्मा हैं' यों नामके भी नरक है। छूरे, काँटे, कील और उग्र ज्वालाके कहकर मेरे सेवकोंको डाँटा और स्वयं राजाको विमानपर कारण क्षोभ एवं भय उत्पन्न करनेवाले बहुत-से नरक बिठाकर वे वैकुण्ठलोकमें ले गये। वैशाख मासमें है। कहीं तपी हुई वैतरणी नदी है। कहीं पीबसे भरे हुए प्रातःकाल स्रान करनेसे राजाका पातक नष्ट हो चुका अनेको कुण्ड हैं। इन सबमें पृथक्-पृथक् पापियोंको था। भगवान् विष्णुके दूत अत्यन्त चतुर होते हैं; वे डाला जाता है। कुछ नरक ऐसे हैं, जो जंगलके रूपमें भगवान्की आज्ञाके अनुसार राजा महीरथको नरक- है; वहाँके पत्ते तलवारकी धारके समान तीखे हैं। इसीसे मार्गके निकटसे ले चले। जाते-जाते राजाने नरकमें उन्हें 'असिपत्रवन' कहते हैं; वहाँ प्रवेश करते ही पकाये जानेके कारण घोर चीत्कार करनेवाले नारकीय नर-नारियोंके शरीर कटने और छिलने लगते हैं। कितने जीवोका आर्तनाद सुना। कड़ाहमें डालकर औटाये ही नरक घोर अन्धकार तथा आगकी लपटोंके कारण जानेवाले पापियोंका क्रन्दन बड़ा भयंकर था। सुनकर अत्यन्त दारुण प्रतीत होते हैं। इनमें बार-बार यातना राजाको बड़ा विस्मय हुआ। वे अत्यन्त दुःखी होकर भोगनेके कारण पापी जीव नाना प्रकारके स्वरोंमें रोते दूतोंसे बोले-'जीवोंके कराहनेकी यह भयंकर आवाज और विलाप करते हैं। राजन् ! इस प्रकार ये शास्त्रक्यों सुनायी दे रही है ? इसमें क्या कारण है ? आपलोग विरुद्ध कर्म करनेवाले पापी जीव कराहते हुए सब बातें बतानेकी कृपा करें।
नरकयातनाका कष्ट भोग रहे हैं। उन्हींका यह क्रन्दन हो विष्णुदूत बोले-जिन प्राणियोंने धर्मकी रहा है। सभी प्राणियोंको अपने पूर्वकृत कर्मोंका भोग मर्यादाका परित्याग किया है, जो पापाचारी एवं पुण्यहीन भोगना पड़ता है। परायी स्त्रियोंका सङ्ग प्रसत्रताके लिये हैं, वे सामिस्र आदि भयंकर नरकोंमें डाले गये हैं। पापी किया जाता है, किन्तु वास्तवमें वह दुःख ही देनेवाला मनुष्य प्राण-त्यागके पश्चात् यमलोकके मार्गमें आकर होता है। दो घड़ीतक किया हुआ विषय-सुखका भयानक दुःख भोगते हैं। यमराजके भयंकर दूत उन्हें आस्वादन अनेक कल्पोतक दुःख देनेवाला होता है। इधर-उधर घसीटते हैं और वे अन्धकारमें गिर पड़ते हैं। राजेन्द्र ! तुमने वैशाख मासमें प्रातःस्रान किया है, उन्हें आगमें जलाया जाता है। उनके शरीरमे काँटे उसकी विधिका पालन करनेसे तुम्हारा शरीर पावन बन चुभाये जाते हैं। उनको आरीसे चीरा जाता है तथा वे गया है। उससे छूकर बहनेवाली वायुका स्पर्श पाकर ये भूख-प्याससे पीड़ित रहते हैं। पीब और रक्तकी दुर्गन्धके क्षणभरके लिये सुखी हो गये हैं। तुम्हारे तेजसे इन्हें बड़ी कारण उन्हें बार-बार मूर्छा आ जाती है। कहीं वे तृप्ति मिल रही है। इसीसे अब ये नरकवी जीव खौलते हुए तेलमें औटाये जाते हैं; कहीं उनपर कराहना छोड़कर चुप हो गये हैं। पुण्यवानोंका नाम भी मूसलोंकी मार पड़ती है और कहीं तपाये हुए लोहेको यदि सुना या उच्चारण किया जाय तो वह सुखका साधक शिलाओंपर डालकर उन्हें पकाया जाता है। कहीं वमन, होता है तथा उसे छूकर चलनेवाली वायु भी शरीरमें कहीं पीब और कहीं रक्त उन्हें खानेको मिलता है। लगनेपर बड़ा सुख देती है।* मुदोको दुर्गन्धसे भरे हुए करोड़ों नरक है, जहाँ 'शरपत्र' यमराज कहते हैं-करुणाके सागर राजा महीरथ वन है, 'शिलापात के स्थान हैं (जहाँ पापी शिलाओंपर अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुके दूतोकी पटके जाते है) तथा वहाँकी समतल भूमि भी आगसे उपर्युक्त बात सुनकर द्रवित हो उठे। निश्चय ही साधु तपी होती है। इसके सिवा गरम लोहेके, खौलते हुए पुरुषोंका हृदय मक्खनके समान होता है। जैसे नवनीत
* नामापि पुण्यशैलानां श्रुतं सौख्याय कौर्तितम् । जायते तदपुःस्पर्शवायुः स्पर्शसुखावहः ।। (९७ । २७)
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
आगकी आँच पाकर पिघल जाता है, उसी प्रकार साधु किया है, वे ही परलोकमें आनेपर घोर नरकोंमें पकाये पुरुषोंका हृदय भी दूसरोंके संतापसे संतप्त होकर द्रवित जाते हैं। जिनका शील-स्वभाव दूषित है, जो दुराचारी, हो उठता है। उस समय राजाने दूतोंसे कहा। व्यवहारमें निन्दित, दूसरोंकी बुराई करनेवाले एवं पापी
राजा बोले-इन्हें देखकर मुझे बड़ी व्यथा हो हैं, वे ही नरकोंमें पड़ते हैं। जो पापी अपने मर्मभेदी रही है। मैं इन व्यथित प्राणियोंको छोड़कर जाना नहीं वचनोंसे दूसरोका हृदय विदीर्ण कर डालते हैं तथा जो चाहता। मेरी समझमें सबसे बड़ा पापो वही है, जो परायी स्त्रियोंके साथ विहार करते हैं, वे नरकोंमें पकाये समर्थ होते हुए भी वेदनाग्रस्त जीवोंका शोक दूर न कर जाते हैं। महाभाग भूपाल ! आओ, अब भगवान्के सके। यदि मेरे शरीरको छूकर बहनेवाली वायुके स्पर्शसे धामको चलें । तुम पुण्यवान् हो, अतः अब तुम्हारा यहाँ ये जीव सुखी हुए हैं तो आपलोग मुझे उसी स्थानपर ठहरना उचित नहीं है। ले चलिये; क्योंकि जो चन्दनवृक्षकी भाँत दूसरोंके ताप राजाने कहा-विष्णुदूतगण ! यदि मैं पुण्यात्मा दूर करके उन्हें आह्लादित करते हैं तथा जो परोपकारके हूँ तो इस महाभयंकर यातनामार्गमें कैसे लाया गया? लिये स्वयं कष्ट उठाते हैं, वे ही पुण्यात्मा है। संसारमें मैने कौन-सा पाप किया है तथा किस पुण्यके प्रभावसे वे ही संत हैं, जो दूसरोंके दुःखोंका नाश करते हैं तथा मैं विष्णुधामको जाऊँगा? आपलोग मेरे इस संशयका पीड़ित जीवोंकी पीड़ा दूर करनेके लिये जिन्होंने अपने निवारण करें। प्राणोंको तिनकेके समान निछावर कर दिया है। जो दूत बोले-राजन् ! तुम्हारा मन कामके अधीन मनुष्य सदा दूसरोंकी भलाईके लिये उद्यत रहते हैं, हो रहा था; इसलिये तुमने कोई पुण्य, यज्ञानुष्ठान अथवा उन्होंने ही इस पृथ्वीको धारण कर रखा है। जहाँ सदा यज्ञावशिष्ट अन्नका भोजन नहीं किया है। इसीलिये तुम्हें अपने मनको ही सुख मिलता है, वह स्वर्ग भी नरकके इस मार्गसे लाया गया है। किन्तु लगातार तीन वर्षांतक ही समान है; अतः साधु पुरुष सदा दूसरोंके सुखसे ही तुमने अपने गुरुकी प्रेरणासे वैशाख मासमें विधिपूर्वक सुखी होते हैं। यहाँ नरकमें गिरना अच्छा, प्राणोंसे प्रातःस्नान किया है तथा महापापों और अतिपापोंकी वियोग हो जाना भी अच्छ; किन्तु पीड़ित जीवोंकी राशिका विनाश करनेवाले भक्तवत्सल, विश्वेश्वर भगवान् पीड़ा दूर किये बिना एक क्षण भी सुख भोगना अच्छा मधुसूदनकी भक्तिपूर्वक पूजा की है। यह सब पुण्योंका नहीं है।*
सार है। केवल इस एक ही पुण्यसे तुम देवताओद्वारा दूत बोले-राजन् ! पापी पुरुष अपने कर्मोका ही पूजित होकर श्रीविष्णुधामको ले जाये जा रहे हो। फल भोगते हुए भयंकर नरक पकाये जाते हैं। जिन्होंने नरेश्वर ! जैसे एक ही चिनगारी पड़ जानेसे तिनकोंकी दान, होम अथवा पुण्यतीर्थमें लान नहीं किया है; राशि भस्म हो जाती है, उसी प्रकार वैशाखमें प्रातःस्नान मनुष्योंका उपकार तथा कोई उत्तम पुण्य नहीं किया है; करनेसे पापराशिका विनाश हो जाता है। जो वैशाखमें यज्ञ, तपस्या और प्रसन्नतापूर्वक भगवत्रामोंका जप नहीं शास्त्रोक्त नियमोंसे युक्त होकर स्नान करता है, वह
* परतापच्छिदो ये तु चन्दना इव चन्दनाः । परोपकृतये ये तु पोयते कृतिनो हि ते॥ सन्चस्त एव ये लोके परदुःखविदारणाः । आतांनामातिनाशार्थ प्राणा येषां तृणोपमाः ॥ तैरियं धार्यते भूमिनरैः परहितोद्यतैः । मनसो यत्सख नित्यं स स्वों नरकोपमः ।। तस्मात्परसुखेनैव साधवः सुखिनः सदा । वरं निरयपातोऽत्र वरं प्राणषियोजनम्॥ ने पुनः क्षणमाानाभार्तिनाशमृते सुखम्॥
(२७।३२-३५)
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पातालखण्ड ]. वैशाख-माझम्यके प्रसङ्गमें राजा महीरथकी कथा और यम-ब्राह्मण-संवादका उपसंहार •
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हरिभक्त पुरुष अतिपापोंके समूहसे छुटकारा पाकर समझना चाहिये। वीर । वैशाख मासकी पूर्णिमाको विष्णुपदको प्राप्त होता है।*...
तीर्थमें जाकर जो तुमने सय पापोंका नाश करनेवाला यमराज कहते है-ब्रह्मन् ! तब दयासागर नान-दान आदि पुण्य किया है, उसे विधिवत् भगवान राजाने उन जीवोंके शोकसे पीड़ित हो भगवान् श्रीहरिको साक्षी बनाकर तीन बार प्रतिज्ञा करके इन श्रीविष्णुके दूतोसे विनयपूर्वक कहा-'साधु पुरुष प्राप्त पापियोंके लिये दान कर दो, जिससे ये नरकसे हुए ऐश्वर्यका, गुणोंका तथा पुण्यका यही फल मानते हैं निकलकर स्वर्गको चले जायें। हमारा तो ऐसा विश्वास कि इनके द्वारा कष्टमें पड़े हुए जीवोंकी रक्षा की जाय। है कि पीड़ित जन्तुओंको शान्ति प्रदान करनेसे जो यदि मेरा कुछ पुण्य है तो उसीके प्रभावसे ये नरकमें पड़े आनन्द मिलता है, उसे मनुष्य स्वर्ग और मोक्षमें भी नहीं हुए जीव निष्पाप होकर स्वर्गको चले जायें और मैं इनकी पा सकता। सौम्य ! तुम्हारी बुद्धि दया एवं दानमें दृढ़ है, जगह नरकमें निवास करूंगा।' राजाके ऐसे वचन इसे देखकर हमलोगोको भी उत्साह होता है। राजन् ! सुनकर श्रीविष्णुके मनोहर दूत उनके सत्य और यदि तुम्हें अच्छा जान पड़े तो अब बिना विलम्ब किये उदारतापर विचार करते हुए इस प्रकार बोले- इन्हें वह पुण्य प्रदान करो, जो नरकयातनाके दुःखको 'राजन् ! इस दयारूप धर्मक अनुष्ठानसे तुम्हारे संचित दग्ध करनेवाला है।' धर्मकी विशेष वृद्धि हुई है। तुमने वैशाख मासमें जो विष्णुदूतोंके यो कहनेपर दयालु राजा महीरथने नान, दान, जप, होम, तप तथा देवपूजन आदि कर्म भगवान् गदाधरको साक्षी बनाकर तीन बार प्रतिज्ञापूर्वक किये हैं, वे अक्षय फल देनेवाले हो गये। जो वैशाख संकल्प करके उन पापियोंके लिये अपना पुण्य अर्पण मासमें स्नान-दान करके भगवान्का पूजन करता है, वह किया। वैशाख मासके एक दिनके ही पुण्यका दान सब कामनाओंको प्राप्त होकर श्रीविष्णुधामको जाता है। करनेपर वे सभी जीव यम-यातनाके दुःखसे मुक्त हो एक ओर तप, दान और यज्ञ आदिकी शुभ क्रियाएँ और गये। फिर अत्यन्त हर्षमें भरकर वे श्रेष्ठ विमानपर एक ओर विधिपूर्वक आचरणमें लाया हुआ वैशाख आरूढ़ हुए और राजाको प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रणाम मासका व्रत हो तो यह वैशाख मास ही महान् है। करके स्वर्गको चले गये। इस दानसे राजाको विशेष राजन् ! वैशाख मासके एक दिनका भी जो पुण्य है, वह पुण्यकी प्राप्ति हुई। मुनियों और देवताओंका समुदाय तुम्हारे लिये सब दानोंसे बढ़कर है। दयाके समान धर्म, उनकी स्तुति करने लगा तथा वे जगदीश्वर श्रीविष्णुके दयाके समान तप, दयाके समान दान और दयाके समान पार्षदोंद्वारा अभिवन्दित होकर उस परमपदको प्राप्त हुए. कोई मित्र नहीं है। पुण्यका दान करनेवाला मनुष्य सदा जो बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। लाखगुना पुण्य प्राप्त करता है। विशेषतः तुम्हारी दयाके द्विजश्रेष्ठ ! यह वैशाख मास और पूर्णिमाका कुछ कारण धर्मकी अधिक वृद्धि हुई है। जो मनुष्य दुःखित माहात्म्य यहाँ थोड़ेमें बतलाया गया। यह धन, यश, प्राणियोंका दुःखसे उद्धार करता है, वही संसारमें आयु तथा परम कल्याण प्रदान करनेवाला है। इतना ही पुण्यात्मा है। उसे भगवान् नारायणके अंशसे उत्पन्न नहीं, इससे स्वर्ग तथा लक्ष्मीकी भी प्राप्ति होती है। यह
• भक्त्या सम्पूजितो विष्णुर्विश्वेशो मधुसूदनः । महापापातिपापौघनिहन्ता मधुसूदनः ॥
सर्वेकसारेण पुनस्तेनैकेन नरेश्वर । जीयसे विष्णभवन पूज्यमानो मरुदणः ।। यथैव विस्फुलिङ्गेन ज्वाल्यते तृणसमयः । प्रातःस्मानेन वैशाखे तथायौयो नरेश्वर ॥ वैशाखे मासि यो युक्तो यथोक्तनियमैर्नरः । हरिभक्तोऽतिपापौधैर्मुक्तोऽच्युतपद व्रजेत् ।।
(९७१४६, ४७, ४८, ५०) 17 दयासदृशो धमों न दयासदृश तपः । न दयासदृशं दानं न दयासदृशः सखा ।। (९८।१५)
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
व
[संक्षिप्त पद्मपुराण
प्रशंसनीय माहात्म्य अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला और वह ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके चला गया। उसने पापोको धो डालनेवाला है। माधव-मासका यह माहात्म्य भूतलपर प्रतिवर्ष स्वयं तो वैशाख-स्रानकी विधिका भगवान् माधवको अत्यन्त प्रिय है। राजा महीरथका पालन किया ही, दूसरोंसे भी कराया। यह ब्राह्मण और चरित्र और हम दोनोंका मनोरम संवाद सुनने, पढ़ने तथा यमका संवाद मैंने आपलोगोंसे वैशाख मासके पुण्यमय विधिपूर्वक अनुमोदन करनेसे मनुष्यको भगवान्की भक्ति स्रानके प्रसङ्गमें सुनाया है। जो एकचित्त होकर वैशाख प्राप्त होती है, जिससे समस्त क्लेशोंका नाश हो जाता है। मासके माहात्यका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे
सूतजी कहते हैं-धर्मराजकी यह बात सुनकर मुक्त होकर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।
भगवान श्रीकृष्णका ध्यान
ऋषि बोले–महाप्राज्ञ सूतजी ! आपका हृदय स्थविष्ठमखिलतुभिः सततसेवितं कामदं । अत्यन्त करुणापूर्ण है; आपने कृपा करके ही पापनाशक तदन्तरपि कल्पकाध्रिपमुदचितं चिन्तयेत् ।। वैशाख-माहात्म्यका वर्णन किया है। अब इस समय हम उस वनके भीतर भी एक कल्पवृक्षका चिन्तन करे, भक्तगणोंके प्रिय परमात्मा श्रीकृष्णका ध्यान सुनना जो बहुत ही मोटा और ऊँचा है, जिसके नये-नये पल्लव चाहते हैं, जो भवसागरसे तारनेवाला है।
मुंगेके समान लाल है, पत्ते मरकत मणिके सदृश नीले हैं, सूतजीने कहा-मुनियो ! वृन्दावनमें विचरने- कलिकाएँ मोतीके प्रभा-पुञ्जकी भाँति शोभा पा रही हैं वाले जगदात्मा श्रीकृष्णके, जो गौओं, बालों और और नाना प्रकारके फल पद्यराग मणिके समान जान पड़ते गोपियोंके प्राण हैं, ध्यानका वर्णन आप सब लोग हैं। समस्त ऋतुएँ सदा ही उस वृक्षकी सेवामें रहती है सुने। द्विजवरो ! एक समय महर्षि गौतमने देवर्षि तथा वह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। नारदजीसे यही बात पूछी थी। नारदजीने उनसे जिस सुहेमशिखरानले उदितभानुवद्धासुरापापनाशक ध्यानका वर्णन किया था, वही मैं आप- ममोऽस्य कनकस्थलीममृतशीकरासारिणः । लोगोंको बताता हूँ।
प्रदीप्तमणिकुट्टिमा कुसुमरेणुपुझोज्ज्वला -- नारदजी कहते है
स्मरेत्पुनरतन्द्रितो विगतषट्तरङ्गां बुधः ।। सुमनप्रकरसौरभोदलितमाध्विकाशुल्लस
फिर आलस्यरहित हो विद्वान् पुरुष धारावाहिकरूपसे सुशाखिनवपल्लवप्रकरननशोभायुतम् । अमृतकी बूंदें बरसानेवाले उस कल्पवृक्षके नीचे सुवर्णमयी प्रफुल्लनवमञ्जरीललितवल्लरीवेष्टितं
वेदीकी भावना करे, जो मेरु गिरिपर उगे हुए सूर्यकी भाँति स्मरेत सततं शिवं सितमतिः सुवृन्दावनम् ॥ प्रभासे उद्भासित हो रही है, जिसका फर्श जगमगाती हुई । ध्यान करनेवाले मनुष्यको सदा शुद्धचित्त होकर मणियोंसे बना है, जो फूलोंके पराग-पुञ्जसे कुछ धवल पहले उस परम कल्याणमय सुन्दर वृन्दावनका चिन्तन वर्णको हो गया है तथा जहाँ क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और करना चाहिये, जो फूलोंके समुदाय, मनोहर सुगन्ध और जरा-मृत्यु-ये छः ऊर्मियाँ नहीं पहुँचने पाती। बहते हुए मकरन्द आदिसे सुशोभित सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंके तलकुट्टिमनिविष्टमहिष्ठयोगनूतन पल्लवोंसे झुका हुआ शोभा पा रहा है तथा खिलो पीठेऽष्टपत्रमरुण कमलं विचिन्त्य । हुई नवल मञ्जरियों और ललित लताओसे आवृत है। उद्यद्विरोचनसरोचिरमुष्य मध्ये प्रवालनवपल्लवं मरकतच्छदं मौक्तिक
संचिन्तयेत् सुखनिविष्टमयो मुकुन्दम् ।। प्रभाप्रकरकोरकं कमलरागनानाफलम्। उस रत्नमय फर्शपर रखे हुए एक विशाल योग
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पातालखण्ड]
• भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान .
पीठके ऊपर लाल रंगके अष्टदल कमलका चिन्तन वन्यप्रवालकुसुमप्रचयावतप्तकरके उसके मध्यभागमें सुखपूर्वक बैठे हुए भगवान् प्रैवेयकोज्ज्वलमनोहरकम्बुकण्ठम् ॥ श्रीकृष्णका ध्यान करे, जो अपनी दिव्य प्रभासे सिन्दूरके समान परम सुन्दर लाल-लाल ओठ हैं; उदयकालीन सूर्यदेवकी भाँति देदीप्यमान हो रहे है। चन्द्रमा, कुन्द और मन्दार पुष्पकी-सी मन्द मुसकानकी सुनामहेतिदलिताञ्जनमेधपुञ्ज
छटासे सामनेकी दिशा प्रकाशित हो रही है तथा वनके प्रत्यपनीलजलजन्मसमानभासम् । कोमल पल्लवों और फूलोंके समूहद्वारा बनाये हुए हारसे सुस्निग्धनीलघनकुञ्चितकेशजालना शङ्खसदृश मनोहर ग्रीवा बड़ी सुन्दर जान पड़ती है।
राजन्पनोज्ञशितिकण्ठशिखण्डचूडम् ॥ मत्तभ्रमभ्रमरघुष्टविलम्बमानभगवानके श्रीविग्रहकी आभा इन्द्रके वज्रसे विदीर्ण संतानकप्रसवदामपरिष्कृतांसम् । हुए कज्जलगिरि, मेघोंकी घटा तथा नूतन नील-कमलके हारावलीभगणराजितपीवरोरोसमान श्याम रंगकी है; श्याम मेषके सदृश काले-काले व्योमस्थलीलसितकौस्तुभभानुमन्तम् ॥ धुंघराले केश-कलाप बड़े ही चिकने हैं तथा उनके मँडराते हुए मतवाले भौंरोंसे निनादित एवं मस्तकपर मनोहर मोर-पंखका मुकुट शोभा पा रहा है। घुटनोतक लटकी हुई पारिजात पुष्पोंकी मालासे दोनों रोलम्बलालितसुरछमसूनसम्प
कंधे शोभा पा रहे हैं। पीन और विशाल वक्षःस्थलरूपी द्युक्तं समुत्कचनवोत्पलकर्णपूरम्। आकाश हाररूपी नक्षत्रोंसे सुशोभित है तथा उसमें लोलालिभिः स्फुरितभालतलप्रदीप्त-
कौस्तुभमणिरूपी सूर्य भासमान हो रहा है। गोरोचनातिलकमुज्वलचिल्लिचापम् ॥ श्रीवत्सलक्षणसुलक्षितमुत्रतांसकल्पवृक्षके फलोंसे, जिनपर भौरे मैंडरा रहे है, माजानुपीनपरिवृत्तसुजातबाहुम् भगवान्का शृङ्गार हुआ है। उन्होंने कानोंमें खिले हुए आबन्धुरोदरमुदारगभीरनाभिं नवीन कमलके कुण्डल धारण कर रखे हैं। जिनपर भङ्गाङ्गनानिकरमञ्जलरोमराजिम् ॥ चञ्चल भ्रमर उड़ रहे हैं। उनके ललाटमें चमकीले भगवान्के वक्षःस्थल श्रीवत्सका चिह्न बड़ा गोरोचनका तिलक चमक रहा है तथा धनुषाकार भौंहे सुन्दर दिखायी देता है, उनके कंधे ऊँचे हैं, गोल-गोल बड़ी सुन्दर प्रतीत हो रही हैं।
सुन्दर भुजाएँ घुटनोंतक लंबी एवं मोटी हैं, उदरका भाग आपूर्णशारदगताशशाङ्कविम्य
बड़ा मनोहर है, नाभि विस्तृत और गहरी है तथा - कान्ताननं कमलपत्रविशालनेत्रम्। त्रिवलीको रोमपङ्क्ति भंवरोंकी पङ्क्तिके समान शोभा रत्रस्फुरन्मकरकुण्डलरश्मिदीप्त-
पा रही है। गण्डस्थलीमुकुरमुन्नतचारुनासम् ॥ नानामणिप्रघटिताङ्गदकङ्कणोर्मिभगवानका मुख शरत्पूर्णिमाके कलङ्कहीन अवेयकारसननूपुरतुन्दवन्यम् । चन्द्रमण्डलकी भाँति कान्तिमान् है, बड़े-बड़े नेत्र दिव्याङ्गरागपरिपिञ्जरिताङ्गयष्टिकमलदलके समान सुन्दर जान पड़ते हैं, दर्पणके सदृश मापीतवस्वपरिवीतनितम्बबिम्बम् ॥ स्वच्छ कपोल रत्नोंके कारण चमकते हुए मकराकृत नाना प्रकारको मणियोंके बने हुए भुजबंद, कड़े, कुण्डलोंकी किरणोंसे देदीप्यमान हो रहे हैं तथा ऊँची अँगूठियाँ, हार, करधनी, नपुर और पेटी आदि आभूषण नासिका बड़ी मनोहर जान पड़ती है।
भगवान्के श्रीविग्रहपर शोभा पा रहे हैं, उनके समस्त सिन्दूरसुन्दरतराधरमिन्दुकुन्द
अङ्ग दिव्य अङ्गरागोंसे अनुरञ्जित हैं तथा कटिभाग कुछ मन्दारमन्दहसितद्युतिदीपिताशम् । हलके रंगके पीताम्बरसे ढका हुआ है।
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चारूरुजानुमनुवृत्तमनोज्ञज
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अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
... कान्तोन्नतप्रपदनिन्दितकूर्मकान्तिम्
माणिक्यदर्पणलसन्नखराजिराज
॥
इक्ताङ्गुलिकदन सुन्दरपादपद्यम् दोनों जाँघें और घुटने सुन्दर है; पिडलियोका भाग गोलाकार एवं मनोहर है; पादाग्रभाग परम कान्तिमान् तथा ऊँचा है और अपनी शोभासे कछुएके पृष्ठभागकी कान्तिको मलिन कर रहा है तथा दोनों चरण कमल माणिक्य तथा दर्पणके समान स्वच्छ नखपङ्क्तियोंसे सुशोभित लाल-लाल अङ्गुलिदलोंके कारण बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं।
मत्स्याङ्कुशारिदरकेतुयवाब्जवत्रैः
शश्वद्भवैः
संलक्षितारुणकराङ्घ्रितलाभिरामम्
लावण्यसारसमुदायविनिर्मिताङ्गं
सौन्दर्यनिन्दित मनोभवदेहकान्तिम् ॥ मत्स्य, अङ्कुश, चक्र, शङ्ख, पताका, जौ, कमल और वज्र आदि चिह्नोंसे चिह्नित लाल-लाल हथेलियों तथा तलवोंसे भगवान् बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं। उनका श्रीअङ्ग लावण्यके सार संग्रहसे निर्मित जान पड़ता है तथा उनके सौन्दर्यके सामने कामदेवके शरीरकी कान्ति फीकी पड़ जाती है।
आस्यारविन्दपरिपूरितवेणुरन्ध्र
थनोंके भारसे लड़खड़ाती हुई मन्द मन्द गतिसे
1 चलनेवाली गौएँ दाँतोंके अग्रभागमें चबानेसे बचे हुए तिनकोंके अङ्कुर लिये, पूँछ लटकाये भगवान्के मुखकमलमें आँखें गड़ाये उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़ी हैं।
लोलकराङ्गुलिसमीरितदिव्यरागैः । कृतनिविष्टसमस्तजन्तुसन्तानसंनतिमनन्तसुखाम्बुराशिम् ॥
भगवान् अपने मुखारविन्दसे मुरली बजा रहे हैं; उस समय मुरलीके छिद्रोंपर उनकी अंगुलियोंके फिरनेसे निरन्तर दिव्य रागोंकी सृष्टि हो रही है, जिनसे प्रभावित हो समस्त जीव-जन्तु जहाँ के तहाँ बैठकर भगवान्की ओर मस्तक टेक रहे हैं। भगवान् गोविन्द अनन्त आनन्दके समुद्र हैं। गोभिर्मुखाम्बुजविलीनविलोचनाभि
रूथो भरस्खलितमन्थरमन्दगाभिः । दन्ताप्रदष्टपरिशिष्टतॄणाङ्कुराभि
रालम्बिवालधिलताभिरथाभिवीतम् ॥
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सम्प्रस्स्रुतस्तनविभूषणपूर्णनिश्च
लास्याद् दृढक्षरितफेनिलदुग्धमुग्धैः । वेणुप्रवर्तितमनोहरमन्दगीतदत्तोकर्णयुगलैरपि
वर्णकैश्च ॥
गौओके साथ ही छोटे-छोटे बछड़े भी भगवान्को सब ओरसे घेरे हुए हैं और मुरलीसे मन्दस्वरमे जो मनोहर संगीतकी धारा बह रही है, उसे वे कान लगाकर 1 सुन रहे हैं, जिसके कारण उनके दोनों कान खड़े हो गये हैं। गौओंके टपकते हुए थनोंके आभूषणरूप दूधसे भरे हुए उनके मुख स्थिर हैं, जिनसे फेनयुक्त दूध बह रहा है; इससे वे बछड़े बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं। गोपैः समानगुणशीलवयोविलास
मूर्च्छितकलस्वनवेणुवीणैः ।
शैश्च मन्दोचतारपटुगानपरैर्विलोल
********
दोवल्लरीललितलास्यविधानदक्षैः
॥
भगवान् के ही समान गुण, शील, अवस्था, विलास तथा वेष भूषावाले गोप भी, जो अपनी चञ्चल भुजाओंको सुन्दर ढंगसे नचानेमें चतुर हैं, वंशी और वीणाकी मधुर ध्वनिका विस्तार करके मन्द, उच्च और तारस्वरमें कुशलतापूर्वक गान करते हुए भगवान्को सब ओरसे घेरकर खड़े हैं।
जङ्घान्तपीवरकटीरतटीनिबद्ध
व्यालोलकिङ्किणिघटारणितैरटद्धिः
1
मुग्धैस्तरक्षुनखकल्पितकान्तभूषै
रव्यक्तमनुवचनैः पृथुकैः परीतम् ॥ छोटे-छोटे ग्वाल-बाल भी भगवान्के चारों ओर घूम रहे हैं; जाँघसे ऊपर उनके मोटे कटिभागमें करधनी पहनायी गयी है, जिसकी क्षुद्रघण्टिकाओंकी मधुर झनकार सुनायी पड़ती है। वे भोले-भाले बालक बघनखोंके सुन्दर आभूषण पहने हुए हैं। उनकी
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पातालखण्ड ]
• भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान .
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मीठी-मीठी तोतली वाणी साफ समझमें नहीं आती। सम्प्रीणयन्तमुदिताभिरपि प्रभक्तया
भगवान्के प्रति दृढ़ अनुराग रखनेवाली सुन्दरी संविन्तयेन्नभसि मां इहिणप्रसूतम् ॥ गोपाङ्गनाएँ भी उन्हें प्रेमपूर्ण दृष्टिसे निहारती हुई तत्पश्चात् आकाशमें स्थित मुझ ब्रह्मपुत्र देवर्षि सब ओरसे घेरकर खड़ी है। गोपी, गोप और पशुओंके नारदका चिन्तन करना चाहिये । नारदजीके शरीरका वर्ण पेरेसे बाहर भगवान्के सामनेको ओर ब्रह्मा, शिव तथा शङ्ख, चन्द्रमा तथा कुन्दके समान गौर है; वे सम्पूर्ण इन्द्र आदि देवताओंका समुदाय खड़ा होकर स्तुति कर आगमोंके ज्ञाता है, उनकी जटाएं बिजलीकी पङ्क्तियोंके
समान पीली और चमकीली है, वे भगवानके चरणतद् दक्षिणतो मुनिनिकर दृढधर्मवाञ्छया समानायपरम्। कमलोंकी निर्मल भक्तिके इच्छुक हैं तथा अन्य सब योगीन्द्रानथ पृष्ठे मुमुक्षमाणान् समाधिना तु सनकाद्यान् ॥ ओरकी आसक्तियोंका सर्वथा परित्याग कर चुके हैं और
इसी प्रकार उपर्युक्त घेरेसे बाहर भगवान्के दक्षिण संगीतसम्बन्धी नाना प्रकारकी श्रुतियोंसे युक्त सात भागमें सुदृढ़ धर्मकी अभिलाषासे वेदाभ्यासपरायण स्वरों और त्रिविध ग्रामोंकी मनोहर मूर्च्छनाओंको मुनियोंका समुदाय उपस्थित है तथा पृष्ठभागकी ओर अभिव्यञ्जित करके अत्यन्त भक्ति के साथ भगवान्को समाधिके द्वारा मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले सनकादि प्रसन्न कर रहे हैं।' योगीश्वर खड़े हैं।
इति ध्यात्वाऽऽत्मानं पटुविशदधीनन्दतनयं सव्ये सकान्तानथ यक्षसिद्धान्
नरो बौद्धाप्रभृतिभिरनिन्द्योपद्धतिभिः । गन्धर्वविद्याधरचारणांच
। यजेद् भूयो भक्त्या स्ववपुषि बहिष्क्ष विभवेसकिन्नरानप्सरसश्च - मुख्याः
रिति प्रोक्तं सर्व यदभिलषितं भूसुरवराः ॥. कामार्थिनीर्तनगीतवाद्यैः
॥ इस प्रकार प्रखर एवं निर्मल बुद्धिवाला पुरुष अपने वाम भागमें अपनी स्त्रियोसहित यक्ष, सिद्ध, आत्मस्वरूप भगवान् नन्दनन्दनका ध्यान करके मानसिक गन्धर्व, विद्याधर, चारण और किन्नर खड़े हैं। साथ ही अर्घ्य आदि उत्तम उपहारोंसे अपने शरीरके भीतर ही भगवत्प्रेमकी इच्छा रखनेवाली मुख्य-मुख्य अप्सराएँ भी भक्तिपूर्वक उनका पूजन करे तथा बाह्य उपचारोंसे भी मौजूद हैं। ये सब लोग नाचने, गाने तथा बजानेके द्वारा उनकी आराधना करे। ब्राह्मणो! आपलोगोकी जैसी भगवान्की सेवा कर रहे हैं।
अभिलाषा थी, उसके अनुसार भगवान्का यह सम्पूर्ण शोन्दुकुन्दधवलं सकलागमज़
ध्यान मैंने बता दिया। सौदामनीततिपिशङ्गजटाकलापम् । सूतजी कहते हैं-महर्षिगण ! जो इस कथाको तत्पादपङ्कजगताममला च भक्ति
सुनाता है, वह भगवान्के समान हो जाता है। विप्रो ! __वाञ्छन्तमुज्झिततरान्यसमस्तसङ्गम् ॥ यह गुह्यसे भी गुहा प्रसङ्ग कल्याणमय ज्ञान प्रदान नानाविधभुतिगणान्वितसप्तराग
करनेवाला है। जो इसे पढ़ता अथवा सुनता है, वह प्रामत्रयीगतमनोहरमूर्च्छनाभिः । परम-पदको प्राप्त होता है।
॥पातालखण्ड सम्पूर्ण ॥
* ये ध्यानसम्बन्धी श्लोक अध्याय ९९ से लिये गये हैं।
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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
संक्षिप्त पद्मपुराण
★
उत्तरखण्ड
⭑
नारद - महादेव - संवाद - बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
अज्ञानतिमिरान्धस्य चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥* ऋषियोंने कहा - वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी ! आपके द्वारा वर्णित नाना प्रकारके उपाख्यानोंसे युक्त परमानन्ददायक पातालखण्डका हमलोगोंने श्रवण किया अब भगवद्भक्तिको बढ़ानेवाला जो पद्मपुराणका शेष अंश हैं, उसे हम सुनना चाहते हैं। गुरुदेव ! कृपा करके उस अंशका वर्णन कीजिये । ETTIC
सूतजी बोले- मुनियो ! भगवान् शङ्करने देवर्षि नारदके प्रश्न करनेपर जिस पापनाशक विज्ञानका श्रवण
कराया था, उसीको मैं कहता हूँ; आप सब लोग सुनें। एक समयकी बात है, भगवान् के प्रिय भक्त देवर्षि नारदजी लोक-लोकान्तरोंमें भ्रमण करते हुए मन्दराचल पर्वतपर गये। वहाँ भगवान् शङ्करसे अपनी कुछ मनोगत बातोंको पूछना ही उनकी यात्राका उद्देश्य था । भगवान् उमानाथ उस पर्वतपर विराजमान थे। नारदजीने उन्हें प्रणाम किया और उनकी आज्ञासे उन्होंके सामने वे एक आसनपर बैठ गये। महात्माओ ! उस समय उन्होंने भगवान् शिवसे यही प्रश्न किया, जिसे आपलोग मुझसे पूछ रहे हैं।
नारदजीने कहा- भगवन् ! देवदेवेश्वर ! पार्वतीपते ! जगद्गुरो ! जिससे भगवत्तत्त्वका ज्ञान हो, उस विषयका आप मुझे उपदेश कीजिये।
महादेवजी बोले – नारद! सुनो मैं वेदोंकी समानता करनेवाले पुराणका वर्णन आरम्भ करता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। इस पृथ्वीपर एक लाख पच्चीस हजार पर्वत हैं, उन सबमें वदरिकाश्रम महान् पुण्यदायक एवं उत्तम है, जहाँ भगवान् नर-नारायण विराजमान है। नारदजी ! मैं इस समय उन्हींके तेज और स्वरूपका वर्णन करूँगा। ब्रह्मन् ! हिमालय पर्वतपर दो पुरुष हैं, जो क्रमशः नर-नारायणके नामसे विख्यात हैं; उनमें एक तो गौर वर्णके हैं और दूसरे श्याम वर्णके। श्याम वर्णवाले पुरुष ही 'नारायण' हैं; ये इस जगत्के आदि कारण और महान् प्रभु हैं। इनके चार भुजाएँ हैं। ये बड़े ही शोभासम्पन्न हैं। इनके दो रूप हैं—व्यक्त और अव्यक्त ( साकार
* जिन्होंने अज्ञानरूपी अन्धकारसे अंधे हुए मुझ शिष्यके विवेकरूपी बंद नेत्रको ज्ञानरूप अञ्जनकी शलाकासे खोल दिया है, उन श्रीगुरुदेवको प्रणाम है।
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उत्तरखण्ड ]
• गङ्गावतरणको संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य .
६११
और निराकार)। ये सनातन पुरुष हैं। सुव्रत ! भगवान् नारायण सदा ही विराजमान रहते है। उतरायणमें ही इनकी महती पूजा होती है। प्रायः छः एक समयकी बात है, मैंने एक वर्षतक वहाँ बड़ी महीनोंतक इनकी पूजा नहीं होती; क्योंकि जबतक कठोर तपस्या की थी। उस समय भक्तोंपर कृपा दक्षिणायन रहता है, इनका स्थान हिमसे आच्छादित रहा करनेवाले भगवान् नारायण, जो अविनाशी, अन्तर्यामी, करता है। अतः इनके-जैसा देवता न अबतक हुआ है साक्षात् परमेश्वर तथा गरुड़के-से चिह्नवाली ध्वजासे और न आगे होगा । बदरिकाश्रममें देवगण निवास करते युक्त हैं, बहुत प्रसन्न हुए और मुझसे बोले-'सुव्रत ! हैं। वहाँ ऋषियोंके भी आश्रम हैं। अग्निहोत्र और कोई वर माँगो; देव ! तुम जो-जो चाहोगे, वह सभी वेदपाठकी ध्वनि वहाँ सदा श्रवण-गोचर होती रहती है। मनोरथ मैं पूर्ण करूँगा तुम कैलासके स्वामी, साक्षात् भगवान् नारायणका दर्शन करना चाहिये । उनका दर्शन रुद्र तथा विश्वके पालक हो। करोड़ों हत्याओंका नाश करनेवाला है। वहाँ तब मैने कहा-जनार्दन ! यदि आप वर देना 'अलकनन्दा' नामवाली गङ्गा बहती हैं, उनमें स्नान चाहते हैं तो मुझे दो वर प्रदान कीजिये-मेरे हृदयमें करना चाहिये। वहाँ स्नान करके मनुष्य महान् पापसे सदा ही आपके प्रति भक्ति बनी रहे और देवेश्वर ! मैं मुक्त हो जाता है। उस तीर्थमें सम्पूर्ण जगत्के स्वामी आपके प्रसादसे मुक्तिदाता होऊँ।
- गङ्गावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
- महादेवजी कहते हैं-देवर्षियोंमें श्रेष्ठ नारद ! गये। और्वन कृपापूर्वक वहाँ उनकी रक्षा की। वहीं अब तुम परम पुण्यमय हरिद्वारका माहात्म्य श्रवण करो। उनके सगर नामक पुत्रका जन्म हुआ। महात्मा भार्गवसे जहाँ भगवती गङ्गा यहती है, वहाँ उत्तम तीर्थ बताया रक्षित होकर वह उसी आश्रमपर बढ़ने लगा। मुनिने गया है। वहाँ देवता, ऋषि और मनुष्य निवास करते हैं। उसके यज्ञोपवीत आदि सब क्षत्रियोचित्त संस्कार वहाँ साक्षात् भगवान् केशव नित्य विराजमान रहते हैं। कराये। अस्त्र-शस्त्रों तथा वेद-विद्याका भी उसको विद्वन् ! राजा भगीरथ उसी मार्गसे भगवती गङ्गाको अभ्यास कराया। लाये थे तथा उन महात्माने गङ्गाजलका स्पर्श कराकर , तदनन्तर महातपस्वी राजा सगरने और्व मुनिसे अपने पूर्वजोंका उद्धार किया था।
आग्नेयास्त्र प्राप्त किया और समूची पृथ्वीपर भ्रमण करके नारद ! अत्यन्त सुन्दर गङ्गाद्वारमें जो जिस प्रकार अपने शत्रु तालजङ्घ, हैहय, शक तथा पारदवंशियोका गङ्गाजीको ले आये थे, वह सब प्रसङ्ग मैं क्रमशः सुनाता वध कर डाला । इस प्रकार सबको जीतकर उन्होंने धर्महूँ। पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामके एक राजा हो चुके हैं, जो संचय करना आरम्भ किया। राजाने अश्वमेध यज्ञका त्रिभुवनमें सत्यके पालक विख्यात थे। उनके रोहित अनुष्ठान करनेके लिये अश्व छोड़ा। वह अश्व पूर्व नामक एक पुत्र हुआ, जो भगवान् विष्णुकी भक्तिमें दक्षिण-समुद्रके तटपर हर लिया गया और पृथ्वीके भीतर तत्पर था। रोहितका पुत्र वृक था, जो बड़ा ही धर्मात्मा पहुँचा दिया गया। तब राजाने अपने पुत्रोंको लगाकर सब
और सदाचारी था। उसके सुबाहु नामक पुत्र हुआ। ओरसे उस स्थानको खुदवाया। महासागर खोदते समय सुबाहुसे 'गर' नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। एक समय वे अश्वको तो नहीं पा सके, किन्तु वहाँ तपस्या करनेवाले गरको कालयोगसे दुःखी होना पड़ा। अनेक राजाओंने आदि पुरुष महात्मा कपिलपर उनकी दृष्टि पड़ी। वे चढ़ाई करके उनके देशको अपने अधीन कर लिया । गर उतावलीके साथ उनके निकट गये और जगत्प्रभु कुटुम्बको साथ ले भृगुनन्दन और्वके आश्रमपर चले कपिलको लक्ष्य करके कहने लगे-'यह चोर है।'
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६१२
• अर्जयस्व वीकेश यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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कोलाहल सुनकर भगवान् कपिल समाधिसे जाग उठे। पञ्चजनके अंशुमान् नामक पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुआ। उस समय उनके नेत्रोंसे आग प्रकट हुई, जिससे साठ अंशुमानके दिलीप और दिलीपके भगीरथ हुए, जो
उत्तम व्रत (तपस्या) का अनुष्ठान करके नदियों में श्रेष्ठ गङ्गाजीको पृथ्वीपर ले आये तथा जिन्होंने गङ्गाको समुद्रतक ले जाकर उन्हें अपनी कन्याके रूपमें अङ्गीकार किया।
नारदजीने पूछा-भगवन् ! राजा भगीरथ गङ्गाको किस प्रकार लाये थे? उन्होंने कौन-सी तपस्या की थी, ये सब बातें मुझे बताइये।
महादेवजी बोले-नारद ! राजा भगीरथ अपने पूर्वजोका हित करनेके लिये हिमालय पर्वतपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने दस हजार वर्षांतक भारी तपस्या | की। इससे आदिदेव भगवान् निरञ्जन श्रीविष्णु प्रसन्न हुए। उन्हींक आदेशसे गङ्गाजी आकाशसे चली और
जहाँ विश्वेश्वर श्रीशिव नित्य विराजमान रहते हैं, उस | कैलास पर्वतपर उपस्थित हुई। मैंने गङ्गाजीको आया देख उन्हें अपने जटाजूटमें धारण कर लिया और दस
हजार सगर-पुत्र जलकर भस्म हो गये। महायशस्वी राजाने समुद्रसे उस आश्वमेधिक अश्वको प्राप्त किया और उसके द्वारा सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान पूर्ण किया।
नारदजीने पूछा-विज्ञानेश्वर ! सगरके साठ हजार पुत्र बड़े बलवान् और पराक्रमी थे, उन वीरोकी उत्पत्ति किस प्रकार हई? यह बताइये।
महादेवजी बोले-नारद ! राजा सगरकी दो पत्नियां थीं, वे दोनों ही तपस्याके द्वारा अपने पाप दग्ध कर चुकी थीं। इससे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ और्वने उन्हें वरदान दिया। उनमेंसे एक रानीने साठ हजार पुत्र मांगे
और दूसरीने एक ही ऐसे पुत्रके लिये प्रार्थना की, जो वंश चलानेवाला हो। पहली रानीने तूंबीमें बहुत-से शूरवीर पुत्रोंको जन्म दिया; उन सबको धाइयोंने ही क्रमशः पाल-पोसकर बड़ा किया। घीसे भरे हुए पड़ोंमें रखकर उन कुमारोंका पोषण किया गया। कपिला ANNA गायका दूध पीकर वे सब-के-सब बड़े हुए। दूसरी हजार वर्षांतक उसी रूपमें स्थित रहा। इधर राजा भगीरथ रानीके गर्भसे पञ्चजन नामक पुत्र हुआ, जो राजा बना। गङ्गाजीको न देखकर विचार करने लगे-गङ्गा कहाँ चली
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उत्तरखण्ड ] • गङ्गाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गङ्गा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति •
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गयीं? ध्यान करके जब उन्होंने यह निश्चितरूपसे जान श्रीहरिका दर्शन करके उनकी परिक्रमा करते हैं, वे दुःखके लिया कि उन्हें महादेवजीने ग्रहण कर लिया है, तब वे भागी नहीं होते । ब्रह्महत्या आदि पापोंकी अनेक राशियाँ कैलास पर्वतपर गये। मुनिश्रेष्ठ वहां पहुंचकर वे तीन ही क्यों न हों, वे सब सर्वदा श्रीहरिके दर्शनमात्रसे नष्ट तपस्या करने लगे। उनके आराधना करनेपर मैंने अपने हो जाती हैं। एक समय मैं भी हरिद्वारमें श्रीहरिके स्थानपर मस्तकसे एक बाल उखाड़ा और उसीके साथ त्रिपथगा गया था, उस समय उस तीर्थ के प्रभावसे मैं विष्णुस्वरूप गङ्गाजीको उन्हें अर्पण कर दिया। गङ्गाको लेकर वे हो गया। सभी मनुष्य वहाँ श्रीहरिका दर्शन करनेमात्रसे पातालमें, जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुए थे, गये। उस समय वैकुण्ठ-लोकको प्राप्त होते हैं। परम सुन्दर हरिद्वार-तीर्थ भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई गङ्गा जब हरिद्वारमें मेरी दृष्टि में सबसे अधिक महत्त्वशाली है। वह समस्त आर्यो, तब वह देवताओंके लिये भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन तीर्थोंमें श्रेष्ठ और धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चारों गया। जो मनुष्य उस तीर्थ में स्रान तथा विशेषरूपसे पुरुषार्थ प्रदान करनेवाला है।
गङ्गाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गङ्गा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
___ महादेवजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं अन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार गङ्गाके प्रभावसे श्रीगङ्गाजीके माहात्म्यका यथावत् वर्णन करूंगा, जिसके पातक नष्ट हो जाते हैं। ये माता गङ्गा संसारमे सदा श्रवणमात्रसे तत्काल पापोंका नाश हो जाता है। जो पवित्र मानी गयी हैं। इनका स्वरूप परम कल्याणमय मनुष्य सैकड़ों योजन दूरसे भी 'गङ्गा-गङ्गा' का उच्चारण है। माता जाह्नवीका स्वरूप दिव्य है। जैसे देवताओंमें करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होता और अन्तमें श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार नदियोंमें गङ्गा उत्तम है। विष्णुलोकको जाता है।* नारद ! श्रीहरिके चरण- जहाँ गङ्गा, यमुना और सरस्वती हैं, उन तीर्थोंमें स्नान कमलोंसे प्रकट हुई 'गङ्गा' नामसे विख्यात नदी पापोंकी और आचमन करके मनुष्य मोक्षका भागी होता हैस्थूल राशियोंका भी नाश करनेवाली है। नर्मदा, सरयू, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। वेत्रवती (बेतवा), तापी, पयोष्णी (मन्दाकिनी), चन्द्रा, ... [भिन्न-भिन्न तीर्थों में जानेपर भगवान् श्रीविष्णु तथा विपाशा (व्यास), कर्मनाशिनी, पुष्या, पूर्णा, दीपा, यमुना, गङ्गा आदि नदियोका किस प्रकार स्तवन करना विदीपा तथा सूर्यतनया यमुना-इनमें स्नान करनेसे जो चाहिये, यह बताया जाता है-] ... . पुण्य होता है, वह सब पुण्य गङ्गा-स्नानसे मनुष्य प्राप्त त्वदाता प्रयतो ब्रवीमि यदहं सास्तु स्तुतिस्ते प्रभो कर लेते हैं। जो मनीषी पुरुष समुद्रसहित पृथ्वीका दान यद भुझे तव सनिवेदनमथो यद्यामि सा प्रेष्यता । करते हैं, उनको मिलनेवाला फल भी गङ्गा-नानसे प्राप्त यच्छन्तः स्वपिमि त्वदप्रियुगले दण्डप्रणामोऽस्तु मे हो जाता है । सहस्र गोदान, सौ अश्वमेध यज्ञ तथा सहस्र स्वामिन् यच्च करोमि तेन स भवान् विश्वेश्वरः प्रीयताम् ।। वृषभ-दानसे जिंस अक्षय फलकी प्राप्ति होती है, वह ... प्रभो ! मैं शुद्धभावसे आपके सम्बन्धमें जो कुछ गङ्गाजीके दर्शनसे क्षणभरमें प्राप्त हो जाता है। वह गड़ा भी चर्चा करता है, वही आपके लिये स्तुति हो। जो कुछ नदी महान् पुण्यदायिनी है, विशेषतः ब्रह्महत्यारोंके लिये भोजन करता हूँ. वह आपके लिये नैवेद्यका काम दे। जो परम पावन है। वे नरक में पड़नेवाले हों तो भी गङ्गाजी चलता-फिरता हूँ. वही आपको सेवा-टहल समझौ उनके पाप हर लेती हैं। तात ! जैसे सूर्योदय होनेपर जाय। जो थककर सो जाता हूँ, वही आपके लिये
. * गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनाना शतैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोक स गच्छति ॥ (२३ ॥२)
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अर्चस्व होके यदीच्छसि परं पदम् •
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साष्टाङ्ग प्रणाम हो तथा स्वामिन्! मैं जो कुछ करता हूँ, उससे आप जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसन्न हों। दृष्टेन वन्दितेनापि स्पृष्टेन च घृतेन च । नरा येन विमुच्यन्ते तदेतद् यामुनं जलम् ॥
जिसके दर्शन, वन्दन, स्पर्श तथा धारण करनेसे मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं, वही यह यमुनाजीका जल है। तावद् भ्रमन्ति भुवने मनुजा भवोत्थदारिद्र्यरोगमरणव्यसनाभिभूताः यावज्जलं तव महानदि नीलनीलं
पश्यन्ति नो दधति मूर्धसु सूर्यपुत्रि ॥ सूर्यपुत्री महानदी यमुनाजी! मनुष्य इस जगत् में प्राप्त होनेवाले दरिद्रता, रोग और मृत्यु आदि दुःखोंसे पीड़ित होकर तभीतक संसारमें भटकते रहते हैं, जबतक वे नीलमणिके सदृश आपके नीले जलका दर्शन नहीं करते अथवा उसे अपने मस्तकपर नहीं चढ़ाते । यत्संस्मृतिः सपदि कृन्तति दुष्कृतौघं पापावली जयति
योजनलक्षतोऽपि । पुनाति
यत्राम नाम जगदुश्चरितं
दिष्ट्या हि सा पथि शोभविताद्य गङ्गा ॥ जिनकी स्मृति पापराशिका तत्काल नाश कर देती है, जो लाख योजन दूरसे भी पापोंके समूहको परास्त करती हैं, जिनका नाम उच्चारण किये जानेपर सम्पूर्ण जगत्को पवित्र कर देता है, वे गङ्गाजी आज सौभाग्यवश मेरे दृष्टिपथमें आयेंगी। आलोकोत्कण्ठितेन प्रमुदितमनसा वर्त्म यस्याः प्रयातं सद् यस्मिन् कृत्यमेतामश्च प्रथमकृती जज्ञिवान् स्वर्गसिन्धुम् । स्नानं सन्ध्या निवापः सुरयजनमपि श्राद्धविप्राशनाद्यं सर्व सम्पूर्णमेतद् भवति भगवतः प्रीतिदं नात्र चित्रम् ॥
मनुष्य दर्शनके लिये उत्कण्ठित तथा प्रसन्नचित्त होकर जिसके पथका अनुसरण करता है, जिसके तटपर समस्त शास्त्रविहित कर्म उत्तमतापूर्वक सम्पन्न होते हैं, उन गङ्गाजीको आदि सृष्टिके रचयिता ब्रह्माजीने पहले स्वर्गङ्गाके रूपमें उत्पन्न किया था। उनके तटपर किया हुआ स्नान, सन्ध्या, तर्पण, देवपूजा, श्राद्ध और ब्राह्मणभोजन आदि सब कुछ परिपूर्ण एवं भगवान्को प्रसन्नता
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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प्रदान करनेवाला होता है— इसमें कोई आश्चर्यको बात नहीं है।
ब्रह्म
द्रवीभूतं परं परमानन्ददायिनि । अर्घ्यं गृहाण मे गङ्गे पाएं हर नमोऽस्तु ते ॥ परमानन्द प्रदान करनेवाली गङ्गाजी ! आप जलरूपमें अवतीर्ण साक्षात् परब्रहा हैं। आपको नमस्कार है। आप मेरा दिया हुआ अर्घ्य ग्रहण कीजिये और मेरे पाप हर लीजिये। I
साक्षाद्धर्मद्रवौघं मुररिपुचरणाम्भोजपीयूषसारं
दुःखस्वाव्येस्तरित्रं सुरदनुजनुतं स्वर्गसोपानमार्गम् । सर्वांहोहारि वारि प्रवरगुणगणं भासि या संवहन्ती
तस्यै भागीरथि श्रीमति मुदितमना देवि कुर्वे नमस्ते ॥ श्रीमती भागीरथी देवी! जो जलरूपमें परिणत साक्षात् धर्मकी राशि है, भगवान् विष्णुके चरणारविन्दोंसे प्रकट हुई सुधाका सार है, दुःखरूपी समुद्रसे पार होनेके लिये जहाज है तथा स्वर्गलोकमें जानेके लिये सीढ़ी है, जिसे देवता और दानव भी प्रणाम करते हैं, जो समस्त पापका संहार करनेवाला, उत्तम गुणसमूहसे युक्त और शोभा सम्पन्न है, ऐसे जलको आप धारण करती हैं। मैं प्रसन्नचित्त होकर आपको नमस्कार करता हूँ। स्वः सिन्धो दुरिताब्धिमत्रजनतासंतारणि प्रोल्लसत्कल्लोलामलकान्तिनाशिततमस्तोमे जगत्पावनि । गङ्गे देवि पुनीहि दुष्कृतभयक्रान्तं कृपाभाजनं मातम शरणागतं शरणदे रक्षाद्य भो भीषितम् ॥ स्वर्गलोककी नदी भगवती गङ्गे ! आप पापके समुद्रमें डूबी हुई जनताको तारनेवाली है, अपनी उठती हुई शोभायुक्त लहरोंकी निर्मल कान्तिसे पापरूपी अन्धकार राशिका नाश करती हैं तथा जगत्को पवित्र करनेवाली हैं; मैं पापके भयसे ग्रस्त और आपका कृपा भाजन हूँ। शरणदायिनी माता! आपकी शरण में आया हूँ आज मुझ भयभीतकी रक्षा कीजिये । हं हो मानस कम्पसे किमु सखे त्रस्तो भयान्नारकात्
किं ते भीतिरिति श्रुतिर्दुरितकृत् संजायते नारकी । मा भैषीः शृणु मे गतिं यदि मया पापाचलस्पर्धिनी प्राप्ता ते निरयः कथं किमपरं किं मे न धर्मो धनम् ॥
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उत्तरखण्ड ]
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गङ्गाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गङ्गा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
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ऐ मेरे चित! ओ मित्र ! तुम नरकके भयसे त्रस्त सर्वेश मामनुगृहाण नयस्व चोर्ध्वहोकर कॉप क्यों रहे हो ? क्या तुम्हें यह सोचकर भय हो रहा है कि पापी मनुष्य नरकमें पड़ता है ऐसा श्रुतिका कथन है। सखे! इसके लिये भय न करो; मेरी क्या गति होगी – यह बताता हूँ, सुनो; यदि मुझे पापोंके पहाड़से भी टक्कर लेनेवाली भगवती गङ्गा प्राप्त हो गयी हैं तो तुम्हें नरककी प्राप्ति कैसे हो सकती है अथवा दूसरी कोई दुर्गति भी क्यों होगी। क्या मेरे पास धर्मरूपी धन नहीं है ?
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स्वर्वासाधिप्रशंसामुदमनुभवितुं मज्जनं यत्र चोक्तं स्वनयों वीक्ष्य हृष्टा विबुधसुरपतिप्राप्तिसंभावनेन । नीरे श्रीजकन्ये यमनियमरताः स्त्रान्ति ये तावकीने देवत्वं ते लभन्ते स्फुटमशुभकृतोऽप्यत्र वेदाः प्रमाणम् ॥
जिस गङ्गाजीके जलमें किया हुआ स्नान स्वर्गलोकके निवास तथा प्रशंसाके आनन्दको अनुभूतिका कारण बताया गया है, वहाँ किसीको स्नान करते देख स्वर्गलोकको देवियाँ एक नूतन देवता अथवा इन्द्रके मिलनेकी संभावनासे बहुत प्रसन्न होती हैं जह्रुपुत्री गङ्गे ! जो लोग यम-नियमोंका पालन करते हुए आपके जलमें स्नान करते हैं, वे पहलेके पापी होनेपर भी निश्चय ही देवत्व प्राप्त कर लेते हैं- इस विषयमें वेद प्रमाण हैं। बुद्धे सद्बुद्धिरेवं भवतु तव सखे मानस स्वस्ति तेऽस्तु आस्तां पादौ पदस्थौ सततमिह युवां साधुदृष्टी च दृष्टी । वाणि प्राणप्रियेऽधिप्रकटगुणवपुः प्राप्नुहि प्राणपुष्टिं यस्मात् सर्वैर्भवद्भिः सुखमतुलमहं प्राप्नुयां तीर्थपुण्यम् ॥
बुद्धे! सदा इसी प्रकार तुम्हारी सद्बुद्धि बनी रहे। सखे मन ! तुम्हारा भी कल्याण हो । चरणो ! तुम भी इसी प्रकार योग्य पद (स्थान) पर स्थित रहो। नेत्रो ! तुम दोनों भी उत्तम दृष्टिसे सम्पन्न रहो। वाणी ! तुम प्राणोंकी प्रिया हो तथा प्रकट हुए उत्तम गुणोंसे युक्त शरीर! तुम्हारी प्राणशक्तिका पोषण हो; क्योंकि मैं तुम सब लोगोंके साथ आज अतुलित सुख प्रदान करनेवाले तीर्थजनित पुण्यको प्राप्त करूँगा । श्रीजाह्नवीरविसुतापरमेष्ठिपुत्री[Hot 265 सिन्धुयाभरण तीर्थवर
पूर
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प्रयाग ।
स्वधाम्ना ।।
मन्तस्तमोदशविधं दलय गङ्गा, यमुना और सरस्वती—इन तीनों नदियोंको आभूषणरूपमें धारण करनेवाले तीर्थराज प्रयाग ! सर्वेश्वर! मुझपर अनुग्रह करो, मुझे ऊँचे उठाओ तथा मेरे अन्तःकरणके दस प्रकारके अविद्यान्धकारको अपने तेजसे नष्ट करो।
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वागीशविष्णवीशपुरन्दराद्याः
भजन्ति
पापप्रणाशाय विदां विदोऽपि । यत्तीरमनीलनीलं
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा इन्द्र आदि देवता और विद्वानोंमें श्रेष्ठ विद्वान् (ऋषि महर्षि) भी जिसके वेत कृष्णजलसे शोभित तटका सेवन करते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो । कलिन्दजासङ्गमवाप्य
प्रत्यागता
·
यत्रोज्झता
यत्र
स्वर्गधुनी
जनस्य
वटोऽश्यामगुणं वृणोति
स्वच्छायया श्यामलया श्यामः श्रमं कृन्तति यत्र दृष्टः
भजन्ति
अध्यात्मतापत्रितयं
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ जहाँ आयी हुई गङ्गा कलिन्दनन्दिनी यमुनाका सङ्गम पाकर मनुष्योंके आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक – इन तीनों तापोंका नाश करती हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।
श्यामो
अधि
C
4141
विहाय
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धुनोति ।
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ जहाँ श्यामवट उज्ज्वल गुण धारण करता है तथा दर्शन करनेपर अपनी श्यामल छायासे मनुष्योंके जन्ममरणरूप श्रमका नाश कर डालता है, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो । ब्रह्मादयोऽप्यात्मकृति
17
T FREESTY
or
जनानाम् । TSR
पुण्यात्मकभागधेयम् ।
दण्डधरः स्वद
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
ब्रह्मा आदि देवता भी अपना काम छोड़कर जिस लोकमें पहुँचा देती हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो। पुण्यमय सौभाग्यसे युक्त तीर्थका सेवन करते हैं तथा केषाधिजन्यकोटि-जति सुवचसा यामि यामीति यस्मिन् जहाँ दण्डधारी यमराज भी अपना दण्ड त्याग देते हैं, उस केषाजित्योषितानां नियतमतिपतेद् वर्षवृन्दं वरिष्ठम् । तीर्थराज प्रयागको जय हो।
यः प्राप्तो भाग्यलक्षैर्भवति भवति नो वा स वाचामवाच्यो यत्सेवया , देवनदेवतादि- दीन, दिष्टया वेणीविशिष्ठो भवति दृगतिथिः किं प्रयागः प्रयागः ।।
देवर्षयः ..... प्रत्यहमामनन्ति। 'मैं प्रयागमें जाऊँगा, जाऊँगा' इन सुन्दर यातोंमें ही स्वर्ग च सर्वोत्तमभूमिराज्यं - कितने ही लोगोंके करोड़ों जन्म बीत जाते हैं [और प्रयागकी
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ यात्रा सुलभ नहीं होती] | कुछ लोग घरसे चल तो देते हैं, देवता, मनुष्य, ब्राह्मण तथा देवर्षि भी प्रतिदिन पर मार्गमें ही फंस जानेके कारण उनके अनेकों वर्ष समाप्त जिसके सेवनसे स्वर्म एवं सर्वोत्तम भूमण्डलका राज्य हो जाते हैं। लाखों बार भाग्यकी सहायता होनेपर भी जो प्राप्त करते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो। कभी प्राप्त होता है और कभी नहीं भी होता, वह त्रिवेणीएनासि हन्तीति प्रसिद्धवार्ता
संगम-विशिष्ट उत्तम यज्ञभूमि प्रयाग वाणीसे परे है। क्या नामप्रतापेन दिशो द्रवन्ती। मेरा ऐसा भाग्य है कि वह मेरे नेत्रोंका अतिथि हो सके ? यस्य त्रिलोकी प्रतता यशोभिः ........ लोकानामक्षमार्णा मखकृतिषु कलौ स्वर्गकामैजपस्तु
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ त्यादिस्तोत्रैर्वचोभिः कथममरपदप्राप्तिचिन्तातुराणाम्। प्रयाग अपने नामके प्रतापसे समस्त पापोंका नाश अग्निष्टोमाश्वमेधप्रमुखमखफलं सम्यगालोच्य साङ्ग कर डालता है, यह प्रसिद्ध वार्ता सम्पूर्ण दिशाओमें फैली ब्रह्मायैस्तीर्थराजोऽभिमतद उपदिष्टोऽयमेव प्रयागः ॥ हुई है। जिसके सुयशसे सारी त्रिलोकी आच्छादित है, . कलियुगमें मनुष्य स्वर्गकी इच्छा होते हुए भी उस तीर्थराज प्रयागको जय हो।
यज्ञ-यगादि करनेमें असमर्थ होनेके कारण जप, स्तुति, धत्तोऽभितश्चामरचारकान्ती
स्तोत्र एवं पाठ आदिके द्वारा किस प्रकार अमरपदकी सितासिते यत्र सरिद्वरेण्ये। प्राप्ति हो-इस चिन्तासे आतुर होंगे; उनको अङ्गोसहित आधो बटश्छत्रमिवातिभातिका अनिष्टोम और अश्वमेध आदि यज्ञोका फल कैसे
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ मिले- इसकी भलीभाँति आलोचना करके ब्रह्मा आदि जहाँ दोनों किनारे श्याम और श्वेत सलिलसे देवताओंने इस तीर्थराज प्रयागको ही सब प्रकारके सुशोभित दो श्रेष्ठ सरिताएँ यमुना और गङ्गा चँवरकी अभीष्ट फलोंका दाता बताया है। ...... मनोहर कात्ति धारण कर रही है और आदि वट मया प्रमादातुरतादिदोषतः . (अक्षयवट) छत्रके समान सुशोभित होता है, उस संध्याविधिनों समुपासितोऽभूत् । तीर्थराज प्रयागकी जय हो। -
घेदन संध्यां चरतोऽप्रमादतः... ब्राहीनपुत्रीत्रिपथात्रिवेणी-..
संध्यास्तु पूर्णाखिलजन्मनोऽपि मे ॥ समागमेनाक्षतयागमात्रान्। ३
यदि मैंने प्रमाद और आतुरता आदि दोषोंके कारण यत्राप्लुतान् ब्रह्मपदं नयन्ति - भलीभांति संध्योपासना नहीं की है तो यहाँ सावधानता
स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ पूर्वक संध्या करनेसे मेरे सम्पूर्ण जन्मको संध्योपासना .... सरस्वती, यमुना और गङ्गा-ये तीन नदियाँ जहाँ पूर्ण हो जाय।। डुबकी लगानेवाले मनुष्योंको, जो त्रिवेणी-संगमके अन्यत्रापि प्रगजन्महिमनि तपसि प्रेमिभिर्विप्रकृष्टसम्पर्कसे अक्षत यागफलको प्राप्त हो चुके हैं, ब्रह्म- ध्यांत: संकीर्तितो योऽभिमतपदविधातानिशं नियंपेक्षम् ।
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उत्तरखण्ड ]
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गङ्गाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गङ्गा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
श्रीमत्पांशु त्रिवेणीपरिवृढमतुलं तीर्थराज प्रयागं गोऽलंकारप्रकाश स्वयममरवरैश्चार्चितं तं नमामि ॥
जो माघमासमें अपनी महिमा के विषय में अन्यत्र भी गर्जना करता है, प्रेमीजनोंके दूरसे भी अपना ध्यान और कीर्तन करनेपर जो बिना किसीकी सहायताके निरन्तर अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला है, जिसकी धूलिराशि शोभासे सम्पन्न है, जो त्रिवेणीका स्वामी है, जिसकी संसारमें यानीह कहीं भी तुलना नहीं है तथा जिसका दिव्य स्वरूप अंशुमाली सूर्यके समान प्रकाशमान है, उस श्रेष्ठ देवताओंद्वारा पूजित तीर्थराज प्रयागको मैं प्रणाम करता हूँ। अस्माभिः सुतपोऽन्वतापि किमो ऽयज्यन्त किं वाध्वराः पात्रे दानमदायि किं बहुविधं किं वा सुराश्चार्चिताः । किं सत्तीर्थमसेवि किं द्विजकुलं पूजादिभिः सत्कृतं येन प्राप सदाशिवस्य शिवदा सा राजधानी स्वयम् ॥
अहो! हमलोगोंने क्या कोई उत्तम तपस्या की थी ? अथवा यज्ञोंका अनुष्ठान किया था ? या किसी सुपात्रको नाना प्रकारकी वस्तुओंका दान दिया था ? अथवा देवताओंकी पूजा की थी? या किसी उत्तम तीर्थका सेवन किया था ? अथवा ब्राह्मणवंशका पूजा आदिके द्वारा सत्कार किया था, जिससे भगवान् सदाशिवकी यह कल्याणदायिनी राजधानी काशी हमें स्वयं ही प्राप्त हो गयी !
भाग्यैर्मेऽधिगता हानेकजनुषां सर्वाघविध्वंसिनी सर्वाश्चर्यमयी मया शिवपुरी संसारसिन्धोस्तरी । लब्धं तज्जनुषः फलं कुलमलंचक्रे पवित्रीकृतः स्वात्मा चाप्यखिलं कृतं किमपरं सर्वोपरिष्टात् स्थितम् ॥
मेरे बड़े भाग्य थे, जो अनेक जन्मोंकी पापराशिका विध्वंस करनेवाली संसार-समुद्रके लिये नौकारूपा यह सर्वाश्चर्यमयी शिवपुरी मुझे प्राप्त हुई। इससे जन्म लेनेका फल मिल गया। मेरे कुलकी शोभा बढ़ गयी। मेरी अन्तरात्मा पवित्र हो गयी तथा मेरे सम्पूर्ण कर्तव्य पूर्ण हो गये। अधिक क्या कहूँ, अब मैं सर्वोपरि पदपर प्रतिष्ठित हो गया।
जीवन्नरः पश्यति भद्रलक्षमेवं वदन्तीति मृषा न यस्मात् । तस्मान्मया वै वपुषेदृशेन प्राप्तापि काशी क्षणभङ्गुरेण ॥
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मनुष्य जीवित रहे तो वह लाखों कल्याणकी बातें देखता है—ऐसी जो किंवदन्ती है, वह झूठी नहीं है; इसीलिये मैंने इस क्षणभर शरीरसे भी काशी-जैसी पुरीको प्राप्त कर लिया। काश्यां विधातुममरैरपि दिव्यभूमौ
सत्तीर्थलिङ्गगणनार्चनतो न शक्या । गुप्तविवृतानि पुरातनानि
सिद्धानि योजितकरः प्रणमामि तेभ्यः ॥ काशीपुरीकी दिव्य भूमिमें कितने उत्तम तीर्थ और लिङ्ग हैं, उनकी पूजनपूर्वक गणना करना देवताओंके लिये भी असंभव है। यहाँ गुप्त और प्रकटरूपसे जो-जो पुरातन सिद्धपीठ हैं, उन्हें मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। किं भीत्या दुरितात्कृतात् किमु मुदा पुण्यैरगण्यैः कृतैः किं विद्याभ्यसनान्मदेन जडतादोषाद् विषादेन किम् । किं गर्वेण धनोदयादधनतातापेन किं भो जनाः स्नात्वा श्रीमणिकर्णिकापयसि चेद् विश्वेश्वरो दृश्यते ॥
मनुष्यो ! यदि श्रीमणिकर्णिकाके जलमें स्नान करके भगवान् विश्वनाथजीका दर्शन किया जाता हो तो पूर्वकृत पापोंसे भयकी क्या आवश्यकता है। अथवा किये हुए अगणित पुण्योंद्वारा प्राप्त होनेवाले आनन्दसे भी क्या लेना है। विद्याभ्यासको लेकर घमंड या मूर्खताके लिये खेद करनेसे क्या लाभ है ? धनकी प्राप्तिसे होनेवाले गर्व तथा निर्धनताके कारण होनेवाले संतापसे भी क्या प्रयोजन है । अल्पस्फीतिनिरामयापि तनुताप्रव्यक्तशक्त्यात्मता प्रोत्साहाक्यबलेन केवलमनोरागद्वितीयेन यत् । अप्राप्यापि मनोरथैरविषया स्वप्रप्रवृत्तेरपि प्राप्ता सापि गदाधरस्य नगरी सद्योऽपवर्गप्रदा ॥
जो स्वल्प समृद्धिसे युक्त होनेपर भी निरामय (नाशरहित) है, सूक्ष्मताके द्वारा ही जो अपनी शक्तिशालिता सूचित कर रही है, अप्राप्य होनेपर भी जो उत्साहयुक्त बल तथा विशुद्ध मानसिक अनुरागसे प्राप्त होती है, मनोरथोंकी भी जहाँतक पहुँच नहीं है, जो स्वप्रमें भी सुलभ नहीं होती, वह तत्काल मोक्ष प्रदान करनेवाली भगवान् गदाधरकी नगरी गया आज मुझे प्राप्त हुई है।
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. अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मन्ये नात्मकृतिर्न पूर्वपुरुषप्राप्तेर्बल चात्र त- सर्वात्मन्निजदर्शनेन च गयानाद्धेन वै दैवतान् । नापीदं स्वजनप्रमाणमचलं किं शापतापादिकम्। प्रीणन् विश्वमनोहवत् कथमिहौदासीन्यमालम्बसे । या दुष्प्रापगयाप्रयागयमुनाकाशीषु पर्वागमात् किं ते सर्वद निर्दयत्वमधुना किं वा प्रभुत्वं कलेः । प्राप्तिस्तत्र महाफलो विजयते श्रीशारवानुग्रहः ॥ किं वा सत्त्वनिरीक्षणं नृषु विरं किं वास्य सेवारुतिः ॥
कोई पुण्यपर्व आनेपर जो गया, प्रयाग, यमुना और सर्वात्मन् ! आप अपने दर्शनसे तथा गयामें किये काशी आदि दुर्लभ तीर्थोंमें आनेका सौभाग्य प्राप्त होता जानेवाले श्राद्धसे देवताओसहित सम्पूर्ण विश्वको तृप्त है, उसमें महान् फलदायक भगवती शारदाका अनुग्रह करते हैं; फिर मेरे सामने क्यों निक्षेष्ट-से होकर उदासीन ही एकमात्र कारण है; उसीकी विजय है। मैं इसे अपना भाव धारण कर रहे हैं? भक्तको सर्वस्व देनेवाले पुरुषार्थ नहीं मानता। पूर्वजोंने जो यहां आकर दयामय ! क्या इस समय आपने निर्दयता धारण कर ली पुण्योपार्जन किया है, उसका बल भी इसमें सहायक है? या यह कलियुगका प्रभाव है? अथवा देर नहीं है तथा स्वजनवर्गकी अविचल शक्ति भी इसमें लगाकर आप मनुष्योंके सत्त्व (शुद्ध भाव एवं धैर्य) की कारण नहीं है। इन तीर्थोंमें आनेपर शाप-ताप आदि क्या
परीक्षा ले रहे हैं या इस दासको भगवत्सेवामें कितनी कर सकते हैं।
रुचि है, इसका निरीक्षण कर रहे हैं? यः श्राद्धसमये दूरात्स्मृतोऽपि पितमक्तिदः। गदाधर मया श्राद्ध यधीण त्वत्प्रसादतः । तं गयार्या स्थित साक्षान्नमामि श्रीगदाधरम् ।।
अनुजानीहि मां देव गमनाय गृहं प्रति ।।* जो श्राद्ध-कालमें दूरसे स्मरण करनेपर भी
___गदाधर ! आपकी कृपासे मैंने यहाँ श्राद्धका
अनुष्ठान किया है। [इसे स्वीकार कीजिये और] देव ! पितरोंको मोक्ष प्रदान करते हैं, गयामें स्थित उन साक्षात् भगवान् श्रीगदाधरको मैं प्रणाम करता हूँ।
• अब मुझे घर जानेकी आज्ञा दीजिये।
एवं हि देवतानां च स्तोत्रं स्वर्गार्थदायकम्। पन्थानं समतीत्य दुस्तरमिमं दूराद्दवीयस्तरं ।
___ श्राद्धकाले पठेन्नित्यं स्नानकाले तु यः पठेत् ।। क्षुद्रव्याघ्रतरक्षुकण्टकफणिप्रत्यर्थिभिः संकुलम् ।
3 सर्वतीर्थसमं स्नानं श्रवणात्पठनाजपात् ।। आगत्य प्रथम ह्ययं कृपणवाग् याचेजनः के परं ।
__ प्रयागस्य च गङ्गाया यमुनायाः स्तुतेर्द्विज । श्रीमद्भारि गदाधर प्रतिदिनं त्वां द्रष्टुमुत्कण्ठते ॥ श्रवणेन विनश्यन्ति दोषाशैव तु कर्मजाः ।। भगवान् गदाधर ! यह आपका दास मक्खी,
(२३ । ५१, ५३, ५४) मच्छर, बाघ, चीते, काटे, सर्प तथा लुटेरोंसे भरे हुए इस
इस प्रकार यह देवताओंका स्तोत्र स्वर्ग एवं अभीष्ट दुस्तर मार्गको, जो दूरसे भी दूर पड़ता है, तै करके वस्तु प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य श्राद्धकालमें तथा पहले-पहल यहाँ आया है और दीन वाणीमें आपसे प्रतिदिन स्रानके समय इसका पाठ करता है, उसे सब याचना करता है। भला, आपके सिवा और किसके तीर्थों में मानके समान पुण्य होता है। इसके श्रवण, पाठ सामने यह हाथ फैलाये। भगवन् ! यह सेवक प्रतिदिन तथा जपसे उक्त फलकी सिद्धि होती है। ब्रह्मन् ! प्रयाग, आपके शोभासम्पन्न द्वारपर आकर दर्शनके लिये गङ्गा तथा यमुनाकी स्तुतिका श्रवण करनेसे कर्मजन्य उत्कण्ठित रहता है।
दोष नष्ट हो जाते हैं।
• अध्याय २३ श्लोक १५से ५०तक ।
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उत्तरखण्ड
• तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य .
६१९
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तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
शिवजी बोले-नारद ! सुनो; अब मैं तुलसीका जो ब्राह्मण तुलसी-काष्ठकी अग्निमें हवन करते हैं, माहात्म्य बताता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य जन्मसे लेकर उन्हें एक-एक सिक्थ (भातके दाने) अथवा एक-एक मृत्युपर्यन्त किये हुए पापसे छुटकारा पा जाता है। तिलमें अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। जो भगवान्को तुलसीका पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना तुलसी-काष्ठका धूप देता है, वह उसके फलस्वरूप सौ
और मिट्टी आदि सभी पावन हैं।* जिनका मृत शरीर यज्ञानुष्ठान तथा सौ गोदानका पुण्य प्राप्त करता है। जो तुलसी-काष्ठकी आगसे जलाया जाता है, वे तुलसीकी लकड़ीकी आँचसे भगवानका नैवेद्य तैयार विष्णुलोकमें जाते हैं। मृत पुरुष यदि अगम्यागमन आदि करता है, उसका वह अत्र यदि थोड़ा-सा भी भगवान् महान् पापोंसे ग्रस्त हो, तो भी तुलसी-काष्ठकी अग्निसे केशवको अर्पण किया जाय तो वह मेरुके समान देहका दाह-संस्कार होनेपर वह शुद्ध हो जाता है। जो अन्नदानका फल देनेवाला होता है। जो तुलसी-काष्ठको मृत पुरुषके सम्पूर्ण अङ्गामें तुलसीका काष्ठ देकर पश्चात् आगसे भगवान के लिये दीपक जलाता है, उसे दस उसका दाह-संस्कार करता है, वह भी पापसे मुक्त हो मोर
मुक्त हा करोड़ दीप-दानका पुण्य प्राप्त होता है। इस लोकमें जाता है। जिसकी मृत्युके समय श्रीहरिका कीर्तन और
पृथ्वीपर उसके समान वैष्णव दूसरा कोई नहीं दिखायी स्मरण हो तथा तुलसीकी लकड़ीसे जिसके शरीरका दाह देता। जो भगवान श्रीकृष्णको तुलसी-काष्ठका चन्दन किया जाय, उसका पुनर्जन्म नही होता। यदि दाह
__ अर्पण करता तथा उनके श्रीविग्रहमें उस चन्दनको संस्कारके समय अन्य लकड़ियोंके भीतर एक भी
भक्तिपूर्वक लगाता है। वह सदा श्रीहरिके समीप रमण तुलसीका काष्ठ हो तो करोड़ों पापोंसे युक्त होनेपर भी मनुष्यको मुक्ति हो जाती है। तुलसीकी लकड़ीसे
करता है। जो मनुष्य अपने अङ्गमें तुलसीकी कीचड़ मिश्रित होनेपर सभी काष्ठ पवित्र हो जाते हैं।
लगाकर श्रीविष्णुका पूजन करता है, उसे एक ही दिनमें तुलसी-काष्ठकी अग्निसे मृत मनुष्यका दाह होता देख ।
- सौ दिनोंके पूजनका पुण्य मिल जाता है। जो पितरोंके विष्णटत ही आकर उसका
पिण्डमें तुलसीदल मिलाकर दान करता है, उसके दिये दूत उसे नहीं ले जा सकते। वह करोड़ों जन्मोंके पापसे हुए एक दिनके पिण्डसे पितरोंको सौ वर्षोंतक तृप्ति बनी मुक्त हो भगवान् विष्णुको प्राप्त होता है। जो मनुष्य रहती है। तुलसीकी जड़की मिट्टीके द्वारा विशेषरूपसे तुलसी-काष्ठकी अग्निमें जलाये जाते हैं, उन्हें विमानपर स्नान करना चाहिये। इससे जबतक वह मिट्टी शरीरमे बैठकर वैकुण्ठमें जाते देख देवता उनके ऊपर पुष्पाञ्जलि लगी रहती है, तबतक स्रान करनेवाले पुरुषको तीर्थचढ़ाते है। ऐसे पुरुषको देखकर भगवान विष्ण और खानका फल मिलता है। जो तुलसीकी नयी मञ्जरीसे शिव संतुष्ट होते हैं तथा श्रीजनार्दन उसके सामने जा भगवानकी पूजा करता है, उसे नाना प्रकारके पुष्पोद्वारा हाथ पकड़कर उसे अपने धाममें ले जाते हैं। जिस किये हुए पूजनका फल प्राप्त होता है । जबतक सूर्य और अग्निशाला अथवा श्मशानभूमिमें घीके साथ तुलसी- चन्द्रमा हैं, तबतक वह उसका पुण्य भोगता है। जिस काष्ठकी अग्नि प्रज्वलित होती है, वहाँ जानेसे मनुष्योंका घरमें तुलसी-वृक्षका बगीचा है, उसके दर्शन और पातक भस्म हो जाता है।
स्पर्शसे भी ब्रह्महत्या आदि सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
* पत्र पुष्पं फलं मूलं शाखा स्वक् स्कन्भासंशितम् । तुलसीसंभव सर्व पावन मृत्तिकादिकम् ॥ (२४ । २) + योकं तुलसोकाष्ठं मध्ये काष्ठस्य तस्य हि । दाहकाले भवेयुक्तिः कोटिपापयुतस्य च ॥ (२४।७)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
जिस-जिस घर, गाँव अथवा वनमें तुलसीका वृक्ष कोटिगुना पुण्य प्राप्त होता है। जहाँ कहीं शालग्राममयी हो, वहाँ-वहाँ जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसत्रचित्त होकर मुद्रा हो, वहाँ काशीका सारा पुण्य प्राप्त हो जाता है। निवास करते हैं। उस घरमें दरिद्रता नहीं रहती और मनुष्य ब्रह्महत्या आदि जो कुछ पाप करता है, वह सब बन्धुओंसे वियोग नहीं होता। जहाँ तुलसी विराजमान शालग्रामशिलाकी पूजासे शीघ्र नष्ट हो जाता है। होती हैं, वहाँ दुःख, भय और रोग नहीं ठहरते । यो तो महादेवजी कहते है-नारद ! अब मैं वेदोंमें तुलसी सर्वत्र ही पवित्र होती है, किन्तु पुण्यक्षेत्रमें वे कही हुई प्रयागतीर्थकी महिमाका वर्णन करूँगा। जो अधिक पावन मानी गयी है। भगवान्के समीप पृथ्वी- मनुष्य पुण्य-कर्म करनेवाले हैं, वे ही प्रयागमें निवास तलपर तुलसीको लगानेसे सदा विष्णुपद (वैकुण्ठ- करते हैं। जहाँ गङ्गा, यमुना और सरस्वती-तीनों धाम) की प्राप्ति होती है। तुलसीद्वारा भक्तिपूर्वक पूजित नदियोंका संगम है, वही तीर्थप्रवर प्रयाग है, वह होनेपर शान्तिकारक भगवान् श्रीहरि भयंकर उत्पातों, देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। इसके समान तीर्थ तीनों रोगों तथा अनेक दुर्निमित्तोंका भी नाश कर डालते हैं। लोकोंमें न कोई हुआ है न होगा। जैसे ग्रहोंमें सूर्य और जहाँ तुलसीकी सुगन्ध लेकर हवा चलती है, वहाँको नक्षत्रोंमें चन्द्रमा श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सब तीर्थोंमें प्रयाग दसों दिशाएँ और चारों प्रकारके जीव पवित्र हो जाते हैं। नामक तीर्थ उत्तम है। विद्वन् ! जो प्रातःकाल प्रयागमें मुनिश्रेष्ठ ! जिस गृहमें तुलसीके मूलकी मिट्टी मौजूद है, स्नान करता है, वह महान् पापसे मुक्त हो परमपदको प्राप्त वहाँ सम्पूर्ण देवता तथा कल्याणमय भगवान् श्रीहरि होता है। जो दरिद्रताको दूर करना चाहता हो, उसे सर्वदा स्थित रहते हैं। ब्रह्मन् ! तुलसी-वनको छाया प्रयागमें जाकर कुछ दान करना चाहिये। जो मनुष्य जहाँ-जहाँ जाती हो, वहाँ-वहाँ पितरोंकी तृप्तिके लिये प्रयागमें जाकर वहाँ सान करता है, वह धनवान् और तर्पण करना चाहिये।
दीर्घजीवी होता है। वहाँ जाकर मनुष्य अक्षयवटका नारद ! जहाँ तुलसीका समुदाय पड़ा हो, वहाँ दर्शन करता है, उसके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्याका पाप नष्ट किया हुआ पिण्डदान आदि पितरोंके लिये अक्षय होता होता है। उसे आदिवट कहा गया है। कल्पान्तमें भी है। तुलसीकी जड़में ब्रह्मा, मध्यभागमें भगवान् जनार्दन उसका दर्शन होता है। उसके पत्रपर भगवान् विष्णु शयन तथा मञ्जरीमें श्रीरुद्रदेवका निवास है; इसीसे वह पावन करते हैं; इसलिये वह अविनाशी माना गया है। मानी गयी है । विशेषतः शिवमन्दिरमै यदि तुलसीका वृक्ष विष्णुभक्त मनुष्य प्रयागमें अक्षयवटका पूजन करते है। लगाया जाय तो उससे जितने बीज तैयार होते हैं, उतने उस वृक्षमें सूत लपेटकर उसकी पूजा करनी चाहिये। ही युगोंतक मनुष्य स्वर्गलोकमें निवास करता है। जो वहाँ 'माधव' नामसे प्रसिद्ध भगवान् विष्णु नित्य पार्वण श्राद्धके अवसरपर, श्रावण मासमें तथा संक्रान्तिके विराजमान रहते हैं। उनका दर्शन अवश्य करना चाहिये। दिन तुलसीका पौधा लगाता है, उसके लिये वह अत्यन्त ऐसा करनेवाला पुरुष महापापोंसे छुटकारा पा जाता है। पुण्यदायिनी होती है। जो प्रतिदिन तुलसीदलसे देवता, ऋषि और मनुष्य-सभी वहाँ अपने-अपने भगवानकी पूजा करता है, वह यदि दरिद्र हो तो धनवान् योग्य स्थानका आश्रय लेकर नित्य निवास करते हैं। हो जाता है। तुलसीकी मूर्ति सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्रदान गोहत्यारा, चाण्डाल, दुष्ट, दृषितहृदय, बालघाती तथा करनेवाली होती है; वह श्रीकृष्णको कीर्ति प्रदान करतो अज्ञानी मनुष्य भी यदि वहाँ मृत्युको प्राप्त होता है तो है। जहाँ शालग्रामको शिला होती है, वहाँ श्रीहरिका चतुर्भुजरूप धारण करके सदा ही वैकुण्ठ-धाममें निवास सांनिध्य बना रहता है। वहाँ किया हुआ स्रान और दान करता है। जो मानव प्रयागमें माघ-सान करता है, उसे काशीसे सौगुना अधिक महत्त्वशाली है। शालग्रामकी प्राप्त होनेवाले पुण्यफलकी कोई गणना नहीं है। भगवान् पूजासे कुरुक्षेत्र, प्रयाग तथा नैमिषारण्यकी अपेक्षा नारायण प्रयागमें स्नान करनेवाले पुरुषोंको भोग और
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उत्तरखण्ड]
. त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा .
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मोक्ष प्रदान करते हैं। जैसे ग्रहोंमें सूर्य और नक्षत्रोंमें चन्द्रमा तीर्थका सेवन करके वैकुण्ठलोकको प्राप्त होते हैं। श्रेष्ठ है, उसी प्रकार महीनों में माघ मास श्रेष्ठ है। यह सभी दिव्यलोकमें रहनेवाले जो वसिष्ठ और सनकादि ऋषि हैं, वे कोंके लिये उत्तम है। विद्वन् ! यह माघ-मकरका योग भी प्रयागतीर्थका बारंबार सेवन करते हैं। विष्णु, रुद्र और चराचर त्रिलोकीके लिये दुर्लभ है। जो इसमें यत्नपूर्वक इन्द्र भी तीर्थप्रवर प्रयागमें निवास करते हैं। प्रयागमें दान सात, पाँच अथवा तीन दिन भी प्रयाग-म्रान कर लेता है, और नियमोंके पालनकी प्रशंसा होती है। वहाँ सान और उसका अभ्युदय होता है। मनुष्य आदि चराचर जीव प्रयाग जलपान करनेसे पुनर्जन्म नहीं होता।
त्रिरात्र तलसीव्रतकी विधि और महिमा
प्राथना कर
नारदजी बोले-भगवन् ! आपकी कृपासे मैंने वाटिकाको केवल जलसे सींचे। फिर देवाधिदेव तुलसीके माहात्म्यका श्रवण किया । अब त्रिरात्र तुलसी- जगद्गुरु भगवानको पञ्चामृतसे स्नान कराकर इस प्रकार व्रतका वर्णन कीजिये।
प्रार्थना करेमहादेवजीने कहा-विद्वन् ! तुम बड़े बुद्धिमान्
प्रार्थना-पत्र हो, सुनो; यह व्रत बहुत पुराना है। इसका श्रवण करके योऽनन्तरूपोऽखिलविश्वरूपो मन मनुष्य निश्चय ही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। नारद! मागभोंदके लोकविधि बिभर्ति । व्रत करनेवाला पुरुष कार्तिक शुक्लपक्षको नवमी तिथिको प्रसीदतामेव स देवदेवो नियम ग्रहण करे । पृथ्वीपर सोये और इन्द्रियोंको काबूमें । यो मायया विश्वकदेव रूपी॥ रखे। त्रिरात्रव्रत करनेके उद्देश्यसे वह शौच-नानसे जिनके रूपका कहीं अन्त नहीं है, सम्पूर्ण विश्व शुद्ध हो मनको संयममें रखते हुए प्रतिदिन रातको जिनका स्वरूप है, जो गर्भरूप (आधारभूत) जलमें नियमपूर्वक तुलसीवनके समीप शयन करे। मध्याह्न- स्थित होकर लोकसष्टिका भरण-पोषण करते हैं और कालमें नदी आदिके निर्मल जलमे नान करके विधि- मायासे ही रूपवान् होकर समस्त संसारको सृष्टि करते पर्वक देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। इस व्रतमें है. वे देवदेव परमेश्वर मुझपर प्रसन्न हो।' पूजाके लिये लक्ष्मी और श्रीविष्णुको सुवर्णमयी प्रतिमा बनवानी चाहिये तथा उनके लिये दो वस्त्र भी तैयार करा
आगच्छाच्युत देवेश तेजोराशे । जगत्पते । लेने चाहिये। वस्त्र पौत और श्वेत वर्णके हो। व्रतके
सदैव तिमिरध्वंसिस्वाहि मां भवसागरात् ।। आरम्भमें विधिपूर्वक नवग्रह-शान्ति कराये, उसके बाद चरु पकाकर उसके द्वारा श्रीविष्णु देवताकी प्रीतिके लिये
'हे अच्युत ! हे देवेश्वर ! हे तेजःपुञ्ज जगदीश्वर ! हवन करे। द्वादशीके दिन देवदेवेश्वर भगवानकी यहाँ पधारिय: आप सदा ही अज्ञानान्धकारका नाश यत्नपूर्वक पूजा करके विधिके अनुसार कलश स्थापन
करनेवाले हैं, इस भवसागरसे मेरी रक्षा कीजिये।' करे। कलश शुद्ध हो और फूटा-टूटा न हो। उसमें
मान-मन्त्र 12 पञ्चरत्न, पञ्चपल्लव तथा ओषधियाँ पड़ी हों। कलशके पञ्जामृतेन सुत्रातस्तथा गोदकेन च। ऊपर एक पात्र रखे और उसके भीतर लक्ष्मीजीके साथ गङ्गादीनां च तोयेन खातोऽनन्तः प्रसीदतु ॥ भगवान् विष्णुकी प्रतिमाको विराजमान करे। फिर वैदिक - 'पञ्चामृत और चन्दनयुक्त जलसे भलीभांति और पौराणिक मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए तुलसी- नहाकर गङ्गा आदि नदियोंके जलसे स्नान किये हुए वृक्षके मूलमें भगवत्प्रतिमाकी स्थापना करे । तुलसीकी भगवान् अनन्त मुझपर प्रसन्न हो।'
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• अयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
...... विलेपन-मन्त्र . . आपको सेवामें भेंट किये हैं; आप यह बीड़ा श्रीखण्डागुरुकर्पूरकुमादिविलेपनम् ... । स्वीकार करें।' भक्तया दत्तस्मयाऽऽऽयं लक्ष्या सह गृहाण वै॥ .. तत्पश्चात् भक्तिपूर्वक धूप, अगर तथा घी मिलाया 7. 'भगवन् ! मैंने चन्दन, अरगजा, कपूर और केसर हुआ गुग्गुल-इनकी आहुति देकर भगवान्को सँघाये। आदिका सुगन्धित अङ्गराग भक्तिपूर्वक अर्पण किया है। इस प्रकार पूजा करनी चाहिये। घीका दीपक जलाना आप श्रीलक्ष्मीजीके साथ इसे स्वीकार करें।' चाहिये। मुनिश्रेष्ठ ! एकाग्रचित्त हो भगवान् श्रीलक्ष्मीवस्त्र-मन्त्र
नारायणके सामने तथा तुलसीवनके समीप नाना नारायण नमस्तेऽस्तु नरकार्णवतारण।ही प्रकारका दीपक सजाना चाहिये। चक्रधारी देवाधिदेव त्रैलोक्याधिपते तुभ्यं ददामि वसनं शुनि ॥ विष्णुको प्रतिदिन अर्घ्य भी देना चाहिये। पुत्र-प्राप्तिके
'नरकके समुद्रसे तारनेवाले नारायण ! आपको लिये नवमीको नारियलका अर्घ्य देना उत्तम है। धर्म, नमस्कार है। त्रिलोकीनाथ ! मैं आपको पवित्र वस्त्र काम तथा अर्थ-तीनोंकी सिद्धिके लिये दशमीको अर्पण करता हूँ।'
र विजौरका अर्घ्य अर्पण करना उचित है तथा एकादशीको यज्ञोपवीत-मन्त्र
अनारसे अर्घ्य देना चाहिये; इससे सदा दरिद्रताका नाश दामोदर नमस्तेऽस्तु त्राहि मां भवसागरात्। होता है। नारद ! बाँसके पात्रमें सप्तधान्य रखकर उसमें ब्रह्मसूत्रं मया दतं गृहाण पुरुषोत्तम ॥ सात फल रखे; फिर तुलसीदल, फूल एवं सुपारी
'दामोदर ! आपको नमस्कार है, भवसागरसे मेरी डालकर उस पात्रको वस्त्रसे ढक दे। तत्पश्चात् उसे रक्षा कीजिये। पुरुषोत्तम ! मैंने ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) भगवान्के सम्मुख निवेदन करे। विप्रेन्द्र ! अर्थ्य अर्पण किया है, आप इसे ग्रहण करें।'
निम्नाङ्कित मन्त्रसे देना चाहिये; इसे एकाग्रचित्त पास पुष्प-मन्त्र सार होकर सुनोपुष्पाणि च सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो ।
अर्य-मन्त्र'मया दत्तानि देवेश प्रीतित: प्रतिगृह्यताम्॥ तुलसीसहितो देव सदा शह्वेन संयुतम् ।
'प्रभो ! मैंने मालती आदिके सुगन्धित पुष्प सेवामें ___ गृहाणाऱ्या मया दत्तं देवदेव नमोऽस्तु ते ॥ प्रस्तुत किये हैं, देवेश्वर ! आप इन्हें प्रसत्रतापूर्वक देव ! आप तुलसीजीके साथ मेरे दिये हुए इस स्वीकार करे।
नालायाः शङ्खयुक्त अर्घ्यको ग्रहण करें। देवदेव ! आपको कमाया र नैवेद्य-मन्त्र
नमस्कार है।' नैवेद्यं गृह्यता नाथ भक्ष्यभोज्यैः समन्वितम्। इस प्रकार लक्ष्मीसहित देवेश्वर भगवान् विष्णुकी सर्व रसैः सुसम्पन्नं गृहाण परमेश्वर ॥ पूजा करके व्रतकी पूर्तिके निमित्त उन देवदेवेश्वरसे
'नाथ ! भक्ष्य-भोज्य पदार्थोसे युक्त नैवेद्य स्वीकार प्रार्थना करेकीजिये; परमेश्वर ! यह सब रसोंसे सम्पन्न है, इसे उपोषितोऽहं देवेश कामक्रोमविवर्जितः ।। ग्रहण करें।
Tara व्रतेनानेन देवेश त्वमेव शरणं मम ।। . ताम्बूल-मन्त्र-शारा गृहीतेऽस्मिन् व्रते देव यदपूर्ण कृतं मया । पूगानि नागपत्राणि कर्पूरसहितानि च। सर्व तदस्तु सम्पूर्ण स्वतासादाजनार्दन ।। मया दतानि देवेश ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्॥ नमः कमलपत्राक्ष नमस्ते जलशायिने । _ 'देवेश्वर ! मैंने सुपारी, पानके पत्ते और कपूर इदं व्रतं मया चीण प्रसादात्तव केशव ।।
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उत्तरखण्ड ]
• अन्नदान, जलदान, तडाग-निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा •
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अज्ञानतिमिरध्वंसिन् व्रतेनानेन केशव। देकर वस्त्राभूषण एवं केसरके द्वारा पूजनपूर्वक तीन प्रसादसमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ॥. ब्राह्मण-दम्पतीको भोजन कराये। घृत-मिश्रित खीरके
'देवेश्वर ! मैंने काम-क्रोधसे रहित होकर इस द्वारा यथेष्ट भोजन करानेके पश्चात् दक्षिणासहित पान, व्रतके द्वारा उपवास किया है। देवेश! आप ही मेरे फूल और गन्ध आदि दान करे। अपनी शक्तिके अनुसार शरणदाता है। देव ! जनार्दन ! इस व्रतको ग्रहण करके बाँसके अनेक पात्र बनवाकर उन्हें पके हुए नारियल, मैंने इसके जिस अङ्गकी पूर्ति न की हो, वह सब आपके पकवान, वस्त्र तथा भाँति-भाँतिके फलोंसे भरे। प्रसादसे पूर्ण हो जाय । कमलनयन ! आपको नमस्कार सपत्नीक आचार्यको वस्त्र पहनाये। दिव्य आभूषण देकर है। जलशायी नारायण ! आपको प्रणाम है। केशव ! चन्दन और मालासे उनका पूजन करे। फिर उन्हें सब आपके ही प्रसादसे मैंने इस व्रतका अनुष्ठान किया है। सामग्रियोंसे युक्त दूध देनेवाली गौ दान करे । गौके साथ अज्ञानान्धकारका विनाश करनेवाले केशव ! आप इस दक्षिणा, वस्त्र, आभूषण, दोहनपात्र तथा अन्याय व्रतसे प्रसन्न होकर मुझे ज्ञान-दृष्टि प्रदान करें।' सामग्री भी दे। श्रीलक्ष्मीनारायणको प्रतिमा भी सब
तदनन्तर रातमें जागरण, गान तथा पुस्तकका सामग्रियोसहित आचार्यको दे। सब तीर्थोमें स्नान स्वाध्याय करे। गानविद्या तथा नृत्यकलामें प्रवीण करनेवाले मनुष्योंको जो पुण्य प्राप्त होता है, वह सब इस पुरुषोंद्वारा संगीत और नृत्यकी व्यवस्था करे। अत्यन्त व्रतके द्वारा देव-देव विष्णुके प्रसादसे प्राप्त हो जाता है। सुन्दर एवं पवित्र उपाख्यानोंके द्वारा रात्रिका समय व्यतीत व्रत करनेवाला पुरुष इस लोकमें मनको प्रिय लगनेवाला करे। निशाके अन्तमें प्रभात होनेपर जब सूर्यदेवका उदय सम्पूर्ण पदार्थों और प्रचुर भोगोंका उपभोग करके अन्तमें हो जाय, तब ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करके भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी कृपासे भगवान् विष्णुके परमधामको प्राप्त वैष्णव श्राद्ध करे। यज्ञोपवीत, वस्त्र, माला तथा चन्दन होता है।
अन्नदान, जलदान, तडाग-निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
नारदजीने पूछा-भगवन् । गुणोंमें श्रेष्ठ वाले महात्मा ब्राह्मणको अवश्य दान दे। नारद ! जो ब्राह्मणोंको देनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य इस लोकमें याचना करनेवाले पीड़ित ब्राह्मणको अन्न दे, वही किन-किन वस्तुओंका दान करे? यह सब बताइये। विद्वानोंमें श्रेष्ठ है। यह दान आत्माके पारलौकिक सुखका
महादेवजी बोले-देवर्षिप्रवर ! सुनो-लोकमें साधन है। रास्तेका थका-माँदा गृहस्थ ब्राह्मण यदि तत्त्वको जानकर सज्जन पुरुष अन्नदानकी ही प्रशंसा करते भोजनके समय घरपर आकर उपस्थित हो जाय तो हैं; क्योंकि सब कुछ अनमें ही प्रतिष्ठित हैं । अतएव साधु कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अवश्य उसे अन्न महात्मा विशेषरूपसे अत्रका ही दान करना चाहते हैं। देना चाहिये। अन्नदाता इहलोक और परलोकमें भी सुख अन्नके समान कोई दान न हुआ है न होगा। यह चराचर उठाता है। थके-माँदे अपरिचित राहगीरको जो विना जगत् अत्रके ही आधारपर टिका हुआ है। लोकमें अन्न क्लेशके अन्न देता है, वह सब धोका फल प्राप्त करता है। ही बलवर्धक है। अन्नमें ही प्राणोंकी स्थिति है। अतिथिकी न तो निन्दा करे और न उससे द्रोह ही रखे। कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उचित है कि वह उसे अन्न अर्पण करे। उस दानकी विशेष प्रशंसा है।। अपने कुटुम्बको कष्ट देकर भी अनकी भिक्षा माँगने- महामुने! जो मनुष्य अत्रसे देवताओं, पितरों,
• उत्तरखण्डके २६वे अध्यायसे उद्धृत ।
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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ब्राह्मणों तथा अतिथियोंको तृप्त करता है, उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। महान् पाप करके भी जो याचकको — विशेषतः ब्राह्मणको अत्र दान करता है, वह पापसे मुक्त हो जाता है। ब्राह्मणको दिया हुआ दान अक्षय होता है। शूद्रको भी किया हुआ अत्र दान महान् फल देनेवाला है। अन्न-दान करते समय याचकसे यह न पूछे कि वह किस गोत्र और किस शाखाका है, तथा उसने कितना अध्ययन किया है ? अन्नका अभिलाषी कोई भी क्यों न हो, उसे दिया हुआ अन्न-दान महान् फल देनेवाला होता है। अतः मनुष्यों को इस पृथ्वीपर विशेष रूपसे अन्नका दान करना चाहिये ।
जलका दान भी श्रेष्ठ है; वह सदा सब दानोंमें उत्तम है। इसलिये बावली, कुआँ और पोखरा बनवाना चाहिये। जिसके खोदे हुए जलाशयमें गौ, ब्राह्मण और साधु पुरुष सदा पानी पीते हैं, वह अपने कुलको तार देता है। नारद ! जिसके पोखरेमें गर्मीकि समयतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकटका सामना नहीं करता। पोखरा बनवानेवाला पुरुष तीनों लोकोंमें सर्वत्र सम्मानित होता है। मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ और कामका यही फल बतलाते हैं कि देशमें खेतके भीतर उत्तम पोखरा बनवाया जाय, जो प्राणियोंके लिये महान् आश्रय हो । देवता मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणी भी जलाशयका आश्रय लेते हैं। जिसके पोखरेमें केवल वर्षा ऋतुमें ही जल रहता है, उसे अग्निहोत्रका फल मिलता है। जिसके तालाबमें हेमन्त और शिशिर कालतक जल ठहरता है, उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। यदि वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतुतक पानी रुकता हो तो मनीषी पुरुष अतिरात्र और अश्वमेध यज्ञोंका फल बतलाते हैं।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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अब वृक्ष लगानेके जो लाभ हैं, उनका वर्णन सुनो। महामुने! वृक्ष लगानेवाला पुरुष अपने भूतकालीन पितरों तथा होनेवाले वंशजोंका भी उद्धार कर देता है। इसलिये वृक्षोंको अवश्य लगाना चाहिये । वह पुरुष परलोकमें जानेपर वहाँ अक्षय लोकोंको प्राप्त करता है। वृक्ष अपने फूलोंसे देवताओंका पत्तोंसे पितरोंका तथा छायासे समस्त अतिथियोंका पूजन करते हैं किन्नर, यक्ष, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मानव तथा ऋषि भी वृक्षोंका आश्रय लेते हैं। वृक्ष फूल और फलोंसे युक्त होकर इस लोकमें मनुष्योंको तृप्त करते हैं। वे इस लोक और परलोकमें भी धर्मतः पुत्र माने गये हैं। जो पोखरेके किनारे वृक्ष लगाते यज्ञानुष्ठान करते तथा जो सदा सत्य बोलते हैं, वे कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होते।
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सत्य ही परम मोक्ष है, सत्य ही उत्तम शास्त्र है, सत्य देवताओंमें जाग्रत् रहता है तथा सत्य परम पद है। तप, यज्ञ, पुण्यकर्म, देवर्षि-पूजन, आद्यविधि और विद्या- ये सभी सत्यमें प्रतिष्ठित हैं। सत्य ही यज्ञ, दान, मन्त्र और सरस्वती देवी हैं; सत्य ही व्रतचर्या है तथा सत्य ही ॐकार है। सत्यसे ही वायु चलती है, सत्यसे ही सूर्य तपता है, सत्यके प्रभावसे ही आग जलती है तथा सत्यसे ही स्वर्ग टिका हुआ है। लोकमें जो सत्य बोलता है, वह सब देवताओंके पूजन तथा सम्पूर्ण तीर्थोंमें खान करनेका फल निःसंदेह प्राप्त कर लेता है। एक हजार अश्वमेध यज्ञका पुण्य और सत्य — इन दोनोंको यदि तराजूपर रखकर तौला जाय तो सम्पूर्ण यशोकी अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होगा। देवता, पितर और ऋषि सत्यमें ही विश्वास करते हैं। सत्यको ही परम धर्म और सत्यको ही परम पद कहते हैं। * सत्यको
* सत्यमेव परो मोक्षः सत्यमेव परं श्रुतम् । सत्यं देवेषु जागर्ति सत्यं च परमं पदम् ॥ तपो यज्ञाश्च पुण्यं च तथा देवर्षिपूजनम्। आद्यो विधि विद्या च सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ सत्यं यज्ञस्तथा दानं मन्त्रो देवी सरस्वती । व्रतचर्या तथा सत्यमोङ्कारः सत्यमेव च ॥ सत्येन वायुरभ्येति सत्येन तपते रविः । सत्येन चाग्निर्दहति स्वर्गः सत्येन तिष्ठति ॥ पूजन सर्वदेवानां सर्वतीर्थावगाहनम् । सत्ये च वदते लोके सर्वमाप्रोत्यसंशयः ॥ अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया भूतम् । सर्वेषां सर्वयज्ञानां सत्यमेव विशिष्यते ॥
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सत्ये देवाः प्रतीयन्ते पितरो ऋषयस्तथा । सत्यमाहुः परं धर्म सत्यमाहुः परं पदम् ॥ (२८ । २० - २६ )
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उत्तरखण्ड ]
- अन्नदान, जलदान, तडाग-निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा .
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परब्रहाका स्वरूप बताया गया है। इसलिये मैं तुम्हें मुनि स्वर्गमें रहकर देवताओके साथ आनन्द भोग रहे सत्यका उपदेश करता हूँ। सत्यपरायण मुनि अत्यन्त हैं। तपस्यासे राज्य प्राप्त होता है। इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवता दुष्कर तपस्या करके सत्यधर्मका पालन करते हुए इस और असुरोने तपस्यासे ही सदा सबका पालन किया है। लोकसे स्वर्गको प्राप्त हुए हैं। सदा सत्य ही बोलना तपस्यासे ही वे वृत्तिदाता हुए हैं। सम्पूर्ण लोकोंके हितमे चाहिये, सत्यसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। लगे रहनेवाले दोनों देवता सूर्य और चन्द्रमा तपसे ही सत्यरूपी तीर्थ अगाध, विस्तृत एवं पवित्र हद (कुण्ड) प्रकाशित होते हैं। नक्षत्र और ग्रह भी तपस्यासे ही से युक्त है; योगयुक्त पुरुषोंको उसमें मनसे स्नान करना कान्तिमान् हुए है। तपस्यासे मनुष्य सब कुछ पा लेता है, चाहिये। यही सान उत्तम माना गया है। जो मनुष्य सब सुखोंका अनुभव करता है। अपने, पराये अथवा पुत्रके लिये भी असत्य भाषण नहीं । मुने ! जो जंगलमें फल-मूल खाकर तपस्या करता करते, वे स्वर्गगामी होते हैं। ब्राह्मणोंमें वेद, यज्ञ तथा है तथा जो पहले केवल वेदका अध्ययन ही करता मन्त्र नित्य निवास करते हैं; किन्तु जो ब्राह्मण सत्यका है-वे दोनों समान हैं। वह अध्ययन तपस्याके ही तुल्य परित्याग कर देते हैं, उनमें वेद आदि शोभा नहीं देते; है। श्रेष्ठ द्विज वेद पढ़ानेसे जो पुण्य प्राप्त करता है, अतः सत्य-भाषण करना चाहिये।
स्वाध्याय और जपसे इसकी अपेक्षा दूना फल पा जाता नारदजीने कहा-भगवन् ! अब मुझे विशेषतः है। जो सदा तपस्या करते हुए शास्त्रके अभ्याससे तपस्याका फल बताइये; क्योंकि प्रायः सभी वर्गोका तथा ज्ञानोपार्जन करता है और लोकको उस ज्ञानका बोध मुख्यतः ब्राह्मणोंका तपस्या ही बल है।
कराता है, वह परम पूजनीय गुरु है। पुराणवेत्ता पुरुष महादेवजी बोले-नारद ! तपस्याको श्रेष्ठ दानका सबसे श्रेष्ठ पात्र है। वह पतनसे त्राण करता है, बताया गया है। तपसे उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो इसलिये पात्र कहलाता है। जो लोग सुपात्रको धन, सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं, वे सदा देवताओंके साथ धान्य, सुवर्ण तथा भाँति-भाँतिके वस्त्र-दान करते हैं, वे आनन्द भोगते हैं। तपसे मनुष्य मोक्ष पा लेता है, तपसे परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो श्रेष्ठ पात्रको गौ, भैस, 'महत्' पदकी प्राप्ति होती है। मनुष्य अपने मनसे हाथी और सुन्दर-सुन्दर घोड़े दान करता है, वह सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञानका खजाना, सौभाग्य और रूप आदि लोकोंमें अश्वमेधके अक्षय फलको प्राप्त होता है। जो जिस-जिस वस्तुको इच्छा करता है, वह सब उसे सुपात्रको जोती-बोयी एवं फलसे भरी हुई सुन्दर भूमि तपस्यासे मिल जाती है। जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे दान करता है, वह अपने दस पीढ़ी पहलेके पूर्वजों और कभी ब्रह्मलोकमें नहीं जाते। पुरुष जिस किसी कार्यका दस पीढ़ी बादतककी संतानोंको तार देता है तथा दिव्य उद्देश्य लेकर तप करता है, वह सब इस लोक और विमानसे विष्णुलोकको जाता है। देवगण पुस्तक बाँचनेसे परलोकमें उसे प्राप्त हो जाता है। शराबी, परस्त्रीगामी, जितना संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें यज्ञोसे, प्रोक्षण ब्रह्महत्यारा तथा गुरुपलीगामी-जैसा पापी भी तपस्याके (अभिषेक) से तथा फूलोंद्वारा की हुई पूजाओंसे भी बलसे सबसे पार हो जाता है-सब पापोंसे छुटकारा पा नहीं होता। जो भगवान् विष्णुके मन्दिरमें धर्म-ग्रन्थका लेता है।* तपस्याके प्रभावसे छियासी हजार ऊर्वरता पाठ कराता है तथा देवी, शिव, गणेश और सूर्यके
* तपो हि परमं प्रोक्तं तपसा विन्दते फलम्। तपोरता हि ये नित्यं मोदन्ते सह दैवतैः॥
तपसा मोक्षमाप्रोति तपसा विन्दते महत् । ज्ञानविज्ञानसम्पत्तिः सौभाग्य रूपमेव च। तपसा लभ्यते सर्व मनसा यद्यदिच्छति । नातमतपसो यान्ति ब्रह्मलोकं कदाचन ॥ यत्कार्य किञ्चिदास्थाय पुरुषस्तप्यते तपः । तत्सर्व समवाप्रोति परह च मानवः ॥ सुरापः परदारी च ब्रह्महा गुरुतल्पगः । तपसा तस्ते सर्व सर्वतश्च विमुच्यते ॥ (२८ । ३५-३९)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
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मन्दिरमें भी उसकी व्यवस्था करता है, वह मानव यज्ञोंका जो फल बताया गया है, उसे वह मनुष्य भी राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता हैं। प्राप्त कर लेता है; जो देवताके आगे महाभारतका पाठ इतिहासपुराणके ग्रन्थोंका बाँचना पुण्यदायक है। ऐसा करता है। अतः सब प्रकारका प्रयत्न करके भगवान् करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कामनाओको प्राप्त कर लेता है विष्णुके मन्दिरमें इतिहासपुराणके ग्रन्थोंका पाठ करना तथा अन्तमें सूर्यलोकका भेदन करके ब्रह्मलोकको चाहिये। वह शुभकारक होता है। विष्णु तथा अन्य चला जाता है। वहाँ सौ कल्पोंतक रहनेके पश्चात् इस देवताओंके लिये दूसरा कोई साधन इतना प्रीतिकारक पृथ्वीपर जन्म ले राजा होता है। एक हजार अश्वमेध नहीं है।
मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें
एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
महादेवजी कहते हैं-नारद ! इस विषयमें विज्ञ साथ नाना प्रकारकी स्तुतियोंद्वारा मेरा सत्कार किया। पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। यह इतिहास तत्पश्चात् मुझे सुखमय आसनपर बैठने के लिये कहा। अत्यन्त पुरातन, पुण्यदायक सब पापोंको हरनेवाला तथा बैठनेपर मैंने वहाँ एक अद्भुत बात देखी। एक पुरुष शुभकारक है। देवर्षे ! ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारने लोक- सोनेके विमानपर बैठकर वहाँ आया। उसे देखकर पितामह ब्रह्माजीको नमस्कार करके मुझे यह उपाख्यान धर्मराज बड़े वेगसे आसनसे उठ खड़े हुए और सुनाया था।
आगन्तुकका दाहिना हाथ पकड़कर उन्होंने अर्घ्य सनत्कुमार बोले-एक दिन मैं धर्मराजसे आदिके द्वारा उसका पूर्ण सत्कार किया। तत्पश्चात् वे मिलने गया था। वहां उन्होंने बड़ी प्रसन्नता और भक्तिके उससे इस प्रकार बोले।
धर्मने कहा-धर्मके द्रष्टा महापुरुष ! तुम्हारा स्वागत है ! मैं तुम्हारे दर्शनसे बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे पास बैठो और मुझे कुछ ज्ञानको यातें सुनाओ। इसके बाद उस धाममें जाना, जहाँ श्रीब्रह्माजी विराजमान है।
सनत्कुमार कहते हैं-धर्मराजके इतना कहते ही एक दूसरा पुरुष उत्तम विमानपर बैठा हुआ वहाँ आ पहुँचा। धर्मराजने विनीत भावसे उसका भी विमानपर ही पूजन किया तथा जिस प्रकार पहले आये हुए मनुष्यसे सान्त्वनापूर्वक वार्तालाप किया था, उसी प्रकार इस नवागन्तुकके साथ भी किया। यह देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ। मैंने धर्मसे पूछा-'इन्होंने कौन-सा ऐसा कर्म किया है, जिसके ऊपर आप अधिक संतुष्ट हुए हैं? इन दोनोंके द्वारा ऐसा कौन-सा कर्म बन गया है, जिसका इतना उत्तम पुण्य है? आप सर्वज्ञ हैं, अतः बताइये किस कर्मके प्रभावसे इन्हें दिव्य फलकी प्राप्ति हुई है?' मेरी बात सुनकर धर्मराजने कहा-'इन
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उत्तरखण्ड]
• मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा .
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दोनोंका किया हुआ कर्म बताता हूँ, सुनो। पृथ्वीपर धन दूंगा।' वैदिश नामका एक विख्यात नगर है। वहाँ धरापाल मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार राजाके आदेशसे वहाँ नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे, जिन्होंने भगवान् विष्णुका पुण्यमय कथा-वार्ताका क्रम चालू हो गया। वर्ष मन्दिर बनवाकर उसमें उनकी स्थापना की। उस नगरमें बीतते-बीतते आयु क्षीण हो जानेके कारण राजाकी मृत्यु जितने लोग रहते थे, उन सबको उन्होंने भगवान्का हो गयी। तब मैंने तथा भगवान् विष्णुने भी इनके लिये दर्शन करनेके लिये आदेश दिया। गाँवके भीतर बना धुलोकसे विमान भेजा था। ये जो दूसरे ब्राह्मण यहाँ हुआ श्रीविष्णुका वह सुन्दर मन्दिर लोगोंसे ठसाठस भर आये थे, इन्होंने सत्सङ्गके द्वारा उत्तम धर्मका श्रवण गया। तब राजाने पहले ब्राह्मण आदिके समुदायका किया था। श्रवण करनेसे श्रद्धावश इनके हृदयमे पूजन किया, फिर उन महाबुद्धिमान् नरेशने इतिहास- परमात्माकी भक्तिका उदय हुआ। मुनिश्रेष्ठ ! फिर इन्होंने पुराणके ज्ञाता एक श्रेष्ट द्विजको, जो विद्यामें भी श्रेष्ठ थे, उन महात्मा वाचककी परिक्रमा की और उन्हें एक माशा वाचक बनाकर उनकी विशेष रूपसे पूजा की। फिर सुवर्ण दान दिया। सुपात्रको दान देनेसे इन्हें इस प्रकारके क्रमशः गन्ध-पुष्प आदि उपचारोंसे पुस्तकका भी पूजन फलकी प्राप्ति हुई है। मुने ! इस प्रकार यह कर्म, जिसे करके राजाने वाचक ब्राह्मणसे विनयपूर्वक कहा- इन दोनोंने किया था, मैंने कह सुनाया। "द्विजश्रेष्ठ ! मैंने जो यह भगवान् विष्णुका मन्दिर महादेवजी कहते हैं-जो मनीषी पुरुष इस
पुण्य-प्रसङ्गका माहात्य श्रवण करते हैं, उनकी किसी जन्ममें कभी दुर्गति नहीं होती । देवर्षिप्रवर ! अब दूसरी बात सुनाता हूँ, सुनो। गोपीचन्दनका माहात्म्य जैसा मैंने देखा और सुना है, उसका वर्णन करता हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र-कोई भी क्यों न हो, जो विष्णुका भक्त होकर उनके भजनमें तत्पर रहकर अपने अङ्गोंमें गोपीचन्दन लगाता है, वह गङ्गाजलसे नहाये हुएकी भाँति सब दोषोंसे मुक्त हो जाता है। कल्याणकी इच्छा रखनेवाले वैष्णव ब्राह्मणोंके लिये गोपीचन्दनका तिलक धारण करना विशेष रूपसे कर्तव्य है। ललाटमें दण्डके आकारका, वक्षःस्थलमें कमलके सदृश, बाहुओंके मूलभागमें बाँसके पत्तेके समान तथा अन्यत्र दीपकके तुल्य चन्दन लगाना चाहिये। अथवा जैसी रुचि हो, उसीके अनुसार भिन्न-भिन्न अङ्गोंमें चन्दन
लगाये, इसके लिये कोई खास नियम नहीं है।
ALL गोपीचन्दनका तिलक धारण करनेमात्रसे ब्राह्मणसे लेकर बनवाया है, इसमें धर्म श्रवण करनेकी इच्छासे चारों चाण्डालतक सभी मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं। जो वैष्णव वर्णोका समुदाय एकत्रित हुआ है; अत: आप पुस्तक ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर हो, उसमें तथा बाँचिये। इस समय ये सौ स्वर्णमुद्राएँ उत्तम विष्णुमें भेद नहीं मानना चाहिये; वह इस लोकमें जीविकावृत्तिके रूपमें ग्रहण कीजिये और एक वर्षतक श्रीविष्णुका ही स्वरूप होता है। प्रतिदिन कथा कहिये। वर्ष समाप्त होनेपर पुनः और तुलसीके पत्र अथवा काष्ठकी बनी हुई माला संपपु० २१
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• अर्चयस्थ हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
धारण करनेसे ब्राह्मण निश्चय ही मुक्तिका भागी होता नहीं होती। ब्रह्मन्.! इस पृथ्वीपर जो शराबी, स्त्री और है।* मृत्युके समय भी जिसके ललाटपर गोपीचन्दनका बालकोकी हत्या करनेवाले तथा अगम्या स्त्रीके साथ तिलक रहता है, वह विमानपर आरूढ़ हो विष्णुके परम समागम करनेवाले देखे जाते हैं, वे भगवद्भक्तोंके पदको प्राप्त होता है। नारद ! कलियुगमें जो नरश्रेष्ठ दर्शनमात्रसे पापमुक्त हो जाते हैं। मैं भी भगवान् गोपीचन्दनका तिलक धारण करते हैं, उनकी कभी दुर्गति विष्णुको भक्तिके प्रसादसे वैष्णव हुआ हूँ।
संवत्सरदीप-व्रतकी विधि और महिमा
नारदजी बोले-भगवन् ! अब मुझे सब व्रतोंमें चन्दनयुक्त जलसे स्नान कराये । तत्पश्चात् इस प्रकार कहेप्रधान 'संवत्सरदीप' नामक व्रतको उत्तम विधि बताइये, स्नातोऽसि लक्ष्म्या सहितो देवदेव जगत्पते । जिसके करनेसे सब व्रतोंके अनुष्ठानका फल निस्संदेह मां समुद्धर देवेश घोरात् संसारबन्धनात् ॥ प्राप्त हो जाय, सब कामनाओंकी सिद्धि हो तथा सब 'देवदेव ! जगत्पते ! देवेश्वर ! आप लक्ष्मीजीके पापोंका नाश हो जाय।
साथ स्रान कर चुके हैं। इस घोर संसार-बन्धनसे मेरा महादेवजीने कहा-देवर्षे ! मैं तुम्हें एक उद्धार कीजिये।' पापनाशक रहस्य बताता हूँ, जिसे सुनकर ब्रह्महत्यारा, इसके बाद वैदिक तथा पौराणिक मत्रोंसे भक्तिगोधाती, मित्रहन्ता, गुरुस्त्रीगामी, विश्वासघाती तथा क्रूर पूर्वक लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुका पूजन करे। 'अतो हृदयवाला मनुष्य भी शाश्वत मोक्षको प्राप्त होता है तथा देव' इस सूक्तसे अथवा पुरुषसूक्तसे पूजा करनी अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार करके विष्णुलोकको जाता चाहिये। अथवाहै। वह रहस्य संवत्सरदीपवत है, जो बहुत ही श्रेयस्कर नमो मत्स्याय देवाय कूर्मदवाय वै नमः । व्रत है। मैं उसकी विधि और महिमाका वर्णन करूँगा। नमो वाराहदेवाय नरसिंहाय वै नमः ।। हेमन्त ऋतुके प्रथम मास-अगहनमे शुभ एकादशी वामनाय नमस्तुभ्यं परशुरामाय ते नमः । तिथि आनेपर ब्राह्ममुहूर्तमें उठे और काम-क्रोधसे रहित नमोऽस्तु रामदेवाय विष्णुदेवाय ते नम ॥ हो नदीके संगम, तीर्थ, पोखरे या नदीमें जाकर स्नान करे नमोऽस्तु बुद्धदेवाय कल्किने व नमो नमः । अथवा मनको वशमें रखते हुए घरपर ही स्नान करे। नमः सर्वात्मने तुभ्यं शिरसेत्यभिपूजयेत् ।। स्नान करनेका मन्त्र इस प्रकार है
'मत्स्य, कच्छप, वाराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, स्नातोऽहं सर्वतीर्थेषु गर्ने प्रस्रवणेषु च। राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की -ये दस अवतार धारण नदीषु सर्वतीर्थेषु तत्स्त्रानं देहि मे सदा ।। करनेवाले आप सर्वात्माको मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार
'मैं सम्पूर्ण तीर्थो, कुण्डों, झरनों तथा नदियोंमें स्नान करता हूँ।' यों कहकर पूजन करे। कर चुका । जल ! तुम मुझे उन सबमें स्नान करनेका अथवा भगवान्के जो केशव' आदि प्रसिद्ध नाम फल प्रदान करो।
हैं, उनके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर देवताओं और पितरोंका तर्पण करके जप
धूपका मन्त्र करनेके अनन्तर जितेन्द्रिय पुरुष देवदेव भगवान् लक्ष्मी- वनस्पतिरसो दिव्यः सुरभिर्गन्धवाछुचिः । नारायणका पूजन करे। पहले पञ्चामृतसे नहलाकर फिर धूपोऽयं देवदेवेश नमस्ते प्रतिगृह्यताम् ।
* तुलसीपत्रमालां च तुलसीकाष्ठसंभवाम् । धृत्वा वै ब्राह्मणो भूयान्मुक्तिभागी न संशयः ॥ (३० । १९)
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उत्तरखण्ड ]
• संवत्सरदीप-व्रतकी विधि और महिमा .
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'देवदेवेश्वर ! मनोहर सुगन्धसे भरा यह परम पवित्र स्थापना की है; यह अखण्ड अग्निहोत्ररूप है। इससे दिव्य वनस्पतिका रसरूप धूप आपकी सेवामें प्रस्तुत है; भगवान् केशव मुझपर प्रसन्न हों। आपको नमस्कार है, आप इसे स्वीकार करें।
तत्पश्चात् इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए वेदोंके दीपका मन्त्र
स्वाध्याय तथा ज्ञानयोगमें तत्पर रहे। पतितों, पापियों दीपस्तमो नाशयति दीप: कान्तिं प्रयच्छति। और पाखण्डी मनुष्योंसे बातचीत न करे। रातको गीत, तस्माद्दीपप्रदानेन प्रीयतो मे जनार्दनः ।। नृत्य, बाजे आदिसे, पुण्य प्रन्थोंके पाठसे तथा भाँति
'दीप अन्धकारका नाश करता है, दीप कान्ति भाँतिके धार्मिक उपाख्यानोंसे मन बहलाते हुए प्रदान करता है; अतः दीपदानसे भगवान् जनार्दन मुझपर उपवासपूर्वक जागरण करे। इसके बाद सबेरा होनेपर प्रसन्न हों।'
पूर्वाह्नके नित्य-कर्मोका अनुष्ठान करके भक्तिपूर्वक नैवेद्य-मन्त्र
ब्राह्मणोंको भोजन कराये तथा अपनी शक्ति के अनुसार नैवेद्यमिदमन्नार्थ देवदेव जगत्पते। उनकी पूजा करे। फिर स्वयं भी पारण करके ब्राह्मणोंको लक्ष्म्या सह गृहाण स्वं परमामृतमुत्तमम्॥ प्रणाम कर विदा करे । इस प्रकार दृढ़ संकल्प करके एक
'देवदेव ! यह अन्न आदिका बना हुआ नैवेद्य वर्षतक दिन-रात उक्त नियमसे रहे। एक या आधे पल सेवामें प्रस्तुत है; जगदीश्वर ! आप लक्ष्मीजीके साथ इस सोनेका दीपक बनाये; उसके लिये बत्ती चाँदीकी बतायी परम अमृतरूप उत्तम नैवेद्यको ग्रहण कीजिये। गयी है, जो दो या ढाई पलकी होनी चाहिये। घीसे भरा
तदनन्तर श्रीजनार्दनका ध्यान करके शङ्खमें जल हुआ घड़ा हो तथा उसके ऊपर ताँबका पात्र रखा रहे। और हाथमें फल लेकर भक्तिपूर्वक अर्घ्य निवेदन करे; मुक्तिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको भक्तिपूर्वक अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है
भगवान् लक्ष्मीनारायणको प्रतिमा भी यथाशक्ति सोनेकी जन्मान्तरसहस्त्रेण यन्मया पातकं कृतम्। बनवानी चाहिये । इसके बाद [वर्ष पूर्ण होनेपर] विद्वान् तत्सर्व नाशमायातु प्रसादात्तव केशव ॥ पुरुष साधु एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। बारह
"केशव । हजारों जन्मोंमें मैंने जो पातक किये हैं, ब्राह्मण हों-यह उत्तम पक्ष है। छः ब्राह्मणोंका होना वे सब आपकी कृपासे नष्ट हो जायें।'
मध्यम पक्ष है। इतना भी न हो सके तो तीन ब्राह्मणोंको इसके बाद घी अथवा तेलसे भरा हुआ एक सुन्दर ही निमन्त्रित करे । इनमेंसे एक कर्मनिष्ठ एवं सपत्नीक नवीन कलश ले आकर भगवान् लक्ष्मीनारायणके सामने ब्राह्मणकी पूजा करे। वह ब्राह्मण शान्त होनेके साथ ही स्थापित करे। कलशके ऊपर ताँबे या मिट्टीका पात्र विशेषतः क्रियावान् हो। इतिहास-पुराणोंका ज्ञाता, रखे। उसमें नौ तन्तुओके समान मोटी बत्ती डाल दे तथा धर्मज्ञ, मृदुल स्वभावका, पितृभक्त, गुरुसेवापरायण तथा कलशको स्थिरतापूर्वक स्थापित करके वहाँ वायुरहित देवता-ब्राह्मणोंका पूजन करनेवाला हो। पाद्य-अHदान गृहमे दीपक जलाये। देवर्षे ! फिर पवित्रतापूर्वक पुष्प आदिकी विधिसे वस्त्र, अलंकार तथा आभूषण अर्पण और गन्ध आदिसे कलशकी पूजा करके निम्नाङ्कित करते हुए पत्नीसहित ब्राह्मणदेवकी भक्तिपूर्वक पूजा मन्त्रसे शुभ संकल्प करे
करके भगवान् लक्ष्मीनारायणको तथा बत्तीसहित कामो भूतस्य भव्यस्य सम्राडेको विराजते। दीपकको भी ताम्रपात्रमें रखकर घोसे भरे हुए घड़ेके दीपः संवत्सर यावन्ययाय परिकल्पितः। साथ ही उस ब्राह्मणको दान कर दे । देवर्षे ! उस समय अग्रिहोत्रमविच्छिन्नं प्रीयतां मम केशवः ॥ निनाङ्कित मन्त्रसे परम पुरुष नारायणदेवका ध्यान भी
"भूत और भविष्यके सम्राट् तथा सबकी कामनाके करता रहेविषय एक-अद्वितीय परमात्मा सर्वत्र विराजमान है। अविद्यातमसा व्याप्त संसारे पापनाशनः । मैंने एक वर्षतक प्रज्वलित रखनेके लिये इस दीपककी ज्ञानप्रदो मोक्षदश्च तस्माइत्तो पयानघ ।
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६३०
• अर्चयस्व हवीकेश यदीच्छसि पर पदम् ,
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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'पापरहित नारायण तथा ज्योतिर्मय दीप ! स्वामीसे कभी वियोग नही होता। दीपदानसे मानसिक अविद्यामय अन्धकारसे भरे हुए संसारमें तुम्ही ज्ञान एवं चिन्ता तथा रोग भी दूर होते हैं। भयभीत पुरुष भयसे मोक्ष प्रदान करनेवाले हो; इसलिये मैंने आज तुम्हारा तथा कैदी बन्धनसे छूट जाता है। दीपव्रतमें तत्पर दान किया है।
रहनेवाला मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे निःसन्देह मुक्त फिर पूजित ब्राह्मणको अपनी शक्तिके अनुसार हो जाता है-ऐसा ब्रह्माजीका वचन है। भक्तिपूर्वक दक्षिणां दे। अन्यान्य ब्राह्मणोंको भी घृतयुक्त जिसने श्रीहरिके संमुख सांवत्सर-दीप जलाया है, खीर तथा मिठाईका भोजन कराये। ब्राह्मणभोजनके उसने निश्चय ही चान्द्रायण तथा कृच्छ्र-व्रतोंका अनुष्ठान अनन्तर सपत्नीक ब्राह्मणको वस्त्र पहनाये। सामग्रियों- पूरा कर लिया। जिन्होंने भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करके सहित शय्या तथा बछड़ेसहित धेनु दान करे। अन्य संवत्सरदीप-व्रतका पालन किया है, वे धन्य हैं तथा ब्राह्मणोंको भी अपनी सामर्थ्यक अनुसार दक्षिणा दे। उन्होंने जन्म लेनेका फल पा लिया। जो सलाईसे दीपकी सुहदों, स्वजनों तथा बन्धु-बान्धवोंको भी भोजन कराये बत्तीको उकसा देते हैं, वे भी देवदुर्लभ परमपदको प्राप्त और उनका सत्कार करे । इस प्रकार इस संवत्सरदीप- होते हैं। जो लोग सदा ही मन्दिरके दीपमें यथाशक्ति तेल व्रतकी समाप्तिके अवसरपर महान् उत्सव करे। फिर और बत्ती डालते हैं, वे परम धामको जाते हैं। जो लोग सबको प्रणाम करके विदा करे और अपनी त्रुटियोंके बुझते या बुझे हुए दीपको स्वयं जलानेमें असमर्थ होनेपर लिये क्षमा माँगे।
दूसरे लोगोंसे उसकी सूचना दे देते हैं, वे भी उक्त फलके दान, व्रत, यज्ञ तथा योगाभ्याससे मनुष्य जिस भागी होते हैं। जो दीपकके लिये थोड़े-थोड़े तेलको फलको प्राप्त करता है, वही फल उसे संवत्सरदीप-व्रतके भीख मांगकर श्रीविष्णुके सम्मुख दीप जलाता है, उसे भी पालनसे मिलता है। गौ, भूमि, सुवर्ण तथा विशेषतः गृह पुण्यकी प्राप्ति होती है। दीपक जलाते समय यदि कोई आदिके दानसे विद्वान् पुरुष जिस फलको पाता है, वही नीच पुरुष भी उसकी ओर श्रद्धासे हाथ जोड़कर निहारता दीपव्रतसे भी प्राप्त होता है। दीपदान करनेवाला पुरुष है, तो वह विष्णुधाममें जाता है। जो दूसरोंको भगवान्के कान्ति, अक्षय धन, ज्ञान तथा परम सुख पाता है। सामने दीप जलानेकी सलाह देता है तथा स्वयं भी ऐसा दीपदान करनेसे मनुष्यको सौभाग्य, अत्यन्त निर्मल करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकको विद्या, आरोग्य तथा परम उत्तम समृद्धिकी प्राप्ति होती प्राप्त होता है। है-इसमें तनिक भी संशय नहीं है। दीपदान करने- जो लोग पृथ्वीपर दीपव्रतके इस माहात्म्यको सुनते वाला मानव समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त सौभाग्यवती हैं, वे सब पापोंसे छुटकारा पाकर श्रीविष्णुधामको जाते पत्नी, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र तथा अक्षय संतति प्राप्त करता हैं। विद्वन् ! मैंने तुमसे यह दीपव्रतका वर्णन किया है। है। दीपदानके प्रभावसे ब्राह्मणको परम ज्ञान, क्षत्रियको यह मोक्ष तथा सब प्रकारका सुख देनेवाला, प्रशस्त एवं उत्तम राज्य, वैश्यको धन और समस्त पशु तथा शूद्रको महान् व्रत है। इसके अनुष्ठानसे पापके प्रभावसे सुखकी प्राप्ति होती है। कुमारी कन्याको सम्पूर्ण शुभ होनेवाले नेत्ररोग नष्ट हो जाते हैं। मानसिक चिन्ताओं लक्षणोंसे युक्त पति मिलता है। वह बहुत-से पुत्र-पौत्र तथा व्याधियोंका क्षणभरमें नाश हो जाता है। नारद ! तथा बड़ी आयु पाती है। युवती स्त्री इस व्रतके प्रभावसे इस व्रतके प्रभावसे दारिद्र्य और शोक नहीं होता । मोह कभी वैधव्यका दुःस्व नहीं देखती। उसका अपने और प्रान्ति मिट जाती है।
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उत्तरखण्ड ] • जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमी के व्रत तथा विभिन्न प्रकारके दान आदिकी महिमा .
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जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
नारदजी बोले-देवदेव ! जगदीश्वर ! भक्तोंको अपने उत्तम विमानपर आरूढ़ हुए आकाशमार्गसे जाते अभयदान देनेवाले महादेव ! मुझपर कृपा करके कोई समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुपर उनकी दृष्टि पड़ी। उस श्रेष्ठ दूसरा व्रत यताइये।
शैलपर ज्ञानयोग-परायण ब्रह्मर्षि सनत्कुमार दिखायी महादेवजीने कहा-पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामक पड़े, जो सुवर्णमयी शिलाके ऊपर विराजमान थे। उन्हें एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं। उनपर संतुष्ट होकर देखकर राजा अपना विस्मय पूछनेके लिये उतर पड़े। ब्रह्माजीने उन्हें एक सुन्दर पुरी प्रदान की, जो समस्त उन्होंने पास जा हर्षमें भरकर मुनिके चरणोमे मस्तक कामनाओंको पूर्ण करनेवाली थी। उसमें रहकर राजा झुकाया । ब्रहार्षिने भी राजाका अभिनन्दन किया। फिर हरिचन्द्र सात द्वीपोंसे युक्त वसुन्धराका धर्मपूर्वक पालन सुखपूर्वक बैठकर राजाने मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमारजीसे करते थे। प्रजाको वे औरस पुत्रकी भांति मानते थे। पूछा-'भगवन् ! मुझे जो यह सम्पत्ति प्राप्त हुई है, राजाके पास धन-धान्यकी अधिकता थी। उन्हें नाती- मानवलोकमें प्रायः दुर्लभ है। ऐसी सम्पत्ति किस कर्मसे पोतोकी भी कमी न थी। अपने उत्तम राज्यका पालन प्राप्त होती है ? मैं पूर्वजन्ममें कौन था? ये सब बातें करते हुए राजाको एक दिन बड़ा विस्मय हुआ। वे यथार्थरूपसे बतलाइये।' सोचने लगे-'आजके पहले कभी किसीको ऐसा राज्य सनत्कुमारजी बोले-राजन् ! सुनो-तुम नही मिला था। मेरे सिवा दूसरे मनुष्योंने ऐसे विमानपर पूर्वजन्ममें सत्यवादी, पवित्र एवं उत्तम वैश्य थे। तुमने सवारी नहीं की होगी। यह मेरे किस कर्मका फल है, अपना काम-धाम छोड़ दिया था, इसलिये बन्धुजिससे मैं देवराज इन्द्रके समान सुखी हूँ?' बान्धवोंने तुम्हारा परित्याग कर दिया। तुम्हारे पास राजाओंमें श्रेष्ठ हरिश्चन्द्र इस प्रकार सोच-विचारकर जीविकाका कोई साधन नहीं रह गया था; इसलिये तुम
स्वजनोको छोड़कर चल दिये। स्त्रीने ही तुम्हारा साथ दिया। एक समय तुम दोनों किसी घने जङ्गलमे जा पहुंचे। वहाँ एक पोखरेमें कमल खिले हुए थे। उन्हें देखकर तुम दोनोंके मनमें यह विचार उठा कि हम यहाँसे कमल ले लें। कमल लेकर तुम दोनों एक-एक पग भूमि लांघते हए शुभ एवं पुण्यमयी वाराणसी पुरीमें पहुंचे। वहाँ तुमलोग कमल बेचने लगे किन्तु कोई भी उन्हें खरीदता नहीं था। वहीं खड़े-खड़े तुम्हारे कानोमे बाजेकी आवाज सुनायी पड़ी। फिर तुम उसी ओर चल दिये। वहाँ काशीके विख्यात राजा इन्द्रधुम्रकी | सती-साध्वी कन्या चन्द्रावतीने, जो बड़ी सौभाग्यशालिनी
थी, जयन्ती नामक जन्माष्टमीका शुभकारक व्रत किया था। उस स्थानपर तुम बड़े हर्षके साथ गये। वहाँ पहुंचनेपर तुम्हारा चित्त संतुष्ट हो गया। तुमने वहाँ भगवान्के पूजनका विधान देखा। कलशके ऊपर श्रीहरिकी स्थापना करके उनकी पूजा हो रही थी। विशेष
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६३२
• अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
समारोहके साथ भगवान्का पूजन किया गया था, भिन्न- तिथि आती है और किस विधिसे उसका व्रत करना भिन्न पुष्पोंसे उनका शृङ्गार हुआ था । भगवान्की भक्तिके चाहिये? यह मुझे बताइये।
सनत्कुमारजीने कहा-राजन् ! मैं तुम्हें इस व्रतको बताता हूँ; सावधान होकर सुनो। श्रावणमासके' कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथिको यदि रोहिणी नक्षत्रका योग मिल जाय तो उस जन्माष्टमीका नाम 'जयन्ती' होता है। अब मैं इसकी विधिका वर्णन करता हूँ, जैसा कि ब्रह्माजीने मुझे बताया था। उस दिन उपवासका व्रत लेकर काले तिलोंसे मिश्रित जलसे स्नान करे। फिर नवीन कलशकी, जो फूटा-टूटा न हो, स्थापना करे। उसमें पचरल डाल दे। हीरा, मोती, वैदूर्य, पुष्पराग (पुखराज) और इन्द्रनील-ये उत्तम पञ्चरत्न है-ऐसा कात्यायनका कथन है। कलशके ऊपर सोनेका पात्र रखे और सोनेकी बनी हुई नन्दरानी यशोदाको प्रतिमा स्थापित करे। प्रतिमाका भाव यह होना चाहिये'यशोदा अपने पुत्र श्रीकृष्णको स्तन पिलाती हुई मन्द-मन्द मुसकरा रही हैं, श्रीकृष्ण यशोदा मैयाका एक
स्तन तो पी रहे हैं और दूसरा स्तन दूसरे हाथसे पकड़े वशीभूत हो तुमने भी अपनी पत्रीके साथ कमलके हुए हैं। वे माताको ओर प्रेमसे देखकर उन्हें सुख पहुँचा फूलोंसे वहाँ श्रीहरिका पूजन किया तथा पूजासे बचे हुए रहे हैं।' इस प्रकार जैसी अपनी शक्ति हो, उसीके फूलोंको उनके समीप ही बिखेर दिया । तुमने भगवानको अनुसार सुवर्णमय भगवत्प्रतिमाका निर्माण कराये। पुष्पमय कर दिया। इससे उस कन्याको बड़ा संतोष इसके सिवा सोनेकी रोहिणी और चाँदीके चन्द्रमाकी हुआ। वह स्वयं तुम्हें धन देने लगी, किन्तु तुमने नहीं प्रतिमा बनवाये। अंगूठेके बराबर चन्द्रमा हों और चार लिया। तब राजकुमारीने तुम्हें भोजनके लिये निमन्त्रित अंगुलको रोहिणी। भगवान्के कानोंमें कुण्डल और किया; किन्तु उस समय तुमने न तो भोजन स्वीकार किया गलेमें कण्ठा पहनाये । इस प्रकार माताके साथ जगत्पति
और न धन ही लिया। यही पुण्य तुमने पिछले जन्ममें गोविन्दकी प्रतिमा बनवाकर दूध आदिसे स्नान कराये उपार्जित किया था। फिर अपने कर्मके अनुसार तुम्हारी तथा चन्दनसे अनुलेप करे । दो श्वेत वस्त्रोंसे भगवान्को मृत्यु हो गयी। उसी महान् पुण्यके प्रभावसे तुम्हें विमान आच्छादित करके फूलोंकी मालासे उनका शृङ्गार करे। मिला है। राजन् ! पूर्वजन्ममें जो तुम्हारे द्वारा वह पुण्य भाँति-भाँतिके भक्ष्य पदार्थोका नैवेद्य लगाये, नाना हुआ था, उसीका फल इस समय तुम भोग रहे हो। प्रकारके फल अर्पण करे। दीप जलाकर रखे और
हरिश्चन्द्र बोले-मुनिवर ! किस महीनेमें वह फूलोंके मण्डपसे पूजास्थानको सुशोभित करे। विज्ञ
१-यहाँ श्रावणका अर्थ भाद्रपद समझना चाहिये । जहाँ शुक्रपक्षसे मासका आरम्भ होता है वहाँ भाद्रपदका कृष्णपक्ष श्रावणका कृष्णपक्ष समझा जाता है। इन प्रान्तोंमें कृष्णपक्षसे ही महीना आरम्भ होता है।
२-अजमौक्तिकवैदूर्यपुष्परागेन्द्रनीलकम् । पञ्चरलं प्रशस्तं तु इति कात्यायनोऽब्रवीत् ।। (३२ ॥ ३८)
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उत्तरखण्ड ]
. जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा .
६३३
पुरुषोंके द्वारा भक्तिपूर्वक नृत्य, गीत और वाद्य कराये। गया है; ये क्रमशः दुहने, बोने तथा अभ्यास करनेसे इस प्रकार अपने वैभवके अनुसार सब विधान पूर्ण नरकसे उद्धार कर देती हैं।* करके गुरुका पूजन करे, तत्पश्चात् पूजाकी समाप्ति करे। वस्त्रदान करनेवाले पुरुष परलोकके मार्गपर वस्त्रोंसे
महादेवजी कहते हैं-जब इन्द्रके सौ यज्ञ पूर्ण आच्छादित होकर यात्रा करते हैं और जिन्होंने वस्त्रदान हो गये और उत्तम दक्षिणा देकर यज्ञका कार्य समाप्त कर नहीं किया है, उन्हें नंगे ही जाना पड़ता है। अन्नदान दिया गया, उस समय देवराजके मनमें कुछ पूछनेका करनेवाले लोग तृप्त होकर जाते हैं; जो अन्नदान नहीं संकल्प हुआ; अतएव उन्होंने अपने गुरु बृहस्पतिजीसे करते, उन्हें भूखे ही यात्रा करनी पड़ती है। नरकके भयसे इस प्रकार प्रश्न किया।
डरे हुए सभी पितर इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि इन्द्र बोले-भगवन् ! किस दानसे सब और हमारे पुत्रों से जो कोई गया जायगा, वह हमें तारनेवाल सुखकी वृद्धि होती है ? जो अक्षय तथा महान् अर्थका होगा। बहुत-से पुत्रोंकी इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि साधक हो, उसका वर्णन कीजिये।
उनमेंसे एक भी तो गया जायगा अथवा नील वृषका बहस्पतिजीने कहा-इन्द्र ! सोना, वस्त्र, गौ उत्सर्ग करेगा। जो रंगसे लाल हो, जिसकी पूंछके तथा भूमि-इनका दान करनेवाला पुरुष सब पापोंसे अग्रभागमें कुछ पीलापन लिये सफेदी हो और खुर तथा मुक्त हो जाता है। जो भूमिका दान करता है, उसके द्वारा सींगोंका विशुद्ध श्वेत वर्ण हो, वह 'नील वृष' कहलाता सोने, चाँदी, वस्त्र, मणि एवं रनका भी दान हो जाता है। है। पाण्डु रंगको पूँछवाला नील वृष जो जल उछालता जो फालसे जोती हो, जिसमें बीज बो दिया गया हो तथा है, उससे साठ हजार वर्षातक पितर तृप्त रहते हैं। जिसके जहाँ खेती लहरा रही हो, ऐसी भूमिका दान करके मनुष्य सींगमें नदीके किनारेको उखाड़ी हुई मिट्टी लगी होती है, तबतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है, जबतक सूर्यका उसके दानसे पितरगण परम प्रकाशमय चन्द्रलोकका प्रकाश बना रहता है। जीविकाके कष्टसे मनुष्य जो कुछ सुख भोगते हैं। भी पाप करता है, वह गोचर्ममात्र भूमिके दानसे छूट यह पृथ्वी पूर्वकालमें राजा दिलीप, नृग, नहुष तथा जाता है। दस हाथका एक दण्ड होता है, तौस दण्डका अन्यान्य नरेशोंके अधीन थी और पुनः अन्यान्य एक वर्तन होता है और दस वर्तनका एक गोचर्म होता राजाओके अधिकारमे जाती रहेगी। सगर आदि बहुत-से है; यही ब्रह्म-गोचर्मकी भी परिभाषा है। छोटे बछड़ोंको राजा इस पृथ्वीका दान कर चुके है। यह जब जिसके जन्म देनेवाली एक हजार गौएँ जहाँ साँड़ोंके साथ खड़ी अधिकारमें रहती है, तब उसीको इसके दानका फल हो सकें, उतनी भूमिको एक गोचर्म माना गया है। मिलता है। जो अपनी या दूसरेकी दी हुई पृथ्वीको हर गुणवान, तपस्वी तथा जितेन्द्रिय ब्राह्मणको दान देना लेता है; वह विष्ठाका कीड़ा होकर पितरोंसहित नरकमें चाहिये। उस दानका अक्षय फल तबतक मिलता रहता पकाया जाता है। भूमिदान करनेवालेसे बढ़कर पुण्यवान् है, जबतक यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी कायम रहती है। तथा भूमि हर लेनेवालेसे बढ़कर पापी दूसरा कोई नहीं इन्द्र ! जैसे तेलकी बूँद कहीं गिरनेपर शीघ्र ही फैल है। जबतक महाप्रलय नहीं हो जाता, तबतक भूमिदाता जाती है, उसी प्रकार खेतीके साथ किया हुआ भूमिदान ऊर्ध्वलोकमें और भूमिहर्ता नरकमें रहता है। सुवर्ण विशेष विस्तारको प्राप्त होता है। गौ, भूमि और अग्निकी प्रथम संतान है, पृथ्वी विष्णुके अंशसे प्रकट हुई विद्या-इन तीन वस्तुओंके दानको अतिदान बताया है तथा गौएँ सूर्यको कन्याएँ हैं। इसलिये जो सुवर्ण, गौ
•ौण्याहुरतिदानानि गावः पृथ्यो सरस्वती : नरकादुद्धरत्येते अपवापनदोहनात् ।। (३३ ॥ १८) * लोहितो यस्तु वणेन पुच्छाग्ने यस्तु पाण्डुरः । श्वेतः खुरविषाणाभ्यां स नोलो वृष उच्यते ॥ (३२ ॥ २२-२३)।
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. अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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तथा पृथ्वीका दान करता है, वह उनके दानका अक्षय विनाश तो वह करता ही है। ब्राह्मणका धन, ब्रह्माहत्या, फल भोगता है। जो भूमिको न्यायपूर्वक देता और जो दरिद्रका धन, गुरु और मित्रका सुवर्ण-ये सब स्वर्गमें न्यायपूर्वक ग्रहण करता है, वे दोनों ही पुण्यकर्मा हैं; जानेपर भी मनुष्यको पीड़ा पहुंचाते हैं। उन्हें निश्चय ही स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जिन लोगोंने देवश्रेष्ठ इन्द्र ! जो ब्राह्मण श्रोत्रिय, कुलीन, दरिद्र, अन्यायपूर्वक पृथ्वीका अपहरण किया अथवा कराया संतुष्ट, विनयो, वेदाभ्यासी, तपस्वी, ज्ञानी और है, वे दोनों ही प्रकारके मनुष्य अपनी सात पीढ़ियोंका इन्द्रियसंयमी हो, उसे ही दिया हुआ दान अक्षय होता विनाश करते हैं उन्हें सद्गतिसे वंचित कर देते हैं। है। जैसे कच्चे वर्तनमें रखा हुआ दूध, दही, घी अथवा ब्राह्मणका खेत हर लेनेपर कुलकी तीन पीढ़ियोंका नाश मधु दुर्बलताके कारण पात्रको ही छेद देता है, उसी हो जाता है। एक हजार कूप और बावलो बनवानेसे, सौ प्रकार यदि अज्ञानी पुरुष गौ, सुवर्ण, वस्त्र, अत्र, पृथ्वी अश्वमेध करनेसे तथा करोड़ों गौएँ देनेसे भी भूमिहर्ताकी और तिल आदिका दान ग्रहण करता है तो वह काष्ठकी शुद्धि नहीं होती।
भाँति भस्म हो जाता है। किया हुआ शुभ कर्म, दान, तप, स्वाध्याय तथा जो नया पोखरा बनवाता है, अथवा पुरानेको ही जो कुछ भी धर्मसम्बन्धी कार्य है, वह सब खेतकी आधी खुदवाता है, वह समस्त कुलका उद्धार करके स्वर्गअंगुल सीमा हर लेनेसे भी नष्ट हो जाता है। गोतीर्थ लोकमें प्रतिष्ठित होता है। बावली, कुआँ, तडाग और (गौओके चरने और पानी पीने आदिका स्थान), गाँवकी बगीचे पुनः संस्कार (जीर्णोद्धार) करनेपर मोक्षरूप फल सड़क, मरघट तथा गाँवको दबाकर मनुष्य प्रलयकाल- प्रदान करते हैं। इन्द्र ! जिसके जलाशयमें गर्मीकी तक नरकमें पड़ा रहता है।* यदि जीविकाके बिना प्राण मौसमतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम कण्ठतक आ जाये तो भी ब्राह्मणके धनका लोभ नहीं संकटका सामना नहीं करता। देवश्रेष्ठ ! यदि एक दिन करना चाहिये। अग्निकी आँच और सूर्यके तापसे जले भी पानी ठहर जाय तो वह सात पहलेकी और सात हुए वृक्ष आदि पुनः पनपते हैं, राजदण्डसे दण्डित पीछेको पीढ़ियोका उद्धार कर देता है। दीपका प्रकाश मनुष्योंकी अवस्था भी पुनः सुधर जाती है; किन्तु जिनपर दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है और दक्षिणा देनेसे ब्राह्मणोंके शापका प्रहार होता है, वे तो नष्ट ही हो जाते स्मरणशक्ति तथा मेधा (धारणा-शक्ति) को प्राप्त करता हैं। ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाला मनुष्य रौरव है। यदि बलपूर्वक अपहरण की हुई भूमि, गौ तथा नरकमें पड़ता है। केवल विषको ही विष नहीं कहते, स्त्रीको मनुष्य पुनः लौटा न दे तो उसे ब्रह्महत्यारा कहा ब्राह्मणका धन सबसे बड़ा विष कहा जाता है। साधारण जाता है। विष तो एकको ही मारता है, किन्तु ब्राह्मणका धनरूपी इन्द्र ! जो विवाह, यज्ञ तथा दानका अवसर विष बेटों और पोतोका भी नाश कर डालता है। मनुष्य उपस्थित होनेपर उसमें मोहवश विघ्न डालता है, वह लोहे और पत्थरके चूरेको तथा विषको भी पचा सकता मरनेपर कौड़ा होता है। दान करनेसे धन और जीव-रक्षा है; परन्तु तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो ब्राह्मणके करनेसे जीवन सफल होता है। रूप, ऐश्वर्य तथा धनको पचा सके। ब्राहाणके धनसे जो सुख उठाया आरोग्य-ये अहिंसाके फल है, जो अनुभवमें आते हैं। जाता है, देवताके घनके प्रति जो राग पैदा होता है, वह फल-मूलके भोजनसे सम्मान तथा सत्यसे स्वर्गकी प्राप्ति धन समूचे कुलके नाशका कारण होता है तथा अपना होती है। मरणान्त उपवाससे राज्य और सर्वत्र सुख
* कृतं दतं तपोऽधीत यत्किञ्चिद्धर्मसंस्थितम् । अर्धाङ्गलस्य सीमाया हरणेन प्रणश्यति ॥ गोतीर्थ ग्रामरथ्यां च श्मशान ग्राममेव च । संपीड्य नरकं याति यावदाभूतसंप्रथम् ॥ (३३ । ३८-३९)
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उत्तरखण्ड ]
• महाराज दशरथका शानका सतुष्ट करक लाकका कल्याण करना •
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उपलब्ध होता है। तीनों काल स्नान करनेवाला मनुष्य अभीष्ट गतिकी प्राप्ति होती है, जो पवित्र धर्मका आचरण रूपवान् होता है । वायु पीकर रहनेवाला यज्ञका फल पाता करता है, वह स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है । जो द्विजश्रेष्ठ है। जो उपवास करता है, वह चिरकालतक स्वर्गमें बृहस्पतिजीके इस पवित्र मतका स्वाध्याय करते हैं, उनकी निवास करता है। जो सदा भूमिपर शयन करता है, उसे आयु, विद्या, यश और बल-ये चार बातें बढ़ती हैं।
महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
नारदजीने पूछा-सुरश्रेष्ठ ! शनैश्वरकी दी हुई देखकर शनि कुछ भयभीत हो हंसते हुए पीड़ा कैसे दूर होती है? यह मुझे बताइये। बोले- 'राजेन्द्र ! तुम्हारा महान् पुरुषार्थ शत्रुको भय महादेवजी बोले-देवर्षे ! सुनो, ये शनैश्चर
पाय देवताओंमें प्रसिद्ध कालरूपी महान् ग्रह हैं। इनके मस्तकपर जटा है, शरीरमे बहुत-से रोएँ हैं तथा ये दानवोको भय पहुँचानेवाले हैं। पूर्वकालकी बात है, रघुवंशमें दशरथ नामके एक बहुत प्रसिद्ध राजा हो गये हैं। वे चक्रवर्ती सम्राट्, महान् वौर तथा सातों द्वीपोंके स्वामी थे। उन दिनों ज्योतिषियोंने यह जानकर कि शनैश्चर कृत्तिकाके अन्तमें जा पहुंचे हैं, राजाको सूचित किया'महाराज ! इस समय शनि रोहिणीका भेदन करके आगे बढ़ेंगे; यह अत्यन्त उप शाकटभेद नामक योग है, जो देवताओं तथा असुरोंके लिये भी भयंकर है। इससे बारह वर्षांतक संसारमें अत्यन्त भयानक दुर्भिक्ष फैलेगा।' यह सुनकर राजाने मन्त्रियोंके साथ विचार किया और वसिष्ठ आदि ब्राह्मणोंसे पूछा-द्विजवरो ! बताइये, इस संकटको रोकनेका यहाँ कौन-सा उपाय है?'
वसिष्ठजी बोले-राजन् ! यह रोहिणी प्रजापति ब्रह्माजीका नक्षत्र है, इसका भेद हो जानेपर प्रजा कैसे रह पहुंचानेवाला है। मेरी दृष्टि में आकर देवता, असुर, सकती है। ब्रह्मा और इन्द्र आदिके लिये भी यह योग मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग-सब भाम हो जाते असाध्य है।
है; किन्तु तुम बच गये। अतः महाराज ! तुम्हारे तेज और महादेवजी कहते है-नारद ! इस बातपर विचार पौरुषसे मैं संतुष्ट हूँ। वर मांगो; तुम अपने मनसे जो कुछ करके राजा दशरथने मनमें महान् साहसका संग्रह किया चाहोगे, उसे अवश्य दूंगा।'
और दिव्यास्त्रीसहित दिव्य धनुष लेकर आरूढ हो बड़े दशरथने कहा-शनिदेव ! जबतक नदियाँ और वेगसे वे नक्षत्र-मण्डलमें गये। रोहिणीपृष्ठ सूर्यसे सवा समुद्र है, जबतक सूर्य और चन्द्रमासहित पृथ्वी कायम है, लाख योजन ऊपर है; वहाँ पहुँचकर राजाने धनुषको तबतक आप रोहिणीका भेदन करके आगे न बढ़े। साथ कानतक खींचा और उसपर संहाराषका संधान किया। ही कभी बारह वर्षोंतक दुर्भिक्ष न करें। वह अस्त्र देवता और असुरोंके लिये भयंकर था। उसे शनि बोले-एवमस्तु ।
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. अर्थयस्व वोकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
महादेवजी कहते है-ये दोनों वर पाकर राजा हैं। आपको सदा-सर्वदा नमस्कार है। ज्ञाननेत्र ! आपको बड़े प्रसन्न हुए, उनके शरीरमें रोमाश हो आया। वे प्रणाम है। कश्यपनन्दन सूर्यके पुत्र शनिदेव ! आपको रथके ऊपर धनुष डाल हाथ जोड़ शनिदेवकी इस प्रकार नमस्कार है। आप संतुष्ट होनेपर राज्य दे देते हैं और रुष्ट स्तुति करने लगे।
होनेपर उसे तत्क्षण हर लेते हैं। देवता, असर, मनुष्य, दशरथ बोले-जिनके शरीरका वर्ण कृष्ण, नील सिद्ध, विद्याधर और नाग-ये सब आपकी दृष्टि पड़नेतथा भगवान् शङ्करके समान है, उन शनिदेवको नमस्कार पर समूल नष्ट हो जाते हैं। देव ! मुझपर प्रसन्न होइये। है। जो जगतके लिये कालाग्नि एवं कृतान्तरूप हैं, उन मैं वर पानेके योग्य हैं और आपकी शरणमें आया हूँ।* शनैश्चरको बारम्बार नमस्कार है। जिनका शरीर कङ्काल है महादेवजी कहते हैं-नारद ! राजाके इस प्रकार तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन स्तुति करनेपर ग्रहोंके राजा महाबलवान् सूर्यपुत्र शनैश्चर शनिदेवको प्रणाम है । जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पौठमें सटा बोले-उत्तम व्रतके पालक राजेन्द्र ! तुम्हारी इस स्तुतिसे हुआ पेट और भयानक आकार हैं, उन शनैश्चरदेवको मैं संतुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं नमस्कार है। जिनके शरीरका ढाँचा फैला हुआ है, जिनके तुम्हें अवश्य दूंगा। रोएँ बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूखे शरीरवाले दशरथ बोले-सूर्यनन्दन ! आजसे आप देवता, हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरूप हैं, उन शनिदेवको असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी बारम्बार प्रणाम है। शने ! आपके नेत्र खोखलेके समान प्राणीको पीड़ा न दें। गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र, शनिने कहा-राजन् ! देवता, असुर, मनुष्य, भीषण और विकराल हैं। आपको नमस्कार है। सिद्ध, विद्याधर तथा राक्षस-इनमेंसे किसीके भी मृत्युबलीमुख ! आप सब कुछ भक्षण करनेवाले हैं। आपको स्थान, जन्मस्थान अथवा चतुर्थ स्थानमें मैं रहूँ तो उसे नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्करपुत्र ! अभय देनेवाले मृत्युका कष्ट दे सकता हूँ। किन्तु जो श्रद्धासे युक्त, पवित्र देवता ! आपको प्रणाम है। नीचेकी ओर दृष्टि रखनेवाले और एकाग्रचित्त हो मेरी लोहमयी सुन्दर प्रतिमाका शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तकं ! आपको शमीपत्रोंसे पूजन करके तिलमिश्रित उड़द-भात, लोहा, प्रणाम है। मन्दगतिसे चलनेवाले शनैश्चर ! आपका काली गौ या काला वृषभ ब्राह्मणको दान करता है तथा प्रतीक तलवारके समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। विशेषतः मेरे दिनको इस स्तोत्रसे मेरी पूजा करता है, आपने तपस्यासे अपने देहको दग्ध कर दिया है; आप पूजनके पश्चात् भी हाथ जोड़कर मेरे स्तोत्रका जप करता सदा योगाभ्यासमें तत्पर, भूखसे आतुर और अतृप्त रहते है, उसे मैं कभी भी पीड़ा नहीं दूंगा। गोचरमें, जन्मलग्नमें,
* नमः कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च नमः कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नमः ।। नमो निमासदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च। नमो विशालनेत्राय शुष्कोदरभयाकृते ॥ नमः पुष्कलगात्राय स्थूलमोम्णे च वै पुनः । नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते॥ नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमः । नमो घोराय औद्राय भीषणाय करालिने ॥:, . नमस्ते सर्वभक्षाय बलौमुस नमोऽस्तु ते। सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करऽभयदाय च ॥ अश्रोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते। नमो मन्दगते तुभ्यं निनिशाय नमोऽस्तु ते॥ तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च । नमो नित्य क्षुधार्ताय अतृप्ताय च नमः ।। ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मजसूनवे । तुष्टो ददासि वै राज्य रुष्टो हरसि तत्क्षणात्।। देवासुरमनुष्याच सिद्धविद्याधरोरगाः । त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः । प्रसादं कुरु मे देव वराहोऽहमुपागतः ।।
(३४ । २७-३५)
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उत्तरखण्ड
• त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा •
६३५
दशाओं तथा अन्तर्दशाओंमें ग्रह-पौड़ाका निवारण करके वे शनैश्चरको नमस्कार करके उनकी आज्ञा ले रथपर मैं सदा उसको रक्षा करूंगा। इसी विधानसे सारा संसार सवार हो बड़े वेगसे अपने स्थानको चले गये। उन्होंने पीड़ासे मुक्त हो सकता है। रघुनन्दन ! इस प्रकार मैंने कल्याण प्राप्त कर लिया था। जो शनिवारको सबेरे युक्तिसे तुम्हें वरदान दिया है।
उठकर इस स्तोत्रका पाठ करत है तथा पाठ होते समय महादेवजी कहते हैं-नारद ! वे तीनों वरदान जो श्रद्धापूर्वक इसे सुनता है, वह मनुष्य पापसे मुक्त हो पाकर उस समय राजा दशरथने अपनेको कृतार्थ माना। स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
...
. त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
नारदजी बोले-सर्वेश्वर ! अब आप विशेष त्रिस्पृशा एकादशी हो तो वह करोड़ों पापोंका नाश रूपसे त्रिस्पशा नामक व्रतका वर्णन कीजिये, जिसे करनेवाली है। विप्रवर ! और पापोंकी तो बात ही क्या है, सुनकर लोग तत्काल कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। त्रिस्पशाके व्रतसे ब्रह्महत्या आदि महापाप भी नष्ट हो जाते
महादेवजीने कहा-विद्वन् ! पूर्वकालमें सम्पूर्ण हैं। प्रयागमें मृत्यु होनेसे तथा द्वारकामें श्रीकृष्णके निकट लोकोंके हितकी इच्छासे सनत्कुमारजीने व्यासजीके प्रति गोमतीमें स्नान करनेसे शाश्वत मोक्ष प्राप्त होता है, परन्तु इस व्रतका वर्णन किया था। यह व्रत सम्पूर्ण पाप- त्रिस्पृशाका उपवास करनेसे घरपर भी मुक्ति हो जाती है। राशिका शमन करनेवाला और महान् दुःखोका विनाशक इसलिये विप्रवर नारद ! तुम मोक्षदायिनी त्रिस्पृशाके है। विप्र! त्रिस्पृशा नामक महान् व्रत सम्पूर्ण व्रतका अवश्य अनुष्ठान करो। विप्र ! पूर्वकालमें कामनाओंका दाता माना गया है। ब्राह्मणोंके लिये तो भगवान् माधवने प्राची सरस्वतीके तटपर गङ्गाजीके प्रति मोक्षदायक भी है। महामुने ! जो प्रतिदिन 'त्रिस्पृशा'का कृपापूर्वक त्रिस्मशा-व्रतका वर्णन किया था। ... नामोच्चारण करता है, उसके समस्त पापोंका क्षय हो जाता गङ्गाने पूछा-हषीकेश ! ब्रह्महत्या आदि करोड़ो है। देवाधिदेव भगवान्ने मोक्ष-प्राप्तिके लिये इस व्रतको पाप-राशियोंसे युक्त मनुष्य मेरे जलमें स्नान करते हैं, सृष्टि की है, इसीलिये इसे 'वैष्णवी तिथि' कहते हैं। उनके पापों और दोषोंसे मेरा शरीर कलुषित हो गया है। इन्द्रियोंका निग्रह न होनेसे मनमें स्थिरता नहीं आती देव ! गरुडध्वज ! मेरा वह पातक कैसे दूर होगा? [मनकी यह अस्थिरता ही मोक्षमें बाधक है] । ब्रह्मन्! प्राचीमाधव बोले-शुभे ! तुम त्रिस्पृशाका व्रत जो ध्यान-धारणासे वर्जित, विषयपरायण तथा काम- करो। यह सौ करोड़ तीर्थोंसे भी अधिक महत्त्वशालिनी भोगमें आसक्त है, उनके लिये त्रिस्पशा ही मोक्षदायिनी है। करोड़ों यज्ञ, व्रत, दान, जप, होम और सांख्ययोगसे है। मुनिश्रेष्ठ ! पूर्वकालमें जब चक्रधारी श्रीविष्णुके द्वारा भी इसकी शक्ति बढ़ी हुई है। यह धर्म, अर्थ, काम और क्षीरसागरका मन्थन हो रहा था, उस समय चरणोंमें पड़े मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थोंको देनेवाली है। नदियोंमें श्रेष्ठ हुए देवताओंके मध्यमें ब्रह्माजीसे मैंने ही इस व्रतका गङ्गा ! त्रिस्पृशा-व्रत जिस-किसी महीनेमें भी आये तथा वर्णन किया था। जो लोग विषयोंमें आसक्त रहकर भी वह शुक्लपक्षमें हो या कृष्णपक्षमें, उसका अनुष्ठान करना त्रिस्मशाका व्रत करेंगे, उनके लिये भी मैंने मोक्षका ही चाहिये। उसे करके तुम पापसे मुक्त हो जाओगी। अधिकार दे रखा है। नारद ! तुम इस व्रतका अनुष्ठान जब एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रात्रिके अन्तिम करो, क्योंकि त्रिस्पृशा मोक्ष देनेवाली है। महामुने! प्रहरमें त्रयोदशी भी हो तो उसे 'त्रिस्पृशा' समझना बड़े-बड़े मुनियोंके समुदायने इस व्रतका पालन किया चाहिये। उसमें दशमीका योग नहीं होता। देवनदी ! है। यदि कार्तिक शुक्लपक्षमें सोमवार या बुधवारसे युक्त एकादशी-व्रतमें दशमी-वेधका दोष मैं नहीं क्षमा करता।
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• अर्वयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
ऐसा जानकर दशमीयुक्त एकादशीका व्रत नहीं करना इस प्रकार विधिवत् पूजा करके विधिके अनुसार चाहिये। उसे करनेसे करोड़ों जन्मोंके किये हुए पुण्य अर्घ्य देना चाहिये। जलयुक्त शङ्खके ऊपर सुन्दर तथा संतानका नाश होता है। वह पुरुष अपने वंशको नारियल रखकर उसमें रक्षासूत्र लपेट दे। फिर दोनों स्वर्गसे गिराता और रौरव आदि नरकोंमें पहुँचाता है। हाथोंमें वह शङ्ख आदि लेकर निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़ेअपने शरीरको शुद्ध करके मेरे दिन-एकादशीका व्रत स्मृतो हरसि पापानि यदि नित्यं जनार्दन ।। करना चाहिये। द्वादशी मुझे अत्यन्त प्रिय है, मेरी दुःस्वप्नं दुर्निमित्तानि मनसा दुर्विचिन्तितम्। आज्ञासे इसका व्रत करना उचित है।
नारकं तु भयं देव भयं दुर्गतिसंभवम् ।। गङ्गा बोली-जगन्नाथ ! आपके कहनेसे यन्त्रम स्यान्महादेव ऐहिकं पारलौकिकम्। मैं त्रिस्पृशाका व्रत अवश्य करूंगी, आप मुझे इसकी तेन देवेश मां रक्ष गृहाणार्घ्य नमोऽस्तु ते॥ विधि बताइये।
सदा भक्तिर्ममैवास्तु दामोदर तवोपरि । ८५ प्राचीमाधवने कहा-सरिताओमे उत्तम गङ्गा
(३५। ६९-७२) देवी ! सुनो, मैं त्रिस्पृशाका विधान बताता हूँ। इसका 'जनार्दन ! यदि आप सदा स्मरण करनेपर मनुष्यके श्रवण मात्र करनेसे भी मनुष्य पातकोंसे मुक्त हो जाता है। सब पाप हर लेते हैं तो देव ! मेरे दुःस्वप्न, अपशकुन, अपने वैभवके अनुसार एक या आधे पल सोनेकी मेरी मानसिक दुचिन्ता, नारकीय भय तथा दुर्गतिजन्य त्रास प्रतिमा बनवानी चाहिये । इसके बाद एक ताँबेके पात्रको हर लीजिये। महादेव ! देवेश्वर ! मेरे लिये इहलोक तथा तिलसे भरकर रखे और जलसे भरे हुए सुन्दर कलशको परलोकमें जो भय हैं, उनसे मेरी रक्षा कीजिये तथा यह स्थापना करे, जिसमें पञ्चरत्र मिलाये गये हो। कलशको अर्घ्य ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार है। दामोदर ! फूलोको मालाओसे आवेष्टित करके कपूर आदिसे सदा आपमें ही मेरी भक्ति बनी रहे।' सुवासित करे। इसके बाद भगवान् दामोदरको स्थापित तत्पश्चात् धूप, दीप और नैवेद्य अर्पण करके करके उन्हें स्नान कराये और चन्दन चढ़ाये। फिर भगवान्की आरती उतारे । उनके मस्तकपर शङ्ग घुमाये । भगवान्को वस्त्र धारण कराये। तदनन्तर पुराणोक्त यह सब विधान पूरा करके सद्गुरुकी पूजा करे। उन्हें सामयिक सुन्दर पुष्प तथा कोमल तुलसीदलसे सुन्दर वस्त्र, पगड़ी तथा अंगा दे। साथ ही जूता, छत्र, भगवानकी पूजा करे। उन्हें छत्र और उपानह (जूतियाँ) अंगूठी, कमण्डलु, भोजन, पान, सप्तधान्य तथा दक्षिणा अर्पण करे ! मनोहर नैवेद्य और बहुत-से सुन्दर-सुन्दर दे। गुरु और भगवानको पूजाके पश्चात् श्रीहरिके समीप फलोंका भोग लगाये। यज्ञोपवीत तथा नूतन एवं सुदृढ जागरण करे। जागरणमें गीत, नृत्य तथा अन्यान्य उत्तरीय वस्त्र चढ़ाये। सुन्दर ऊँची बाँसकी छड़ी भी भेट उपचारोंका भी समावेश रहना चाहिये । तदनन्तर रात्रिके करे। 'दामोदराय नमः' कहकर दोनों चरणोंकी, अन्तमें विधिपूर्वक भगवानको अर्घ्य दे नान आदि कार्य 'माधवाय नमः' से दोनों घुटनोंकी, 'कामप्रदाय नमः'से करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेके पश्चात् स्वयं भोजन करे। गुह्मभागकी तथा 'वामनमूर्तये नमः' कहकर कटिकी महादेवजी कहते हैं-ब्रह्मन् ! 'त्रिस्पृशा' व्रतका पूजा करे। 'पद्मनाभाय नमः'से नाभिकी, 'विश्वमूर्तये यह अद्भुत उपाख्यान सुनकर मनुष्य गङ्गातीर्थमें स्नान नमः'से पेटकी, 'ज्ञानगम्याय नमः' से हृदयको, करनेका पुण्य-फल प्राप्त करता है । त्रिस्पृशाके उपवाससे 'वैकुण्ठगामिने नमः' से कण्ठकी, 'सहस्रबाहवे नमः' हजार अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञोंका फल मिलता से बाहुओंकी, 'योगरूपिणे नमः' से नेत्रोकी, है। यह व्रत करनेवाला पुरुष पितृकुल, मातृकुल तथा 'सहस्रशीणे नमः' से सिरकी तथा 'माधवाय नमः' पत्नीकुलके सहित विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। कहकर सम्पूर्ण अङ्गोकी पूजा करनी चाहिये। करोड़ों तीर्थोंमें जो पुण्य तथा करोड़ों क्षेत्रोंमें जो फल
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उत्तरखण्ड]
• पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य . ............................................................................................. मिलता है, वह त्रिस्पृशाके उपवाससे मनुष्य प्राप्त कर प्रकार त्रिस्पृशा सब व्रतोंमें उत्तम बतायी गयी है। जिसने लेता है। द्विजश्रेष्ठ ! जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इसका व्रत किया, उसने सम्पूर्ण व्रतोंका अनुष्ठान कर अथवा अन्य जातिके लोग भगवान् श्रीकृष्णमें मन लिया। पूर्वकालमें स्वयं ब्रह्माजीने इस व्रतको किया था, लगाकर इस व्रतको करते हैं, वे सब इस धराधामको तदनन्तर अनेकों ऋषियोंने भी इसका अनुष्ठान किया; छोड़नेपर मुक्त हो जाते हैं। इसमें द्वादशाक्षर मन्त्रका जप फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। नारद ! यह त्रिस्पृशा करना चाहिये। यह मन्त्रोंमें मन्त्रराज माना गया है। इसी मोक्ष देनेवाली है।
। पक्षवर्थिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
नारदजीने पूछा-महादेव ! 'पक्षवर्धिनी' घुटनोंकी, 'ज्ञानगम्याय नमः' से दोनों जाँघोंकी, नामवाली तिथि कैसी होती है, जिसका व्रत करनेसे 'ज्ञानप्रदाय नमः' से कटिभागकी, 'विश्वनाथाय नमः मनुष्य महान् पापसे छुटकारा पा जाता है? से उदरकी, 'श्रीधराय नमः'से हृदयकी, 'कौस्तुभ
श्रीमहादेवजी बोले-यदि अमावास्या अथवा कण्ठाय नमः'से कण्ठकी, 'क्षत्रान्तकारिणे नमः' से पूर्णिमा साठ दण्डकी होकर दिन-रात अविकल रूपसे दोनों बाँहोंकी, 'व्योममूळ नमः' से ललाटकी तथा रहे और दूसरे दिन प्रतिपदमें भी उसका कुछ अंश चला 'सर्वरूपिणे नमः' से सिरकी पूजा करनी चाहिये। इसी गया हो तो वह पक्षवर्धिनी' मानी जाती है। उस पक्षको प्रकार भिन्न-भिन्न अस्त्रोंका भी उनके नाममन्त्रद्वारा पूजन एकादशीका भी यही नाम है, वह दस हजार अश्वमेध करना उचित है। अन्तमें "दिव्यरूपिणे नमः' कहकर यज्ञोके समान फल देनेवाली होती है। अब उस दिन की भगवान्के सम्पूर्ण अङ्गोकी पूजा करनी चाहिये। जानेवाली पूजाविधिका वर्णन करता हूँ, जिससे भगवान् इस तरह विधिवत् पूजन करके विद्वान् पुरुष सुन्दर लक्ष्मीपतिको संतोष प्राप्त होता है। सबसे पहले जलसे नारियलके द्वारा चक्रधारी देवदेव श्रीहरिको अर्घ्य प्रदान भरे हुए कलशकी स्थापना करनी चाहिये। कलश नवीन करे। इस अर्घ्यदानसे ही व्रत पूर्ण होता है। अर्घ्यदानका हो-फूटा-टूटा न हो और चन्दनसे चर्चित किया गया मन्त्र इस प्रकार हैहो। उसके भीतर पशरत्न डाले गये हों तथा वह कलश संसारार्णवमग्न भो मामुद्धर जगत्पते । फूलकी मालाओंसे आवृत हो । उसके ऊपर एक ताँबेका त्वमीशः सर्वलोकानां त्वं साक्षाच जगत्पतिः ॥ पात्र रखकर उसमें गेहूँ भर देना चाहिये। उस पात्रमें गृहाणार्य मया दत्तं पद्मनाभ नमोऽस्तु ते। भगवान्के सुवर्णमय विग्रहकी स्थापना करे। जिस
(३८ । १४-१५) मासमे पक्षवर्धिनी तिथि पड़ी हो, उसीका नाम 'जगदीश्वर ! मैं संसारसागरमें डूब रहा हूँ, मेरा भगवद्विग्रहका भी नाम समझना चाहिये । जगत्के स्वामी उद्धार कीजिये। आप सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर तथा साक्षात् देवेश्वर जगन्नाथका स्वरूप अत्यन्त मनोहर बनवाना जगत्पति परमेश्वर हैं। पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। चाहिये। फिर विधिपूर्वक पचामृतसे भगवान्को नहलाना मेरा दिया हुआ अर्घ्य स्वीकार कीजिये।' तथा कुङ्कम, अरगजा और चन्दनसे अनुलेप करना तत्पश्चात् भगवान् केशवको भक्तिपूर्वक भांतिचाहिये। फिर दो वस्त्र अर्पण करने चाहिये; उनके साथ भाँतिके नैवेद्य अर्पण करे, जो मनको अत्यन्त प्रिय छत्र और जूते भी हों। इसके बाद कलशपर विराजमान लगनेवाले और मधुर आदि छहों रसोंसे युक्त हों। इसके देवेश्वर श्रीहरिकी पूजा आरम्भ करे। 'पद्मनाभाय नमः' बाद भगवानको भक्तिके साथ कर्पूरयुक्त ताम्बूल निवेदन कहकर दोनों चरणोंकी, 'विश्वमूर्तये नमः' बोलकर दोनों करे। घी अथवा तिलके तेलसे दीपक जलाकर रखे।
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૪૦
• अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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यह सब करनेके पश्चात् गुरुकी पूजा करे। उन्हें वस्त्र, पगड़ी तथा जामा दे। अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा भी दे। फिर भोजन और ताम्बूल निवेदन करके आचार्यको संतुष्ट करे। निर्धन पुरुषोंको भी यथाशक्ति प्रयत्नपूर्वक पक्षवर्धिनी एकादशीका व्रत करना चाहिये तदनन्तर गीत, नृत्य, पुराण पाठ तथा हर्षके साथ रात्रिमें जागरण करे।
जो मनीषी पुरुष पक्षवर्धिनी एकादशीका माहात्म्य श्रवण करते हैं, उनके द्वारा सम्पूर्ण व्रतका अनुष्ठान हो जाता है । पञ्चाग्निसेवन तथा तीर्थो में साधना करनेसे जो पुण्य होता है, वह श्रीविष्णुके समीप जागरण करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। पक्षवर्धिनी एकादशी परम पुण्यमयी तथा सब पापों का नाश करनेवाली है। ब्रह्मन् ! यह उपवास करनेवाले मनुष्योंकी करोड़ों हत्याओंका भी विनाश कर डालती है। मुने! पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठ, भरद्वाज, ध्रुव तथा राजा अम्बरीषने भी इसका व्रत किया था। यह तिथि श्रीविष्णुको अत्यन्त प्रिय है। यह काशी तथा द्वारकापुरीके समान पवित्र है। भक्त पुरुषके उपवास करनेपर यह उसे मनोवाञ्छित फल प्रदान करती है। जैसे सूर्योदय होनेपर तत्काल अन्धकारका नाश हो जाता है, उसी प्रकार पक्षवर्धिनीका व्रत करनेसे पापराशि नष्ट हो जाती है।
नारद ! अब मैं एकादशीकी रातमें जागरण करनेका माहात्म्य बतलाऊँगा, ध्यान देकर सुनो भक्त पुरुषको चाहिये कि एकादशी तिथिको रात्रिके समय भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका पूजन करके वैष्णवोंके साथ उनके सामने जागरण करे। जो गीत, वाद्य, नृत्य, पुराण-पाठ, धूप दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दनानुलेप, फल, अर्घ्य, श्रद्धा, दान, इन्द्रियसंयम, सत्यभाषण तथा शुभकर्मके अनुष्ठानपूर्वक प्रसन्नताके साथ श्रीहरिके समक्ष जागरण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान्का प्रिय होता है। जो विद्वान् मनुष्य भगवान् विष्णुके समीप जागरण करते, श्रीकृष्णकी भावना करते हुए कभी नींद नहीं लेते तथा मन-ही-मन बारम्बार श्रीकृष्णका नामोच्चारण करते हैं, उन्हें परम धन्य समझना चाहिये। विशेषतः एकादशीकी रातमें जागनेपर
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
तो वे और भी धन्यवादके पात्र हैं। जागरणके समय एक क्षण गोविन्दका नाम लेनेसे व्रतका चौगुना फल होता है, एक पहरतक नामोच्चारणसे कोटिगुना फल मिलता है और चार पहरतक नामकीर्तन करनेसे असीम फलकी प्राप्ति होती है। श्रीविष्णुके आगे आधे निमेष भी जागनेपर कोटिगुना फल होता है, उसकी संख्या नहीं है। जो नरश्रेष्ठ भगवान् केशवके आगे नृत्य करता है, उसके पुण्यका फल जन्मसे लेकर मृत्युकालतक कभी क्षीण नहीं होता। महाभाग ! प्रत्येक प्रहरमें विस्मय और उत्साहसे युक्त हो पाप तथा आलस्य आदि छोड़कर निर्वेदशून्य हृदयसे श्रीहरिके समक्ष नमस्कार और नीराजनासे युक्त आरती उतारनी चाहिये जो मनुष्य एकादशीको भक्तिपूर्वक अनेक गुणोंसे युक्त जागरण करता है, वह फिर इस पृथ्वीपर जन्म नहीं लेता। जो धनकी कंजूसी छोड़कर पूर्वोक्त प्रकारसे एकादशीको भक्तिसहित जागरण करता है, वह परमात्मामें लीन होता है।
1
जो भगवान् विष्णुके लिये जागरणका अवसर प्राप्त होनेपर उसका उपहास करता है, वह साठ हजार वर्षोंतक विष्ठाका कोड़ा होता है। प्रतिदिन वेद-शास्त्रमें परायण तथा यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला ही क्यों न हो, यदि एकादशीकी रातमें जागरणका समय आनेपर उसकी निन्दा करता है तो उसका अधःपतन होता है। जो मेरी (शिवकी) पूजा करते हुए विष्णुकी निन्दामें तत्पर रहता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंके साथ नरकमें पड़ता है। विष्णु ही शिव हैं और शिव ही विष्णु हैं। दोनों एक ही मूर्तिकी दो झाँकियोंके समान स्थित है, अतः किसी प्रकार भी इनकी निन्दा नहीं करनी चाहिये। यदि जागरणके समय पुराणकी कथा बाँचनेवाला कोई न हो तो नाच-गान कराना चाहिये। यदि कथावाचक मौजूद हों तो पहले पुराणका ही पाठ होना चाहिये। वत्स ! श्रीविष्णुके लिये जागरण करनेपर एक हजार अश्वमेध तथा दस हजार वाजपेय यज्ञोंसे भी करोड़गुना पुण्य प्राप्त होता है। श्रीहरिकी प्रसन्नताके लिये जागरण करके मनुष्य पिता, माता तथा पत्नी - तीनोंके कुलोंका उद्धार कर देता है।
यदि एकादशीके व्रतका दिन दशमीसे विद्ध हो तो
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उत्तरखण्ड]
. पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य ,
६४१
श्रीहरिका पूजन, जागरण और दान आदि सब व्यर्थ होता माना गया है। जिस जागरणमें शास्त्रकी चर्चा, है-ठीक उसी तरह, जैसे कृतघ्न मनुष्योंके साथ किया सात्त्विक नृत्य, संगीत, वाद्य, ताल, तैलयुक्त दीपक, हुआ नेकीका बर्ताव व्यर्थ हो जाता है। जो वेधरहित कीर्तन, भक्तिभावना, प्रसन्नता, संतोषजनकता, समुदायको एकादशीको जागरण करते हैं, उनके बीचमें साक्षात् उपस्थिति तथा लोगोंके मनोरञ्जनका सात्त्विक साधन हो, श्रीहरि संतुष्ट होकर नृत्य करते हैं। जो श्रीहरिके लिये वह उक्त बारह गुणोंसे युक्त जागरण भगवान्को बहुत नृत्य, गीत और जागरण करता है, उसके लिये प्रिय है। शुक्र और कृष्ण दोनों ही पक्षोंकी एकादशीको ब्रह्माजीका लोक, मेरा कैलास-धाम तथा भगवान् प्रयत्नपूर्वक जागरण करना चाहिये। नारद ! परदेशमें श्रीविष्णुका वैकुण्ठधाम-सब-के-सब निश्चय ही जानेपर मार्गका थका-माँदा होनेपर भी जो द्वादशीको सुलभ हैं। जो स्वयं श्रीहरिके लिये जागरण करते हुए भगवान् वासुदेवके निमित्त किये जानेवाले जागरणका और लोगोंको भी जगाये रखता है, वह विष्णुभक्त पुरुष नियम नहीं छोड़ता, वह मुझे विशेष प्रिय है। जो अपने पितरोंके साथ वैकुण्ठलोकमें निवास करता है। एकादशीके दिन भोजन कर लेता है, उसे पशुसे भी जो श्रीहरिके लिये जागरण करनेकी लोगोंको सलाह देता गया-बीता समझना चाहिये; वह न तो शिवका उपासक है, वह मनुष्य साठ हजार वर्षातक श्वेतद्वीपमें निवास है न सूर्यका, न देवीका भक्त है और न गणेशजीका । जो करता है। नारद ! मनुष्य करोड़ों जन्मोंमें जो पाप सञ्चित एकादशीको जागरण करते हैं, उनका बाहर-भीतर यदि करता है, वह सब श्रीहरिके लिये एक रात जागरण करोड़ों पापोंसे घिरा हो तो भी वे मुक्त हो जाते है। करनेपर नष्ट हो जाता है। जो शालग्राम-शिलाके समक्ष वेधरहित द्वादशीका व्रत और श्रीविष्णुके लिये किया जागरण करते हैं, उन्हें एक-एक पहरमें कोटि-कोटि जानेवाला जागरण यमदतोंका मानमर्दन करनेवाला है। तीर्थोके सेवनका फल प्राप्त होता है। जागरणके लिये मुनिश्रेष्ठ ! एकादशीको जागरण करनेवाले मनुष्य भगवान्के मन्दिरमें जाते समय मनुष्य जितने पग चलता अवश्य मुक्त हो जाते हैं। है, वे सभी अश्वमेध यज्ञके समान फल देनेवाले होते हैं। जो रातको भगवान् वासुदेवके समक्ष जागरणमें पृथ्वीपर चलते समय दोनों चरणोंपर जितने धूलिकण प्रवृत्त होनेपर प्रसन्नचित्त हो ताली बजाते हुए नृत्य करता, गिरते हैं, उतने हजार वर्षांतक जागरण करनेवाला पुरुष नाना प्रकारके कौतुक दिखाते हुए मुखसे गीत गाता, दिव्यलोकमें निवास करता है। .. . वैष्णवजनोंका मनोरञ्जन करते हुए श्रीकृष्ण-चरितका
इसलिये प्रत्येक द्वादशीको जागरणके लिये अपने पाठ करता, रोमाञ्चित होकर मुखसे बाजा बजाता तथा घरसे भगवान् विष्णुके मन्दिर में जाना चाहिये। इससे स्वेच्छानुसार धार्मिक आलाप करते हुए भाँति-भांतिके कलिमलका विनाश होता है। दूसरोंकी निन्दामें संलग्न नृत्यका प्रदर्शन करता है, वह भगवान्का प्रिय है। इन होना, मनका प्रसन्न न रहना, शास्त्रचर्चाका न होना, भावोंके साथ जो श्रीहरिके लिये जागरण करता है, उसे संगीतका अभाव, दीपक न जलाना, शक्तिके अनुसार नैमिष तथा कोटितीर्थका फल प्राप्त होता है। जो पूजाके उपचारोंका न होना, उदासीनता, निन्दा तथा शान्तचित्तसे श्रीहरिको धूप-आरती दिखाते हुए रातमें कलह-इन दोषोंसे युक्त नौ प्रकारका जागरण अधम जागरण करता है, वह सात द्वीपोंका अधिपति होता है।
* परापवादसंयुक्त मनःप्रसादवर्जितम् । शास्त्रहीनमगान्धर्व यथा दीपविवर्जितम् ॥
शवल्योपचाररहितमुदासीन सनिन्दनम्। कलियुक्त विशेषेण जागरं नवधाऽधमम्॥ (३९.५३-५४) + सशास्त्रं जागरं यच्च मृत्यगन्धर्वसंयुतम्। सवाद्य तालसंयुक्त सदीप मधुभिर्युतम् ।। उचारैस्तु समायुक्तं यथोक्तैर्भक्तिभावितैः । प्रसन्नं तुष्टिजनन समून लोकरञ्जनम् ।। गुणैदिशभियुक्त जागरं माधवप्रियम् । कर्तव्यं तत् प्रयत्नेन पक्षयोः शुक्रकृष्णयोः ॥ (३९।५५-५७)
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
ब्रह्महत्याके समान भी जो कोई पाप हों, वे सब आप इस व्रतसे प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे ज्ञानदृष्टि श्रीकृष्णकी प्रीतिके लिये जागरण करनेपर नष्ट हो जाते प्रदान करें।' हैं। एक ओर उत्तम दक्षिणाके साथ समाप्त होनेवाले इसके बाद यथासम्भव पारण करना चाहिये । पारण सम्पूर्ण यज्ञ और दूसरी ओर देवाधिदेव श्रीकृष्णको प्रिय समाप्त होनेपर इच्छानुसार विहित कर्मोंका अनुष्ठान करे। लगनेवाला एकादशीका जागरण-दोनों समान हैं। नारद ! यदि दिनमें पारणके समय थोड़ी भी द्वादशी न - जहाँ भगवान्के लिये जागरण किया जाता है वहाँ हो तो मुक्तिकामी पुरुषको रातको ही [पिछले पहरमें] काशी, पुष्कर, प्रयाग, नैमिषारण्य, शालयाम नामक पारण कर लेना चाहिये। ऐसे समयमें रात्रिको भोजन महाक्षेत्र, अर्बुदारण्य (आबू), शूकरक्षेत्र (सोरों), मथुरा करनेका दोष नहीं लगता। रात्रिके पहले और पिछले तथा सम्पूर्ण तीर्थ निवास करते हैं। समस्त यज्ञ और चारों पहरमें दिनकी भाँति कर्म करने चाहिये। यदि पारणके वेद भी श्रीहरिके निमित्त किये जानेवाले जागरणके दिन बहुत थोड़ी द्वादशी हो तो उषःकालमे ही प्रातःकाल स्थानपर उपस्थित होते हैं। गङ्गा, सरस्वती, तापी, यमुना, तथा मध्याह्नकालकी भी संध्या कर लेनी चाहिये। इस शतद् (सतलज), चन्द्रभागा तथा वितस्ता आदि सम्पूर्ण पृथ्वीपर जिस मनुष्यने द्वादशी-व्रतको सिद्ध कर लिया नदियाँ भी वहाँ जाती हैं। द्विजश्रेष्ठ ! सरोवर, कुण्ड और है, उसका पुण्य-फल बतलाने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ। समस्त समुद्र भी एकादशीको जागरणस्थानपर जाते हैं। एकादशी देवी सब पुण्योंसे अधिक है तथा यह सर्वदा जो मनुष्य श्रीकृष्णप्रीतिके लिये होनेवाले जागरणके समय मोक्ष देनेवाली है। यह द्वादशी नामक व्रत महान् वीणा आदि बाजोंसे हर्षमें भरकर नृत्य करते और पद गाते पुण्यदायक है। जो इसका साधन कर लेते हैं, वे हैं, वे देवताओंके लिये भी आदरणीय होते हैं। इस प्रकार महापुरुष समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेते हैं। जागरण करके श्रीमहाविष्णुकी पूजा करे और द्वादशीको अम्बरीष आदि सभी भक्त, जो इस भूमण्डलमें विख्यात अपनी शक्तिके अनुसार कुछ वैष्णव पुरुषोंको निमन्त्रित हैं, द्वादशी-व्रतका साधन करके ही विष्णुधामको प्राप्त करके उनके साथ बैठकर पारण करे।
हुए हैं। यह माहात्म्य, जो मैंने तुम्हें बताया है, सत्य है ! द्वादशीको सदा पवित्र और मोक्षदायिनी समझना सत्य है !! सत्य है !!! श्रीविष्णुके समान कोई देवता चाहिये। उस दिन प्रातःस्रान करके श्रीहरिकी पूजा नहीं है और द्वादशीके समान कोई तिथि नहीं है। इस करे और उन्हें निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर अपना व्रत तिथिको जो कुछ दान किया जाता, भोगा जाता तथा समर्पण करे
पूजन आदि किया जाता है, वह सब भगवान् माधवके अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव। पूजित होनेपर पूर्णताको प्राप्त होता है। अधिक क्या कहा प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ॥ जाय, भक्तवल्लभ श्रीहरि द्वादशी व्रत करनेवाले
__ (३९ । ८१-८२) पुरुषोंकी कामना कल्पान्ततक पूर्ण करते रहते हैं। 'केशव ! मैं अज्ञानरूपी रतौधौसे अंधा हो रहा हूँ, द्वादशीको किया हुआ सारा दान सफल होता है।
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उत्तरखण्ड ]
• एकादशीके जया आदि भेद, उत्पत्ति-कथा और महिमाका वर्णन •
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एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि,
उत्पत्ति-कथा और महिमाका वर्णन
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नारदजीने पूछा-महादेव ! महाद्वादशीका उत्तम तनिक भी संदेह नहीं है। पुष्य नक्षत्रसे युक्त एकमात्र व्रत कैसा होता है। सर्वेश्वर प्रभो ! उसके व्रतसे जो कुछ पापनाशिनी एकादशीका व्रत करके मनुष्य एक हजार भी फल प्राप्त होता है, उसे बतानेकी कृपा कीजिये। एकादशियोंके व्रतका फल प्राप्त कर लेता है। उस दिन
महादेवजीने कहा-ब्रह्मन् ! यह एकादशी महान् स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजा आदि जो पुण्यफलको देनेवाली है । श्रेष्ठ मुनियोंको भी इसका अनुष्ठान कुछ भी किया जाता है, उसका अक्षय फल माना गया करना चाहिये। विशेष-विशेष नक्षत्रोंका योग होनेपर यह है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये। तिथि जया, विजया, जयन्ती तथा पापनाशिनी-इन चार जिस समय धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर पञ्चम अश्वमेध नामोंसे विख्यात होती है। ये सभी पापोंका नाश यज्ञका स्रान कर चुके, उस समय उन्होंने यदुवंशावतंस करनेवाली हैं। इनका व्रत अवश्य करना चाहिये। जब भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रश्न किया। शुक्लपक्षकी एकादशीको 'पुनर्वसु नक्षत्र हो तो वह उत्तम तिथि 'जया' कहलाती है। उसका व्रत करके मनुष्य निश्चय ही पापसे मुक्त हो जाता है। जब शुरूपक्षकी द्वादशीको 'श्रवण नक्षत्र हो तो वह उत्तम तिथि 'विजया' के नामसे विख्यात होती है; इसमें किया हुआ दान और ब्राह्मण-भोजन सहस्रगुना फल देनेवाला है तथा होम
और उपवास तो सहसगुनसे भी अधिक फल देता है। जब शुक्लपक्षको द्वादशीको 'रोहिणी' नक्षत्र हो तो वह तिथि 'जयन्ती' कहलाती है; वह सब पापोंको हरनेवाली है। उस तिथिको पूजित होनेपर भगवान् गोविन्द निश्चय ही मनुष्यके सब पापोंको धो डालते हैं। जब कभी शुक्लपक्षकी द्वादशीको 'पुष्य नक्षत्र हो तो वह महापुण्यमयो 'पापनाशिनी' तिथि कहलाती है। जो एक वर्षतक प्रतिदिन एक प्रस्थ तिल दान करता है तथा जो केवल 'पापनाशिनी' एकादशीको उपवास करता है, उन दोनोका पुण्य समान होता है। उस तिथिको पूजित होनेपर संसारके स्वामी सर्वेश्वर श्रीहरि संतुष्ट होते हैं तथा प्रत्यक्ष युधिष्ठिर बोले-प्रभो ! नक्तव्रत तथा एकभुक्त दर्शन भी देते हैं। उस दिन प्रत्येक पुण्यकर्मका अनन्त व्रतका पुण्य एवं फल क्या है ? जनार्दन ! यह सब मुझे फल माना गया है। सगरनन्दन ककुत्स्थ, नहुष तथा बताइये। राजा गाधिने उस तिथिको भगवान्की आराधना की थी, श्रीभगवान्ने कहा-कुन्तीनन्दन ! हेमन्त ऋतुमे जिससे भगवान्ने इस पृथ्वीपर उन्हें सब कुछ दिया था। जब परम कल्याणमय मार्गशीर्ष मास आये, तब उसके इस तिथिके सेवनसे मनुष्य सात जन्मोंके कायिक, कृष्णपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास (व्रत) करना वाचिक और मानसिक पापसे मुक्त हो जाता है। इसमें चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है-दृढ़तापूर्वक उत्तम
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. अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
व्रतका पालन करनेवाला शुद्धचित्त पुरुष दशमीको मनोरञ्जन करते हुए सम्पूर्ण दिन व्यतीत करे। नृपश्रेष्ठ ! मदा एकभुक्त रहे अथवा शौच-सन्तोषादि नियमोंके भक्तियुक्त होकर रात्रिमें जागरण करे, ब्राह्मणोंको दक्षिणा पालनपूर्वक नक्तव्रतके स्वरूपको जानकर उसके अनुसार दे और प्रणाम करके उनसे त्रुटियोंके लिये क्षमा मांगे। एक बार भोजन करे । दिनके आठवें भागमें जब सूर्यका जैसी कृष्णपक्षकी एकादशी है, वैसी ही शुरूपक्षको भी तेज मन्द पड़ जाता है, उसे 'नक्त' जानना चाहिये। है। इसी विधिसे उसका भी व्रत करना चाहिये। रातको भोजन करना 'नक्त नहीं है। गृहस्थके लिये पार्थ ! द्विजको उचित है कि वह शुक्ल और कृष्णतारोंके दिखायी देनेपर नक्तभोजनका विधान है और पक्षकी एकादशीके व्रती लोगोंमें भेदबुद्धि न उत्पन्न करे। संन्यासीके लिये दिनके आठवें भागमें; क्योंकि उसके शलोद्धार तीर्थमें स्नान करके भगवान् गदाधरका दर्शन लिये रातमें भोजनका निषेध है । कुन्तीनन्दन ! दशमीको करनेसे जो पुण्य होता है तथा संक्रान्तिके अवसरपर चार रात व्यतीत होनेपर एकादशीको प्रातःकाल व्रत लाखका दान देकर जो पुण्य प्राप्त किया जाता है, वह करनेवाला पुरुष व्रतका नियम ग्रहण करे और सबेरे तथा सब एकादशीव्रतकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं मध्याह्नको पवित्रताके लिये मान करे । कुक्का स्रान निम्र है। प्रभासक्षेत्रमें चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके अवसरपर श्रेणीका है। बावलीमें स्नान करना मध्यम, पोखरेमें उत्तम नान-दानसे जो पुण्य होता है, वह निश्चय ही तथा नदीमें उससे भी उत्तम माना गया है। जहाँ जलमें एकादशीको उपवास करनेवाले मनुष्यको मिल जाता है। खड़ा होनेपर जल-जन्तुओंको पीड़ा होती हो, वहाँ स्रान केदारक्षेत्रमे जल पीनेसे पुनर्जन्म नहीं होता। एकादशीका करनेपर पाप और पुण्य बराबर होता है। यदि जलको भी ऐसा ही माहात्म्य है। यह भी गर्भवासका निवारण छानकर शुद्ध कर ले तो घरपर भी स्रान करना उत्तम करनेवाली है। पृथ्वीपर अश्वमेध यज्ञका जो फल होता माना गया है। इसलिये पाण्डव श्रेष्ठ ! घरपर उक्त है, उससे सौगुना अधिक फल एकादशी-व्रत करनेविधिसे स्नान करे। नानके पहले निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर वाले को मिलता है। जिसके घरमें तपस्वी एवं श्रेष्ठ शरीरमें मृत्तिका लगा ले
ब्राह्मण भोजन करते हैं उसको जिस फलको प्राप्ति होती अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे। है, वह एकादशी व्रत करनेवालेको भी अवश्य मिलता मृत्तिके हर मे पाईं यन्मया पूर्वसचितम् ॥ है। वेदाङ्गोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणको सहस्र गोदान
(४०।२८) करनेसे जो पुण्य होता है, उससे सौगुना पुण्य एकादशी'वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्च और रथ चला करते व्रत करनेवालेको प्राप्त होता है। इस प्रकार व्रतीको वह हैं। भगवान् विष्णुने भी वामन अवतार धारण कर तुम्हें पुण्य प्राप्त होता है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके ! मैंने पूर्वकालमें जो पाप रातको भोजन कर लेनेपर उससे आधा पुण्य प्राप्त होता सचित किया है, उस मेरे पापको हर लो।'
है तथा दिनमें एक बार भोजन करनेसे देहधारियोंको __ व्रती पुरुषको चाहिये कि वह एकचित्त और दृढ़ नक्त-भोजनका आधा फल मिलता है। जीव जबतक सङ्कल्प होकर क्रोध तथा लोभका परित्याग करे। भगवान् विष्णुके प्रिय दिवस एकादशीको उपवास नहीं अत्यज, पाखण्डी, मिथ्यावादी, ब्राह्मणनिन्दक, अगम्या करता, तभीतक तीर्थ, दान और नियम अपने महत्त्वको स्त्रीके साथ गमन करनेवाले अन्यान्य दुराचारी, गर्जना करते हैं। इसलिये पाण्डव-श्रेष्ठ ! तुम इस परधनहारी तथा परस्त्रीगामी मनुष्योंसे वार्तालाप न करे। व्रतका अनुष्ठान करो। कुन्तीनन्दन ! यह गोपनीय भगवान् केशवकी पूजा करके उन्हें नैवेद्य भोग लगाये। एवं उतम व्रत है, जिसका मैंने तुमसे वर्णन किया घरमें भक्तियुक्त मनसे दीपक जलाकर रखे। पार्थ ! उस है। हजारों यज्ञोंका अनुष्ठान भी एकादशी-व्रतकी तुलना दिन निद्रा और मैथुनका परित्याग करे। धर्मशास्त्रसे नहीं कर सकता।
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उत्तरखण्ड
• एकादशीके जया आदि भेद, उत्पत्ति-कथा और महिमाका वर्णन .
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युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! पुण्यमयी एकादशी नामक दानवसे भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं। तिथि कैसे उत्पत्र हुई ? इस संसारमें क्यों पवित्र मानी गयी? तथा देवताओंको कैसे प्रिय हुई ?
श्रीभगवान् बोले-कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समयकी बात है, सत्ययुगमें मुर नामक दानव रहता था। वह बड़ा ही अद्भुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये भयङ्कर था । उस कालरूपधारी दुरात्मा महासुरने इन्द्रको भी जीत लिया था। सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्गसे निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वीपर विचरा करते थे। एक दिन सब देवता महादेवजीके पास गये। वहाँ इन्द्रने भगवान् शिवके आगे सारा हाल कह सुनाया।
इन्द्र बोले-महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोकसे भ्रष्ट होकर पृथ्वीपर विचर रहे हैं। मनुष्योंमें रहकर इनकी शोभा नहीं होती । देव ! कोई उपाय बतलाइये । देवता किसका सहारा लें?
महादेवजीने कहा-देवराज ! जहाँ सबको F शरण देनेवाले, सबकी रक्षामें तत्पर रहनेवाले जगत्के भक्तवत्सल ! हमें बचाइये । देवदेवेश्वर ! हमें बचाइये। स्वामी भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओ। वे जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । दानवोंका तुमलोगोंकी रक्षा करेंगे।
विनाश करनेवाले कमलनयन! हमारी रक्षा कीजिये। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर! प्रभो ! हम सब लोग आपके समीप आये हैं। आपकी ही महादेवजीकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् देवराज इन्द्र शरणमें आ पड़े हैं। भगवन् ! शरणमें आये हुए सम्पूर्ण देवताओंके साथ वहाँ गये। भगवान् गदाधर देवताओंकी सहायता कीजिये । देव ! आप ही पति, आप क्षीरसागरके जलमें सो रहे थे। उनका दर्शन करके इन्द्रने ही मति, आप ही कर्ता और आप ही कारण हैं। आप ही हाथ जोड़कर स्तुति आरम्भ की।
सब लोगोंकी माता और आप ही इस जगत्के पिता हैं। इन्द्र बोले-देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है.। भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! देवता देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। भयभीत होकर आपको शरणमें आये हैं। प्रभो ! अत्यन्त पुण्डरीकाक्ष ! आप दैत्योंके शत्रु हैं। मधुसूदन ! उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्यने सम्पूर्ण हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। जगन्नाथ ! सम्पूर्ण देवता मुर देवताओंको जीतकर इन्हें स्वर्गसे निकाल दिया है।*
*ॐ नमो देवदेवेश देवदानववन्दित । दैत्यारे पुण्डरीकाक्ष प्राहि नो मधुसूदन ॥ सुराः सर्वे समायाता भयभीताश्च दानवात् । शरणं ला जगन्नाथ आहि नो भक्तवत्सल ॥ त्राहि नो देवदेवेश त्राहि त्राहि जनार्दन । शाहि वै पुण्डरीकाक्ष दानवाना विनाशक ॥ त्वत्समीपं गताः सर्वे त्वामेव शरणं प्रभो । शरणागतदेवाना साहाय्य कुरु वै प्रभो ॥ त्वं पतिस्त्वं मतिदेव त्वं कर्ता स्वं च कारणम् । त्वं माता सर्वलोकानां त्वमेव जगतः पिता ॥ भगवन् देवदेवेश शरणागतवत्सल । शरण तय चायाता भयभीता देवताः ॥ देवता निर्जिताः सर्वाः स्वर्गभ्रष्टाः कृता विभो । अत्युप्रेण हि दैत्येन मुरनाना महौजसा ।। (४० ॥५७-६३)
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• अर्वग्रस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
इन्द्रकी बात सुनकर भगवान् विष्णु बोले- है; उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओमें 'देवराज ! वह दानव कैसा है? उसका रूप और बल भाग गये। अब वह दानव भगवान् विष्णुको देखकर कैसा है तथा उस दुष्टके रहनेका स्थान कहाँ है?' बोला, 'खड़ा रह, खड़ा रह ।' उसकी ललकार सुनकर
इन्द्र बोले-देवेश्वर ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीके भगवान्के नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। वे बोले-'अरे वैशमें तालजङ्घ नामक एक महान् असुर उत्पन्न हुआ था, दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओंको देख ।' यह कहकर जो अत्यन्त भयङ्कर था। उसका पुत्र मुर दानवके नामसे श्रीविष्णुने अपने दिव्य बाणोंसे सामने आये हुए दुष्ट विख्यात हुआ। वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी दानवोको मारना आरम्भ किया। दानव भयसे विह्वल हो
और देवताओंके लिये भयङ्कर है। चन्द्रावती नामसे उठे। पाण्डुनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णुने दैत्य-सेनापर प्रसिद्ध एक नगरी है, उसीमें स्थान बनाकर वह निवास चक्रका प्रहार किया। उससे छिन्न-भिन्न होकर सैकड़ों करता है। उस दैत्यने समस्त देवताओंको परास्त करके योद्धा मौतके मुखमें चले गये। इसके बाद भगवान् स्वर्गलोकसे बाहर कर दिया है। उसने एक दूसरे ही मधुसूदन बदरिकाश्रमको चले गये। वहाँ सिंहावतो इन्द्रको स्वर्गके सिंहासनपर बैठाया है। अनि, चन्द्रमा, नामकी गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी। पाण्डुसूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं। नन्दन ! उस गुफामे एक ही दरवाजा था । भगवान् विष्णु जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ। उसने सब कोई उसीमें सो रहे। दानव मुर भगवान्को मार डालनेके दूसरे ही कर लिये हैं। देवताओको तो उसने प्रत्येक उद्योगमें लगा था। वह उनके पीछे लगा रहा। वहाँ स्थानसे वञ्चित कर दिया है।
पहुंचकर उसने भी उसी गुहामें प्रवेश किया। वहाँ इन्द्रका कथन सुनकर भगवान् जनार्दनको बड़ा भगवान्को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। उसने सोचा, क्रोध हुआ। वे देवताओंको साथ लेकर चन्द्रावतीपुरीमें 'यह दानवोंको भय देनेवाला देवता है। अतः निस्सन्देह गये । देवताओंने देखा, दैत्यराज बारम्बार गर्जना कर रहा इसे मार डालूंगा।' युधिष्ठिर ! दानवके इस प्रकार विचार
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उत्तरखण्ड ]
• मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य .
करते ही भगवान् विष्णुके शरीरसे एक कन्या प्रकट हुई, श्रीविष्णु बोले-कल्याणी ! तुम जो कुछ जो बड़ी ही रूपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र- कहती हो, वह सब पूर्ण होगा। शस्त्रोंसे युक्त थी। वह भगवान्के तेजके अंशसे उत्पन्न भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर ! ऐसा हुई थी। उसका बल और पराक्रम महान् था। वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई। दोनों युधिष्ठिर ! दानवराज मुरने उस कन्याको देखा। कन्याने पक्षोंकी एकादशी समान रूपसे कल्याण करनेवाली है। युद्धका विचार करके दानवके साथ युद्ध के लिये याचना इसमें शुक्ल और कृष्णका भेद नहीं करना चाहिये। यदि की। युद्ध छिड़ गया। कन्या सब प्रकारकी युद्धकलामें उदयकालमें थोड़ी-सी एकादशी, मध्यमें पूरी द्वादशी और निपुण थी ! वह मुर नामक महान् असुर उसके हुंकार- अन्तमे किश्चित् त्रयोदशी हो तो वह 'त्रिस्पृशा' एकादशी मात्रसे राखका ढेर हो गया। दानवके मारे जानेपर कहलाती है। वह भगवान्को बहुत ही प्रिय है। यदि एक भगवान् जाग उठे। उन्होंने दानवको धरतीपर पड़ा देख, त्रिस्पृशा एकादशीको उपवास कर लिया जाय तो एक पूछा-'मेरा यह शत्रु अत्यन्त उम्र और भयङ्कर था, सहस्त्र एकादशीव्रतोंका फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार किसने इसका वध किया है?'
द्वादशीमें पारण करनेपर सहस्रगुना फल माना गया है। कन्या बोली-स्वामिन् ! आपके ही प्रसादसे अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीया और चतुर्दशी-ये यदि मैंने इस महादैत्यका वध किया है।
पूर्व तिथिसे विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिये। श्रीभगवान्ने कहा-कल्याणी ! तुम्हारे इस परवर्तिनी तिथिसे युक्त होनेपर ही इनमें उपवासका विधान कर्मसे तीनों लोकोंके मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं! है। पहले दिन दिन और रातमें भी एकादशी हो तथा अतः तुम्हारे मनमें जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझसे दूसरे दिन केवल प्रातःकाल एक दण्ड एकादशी रहे तो कोई वर माँगो; देवदुर्लभ होनेपर भी वह वर मैं तुम्हें पहली तिथिका परित्याग करके दूसरे दिनकी द्वादशीयुक्त +गा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
एकादशीको ही उपवास करना चाहिये। यह विधि मैंने वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी। उसने कहा, दोनों पक्षोंकी एकादशीके लिये बतायी है। जो मनुष्य 'प्रभो ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपासे सब एकादशीको उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाममें, जहाँ तीर्थोंमें प्रधान, समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाली तथा साक्षात् भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, जाता है। जो सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली देवी होऊँ । जनार्दन ! जो मानव हर समय एकादशीके माहात्म्यका पाठ करता है, लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिनको उपवास करेंगे, उसे सहस्र गोदानोंके पुण्यका फल प्राप्त होता है। जो दिन उन्हें सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त हो। माधव ! जो लोग या रातमें भक्तिपूर्वक इस माहात्म्यका श्रवण करते हैं, वे उपवास, नक्त अथवा एकभुक्त करके मेरे व्रतका पालन निस्सन्देह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। करें, उन्हें आप धन, धर्म और मोक्ष प्रदान कौजिये।' एकादशीके समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है।
मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिर बोले-देवदेवेश्वर ! मैं पूछता श्रीकृष्णने कहा-नृपश्रेष्ठ ! मार्गशीर्ष मासके हूँ-मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, कृष्णपक्षमें 'उत्पत्ति' नामकी एकादशी होती है, जिसका उसका क्या नाम है ? कौन-सी विधि है तथा उसमें किस वर्णन मैंने तुम्हारे समक्ष कर दिया है। अब शुक्लपक्षकी देवताका पूजन किया जाता है? स्वामिन् ! यह सब एकादशीका वर्णन करूँगा, जिसके श्रवणमात्रसे वाजपेय यथार्थरूपसे बताइये।
यज्ञका फल मिलता है। उसका नाम है-'मोक्षा'
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अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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एकादशी, जो सब पापोंका अपहरण करनेवाली है राजन् ! उस दिन यत्नपूर्वक तुलसीकी मञ्जरी तथा धूप-दीपादिसे भगवान् दामोदरका पूजन करना चाहिये। पूर्वोक्त विधिसे ही दशमी और एकादशीके नियमका पालन करना उचित है। 'मोक्षा' एकादशी बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है। उस दिन रात्रिमें मेरी प्रसन्नताके लिये नृत्य, गीत और स्तुतिके द्वारा जागरण करना चाहिये। जिसके पितर पापवश नीच योनिमें पड़े हों, वे इसका पुण्य दान करनेसे मोक्षको प्राप्त होते हैं। इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं। पूर्वकालकी बात हैं, वैष्णवोंसे विभूषित परम रमणीय चम्पक नगरमें वैखानस नामक राजा रहते थे। वे अपनी प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते थे। इस प्रकार राज्य करते हुए राजाने एक दिन रातको स्वप्नमें अपने पितरोंको नीच योनिमें पड़ा हुआ देखा। उन सबको इस अवस्थामें देखकर राजाके मनमें बड़ा विस्मय हुआ और प्रातःकाल ब्राह्मणोंसे उन्होंने उस स्वप्नका सारा हाल कह सुनाया।
राजा बोले- ब्राह्मणो! मैंने अपने पितरोंको नरकमें गिरा देखा है। वे बारम्बार रोते हुए मुझसे यों कह रहे थे कि 'तुम हमारे तनुज हो, इसलिये इस नरक समुद्रसे हमलोगोंका उद्धार करो। द्विजवरो! इस रूपमें मुझे पितरोंके दर्शन हुए हैं। इससे मुझे चैन नहीं मिलता। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? मेरा हृदय रुँधा जा रहा है। द्विजोत्तमो ! वह व्रत, वह तप और वह योग, जिससे मेरे पूर्वज तत्काल नरकसे छुटकारा पा जायँ बतानेकी कृपा करें। मुझ बलवान् एवं साहसी पुत्रके जीते-जी मेरे माता-पिता घोर नरकमें पड़े हुए हैं। अतः ऐसे पुत्रसे क्या लाभ है।
ब्राह्मण बोले- राजन् ! यहाँसे निकट ही पर्वत मुनिका महान् आश्रम है। वे भूत और भविष्यके भी ज्ञाता हैं। नृपश्रेष्ठ ! आप उन्हींके पास चले जाइये ।
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
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ब्राह्मणोंकी बात सुनकर महाराज वैखानस शीघ्र ही पर्वत मुनिके आश्रमपर गये और वहाँ उन मुनिश्रेष्ठको देखकर उन्होंने दण्डवत् प्रणाम करके मुनिके चरणोंका स्पर्श किया। मुनिने भी राजासे राज्यके सातों अङ्गोंकी कुशल पूछी ।
राजा बोले- स्वामिन्! आपकी कृपासे मेरे राज्यके सातों अङ्ग सकुशल हैं। किन्तु मैंने स्वप्न में देखा है कि मेरे पितर नरकमें पड़े हैं; अतः बताइये किस पुण्यके प्रभावले उनका वहाँसे छुटकारा होगा ?
राजाकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ पर्वत एक मुहूर्त्ततक ध्यानस्थ रहे। इसके बाद वे राजासे बोले'महाराज मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षमें जो 'मोक्षा' नामकी एकादशी होती है, तुम सब लोग उसका व्रत करो और उसका पुण्य पितरोंको दे डालो। उस पुण्यके प्रभावसे उनका नरकसे उद्धार हो जायगा।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— युधिष्ठिर ! मुनिकी यह बात सुनकर राजा पुनः अपने घर लौट आये। जब उत्तम मार्गशीर्ष मास आया, तब राजा वैखानसने मुनिके कथनानुसार 'मोक्षा' एकादशीका व्रत करके उसका पुण्य समस्त पितरोंसहित पिताको दे दिया। पुण्य देते ही क्षणभरमें आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी । वैखानसके पिता पितरोंसहित नरकसे छुटकारा पा गये और आकाशमें आकर राजाके प्रति यह पवित्र वचन बोले- 'बेटा! तुम्हारा कल्याण हो।' यह कहकर वे स्वर्गमें चले गये। राजन्! जो इस प्रकार कल्याणमयी 'मोक्षा' एकादशीका व्रत करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और मरनेके बाद वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह मोक्ष देनेवाली 'मोक्षा' एकादशी मनुष्योंके लिये चिन्तामणिके समान समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है। इस माहात्म्यके पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है।
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१. राजा, मन्त्री, राष्ट्र, किल्ला, खजाना, सेना और मित्रवर्ग- ये ही परस्पर उपकार करनेवाले राज्यके सात अङ्ग हैं।
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उत्तरखण्ड ]
. पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य .
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पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-स्वामिन् ! पौष मासके करता था। अपने पुत्रको ऐसा पापाचारी देखकर राजा कृष्णपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? माहिष्मतने राजकुमारोंमें उसका नाम लुम्भक रख दिया । उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवताको पूजा की फिर पिता और भाइयोंने मिलकर उसे राज्यसे बाहर जाती है? यह बताइये।
निकाल दिया। लुम्भक उस नगरसे निकलकर गहन भगवान् श्रीकृष्णने कहा-राजेन्द्र ! बतलाता वनमें चला गया। वहीं रहकर उस पापीने प्रायः समूचे हूँ, सुनो; बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भी मुझे उतना नगरका धन लूट लिया । एक दिन जब वह चोरी करनेके संतोष नहीं होता, जितना एकादशी-व्रतके अनुष्ठानसे लिये नगर आया तो रातमें पहरा देनेवाले सिपाहियोंने होता है। इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके एकादशीका व्रत उसे पकड़ लिया। किन्तु जब उसने अपनेको राजा करना चाहिये । पौष मासके कृष्णपक्षमें 'सफला' नामकी माहिष्मतका पुत्र बतलाया तो सिपाहियोंने उसे छोड़ एकादशी होती है। उस दिन पूर्वोक्त विधानसे ही दिया। फिर वह पापी वनमें लौट आया और प्रतिदिन विधिपूर्वक भगवान् नारायणकी पूजा करनी चाहिये। मांस तथा वृक्षोंके फल खाकर जीवन-निर्वाह करने एकादशी कल्याण करनेवाली है। अतः इसका व्रत लगा। उस दुष्टका विश्राम-स्थान पीपल वृक्षके निकट अवश्य करना उचित है। जैसे नागोंमें शेषनाग, पक्षियोंमें था। वहाँ बहुत वर्षोंका पुराना पीपलका वृक्ष था। उस गरुड़, देवताओंमें श्रीविष्णु तथा मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ वनमें वह वृक्ष एक महान् देवता माना जाता था। है, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतोंमें एकादशी तिथि श्रेष्ठ है। पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था। राजन् ! 'सफला' एकादशीको नाम-मन्त्रोंका उच्चारण बहुत दिनोंके पश्चात् एक दिन किसी संचित पुण्यके करके फलोंके द्वारा श्रीहरिका पूजन करे। नारियल के प्रभावसे उसके द्वारा एकादशीके व्रतका पालन हो गया। फल, सुपारी, बिजौरा नीबू, जमीरा नीबू, अनार, सुन्दर पौष मासमें कृष्णपक्षको दशमीके दिन पापिष्ठ लुम्भन्ने
आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषतः आमके फलोंसे वृक्षोंके फल खाये और वस्त्रहीन होनेके कारण रातभर देवदेवेश्वर श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार जाड़ेका कष्ट भोगा। उस समय न तो उसे नींद आयी धूप-दीपसे भी भगवान्की अर्चना करे। 'सफला' और न आराम ही मिला । वह निष्पाण-सा हो रहा था। एकादशीको विशेषरूपसे दीप-दान करनेका विधान है। सूर्योदय होनेपर भी उस पापीको होश नहीं हुआ। रातको वैष्णव पुरुषोंके साथ जागरण करना चाहिये। 'सफला एकादशीके दिन भी लुम्भक बेलेश पड़ा रहा। जागरण करनेवालेको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह दोपहर होनेपर उसे चेतना प्राप्त हुई। फर इधर-उधर हजारों वर्ष तपस्या करनेसे भी नहीं मिलता। दृष्टि डालकर वह आसनसे उठा औ लैंगड़ेकी भाँति
नृपश्रेष्ठ ! अब 'सफला एकादशीकी शुभकारिणी पैरोंसे बार-बार लड़खड़ाता हुआ वनके भीतर गया। वह कथा सुनो। चम्पावती नामसे विख्यात एक पुरी है, जो भूखसे दुर्बल और पीड़ित हो रह था। राजन् ! उस कभी राजा माहिष्मतकी राजधानी थी। राजर्षि समय लुम्भक बहुत-से फल लेकर ज्यों ही विश्राममाहिष्मतके पाँच पुत्र थे। उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा स्थानपर लौटा, त्यों ही सूर्यदेव अस्त हो गये। तब उसने पापकर्ममें ही लगा रहता था। परस्त्रीगामी और वृक्षकी जड़में बहुत-से फल न्विदन करते हुए कहावेश्यासक्त था। उसने पिताके धनको पापकर्ममें ही खर्च 'इन फलोंसे लक्ष्मीपति भगवन् विष्णु संतुष्ट हों।' यों किया। वह सदा दुराचारपरायण तथा ब्राह्मणोंका निन्दक कहकर लुम्भकने रातभर नंद नहीं ली। इस प्रकार था। वैष्णवों और देवताओकी भी हमेशा निन्दा किया अनायास ही उसने इस व्रतका पालन कर लिया। उस
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• अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
समय सहसा आकाशवाणी हुई- राजकुमार ! तुम 'सफला एकादशीके प्रसादसे राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे।' 'बहुत अच्छा' कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया। इसके बाद उसका रूप दिव्य हो गया। तबसे उसकी उत्तम् बुद्धि भगवान् विष्णुके भजनमें लग गयी । दिव्य आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न होकर उसने अकण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षोंतक वह उसका संचालन करता रहा। उस समय भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे उसके मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भकने तुरंत ही राज्यकी ममता छोड़कर उसे पुत्रको सौंप दिया और वह भगवान् श्रीकृष्णके समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोकमें नहीं पड़ता। राजन्! इस प्रकार जो 'सफला एकादशीका उत्तम व्रत करता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर मरनेके पश्चात् मोक्षको प्राप्त होता है। संसारमें वे मनुष्य धन्य हैं, जो 'सफला एकादशीके व्रतमें लगे रहते हैं। उन्होंका जन्म सफल है। महाराज! इसकी महिमाको पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करनेसे मनुष्य राजसूय यज्ञका फल पाता है। युधिष्ठिर बोले – श्रीकृष्ण ! आपने शुभकारिणी 'सफला एकादशीका वर्णन किया। अब कृपा करके शुक्लपक्षको एकादशीका महत्त्व बतलाइये उसका क्या नाम है ? कौन-सी विधि है ? तथा उसमें किस देवताका पूजन किया जाता है ?
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भगवान् श्रीकृष्णने कहा- राजन् ! पौषके शुक्लपक्षकी जो एकादशी है, उसे बतलाता हूँ सुनो। महाराज ! संसारके हितकी इच्छासे में इसका वर्णन करता हूँ। राजन् ! पूर्वोक्त विधिसे ही यत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये। इसका नाम 'पुत्रदा' है। यह सब पापोंको हरनेवाली उरम तिथि है। समस्त कामनाओं तथा सिद्धियोंके दाता भगवान् नारायण इस तिथिके अधिदेवता है। चराचर गणियोसहित समस्त त्रिलोकीमें इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है। पूर्वकालको बात है, भद्रावती पुरीमें राज सुकेतुमान् राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम चम्पा था। राजाको बहुत समयतक
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। इसलिये दोनों पति पत्नी सदा वित्ता और शोकमें डूबे रहते थे। राजाके पितर उनके दिये हुए जलको शोकोच्छ्वाससे गरम करके पीते थे। 'राजाके बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हमलोगों का तर्पण करेगा यह सोच-सोचकर पितर दुःखी रहते थे।
एक दिन राजा घोड़ेपर सवार हो गहन वनमें चले गये। पुरोहित आदि किसीको भी इस बातका पता न था। मृग और पक्षियोंसे सेवित उस सघन काननमें राजा भ्रमण करने लगे। मार्गमें कहीं सियारकी बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओंकी जहाँ-तहाँ रीछ और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे। इस प्रकार घूम-घूमकर राजा वनको शोभा देख रहे थे, इतनेमें दोपहर हो गया। राजाको भूख और प्यास सताने लगी। वे जलकी खोजमें इधर-उधर दौड़ने लगे। किसी पुण्यके प्रभावसे उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियोंके बहुत-से आश्रम थे। शोभाशाली नरेशने उन आश्रमोंकी ओर देखा। उस समय शुभकी सूचना देनेवाले शकुन होने लगे। राजाका दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ
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उत्तरखण्ड ]
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• माघ मासकी 'षट्तिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य -
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फड़कने लगा, जो उत्तम फलकी सूचना दे रहा था। सरोवर के तटपर बहुत-से मुनि वेद पाठ कर रहे थे। उन्हें देखकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। वे घोड़ेसे उतरकर मुनियोंके सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे। वे मुनि उत्तम व्रतका पालन करनेवाले थे। जब राजाने हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले- 'राजन्! हमलोग तुमपर प्रसन्न हैं।'
मुनि बोले- राजन् ! आजके ही दिन 'पुत्रदा' नामकी एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रतका पालन करो। महाराज ! भगवान् केशवके प्रसादसे तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा ।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर! इस प्रकार उन मुनियोंके कहनेसे राजाने उत्तम व्रतका पालन किया। महर्षियोंके उपदेशके अनुसार विधिपूर्वक पुत्रदा एकादशीका अनुष्ठान किया। फिर द्वादशीको पारण करके मुनियोंके चरणोंमें बारम्बार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये। तदनन्तर रानीने गर्भ धारण किया। प्रसवकाल आनेपर पुण्यकर्मा राजाको तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणोंसे पिताको संतुष्ट कर दिया। वह प्रजाओंका पालक हुआ। इसलिये राजन् ! 'पुत्रदा' का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिये। मैंने लोगों के हितके लिये तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है। जो मनुष्य एकाग्रचित होकर 'पुत्रदा का व्रत करते हैं, वे इस लोकमें पुत्र पाकर राजाने कहा - विश्वेदेवगण! यदि आपलोग मृत्युके पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्यको पढ़ने प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये । और सुननेसे अग्रिष्टोम यज्ञका फल मिलता है !
मुनि बोले- राजन् ! हमलोग विश्वेदेव हैं, यहाँ स्नानके लिये आये हैं। माघ निकट आया है। आजसे पाँचवें दिन माघका स्नान आरम्भ हो जायगा। आज ही 'पुत्रदा' नामकी एकादशी है, जो व्रत करनेवाले मनुष्योंको पुत्र देती है।
राजा बोले- आपलोग कौन हैं? आपके नाम क्या हैं तथा आपलोग किसलिये यहाँ एकत्रित हुए हैं? यह सब सच सच बताइये ।
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माघ मासकी 'षट्तिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
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- जगन्नाथ !
युधिष्ठिरने पूछाश्रीकृष्ण ! आदिदेव ! जगत्पते ! माघ मासके कृष्ण पक्षमें कौन-सी एकादशी होती है ? उसके लिये कैसी विधि है ? तथा उसका फल क्या है ? महाप्राज्ञ ! कृपा करके ये सब बातें बताइये ।
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श्रीभगवान् बोले – नृपश्रेष्ठ ! सुनो, माघ मासके कृष्ण पक्षकी जो एकादशी है, वह 'षट्तिला' के नामसे विख्यात है, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है। अब तुम 'षट्तिला' की पापहारिणी कथा सुनो, जिसे मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यने दाल्भ्यसे कहा था ।
दाल्भ्यने पूछा – ब्रह्मन् ! मृत्युलोकमें आये हुए प्राणी प्रायः पापकर्म करते हैं। उन्हें नरकमें न जाना पड़े, इसके लिये कौन सा उपाय है ? बतानेकी कृपा करें।
पुलस्त्यजी बोले- महाभाग ! तुमने बहुत
अच्छी बात पूछी है, बतलाता हूँ सुनो। माघ मास आनेपर मनुष्यको चाहिये कि वह नहा-धोकर पवित्र हो इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और चुगली आदि बुराइयोंको त्याग दे । देवाधिदेव ! भगवान्का स्मरण करके जलसे पैर धोकर भूमिपर पड़े हुए गोबरका संग्रह करे। उसमें तिल और कपास छोड़कर एक सौ आठ पिंडिकाएँ बनाये। फिर माघमें जब आर्द्रा या मूल नक्षत्र आये, तब कृष्ण पक्षकी एकादशी करनेके लिये नियम ग्रहण करे। भलीभाँति स्नान करके पवित्र हो शुद्धभावसे देवाधिदेव श्रीविष्णुकी पूजा करे। कोई भूल हो जानेपर श्रीकृष्णका नामोच्चारण करे। रातको जागरण और होम करे। चन्दन, अरगजा, कपूर, नैवेद्य आदि सामग्रीसे शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवदेवेश्वर श्रीहरिकी पूजा करे। तत्पश्चात्
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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भगवान्का स्मरण करके बारम्बार श्रीकृष्णनामका युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! आपने माघ मासके उच्चारण करते हुए कुम्हड़े, नारियल अथवा बिजौरके कृष्ण पक्षको षट्तिला एकादशीका वर्णन किया। अब फलसे भगवान्को विधिपूर्वक पूजकर अर्घ्य दे। अन्य कृपा करके यह बताइये कि शुक्ल पक्षमें कौन-सी सब सामग्रियोंके अभावमें सौ सुपारियोंके द्वारा भी पूजन एकादशी होती है ? उसकी विधि क्या है ? तथा उसमें
और अर्घ्यदान किये जा सकते हैं। अर्यका मन्त्र इस किस देवताका पूजन किया जाता है ? प्रकार है
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजेन्द्र ! बतलाता कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भव। हूँ, सुनो। माघ मासके शुक्ल पक्षमें जो एकादशी संसारार्णवमनाना प्रसीद पुरुषोत्तम ॥ होती है, उसका नाम 'जया' है। वह सब पापोंको नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन। हरनेवाली उत्तम तिथि है। पवित्र होनेके साथ ही पापोंका सुब्रहाण्य नमस्तेऽस्तु महापुरुष पूर्वज ॥ नाश करनेवाली है तथा मनुष्योंको भोग और मोक्ष प्रदान गृहाणायं मया दत्तं लक्ष्या सह जगत्पते। करती है। इतना ही नहीं, वह ब्रह्महत्या-जैसे पाप तथा
(४४।१८-२०) पिशाचत्वका भी विनाश करनेवाली है। इसका व्रत 'सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप बड़े दयालु हैं। करनेपर मनुष्योंको कभी प्रेतयोनिमें नहीं जाना पड़ता। हम आश्रयहीन जीवोंके आप आश्रयदाता होइये। इसलिये राजन् ! प्रयत्नपूर्वक जया' नामकी एकादशीका पुरुषोत्तम ! हम संसार-समुद्रमे डूब रहे है, आप हमपर व्रत करना चाहिये। प्रसत्र होइये। कमलनयन ! आपको नमस्कार है, एक समयकी बात है, स्वर्गलोकमें देवराज इन्द्र विश्वभावन! आपको नमस्कार है। सुब्रह्मण्य ! राज्य करते थे। देवगण पारिजात वृक्षोंसे भरे हुए महापुरुष ! सबके पूर्वज ! आपको नमस्कार है। नन्दनवनमें अप्सराओंके साथ विहार कर रहे थे। पचास जगत्पते ! आप लक्ष्मीजीके साथ मेरा दिया हुआ अयं करोड़ गन्धोंके नायक देवराज इन्द्रने स्वेच्छानुसार वनमें स्वीकार करें।
विहार करते हुए बड़े हर्षके साथ नृत्यका आयोजन तत्पश्चात् ब्राह्मणकी पूजा करे । उसे जलका घड़ा किया। उसमे गन्धर्व गान कर रहे थे, जिनमें पुष्पदन्त, दान करे। साथ ही छाता, जूता और वस्त्र भी दे। दान चित्रसेन तथा उसका पुत्र-ये तीन प्रधान थे। चित्रकरते समय ऐसा कहे-'इस दानके द्वारा भगवान् सेनकी स्त्रीका नाम मालिनी था। मालिनीसे एक कन्या श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हो। अपनी शक्तिके अनुसार श्रेष्ठ उत्पन्न हुई थी, जो पुष्पवन्तीके नामसे विख्यात थी। ब्राह्मणको काली गौ दान करे । द्विजश्रेष्ठ ! विद्वान् पुरुषको पुष्पदन्त गन्धर्वके एक पुत्र था, जिसको लोग माल्यवान् चाहिये कि वह तिलसे भरा हुआ पात्र भी दान करे । उन कहते थे। माल्यवान् पुष्पवन्तीके रूपपर अत्यन्त मोहित तिलोके बोनेपर उनसे जितनी शाखाएँ पैदा हो सकती है, था। ये दोनों भी इन्द्रके संतोषार्थ नृत्य करनेके लिये उतने हजार वर्षातक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। आये थे। इन दोनोंका गान हो रहा था, इनके साथ तिलसे स्नान करे, तिलका उबटन लगाये, तिलसे होम अप्सराएँ भी थीं। परस्पर अनुरागके कारण ये दोनों करे; तिल मिलाया हुआ जल पिये, तिलका दान करे और मोहके वशीभूत हो गये। चित्तमें भ्रान्ति आ गयी। तिलको भोजनके काममें ले। इस प्रकार छ: कामोंमें इसलिये वे शुद्ध गान न गा सके। कभी ताल भंग हो तिलका उपयोग करनेसे यह एकादशी 'तिला' जाता और कभी गीत बंद हो जाता था। इन्द्रने इस कहलाती है, जो सब पापोका नाश करनेवाली है।* प्रमादपर विचार किया और इसमें अपना अपमान
* तिलस्नायो तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी। तिलदाता च भोक्ता च षट्तिला पापनाशिनी ॥ (४४ ॥२४)
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. फाल्गुन मासकी "विजया' तथा 'आमलकी' एकादशीका माहात्म्य .
समझकर वे कुपित हो गये। अतः इन दोनोंको शाप देते किया था। उस व्रतके प्रभावसे तथा भगवान् विष्णुकी हुए बोले-'ओ मूखों ! तुम दोनोंको धिक्कार है! शक्तिसे उन दोनोंकी पिशाचता दूर हो गयी। पुष्पवत्ती तुमलोग पतित और मेरी आज्ञा भंग करनेवाले हो; अतः और माल्यवान् अपने पूर्वरूपमें आ गये। उनके हृदयमें पति-पत्नीके रूपमें रहते हुए पिशाच हो जाओ।' वही पुराना नेह उमड़ रहा था। उनके शरीरपर पहले
इन्द्रके इस प्रकार शाप देनेपर इन दोनोंके मनमें बड़ा ही-जैसे अलङ्कार शोभा पा रहे थे। वे दोनों मनोहर रूप दुःख हुआ। वे हिमालय पर्वतपर चले गये और पिशाच- धारण करके विमानपर बैठे और स्वर्गलोकमें चले गये। योनिको पाकर भयङ्कर दुःख भोगने लगे। शारीरिक वहाँ देवराज इन्द्रके सामने जाकर दोनोंने बड़ी प्रसन्नताके पातकसे उत्पन्न तापसे पीड़ित होकर दोनों ही पर्वतको साथ उन्हें प्रणाम किया। उन्हें इस रूपमें उपस्थित कन्दराओंमें विचरते रहते थे। एक दिन पिशाचने अपनी देखकर इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने पूछापली पिशाचीसे कहा-'हमने कौन-सा पाप किया है, 'बताओ, किस पुण्यके प्रभावसे तुम दोनोंका पिशाचत्व जिससे यह पिशाच-योनि प्राप्त हुई है? नरकका कष्ट दूर हुआ है। तुम मेरे शापको प्राप्त हो चुके थे, फिर किस
अत्यन्त भयङ्कर है तथा पिशाचयोनि भी बहुत दुःख देने- देवताने तुम्हें उससे छुटकारा दिलाया है ?' वाली है। अतः पूर्ण प्रयत्न करके पापसे बचना चाहिये। माल्यवान् बोला-स्वामिन् ! भगवान्
इस प्रकार चिन्तामग्न होकर वे दोनों दुःखके कारण वासुदेवकी कृपा तथा 'जया' नामक एकादशीके व्रतसे सूखते जा रहे थे। दैवयोगसे उन्हें माघ मासकी एकादशी हमारी पिशाचता दूर हुई है। तिथि प्राप्त हो गयी। 'जया' नामसे विख्यात तिथि, जो इन्द्रने कहा-तो अब तुम दोनों मेरे कहनेसे सब तिथियोंमें उत्तम है, आयी । उस दिन उन दोनोंने सव सुधापान करो। जो लोग एकादशीके व्रतमें तत्पर और प्रकारके आहार त्याग दिये। जलपानतक नहीं किया। भगवान् श्रीकृष्णके शरणागत होते हैं, वे हमारे भी किसी जीवकी हिंसा नहीं की, यहाँतक कि फल भी नहीं पूजनीय हैं। खाया। निरन्तर दुःखसे युक्त होकर वे एक पीपलके भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-राजन् ! इस समीप बैठे रहे । सूर्यास्त हो गया। उनके प्राण लेनेवाली कारण एकादशीका व्रत करना चाहिये । नृपश्रेष्ठ ! 'जया' भयङ्कर रात उपस्थित हुई। उन्हें नींद नहीं आयी। वे रति ब्रह्महत्याका पाप भी दूर करनेवाली है। जिसने 'जया' या और कोई सुख भी नहीं पा सके। सूर्योदय हुआ। का व्रत किया है, उसने सब प्रकारके दान दे दिये और द्वादशीका दिन आया। उन पिशाचोंके द्वारा 'जया के सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया। इस माहात्म्यके उत्तम व्रतका पालन हो गया। उन्होंने रातमे जागरण भी पढ़ने और सुननेसे अग्रिष्टोम यज्ञका फल मिलता है।
फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी' एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-वासुदेव! फाल्गुनके कृपया उसके पुण्यका वर्णन कीजिये।' कृष्णपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? कृपा ब्रह्माजीने कहा-नारद ! सुनो-'मैं एक उत्तम करके बताइये।
कथा सुनाता हूँ, जो पापोंका अपहरण करनेवाली है। भगवान् श्रीकृष्ण बोले-युधिष्ठिर ! एक बार यह व्रत बहुत ही प्राचीन, पवित्र और पापनाशक है। यह नारदजीने कमलके आसनपर विराजमान होनेवाले "विजया' नामकी एकादशी राजाओंको विजय प्रदान ब्रह्माजीसे प्रश्न किया-'सुरश्रेष्ठ ! फाल्गुनके करती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पूर्वकालकी कृष्णपक्षमें जो 'विजया' नामकी एकादशी होती है, बात है, भगवान् श्रीरामचन्द्रजी चौदह वर्षों के लिये वनमें
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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गये और वहाँ पञ्चवटीमें सीता तथा लक्ष्मणके साथ श्रीराम बोले-ब्रह्मन् ! आपकी कृपासे रहने लगे। वहाँ रहते समय रावणने चपलतावश राक्षसोंसहित लङ्काको जीतनेके लिये सेनाके साथ विजयात्या श्रीरामको तपस्विनी पत्नी सीताको हर लिया। उस दुःखसे श्रीराम व्याकुल हो उठे। उस समय सीताकी खोज करते हुए वे वनमें घूमने लगे। कुछ दूर जानेपर उन्हें जटायु मिले, जिनकी आयु समाप्त हो चुकी थी। इसके बाद उन्होंने वनके भीतर कबध नामक राक्षसका वध किया। फिर सुग्रीवके साथ उनकी मित्रता हुई। तत्पश्चात् श्रीरामके लिये वानरोंकी सेना एकत्रित हुई। हनुमान्जीने लङ्काके उद्यानमें जाकर सीताजीका दर्शन किया और उन्हें श्रीरामको चिहस्वरूप मुद्रिका प्रदान की। यह उन्होंने महान् पुरुषार्थका काम किया था। वहाँसे लौटकर वे श्रीरामचन्द्रजीसे मिले और लङ्काका सारा समाचार उनसे निवेदन किया। हनुमान्जीकी बात सुनकर श्रीरामने सुग्रीवको अनुमति ले लङ्काको प्रस्थान करनेका विचार किया और समुद्रके किनारे पहुंचकर उन्होंने लक्ष्मणसे कहा-'सुमित्रानन्दन ! किस पुण्यसे इस समुद्रको पार किया जा सकता है? यह अत्यन्त अगाध और भयङ्कर जलजन्तुओंसे भरा हुआ है। मुझे समुद्रके किनारे आया हूँ। मुने! अब जिस प्रकार ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इसको समुद्र पार किया जा सके, वह उपाय बताइये। मुझपर सुगमतासे पार किया जा सके।'
लक्ष्मण बोले-महाराज! आप हो आदिदेव बकदाल्भ्यने कहा- श्रीराम ! फाल्गुनके कृष्णऔर पुराणपुरुष पुरुषोत्तम है। आपसे क्या छिपा है? पक्षमें जो 'विजया' नामकी एकादशी होती है, उसका यहाँ द्वीपके भीतर बकदालभ्य नामक मुनि रहते हैं। व्रत करनेसे आपकी विजय होगी। निश्चय ही आप यहाँसे आधे योजनकी दूरीपर उनका आश्रम है। अपनी वानरसेनाके साथ समुद्रको पार कर लेंगे। रघुनन्दन ! उन प्राचीन मुनीश्वरके पास जाकर उन्हींसे राजन् ! अब इस व्रतको फलदायक विधि सुनिये। इसका उपाय पूछिये।
___दशमीका दिन आनेपर एक कलश स्थापित करे। वह लक्ष्मणको यह अत्यन्त सुन्दर बात सुनकर सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टोका भी हो सकता है। उस श्रीरामचन्द्रजी महामुनि बकदाल्भ्यसे मिलनेके लिये कलशको जलसे भरकर उसमे पल्लव डाल दे। उसके गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मस्तक झुकाकर मुनिको ऊपर भगवान् नारायणके सुवर्णमय विग्रहकी स्थापना प्रणाम किया। मुनि उनको देखते ही पहचान गये कि ये करे। फिर एकादशीके दिन प्रातःकाल स्रान करे। पुराणपुरुषोत्तम श्रीराम हैं, जो किसी कारणवश मानव- कलशको पुनः स्थिरतापूर्वक स्थापित करे। माला, शरीरमें अवतीर्ण हुए हैं। उनके आनेसे महर्षिको बड़ी चन्दन, सुपारी तथा नारियल आदिके द्वारा विशेषरूपसे प्रसन्नता हुई। उन्होंने पूछा-'श्रीराम ! आपका कैसे उसका पूजन करे । कलशके ऊपर सप्तधान्य और जौ यहाँ आगमन हुआ?'
रखे। गन्ध, धूप, दीप और भाँति-भाँतिके नैवेद्यसे पूजन
कृपा कीजिये।
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उत्तरखण्ड]
• फाल्गुन मासको 'विजया' तथा 'आमलकी' एकादशीका माहात्म्य .
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करे। कलशके सामने बैठकर वह सारा दिन उत्तम वसिष्ठजीने कहा-महाभाग ! सुनो-पृथ्वीपर कथा-वार्ता आदिके द्वारा व्यतीत करे तथा रातमें भी वहाँ 'आमलकी'की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह बताता हूँ। जागरण करे । अखण्ड व्रतकी सिद्धिके लिये घीका दीपक आमलकी महान् वृक्ष है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला जलाये। फिर द्वादशीके दिन सूर्योदय होनेपर उस कलशको है। भगवान् विष्णुके थूकनेपर उनके मुखसे चन्द्रमाके किसी जलाशयके समीप-नदी, झरने या पोखरेके तटपर समान कान्तिमान् एक विन्दु प्रकट हुआ। वह विन्दु ले जाकर स्थापित करे और उसकी विधिवत् पूजा करके पृथ्वीपर गिरा। उसीसे आमलकी (आँवले) का महान् देव-प्रतिमासहित उस कलशको वेदवेता ब्राह्मणके लिये वृक्ष उत्पन्न हुआ। यह सभी वृक्षोंका आदिभूत कहलाता दान कर दे। महाराज ! कलशके साथ ही और भी बड़े- है। इसी समय समस्त प्रजाको सृष्टि करनेके लिये बड़े दान देने चाहिये । श्रीराम ! आप अपने यूथपतियोंके भगवान्ने ब्रह्माजीको उत्पन्न किया। उन्हींसे इन प्रजाओंकी साथ इसी विधिसे प्रयलपूर्वक 'विजया'का व्रत कीजिये। सृष्टि हुई । देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा इससे आपकी विजय होगी।
निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षियोंको ब्रह्माजीने जन्म दिया। ब्रह्माजी कहते है-नारद ! यह सुनकर उनमेंसे देवता और ऋषि उस स्थानपर आये, जहाँ श्रीरामचन्द्रजीने मुनिके कथनानुसार उस समय 'विजया' विष्णुप्रिया आमलकीका वृक्ष था। महाभाग ! उसे एकादशीका व्रत किया । उस व्रतके करनेसे श्रीरामचन्द्रजी देखकर देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ। वे एक-दूसरेपर विजयी हुए। उन्होंने संग्राममें रावणको मारा, लङ्कापर दृष्टिपात करते हुए उत्कण्ठापूर्वक उस वृक्षकी ओर देखने विजय पायो और सीताको प्राप्त किया। बेटा ! जो मनुष्य लगे और खड़े-खड़े सोचने लगे कि प्लक्ष (पाकर) आदि इस विधिसे व्रत करते हैं, उन्हें इस लोकमें विजय प्राप्त वृक्ष तो पूर्व कल्पकी ही भांति है, जो सब-के-सब हमारे होती है और उनका परलोक भी अक्षय बना रहता है। परिचित हैं, किन्तु इस वृक्षको हम नहीं जानते। उन्हें इस
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर ! इस प्रकार चिन्ता करते देख आकाशवाणी हुई–'महर्षियो ! कारण 'विजया'का व्रत करना चाहिये। इस प्रसङ्गको यह सर्वश्रेष्ठ आमलकीका वृक्ष है, जो विष्णुको प्रिय है। पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है। इसके स्मरणमात्रसे गोदानका फल मिलता है। स्पर्श
युधिष्ठिरने कहा-श्रीकृष्ण ! मैंने विजया करनेसे इससे दूना और फल भक्षण करनेसे तिगुना पुण्य एकादशीका माहात्म्य, जो महान् फल देनेवाला है, सुन प्राप्त होता है। इसलिये सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकीका लिया। अब फाल्गुन शुक्लपक्षकी एकादशीका नाम और सेवन करना चाहिये । यह सब पापोंको हरनेवाला वैष्णव माहात्म्य बतानेकी कृपा कीजिये।
वृक्ष बताया गया है। इसके मूलमें विष्णु, उसके ऊपर भगवान् श्रीकृष्ण बोले-महाभाग धर्मनन्दन ! ब्रह्मा, स्कन्ध परमेश्वर भगवान् रुद्र, शाखाओंमें मुनि, सुनो-तुम्हें इस समय वह प्रसङ्ग सुनाता हूँ, जिसे राजा टहनियोंमें देवता, पत्तोंमें वसु, फूलोंमें मरुद्गण तथा मान्धाताके पूछनेपर महात्मा वसिष्ठने कहा था। फाल्गुन फलोंमें समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलकी शुक्लपक्षको एकादशोका नाम 'आमलकी' है। इसका सर्वदेवमयी बतायी गयी है।* अतः विष्णुभक्त पुरुषोंके पवित्र व्रत विष्णुलोककी प्राप्ति करानेवाला है। लिये यह परम पूज्य है।'
मान्धाताने पूछा-द्विजश्रेष्ठ ! यह 'आमलकी' ऋषि बोले-[अव्यक्त स्वरूपसे बोलनेवाले कब उत्पन्न हुई, मुझे बताइये।
महापुरुष ! ] हमलोग आपको क्या समझे-आप कौन
* तस्या मूले स्थितो विष्णुस्तदूध्वं च पितामहः । स्कन्ये च भगवान् रुद्रः संस्थितः परमेश्वरः ।। शास्त्रामु मुनयः सर्वे प्रशाखासु च देवताः । पर्णेषु वसवो देवाः पुष्पेषु मरुतस्तथा ॥
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[संक्षिप्त पद्मपुराण
हैं? देवता है या कोई और ? हमें ठीक-ठीक बताइये। बातोंका यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये।
आकाशवाणी हुई-जो सम्पूर्ण भूतोंके कर्ता भगवान् विष्णुने कहा-द्विजवरो ! इस व्रतको और समस्त भुवनोंके स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी जो उत्तम विधि है, उसको श्रवण करो! एकादशीको कठिनतासे देख पाते हैं, वही सनातन विष्णु मै हूँ। प्रातःकाल दन्तधावन करके यह सङ्कल्प करे कि 'हे
देवाधिदेव भगवान् विष्णुका कथन सुनकर उन पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशीको निराहार ब्राकुमार महर्षियोंके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उन्हें रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मुझे शरणमें बड़ा विस्मय हुआ। वे आदि-अन्तरहित भगवान्की रखें।' ऐसा नियम लेनेके बाद पतित, चोर, पाखण्डी, स्तुति करने लगे।
दुराचारी, मर्यादा भंग करनेवाले तथा गुरुपत्नीगामी, ऋषि बोले-सम्पूर्ण भूतोंके आत्मभूत, आत्मा मनुष्योंसे वार्तालाप न करे। अपने मनको वशमें रखते एवं परमात्माको नमस्कार है। अपनी महिमासे कभी हुए नदीमें, पोखरेमें, कुएँपर अथवा घरमें ही स्नान करे । च्युत न होनेवाले अच्युतको नित्य प्रणाम है। अन्तरहित स्रानके पहले शरीरमें मिट्टी लगाये। परमेश्वरको बारम्बार प्रणाम है। दामोदर, कवि (सर्वज्ञ) - मृत्तिका लगानेका मन्त्र
और यज्ञेश्वरको नमस्कार है। मायापते ! आपको प्रणाम अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे। है। आप विश्वके स्वामी हैं; आपको नमस्कार है। मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोट्यां समर्जितम् ॥ ___ ऋषियोंके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् श्रीहरि
(४७/४३) संतुष्ट हुए और बोले–महर्षियो ! तुम्हें कौन-सा 'वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते अभीष्ट वरदान हूँ?'
हैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भी तुम्हें ... ऋषि बोले-भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके ! मैंने करोड़ों जन्मोंमें जो हमलोगोंके हितके लिये कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो पाप किये है, मेरे उन सब पापोंको हर लो।' स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला हो।
सान-मन्त्र श्रीविष्णु बोले-महर्षियो ! फाल्गुन शुक्लपक्षमें त्वं मातः सर्वभूतानां जीवन तत्तु रक्षकम् । यदि पुष्य नक्षत्रसे युक्त द्वादशी हो तो वह महान् पुण्य स्वेदजोद्धिजजातीनां रसानां पतये नमः ।। देनेवाली और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली होती मातोऽहं सर्वतीर्थेषु हृदप्रस्रवणेषु च। है। द्विजवरो ! उसमें जो विशेष कर्तव्य है, उसको सुनो। नदीषु देवखातेषु इदं स्रानं तु मे भवेत् ॥ आमलकी एकादशीमें आँवलेके वृक्षके पास जाकर वहाँ
(४७।४४-४५) रात्रिमें जागरण करना चाहिये । इससे मनुष्य सब पापोंसे 'जलकी अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण छूट जाता और सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त करता है। भूतोंके लिये जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और विप्रगण ! यह व्रतोंमें उत्तम व्रत है, जिसे मैंने उद्धिज जातिके जीवोंका भी रक्षक है। तुम रसोंकी तुमलोगोंको बताया है।
स्वामिनी हो। तुम्हें नमस्कार है। आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, __ऋषि बोले-भगवन्! इस व्रतकी विधि कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरोंमें स्नान बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानोंका फल नमस्कार और मन्त्र कौन-से बताये गये हैं ? उस समय देनेवाला हो।' नान और दान कैसे किया जाता है ? पूजनकी कौन-सी विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह परशुरामजीको विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है? इन सब सोनेको प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और
प्रजानां पतयः सर्वे फलेव व्यवस्थिताः । सर्वदेवमयी होषा धात्री च कथिता मया ॥ (४७।२०-२३)
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उत्तरखण्ड ]
• फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहाल्य
धनके अनुसार एक या आधे माशे सुवर्णकी होनी चाहिये। स्नानके पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे। इसके बाद सब प्रकारकी सामग्री लेकर आंवले के वृक्षके पास जाय। वहाँ वृक्षके चारों ओरकी जमीन झाड़-बुहार, लीप-पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमिमें मन्त्रपाठपूर्वक जलसे भरे हुए नवीन कलशकी स्थापना करे। कलशमें पञ्चरत्र और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेतचन्दनसे उसको चर्चित करे। कण्ठमें फूलकी माला पहनाये। सब प्रकारके धूपकी सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपकोंकी श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह कि सब ओरसे सुन्दर एवं मनोहर दृश्य उपस्थित करें। पूजाके लिये नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे। कलशके ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य लाजों (खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुरामजीकी स्थापना करे। 'विशोकाय नमः' कहकर उनके चरणोंकी, 'विश्वरूपिणे नमः' से दोनों घुटनोंकी, 'उपाय नमः' से जाँघोंकी, 'दामोदराय नमः' से कटिभागकी, 'पद्मनाभाय नमः' से उदरकी, 'श्रीवत्सधारिणे नमः' से वक्षःस्थलकी, 'चक्रिणे नमः' से बायी बाँहकी, 'गदिने नमः' से दाहिनी बाँहको 'वैकुण्ठाय नमः' से कण्ठकी, 'यज्ञमुखाय नमः' से मुखकी, 'विशोक निधये नमः' से नासिकाकी, 'वासुदेवाय नमः' से नेत्रोंकी, 'वामनाय नमः' से ललाटकी, 'सर्वात्मने नमः' से सम्पूर्ण अङ्गों तथा मस्तककी पूजा करे। ये ही पूजाके मंत्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे शुद्ध फलके द्वारा देवाधिदेव परशुरामजीको अर्घ्य प्रदान करे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है
नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य गृहाणार्घ्यमिमं दत्तमामलक्या
नमोऽस्तु ते । हरे ॥
युतं
(४७।५७)
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'देवदेवेश्वर! जमदग्निनन्दन ! श्रीविष्णुस्वरूप परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार हैं। आँवलेके फलके साथ दिया हुआ मेरा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये।'
तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे जागरण करे। नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णुसम्बन्धिनी कथा वार्ता आदिके द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान् विष्णुके नाम ले-लेकर आमलकी वृक्षकी परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सबेरा होनेपर श्रीहरिकी आरती करे। ब्राह्मणकी पूजा करके वहाँकी सब सामग्री उसे निवेदन कर दे। परशुरामजीका कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि 'परशुरामजीके स्वरूपमें भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों। तत्पश्चात् आमलकीका स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्नान करनेके बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये। तदनन्तर कुटुम्बियोंके साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे। ऐसा करनेसे जो पुण्य होता है, वह सब बतलाता हूँ; सुनो सम्पूर्ण तीर्थोक सेवनसे जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकारके दान देनेसे जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधिके पालनसे सुलभ होता है। समस्त यज्ञोंकी अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतोंमें उत्तम है, जिसका मैंने तुमसे पूरा-पूरा वर्णन किया है।
वसिष्ठजी कहते हैं- महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये । तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियोंने उक्त व्रतका पूर्णरूपसे पालन किया। नृपश्रेष्ठ ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - युधिष्ठिर ! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्यको सब पापोंसे मुक्त करनेवाला है।
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
नाए चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा' एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! फाल्गुन शुक्लपक्षकी मेधावी बोले-देवी ! जबतक सबेरेकी सन्ध्या आमलकी एकादशीका माहात्म्य मैंने सुना। अब चैत्र न हो जाय तबतक मेरे ही पास ठहरो। कृष्णपक्षकी एकादशीका क्या नाम है, यह बतानेको अप्सराने कहा-विप्रवर ! अबतक न जाने कृपा कीजिये।
कितनी सन्ध्या चली गयी ! मुझपर कृपा करके बीते हुए भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजेन्द्र ! सुनो-मै समयका विचार तो कीजिये। इस विषयमें एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे लोमशजी कहते है-राजन् ! अप्सराको बात चक्रवर्ती नरेश मान्धाताके पूछनेपर महर्षि लोमशने सुनकर मेधावीके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उस कहा था।
समय उन्होंने बीते हुए समयका हिसाब लगाया तो का मान्धाता बोले-भगवन् ! मैं लोगोंके हितको मालूम हुआ कि उसके साथ रहते सत्तावन वर्ष हो गये। इच्छासे यह सुनना चाहता हूँ कि चैत्रमासके कृष्णपक्षमें उसे अपनी तपस्याका विनाश करनेवाली जानकर मुनिको किस नामकी एकादशी होती है? उसकी क्या विधि है उसपर बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने शाप देते हुए कहातथा उससे किस फलकी प्राप्ति होती है ? कृपया ये सब 'पापिनी ! तू पिशाची हो जा।' मुनिके शापसे दग्ध होकर बातें बताइये।
वह विनयसे नतमस्तक हो बोली- 'विप्रवर ! मेरे लोमशजीने कहा-नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकालकी बात शापका उद्धार कीजिये। सात वाक्य बोलने या सात पद है, अप्सराओंसे सेवित चैत्ररथ नामक वनमें, जहाँ साथ-साथ चलने मात्रसे ही सत्पुरुषोंके साथ मैत्री हो गन्धर्वोकी कन्याएँ अपने किङ्करोंके साथ बाजे बजाती हुई जाती है। ब्रह्मन्! मैंने तो आपके साथ अनेक वर्ष विहार करती हैं, मञ्जुघोषा नामक अप्सरा मुनिवर व्यतीत किये हैं; अतः स्वामिन् ! मुझपर कृपा कीजिये।' मेधावीको मोहित करनेके लिये गयी। वे महर्षि उसी मुनि बोले-भद्रे ! मेरी बात सुनो-यह शापसे वनमें रहकर ब्रह्मचर्यका पालन करते थे। मञ्जुघोषा उद्धार करनेवाली है। क्या करूं? तुमने मेरी बहुत बड़ी मुनिके भयसे आश्रमसे एक कोस दूर ही ठहर गयी और तपस्या नष्ट कर डाली है। चैत्र कृष्णपक्षमें जो शुभ सुन्दर ढंगसे वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी। एकादशी आती है उसका नाम है 'पापमोचनी' । वह सब मुनिश्रेष्ठ मेधावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस पापोंका क्षय करनेवाली है। सुन्दरी ! उसीका व्रत सुन्दरी अप्सराको इस प्रकार गान करते देख सेनासहित करनेपर तुम्हारी पिशाचता दूर होगी। कामदेवसे परास्त होकर बरबस मोहके वशीभूत हो ऐसा कहकर मेधावी अपने पिता मुनिवर च्यवनके गये। मुनिकी ऐसी अवस्था देख मञ्जुघोषा उनके समीप आश्रमपर गये। उन्हें आया देख च्यवनने पूछाआयी और वीणा नीचे रखकर उनका आलिङ्गन करने 'बेटा ! यह क्या किया? तुमने तो अपने पुण्यका नाश लगी। मेधावी भी उसके साथ रमण करने लगे। कर डाला !' कामवश रमण करते हुए उन्हें रात और दिनका भी भान मेधावी बोले-पिताजी ! मैंने अप्सराके साथ न रहा । इस प्रकार मुनिजनोचित सदाचारका लोप करके रमण करनेका पातक किया है। कोई ऐसा प्रायश्चित्त अप्सराके साथ रमण करते उन्हें बहुत दिन व्यतीत हो बताइये, जिससे पापका नाश हो जाय । गये। मञ्जुघोषा देवलोकमें जानेको तैयार हुई। जाते च्यवनने कहा-बेटा ! चैत्र कृष्णपक्षमें जो समय उसने मुनिश्रेष्ठ मेधावीसे कहा-'ब्रह्मन् ! अब पापमोचनी एकादशी होती है, उसका व्रत करनेपर मुझे अपने देश जानेकी आज्ञा दीजिये।' पापराशिका विनाश हो जायगा।
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उत्तरखण्ड ]
• चैत्र मासको 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य .
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पिताका यह कथन सुनकर मेधावीने उस व्रतका नागराज पुण्डरीक राजसभामें बैठकर मनोरञ्जन कर रहा अनुष्ठान किया। इससे उनका पाप नष्ट हो गया और वे था। उस समय ललितका गान हो रहा था। किन्तु उसके पुनः तपस्यासे परिपूर्ण हो गये। इसी प्रकार मञ्जुघोषाने साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी। गाते-गाते उसे भी इस उत्तम व्रतका पालन किया। पापमोचनी का व्रत ललिताका स्मरण हो आया। अतः उसके पैरोंकी गति करनेके कारण वह पिशाच-योनिसे मुक्त हुई और दिव्य रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लगी। नागोंमें श्रेष्ठ रूपधारिणी श्रेष्ठ अप्सरा होकर स्वर्गलोकमें चली गयो। कोंटकको ललितके मनका सन्ताप ज्ञात हो गया; अतः राजन् ! जो श्रेष्ठ मनुष्य पापमोचनी एकादशीका व्रत उसने राजा पुण्डरीकको उसके पैरोंकी गति रुकने एवं करते हैं, उनका सारा पाप नष्ट हो जाता है। इसको पढ़ने गानमें त्रुटि होनेकी बात बता दी। कर्कोटककी बात
और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। ब्रह्म- सुनकर नागराज पुण्डरीककी आँखें क्रोधसे लाल हो हल्या, सुवर्णकी चोरी, सुरापान और गुरुपलीगमन गयीं। उसने गाते हुए कामातुर ललितको शाप दियाकरनेवाले महापातकी भी इस व्रतके करनेसे पापमुक्त हो 'दुर्बुद्धे! तू मेरे सामने गान करते समय भी पलीके जाते हैं। यह व्रत बहुत पुण्यमय है।
वशीभूत हो गया, इसलिये राक्षस हो जा।' युधिष्ठिरने पूछा-वासुदेव ! आपको नमस्कार महाराज पुण्डरीकके इतना कहते ही वह गन्धर्व है। अब मेरे सामने यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्षमें किस राक्षस हो गया। भयङ्कर मुख, विकराल आँखें और नामकी एकादशी होती है?
देखनेमात्रसे भय उपजानेवाला रूप। ऐसा राक्षस होकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! एकाग्रचित्त वह कर्मका फल भोगने लगा। ललिता अपने पतिको होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वसिष्ठजीने दिलीपके विकराल आकृति देख मन-ही-मन बहुत चिन्तित हुई। पूछनेपर कहा था।
- भारी दुःखसे कष्ट पाने लगी। सोचने लगी, 'क्या करूँ? । दिलीपने पूछा-भगवन् ! मैं एक बात सुनना कहाँ जाऊँ ? मेरे पति पापसे कष्ट पा रहे हैं। वह रोती चाहता हूँ। चैत्रमासके शुरूपक्षमें किस नामकी एकादशी हुई घने जंगलोंमें पतिके पीछे-पीछे घूमने लगी। वनमें होती है?
- उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक शान्त वसिष्ठजी बोले-राजन् ! चैत्र शुक्लपक्षमे मुनि बैठे हुए थे। उनका किसी भी प्राणीके साथ 'कामदा' नामको एकादशी होती है। वह परम पुण्यमयी वैर-विरोध नहीं था। ललिता शीघ्रताके साथ वहाँ गयो है। पापरूपी ईधनके लिये तो वह दावानल ही है। और मुनिको प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई। मुनि प्राचीन कालकी बात है, नागपुर नामका एक सुन्दर नगर बड़े दयालु थे। उस दुःखिनीको देखकर वे इस प्रकार था, जहाँ सोनेके महल बने हुए थे। उस नगरमें पुण्डरीक बोले-'शुभे ! तुम कौन हो? कहाँसे यहाँ आयी हो? आदि महा भयङ्कर नाग निवास करते थे। पुण्डरीक मेरे सामने सच-सच बताओ। नामका नाग उन दिनों वहाँ राज्य करता था। गन्धर्व, ललिताने कहा-महामुने ! वीरधन्वा नामवाले किनर और अप्सराएँ भी उस नगरीका सेवन करती थीं। एक गन्धर्व हैं। मैं उन्हीं महात्माकी पुत्री हूँ। मेरा नाम वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था। ललिता है। मेरे स्वामी अपने पाप-दोषके कारण राक्षस उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था। वे दोनों हो गये है। उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं पति-पत्नीके रूपमें रहते थे। दोनों ही परस्पर कामसे है। ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, वह बताइये । पीड़ित रहा करते थे। ललिताके हृदयमें सदा पतिको ही विप्रवर ! जिस पुण्यके द्वारा मेरे पति राक्षसभावसे मूर्ति बसी रहती थी और ललितके हृदयमे सुन्दरी छुटकारा पा जाय, उसका उपदेश कीजिये। ललिताका नित्य निवास था। एक दिनकी बात है, ऋषि बोले-भद्रे ! इस समय चैत्र मासके संयपु०२२
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• अर्थयस्व हुषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[संक्षिप्त पयपुराण
शुक्लपक्षकी 'कामदा' नामक एकादशी तिथि है, जो सब शापका दोष दूर हो जायगा।
राजन् ! मुनिका यह वचन सुनकर ललिताको बड़ा हर्ष हुआ। उसने एकादशीको उपवास करके द्वादशीके दिन उन ब्रह्मर्षिके समीप ही भगवान् वासुदेवके [श्रीविग्रहके समक्ष अपने पतिके उद्धारके लिये यह वचन कहा- मैंने जो यह कामदा एकादशीका उपवासव्रत किया है, उसके पुण्यके प्रभावसे मेरे पतिका राक्षस-भाव दूर हो जाय।'
वसिष्ठजी कहते हैं-ललिताके इतना कहते ही उसी क्षण ललितका पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया। राक्षस-भाव चला गया और पुनः गन्धर्वत्वकी प्राप्ति हुई। पश्रेष्ठ ! वे दोनों पति-पत्नी 'कामदा के प्रभावसे पहलेकी अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रूप धारण करके विमानपर आरूढ़ हो अत्यन्त शोभा पाने लगे। यह जानकर इस एकादशीके व्रतका
यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। मैंने लोगोंके हितके M ARATHI
स लिये तुम्हारे सामने इस व्रतका वर्णन किया है। कामदा पापोंको हरनेवाली और उत्तम है। तुम उसीका विधि- एकादशी ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि पूर्वक व्रत करो और इस व्रतका जो पुण्य हो, उसे अपने दोषोंका भी नाश करनेवाली है। राजन् ! इसके पढ़ने स्वामीको दे डालो। पुण्य देनेपर क्षणभरमें ही उसके और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है।
वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-वासुदेव ! आपको नमस्कार मनुष्य प्राप्त कर लेता है। नृपश्रेष्ठ ! घोड़ेके दानसे है। वैशाख मासके कृष्णपक्षमें किस नामकी एकादशी हाथीका दान श्रेष्ठ है। भूमिदान उससे भी बड़ा है। होती है? उसकी महिमा बताइये।
भूमिदानसे भी अधिक महत्त्व तिलदानका है। तिलदानसे भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! वैशाख बढ़कर स्वर्णदान और स्वर्णदानसे बढ़कर अनदान है, कृष्णपक्षकी एकादशी 'वरूथिनी के नामसे प्रसिद्ध है। क्योंकि देवता, पितर तथा मनुष्योंको अन्नसे ही तृप्ति होती यह इस लोक और परलोकमें भी सौभाग्य प्रदान है। विद्वान् पुरुषोंने कन्यादानको भी अन्नदानके ही समान करनेवाली है। 'वरूथिनी'के व्रतसे ही सदा सौख्यका बताया है। कन्यादानके तुल्य ही धेनुका दान है-यह लाभ और पापकी हानि होती है। यह समस्त लोकोंको साक्षात् भगवान्का कथन है। ऊपर बताये हुए सब भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। 'वरूथिनी'के ही दानोंसे बड़ा विद्यादान है। मनुष्य वरूथिनी एकादशीका व्रतसे मान्धाता तथा धुन्धुमार आदि अन्य अनेक राजा व्रत करके विद्यादानका भी फल प्राप्त कर लेता है। जो स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं। जो दस हजार वर्षातक तपस्या लोग पापसे मोहित होकर कन्याके धनसे जीविका करता है, उसके समान ही फल 'वरूथिनी'के व्रतसे भी चलाते हैं, वे पुण्यका क्षय होनेपर यातनामय नरकमें
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उत्तरखण्ड ]
. वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य .
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जाते हैं। अतः सर्वथा प्रयत्न करके कन्याके धनसे बचना युधिष्ठिरने पूछा-जनार्दन ! वैशाख मासके चाहिये-उसे अपने काममें नहीं लाना चाहिये।* जो शुक्ल-पक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? उसका अपनी शक्तिके अनुसार आभूषणोंसे विभूषित करके क्या फल होता है ? तथा उसके लिये कौन-सी विधि है? पवित्र भावसे कन्याका दान करता है, उसके पुण्यकी भगवान् श्रीकृष्ण बोले-महाराज ! पूर्वकालमें संख्या बतानेमें चित्रगुप्त भी असमर्थ हैं। वरूथिनी परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठसे यही बात एकादशी करके भी मनुष्य उसीके समान फल प्राप्त करता पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो। है। व्रत करनेवाला वैष्णव पुरुष दशमी तिथिको काँस, श्रीरामने कहा-भगवन् ! जो समस्त पापोंका उड़द, मसूर, चना, कोदो, शाक, मधु, दूसरेका अन्न, दो क्षय तथा सब प्रकारके दुःखोंका निवारण करनेवाला बार भोजन तथा मैथुन-इन दस वस्तुओंका परित्याग व्रतोंमें उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। कर दे। एकादशीको जुआ खेलना, नींद लेना, पान वसिष्ठजी बोले-श्रीराम ! तुमने बहुत उत्तम खाना, दाँतुन करना, दूसरेको निन्दा करना, चुगली खाना, बात पूछी है। मनुष्य तुम्हारा नाम लेनेसे ही सब पापोंसे चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध तथा असत्य-भाषण-इन शुद्ध हो जाता है। तथापि लोगोंके हितकी इच्छासे मैं ग्यारह बातोंको त्याग दे। द्वादशीको काँस, उड़द, पवित्रोंमें पवित्र उत्तम व्रतका वर्णन करूंगा। वैशाख शराब, मधु, तेल, पतितोसे वार्तालाप, व्यायाम, परदेश- मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका नाम गमन, दो बार भोजन, मैथुन, बैलकी पीठपर सवारी और मोहिनी है। वह सब पापोंको हरनेवाली और उत्तम है। मसूर-इन बारह वस्तुओंका त्याग करे।राजन् ! इस उसके व्रतके प्रभावसे मनुष्य मोहजाल तथा पातकविधिसे वरूथिनी एकादशी की जाती है। रातको जागरण समूहसे छुटकारा पा जाते हैं। करके जो भगवान् मधुसूदनका पूजन करते हैं, वे सब सरस्वती नदीके रमणीय तटपर भद्रावती नामकी फापोंसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होते हैं। अतः पापभीरु सुन्दर नगरी है। वहाँ धृतिमान् नामक राजा, जो चन्द्रमनुष्योंको पूर्ण प्रयत्न करके इस एकादशीका व्रत करना वंशमें उत्पन्न और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे। उसी चाहिये। यमराजसे डरनेवाला मनुष्य अवश्य नगरमें एक वैश्य रहता था, जो धन-धान्यसे परिपूर्ण 'वरूथिनी'का व्रत करे। राजन् ! इसके पढ़ने और और समृद्धिशाली था। उसका नाम था धनपाल । वह सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है और मनुष्य सब सदा पुण्यकर्ममें ही लगा रहता था। दूसरोंके लिये पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। पौसला, कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया
* कन्यावित्तेन जीवन्ति ये नमः पापमोहिताः ॥ पुण्यक्षयात्ते गच्छन्ति निरयं यातनामयम्। तस्मात् सर्वप्रयालेन न पाह्यं कन्यकाधनम्॥
(५०।१४-१५) +कांस्य मायं मसूरीश चणकान् कोद्रस्तिथा । शाकं मधु परान्नं च पुनभोजनमैथुने ।। वैष्णवो व्रतकर्ता च दशम्यां दश वर्जयेत्॥
(५० । १७-१८) पूतक्रीडा च निद्रां च ताम्बूलं दन्तधावनम् । परापवाद पैशुन्ये सोय हिंसा तथा रतिम्॥ क्रोधं चानृतवाक्यानि होकादश्या विवर्जयेत् ॥
(५०।१९-२०) कास्प माष सुरां क्षौद्रं तैलं पतितभाषणम्॥ व्यायाम च प्रवासं च पुनर्मोजनमैथुमे । वृषपृष्ठ मसूरान द्वादश्यां परिवर्जयेत् ॥
(५०।२०-२१)
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- अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
करता था। भगवान् श्रीविष्णुको भक्तिमें उसका हार्दिक गङ्गाजीमें नान करके आये थे। धष्टबुद्धि शोकके भारसे अनुराग था। वह सदा शान्त रहता था। उसके पाँच पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिन्यके पास गया और हाथ जोड़ पुत्र थे-सुमना, द्युतिमान्, मेधावी, सुकृत तथा सामने खड़ा होकर बोला-'ब्रह्मन् ! द्विजश्रेष्ठ ! मुझपर धृष्टबुद्धि। धृष्टबुद्धि पाँचवाँ था। वह सदा बड़े-बड़े दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्यके पापोंमें ही संलग्न रहता था। जुए आदि दुर्व्यसनोंमें प्रभावसे मेरी मुक्ति हो।' उसकी बड़ी आसक्ति थी। वह वेश्याओंसे मिलनेके कौण्डिन्य बोले-वैशाखके शुक्लपक्षमे मोहिनी लिये लालायित रहता था। उसकी बुद्धि न तो नामसे प्रसिद्ध एकादशीका व्रत करो। मोहिनीको उपवास देवताओंके पूजनमें लगती थी और न पितरों तथा करनेपर प्राणियोंके अनेक जन्मोंके किये हुए मेरुपर्वतब्राह्मणोंके सत्कारमें। वह दुष्टात्मा अन्यायके मार्गपर जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। .. चलकर पिताका धन बरबाद किया करता था। एक दिन वसिष्ठजी कहते हैं-श्रीरामचन्द्र ! मुनिका यह वह वेश्याके गलेमें बाँह डाले चौराहेपर घूमता देखा वचन सुनकर धृष्टबुद्धिका चित्त प्रसन्न हो गया। उसने गया। तब पिताने उसे घरसे निकाल दिया तथा बन्धु- कौण्डिन्यके उपदेशसे विधिपूर्वक मोहिनी एकादशीका बान्धवोंने भी उसका परित्याग कर दिया। अब वह व्रत किया। नृपश्रेष्ठ ! इस व्रतके करनेसे वह निष्पाप हो दिन-रात दुःख और शोकमें डूबा तथा कष्ट-पर-कष्ट गया और दिव्य देह धारणकर गरुड़पर आरूढ़ हो सब उठाता हुआ इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन किसी प्रकारके उपद्रवोंसे रहित श्रीविष्णुधामको चला गया। पुण्यके उदय होनेसे वह महर्षि कौण्डिन्यके आश्रमपर जा इस प्रकार यह मोहिनीका व्रत बहुत उत्तम है। इसके पहुंचा। वैशाखका महीना था। तपोधन कौण्डिन्य पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है।
ज्येष्ठ मासकी 'अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-जनार्दन ! ज्येष्ठके कृष्णपक्षमें वह क्षत्रियोचित धर्मसे भ्रष्ट होनेके कारण घोर नरकमें किस नामकी एकादशी होती है ? मैं उसका माहात्म्य पड़ता है। जो शिष्य विद्या प्राप्त करके स्वयं ही गुरुको सुनना चाहता हूँ। उसे बतानेकी कृपा कीजिये। निन्दा करता है, वह भी महापातकोसे युक्त होकर भयङ्कर
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! तुमने सम्पूर्ण नरकमें गिरता है। किन्तु अपरा एकादशीके सेवनसे ऐसे लोकोंके हितके लिये बहुत उत्तम बात पूछी है । राजेन्द्र ! मनुष्य भी सद्गतिको प्राप्त होते हैं। इस एकादशीका नाम 'अपरा' है। यह बहुत पुण्य प्रदान माघमें जब सूर्य मकर राशिपर स्थित हो, उस करनेवाली और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है। समय प्रयागमें स्नान करनेवाले मनुष्योंको जो पुण्य होता ब्रह्महत्यासे दबा हुआ, गोत्रकी हत्या करनेवाला, गर्भस्थ है, काशीमें शिवरात्रिका व्रत करनेसे जो पुण्य प्राप्त होता बालकको मारनेवाला, परनिन्दक तथा परस्त्रीलम्पट पुरुष है, गया पिण्डदान करके पितरोंको तृप्ति प्रदान भी अपरा एकादशीके सेवनसे निश्चय ही पापरहित हो करनेवाला पुरुष जिस पुण्यका भागी होता है, बृहस्पतिके जाता है। जो झूठी गवाही देता, माप-तोलमें धोखा देता, सिंहराशिपर स्थित होनेपर गोदावरीमें स्रान करनेवाला बिना जाने ही नक्षत्रोंकी गणना करता और कूटनीतिसे मानव जिस फलको प्राप्त करता है, बदरिकाश्रमकी आयुर्वेदका ज्ञाता बनकर वैद्यका काम करता है-ये यात्राके समय भगवान् केदारके दर्शनसे तथा सब नरकमें निवास करनेवाले प्राणी हैं। परन्तु अपरा बदरीतीर्थके सेवनसे जो पुण्य-फल उपलब्ध होता है एकादशीके सेवनसे ये भी पापरहित हो जाते हैं। यदि तथा सूर्यग्रहणके समय कुरुक्षेत्रमें दक्षिणासहित यज्ञ क्षत्रिय क्षात्रधर्मका परित्याग करके युद्धसे भागता है, तो करके हाथी, घोड़ा और सुवर्ण-दान करनेसे जिस
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उत्तरखण्ड ]
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ज्येष्ठ मासकी 'अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्य •
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फलकी प्राप्ति होती है; अपरा एकादशीके सेवनसे भी मनुष्य वैसे ही फल प्राप्त करता है। 'अपरा' को उपवास करके भगवान् वामनकी पूजा करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसको पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है।
युधिष्ठिरने कहा- जनार्दन अपरा' का सारा माहात्म्य मैंने सुन लिया, अब ज्येष्ठके शुक्लपक्षमें जो एकादशी हो उसका वर्णन कीजिये ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे; क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ और वेद-वेदाङ्गोंके पारङ्गत विद्वान् हैं।
तब वेदव्यासजी कहने लगे- दोनों ही पक्षोंकी एकादशियोंको भोजन न करे। द्वादशीको स्नान आदिसे पवित्र हो फूलोंसे भगवान् केशवकी पूजा करके नित्यकर्म समाप्त होनेके पश्चात् पहले ब्राह्मणोंको भोजन देकर अन्तमें स्वयं भोजन करे। राजन् ! जननाशौच और मरणाशौचमें भी एकादशीको भोजन नहीं करना चाहिये।
यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान्
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पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिये। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव - ये एकादशीको कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि 'भीमसेन ! तुम भी एकादशीको न खाया करो।' किन्तु मैं इन लोगोंसे यही कह दिया करता हूँ कि 'मुझसे भूख नहीं सही जायगी।'
भीमसेनकी बात सुनकर व्यासजीने कहायदि तुम्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति अभीष्ट है और नरकको दूषित समझते हो तो दोनों पक्षोंकी एकादशीको भोजन न करना ।
भीमसेन बोले- महाबुद्धिमान् पितामह! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता। फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ। मेरे उदरमें वृक नामक अनि सदा प्रज्वलित रहती है; अतः जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शान्त होती है। इसलिये महामुने! मैं वर्षभरमें केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ; जिससे स्वर्गकी प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करनेसे मैं कल्याणका भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचितरूपसे पालन करूँगा ।
व्यासजीने कहा- भीम ! ज्येष्ठ मासमें सूर्य वृष राशिपर हों या मिथुन राशिपर; शुक्लपक्षमें जो एकादशी हो, उसका यत्त्रपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करनेके लिये मुखमें जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर और किसी प्रकारका जल विद्वान् पुरुष मुखमें न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशीको सूर्योदयसे लेकर दूसरे दिनके सूर्योदयतक मनुष्य जलका त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है। तदनन्तर द्वादशीको निर्मल प्रभातकालमें स्नान करके ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक जल और सुवर्णका दान करे। इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणोंके साथ भोजन करे। वर्षभरमें जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशीके सेवनसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है; इसमें
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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जाता है।
तनिक भी सन्देह नहीं है। शङ्ख, चक्र और गदा धारण पुरुषोंके लिये जो विशेष दान और कर्तव्य विहित है, उसे करनेवाले भगवान् केशवने मुझसे कहा था कि 'यदि सुनो-उस दिन जलमें शयन करनेवाले भगवान् मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरणमें आ जाय विष्णुका पूजन और जलमयी धेनुका दान करना और एकादशीको निराहार रहे तो वह सब पापोंसे छूट चाहिये। अथवा प्रत्यक्ष घेनु या घृतमयी धेनुका दान
उचित है। पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँतिके मिष्टानोंद्वारा एकादशीव्रत करनेवाले पुरुषके पास विशालकाय, यलपूर्वक ब्राह्मणोंको संतुष्ट करना चाहिये। ऐसा करनेसे विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड-पाशधारी ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करना चाहिये। ऐसा करनेसे ब्राह्मण भयङ्कर यमदूत नहीं जाते। अन्तकालमें पीताम्बरधारी, अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होनेपर श्रीहरि सौम्य स्वभाववाले, हाथमें सुदर्शन धारण करनेवाले और मोक्ष प्रदान करते हैं। जिन्होंने शम, दम और दानमें मनके समान वेगशाली विष्णुदूत आकर इस वैष्णव प्रवृत्त हो श्रीहरिकी पूजा और रात्रिमें जागरण करते हुए पुरुषको भगवान् विष्णुके धाममें ले जाते हैं। अतः इस निर्जला एकादशीका व्रत किया है, उन्होंने अपने निर्जला एकादशीको पूर्ण यत्र करके उपवास करना साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियोंको और आनेवाली सौ चाहिये। तुम भी सब पापोंकी शान्तिके लिये यत्रके साथ पीढ़ियोंको भगवान् वासुदेवके परम धाममें पहुंचा दिया उपवास और श्रीहरिका पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, है। निर्जला एकादशीके दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, यदि उसने मेरु पर्वतके बराबर भी महान् पाप किया हो शय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने तो वह सब एकादशीके प्रभावसे भस्म हो जाता है। जो चाहिये। जो श्रेष्ठ एवं सुपात्र ब्राह्मणको जूता दान मनुष्य उस दिन जलके नियमका पालन करता है, वह करता है, वह सोनेके विमानपर बैठकर स्वर्गलोकमें पुण्यका भागी होता है, उसे एक-एक पहरमें कोटि-कोटि प्रतिष्ठित होता है। जो इस एकादशीकी महिमाको स्वर्णमुद्रा दान करनेका फल प्राप्त होता सुना गया है। भक्तिपूर्वक सुनता तथा जो भक्तिपूर्वक उसका वर्णन मनुष्य निर्जला एकादशीके दिन स्नान, दान, जप, होम करता है, वे दोनों स्वर्गलोकमें जाते हैं। चतुर्दशीयुक्त आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, अमावास्याको सूर्यग्रहणके समय श्राद्ध करके मनुष्य यह भगवान् श्रीकृष्णका कथन है। निर्जला एकादशीको जिस फलको प्राप्त करता है, वही इसके श्रवणसे भी प्राप्त विधिपूर्वक उत्तम रीतिसे उपवास करके मानव होता है। पहले दत्तधावन करके यह नियम लेना चाहिये वैष्णवपदको प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य एकादशीके कि 'मैं भगवान् केशवकी प्रसत्रताके लिये एकादशीको दिन अन्न खाता है, वह पाप भोजन करता है। इस निराहार रहकर आचमनके सिवा दूसरे जलका भी त्याग लोकमें वह चाण्डालके समान है और मरनेपर दुर्गतिको करूंगा।' द्वादशीको देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुका पूजन प्राप्त होता है।*
करना चाहिये। गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्रसे जो ज्येष्ठके शुक्रपक्षमें एकादशीको उपवास करके विधिपूर्वक पूजन करके जलका घड़ा सङ्कल्प करते हुए दान देंगे, वे परमपदको प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशीको निम्नाङ्कित मन्त्रका उच्चारण करे। उपवास किया है, वे ब्रह्माहत्यारे, शराबी, चोर तथा देवदेव हषीकेश संसारार्णवतारक । गुरुद्रोही होनेपर भी सब पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं। उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम् ।। कुन्तीनन्दन ! निर्जला एकादशीके दिन श्रद्धालु स्त्री
(५३१६०)
* एकादश्या दिने योऽत्र मुझे पापं भुनक्ति सः । इह लोके च चाण्डालो मृतः प्राप्नोति दुर्गतिम् ॥ (५३ । ४३-४४) + अत्रं वर्स तथा गावो जल शय्यासनं शुभम् । कमण्डलुस्तथा छवं दातव्यं निर्जलादिने । (५३।५३)
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उत्तरखण्ड ] ...
• आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य .
'संसारसागरसे तारनेवाले देवदेव हृषीकेश! पहुँचकर आनन्दका अनुभव करता है। तत्पश्चात् द्वादशीको इस जलके घड़ेका दान करनेसे आप मुझे परम गतिकी ब्राह्मणभोजन करानेके बाद स्वयं भोजन करे । जो इस प्रकार प्राप्ति कराइये।
पूर्णरूपसे पापनाशिनी एकादशीका व्रत करता है, वह सब ... भीमसेन ! ज्येष्ठ मासमें शुरूपक्षकी जो शुभ पापोंसे मुक्त हो अनामय पदको प्राप्त होता है। एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिये तथा यह सुनकर भीमसेनने भी इस शुभ एकादशीका उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको शक्करके साथ जलके घड़े दान व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोकमें 'पाण्डवकरने चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान् विष्णुके समीप द्वादशी के नामसे विख्यात हुई।
आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-वासुदेव! आषाढ़के उनकी बात सुनकर कुबेर क्रोध भर गये और कृष्णपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? तुरंत ही हेममालीको बुलवाया। देर हुई जानकर कृपया उसका वर्णन कीजिये।
हेममालीके नेत्र भयसे व्याकुल हो रहे थे। वह आकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले-नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़के कुवेरके सामने खड़ा हुआ। उसे देखकर कुबेरकी आँखें कृष्णपक्षकी एकादशीका नाम 'योगिनी' है। यह बड़े- क्रोधसे लाल हो गयौं। वे बोले-'ओ पापी ! ओ बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है। संसारसागरमें डूबे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान्की अवहेलना की है, हुए प्राणियोंके लिये यह सनातन नौकाके समान है। अतः कोढ़से युक्त और अपनी उस प्रियतमासे वियुक्त तीनों लोकोंमें यह सारभूत व्रत है। . .. होकर इस स्थानसे भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा।' .. अलकापुरीमे राजाधिराज कुबेर रहते हैं। वे सदा कुवेरके ऐसा कहनेपर वह उस स्थानसे नीचे गिर गया। भगवान् शिवकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले हैं। उनके उस समय उसके हृदयमें महान् दुःख हो रहा था। हेममाली नामवाला एक यक्ष सेवक था, जो पूजाके कोढ़ोंसे सारा शरीर पीड़ित था। परन्तु शिव-पूजाके लिये फूल लाया करता था। हेममालौकी पत्नी बड़ी प्रभावसे उसकी स्मरण-शक्ति लुप्त नहीं होती थी। सुन्दरी थी। उसका नाम विशालाक्षी था। वह यक्ष पातकसे दबा होनेपर भी वह अपने पूर्वकर्मको याद कामपाशमें आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नीमें आसक्त रखता था। तदनन्तर इधर-उधर घूमता हुआ वह रहता था। एक दिनकी बात है, हेमामाली मानसरोवरसे पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुगिरिके शिखरपर गया। वहाँ उसे फूल लाकर अपने घरमें ही ठहर गया और पलीके तपस्याके पुञ्ज मुनिवर मार्कण्डेयजीका दर्शन हुआ। प्रेमका रसास्वादन करने लगा; अतः कुबेरके भवनमें न पापकर्मा यक्षने दूरसे ही मुनिके चरणों में प्रणाम किया। जा सका। इधर कुबेर मन्दिरमें बैठकर शिवका पूजन मुनिवर मार्कण्डेयने उसे भयसे कांपते देख परोपकारको कर रहे थे। उन्होंने दोपहरतक फूल आनेकी प्रतीक्षा इच्छासे निकट बुलाकर कहा-'तुझे कोढ़के रोगने की। जब पूजाका समय व्यतीत हो गया तो यक्षराजने कैसे दबा लिया ? तू क्यों इतना अधिक निन्दनीय जान कुपित होकर सेवकोंसे पूछा-'यक्षो ! दुरात्मा हेममाली पड़ता है?' क्यों नहीं आ रहा है, इस बातका पता तो लगाओ।' यक्ष बोला-मुने ! मैं कुबेरका अनुचर हूँ। मेरा __यक्षोंने कहा-राजन् ! वह तो पत्नीकी कामनामें नाम हेममाली है। मैं प्रतिदिन मानसरोवरसे फूल ले आसक्त हो अपनी इच्छरके अनुसार घरमें ही रमण कर आकर शिव-पूजाके समय कुबेरको दिया करता था।
एक दिन पत्नी-सहवासके सुख में फंस जानेके कारण मुझे
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अर्चयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
समयका ज्ञान ही नहीं रहा अतः राजाधिराज कुबेरने 'कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़से
आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमासे बिछुड़ गया। मुनि श्रेष्ठ ! इस समय किसी शुभ कर्मके प्रभावसे मैं आपके निकट आ पहुँचा हूँ। संतोंका चित्त स्वभावतः परोपकारमें लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधीको कर्तव्यका उपदेश दीजिये ।
मार्कण्डेयजीने कहा- तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, असत्य भाषण नहीं किया है; इसलिये मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रतका उपदेश करता हूँ। तुम आषाढ़ के कृष्णपक्षमें 'योगिनी' एकादशीका व्रत करो। इस व्रतके पुण्यसे तुम्हारी कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायगी।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— ऋषिके ये वचन सुनकर हेममाली दण्डकी भाँति मुनिके चरणोंमें पड़ गया। मुनिने उसे उठाया, इससे उसको बड़ा हर्ष हुआ । मार्कण्डेयजीके उपदेशसे उसने योगिनी एकादशीका व्रत किया, जिससे उसके शरीरकी कोढ़ दूर हो गयी। मुनिके कथनानुसार उस उत्तम व्रतका अनुष्ठान करनेपर वह पूर्ण सुखी हो गया। नृपश्रेष्ठ ! यह योगिनीका व्रत ऐसा ही
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
बताया गया है। जो अट्ठासी हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, उसके समान ही फल उस मनुष्यको भी मिलता है, जो योगिनी एकादशीका व्रत करता है। 'योगिनी' महान् पापको शान्त करनेवाली और महान् पुण्य फल देनेवाली है। इसके पढ़ने और सुननेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।
युधिष्ठिरने पूछा - भगवन्! आषाढ़के शुरूपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है ? उसका नाम और विधि क्या है ? यह बतलानेकी कृपा करें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! आषाढ़ शुपक्षकी एकादशीका नाम 'शयनी' है। मैं उसका वर्णन करता हूँ। वह महान् पुण्यमयी, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली सब पापोंको हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है। आषाढ़ शुक्लपक्षमें शयनी एकादशीके दिन जिन्होंने कमल-पुष्पसे कमललोचन भगवान् विष्णुका पूजन तथा एकादशीका उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओंका पूजन कर लिया। हरिशयनी एकादशीके दिन मेरा एक स्वरूप राजा बलिके यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागरमें शेषनागकी शय्यापर तबतक शयन करता है, जबतक आगामी कार्तिककी एकादशी नहीं आ जाती; अतः आषाढशुक्ला एकादशीसे लेकर कार्तिकशुक्ला एकादशीतक मनुष्यको भलीभाँति धर्मका आचरण करना चाहिये। जो मनुष्य इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है, इस कारण यत्त्रपूर्वक इस एकादशीका व्रत करना चाहिये । एकादशीको रातमें जागरण करके शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णुकी भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। ऐसा करनेवाले पुरुषके पुण्यकी गणना करनेमें चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। राजन् ! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशीके उत्तम व्रतका पालन करता है, वह जातिका चाण्डाल होनेपर भी संसारमें सदा मेरा प्रिय करनेवाला है। जो मनुष्य दीपदान, पलाशके पत्तेपर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं। चौमासेमें भगवान् विष्णु सोये रहते हैं; इसलिये मनुष्यको भूमिपर
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उत्तरखण्ड ]
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. श्रावणमासको 'कापिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य .
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शयन करना चाहिये । सावन में साग, भादोंमें दही, कारमें व्रत करना चाहिये। कभी भूलना नहीं चाहिये। ‘शयनी' दूध और कार्तिकमें दालका त्याग कर देना चाहिये।* और 'बोधिनी के बीचमें जो कृष्णपक्षको एकादशियाँ अथवा जो चौमासेमें ब्रह्मचर्यका पालन करता है, वह होती हैं, गृहस्थके लिये वे ही व्रत रखने योग्य है-अन्य परम गतिको प्राप्त होता है। राजन् ! एकादशीके व्रतसे ही मासोंकी कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थके रखने योग्य नहीं मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है; अतः सदा इसका होती । शुक्लपक्षकी एकादशी सभी करनी चाहिये।
श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
- युधिष्ठिरने पूछा-गोविन्द ! वासुदेव ! आपको हुई गायको अन्यान्य सामग्रियोंसहित दान करता है, उस नमस्कार है! श्रावणके कृष्णपक्षमें कौन-सी एकादशी मनुष्यको जिस फल की प्राप्ति होती है, वही 'कामिका'का होती है? उसका वर्णन कीजिये।
व्रत करनेवालेको मिलता है। जो नरश्रेष्ठ श्रावणमासमे - भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! सुनो, मैं तुम्हें भगवान् श्रीधरका पूजन करता है, उसके द्वारा गन्धों एक पापनाशक उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसे पूर्वकालमें और नागोंसहित सम्पूर्ण देवताओंकी पूजा हो जाती है; ब्रह्माजीने नारदजीके पूछनेपर कहा था।
अतः पापभीरु मनुष्योंको यथाशक्ति पूरा प्रयत्न करके - नारदजीने प्रश्न किया-भगवन् ! कमलासन ! 'कामिका के दिन श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। जो मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ कि श्रावणके कृष्णपक्षमें पापरूपी पङ्कसे भरे हुए संसारसमुद्रमें डूब रहे हैं, उनका जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है, उसके उद्धार करनेके लिये कामिकाका व्रत सबसे उत्तम है। कौन-से देवता है तथा उससे कौन-सा पुण्य होता है? अध्यात्मविद्यापरायण पुरुषोंको जिस फलकी प्राप्ति होती प्रभो! यह सब बताइये।
है; उससे बहुत अधिक फल 'कामिका' व्रतका सेवन ब्रह्माजीने कहा-नारद ! सुनो-मैं सम्पूर्ण करनेवालोको मिलता है। 'कामिका'का व्रत करनेवाला लोकोंके हितकी इच्छासे तुम्हारे प्रश्नका उत्तर दे रहा हूँ। मनुष्य रात्रिमें जागरण करके न तो कभी भयङ्कर श्रावणमासमें जो कृष्णपक्षकी एकादशी होती है, उसका यमराजका दर्शन करता है और न कभी दुर्गतिमें ही नाम 'कामिका' है; उसके स्मरणमात्रसे वाजपेय यज्ञका पड़ता है। फल मिलता है। उस दिन श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव लाल मणि, मोती, वैदूर्य और मुंगे आदिसे पूजित
और मधुसूदन आदि नामोंसे भगवानका पूजन करना होकर भी भगवान् विष्णु वैसे संतुष्ट नहीं होते, जैसे चाहिये । भगवान् श्रीकृष्णके पूजनसे जो फल मिलता है, तुलसीदलसे पूजित होनेपर होते हैं। जिसने तुलसीकी वह गङ्गा, काशी, नैमिषारण्य तथा पुष्कर क्षेत्रमें भी मञ्जरियोंसे श्रीकेशवका पूजन कर लिया है। उसके सुलभ नहीं है। सिंहराशिके वृहस्पति होनेपर तथा जन्मभरका पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है। जो दर्शन व्यतीपात और दण्डयोगमें गोदावरीनानसे जिस फलकी करनेपर सारे पापसमुदायका नाश कर देती है, स्पर्श प्राप्ति होती है, वही फल भगवान् श्रीकृष्णके पूजनसे भी करनेपर शरीरको पवित्र बनाती है, प्रणाम करनेपर मिलता है। जो समुद्र और वनसहित समूची पृथ्वीका रोगोका निवारण करती है, जलसे सींचनेपर यमराजको दान करता है तथा जो कामिका एकादशीका व्रत करता भी भय पहुँचाती है, आरोपित करनेपर भगवान् है, वे दोनों समान फलके भागी माने गये हैं। जो व्यायी श्रीकृष्णके समीप ले जाती है और भगवान्के चरणोंमें
* श्रावणे वर्जयेच्छाकं दधि भाद्रपदे तथा ॥ दुग्धमाश्वयुजि त्याज्य कार्तिके द्विदलं त्यजेत्। (५५ । ३३-३४)
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
चढ़ानेपर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी किया और किसीको द्वेषका पात्र नहीं समझा। फिर क्या देवीको नमस्कार है।* जो मनुष्य एकादशीको दिन-रात कारण है, जो मेरे घरमें आजतक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ। दीपदान करता है, उसके पुण्यकी संख्या चित्रगुप्त भी नहीं आपलोग इसका विचार करें।' जानते। एकादशीके दिन भगवान् श्रीकृष्णके सम्मुख राजाके ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितोंके साथ जिसका दीपक जलता है, उसके पितर स्वर्गलोकमें स्थित ब्राह्मणोंने उनके हितका विचार करके गहन वनमें प्रवेश होकर अमृतपानसे तृप्त होते हैं। घी अथवा तिलके किया। राजाका कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधरतेलसे भगवानके सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह- उधर घूमकर ऋषिसेवित आश्रमोंकी तलाश करने लगे। त्यागके पश्चात् करोड़ों दीपकोंसे पूजित हो स्वर्गलोकमें इतनेहीमें उन्हें मुनिश्रेष्ठ लोमशका दर्शन हुआ। लोमशजी जाता है।
धर्मक तत्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशिष्ट विद्वान, दीर्घायु भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर ! यह और महात्मा हैं। उनका शरीर लोमसे भरा हुआ है। वे तुम्हारे सामने मैंने कामिका एकादशीकी महिमाका वर्णन ब्रह्माजीके समान तेजस्वी है। एक-एक कल्प बीतनेपर किया है। 'कामिका' सब पातकोंको हरनेवाली है; अतः उनके शरीरका एक-एक लोम विशीर्ण होता-टूटकर मानवोंको इसका व्रत अवश्य करना चाहिये। यह गिरता है; इसीलिये उनका नाम लोमश हुआ है। वे स्वर्गलोक तथा महान् पुण्यफल प्रदान करनेवाली है। जो महामुनि तीनों कालोंकी बातें जानते हैं। उन्हें देखकर सब मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका माहात्म्य श्रवण करता है, लोगोंको बड़ा हर्ष हुआ। उन्हें निकट आया देख वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकमें जाता है। लोमशजीने फूछा-'तुम सब लोग किसलिये यहाँ आये
युधिष्ठिरने पूछा-मधुसूदन ! श्रावणके शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? कृपया मेरे सामने उसका वर्णन कौजिये।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! प्राचीन कालकी बात है, द्वापर युगके प्रारम्भका समय था, माहिष्मतीपुरमें राजा महीजित् अपने राज्यका पालन करते थे, किन्तु उन्हें कोई पुत्र नहीं था; इसलिये वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था। अपनी अवस्था अधिक देख राजाको बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने प्रजावर्गमें बैठकर इस प्रकार कहा-'प्रजाजनो! इस जन्म में मुझसे कोई पातक नहीं हुआ। मैंने अपने खजानेमें अन्यायसे कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है। ब्राह्मणों और देवताओका धन भी मैंने कभी नहीं लिया है। प्रजाका पुत्रवत् पालन किया, धर्मसे पृथ्वीपर अधिकार जमाया तथा दुष्टोंको, वे बन्धु और पुत्रोंके समान ही क्यों न रहे हों, दण्ड दिया है। शिष्ट पुरुषोंका सदा सम्मान MAA
* या दृष्टा निखिलायसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी । प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवतः कृष्णस्य सरोपिता न्यस्ता तचरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः॥ (५६ । २२)
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उत्तरखण्ड ]
• भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
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हो ? अपने आगमनका कारण बताओ। तुमलोगोंके लिये जो हितकर कार्य होगा, उसे मैं अवश्य करूँगा । प्रजाओंने कहा – ब्रह्मन् ! इस समय महीजित् नामवाले जो राजा हैं, उन्हें कोई पुत्र नहीं है। हमलोग उन्हींकी प्रजा हैं, जिनका उन्होंने पुत्रकी भाँति पालन किया है। उन्हें पुत्रहीन देख, उनके दुःखसे दुःखित हो हम तपस्या करनेका दृढ़ निश्चय करके यहाँ आये हैं द्विजोत्तम! राजाके भाग्यसे इस समय हमें आपका दर्शन मिल गया है। महापुरुषोंके दर्शनसे ही मनुष्योंके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। मुने! अब हमें उस उपायका उपदेश कीजिये, जिससे राजाको पुत्रको प्राप्ति हो ।
उनकी बात सुनकर महर्षि लोमश दो घड़ीतक ध्यानमग्र हो गये। तत्पश्चात् राजाके प्राचीन जन्मका वृत्तान्त जानकर उन्होंने कहा- - 'प्रजावृन्द ! सुनोराजा महीजित् पूर्वजन्ममें मनुष्यों को चूसनेवाला धनहीन वैश्य था । वह वैश्य गाँव-गाँव घूमकर व्यापार किया करता था। एक दिन जेठके शुरूपक्षमें दशमी तिथिको, जब दोपहरका सूर्य तप रहा था, वह गाँवकी सीमामें एक जलाशयपर पहुँचा । पानीसे भरी हुई बावली देखकर वैश्यने वहाँ जल पीनेका विचार किया। इतनेहीमें वहाँ बछड़े के साथ एक गौ भी आ पहुँची। वह प्याससे
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★ भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा- जनार्दन ! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मासके कृष्णपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है ? कृपया बताइये ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! एकचित्त होकर सुनो। भाद्रपद मासके कृष्णपक्षकी एकादशीका नाम 'अजा' है, वह सब पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। जो भगवान् हृषीकेशका पूजन करके इसका व्रत करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामक एक विख्यात चक्रवर्ती राजा हो गये हैं, जो समस्त भूमण्डलके स्वामी और सत्यप्रतिज्ञ थे। एक समय किसी कर्मका फलभोग प्राप्त होनेपर उन्हें
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व्याकुल और तापसे पीड़ित थी, अतः बावलीमें जाकर जल पीने लगी। वैश्यने पानी पीती हुई गायको हाँककर दूर हटा दिया और स्वयं पानी पीया। उसी पाप कर्मके कारण राजा इस समय पुत्रहीन हुए हैं। किसी जन्मके पुण्यसे इन्हें अकण्टक राज्यकी प्राप्ति हुई है।'
प्रजाओंने कहा- मुने! पुराणमें सुना जाता है कि प्रायश्चित्तरूप पुण्यसे पाप नष्ट होता है; अतः पुण्यका उपदेश कीजिये, जिससे उस पापका नाश हो जाय ।
लोमशजी बोले- प्रजाजनो श्रावण मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, वह 'पुत्रदा' के नामसे विख्यात है। वह मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवाली है। तुमलोग उसीका व्रत करो। 1
यह सुनकर प्रजाओंने मुनिको नमस्कार किया और नगरमें आकर विधिपूर्वक पुत्रदा एकादशीके व्रतका अनुष्ठान किया। उन्होंने विधिपूर्वक जागरण भी किया और उसका निर्मल पुण्य राजाको दे दिया। तत्पश्चात् रानीने गर्भ धारण किया और प्रसवका समय आनेपर बलवान् पुत्रको जन्म दिया।
इसका माहात्म्य सुनकर मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है तथा इहलोकमें सुख पाकर परलोकमें स्वर्गीय गतिको प्राप्त होता है।
राज्यसे भ्रष्ट होना पड़ा। राजाने अपनी पत्नी और पुत्रको बेचा। फिर अपनेको भी बेच दिया। पुण्यात्मा होते. हुए भी उन्हें चाण्डालकी दासता करनी पड़ी। वे मुर्दोंका कफन लिया करते थे। इतनेपर भी नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र सत्यसे विचलित नहीं हुए। इस प्रकार चाण्डालकी दासता करते उनके अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। इससे राजाको बड़ी चिन्ता हुई। वे अत्यन्त दुःखी होकर सोचने लगे- 'क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? कैसे मेरा उद्धार होगा ?' इस प्रकार चिन्ता करते-करते वे शोकके समुद्रमें डूब गये । राजाको आतुर जानकर कोई मुनि उनके पास आये, वे महर्षि गौतम थे। श्रेष्ठ ब्राह्मणको
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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आया देख नृपश्रेष्ठने उनके चरणोंमें प्रणाम किया सूर्यवंशमें मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यऔर दोनों हाथ जोड़ गौतमके सामने खड़े होकर अपना प्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे प्रजाका अपने सारा दुःखमय समाचार कह सुनाया। राजाकी बात औरस पुत्रोंकी भाँति धर्मपूर्वक पालन किया करते थे। सुनकर गौतमने कहा- 'राजन् ! भादोंके कृष्णपक्षमें उनके राज्यमें अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ अत्यन्त कल्याणमयी 'अजा' नामकी एकादशी आ रही नहीं सताती थीं और व्याधियोंका प्रकोप भी नहीं होता है, जो पुण्य प्रदान करनेवाली है। इसका व्रत करो। था। उनकी प्रजा निर्भय तथा धन-धान्यसे समृद्ध थी। इससे पापका अन्त होगा। तुम्हारे भाग्यसे आजके महाराजके कोषमे केवल न्यायोपार्जित धनका ही संग्रह सातवें दिन एकादशी है। उस दिन उपवास करके रातमें था। उनके राज्यमें समस्त वर्णों और आश्रमोंके लोग जागरण करना।'
___ अपने-अपने धर्ममें लगे रहते थे। मान्धाताके राज्यकी ऐसा कहकर महर्षि गौतम अन्तर्धान हो गये। भूमि कामधेनुके समान फल देनेवाली थी। उनके राज्य मुनिकी बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्रने उस उत्तम व्रतका करते समय प्रजाको बहुत सुख प्राप्त होता था। एक अनुष्ठान किया। उस व्रतके प्रभावसे राजा सारे दुःखोंसे समय किसी कर्मका फलभोग प्राप्त होनेपर राजाके पार हो गये। उन्हें पत्नीका सन्निधान और पुत्रका जीवन राज्यमें तीन वर्षातक वर्षा नहीं हुई। इससे उनकी प्रजा मिल गया। आकाशमें दुन्दुभियाँ बज उठीं । देवलोकसे भूखसे पीड़ित हो नष्ट होने लगी; तब सम्पूर्ण प्रजाने फूलोंकी वर्षा होने लगी। एकादशीके प्रभावसे राजाने महाराजके पास आकर इस प्रकार कहाअकण्टक राज्य प्राप्त किया और अन्तमें वे पुरजन तथा प्रजा बोली-नृपश्रेष्ठ ! आपको प्रजाकी बात परिजनोंके साथ स्वर्गलोकको प्राप्त हो गये। राजा सुननी चाहिये। पुराणों में मनीषी पुरुषोंने जलको 'नारा' युधिष्ठिर ! जो मनुष्य ऐसा व्रत करते हैं, वे सब पापोंसे कहा है; वह नारा ही भगवान्का अयन-निवासस्थान मुक्त हो स्वर्गलोकमें जाते हैं। इसके पढ़ने और सुननेसे है; इसलिये वे नारायण कहलाते हैं। नारायणस्वरूप अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है।
भगवान् विष्णु सर्वत्र व्यापकरूपमें विराजमान हैं। वे ही युधिष्ठिरने पूछा-केशव ! भाद्रपद मासके मेघस्वरूप होकर वर्षा करते हैं, वर्षासे अन्न पैदा होता है शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम, कौन और अन्नसे प्रजा जीवन धारण करती है। नृपश्रेष्ठ ! इस देवता और कैसी विधि है? यह बताइये। समय अनके बिना प्रजाका नाश हो रहा है; अतः ऐसा
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! इस विषयमें कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेमका निर्वाह हो । मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ; जिसे ब्रह्माजीने राजाने कहा-आपलोगोंका कथन सत्य है, महात्मा नारदसे कहा था।
क्योंकि अत्रको ब्रह्म कहा गया है। अन्नसे प्राणी उत्पन्न नारदजीने पूछा-चतुर्मुख ! आपको नमस्कार होते हैं और अनसे ही जगत् जीवन धारण करता है। है। मैं भगवान् विष्णुको आराधनाके लिये आपके लोकमें बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराणमें भी बहुत मुखसे यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मासके विस्तारके साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओंके अत्याचारसे शुक्लपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है?
प्रजाको पीड़ा होती है, किन्तु जब मैं बुद्धिसे विचार ब्रह्माजीने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! तुमने बहुत उत्तम करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे। भादोंके दिखायी देता। फिर भी मैं प्रजाका हित करनेके लिये पूर्ण शुक्लपक्षकी एकादशी 'पद्या' के नामसे विख्यात है। उस प्रयत्न करूंगा। दिन भगवान् हषीकेशकी पूजा होती है। यह उत्तम व्रत ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने-गिर्ने अवश्य करने योग्य है।
व्यक्तियोंको साथ ले विधाताको प्रणाम करके सघन
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उत्तरखण्ड ]
• आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापाङ्कुशा एकादशीका माहात्म्य.
वनकी ओर चल दिये। वहाँ जाकर मुख्य-मुख्य मुनियों और तपस्वियोंके आश्रमोंपर घूमते फिरे। एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अङ्गिरा ऋषिका दर्शन हुआ। उनपर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्षमें भरकर अपने वाहनसे उतर पड़े और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया। मुनिने भी 'स्वस्ति' कहकर राजाका अभिनन्दन किया और उनके राज्यके सातों अङ्गोंकी कुशल पूछी। राजाने अपनी कुशल बताकर मुनिके स्वास्थ्यका समाचार पूछा। मुनिने राजाको आसन और अर्घ्य दिया। उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनिके समीप बैठे तो उन्होंने इनके आगमनका कारण पूछा।
तब राजाने कहा - भगवन्! मैं धर्मानुकूल प्रणालीसे पृथ्वीका पालन कर रहा था। फिर भी मेरे राज्यमें वर्षाका अभाव हो गया। इसका क्या कारण है इस बातको मैं नहीं जानता।
ऋषि बोले- राजन् ! यह सब युगों में उत्तम सत्ययुग है। इसमें सब लोग परमात्माके चिन्तनमें लगे रहते हैं। तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणोंसे युक्त होता है। इस युगमें केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं किन्तु महाराज ! तुम्हारे राज्यमें यह शूद्र तपस्या करता है; इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते । तुम इसके प्रतीकारका यत्न करो जिससे यह अनावृष्टिका दोष शान्त हो जाय।
राजाने कहा – मुनिवर ! एक तो यह तपस्या में लगा है, दूसरे निरपराध है; अतः मैं इसका अनिष्ट नहीं करूँगा। आप उक्त दोषको शान्त करनेवाले किसी धर्मका उपदेश कीजिये ।
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एकादशीका व्रत करो। भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें जो 'पद्मा' नामंसे विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रतके प्रभावसे निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी। नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनोंके साथ इसका व्रत करो।
युधिष्ठिरने पूछा- मधुसूदन ! कृपा करके मुझे यह बताइये कि आश्विनके कृष्णपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है ?
ऋषिका यह वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये। उन्होंने चारों वर्णोंको समस्त प्रजाओंके साथ भादोंके शुक्लपक्षकी 'पद्मा' एकादशीका व्रत किया। इस प्रकार व्रत करनेपर मेघ पानी बरसाने लगे। पृथ्वी जलसे आप्लावित हो गयी और हरी-भरी खेतीसे सुशोभित होने लगी। उस व्रतके प्रभावसे सब लोग सुखी हो गये।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन्! इस कारण इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। 'पद्मा' एकादशीके दिन जलसे भरे हुए घड़ेको वस्त्रसे ढँककर दही और चावलके साथ ब्राह्मणको दान देना चाहिये, साथ ही छाता और जूता भी देने चाहिये। दान करते समय निम्नाङ्कित मन्त्रका उच्चारण करेनमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥ अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव । भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥
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(५९ । ३८-३९)
[बुधवार और श्रवण नक्षत्रके योगसे युक्त द्वादशीके दिन] बुद्धश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान् गोविन्द ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है; मेरी पापराशिका नाश करके आप मुझे सब प्रकारके सुख प्रदान करें। आप पुण्यात्माजनोंको भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं।'
ऋषि बोले- राजन् ! यदि ऐसी बात है तो पापोंसे मुक्त हो जाता है।
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राजन् ! इसके पढ़ने और सुननेसे मनुष्य सब
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आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापाङ्कुशा' एकादशीका माहात्म्य
कृष्णपक्षमें 'इन्दिरा' नामकी एकादशी होती है, उसके व्रतके प्रभावसे बड़े-बड़े पापोंका नाश हो जाता है। नीच योनिमें पड़े हुए पितरोंको भी यह एकादशी सद्गति
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! आश्विन देनेवाली है।
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
राजन् ! पूर्वकालकी बात है, सत्ययुगमें इन्द्रसेन नामसे विख्यात राजकुमार थे, जो अब माहिष्मतीपुरीके राजा होकर धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते थे। उनका यश सब ओर फैल चुका था। राजा इन्द्रसेन भगवान् विष्णुकी भक्ति में तत्पर हो गोविन्दके मोक्षदायक नामका जप करते हुए समय व्यतीत करते थे और विधिपूर्वक अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें संलग्न रहते थे। एक दिन राजा राजसभामें सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतनेहीमें देवर्षि नारद आकाशसे उतरकर वहाँ आ पहुँचे। उन्हें आया देख राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें आसनपर बिठाया, इसके बाद वे इस प्रकार बोले- 'मुनिश्रेष्ठ! आपकी कृपासे मेरी सर्वथा कुशल
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है। आज आपके दर्शनसे मेरी सम्पूर्ण यज्ञ क्रियाएँ सफल हो गयीं। देवर्षे! अपने आगमनका कारण बताकर मुझपर कृपा करें।'
नारदजीने कहा- नृपश्रेष्ठ ! सुनो, मेरी बात तुम्हें आश्चर्यमें डालनेवाली है, मैं ब्रह्मलोकसे यमलोकमें आया था, वहाँ एक श्रेष्ठ आसनपर बैठा और यमराजने मेरी भक्तिपूर्वक पूजा की। उस समय यमराजकी सभामें
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मैंने तुम्हारे पिताको भी देखा था। वे व्रतभंगके दोषसे वहाँ आये थे। राजन् ! उन्होंने तुमसे कहनेके लिये एक सन्देश दिया है, उसे सुनो। उन्होंने कहा है, 'बेटा! मुझे 'इन्दिरा' के व्रतका पुण्य देकर स्वर्गमें भेजो।' उनका यह सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। राजन् ! अपने पिताको स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेके लिये 'इन्दिरा' का व्रत करो।
राजाने पूछा- भगवन्! कृपा करके 'इन्दिरा' का व्रत बताइये किस पक्षमें, किस तिथिको और किस विधिसे उसका व्रत करना चाहिये।
नारदजीने कहा- राजेन्द्र ! सुनो, मैं तुम्हें इस व्रतकी शुभकारक विधि बतलाता हूँ। आश्विन मासके कृष्णपक्ष दशमीके उत्तम दिनको श्रद्धायुक्त चित्तसे प्रातःकाल स्नान करे। फिर मध्याह्नकालमें स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक समय भोजन करे तथा रात्रिमें भूमिपर सोये। रात्रिके अन्तमें निर्मल प्रभात होनेपर एकादशीके दिन दातुन करके मुँह धोये; इसके बाद भक्तिभावसे निम्राङ्कित मन्त्र पढ़ते हुए उपवासका नियम ग्रहण करे
अद्य स्थित्वा निराहार:
सर्वभोगविवर्जितः ।
श्श्रो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥
(६० | २३)
'कमलनयन भगवान् नारायण! आज मैं सब 'भोगोंसे अलग हो निराहार रहकर कल भोजन करूँगा । अच्युत! आप मुझे शरण दें।'
इस प्रकार नियम करके मध्याह्नकालमें पितरोंकी प्रसन्नताके लिये शालग्राम शिलाके सम्मुख विधिपूर्वक श्राद्ध करे तथा दक्षिणासे ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें भोजन करावे। पितरोंको दिये हुए अत्रमय पिण्डको सूंघकर विद्वान् पुरुष गायको खिला दे। फिर धूप और गन्ध आदिसे भगवान् हृषीकेशका पूजन करके रात्रिमें उनके समीप जागरण करे। तत्पश्चात् सबेरा होनेपर द्वादशीके दिन पुनः भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करे। उसके बाद ब्राह्मणोंको भोजन कराकर भाई-बन्धु, नाती और पुत्र आदिके साथ स्वयं मौन होकर भोजन करे।
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उत्तरखण्ड ]
. आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापाशा' एकादशीका माहात्म्य -
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...re
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राजन् ! इस विधिसे आलस्यरहित होकर तुम 'इन्दिरा'का कर ले तो उसे कभी यम-यातना नहीं प्राप्त होती। जो व्रत करो। इससे तुम्हारे पितर भगवान् विष्णुके वैकुण्ठ- पुरुष विष्णुभक्त होकर भगवान् शिवको निन्दा करता है, धाममें चले जायेंगे।
वह भगवान् विष्णुके लोकमें स्थान नहीं पाता; उसे भगवान् श्रीकृष्ण कहते है-राजन् ! राजा निश्चय ही नरकमें गिरना पड़ता है। इसी प्रकार यदि कोई इन्द्रसेनसे ऐसा कहकर देवर्षि नारद अन्तर्धान हो गये। शैव या पाशुपत होकर भगवान् विष्णुको निन्दा करता है राजाने उनको बतायी हुई विधिसे अन्तःपुरकी रानियों, पुत्रों तो वह घोर रौरव नरकमें डालकर तबतक पकाया जाता
और भृत्योसहित उस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया। है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकी आयु पूरी नहीं हो जाती। कुन्तीनन्दन ! व्रत पूर्ण होनेपर आकाशसे फूलोंकी वर्षा यह एकादशी स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीरको होने लगी। इन्द्रसेनके पिता गरुडपर आरूढ़ होकर नौरोग बनानेवाली तथा सुन्दर स्त्री, धन एवं मित्र श्रीविष्णुधामको चले गये और राजर्षि इन्द्रसेन भी देनेवाली है। राजन् ! एकादशीको दिनमें उपवास और अकण्टक राज्यका उपभोग करके अपने पुत्रको राज्यपर रात्रि जागरण करनेसे अनायास ही विष्णुधामकी प्राप्ति बिठाकर स्वयं स्वर्गलोकको गये। इस प्रकार मैंने तुम्हारे हो जाती है। राजेन्द्र ! वह पुरुष मातृ-पक्षकी दस, सामने 'इन्दिरा' व्रतके माहात्म्यका वर्णन किया है। इसको पिताके पक्षकी दस तथा स्त्रीके पक्षकी भी दस पढ़ने और सुननेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। एकादशी व्रत करनेवाले
र युधिष्ठिरने पूछा-मधुसूदन ! अब कृपा करके मनुष्य दिव्यरूपधारी, चतुर्भुज, गरुड़की ध्वजासे युक्त, यह बताइये कि आश्विनके शुक्रपक्षमें किस नामकी हारसे सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान् एकादशी होती है?
विष्णुके धामको जाते हैं। आश्विनके शुक्लपक्षमें भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! आश्विनके पापाङ्कशाका व्रत करनेमात्रसे ही मानव सब पापोंसे मुक्त शुक्रपक्षमे जो एकादशी होती है, वह 'पापाङ्कशा' के हो श्रीहरिके लोकमें जाता है। जो पुरुष सुवर्ण, तिल, नामसे विख्यात है। वह सब पापोंको हरनेवाली तथा भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छातेका दान करता है, उत्तम है। उस दिन सम्पूर्ण मनोरथकी प्राप्तिके लिये वह कभी यमराजको नहीं देखता। नृपश्रेष्ठ ! दरिद्ध मनुष्योंको स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाले पुरुषको भी चाहिये कि वह यथाशक्ति स्रानदान आदि पद्मनाभसंज्ञक मुझ वासुदेवका पूजन करना चाहिये। क्रिया करके अपने प्रत्येक दिनको सफल बनावे।* जो जितेन्द्रिय मुनि चिरकालतक कठोर तपस्या करके जिस होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म फलको प्राप्त करता है, वह उस दिन भगवान् करनेवाले हैं, उन्हें भयंकर यमयातना नहीं देखनी गरुड़ध्वजको प्रणाम करनेसे ही मिल जाता है। पृथ्वीपर पड़ती। लोकमें जो मानव दीर्घायु, धनान्य, कुलीन और जितने तीर्थ और पवित्र देवालय हैं, उन सबके सेवनका नीरोग देखे जाते हैं, वे पहलेके पुण्यात्मा है। पुण्यकर्ता फल भगवान् विष्णुके नामकीर्तनमात्रसे मनुष्य प्राप्त कर पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं। इस विषयमें अधिक कहनेसे लेता है। जो शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले सर्वव्यापक क्या लाभ, मनुष्य पापसे दुर्गतिमे पड़ते हैं और धर्मसे भगवान् जनार्दनको शरणमें जाते हैं, उन्हें कभी स्वर्गमें जाते हैं। राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, यमलोककी यातना नहीं भोगनी पड़ती। यदि अन्य उसके अनुसार पापाङ्कशाका माहात्म्य मैंने वर्णन किया; कार्यके प्रसङ्गसे भी मनुष्य एकमात्र एकादशीको उपवास अब और क्या सुनना चाहते हो?
* अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दरिद्रोऽपि नृपोतम । समाचरन् यथाशक्ति सानदानादिकाः क्रियाः ॥ (६१ ॥ २४-२५)
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2 . अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्यपुराण
कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-जनार्दन ! मुझपर आपका गया। रात्रि आयी, जो हरिपूजापरायण तथा जागरणमें नेह है; अतः कृपा करके बताइये। कार्तिकके कृष्ण- आसक्त वैष्णव मनुष्योंका हर्ष बढ़ानेवाली थी; परन्तु पक्षमें कौन-सी एकादशी होती है?
वही रात्रि शोभनके लिये अत्यन्त दुःखदायिनी हुई। भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! कार्तिकके सूर्योदय होते-होते उनका प्राणान्त हो गया। राजा कृष्णपक्षमें जो परम कल्याणमयी एकादशी होती है, वह मुचुकुन्दने राजोचित काष्ठोंसे शोभनका दाह-संस्कार 'रमा' के नामसे विख्यात है। 'रमा' परम उत्तम है और कराया। चन्द्रभागा पतिका पारलौकिक कर्म करके बड़े-बड़े पापोंको हरनेवाली है।
पिताके ही घरपर रहने लगी। नृपश्रेष्ठ ! 'रमा' नामक . पूर्वकालमें मुचुकुन्द नामसे विख्यात एक राजा हो एकादशीके व्रतके प्रभावसे शोभन मन्दराचलके चुके हैं, जो भगवान् श्रीविष्णुके भक्त और सत्यप्रतिज्ञ शिखरपर बसे हुए परम रमणीय देवपुरको प्राप्त हुआ। थे। निष्कण्टक राज्यका शासन करते हुए उस राजाके वहाँ शोभन द्वितीय कुबेरकी भाँति शोभा पाने लगा। यहाँ नदियोंमें श्रेष्ठ चन्द्रभागा कन्याके रूप में उत्पन्न हुई। राजा मुचुकुन्दके नगरमे सोमशर्मा नामसे विख्यात एक राजाने चन्द्रसेनकुमार शोभनके साथ उसका विवाह कर ब्राह्मण रहते थे, वे तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे घूमते हुए कभी दिया। एक समयकी बात है, शोभन अपने ससुरके घर मन्दराचल पर्वतपर गये। वहाँ उन्हें शोभन दिखायी
आये। उनके यहाँ दशमीका दिन आनेपर समूचे नगरमें दिये। राजाके दामादको पहचानकर वे उनके समीप दिवोरा पिटवाया जाता था कि एकादशीके दिन कोई भी गये। शोभन भी उस समय द्विजश्रेष्ठ सोमशर्माको आया भोजन न करे, कोई भी भोजन न करे। यह डंकेको जान शीघ्र ही आसनसे उठकर खड़े हो गये और उन्हें घोषणा सुनकर शोभनने अपनी प्यारी पत्नी चन्द्रभागासे प्रणाम किया। फिर क्रमशः अपने श्वशुर राजा कहा-'प्रिये ! अब मुझे इस समय क्या करना चाहिये, ELITEREST इसकी शिक्षा दो।' र, चन्द्रभागा बोली-प्रभो ! मेरे पिताके घरपर तो एकादशीको कोई भी भोजन नहीं कर सकता। हाथी, घोड़े, हाथियोंके बच्चे तथा अन्यान्य पशु भी अन्न, घास तथा जलतकका आहार नहीं करने पाते; फिर मनुष्य एकादशीके दिन कैसे भोजन कर सकते हैं। प्राणनाथ ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी। इस प्रकार मनमें विचार करके अपने चित्तको दृढ़ कीजिये।
शोभनने कहा-प्रिये ! तुम्हारा कहना सत्य है, मैं भी आज उपवास करूँगा। दैवका जैसा विधान है, वैसा ही होगा।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभनने व्रतके नियमका पालन किया। क्षुधासे उनके शरीरमें पीड़ा होने लगी; अतः वे बहुत दुःखी हुए। भूखकी चिन्तामें पड़े-पड़े सूर्यास्त हो :
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उत्तरखण्ड ]
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कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य -
मुचुकुन्दका, प्रिय पत्नी चन्द्रभागाका तथा समस्त नगरका जब मेरी अवस्था आठ वर्षसे अधिक हो गयी, तभीसे
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लेकर आजतक मैंने जो एकादशीके व्रत किये हैं और उनसे मेरे भीतर जो पुण्य सञ्चित हुआ है, उसके प्रभावसे यह नगर कल्पके अन्ततक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकारके मनोवाञ्छित वैभवसे समृद्धिशाली होगा।'
नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार 'रमा' व्रतके प्रभावसे चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रूप और दिव्य आभरणोंसे विभूषित हो अपने पतिके साथ मन्दराचलके शिखरपर विहार करती है। राजन् ! मैंने तुम्हारे समक्ष 'रमा' नामक एकादशीका वर्णन किया है। यह चिन्तामणि तथा कामधेनुके समान सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली है। मैंने दोनों पक्षोंके एकादशीव्रतोंका पापनाशक माहात्य बताया है। जैसी कृष्णपक्षको एकादशी है, वैसी ही शुक्लपक्षकी भी है; उनमें भेद नहीं करना चाहिये। जैसे सफेद रंगकी गाय हो या काले रंगकी, दोनोंका दूध एक-सा ही होता है, इसी प्रकार दोनों पक्षोंकी एकादशियाँ समान फल देनेवाली हैं। जो मनुष्य एकादशी व्रतोंका माहात्म्य सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
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युधिष्ठिरने पूछा - श्रीकृष्ण ! मैंने आपके मुखसे 'रमा'का यथार्थ माहात्म्य सुना। मानद ! अब कार्तिक शुक्रपक्षमें जो एकादशी होती है; उसकी महिमा बताइये ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! कार्तिकके शुक्रपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका जैसा वर्णन लोकस्रष्टा ब्रह्माजीने नारदजीसे किया था वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ।
+ नारदजीने कहा- पिताजी! जिसमें धर्म-कर्ममें प्रवृत्ति करानेवाले भगवान् गोविन्द जागते हैं, उस 'प्रबोधिनी एकादशीका माहात्म्य बतलाइये।
कुशल- समाचार पूछा।
सोमशर्माने कहा- राजन् ! वहाँ सबकी कुशल है। यहाँ तो अद्भुत आश्चर्यकी बात है! ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा। बताओ तो सही, तुम्हें इस नगरकी प्राप्ति कैसे हुई ?
शोभन बोले- द्विजेन्द्र ! कार्तिककें कृष्णपक्षमें जो 'रमा' नामकी एकादशी होती है, उसीका व्रत करनेसे मुझे ऐसे नगरकी प्राप्ति हुई है। ब्रह्मन् ! मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया था इसलिये मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर सदा स्थिर रहनेवाला नहीं है। आप मुचुकुन्दकी सुन्दरी कन्या चन्द्रभागासे यह सारा वृत्तान्त कहियेगा।
शोभनकी बात सुनकर सोमशर्मा ब्राह्मण मुचुकुन्द पुरमें गये और वहाँ चन्द्रभागाके सामने उन्होंने सारा 'वृत्तान्त कह सुनाया ।
सोमशर्मा बोले- शुभे। मैंने तुम्हारे पतिको प्रत्यक्ष देखा है तथा इन्द्रपुरीके समान उनके दुर्धर्ष नगरका भी अवलोकन किया है। वे उसे अस्थिर बतलाते थे। तुम उसको स्थिर बनाओ।
चन्द्रभागाने कहा— ब्रह्मयें! मेरे मनमें पतिके दर्शनकी लालसा लगी हुई है। आप मुझे वहाँ ले चलिये। मैं अपने व्रतके पुण्यसे उस नगरको स्थिर बनाऊँगी।
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भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन्! चन्द्रभागाकी बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वतके निकट वामदेव मुनिके आश्रमपर गये। वहाँ ऋषिके मन्त्रकी शक्ति तथा एकादशीसेवनके प्रभावसे चन्द्रभागाका शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली। इसके बाद वह पतिके समीप गयी। उस समय उसके नेत्र हर्षोल्लाससे खिल रहे थे। अपनी प्रिय पत्नीको आयी देख शोभनको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उसे बुलाकर अपने वामभागमें सिंहासनपर बिठाया; तदनन्तर चन्द्रभागाने हर्षमें भरकर अपने प्रियतमसे यह प्रिय वचन कहा— 'नाथ! मैं हितकी बात कहती हूँ. सुनिये। पिताके घरमें रहते समय
ब्रह्माजी बोले – मुनिश्रेष्ठ ! 'प्रबोधिनी' का माहात्म्य पापका नाश, पुण्यकी वृद्धि तथा उत्तम बुद्धिवाले पुरुषोंको मोक्ष प्रदान करनेवाला है। समुद्रसे लेकर सरोवरतक जितने भी तीर्थ हैं, वे सभी अपने माहात्म्यकी तभीतक गर्जना करते हैं, जबतक कि कार्तिक मासमें भगवान् विष्णुकी 'प्रबोधिनी' तिथि नहीं
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• अर्चयस्व पीकेशं बदीच्छसि परं पदम् •
[संक्षिप्त पापुराण
आ जाती । 'प्रबोधिनी एकादशीको एक ही उपवास कर इस व्रतके द्वारा देवेश्वर ! जनार्दनको सन्तुष्ट करके मनुष्य लेनेसे मनुष्य हजार अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञका सम्पूर्ण दिशाओंको अपने तेजसे प्रकाशित करता हुआ फल पा लेता है। बेटा ! जो दुर्लभ है, जिसकी प्राप्ति श्रीहरिके वैकुण्ठ धामको जाता है। 'प्रबोधिनी' को. असम्भव है तथा जिसे त्रिलोकीमें किसीने भी नहीं देखा पूजित होनेपर भगवान् गोविन्द मनुष्योंके बचपन, जवानी है; ऐसी वस्तुके लिये भी याचना करनेपर 'प्रबोधिनी' और बुढ़ापेमें किये हुए सौ जन्मोंके पापोंको, चाहे वे एकादशी उसे देती है। भक्तिपूर्वक उपवास करनेपर अधिक हों या कम, धो डालते हैं। अतः सर्वथा प्रयत्न मनुष्योंको 'हरिबोधिनी' एकादशी ऐश्वर्य, सम्पत्ति, उत्तम करके सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंको देनेवाले देवाधिदेव बुद्धि, राज्य तथा सुख प्रदान करती है। मेरुपर्वतके जनार्दनको उपासना करनी चाहिये। बेटा नारद ! जो समान जो बड़े-बड़े पाप है, उन सबको यह पापनाशिनी भगवान् विष्णुके भजनमें तत्पर होकर कार्तिकमें पराये "प्रबोधिनी' एक ही उपवाससे भस्म कर देती है। पहलेके अन्नका त्याग करता है, वह चान्द्रायण व्रतका फल पाता हजारों जन्मों में जो पाप किये गये हैं, उन्हें 'प्रबोधिनी' की है। जो प्रतिदिन शास्त्रीय चर्चासे मनोरञ्जन करते हुए रात्रिका जागरण रूईकी ढेरीके समान भस्म कर डालता कार्तिक मास व्यतीत करता है, वह अपने सम्पूर्ण है। जो लोग 'प्रबोधिनी एकादशीका मनसे ध्यान करते पापोंको जला डालता और दस हजार यज्ञोंका फल प्राप्त तथा जो इसके व्रतका अनुष्ठान करते हैं, उनके पितर करता है। कार्तिक मासमें शास्त्रीय कथाके कहनेनरकके दुःखोंसे छुटकारा पाकर भगवान् विष्णुके सुननेसे भगवान् मधुसूदनको जैसा सन्तोष होता है, वैसा परमधामको चले जाते हैं। ब्रह्मन् ! अश्वमेध आदि उन्हें यज्ञ, दान अथवा जप आदिसे भी नहीं होता । जो यज्ञोंसे भी जिस फलकी प्राप्ति कठिन है, वह 'प्रबोधिनी' शुभकर्म-परायण पुरुष कार्तिक मासमें एक या आधा एकादशीको जागरण करनेसे अनायास ही मिल जाता श्लोक भी भगवान् विष्णुको कथा बाँचते हैं, उन्हें सौ है। सम्पूर्ण तीर्थोंमें नहाकर सुवर्ण और पृथ्वी दान गोदानका फल मिलता है। महामुने ! कार्तिकमें भगवान् करनेसे जो फल मिलता है, वह श्रीहरिके निमित्त जागरण केशवके सामने शास्त्रका स्वाध्याय तथा श्रवण करना करनेमात्रसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है। जैसे मनुष्योंके चाहिये। मुनिश्रेष्ठ ! जो कार्तिकमें कल्याण-प्राप्तिके लिये मृत्यु अनिवार्य है, उसी प्रकार धन-सम्पत्तिमात्र भी लोभसे श्रीहरिकी कथाका प्रबन्ध करता है, वह अपनी क्षणभङ्गर है; ऐसा समझकर एकादशीका व्रत करना सौ पीढ़ियोंको तार देता है। जो मनुष्य सदा नियमपूर्वक चाहिये। तीनों लोकोंमें जो कोई भी तीर्थ सम्भव हैं, वे कार्तिक मासमें भगवान् विष्णुकी कथा सुनता है, उसे सब 'प्रबोधिनी एकादशीका व्रत करनेवाले मनुष्यके सहस्र गोदानका फल मिलता है। जो 'प्रबोधिनी' घरमें मौजूद रहते हैं। कार्तिककी 'हरिबोधिनी एकादशी एकादशीके दिन श्रीविष्णुकी कथा श्रवण करता है, उसे पुत्र तथा पौत्र प्रदान करनेवाली है। जो 'प्रबोधिनी'को सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वी दान करनेका फल प्राप्त होता उपासना करता है, वही ज्ञानी है, वही योगी है, वही है। मुनिश्रेष्ठ ! जो भगवान् विष्णुकी कथा सुनकर अपनी तपस्वी और जितेन्द्रिय है तथा उसीको भोग और मोक्षकी शक्तिके अनुसार कथा-वाचककी पूजा करते हैं, उन्हें प्राप्ति होती है।
अक्षय लोककी प्राप्ति होती है। नारद ! जो मनुष्य ____ बेटा ! 'प्रबोधिनी एकादशीको भगवान् विष्णुके कार्तिक मासमें भगवत्संबन्धी गीत और शास्त्रविनोदके उद्देश्यसे मानव जो स्नान, दान, जप और होम करता है, द्वारा समय बिताता है, उसकी पुनरावृत्ति मैंने नहीं देखी वह सब अक्षय होता है। जो मनुष्य उस तिथिको है। मुने! जो पुण्यात्मा पुरुष भगवान्के समक्ष गान, उपवास करके भगवान् माधवकी भक्तिपूर्वक पूजा करते नृत्य, वाद्य और श्रीविष्णुको कथा करता है, वह तीनों हैं, वे सौ जन्मोंके पापोंसे छुटकारा पा जाते हैं। लोकोंके ऊपर विराजमान होता है।
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उत्तरखण्ड ]
. पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्म्य .
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, मुनिश्रेष्ठ ! कार्तिकको 'प्रबोधिनी एकादशीके दिन होनेपर भगवान् गरुड़ध्वज एक हजार वर्षतक अत्यन्त बहुत-से फल-फूल, कपूर, अरगजा और कुङ्कमके द्वारा तृप्त रहते है। देवर्षे ! जो अगस्तके फूलसे भगवान श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये । एकादशी आनेपर धनकी जनार्दनकी पूजा करता है, उसके दर्शनमात्रसे नरककी कंजूसी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उस दिन दान आदि आग बुझ जाती है। वत्स ! जो कार्तिको भगवान् करनेसे असंख्य पुण्यकी प्राप्ति होती है। 'प्रबोधिनी' को जनार्दनको तुलसीके पत्र और पुष्प अर्पण करते हैं, जागरणके समय शङ्खमें जल लेकर फल तथा नाना उनका जन्मभरका किया हुआ सारा पाप भस्म हो जाता प्रकारके द्रव्योंके साथ श्रीजनार्दनको अर्घ्य देना चाहिये। है। मुने ! जो प्रतिदिन दर्शन, स्पर्श, ध्यान, नाम-कीर्तन, सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करने और सब प्रकारके दान देनेसे स्तवन, अर्पण, सेचन, नित्यपूजन तथा नमस्कारके द्वारा जो फल मिलता है, वही 'प्रबोधिनी एकादशीको अर्घ्य तुलसीमें नव प्रकारको भक्ति करते हैं, वे कोटि सहस्त्र देनेसे करोड़ गुना होकर प्राप्त होता है। देवर्षे ! अय॑के युगोतक पुण्यका विस्तार करते हैं।* नारद ! सब पश्चात् भोजन-आच्छादन और दक्षिणा आदिके द्वारा प्रकारके फूलों और पत्तोंको चढ़ानेसे जो फल होता है, भगवान् विष्णुको प्रसन्नताके लिये गुरुकी पूजा करनी वह कार्तिक मासमें तुलसीके एक पत्तेसे मिल जाता है। चाहिये। जो मनुष्य उस दिन श्रीमद्भागवतकी कथा कार्तिक आया देख प्रतिदिन नियमपूर्वक तुलसीके सुनता अथवा पुराणका पाठ करता है, उसे एक-एक कोमल पत्तोंसे महाविष्णु श्रीजनार्दनका पूजन करना अक्षरपर कपिलादानका फल मिलता है। मुनिश्रेष्ठ ! चाहिये। सौ यज्ञोंद्वारा देवताओका यजन करने और कार्तिकमें जो मनुष्य अपनी शक्तिके अनुसार शास्त्रोक्त अनेक प्रकारके दान देनेसे जो पुण्य होता है, वह रोतिसे वैष्णवव्रत (एकादशी) का पालन करता है, कार्तिकमें तुलसीदलमात्रसे केशवकी पूजा करनेपर प्राप्त उसकी मुक्ति अविचल है। केतकीके एक पत्तेसे पूजित हो जाता है।
पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा' एकादशीका माहात्म्य
युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! अब मैं श्रीविष्णुके उत्तम है? व्रतोंमें उत्तम व्रतका, जो सब पापोको हर लेनेवाला तथा भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजेन्द्र ! अधिक व्रती मनुष्योंको मनोवाञ्छित फल देनेवाला हो, श्रवण मास आनेपर जो एकादशी होती है, वह 'कमला' नामसे करना चाहता हूँ। जनार्दन ! पुरुषोत्तम मासकी प्रसिद्ध है। वह तिथियोंमें उत्तम तिथि है। उसके व्रतके एकादशीको कथा कहिये. उसका क्या फल है ? और प्रभावसे लक्ष्मी अनुकूल होती है। उस दिन ब्राह्म उसमें किस देवताका पूजन किया जाता है? प्रभो ! मुहूर्तमे उठकर भगवान् पुरुषोतमका स्मरण करे और किस दानका क्या पुण्य है? मनुष्योंको क्या करना विधिपूर्वक स्रान करके व्रती पुरुष प्रतका नियम ग्रहण चाहिये? उस समय कैसे स्रान किया जाता है ? किस करे। घरपर जप करनेका एक गुना, नदीके तटपर दूना, मन्त्रका जप होता है? कैसी पूजन-विधि बतायी गयी गोशालामें सहस्रगुना, अग्निहोत्रगृहमें एक हजार एक सौ है? पुरुषोत्तम ! पुरुषोत्तम मासमें किस अन्नका भोजन गुना, शिक्के क्षेत्रों में, तीर्थोमें, देवताओंके निकट तथा
* तुलसीदलपुष्पाणि ये यच्छन्ति जनार्दने । कार्तिके सकलं वत्स पार्य जन्मार्जितं दहेत्॥
दृष्टा स्पृष्टाथ वा ध्याता कीर्तिता नामतः स्तुता । ऐपिता सेचिता नित्य पूजिता तुलसी नता ॥ नवधा तुलसीभक्ति ये कुर्वन्ति दिने दिने । युगकोटिसहस्राणि तन्वन्ति सुकृत मुने ॥ (६३।६१-६३)
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
अनन्त गुना फल होता है।
तुलसीके समीप लाख गुना और भगवान् विष्णुके निकट 'कमला' एकादशीके व्रतके प्रभावसे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ और देवाधिदेव श्रीहरिकी आज्ञा पाकर वैकुण्ठधामसे आयी हूँ। मैं तुम्हें वर दूँगी।'
ब्राह्मण बोला- माता लक्ष्मी ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो वह व्रत बताइये, जिसकी कथा वार्तामें साधु-ब्राह्मण सदा संलग्न रहते हैं।
अवन्तीपुरीमें शिवशर्मा नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, उनके पाँच पुत्र थे। इनमें जो सबसे छोटा था, वह पापाचारी हो गया; इसलिये पिता तथा स्वजनोंने उसे त्याग दिया। अपने बुरे कर्मो के कारण निर्वासित होकर वह बहुत दूर वनमें चला गया। दैवयोगसे एक दिन वह तीर्थराज प्रयागमें जा पहुँचा। भूखसे दुर्बल शरीर और दीन मुख लिये उसने त्रिवेणीमें स्नान किया। फिर क्षुधासे पीड़ित होकर वह वहाँ मुनियोंके आश्रम खोजने लगा। इतनेमें उसे वहाँ हरिमित्र मुनिका उत्तम आश्रम दिखायी दिया। पुरुषोत्तम मासमें वहाँ बहुत से मनुष्य एकत्रित हुए थे। आश्रमपर पापनाशक कथा कहनेवाले ब्राह्मणोंके मुखसे उसने श्रद्धापूर्वक 'कमला' एकादशीकी महिमा सुनी, जो परम पुण्यमयी तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। जयशर्माने विधिपूर्वक 'कमला' एकादशीकी कथा सुनकर उन सबके साथ मुनिके आश्रमपर ही व्रत किया। जब आधी रात हुई तो भगवती लक्ष्मी उसके पास आकर बोलीं- 'ब्रह्मन् ! इस समय
लक्ष्मीने कहा- ब्राह्मण! एकादशी व्रतका माहात्म्य श्रोताओंके सुनने योग्य सर्वोत्तम विषय है। यह पवित्र वस्तुओंमें सबसे उत्तम है। इससे दुःस्वप्रका नाश तथा पुण्यकी प्राप्ति होती हैं, अतः इसका यलपूर्वक श्रवण करना चाहिये। उत्तम पुरुष श्रद्धासे युक्त हो एक या आधे श्लोकका पाठ करनेसे भी करोड़ों महापातकों से तत्काल मुक्त हो जाता है। जैसे मासोंमें पुरुषोत्तम मास, पक्षियोंमें गरुड़ तथा नदियोंमें गङ्गा श्रेष्ठ हैं; उसी प्रकार तिथियोंमें द्वादशी तिथि उत्तम है। समस्त देवता आज भी [ एकादशी व्रतके ही लोभसे] भारतवर्षमें जन्म लेनेकी इच्छा रखते हैं। देवगण सदा ही रोग-शोकसे रहित भगवान् नारायणका पूजन करते हैं। जो लोग मेरे प्रभु भगवान् नारायणके नामका सदा भक्तिपूर्वक जप करते हैं, उनकी ब्रह्मा आदि देवता सर्वदा पूजा करते हैं। जो लोग श्रीहरिके नाम-जपमें संलग्न है, उनकी लीलाकथाओंके कीर्तनमें तत्पर हैं तथा निरन्तर श्रीहरिकी पूजामें ही प्रवृत्त रहते हैं; वे मनुष्य कलियुगमें कृतार्थ हैं। यदि दिनमें एकादशी और द्वादशी हो तथा रात्रि बीततेबीतते त्रयोदशी आ जाय तो उस त्रयोदशीके पारणमें सौ यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। व्रत करनेवाला पुरुष चक्रसुदर्शनधारी देवाधिदेव श्रीविष्णुके समक्ष निम्राङ्कित मन्त्रका उच्चारण करके भक्तिभावसे संतुष्टचित्त होकर उपवास करे। वह मन्त्र इस प्रकार है
एकादश्यां निराहारः स्थित्वाहमपरेऽहनि ॥ भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥ (६४ | ३४)
'कमलनयन ! भगवान् अच्युत ! मै एकादशीको निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मुझे शरण दें।'
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. पुरुषोतम मासको 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य .
तत्पश्चात् व्रत करनेवाला मनुष्य मन और इन्द्रियोंको कलियुगमें तो एकादशी ही भव-बन्धनसे मुक्त वशमें करके गीत, वाद्य, नृत्य और पुराण-पाठ आदिके करनेवाली, सम्पूर्ण मनोवाञ्छित कामनाओंको देनेवाली द्वारा रात्रिमें भगवान्के समक्ष जागरण करे। फिर तथा पापोंका नाश करनेवाली है। एकादशी रविवारको, द्वादशीके दिन उठकर स्नानके पश्चात् जितेन्द्रियभावसे किसी मङ्गलमय पर्वके समय अथवा संक्रान्तिके ही दिन विधिपूर्वक श्रीविष्णुको पूजा करे । एकादशीको पशामृतसे क्यों न हो, सदा ही उसका व्रत करना चाहिये । भगवान् जनार्दनको नहलाकर द्वादशीको केवल दूधमें स्रान विष्णुके प्रिय भक्तोंको एकादशीका त्याग कभी नहीं करना करानेसे श्रीहरिका सायुज्य प्राप्त होता है। पूजा करके चाहिये। जो शास्त्रोक्त विधिसे इस लोकमें एकादशीका भगवानसे इस प्रकार प्रार्थना करे
व्रत करते हैं, वे जीवन्मुक्त देखे जाते हैं, इसमें तनिक भी अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव। सन्देह नहीं है। प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ॥ युधिष्ठिरने पूछा-श्रीकृष्ण ! वे जीवन्मुक्त कैसे
(६४।३९) हैं? तथा विष्णुरूप कैसे होते हैं? मुझे इस विषयको 'केशव ! मैं अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधा हो गया जाननेके लिये बड़ी उत्सुकता हो रही है। हूँ। आप इस व्रतसे प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! जो ज्ञानदृष्टि प्रदान करें।
कलियुगमे भक्तिपूर्वक शास्त्रीय विधिके अनुसार इस प्रकार देवताओंके स्वामी देवाधिदेव भगवान् निर्जल रहकर एकादशीका उत्तम व्रत करते हैं, वे गदाधरसे निवेदन करके भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन विष्णुरूप तथा जीवन्मुक्त क्यों नहीं हो सकते हैं ? कराये तथा उन्हें दक्षिणा दे। उसके बाद भगवान् एकादशीव्रतके समान सब पापोंको हरनेवाला तथा नारायणके शरणागत होकर बलिवैश्वदेवकी विधिसे मनुष्योंकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला पवित्र पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान करके स्वयं मौन हो अपने बन्धु- व्रत दूसरा कोई नहीं है। दशमीको एक बार भोजन, बान्धवोंके साथ भोजन करे । इस प्रकार जो शुद्ध भावसे एकादशीको निर्जल व्रत तथा द्वादशीको पारण करके पुण्यमय एकादशीका व्रत करता है, वह पुनरावृत्तिसे रहित मनुष्य श्रीविष्णुके समान हो जाते हैं। पुरुषोत्तम मासके वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है।
द्वितीय पक्षकी एकादशीका नाम 'कामदा' है। जो भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-राजन् ! ऐसा श्रद्धापूर्वक 'कामदा के शुभ व्रतका अनुष्ठान करता है, कहकर लक्ष्मीदेवी उस ब्राह्मणको वरदान दे अन्तर्धान हो वह इस लोक और परलोकमें भी मनोवाञ्छित वस्तुको गयीं। फिर वह ब्राह्मण भी धनी होकर पिताके घरपर आ पाता है। यह 'कामदा' पवित्र, पावन, महापातकनाशिनी गया। इस प्रकार जो 'कमला' का उत्तम व्रत करता है तथा व्रत करनेवालोंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली तथा एकादशीके दिन इसका माहात्म्य सुनता है, वह सब है। नृपश्रेष्ठ ! 'कामदा एकादशीको विधिपूर्वक पुष्प, पापोंसे मुक्त हो जाता है।
धूप, नैवेद्य तथा फल आदिके द्वारा भगवान् युधिष्ठिर बोले-जनार्दन ! पापका नाश और पुरुषोत्तमकी पूजा करनी चाहिये । व्रत करनेवाला वैष्णव पुण्यका दान करनेवाली एकादशीके माहात्म्यका पुनः पुरुष दशमी तिथिको काँसके बर्तन, उड़द, मसूर, चना, वर्णन कीजिये, जिसे इस लोकमें करके मनुष्य परम कोदो, साग, मधु, पराया अत्र, दो बार भोजन तथा पदको प्राप्त होता है।
मैथुन-इन दसोंका परित्याग करे। इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने कहा-राजन् ! शुक्ल या एकादशीको जूआ, निद्रा, पान, दाँतुन, परायी निन्दा, कृष्णपक्षमें जभी एकादशी प्राप्त हो, उसका परित्याग न चुगली, चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध और असत्यकरे, क्योंकि वह मोक्षरूप सुखको बढ़ानेवाली है। भाषण-इन ग्यारह दोषोंको त्याग दे तथा द्वादशीके
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् ......
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
दिन काँसका बर्तन, उड़द, मसूर, तेल, असत्य-भाषण, 'कामदा एकादशीका व्रत किया और रात्रि जागरण व्यायाम, परदेशगमन, दो बार भोजन, मैथुन, बैलकी करके श्रीपुरुषोत्तमकी पूजा की है, वे सब पापोंसे मुक्त पीठपर सवारी, पराया अत्र तथा साग-इन बारह हो परम गतिको प्राप्त होते हैं। इसके पढ़ने और सुननेसे वस्तुओंका त्याग करे। राजन् ! जिन्होंने इस विधिसे सहस गोदानका फल मिलता है।
चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन नारदजीने पूछा-महेश्वर ! पृथ्वीपर चातुर्मास्य 'जगत्राथ ! आपके सो जानेपर यह सारा जगत् सो व्रतके जो प्रसिद्ध नियम हैं, उन्हें मैं सुनना चाहता हूँ; जाता है तथा आपके जाग्रत् होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत् आप उनका वर्णन कीजिये।
जाग उठता है।' महादेवजी बोले-देवर्षे ! सुनो, मैं तुम्हारे नारद ! इस प्रकार भगवान् विष्णुको प्रतिमाको प्रश्नका उत्तर देता हूँ। आषाढ़के शुक्लपक्षमें एकादशीको स्थापित करके उसीके आगे स्वयं वाणीसे कहकर उपवास करके भक्तिपूर्वक चातुर्मास्य व्रतके नियम ग्रहण चातुर्मास्य व्रतके नियम ग्रहण करे। स्त्री हो या पुरुष, जो करे। श्रीहरिके योगनिद्रामें प्रवृत्त हो जानेपर मनुष्य चार भगवान्का भक्त हो, उसे हरिबोधिनी एकादशीतक चार मास अर्थात् कार्तिककी पूर्णिमातक भूमिपर शयन करे। महीनोंके लिये नियम अवश्य ग्रहण करने चाहिये। इस बीचमें न तो घर या मन्दिर आदिकी प्रतिष्ठा होती है जितात्मा पुरुष निर्मल प्रभातकालमें दन्तधावनपूर्वक और न यज्ञादि कार्य ही सम्पन्न होते हैं, विवाह, उपवास करके नित्यकर्मका अनुष्ठान करनेके पश्चात् यज्ञोपवीत, अन्यान्य माङ्गलिक कर्म, राजाओंकी यात्रा भगवान् विष्णुके समक्ष जिन नियमोंको ग्रहण करता है, तथा नाना प्रकारकी दूसरी-दूसरी क्रियाएँ भी नहीं होती। उनका तथा उनके पालन करनेवालोंका फल पृथक्मनुष्य एक हजार अश्वमेध यज्ञ करनेसे जिस फलको पृथक् बतलाता हूँ। पाता है, वही चातुर्मास्य व्रतके अनुष्ठानसे प्राप्त कर लेता विद्वन् ! चातुर्मास्यमें गुडका त्याग करनेसे मनुष्यको है। जब सूर्य मिथुन राशिपर हों, तब भगवान् मधुसूदनको मधुरताकी प्राप्ति होती है। इसी प्रकार तेलको त्याग देनेसे शयन कराये और तुला राशिके सूर्य होनेपर पुनः श्रीहरिको दीर्घायु संतान और सुगन्धित तेलके त्यागसे अनुपम शयनसे उठाये। यदि मलमास आ जाय तो निम्नलिखित सौभाग्यकी प्राप्ति होती है। योगाभ्यासी मनुष्य ब्रह्मपदको विधिका अनुष्ठान करे। भगवान् विष्णुको प्रतिमा स्थापित प्राप्त होता है। ताम्बूलका त्याग करनेसे मनुष्य भोगकरे, जो शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाली हो, जिसे सामग्रीसे सम्पन्न होता और उसका कण्ठ सुरीला होता पीताम्बर पहनाया गया हो तथा जो सौम्य आकारवाली है। घीके त्यागसे लावण्यकी प्राप्ति होती और शरीर हो। नारद ! उसे शुद्ध एवं सुन्दर पलंगपर, जिसके ऊपर चिकना होता है। विप्रवर ! फलका त्याग करनेवालेको सफेद चादर बिछी हो और तकिया रखी हो, स्थापित करे। बहुत-से पुत्रोंकी प्राप्ति होती है। जो चौमासेभर पलाशके फिर दही, दूध, मधु, लावा और घौसे नहलाकर उत्तम पत्तेमें भोजन करता है, वह रूपवान् और भोगसामग्रीसे चन्दनका लेप करे। तत्पश्चात् धूप दिखाकर मनोहर सम्पन्न होता है। दही-दूध छोड़नेवाले मनुष्यको गोलोक पुष्पोंसे शृङ्गार करे। इस प्रकार उसकी पूजा करके मिलता है। जो मौनव्रत धारण करता है, उसकी आज्ञा निम्नाङ्कित मन्त्रसे प्रार्थना करे
भंग नहीं होती। जो स्थालीपाक (बटलोईमें भोजन सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सनं भवेदिदम्। बनाकर खाने) का त्याग करता है, वह इन्द्रका सिंहासन विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत्सर्व चराचरम् ॥ प्राप्त करता है। नारद ! इस प्रकारके त्यागसे धर्मकी
(६६ । १५) सिद्धि होती है। इसके साथ 'नमो नारायणाय' का जप
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. चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन .
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करनेसे सौगुने फलकी प्राप्ति होती है। चौमासेका व्रत वृक्ष-पलाश पापोका नाशक और सम्पूर्ण कामनाओंका करनेवाला पुरुष पोखरेमें स्नान करनेमात्रसे गङ्गा-स्रानका दाता है। नारद ! इसका विचला पत्ता शूद्र जातिके लिये फल पाता है। जो सदा पृथ्वीपर भोजन करता है, वह निषिद्ध है। यदि शूद्र पलाशके बिचले पत्रमें भोजन पृथ्वीका स्वामी होता है। श्रीविष्णुकी चरण-वन्दना करता है तो उसे चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त नरकमें रहना करनेसे गोदानका फल मिलता है। उनके चरण- पड़ता है। अतः वह बिचले पत्रको त्याग दे और शेष कमलोंका स्पर्श करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। पत्रों में भोजन किया करे । ब्रह्मन् ! जो शूद्र बिचले पत्रमें प्रतिदिन एक समय भोजन करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम भोजन करता है, वह ब्राह्मणको कपिला गौ दान करनेसे यज्ञका फलभागी होता है। जो श्रीविष्णुकी एक सौ आठ ही शुद्ध होता है, अन्यथा नहीं। बार परिक्रमा करता है, वह दिव्य विमानपर बैठकर यात्रा यदि शूद्र अपने घरमें कपिला गौका दोहन करे तो करता है। विद्वन् । पचगव्य खानेवाले मनुष्यको वह दस हजार वर्षांतक विष्ठाका कीड़ा होता है। कीड़ेकी चान्द्रायणका फल मिलता है। जो प्रतिदिन भगवान् योनिसे छूटनेपर पशुयोनिमें जन्म लेता है। जो शूद्र विष्णुके आगे शास्त्रविनोदके द्वारा लोगोंको ज्ञान देता है, कपिल जातिके बैलको गाड़ीमें जोतकर हाँकता है, वह वह व्यासस्वरूप विद्वान् श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। उस बैलके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षातक तुलसीदलसे भगवानकी पूजा करके मानव वैकुण्ठ- कुम्भीपाकमें पकाया जाता है; यदि शूद्र पानी लानेके धाममें जाता है। गर्म जलका त्याग कर देनेसे पुष्कर लिये किसी ब्राह्मणको घरमें भेजे तो वह जल मदिराके तीर्थ में स्नान करनेका फल होता है। जो पत्तोंमें भोजन तुल्य होता है और उसे पीनेवाला नरकमें जाता है। जो करता है, उसे कुरुक्षेत्रका फल मिलता है। जो प्रतिदिन शूद्र बुलानेपर ब्राह्मणोंके घर भोजन करता है, उसके पत्थरकी शिलापर भोजन करता है, उसे प्रयाग-तीर्थका लिये वह अन्न अमृतके समान होता है और उसे खाकर पुण्य प्राप्त होता है।
वह मोक्ष प्राप्त करता है। जो शूद्र लोभवश दूसरेका, _चौमासेमें काँसीके बरतनोंका त्याग करके अन्यान्य विशेषतः ब्राह्मणोंका सोना या चाँदी ले लेता है, वह धातुओंके पात्रोंका उपयोग करे। अन्य किसी प्रकारका नरकमें जाता है। शूद्रको चाहिये कि वह सदा ब्राह्मणोंको पात्र न मिलनेपर मिट्टीका ही पात्र उत्तम है। अथवा स्वयं दान दे और उनमें विशेषरूपसे भक्तिभाव करे । विशेषतः ही पलाशके पत्ते लाकर उनकी पत्तल बनावे और उनसे चौमासेमें जैसे भगवान् विष्णु आराधनीय हैं, वैसे ही भोजन-पात्रका काम ले। जो पूरे एक वर्षतक प्रतिदिन ब्राह्मण भी। नारद ! ब्राह्मणों की विधिपूर्वक पूजा करनी अग्निहोत्र करता है और जो वनमें रहकर केवल पत्तोंमें चाहिये । भाद्रपद मास आनेपर उनकी महापूजा होती है। भोजन करता है, उन दोनोंको समान फल मिलता है। चौमासेमें भूमिपर शयन करनेवाला मनुष्य विमान प्राप्त पलाशके पत्तोंमें किया हुआ भोजन चान्द्रायणके समान करता है। दस हजार वर्षांतक उसे रोग नहीं सताते । वह माना गया है। पलाशके पत्तोंमें एक-एक बारका भोजन मनुष्य बहुत-से पुत्र और धनसे युक्त होता है। उसे कभी त्रिरात्र-व्रतके समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकोका कोढ़की बीमारी नहीं होती। बिना माँगे स्वतः प्राप्त हुए नाश करनेवाला बताया गया है । एकादशीके व्रतका जो अन्नका भोजन करनेसे बावली और कुआँ बनवानेका पुण्य है, वही पलाशके पत्तेमें भोजन करनेका भी फल होता है। जो प्राणियोंकी हिंसासे मुँह मोड़कर बतलाया गया है। उससे मनुष्य सब प्रकारके दानों तथा द्रोहका त्याग कर देता है, वह भी पूर्वोक्त पुण्यका भागी समस्त तीर्थोका फल पा लेता है । कमलके पत्तोंमें भोजन होता है। वेदोंमें बताया गया है कि 'अहिंसा श्रेष्ठ धर्म करनेसे कभी नरक नहीं देखना पड़ता। ब्राह्मण उसमें है।' दान, दया और दम-ये भी उत्तम धर्म हैं, यह भोजन करनेसे वैकुण्ठमें जाता है। ब्रह्माजीका महान् बात मैंने सर्वत्र ही सुनी है; अतः बड़े लोगोंको भी
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चाहिये कि वे पूरा प्रयत्न करके उक्त धर्मोका पालन करे। अशुद्ध हो जाता है। यदि मानव उस अपवित्र अन्नको यह चातुर्मास्य व्रत मनुष्योंद्वारा सदा पालन करनेयोग्य खा ले तो वह दोषका भागी होता है। है। ब्रह्मन् ! और अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता? मौन होकर भोजन करनेवाला पुरुष निस्सन्देह इस पृथ्वीपर जो लोग भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे धन्य स्वर्गलोकमें जाता है। जो बात करते हुए भोजन करता हैं ! उनका कुल अत्यन्त धन्य है ! तथा उनकी जाति भी है, उसके वार्तालापसे अन्न अशुद्ध हो जाता है, वह परम धन्य मानी गयी है।
केवल पापका भोजन करता है; अतः मौन-धारण जो भगवान् जनार्दनके शयन करनेपर मधु भक्षण अवश्य करना चाहिये। नारद ! मौनावलम्बनपूर्वक जो करता है, उसे महान् पाप लगता है; अब उसके भोजन किया जाता है, उसे उपवासके समान जानना त्यागनेका जो पुण्य है, उसका भी श्रवण करो, नाना चाहिये। जो नरश्रेष्ठ प्रतिदिन प्राणवायुको पाँच आहुतियाँ प्रकारके जितने भी यज्ञ हैं, उन सबके अनुष्ठानका फल देकर मौन भोजन करता है, उसके पाँच पातक निश्चय ही उसे प्राप्त होता है। चौमासेमें अनार, नीबू और नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मन् ! पितृकर्म (श्राद्ध) में सिला नारियलका भी त्याग करे। ऐसा करनेवाला पुरुष हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिये। अपवित्र अङ्गपर पड़ा विमानपर विचरनेवाला देवता होकर अन्तमें भगवान् हुआ वख भी अशुद्ध हो जाता है। मल-मूत्रका त्याग विष्णुके वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। जो मनुष्य धान, अथवा मैथुन करते समय कमर अथवा पीठपर जो वस्त्र जौ और गेहूँका त्याग करता है, वह विधिपूर्वक रहता है, उस वस्त्रको अवश्य ही बदल दे। श्राद्धमें तो दक्षिणासहित अश्वमेधादि यज्ञोंके अनुष्ठानका फल पाता ऐसे वस्त्रको त्याग देना ही उचित है। मुने! विद्वान है। साथ ही वह धन-धान्यसे सम्पन्न और अनेक पुत्रोंसे पुरुषोंको सदा चक्रधारी भगवान् विष्णुको पूजा करनी युक्त होता है। तुलसीदल, तिल और कुशोंसे तर्पण चाहिये। विशेषतः पवित्र एवं जितेन्द्रिय पुरुषोंका यह करनेका फल कोटिगुना बताया गया है। विशेषतः आवश्यक कर्तव्य है। भगवान् हषीकेशके शयन चातुर्मास्यमें उसका फल बहुत अधिक होता है। जो करनेपर तृणशाक (पत्तियोंका साग), कुसुम्भिका भगवान् विष्णुके सामने वेदके एक या आधे पदका (लौकी) तथा सिले हुए कपड़े यत्नपूर्वक त्याग देने अथवा एक या आध ऋचाका भी गान करते हैं, वे चाहिये। जो चौमासेमें भगवानके शयन करनेपर इन निश्चय ही भगवान्के भक्त हैं। इसमें तनिक भी सन्देह वस्तुओंको त्याग देता है, वह कल्पपर्यन्त कभी नरकमें नहीं है। नारद ! जो चौमासमें दही, दूध, पत्र, गुड़ और नहीं पड़ता। विप्रवर ! जिसने असत्य-भाषण, क्रोध, साग छोड़ देता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। शहद तथा पर्वके अवसरपर मैथुनका त्याग कर दिया है, मुने ! जो मनुष्य प्रतिदिन आँवला मिले हुए जलसे ही वह अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। विद्वन् ! किसी नान करते हैं, उन्हें नित्य महान् पुण्य प्राप्त होता है। पदार्थको उपभोगमें लानेके पहले उसमेंसे कुछ मनीषी पुरुष आँवलेके फलको पापहारी बतलाते हैं। ब्राह्मणको दान करना चाहिये; जो ब्राह्मणको दिया जाता ब्रह्माजीने तीनों लोकोंको तारनेके लिये पूर्वकालमें है, वह धन अक्षय होता है। ब्रह्मन् ! मनुष्य दान में दिये
आँवलेकी सृष्टि की थी। जो मनुष्य चौमासेभर अपने हुए धनका कोटि-कोटि गुना फल पाता है। जो पुरुष हाथसे भोजन बनाकर खाता है, वह दस हजार वर्षातक सदा ब्राह्मणकी बतायी हुई उत्तम विधि तथा शास्त्रोक्त इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो मौन होकर भोजन नियमोंका पालन करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है, करता है, वह कभी दुःखमें नहीं पड़ता। मौन होकर अतः पूर्ण प्रयत्न करके यथाशक्ति नियम और दानके भोजन करनेवाले राक्षस भी स्वर्गलोकमें चले गये हैं। द्वारा देवाधिदेव जनार्दनको संतुष्ट करना चाहिये। यदि पके हुए अन्नमें कीड़े-मकोड़े पड़ जाय तो वह नारदजीने पूछा-विश्वेश्वर ! जिसके आचरणसे
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उत्तरखण्ड ]
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भगवान् गोविन्द मनुष्योंपर संतुष्ट होते हैं, वह ब्रह्मचर्य कैसा होता है ? प्रभो! यह बतलानेकी कृपा करें।
महादेवजीने कहा- विद्वन्! जो केवल अपनी ही स्त्रीसे अनुराग रखता है, उसे विद्वानोंने ब्रह्मचारी माना है। केवल ऋतुकालमें स्त्रीसमागम करनेसे ब्रह्मचर्यकी रक्षा होती है। जो अपनेमें भक्ति रखनेवाली निर्दोष पलीका परित्याग करता है, वह पापी मनुष्य लोकमें भ्रूणहत्याको प्राप्त होता है।
चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन •
चौमासेमें जो स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किया जाता है, वह सब अक्षय होता है। जो एक अथवा दोनों समय पुराण सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके धामको जाता है। जो भगवान् के शयन करनेपर विशेषतः उनके नामका कीर्तन और जप करता है, उसे कोटिगुना फल मिलता है। जो ब्राह्मण भगवान् विष्णुका भक्त है और प्रतिदिन उनका पूजन करता है, वही सबमें धर्मात्मा तथा वही सबसे पूज्य है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मुने! इस पुण्यमय पवित्र एवं पापनाशक चातुर्मास्य व्रतको सुननेसे मनुष्यको गङ्गास्नानका फल मिलता है।
नारदजीने कहा- प्रभो! चातुर्मास्य व्रतका उद्यापन बतलाइये; क्योंकि उद्यापन करनेपर निश्चय ही सब कुछ परिपूर्ण होता है।
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महादेवजी बोले—महाभाग ! यदि व्रत करनेवाला पुरुष व्रत करनेके पश्चात् उसका उद्यापन नहीं करता, तो वह कर्मोके यथावत् फलका भागी नहीं होता। मुनिश्रेष्ठ ! उस समय विशेषरूपसे सुवर्णके साथ अत्रका दान करना चाहिये, क्योंकि अनके दानसे वह विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो मनुष्य चौमासेभर पलाशकी पत्तलमें भोजन करता है, वह उद्यापनके समय ★
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घीके साथ भोजनका पदार्थ ब्राह्मणको दान करे। यदि उसने अयाचित व्रत (विना माँगे स्वतः प्राप्त अत्रका भोजन) किया हो तो सुवर्णयुक्त वृषभका दान करे। मुनिश्रेष्ठ! उड़दका त्याग करनेवाला पुरुष बछड़े सहित गौका दान करे। आँवलेके फलसे स्नानका नियम पालन करनेपर मनुष्य एक माशा सुवर्ण दान करे। फलोंके त्यागका नियम करनेपर फल दान करे। धान्यके त्यागका नियम होनेपर कोई सा धान्य (अन्न) अथवा अगहनीके चावलका दान करे। भूमिशयनका नियम पालन करनेपर रूईके गद्दे और तकियेसहित शय्यादान करे। द्विजवर ! जिसने चौमासेमें ब्रह्मचर्यका पालन किया है, उसको चाहिये कि भक्तिपूर्वक ब्राह्मण-दम्पतिको भोजन दे, साथ ही उपभोगके अन्यान्य सामान, दक्षिणा, साग और नमक दान करे। प्रतिदिन बिना तेल लगाये स्नानका नियम पालन करनेवाला मनुष्य घी और सत्तू दान करे। नख और केश रखनेका नियम पालन करनेपर दर्पण दान करे। यदि जूते छोड़ दिये हों तो उद्यापनके समय जूतोंका दान करना चाहिये। जो प्रतिदिन दीपदान करता रहा हो, वह उस दिन सोनेका दीप प्रस्तुत करे और उसमें घी डालकर विष्णुभक्त ब्राह्मणको दे दे देते समय यही उद्देश्य होना चाहिये कि मेरा व्रत पूर्ण हो जाय। पान न खानेका नियम लेनेपर सुवर्णसहित कपूरका दान करे। द्विजश्रेष्ठ इस प्रकार नियमके द्वारा समय-समयपर जो कुछ परित्याग किया हो, वह परलोकमें सुख प्राप्तिकी इच्छासे विशेषरूपसे दान करे। पहले स्नान आदि करके भगवान् विष्णुके समक्ष उद्यापन कराना चाहिये। शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णु आदि अन्तसे रहित हैं, उनके आगे उद्यापन करनेसे व्रत परिपूर्ण होता है।
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लेकि
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• अर्जयस्व हुवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
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यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
नारदजीने कहा-सुरश्रेष्ठ ! अब मेरे हितके खूब कसकर बाँधा और उसी अवस्थामें यमराजके पास लिये आप यमकी आराधना बताइये। देव ! किस पहुंचा दिया। मैं एक ही क्षणमें यमराजको सभामें उपायसे मनुष्यको एक नरकसे दूसरे नरकमें नहीं जाना पहुंचकर देखता हूँ कि पीले नेत्र और काले मुखवाले पड़ता। सुना जाता है--यमलोक वैतरणी नदी है, जो यम सामने ही बैठे हैं। वे महाभयङ्कर जान पड़ते थे। दुर्द्धर्ष, अपार, दुस्तर तथा रक्तकी धारा बहानेवाली है। भयानक राक्षस और दानव उनके पास बैठे और सामने वह समस्त प्राणियोंके लिये दुस्तर है, उसे सुगमताके खड़े थे। अनेक धर्माधिकारी तथा चित्रगुप्त आदि लेखक साथ किस प्रकार पार किया जा सकता है? वहाँ मौजूद थे। मुझे देखकर विश्वके शासक यमने अपने
महादेवजी बोले-ब्रह्मन् ! पूर्वकालकी बात है, किङ्करोंसे कहा-'अरे ! तुमलोग नामके भ्रममें पड़कर द्वारकापुरीके समुद्रमें स्रान करके मैं ज्यों ही निकला, मुनिको कैसे ले आये? इन्हें छोड़ो और कौण्डिन्य सामनेसे मुझे ब्रह्मचारी मुद्गल मुनि आते दिखायी दिये। नामक ग्राममें जो भीमकका पुत्र मुद्गल नामक क्षत्रिय उन्होंने प्रणाम किया और विस्मित होकर इस प्रकार हैं, उसको ले आओ; क्योंकि उसकी आयु समाप्त हो कहना आरम्भ किया।
चुकी है।
यह सुनकर वे दूत वहाँ गये और पुनः लौट आये। फिर समस्त यमदूत धर्मराजसे बोले-'सूर्यनन्दन ! वहाँ जानेपर भी हमलोगोंने ऐसे किसी प्राणीको नहीं देखा, जिसकी आयु क्षीण हो चुकी हो। न जाने, कैसे हमलोगोंका चित्त भ्रममें पड़ गया?' ___ यमराज बोले-जिन लोगोंने 'वैतरणी' नामक द्वादशीका व्रत किया है, वे तुम यमदूतोंके लिये प्रायः अदृश्य हैं। उज्जैन, प्रयाग अथवा यमुनाके तटपर जिनकी मृत्यु हुई है तथा जिन्होंने तिल, हाथी, सुवर्ण
और गौ आदिका दान किया है, वे भी तुमलोगोंकी दृष्टि में नहीं आ सकते।
दूतोंने पूछा-स्वामिन् ! वह व्रत कैसा है ? आप उसका पूरा-पूरा वर्णन कीजिये। देव ! मनुष्योंको उस समय ऐसा कौन-सा कर्म करना चाहिये जो आपको संतोष देनेवाला हो। जिन्होंने कृष्णपक्षको एकादशीका
व्रत किया है, वे कैसे पापमुक्त हो सकते हैं ? मुद्गल बोले-देव! मैं अकस्मात् मूर्छित यमराज बोले-दूतो ! मार्गशीर्ष आदि मासोंमें होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा था। उस समय मेरे सारे अङ्ग जो ये कृष्णपक्षको द्वादशियाँ आती हैं, उन सबमें जल रहे थे। इतनेहीमें यमराजके दूतोंने आकर मुझे विधिपूर्वक वैतरणी व्रत करना चाहिये । जबतक वर्ष पूरा बलपूर्वक शरीरसे खींचा। मैं अंगूठेके बराबर पुरुष- न हो जाय, तबतक प्रतिमास व्रतको चालू रखना शरीर धारण करके बाहर निकला; फिर उन दूतोंने मुझे चाहिये। व्रतके दिन उपवासका नियम ग्रहण करना
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उत्तरखण्ड ]
. यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य .
चाहिये, जो भगवान् विष्णुको संतोष प्रदान करनेवाला और पञ्चरत्न डाल दे। फिर दिव्य माला पहनाकर उस है। द्वादशीको श्रद्धा और भक्तिके साथ श्रीगोविन्दको कलशको गन्धसे सुवासित करे। कलशमें जल भर दे पूजा करके इस प्रकार कहे-'देव ! स्वपमें इन्द्रियोंकी और उसमें द्रव्य डालकर उसके ऊपर ताँबका पात्र रख विकलताके कारण यदि भोजन और मैथुनको क्रिया बन दे। इसके बाद उस पात्रमें देवाधिदेव तपोनिधि भगवान् जाय तो आप मुझपर कृपा करके क्षमा कीजिये।' इस श्रीधरको स्थापना करके पूर्वोक्त विधिसे पूजा करे। फिर प्रकार नियम करके मिट्टी, गोमय और तिल लेकर मिट्टी और गोबर आदिसे सुन्दर मण्डल बनावे । सफेद मध्याह्नमें तीर्थ (जलाशय) के पास जाय और व्रतकी और धुले हुए चावलोंको पानी में पीसकर उसके द्वारा पूर्तिके लिये निम्नाङ्कित मन्त्रसे विधिपूर्वक स्नान करे- मण्डलका संस्कार करे । तत्पश्चात् हाथ-पैर आदि अङ्गोंसे
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे ॥ युक्त धर्मराजका स्वरूप बनावे और उसके आगे ताँबेकी मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसचितम्। वैतरणी नदी स्थापित करके उसकी पूजा करे। उसके त्वया हतेन पापेन सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ बाद पृथक् आवाहन आदि करके यमराजकी विधिवत् काश्यां चैव तु संभूतास्तिला वै विष्णुरूपिणः। पूजा करे। तिलस्त्रानेन गोविन्दः सर्वपापं व्यपोहति ॥ पहले भगवान् विष्णुसे इस प्रकार प्रार्थना विष्णुदेहोद्भवे देवि महापापापहारिणि । करे-महाभाग केशव ! मैं विश्वरूपी देवेश्वर यमका सर्वपापं हर त्वं वै सौषधि नमोऽस्तु ते॥ आवाहन करता हूँ। आप यहाँ पधारें और समीपमें
(६८ । ३४-३७) निवास करें। लक्ष्मीकान्त ! हरे ! यह आसनसहित पाद्य 'वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते आपकी सेवामें समर्पित है। प्रभो ! विश्वका प्राणिहैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भी तुम्हें समुदाय आपका स्वरूप है। आपको नमस्कार है। आप अपने चरणोंसे नापा था। मृत्तिके ! मैंने पूर्वजन्ममें जो प्रतिदिन मुझपर कृपा कीजिये।' इस प्रकार प्रार्थना करके पाप सश्चित किया है, मेरा वह सारा पाप तुम हर लो। 'भूतिदाय नमः' इस म-त्रके द्वारा भगवान् विष्णुके तुम्हारे द्वारा पापका नाश हो जानेपर मनुष्य सब पापोसे चरणोका, 'अशोकाय नमः' से घुटनोंका, "शिवाय मुक्त हो जाता है। तिल काशीमें उत्पन्न हुए हैं तथा वे नमः'से जाँघोका, “विश्वमूर्तये नमः'से कटिभागका, भगवान् विष्णुके स्वरूप है। तिलमिश्रित जलके द्वारा 'कन्दाय नमः'से लिङ्गका, 'आदित्याय नमः'से स्नान करनेपर भगवान् गोविन्द सब पापोका नाश कर अण्डकोषका, 'दामोदराय नमः' से उदरका, 'वासुदेवाय देते हैं। देवी सर्वोषधि ! तुम भगवान् विष्णुके देहसे नमः'से स्तनोंका, 'श्रीधराय नमः"से मुखका, केशवाय प्रकट हुई तथा महान् पापोंका अपहरण करनेवाली हो। नमः से केशोंका, 'शार्ङ्गधराय नमः'से पीठका, तुम्हें नमस्कार है। तुम मेरे सारे पाप हर लो।' 'वरदाय नमः'से पुनः चरणोंका, 'शङ्खपाणये नमः',
इस प्रकार मृत्तिका आदिके द्वारा स्रान करके चक्रपाणये नमः', 'असिपाणये नमः', 'गदापाणये सिरपर तुलसीदल धारण कर तुलसीका नाम लेते हुए नमः' और 'परशुपाणये नमः'-इन नाममन्त्रोंद्वारा स्नान करे । यह स्रान ऋषियों द्वारा बताया गया है। इसे क्रमशः शङ्ख, चक्र, खड्ग, गदा तथा परशुका तथा विधिपूर्वक करना चाहिये। इस तरह स्नान करनेके पश्चात् 'सर्वात्मने नमः' इस मन्त्रके द्वारा मस्तकका ध्यान करे। जलसे बाहर निकलकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे। फिर इसके बाद यों कहे-'मैं समस्त पापोंको राशिका नाश देवताओं और पितरोंका तर्पण करके श्रीविष्णुका पूजन करनेके लिये मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, करे। उसकी विधि इस प्रकार है। पहले एक कलशकी, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा कल्किका पूजन जो फूटा-टूटा न हो, स्थापना करे। उसमें पञ्चपल्लव करता हूँ; भगवन् ! इन अवतारोंके रूपमें आपको
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
नमस्कार है। वारम्बार नमस्कार है। इन सभी मन्त्रोंके लिये मैं यह अर्घ्य दे रहा हूँ। जो जन्म, मृत्यु और द्वारा श्रीविष्णुका ध्यान करके उनका पूजन करे।* वृद्धावस्थासे परे है, पापी पुरुषोंके लिये जिसको पार
तत्पश्चात् निम्नाङ्कित नाममन्त्रोंके द्वारा भगवान् करना अत्यन्त कठिन है, जो समस्त प्राणियोंके भयका धर्मराजका पूजन करना चाहिये
निवारण करनेवाली है तथा यातनामें पड़े हुए प्राणी धर्मराज नमस्तेऽस्तु धर्मराज नमोऽस्तु ते। भयके मारे जिसमें डूब जाते हैं, उस भयङ्कर वैतरणी दक्षिणाशाय ते तुभ्यं नमो महिषवाहन ।। नदीको पार करनेके लिये मैंने यह पूजन किया है। चित्रगुप्त नमस्तुभ्यं विचित्राय नमो नमः । वैतरणी देवी ! तुम्हारी जय हो। तुम्हें बारम्बार नमस्कार नरकार्तिप्रशान्त्यर्थं कामान् यच्छ ममेप्सितान् ॥ है। जिसमें देवता वास करते हैं, वहीं वैतरणी नदी है। यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च। मैंने भगवान् केशवकी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक उस वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ॥ नदीका पूजन किया है। पापोका नाश करनेवाली सिन्धुवृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः। रूपिणी वैतरणी नदीको पूजा सम्पन्न हुई। मैं उसे पार नीलाय चैव दनाय नित्यं कुर्यान्नमो नमः ॥ करने तथा सब पापोसे छुटकारा पानेके लिये इस
(६८ ५३–५६) वैतरणी-प्रतिमाका दान करता हूँ।' 'धर्मराज! आपको बारम्बार नमस्कार है। दक्षिण इसके बाद निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर भगवान्से दिशाके स्वामी ! आपको नमस्कार है। महिषपर चलने- प्रार्थना करेवाले देवता ! आपको नमस्कार है। चित्रगुप्त ! आपको कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ संसारादुद्धरस्य माम् ।। नमस्कार है। नरककी पीड़ा शान्त करनेके लिये विचित्र नामग्रहणमात्रेण सर्वपापं हरस्व मे। नामसे प्रसिद्ध आपको नमस्कार है।आप मेरी मनोवाञ्छित
(६८।६४-६५) कामनाएं पूर्ण करें। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, 'कृष्ण ! कृष्ण ! जगदीश्वर ! आप संसारसे मेरा काल, सर्वभूत-क्षय, वृकोदर, चित्र, चित्रगुप्त, नील और उद्धार कीजिये। अपने नामोंके कीर्तनमात्रसे मेरा सारा दधको नित्य नमस्कार करना चाहिये।'
पाप हर लीजिये। तदनन्तर वैतरणीको प्रतिमाको अर्घ्य देते हुए इस फिर क्रमशः यज्ञोपवीत आदि समर्पण करे। प्रकार कहे-'वैतरणी ! तुम्हें पार करना अत्यन्त कठिन यज्ञोपवीतका मन्त्र इस प्रकार हैहै। तुम पापोका नाश करनेवाली और सम्पूर्ण अभीष्ट यज्ञोपवीतं परमं कारितं नवतन्तुभिः ।। वस्तुओंको देनेवाली हो। महाभागे ! यहाँ आओ और प्रतिगृहीच देवेश प्रीतो यच्छ ममेप्सितम् । मेरे दिये हुए अर्यको ग्रहण करो। यमद्वारके भयङ्कर
(६८॥ ६५-६६) मार्गमें वैतरणी नदी विख्यात है। उससे उद्धार पानेके 'देवेश्वर ! मैंने नौ तन्तुओसे इस उत्तम
* आवाहयामि देवेश यमं वै विश्वरूपिणम् । इहाभ्येहि महाभाग सांनिध्यं कुरु केशव॥ इदं पाद्यं श्रियः कान्त सोपविष्ट हरे प्रभो । विश्वौघाय नमो नित्यं कृपां कुरु ममोपरि ।। भूतिदाय नमः पादौ अशोकाय च जानुनी । ऊरू नमः शिवायेति विश्वमूर्ते नमः कटिम्॥ कन्दर्पाय नमो मेदमादित्याय फल तथा । दामोदराय जठरं वासुदेवाय वै स्तनौ ॥ श्रीधराय मुख केशान् केशवायेति वै नमः । पृष्ठ शाइधरायेति चरणौ वरदाय च॥ स्वनाम्ना शङ्खचक्रासिंगदापरशुपाणये । सर्वाताने नमस्तुभ्यं शिर इत्यभिधीयते ॥ - मा. मत्स्यं कूर्म च वाराहं नारसिंहं च वामनम् । राम राम च कृष्ण च बुद्ध कल्कि नमोऽस्तु ते ॥ सर्वपापौघनाशार्थ पूजयामि नमो नमः । एभिश्च सर्वशी नवैर्विष्णु ध्यात्वा प्रपूजयेत् ।। (६८।४५-५२)
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उत्तरखण्ड ]
• यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य .
यज्ञोपवीतका निर्माण कराया है, आप इसे ग्रहण करें - 'समुद्रका मन्थन होते समय पाँच गौएँ उत्पन्न हुई और प्रसन्न होकर मेरा मनोरथ पूर्ण करें।'' नर थीं। उनमेंसे जो नन्दा नामकी धेनु है, उसे मेरा बारम्बार - ताम्बूल-मन्त्र -
नमस्कार है। लगातार इदं दतं च ताम्बूलं यथाशक्ति सुशोभनम् ।। तत्पश्चात् विधिपूर्वक गौकी पूजा करके निम्नाङ्कित प्रतिगृह्णीय देवेश मामुद्धर भवार्णवात्। मन्त्रोद्वारा एकाग्रचित्त हो अर्घ्य प्रदान करे
(६८। ६६-६७) सर्वकामदुहे देवि , सर्बार्तिकनिवारिणि । arre'देवेश ! मैंने यथाशक्ति उत्तम शोभासम्पन्न ताम्बूल आरोग्य संतति दीर्घा देहि नन्दिनि मे सदा ॥ दान किया है, इसे स्वीकार करें और भवसागरसे मेरा
पूजिता च वसिष्ठेन विश्वामित्रेण धीमता। उद्धार कर दें।
कपिले हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम्॥ या दीप-आरतीका मन्त्र ...
गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः । पञ्चवर्तिप्रदीपोऽयं देवेशारार्तिक तय ॥
नाके मामुपतिष्ठन्तु हेमभङ्ग्यः पयोमुचः ।। मोहान्धकारद्युमणे भक्तियुक्तो भवार्तिहन्।
सुरभ्यः सौरभेयाश्च सरितः सागरास्तथा। . (६८। ६७-६८)
सर्वदेवमये देवि सुभद्रे भक्तवत्सले ॥ 'देवेश ! आप मोहरूपी अन्धकार दूर करनेके लिये
(६८।७२-७५) सूर्यरूप हैं। भव-बन्धनकी पीड़ा हरनेवाले परमात्मन् ! मैं
- 'समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली तथा सब भक्तियुक्त होकर आपकी सेवामे यह पाँच बत्तियोंका
प्रकारकी पीड़ा हरनेवाली देवी नन्दिनी ! मझे सर्वदा दीपक प्रस्तुत करता हूँ। यह आपके लिये आरती है।
आरोग्य तथा दीर्घायु संतान प्रदान करो। कपिले ! महर्षि . नैवेद्य-मन्त्र
वसिष्ठ तथा बुद्धिमान् विश्वामित्रजीने भी तुम्हारी पूजा की परमान्न सुपक्वान्न समस्तरससयुतम् ॥ है। मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप सञ्चित किया है, उसे हर निवेदितं मया भक्या भगवन् प्रतिगृहाताम् ।
लो। गौएँ मेरे आगे रहे, गौएँ ही मेरे पीछे रहें तथा
(६८ । ६८-६९) 'भगवन् ! मैंने सब रसोंसे युक्त सुन्दर पकवान, जो
स्वर्गलोकमे भी सुवर्णमय सींगोसे सुशोभित, सरिताओं परम उत्तम अन्न है, भक्तिपूर्वक सेवामें निवेदन किया है।
और समुद्रोंकी भाँति दूधकी धारा बहानेवाली सुरभी और
उनकी संतानें मेरे पास आवे । सर्वदेवमयी देवी नन्दिनी ! आप इसे स्वीकार करें। जप-समर्पण
तुम परम कल्याणमयी और भक्तवत्सला हो। तुम्हें द्वादशाक्षरमन्त्रेण
नमस्कार है। यथासंख्यजपेन च ॥ प्रीयतां मे श्रियः कान्तः प्रीतो यच्छतु वाञ्छितम्।
इस प्रकार विधिवत् पूजा करके गौओंको प्रतिदिन
या ग्रास समर्पण करे। उसका मन्त्र इस प्रकार है'द्वादशाक्षर मन्त्रका यथाशक्ति जप करनेसे भगवान सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पापनाशिनीः । ।। लक्ष्मीकान्त मझपर प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मझे प्रतिगृह्णन्तु मे प्रासं गावस्वैलोक्यमातरः ।। मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करें।
इस प्रकार श्रीहरिका पूजन करनेके बाद निम्नाड़ित , 'सबके हितमे लगी रहनेवाली, पवित्र, पापनाशिनी मन्त्र पढ़कर गौको प्रणाम करे
तथा त्रिभुवनकी माता गौएँ मेरा दिया हुआ प्रास पन गावसमत्यत्रा मध्यमाने महोदधौ। ग्रहण करें। तासां मध्ये तु या नन्दा तस्यै धन्यै नमो नमः॥ महादेवजी कहते हैं-इस प्रकार धर्मराजके
(६८७०-७१) मुखसे सुने हुए वैतरणी-व्रतका मेरे आगे वर्णन करके
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
इच्छानुसार भ्रमण करनेवाले द्विजश्रेष्ठ मुद्गल मुनि ध्यान और पूजन करना चाहिये। यह मल-दोषका विनाश चले गये।
करनेवाला है। इसके स्पर्शमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता द्विजवर ! जहाँ गोपीचन्दन रहता है, वह घर तीर्थ- है। वह अन्तकालमें मनुष्योंके लिये मुक्तिदाता एवं परम स्वरूप है-यह भगवान् श्रीविष्णुका कथन है। जिस पावन है। द्विजश्रेष्ठ ! मैं क्या बताऊँ, गोपीचन्दन मोक्ष ब्राह्मणके घरमें गोपीचन्दन मौजूद रहता है, वहाँ कभी प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णुका प्रिय तुलसीकाष्ठ, शोक, मोह तथा अमङ्गल नहीं होते। जिसके घरमें रात- उसके मूलकी मिट्टी, गोपीचन्दन तथा हरिचन्दन- इन दिन गोपीचन्दन प्रस्तुत रहता है, उसके पूर्वज सुखी होते चारोको एकमें मिलाकर विद्वान् पुरुष अपने शरीरमें हैं तथा सदा उसकी संतति बढ़ती है। गोपीतालाबसे लगाये। जो ऐसा करता है, उसके द्वारा जम्बूद्वीपके समस्त उत्पन्न होनेवाली मिट्टी परम पवित्र एवं शरीरका शोधन तीर्थोका सदाके लिये सेवन हो जाता है । जो गोपीचन्दनको करनेवाली है। देहमें उसका लेप करनेसे सारे रोग नष्ट घिसकर उसका तिलक लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो होते हैं तथा मानसिक चिन्ताएँ भी दूर हो जाती है। अतः श्रीविष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। जिस पुरुषने पुरुषोंद्वारा शरीरमें धारण किया हुआ गोपीचन्दन सम्पूर्ण गोपीचन्दन धारण कर लिया, उसने मानो गयामें जाकर कामनाओंकी पूर्ति तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसका अपने पिताका श्राद्ध-तर्पण आदि सब कुछ कर लिया।
वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी-व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
महादेवजी कहते हैं-नारद ! सुनो, अब मैं ही भगवद्भक्त पुरुष उत्पत्र हो जाता है, उसका कुल वैष्णवोंके लक्षण बताऊँगा, जिन्हें सुनकर लोग ब्रह्माहत्या बारम्बार उस पुरुषके द्वारा उद्धारको प्राप्त होता रहता है। आदि पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं। भक्त भगवान् विष्णुका वैष्णवोंके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है। होकर रहा है, इसलिये वह वैष्णव कहलाता है। समस्त महामुने ! इस लोकमें जो वैष्णव पुरुष देखे जाते हैं, वोंकी अपेक्षा वैष्णवको श्रेष्ठ कहा गया है। जिनका तत्त्ववेत्ता पुरुषोंको उन्हें विष्णुके समान हो जानना आहार अत्यन्त पवित्र है, उन्हींके वंशमें वैष्णव पुरुष चाहिये। जिसने भगवान् विष्णुकी पूजा की, उसके द्वारा जन्म धारण करता है। ब्रह्मन् ! जिनके भीतर क्षमा, सबका पूजन हो गया। जिसने वैष्णवोंकी पूजा की, दया, तपस्या और सत्यको स्थिति है, उन वैष्णवोंके उसने महादान कर लिया। जो वैष्णवोंको सदा फल, दर्शनमात्रके आगसे रूईकी भाँति सारा पाप नष्ट हो जाता पत्र, साग, अन्न अथवा वस्त्र दिया करते हैं, वे इस है। जो हिंसासे दूर रहता है, जिसकी मति सदा भगवान् भूमण्डलमें धन्य हैं। ब्रह्मन् ! वैष्णवोंके विषयमें अव विष्णुमें लगी रहती है, जो अपने कण्ठमें तुलसीकाष्ठकी और क्या कहा जाय। बारम्बार अधिक कहनेकी माला धारण करता है, प्रतिदिन अपने अङ्गोंमें बारह आवश्यकता नहीं है; उनका दर्शन और स्पर्श-सब तिलक लगाये रहता है तथा विद्वान् होकर धर्म और कुछ सुखद है। जैसे भगवान् विष्णु हैं, वैसा ही उनका अधर्मका ज्ञान रखता है, वह मनुष्य वैष्णव कहलाता भक्त वैष्णव पुरुष भी है। इन दोनोंमें कभी अन्तर नहीं है। जो सदा वेद-शास्त्रके अभ्यासमें लगे रहते, प्रतिदिन रहता। ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष सदा वैष्णवोंकी पूजा यज्ञोंका अनुष्ठान करते तथा बारम्बार वर्षके चौबीस करे। जो इस पृथ्वीपर एक ही वैष्णव ब्राह्मणको भोजन उत्सव मनाते रहते हैं, उनका कुल परम धन्य है; उन्हींका करा देता है, उसने सहस्रों ब्राह्मणोंको भोजन करा यश विस्तारको प्राप्त होता है तथा वे ही लोग संसारमे दिया-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। धन्यतम एवं भगवद्धक्त हैं। ब्रह्मन् ! जिसके कुलमें एक नारदजीने कहा-सुरश्रेष्ठ ! जो सदा उपवास
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उत्तरखण्ड ] • वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहाल्य-कथा
JANUNI
महादेवजी बोले- भाद्रपद मासके शुरूपक्षमें जो श्रवण नक्षत्रसे युक्त द्वादशी होती है, वह सब कुछ देनेवाली पुण्यमयी तथा उपवास करनेपर महान् फल देनेवाली है। जो नदियोंके संगममें नहाकर उक्त द्वादशीको उपवास करता है, वह अनायास ही बारह द्वादशियोंका फल पा लेता है। बुधवार और श्रवण नक्षत्रसे युक्त जो द्वादशी होती है, उसका महत्त्व बहुत बड़ा है। उस दिन किया हुआ सब कुछ अक्षय हो जाता है। श्रवण द्वादशीके दिन विद्वान् पुरुष जलपूर्ण कलशकी स्थापना करके उसके ऊपर एक पात्र रखे और उसमें श्रीजनार्दनकी स्थापना करे। तत्पश्चात् उनके आगे घीमें पका हुआ नैवेद्य निवेदन करे; साथ ही अपनी शक्तिके अनुसार जलसे भरे हुए अनेक नये घड़ोंका दान करे । इस प्रकार श्रीगोविन्दकी पूजा करके उनके समीप रात्रिमें जागरण करे। फिर निर्मल प्रभातकाल आनेपर स्नान करके फूल, धूप, नैवेद्य, फल और सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा भगवान् गरुडध्वजकी पूजा करे। तदनन्तर पुष्पाञ्जलि दे और इस मन्त्रको पढ़े
करनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये कोई एक ही द्वादशीका पश्चिम भागमें मरु (मारवाड़) प्रदेश है, जो समस्त व्रत, जो पुण्यजनक हो, बतलाइये। प्राणियोंके लिये भय उत्पन्न करनेवाला है। वहाँकी भूमि तपी हुई बालूसे भरी रहती है। वहाँ बड़े-बड़े साँप हैं, जो महादुष्ट होते हैं। वह भूमि थोड़ी छायावाले वृक्षोंसे व्याप्त है। शमी, खैर, पलाश, करील और पीलू ये ही वहाँके वृक्ष हैं। मजबूत काँटोंसे घिरे हुए वहाँके वृक्ष बड़े भयङ्कर दिखायी देते हैं; तथापि कर्मबन्धनसे बँधे होनेके कारण वहाँ भी सब जीव जीवन धारण करते हैं। विद्वन्! उस देशमें न तो पर्याप्त जल है और न जल धारण करनेवाले बादल ही वहाँ दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे देशमें कोई बनिया भाग्यवश अपने साथियोंसे बिछुड़कर इधर-उधर भटक रहा था। उसके हृदयमें भ्रम छा गया था। वह भूख प्यास और परिश्रमसे पीड़ित हो रहा था। कहाँ गाँव है ? कहाँ जल है ? मैं कहाँ जाऊँगा ? यह कुछ भी उसे जान नहीं पड़ता था। इसी समय उसने कुछ प्रेत देखे, जो भूख-प्याससे व्याकुल एवं भयङ्कर दिखायी देते थे। उनमें एक प्रेत ऐसा था, जो दूसरे प्रेतके कंधेपर चढ़कर चलता था तथा और बहुत से प्रेत उसे चारों ओरसे घेरे हुए थे। प्रेतोंकी भयानक आवाजके साथ वह
नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंयुत । अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ॥
(७० | १०)
'बुधवार और श्रवण नक्षत्रसे युक्त भगवान् गोविन्द ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। मेरी पापराशिका नाश करके आप मुझे सब प्रकारके सुख प्रदान करें।'
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तत्पश्चात् वेद-वेदाङ्गोके पारगामी, विशेषतः पुराणोंके ज्ञाता विद्वान् ब्राह्मणको विधिपूर्वक पवित्र अत्रका दान करे। इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष किसी नदीके किनारे एकचित्त होकर उक्त विधिसे सब कार्य पूर्ण करे। इस विषयमें जानकार लोग यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं—एक महान् वनमें जो घटना घटित हुई थी, उसका वर्णन करता हूँ; सुनो।
विद्वन्! दाशेरक नामका जो देश है, उसके
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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भयङ्कर प्रेत उधर ही आ रहा था। वह उस भयानक द्वादशीके योगमे बहुत-से मनुष्योको संतुष्ट किया। जंगलमें मनुष्यको आया देख प्रेतके कंधेसे पृथ्वीपर उतर चन्द्रभागाके उत्तम जलसे भरकर ब्राह्मणको जलपात्र दान पड़ा और बनियेके पास आकर उसे प्रणाम करके इस किया तथा दही और भातके साथ जलसे भरे हुए प्रकार बोला-'इस घोर प्रदेशमें आपका कैसे प्रवेश बहुत-से पुरवे भी ब्राह्मणोंको दिये । इसके सिवा भगवान् हुआ?' यह सुनकर उस बुद्धिमान् बनियेने कहा- शङ्करके समक्ष श्रेष्ठ ब्राह्मणको छाता, जूते, वस्त्र तथा 'दैवयोगसे तथा पूर्वजन्मके किये हुए कर्मकी प्रेरणासे मैं श्रीहरिकी प्रतिमा भी दान की। उस नदीके तौरपर मैंने अपने साथियोंसे बिछुड़ गया हूँ। इस प्रकार मेरा यहाँ धनको रक्षाके लिये व्रत किया था। उपवासपूर्वक एक प्रवेश सम्भव हुआ है। इस समय मुझे बड़े जोरकी भूख मनोहर जलपात्र भी दान किया था। यह सब करके मैं और प्यास सता रही है।'
घर लौट आया। तदनन्तर, कुछ कालके बाद मेरी मृत्यु तब उस प्रेतने उस समय अपने अतिथिको उत्तम हो गयी। नास्तिक होनेके कारण मुझे प्रेतकी योनिमें अन्न प्रदान किया। उसके खानेमात्रसे बनियेको बड़ी तृप्ति आना पड़ा। श्रवण-द्वादशीके योगमें मैंने जलका बड़ा हुई। वह एक ही क्षणमें प्यास और संतापसे रहित हो पात्र दान किया था, इसलिये प्रतिदिन मध्याह्नके समय गया। इसके बाद वहाँ बहुत-से प्रेत आ पहुँचे। प्रधान यह मुझे प्राप्त होता है। ये सब ब्राह्मणका धन चुरानेवाले प्रेतने क्रमशः उन सबको अत्रका भाग दिया। दही, भात पापी हैं, जो प्रेतभावको प्राप्त हुए हैं। इनमें कुछ और जलसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता और तृप्ति हुई। इस प्रकार परस्त्रीलम्पट और कुछ अपने स्वामीसे द्रोह करनेवाले रहे अतिथि और प्रेतसमुदायको तृप्त करके उसने स्वयं भी हैं। इस मरुप्रदेशमें आकर ये मेरे मित्र हो गये हैं। बचे हुए अन्नका सुखपूर्वक भोजन किया। उसके भोजन सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु अक्षय (अविनाशी) कर लेनेपर वहाँ जो सुन्दर अन्न और जल प्रस्तुत हुआ हैं। उनके उद्देश्यसे जो कुछ दिया जाता है, वह सब था, वह सब अदृश्य हो गया। तब बनियेने उस अक्षय कहा गया है। उस अक्षय अन्नसे ही ये प्रेत पुन:प्रेतराजसे कहा-'भाई ! इस वनमें तो मुझे यह बड़े पुनः तृप्त होते रहते हैं। आज तुम मेरे अतिथिके रूपमें आश्चर्यकी बात प्रतीत हो रही है। तुम्हें यह उत्तम अन्न उपस्थित हुए हो। मैं अन्नसे तुम्हारी पूजा करके प्रेत
और जल कहाँसे प्राप्त हुआ? तुमने थोड़े-से ही अन्नसे भावसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होऊँगा, परन्तु मेरे विना इन बहुत-से जीवोंको तृप्त कर दिया। इस घोर जंगलमें ये प्रेत इस भयङ्कर वनमें कर्मानुसार प्राप्त हुई प्रेतयोनिकी तुमलोग कैसे निवास करते हो?'
दुस्सह पीड़ा भोगेंगे; अतः तुम मुझपर कृपा करनेके लिये प्रेत बोला-महाभाग ! मैंने अपना पूर्वजन्म इन सबके नाम और गोत्र लिखकर ले लो। महामते ! केवल वाणिज्य-व्यवसायमें आसक्त होकर व्यतीत यहाँसे हिमालयपर जाकर तुम खजाना प्राप्त करोगे। किया है। समूचे नगरमें मेरे समान दूसरा कोई दुरात्मा तत्पश्चात् गया जाकर इन सबका श्राद्ध कर देना।। नहीं था। धनके लोभसे मैंने कभी किसीको भीखतक , महादेवजी कहते हैं-नारद ! बनियेको इस नहीं दी। उन दिनों एक गुणवान् ब्राह्मण मेरे मित्र थे। प्रकार आदेश देकर प्रेतने उसे सुखपूर्वक विदा किया। एक समय भादोंके महीनेमें, जब श्रवण नक्षत्र और घर आनेपर उसने हिमालयको यात्रा को और वहाँसे द्वादशीका योग आया था, वे मुझे साथ लेकर तापी प्रेतका बताया हुआ खजाना लेकर वह लौट आया। उस नदीके तटपर गये, जहाँ उसका चन्द्रभागा नदीके साथ खजानेका छठा अंश साथ लेकर वह 'गया' तीर्थमें पवित्र संगम हुआ था, चन्द्रभागा चन्द्रमाको पुत्री है और गया। वहाँ पहुँचकर उस परम बुद्धिमान् बनियेने तापी सूर्यकी। उन दोनोंके मिले हुए शीत और उष्ण शास्त्रोक्त विधिसे उन प्रेतोंका श्राद्ध किया। एक-एकके जलमें मैंने ब्राह्मणके साथ प्रवेश किया। श्रवण- नाम और गोत्रका उधारण करके उनके लिये पिण्डदान
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उत्तरखण्ड ]
• नाम-कीर्तनको महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन •
कापत
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किया। वह जिस दिन जिसका श्राद्ध करता था, उस दिन किया। उसके बाद प्रतिवर्ष भादोंका महीना आनेपर वह आकर स्वनमें बनियेको प्रत्यक्ष दर्शन देता और श्रवण-द्वादशीके योगमें नदीके संगमपर जाकर वह कहता कि 'महाभाग | तुम्हारी कृपासे मैंने प्रेतभावको भगवान् विष्णुके उद्देश्यसे पूर्वोक्त प्रकारसे स्रान-दान त्याग दिया और अब मैं परमगतिको प्राप्त हो रहा हैं।' आदि सब कार्य करने लगा। तदनन्तर दीर्घकालके इस प्रकार वह महामना वैश्य गया-तीर्थमे प्रेतोंका पश्चात् उसकी मृत्यु हो गयी। उसने सब मनुष्योंके लिये विधिपूर्वक श्राद्ध करके बारम्बार भगवान् विष्णुका ध्यान दुर्लभ परमधामको प्राप्त कर लिया। आज भी वह करता हुआ अपने घर लौट आया। फिर भाद्रपद मासके विष्णुदूतोंसे सेवित हो वैकुण्ठधाममें विहार कर रहा है। शुक्लपक्षमें, जब श्रवण-द्वादशीका योग आया, तब वह ब्रह्मन् ! तुम भी इसी प्रकार श्रवण-द्वादशीका व्रत करो। सब आवश्यक सामग्री साथ लेकर नदीके संगमपर गया वह इस लोक और परलोकमें भी सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान और वहाँ स्रान करके उसने द्वादशीका व्रत किया । सान, करनेवाला, उत्तम बुद्धिका देनेवाला तथा सब पापोंको दान और भगवान् विष्णुका पूजन करनेके अनन्तर हरनेवाला उत्तम साधन है। जो श्रवण-द्वादशीके योगमें ब्राह्मणको उपहार भेंट किया। एकचित्त होकर उस इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह इसके प्रभावसे बुद्धिमान् वैश्यने शास्त्रोक्त विधिसे सब कार्य सम्पन्न विष्णुलोकमें जाता है।
नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन
ऋषियोंने कहा-सूतजी! आपका हृदय विशेषतः नामकीर्तनपूर्वक भगवान्की भक्ति जिस प्रकार अत्यन्त करुणायुक्त है; अतएव श्रीमहादेवजी और देवर्षि 5 नारदका जो अद्भुत संवाद हुआ था, उसे आपने हमलोगोंसे कहा है। हमलोग श्रद्धापूर्वक सुन रहे हैं। अब आप कृपापूर्वक यह बताइये कि महात्मा नारदने ब्रह्माजीसे भगवत्रामोंकी महिमाका किस प्रकार श्रवण किया था।
सूतजी बोले-द्विजश्रेष्ठ मुनियो ! इस विषयमें मैं पुराना इतिहास सुनाता हूँ। आप सब लोग ध्यान देकर सुनें। इसके श्रवणसे भगवान् श्रीकृष्णमें भक्ति बढ़ती है। एक समयकी बात है, चित्तको पूर्ण एकाग्र रखनेवाले नारदजी अपने पिता ब्रह्माजीका दर्शन करनेके लिये मेरु पर्वतके शिखरपर गये। वहाँ आसनपर बैठे हुए जगत्पति ब्रह्माजीको प्रणाम करके मुनिश्रेष्ठ नारदजीने इस प्रकार कहा-'विश्वेश्वर ! भगवान्के नामकी जितनी शक्ति है, उसे बताइये। प्रभो! ये जो सम्पूर्ण विश्वके स्वामी साक्षात् श्रीनारायण हरि हैं, इन अविनाशी परमात्माके नामकी कैसी महिमा है?'
करनी चाहिये, वह सुनो। जिनके लिये शास्त्रोंमें कोई ब्रह्माजी बोले-बेटा ! इस कलियुगमें प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है, उन सभी पापोको शुद्धिके संपापु- २३
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• अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
लिये एकमात्र विजयशील भगवान् विष्णुका प्रयत्नपूर्वक इस प्रकार जप और कीर्तन करता है, वह इस संसारका स्मरण ही सर्वोत्तम साधन देखा गया है, वह समस्त परित्याग करनेपर भगवान् विष्णुके समीप आनन्द पापोका नाश करनेवाला है।* अतः श्रीहरिके नामका भोगता है। ब्रह्मन् ! जो कलियुगमें प्रसन्नतापूर्वक कीर्तन और जप करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह 'नृसिंह' नामका जप और कीर्तन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। भगवद्भक्त मनुष्य महान् पापसे छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य 'हरि' इस दो अक्षरोंवाले नामका सदा उच्चारण सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञ तथा द्वापरमे पूजन करके करते हैं, वे उसके उच्चारणमात्रसे मुक्त हो जाते हैं- मनुष्य जो कुछ पाता है, वही कलियुगमें केवल भगवान् इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तपस्याके रूपमें किये केशवका कीर्तन करनेसे पा लेता है। जो लोग इस जानेवाले जो सम्पूर्ण प्रायश्चित्त हैं, उन सबकी अपेक्षा बातको जानकर जगदात्मा केशवके भजनमें लीन होते श्रीकृष्णका निरन्तर स्मरण श्रेष्ठ है। जो मनुष्य प्रातः, हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त सायं, रात्रि तथा मध्याह्न आदिके समय 'नारायण' कर लेते हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, नामका स्मरण करता है, उसके समस्त पाप तत्काल नष्ट परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि-ये दस हो जाते हैं।
अवतार इस पृथ्वीपर बताये गये हैं। इनके नामोचारणउत्तम व्रतका पालन करनेवाले नारद ! मेरा कथन मात्रसे सदा ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध होता है। जो मनुष्य सत्य है, सत्य है, सत्य है। भगवान्के नामोंका उच्चारण प्रातःकाल जिस किसी तरह भी श्रीविष्णुनामका कीर्तन, करनेमात्रसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे मुक्त हो जाता है। जप तथा ध्यान करता है, वह निस्सन्देह मुक्त होता है, 'राम-राम-राम-राम' इस प्रकार बारम्बार जप करनेवाला निश्चय ही नरसे नारायण बन जाता है। मनुष्य यदि चाण्डाल हो तो भी वह पवित्रात्मा हो जाता सूतजी कहते हैं-यह सुनकर नारदजीको बड़ा है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। उसने नाम-कीर्तन- आश्चर्य हुआ। वे अपने पिता ब्रह्माजीसे बोले-'तात ! मात्रसे कुरुक्षेत्र, काशी, गया और द्वारका आदि सम्पूर्ण तीर्थसेवनके लिये पृथ्वीपर भ्रमण करनेकी क्या तीर्थोंका सेवन कर लिया। जो 'कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण !' आवश्यकता है। जिनके नामका ऐसा माहात्म्य है कि
* दृष्टं परेषां पापानामनुक्तानी विशोधनम् । विष्णोर्जिष्णोः प्रयत्नेन स्मरणं पापनाशनम् ॥ (७२ । १०) + ये वदन्ति नरा नित्य हरिरित्यक्षरद्वयम् । तस्योचारणमात्रेण विमुक्तास्ते न संशयः ।। प्रायश्चित्तानि सर्वाणि तपःकर्मात्पकानि वै। यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम् ॥ प्रातर्निशि तथा सार्य मध्याह्यादिषु संस्मरन् । नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षर्य नरः ।। (७२ । १२-१४) + सत्यं सत्यं पुनः सत्य भाषितं मम सुत्रत । नामोचारणमात्रेण महापापात्प्रमुच्यते ॥ राम रामेति रामेति रामेति च पुनर्जपन् । स चाण्डालोऽपि पूतात्या जायते नात्र संशयः ॥ कुरुक्षेत्र तथा काशी गया वै द्वारका तथा । सर्व तीर्थ कृतं तेन नामोच्चारणमात्रतः॥ कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति इति या यो जपन् पठन् । इहलोक परित्यज्य मोदते विष्णुसंनिधौ । नृसिहेति मुदा विप्र वर्तते यो जपन् पठन्। महापापात् प्रमुच्येत कलौ भागवतो नरः ।।
घ्यायन् कृते यजन् यजैस्वेतायां द्वापरेऽर्चयन् । यदाप्रोति तदाप्रोति कलौ संकीय केशवम् ।। को ये तज्ञात्वा निमनाथ जगदात्मनि केवावे। सर्वपापपरिक्षीणा यान्ति विष्णोः परं पदम्॥
मत्स्यः कूमों वराहश्च नसिंहो वामनस्तथा । रामो रामश्च कृष्णच बुद्धः कल्की ततः स्मृतः ।। एते दशावताराच पृथिव्यां परिकीर्तिताः । एतेषी नाममात्रेण ब्राहा शुस्यते सदा ॥ प्रातः पठापन् ध्यायन् विष्णोर्नाम यथा तथा । मुच्यते नात्र संदेहः स वै नारायणो भवेत् ।। (७२ ॥ २०-२९)
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उत्तरखण्ड ]
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन .
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उसे सुननेमाप्रसे मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, उन पूजित देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् शङ्कर कैलासके भगवान्का ही स्मरण करना चाहिये। जिस मुख में 'राम- शिखरपर विराजमान थे। उनके पाँच मुख, दस भुजाएँ, राम'का जप होता रहता है, वही महान् तीर्थ है, वही प्रत्येक मुखमें तीन नेत्र तथा हाथोंमें त्रिशूल, कपाल, प्रधान क्षेत्र है तथा वही समस्त कामनाओंको पूर्ण खट्वाङ्ग, तीक्ष्ण शूल, खड्ग और पिनाक नामका धनुष करनेवाला है। सुव्रत ! भगवान्के कीर्तन करने- शोभा पा रहे थे। बैलपर सवारी करनेवाले वरदाता योग्य कौन-कौन-से नाम हैं? उन सबको विशेष भगवान् भीम अपने अङ्गोंमें भस्म स्माये सोकी शोभासे रूपसे बताइये।
युक्त चन्द्रमाका मुकुट पहने करोड़ों सूर्योके समान ब्रह्माजीने कहा-बेटा ! ये भगवान् विष्णु देदीप्यमान हो रहे थे। नारदजीने देवेश्वर शिवको साष्टाङ्ग सर्वत्रव्यापक सनातन परमात्मा है। इनका न आदि है न दण्डवत् किया। उन्हें देखकर महादेवजीके नेत्रकमल अन्त। ये लक्ष्मीसे युक्त, सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा तथा खिल उठे। उस समय वैष्णवोंमें सर्वश्रेष्ठ शिवने समस्त प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले हैं। जिनसे मेरा ब्रह्मचारियोंमें श्रेष्ठ नारदजीसे पूछा-'देवर्षिप्रवर ! प्रादुर्भाव हुआ है, वे भगवान् विष्णु सदा मेरी रक्षा करें। बताओ, कहाँसे आ रहे हो?' वही कालके भी काल और वही मेरे पूर्वज है। उनका नारदजीने कहा-भगवन् ! एक समय मैं कभी विनाश नहीं होता। उनके नेत्र कमलके समान ब्रह्माजीके पास गया था। वहाँ उनके मुखसे मैंने भगवान् शोभा पाते हैं। वे परम बुद्धिमान, अविकारी एवं पुरुष विष्णुके पापनाशक माहात्म्यका श्रवण किया। सुरश्रेष्ठ ! (अन्तर्यामी) है। सदा शेषनागकी शय्यापर शयन ब्रह्माजीने मेरे सामने भगवान्की महिमाका भलीभांति करनेवाले भगवान् विष्णु सहस्रों मस्तकवाले है। वे वर्णन किया। भगवान्के नामकी जितनी शक्ति है, वह महाप्रभु है। सम्पूर्ण भूत उन्हींक स्वरूप है। भगवान् भी मैंने उनके मुस्खसे सुनी है। तत्पश्चात् पहले विष्णुके जनार्दन साक्षात् विश्वरूप है। कैटभ नामक असुरका नामोंके विषयमें प्रश्न किया। तब उन्होंने कहावध करनेके कारण वे कैटभारि कहलाते हैं। वे ही 'नारद ! मैं इस बातको नहीं जानता; इसका ज्ञान व्यापक होनेके कारण विष्णु, धारण-पोषण करनेके महारुद्रको है। वे ही सब कुछ बतायेंगे।' यह सुनकर कारण धाता और जगदीश्वर हैं। नारद ! मैं उनका नाम मैं आपके पास आया हूँ। इस घोर कलियुगमें मनुष्योंकी और गोत्र नहीं जानता। तात ! मैं केवल वेदोंका वक्ता आयु थोड़ी होगी। वे सदा अधर्ममें तत्पर रहेंगे। हूँ, वेदातीत परमात्माका ज्ञाता नहीं, अतः देवर्षे ! तुम भगवानके नामोंमें उनकी निष्ठा नहीं होगी। कलियुगके वहाँ जाओ, जहाँ भगवान् विश्वनाथ रहते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मण पाखण्डी, धर्मसे विरक्त, संध्या न करनेवाले, वे तुमसे सम्पूर्ण तत्त्वका वर्णन करेंगे। कैलासके स्वामी व्रतहीन, दुष्ट और मलिन होंगे; जैसे ब्राह्मण होंगे, वैसे श्रीमहादेवजी ही अन्तर्यामी पुरुष हैं। वे देवताओंके ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जातिके लोग भी स्वामी और सम्पूर्ण भक्तोंके आराध्यदेव हैं। पाँच मुखोंसे होंगे। प्रायः मनुष्य भगवान्के भक्त नहीं होंगे। द्विजोंसे सुशोभित भगवान् उमानाथ सब दुःखोंका विनाश बाहर गिने जानेवाले शूद्र कलियुगमें धर्म-अधर्म तथा करनेवाले हैं। सम्पूर्ण विश्वके ईश्वर श्रीविश्वनाथजी सदा हिताहितका ज्ञान भी नहीं रखते; ऐसा जानकर मैं आपके भक्तोंपर दया करनेवाले हैं। नारद ! वहीं जाओ, वे तुम्हें निकट आया हूँ। आप कृपा करके विष्णुके सहस्र सब कुछ बता देंगे।
- नामोका वर्णन कीजिये, जो पुरुषोंके लिये सौभाग्यजनक, सूतजी कहते हैं-पिताकी बात सुनकर देवर्षि परम उत्तम तथा सर्वदा भक्तिभावको बढ़ानेवाले हैं। इसी नारद कैलास पर्वतपर, जहाँ कल्याणप्रद भगवान् प्रकार जो ब्राह्मणोंको ब्रह्मज्ञान, क्षत्रियोंको विजय, विश्वेश्वर नित्य निवास करते हैं, गये। देवताओद्वारा वैश्योंको धन तथा शूद्रोंको सदा सुख देनेवाले हैं।
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. . अर्चयाव हावीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्यपुराण
सुव्रत ! जो सहस्रनाम परम गोपनीय है, उसका वर्णन देवेश्वर ' इसे जाननेको मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है। कीजिये । वह परम पवित्र एवं सदा सर्वतीर्थमय है; अतः सुव्रत ! यदि मैं आपकी प्रियतमा और कृपापात्र हूँ तो मैं उसका श्रवण करना चाहता हूँ। प्रभो ! विश्वेश्वर ! मुझसे यथार्थ बात कहिये। कृपया उस सहस्रनामका उपदेश कीजिये।
नारदजीके वचन सुनकर भगवान् शङ्करके नेत्र आचर्यसे चकित हो उठे। भगवान् विष्णुके नामका बारम्बार स्मरण करके उनके शरीरमें रोमाश हो आया। वे बोले-'ब्रह्मन् ! भगवान् विष्णुके सहस्रनाम परम गोपनीय है। इन्हें सुनकर मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता।' यो कहकर भगवान् शङ्करने नारदजीको विष्णुसहस्रनामका उपदेश दिया, जिसे पूर्वकालमें वे भगवती पार्वतीजीको सुना चुके थे। इस प्रकार नारदजीने कैलास पर्वतपर भगवान् महेश्वरसे श्रीविष्णुसहस्रनामका ज्ञान प्राप्त किया। फिर दैवयोगसे एक बार वे कैलाससे उतरकर नैमिषारण्य नामक तीर्थमें आये। वहाँके ऋषियोंने ऋषिश्रेष्ठ महात्मा नारदको आया देख विशेषरूपसे उनका स्वागत-सत्कार किया। उन्होंने विष्णुभक्त विप्रवर नारदजीके ऊपर फूल बरसाये, पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया, उनकी आरती उतारी और फल-मल IMWARENES, निवेदन करके पृथ्वीपर साष्टाङ्ग प्रणाम किया। तत्पश्चात् महादेवजी बोले-देवि ! पहले सत्ययुगमें वे बोले-'महामुने ! हमलोग इस वंशमें जन्म लेकर विशुद्ध चित्तवाले सब पुरुष सम्पूर्ण ईश्वरोंके भी ईश्वर आज कृतार्थ हो गये; क्योंकि आज हमें परम पवित्र और एकमात्र भगवान् विष्णुका तत्त्व जानकर उन्हींके नामोका पापोंका नाश करनेवाला आपका दर्शन प्राप्त हुआ। जप किया करते थे और उसीके प्रभावसे इस लोक तथा देवर्षे ! आपके प्रसादसे हमने पुराणोका श्रवण किया है। परलोकमें भी परम ऐश्वर्यको प्राप्त करते थे। प्रिये ! ब्रह्मन् ! अव आप यह बताइये कि किस प्रकारसे समस्त तुलादान, अश्वमेध आदि यज्ञ, काशी, प्रयाग आदि पापोका क्षय हो सकता है। दान, तपस्या, तीर्थ, यज्ञ, तीर्थोमें किये हुए स्नान आदि शुभकर्म, गयामें किये हुए योग, ध्यान, इन्द्रिय-निग्रह और शास्त्र-समुदायके बिना पितरोंके श्राद्ध-तर्पण आदि, वेदोंके स्वाध्याय आदि, ही कैसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है?'
जप, उप तप, नियम, यम, जीवोंपर दया, गुरुशुश्रूषा, नारदजी बोले-मुनिवरो ! एक समय भगवती सत्यभाषण, वर्ण और आश्रमके धोका पालन, ज्ञान पार्वतीने कैलासशिखरपर बैठे हुए अपने प्रियतम तथा ध्यान आदि साधनोंका कोटि जन्मोतक भलीभांति देवाधिदेव जगद्गुरु महादेवजीसे इस प्रकार प्रश्न किया। अनुष्ठान करनेपर भी मनुष्य परम कल्याणमय सर्वेश्वरेश्वर
पार्वती बोली-भगवन् ! आप सर्वज्ञ और भगवान् विष्णुको नहीं पाते। परन्तु जो दूसरेका भरोसा सर्वपूजित श्रेष्ठ देवता हैं। जन्म और मृत्युसे रहित, न करके सर्वभावसे पुराण पुरुषोत्तम श्रीनारायणकी शरण स्वयम्भू एवं सर्वशक्तिमान् हैं। स्वामिन् ! आप सदा ग्रहण करते है, वे उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग किसका ध्यान करते हैं ? किस मन्त्रका जप करते हैं? एकमात्र श्रीभगवान् विष्णुके नामोंका कीर्तन करते हैं, वे
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उत्तरखण्ड ] .
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन •
Pe..विनियोग
सुखपूर्वक जिस गतिको प्राप्त करते हैं, उसे समस्त
अङ्गन्यास धार्मिक भी नहीं पा सकते । अतः सदा भगवान् विष्णुका श्रीवासुदेवः परं ब्रह्मेति हृदयम् । मूलप्रकृतिरिति स्मरण करना चाहिये, इन्हें कभी भी भूलना नहीं चाहिये। शिरः। महावराह इति शिखा। सूर्यवंशध्वज इति क्योंकि सभी विधि और निषेध इन्हीके किङ्कर हैं- कवचम्। ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशव इति इन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं।* प्रिये ! अब मैं नेत्रम्। पार्थार्थखण्डिताशेष इत्यस्खम्। नमो तुमसे भगवान् विष्णुके मुख्य-मुख्य हजार नामोंका वर्णन नारायणायेति न्यासं सर्वत्र कारयेत् ॥ ११७ ॥ करूँगा, जो तीनों लोकोंको मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। 'श्रीवासुदेवः परं ब्रह्म' (श्रीवासुदेव परब्रह्म
त
हैं)-यह कहकर दाहिने हाथकी अंगुलियोंसे हृदयका अस्य श्रीविष्णोर्नामसहस्रस्तोत्रस्य श्रीमहादेव स्पर्श करे। 'मूलप्रकृतिः' (मूल प्रकृति) का उच्चारण ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,परमात्मा देवता, ह्रीं बीजम्, श्रीं करके सिरका सर्श करे। 'महावराहः' (महान् शक्तिः, क्लीं कीलकम, चतुर्वर्गधर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे वराहरूपधारी भगवान् विष्णु)-यह कहकर शिखाका विनियोगः ॥ ११४ ॥
स्पर्श करे। 'सूर्यवंशध्वजः' (सूर्यवंशके ध्वजारूप इस श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रके महादेवजी ऋषि, भगवान् श्रीराम) यों कहकर दोनों हाथोंसे दोनों अनुष्टुप् छन्द, परमात्मा देवता, ह्रीं बीज, श्री शक्ति और भुजाओंके मूलभागका स्पर्श करे। 'ब्रह्मादिकी कोलक है। चारों पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम तथा काम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशवः' (अवतार धारण मोक्षकी प्राप्तिके निमित्त जप करनेके लिये इस स्तोत्रका करनेपर जिनका शिशुरूप अपने अनुपम सौन्दर्यसे विनियोग (प्रयोग) किया जाता है ।। ११४ ॥ संसारको आश्चर्य में डाल देता है तथा ब्रह्मा आदि देवता
ॐ वासुदेवाय विद्महे, महाहंसाय धीमहि, तन्नो भी उस रूपमें जिनकी झाँकी करनेकी अभिलाषा रखते विष्णुः प्रचोदयात् ॥११५॥
हैं, वे भगवान् विष्णु धन्य हैं) यह कहकर नेत्रोंका स्पर्श ___हम श्रीवासुदेवका तत्त्व समझनेके लिये ज्ञान प्राप्त करे। 'पार्थार्थखण्डिताशेषः' (अर्जुनके लिये करते हैं, महाहंसस्वरूप नारायणके लिये ध्यान करते हैं, महाभारतके समस्त वीरोंका संहार करानेवाले श्रीकृष्ण) श्रीविष्णु हमें प्रेरित करे-हमारी मन, बुद्धिको प्रेरणा यों कहकर ताली बजाये। अन्तमें 'नमो नारायणाय' देकर इस कार्यमें लगायें ।। ११५॥
(श्रीनारायणको नमस्कार है)-ऐसा बोलकर सर्वाङ्गका अङ्गन्यासकरन्यासविधिपूर्व यदा पठेत्। स्पर्श करे ।। ११७ ॥ तत्फलं कोटिगुणितं भवत्येव न संशयः ॥ ११६॥ ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने,
यदि पहले अङ्गन्यास और करन्यासकी विधि पूर्ण विशुद्धसत्त्वाय महाहंसाय धीमहि, तन्नो देवः करके सहस्रनामस्तोत्रका पाठ किया जाय तो निस्सन्देह प्रचोदयात् ॥ ११८॥ उसका फल कोटिगुना होता है ।। ११६ ॥
ॐकाररूप सर्वान्तर्यामी महात्मा नारायणको
* स्मर्तव्यः सतत विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् । सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतस्यैव हि किङ्कराः ॥ (७२ । १००)
यहाँ अङ्गन्यासकी विधिका उल्लेख किया गया है। इन्हीं मोसे करन्यास भी किया जा सकता है, उसकी विधि इस प्रकार है। 'श्रीवासुदेवः परं ब्राह्म' यह कहकर दोनों हाथोंके अँगूठोको परस्पर मिलाये इसी तरह 'मूलप्रकृतिः' कहकर दोनों तर्जनियोको. 'महावराहः का उधारण करके दोनों बीचकी अँगुलियोको, 'सूर्यवंशध्वजः' कहकर दोनों अनामिकाओको, 'ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशवः'का उचारण करके दोनों कनिष्ठिका अगुलियोंको. 'पार्थार्थसण्डिताशेषः' कहकर दोनों हथेलियोंको तथा 'नमो नारायणाय का उधारण करके हथेलियोंके पृष्ठभागोको परस्पर स्पर्श कराये।
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अर्चयस्य इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
नमस्कार है, विशुद्ध सत्त्वमय महाहंसस्वरूप श्रीविष्णुका हम ध्यान करते हैं; अतः श्रीविष्णु देवता हमें सत्कार्यमें प्रेरित करें ।। ११८ ॥
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रेष्ठ, नित्य-शुद्ध
परमात्मा ३ परमात्मा परम बुद्धमुक्तस्वभाव, ४ परात्परः पर अर्थात् प्रकृतिसे भी परे विराजमान परमात्मा ।। १२३ ।।
ह्रीं कृष्णाय विग्रहे, ह्रीं रामाय धीमहि, तन्नो देवः परं धाम परं ज्योतिः परं तत्त्वं परं पदम् । परः शिवः परो ध्येयः परं ज्ञानं परा गतिः ॥ १२४ ॥
प्रचोदयात् ॥ ११९ ॥
'ह्रीं' रूप श्रीकृष्णतत्त्वको समझनेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं; 'ह्रीं' रूप श्रीरामका हम ध्यान करते हैं: वे देव श्रीरघुनाथजी हमें प्रेरित करें ॥ ११९ ॥
विष्णुः प्रचोदयात् ॥ १२० ॥
५ परं धाम - सर्वोत्तम वैकुण्ठधाम, निर्गुण परमात्मा, ६ परं ज्योतिः - सूर्य आदि ज्योतियोंको भी प्रकाशित करनेवाले सर्वोत्कृष्ट ज्योतिःस्वरूप, ७ परं शं नृसिंहाय विग्रहे, श्रीकण्ठाय धीमहि, तत्रो तत्त्वम्— परम तत्त्व उपनिषदोंसे जाननेयोग्य सर्वोत्तम रहस्य ८ परं पदम् — प्राप्त करनेयोग्य सर्वोत्कृष्ट पद, मोक्षस्वरूप, ९ परः शिवः - परम कल्याणरूप, १० परो ध्येयः- -ध्यान करनेयोग्य सर्वोत्तम देव, चिन्तनके सर्वश्रेष्ठ आश्रय, ११ परं ज्ञानम् - भ्रान्तिशून्य उत्कृष्ट बोधस्वरूप परमात्मा, १२ परा गतिः - सर्वोत्तम गति
शम् – कल्याणमय भगवान् नृसिंहका तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, श्रीकण्ठका ध्यान करते हैं; वे श्रीनृसिंहरूप भगवान् विष्णु हमें प्रेरित करें ॥ १२० ॥
ॐ वासुदेवाय विराहे, देवकीसुताय धीमहि, मोक्षस्वरूप ॥ १२४ ॥ तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥ १२१ ॥
ॐकाररूप श्रीवासुदेवका तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, श्रीदेवकीनन्दन श्रीकृष्णका हम ध्यान करते हैं, वे श्रीकृष्ण हमें प्रेरित करें ॥ १२१ ॥
ॐ ह्रां ह्रीं हूं हैं ह्रौं ह्रः क्रीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय नमः स्वाहा ॥ १२२ ॥
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ॐ ह्रां ह्रीं हूं हैं ह्रीं ह्रः क्लीं – सच्चिदानन्दस्वरूप, गोपीजनोंके प्रियतम भगवान् गोविन्दको नमस्कार है; हम उनकी तृप्तिके लिये उत्तम रीतिसे हवन करते हैं— अपना सब कुछ अर्पण करते हैं ।॥ १२२ ॥ इति मन्त्र समुच्चार्य यजेद् वा विष्णुमव्ययम् । श्रीनिवासं जगन्नाथं ततः स्तोत्रं पठेत् सुधीः । ॐ वासुदेवः परं ब्रह्म परमात्मा परात्परः ।। १२३ ।। - उपर्युक्त मन्त्रोंका उच्चारण करके लक्ष्मीके निवासस्थान और संसारके स्वामी अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे; इसके बाद विद्वान् पुरुष सहस्रनामस्तोत्रका पाठ करे। ॐ सच्चिदानन्दस्वरूप, १ वासुदेवः - सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेमें बसानेवाले तथा समस्त भूतोंमें सर्वात्मारूपसे बसनेवाले, चतुर्व्यूहमें वासुदेवस्वरूप, २ परं ब्रह्म- सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म - निर्गुण और आसक्तिरूपी मलसे
परमार्थः परश्रेष्ठः परानन्दः परोदयः । परोऽव्यक्तात्परं व्योम परमर्द्धिः परेश्वरः ॥ १२५ ॥
१३ परमार्थः - मोक्षरूप परम पुरुषार्थ, परम सत्य १४ परश्रेष्ठः श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ, १५ परानन्दः - परम आनन्दमय, असीम आनन्दकी निधि, १६ परोदयः – सर्वाधिक अभ्युदयशाली, १७ अव्यक्तात्परः -अव्यक्तपदवाच्य मूलप्रकृतिसे परे, १८ परं व्योम - नित्य एवं अनन्त आकाशस्वरूप निर्गुण परमात्मा १९ परमर्द्धिः - सर्वोत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न, २० परेश्वरः - पर अर्थात् ब्रह्मादि देवताओंके भी ईश्वर ॥ १२५ ॥
निरामयो निर्विकारो निर्विकल्पो निराश्रयः । निरञ्जनो निरालम्बो निर्लेपो निरवग्रहः ।। १२६ ।।
२१ निरामयः - रोग-शोकसे रहित, २२ निर्विकारः - उत्पत्तिः, सत्ता, वृद्धि, विपरिणाम, अपक्षय और विनाश- इन छः विकारोंसे शून्य, २३ निर्विकल्पः – सन्देहरहित, संकल्पशून्य, २४ निराश्रयः - स्वयं ही सबके आश्रय होनेके कारण अन्य किसी आश्रयसे रहित २५ निरञ्जन:- वासना शून्य, तमोगुणरहित,
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. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन .
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२६ निरालम्बः-आधारशून्य, स्वयं ही सबके सम्पन्न, ५३ सर्वसार:-सबके बल, ५४ आधार, २७ निलेपः-जलसे कमलकी भाँति राग- सर्वात्मा-सबके आत्मा, ५५ सर्वतोमुखः-सव द्वेषादि दोषोंसे अलिप्त, २८ निरवप्रहः-विघ्र- ओर मुखवाले, विराट्स्वरूप, ५६ सर्ववासः-सम्पूर्ण बाधाओंसे रहित ॥१२६ ॥
विश्वके वासस्थान, ५७ सर्वरूपः-सब रूपोंमें स्वयं निर्गुणो निष्कलोऽनन्नोऽभयोऽचिन्त्योऽचलोऽञ्चितः । ही उपलब्ध होनेवाले, विश्वरूप, ५८ सर्वादिः-सबके अनीन्द्रियोऽमितोऽपारो नित्योऽनीहोऽव्ययोऽक्षयः ।। १२७ ॥ आदि कारण, ५९ सर्वदुःखहा-सबके दुःखोंका नाश
२९ निर्गुण:-सत्त्व, रज और तम-इन तीनों करनेवाले ॥ १२९ ॥ गुणोंसे रहित परमात्मा, ३० निष्कल:-अवयवशून्य सर्वार्थः सर्वतोभद्रः सर्वकारणकारणम् । ब्रह्म, ३१ अनन्तः-असीम एवं अविनाशी परमेश्वर, सर्वातिशयितः सर्वाध्यक्षः सर्वेश्वरेश्वरः ।। १३०॥ ३२ अभय:-काल आदिके भयसे रहित, ३३ ६० सर्वार्थ:-समस्त पुरुषार्थरूप,- ६१ अचिन्त्यः-मनको गतिसे परे होनेके कारण चिन्तनमें सर्वतोभद्रः-सब ओरसे कल्याणरूप, ६२ न आनेवाले, ३४ अचल:-अपनी मर्यादासे विचलित सर्वकारणकारणम्-विश्वके कारणभूत प्रकृति न होनेवाले, ३५ अक्षितः-सबके द्वारा पूजित, ३६ आदिके भी कारण, ६३ सर्वातिशयितः-सबसे सब अतीन्द्रियः-इन्द्रियोंके अगोचर, ३७ अमितः- बातोंमें बढ़े हुए. ब्रह्मा और शिव आदिसे भी अधिक माप या सीमासे रहित, महान्, अपरिच्छिन, ३८ महिमावाले, ६४ सर्वाध्यक्ष:-सबके साक्षी, सबके अपारः-पाररहित, अनन्त, ३९ नित्यः-सदा नियन्ता, ६५ सर्वेश्वरेश्वरः-सम्पूर्ण ईश्वरोंके भी ईश्वर, रहनेवाले, सनातन, ४० अनीहः-चेष्टारहित ब्रह्म, ४१ ब्रह्मादि देवताओंके भी नियामक ॥ १३०॥ अव्ययः-- विनाशरहित, ४२ अक्षयः-कभी क्षीण षड्विंशको महाविष्णुमहागुरो महाविभुः। न होनेवाले ॥ १२७ ॥
नित्योदितो नित्ययुक्तो नित्यानन्दः सनातनः ॥ १३१॥ सर्वज्ञः सर्वगः सर्वः सर्वदः सर्वभावनः।
६६ षड्विंशकः-पच्चीस' तत्त्वोंसे विलक्षण सर्वशास्ता सर्वसाक्षी पूज्यः सर्वस्य सर्वदा ॥ १२८॥ छब्बीसवाँ तत्त्व, पुरुषोत्तम, ६७ महाविष्णुः-सब
४३ सर्वज्ञः-परोक्ष और अपरोक्ष सबके ज्ञाता, देवताओंमें महान् सर्वव्यापी भगवान् विष्णु, ६८ ४४ सर्वगः-कारणरूपसे सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले, ४५ महागुह्यः-परम गोपनीय तत्त्व, ६९ महाविभु:सर्वः-सर्वस्वरूप, ४६ सर्वदः-भक्तोंको सर्वस्व प्राकृत आकाश आदि व्यापक तत्त्वोंसे भी महान् एवं देनेवाले, ४७ सर्वभावन:-सबको उत्पन्न करनेवाले, व्यापक, ७० नित्योदित:-सूर्य आदिकी भाँति ४८ सर्वशास्ता-सबके शासक, ४९ सर्वसाक्षी- अस्त न होकर नित्य-निरन्तर उदित रहनेवाले, ७१ भूत, भविष्य और वर्तमान-सबपर दृष्टि रखनेवाले, नित्ययुक्तः-चराचर प्राणियोंसे नित्य संयुक्त अथवा ५० सर्वस्य पूज्यः-सबके पूजनीय, ५१ सर्वदृक्- सदा योगमें स्थित रहनेवाले, ७२ नित्यानन्दः
नित्य आनन्दस्वरूप, ७३ सनातनः-सदा एकरस सर्वशक्तिः सर्वसारः सर्वात्मा सर्वतोमुखः। रहनेवाले ॥ १३१ ॥ सर्ववासः सर्वरूपः सर्वादिः सर्वदुःखहा ॥ १२९ ॥ मायापतियोंगपतिः कैवल्यपतिरात्मभूः। ..
५२ सर्वशक्ति:-सब प्रकारकी शक्तियोंसे जन्ममृत्युजरातीतः कालातीतो भवातिगः ॥ १३२॥
सबके द्रष्टा ॥ १२८॥
१. पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच इन्द्रियों के विषय, मन, पाँच भूत, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा)-ये पचीस तत्त्व है। इनसे भिन्न सर्वज्ञ परमात्मा छब्बीसवाँ तत्त्व है। इसीलिये इसे षड्विशक' कहा गया है।
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
- ७४ मायापतिः-मायाके स्वामी, ७५ योग- प्रकाशित होनेवाले, ९७ स्वयम्प्रभुः-दूसरेकी पति:-योगपालक, योगेश्वर, ७६ कैवल्यपतिः- सामर्थ्यकी अपेक्षासे रहित, स्वयं समर्थ, २८ मोक्ष प्रदान करनेका अधिकार रखनेवाले, मुक्तिके सर्वोपायः-सर्वसाधनरूप, ९९ उदासीन:स्वामी, ७७ आत्मभूः-स्वतः प्रकट होनेवाले, रागद्वेषसे ऊपर उठे हुए. पक्षपातरहित, १०० स्वयम्भू, ७८ जन्ममृत्युजरातीतः-जन्म, मरण और प्रणवः-ओंकाररूप शब्दब्रह्म, १०१ सर्वतः वृद्धावस्था आदि शरीरके धर्मोंसे रहित, ७९ समः-सब ओर समान दृष्टि रखनेवाले ॥१३५ ॥ कालातीत:-कालके वशमें न आनेवाले, ८० सर्वानवद्यो दुष्पाप्यस्तुरीयस्तमसः परः । भवातिग:-भवबन्धनसे अतीत ॥ १३२ ।। कूटस्थः सर्वसंश्लिष्टो वाङ्मनोगोचरातिगः ॥ १३६ ॥ पूर्णः सत्यः शुद्धबुद्धस्वरूपो नित्यचिन्मयः।
१०२ सर्वानवद्यः-सबकी प्रशंसाके पात्र, योगप्रियो योगगम्यो भवबन्धैकमोचकः ॥ १३३ ॥ सबके द्वारा स्तुल्य, १०३ दुष्प्राप्यः-अनन्य चित्तसे - ८१ पूर्ण:-समस्त ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य और भजन न करनेवालोंके लिये दुर्लभ, १०४ तुरीयःगुणोंसे परिपूर्ण, ८२ सत्यः-भूत, भविष्य और जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओंसे वर्तमान- तीनों कालोंमें सदा समानरूपसे रहनेवाले, अतीत चतुर्थावस्थास्वरूप, १०५ तमसः परःसत्यस्वरूप, ८३ शुद्धबुद्धस्वरूपः-स्वाभाविक शुद्ध तमोगुण एवं अज्ञानसे परे, १०६ कूटस्थ:-निहाईकी
और ज्ञानसे सम्पत्र, प्रकृतिके संसर्गसे रहित बोधस्वरूप भांति अविचलरूपसे स्थिर रहनेवाला निर्विकार आत्मा, परमात्मा, ८४ नित्यचिन्मयः-नित्य चैतन्यस्वरूप, १०७ सर्वसंश्लिष्टः-सर्वत्र व्यापक होनेके कारण ८५ योगप्रिय:-चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगके सबसे संयुक्त, १०८ वाङ्मनोगोचरातिगः-वाणी प्रेमी, ८६ योगगम्यः-ध्यान अथवा समाधिके द्वारा और मनकी पहुँचसे बाहर ।। १३६ ॥ अनुभवमें आनेयोग्य, ८७ भवबन्धैकमोचक:- संकर्षण: सर्वहरः कालः सर्वभयंकरः । संसार-बन्धनसे एकमात्र छुड़ानेवाले ॥ १३३ ॥ अनुल्लयश्चित्रगतिर्महारुद्रो दुरासदः ॥ १३७ ।। पुराणपुरुषः प्रत्यक्चैतन्यः पुरुषोत्तमः।
१०९ संकर्षण:-कालरूपसे सबको अपनी वेदान्तवेद्यो दुर्जेयस्तापत्रयविवर्जितः ।। १३४ ॥ ओर खींचनेवाले, चतुर्दूहमें सङ्कर्षणरूप, शेषावतार
८८ पुराणपुरुषः-ब्रह्मा आदि पुरुषोंकी अपेक्षा बलराम, ११० सर्वहर:-प्रलयकालमें सबका संहार भी प्राचीन, आदि पुरुष, ८९ प्रत्यक्कैतन्यः- करनेवाले, १११ काल:-युग, वर्ष, मास, पक्ष आदि अन्तर्यामी चेतन, ९० पुरुषोत्तमः-क्षर और अक्षर रूपसे सम्पूर्ण विश्वको अपना ग्रास बनानेवाले, कालपुरुषोंसे श्रेष्ठ, ९१ वेदान्तवेद्यः-उपनिषदोंके द्वारा पदवाच्य यमराज, ११२ सर्वभयंकरः-मृत्युरूपसे जाननेयोग्य, ९२ दुज्ञेयः-कठिनतासे अनुभवमें सबको भय पहुंचानेवाले, ११३ अनुल्लङ्घ्यःआनेवाले, ९३ तापत्रयविवर्जितः-आध्यात्मिक, काल आदि भी जिनकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं कर आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों तापोंसे सकते, ऐसे सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर, ११४ रहित ॥ १३४॥
चित्रगतिः-विचित्र लीलाएँ करनेवाले लोलापुरुषोत्तम ब्रह्मविद्याश्रयोऽनघः स्वप्रकाशः स्वयम्प्रभुः । अथवा विचित्र गतिसे चलनेवाले, ११५ महारुद्रःसर्वोपाय उदासीनः प्रणवः सर्वतः समः ॥ १३५॥ महान् दुःखोंको दूर भगानेवाले, ग्यारह रुद्रोंकी अपेक्षा ____९४ ब्रह्मविद्याश्रयः-ब्रह्मविद्याके आश्रय, भी महान् महेश्वररूप, ११६ दुरासदः-बड़े-बड़े उसके द्वारा जाननेमे आनेवाले ब्रह्म, ९५ अनघ:- दानवोंके लिये भी जिनका सामना करना कठिन है, ऐसे पापरहित, शुद्ध, ९६ स्वप्रकाश:-अपने ही प्रकाशसे दुर्धर्ष वीर ।। १३७॥
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उत्तरखण्ड ]
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन .
मलप्रकृतिरानन्दः प्रद्युम्नो विश्वमोहनः। सञ्चालन करनेवाले ॥ १४० ॥ . महामायो विश्ववीज परशक्तिः सुखैकभूः ।। १३८॥ क्षेत्रज्ञः प्रकृतिस्वामी पुरुषो विश्वसूत्रधक। 1 31 ११७ मूलप्रकृतिः-सम्पूर्ण विश्वके महाकारण- अन्तर्यामी विधामान्तःसाक्षी निर्गुण ईश्वरः ॥ १४१॥ स्वरूप, ११८ आनन्दः-सब ओरसे सुख प्रदान
१३९ क्षेत्रज्ञः-सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीरों) में स्थित करनेवाले, आनन्दस्वरूप, ११९ प्रद्युम्नः-महान् होकर उनका ज्ञान रखनेवाले, १४० प्रकृतिस्वामीबलवाले कामदेव, चतु हमें प्रद्युम्नस्वरूप, १२० जगतकी कारणभूता प्रकृतिके स्वामी, १४१ पुरुषःविश्वमोहनः- अपने अलााकक रूपलावण्यस सम्पूर्ण समस्त शरीरोंमें शयन करनेवाले अन्तर्यामी, १४२ विश्वको मोहित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, १२१
विश्वसूत्रभृक्-संसाररूपी नाटकके सूत्रधार, १४३ महामायः-मायावियोंपर भी माया डालनेवाले महान्
अन्तर्यामी-अन्तःकरणमें विराजमान परमेश्वर, १४४ मायावी, १२२ विश्वबीजम्-जगत्की उत्पत्तिके विधामा-भ:-भुवः स्वःरूप तीन धामवाले, आदि कारण, १२३ परशक्तिः-महान् सामर्थ्यशाली, त्रिलोकीमें व्याप्त. १४५ अन्तःसाक्षी-अन्तःकरणके १२४ सुखैकभूः-सुखके एकमात्र उत्पत्ति
द्रष्टा, १४६ निर्गुण:-गुणातीत, १४७ स्थान ॥ १३८॥
ईश्वरः-सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न ।। १४१॥ सर्वकाम्योऽनन्तलीलः सर्वभूतवशंकरः।
.. योगिगम्यः पद्मनाभः शेषशायी श्रियः पतिः । अनिरुद्धः सर्वजीवो हृषीकेशो मनःपतिः ।। १३९ ।।
श्रीशिवोपास्यपादाब्जो नित्यश्रीः श्रीनिकेतनः ।। १४२ ।। १२५ सर्वकाम्यः-सबकी कामनाके विषय, १२६ अनन्तलील:-जिनकी लीलाओंका अन्त नहीं
१४८ योगिगम्य:-योगियोंके अनुभव है-ऐसे भगवान्, १२७ सर्वभूतवशंकरः-सम्पर्ण आनेवाले, १४९ पद्मनाभः-अपनी नाभिसे कमल प्राणियोंको अपने वशमें करनेवाले, १२८ अनिरुद्धः- प्रकट करनेवाले, १५० शेषशायी-शेषनागकी संग्राममें जिनकी गतिको कोई रोक नहीं सकता-ऐसे शय्यापर शयन करनेवाले, १५१ श्रियःपति:पराक्रमी, शूरवीर, चतु हमें अनिरुद्धस्वरूप, १२९
लक्ष्मीके स्वामी, १५२ श्रीशिवोपास्यपादाब्जःसर्वजीवः-सबको जीवन प्रदान करनेवाले, सबके
पार्वतीसहित भगवान् शिव जिनके चरणकमलोकी आत्मा, १३० हषीकेशः-इन्द्रियोंके स्वामी, १३१ उपासना करते हैं, वे भगवान् विष्णु, १५३ नित्यश्री:मनःपतिः-मनके स्वामी, हृदयेश्वर ।। १३९ ।।
कभी विलग न होनेवाली लक्ष्मीकी शोभासे युक्त, १५४ निरुपाधिप्रियो हंसोऽक्षरः सर्वनियोजकः।
श्रीनिकेतन:-भगवती लक्ष्मीके हृदय-मन्दिरमें
निवास करनेवाले ॥ १४२ ॥ ब्रह्मप्राणेश्वरः सर्वभूतभृद् देहनायकः ॥ १४०॥
१३२- निरूपाधिप्रियः-जिनकी बुद्धिसे नित्यवक्षःस्थलस्थश्रीः श्रीनिधिः श्रीधरो हरिः। उपाधिकृत भेदभ्रम दूर हो गये है, उन ज्ञानी परमहंसोके वश्यश्रीनिश्चलश्रीदो विष्णुः क्षीराब्धिमन्दिरः ॥ १४३ ॥ भी प्रियतम, १३३ हंसः-हंसरूप धारण करके १५५ नित्यवक्षःस्थलस्थश्री:-जिनके सनकादिकोंको उपदेश करनेवाले, १३४ अक्षर:- वक्षःस्थलमें लक्ष्मी सदा निवास करती हैं ऐसे कभी नष्ट न होनेवाले, आत्मा, १३५ सर्वनियोजक:- भगवान् विष्णु, १५६ श्रीनिधिः-शोभाके भण्डार, सबको विभिन्न कर्मों में लगानेवाले, सबके प्रेरक, सबके सब प्रकारको सम्पत्तियोके आधार, १५७ श्रीधरःस्वामी, १३६ ब्रह्मप्राणेश्वर:-ब्रह्माजीके प्राणोंके जगज्जननी श्रीको हृदयमें धारण करनेवाले, १५८ स्वामी, १३७ सर्वभूतभृत्-सम्पूर्ण भूतोंका भरण- हरिः-पापहारी, भक्तोंका मन हर लेनेवाले-१५९ पोषण करनेवाले, १३८ देहनायक:- शरीरका वश्यश्रीः-लक्ष्मीको सदा अपने वश में रखनेवाले,
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
१६० निश्चलश्रीदः - स्थिर सम्पत्ति प्रदान करनेवाले, १६१ विष्णुः - सर्वत्र व्यापक १६२ क्षीराब्धिमन्दिर:- क्षीरसागरको अपना निवासस्थान बनाने वाले ॥ १४३ ॥ कौस्तुभोद्भासितोरस्को माधवो जगदार्तिहा । श्रीवत्सवक्षा निःसीमकल्याणगुणभाजनम् ।। १४४ ।। १६३ कौस्तुभोद्भासितोरस्कः - कौस्तुभ मणिकी प्रभासे उद्भासित हृदयवाले, १६४ माधवःजगन्माता लक्ष्मीके स्वामी अथवा मधुवंशमें प्रादुर्भूत भगवान् श्रीकृष्ण, १६५ जगदार्तिहा —समस्त संसारकी पीड़ा दूर करनेवाले, १६६ श्रीवत्सवक्षा:वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न धारण करनेवाले, १६७ निःसीमकल्याणगुणभाजनम् — सीमारहित कल्याण
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भगवान् ॥ १४६ ॥ सर्वामोघोद्यमो
म गुणोंके आधार ॥ १४४ ।। पीताम्बरो जगन्नाथो जगत्त्राता जगत्पिता । जगद्वन्धुर्जगत्स्रष्टा जगद्धाता जगन्निधिः ॥ १४५ ॥ १६८ पीताम्बरः -पीत वस्त्रधारी, १६९ जगन्नाथः - जगत्के स्वामी, १७० जगत्त्रातासम्पूर्ण विश्वके रक्षक, १७१ जगत्पिता–समस्त संसारके जन्मदाता १७२ जगद्बन्धुः - बन्धुकी भाँति जगत्के जीवोंकी सहायता करनेवाले, १७३ जगत्स्रष्टा - जगत् की सृष्टि करनेवाले ब्रह्मारूप १७४ जगद्धाता — अखिल विश्वका धारण-पोषण करनेवाले विष्णुरूप, १७५ जगन्निधिः - प्रलयके समय सम्पूर्ण जगत्को बीजरूपमें धारण करनेवाले ॥ १४५ ॥ जगदेकस्फुरद्वीय नाहंवादी जगन्मयः । सर्वाश्चर्यमयः सर्वसिद्धार्थः सर्वरञ्जितः ।। १४६ ।।
-
१७६ जगदेकस्फुरद्वीर्यः – संसारमें एकमात्र विख्यात पराक्रमी, १७७ नाहंवादी– अहङ्काररहित, १७८ जगन्मयः - विश्वरूप १७९ सर्वाश्चर्यमयः - जिनका सब कुछ आश्चर्यमय है — ऐसे अथवा सम्पूर्ण आश्चयसे युक्त, १८० सर्वसिद्धार्थः - पूर्णकाम होनेके कारण जिनके सभी प्रयोजन सदा सिद्ध हैं ऐसे परमेश्वर, १८१ सर्वरञ्जितः - देवता, दानव और मानव आदि सभी प्राणी जिन्हें रिझानेकी चेष्टामें लगे रहते हैं ऐसे
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
ब्रह्मरुद्राद्युत्कृष्टचेतनः ।
शम्भोः पितामहो ब्रह्मपिता शक्राद्यधीश्वरः ।। १४७ ।। १८२ सर्वामोघोद्यमः - जिनके सम्पूर्ण उद्योग सफल होते हैं, कभी व्यर्थ नहीं जाते - ऐसे भगवान् विष्णु, १८३ ब्रह्मरुद्राद्युत्कृष्टचेतनः ब्रह्मा और रुद्र आदिसे उत्कृष्ट चेतनावाले, १८४ शम्भोः पितामहःशङ्करजीके पिता भगवान् ब्रह्माको भी जन्म देनेवाले श्रीविष्णु, १८५ ब्रह्मपिता ब्रह्माजीको उत्पन्न करनेवाले, १८६ शक्राद्यधीश्वरः -इन्द्र आदि
देवताओंके स्वामी ॥ १४७ ॥
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सर्वदेवमूर्तिरनुत्तमः ।
सर्वदेवप्रियः सर्वदेवैकशरणं
सर्वदेवैकदेवता ॥ १४८ ॥
१८७ सर्वदेवप्रियः - सम्पूर्ण देवताओंके प्रिय, १८८ सर्वदेवमूर्तिः:- समस्त देवस्वरूप, ९८९ अनुत्तमः - जिनसे उत्तम दूसरा कोई नहीं है, सर्वश्रेष्ठ, १९० सर्वदेवैकशरणम् – समस्त देवताओंके एकमात्र आश्रय, १९१ सर्वदेवैकदेवता - सम्पूर्ण देवताओंके एकमात्र आराध्य देव ।। १४८ ।। यज्ञभुग्यज्ञफलदो यज्ञेशो यज्ञभावनः । यज्ञत्राता यज्ञपुमान्वनमाली द्विजप्रियः ॥ १४९ ॥
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१९२ यज्ञभुक् — समस्त यज्ञोंके भोक्ता, १९३ यज्ञफलदः - सम्पूर्ण यशोका फल देनेवाले, १९४ यज्ञेशः – यज्ञोंके स्वामी, १९५ यज्ञभावनः- - अपनी वेदमयी वाणीके द्वारा यज्ञोंको प्रकट करनेवाले, १९६ यज्ञत्राता - यज्ञविरोधी असुरोंका वध करके यज्ञोंकी रक्षा करनेवाले, १९७ यज्ञपुमान्– यज्ञपुरुष, यज्ञाधिष्ठाता देवता, १९८ वनमाली - परम मनोहर वनमाला धारण करनेवाले १९९ द्विजप्रियः - ब्राह्मणोंके प्रेमी और प्रियतम ।। १४९ ।। द्विजैकमानदो
विप्रकुलदेवोऽसुरान्तकः ।
—
सर्वदुष्टान्तकृत्सर्वसज्जनानन्यपालकः
।। १५० ।। २०० द्विजैकमानदः - ब्राह्मणोंको एकमात्र सम्मान देनेवाले, २०१ विप्रकुलदेवः - ब्राह्मणवंशको अपना आराध्यदेव माननेवाले, २०२
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उत्तरखण्ड ] .
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन .
असुरान्तकः-संसारमें अशान्ति फैलानेवाले असुरोंके अमितपराक्रमी, २२० सर्वमङ्गल:-सबका मङ्गल प्राणहन्ता, २०३ सर्वदुष्टान्तकृत्-समस्त दुष्टोंका करनेवाले अथवा सबके लिये मङ्गलरूप, २२१ सूर्यअन्त करनेवाले, २०४ सर्वसज्जनानन्यपालक:- कोटिप्रतीकाशः-करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी, सम्पूर्ण साधु पुरुषोके एकमात्र पालक ॥१५०॥ २२२ यमकोटिदुरासदः-करोड़ों यमराजोंके लिये सप्तलोकैकजठरः सप्तलोकैकमण्डनः। भी दुर्धर्षं ।। १५३ ॥ सृष्टिस्थित्यन्तकृचक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ॥ १५१ ।। कन्दर्यकोटिलावण्यो दुर्गाकोव्यरिमर्दनः ।
२०५ सप्तलोकैकजठर:-भूलोक, भुवोक, समुद्रकोटिगम्भीरस्तीर्थकोटिसमाह्वयः ॥ १५४ ॥ स्खलोंक, महलोंक, जनलोक, तपोलोक और सत्य- २२३ कन्दर्पकोटिलावण्यः-करोड़ों लोक-इन सातों लोकोंको अपने एकमात्र उदरमें कामदेवोंके समान मनोहर कान्तिवाले, २२४ स्थापित करनेवाले, २०६ सप्तलोकैकमण्डनः- दुर्गाकोट्यरिमर्दनः-करोड़ों दुर्गाओंके समान सातो लोकोंके एकमात्र शृङ्गार-अपनी ही शोभासे शत्रुओको रौंद डालनेवाले, २२५ समुद्रकोटिसमस्त लोकोंको विभूषित करनेवाले, २०७ सृष्टि- गम्भीर:-करोड़ों समुद्रोंके समान गम्भीर, २२६ स्थित्यन्तकृत्-संसारकी सृष्टि, पालन और संहार तीर्थकोटिसमायः-करोड़ों तीर्थोके समान पावन करनेवाले, २०८ चक्री-सुदर्शन चक्र धारण नामवाले ॥ १५४ ॥ करनेवाले, २०९ शार्ङ्गधन्वा-शाङ्ग नामक धनुष ब्रह्मकोटिजगत्स्रष्टा वायुकोटिमहाबलः । धारण करनेवाले, २१० गदाधरः-कौमोदको नामको कोटीन्दुजगदानन्दी शम्भुकोटिमहेश्वरः ॥ १५५ ॥ गदा धारण करनेवाले॥१५१ ॥
२२७ ब्रह्मकोटिजगत्स्रष्टा-करोड़ों ब्रह्माओंके शबभनन्दकी पद्मपाणिर्गरुड़वाहनः । समान संसारकी सृष्टि करनेवाले, २२८ वायुकोटिअनिर्देश्यवपुः सर्वपूज्यस्बैलोक्यपावनः ।। १५२ ।। महाबलः-करोड़ो वायुओंके तुल्य महाबली, २२९
२११ शलभृत्-एक हाथमें पाञ्चजन्य नामक कोटीन्दुजगदानन्दी-करोड़ो चन्द्रमाओंकी भांति शङ्ख लिये रहनेवाले, २१२ नन्दकी-नन्दक नामक जगत्को आनन्द प्रदान करनेवाले, २३० शम्भुकोटिखड्ग (तलवार) बाँधनेवाले, २१३ परापाणि:- महेश्वरः-करोड़ों शङ्करोंके समान महेश्वर (महान् हाथमें कमल धारण करनेवाले, २१४ गरुड़वाहन:- ऐश्वर्यशाली) ॥ १५५॥ पक्षियोंके राजा विनतानन्दन गरुड़पर सवारी करनेवाले, कुवेरकोटिलक्ष्मीवाज्याक्रकोटिविलासवान् । २१५ अनिर्देश्यवपुः-जिसके दिव्यस्वरूपका किसी हिमवत्कोटिनिष्कम्पः कोटिब्रह्माण्डविप्रहः ॥ १५६ ।। प्रकार भी वर्णन या संकेत न किया जा सके-ऐसे २३१ कुबेरकोटिलक्ष्मीवान्-करोड़ों कुबेरोंके अनिर्वचनीय शरीरवाले, २१६ सर्वपूज्यः-देवता, समान सम्पत्तिशाली, २३२ शक्रकोटिविलासवान्दानव और मनुष्य आदि-सबके पूजनीय, २१७ करोड़ों इन्द्रोंके सदृश भोग-विलासके साधनोंसे परिपूर्ण, त्रैलोक्यपावन:-अपने दर्शन और स्पर्श आदिसे २३३ हिमवत्कोटिनिष्कम्यः-करोड़ों हिमालयोंकी त्रिभुवनको पावन बनानेवाले ॥ १५२॥
भाँति अचल, २३४ कोटिब्रह्माण्डविग्रहः-अपने अनन्तकीर्तिनिःसीमपौरुषः सर्वमङ्गलः। . . श्रीविग्रहमें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंको धारण करनेवाले, सूर्यकोटिप्रतीकाशो यमकोटिदुरासदः ।। १५३ ॥ महाविरारूप ॥१५६ ॥ : ..
___२१८ अनन्तकीर्तिः-शेष और शारदा भी कोट्यश्वमेधपापनो यज्ञकोटिसमार्चनः । जिनकी कीर्तिका पार न पा सके-ऐसे अपार सुयश- सुभाकोटिस्वास्थ्यहेतुः कामधुकोटिकामदः ॥ १५७ ॥ वाले, २१९ निःसीमपौरुषः-असीम पुरुषार्थवाले, - २३५ कोट्यश्वमेधपापघ्नः-करोड़ों अश्वमेध
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७०२
. अर्जयस्व पीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण
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यज्ञोंके समान पापनाशक, २३६ यज्ञकोटि- नाश अथवा नरकासुरका वध करनेवाले, २५६ समार्चन:-करोड़ों यज्ञोंके तुल्य पूजन-सामग्रीसे दीनानाथैकारणम्-दीनों और अनाथोंको एकमात्र पूजित होनेवाले, २३७ सुधाकोटिस्वास्थ्यहेतुः- शरण देनेवाले, २५७ विश्वैकव्यसनापहः-संसारके कोटि-कोटि अमृतके तुल्य स्वास्थ्य-रक्षाके साधन, एकमात्र संकट हरनेवाले ॥ १६०॥ २३८ कामधुकोटिकामदः-करोड़ों कामधेनुओंके जगत्कृपाक्षमो नित्यं कृपालुः सज्जनाश्रयः । समान मनोरथ पूर्ण करनेवाले ॥ १५७ ॥
योगेश्वरः सदोदीणों वृद्धिक्षयविवर्जितः ॥ ११ ॥ ब्रह्मविद्याकोटिरूपः शिपिविष्टः शुविनवाः।
२५८ जगत्कृपाक्षमः-सम्पूर्ण विश्वपर कृपा विश्वम्भरस्तीर्थपादः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥१५८॥ करनेमें समर्थ, २५९ नित्यं कृपालुः-सदा स्वभावसे
-२३९ ब्रह्मविद्याकोटिरूपः-करोड़ों ब्रह्म- ही कृपा करनेवाले, २६० सजनाश्रयः-सत्पुरुषोंके विद्याओंके तुल्य ज्ञानस्वरूप, २४० शिपिविष्टः- शरणदाता, २६१ योगेश्वरः-सम्पूर्ण योगों तथा उनसे सूर्य-किरणोंमें स्थित रहनेवाले, २४१ शुचिश्रवाः- प्राप्त होनेवाली सिद्धियोंके स्वामी, २६२ पवित्र यशवाले, २४२ विश्वधरः-सम्पूर्ण विश्वका सदोदीर्ण:-सदा अभ्युदयशील, नित्य उदार, सदा भरण-पोषण करनेवाले, २४३ तीर्थपादः-तीर्थोकी सबसे श्रेष्ठ, २६३ वृद्धिक्षयविवर्जितः-वृद्धि और भाँति पवित्र चरणोंवाले, अथवा अपने चरणोंमें ही हासरूप विकारसे रहित ॥१६१ ॥ समस्त तीर्थोको धारण करनेवाले, २४४ पुण्यश्रवण- अधोक्षजो विश्वरेताः प्रजापतिशताधिपः । कीर्तन:-जिनके नाम, गुण, महिमा तथा स्वरूप शक्रब्रह्मार्चितपदः शम्भुब्रह्मोवंधामगः ।। १६२ ।। आदिका श्रवण और कीर्तन परम पवित्र एवं पावन २६४ अधोक्षजः-इन्द्रियोंके विषयोंसे ऊपर है-ऐसे भगवान् ॥ १५८॥
उठे हुए, अपने स्वरूपसे क्षीण न होनेवाले, २६५ आदिदेवो जगजेत्रो मुकुन्दः कालनेमिहा। विश्वरेता:-सम्पूर्ण विश्व जिनके वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, वैकुण्ठोऽनन्तमाहात्म्यो महायोगेश्वरोत्सवः ॥१५९॥ वे परमेश्वर, २६६ प्रजापतिशताधिपः-सैकड़ों । २४५ आदिदेव:-आदि देवता, सबके आदि प्रजापतियोंके स्वामी, २६७ शक्रब्रह्मार्चितपदःकारण एवं प्रकाशमान, २४६ जगज्जैत्र:- इन्द्र और ब्रह्माजीके द्वारा पूजित चरणोंवाले, २६८ विश्वविजयी, २४७ मुकुन्दः-मोक्षदाता, २४८ शम्भुब्रह्मोवंधामग:-भगवान् शङ्कर और ब्रह्माजीके कालनेमिहा-कालनेमि नामक दैत्यका वध करनेवाले, धामसे भी ऊपर विराजमान वैकुण्ठधाममें निवास २४९ । वैकुण्ठः -परमधामस्वरूप, २५० करनेवाले ॥ १६२ ।। अनन्तमाहात्म्यः-जिनकी महिमाका अन्त नहीं है- सूर्यसोमेक्षणो विश्वभोक्ता सर्वस्य पारगः । ऐसे महामहिम परमेश्वर, २५१ महायोगेश्वरोत्सवः- जगत्सेतुर्धर्मसेतुधरो विश्नधुरन्धरः ॥ १६३ ॥ बड़े-बड़े योगेश्वरोंके लिये जिनका दर्शन उत्सवरूप २६९ सूर्यसोमेक्षण:-सूर्य और चन्द्रमारूपी है-ऐसे भगवान् ॥ १५९॥
नेत्रवाले, २७० विश्वभोक्ता-विश्वका पालन नित्यतृप्तो लसद्धावो निःशङ्को नरकान्तकः ।' करनेवाले, २७१ सर्वस्य पारगः-सबसे परे दीनानाथैकशरणं - विश्वैकव्यसनापहः ॥ १६०॥ विराजमान, २७२ जगत्सेतुः-संसार-सागरसे पार
२५२ नित्यतृप्तः-अपने-आपमें ही सदा तृप्त होनेके लिये सेतुरूप, २७३ धर्मसेतुधरः- धर्मरहनेवाले, २५३ लसद्भावः-सुन्दर स्वभाववाले, मर्यादाका पालन करनेवाले, २७४ विश्वधुरन्धरः२५४ निःशङ्क:-अद्वितीय होनेके कारण भय- शेषनागके रूपसे समस्त विश्वका भार वहन शङ्कासे रहित, २५५ नरकान्तकः-नरकके भयका करनेवाले ॥ १६३ ॥
१६३||
TOTA
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उत्तरखण्ड ] .
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन .
निर्ममोऽखिललोकेशो निःसङ्गोऽद्भुतभोगवान्। ज्ञान और वैराग्यसे सम्पन्न, २९६ विष्टरश्नवाःवश्यमायो वश्यविश्वो विश्वक्सेनः सुरोत्तमः ।। १६४॥ कुशाकी मुष्टिके समान कानोंवाले ॥ १६७॥ 1:; ... २७५ निर्ममः-आसक्तिमूलक ममतासे रहित, विभुः सर्वहितोदकर्को हतारिः स्वर्गतिप्रदः ।। २७६ अखिललोकेशः-सम्पूर्ण लोकोंका शासन सर्वदैवतजीवेशो - ब्राह्मणादिनियोजकः ॥ १६८॥ करनेवाले, २७७ निःसङ्गः-आसक्तिरहित, २७८ २९७ विभुः-सर्वत्र व्यापक, २९८ अद्भुतभोगवान्-आश्चर्यजनक भोगसामग्रीसे सम्पन्न, सर्वहितोदर्क:-सबके लिये हितकर भविष्यका २७९ वश्यमायः-मायाको अपने वशमें रखनेवाले, निर्माण करनेवाले, २९९ हतारि:-जिनके शत्रु नष्ट हो २८० वश्यविश्वः-समस्त जगत्को अपने अधीन चुके है, शत्रुहीन, ३०० स्वर्गतिप्रदः-स्वर्गीयरखनेवाले, २८१ विपक्सेनः-युद्धके लिये की हुई उच्चगति प्रदान करनेवाले, ३०१ सर्वदैवतजीवेश:तैयारीमात्रसे ही दैत्यसेनाको तितर-बितर कर डालनेवाले, समस्त देवताओंके जीवनके स्वामी, ३०२ ब्राह्मणादि२८२ सुरोत्तमः-समस्त देवताओमें श्रेष्ठ ॥ १६४॥ नियोजक:- ब्राह्मण आदि वर्णोको अपने-अपने सर्वश्रेयःपतिदिव्योऽनर्घ्यभूषणभूषितः । धर्ममें नियुक्त करनेवाले ॥१८॥ सर्वलक्षणलक्षण्यः । सर्वदैत्येन्द्रदर्पहा ॥ १६५॥ ब्रह्मशम्भुपरार्धायुब्रह्मज्येष्ठः शिशुस्वराद ।
२८३ सर्वश्रेयःपतिः-समस्त कल्याणोंके विराइ भक्तपराधीन: स्तुत्यः स्तोत्रार्थसाधकः ।। १६९ ॥ स्वामी, २८४ दिव्यः-लोकोत्तर सौन्दर्य-माधुर्य आदि ३०३ ब्रह्मशम्भुपरार्धायु:-ब्रह्मा और शिवकी गुणोंसे सम्पन्न, २८५ अनर्थ्यभूषणभूषितः- अपेक्षा भी अनन्तगुनी आयुवाले, ३०४ ब्रह्मज्येष्ठःअमूल्य आभूषणोंसे विभूषित, २८६ सर्वलक्षण- ब्रह्माजीसे भी ज्येष्ठ, ३०५ शिशुस्वराट-बालमुकुन्दलक्षण्यः-समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त, २८७ रूपसे शोभा पानेवाले, ३०६ विराट्-विशेष शोभासर्वदैत्येन्द्रदर्पहा-समस्त दैत्यपतियोंका दर्प दलन सम्पन्न, अखिल ब्रह्माण्डमय विराट् रूपधारी भगवान, करनेवाले ॥ १६५॥
३०७ भक्तपराधीनः-प्रेमविवश होकर भक्तोंके समस्तदेवसर्वस्वं सर्वदैवतनायकः। अधीन रहनेवाले, ३०८ स्तुत्यः-स्तुति करने योग्य, समस्तदेवकवचं सर्वदेवशिरोमणिः ॥१६६ ॥ ३०९ स्तोत्रार्थसाधकः-स्तोत्रमें कहे हुए अर्थको
२८८ समस्तदेवसर्वस्वम्-सम्पूर्ण देवताओंके सिद्ध करनेवाले ॥ १६९।।। सर्वस्व, २८९ सर्वदैवतनायकः- समस्त देवताओके परार्थकर्ता कृत्यज्ञः स्वार्थकृत्यसदोज्झितः। नेता, २९० समस्तदेवकवचम्-सब देवताओंकी सदानन्दः सदाभद्रः सदाशान्तः सदाशिवः ॥ १७ ॥ कवचके समान रक्षा करनेवाले,२९१ सर्वदेव- ३१० परार्थकर्ता-परोपकार करनेवाले, ३११ शिरोमणिः- सम्पूर्ण देवताओंके शिरोमणि ।। १६६ ॥ कृत्यज्ञः-कर्तव्यका ज्ञान रखनेवाले, ३१२ स्वार्थसमस्तदेवतादुर्गः और प्रपन्नाशनिपञ्जरः। कृत्यसदोज्झितः-स्वार्थसाधनके कार्योंसे सदा दूर समस्तभयहनामा भगवान् विष्टरश्रवाः ॥ १६७ ॥ रहनेवाले, ३१३ सदानन्दः-सदा आनन्दमग्न,
२९२ समस्तदेवतादुर्ग:-मजबूत किलेके सत्पुरुषोको आनन्द प्रदान करनेवाले अथवा सत् एवं समान समस्त देवताओंकी रक्षा करनेवाले, २९३ आनन्दस्वरूप, ३१४ सदाभद्रः-सर्वदा कल्याणरूप, प्रपन्नाशनिपञ्जरः-शरणागतोंकी रक्षाके लिये वज्रमय ३१५ सदाशान्तः--नित्य शान्त, .. ३१६ पिंजड़ेके समान, २९४ समस्तभयन्नामा-जिनका सदाशिवः-निरन्तर कल्याण करनेवाले ॥ १७० ॥ नाम सब प्रकारके भयोंको दूर करनेवाला है-ऐसे सदाप्रियः सदातुष्टः सदापुष्टः सदार्चितः । विष्णु, २९५ भगवान्-पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, सदापूतः पावनाग्यो वेदगुह्यो वृषाकपिः ।। १७१ ।।
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७०४
. . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[संक्षिप्त पयपुराण
..३१७ सदाप्रियः-सर्वदा सबके प्रियतम, पुराणर्षिः-पुरातन ऋषि नारायण, ३४० निष्ठा३१८ सदातुष्टः-निरन्तर संतुष्ट रहनेवाले, ३१९ सबको स्थितिके आधार-अधिष्ठानस्वरूप, ३४१ सदापुष्ट:-क्षुधा-पिपासा तथा आधि-व्याधिसे रहित शान्तिः-परम शान्तिस्वरूप, ३४२ परायणम्होनेके कारण सदा पुष्ट शरीरवाले, ३२० सदार्चितः- परम प्राप्यस्थान, ३४३- शिवः-कल्याणस्वरूप, भक्तोंद्वारा निरन्तर पूजित, ३२१ सदापूतः-नित्य ३४४ त्रिशूलविध्वंसी-आध्यात्मिक आदि त्रिविध पवित्र, ३२२ पावनाम्यः- पवित्र करनेवालोमे शूलोका नाश करनेवाले अथवा प्रलयकालमें महारुद्रअग्रगण्य, ३२३ वेदगुह्यः- वेदोंके गूढ़ रहस्य, रूप होकर त्रिशूलसे समस्त विश्वका विध्वंस करनेवाले, ३२४ वृषाकपिः- वृष-धर्मको अकम्पित ३४५ श्रीकण्ठैकवरप्रदः-भगवान् शङ्करके एकमात्र (अविचल) रखनेवाले श्रीविष्णु ॥ १७१॥ .... वरदाता ॥ १७४ ॥ सहस्त्रनामा - त्रियुगचतुर्मूर्तिचतुर्भुजः। नरः कृष्णो हरिधर्मनन्दनो धर्मजीवनः । भूतभव्यभवनाथो...... महापुरुषपूर्वजः ॥ १७२ ॥ आदिकर्ता सर्वसत्यः सर्वस्वीरनादर्पहा ॥ १७५ ।।
३२५ सहस्रनामा-हजारों नामवाले, ३२६ ३४६ नरः-बदरिकाश्रममें तपस्या करनेवाले त्रियुगः-सत्ययुग, त्रेता और द्वापर नामक त्रियुग- ऋषिश्रेष्ठ नर, नरके अवतार अर्जुन, ३४७.कृष्णःस्वरूप, ३२७ चतुर्मूर्ति:-राम, लक्ष्मण, भरत और भक्तोंके मनको आकृष्ट करनेवाले देवकीनन्दन श्रीकृष्ण, शत्रुघ्ररूप चार मूर्तियोवाले, ३२८ चतुर्भुजः-चार सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा, ३४८ हरिः-गजेन्द्रकी भुजाओवाले, . ३२९ भूतभव्यभवन्नाथः - भूत, पुकार सुनकर तत्काल प्रकट हो ग्राहके प्राणों का भविष्य और वर्तमान-सभी प्राणियोंके स्वामी, ३३० अपहरण करनेवाले भगवान् श्रीहरि, ३४९ धर्ममहापुरुषपूर्वजः-महापुरुष ब्रह्मा आदिके भी नन्दनः-धर्मके यहाँ पुत्ररूपसे अवतीर्ण होनेवाले पूर्वज ॥ १७२ ॥
भगवान् नारायण अथवा धर्मराज युधिष्ठिरको आनन्दित नारायणो मझुकेशः सर्वयोगविनिःसृतः। करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, ३५० धर्मजीवन:वेदसारो यज्ञसारः सामसारस्तपोनिधिः ।। १७३ ॥ पापाचारी असुरोका मूलोच्छेद करके धर्मको जीवित _ ३३१ नारायणः-जलमें शयन करनेवाले, रखनेवाले, ३५१ आदिकर्ता-जगत्के आदि कारण ३३२ मझुकेश:-मनोहर धुंघराले केशोवाले, ३३३ ब्रह्माजीको उत्पन्न करनेवाले, ३५२ सर्वसत्यःसर्वयोगविनिःसृतः-नाना प्रकारके शास्त्रोक्त पूर्णतः सत्यस्वरूप, ३५३ सर्वस्त्रीरत्नदर्पहासाधनोंसे जाननेमें आनेवाले, समस्त योग-साधनोंसे जितेन्द्रिय होनेके कारण सम्पूर्ण सुन्दरी स्त्रियोंका प्रकट होनेवाले, ३३४ वेदसार:-वेदोंके सारभूत अभिमान चूर्ण करनेवाले ॥ १७५ ॥ तत्त्व, ब्रह्म, ३३५ यज्ञसार:-यज्ञोंके सारतत्त्व- त्रिकालजितकन्दर्प उर्वशीसामुनीश्वरः। ... यज्ञपुरुष विष्णु, ३३६ सामसार:- सामवेदको आधः कविहयग्रीवः सर्ववागीश्वरेश्वरः ॥ १७६ ॥ श्रुतियोंद्वारा गाये जानेवाले सारभूत परमात्मा, ३३७ ३५४ त्रिकालजितकन्दर्पः-भूत, भविष्य और तपोनिधिः-तपस्याके भंडार नर-नारायण- वर्तमान-तीनों कालोंमें कामदेवको परास्त करनेवाले,
३५५ उर्वशीसक-उर्वशी अप्सराकी सृष्टि करनेवाले साध्यश्रेष्ठः पुराणर्षिनिष्ठा शान्तिः परायणम्। ... भगवान् नारायण, ३५६ मुनीश्वरः-तपस्वी मुनियोंमें शिवस्त्रिशूलविध्वंसी श्रीकण्ठैकवरप्रदः ॥ १७४ ।। श्रेष्ठ नर-नारायणस्वरूप, ३५७ आद्यः-आदिपुरुष
३३८ साध्यश्रेष्ठः-साध्य देवताओंमें श्रेष्ठ, विष्णु, ३५८ कविः-त्रिकालदशी विद्वान्, ३५९ साधनसे प्राप्त होनेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ, ३३९ हयग्रीवः-हयग्रीव नामक अवतार धारण करनेवाले
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उत्तरखण्ड ]
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नाम कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन
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भगवान् ३६० सर्ववागीश्वरेश्वर:
ब्रह्मा आदि ज्ञानके सागर, ३८० अखण्डबी : - संशय विपर्यय आदिके द्वारा कभी खण्डित न होनेवाली बुद्धिसे युक्त, ३८१ मत्स्यदेवः - मत्स्यावतारधारी भगवान्, ३८२ महाशृङ्गः:- मत्स्य शरीरमें ही महान् शृङ्ग धारण करनेवाले, ३८३ जगद्वीजवहित्रधृक् — संसारकी बीजभूत ओषधियोंके सहित नौकाको अपने सींगमे बांधकर धारण करनेवाले मत्स्य भगवान् ॥ १८० ॥ देवीके स्वामी, ३६४ अनन्तविद्याप्रभवः - असंख्य लीलाव्याप्ताखिलाम्भोधिऋग्वेदादिप्रवर्तकः । विद्याओं की उत्पत्तिके हेतु, ३६५ मूलाविद्याविनाशकः भव-बन्धनकी हेतुभूत मूल अविद्याका
समस्त वागीश्वरोंके भी ईश्वर ।। १७६ ।। सर्वदेवमयो ब्रह्मगुरुर्वागीश्वरीपतिः । अनन्तविद्याप्रभवो मूलाविद्याविनाशकः ॥ २७७ ॥ ३६१ सर्वदेवमयः - सम्पूर्ण देवस्वरूप, ३६२ ब्रह्मगुरुः - ब्रह्माजीको वेदका उपदेश करनेवाले गुरु, ३६३ वागीश्वरीपतिः- वाणीकी अधीश्वरी सरस्वती
आदिकूपोऽखिलाधारस्तृणीकृतजगद्धरः
विनाश करनेवाले ॥ १७७॥ सार्वश्यदो नमज्जाङयनाशको मधुसूदनः । अनेकमन्त्रकोटीशः शब्दब्रौकपारगः ॥ १७८ ॥
३६६ सार्वज्ञ्यदः सर्वज्ञता प्रदान करनेवाले, ३६७ नमज्जाड्यनाशकः - प्रणाम करनेवाले भक्तोंकी जड़ताका नाश करनेवाले, ३६८ मधुसूदनः- मधु नामक दैत्यका वध करनेवाले, ३६९ अनेकमन्त्र कोटीश :- अनेक करोड़ मन्त्रोंके स्वामी, ३७० शब्दब्रह्मैकपारगः- शब्दब्रह्म (वेद-वेदाङ्गों) के एकमात्र पारङ्गत विद्वान् ॥ १७८ ॥ आदिविद्वान् वेदकर्ता वेदात्मा श्रुतिसागरः | ब्रह्मार्थवेदाहरणः सर्वविज्ञानजन्मभूः ॥ १७९ ॥
३७१ आदिविद्वान् सर्वप्रथम वेदका ज्ञान प्रकाशित करनेवाले, ३७२ वेदकर्ता — अपने निःश्वासके साथ वेदोंको प्रकट करनेवाले, ३७३ वेदात्मा- वेदोंके सार तत्त्व-उनके द्वारा प्रतिपादित होनेवाले सिद्धान्तभूत परमात्मा, ३७४ श्रुतिसागरःवैदिक ज्ञानके समुद्र, ३७५ ब्रह्मार्थवेदाहरण:मत्स्यरूप धारण करके ब्रह्माजीके लिये वेदोंको ले आनेवाले, ३७६ सर्वविज्ञानजन्मभूः- - सब प्रकारके विज्ञानोंकी जन्मभूमि ॥ १७९ ॥ विद्याराजो ज्ञानमूर्तिर्ज्ञानसिन्धुरखण्डधीः । मत्स्यदेवो महाभूङ्गो जगद्वीजवहित्रधृक् ।। १८० ।।
३७७ विद्याराज:- समस्त विद्याओंके राजा, ३७८ ज्ञानमूर्तिः - ज्ञानस्वरूप ३७९ ज्ञानसिन्धुः -
७०५
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।। १८१ ।।
३८४
लीलाव्याप्ताखिलाम्भोधिः - अपने मत्स्य शरीरसे लीलापूर्वक सम्पूर्ण समुद्रको आच्छादित कर लेनेवाले, ३८५ ऋग्वेदादिप्रवर्तकः ऋग्वेद, यजुर्वेद आदिके प्रवर्तक, ३८६ आदिकुर्मःसर्वप्रथम कच्छपरूपमें प्रकट होनेवाले भगवान्, ३८७ अखिलाधारः - अखिल ब्रह्माण्डके आधारभूत, ३८८ तृणीकृतजगद्भरः:- समस्त जगत्के भारको तिनकेके समान समझनेवाले ॥ १८१ ॥ अमरीकृतदेवीघः पीयूषोत्पत्तिकारणम् । आत्माधारो धराधारो यज्ञाङ्गो धरणीधरः ।। १८२ ।।
३८९ अमरीकृतदेवीघः - अमृत पिलाकर देवसमुदायको अमर बनानेवाले, ३९० पीयूषोत्पत्तिकारणम् - क्षीरसागरसे अमृतके निकालनेमें प्रधान कारण, ३९१ आत्माधारः - अन्य किसी आधारकी अपेक्षा न रखकर अपने ही आधारपर स्थित रहनेवाले, ३९२ धराधारः - पृथ्वीके आधार, ३९३ यज्ञाङ्गः - यज्ञमय शरीरवाले भगवान् वराह, ३९४ धरणीधरः - अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले ।। १८२ ।। हिरण्याक्षहरः पृथ्वीपतिः श्राद्धादिकल्पकः । समस्तपितृभीतिनः समस्तपितृजीवनम् ॥ १८३ ॥
३९५ हिरण्याक्षहरः - वराहरूपसे ही हिरण्याक्ष नामक दैत्यका वध करनेवाले, ३९६ पृथ्वीपतिःउक्त अवतारमें ही पृथ्वीको पत्नीरूपमें ग्रहण करनेवाले, अथवा पृथ्वीके पालक, ३९७ श्राद्धादिकल्पकःपितरोंके लिये श्राद्ध आदिकी व्यवस्था करनेवाले, ३९८
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७०६
अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि पर पदम.
[संक्षिप्त पद्मपुराण
समस्तपितृभीतिघ्नः-सम्पूर्ण पितरोंके भयका निवारण ४१५ कोटिवज्राधिकनख:-करोड़ों वनोंसे करनेवाले, ३९९ समस्तपितृजीवनम्-समस्त भी अधिक तीक्ष्ण नखोवाले, ४१६ जगदुष्प्रेक्ष्यपितरोंके जीवनाधार ॥ १८३॥
मूर्तिधन-सम्पूर्ण जगत् जिसकी ओर कठिनतासे देख हव्यकव्यैकभुग्धव्यकव्यैकफलदायकः । सके, ऐसी भयानक मूर्ति धारण करनेवाले, ४१७ रोमान्तीनजलधिः क्षोभिताशेषसागरः ॥ १८४ ॥ मातृचक्रप्रमथनः-डाकिनी, शाकिनी, पूतना आदि + ४०० हव्यकव्यैकभुक्-हव्य और कव्य मातृ-मण्डलको मथ डालनेवाले, ४१८ महामातृ(यज्ञ और श्राद्ध) के एकमात्र भोक्ता, ४०१ हव्य- गणेश्वरः-अपनी शक्तिभूत दिव्य महामातृगणोंके कव्यैकफलदायक:-यज्ञ और श्राद्धके एकमात्र अधीश्वर ॥ १८७॥ फलदाता, ४०२ रोमान्तीनजलधिः- अपने रोम- अचिन्त्यामोघवीर्यााः समस्तासुरघस्मरः । कूपोंमें समुद्रको लीन कर लेनेवाले महावराह, ४०३ हिरण्यकशिपुच्छेदी काल: संकर्षणीपतिः ।। १८८॥ क्षोभिताशेषसागरः-वराहरूपसे पृथ्वीकी खोज करते ४१९ अचिन्त्यामोघवीर्यादयः-कभी व्यर्थ न समय समस्त समुद्रको क्षुब्ध कर डालनेवाले ॥ १८४॥ जानेवाले अचिन्त्य पराक्रमसे सम्पन्न, ४२० समस्तासुरमहावराहो यज्ञप्रध्वंसको याज्ञिकाश्रयः। घस्मरः-समस्त असुरोको ग्रास बनानेवाले, ४२१ श्रीनृसिंहो दिव्यसिंहः सर्वानिष्टार्थदुःखहा ।। १८५॥ हिरण्यकशिपुच्छेदी- हिरण्यकशिपु नामक दैत्यको
४०४ महावराहः-महान् वराहरूपधारी विदीर्ण करनेवाले, ४२२ काल:-असुरोके लिये भगवान्, ४०५ यज्ञन्नध्वंसक:-यज्ञमें विघ्न डालने- कालरूप, ४२३ संकर्षणीपतिः-संहारकारिणी वाले असुरोके विनाशक, ४०६ याज्ञिकाश्रयः- यज्ञ शक्तिके स्वामी ॥ १८८॥ करनेवाले ऋत्विजोंके परम आश्रय, ४०७ श्रीनृसिंहः- कतान्तवाहनः सद्यःसमस्तभयनाशनः । अपने भक्त प्रह्लादको बात सत्य करनेके लिये नृसिंहरूप सर्वविघ्नान्तकः सर्वसिद्धिदः सर्वपूरकः ।। १८९ ।। धारण करनेवाले भगवान, ४०८ दिव्यसिंहः- ४२४ कृतान्तवाहन:-कालको अपना वाहन अलौकिक सिंहकी आकृति धारण करनेवाले, ४०९ बनानेवाले, ४२५ सद्यःसमस्तभयनाशन:- शरणमें सर्वानिष्टार्थदुःखहा-सब प्रकारकी अनिष्ट वस्तुओं आये हुए भक्तोके समस्त भयोंका तत्काल नाश और दुःखोंका नाश करनेवाले ॥ १८५॥
करनेवाले, ४२६ सर्वविघ्नान्तकः-सम्पूर्ण विनोका एकवीरोद्भुतबलोपा यन्त्रमन्त्रैकभञ्जनः। अन्त करनेवाले, ४२७ सर्वसिद्धिदः-सब प्रकारको ब्रह्मादिदुःसहज्योतिर्युगान्ताग्न्यतिभीषणः ॥ १८६॥ सिद्धि प्रदान करनेवाले, ४२८ सर्वपूरकः-सम्पूर्ण
४१० एकवीर:-अद्वितीय वीर, ४११ मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले ॥ १८९॥ अद्भुतबल:-अद्भुत शक्तिशाली, ४१२ यत्र- समस्तपातकध्वंसी सिद्धिमन्त्राधिकाह्वयः। मन्त्रैकभञ्जन:-शत्रुके यन्त्र-मन्त्रोंको एकमात्र भंग भैरवेशो हरातिनः कालकोटिदुरासदः ॥ १९ ॥ करनेवाले, ४१३ ब्रह्मादिदुःसहयोतिः-जिनके ४२९ समस्तपातकध्वंसी-सब पातकोंका श्रीविग्रहको ज्योति ब्रह्मा आदि देवताओंके लिये भी नाश करनेवाले, ४३० सिद्धिमन्त्राधिकालयःदुःसह है, ऐसे नृसिंह भगवान्, ४१४ युगान्ताग्न्यति- नाममें ही सिद्धि और मन्त्रोंसे अधिक शक्ति रखनेवाले, भीषणः-प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त ४३१ भैरवेश:-भैरवगणोंके स्वामी, ४३२ भयङ्कर ।। १८६॥
हरार्तिघ्नः-भगवान् शङ्करको पीडाका नाश करनेवाले, कोटिववाधिकनखो जगदुष्पेक्ष्यमूर्तिधृक् । ४३३ कालकोटिदुरासदः-करोड़ों कालोंके लिये भी मातृचक्रप्रमथनो । महामातृगणेश्वरः ।। १८७ ।। दुर्धर्ष ॥ १९०॥
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उताखण्ड ] स
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन .
७०७
दैत्यगर्भम्राविनामा स्फुटब्रह्माण्डगर्जितः। जा सकनेवाले, ४५३ मृत्युमृत्युः-मौतको भी स्मृतमात्राखिलत्राताद्भुतरूपो महाहरिः ।। १९१ ॥ मारनेवाले, ४५४ कालमृत्युनिवर्तकः-काल और
४३४ दैत्यगर्भस्राविनामा-जिनका नाम मृत्युका निवारण करनेवाले ।। १९४ ॥ सुनकर ही दैत्यपलियोंके गर्भ गिर जाते हैं-ऐसे असाध्यसर्वरोगन्नः सर्वदुर्घहसौम्यकृत् । भगवान् नृसिंह, ४३५ स्फुटब्रह्माण्डगर्जितः- गणेशकोटिदर्पघ्नो दुःसहाशेषगोत्रहा ।। १९५ ॥ जिनके गर्जनेपर सारा ब्रह्माण्ड फटने लगता है, ४३६ ४५५ असाध्यसर्वरोगघ्नः-सम्पूर्ण असाध्य स्मृतमात्राखिलत्राता-स्मरण करनेमात्रसे सम्पूर्ण रोगोंका नाश करनेवाले. ४५६ सर्वदुर्ग्रहसौम्यक्त्जगत्की रक्षा करनेवाले, ४३७ अद्भुतरूपः- समस्त दुष्ट ग्रहोंको शान्त करनेवाले, ४५७ आश्चर्यजनक रूप धारण करनेवाले, ४३८ महाहरिः- गणेशकोटिदर्पघ्नः-करोड़ों गणपतियोंका अभिमान महान् सिंहको आकृति धारण करनेवाले ॥ १९१॥ चूर्ण करनेवाले, ४५८ दुःसहाशेषगोत्रहा-समस्त ब्रह्मचर्यशिर:पिण्डी दिक्पालोऽर्धाङ्गभूषणः । दुस्सह शत्रुओंके कुलका नाश करनेवाले ॥ १९५॥ द्वादशार्कशिरोदामा रुद्रशीकनूपुरः ।। १९२ ।। देवदानवदुर्दशों जगदयदभीषकः ।
४३९ ब्रह्मचर्यशिरःपिण्डी-अपने शिरोभागमें समस्तदुर्गतिप्राता जगद्धक्षकभक्षकः ।। १९६ ॥ ब्रह्मचर्यको धारण करनेवाले, ४४० दिक्पाल:-समस्त ४५९ देवदानवदुर्दर्श:-देवता और दानवोंको दिशाओंका पालन करनेवाले, ४४१ अर्धाङ्गभूषणः- भी जिनकी ओर देखने में कठिनाई होती है— ऐसे
आधे अङ्गमें आभूषण धारण करनेवाले नृसिंह, ४४२ भगवान् नृसिंह, ४६० जगद्भयदभीषकः-संसारके द्वादशार्कशिरोदामा- मस्तकमें बारह सूर्योके समान भयदाता असुरोको भी भयभीत करनेवाले, ४६१ तेज धारण करनेवाले, ४४३ रुदशीकनूपुर:-जिनके समस्तदुर्गतित्राता-सम्पूर्ण दुर्गतियोंसे उद्धार चरणोंमें प्रणाम करते समय रुद्रका मस्तक एक नुपूरकी करनेवाले, ४६२ जगद्धक्षकभक्षकः-जगत्का भाँति शोभा धारण करता है, वे भगवान् ॥ १९२।। भक्षण करनेवाले कालके भी भक्षक ॥ १९६।। योगिनीग्रस्तगिरिजात्राता भैरवतर्जकः। उप्रेशोऽम्बरमार्जारः कालमूषकभक्षकः । वीरचक्रेश्वरोऽत्युप्रो यमारिः कालसंवरः ।। १९३ ।। अनन्तायुधदोर्दण्डी नृसिंहो वीरभद्रजित् ।। १९७ ।।
४४४ योगिनीग्रस्तगिरिजात्राता- योगिनियोंके ४६३ उप्रेशः-उन शक्तियोंपर शासन चंगुलमें फंसी हुई पार्वतीकी रक्षा करनेवाले, ४४५ करनेवाले, ४६४ अम्बरमार्जारः-आकाशरूपी भैरवतर्जकः-भैरवगणोंको डाँट बतानेवाले, ४४६ बिलाव, ४६५ कालमूषकभक्षकः-कालरूपी वीरचक्रेश्वरः-वौरमण्डलक ईश्वर, ४४७ चूहेको खा जानेवाले, ४६६ अनन्तायुधदोर्दण्डीअत्युप्रः-अत्यन्त भयङ्कर, ४४८ यमारि:- अपने बाहुदण्डोंको ही अक्षय आयुधोंके रूपमें धारण यमराजके शत्रु, ४४९ कालसंवरः- कालको करनेवाले, ४६७ नृसिंहः-नर तथा सिंह दोनोंकी आच्छादित करनेवाले ॥ १९३॥
.. आकृति धारण करनेवाले, ४६८ वीरभद्रजित्क्रोधेश्वरो रुद्रचण्डीपरिवारादिदुष्टभुक। वीरभद्रपर विजय पानेवाले ॥ १९७ ॥ सर्वाक्षोभ्यो मृत्युमृत्युः कालमृत्युनिवर्तकः ॥ १९४ ॥ योगिनीचक्रगुह्येशः शक्रारिपशुमांसभुक ।
४५० क्रोधेश्वरः-क्रोधपर शासन करनेवाले, रुद्रो नारायणो मेषरूपशङ्करवाहनः ॥ १९८॥ ४५१ रुद्रचण्डीपरिवारादिदुष्टभुक-रुद्र और ४६९ योगिनीचक्रगुह्येश:-योगिनीचण्डीके पार्षदोंमें रहनेवाले दुष्टोंके भक्षक, ४५२ मण्डलके रहस्योंके स्वामी, ४७० शक्रारिपशुसर्वाक्षोभ्यः-किसीके द्वारा भी विचलित नहीं किये मांसभुक्-इन्द्रके शत्रुभूत दैत्यरूपी पशुओंका भक्षण
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अर्थयस्व वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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॥ २०३ ॥
करनेवाले, ४७१ रुद्रः - प्रलयकालमें सबको रुलाने४९० सुब्रह्मण्यः - ब्राह्मण, वेद, तप और वाले रुद्र अथवा भयङ्कर आकारवाले नृसिंह, ४७२ ज्ञानकी भलीभाँति रक्षा करनेवाले, ४९१ बलिध्वंसीनारायणः - नार अर्थात् जीवसमुदायके आश्रय राजा बलिको स्वर्गसे हटानेवाले, ४९२ वामनः - अथवा नार - जलको निवासस्थान बनाकर रहनेवाले वामनरूपधारी भगवान् ४९३ अदितिदुःखहाशेषशायी, ४७३ मेषरूपशङ्करवाहनः:- मेषरूपधारी देवमाता अदितिके दुःख दूर करनेवाले, ४९४ उपेन्द्रःशिवको वाहन बनानेवाले ॥ १९८ ॥ इन्द्रके छोटे भाई, द्वितीय इन्द्र, ४९५ नृपतिः - राजा, जो मेषरूपवित्राता दुष्टशक्तिसहस्त्रभुक् । 'नराणां च नराधिपः' के अनुसार भगवान्की दिव्य तुलसीवल्लभो वीरो वामाचाराखिलेष्टदः ॥ १९९ ॥ विभूति है, ४९६ विष्णुः - बारह आदित्योंमेंसे एक, ४७४ मेषरूपवित्राता - मेषरूपधारी शिवके ४९७ कश्यपान्वयमण्डनः - कश्यपजीके कुलकी रक्षक, ४७५ दुष्टशक्तिसहस्त्र भुक्— सहस्रों दुष्ट- शोभा बढ़ानेवाले ॥ २०२ ॥ शक्तियोंका विनाश करनेवाले, ४७६ तुलसी- बलिस्वाराज्यदः सर्वदेवविप्रान्नदो ऽच्युतः । वल्लभः — तुलसीके प्रेमी, ४७७ वीरः शूरवीर, उरुक्रमस्तीर्थपादस्त्रिपदस्थ स्विविक्रमः ४७८ वामाचाराखिलेष्टदः - सुन्दर आचरणवालोंका सम्पूर्ण अभीष्ट सिद्ध करनेवाले ॥ १९९ ॥ महाशिवः शिवारूढो भैरवैककपालधृक् । झिल्लिचक्रेश्वरः शक्रदिव्यमोहनरूपदः ॥ २०० ॥ ४७९ महाशिव:- : - परम मङ्गलमय, ४८० शिवारूढः - : - कल्याणमय वाहनपर आरूढ़ होनेवाले अथवा ध्यानस्थ भगवान् शिवके हृदयकमलपर आसीन होनेवाले ४८१ भैरवैककपालधृक् — रुद्ररूपसे हाथमें एक भयानक कपाल धारण करनेवाले, ४८२ झिल्लिचक्रेश्वरः - झींगुरोके समुदायके स्वामी, ४८३ शक्रदिव्यमोहनरूपदः - इन्द्रको दिव्य एवं मोहक रूप देनेवाले ॥ २०० ॥ गौरीसौभाग्यदो मायानिधिर्मायाभयापहः । ब्रह्मतेजोमयो ब्रह्मश्रीमयश्च त्रयीमयः ॥ २०१ ॥
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४८४ गौरीसौभाग्यदः - भगवती पार्वतीको सौभाग्य प्रदान करनेवाले, ४८५ मायानिधिः मायाके भंडार, ४८६ मायाभयापहः – मायाजनित भयका नाश करनेवाले, ४८७ ब्रह्मतेजोमयः - ब्रह्मतेजसे सम्पन्न भगवान् वामन, ४८८ ब्रह्मश्रीमय:ब्राह्मणोचित श्रीसे परिपूर्ण विग्रहवाले ४८९ त्रयीमयः - ऋक्, यजुः और साम– इन तीन वेदोंद्वारा प्रतिपादित स्वरूपवाले ॥ २०१ ॥
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४९८ बलिस्वाराज्यदः :- राजा बलिको [अगले मन्वन्तरमें इन्द्र बनाकर] स्वर्गका राज्य प्रदान करनेवाले, करनेवाले, ४९९ सर्वदेव विप्रान्नदः - सम्पूर्ण देवताओं तथा ब्राह्मणोंको अन्न देनेवाले, ५०० अच्युतः - अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले, ५०१ उरुक्रमः - बलिके यज्ञमें विरारूप होकर लम्बे डगसे त्रिलोकीको नापनेवाले, ५०२ तीर्थपादः - गङ्गाजीको प्रकट करनेके कारण तीर्थरूप चरणोंवाले, ५०३] त्रिपदस्थ :- तीन स्थानोंपर पैर रखनेवाले, ५०४ त्रिविक्रमः - तीन बड़े-बड़े डगवाले ॥ २०३ ॥ व्योमपादः स्वपादाम्भः पवित्रितजगत्त्रयः । ब्रह्मेशाद्यभिवन्द्याधितधर्माहिधावनः ॥ २०४ ॥
५०५ व्योमपादः – सम्पूर्ण आकाशको चरणोंसे नापनेवाले, ५०६ स्वपादाम्भः पवित्रितजगत्त्रयः - अपने चरणोंके जल (गङ्गाजी) से तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाले, ५०७ ब्रह्मेशाद्यभिवन्द्याङ्घ्रिः - ब्रह्मा और शङ्कर आदि देवताओंके द्वारा वन्दनीय चरणोंवाले, ५०८ द्रुतधर्मा— शीघ्रतापूर्वक धर्मका पालन करनेवाले, ५०९ अहिधावनः– सर्पकी भाँति तेज दौड़नेवाले ॥ २०४ ॥
अचिन्त्याद्भुतविस्तारो विश्ववृक्षो महाबलः । राहुमूर्धापराङ्गच्छिद्
सुब्रह्मण्यो बलिध्वंसी वामनोऽदितिदुःखहा ।
भृगुपत्त्रीशिरोहरः ॥ २०५ ॥ ५१० अचिन्त्याद्भुतविस्तारः - किसी तरह
उपेन्द्रो नृपतिर्विष्णुः कश्यपान्वयमण्डनः ॥ २०२ ॥ चिन्तनमें न आनेवाले अद्भुत विस्तारसे युक्त, ५११
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उत्तरखण्ड ] -
• नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन .
विश्ववृक्षः-संसार-वृक्षरूप, ५१२ महाबल:- रखनेवाले सम्पूर्ण दैत्योका तेज हर लेनेवाले, ५३२ महान् बलसे युक्त. ५१३ राहुमूर्धापराङ्गच्छित्- परमामृतपद्यपः-परम अमृतमय कमलका रस पान राहुके मस्तक और धड़को काटकर अलग करनेवाले, करनेवाले, ५३३ अनसूयागर्भरत्नम्-अत्रिपत्नी ५१४, भृगुपत्रीशिरोहर:-भृगुपत्नीके मस्तकका अनसूयाजीके गर्भके रत्न, ५३४ भोगमोक्षसुखप्रदःअपहरण करनेवाले ॥ २०५॥ १०
. भोग और मोक्षका सुख प्रदान करनेवाले । २०९॥ पापात्रस्तः सदापुण्यो दैत्याशानित्यखण्डकः ।... जमदग्निकुलादित्यो रेणुकाद्भुतशक्तिधक् । पूरिताखिलदेवाशो ! विश्वार्थंकावतारकृत् ।। २०६॥ मातृहत्यादिनिलेपः स्कन्दजिद्विप्रराज्यदः ।। २१० ।।
+ ५१५ पापात्रस्त:-पापसे डरनेवाले, ५१६ ५३५ जमदग्निकुलादित्यः-मुनिवर जमदग्निक सदापुण्य:-निरन्तर पुण्यमें प्रवृत्त, ५१७ दैत्या- वंशको सूर्यके समान प्रकाशित करनेवाले परशुरामजी, शानित्यखण्डकः-धर्मविरोधी दैत्योंकी आशाका ५३६ रेणुकाद्भुतशक्तिक-माता रेणुकाको अद्भुत सदा खण्डन करनेवाले, ५१८ पूरिताखिलदेवाशः- शक्ति धारण करनेवाले, ५३७ मातृहत्यादिनिर्लेपःसम्पूर्ण देवताओंकी आशा पूर्ण करनेवाले, ५१९ मातहल्या आदि दोषोंसे निर्लिप्त रहनेवाले परशुरामजी, विश्वार्थकावतारकृत्-एकमात्र विश्वका कल्याण ५३८ स्कन्दजित्- कार्तिकेयजीको जीतनेवाले, ५३९ करनेके लिये अवतार लेनेवाले । २०६॥ .. विप्रराज्यदः-ब्राह्मणोंको राज्य देनेवाले ॥ २१० ॥ स्वमायानित्यगुप्तात्मा भक्तचिन्तामणिः सदा। - सर्वक्षत्रान्तकदीरदर्पहा कार्तवीर्यजित्। वरदः कार्तवीर्यादिराजराज्यप्रदोऽनघः ॥ २०७॥ सप्तद्वीपवतीदाता शिवार्चकयशःप्रदः ।। २११ ।।
५२० स्वमायानित्यगुप्तात्मा-अपनी मायासे ५४० सर्वक्षत्रान्तकृत्-समस्त क्षत्रियोंका निरन्तर अपने स्वरूपको छिपाये रखनेवाले, ५२१ सदा अन्त करनेवाले, ५४१ वीरदर्पहा-बड़े-बड़े वीरोका भक्तचिन्तामणिः-सदा भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेके दर्प दलन करनेवाले, ५४२ कार्तवीर्यजित्-कृतवीर्यलिये चिन्तामणिके समान, ५२२ वरदः-भक्तोंको वर पुत्र अर्जुनको परास्त करनेवाले, ५४३ सप्तद्वीपवतीप्रदान करनेवाले, ५२३ कार्तवीर्यादिराजराज्यप्रदः- दाता-ब्राह्मणोंको सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका दान कृतवीर्य-पुत्र अर्जुन आदि राजाओको राज्य देनेवाले, करनेवाले, ५४४ शिवार्चकयशःप्रदः-शिवकी पूजा ५२४ अनघः-स्वभावतः पापसे रहित ।। २०७॥ करनेवालेको यश देनेवाले ।। २११ ॥ विश्वश्लाघ्योऽमिताचारो दत्तात्रेयो मुनीश्वरः। भीमः परशुरामश्च शिवाचार्यकविश्वभूः। पराशक्तिसदाश्लिष्टो. योगानन्दसदोन्प्रदः ॥ २०८॥ शिवाखिलज्ञानकोशो भीष्माचार्योऽग्निदेवतः ।। २१२ ।।
५२५ विश्वश्लाघ्यः-समस्त संसारके लिये . ५४५ भीमः-भयङ्कर पराक्रम करनेवाले, प्रशंसनीय, ५२६ अमिताचार:-अपरिमित ५४६ परशुरामः-परशुरामरूपधारी भगवान्, ५४७ आचारवाले, ५२७ दत्तात्रेयः-अत्रिकुमार दत्त, जो शिवाचार्यकविश्वभूः-भगवान् शङ्करको गुरु बनाकर भगवान्के अवतार हैं, ५२८ मुनीश्वरः-मुनियोंके विद्या सीखनेवाले संसारमें एकमात्र पुरुष, ५४८ स्वामी, ५२९ पराशक्तिसदाश्लिष्टः-सदा शिवाखिलज्ञानकोश:-भगवान् शङ्करसे सम्पूर्ण पराशक्तिसे युक्त, ५३० योगानन्दसदोन्पदः- निरन्तर ज्ञानका कोष प्राप्त करनेवाले, ५४९ भीष्याचार्यःयोगजनित आनन्दमे विभोर रहनेवाले ॥ २०८॥ पाण्डवोंके पितामह भीष्मजीके आचार्य, ५५० समस्तेन्द्रारितेजोहत्परमामृतपापः । अनिदैवतः-अग्निदेवताके उपासक ॥ २१२ ॥ अनसूयागर्भरत्रं ..भोगमोक्षसुखप्रदः ।। २०९ ॥ द्रोणाचार्यगुरुर्विश्वजैत्रधन्वा कृतान्तजित् ।......,
५३१ समस्तेन्द्रारितेजोहत्-इन्द्रसे शत्रुता अद्वितीयतपोमूर्तिर्ब्रह्मचर्यैकदक्षिणः .. ॥ २१३ ॥
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... अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
५५१ द्रोणाचार्यगुरु:-आचार्य द्रोणके गुरु, धोका उपदेश करनेवाले, ५७३ प्रवर्तकः-उक्त ५५२ विश्वजैत्रधन्वा-विश्वविजयी धनुष धारण धर्मोका प्रचार करनेवाले ।। २१६॥ करनेवाले, ५५३ कृतान्तजित्-कालको भी परास्त सूर्यवंशध्वजो रामो राघवः सद्गुणार्णवः । करनेवाले, ५५४ अद्वितीयतपोमूर्ति:-अद्वितीय काकुत्स्थो वीरराजायों राजधर्मधुरन्धरः ॥ २१७ ।। तपस्याके मूर्तिमान स्वरूप, ५५५ ब्रह्मचर्यैकदक्षिण:- ५७४ सूर्यवंशध्वजः-सूर्यवंशकी कीर्ति ब्रह्मचर्यपालनमें एकमात्र दक्ष ।। २१३ ॥
पताका फहरानेवाले श्रीरघुनाथजी, ५७५ रामःमनुश्रेष्ठः सतां सेतुर्महीयान् वृषभो विराट्। योगीजनोंके रमण करनेके लिये नित्यानन्दस्वरूप आदिराजः क्षितिपिता सर्वरौकदोहकृत् ।। २१४ ॥ परमात्मा, मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी, ५७६
५५६ मनुश्रेष्ठः-मनुष्यों में श्रेष्ठ राजा पृथु, ५५७ राघव:-रघुकुलमें जन्म ग्रहण करनेवाले, ५७७ सतां सेतुः-सेतुके समान सत्पुरुषोंकी मर्यादाके रक्षक, सद्गुणार्णवः-उत्तम गुणोंके सागर, - ५७८ अथवा सत्पुरुषोंके लिये सेतुरूप, ५५८ महीयान्- काकुत्स्थ:-ककुत्स्थ-पदवी धारण करनेवाले राजा बड़ोंसे भी बड़े महापुरुष, ५५९ वृषभः- पुरञ्जयकी कुल-परम्परामें अवतीर्ण, ५७९ वीरकामनाओंकी वर्षा करनेवाले श्रेष्ठ राजा, ५६० विराट्- राजार्य:-वीर राजाओमे श्रेष्ठ, ५८० राजधर्मतेजस्वी राजा, ५६१ आदिराजः-मनुष्योंमें सबसे धुरन्धरः-राजधर्मका भार वहन करनेवाले ॥ २१७ ।। प्रथम राजाके पदसे विभूषित, ५६२ क्षितिपिता- नित्यस्वस्थाश्रयः सर्वभग्राही शुभैकदक। पृथ्वीको अपनी कन्याके रूपमें स्वीकार करनेवाले, नररत्रं रखगर्भो धर्माध्यक्षो महानिधिः ॥ २१८ ॥ ५६३ सर्वरकदोहक़त्-गोरूपधारिणी पृथ्वीसे ५८१ नित्यस्वस्थाश्रयः-सदा अपने स्वरूप में समस्त रत्नोंके एकमात्र दुहनेवाले ।। २१४ ॥ स्थित रहनेवाले महात्माओंके आश्रय, ५८२ सर्वभद्रपृथुर्जन्यायेकदक्षो गी:श्रीकीर्तिस्वयंवृतः । ग्राही-समस्त कल्याणोंकी प्राप्ति करानेवाले, ५८३ जगवृत्तिप्रदचक्रवर्तिश्रेष्ठोऽभूयास्त्रक ॥२१५ ॥ शुभैकदृक-एकमात्र शुभकी ओर ही दृष्टि रखनेवाले,
५६४ पृथः-अपने यशसे प्रख्यात पृथु नामक ५८४ नररत्नम्-मनुष्योंमें श्रेष्ठ, ५८५ राजा, ५६५ जन्माघेकदक्षः-उत्पत्ति, पालन और रत्नगर्भ:-अपनी माताके गर्भके रत्न अथवा अपने संहारमें एकमात्र कुशल, ५६६ गी:श्रीकीर्तिस्वयं- भीतर रत्नमय गुणोंको धारण करनेवाले, ५८६ वृतः-वाणी, लक्ष्मी और कीर्तिके द्वारा स्वयं वरण धर्माध्यक्षः-धर्मके साक्षी, ५८७ महानिधिःकिये हुए, ५६७ जगवृत्तिप्रदः-संसारको जीविका अखिल भूमण्डलके सम्राट् होनेके कारण बहुत बड़े प्रदान करनेवाले, ५६८ चक्रवर्तिश्रेष्ठः-चक्रवर्ती कोषवाले ॥२१८॥ राजाओंमें श्रेष्ठ, ५६९ अद्वयाखाधक-अद्वितीय सर्वश्रेष्ठाश्रयः सर्वशस्त्रास्त्रप्रामवीर्यवान् । शस्त्रधारी वीर ॥ २१५॥ ...
जगदीशो दाशरथिः सर्वरनाश्रयो नृपः ।। २१९ ।। सनकादिमुनिप्राप्यभगवद्भक्तिवर्धनः . । ... ५८८ सर्वश्रेष्ठाश्रयः-सबसे श्रेष्ठ आश्रय, वर्णाश्रमादिधर्माणां कर्ता वक्ता प्रवर्तकः ।। २१६ ॥ ५८९ सर्वशस्त्रास्त्रप्रामवीर्यवान् समस्त अस्त्र
५७०६ सनकादिमुनिप्राप्यभगवद्भक्ति- शस्त्रोंके समुदायको शक्ति रखनेवाले, ५९० वर्धनः-सनकादि मुनियोंसे प्राप्त होने योग्य जगदीशः-सम्पूर्ण जगत्के. स्वामी, ५९१ भगवद्भक्तिका विस्तार करनेवाले, ५७१ वर्णाश्रमादि- दाशरथि:-अयोध्याके चक्रवर्ती नरेश महाराज धर्माणां कर्ता-वर्ण और आश्रम आदिके धकि दशरथके प्राणाधिक प्रियतम पुत्र, ५९२ सर्वरनाश्रयो बनानेवाले, ५७२ वक्ता-वर्ण और आश्रम आदिके नृपः-सम्पूर्ण रत्नोंके आश्रयभूत राजा ।। २१९ ।।
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उत्तरखण्ड ] . नाम-कीर्तनकी महिमा नथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन .
७११ .............................................................................................. समस्तथर्मसूः सर्वधर्मद्रष्टाखिलार्तिहा। चलाये हुए सौंकके बाणको ब्रह्मा आदि देवताओंने भी अतीन्द्रो ज्ञानविज्ञानपारद्रष्टा क्षमाम्बुधिः ॥ २२०॥ मस्तक झुकाया था, ऐसे प्रभावशाली भगवान् श्रीराम,
५९३ समस्तधर्मसूः-समस्त धर्मोको उत्पत्र ६१२ मारीचन्नः-मायामय मृगका रूप धारण करनेवाले, ५९४ सर्वधर्मद्रष्टा-सम्पूर्ण धर्मोपर दृष्टि करनेवाले मारीच नामक राक्षसके नाशक, ६१३ रखनेवाले, ५९५ अखिलार्तिहा-सबकी पीड़ा दूर विराधहा-विराधका वध करनेवाले ॥ २२३ ॥ करनेवाले अथवा समस्त पीड़ाओंके नाशक, ५९६ ब्रह्मशापहताशेषदण्डकारण्यपावनः । अतीन्द्रः-इन्द्रसे भी बढ़कर ऐश्वर्यशाली, ५९७ चतुर्दशसहस्रोग्ररक्षोकशरैकभक ॥ २२४ ॥ ज्ञानविज्ञानपारद्रष्टा-ज्ञान और विज्ञानके पारंगत, ६१४ ब्रह्मशापहताशेषदण्डकारण्यपावनः ५९८ क्षमाम्युधि:-क्षमाके सागर ॥ २२०॥ -ब्राह्मण (शुक्राचार्य) के शापसे नष्ट हुए सर्वप्रकृष्टः शिष्टेष्टो हर्षशोकाधनाकुलः । दण्डकारण्यको अपने निवाससे पुनः पावन बनानेवाले पित्राज्ञात्यक्तसाम्राज्यः सपनोदयनिर्भयः ॥ २२१ ॥ ६१५ चतुर्दशसहस्रोग्ररक्षोत्रैकशरैकधूक-चौदह
५९९ सर्वप्रकृष्टः-सबसे श्रेष्ठ, ६०० हजार भयङ्कर राक्षसोको मारनेकी शक्तिसे युक्त एकमात्र शिष्टेष्ट:-शिष्ट पुरुषोंके इष्टदेव, ६०१ हर्ष- वाण धारण करनेवाले ॥ २२४ ॥ शोकाधनाकुल:-हर्ष और शोक आदिसे विचलित खरारिस्थिशिरोहन्ता दूषणनो जनार्दनः। न होनेवाले, ६०२ पित्राज्ञात्यक्तसाम्राज्य:-पिताकी जटायुषोऽनिगतिदोऽगस्त्यसर्वस्वमन्त्रराट् ॥ २२५ ॥ आज्ञासे समस्त भूमण्डलका साम्राज्य त्याग देनेवाले, ६१६ खरारि:-खर नामक राक्षसके शत्रु, ६०३ सपनोदयनिर्भयः-शत्रुओके उदयसे भयभीत ६१७ त्रिशिरोहन्ता-त्रिशिराका वध करनेवाले, न होनेवाले ॥ २२१॥
६१८ दूषणनः-दूषण नामक राक्षसके प्राण गुहादेशार्पितैश्चर्यः शिवस्पर्धाजटाधरः। लेनेवाले, ६१९ जनार्दनः-भक्तलोग जिनसे अभ्युदय चित्रकूटाप्तरत्नादिर्जगदीशो वनेचरः ॥ २२२ ॥ एवं निःश्रेयसरूप परम पुरुषार्थको यांचना करते हैं,
- ६०४ गुहादेशार्पितैश्वर्यः-वनवासके समय ६२० जटायुषोऽग्निगतिदः-जटायुका दाह-संस्कार पर्वतकी कन्दराओको ऐश्वर्य समर्पित करनेवाले-अपने करके उन्हें उत्तम गति प्रदान करनेवाले, ६२१ निवाससे गुफाओको भी ऐश्वर्य-सम्पन्न बनानेवाले, अगस्त्यसर्वस्वमन्त्रराट्-जिनका नाम महर्षि अगस्त्यका ६०५ शिवस्पर्धाजटाधरः-शङ्करजीकी जटाओंसे सर्वस्व एवं मन्त्रोंका राजा है ॥ २२५ ॥ होड़ लगानेवाली जटाएँ धारण करनेवाले, ६०६ लीलाधनुष्कोट्यपास्तदुन्दुभ्यस्थिमहाबलः । चित्रकूटाप्तरत्नाट्रि:-चित्रकूटको निवास-स्थल सप्ततालव्यधाकृष्टध्वस्तपातालदानवः ।। २२६ ।। बनाकर उसे रत्नमय पर्वत (मेरुगिरि) की महत्ता प्राप्त ६२२ लीलाधनुष्कोट्यपास्तदुन्दुभ्यस्थिकरानेवाले, ६०७ जगदीशः-सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर, महाचल:-खेल-खेलमें ही दुन्दुभि नामक दानवकी ६०८ वनेचरः-वनमें विचरनेवाले ॥ २२२ ॥ हड्डियोंके महान् पर्वतको धनुषकी नोकसे उठाकर दूर यथेष्टामोयसर्वास्त्री देवेन्द्रतनयाक्षिहा। फेंक देनेवाले, ६२३ सप्ततालव्यधाकृष्टध्वस्तब्रह्मेन्द्रादिनतैषीको मारीचनो विराधहा ॥ २२३ ॥ पातालदानवः-सात तालवृक्षोंके वेधसे आकृष्ट - ६०९ यथेष्टामोघसर्वास्त्र:-जिनके सभी अस्त्र होकर आये हुए पातालवासी दानवका विनाश इच्छानुसार चलनेवाले एवं अचूक हैं, ६१० देवेन्द्र- करनेवाले ॥ २२६ ॥ तनयाक्षिहा-देवराजके पुत्र जयन्तकी आँख सुग्रीवराज्यदोऽहीनमनसैवाभयप्रदः । फोड़नेवाले, ६११ ब्रह्मेन्द्रादिनतैषीकः-जिनके हनुमद्भगमुख्येशः समस्तकपिदेहभृत् ।। २२७ ।।
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• अर्चयस्थ हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
६२४ सुग्रीवराज्यदः-सुग्रीवको राज्य देनेवाले, विदीर्ण करनेवाले, ६३८ उग्रहा- भयङ्कर राक्षसोंका ६२५ अहीनमनसैवाभयप्रदः-उदार चित्तसे वध करनेवाले ॥ २३० ।। अभय-दान देनेवाले, ६२६ हनुमद्द्रमुख्येश:- रावणकशिरश्छेत्ता निःशङ्केन्द्रकराज्यदः । हनुमान्जी तथा भगवान् शङ्करके प्रधान आराध्यदेव, स्वर्गास्वर्गत्वविच्छेदी देवेन्द्रानिन्द्रताहरः ।। २३१ ।। ६२७ समस्तकपिदेहभृत्-सम्पूर्ण वानरोंके शरीरोका ६३९ रावणकशिरश्छेता-रावणके सिर पोषण करनेवाले ।। २२७ ॥
काटनेवाले एकमात्र वोर, ६४० निःशङ्केन्द्रकसनागदैत्यवाणकव्याकुलीकृतसागरः । राज्यदः-निःशङ्क होकर इन्द्रको एकमात्र राज्य सम्लेच्छकोटियाणकशुष्कनिर्दग्धसागरः ॥ २२८॥ देनेवाले, ६४१ स्वर्गास्वर्गत्वविच्छेदी-स्वर्गकी
६२८ . - सनागदैत्यबाणकव्याकुलीकृत- अस्वर्गताको मिटा डालनेवाले,*६४२ देवेन्द्रासागरः-एक ही बाणसे नाग और दैत्योसहित निन्द्रताहरः-देवराज इन्द्रकी अनिन्द्रता दूर समुद्रको क्षुब्ध कर देनेवाले, ६२९ सम्लेच्छकोटि- करनेवाले ॥ २३१ ॥ बाणैकशुष्कनिर्दग्धसागरः-एक ही बाणसे करोड़ों रक्षोदेवत्यहद्धर्माधर्मत्वघ्नः ४ पुरुष्टुतः । । म्लेच्छोसहित समुद्रको सुखा देने और जला नतिमात्रदशास्यारिदत्तराज्यविभीषणः ॥ २३२ ॥ डालनेवाले ।। २२८ ॥
६४३ रक्षोदेवत्वहत्-राक्षसलोग जो देवताओंको समुद्राद्भुतपूर्वैकबद्धसेतुर्यशोनिधिः । । हटाकर स्वयं देवता बन बैठे थे, उनके उस देवत्वको हर असाध्यसाधको लङ्कासमूलोत्साददक्षिणः ॥ २२९ ॥ लेनेवाले, ६४४ धर्माधर्मत्वघ्नः-धर्मकी अधर्मताका
६३० समुद्राद्भुतपूवैकबद्धसेतुः-समुद्रमें नाश करनेवाले, (राक्षसोंके कारण धर्म भी अधर्मरूपमें पहले-पहल एक अद्भुत पुल बांधनेवाले, ६३१ परिणत हो रहा था, भगवान् रामने उन्हें मारकर धर्मको 'यशोनिधिः-सुयशके भंडार, ६३२ असाध्य- पुनः अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित किया).६४५ पुरुष्टुतःसाधकः-असम्भवको भी सम्भव कर दिखानेवाले, बहुत लोगोंके द्वारा स्तुत होनेवाले, ६४६ नतिमात्रदशा६३३ लङ्कासमूलोत्साददक्षिण:-लङ्काको जड़से स्यारिः-नत मस्तक होनेतक ही रावणको शत्रु नष्ट कर डालनेमें दक्ष ॥ २२९ ॥
माननेवाले, ६४७ दत्तराज्यविभीषणः-विभीषणको वरदप्तजगच्छल्यपौलस्त्यकुलकन्तनः । राज्य प्रदान करनेवाले ॥ २३२॥ रावणिनः प्रहस्तच्छित्कुम्भकर्णभिदुग्रहा ।। २३०॥ सुधावृष्टिमताशेषस्वसैन्योज्जीवनैककृत् ।।
६३४ वरदृप्तजगच्छल्यपौलस्त्यकुलकृन्तन:- देवब्राह्मणनामकथाता सर्वामरार्थितः ॥ २३३ ॥ वर पाकर घमंडसे भरे हुए तथा संसारके लिये । ६४८ सुधावृष्टिमृताशेषस्वसैन्योजीवनककण्टकरूप रावणके कुलका उच्छेद करनेवाले, ६३५ कृत्-सुधाकी वर्षा कराकर अपने समस्त मरे हुए रावणिनः-लक्ष्मणरूपसे रावणके पुत्र मेघनादका सैनिकोंको जीवन प्रदान करनेवाले, ६४९ देवब्राह्मणवध करनेवाले, ६३६ प्रहस्तच्छित्-प्रहस्तका मस्तक नामैकधाता-देवता और ब्राह्मणके नामोंके एकमात्र काटनेवाले, ६३७ कुम्भकर्णभित्- कुम्भकर्णको रक्षक, वे यदि न होते तो देवताओं एवं ब्राह्मणोंका
* राक्षसोने ‘स्वर्ग का वैभव लूटकर उसे 'अस्वर्ग बना दिया था, भगवान् रामने रावणको मारकर पुनः उसे अपनी प्रतिष्ठाके अनुरूप बनाया. स्वर्गको अस्वगंता दूर कर दी।
रावणने इन्द्रको इन्द्रपदसे हटा दिया था, वे 'अनिन्द्र' (इन्द्रपदसे च्युत) हो गये थे: श्रीरामने उनकी अनिन्द्रता दूर की-उन पुनः इन्द्रके सिंहासनपर बिठाया।
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उत्तरखण्ड ]
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन .
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नाम-निशान मिट जाता, ६५० सर्वामरार्चितः- किसीके द्वारा भी परास्त न होनेवाले, ६६५ सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित ॥ २३३ ॥
कोसलेन्द्रः-कोसल देशके ऐश्वर्यशाली सम्राट्, ६६६ ब्रह्मसूर्येन्द्ररुद्रादिवृन्दार्पितसतीप्रियः । वीरबाहुः-शक्तिशालिनी भुजाओंसे युक्त, ६६७ अयोध्याखिलराजाम्यः सर्वभूतमनोहरः ॥ २३४ ॥ सत्यार्थत्यक्तसोदरः-सत्यकी रक्षाके लिये अपने भाई
६५१ ब्रह्मसूर्येन्द्ररुद्रादिवृन्दार्पितसतीप्रियः- लक्षमणका त्याग करनेवाले ॥ २३७॥ ब्रह्मा, सूर्य, इन्द्र तथा रुद्र आदि देवताओंके समूह- शरसंधाननिधूतधरणीमण्डलो जयः। द्वारा शुद्ध प्रमाणित करके समर्पित की हुई सती ब्रह्मादिकापसांनिध्यसनाथीकृतदैवतः ॥२३८॥ सीताके प्रियतम, ६५२ अयोध्याखिलराजाग्यः- ६६८ शरसंधाननिर्वृतधरणीमण्डल:अयोध्यापुरीके सम्पूर्ण राजाओंमें अग्रगण्य, ६५३ वाणोंके संधानसे समस्त भूमण्डलको कँपा देनेवाले, सर्वभूतमनोहर:-अपने सौन्दर्य-माधुर्यके कारण ६६९ जयः-विजयशील, ६७० ब्रह्मादिसम्पूर्ण प्राणियोंका मन हरनेवाले ॥ २३४ ॥ कामसांनिध्यसनाथीकृतदैवतः-ब्रह्मा आदिकी स्वाम्यतुल्यकृपादण्डो हीनोत्कृष्टकसत्प्रियः । कामनाके अनुसार समीपसे दर्शन देकर समस्त श्शुपक्ष्यादिन्यायदर्शी हीनार्थाधिकसाधकः ॥ २३५॥ देवताओंको सनाथ करनेवाले ॥ २३८ ॥
६५४- स्वाम्यतुल्यकृपादण्ड:-प्रभुताके ब्रह्मलोकाप्तचाण्डालघशेषप्राणिसार्थकः । अनुरूप ही कृपा करने और दण्ड देनेवाले, ६५५ स्वीतगर्दभश्वादिश्चिरायोध्यावनैककृत् ॥ २३९ ॥ हीनोत्कृष्टैकसतिप्रयः-ऊँच-नीच-सबके सच्चे ६७१ ब्रह्मलोकाप्तचाण्डालाद्यप्रेमी, ६५६ श्वपक्ष्यादिन्यायदर्शी-कुते और पक्षी शेषप्राणिसार्थकः-चाण्डाल आदि समस्त
आदिके प्रति भी न्याय प्रदर्शित करनेवाले, ६५७ प्राणियोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचाकर कृतार्थ करनेवाले, हीनार्थाधिकसाधकः-असहाय पुरुषोंके कार्यको ६७२ स्वनीतगर्दभश्वादिः-गदहे और कुत्ते अधिक सिद्धि करनेवाले ॥ २३५॥
आदिको भी स्वर्गलोकमें ले जानेवाले, ६७३ वधव्याजानुचितकृत्तारकोऽखिलतुल्यकृत् । चिरायोध्यावनैककृत्-चिरकालतक अयोध्याकी पावित्र्याधिक्यमुक्तात्मा प्रियात्यक्तः स्मरारिजित् ॥ २३६ ॥ एकमात्र रक्षा करनेवाले ॥ २३९ ॥
६५८ वधव्याजानुचितकृत्तारकः-अनुचित रामो द्वितीयसौमिप्रिलक्ष्मण: प्रहतेन्द्रजित्। । कर्म करनेवाले लोगोंका वधके बहाने उद्धार करनेवाले, विष्णुभक्तः सरामाधिपादुकाराज्यनिर्वृतिः ॥ २४० ।। ६५९ अखिलतुल्यकृत्-सबके साथ उसको ६७४ रामः-मुनियोंका मन रमानेवाले भगवान् योग्यताके अनुरूप बर्ताव करनेवाले, ६६० श्रीराम, ६७५ द्वितीयसौमित्रिः-सुमित्राकुमार पावित्र्याधिक्यमुक्तात्मा-अधिक पवित्रताके कारण लक्ष्मणको साथ रखनेवाले, ६७६ लक्ष्मण:-शुभ नित्यमुक्त स्वभाववाले, ६६१ प्रियात्यक्तः-प्रिय पत्नी लक्षणोंसे सम्पन्न लक्ष्मणरूप, ६७७ प्रहतेन्द्रजित्सीतासे कुछ कालके लिये वियुक्त, ६६२ लक्ष्मणरूपसे मेघनादका वध करनेवाले, ६७८ स्मरारिजित्-कामदेवके शत्रु भगवान् शिवको भी विष्णुभक्त:-विष्णुके अवतारभूत भगवान् श्रीरामके जीतनेवाले ॥ २३६ ॥
भक्त भरतरूप, ६७९ सरामाज्रिपादुकाराज्यसाक्षात्कुशलवच्छग्रद्राबितो ह्यपराजितः । निर्वृतिः- श्रीरामचन्द्रजीको चरणपादुकाके साथ मिले कोसलेन्द्रो वीरयाहुः सत्यार्थत्यक्तसोदरः ॥ २३७ ॥ हुए राज्यसे संतुष्ट होनेवाले भरतरूप ॥ २४० ।।
६६३ साक्षात्कुशलवच्छद्यद्रावितः-कुश भरतोऽसह्यगन्धर्वकोटिनो लवणान्तकः । और लवके रूपमें स्वयं अपने-आपसे युद्ध में हार शत्रुघ्नो वैद्यराडायुर्वेदगभौषधीपतिः ॥ २४१ ॥ जानेवाले, ६६४ अपराजितः-वास्तवमें कभी ६८० भरतः-प्रजाका भरण-पोषण करनेवाले
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• अर्चयस्थ हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
कैकेयीकुमार भरतरूप, ६८१ असह्यगन्धर्व- नाम धारण करनेवाले अग्नि देवता. ७०० वेदधर्मकोटिनः-करोड़ों दुःसह गन्धर्वोका वध करनेवाले, परायणः-वेदोक्त धर्मके परम आश्रय, ७०१ श्वेत६८२ लवणान्तकः-लवणासुरको मारनेवाले द्वीपपतिः-श्वेतद्वीपके स्वामी, ७०२ शत्रुघ्नरूप, ६८३ शत्रुनः-शत्रुओका वध करनेवाले सांख्यप्रणेता-सांख्यशास्त्रको रचना करनेवाले सुमित्राके छोटे कुमार, ६८४ वैद्यराट्-वैद्योंके राजा कपिलस्वरूप, ७०३ सर्वसिद्धिराट्-सम्पूर्ण धन्वन्तरिरूप, ६८५ आयुर्वेदगभौषधीपति:- सिद्धियोंके राजा ।। २४४ ॥ आयुर्वेदके भीतर वर्णित ओषधियोंके स्वामी ॥ २४१॥ विश्वप्रकाशितज्ञानयोगमोहतमिस्रहा । नित्यामृतको अन्वन्तरियज्ञो जगद्धरः। देवहूत्यात्मजः सिद्धः कपिलः कर्दमात्मजः ॥ २४५ ॥ सूर्यारिघ्नः सुराजीवो दक्षिणेशो द्विजप्रियः ॥ २४२ ।। ७०४ विश्वप्रकाशितज्ञानयोगमोहतमित्रहाका ६८६ नित्यामृतकरः-हाथोंमें सदा अमृत लिये संसारमें ज्ञानयोगका प्रकाश करके मोहरूपी अन्धकारका रहनेवाले. ६८७ धन्वन्तरि:-धन्वन्तरि नामसे प्रसिद्ध नाश करनेवाले. ७०५ देवहूत्यात्मजः-मनुकुमारी एक वैद्य, जो समुद्रसे प्रकट हुए और भगवान् नारायणके देवहूतिके पुत्र, ७०६ सिद्धः-सब प्रकारकी अंश थे, ६८८ यज्ञः-यज्ञस्वरूप, ६८९ सिद्धियोंसे परिपूर्ण, ७०७ कपिल:-कपिल नामसे जगद्धरः-संसारके पालक, ६९० सूर्यारिघ्रः- प्रसिद्ध भगवान्के अवतार, ७०८ कर्दमात्मजःसूर्यके शत्रु (केतु) को मारनेवाले, ६९१ सुराजीवः- कर्दम ऋषिके सुयोग्य पुत्र ॥ २४५ ॥ अमृतके द्वारा देवताओंको जीवन प्रदान करनेवाले, योगस्वामी ध्यानभङ्गसगरात्मजभस्मकृत् । ६९२ दक्षिणेश:-दक्षिण दिशाके स्वामी धर्मराजरूप, धर्मो वृषेन्द्रः सुरभीपतिः शुद्धात्मभावितः ॥ २४६ ॥ ६९३ द्विजप्रियः-ब्राह्मणोंके प्रियतम ।। २४२ ।। ७०९ योगस्वामी-सांख्ययोगके स्वामी, ७१० छिन्नमूर्धापदेशार्कः शेषाङ्गस्थापितामरः । ध्यानभङ्गसगरात्मजभस्मकृत्-ध्यान भङ्ग होनेसे विश्वार्थाशेषकृद्राहुशिरश्छेताक्षताकृतिः ॥ २४३ ।। सगर-पुत्रोको भस्म कर डालनेवाले, ७११ धर्म:
६९४ छिन्नमूर्धापदेशार्क:-जिसका मस्तक जगत्को धारण करनेवाले धर्मके स्वरूप, ७१२ कटा हुआ है तथा जो कहनेमात्रके लिये सूर्य- वृषेन्द्रः- श्रेष्ठ वृषभकी आकृति धारण करनेवाले, 'स्वर्भानु' नाम धारण करता है, ऐसा राहु नामक ग्रह,* ७१३ सुरभीपतिः-सुरभी गौके स्वामी, ७१४ ६९५ शेषाङ्गस्थापितामरः -जिसके शेष अङ्गोंमें शुद्धात्मभावितः-शुद्ध अन्तःकरणमें चिन्तन किये अमरत्वकी स्थापना हुई है, ऐसा राहु, ६९६ जानेवाले ॥ २४६ ॥ विश्वाशेषकृत्-संसारके सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध शम्भुत्रिपुरदाहकस्थैर्यविश्वरथोहः । .. करनेवाले भगवान्, ६९७ राहुशिरश्छेत्ता- राहुका भक्तशम्भुजितो दैत्यामृतवापीसमस्तपः ।। २४७ ।। मस्तक काटनेवाले, ६९८ अक्षताकृतिः-स्वयं किसी ७१५ शम्भु:-कल्याणकी उत्पत्तिके स्थानभूत, प्रकारको भी क्षतिसे रहित शरीरवाले ॥२४३॥ .... शिवस्वरूप, ७१६ त्रिपुरदाहकस्थैर्यविश्ववाजपेयादिनामाग्निवेदधर्मपरायणः । रथोद्वहः-त्रिपुरका दाह करनेके समय एकमात्र स्थिर वेतद्वीपपतिः सारख्यप्रणेता सर्वसिद्धिराट् ॥ २४४ ॥ रहनेवाले और विश्वमय रथका वहन करनेवाले, ७१७
६९९ वाजपेयादिनामाग्निः-वाजपेय आदि भक्तशम्भुजितः-अपने भक्त शिवके द्वारा पराजित,
* राहुका एक नाम 'स्वर्भानु' भी है। इस प्रकार कहनेके लिये तो वह भानु है. पर वास्तवम अन्धकाररूप है। प्रत्येक प्रह भगवानकी दिव्य विभूति है, इसलिये वह भी भगवत्स्वरूप ही है।
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उत्तरखण्ड ]
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन .
७१८ दैत्यामृतवापीसमस्तपः-त्रिपुरनिवासी दैत्योंकी मारनेवाले, ७३६ मुष्टिकन्नः-मुष्टिकके प्राण अमृतसे भरी हुई सारी बावलीको गोरूपसे पी जाने- लेनेवाले, ७३७ द्विविदहा-द्विविद नामक वीर वाले ॥ २४७ ॥
वानरका वध करनेवाले, ७३८ कालिन्दीकर्षण:महाप्रलयविकनिलयोऽखिलनागराट् । यमुनाकी धाराको खींचनेवाले, ७३९ बल-बलके शेषदेवः सहस्राक्षः सहस्रास्यशिरोभुजः ॥ २४८॥ मूर्तिमान् स्वरूप ॥ २५१ ॥
७१९ महाप्रलयविश्वैकनिलयः-महाप्रलयके रेवतीरमणः पूर्वभक्तिखेदाच्युताग्रजः । समय सम्पूर्ण विश्वके एकमात्र निवासस्थान, ७२० देवकीवसुदेवाहकश्यपादितिनन्दनः ॥२५२॥ अखिलनागरा-सम्पूर्ण नागोंके राजा शेषनाग- ७४० रेवतीरमण:-अपनी पत्नी रेवतीके साथ स्वरूप, ७२१ शेषदेवः-प्रलयकालमें भी शेष रमण करनेवाले, ७४१ पूर्वभक्तिखेदाच्युताग्रजःरहनेवाले देवता, ७२२ सहस्राक्षः-सहस्रों नेत्रवाले, पूर्वजन्ममें लक्ष्मणरूपसे भगवान्की निरन्तर सेवा ७२३ सहस्रास्यशिरोभुजः-सहस्रों मुख, मस्तक करते-करते थके रहनेके कारण दूसरे जन्ममें भगवान्की और भुजाओंवाले ॥ २४८ ॥
इच्छासे उनके ज्येष्ठ बन्धुके रूपमें अवतार लेनेवाले फणामणिकणाकारयोजिताच्छाम्बुदक्षितिः। बलरामरूप, ७४२ देवकीवसुदेवाहकश्यपादितिकालाग्निरुद्रजनको मुशलास्त्रो हलायुधः ॥ २४९॥ नन्दनः-वसुदेव और देवकोके नामसे प्रसिद्ध महर्षि
७२४ फणामणिकणाकारयोजिताच्छाम्बुद- कश्यप और अदितिको पुत्ररूपसे आनन्द देनेवाले क्षितिः-फनोंकी मणियोंके कणोंके आकारसे पृथ्वीपर भगवान् श्रीकृष्ण ॥ २५२। श्वेत बादलोंकी घटा-सी छा देनेवाले, ७२५ वार्ष्णेयः सात्वतां श्रेष्ठः शौरियदुकुलेश्वरः। कालाग्निरुद्रजनकः-भयङ्कर कालाग्नि एवं संहारमूर्ति नराकृतिः परं ब्रह्म सव्यसाधिवरप्रदः ॥ २५३ ।। रुद्रको प्रकट करनेवाले.७२६ मुशलास्त्र:-मुशलको ७४३ वार्ष्णेयः-वृष्णिकुलमें उत्पन्न, ७४४ अस्त्ररूपमें ग्रहण करनेवाले शेषावतार बलरामरूप, सात्वतां श्रेष्ठः-सात्वत कुलमें सर्वश्रेष्ठ, ७४५ ७२७ हलायुधः-हलरूपी आयुधवाले ॥ २४९॥ शौरिः-शूरसेनके कुलमें अवतीर्ण, ७४६ नीलाम्बरो वारुणीशो मनोवाकायदोषहा।। यदुकुलेश्वरः-यदुकुलके स्वामी,७४७ नराकृतिःअसंतोषदृष्टिमात्रपातितैकदशाननः ॥ २५० ॥ मानव-शरीर धारण करनेवाले श्रीकृष्ण, ७४८ परं
७२८ नीलाम्बरः-नीलवस्त्रधारी, ७२९ ब्रह्म-वस्तुतः परमात्मा, ७४९ सव्यसाचिवरप्रदःवारुणीश:-वारुणीके स्वामी, ७३० मनोवाकाय- अर्जुनको वर देनेवाले ॥२५३ ॥ दोषहा-मन, वाणी और शरीरके दोष दूर करनेवाले, ब्रह्मादिकायलालित्यजगदाचर्यशैशवः । ७३१ असंतोषदृष्टिमात्रपातितैकदशाननः- पूतनाघ्रः शकटभिद्यमलार्जुनभञ्जकः ॥ २५४ ॥ असंतोषपूर्ण दृष्टि डालनेमात्रसे ही पातालमें गये हुए ७५० ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाचर्यरावणको गिरा देनेवाले शेषनागरूप ॥२५० ॥ शैशव:-ब्रह्मा आदि भी जिन्हें देखनेकी इच्छा रखते हैं बिलसंयमनो घोरो रौहिणेयः प्रलम्बहा। तथा जो सम्पूर्ण जगत्को आश्चर्यमें डालनेवाली है, ऐसी मुष्टिकम्रो द्विविदहा कालिन्दीकर्षणो बलः ॥ २५१ । ललित बाललीलाओंसे युक्त श्रीकृष्ण,७५१ पूतनानः
७३२ बिलसंयमनः-सातों पाताललोकोंको पूतनाके प्राण लेनेवाले, ७५२ शकटभित्-लातके काबूमे रखनेवाले, ७३३ घोरः-प्रलयके समय हलके आघातसे छकड़ेको चकनाचूर कर देनेवाले,७५३ भयङ्कर आकृति धारण करनेवाले, ७३४ रौहिणेयः- यमलार्जुनभञ्जक:- यमलार्जुन नामसे प्रसिद्ध दो जुड़वे रोहिणीके पुत्र, ७३५ प्रलम्बहा-प्रलम्ब दानवको वृक्षोको तोड़ डालनेवाले ॥ २५४ ॥
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
वातासुरारिः केशिनो थेनुकारिगवीश्वरः। देवोचित सुधर्मा नामक सभासे भूलोकको भी सुशोभित दामोदरो, गोपदेवो यशोदानन्ददायकः ॥ २५५ ॥ करनेवाले, ७७३ जरासंधबलान्तकः-जरासंधकी
७५४ वातासुरारिः-तृणावर्तके शत्रु, ७५५ सेनाका संहार करनेवाले ॥ २५८ ।। केशिनः-केशी नामक दैत्यको मारनेवाले, ७५६ त्यक्तभनजरासंधो . भीमसेनयशःप्रदः । धेनुकारि:-धेनुकासुरके शत्रु, ७५७ गवीश्वरः- सांदीपनिमृतापत्यदाता कालान्तकादिजित् ॥ २५९ ॥ गौओंके स्वामी, ७५८ दामोदर:-उदरमें यशोदा ७७४ त्यक्तभनजरासंधः-युद्धसे भगे हुए मैयाद्वारा रस्सी बाँधी जानेके कारण दामोदर नाम धारण जरासंधको जीवित छोड़ देनेवाले, ७७५ भीमसेनकरनेवाले, ७५९ गोपदेवः-वालोंके इष्टदेव, यशःप्रदः-युक्तिसे जरासंघका वध कराकर ७६० यशोदानन्ददायकः-यशोदा मैयाको आनन्द भीमसेनको यश प्रदान करनेवाले, ७७६ सांदीपनिदेनेवाले॥२५५॥
मृतापत्यदाता-अपने विद्यागुरु सांदीपनिक मरे हुए कालीयमर्दनः सर्वगोपगोपीजनप्रियः । पुत्रको पुनः ला देनेवाले,७७७ कालान्तकादिजित्-- लीलागोवर्धनधरो गोविन्दो गोकुलोत्सवः ॥ २५६ ॥ काल और अन्तक आदिपर विजय पानेवाले ॥ २५९ ॥
७६१ कालीयमर्दनः-कालिय नागका समस्तनारकत्राता सर्वभूपतिकोटिजित् । मान-मर्दन करनेवाले, ७६२ सर्वगोपगोपीजन- रुक्मिणीरमणो रुक्मिशासनो नरकान्तकः ।। २६० ।। प्रियः-समस्त गोपों और गोपियोंके प्रियतम, ७६३ ७७८ समस्तनारकत्राता-शरणमे आनेपर लीलागोवर्धनधरः- अनायास ही गोवर्धन पर्वतको नरकमें पड़े हुए समस्त प्राणियोंका भी उद्धार करनेवाले, अँगुलीपर उठा लेनेवाले, ७६४ गोविन्दः-इन्द्रकी ७७९ सर्वभूपतिकोटिजित्-रुक्मिणीके विवाहमें वर्षासे गौओकी रक्षा करनेके कारण कामधेनुद्वारा करोड़ोंको संख्यामें आये हुए समस्त राजाओंको परास्त 'गोविन्द' पदपर अभिषिक्त भगवान् श्रीकृष्ण, ७६५ करनेवाले. ७८० रुक्मिणीरमण:-रुक्मिणीके साथ गोकुलोत्सवः-गोकुलनिवासियोंको निरन्तर आनन्द रमण करनेवाले, ७८१ रुक्मिशासन:-रुक्मीको प्रदान करनेके कारण उत्सवरूप ॥ २५६ ।। दण्ड देनेवाले, ७८२ नरकान्तकः-नरकासुरका अरिष्टमथनः कामोन्मत्तगोपीविमुक्तिदः। विनाश करनेवाले ॥ २६० ॥ .. सद्यःकुवलयापीडयाती चाणूरमर्दनः ॥ २५७ ॥ समस्तसुन्दरीकान्तो मुरारिर्गरुडध्वजः।
७६६ अरिष्टमथन:-अरिष्टासुरको नष्ट एकाकिजितरुद्रार्कमरुदाधखिलेश्वरः ॥२६१ ॥ करनेवाले, ७६७ कामोन्मत्तगोपीविमुक्तिदः- ७८३ समस्तसुन्दरीकान्तः-समस्त सुन्दरियाँ प्रेमविभोर गोपीको मुक्ति प्रदान करनेवाले, ७६८ जिन्हें पानेकी इच्छा करती है, ७८४ मुरारिः-मुर सद्यःकुवलयापीघाती-कुवलयापीड नामक नामक दानवके शत्रु, ७८५ गरुडध्वजः- गरुड़के हाथीको शीघ्र मार गिरानेवाले, ७६९ चाणूरमर्दनः- चिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले, ७८६ एकाकिजितरुद्रार्कचाणूरनामक मल्लको कुचल डालनेवाले ॥ २५७॥ मरुदाखिलेश्वरः- अकेले ही रुद्र, सूर्य और वायु कंसारिरुपसेनादिराज्यव्यापारितामरः । आदि समस्त लोकपालोको जीतनेवाले ।। २६१ ॥ सुधर्माहितभूलोको जरासंधबलान्तकः ॥ २५८ ॥ देवेन्द्रदर्पहा कल्पद्रुमालंकृतभूतलः ।
७७० कंसारि:-मथुराके राजा कंसके शत्रु. बाणबाहुसहस्त्रच्छिन्नन्धादिगणकोटिजित् ॥ २६३ ॥ ७७१ उपसेनादिराज्यव्यापारितामरः-राज्य- ७८७ देवेन्द्रदर्पहा-देवराज इन्द्रका अभिमान सम्बन्धी कार्योंमें उग्रसेन आदिके रूपमें देवताओंको ही चूर्ण करनेवाले, ७८८ कल्पद्गुमालंकृतभूतल:नियुक्त करनेवाले, ७७२ सुधर्माङ्कितभूलोकः- कल्पवृक्षको स्वर्गसे लाकर उसके द्वारा भूतलको शोभा
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उत्तरखण्ड
• नाम-कीर्तनको महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन •
७१७
बढ़ानेवाले,७८९ बाणबाहुसहस्रच्छित्-बाणासुरकी प्रतिष्ठा करनेवाले, ८०६-स्वांशशङ्करपूजक:सहस्र भुजाओंका उच्छेद करनेवाले, ७९० नन्द्यादि- अपने अंशभूत शङ्करकी पूजा करनेवाले ॥ २६६ ॥ गणकोटिजित्-नन्दी आदि करोड़ों शिवगणोंको शिवकन्यानतपतिः कृष्णरूपशिवारिहा । परास्त करनेवाले ॥ २६२ ॥
महालक्ष्मीवपुगौंरीत्राता वैदलवत्रहा ।। २६७ ।। लीलाजितमहादेवो महादेवैकपूजितः।
८०७ शिवकन्याव्रतपति:-शिवको कन्याके इन्द्रार्थार्जुननिर्भङ्गजयदः पाण्डवैकधक् । २६३ ॥ व्रतकी रक्षा करनेवाले. ८०८ कृष्णरूपशिवारिहा
७९१ लीलाजितमहादेवः-अनायास ही कृष्णरूपसे शिवके शत्रु (भस्मासुर) का संहार महादेवजीपर विजय पानेवाले, ७९२ महादेवैक- करनेवाले, ८०९ महालक्ष्मीवपुगौंरीत्रातापूजितः-महादेवजीके द्वारा एकमात्र पूजित, ७९३ महालक्ष्मीका शरीर धारण करनेवाली पार्वतीके रक्षक, इन्द्रार्थार्जुननिर्भङ्गजयदः-इन्द्रकी प्रसन्नताके लिये ८१० वैदलवृत्रहा-वैदलवत्र नामक दैत्यका वध अर्जुनको अखण्ड विजय प्रदान करनेवाले, ७९४ करनेवाले ।। २६७ ॥ पाण्डवैकधृक्-पाण्डवोंके एकमात्र रक्षक ॥ २६३ ।। स्वधाममुचुकुन्दैकनिष्कालयवनेष्टकृत् । काशिराजशिरश्छेत्ता रुद्रशक्त्येकमर्दनः। यमुनापतिरानीतपरिलीनद्विजात्मजः ॥२६८ ॥ विश्वेश्वरप्रसादाळ्यः काशिराजसुतार्दनः ।। २६४ ॥ ८११ स्वधाममुचुकुन्दैकनिष्कालयवनेष्ट
७९५ काशिराजशिरश्छेत्ता-काशिराजका कृत्- अपने तेजःस्वरूप राजा मुचुकुन्दके द्वारा केवल मस्तक काट देनेवाले, ७९६ रुदशक्त्येकमर्दनः- कालयवनका नाश कराकर उन्हें अभीष्ट वरदान रुद्रकी शक्तिके एकमात्र मर्दन करनेवाले,७९७ विश्वेश्वर- देनेवाले, ८१२ यमुनापतिः-सूर्यकन्या यमुनाको प्रसादाढ्यः-काशीविश्वनाथकी प्रसन्नता प्राप्त पत्नीरूपसे ग्रहण करनेवाले, ८१३ आनीतपरिलीनकरनेवाले,७९८ काशिराजसुतार्दनः- काशीनरेशके द्विजात्मजः- मरे हुए ब्राह्मण-पुत्रोंको पुनः पुत्रको पीड़ा देनेवाले ॥ २६४ ॥
लानेवाले॥२६८॥ शम्भुप्रतिज्ञाविध्वंसीकाशीनिर्दग्धनायकः । श्रीदामरभक्तार्थभूम्यानीतेन्द्रवैभवः । काशीशगणकोटिनो लोकशिक्षाद्विजार्चकः ।। २६५ ॥ दुर्वत्तशिशुपालैकमुक्तिदो द्वारकेश्वरः ।। २६९ ॥
७९९ शम्भुप्रतिज्ञाविध्वंसी-शङ्करजोको ८१४ श्रीदामरकभक्तार्थभूम्यानीतेन्द्रवैभव:प्रतिज्ञा तोड़नेवाले, ८०० काशीनिर्दग्धनायक:- अपने दीन भक्त श्रीदामा (सुदामा) के लिये पृथ्वीपर जिन्होंने काशीको जलाकर अनाथ-सी कर दिया था, वे इन्द्रके समान वैभव उपस्थित करनेवाले, ८१५ दुर्वृत्तभगवान् श्रीकृष्ण, ८०१ काशीशगणकोटिनः- शिशुपालैकमुक्तिदः-दुराचारी शिशुपालको एकमात्र काशीपति विश्वेश्वरके करोड़ों गणोंका नाश करनेवाले, मोक्ष प्रदान करनेवाले, ८१६ द्वारकेश्वरः-द्वारकाके ८०२ लोकशिक्षाद्विजार्चकः-लोकको शिक्षा देनेके स्वामी ।। २६९ ।। लिये सुदामा आदि ब्राह्मणोंकी पूजा करनेवाले ॥ २६५॥ आचाण्डालादिकप्राप्यद्वारकानिधिकोटिकृत् । शिवतीव्रतपोवश्यः पुराशिववरप्रदः। अक्रूरोद्धवमुख्यैकभक्तः स्वच्छन्दमुक्तिदः ॥ २७० ।। शङ्करैकप्रतिष्ठाध्क्स्यांशशङ्करपूजकः ॥ २६६ ॥ ८१७ आचाण्डालादिकप्राप्यद्वारकानिधि
८०३ शिवतीव्रतपोवश्यः-शिवजीकी तीन कोटिकृत्-द्वारकामें चाण्डाल आदितकके लिये तपस्याके वशीभूत होनेवाले. ८०४ पुराशिववरप्रदः- सुलभ होनेवाली करोड़ों निधियोका संग्रह करनेवाले, पूर्वकालमें शिवजीको वरदान देनेवाले, ८०५ ८१८ अकूरोद्धवमुख्यैकभक्तः- अक्रूर और उद्धव शङ्करैकप्रतिष्ठाधृक्-भगवान् शङ्करकी एकमात्र आदि प्रधान भक्तोंके साथ रहनेवाले, ८१९ स्वच्छन्द
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७१८
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अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
मुक्तिदः - इच्छानुसार मुक्ति देनेवाले ॥ २७० ॥ सबालस्त्रीजलक्रीडामृतवापीकृतार्णवः । ब्रह्मास्त्रदग्धगर्भस्थपरीक्षिज्जीवनैककृत् ।। २७१ ।। सबालखीजलक्रीडामृतवापी
८२०
कृतार्णवः- बालकों और स्त्रियोंके जल-विहार जितगौरीशः करनेके लिये समुद्रको अमृतमयी बावलीके समान बना देनेवाले, ८२१ ब्रह्मास्त्रदग्धगर्भस्थपरीक्षिज्जीवनैककृत् — अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे दध हुए गर्भस्थ परीक्षित्को एकमात्र जीवन दान देनेवाले ॥ २७१ ॥ परिलीनद्विजसुतानेतार्जुनमदापहः
८३५
शम्बरासुरके प्राणहन्ता ॥ २७४ ॥ अनङ्गो जितगौरीशो रतिकान्तः सदेप्सितः । पुष्पेषुर्विश्वविजयी स्मरः कामेश्वरीप्रियः ।। २७५ ।। ८३३ अनङ्गः - अङ्गरहित, ८३४ गौरीपति शङ्करको भी जीतनेवाले, रतिकान्तः - रतिके प्रियतम, ८३६ सदेप्सितः - कामी पुरुषोंको सदा अभीष्ट ८३७ पुष्येषुः - पुष्पमय बाणवाले, ८३८ विश्वविजयी - सम्पूर्ण जगत्पर विजय पानेवाले, ८३९ स्मरः - विषयोंके स्मरणमात्रसे मनमें प्रकट हो जानेवाले, ८४० कामेश्वरीप्रियः- कामेश्वरीहुए रतिके प्रेमी ।। २७५ ॥
८२३ ऊषापतिर्विश्वकेतुर्विश्वतृप्तोऽधिपूरुषः
1
८२२
गूढमुद्राकृतिग्रस्त भीष्माद्यखिलकौरवः ॥ २७२ ॥ परिलीनद्विजसुतानेता - नष्ट ब्राह्मणकुमारोंको पुनः ले आनेवाले, अर्जुनमदापहः - अर्जुनका घमंड दूर करनेवाले, ८२४ गूढमुद्राकृतिग्रस्त भीष्माद्यखिलकौरवः - गम्भीर मुद्रावाली आकृति बनाकर भीष्म आदि समस्त कौरवोंको कालका ग्रास बनानेवाले ॥ २७२ ॥ यथार्थस्खण्डिताशेषदिव्यास्त्रपार्थमोहहत् गर्भशापच्छलध्वस्तयादवोर्वीभरापहः
।
।। २७३ ॥
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
चतुरात्मा
८२५
चतुर्व्यूहश्चतुर्युगविधायकः ॥ २७६ ॥ ८४१ ऊषापतिः - बाणासुरकी कन्या ऊषाके स्वामी अनिरुद्धरूप ८४२ विश्वकेतुः - विश्वमें विजयपताका फहरानेवाले, ८४३ विश्वतृप्तः:- सब ओरसे तृप्त ८४४ अधिपूरुषः - अन्तर्यामी साक्षी चेतन, ८४५ चतुरात्मा - मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तरूप यथार्थखण्डिताशेषदिव्यास्त्रपार्थ- चार अन्तःकरणवाले, ८४६ चतुर्व्यूहः- वासुदेव, मोहहत्— समस्त दिव्यास्त्रोंका भलीभाँति खण्डन करनेवाले अर्जुनके मोहको हरनेवाले, ८२६ गर्भशापच्छलध्वस्तयादवोर्वीभरापहः- स्त्रीरूप धारण करके गये हुए साम्बके गर्भको मुनियोंद्वारा शाप दिलाने के बहाने पृथ्वीके भारभूत समस्त यादवोंका संहार करानेवाले ॥ २७३ ॥ जराव्याधारिगतिदः स्मृतमात्राखिलेष्टदः । कामदेवो रतिपतिर्मन्मथः शम्बरान्तकः ॥ २७४ ॥
सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध - इन चार व्यूहोंसे युक्त, ८४७ चतुर्युगविधायकः - सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग – इन चार युगका विधान करनेवाले ॥ २७६ ॥ चतुर्वेदैकविश्वात्मा सर्वोत्कृष्टांशकोटिसूः । आश्रमात्मा पुराणर्षिर्व्यासः शाखासहस्त्रकृत् ।। २७७ ।।
८२७ जराव्याधारिगतिदः – शत्रुका काम करनेवाले जरा नामक व्याधको उत्तम गति प्रदान करनेवाले, ८२८ स्मृतमात्राखिलेष्टदः :- स्मरण करने मात्र से सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थोंको देनेवाले, ८२९ कामदेवः - कामदेवस्वरूप, ८३० रतिपतिः रतिके स्वामी, ८३१ मन्मथः - विचारशक्तिका नाश महाभारतनिर्माता कवीन्द्रो बादरायणः । करनेवाले कामदेवरूप, ८३२ शम्बरान्तकः -
८४८ चतुर्वेदैकविश्वात्मा - चारों वेदोंद्वारा प्रतिपादित एकमात्र सम्पूर्ण विश्वके आत्मा, ८४९ सर्वोत्कृष्टांशकोटिसूः - सबसे श्रेष्ठ कोटि-कोटि अंशोंको जन्म देनेवाले, ८५० आश्रमात्मा - आश्रमधर्मरूप ८५१ पुराणर्षिः पुराणोंके प्रकाशक ऋषि, ८५२ व्यासः - वेदोंका विस्तार करनेवाले, ८५३ शाखासहस्त्रकृत्— सामवेदको शाखाओंका सम्पादन करनेवाले ॥। २७७ ।।
सहस्र
कृष्णद्वैपायनः
सर्वपुरुषार्थैकबोधकः ॥ २७८ ॥
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उत्तरखण्ड ]
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन .
७१९
८५४ महाभारतनिर्माता-महाभारत ग्रन्थके सम्पूर्ण पदार्थोको शून्यरूप ही माननेवाले, ८७६ रचयिता, ८५५ कवीन्द्रः-कवियोंके राजा, ८५६ अखिलेष्टदः-सबको सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ बादरायण:-बदरी-वनमें उत्पन्न भगवान् वेदव्यास- देनेवाले ॥ २८१ ॥ रूप, ८५७ कृष्णद्वैपायन:-द्वीपमें उत्पन्न श्याम चतुष्कोटिपृथक्तत्त्वप्रज्ञापारमितेश्वरः । वर्णवाले व्यासजी, ८५८ सर्वपुरुषार्थंकबोधकः- पाखण्डवेदमार्गेशः पाखण्डश्रुतिगोपकः ।। २८२ ॥ समस्त पुरुषार्थोके एकमात्र बोध करानेवाले ।। २७८ ॥ ८७७ चतुष्कोटिपृथक्-स्थावर आदि चार वेदान्तकर्ता ब्रह्मैकव्याकः पुरुवंशकृत् । श्रेणियोंमें विभक्त हुई सृष्टिसे पृथक्, ८७८ तत्त्वबुद्धो ध्यानजिताशेषदेवदेवीजगत्प्रियः ॥ २७९ ॥ प्रज्ञापारमितेश्वरः-तत्त्वभूत प्रज्ञापारमिता' (बुद्धिको
८५९ वेदान्तकर्ता-वेदान्तसूत्रोंके रचयिता, पराकाष्ठा) के ईश्वर, ८७९ पाखण्डवेदमागेंश:८६० ब्रह्मैकव्यञ्जकः-एक अद्वितीय ब्रह्मकी पाखण्ड-वेदमार्गके स्वामी, ८८० पाखण्डअभिव्यक्ति करानेवाले, ८६१ पुरुवंशकृत्- श्रुतिगोपकः-पाखण्डके द्वारा प्रतिपादित वेदको पुरुवंशकी परम्परा सुरक्षित रखनेवाले, ८६२ श्रुतियोंके रक्षक ।। २८२ ॥ । बुद्धः-भगवानके अवतार बुद्धदेव, ८६३ कल्की विष्णुयशःपुत्रः कलिकालविलोपकः । ध्यानजिताशेषदेवदेवीजगत्प्रियः-ध्यानके द्वारा समस्तम्लेच्छदुष्टनः सर्वशिष्टद्विजातिकृत् ॥ २८३ ॥ समस्त देव-देवियोंको जीतकर जगत्के प्रियतम ८८१ कल्की -कलियुगके अन्तमें होनेवाला बननेवाले ।। २७९ ॥
भगवान्का एक अवतार, ८८२ विष्णुयशःपुत्रःनिरायुधो जगजैत्रः श्रीधनो दुष्टमोहनः । श्रीविष्णुयशाके पुत्र भगवान् कल्कि, ८८३ कलिकालदैत्यवेदबहिष्कर्ता । वेदार्थश्रुतिगोपकः ॥ २८०॥ विलोपकः-कलियुगका लोप करके सत्ययुगका प्रवेश
८६४ निरायुधः-अस्त्र-शस्त्रोंका त्याग करानेवाले, ८८४ समस्तम्लेच्छदुष्टनः-सम्पूर्ण करनेवाले, ८६५ जगजैत्रः-सम्पूर्ण जगत्को वशमें म्लेच्छों और दुष्टोंका वध करनेवाले, ८८५ करनेवाले, ८६६ श्रीधनः-शोभाके धनी, ८६७ सर्वशिष्टद्विजातिकृत्-सबको श्रेष्ठ द्विज बनानेवाले दुष्टमोहनः-दुष्टोको मोहित करनेवाले, ८६८ अथवा समस्त साधु द्विजातियोंके रक्षक ॥ २८३ ।। दैत्यवेदबहिष्कर्ता-दैत्योंको वेदसे बहिष्कृत सत्यप्रवर्तको देवद्विजदीर्घक्षुधापहः । करनेवाले, ८६९ वेदार्थश्रुतिगोपक:-वेदोके अर्थ अश्ववारादिरेकान्तपृथ्वीदुर्गतिनाशनः ॥२८४ ॥ और श्रुतियोंको गुप्त रखनेवाले ॥२८० ॥
८८६ सत्यप्रवर्तकः-सत्ययुगकी प्रवृत्ति शौद्धोदनिर्दष्टदिष्टः सुखदः सदसस्पतिः। करानेवाले, ८८७ देवद्विजदीर्घक्षुधापहः-[यज्ञ और यथायोग्याखिलकृपः सर्वशून्योऽखिलेष्टदः ॥ २८१॥ ब्राह्मण-भोजन आदिका प्रचार करके] देवताओं और
८७० शौद्धोदनिः-कपिलवस्तुके राजा ब्राह्मणोंकी बढ़ी हुई भूखको शान्त करनेवाले, ८८८ शुद्धोदनके पुत्र, ८७१ दृष्टदिष्टः-दैवके विधानको अश्ववारादिः-घुड़सवारों में श्रेष्ठ, ८८९ प्रत्यक्ष देखनेवाले, ८७२ सुखदः-सबको सुख एकान्तपृथ्वीदुर्गतिनाशन:-पृथ्वीकी दुर्गतिका देनेवाले, ८७३ सदसस्पतिः-सत्पुरुषोकी सभाके पूर्णतया नाश करनेवाले ॥ २८४ ॥ अध्यक्ष, ८७४ यथायोग्याखिलकृपः-यथायोग्य सद्यःक्ष्मानन्तलक्ष्मीकन्नष्टनिःशेषधर्मवित् । सम्पूर्ण जीवोंपर कृपा रखनेवाले, ८७५ सर्वशून्यः- अनन्तस्वर्णयागैकहेमपूर्णाखिलद्विजः ॥२८५ ॥
१-दस पारमिताओमेसे एकका नाम प्रज्ञापारमिता है।
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अर्चयस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .....
[संक्षिप्त पयपुराण
८९० सद्यःमानन्तलक्ष्मीकृत्-पृथ्वीको शीघ्र ९१५ महर्षिराट्-महर्षियोंमें अधिक तेजस्वी, ९१६ ही अनन्त लक्ष्मीसे परिपूर्ण करनेवाले, ८९१ भृगुः-ब्रह्माजीके पुत्र प्रजापति भृगुस्वरूप, ९१७ नष्टनिःशेषधर्मवित्-नष्ट हुए सम्पूर्ण धोंके ज्ञाता, विष्णुः-बारह आदित्योंमेंसे एक, ९१८ ८९२ अनन्तस्वर्णयागैकहेमपूर्णाखिलद्विजः- आदित्येश:-बारह आदित्योंके स्वामी, ९१९ अनन्त सुवर्णको दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञोका अनुष्ठान बलिवराट-बलिको इन्द्र बनानेवाले ॥२८८॥ कराकर सम्पूर्ण ब्राह्मणोंको स्वर्णसे सम्पत्र वायुर्वह्निः शुषिश्रेष्ठः शङ्करो रुद्ररागुरुः । करनेवाले ॥ २८५॥.... ....... विद्वत्तमश्चितरथो गन्धर्वाग्योऽक्षरोत्तमः ॥ २८९ ॥ असाध्यैकजगच्छास्ता विश्वबन्धो जयध्वजः । . ९२० वायु:-वायुतत्त्वके अधिष्ठाता देवता, आत्मतत्त्वाधिपः कर्तृश्रेष्ठो विधिरुमापतिः ।। २८६ ॥ ९२१ वह्निः-अग्नितत्त्वके अधिष्ठाता देवता, ९२२
८९३ असाध्यैकजगच्छास्ता-किसीके वशमें शुचिश्रेष्ठः-पवित्रोंमें श्रेष्ठ, ९२३ शङ्करः-सबका न होनेवाले सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र शासक, ८९४ कल्याण करनेवाले शिवरूप, ९२४ रुवराट-ग्यारह विश्वबन्धः-समस्त विश्वको अपनी मायासे बाँध रुद्रोंके स्वामी, ९२५ गुरुः-गुरु नामसे प्रसिद्ध रखनेवाले, ८९५ -जयध्वजः-सर्वत्र अपनी अङ्गिरापुत्र बृहस्पतिरूप, ९२६ विद्वत्तमः-सर्वश्रेष्ठ विजयपताका फहरानेवाले, ८९६ आत्पतत्त्वाधिप:- विद्वान्, ९२७ चित्ररथः-विचित्र रथवाले गन्धक आत्मतत्त्वके स्वामी, ८९७ कर्तृश्रेष्ठः-कर्ताओंमें श्रेष्ठ, राजा, ९२८ गन्धर्वाग्यः-गन्धर्वोमें अग्रगण्य ८९८ विधिः-शास्त्रीय विधिरूप, - ८९९ चित्ररथरूप. ९२९ अक्षरोत्तमः-अक्षरोंमें उत्तम उमापतिः-उमाके स्वामी ।। २८६॥
'ॐ'कारस्वरूप ।। २८९ ॥ भर्तृश्रेष्ठः प्रजेशाग्र्यो मरीचिर्जनकापणीः। - वर्णादिरम्यस्त्री गौरी शक्त्यग्या श्रीश्च नारदः । कश्यपो देवराडिन्द्रः प्रहादो दैत्यराट् शशी ॥ २८७ ॥ देवर्षिराट्याण्डवाश्योऽर्जुनो वादः प्रवादराट् ॥ २९० ॥
९०० भर्तृश्रेष्ठः-भरण-पोषण करनेवालोंमें ९३० वर्णादिः-समस्त अक्षरोंके आदिभूत सर्वश्रेष्ठ, ९०१ प्रजेशायः-प्रजापतियोंमें अप्रगण्य, अकारस्वरूप, ९३१ अयस्त्री-स्त्रियोंमे अग्रगण्य ९०२ मरीचिः-मरीचि नामक प्रजापतिरूप, ९०३ सती पार्वतीरूप, ९३२ गौरी-गौरवर्णा उमारूप, जनकाग्रणी:-जन्म देनेवाले प्रजापतियोंमें श्रेष्ठ, ९०४ ९३३ शक्त्यग्र्या-भगवान्की अन्तरक्षा शक्तियोंमें कश्यपः-सर्वद्रष्टा कश्यप मुनिस्वरूप, ९०५ सर्वश्रेष्ठ भगवती लक्ष्मीरूप, ९३४ श्री:- भगवान् देवराट-देवताओंके राजा, ९०६ इन्द्रः-परम विष्णुका आश्रय लेनेवाली लक्ष्मी, ९३५ नारदःऐश्वर्यशाली इन्द्रस्वरूप, ९०७ प्रहादः-भगवद्भक्तिके सबको ज्ञान देनेवाले देवर्षि नारदरूप, ९३६ प्रभावसे अत्यन्त आहादपूर्ण रानी कयाधूके पुत्ररूप,९०८ देवर्षिराट्-देवर्षियोंके राजा, ९३७ पाण्डवाश्य:दैत्यराट्-दैत्योंके स्वामी प्रहादरूप, ९०९ शशी- पाण्डवोंमें अपने गुणोंके कारण श्रेष्ठ अर्जुनरूप, ९३८ खरगोशका चिह्न धारण करनेवाले चन्द्रमारूप ॥ २८७ ॥ अर्जुन:-अर्जुन नामसे प्रसिद्ध कुन्तीके तृतीय पुत्र, नक्षत्रेशो रविस्तेजःश्रेष्ठः शुक्रः कवीश्वरः। ॐ ९३९ वादः-तत्त्वनिर्णयके उद्देश्यसे शुद्ध नीयतके महर्षिराइभृगुर्विष्णुरादित्येशो बलिस्वराट् ।। २८८॥ साथ किये जानेवाले शास्त्रार्थरूप, ९४० प्रवादराट्
९१० नक्षत्रेशः-नक्षत्रोंके स्वामी चन्द्रमारूप, उत्तम वाद करनेवालोंमें श्रेष्ठ ॥ २९०॥ ९११ रविः-सूर्यस्वरूप, ९१२ तेजःश्रेष्ठः- पावनः पावनेशानो वरुणो यादसां पतिः । तेजस्वियोंमें सबसे श्रेष्ठ, ९१३ शुक्रः-भृगुके पुत्र गङ्गा तीर्थोत्तमो चूतं छलकाम्यं वरौषधम् ॥ २९१ ।। शुक्राचार्यस्वरूप, ९१४ कवीश्वरः-कवियोंके स्वामी, ९४१ पावनः-सबको पवित्र करनेवाले, ९४२
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उत्तरखण्ड ]
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन .
७२१
पावनेशानः-पावन वस्तुओंके ईश्वर, ९४३ वरुण:- ९६७ मेरु:-मेरु नामक दिव्य पर्वतरूप, ९६८ जलके अधिष्ठाता देवता वरुणरूप, ९४४ यादसां पति:- गिरिपति:-पर्वतोंके स्वामी, ९६९ मार्ग:-मार्गशीर्ष जल-जन्तुओंके स्वामी, ९४५ गङ्गा-भगवान् विष्णुके (अगहन) का महीना, ९७० मासाम्यः-मासोंमें चरणोंसे प्रकट हुई परम पवित्र नदी, जो भूतलमें भागीरथीके अग्रगण्य मार्गशीर्षस्वरूप, ९७१ कालसत्तमःनामसे विख्यात एवं भगवद्विभूति है, ९४६ तीर्थोत्तमः- समयोंमें सर्वश्रेष्ठ-ब्रह्मवेला, ९७२ दिनाद्यात्मा-दिन तीर्थोंमें उत्तम गङ्गारूप, ९४७ द्यूतम्-छल करनेवालोंमें और रात्रि दोनोंका सम्मिलित रूप-प्रभात या ब्रह्मवेला, द्यूतरूप भगवान्की विभूति, ९४८ छलकाम्यम्- ९७३ पूर्वसिद्धः-आदि सिद्ध महर्षि कपिलरूप, छलकी पराकाष्ठा जूआरूप. ९४९ वरौषधम्- जीवनकी ९७४ कपिल:-कपिल वर्णवाले एक मुनि, जो रक्षा करनेवाली श्रेष्ठ ओषधि- अत्ररूप ॥२९१॥ भगवान्के अवतार हैं. ९७५ साम-सहस्र शाखाओंसे अन्नं सुदर्शनोऽस्वायं वज्र प्रहरणोत्तमम्। विशिष्ट सामवेद. ९७६ वेदरा-वेदोंके राजा उचैःश्रवा वाजिराज ऐरावत इमेश्वरः ॥ २९२ ।। सामवेदरूप ।। २९४ ॥ --९५० अन्नम्-प्राणियोंकी क्षुधा दूर करनेवाला तायः खगेन्द्र ऋत्वयो वसन्तः कल्पपादपः। धरतीसे उत्पन्न स्वाद्य पदार्थ, ९५१ सुदर्शन:-देखने में दातृश्रेष्ठः कामधेनुरार्तिघ्रायः सुहृत्तमः ।। २९५ ॥ सुन्दर तेजस्वी अस्त्र-सुदर्शनचक्ररूप, ९५२ ९७७ तार्थ्यः-तार्क्ष (कश्यप) ऋषिके पुत्र अस्वायम्-समस्त अस्त्रोंमें श्रेष्ठ सुदर्शन, ९५३ गरुड़रूप, ९७८ खगेन्द्रः-पक्षियोंके राजा गरुड़, वज्रम्-इन्द्रके आयुधस्वरूप, ९५४ प्रहरणोत्तमम्- ९७९ ऋत्वयः-ऋतुओंमें श्रेष्ठ वसन्तरूप, ९८० प्रहार करनेयोग्य आयुधोंमें उत्तम वज्ररूप, ९५५ वसन्तः-चैत्र और वैशाख मास, ९८१ कल्पउचैःश्रवाः-ऊँचे कानोंवाला दिव्य अश्व, जो समुद्रसे पादप:-कल्पवृक्षस्वरूप, ९८२ दातृश्रेष्ठःउत्पन्न हुआ था, ९५६ वाजिराजः-घोड़ोंके राजा मनोवाञ्छित वस्तु देनेवालोंमें श्रेष्ठ कल्पवृक्ष, ९८३ उच्चैःश्रवारूप, ९५७ ऐरावतः-समुद्रसे उत्पन्न इन्द्रका कामधेनु:-अभीष्ट पूर्ण करनेवाली गोरूप, ९८४ वाहन ऐरावत नामक हाथी, ९५८ इभेश्वरः-हाथियोंके आर्तिघ्नायः-पीड़ा दूर करनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ, ९८५ राजा ऐरावतस्वरूप ॥ २९२ ।।
सुहत्तमः-परम हितैषी ॥ २९५॥ असन्धत्येकपनीशो ह्यश्वत्थोऽशेषवक्षराट्। चिन्तामणिमुरुश्रेष्ठो माता हिततमः पिता । अध्यात्मविद्या विद्याश्यः प्रणवश्छन्दसां वरः ।। २९३ ॥ सिंहो मृगेन्द्रो नागेन्द्रो वासुकिनवरो नृपः ।। २९६ ।।
९५९ अरुन्धती-पतिव्रताओंमें श्रेष्ठ अरुन्धती- ९८६ चिन्तामणिः-मनमें चिन्तन की हुई स्वरूप, ९६० एकपत्नीशः-पतिव्रता अरुन्धतीके इच्छाको पूर्ण करनेवाली भगवत्स्वरूप दिव्य मणि, स्वामी महर्षि वसिष्ठरूप, ९६१ अश्वत्थः-पीपलके ९८७ गुरुश्रेष्ठः-गुरुओमें श्रेष्ठ मातारूप, ९८८ वृक्षरूप, ९६२ अशेषवृक्षराट्-सम्पूर्ण वृक्षोंके राजा माता-जन्म देनेवाली जननी, ९८९ हिततमःअश्वत्थरूप, ९६३ अध्यात्पविद्या-आत्मतत्त्वका सबसे बड़े हितकारी, ९९० पिता-जन्मदाता, ९९१ बोध करानेवाली ब्रह्मविद्यास्वरूप, ९६४ विद्याम्यः- सिंहः-मृगोंके राजा सिंहस्वरूप, ९९२ विद्याओमें अग्रगण्य प्रणवरूप, ९६५ प्रणवः- मृगेन्द्रः-समस्त वनके जन्तुओंका स्वामी सिंहरूप, ओंकाररूप, ९६६ छन्दसां वरः-वेदोंका आदिभूत ९९३ नागेन्द्रः-नागोंके राजा, ९९४ ओकार, अथवा मन्त्रोंमें श्रेष्ठ प्रणव ।। २९३ ॥ वासुकिः-नागराज वासुकिरूप, ९९५ नवरःमेरुर्गिरिपतिर्मागों मासायः कालसत्तमः। मनुष्योंमें श्रेष्ठ, ९९६ नृपः-मनुष्योंका पालन दिनाद्यात्मा पूर्वसिद्धः कपिलः साम वेदराट् ॥ २९४ ॥ करनेवाले राजारूप ॥ २९६ ॥
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७२२
• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
वर्णेशो ब्राह्मणश्चेत: करणाग्यं नमो नमः । रोगसे क्षीण हुए पुरुषोंको तत्काल जीवन देनेवाला है। इत्येतद्वासुदेवस्य विष्णोर्नामसहस्त्रकम् ।। २९७ ॥. यह परम पवित्र, मङ्गलमय तथा आयु बढ़ानेवाला है। व ९९७ वर्णेशः-समस्त वर्गों के स्वामी ब्राह्मण- एक बार भी इसका श्रवण, पठन अथवा जप करनेसे रूप, ९९८ ब्राह्मणः-ब्राह्मण माता-पितासे उत्पन्न अङ्गोंसहित सम्पूर्ण वेद, कोटि-कोटि मन्त्र, पुराण, शास्त्र एवं ब्रह्मज्ञानी, ९९९ चेत:- परमात्मचिन्तनकी तथा स्मृतियोंका श्रवण और पाठ हो जाता है। प्रिये ! जो योग्यतावाले चित्तरूप, १००० करणाग्र्यम्- इसके एक श्लोक, एक चरण अथवा एक अक्षरका भी इन्द्रियोंका प्रेरक होनेके कारण उनमें सबसे श्रेष्ठ नित्य जप या पाठ करता है, उसके सम्पूर्ण मनोरथ चित्त-इस प्रकार ये सबके हृदयमें वास करनेवाले तत्काल सिद्ध हो जाते हैं। सब कार्योकी सिद्धिसे शीघ्र भगवान् विष्णुके सहस्र नाम हैं। इन सब नामोंको मेरा ही विश्वास पैदा करानेवाला इसके समान दूसरा कोई बारम्बार नमस्कार है ।। २९७ ॥
साधन नहीं है। यह विष्णुसहस्रनामस्तोत्र समस्त अपराधोंको शान्त कल्याणी ! तुम्हें इस स्तोत्रको सदा गुप्त रखना करनेवाला, परम उत्तम तथा भगवान्में भक्तिको बढ़ाने चाहिये और अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये केवल वाला है। इसका कभी नाश नहीं होता। ब्रह्मलोक इसीका पाठ करना चाहिये। जिसका हृदय संशयसे आदिका तो यह सर्वस्व ही है। विष्णुलोकतक पहुँचनेके दूषित हो, जो भगवान् विष्णुका भक्त न हो, जिसमें श्रद्धा लिये यह अद्वितीय सीढ़ी है। इसके सेवनसे सब और भक्तिका अभाव हो तथा जो भगवान् विष्णुको दुःखोंका नाश हो जाता है। यह सब सुखोंको देनेवाला साधारण देवता समझता हो, ऐसे पुरुषको इसका उपदेश तथा शीघ्र ही परम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। काम, नहीं देना चाहिये। जो अपना पुत्र, शिष्य अथवा सुहद क्रोध आदि जितने भी अन्तःकरणके मल हैं, उन सबका हो, उसे उसका हित करनेकी इच्छासे इस श्रीविष्णुइससे शोधन होता है। यह परम शान्तिदायक एवं सहस्त्रनामका उपदेश देना चाहिये। अल्पबुद्धि पुरुष इसे महापातकी मनुष्योंको भी पवित्र बनानेवाला है। समस्त नहीं ग्रहण करेंगे। देवर्षि नारद मेरे प्रसादसे कलियुगमें प्राणियोंको यह शीघ्र ही सब प्रकारके अभीष्ट फल दान तत्काल फल देनेवाले इस स्तोत्रको ग्रहण करके करता है। समस्त विनोंकी शान्ति और सम्पूर्ण अरिष्टोंका कल्पग्राम (कलापग्राम) में ले जायेंगे, जिससे भाग्यहीन विनाश करनेवाला है। इसके सेवनसे भयङ्कर दुःख लोगोंका दुःख दूर हो जायगा। भगवान् विष्णुसे बढ़कर शान्त हो जाते हैं। दुःसह दरिद्रताका नाश हो जाता है कोई धाम नहीं है, श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई तपस्या नहीं तथा तीनों प्रकारके ऋण दूर हो जाते हैं। यह परम है, श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और श्रीविष्णुसे गोपनीय तथा धन-धान्य और यशकी वृद्धि करनेवाला भिन्न कोई मन्त्र नहीं है। भगवान् श्रीविष्णुसे भिन्न कोई है। सब प्रकारके ऐश्वयों, समस्त सिद्धियों और सम्पूर्ण सत्य नहीं है, श्रीविष्णुसे बढ़कर जप नहीं है. श्रीविष्णुसे धर्मोको देनेवाला है। इससे कोटि-कोटि तीर्थ, यज्ञ, तप, उत्तम ध्यान नहीं है तथा श्रीविष्णुसे श्रेष्ठ कोई गति नहीं दान और व्रतोंका फल प्राप्त होता है। यह संसारकी है। जिस पुरुषकी भगवान् जनार्दनके चरणों में भक्ति है, जडता दूर करनेवाला और सब प्रकारकी विद्याओंमें उसे अनेक मन्त्रोंके जप, बहुत विस्तारवाले शास्त्रोंके प्रवृत्ति करानेवाला है। जो राज्यसे भ्रष्ट हो गये हैं, उन्हें स्वाध्याय तथा सहस्रों वाजपेय यज्ञोंके अनुष्ठान करनेकी यह राज्य दिलाता और रोगियोंके सब रोगोंको हर लेता क्या आवश्यकता है? मैं सत्य-सत्य कहता हूँ-भगवान् है। इतना ही नहीं, यह स्तोत्र वन्ध्या स्त्रियोंको पुत्र और विष्णु सर्वतीर्थमय है, भगवान् विष्णु सर्वशास्त्रमय है
* पद्मपुराण, उत्तरखण्डका ७२ वा अध्याय ।
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उत्तरखण्ड ]
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• नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन •
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तथा भगवान् विष्णु सर्वयज्ञमय हैं। * यह सब मैंने सम्पूर्ण विश्वका सर्वस्वभूत सार तत्त्व बतलाया है। पार्वती बोलीं- जगत्पते! आज मैं धन्य हो गयी। आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं कृतार्थ हो गयी, क्योंकि आपके मुखसे यह परम दुर्लभ एवं गोपनीय स्तोत्र मुझे सुननेको मिला है। देवेश! मुझे तो संसारकी अवस्था देखकर आश्चर्य होता है हाय! कितने महान् कष्टको बात है कि सम्पूर्ण सुखोंके दाता श्रीहरिके विद्यमान रहते हुए भी मूर्ख मनुष्य संसारमें क्लेश उठा रहे हैं। भला, लक्ष्मीके प्रियतम भगवान् मधुसूदनसे बढ़कर दूसरा कौन देवता है। आप जैसे योगीश्वर भी जिनके तत्त्वका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं, उन श्रीपुरुषोत्तमसे बड़ा दूसरा कौन-सा पद है। उनको जाने बिना ही अपनेको ज्ञानी माननेवाले मूक मनुष्य दूसरे किस देवताकी आराधना करते हैं। अहो ! सर्वेश्वर भगवान् विष्णु सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवताओंसे भी उत्तम हैं। स्वामिन्! जो आपके भी आदिगुरु हैं, उन्हें मूढ़ मनुष्य सामान्य दृष्टिसे देखते हैं; किन्तु प्रभो ! सर्वेश्वर ! यदि मैं अर्थ कामादिमें आसक्त होने या केवल आपमें ही मन लगाये रहने के कारण अथवा प्रमादवश ही समूचे सहस्रनामस्तोत्रका पाठ न कर सकूँ, तो उस अवस्थामें जिस किसी भी एक नामसे मुझे सम्पूर्ण सहस्रनामका फल प्राप्त हो जाय, उसे बतानेकी कृपा कीजिये । महादेवजी बोले- सुमुखि ! मैं तो 'राम राम! राम! इस प्रकार जप करते हुए परम मनोहर
श्रीरामनाममें ही निरन्तर रमण किया करता हूँ। रामनाम सम्पूर्ण सहस्रनामके समान हैं। ॐ पार्वती ! यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र भी प्रतिदिन विशेषरूपसे इस श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ करें तो वे धन-धान्यसे युक्त होकर भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं। $ देवि! जो लोग पूर्वोक्त अङ्गन्याससे युक्त श्रीविष्णुसहस्त्रनामका पाठ करते हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं। सुमुखि ! बार-बार बहुत कहनेसे क्या लाभ थोड़ेमें इतना ही जान लो कि भगवान् विष्णुका सहस्रनाम परम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसके पाठमें उतावली नहीं करनी चाहिये । यदि उतावली की जाती है, तो आयु और धनका नाश होता है। इस पृथ्वीपर जम्बूद्वीपके अंदर जितने भी तीर्थ हैं, वे सब सदा वहीं निवास करते हैं, जहाँ श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ होता है। जहाँ श्रीविष्णुसहस्रनामकी स्थिति होती है, वहीं गङ्गा, यमुना, कृष्णवेणी, गोदावरी, सरस्वती और समस्त तीर्थ निवास करते हैं। यह परम पवित्र स्तोत्र भक्तोंको सदा प्रिय है। भक्तिभावसे भावित चित्तके द्वारा सदा ही इस स्तोत्रका चिन्तन करना चाहिये। जो मनीषी पुरुष परम उत्तम श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका पाठ करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त होकर श्रीहरिके समीप जाते हैं। जो लोग सूर्योदयके समय इसका पाठ और जप करते हैं, उनके बल, आयु और लक्ष्मीकी प्रतिदिन वृद्धि होती है। एक-एक नामका उच्चारण करके श्रीहरिको तुलसीदल अर्पण करनेसे जो पूजा सम्पन्न होती
* नास्ति विष्णोः परं धाम नास्ति विष्णोः परं तपः । नास्ति विष्णोः परो धर्मो नास्ति मन्त्रो हावैष्णवः ॥ नास्ति विष्णोः परं सत्यं नास्ति विष्णोः परो जपः नास्ति विष्णोः परं ध्यानं नास्ति विष्णोः परा गतिः ॥ किं तस्य बहुभिर्मन्त्रैः शास्त्रैः किं बहुविस्तरैः । वाजपेयसहस्रैर्वा भक्तिर्यस्य जनार्दने ॥ सर्वतीर्थमयो विष्णुः सर्वशास्त्रमयः प्रभुः । सर्वक्रतुमयो विष्णुः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ( ७२ । ३१३ – ३१६) अहो यत महत्कष्टं समस्तसुखदे हरौ विद्यमानेऽपि देवेश मूढाः क्लिश्यन्ति संसृतौ ॥ ( ७२ । ३१८)
कामाद्यासक्तचित्तत्वात्किन्तु सर्वेश्वर
प्रभो। त्वन्मयत्वात्प्रमादाद्वा शक्रोमि पठितुं न चेत् ॥ विष्णोः सहस्त्रनामैतत्प्रत्यहं वृषभध्वज। नामैकेन तु येन स्वात्तत्फलं ब्रूहि मे ॐ राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत्तुल्ये $ ब्राह्मणा वा क्षत्रिया या वैश्या या गिरिकन्यके। शूद्रा वाथ विशेषेण धनधान्यसमायुक्ता यान्ति विष्णोः परं पदम् ।
संप०पु० २४
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प्रभो ।। ७२ । ३३३-३३४) वरानने ।। ७२ । ३३५)
रामनाम
पठन्त्यनुदिनं यदि ॥
(७३|१-३)
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अर्चयस्थ हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पद्मपुराण
है, उसे कोटि यज्ञोंकी अपेक्षा भी अधिक फल देनेवाली नहीं प्राप्त होते। जो लोग भगवान् केशवके इस समझना चाहिये। पार्वती ! जो द्विज रास्ता चलते हुए भी माहात्म्यका श्रवण करते हैं, वे मनुष्योंमें श्रेष्ठ, पवित्र एवं श्रीविष्णुसहस्त्रनामका पाठ करते हैं, उन्हें मार्गजनित दोष पुण्यस्वरूप हैं।
गृहस्थ-आश्रमकी प्रशंसा तथा दान-धर्मकी महिमा
श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! सुनो, अब मैं गृहस्थाश्रम परम पवित्र है। घर सदा तीर्थके समान धर्मके उत्तम माहात्म्यका वर्णन करूँगा, जिसका श्रवण पावन है। इस पवित्र गृहस्थाश्रममें रहकर विशेषरूपसे करनेसे इस पथ्वीपर फिर कभी जन्म नहीं होता। धर्मसे दान देना चाहिये। यहाँ देवताओंका पूजन होता है, अर्थ, काम और मोक्ष-तीनोंकी प्राप्ति होती है; अतः अतिथियोंको भोजन दिया जाता है और [थके-माद] जो धर्मके लिये चेष्टा करता है, वही विशेषरूपसे विद्वान् राहगीरोंको ठहरनेका स्थान मिलता है। अतः गृहस्थाश्रम माना गया है।* जो कभी कुत्सित कर्ममें प्रवृत्त नहीं परम धन्य है। ऐसे गृहस्थाश्रममें रहकर जो लोग होता, वह घरपर भी पाँचों इन्द्रियोंका संयमरूप तप कर ब्राह्मणोकी पूजा करते हैं, उन्हें आयु, धन और संतानकी सकता है। जिसकी आसक्ति दूर हो गयी है, उसके लिये कभी कमी नहीं होती। घर भी तपोवनके ही समान है; अतः गृहस्थाश्रमको स्वधर्म शुभ समय आनेपर चन्द्रदेवकी पूजा करके नित्यबताया गया है। गिरिराजकिशोरी ! जिन्होंने अपनी नैमित्तिक कोका अनुष्ठान करनेके पशात् अपनी शक्तिके इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, उनके लिये इस गृहस्थ अनुसार दान देना चाहिये । दानसे मनुष्य निस्सन्देह अपने आश्रमको पार करना कठिन है; वे इस शुभ एवं श्रेष्ठतम पापोंका नाश कर डालता है। दानके प्रभावसे इस लोकमें आश्रमका विनाश कर डालते है। ब्रह्मा आदि देवताओंने अभीष्ट भोगोंका उपभोग करके मनुष्य सनातन मनीषी पुरुषोंके लिये गृहस्थ-धर्मको बहुत उत्तम बताया श्रीविष्णुको प्राप्त होता है। जो अभक्ष्य-भक्षणमें प्रवृत्त है। साधु पुरुष वनमें तपस्या करके जब भूखसे पीड़ित रहनेवाला, गर्भस्थ बालककी हत्या करनेवाला, गुरुहोता है, तब सदा अन्नदाता गृहस्थके ही घर आता है। पत्नीके साथ सम्भोग करनेवाला तथा झूठ बोलनेवाला है, वह गृहस्थ जब भक्तिपूर्वक उस भूखे अतिथिको अन्न ये सभी नीच योनियोंमें जन्म लेते हैं। जो यज्ञ करानेके देता है तो उसकी तपस्यामें हिस्सा बँटा लेता है। अतः योग्य नहीं है ऐसे मनुष्यसे जो यज्ञ कराता, लोकनिन्दित मनुष्य समस्त आश्रमोंमें श्रेष्ठ इस गृहस्थाश्रमका सदा पुरुषसे याचना करता, सदा कोपसे युक्त रहता, पालन करता है और इसी मानवोचित भोगोंका उपभोग साधुओंको पीड़ा देता, विश्वासघात करता, अपवित्र रहता करके अन्तमें स्वर्गको जाता है—इसमें तनिक भी और धर्मको निन्दा करता है-इन पापोंसे युक्त होनेपर सन्देह नहीं है। देवि ! सदा गृहस्थ-धर्मका पालन मनुष्यको आयु शीघ्र नष्ट हो जाती है, ऐसा जानकर [पापका करनेवाले मनुष्योंके पास पाप कैसे आ सकता है। सर्वथा त्याग करके] विशेषरूपसे दान करना उचित है।
* धादर्थं च कार्म च मोक्षं च त्रितयं लभेत् । तस्माद्धर्म समौहेत विद्वान् स बहुधा स्मृतः ॥ (७५ । २) + गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपस्लाकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते । निवृत्तरागस्य तपोवन गृह गृहाश्रमोऽतो गदितः स्वधर्मः ।। (७५। ८) + गृहाश्रमः पुण्यतमः सर्वदा सीर्थवद्गृहम् । अस्मिन् गृहाश्रमे पुण्ये दान देव विशेषतः॥ --
देवानां पूजनं यत्र अतिथीनां तु भोजनम् । पथिकाना च शरणमतो धन्यतमो मतः ।। (७५ । १२-१३)
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उत्तरखण्ड ] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
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गण्डकी नदीके जलका दर्शन करनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जातिके मनुष्य—सभी निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं; विशेषतः पापियोंके लिये तो यह त्रिवेणीके समान पुण्यमयी है। जहाँ ब्रह्महत्यारेकी भी मुक्ति हो जाती है, वहाँ औरोंके लिये क्या कहना है ?
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गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदैहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! अब मैं गण्डकी नदीके माहात्म्यका विधिपूर्वक वर्णन करूंगा। पार्वती ! गङ्गाका जैसा माहात्म्य है, वैसा ही गण्डकी नदीका भी बताया गया है। जहाँसे नाना प्रकारकी शालग्राम शिला प्रकट होती है, उस गण्डकी नदीकी महिमाका बड़े-बड़े मुनियोंने वर्णन किया है। अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज और जरायुज- सभी प्राणी उसके दर्शनमात्रसे पवित्र हो जाते हैं। महानदी गण्डकी उत्तरमें प्रकट हुई है। गिरिजे! वह स्मरण करनेपर निश्चय ही सब पापका नाश कर देती है। वहाँ कल्याण प्रदान करनेवाले भगवान् नारायण सदा विद्यमान रहते हैं, ऋषियोंका भी वहाँ निवास है तथा सम्पूर्ण देवता, रुद्र, नाग और यक्ष विशेषरूपसे वहाँ रहा करते हैं। उस स्थलपर भगवान्की अनेक रूपवाली और सुखदायिनी चौबीस अवतारोंकी मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। एक मत्स्यरूप है, दूसरी कच्छपरूप इसी प्रकार वाराह, नृसिंह और वामनकी भी कल्याणदायिनी मूर्तियाँ हैं। श्रीराम, परशुराम तथा श्रीकृष्णकी भी मोक्षदायिनी मूर्ति देखी जाती है। श्रीविष्णुनामसे प्रसिद्ध उस स्थलपर उपर्युक्त मूर्तियोंके सिवा बुद्धकी मूर्ति भी बतायी गयी है। कल्कि और महर्षि कपिलकी भी पुण्यमयी मूर्ति उपलब्ध होती है, इनके सिवा और भी भाँति-भाँतिके आकारवाली बहुत-सी मूर्तियाँ देखी जाती हैं। उन सबके अनेक रूप हैं और उनकी संख्या भी बहुत है। वह गण्डकी नामकी गङ्गा परम पुण्यमयी तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली है। उस भूमिपर आज भी मेरे साथ भगवान् हृषीकेश नियमपूर्वक निवास करते हैं, उसके जलका स्पर्श करनेमात्र से मनुष्य भ्रूणहत्या, बालहत्या और गोहत्या आदि समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।
पार्वती! मैं सदा हर समय वहाँ जाता रहता हूँ; वह तीर्थोंमें तीर्थराज है— यह बात ब्रह्माजीने कही थी। मुनियोंने वहाँ खान और दानका विधान किया है। भगवान् विष्णुद्वारा पूर्वकालमें निर्मित हुआ वह क्षेत्र महान् से महान् है। वह वैष्णव पुरुषोंको उत्तम गति प्रदान करनेवाला और परम पावन माना गया है। देवि ! इस संसारमें मनुष्यका जन्म सदा दुर्लभ है; उसमें भी गण्डकी नदीका तीर्थ और वहाँ भी श्रीविष्णुक्षेत्र अत्यन्त दुर्लभ है। अतः श्रेष्ठ द्विजोंको आषाढ़ मासमें वहाँकी यात्रा करनी चाहिये। वरानने! मैं बारंबार कहता हूँ कि गण्डकीके समान कोई तीर्थ, द्वादशीके तुल्य कोई व्रत और श्रीविष्णुसे भिन्न कोई देवता नहीं है। जो नरश्रेष्ठ गण्डकी नदीका माहात्म्य श्रवण करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुधामको जाते हैं। महादेव उवाच -
शृणु सुन्दरि वक्ष्यामि स्तोत्रं चाभ्युदयं ततः । यच्छ्रुत्वा मुच्यते पापी ब्रह्महा नात्र संशयः ॥ १ ॥ धाता वै नारदं प्राह तदहं तु ब्रवीमि ते । तमुवाच ततो देवः स्वयम्भूरमितद्युतिः ॥ २ ॥ प्रगृह्य रुचिरं बाहुं स्मारये चौध्वदेहिकम् ।
महादेवजी कहते हैं—सुन्दरी! सुनो, अब मैं अभ्युदयकारी स्तोत्रका वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर ब्रह्महत्यारा भी निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। ब्रह्माजीने देवर्षि नारदसे इस स्तोत्रका वर्णन किया था, वही मैं तुम्हें बताता हूँ। [पूर्वकालमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी जब रावणका वध कर चुके, उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति करनेके लिये आये उसी अवसरपर] अमिततेजस्वी भगवान् ब्रह्माने श्रीरघुनाथजीकी सुन्दर बाँह हाथमें लेकर जो उनकी स्तुति की थी, वह 'और्ध्वदैहिक स्तोत्र' के नामसे प्रसिद्ध है। आज मैं उसीको स्मरण करके तुमसे कहता हूँ।
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भवान्नारायणः श्रीमान् देवश्चक्रायुधो हरिः ॥ ३ ॥ शार्ङ्गधारी हृषीकेशः पुराणपुरुषोत्तमः । अजितः खड्गभिजिष्णुः कृष्णश्चैव सनातनः ॥ ४ ॥
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• अर्जयस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पयपुराण
एकङ्गो वराहस्त्वं भूतभव्यभवात्मकः। ऋग्वेद और सामवेदमें आप ही सबसे श्रेष्ठ बताये गये अक्षरं ब्रह्म सत्यं तु आदौ चान्ते च राघव ॥ ५॥ हैं। आप सैकड़ो विधिवाक्यरूप जिलाओसे युक्त लोकानां त्वं परो धमों विपक्सेनश्चतुर्भुजः । वेदस्वरूप महान् वृषभ हैं। आप ही यज्ञ, आप ही सेनानी रक्षणस्त्वं च वैकुण्ठस्त्वं जगत्प्रभो ॥ ६॥ वषट्कार और आप ही ॐकार हैं। आप शत्रुओंको ताप
श्रीब्रह्माजी बोले-श्रीरघुनन्दन ! आप समस्त देनेवाले तथा सैकड़ों धनुष धारण करनेवाले हैं। आप जीवोंके आश्रयभूत नारायण, लक्ष्मीसे युक्त, स्वयंप्रकाश ही वसु, वसुओंके भी पूर्ववर्ती एवं प्रजापति हैं। एवं सुदर्शन नामक चक्र धारण करनेवाले श्रीहरि हैं । शाङ्ग त्रयाणामपि लोकानामादिकर्ता स्वयंप्रभुः। नामक धनुषको धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आप ही स्टाणामष्टमो रुद्रः साध्यानामपि पचमः ॥ १०॥ इन्द्रियोंके स्वामी एवं पुराणप्रतिपादित पुरुषोत्तम हैं। आप अश्विनौ चापि कौँ ते सूर्यचन्द्रौ च चक्षुषी। कभी किसीसे भी परास्त नहीं होते । शत्रुओंकी तलवारोंको अन्ते चादौ च मध्ये च दृश्यसे स्वं परन्तप ॥११॥ टूक-टूक करनेवाले, विजयी और सदा एकरस रहने- प्रभवो निधनं चासि न विदुः को भवानिति । वाले-सनातन देवता सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण भी दृश्यसे सर्वलोकेषु गोषु च ब्राह्मणेषु च ॥ १२ ॥ आप ही हैं। आप एक दाँतवाले भगवान् वराह हैं। भूत, दिक्षु सर्वासु गगने पर्वतेषु गुहासु च। भविष्य और वर्तमान-तीनों काल आपके ही रूप हैं। सहस्रनयनः श्रीमाशतशीर्षः सहस्रपात् ॥ १३ ॥ श्रीरघुनन्दन ! इस विश्वके आदि, मध्य और अन्तमें जो आप तीनों लोकोंके आदिकर्ता और स्वयं ही अपने सत्यस्वरूप अविनाशी परब्रह्म स्थित है, वह आप ही हैं। प्रभु (परम स्वतन्त्र) हैं। आप रुद्रोंमें आठवें रुद्र और आप ही लोकोंके परम धर्म हैं। आपको युद्धके लिये तैयार साध्योंमें पांचवें साध्य हैं। दोनों अश्विनीकुमार आपके होते देख दैत्योंकी सेना दारों ओर भाग खड़ी होती है, कान तथा सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। परंतप ! आप ही इसीलिये आप विश्वक्सेन कहलाते है। आप ही चार भुजा आदि, मध्य और अन्तमे दृष्टिगोचर होते हैं। सबकी धारण करनेवाले श्रीविष्ण हैं।...
उत्पत्ति और लयके स्थान भी आप ही हैं। आप कौन प्रभवश्चाव्ययस्त्वं च उपेन्द्रो मधुसूदनः। हैं-इस बातको ठीक-ठौक कोई भी नहीं जानते। पश्चिगों धृतार्चिस्त्वं पद्मनाभो रणान्तकृत् ॥७॥ सम्पूर्ण लोकोमे, गौओंमें और ब्राह्मणोंमें आप हो शरण्यं शरणं च त्वामाहुः सेन्द्रा महर्षयः। दिखायी देते हैं तथा समस्त दिशाओंमें, आकाशमें, ऋक्सामश्रेष्ठो वेदात्मा शतजिलो महर्षभः ॥ ८॥ पर्वतोंमें और गुफाओंमें भी आपकी ही सत्ता है। आप त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोंकारः परन्तपः। शोभासे सम्पन्न है। आपके सहस्रों नेत्र, सैकड़ों मस्तक शतधन्वा वसुः पूर्व वसूनां त्वं प्रजापतिः ॥९॥ और सहस्रों चरण हैं।
आप सबकी उत्पत्तिके स्थान और अविकारी हैं। त्वं भारयसि भूतानि वसुधां च सपर्वताम् । इन्द्रके छोटे भाई वामन एवं मधु दैल्यके प्राणहन्ता अन्तःपृथिव्यां सलिले दृश्यसे त्वं महोरगः ॥ १४ ॥ श्रीविष्णु भी आप ही हैं। आप अदिति या देवकीके त्रील्लोकान्धारयन् राम देवगन्धर्वदानवान् । गर्भमें अवतीर्ण होनेके कारण पृश्निगर्भ कहलाते हैं। आप सम्पूर्ण प्राणियोंको तथा पर्वतोसहित पृथ्वीको आपने महान् तेज धारण कर रखा है। आपकी ही भी धारण करते हैं। पृथ्वीके भीतर पाताललोकमें और नाभिसे विराट् विश्वकी उत्पत्तिका कारणभूत कमल प्रकट क्षीरसागरके जलमें आप ही महान् सर्प-शेषनागके हुआ था। आप शान्तस्वरूप होनेके कारण युद्धका अन्त रूपमें दृष्टिगोचर होते हैं। राम ! आप उस स्वरूपसे करनेवाले हैं। इन्द्र आदि देवता तथा सम्पूर्ण महर्षिगण देवता, गन्धर्व और दानवोंके सहित तीनों लोकोंको आपको ही सबका आश्रय एवं शरणदाता कहते हैं। धारण करते हैं।
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उत्तरखण्ड ] •
PAARON.
गण्डकी नदीका माहात्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
७२७
अहं ते हृदयं राम जिह्वा देवी सरस्वती ।। १५ ।। यत्परं श्रूयते ज्योतिर्यत्परं श्रूयते परम् ॥ २२ ॥ देवा रोमाणि गात्रेषु निर्मितास्ते स्वमायया । यत्परं परतश्चैव परमात्मेति कथ्यते । निमेषस्ते स्मृता रात्रिरुन्मेषो दिवसस्तथा ।। १६ ।। परो मन्त्रः परं तेजस्त्वमेव हि निगद्यसे ॥ २३ ॥ जो परम ज्योतिःस्वरूप तत्त्व सुना जाता है, जो परम उत्कृष्ट परब्रह्मके नामसे श्रवणगोचर होता है, जिसे परात्पर परमात्मा कहा जाता है तथा जो परम मन्त्र और परम तेज है, उसके रूपमें आपके ही स्वरूपका प्रतिपादन किया जाता है।
श्रीराम ! मैं (ब्रह्मा) आपका हृदय हूँ, सरस्वती देवी जिल्हा हैं तथा आपके द्वारा अपनी मायासे उत्पन्न किये हुए देवता आपके अङ्गोंमें रोम हैं। आपका आँख मूँदना रात्रि और आँख खोलना दिन है। संस्कारस्तेऽभवद्देहो नैतदस्ति विना त्वया । जगत्सर्वं शरीरं ते स्थैर्यं च वसुधातलम् ॥ १७ ॥ हव्यं कव्यं पवित्रं च प्राप्तिः स्वर्गापवर्गयोः । अप्रिः कोपः प्रसादस्ते शेषः श्रीमांश्च लक्ष्मणः । स्थित्युत्पत्तिविनाशांस्ते त्वामाहुः प्रकृतेः परम् ॥ २४ ॥ यज्ञश्च यजमानश्च होता चाध्वर्युरेव च । भोक्ता यज्ञफलानां च त्वं वै वेदैश्च गीयसे ।। २५ ।।
शरीर और संस्कारकी उत्पत्ति आपसे ही हुई है। आपके बिना इस जगत् की स्थिति नहीं है। सम्पूर्ण विश्व आपका शरीर है, पृथ्वी आपकी स्थिरता है, अग्नि आपका कोप है और शेषावतार श्रीमान् लक्ष्मण आपके प्रसाद हैं। त्वया लोकास्त्रयः क्रान्ताः पुरा स्वैर्विक्रमैस्त्रिभिः ॥ १८ ॥ त्वयेन्द्रश्च कृतो राजा बलिर्बद्धो महासुरः । लोकान् संहत्य कालस्त्वं निवेश्यात्मनि केवलम् ॥ १९ ॥ होता, अध्वर्यु तथा यज्ञफलोंके भोक्ता कहे जाते हैं। सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः । वधार्थं रावणस्य त्वं प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ॥ २६ ॥
हव्य (यज्ञ), कव्य (श्राद्ध), पवित्र, स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति, संसारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहारये सब आपके ही कार्य हैं। ज्ञानी पुरुष आपको प्रकृतिसे पर बतलाते हैं। वेदोंके द्वारा आप ही यज्ञ, यजमान,
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करोष्येकार्णवं घोरं दृश्यादृश्ये च नान्यथा ।
पूर्वकालमें वामनरूप धारण कर आपने अपने तीन पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे तथा महान् असुर बलिको बाँधकर इन्द्रको स्वर्गका राजा बनाया था। आप ही कालरूपसे समस्त लोकोंका संहार करके अपने भीतर लीनकर सब ओर केवल भयङ्कर एकार्णवका दृश्य उपस्थित करते हैं। उस समय दृश्य और अदृश्यमें कुछ भेद नहीं रह जाता।'
सीता साक्षात् लक्ष्मी हैं और आप स्वयंप्रकाश विष्णु, कृष्ण एवं प्रजापति हैं। आपने रावणका वध करनेके लिये ही मानव शरीरमें प्रवेश किया है। तदिदं च त्वया कार्य कृतं कर्मभृतां वर । निहतो रावणो राम प्रहृष्टा देवताः कृताः ॥ २७ ॥ कर्म करनेवालोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ! आपने
भयदः सर्वभूतानां हिरण्यकशिपुर्हतः ।
त्वया सिंहवपुः कृत्वा परमं दिव्यमद्भुतम् ॥ २० ॥ हमारा यह कार्य पूरा कर दिया। रावण मारा गया, इससे सम्पूर्ण देवताओंको आपने बहुत प्रसन्न कर दिया है। अमोघं देव वीर्य ते नमोऽमोघपराक्रम । अमोघं दर्शनं राम अमोघस्तव संस्तवः ॥ २८ ॥
आपने नृसिंहावतारके समय परम अद्भुत एवं दिव्य सिंहका शरीर धारण करके समस्त प्राणियोंको भय देनेवाले हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध किया था । त्वमश्चवदनो भूत्वा पातालतलमाश्रितः ॥ २१ ॥ संहतं परमं दिव्यं रहस्यं वै पुनः पुनः ।
आपने ही हयग्रीव अवतार धारण करके पातालके भीतर प्रवेशकर दैत्योंद्वारा अपहरण किये हुए वेदोंके परम रहस्य और यज्ञ-यागादिके प्रकरणोंको पुनः प्राप्त किया।
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देव ! आपका बल अमोघ है अचूक पराक्रम कर दिखानेवाले श्रीराम ! आपको नमस्कार है। राम ! आपके दर्शन और स्तवन भी अमोघ हैं। अमोघास्ते भविष्यन्ति भक्तिमन्तो नरा भुवि । च त्वां देव संभक्ताः पुराणं पुरुषोत्तमम् ॥ देव ! जो मनुष्य इस पृथ्वीपर आप पुराण
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२९ ॥
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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पुरुषोत्तमका भलीभाँति भजन करते हुए निरन्तर आपके चरणोंमें भक्ति रखेंगे, वे जीवनमें कभी असफल न होंगे। इममा स्तवं पुण्यमितिहासं पुरातनम् । ये नराः कीर्तयिष्यन्ति नास्ति तेषां पराभवः ॥ ३० ॥ * जो लोग परम ऋषि ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए इस पुरातन इतिहासरूप पुण्यमय स्तोत्रका पाठ करेंगे, उनका कभी पराभव नहीं होगा।
यह महात्मा श्रीरघुनाथजीका स्तोत्र है, जो सब स्तोत्रोंमें श्रेष्ठ है। जो प्रतिदिन तीनों समय इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह महापातकी होनेपर भी मुक्त हो जाता है। श्रेष्ठ द्विजोंको चाहिये कि वे संध्याके समय विशेषतः श्राद्धके अवसरपर भक्तिभावसे मन लगाकर प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करें। यह परम गोपनीय स्तोत्र है। इसे कहीं और कभी भी अनधिकारी व्यक्तिसे नहीं कहना चाहिये। इसके पाठसे मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर
★ ऋषिपञ्चमी व्रतकी कथा, विधि और महिमा
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महादेवजी कहते हैं—पार्वती ! एक समयकी बात है, मैंने जगत्के स्वामी भगवान् श्रीविष्णुसे पूछा था - भगवन् ! सब व्रतोंमें उत्तम व्रत कौन है, जो पुत्र पौत्रकी वृद्धि करनेवाला और सुख-सौभाग्यको देनेवाला हो ? उस समय उन्होंने जो कुछ उत्तर दिया, वह सब मैं तुम्हें कहता हूँ; सुनो।
श्रीविष्णु बोले- महाबाहु शिव! पूर्वकालमें देवशर्मा नामके एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् थे और सदा स्वाध्यायमें ही लगे रहते थे। प्रतिदिन अग्रिहोत्र करते तथा सदा अध्ययन-अध्यापन, यजनयाजन एवं दान प्रतिग्रहरूप छः कर्मोंमें प्रवृत्त रहते थे। सभी वर्णोंकि लोगोंमें उनका बड़ा मान था। वे पुत्र, पशु और बन्धु बान्धव - सबसे सम्पन्न थे। ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ देवशर्माकी गृहिणीका नाम भगा था। वे भादोंके शुरूपक्षमें पञ्चमी तिथि आनेपर तपस्या
पद्मपुराण उत्तरखण्डका ७७ अध्याय ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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लेता है। निश्चय ही उसे सनातन गति प्राप्त होती है। नरश्रेष्ठ ब्राह्मणोंको श्राद्धमें पहले तथा पिण्ड- पूजाके बाद भी इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये; इससे श्राद्ध अक्षय हो जाता है। यह परम पवित्र स्तोत्र मनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेवाला है जो एकाग्र चित्तसे इस स्तोत्रको लिखकर अपने घरमें रखता है, उसकी आयु, सम्पत्ति तथा बलकी प्रतिदिन वृद्धि होती है। जो बुद्धिमान् पुरुष कभी इस स्तोत्रको लिखकर ब्राह्मणको देता है, उसके पूर्वज मुक्त होकर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं। चारों वेदोंका पाठ करनेसे जो फल होता है, वही फल मनुष्य इस स्तोत्रका पाठ और जप करके पा लेता है। अतः भक्तिमान् पुरुषको यत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये। इसके पढ़नेसे मनुष्य सब कुछ पाता है और सुखपूर्वक रहकर उत्तरोत्तर उन्नतिको प्राप्त होता है।
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सज
( व्रत पालन) के द्वारा इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए पिताका एकोद्दिष्ट श्राद्ध किया करते थे। पहले दिन रात्रिमें सुख और सौभाग्य प्रदान करनेवाले ब्राह्मणोंको निमन्त्रण देते और निर्मल प्रभातकाल आनेपर दूसरेदूसरे नये बर्तन मँगाते तथा उन सभी बर्तनोंमें अपनी स्त्रीके द्वारा पाक तैयार कराते थे। वह पाक अठारह रसोंसे युक्त एवं पितरोंको संतोष प्रदान करनेवाला होता था। पाक तैयार होनेपर वे पृथक् पृथक् ब्राह्मणोंको बुलावा भेजकर बुलवाते थे।
एक बार उक्त समयपर निमन्त्रण पाकर समस्त वेदपाठी ब्राह्मण दोपहरीमें देवशर्माके घर उपस्थित हुए। विप्रवर देवशमनि अर्घ्य पाद्यादि निवेदन करके विधिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया। फिर घरके भीतर जानेपर सबको बैठनेके लिये आसन दिया और विशेषतः मिष्टात्रके साथ उत्तम अन्न उन्हें भोजन करनेके
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उत्तरखण्ड ]
.ऋषिपञ्चमी-व्रतकी कथा, विधि और महिमा .
लिये परोसा; साथ ही विधिपूर्वक पिण्डदानकी पूर्ति इसको खाते ही मर जायेंगे। यो विचारकर मैं स्वयं करनेवाला श्राद्ध भी किया। इसके बाद पिताका चिन्तन उस दूधको पीने लगी। इतनेमे बहूकी दृष्टि मुझपर पड़ करते हुए उन्होंने उन ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके वस्त्र, गयी। उसने मुझे खूब मारा। मेरा अङ्ग-भङ्ग हो गया दक्षिणा और ताम्बूल निवेदन किये। फिर उन सबको है। इसीसे मैं लड़खड़ाती हुई चल रही हूँ। क्या करूँ, विदा किया। वे सभी ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले बहुत दुःखी हूँ।' गये। तत्पश्चात् अपने सगोती, बन्धु-बान्धव तथा और कुतियाके दुःखका अनुभव करके बैलने भी उससे भी जो लोग भूखे थे, उन सबको ब्राह्मणने विधिपूर्वक कहा-'अब मैं अपने दुःखका कारण बताता हूँ, सुनो; भोजन दिया। इस प्रकार श्राद्धका कार्य समाप्त होनेपर मैं पूर्वजन्ममें इस ब्राह्मणका साक्षात् पिता था। आज ब्राह्मण जब कुटीके दरवाजेपर बैठे, उस समय उनके इसने ब्राह्मणोंको भोजन कराया और प्रचुर अन्नका दान घरको कुतिया और बैल दोनों परस्पर कुछ यातचीत किया है किन्तु मेरे आगे इसने घास और जलतक नहीं करने लगे। देवि ! बुद्धिमान् ब्राह्मणने उन दोनोंकी बातें रखा। इसी दुःखसे मुझे आज बहुत कष्ट हुआ है। उन सुनी और समझीं। फिर मन-ही-मन वे इस प्रकार सोचने दोनोंका यह कथानक सुनकर मुझे रातभर नींद नहीं लगे-'ये साक्षात् मेरे पिता है, जो मेरे ही घरके पशु आयी। मुनिश्रेष्ठ ! मुझे तभीसे बड़ी चिन्ता हो रही है। हुए हैं तथा यह भी साक्षात् मेरी माता है, जो दैवयोगसे मैं वेदका स्वाध्याय करनेवाला है. वैदिक काँक कुतिया हो गयी है। अब मैं इनके उद्धारके लिये निश्चित अनुष्ठानमें कुशल हैं। फिर भी मेरे माता और पिताको रूपसे क्या करूं?' इसी विचारमे पड़े-पड़े ब्राह्मणको महान् दुःख सहन करना पड़ रहा है। इसके लिये मैं क्या रातभर नींद नहीं आयी। वे भगवान् विश्वेश्वरका स्मरण करूं? यही सोचता-विचारता आपके पास आया हूँ। करते रहे। प्रातःकाल होनेपर वे ऋषियोंके समीप गये। आप ही मेरा कष्ट दूर कीजिये। वहाँ वसिष्ठजीने उनका भलीभाँति स्वागत किया। ऋषि बोले-ब्रह्मन् ! उन दोनोंने पूर्वजन्ममें जो
वसिष्ठजी बोले-ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने आनेका कर्म किया है, उसे सुनो-ये तुम्हारे पिता परम सुन्दर कारण बताओ।
कुण्डिननगरमें श्रेष्ठ ब्राह्मण रहे हैं। एक समय भादोंके ब्राह्मण बोले-मुनिवर ! आज मेरा जन्म सफल महीने में पञ्चमी तिथि आयी थी, तुम्हारे पिता अपने हुआ तथा आज मेरी सम्पूर्ण क्रियाएँ सफल हो गयीं; पिताके श्राद्ध आदिमें लगे थे, इसलिये उन्हें पञ्चमीके क्योंकि इस समय मुझे आपका दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुआ प्रतका ध्यान न रहा। उनके पिताकी क्षयाह तिथि थी। है। अब मेरा समाचार सुनिये। आज मैंने शास्त्रोक्त उस दिन तुम्हारी माता रजस्वला हो गयी थी, तो भी उसने विधिसे श्राद्ध किया, ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा ब्राह्मणोंके लिये सारा भोजन स्वयं ही तैयार किया। समस्त कुटुम्बके लोगोंको भी भोजन दिया है। सबके रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डाली, दूसरे दिन भोजनके पश्चात् एक कुतिया आयी और मेरे घरमें जहाँ ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिनके समान अपवित्र एक बैल रहता है, वहाँ जा उसे पतिरूपसे सम्बोधित बतायी गयी है; चौथे दिन स्नानके बाद उसकी शुद्धि करके इस प्रकार कहने लगी- 'स्वामिन् ! आज जो होती है । तुम्हारी माताने इसका विचार नहीं किया, अतः घटना घटी है, उसे सुन लीजिये। इस घरमें जो दूधका उसी पापसे उसको अपने ही घरको कुतिया होना पड़ा है वर्तन रखा हुआ था, उसे साँपने अपना जहर उगलकर तथा तुम्हारे पिता भी इसी कर्मसे बैल हुए हैं। दूषित कर दिया। यह मैंने अपनी आँखों देखा था। ब्राह्मणने कहा-उत्तम व्रतका पालन करनेवाले देखकर मेरे मनमें बड़ी चिन्ता हुई। सोचने लगी-इस मुने ! मुझे कोई ऐसा व्रत, दान, यज्ञ और तीर्थ बतलाइये, दूधसे जब भोजन तैयार होगा, उस समय सव ब्राह्मण जिसके सेवनसे मेरे माता-पिताकी मुक्ति हो जाय ।
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. अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
. ऋषि बोले-भादोंके शुक्लपक्षमें जो पञ्चमी पुलस्त्यः पुलहश्चैव क्रतुः प्राचेतसस्तथा। आती है, उसका नाम ऋषिपञ्चमी है। उस दिन नदी, वसिष्ठमारिचात्रेया अर्घ्य गृहन्तु वो नमः ॥ कुएँ, पोखरे अथवा ब्राहाणके घरपर जाकर स्रान करे। फिर अपने घर आकर गोबरसे लीपकर मण्डल बनाये; 'ऋषिगण सदा मेरे व्रतको पूर्ण करनेवाले हों। वे उसमें कलशकी स्थापना करे। कलशके ऊपर एक पात्र मेरी दी हुई पूजा स्वीकार करें। सब ऋषियोंको मेरा रखकर उसे तिनीके चावलसे भर दे। उस पात्रमें नमस्कार है। पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्राचेतस, वसिष्ठ, यज्ञोपवीत, सुवर्ण तथा फलके साथ ही सुख और मारीच और आत्रेय-ये मेरा अर्घ्य ग्रहण करें। आप सौभाग्य देनेवाले सात ऋषियोंको स्थापना करे । 'ऋषि- सब ऋषियोंको मेरा प्रणाम है।' पञ्चमी' के व्रतमें स्थित हुए पुरुषोंको उन सबका इस प्रकार मनोरम धूप-दीप आदिके द्वारा ऋषियोंकी आवाहन करके पूजन करना चाहिये । तिनीके चावलका पूजा करनी चाहिये । इस व्रतके प्रभावसे पितरोंकी मुक्ति ही नैवेद्य लगाये और उसीका भोजन करे। केवल एक होती है। वत्स ! पूर्वकर्मके परिणामसे अथवा रजके समय भोजन करके व्रत करना चाहिये । उस दिन परम संसर्गदोषसे जो कष्ट होता है, उससे इस व्रतका अनुष्ठान भक्तिके साथ मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए विधिपूर्वक करनेपर निःसंदेह छुटकारा मिल जाता है। ऋषियोंका पूजन करना उचित है। पूजनके समय महादेवजी कहते है-यह सुनकर देवशर्माने ब्राह्मणको दक्षिणा और घीके साथ विधिपूर्वक भोजन- पिता-माताकी मुक्तिके लिये 'ऋषिपञ्चमी' व्रतका सामग्रीका दान देना चाहिये तथा समस्त ऋषियोंको अनुष्ठान किया। उस व्रतके प्रभावसे वे दोनों पति-पत्नी प्रसन्नता हो इस दानका उद्देश्य होना चाहिये। फिर पुत्रको आशीर्वाद देते हुए मुक्तिमार्गसे चले गये। विधिपूर्वक माहात्म्य-कथा सुनकर ऋषियोंकी प्रदक्षिणा 'ऋषिपञ्चमी' का यह पवित्र व्रत ब्राह्मणके लिये बताया करे और सबको पृथक्-पृथक् धूप-दीप तथा नैवेद्य गया, किन्तु जो नरश्रेष्ठ इसका अनुष्ठान करते हैं, वे सभी निवेदन करके अयं प्रदान करे। अर्घ्यका मन्त्र इस पुण्यके भागी होते हैं। जो श्रेष्ठ पुरुष इस परम उत्तम प्रकार है
ऋषि-व्रतका पालन करते है, वे इस लोकमें प्रचुर ऋषयः सन्तु मे नित्यं व्रतसंपूर्तिकारिणः। भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् श्रीविष्णुके पूर्जा ग्रहन्तु महत्तामृषिभ्योऽस्तु नमो नमः ।। सनातन लोकको प्राप्त होते हैं।
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न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
पार्वती बोलीं-भगवन् ! सभी प्राणी विष और संतुष्ट कर लिया है, वे कभी रोगसे पीड़ित नहीं होते। रोग आदिके उपद्रवसे प्रस्त तथा दुष्ट ग्रहोंसे हर समय जिन्होंने कभी व्रत, पुण्य, दान, तप, तीर्थ-सेवन, देवपीड़ित रहते हैं। सुरश्रेष्ठ ! जिस उपायका अवलम्बन पूजन तथा अधिक मात्रामें अन्न-दान नहीं किया है, उन्हीं करनेसे मनुष्योंको अभिचार (मारण-उच्चाटन आदि) लोगोंको सदा रोग और दोषसे पीड़ित समझना चाहिये। तथा कृल्या आदिसे उत्पत्र होनेवाले नाना प्रकारके मनुष्य अपने मनसे आरोग्य तथा उत्तम समृद्धि आदि भयङ्कर रोगोंका शिकार न होना पड़े, उसका मुझसे जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब भगवान् वर्णन कीजिये।
विष्णुकी सेवासे निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। महादेवजी बोले-पार्वती ! जिन लोगोंने व्रत, श्रीमधुसूदनके संतुष्ट हो जानेपर न कभी मानसिक चिन्ता उपवास और नियमोके पालनद्वारा भगवान् विष्णुको सताती है, न रोग होता है, न विष तथा प्रहोंके कष्टमें
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उत्तरखण्ड ]
.न्याससहित अपामार्जननामक स्तोत्र और उसकी महिमा .
बैंधना पड़ता है और न कृत्याके ही स्पर्शका भय रहता अग्रभागमें नरसिंहका, दोनों कानोंमें अर्णवेशय है। श्रीजनार्दनके प्रसन्न होनेपर समस्त दोषोंका नाश हो (समुद्रमें शयन करनेवाले भगवान्) का, दोनों नेत्रोंमें जाता है। सभी ग्रह सदाके लिये शुभ हो जाते हैं तथा पुण्डरीकाक्षका, नेत्रोंके नीचे भूधर (धरणीधर) का, दोनों वह मनुष्य देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष बन जाता है। जो गालोंमें कल्किनाथका, कानोंके मूल भागमें वामनका, सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समान भाव रखता है और अपने गलेकी दोनों हैंसलियोंमें शङ्खधारीका, मुखमें गोविन्दका, प्रति जैसा बर्ताव चाहता है वैसा ही दूसरोंके प्रति भी दाँतोंको पङ्क्तिमें मुकुन्दका, जिह्वामें वाणीपतिका, ठोढ़ीमें करता है, उसने मानो उपवास आदि करके भगवान् श्रीरामका, कण्ठमें वैकुण्ठका, बाहुमूलके निचले भाग मधुसूदनको संतुष्ट कर लिया। ऐसे लोगोंके पास शत्रु (काँख) में बलन (बल नामक दैत्यके मारनेवाले) का, नहीं आते, उन्हें रोग या आभिचारिक कष्ट नहीं होता कंधोंमें कंसघातीका, दोनों भुजाओंमें अज (जन्मरहित) तथा उनके द्वारा कभी पापका कार्य भी नहीं बनता। का, दोनों हाथोंमें शाङ्गपाणिका, हाथके अंगूठेमें जिसने भगवान् विष्णुकी उपासना की है, उसे भगवान्के संकर्षणका, अँगुलियोमे गोपालका, वक्षःस्थलमें चक्र आदि अमोघ अस्त्र सदा सब आपत्तियोंसे बचाते अधोक्षजका, छातीके बीचमें श्रीवत्सका, दोनों स्तनोंमें रहते है।
अनिरुद्धका, उदरमें दामोदरका, नाभिमें पद्मनाभका, . पार्वती बोलीं-भगवन् ! जो लोग भगवान् नाभिके नीचे केशवका, लिङ्गमें धराधरका, गुदामें गोविन्दकी आराधना न करनेके कारण दुःख भोग रहे हैं, गदाग्रजका, कटिमें पीताम्बरधारीका, दोनों जाँघोंमें उन दुःखी मनुष्यों के प्रति सब प्राणियोंमें सनातन मधुटि (मधुसूदन) का, पिंडलियोंमें मुरारिका, दोनों वासुदेवको स्थित देखनेवाले समदशी एवं दयालु घुटनोंमें जनार्दनका, दोनों घुट्ठियोंमें फणीशका, दोनों पुरुषोंका जो कर्तव्य हो, वह मुझे विशेषरूपसे बताइये। पैरोंकी गतिमें त्रिविक्रमका, पैरके अँगूठेमें श्रीपतिका,
महादेवजी बोले-देवेश्वरि ! बतलाता हूँ, पैरके तलवोंमें धरणीधरका, समस्त रोमकूपोंमें एकाग्रचित्त होकर सुनो। यह उपाय रोग, दोष एवं विपक्सेनका, शरीरके मांसमें मत्स्यावतारका, मेदेमें अशुभको हरनेवाला तथा शत्रुजनित आपत्तिका नाश कूर्मावतारका, वसामें वाराहका, सम्पूर्ण हडियोंमें करनेवाला है। विद्वान् पुरुष शिखामें श्रीधरका, शिखाके अच्युतका, मज्जामें द्विजप्रिय (ब्राह्मणोंके प्रेमी) का, शुक्र निचले भागमें भगवान् श्रीकरका, केशोंमें हृषीकेशका, (वीर्य) में श्वेतपतिका, सर्वाङ्गमें यज्ञपुरुषका तथा आत्मामें मस्तकमें परम पुरुष नारायणका, कानके ऊपरी भागमें परमात्माका न्यास करे। इस प्रकार न्यास करके मनुष्य श्रीविष्णुका, ललाटमें जलशायीका, दोनों भौहोंमें साक्षात् नारायण हो जाता है; वह जबतक मुँहसे कुछ श्रीविष्णुका, भौंहोंके मध्य-भागमें श्रीहरिका, नासिकाके योलता नहीं, तबतक विष्णुरूपसे ही स्थित रहता है।*
* तद् यक्ष्यामि सुरश्रेष्ठ समाहितमनाः शृणु। रोगदोषाशुभहरं विद्विडापविनाशनम् ।। शिखायां श्रीधरं न्यस्य शिसाधः श्रीकर तथा । हृषीकेशं तु केशेषु मूनि नारायण परम्॥ ऊर्ध्वोत्रे न्यसेद्विष्णु ललाटे जलशायिनम् । विष्णु वै भ्रयुगे न्यस्य भूमध्ये हरिमेव च ॥ नरसिंह नासिकाये कर्णयोरर्णवेशयम् । चक्षुषोः पुण्डरीकाक्षं तदधो भूधर न्यसेत् ॥ । कपोलपोः कल्किनार्थ वामन कर्णमूलयोः । शालिन शङ्खयोर्यस्य गोविन्द वदने तथा ॥ मुकुन्दै दन्तपतौ तु जिह्वायां बाक्पति तथा । राम हनौ तु विन्यस्य कण्ठे वैकुण्ठमेव च। बलम बाहुमूलाधासयोः कसभातिनम् । अजं भुजदये न्यस्य शाईपाणि करदये। संकर्षण कराटे गोपमङ्गलिपति । वक्षस्यधोक्षजं न्यस्य श्रीवत्सं नस्य मध्यतः ।। स्तनयोरनिरुद्धं च दामोदरमथोदरे । परानाभं तथा नाभौ नाभ्यधश्चापि केशवम् ।।
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ...
[संक्षिप्त पापुराण
शान्ति करनेवाला पुरुष मूलसहित शुद्ध कुशोंको भगवान् वाराहको नमस्कार है। जिसके नखोका स्पर्श लेकर एकाग्रचित्त हो रोगीके सब अलोको झाड़े, वज्रसे भी अधिक तीक्ष्ण और कठोर है, ऐसे दिव्य विशेषतः विष्णुभक्त पुरुष रोग, ग्रह और विषसे पीड़ित सिंहका रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह ! आपको मनुष्यकी अथवा केवल विषसे ही कष्ट पानेवाले नमस्कार है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदसे लक्षित रोगियोंकी इस प्रकार शुभ शान्ति करे। पार्वती ! कुशसे होनेवाले परमात्मन् ! अत्यन्त लघु शरीरवाले कश्यपपुत्र झाड़ते समय सब रोगोंका नाश करनेवाले इस स्तोत्रका वामनका रूप धारण करके भी समूची पृथ्वीको एक ही पाठ करना चाहिये।
पगमें नाप लेनेवाले! आपको बारंबार नमस्कार है। ५. ॐ परमार्थस्वरूप, अन्तर्यामी, महात्मा, रूपहीन बहुत बड़ी दाढ़वाले भगवान् वाराह ! सम्पूर्ण दुःखों और होते हुए भी अनेक रूपधारी तथा व्यापक परमात्माको समस्त पापके फलोको सैद डालिये, रौंद डालिये। पापके नमस्कार है। वाराह, नरसिंह और सुखदायी वामन फलको नष्ट कर डालिये, नष्ट कर डालिये। विकराल भगवान्का ध्यान एवं नमस्कार करके श्रीविष्णुके उपर्युक्त मुख और दाँतोंवाले, नखोंसे उद्दीप्त दिखायी देनेवाले, नामोका अपने अङ्गोंमें न्यास करे । न्यासके पश्चात् इस पीड़ाओंके नाशक भगवान् नृसिंह ! आप अपनी प्रकार कहे-'मैं पापके स्पर्शसे रहित, शुद्ध, व्याधि गर्जनासे इस रोगीके दुःखोंका भञ्जन कौजिये, भञ्जन
और पापोंका अपहरण करनेवाले गोविन्द, पद्मनाभ, कौजिये। इच्छानुसार रूप ग्रहण करके पृथ्वी आदिको वासुदेव और भूधर नामसे प्रसिद्ध भगवान्को नमस्कार धारण करनेवाले भगवान् जनार्दन अपनी ऋक्, यजुः करके जो कुछ कहूँ, वह मेरा सारा वचन सिद्ध हो । तीन और साममयी वाणीद्वारा इस रोगीक सब दुःखोंकी शान्ति पगोंसे त्रिलोकीको नापनेवाले भगवान् त्रिविक्रम, सबके कर दे। एक, दो, तीन या चार दिनका अन्तर देकर हृदयमें रमण करनेवाले राम, वैकुण्ठधामके अधिपति, आनेवाले हलके या भारी ज्वरको, सदा बने रहनेवाले बदरिकाश्रममें तपस्या करनेवाले भगवान् नर, वाराह, ज्वरको, किसी दोषके कारण उत्पन्न हुए ज्वरको, नृसिंह, वामन और उज्ज्वल रूपधारी हयग्रीवको सन्निपातसे होनेवाले तथा आगन्तुक ज्वरको विदीर्ण कर नमस्कार है। हृषीकेश ! आप सारे अमङ्गलको हर उसकी वेदनाका नाश करके भगवान् गोविन्द उसे सदाके लीजिये। सबके हृदयमें निवास करनेवाले भगवान् लिये शान्त कर दें। नेत्रका कष्ट, मस्तकका कष्ट, वासुदेवको नमस्कार है। नन्दक नामक खङ्ग धारण उदररोगका कष्ट, अनुच्छ्वास (साँसका रुकना), करनेवाले सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्णको नमस्कार है। महाश्वास (साँसका तेज चलना-दमा), परिताप, कमलके समान नेत्रोंवाले आदि चक्रधारी श्रीकेशवको (ज्वर), वेपथु (कम्प या जूड़ी), गुदारोग, नासिकारोग, नमस्कार है। कमल-केसरके समान वर्णवाले भगवान्को पादरोग, कुष्ठरोग, क्षयरोग, कमला आदि रोग, प्रमेह नमस्कार है। पीले रंगके निर्मल वस्त्र धारण करनेवाले आदि भयङ्कर रोग, बातरोग, मकड़ी और चेवक आदि भगवान् विष्णुको नमस्कार है। अपनी एक दाढ़पर समस्त रोग भगवान् विष्णुके चक्रको चोट खाकर नष्ट हो समूची पृथ्वीको उठा लेनेवाले त्रिमूर्तिपति जायें। अच्युत, अनन्त और गोविन्द नामोंके उच्चारणरूपी
मेदे धराधरं देवं गुदे चैव गदाग्रजम् । पीताम्बरधर कट्यामूरुयुम्मे मधुद्विषम् ।। मुरद्विषं पिण्डकयोर्जानुयुग्मे जनार्दनम् । फणीश गुलपयोधस्य क्रमयोश्च त्रिविक्रमम् ॥ पादाङ्गले श्रीपति च पादाधो धरणीधरम् । रोमकूपेषु सर्वेषु विपक्सेनं न्यसेधः ।। मत्स्य मासे तु विन्यस्य कूर्म मेदसि विन्यसेत् । वाराहं तु वसामध्ये सर्वास्थिषु तथाच्युतम् ।। द्विजप्रिय तु मजायां शुक्रे वेतपति तथा । साङ्गे यज्ञपुरुष परमात्मानमात्मनि ॥ एवं न्यासविधि कृत्या साक्षात्रारायणो भवेत् । यावत्र व्यारेत्किंचित्तावद्विष्णुमयः स्थितः ।। (७९ । १६-३०)
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• न्याससहित अपामार्जननामक स्तोत्र और उसकी महिमा .
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ओषधिसे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं यह बात मैं दुष्टोंको नष्ट कर दीजिये। देववर ! अच्युत ! आप सत्य-सत्य कहता हूँ। स्थावर, जङ्गम अथवा कृत्रिम विष दुष्टोका संहार कीजिये। हो या दाँत, नख, आकाश तथा भूत आदिसे प्रकट महाचक्र सुदर्शन ! भगवान् गोविन्दके श्रेष्ठ होनेवाला अत्यन्त दुस्सह विष हो; वह सारा-का-सारा आयुध ! तीखी धार और महान् वेगवाले शस्त्र ! कोटि श्रीजनार्दनका नामकीर्तन करनेपर इस रोगीके शरीरमें सूर्यके समान तेज धारण करनेवाले महाज्वालामय शान्त हो जाय। बालकके शरीरमें ग्रह, प्रेतग्रह अथवा सुदर्शन ! भारी आवाजसे सबको भयभीत करनेवाले अन्यान्य शाकिनी-ग्रहोंका उपद्रव हो या मुखपर चकत्ते चक्र ! आप समस्त दुःखों और सम्पूर्ण राक्षसोंका उच्छेद निकल आये हों अथवा रेवती, वृद्ध रेवती तथा वृद्धिका कर डालिये, उच्छेद कर डालिये। हे सुदर्शनदेव ! आप नामके भयङ्कर ग्रह, मातृप्रह एवं बालग्रह पीड़ा दे रहे हों; पापोंका नाश और आरोग्य प्रदान कौजिये। महात्मा भगवान् श्रीविष्णुका चरित्र उन सबका नाश कर देता है। नृसिंह अपनी गर्जनाओंसे पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और वृद्धों अथवा बालकोंपर जो कोई भी ग्रह लगे हों, वे उत्तर-सब ओर रक्षा करें। अनेक रूप धारण श्रीनृसिंहके दर्शनमात्रसे तत्काल शान्त हो जाते हैं। करनेवाले भगवान् जनार्दन भूमिपर और आकाशमें, भयानक दाढ़ोंके कारण विकराल मुखवाले भगवान् पीछे-आगे तथा पार्श्वभागमें रक्षा करें। देवता, असुर नृसिंह दैत्योंको भयभीत करनेवाले हैं। उन्हें देखकर और मनुष्योंके सहित सम्पूर्ण विश्व श्रीविष्णुमय है। सभी ग्रह बहुत दूर भाग जाते हैं। ज्वालाओंसे योगेश्वर श्रीविष्णु ही सब वेदोंमें गाये जाते हैं, इस सत्यके देदीप्यमान मुखवाले महासिंहरूपधारी नृसिंह ! सुन्दर प्रभावसे इस रोगीका सारा दुःख दूर हो जाय। समस्त मुख और नेत्रोंवाले सर्वेश्वर ! आप समस्त दुष्ट ग्रहोंको वेदाङ्गोंमें भी परमात्मा श्रीविष्णुका हो गान किया जाता दूर कीजिये। जो-जो रोग, महान् उत्पात, विष, महान् है। इस सत्यके प्रभावसे विश्वात्मा केशव इसको सुख ग्रह, क्रूरस्वभाववाले भूत, 'भयङ्कर प्रह-पीड़ाएँ, देनेवाले हो। भगवान् वासुदेवके शरीरसे प्रकट हुए हथियारसे कटे हुए घावोंपर होनेवाले रोग, चेचक आदि कुशोंके द्वारा मैंने इस मनुष्यका मार्जन किया है। इससे फोड़े और शरीरके भीतर स्थित रहनेवाले ग्रह हो, उन शान्ति हो, कल्याण हो और इसके दुःखोंका नाश हो सबको हे त्रिभुवनको रक्षा करनेवाले ! दुष्ट दानवोंके जाय। जिसने गोविन्दके अपामार्जन स्तोत्रसे मार्जन किया विनाशक ! महातेजस्वी सुदर्शन ! आप काट डालिये, है, वह भी यद्यपि साक्षात् श्रीनारायणका ही स्वरूप है: काट डालिये। महान् ज्वर, वातरोग, लूता रोग तथा तथापि सब दुःखोंकी शान्ति श्रीहरिके वचनसे ही होती भयानक महाविषको भी आप नष्ट कर दीजिये, नष्ट कर है। श्रीमधुसूदनका स्मरण करनेपर सम्पूर्ण दोष, समस्त दीजिये। असाध्य अमरशूल विषकी ज्वाला और गर्दभ ग्रह, सभी विष और सारे भूत शान्त हो जाते हैं। अब रोग-ये सब-के-सब शत्रु हैं, 'ॐ हां हां ' इस यह श्रीहरिके वचनानुसार पूर्ण स्वस्थ हो जाय । शान्ति बीजमन्त्रके साथ तीखी धारवाले कुठारसे आप इन हो, कल्याण हो और दुःख नष्ट हो जायें। भगवान् शत्रुओंको मार डालें। दूसरोंका दुःख दूर करनेके लिये हषीकेशके नाम-कीर्तनके प्रभावसे सदा ही इसके शरीर धारण करनेवाले परमेश्वर ! आप भगवान्को स्वास्थ्यकी रक्षा रहे। जो पाप जहाँसे इसके शरीरमें आये नमस्कार है। इनके सिवा और भी जो प्राणियोंको पीड़ा हों, वे वहीं चले जायें। देनेवाले दुष्ट ग्रह और रोग हों, उन सबको सबके आत्मा यह परम उत्तम 'अपामार्जन' नामक स्तोत्र है। समस्त परमात्मा जनार्दन दूर करें। वासुदेव ! आपको नमस्कार प्राणियोंका कल्याण चाहनेवाले श्रीविष्णुभक्त पुरुषोंको है। आप कोई रूप धारण करके ज्वालाओंके कारण रोग और पौड़ाओंके समय इसका प्रयोग करना चाहिये। अत्यन्त भयानक सुदर्शन नामक चक्र चलाकर सब इससे समस्त दुःखोका पूर्णतया नाश हो जाता है। यह
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. अर्थयस्व वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
सब पापोंकी शुद्धिका साधन है। श्रीविष्णुके 'अपामार्जन और जपसे भक्ति प्राप्त करते हैं। पार्वती ! जो इसका स्तोत्र'से आई'-शुष्क', लघु-स्थूल (छोटे-बड़े) एवं पाठ करता है, उसे सामवेदका फल होता है; उसकी ब्रह्महत्या आदि जितने भी पाप हैं, वे सब उसी प्रकार सारी पाप-राशि तत्काल नष्ट हो जाती है। देवि ! ऐसा नष्ट हो जाते है जैसे सूर्यके दर्शनसे अन्धकार दूर हो जानकर एकाग्रचित्तसे इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये। जाता है। जिस प्रकार सिंहके भयसे छोटे मृग भागते हैं, इससे पुत्रकी प्राप्ति होती है और घरमें निश्चय ही लक्ष्मी उसी प्रकार इस स्तोत्रसे सारे रोग और दोष नष्ट हो जाते परिपूर्ण हो जाती हैं। जो वैष्णव इस स्तोत्रको भोजपत्रपर हैं। इसके श्रवणमात्रसे ही प्रह, भूत और पिशाच लिखकर सदा धारण किये रहता है, वह इस लोकमें
आदिका नाश हो जाता है। लोभी पुरुष धन कमानेके सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता लिये कभी इसका उपयोग न करें। अपामार्जन स्तोत्रका है। जो इसका एक-एक श्लोक पढ़कर भगवान्को उपयोग करके किसीसे कुछ भी नहीं लेना चाहिये, इसीमें तुलसीदल समर्पित करता है, वह तुलसीसे पूजन अपना हित है। आदि, मध्य और अन्तका ज्ञान करनेपर सम्पूर्ण तीर्थोक सेवनका फल पा लेता है। यह रखनेवाले शान्तचित्त श्रीविष्णुभक्तोको निःस्वार्थभावसे भगवान् विष्णुका स्तोत्र परम उत्तम और मोक्ष प्रदान इस स्तोत्रका प्रयोग करना उचित है; अन्यथा यह करनेवाला है। सम्पूर्ण पृथ्वीका दान करनेसे मनुष्य सिद्धिदायक नहीं होता। भगवान् विष्णुका जो श्रीविष्णुलोकमें जाता है; किन्तु जो ऐसा करनेमें असमर्थ अपामार्जन नामक स्तोत्र है, यह मनुष्योंके लिये अनुपम हो, वह श्रीविष्णुलोककी प्राप्तिके लिये विशेषरूपसे इस सिद्धि है, रक्षाका परम साधन है और सर्वोत्तम ओषधि स्तोत्रका जप करे। यह रोग और ग्रहोंसे पीड़ित है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने अपने पुत्र पुलस्त्य मुनिको बालकोंके दुःखको शान्ति करनेवाला है। इसके इसका उपदेश किया था; फिर पुलस्त्य मुनिने दालभ्यको पाठमात्रसे भूत, ग्रह और विष नष्ट हो जाते हैं। जो सुनाया। दाल्भ्यने समस्त प्राणियोंका हित करनेके लिये ब्राह्मण कण्ठमें तुलसीको माला पहनकर इस स्तोत्रका इसे लोकमें प्रकाशित किया; तबसे श्रीविष्णुका यह पाठ करता है, उसे वैष्णव जानना चाहिये; वह निश्चय ही अपामार्जन स्तोत्र तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गया। यह सब श्रीविष्णुधाममें जाता है। इस लोकका परित्याग करनेपर प्रसङ्ग भक्तिपूर्वक श्रवण करनेसे मनुष्य अपने रोग और उसे श्रीविष्णुधामकी प्राप्ति होती है। जो मोह-मायासे दूर दोषोंका नाश करता है।
हो दम्भ और तृष्णाका त्याग करके इस दिव्य स्तोत्रका 'अपामार्जन' नामक स्तोत्र परम अद्भुत और दिव्य पाठ करता है, वह परम मोक्षको प्राप्त होता है। इस है। मनुष्यको चाहिये कि पुत्र, काम और अर्थकी भूमण्डलमें जो ब्राह्मण भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे धन्य सिद्धिके लिये इसका विशेषरूपसे पाठ करे । जो द्विज माने गये हैं। उन्होंने कुलसहित अपने आत्माका उद्धार एक या दो समय बराबर इसका पाठ करते हैं, उनकी कर लिया-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जिन्होंने आयु, लक्ष्मी और बलकी दिन-दिन वृद्धि होती है। भगवान् नारायणकी शरण ग्रहण कर ली है, संसारमें वे ब्राह्मण विद्या, क्षत्रिय राज्य, वैश्य धन-सम्पत्ति और शूद्र परम धन्य हैं। उनकी सदा भक्ति करनी चाहिये, क्योंकि भक्ति प्राप्त करता है। दूसरे लोग भी इसके पाठ, श्रवण वे भागवत (भगवद्भक्त) पुरुष हैं।
१-स्वेच्छासे किये हुए पाप । २-अनिच्छासे किये हुए पाप ।
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उत्तरखण्ड
• श्रीविष्णुकी महिमा-भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा. mmmmmmmmmmmmm.sammann..................
श्रीविष्णुकी महिमा-भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा श्रीपार्वती बोलीं-विश्वेश्वर ! प्रभो ! भगवान् युधिष्ठिर बोले-समस्त शास्त्र-वेत्ताओंमें श्रेष्ठ, श्रीविष्णुका माहात्म्य अद्भुत है, जिसे सुनकर फिर धर्मके ज्ञाता पितामह ! कोई तो धर्मको सबसे श्रेष्ठ कभी संसार-बन्धन नहीं प्राप्त होता । आप पुनः उसका बतलाते हैं और कोई धनको। कोई दानकी प्रशंसा करते वर्णन कीजिये।
हैं, तो कोई संग्रहके गीत गाते हैं। कुछ लोग सांख्यके - महादेवजीने कहा-सुन्दरी! मैं भगवान् समर्थक हैं, तो दूसरे लोग योगके । कोई यथार्थ ज्ञानको श्रीविष्णुके उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता है, सुनोः इसे उत्तम मानते हैं, तो कोई वैराग्यको । कुछ लोग अनिष्टोम सुनकर मनुष्य पुण्य प्राप्त करता है और अन्तमें उसे आदि कर्मको ही सबसे श्रेष्ठ समझते हैं, तो कुछ लोग उस मोक्षकी प्राप्ति होती है। महाप्राज्ञ देवव्रत, जो इन्द्र आदि आत्मज्ञानको बड़ा मानते हैं, जिसे पाकर मिट्टीके ढेले, देवताओंके लिये भी दुर्घर्ष थे, कुरुक्षेत्रको पुण्यभूमिमे पत्थर और सुवर्णमें समबुद्धि हो जाती है। कुछ लोगोंके ध्यानयोगपरायण हो रहे थे। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके आश्रय मतमें मनीषी पुरुषोंद्वारा बताये हुए यम और नियम ही थे। उन्होंने अपनी इन्द्रियोंको वशमें कर लिया था। उनमें सबसे उत्तम हैं। कुछ लोग दयाको श्रेष्ठ बताते हैं, तो कुछ पापका लेश भी नहीं था। वे सत्यप्रतिज्ञ थे और क्रोधको तपस्वी महात्मा अहिंसाको ही सर्वोत्तम कहते हैं। कुछ जीतकर समतामें प्रतिष्ठित हो चुके थे। संसारके स्वामी मनुष्य शौचाचारको श्रेष्ठ बतलाते हैं, तो कुछ देवार्चनको। और सबको शरण देनेवाले भक्तवत्सल भगवान् नारायणमें इस विषयमें पाप-कर्मोसे मोहित चित्तवाले मानव चक्कर मन, वाणी, शरीर और क्रियाके द्वारा वे परम निष्ठाको खा जाते हैं-वे कुछ निर्णय नहीं कर पाते । इन सबमें जो प्राप्त थे। ऐसे शान्तचित्त तथा समस्त गुणोंके आश्रयभूत सर्वोत्तम कृत्य हो, जिसका महात्मा पुरुष भी अनुष्ठान कर कुरु-पितामह भीष्मको पृथ्वीपर मस्तक झुकाकर राजा सकें, उसे बतानेकी कृपा कीजिये। युधिष्ठिरने प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा।
भीष्मजी बोले-धर्मनन्दन ! सुनो, यह अत्यन्त गूढ़ विषय है, जो संसारबन्धनसे मोक्ष दिलानेवाला है। यह विषय तुम्हें भलीभाँति सुनना और जानना चाहिये। पुण्डरीक नामके एक परम बुद्धिमान् और वेदविद्यासे सम्पन्न ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्य-आश्रममें निवास करते हुए सदा गुरुजनोंकी आज्ञाके अधीन रहा करते थे। वे जितेन्द्रिय, क्रोधजयी, संध्योपासनमें तत्पर, वेदवेदाङ्गोंके ज्ञानमें निपुण और शास्त्रोंकी व्याख्या करने में कुशल थे। प्रतिदिन सायंकाल और प्रातःकाल समिधाओंसे अग्निको प्रज्वलित करके उत्तम हविष्यसे होम किया करते थे। जगत्पति भगवान् विष्णुका ध्यान करके विधिपूर्वक उनकी आराधनामें लगे रहते थे। तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर वे साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्रकी भाँति जान पड़ते थे। जल, समिधा
और फूल आदि लाकर निरन्तर गुरुकी पूजा प्रवृत्त रहते थे। उनके मनमें माता-पिताके प्रति भी पूर्ण सेवाका भाव था। वे भिक्षाका आहार करते और दम्भ-द्वेषसे दूर रहते
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. अर्चयस्व ह्रषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण
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थे। ब्रह्मविद्या (उपनिषद्) का स्वाध्याय करते और उन्होंने भलीभाँति शुद्धि प्राप्त कर ली थी। राग-द्वेषसे मुक्त प्राणायामके अभ्यासमें संलग्न रहते थे। उनके हृदयमें हो मूर्तिमान् स्वधर्मकी भाँति चित्तवृत्तियोंको भगवान्मे सबके प्रति आत्मभाव था । संसारकी ओरसे वे निःस्पृह लगाकर वे निरन्तर उनकी आराधनामें संलग्न रहते थे। हो गये थे। एक बार उनके मनमें संसार-सागरसे तारने- तदनन्तर किसी समय परमार्थ-तत्त्यके ज्ञाता वाला विचार उत्पन्न हुआ; फिर तो वे माता-पिता, भाई, साक्षात् सूर्यके समान महातेजस्वी, विष्णु-भक्तिसे परिपूर्ण सुहृद्, मित्र, सखा, सम्बन्धी, बन्धु-यान्धव, वंश- हृदयवाले तथा वैष्णवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले देवर्षि परम्परासे प्राप्त एवं धन-धान्यसे परिपूर्ण गृह, सब नारदजी तपोनिधि पुण्डरीकको देखनेके लिये उस प्रकारके अन्नकी पैदावारके योग्य बहुमूल्य खेत तथा स्थानपर आये। नारदजीको आया देख पुण्डरीक प्रसन्न उनकी तृष्णा छोड़कर महान् धैर्यसे सम्पन्न और परम चित्तसे उठे और हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। सुखी होकर पैदल ही पृथ्वीपर विचरने लगे। 'यह तत्पश्चात् विधिपूर्वक अर्घ्य निवेदन करके उन्होंने पुनः यौवन, रूप, आयु और धनका संग्रह सब अनित्य है- नारदजीको मस्तक झुकाया। फिर मन-ही-मन विचार यो विचारकर उनका मन तीनों लोकोको ओरसे फिर र गया। पाण्डुनन्दन ! महायोगी पुण्डरीक पुराणोक्त मार्गसे यथासमय समस्त तीर्थो विधिपूर्वक विचरने लगे।
एक समय धीर तपस्वी महाभाग पुण्डरीक अपने पूर्वकाँक अधीन हो घूमते-घामते शालग्राम-तीर्थमें जा पहुँचे, जो तपस्याके धनी एवं तत्त्ववेत्ता मुनियोंके द्वारा सेवित था। उस परम पुण्यमय क्षेत्रमें सरस्वती नदीके देवहद नामक तीर्थमें स्नान करके उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महाबुद्धिमान् ब्राह्मण वहींके जातिस्मरी, चक्रकुण्ड, चक्र नदीसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य कुण्ड तथा अन्यान्य तीर्थोंमें भी घूमने लगे। तीर्थ-सेवनसे उनका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध हो चुका था, अतः उन्होंने ध्यानयोगमें प्रवृत्त होकर वहीं अपना आश्रम बना लिया। उसी तीर्थमें शास्त्रोक्त विधि तथा परम भक्तिके साथ भगवान् गरुडध्वजकी आराधना करके वे सिद्धि पाना चाहते थे; इसलिये शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे रहित Eye एवं जितेन्द्रिय हो दीर्घ कालतक अकेले ही वहाँ निवास किया-ये अद्भुत आकार और मनोहर वेष धारण करते रहे। शाक, मूल और फल-यही उनका भोजन करनेवाले तेजस्वी पुरुष कौन है। इनके हाथमें वीणा है था। वे सदा संतुष्ट रहते और सबमें समान दृष्टि रखते तथा मुखपर प्रसत्रता छा रही है। यह सोचते हुए वे उन थे। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, परम तेजस्वी नारदजीसे बोले-महाद्युते ! आप कौन ध्यान और समाधिके द्वारा आलस्यरहित हो सदा है ? और कहाँसे इस आश्रमपर पधारे है ? भगवन् ! विधिपूर्वक योगाभ्यास करते थे। उनके सारे पाप दूर हो इस पृथ्वीपर आपका दर्शन तो प्रायः दुर्लभ ही है। मेरे चुके थे वे वैदिक, तान्त्रिक तथा पौराणिक मन्त्रोंसे लिये जो आज्ञा हो, उसे बतानेकी कृपा कीजिये। सर्वेश्वर भगवान् विष्णुकी आराधना करते थे; अतः नारदजीने कहा-ब्रह्मन् ! मैं नारद हूँ। तुम्हे
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उत्तरखण्ड ]
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देखनेकी उत्कण्ठासे यहाँ आया हूँ। द्विजश्रेष्ठ! भगवान्का भक्त यदि चाण्डाल हो तो भी वह स्मरण, वार्तालाप अथवा पूजन करनेपर सबको पवित्र कर देता है* । जो अपने हाथोंमें शार्ङ्ग नामक धनुष, पाञ्चजन्य शङ्ख, सुदर्शन चक्र और कौमोदकी गदा धारण करते हैं तथा जो त्रिभुवनके नेत्र हैं, उन देवाधिदेव भगवान्का में दास हूँ।
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• श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा •
पुण्डरीक बोले- देवर्षे ! आपका दर्शन पाकर मैं देहधारियोंमें धन्य हो गया, देवताओंके लिये भी परम पूजनीय बन गया। मेरे माता-पिता कृतार्थ हो गये और आज मैंने जन्म लेनेका फल पा लिया। नारदजी मैं आपका भक्त हूँ, मुझपर अनुग्रह कीजिये। मुझे परम गूढ़ रहस्यसे भरे हुए कर्तव्यका उपदेश दीजिये।
नारदजीने कहा- ब्रह्मन् ! इस पृथ्वीपर अनेक शास्त्र, बहुत-से कर्म और नाना प्रकारके धर्म हैं; इसीलिये संसारमें ऐसी विलक्षणता दिखायी देती है। अन्यथा सभी प्राणियोंको या तो केवल सुख ही सुख प्राप्त होता या केवल दुःख ही दुःख । [कोई सुखी और कोई दुःखी — ऐसा अन्तर देखनेमें नहीं आता ।] कुछ लोगोंके मतमें 'यह जगत् क्षणिक, विज्ञानमात्र, चेतन आत्मासे रहित तथा बाह्य पदार्थोंकी अपेक्षासे शून्य है।' दूसरे लोग ऐसा कहते हैं कि 'यह जगत् सदा नित्य अव्यक्त (मूल प्रकृति) से उत्पन्न होता है तथा उसीमें लीन होता है, अतः उपादानकी नित्यताके अनुसार यह भी नित्य ही है। कुछ लोग तत्त्वके विचारमें प्रवृत्त होकर ऐसा निश्चय करते हैं कि 'आत्मा अनेक, नित्य एवं सर्वगत है। दूसरे लोग इस निश्चयपर पहुँचे हैं कि 'जितने शरीर हैं, उतने ही आत्मा हैं।' इस मतके अनुसार हाथी और कीड़े आदिके शरीरमें तथा [ब्रह्माण्डरूपी ] महान् अण्डमें भी आत्माकी सत्ता मौजूद है। कुछ लोगोंका कहना है कि आज इस जगत्की जैसी अवस्था है, वैसी ही कालान्तरमें भी रहती है संसारका यह [ अनादि ] प्रवाह नित्य ही बना रहता है,
本
स्मृतः
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भला इसका कर्ता कौन है। कुछ अन्य व्यक्तियोंकी रायमें जो-जो वस्तु प्रत्यक्ष उपलब्ध होती है, उसके सिवा और किसी वस्तुकी सत्ता नहीं है; फिर स्वर्ग आदि कहाँ हैं। कुछ लोग जगत्को ईश्वरकी सत्तासे रहित समझते हैं और कुछ लोग इसमें ईश्वरको व्यापक मानते हैं। इस प्रकार एक-दूसरेसे अत्यन्त भिन्न विचार रखनेवाले ये सभी लोग सत्यसे विमुख हो रहे हैं। इसी तरह भिन्न-भिन्न मतका मायाजाल फैलानेवाले दूसरे लोग भी बुद्धि और विद्याके अनुसार अपनी-अपनी युक्तियोंको स्थापित करते हुए भेदपूर्ण विचारोंको लेकर भाँति-भाँति की बातें करते हैं।
तपोधन! अब मैं तर्कमें स्थित होकर वास्तविक तत्त्वकी बात कहता हूँ। यह परमार्थ ज्ञान परम पुण्यमय और भयङ्कर संसारबन्धनका नाश करनेवाला है। देवता आदिसे लेकर मनुष्यपर्यन्त सब लोग उसीको प्रामाणिक मानते हैं, जो परमार्थज्ञानमूलक प्रतीत होता है। किन्तु जो अज्ञानसे मोहित हो रहे हैं, वे लोग अनागत (भविष्य), अतीत (भूत) और दूरवर्ती वस्तुको प्रमाणरूपमें नहीं स्वीकार करते। उन्हें प्रत्यक्ष वर्तमान वस्तुकी ही प्रामाणिकता मान्य है। परन्तु मुनियोंने प्रत्यक्ष और अनुमानके सिवा उस आगमको भी प्रमाण माना है, जो पूर्वपरम्परासे एक ही रूपमें चला आ रहा हो। वास्तवमें ऐसे आगमको ही परमार्थ वस्तुके साधनमें प्रमाण मानना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ आगम उस शास्त्रका नाम है, जिसके अभ्यासके बलसे राग-द्वेषरूपी मलका नाश करनेवाला उत्तम ज्ञान उत्पन्न होता हो। जो कर्म और उसके फलरूपसे प्रसिद्ध है, जिसका तत्त्व ही विज्ञान और दर्शन नाम धारण करता है, जो सर्वत्र व्यापक और जाति आदिकी कल्पनासे रहित है, जिसे आत्मसंवेदन (आत्मानुभव) रूप, नित्य, सनातन, इन्द्रियातीत, चिन्मय, अमृत, शेय, अनन्त, अजन्मा, अविकारी, व्यक्त और अव्यक्तरूपमें स्थित, निरञ्जन (निर्मल), सर्वव्यापी श्रीविष्णुके नामसे विख्यात तथा वाणीद्वारा वर्णित समस्त
संभाषितो वापि पूजितो वा द्विजोत्तम। पुनाति भगवद्भक्तभाण्डाोऽपि यदृच्छया । (८१ । ५५)
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• अवस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिम पद्मपुराण
वस्तुओंसे भिन्नरूपमें स्थित माना गया है, वह परमात्मा अवस्थाको, कालान्तरमें होनेवाली अवस्थाको, भूत, ही आगमका दूसरा लक्षण है। तात्पर्य यह कि साधन- भविष्य, वर्तमान और दूरको, स्थूल और सूक्ष्मको तथा भूत ज्ञान और साध्यस्वरूप ज्ञेय दोनों ही आगम हैं। वह अन्य ज्ञातव्य बातोंको यथार्थरूपसे देख पाते हैं। इसके ज्ञेय परमात्मा योगियोंद्वारा ध्यान करनेयोग्य है । परमार्थसे विपरीत जिनकी बुद्धि मन्द और अन्तःकरण दूषित है विमुख मनुष्योंद्वारा उसका ज्ञान होना असम्भव है। तथा जिनका स्वभाव कुतर्क और अज्ञानसे दुष्ट हो रहा भिन्न-भिन्न बुद्धियोंसे वह यद्यपि भिन्न-सा लक्षित होता है, ऐसे लोगोंको सब कुछ उलटा ही प्रतीत होता है। है, तथापि आत्मासे भिन्न नहीं है । तात पुण्डरीक ! ध्यान नारदजी कहते हैं-पुण्डरीक ! अब मैं दूसरा देकर सुनो। सुव्रत ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मेरे पूछनेपर प्रसङ्ग सुनाता हूँ, इसे भी सुनो। पूर्वकालमें जगत्के जिस तत्वका उपदेश किया था, वही तुम्हें बतलाता हूँ। कारणभूत ब्रह्माजीने ही इसका भी उपदेश किया था। एक समय अज, अविनाशी पितामह ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें एक बार इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा ऋषियोंके विराजमान थे। उस समय मैंने विधिपूर्वक उनके चरणोंमें पूछनेपर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ब्रह्माजीने उनके प्रणाम करके पूछा-'ब्रहान् ! कौन-सा ज्ञान सबसे हितकी बात इस प्रकार बतायी थी। उत्तम बताया गया है ? तथा कौन-सा योग सर्वश्रेष्ठ माना गया है? यह सब यथार्थरूपसे मुझे बताइये।'
ब्रह्माजीने कहा-तात ! सावधान होकर परम उत्तम ज्ञानयोगका श्रवण करो। यह थोड़े-से वाक्योंमें कहा गया है, किन्तु इसका अर्थ बहुत विस्तृत है। इसकी उपासनामें कोई केश या परिश्रम नहीं है। जिन्हें गुरु-परम्परासे पञ्चविंशक' पुरुष बतलाया गया है, वे ही सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा है; इसलिये उन्हींको सम्पूर्ण जगत्के निवासरूप सनातन परमात्मा नारायण कहा जाता है। वे ही संसारको सृष्टि, संहार और पालनमें लगे रहते हैं। ब्रह्मन् ! ब्रह्मा, शिव और विष्णु-इन तीनों रूपोंमें एक ही देवाधिदेव सनातन पुरुष विराज रहे हैं। अपना हित चाहनेवाले पुरुषको सदा उन्हींकी आराधना करनी चाहिये। जो निःस्पृह, नित्य संतुष्ट, ज्ञानी, जितेन्द्रिय, ममता-अहङ्कारसे रहित, राग-द्वेषसे शून्य, शान्तचित्त और सब प्रकारकी आसक्तियोंसे पृथक् हो ध्यानयोगमें प्रवृत्त रहते हैं, वे ही उन अक्षय जगदीश्वरको ब्रह्माजीने कहा-देवताओ! भगवान् नारायण देखते और प्राप्त करते हैं। जो लोग भगवान् नारायणकी ही सबके आश्रय हैं। सनातन लोक, यज्ञ तथा नाना शरण ग्रहण कर चुके हैं तथा जिनके मन-प्राण उन्हींके प्रकारके शास्त्रोंका भी पर्यवसान नारायणमें ही होता है। चिन्तनमें लगे हैं, वे ही ज्ञानदृष्टिसे संसारको वर्तमान छहो अङ्गोसहित वेद तथा अन्य आगम सर्वव्यापी
१. पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच इन्द्रियोंके विषय, मन, पांच भूत, आकार, महतत्व और प्रकृति-ये चौबीस तत्त्व हैं, इनसे भिन्न सर्वज्ञ परमात्मा पश्चीसवाँ तत्व है इसलिये वह 'पञ्चविंशक' कहलाता है।
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उत्तरखण्ड ]
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श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा •
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विश्वेश्वर श्रीहरिके ही स्वरूप हैं। पृथ्वी आदि पाँचों भूत भी वे ही अविनाशी परमेश्वर हैं। देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत्को श्रीविष्णुमय ही जानना चाहिये; तथापि पापी मनुष्य मोहग्रस्त होनेके कारण इस बातको नहीं समझते। यह समस्त चराचर जगत् उन्हींकी मायासे व्याप्त है जो मनसे भगवान्का ही चिन्तन करता है, जिसके प्राण भगवान् में ही लगे रहते हैं, वह परमार्थं तत्त्वका ज्ञाता पुरुष ही इस रहस्यको जानता है। सम्पूर्ण भूतोंके ईश्वर भगवान् विष्णु ही तीनों लोकोंका पालन करनेवाले हैं। यह सारा संसार उन्हींमें स्थित है और उन्हींसे उत्पन्न होता है। वे ही रुद्ररूप होकर जगत्का संहार करते हैं। पालनके समय उन्हींको श्रीविष्णु कहते हैं तथा सृष्टिकालमें मैं (ब्रह्मा) और अन्यान्य लोकपाल भी उन्होंके स्वरूप है। वे सबके आधार हैं, परन्तु उनका आधार कोई नहीं है। वे सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त होते हुए भी उनसे रहित हैं। वे ही छोटे-बड़े तथा उनसे भिन्न हैं। साथ ही इन सबसे विलक्षण भी हैं; अतः देवताओ! सबका संहार करनेवाले उन श्रीहरिकी ही शरणमें जाओ वे ही हमारे जन्मदाता पिता हैं उन्हींको मधुसूदन कहा गया है।
नारदजी कहते हैं— कमलयोनि ब्रह्माजीके यों कहनेपर सब देवताओंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी सर्वव्यापी देव भगवान् जनार्दनकी शरण होकर उन्हें प्रणाम किया; अतः विप्रर्षे! तुम भी श्रीनारायणकी आराधना में लग जाओ। उनके सिवा दूसरा कौन ऐसा परम उदार देवता है, जो भक्तकी माँगी हुई वस्तु दे सके। वे पुरुषोत्तम ही पिता और माता हैं। सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी, देवताओंके भी देवता और जगदीश्वर है। तुम उन्हींकी परिचर्या करो। प्रतिदिन आलस्यरहित हो अग्निहोत्र, भिक्षा, तपस्या और स्वाध्यायके द्वारा उन
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देवदेवेश्वर गुरुको ही संतुष्ट करना चाहिये। ब्रह्मर्षे ! उन्हीं पुरुषोत्तम नारायणको तुम सब तरहसे अपनाओ ।
उन बहुत-से मन्त्रों और उन बहुत-से व्रतोंके द्वारा क्या लेना है। 'ॐ नमो नारायणाय' यह मन्त्र ही सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थकी सिद्धि करनेवाला है। द्विजश्रेष्ठ ! ब्राह्मण चीरवस्त्र पहनकर जटा रखा ले या दण्ड धारण करके मुँड़ मुँड़ा ले अथवा आभूषणोंसे विभूषित रहे; ऊपरी चिह्न धर्मका कारण नहीं होता। जो भगवान् नारायणको शरण ले चुके हैं, वे क्रूर, दुरात्मा और सदा ही पापाचारी रहे हों तो भी परमपदको प्राप्त होते हैं। जिनके पाप दूर हो गये हैं, ऐसे वैष्णव पुरुष कभी पापसे लिप्त नहीं होते। वे अहिंसा भावके द्वारा अपने मनको काबूमें किये रहते हैं और सम्पूर्ण संसारको पवित्र करते हैं। *
क्षत्रबन्धु नामके राजाने, जो सदा प्राणियोंकी हिंसामे ही लगा रहता था, भगवान् केशवकी शरण लेकर श्रीविष्णुके परमधामको प्राप्त कर लिया। महान् धैर्यशाली राजा अम्बरीषने अत्यन्त कठोर तपस्या की थी और भगवान् पुरुषोत्तमकी आराधना करके उनका साक्षात्कार किया था। राजाओंके भी राजा मित्रासन बड़े तत्त्ववेत्ता थे। उन्होंने भी भगवान् हृषीकेशकी आराधना करके ही उनके वैकुण्ठधामको प्राप्त किया था। उनके सिवा बहुत से ब्रह्मर्षि भी, जो तीक्ष्ण व्रतोंका पालन करनेवाले और शान्तचित्त थे, परमात्मा विष्णुका ध्यान करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हुए। पूर्वकालमें परम आह्लादसे भरे हुए प्रह्लाद भी सम्पूर्ण जीवोंके आश्रयभूत श्रीहरिका सेवन, पूजन और ध्यान करते थे; अतः भगवान्ने ही उनकी संकटोंसे रक्षा की। परम धर्मात्मा और तेजस्वी राजा भरतने भी दीर्घ कालतक इन श्रीविष्णुभगवान्की उपासना करके परम मोक्ष प्राप्त कर लिया था ।
* कि तैस्तु मन्त्रैर्बहुभिः किं तैस्तु बहुभिर्वतैः । ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः ॥ चीरवासा जटी विप्रो दण्डी मुण्डी तथैव च भूषितो वा द्विजश्रेष्ठ न लिङ्गं धर्मकारणम् ॥ ये नृशंसा दुरात्मानः पापाचारपराः सदा । तेऽपि यान्ति परं स्थानं नारायणपरायणाः ॥
लिप्यन्ते न च पापेन वैष्णवा वीतकिल्विषाः । पुनन्ति सकलं लोकमहिंसाजितमानसाः ॥ ( ८१ । १०७ – ११० )
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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
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ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यासीकोई भी क्यों न हो, भगवान् केशवकी आराधनाको छोड़कर परमगतिको नहीं प्राप्त हो सकता। हजारों जन्म लेनेके पश्चात् जिसकी ऐसी बुद्धि होती है कि मैं भगवान् विष्णुके भक्तोंका दास हूँ, वह समस्त पुरुषार्थोका साधक होता है। वह पुरुष भी निस्सन्देह श्रीविष्णुधाम में जाता है। फिर जो कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले पुरुष भगवान् विष्णुमें ही मन-प्राण लगाये रहते हैं, उनकी उत्तम गतिके विषयमें क्या कहना है अतः तत्त्वका चित्तन करनेवाले पुरुषोंको चाहिये कि वे नित्य निरन्तर अनन्य चित्तसे विश्वव्यापी सनातन परमात्मा नारायणका ध्यान करते रहें। *
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भीष्मजी कहते हैं- यों कहकर परोपकारपरायण परमार्थवेत्ता देवर्षि नारद वहीं अन्तर्धान हो गये। नारायणकी शरणमें पड़े हुए धर्मात्मा पुण्डरीक भी ॐ नमो नारायणाय' इस अष्टाक्षरमन्त्रका जप करने लगे। ये अपने हृदयकमलमें अमृतस्वरूप गोविन्दकी स्थापना करके मुखसे सदा यही कहा करते थे कि 'हे विश्वात्मन् ! आप मुझपर प्रसन्न होइये।' द्वन्द्व और परिग्रहसे रहित हो तपोधन पुण्डरीकने उस निर्मल शालग्रामतीर्थमें अकेले ही चिरकालतक निवास किया। स्वप्नमें भी उन्हें केशवके सिवा और कुछ नहीं दिखायी देता था। उनकी निद्रा भी पुरुषार्थ सिद्धिकी विरोधिनी नहीं थी। तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा विशेषतः शौचाचारके पालनसे, जन्म-जन्मान्तरोंके विशुद्ध संस्कारसे तथा सर्वलोकसाक्षी देवाधिदेव श्रीविष्णुके प्रसादसे पापरहित पुण्डरीकने परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि प्राप्त कर ली। वे सदा हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा लिये कमलके समान नेत्रोंवाले श्यामसुन्दर पीताम्बरधारी भगवान् अच्युतकी ही झाँकी किया करते थे। मृगों और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले सिंह, व्याघ्र
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
तथा अन्यान्य जीव अपना स्वाभाविक विरोध छोड़कर उनके समीप आते और इच्छानुसार विचरा करते थे। उनको सम्पूर्ण इन्द्रियाँ प्रसन्न रहती थीं। उनके हृदयमें एक-दूसरेके हितसाधनका मनोरम भाव भर जाता था। वहाँके जलाशय और नदियोंके जल स्वच्छ हो गये थे। सभी ऋतुओंमें वहां प्रसन्नता छायी रहती थी। सबकी इन्द्रिय-वृत्तियाँ शुद्ध हो गयी थीं। हवा ऐसी चलती थी, जिसका स्पर्श सुखदायक जान पड़े। वृक्ष फूल और फलोंसे लदे रहते थे। परम बुद्धिमान् पुण्डरीकके लिये सभी पदार्थ अनुकूल हो गये थे। देवदेवेश्वर भक्तवत्सल गोविन्दके प्रसन्न होनेपर उनके लिये समस्त चराचर जगत् प्रसन्न हो गया था।
तदनन्तर एक दिन बुद्धिमान् पुण्डरीकके सामने भगवान् जगन्नाथ प्रकट हुए। हाथोंमें शङ्ख, चक्र और
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• ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः केशवाराधनं हित्वा नैव याति परां गतिम् ॥ जन्मान्तरसहस्रेषु यस्य स्यान्मतिरीदृशी दासोऽहं विष्णुभक्तानामिति सर्वार्थसाधकः ॥ स याति विष्णुसालोक्यं पुरुषो नात्र संशयः । किं पुनस्तद्रत्तप्राणाः पुरुषाः संशितव्रताः ॥ अनन्यमनसा नित्ये ध्यातव्यस्तत्वचिन्तकैः । नारायणो जगद्व्यापी परमात्मा सनातनः ।। ८१ । ११७ – १२० )
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. श्रीविष्णुकी महिमा-भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा .
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AI R TERNATIONAL. ................ गदा शोभा पा रहे थे। तेजोमयी आकृति, कमलके जिनकी महिमाका तपस्यासे ही अनुमान हो सकता है, समान बड़े-बड़े नेत्र और चन्द्रमण्डलके समान उन परमात्माको नमस्कार है। भगवन् ! आपकी महिमा कान्तिमान् मुख। कमरमें करधनी, कानोंमें कुण्डल, वाणीका विषय नहीं है, उसे कहना असम्भव है। आप गलेमें हार, बाहुओंमें भुजबन्द, वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका जाति आदिकी कल्पनासे दूर हैं, अतः सदा तत्त्वतः ध्यान चिह्न और श्याम शरीरपर पीतवस्त्र शोभा पा रहे थे। करनेके योग्य है। पुरुषोत्तम ! आप एक-अद्वितीय भगवान् कौस्तुभमणिसे विभूषित थे। वनमालासे उनका होते हुए भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये भेदरूपसे सारा अङ्ग व्याप्त था। मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे मत्स्य-कूर्म आदि अवतार धारण करके दर्शन देते हैं। थे। दमकते हुए यज्ञोपवीत और नीचेतक लटकती हुई भीष्यजी कहते हैं-इस प्रकार जगत्के स्वामी मोतियोंकी मालासे उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वीरवर भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति करके पुण्डरीक देव, सिद्ध, देवेन्द्र, गन्धर्व और मुनि चैवर तथा व्यजन उन्हींको निहारने लगे; क्योंकि चिरकालसे वे उनके आदिसे भगवान्की सेवा कर रहे थे। पापरहित दर्शनकी लालसा रखते थे। तब तीन पगोंसे त्रिलोकीको पुण्डरीकने स्वयं उन देवदेवेश्वर महात्मा जनार्दनको वहाँ नापनेवाले तथा नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले भगवान् उपस्थित देख पहचान लिया और प्रसन्न चित्तसे हाथ विष्णुने महाभाग पुण्डरीकसे गम्भीर वाणीमें जोड़ प्रणाम करके स्तुति करना आरम्भ किया। कहा-'बेटा पुण्डरीक ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमपर
पुण्डरीक बोले-सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र नेत्र बहुत प्रसन्न हूँ। महामते ! तुम्हारे मनमें जो भी कामना आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है। आप निरञ्जन हो, उसे वरके रूपमें माँगो। मैं अवश्य दूंगा।' (निर्मल), नित्य, निर्गुण एवं महात्मा हैं; आपको पुण्डरीक बोले-देवेश्वर ! कहाँ मैं अत्यन्त नमस्कार है। आप समस्त प्राणियोंके ईश्वर हैं भक्तोंका खोटी बुद्धिवाला मनुष्य और कहाँ मेरे परम भय एवं पीड़ा दूर करनेके लिये गोविन्द तथा गरुडध्वज- हितैषी आप। माधव ! जिसमें मेरा हित हो, उसे रूप धारण करते हैं। जीवॉपर अनुग्रह करनेके लिये आप ही दीजिये। अनेक आकार धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। पुण्डरीकके यो कहनेपर भगवान् अत्यन्त प्रसन्न यह सम्पूर्ण विश्व आपमें ही स्थित है। केवल आप ही होकर बोले-'सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो। आओ, इसके उपादान कारण हैं। आपने ही जगत्का निर्माण मेरे ही साथ चलो। तुम मेरे परम उपकारी और सदा किया है। नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले आप भगवान् मुझमें ही मन लगाये रखनेवाले हो; अतः सर्वदा मेरे पद्मनाभको बारंबार नमस्कार है। समस्त वेदान्तोंमें साथ ही रहो।' जिनकी आत्मविभूतिका ही श्रवण किया जाता है, उन भीष्पजी कहते है-भक्तवत्सल भगवान् परमेश्वरको नमस्कार है। नारायण ! आप ही सम्पूर्ण श्रीधरने प्रसन्नतापूर्वक जब इस प्रकार कहा, उसी समय देवताओंके स्वामी और जगत्के कारण है। मेरे हृदय- आकाशमें देवताओंकी दुंदुभी बज उठी और आकाशसे मन्दिरमें निवास करनेवाले भगवान् शङ्ख-चक्र-गदाधर ! फूलोंकी वर्षा होने लगी। ब्रह्मा आदि देवता साधुवाद मुझपर प्रसन्न होइये। समस्त प्राणियोंके आदिभूत, इस देने लगे। सिद्ध, गन्धर्व और किन्नर गान करने लगे। पृथ्वीको धारण करनेवाले, अनेक रूपधारी तथा सबकी समस्त लोकोंद्वारा वन्दित देवदेव जगदीश्वरने वहीं उत्पत्तिके कारण श्रीविष्णुको नमस्कार है। ब्रह्मा आदि पुण्डरीकको अपने साथ ले लिया और गरुड़पर आरूढ़ देवता और सुरेश्वर भी जिनकी महिमाको नहीं जानते, हो वे परम धामको चले गये; इसलिये राजेन्द्र युधिष्ठिर !
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छमि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
तुम भी भगवान् विष्णुको भक्ति में लग जाओ। उन्होंमें मन, प्राण लगाये रहो और सदा उनके भक्तोंके हितमें तत्पर रहो। यथायोग्य अर्चना करके पुरुषोत्तमका भजन करो
और सब पापोंका नाश करनेवाली भगवान्की पवित्र कथा सुनो। राजन् ! जिस उपायसे भी भक्तपूजित विश्वात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हो, वह विस्तारके साथ करो। जो मनुष्य भगवान् नारायणसे विमुख होते हैं, वे सौ अश्वमेध
और सौ वाजपेय यज्ञोका अनुष्ठान करके भी उन्हें नहीं पा सकते। जिसने एक बार भी 'हरि' इन दो अक्षरोका उच्चारण कर लिया, उसने मोक्षतक पहुँचनेके लिये मानो कमर कस ली। जिनके हृदयमें नीलकमलके समान श्यामसुन्दर भगवान् जनार्दन विराजमान हैं, उन्हींको लाभ है, उन्हींकी विजय है; उनकी पराजय कैसे हो सकती है।* जो एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन इसे सुनता या पढ़ता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके धाममें जाता है।
श्रीगङ्गाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु-प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
____पार्वती बोलीं-महामते ! श्रीगङ्गाजीके माहात्म्यका पुनः वर्णन कीजिये, जिसे सुनकर सभी मुनि संसारकी ओरसे विरक्त हो जाते हैं। . श्रीमहादेवजीने कहा-देवि ! बुद्धिमें बृहस्पति और पराक्रममें इन्द्रके समान भीष्मजी जब बाणशय्यापर शयन कर रहे थे, उस समय उन्हें देखनेके लिये अत्रि, वसिष्ठ, भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अङ्गिरा, गौतम, अगस्त्य और सुमति आदि बहुत-से ऋषि आये। धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ वहाँ मौजूद थे। उन्होंने उन परम तेजस्वी, जगत्पूज्य ऋषियोको प्रणाम करके विधिपूर्वक उनका पूजन किया। पूजा ग्रहण करके वे तपोधन महात्मा जब सुखपूर्वक आसनपर बैठ गये, तब युधिष्ठिरने भीष्मजीको प्रणाम करके इस प्रकार पूछा-पितामह ! धर्मार्थी पुरुषोंके नित्य सेवन करनेयोग्य परम पुण्यमय देश, पर्वत और आश्रम
DULHETAUDA
* अश्वमेधशतरिष्ट्रा वाजपेयशतैरपि । प्राप्नुवन्ति नग नैव नारायणपराङ्मुखाः ॥
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उत्तरखण्ड ]
• श्रीगङ्गाजीकी महिमा तथा श्रीविष्णु-प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य .
कौन-कौन-से है?
सिद्ध पुरुषको आया देख गृहस्थने उनका विधिपूर्वक भीष्मजीने कहा-युधिष्ठिर ! इस विषयमें एक आतिथ्य-सत्कार किया। तत्पश्चात् उनसे पूछाप्राचीन इतिहास बतलाया जाता है, जिसमें शिल और द्विजवर ! कौन-कौनसे देश, पर्वत और आश्रम पवित्र उञ्छवृत्तिसे जीविका चलानेवाले ब्राह्मणका किसी सिद्ध हैं? मुझे प्रेमपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये। पुरुषके साथ हुए संवादका वर्णन है। कोई सिद्ध पुरुष सिद्ध पुरुषने कहा-ब्रह्मन् ! जिनके बीच समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करके किसी उच्छवृत्तिवाले नदियोंमें श्रेष्ठ त्रिपथगा गङ्गाजी सदा बहती रहती हैं, वे महात्मा गृहस्थके घर गये। वे आत्मविद्याके तत्त्वज्ञ, सदा ही देश, वे ही जनपद, वे ही पर्वत और वे ही आश्रम अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखनेवाले, राग-द्वेषसे रहित, परम पवित्र हैं। जीव गङ्गाजीका सेवन करके जिस ज्ञान-कर्ममें कुशल, वैष्णवोंमें श्रेष्ठ, वैष्णव-धर्मके गतिको प्राप्त करता है, उसे तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ अथवा पालनमें तत्पर, वैष्णवोंकी निन्दासे दूर रहनेवाले, त्यागसे भी नहीं पा सकता।* अपने मनको संयममे योगाभ्यासी, त्रिकालपूजाके तत्त्वज्ञ, वेदविद्यामें निपुण, रखनेवाले पुरुषोंको गङ्गाजीके जलमें नान करनेसे जो धर्माधर्मका विचार करनेवाले, नित्य नियमपूर्वक वेदपाठ संतोष होता है, वह सौ यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी नहीं हो करनेवाले और सदा अतिथिपूजामें तत्पर रहनेवाले थे। सकता। जैसे सूर्य उदयकालमें तीव्र अन्धकारका नाश
करके तेजसे उद्भासित हो उठता है, उसी प्रकार गङ्गाजीके जलमें डुबकी लगानेवाला मनुष्य पापोंका नाश करके पुण्यसे प्रकाशमान होने लगता है। विप्र ! जैसे आगका संयोग पाकर रूईका ढेर जल जाता है, उसी प्रकार गङ्गाका स्रान मनुष्यके सारे पापोंको दूर कर देता है। जो मनुष्य सूर्यको किरणोंसे तपे हुए गङ्गाजलका पान करता है, वह सब रोगोंसे मुक्त हो जाता है। जो पुरुष एक पैरसे खड़ा होकर एक हजार चान्द्रायण व्रतोका अनुष्ठान करता है और जो केवल गङ्गाजीके जलमें डुबकी लगाता है-इन दोनोंमें डुबकी लगानेवाला मनुष्य ही श्रेष्ठ है। जो दस हजार वर्षांतक नीचे सिर करके लटका रहता है, उसकी अपेक्षा भी वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो एक मास भी गङ्गाजलका सेवन कर लेता है। नरश्रेष्ठ ! गङ्गाजीमें स्नान करके मनुष्य देहत्यागके पश्चात् तुरंत वैकुण्ठमें चला जाता है। जो सौ योजन दूरसे भी 'गङ्गा-गङ्गा'का उच्चारण करता है, वह
मा सकृदुश्चरितं येन हरिरित्यक्षरद्वयम् । बद्धः परिकरस्तेन •मोक्षाय गमन प्रति ।।
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः । येषामिन्दोवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ॥ (८१ ॥ १६३-१६५) * तपसा ब्रह्मचर्येण योस्त्यागेन वा पुनः । गति तां न लभेजन्तुगङ्गा संसेव्य यां लभेत् ॥ ६८२ । २४) * अपहत्य तमस्तीवं यथा भात्युदये रविः । तथापहत्य पाप्णानं भाति गङ्गाजलाप्लतः॥
अग्निं प्राप्य यथा विप्र तूलराशिविनश्यति । तथा गावगाहश्च सर्वपापं व्यपोहति ॥ (८२ । २६-२७)
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अर्जयस्व इषीकेश यदीच्छसि परं पदम् •
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सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको चला जाता है।* ब्रह्महत्यारा, गोघाती, शराबी और बालहत्या करनेवाला मनुष्य भी गङ्गाजीमें स्नान करके सब पापोंसे छूट जाता और तत्काल देवलोकमें चला जाता है। माधव तथा अक्षयवटका दर्शन और त्रिवेणीमें स्नान करनेवाला पुरुष वैकुण्ठमें जाता है। जैसे सूर्यके उदय होनेपर अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गङ्गामें स्नान करनेमात्रसे मनुष्यके सारे पाप दूर हो जाते हैं। गङ्गाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक, नील पर्वत तथा कनखल तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता।
भीष्मजी कहते हैं— ऐसा जानकर श्रेष्ठ मनुष्यको बारंबार गङ्गास्नान करना चाहिये। राजन् ! वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जैसे देवताओंमें विष्णु यज्ञोंमें अश्वमेध और समस्त वृक्षोंमें अश्वत्थ (पीपल) श्रेष्ठ है, उसी प्रकार नदियोंमें भागीरथी गङ्गा सदा श्रेष्ठ मानी गयी हैं।
पार्वतीने पूछा- विश्वेश्वर! वैष्णवोंका लक्षण कैसा बताया गया है तथा उनकी महिमा कैसी है? प्रभो! यह बतानेकी कृपा करें।
महादेवजी बोले – देवि ! भक्त पुरुष भगवान् विष्णुकी वस्तु माना गया है, इसलिये इसे 'वैष्णव' कहते हैं। जो शौच, सत्य और क्षमासे युक्त हो, राग-द्वेषसे दूर रहता हो, वेद-विद्याके विचारका ज्ञाता हो, नित्य अग्निहोत्र और अतिथियोंका सत्कार करता हो तथा पिता-माताका भक्त हो, वह वैष्णव कहलाता है। जो कण्ठमें माला धारण करके मुखसे सदा श्रीरामनामका उच्चारण करते, भक्तिपूर्वक भगवान्की लीलाओंका गान करते, पुराणोंके स्वाध्यायमें लगे रहते और सर्वदा यज्ञ किया करते हैं, उन मनुष्योंको वैष्णव जानना चाहिये। वे सब धर्मो में सम्मानित होते हैं। जो पापाचारी मनुष्य उन वैष्णवोंकी निन्दा करते हैं, वे मरनेपर बारंबार कुत्सित योनियोंमें पड़ते हैं जो द्विज धातु अथवा मिट्टीकी बनी
!
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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हुई चार हाथोंवाली शोभामयी गोपाल-मूर्तिका सदा पूजन करते हैं, वे पुण्यके भागी होते हैं जो ब्राह्मण पत्थरकी बनी हुई परम सुन्दर रूपवाली श्रीकृष्णप्रतिमाकी पूजा करते हैं, वे पुण्यस्वरूप हैं। जहाँ शालग्रामशिला तथा द्वारकाकी गोमती चक्राङ्कित शिला हो और उन दोनोंका पूजन किया जाता हो, वहाँ निःसन्देह मुक्ति मौजूद रहती है। वहाँ यदि मन्त्रद्वारा मूर्तिकी स्थापना करके पूजन किया जाय तो वह पूजन कोटिगुना अधिक पुण्य देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करनेवाला होता है। वहाँ भगवान् जनार्दनकी नवधा भक्ति करनी चाहिये। भक्त पुरुषोंको मूर्तिमें भगवान्का ध्यान और पूजन करना चाहिये। सम्भव हो तो भगवन्मूर्तिको राजोचित उपचारोंसे पूजा करे तथा उस मूर्तिमें दीनों और अनाथोंको एकमात्र शरण देनेवाले, सम्पूर्ण लोकोंके हितकारी एवं बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाले सर्वात्मा भगवान् अधोक्षजका नित्य-निरन्तर स्मरण करे। जो मूर्तिके सम्बन्धमें 'ये गोपाल हैं', 'ये साक्षात् श्रीकृष्ण हैं', 'ये श्रीरामचन्द्रजी हैं' – यों कहता है और इसी भावसे विधिपूर्वक पूजा करता है, वह निश्चय ही भगवान्का भक्त है। श्रेष्ठ वैष्णव द्विजोंको चाहिये कि वे परम भक्तिके साथ सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतलकी विष्णु प्रतिमाका निर्माण करायें, जिसके चार भुजा, दो नेत्र, हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा, शरीरपर पीत वस्त्र, गलेमें वनमाला, कानोंमें वैदूर्यमणिके कुण्डल, माथेपर मुकुट और वक्षःस्थलमें कौस्तुभमणिका दिव्य प्रकाश हो। प्रतिमा भारी और शोभासम्पन्न होनी चाहिये। फिर वेद शास्त्रोक्त मन्त्रोंके द्वारा विशेष समारोहसे उसकी स्थापना कराकर पीछे शास्त्र के अनुसार षोडशोपचारके मन्त्र आदिद्वारा विधिपूर्वक उसका पूजन करना चाहिये। जगत्के स्वामी भगवान् विष्णुके पूजित होनेपर सम्पूर्ण देवताओंकी पूजा हो जाती है। अतः इस प्रकार आदिअन्तसे रहित, शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले
* गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति । (८२ । ३४-३५) + गङ्गाद्वारे कुशावतें बिल्वके नीलपर्वते । खात्वा कनखले तीर्थे पुनर्जन्म न विद्यते । ८२ । ३८-३९)
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उत्तरखण्ड ]
. चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन .
भगवान् श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। वे सर्वेश्वर उसे निश्चय ही रौरव नरकमें निवास करना पड़ता है। मैं पुण्यस्वरूप वैष्णवोंको सब कुछ देते हैं। जो शिवकी ही विष्णु हूँ, मैं ही रुद्र हूँ और मैं ही पितामह ब्रह्मा हूँ। पूजा नहीं करता और श्रीविष्णुको निन्दामें तत्पर रहता है, मैं ही सदा सब भूतोंमें निवास किया करता हूँ।
१ चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में , मी र म जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
- पार्वती बोलीं-महेश्वर ! सब महीनोंको झूलेपर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णके सामने रात्रिमें विधिका वर्णन कीजिये। प्रत्येक मासमें कौन-कौन-से जागरण करते हैं, उन्हें एक निमेषमें ही सब पुण्योंकी महोत्सव करने चाहिये और उनके लिये उत्तम विधि क्या प्राप्ति हो जाती है। सुरेश्वरि ! झूलेपर विराजमान है? सुरेश्वर ! किस महीनेका कौन देवता है? किसको दक्षिणाभिमुख भगवान् गोविन्दका एक बार भी दर्शन पूजा करनी चाहिये, उस पूजनकी महिमा कैसी है और करके मनुष्य ब्रह्महत्याके पापसे छूट जाता है। वह किस तिथिको करना उचित है?
ॐ दोलारूढाय विद्महे माधवाय च धीमहि । महादेवजी बोले-देवि ! मैं प्रत्येक मासके तन्नो देवः प्रचोदयात् ॥ 1 उत्सवकी विधि बतलाता हूँ। पहले चैत्र मासके 'झूलेपर बैठे हुए भगवान्का तत्त्व जाननेके लिये शुरूपक्षमें विशेषतः एकादशी तिथिको भगवान्को हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। श्रीमाधवका ध्यान करते हैं। झूलेपर बिठाकर पूजा करनी चाहिये। यह दोलारोहणका अतः वे देव-भगवान् विष्णु हमलोगोंकी बुद्धिको उत्सव बड़ी भक्तिके साथ और विधिपूर्वक मनाना प्रेरित करें।' चाहिये। पार्वती ! जो लोग कलियुगके पाप-दोषका इस गायत्री मन्त्रके द्वारा भगवानका पूजन करना अपहरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको झूलेपर चाहिये। 'माधवाय नमः', 'गोविन्दाय नमः' और विराजमान देखते हैं-उस रूपमें उनकी झाँकी करते हैं, 'श्रीकण्ठाय नमः' इन मन्त्रोंसे भी पूजन किया जा वे सहस्रो अपराधोंसे मुक्त हो जाते हैं। करोड़ो जन्मोमे सकता है। मन्त्रोच्चारणके साथ विधिपूर्वक पूजन करना किये हुए पाप तभीतक मौजूद रहते हैं, जबतक मनुष्य उचित है। एकाग्रचित्त होकर गुरुको यथाशक्ति दक्षिणा विश्व के स्वामी भगवान जगन्नाथको झूलेपर बिठाकर उन्हें देनी चाहिये तथा निरन्तर भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी अपने हाथसे झुलाता नहीं। जो लोग कलियुगमें झूलेपर लीलाओंका गान करते रहना चाहिये । इससे उत्सव पूर्ण बैठे हुए जनार्दनका दर्शन करते हैं, वे गोहत्यारे हों तो भी होता है। सुमुखि ! और अधिक कहनेसे क्या लाभ । मुक्त हो जाते हैं, फिर औरोंकी तो बात ही क्या है। झूलेपर विराजमान भगवान् विष्णु सब पापोंको हरनेवाले दोलोत्सवसे प्रसन्न होकर समस्त देवता भगवान् शङ्करको हैं। जहाँ दोलोत्सव होता है, वहाँ देवता, गन्धर्व, किन्नर साथ लेकर झूलेपर बैठे हुए श्रीविष्णुको झाँकी करनेके और ऋषि बहुधा दर्शनके लिये आते हैं। उस समय लिये आते हैं और आँगनमें खड़े हो हर्षमें भरकर स्वयं 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस मन्त्रद्वारा भी नाचते, गाते एवं बाजे बजाते हैं। वासुकि आदि नाग षोडशोपचारसे विधिवत् पूजा करनी उचित है। इससे और इन्द्र आदि देवता भी दर्शनके लिये पधारते हैं। सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण होती हैं।' सुव्रते! अङ्गन्यास, भगवान् विष्णुको झूलेपर विराजमान देख तीनों लोकोंमें करन्यास तथा शरीरन्यास-सब कुछ द्वादशाक्षर मन्त्रसे उत्सव होने लगता है; अतः सैकड़ों कार्य छोड़कर करना चाहिये और इस आगमोक्त मन्त्रसे ही महान् दोलोत्सवके दिन झूलनका उत्सव करो। जो लोग उत्सवका कार्य सम्पन्न करना चाहिये। झूलेपर सबसे
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• अयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
ऊँचे लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुको बैठाना चाहिये। दर्शन करने आते हैं-ऐसा जानकर यह महान् उत्सव भगवान्के आगे [कुछ नीची सतहमें] वैष्णवोंको, अवश्य करना चाहिये।
पार्वती ! वैशाख मासकी पूर्णिमाके दिन वैष्णव पुरुष भक्ति, उत्साह और प्रसन्नताके साथ जगदीश्वर भगवानको जलमें पधराकर उनकी पूजा करे अथवा एकादशी तिथिको अत्यन्त हर्षमें भरकर गीत, वाद्य तथा नृत्यके साथ यह पुण्यमय महोत्सव करे। भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी लीला-कथाका गान करते हुए ही यह शुभ उत्सव रचाना उचित है। उस समय भगवानसे प्रार्थनापूर्वक कहे-'हे देवेश्वर ! इस जलमें शयन कीजिये। जो लोग वर्षाकालके आरम्भमें भगवान् जनार्दनको जलमें शयन कराते हैं, उन्हें कभी नरककी ज्वालामें नहीं तपना पड़ता। देवेश्वरि ! सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीके बर्तनमें श्रीविष्णुको शयन कराना उचित है। पहले उस बर्तनमें शीतल एवं सुगन्धित जल रखकर विद्वान् पुरुष उस जलके भीतर श्रीविष्णुको स्थापित करे। गोपाल या श्रीराम नामक मूर्तिकी स्थापना करे अथवा
शालग्रामशिलाको ही स्थापित करे या और ही कोई नारदादि देवर्षियोंको तथा विश्वक्सेन आदि भक्तोको प्रतिमा जलमें रखे। उससे होनेवाले पुण्यका अन्त नहीं स्थापित करना चाहिये। फिर पाँच प्रकारके बाजोकी है। देवि ! इस पृथ्वीपर जबतक पर्वत, लोक और आवाजके साथ विद्वान् पुरुष भगवान्की आरती करे सूर्यकी किरणें विद्यमान हैं, तबतक उसके कुलमें कोई
और प्रत्येक पहरमें यत्नपूर्वक पूजा भी करता रहे। नरकगामी नहीं होता। अतः ज्येष्ठ मासमें श्रीहरिको तत्पश्चात् नारियल तथा सुन्दर केलोंके साथ जलसे जलमें पधराकर उनकी पूजा करनी चाहिये। इससे भगवानको अर्घ्य दे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है- मनुष्य प्रलय-कालतक निष्पाप बना रहता है। ज्येष्ठ और 'देवदेव जगन्नाथ शङ्खचक्रगदाथर। आषाढ़के समय तुलसीदलसे वासित शीतल जलमें अयं गृहाण मे देव कृपां कुरु ममोपरि ॥ भगवान् धरणीधरकी पूजा करे। जो लोग ज्येष्ठ और
(८५.३१) आषाढ़ मासमें नाना प्रकारके पुष्पोंसे जलमें स्थित 'देवताओंके देवता, जगत्के स्वामी तथा शङ्ख, श्रीकेशवकी पूजा करते हैं, वे यम-यातनासे छुटकारा पा चक्र और गदा धारण करनेवाले दिव्यस्वरूप नारायण! जाते हैं। भगवान् विष्णु जलके प्रेमी हैं, उन्हें जल बहुत यह अर्घ्य ग्रहण करके मुझपर कृपा कौजिये।' ही प्रिय है; इसीलिये वे जलमें शयन करते हैं। अतः .. तदनन्तर भगवान्के प्रसादभूत चरणामृत आदि गर्मीको मौसममें विशेषरूपसे जलमें स्थापित करके ही वैष्णवोंको बांटे। वैष्णवजनोंको चाहिये कि वे बाजे श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। जो शालग्रामशिलाको बजाकर भगवान के सामने नृत्य करें और सभी लोग जलमें विराजमान करके परम भक्तिके साथ उसकी पूजा वारी-बारीसे भगवान्को झुलाये। सुरेश्वरि ! पृथ्वीपर करता है, वह अपने कुलको पवित्र करनेवाला होता है। जो-जो तीर्थ और क्षेत्र है, वे सभी उस दिन भगवान्का पार्वती ! सूर्यके मिथुन और कर्कराशिपर स्थित होनेके
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उत्तरखण्ड ]
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पवित्रारोपणकी विधि तथा श्रीहरिकी पूजामें आनेवाले पुष्पोंका वर्णनं •
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समय जिसने भक्तिपूर्वक जलमें श्रीहरिकी पूजा की है, विशेषतः द्वादशी तिथिको जिसने जलशायी विष्णुका अर्चन किया है, उसने मानो कोटिशत यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया। जो वैशाख मासमें भगवान् माधवको जलपात्रमें स्थापित करके उनका पूजन करते हैं, वे इस पृथ्वीपर मनुष्य नहीं, देवता हैं।
जो द्वादशीकी रातको जलपात्रमें गन्ध आदि डालकर उसमें भगवान् गरुडध्वजकी स्थापना और पूजा करता है, वह मोक्षका भागी होता है। जो श्रद्धारहित, पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और तर्कमें ही स्थित रहनेवाले हैं, ये पाँच व्यक्ति पूजाके फलके भागी नहीं होते। * इसी प्रकार जो जगत्के स्वामी महेश्वर श्रीविष्णुको सदा जलमें रखकर उनकी पूजा करता है, वह मनुष्य सदाके लिये महापापोंसे मुक्त हो जाता है। देवेश्वरि ! 'ॐ ह्रां ह्रीं रामाय नमः' इस मन्त्रसे वहाँ पूजन बताया गया है। ॐ क्रीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय नमः इस मन्त्रसे जलको अभिमन्त्रित करना चाहिये। तत्पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्रसे अर्ध्य निवेदन करे
(८७ । २३-२४)
'देवदेव । महाभाग ! श्रीवत्सके चिह्नोंसे युक्त महान् देवता! विश्वको उत्पन्न करनेवाले भगवान् नारायण ! मेरा अर्घ्य ग्रहण करें और मुझे सदाके लिये मोक्ष प्रदान करें।'
Off. BATT
जो नाना प्रकारके पुष्पोंसे गरुडासन श्रीविष्णुकी पूजा करता है, वह सब बाधाओंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। द्वादशीको एकाग्रचित्त हो रातमें जागरण करके अविकारी एवं अविनाशी भगवान् विष्णुका भक्तिपूर्वक भजन करे। इस तरह भक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको भक्तिभावसे तत्पर हो भगवान् विष्णुका वैशाखसम्बन्धी उत्सव करना चाहिये, तथा उसमें आगमोक्त मन्त्रद्वारा समस्त विधिका पालन करना चाहिये। महादेवी! ऐसा करनेसे कोटि यज्ञोंके समान फल मिलता है। इस उत्सवको करनेवाला पुरुष रागद्वेषसे मुक्त हो महामोहकी निवृत्ति करके इस लोकमें सुख भोगता और अन्तमें श्रीविष्णुके सनातन धामको जाता है। वेदके अध्ययनसे रहित तथा शास्त्रके स्वाध्यायसे शून्य मनुष्य भी श्रीहरिकी भक्ति पाकर वैष्णवपदको प्राप्त होता है।
★
पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम
आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
देवदेव महाभाग
श्रीवत्सकृतलाञ्छन ।
महादेव नमस्तेऽस्तु नमस्ते विश्वभावन ॥
Huy
=
श्रीमहादेवजी कहते हैं—देवेश्वरी! श्रावण मास आनेपर पवित्रारोपणका विधान है। इसका पालन करनेपर दिव्य भक्ति उत्पन्न होती है। विद्वान् पुरुषको भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुका पवित्रारोपण करना चाहिये। पार्वती ! ऐसा करनेसे वर्षभरकी पूजा सम्पन्न हो जाती है। श्रीविष्णुके लिये पवित्रारोपण करनेपर अपनेको सुख होता है। कपड़ेका सूत, जो किसी ब्राह्मणीका काता हुआ हो अथवा अपने हाथसे तैयार किया हुआ हो, ले आये
अर्घ्यं गृहाण भो देव मुक्तिं मे देहि सर्वदा ।
=
७४७
और उसीसे पवित्रक बनाये। उपर्युक्त सूतके अभावमें किसी उत्तम शूद्र जातिकी स्त्रीके हाथका काता हुआ सूत भी लिया जा सकता है। यदि ऐसा भी न मिले तो जैसातैसा खरीदकर भी ले आना चाहिये। पवित्रारोपणकी विधि रेशमके सूतसे ही करनी चाहिये अथवा चाँदी या सोनेसे श्रीविष्णु देवताके लिये विधिपूर्वक पवित्रक बनाना चाहिये सब धातुओंके अभावमें विद्वान् पुरुषोंको साधारण सूत ग्रहण करना चाहिये। सूतको
* अश्रद्दधानः पापात्मा नास्तिकोऽच्छिन्नसंशयः । हेतुनिष्ठ पञ्चैते
न पूजाफलभागिनः ॥ ८७ । १९)
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- अर्चयस्व इपीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
तिगुना करके उसे जलसे धोना चाहिये। फिर यदि विधिसे संनिधीकरण (समीपतास्थापन) करना चाहिये। शिवलिङ्गके लिये बनाना हो तो उस लिङ्गके बराबर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र-ये तीन सूत्रोंके देवता हैं तथा अथवा किसी प्रतिमाके लिये बनाना हो तो उस प्रतिमाके क्रिया, पौरुषी, वीरा, अपराजिता, जया, विजया, सिरसे लेकर पैरतकका या घुटनेतकका या नाभिके मुक्तिदा, सदाशिवा, मनोन्मनी और सर्वतोमुखी-ये दस बराबरतकका पवित्रक बनाना चाहिये। इनमें पहला ग्रन्थियोंकी अधिष्ठात्री देवियाँ हैं। इन सवका सूत्रोंमें उत्तम, दूसरा मध्यम और तीसरा लघु श्रेणीका है। एक आवाहन करना चाहिये। शास्त्रोक्त विधिसे मुद्राद्वारा सालमें जितने दिन हो, उतनी संख्या या उसके आधी आवाहन करे। सबका आवाहन करके संनिधीकरणकी संख्यामें अथवा एक सौ आठकी संख्या में सूतसे ही उस क्रिया करे। पवित्रकमें गाँठं लगानी चाहिये। पार्वती ! चौवनकी मुद्राद्वारा समीपता स्थापित करनेका नाम संनिधीसंख्यामें भी गाँठे लगायी जा सकती है। विष्णुप्रतिमाके करण है। पहले रक्षामुद्रासे संरक्षण करके धेनुमुद्राके लिये जो पवित्रक बने; उसे वनमालाके आकारका बना द्वारा उन्हें अमृतस्वरूप बनाये। फिर सबसे पहले लेना चाहिये। जैसे भी शोभा हो, वह उपाय करना भगवानके आगे कलशका जल लेकर 'क्लीं कृष्णाय' चाहिये । इससे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। पवित्रक इस मन्त्रसे उन पवित्रकोंका प्रोक्षण करे । तत्पश्चात् गन्ध, तैयार होनेके पश्चात् भगवानको अर्पण करना चाहिये। धूप, दीप, नैवेद्य और ताम्बूल आदि निवेदन करके
पार्वती ! कुबेरके लिये पवित्रारोपण करनेकी तिथि षोडशोपचार आदिसे पवित्रकके देवताओका पूजन करे । प्रतिपदा बतायी गयी है। लक्ष्मीदेवीके लिये द्वितीया सब फिर उन्हें धूप देकर देवताके सम्मुख हो नमस्कारमुद्राके तिथियोंमें उत्तम है। तुम्हारे लिये तृतीया बतायी गयी है द्वारा देवताको अभिमन्त्रित करे। उस समय इस मन्त्रका
और गणेशके लिये चतुर्थी । चन्द्रमाके लिये पञ्चमी, उच्चारण करना चाहियेकार्तिकेयके लिये षष्ठी, सूर्यके लिये सप्तमी, दुर्गाके लिये आमन्त्रितो महादेव साध देव्या गणादिभिः । अष्टमी, मातृवर्गके लिये नवमी, यमराजके लिये दशमी, मन्त्रैर्वा लोकपालैश्च सहित: परिचारकैः ।। अन्य सब देवताओंके लिये एकादशी, लक्ष्मीपति आगच्छ भगवन् विष्णो विधेः सम्पूर्तिहेतवे। श्रीविष्णुके लिये द्वादशी, कामदेवके लिये त्रयोदशी, मेरे प्रातस्त्वत्पूजनं कुर्मः सांनिध्यं नियतं कुरु ।। लिये चतुर्दशी तथा ब्रह्माजीके लिये पवित्रकसे पूजन
in (८८।२९-३०) करनेके निमित्त पूर्णिमा तिथि बतायी गयी है। ये भिन्न- 'महान् देवता भगवान् विष्णु ! मन्त्रोद्वारा आवाहन भिन्न देवताओंके लिये पवित्रारोपणके योग्य तिथियाँ कही करनेपर आप देवी लक्ष्मी, पार्षद, लोकपाल और गयी है। लघु श्रेणीके पवित्रको बारह, मध्यम श्रेणीके परिचारकोंके साथ विधिकी पूर्तिके लिये यहाँ पधारिये। पवित्रकमें चौबीस और उत्तम श्रेणीके पवित्रकमें छत्तीस प्रातःकालमें आपकी पूजा करूंगा। यहाँ निश्चितरूपसे प्रन्थियाँ कम-से-कम होनी चाहिये। सब पवित्रकोंको सन्निकटता स्थापित कीजिये। कपूर और केसर अथवा चन्दन और हल्दीमें रंगकर तदनन्तर वह गन्ध और पवित्रक भगवान् राघवके बाँसके नये पात्रमें रखना चाहिये और जहाँ भगवानका अथवा श्रीविष्णुके चरणोंके समीप रख दे, फिर प्रातःपूजन हो, वहाँ उन सबको देवताकी भाँति स्थापित करना काल नित्यकर्म करके पुण्याह और स्वस्तिवाचन कराये चाहिये । पहले देवताकी पूजा करके फिर उन्हें पवित्रकोंमें तथा भगवानको जय-जयकारके साथ घण्टा आदि बाजे अधिवासित करना चाहिये। पवित्रकमें अधिवास हो और तुरही आदि बजाते हुए पवित्रकोंद्वारा पूजन करे। जानेपर पुनः पूजन करना उचित है। पवित्रकोंमें जो देवता 'ॐ वासुदेवाय विद्महे, विष्णुदेवाय धीमहि, अधिवास करते हैं, उनका आगे बतायी जानेवाली तन्नो देवः प्रचोदयात्।'
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पवित्रारोपणकी विधि तथा श्रीहरिकी पूजामें आनेवाले पुष्पोंका वर्णन
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श्रीवासुदेवका तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, श्रीविष्णुदेवके लिये ध्यान करते हैं, वे देव विष्णु हमारी बुद्धिको प्रेरित करें।'
इस मन्त्र से अथवा देवताके नाम-मन्त्र से पवित्रक अर्पण करना चाहिये। इसके बाद भगवान् विष्णुकी महापूजा करे, जिससे सबके आत्मा श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। चारों ओर विधिपूर्वक दीपमाला जलाकर रखे। भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य— ये चार प्रकारके अन्न नैवेद्यके लिये प्रस्तुत करे। पूर्वपूजित पवित्रक भगवान्को अर्पण कर दे। फिर विशेष भक्तिके साथ श्रीगुरुकी पूजा करे। गुरु महान् देवता हैं, उन्हें वस्त्र और अलङ्कार आदि अर्पण करके विधिपूर्वक पूजन करना उचित है। गुरु पूजनके पश्चात् पवित्रक धारण करे। इसके बाद वहाँ जो वैष्णव उपस्थित हों, उन्हें ताम्बूल आदि देकर अग्रिको पूर्णाहुति अर्पण करे। अन्तमें लक्ष्मीनिवास भगवान् श्रीकृष्णको कर्म समर्पित करे
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं तु केशव । यत्पूजितं मया सम्यक् सम्पूर्ण यातु मे ध्रुवम् ॥ (८८ । ३९)
'हे केशव ! मैने मन्त्र, क्रिया और भक्तिके बिना जो पूजन किया हो, वह भी निश्चय ही परिपूर्ण हो जाय।'
तदनन्तर देवताओंका विसर्जन करके वैष्णव ब्राह्मणों तथा इष्ट-बन्धुओंके साथ स्वयं भी शुद्ध अत्र भोजन करे। जो उत्तम द्विज इस दिव्य पूजनके प्रसङ्गको सुनते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके परम पदको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार पवित्रारोपण करनेपर इस पृथ्वीपर जितने भी दान और नियम किये जाते हैं, वे सब परिपूर्ण होते हैं। पवित्रारोपणका विधान उत्सवोंका सम्राट् है। इससे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है, इसमें तनिक भी अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। गिरिराजकुमारी! मैंने जो कुछ कहा है, वह सत्य है, सत्य है, सत्य है। पवित्रारोपणमें जो पुण्य है, वही उसके दर्शनमें भी है। महाभागे ! यदि शूद्र भी भक्तिभावसे पवित्रारोपणका विधान पूर्ण कर लें तो वे परम धन्य माने जाते हैं। मैं इस भूतलपर धन्य और कृत-कृत्य हूँ; क्योंकि मैंने भगवान् विष्णुकी मोक्षदायिनी भक्ति प्राप्त की है।
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पार्वतीने पूछा- देवेश्वर! विश्वनाथ! किस मासमें किन-किन फूलोंका भगवान्को पूजामें उपयोग करना चाहिये ? यह बतानेकी कृपा करें।
श्रीमहादेवजी बोले- चैत्र मासमें चम्पा और चमेलीके फूलोंसे शहारी केशवका प्रयत्नपूर्वक पूजन करना चाहिये दौना, कटसरैया और वरुणवृक्षके फूलोंसे भी जगत्के स्वामी सर्वेश्वर श्रीविष्णुका पूजन किया जा सकता है। मनुष्य एकाग्रचित्त होकर लाल या और किसी रंगके सुन्दर कमलपुष्पोद्वारा चैत्र मासमें श्रीहरिका पूजन करे। देवि ! वैशाख मासमें जब कि सूर्य वृष राशिपर स्थित हों, केतकी (केवड़े) के पत्ते लेकर महाप्रभु श्रीविष्णुका पूजन करना चाहिये। जिन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान्का पूजन कर लिया, उनके ऊपर श्रीहरि संतुष्ट रहते हैं। ज्येष्ठ मास आनेपर नाना प्रकारके फूलोंसे भगवान्की पूजा करनी चाहिये। देवदेवेश्वर श्रीविष्णुके पूजित होनेपर सम्पूर्ण देवताओंकी पूजा सम्पन्न हो जाती है। आषाढ़ मासमें कनेरके फूल, लाल फूल अथवा कमलके फूलोंसे भगवान्की विशेष पूजा करनी चाहिये। जो मनुष्य इस प्रकार भगवान् विष्णुकी पूजा करते हैं, वे पुण्यके भागी होते हैं। जो सुवर्णके समान रंगवाले कदम्बके फूलोंसे सर्वव्यापी गोविन्दकी पूजा करेंगे, उन्हें कभी यमराजका भय नहीं होगा । लक्ष्मीपति श्रीविष्णु श्रीलक्ष्मीजीको पाकर जैसे प्रसन्न रहते हैं, उसी प्रकार कदंबका फूल पाकर भी विश्वविधाता श्रीहरिको विशेष प्रसन्नता होती है। सुरेश्वरि तुलसी, श्यामा, तुलसी तथा अशोकके द्वारा सर्वदा पूजित होनेपर श्रीविष्णु नित्यप्रप्ति कष्टका निवारण करते हैं। जो लोग सावन मास आनेपर अलसीका फूल लेकर अथवा दूर्वादलके द्वारा श्रीजनार्दनकी पूजा करते हैं, उन्हें भगवान् प्रलयकालतक मनोवाञ्छित भोग प्रदान करते रहते हैं। पार्वती! भादोंके महीनेमें चम्पा, श्वेत पुष्प, रक्तसिंदूरक तथा कहारके पुष्पोंसे पूजन करके मनुष्य सब कामनाओंका फल प्राप्त कर लेता है। आश्विनके शुभ मासमें जुही, चमेली तथा नाना प्रकारके शुभ पुष्पोंद्वारा प्रयत्नपूर्वक भक्तिके साथ सदा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। जो कमलके फूल ले आकर श्रीजनार्दनकी
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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[ संक्षिप्त पयपुराण
पूजा करते हैं, वे मानव इस पृथ्वीपर धर्म, अर्थ, काम पूजन करे। महादेवि ! पौष मासमें नाना प्रकारके
और मोक्ष-चारों पदार्थ प्राप्त कर लेते हैं। कार्तिक तुलसीदल तथा कस्तूरीमिश्रित जलके द्वारा पूजन करना मास आनेपर परमेश्वर श्रीविष्णुकी पूजा करनी चाहिये। कल्याणदायक माना गया है। माघ मास आनेपर नाना उस समय ऋतुके अनुकूल जितने भी पुष्प उपलब्ध हों, प्रकारके फूलोंसे भगवानकी पूजा करे। उस समय वे सभी श्रीमाधवको अर्पण करने चाहिये। तिल और कपूरसे तथा नाना प्रकारके नैवेद्य एवं लड्डुओंसे पूजा तिलके फूल भी चढ़ाये अथवा उन्होंके द्वारा पूजन करे। होनी चाहिये। इस प्रकार देवदेवेश्वरके पूजित होनेपर उनके द्वारा देवेश्वरके पूजित होनेपर मनुष्य अक्षय मनुष्य निश्चय ही मनोवाञ्छित फलोको प्राप्त कर लेता फलका भागी होता है। जो लोग कार्तिकमें छितवन, है। फाल्गुनमें भी नवीन पुष्पों अथवा सब प्रकारके मौलसिरी तथा चम्पाके फूलोंसे श्रीजनार्दनकी पूजा करते फूलोंसे श्रीहरिका अर्चन करना चाहिये। सब तरहके हैं, वे मनुष्य नहीं, देवता हैं। मार्गशीर्ष मासमें नाना फूल लेकर वसन्तकालकी पूजा सम्पादन करे। इस प्रकारके पुष्पों, विशेषतः दिव्य पुष्पों, उत्तम नैवेद्यों, धूपों प्रकार श्रीजगन्नाथके पूजित होनेपर पुरुष श्रीविष्णुकी तथा आरती आदिके द्वारा सदा प्रयत्नपूर्वक भगवान्का कपासे अविनाशी वैकुण्ठपदको प्राप्त कर लेता है।
कार्तिक-व्रतका माहात्म्य-गुणवतीको कार्तिक-व्रतके पुण्यसे भगवानकी प्राप्ति
सूतजी कहते हैं-एक समयकी बात है, देवर्षि निवेदन करनेके पश्चात् बैठनेको आसन दिया। नारदजीने नारद कल्पवृक्षके दिव्य पुष्प लेकर द्वारकामें भगवान् वे दिव्य पुष्प भगवान्को भेंट कर दिये । भगवान्ने अपनी श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये आये। श्रीकृष्णने स्वागत- सोलह हजार रानियोंमें उन फूलोको बाँट दिया। पूर्वक नारदजीका सत्कार करते हुए उन्हें पाद्य-अयं तदनन्तर एक दिन सत्यभामाने पूछा-'प्राणनाथ !
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उत्तरखण्ड ] • कार्तिक-व्रतका माहात्म्य-गुणवतीको कार्तिक-नतके पुण्यसे भगवानको प्राप्ति • ७५१ ...
.................................................................. मैंने पूर्वजन्ममें कौन-सा दान, तप अथवा व्रत किया था, पाँच रूपोंमें प्रकट हुआ है। ठीक उसी तरह, जैसे कोई 'जिससे मैं मर्त्यलोकमें जन्म लेकर भी मयंभावसे ऊपर देवदत्त नामक एक ही व्यक्ति पुत्र-पिता आदि भिन्न-भिन्न उठ गयी, आपकी अर्धाङ्गिनी हुई।
नामोंसे पुकारा जाता है।* भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिये ! एकाग्रचित्त तदनन्तर गुणवतीने जब राक्षसके हाथसे उन होकर सुनो-तुम पूर्वजन्ममें जो कुछ थीं और जिस दोनोंके मारे जानेका हाल सुना, तब वह पिता और पुण्यकारक व्रतका तुमने अनुष्ठान किया था, वह सब मैं पतिके वियोग-दुःखसे पीड़ित होकर करुणस्वरमें विलाप बताता हूँ। सत्ययुगके अन्तमें मायापुरी (हरद्वार) के करने लगी-'हा नाथ ! हा तात! आप दोनों मुझे भीतर अत्रिकुलमें उत्पन्न एक ब्राह्मण रहते थे, जो अकेली छोड़कर कहाँ चले गये? मैं अनाथ बालिका देवशर्मा नामसे प्रसिद्ध थे। वे वेद-वेदाङ्गोंके पारंगत आपके बिना अब क्या करूँगी। अब कौन घरमें बैठी विद्वान्, अतिथिसेवी, अग्रिहोत्रपरायण और सूर्यव्रतके हुई मुझ कुशलहीन दुःखिनी स्त्रीका भोजन और वस्त्र पालनमें तत्पर रहनेवाले थे। प्रतिदिन सूर्यकी आराधना आदिके द्वारा पालन करेगा।' इस प्रकार वारंवार करनेके कारण वे साक्षात् दूसरे सूर्यकी भाँति तेजस्वी करुणाजनक विलाप करके वह बहुत देरके बाद चुप जान पड़ते थे। उनकी अवस्था अधिक हो चली थी। हुई। गुणवती शुभकर्म करनेवाली थी। उसने घरका ब्राह्मणके कोई पुत्र नहीं था; केवल एक पुत्री थी, सारा सामान बेचकर अपनी शक्तिके अनुसार पिता और जिसका नाम गुणवती था। उन्होंने अपने चन्द्र नामक पतिका पारलौकिक कर्म किया। तत्पश्चात् वह उसी शिष्यके साथ उसका विवाह कर दिया । वे उस शिष्यको नगरमें निवास करने लगी। शान्तभावसे सल्य-शौच ही पुत्रकी भाँति मानते थे और वह जितेन्द्रिय शिष्य भी आदिके पालनमें तत्पर हो भगवान् विष्णुके भजनमें उन्हें पिताके ही तुल्य समझता था। एक दिन वे दोनों समय बिताने लगी। उसने अपने जीवनभर दो व्रतोंका गुरु-शिष्य कुश और समिधा लानेके लिये गये और विधिपूर्वक पालन किया-एक तो एकादशीका उपवास हिमालयके शाखाभूत पर्वतके वनमें इधर-उधर भ्रमण और दूसरा कार्तिक मासका भलीभाँति सेवन । प्रिये ! ये करने लगे; इतनेमें ही उन्होंने एक भयङ्कर राक्षसको दो व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं। ये पुण्य उत्पत्र करनेवाले, अपनी ओर आते देखा। उनके सारे अङ्ग भयसे काँपने पुत्र और सम्पत्तिके दाता तथा भोग और मोक्ष प्रदान लगे। वे भागने में भी असमर्थ हो गये। तबतक उस करनेवाले हैं। जो कार्तिकके महीने में सूर्यके तुला कालरूपी राक्षसने उन दोनोंको मार डाला। उस क्षेत्रके राशिपर रहते समय प्रातःकाल स्नान करते है, वे प्रभावसे तथा स्वयं धर्मात्मा होनेके कारण उन दोनोंको महापातकी होनेपर भी मुक्त हो जाते हैं। जो मनुष्य मेरे पार्षदोंने वैकुण्ठ धाममें पहुंचा दिया। उन्होंने जो कार्तिकमें नान, जागरण, दीपदान और तुलसीवनका जीवनभर सूर्यपूजन आदि किया था, उस कर्मसे मैं उनके पालन करते हैं, वे साक्षात् भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। ऊपर बहुत संतुष्ट था। सूर्य, शिव, गणेश, विष्णु तथा जो लोग श्रीविष्णुमन्दिरमें झाड़ देते, स्वस्तिक आदि शक्तिके उपासक भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। जैसे वर्षाका निवेदन करते और श्रीविष्णुको पूजा करते रहते हैं, वे जल सब ओरसे समुद्रमें हो जाता है, उसी प्रकार इन जीवन्मुक्त है। जो कार्तिकमें तीन दिन भी इस नियमका पाँचोंके उपासक मेरे ही पास आते हैं। मैं एक ही हूँ. पालन करते हैं, वे देवताओंके लिये वन्दनीय हो जाते तथापि लीलाके अनुसार भिन्न-भिन्न नाम धारण करके हैं। फिर जिन लोगोंने आजन्म इस कार्तिकव्रतका
* सौराक्ष शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः । मामेय प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागर यथा ॥ एकोऽहं पशधा जातः क्रीडया नामभिः किल । देवदत्तो यथा कभित्पुत्राधाद्वाननामभिः ।। (१०।६३-६४)
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अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
अनुष्ठान किया है, उनके लिये तो कहना ही क्या है। इस प्रकार गुणवती प्रतिवर्ष कार्तिकका व्रत किया करती थी। वह श्रीविष्णुकी परिचर्यामें नित्य निरन्तर भक्तिपूर्वक मन लगाये रहती थी। एक समय, जब कि जरावस्थासे उसके सारे अङ्ग दुर्बल हो गये थे और वह स्वयं भी ज्वरसे पीड़ित थी, किसी तरह धीरे-धीरे चलकर गङ्गा तटपर स्नान करनेके लिये गयी। ज्यों ही उसने जलके भीतर पैर रखा, त्यों ही वह शीतसे पीड़ित हो काँपती हुई गिर पड़ी। उस घबराहटकी दशामें ही उसने देखा, आकाशसे विमान उतर रहा है, जो शङ्ख,
चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले श्रीविष्णुरूपधारी पार्षदोंसे सुशोभित है और उसमें गरुड़चिह्नसे अङ्कित ध्वजा फहरा रही है। विमानके निकट आनेपर वह
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
दिव्यरूप धारण करके उसपर बैठ गयी। उसके लिये चैवर डुलाया जाने लगा। मेरे पार्षद उसे वैकुण्ठ ले चले। विमानपर बैठी हुई गुणवती प्रज्वलित अग्निशिखाके समान तेजस्विनी जान पड़ती थी, कार्तिकातके पुण्यसे उसे मेरे निकट स्थान मिला।
तदनन्तर जब मैं ब्रह्मा आदि देवताओंकी प्रार्थनासे इस पृथ्वीपर आया, तब मेरे पार्षदगण भी मेरे साथ ही आये। भामिनि ! समस्त यादव मेरे पार्षदगण ही हैं। ये मेरे समान गुणोंसे शोभा पानेवाले और मेरे प्रियतम है। जो तुम्हारे पिता देवशर्मा थे, वे ही अब सत्राजित् हुए हैं। शुभे ! चन्द्रशर्मा ही अक्रूर हैं और तुम गुणवती हो । कार्तिकव्रतके पुण्यसे तुमने मेरी प्रसन्नताको बहुत बढ़ाया है। पूर्वजन्ममें तुमने मेरे मन्दिरके द्वारपर जो तुलसीकी वाटिका लगा रखी थी, इसीसे तुम्हारे आँगनमें कल्पवृक्ष शोभा पा रहा है। पूर्वकालमें तुमने जो कार्तिकमें दीपदान किया था, उसीके प्रभावसे तुम्हारे घरमें यह स्थिर लक्ष्मी प्राप्त हुई है तथा तुमने जो अपने व्रत आदि सब कर्मोंको पतिस्वरूप श्रीविष्णुकी सेवामें निवेदन किया था, इसीलिये तुम मेरी पत्नी हुई हो। मृत्युपर्यन्त जो कार्तिकव्रतका अनुष्ठान किया है, उसके प्रभावसे तुम्हारा मुझसे कभी भी वियोग नहीं होगा। इस प्रकार जो मनुष्य कार्तिक मासमें व्रतपरायण होते हैं, वे मेरे समीप आते हैं, जिस प्रकार कि तुम मुझे प्रसन्नता देती हुई यहाँ आयी हो। केवल यज्ञ, दान, तप और व्रत करनेवाले मनुष्य कार्तिक के पुण्यकी एक कला भी नहीं पा सकते ।
सूतजी कहते हैं- इस प्रकार जगत् के स्वामी भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे अपने पूर्वजन्मके पुण्यमय वैभवकी बात सुनकर उस समय महारानी सत्यभामाको बड़ा हर्ष हुआ।
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उत्तरखण्ड ]
• कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसङ्गमें शङ्कासुरके वध आदिकी कथा .
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कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसङ्गमें शङ्कासुरके वध, वेदोंके उद्धार
तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
सत्यभामाने पूछा-देवदेवेश्वर ! तिथियोंमें वलसे प्रबल प्रतीत होते हैं। यह बात मेरी समझमें आ एकादशी और महीनोंमें कार्तिक मास आपको विशेष गयी है, अतः मैं वेदोंका ही अपहरण करूँगा। इससे प्रिय क्यों हैं? इसका कारण बताइये।
समस्त देवता निर्बल हो जायेंगे।' ऐसा निश्चय करके वह भगवान् श्रीकृष्ण बोले-सत्ये ! तुमने बहुत वेदोंको हर ले आया। इधर ब्रह्माजी पूजाकी सामग्री अच्छी बात पूछी है। एकाग्रचित्त होकर सुनो। प्रिये ! लेकर देवताओंके साथ वैकुण्ठलोकमें जा भगवान् पूर्वकालमें राजा पृथुने भी देवर्षि नारदसे ऐसा ही प्रश्न विष्णुको शरणमें गये। उन्होंने भगवान्को जगानेके लिये किया था। उस समय सर्वज्ञ मुनिने उन्हें कार्तिक मासकी गीत गाये और बाजे बजाये। तब भगवान् विष्णु उनको
भक्तिसे संतुष्ट हो जाग उठे। देवताओंने उनका दर्शन किया। वे सहसों सूर्योक समान कान्तिमान् दिखायी देते थे। उस समय षोडशोपचारसे भगवानकी पूजा करके देवता उनके चरणोंमें पड़ गये। तब भगवान् लक्ष्मीपतिने उनसे इस प्रकार कहा।
श्रेष्ठताका कारण बताया था।
नारदजी बोले-पूर्वकालमें शङ्ख नामक एक असुर था, जो त्रिलोकीका नाश करनेमें समर्थ तथा महान् बल एवं पराक्रमसे युक्त था। वह समुद्रका पुत्र था। उस महान् असुरने समस्त देवताओंको परास्त करके स्वर्गसे बाहर कर दिया और इन्द्र आदि श्रीविष्णु बोले-देवताओ ! तुम्हारे गीत, वाद्य लोकपालोंके अधिकार छीन लिये। देवता मेरुगिरिकी आदि मङ्गलमय कार्योंसे संतुष्ट हो मैं वर देनेको उद्यत दुर्गम कन्दराओंमें छिपकर रहने लगे। शत्रुके अधीन हूँ। तुम्हारी सभी मनोवाञ्छित कामनाओंको पूर्ण नहीं हुए। तब दैत्यने सोचा कि 'देवता वेदमन्त्रोंके करूँगा। कार्तिकके शुक्लपक्षमें 'प्रबोधिनी एकादशीके
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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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दिन जब एक पहर रात बाकी रहे, उस समय गीत वाद्य आदि मङ्गलमय विधानोंके द्वारा जो लोग तुम्हारे ही समान मेरी आराधना करेंगे, वे मुझे प्रसन्न करनेके कारण मेरे समीप आ जायेंगे। शङ्खासुरके द्वारा हरे गये सम्पूर्ण वेद जलमें स्थित हैं। मैं सागरपुत्र शङ्खका वध करके उन्हें ले आऊँगा । आजसे लेकर सदा ही प्रतिवर्ष कार्तिक मासमें मन्त्र, बीज और यज्ञोंसे युक्त वेद जलमें विश्राम करेंगे। आजसे मैं भी इस महीनेमें जलके भीतर निवास करूँगा। तुमलोग भी मुनीश्वरोंको साथ लेकर मेरे साथ आओ। इस समय जो श्रेष्ठ द्विज प्रातः स्नान करते हैं, वे निश्चय ही सम्पूर्ण यज्ञोंका अवभृथस्नान कर चुके। जिन्होंने जीवनभर शास्त्रोक्त विधिसे कार्तिकके उत्तम व्रतका पालन किया हो, वे तुमलोगोंके भी माननीय हो । तुमने एकादशीको मुझे जगाया है; इसलिये यह तिथि मेरे लिये अत्यन्त प्रीतिदायिनी और माननीय होगी। कार्तिक मास और एकादशी तिथि – इन दो व्रतोंका यदि मनुष्य अनुष्ठान करें तो ये मेरे सांनिध्यकी प्राप्ति करानेवाले हैं। इनके समान दूसरा कोई साधन नहीं है।
मछलीके समान रूप धारण करके आकाशसे विन्ध्यपर्वत निवासी कश्यप मुनिकी अञ्जलिमें गिरे। मुनिने करुणावश उस मत्स्यको अपने कमण्डलुमें रख लिया; किन्तु वह उसमें अँट न सका। तब उन्होंने उसे कुएँमें ले जाकर डाल दिया। जब उसमें भी वह न आ सका, तब मुनिने उसे तालाबमें पहुँचा दिया; किन्तु वहाँ भी यही दशा हुई। इस प्रकार उसे अनेक स्थानोंमें रखते हुए अन्ततोगत्वा उन्होंने समुद्रमें डाल दिया। वहाँ भी बढ़कर वह विशालकाय हो गया । तदनन्तर उन मत्स्यरूपधारी भगवान् विष्णुने शङ्खासुरका वध किया और उस शङ्खको अपने हाथमें लिये वे बदरीवनमें गये। वहाँ सम्पूर्ण ऋषियोंको बुलाकर भगवान्ने इस प्रकार आदेश दिया।
श्रीविष्णु बोले- महर्षियो ! जलके भीतर बिखरे हुए वेदोंकी खोज करो और रहस्योंसहित उनका पता लगाकर शीघ्र ही ले आओ। तबतक में देवताओंके साथ प्रयागमें ठहरता हूँ।
तब तेज और बलसे सम्पन्न समस्त मुनियोंने यज्ञ और बीजसहित वेदमन्त्रोंका उद्धार किया। जिस वेदके नारदजी कहते हैं - यह कहकर भगवान् विष्णु जितने मन्त्रको जिस ऋषिने उपलब्ध किया, वही उतने
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उत्तरखण्ड ]
• कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसङ्गमें शङ्खासुरके वध आदिकी कथा .
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भागका तबसे ऋषि माना जाने लगा। तदनन्तर सब मुनि किये हुए ब्रह्महत्या आदि पाप भी इस तीर्थका दर्शन एकत्रित होकर प्रयागमें गये तथा ब्रह्माजीसहित भगवान् करनेसे तत्काल नष्ट हो जायें। जो धीर पुरुष इस तीर्थमें विष्णुको उन्होंने प्राप्त किये हुए वेद अर्पण कर दिये। मेरे समीप मृत्युको प्राप्त होंगे, वे मुझमें ही प्रवेश कर यज्ञसहित वेदोंको पाकर ब्रह्माजीको बड़ा हर्ष हुआ तथा जायेंगे, उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। जो यहाँ मेरे आगे उन्होंने देवताओं और ऋषियोंके साथ प्रयागमें अश्वमेध पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध करेंगे, उनके समस्त पितर मेरे यज्ञ किया। यज्ञकी समाप्ति होनेपर देवता, गन्धर्व, यक्ष, लोकमें चले जायेंगे। यह काल भी मनुष्योंके लिये किन्नर तथा गुहाकोंने पृथ्वीपर साष्टाङ्ग प्रणाम करके यह महान् पुण्यमय तथा उत्तम फल प्रदान करनेवाला होगा। प्रार्थना की।
सूर्यके मकर राशिपर स्थित रहते हुए जो लोग यहाँ देवता बोले-देवाधिदेव जगन्नाथ ! प्रभो !! प्रातःकाल नान करेंगे, उनके लिये यह स्थान पापनाशक हमारा निवेदन सुनिये। हमलोगोंके लिये यह बड़े हर्षका होगा। मकर राशिपर सूर्यके रहते समय माघमें समय है, अतः आप हमें वरदान दें। रमापते ! इस प्रातःस्नान करनेवाले मनुष्योंके दर्शनमात्रसे सारे पाप स्थानपर ब्रह्माजीको खोये हुए वेदोंकी प्राप्ति हुई है तथा उसी प्रकार भाग जाते हैं, जैसे सूर्योदयसे अन्धकार। आपकी कृपासे हमें भी यज्ञभाग उपलब्ध हुआ है; अतः माघमें जब सूर्य मकर राशिपर स्थित हों, उस समय यहाँ यह स्थान पृथ्वीपर सबसे अधिक श्रेष्ठ और पुण्यवर्धक प्रातःस्नान करनेपर मैं मनुष्योंको क्रमशः सालोक्य, हो। इतना ही नहीं, आपके प्रसादसे यह भोग और सामीप्य और सारूप्य–तीनों प्रकारकी मुक्ति दूंगा। मोक्षका भी दाता हो। साथ ही यह समय भी महान् मुनीश्वरो ! तुम सब लोग मेरी बात सुनो। यद्यपि मैं पुण्यदायक और ब्रह्महत्यारे आदिकी भी शुद्धि सर्वत्र व्यापक हूँ, तो भी बदरीवनमें सदा विशेषरूपसे करनेवाला हो। इसमें दिया हुआ सब कुछ अक्षय हो। निवास करता हूँ. अन्यत्र दस वर्षातक तपस्या करनेसे यही वर हमें दीजिये।
जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही वहाँ एक दिनको भगवान् विष्णुने कहा-देवताओ ! तुमने जो तपस्यासे तुमलोग प्राप्त कर सकते हो। जो नरश्रेष्ठ उस कुछ कहा है, उसमें मेरी भी सम्मति है; अतः तुम्हारी स्थानका दर्शन करते हैं, वे सदाके लिये जीवन्मुक्त है। इच्छा पूर्ण हो, यह स्थान आजसे 'ब्राक्षेत्र' नाम धारण उनके शरीरमें पाप नहीं रहता।। करे। सूर्यवंशमें उत्पन्न राजा भगीरथ यहाँ गङ्गाको ले नारदजी कहते हैं-देवदेव भगवान् विष्णु आयेंगे और वह सूर्यकन्या यमुनाजीके साथ यहाँ देवताओंसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजीके साथ वहीं मिलेगी। ब्रह्माजीसहित तुम सम्पूर्ण देवता भी मेरे साथ अन्तर्धान हो गये तथा इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी यहाँ निवास करो। आजसे यह तीर्थ 'तीर्थराज' के अपने अंशोंसे वहाँ रहकर स्वरूपसे अन्तर्धान हो गये। नामसे विख्यात होगा। यहाँ किये हुए दान, व्रत, तप, जो शुद्ध चित्तवाला श्रेष्ठ पुरुष इस कथाको सुनता या होम, जप और पूजा आदि कर्म अक्षय फलके दाता और सुनाता है, वह तीर्थराज प्रयाग और बदरीवनको यात्रा सदा मेरी समीपताकी प्राप्ति करानेवाले हो । सात जन्मोंमें करनेका फल प्राप्त कर लेता है।
संप पु० २५
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१ • अर्चयस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
राजा पृथुने कहा-मुने ! आपने कार्तिक और अच्छी तरह साफ नहीं रखता, उसके उच्चारण किये हुए मायके स्नानका महान् फल बतलाया; अब उनमें किये मन्त्र फलदायक नहीं होते; इसलिये प्रयत्नपूर्वक दाँत जानेवाले खानकी विधि और नियमोंका भी वर्णन और जीभकी शुद्धि करनी चाहिये । गृहस्थ पुरुष किसी कीजिये, साथ ही उनकी उद्यापन-विधिको भी दूधवाले वृक्षकी बारह अंगुलकी लकड़ी लेकर दाँतुन ठीक-ठीक बताइये।
__करे; किन्तु यदि घरमें पिताको क्षयाह तिथि या व्रत हो नारदजी बोले-राजन् ! तुम भगवान् विष्णुके तो दाँतुन न करे । दाँतुन करनेके पहले वनस्पति-देवतासे अंशसे उत्पन्न हुए हो, तुम्हारे लिये कोई बात अज्ञात नहीं इस प्रकार प्रार्थना करेहै। तथापि तुम पूछते हो, इसलिये मैं कार्तिकके परम आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजा: पशुवसूनि च।। उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता हूँ सुनो। आश्विन मासके ब्रह्मप्रज्ञा च मेयां च त्वं नो देहि वनस्पते ।। शुक्लपक्षमें जो एकादशी आती है, उसी दिन आलस्य
(९४ । ११) छोड़कर कार्तिकके उत्तम व्रतोंका नियम ग्रहण करे । व्रत हे वनस्पते ! आप मुझे आयु, बल, यश, करनेवाला पुरुष पहरभर रात बाकी रहे, तभी उठे और तेज, संतति, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान और स्मरणशक्ति जलसहित लोटा लेकर गाँवसे बाहर नैर्ऋत्यकोणकी ओर प्रदान करें।' जाय । दिन और सन्ध्याके समय उत्तर दिशाकी ओर मुँह इस मन्त्रका उच्चारण करके दाँतुनसे दाँत साफ करके तथा रात हो तो दक्षिणकी ओर मुँह करके मल- करना चाहिये। प्रतिपदा, अमावास्या, नवमी, षष्ठी, मूत्रका त्याग करे। पहले जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ा रविवार तथा चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके दिन दाँतुन नहीं ले और भूमिको तिनकेसे ढककर अपने मस्तकको करना चाहिये। व्रत और श्राद्धके दिन भी लकड़ीकी वस्त्रसे आच्छादित कर ले। शौचके समय मुखको दाँतुन करना मना है, उन दिनों जलके बारह कुल्ले करके यत्नपूर्वक मूंदे रखे। न तो थूके और न मुँहसे ऊपरको मुख शुद्ध करनेका विधान है। काँटेदार वृक्ष, कपास, साँस ही खींचे। मलत्यागके पश्चात् गुदाभाग तथा सिन्धुवार, ब्रह्मवृक्ष (पलाश), बरगद, एरण्ड (रेड) हाथको इस प्रकार धोये, जिससे मलका लेप और दुर्गन्ध और दुर्गन्धयुक्त वृक्षोंको लकड़ीको दाँतुनके काममें नहीं दूर हो जाय । इस कार्यमें आलस्य नहीं करना चाहिये। लेना चाहिये। फिर स्नान करनेके पश्चात् भक्तिपरायण पाँच बार गुदामें, दस बार बायें हाथमें तथा सात-सात एवं प्रसन्नचित्त होकर चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाकर धोये। फिर एक बार पूजाको सामग्री ले भगवान् विष्णु अथवा शिवके लिङ्गमें, तीन बार बायें हाथमें और दो-दो बार दोनों मन्दिरमें जाय। वहाँ भगवान्को पृथक्-पृथक् पाद्यहाथोंमें मिट्टी लगाकर धोये । यह गृहस्थके लिये शौचकी अर्घ्य आदि उपचार अर्पण करके स्तुति करे तथा पुनः विधि बतायी गयी। ब्रह्मचारीके लिये इससे दूना, नमस्कार करके गीत आदि माङ्गलिक उत्सवका प्रबन्ध वानप्रस्थके लिये तिगुना और संन्यासीके लिये चौगुना करे। ताल, वेणु और मृदङ्ग आदि बाजोंके साथ करनेका विधान है। रातको दिनकी अपेक्षा आधे शौच भगवानके सामने नृत्य और गान करनेवाले लोगोका भी (मिट्टी लगाकर धोने) का नियम है। रास्ता चलनेवाले ताम्बूल आदिके द्वारा सत्कार करे। जो भगवान्के व्यक्तिके लिये, स्वीके लिये तथा शूद्रोंके लिये उससे भी मन्दिरमें गान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुरूप हैं। आधे शौचका विधान है। शौचकर्मसे हीन पुरुषकी कलियुगमे किये हुए यज्ञ, दान और तप भक्तिसे युक्त समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जो अपने मुँहको होनेपर ही जगदगुरु भगवान्को संतोष देनेवाले होते हैं।
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उत्तरखण्ड
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राजन् ! एक बार मैंने भगवान से पूछा-'देवेश्वर ! आप भगवान् विष्णु अथवा शिवकी भलीभाँति पूजा करते हैं, कहाँ निवास करते हैं ?' तो वे मेरौ भक्तिसे संतुष्ट होकर वे मनुष्य पापहीन हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रीविष्णुके बोले- 'नारद ! न तो मैं वैकुण्ठमें निवास करता हूँ धाममें जाते हैं। और न योगियोंके हृदयमें। मेरे भक्त जहाँ मेरा गुण-गान नारदजी कहते है-जब दो घड़ी रात बाकी रहे, करते हैं, वहीं मैं भी रहता हूँ।* यदि मनुष्य गन्ध, पुष्प तब तिल, कुश, अक्षत, फूल और चन्दन आदि लेकर आदिके द्वारा मेरे भक्तोंका पूजन करते है तो उससे मुझे पवित्रतापूर्वक जलाशयके तटपर जाय। मनुष्योंका जितनी अधिक प्रसन्नता होती है, उतनी स्वयं मेरी पूजा खुदवाया हुआ पोखरा हो अथवा कोई देवकुण्ड हो या नदी करनेसे भी नहीं होती। जो मूर्ख मानव मेरी पुराण-कथा अथवा उसका संगम हो-इनमें उत्तरोत्तर दसगुने पुण्यकी और मेरे भक्तोका गान सुनकर निन्दा करते हैं, वे मेरे प्राप्ति होती है तथा यदि तीर्थ में स्नान करे तो उसका अनन्त द्वेषके पात्र होते हैं।
फल माना गया है। तत्पश्चात् भगवान् विष्णुका स्मरण शिरीष, (सिरस), उन्मत्त (धतूरा), गिरिजा करके नानका संकल्प करे तथा तीर्थ आदिके देवताओंको (मातुलुङ्गी), मल्लिका (मालती), सेमल, मदार और क्रमशः अर्घ्य आदि निवेदन करे। फिर भगवान् विष्णुको कनेरके फूलोंसे तथा अक्षतोंके द्वारा श्रीविष्णुको पूजा अर्घ्य देते हुए निम्नाङ्कित मन्त्रका पाठ करेनहीं करनी चाहिये। जवा, कुन्द, सिरस, जूही, मालती नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने।
और केवड़ेके फूलोंसे श्रीशङ्करजीका पूजन नहीं करना नमस्तेऽस्तु अषीकेश गृहाणाध्यै नमोऽस्तु ते॥ चाहिये। लक्ष्मी-प्राप्तिको इच्छा रखनेवाला पुरुष तुलसीदलसे गणेशका, दूर्वादलसे दुर्गाका तथा कार्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातःस्रानं जनार्दन । अगस्त्यके फूलोंसे सूर्यदेवका पूजन न करे। इनके प्रीत्यर्थ तव देवेश दामोदर मया सह ।। अतिरिक्त जो उत्तम पुष्प है, वे सदा सब देवताओंकी ध्यात्वाऽहं त्वां च देवेश जलेऽस्मिन् स्नातुमुद्यतः । पूजाके लिये प्रशस्त माने गये हैं। इस प्रकार पूजा-विधि तव प्रसादात्यापं मे दामोदर विनश्यतु ॥ पूर्ण करके देवदेव भगवानसे क्षमा-प्रार्थना करे
(९५१४,७,८) मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर । - 'भगवान् पद्मनाभको नमस्कार है। जलमें शयन यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे॥ करनेवाले श्रीनारायणको नमस्कार है। हषीकेश !
(९४ । ३०) आपको बारंबार नमस्कार है। यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। 'देवेश्वर ! देव ! मेरे द्वारा किये गये आपके पूजनमें जनार्दन ! देवेश ! लक्ष्मीसहित दामोदर ! मैं आपकी जो मन्त्र, विधि तथा भक्तिकी न्यूनता हुई हो, वह सब प्रसन्नताके लिये कार्तिकमें प्रातःस्रान करूँगा। देवेश्वर ! आपकी कृपासे पूर्ण हो जाय।
आपका ध्यान करके मैं इस जलमें स्रान करनेको उद्यत तदनन्तर प्रदक्षिणा करके दण्डवत् प्रणाम करे तथा हूँ। दामोदर ! आपकी कृपासे मेरा पाप नष्ट हो जाय। पुनः भगवानसे त्रुटियोंके लिये क्षमा याचना करते हुए तत्पश्चात् राधासहित भगवान् श्रीकृष्णको निम्नाङ्कित गायन आदि समाप्त करे। जो इस कार्तिककी रात्रिमें मन्त्रसे अर्घ्य दे
* नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै। मद्रका या गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद । (९४ । २३) + शिरीषोन्मत्तगिरिजामल्लिकाशाल्मलीभवः ।अर्कजैः कर्णिकारेश्च विष्णुनार्यस्तथाक्षतैः ॥ जपाकुन्दशिरीयैश्च यूथिकामालतीभवैः । केतकीभवपुष्पैश्च नैयार्थ्यः शङ्करस्तथा ॥ गणेश तुलसीपौटुंगो नैव तु दूर्षया । मुनिपुष्पैस्तश्या सूर्य लक्ष्मीकामो न चार्चयेत्।। (९४ । २६-२८)
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
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नित्ये नैमित्तिके कृष्ण कार्तिके पापनाशने। श्रीविष्णुकी आज्ञा प्राप्त करके कार्तिकका व्रत करनेके गृहाणाध्यै मया दतं राधया सहितो हरे॥ कारण यदि मुझसे कोई त्रुटि हो जाय तो उसके लिये
(९५।९) समस्त देवता मुझे क्षमा करें तथा इन्द्र आदि देवता मुझे - 'श्रीराधासहित भगवान् श्रीकृष्ण ! नित्य और पवित्र करें। बीज, रहस्य और यज्ञोंसहित वेदमन्त्र और नैमित्तिक कर्मरूप इस पापनाशक कार्तिकस्रानके व्रतके कश्यप आदि मुनि मुझे सदा ही पवित्र करें । गङ्गा आदि निमित्त मेरा दिया हुआ यह अर्घ्य स्वीकार करें।' सम्पूर्ण नदियाँ, तीर्थ, मेघ, नद और सात समुद्र-ये
इसके बाद व्रत करनेवाला पुरुष भागीरथी, सभी मुझे सर्वदा पवित्र करें। अदिति आदि पतिव्रताएँ, श्रीविष्णु, शिव और सूर्यका स्मरण करके नाभिके बराबर यक्ष, सिद्ध, नाग तथा त्रिभुवनकी ओषधि और पर्वत भी जलमें खड़ा हो विधिपूर्वक स्नान करे । गृहस्थ पुरुषको मुझे पवित्र करें।' तिल और आँवलेका चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिये। नानके पश्चात् विधिपूर्वक देवता, ऋषि, मनुष्य वनवासी संन्यासी तुलसीके मूलकी मिट्टी लगाकर स्नान (सनकादि) तथा पितरोंका तर्पण करे । कार्तिक मासमें करे। सप्तमी, अमावास्या, नवमी, द्वितीया, दशमी और पितृ-तर्पणके समय जितने तिलोंका उपयोग किया जाता त्रयोदशीको आँवलेके फल और तिलके द्वारा स्नान है, उतने ही वर्षातक पितर स्वर्गलोकमें निवास करते हैं। करना निषिद्ध है। पहले मल-नान करे अर्थात् शरीरको तदनन्तर जलसे बाहर निकलकर व्रती मनुष्य पवित्र वस्त्र खूब मल-मलकर उसकी मैल छुड़ाये। उसके बाद मन्त्र- धारण करे और प्रातःकालोचित नित्यकर्म पूरा करके नान करे । स्त्री और शूद्रोंको वेदोक्त मन्त्रोंसे स्नान नहीं श्रीहरिका पूजन करे। फिर भक्तिसे भगवान्में मन करना चाहिये। उनके लिये पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग लगाकर तीर्थों और देवताओंका स्मरण करते हुए पुनः बताया गया है।
गन्ध, पुष्प और फलसे युक्त अर्घ्य निवेदन करे । __व्रती पुरुष अपने हाथमें पवित्रक धारण करके अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार हैनिम्नाङ्कित मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए स्नान करे- वतिनः कार्तिके मासि सातस्य विधिवप्रम । विधाभूदेवकार्यार्थं यः पुरा भक्तिभावितः । गृहाणार्य पया दत्तं राधया सहितो हरे ॥ स विष्णुः सर्वपापघ्नः पुनातु कृपयात्र माम् ॥
(९५।२३) विष्णोराज्ञामनुप्राप्य कार्तिकव्रतकारणात् । 'भगवन् ! मैं कार्तिक मासमें स्रानका व्रत लेकर क्षमन्तु देवास्ते सर्वे मां पुनन्तु सवासवाः॥ विधिपूर्वक स्रान कर चुका हूँ। मेरे दिये हुए इस अर्घ्यको वेदमन्त्राः सखीजाश्च सरहस्या मखान्विताः। आप श्रीराधिकाजीके साथ स्वीकार करें।' कश्यपाद्याश्च मुनयो मां पुनन्तु सदैव ते ॥ इसके बाद वेदविद्याके पारंगत ब्राह्मणोंका गन्ध, पुष्प गङ्गायाः सरितः सर्वास्तीर्थानि जलदा नदाः। और ताम्बूलके द्वारा भक्तिपूर्वक पूजन करे और बारंबार ससप्तसागराः सर्वे मां पुनन्तु सदैव ते॥ उनके चरणोंमें मस्तक झुकावे। ब्राह्मणके दाहिने पैरमें पतिव्रतास्त्वदित्याद्या यक्षाः सिद्धाः सपन्नगाः। सम्पूर्ण तीर्थ, मुखमें वेद और समस्त अङ्गों में देवता निवास ओषध्यः पर्वताश्चापि मां पुनन्तु त्रिलोकजाः ॥ करते हैं; अतः ब्राह्मणके पूजन करनेसे इन सबकी पूजा हो
(९५1१४-१८) जाती है। इसके पश्चात् हरिप्रिया भगवती तुलसीको पूजा 'जो पूर्वकालमें भक्तिपूर्वक चिन्तन करनेपर करे । प्रयागमें स्नान करने, काशीमें मृत्यु होने और वेदोंके देवताओके कार्यकी सिद्धिके लिये तीन स्वरूपोंमें प्रकट स्वाध्याय करनेसे जो फल प्राप्त होता है; वह सब हुए तथा जो समस्त पापोंका नाश करनेवाले हैं, वे श्रीतुलसीके पूजनसे मिल जाता है; अतः एकाग्रचित्त होकर भगवान् विष्णु यहाँ कृपापूर्वक मुझे पवित्र करें। निम्नाङ्कित मन्त्रसे तुलसीकी प्रदक्षिणा और नमस्कार करे
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उत्तरखण्ड ] १० ।
• कार्तिक-व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि •
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देवस्त्वं निर्मिता पूर्वमर्थिताऽसि मुनीश्वरैः। तुलसी-पूजनके पश्चात् व्रत करनेवाला भक्तिमान् नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये ॥ पुरुष चित्तको एकाग्न करके भगवान् विष्णुकी पौराणिक
(९५ । ३०) कथा सुने तथा कथा-वाचक विद्वान् ब्राह्मण अथवा 'हरिप्रिया तुलसीदेवी ! पूर्वकालमें देवताओंने तुम्हें मुनिकी पूजा करे। जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर पूर्वोक्त उत्पन्न किया और मुनीश्वरोंने तुम्हारी पूजा की। तुम्हें सम्पूर्ण विधियोंका भलीभाँति पालन करता है, वह बारंबार नमस्कार है। मेरे सारे पाप हर लो। अन्तमे भगवान् नारायणके परमधाममें जाता है।
कार्तिक-व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
नारदजी कहते हैं-राजन् ! कार्तिकका व्रत (बैगन), कोहड़ा, भतुआ, लसोड़ा और कैथ भी त्याग करनेवाले पुरुषोंके लिये जो नियम बताये गये हैं, उनका दें। व्रती पुरुष रजस्वलाका स्पर्श न करे; म्लेच्छ, पतित, मैं संक्षेपसे वर्णन करता हूँ। ध्यान देकर सुनो । अन्नदान व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही तथा वेदके अनधिकारी पुरुषोंसे देना, गौओंको ग्रास अर्पण करना, वैष्णव पुरुषोंके साथ कभी वार्तालाप न करे। इन लोगोंने जिस अत्रको देख वार्तालाप करना तथा दूसरेके दीपकको जलाना या लिया हो, उस अत्रको भी न खाय; कौओंका जूठा किया उकसाना-इन सब कार्योंसे मनीषी पुरुष धर्मकी प्राप्ति हुआ, सूतकयुक्त घरका बना हुआ, दो बार पकाया तथा बतलाते हैं। बुद्धिमान् पुरुष दूसरेके अन्न, दूसरेकी जला हुआ अन्न भी वैष्णवव्रतका पालन करनेवाले शय्या, दूसरेको निन्दा और दूसरेको स्वीका सदा ही पुरुषोंके लिये अखाद्य है। जो कार्तिकमें तेल लगाना, परित्याग करे तथा कार्तिकमे तो इन्हें त्यागनेकी खाटपर सोना, दूसरेका अन्न लेना और काँसके बर्तन में विशेषरूपसे चेष्टा करे। उड़द, मधु, सौवीरक तथा भोजन करना छोड़ देता है, उसीका व्रत परिपूर्ण होता है। राजमाष (किराव) आदि अत्र कार्तिकका व्रत करनेवाले व्रती पुरुष प्रत्येक व्रतमें सदा ही पूर्वोक्त निषिद्ध मनुष्यको नहीं खाने चाहिये। दाल, तिलका तेल, वस्तुओंका त्याग करे तथा अपनी शक्तिके अनुसार भाव-दूषित तथा शब्द-दूषित अन्नका भी व्रती मनुष्य भगवान् विष्णुको प्रसन्नताके लिये कृच्छ्र आदि व्रतोंका परित्याग करे । कार्तिकका व्रत करनेवाला पुरुष देवता, अनुष्ठान करता रहे । गृहस्थ पुरुष रविवारके दिन सदा हो वेद, द्विज, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरुषोंकी आँवलेके फलका त्याग करे। । निन्दा छोड़ दे। बकरी, गाय और भैसके दूधको ोड़कर इसी प्रकार माघमें भी व्रती पुरुष उक्त नियमोंका
अन्य सभी पशुओका दूध मांसके समान वर्जित है। पालन करे और श्रीहरिके समीप शास्त्रविहित जागरण भी ब्राह्मणोंके खरीदे हुए सभी प्रकारके रस, ताँबेके पात्रमें करे। यथोक्त नियमोंके पालनमें लगे हुए कार्तिकवत रखा हुआ गायका दूध, दही और घी, गढेका पानी और करनेवाले मनुष्यको देखकर यमदूत उसी प्रकार भागते केवल अपने लिये बनाया हुआ भोजन-इन सबको हैं, जैसे सिंहसे पीड़ित हाथी। भगवान् विष्णुके इस विद्वान् पुरुषोंने आमिषके तुल्य माना है। व्रती मनुष्योंको व्रतको सौ यज्ञोंकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ जानना चाहिये। सदा ही ब्रह्मचर्यका पालन, भूमिपर शयन, पत्तलमें क्योंकि यज्ञ करनेवाला पुरुष स्वर्गलोकको पाता है और भोजन और दिनके चौथे पहरमें एक बार अन्न ग्रहण कार्तिकका व्रत करनेवाला मनुष्य वैकुण्ठधामको। इस करना चाहिये । कार्तिकका व्रत करनेवाला मानव प्याज, पृथ्वीपर भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले जितने भी क्षेत्र लहसुन, हींग, छत्राक (गोवर-छत्ता) गाजर, नालिक हैं, वे सभी कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषके शरीरमें (भसीड), मूली और साग खाना छोड़ दे। लौकी, भाँटा निवास करते हैं। मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा
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• अर्चयस्व हपोकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
होनेवाला जो कुछ भी दुष्कर्म या दुःस्वप्न होता है, वह वाद्य आदि माङ्गलिक उत्सवोंके साथ भगवानके समीप कार्तिक-व्रतमें लगे हुए पुरुषको देखकर तत्काल नष्ट हो जागरण करना चाहिये। जो भगवान् विष्णुके समीप जाता है। इन्द्र आदि देवता भगवान् विष्णुको आज्ञासे जागरणकालमें भक्तिपूर्वक गान करते हैं, वे सौ जन्मोंकी प्रेरित होकर कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषको निरन्तर पापराशिसे मुक्त हो जाते हैं। भगवान् विष्णुके निमित्त रक्षा करते रहते हैं-ठीक उसी तरह, जैसे सेवक जागरणकालमें गीत-वाद्य करनेवालों तथा सहस्र गोदान राजाकी रक्षा करते है। जहाँ सबके द्वारा सम्मानित करनेवालोको भी समान फलको ही प्राप्ति बतलायी गयी वैष्णव-व्रतका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष नित्य निवास है। जो रात्रिमें वासुदेवके समक्ष जागरण करते समय करता है, वहाँ ग्रह, भूत, पिशाच आदि नहीं रहते। भगवान् विष्णुके चरित्रोंका पाठ करके वैष्णव पुरुषोंका
राजन् ! अब मैं कार्तिक-व्रतके अनुष्ठानमें लगे हुए मनोरञ्जन करता है तथा मनमानी बातें नहीं करता, उसे पुरुषके लिये उत्तम उद्यापन-विधिका संक्षेपसे वर्णन प्रतिदिन कोटि तीर्थोक सेवनके समान पुण्य प्राप्त होता है। करता हूँ। तुम एकाग्रचित होकर सुनो। व्रती मनुष्य रात्रि-जागरणके पश्चात् पूर्णिमाको प्रातःकाल अपनी कार्तिक शुरूपक्षकी चतुर्दशीको व्रतकी पूर्ति तथा शक्तिके अनुसार तीस या एक सपत्नीक ब्राह्मणको भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये उद्यापन करे। भोजनके लिये निमन्वित करे । उस दिन किया हुआ दान, तुलसीजीके ऊपर एक सुन्दर मण्डप बनाये, जिसमें चार होम और जप अक्षय फल देनेवाला माना गया है; अतः दरवाजे बने हों; उस मण्डपमें सुन्दर बंदनवार लगाकर व्रती पुरुष खीर आदिके द्वारा ब्राह्मणोंको भलीभाँति भोजन उसे पुष्पमय चैवरसे सुशोभित करे। चारों दरवाजोंपर कराये। 'अतो देवाः' आदि दो मन्त्रोंसे देवदेव भगवान् पृथक्-पृथक् मिट्टीके चार द्वारपाल-पुण्यशील, विष्णु तथा अन्य देवताओंकी प्रसन्नताके लिये पृथक्सुशील, जय और विजयकी स्थापना करके उन सबका पृथक् तिल और खोरको आहुति छोड़े। फिर यथाशक्ति पूजन करे। तुलसीके मूलभागमें वेदीपर सर्वतोभद्र दक्षिणा दे उन्हें प्रणाम करे । इसके बाद भगवान् विष्णु, मण्डल बनाये, जो चार रंगोंसे रञ्जित होकर सुन्दर देवगण तथा तुलसीका पुनः पूजन करे । कपिला गायकी शोभासम्पन्न और अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता हो। विधिपूर्वक पूजा करे और व्रतका उपदेश करनेवाले सर्वतोभद्रके ऊपर पञ्चरत्नयुक्त कलशकी स्थापना करे। सपत्नीक आचार्यका भी वस्त्र तथा आभूषणों आदिके द्वारा उसके ऊपर नारियलका महान् फल रख दे। इस प्रकार पूजन करे। अन्तमें सब ब्राह्मणोंसे क्षमा-प्रार्थना कलश स्थापित करके उसके ऊपर समुद्रकन्या करे-'विप्रवरो! आपलोगोंकी कपासे देवेश्वर भगवान् लक्ष्मीजीके साथ शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले विष्णु मुझपर सदा प्रसन्न रहें। मैंने गत सात जन्मोमें जो पीताम्बरधारी देवेश्वर श्रीविष्णु की पूजा करे । सर्वतोभद्रके पाप किये हों, वे सब इस व्रतके प्रभावसे नष्ट हो जायें। मण्डलमें इन्द्र आदि लोकपालोंका भी पूजन करना प्रतिदिन भगवान्के पूजनसे मेरे सम्पूर्ण मनोरथ सफल हों चाहिये। भगवान् द्वादशीको शयनसे उठे, त्रयोदशोको तथा इस देहका अन्त होनेपर में अत्यन्त दुर्लभ देवताओंने उनका दर्शन किया और चतुर्दशीको सबने वैकुण्ठधामको प्राप्त करूं।' उनकी पूजा की; इसीलिये इस समय भी उसी तिथिको इस प्रकार क्षमायाचना करके ब्राह्मणोंको प्रसन्न इनकी पूजा की जाती है। उस दिन शान्त एवं शुद्धचित्त करनेके पश्चात् उन्हें विदा करे और गौसहित भगवान् होकर भक्तिपूर्वक उपवास करना चाहिये तथा आचार्यकी विष्णुकी सुवर्णमयी प्रतिमा आचार्यको दान कर दे। आज्ञासे देवदेवेश्वर श्रीविष्णुकी सुवर्णमयी प्रतिमाका तत्पश्चात् भक्त पुरुष सुहृदों और गुरुजनोंके साथ स्वयं भी षोडशोपचारद्वारा नाना प्रकारके भक्ष्य-भोज्य पदार्थ भोजन करे । कार्तिक हो या माघ, उसके लिये ऐसी ही प्रस्तुत करते हुए पूजन करना चाहिये । रात्रि गीत और विधि बतायी गयी है। जो मनुष्य इस प्रकार कार्तिकके
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उत्तरखण्ड ]
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कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
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उत्तम व्रतका पालन करता है, वह निष्पाप एवं मुक्त होकर भगवान् विष्णुकी समीपता प्राप्त करता है। सम्पूर्ण व्रतों, तीर्थों और दानोंसे जो फल मिलता है, वही इस कार्त्तिकव्रतका विधिपूर्वक पालन करनेसे करोड़गुना होकर मिलता है। जो कार्त्तिक- व्रतका अनुष्ठान करते हुए भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर होते हैं, वे धन्य हैं, वे सदा पूज्य हैं तथा उन्हींके यहाँ सब प्रकारके शुभफलोंका उदय होता है। देहमें स्थित हुए पाप उस मनुष्यके भयसे काँप उठते हैं और आपसमें कहने लगते हैं— 'अरे ! यह तो कार्तिकका व्रत करने लगा, अब हम कहाँ जायेंगे। जो कार्त्तिक- व्रतके इन नियमोंको भक्तिपूर्वक सुनता तथा वैष्णव पुरुषके आगे इनका वर्णन करता है, वे दोनों ही उत्तम व्रत करनेका फल पाते हैं और उनका दर्शन करनेसे मनुष्योंके पापोंका नाश हो जाता है। नारदजी कहते हैं— राजन्! कार्तिक- व्रतके उद्यापनमें तुलसीके मूलप्रदेशमें भगवान् विष्णुकी पूजा की जाती है; क्योंकि तुलसी उनके लिये अत्यन्त प्रीतिदायिनी मानी गयी है। जिसके घरमें तुलसीका बगीचा लगा होता है, उसका वह घर तीर्थस्वरूप है। वहाँ यमराजके दूत नहीं जाते। तुलसीवन सब पापोंको हरनेवाला, पवित्र तथा मनोवाञ्छित भोगोंको देनेवाला है। जो श्रेष्ठ मानव तुलसीका वृक्ष लगाते हैं, वे कभी यमराजको नहीं देखते। नर्मदाका दर्शन, गङ्गाका स्नान और तुलसीवनके पास रहना—ये तीनों एक समान माने गये हैं। रोपने, रक्षा करने, सींचने तथा दर्शन और स्पर्श करनेसे तुलसी मन, वाणी और शरीरद्वारा किये हुए समस्त पापोंको भस्म कर डालती है। जो तुलसीकी मारियोंसे भगवान् विष्णु और शिवकी पूजा करता है, वह कभी गर्भमें नहीं आता तथा निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। पुष्कर आदि तीर्थ, गङ्गा आदि नदियाँ तथा वासुदेव आदि देवता - ये सभी तुलसीदलमें निवास करते हैं। नृपश्रेष्ठ ! जो तुलसीकी मञ्जरीसे संयुक्त होकर प्राणोंका परित्याग करता है, उसे श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त होता है—यह सत्य है, सत्य है। जो
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शरीरमें तुलसीकी मिट्टी लगाकर मृत्युको प्राप्त होता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त हो तो भी उसकी ओर साक्षात् यमराज भी नहीं देख सकते। जो मनुष्य तुलसीकाष्ठका चन्दन लगाता है, उसके शरीरको पाप नहीं छू सकते। जहाँ-जहाँ तुलसीवनकी छाया हो, वहीं श्राद्ध करना चाहिये, क्योंकि वहाँ पितरोंके निमित्त दिया हुआ दान अक्षय होता है ।
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नृपश्रेष्ठ! जो आँवलेकी छायामें पिण्डदान करता है, उसके नरकमें पड़े हुए पितर भी मुक्त हो जाते हैं। जो मस्तकपर, हाथमें मुखमें तथा शरीरके अन्य किसी अवयवमें आँवलेका फल धारण करता है, उसे साक्षात् श्रीहरिका स्वरूप समझना चाहिये। आँवला, तुलसी और द्वारकाकी मिट्टी (गोपीचन्दन) —ये जिसके शरीरमें स्थित हों, वह मनुष्य सदा जीवन्मुक्त कहलाता है। जो मनुष्य आँवलेके फल और तुलसीदलसे मिश्रित जलके द्वारा स्नान करता है, उसके लिये गङ्गास्नानका फल बताया गया है। जो आँवलेके पत्ते और फलोंसे देवताकी पूजा करता है, वह भाँति-भाँतिके सुवर्णमय पुष्पोंसे पूजा करनेका फल पाता है। कार्त्तिकमें जब सूर्य तुला राशिपर स्थित होते हैं, उस समय समस्त तीर्थ, मुनि देवता और यज्ञ- ये सभी आँवलेके वृक्षका आश्रय लेकर रहते हैं। जो द्वादशीको तुलसीदल और कार्तिकमें आँवलेका पत्ता तोड़ता है, वह अत्यन्त निन्दित नरकोंमें पड़ता है। जो कार्त्तिकमें आँवलेकी छायामें बैठकर भोजन करता है, उसका वर्षभरका अन्नसंसर्गजनित दोष दूर हो जाता है। जो मनुष्य कार्त्तिकमें आँवलेकी जड़में भगवान् विष्णुकी पूजा करता है, उसके द्वारा सदा सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें श्रीविष्णुका पूजन सम्पन्न हो जाता है जैसे भगवान् विष्णुकी महिमाका पूरा-पूरा वर्णन असम्भव है, उसी प्रकार आँवले और तुलसीके माहात्म्यका भी वर्णन नहीं हो सकता। जो आँवले और तुलसीकी उत्पत्ति कथाको भक्तिपूर्वक सुनता और सुनाता है, वह पापरहित हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रेष्ठ विमानपर बैठकर स्वर्गलोकमें जाता है।
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. अत्रयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
कार्तिक-व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
राजा पृथुने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! कार्तिकका व्रत हुलिया थी। उसे देखकर ब्राह्मण देवता भयसे थर्रा उठे। करनेवाले पुरुषके लिये जिस महान् फलकी प्राप्ति बतायी सारा शरीर कांपने लगा। उन्होंने साहस करके पूजाको गयी है, उसका वर्णन कीजिये। किसने इस व्रतका सामग्री तथा जलसे ही उस राक्षसीके ऊपर रोषपूर्वक अनुष्ठान किया था?
प्रहार किया। हरिनामका स्मरण करके तुलसीदलमिश्रित नारदजी बोले-राजन् ! पूर्वकालकी बात है, जलसे उसको मारा था, इसलिये उसका सारा पातक नष्ट सह्य पर्वतपर करवीरपुरमें धर्मदत्त नामके एक धर्मज्ञ हो गया। अब उसे अपने पूर्वजन्मके कर्मोके परिणामब्राह्मण रहते थे, जो भगवान् विष्णुका व्रत करनेवाले स्वरूप प्राप्त हुई दुर्दशाका स्मरण हो आया। उसने तथा भलीभांति श्रीविष्णु-पूजनमें सर्वदा तत्पर रहनेवाले ब्राह्मणको दण्डवत् प्रणाम किया और इस प्रकार कहाथे। वे द्वादशाक्षर मन्त्रका जप किया करते थे। 'ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्मके कर्मोक कुपरिणामवश इस दशाको अतिथियोंका सत्कार उन्हें विशेष प्रिय था। एक दिन पहुंची हूँ। अब कैसे मुझे उत्तम गति प्राप्त होगी?' कार्तिक मासमें श्रीहरिके समीप जागरण करनेके लिये वे भगवान्के मन्दिरकी ओर चले। उस समय एक पहर रात बाकी थी। भगवान्के पूजनकी सामग्री साथ लिये जाते हुए ब्राह्मणने मार्ग में देखा, एक राक्षसी आ रही है।
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राक्षसीको अपने आगे प्रणाम करते तथा पूर्वजन्मके किये हुए कर्मोंका वर्णन करते देख ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। वे उससे इस प्रकार बोले-'किस कर्मके फलसे
तुम इस दशाको पहुँची हो? कहाँसे आयी हो? तुम्हारा उसकी आवाज बड़ी डरावनी थी। टेढ़ी-मेढ़ी दाढ़ें, नाम क्या है ? तथा तुम्हारा आचार-व्यवहार कैसा है? ये लपलपाती हुई जीभ, धंसे हुए लाल-लाल नेत्र, नग्न सारी बातें मुझे बताओ।' शरीर, लंबे-लंबे ओठ और घर्घर शब्द-यही उसकी कलहा बोली-ब्रह्मन् ! मेरे पूर्वजन्मकी बात है,
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उत्तरखण्ड ]
• कार्तिक-व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार .
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सौराष्ट्र नगरमें भिक्षु नामके एक ब्राह्मण रहते थे। मैं इसकी प्रवृत्ति रही है; इसलिये यह शूकरीको योनिमें उन्हींकी पत्नी थी। मेरा नाम कलहा था। मैं बड़े भयंकर जन्म ले विष्ठाका भोजन करती हुई समय व्यतीत करे । स्वभावकी स्त्री थी। मैंने वचनसे भी कभी अपने पतिका जिस बर्तनमें भोजन बनाया जाता है, उसीमें यह हमेशा भला नहीं किया। उन्हें कभी मीठा भोजन नहीं परोसा। खाया करती थी; अतः उस दोषके प्रभावसे यह अपनी मैं सदा उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन किया करती थी। ही संतानका भक्षण करनेवाली बिल्ली हो । तथा अपने कलह मुझे विशेष प्रिय था। वे ब्राह्मण मुझसे सदा स्वामीको निमित्त बनाकर इसने आत्मघात किया है, अतः उद्विग्न रहा करते थे। अन्ततोगत्वा मेरे पतिने दूसरी स्त्रीसे यह अत्यन्त निन्दनीय स्त्री कुछ कालतक प्रेत-शरीरमें भी विवाह करनेका विचार कर लिया। तब मैंने विष खाकर निवास करे। दूतोंके साथ इसको यहाँसे मरुप्रदेशमें भेज अपने प्राण त्याग दिये। फिर यमराजके दूत आये और देना चाहिये। वहाँ चिरकालतक यह प्रेतका शरीर धारण मुझे बाँधकर पीटते हुए यमलोकमें ले गये। यमराजने करके रहे। इसके बाद यह पापिनी तीन योनियोका भी मुझे उपस्थित देख चित्रगुप्तसे पूछा-'चित्रगुप्त ! देखो कष्ट भोगेगी। तो सही, इसने कैसा कर्म किया है ? इसे शुभकर्मका कलहा कहती है-विप्रवर ! मैं वही पापिनी फल मिलेगा या अशुभकर्मका?'
कलहा हूँ, प्रेतके शरीरमें आये मुझे पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो गये। मैं सदा ही अपने कर्मसे दुःखित तथा भूख-प्याससे पीड़ित रहा करती हूँ। एक दिन भूखसे पीड़ित होकर मैंने एक बनियेके शरीरमे प्रवेश किया और उसके साथ दक्षिण देशमे कृष्णा और वेणीके सङ्गमपर आयी। आनेपर ज्यों ही सङ्गमके किनारे खड़ी हुई, त्यों ही उस बनियेके शरीरसे भगवान् शिव और विष्णुके पार्षद निकले और उन्होंने मुझे बलपूर्वक दूर भगा दिया। द्विजश्रेष्ठ ! तबसे मैं भूखका कष्ट सहन करती हुई इधर-उधर घूम रही थी। इतनेमें ही आपके ऊपर मेरी दृष्टि पड़ी। आपके हाथसे तुलसीमिश्रित जलका संसर्ग पाकर अब मेरे पाप नष्ट हो गये। विप्रवर ! मुझपर कृपा कीजिये और बताइये, मैं इस प्रेत-शरीरसे और भविष्य में प्राप्त होनेवाली भयंकर तीन योनियोंसे किस प्रकार मुक्त होऊँगी?
नारदजी कहते हैं-कलहाके ये वचन सुनकर CC द्विजश्रष्ठ धमदतका
द्विजश्रेष्ठ धर्मदत्तको उसके कौके परिणामका विचार चित्रगुप्तने कहा-धर्मराज ! इसने तो कोई भी करके बड़ा विस्मय और दुःख हुआ। उसकी ग्लानि शुभकर्म नहीं किया है। यह स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती थी देखकर उनका हृदय करुणासे द्रवित हो उठा। वे बहुत और अपने स्वामीको उसमेंसे कुछ भी नहीं देती थी। देरतक सोच-विचारकर खेदके साथ बोलेअतः बल्गुली (चमगादर) की योनिमें जन्म लेकर यह धर्मदत्तने कहा-तीर्थ, दान और व्रत आदि शुभ अपनी विष्ठा खाती हुई जीवन धारण करे। इसने सदा साधनोंके द्वारा पाप नष्ट होते हैं; किन्तु तुम इस समय अपने स्वामीसे द्वेष किया है तथा सर्वदा कलहमें ही प्रेतके शरीरमें स्थित हो, अतः उन शुभ कर्मोम तुम्हारा
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• अर्चयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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अधिकार नहीं है । तथापि तुम्हारी ग्लानि देखकर मेरे मनमे वह श्रीविष्णुके समान रूप धारण करनेवाले पार्षदोंसे युक्त बड़ा दुःख हो रहा है। तुम दुःखिनी हो, तुम्हारा उद्धार किये था। पास आनेपर विमानके द्वारपर खड़े हुए पुण्यशील बिना मेरे चित्तको शान्ति नहीं मिलेगी; अतः मैंने जन्मसे और सुशील नामक पार्षदोंने उस देवीको विमानपर चढ़ा लेकर आजतक जो कार्तिक-व्रतका अनुष्ठान किया है, लिया। उस समय उस विमानको देखकर धर्मदतको बड़ा उसका आधा पुण्य लेकर तुम उत्तम गतिको प्राप्त होओ। विस्मय हुआ। उन्होंने श्रीविष्णुरूपधारी पार्षदोंका दर्शन
यो कहकर धर्मदत्तने द्वादशाक्षर मन्त्रका श्रवण करके उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया । ब्राह्मणको प्रणाम करते कराते हुए तुलसीमिश्रित जलसे ज्यों ही उसका अभिषेक देख पुण्यशील और सुशीलने उन्हें उठाया और उनकी किया, त्यों ही वह प्रेत-शरीरसे मुक्त हो दिव्यरूपधारिणी प्रशंसा करते हुए यह धर्मयुक्त वचन कहा। देवी हो गयी। धधकती हुई आगकी ज्वालाके समान दोनों पार्षद बोले-द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हें धन्यवाद तेजस्विनी दिखायी देने लगी। लावण्यसे तो वह ऐसी है। क्योंकि तुम सदा भगवान् विष्णुकी आराधनामें
संलग्न रहते हो। दीनोंपर दया करनेका तुम्हारा स्वभाव | है। तुम धर्मात्मा और श्रीविष्णुव्रतका अनुष्ठान करनेवाले
हो। तुमने बचपनसे लेकर अबतक जो कल्याणमय कार्तिकका व्रत किया है, उसके आधेका दान करके दूना पुण्य प्राप्त कर लिया है। तुम बड़े दयालु हो, तुम्हारे द्वारा दान किये हुए कार्तिक-व्रतके अङ्गभूत तुलसीपूजन
आदि शुभ कर्मोके फलसे यह स्त्री आज भगवान् विष्णुके समीप जा रही है। तुम भी इस शरीरका अन्त होनेपर अपनी दोनों पत्रियोंके साथ भगवान् विष्णुके वैकुण्ठधाममें जाओगे और उन्हींक समान रूप धारण करके सदा उनके समीप निवास करोगे। धर्मदत्त ! जिन लोगोंने तुम्हारी ही भांति श्रीविष्णुकी भक्तिपूर्वक आराधना की है, वे धन्य और कृतकृत्य हैं; तथा संसारमें उन्हींका जन्म लेना सार्थक है। जिन्होंने पूर्वकालमें राजा उत्तानपादके पुत्र ध्रुवको ध्रुवपदपर स्थापित किया था,
उन श्रीविष्णुकी यदि भलीभाँति आराधना की जाय तो वे जान पड़ती थी, मानो साक्षात् लक्ष्मी हों । तदनन्तर उसने प्राणियोंको क्या नहीं दे डालते। भगवान्के नामोंका भूमिपर मस्तक टेककर ब्राह्मणदेवताको प्रणाम किया स्मरण करने मात्रसे देहधारी जीव सद्गतिको प्राप्त हो
और आनन्दविभोर हो गद्गदवाणीमें कहा- जाते हैं। पूर्वकालमें जब गजराजको ग्राहने पकड़ लिया 'द्विजश्रेष्ठ ! आपकी कृपासे मैं नरकसे छुटकारा पा था, उस समय उसने श्रीहरिके नामस्मरणसे ही संकटसे गयी। मैं पापके समुद्रमें डूब रही थी, आप मेरे लिये छुटकारा पाकर भगवानकी समीपता प्राप्त की थी और नौकाके समान हो गये।
वही अब भगवान्का 'जय' नामसे प्रसिद्ध पार्षद है। वह इस प्रकार ब्राह्मणदेवसे वार्तालाप कर ही रही थी तुमने भी श्रीहरिकी आराधना की है, अतः वे तुम्हें अपने कि आकाशसे एक तेजस्वी विमान उतरता दिखायी दिया। समीप अवश्य स्थान देंगे।
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उत्तरखण्ड ]
. कार्तिक-माहात्म्यके प्रसङ्ग में राजा घोल और विष्णुदासकी कथा .
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कार्तिक-माहात्म्यके प्रसङ्गमें राजा चोल और विष्णुदासकी कथा
नारदजी कहते है-इस प्रकार विष्णुपार्षदोंके पूजा को । राजा चोलने जो पहले रत्नोंसे भगवानकी पूजा वचन सुनकर धर्मदत्तको बड़ा आश्चर्य हुआ, वे उन्हें की थी, वह सब तुलसी-पूजासे ढक गयी। यह देख साष्टाङ्ग प्रणाम करके बोले-'प्रायः सभी लोग भक्तोका राजा कुपित होकर बोले-"विष्णुदास ! मैंने मणियों कष्ट दूर करनेवाले श्रीविष्णुकी यज्ञ, दान, व्रत,
Pाम तीर्थसेवन और तपस्याओंके द्वारा विधिपूर्वक आराधना करते हैं; उन समस्त साधनोंमें कौन-सा ऐसा साधन है, जो श्रीविष्णुको प्रीतिकारक तथा उनके सामीप्यकी प्राप्ति करानेवाला है? किस साधनका अनुष्ठान करनेसे उपर्युक्त सभी साधनोंका अनुष्ठान स्वतः हो जाता है?
दोनों पार्षदोंने कहा-ब्रह्मन् ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है; अब एकाग्रचित्त होकर सुनो, हम इतिहाससहित प्राचीन वृत्तान्तका वर्णन करते हैं। पहले काञ्चीपुरीमें चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं; उनके अधीन जितने देश थे वे भी चोल नामसे ही विख्यात हुए। राजा चोल जब इस भूमण्डलका शासन करते थे, उस समय कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुःखी, पापमें मन लगानेवाला अथवा रोगी नहीं था। उन्होंने इतने यज्ञ किये थे, जिनकी कोई गणना नहीं हो सकती। उनके यज्ञोंके सुवर्णमय एवं शोभाशाली यूपोंसे भरे हुए ताम्रपर्णी नदीके दोनों किनारे चैत्ररथ वनके समान तथा सुवर्णसे भगवान्को पूजा की थी, वह कितनी शोभा सुशोभित होते थे। एक समयकी बात है, राजा चोल पा रही थी ! किन्तु तुमने तुलसीदल चढ़ाकर सब ढक 'अनन्तशयन' नामक तीर्थमें गये, जहाँ जगदीश्वर दी। बताओ, ऐसा क्यों किया? मुझे तो ऐसा जान पड़ता श्रीविष्णु योगनिद्राका आश्रय ले सो रहे थे। वहाँ है, तुम बड़े मूर्ख हो; भगवान् विष्णुकी भक्तिको लक्ष्मीरमण भगवान् श्रीविष्णुके दिव्य विग्रहको राजाने बिलकुल नहीं जानते। तभी तो तुम अत्यन्त सुन्दर विधिपूर्वक पूजा की। मणि, मोती तथा सुवर्णके बने हुए सजी-सजायी पूजाको पत्तोंसे ढके जा रहे हो ! तुम्हारे इस सुन्दर फूलोंसे पूजन करके उन्होंने भगवान्को साष्टाङ्ग वर्तावपर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।' प्रणाम किया। प्रणाम करके वे ज्यों ही बैठे, उसी समय विष्णुदास बोले-राजन् ! आपको भक्तिका उनकी दृष्टि भगवान्के पास आते हुए एक ब्राह्मणपर कुछ भी पता नहीं है, केवल राजलक्ष्मीके कारण आप पड़ी, जो उन्हींकी काञ्चीनगरीके निवासी थे। उनका नाम घमंड कर रहे हैं। बताइये तो, आजसे पहले आपने विष्णुदास था। वे भगवान्की पूजाके लिये अपने हाथमें कितने वैष्णव व्रतोंका पालन किया है? तुलसीदल और जल लिये हुए थे। निकट आनेपर उन राजाने कहा-ब्राहाण ! यदि तुम विष्णुभक्तिसे ब्रह्मर्षिने विष्णुसूक्तका पाठ करते हुए देवदेव भगवान्को अत्यन्त गर्वमें आकर ऐसी बात करते हो तो बताओ, स्नान कराया और तुलसीको मञ्जरी तथा पत्तोंसे विधिवत् तुममें कितनी भक्ति है ? तुम तो दरिद्र हो, निर्धन हो।
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तुमने श्रीविष्णुको संतुष्ट करनेवाले यज्ञ और दान आदि कभी नहीं किये हैं तथा पहले कहीं कोई देवालय भी नहीं बनवाया है। ऐसी दशामें भी तुम्हें अपनी भक्तिका इतना घमंड है! अच्छा, तो आज यहाँ जितने भी श्रेष्ठ ब्राह्मण उपस्थित हैं, वे सभी कान खोलकर मेरी बात सुन लें। देखना है, मैं पहले भगवान् विष्णुका दर्शन पाता हूँ या यह इससे लोगोंको स्वयं ही ज्ञात हो जायगा कि हम दोनोंमेंसे किसमें कितनी भक्ति है।
IN LUDONO
दोनों पार्षद बोले- ब्रह्मन् ! यह कहकर राजा चोल अपने राजभवनको चले गये और उन्होंने महर्षि मुद्गलको आचार्य बनाकर वैष्णव यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया, जिसमें बहुत से ऋषियोंका समुदाय
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् +
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एकत्रित हुआ। बहुत-सा अन्न खर्च किया गया और प्रचुर दक्षिणा बाँटी गयी। जैसे पूर्वकालमें गया क्षेत्रके भीतर ब्रह्माजीने समृद्धिशाली यज्ञका अनुष्ठान किया था, उसी प्रकार राजा चोलने भी महान् यज्ञ आरम्भ किया। उधर विष्णुदास भी वहीं भगवान्के मन्दिरमें ठहर गये और श्रीविष्णुको सन्तुष्ट करनेवाले शास्त्रोक्त नियमोंका भलीभाँति पालन करते हुए सदा ही व्रतका अनुष्ठान
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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करने लगे। माघ और कार्तिकके व्रत, तुलसीके बगीचेका भलीभाँति पालन, एकादशीका व्रत, द्वादशाक्षर मन्त्रका जप तथा गीत-नृत्य आदि माङ्गलिक उत्सवोंके साथ षोडशोपचारद्वारा प्रतिदिन श्रीविष्णुकी पूजा यही उनकी जीवनचर्या थी। वे इन्हीं व्रतोंका पालन करते थे। चलते, खाते और सोते समय भी उन्हें निरन्तर श्रीविष्णुका स्मरण बना रहता था। वे समदर्शी थे और सम्पूर्ण प्राणियों में भगवान् विष्णुको स्थित देखते थे।
उन्होंने भगवान् विष्णुके संतोषके लिये उद्यापनविधिसहित माघ और कार्तिकके विशेष- विशेष नियमोंका भी सर्वदा पालन किया। इस प्रकार राजा चोल और विष्णुदास दोनों ही भगवान् विष्णुकी आराधना करने लगे। दोनों ही अपने-अपने व्रतमें स्थित रहते थे, दोनोंकी ही इन्द्रियाँ और दोनोंके ही कर्म भगवान्में ही केन्द्रित थे ।
एक दिनकी बात है, विष्णुदासने नित्यकर्म करनेके पश्चात् भोजन तैयार किया किन्तु उसे किसीने चुरा लिया । चुरानेवालेपर किसीकी दृष्टि नहीं पड़ी। विष्णुदासने देखा, भोजन गायब है; फिर भी उन्होंने
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उत्तरखण्ड ] .
. कार्तिक-माहात्म्यके प्रसङ्गमें राजा बोल और विष्णुदासकी कथा .
दुबारा भोजन नहीं बनाया; क्योंकि ऐसा करनेपर यों सोचकर भोजन बनानेके पश्चात् वे वहीं कहीं सायंकालकी पूजाके लिये अवकाश नहीं मिलता, अतः छिपकर खड़े हो गये। इतनेमें ही एक चाण्डाल दिखायी प्रतिदिनके नियमके भंग हो जानेका भय था। दूसरे दिन दिया, जो रसोईका अन्न हड़प ले जानेको तैयार खड़ा उसी समयपर भोजन बनाकर वे ज्यों ही भगवान् था। भूखके मारे उसका सारा शरीर दुर्बल हो रहा था, विष्णुको भोग लगानेके लिये गये, त्यो हो कोई आकर मुखपर दीनता छा रही थी, शरीरमें हाड़ और चामके फिर सारा भोजन हड़प ले गया। इस प्रकार लगातार सिवा और कुछ बाकी नहीं बचा था। उसे देखकर श्रेष्ठ सात दिनोंतक कोई आ-आकर उनके भोजनका अपहरण ब्राह्मण विष्णुदासका हृदय करुणासे व्यथित हो उठा। करता रहा। इससे विष्णुदासको बड़ा विस्मय हुआ। वे उन्होंने भोजन लेकर जाते हुए चाण्डालपर दृष्टि डाली मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगे--'अहो ! यह और कहा-'भैया ! जरा ठहरो, ठहरो। क्यों रूखाकौन प्रतिदिन आकर मेरी रसोई चुरा ले जाता है? मैं सूखा खाते हो। यह घी तो ले लो।' इस तरह बोलते क्षेत्र-संन्यास ले चुका हूँ, अतः अब किसी तरह इस हुए विप्रवर विष्णुदासको आते देख चाण्डाल बड़े वेगसे स्थानका परित्याग नहीं कर सकता। यदि दुबारा बनाकर भागा और भयस मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। चाण्डालको भोजन करूं तो सायंकालकी यह पूजा कैसे छोड़ दूं। भयभीत और मूर्छित देख द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास वेगसे कोई-सा भी पाक बनाकर मैं तुरंत भोजन तो करूंगा ही चलकर उसके पास पहुंचे और करुणावश अपने वस्त्रके नहीं, क्योंकि जबतक सारी सामग्री भगवान् विष्णुको किनारेसे उसको हवा करने लगे। तदनन्तर जब वह निवेदन न कर लूँ तबतक मैं भोजन नहीं करता। उठकर खड़ा हुआ तो विष्णुदासने देखा-वह चाण्डाल प्रतिदिन उपवास करनेसे मैं इस व्रतकी समाप्तितक नहीं, साक्षात् भगवान् नारायण ही शङ्ख, चक्र और गदा जीवित कैसे रह सकता हूँ। अच्छा, आज मैं रसोईकी धारण किये सामने विराजमान हैं। कटिमें पीताम्बर, चार भलीभाँति रक्षा करूंगा।
भुजाएँ, हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न तथा मस्तकपर किरीट
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१
. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
शोभा पा रहे हैं। अलसीके फूलकी भांति श्यामसुन्दर बुलाया और इस प्रकार कहना आरम्भ किया। शरीर और कौस्तुभमणिसे जगमगाते हुए वक्षःस्थलकी राजा बोले-जिसके साथ लाग-डाँट होनेके अपूर्व शोभा हो रही है। अपने प्रभुको प्रत्यक्ष देखकर कारण मैंने यह यज्ञ-दान आदि कर्मका अनुष्ठान किया द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास सात्विक भावोंके वशीभूत हो गये। है, वह ब्राह्मण आज भगवान् विष्णुका रूप धारण करके वे स्तुति और नमस्कार करनेमें भी समर्थ न हो सके। मुझसे पहले ही वैकुण्ठधाममें जा रहा है। मैंने इस उस समय वहाँ इन्द्र आदि देवता भी आ पहुँचे । गन्धर्व वैष्णवयागमें भलीभाँति दीक्षित होकर अग्निमें हवन
और अप्सराएँ गाने और नाचने लगीं। वह स्थान सैकड़ों किया और दान आदिके द्वारा ब्राह्मणोंका मनोरथ पूर्ण विमानोंसे भर गया और देवर्षियोंके समुदायसे सुशोभित किया; तथापि अभीतक भगवान् मुझपर प्रसन्न नहीं हुए होने लगा। चारों ओर गीत और वाद्योंकी ध्वनि छा और इस ब्राह्मणको केवल भक्तिके ही कारण श्रीहरिने गयी। तब भगवान् विष्णुने सात्त्विक व्रतका पालन प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। अतः जान पड़ता है, भगवान् करनेवाले अपने भक्त विष्णुदासको छातीसे लगा लिया विष्णु केवल दान और यज्ञोंसे प्रसन्न नहीं होते। उन और उन्हें अपने-ही-जैसा रूप देकर वे वैकुण्ठधामको प्रभुका दर्शन करानेमें भक्ति ही प्रधान कारण है। ले चले। उस समय यज्ञमें दीक्षित हुए राजा चोलने दोनों पार्षद कहते हैं-यों कहकर राजाने अपने देखा, विष्णुदास एक सुन्दर विमानपर बैठकर भगवान् भानजेको राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया। वे विष्णुके समीप जा रहे हैं। विष्णुदासको वैकुण्ठधाममें बचपनसे ही यज्ञकी दीक्षा लेकर उसीमें संलग्न रहते थे, जाते देख राजाने तुरंत ही अपने गुरु महर्षि मुद्गलको इसलिये उन्हें कोई पुत्र नहीं हुआ। यही कारण है कि
उस देशमें अबतक भानजे ही सदा राज्यके उत्तराधिकारी होते है। वे सब-के-सब राजा चोलके द्वारा स्थापित आचारका ही पालन करते हैं। भानजेको राज्य देनेके पश्चात् राजा यज्ञशालामें गये और यज्ञकुण्डके सामने खड़े होकर श्रीविष्णुको सम्बोधित करते हुए तीन बार उच्चस्वरसे निम्नाङ्कित वचन बोले-'भगवान् विष्णु ! आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा स्थिर भक्ति प्रदान कीजिये।' यो कहकर वे सबके देखते-देखते अग्निमें कूद पड़े। उस समय मुद्गल मुनिने क्रोधमें आकर अपनी शिखा उखाड़ डाली। तभीसे आजतक उस गोत्रमें उत्पन्न होनेवाले समस्त मुद्गल ब्राह्मण बिना शिखाके ही रहते हैं। राजा ज्यों ही अग्निकुण्डमें कूदे, उसी समय भक्तवत्सल भगवान् विष्णु प्रकट हो गये
और उन्होंने राजाको छातीसे लगाकर एक श्रेष्ठ विमानपर बिठाया; फिर अपने ही समान रूप देकर उन देवेश्वरने देवताओसहित वैकुण्ठ-धामको प्रस्थान किया। उक्त
१-प्रेमको प्रगाढ़ावस्थामें होनेवाले आठ प्रकारके अङ्ग-विकारोको, जो सत्त्वगुणको प्रेरणासे प्रकट होते हैं, सात्विक भाव कहते है। उनके नाम ये हैं-स्तम्भ, खेद, रोमाछ, स्वरभन्न कम्प, विवर्णता, आँसू और प्रलय ।
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उत्तरखण्ड ]
• पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा .
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दोनों भक्तोंमें जो विष्णुदास थे, वे तो पुण्यशील नामसे करके सर्वत्र समान दृष्टि रखो । तुला, मकर और मेषकी
संक्रान्ति में सदा प्रातःस्नान किया करो । एकादशीके व्रतमें लगे रहो और तुलसीवनकी रक्षा करते रहो। ब्राह्मणों, गौओं तथा वैष्णवोंकी सदा ही सेवा करो। मसूर, कांजी
और बैंगन खाना छोड़ दो। धर्मदत्त ! ऐसा करनेसे तुम भी शरीरका अन्त होनेपर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त करोगे। जैसे हमलोगोंने भगवान्की भक्तिसे ही उन्हें पाया है, उसी प्रकार तुम भी उन्हें प्राप्त कर लोगे। तुमने जन्पसे लेकर अबतक जो श्रीविष्णुको संतुष्ट करनेवाला यह व्रत किया है, इससे यज्ञ, दान और तीर्थ भी बड़े नहीं हैं। विप्रवर ! तुम धन्य हो; क्योंकि तुमने जगद्गुरु भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्न करनेवाले इस व्रतका अनुष्ठान किया है; जिसके एक भागका पुण्य पाकर ही
प्रेतयोनिमें पड़ी हुई कलहा मुक्त हो गयी। अब हमलोग KEETTENALI
इसे भगवान् विष्णुके लोकमें ले जा रहे है।
नारदजी कहते हैं-राजन् ! इस प्रकार विमानपर
21 बैठे हुए विष्णुके दूतोंने धर्मदत्तको उपदेश देकर कलहाके प्रसिद्ध भगवान्के पार्षद हुए तथा जो राजा चोल थे, साथ वैकुण्ठधामकी यात्रा की । तत्पश्चात् धर्मदत्त भी पूर्ण उनका नाम सुशील हुआ। हम वे ही दोनों हैं। विश्वासके साथ उस व्रतमें लगे रहे और शरीरका अन्त लक्ष्मीजीके प्रियतम श्रीहरिने हमें अपने समान रूप देकर होनेपर अपनी दोनों पत्रियोंके साथ वे भगवान्के अपना द्वारपाल बना लिया है।
परमधामको चले गये। जो पुरुष इस प्राचीन इतिहासको " इसलिये धर्मज्ञ ब्राह्मण ! तुम भी सदा भगवान् सुनता और सुनाता है, वह जगद्गुरु भगवानकी कृपासे विष्णुके व्रतमें स्थित रहो। मात्सर्य और दम्भका परित्याग उनका सान्निध्य प्राप्त करानेवाली उत्तम गति पाता है।
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पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्रिये ! यह कथा हैं।* जो अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर इन सबका सुनकर राजा पृथुके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सेवन करता है, वह मुझे बहुत ही प्रिय होता है। यज्ञ भक्तिपूर्वक देवर्षि नारदका पूजन करनेके पश्चात् उन्हें आदिके द्वारा भी कोई मेरा ऐसा प्रिय नहीं हो सकता, विदा किया। इसलिये माघस्नान, कार्तिकस्नान तथा जैसा कि पूर्वोक्त चारोंके सेवनसे होता है। एकादशी-ये तीनों व्रत मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। सत्यभामा बोलीं-नाथ ! आपने मुझे जो कथा वनस्पतियोंमें तुलसी, महीनोंमें कार्तिक, तिथियोंमें सुनायी है, वह बड़े ही आश्चर्यमें डालनेवाली है। क्योंकि एकादशी तथा पुण्य-क्षेत्रोंमें द्वारकापुरी मुझे विशेष प्रिय कलहा दूसरेके दिये हुए पुण्यसे ही मुक्ति पा गयी। इस
* वनस्पतीनां तुलसी मासाना कार्तिकः प्रियः । एकादशी तिथीनां च क्षेत्राणां द्वारका मम ॥ (११४ । ३)
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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कार्तिक मासका ऐसा प्रभाव है और यह आपको इतना प्रिय है कि इसमें किये हुए स्नान-दानसे कलहाके पतिद्रोह आदि पाप भी नष्ट हो गये। प्रभो! जो दूसरेका किया हुआ पुण्य है, वह उसके देनेसे तो मिल जाता है; किन्तु बिना दिया हुआ पुण्य मनुष्य किस मार्गसे पा सकता है ?
भगवान् श्रीकृष्णने कहा – प्रिये ! सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें देश, ग्राम और कुल भी मनुष्यके किये हुए पुण्य और पापके भागी होते हैं; परन्तु कलियुगमें केवल कर्ताको ही पुण्य और पापका फल भोगना पड़ता है। पढ़ानेसे, यज्ञ करानेसे अथवा एक पंक्तिमें बैठकर भोजन करनेसे भी मनुष्य दूसरोंके पुण्य और पापका चौथाई भाग परोक्षरूपसे पा लेता है। एक आसनपर बैठने, एक सवारीपर चलने, श्वासका स्पर्श होने और परस्पर अङ्ग सट जानेसे भी निश्चय ही पुण्य-पापके छठे अंशका फलभागी होना पड़ता है। स्पर्श करनेसे, बातचीत करनेसे तथा दूसरेकी स्तुति करनेसे भी मानव पुण्य-पापके दशमांशको ग्रहण करता है। देखनेसे नाम सुननेसे तथा मनके द्वारा चिन्तन करनेसे दूसरेके पुण्य पापका शतांश भाग प्राप्त होता है जो दूसरेकी निन्दा करता, चुगली खाता और उसे धिक्कार देता है, वह उसके किये हुए पातकको स्वयं लेकर बदले में अपने पुण्यको देता है। * एक पङ्क्तिमें बैठकर भोजन करनेवाले लोगोंमेंसे जो किसीको परोसनेमें छोड़ देता है, उसके पुण्यका छठा भाग उस छोड़े हुए व्यक्तिको मिल जाता है जो स्नान और सन्ध्या आदि करते समय किसीको छूता या उससे बातचीत करता है, उसे अपने कर्मजनित पुण्यके छठे अंशको उस व्यक्तिके लिये निश्चय ही देना पड़ता है। जो धर्मके उद्देश्यसे दूसरे मनुष्यसे धनकी याचना करता है, उसके पुण्य कर्मके फलको धन देनेवाला व्यक्ति भी पाता है। जो दूसरेका धन चुराकर पुण्य कर्म करता है, उसका फल धनीको ही
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मिलता है, कर्म करनेवालेको नहीं जो मनुष्य दूसरेका ऋण चुकाये बिना ही मर जाता है, उसके पुण्यको धनी मनुष्य अपने धनके अनुसार बाँट लेता है। कर्म करनेकी सलाह देनेवाला, अनुमोदन करनेवाला, सामग्री जुटानेवाला तथा बलसे सहायता करनेवाला पुरुष भी पुण्यपापके छठे अंशको पा लेता है। राजा अपनी प्रजासे, गुरु शिष्यसे, पति अपनी पत्नीसे तथा पिता अपने पुत्रसे उसके पुण्य पापका छठा अंश प्राप्त करता है। स्त्री भी यदि सदा अपने पतिके मनके अनुसार चले और सदा उसे संतोष देनेवाली हो तो वह पतिके पुण्यका आधा भाग प्राप्त करती है। स्वयं धन देकर अपने नौकर या पुत्रके अतिरिक्त किसी भी दूसरेके हाथसे दान करानेवाले पुरुषके पुण्य कर्मकि छठे भागको कर्ता ले लेता है। वृत्ति देनेवाला पुरुष वृत्तिभोगीके पुण्यका छठा अंश ले लेता है; किन्तु यदि उसके बदलेमें उसने अपनी या दूसरेकी सेवा न करायी हो, तभी उसे लेनेका अधिकारी होता है। इस प्रकार दूसरोंके किये हुए पुण्य और पाप बिना दिये भी सदा आते रहते हैं। इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास है, जो बहुत ही उत्तम और पुण्यमयी बुद्धि प्रदान करनेवाला है, उसे सुनो।
पूर्वकालकी बात है, अवन्तीपुरीमें धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मणोचित कर्मसे भ्रष्ट, पापपरायण और खोटी बुद्धिवाला था, रस, कम्बल और चमड़ा आदि बेचकर तथा झूठ बोलकर वह जीविका चलाता था। उसका मन चोरी, वेश्यागमन, मदिरापान और जुए आदिमें सदा आसक्त रहता था। एक बार वह खरीद-बिक्रीके कामले देश-देशान्तरमें भ्रमण करता हुआ माहिष्मतीपुरीमें जा पहुँचा, जिसकी चहारदीवारीसे सटकर बहनेवाली पापनाशिनी नर्मदा सदा सुशोभित होती रहती है। वहाँ कार्तिकका व्रत करनेवाले बहुत-से मनुष्य अनेक गाँवोंसे स्नान करनेके लिये आये थे । धनेश्वरने उन सबको देखा। कितने ही ब्राह्मण स्त्रान
* परस्य निन्दां पैशुन्यं धिक्कारं च करोति यः । तत्कृतं पातकं प्राप्य स्वपुण्यं प्रददाति सः ॥ ( ११४ । १७) + स्वानसन्ध्यादिकं कुर्वन् यः स्पृशेद्वा प्रभाषते । स कर्मपुण्यषष्ठांशं दद्यात्तस्मै सुनिश्चितम् ॥ (११४ । २१ )
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उत्तरखण्ड ]
. पुण्यात्याओंके संसर्गसे पुण्यको प्राप्तिक प्रसंग धनेश्वर ब्राह्मणको कथा .
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करके यज्ञ तथा देव-पूजनमें लगे थे। कुछ लोग जाते हैं-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। धनेश्वर पुराणोंका पाठ करते और कुछ लोग सुनते थे। कितने नर्मदाके तटपर नृत्य आदि देखता हुआ घूम रहा था।
इतनेमें ही एक काले साँपने उसे काट लिया। वह व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे गिरा देख बहुत-से मनुष्योने दयावश उसको चारों ओरसे घेर लिया और तुलसीमिश्रित जलके द्वारा उसके मुखपर छट देना आरम्भ किया। देहत्यागके पश्चात् धनेश्वरको यमराजके दूतोंने बाँधा और क्रोधपूर्वक कोड़ोंसे पीटते हुए वे उसे संयमनीपुरीको ले गये। चित्रगुप्तने धनेश्वरको देखकर उसे बहुत फटकारा और उसने बचपनसे लेकर मृत्युपर्यन्त जितने दुष्कर्म किये थे, वे सब उन्होंने यमराजको बताये।
चित्रगुप्त बोले-प्रभो! बचपनसे लेकर मृत्युपर्यन्त इसका कोई पुण्य नहीं दिखायी देता । यह दुष्ट केवल पापका मूर्तिमान् स्वरूप दीख पड़ता है, अतः इसे कल्पभर नरकमें पकाया जाय।
यमराज बोले-प्रेतराज ! केवल पापोंपर ही
दृष्टि रखनेवाले इस दुष्टको मुद्गरोंसे पीटते हुए ले जाओ ही भक्त नाच, गान, दान और वाधके द्वारा भगवान् और तुरंत ही कुम्भीपाकमें डाल दो। विष्णुकी स्तुतिमें संलग्न थे। धनेश्वर प्रतिदिन घूम-घूमकर यमराजकी आज्ञा पाकर प्रेतराज पापी धनेश्वरको ले वैष्णवोंके दर्शन, स्पर्श तथा उनसे वार्तालाप करता था। चला । मुद्गरोंकी मारसे उसका मस्तक विदीर्ण हो गया इससे उसे श्रीविष्णुके नाम सुननेका शुभ अवसर प्राप्त था। कुम्भीपाकमें तेलके खौलनेका खलखल शब्द हो होता था। इस प्रकार वह एक मासतक वहाँ टिका रहा। रहा था। प्रेतराजने उसे तुरंत ही उसमें डाल दिया। वह कार्तिक-व्रतके उद्यापनमें भक्त पुरुषोंने जो श्रीहरिके ज्यों ही कुम्भीपाकमें गिरा, त्यो ही उसका तेल ठंडा हो समीप जागरण किया, उसको भी उसने देखा। उसके गया-ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकालमें भक्तप्रवर बाद पूर्णिमाको व्रत करनेवाले मनुष्योंने जो ब्राह्मणों और प्रह्लादको डालनेसे दैत्योंकी जलायी हुई आग बुझ गयी गौओंका पूजन आदि किया तथा दक्षिणा और भोजन थी। यह महान् आश्चर्यकी बात देखकर प्रेतराजको बड़ा आदि दिये, उन सबका भी उसने अवलोकन किया। विस्मय हुआ। उसने बड़े वेगसे आकर यह सारा हाल तत्पश्चात् सूर्यास्तके समय श्रीशङ्करजीकी प्रसन्नताके लिये यमराजको कह सुनाया। प्रेतराजकी कही हुई कौतूहलजो दीपोत्सर्गकी विधि की गयी, उसपर भी धनेश्वरकी पूर्ण बात सुनकर यमने कहा-'आह यह कैसी बात दृष्टि पड़ी। उस तिथिको भगवान् शङ्करने तीनों पुरोंका है!' फिर उसे साथ ले वे उस स्थानपर आये और उस दाह किया था, इसीलिये भक्तपुरुष उस दिन दीपोत्सर्गका घटनापर विचार करने लगे। इतने में ही देवर्षि नारद महान् उत्सव किया करते हैं। जो मुझमें और शिवजीमें हंसते हुए बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आये। यमराजने भेद-बुद्धि करता है, उसके सारे पुण्य-कर्म निष्फल हो भलीभांति उनका पूजन किया। उनसे मिलकर देवर्षि
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• अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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नारदजीने इस प्रकार कहा।.
नारदजी बोले – सूर्यनन्दन ! यह नरक भोगनेके योग्य नहीं है; क्योंकि इसके द्वारा ऐसा कर्म बन गया है, जो नरकका नाश करनेवाला हैं। जो पुरुष पुण्य कर्म करनेवाले लोगोंका दर्शन, स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप करता है, वह उनके पुण्यका छठा अंश प्राप्त कर लेता है। यह तो एक मासतक श्रीहरिके कार्तिक व्रतका अनुष्ठान करनेवाले असंख्य मनुष्योंके सम्पर्क में रहा है; अतः उन सबके पुण्यांशका भागी हुआ है। उनकी सेवा करनेके कारण इसे सम्पूर्ण व्रतका पुण्य प्राप्त हुआ है, अतः इसके कार्तिक- व्रतसे उत्पन्न होनेवाले पुण्योंकी कोई गिनती नहीं है। कार्तिक व्रत करनेवाले पुरुषोंके बड़े-से-बड़े पातकोंका भी भक्तवत्सल श्रीविष्णु पूर्णतया नाश कर डालते हैं। इतना ही नहीं, अन्तकालमें वैष्णव पुरुषोंने तुलसीमिश्रित नर्मदाके जलसे इसको नहलाया है। और श्रीविष्णुके नामका भी श्रवण कराया है; इसलिये इसके सारे पाप नष्ट हो गये हैं। अब धनेश्वर उत्तम गति प्राप्त करनेका अधिकारी हो गया है। यह वैष्णव पुरुषोंका कृपापात्र है, अतः इसे नरकमें न
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पकाओ। इसको अनिच्छासे पुण्य प्राप्त हुआ है; इसलिये यह यक्षयोनिमें रहे और सम्पूर्ण नरकोंके दर्शन मात्रसे अपने पापोंका भोग पूरा कर ले।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— प्रिये! यों कहकर देवर्षि नारदजी चले गये। फिर यमराज अपने सेवकके द्वारा उस ब्राह्मणको सम्पूर्ण नरकोंका दर्शन करानेके लिये वहाँसे ले गये। इसके बाद यमकी आज्ञाका पालन करनेवाला प्रेतराज धनेश्वरको सम्पूर्ण नरकोंके पास ले गया और उनका अवलोकन कराता हुआ इस प्रकार कहने लगा ।
प्रेतराजने कहा- धनेश्वर ! महान् भय देनेवाले इन घोर नरकोंकी ओर दृष्टि डालो। इनमें पापी पुरुष सदा यमराजके सेवकोंद्वारा पकाये जाते हैं। यह जो भयानक नरक दिखायी देता है, इसका नाम तप्तबालुक है। इसमें ये पापाचारी जीव अपनी देह दग्ध होनेके कारण क्रन्दन कर रहे हैं। जो मनुष्य बलिवैश्वदेवके अन्तमें भूखसे दुर्बल हो घरपर आये हुए अतिथियोंका सत्कार नहीं करते थे अपने पापकर्मके कारण इस नरकमें कष्ट भोगते हैं। जो गुरु, अग्रि, ब्राह्मण, गौ, देवता तथा मूर्धाभिषिक्त राजाओंको लात मारते हैं, वे ही पापी यहाँ दृष्टिगोचर हो रहे हैं। यहाँ तपी हुई बालूपर चलनेके कारण इनके पैर जल गये हैं। इस नरकके छः अवान्तर भेद हैं। नाना प्रकारके पापोंके कारण इसमें आना पड़ता है। इसी प्रकार यह दूसरा महान् नरक अन्धतामिस्र कहलाता है। देखो, यहाँ सुईके समान मुँहवाले कीड़ोंके द्वारा पापियोंके शरीर विदीर्ण हो रहे हैं। यह नरक भयानक मुखवाले अनेक प्रकारके कीटोंसे ठसाठस भरा हुआ है। यह तीसरा क्रकच नामक नरक है। यह भी बड़ा भयानक दिखायी देता है। इसमें ये पापी मनुष्य आरेसे चीर जानेका कष्ट भोगते हैं। असिपत्रवन आदि भेदोंसे यह नरक छः प्रकारका बताया गया है। जो दूसरोंका पत्नी और पुत्र आदिसे तथा अन्यान्य प्रियजनोंसे विछोह कराते हैं, वे ही लोग यहाँ कष्ट भोगते हैं। तलवारके समान पत्तोंसे इनके अङ्ग छिन्न-भिन्न हो रहे हैं और इसी भयसे ये इधर-उधर भाग रहे हैं। देखो, ये
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उत्तरखण्ड ]
. अशक्तावस्थामें कार्तिक-ग्रतके निर्वाहका उपाय .
पापी कितने कष्ट भोगते हैं और किस प्रकार इधर-उधर रहे हैं। इस नरकके भी विगन्ध आदि छ: भेद हैं। क्रन्दन करते फिरते है। यह चौथा नरक तो और भी धनेश्वर ! अब इधर दृष्टि डालो। यह भयङ्कर दिखायी भयानक है। इसका नाम अर्गला है। देखो, यमराजके देनेवाला सातवाँ नरक कुम्भीपाक है। यह तेल आदि दूत नाना प्रकारके पाशोंसे बाँधकर इन पापियोंको मुद्गर द्रव्योंके भेदसे छः प्रकारका है। यमराजके दूत आदिसे पीट रहे हैं और ये जोर-जोरसे चीख रहे हैं। जो महापातकी पुरुषोंको इसीमें डालकर औटाते हैं और वे साधु पुरुषों और ब्राह्मण आदिको गला पकड़कर या और पापी इसमें अनेक हजार वर्षातक डूबते-उतराते रहते हैं। किसी उपायसे कहीं आने-जानेसे रोकते हैं, वे पापी देखो, वे भयानक नरक सब मिलाकर बयालीस हैं। यमराजके सेवकोंद्वारा यहाँ यातनामे डाले जाते हैं। वध बिना इच्छाके किया हुआ पातक शुष्क कहलाता है और
और भेदन आदिके द्वारा इस नरकके भी छः भेद है। अब इच्छापूर्वक किये हुए पातकको आर्द्र कहा गया है। आई पाँचवें नरकपर दृष्टिपात करो। इसका नाम कूटशाल्मलि और शुष्क आदि भेदोंसे प्रत्येक नरक दो प्रकारका है। है। यहाँ जो ये सेमल आदिके वृक्ष खड़े हैं, ये सभी इस प्रकार ये नरक पृथक्-पृथक् चौरासीको संख्यामे जलते हुए अंगारेके समान हैं। इसमें पापियोंको यातना स्थित हैं।, प्रकीर्ण, अपाङ्क्तेन्य, मलिनीकरण, दी जाती है। परायी स्त्री और पराये धनका अपहरण जातिभ्रंशकर, उपपातक, अतिपातक और महापातककरनेवाले तथा दूसरोंसे द्रोह करनेवाले पापी सदा ही यहाँ ये सात प्रकारके पातक माने गये हैं। इनके कारण पापी कष्ट भोगते हैं। यह छठा नरक और भी अद्भुत है। इसे पुरुष उपर्युक्त सात नरकोंमें क्रमशः यातना भोगते हैं। रक्तपूय कहते है-इसमें रक्त और पीब भरा रहता है। तुम्हें कार्तिक-व्रत करनेवाले पुरुषोंका संसर्ग प्राप्त हो इसकी ओर देखो तो सही, इसमें कितने ही पापी मनुष्य चुका था; इसलिये अधिक पुण्यराशिका सञ्चय हो जानेसे नीचे मुँह करके लटकाये गये हैं और भयानक कष्ट भोग नरकोंके कष्टसे छुटकारा मिल गया। रहे हैं। ये सब अभक्ष्य-भक्षण और निन्दा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-सत्यभामा ! इस तथा चुगली खानेवाले हैं। कोई डूब रहे हैं, कोई मारे जा प्रकार प्रेतराज धनेश्वरको नरकोंका दर्शन कराकर उसे रहे हैं। ये सब-के-सब डरावनी आवाजके साथ चीख यक्षलोकमें ले गया तथा वहाँ जाकर वह यक्ष हुआ।
२.
अशक्तावस्थामें कार्तिक-व्रतके निर्वाहका उपाय
सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! भगवान् वासुदेव मासके पाँच नियम है।* इन पाँचों नियमोके पालनसे अपनी प्रियतमा सत्यभामाको यह कथा सुनाकर कार्तिकका व्रत करनेवाला पुरुष पूर्ण फलका भागी सायंकालका सन्ध्योपासन करनेके लिये अपनी माता होता है। वह फल भोग और मोक्ष देनेवाला बताया देवकीके भवनमें चले गये। इस पापनाशक कार्तिक गया है। मासका ऐसा ही प्रभाव बतलाया गया है। यह भगवान् ऋषि बोले-रोमहर्षणकुमार सूतजी! आपने विष्णुको सदा ही प्रिय है तथा भोग और मोक्षरूपी फल इतिहाससहित कार्तिक मासको विधिका भलीभाँति वर्णन प्रदान करनेवाला है। रातमें भगवान् विष्णुके समीप किया। यह भगवान् विष्णुको प्रिय लगनेवाला तथा जागना, प्रातःकाल स्नान करना, तुलसीकी सेवामें संलग्न अत्यन्त उत्तम फल देनेवाला है। इसका प्रभाव बड़ा ही रहना, उद्यापन करना और दीप-दान देना-ये कार्तिक आश्चर्यजनक है। इसलिये इसका अनुष्ठान अवश्य
•हरिजागरण
प्रातःस्रानं
तुलसिसेवनम् । उद्यापनं दीपदानं अतान्येतानि कार्तिके॥ (११७॥३)
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
करना चाहिये। परन्तु यदि कोई व्रत करनेवाला पुरुष होकर भी उसका उद्यापन करनेमें समर्थ न हो, उसे संकटमें पड़ जाय या दुर्गम वनमें स्थित हो अथवा चाहिये कि अपने व्रतकी पर्तिके लिये यथाशक्ति रोगोंसे पीड़ित हो तो उसे इस कल्याणमय ब्राह्मणोंको भोजन कराये। ब्राह्मण इस पृथ्वीपर कार्तिक-व्रतका अनुष्ठान कैसे करना चाहिये? अव्यक्तरूप श्रीविष्णुके व्यक्त स्वरूप हैं। उनके सन्तुष्ट __सूतजीने कहा-महर्षियो! ऐसे मनुष्यको होनेपर भगवान् सदा सन्तुष्ट होते हैं, इसमें तनिक भी भगवान् विष्णु अथवा शिवके मन्दिरमें केवल जागरण संदेह नहीं है । जो स्वयं दीपदान करने में असमर्थ हो, वह करना चाहिये। विष्णु और शिवके मन्दिर न मिलें तो दूसरोंका दीप जलाये अथवा हवा आदिसे उन दीपोंको किसी भी मन्दिरमें वह जागरण कर सकता है। यदि कोई यत्नपूर्वक रक्षा करे। तुलसी-वृक्षके अभावमें वैष्णव दुर्गम वनमें स्थित हो अथवा आपत्तिमें फंस जाय तो वह ब्राह्मणका पूजन करे; क्योंकि भगवान् विष्णु अपने अश्वत्थ वृक्षकी जड़के पास अथवा तुलसीके वृक्षोंके भक्तोंके हृदयमें सदा ही विराजमान रहते हैं। अथवा सब बीच बैठकर जागरण करे। जो पुरुष भगवान् विष्णुके साधनोंके अभावमें व्रत करनेवाला पुरुष व्रतकी पूर्तिके समीप बैठकर श्रीविष्णुके नाम तथा चरित्रोका गान करता लिये ब्राह्मणों, गौओं तथा पीपल और वटके वृक्षोंकी है, उसे सहस्त्र गो-दानोंका फल मिलता है। बाजा सेवा करे। बजानेवाला पुरुष वाजपेय यज्ञका फल पाता है और ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! आपने पीपल और भगवानके पास नृत्य करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण तीर्थोंमें वटको गौ तथा ब्राह्मणके समान कैसे बता दिया? वे स्रान करनेका फल प्राप्त करता है। जो उक्त नियमोंका दोनों अन्य सब वृक्षोकी अपेक्षा अधिक पूज्य क्यों पालन करनेवाले मनुष्योंको धन देता है, उसे यह सब माने गये? । पुण्य प्राप्त होता है। उक्त नियमोंका पालन करनेवाले सूतजी बोले-महर्षियो! पीपलके रूपमें पुरुषोंके दर्शन और नाम सुननेसे भी उनके पुण्यका छठा साक्षात् भगवान् विष्णु ही विराजते हैं। इसी प्रकार वट अंश प्राप्त होता है। जो आपत्तिमें फंस जानेके कारण भगवान् शङ्करका और पलाश ब्रह्माजीका स्वरूप है। इन नहानेके लिये जल न पा सके अथवा जो रोगी होनेके तीनोंका दर्शन, पूजन और सेवन पापहारी माना गया है। कारण स्नान न कर सके, वह भगवान् विष्णुका नाम दुःख, आपत्ति, व्याधि और दुष्टोंके नाशमें भी उसको लेकर मार्जन कर ले। जो कार्तिक-व्रतके पालनमें प्रवृत्त कारण बताया गया है।
कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करने योग्य नियम
सत्यभामाने कहा-प्रभो ! कार्तिक मास सब सूतजीने कहा-मुनिश्रेष्ठ शौनकजी ! पूर्वकालमें मासोंमें श्रेष्ठ माना गया है। मैंने उसके माहात्म्यको कार्तिकेयजीके पूछनेपर महादेवजीने जिसका वर्णन किया विस्तारपूर्वक नहीं सुना । कृपया उसौका वर्णन कीजिये। था, उसको आप श्रवण कीजिये।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-सत्यभामे ! तुमने कार्तिकेयजी बोले-पिताजी ! आप वक्ताओंमें बड़ी उत्तम बात पूछी है। पूर्वकालमें महात्मा सूतने श्रेष्ठ हैं। मुझे कार्तिक मासके स्रानको विधि बताइये, जिससे शौनक मुनिसे आदरपूर्वक कार्तिक-व्रतका वर्णन किया मनुष्य दुःखरूपी समुद्रसे पार हो जाते हैं। साथ ही तीर्थके था। वही प्रसङ्ग मैं तुम्हें सुनाता हूँ।
जलका माहात्म्य और माघस्रानका फल भी बताइये।
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उत्तरखण्ड ]
. कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करने योग्य नियम •
महादेवजीने कहा-एक ओर सम्पूर्ण तीर्थ, भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिये ! गोधूलिद्वारा समस्त दान, दक्षिणाओसहित यज्ञ, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, किया हुआ स्नान वायव्य कहलाता है, सागर आदि
जलाशयोंमें किये हुए स्रानको वारुण कहते हैं, 'आपो हि ष्ठा मयो' आदि ब्राह्मण-मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक जो मार्जन किया जाता है, उसका नाम ब्राह्म है तथा बरसते हुए मेघके जल और सूर्यकी किरणोंसे शरीरकी शुद्धि करना दिव्य सान माना गया है। सब प्रकारके स्नानोंमें वारुणस्रान श्रेष्ठ है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मन्त्रोचारणपूर्वक स्रान करें। परन्तु शूद्र और स्त्रियोंके लिये बिना मन्त्रके ही सानका विधान है। बालक, युवा, वृद्ध, पुरुष, स्त्री और नपुंसक-सब लोग कार्तिक और माघमें प्रातःस्नानकी प्रशंसा करते हैं। कार्तिकमें प्रातःकाल स्नान करनेवाले लोग मनोवाञ्छित फल प्राप्त करते हैं।
कार्तिकेयजी बोले-पिताजी ! अन्य धर्मोका भी वर्णन कीजिये, जिनका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य अपने समस्त पाप धोकर देवता बन जाता है।
महादेवजीने कहा-बेटा ! कार्तिक मासको
More उपस्थित देख जो मनुष्य दूसरेका अन्न त्याग देता है, वह हिमालय, अक्रूरतीर्थ, काशी और शूकरक्षेत्रमें निवास प्रतिदिन कृच्छ्वतका फल प्राप्त करता है। कार्तिकमें तेल, तथा दूसरी ओर केवल कार्तिक मास हो, तो वही मधु, काँसेके वर्तनमें भोजन और मैथुनका विशेषरूपसे भगवान् केशवको सर्वदा प्रिय है। जिसके हाथ, पैर, परित्याग करना चाहिये। एक बार भी मांस भक्षण करनेसे वाणी और मन वशमें हो तथा जिसमें विद्या, तप और मनुष्य राक्षसकी योनिमें जन्म पाता है और साठ हजार कीर्ति विद्यमान हों, वही तीर्थके पूर्ण फलको प्राप्त करता वर्षातक विष्ठामें डालकर सड़ाया जाता है । उससे छुटकारा है। श्रद्धारहित, नास्तिक, संशयालु और कोरी पानेपर वह पापी विष्ठा खानेवाला ग्राम-शूकर होता है। तर्कबुद्धिका सहारा लेनेवाले मनुष्य तीर्थसेवनके कार्तिक मासमें शास्त्रविहित भोजनका नियम करनेपर फलभागी नहीं होते। जो ब्राह्मण सबेरे उठकर सदा अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होता है। भगवान् विष्णुका प्रातःस्रान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो परमात्माको परमधाम ही मोक्ष है। कार्तिकके समान कोई मास नहीं है, प्राप्त होता है। षडानन ! सानका महत्त्व जाननेवाले श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई देवता नहीं है, वेदके तुल्य कोई पुरुषोंने चार प्रकारके स्रान बतलाये है-वायव्य, शास्त्र नहीं है, गङ्गाके समान कोई तीर्थ नहीं है, सत्यके वारुण, ब्राहा और दिव्य।
समान सदाचार, सत्ययुगके समान युग, रसनाके तुल्य यह सुनकर सत्यभामा बोली-प्रभो ! मुझे तृप्तिका साधन, दानके सदृश सुख, धर्मक समान मित्र चारों स्नानोंके लक्षण बतलाइये।
और नेत्रके समान कोई ज्योति नहीं है।*
........... । प्रवृतानां तु भक्षाणां कार्तिके नियमे कृते ।। अवश्य प्राप्यते मोक्षो विष्णोस्तत्परमं पदम् । न कार्तिकसमो मासो न देवः केशवात्परः ॥
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.अचयस्य इषाकायदाच्छास पर पदम् ..
साक्षप्त पापुराण
2 स्रान करनेवाले पुरुषोंके लिये समुद्रगामिनी पवित्र पितृ-पक्षमें अत्रदान करनेसे तथा ज्येष्ठ और आषाढ़ नदी प्रायः दुर्लभ होती है। कुलके अनुरूप उत्तम मासमें जल देनेसे मनुष्योंको जो फल मिलता है, वह शीलवाली कन्या, कुलीन और शीलवान् दम्पति, कार्तिकमें दूसरोंका दीपक जलाने मात्रसे प्राप्त हो जाता है। जन्मदायिनी माता, विशेषतः पिता, साधु पुरुषोंके जो बुद्धिमान् कार्तिकमें मन, वाणी और क्रियाद्वारा पुष्कर सम्मानका अवसर, धार्मिक पुत्र, द्वारकाका निवास, तीर्थका स्मरण करता है, उसे लाखों-करोड़ोगुना पुण्य भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन, गोमतीका स्नान और होता है। माघ मासमें प्रयाग, कार्तिकमें पुष्कर और कार्तिकका व्रत-ये सब मनुष्यके लिये प्रायः दुर्लभ वैशाख मासमें अवन्तीपुरी (उज्जैन)-ये एक युगतक हैं। चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणकालमें ब्राह्मणोंको पृथ्वी उपार्जित किये हुए पापोंका नाश कर डालते हैं। दान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह कार्तिकमें कार्तिकेय ! संसारमे विशेषतः कलियुगमें वे ही मनुष्य भूमिपर शयन करनेवाले पुरुषको स्वतः प्राप्त हो जाता है। धन्य हैं, जो सदा पितरोंके उद्धारके लिये श्रीहरिका सेवन ब्राह्मण-दम्पतिको भोजन कराये, चन्दन आदिसे उनकी करते हैं। बेटा ! बहुत-से पिण्ड देने और गयामें श्राद्ध पूजा करे। कम्बल, नाना प्रकारके रत्न और वस्त्र दान आदि करनेकी क्या आवश्यकता है। वे मनुष्य तो करे। ओढ़नेके साथ ही बिछौना भी दे। तुम्हें कार्तिक हरिभजनके ही प्रभावसे पितरोंका नरकसे उद्धार कर देते मासमें जूते और छातेका भी दान करना चाहिये । कार्तिक हैं। यदि पितरोंके उद्देश्यसे दूध आदिके द्वारा भगवान् मासमें जो मनुष्य प्रतिदिन पत्तलमें भोजन करता है, वह विष्णुको नान कराया जाय तो वे पितर स्वर्गमें पहुंचकर चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। कोटि कल्पोंतक देवताओंके साथ निवास करते हैं। जो उसे सम्पूर्ण कामनाओं तथा समस्त तीर्थीका फल प्राप्त कमलके एक फूलसे भी देवेश्वर भगवान् लक्ष्मीपतिका होता है। पलाशके पत्तेपर भोजन करनेसे मनुष्य कभी पूजन करता है, वह एक करोड़ वर्षतकके पापोंका नाश नरक नहीं देखता; किन्तु वह पलाशके बिचले पत्रका कर देता है। देवताओंके स्वामी भगवान् विष्णु कमलके अवश्य त्याग कर दे। ..... . . एक पुष्पसे भी पूजित और अभिवन्दित होनेपर एक हजार र कार्तिकमें तिलका दान, नदीका सान, सदा साधु- सात सौ अपराध क्षमा कर देते हैं । षडानन ! जो मुखमें, पुरुषोका सेवन और पलाशके पत्तोंमें भोजन सदा मोक्ष मस्तकपर तथा शरीरमें भगवान्की प्रसादभूता तुलसीको देनेवाला है। कार्तिकके महीने में मौन-व्रतका पालन, प्रसन्नतापूर्वक धारण करता है, उसे कलियुग नहीं छूता। पलाशके पत्तेमें भोजन, तिलमिश्रित जलसे स्रान, निरन्तर भगवान् विष्णुको निवेदन किये हुए प्रसादसे जिसके क्षमाका आश्रय और पृथ्वीपर शयन करनेवाला पुरुष शरीरका स्पर्श होता है, उसके पाप और व्याधियाँ नष्ट हो युग-युगके उपार्जित पापोंका नाश कर डालता है। जो जाती हैं। शङ्खका जल, श्रीहरिको भक्तिपूर्वक अर्पण कार्तिक मासमें भगवान् विष्णुके सामने उपाकालतक किया हुआ नैवेद्य, चरणोदक, चन्दन तथा प्रसादस्वरूप जागरण करता है, उसे सहल गोदानोका फल मिलता है। धूप-ये ब्रह्महत्याका भी पाप दूर करनेवाले हैं।
न वेदसदर्श शास्त्र न तीर्थ गङ्गया समम्। न सत्येन समं वृत्तं न कृतेन समं युगम् ।। न तृप्ती रसनातुल्या न दानसदृशं सुखम्। न धर्मसदृश मित्र न ज्योतिश्चक्षुषा समम् ॥ (१२०।२२-२५)
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उत्तरखण्ड ]
. माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य, मासोपवास-प्रतकी विधि .
प्रसङ्गतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा
मासोपवास-व्रतकी विधिका वर्णन
महादेवजी कहते हैं-भक्तप्रवर कार्तिकेय ! द्वीपोसहित पृथ्वीका राज्य प्राप्त किया था। अब माघस्रानका माहात्म्य सुनो । महामते ! इस संसारमें कार्तिकेयने कहा-भगवन् ! मैं व्रतोंमें उत्तम तुम्हारे समान विष्णु-भक्त पुरुष नहीं हैं। चक्रतीर्थमें मासोपवास-व्रतका वर्णन सुनना चाहता हूँ। साथ ही श्रीहरिका और मथुरामें श्रीकृष्णका दर्शन करनेसे उसकी विधि एवं यथोचित फलको भी श्रवण करना मनुष्यको जो फल मिलता है, वही माघ-मासमें केवल चाहता हैं। स्नान करनेसे मिल जाता है। जो जितेन्द्रिय, शान्तचित्त महादेवजी बोले-बेटा ! तुम्हारा विचार बड़ा
और सदाचारयुक्त होकर माघ मासमें स्नान करता है, वह उत्तम है। तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब बताता हूँ। फिर कभी संसार-बन्धनमें नहीं पड़ता।
जैसे देवताओंमें भगवान् विष्णु, तपनेवालोंमें सूर्य, इतनी कथा सुनाकर भगवान् श्रीकृष्णने पर्वतोंमें मेरु, पक्षियोंमें गरुड़, तीर्थोमे गङ्गा तथा कहा-सत्यभामा ! अब मैं तुम्हारे सामने शूकरक्षेत्रके प्रजाओमें वैश्य श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सब व्रतोंमें माहात्म्यका वर्णन करूँगा, जिसके विज्ञानमात्रसे मेरा मासोपवास-व्रत श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण व्रतोंसे, सान्निध्य प्राप्त होता है। पाँच योजन विस्तृत शूकरक्षेत्र समस्त तीर्थोसे तथा सब प्रकारके दानोंसे जो पुण्य प्राप्त मेरा मन्दिर (निवासस्थान) है। देवि ! जो इसमें निवास होता है, वह सब मासोपवास करनेवालेको मिल जाता करता है, वह गदहा हो तो भी चतुर्भुज स्वरूपको प्राप्त है। वैष्णवयज्ञके उद्देश्यसे भगवान् जनार्दनकी पूजा होता है। तीन हजार तीन सौ तीन हाथ मेरे मन्दिरका करनेके पश्चात् गुरुकी आज्ञा लेकर मासोपवास-व्रत परिमाण माना गया है। देवि ! जो अन्य स्थानों में साठ करना चाहिये। शास्त्रोक्त जितने भी वैष्णवव्रत हैं, उन हजार वर्षातक तपस्या करता है, वह मनुष्य शूकरक्षेत्रमें सबको तथा द्वादशीके पवित्र व्रतको करनेके पश्चात् आधे पहरतक तप करनेपर ही उतनी तपस्याका फल मासोपवास-व्रत करना उचित है। अतिकृच्छ्र, पराक प्राप्त कर लेता है। कुरुक्षेत्रके सत्रिहति' नामक तीर्थमें और चान्द्रायण-व्रतोंका अनुष्ठान करके गुरु और सूर्यग्रहणके समय तुला-पुरुषके दानसे जो फल बताया ब्राह्मणकी आज्ञासे मासोपवास-व्रत करे। आश्विन गया है, वह काशीमें दसगुना, त्रिवेणीमें सौगुना और मासके शुक्लपक्षको एकादशीको उपवास करके तीस गङ्गा-सागर-संगममें सहस्रगुना कहा गया है; किन्तु मेरे दिनोंके लिये इस व्रतको ग्रहण करे। जो मनुष्य भगवान् निवासभूत शूकरक्षेत्रमें उसका फल अनन्तगुना समझना वासुदेवकी पूजा करके कार्तिक मासभर उपवास करता चाहिये। भामिनि ! अन्य तीथोंमें उत्तम विधानके साथ है, वह मोक्षफलका भागी होता है। भगवान्के मन्दिरमें जो लाखों दान दिये जाते हैं, शूकर क्षेत्रमें एक ही दानसे जाकर तीनों समय भक्तिपूर्वक सुन्दर मालती, उनके समान फल प्राप्त हो जाता है। शूकर, क्षेत्र, त्रिवेणी नील कमल, पा, सुगन्धित कमल, केशर, खस, कपूर,
और गङ्गा-सागर-संगममें एक बार ही स्रान करनेसे उत्तम चन्दन, नैवेद्य और धूप-दीप आदिसे श्रीजनार्दनका मनुष्यकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। पूर्वकालमें राजा पूजन करे । मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीगरुडध्वजकी अलर्कने शूकरक्षेत्रका माहात्म्य श्रवण करके सातो आराधनामें लगा रहे । स्त्री, पुरुष, विधवा-जो कोई भी
१-महाभारत युद्धका स्थान ही सत्रिहति' कहलाता है। इसोको कहीं-कहीं 'विनशन-तीर्थ भी कहा गया है।
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
इस व्रतको करे, पूर्ण भक्तिके साथ इन्द्रियोंको काबूमें उपवासके नियमको पूरा करके द्वादशी तिथिको भगवान् रखते हुए दिन-रात श्रीविष्णुके नामोंका कीर्तन करता रहे। गरुडध्वजका पूजन करे । फूल, माला, गन्ध, धूप, चन्दन, भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी स्तुति करे । झूठ न बोले । सम्पूर्ण वस्त्र, आभूषण और वाद्य आदिके द्वारा भगवान् विष्णुको जीवोंपर दया करे । अन्तःकरणको वृत्तियोंको अशान्त न संतुष्ट करे। चन्दनमिश्रित तीर्थके जलसे भक्तिपूर्वक होने दे। हिंसा त्याग दे। सोया हो या बैठा, श्रीवासुदेवका भगवानको स्नान कराये। फिर उनके अङ्गोंमें चन्दनका कीर्तन किया करे। अत्रका स्मरण, अवलोकन, संघना, लेप करके गन्ध और पुष्पोंसे शृङ्गार करे। फिर वस्त्र स्वाद लेना, चर्चा करना तथा प्रासको मुंहमें लेना-ये आदिका दान करके उत्तम ब्राह्मणोंको भोजन कराये, उन्हें सभी निषिद्ध है। व्रतमें स्थित मनुष्य शरीरमें उबटन दक्षिणा दे और प्रणाम करके उनसे त्रुटियोंके लिये लगाना, सिरमें तेलकी मालिश कराना, पान खाना और क्षमा याचना करे। इस प्रकार मासोपवासपूर्वक चन्दन लगाना छोड़ दे तथा अन्यान्य निषिद्ध वस्तुओंका जनार्दनकी पूजा करके ब्राहाणोंको भोजन करानेसे मनुष्य भी त्याग करे। व्रत करनेवाला पुरुष शास्त्रविरुद्ध कर्म श्रीविष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। मण्डपमें उपस्थित करनेवाले व्यक्तिका स्पर्श न करे। उससे वार्तालाप भी न ब्राह्मणोंसे वारंवार इस प्रकार कहना चाहियेकरे। पुरुष, सौभाग्यवती स्त्री अथवा विधवा नारी 'द्विजवरो! इस व्रतमें जो कोई भी कार्य मन्त्रहीन, शास्त्रोक्त विधिसे एक मासतक उपवास करके भगवान् क्रियाहीन और सब प्रकारके साधनों एवं विधियोंसे हीन वासुदेवका पूजन करे। यह व्रत गिने-गिनाये तीस दिनोंका हुआ हो, वह सब आपलोगोंके वचन और प्रसादसे होता है, इससे अधिक या कम दिनोंका नहीं। मनको परिपूर्ण हो जाय।' कार्तिकेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे संयममें रखनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष एक मासतक मासोपवासकी विधिका यथावत् वर्णन किया है।
शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
कार्तिकेयने कहा-भगवन् ! आप योगियोंमें करके भगवत्स्वरूप हो जाता है। शालग्रामशिलाका श्रेष्ठ हैं। मैंने आपके मुखसे सब धर्मोका श्रवण किया। स्मरण, कीर्तन, ध्यान, पूजन और नमस्कार करनेपर प्रभो ! अब शालग्राम-पूजनकी विधिका विस्तारके साथ कोटि-कोटि ब्रह्महत्याओका पाप नष्ट हो जाता है। वर्णन कीजिये।
शालग्रामशिलाका दर्शन करनेसे अनेक पाप दूर हो जाते र महादेवजी बोले-महामते ! तुमने बहुत उत्तम हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन शालग्रामशिलाकी पूजा करता है, बात पूछी है। वत्स ! तुम जो कुछ पूछ रहे हो, उसका उसे न तो यमराजका भय होता है और न मरने या जन्म उत्तर देता हूँ सुनो। शालग्रामशिलामें सदा चराचर लेनेका ही। जिन मनुष्योंने भक्तिभावसे शालग्रामको प्राणियोसहित समस्त त्रिलोकी लौन रहती है। जो नमस्कार मात्र कर लिया, उनको तथा मेरे भक्तोंको फिर शालग्रामशिलाका दर्शन करता, उसे मस्तक झुकाता, मनुष्य-योनिकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। वे तो मुक्तिके स्नान कराता और पूजन करता है, वह कोटि यज्ञोंके अधिकारी हैं। जो मेरी भक्तिके घमंडमें आकर मेरे प्रभु समान पुण्य तथा कोटि गोदानोंका फल पाता है। बेटा ! भगवान् वासुदेवको नमस्कार नहीं करते, वे पापसे जो पुरुष सर्वदा भगवान् विष्णुकी शालग्रामशिलाका मोहित हैं; उन्हें मेरा भक्त नहीं समझना चाहिये। चरणामृत पान करता है, उसने गर्भवासके भयङ्कर करोड़ों कमल-पुष्पोंसे मेरी पूजा करनेपर जो फल कष्टका नाश कर दिया। जो सदा भोगोंमें आसक्त और होता है, वही शालग्रामशिलाके पूजनसे कोटिगुना होकर भक्तिभावसे हीन है, वह भी शालग्रामशिलाका पूजन मिलता है, जिन लोगोंने मर्त्यलोकमें आकर शालग्राम
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उत्तरखण्ड ]
शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य •
I
शिलाका पूजन नहीं किया, उन्होंने न तो कभी मेरा पूजन किया और न नमस्कार ही किया जो शालग्रामशिलाके अग्रभागमें मेरा पूजन करता है, उसने मानो लगातार इक्कीस युगांतक मेरी पूजा कर ली। जो मेरा भक्त होकर वैष्णव पुरुषका पूजन नहीं करता वह मुझसे द्वेष रखनेवाला है। उसे तबतकके लिये नरकमें रहना पड़ता है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकी आयु समाप्त नहीं हो जाती।
जिसके घरमें कोई वानप्रस्थी, वैष्णव अथवा संन्यासी दो घड़ी भी विश्राम करता है, उसके पितामह आठ युगोंतक अमृत भोजन करते हैं। शालग्रामशिलासे प्रकट हुए लिङ्गोंका एक बार भी पूजन करनेपर मनुष्य योग और सांख्यसे रहित होनेपर भी मुक्त हो जाते हैं। मेरे कोटि-कोटि लिङ्गोका दर्शन, पूजन और स्तवन करनेसे जो फल मिलता है, वह एक ही शालग्रामशिलाके पूजनसे प्राप्त हो जाता है।
बेटा स्कन्द ! अन्य सभी शुभकमेोंकि फलोंका माप है; किन्तु शालग्रामशिलाके पूजनसे जो फल मिलता है, उसका कोई माप नहीं जो विष्णुभक्त ब्राह्मणको शालग्रामशिलाका दान करता है, उसने मानो सौ यज्ञोंद्वारा भगवान्का यजन कर लिया। जो शालग्रामशिलाके जलसे अपना अभिषेक करता है, उसने सम्पूर्ण तीर्थो में स्नान कर लिया और समस्त यज्ञोंकी दीक्षा ले ली। जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक एक-एक सेर तिलका दान करता है, वह शालग्रामशिलाके पूजन मात्रसे उस फलको प्राप्त कर लेता है। शालग्रामशिलाको अर्पण किया हुआ थोड़ा-स पत्र, पुष्प, फल, जल, मूल और दूर्वादल भी मेरु पर्वतके समान महान् फल देनेवाला होता है।
-सा
जहाँ शालग्रामशिला होती है, वहाँ भगवान् श्रीहरि विराजमान रहते हैं। वहाँ किया हुआ स्नान और दान काशीसे सौगुना अधिक फल देनेवाला है। प्रयाग, कुरुक्षेत्र, पुष्कर और नैमिषारण्य - ये सभी तीर्थ वहाँ मौजूद रहते हैं; अतः वहाँ उन तीथकी अपेक्षा कोटिगुना अधिक पुण्य होता है। काशी में मिलनेवाला मोक्षरूपी महान् फल भी वहाँ सुलभ होता है। जहाँ शालग्रामशिलासे प्रकट होनेवाले भगवान् शालग्राम तथा द्वारकासे प्रकट होनेवाले भगवान् गोमतीचक्र हों तथा जहाँ इन दोनोंका संगम हो गया हो वहाँ निःसन्देह मोक्षकी प्राप्ति होती है। शालग्रामशिलाके पूजनमें मन्त्र, जप, भावना, स्तुति अथवा किसी विशेष प्रकारके आचारका बन्धन नहीं है। शालग्रामशिलाके सम्मुख विशेषतः कार्तिक मासमें आदरपूर्वक स्वस्तिकका चिह्न बनाकर मनुष्य अपनी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है। जो भगवान् केशवके समक्ष मिट्टी अथवा गेरू आदिसे छोटा-सा भी मण्डल (चौक) बनाता है, वह कोटि कल्पोंतक दिव्यलोकमें निवास करता है। श्रीहरिके मन्दिरको सजानेसे अगम्यागमन तथा अभक्ष्यभक्षण जैसे पाप भी नष्ट हो जाते हैं जो नारी प्रतिदिन भगवान् विष्णुके सामने चौक पूरती है, वह सात जन्मोंतक कभी विधवा नहीं होती।
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* सुराणां कीर्तनैः सर्वैः कोटिभिश्च फलं कृतम्। तत्फलं कीर्तनादेव केशवे सुकृतं कलौ ॥ (१२२ । ३६-३७)
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जो वैष्णव प्रतिदिन बारह शालग्रामशिलाओंका पूजन करता है, उसके पुण्यका वर्णन सुनो। गङ्गाजीके तटपर करोड़ों शिवलिङ्गोका पूजन करनेसे तथा लगातार आठ युगांतक काशीपुरीमें रहनेसे जो पुण्य होता है, वह उस वैष्णवको एक ही दिनमें प्राप्त हो जाता है। अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता - जो वैष्णव मनुष्य शालग्रामशिलाका पूजन करता है, उसके पुण्यकी गणना करनेमें में तथा ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं; इसलिये बेटा! मेरे भक्तोंको उचित है कि वे मेरी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक शालग्रामशिलाका भी पूजन करें। जहाँ शालग्रामशिला रूपी भगवान् केशव विराजमान हैं, वहीं सम्पूर्ण देवता, असुर, यक्ष तथा चौदहों भुवन मौजूद हैं। अन्य देवताओंका करोड़ों बार कीर्तन करनेसे जो फल होता है, वह भगवान् केशवका एक बार कीर्तन करनेसे ही मिल जाता है। अतः कलियुगमें श्रीहरिका कीर्तन ही सर्वोत्तम पुण्य हैं। * श्रीहरिका चरणोदक पान करनेसे ही समस्त पापोंका प्रायश्चित हो जाता है। फिर उनके लिये दान, उपवास और चान्द्रायण व्रत करनेकी क्या आवश्यकता 秉
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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
महादेवजी कहते हैं— जो प्रतिदिन मालतीसे भगवान् गरुड़ध्वजका पूजन करता है, वह जन्मके दुःखों और बुढ़ापेके रोगोंसे छुटकारा पाकर मुक्त हो जाता है। जिसने कार्तिकमें मालतीकी मालासे भगवान् विष्णुकी पूजा की है, उसके पापोंको भगवान् श्रीकृष्ण धो डालते हैं। चन्दन, कपूर, अरगजा, केशर, केवड़ा और दीपदान भगवान् केशवको सदा ही प्रिय हैं। कमलका पुष्प, तुलसीदल, मालती, अगस्त्यका फूल और दीपदान —ये पाँच वस्तुएँ कार्तिकमें भगवान् के लिये परम प्रिय मानी गयी हैं। कार्तिकेय ! केवड़ेके फूलोंसे भगवान् हृषीकेशका पूजन करके मनुष्य उनके परम पवित्र एवं कल्याणमय धामको प्राप्त होता है जो अगस्त्यके फूलोंसे जनार्दनका पूजन करता है, उसके दर्शनसे नरकको आग बुझ जाती है। जैसे कौस्तुभमणि और वनमालासे भगवान्को प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार कार्तिकमें तुलसीदलसे वे अधिक संतुष्ट होते हैं।
कार्तिकेय ! अब कार्तिकमें दिये जानेवाले दीपका माहात्म्य सुनो। मनुष्यके पितर अन्य पितृगणोंके साथ सदा इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि क्या हमारे कुलमें भी कोई ऐसा उत्तम पितृभक्त पुत्र उत्पन्न होगा, जो कार्तिकमें दीपदान करके श्रीकेशवको संतुष्ट कर सके। स्कन्द ! कार्तिकमें घी अथवा तिलके तेलसे जिसका दीपक जलता रहता है, उसे अश्वमेध यज्ञसे क्या लेना है। जिसने कार्तिकमें भगवान् केशवके समक्ष दीपदान किया है, उसने सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया और समस्त तीर्थो में गोता लगा लिया। बेटा! विशेषतः कृष्णपक्षमें पाँच दिन बड़े पवित्र हैं (कार्तिक कृष्णा १३ से कार्तिक शुक्ला २ तक) उनमें जो कुछ भी दान किया जाता है, वह सब अक्षय एवं सम्पूर्ण कामनाओंको
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भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली - कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करने योग्य कृत्योंका वर्णन
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह त्रयोदश्यां दीपदानात्सूर्यजः + सीतालोष्टसमायुक्तः सकष्टकदलान्वितः। हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः
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पूर्ण करनेवाला होता है। लीलावती वेश्या दूसरेके रखे हुए दीपको ही जलाकर शुद्ध हो अक्षय स्वर्गको चली गयी। इसलिये रात्रिमें सूर्यास्त हो जानेपर घरमें, गोशालामें, देववृक्षके नीचे तथा मन्दिरोंमें दीपक जलाकर रखना चाहिये। देवताओंके मन्दिरोंमें, श्मशानोंमें और नदियोंके तटपर भी अपने कल्याणके लिये घृत आदिसे पाँच दिनोंतक दीपक जलाने चाहिये। ऐसा करनेसे जिनके श्राद्ध और तर्पण नहीं हुए हैं, वे पापी पितर भी दीपदानके पुण्यसे परम मोक्षको प्राप्त हो जाते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— भामिनि ! कार्तिकके कृष्णपक्षकी त्रयोदशीको घरसे बाहर यमराजके लिये दीप देना चाहिये। इससे दुर्मृत्युका नाश होता है। दीप देते समय इस प्रकार कहना चाहिये'मृत्यु' पाशधारी काल और अपनी पत्नीके साथ सूर्यनन्दन यमराज त्रयोदशीको दीप देनेसे प्रसन्न हों। * कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको चन्द्रोदयके समय नरकसे डरनेवाले मनुष्योंको अवश्य स्नान करना चाहिये। जो चतुर्दशीको प्रातःकाल स्नान करता है, उसे यमलोकका दर्शन नहीं करना पड़ता। अपामार्ग ( ओंगा या चिचड़ा), तुम्बी (लौकी), प्रपुत्राट (चकवड़ ) और कट्फल (कायफल) – इनको स्रानके बीचमें मस्तकपर घुमाना चाहिये। इससे नरकके भयका नाश होता है। उस समय इस प्रकार प्रार्थना करे हे अपामार्ग! मैं हराईके ढेले, काँटे और पत्तोंसहित तुम्हें बार-बार मस्तकपर घुमा रहा हूँ। मेरे पाप हर लो। यों कहकर अपामार्ग और चकवड़को मस्तकपर घुमाये । तत्पश्चात् यमराजके नामोंका उच्चारण करके तर्पण करे। वे नाम-मन्त्र इस प्रकार हैं१- यमाय नमः, धर्मराजाय नमः, मृत्यवे नमः, अन्तकाय नमः, वैवस्वताय नमः, कालाय
प्रीयतामिति । (१२४ । ५) पुनः पुनः । (१२४ । ११)
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उत्तरखण्ड]
• भगवत्पूजन, दीपदानादि कत्य, गोवर्धन-पूजा,यमद्वितीयाके कृत्योंका वर्णन •
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नमः, सर्वभूतक्षयाय नमः, औदुम्बराय नमः, दनाय 'पृथ्वीको धारण करनेवाले गोवर्धन ! आप नमः, नीलाय नमः, परमेष्ठिने नमः, वृकोदराय नमः, गोकुलके रक्षक हैं। भगवान् श्रीकृष्णने आपको अपनी चित्राय नमः, चित्रगुप्ताय नमः।
भुजाओंपर उठाया था। आप मुझे कोटि-कोटि गौएँ देवताओंका पूजन करके दीपदान करना चाहिये। प्रदान करें। लोकपालोंको जो लक्ष्मी धेनुरूपमें स्थित हैं इसके बाद रात्रिके आरम्भमें भिन्न-भिन्न स्थानोंपर मनोहर और यज्ञके लिये घृत प्रदान करती है, वह मेरे पापको दीप देने चाहिये। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदिके दूर करे । मेरे आगे गौएँ रहें, मेरे पीछे भी गौएँ रहें, मेरे मन्दिरोंमें, गुप्त गृहोंमें, देववृक्षोंके नीचे, सभाभवनमें, हृदयमें गौओंका निवास हो तथा मैं भी गौओंके बीचमें नदियोंके किनारे, चहारदीवारीपर, बगीचेमें, बावलीके निवास करूं।' तटपर, गली-कूचोंमें, गृहोद्यानमें तथा एकान्त कार्तिक शुक्लपक्षकी द्वितीयाको पूर्वाह्नमें यमकी अश्वशालाओं एवं गजशालाओंमें भी दीप जलाने पूजा करे । यमुनामें स्रान करके मनुष्य यमलोकको नहीं चाहिये । इस प्रकार रात व्यतीत होनेपर अमावास्याको देखता। कार्तिक शुक्ला द्वितीयाको पूर्वकालमें यमुनाने प्रातःकाल स्रान करे और भक्तिपूर्वक देवताओं तथा यमराजको अपने घरपर सत्कारपूर्वक भोजन कराया था। पितरोंका पूजन और उन्हें प्रणाम करके पार्वण श्राद्ध करे; उस दिन नारकी जीवोंको यातनासे छुटकारा मिला और फिर दही, दूध, घी आदि नाना प्रकारके भोज्य पदार्थों- उन्हें तृप्त किया गया। वे पाप-मुक्त होकर सब बन्धनोंसे द्वारा ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उनसे क्षमा-प्रार्थना करे। छुटकारा पा गये और सब-के-सव यहाँ अपनी इच्छाके तदनन्तर भगवान्के जागनेसे पहले स्त्रियोंके द्वारा अनुसार संतोषपूर्वक रहे। उन सबने मिलकर एक महान् लक्ष्मीजीको जगाये। जो प्रबोधकाल (ब्राह्ममुहूर्त) में उत्सव मनाया, जो यमलोकके राज्यको सुख पहुँचानेलक्ष्मीजीको जगाकर उनका पूजन करता है, उसे धन- वाला था। इसीलिये यह तिथि तीनों लोकोमें सम्पत्तिकी कमी नहीं होती। तत्पश्चात् प्रातःकाल यमद्वितीयाके नामसे विख्यात हुई: अतः विद्वान् पुरुषोंको (कार्तिक शुक्ला प्रतिपदाको) गोवर्धनका पूजन करना उस दिन अपने घर भोजन नहीं करना चाहिये। वे चाहिये। उस समय गौओं तथा बैलोको आभूषणोंसे बहिनके घर जाकर उसीके हाथसे मिले हुए अन्नको, जो सजाना चाहिये। उस दिन उनसे सवारीका काम नहीं पुष्टिवर्धक है, स्नेहपूर्वक भोजन करें तथा जितनी बहिने लेना चाहिये तथा गायोंको दुहना भी नहीं चाहिये। हों, उन सबको पूजा और सत्कारके साथ विधिपूर्वक पूजनके पश्चात् गोवर्धनसे इस प्रकार प्रार्थना करे- सुवर्ण, आभूषण एवं वस्त्र दें। सगी बहिनके हाथका
गोवर्धन घराधार गोकुलत्राणकारक ॥ अन्न भोजन करना उत्तम माना गया है। उसके अभावमें विष्णुबाहुकृतोच्छाय गवां कोटिप्रदो भव। किसी भी बहिनके हाथका अन्न भोजन करना चाहिये। या लक्ष्मीलोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ॥ वह बलको बढ़ानेवाला है। जो लोग उस दिन सुवासिनी घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु। बहिनोंको वस्त्र-दान आदिसे सन्तुष्ट करते हैं, उन्हें एक अप्रतः सन्तु मे गावो गावो मे सन्तु पृष्ठतः। सालतक कलह एवं शत्रुके भयका सामना नहीं करना गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्॥ पड़ता। यह प्रसङ्ग धन, यश, आयु, धर्म, काम एवं
(१२४ । ३१-३३) अर्थकी सिद्धि करनेवाला है।
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .. [ संक्षिप्त पयपुराण ................................................................................................... प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपञ्चक-व्रतकी विधि एवं महिमा
महादेवजी कहते हैं-सुरश्रेष्ठ कार्तिकेय ! अब एकादशीको जागरण करता है, वह परमात्मामें लीन हो प्रबोधिनी एकादशीका माहात्म्य सुनो। यह पापका नाशक, जाता है। जो कार्तिकमें पुरुषसूक्तके द्वारा प्रतिदिन पुण्यकी वृद्धि करनेवाला तथा तत्त्वचिन्तनपरायण श्रीहरिका पूजन करता है, उसके द्वारा करोड़ों वर्षातक पुरुषोंको मोक्ष देनेवाला है। समुद्रसे लेकर सरोवरोतक भगवानको पूजा सम्पन्न हो जाती है। जो मनुष्य पाञ्चरात्रमें जितने तीर्थ हैं, वे भी तभीतक गरजते हैं जबतक कि बतायी हुई यथार्थ विधिके अनुसार कार्तिकमें भगवान्का कार्तिकमे श्रीहरिकी प्रबोधिनी तिथि नहीं आती। पूजन करता है, वह मोक्षका भागी होता है। जो कार्तिकमें प्रबोधिनीको एक ही उपवाससे सहस्र अश्वमेध और सौ 'ॐ नमो नारायणाय' इस मन्त्रके द्वारा श्रीहरिकी अर्चना राजसूय यज्ञोंका फल मिल जाता है। इस चराचर करता है, वह नरकके दुःखोंसे छुटकारा पाकर अनामय त्रिलोकीमें जो वस्तु अत्यन्त दुर्लभ मानी गयी है, उसे भी पदको प्राप्त होता है। जो कार्तिकमें श्रीविष्णुसहस्रनाम माँगनेपर हरिबोधिनी एकादशी प्रदान करती है। यदि तथा गजेन्द्र-मोक्षका पाठ करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं हरिबोधिनी एकादशीको उपवास किया जाय तो वह होता। उसके कुलमें जो सैकड़ों, हजारों पुरुष उत्पन्न हो अनायास ही ऐश्वर्य, सन्तान, ज्ञान, राज्य और सुख- चुके हैं, वे सभी श्रीविष्णुधामको प्राप्त होते हैं। अतः सम्पत्ति प्रदान करती है। मनुष्यके किये हुए मेरुपर्वतके एकादशीको जागरण अवश्य करना चाहिये। जो समान बड़े-बड़े पापोंको भी हरिबोधिनी एकादशी एक ही कार्तिकमें रात्रिके पिछले पहरमें भगवान्के सामने उपवाससे भस्म कर डालती है । जो प्रबोधिनी एकादशीको स्तोत्रगान करता है, वह अपने पितरोंके साथ श्वेतद्वीपमें स्वभावसे ही विधिपूर्वक उपवास करता है, वह शास्त्रोक्त निवास करता है। जो मनुष्य कार्तिक शुक्लपक्षमें फलका भागी होता है। प्रबोधिनी एकादशीको रात्रिमें एकादशीका व्रत पूर्ण करके प्रातःकाल सुन्दर कलश दान जागरण करनेसे पहलेके हजारों जन्योंकी की हुई पापराशि करता है, वह श्रीहरिके परमधामको प्राप्त होता है। रूईके ढेरकी भाँति भस्म हो जाती है।
व्रतधारियोंमें श्रेष्ठ कार्तिकेय ! अब मैं तुम्हें महान् रात्रि जागरण करते समय भगवत्सम्बन्धी गीत, पुण्यदायक व्रत बताता हूँ। यह व्रत कार्तिकके अन्तिम वाद्य, नृत्य और पुराणोंके पाठकी भी व्यवस्था करनी पाँच दिनोंमें किया जाता है। इसे भीष्मजीने भगवान् चाहिये। धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, गन्ध, चन्दन, फल और वासुदेवसे प्राप्त किया था, इसलिये यह व्रत भीष्मपञ्चक अर्घ्य आदिसे भगवान्की पूजा करनी चाहिये। मनमें नामसे प्रसिद्ध है। भगवान् केशवके सिवा दूसरा कौन श्रद्धा रखकर दान देना और इन्द्रियोंको संयममें रखना ऐसा है, जो इस व्रतके गुणोंका यथावत् वर्णन कर सके। चाहिये। सत्यभाषण, निद्राका अभाव, प्रसन्नता, वसिष्ठ, भृगु और गर्ग आदि मुनीश्वरोंने सत्ययुगके शुभकर्ममें प्रवृत्ति, मनमें आश्चर्य और उत्साह, आलस्य आदिमें कार्तिकके शुक्रपक्षमें इस पुरातन धर्मका आदिका त्याग, भगवान्की परिक्रमा तथा नमस्कार-इन अनुष्ठान किया था। राजा अम्बरीषने भी त्रेता आदि बातोका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। महाभाग ! युगोंमें इस व्रतका पालन किया था। ब्राह्मणोंने प्रत्येक पहरमें उत्साह और उमङ्गके साथ भक्तिपूर्वक ब्रह्मचर्यपालन, जप तथा हवन कर्म आदिके द्वारा और भगवान्की आरती उतारनी चाहिये । जो पुरुष भगवान्के क्षत्रियों एवं वैश्योंने सत्य-शौच आदिके पालनपूर्वक इस समीप एकाग्रचित्त होकर उपर्युक्त गुणोंसे युक्त जागरण व्रतका अनुष्ठान किया है। सत्यहीन मूढ़ मनुष्योंके लिये करता है, वह पुनः इस पृथ्वीपर जन्म नहीं लेता। जो इस व्रतका अनुष्ठान असम्भव है। जो इस व्रतको पूर्ण धनकी कृपणता छोड़कर इस प्रकार भक्तिभावसे कर लेता है, उसने मानो सब कुछ कर लिया।
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उत्तरखण्ड ]
प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्व, भीष्मपाक-व्रतकी विधि.
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कार्तिकके शुक्लपक्षमें एकादशीको विधिपूर्वक स्रान करे। फिर 'ॐ नमो वासुदेवाय' इस मन्त्रका एक सौ करके पांच दिनोंका व्रत ग्रहण करे। व्रती पुरुष प्रातः- आठ बार जप करे तथा उस षडक्षर मन्त्रके अन्तमें स्नान के बाद मध्याह्रके समय भी नदी, झरने या पोखरेपर 'स्वाहा' पद जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक घृतमिश्रित जाकर शरीरमें गोबर लगाकर विशेषरूपसे स्रान करे। तिल, चावल और जौ आदिसे अग्निमें हवन करे। फिर चावल, जौ और तिलोंके द्वारा क्रमशः देवताओं, सार्यकालमें सन्ध्योपासना करके भगवान् गरुडध्वजको ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। मौनभावसे स्रान प्रणाम करे और पूर्ववत् षडक्षर मन्त्रका जप करके करके धुले हुए वस्त्र पहन दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन व्रत-पालनपूर्वक पृथ्वीपर शयन करे। इन सब करे। ब्राह्मणको पञ्चरत्न दान दे। लक्ष्मीसहित भगवान् विधियोंका पाँच दिनोंतक पालन करते रहना चाहिये। विष्णुका प्रतिदिन पूजन करे। इस पञ्चकवतके एकादशीको सनातन भगवान् हषीकेशका पूजन अनुष्ठानसे मनुष्य वर्षभरके सम्पूर्ण व्रतोंका फल प्राप्त कर करके थोड़ा-सा गोबर खाकर उपवास करे। फिर लेता है। जो मनुष्य निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे भीष्मको जलदान द्वादशीको व्रती पुरुष भूमिपर बैठकर मन्त्रोचारणके साथ देता और अर्घ्यके द्वारा उनका पूजन (सत्कार) करता है, गोमूत्र पान करे। त्रयोदशीको दूध पीकर रहे। वह मोक्षका भागी होता है। मन्त्र इस प्रकार है- चतुर्दशीको दही भोजन करे। इस प्रकार शरीरकी
वैयाघ्रपद्यगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च। शुद्धिके लिये चार दिनोंका लङ्घन करके पांचवें दिन अनपत्याय भीष्माय उदकं भीष्पवर्मणे॥ नानके पश्चात् विधिपूर्वक भगवान् केशवकी पूजा करे वसूनामवताराय शन्तनोरात्पजाय च। और भक्तिके साथ ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें अयं ददामि भीष्माय आजन्यब्रह्मचारिणे ॥ दक्षिणा दे। पापबुद्धिका परित्याग करके बुद्धिमान् पुरुष
(१२५ ॥ ४३-४४) ब्रह्मचर्यका पालन करे। शाकाहारसे अथवा मुनियोंके "जिनका गोत्र वैयाघ्रपद्य और प्रवर सांकृत्य है, उन अन्न (तिनीके चावल) से इस प्रकार निर्वाह करते हुए सन्तानरहित राजर्षि भीष्मके लिये यह जल समर्पित है। मनुष्य श्रीकृष्णके पूजनमें संलग्न रहे । उसके बाद रात्रिमें जो वसुओंके अवतार तथा राजा शन्तनुके पुत्र हैं, उन पहले पञ्चगव्य पान करके पीछे अन्न भोजन करे। इस आजन्म ब्रह्मचारी भीष्मको मैं अर्घ्य दे रहा हूँ।' प्रकार भलीभाँति व्रतकी पूर्ति करनेसे मनुष्य शास्त्रोक्त
तत्पश्चात् सब पापोंका हरण करनेवाले श्रीहरिका फलका भागी होता है। इस भीष्प-व्रतका अनुष्ठान पूजन करे। उसके बाद प्रयत्नपूर्वक भीष्मपञ्चक-व्रतका करनेसे मनुष्य परमपदको प्राप्त करता है। स्त्रियोंको भी पालन करना चहिये। भगवान्को भक्तिपूर्वक जलसे अपने स्वामीकी आज्ञा लेकर इस धर्मवर्धक व्रतका नान कराये। फिर मधु, दूध, घी, पञ्चगव्य, गन्ध और अनुष्ठान करना चाहिये। विधवाएँ भी मोक्ष-सुखकी चन्दनमिश्रित जलसे उनका अभिषेक करे। तदनन्तर वृद्धि, सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति तथा पुण्यको प्राप्तिके सुगन्धित चन्दन और केशरमें कपूर और खस मिलाकर लिये इस व्रतका पालन करें। भगवान् विष्णुके चिन्तनमें भगवान्के श्रीविग्रहपर उसका लेप करे । फिर गन्ध और लगे रहकर प्रतिदिन बलिवैश्वदेव भी करना चाहिये। यह धूपके साथ सुन्दर फूलोंसे श्रीहरिकी पूजा करे तथा आरोग्य और पुत्र प्रदान करनेवाला तथा महापातकोका उनकी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक घी मिलाया हुआ नाश करनेवाला है। एकादशीसे लेकर पूर्णिमातकका जो गूगल जलाये। लगातार पाँच दिनोतक भगवान्के समीप व्रत है, वह इस पृथ्वीपर भीष्मपञ्चकके नामसे विख्यात दिन-रात दीपक जलाये रखे। देवाधिदेव श्रीविष्णुको है। भोजनपरायण पुरुषके लिये इस व्रतका निषेध है। नैवेद्यके रूपमें उत्तम अन्न निवेदन करे। इस प्रकार इस व्रतका पालन करनेपर भगवान् विष्णु शुभ फल भगवान्का स्मरण और उन्हें प्रणाम करके उनकी अर्चना प्रदान करते हैं।
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. अर्चवस्व हुचीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पदापुराण
- महादेवजी कहते है-यह मोक्षदायक शास्त्र भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-देवदेव भगवान अनधिकारी पुरुषोंके सामने प्रकाशित करनेयोग्य नहीं है। शङ्करने पुत्रको मङ्गल-कामनासे यह व्रत उसे बताया जो मनुष्य इसका श्रवण करता है, वह मोक्षको प्राप्त होता था। पिताके वचन सुनकर कार्तिकेय आनन्दमग्न हो है। कार्तिकेय ! इस व्रतको यत्नपूर्वक गुप्त रखना गये। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस कार्तिकमाहात्म्यका पाठ चाहिये। जो त्यागी मनुष्य हैं, वे भी यदि इस व्रतका करता, सुनता और सुनकर हृदयमें धारण करता है, वह अनुष्ठान करें तो उनके पुण्यको बतलानेमें मैं असमर्थ सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। हूँ। इस प्रकार कार्तिक मासका जो कुछ भी फल है, वह इस माहात्म्यका श्रवण करनेमात्रसे ही धन, धान्य, यश, सब मैंने बतला दिया।
पुत्र, आयु और आरोग्यकी प्राप्ति हो जाती है।
भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
श्रीपार्वतीजीने पूछा-प्रभो! विश्वेश्वर ! श्रेष्ठ प्रधान-प्रधान मुनीश्वर उन्हें कल्याण प्रदान करते हैं। जो भक्तिका क्या स्वरूप है, जिसके जाननेमात्रसे मनुष्योंको भगवान् गोविन्दमें भक्ति रखते हैं, उनके लिये भूतसुख प्राप्त होता है?
पिशाचोंसहित समस्त ग्रह शुभ हो जाते हैं। ब्रह्मा आदि महादेवजी बोले-देवि ! भक्ति तीन प्रकारको देवता उनपर प्रसन्न होते हैं तथा उनके घरों में लक्ष्मी सदा बतायी गयी है-सात्त्विकी, राजसी और तामसी । इनमें स्थिर रहती है। भगवान् गोविन्दमें भक्ति रखनेवाले सात्विकी उत्तम, राजसी मध्यम और तामसी कनिष्ठ है। मानवोंके शरीरमें सदा गङ्गा, गया, नैमिषारण्य, काशी, मोक्षरूप फलको इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको श्रीहरिकी प्रयाग और कुरुक्षेत्र आदि तीर्थ निवास करते हैं।* उत्तम भक्ति करनी चाहिये। अहङ्कारको लेकर या इस प्रकार विद्वान् पुरुष भगवती लक्ष्मीसहित दूसरोंको दिखानेके लिये अथवा ईर्ष्यावश या दूसरोंका भगवान् विष्णुको आराधना करे। जो ऐसा करता है, वह संहार करनेकी इच्छासे जो किसी देवताकी भक्ति की ब्राह्मण सदा कृतकृत्य होता है-इसमें तनिक भी सन्देह जाती है, वह तामसी बतायी गयी है। जो विषयोंकी नहीं है। पार्वती ! क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र ही क्यों न इच्छा रखकर अथवा यश और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये हो-जो भगवान् विष्णुकी विशेषरूपसे भक्ति करता है, भगवान्की पूजा करता है, उसकी भक्ति राजसी मानी वह निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। गयी है। ज्ञान-परायण ब्राह्मणोंको कर्म-बन्धनका नाश पार्वतीजीने पूछा-सुरेश्वर ! इस पृथ्वीपर करनेके लिये श्रीविष्णुके प्रति आत्मसमर्पणकी बुद्धि शालग्रामशिलाकी विशुद्ध मूर्तियाँ बहुत-सी हैं, उनमें से करनी चाहिये। यही सात्विकी भक्ति है। अतः देवि ! कितनी मूर्तियोंको पूजनमें ग्रहण करना चाहिये। सदा सब प्रकारसे श्रीहरिका सेवन करना चाहिये। महादेवजी बोले-देवि ! जहाँ शालग्रामतामसभावसे तामस, राजससे राजस और सात्त्विकसे शिलाकी कल्याणमयी मूर्ति सदा विराजमान रहती है, सात्त्विक गति प्राप्त होती है। भगवान् गोविन्दमें भक्ति उस घरको वेदोंमें सब तीर्थोसे श्रेष्ठ बताया गया है। रखनेवाले पुरुषोंको समस्त देवता प्रसन्नतापूर्वक शान्ति ब्राह्मणोको पाँच, क्षत्रियोंको चार, वैश्योंको तीन और देते हैं, ब्रह्मा आदि देवेश्वर उनका मङ्गल करते हैं और शूद्रोंको एक ही शालग्राममूर्तिका यलपूर्वक पूजन करना
* गङ्गागयानैमिषपुष्कराणि काशी प्रयागः कुरुजाङ्गलानि । तिष्ठन्ति देहे कृतभक्तिपूर्व गोविन्दभक्तिं वहता नराणाम् ।। (१२६ । १७) + क्षत्रियो वाऽथ वैश्यो वा शूद्रो वा सुरसतमे। भक्तिं कुर्वन् विशेषेण मुक्तिं याति संशयः ॥ (१२६ । १९)
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उत्तरखण्ड ]
SUPARMARARR
• भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्य
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चाहिये। ऐसा करनेसे वे इस लोकमें समस्त भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। यह शालग्रामशिला भगवान्की सबसे बड़ी मूर्ति है, जो पूजन करनेपर सदा पापका अपहरण करनेवाली और मोक्षरूप फल देनेवाली है। जहाँ शालग्रामशिला विराजती है, वहाँ गङ्गा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती - सभी तीर्थ निवास करते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको इसका भलीभाँति पूजन करना चाहिये। देवेश्वरि ! जो भक्तिभावसे जनार्दनका पूजन करते हैं, उनके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है। पितर सदा यही बातचीत किया करते हैं कि हमारे कुलमें वैष्णव पुत्र उत्पन्न हों, जो हमारा उद्धार करके हमें विष्णुधाममें पहुँचा सकें। वही दिवस धन्य है, जिसमें भगवान् विष्णुका पूजन किया जाय और उसी पुरुषकी माता, बन्धुबान्धव तथा पिता धन्य हैं, जो श्रीविष्णुकी अर्चना करता है। जो लोग भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर रहते हैं, उन सबको परम धन्य समझना चाहिये। * वैष्णव पुरुषोंके दर्शनमात्रसे जितने भी उपपातक और महापातक हैं, उन सबका नाश हो जाता है। भगवान् विष्णुकी पूजामें संलग्र रहनेवाले मनुष्य अग्रिकी भाँति तेजस्वी प्रतीत होते हैं। वे मेघोंके आवरणसे उन्मुक्त चन्द्रमाकी भाँति सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। वैष्णवोंके पूजनसे बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। आई (स्वेच्छासे किया हुआ पाप), शुष्क (अनिच्छासे किया हुआ पाप), लघु और स्थूल, मन, वाणी तथा शरीरद्वारा किया हुआ, प्रमादसे होनेवाला तथा जानकर और अनजानमें ★
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किया हुआ जो पाप है, वह सब वैष्णवोंके साथ वार्तालाप करनेसे नष्ट हो जाता है। साधु पुरुषोंके दर्शनसे पापहीन पुरुष स्वर्गको जाते हैं और पापिष्ठ मनुष्य पापसे रहित - शुद्ध हो जाते हैं। यह बिलकुल सत्य बात है। भगवान् विष्णुका भक्त पवित्रको भी पवित्र बनानेवाला तथा संसाररूपी कीचड़के दागको धो डालनेमें दक्ष होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
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जो विष्णुभक्त प्रतिदिन भगवान् मधुसूदनका स्मरण करते हैं, उन्हें विष्णुमय समझना चाहिये। उनके विष्णुरूप होनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। भगवान्के श्रीविग्रहका वर्ण नूतन मेघोंकी नील घटाके समान श्याम एवं सुन्दर है। नेत्र कमलके समान विकसित एवं विशाल हैं। वे अपने हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। वक्षःस्थल कौस्तुभमणिसे देदीप्यमान है। श्रीहरि गलेमें वनमाला धारण किये हुए हैं। कुण्डलोंकी दिव्य ज्योतिसे उनके कपोल और मुखकी कान्ति बहुत बढ़ गयी है। किरीटसे मस्तक सुशोभित है। कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें भुजबंद और चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं। मुख-कमल प्रसन्नतासे खिला हुआ है। चार भुजाएँ हैं और साथमें भगवती लक्ष्मीजी विराजमान हैं। पार्वती जो ब्राह्मण भक्तिभावसे युक्त हो इस प्रकार श्रीविष्णुका ध्यान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुके स्वरूप हैं। वे ही वास्तवमें वैष्णव हैं— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवेश्वरि ! उनका दर्शनमात्र करनेसे, उनमें भक्ति रखनेसे, उन्हें भोजन करानेसे तथा उनकी पूजा करनेसे निश्चय ही वैकुण्ठधामकी प्राप्ति होती हैं।
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* पितरः संवदन्त्येतत्कुलेऽस्माकं तु वैष्णवाः ॥
ये स्युस्तेऽस्मान्समुद्धृत्य नयन्ते विष्णुमन्दिरम् । स एव दिवसो धन्यो धन्या माताऽथ बान्धवाः ॥
पिता तस्य च वै धन्यो यस्तु विष्णुं समर्चयेत् । सर्वे धन्यतमा ज्ञेया विष्णुभक्तिपरायणाः ॥ (१२७ । १४ - १६) + संसारकर्दमालेपप्रक्षालनविशारदः ॥ पावनः पावनानां च विष्णुभक्तो न संशयः । (१२७ । २१-२२)
+ तेषी दर्शनमात्रेण भक्त्या या भोजनेन वा पूजनेन च देवेशि वैकुण्ठं लभते धुवम् ॥ (१२७ । २८)
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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
MS
अविनाशी
श्रीपार्वतीजीने पूछा- प्रभो ! भगवान् वासुदेवका स्मरण कैसे करना चाहिये ? श्रीमहादेवजी बोले – देवेश्वरि ! मैं वास्तविक रूपसे भगवान् के स्वरूपका साक्षात्कार करके निरन्तर उनका स्मरण करता रहता हूँ। जैसे प्यासा मनुष्य बड़ी व्याकुलताके साथ पानीकी याद करता है, उसी प्रकार मैं भी आकुल होकर श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जिस प्रकार सर्दीका सताया हुआ संसार अनिका स्मरण करता है, वैसे ही देवता, पितर, ऋषि और मनुष्य निरन्तर भगवान् विष्णुका चिन्तन करते रहते हैं। जैसे पतिव्रता नारी सदा पतिकी याद किया करती है, भयसे आतुर मनुष्य किसी निर्भय आश्रयको खोजता फिरता है, धनका लोभी जैसे धनका चिन्तन करता है और पुत्रकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य जैसे पुत्रके लिये लालायित रहता है, उसी प्रकार मैं भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे हंस मानसरोवरको ऋषि भगवान्के स्मरणको, वैष्णव भक्तिको, पशु हरी हरी घासको और साधु पुरुष धर्मको चाहते हैं, वैसे ही में श्रीविष्णुका चिन्तन करता हूँ। * जैसे समस्त प्राणियोंको आत्माका आश्रयभूत शरीर प्रिय है, जिस प्रकार जीव अधिक आयुकी अभिलाषा रखते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पको, चक्रवाक सूर्यको और परमात्माके प्रेमीजन भक्तिको चाहते हैं, उसी प्रकार मैं भी
भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
7571
* हंसा मानसमिच्छन्ति ऋषयः स्मरणं हरेः । भक्ता सूर्यकान्तरवेयोगाद्वह्निस्तत्र
+
एवं
एवं वै साधुसंयोगाद्धरौ भक्तिः प्रजायते। शीतरश्मिशिला यद्वचन्द्रयोगादपः स्त्रवेत् ॥ वैष्णवसंयोगाद्भक्तिर्भवति शाश्वती। कुमुद्वती यथा सोमं दृष्ट्ा पुष्पं विकासते ॥ तद्वदेवे कृता भक्तिर्मुक्तिदा सर्वदा नृणाम्।
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श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे अन्धकारसे घबराये हुए लोग दीपक चाहते हैं, उसी प्रकार साधु पुरुष इस जगत्में केवल भगवान्के स्मरणकी इच्छा रखते हैं। जैसे थके-माँदै मनुष्य विश्राम, रोगी निद्रा और आलस्यहीन पुरुष विद्या चाहते हैं, उसी प्रकार में भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे सूर्यकान्तमणि और सूर्यकी किरणोंका संयोग होनेपर आग प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंके संसर्गसे श्रीहरिके प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। जैसे चन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरणोंके संयोगसे द्रवीभूत होने लगती है, उसी प्रकार वैष्णव पुरुषोंके संयोगसे स्थिर भक्तिका प्रादुर्भाव होता है। जैसे कुमुदिनी चन्द्रमाको देखकर खिल जाती है, उसी प्रकार भगवान्के प्रति की हुई भक्ति मनुष्योंको सदा मोक्ष प्रदान करनेवाली है । भक्तिसे, स्नेहसे, द्वेषभावसे, स्वामि-सेवक-भावसे अथवा विचारपूर्वक बुद्धिके द्वारा जिस किसी भावसे भी जो भगवान् जनार्दनका चिन्तन करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुके सनातन धामको जाते हैं। अहो ! भगवान् विष्णुका माहात्म्य अद्भुत है। उसपर विचार करनेसे रोमाञ्च हो आता है। भगवान्का जैसे-तैसे किया हुआ स्मरण भी मोक्ष देनेवाला है। बढ़े हुए धनसे और विपुल बुद्धिसे भगवान्की प्राप्ति नहीं होती; केवल भक्तियोगसे ही क्षणभरमें भगवान्का अपने
भक्तिमिच्छन्ति तथा विष्णुं स्मराम्यहम् ॥ (१२८ । ७) प्रजायते ॥
भक्त्या वा स्नेहभावेन द्वेषभावेन वा पुनः ॥
केऽपि स्वामित्वभावेन बुद्धया या बुद्धिपूर्वकम्। येन केनापि भावेन चिन्तयन्ति जनार्दनम् ॥ इहलोके सुखं भुक्त्वा यान्ति विष्णोः सनातनम् ।
(१२८ । १४ - १७)
(१२८ ॥२० - २२)
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उत्तरखण्ड ]
. भगवत्स्मरणका प्रकार, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष .
समीप दर्शन होता है। भगवान् अपने समीप रहकर भी अजामिलने अपना धर्म छोड़कर पापका आचरण दूर जान पड़ते हैं-ठीक उसी तरह, जैसे आँखोंमें किया था, तथापि अपने पुत्र नारायणका स्मरण करके लगाया हुआ अञ्जन अत्यन्त समीप होनेपर भी दृष्टिगोचर उसने निश्चय ही भक्ति प्राप्त कर ली थी। जो भक्त नहीं होता।
दिन-रात केवल भगवत्रामके ही सहारे जीवन धारण भक्तियोगके प्रभावसे भक्त पुरुषोंको सनातन करते हैं, वे वैकुण्ठधामके निवासी है-इस विषयमें परमात्माका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। भगवान्की मायासे वेद ही साक्षी है। अश्वमेध आदि यज्ञोका फल स्वर्गमे मोहित पुरुष 'यह तत्त्व है, यह तत्त्व है' यों कहते हुए भी देखा जाता है। उन यज्ञोंका पूरा-पूरा फल भोगकर संशयमें ही पड़े रह जाते हैं। जब भक्ति-तत्त्व प्राप्त होता मनुष्य पुनः स्वर्गसे नीचे गिर जाते हैं; परन्तु जो भगवान् है, तभी विष्णुरूप तत्त्वकी उपलब्धि होती है। सुन्दरि! विष्णुके भक्त हैं, वे अनेक प्रकारके भोगोका उपभोग मेरी बात सुनो। इन्द्र आदि देवताओंने सुखके लिये करके इस प्रकार नीचे नहीं गिरते। वैकुण्ठधाममें पहुँच अमृत प्राप्त किया था; तथापि वे विष्णुभक्तिके बिना जानेपर उनका पुनरागमन नहीं होता। जिसने भगवान् दुःखी ही रह गये। भक्ति ही एक ऐसा अमृत है, जिसको विष्णुकी भक्ति की है, वह सदा विष्णुधाममें ही निवास पाकर फिर कभी दुःख नहीं होता । भक्त पुरुष वैकुण्ठ- करता है। विष्णु-भक्तिके प्रसादसे उसका कभी अन्त धामको प्राप्त होकर भगवान् विष्णुके समीप सदा नहीं देखा गया है। मेढक जलमें रहता है और भंवरा आनन्दका अनुभव करता है। जैसे हंस हमेशा पानीको वनमें; परन्तु कुमुदिनीकी गन्धका ज्ञान भंवरेको ही होता अलग करके दूध पीता है, उसी प्रकार अन्य कर्मोंका है, मेढकको नहीं। इसी प्रकार भक्त अपनी भक्तिके आश्रय छोड़कर केवल श्रीविष्णु-भक्तिकी ही शरण लेनी प्रभावसे श्रीहरिके तत्त्वको जान लेता है। कुछ लोग चाहिये । शरीरको पाकर बिना भक्तिके जो कुछ भी किया गङ्गाके किनारे निवास करते हैं और कुछ गङ्गासे सौ जाता है, वह सब व्यर्थ परिश्रममात्र होता है। जैसे कोई योजन दूर; किन्तु गङ्गाका प्रभाव कोई-कोई ही जानता मूर्ख अपनी बाँहोंसे समुद्र पार करना चाहे, उसी प्रकार है। इसी प्रकार कोई उत्तम पुरुष ही श्रीविष्णुभक्तिको मूढ मानव विष्णुभक्तिके बिना संसारसागरको पार उपलब्ध कर पाता है। जैसे ऊँट प्रतिदिन कपूर और करनेकी अभिलाषा करता है। संसारमें बहुतेरे लोग ऐसे अरगजेका बोझ ढोता है किन्तु उनके भीतरकी सुगन्धको है, जो दूसरोंको उपदेश दिया करते हैं; किन्तु जो स्वयं नहीं जानता, उसी प्रकार जो भगवान् विष्णुकी भक्तिसे आचरण करता हो, ऐसा मनुष्य करोड़ोंमें कोई एक ही विमुख हैं, वे भक्तिके महत्त्वको नहीं जान पाते। देखा जाता है।* जड़में सींचे हुए वृक्षके ही हरे-हरे पत्ते कस्तूरीको सुगन्धको ग्रहण करनेकी इच्छावाले मृग और शाखाएँ दिखायी देती है। इसी प्रकार भजनसे ही शालवृक्षको सूंघा करते हैं। उनकी नाभिमें ही कस्तूरीकी आगे-आगे फल प्रस्तुत होता है। जैसे जलमें जल, गन्ध है-इस यातको वे नहीं जानते। इसी प्रकार दूधमें दूध और घीमें घी डाल देनेपर कोई अन्तर नहीं भगवान् विष्णुसे विमुख मनुष्य अपने भीतर ही रहता, उसी प्रकार विष्णुभक्तिके प्रसादसे भेददृष्टि नहीं विराजमान भगवत्तत्वका अनुभव नहीं कर पाते। रहती। जैसे सूर्य सर्वत्र व्यापक है, अग्नि सब वस्तुओंमें पार्वती ! जैसे मूखौंको उपदेश देना व्यर्थ है, उसी प्रकार व्याप्त है, इन्हें किसी सङ्कचित सीमामें आवद्ध नहीं किया जो दूसरोंके भक्त है उनके लिये विष्णुभक्तिका उपदेश जा सकता, उसी प्रकार भक्तिमें स्थित भक्त भी कर्मोंसे निरर्थक है। जैसे अंधे मनुष्य आँख न होनेके कारण आबद्ध नहीं होता।
पास ही रखे हुए दीपक तथा दर्पणको नहीं देख पाते,
+ बुद्धि परेषां दास्यन्ति लोके बहुविधा जनाः । स्वयमाचरते सोऽपि नरः कोटिषु दृश्यते । (१२८ । ३६-३७) संध्यपु. २६
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
उसी प्रकार बहिर्मुख (विषयासक्त) मानव अपने अन्तःकरणमें विराजमान श्रीविष्णुको नहीं देखते।
जैसे अनि धूमसे, दर्पण मैलसे तथा गर्भ झिल्लीसे ढका रहता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण इस शरीरके भीतर छिपे हुए हैं। गिरिराजकुमारी ! जैसे दूधमें घी तथा तिलमें तेल सदा मौजूद रहता है, वैसे ही इस चराचर जगत् में भगवान् विष्णु सर्वदा व्यापक देखे जाते हैं। जैसे एक ही धागेमें बहुत-से सूतके मनके पिरो दिये जाते हैं, इसी प्रकार ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण विश्वके प्राणी चिन्मय श्रीविष्णुमें पिरोये हुए हैं। जिस प्रकार काठमें स्थित अग्रिको मन्थनसे ही प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे ही सर्वत्र व्यापक विष्णुका ध्यानसे ही साक्षात्कार होता है। जैसे पृथ्वी जलके संयोगसे नाना प्रकारके वृक्षोंको जन्म देती है, उसी प्रकार आत्मा प्रकृतिके गुणोंके संयोगसे नाना योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। हाथी या मच्छरमें, देवता अथवा मनुष्यमें वह आत्मा न अधिक है न कम । वह प्रत्येक शरीरमें स्थिर भावसे स्थित देखा गया है। वह आत्मा ही सच्चिदानन्दस्वरूप, कल्याणमय एवं महेश्वरके रूपमें उपलब्ध होता है। उस परमात्माको ही विष्णु कहा गया है। वह सर्वगत श्रीहरि मैं ही हूँ। मैं वेदान्तवेद्य विभु, सर्वेश्वर, कालातीत और अनामय परमात्मा हूँ। देवि ! जो इस प्रकार मुझे जानता है, वह निस्सन्देह भक्त है।
रा
वह एक ही परमात्मा नाना रूपोंमें प्रतीत होता है और नाना रूपोंमें प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें वह एक ही है - ऐसा जानना चाहिये। नाम-रूपके भेदसे ही उसको इस पृथ्वीपर नाना रूपोंमें बतलाया जाता है। जैसे आकाश प्रत्येक घटमें पृथक्-पृथक् स्थित जान पड़ता है किन्तु घड़ा फूट जानेपर वह एक अखण्डरूपमें ही उपलब्ध होता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरमें पृथक्-पृथक् आत्मा प्रतीत होता है परन्तु उस शरीररूप उपाधिके भग्न होनेपर वह एकमात्र सुस्थिर सिद्ध होता है। सूर्य जब बादलोंसे ढक जाते हैं, तब मूर्ख मनुष्य उन्हें तेजोहीन मानने लगता है; उसी प्रकार जिनको बुद्धि अज्ञानसे आवृत है, वे मूर्ख परमेश्वरको नहीं जानते।
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PE
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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परमात्मा विकल्पसे रहित और निराकार है। उपनिषदोंमें उसके स्वरूपका वर्णन किया गया है। वह अपनी इच्छासे निराकारसे साकाररूपमें प्रकट होता है उस परमात्मासे ही आकाश प्रकट हुआ, जो शब्दरहित था । उस आकाशसे वायुकी उत्पत्ति हुई। तबसे आकाशमें शब्द होने लगा। वायुसे तेज और तेजसे जलका प्रादुर्भाव हुआ। जलमें विश्वरूपधारी विराट् हिरण्यगर्भ प्रकट हुआ। उसकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमलमें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी सृष्टि हुई। प्रकृति और पुरुषसे ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति हुई तथा उन्हीं दोनोंके संयोगसे पाँचों तत्त्वोंका परस्पर योग हुआ। भगवान् श्रीविष्णुका आविर्भाव सत्त्वगुणसे युक्त माना जाता है। अविनाशी भगवान् विष्णु इस संसारमें सदा व्यापकरूपसे विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सर्वगत विष्णु इसके आदि, मध्य और अन्तमें स्थित रहते हैं। कमोंमें ही आस्था रखनेवाले अज्ञानीजन अविद्याके कारण भगवान्को नहीं जानते। जो नियत समयपर कर्तव्यबुद्धिसे वर्णोचित कमौका पालन करता है, उसका कर्म विष्णुदेवताको अर्पित होकर गर्भवासका कारण नहीं बनता। मुनिगण सदा ही वेदान्त-शास्त्रका विचार किया करते हैं। यह ब्रह्मज्ञान ही है, जिसका मैं तुमसे वर्णन कर रहा हूँ। शुभ और अशुभकी प्रवृत्तिमें मनको ही कारण मानना चाहिये । मनके शुद्ध होनेपर सब कुछ शुद्ध हो जाता है और तभी सनातन ब्रह्मका साक्षात्कार होता है। मन ही सदा अपना बन्धु है और मन ही शत्रु है। मनसे ही कितने तर गये और कितने गिर गये। बाहरसे कर्मका आचरण करते हुए भी भीतरसे सबका त्याग करे। इस प्रकार कर्म करके भी मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्ता पानीमें रहकर भी उससे लेशमात्र भी लिप्त नहीं होता। जब भक्तिरसका ज्ञान हो जाता है, उस समय मुक्ति अच्छी नहीं लगती। भक्तिसे भगवान् विष्णुकी प्राप्ति होती है। वे सदाके लिये सुलभ हो जाते हैं। वेदान्त- विचारसे तो केवल ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानसे ज्ञेय ।
सम्पूर्ण वस्तुओंमें भाव शुद्धिकी ही प्रशंसा की
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उत्तरखण्ड ]
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• भगवत्स्मरणका प्रकार, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष •
जाती है। जैसा भाव रहता है वैसा ही फल होता है। जिसकी जैसी बुद्धि होती है, वह जगत्को वैसा ही समझता है।
वैकुण्ठनाथको छोड़कर भक्त पुरुष दूसरे मार्गमें कैसे रम सकेगा ? भक्तिहीन होकर चारों वेदोंके पढ़नेसे क्या लाभ? भक्तियुक्त चाण्डाल ही क्यों न हो, वह देवताओं द्वारा भी पूजित होता है। * जिस समय श्रीहरिके स्मरणजनित प्रसन्नतासे शरीरमें रोमाञ्च हो जाय और नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहने लगें, उस समय मुक्ति दासी बन जाती है। वाणीद्वारा किये हुए पापका भगवान् के कीर्तनसे और मनद्वारा किये हुए पापका उनके स्मरणसे नाश हो जाता है।
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बँधा हुआ जीव सुख और दुःखकी अवस्थाओंमें ले जाया जाता है। प्रारब्ध कर्मसे बँधा हुआ जीव अपने बन्धनको दूर करनेमें समर्थ नहीं होता। देवता और ऋषि भी कर्मोसे बँधे हुए हैं। कैलास पर्वतपर मुझ महादेवके शरीरमें स्थित सर्प भी विषके ही भागी होते हैं; क्योंकि कर्मानुसार प्राप्त हुई योनि बड़ी ही प्रबल है। विद्वान् पुरुष कहते हैं कि सूर्य सुन्दर शरीर प्रदान करनेवाले हैं; परन्तु उनके ही रथका सारथि पशु है। वास्तवमें कर्मयोनि बड़ी ही प्रबल है। पूर्वकालमें भगवान् विष्णुद्वारा निर्मित सम्पूर्ण जगत् कर्मके अधीन है और वह कर्म श्रीकेशवके अधीन है। श्रीरामनामके जपसे उसका नाश होता है। कोई देवताओंकी प्रशंसा करते हैं, कोई ओषधियोंकी महिमाके गीत गाते हैं, कोई मन्त्र और उसके द्वारा प्राप्त सिद्धिकी महत्ता बतलाते हैं और कोई बुद्धि, पराक्रम, उद्यम, साहस, धैर्य, नीति और बलका बखान करते हैं; परन्तु मैं कर्मकी प्रशंसा करता हूँ; क्योंकि सब लोग कर्मके ही पीछे चलनेवाले हैं - यह मेरा निश्चित विचार है तथा पूर्वकालके विद्वानोंने भी इसका समर्थन किया है।
कुछ लोग क्रोधमें आकर सर्वस्व त्याग देते हैं, कोई-कोई अभाववश सब कुछ छोड़ते हैं तथा कुछ लोग बड़े कष्टसे सबका त्याग करते हैं। ये सभी त्याग मध्यम श्रेणीके हैं। अपनी बुद्धिसे खूब सोच-विचारकर और क्रोध आदिके वशीभूत न होकर श्रद्धापूर्वक त्याग करना चाहिये। जो लोग इस प्रकार सर्वस्वका त्याग करते हैं, उन्हींका त्याग उत्तम माना गया है। योगाभ्यासमें तत्पर हुआ मनुष्य यदि उसमें पूर्णता न प्राप्त कर सके, अथवा प्रारब्ध कर्मकी प्रेरणासे वह साधनसे विचलित हो जाय तो भी वह उत्तम गतिको ही प्राप्त होता है। योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र आचरणवाले श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान् योगियोंके यहाँ द्विजकुलमें जन्म ग्रहण करता है तथा वहाँ थोड़े ही समयमें पूर्ण योगसिद्धि प्राप्त कर लेता है। तत्पश्चात् वह योग एवं
: ब्रह्माजीने सम्पूर्ण वर्णोंको उत्पन्न किया और उन्हें अपने-अपने धर्ममें लगा दिया। अपने धर्मके पालनसे प्राप्त हुआ धन शुरू द्रव्य अर्थात् विशुद्ध धन कहलाता है। शुद्ध धनसे श्रद्धापूर्वक जो दान दिया जाता है, उसमें थोड़े दानसे भी महान् पुण्य होता है। उस पुण्यकी कोई गणना नहीं हो सकती। नीच पुरुषोंके सङ्गसे जो धन आता हो, उस धनसे मनुष्यके द्वारा जो दान किया जाता है, उसका कुछ फल नहीं होता। उस दानसे वे मानव पुण्यके भागी नहीं होते। जो इन्द्रियोंको सुख देनेकी इच्छासे ही कर्म करता है, वह ज्ञान-दुर्बल मूढ़ पुरुष अपने कर्मके अनुसार योनिमें जन्म लेता है। मनुष्य इस लोकमें जो कर्म करता है, उसे परलोकमें भोगना पड़ता है। पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषको निश्चय ही कभी दुःख नहीं होता। यदि पुण्य करते समय शरीरमें कोई कष्ट हो तो उसे पूर्व जन्ममें किये हुए कर्मका फल समझकर दुःख नहीं मानना चाहिये। पापाचारी पुरुषको सदा दुःख ही दुःख मिलता है। यदि उस समय उसे कुछ सुख प्राप्त हुआ हो तो उसे पूर्व कर्मका फल समझना चाहिये और उसपर हर्षसे फूल नहीं उठना चाहिये। जैसे स्वामी रस्सीमें बँधे हुए पशुको अपनी इच्छाके अनुसार इधर-उधर ले जाया करता है, उसी प्रकार कर्मबन्धनमें
भक्तिहीनैश्चतुर्वेदः पठितैः किं प्रयोजनम्। श्वपचो भक्तियुक्तस्तु त्रिदशैरपि पूज्यते । (१२८ । १०२)
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७९०
अवयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भक्ति प्रसादसे चिदानन्दमय पदको प्राप्त होता है। जैसे कीचड़से कीचड़ तथा रक्तसे रक्तको नहीं धोया जा सकता, उसी प्रकार हिंसाप्रधान यज्ञ कर्मसे कर्मजनित मल कैसे धोया जा सकता है। हिंसायुक्त कर्ममय सकाम यज्ञ कर्मबन्धनका नाश करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है। स्वर्गकी कामनासे किये हुए यज्ञ स्वर्गलोकमें अल्प सुख प्रदान करनेवाले होते हैं। कर्मजनित सुख अधिक मात्रामें हों तो भी वे अनित्य ही होते हैं; उनमें नित्य सुख है ही नहीं। भगवान् श्रीहरिकी भक्तिके बिना कहीं भी नित्य सुख नहीं मिलता ।
जो भगवान् सृष्टि करते हैं, वे ही संहारकारी और पालक कहलाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ! मैं सैकड़ों
पार
366 100
अपराधोंसे युक्त हूँ। मुझे यहाँसे अपने परमधाममें ले चलिये मुझ अपराधीपर कृपा कीजिये। आपने व्याधको मोक्ष दिया है, कुब्जाको तारा है [मुझपर भी कृपादृष्टि कीजिये] योगीजन सदा आपकी महिमाका गान करते हैं। आप परमात्मा, जनार्दन, अविनाशी पुरुष और लक्ष्मीसे सम्पन्न हैं। आपका दर्शन करके कितने ही भक्त आपके परमपदको प्राप्त हो गये। जो लोग इस दिव्य विष्णुस्मरणका प्रतिदिन पाठ करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके सनातन धाममें जाते हैं। जो भगवान् विष्णु के समीप भक्तिभावसे भावित बुद्धिद्वारा इसका पाठ करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होते हैं।
=★ पुष्कर आदि तीर्थोंका वर्णन
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
-
1735 THE
ST STAT
मा
श्रीमहादेवजी बोले- सुरेश्वरि ! इस द्वीपमें सबके शोंका नाश करनेवाले महान् देवता भगवान् केशव ही तीर्थरूपसे विराजमान हैं। देवि! अब मैं तुम्हारे लिये उन तीर्थोका वर्णन करता हूँ। पहला पुष्कर तीर्थ है, जो सब तीथोंमें श्रेष्ठ और शुभकारक है। दूसरा क्षेत्र काशीपुरी हैं, जो मुक्ति प्रदान करनेवाली है। तीसरा नैमिष क्षेत्र है, जिसे ऋषियोंने परम पावन माना है। चौथा प्रयाग तीर्थ है, जो सब तीर्थों में उत्तम माना गया है। पाँचवाँ कामुक तीर्थ है, जिसकी उत्पत्ति गन्धमादन पर्वतपर बतायी गयी है। छठा मानसरोवर तीर्थ है, जो देवताओंको भी अत्यन्त रमणीय प्रतीत होता है। सातवाँ विश्वकाय तीर्थ है, उसकी स्थिति कल्याणमय अम्बर पर्वतपर बतायी गयी है। आठवाँ गौतम नामक तीर्थ है, जिसकी स्थापना पूर्वकालमें मन्दराचल पर्वतपर हुई थी। नवाँ मदोत्कट और दसवाँ रथचैत्रक तीर्थ है। ग्यारहवाँ कान्यकुब्ज तीर्थ है, जहाँ भगवान् वामन विराज रहे हैं। बारहवाँ मलयज तीर्थ है। इसके बाद कुब्जाम्रक, विश्वेश्वर, गिरिकर्ण, केदार और गतिदायक तीर्थ हैं।
श्रीपार्वतीजीने कहा-सुव्रत! इस द्वीपमें हिमालयके पृष्ठभाग में बाह्य तीर्थ, गोकर्णमें गोपक, जो-जो तीर्थ हैं, उनकी गणना करके मुझे बताइये । हिमालयपर स्थानेश्वर, बिल्वकमें विल्वपत्रक, श्रीशैलमें माधव तीर्थ, भद्रेश्वरमें भद्र तीर्थ, वाराहक्षेत्रमें विजय तीर्थ, वैष्णवगिरिपर वैष्णव तीर्थ, रुद्रकोटमें रुद्र तीर्थ, कालञ्जर पर्वतपर पितृतीर्थ, कम्पिलमै काम्पिल तीर्थ, मुकुटमें ककोटक, गण्डकीमें शालग्रामोद्भव तीर्थ, नर्मदामें शिवतीर्थ, मायापुरीमें विश्वरूप तीर्थ, उत्पलाक्षमें सहस्राक्ष तीर्थ, रैवतक पर्वतपर जात तीर्थ, गयामें पितृतीर्थ और विष्णुपादोद्भव तीर्थ, विपाशा (व्यास) में विपाप, पुण्ड्र वर्धनमें पाटल, सुपार्श्व में नारायण, त्रिकूटमें विष्णुमन्दिर, विपुलमें विपुल, मलयाचलमें कल्याण, कोटितीर्थमें कौरव, गन्धमादनमें सुगन्ध, कुब्जाङ्कमें त्रिसन्ध्य, गङ्गाद्वारमें हरिप्रिय, विश्यप्रदेशमें शैल तीर्थ, बदरिकाश्रममें शुभ सारस्वत तीर्थ, कालिन्दीमें कालरूप, सह्य पर्वतपर साह्यक और चन्द्रप्रदेशमें चन्द्र तीर्थ है।
महाकालमें महेश्वर तीर्थ, विन्ध्य पर्वतकी कन्दरामें अभयद और अमृत नामक तीर्थ, मण्डपमें विश्वरूप तीर्थ, ईश्वरपुरमें स्वाहा तीर्थ, प्रचण्डामें वैगलेय तीर्थ, अमरकण्टकमें चण्डी तीर्थ, प्रभासक्षेत्रमें सोमेश्वर तीर्थ, सरस्वतीमें पारावत तटपर देवमातृ तीर्थ, महापद्ममें
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उत्तरखण्ड ]
.वेप्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य . ............................................................................................. महालय तीर्थ, पयोष्णीमें पिङ्गलेश्वर, सिंहिका तथा और गोहत्या करनेवाला पुरुष भी पापमुक्त हो जाता है। सौरवमें रवि तीर्थ, कृत्तिकाक्षेत्रमें कार्तिक तीर्थ, कलियुगमें द्वारकापुरी परम रमणीय है और वहाँके देवता शङ्करगिरिपर शङ्कर तीर्थ, सुभद्रा और समुद्रके संगमपर भगवान् श्रीकृष्ण परम धन्य है। जो मनुष्य वहाँ जाकर दिव्य उत्पल तीर्थ, विष्णुपर्वतपर गणपति तीर्थ, उनका दर्शन करते हैं, उन्हें अविचल मुक्ति प्राप्त होती है। जालन्धरमें विश्वमुख तीर्थ, तार एवं विष्णुपर्वतपर तारक महादेवि ! ऐसे परम धन्य देवता सर्वेश्वर प्रभु श्रीविष्णु तीर्थ, देवदारुवनमें पौण्ड्र तीर्थ, काश्मीरमण्डलमें पौष्क भगवान्का मैं निरन्तर चिन्तन करता रहता है। इस प्रकार तीर्थ, हिमालयपर भौम, हिम, तुष्टिक और पौष्टिक तीर्थ, यहाँ अनेक तीर्थोका नामोल्लेख किया गया है। जो मायापुरमें कपालमोचन तीर्थ, शङ्खोद्धारमें शङ्खधारकदेव, इनका जप करता अथवा इन्हें सुनता है, वह सब पापोंसे पिण्डमें पिण्डन, सिद्धिमें वैखानस और अच्छोद मुक्त हो जाता है। जो इन तीथोंमें स्रान करके पापहारी सरोवरपर विष्णुकाम तीर्थ है, जो धर्म, अर्थ, काम और भगवान् नारायणका दर्शन करता है, वह सब पापोंसे मोक्षको देनेवाला है। उत्तरकूलमें औषध्य तीर्थ, मुक्त हो भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाता है। कुशद्वीपमें कुशोदक तीर्थ, हेमकूटमें मन्मथ तीर्थ, जगन्नाथपुरी महान् तीर्थ है। वह सब लोकोंको पवित्र कुमुदमें सत्यवादन तीर्थ, वदन्तीमें आश्मक तीर्थ, करनेवाली मानी गयो है। जो श्रेष्ठ मानव वहाँको यात्रा विन्ध्य-पर्वतपर वैमातृक तीर्थ और चित्तमें ब्रह्ममय तीर्थ करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो श्राद्ध-कर्ममें है, जो सब तीर्थोंमें पावन माना गया है। सुन्दरि ! इन इन परम पवित्र तीर्थोके नाम सुनाता है, वह इस लोकमें सय तीर्थोंमें उत्तम तीर्थका वर्णन सुनो। भगवान् विष्णुके सुख भोगकर अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको नामकी समता करनेवाला कोई तीर्थ न तो हुआ है और जाता है। गोदान, श्राद्धदान अथवा देवपूजाके समय न होगा। भगवान् केशवकी कृपासे उनका नाम प्रतिदिन जो विद्वान् इसका पाठ करता है, वह लेनेमात्रसे ब्रह्महत्यारा, सुवर्ण चुरानेवाला, बालघाती परमात्माको प्राप्त होता है।
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वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
श्रीमहादेवजी कहते है-सुन्दरि ! अब मैं आश्रमोंको कलङ्कित किया करता था। वह मूर्ख वेदोकी वेत्रवती (बेतवा) नदीका माहात्म्य वर्णन करता हूँ, निन्दामें ही प्रवृत्त रहनेवाला, निर्दयी, शठ, असत् सुनो। वहाँ मान करनेसे मनुष्यकी मुक्ति हो जाती है। शास्त्रोंमें अनुराग रखनेवाला और परायी स्त्रियोंको दूषित पूर्वकालमें वृत्रासुरने एक बहुत ही गहरा कुआँ खुदवाया करनेवाला था। उसका नाम था विदारुण । वह अत्यन्त था, जिसका नाम महागम्भीर था। उसीसे यह दिव्य नदी पापी था। महान् पाप और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेके प्रकट हुई है। वेत्रवती नदी बड़े-बड़े पापोंकी राशिका कारण राजा विदारुण कोढ़ी हो गया। एक दिन विनाश करनेवाली है। गङ्गाजीके समान ही इस श्रेष्ठ दैवयोगसे वह शिकार खेलता हुआ उस नदीके किनारे नदीका भी माहात्म्य है। इसके दर्शन करनेमात्रसे आ निकला । उस समय उसे बड़े जोरकी प्यास सता रही पापराशि शान्त हो जाती है। पहलेकी बात है, चम्पक थी। घोड़ेसे उतरकर उसने नदीका जल पीया और पुनः नगरमें एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही दुष्ट और अपनी राजधानीको लौट गया। उस जलके पीनेमात्रसे प्रजाको पीड़ा देनेवाला था । वह नीच अधर्मका मूर्तिमान् राजाको कोढ़ दूर हो गयी और बुद्धिमें भी निर्मलता आ स्वरूप था। निरन्तर भगवान् विष्णुको निन्दा करता, गयी। तबसे उसके हृदयमें भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति देवताओं और ब्राह्मणोंकी घातमें लगा रहता तथा उत्पन्न हो गयी। अब वह सदा ही समय-समयपर वहाँ
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
आकर स्नान करने लगा। इससे वह अत्यन्त रूपवान् नदीमें बारंबार स्नान करनेसे इस लोकमें सुख भोगकर
अन्तमें विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। सूर्यवंश और सोमवंशमें उत्पन्न क्षत्रिय वेत्रवती नदीके तटपर आकर उसमें स्नान करके परम शान्ति पा चुके हैं। यह नदी दर्शनसे दुःख और स्पर्शसे मानसिक पापका नाश करती है। इसमें स्नान और जलपान करनेवाला मनुष्य निस्सन्देह मोक्षका भागी होता है। यहाँ स्नान, जप तथा होम करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वाराणसी तीर्थमें जाकर जो भक्तिपूर्वक चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान करता है, और वहाँ उसे जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, उसे वह वेत्रवती नदीमें स्नान करनेमात्रसे पा लेता है। यदि वेत्रवती नदीमें किसीकी मृत्यु हो जाती है तो वह चतुर्भुजरूप होकर विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। पृथ्वीपर जो-जो तीर्थ, देवता और पितर हैं, वे सब वेत्रवती नदीमें वास करते हैं। महेश्वरि मैं, विष्णु, ब्रह्मा, देवगण तथा महर्षि – ये सब के सब वेत्रवती नदीमें विराजमान रहते हैं जो एक, दो अथवा तीनों समय वेत्रवती नदीमें स्नान करते हैं, वे निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं।
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और निर्मल हो गया। इस लोकमें सुख भोगते हुए उसने अनेकों यज्ञ किये, ब्राह्मणोंको दक्षिणा दी तथा अन्तमें श्रीविष्णुके वैकुण्ठधामको प्राप्त किया।
पार्वती ! ऐसा जानकर जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र वेत्रवती नदीमें स्नान करते हैं, वे पापबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कार्तिक, माघ अथवा वैशाखमें जो लोग बारंबार वहाँ स्नान करते हैं, वे भी कर्मोक बन्धनसे छुटकारा पा जाते हैं। ब्रह्महत्या, गोहत्या, बालहत्या और वेद-निन्दा करनेवाला पुरुष भी नदियोंके संगममें स्नान करके पापसे मुक्त हो जाता है। जिस स्थानपर और जिस नदीका साभ्रमती ( साबरमती) नदीके साथ संगम दिखायी दे, वहाँ स्नान करनेपर ब्रह्महत्यारा भी पापमुक्त हो जाता है। खेटक (खेड़ा) नामक दिव्य नगर इस धरातलका स्वर्ग है। वहाँ बहुत से ब्राह्मणोंने अनेक प्रकारके योगोंका साधन किया है वहाँ स्नान और भोजन करनेसे मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। पार्वती! कलियुगमें वेत्रवती नदी दूसरी गङ्गाके समान मानी गयी है। जो लोग सुख, धन और स्वर्ग चाहते हैं, वे उस
देवि! अब मैं साभ्रमती नदीके माहात्म्यका यथावत् वर्णन करता हूँ। मुनिश्रेष्ठ कश्यपने इसके लिये बहुत बड़ी तपस्या की थी। एक दिनकी बात है, महर्षि कश्यप नैमिषारण्यमें गये। वहाँ ऋषियोंके साथ उन्होंने बहुत समयतक वार्तालाप किया। उस समय ऋषियोंने कहा- कश्यपजी! आप हमलोगोंकी प्रसन्नताके लिये यहाँ गङ्गाजीको ले आइये। प्रभो! वह सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गा आपके ही नामसे प्रसिद्ध होगी।'
उन महर्षियोंकी बात सुनकर कश्यपजीने उन्हें प्रणाम किया और वहाँसे चलकर वे आबूके जंगलमें सरस्वती नदीके समीप आये। वहाँ उन्होंने अत्यन्त दुष्कर तपस्या की। वे मेरी ही आराधनामें संलग्न थे । उस समय मैंने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा'विप्रवर! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मुझसे मनोवाञ्छित वर माँगो ।' कश्यपने कहा- देवदेव ! जगत्पते! महादेव !
भान
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उत्तरखण्ड ]
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वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहाल्य •
आप वर देनेमें समर्थ हैं। आपके मस्तकपर जो ये परम पवित्र पापहारिणी गङ्गा स्थित हैं, इन्हें विशेष कृपा करके मुझे दीजिये। आपको नमस्कार है।
पार्वती ! उस समय मैंने महर्षि कश्यपसे कहा'द्विजश्रेष्ठ ! लो अपना वर' यों कहकर मैंने अपने मस्तकसे एक जटा उखाड़कर उसीके साथ उन्हें गङ्गाको
दिया। श्रीगङ्गाजीको लेकर द्विजश्रेष्ठ कश्यप बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने स्थानको चले गये। गिरिजे पूर्वकालमें विष्णुलोककी इच्छा रखनेवाले राजा भगीरथने मुझसे गङ्गाजीके लिये याचना की थी, उस समय उन्हें भी मैंने गङ्गाको समर्पित किया था। तत्पश्चात् पुनः ऋषियोंके कहनेसे कश्यपजीको गङ्गा प्रदान की। यह काश्यपी गङ्गा समस्त रोग और दोषोंका अपहरण करनेवाली है। सुन्दरि ! भिन्न-भिन्न युगों में यह गङ्गा संसारमें जिन-जिन नामोंसे विख्यात होती हैं, उनका यथार्थ वर्णन करता हूँ सुनो। सत्ययुगमें कृतवती, त्रेता में गिरिकर्णिका, द्वापरमें चन्दना और कलियुगमें इनका नाम साभ्रमती ( साबरमती) होता है। जो मनुष्य प्रतिदिन यहाँ विशेषरूपसे स्नान करनेके लिये आते हैं,
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वे सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। प्लक्षावतरण तीर्थमें, सरस्वती नदीमें, केदार क्षेत्रमें तथा कुरुक्षेत्र में स्नान करनेसे जो फल होता है, वह फल साभ्रमती नदीमें नित्य स्नान करनेसे प्रतिदिन प्राप्त होता है। माघ मास आनेपर प्रयाग तीर्थमें प्रातः स्नान करनेसे जो फल होता है, कार्तिककी पूर्णिमाको कृत्तिकाका योग आनेपर श्रीशैलमें भगवान् माधवके समक्ष जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह साभ्रमती नदीमें डुबकी लगानेमात्रसे प्राप्त हो जाता है। देवि ! यह नदी सबसे श्रेष्ठ और सम्पूर्ण जगत् में पावन है। इतना ही नहीं, यह पवित्र और पापनाशिनी होनेके कारण परम धन्य है ।
देवेश्वरि पितृतीर्थ सब तीर्थोसहित प्रयाग, माधवसहित भगवान् वटेश्वर, दशाश्वमेध तीर्थ तथा गङ्गाद्वार – ये सब मेरी आज्ञासे साभ्रमती नदीमें निवास करते हैं। नन्दा, ललिता, सप्तधारक, मित्रपद, भगवान् शङ्करका निवासभूत केदारतीर्थ, सर्वतीर्थमय गङ्गासागर, शतद्रु (सतलज) के जलसे भरे हुए कुण्डमें ब्रह्मसर तीर्थ, तथा नैमिषतीर्थ भी मेरी आज्ञासे सदा साभ्रमती नदीके जलमें निवास करते हैं। श्वेता, बल्कलिनी, हिरण्यमयी, हस्तिमती तथा सागरगामिनी नदी बानी – ये सब पितरोंको अत्यन्त प्रिय तथा श्राद्धका कोटिगुना फल देनेवाली हैं। वहाँ पुत्रोंको पितरोंके हितके लिये पिण्ड दान करना चाहिये। जो मनुष्य वहाँ स्नान और दान करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। नीलकण्ठ तीर्थ, नन्दहद तीर्थ, रुद्रहृद तीर्थ, पुण्यमय रुद्रमहालय तीर्थ परम पुण्यमयी मन्दाकिनी तथा महानदी अच्छोदा – ये सब तीर्थ और नदियाँ अव्यक्तरूपसे साभ्रमती नदीमें बहती रहती हैं। धूम्रतीर्थ, मित्रपद, बैजनाथ, दृषद्वर, क्षिप्रा नदी महाकाल तीर्थ, कालञ्जर पर्वत, गङ्गोद्भूत तीर्थ, हरोद्भेद तीर्थ, नर्मदा नदी तथा ओङ्कार तीर्थ-ये गङ्गामें पिण्डदान करनेके समान फल देनेवाले हैं, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है। उक्त सभी तीर्थ ब्रह्मतीर्थ कहलाते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओंने इन सभी तीर्थोको साभ्रमती नदीके उत्तर तटपर गुप्तरूपसे
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स्थापित कर रखा है। महेश्वरि! ये तीर्थ स्मरणमात्रसे लोगोंके पापों का नाश करनेवाले हैं। फिर जो वहाँ श्राद्ध करते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। ओङ्कार तीर्थ, पितृतीर्थ, कावेरी नदी, कपिलाका जल, चण्डवेगाका साश्रमतीके साथ संगम तथा अमरकण्टक — इन तीर्थो में स्नान आदि करनेसे कुरुक्षेत्रकी अपेक्षा सौगुना पुण्य होता है। साभ्रमती और वार्त्रघ्नी नदीका जहाँ संगम हुआ है, वहाँ गणेश आदि देवताओंने तौर्थसंघकी स्थापना की है। इस प्रकार मैंने यहाँ संक्षेपसे साभ्रमती नदीमें तीर्थोके संगमका वर्णन किया है। विस्तारके साथ उनका वर्णन करनेमें बृहस्पति भी समर्थ नहीं हैं।
अतः इस तीर्थमें प्रयत्नपूर्वक स्नान करना चाहिये। सवेरे तीन मुहूर्तका समय प्रातःकाल कहलाता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततक पूर्वाह्न या सङ्गयकाल होता है। इन दोनों कालोंमें तीर्थके भीतर किया हुआ स्नान आदि देवताओंको प्रीतिदायक होता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्ततक मध्याह्न है और उसके बादका तीन मुहूर्त अपराह्न कहलाता है। इसमें किया हुआ स्नान, पिण्डदान और तर्पण पितरोंकी प्रसन्नताका कारण होता है। तदनन्तर तीन मुहूर्त्तका समय सायाह माना गया है। उसमें तीर्थस्नान नहीं करना चाहिये। वह राक्षसी बेला है, जो सभी कर्मों में निन्दित है। दिन-भरमें कुल पंद्रह मुहूर्त बताये गये हैं। उनमें जो आठवाँ मुहूर्त है, वह कुतप काल माना गया है। उस समय पितरोंको पिण्डदान करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। मध्याह्नकाल, नेपालका कम्बल, चाँदी, कुश, गौ, दौहित्र (पुत्रीका पुत्र) और तिल - ये कुतप कहलाते हैं। 'कु' नाम है पापका, उसको सन्ताप देनेवाले होनेके कारण ये कुतपके नामसे विख्यात हैं। कुतप मुहूर्तके बाद चार मुहूर्ततक कुल पाँच मुहूर्तका समय श्राद्धके लिये उत्तम समय माना गया है। कुश और काले तिल श्राद्धकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रकट हुए हैं—ऐसा देवताओंका कथन है। तीर्थवासी पुरुष जलमें खड़े हो हाथमें कुश लेकर तिलमिश्रित जलकी अञ्जलि पितरोंको दें। ऐसा करनेसे श्राद्धमें बाधा नहीं आती।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पार्वती! इस प्रकार मैने साभ्रमती नदीमें नामोच्चारणपूर्वक तीर्थोका प्रवेश कराकर उसे महर्षि कश्यपको दिया था। कश्यप मेरे प्रिय भक्त हैं, इसलिये उन्हें मैंने यह पवित्र एवं पापनाशिनी गङ्गा प्रदान की थी। महाभागे ! साभ्रमतीके तटपर ब्रह्मचारितीर्थ है। वहाँ उसी नामसे मैंने अपनेको स्थापित कर रखा है। सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये मैं वहाँ ब्रह्मचारीश नामसे निवास करता हूँ। साभ्रमती नदीके किनारे ब्रह्मचारीश शिवके पास जाकर भक्त पुरुष यदि कलियुगमें विशेषरूपसे पूजा करे तो इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें महान् शिवधामको प्राप्त होता है। उनके स्थानपर जाकर जो जितेन्द्रिय भावसे उपवास करता और रात्रिमें स्थिर भावसे रहकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करता है, उसे मैं योगीरूपसे दर्शन देता हूँ तथा उसकी समस्त मनोगत कामनाओंको भी पूर्ण करता हूँ-यह बिलकुल सच्ची बात है। पार्वती! वहाँ मेरा कोई लिङ्ग नहीं है, मेरा स्थानमात्र है। जो विद्वान् वहाँ फूल, धूप तथा नाना प्रकारका नैवेद्य अर्पण करता है, उसे निश्चय ही सब कुछ प्राप्त होता है जो मेरे स्थानपर आकर बिल्वपत्र, पुष्प तथा चन्दन आदिसे मेरी पूजा करते हैं, उन्हें मैं सब कुछ देता हूँ। दर्शनसे रोग नष्ट होता है, पूजा करनेसे आयु प्राप्त होती है तथा वहाँ स्रान करनेसे मनुष्य निश्चय ही मोक्षका भागी होता हैं।
सुन्दरि ! सुनो, अब मैं राजखड्ग नामक परम अद्भुत तीर्थका वर्णन करता हूँ, जो साभ्रमती नदीके तीर्थोंमें विशेष विख्यात है। सूर्यवंशमें उत्पन्न एक वैकर्तन नामक राजा था, जो दुराचारी, पापात्मा, ब्राह्मण निन्दक, गुरुद्रोही, सदा असन्तुष्ट रहनेवाला, समस्त कर्मोकी निन्दा करनेवाला, सदा परायी स्त्रियोंमें प्रीति रखनेवाला और निरन्तर श्रीविष्णुकी निन्दा करनेवाला था। वह बहुत से प्राणियोंका घातक था और अपनी प्रजाको सदा पीड़ा दिया करता था। इस प्रकार दुष्टात्मा राजा वैकर्तन इस पृथ्वीपर राज्य करता था। कुछ कालके पश्चात् दैवयोगसे अपने पापके कारण वह कोढ़ी हो गया। अपने शरीरको दुर्दशा देखकर वह बार-बार
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• साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन .
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सोचने लगा-'अब क्या करना चाहिये?' वह निरन्तर तीरपर जाकर खड़ा हुआ। फिर उसने वहाँ स्नान किया इसी चिन्तामें डूबा रहता था। एक दिन दैवयोगसे और वहाँका उत्तम जल पीया। इससे उसका शरीर दिव्य क्रीड़ाके लिये राजा वनमें गया। वहाँ साभ्रमती नदीके हो गया। पार्वती ! जैसे सोनेकी प्रतिमा देदीप्यमान
दिखायी देती है, उसी प्रकार राजा वैकर्तन भी परम कान्तिमान हो गया। उस दिव्य रूपको पाकर राजाने कुछ कालतक राज्य-भोग किया। इसके बाद वह परमपदको प्राप्त हुआ। तबसे वह तीर्थ राजसाङ्गके नामसे सुप्रसिद्ध हो गया। जो लोग वहाँ स्नान और दान करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर भगवान् विष्णुके सनातन धामको प्राप्त होते हैं। उन्हें कभी रोग और शोक नहीं होता। जो प्रतिदिन राजखड्ग तीर्थमें स्रान और श्रद्धापूर्वक पितरोंका तर्पण करते हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वीपर पुण्यकर्मा कहलाते हैं। ब्राह्मणों और बालकोंकी हत्या करनेवाले पुरुष भी यदि यहाँ सान करते हैं तो वे पापोंसे रहित हो भगवान् शिवके समीप जाते हैं। जो मनुष्य साश्रमती नदीके तटपर नील वृषका उत्सर्ग करेंगे, उनके पितर प्रलय कालतक तृप्त रहेंगे। राजखड्ग तीर्थका यह दिव्य उपाख्यान जो सुनते हैं, उन्हें कभी भय नहीं प्राप्त होता इसके सुनने और पढ़नेसे समस्त रोग-दोष शान्त हो जाते है। ..
साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
श्रीपार्वतीजीने पूछा-भगवन् ! नन्दिकुण्डसे निकलकर बहती हुई साभ्रमती नदीने किन-किन देशोको पवित्र किया है, यह बतानेकी कृपा करें। . श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! परम पावन नन्दि- कुण्ड नामक तीर्थसे निकलनेपर पहले मुनियोद्वारा प्रकाशित कपालमोचन नामक तीर्थ पड़ता है। यह तीर्थ पावनसे भी अत्यन्त पावन और सबसे अधिक तेजस्वी है। पार्वती ! यहाँ मैंने ब्रह्मकपालका परित्याग किया है, अतः मुझसे ही कपालमोचन तीर्थको उत्पत्ति हुई है। यह सम्पूर्ण भूतोंको पवित्र करनेवाला विश्वविख्यात तीर्थ प्रकट हुआ है। इसे कपालकुण्ड तीर्थ भी कहते हैं। यह तीर्थोका राजा है। इस शुभ एवं निर्मल तीर्थमें देवगा, नाग, गन्धर्व, किन्नर आदि तथा महात्मा पुरुष निवास करते है। यह
तीनों लोकोंमें विख्यात, ज्ञानदाता एवं मोक्षदायक तीर्थ है। यहाँ स्रान करके पवित्र हो मेरा पूजन करना चाहिये । एक रात उपवास करके ब्राह्मण-भोजन कराये। यहाँ वस्त्र दान करनेसे मानव अग्निहोत्रका फल पाता है। जो कोई इस तीर्थमें दर्शन-व्रतका अवलम्बन करके रहता है। वह देहत्यागके अनन्तर निश्चय ही शिवलोकमें जाता है।
भगीरथके कुलमें सुदास नामक एक महाबली राजा हुए थे। उनके पुत्रका नाम मित्रसह था। राजा मित्रसह सौदास नामसे भी विख्यात थे। सौदास महर्षि वसिष्ठके शापसे राक्षस हो गये थे। उन्होंने साश्रमती नदीमें स्नान किया। इससे वे शापजनित पापसे मुक्त हो गये। यहाँ नन्दितीर्थमें गङ्गा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती आदि पुण्यदायिनी पवित्र नदियाँ निवास करती है। पृथ्वीके
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• अचंयस्व नषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
समस्त पतित प्राणी साभ्रमतीके जलका स्पर्श करनेमात्रसे जहाँ सब पापोंका नाश करनेवाली त्रिलोकविख्यात श्वेता शुद्ध हो जाते हैं। जो मनुष्य वहाँ भक्तिपूर्वक श्राद्ध करता नदी प्रवाहित होती है। वह नदी मेरे अङ्गोंमें लगे हुए है, उसके पितर तृप्त होकर परमपदको प्राप्त होते हैं। भस्मके संयोगसे प्रकट हुई थी, इसलिये देवताओंद्वारा । तदनन्तर महर्षि कश्यपके उपदेशसे साश्रमती नदी सम्मानित हुई। उसमें स्रान करके पवित्र और जितेन्द्रिय ब्रह्मर्षियों द्वारा सेवित विकीर्ण वनमें आयी । उसका प्रबल भावसे वहाँ तीन रात निवास करनेवाला पुरुष वेगसे बहता जल पर्वतोंसे टकराकर सात भागोंमें महाकालेश्वरका दर्शन करनेसे रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता विभक्त हो गया । उन सभी धाराओंसे युक्त साभ्रमती नदी है। जो श्वेताके तटपर कुश और तिलोके साथ पितरोंको दक्षिण-समुद्रमें मिली है। पहली धारा परम पवित्र पिण्डदान करता है, उसके पितर पूर्ण तृप्त हो जाते हैं। साभ्रमती नामसे ही विख्यात हुई। दूसरीका नाम श्वेता है, श्वेतगङ्गा परम पुण्यमयी और दुःख एवं दरिद्रताको दूर तीसरी बकुला या वल्कला और चौथी हिरण्मयी करनेवाली है। पार्वती ! मैं उसके पवित्र संगममें नित्य कहलाती है। पाँचवी धाराका नाम हस्तिमती है, जो सब निवास करता हूँ। उसमें जो नान और दान करते हैं, पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। छठी धारा उन्हें उसका अक्षय फल प्राप्त होता है। जो नरश्रेष्ठ वहाँ वेत्रवतीके नामसे विख्यात है, जिसे पूर्वकालमें वृत्रासुरने धूप, फूल, माला और आरती निवेदन करते हैं, वे उत्पन्न किया था। यह श्रेष्ठ देवी वृत्रकूपसे निकली थी, पुण्यात्मा है। जो बिल्वपत्र लेकर श्वेताके किनारे शिवके इसीलिये इसका नाम वेत्रवती हुआ। यह बड़े-बड़े ऊपर चढ़ाता है, वह मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है। पापोंका नाश करनेवाली है। सातवीं धाराका नाम यहाँसे तीर्थ-यात्री पुरुष गणतीर्थको जाय । वह तीर्थ भद्रामुखी तथा सुभद्रा है। यह सम्पूर्ण जगत्को पवित्र चन्दना नदीके तटपर है। शिवगणोंने उसका नाम त्रिविष्टप करनेवाली है। इन सातों धाराओंसे भिन्न-भिन्न देशोंको रखा है। पूर्णिमाको एकाग्रचित्त हो त्रिविष्टप तीर्थमें स्नान पवित्र करती हुई एक ही साश्रमती नदी 'सप्तस्रोता' के करके मनुष्य ब्रह्महत्या-जैसे पापसे मुक्त हो जाता है । जो रूपमें प्रतिष्ठित हुई है। जो विकीर्ण तीर्थमें पितरोंके वर्षाके चार महीनोंमें वहाँ निवास करता है, वह महान् उद्देश्यसे श्राद्ध एवं दान करता है, उसे गया पिण्डदान सौभाम्यशाली एवं पवित्र होकर रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता करनेका फल प्राप्त होता है। जो धर्मभ्रष्ट होनेके कारण है। कृष्णपक्षको अष्टमीको गणतीर्थ में स्नान करके जो सद्गतिसे वञ्चित हैं, जिनकी पिण्ड और जलदानकी उपवास करता है तथा बकुलासंगममें गोता लगाता है, क्रिया लुप्त हो गयी है, वे भी विकीर्ण तीर्थमें पिण्डदान वह मानव स्वर्गलोकमें जाता है। उस तीर्थमें स्रान करके
और जलदान करनेपर मुक्त हो जाते है। अतः वेदत्रयीकी बकुलेश्वरका दर्शन करनेसे मनुष्य गणेशजीके प्रसादसे विधिके अनुसार यहाँ श्रद्धापूर्वक श्राद्धका अनुष्ठान गणपतिपदको प्राप्त होता है । यहाँ परम पराक्रमी चन्द्रवंशी करना चाहिये। इस तीर्थमें कश्यपजीने ब्राह्मणोंको राजा विश्वदत्तने दीर्घकालतक बड़ी भारी तपस्या की थी संबोधित करके कहा था-'द्विजवरो! यदि तुम्हें और श्रीगणेशजीके प्रसादसे गणपतिपदको प्राप्त किया ऋषिलोक प्राप्त करनेकी इच्छा है तो इस विकीर्ण तीर्थमें, था। महेश्वरि ! वसिष्ठ, वामदेव, कहोड, कौषीतक, जहाँ सात नदियोंका उद्गम हुआ है, विशेष रूपसे स्रान भारद्वाज, अङ्गिरा, विश्वामित्र तथा वामन-ये पुण्यात्मा करो।' यदि यहाँ स्रान किया जाय तो सब दुःखोंका नाश मुनि श्रीगणेशजीकी कृपासे सदा ही इस तीर्थका सेवन हो जाता है। यह विकीर्ण तीर्थ सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ तथा करते हैं। इसके सेवनसे पुत्रहीनको पुत्र, धनहीनको धन, क्षेत्रों में परम उत्तम है। यह शुभगति प्रदान करनेवाला विद्याहीनको विद्या और मोक्षार्थीको मोक्ष प्राप्त होता है। तथा रोग और दोषका निवारण करनेवाला है। जो यहाँ सान अथवा पूजन करता है, वह सब पापोसे
विकीर्ण तीर्थके बाद श्वेतोद्भव नामक उत्तम तीर्थ है, मुक्त हो विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।
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. अमितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा .
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का अनितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
.. महादेवजी कहते हैं-पार्वती ! साभ्रमतीके पास रूपमें उत्पन्न हुआ। जबतक उसने राज्य किया, कभी ही ईशान-कोणमें पालेश्वर नामक तीर्थ है, जहाँ मन और क्रियाद्वारा भी पुण्य कर्म नहीं किया था चण्डीदेवी प्रतिष्ठित हैं। वह योगमाताओंका पीठ है, जो इसलिये दैवात् मृत्यु होनेपर वह प्रेतराज हुआ। सूखा समस्त सिद्धियोंका साधक है। वहाँ जगत्पर अनुग्रह हुआ मुँह, कङ्काल शरीर, पीला रंग, विकराल रूप और करने और सब देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये गहरी आँखे-यही उसकी आकृति थी। वह महापापी माताएँ परम यत्नपूर्वक स्थित हैं। उस तीर्थमें दृढ़तापूर्वक प्रेत अन्य दुष्ट प्रेतोंके साथ रहता था। उसके रोएँ व्रतका पालन करते हुए तीन रात निवास करके मनुष्य ऊपरको उठे हुए थे। जटाओंसे युक्त होनेके कारण वह चण्डीपति भगवान् शङ्करके समीप जा उनका दर्शन करे भयङ्कर जान पड़ता था। उसे इस रूपमें देखकर
और उनके निकट साभ्रमती नदीमें स्नान करके समाधि- आश्रमवासी ब्राह्मण कहोड व्याकुल हो उठे। विधिसे युक्त हो मातृ-मण्डलके दर्शन के लिये जाय; ऐसा करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता है। अग्रितीर्थमें स्रान करके चामुण्डाका दर्शन करनेपर मनुष्यको राक्षस, भूत और पिशाचोंका भय नहीं रहता।। पार्वती ! साभ्रमतीमें जहाँ गोक्षुरा नदी मिली है, वहाँ सहस्रों तीर्थ हैं। वहाँ तिलके चूर्णसे श्राद्ध करना चाहिये। उस तीर्थ में पिण्डदान करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे अक्षय पदकी प्राप्ति होती है। का पूर्वकालमें कुकर्दम नामक एक पापिष्ठ एवं दुर्धर्ष राजा रहता था, जो बड़ा ही खल, मूढ, अहङ्कारी, ब्राह्मणोंका निन्दक, गोहत्यारा, बालघाती और सदा उन्मत्त रहनेवाला था। पिण्डार नामक नगरमें वह राज्य करता था। एक समय अधर्मके ही योगमे उसकी मृत्यु हो गयी। मरनेपर वह प्रेत हुआ। उसे हवातक पीनेको नहीं मिलती थी; अतः वह अनेक प्रेतोंके साथ करुणस्वरमें रोता और हाहाकार मचाता हुआ इधर-उधर भटकता फिरता था। एक समय दैवयोगसे वह अपने कहोड बोले-राजन् ! यह अग्निपालेश्वर तीर्थ गुरुके आश्रमपर जा पहुँचा। पूर्वजन्ममें उसने कुछ है। मैं इस परम अद्भुत, मनोरम एवं रमणीय स्थानमें पुण्य किया था, जिसके योगसे उसे गुरुका सत्सङ्ग प्रतिदिन निवास करता हूँ। तुम तो मेरे यजमान हो। फिर प्राप्त हुआ।
इस प्रकार प्रेतराज कैसे हो गये? - पार्वती ! पूर्वजन्ममें वह वेदपाठी ब्राह्मण था और प्रेत बोला-देव ! मैं वही पिण्डारपुरका कुकर्म प्रतिदिन महादेवजीकी पूजा तथा अतिथियोंका स्वागत- राजा हूँ। वहाँ रहकर मैंने जो कुछ किया है, उसे सुनिये। सत्कार करके ही भोजन करता था। उस पुण्यके वाहाणोंकी हिंसा, असत्यभाषण, प्रजाओंका उत्पीड़न, प्रभावसे वह श्रेष्ठ ब्राह्मण पिण्डारपुण्ड्रमें राजा कुकदर्मके जीवोंकी हत्या, गौओंको दुःख देना, सदा बिना स्नान
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
किये ही रहना, सज्जन पुरुषोंको कलङ्क लगाना, भगवान् विष्णु और वैष्णवोंकी सर्वदा निन्दा करना - यही मेरा काम था। मैं दुराचारी और दुरात्मा था। जहाँ जीमें आता, वहीं खा लेता। कभी भी शौचाचारका पालन नहीं करता था । द्विजराज ! उसी पापकर्मके योगसे मैं मृत्युके बादसे प्रेतयोनिमें पड़ा हूँ यहाँ नाना प्रकारके दुःख सहन करने पड़ते हैं। जिसके माता, पिता, स्वजन एवं बन्धु बान्धव नहीं है। उसके लिये गुरु ही माता हैं और गुरु ही उत्तम गति हैं। ब्रह्मन् ! ऐसा जानकर मुझे मोक्ष प्रदान कीजिये।
कोडने कहा- राजन् ! मैं तुम्हारी प्रार्थना पूर्ण करूँगा। तुम्हारे साथ जो ग्यारह प्रेत और हैं, इन्हें भी इस तीर्थमें मुक्ति दिलाऊँगा ।
पार्वती ! यों कहकर ब्राह्मण कहोडने सबके साथ तीर्थमें जाकर तिलसहित पिण्डदान एवं जलदानका कार्य किया। तीर्थमें मास और तिथिका कोई विचार नहीं है। वहाँ जाकर सदा ही श्राद्धादि कर्म करने चाहिये। यह बात पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मुझसे कही थी। ब्राह्मणके द्वारा श्राद्धकी क्रिया पूर्ण होनेपर उस श्रेष्ठ तीर्थमें वे सभी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
प्रेत मुक्त हो गये और उत्तम विमानपर बैठकर मेरे धामको चले गये। सुरेश्वरि ! जहाँ साभ्रमतीके साथ गोक्षुरा नदीका संगम हुआ है, वहाँ स्नान और दान करनेसे करोड़ यज्ञोंका फल होता है। कपालेश्वर क्षेत्रमें जहाँ अग्नितीर्थ है, वहाँ साभ्रमती नदी मुक्ति देनेवाली बतायी गयी है।
देवि! अब मैं दूसरे तीर्थ हिरण्यासंगमका वर्णन करता हूँ। वह महान् तीर्थ है। पूर्वकालमें जब साश्रमती गङ्गा सात धाराओंमें विभक्त हुई, उस समय वह ब्रह्मतनया सप्तस्रोताके नामसे विख्यात हुई। उसके सातवे स्त्रोतको ही हिरण्या कहते हैं। ऋक्ष और मझुमके बीचमें सत्यवान् नामक पर्वत है। उससे पूर्व दिशामें हिरण्यासंगम नामक महातीर्थ है, जिसमें स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य शुभगतिको प्राप्त होता है। वहाँसे वनस्थलीमें जाय और पापहारी भगवान् नारायणका दर्शन करे। यह वही स्थान है, जहाँ भगवान् नर और नारायणने उत्तम तपस्या की थी। एक हजार कपिला गौओंके दानसे जो फल मिलता है, दशाश्वमेधतीर्थमें चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय स्नानसे जो पुण्य होता है तथा तुलापुरुषके दानसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसी पुण्यफलको मनुष्य हिरण्यासंगममें स्नान करके प्राप्त कर लेता है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र – जो भी हिरण्यासंगममें स्नान करते हैं, वे शिवधामको जाते हैं।
देवि ! अब मैं हिरण्यासंगमके बाद आनेवाले धर्मतीर्थका वर्णन करता हूँ, जहाँ साभ्रमती गङ्गाके साथ धर्मावती नदीका संगम हुआ है। वहाँ स्नान करके मनुष्य धन्य हो जाता है और निश्चय ही स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। जो वहाँ धर्मद्वारा स्थापित तीर्थका दर्शन करता है, वह पुण्यका भागी होता है। जो लोग वहाँ श्राद्ध करते हैं, वे पितृऋणसे मुक्त हो जाते हैं। वहाँसे मधुरातीर्थकी यात्रा करे, जहाँ सब पापोंका नाश हो जाता है। मधुरातीर्थमें स्नान करके मधुर संज्ञक श्रीहरिका दर्शन करना चाहिये। कंसासुरका वध हो जानेके पश्चात् जब भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकापुरीको जाने लगे, उस समय
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उत्तरखण्ड साभपती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन .
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उन्होंने चन्दना नदीके तटपर सात राततक निवास किया। मनुष्य तीर्थमें स्रान करके मधुर नामसे विख्यात भगवान् उसके बाद भोज, वृष्णि और अन्धक-वंशियोसे घिरे हुए सूर्यकी पूजा करता है और माधके शुक्लपक्षकी सप्तमीको वे समस्त यादव-वीरोंके साथ मधुरातीर्थमें आये और कपिला मौका दान करता है, वह इस लोकमें दीर्घकालवहाँ विधिपूर्वक स्रान करके द्वारकापुरीको गये। जो तक सुख भोगनेके पश्चात् सूर्यलोकको जाता है। का
1 -*साभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदितीथोकी महिमाका वर्णन
का महादेवजी कहते हैं-पार्वती ! मनुष्य इसलिये यह सप्तधार तीर्थ कहलाता है। सात लोकोंमें कम्बुतीर्थमें स्नान और पितृतर्पण करके रोग-शोकसे जो गङ्गाजीके सात रूप सुने जाते हैं, वे सभी इस रहित देवदेवेश्वर भगवान् नारायणका पूजन करे। फिर सप्तधार नामक तीर्थमें अपने पवित्र जलको प्रवाहित ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक दान दे। ऐसा करनेपर वह उस करते हैं । सप्तधार तीर्थमें किया हुआ श्राद्ध पितरोंको तृप्ति तीर्थके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। उसके प्रदान करनेवाला होता है। बाद कपीश्वर नामक तीर्थकी यात्रा करे। वह रक्तसिंहके देवेश्वरि ! वहाँसे ब्रह्मवल्ली नामक महान् तीर्थको समीप है और महापातकोंका नाश करनेवाला है। यात्रा करे। उस तीर्थके स्वरूपका वर्णन सुनो। जहाँ पूर्वकालमें श्रीराम-रावण-युद्धके प्रारम्भमें जब समुद्रपर साभ्रमती नदीका जल ब्रह्मवल्लीके जलसे मिला है, वह पुल बाँधा जा रहा था, उस समय इस पर्वतका शिखर स्थान ब्रह्मतीर्थ कहलाता है। उसका महत्त्व प्रयागके लेकर कपियोंने इसका विशेषरूपसे स्मरण किया। समान माना गया है। ब्रह्माजीका कथन है कि वहाँ उन्होंने यहाँ कपीश्वरादित्य नामक उत्तम तीर्थकी स्थापना पिण्डदान करनेसे पितरोंको बारह वर्षातक तृप्ति बनी की। उस तीर्थमें स्नान और पितृतर्पण करके कपीश्वरा- रहती है। विशेषतः ब्रह्मवल्लीमें पिण्डदानका गयादित्यका दर्शन करनेपर मनुष्य ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता श्राद्धके समान पुण्य माना गया है। पुष्कर, गङ्गानदी और है। कपीश्वरतीर्थ में विशेषतः चैत्रकी अष्टमीको नान अमरकण्टक क्षेत्रमें जानेसे जो फल मिलता है, वह करना चाहिये । हनुमान्जी आदि प्रमुख वीरोंने इस तीर्थमें ब्रह्मवल्ली में विशेषरूपसे प्राप्त होता है। चन्द्रग्रहण और तीन दिनोंतक स्रान किया था। पार्वती ! इस प्रकार मैंने सूर्यग्रहणके समय जो लोग दान करते है, उन्हें तुम्हारे लिये कपितीर्थक प्रभावका वर्णन किया है। मिलनेवाला फल ब्रह्मवल्लीमें स्वतः प्राप्त हो जाता है। वहाँसे परमपावन एकधार तीर्थको जाना चाहिये। जो बहावल्लीमें स्रान करके गलेमें तुलसीकी माला धारण एकधारमें नान करके एक रात्रि उपवास करता और किये भगवान् नारायणका स्मरण करता हुआ मनुष्य स्वामिदेवेश्वरका पूजन करता है, वह अपनी सौ दिव्य वैकुण्ठधाममें जाता है, जो आनन्दस्वरूप एवं पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। वहाँ सान और जलपान अविनाशी पद है। करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता है। तत्पश्चात् तीर्थयात्री तत्पश्चात् वृषतीर्थमें जाय, जो खण्डतीर्थके नामसे पुरुष सप्तधार नामक तीर्थकी यात्रा करे । वह सब तीर्थोंमें भी प्रसिद्ध है। पूर्वकालमें गौएँ वहाँ स्नान करके दिव्य उत्तम तीर्थ है। उस तीर्थको मुनियोंने सप्त-सारस्वत नाम गोलोकधामको प्राप्त हुई थीं। उस तीर्थमें निराहार रहकर दिया है। त्रेतायुगमें महर्षि मङ्किने वहाँ मङ्कितीर्थका जो गौओंके लिये पिण्डदान करता है, वह चौदह इन्द्रोंकी निर्माण किया था। फिर द्वापरमें पाण्डवोंने सप्तधार आयुपर्यन्त सुखी एवं अभ्युदयशाली होता है, करोड़ तीर्थको प्रवृत्त किया। भगवान् शङ्करको जटासे निकला गौओके दानसे मनुष्यको जिस फलकी प्राप्ति होती है, हुआ गङ्गाजल यहाँ सात धाराओंके रूपमें प्रकट हुआ, वह खण्डतीर्थमे निस्सन्देह प्राप्त हो जाता है। जो
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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खण्डतीर्थमें बैलका मूत्र लेकर पान करता है, उसकी तत्काल शुद्धि हो जाती है। खण्डतीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न हुआ है और न होगा। पार्वती! जो मनुष्य वहाँकी यात्रा करते हैं, वे पुण्यके भागी होते हैं। वहाँ जाकर गौओंका पूजन करना चाहिये। उसके बाद वृषभकी पूजा करके एकाग्रतापूर्वक पुनः स्नान करना चाहिये। गो-पूजनसे मनुष्य गोलोकमें नित्य निवास करता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो वहाँ पाँच आँवलेके पौधे लगाते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीहरिके परमधाममें जाते हैं।
तदनन्तर संगमेश्वर नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे। वह बहुत बड़ा तीर्थ है। वहाँ पुण्यमयी हस्तिमती नदी साश्रमतीसे मिली है। वह नदी कौण्डिन्य मुनिके शापसे सूख गयी थी। तबसे लोकमें बहिश्चर्याके नामसे उसकी ख्याति हुई। वह त्रिलोक विख्यात तीर्थ परमपवित्र और सब पापोंको हरनेवाला है। मनुष्य उस तीर्थमें स्नान तथा महेश्वरका दर्शन करके सब पापोंसे मुक्त होता और रुद्रके लोकमें जाता है। देवि! जिस प्रकार शाप मिलनेके कारण उस नदीका जल सूख गया था, वह प्रसङ्ग बतलाता हूँ सुनो। जहाँ परमपवित्र महानदी साभ्रमती गङ्गा और हस्तिमती नदीका संगम हुआ है, वहीं मुनिवर कौण्डिन्यने बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की। इस प्रकार बहुत समयतक उन्होंने समस्त इन्द्रियोंके स्वामी शुद्धबुद्ध भगवान् नारायणकी आराधना की एक समय दैवयोगसे वर्षाकाल उपस्थित हुआ। नदी जलसे भर गयी। तब कौण्डिन्य ऋषिने उस स्थानको छोड़ दिया। किन्तु रातमें नदीकी बाढ़ के कारण उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। वे चिन्तित होकर सोचने लगे- 'अब क्या करना चाहिये ?' उनका आश्रम दिव्य शोभासे सम्पन्न और महान् था किन्तु जलके वेगसे वह हस्तिमती नदीमें बह गया। उनके पास जो बहुत से फल-मूल और पुस्तकें थीं, वे भी नदीमें वह गयीं। तब मुनिश्रेष्ठ कौण्डिन्यने उस नदीको शाप दिया— 'अरी! तू कलियुगमें बिना जलकी हो जायगी।' पार्वती! इस प्रकार हस्तिमतीको शाप देकर विप्रवर कौण्डिन्य सनातन विष्णुधामको चले
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
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गये। आज भी वह संगमेश्वर नामक तीर्थ मौजूद है, जिसका दर्शन करके पापी मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकसे मुक्त हो जाता है।
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देवेश्वरि ! वहाँसे तीर्थयात्री मनुष्य रुद्रमहालय नामक तीर्थकी यात्रा करे। वह केदार तीर्थके समान अनुपम है। साक्षात् रुद्रने उसका निर्माण किया है। वहाँ अवश्य श्राद्ध करना चाहिये; क्योंकि वह पितरोंकी पूर्ण तृप्तिका कारण होता है। उस तीर्थमें श्राद्ध करनेसे पितर और पितामह तृप्त हो रुद्रके परमपदको प्राप्त होते हैं। जो रुद्रमहालय तीर्थमें कार्तिक एवं वैशाखकी पूर्णिमाको वृषोत्सर्ग करता है, वह रुद्रके साथ आनन्दका भागी होता है। केदार तीर्थमें जलपान करनेमें मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। वहाँ स्नान करनेमात्रसे वह मोक्षका भागी हो जाता है। देवि! एक समय में साभ्रमती नामक महागङ्गाका महत्त्व जानकर कैलास छोड़ यहाँ आया था और लोकहितके लिये यहाँ स्नान तथा जलपान करके इसे परम उत्तम तीर्थ बनाकर पुनः अपने कैलासधामको लौट गया। तबसे महालय परम पुण्यमय तीर्थ हो गया। संसारमें इसकी रुद्रमहालयके नामसे ख्याति हुई। देवि ! जो कार्तिक और वैशाखकी पूर्णिमाको यहाँकी यात्रा करते हैं, उन्हें फिर कभी संसार जनित दुःखकी प्राप्ति नहीं होती।
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पार्वती ! अब देवताओंके लिये भी दुर्लभ उत्तम तीर्थका वर्णन सुनो। वह खङ्गतीर्थके नामसे विख्यात और समस्त पापका नाश करनेवाला है। खङ्गतीर्थमें स्नान करके खङ्गेश्वर शिवका दर्शन करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अन्तमें स्वर्गलोकको जाता है। जो खङ्गधारेश्वर महादेवका दर्शन करता और कार्तिककी पूर्णिमाको उनकी विशेषरूपसे पूजा करता है, उसको ये सर्वेश्वर भगवान् विश्वनाथ सदा इस पृथ्वीपर सब प्रकारका सुख देते हैं; क्योंकि ये मनोवाञ्छित फल देनेवाले हैं।
साभ्रमतीके तटपर चित्राङ्गवदन नामक एक तीर्थ है, जो गयासे भी श्रेष्ठ है। उस शुभकारक तीर्थके अधिष्ठातृ देवता मालार्क नामके सूर्य हैं। जिसको कोढ़ हो गयी हो,
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उत्तरखण्ड र
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साभ्रमती तटके कपीश्वर आदि तीथोंकी महिमाका वर्णन •
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वह मनुष्य यदि उस तीर्थमें जाय तो भगवान् मालार्क उसकी कोढ़को दूर कर देते हैं। जो नारी शास्त्रोक्तविधिसे वहाँ अभिषेक करती है, वह मृतवत्सा हो या वन्ध्या शीघ्र ही पुत्र प्राप्त करती है। उस तीर्थमें रविवारके दिन यदि स्नान, सन्ध्या, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किये जायें तो वे अक्षय हो जाते हैं। देवेश्वरि वहाँ जाकर श्रीसूर्यका व्रत करना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्य इस लोकमें सुख भोगकर सूर्यलोकको जाता है। जो उस तीर्थमें जाकर विशेषरूपसे उपवास करता और इन्द्रियोंको वशमें करके भगवान् मालार्कका पूजन करता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है।
इस तीर्थके बाद दूसरे तीर्थमें जाय, जो मालार्कसे उत्तरमें स्थित है। उसका नाम है-चन्दनेश्वर तीर्थ। वह उत्तम स्थान सदा चन्दनकी सुगन्धसे सुवासित रहता है। वहाँ स्नान, जलपान और पितृतर्पण करनेसे मनुष्य कभी नरकमें नहीं पड़ता और रुद्रलोकको प्राप्त होता है। वहाँ जगत्का कल्याण करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान् चन्दनेश्वरका दर्शन करके रुद्रलोककी इच्छा रखनेवाला पुरुष यथाशक्ति उनका पूजन करे। उस तीर्थमें कल्याण प्रदान करनेवाले साक्षात् परमात्मा श्रीविष्णु नित्य निवास करते हैं। धन्य है साभ्रमती नदी और धन्य है विश्वके स्वामी भगवान् शिव एवं विष्णु !
वहाँसे पापनाशक जम्बूतीर्थमें स्नान करनेके लिये जाय। कलियुगमें वह तीर्थ मनुष्योंके लिये स्वर्गकी सीढ़ीके समान स्थित है। पूर्वकालमें जाम्बवान्ने वहाँ दशाङ्ग पर्वतपर अपने नामसे एक शिवलिङ्गकी स्थापना की थी। वहाँ स्नान करके मनुष्य तत्काल श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणका स्मरण करे तथा जाम्बवतेश्वर शिवको मस्तक झुकाये तो वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। देवि ! जहाँ-जहाँ श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया जाता है, वहाँ-वहाँ सम्पूर्ण चराचर जगत्में भव-बन्धनसे छुटकारा देखा जाता है। मुझे ही श्रीराम जानना चाहिये और श्रीराम ही रुद्र हैं-यों जानकर कहीं भेददृष्टि नहीं रखनी चाहिये। जो मन-ही-मन 'राम राम! राम !' इस प्रकार जप किया करते हैं, उनके समस्त मनोरथोंकी
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प्रत्येक युगमें सिद्धि हुआ करती है। देवि! मैं सदा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीका नाम श्रवण करनेसे कभी भव-बन्धनकी प्राप्ति नहीं होती। पार्वती! मैं काशीमें रहकर प्रतिदिन भक्तिपूर्वक कमलनयन श्रीरघुनाथजीका निरन्तर स्मरण किया करता हूँ। जाम्बवान्ने पूर्वकालमें परम सुन्दर श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके जम्बूतीर्थमें जाम्बवत नामसे प्रसिद्ध शिवलिङ्गको स्थापित किया था। वहाँ स्नान, देवपूजन तथा भोजन करके मनुष्य शिवलोकको प्राप्त होता है और वहाँ चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त निवास करता है। वहाँसे इन्द्रग्राम नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें स्नान करके इन्द्र घोर पापसे मुक्त हुए थे।
श्रीपार्वतीजीने पूछा- भगवन् ! इन्द्रको किस कर्मसे घोर पर लगा था और किस प्रकार वे पापरहित हुए ! उस प्रसङ्गको विस्तारके साथ सुनाइये ।
श्रीमहादेवजी बोले – देवि ! पूर्वकालमें देवराज इन्द्र और असुरोंके स्वामी नमुचिने परस्पर यह प्रतिज्ञा की कि हम दोनों एक-दूसरेका बिना किसी शस्त्रकी सहायता लिये वध करें; परन्तु इन्द्रने आकाशवाणीके कथनानुसार जलका फेन लेकर उसीसे नमुचिको मार डाला। तब इन्द्रको ब्रह्महत्या लगी। उन्होंने गुरुके पास जाकर अपने पापकी शान्तिका उपाय पूछा। फिर बृहस्पतिजीके आज्ञानुसार वे साभ्रमती नदीके उत्तर तटपर आये और वहाँ उन्होंने स्नान किया। इससे उनका सारा पाप तत्काल दूर हो गया। शरीरमें पूर्ण चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कान्ति छा गयी। तब इन्द्रने वहाँ धवलेश्वर नामक शिवकी स्थापना की ।
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वह शिवलिङ्ग इस पृथ्वीपर इन्द्रके ही नामसे प्रसिद्ध हुआ। वहाँ पूर्णिमा, अमावास्या, संक्रान्ति और ग्रहणके दिन श्राद्ध करनेपर पितरोंको बारह वर्षोंतक तृप्ति बनी रहती है जो धवलेश्वरके पास जाकर ब्राह्मण भोजन कराता है, उसके एक ब्राह्मणको भोजन करानेपर सहस्र ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल होता है। वहाँ अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्ण, भूमि और वस्त्रका दान करना चाहिये। ब्राह्मणको श्वेत रंगकी दूध देनेवाली गौ
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* अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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बछड़ेसहित दान करनी चाहिये जो ब्राह्मण यहाँ आकर रुद्रमन्त्रका जप आदि करता है, उसका शुभ कर्म वहाँ भगवान् शङ्करजीके प्रसादसे कोटिगुना फल देनेवाला होता है । जो मनुष्य उस तीर्थमें आकर उपवास आदि करता है, वह अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको निस्सन्देह प्राप्त कर लेता है। जो बिल्वपत्र लाकर भगवान् धवलेश्वरकी पूजा करता है, वह मानव इस पृथ्वीपर धर्म, अर्थ और काम - तीनों प्राप्त करता है, विशेषतः सोमवारको जो श्रेष्ठ मनुष्य वहाँकी यात्रा करते हैं, उनके रोग-दोषको भगवान् धवलेश्वर शान्त कर देते हैं। जो सदा रविवारको उनका विशेषरूपसे पूजन करता है, उसकी महिमाका ज्ञान मुझे कभी नहीं हुआ। जो दूर्वादल, मदारके फूल, कहार पुष्प तथा कोमल पत्तियोंसे श्रीधवलेश्वरका पूजन करते हैं, वे मनुष्य पुण्यके भागी होते हैं। श्वेत मदारका
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श्रीमहादेवजी कहते हैं-साभ्रमतीके तटपर बालार्क नामका श्रेष्ठ तीर्थ है, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। मनुष्य उस बालार्कतीर्थमें स्नान करके पवित्रतापूर्वक तीन रात निवास करे और सूर्योदयके समय बाल-सूर्यके मुखका दर्शन करे। ऐसा करनेसे वह निश्चय ही सूर्यलोकको प्राप्त होता है। रविवार, संक्रान्ति, सप्तमी तिथि, विषुव योग, अयनके आरम्भ-दिवस, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहणके दिन स्नान करके देवताओं, पितरों और पितामहोंका तर्पण करे। फिर ब्राह्मणोंको गुड़मयी धेनु और गुड़-भात दान करे। तत्पश्चात् कनेर और जपाके फूलोंसे बाल सूर्यका पूजन करना चाहिये। जो मनुष्य ऐसा करते हैं, वे सूर्यलोकमें निवास करते हैं। जो मानव वहाँ दूध देनेवाली लाल गौ तथा बोझ ढोनेमें समर्थ एक बैल दान करता है, वह यज्ञका फल पाता है और कभी भी नरकमें नहीं पड़ता। इतना ही नहीं, यदि वह रोगी हो तो रोगसे और कैदी हो तो बन्धनसे मुक्त हो जाता है। इस तीर्थमें पिण्डदान करनेसे पितामहगण पूर्ण तृप्त होते हैं।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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साभ्रमती तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीथोंकी महिमाका वर्णन
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फूल लाकर उसके द्वारा धवलेश्वरकी पूजा करके उन्होंके प्रसादसे मनुष्य सदा मनोवाञ्छित फल पाता है। सत्ययुगमें भगवान् नीलकण्ठके नामसे प्रसिद्ध होकर सबका कल्याण करते थे। फिर त्रेतायुगमें वे भगवान् हरके नामसे विख्यात हुए, द्वापरमें उनकी शर्व संज्ञा होती है और कलियुगमें वे घवलेश्वर नामसे प्रसिद्ध होते हैं। जो श्रेष्ठ मानव यहाँ स्नान और दान करते हैं, वे धर्म, अर्थ और कामका उपभोग करके शिवधामको जाते हैं। चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण तथा पिताकी वार्षिक तिथिको श्राद्ध करनेसे जो फल मिलता है, उसे धवलेश्वर तीर्थमें मनुष्य अनायास ही प्राप्त कर लेता है। देवि ! धवलेश्वर में कालसे प्रेरित होकर सदा ही जो प्राणी मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे जबतक सूर्य और चन्द्रमा हैं तबतक शिवधाममें निवास करते हैं।
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पूर्वकालकी बात है, एक बुड्डा भैंसा, जो वृद्धावस्थाके कारण जर्जर हो रहा था, बोझ ढोनेमें असमर्थ हो गया। यह देख व्यापारीने उसको रास्तेमें ही त्याग दिया । गर्मीका महीना था, वह पानी पीनेके लिये महानदी साभ्रमतीके तटपर आया। दैववश वह भैंसा कीचड़ में फँस गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। नदीके पवित्र जलमें उसकी हड्डियाँ बह गयीं। उस तीर्थके प्रभावसे वह भैंसा कान्यकुब्ज देशके राजाका पुत्र हुआ। क्रमशः बड़े होनेपर उसे राज्यसिंहासनपर बिठाया गया। उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा। वहाँ अपने पूर्व वृत्तान्तको याद करके उस तीर्थके प्रभावका विचार कर वह राजा उक्त तीर्थमें आया और वहाँके जलमें स्नान करके उसने अनेक प्रकारके दान किये। साथ ही उस तीर्थमें राजाने देवाधिदेव महेश्वरकी स्थापना की। वहाँ स्नान करके महिषेश्वरका पूजन तथा बाल सूर्यके मुखका दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। यों तो समूची साभ्रमती नदी ही परम पवित्र है, किन्तु बालार्क क्षेत्रमें उसकी पावनता विशेष बढ़ गयी है।
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उतरखण्ड ] - • साभ्रमती-तटके बालार्क, दुधर तथा खङ्गधार आदि तीचोकी महिमाका वर्णन •
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उसका नामांधारणमात्रसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे भी है। यदि मनुष्य मेरे स्थानपर जाकर विशेषरूपसे मेरा छुटकारा पा जाता है। साभ्रमती नदीका जल जहाँ पूर्वसे पूजन करता है तो उसका सारा पाप तत्काल नष्ट हो पश्चिमकी ओर वहता है, वह स्थान प्रयागसे भी अधिक जाता है। जो इस तीर्थमें मेरी मिट्टीकी मूर्ति बनाकर पूजते पवित्र, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और महान् हैं, वे मेरे परमधाममें निवास करते हैं। मेरा विग्रह है। वहाँ ब्राह्मणोंको दिया हुआ गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, कलियुगमें खङ्गधारेश्वरके नामसे विख्यात होता है। वस्त्र, अन्न, शय्या, भोजन, वाहन और छत्र आदिका सत्ययुगमें मैं 'मन्दिर' कहलाता हूँ और त्रेतामें गौरव' । दान, अभिमें किया हुआ हवन, पितरोंके लिये किया द्वापरमें मेरा 'विश्वविख्यात' नाम होता है और कलियुगमें गया श्राद्ध तथा जप आदि कर्म अक्षय हो जाता है। उस 'खनेश्वर' या 'खगधारेश्वर' । इस तीर्थके दक्षिण भागमें तीर्थमे मनुष्य जिस-जिस वस्तुकी कामना करता है, मेरा स्थान है-यह जानकर जो विद्वान् वहीं मेरी मूर्ति वह-वह उसे महेश्वरकी कृपा तथा तीर्थके प्रभावसे प्राप्त बनाता और नित्य उसकी पूजा करता है, उसे मनोवाञ्छित होती है।
फलकी प्राप्ति होती है। वह मानव धर्म, अर्थ, काम और अब दुर्धर्षेश्वर नामक एक दूसरे उत्तम तीर्थका मोक्ष-चारों पुरुषार्थीको प्राप्त कर लेता है। देवेश्वरि ! जो वर्णन करता हूँ। उसके स्मरण करनेमात्रसे पापी भी लोग लोकनाथ महेश्वरको धूप, दीप, नैवेद्य तथा चन्दन पुण्यवान् हो जाता है। देवासुर-संग्रामकी समाप्ति और आदि अर्पण करते हैं, उन्हें कभी दुःख नहीं होता। दैत्योंका संहार हो जानेपर भृगुनन्दन शुक्राचार्यने वहाँ खङ्गधार तीर्थसे दक्षिणकी ओर परम पावन कठोर व्रतका पालन करके लोक-सृष्टिके कारणभूत दुग्धेश्वर तीर्थ बताया गया है, जो सब पापोंका नाश दुर्धर्ष देवता महादेवजीकी समाराधना की और उनसे करनेवाला है। उस तीर्थमे नान करके दुग्धेश्वर शिवका दैत्योंके जीवनके लिये मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की। दर्शन करनेपर मनुष्य पापजनित दुःखसे तत्काल तबसे यह तीर्थ भूमण्डलमें उन्हींके नामपर विख्यात छुटकारा पा जाता है। साभमतीके सुन्दर तटपर जहाँ हुआ। काव्यतीर्थमें स्रान करके दुर्धर्षेश्वर नामक परम पुण्यमयी चन्द्रभागा नदी आकर मिली है, महर्षि महादेवका पूजन करनेसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा दधीचिने भारी तपस्या की थी। वहां किये हुए नान, जाता है।
दान, जप, पूजा और तप आदि समस्त शुभ कर्म साभ्रमती नदीके तटपर खड्गधार नामसे विख्यात दुग्धतीर्थक प्रभावसे अक्षय होते हैं। कि एक परम पावन तीर्थ है, जो अब गुप्त हो गया है और दुग्धेश्वर तीर्थसे पूर्वकी ओर एक परम पावन तीर्थ जहाँ प्रसङ्गवश भी कभी अचानक सान और जलपान है, जहाँ साभ्रमतीमें चन्द्रभागा नदी मिली है। वहाँ कर लेनेपर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो रुद्रलोकमें पुण्यदाता चन्द्रेश्वर नामक महादेवजी नित्य विराजमान प्रतिष्ठित होता है। वहाँ कश्यपके पीछे जाती हुई पवित्र रहते हैं। जो सम्पूर्ण लोकोको सुख देनेवाले, परम महान् साभ्रमती नदीको पातालकी ओर जाते देख रुद्रने उसे और सर्वत्र व्यापक हैं, वे ही भगवान् 'हर' वहाँ निवास अपने जटाजूटमें धारण कर लिया तथा वे रुद्र खड्गधार करते हैं। उस तीर्थमें चन्द्रमाने दीर्घकालतक तप किया नामसे विख्यात होकर वहीं रहने लगे। देवेश्वरि ! वहाँ था और उन्होंने ही चन्द्रेश्वर नामक महादेवकी स्थापना स्नान करनेसे पापी भी स्वर्गमें चले जाते हैं। पार्वती! की थी। वहाँ स्नान, जलपान और शिवकी पूजा माघमें, वैशाखमें तथा विशेषतः कार्तिककी पूर्णिमाको करनेवाले मनुष्य धर्म और अर्थ प्राप्त करते हैं। जो लोग जो वहाँ स्नान करते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। वसिष्ठ, वहाँ विशेषरूपसे वृषोत्सर्ग आदि कर्म करते हैं, वे पहले वामदेव, भारद्वाज और गौतम आदि ऋषि वहाँ सान स्वर्ग भोगकर पीछे शिवधामको जाते हैं। जो दूसरे तटपर तथा भगवान् शिवका दर्शन करनेके लिये आया करते जाकर समस्त पापोंका नाश करनेवाले चन्द्रेश्वर नामक
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अर्चयख हवीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
. [संक्षिप्त पापुराण
शिवकी अर्चना करते हैं तथा विशेषतः रुद्रके मन्त्रोंका पारगामी होता है। क्षत्रिय हो तो राज्य, वैश्य हो तो धन जप करते हैं, उन्हें शिवका स्वरूप समझना चाहिये। और शूद्र हो तो भक्ति पाता है। इसलिये उपयुक्त नाममय देवि ! जो यहाँ सर्वदा स्रान करते हैं, उन मनुष्योंको उत्तम सूक्तका जप करना चाहिये। , निस्सन्देह विष्णुस्वरूप जानना चाहिये । जो तिलपिण्डसे, पार्वती ! निम्बार्क तीर्थसे बहुत दूर जानेपर परम यहाँ श्राद्ध करते हैं, वे भी उसके प्रभावसे विष्णुधामको उत्तम सिद्धक्षेत्र आता है। जाते हैं। यहाँ विधिपूर्वक स्नान और दान करना चाहिये। उपर्युक्त तीर्थ के बाद तीर्थराज नामसे विख्यात एक स्नान करनेपर ब्रह्महत्या आदि पापोंसे भी छुटकारा मिल उत्तम तीर्थ है, जहाँ सात नदियाँ बहती हैं। अन्य जाता है। इस तटपर जो विशेषरूपसे वटका वृक्ष लगाते तीर्थोकी अपेक्षा यहाँक स्रानमें सौगुनी विशेषता है । यहाँ है, वे मृत्युके पश्चात् शिवपदको प्राप्त होते हैं। देवताओंमें श्रेष्ठ साक्षात् भगवान् वामन विराजमान है।
दुग्धेश्वरके समीप एक अत्यन्त पावन तथा रमणीय जो माघ मासकी द्वादशीको तिलकी धेनुका दान करता तीर्थ है, जो इस पृथ्वीपर पिप्पलादके नामसे प्रसिद्ध है। है, वह सब पापोंसे मुक्त हो अपनी सौ पीढ़ियोका उद्धार देवेश्वरि ! वहाँ सान और जलपान करनेसे ब्रह्महत्याका कर देता है। यदि मनुष्य शुद्धचित्त होकर यहाँ केवल पाप दूर हो जाता है। साश्रमतीके तटपर पिप्पलाद तीर्थ तिलमिश्रित जल भी पितरोंको अर्पण करे तो उसके द्वारा गुप्त है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य मोक्षका भागी होता हजार वर्षांतकके लिये श्राद्ध-कर्म सम्पन्न हो जाता है। है। वहाँ विधिपूर्वक पीपलका वृक्ष लगाना चाहिये। इस रहस्यको साक्षात् पितर ही बतलाते हैं। जो इस ऐसा करनेपर मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। तीर्थमें ब्राह्मणोंको गुड़ और खीर भोजन कराते हैं, उनको पिप्पलाद तीर्थसे आगे साधमतीके तटपर निम्बार्क एक-एक ब्राह्मणके भोजन करानेपर सहस्त्र-सहस्त्र नामक उत्तम तीर्थ है, जो व्याधि तथा दुर्गन्धका नाश ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल मिलता है। करनेवाला है। पूर्वकालमें कोलाहल दैल्यके साथ युद्धमे तदनन्तर, साधमतीके तटपर गुप्तरूपसे स्थित दानवोंके द्वारा परास्त होकर देवतालोग सूक्ष्म-शरीर सोमतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ कालाग्निस्वरूप भगवान् धारण करके प्राणरक्षाके लिये यहाँ वृक्षोंमें समा गये थे। शिव पातालसे निकलकर प्रकट हुए थे। सोमतीर्थमें वहाँ जानेपर विशेषरूपसे भगवान् सूर्यका पूजन करना स्रान करके सोमेश्वर शिवका दर्शन करनेसे निःसन्देह चाहिये। पार्वती ! सूर्यके पूजनसे मनोवाञ्छित फलकी सोमपानका फल प्राप्त होता है। वहाँ स्नान करनेवाला प्राप्ति होती है। जो मनुष्य इस तीर्थमें जाकर सूर्यके बारह पुरुष परलोकमें कल्याण प्राप्त करता है। जो सोमवारके नामोंका पाठ करते हैं, वे जीवनभर पुण्यात्मा बने रहते दिन भगवान् सोमेश्वरके मन्दिरमें दर्शनके लिये जाता है, हैं। वे नाम इस प्रकार है-आदित्य, भास्कर, भानु, वह सोमलिङ्गकी कृपासे मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता रवि, विश्वप्रकाशक, तीक्ष्णांशु, मार्तण्ड, सूर्य, प्रभाकर, है। जो श्वेत रंगके फूलोंसे, कनेरके पुष्पोंसे तथा विभावसु, सहस्राक्ष तथा पूषा ।* पार्वती ! जो विद्वान् पारिजातके प्रसूनोंसे पिनाकधारी श्रीमहादेवजीको पूजा एकाप्रचित्त होकर इन बारह नामोका पाठ करता है, वह करते है, वे परम उत्तम शिवधामको प्राप्त होते हैं। धन, पुत्र और पौत्र प्राप्त करता है। जो मनुष्य इनमेंसे वहाँसे कापोतिक तीर्थकी यात्रा करे, जहाँ एक-एक नामका उच्चारण करके सूर्यदेवका पूजन करता साधमतीका जल पश्चिमसे पूर्वकी ओर बहता है। जो है, वह ब्राह्मण हो तो सात जन्मोतक धनाढ्य एवं वेदोका मनुष्य पितृ-तर्पणपूर्वक वहाँ पिण्डदान करता है तथा
* आदित्य भास्कर भानु रवि विश्वप्रकाशकम्। तीक्ष्णांशु चैव मार्तण्डं सूर्य चैव प्रभाकरम् ॥ विभावसु सहसाक्ष तथा पूषणमेव च। .........
.........॥ (१५१।९-१०)
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उत्तरखण्ड ]" • साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेवर तथा खड्गवार आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन .
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प्रत्येक पर्वपर वनके फलों और फलोंसे कौवे तथा कुत्ते गङ्गा बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है। उसके आदिको बलि अर्पण करता है, वह यमराजके मार्गको दर्शनमात्रसे मनुष्य घोर पापसे छुटकारा पा जाते हैं। वहाँ सुखपूर्वक लाँघ जाता है। जो वैशाखकी पूर्णिमाको उस गो-दान और रथ-दानकी प्रशंसा की जाती है। उस तीर्थमें स्नान करके पीली सरसोंसे परम उत्तम प्राचीनेश्वर तीर्थमें श्राद्ध करके यत्नपूर्वक दान देना चाहिये। भयंकर नामक शिवको पूजा करता है, वह अपनेको तो तारता कलियुगमें वह तीर्थ महापातकोंका नाश करनेवाला है। ही है, अपने पितरों और पितामहोंका भी उद्धार कर देता वहाँसे भूतालय तीर्थमें जाना चाहिये, जो पापोंका है। यह वही स्थान है, जहाँ एक कबूतरने अपने अपहरण करनेवाला और उत्तम तीर्थ है। वहाँ भूतोंका अतिथिको प्रसत्रतापूर्वक अपना शरीर दे दिया था और निवासभूत वटका वृक्ष है और पूर्ववाहिनी चन्दना नदी विमानपर बैठकर सम्पूर्ण देवताओंके मुखसे अपनी है। भूतालयमें स्नान करके भूतोंके निवासभूत वटका प्रशंसा सुनता हुआ वह स्वर्गलोकमें गया था। तभीसे दर्शन करनेपर भगवान् भूतेश्वरके प्रसादसे मनुष्यको यह तीर्थ कापोत तीर्थके नामसे विख्यात हुआ। वहाँ कभी भय नहीं प्राप्त होता । वहाँसे आगे घटेश्वर नामका सान और जलपान करनेसे मनुष्यकी ब्रह्महत्या दूर हो उत्तम तीर्थ है, जहाँ सान और दर्शन करनेसे मानव जाती है।
: wpनिश्चय ही मोक्षका भागी होता है। वहाँ जाकर जो अतः देवि ! उस तीर्थ में जानेपर सदा ही अतिथिका विशेषरूपसे पाकरकी पूजा करता है, वह इस पृथ्वीपर पूजन करना चाहिये। अतिथिका पूजन करनेपर वहाँ मनोवाञ्छित कामनाओंको प्राप्त करता है। निश्चय ही सब कुछ प्राप्त होता है।
वहाँसे मनुष्य भक्तिपूर्वक वैद्यनाथ नामक तीर्थमे है वहाँसे आगे काश्यप हृदके समीप गोतीर्थ है, जो जाय और उसमें स्नान करके शिवजीकी पूजा करे । वहाँ सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ और महापातकोंका नाश करनेवाला है। विधिपूर्वक पितरोंका तर्पण करनेसे सम्पूर्ण यज्ञोंका फल ब्रह्माहत्याके समान भी जो कोई पाप हैं, वे गोतीर्थमें स्रान प्राप्त होता है। वहाँ देवताओंसे प्रकट हुआ विजय तीर्थ है, करनेसे निस्सन्देह नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य वहाँ सान जिसका दर्शन करनेसे मनुष्य सदा भाँति-भाँतिके करके गौओंको एक दिनका भोजन देता है, वह गो- मनोवाञ्छित भोग प्राप्त करते हैं। वैद्यनाथ तीर्थसे आगे माताओंके प्रसादसे मातृ-ऋणसे मुक्त हो जाता है। जो तीर्थोंमें उत्तम देवतीर्थ है, जो सब प्रकारकी सिद्धियोंको गोतीर्थमें जानेपर स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दूध देनेवाला है। वहाँ धर्मपुत्र युधिष्ठिरने राक्षसराज देनेवाली गौ दान करता है, वह ब्रह्मापदको प्राप्त होता है। विभीषणसे कर लेकर राजसूय नामक महान् यज्ञ आरम्भ - यहाँ एक दूसरा भी महान् तीर्थ है, जो काश्यप किया था। पाण्डुपुत्र नकुलने दक्षिण दिशापर विजय कुण्डके नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ कुशेवर नामक पानेके बाद साभ्रमती नदीके तटपर बड़ी भक्तिके साथ महादेवजी विराजते है। उनके पास ही कश्यपजीका पाण्डुरा- नामसे विख्यात देवीकी स्थापना की थी, जो बनवाया हुआ सुन्दर कुण्ड है। उसमें स्रान करनेसे भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। साभ्रमतीके जलमें मनुष्य कभी नरकमें नहीं पड़ता। महादेवि ! काश्यपके स्नान करके पाण्डुरा-को नमस्कार करनेवाला मनुष्य तटपर नित्य अग्रिहोत्र करनेवाले तथा वेदोंके स्वाध्यायमें अणिमा आदि आठ सिद्धियों तथा प्रचुर मेधाशक्तिको तत्पर रहनेवाले अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता ब्राह्मण निवास प्राप्त करता है। यदि मानव शुद्धभावसे पाण्डुरााको करते है। जैसा काशीका माहात्म्य है, वैसा ही इस नमस्कार कर ले तो उसके द्वारा एक वर्षतककी पूजा सम्पत्र ऋषिनिर्मित नगरीका भी है। महर्षि कश्यपने यहाँ रहकर हो गयी-ऐसा जानना चाहिये । देवतीर्थमें पाण्डुराकि बड़ी भारी तपस्या की है तथा वे भगवान् शंकरकी जटासे समीप जिसकी मृत्यु होती है, वह कैलास-शिखरपर प्रकट होनेवाली गङ्गाको यहाँ ले आये हैं। यह काश्यपी पहुँचकर भगवान् चन्द्रेश्वरका गण होता है।
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•अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
उस तीर्थसे आगे चण्डेश नामका उत्तम तीर्थ है, स्नान करनेसे मनुष्य निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। जहाँ सबको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले भगवान् चण्डेश्वर साभ्रमतीके पावन तटपर लोगोंकी कल्याण-कामनासे नित्य निवास करते हैं। उनका दर्शन करनेसे मनुष्य पृथ्वीके अन्य सब तीथोंका परित्याग करके जो भगवान् अनजानमें अथवा जान-बूझकर किये हुए पापसे रुद्रमें भक्ति रखता हुआ जितेन्द्रिय भावसे श्राद्ध करता है, छुटकारा पा जाता है। सम्पूर्ण देवताओंने मिलकर एक वह शुद्धचित्त होकर सब यज्ञोंका फल पाता है। उस नगरका निर्माण किया, जो भगवान् चण्डेश्वरके नामसे ही तीर्थमें स्रान करके ब्राह्मणको वृषभ दान करना चाहिये। विख्यात है। वहाँसे आगे गणपति-तीर्थ है, जो बहुत ही ऐसा करनेवाला पुरुष सब लोकोंको लांघकर परम उत्तम है। वह साभ्रमतीके समीप ही विख्यात है। वहाँ गतिको प्राप्त होता है।
वानी आदि तीर्थोकी महिमा
श्रीमहादेवजी कहते हैं-महादेवि ! तदनन्तर इन्द्रने कहा-भगवन् ! आपकी कृपासे उस तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ परम साध्वी गिरिकन्या उस दुर्धर्ष दैत्यको आपके देखते-देखते ही इस वाघीके साथ इन्द्रका समागम हुआ था। जो मनुष्य वज्रसे मारूंगा। अपने मनको संयममें रखते हुए वहाँ स्रान करते हैं, उन्हें दस अश्वमेध-यज्ञोका फल प्राप्त होता है। जो पुरुष वहाँ तिलके चूर्णसे पिण्ड बनाकर श्राद्ध करता है, वह अपनेसे पहलेकी सात और बादकी सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। संगममें विधिपूर्वक स्नान करके गणेशजीका भलीभांति पूजन करनेवाला मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता और लक्ष्मी भी कभी उसका त्याग नहीं करती।
पूर्वकालमें वृत्रासुर और इन्द्रमें रोमाञ्चकारी युद्ध हुआ था, जो लगातार ग्यारह हजार वर्षांतक चलता रहा। उसमें इन्द्रकी पराजय हुई और वे वृत्रासुरसे पुनः लौटनेकी शर्त करके युद्ध छोड़कर मेरी शरणमें आये। उन्होंने वानीके पवित्र संगमपर आराधनाके द्वारा मुझे सन्तुष्ट किया। तब मैंने आकाशमें प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिया। उस समय काश्यपी गङ्गाके तटपर मेरे शरीरसे कुछ भस्म झड़कर गिरा, जिससे एक पवित्र 8 लिङ्ग प्रकट हो गया। उस शिवलिङ्गकी 'भस्मगात्र' पार्वती ! यों कहकर इन्द्र पुनः वृत्रासुरके पास नामसे प्रसिद्धि हुई । तब मैंने प्रसन्न होकर महात्मा इन्द्रसे गये। उस समय देवताओंकी सेनामें दुन्दुभि बज उठी। -कहा-'देव ! तुम जो-जो चाहते हो, वह सब तुम्हें एक ही क्षणमें इन्द्र प्रबल शक्तिसे सम्पन्न हो गये। दूंगा। इस वनकी सहायतासे तुम शीघ्र ही वृत्रासुरका युद्धकी इच्छासे वृत्रासुरके पास जाते हुए इन्द्रका रूप वध करोगे।'
अत्यन्त तेजस्वी दिखायी देता था। महर्षिगण उनकी
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उत्तरखण्ड]
. बार्बनी आदि तीथोकी महिमा .
स्तुति कर रहे थे। उधर युद्धके मुहानेपर खड़े हुए देवलोकको राजधानीमें प्रवेश किया। वृत्रासुरके शरीरमें जो सहसा पराजयके चिह्न प्रकट हुए, । तदनन्तर अत्यन्त भयङ्कर ब्रह्महत्या रौद्ररूप धारण उनका वर्णन करता हूँ सुनो। वृत्रासुरका मुख अत्यन्त किये वृत्रके शरीरसे निकली और इन्द्रको ढूँढ़ने लगी। भयानक और जलता हुआ-सा प्रतीत होने लगा। उसके उसने दौड़कर महातेजस्वी इन्द्रका पीछा किया और जब शरीरका तेज फीका पड़ गया। सारे अङ्ग काँपने लगे। वे दिखायी दिये, तब उसने उनका गला पकड़ लिया। जोर-जोरसे गरम साँस चलने लगी। वृत्रासुरके रोंगटे इन्द्रको ब्रह्महत्या लग गयी। वे किसी तरह उसे हटानेमें खड़े हो गये। उसके उच्छ्वासकी गति अत्यन्त तीव्र हो समर्थ न हो सके। उसी दशा में ब्रह्माजीके पास जाकर गयी। आकाशसे महाभयानक उल्कापात हुआ। उस उन्होंने मस्तक झुकाया। इन्द्रको ब्रह्महत्यासे गृहीत दैत्यके पास गिद्ध, बाज और कडू आदि पक्षी आकर अत्यन्त कठोर शब्द करने लगे। वे सब वृत्रासुरके ऊपर मण्डल बनाकर घूमने लगे। इतनेमें ही इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़कर वहाँ आये। उनके उठे हुए हाथमें वज्र शोभा पा रहा था। इन्द्र ज्यों ही दैत्यके समीप पहुँचे, उसने अमानुषिक गर्जना की और वह उनके ऊपर टूट पड़ा। वृत्रासुरको अपनी ओर आते देख इन्द्रने उसके ऊपर वनका प्रहार किया और उस दैत्यको समुद्रके तटपर मार गिराया। उस समय इन्द्रके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा होने लगी। उस भयङ्कर दानवराजका
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जानकर ब्रह्माजीने उसका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही ब्रह्महत्या ब्रह्माजीके पास उपस्थित हुई।
ब्रह्माजीने कहा-देवि ! मेरा प्रिय कार्य करो। देवराज इन्द्रको छोड़ दो। बताओ, तुम क्या चाहती हो? मैं तुम्हारी कौन-सी इच्छा पूर्ण करूं? 1 ब्रह्महत्या बोली-सुरश्रेष्ठ ! मैं आपकी आज्ञा मानकर इन्द्रके शरीरसे अलग हो जाऊँगी, किन्तु देवदेव ! मुझे कोई दूसरा निवासस्थान दीजिये। आपको नमस्कार है। भगवन् ! आपने ही तो लोकरक्षाके लिये यह मर्यादा बनायी है।
तब ब्रह्माजीने ब्रह्महत्यासे 'तथास्तु',कहकर इन्द्रकी
वध करके अमरोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए इन्द्रने
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૦૮
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अवयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
हत्या दूर करनेके उपायपर विचार किया। उन्होंने अग्नि स्वीकृति दे दी। फिर लोकपितामह ब्रह्माजीने अप्सराओको
देवको बुलाकर कहा- अमे! तुम इन्द्रकी ब्रह्महत्याका चौथाई भाग ग्रहण करो।'
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मेरे छूटनेका क्या उपाय है ?
ब्रह्माजी बोले- अग्ने ! जो तुम्हें प्रज्वलित रूपमें पाकर कभी बीज, ओषधि, तिल, फल, मूल, समिधा और कुश आदिके द्वारा तुममें आहुति नहीं डालेगा, उस समय ब्रह्महत्या तुम्हें छोड़कर उसीमें प्रवेश कर जायगी।
यह सुनकर अग्निने ब्रह्माजीकी आज्ञा शिरोधार्य की। तत्पश्चात् पितामहने वृक्ष, ओषधि और तृण आदिको बुलाकर उनके सामने भी यही प्रस्ताव रखा। यह बात सुनकर उन्हें भी अग्रिकी ही भाँति कष्ट हुआ; अतः वे ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले- पितामह हमारी ब्रह्महत्याका अन्त कैसे होगा ?"
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
अग्झिने कहा - प्रभो ! इस ब्रह्महत्याके दोषसे इसके चौथे भागको तुमलोग ग्रहण करो।'
ब्रह्माजीने कहा- जो मनुष्य महान् मोहके वशीभूत होकर अकारण तुम्हें काटे या चीरेगा, ब्रह्महत्या उसीको लग जायगी।
बुलाकर मधुर वाणीमें उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा'अप्सराओ! यह ब्रह्महत्या वृत्रासुरके शरीरसे आयी है;
तब ओषधि और तृण आदिने 'हाँ' कहकर अपनी विचार कीजिये ।
--
अप्सराएँ बोलीं- देवेश्वर! आपकी आज्ञासे हम इसे ग्रहण करनेको तैयार हैं; परन्तु हमारे उद्धारका कोई उपाय भी आपको सोचना चाहिये।
ब्रह्माजीने कहा- जो रजस्वला स्त्रीसे मैथुन करेगा, उसीके अंदर यह तुरंत चली जायगी ।
'बहुत अच्छा' कहकर अप्सराओंने हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की और अपने-अपने स्थानपर जाकर वे विहार करने लगीं। तदनन्तर लोकविधाता ब्रह्माजीने जलका स्मरण किया। जब जल उपस्थित हुआ, तब ब्रह्माजीने कहा—'यह भयानक ब्रह्महत्या वृत्रासुरके शरीरसे निकलकर इन्द्रके ऊपर आयी है। इसका चौथा भाग तुम ग्रहण करो।'
जलने कहा - लोकेश्वर! आप हमें जो आज्ञा देते हैं, वही होगा; परन्तु हमारे उद्धारके उपायका भी
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• वात्रंत्री आदि तीर्थोकी महिमा .
ब्रह्माजी बोले-जो मनुष्य अज्ञानसे मोहित और दान करना चाहिये। इस तीर्थमें स्नान करनेसे होकर तुम्हारे भीतर थूक या मल-मूत्र डालेगा, उसीके महापातको भी मुक्त हो जाते हैं। स्वजनोंका हित भीतर यह शीघ्र चली जायगी और वहीं निवास करेगी। चाहनेवाले पुरुषोंको वहाँ श्राद्धका अनुष्ठान अवश्य इससे तुम्हें छुटकारा मिल जायगा।
करना चाहिये। वहाँ श्राद्ध करनेसे मनुष्य निश्चय ही श्रीमहादेवजी कहते हैं-सुरेश्वरि ! इस प्रकार पितृलोकमें निवास करता है। जहाँ समुद्रसे साभ्रमती ब्रह्माजीकी आज्ञासे वह ब्रह्महत्या देवराज इन्द्रको गङ्गाका नित्य संगम हुआ है, उस स्थानपर ब्रह्महत्यारा छोड़कर चली गयी। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। भी मुक्त हो जाता है। फिर अन्य पापोंसे युक्त मनुष्यों के पूर्वकालमें इन्द्रको इसी प्रकार ब्रह्महत्या प्राप्त हुई थी। लिये तो कहना ही क्या है। मन्दबुद्धि लोग जहाँ तीर्थ इस वानी तीर्थमें तपस्या करके शुद्धचित्त होकर वे नहीं जानते, वहाँ मेरे नामसे उत्तम तीर्थकी स्थापना कर स्वर्गमें गये थे। पार्वती ! साभ्रमतीके तीर्थोंमें 'वानी' लेनी चाहिये। का ऐसा ही माहात्म्य है।
संगमके पास ही आदित्य नामक उत्तम तीर्थ है, जो वानी-संगमसे आगे जानेपर देवनदी साभ्रमती सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात है। उसका दर्शन अवश्य करना भद्रानदीके साथ-साथ वरुणके निवासभूत समुद्रमें जा चाहिये । वहाँ स्नान करनेसे पुष्करमें स्नान करनेका फल मिली है। समुद्र भी साभ्रमतीके अनुरागसे उसका प्रिय होता है। मदार और कनेरके फूलोंसे भगवान् सूर्यका करनेके लिये आगे बढ़ आया है और उसके प्रिय- पूजन, श्राद्ध तथा दान करना चाहिये। यह आदित्यतीर्थ मिलनको उसने अङ्गीकार किया है। भद्रानदी पूर्वकालमें परम पवित्र और पापोंका नाशक है। महापातकी सुभद्राकी सखी थी। उसने मार्गमें मूर्तिमती साक्षात् मनुष्योंको भी यह पुण्य प्रदान करनेवाला है। उस तीर्थके लक्ष्मीकी भाँति प्रकट होकर साभ्रमती गङ्गाकी सहायता बाद नीलकण्ठ नामका एक उत्तम तीर्थ है । मुक्तिकी इच्छा की। उन दोनों नदियोंका पवित्र संगम समुद्रके रखनेवाले पुरुषको उसका दर्शन अवश्य करना चाहिये। उत्तर-तटपर हुआ है। उस तीर्थमें स्रान करके जो पार्वती ! जो मनुष्य बिल्वपत्र तथा धूप-दीपसे भगवान् महावराहको नमस्कार करता और स्वच्छ नीलकण्ठका पूजन करता है, उसे मनोवाञ्छित फलकी जलका दान करता है, वह वरुणलोकको प्राप्त होता है। प्राप्ति होती है। जो निर्जन स्थानमें रहकर वहाँ उपवास उसी मार्गसे वराहरूपधारी भगवान् विष्णुने समुद्रमें करते हैं, वे लोग जिस-जिस वस्तुको इच्छा करते हैं, उसे प्रवेश करके देवताओंके वैरी सम्पूर्ण दानवोंपर विजय वह तीर्थ प्रदान करता है। पायी थी। भगवान्ने जो वाराहका रूप धारण किया था, पार्वती ! जहाँ साभ्रमती नदी दुर्गासे मिली है तथा उसका उद्देश्य देवताओंका कार्य सिद्ध करना ही था। जहाँ उसका समुद्रसे संगम हुआ है, वहाँ स्रान करना वह रूप धारण करके वे समुद्रमें जा घुसे और चाहिये। जो कलियुगमें वहाँ स्नान करेंगे, वे निश्चय ही पृथ्वीदेवीको अपनी दाढ़ोंपर रखकर कर्दमालयमें आ निष्पाप हो जायेंगे। दुर्गा-संगमपर श्राद्ध करना चाहिये। निकले; इससे वहाँ वाराहतीर्थके नामसे एक महान् तीर्थ वहाँ जानेपर विशेषरूपसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना और बन गया। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, वह निश्चय ही विधिपूर्वक गाय-भैसका दान देना उचित है। यह मोक्षका भागी होता है। यहाँ पितरोंकी मुक्तिके लिये साश्रमती नदी पवित्र, पापोंका नाश करनेवाली और परम श्राद्ध करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष पितरोंके धन्य है। इसका दर्शन करके मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाते साथ ही मुक्त होकर अत्यन्त सुखद लोकमें जाता है। हैं। पार्वती ! साभ्रमती नदीको गङ्गाके समान ही जानना
वाराहतीर्थसे आगे संगम नामक तीर्थ है, जहाँ चाहिये। कलियुगमें वह विशेषरूपसे प्रचुर फल साभ्रमती गङ्गा समुद्रसे मिली है। वहाँ विधिपूर्वक सान देनेवाली है।
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HORY
अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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श्रीनृसिंहचतुर्दशीके व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! सुनो, अब मैं तुम्हें त्रिलोकदुर्लभ व्रतका वर्णन सुनाता हूँ, जिसके सुननेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकोंसे मुक्त हो जाता है। स्वयंप्रकाश परमात्मा जब भक्तोंको सुख देनेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं, वह तिथि और मास भी पुण्यके कारण बन जाते हैं। देवि! जिनके नामका उच्चारण करनेवाला पुरुष सनातन मोक्षको प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणोंके भी कारण हैं। वे सम्पूर्ण विश्वके आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं जिन्होंने बारह सूर्योको धारण कर रखा हैं, वे ही भगवान् भक्तोंका अभीष्ट सिद्ध करनेके लिये महात्मा नृसिंहके रूपमें प्रकट हुए थे ।
देवि ! जब हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध करके देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् नृसिंह सुखपूर्वक विराजमान हुए, तब उनकी गोद में बैठे हुए ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ प्रह्लादजीने उनसे इस प्रकार प्रश्न किया- 'सर्वव्यापी भगवान् नारायण! नृसिंहका अद्भुत रूप धारण करनेवाले
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
आपको नमस्कार है। सुरश्रेष्ठ! मैं आपका भक्त हूँ, अतः यथार्थ बात जाननेके लिये आपसे पूछता हूँ। स्वामिन् ! आपके प्रति मेरी अभेद-भक्ति अनेक प्रकारसे स्थिर हुई है। प्रभो! मैं आपको इतना प्रिय कैसे हुआ ? इसका कारण बताइये।'
भगवान् नृसिंह बोले- वत्स ! तुम पूर्वजन्ममें किसी ब्राह्मणके पुत्र थे। फिर भी तुमने वेदोंका अध्ययन नहीं किया। उस समय तुम्हारा नाम वसुदेव था। उस जन्ममें तुमसे कुछ भी पुण्य नहीं बन पड़ा। केवल मेरे व्रतके प्रभावसे मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति हुई। पूर्वकालमे ब्रह्माजीने सृष्टि रचनाके लिये इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया था। मेरे व्रतके प्रभावसे ही उन्होंने चराचर जगत्की रचना की है। और भी बहुत से देवताओं, प्राचीन ऋषियों तथा परम बुद्धिमान् राजाओंने मेरे उत्तम व्रतका पालन किया है और उसके प्रभावसे उन्हें सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं। स्त्री या पुरुष, जो कोई भी इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें मैं सौख्य, भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता हूँ ।
प्रह्लादने पूछा- देव ! अब मैं इस व्रतकी उत्तम विधिको सुनना चाहता हूँ। प्रभो! किस महीनेमें और किस दिनको यह व्रत आता है ? यह विस्तारके साथ बतानेकी कृपा कीजिये ।
भगवान् नृसिंह बोले- बेटा ! प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो । एकाग्रचित्त होकर इस व्रतको श्रवण करो। यह व्रत मेरे प्रादुर्भावसे सम्बन्ध रखता है, अतः वैशाखके शुक्लपक्षकी चतुर्दशी तिथिको इसका अनुष्ठान करना चाहिये। इससे मुझे बड़ा सन्तोष होता है। पुत्र! भक्तोंको सुख देनेके लिये जिस प्रकार मेरा आविर्भाव हुआ, वह प्रसङ्ग सुनो। पश्चिम दिशामें एक विशेष कारणसे मैं प्रकट हुआ था। वह स्थान अब मूलस्थान (मुलतान) क्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है, जो परम पवित्र और समस्त पापोंका नाशक है। उस क्षेत्रमें हारीत नामक एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रहते थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् और ज्ञान-ध्यानमें
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उत्तरखण्ड ]
• श्रीनृसिंहचतुर्दशीके व्रत तथा श्रीनसिंहतीर्थकी महिमा .
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तत्पर रहनेवाले थे। उनकी स्त्रीका नाम लीलावती था। तत्पश्चात् उसे पञ्चामृतसे स्नान कराये। इसके बाद वह भी परम पुण्यमयी, सतीरूपा तथा स्वामीके अधीन शाखके ज्ञाता और लोभहीन ब्राह्मणको बुलाकर आचार्य रहनेवाली थी। उन दोनोंने बहुत समयतक बड़ी भारी बनाये और उसे आगे रखकर भगवान्की अर्चना करे। तपस्या की। तपस्यामें ही उनके इक्कीस युग बीत गये। पूजाके स्थानपर एक मण्डप बनवाकर उसे फूलके तब उस क्षेत्रमें प्रकट होकर मैंने उन दोनोंको प्रत्यक्ष गुच्छोंसे सजा दे। फिर वर्तमान ऋतु सुलभ होनेवाले दर्शन दिया। उस समय उन्होंने मुझसे कहा- फूलोंसे और षोडशोपचारकी सामग्रियोंसे विधिपूर्वक 'भगवन् ! यदि आप मुझे वर देना चाहते है तो इसी मेरा पूजन करे। पूजामें नियमपूर्वक रहकर मुझसे सम्बन्ध समय आपके समान पुत्र मुझे प्राप्त हो।' बेटा प्रहाद ! रखनेवाले पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग करे। जो चन्दन, उनकी बात सुनकर मैंने उत्तर दिया- 'ब्रहान् ! कपूर, रोली, सामयिक पुष्प तथा तुलसीदल मुझे अर्पण निस्सन्देह मैं आप दोनोंका पुत्र हूँ। किन्तु मैं सम्पूर्ण करता है, वह निश्चय ही मुक्त हो जाता है। समस्त विश्वको सृष्टि करनेवाला साक्षात् परात्पर परमात्मा हैं, कामनाओकी सिद्धिके लिये जगद्गुरु श्रीहरिको सदा सदा रहनेवाला सनातन पुरुष हूँ; अतः गर्भमें नहीं कृष्णागरुका बना हुआ धूप निवेदन करना चाहिये, निवास करूँगा।' तब हारीतने कहा-'अच्छा, ऐसा ही क्योंकि वह उन्हें बहुत ही प्रिय है। एक महान् दीप हो।' तबसे मैं भक्तके कारण उस क्षेत्रमें निवास करता जलाकर रखना चाहिये, जो अज्ञानरूपी अन्धकारका हूँ। मेरे श्रेष्ठ भक्तको चाहिये कि उस तीर्थमें आकर मेरा नाश करनेवाला है। फिर घण्टेकी आवाजके साथ बड़े दर्शन करे। इससे उसकी सारी बाधाओंका मैं निरन्तर रूपमें आरती उतारनी चाहिये। तदनन्तर नैवेद्य निवेदन नाश करता रहता हूँ। जो हारीत और लीलावतीके साथ करे, जिसका मन्त्र इस प्रकार हैमेरे बालरूपका ध्यान करके रात्रिमें मेरा पूजन करता है, नैवेद्यं शर्करां चापि भक्ष्यभोज्यसमन्वितम् । वह नरसे नारायण हो जाता है।
ददामि ते रमाकान्त सर्वपापक्षयं कुरु ॥ बेटा ! मेरे व्रतका दिन आनेपर भक्त पुरुष सबेरे
(१७० । ६२) दन्तधावन करके इन्द्रियोंको काबूमें रखते हुए मेरे सामने लक्ष्मीकान्त ! मैं आपके लिये भक्ष्य-भोज्यसहित व्रतका सङ्कल्प करे-'भगवन् ! आज मैं आपका व्रत नैवेद्य तथा शर्करा निवेदन करता हूँ। आप मेरे सब करूँगा। इसे निर्विघ्रतापूर्वक पूर्ण कराइये।' व्रतमें स्थित पापोंका नाश कीजिये। होकर दुष्ट पुरुषोंसे वार्तालाप आदि नहीं करना चाहिये। तत्पश्चात् भगवानसे इस प्रकार प्रार्थना करेफिर मध्याह्नकालमें नदी आदिके निर्मल जलमें, घरपर, 'नसिंह ! अच्युत ! देवेश्वर ! आपके शुभ जन्मदिनको मैं देवसम्बन्धी कुण्डमें अथवा किसी सुन्दर तालाबके भीतर सब भोगोंका परित्याग करके उपवास करूँगा। वैदिक मन्त्रोंसे नान करे । मिट्टी, गोबर, आँवलेका फल स्वामिन् ! आप इससे प्रसन्न हों तथा मेरे पाप और
और तिल लेकर उनसे सब पापोंकी शान्तिके लिये जन्मके बन्धनको दूर करे।' यों कहकर व्रतका पालन विधिपूर्वक स्नान करे। तत्पश्चात् दो सुन्दर वस्त्र धारण करे। रातमें गीत और वाद्योंकी ध्वनिके साथ जागरण करके सन्ध्या-तर्पण आदि नित्यकर्मका अनुष्ठान करना करना चाहिये। भगवान् नृसिंहकी कथासे सम्बन्ध चाहिये। उसके बाद घर लीपकर उसमें सुन्दर अष्टदल रखनेवाले पौराणिक प्रसङ्गका पाठ भी करना उचित है। कमल बनाये। कमलके ऊपर पञ्चरत्नसहित ताँबेका फिर प्रातःकाल होनेपर नानके अनन्तर पूर्वोक्त विधिसे कलश स्थापित करे। कलशके ऊपर चावलोंसे भरा यत्नपूर्वक मेरी पूजा करे। उसके बाद स्वस्थचित्त होकर हुआ पात्र रखे और पात्रमें अपनी शक्तिके अनुसार मेरे आगे वैष्णव श्राद्ध करे। तदनन्तर इस लोक और सोनेकी लक्ष्मीसहित मेरी प्रतिमा बनवाकर स्थापित करे। परलोक दोनोंपर विजय पानेकी इच्छासे सुपात्र
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अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
ब्राह्मणोंको नीचे लिखी वस्तुओंका दान करना चाहिये। गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, ओढ़ने-बिछौने आदिके सहित चारपाई, सप्तधान्य तथा अन्यान्य वस्तुएँ भी अपनी शक्तिके अनुसार दान करनी चाहिये। शास्त्रोक्त फल पानेकी इच्छा हो तो धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये । अन्तमें ब्राह्मणोंको भोजन कराये और उन्हें उत्तम दक्षिणा दे। धनहीन व्यक्तियोंको भी चाहिये कि वे इस व्रतका अनुष्ठान करें और शक्तिके अनुसार दान दें। मेरे व्रतमें सभी वर्णके मनुष्योंका अधिकार है। मेरी शरणमें आये हुए भक्तोंको विशेषरूपसे इसका अनुष्ठान करना चाहिये। *
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
दीजिये और इस व्रतसे प्रसन्न हो मुझे भोग और मोक्ष प्रदान कीजिये ।
इस प्रकार प्रार्थना करके विधिपूर्वक देवताका विसर्जन करे। उपहार आदिकी सभी वस्तुएँ आचार्यको निवेदन करे। ब्राह्मणोंको दक्षिणासे सन्तुष्ट करके विदा करे। फिर भगवान्का चिन्तन करते हुए भाई-बन्धुओंके साथ भोजन करे। जिसके पास कुछ भी नहीं है, ऐसा दरिद्र मनुष्य भी यदि नियमपूर्वक नृसिंहचतुर्दशीको उपवास करता है तो वह निःसन्देह सात जन्मके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो भक्तिपूर्वक इस पापनाशक व्रतका श्रवण करता है, उसकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। जो मानव इस परम पवित्र एवं गोपनीय व्रतका कीर्तन करता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंके साथ ही इस व्रतके फलको भी पा लेता है। जो मध्याह्नकालमें यथाशक्ति इस व्रतका अनुष्ठान करता और लीलावती देवीके साथ हारीत मुनि एवं भगवान् नृसिंहका पूजन करता है, उसे सनातन मोक्षकी प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, वह श्रीनृसिंहके प्रसादसे सदा मनोवाञ्छित वस्तुओंको प्राप्त करता रहता है।
उस तीर्थमें परम पुण्यमयी सिन्धु नदी बहुत ही रमणीय है। उसके समीप मूलस्थान नामक नगर आज भी वर्तमान है। उस नगरका निर्माण देवताओंने किया था। वहीं महात्मा हारीतका निवासस्थान है और उसीमें लीलावती देवी भी रहती हैं। सिन्धु नदीके निकट होनेसे वहाँ निरन्तर जलके प्रबल वेगकी प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है। कलियुग आनेपर वहाँ बहुत-से पापाचारी म्लेच्छ निवास करने लगते हैं। पार्वती भगवान् नृसिंहके प्रादुर्भाव -कालमें जैसा अद्भुत शब्द हुआ था, उसीके समान प्रतिध्वनि वहाँ आज भी सुनायी देती है। ब्रह्महत्यारा, सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी और गुरुपलीके साथ समागम करनेवाला ही क्यों न हो, जो मनुष्य सिन्धु नदीके तटपर जाकर विशेषरूपसे स्नान करता है, वह निश्चय ही श्रीनृसिंहके प्रसादसे मुक्त हो जाता है। जो
श्रीमहादेवजी बोले- हे पार्वती! इसके बाद व्रत करनेवाले पुरुषको इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये। विशाल रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह ! करोड़ों कालोंके लिये भी आपको परास्त करना कठिन है। बालरूपधारी प्रभो! आपको नमस्कार है। बाल अवस्था तथा बालकरूप धारण करनेवाले श्रीनृसिंह भगवान्को नमस्कार है। जो सर्वत्र व्यापक, सबको आनन्दित करनेवाले, स्वतः प्रकट होनेवाले, सर्वजीव स्वरूप, विश्वके स्वामी, देवस्वरूप और सूर्यमण्डलमें स्थित रहनेवाले हैं, उन भगवान्को प्रणाम है। दयासिन्धो! आपको नमस्कार है। आप तेईस तत्त्वोंके साक्षी चौबीसवें तत्त्वरूप हैं। काल, रुद्र और अग्नि आपके ही स्वरूप हैं। यह जगत् भी आपसे भिन्न नहीं है। नर और सिंहका रूप धारण करनेवाले आप भगवान्को नमस्कार है ।
देवेश ! मेरे वंशमें जो मनुष्य उत्पन्न हो चुके हैं और जो उत्पन्न होनेवाले हैं, उन सबका दुःखदायी भवसागरसे उद्धार कीजिये। जगत्पते। मैं पातकके समुद्रमें डूबा हूँ। नाना प्रकारको व्याधियाँ ही इस समुद्रकी जल राशि हैं। इसमें रहनेवाले जीव मेरा तिरस्कार करते हैं। इस कारण मैं महान् दुःखमें पड़ गया हूँ। शेषशायी देवेश्वर! मुझे अपने हाथोंका सहारा
* सर्वेषामेव वर्णानामधिकारोऽस्ति मद्रते । मद्भक्तैस्तु विशेषेण कर्तव्यं मत्परायणैः ॥ (१७० | ७३)
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उत्तरखण्ड ]
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श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहाल्य
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मानव वहाँ दस रात निवास करते हैं, उन्हें पुण्यात्मा जानना चाहिये। जो वहाँ मांस खाते और शराब पीते हैं, वे अधर्मके मूर्तिमान् स्वरूप और महापापी हैं। भगवान्
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* श्रीपार्वतीने कहा-भगवन्! आप सब तत्त्वोंके ज्ञाता हैं। आपकी कृपासे मुझे श्रीविष्णु-सम्बन्धी नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले, जो समस्त लोकका उद्धार करनेवाले हैं। देवेश ! अब मैं गीताका माहात्म्य सुनना चाहती हूँ। जिसका श्रवण करनेसे श्रीहरिमें भक्ति बढ़ती है। श्रीमहादेवजी बोले- जिनका श्रीविग्रह अलसीके फूलकी भाँति श्यामवर्णका है, पक्षिराज गरुड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमासे कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं, उन भगवान् महाविष्णुकी हम उपासना करते हैं। एक समयकी बात है, मुर दैत्यके नाशक भगवान् विष्णु शेषनागके रमणीय आसनपर सुखपूर्वक विराजमान थे।
★श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
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नृसिंहके नामसे प्रसिद्ध एक ही तीर्थ है, जो बहुत ही उत्तम और विस्तृत है। उसका श्रवण करनेमात्रसे मनुष्य तत्काल पापमुक्त हो जाता है।
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उस समय समस्त लोकोंको आनन्द देनेवाली भगवती लक्ष्मीने आदरपूर्वक प्रश्न किया।
श्रीलक्ष्मीने पूछा— भगवन्! आप सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्यके प्रति उदासीनसे होकर जो इस क्षीरसागरमें नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है ?
श्रीभगवान् बोले- सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्वका अनुसरण करनेवाली अन्तर्दृष्टिके द्वारा अपने ही माहेश्वर तेजका साक्षात्कार कर रहा हूँ। देवि ! यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धिके द्वारा अपने अन्तःकरणमें दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान् वेदोंका सार तत्त्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप रोग-शोकसे रहित, अखण्ड आनन्दका पुञ्ज, निष्पन्द (निरीह) तथा द्वैतरहित है। इस जगत्का जीवन उसीके अधीन है। मैं उसीका अनुभव करता हूँ। देवेश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता-सा प्रतीत हो रहा हूँ।
श्रीलक्ष्मीने कहा - हृषीकेश! आप ही योगी पुरुषोंके ध्येय हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करनेयोग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। इस चराचर जगत्की सृष्टि और संहार करनेवाले स्वयं आप ही हैं। आप सर्वसमर्थ हैं। इस प्रकारकी स्थितिमें होकर भी यदि आप उस परम तत्त्वसे भिन्न हैं, तो मुझे उसका बोध कराइये।
श्रीभगवान् बोले – प्रिये! आत्माका स्वरूप द्वैत और अद्वैतसे पृथक्, भाव और अभावसे मुक्त तथा आदि और अन्तसे रहित है। शुद्ध ज्ञानके प्रकाशसे उपलब्ध होनेवाला तथा परमानन्दस्वरूप होनेके कारण एकमात्र सुन्दर है। यही मेरा ईश्वरीय रूप है। आत्माका
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
एकत्व ही सबके द्वारा जाननेयोग्य है। गीताशास्त्रमें वाटिकामें घूम रहा था। इसी बीच में कालरूपधारी काले इसीका प्रतिपादन हुआ है।
म साँपने उसे डंस लिया। सुशर्माकी मृत्यु हो गयी। __ अमिततेजस्वी भगवान् विष्णुके ये वचन सुनकर तदनन्तर वह अनेक नरकोंमें जा वहाँकी यातनाएँ लक्ष्मीदेवीने शङ्का उपस्थित करते हुए कहा- भोगकर मर्त्यलोकमें लौट आया और यहाँ बोझ 'भगवन् ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानन्दमय और ढोनेवाला बैल हुआ। उस समय किसी पङ्गने अपने मन-वाणीको पहुँचके बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध जीवनको आरामसे व्यतीत करनेके लिये उसे खरीद कराती है? मेरे इस सन्देहका आप निवारण कीजिये। लिया। बैलने अपनी पीठपर पङ्गका भार ढोते हुए बड़े
श्रीभगवान् बोले-सुन्दरि ! सुनो, मैं गोतामें कष्टसे सात-आठ वर्ष बिताये। एक दिन पङ्गने किसी अपनी स्थितिका वर्णन करता हूँ। क्रमशः पाँच ऊँचे स्थानपर बहुत देरतक बड़ी तेजीके साथ उस अध्यायोंको तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायोंको दस बैलको घुमाया। इससे वह थककर बड़े वेगसे पृथ्वीपर भुजाएँ समझो तथा एक अध्यायको उदर और दो गिरा और मूर्छित हो गया। उस समय वहाँ कुतूहलवश अध्यायोंको दोनों चरणकमल जानो। इस प्रकार यह आकृष्ट हो बहुत-से लोग एकत्रित हो गये। उस अठारह अध्यायोंकी वाङ्गयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी जनसमुदायमेंसे किसी पुण्यात्मा व्यक्तिने उस बैलका चाहिये।* यह ज्ञानमात्रसे ही महान् पातकोंका नाश कल्याण करनेके लिये उसे अपना पुण्य दान किया। करनेवाली है। जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष गौताके एक तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगोंने भी अपने-अपने पुण्योंको या आधे अध्यायका अथवा एक, आधे या चौथाई याद करके उन्हें उसके लिये दान किया। उस भीड़में श्लोकका भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुशर्माके एक वेश्या भी खड़ी थी। उसे अपने पुण्यका पता नहीं समान मुक्त हो जाता है।
था, तो भी उसने लोगोंकी देखा-देखी उस बैलके लिये श्रीलक्ष्मीजीने पूछा-देव ! सुशर्मा कौन कुछ त्याग किया। था? किस जातिका था? और किस कारणसे उसकी तदनन्तर यमराजके दूत उस मरे हुए प्राणीको पहले मुक्ति हुई?
___ यमपुरी ले गये। वहाँ यह विचारकर कि यह वेश्याके श्रीभगवान् बोले-प्रिये ! सुशर्मा बड़ी खोटी दिये हुए पुण्यसे पुण्यवान् हो गया है, उसे छोड़ दिया बुद्धिका मनुष्य था। पापियोंका तो वह शिरोमणि ही था। गया। फिर वह भूलोकमें आकर उत्तम कुल और उसका जन्म वैदिक ज्ञानसे शून्य एवं क्रूरतापूर्ण कर्म शीलवाले ब्राह्मणोंके घरमें उत्पन्न हुआ। उस समय भी करनेवाले ब्राह्मणोंके कुलमें हुआ था। वह न ध्यान उसे अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण बना रहा। बहुत करता था न जप; न होम करता था न अतिथियोंका दिनोंके बाद अपने अज्ञानको दूर करनेवाले कल्याणसत्कार। वह लम्पट होनेके कारण सदा विषयोंके तत्वका जिज्ञासु होकर वह उस वेश्याके पास गया और सेवनमें ही आसक्त रहता था। हल जोतता और पत्ते उसके दानकी बात बतलाते हुए उसने पूछा-'तुमने बेंचकर जीविका चलाता था। उसे मदिरा पीनेका व्यसन कौन-सा पुण्य दान किया था ?' वेश्याने उत्तर दियाथा तथा वह मांस भी खाया करता था। इस प्रकार उसने 'वह पिंजरेमें बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है। अपने जीवनका दीर्घकाल व्यतीत कर दिया। एक दिन उससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो गया है। उसीका पुण्य मूढबुद्धि सुशर्मा पत्ते लानेके लिये किसी ऋषिकी मैने तुम्हारे लिये दान किया था। इसके बाद उन दोनोंने
•णु सुश्रोणि वक्ष्यामि गोतासु स्थितिमात्मनः । वक्वाणि पञ्च जानीहि पञ्चाध्यायाननुक्रमात् ॥
दशाध्यायान्भुजाश्चैकमुदर दौ पदाम्बुजे । एवमष्टादशाध्यायी वाङ्गयी मूर्तिरवरी ॥ (१७१ । २७-२८)
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उत्तरखण्ड]
. श्रीमद्भगवदीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य .
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तोतेसे पूछा। तब उस तोतेने अपने पूर्वजन्मका स्मरण इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीताके प्रथम करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया।
शुक बोला-पूर्वजन्ममें मैं विद्वान् होकर भी विद्वत्ताके अभिमानसे मोहित रहता था। मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान् विद्वानोंके प्रति भी ईर्ष्या-भाव रखने लगा। फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकोंमें भटकता फिरा। उसके बाद इस लोकमें आया। सद्गुरुकी अत्यन्त निन्दा करनेके कारण तोतेके कुलमें मेरा जन्म हुआ । पापी होनेके कारण छोटी अवस्थामे ही मेरा माता-पितासे वियोग हो गया। एक दिन मैं ग्रीष्म ऋतुमें तपे हुए मार्गपर पड़ा था। वहाँसे कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओंके आश्रयमें आश्रमके भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया। वहीं मुझे पढ़ाया गया। ऋषियोंके बालक बड़े आदरके साथ गीताके प्रथम अध्यायकी आवृत्ति करते थे। उन्हींसे सुनकर मैं भी बारम्बार पाठ करने लगा। इसी बीचमें एक चोरी करनेवाले बहेलियेने मुझे वहाँसे चुरा : लिया। तत्पश्चात् इस देवीने मुझे खरीद लिया। यही मेरा अध्यायके माहात्म्यको प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर वृत्तान्त है, जिसे मैंने आपलोगोंसे बता दिया । पूर्वकालमें अपने-अपने घरपर गौताका अभ्यास करने लगे। फिर मैंने इस प्रथम अध्यायका अभ्यास किया था, जिससे मैंने ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये। इसलिये जो अपने पापको दूर किया है। फिर उसीसे इस वेश्याका भी गीताके प्रथम अध्यायको पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसीके पुण्यसे ये द्विजश्रेष्ठ करता है, उसे इस भवसागरको पार करनेमें कोई कठिनाई सुशर्मा भी पापमुक्त हुए हैं।
नहीं होती।
__ श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
श्रीभगवान् कहते हैं-लक्ष्मी! प्रथम उन धर्मात्मा ब्राह्मणको कभी सदा रहनेवाली शान्ति न अध्यायके माहात्म्यका उत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना मिली। वे परम कल्याणमय तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करनेकी दिया। अव अन्य अध्यायोंके माहात्म्य श्रवण करो। इच्छासे प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियोंके द्वारा सत्यदक्षिण-दिशामें वेदवेत्ता ब्राह्मणोंके पुरन्दरपुर नामक सङ्कल्पवाले तपस्वियोंकी सेवा करने लगे। इस प्रकार नगरमें श्रीमान् देवशर्मा नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहते शुभ आचरण करते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया। थे। वे अतिथियोंके पूजक, स्वाध्यायशील, वेद-शास्त्रोके तदनन्तर एक दिन पृथ्वीपर उनके समक्ष एक त्यागी विशेषज्ञ, यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले और तपस्वियोंके महात्मा प्रकट हुए। वे पूर्ण अनुभवी, आकाङ्क्षारहित, सदा ही प्रिय थे। उन्होंने उत्तम द्रव्योंके द्वारा अग्निमें नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि रखनेवाले तथा शान्तचित्त हवन करके दीर्घकालतक देवताओंको तृप्त किया, किन्तु थे। निरन्तर परमात्माके चिन्तनमें संलग्न हो वे सदा
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पयपुराण
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आनन्दविभोर रहते थे। देवशर्माने उन नित्यसन्तुष्ट तो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया। उसे तपस्वीको शुद्धभावसे प्रणाम किया और पूछा- इस अवस्थामें देखकर बकरी बोली-'व्याघ्र ! तुम्हें तो 'महात्मन् ! मुझे शान्तिमयी स्थिति कैसे प्राप्त होगी?' अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है। मेरे शरीरसे मांस तब उन आत्मज्ञानी संतने देवशर्माको सौपुर प्रामके निकालकर प्रेमपूर्वक खाओ न । तुम इतनी देरसे खड़े निवासी मित्रवान्का, जो बकरियोंका चरवाहा था, क्यों हो? तुम्हारे मनमें मुझे खानेका विचार क्यों नहीं हो परिचय दिया और कहा 'वही तुम्हें उपदेश देगा। रहा है?'
यह सुनकर देवशर्माने महात्माके चरणोंकी वन्दना व्याघ्र बोला-बकरी ! इस स्थानपर आते ही की और समृद्धिशाली सौपुर ग्राममें पहुंचकर उसके मेरे मनसे द्वेषका भाव निकल गया। भूख-प्यास भी उत्तरभागमें एक विशाल वन देखा। उसी वनमें नदीके मिट गयी। इसलिये पास आनेपर भी अब मैं तुझे खाना किनारे एक शिलापर मित्रवान् बैठा था। उसके नेत्र नहीं चाहता। आनन्दातिरेकसे निश्चल हो रहे थे-वह अपलक दृष्टिसे व्याघ्रके यों कहनेपर बकरी बोली-'न जाने मैं देख रहा था। वह स्थान आपसका स्वाभाविक वैर कैसे निर्भय हो गयी हूँ। इसमें क्या कारण हो सकता छोड़कर एकत्रित हुए परस्पर-विरोधी जन्तुओंसे घिरा है? यदि तुम जानते हो तो बताओ।' यह सुनकर था। वहाँ उद्यानमें मन्द-मन्द वायु चल रही थी। मृगोंके व्याघने कहा- मैं भी नहीं जानता। चलो, सामने खड़े झुंड शान्तभावसे बैठे थे और मित्रवान् दयासे भरी हुई हुए इन महापुरुषसे पूछे।' ऐसा निश्चय करके वे दोनों आनन्दमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वीपर मानो अमृत वहाँसे चल दिये। उन दोनोंके स्वभावमें यह विचित्र छिड़क रहा था। इस रूपमें उसे देखकर देवशर्माका मन परिवर्तन देखकर मैं बहुत विस्मयमें पड़ा था। इतनेमें ही प्रसन्न हो गया। वे उत्सुक होकर बड़ी विनयके साथ उन्होंने मुझीसे आकर प्रश्न किया। वहाँ वृक्षकी शाखापर मित्रवान्के पास गये। मित्रवान्ने भी अपने मस्तकको एक वानरराज था। उन दोनोंके साथ मैंने भी वानरराजसे किञ्चित् नवाकर देवशर्माका सत्कार किया। तदनन्तर पूछा । विप्रवर ! मेरे पूछनेपर वानरराजने आदरपूर्वक विद्वान् देवशर्मा अनन्य चित्तसे मित्रवान्के समीप गये कहा-'अजापाल ! सुनो, इस विषयमें मैं तुम्हें प्राचीन
और जब उसके ध्यानका समय समाप्त हो गया, उस वृत्तान्त सुनाता हूँ। यह सामने वनके भीतर जो बहुत समय उन्होंने अपने मनकी बात पूछी-'महाभाग ! मैं बड़ा मन्दिर है, उसकी ओर देखो। इसमें ब्रह्माजीका आत्माका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। मेरे इस मनोरथकी स्थापित किया हुआ एक शिवलिङ्ग है। पूर्वकालमें यहाँ पूर्तिके लिये मुझे किसी ऐसे उपायका उपदेश कीजिये, सुकर्मा नामक एक बुद्धिमान् महात्मा रहते थे, जो जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो।'
तपस्याम संलग्न होकर इस मन्दिरमें उपासना करते थे। देवशर्माकी बात सुनकर मित्रवान्ने एक क्षणतक वे वनमेंसे फूलोंका संग्रह कर लाते और नदीके जलसे कुछ विचार किया। उसके बाद इस प्रकार कहा- पूजनीय भगवान् शङ्करको स्नान कराकर उन्हींसे उनकी 'विद्वन् ! एक समयको बात है, मैं वनके भीतर पूजा किया करते थे। इस प्रकार आराधनाका कार्य करते बकरियोंकी रक्षा कर रहा था। इतनेमे ही एक भयङ्कर हुए सुकर्मा यहाँ निवास करते थे। बहुत समयके बाद व्याघ्रपर, मेरी दृष्टि पड़ी, जो मानो सबको ग्रस लेना, उनके समीप किसी अतिथिका आगमन हुआ। सुकर्माने चाहता था। मैं मृत्युसे डरता था, इसलिये व्याघ्रको आते भोजनके लिये फल लाकर अतिथिको अर्पण किया और देख बकरियोंके झंडको आगे करके वहाँसे भाग चला; कहा---'विद्वन् ! मैं केवल तत्त्वज्ञानकी इच्छासे भगवान् किन्तु एक बकरी तुरंत ही सारा भय छोड़कर नदीके शङ्करकी आराधना करता हूँ। आज इस आराधनाका किनारे उस व्याघ्रके पास बेरोक-टोक चली मयी। फिर फल परिपक्क होकर मुझे मिल गया; क्योंकि इस समय
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.८१७
क
उत्तरखण्ड ]
.श्रीमद्भगवदीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य . .................................................................. .. ................. आप-जैसे महापुरुषने मुझपर अनुग्रह किया है। अभ्यास करने लगे। तदनन्तर दीर्घकालके पचात्
सुकर्माके ये मधुर वचन सुनकर तपस्याके धनी अन्तःकरण शुद्ध होकर उन्हें आत्मज्ञानकी प्राप्ति हुई। महात्मा अतिथिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक फिर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँका तपोवन शान्त हो शिलाखण्डपर गीताका दूसरा अध्याय लिख दिया और गया। उनमें शीत-उष्ण और राग-द्वेष आदिकी बाधाएँ ब्राह्मणको उसके पाठ एवं अभ्यासके लिये आज्ञा देते दूर हो गयीं। इतना ही नहीं, उन स्थानोंमें भूख-प्यासका हुए कहा-'ब्रह्मन् ! इससे तुम्हारा आत्मशान-सम्बन्धी कष्ट भी जाता रहा तथा भयका सर्वथा अभाव हो गया।
REA यह सब द्वितीय अध्यायका जप करनेवाले सुकर्मा
ब्राह्मणकी तपस्याका ही प्रभाव समझो।
मित्रवान् कहता है-वानरराजके यों कहनेपर मैं प्रसन्नतापूर्वक बकरी और व्याघ्रके साथ उस मन्दिरकी
ओर गया। वहाँ जाकर शिलाखण्डपर लिखे हुए गीताके द्वितीय अध्यायको मैंने देखा और पढ़ा । उसीकी आवृत्ति करनेसे मैंने तपस्याका पार पा लिया है, अतः भद्रपुरुष ! तुम भी सदा द्वितीय अध्यायकी ही आवृत्ति किया करो। ऐसा करनेपर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।
श्रीभगवान् कहते हैं-प्रिये ! मित्रवान्के इस प्रकार आदेश देनेपर देवशनि उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरन्दरपुरकी राह ली। वहाँ किसी देवालयमें पूर्वोक्त आत्मज्ञानी महात्माको पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तान्त निवेदन किया और सबसे पहले उन्हींसे द्वितीय अध्यायको पढ़ा। उनसे उपदेश पाकर शुद्ध
अन्त:करणवाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धाके साथ मनोरथ अपने-आप सफल हो जायगा।' यों कहकर वे द्वितीय अध्यायका पाठ करने लगे। तबसे उन्होंने बुद्धिमान् तपस्वी सुकमकि सामने ही उनके देखते-देखते अनवद्य (प्रशंसाके योग्य) परमपदको प्राप्त कर लिया। अन्तर्धान हो गये। सुकर्मा विस्मित होकर उनके लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्यायका उपाख्यान कहा गया। आदेशके अनुसार निरन्तर गीताके द्वितीय अध्यायका अब तृतीय अध्यायका माहात्म्य बतलाऊँगा।
SONU
श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्य
श्रीभगवान् कहते है-प्रिये ! जनस्थानमें एक करता था। इसी प्रकार उसका समय बीतता था। धन जड नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक-वंशमे उत्पन्न हुआ नष्ट हो जानेपर वह व्यापारके लिये बहुत दूर उत्तर था। उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनियेकी वृत्तिमें दिशामें चला गया। वहाँसे धन कमाकर घरकी ओर मन लगाया। उसे परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार लौटा। बहुत दूरतकका रास्ता उसने तै कर लिया था। करनेका व्यसन पड़ गया था। वह सदा जूआ खेलता, एक दिन सूर्यास्त हो जानेपर जब दसों दिशाओंमें शराब पीता और शिकार खेलकर जीवोंकी हिंसा किया अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्षके नीचे उसे लुटेरोंने
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• अयस्व बीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लिये। पाठसे ही सिद्ध हो गया है। पिताके यों कहनेपर पुत्रने उसके धर्मका लोप हो गया था, इसलिये वह बड़ा पूछा-'तात ! मेरे हितका उपदेश दीजिये तथा और भयानक प्रेत हुआ।
उसका पुत्र बड़ा धर्मात्मा और वेदोंका विद्वान् था। उसने अबतक पिताके लौट आनेकी राह देखी। जब वे | नहीं आये, तब उनका पता लगानेके लिये वह स्वयं भी घर छोड़कर चल दिया। वह प्रतिदिन खोज करता, मगर राहगीरोसे पूछनेपर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था । तदनन्तर एक दिन एक मनुष्यसे उसकी भेंट हुई, जो उसके पिताका सहायक था। उससे सारा हाल जानकर उसने पिताकी मृत्युपर बहुत शोक किया। वह बड़ा बुद्धिमान् था। बहुत कुछ सोच-विचार कर पिताका पारलौकिक कर्म करनेकी इच्छासे आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जानेका विचार किया। मार्गमें सात-आठ मुकाम डालकर वह नवें दिन उसी वृक्षके नीचे पहुंचा, जहाँ उसके पिता मारे गये थे। उस स्थानपर उसने सन्ध्योपासना की और गीताके तीसरे अध्यायका पाठ किया। इसी समय आकाशमें बड़ी भयानक आवाज हुई। उसने अपने पिताको भयंकर आकारमें देखा; फिर कोई कार्य जो मेरे लिये करनेयोग्य हो बतलाइये। तब तुरंत ही अपने सामने आकाशमें उसे एक सुन्दर विमान पिताने उससे कहा-'अनघ ! तुम्हें यही कार्य फिर दिखायी दिया, जो महान् तेजसे व्याप्त था। उसमें अनेकों करना है। मैंने जो कर्म किया है, वही मेरे भाईने भी क्षुद्र घण्टिकाएँ लगी थीं। उसके तेजसे समस्त दिशाएँ किया था। इससे वे घोर नरकमें पड़े हैं। उनका भी तुम्हें आलोकित हो रही थीं। यह दृश्य देखकर उसके चित्तको उद्धार करना चाहिये तथा मेरे कुलके और भी जितने व्यग्रता दूर हो गयी। उसने विमानपर अपने पिताको लोग नरकमें पड़े हैं, उन सबका भी तुम्हारे द्वारा उद्धार दिव्यरूप धारण किये विराजमान देखा। उनके शरीरपर हो जाना चाहिये; यही मेरा मनोरथ है। बेटा । जिस पीताम्बर शोभा पा रहा था और मुनिजन उनकी स्तुति कर साधनके द्वारा तुमने मुझे संकटसे छुड़ाया है। उसीका रहे थे। उन्हें देखते ही पुत्रने प्रणाम किया। तब पिताने भी अनुष्ठान औरोंके लिये भी करना उचित है। उसका उसे आशीर्वाद दिया। प्रार
अ नुष्ठान करके उससे होनेवाला पुण्य उन नारकी तत्पश्चात् उसने पितासे यह सारा वृत्तान्त पूछा। जीवोंको सङ्कल्प करके दे दो। इससे वे समस्त पूर्वज उसके उत्तरमें पिताने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना मेरी ही तरह यातनासे मुक्त हो स्वल्पकालमें ही श्रीविष्णुके आरम्भ किया-'बेटा ! दैववश मेरे निकट गीताके परमपदको प्राप्त हो जायेंगे।' तृतीय अध्यायका पाठ करके तुमने इस शरीरके द्वारा पिताका यह सन्देश सुनकर पुत्रने कहा-'तात ! किये हुए दुस्त्यज कर्म-बन्धनसे मुझे छुड़ा दिया। अतः यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी ही रुचि है तो अव घर लौट जाओ; क्योंकि जिसके लिये तुम काशी मैं समस्त नारकी जीवोंका नरकसे उद्धार कर दूंगा।' यह जा रहे थे, वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्यायके सुनकर उसके पिता बोले-'बेटा ! एवमस्तु, तुम्हारा
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्धगवद्रीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य .
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कल्याण हो; मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो गया !' आज्ञा देते हैं कि 'आप नरकमें पड़े हुए समस्त इस प्रकार पुत्रको आश्वासन देकर उसके पिता भगवान् प्राणियोंको छोड़ दें।' विष्णुके परमधामको चले गये। तत्पश्चात् वह भी अमिततेजस्वी भगवान् विष्णुका यह आदेश सुनकर लौटकर जनस्थानमें आया और परम सुन्दर भगवान् यमने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन-हीश्रीकृष्णके मन्दिरमें उनके समक्ष बैठकर पिताके मन कुछ सोचा। तत्पश्चात् मदोन्मत्त नारकी जीवोंको आदेशानुसार गीताके तीसरे अध्यायका पाठ करने नरकसे मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान् विष्णुके लगा। उसने नारकी जीवोंका उद्धार करनेकी इच्छासे वास-स्थानको चले। यमराज श्रेष्ठ विमानके द्वारा जहाँ गीतापाठजनित सारा पुण्य सङ्कल्प करके दे दिया। क्षीरसागर है, वहाँ जा पहुँचे। उसके भीतर कोटि-कोटि
इसी बीचमें भगवान् विष्णुके दूत यातना भोगने- सूर्योके समान कात्तिमान् नील कमल-दलके समान वाले नारकी जीवोंको छुड़ानेके लिये यमराजके पास श्यामसुन्दर लोकनाथ जगद्गुरु श्रीहरिका उन्होंने दर्शन गये। यमराजने नाना प्रकारके सत्कारोंसे उनका पूजन किया। भगवान्का तेज उनकी शय्या बने हुए शेषनागके किया और कुशल पूछी। वे बोले-'धर्मराज ! फनोंको मणियोंके प्रकाशसे दुगुना हो रहा था। वे हमलोगोंके लिये सब ओर आनन्द-ही-आनन्द है। इस आनन्दयुक्त दिखायी दे रहे थे। उनका हृदय प्रसन्नतासे प्रकार सत्कार करके पितृलोकके सम्राट् परम बुद्धिमान् परिपूर्ण था। भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवनसे यमने विष्णुदूतोंसे यमलोकमें आनेका कारण पूछा। प्रेमपूर्वक उन्हें बारम्बार निहार रही थीं। चारों ओर
तब विष्णुदूतोंने कहा-यमराज ! शेषशय्यापर योगीजन भगवानकी सेवामें खड़े थे। उन योगियोंकी शयन करनेवाले भगवान् विष्णुने हमलोगोंको आपके आँखोंके तारे ध्यानस्थ होनेके कारण निश्चल प्रतीत होते पास कुछ सन्देश देनेके लिये भेजा है। भगवान् थे। देवराज इन्द्र अपने विरोधियोको परास्त करनेके हमलोगोंके मुखसे आपकी कुशल पूछते हैं और यह उद्देश्यसे भगवानकी स्तुति कर रहे थे। ब्रह्माजीके मुखसे
निकले हुए वेदान्त-वाक्य मूर्तिमान् होकर भगवान्के गुणोंका गान कर रहे थे। भगवान् पूर्णतः सन्तुष्ट होनेके साथ ही समस्त योनियोंकी ओरसे उदासीन प्रतीत होते थे। जीवोंमेंसे जिन्होंने योग-साधनके द्वारा अधिक पुण्य सञ्चय किया था, उन सबको एक ही साथ वे कृपादृष्टि से निहार रहे थे। भगवान् अपने स्वरूपभूत अखिल चराचर जगत्को आनन्दपूर्ण दृष्टि से आमोदित कर रहे थे। शेषनागकी प्रभासे उदासित एवं सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किये नील कमलके सदृश श्यामवर्णवाले श्रीहरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चाँदनीसे घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो। इस प्रकार भगवान्की झांकी करके यमराज अपनी विशाल बुद्धिके द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।
यमराज बोले-सम्पूर्ण जगत्का निर्माण करनेवाले परमेश्वर ! आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल
है। आपके मुखसे ही वेदोका प्रादुर्भाव हुआ है। आप संप पु० २७
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं। आपको असीम हैं। फिर आप वाणीके विषय कैसे हो सकते हैं। नमस्कार है। अपने बल और वेगके कारण जो अत्यन्त अतः मेरा मौन रहना ही उचित है। दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेन्द्रोंका अभिमान चूर्ण - इस प्रकार स्तुति करके यमराजने हाथ जोड़कर करनेवाले भगवान् विष्णुको नमस्कार है। पालनके समय कहा-'जगद्गुरो ! आपके आदेशसे इन जीवोंको सत्त्वमय शरीर धारण करनेवाले, विश्वके आधारभूत, गुणरहित होनेपर भी मैने छोड़ दिया है। अव मेरे योग्य सर्वव्यापी श्रीहरिको नमस्कार है। समस्त देहधारियोंकी और जो कार्य हो, उसे बताइये।' उनके यों कहनेपर पातक-राशिको दूर करनेवाले परमात्माको प्रणाम है। भगवान् मधुसूदन मेघके समान गम्भीर वाणीद्वारा जिनके ललाटवर्ती नेत्रके तनिक-सा खुलनेपर भी मानो अमृत-रससे सींचते हुए बोले-'धर्मराज ! तुम आगकी लपटें निकलने लगती हैं, उन रुद्ररूपधारी आप सबके प्रति समान भाव रखते हुए लोकोंका पापसे परमेश्वरको नमस्कार है। आप सम्पूर्ण विश्वके गुरु, उद्धार कर रहे हो। तुमपर देहधारियोंका भार रखकर मैं आत्मा और महेश्वर हैं; अतः समस्त वैष्णवजनोंको निश्चिन्त हूँ। अतः तुम अपना काम करो और अपने सङ्कटसे मुक्त करके उनपर अनुग्रह करते हैं। आप लोकको लौट जाओ।' मायासे विस्तारको प्राप्त हुए अखिल विश्वमें व्याप्त होकर यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। यमराज भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले गुणोंसे भी अपनी पुरीको लौट आये। तथा वह ब्राह्मण अपनी मोहित नहीं होते। माया तथा मायाजनित गुणोंके बीचमें जातिके और समस्त नारकी जीवोका नरकसे उद्धार स्थित होनेपर भी आपपर उनमेंसे किसीका प्रभाव नहीं करके स्वयं भी श्रेष्ठ विमानद्वारा श्रीविष्णुधामको पड़ता। आपकी महिमाका अन्त नहीं है; क्योंकि आप चला गया।
या
श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
_ श्रीभगवान् कहते है-प्रिये ! अब मैं चौथे दिनोंके भीतर सूख गये। उनमें पत्ते और डालियाँ भी अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। भागीरथीके नहीं रह गयीं। तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणोंके तटपर वाराणसी (बनारस) नामकी एक पुरी है। वहाँ पवित्र गृहमें दो कन्याओंके रूपमें उत्पन्न हुए। विश्वनाथजीके मन्दिरमें भरत नामके एक योगनिष्ठ वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्षकी हो गयीं, महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्मचिन्तनमें तत्पर हो तब एक दिन उन्होंने दूर देशोंसे घूमकर आते हुए आदरपूर्वक गीताके चतुर्थ अध्यायका पाठ किया करते भरतमुनिको देखा । उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणोंमें थे। उसके अभ्याससे उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया पड़ गयीं और मीठी वाणीमें बोलीं-'मुने ! आपकी ही था। वे शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे कभी व्यथित नहीं होते कृपासे हम दोनोंका उद्धार हुआ है। हमने बेरकी योनि थे। एक समयकी बात है, वे तपोधन नगरको सीमामें त्यागकर मानव-शरीर प्राप्त किया है। उनके इस प्रकार स्थित देवताओंका दर्शन करनेकी इच्छासे भ्रमण करते कहनेपर मुनिको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने पूछाहुए नगरसे बाहर निकल गये। वहाँ बेरके दो वृक्ष थे। 'पुत्रियो ! मैने कब और किस साधनसे तुम्हें मुक्त किया उन्हींकी जड़में वे विश्राम करने लगे। एक वृक्षकी जड़में था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेरके वृक्ष उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्षके मूलमें होनेमें क्या कारण था? क्योंकि इस विषयमें मुझे कुछ उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद जब वे भी ज्ञात नहीं है।' तपस्वी चले गये, तब बेरके वे दोनों वृक्ष पाँच-ही-छ: तब वे कन्याएँ पहले उन्हें अपने बेर हो जानेका
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उत्तरखण्ड]
• श्रीमद्भगवद्रीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य •
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कारण बतलाती हुई बोली-"मुने ! गोदावरी नदीके अप्सराओसहित मधुर स्वरमे गाना आरम्भ किया। इतना तटपर छित्रपाप नामका एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्योंको ही नहीं, उन योगी महात्माको वशमें करनेके लिये पुण्य प्रदान करनेवाला है। वह पावनताकी चरम हमलोग स्वर, ताल और लयके साथ नृत्य भी करने सीमापर पहुंचा हुआ है। उस तीर्थमें सत्यतपा नामक लगीं। बीच-बीचमें जरा-जरा-सा अंचल खिसकनेपर एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। वे ग्रीष्म उन्हें हमारी छाती भी दीख जाती थी। हम दोनोंकी उन्मत्त ऋतुमें प्रज्वलित अग्नियोंके बीचमें बैठते थे, वर्षाकालमें गति कामभावका उद्दीपन करनेवाली थी; किन्तु उसने जलकी धाराओंसे उनके मस्तकके बाल सदा भीगे ही उन निर्विकार चित्तवाले महात्माके मनमें क्रोधका सञ्चार रहते थे तथा जाड़े के समय जलमें निवास करनेके कारण कर दिया। तब उन्होंने हाथसे जल छोड़कर हमें उनके शरीरमें हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर- क्रोधपूर्वक शाप दिया-'अरी ! तुम दोनों गङ्गाजीके भीतरसे सदा शुद्ध रहते, समयपर तपस्या करते तथा मन तटपर बेरके वृक्ष हो जाओ। यह सुनकर हमलोगोंने
और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए परम शान्ति प्राप्त बड़ी विनयके साथ कहा-'महात्मन्! हम दोनों करके आत्मामें ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वत्ताके पराधीन थीं; अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है, द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुननेके लिये साक्षात् उसे आप क्षमा करें।' यों कहकर हमने मुनिको प्रसन्न ब्रह्माजी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न कर लिया। तब उन पवित्र चित्तवाले मुनिने हमारे करते थे। ब्रह्माजीके साथ उनका संकोच नहीं रह गया शापोद्धारको अवधि निश्चित करते हुए कहा-'भरत था; अतः उनके आनेपर भी वे सदा तपस्यामें मग्न रहते मुनिके आनेतक हो तुमपर यह शाप लागू होगा। उसके थे। परमात्माके ध्यानमें निरन्तर संलग्न रहनेके कारण बाद तुमलोगोंका मर्त्यलोकमे जन्म होगा और उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपाको पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहेगी।' जीवन्मुक्तके समान मानकर इन्द्रको अपने समृद्धिशाली, "मुने ! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्षके रूपमें पदके सम्बन्धमें कुछ भय हुआ। तब उन्होंने उनकी खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीताके तपस्यामें सैकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये। चौथे अध्यायका जप करते हुए हमारा उद्धार किया था। अप्सराओंके समुदायसे हम दोनोंको बुलाकर इन्द्रने इस अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल प्रकार आदेश दिया-'तुम दोनों उस तपस्वीकी शापसे ही नहीं, इस भयानक संसारसे भी गीताके चतुर्थ तपस्यामें विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्रपदसे हटाकर स्वयं अध्यायके पाठद्वारा हमें मुक्त कर दिया।" स्वर्गका राज्य भोगना चाहता है।'.
श्रीभगवान् कहते हैं-उन दोनोंके इस प्रकार - "इन्द्रका यह आदेश पाकर हम दोनों उनके कहनेपर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो सामनेसे चलकर गोदावरीके तीरपर, जहाँ वे मुनि तपस्या विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ करते थे, आयीं । वहाँ मन्द एवं गम्भीर स्वरसे बजते हुए भी बड़े आदरके साथ प्रतिदिन गीताके चतुर्थ अध्यायका मृदङ्ग तथा मधुर वेणुनादके साथ हम दोनोंने अन्य पाठ करने लगी, जिससे उनका उद्धार हो गया।
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• अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
श्रीभगवान् कहते हैं-देवि ! अब सब लोगों- डूबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्यायका माहात्म्य संक्षेपसे उसीमे गिरकर डूब गया। तब यमराजके दूत उन दोनोंको बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्रदेशमें पुरुकुत्सपुर यमराजके लोकमें ले गये। वहाँ अपने पूर्वकृत पापनामक एक नगर है। उसमें पिङ्गल नामका एक ब्राह्मण कर्मको याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदनन्तर रहता था। वह वेदपाठी ब्राह्मणोंके विख्यात वंशमें, जो यमराजने जब उनके घृणित कोपर दृष्टिपात किया, तब सर्वथा निष्कलङ्क था, उत्पन्न हुआ था; किन्तु अपने उन्हें मालूम हुआ कि मृत्युके समय अकस्मात् खोपड़ीके कुलके लिये उचित वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायको छोड़कर जलमें स्नान करनेसे इन दोनोंका पाप नष्ट हो चुका है। ढोल आदि बजाते हुए उसने नाच-गानमें मन लगाया। तब उन्होंने उन दोनोंको मनोवाञ्छित लोकमें जानेकी गीत, नृत्य और बाजा बजानेकी कलामें परिश्रम करके आज्ञा दी। यह सुनकर अपने पापको याद करते हुए वे पिङ्गलने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और उसीसे उसका दोनों बड़े विस्मयमें पड़े और पास जाकर धर्मराजके राजभवनमें भी प्रवेश हो गया। अब वह राजाके साथ चरणोंमें प्रणाम करके पूछने लगे-'भगवन् ! हम रहने लगा और परायी स्त्रियोंको बुला-बुलाकर उनका दोनोंने पूर्वजन्ममें अत्यन्त घृणित पापका सशय किया उपभोग करने लगा। स्त्रियोंके सिवा और कहीं इसका है। फिर हमें मनोवाञ्छित लोकोंमें भेजनेका क्या कारण मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जानेसे है? बताइये।' उच्छृङ्खल होकर वह एकान्तमें राजासे दूसरोंके दोष यमराजने कहा-गङ्गाके किनारे वट नामक एक बतलाने लगा। पिङ्गलकी एक स्त्री थी, जिसका नाम था उत्तम ब्रह्मशानी रहते थे। वे एकान्तसेवी, ममतारहित, अरुणा। वह नीच कुलमें उत्पन्न हुई थी और कामी शान्त, विरक्त और किसीसे भी द्वेष न रखनेवाले थे। पुरुषोंके साथ विहार करनेकी इच्छासे सदा उन्हींकी खोजमें घूमा करती थी। उसने पतिको अपने मार्गका कण्टक समझकर एक दिन आधी रातमें घरके भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाशको जमीनमें गाड़ दिया। इस प्रकार प्राणोंसे वियुक्त होनेपर वह यमलोकमें पहुंचा और भीषण नरकोंका उपभोग करके निर्जन वनमें गिद्ध हुआ।
अरुणा भी भगन्दर रोगसे अपने सुन्दर शरीरको त्याग कर घोर नरक भोगनेके पश्चात् उसी वनमें शुकी हुई। एक दिन वह दाना चुगनेकी इच्छासे इधर-उधर फुदक रही थी, इतनेमें ही उस गिद्धने पूर्वजन्मके वैरका स्मरण करके उसे अपने तीखे नखोंसे फाड़ डाला। शुकी घायल होकर पानीसे भरी हुई मनुष्यकी खोपड़ी में गिरी। गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा । इतनेमें ही जाल फैलानेवाले बहेलियोंने उसे भी बाणोंका निशाना बनाया। उसकी पूर्वजन्मकी पत्नी शुकी उस खोपड़ीके जलमे
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उत्तरखण्ड ]
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• श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्य •
प्रतिदिन गीताके पाँचवें अध्यायका जप करना उनका सदाका नियम था । पाँचवें अध्यायको श्रवण कर लेनेपर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्मका ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसी पुण्यके प्रभावसे शुद्धचित्त होकर उन्होंने अपने शरीरका परित्याग किया था। गीताके पाठसे जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्हीं महात्माकी खोपड़ीका जल पाकर तुम दोनों
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★ श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्य
श्रीभगवान् कहते हैं- सुमुखि ! अब मैं छठे अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुननेवाले मनुष्योंके लिये मुक्ति करतलगत हो जाती है। गोदावरी नदीके तटपर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) नामक एक विशाल नगर है, जहाँ मैं पिप्पलेशके नामसे विख्यात होकर रहता हूँ उस नगरमें जानश्रुति नामक एक राजा रहते थे, जो भूमण्डलकी प्रजाको अत्यन्त प्रिय थे। उनका प्रताप मार्तण्ड मण्डलके प्रचण्ड तेजके समान जान पड़ता था। प्रतिदिन होनेवाले उनके यज्ञके धुएैसे नन्दनवनके कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे, मानो राजाकी असाधारण दानशीलता देखकर वे लज्जित हो गये हों। उनके यज्ञमें प्राप्त पुरोडाशके रसास्वादनमें सदा आसक्त होनेके कारण देवतालोग कभी प्रतिष्ठानपुरको छोड़कर बाहर नहीं जाते थे। उनके दानके समय छोड़े हुए जलकी धारा, प्रतापरूपी तेज और यज्ञके धूमोंसे पुष्ट होकर मेघ ठीक समयपर वर्षा करते थे। उस राजाके शासनकालमें इंतियों (खेतीमें होनेवाले छः प्रकारके उपद्रवों) के लिये कहीं थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता था और अच्छी नीतियोंका सर्वत्र प्रसार होता था। वे बावली, कुएँ और पोखरे खुदवानेके बहाने मानो प्रतिदिन पृथ्वीके भीतरकी निधियोंका अवलोकन करते थे। एक समय राजाके दान, तप, यज्ञ और प्रजापालनसे सन्तुष्ट होकर स्वर्गके देवता उन्हें वर देनेके लिये आये। वे कमलनालके समान उज्ज्वल हंसोंका रूप धारण कर अपनी पाँखें हिलाते हुए आकाशमार्गसे चलने लगे।
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पवित्र हो गये हो। अतः अब तुम दोनों मनोवाञ्छित लोकोंको जाओ; क्योंकि गोताके पाँचवें अध्यायके माहात्म्यसे तुम दोनों शुद्ध हो गये हो ।
श्रीभगवान् कहते हैं— सबके प्रति समान भाव रखनेवाले धर्मराजके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर ये दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमानपर बैठकर वैकुण्ठधामको चले गये ।
कहा-'
बड़ी उतावलीके साथ उड़ते हुए वे सभी हंस परस्पर बातचीत भी करते जाते थे। उनमेंसे भद्राश्व आदि दो-तीन हंस वेगसे उड़कर आगे निकल गये। तब पीछेवाले हंसोंने आगे जानेवालोंको संबोधित करके 'अरे भाई भद्राश्व! तुमलोग वेगसे चलकर आगे क्यों हो गये ? यह मार्ग बड़ा दुर्गम है; इसमें हम सबको साथ मिलकर चलना चाहिये। क्या तुम्हें दिखायी नहीं देता, यह सामने ही पुण्यमूर्ति महाराज जानश्रुतिका तेजःपुंज अत्यन्त स्पष्ट रूपसे प्रकाशमान हो रहा है। [उस तेजसे भस्म होनेकी आशङ्का है, अतः सावधान होकर चलना चाहिये ।] '
पीछेवाले हंसोंके वचन सुनकर आगेवाले हंस हँस पड़े और उच्चस्वरसे उनकी बातोंकी अवहेलना करते हुए बोले- 'अरे भाई क्या इस राजा जानश्रुतिका तेज ब्रह्मवादी महात्मा रैक्वके तेजसे भी अधिक तीव्र है ?'
हंसोंकी ये बातें सुनकर राजा जानश्रुति अपने ऊँचे महलकी छतसे उतर गये और सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो अपने सारथिको बुलाकर बोले- 'जाओ, महात्मा रैकको यहाँ ले आओ।' राजाका यह अमृतके समान वचन सुनकर मह नामक सारथि प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नगरसे बाहर निकला। सबसे पहले उसने मुक्तिदायिनी काशीपुरीको यात्रा की, जहाँ जगत्के स्वामी भगवान् विश्वनाथ मनुष्योंको उपदेश दिया करते हैं। उसके बाद वह गयाक्षेत्रमें पहुँचा, जहाँ प्रफुल्ल नेत्रोंवाले भगवान् गदाधर सम्पूर्ण लोकोंका उद्धार करनेके लिये
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• अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
निवास करते हैं। तदनन्तर नाना तीर्थोंमें भ्रमण करता हुआ सारथि पापनाशिनी मथुरापुरीमें गया; यह भगवान् श्रीकृष्णका आदि स्थान है, जो परम महान् एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वेद और शास्त्रोंमें वह तीर्थ त्रिभुवनपति भगवान् गोविन्दके अवतारस्थानके नामसे प्रसिद्ध है। नाना देवता और ब्रह्मर्षि उसका सेवन करते हैं। मथुरा नगर कालिन्दी (यमुना) के किनारे शोभा पाता है। उसकी आकृति अर्द्धचन्द्रके समान प्रतीत होती है। वह सब तीर्थोक निवाससे परिपूर्ण है। परम आनन्द प्रदान करनेके कारण सुन्दर प्रतीत होता है। गोवर्धन पर्वतके होनेसे मथुरामण्डलकी शोभा और भी बढ़ गयी है। वह पवित्र वृक्षों और लताओंसे आवृत है। उसमें बारह वन हैं। वह परम पुण्यमय तथा सबको विश्राम देनेवाले श्रुतियोंके सारभूत भगवान् श्रीकृष्णकी आधार भूमि है।
तत्पश्चात् मथुरासे पश्चिम और उत्तर दिशाकी ओर बहुत दूरतक जानेपर सारथिको काश्मीर नामक नगर दिखायी दिया, जहाँ शङ्खके समान उज्ज्वल गगनचुम्बी महलोंकी पङ्क्तियाँ भगवान् शङ्करके अट्टहासकी भाँति शोभा पाती हैं। जहाँ ब्राह्मणोंके शास्त्रीय आलाप सुनकर मूक मनुष्य भी सुन्दर वाणी और पदोंका उच्चारण करते हुए देवताके समान हो जाते हैं। जहाँ निरन्तर होनेवाले यज्ञ धूमसे व्याप्त होनेके कारण आकाश-मण्डल मेघोंसे घुलते रहनेपर भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ता। जहाँ उपाध्यायके पास आकर छात्र जन्मकालीन अभ्याससे ही सम्पूर्ण कलाएँ स्वतः पढ़ लेते हैं तथा जहाँ माणिक्येश्वर नामसे प्रसिद्ध भगवान् चन्द्रशेखर देहधारियोंको वरदान देनेके लिये नित्य निवास करते हैं। काश्मीरके राजा माणिक्येशने दिग्विजयमें समस्त राजाओंको जीतकर भगवान् शिवका पूजन किया था, तभीसे उनका नाम माणिक्येश्वर हो गया था। उन्होंके मन्दिरके दरवाजेपर महात्मा रैक एक छोटी-सी गाड़ीपर बैठे अपने अङ्गको खुजलाते हुए वृक्षकी छायाका सेवन कर रहे थे। इसी अवस्थामें सारथिने उन्हें देखा। राजाके बताये हुए भिन्न-भिन्न चिह्नोंसे उसने शीघ्र ही रैकको पहचान लिया
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
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और उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा 'ब्रह्मन् ! आप किस स्थानपर रहते हैं ? आपका पूरा नाम क्या है ? आप तो सदा स्वच्छन्द विचरनेवाले हैं, फिर यहाँ किसलिये ठहरे हैं ? इस समय आपका क्या करनेका विचार है ?"
सारधिके ये वचन सुनकर परम आनन्दमें निमग्र महात्मा रैक्कने कुछ सोचकर उससे कहा यद्यपि हम पूर्णकाम हैं - हमें किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है, तथापि कोई भी हमारी मनोवृत्तिके अनुसार परिचर्या कर सकता है।' रैकके हार्दिक अभिप्रायको आदरपूर्वक ग्रहण करके सारथि धीरेसे राजाके पास चल दिया। वहाँ पहुँचकर राजाको प्रणाम करके उसने हाथ जोड़ सारा समाचार निवेदन किया। उस समय स्वामीके दर्शनसे उसके मनमें बड़ी प्रसन्नता थी। सारथिके वचन सुनकर राजाके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उनके हृदयमें रैकका सत्कार करनेकी श्रद्धा जाग्रत् हुई। उन्होंने दो स्वच्चरियोंसे जुती हुई एक गाड़ी लेकर यात्रा की। साथ ही मोतीके हार, अच्छे-अच्छे वस्त्र और एक सहस्र गौएँ भी ले ली। काश्मीरमण्डलमें महात्मा रैक्व जहाँ रहते थे,
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य .
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उस स्थानपर पहुंचकर राजाने सारी वस्तुएँ उनके आगे रैकने कहा-राजन् ! मैं प्रतिदिन गीताके छठे निवेदन कर दी और पृथ्वीपर पड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम अध्यायका जप करता हूँ इसीसे मेरी तेजोराशि किया। महात्मा रैक्व अत्यन्त भक्तिके साथ चरणोंमें पड़े देवताओंके लिये भी दुःसह है। हुए राजा जानश्रुतिपर कुपित हो उठे और बोले-रे तदनन्तर परम बुद्धिमान् राजा जानश्रुतिने यत्नपूर्वक शूद्र ! तू दुष्ट राजा है। क्या तू मेरा वृत्तान्त नहीं जानता? महात्मा रैक्कसे गीताके छठे अध्यायका अभ्यास किया। यह खच्चरियोसे जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा। ये इससे उन्हें मोक्षकी प्राप्ति हुई। इधर रैक भी भगवान् वल, ये मोतियोंके हार और ये दूध देनेवाली गौएँ भी माणिक्येश्वरके समीप मोक्षदायक गीताके छठे स्वयं ही ले जा।' इस तरह आज्ञा देकर रैकने राजाके अध्यायका जप करते हुए सुखसे रहने लगे। हंसका रूप मनमें भय उत्पन्न कर दिया। तब राजाने शापके भयसे धारण करके वरदान देनेके लिये आये हुए देवता भी महात्मा रैकके दोनों चरण पकड़ लिये और भक्तिपूर्वक विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये। जो मनुष्य सदा कहा-'ब्रह्मन् ! मुझपर प्रसन्न होइये। भगवन् ! आपमें इस एक ही अध्यायका जप करता है, वह भी भगवान् यह अद्भुत माहात्म्य कैसे आया? प्रसन्न होकर मुझे विष्णुके ही स्वरूपको प्राप्त होता है इसमें तनिक भी ठीक-ठीक बताइये।
सन्देह नहीं है।
. श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
भगवान् शिव कहते हैं-पार्वती ! अब मैं रखा है, उससे इन पुत्रोंको वश्चित करके स्वयं ही उसकी सातवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनकर रक्षा करूंगा।' एक दिन साँपकी योनिसे पीड़ित होकर कानोंमें अमृत-राशि भर जाती है। पाटलिपुत्र नामक एक पिताने स्वप्नमें अपने पुत्रोंके समक्ष आकर अपना दुर्गम नगर है, जिसका गोपुर (द्वार) बहुत ही ऊँचा है। मनोभाव बताया, तब उसके निरङ्कश पुत्रोंने सबेरे उठकर उस नगरमें शङ्ककर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था; उसने बड़े विस्मयके साथ एक-दूसरेसे स्वप्रकी बातें कहीं। वैश्य-वृत्तिका आश्रय लेकर बहुत धन कमाया, किन्तु न उनमेसे मझला पुत्र कुदाल हाथमें लिये घरसे निकला तो कभी पितरोका तर्पण किया और न देवताओंका पूजन और जहाँ उसके पिता सर्पयोनि धारण करके रहते थे, ही। वह धनोपार्जनमें तत्पर होकर राजाओंको ही भोज उस स्थानपर गया। यद्यपि उसे घनके स्थानका ठीकदिया करता था। एक समयकी बात है, उस ब्राह्मणने ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिह्नोंसे उसका ठीक अपना चौथा विवाह करनेके लिये पुत्रों और वन्धुओंके निश्चय कर लिया और लोभबुद्धिसे वहाँ पहुँचकर बाँबीको साथ यात्रा की। मार्गमें आधी रातके समय जब वह सो खोदना आरम्भ किया। तब उस बाँबीसे बड़ा भयानक रहा था, एक सर्पने कहींसे आकर उसकी बाँहमें काट साँप प्रकट हुआ और बोला-ओ मूढ़ ! तू कौन है, लिया। उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गयी कि मणि, किसलिये आया है, क्यों बिल खोद रहा है, अथवा मन्त्र और ओषधि आदिसे भी उसके शरीरकी रक्षा किसने तुझे भेजा है? ये सारी बातें मेरे सामने बता।' असाध्य जान पड़ी। तत्पश्चात् कुछ ही क्षणोंमें उसके पुत्र बोला-मैं आपका पुत्र हूँ। मेरा नाम शिव प्राण-पखेरू उड़ गये। फिर बहुत समयके बाद वह प्रेत है। मैं रात्रिमें देखे हुए स्वप्रसे विस्मित होकर यहाँका सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ। उसका चित धनकी वासनामें सुवर्ण लेनेके कौतूहलसे आया हूँ। बैंधा था। उसने पूर्व वृत्तान्तको स्मरण करके सोचा- पुत्रकी यह लोकनिन्दित वाणी सुनकर वह साँप "मैंने जो घरके बाहर करोडोंकी संख्यामें अपना धन गाड़ हँसता हुआ उसस्वरसे इस प्रकार स्पष्ट वचन
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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
बोला- 'यदि तू मेरा पुत्र है तो मुझे शीघ्र ही बन्धनसे मुक्त कर मैं पूर्वजन्मके गाड़े हुए धनके ही लिये सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ।'
पुत्रने पूछा- पिताजी! आपकी मुक्ति कैसे होगी ? इसका उपाय मुझे बताइये क्योंकि मैं इस रातमें सब लोगोंको छोड़कर आपके पास आया हूँ।
पिताने कहा- बेटा ! गीताके अमृतमय सप्तम अध्यायको छोड़कर मुझे मुक्त करनेमें तीर्थ, दान, तप और यज्ञ भी सर्वथा समर्थ नहीं हैं। केवल गीताका सातवाँ अध्याय ही प्राणियोंके जरा मृत्यु आदि दुःखको दूर करनेवाला है। पुत्र ! मेरे श्राद्धके दिन सप्तम अध्यायका पाठ करनेवाले ब्राह्मणको श्रद्धापूर्वक भोजन कराओ। इससे निस्सन्देह मेरी मुक्ति हो जायगी। वत्स! अपनी शक्तिके अनुसार पूर्ण श्रद्धाके साथ वेद-विद्यामें प्रवीण अन्य ब्राह्मणोंको भी भोजन कराना ।
सर्पयोनिमें पड़े हुए पिताके ये वचन सुनकर सभी पुत्रोंने उसकी आज्ञाके अनुसार तथा उससे भी अधिक किया। तब शङ्कुकर्णने अपने सर्पशरीरको त्यागकर दिव्य देह धारण किया और सारा धन पुत्रोंके अधीन कर
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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दिया। पिताने करोड़ोंकी संख्यामें जो धन बाँटकर दिया था, उससे वे सदाचारी पुत्र बहुत प्रसन्न हुए। उनकी बुद्धि धर्ममें लगी हुई थी इसलिये उन्होंने बावली, कुआँ, पोखरा, यज्ञ तथा देवमन्दिरके लिये उस धनका उपयोग किया और अनशाला भी बनवायी। तत्पश्चात् सातवें अध्यायका सदा जप करते हुए उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। पार्वती ! यह तुम्हें सातवें अध्यायका माहात्म्य बताया गया है; जिसके श्रवणमात्रसे मानव सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है।
भगवान् शिव कहते हैं-देवि ! अब आठवें अध्यायका माहात्म्य सुनो! उसके सुननेसे तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। [ लक्ष्मीजीके पूछनेपर भगवान् विष्णुने उन्हें इस प्रकार अष्टम अध्यायका माहात्म्य बतलाया था ।] दक्षिणमें आमर्दकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर है। वहाँ भावशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसने वेश्याको पत्नी बनाकर रखा था। वह मांस खाता, मदिरा पीता, साधुओंका धन चुराता परायी स्त्रीसे व्यभिचार करता और शिकार खेलनेमें दिलचस्पी रखता था । वह बड़े भयानक स्वभावका था और मनमें बड़े-बड़े हौसले रखता था। एक दिन मदिरा पीनेवालोंका समाज जुटा था। उसमें भावशर्माने भर पेट ताड़ी पी – खूब गलेतक उसे चढ़ाया; अतः अजीर्णसे अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा कालवश मर गया और बहुत बड़ा ताड़का वृक्ष हुआ। उसकी घनी और ठण्डी छायाका आश्रय लेकर ब्रह्मराक्षसभावको प्राप्त हुए कोई पति पत्नी वहाँ रहा करते थे।
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उनके पूर्वजन्मकी घटना इस प्रकार है। एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था, जो वेद-वेदाङ्गके तत्त्वोंका ज्ञाता, सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका विशेषज्ञ और सदाचारी था। उसकी स्त्रीका नाम कुमति था। वह बड़े खोटे विचारकी थी। वह ब्राह्मण विद्वान् होनेपर भी अत्यन्त लोभवश अपनी स्त्रीके साथ प्रतिदिन भैंस, कालपुरुष और घोड़े आदि बड़े दानोंको ग्रहण किया करता था; परन्तु दूसरे ब्राह्मणोंको दानमें मिली हुई कौड़ी भी नहीं देता था। वे ही दोनों पति-पत्नी कालवश
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उत्तरखण्ड ]
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श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य •
मृत्युको प्राप्त होकर ब्रह्मराक्षस हुए। वे भूख और प्याससे पीड़ित हो इस पृथ्वीपर घूमते हुए उसी ताड़-वृक्षके पास आये और उसके मूल भागमें विश्राम करने लगे। इसके बाद पत्नीने पतिसे पूछा- 'नाथ ! हमलोगोंका यह महान् दुःख कैसे दूर होगा तथा इस ब्रह्मराक्षसयोनिसे किस प्रकार हम दोनोंकी मुक्ति होगी ?' तब उस ब्राह्मणने कहा- 'ब्रह्मविद्याके उपदेश, अध्यात्म-तत्त्वके विचार और कर्मविधिके ज्ञान बिना किस प्रकार सङ्कटसे छुटकारा मिल सकता है।'
यह सुनकर पत्नीने पूछा- 'किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम' (पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन-सा है ?) उसकी पत्नीके इतना कहते ही जो आश्चर्यकी घटना घटित हुई, उसको सुनो। उपर्युक्त वाक्य गीताके आठवें अध्यायका आधा श्लोक था। उसके श्रवणसे वह वृक्ष उस समय ताड़के रूपको त्यागकर भावशर्मा नामक ब्राह्मण हो गया। तत्काल ज्ञान होनेसे विशुद्धचित्त होकर वह पापके चोलेसे मुक्त हो गया। तथा उस आधे श्लोकके ही माहात्म्यसे वे पति-पत्नी भी मुक्त हो गये उनके मुखसे दैवात् ही आठवें अध्यायका आधा श्लोक निकल पड़ा था। तदनन्तर आकाशसे एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति-पत्नी उस विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोकको चले गये । वहाँका यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था ।
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भागीरथीके तटपर बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्मा मेरे भक्तिरससे परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा
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किंकर्म पुरुषोत्तम ।
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है। वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके गीताके आठवें अध्यायके आधे श्लोकका जप करता है। मैं उसकी तपस्यासे बहुत सन्तुष्ट हूँ। बहुत देरसे उसकी तपस्याके अनुरूप फलका विचार कर रहा था। प्रिये ! इस समय वह फल देनेको मैं उत्कण्ठित हूँ।
पार्वतीजीने पूछा- भगवन्! श्रीहरि सदा प्रसन्न होनेपर भी जिसके लिये चिन्तित हो उठे थे, उस भगवद्भक्त भावशर्माने कौन सा फल प्राप्त किया ?
उसके बाद उस बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्माने आदरपूर्वक उस आधे श्लोकको लिखा और देवदेव जनार्दनकी आराधना करनेकी इच्छासे वह मुक्तिदायिनी श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! द्विजश्रेष्ठ भावशर्मा काशीपुरीमें चला गया। वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मणने प्रसन्न हुए भगवान् विष्णुके प्रसादको पाकर आत्यन्तिक भारी तपस्या आरम्भ की। उसी समय क्षीरसागरकी सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी, कन्या भगवती लक्ष्मीने हाथ जोड़कर देवताओंके भी जो नरक यातनामें पड़े थे, उसीके शुभकर्मसे भगवद्धामको देवता जगत्पति जनार्दनसे पूछा- 'नाथ! आप सहसा प्राप्त हुए। पार्वती यह आठवें अध्यायका माहात्म्य नींद त्यागकर खड़े क्यों हो गये ?" थोड़ेमें ही तुम्हें बताया है। इसपर सदा विचार करते श्रीभगवान् बोले- देवि ! काशीपुरीमें रहना चाहिये ।
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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
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श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
___महादेवजी कहते हैं-पार्वती ! अब मैं आदर- मैं पशु-योनिमें पड़ा हूँ, तो भी मुझे अपने पूर्वजन्मोंका
पूर्वक नवम अध्यायके माहात्म्यका वर्णन करूँगा, तुम स्मरण बना हुआ है। ब्रह्मन् ! यदि आपको सुननेकी स्थिर होकर सुनो । नर्मदाके तटपर माहिष्मती नामकी एक उत्कण्ठा हो, तो मैं एक और भी आश्चर्यकी बात बताता नगरी है। वहाँ माधव नामके एक ब्राह्मण रहते थे, जो हूँ। कुरुक्षेत्र नामका एक नगर है, जो मोक्ष प्रदान वेद-वेदाङ्गोंके तत्त्वज्ञ और समय-समयपर आनेवाले करनेवाला है। वहाँ चन्द्रशर्मा नामक एक सूर्यवंशी राजा अतिथियोंके प्रेमी थे। उन्होंने विद्याके द्वारा बहुत धन राज्य करते थे। एक समय जब कि सूर्यग्रहण लगा था, कमाकर एक महान् यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया। टस राजाने बड़ी श्रद्धाके साथ कालपुरुषका दान करनेकी यज्ञमें बलि देनेके लिये एक बकरा मैंगाया गया। जब तैयारी की। उन्होंने वेद-वेदाङ्गोंके पारगामी एक विद्वान् उसके शरीरकी पूजा हो गयी, तब सबको आश्चर्यमे ब्राह्मणको बुलवाया और पुरोहितके साथ वे तीर्थके डालते हुए उस बकरेने हंसकर उच्च स्वरसे कहा- पावन जलसे स्नान करनेको चले। तीर्थके पास पहुँचकर 'ब्रह्मन् ! इन बहुत-से यज्ञोद्वारा क्या लाभ है। इनका राजाने स्रान किया और दो वस्त्र धारण किये। फिर फल तो नष्ट हो जानेवाला है तथा ये जन्म, जरा और पवित्र एवं प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने श्वेत चन्दन लगाया मृत्युके भी कारण है। यह सब करनेपर भी मेरी जो और बगलमें खड़े हुए पुरोहितका हाथ पकड़कर वर्तमान दशा है, इसे देख लो।' बकरेके इस अत्यन्त तत्कालोचित मनुष्योंसे घिरे हुए अपने स्थानपर लौट कौतूहलजनक वचनको सुनकर यज्ञमण्डपमें रहनेवाले आये। आनेपर राजाने यथोचित विधिसे भक्तिपूर्वक सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए। तब वे यजमान ब्राह्मणको कालपुरुषका दान किया। ब्राह्मण हाथ जोड़ अपलक नेत्रोंसे देखते हुए बकरेको तब कालपुरुषका हृदय चीरकर उसमेंसे एक प्रणाम करके श्रद्धा और आदरके साथ पूछने लगे। पापात्मा चाण्डाल प्रकट हुआ। फिर थोड़ी देरके बाद
ब्राह्मण बोले-आप किस जातिके थे? निन्दा भी चाण्डालीका रूप धारण करके कालपुरुषके आपका स्वभाव और आचरण कैसा था? तथा किस शरीरसे निकली और ब्राह्मणके पास आ गयी। इस कर्मसे आपको बकरेकी योनि प्राप्त हुई ? यह सब प्रकार चाण्डालोंकी वह जोड़ी आँखें लाल किये निकली मुझे बताइये।
__ और ब्राह्मणके शरीरमें हठात् प्रवेश करने लगी। ब्राह्मण बकरा बोला-ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्ममें ब्राह्मणोंके मन-ही-मन गीताके नवम अध्यायका जप करते थे और अत्यन्त निर्मल कुलमें उत्पन्न हुआ था। समस्त यज्ञोंका राजा चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे। ब्राह्मणके अनुष्ठान करनेवाला और वेद-विद्यामें प्रवीण था। एक अन्तःकरणमें भगवान् गोविन्द शयन करते थे। वे दिन मेरी स्त्रीने भगवती दुर्गाको भक्तिसे विनम्र होकर उन्हींका ध्यान करने लगे। ब्राह्मणने [जब गीताके नवम अपने बालकके रोगकी शान्तिके लिये बलि देनेके अध्यायका जप करते हुए अपने आश्रयभूत भगवान्का निमित्त मुझसे एक बकरा माँगा। तत्पश्चात् जब ध्यान किया, उस समय गीताके अक्षरोंसे प्रकट हुए चण्डिकाके मन्दिरमें वह बकरा मारा जाने लगा, उस विष्णुदूतोंद्वारा पीड़ित होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले। समय उसकी माताने मुझे शाप दिया-'ओ ब्राह्मणोंमें उनका उद्योग निष्फल हो गया। इस प्रकार इस घटनाको नौच, पापी ! तू मेरे बच्चेका वध करना चाहता है; प्रत्यक्ष देखकर राजाके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। इसलिये तू भी बकरेकी योनिमें जन्म लेगा। द्विजश्रेष्ठ ! उन्होंने ब्राह्मणसे पूछा-'विप्रवर ! इस महाभयङ्कर तब कालवश मृत्युको प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ । यद्यपि आपत्तिको आपने कैसे पार किया? आप किस मन्त्रका
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उत्तरखण्ड]
• श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य .
जप तथा किस देवताका स्मरण कर रहे थे? वह पुरुष जो स्वर्गरूपी दुर्गमें जानेके लिये सुन्दर सोपान और तथा वह स्त्री कौन थी? वे दोनों कैसे उपस्थित हुए? प्रभावकी चरम सीमा है। काशीपुरीमें धौरबुद्धि नाभसे फिर वे शान्त कैसे हो गये ? यह सब मुझे बतलाइये।' विख्यात एक ब्राह्मण था, जो मुझमें नन्दीके समान भक्ति
रखता था। वह पावन कीर्तिके अर्जनमें तत्पर रहनेवाला, शान्तचित्त और हिंसा, कठोरता एवं दुःसाहससे दूर रहनेवाला था। जितेन्द्रिय होनेके कारण वह निवृत्तिमार्गमें ही स्थित रहता था। उसने वेदरूपी समुद्रका पार पा लिया था। वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके तात्पर्यका ज्ञाता था। उसका चित्त सदा मेरे ध्यानमें संलग्न रहता था। वह मनको अन्तरात्मामे लगाकर सदा- आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किया करता था; अतः जब वह चलने लगता तो मैं प्रेमवश उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे हाथका सहारा देता रहता था।
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- ब्राह्मणने कहा-राजन् ! चाण्डालका रूप धारण करके भयङ्कर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दाकी साक्षात् मूर्ति थी। मैं इन दोनोंको ऐसा ही समझता हूँ। उस समय मैं गीताके नवें अध्यायके मन्त्रोंकी माला जपता था। उसीका माहात्म्य है कि सारा सङ्कट दूर हो गया। महीपते ! मैं नित्य ही गीताके नवम अध्यायका जप करता हूँ। उसीके प्रभावसे प्रतिग्रहजनित आपत्तियोंके पार हो सका हूँ।
यह सुनकर राजाने उसी ब्राह्मणसे गीताके नवम अध्यायका अभ्यास किया, फिर वे दोनों ही परमशान्ति हर (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।
यह देख मेरे पार्षद भूङ्गिरिटिने पूछा., [यह कथा सुनकर ब्राह्मणने बकरेको बन्धनसे भगवन् ! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया मुक्त कर दिया और गीताके अभ्याससे परमगतिको होगा। इस महात्माने कौन-सा तप, होम अथवा जप प्राप्त किया। कार
किया है कि स्वयं आप ही पद-पदपर इसे हाथका सहारा भगवान् शिव कहते है-सुन्दरि ! अब तुम देते चलते है? - ARE .. दशम अध्यायके माहात्म्यको परम पावन कथा सुनो, या, भृङ्गिरिटिका यह प्रश्न सुनकर मैंने इस प्रकार उत्तर
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अयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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देना आरम्भ किया। एक समयकी बात है, कैलास पर्वतके पार्श्वभावमें पुन्नाग वनके भीतर चन्द्रमाकी अमृतमयी किरणोंसे घुली हुई भूमिमें एक वेदीका आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था। मेरे बैठनेके क्षणभर बाद ही सहसा बड़े जोरकी आँधी उठी, वहाँके वृक्षोंकी शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपसमें टकराने लगीं, कितनी ही टहनियाँ टूट-टूटकर बिखर गयीं। पर्वतकी अविचल छाया भी हिलने लगी। इसके बाद वहाँ महान् भयङ्कर शब्द हुआ। जिससे पर्वतकी कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं। तदनन्तर आकाशसे कोई विशाल पक्षी उतरा, जिसकी कान्ति काले मेघके समान थी। वह कज्जलकी राशि, अन्धकारके समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत-सा जान पड़ता था। पैरोंसे पृथ्वीका सहारा लेकर उस पक्षीने मुझे प्रणाम किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणोंमें रखकर स्पष्ट वाणीमें स्तुति करनी आरम्भ की।
पक्षी बोला — देव ! आपकी जय हो। आप चिदानन्दमयी सुधा सागर तथा जगत्के पालक हैं। सदा सद्भावनासे युक्त एवं अनासक्तिकी लहरोंसे उल्लसित हैं। आपके वैभवका कहीं अन्त नहीं है। आपकी जय हो। अद्वैतवासनासे परिपूर्ण बुद्धिके द्वारा आप त्रिविध मलोंसे रहित हैं। आप जितेन्द्रिय भक्तोंके अधीन रहते हैं तथा ध्यानमें आपके स्वरूपका साक्षात्कार होता है। आप अविद्यामय उपाधिसे रहित, नित्यमुक्त, निराकार, निरामय, असीम, अहङ्कारशून्य, आवरणरहित और निर्गुण हैं। आपके चरणकमल शरणागत भक्तोंकी रक्षा करनेमें प्रवीण हैं। अपने भयङ्कर ललाटरूपी महासर्पकी विष ज्वालासे आपने कामदेवको भस्म किया है। आपकी जय हो। आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे दूर होते हुए भी प्रामाण्यस्वरूप हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है। चैतन्यके स्वामी तथा त्रिभुवनरूपधारी आपको प्रणाम है। मैं श्रेष्ठ योगियोंद्वारा चुम्बित आपके उन चरण-कमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो अपार भव- पापके समुद्रसे पार उतारनेमें अद्भुत शक्तिशाली हैं। महादेव ! साक्षात् बृहस्पति भी आपकी स्तुति करनेकी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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धृष्टता नहीं कर सकते। सहस्र मुखोंवाले नागराज शेषमें भी इतनी चातुरी नहीं है कि वे आपके गुणोंका वर्णन कर सकें। फिर मेरे जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षीकी तो बिसात ही क्या है।
उस पक्षीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रको सुनकर मैंने उससे पूछा - 'विहङ्गम! तुम कौन हो और कहाँसे आये हो? तुम्हारी आकृति तो हंस जैसी है, मगर रंग कौएका मिला है। तुम जिस प्रयोजनको लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।'
पक्षी बोला - देवेश! मुझे ब्रह्माजीका हस जानिये। धूर्जटे। जिस कर्मसे मेरे शरीरमें इस समय कालिमा आ गयी है, उसे सुनिये। प्रभो! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं [अतः आपसे कोई भी बात छिपी नहीं है ] तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ । सौराष्ट्र (सूरत) नगरके पास एक सुन्दर सरोवर है, जिसमें कमल लहलहाते रहते थे। उसीमेंसे बालचन्द्रमाके टुकड़े-जैसे श्वेत मृणालोंके ग्रास लेकर मैं बड़ी तीव्र गतिसे आकाशमें उड़ रहा था। उड़ते-उड़ते सहसा वहाँसे पृथ्वीपर गिर पड़ा। जब होशमें आया और अपने गिरनेका कोई कारण न देख सका तो मन-ही-मन सोचने -'अहो ! यह मुझपर क्या आ पड़ा ? आज मेरा पतन कैसे हो गया ? पके हुए कपूरके समान मेरे श्वेत शरीरमें यह कालिमा कैसे आ गयी ?' इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरेके कमलोंमेंसे मुझे ऐसी वाणी सुनायी दी'हंस! उठो, मैं तुम्हारे गिरने और काले होनेका कारण बताती हूँ।' तब मैं उठकर सरोवर के बीचमें गया और वहाँ पाँच कमलोंसे युक्त एक सुन्दर कमलिनीको देखा। उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतनका सारा कारण पूछा।
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कमलिनी बोली- कलहंस! तुम आकाशमार्गसे मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातकके परिणामवश तुम्हें पृथ्वीपर गिरना पड़ा है तथा उसीके कारण तुम्हारे शरीरमें कालिमा दिखायी देती है। तुम्हें गिरा देख मेरे हृदयमें दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमलके
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. श्रीमद्भगवडीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य .
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द्वारा बोलने लगी हैं, उस समय मेरे मुखसे निकली हुई मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्याकी प्यारी सखी हो सुगन्धको सूंघकर साठ हजार 8वरे स्वर्गलोकको प्राप्त हो गयी। एक दिन मैं विमानसे आकाशमें विचर रही थी। गये हैं। पक्षिराज ! जिस कारण मुझमें इतना वैभव- उस समय सुन्दर कमलोंसे सुशोभित इस रमणीय ऐसा प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ सुनो! इस सरोवरपर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतरकर ज्यों ही मैंने जन्मसे पहले तीसरे जन्ममें मैं इस पृथ्वीपर एक जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके। ब्राह्मणकी कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई थी। उस समय मेरा उन्होंने वस्त्रहीन अवस्थामें मुझे देख लिया। उनके भयसे नाम सरोजवदना था। मैं गुरुजनोंकी सेवा करती हुई सदा मैंने स्वयं ही यह कमलिनीका रूप धारण कर लिया। मेरे एकमात्र पातिव्रत्यके पालनमें तत्पर रहती थी। एक दोनों पैर दो कमल हुए। दोनों हाथ भी दो कमल हो गये दिनकी बात है, मैं एक मैनाको पढ़ा रही थी। इससे और शेष अङ्गोंके साथ मेरा मुख भी एक कमल हुआ। पतिसेवामें कुछ विलम्ब हो गया। इससे पतिदेवता इस प्रकार मैं पाँच कमलोंसे युक्त हुई। मुनिवर दुर्वासाने कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया-'पापिनी ! तू मुझे देखा। उनके नेत्र क्रोधाग्रिसे जल रहे थे। वे मैना हो जा।' मरनेके बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि बोले-'पापिनी ! तू इसी रूपमें सौ वर्षातक पड़ी रह ।' पातिव्रत्यके प्रसादसे मुनियोंके ही घरमें मुझे आश्रय यह शाप देकर वे क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये। कमलिनी मिला। किसी मुनिकन्याने मेरा पालन-पोषण किया। मैं होनेपर भी विभूति-योगाध्यायके माहात्म्यसे मेरी वाणी जिनके घरमें थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातःकाल लुप्त नहीं हुई है। मुझे लांघनेमात्रके अपराधसे तुम विभूतियोग नामसे प्रसिद्ध गीताके दसवें अध्यायका पाठ पृथ्वीपर गिरे हो। पक्षिराज ! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने करते थे और मैं उस पापहारी अध्यायको सुना करती ही आज मेरे शापकी निवृत्ति हो रही है, क्योंकि आज सौ थी। विहङ्गम | काल आनेपर मैं मैनाका शरीर छोड़कर वर्ष पूरे हो गये। मेरे द्वारा गाये जाते हुए उस उत्तम दशम अध्यायके माहात्म्यसे स्वर्गलोकमें अप्सरा हुई। अध्यायको तुम भी सुन लो। उसके श्रवणमात्रसे तुम भी
आज ही मुक्त हो जाओगे। -
यो कहकर पधिनीने स्पष्ट एवं सुन्दर वाणीमें दसवें अध्यायका पाठ किया और वह मुक्त हो गयी। उसे सुननेके बाद उसीके दिये हुए इस उत्तम कमलको लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।
इतनी कथा सुनाकर उस पक्षीने अपना शरीर त्याग दिया। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई। वही पक्षी अब दसवें अध्यायके प्रभावसे ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुआ है। जन्मसे ही अभ्यास होनेके कारण शैशवावस्थासे ही इसके मुखसे सदा गीताके दसवें अध्यायका उच्चारण हुआ करता है। दसवें अध्यायके अर्थ-चिन्तनका यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतोंमें स्थित शङ्खचक्रधारी भगवान् विष्णुका सदा ही दर्शन करता रहता है। इसकी स्रेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारीके शरीरपर पड़ जाती है, तो वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, मुक्त हो जाता है। तथा
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण MERAMAILORA M MARE....
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m aratient ........ पूर्वजन्ममें अभ्यास किये हुए दसवें अध्यायके माहात्म्यसे: पार्वती ! इस प्रकार मैंने भृङ्गिरिटिके सामने जो इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त है तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पापनाशक कथा कही थी, वही यहाँ तुमसे भी कही है। पा ली है। अतः जब यह रास्ता चलने लगता है तो मैं नर हो या नारी, अथवा कोई भी क्यों न हो, इस दसवें इसे हाथका सहारा दिये रहता हूँ। भृङ्गिरिटे! यह सब अध्यायके श्रवणमात्रसे उसे सब आश्रमोंके पालनका दसवें अध्यायकी ही महामहिमा है।
फल प्राप्त होता है।
श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
- श्रीमहादेवजी कहते हैं-प्रिये ! गीताके वर्णनसे नृसिंहका दर्शन करनेसे मनुष्य सात जन्मोंके किये हुए सम्बन्ध रखनेवाली कथा एवं विश्वरूप अध्यायके पावन घोर पापसे छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य मेखलामें माहात्यको श्रवण करो। विशाल नेत्रोंवाली पार्वती । इस गणेशजीका दर्शन करता है, वह सदा दुस्तर विनोंके भी अध्यायके माहात्म्यका पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा पार हो जाता है। सकता। इसके सम्बन्धमें सहस्रों कथाएँ हैं। उनमेंसे एक ., उसी मेघङ्कर नगरमें कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो यहाँ कही जाती है। प्रणीता नदीके तटपर मेघङ्कर नामसे ब्रह्मचर्यपरायण, ममता और अहङ्कारसे रहित, वेदविख्यात एक बहुत बड़ा नगर है। उसके प्राकार और शास्त्रोंमें प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान् वासुदेवके गोपुर बहुत ऊँचे हैं। वहाँ बड़ी-बड़ी विश्रामशालाएँ हैं, शरणागत थे। उनका नाम सुनन्द था। प्रिये ! वे जिनमें सोनेके खंभे शोभा दे रहे हैं। उस नगरमें श्रीमान्, शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवानके पास गीताके सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्योंका निवास ग्यारहवे अध्याय-विश्वरूपदर्शनयोगका पाठ किया है। वहाँ हाथमें शाई-नामक धनुष धारण करनेवाले करते थे। उस अध्यायके प्रभावसे उन्हें ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति जगदीश्वर भगवान् विष्णु विराजमान है। वे परब्रह्मके हो गयी थी। परमानन्द-सन्दोहसे पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी साकार स्वरूप हैं। संसारके नेत्रोंको जीवन प्रदान समाधिके द्वारा इन्द्रियों के अन्तर्मुख हो जानेके कारण वे करनेवाले हैं। उनका गौरवपूर्ण श्रीविग्रह भगवती निश्चल स्थितिको प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन्मुक्त लक्ष्मीके नेत्र-कमलोद्वारा पूजित होता है। भगवानकी योगीकी स्थितिमें रहते थे। एक समय जब बृहस्पति सिंह वह झाँको वामन अवतारकी है। मेघके समान उनका राशिपर स्थित थे, महायोगी सुनन्दने गोदावरीतीर्थकी श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है। वक्षःस्थलपर यात्रा आरम्भ की। वे क्रमशः विरजतीर्थ, तारा तीर्थ, श्रीवत्सका चिह्न शोभा पाता है। वे कमल और कपिलासंगम, अष्टतीर्थ, कपिलाद्वार, नृसिंहवन, वनमालासे विभूषित हैं। अनेक प्रकारके आभूषणोंसे अम्बिकापुरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रोंमें स्नान और सुशोभित हो भगवान् वामन रत्नयुक्त समुद्रके सदृश जान दर्शन करते हुए विवाहमण्डप नामक नगरमें आये। वहाँ पड़ते हैं। पीताम्बरसे उनके श्याम विग्रहकी कान्ति ऐसी उन्होंने प्रत्येक घरमें जाकर अपने ठहरनेके लिये स्थान प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजलीसे घिरा हुआ माँगा, परन्तु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला । अन्तमें स्निग्ध मेघ शोभा पा रहा हो। उन भगवान् वामनका गांवके मुखियाने उन्हें एक बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दर्शन करके जीव जन्म एवं संसारके बन्धनसे मुक्त हो दी। ब्राह्मणने साथियोसहित उसके भीतर जाकर रातमें जाता है। उस नगरमें मेखला नामक महान् तीर्थ है, निवास किया। सबेरा होनेपर उन्होंने अपनेको तो जिसमें खान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधामको प्राप्त धर्मशालाके बाहर पाया, किन्तु उनके और साथी नहीं होता है। वहाँ जगत्के स्वामी करुणासागर भगवान् दिखायी दिये। वे उन्हें खोजनेके लिये चले, इतनेमें ही
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भगवदीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्य .
ग्रामपाल (मुखिये) से उनकी भेंट हो गयी। ग्रामपालने क्या प्रभाव है, इस बातको तुम्हीं जानते हो। इस समय कहा-'मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकारसे दीर्घायु जान पड़ते मेरे पुत्रका एक मित्र आया था, किन्तु मैं उसे पहचान न हो। सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुषोंमें तुम सबसे सका। वह मेरे पुत्रको बहुत ही प्रिय था; किन्तु अन्य पवित्र हो। तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यमान राहगीरोंके साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशालामें भेज है। तुम्हारे साथी कहाँ गये? और कैसे इस भवनसे दिया। मेरे पुत्रने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश बाहर हुए? इसका पता लगाओ। मैं तुम्हारे सामने कर गया है, तब वह उसे वहाँसे ले आनेके लिये गया। इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे-जैसा तपस्वी मुझे दूसरा परन्तु राक्षसने उसे भी खा लिया। आज सबेरे मैंने बहुत कोई नहीं दिखायी देता। विप्रवर ! तुम्हें किस दुःखी होकर उस पिशाचसे पूछा-'ओ दुष्टात्मन् ! तूने महामन्त्रका ज्ञान है ? किस विद्याका आश्रय लेते हो रातमें मेरे पुत्रको भी खा लिया। तुम्हारे पेटमें पड़ा हुआ तथा किस देवताकी दयासे तुममें अलौकिक शक्ति आ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि गयी है? भगवन् ! कृपा करके इस गाँव में रहो ! मैं हो तो बता। तुम्हारी सब सेवा-शुश्रूषा करूंगा।'
राक्षसने कहा-ग्रामपाल ! धर्मशालाके भीतर यो कहकर ग्रामपालने मुनीश्वर सुनन्दको अपने घुसे हुए तुम्हारे पुत्रको न जाननेके कारण मैने भक्षण किया गाँवमें ठहरा लिया। वह दिन-रात बड़ी भक्तिसे उनकी है। अन्य पथिकोंके साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजानमें ही सेवा-टहल करने लगा। जब सात-आठ दिन बीत गये, मेरा ग्रास बन गया है। वह मेरे उदरमें जिस प्रकार जीवित तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुःखी हो और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वर्य विधाताने ही महात्माके सामने रोने लगा और बोला-'हाय ! आज कर दिया है। जो ब्राह्मण सदा गीताके ग्यारहवें अध्यायका रातमें राक्षसने मुझ भाग्यहीनके बेटेको चबा लिया है। पाठ करता हो, उसके प्रभावसे मेरी मुक्ति होगी और मरे मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था।' हुओंको पुनः जीवन प्राप्त होगा। यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, ग्रामपालके इस प्रकार कहनेपर योगी सुनन्दने जिनको मैंने एक दिन धर्मशालेसे बाहर कर दिया था। वे पूछा-'कहाँ है वह राक्षस? और किस प्रकार उसने निरन्तर गीताके ग्यारहवें अध्यायका जप किया करते है। तुम्हारे पुत्रका भक्षण किया है?'
इस अध्यायके मन्त्रसे सात बार अभिमन्त्रित करके यदि प्रामपाल बोला-ब्रह्मन् ! इस नगरमें एक बड़ा वे मेरे ऊपर जलका छींटा दें तो निस्सन्देह मेरा शापसे भयङ्कर नरभक्षी राक्षस रहता है। वह प्रतिदिन आकर उद्धार हो जायगा। इस नगरके मनुष्योंको खा लिया करता था। तब एक इस प्रकार उस राक्षसका सन्देश पाकर मैं तुम्हारे दिन समस्त नगरवासियोंने मिलकर उससे प्रार्थना की- निकट आया हूँ। 'राक्षस ! तुम हम सब लोगोंकी रक्षा करो। हम तुम्हारे ब्राह्मणने पूछा-प्रामपाल ! जो रातमें सोये लिये भोजनकी व्यवस्था किये देते हैं। यहाँ बाहरके जो हुए मनुष्योंको खाता है, वह प्राणी किस पापसे राक्षस पथिक रातमें आकर नींद लेने लगें, उनको खा जाना।' हुआ है? इस प्रकार नागरिक मनुष्योंने गाँवके (मुझ) मुखिया- ग्रामपाल बोला-ब्रह्मन् ! पहले इस गाँवमें द्वारा इस धर्मशालामें भेजे हुए पथिकोंको ही राक्षसका कोई किसान ब्राह्मण रहता था। एक दिन वह अगहनीके आहार निश्चित किया। अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही खेतको क्यारियोंकी रक्षा करने लगा था । वहाँसे थोड़ी उन्हें ऐसा करना पड़ा । तुम भी अन्य राहगीरोंके साथ इस ही दूरपर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राहीको मारकर खा घरमें आकर सोये थे; किन्तु राक्षसने उन सबोंको तो खा रहा था। उसी समय एक तपस्वी कहींसे आ निकले, जो लिया, केवल तुम्हे छोड़ दिया है। द्विजोत्तम ! तुममें ऐसा उस राहीको बचानेके लिये दूरसे ही दया दिखाते आ रहे
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• अर्थयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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थे। गिद्ध उस राहीको खाकर आकाशमें उड़ गया । तब ग्यारहवें अध्यायका जप करता है, उस मनुष्यके द्वारा तपस्वीने कुपित होकर उस किसानसे कहा-'ओ दुष्ट अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तकपर पड़ेगा, उस हलवाहे ! तुझे धिक्कार है। तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी समय तुम्हें शापसे छुटकारा मिल जायगा। है। दूसरेकी रक्षासे मुँह मोड़कर केवल पेट पालनेके यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह धंधेमें लगा है। तेरा जीवन नष्टप्राय है। अरे ! जो चोर, हलवाहा राक्षस हो गया; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलो और दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि, विष, जल, गोध, ग्यारहवें अध्यायसे तीर्थके जलको अभिमन्त्रित करो। फिर राक्षस, भूत तथा बेताल आदिके द्वारा घायल हुए अपने ही हाथसे उस राक्षसके मस्तकपर उसे छिड़क दो। मनुष्योंकी शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है, वह उनके ग्रामपालकी यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मणका हृदय वधका फल पाता है। जो शक्तिशाली होकर भी चोर करुणासे भर आया। वे बहुत अच्छा' कहकर उसके साथ आदिके चंगुल में फंसे हुए ब्राह्मणको छुड़ानेकी चेष्टा नहीं राक्षसके निकट गये। वे ब्राह्मण योगी थे। उन्होंने करता, वह घोर नरकमें पड़ता और पुनः भेड़ियेकी योनिमें विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्यायसे जल अभिमन्त्रित जन्म लेता है। जो वनमें मारे जाते हुए तथा गृध्र और करके उस राक्षसके मस्तकपर डाला। गीताके अध्यायके व्याघ्रकी दृष्टि में पड़े हुए जीवकी रक्षाके लिये 'छोड़ो, प्रभावसे वह शापसे मुक्त हो गया। उसने राक्षस-देहका छोड़ो' की पुकार करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता परित्याग करके चतुर्भुज रूप धारण कर लिया तथा उसने है। जो मनुष्य गौओंको रक्षाके लिये व्याघ, भील तथा दुष्ट राजाओंके हाथसे मारे जाते हैं, वे भगवान् विष्णुके उस परमपदको पाते हैं जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। सहस्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागतरक्षाकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते। दीन तथा भयभीत जीवको उपेक्षा करनेसे पुण्यवान् पुरुष भी समय आनेपर कुम्भीपाक नामक नरकमें पकाया जाता है।* तूने दुष्ट गिद्धके द्वारा खाये जाते हुए राहीको देखकर उसे बचानेमें समर्थ होते हुए भी जो उसकी रक्षा नहीं की, इससे तू निर्दयी जान पड़ता है; अतः तु राक्षस हो जा?'
हलवाहा बोला-महात्मन् ! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किन्तु मेरे नेत्र बहुत देरसे खेतकी रक्षामें लगे थे, अतः पास होनेपर भी गिद्धके द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्यको मैं नहीं जान सका। अतः मुझ दीनपर आपको अनुग्रह करना चाहिये।
तपस्वी ब्राह्मणने कह-जो प्रतिदिन गीताके
*अमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च॥ शरणागतसंत्राणकला नाहन्ति षोडशीम्। दीनस्योपेक्षणं कृत्वा भीतस्य च शरीरिणः ।। पुण्यवानपि कालेन कुम्भीपाके स पच्यते।
(१८१८२-८४)
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उत्तरखण्ड ] ..
. श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य .
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जिन सहस्रों पथिकोंका भक्षण किया था, वे भी शङ्ख, और निरन्तर उसका जप करते रहो। इसमें सन्देह नहीं चक्र एवं गदा धारण किये चतुर्भुज रूप हो गये। कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी। तात ! तत्पश्चात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए। इतनेमें ही मनुष्योंके लिये साधु पुरुषोंका सङ्ग सर्वथा दुर्लभ है। ग्रामपालने राक्षससे कहा-'निशाचर ! मेरा पुत्र कौन वह भी इस समय तुम्हे प्राप्त है; अतः अपना अभीष्ट है? उसे दिखाओ।' उसके यों कहनेपर दिव्य बुद्धिवाले सिद्ध करो। धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और राक्षसने कहा-'ये जो तमालके समान श्याम, चार पूर्तकोसे क्या लेना है। विश्वरूपाध्यायके पाठसे ही भुजाधारी, माणिक्यमय मुकुटसे सुशोभित तथा दिव्य परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है। पूर्णानन्दसन्दोहमणियोंके बने हुए कुण्डलोंसे अलङ्कत हैं, हार पहननेके स्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्मके मुखसे कुरुक्षेत्रमें अपने कारण जिनके कंधे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोनेके मित्र अर्जुनके प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, भुजबंदोंसे विभूषित, कमलके समान नेत्रवाले, स्निग्धरूप वही श्रीविष्णुका परम तात्त्विक रूप है। तुम उसीका तथा हाथमें कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमानपर चिन्तन करो। वह मोक्षके लिये प्रसिद्ध रसायन है। बैठकर देवत्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन्हींको अपना पुत्र संसार-भयसे डरे हुए मनुष्योंकी आधि-व्याधिका समझो।' यह सुनकर ग्रामपालने उसी रूपमें अपने विनाशक तथा अनेक जन्मके दुःखोंका नाश करनेवाला पुत्रको देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा। यह देख है। मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधनको ऐसा नहीं उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा। देखता, अतः उसीका अभ्यास करो।
पुत्र बोला-ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र श्रीमहादेवजी कहते हैं-यों कहकर वह सबके हो चुके हो। पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किन्तु अब देवता साथ श्रीविष्णुके परमधामको चला गया । तब ग्रामपालने हो गया हूँ। इन ब्राह्मण-देवताके प्रसादसे वैकुण्ठधामको ब्राह्मणके मुखसे उस अध्यायको पढ़ा । फिर वे दोनों ही जाऊँगा । देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुज रूपको प्राप्त हो उसके माहात्म्यसे विष्णुधामको चले गये। पार्वती ! गया। ग्यारहवें अध्यायके माहात्म्यसे यह सब लोगोंके इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्यायको माहात्म्य-कथा साथ श्रीविष्णुधामको जा रहा है; अतः तुम भी इन सुनायी है। इसके श्रवणमात्रसे महान् पातकोका नाश ब्राह्मणदेवसे गीताके ग्यारहवें अध्यायका अध्ययन करो हो जाता है।
श्रीमद्भगवद्रीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती! दक्षिण- सुन्दर, ग्रीवा शङ्कके समान, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा दिशामें कोल्हापुर नामका एक नगर है, जो सब प्रकारके भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। नगरमें प्रवेश करके सब ओर सुखोंका आधार, सिद्ध-महात्माओंका निवासस्थान तथा महलोकी शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मीके सिद्धि-प्राप्तिका क्षेत्र है। वह पराशक्ति भगवती लक्ष्मीका दर्शनार्थ उत्कण्ठित हो मणिकण्ठ तीर्थमें गया और वहाँ प्रधान पीठ है। सम्पूर्ण देवता उसका सेवन करते हैं। स्नान करके उसने पितरोंका तर्पण किया। फिर महामाया वह पुराणप्रसिद्ध तीर्थ भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला महालक्ष्मीजीको प्रणाम करके भक्तिपूर्वक स्तवन करना है। वहाँ करोड़ों तीर्थ और शिवलिङ्ग हैं। रुद्रगया भी आरम्भ किया। वहीं है। वह विशाल नगर लोगोंमें बहुत विख्यात है। राजकुमार बोला-जिसके हृदयमें असीम दया एक दिन कोई युवक पुरुष उस नगरमें आया। [वह भरी हुई है, जो समस्त कामनाओंको देली तथा अपने कहींका राजकुमार था।] उसके शरीरका रंग गोरा, नेत्र कटाक्षमात्रसे सारे जगत्की सृष्टि, पालन और संहार
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. अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
करती है, उस जगन्माता महालक्ष्मीकी जय हो ! जिस अश्वमेध नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। वे शक्तिके सहारे उसीके आदेशके अनुसार परमेष्ठी ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, भगवान् अच्युत जगत्का पालन करते है तथा भगवान् रुद्र अखिल विश्वका संहार करते हैं, उस सृष्टि, पालन और संहारकी शक्तिसे सम्पन्न भगवती पराशक्तिका मैं भजन करता हूँ।
कमले ! योगीजन तुम्हारे चरण-कमलोका चिन्तन करते हैं। कमलालये ! तुम अपनी स्वाभाविक सत्तासे ही हमारे समस्त इन्द्रियगोचर विषयोंको जानती हो । तुम्ही कल्पनाओंके समूहको तथा उसका सङ्कल्प करनेवाले मनको उत्पन्न करती हो। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति-ये सब तुम्हारे ही रूप है। तुम परासंवित् (परम ज्ञान)-रूपिणी हो। तुम्हारा स्वरूप निष्कल, निर्मल, नित्य, निराकार, निरञ्जन, अन्तररहित आतङ्कशून्य, आलम्बहीन तथा निरामय है। देवि ! तुम्हारी महिमाका वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है। जो षट्चक्रोंका भेदन करके अन्तःकरणके बारह स्थानोंमें विहार करती है, अनाहत ध्वनि, विन्दु, नाद दैवयोगसे रोगग्रस्त होकर स्वर्गगामी हो गये। इसी बीचमें
और कला-ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता यूपमें बंधे हुए मेरे यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको, जो समूची महालक्ष्मीको मैं प्रणाम करता हूँ। माता ! तुम अपने- पृथ्वीकी परिक्रमा करके लौटा था, किसीने रात्रिमें बन्धन [मुखरूपी] पूर्ण चन्द्रमासे प्रकट होनेवाली अमृत- काटकर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया। उसकी खोजमें मैंने राशिको बहाया करती हो। तुम्ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा कुछ लोगोंको भेजा था; किन्तु वे कहीं भी उसका पता
और वैखरी नामक वाणी हो। मैं तुम्हें नमस्कार करता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये है, तब मैं सब हूँ। देवि ! तुम जगत्को रक्षाके लिये अनेक रूप धारण ऋत्विजोंसे आज्ञा लेकर तुम्हारी शरणमें आया हूँ। देवि ! किया करती हो। अम्बिके ! तुम्ही ब्राह्मी, वैष्णवी तथा यदि तुम मुझपर प्रसत्र हो तो मेरे यज्ञका घोड़ा मुझे मिल माहेश्वरी शक्ति हो। वाराही, महालक्ष्मी, नारसिंही, ऐन्द्री, जाय, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके। तभी मैं अपने पिता कौमारी, चण्डिका, जगत्को पवित्र करनेवाली लक्ष्मी, महाराजका ऋण उतार सकूँगा। शरणागतोंपर दया जगन्माता सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्ही हो। करनेवाली जगज्जननी लक्ष्मी ! जिससे मेरा यज्ञ पूर्ण हो, परमेश्वरि ! तुम भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये वह उपाय करो। कल्पलताके समान हो । मुझपर प्रसन्न हो जाओ। भगवती लक्ष्मीने कहा-राजकुमार ! मेरे
उसके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती मन्दिरके दरवाजेपर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगोंमें महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके सिद्धसमाधिके नामसे विख्यात है। वे मेरी आज्ञासे बोलीं-'राजकुमार ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम कोई तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे। उत्तम वर मांगो।'
- महालक्ष्मीके इस प्रकार कहनेपर राजकुमार उस राजपुत्र बोला-माँ ! मेरे पिता राजा बृहद्रथ स्थानपर आये, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे। उनके
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उत्तरखण्ड ] .
• श्रीमद्भगवद्रीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य •
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चरणोंमें प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ खड़े मैंने रख छोड़ा है। साधुश्रेष्ठ ! आप उन्हें पुनः जीवित हो गये। तब ब्राह्मणने कहा-'तुम्हें माताजीने यहाँ कर दीजिये। भेजा है। अच्छा, देखो; अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट यह सुनकर महामुनि ब्राह्मणने किश्चित् मुसकराकर कार्य सिद्ध करता हैं।' यों कहकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणने कहा-'चलो, जहाँ यज्ञमण्डपमें तुम्हारे पिता मौजूद है, सब देवताओंको वहीं खींचा। राजकुमारने देखा, उस चलें।' तब सिद्धसमाधिने राजकुमारके साथ वहाँ जाकर समय सब देवता हाथ जोड़े थरथर काँपते हुए वहाँ जल अभिमन्त्रित किया और उसे उस शवके मस्तकपर उपस्थित हो गये। तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने समस्त रखा। उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे। फिर देवताओंसे कहा-'देवगण ! इस राजकुमारका अश्व, उन्होंने ब्राह्मणको देखकर पूछा-'धर्मस्वरूप ! आप जो यज्ञके लिये निश्चित हो चुका था, रातमें देवराज कौन हैं?' तब राजकुमारने महाराजसे पहलेका सारा इन्द्रने चुराकर अन्यत्र पहुंचा दिया है; उसे शीघ्र हाल कह सुनाया। राजाने अपनेको पुनः जीवन-दान ले आओ।'
देनेवाले ब्राह्मणको नमस्कार करके पूछा-'ब्रह्मन् ! तब देवताओंने मुनिके कहनेसे यज्ञका घोड़ा लाकर किस पुण्यसे आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई दे दिया। इसके बाद उन्होंने उन्हें जानेकी आज्ञा दी। है?' उनके यो कहनेपर ब्राह्मणने मधुर वाणीमें कहादेवताओंका आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्वको 'राजन् ! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीताके बारहवें पाकर राजकुमारने मुनिके चरणोंमें प्रणाम करके कहा- अध्यायका जप करता हूँ, उसीसे मुझे यह शक्ति मिली 'महर्षे ! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है । आप ही है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है।' यह सुनकर ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं । ब्रह्मन् ! मेरी ब्राह्मणोंसहित राजाने उन ब्रह्मर्षिसे गीताके बारहवें प्रार्थना सुनिये, मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध यज्ञका अध्यायका अध्ययन किया। उसके माहात्म्यसे उन अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोगसे मृत्युको प्राप्त हो गये सबकी सद्गति हो गयी। दूसरे-दूसरे जीव भी उसके हैं। अभीतक उनका शरीर तपाये हुए तेलमें सुखाकर पाठसे परम मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं।
"श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
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श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! अब तेरहवें सम्बन्ध रखनेवाले जितने लोग घरपर आते, उन सबको अध्यायकी अगाध महिमाका वर्णन सुनो । उसको सुननेसे डाँट बताती और स्वयं कामोन्मत्त होकर निरन्तर तुम बहुत प्रसन्न होओगी । दक्षिण दिशामें तुङ्गभद्रा नामकी व्यभिचारियोंके साथ रमण किया करती थी। एक दिन एक बहुत बड़ी नदी है। उसके किनारे हरिहरपुर नामक नगरको इधर-उधर आते-जाते हुए पुरवासियोंसे भरा देख रमणीय नगर बसा हुआ है। वहाँ साक्षात् भगवान् हरिहर उसने निर्जन एवं दुर्गम वनमें अपने लिये सङ्केतस्थान बना विराजमान हैं, जिनके दर्शनमात्रसे परम कल्याणकी प्राप्ति लिया। एक समय रातमें किसी कामीको न पाकर वह होती है। हरिहरपुरमें हरिदीक्षित नामक एक श्रोत्रिय घरके किवाड़ खोल नगरसे बाहर सङ्केतस्थानपर चली ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्यायमें संलग्र तथा गयी। उस समय उसका चित्त कामसे मोहित हो रहा था। वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। उनके एक खी थी, जिसे लोग वह एक-एक कुंजमें तथा प्रत्येक वृक्षके नीचे जा-जाकर दुराचारा कहकर पुकारते थे। इस नामके अनुसार ही किसी प्रियतमकी खोज करने लगी; किन्तु उन सभी उसके कर्म भी थे। वह सदा पतिको कुवाच्य कहती थी। स्थानोंपर उसका परिश्रम व्यर्थ गया। उसे प्रियतमका उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया। पतिसे दर्शन नहीं हुआ। तब वह उस वनमें नाना प्रकारकी बातें
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• अर्जयस्व इवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[ संक्षिप्त पयपुराण
कहकर विलाप करने लगी। चारों दिशाओमें घूम- इस दुर्गम वनमें रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापोंको याद घूमकर वियोगजनित विलाप करती हुई उस स्त्रीकी करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती आवाज सुनकर कोई सोया हुआ व्याघ्र जाग उठा और स्त्रियोंको मैं नहीं खाता। पापी, दुराचारी तथा कुलटा उछलकर उस स्थानपर पहुंचा, जहाँ वह रो रही थी। स्त्रियोंको ही मैं अपना भक्ष्य बनाता है। अतः कुलटा उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमीको आशङ्कासे होनेके कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी। उसके सामने खड़ी होनेके लिये ओटसे बाहर निकल यों कहकर वह अपने कठोर नखोसे उसके शरीरके आयी। उस समय व्याघ्रने आकर उसे नखरूपी वाणोंके टुकड़े-टुकड़े करके रखा गया। इसके बाद यमराजके दूत प्रहारसे पृथ्वीपर गिरा दिया। इस अवस्थामे भी वह उस पापिनीको संयमनीपुरीमें ले गये। वहाँ यमराजकी कठोर वाणीमें चिल्लाती हुई पूछ बैठी-'अरे बाघ ! तू आज्ञासे उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्तसे किसलिये मुझे मारनेको यहाँ आया है? पहले इन सारी भरे हुए भयानक कुण्डोंमें गिराया। करोड़ों कल्पोंतक बातोंको बता दे, फिर मुझे मारना।'
उसमें रखनेके बाद उसे वहाँसे ले आकर सौ मन्वन्तरोंउसकी यह बात सुनकर प्रचण्ड पराक्रमी व्यान तक गैरव नरकमें रखा। फिर चारों ओर मुँह करके क्षणभरके लिये उसे अपना ग्रास बनानेसे रुक गया और दीनभावसे रोती हुई उस पापिनीको वहाँसे खींचकर हैंसता हुआ-सा बोला-'दक्षिण देशमे मलापहा नामक दहनानन नामक नरकमें गिराया। उस समय उसके केश एक नदी है। उसके तटपर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है। खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखायी देता था। इस वहाँ पञ्चलिङ्ग नामसे प्रसिद्ध साक्षात् भगवान् शङ्कर प्रकार घोर नरक-यातना भोग चुकनेपर वह महापापिनी निवास करते हैं। उसी नगरीमें मैं ब्राह्मणकुमार होकर इस लोकमें आकर चाण्डाल योनिमें उत्पन्न हुई। रहता था। नदीके किनारे अकेला बैठा रहता और जो चाण्डालके घरमें भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्मके यज्ञके अधिकारी नहीं हैं, उन लोगोंसे भी यज्ञ कराकर अभ्याससे पूर्ववत् पापोंमें प्रवृत्त रही। फिर उसे कोढ़ और उनका अन्न खाया करता था। इतना ही नहीं, धनके राजयक्ष्माका रोग हो गया। नेत्रों में पीड़ा होने लगी। फिर लोभसे मैं सदा अपने वेदपाठके फलको भी बेचा करता कुछ कालके पश्चात् वह पुनः अपने निवासस्थानको गयी,
था। मेरा लोभ यहाँतक बढ़ गया था कि अन्य जहाँ भगवान् शिवके अन्तःपुरको स्वामिनी जम्भकादेवी भिक्षुओंको गालियां देकर हटा देता और स्वयं दूसरोंका विराजमान हैं। वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र नहीं देने योग्य घन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया ब्राह्मणका दर्शन किया, जो निरन्तर गीताके तेरहवे करता था। ऋण लेनेके बहाने मैं सब लोगोको छला अध्यायका पाठ करता रहता था। उसके मुखसे गीताका करता था। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होनेपर मैं बूढ़ा पाठ सुनते ही वह चाण्डाल-शरीरसे मुक्त हो गयी और हुआ। मेरे बाल सफेद हो गये। आँखोसे सूझता न था दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोकमें चली गयी।
और मैंहके सारे दाँत गिर गये। इतनेपर भी मेरी दान श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! अब मैं लेनेकी आदत नहीं छूटी । पर्व आनेपर प्रतिग्रहके लोभसे भव-बन्धनसे छुटकारा पानेके साधनभूत चौदहवे मैं हाथमें कुश लिये तीर्थके समीप चला जाया करता था। अध्यायका माहात्म्य बतलाता है, तुम ध्यान देकर सुनो। तत्पश्चात् जब मेरे सारे अङ्ग शिथिल हो गये, तब एक बार सिंहल द्वीपमे विक्रम बेताल नामक एक राजा थे, जो मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणोंके घरपर माँगने-खानेके लिये गया। सिंहके समान पराक्रमी और कलाओंके भंडार थे। एक उसी समय मेरे पैरमें कुत्तेने काट लिया। तब मैं मूर्छित दिन वे शिकार खेलनेके लिये उत्सुक होकर राजकुमारोंहोकर क्षणभरमें पृथ्वीपर गिर पड़ा। मेरे प्राण निकल सहित दो कुतियोंको साथ लिये कनमें गये। वहाँ गये। उसके बाद मैं इसी व्याघ्रयोनिमें उत्पन्न हुआ। तबसे पहुंचनेपर उन्होंने तीव्र गतिसे भागते हुए खरगोशके पीछे
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भगवदीनाके तेरहवे और चौदहवे अध्यायोंका माहात्म्य .
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अपनी कुतिया छोड़ दी। उस समय सब प्राणियोंके भी कुछ कीचड़के छींटे लग गये। फिर भूख-प्यासकी
पौड़ासे रहित हो कुतियाका रूप त्यागकर उसने दिव्याङ्गनाका रमणीय रूप धारण कर लिया तथा गन्धर्वोसे सुशोभित दिव्य विमानपर आरूढ़ हो वह भी स्वर्गलोकको चली गयी। यह देख मुनिके मेधावी शिष्य
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देखते-देखते खरगोश इस प्रकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया हो। दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जानेके कारण वह एक बड़ी खंदकमें गिर पड़ा। गिरनेपर भी वह कुतियाके हाथ नहीं आया और उस स्थानपर जा पहुंचा, जहाँका वातावरण बहुत ही शान्त था। वहाँ हरिन निर्भय होकर सब ओर वृक्षोंकी छायामें बैठे रहते थे। बंदर भी स्वकन्धर हँसने लगे। उन दोनोंके पूर्वजन्मके वैरका अपने-आप टूटकर गिरे हुए नारियलके फलों और पके कारण सोचकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ था। उस समय हुए आमोंसे पूर्ण तृप्त रहते थे। वहाँ सिंह हाथीके बच्चोंके राजाके नेत्र भी आचर्यसे चकित हो उठे। उन्होंने बड़ी साथ खेलते और साँप निडर होकर मोरकी पास्त्रों में घुस भक्तिके साथ प्रणाम करके पूछा-'विप्रवर ! ये नीच जाते थे। उस स्थानपर एक आश्रमके भीतर वत्स नामक योनिमें पड़े हुए दोनों प्राणी-कुतिया और खरगोश मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय एवं शान्तभावसे निरन्तर ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्गमें चले गये-इसका क्या गीताके चौदहवें अध्यायका पाठ किया करते थे। कारण है ? इसकी कथा सुनाइये।' आश्रमके पास ही वत्स मुनिके किसी शिष्यने अपना पैर शिष्यने कहा-भूपाल ! इस वनमें वत्स नामक धोया था। उसके जलसे वहाँकी मिट्टी गीली हो गयी ब्राह्मण रहते हैं, वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा हैं; गीताके थी। खरगोशका जीवन कुछ शेष था । वह हाँफता हुआ चौदहवें अध्यायका सदा जप किया करते हैं। मैं उन्हींका आकर उसी कीचड़में गिर पड़ा। उसके स्पर्शमात्रसे ही शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्मविद्यामें विशेषज्ञता प्राप्त की है। खरगोश संसार-सागरके पार हो गया और दिव्य गुरुजीकी ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्यायका प्रतिदिन विमानपर बैठकर स्वर्गलोकको चला गया। फिर कुतिया जप करता हूँ। मेरे पैर धोनेके जलमें लोटनेके कारण यह भी उसका पीछा करती हई आयी। वहाँ उसके शरीरमें खरगोश कुतियाके साथ ही स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ है।
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. अर्थयस्व एपीकेशं यदीच्छसि परं पदम् +
[ संक्षिप्त पयपुराण
अब मैं अपने हंसनेका कारण बताता है। महाराष्ट्रमें उसी पापसे उसको खरगोशकी योनिमें जन्म मिला। प्रत्युदक नामक महान् नगर है; वहाँ केशव नामका एक ब्राह्मणी भी अपने पापके कारण कुतिया हुई। ब्राह्मण रहता था, जो कपटी मनुष्योंमें अग्रगण्य था। श्रीमहादेवजी कहते है-यह सारी कथा उसकी स्त्रीका नाम विलोभना था। वह स्वच्छन्द विहार सुनकर श्रद्धालु राजाने गीताके चौदहवें अध्यायका करनेवाली थी। इससे क्रोधमें आकर जन्मभरके वैरको पाठ आरम्भ कर दिया। इससे उन्हें परमगतिकी याद करके ब्राह्मणने अपनी स्त्रीका वध कर डाला और प्राप्ति हुई।
श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! अब गीताके देखा । अश्वका लक्षण जाननेवाले अमात्योंने उसकी बड़ी पंद्रहवे अध्यायका माहात्म्य सुनो। गौडदेशमें कृपाण- प्रशंसा की। सुनकर राजा अपार आनन्दमें निमग्न हो गये नरसिंह नामक एक राजा थे, जिनकी तलवारकी धारसे और उन्होंने वैश्यको मुंहमांगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस युद्धमें देवता भी परास्त हो जाते थे। उनका बुद्धिमान् अश्वको खरीद लिया। कुछ दिनोंके बाद एक समय राजा सेनापति शस्त्र और शास्त्रकी कलाओंका भण्डार था। शिकार खेलनेके लिये उत्सुक हो उसी घोड़ेपर चढ़कर उसका नाम था सरभ-मेरुण्ड । उसकी भुजाओंमें प्रचण्ड वनमें गये। वहाँ मृगोंके पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बल था। एक समय उस पापीने राजकुमारोंसहित बढ़ाया। पीछे-पीछे सब ओरसे दौड़कर आते हुए समस्त महाराजका वध करके स्वयं ही राज्य करनेका विचार सैनिकोंका साथ छूट गया। वे हिरनोद्वारा आकृष्ट होकर किया। इस निश्चयके कुछ ही दिनों बाद वह हैजेका बहुत दूर निकल गये। प्यासने उन्हें व्याकुल कर दिया। शिकार होकर मर गया। थोड़े समयमें वह पापात्मा तब वे घोड़ेसे उतरकर जलको खोज करने लगे। घोड़ेको अपने पूर्वकर्मके कारण सिन्धुदेशमें एक तेजस्वी घोड़ा तो उन्होंने वृक्षकी डालोमें बाँध दिया और स्वयं एक हुआ। उसका पेट सटा हुआ था। घोड़ेके लक्षणोंका चट्टानपर चढ़ने लगे। कुछ दूर जानेपर इन्होंने देखा कि ठीक-ठीक ज्ञान रखनेवाले किसी वैश्यके पुत्रने एक पत्तेका टुकड़ा हवासे उड़कर शिलाखण्डपर गिरा है। बहुत-सा मूल्य देकर उस अधको खरीद लिया और बड़े उसमें गीताके पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोक लिखा यत्नके साथ उसे राजधानीतक वह ले आया। वैश्य- हुआ था। राजा उसे बाँचने लगे। उनके मुखसे गीताके कुमार वह अश्व राजाको देनेके लिये लाया था। यद्यपि अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्वयोनिसे राजा उससे परिचित थे, तथापि द्वारपालने जाकर उसके उसकी मुक्ति हो गयी तथा तुरंत ही दिव्य विमानपर आगमनकी सूचना की। राजाने पूछ-'किसलिये आये बैठकर वह स्वर्गलोकको चला गया। तत्पश्चात् राजाने हो?' तब उसने स्पष्ट शब्दोंमें उत्तर दिया- 'देव ! पहाड़पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ सिन्धुदेशमें एक उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न अश्व था, जिसे नागकेसर, केले, आम और नारियलके वृक्ष लहरा रहे तीनों लोकोंका एक रत्न समझकर मैंने बहुत-सा मूल्य थे। आश्रमके भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो देकर खरीद लिया है।' राजाने आज्ञा दी-'उस अश्वको संसारको वासनाओसे मुक्त थे। राजाने उन्हें प्रणाम करके यहाँ ले आओ।'...
. बड़ी भक्तिके साथ पूछा- 'ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभीवास्तवमें वह घोड़ा गुणोंमें उचैःश्रवाके समान था। अभी स्वर्गको चला गया है, उसमें क्या कारण है?' सुन्दर रूपका तो मानो घर ही था। शुभ लक्षणोंका समुद्र राजाकी बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मन्त्रवेत्ता एवं जान पड़ता था। वैश्य घोड़ा ले आया और राजाने उसे महापुरुषोंमें श्रेष्ठ विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मणने कहा
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उत्तरखण्ड ]
• श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य .
KUR
'राजन् ! पूर्वकालमें तुम्हारे यहाँ जो 'सरभ मेरुण्ड' गुजरातमें सौराष्ट्र नामक एक नगर है। वहाँ खड्गबाहु नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रोंसहित मारकर स्वयं नामके राजा राज्य करते थे, जो दूसरे इन्द्रके समान
प्रतापी थे। उनके एक हाथी था, जो मद बहाया करता और सदा मदसे उन्मत्त रहता था। उस हाथीका नाम अरिमर्दन था। एक दिन रातमें वह हठात् साँकलो और लोहेके खम्भोंको तोड़-फोड़कर बाहर निकला । हाथीवान उसके दोनों ओर अङ्कश लेकर डरा रहे थे, किन्तु क्रोधवश उन सबकी अवहेलना करके उसने अपने रहनेके स्थान-हथिसारको ढहा दिया। उसपर चारो
ओरसे भालोकी मार पड़ रही थी। फिर भी हाथीवान ही डरे हुए थे, हाथीको तनिक भी भय नहीं होता था। इस कौतूहलपूर्ण घटनाको सुनकर राजा स्वयं हाथीको मनानेकी कलामें निपुण राजकुमारोंके साथ वहाँ आये। आकर उन्होंने उस बलवान् दैतैले हाथीको देखा। नगरके निवासी अन्य काम-धंधोंकी चिन्ता छोड़ अपने बालकोंको भयसे बचाते हुए बहुत दूर खड़े होकर उस महाभयङ्कर गजराजको देखते रहे। इसी समय कोई
ब्राह्मण तालाबसे नहाकर उसी मार्गसे लौटे । वे गीताके राज्य हड़प लेनेको तैयार था। इसी बीचमें हैजेका सोलहवें अध्यायके कुछ श्लोकोंका जप कर रहे थे। शिकार होकर वह मृत्युको प्राप्त हो गया। उसके बाद वह पुरवासियों और पीलवानोंने उन्हें बहुत मना किया; किन्तु उसी पापसे घोड़ा हुआ था। यहाँ कहीं गीताके पंद्रहवे उन्होंने किसीकी न मानी। उन्हें हाथीसे भय नहीं था; अध्यायका आधा श्लोक लिखा मिल गया था, उसे ही इसीलिये वे विचलित नहीं हुए। उधर हाथी अपने तुम बाँचने लगे। उसीको तुम्हारे मुखसे सुनकर वह अश्व फूत्कारसे चारों दिशाओंको व्याप्त करता हुआ लोगोंको स्वर्गको प्राप्त हुआ है।
कुचल रहा था। वे ब्राह्मण उसके बहते हुए मदको तदनन्तर राजाके पार्श्ववर्ती सैनिक उन्हें ढूँढ़ते हुए हाथसे छूकर कुशलपूर्वक निकल गये। इससे वहाँ राजा वहाँ आ पहुँचे । उन सबके साथ ब्राह्मणको प्रणाम करके तथा देखनेवाले पुरवासियोंके मनमें इतना विस्मय हुआ राजा प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे चले और गीताके पंद्रहवें कि उसका वर्णन नहीं हो सकता। राजाके कमलनेत्र अध्यायके श्लोकाक्षरोंसे अङ्कित उसी पत्रको बाँच- चकित हो उठे थे। उन्होंने ब्राह्मणको बुला सवारीसे बाँचकर प्रसन्न होने लगे। उनके नेत्र हर्षसे खिल उठे उतरकर उन्हें प्रणाम किया और पूछा-'ब्रह्मन् ! आज थे। घर आकर उन्होंने मन्त्रवेत्ता मन्त्रियोंके साथ अपने आपने यह महान् अलौकिक कार्य किया है, क्योंकि इस पुत्र सिंहवलको राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त किया और कालके समान भयंकर गजराजके सामनेसे आप स्वयं पंद्रहवें अध्यायके जपसे विशुद्धचित्त होकर मोक्ष सकुशल लौट आये है। प्रभो! आप किस देवताका प्राप्त कर लिया।
पूजन तथा किस मन्त्रका जप करते हैं ? बताइये, आपने * श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती! अब मैं कौन-सी सिद्धि प्राप्त की है?' गीताके सोलहवें अध्यायका माहात्म्य बताऊँगा, सुनो। ब्राह्मणने कहा-राजन् ! मैं प्रतिदिन गीताके
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. अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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सोलहवे अध्यायके कुछ श्लोकोका जप किया करता हैं. नगरमें आनेपर उन्होंने अपने राजकुमारको राज्यपर उसीसे ये सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।
अभिषिक्त कर दिया तथा स्वयं गीताके सोलहवें श्रीमहादेवजी कहते हैं-तब हाथीका कौतूहल अध्यायका जप करके परमगति प्राप्त की। देखनेको इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मणदेवताको साथ ले अपने महलमें आये। वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्ण-मुद्राओकी दक्षिणा दे उन्होंने ब्राह्मणको संतुष्ट किया
और उनसे गीता-मन्त्रको दीक्षा ली। गीताके सोलहवे अध्यायके कुछ श्लोकोका अभ्यास कर लेनेके बाद उनके मनमें हाथीको छोड़कर उसके कौतुक देखनेकी इच्छा जाग्रत् हुई। फिर तो एक दिन सैनिकोंके साथ बाहर निकलकर राजाने हाथीवानोंसे उसी मत्त गजराजका बन्धन खुलवाया। उन्हें भयकी बात भूल गयी। राज्यके सुखविलासके प्रति आदरका भाव नहीं रहा । वे अपना जीवन तृणवत् समझकर हाथीके सामने चले गये। साहसी मनुष्योंमें अग्रगण्य राजा खङ्गबाहु मन्त्रपर विश्वास करके हाथीके समीप गये और मदकी अनवरत धारा बहाते हुए उसके गण्डस्थलको हाथसे छूकर सकुशल लौट आये। कालके मुखसे धार्मिक और खलके मुखसे साधु पुरुषकी भाँति राजा उस गजराजके मुखसे बचकर निकल आये।
श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! सोलहवें उसके प्राण निकल गये। इस प्रकार कालवश मृत्युको अध्यायका माहात्म्य बतलाया गया। अब सत्रहवें प्राप्त होनेके बाद उसे हाथोकी ही योनि मिली और अध्यायकी अनन्त महिमा श्रवण करो। राजा खड्गबाहुके सिंहलद्वीपके महाराजके यहाँ उसने अपना बहुत समय पुत्रका दुःशासन नामक एक नौकर था। वह बड़ी खोटी व्यतीत किया। बुद्धिका मनुष्य था। एक बार वह माण्डलिक सिंहलद्वीपके राजाको महाराज खड्गबाहुसे बड़ी राजकुमारोंके साथ बहुत धनकी बाजी लगाकर हाथीपर मैत्री थी, अतः उन्होंने जलके मार्गसे उस हाथीको चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जानेपर लोगोंके मना मित्रकी प्रसन्नताके लिये भेज दिया। एक दिन राजाने करनेपर भी वह मूढ़ हाथीके प्रति जोर-जोरसे कठोर श्लोककी समस्या-पूर्तिसे सन्तुष्ट होकर किसी कविको शब्द करने लगा। उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोधसे पुरस्काररूपमें वह हाथी दे दिया और उन्होंने सौ अंधा हो गया और दुःशासन पैर फिसल जानेके कारण स्वर्ण-मुद्राएँ लेकर उसे मालव-नरेशके हाथ बेच दिया। पृथ्वीपर गिर पड़ा। दुःशासनको गिरकर कुछ-कुछ कुछ काल व्यतीत होनेपर वह हाथी यत्नपूर्वक पालित उच्छ्वास लेते देख कालके समान निरङ्कश हाथीने होनेपर भी असाध्य ज्वरसे ग्रस्त होकर मरणासन्न हो क्रोधमें भरकर उसे ऊपर फेक दिया। ऊपरसे गिरते ही गया। हाथीवानोंने जब उसे ऐसी शोचनीय अवस्थामें
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भगवदीताके सत्रहवें और अठारहवे अध्यायोंका माहात्म्य ,
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देखा तो राजाके पास जाकर हाथोके हितके लिये शीघ्र उत्तम जलको अभिमन्त्रित करके उसके ऊपर डाला, तो ही सारा हाल कह सुनाया-'महाराज ! आपका हाथी दुःशासन गजयोनिका परित्याग करके मुक्त हो गया। अस्वस्थ जान पड़ता है। उसका खाना, पीना और सोना राजाने दुःशासनको दिव्य विमानपर आरूढ़ एवं इन्द्रके सब छूट गया है। हमारी समझमें नहीं आता इसका क्या समान तेजस्वी देखकर पूछा-'तुम्हारी पूर्व-जन्ममें क्या कारण है।'
जाति थी? क्या स्वरूप था? कैसे आचरण थे? और हाथीवानोंका बताया हुआ समाचार सुनकर राजाने किस कर्मसे तुम यहाँ हाथी होकर आये थे? ये सारी हाथीके रोगको पहचाननेवाले चिकित्साकुशल मन्त्रियोंके बाते मुझे बताओ।' राजाके इस प्रकार पूछनेपर सङ्कटसे साथ उस स्थानपर पदार्पण किया जहाँ हाथी ज्वरग्रस्त छूटे हुए दुःशासनने विमानपर बैठे-ही-बैठे स्थिरताके होकर पड़ा था। राजाको देखते ही उसने ज्वरजनित साथ अपना यथावत् समाचार कह सुनाया। तत्पश्चात् वेदनाको भूलकर संसारको आश्चर्यमें डालनेवाली नरश्रेष्ठ मालवनरेश भी गीताके सत्रहवें अध्यायका वाणीमें कहा–'सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता, राजनीतिके जप करने लगे। इससे थोड़े ही समयमें उनकी मुक्ति समुद्र, शत्रु-समुदायको परास्त करनेवाले तथा भगवान् हो गयी। विष्णुके चरणोंमें अनुराग रखनेवाले महाराज ! इन श्रीपार्वतीजीने कहा-भगवन् ! आपने सत्रहवें
औषधोंसे क्या लेना है? वैद्योंसे भी कुछ लाभ अध्यायका माहात्म्य बतलाया। अब अठारहवें अध्यायके होनेवाला नहीं है। दान और जपसे भी क्या सिद्ध माहात्म्यका वर्णन कौजिये। होगा? आप कृपा करके गीताके सत्रहवें अध्यायका श्रीमहादेवजीने कहा-गिरिनन्दिनि ! चिन्मय पाठ करनेवाले किसी ब्राह्मणको बुलवाइये। आनन्दकी धारा बहानेवाले अठारहवें अध्यायके पावन
__ हाथीके कथनानुसार राजाने सब कुछ वैसा ही माहात्म्यको, जो वेदसे भी उत्तम है, श्रवण करो। यह किया। तदनन्तर गीता-पाठ करनेवाले ब्राह्मणने जब सम्पूर्ण शास्त्रोंका सर्वस्व, कानोंमें पड़ा हुआ रसायनके
समान तथा संसारके यातना-जालको छिन्न-भिन्न करनेवाला है। सिद्ध पुरुषोंके लिये यह परम रहस्यकी वस्तु है। इसमें अविद्याका नाश करनेकी पूर्ण क्षमता है। यह भगवान् विष्णुको चेतना तथा सर्वश्रेष्ठ परमपद है। इतना ही नहीं, यह विवेकमयी लताका मूल, काम, क्रोध
और मदको नष्ट करनेवाला, इन्द्र आदि देवताओंके चित्तका विश्राम-मन्दिर तथा सनक-सनन्दन आदि महायोगियोका मनोरञ्जन करनेवाला है। इसके पाठमात्रसे यमदूतोकी गर्जना बंद हो जाती है। पार्वती ! इससे बढ़कर कोई ऐसा रहस्यमय उपदेश नहीं है, जो सन्तप्त मानवोंके त्रिविध तापको हरनेवाला और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला हो। अठारहवे अध्यायका लोकोत्तर माहात्म्य है। इसके सम्बन्धमें जो पवित्र उपाख्यान है, उसे भक्तिपूर्वक सुनो। उसके श्रवणमात्रसे जीव समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।
मेरुगिरिके शिखरपर अमरावती नामवाली एक
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. अर्चयस्व हुषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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रमणीय पुरी है। उसे पूर्वकालमें विश्वकर्मान बनाया था। कर लिया है। गीताके अठारहवें अध्यायका पाठ सब उस पुरीमें देवताओंद्वारा सेवित इन्द्र शचीके साथ निवास पुण्योंका शिरोमणि है। उसीका आश्रय लेकर तुम भी करते थे। एक दिन वे सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतनेहीमें अपने पदपर स्थिर हो सकते हो। उन्होंने देखा कि भगवान् विष्णुके दूतोंसे सेवित एक अन्य भगवान् विष्णुके ये वचन सुनकर और उस उत्तम पुरुष वहाँ आ रहा है। इन्द्र उस नवागत पुरुषके तेजसे उपायको जानकर इन्द्र ब्राह्मणका वेष बनाये गोदावरीके तिरस्कृत होकर तुरंत ही अपने मणिमय सिंहासनसे तटपर गये। वहाँ उन्होंने कालिकायाम नामक उत्तम और मण्डपमे गिर पड़े। तब इन्द्रके सेवकोंने देवलोकके पवित्र नगर देखा, जहाँ कालका भी मर्दन करनेवाले साम्राज्यका मुकुट इस नूतन इन्द्रके मस्तकपर रख दिया। भगवान् कालेश्वर विराजमान हैं। वहीं गोदावरी-तटपर फिर तो दिव्य गीत गाती हुई देवाङ्गनाओंके साथ सब एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे, जो बड़े ही दयालु देवता उनकी आरती उतारने लगे। ऋषियोंने वेदमन्त्रोका और वेदोंके पारङ्गत विद्वान् थे। वे अपने मनको वशमें उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये। रम्भा आदि करके प्रतिदिन गीताके अठारहवें अध्यायका जप किया अप्सराएँ उनके आगे नृत्य करने लगीं। गन्धर्वोका ललित करते थे। उन्हें देखकर इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ स्वरमें मङ्गलमय गान होने लगा।
उनके दोनों चरणोंमें मस्तक झुकाया और उन्हींसे इस प्रकार इस नवीन इन्द्रको सौ यज्ञोंका अनुष्ठान अठारहवें अध्यायको पढ़ा। फिर उसीके पुण्यसे उन्होंने किये बिना ही नाना प्रकारके उत्सवोंसे सेवित देखकर पुराने इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे'इसने तो मार्गमें न कभी पौसले बनवाये हैं, न पोखरे खुदवाये हैं और न पथिकोंको विश्राम देनेवाले बड़े-बड़े वृक्ष ही लगवाये है। अकाल पड़नेपर अन्नदानके द्वारा इसने प्राणियोंका सत्कार भी नहीं किया है। इसके द्वारा तीर्थोमे सत्र और गाँवोमे यज्ञका अनुष्ठान भी नहीं हुआ है। फिर इसने यहाँ भाग्यको दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की है ?' इस चिन्तासे व्याकुल होकर इन्द्र भगवान् विष्णुसे पूछनेके लिये वेगपूर्वक क्षीरसागरके तटपर गये
और वहाँ अकस्मात् अपने साम्राज्यसे भ्रष्ट होनेका दुःख निवेदन करते हुए बोले- लक्ष्मीकान्त ! मैंने पूर्वकालमें आपकी प्रसन्नताके लिये सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। उसीके पुण्यसे मुझे इन्द्रपदकी प्राप्ति हुई थी; किन्तु इस समय स्वर्गमें कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्मका अनुष्ठान किया - है और न यज्ञोंका । फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासनपर कैसे श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लिया। इन्द्र आदि अधिकार जमाया है?'
देवताओका पद बहुत ही छोटा है, यह जानकर वे परम श्रीभगवान् बोले-इन्द्र ! वह गीताके अठारहवें हर्षके साथ उत्तम वैकुण्ठधामको गये। अतः यह अध्यायमेंसे पाँच श्लोकोंका प्रतिदिन जप करता है। अध्याय मुनियोंके लिये श्रेष्ठ परमतत्त्व है। पार्वती ! उसीके पुण्यसे उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्यको प्राप्त अठारहवें अध्यायके इस दिव्य माहात्म्यका वर्णन
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उत्तरखण्ड ]
• देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट, भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन .
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समाप्त हुआ। इसके श्रवणमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे पुरुष श्रद्धायुक्त होकर इसका श्रवण करता है, वह छुटकारा पा जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण गीताका समस्त यज्ञोंका फल पाकर अन्तमें श्रीविष्णुका सायुज्य पापनाशक माहात्य बतलाया गया। महाभागे ! जो प्राप्त कर लेता है।
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देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति. ज्ञान
- और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
पार्वतीजीने कहा-भगवन् ! समस्त पुराणोंमें सबसे अधिक कल्याणकारी, पवित्रको भी पवित्र श्रीमद्भागवत श्रेष्ठ है, क्योंकि उसके प्रत्येक पदमें करनेवाला तथा सदाके लिये भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति महर्षिद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका नाना प्रकारसे करा देनेवाला हो। चिन्तामणि केवल लौकिक सुख देती गान किया गया है; अतः इस समय उसीके माहात्म्यका है, कल्पवृक्ष स्वर्गतककी सम्पत्ति दे सकता है, किन्तु यदि इतिहाससहित वर्णन कीजिये।
गुरुदेव प्रसन्न हो जायें तो वे योगियोंको भी कठिनतासे श्रीमहादेवजीने कहा-जिनका अभी यज्ञोपवीत- मिलनेवाला नित्य वैकुण्ठधामतक दे सकते हैं। संस्कार भी नहीं हुआ था तथा जो समस्त लौकिक- सूतजीने कहा-शौनकजी ! आपके हृदयमें वैदिक कृत्योंका परित्याग करके घरसे निकले जा रहे थे, भगवत्कथाके प्रति प्रेम है; अतः मैं भलीभाँति विचार ऐसे शुकदेवजीको बाल्यावस्थामें ही संन्यासी होते देख करके सम्पूर्ण सिद्धान्तोंद्वारा अनुमोदित और संसारउनके पिता श्रीकृष्णद्वैपायन विरहसे कातर हो उठे और जनित भयका नाश करनेवाले सारभूत साधनका वर्णन 'बेटा ! बेटा !! तुम कहाँ चले जा रहे हो ?' इस प्रकार करता हूँ। वह भक्तिको बढ़ानेवाला तथा भगवान् पुकारने लगे। उस समय शुकदेवजीके साथ एकाकार श्रीकृष्णकी प्रसत्रताका प्रधान हेतु है। आप उसे होनेके कारण वृक्षोंने ही उनकी ओरसे उत्तर दिया था। सावधान होकर सुनें । कलियुगमें कालरूपी सर्पसे इसे ऐसे सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें आत्मारूपसे विराजमान परम जानेके भयको दूर करनेके लिये ही श्रीशुकदेवजीने ज्ञानी श्रीशुकदेव मुनिको मैं प्रणाम करता हूँ। श्रीमद्भागवत-शास्त्रका उपदेश किया है। मनकी शुद्धिके
एक समय भगवत्कथाका रसास्वादन करनेमें लिये इससे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। जब कुशल परम बुद्धिमान् शौनकजीने नैमिषारण्यमें जन्म-जन्मान्तरोंका पुण्य उदय होता है तब कहीं विराजमान सूतजीको नमस्कार करके पूछा। श्रीमद्भागवत-शास्त्रको प्राप्ति होती है। जिस समय
शौनकजी बोले-सूतजी ! आप इस समय कोई श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षितको कथा सुनानेके लिये ऐसी सारगर्भित कथा कहिये, जो हमारे कानोंको अमृतके सभामें विराजमान हुए, उस समय देवतालोग अमृतका समान मधुर जान पड़े तथा जो अज्ञानान्धकारका विध्वंस कलश लेकर उनके पास आये। देवता अपना कार्य
और कोटि-कोटि जन्मोंके पापोंका नाश करनेवाली हो। साधन करने में बड़े चतुर होते हैं। वे सब-के-सब भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाला विज्ञान कैसे श्रीशुकदेवजीको नमस्कार करके कहने लगे-'मुने! बढ़ता है तथा वैष्णवलोग किस प्रकार माया-मोहका आप यह अमृत लेकर बदले में हमें कथामृतका दान निवारण करते हैं। इस घोर कलिकालमें प्रायः जीव दीजिये। इस प्रकार परिवर्तन करके राजा परीक्षित् असुर-स्वभावके हो गये हैं, इसीलिये वे नाना प्रकारके अमृतका पान करें और अमर हो जायें) तथा हम सब क्लेशोंसे घिरे रहते हैं; अतः उनकी शुद्धिका सर्वश्रेष्ठ उपाय लोग श्रीमद्भागवतामृतका पान करेंगे। तब क्या है ? इस समय हमें ऐसा कोई साधन बताइये, जो श्रीशुकदेवजीने सोचा-'इस लोकमें कहाँ अमृत और
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अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
कहाँ भागवतकथा, कहाँ काँच और कहाँ बहुमूल्य मणि! यह विचारकर वे देवताओंकी बातपर हँसने लगे, तथा उन्हें अनधिकारी जानकर कथामृतका दान नहीं किया। अतः श्रीमद्भागवतकी कथा देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। केवल श्रीमद्भागवतके श्रवणसे ही राजा परीक्षित्का मोक्ष हुआ देख पूर्वकालमें ब्रह्माजीको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनोंको तौला उस समय अन्य सभी
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साधन हलके पड़ गये, अपने गौरवके कारण श्रीमद्भागवतका ही पलड़ा सबसे भारी रहा। यह देखकर समस्त ऋषियोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इस पृथ्वीपर भगवत्स्वरूप भागवत शास्त्रको ही पढ़नेसुननेसे तत्काल भगवान्की प्राप्ति करानेवाला निश्चय किया। यदि एक वर्षमें श्रीमद्भागवतको सुनकर पूरा किया जाय, तो वह श्रवण महान् सौख्य प्रदान करनेवाला होता है। जिसके हृदयमें भगवद्भक्तिकी कामना हो, उसके लिये एक मासमें पूरे श्रीमद्भागवतका श्रवण उत्तम माना गया है। यदि सप्ताहपारायणकी विधिसे इसका श्रवण किया जाय तो यह सर्वथा मोक्ष देनेवाला होता है। पूर्वकालमें सनकादि महर्षियोंने कृपा करके इसे देवर्षि नारदको सुनाया था। यद्यपि देवर्षि नारद श्रीमद्भागवतको पहले ही ब्रह्माजीके मुखसे सुन चुके थे तथापि इसके सप्ताहश्रवणकी विधि तो उन्हें सनकादिने ही बतायी थी।
शौनकजी ! अब मैं आपको वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना प्रिय शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था। एक समयकी बात है, सनक सनन्दन आदि चारों निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षि सत्सङ्गके लिये विशालापुरी (बदरिकाश्रम) में आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा।
सनकादि कुमारोंने पूछा- ब्रह्मन्! आपके मुखपर दीनता क्यों छा रही है। आप चिन्तासे आतुर कैसे हो रहे हैं। इतनी उतावलीके साथ आप जाते कहाँ हैं और आये कहाँसे हैं ? इस समय तो आप जिसका सारा धन लुट गया हो, उस पुरुषके समान सुध-बुध खोये हुए हैं।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
आप जैसे आसक्तिशून्य विरक्त पुरुषकी ऐसी अवस्था होनी तो उचित नहीं है। बताइये, इसका क्या कारण है ?
AMBHAVA
नारदजीने कहा- महात्माओ ! मैं पृथ्वीको [नाना तीर्थोकि कारण] सबसे उत्तम जानकर यहाँकी यात्रा करनेके लिये आया था। आनेपर पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरिक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, श्रीरङ्ग और सेतुबन्ध आदि तीथोंमें इधर-उधर विचरता रहा। किन्तु कहीं भी मुझे मनको सन्तोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सखा कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है। अब यहाँ सत्य, तपस्या, शौच, दया और दान आदि कुछ भी नहीं हैं। बेचारे जीव पेट पालने में लगे हैं। वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि और भाग्यहीन हो गये हैं। उन्हें तरह तरहके उपद्रव घेरे रहते हैं। साधु-संत कहलानेवाले लोग पाखण्डमें फँस गये हैं। ऊपरसे विरक्त जान पड़ते हैं, किन्तु वास्तवमें पूरे संग्रही हैं। घर-घरमें स्त्रियोंका राज्य है। साले ही सलाहकार बने हुए हैं। पैसोंके लोभसे कन्याएँ तक बेची जाती हैं। पति-पत्नीमें सदा ही कलह मचा रहता है आश्रमों, तीर्थो और नदियोंपर म्लेच्छोंने अधिकार जमा रखा है। उन दुष्टोंने बहुत-से देवमन्दिर भी नष्ट कर दिये हैं। अब यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध, न कोई ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही इस समय सब साधन कलिरूपी दावानलसे भस्म हो गया है। पृथ्वीपर चारों ओर सभी
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उत्तरखण्ड ]
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देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट, भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
देशवासी बाजारोंमें अन्न बेचते हैं। ब्राह्मणलोग पैसे लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्यावृत्तिसे जीवन निर्वाह करती देखी जाती हैं।
इस प्रकार कलियुगके दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजीके तटपर आ पहुँचा, जहाँ भगवान् श्रीकृष्णकी लीला हुई थी। मुनीश्वरो ! वहाँ आनेपर मैंने जो आश्चर्यकी बात देखी है, उसे आपलोग सुनें - वहाँ एक तरुणी स्त्री बैठी थी; जिसका चित बहुत ही खिन्न था। उसके पास ही दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्थामें पड़े जोर-जोरसे साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा-शुश्रूषा करती, उन्हें जगानेकी चेष्टा करती और अपने प्रयत्नमें असफल होकर रोने लगती थी। बीच बीचमें दसों दिशाओंकी ओर दृष्टि डालकर वह अपने लिये कोई रक्षक भी ढूँढ़ रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ पंखा झलती हुई उसे बार-बार सान्त्वना दे रही थीं। दूरसे ही यह सब देखकर मैं कौतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखते ही वह युवती स्त्री उठकर खड़ी हो गयी और व्याकुल होकर बोली- 'महात्माजी !
क्षणभरके लिये ठहर जाइये और मेरी चिन्ताको भी नष्ट कीजिये। आपका दर्शन संसारके समस्त पापोंको सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है। आपके वचनोंसे मेरे दुःखकी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। जब बहुत बड़ा भाग्य होता है, तभी आप जैसे महात्माका दर्शन होता है।'
POPSUGI
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नारदजी कहते हैं- युवतीकी ऐसी बात सुनकर मेरा हृदय करुणासे भर आया और मैंने उत्कण्ठित होकर उस सुन्दरीसे पूछा- देवि! तुम कौन हो ? ये दोनों पुरुष कौन हैं ? तथा तुम्हारे पास ये कमलके समान नेत्रोंवाली देवियाँ कौन हैं ? तुम विस्तारके साथ अपने दुःखका कारण बताओ।
युवती बोली- मेरा नाम भक्ति है, ये दोनों पुरुष मेरे पुत्र हैं; इनका नाम ज्ञान और वैराग्य है। समयके फेरसे आज इनका शरीर जराजीर्ण हो गया है। इन देवियोंके रूपमें गङ्गा आदि नदियाँ हैं, जो मेरी सेवाके लिये आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियोंके द्वारा सेवित होनेपर भी मुझे सुख नहीं मिलता। तपोधन! अब तनिक सावधान होकर मेरी बात सुनिये। मेरी कथा कुछ विस्तृत है। उसे सुनकर मुझे शान्ति प्रदान कीजिये। मैं द्रविड़ देशमें उत्पन्न होकर कर्णाटकमें बड़ी हुई । महाराष्ट्रमें भी कहीं-कहीं मेरा आदर हुआ। गुजरातमें आनेपर तो मुझे बुढ़ापेने घेर लिया। वहाँ घोर कलियुगके प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अङ्ग भङ्ग कर डाला। तबसे बहुत दिनोंतक मैं दुर्बल ही दुर्बल रही। वृन्दावन मुझे बहुत प्रिय है, इसलिये अपने दोनों पुत्रोंके साथ यहाँ चली आयी। इस स्थानपर आते ही मैं परम सुन्दरी नवयुवती हो गयी। इस समय मेरा रूप अत्यन्त मनोरम हो गया है, परन्तु मेरे ये दोनों पुत्र थके-मादे होनेके कारण यहीं सोकर कष्ट भोग रहे हैं। मैं यह स्थान छोड़कर विदेश जाना चाहती थी; परन्तु ये दोनों बूढ़े हो गये हैं, इसी दुःखसे में दुःखित हो रही हूँ। पता नहीं मैं यहाँ युवती कैसे हो गयी और मेरे ये दोनों पुत्र बूढ़े क्यों हो गये। हम तीनों साथ ही साथ यात्रा करते थे, फिर हममें यह विपरीत अवस्था कैसे आ गयी। उचित तो यह है कि माता बूढ़ी हो और बेटे जवान; परन्तु यहाँ उलटी बात हो गयी। इसीलिये मैं चकितचित्त होकर अपने लिये शोक करती हूँ। महात्मन्! आप परम बुद्धिमान् और योगनिधि हैं। बताइये, इसमें क्या कारण हो सकता है ?
नारदजी कहते हैं— उसके इस प्रकार पूछनेपर
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
मैंने कहा-साध्वी ! मैं अभी ज्ञानदृष्टिसे अपने हृदयके और इससे तुम्हारा सब शोक दूर हो जायगा। जिस दिन भीतर तुम्हारे दुःखका सारा कारण देखता हूँ। तुम खेद भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोड़कर अपने
न करो। भगवान् तुम्हें शान्ति देंगे। ..... परमधामको पधारे, उसी दिनसे यहाँ कलियुगका ___ तब मुनीश्वर नारदजीने ध्यान लगाया और एक ही आगमन हुआ है, जो समस्त साधनोंमें बाधा उपस्थित
क्षणमें उसका कारण जानकर कहा-'बाले ! तुम ध्यान करनेवाला है। दिग्विजयके समय जब राजा परीक्षित्की देकर सुनो। यह कलिकाल बड़ा भयङ्कर युग है। इसीने दृष्टि इस कलियुगके ऊपर पड़ी तो यह दीनभावसे उनकी सदाचारका लोप कर दिया । योगमार्ग और तप आदि भी शरणमें गया। राजा भौरके समान सारग्राही थे, इसलिये लुम हो गये हैं। इस समय मनुष्य शठता और दुष्कर्ममें उन्होंने सोचा कि मुझे इसका वध नहीं करना चाहिये। प्रवृत्त होकर असुर-स्वभावके हो गये हैं। आज जगत्में क्योंकि इस कलियुगमें एक बड़ा अद्भुत गुण है। अन्य सज्जन पुरुष दुःखी हैं और दुष्टलोग मौज करते हैं। ऐसे युगोंमें तपस्या, योग और समाधिसे भी जिस फलकी समयमें जो धैर्य धारण किये रहे, वही बुद्धिमान, धौर प्राप्ति नहीं होती, वहीं फल कलियुगमें भगवान् केशवके अथवा पण्डित है। अब यह पृथ्वी न तो स्पर्श करने- कीर्तनमात्रसे और अच्छे रूपमें उपलब्ध होता है।* योग्य रह गयी है और न देखने योग्य । यह क्रमशः असार होनेपर भी इस एक ही रूपमे यह सारभूत फल प्रतिवर्ष शेषनागके लिये भारभूत होती जा रही है। इसमें प्रदान करनेवाला है, यही देखकर राजा परीक्षितने कहीं भी माल नहीं दिखायी देता। तुम्हे और तुम्हारे कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सुखके लिये इसे पुत्रोंको तो अब कोई देखता भी नहीं है। इस प्रकार रहने दिया। ........ विषयान्ध मनुष्योंके उपेक्षा करनेसे ही तुम जर्जर हो गयी इस समय लोगोंकी खोटे कर्मोमें प्रवृत्ति होनेसे थी, किन्तु वृन्दावनका संयोग पाकर पुनः नवीन सभी वस्तुओंका सार निकल गया है तथा इस पृथ्वीपर तरुणी-सी हो गयी हो; अतः यह वृन्दावन धन्य है, जहाँ जितने भी पदार्थ हैं, वे बीजहीन भूसीके समान निस्सार सब ओर भक्ति नृत्य कर रही है। परन्तु इन ज्ञान और हो गये हैं। बाह्मणलोग धनके लोभसे घर-घरमें जाकर वैराग्यका यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है; इसलिये प्रत्येक मनुष्यको [अधिकारी-अनधिकारीका विचार अभीतक इनका बुढ़ापा दूर नहीं हुआ । इन्हें अपने भीतर किये बिना ही] भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इससे कुछ सुख-सा प्रतीत हो रहा है, इससे इनकी गाढ़ कथाका सार चला गया-लोगोंको दृष्टिमें उसका कुछ सुषुप्तावस्थाका अनुमान होता है।
महत्त्व नहीं रह गया है। तीर्थोंमें बड़े भयङ्कर कर्म ___ भक्तिने कहा-महर्षे ! महाराज परीक्षित्ने करनेवाले नास्तिक और दम्भी मनुष्य भी रहने लगे हैं; इस अपवित्र कलियुगको पृथ्वीपर रहने ही क्यों दिया? इसलिये तीर्थोका भी सार चला गया। जिनका चित्त तथा कलियुगके आते ही सब वस्तुओका सार कहाँ काम, क्रोध, भारी लोभ और तृष्णासे सदा व्याकुल चला गया? भगवान् तो बड़े दयालु है, उनसे भी रहता है, वे भी तपस्वी बनकर बैठते हैं। इसलिये यह अधर्म कैसे देखा जाता है? मुने! मेरे इस तपस्याका सार भी निकल गया। मनको काबूमें न करने, संशयका निवारण कीजिये। आपकी बातोंसे मुझे बड़ा लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेने तथा शास्त्रका सुख मिला है।
अभ्यास न करनेके कारण ध्यानयोगका फल भी चला नारदजी बोले-बाले ! यदि तुमने पूछा है तो गया। औरोंकी तो बात ही क्या, पण्डितलोग भी अपनी प्रेमपूर्वक सुनो । कल्याणी ! मैं तुम्हें सब बातें बताऊँगा स्त्रियोंके साथ भैसोंकी तरह रमण करते हैं। वे सन्तान
* यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना । तत्फलं लभते सम्यकलौ केशवकीर्तनात् ।। (१८९।७५)
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उत्तरखण्ड
. भक्तिका कष्ट दूर करने के लिये नारदजीका उद्योग .
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पैदा करने में ही दक्ष हैं। मुक्तिके साधनमें वे नितान्त सौभाम्यसे ही आपका यहाँ शुभागमन हुआ है। संसारमें असमर्थ पाये जाते हैं। परम्परासे प्राप्त हुआ वैष्णव-धर्म साधु-महात्माओका दर्शन सब प्रकारके कार्योको सिद्ध कहीं भी नहीं रह गया है। इस प्रकार जगह-जगह सभी करनेवाला और सर्वश्रेष्ठ साधन है। अब जिस प्रकार वस्तुओंका सार लुप्त हो गया है। यह तो इस युगका मुझे सुख मिले-मेरा दुःख दूर हो जाय, वह उपाय स्वभाव ही है, इसमें दोष किसीका नहीं है; यही कारण बताइये । ब्रह्मन् ! आप समस्त योगोंके स्वामी हैं, आपके है कि कमलनयन भगवान् विष्णु निकट रहकर भी यह लिये इस समय कुछ भी असाध्य नहीं है। एकमात्र सब कुछ सहन करते हैं।
आपके ही सुन्दर उपदेशको सुनकर कयाधू-नन्दन शौनकजी ! इस प्रकार देवर्षि नारदके वचन प्रह्लादने संसारकी मायाका त्याग किया था तथा राजकुमार सुनकर भक्तिको बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर उसने जो कुछ घुव भी आपकी ही कृपासे ध्रुवपदको प्राप्त हुए थे। आप कहा, उसे आप सुनिये।
सब प्रकारसे मङ्गलभाजन एवं श्रीब्रह्माजीके पुत्र है; मैं - भक्ति बोली-देवर्षे ! आप धन्य हैं। मेरे आपको प्रणाम करती हूँ।
भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
नारदजीने कहा-बाले ! तुम व्यर्थ ही अपनेको ही भक्तोंका पोषण करती हो। भूलोकमें उनका पोषण खेदमें डालती हो। अहो । इतनी चिन्तातुर क्यों हो रही करनेके लिये तुमने केवल छायारूप धारण कर रखा है। हो? भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्मरण करो। मुक्ति अपने साथ ज्ञान और वैराग्यको लेकर इससे तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा। जिन्होंने तुम्हारी सेवाके लिये इस पृथ्वीपर आयो तथा सत्ययुगके कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की तथा आरम्भसे द्वापरके अन्ततक यहाँ बड़े आनन्दसे रही; गोपसुन्दरियोंका मनोरथ पूर्ण किया, वे श्रीकृष्ण कहीं परन्तु कलियुग आनेपर वह पाखण्डरूप रोगसे पीड़ित चले नहीं गये है। तुम तो साक्षात् भक्ति हो, जो उन्हें होकर क्षीण होने लगी। तब तुम्हारी आज्ञासे वह तुरंत प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है। तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् ही फिर वैकुण्ठलोकको चली गयी। अब भी वह तुम्हारे नीच पुरुषोंके घरोंमें भी चले जाते हैं। सत्ययुग, त्रेता स्मरण करनेपर इस लोकमें आती है और फिर चली
और द्वापर-इन तीन युगोंमें ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके जाती है। इन ज्ञान और वैराग्यको तुमने पुत्र मानकर साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्म- अपने ही पास रख छोड़ा था। कलियुगमें मनुष्योंद्वारा सायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है। ऐसा सोचकर इनकी उपेक्षा होनेके कारण ये तुम्हारे पुत्र उत्साहहीन और ही ज्ञानस्वरूप श्रीहरिने तुम्हें प्रकट किया है। तुम वृद्ध हो गये हैं। फिर भी तुम चिन्ता न करो। मैं इनके भगवत्स्वरूपा, परमानन्दचिन्मूर्ति, परम सुन्दरी तथा उद्धारका उपाय सोचता हूँ। सुमुखि ! कलियुगके समान साक्षात् श्रीकृष्णकी प्रियतमा हो। एक बार जब तुमने कोई युग नहीं है। इस युगमें मैं तुम्हें घर-घरमें और हाथ जोड़कर पूछा था कि 'मैं क्या करूँ ?' उस समय मनुष्य-मनुष्यके भीतर स्थापित कर दूंगा। अन्य जितने भगवान् श्रीकृष्णने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि 'मेरे भी धर्म हैं, उन सबको दबाकर और बड़े-बड़े उत्सव भक्तोंका पोषण करो। तुमने भगवान्को यह आज्ञा रचाकर यदि संसारमें मैं तुम्हारा प्रचार न कर दूं तो मैं स्वीकार कर ली। इससे प्रसन्न होकर श्रीहरिने तुम्हें श्रीहरिका दास ही नहीं। इस कलियुगमें जो जीव तुमसे मुक्तिको दासीरूपमें दिया और इन ज्ञान-वैराग्यको सम्बन्ध रखेंगे, वे पापी होनेपर भी निर्भयतापूर्वक पुत्ररूपमें । तुम अपने साक्षात् स्वरूपसे तो वैकुण्ठधाममें भगवान् श्रीकृष्णके नित्य घामको चले जायेंगे। जिनके
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• अयस्वामीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
हृदयमें सदा प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे ऐसा जान पड़ता था, मानो सूखे काठ हो । भूखसे दुर्बल पवित्रमूर्ति पुरुष स्वप्रमें भी यमराजको नहीं देखते। होनेके कारण वे फिर सो गये। उन्हें इस अवस्थामे जिनके हृदयमें भक्तिभाव भरा हुआ है, उन्हें प्रेत, देखकर देवर्षि नारदजीको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने पिशाच, राक्षस अथवा असुर भी नहीं छू सकते। लगे 'अब मुझे क्या करना चाहिये, इनकी यह नींद कैसे भगवान् तपस्या, वेदाध्ययन, ज्ञान तथा कर्म आदि किसी जाय, तथा यह सबसे बड़ा बुढ़ापा कैसे दूर हो?' भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते। वे केवल शौनकजी ! इस प्रकार चिन्ता करते-करते उन्होंने भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इस विषयमें गोपियाँ ही भगवान् गोविन्दका स्मरण किया। उसी समय प्रमाण है। सहस्रों जन्मोंका पुण्य उदय होनेपर मनुष्योंका आकाशवाणी हुई–'मुने! खेद मत करो। तुम्हारा भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें भक्ति ही सार है। उद्योग निश्चय ही सफल होगा। देवर्षे ! तुम इसके लिये भक्तिसे ही भगवान् श्रीकृष्ण सामने प्रकट होते-प्रत्यक्ष सत्कर्मका अनुष्ठान करो। वह कर्म क्या है, यह तुम्हें दर्शन देते हैं। जो लोग भक्तिसे द्रोह करते हैं, वे तीनों साधु-शिरोमणि संतजन बतलायेंगे। उस सत्कर्मके लोकोंमें दुःख उठाते हैं। पूर्वकालमें भक्तका तिरस्कार करनेपर इनको निद्रा और वृद्धावस्था दोनों क्षणभरमें दूर करनेवाले दुर्वासा ऋषिको कितना फ्रेश भोगना पड़ा था। हो जायेगी तथा सर्वत्र भक्तिका प्रसार हो जायगा।' व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान-चर्चा आदि बहुत-से यह आकाशवाणी वहाँ सबको साफ-साफ सुनायी साधनोंकी क्या आवश्यकता है? एकमात्र भक्ति ही दी। इससे नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ। वे कहने मोक्ष प्रदान करनेवाली है। पर
लगे-'मैं तो इसका भाव नहीं समझ सका। इस इस प्रकार नारदजीद्वारा निर्णय किये हुए अपने आकाशवाणीने भी गुप्तरूपसे ही बात की है। यह नहीं माहात्म्यको सुनकर भक्तिके सारे अङ्ग पुष्ट हो गये। बताया कि वह कौन-सा साधन करनेयोग्य है, जिससे उसने नारदजीसे कहा-'नारदजी ! आप धन्य है। इनका कार्य सिद्ध हो सके। वे संत न जाने कहाँ होंगे मुझमें आपकी निश्चल प्रीति है। मैं सदा आपके हृदयमें और किस प्रकार उस साधनका उपदेश देंगे। निवास करूंगी। कभी उसे छोड़कर नहीं जाऊँगी। आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके अनुसार यहाँ साधो ! आप बड़े कृपालु हैं। आपने एक क्षणमें ही मेरा मुझे क्या करना चाहिये?' . सारा दुःख दूर कर दिया, किन्तु अभीतक मेरे पुत्रोंको। तदनन्तर ज्ञान और वैराग्य दोनोंको वहीं छोड़कर चेत नहीं हुआ; अतः इन्हें भी शीघ्र ही सचेत कीजिये। नारद मुनि वहाँसे चल दिये और एक-एक तीर्थमें जाकर
। भक्तिके ये वचन सुनकर नारदजीको बड़ी दया मार्गमें मिलनेवाले मुनीश्वरोंसे वह साधन पूछने लगे। आयी। वे उन्हें हाथकी अङ्गलियोंसे दबा-दबाकर जगाने उनका वृत्तान्त सब लोग सुन लेते; किन्तु कोई भी कुछ लगे; फिर कानके पास मुँह लगाकर जोर-जोरसे निश्चय करके उत्तर नहीं देता था। कुछ लोगोंने तो इस बोले-'ओ ज्ञान ! जल्दी जागो। वैराग्य ! तुम भी कार्यको असाध्य बता दिया और कोई बोले, 'इसका शीघ्र ही जाग उठो।' फिर वेदध्वनि, वेदान्तपोष और ठीक-ठीक पता लगना कठिन है। कुछ लोग सुनकर बारम्बार गीता-पाठ करके उन्होंने उन दोनोंको जगाया। मौन रह गये और कितने ही मुनि अपनी अवज्ञा होनेके इससे वे बहुत जोर लगाकर किसी तरह उठ तो गये; भयसे चुपचाप खिसक गये। तीनों लोकोंमें महान् किन्तु आँख खोलकर देख न सके। आलस्यके कारण हाहाकार मचा, जो सबको विस्मयमें डालनेवाला था। दोनों ही जंभाई लेते रहे। उनके सिरके बाल पककर लोग आपसमें काना-फूसी करने लगे-भाई ! जब बगुलोंकी तरह सफेद हो गये थे। सारे अङ्ग रक्त-मांससे वेदध्वनि, वेदान्तघोष और गीता-पाठ सुनानेपर भी ज्ञान हीन होनेके कारण काल प्रतीत होते थे। उन्हें देखकर और वैराग्य नहीं जाग सके तो अब दूसरा कोई उपाय
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उत्तरखण्ड ]
• भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
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नहीं है। भला, योगी नारदको भी स्वयं जिसका ज्ञान नहीं है, उसे दूसरे संसारी मनुष्य कैसे बता सकते हैं?' इस प्रकार जिन-जिन मुनियोंसे यह बात पूछी गयी, उन सबने निर्णय करके यही बताया कि यह कार्य दुस्साध्य है। सूतजी बोले- -तब नारदजी चिन्तासे आतुर हो बदरीवनमें आये। उन्होंने मन ही मन यह निश्चय किया था कि 'उस साधनकी प्राप्तिके लिये यहीं तपस्या करूँगा।' बदरीवनमें पहुँचते ही उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्योंकि समान तेजस्वी सनकादि मुनीश्वर दिखायी दिये । तब मुनिश्रेष्ठ नारदजीने उनसे कहा – 'महात्माओ । इस समय बड़े सौभाग्यसे मुझे आपलोगोंका समागम प्राप्त हुआ है। कुमारो ! आप मुझपर कृपा करके अब शीघ्र ही उस साधनको बताइये। आप सब लोग योगी, बुद्धिमान् और बहुश विद्वान् हैं। देखनेमें पाँच वर्षके बालक से होनेपर भी आप पूर्वजोंके भी पूर्वज है। आपलोग सदा वैकुण्ठधाममें निवास करते हैं। निरन्तर हरिनामकीर्तनमें तत्पर रहते हैं। भगवल्लीलामृतका रसास्वादन करके सदा उन्मत्त बने रहते हैं और एकमात्र भगवत्कथा ही आपके जीवनका आधार है। आपके मुखमें सदा 'हरिः शरणम्' (भगवान् ही हमारे रक्षक हैं) यह मन्त्र विद्यमान रहता है। इसीसे कालप्रेरित वृद्धावस्था आपको बाधा नहीं पहुँचा सकती। पूर्वकालमें आपके भ्रूभङ्गमात्रसे भगवान् विष्णुके द्वारपाल जय और विजय तुरंत ही पृथ्वीपर गिर पड़े थे और फिर आपहीकी कृपासे वे पुनः वैकुण्ठधाममें पहुँचे। मेरा अहोभाग्य है, जिससे इस समय आपका दर्शन हुआ। मैं बहुत दीन हूँ और आपलोग स्वभावसे ही दयालु है; अतः मुझपर आपकी कृपा होनी चाहिये। आकाशवाणीने जिस साधनकी ओर संकेत किया है, वह क्या है? इसे बताइये और किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये, इसका विस्तारसहित वर्णन कीजिये। भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको किस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है और किस तरह इनका प्रेमपूर्वक यत्र करके सब वर्णोंमें प्रचार किया जा सकता है ?"
नारदजीने कहा- मैंने वेदध्वनि, वेदान्तघोष और गीतापाठ आदिके द्वारा ज्ञान और वैराग्यको बहुत जगाया; किन्तु वे उठ न सके। ऐसी दशामें श्रीमद्भागवतका पाठ सुनानेसे वे कैसे जग सकेंगे; क्योंकि श्रीमद्भागवतकथाके श्लोक - श्लोकमें और पद-पदमें वेदोंका ही
श्रीसनकादि बोले – देवर्षे ! आप चिन्ता न अर्थ भरा हुआ है आपलोग शरणागत पुरुषोंपर दया सं०प०पु० २८
करें। अपने मनमें प्रसन्न हों। उनके उद्धारका एक सुगम उपाय पहलेसे ही मौजूद है। नारदजी! आप धन्य हैं। विरक्तोंके शिरोमणि हैं। भगवान् श्रीकृष्णके दासोंमें सदा आगे गिनने योग्य हैं तथा योगमार्गको प्रकाशित करनेवाले साक्षात् सूर्य ही हैं। आप जो भक्तिके लिये इतना उद्योग कर रहे हैं, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णके भक्तको तो भक्तिकी सदा स्थापना करना उचित ही है। ऋषियोनि इस संसारमें बहुत से मार्ग प्रकट किये हैं; किन्तु वे सभी परिश्रमसाध्य हैं और उनमेंसे अधिकांश स्वर्गरूप फलकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं। भगवान्की प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो अभीतक गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करनेवाला पुरुष प्रायः बड़े भाग्यसे मिलता है। आपको आकाशवाणीने पहले जिस कर्तव्यका संकेत किया है, उसे बतलाया जाता है। आप स्थिर एवं प्रसन्नचित्त होकर सुनिये। नारदजी ! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ तथा स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ- ये सब तो स्वर्गादिकी प्राप्ति करानेवाले कर्ममात्रके ही सूचक हैं, सत्कर्मके नहीं। सत्कर्म (मोक्षदायक कर्म) का सूचक तो विद्वानोंने केवल ज्ञानयज्ञको माना है। श्रीमद्भागवतका पारायण ही वह ज्ञानयज्ञ है, जिसका शुक आदि महात्माओंने मान किया है। उसके शब्द सुननेसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बड़ा बल मिलेगा। इससे ज्ञानवैराग्यका कष्ट दूर हो जायगा और भक्तिको सुख मिलेगा। श्रीमद्भागवतकी ध्वनि होनेपर कलियुगके ये सारे दोष उसी प्रकार दूर हो जायँगे, जैसे सिंहकी गर्जना सुनकर भेड़िये भाग जाते हैं तब प्रेमरसकी धारा बहानेवाली भक्ति ज्ञान और वैराग्यके सहित प्रत्येक घरमें तथा प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें क्रीड़ा करेगी।
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अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
'करनेवाले हैं। आपका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता; इसलिये मेरे सन्देहका निवारण कीजिये। इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये।
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श्रीसनकादि बोले – नारदजी ! श्रीमद्भागवतकी कथा वेद और उपनिषदोंके सारसे प्रकट हुई है, अतः उनसे पृथक् फलके रूपमें आकर यह उनकी अपेक्षा भी अत्यन्त उत्तम प्रतीत होती है। जैसे आमके वृक्षमें जड़से लेकर शाखातक रस मौजूद रहता है, किन्तु उसका आस्वादन नहीं किया जा सकता; फिर वही एकत्रित होकर जब उससे पृथक् फलके रूपमें प्रकट होता है तो संसारमें सबके मनको प्रिय लगता है जैसे दूधमें घी रहता है; किन्तु उस समय उसका अलग स्वाद नहीं मिलता। फिर वही जब उससे पृथक् हो जाता है तो दिव्य जान पड़ता है और देवताओंके लिये भी स्वादवर्धक हो जाता है। खाँड ईखके आदि, मध्य और अन्त - प्रत्येक भागमें व्याप्त रहती है; तथापि उससे पृथक् होनेपर ही उसमें अधिक मधुरता आती है। इसी प्रकार यह श्रीमद्भागवतकी कथा भी है। यह श्रीमद्भागवतपुराण वेदोंके समान माना गया है। श्रीवेदव्यासजीने भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकी
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सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा- रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
नारदजी बोले – ज्ञानयोगके विशेषज्ञ महात्माओ ! अब मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकी स्थापना करनेके लिये श्रीशुकदेवजीके कहे हुए श्रीमद्भागवतशास्त्रकी कथाद्वारा
लपूर्वक उज्ज्वल ज्ञानयज्ञ करूंगा। यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिये ? इसके लिये कोई स्थान बतलाइये। आपलोग वेदोंके पारंगत विद्वान् हैं, इसलिये मुझे शुकशास्त्र (श्रीमद्भागवत) की महिमा भी सुनाइये और यह भी बताइये कि श्रीमद्भागवतकी कथा कितने दिनोंमें सुननी चाहिये तथा उसके सुननेके लिये कौन सी विधि है।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीसनकादिने कहा- नारदजी! आप विनयी और विवेकी हैं, सुनिये- हम आपकी पूछी हुई सभी
स्थापनाके लिये ही इसे प्रकट किया है। पूर्वकालमें जिस समय वेद-वेदान्तके निष्णात विद्वान् और गीताकी भी रचना करनेवाले वेदव्यासजी खिन्न होकर अज्ञानके समुद्रमें डूब रहे थे, उस समय आपने ही उन्हें चतुःश्लोकी भागवतका उपदेश किया था। उसका श्रवण करते ही व्यासदेवकी सारी चिन्ताएँ तत्काल दूर हो गयी थीं। उसी श्रीमद्भागवतके विषयमें आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है, जो आप हमसे सन्देह पूछ रहे हैं? श्रीमद्भागवत-शास्त्र समस्त शोक और दुःखका विनाश करनेवाला है।
नारदजीने कहा- महानुभावो ! आपका दर्शन जीवके समस्त अमङ्गलका तत्काल नाश कर देता है और सांसारिक दुःखरूपी दावानलसे पीड़ित प्राणियोंपर शान्तिकी वर्षा करता है। आप निरन्तर शेषजीके सहस्र मुखोद्वारा वर्णित भगवत्कथामृतका पान करते रहते हैं, मैं प्रेमलक्षणा-भक्तिका प्रकाश करनेके उद्देश्यसे आपकी शरणमें आया हूँ। अनेक जन्मोंके सञ्चित सौभाग्यप्रद पुण्यका उदय होनेपर जब कभी मनुष्यको सत्संग प्राप्त होता है, तभी अज्ञानजनित मोहमय महान् अन्धकारका नाश करके विवेकका उदय होता है।
बातें बताते हैं। हरद्वारके समीप एक आनन्द नामका घाट है। वहाँ अनेकों ऋषि महर्षि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते हैं। नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे वह स्थान व्याप्त है। वहाँ नूतन एवं कोमल बालू बिछी हुई है। वह घाट बड़ा ही सुरम्य और एकान्त प्रदेशमें है। सुवर्णमय कमल उसकी शोभा बढ़ाया करते हैं। उसके आस-पास रहनेवाले जीवोंके मनमें वैरका भाव नहीं ठहरने पाता। वहाँ अधिक समारोहके बिना ही आपको ज्ञान यज्ञका अनुष्ठान करना चाहिये। उस स्थानपर जो कथा होगी, उसमें बड़ा अपूर्व रस मिलेगा। भक्ति भी निर्बल एवं जरा जीर्ण शरीरवाले अपने दोनों पुत्रोंको आगे करके वहीं आ जायगी; क्योंकि
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उत्तरखण्ड ]
MAHADUR
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सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा वैराग्यका प्रकट होना
जहाँ श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वहाँ ये भक्ति आदि स्वतः पहुँच जाते हैं। वहाँ कानोंमें कथाका शब्द पड़नेसे तीनों ही तरुण हो जायेंगे।
ऐसा कहकर देवर्षि नारदजीके साथ सनकादि भी भागवत कथारूपी अमृतका पान करनेके लिये शीघ्र ही हरद्वारमें गङ्गाजीके तटपर आ गये। जिस समय वे वहाँ तटपर पहुँचे भूलोक, देवलोक तथा ब्रह्मलोकमेंसब जगह इस कथाका शोर हो गया। रसिक भक्त श्रीमद्भागवतामृतका पान करनेके लिये वहाँ सबसे पहले दौड़-दौड़कर आने लगे। भृगु, वसिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र शाकल, मार्कण्डेय, दत्तात्रेय, पिप्पलाद, योगेश्वर व्यास और पराशर, श्रीमान् छायाशुक, जाजलि और जद्दु आदि सभी प्रधान मुनिगण अपने पुत्र, मित्र और स्त्रियोंको साथ लिये बड़े प्रेमसे वहाँ आये। इनके सिवा वेद, वेदान्त, मन्त्र तन्त्र, सतरह पुराण और छहों शास्त्र भी वहाँ मूर्तिमान् होकर उपस्थित हुए। गङ्गा आदि नदियाँ, पुष्कर आदि सरोवर, समस्त क्षेत्र, सम्पूर्ण दिशाएँ, दण्डक आदि वन, नाग आदि गण, देव, गन्धर्व और किन्नर - सभी कथा सुननेके लिये चले आये। जो लोग अपनेको बड़ा माननेके कारण संकोचवश वहाँ नहीं उपस्थित हुए थे, उन्हें महर्षि भृगु समझा-बुझाकर ले आये।
तदनन्तर, कथा सुनानेके लिये दीक्षा ग्रहण कर लेनेपर श्रीकृष्ण-परायण सनकादि नारदजीके दिये हुए उत्तम आसनपर विराजमान हुए। उस समय सभी श्रोताओंने उनको मस्तक झुकाया। श्रोताओंमें वैष्णव, विरक्त, संन्यासी और ब्रह्मचारी ये सबसे आगे बैठे और उनके भी आगे देवर्षि नारदजी विराजमान हुए। एक ओर ऋषि बैठे थे और दूसरी ओर देवता। वेदों और उपनिषदोंका अलग आसन था। एक ओर तीर्थ विराजमान हुए और दूसरी ओर स्त्रियाँ उस समय सब ओर जय-जयकार, नमस्कार और शङ्खोंका शब्द होने लगा। अबीर-गुलाल आदि चूर्ण, स्वील और फूलोंकी खूब वर्षा हुई। कितने ही देवेश्वर विमानोंपर बैठकर वहाँ
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उपस्थित हुए सब लोगोंपर कल्पवृक्षके फूलोंकी वर्षा करने लगे ।
इस प्रकार जब पूजा समाप्त हुई और सब लोग एकाग्रचित्त होकर बैठ गये, तब सनकादि मुनि महात्मा नारदको श्रीमद्भागवतका माहात्म्य स्पष्ट करके बतलाने लगे ।
श्रीसनकादिने कहा- नारदजी ! अब हम आपसे इस भागवत - शास्त्रकी महिमाका वर्णन करते हैं। इसके सुननेमात्रसे ही मुक्ति हाथ लग जाती है। श्रीमद्भागवतकी कथाका सदा ही सेवन करना चाहिये, सदा ही सेवन करना चाहिये। इसके श्रवणमात्रसे मुक्तिरत्नकी प्राप्ति हो जाती है। यह ग्रन्थ अठारह हजार श्लोकोंका है। इसमें बारह स्कन्ध हैं। यह राजा परीक्षित् और श्रीशुकदेव मुनिका संवादरूप है। हम इस श्रीमद्भागवतको सुनाते हैं, आप ध्यान देकर सुनें। जीव तभीतक अज्ञानवश इस संसार-चक्रमें भटकता है, जबतक कि क्षणभरके लिये भी यह श्रीमद्भागवत कथा उसके कानोंमें नहीं पड़ती। बहुत से शास्त्रों और पुराणोंके सुननेसे क्या लाभ इससे तो भ्रम ही बढ़ता है। भागवत-शास्त्र अकेला ही मोक्ष देनेके लिये गरज रहा है। जिस घरमें प्रतिदिन श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वह घर तीर्थस्वरूप हो जाता है। जो लोग उसमें निवास करते हैं, उनके पापका नाश कर देता है। सहस्रों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ भी इस श्रीमद्भागवतकी कथाका सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते । तपोधनो ! मनुष्य जबतक श्रीमद्भागवतकथाका भलीभाँति श्रवण नहीं करते, तभीतक उनके शरीर में पाप ठहर सकते हैं। गङ्गा, गया, काशी, पुष्कर और प्रयाग – ये श्रीमद्भागवत कथाके फलकी बराबरी नहीं कर सकते। ॐकार, गायत्रीमन्त्र, पुरुषसूक्त, ऋक्, साम और यजुः- ये तीनों वेद, श्रीमद्भागवत, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' यह द्वादशाक्षर मन्त्र, बारह मूर्तियोंवाले सूर्य, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण, अग्रिहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान् पुरुषोत्तम – इन सबमें विद्वान् पुरुष वस्तुतः
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
कोई अन्तर नहीं मानते। जो मनुष्य प्रतिदिन आक्रमण, मनुष्योंकी आयुके ह्रास और कलियुगके श्रीमद्भागवत-शास्त्रका अर्थसहित पाठ करता है, उसके अनेक दोषोंकी सम्भावनाके कारण एक सप्ताहमें ही करोड़ों जन्योंके किये हुए पापका नाश हो जाता भागवतके श्रवणका नियम किया गया है। कलियुगमें है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो नित्यप्रति अधिक दिनोतक मनकी वृत्तियोंपर काबू रखना, श्रीमद्भागवतके आधे या चौथाई श्लोकका भी पाठ नियमोंका पालन करना और विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करता है, उसे राजसूय और अश्वमेघ यज्ञोंका फल प्राप्त करना बहुत कठिन है; इसलिये इस समय सप्ताहहोता है। नित्य श्रीमद्भागवतका पाठ करना, श्रीहरिका श्रवणका विधान है। प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक श्रीमद्भागवतको ध्यान करना, तुलसीके पौधेको सींचना और गौओंकी आदिसे अन्ततक सुननेका जो फल है, वही सेवा करना-ये चारों समान हैं। जो पुरुष अन्तकालमें श्रीशुकदेवजीने सप्ताहश्रवणमें भी बताया है। तपस्या, श्रीमद्भागवतका वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न हो योग और समाधिसे भी जिस फलकी प्राप्ति असम्भव है, भगवान् गोविन्द उसे अपना वैकुण्ठधामतक दे डालते वह सब श्रीमद्भागवतका सप्ताह-श्रवण करनेसे अनायास है। जो मानव इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर श्रीविष्णु- ही मिल जाता है। सप्ताहश्रवण यज्ञसे भी बढ़कर अपने भक्तको दान करता है, उसे निश्चय ही भगवान् महत्त्वकी घोषणा करता है, व्रतसे भी अधिक होनेका श्रीकृष्णका सायुज्य प्राप्त होता है। जिस दुष्टने अपने दावा करता है, तपस्यासे भी श्रेष्ठ होनेकी गर्जना करता है जन्यसे लेकर समस्त जीवनमें चित्तको एकाग्र करके और तीर्थसे तो वह सदा बढ़कर है ही। इतना ही नहीं, कभी श्रीमद्भागवत-कथामृतका थोड़ा-सा भी रसास्वादन सप्ताहश्रवण योगसे भी बढ़कर है, ध्यान और ज्ञानसे भी नहीं किया, उसने अपना सारा जन्म चाण्डाल और गधेके बढ़ा-चढ़ा है। कहाँतक उसकी विशेषताका वर्णन करें। समान व्यर्थ ही गवा दिया। वह तो माताको प्रसवकी अरे ! वह तो सबसे बढ़-चढ़कर है। पीड़ा पहुँचानेके लिये ही उत्पन्न हुआ था। यह कितने शौनकजीने पूछा-सूतजी ! यह तो आपने बड़े खेदकी बात है। जिसने इस शुक-शास्त्रके थोड़े-से भी आचर्यकी बात बतायी। माना कि यह श्रीमद्भागवतवचन नहीं सुने, वह पापात्मा जीते-जी भी मुर्देके ही पुराण योगवेत्ता ब्रह्माजीके भी आदिकारण भगवान् समान है। वह इस पृथ्वीका भाररूप है। मनुष्य होकर श्रीपुरुषोत्तमका निरूपण करनेवाला है; परन्तु यह इस भी पशुके ही तुल्य है। उसे धिक्कार है-इस प्रकार युगमे ज्ञान आदि साधनोंका तिरस्कार करके उनसे भी उसके विषयमें स्वर्गके प्रधान-प्रधान देवता कहा करते बढ़कर कल्याणका साधक कैसे हो गया ?" है। संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथा परम दुर्लभ है। जब सूतजीने कहा-शौनकजी! जब भगवान् करोड़ो जन्मोके पुण्योंका उदय होता है. तभी इसकी प्राप्ति श्रीकृष्ण इस धराधामको छोड़कर अपने परम धामको होती है।
पधारनेके लिये उद्यत हुए, उस समय उद्धवजीने उनके इसलिये योगनिधि बुद्धिमान् नारदजी ! मुखसे एकादशस्कन्धमें वर्णित ज्ञानका उपदेश सुनकर भी श्रीमद्भागवतका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये। इसके उनसे इस प्रकार कहा। लिये दिनोंका कोई नियम नहीं है । सदा ही इसका सुनना उद्धवजी बोले-गोविन्द ! अब आप तो अपने उत्तम माना गया है। सत्यभाषण और ब्रह्मचर्यका पालन भक्तोंका कार्य सिद्ध करके परमधामको पधारना चाहते हैं; करते हुए सदा ही इसको सुनना उत्तम है, किन्तु किन्तु मेरे मनमें एक बहुत बड़ी चिन्ता है, उसे सुनकर कलियुगमें ऐसा होना बहुत ही कठिन है, इसलिये इसके आप मुझे सुखी कीजिये । देखिये, यह भयङ्कर कलिकाल विषयमें श्रीशुकदेवजीके आदेशके अनुसार यह विशेष आया ही चाहता है। अब फिर संसारमें दुष्टलोग उत्पन्न विधि जान लेनी चाहिये। मनके असंयम, रोगोंके होंगे। उनके संसर्गसे साधु पुरुष भी उग्र स्वभाव हो
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उत्तरखण्ड ]
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• सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा वैराग्यका प्रकट होना.
जायेंगे। उस समय उनके भारसे दबी हुई यह गोरूपधारिणी भूमि किसकी शरणमें जायगी। कमल नयन ! मुझे तो आपके सिवा दूसरा कोई इसका रक्षक नहीं दिखायी देता; इसलिये भक्तवत्सल ! आप साधु पुरुषोंपर दया करके यहाँसे मत जाइये। निराकार एवं चिन्मय होते हुए भी आपने भक्तोंके लिये ही यह सगुण रूप धारण किया है। अब वे ही भक्त आपके वियोगमें इस पृथ्वीपर कैसे रह सकेंगे ? निर्गुणको उपासनामें तो बहुत कठिनाई है, अतः वह उनसे हो नहीं सकती; इसलिये मेरे कथनपर कुछ विचार कीजिये ।
सूतजी कहते हैं- प्रभासक्षेत्रमें उद्धवजीके ये वचन सुनकर श्रीहरिने सोचा- भक्तोंके अवलम्बके लिये इस समय मुझे क्या करना चाहिये ?' इस प्रकार विचार करके भगवान् ने अपना सम्पूर्ण तेज श्रीमद्भागवतमें स्थापित कर दिया। वे अन्तर्धान होकर श्रीमद्भागवतरूपी समुद्र में प्रवेश कर गये इसलिये यह श्रीमद्भागवत भगवान्की साक्षात् वाङ्मयी मूर्ति है। इसके सेवनसे तथा सुनने, पढ़ने और दर्शन करनेसे यह सब पापोंका नाश कर देती है। इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढ़कर माना गया है। कलियुगमें अन्य सब साधनोंको छोड़कर इसीको प्रधान धर्म बताया गया है। दुःख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापोंको धो डालनेके लिये तथा काम और क्रोधको काबू में करनेके लिये कलिकालमें यही प्रधान धर्म कहा गया है; अन्यथा भगवान् विष्णुकी मायासे पिण्ड छुड़ाना देवताओंके लिये भी कठिन है, फिर मनुष्य तो उसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अतः इससे छुटकारा पानेके लिये भी सप्ताह श्रवणका विधान किया गया है।
शौनकजी ! जब सनकादि ऋषि इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महान् महिमाका वर्णन कर रहे थे, उस समय सभामें एक बड़े आश्चर्यकी बात हुई; उसे मैं बतलाता हूँ, सुनिये। प्रेमरूपा भक्ति तरुण अवस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ ले सहसा वहाँ प्रकट हो गयी। उस समय उसके मुखसे 'श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव !' आदि
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भगवन्नामोंका बारम्बार उच्चारण हो रहा था। उस समाजमें बैठे हुए श्रोताओंने जब श्रीमद्भागवतके अर्थभूत, भगवान्के गलेकी हार एवं मनोहर वेषवाली भक्तिदेवीको वहाँ उपस्थित देखा तो वे मन-ही-मन तर्क करने लगे – 'ये मुनियोंके बीचमें कैसे आ गयीं ? इनका यहाँ किस प्रकार प्रवेश हुआ ?' तब सनकादिने कहा - इस समय ये भक्तिदेवी यहाँ कथाके अर्थसे ही प्रकट
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हुई हैं। उनके ये वचन सुनकर भक्तिने पुत्रोंसहित अत्यन्त विनीत हो सनत्कुमारजीसे कहा - 'महानुभाव ! मैं कलियुगमें नष्टप्राय हो गयी थी किन्तु आपने भागवत कथारूप अमृतसे सींचकर आज फिर मुझे पुष्ट कर दिया। अब आपलोग बताइये, मैं कहाँ रहूँ ?' तब ब्रह्मकुमार सनकादि ऋषियोंने कहा'भक्ति भक्तोंके हृदयमें भगवान् गोविन्दके सुन्दर रूपकी स्थापना करनेवाली है। वह अनन्य प्रेम प्रदान करनेवाली तथा संसार - रोगको हर लेनेवाली है। तुम वही भक्ति हो, अतः धैर्य धारण करके नित्य निरन्तर भक्तोंके हृदयमन्दिरमें निवास करो। वहाँ ये कलियुगके दोष सारे संसारपर प्रभाव डालनेमें समर्थ होकर भी तुम्हारी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते।' इस प्रकार उनकी आशा पाते ही भक्तिदेवी भगवद्भक्तोंके हृदय मन्दिरमें विराजमान हो गयीं। शौनकजी! जिनके हृदयमें एकमात्र श्रीहरिकी भक्तिका ही निवास है, वे मनुष्य सारे संसारमें
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अर्जयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
निर्धन होनेपर भी धन्य हैं; क्योंकि इस भक्तिकी डोरीसे बँधकर साक्षात् भगवान् भी अपने धामको छोड़कर सर्वथा उनके हृदयमें बस जाते है। भूलोकमे यह श्रीमद्भागवत साक्षात् परब्रह्मका स्वरूप है। हम इसकी
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महिमाका आज तुमसे कहाँतक बखान करें। इसका आश्रय लेकर पाठ करनेपर इसके वक्ता और श्रोता दोनों ही भगवान् श्रीकृष्णकी समता प्राप्त कर लेते हैं; अतः इसको छोड़कर अन्य धर्मोसे क्या प्रयोजन है ? ⭑ कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा-धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
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सूतजी कहते हैं- शौनकजी! तदनन्तर अपने भक्तोंके हृदयमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे। उनके गलेमें वनमाला शोभा पा रही थी। श्रीविग्रह नूतन मेघके समान श्यामवर्ण था उसपर पीताम्बर सुशोभित हो रहा था। भगवान्की वह झाँकी चित्तको चुराये लेती थी। उनका कटिप्रदेश करधनीकी लड़ियोंसे अलङ्कृत था। मस्तकपर मुकुट और कानों में कुण्डल शोभा पा रहे थे। बाँकी अदासे खड़े होनेके कारण वे बड़े मनोहर प्रतीत होते थे। वक्षःस्थलपर सुन्दर कौस्तुभमणि दमक रही थी। सारा श्रीअङ्ग हरिचन्दनसे चर्चित था । करोड़ों कामदेवोंकी रूप-माधुरी उनपर निछावर हो रही थी। इस प्रकार वे परमानन्द चिन्मूर्ति परम मधुर मुरलीधर श्रीकृष्ण अपने भक्तोंके निर्मल हृदयमें प्रकट हुए। वैकुण्ठ (गोलोक) में निवास करनेवाले जो उद्धव आदि वैष्णव हैं, वे भी वह कथा सुननेके लिये गुप्तरूपसे वहाँ उपस्थित थे। भगवान्के पधारते ही वहाँ चारों ओरसे जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय भक्तिरसका अलौकिक प्रवाह वह चला। अबीर और गुलालके साथ ही फूलोंकी वर्षा होने लगी। बारम्बार शंखध्वनि होती रहती थी। उस सभामें जितने लोग विराजमान थे, उन्हें अपने देह-गेह और आत्मातककी सुध-बुध भूल गयी थी। उनकी यह तन्मयताकी अवस्था देख देवर्षि नारदजी इस प्रकार कहने लगे
नारदजी बोले – मुनीश्वरो आज मैंने सप्ताह श्रवणकी यह बड़ी अलौकिक महिमा देखी है। यहाँ जो
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मूढ़, शठ और पशु-पक्षी आदि हैं, वे भी इसके प्रभावसे पापशून्य प्रतीत होते हैं। अतः इस मर्त्यलोकमें चित्तशुद्धिके लिये इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। कलिकालमें यह श्रीमद्भागवतकी कथा ही पाप-राशिका विनाश करनेवाली है। इस कथाके समान पृथ्वीपर दूसरा कोई साधन नहीं है। अच्छा, अब मुझे यह बताइये कि इस कथामय सप्ताहयज्ञसे संसारमें कौन-कौन लोग शुद्ध होते हैं। मुनिवर ! आपलोग बड़े दयालु हैं। आप लोगोंने लोकहितका विचार करके यह बिलकुल निराला मार्ग निकाला है।
सनकादिने कहा- देवर्षे ! जो लोग सदा ही भाँति-भाँति के पाप करते हैं, दुराचारमें प्रवृत्त रहते हैं और शास्त्र - विरुद्ध मार्गोंसे चलते हैं तथा जो क्रोधाप्रिसे जलनेवाले, कुटिल और कामी हैं, वे सभी कलिकालमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो सत्यसे हीन, पितामाताकी निन्दा करनेवाले, तृष्णासे व्याकुल, आश्रमधर्मसे रहित, दम्भी, दूसरोंसे डाह रखनेवाले और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, गुरुपत्री गमन और विश्वासघात – ये पाँच भयंकर पाप करनेवाले, छल-छद्यमें प्रवृत्त रहनेवाले, क्रूर, पिशाचोंके समान निर्दयी, ब्राह्मणोंके धनसे पुष्ट होनेवाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो शठ हठपूर्वक मन, वाणी और शरीरके द्वारा सदा पाप करते रहते हैं, दूसरोंके धनसे पुष्ट होते हैं, मलिन शरीर तथा खोटे हृदयवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।
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उतरखण्ड]
• कथामें भगवानका प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा तथा वनगमन .
नारदजी ! इस विषयमें अब हम तुम्हें एक प्राचीन खड़ा हो गया। इतिहास सुनाते हैं, जिसके श्रवणमात्रसे पापोंका नाश हो संन्यासीने पूछा-ब्राह्मण ! तुम रोते कैसे हो? जाता है। पूर्वकालकी बात है-तुङ्गभद्रा नदीके तटपर तुम्हें क्या भारी चिन्ता सता रही है? तुम शीघ्र ही मुझसे एक उत्तम नगर बसा हुआ था। वहाँ सभी वर्गों के लोग अपने दुःखका कारण बताओ। अपने-अपने धर्मोंका पालन करते और सत्य एवं ब्राह्मणने कहा-मुने! मैं अपना दुःख क्या सत्कर्ममें लगे रहते थे। उस नगरमें आत्मदेव नामक कहूँ, यह सब मेरे पूर्वपापोंका सञ्चित फल है। [मेरे एक ब्राह्मण रहता था, जो समस्त वेदोंका विशेषज्ञ और कोई सन्तान नहीं है, इससे मेरे पितर भी दुःखी है; वे] श्रौत-स्मार्त कोंमें निष्णात था। वह ब्राह्मण द्वितीय मेरे पूर्वज मेरी दी हुई जलाञ्जलिको जब पीने लगते हैं, सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था। यद्यपि वह उस समय वह उनकी चिन्ताजनित साँसोंसे कुछ गर्म हो भिक्षासे ही जीवन-निर्वाह करता था, तो भी लोकमें जाती है। देवता और ब्राह्मण भी मेरी दी हुई वस्तुको धनवान् समझा जाता था। उसकी स्त्रीका नाम धुन्धुली प्रसन्नतापूर्वक नहीं लेते। सन्तानके दुःखसे मेरा संसार था। वह सुन्दरी तो थी ही, अच्छे कुलमें भी उत्पन्न हुई सूना हो गया है, अतः अब मैं यहाँ प्राण त्यागनेके लिये थी। फिर भी स्वभावकी बड़ी हठीली थी। सदा अपनी आया हूँ । सन्तानहीन पुरुषका जीवन धिक्कारके योग्य है। ही टेक रखती थी। हमेशा दूसरे लोगोंकी चर्चा किया जिस घरमें कोई सन्तान-कोई बाल-बच्चे न हों, वह घर करती थी। उसमें क्रूरता भी थी तथा वह प्रायः बहुत भी धिक्कार देनेयोग्य है। निस्सन्तान पुरुषके धनको भी बकवाद किया करती थी। परन्तु घरका काम-काज धिक्कार है ! तथा सन्तानहीन कुल भी धिक्कारके ही योग्य करने में बड़ी बहादुर थी। कंजूस भी कम नहीं थी। है। [मैं अपने दुर्भाग्यको कहाँतक बताऊँ?] जिस कलहका तो उसे व्यसन-सा हो गया था। वे दोनों गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा वन्ध्या हो जाती है। पति-पत्नी बड़े प्रेमसे रहते थे। फिर भी उन्हें कोई सन्तान मैं जिसको रोपता है, उस वृक्षमें भी फल नहीं लगते। नहीं थी। इस कारण धन, भोग-सामग्री तथा घर आदि इतना ही नहीं, मेरे घरमें बाहरसे जो फल आता है, वह कोई भी वस्तु उन्हें सुखद नहीं जान पड़ती थी। कुछ भी शीघ्र ही सूख जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और कालके पश्चात् उन्होंने सन्तान प्राप्तिके लिये धर्मका सन्तानहीन हैं, तो इस जीवनको रखनेसे क्या लाभ है। अनुष्ठान आरम्भ किया। वे दीनोंको सदा गौ, भूमि, यों कहकर वह ब्राह्मण दुःखसे व्यथित हो उठा सुवर्ण और वस्त्र आदि दान करने लगे। उन्होंने अपने और उन संन्यासी बाबाके पास फूट-फूटकर रोने लगा। धनका आधा भाग धर्मके मार्गपर खर्च कर दिया; तो भी संन्यासीके हृदयमें बड़ी करुणा भर आयी। वे योगी भी उनके न कोई पुत्र हुआ, न पुत्री। इससे ब्राह्मणको बड़ी थे, उन्होंने ब्राह्मणके ललाटमें लिखे हुए विधाताके चिन्ता हुई। वह आकुल हो उठा और एक दिन अत्यन्त अक्षरोंको पढ़ा और सब कुछ जानकर विस्तारपूर्वक दुःखके कारण घर छोड़कर वनमें चला गया। वहाँ कहना आरम्भ किया। दोपहरके समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक संन्यासीने कहा-ब्राह्मण ! सुनो, मैंने इस पोखरेके किनारे गया और वहाँ जल पीकर बैठ रहा। समय तुम्हारा प्रारब्ध देखा है। उससे जान पड़ता है कि सन्तानहीनताके दुःखसे उसका सारा शरीर सूख गया सात जन्मोंतक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो था। उसके बैठनेके दो ही घड़ी बाद एक संन्यासी वहाँ सकती; अतः सन्तानका मोह छोड़ो, क्योंकि यह महान् आये। उन्होंने भी पोखरेमें जल पीया। ब्राह्मणने देखा, अज्ञान है। देखो, कर्मको गति बड़ी प्रबल है; अतः वे जल पी चुके है, तो वह उनके पास गया और चरणोंमें विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना त्याग दो। मस्तक झुकाकर जोर-जोरसे साँस लेता हुआ सामने अजी ! पूर्वकालमें सन्तानके ही कारण राजा सगर और
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• अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
अङ्गको दुःख भोगना पड़ा था; इसलिये अब तुम हाथमें वह फल दे दिया और स्वयं कहीं चला गया। कुटुम्बकी आशा छोड़ दो। त्यागमे ही सब प्रकारका उसकी पत्नी तो कुटिल स्वभावकी थी हो। अपनी
सखीके आगे रो-रोकर इस प्रकार कहने लगीब्राह्मण बोले-बाबा ! विवेकसे क्या होगा? 'अहो ! मुझे तो बड़ी भारी चिन्ता हो गयी। मैं तो इस मुझे तो जैसे बने वैसे पुत्र ही दीजिये; नहीं तो मैं शोकसे फलको नहीं खाऊँगी। सखी ! इस फलको खानेसे गर्भ मूर्च्छित होकर आपके आगे ही प्राण त्याग दूंगा। पुत्र रहेगा और गर्भसे पेट बढ़ जायगा। फिर तो खाना-पीना आदिके सुखसे हीन यह संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। कम होगा और इससे मेरी शक्ति घट जायगी। ऐसी संसारमें पुत्र-पौत्रोंसे भरा हुआ गृहस्थाश्रम ही सरस है। दशामें तुम्हीं बताओ, घरका काम-धंधा कैसे होगा? - ब्राह्मणका यह आग्रह देख उन तपोधनने कहा- यदि दैववश गाँवमे लूट पड़ जाय तो गर्भिणी स्त्री भाग 'देखो, विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा कैसे सकेगी? यदि कहीं शुकदेवजीकी तरह यह गर्भ चित्रकेतुको कष्ट भोगना पड़ा; अतः दैवने जिसके भी [बारह वर्षोंतक] पेटमें ही रह गया, तो इसे बाहर पुरुषार्थको कुचल दिया हो, ऐसे पुरुषके समान तुम्हें कैसे निकाला जायगा? यदि कहीं प्रसवकालमें बच्चा पुत्रसे सुख नहीं मिलेगा; फिर भी तुम हठ करते जा रहे टेढ़ा हो गया, तब तो मेरी मौत ही हो जायगी । बच्चा पैदा हो। तुम्हें केवल अपना स्वार्थ ही सूझ रहा है; अतः मैं होते समय बड़ी असह्य पीड़ा होती है। मैं सुकुमारी स्त्री, तुमसे क्या कहूँ।
भला उसे कैसे सह सकूँगी? गर्भवती अवस्थामें जब मेरा शरीर भारी हो जायगा और चलने-फिरनेमें आलस्य लगेगा, उस समय मेरी ननद-रानी आकर घरका सारा माल-मता उड़ा ले जायेंगी। और तो और, यह सत्यशौचादिका नियम पालना तो मेरे लिये बहुत ही कठिन दिखायी देता है। जिस स्त्रीके सन्तान होती है, उसे बच्चोंके लालन-पालनमें भी कष्ट भोगना पड़ता है। मैं तो समझती हूँ, बाँझ अथवा विधवा स्त्रियाँ ही अधिक सुखी होती हैं।'
नारदजी ! इस प्रकार कुतर्क करके उस ब्राह्मणीने फल नहीं खाया। जब पतिने पूछा-'तुमने फल खाया?' तो उसने कह दिया—'हाँ, खा लिया। एक
दिन उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी। अन्तमें ब्राह्मणका बहुत आग्रह देख संन्यासीने उसे धुन्धुलीने उसके आगे अपना सारा वृत्तान्त सुनाकर एक फल दिया और कहा-'इसे तुम अपनी पत्नीको कहा-'बहिन ! मुझे इस बातकी बड़ी चिन्ता है कि खिला देना । इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्त्रीको सत्तान न होनेपर मैं पतिको क्या उत्तर दूंगी। इस दुःखके चाहिये कि वह एक वर्षतक सत्य, शौच, दया और कारण मैं दिनोंदिन दुबली हुई जा रही हूँ। बताओ, मैं दानका नियम पालती हुई प्रतिदिन एक समय भोजन क्या करूँ? तब उसने कहा- 'दीदी ! मेरे पेटमें बच्चा करे। इससे उसका बालक अत्यन्त शुद्ध स्वभाववाला है। प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुमको दे दूंगी। तबतक होगा।' ऐसा कहकर वे योगी महात्मा चले गये और तुम गर्भवती स्त्रीकी भाँति घरमें छिपकर मौजसे रहो। ब्राह्मण अपने घर लौट आया। यहाँ उसने अपनी पत्नीके तुम मेरे पतिको धन दे देना । इससे वे अपना बालक
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उत्तरखण्ड ]
कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा तथा वनगमन •
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तुम्हें दे देंगे तथा लोगोंमें इस बातका प्रचार कर देंगे कि मेरा बच्चा छः महीनेका होकर मर गया। मैं प्रतिदिन तुम्हारे घरमें आकर बचेका पालन-पोषण करती रहूँगी। तुम इस समय परीक्षा लेनेके लिये यह फल गौको खिला दो ।' तब उस ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभावके कारण वह सब कुछ वैसे ही किया। तदनन्तर समय आनेपर उसकी बहिनको बच्चा पैदा हुआ। बच्चेके पिताने बालकको लाकर एकान्तमें धुन्धुलीको दे दिया। उसने अपने स्वामीको सूचना दे दी कि मेरे बच्चा पैदा हो गया और कोई कष्ट नहीं हुआ। आत्मदेवके पुत्र होनेसे लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। ब्राह्मणने बालकका जातकर्म संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया। उसके दरवाजेपर गाना, बजाना आदि नाना प्रकारका माङ्गलिक उत्सव होने लगा। धुन्धुलीने स्वामीसे कहा-' -'मेरे स्तनोंमें दूध नहीं है, फिर गाय-भैंस आदि अन्य जीवोंके दूधसे मैं बालकका पोषण कैसे करूंगी ? मेरी बहिनको भी बच्चा हुआ था, किन्तु वह मर गया है; अतः अब उसीको बुलाकर घरमें रखिये, वही आपके बालकका पालनपोषण करेगी।' उसके पतिने पुत्रकी जीवन रक्षाके लिये सब कुछ किया। माताने उसका नाम 'धुन्धुकारी' रखा।
तदनन्तर तीन महीने बीतनेके बाद ब्राह्मणकी गौने भी एक बालकको जन्म दिया, जो सर्वाङ्गसुन्दर दिव्य, निर्मल तथा सुवर्णकी सी कान्तिवाला था। उसे
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देखकर ब्राह्मणदेवताको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने स्वयं ही बालकके सब संस्कार किये। यह आश्चर्यजनक समाचार सुनकर सब लोग उसे देखनेके लिये आये और आपसमें कहने लगे— 'देखो, इस समय आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है। कितने आश्चर्यकी बात है कि गायके पेटसे भी देवताके समान रूपवाला बालक उत्पन्न हुआ।' किन्तु दैवयोगसे किसीको भी इस गुप्त रहस्यका पता न लगा। उस बालकके कान गौके समान थे, यह देखकर आत्मदेवने उसका नाम गोकर्ण रख दिया। कुछ काल व्यतीत होनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो पण्डित और ज्ञानी हुआ; किन्तु धुन्धुकारी महादुष्ट निकला। स्नान और शौचाचारका तो उसमें नाम भी नहीं था। वह अभक्ष्य भक्षण करता, क्रोधमें भरा रहता और बुरी बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था। भोजन तो वह सबके हाथका कर लेता था । चोरी करता, सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाता, दूसरोंके घरो में आग लगा देता और खेलानेके बहाने छोटे बच्चोंको पकड़कर कुऍमें डाल देता था। जीवोंकी हिसा करनेका उसका स्वभाव हो गया था। वह हमेशा हथियार लिये रहता और दीन, दुःखियों तथा अंधोंको कष्ट पहुँचाया करता था। चाण्डालोंके साथ उसने खूब हेल-मेल बढ़ा लिया था। वह प्रतिदिन हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी टोहमें घूमता रहता था। उसने वेश्याके कुसङ्गमें पड़कर पिताका सारा धन बरबाद कर दिया। एक दिन तो माता-पिताको खूब पीटकर वह घरके सारे बर्तन भाँड़े उठा ले गया। इस प्रकार धनहीन हो जानेके कारण बेचारा बाप फूट-फूटकर रोने लगा। वह बोला- 'इस प्रकार पुत्रवान् बननेसे तो अपुत्र रहना ही अच्छा है। कुपुत्र बड़ा ही दुःखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ ? कहाँ जाऊँ ? कौन मेरा दुःख दूर करेगा ? हाय! मुझपर बड़ा भारी कष्ट आ पहुँचा। अब तो मैं इस दुःखसे अपना प्राण त्याग दूँगा ।'
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इसी समय ज्ञानवान् गोकर्णजी वहाँ आये और वैराग्यका महत्त्व दिखलाते हुए अपने पिताको समझाने लगे - 'पिताजी! इस संसारमें कुछ भी सार नहीं है।
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. अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
दुःख ही इसका स्वरूप है। यह जीवोंको मोहमें गोकर्णकी बात सुनकर उनके पिता आत्मदेव वनमें डालनेवाला है। भला, यहाँ कौन किसका पुत्र है और जानेके लिये उद्यत होकर बोले-'तात ! मुझे वनमें
रहकर क्या करना चाहिये? यह विस्तारपूर्वक बताओ! मैं बड़ा शठ हूँ। अबतक कर्मवश स्नेहके बन्धनमें बैंधकर मैं अपङ्गकी भाँति इस गृहरूपी अँधेरे कुएँ ही पड़ा हुआ हूँ। दयानिधे ! तुम निश्चय ही मेरा उद्धार करो!' ___गोकर्णने कहा-पिताजी ! हड्डी, मांस और रक्तके पिण्डरूप इस शरीरमें आप 'मैं' पनका अभिमान छोड़ दीजिये और स्त्री-पुत्र आदिमें भी ये मेरे हैं' इस भावको सदाके लिये त्याग दीजिये। इस संसारको निरन्तर क्षणभङ्गुर देखिये और एकमात्र वैराग्य-रसके रसिक होकर भगवान्के भजनमें लग जाइये। सदा
भगवद्भजनरूप दिव्य धर्मका ही आश्रय लीजिये। कौन किसका धन । जो इनमें आसक्त होता है, उसे ही सकाम भावसे किये जानेवाले लौकिक धर्मोको छोड़िये। रात-दिन जलना पड़ता है। इन्द्र अथवा चक्रवर्ती साधु पुरुषोंकी सेवा कीजिये, भोगोंकी तृष्णाको त्याग राजाओंको भी कोई सुख नहीं है। सुख तो बस, दीजिये तथा दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना शीघ्र एकान्तवासी वैराग्यवान् मुनिको ही है। सन्तानके प्रति जो छोड़कर निरन्तर भगवत्सेवा एवं भगवत्कथाके रसका आपकी ममता है, यह महान् अज्ञान है। इसे छोड़िये। पान कीजिये।* मोहमें फंसनेसे मनुष्यको नरकमें ही जाना पड़ता है। इस प्रकार पुत्रके कहनेसे आत्मदेव साठ वर्षकी
औरोंकी तो बात ही क्या है, आपका यह प्रिय शरीर भी अवस्था बीत जानेपर घर छोड़कर स्थिरचित्तसे वनको एक-न-एक दिन नष्ट हो जायगा-आपको छोड़कर चले गये और वहाँ प्रतिदिन भगवान् श्रीहरिकी परिचर्या चल देगा; इसलिये आप अभीसे सब कुछ छोड़कर करते हुए नियमपूर्वक दशम स्कन्धका पाठ करनेसे वनमें चले जाइये।'
उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया।
* देहेस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं जायासुतादिषु सदा ममतां विमुझ। पश्यानिशं जगदिदं . क्षणभङ्गनिष्ठं वैराग्यनगरसिको भव भक्तिनिष्ठः ॥ धमै भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्। । अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्या सेवाकधारसमहो नितरां पिच त्वम् ।। (१९२१७८-७९)
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उत्तरखण्ड ]
. गोकर्णजीकी भागवत-कथासे मुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार .
____ गोकर्णजीकी भागवत-कथासे धुन्युकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त
श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति ...
सूतजी कहते है-पिताके विरक्त होकर वनमें छटपटाता हुआ मर गया। फिर उन्होंने उसकी लाशको चले जानेके बाद एक दिन धुन्धुकारीने अपनी माताको गड्डेमें डालकर गाड़ दिया। प्रायः ऐसी स्त्रियाँ बड़ी खूब पीटा और कहा-'बता, धन कहाँ रखा है? नहीं दुःसाहसवाली होती हैं। इस रहस्यका किसीको भी पता तो लातोसे तेरी खबर लूंगा।' उसकी इस बातसे डरकर नहीं चला। लोगोंके पूछनेपर उन स्त्रियोंने कह दिया कि और पुत्रके उपद्रवोसे दुःखी होकर उनकी माँ रातको हमारे प्रियतम धनके लोभसे कहीं दूर चले गये हैं, इस कुएँमें कूद पड़ी। इससे उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार वर्षके भीतर ही लौट आयेंगे। विद्वान् पुरुषको चाहिये माता-पिताके न रहनेपर गोकर्णजी तीर्थयात्राके लिये चल कि वह असन्मार्गपर चलनेवाली दुष्टा स्त्रियोंका विश्वास दिये। वे योगनिष्ठ थे। उनके मनमें इस घटनाके कारण न करे। जो मूर्ख इनका विश्वास करता है, उसे अवश्य न कोई दुःख था, न कोई सुख; क्योंकि उनका न कोई ही संकटोंका सामना करना पड़ता है। इनकी वाणी तो शत्रु था न मित्र । अब धुन्धुकारी पाँच वेश्याओंके साथ अमृतके समान कामियोंके हृदयमें रसका सञ्चार करती घरमें रहने लगा। उनके पालन-पोषणके लिये बहुत है, किन्तु हृदय छुरेकी धारके समान तीखा होता है; सामग्री जुटानेकी चिन्तासे उसकी बुद्धि मोहित हो गयी भला, इन स्त्रियोंका कौन प्रिय है? अनेक पतियोंसे थी; अतः वह अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगा। एक सहवास करनेवाली वे कुलटाएँ धुन्धुकारीका सारा धन दिन उन कुलटाओंने उससे गहनोंके लिये इच्छा प्रकट लेकर चम्पत हो गयीं और धुन्धुकारी अपने कुकर्मके की। घुन्धुकारी तो कामसे अंधा हो रहा था। उसे अपनी कारण बहुत बड़ा प्रेत हुआ। वह बवंडरका रूप धारण मृत्युको भी याद नहीं रहती थी। वह गहने जुटानेके लिये करके सदा दसों दिशाओंमें दौड़ता फिरता था और घरसे निकल पड़ा और जहां-तहाँसे बहुत-सा धन शीत-घामका क्लेश सहता तथा भूख-प्याससे पीड़ित चुराकर पुनः अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने होता हुआ 'हा ! दैव' 'हा ! दैव'की बारंवार पुकार उन वेश्याओंको बहुत-से सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और कितने लगाता रहता था; किन्तु कहीं भी उसे शरण नहीं मिलती ही आभूषण दिये। अधिक धनका संग्रह देखकर रातमें थी। कुछ कालके पश्चात् गोकर्णको भी लोगोंके मुँहसे उन स्त्रियोंने विचार किया-'यह प्रतिदिन चोरी करने धुन्धुकारीके मरनेका हाल मालूम हुआ। तब उसे अनाथ जाता है, अतः राजा इसे अवश्य पकड़ेंगे; फिर सारा धन समझकर उन्होंने उसके लिये गयाजी में श्राद्ध किया और छीनकर निश्चय ही इसे प्राणदण्ड भी देंगे। ऐसी दशामें तबसे जिस तीर्थमें भी वे चले जाते, वहाँ उसका श्राद्ध इस धनकी रक्षाके लिये हमीलोग क्यों न इसे गुप्तरूपसे अवश्य करते थे। मार झलें। इसे मार, यह सारा धन लेकर हम कहीं और इस प्रकार तीर्थोंमें भ्रमण करते हुए गोकर्णजी एक जगह चल दें।'
दिन अपने गाँवमें आये और रात्रिके समय दूसरोंकी ऐसा निश्चय करके उन स्त्रियोंने धुन्धुकारीके सो दृष्टि से बचकर वे अपने घरके आँगनमें सोनेके लिये जानेपर उसे रस्सियोंसे कसकर बाँध दिया और गलेमें गये। अपने भाई गोकर्णको वहाँ सोया देख धुन्धुकारीने फाँसी डालकर उसके प्राण लेनेकी चेष्टा करने लगी; आधी रातके समय उन्हें अपना महाभयङ्कर रूप किन्तु वह तुरंत न मरा । इससे उनको बड़ी चिन्ता हुई। दिखाया। वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैसा, कभी तब उन्होंने जलते हुए अंगारे लाकर उसके मुँहपर डाल इन्द्र और कभी अग्निका रूप धारण करता था। अन्तमें दिये। इससे वह आगकी लपटोंसे पीड़ित होकर पुनः मनुष्यके रूपमें प्रकट हुआ। गोकर्णजी बड़े
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्. •
धैर्यवान् महात्मा थे। उन्होंने उसकी विपरीत अवस्थाएँ देखकर जान लिया कि यह कोई दुर्गतिमें पड़ा हुआ जीव है। तब उन्होंने पूछा- 'अरे भाई ! तू कौन है ? रात्रिके समय अत्यन्त भयानक रूपमें क्यों प्रकट हुआ है ? तेरी ऐसी दशा क्यों हुई है ? हमें बता तो सही, तृ प्रेत है या पिशाच है अथवा कोई राक्षस है ?"
1 उनके ऐसा पूछनेपर वह बारम्बार उच्चस्वरसे रोदन करने लगा। उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं थी; इसलिये केवल सङ्केत मात्र किया। तब गोकर्णजीने अञ्जलिमें जल ले उसे अभिमन्त्रित करके धुन्धुकारीके ऊपर छिड़क दिया। उस जलसे सींचनेपर उसका पाप-ताप कुछ कम हुआ। तब वह इस प्रकार कहने लगा'भैया! मैं तुम्हारा भाई धुन्धुकारी हूँ। मैंने अपने ही दोषसे अपने ब्राह्मणत्वका नाश किया है। मैं महान् अज्ञानमें चक्कर लगा रहा था; अतः मेरे पापकर्मोंकी कोई गिनती नहीं है। मैंने बहुत लोगोंकी हिंसा की थी। अतः मैं भी स्त्रियोंद्वारा तड़पा-तड़पाकर मारा गया। इसीसे मैं प्रेत योनिमें पड़कर दुर्दशा भोग रहा हूँ। अब दैवाधीन कर्मफलका उदय हुआ है, इसलिये मैं वायु पीकर जीवन धारण करता हूँ। मेरे भाई! तुम दयाके समुद्र हो। अब किसी प्रकार जल्दी ही मेरा उद्धार करो।'
धुन्धुकारीकी बात सुनकर गोकर्ण बोलेभाई! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। मैंने तो तुम्हारे लिये गयाजीमें विधिपूर्वक पिण्डदान किया है, फिर तुम्हारी मुक्ति कैसे नहीं हुई ? यदि गया श्राद्धसे भी मुक्ति न हो, तो यहाँ दूसरा तो कोई उपाय ही नहीं है। प्रेत ! इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यह तुम्हीं विस्तार पूर्वक बताओ।
प्रेतने कहा-भाई सैकड़ों गया श्राद्ध करनेसे भी मेरी मुक्ति नहीं होगी। इसके लिये अब तुम और ही कोई उपाय सोचो।
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प्रेतकी यह बात सुनकर गोकर्णको बड़ा विस्मय हुआ। वे कहने लगे- 'यदि सैकड़ों गया श्राद्धसे तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी, तब तो तुम्हें इस प्रेत योनिसे छुड़ाना असम्भव ही है। अच्छा, इस समय तो तुम अपने
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
स्थानपर ही निर्भय होकर रहो। तुम्हारी मुक्तिके लिये कोई दूसरा उपाय सोचकर उसीको काममें लाऊँगा ।'
गोकर्णजीकी आज्ञा पाकर धुन्धुकारी अपने स्थानपर चला गया। इधर गोकर्णजी रातभर सोचते-विचारते रहे। किन्तु उसके उद्धारका कोई भी उपाय उन्हें नहीं सूझा। सबेरा होनेपर उन्हें आया देख गाँवके लोग बड़े प्रेमके साथ उनसे मिलनेके लिये आये। तब गोकर्णन रातमें जो घटना घटित हुई थी, वह सब उन्हें कह सुनायी। उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और ब्रह्मवादी थे, उन्होंने शास्त्र-ग्रन्थोंको उलट-पलटकर देखा; किन्तु उन्हें धुन्धुकारीके उद्धारका कोई उपाय नहीं दिखायी दिया। तब सब लोगोंने मिलकर यही निश्चय किया कि भगवान् सूर्यनारायण उसकी मुक्तिके लिये जो उपाय बतावें, वही करना चाहिये। यह सुनकर गोकर्णने भगवान् सूर्यकी ओर देखकर कहा- 'भगवन्! आप सारे जगत्के साक्षी हैं। आपको नमस्कार है। आप मुझे धुन्धुकारीकी मुक्तिका साधन बताइये।' यह सुनकर सूर्यदेवने दूरसे ही स्पष्ट वाणीमें कहा- 'श्रीमद्भागवतसे मुक्ति हो सकती है
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तुम उसका सप्ताह पारायण करो।' भगवान् सूर्यका यह ध्वनिरूप वचन वहाँ सब लोगोंने सुना और सबने यही कहा – 'यह तो बहुत सरल साधन है। इसको यत्नपूर्वक करना चाहिये। गोकर्णजी भी ऐसा ही निश्चय करके कथा बाँचनेको तैयार हो गये। उस समय वहाँ कथा सुननेके लिये आस-पासके स्थानों और गाँवोंसे लोग एकत्रित होने लगे। अपङ्ग, अंधे, बूढ़े और मन्दभाग्य पुरुष भी अपने पापोंका नाश करनेके लिये वहाँ आ पहुँचे। इस प्रकार वहाँ बहुत बड़ा समाज जुट गया, जो देवताओंको भी आश्चर्यमें डालनेवाला था । जिस समय गोकर्णजी व्यासगद्दीपर बैठकर कथा बाँचने लगे, उस समय वह प्रेत भी वहाँ आया और इधर-उधर बैठनेके लिये स्थान ढूंढ़ने लगा। इतनेमें ही उसकी दृष्टि एक सात गाँठवाले ऊँचे बाँसपर पड़ी। उसीके नीचेवाले छेदमें घुसकर वह कथा सुननेके लिये बैठा। वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था । इसलिये बाँसमें ही घुस गया था।
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, गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार •
गोकर्णजीने एक वैष्णव ब्राह्मणको प्रधान श्रोता बनाकर पहले स्कन्धसे ही स्पष्ट वाणीमें कथा सुनानी आरम्भ की। सायङ्कालमें जब कथा बंद होने लगी, तब एक विचित्र घटना घटित हुई। सब श्रोताओंके देखते देखते तड़-तड़ शब्द करती हुई बाँसकी एक गाँठ फट गयी। दूसरे दिन शामको दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन भी उसी समय तीसरी गाँठ फट गयी। इस प्रकार सात दिनोंमें उस बाँसकी सातों गाठोको फोड़कर धुन्धुकारीने बारहों स्कन्धोंके श्रवणसे निष्पाप हो प्रेत योनिका त्याग कर दिया और दिव्य रूप धारण करके वह सबके सामने प्रकट हो गया। उसका मेघके समान श्यामवर्ण था । शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। गलेमें तुलसीकी माला उसकी शोभा बढ़ा रही थी। मस्तकपर मुकुट और कानोंमें दिव्य कुण्डल झलमला रहे थे। उसने तुरंत अपने भाई गोकर्णको प्रणाम किया और कहा - "भाई ! तुमने कृपा करके मुझे प्रेत-योनिके हेशोंसे मुक्त कर दिया। प्रेत-योनिकी पीड़ा नष्ट करनेवाली यह श्रीमद्भागवतकी कथा धन्य है तथा भगवान् श्रीकृष्णके परमधामकी प्राप्ति करानेवाला इसका सप्ताहपारायण भी धन्य है। सप्ताह कथा सुननेके लिये बैठ जानेपर सारे पाप काँपने लगते हैं। उन्हें इस बातकी चिन्ता होती है कि अब यह कथा शीघ्र ही हमलोगोंका अन्त कर देगी। जैसे आग गीली-सूखी, छोटी और बड़ी - सभी तरहकी लकड़ियोंको जला डालती हैं, उसी प्रकार यह सप्ताह - श्रवण मन, वाणी और क्रियाद्वारा किये हुए, इच्छा या अनिच्छासे होनेवाले छोटे-बड़े सभी तरहके पापोंको भस्म कर देता है। विद्वानोंने देवताओंकी सभामें कहा है कि इस भारतवर्षमें जो पुरुष श्रीमद्भागवतकी कथा नहीं सुनते, उनका जन्म व्यर्थ ही हैं।' यदि भागवत शास्त्रकी कथा सुननेको न मिली तो मोहपूर्वक पालन करके हृष्ट-पुष्ट और बलवान् बनाये हुए इस अनित्य शरीरसे क्या लाभ हुआ। जिसमें हड्डियाँ ही खम्भे हैं, जो नस-नाड़ीरूप रस्सियोंसे बँधा है, जिसके ऊपर मांस और रक्तका लेप करके उसे चमड़ेसे मढ़ दिया गया है, जिसके भीतरसे दुर्गन्ध आती रहती है, जो
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मल-मूत्रका पात्र ही है, वृद्धावस्था और शोकके कारण जो परिणाममें दुःखमय जान पड़ता है, जिसमें रोगोंका निवास है, जो सदा किसी कामनासे आतुर रहता है. जिसका पेट कभी नहीं भरता, जिसको सदा धारण किये रहना कठिन है तथा जो अनेक दोषोंसे भरा हुआ और क्षणभंगुर है, वही यह शरीर कहलाता है। अन्तमें इसकी तीन ही गतियाँ होती हैं—यदि मृत्युके पश्चात् इसे गाड़ दिया जाय तो इसमें कीड़े पड़ जाते हैं, कोई पशु खा जाय तो यह विष्ठा बन जाता है और यदि अग्रिमें जला दिया जाय तो यह राखका ढेर हो जाता है। ऐसी दशामें भी मनुष्य इस अस्थिर शरीरसे स्थायी फल देनेवाला कर्म क्यों नहीं कर लेता ? प्रातःकाल जो अन्न पकाया जाता है, वह शाम होनेतक बिगड़ जाता है। फिर उसीके रससे पुष्ट हुए इस शरीरमें नित्यता क्या है ?"
"इस लोकमें श्रीमद्भागवतका सप्ताह सुननेसे अपने निकट ही भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। अतः सब प्रकारके दोषोंको निवृत्तिके लिये एकमात्र यही साधन है जहाँ कथा श्रवण करनेसे जड़ एवं सूखे बाँसकी गाँठ फट सकती हैं, वहीं यदि हृदयको गाँठें खुल जाये तो क्या आश्चर्य है ? जो भागवतकी कथा सुननेसे वश्चित हैं, वे लोग जलमें बुबुदों और जीवों में मच्छरोंके समान केवल मरनेके लिये पैदा हुए हैं। सप्ताह श्रवण करनेपर हृदयकी अज्ञानमयी गाँठ खुल जाती है, सारे सन्देह नष्ट हो जाते हैं और बन्धनके हेतुभूत समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं। यह भागवत कथा एक महान् पुण्यतीर्थ है। यह संसाररूपी कीचड़के लेपको धो डालनेमें अत्यन्त पटु है। विद्वान् पुरुषोंका मत है कि जब यह कथा - तीर्थ चित्तमें स्थिर हो जाय तो मनुष्यको मुक्ति निश्चत ही है।"
धुन्धुकारी इस प्रकारकी बातें कह ही रहा था कि उसे लेनेके लिये आकाशसे एक विमान उतरा। उससे चारों ओर मण्डलाकार प्रकाश पुञ्ज फैल रहा था। उसमें भगवान्के वैकुण्ठवासी पार्षद विराजमान थे। धुन्धुकारी सब लोगोंके देखते-देखते उस विमानपर जा बैठा । उसमें आये हुए श्रीविष्णु पार्षदोंको देखकर गोकर्णने
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अवयव हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
उनसे इस प्रकार पूछा- 'भगवान्के परिकरो! यहाँ तो बहुत-से शुद्ध अन्तःकरणवाले मेरी कथाके श्रोता बैठे
हुए हैं आपलोग एक ही साथ इनके लिये भी विमान क्यों नहीं लाये ? देखनेमें आता है— सबने समानरूपसे यहाँ कथा श्रवण किया है; फिर फलमें क्यों इस प्रकार भेद हुआ ? यह बतानेकी कृपा कीजिये।'
भगवान् के पार्षद बोले- गोकर्णजी ! इनके कथा श्रवणमें भेद होनेसे ही फलमें भी भेद हुआ है। यद्यपि श्रवण सब लोगोंने ही किया है; किन्तु इसके जैसा मनन किसीने नहीं किया है, इसीलिये फलमें भेद हुआ है। पुनः कथा श्रवण करनेपर यह फल भेद भी दूर हो जायगा। प्रेतने सात रात उपवास करके कथा श्रवण किया है। अतः उसने स्थिरचित्तसे भलीभाँति मनन आदि किया है। जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न देनेसे श्रवण, सन्देहसे मन्त्र और चञ्चलचित्त होनेसे जप निष्फल हो जाता है। वैष्णव- पुरुषोंसे रहित देश, कुपात्र ब्राह्मणसे कराया हुआ श्राद्ध, अश्रोत्रियको दिया हुआ दान और सदाचारहीन कुल भी नष्ट ही समझना चाहिये। गुरुके वचनों में विश्वास हो, अपनेमें दीनताकी भावना बनी रहे, मनके दोषोंको काबू में रखा जाय और कथामें दृढ़ निष्ठा बनी रहे इन सब बातोंका यदि पालन किया जाय तो अवश्य ही कथा श्रवणका पूरा-पूरा फल मिलता है।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
पुनः कथा श्रवण करनेके पश्चात् इन सब लोगोंका वैकुण्ठमें निवास निश्चित है। गोकर्णजी ! तुम्हें तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही गोलोक प्रदान करेंगे।
ऐसा कहकर वे सब पार्षद भगवान्के नामोंका कीर्तन करते हुए वैकुण्ठधाममें चले गये। उसके बाद गोकर्णने पुनः श्रावण मासमें कथा बाँची। उस समय सब लोगोंने सात दिनोंतक उपवास करके कथा श्रवण किया। नारदजी ! कथाकी समाप्ति होनेपर वहाँ जो कुछ हुआ, उसे सुनिये। उस समय बहुत से विमानोंको साथ लिये भक्तोंसहित साक्षात् भगवान् उस स्थानपर प्रकट हो गये। चारों ओरसे जय जयकार और नमस्कारके शब्द बारम्बार सुनायी देने लगे। भगवान्ने प्रसन्न होकर वहाँ स्वयं भी अपने पाञ्चजन्य नामक शुङ्खको बजाया तथा गोकर्णको छातीसे लगाकर उन्हें अपने समान ही बना लिया। उनके सिवा और भी जितने श्रोता थे, उन सबको श्रीहरिने एक ही क्षणमें अपना सारूप्य दे दिया। वे सभी मेघके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलोंसे सुशोभित हो गये। उस गाँवमें कुत्ते और चाण्डाल आदि जितने भी जीव थे, उन सबको गोकर्णकी दयासे भगवान्ने विमानपर बिठा लिया और वैकुण्ठधाममें भेज दिया, जहाँ योगी पुरुष जाया करते हैं। तत्पश्चात् भक्तवत्सल भगवान् गोपाल कथा श्रवणसे प्रसन्न हो, गोकर्णको साथ ले गोपवल्लभ गोलोक - धामको पधारे। जैसे पूर्वकालमें समस्त अयोध्यावासी भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके साथ साकेतधाममें गये थे, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने उस गाँवके सब मनुष्योंको योगियोंके लिये भी दुर्लभ गोलोक धाममे पहुँचा दिया। जहाँ सूर्य, चन्द्रमा और सिद्ध पुरुषोंकी भी कभी पहुँच नहीं होती, उसी लोकमें वहाँके सब प्राणी केवल श्रीमद्भागवतकी कथा सुननेसे चले गये ।
नारदजी ! श्रीमद्भागवतकी कथामें सप्ताह यज्ञसे जिस उज्ज्वल फल समुदायका सचय होता है, उसका इस समय हम आपसे क्या वर्णन करें। जिन्होंने गोकर्णजीकी कथाका एक अक्षर भी अपने कर्ण -पुटोंके द्वारा पान किया, वे फिर माताके गर्भमें नहीं आये। हवा
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीमद्भागवतके सप्ताह-पारायणकी विधि तथा भागवत-माहात्म्यका उपसंहार •
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पीकर, पत्ते चबाकर और शरीरको सुखाकर दीर्घकालतक किया करते हैं। यह उपाख्यान परम पवित्र है। एक बार कठोर तपस्या करनेसे तथा योगाभ्यास करनेसे भी मनुष्य श्रवण करनेपर भी सारी पाप-राशिको भस्म कर देता है। उस गतिको नहीं प्राप्त होते, जिसे वे सप्ताह-कथाके यदि श्राद्धमें इसका पाठ किया जाय तो इससे पितरोंको श्रवणसे पा लेते हैं। मुनीश्वर शाण्डिल्य चित्रकूटमे रहकर पूर्ण तृप्ति होती है और प्रतिदिन इसका पाठ करनेसे ब्रह्मानन्दमें निमग्न हो इस पवित्र इतिहासका सदा पाठ मनुष्यको मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
श्रीमद्भागवतके सप्ताह-पारायणकी विधि तथा भागवत-माहात्म्यका उपसंहार
श्रीसनकादि कहते हैं-नारदजी ! अब हम किसी कारणवश विशेष अवकाश न हो, तब भी एक सप्ताह-श्रवणको विधिका वर्णन करते हैं। यह कार्य दिनके लिये तो कृपा करनी ही चाहिये; क्योंकि यहाँका प्रायः लोगोंकी सहायता और धनसे साध्य होनेवाला एक क्षण भी अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिये सब प्रकारसे माना गया है। पहले ज्योतिषीको बुलाकर इसके लिये यहाँ पधारनेके लिये ही चेष्टा करनी चाहिये।' इस प्रकार यत्नपूर्वक मुहूर्त पूछना चाहिये। फिर विवाहके कार्यमे बड़ी विनयके साथ उनको आमन्त्रित करे और जो लोग जितने धनको आवश्यकता होती है, उतने ही धनका आवें, उन सबके ठहरनेके लिये प्रबन्ध करे। तीर्थमें, प्रबन्ध कर लेना चाहिये। कथा आरम्भ करनेके लिये वनमें अथवा अपने घरपर भी कथा-श्रवण उत्तम माना भादों, कुआर, कार्तिक,अगहन, आषाढ़ और सावन- गया है। जहाँ भी लम्बी-चौड़ी भूमि- मैदान खाली ये महीने श्रोताओंके लिये मोक्षप्राप्तिके कारण माने गये हो, वहीं कथाके लिये स्थान बनाना चाहिये। जमीनको हैं। महीनोंमें जो भद्रा, व्यतीपात आदि काल त्यागने- झाड़-बुहारकर, धोकर और लीप-पोतकर शुद्ध करे। योग्य माने गये है, उन सबको सब प्रकारसे त्याग देना फिर उसपर गेरु आदिसे चौक पुरावे । यदि वहाँ कोई ही उचित है। जो लोग उत्साही और उद्योगी हों-ऐसे घरका सामान पड़ा हो तो उसे उठाकर एक कोने में रखवा अन्य व्यक्तियोंको भी सहायक बना लेना चाहिये। फिर दे। कथा आरम्भ होनेसे पाँच दिन पहलेसे ही यत्नपूर्वक प्रयत्नपूर्वक देश-देशान्तरोंमें यह समाचार भेज देना बहुत-से आसन जुटा लेने चाहिये। तथा एक ऊंचा चाहिये कि अमुक स्थानपर श्रीमद्भागवतकी कथा मण्डप तैयार कराकर उसे केलेके खम्भोंसे सजा देना होनेवाली है, अतः सब लोग कुटुम्बसहित यहाँ पधारें। चाहिये। उसे फल, फूल, पत्तों तथा चंदोवेसे सब ओर कुछ लोग भगवत्कथा और कीर्तन आदिसे बहुत दूर हैं; अलङ्कत करे; मण्डपके चारों ओर ध्वजारोपण करे और इसलिये इस समाचारको इस प्रकार फैलावें, जिससे नाना प्रकारको शोभामयी सामग्रियोंसे उसे सजावे। उस स्त्रियों और शूद्र आदिको भी इसका पता लग जाय। मण्डपके ऊपरी भागमें विस्तारपूर्वक सात लोकोंकी देश-देशमें जो विरक्त और कथा-कीर्तनके लिये उत्सुक कल्पना करे और उनमें विरक्त ब्राह्मणोंको बुला-बुलाकर रहनेवाले वैष्णव हों, उनके पास भी पत्र भेजना चाहिये बिठावे। पहलेसे ही वहाँ उनके लिये यथोचित आसन तथा उन पत्रोंमें इस प्रकार लिखना उचित है- तैयार करके रखे। वक्ताके लिये भी सुन्दर व्यासगद्दी 'महानुभावो ! यहाँ सात राततक सत्पुरुषोंका सुन्दर बनवानी चाहिये। यदि वक्ताका मुख उत्तरकी ओर हो तो समागम होगा, जो अन्यत्र बहुत ही दुर्लभ है। इसमें श्रोता पूर्वाभिमुख होकर बैठे और यदि वक्ताका मुख श्रीमद्भागवतकी अपूर्व रसमयी कथा होगी। आपलोग पूर्वकी ओर हो तो श्रोताको उत्तराभिमुख होकर बैठना श्रीमद्भागवतामृतका पान करनेके रसिक है, अतः यहाँ चाहिये। अथवा वक्ता और श्रोताके बीच में पूर्व दिशा प्रेमपूर्वक शीघ्र ही पधारनेकी कृपा करें। यदि आपको आ जानी चाहिये। देश, काल आदिको जाननेवाले
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अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
* संसारसागरे मर्म दीनं मां करुणानिधे ॥ कर्मग्राहगृहीता मामुद्धर भवार्णवात् ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
विद्वानोंने श्रोताओंके लिये ऐसा ही शास्त्रोक्त नियम आप साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही यहाँ विराजमान हैं। हैं 1
बतलाया
नाथ! मैंने भवसागरसे छुटकारा पानेके लिये हो आपकी शरण ली है। मेरे इस मनोरथको किसी वित्र बाधाके बिना ही आप सब प्रकारसे सफल करें। केशव ! मैं आपका दास हूँ।'
वक्ता ऐसे पुरुषको बनाना चाहिये जो विरक्त, वैष्णव जातिका ब्राह्मण, वेद-शास्त्रकी विशुद्ध व्याख्या करनेमें समर्थ, भाँति-भाँति के दृष्टान्त देकर ग्रन्थके भावको हृदयङ्गम कराने में कुशल, धीर और अत्यन्त निःस्पृह हो। जो अनेक मत-मतान्तरोंके चक्कर में पड़कर भ्रान्त हो रहे हों, स्त्री लम्पट हों और पाखण्डकी बातें करते हों, ऐसे लोग यदि पण्डित भी हों तो भी उन्हें श्रीमद्भागवतकथाका वक्ता न बनावे। वक्ताके पास उसकी सहायताके लिये उसी योग्यताका एक और विद्वान् रखे; वह भी संशय निवारण करनेमें समर्थ और लोगोंको समझाने में कुशल होना चाहिये। वक्ताको उचित है कि कथा आरम्भ होनेसे एक दिन पहले क्षौर करा ले, जिससे व्रतका पूर्णतया निर्वाह हो सके तथा श्रोता अरुणोदयकालमें-दिन निकलनेसे दो घड़ी पहले शौच आदि से निवृत्त होकर विधिपूर्वक स्नान करे, फिर सन्ध्या आदि नित्यक्रमको संक्षेपसे समाप्त करके कथाके विघ्नोंका निवारण करनेके लिये श्रीगणेशजीकी पूजा करे। तदनन्तर पितरोंका तर्पण करके पूर्वपापोंकी शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त करे और एक मण्डल बनाकर उसमें श्रीहरिको स्थापना करे। फिर भगवान् श्रीकृष्णके उद्देश्यसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक क्रमशः षोडशोपचार विधिसे पूजन करे। पूजा समाप्त होनेपर प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करके इस प्रकार स्तुति करे- 'करुणानिधे! मैं इस संसार समुद्रमें डूबा हुआ हूँ। मुझे कर्मरूपी ग्राहने पकड़ रखा है। आप मुझ दीनका इस भवसागरसे उद्धार कीजिये।* इसके पश्चात् धूप-दीप आदि सामग्रियोंसे प्रयत्नपूर्वक प्रसन्नताके साथ श्रीमद्भागवतकी भी विधिवत् पूजा करनी चाहिये। फिर पुस्तकके आगे श्रीफल (नारियल) रखकर नमस्कार करे और प्रसन्नचित्तसे इस प्रकार स्तुति करे— 'श्रीमद्भागवतके रूपमें
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इस प्रकार दीन वचन कहकर वक्ताको वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित करके उसकी पूजा करे और पूजाके पश्चात् उसकी इस प्रकार स्तुति करे- 'शुकदेवस्वरूप महानुभाव! आप समझानेकी कलामें निपुण और समस्त शास्त्रोंके विशेषज्ञ हैं। इस श्रीमद्भागवतकथाको प्रकाशित करके आप मेरे अज्ञानको दूर कीजिये । तदनन्तर वक्ताके आगे अपने कल्याणके लिये प्रसन्नतापूर्वक नियम ग्रहण करे और यथाशक्ति सात दिनोंतक निश्चय ही उसका पालन करे। कथामें कोई विघ्न न पड़े, इसके लिये पाँच ब्राह्मणोंका वरण करे। उन ब्राह्मणोंको द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करना चाहिये। इसके बाद वहाँ उपस्थित हुए ब्राह्मणों, विष्णुभक्तों और कीर्तन करनेवाले लोगोंको नमस्कार करके उनकी पूजा करे और उनसे आज्ञा लेकर स्वयं श्रोताके आसनपर बैठे। जो पुरुष लोक, सम्पत्ति, धन, घर और पुत्र आदिकी चिन्ता छोड़कर शुद्ध बुद्धिसे केवल कथामें ही मन लगाये रहता है, उसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है।
( १९४ । २९-३०)
बुद्धिमान् वक्ताको उचित है कि वह सूर्योदयसे लेकर साढ़े तीन पहरतक मध्यम स्वरसे अच्छी तरह कथा बाँचे, दोपहरके समय दो घड़ीतक कथा बंद रखे। कथा बंद होनेपर वैष्णव पुरुषोंको वहाँ कीर्तन करना चाहिये। कथाके समय मल-मूत्रके वेगको काबूमें रखनेके लिये हलका भोजन करना अच्छा होता है। अतः कथा सुननेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको एक बार हविष्यान्न भोजन करना उचित है। यदि शक्ति हो तो सात रात उपवास करके कथा श्रवण करे अथवा केवल घी या दूध पीकर सुखपूर्वक कथा सुने। इससे काम न चले
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.श्रीमद्भागवतके सप्ताह-पारायणकी विधि तथा भागवत-माहात्म्यका उपसंहार .
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तो फलाहार अथवा एक समय भोजन करके कथा सुने। इस प्रकार व्रतकी विधि पूर्ण करके उसका उद्यापन तात्पर्य यह कि जिसके लिये जो नियम सुगमतापूर्वक करे । उत्तम फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको जन्माष्टमीनिभ सके, वह उसीको कथा सुननेके लिये ग्रहण करे। व्रतके समान इसका उद्यापन करना चाहिये। जो मैं तो उपवासकी अपेक्षा भोजनको ही श्रेष्ठ मानता हूँ, अकिञ्चन भक्त हैं, उनके लिये प्रायः उद्यापनका आग्रह यदि वह कथा-श्रवणमें सहायक हो सके। अगर नहीं है। वे कथा-श्रवणमात्रसे ही शुद्ध हो जाते हैं; उपवाससे कथामें विघ्न पड़ता हो तो वह अच्छा नहीं क्योंकि वे निष्काम वैष्णव हैं। इस तरह सप्ताह-यज्ञ पूर्ण माना गया है।
होनेपर श्रोताओंको बड़ी भक्ति के साथ पुस्तक तथा नारदजी ! नियमसे सप्ताह-कथा सुननेवाले पुरुषोंके कथावाचककी पूजा करनी चाहिये और वक्ताको उचित लिये पालन करनेयोग्य जो नियम हैं, उन्हें बतलाता हूँ, है कि वह श्रोताओको प्रसाद एवं तुलसीकी माला दे। सुनिये। जिन्होंने श्रीविष्णुमन्त्रकी दीक्षा नहीं ली है तत्पश्चात् मृदङ्ग बजाकर तालस्वरके साथ कीर्तन किया अथवा जिनके हृदयमें भगवानको भक्ति नहीं है, उन्हें जाय, जय-जयकार और नमस्कार शब्दके साथ शङ्खोंकी इस कथाको सुननेका अधिकार नहीं है। कथाका व्रत ध्वनि हो तथा ब्राह्मणों और याचकोको धन दिया जाय। लेनेवाला पुरुष ब्रह्मचर्यसे रहे, भूमिपर शयन करे और यदि श्रोता विरक्त हो तो कथा-समाप्तिके दूसरे दिन गीता कथा समाप्त होनेपर पत्तलमें भोजन करे। दाल, मधु, बाँचनी चाहिये और गृहस्थ हो तो कर्मको शान्तिके लिये तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्नको होम करना चाहिये। उस हवनमे दशम स्कन्धका वह सर्वथा त्याग दे। काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, एक-एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर, मधु, घी, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेषको बुरा समझकर पास न तिल और अन्न आदिसे युक्त हवन-सामग्रीकी आहुति दे आने दे। वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गोसेवक, स्त्री, राजा अथवा एकाग्रचित्त होकर गायत्री मन्त्रसे हवन करे; और महापुरुषोंकी निन्दा न करे । रजस्वला स्त्री, अन्त्यज क्योंकि वास्तवमें यह महापुराण गायत्रीमय ही है। यदि (चाण्डाल आदि), मलेच्छ, पतित, गायत्रीहीन द्विज, होम करानेकी शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करनेके ब्राह्मणद्रोही तथा वेदको न माननेवाले पुरुषोंसे वार्तालाप लिये विद्वान् पुरुष ब्राह्मणोंको कुछ हवन-सामग्रीका दान न करे। नियमसे कथाका व्रत लेनेवाले पुरुषको सदा करे तथा कर्ममें जो नाना प्रकारकी त्रुटियाँ रह गयी हो सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारताका या विधिमें जो न्यूनता अथवा अधिकता हो गयी हो, बर्ताव करना चाहिये। दरिद्र, क्षयका रोगी, अन्य किसी उनके दोषकी शान्तिके लिये विष्णुसहस्रनामका पाठ रोगसे पीड़ित, भाग्यहीन, पापाचारी, सन्तानहीन तथा करे। उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं, क्योंकि इससे मुमुक्षु पुरुष इस कथाको अवश्य सुने। जिस स्त्रीका बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। हवनके पश्चात् बारह मासिक धर्म रुक गया हो, जिसके एक ही सन्तान होकर ब्राह्मणोंको मीठी खीर भोजन करावे और व्रतकी पूर्तिके रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसके बच्चे पैदा होकर मर लिये दूध देनेवाली गौ तथा सुवर्णका दान करे । यदि जाते हों तथा जिसका गर्भ गिर जाता हो, उस स्त्रीको शक्ति हो तो तीन तोले सोनेका एक सिंहासन बनवावे, प्रयत्नपूर्वक इस कथाका श्रवण करना चाहिये। इन्हें उसपर सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई श्रीमद्भागवतकी पोथी विधिपूर्वक दिया हुआ कथाका दान अक्षय फल देने- रखकर आवाहन आदि उपचारोंसे उसका पूजन करे। वाला है [अर्थात् ये यदि कथा सुनें तो इनके उक्त फिर वस्त्र, आभूषण और गन्ध आदिके द्वारा जितेन्द्रिय दोष अवश्य मिट जाते हैं] । कथाके लिये सात दिन आचार्यकी पूजा करके उन्हें दक्षिणासहित वह पुस्तक अत्यन्त उत्तम माने गये हैं। वे कोटि यज्ञोंका फल दान कर दे। जो बुद्धिमान् श्रोता ऐसा करता है, वह देनेवाले है।
भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह सप्ताह-यज्ञका
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अर्जयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
विधान सब पापोंका निवारण करनेवाला है; इसका इस प्रकार यथावत् पालन करनेसे कल्याणमय श्रीमद्भागवत पुराण मनोवाञ्छित फल प्रदान करता है तथा धर्म, अर्थ काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थोका साधक होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
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श्रीसनकादि कहते हैं-नारदजी! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह-श्रवणकी सारी विधि सुना दी। अब और क्या सुनना चाहते हो ? श्रीमद्भागवतसे ही भोग और मोक्ष दोनों हाथ लगते हैं। श्रीमद्भागवत नामक एक कल्पवृक्ष है, जिसका अङ्कुर बहुत ही उज्ज्वल है। सत्स्वरूप परमात्मासे इस वृक्षका उद्गम हुआ है, यह बारह स्कन्धों (मोटी डालियों) से सुशोभित है, भक्ति ही इसका थाहा है, तीन सौ बत्तीस अध्याय ही इसकी सुन्दर शाखाएँ हैं और अठारह हजार श्लोक ही इसके पत्ते हैं। यह सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाला है। इस प्रकार यह भागवतरूपी दिव्य वृक्ष अत्यन्त सुलभ होनेपर भी अपनी अनुपम महत्ताके कारण सर्वोपरि विराजमान है।
सूतजी कहते हैं- ऐसा कहकर सनकादि महात्माओने परम पवित्र श्रीमद्भागवतकी कथा बाँचनी आरम्भ की, जो सब पापोंको हरनेवाली तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। उस समय समस्त प्राणी अपने मनको काबू में रखकर सात दिनोंतक वह कथा सुनते रहे। तत्पश्चात् सबने विधिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति की। कथाके अन्तमें ज्ञान, वैराग्य और भक्तिकी पूर्णरूपले पुष्टि की। उन्हें उत्तम तरुण अवस्था प्राप्त हुई, जो समस्त प्राणियोंका मन हर लेनेवाली थी। नारदजी भी अपना मनोरथ सिद्ध हो जानेसे कृतार्थ हो गये, उनके सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे परमानन्दमें निमग्र हो गये। इस प्रकार कथा सुनकर भगवान् के प्रिय भक्त नारदजी हाथ जोड़कर प्रेमपूर्ण गद्गद वाणीमें सनकादि महात्माओंसे बोले'तपोधनो ! आज मैं धन्य हो गया। आप दयालु महात्माओंने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। सप्ताह यज्ञमें श्रीमद्भागवतका श्रवण करनेसे आज मुझे भगवान्
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीहरि समीपमें ही मिल गये। मैं तो सब धर्मोकी अपेक्षा श्रीमद्भागवत श्रवणको ही श्रेष्ठ मानता हूँ, क्योंकि उसके सुननेसे वैकुण्ठवासी भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है।'
यह
सूतजी कहते हैं - वैष्णवोंमें श्रेष्ठ श्रीनारदजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय सोलह वर्षकी अवस्थावाले व्यासपुत्र योगेश्वर श्रीशुकदेव मुनि वहाँ घूमते हुए आ पहुँचे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो ज्ञानरूपी महासागरसे निकले हुए चन्द्रमा हों। वे ठीक कथा समाप्त होनेपर वहाँ पहुँचे थे। आत्मलाभसे परिपूर्ण श्रीशुकदेवजी उस समय बड़े प्रेमसे धीर-धीर श्रीमद्भागवतका पाठ कर रहे थे। उन परम तेजस्वी मुनिको आया देख सारे सभासद् तुरंत ही उठकर खड़े हो गये और उन्हें बैठनेके लिये एक ऊँचा आसन दिया; फिर देवर्षि नारदजीने बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका पूजन किया। जब वे सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो गये तो 'मेरी उत्तम वाणी सुनो' ऐसा कहते हुए बोले'भगवत्कथाके रसिक भावुक भक्तजन ! श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका पका एवं चूकर गिरा हुआ फल है, जो परमानन्दमय अमृत रससे भरा है। यह श्रीशुकदेवरूप तोतेके मुखसे इस पृथ्वीपर प्राप्त हुआ है; जबतक यह जीवन रहे, जबतक संसारका प्रलय न हो जाय, तबतक आपलोग इस दिव्य रसका नित्यनिरन्तर बारम्बार पान करते रहिये। महामुनि श्रीव्यासजीके द्वारा रचित इस श्रीमद्भागवतमें परम उत्तम निष्काम धर्मका प्रतिपादन किया गया है तथा जिनके हृदयमें ईर्ष्या-द्वेषका अभाव है, उन साधु पुरुषोंके जानने योग्य उस कल्याणप्रद परमार्थ तत्त्वका निरूपण किया गया है, जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंका समूल नाश करनेवाला है। इस श्रीमद्भागवतकी शरण लेनेवाले पुरुषोंको दूसरे साधनोंकी क्या आवश्यकता है। जो बुद्धिमान् एवं पुण्यात्मा पुरुष इस पुराणको श्रवण करनेकी इच्छा करते हैं, उनके हृदयमें स्वयं भगवान् ही तत्काल प्रकट होकर सदाके लिये स्थिर हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत समस्त पुराणोंका तिलक और वैष्णव पुरुषोंकी प्रिय वस्तु है। इसमें परमहंस महात्माओंको प्राप्त
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उत्तरखण्ड ]
• श्रीमद्भागवत सप्ताह पारायणकी विधि तथा भागवत माहालयका उपसंहार
होने योग्य परम उत्तम विशुद्ध अद्वैत ज्ञानका वर्णन किया गया है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके सहित नैष्कर्म्य धर्म- (निवृत्तिमार्ग ) को प्रकाशित किया गया है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसके श्रवण, पठन और मननमें संलग्न रहता है, वह संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास तथा वैकुण्ठमें भी नहीं है; अतः सौभाग्यशाली पुरुषो! तुम इसका निरन्तर पान करते रहो। कभी किसी प्रकार भी इसको छोड़ो मत, छोड़ो मत।'
शौनकजी ! व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि वहाँ बीच सभामें प्रह्लाद, बलि, उद्धव और अर्जुन आदि पार्षदोंके सहित साक्षात् श्रीहरि प्रकट हो गये । देवर्षि नारद भगवान् और उनके भक्तोंका पूजन किया। भगवान्को प्रसन्न देखकर नारदजीने उन्हें एक श्रेष्ठ आसनपर बिठा दिया और सब लोग मिलकर उनके सामने कीर्तन करने लगे। उस कीर्तनको देखनेके लिये पार्वतीसहित महादेवजी और ब्रह्माजी भी वहाँ आ गये। प्रह्लादजी चञ्चल गतिसे थिरकते हुए करताल बजाने लगे, उद्धवने मंजीरे ले लिये देवर्षि नारदजीने वीणाकी तान छेड़ दी, स्वरमें कुशल होनेके कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इन्द्रने मृदङ्ग बजाना आरम्भ किया। महात्मा सनक, सनन्दन, आदि कीर्तनके बीचमें जय-जयकार करने लगे और इन सबके आगे व्यासपुत्र शुकदेवजी रसकी अभिव्यक्ति करते हुए भाव बताने लगे। उस कीर्तन मण्डलीके बीच परम तेजस्वी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य नटोंके समान नृत्य कर रहे थे। यह अलौकिक कीर्तन देखकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और बोले- 'भक्तजन ! मैं तुम्हारी इस कथा और कीर्तनसे बहुत प्रसन्न हूँ, अतः तुमलोग मुझसे वर माँगो' भगवान्का यह वचन सुनकर सब लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई, उनका हृदय भगवत्प्रेमसे सराबोर हो गया। वे श्रीहरिसे कहने लगे— 'भगवन्! हमारी इच्छा है कि जहाँ कहीं भी श्रीमद्भागवतकी सप्ताह कथा हो, वहाँ इन समस्त पार्षदोंके साथ यत्त्रपूर्वक पधारें। हमलोगों का यह मनोरथ अवश्य पूर्ण होना चाहिये।' तब भगवान्
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'तथास्तु' कहकर वहाँसे अन्तर्धान हो गये।
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तत्पश्चात् नारदजीने भगवान् तथा उनके भक्तोंके चरणोंको लक्ष्य करके मस्तक झुकाया और शुकदेव आदि तपस्वियोंको भी प्रणाम किया। इस प्रकार कथामृतका पान करके सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन सबका मोह नष्ट हो गया। फिर वे सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। उस समय श्रीशुकदेवजीने ज्ञानवैराग्यसहित भक्तिको श्रीमद्भागवत - शास्त्रमें स्थापित कर दिया। इसीसे श्रीमद्भागवतका सेवन करनेपर भगवान् विष्णु वैष्णवोंके हृदयों में विराजमान हो जाते हैं; जो लोग दरिद्रता ( तरह तरहके अभाव ) और दुःखरूप ज्वरसे दग्ध हो रहे हैं, जिनको मायापिशाचीने अपने पैरोंसे कुचल डाला है तथा जो संसार-समुद्रमें पड़े हुए हैं, उनका कल्याण करनेके लिये श्रीमद्भागवत-शास्त्र निरन्तर गर्जना कर रहा है।
शौनकजीने पूछा— सूतजी ! शुकदेवजीने राजा परीक्षित्को, गोकर्णजीने धुन्धुकारीको तथा सनकादिने देवर्षि नारदको किस-किस समय श्रीमद्भागवतकी कथा सुनायी थी ?
सूतजीने कहा- भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधारनेके पश्चात् जब कलियुगको आये तीस वर्ष हो गये, उस समय भादोंके शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको श्रीशुकदेवजीने कथा आरम्भ की। राजा परीक्षित्के कथा सुननेके पश्चात् कलियुगके दो सौ वर्ष बीत जानेपर शुद्ध आषाढ़ मासको शुक्ला नवमीको गोकर्णजीने कथा सुनायी थी। उसके बाद जब कलियुगके तीन सौ छः वर्ष व्यतीत हो गये, तब कार्तिक शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको सनकादिने कथा आरम्भ की थी पापरहित शौनकजी ! आपने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। इस कलियुगमें श्रीमद्भागवतकी कथा संसाररूपी रोगका नाश करनेवाली है। संतजन ! आपलोग श्रद्धापूर्वक इस कथामृतका पान करें। यह भगवान् श्रीकृष्णको परम प्रिय, समस्त पापोंका नाश करनेवाला, मुक्तिका एकमात्र कारण तथा भक्तिको बढ़ानेवाला है। इसको छोड़कर लोकमें अन्य कल्याणकारी साधनोंके विचार करनेकी
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• अर्चपस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ...
[संक्षिप्त पद्मपुराण
क्या आवश्यकता है? अपने सेवकको पाश हाथमें लगाता है, वह वैकुण्ठका स्वामी बन जाता है। लिये देख यमराज उसके कानमें कहते हैं-'देखो, जो शौनकजी ! मैंने समस्त शास्त्र-समुदायका मन्थन करके लोग भगवान्की कथा-वार्ताम मस्त हो रहे हो, उनसे दूर इस समय आपको यह परम गुहा रहस्य सुनाया है। यह ही रहना। मैं दूसरे ही लोगोंको दण्ड देनेमें समर्थ हूँ, समस्त सिद्धान्तोंद्वारा प्रमाणित है। संसारमें वैष्णवोंको नहीं।' इस असार संसारमें विषयरूपी विषके श्रीमद्भागवतकी कथासे अधिक पवित्र और कोई वस्तु सेवनसे व्याकुलचित्त हुए मनुष्यो ! यदि कल्याण चाहते नहीं है, अतः आपलोग परमानन्दकी प्राप्तिके लिये हो तो आधे क्षणके लिये भी श्रीमद्भागवतकथारूपी द्वादशस्कन्धरूप इस सारमय कथामृतका किञ्चित्अनुपम सुधाका पान करो। अरे भाई ! घृणित चर्चासे किञ्चित् पान करते रहिये। जो मनुष्य नियमपूर्वक इस भरे हुए कुमार्गपर क्यों व्यर्थ भटक रहे हो। इस कथाके कथाको भक्तिभावसे सुनता है और जो विशुद्ध वैष्णव कानमें पड़ते ही मुक्ति हो जाती है। मेरे इस कथनमें राजा पुरुषोंके आगे इसे सुनाता है, वे दोनों ही उत्तम विधिका परीक्षित् प्रमाण हैं। श्रीशुकदेवजीने प्रेम-रसके प्रवाहमें पालन करनेके कारण इसका यथार्थ फल प्राप्त करते हैं। स्थित होकर यह कथा कही है। जो इसे अपने कण्ठसे उनके लिये संसारमें कुछ भी असाध्य नहीं है।
यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य-कथा
ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! अब आप यमुनाजीके करके वस्त्र पहन चुके तब राजा शिबिने उनके चरणोंमें माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। साथ ही यह मस्तक रखकर प्रणाम किया। फिर तो वे मुनि भी बात भी बताइये, किसने किसके प्रति इस माहास्यका राजाके साथ ही तटपर विराजमान हो गये। वहाँ उपदेश किया था?
सुवर्णके हजारों यूप दिखायी दे रहे थे। अभिमानरहित सूतजीने कहा-एक समयकी बात है, पाण्डु- राजा शिबिने उन यूपोंपर दृष्टि डालकर देवर्षि नारद और नन्दन युधिष्ठिर सौभरि मुनिसे कल्याणमय ज्ञान सुननेके पर्वतसे पूछा-'मुनिवरो! ये यज्ञ-यूप किनके हैं ? लिये उनके स्थानपर गये और उन्हें नमस्कार करके इस किस देवता अथवा मनुष्यने यहाँ यज्ञ किये हैं? काशी प्रकार पूछने लगे-'ब्रह्मन् ! सूर्यकन्या यमुनाजीके आदि तीर्थोको छोड़कर किस पुरुषने यहाँ यज्ञ किया तटपर जितने तीर्थ हैं उनमें ऐसा कल्याणमय तीर्थ कौन है? अन्य तीर्थोसे यहाँ क्या विशेषता है? इसमें है, जो भगवानकी जन्मभूमि मथुरासे भी बड़ा हो।' कौन-सा विज्ञानका भण्डार भरा हुआ है ? यह बतानेको
सौभरि बोले-एक समय मुनिश्रेष्ठ नारद और कृपा करें।' पर्वत आकाशमार्गसे जा रहे थे। जाते-जाते उनकी दृष्टि नारदजीने कहा-राजन्! पूर्वकालमें परम मनोहर खाण्डव वनपर पड़ी। वे दोनों मुनि हिरण्यकशिपुने जब देवताओंको जीतकर तीनों लोकोका आकाशसे वहाँ उतर पड़े और यमुनाजीके उत्तम तटपर राज्य प्राप्त कर लिया तो उसे बड़ा घमण्ड हो गया। बैठकर विश्राम करने लगे। क्षणभर विश्राम करनेके बाद उसके पुत्र प्रहादजी भगवान् विष्णुके अनन्य भक्त थे; उन्होंने स्नान करनेके लिये जलमें प्रवेश किया। इसी किन्तु वह पापात्मा उनसे सदा द्वेष रखता था। भक्तसे समय उशीनर देशके राजा शिबिने, जो उस वनमें शिकार द्रोह करनेके कारण उसे दण्ड देनेके लिये भगवान् खेलनेके लिये आये थे, उन दोनों मुनियोंको देखा। तब विष्णुने नृसिंहरूप धारण किया और उसका वध करके वे उनके निकलनेकी प्रतीक्षा करते हुए नदीके तटपर बैठ स्वर्गका राज्य इन्द्रको समर्पित कर दिया। अपना स्थान गये। नारद और पर्वत मुनि जब विधिपूर्वक स्रान पाकर इन्द्रने गुरु बृहस्पतिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर
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उत्तरखण्ड ]
. यमुनातटवर्ती इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य-कथा .
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प्रणाम किया और भगवान् नारायणके गुणोंका स्मरण तीनों देवता स्वतः मुझे दर्शन देने पधारे है। विष्णो! करते हुए कहा-'गुरुदेव ! समस्त जगत्का पालन यद्यपि आप एक ही हैं, तो भी सत्त्व आदि गुणोंका करनेवाले नृसिंहरूपधारी श्रीहरिने मुझे पुनः देवताओंका आश्रय लेकर आपने अपने तीन स्वरूप बना लिये हैं। राज्य प्रदान किया है, अतः मैं यज्ञोंद्वारा उनका पूजन इन तीनों ही रूपोंका तीनों वेदोंमें वर्णन है अथवा ये करना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे पवित्र स्थान तीनों रूप तीन वेदस्वरूप ही हैं। जैसे स्फटिकमणि स्वतः बताइये और योग्य ब्राह्मणोंका परिचय दीजिये। आप उज्ज्वल है, किन्तु भाँति-भांतिके रंगोंके सम्पर्क में आकर हमलोगोंके हितकारी हैं, अतः इस कार्यमें विलम्ब नहीं विविध रंगका जान पड़ता है, उसी प्रकार आप एक करना चाहिये। या
होनेपर भी उपाधिभेदसे अनेकवत् प्रतीत होते हैं। बृहस्पतिजीने कहा-देवराज ! तुम्हारा खाण्डव आपका यह नानात्व स्फटिकमणिके रंगोंकी भाँति मिथ्या वन परम पवित्र और रमणीय स्थान है। वहाँ त्रिभुवनको ही है। प्रभो ! जैसे लकड़ियोंमें छिपी हुई आग रगड़े पवित्र करनेवाली पुण्यमयी यमुना नदी है। यदि तुम बिना प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें आत्मीयजनोंका कल्याण चाहते हो तो उसीके तटपर छिपे हुए आप परमात्मा भक्तिसे ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर चलकर नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान् केशवकी दर्शन देते हैं। आप सब प्राणियोंका उपकार करनेवाले आराधना करो।
हैं। आपमें एककी भी भक्ति हो तो अनेकोंको सुख होता गुरु बृहस्पतिके वचन सुनकर देवराज इन्द्र तुरंत है। प्रह्लादजीकी की हुई भक्तिके द्वारा आज सम्पूर्ण देवता गुरु, देवता तथा यज्ञसामग्रीके साथ खाण्डव वनमें सुखी हो गये हैं। देव हम सभी देवता विषय-भोगोंमें ही आये। फिर गुरुकी आज्ञासे ब्रह्मकुमार वसिष्ठ आदि फँसे हैं। हमारे मनपर आपकी मायाका पर्दा पड़ा है, सप्तर्षियों तथा अन्य ब्राह्मणोंका वरण करके इन्द्रने अतः हम आपके स्वरूपको नहीं जानते; उसका यथावत् जगत्पति भगवान् विष्णुका यजन किया। इससे प्रसन्न ज्ञान तो उन्हींको होता है, जो आपके चरणोंके सेवक हैं। होकर भगवान् विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीके साथ ब्रह्मा और महादेवजी ! आप दोनों भी इस जगत्के गुरु इन्द्रके यज्ञमें पधारे। सरलहृदय इन्द्र तीनो देवताओंको है; यह गुरुत्व भगवान् विष्णुका ही है, इसलिये उपस्थित देख तुरंत आसनसे उठकर खड़े हो गये और आपलोग इनसे पृथक् नहीं हैं। वाणीसे जो कुछ भी कहा मुनियोंके साथ उनके चरणोंमे प्रणाम किया। फिर जाता है और मनसे जो कुछ सोचा जाता है, वह सब वाहनोंसे उतरकर वे तीनों देवता सोनेके सिंहासनोंपर भगवान् विष्णुकी माया ही है। जो कुछ देखने में आ रहा विराजमान हुए। उस समय वेदियोपर प्रज्वलित त्रिविध है, यह सारा प्रपञ्च ही मिथ्या है-ऐसा विचार करके जो अग्नियोंकी भाँति उन तीनोंको शोभा हो रही थी। श्वेत मनुष्य भगवान् विष्णुके चरणोंका भजन करते हैं, वे और लाल वर्णवाले शङ्कर एवं ब्रह्माजीके बीच में बैठे हुए संसार-सागरसे तर जाते हैं। महादेवजी ! इन चरणोंकी पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर भगवान् विष्णु ऐसे जान पड़ते महिमाका कहाँतक वर्णन किया जाय, जिनका जल आप थे मानो दो पर्वत-शिखरोंके बीच बिजलीसहित मेघ भी अपने मस्तकपर धारण करते हैं। ब्रह्माजी ! मैं तो दिखायी दे रहा हो । इन्द्रने उन तीनोंके चरण धोकर उस यही चाहता हूँ कि जिनकी दृष्टि पड़नेमाप्रसे विकारको जलको अपने मस्तकपर चढ़ाया और बड़ी प्रसन्नताके प्राप्त होकर प्रकृति महत्तत्व आदि समस्त जगत्को सृष्टि साथ मधुर वाणीमें इस प्रकार स्तुति करना आरम्भ किया। करती है, उन्हीं भगवान् विष्णुके चरण-कमलोंमें मेरा
इन्द्र बोले-देव ! आज मेरे द्वारा आरम्भ किया जन्म-जन्म दृढ़ अनुराग बना रहे। भगवान् नसिंह ! हुआ यह यज्ञ सफल हो गया; क्योंकि योगियोंको भी आपके समान दयालु प्रभु दूसरा कोई नहीं है, क्योंकि जो जिनका दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है, वे ही आप आपसे शत्रुभाव रखते हैं, उनके लिये भी आप सुखका
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• अर्जयस्व हषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पणपुराण
ही विस्तार करते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि आप उपस्थित रहँगा । इन्द्र ! हरिद्वार और पुष्कर नामक जो दो अपने भक्तोंका शोक दूर करनेके लिये ही दयालु हैं- श्रेष्ठ तीर्थ हैं, उनको भी मैं तुम्हारे हितकी कामनासे यहाँ यह उनकी अज्ञता है।
स्थापित करता हैं। नैमिषारण्य, कालञ्जरगिरि तथा राजन् ! इस प्रकार भगवान् केशवकी स्तुति करके सरस्वतीके तटपर भी जितने तीर्थ हैं, उन सबकी मैं यहाँ देवराज इन्द्रने उनके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उनका स्थापना करता हूँ। वचन सुननेके लिये वे दत्तचित्त होकर खड़े हो गये। तब नारदजी कहते है-राजा शिबि ! श्रीहरिके ये यज्ञसभामें आये हुए मुनि इन्द्रद्वारा की हुई रमापति कल्याणमय वचन सुनकर सबने वैसा ही किया। अब भगवान् विष्णुको यह स्तुति सुनकर भगवद्भक्तिकी यह स्थान सम्पूर्ण तीर्थोका स्वरूप बन गया, अतः प्रशंसा करते हुए उन्हें साधुवाद देने लगे। देवराज इन्द्रने सुवर्णके यूपोंसे सुशोभित अनेक यज्ञोंद्वारा
नारदजी कहते हैं-मुनियोंद्वारा त्रिलोकीसे पुनः भगवान् लक्ष्मीपतिका यजन किया और भगवान्के अतीत नित्य धामकी प्राप्ति करानेवाली तथा सबके सेवन सामने ही ब्राह्मणोंको रत्नोंके कितने ही प्रस्थ दान किये। करनेयोग्य अपनी भक्तिका समर्थन सुनकर सम्पूर्ण दान देते समय उन्होंने केवल यही उद्देश्य रखा कि जगत्के गुरु भगवान् श्रीहरि उस समाजके भीतर इन्द्रसे मुझपर सर्वात्मा नारायण सन्तुष्ट हों। तभीसे यह तीर्थ मधुर वाणीमें बोले।
इन्द्रप्रस्थ कहलाता है। श्रीभगवान्ने कहा-देवराज ! ये मुनि परम इन्द्रने यहाँ सुवर्ण-यूपोंसे सुशोभित यज्ञोंका शानी हैं। अतः यदि ये मेरी भक्तिको गौरव देते और विधिपूर्वक अनुष्ठान पूर्ण किया और भगवान् विष्णु उसका सत्कार करते हैं तो यह कोई आश्चर्यको बात नहीं आदि देवताओकी पूजा करके उन्हें विदा किया। फिर है; क्योंकि ये तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले प्राणियोको ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ आदि ऋत्विजोंको धन आदिके उपदेश देनेवाले हैं। ये ही सदा नष्ट हुए वैदिक मार्गको द्वारा सन्तुष्ट करके बृहस्पतिको आगे करके इन्द्र पुनः स्थापित करते हैं। यद्यपि तुम स्वर्गके भोगोंमें स्वर्गलोकको चले गये। राजन् ! वहाँ भगवान्की आसक्त थे, तथापि जो भक्तिपूर्वक मेरी शरणमें आ भक्तिसे युक्त हो इन्द्रने राज्य किया और पुण्य क्षीण गये—इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि देवगुरु होनेपर पुनः हस्तिनापुरमें जन्म लिया। बृहस्पति-जैसे महात्मा तुम्हारे गुरु हैं। सुरश्रेष्ठ ! तुम वहाँ शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण थे, जो वेदबहुत-सी दक्षिणावाले यज्ञोंसे मेरा यजन करो, किन्तु वेदाङ्गोंके पारङ्गत विद्वान् थे। उनकी पत्नीका नाम मनमें कोई कामना न रखो। इससे तुम तुरंत ही मेरे गुणवती था। भगवान् विष्णुके सेवक देवराज इन्द्र समीपवर्ती पद-परम धामको प्राप्त होओगे। तुम उसीके गर्भसे उत्पन्न हुए। शिवशर्माने ज्योतिषियोंको प्रत्येक यज्ञमें रत्नोंके अनेक प्रस्थ (ढेर) दान करो; फिर बुलवाया। ज्यौतिषी लग्न देखकर उसका फल बतलाने इसी नामसे यह स्थान इन्द्रप्रस्थ कहलायेगा। लगे-'शिवशर्माजी ! आपका यह बालक भगवान् महादेवजी ! आप यहीं काशी और शिवकाञ्चीकी विष्णुका प्रिय भक्त होगा तथा आपके कुलका उद्धार स्थापना कीजिये और पार्वतीजीके साथ सदा इस तीर्थमं करेगा।' ज्योतिषियोंका यह शान्तिदायक वचन सुनकर निवास कीजिये। बृहस्पतिजी। आप भी यहाँ शिवशर्माने अपने पुत्रका नाम विष्णुशर्मा रखा और उन्हें निगमोद्वोधक तीर्थकी स्थापना कीजिये। यहाँ स्रान धन देकर विदा किया। शिवशर्मा बड़े बुद्धिमान् थे। वे करनेसे पूर्वजन्मको स्मृति और परमात्माका ज्ञान प्राप्त हो। मन-ही-मन सोचने लगे-'मेरा जीवन धन्य है; क्योंकि मैं भी यहाँ परम मनोहर द्वारकापुरी, अयोध्यापुरी, मधुवन मेरा पुत्र भगवान् विष्णुका भक्त होगा।' मनमें ऐसी ही और बदरिकाश्रमकी स्थापना करता हूँ तथा सदा यहाँ बात विचारते हुए शिवशर्माने किसी अच्छे दिनको श्रेष्ठ
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उत्तरखण्ड ]
. निगमोऽध नामक तीर्थकी महिमा-शिवशौक पूर्वजन्यकी कथा .
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ब्राह्मणों के द्वारा शिशुके जात-कर्म आदि संस्कार कराये। पोषण करेगा। हम दोनों श्रीहरिके चरण-कमलोका चिन्तन जब सात वर्ष व्यतीत हो गये और आठवाँ वर्ष आ लगा करते हुए अब यहाँसे चल दें। तब उन्होंने अपने पुत्रका उपनयन-संस्कार किया। इसके श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! ऐसा निश्चय बाद बारह वर्षोंतक उसे अङ्गोसहित वेद पढ़ाये। करके वे दोनों मुमुक्षु पिता-पुत्र अन्धकारपूर्ण आधी तत्पश्चात् शिवशर्माने पुत्रका विवाह कर दिया। बुद्धिमान् रातके समय घरसे चल दिये और घूमते हुए इस परम विष्णुशर्माने अपनी पत्नीसे एक पुत्र उत्पन्न करके अपने कल्याणदायक तीर्थ इन्द्रप्रस्थमें आये। यहाँ अपने विषय-वासनारहित मनको तीर्थयात्रामें लगाया और पूर्वजन्मके किये हुए यज्ञयूपोंको देखकर विष्णुशर्माको पिताके पास जाकर उनके दोनों चरणोंमें प्रणाम किया। श्रीहरिके समागमका स्मरण हो आया। उन्होंने अपने तत्पश्चात् महाप्राज्ञ विष्णुशर्मा इस प्रकार बोले- पितासे कहा-'पिताजी ! मैं पूर्वजन्ममें इन्द्र था। मैंने "पिताजी ! मुझे आज्ञा दीजिये। मैं सत्सङ्ग प्रदान करने- ही भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेकी इच्छासे यहाँ यज्ञ वाले तृतीय आश्रमको स्वीकार करके अब श्रीविष्णुको किये थे। यहीं मेरे ऊपर भक्तवत्सल भगवान् केशव आराधना करूंगा। स्त्री, गृह, धन, सन्तान और सुहृद्- प्रसन्न हुए थे। मैंने रत्नोंके प्रस्थ दान करके यहाँ ब्राह्मणों ये सभी जलमें उठनेवाले बुबुदोंको तरह क्षणभङ्गर हैं; और सप्तर्षियोंको सन्तुष्ट किया था। उन्होंने ही मुझे अतः विद्वान् पुरुष इनमें आसक्त नहीं होता। मैंने वेदोंके विष्णुभक्तिकी प्राप्ति तथा इस जन्ममें मोक्ष होनेका स्वाध्यायसे और सन्तानोत्पत्तिके द्वारा क्रमशः ऋषि-ऋण आशीर्वाद दिया था। इस तीर्थको सर्वतीर्थमय बनाकर
और पितृ-ऋणसे उद्धार पा लिया है। अब तीर्थोंमें इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया था। उन मुनिवरोंने इसी रहकर निष्कामभावसे भगवान् केशवको आराधना करना स्थानपर मेरी मृत्यु होनेकी बात बतायी है और अन्त में चाहता है। गुणमय पदार्थोकी आसक्तिका त्याग करके भगवान के परमधामकी प्राप्ति होनेका आश्वासन दिया है। जबतक प्रारब्ध शेष है, किसी उत्तम तीर्थमें रहनेका ये सब बातें मुझे इस समय याद आ रही हैं। यह विचार करता हूँ।'
निगमोद्बोधक नामक तीर्थ है, जिसे मेरे गुरु बृहस्पतिजीने ... शिवशर्माने कहा-बेटा ! मेरे लिये भी स्थापित किया था। सप्ततीर्थ और निगमोरोध-इन दो अहङ्कारशून्य होकर चतुर्थ आश्रममें प्रवेश करनेका तीर्थोके बीचमें देवताओंने इस इन्द्रप्रस्थनामक महान् समय आ गया है, अतः मैं भी विषयोंको विषकी भाँति क्षेत्रको स्थापना की है। पिताजी ! यह पूर्वसे पश्चिमकी त्यागकर श्रीकेशवरूपी अमृतका सेवन करूंगा। अब ओर एक योजन चौड़ा है और यमुनाके दक्षिण तटपर मेरी वृद्धावस्था आ गयौं, अतः घरमें मेरा मन नहीं चार योजनकी लंबाईमें फैला हुआ है। महर्षियोंने लगता। तुम्हारा छोटा भाई सुशर्मा कुटुम्बका पालन- इन्द्रप्रस्थकी इतनी ही सीमा बतायी है।'
निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा-शिवशर्माके पूर्वजन्यकी कथा
नारदजी कहते हैं-राजन् ! यह बात सुनकर जायें, वह करो। पूर्वजन्ममे किये हुए कार्योंका ज्ञान इस शिवशर्माके मनमें बड़ा सन्देह हुआ और उन्होंने अपने समय तुम्हें कैसे हो रहा है? सत्यवादी पुत्र विष्णुशर्मासे पूछा-'बेटा ! मैं कैसे विष्णुशर्माने कहा-पिताजी ! मुझे ऋषियोंने समझू कि तुम पूर्वजन्ममें देवताओंके राजा इन्द्र थे और पूर्वजन्मको स्मृति बनी रहनेका वरदान दिया है। उन्होंके तुमने ही यज्ञ करके रोंके द्वारा ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया मुँहसे इस तीर्थक विषयमें ऐसी महिमा सुनी थी। आप था। तुम्हारी कही हुई बातें जिस प्रकार मेरी समझमें आ यहाँ निगमोद्वोध तीर्थमें स्नान कीजिये । इससे आपको भी
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. अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पयपुराण
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पूर्वजन्मकी स्मृति प्रदान करनेवाला दुर्लभ ज्ञान तुम नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंका भलीभांति प्राप्त होगा।
अनुष्ठान करते हो। फिर भी तुम्हारा शरीर सूखा क्यों यह सुनकर विप्रवर शिवशर्माने पूर्वजन्मकी स्मृति जा रहा है? यदि कोई गोपनीय बात न हो, तो मुझे प्राप्त करनेके लिये भगवान् श्रीहरि, श्रीगङ्गाजी एवं अवश्य बताओ।' अयोध्या आदि सात पुरियोंका स्मरण करके और वैश्यने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! आपसे छिपानेयोग्य भगवान् गोविन्दमें चित्त लगाकर निगमोद्बोध तीर्थमें कौन-सी बात हो सकती है? आपकी कृपासे मुझे सब बार-बार डुबकियाँ लगाकर नान किया। उसके बाद प्रकारका सुख है। दुःख केवल एक ही बातका है कि सन्ध्या-तर्पण किया। तदनन्तर सूर्यको सादर अर्घ्य देकर बुढ़ापा आ जानेपर भी अबतक मेरे कोई पुत्र नहीं हुआ। विविध उपचारोंसे भगवान् विष्णुका पूजन किया। इस आप कृपा करके ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मैं भी तरह नित्यकर्म पूरा करके वे सुखपूर्वक बैठे और अपने पुत्रवान् हो सकूँ। आप जैसे महात्माओके लिये इस सुयोग्य पुत्र विष्णुशर्मासे बोले।
पृथ्वीपर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। शिवशर्माने कहा-विष्णुशर्मन् ! यहाँ स्नान वैश्यश्रेष्ठ शरभके ये वचन सुनकर परोक्षज्ञानी करनेसे मुझे भी पहलेके जन्म-कर्मोका स्मरण हो आया देवलजीने आँखें बंद कर मनको स्थिर करके क्षणभर है। महाभाग ! मैं उन्हें तुम्हारे सामने कहता हैं, सुनो। ध्यान किया और मेरे पिताको सन्तानकी प्राप्ति होने में जो पूर्वजन्ममें मैं धनवान् वैश्यके कुलमें उत्पन्न हुआ था। रुकावट थी, उसका कारण जानकर उन्हें पुरानी बातोकी मेरे पिताका नाम शरभ था। वे कान्यकुब्जपुरमें निवास याद दिलाते हुए कहा-"वैश्य ! पहले की बात है, एक करते थे। वहाँ व्यापारके द्वारा उन्होंने बहुत धन कमायाः दिन तुम्हारी धर्मपत्नीने अपने मनमें जो कामना की थी, परन्तु रात-दिन उन्हें यही चिन्ता घेरे रहती थी कि पुत्रके उसे बतलाता हूँ सुनो। इसने पार्वतीजीसे प्रार्थना बिना मेरी सञ्चित को हुई यह सारी धनराशि व्यर्थ ही है। की-'शिवप्रिया गौरीदेवी ! यदि मैं गर्भवती हो जाऊँ इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए वैश्यके घर एक दिन परोक्ष तो तुम्हें षड्रस भोजनसे सन्तुष्ट करूंगी।' इस प्रार्थनाके विषयोंका ज्ञान रखनेवाले मुनिवर देवलजी पधारे। उन्हें बाद उसी महीने में तुम्हारी पत्नीके गर्भ रह गया। तय आया देख मेरे पिता आसनसे उठकर खड़े हो गये। सखियोंके अनुरोधसे तुम्हारी पतिव्रता पत्नीने तुम्हारे पास उन्होंने पाय और अर्घ्य देकर मुनिको प्रणाम किया, उत्तम आकर विनयपूर्वक कहा-'नाथ! मैं सम्पूर्ण आसनपर बैठाया और सम्मानपूर्वक कुशलप्रश्न पूछते कामनाओंको देनेवाली पार्वती देवीको पूजा करना चाहती हुए कहा-'मुनिश्रेष्ठ ! आपका इस पृथ्वीपर विचरना हूँ, क्योंकि उन्हींकी कृपासे इस समय मेरा मनोरथ पूर्ण हम-जैसे गृहस्थोंको सुख देनेके लिये ही होता है; हुआ है।
अन्यथा यदि आप कृपा करके स्वतः न पधारें, तो घरकी "वैश्यप्रवर ! अपनी पत्नीके ये शुभ वचन सुनकर चिन्तामें डूबे हुए मनुष्योको आप-जैसे महात्माका दर्शन तुम बहुत प्रसन्न हुए और तुमने मधु, अन्न, द्राक्षा और कहाँ हो सकता है? जिनकी बुद्धि भगवान्को गन्ध आदि सब सामग्रियोंको मैंगवाकर अपनी पत्रीके चरण-रजके चिन्तनमें लगी हुई है, उन्हें कहीं भी कोई हवाले कर दिया। तब तुम्हारी पत्नीने सखियोंको बुलाकर कामना नहीं हो सकती । तथापि यहाँ आपके पधारनेका कहा-'सहेलियो ! पूजनकी सारी सामग्री मैने मैंगा ली क्या कारण है? यह शीघ्र बतानेकी कृपा करें। है। यह सब लेकर तुमलोग मन्दिरमें जाओ और _वैश्यके ऐसा कहनेपर देवल मुनिने उनके विधिवत् पूजा करके देवीको सन्तुष्ट करो। हमारे कुलमें मनोभावको जाननेके लिये पूछा-'वैश्यप्रवर ! तुमने गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं निकलती; इसलिये मैं नहीं धर्मपूर्वक बहुत धनका सञ्चय कर लिया है और उसीसे चल सकूँगी। तुम्हीं लोग देवीकी पूजाके लिये जाओ।' ।
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उत्तरखण्ड ]
. देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना •
"तुम्हारी पत्नीकी आज्ञा पाकर सखियाँ पूजाको कृपा करें। सामग्री ले अम्बिकाके मन्दिरमें गयीं। वहां उन्होंने देवलजीने कहा-वैश्यवर ! इसका कारण सुनो; पार्वतीजीको प्रणाम और प्रदक्षिणा करके भक्तिपूर्वक जब तुम्हारी पत्नीकी सखियाँ स्कन्दमाता पार्वतीका पूजन कहा-'जगदम्बे ! तुम्हें नमस्कार है। शिवप्रिये! करके लौट आयीं तब विजयाने कौतूहलवश पार्वतीजीसे हमारा कल्याण करो। शरभ नामक वैश्यकी पत्नी पूछा-'गिरिजे! ललिताकी सखियोंने तुम्हारी श्रद्धाललिताको तुम्हारी कृपासे गर्भ प्राप्त हो गया, अतः उसने पूर्वक पूजा की है; फिर तुम प्रसत्र क्यों नहीं हुई। तुम्हारी पूजाके लिये यह सब सामग्री हमारे हाथ भेजी पार्वतीजीने कहा-सखी विजया ! मैं जानती है। उसके कुलमें गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं हूँ, वैश्य-पत्नी घरसे बाहर निकलनेमें असमर्थ थी; निकलती, इसीलिये वह स्वयं नहीं आ सकी है। देवि। इसीलिये उसकी सखियाँ आयी थीं। किन्तु मेरी-जैसी तुम प्रसन्न होकर इस पूजनको ग्रहण करो।' देवियाँ दूसरेके हाथकी पूजा स्वीकार नहीं कर सकतीं।
"ऐसा कहकर सखियोंने माता पार्वतीका चन्दन उसका पति आ जाता, तो भी उसका कल्याण होता। आदिसे विधिपूर्वक पूजन किया; परन्तु भगवती गौरीकी पत्नी जिस व्रत और पूजनको करनेमें असमर्थ हो, उसे ओरसे उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। सखियाँ घर लौट अपने पतिसे ही करा सकती है। इससे उसकी वह पूजा आयीं और तुम्हारी पत्नीसे बोली कि इस पूजासे भन नहीं होती। अथवा अनन्य भावसे पतिसे पूछकर पार्वतीजी प्रसत्र नहीं है। सखियोकी बात सुनकर तुम्हारी किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणके द्वारा भी वह पूजा करा सकती थी। स्त्रीके मनमें बड़ी व्याकुलता हुई। वह मन-ही-मन पर उसने न तो स्वयं पूजन किया और न पतिसे चिन्ता करने लगी कि 'उनके सुन्दर मन्दिरमें पूजाके करवाया। इसलिये उसका गर्भ निष्फल हो जायगा। समय मैं स्वयं नहीं जा सकी, यही मेरा अपराध है। यदि दोनों पति-पत्नी श्रद्धापूर्वक यहाँ आकर मेरी पूजा इसके सिवा दूसरी कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती, जो करेंगे, तो उन्हें पुत्रकी प्राप्ति होगी।" उनकी अप्रसत्रताका कारण हो। जो बात बीत गयी, वैश्य ! तुम्हारे सन्तान न होने में यही कारण है, जो उसको तो बदलना असम्भव है; किन्तु मैं गर्भसे छुटकारा तुम्हें बता दिया। जैसे पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने महाराज पानेपर स्वयं भगवतीको पूजाके लिये उनके मन्दिरमें दिलीपको सन्तान प्राप्तिके लिये नन्दिनीकी सेवा जाऊँगी। महादेवजीकी पत्नी भगवती उमाको नमस्कार बतलायी थी, उसे सुनकर राजाने नन्दिनीको सन्तुष्ट किया है। वे मेरा कल्याण करें।' .
. था और राजाकी सेवासे प्रसत्र हुई नन्दिनीने उन्हें पुत्र वैश्यने पूछा-मुने ! मेरी पत्नीने जैसी प्रतिज्ञा प्रदान किया था, उसी प्रकार तुम भी पत्नीसहित जाकर की थी, उसके अनुसार उसने पार्वतीजीका पूजन किया; भगवती पार्वतीकी आराधना करो। इससे वे तुम्हें पुत्र फिर उनकी अप्रसत्रताका क्या कारण है, यह बतानेकी प्रदान करेंगी।
देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना-राजाको
नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
.. वैश्यने पूछा-मुने राजा दिलीप कौन थे तथा देवलने कहा-महामते ! वैवस्वत मनुके वंशमें वह नन्दिनी गौ कौन थी, जिसकी आराधना करके एक दिलीप नामके श्रेष्ठ राजा हुए हैं। वे धर्मपूर्वक इस महाराजने पुत्र प्राप्त किया था ? इस कथाके सुननेके बाद पृथ्वीका पालन करते हुए अपने उत्तम गुणोंके द्वारा मैं पत्नीसहित पार्वतीजीकी आराधना करूंगा। समस्त प्रजाको प्रसन्न रखते थे। मगधराजकुमारी
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
सुदक्षिणा राजा दिलीपकी महारानी थी। महारानीको अवधमें आये बहुत दिन हो गये, किन्तु उनके गर्भसे कोई पुत्र नहीं हुआ। तब कोसलसम्राट् दिलीप अपने मनमें विचार करने लगे कि 'मैंने कोई दोष नहीं किया है और धर्म, अर्थ तथा कामका यथासमय सेवन किया है। फिर मेरे किस दोषके कारण महारानीके गर्भसे सन्तान नहीं हुई ? हमारे कुलगुरु वसिष्ठजी भूत और भविष्यके ज्ञाता हैं; वे ही उस दोषको बता सकते हैं, जिससे मुझे पुत्र नहीं हो रहा है।'
ऐसा विचारकर राजा अपनी रानीसहित गुरु वसिष्ठके शुभ आश्रमपर गये। वसिष्ठजी सायंकालका नित्यकर्म समाप्त करके आश्रम में बैठे थे। उसी समय राजा और रानीने वहाँ पहुँचकर उनका दर्शन किया। महाराजने गुरुके और महारानीने गुरुपत्नी अरुन्धती देवीके चरणोंमें प्रणाम किया। वसिष्ठजीने राजाको और अरुन्धती देवीने रानीको आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् पूजनीय पुरुषोंमें श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठने मधुपर्क आदि सामग्रियोंसे अपने नवागत अतिथिका सत्कार करके उनसे कुशल पूछी।
तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठने अपने योगके प्रभावसे नाना प्रकारके भोज्य पदार्थ प्रस्तुत किये और उन्हें राजा दिलीपको भोजन कराया तथा उदारहृदया अरुन्धती देवोने भी महारानी सुदक्षिणाको बड़े आदरके साथ भाँति-भाँति के व्यञ्जन और पकवान भोजन कराये। जब राजा भोजन करके आरामसे बैठे, तब सदा आत्मस्वरूपमें स्थित रहनेवाले मुनि उन विनयशील नरेशका हाथ अपने हाथमें लेकर पूछने लगे- 'राजन् ! जिस राज्यके राजा, मन्त्री, राष्ट्र, किला, खजाना, सेना और मित्रवर्ग- ये सातों अङ्ग एक दूसरेके उप कारक एवं सकुशल हो, जहाँकी प्रजा अपने-अपने धर्मके पालनमें तत्पर रहती हो, जहाँ बन्धुजन और मन्त्री प्रेम और प्रसन्नता से रहते हो, जहाँके योद्धा अस्त्र-शस्त्रोंके सञ्चालनको क्रियामें कुशल हों, मित्र वशमें हों और शत्रुओंका नाश हो गया हो तथा जहाँ निवास करनेवाले लोगोंका मन भगवान्की आराधनामें लगा रहता हो,
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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ऐसा राज्य जिस राजाके अधिकारमें हो, उसे स्वर्गका राज्य लेकर क्या करना है ? राजन् ! इक्ष्वाकु कुलके धार्मिक नरेश पुत्र उत्पन्न करके उनको राज्यका भार सौंपनेके बाद तपके लिये वनमें आया करते थे। तुम तो अभी जवान हो। तुमने अभी पुत्रका मुँह भी नहीं देखा है, अतः तुम तपस्याके अधिकारी नहीं हो। फिर वैसा राज्य छोड़कर इस तपोवनमें किस लिये आये हो ?'
राजाने कहा- ब्रह्मन् ! मैं तपस्या करनेके लिये यहाँ नहीं आया हूँ। जैसे बाल्यावस्था चली गयी और जवानी आयी है, उसी प्रकार यह भी चली जायगी और वृद्धावस्था आवेगी। वृद्धावस्थाके अनन्तर मृत्यु निश्चित है। गुरुदेव ! इस प्रकार यदि मैं पुत्र हुए बिना ही मर जाऊँगा, तो मेरे बाद यह पृथ्वीका राज्य किसके अधिकारमें रहेगा ? तपोनिधे! किस दोषके कारण मुझे पुत्र नहीं होता ? गुरुदेव ! मेरे उस दोषको ध्यानके द्वारा देखकर शीघ्र ही बतानेकी कृपा मुझे कीजिये ।
राजाका यह वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठने ध्यान लगाया और सन्तान बाधाका कारण जानकर इस प्रकार कहा- - "नृपश्रेष्ठ ! पहलेकी बात है, तुमने देवराज इन्द्रकी सेवासे राजमहलको लौटते समय उतावलीके कारण मार्गमें कल्पवृक्षके नीचे खड़ी कामधेनु गौको प्रदक्षिणा करके प्रणाम नहीं किया। इससे कामधेनुको बड़ा क्रोध हुआ और उसने यह शाप दे दिया कि 'जबतक तू मेरी सन्तानकी सेवा नहीं करेगा, तबतक तुझे पुत्र नहीं होगा।' अतः अब तुम बछड़ेसहित मेरी नन्दिनी गौकी, जो कामधेनुकी पुत्रीकी पुत्री है, इस बहूके साथ आराधना करो। यह नन्दिनी तुम्हें पुत्र प्रदान करेगी।'
इसी समय नन्दिनी गौ तपोवनसे आश्रमपर आ पहुँची। उसे देखकर मुनिवरका मन प्रसन्न हो गया। वे नन्दिनीको दिखाकर राजासे बोले – 'राजन् ! देखो, स्मरणमात्रसे कल्याण करनेवाली यह नन्दिनी गौ चर्चा होते ही चली आयी; अतः तुम अपनी कार्य सिद्धिको समीप ही समझो। तपोवनमें इसके पीछे-पीछे रहकर तुम इसकी आराधना करो और आश्रमपर आनेपर रानी सुदक्षिणा इसकी सेवामें लगी रहे। इससे प्रसन्न
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उत्तरखण्ड]
. देवल मुनिका शरमको राजा दिलीपकी कथा सुनाना •
होकर यह गौ तुम्हें निश्चय ही पुत्र प्रदान करेगी। किया। उसके करुण-क्रन्दनने धनुर्धर राजाके चित्तमें महाराज ! तुम हाथमें धनुष लेकर वनमें पूरी दयाका सञ्चार कर दिया। उन्होंने देखा, गौका मुख सावधानीके साथ गौको चराओ, जिससे कोई हिंसक आँसुओंसे भीगा हुआ है और उसके ऊपर तीखे दादों जीव इसपर आक्रमण न कर बैठे।' राजाने 'बहुत तथा पंजोंवाला सिंह चढ़ा हुआ है। यह दुःखपूर्ण दृश्य अच्छा' कहकर शीघ्र ही गुरुकी आज्ञा शिरोधार्य की। देखकर राजा व्यथित हो उठे। उन्होंने सिंहके पंजेमें पड़ी
देवलजी कहते हैं-तदनन्तर प्रातःकाल जब हुई गौको फिरसे देखा और तरकससे एक बाण महारानी सुदक्षिणाने फूल आदिसे नन्दिनीकी पूजा कर निकालकर उसे धनुषको डोरीपर रखा और सिंहका वध ली, तब राजा उस घेनुको लेकर वनमें गये । वह गौ जब करनेके लिये धनुषकी प्रत्यञ्चाको खींचा। इसी समय चलने लगती तो राजा भी छायाकी भाँति उसके पीछे- सिंहने राजाकी ओर देखा। उसकी दृष्टि पड़ते ही उनका पीछे चलते थे। जब घास आदि चरने लगती, तब वे सारा शरीर जडवत् हो गया। अब उनमें बाण छोड़नेको भी फल-मूल आदि भक्षण करते थे। जब वह वृक्षोंके शक्ति न रही। इससे वे बहुत ही विस्मित हुए। नीचे बैठती तो वे भी बैठते और जब पानी पीने लगती राजाको इस अवस्थामें देखकर सिंहने उन्हें और भी तो वे भी स्वयं पानी पीते थे। राजा हरी-हरी घास लाकर विस्मयमें डालते हुए मनुष्यकी वाणीमें कहा-'राजन् ! गौको देते, उसके शरीरसे डाँस और मच्छरोको हटाते मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम सूर्यवंशमें उत्पन्न राजा दिलीप तथा उसे हाथोंसे सहलाते और खुजलाते थे। इस प्रकार हो। तुम्हारा शरीर जो जडवत् हो गया है, उसके लिये वे गुरुकी कामधेनु गौके सेवनमें लगे रहे। जब शाम तुम्हें विस्मय नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस हिमालयमें हुई, तब वह गौ अपने खुरोंसे उड़े हुए धूलिकणोंद्वारा भगवान् शंकरकी बहुत बड़ी माया फैली है। किसी दूसरे राजाके शरीरको पवित्र करती हुई आश्रमको लौटी। सिंहकी भाँति मुझपर प्रहार करना भी तुम्हारे वशको बात आश्रमके निकट पहुँचनेपर रानी सुदक्षिणाने आगे नहीं है क्योंकि भगवान् शंकर मेरी पोठपर पैर रखकर बढ़कर नन्दिनीकी अगवानी की और विधिपूर्वक पूजा अपने वृषभपर आरूढ़ हुआ करते हैं। अच्छा, अब तुम करके बारंवार उसके चरणोंमें मस्तक झुकाया। फिर लौट जाओ और समस्त पुरुषार्थक साधनभूत अपने गौकी परिक्रमा करके वह हाथ जोड़ उसके आगे खड़ी शरीरकी रक्षा करो। वीर ! इस गौको दैवने मेरे आहारके हो गयी। गौने स्थिर भावसे खड़ी होकर रानीद्वारा लिये ही भेजा है। श्रद्धापूर्वक की हुई पूजाको स्वीकार किया, तत्पश्चात् उन सिंहके 'वीर' सम्वोधनसे युक्त वचन सुनकर दोनों दम्पतिके साथ वह आश्रमपर आयी । इस प्रकार जडवत् शरीरवाले राजा दिलीपने उसे इस प्रकार उत्तर दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले राजा दिलीपके उस दिया-'मृगराज ! हमारे गुरु महर्षि वसिष्ठकी यह गौकी आराधना करते हुए इक्कीस दिन बीत गये। सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली नन्दिनी नामक धेनु तत्पश्चात् राजाके भक्तिभावकी परीक्षा लेनेके लिये है। गुरुदेवने सन्तान प्राप्तिके उद्देश्यसे इसकी आराधना नन्दिनी सुन्दर घासोंसे सुशोभित हिमालयकी कन्दरामें करनेके लिये इसे मुझको सौंपा है। मैंने अबतक इसकी प्रवेश कर गयी। उस समय उसके हृदयमें तनिक भी भलीभांति आराधना की है। यह छोटे बछड़ेकी माँ है। भय नहीं था। राजा दिलीप हिमालयके सुन्दर शिखरकी तुमने इसे पर्वतकी कन्दरामें पकड़ रखा है। तुम शोभा निहार रहे थे। इतनेमें ही एक सिंहने आकर शंकरजीके सेवक हो, इसलिये तुम्हारे हाथसे बलपूर्वक नन्दिनीको बलपूर्वक धर दबाया। राजाको उस सिंहके इसको छुड़ाना मेरे लिये असम्भव है। अब मेरा यह आनेकी आहटतक नहीं मालूम हुई। सिंहके चङ्गलमें शरीर अपकीर्तिसे मलिन हो चुका । मैं इस गौके बदले फंसकर नन्दिनीने दयनीय स्वरमें बड़े जोरसे चीत्कार अपने शरीरको ही तुम्हें समर्पित करता है। ऐसा करनेसे
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. अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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महर्षिके धार्मिक कृत्योंमें भी कोई बाधा नहीं पड़ेगी और उसका पूजन किया। महाराजके मुखको प्रसन्न देखकर तुम्हारे भोजनका भी काम चल जायगा। साथ ही गो- रानीको कार्य-सिद्धिका निश्चय हो गया। वह समझ गयौ रक्षाके लिये प्राणत्याग करनेसे मेरी भी उत्तम गति होगी।' कि जिसके लिये यह यत्न हो रहा था, वह उद्देश्य सफल
यह सुनकर सिंह मौन हो गया। धर्मज्ञ राजा दिलीप हो गया । तदनन्तर वे दोनों पति-पत्नी विधिवत् पूजित हुई उसके आगे नीचे मुँह किये पड़ गये। वे सिंहके द्वारा गौके साथ अपने गुरु वसिष्ठजीके सामने उपस्थित हुए। होनेवाले दुःसह आघातकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि उन दोनोंके मुख-कमल प्रसन्नतासे खिले हुए देखकर अकस्मात् उनके ऊपर देवेश्वरोद्वारा की हुई फूलोकी वृष्टि ज्ञानके भण्डार मुनिवर वसिष्ठजी उन्हें प्रसन्न करते हुए होने लगी। फिर, 'बेटा ! उठो।' यह वचन सुनकर राजा बोले-'राजन् ! मुझे मालूम हो गया कि यह गौ तुम दिलीप उठकर खड़े हो गये। उस समय उन्होंने माताके दोनोंपर प्रसन्न है; क्योंकि इस समय तुम्हारे मुखकी कान्ति समान सामने खड़ी हुई धेनुको ही देखा। वह सिंह नहीं अपूर्व दिखायी दे रही है। कामधेनु और कल्पवृक्षदिखायी दिया। इससे राजाको बड़ा विस्मय हुआ। तब दोनों ही सबकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं-यह नन्दिनीने नृपश्रेष्ठ दिलीपसे कहा-'राजन् ! मैंने मायासे बात प्रसिद्ध है। फिर उसी कामधेनुकी सन्तानकी सिंहका रूप बनाकर तुम्हारी परीक्षा ली है। मुनिके भलीभाँति आराधना करके यदि कोई सफलमनोरथ हो प्रभावसे यमराज भी मुझे पकड़नेका विचार नहीं ला जाय तो आश्चर्य ही क्या है ? यह पापरहित कामधेनु तथा सकता। तुम अपना शरीर देकर भी मेरी रक्षाके लिये देवनदी गङ्गा दूरसे भी नाम लेनेपर समस्त मनोरथोंको पूर्ण तैयार थे। अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे करती हैं। फिर श्रद्धापूर्वक निकटसे सेवा करनेपर ये अपना अभीष्ट वर माँगो।'
समस्त कामनाएं पूर्ण करें-इसके लिये तो कहना ही क्या राजा बोले-माता ! देहधारियोंके अन्तःकरणमें है। राजन् ! आज इस गौकी पूजा करके रानीसहित यहीं जो बात होती है, वह आप-जैसी देवियोंसे छिपी नहीं रात्रि बिताओ। कल अपने व्रतको विधिपूर्वक समाप्त रहती। आप तो मेरा मनोरथ जानती ही हैं। मुझे वंशधर करके अयोध्यापुरीको जाना।' पुत्र प्रदान कीजिये।
देवलजी कहते हैं-वैश्यवर ! इस प्रकार धेनुकी राजाकी बात सुनकर देवता, पितर, ऋषि और आराधनासे मनोवाञ्छित वर पाकर राजा दिलीप रात्रिमे मनुष्य आदि सब भूतोंका मनोरथ सिद्ध करनेवाली पत्नीसहित आश्रमपर रहे। फिर प्रातःकाल होनेपर गुरुकी नन्दिनीने कहा-'बेटा ! तुम पत्तेके दोनेमे मेरा दूध आज्ञा ले वे राजधानीको पधारे । कुछ दिनोंके बाद राजा दुहकर इच्छानुसार पी लो। इससे तुम्हे अस्त्र-शस्त्रोंके दिलीपके रघु नामक पुत्र हुआ, जिसके नामसे इस तत्त्वको जाननेवाला वंशधर पुत्र प्राप्त होगा। यह सुनकर पृथ्वीपर सूर्यवंशकी ख्याति हुई अर्थात् रघुके बाद वह राजाने कामधेनुकी दौहित्री नन्दिनौसे विनयपूर्वक कहा- वंश 'रघुवंश' के नामसे प्रसिद्ध हुआ । जो भूतलपर राजा 'माता ! इस समय तो मैं आपके मधुर वचनामृतका पान दिलीपकी इस कथाका पाठ करता है, उसे धन-धान्य करके ही तृप्त हूँ, अब आश्रमपर चलकर समस्त धार्मिक और पुत्र की प्राप्ति होती है। शरभ ! तुम भी इस वधूके क्रियाओंके अनुष्ठानसे बचे हुए आपके प्रसादस्वरूप साथ जा श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्तिके लिये अपनी बुद्धिसे दूधका ही पान करूंगा।
आराधना करके पार्वतीजीको प्रसन्न करो। वे तुम्हें .. राजाका यह वचन सुनकर गौको बड़ी प्रसन्नता हुई। पापरहित, गुणवान् एवं वंशधर पुत्र प्रदान करेंगी। उसने 'साधु-साधु' कहकर राजाका सम्मान किया। इस प्रकार शरभसे राजा दिलीपके मनोहर चरित्रका तत्पश्चात् वह उनके साथ आश्रमपर गयी। पूर्व दिनकी वर्णन करके देवल मुनिने उन्हें अम्बिकाके पूजनकी विधि भांति उस दिन भी महारानी सुदक्षिणाने आगे आकर बतायी । इसके बाद वे अपने अभीष्ट स्थानको चले गये।
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उत्तरखण्ड ] • शरभको पुत्रकी प्राप्ति; शिवशांक पूर्वजन्मकी कथा तथा निगमोशेषकतीर्थकी महिमा .
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शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशर्माके पूर्वजन्मकी कथाका और
निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
शिवशर्मा कहते है-विष्णुशर्मन् ! तदनन्तर सुनी और तबसे वे यहां आकर मोक्ष, कामनासे शरभ वैश्यने अपनी पत्नीके साथ मन्दिरमें जाकर पुत्रकी निगमोद्बोधकतीर्थका सेवन करने लगे। कुछ दिनों बाद कामनासे विधिपूर्वक स्रान करके पुष्प, धूप और दीप उन्हें भयंकर ज्वर हो आया। तब यह समाचार पाकर मैं आदिके द्वारा भक्तिपूर्वक पार्वतीजीका पूजन किया। इस भी यहाँ आ गया। मेरे आनेके बाद तीर्थराजके जलमें प्रकार सात दिनोंतक श्रद्धापूर्वक पूजन करनेके बाद माता आधा शरीर रखे हुए पिताजीको मृत्यु हो गयी। उसी पार्वतीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा-'वैश्य ! तुम्हारी समय स्वयं भगवान् विष्णु यहाँ पधारे और पिताजीको सुदृढ़ भक्तिसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। साधो ! तुम जिसके श्रीवैकुण्ठधाममें ले गये। लिये प्रयत्नशील हो, वह पुत्र मैं तुम्हें देती हूँ। अब तुम पिताजीको भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त हुआ इन्द्रके खाण्डव वनमें जाओ। विलम्ब न करो। वहाँ देखकर उनका अन्तिम संस्कार करनेके बाद मैं भी परम पुण्यमय इन्द्रप्रस्थ नामक उत्तम तीर्थ है। उस भगवान्का चिन्तन करता हुआ मोक्षकी कामनासे यहीं तीर्थमें बृहस्पतिजीके द्वारा स्थापित किया हुआ रहने लगा। सर्वकामप्रद निगमोरोधकतीर्थ है। उसमें पुत्रकी शिवशर्माकी यह बात सुनकर उसके पुत्र विष्णुशर्माने कामनासे स्रान करो। तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा।' कहा-'महान् तीर्थमें निवास करनेपर भी आपको फिरसे
देवीके आज्ञानुसार शरभ पत्रीके साथ इस उत्तम जन्म क्यों लेना पड़ा? मुक्ति कैसे नहीं हुई ?' इसके तीर्थमें आये और पुत्रकी इच्छासे उन्होंने यहाँ सान उत्तरमे शिवशर्माने कहा कि एक दिन मैं भगवान्के ध्यानमें किया; फिर ब्राह्मणोंको अन्य उपकरणोसहित सौ गौएँ बैठा था। महर्षि दुर्वासा उसी समय पधारे और मुझे चुप दान की तथा देवता और पितरोका विधिपूर्वक तर्पण देखकर उन्होंने शाप दे दिया कि इस जन्ममें तेरा मनोरथ किया, फिर सात दिन वहाँ रहकर वे घर लौट आये। पूर्ण नहीं होगा।' मेरे बहुत गिड़गिड़ानेपर उन्होंने उसी महीनेमें वैश्यपत्नीको गर्भ रह गया । समयपर मेरा कहा-'अगले जन्ममें ब्राह्मण होकर तुम यहीं मृत्युको जन्म हुआ। मेरे योग्य होनेपर एक दिन पिताजीने प्राप्त होओगे और फिर तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा।' संसारसे विरक्त होकर मुझसे कहा कि 'घर तुम सँभालो; तदनन्तर फिर मैं घर लौट आया और मैंने संसारके समस्त मैं विषय-कामनाओंको छोड़कर श्रीहरिकी भक्ति, तीर्थ- भोगोंको अनित्य मानकर श्रीभगवन्नामकीर्तन और भजन भ्रमण और सत्संगरूपी ओषधिका पान करके संसाररूपी करनेका निश्चय किया। कुछ दिनों बाद गङ्गातटपर मेरी रोगका नाश करूँगा।' इस प्रसंगमें उन्होंने बार-बार मृत्यु हो गयी। दुर्वासाजीके कथनानुसार वैष्णव विषयासक्तिकी निन्दा और भगवद्भक्तिकी प्रशंसा की। ब्राह्मणकुलमें मेरा जन्म हुआ। अब इस उत्तम तीर्थमें
मैंने श्रीगङ्गाजीकी प्रशंसा करते हुए पिताजीसे मृत्युको प्राप्त होकर मैं श्रीहरिके वैकुण्ठधाममें जाऊँगा। प्रार्थना की कि अपने समीप ही श्रीगङ्गाजी बहती हैं, इन्हें नारदजी कहते है-राजा शिवि ! इस प्रकार छोड़कर आप अन्यत्र न जाइये। पिताजी मेरी बात अपने-अपने पूर्वजन्मके कोका वर्णन करके वे दोनों मानकर घरपर ही रह गये; वे प्रतिदिन तीनों समय पिता-पुत्र श्रीहरिके चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए यहाँ श्रीगङ्गाजीमें स्रान करते और पुराणोंकी कथा सुनते रहने लगे और अन्तमें दोनोंने भगवान्के समान रूप प्राप्त रहते। एक दिन उन्होंने इन्द्रप्रस्थ तीर्थकी बड़ी महिमा कर लिया।
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. अर्चयस्व हषीकेश यदीच्छसि पर पदम् ,
[संक्षिप्त पापुराण
इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, वदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, काशी
और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्म्य
राजा शिबि बोले-मुने ! अब मुझे इन्द्रप्रस्थके इसी इन्द्रप्रस्थमें कोसला (अयोध्या) नामक एक सैकड़ों तीर्थोमसे अन्य तीर्थोका भी माहात्म्य बतलाइये। तीर्थ है । इसके विषयमें भी एक पुण्यमय उपाख्यान है। नारदजीने कहा-राजन् ! इन्द्रप्रस्थके भीतर यह द्वारका चन्द्रभागा नदीके किनारे एक पुरीमें चण्डक नामक एक नामक तीर्थ है। इसकी महिमा सुनो । काम्पिल्य नगरमें जुआरी, शराबखोर, व्यभिचारी, डकैत, हत्यारा और एक बहुत सुन्दर और संगीतज्ञ ब्राह्मण रहता था। उसके मन्दिरोंका सामान चुरानेमें चतुर एक नाई रहता था। गानको सुरीली ध्वनिसे नगरको स्त्रियोंके मनोंमें उसके उसने एक दिन अपने समीप ही रहनेवाले मुकुन्द नामक प्रति पाप-वासनायुक्त बड़ा आकर्षण हो गया। नगरके धार्मिक और धनवान् ब्राह्मणके घरमें चोरी करनेके लिये लोगोंने जाकर राजासे शिकायत की। राजाके पूछनेपर प्रवेश करके ब्राह्मणको मार डाला। इससे उनकी ब्राह्मणने अपनेको निर्दोष बताया और नगरको स्त्रियोंको स्नेहमयी माता और सती पत्रीको बड़ा दुःख हुआ और उच्छृङ्खल। इतने में कुछ स्त्रियाँ भी वहाँ आ गयीं और वे आर्तस्वरसे विलाप करने लगीं। इतनेमें ही मुकुन्दके निर्लज्जतापूर्ण बातें करने लगीं। ब्राह्मणने कामवासनाकी गुरु वेदायन नामक संन्यासी वहाँ आ पहुंचे। उन्होंने
और पति-वञ्चनाकी निन्दा करते हुए पातिव्रतकी महिमा शरीरको नश्वरताका वर्णन करते हुए आत्मज्ञानका उपदेश बताकर उन स्त्रियोंको समझाया। वे ब्राह्मणको बात देकर उन लोगोंको समझाया और मुकुन्दका अन्त्येष्टिसुनकर बहुत लज्जित हुई और परस्पर पापो कामको संस्कार करवाया। मुकुन्दकी गर्भवती पत्नीको विद्वान् निन्दा करती हुई अपने घरोंको लौट आयौं । कुछ समय संन्यासीने सती होनेसे रोक दिया। मुकुन्दका छोटा भाई बाद कारूष देशके राजाने काम्पिल्य नगरपर आक्रमण मुकुन्दको अस्थियोंको लेकर गङ्गाजीमें छोड़नेके लिये किया और युद्धमें काम्पिल्यराज मारे गये। उनका नगर चला, चलते-चलते वह इस कोसलातीर्थमें आया। लुट गया। शूरवीर मारे गये और नगरकी स्त्रियाँ जहर आधी रातको यहाँ अस्थिकी गठरीको एक कुत्तेने उठाकर खाकर मर गयीं। जिन स्त्रियोंने संगीतज्ञ ब्राह्मणके प्रति कोसलाके जलमें फेंक दिया। अस्थियोंके जलमें पड़ते आकर्षित होनेके पापका प्रायश्चित्त नहीं किया था, वे ही मुकुन्द दिव्य विमानपर चढ़कर वहाँ आया और उसने सब-की-सब बड़ी भयानक राक्षसियाँ होकर भूख- तीर्थके माहात्यका वर्णन करते हुए यह बताया कि 'मेरी प्याससे पीड़ित रहने लगी। वाणी और मनके किये हुए हड्डियोंके तीर्थमें पड़ते ही मैं नरकसे निकलकर इस उत्तम एक ही पापसे उन्हें दो जन्मोतक राक्षसी योनिमें रहना गतिको प्राप्त हुआ हूँ। नरक मुझे इसीलिये प्राप्त हुआ था पड़ा। अतएव पापसे डरनेवाली किसी भी स्त्रीको कि मैं गुरुद्रोही था। अब मैं उस पापसे मुक्त होकर मन-वाणीसे कभी किसी भी पराये पतिका सेवन नहीं चौदह इन्द्रोंके कालतक सुखपूर्वक स्वर्गमें निवास करना चाहिये। अपना पति रोगी, मूर्ख, दरिद्र और अंधा करूंगा।' यों कहकर वह देवताके समान सुन्दर हो, तो भी उत्तम गतिको इच्छा रखनेवाली खियोंको शरीरवाला ब्राह्मण देखते-ही-देखते तत्काल स्वर्गको उसका त्याग नहीं करना चाहिये। ये राक्षसियाँ इन्द्र- चला गया। प्रस्थके द्वारका नामक तीर्थसे जल लेकर पुष्कर जाते हुए अब उस चण्डक नाईकी कथा सुनो। मुकुन्दको ब्राह्मणके कमण्डलुसे जलकी कुछ बूंदे पड़ते ही निष्पाप हत्याका समाचार पाकर राजाने चण्डकको पकड़ हो गयीं और भयानक राक्षसी-शरीरसे मुक्त होकर स्वर्गमें मैंगवाया और उसे चन्द्रभागासे आठ कोसकी दूरीपर ले चली गयीं।
जाकर चाण्डालोंके द्वारा मरवा डाला। वह मारवाड़
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TO REST REST उत्तरखण्ड ]
PARMANNIFER
इन्द्रप्रस्थके द्वारका आदि तीथोंका माहात्य -
देशमें काला साँप हुआ। एक ब्राह्मण अपने माता पिताकी हड्डियाँ गङ्गाजीमें डालनेके लिये एक पेटीमें रखकर लाया था और वह कुछ साधुओंके दलके साथ वहीं आकर ठहरा, जहाँ साँप रहता था। रातको साँप उस पेटीमें घुस गया और पेटीके साथ वह भी कोसला तटपर आ पहुँचा। यहाँ पेटी खोली गयी तो साँप निकल भागा; पर लोगोंने उसे मार डाला और मरते ही वह देवशरीर प्राप्त कर दिव्य विमानमें बैठकर आ गया। उसने कहा, 'मैं चण्डक नामक नाई था और ब्रह्महत्याके पापसे पाँच लाख वर्षतक नरककी पीड़ा और बीस हजार वर्षतक सर्पयोनि भोगकर आज इस तीर्थमें मरनेके कारण परम उत्तम देवत्वको प्राप्त हुआ हूँ।'
तीर्थका यह प्रत्यक्ष वैभव देखकर उस ब्राह्मणने भी अपने माता-पिताकी हड्डियोंको इसी तीर्थमें डाल दिया। हड्डियोंके पड़ते ही उसके माता-पिता श्रेष्ठ विमानपर बैठकर दिव्यरूप धारण किये यहाँ आये और अपने पुत्रको आशीर्वाद देते हुए स्वर्गको चले गये। फिर वे सब साधु भी इसी कोसलातीर्थमें रह गये और अन्तमें वैकुण्ठको प्राप्त हुए।
नारदजी कहते हैं - यह परमपावन मधुवनतीर्थ है, यहाँ विश्रान्तिघाट नामक तीर्थ है। एक ब्राह्मण पर्णशाला बनाकर यहाँ भगवान् के दर्शनकी इच्छासे सकुटुम्ब रहते थे। एक दिन तीर्थमें स्नान करते समय भी उन्हें यही अभिलाषा हुई और तत्काल भगवान्ने दर्शन देकर उनको कृतार्थ कर दिया और वे भगवान्की स्तुति करके उन्होंके साथ वैकुण्ठलोकको चले गये ।
इस मधुवनसे ग्यारह धनुषकी दूरीपर एक बदरिकाश्रमतीर्थ है। मगधदेशमें देवदास नामक एक सत्यवादी जितेन्द्रिय और धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे। वे भगवान्के परम भक्त थे। उनके घरमें उत्तमा नामकी गुणवती पतिव्रता पत्नी थी। देवदासके अंगद नामक एक पुत्र और वलया नामकी एक कन्या थी। देवदासने दोनोंका विवाह कर दिया। कन्या विवाहिता होनेपर ससुराल चली गयी और पुत्र अंगदने घरका काम सँभाल लिया। कुछ समय बाद विप्रवर देवदासने अपनी
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पत्नी उत्तमासे परामर्श करके निश्चय किया कि अब इस वृद्धावस्थामें संसारके समस्त विनाशी पदार्थोंसे मन हटाकर इन्द्रिय-संयमपूर्वक हमलोगोंको भगवान्का भजन और तीर्थसेवन करना चाहिये। फिर उन्होंने अपने पुत्र अंगदको बुलाकर भगवान् श्रीहरिकी आराधनाका महत्त्व बतलाते हुए अपना निश्चय सुनाया और पुत्रसे अनुमति पाकर वे दोनों कुछ धन लेकर भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये चल पड़े। रास्तेमें कल्पग्रामके एक सिद्ध पुरुषसे उनकी भेंट हुई। उस सिद्ध पुरुषने इन्द्रप्रस्थके वदरी नामक तीर्थका माहात्म्य सुनाया, जिसमें पूर्वजन्मके व्यभिचार और डकैती आदि पापोंके फलस्वरूप भयंकर भैंसा बने हुए एक राजाका तीर्थमे प्रवेश करते ही उद्धार हो गया था। फिर सिद्ध पुरुषने उन दोनोंसे कहा कि 'यदि तुम भी अपने परमकल्याणकी इच्छा रखते हो, तो वहीं चले जाओ। मैं भी अपने निःस्पृह और मोक्षके इच्छुक बूढ़े पिताको इस वदरिकाश्रम तीर्थमें लानेके लिये घर जा रहा हूँ।' सिद्धकी बात सुनकर धीरबुद्धि ब्राह्मण देवदास तीर्थोंमें घूमते हुए इन्द्रप्रस्थमें आये और यहाँ इस वदरिकाश्रममें भगवान् उन्हें उसी शरीरसे परमधामको ले गये। सिद्ध पुरुषने भी शीघ्र ही अपने पिताको घरसे लाकर उस तीर्थमें नहलवाया। इससे उनको भी भगवान् विष्णुका परमधाम प्राप्त हो गया।
इन्द्रप्रस्थमें हरिद्वार नामक तीर्थ है। इसकी भी बड़ी महिमा है। कुरुक्षेत्रमें नगरसे बाहर कालिङ्ग नामक एक पापी चाण्डाल रहता था। एक बार सूर्यग्रहणके समय आये हुए एक धनी वैश्यके पीछे वह लग गया और कुरुक्षेत्रसे उस वैश्यके लौटनेके समय इसी हरिद्वारमें आधी रातके वक्त उस पापीने वैश्यके खेमेमें चोरी करनेकी चेष्टा की और दो पहरेदारोंको मार डाला। इसी समय वैश्यके एक सेवकने दूरसे बाण मारा, जिससे भागता हुआ वह पापी भी मर गया। तदनन्तर चाण्डालद्वारा मारे हुए वैश्यके दोनों पहरेदार और वह चाण्डाल – तीनों देवताओंके द्वारा लाये हुए विमानपर चढ़कर वैश्यसे बोले— 'देखो इस तीर्थका माहात्म्य !
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
यह हरिद्वार पापियोंका भी कल्याण करनेवाला है।' यों इस पुष्करतीर्थक प्रसादसे मैंने दिव्य देह प्राप्त कर ली। कहकर वे स्वर्गलोकको चले गये। दूसरे दिन वैश्यने मैं एक बार बाजारमें किसी अनाथ बालकको मरा अपने दोनों पहरेदारोंके शरीरोंका दाह-संस्कार कराकर देखकर उसे उठाकर गङ्गाजीके सुन्दर तटपर ले गया था उनकी हड्डियाँ हरिद्वारतीर्थमें डलवा दी। इसके और कफन आदिसे ढककर उसका दाह-संस्कार किया परिणामस्वरूप वे दोनों भाग्यवान् स्वर्गसे लौटकर था। उसी पुण्यसे मुझे इस तीर्थकी प्राप्ति हुई। भगवान् विष्णुके परमधाममें चले गये। तदनन्तर धर्मात्मा पुण्डरीकने भाई भरतकी सद्गति देखकर बुद्धिमान् वैश्यने अपने घर जाकर सांसारिक कार्योको अपने हृदयमें अनुमान किया कि यह तीर्थ मनःकामना धर्मपूर्वक करते हुए भगवान्की भक्ति में मन लगाया और पूर्ण करनेवाला है। फिर उन्होंने 'माघभर भगवान् विष्णु अन्तमें इसी वैकुण्ठधामकी प्राप्ति करानेवाले तीर्थमें अपने साक्षात् स्वरूपसे मेरे घरमें पधारकर निवास करें' आकर मृत्युको प्राप्त हुआ।
इस कामनासे पुष्करतीर्थमें स्रान किया। तदनन्तर घर अब इन्द्रप्रस्थके पुष्करतीर्थका माहात्म्य सुनो। लौटकर पौषकी पूर्णिमाके दिन घरको भलीभाँति सजाकर विदर्भ नगरमें मालव नामक एक ब्रह्मवेत्ता, शान्त, उत्सव किया, ब्राह्मणभोजन करवाया और भगवान्का विद्वान्, हरिभक्त, देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और समस्त गुणगान करते हुए जागरण किया। भगवान्के पधारनेकी भूत-प्राणियोंके पोषक ब्राह्मण रहते थे। वे एक समय प्रतीक्षा तो थी ही। दूसरे दिन सचमुच ही भगवान् उसके जब बृहस्पति सिंहराशिपर थे, दान करनेके लिये दस घर पधार गये। पुण्डरीकने आनन्दमग्न होकर आसन, हजार स्वर्णमुद्राएँ साथ लेकर गोदावरी नदीमें स्नान अर्घ्य आदिके द्वारा भगवान्की पूजा की और फिर स्तवन करनेको चले। उन्होंने आधे रुपये अपने पुण्डरीक नामक करके माघभर घरमें निवास करनेके लिये उनसे प्रार्थना भानजेको देनेका विचार किया और आधे अन्यान्य की। भगवान् उसके द्वारा विविध भाँतिसे पूजित होकर श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको। गोदावरीके तटपर पहुँचनेके बाद पूरे माघभर उसके घरमें रहे और अन्तमें उसको मालवके बुलाये हुए उनके भानजे पुण्डरीक भी वहीं आ सर्वतीर्थशिरोमणि इन्द्रप्रस्थके पुष्करतीर्थमें लाकर नान गये और उन्होंने अपना आधा धन पुण्डरीकको दे दिया। कराया। बस, उसी समय पुण्डरीकके शरीरसे एक दिव्य पुण्यात्मा पुण्डरीकने अपने धनमेंसे चौथाई भाग ज्योति निकली और वह भगवान् गोविन्दके चरणोंमें प्रसन्नतापूर्वक श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको दिया। इसके बाद वे समा गयी। अपने मामा मालवसे उपदेश, आशीर्वाद और सन्देश अब इन्द्रप्रस्थके प्रयागकी महिमा सुनो। नर्मदा प्राप्त करके अपने घरकी ओर लौटे और कुछ दिनों बाद नदीके किनारे माहिष्मतीपुरीमें एक रूप-यौवन-सम्पत्रा, इस कल्याणप्रद तीर्थ में आये । यहाँ आकर अपने छोटे नाच-गानमें निपुण मोहिनी नामकी वेश्या रहती थी। भाई भरतको खूनसे लथपथ और अन्तिम श्वास लेते हुए धनके लोभमें उसने अनेकों महापाप किये थे। पृथ्वीपर पड़ा देखा। कुछ ही देरमें पीड़ासे छटपटाकर वृद्धावस्था आनेपर उसको सुबुद्धि आयी और उसने उसने प्राण त्याग दिये। उसी समय आकाशसे एक अपना धन बगीचे, पोखरे, बावली, कुआँ, देवमन्दिर विमान उतरा और दिव्य देह धारण करके भरत उसपर जा और धर्मशाला बनवाने में लगाया। यात्रियोंके लिये बैठा। फिर उस समय भरतने भाई पुण्डरीकसे भोजन और जगह-जगह जलकी भी व्यवस्था की । एक कहा-'भाईजी ! इस समय मैं तुम्हें मारकर मामाका बार वह बीमार पड़ी। अपना सारा धन ब्राह्मणोंको देना दिया हुआ धन छीननेके लिये आया था और तुम्हारी ही चाहा, पर ब्राह्मणोंके न लेनेपर उसने एक भाग अपने घातमें था। परन्तु आधी रातके समय बाहरसे आये हुए दासियोंको और दूसरा परदेशी यात्रियोंको दे दिया। स्वयं व्यापारियोंके सेवकोंने मुझे चोर समझकर मार दिया । पर निर्धन हो गयी। इस समय जरद्वा नामक मोहिनीकी
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उत्तरखण्ड ]
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इन्द्रप्रस्थके द्वारका आदि तीर्थोका माहात्य •
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एक सखी उसकी सेवा करती थी। भाग्यवश कुछ दिनोंमें वह अच्छी हो गयी, पर निर्धनताकी अवस्थामें जरद्रवाके घर रहनेमें उसे बड़ा संकोच हुआ और वह घरसे निकल गयी।
एक दिन मोहिनी वनके मार्गसे जा रही थी। चोरोंने उसके पास धन समझकर लोभसे उसे मार दिया। पर जब धन नहीं मिला, तब वे उसे वनमें ही छोड़कर चल दिये। अभी मोहिनीकी साँस चल रही थी, उसी समय एक वानप्रस्थी महात्मा इस प्रयागके जलको कमण्डलुमें लिये वहाँ आ पहुँचे और तीर्थकी महिमा कहते हुए उन्होंने मोहिनीके मुखमें वह जल डाल दिया। उस समय मोहिनीके मनमें किसी राजाकी महारानी बननेकी इच्छा थीं। मुँहमें प्रयागका जल पड़ते ही मोहिनी मर गयी और दूसरे जन्ममें वह द्रविड़ देशमें राजा वीरवर्माकी हेमाङ्गीनामक महारानी हुई। राजमन्त्रीकी लड़की कला उसकी सखी थी। एक दिन हेमाङ्गी कलाके घर गयी और कलाने एक सोनेकी पेटीमें उसे एक विचित्र पुस्तक दिखायी, जिसमें अवतारोंके चित्रोंके साथ-साथ सारे भूगोलका मानचित्र था। मानचित्र देखते-देखते हेमाङ्गीकी दृष्टि इस प्रयागतीर्थपर पड़ी और उसे तुरंत अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आया। तदनन्तर उसने घर लौटकर अपने पतिसे पूर्व जन्मकी सारी घटनाएँ सुनाकर प्रार्थना की कि 'नाथ! मैं उस तीर्थ जलके प्रसादसे ही आपके घरकी रानी बनी हूँ। इस समय आपके साथ चलकर इन्द्रप्रस्थके मनोवाञ्छा पूर्ण करनेवाले तीर्थराज प्रयागका दर्शन करना चाहती हूँ। जब मैं उस तीर्थराजके लिये चल पड़ेंगी, तभी अत्र जल ग्रहण करूंगी।' राजाके पूरा विश्वास न करनेपर उसी समय आकाशवाणीने कहा - 'राजन्! तुम्हारी पलीका कथन सत्य है। इन्द्रप्रस्थके परम पवित्र प्रयागतीर्थमें जाकर तुम स्नान करो। इससे तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायँगी।' तब तो राजा आकाशवाणीको नमस्कार करके मन्त्रीको सारा भार सौंप हेमाङ्गीके साथ चल पड़े और कुछ दिनोंमें इन्द्रप्रस्थके प्रयागमें आ पहुँचे। 'इस प्रयागस्नानके पुण्यसे हमपर भगवान् विष्णु प्रसन्न हो' इस इच्छासे संप०पु० २९
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तीर्थमें स्नान करते ही भगवान् विष्णु और ब्रह्माजी क्रमशः गरुड़ और हंसपर बैठे हुए वहाँ आ पहुँचे। राजा वीरवर्माने मस्तक झुकाकर भगवान्के दोनों स्वरूपोंको प्रणाम किया और एकाग्रचित्तसे उनकी विलक्षण स्तुति की। फिर हेमाङ्गीने उनका स्तवन करके मनोरथ पूर्ण करनेकी प्रार्थना की। भगवान् विष्णु और ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर हेमाङ्गीकी बड़ी प्रशंसा की और फिर दोनोंको अपने साथ सत्यलोकमें ले गये।
अब इन्द्रप्रस्थके काशीतीर्थका परम पवित्र तथा यश और आयुको बढ़ानेवाला माहात्म्य सुनो। सत्ययुगमें इन्द्रप्रस्थके काशीतीर्थमें शिंशपाके वृक्षपर एक कौआ रहता था और उसके नीचे खोखलेमें एक बहुत बड़ा साँप। एक दिन आँधी आयी और शिंशपाका वृक्ष उखड़कर गिर पड़ा। उसके नीचे दबकर साँप और कौआ मर गये। फिर तो शिंशपा, कौआ और साँप - तीनों ही दिव्यरूप धारण करके तीन विमानोंपर सवार होकर भगवान् के वैकुण्ठधाममें चले गये । पूर्वजन्ममें वह कौआ कुरुजाङ्गल देशमें श्रवण नामक ब्राह्मण था और एकान्तमें अकेला मिठाइयाँ उड़ाया करता था। वह कालसर्प उसी ब्राह्मणका भाई कुरण्टक था, जो बड़ा नास्तिक, निर्दयी, वेदमार्गको तोड़नेवाला और देवताओंका निन्दक था और वह शिंशपा पेड़ बनी हुई श्रवणकी स्त्री कुण्ठा थी, जो दोनोंके ही दोषोंसे युक्त थी। इसीलिये वह स्थावर बनकर दोनोंका ही आश्रय हुई। इन दोनों भाइयोंने एक दिन किसी पथिककी कुऍमें पड़ी हुई गौको बाहर निकाल दिया था और घर आनेपर कुण्ठाने 'बहुत अच्छा' कहकर उनके कार्यका समर्थन किया था। इसी पुण्यके प्रभावसे इन्द्रप्रस्थके तटपर स्थित काशीमें दुर्लभ मृत्युको पाकर वे तीनों वैकुण्ठको गये।
अब इन्द्रप्रस्थके गोकर्णतीर्थकी महिमा सुनो। यह शिवजीका परम पवित्र क्षेत्र है। इसमें मरनेवाला मनुष्य निस्सन्देह शिवस्वरूप हो जाता है। गोकर्णतीर्थमें मरे हुए मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता।
इन्द्रप्रस्थके किनारे शिवकाशीतीर्थ है। इसमें मरनेवाला भी पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होता यहाँ
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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
श्रीमहादेवजीने भगवान् विष्णुकी आराधना करके भक्तराजकी पदवी पायी है। हेरम्ब नामक एक धर्मात्मा ब्राह्मण बड़े शिवभक्त थे। वे शिवतीर्थों में घूमते हुए यहाँ शिवकाशी में आये और यहीं उनके प्राण छूटे। वे भगवान् शिवजीके लोकमें जाकर पश्चात् वैकुण्ठको प्राप्त हुए। इसके सिवा इन्द्रप्रस्थमें कपिलाश्रम, केदार और प्रभास आदि और भी बहुत-से तीर्थ हैं। उनका भी बड़ा माहात्म्य है।
सौभरि कहते हैं- - राजा शिविसे यों कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी भगवान् के गुणोंका गान करते हुए वहाँसे चले गये । राजा शिखिने मुनिके मुखसे इन्द्रप्रस्थका यह वैभव सुनकर अपनेको कृतार्थ माना और विधिपूर्वक स्नान करके अपनी धार्मिक क्रियाएँ पूरी की। तदनन्तर वे अपने नगरको चले गये। राजा युधिष्ठिर ! यह मैंने यमुना तीरवतीं इन्द्रप्रस्थके लोक-पावन माहात्म्यका तुमसे वर्णन किया है।
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सूतजी कहते हैं— शौनकजी ! इस प्रकार सौभरि मुनिसे इन्द्रप्रस्थका माहात्म्य सुनकर राजा युधिष्ठिर हस्तिनापुरको गये और वहाँसे अपने दुर्योधन आदि भाइयोंको साथ ले राजसूय यज्ञ करनेकी इच्छासे
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पुण्यमय इन्द्रप्रस्थमें आये। राजाने अपने कुलदेवता भगवान् गोविन्दको द्वारकासे बुलाकर राजसूय यज्ञके द्वारा उनका यजन किया। 'यह तीर्थ मुक्ति देनेवाला है; अतः यहाँ मुँहसे कुत्सित वचन कहनेपर भी शिशुपालकी मुक्ति हो जायगी। यह सोचकर ही श्रीहरिने वहाँ शिशुपालका वध किया। शिशुपालने भी उस तीर्थमें मरनेके कारण समस्त पुरुषार्थोके दाता भगवान् श्रीकृष्णका सायुज्य प्राप्त कर लिया। जहाँ शिशुपाल मारा गया और जहाँ राजा युधिष्ठिरने यज्ञ किया, उस स्थानपर भीमसेनने अपनी गदासे एक विस्तृत कुण्ड बना दिया था। वह पावन कुण्ड इस पृथ्वीपर भीमकुण्डके नामसे विख्यात हुआ। वह यमुनाके दक्षिण एक कोसके भूभागमें है। इन्द्रप्रस्थकी यमुनामें स्नान करनेसे जो फल होता है, वही फल उस कुण्डमें स्नान करनेसे मिल जाता है - इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो मनुष्य प्रतिवर्ष इस तीर्थकी परिक्रमा करता है, वह क्षेत्रापराधजनित दोषों और पातकोंसे मुक्त हो जाता है। जो भगवान्के नामोंका जप करते हुए इस तीर्थकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पग-पगपर कपिलादानका फल मिलता है जो मनुष्य चैत्र कृष्णा चतुर्दशीको इन्द्रप्रस्थकी प्रदक्षिणा करता है, वह धन्य एवं सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। ★ वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्त्रानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
ऋषियोंने कहा - लोमहर्षण सूतजी ! अब हमें माघका माहात्म्य सुनाइये, जिसको सुननेसे लोगोंका महान् संशय दूर हो जाय।
सूतजी बोले – मुनिवरो! आपलोगोंको साधुवाद देता हूँ। आप भगवान् श्रीकृष्णके शरणागत भक्त हैं; इसीलिये प्रसन्नता और भक्तिके साथ आपलोग बार-बार भगवान्की कथाएँ पूछा करते हैं। मैं आपके कथनानुसार माघ माहात्यका वर्णन करूँगा; जो अरुणोदयकालमें स्नान करके इसका श्रवण करते हैं, उनके पुण्यकी वृद्धि और पापका नाश होता है। एक समयकी बात है,
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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राजाओंमें श्रेष्ठ महाराज दिलीपने यज्ञका अनुष्ठान पूरा करके ऋषियोंद्वारा मङ्गल-विधान होनेके पश्चात् अवभृथ स्नान किया। उस समय सम्पूर्ण नगरनिवासियोंने उनका बड़ा सम्मान किया। तदनन्तर राजा अयोध्यामें रहकर प्रजाजनोंकी रक्षा करने लगे। वे समय-समयपर वसिष्ठजोकी अनुमति लेकर प्रजावर्गका पालन किया करते थे। एक दिन उन्होंने वसिष्ठजीसे कहा'भगवन्! आपके प्रसादसे मैंने आचार, दण्डनीति, नाना प्रकारके राजधर्म, चारों वर्णों और आश्रमोंके कर्म, दान, दानकी विधि, यज्ञ, यज्ञके विधान, अनेकों व्रत, उनके
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उत्तरखण्ड ]
. वसिष्ठजीका दिलीपसे माघस्रानकी महिमा बताना .
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उद्यापन तथा भगवान् विष्णुको आराधना आदिके कहा था- 'जो मनुष्य मायके महीनेमें, जब सम्बन्धमें बहुत कुछ सुना है। अब माघस्रानका फल उषःकालको लालिमा बहुत अधिक हो, गाँवसे बाहर सुननेकी इच्छा है। मुने ! जिस विधिसे इसको करना नदी या पोखरेमें नित्य स्रान करता है, वह पिता और चाहिये, वह मुझे बताइये।'
माताके कुलकी सात-सात पीढ़ियोंका उद्धार करके स्वयं वसिष्ठजीने कहा-राजन् ! मैं तुम्हें माघस्नानका देवताओंके समान शरीर धारण कर स्वर्गलोकमें चला फल बतलाता हूँ, सुनो। जो लोग होम, यज्ञ तथा जाता है।' इष्टापूर्त कोंके बिना ही उत्तम गति प्राप्त करना चाहते दिलीपने पूछा-ब्रह्मन् ! ब्रह्मर्षि भृगुने किस हों, वे माघमें प्रातःकाल बाहरके जलमें स्नान करें। जो समय मणिपर्वतपर विद्याधरको धर्मोपदेश किया थागौ, भूमि, तिल, वस्त्र, सुवर्ण और धान्य आदि बतानेकी कृपा करें। वस्तुओंका दान किये बिना ही स्वर्गलोकमें जाना चाहते वसिष्ठजी बोले-राजन् ! प्राचीन कालमें एक हों, वे माघमें सदा प्रातःकाल स्रान करें। जो तीन-तीन समय बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं हुई। इससे सारी प्रजा राततक उपवास, कृच्छ और पराक आदि व्रतोंके द्वारा उद्विग्न और दुर्बल होकर दसों दिशाओंमें चली गयी। अपने शरीरको सुखाये बिना ही स्वर्ग पाना चाहते हों, उस समय हिमालय और विन्ध्यपर्वतके बीचका प्रदेश उन्हें भी माघमें सदा प्रातःकाल स्रान करना चाहिये। खाली हो गया। स्वाहा, स्वधा, वषट्कार और वैशाखमें जल और अनका दान उत्तम है, कार्तिकमे वेदाध्ययन-सब बंद हो गये। समस्त लोकमें उपद्रव तपस्या और पूजाकी प्रधानता है तथा मायमें जप, होम होने लगा। धर्मका तो लोप हो ही गया था, प्रजाका भी
और दान-ये तीन बातें विशेष हैं। जिन लोगोंने माघमे अभाव हो गया। भूमण्डलपर फल, मूल, अत्र और प्रातःस्रान, नाना प्रकारका दान और भगवान् विष्णुका पानीकी बिलकुल कमी हो गयी। उन दिनों नाना प्रकारके स्तोत्र-पाठ किया है, वे ही दिव्यधाममें आनन्दपूर्वक वृक्षोंसे आच्छादित नर्मदा नदीके रमणीय तटपर महर्षि निवास करते हैं। प्रिय वस्तुके त्याग और नियमोंके भृगुका आश्रम था। वे उस आश्रमसे शिष्योसहित पालनसे माघ मास सदा धर्मका साधक होता है और निकलकर हिमालय पर्वतको शरणमें गये। वहाँ अधर्मकी जड़ काट देता है। यदि सकामभावसे कैलासगिरिके पश्चिममें मणिकूट नामका पर्वत है, जो माघस्नान किया जाय तो उससे मनोवाञ्छित फलको सोने और रत्नोंका ही बना हुआ है। उस परम रमणीय सिद्धि होती है और निष्कामभावसे नान आदि करनेपर श्रेष्ठ पर्वतको देखकर अकाल-पीड़ित महर्षि भृगुका मन वह मोक्ष देनेवाला होता है। निरन्तर दान करनेवाले, बहुत प्रसन्न हुआ और उन्होंने वहीं अपना आश्रम बना वनमें रहकर तपस्या करनेवाले और सदा अतिथि- लिया। उस मनोहर शैलपर वनों और उपवनोंमें रहते हुए सत्कारमें संलग्न रहनेवाले पुरुषोंको जो दिव्यलोक प्राप्त सदाचारी भृगुजीने दीर्घकालतक भारी तपस्या की। होते हैं, वे ही माघस्रान करनेवालोंको भी मिलते हैं। इस प्रकार जब ब्रह्मर्षि भृगुजी वहाँ अपने अन्य पुण्योंसे स्वर्गमें गये हुए मनुष्य पुण्य समाप्त होनेपर आश्रमपर निवास करते थे, एक समय एक विद्याधर वहाँसे लौट आते हैं। किन्तु माघस्नान करनेवाले मानव अपनी पत्रीके साथ पर्वतसे नीचे उतरा । वे दोनों मुनिके कभी वहाँसे लौटकर नहीं आते। माघस्नानसे बढ़कर पास आये और उन्हें प्रणाम करके अत्यन्त दुःखी हो एक कोई पवित्र और पापनाशक व्रत नहीं है। इससे बढ़कर ओर खड़े हो गये। उन्हें इस अवस्था देख ब्रह्मर्षिन कोई तप और इससे बढ़कर कोई महत्त्वपूर्ण साधन नहीं मधुर वाणीसे पूछा-'विद्याधर ! प्रसत्रताके साथ है। यही परम हितकारक और तत्काल पापोंका नाश बताओ, तुम दोनों इतने दुःखी क्यों हो?' करनेवाला है। महर्षि भृगुने मणिपर्वतपर विद्याधरसे विद्याधरने कहा-द्विजश्रेष्ठ ! मेरे दुःखका
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
कारण सुनिये । मैं पुण्यका फल पाकर देवलोकमें गया। उठाकर स्वयं सुषुम्णा नाडीमें स्थित हो गये । इस तरह वहाँ देवताका शरीर, दिव्य नारीका सुख और दिव्य एक मासतक निराहार रहकर उन्होंने दुष्कर तपस्या की। भोगोंका अनुभव प्राप्त करके भी मेरा मुँह बाघका-सा हो इस थोड़े दिनोंकी तपस्यासे ही भगवान् संतुष्ट हो गया। न जाने यह किस दुष्कर्मका फल उपस्थित हुआ गये। उन्होंने राजाके सात जन्मोकी आराधनाका स्मरण है। यही सोच-सोचकर मेरे मनको कभी शान्ति नहीं करके उन्हें स्वयं प्रकट हो प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस दिन मिलती। ब्रह्मन् ! एक और भी कारण है, जिससे मेरा माघ शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथि थी, सूर्य मकर-राशिपर मन व्याकुल हो रहा है। यह मेरी कल्याणमयी पत्नी बड़ी स्थित थे। भगवान् वासुदेवने बड़ी प्रसन्नताके साथ मधुरभाषिणी तथा सुन्दरी है। स्वर्गलोकमें शील, चक्रवर्ती नरेश पुरूरवापर शका जल छोड़ा और उन्हें उदारता, गुणसमूह, रूप और यौवनको सम्पत्तिद्वारा अत्यन्त सुन्दर एवं कमनीय रूप प्रदान दिया। वह रूप इसकी समानता करनेवाली एक भी स्त्री नहीं है। कहाँ इतना मनोहर था, जिससे देवलोककी नायिका उर्वशी भी तो यह देवमुखी सुन्दरी रमणी और कहाँ मेरे-जैसा आकृष्ट हो गयी और उसने पुरूरवाको पतिरूपमें प्राप्त व्याघ्रमुख पुरुष ? ब्रह्मन् ! मैं इसी बातकी चिन्ता करके करनेकी अभिलाषा की। इस प्रकार राजा पुरूरवा मन-ही-मन सदा जलता रहता हूँ।
भगवानसे वरदान पाकर कृतकृत्य हो अपने नगरमें लौट भृगुजीने कहा-विद्याधरश्रेष्ठ ! पूर्वजन्ममें आये। विद्याधर ! कर्मको गति ऐसी ही है। इसे जानकर तुम्हारे द्वारा जो अनुचित कर्म हुआ है, वह सुनो। निषिद्ध भी तुम क्यों खिन्न होते हो? यदि तुम अपने मुखकी कर्म कितना ही छोटा क्यों न हो, परिणाममें वह भयङ्कर कुरूपता दूर करना चाहते हो तो मेरे कहनेसे शीघ्र ही हो जाता है। तुमने पूर्वजन्ममें मायके महीनेमें मणिकूट-नदीके जलमें माघस्रान करो। वह प्राचीन एकादशीको उपवास करके द्वादशीके दिन शरीरमें तेल पापोंका नाश करनेवाला है। तुम्हारे भाग्यसे माघ लगा लिया था। इसीसे तुम्हारा मुँह व्याघ्रके समान हो बिलकुल निकट है। आजसे पाँच दिनके बाद ही गया। पुण्यमयी एकादशीका व्रत करके द्वादशीको माघमास आरम्भ हो जायगा। तुम पौषके शुक्रपक्षको तेलका सेवन करनेसे पूर्वकालमें इलानन्दन पुरूरवाको एकादशीसे ही नीचे वेदीपर सोया करो और एक भी कुरूप शरीरकी प्राप्ति हुई थी। वे अपने शरीरको महीनेतक निराहार रहकर तीनों समय सान करो। कुरूप देख उसके दुःखसे बहुत दुःखी हुए और गिरिराज भोगोंको त्यागकर जितेन्द्रियभावसे तीनों काल भगवान् हिमालयपर जाकर गङ्गाजीके किनारे सान आदिसे पवित्र विष्णुकी पूजा करते रहो । विद्याधरश्रेष्ठ ! जिस दिन माघ हो प्रसत्रतापूर्वक कुशासनपर बैठे। राजाने अपनी सम्पूर्ण शुक्ला एकादशी आयेगी, उस दिनतक तुम्हारे सारे इन्द्रियोंको वशमें करके हृदयमें भगवान का ध्यान करना पाप जलकर भस्म हो जायेंगे। फिर द्वादशीके पवित्र आरम्भ किया। उन्होंने ध्यानमें देखा-भगवान्का दिनको मैं मन्त्रपूत कल्याणमय जलसे अभिषेक करके श्रीविग्रह नूतन नील मेघके समान श्याम है। उनके नेत्र तुम्हारा मुख कामदेवके समान सुन्दर कर दूंगा। फिर कमलादलके समान विशाल हैं। वे अपने हाथोंमें शङ्ख, देवमुख होकर इस सुन्दरीके साथ तुम सुखपूर्वक क्रीड़ा चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। उनका श्रीअङ्ग करते रहना। पीताम्बरसे ढका है। वक्षःस्थलमें कौस्तुभमणि अपना विद्याधर ! मायके स्नानसे विपत्तिका नाश होता है प्रकाश फैला रही है तथा वे गलेमें वनमाला धारण किये और मायके स्रानसे पाप नष्ट हो जाते हैं। माघ सब हुए हैं। इस प्रकार श्रीहरिका चिन्तन करते हुए राजाने व्रतोसे बढ़कर है तथा यह सब प्रकारके दानोंका फल प्राणवायुके मार्गको भीतर ही रोक लिया और नासिकाके प्रदान करनेवाला है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, अग्रभागपर दृष्टि जमाये कुण्डलिनीके मुखको ऊपर पृथुदक, अविमुक्तक्षेत्र (काशी), प्रयाग तथा गङ्गा
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उत्तरखण्ड ]
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• मृगशृङ्ग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
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सागर संगममें दस वर्षोंतक शौच-सन्तोषादि नियमोंका पालन करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह माघके महीने में तीन दिनोंतक प्रातः स्नान करनेसे ही मिल जाता है। जिनके मनमें दीर्घकालतक स्वर्गलोकके भोग भोगनेकी अभिलाषा हो, उन्हें सूर्यके मकर राशिपर रहते समय जहाँ कहीं भी जल मिले, प्रातःकाल स्नान करना चाहिये। आयु, आरोग्य, रूप, सौभाग्य एवं उत्तम गुणोंमें जिनकी रुचि हो, उन्हें सूर्यके मकर राशिपर रहनेतक प्रातः काल अवश्य स्नान करना चाहिये। जो नरकसे डरते हैं और दरिद्रताके महासागरसे जिन्हें त्रास होता है, उन्हें सर्वथा प्रयत्नपूर्वक माघमासमें प्रातःकाल स्नान करना चाहिये । देवश्रेष्ठ ! दरिद्रता, पाप और दुर्भाग्यरूपी कीचड़ को धोनेके लिये माघस्नानके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है। अन्य कमको यदि अश्रद्धापूर्वक किया जाय तो वे बहुत थोड़ा फल देते हैं; किन्तु माघस्नान यदि श्रद्धा के बिना भी विधिपूर्वक किया जाय तो वह पूरा पूरा फल देता है। गाँवसे बाहर नदी या पोखरेके जलमें जहाँ कहीं भी निष्काम या सकामभावसे माघस्नान करनेवाला पुरुष इस लोक और परलोकमें दुःख नहीं देखता। जैसे चन्द्रमा कृष्णपक्षमें क्षीण होता और शुरूपक्षमें बढ़ता है, उसी प्रकार माघमासमें स्नान करनेपर पाप क्षीण होता और पुण्यराशि बढ़ती है। जैसे समुद्रमें नाना प्रकारके रत्न उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार माघस्नानसे आयु, धन और स्त्री आदि सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जैसे कामधेनु और
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वसिष्ठजी कहते हैं— राजन् ! मैं माघ मासका प्रभाव बतलाता हूँ, सुनो। इसे भक्तिपूर्वक सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है प्राचीन रथन्तर कल्पके सत्ययुगमें कुत्स नामके एक ऋषि थे, जो ब्रह्माजीके पुत्र थे। वे बड़े ही तेजस्वी और निष्पाप थे। उन्होंने कर्दम ऋषिकी सुन्दरी कन्याके साथ विधिपूर्वक विवाह किया।
चिन्तामणि मनोवाञ्छित भोग देती हैं, उसी प्रकार माघस्नान सब मनोरथोंको पूर्ण करता है। सत्ययुगमें तपस्याको, त्रेतामें ज्ञानको, द्वापरमें भगवान् के पूजनको और कलियुगमें दानको उत्तम माना गया है; परन्तु माघका स्नान सभी युगोंमें श्रेष्ठ समझा गया है। * सबके लिये, समस्त वर्णों और आश्रमोंके लिये माघका स्नान धर्मको धारावाहिक वृष्टि करता है।
भृगुजीके ये वचन सुनकर वह विद्याधर उसी आश्रमपर ठहर गया और माघमासमें भृगुजीके साथ ही उसने विधिपूर्वक पर्वतीय नदीके कुण्डमें पत्नीसहित स्नान किया। महर्षि भृगुके अनुग्रहसे विद्याधरने अपना मनोरथ प्राप्त कर लिया। फिर वह देवमुख होकर मणिपर्वतपर आनन्दपूर्वक रहने लगा। भृगुजी उसपर कृपा करके बहुत प्रसन्न हुए और पुनः विन्ध्यपर्वतपर अपने आश्रम में चले आये। उस विद्याधरका मणिमय पर्वतकी नदीमें माघस्नान करनेमात्रसे कामदेवके समान मुख हो गया। तथा भृगुजी भी नियम समाप्त करके शिष्योंसहित विन्ध्याचल पर्वतको घाटीमें उतरकर नर्मदा तटपर आये ।
वसिष्ठजी कहते हैं— राजन् ! महर्षि भृगुके द्वारा विद्याधरके प्रति कहा हुआ यह माघ माहात्म्य सम्पूर्ण भुवनका सार है तथा नाना प्रकारके फलोंसे विचित्र जान पड़ता है। जो प्रतिदिन इसका श्रवण करता है, वह देवताकी भाँति समस्त सुन्दर भोगोंको प्राप्त कर लेता है। ★ मृगशृङ्ग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
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* * कृते तपः परं ज्ञानं त्रेतायां यजनं तथा द्वापरे च कलौ दानं माघः सर्वयुगेषु च ॥ (२२१ । ८० )
उसके गर्भ से मुनिके वत्स नामक पुत्र हुआ, जो वंशको बढ़ानेवाला था । वत्सकी पाँच वर्षकी अवस्था होनेपर पिताने उनका उपनयन संस्कार करके उन्हें गायत्रीमन्त्रका उपदेश किया। अब वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भृगुकुलमें निवास करने लगे। प्रतिदिन प्रातः काल और सायंकाल अग्निहोत्र, तीनों समय स्नान और भिक्षाके
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___ • अर्जयस्त हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
अन्नका भोजन करते थे। इन्द्रियोंको काबूमें रखते, काला सबका प्रवाह जहाँ पश्चिम या उत्तरकी ओर है, उस मृगचर्म धारण करते और सदा स्वाध्यायमें संलग्न रहते स्थानका प्रयागसे भी अधिक महत्त्व बतलाया गया है। थे। पैरसे लेकर शिखातक लंबा पलाशका डंडा, जिसमें मैंने अपने पूर्वपुण्योंके प्रभावसे आज कावेरीका कोई छेद न हो, लिये रहते थे। उनके कटिभागमें मूंजको पश्चिमगामी प्रवाह प्राप्त किया है। वास्तवमें मैं कृतार्थ हूँ, मेखला शोभा पाती थी। हाथमें सदा कमण्डलु धारण कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हूँ।' इस प्रकार सोचते हुए वे प्रसन्न करते, स्वच्छ कौपीन पहनते, शुद्ध भावसे रहते और होकर कावेरीके जलमें तीनो काल स्नान करते थे। स्वच्छ यज्ञोपवीत धारण करते थे। उनका मस्तक उन्होंने कावेरीके पश्चिमगामी प्रवाहमें तीन सालतक समिधाओंकी भस्मसे सुशोभित था। वे सबके नयनोंको माघ-स्तान किया। उसके पुण्यसे उनका अन्तःकरण प्रिय जान पड़ते थे। प्रतिदिन माता, पिता, गुरु, आचार्य, शुद्ध हो गया। वे ममता और कामनासे रहित हो गये। अन्यान्य बड़े-बूढ़ों, संन्यासियों तथा ब्रह्मवादियोंको तदनन्तर माता, पिता और गुरुकी आज्ञा लेकर वे प्रणाम करते थे। बुद्धिमान् वत्स ब्रह्मयज्ञमें तत्पर रहते सर्वपापनाशक कल्याणतीर्थमें आ गये। उस सरोवरमें
और सदा शुभ कर्माका अनुष्ठान किया करते थे। वे भी एक मासतक माघस्नान करके ब्रह्मचारी वत्स मुनि हाथमें पवित्री धारण करके देवताओं, ऋषियों और तपस्या करने लगे। राजन् ! इस प्रकार उन्हें उत्तम तपस्या पितरोंका तर्पण करते थे। फूल, चन्दन और गन्ध करते देख भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर उनके आगे आदिको कभी हाथसे छूते भी नहीं थे। मौन होकर प्रत्यक्ष प्रकट हुए और बोले-'महाप्राज्ञ मृगशृङ्ग ! मैं भोजन करते । मधु, पिण्याक और खारा नमक नहीं खाते तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ।' यो कहकर भगवान् पुरुषोत्तमने थे। खड़ाऊँ नहीं पहनते थे तथा सवारीपर नहीं चढ़ते। उनके ब्रह्मरन्ध (मस्तक) का स्पर्श किया। शीशेमें मुँह नहीं देखते । दन्तधावन, ताम्बूल और पगड़ी तब वत्स मुनि समाधिसे विरत हो जाग उठे और आदिसे परहेज रखते थे। नौला, लाल तथा पीला वस्त्र, उन्होंने अपने सामने ही भगवान् विष्णुको उपस्थित खाट, आभूषण तथा और भी जो-जो वस्तुएँ ब्रह्मचर्य- देखा। वे सहस्र सूर्योके समान तेजस्वी कौस्तुभमणिरूप आश्रमके प्रतिकूल बतायी गयी है, उन सबका वे आभूषणसे अत्यन्त भासमान दिखायी देते थे। तब स्पर्शतक नहीं करते थे; सदा शान्तभावसे सदाचारमें ही मुनिने बड़े वेगसे उठकर भगवान्को प्रणाम किया और तत्पर रहते थे।
बड़े भावसे सुन्दर स्तुति की। ऐसे आचारवान् और विशेषतः ब्रह्मचर्यका पालन भगवान् हृषीकेशकी स्तुति और नमस्कार करके करनेवाले वत्स मुनि सूर्यके मकर-राशिपर रहते वत्स मुनि अपने मस्तकपर हाथ जोड़े चुपचाप भगवान्के माघ मासमें भक्तिपूर्वक प्रातःस्नान करते थे। वे उस सामने खड़े हो गये। उस समय उनके नेत्रोंसे आनन्दके समय विशेष रूपसे शरीरकी शुद्धि करते थे। आकाशमें आँसू बह रहे थे और सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया था। जब इने-गिने तारे रह जाते थे, उस समय-ब्रह्मवेलामें तब श्रीभगवान्ने कहा-मृगङ्ग ! तुम्हारी इस तो वे नित्यनान करते थे और फिर जब आधे सूर्य स्तुतिसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मात्र मासमें इस निकल आते, उस समय भी माघका नान करते थे। वे सरोवरके जलमें जो तुमने स्रान और तप किये हैं, इससे मन-ही-मन अपने भाग्यकी सराहना करने लगे- मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ। मुने ! तुम निरन्तर कष्ट सहते-सहते 'अहो! इस पश्चिमवाहिनी कावेरी नदीमें स्नानका थक गये हो। दक्षिणाओसहित यज्ञ, दान, अन्यान्य अवसर मिलना प्रायः मनुष्यों के लिये कठिन है, तो भी नियम तथा यमोंके पालनसे भी मुझे उतना संतोष नहीं मैंने मकरार्कमें यहाँ स्नान किया। वास्तवमें मैं बड़ा होता, जितना माघके स्नानसे होता है। पहले तुम मुझसे भाग्यवान् हूँ। समुद्रमें मिली हुई जितनी नदियाँ हैं, उन वर माँगो। फिर मैं तुम्हें मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान
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उत्तरखण्ड ]
. मृगपाङ्ग मुनिका भगवानसे वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना •
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करूंगा। मृगशृङ्ग ! तुम मेरी प्रसन्नताके लिये मैं जो सरोवरके तटपर जब तुम तपस्या करनेमें लगे थे, उस आज्ञा हूँ, उसका पालन करो। इस समय तुम्हारे समय जो मृग प्रतिदिन यहाँ पानी पीने आते थे, वे निर्भय ब्रह्मचर्यसे जिस प्रकार ऋषियोंको सन्तोष हुआ है, उसी होकर तुम्हारे शरीरमें अपने सींग रगड़ा करते थे। इसीसे प्रकार तुम यज्ञ करके देवताओंको और सन्तान उत्पन्न श्रेष्ठ महर्षि तुम्हें मृगभङ्ग कहते हैं। आजसे सब लोग करके पितरोंको संतुष्ट करो। मेरे सन्तोषके लिये ये दोनों तुम्हें मृगशृङ्ग ही कहेंगे। कार्य तुम्हें सर्वथा करने चाहिये। अगले जन्ममें तुम यो कहकर सबको सब कुछ प्रदान करनेवाले ब्रह्माजीके पुत्र महाज्ञानी ऋभुनामक जीवन्मुक्त ब्राह्मण भगवान् सर्वेश्वर वहाँ रहने लगे। तदनन्तर मृगशङ्ग मुनिने होओगे और निदाघको वेदान्तवाक्यजन्य ज्ञानका उपदेश भगवान्का पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे उस करके पुनः परमधामको प्राप्त होओगे।
पर्वतसे चले गये। संसारका उपकार करनेके लिये मृगङ्ग बोले-देवदेव ! सम्पूर्ण देवताओंद्वारा उन्होंने गृहस्थ-धर्मको स्वीकर करनेका निश्चय किया और वन्दित जगन्नाथ ! आप यहाँ सदा निवास करें और अपने अन्तःकरणमे निरन्तर वे आदिपुरुष कमलनयन सबको सब प्रकारके भोग प्रदान करते रहें। आप सदा भगवान् विष्णुका चिन्तन करने लगे। अपनी जन्मभूमि सब जीवोंको सब तरहकी सम्पत्ति प्रदान करें। भगवन् ! भोजराजनगरमें घर आकर उन्होंने माता और पिताको यदि मैं आपका कृपापात्र हूँ तो यही एक वर, जिसे नमस्कार करके अपना सारा समाचार कह सुनाया। निवेदन कर चुका हूँ, देनेकी कृपा करें। कमलनयन ! माता-पिताके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। चरणोंमें पड़े हुए भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले अच्युत ! उन्होंने पुत्रको छातीसे लगाकर वारंवार उसका मस्तक आप मुझपर प्रसन्न होइये। शरणागतवत्सल ! मैं सँघा और प्रेमपूर्वक अभिनन्दन किया। वत्स अपने आपकी शरणमें आया हूँ।
गुरुको प्रणाम करके फिर स्वाध्यायमें लग गये। पिता, भगवान् विष्णु बोले-मृगशङ्ग ! एवमस्तु, मैं माता और गुरु-तीनोंकी प्रतिदिन सेवा करते हुए सदा यहाँ निवास करूंगा। जो लोग यहाँ मेरा पूजन उन्होंने सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया और गुरुको आज्ञा करेंगे, उन्हें सब प्रकारकी सम्पत्ति हाथ लगेगी। ले विधिपूर्वक व्रतनान और उत्सर्गका कार्य पूर्ण किया। विशेषतः जब सूर्य मकर राशिपर हों, उस समय इस तत्पश्चात् महामना मृगशङ्ग अपने पितासे इस प्रकार सरोवरमें स्नान करनेवाले मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो मेरे बोले-'तात ! पुत्रकी उत्पत्तिके लिये पिता और परमपदको प्राप्त होंगे। व्यतीपात योगमें, अयन प्रारम्भ माताको जो क्लेश सहने पड़ते हैं, उनका बदला सौ वर्षोंमें होनेके दिन, संक्रान्तिके समय, विषुव योगमें, पूर्णिमा भी नहीं चुकाया जा सकता; अतः पुत्रको उचित है कि
और अमावास्या तिथिको तथा चन्द्रग्रहण और सूर्य- वह माता-पिता तथा गुरुका भी सदा ही प्रिय करे । इन ग्रहणके अवसरपर यहाँ सान करके यथाशक्ति दान तीनोंके अत्यन्त सन्तुष्ट होनेपर सब तपस्या पूर्ण हो जाती देनेसे और तुम्हारे मुखसे निकले हुए इस स्तोत्रका मेरे है। इन तीनोंकी सेवाको ही सबसे बड़ा तप कहा गया सामने पाठ करनेसे मनुष्य मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होगा। है। इनकी आज्ञाका उल्लङ्घन करके जो कुछ भी किया
भगवान् गोविन्दके यों कहनेपर उन ब्राह्मणकुमारने जाता है, वह कभी सिद्ध नहीं होता। विद्वान् पुरुष इन्हीं पुनः प्रणाम किया और भक्तोंके अधीन रहनेवाले तीनोंकी आराधना करके तीनों लोकोपर विजय पाता है। श्रीहरिसे फिर एक प्रश्र किया- 'कृपानिधे ! देवेश्वर ! जिससे इन तीनोंको संतोष हो, वही मनुष्यों के लिये चारों मैं तो कुत्स मुनिका पुत्र वत्स हूँ; फिर मुझे आपने पुरुषार्थ कहा गया है; इसके सिवा जो कुछ भी है, वह मृगशृङ्ग कहकर क्यों सम्बोधित किया ?'
उपधर्म कहलाता है। मनुष्यको उचित है कि वह श्रीभगवान् बोले-ब्रह्मन् ! इस कल्याण- अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए पितासे क्रमशः
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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तीन दो या एक वेदका अध्ययन करनेके पश्चात् गृहस्थ आश्रममें प्रवेश करे। यदि पत्नी अपने वशमें रहे तो गृहस्थाश्रमसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। पति और पत्नीकी अनुकूलता धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धिका प्रधान कारण है। यदि स्त्री अनुकूल हो तो स्वर्गसे क्या लेना है — घर ही स्वर्ग हो जाता है और यदि पत्नी विपरीत स्वभावकी मिल गयी तो नरकमें जानेकी क्या आवश्यकता है - यहीं नरकका दृश्य उपस्थित हो जाता है। सुखके लिये गृहस्थाश्रम स्वीकार किया जाता है; किन्तु वह सुख पत्नीके अधीन है। यदि पत्नी विनयशील हो तो धर्म, अर्थ और कामकी प्राप्ति निश्चित है।
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जो गृहकार्यमें चतुर, सन्तानवती पतिव्रता, प्रिय वचन बोलनेवाली और पतिके अधीन रहनेवाली हैऐसी उपर्युक्त गुणोंसे युक्त नारी स्त्रीके रूपमें साक्षात् लक्ष्मी है। इसलिये अपने समान वर्णकी उत्तम लक्षणों वाली भार्यासे विवाह करना चाहिये। जो पिताके गोत्र अथवा माताके सपिण्डवर्गमें उत्पन्न न हुई हो, वही स्त्री विवाह करनेयोग्य होती है तथा उसीसे द्विजोंके धर्मकी वृद्धि होती है।
जिसको कोई रोग न हो, जिसके भाई हो, जो अवस्था और कदमें अपनेसे कुछ छोटी हो, जिसका मुख सौम्य हो तथा जो मधुर भाषण करनेवाली हो, ऐसी भार्याके साथ द्विजको विवाह करना चाहिये। जिसका नाम पर्वत, नक्षत्र, वृक्ष, नदी, सर्प, पक्षी तथा नौकरोंके नामपर न रखा गया हो, जिसके नाममें कोमलता हो, ऐसी कन्यासे बुद्धिमान् पुरुषको विवाह करना चाहिये । इस प्रकार उत्तम लक्षणोंकी परीक्षा करके ही किसी
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मृगशृङ्ग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
वसिष्ठजी कहते हैं— राजन् ! भोजपुरमें उचथ्य नामक एक श्रेष्ठ मुनि थे। उनके कमलके समान नेत्रोंवाली एक कन्या थी, जिसका नाम सुवृत्ता था। वह माघ मासमें प्रतिदिन सबेरे ही उठकर अपनी कुमारी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
कन्याके साथ विवाह करना उचित है। उत्तम लक्षण और अच्छे आचरणवाली कन्या पतिकी आयु बढ़ाती है, अतः पिताजी! ऐसी भार्या कहाँ मिलेगी ?
कुत्सने कहा- परम बुद्धिमान् मृगशृङ्ग ! इसके लिये कोई विचार न करो। तुम्हारे जैसे सदाचारी पुरुषके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। जो सदाचारहीन, आलसी, माघ स्नान न करनेवाले, अतिथि पूजासे दूर रहनेवाले, एकादशीको उपवास न करनेवाले, महादेवजीकी भक्तिसे शून्य, माता-पितामें भक्ति न रखनेवाले, गुरुको सन्तोष न देनेवाले, गौओंकी सेवासे विमुख, ब्राह्मणोंका हित न चाहनेवाले, यज्ञ, होम और श्राद्ध न करनेवाले, दूसरोंको न देकर अकेले खानेवाले, दान, धर्म और शीलसे रहित तथा अग्निहोत्र न करके भोजन करनेवाले हैं, ऐसे लोगोंके लिये ही वैसी स्त्रियाँ दुर्लभ हैं। बेटा ! प्रातःकाल स्नान करनेपर माघका महीना विद्या, निर्मल कीर्ति, आरोग्य, आयु, अक्षय धन, समस्त पापोंसे मुक्ति तथा इन्द्रलोक प्रदान करता है। बेटा! माघ मास सौभाग्य, सदाचार, सन्तान वृद्धि, सत्सङ्ग, सत्य, उदारभाव, ख्याति, शूरता और बल— सब कुछ देता है कहाँतक गिनाऊँ, वह क्या-क्या नहीं देता । पुण्यात्मन्! कमलके समान नेत्रोंवाले भगवान् विष्णु माघस्नान करनेसे तुमपर बहुत प्रसन्न हैं।
वचन
हुए।
वसिष्ठजी कहते हैं— राजन् ! पिताके ये सत्य सुनकर मृगशृङ्ग मुनि मन ही मन बहुत प्रसन्न उन्होंने पिताके चरणोंमें मस्तक झुकाकर पुनः प्रणाम किया और दिन-रात वे अपने हृदयमें श्रीहरिका ही चिन्तन करने लगे।
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सखियोंके साथ कावेरी नदीके पश्चिमगामी प्रवाहमें स्नान किया करती थी। स्नानके समय वह इस प्रकार प्रार्थना करती – 'देवि! तुम सह्य पर्वतकी घाटीसे निकलकर श्रीरङ्गक्षेत्रमें प्रवाहित होती हो। श्रीकावेरी ! तुम्हें
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उत्तरखण्ड]
• मृगज मुनिके द्वारा पापके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार .
नमस्कार है। मेरे पापोंका नाश करो। मरुद्वृधे! तुम नाम ले-लेकर विलाप करने लगी। बड़ी सौभाग्यशालिनी हो। माघ मासमें जो लोग तुम्हारे कन्याओंकी माताएँ जब इस प्रकार जोर-जोरसे जलमें स्रान करते हैं, उनके बड़े-बड़े पापोंको हर लेती क्रन्दन कर रही थीं, उसी समय तपस्याके भण्डार, हो। माता ! मुझे मङ्गल प्रदान करो। पश्चिमवाहिनी कान्तिमान, धीर तथा जितेन्द्रिय, श्रीमान् मृगशृङ्ग मुनि कावेरी ! मुझे पति, धन, पुत्र, सम्पूर्ण मनोरथ और वहाँ आ पहुंचे। उन्होंने मन-ही-मन एक उपाय सोचा पातिव्रत्य-पालनकी शक्ति दो।' यों कहकर सुवृत्ता और सोचकर उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- 'जबतक कावेरीको प्रणाम करती और जब कुछ-कुछ सूर्यका इन कमलनयनी कन्याओको जीवित न कर दूं, तबतक उदय होने लगता, उसी समय वह नित्यनान किया आपलोग इनके सुन्दर शरीरकी रक्षा करे।' यो कहकर करती थी। इस प्रकार उसने तीन वर्षातक माघस्रान मुनि परम पावन कावेरीके तटपर गये और कण्ठभर किया। उसका उत्तम चरित्र तथा गृहकार्यमें चतुरता पानीमें खड़े हो, मुख एवं भुजाओंको ऊपर उठाये देखकर पिताका मन बड़ा प्रसन्न रहता था। वे सोचने सूर्यदेवकी ओर देखते हुए मृत्यु देवताकी स्तुति करने लगे-अपनी कन्याका विवाह किससे कसै? इसी लगे। इसी बीचमें एक समय वही हाथी पानीके भीतरसे बीचमें कुत्स मुनिने अपने पुत्र ब्रह्मचारी वत्सका विवाह उठा और उन ब्राह्मण मुनिको मारनेके लिये सँड़ उठाये करनेके लिये उचथ्यकी सुमुखी कन्या सुवृत्ताका वरण बड़े वेगसे उनके समीप आया। हाथीका क्रोध देखकर करनेका विचार किया। सुवृत्ता बड़ी सुन्दरी थी। उसमें भी मुनिवर मृगशृङ्ग जलसे विचलित नहीं हुए, अपितु, अनेक शुभ लक्षण थे। वह बाहर-भीतरसे शुद्ध तथा चित्रलिखित-से चुपचाप खड़े रहे । पास आनेपर एक ही नीरोग थी। उस समय उसकी कहीं तुलना नहीं थी। क्षणमें उस गजराजका क्रोध चला गया। वह बिलकुल वत्स मुनिने उससे विवाह करनेकी अभिलाषा की। शान्त हो गया। उसने मुनिको सँड़से पकड़कर अपनी
एक दिन सुवृत्ता अपनी तीन सखियोंके साथ पीठपर बिठा लिया। मुनि उसके भावको समझ गये। माघनान करनेके लिये अरुणोदयके समय कावेरौके उसके कंधेपर सुखपूर्वक बैठनेसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ तटपर आयी। उसी समय एक भयानक जंगली हाथी और जप समाप्त करके हाथमें जल ले 'मैंने आठ दिनोंके पानीसे निकला। उसे देखकर सुवृत्ता आदि कन्याएँ माघस्नानका पुण्य तुम्हें दे दिया।' यों कहकर उन्होंने भयसे व्याकुल होकर भागीं। हाथी भी बहुत दूरतक शीघ्र ही वह जल हाथीके मस्तकपर छोड़ दिया। इससे उनके पीछे-पीछे गया। चारों कन्याएँ वेगसे दौड़नेके गजराज पापरहित हो गया और मानो इस बातको स्वयं कारण हॉफने लगी और तिनकोसे ढ़के हुए एक बहुत भी समझते हुए उसने प्रलयकालीन मेघके समान बड़े बड़े जलशून्य कुएँ गिर पड़ी। कुएँ गिरते ही उनके जोरसे गर्जना की। उसकी इस गर्जनासे भी मुनिके मनमें प्राण निकल गये। जब वे घर लौटकर नहीं आयीं, तब बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कृपापूर्वक उस गजराजकी माता-पिता उनकी खोज करते हुए इधर-उधर भटकने ओर देखकर उसके ऊपर अपना हाथ फेरा । मुनिके लगे। उन्होंने वन-वनमें घूमकर झाड़ी-झाड़ी छान हाथका स्पर्श होनेसे उसने हाथीका शरीर त्याग दिया डाली। आगे जानेपर उन्हें एक गहरा कुआँ दिखायी और आकाशमें देवताकी भाँति दिव्यरूप धारण किये दिया, जो तिनकोसे ढंका होनेके कारण प्रायः दृष्टि में नहीं दृष्टिगोचर हुआ। उस रूपमें उसे देखकर मुनीश्वरको आता था। उन्होंने देखा, वे कमललोचना कन्याएँ कुएँके बड़ा विस्मय हुआ। भीतर निर्जीव होकर पड़ी है। उनकी माताएं कन्याओंके तब दिव्यरूपधारी उसजीवने कहा-मुनीश्वर ! पास चली गयीं और शोकग्रस्त हो बारंबार उन्हें छातीसे मैं कृतार्थ हो गया, क्योंकि आपने मुझे अत्यन्त निन्दित लगाकर 'विमले! कमले! सुवृत्ते ! सुरसे !' आदि एवं पापमयी पशुयोनिसे मुक्त कर दिया। दयानिधे!
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
अब मैं अपना सारा वृत्तान्त बतलाता हूँ, सुनिये। स्वर्णमुद्राओंका उपार्जन किया। मेरे एक ही पुत्र था, जो पूर्वकालकी बात है, नैषध नगरमें विश्वगुप्त नामसे प्रसिद्ध सम्पूर्ण गुणोंमें श्रेष्ठ था। मैंने अपने सारे धनको दो परम धर्मात्मा तथा स्वधर्मपालनमें तत्पर एक वैश्य रहते भागोंमें बाँटकर आधा तो पुत्रको दे दिया और आधा थे। मैं उन्हींका पुत्र था। मेरा नाम धर्मगुप्त था। अपने लिये रखा। अपने हिस्सेका धन लेकर पोखरा स्वाध्याय, यजन, दान, सूद लेना, पशुपालन, गोरक्षा, खुदवाया। नाना प्रकारके वृक्षोंसे युक्त बगीचा खेती और व्यापार—यही सब मेरा काम था। द्विज- लगवाया। अनेक मण्डपोंसे सुशोभित देवमन्दिर श्रेष्ठ ! मैं [अनुचित] काम और दम्भसे सदा दूर ही बनवाया। मरुभूमिके मार्गोंमें पौसले और कुएँ बनवाये रहा। सत्य बोलता और किसीकी निन्दा नहीं करता था। तथा ठहरनेके लिये धर्मशालाएँ तैयार करायीं। इन्द्रियोंको काबूमें रखकर अपनी स्त्रीसे ही अनुराग करता कन्यादान, गोदान और भूमिदान किये। तिल, चावल, था और परायी स्त्रियोंके सम्पर्कसे बचा रहता था । मुझमें गेहूँ और मूंग आदिका भी दान किया। उड़द, धान, तिल राग, भय और क्रोध नहीं थे। लोभ और मत्सरको भी और घी आदिका दान तो मैंने बहुत बार किया। मैंने छोड़ रखा था। दान देता, यज्ञ करता, देवताओंके तदनन्तर रसके चमत्कारोंका वर्णन करनेवाला कोई प्रति भक्ति रखता और गौओं तथा ब्राह्मणोंके हितमें कापालिक मेरे पास आया और कौतूहल पैदा करनेके संलग्र रहता था। सदा धर्म, अर्थ और कामका सेवन लिये कुछ करामात दिखाकर उसने मुझे अपने करता तथा व्यापारके काममें कभी किसीको धोखा नहीं मायाजालमें फंसाकर ठग लिया। उसकी करतूतें देखकर देता था। ब्राह्मणलोग जब यज्ञ करते, उस समय उन्हें उसके प्रति मेरा विश्वास बढ़ गया और रसवाद-चाँदी, बिना माँगे ही धन देता था। समयपर श्राद्ध तथा सम्पूर्ण सोना आदि बनानेके नामपर मेरा सारा धन बरबाद हो देवताओंका पूजन करता था। अनेक प्रकारके सुगन्धित गया। उस कापालिकने मुझे भ्रममें डालकर बहुत द्रव्य, बहुत-से पशु, दूध-दही, मट्ठा, गोबर, घास, दिनोंतक भटकाया। उसके लिये धन दे-देकर मैं दरिद्र हो लकड़ी, फल, मूल, नमक, जायफल, पीपल, अन्न, गया। माघका महीना आया और मैंने दस दिनोंतक सागके बीज, नाना प्रकारके वस्त्र, धातु, ईखके रससे सूर्योदयके समय महानदीमें लान किया; किन्तु बुढ़ापेके तैयार होनेवाली वस्तुएँ और अनेक प्रकारके रस बेचा कारण इससे अधिक समयतक मैं स्रानका नियम करता था। जो दूसरोंको देता था, वह तौलमें कम नहीं चलानेमें असमर्थ हो गया। इसी बीचमें मेरा पुत्र रहता था और जो औरोंसे लेता, वह अधिक नहीं होता देशान्तरमें चला गया। घोड़े मर गये। खेती नष्ट हो गयी था। जिन रसोंके बेचनेसे पाप होता है, उनको छोड़कर और बेटेने वेश्या रख ली। फिर भी भाई-बन्धु यह अन्य रसोंको बेचा करता था। बेचनेमें छल-कपटसे सोचकर कि यह बेचारा बूढ़ा, धर्मात्मा और पुण्यवान् है, काम नहीं लेता था। जो मनुष्य साधु पुरुषोंको व्यापारमें धर्मक ही उद्देश्यसे मुझे कुछ सूखा अन्न और भात दे दिया ठगता है, वह घोर नरकमें पड़ता है तथा उसका धन भी करते थे। अब मैं अपना धर्म बेचकर कुटुम्बका पालननष्ट हो जाता है। मैं सब देवताओं, ब्राह्मणों तथा पोषण करने लगा, केवल माघस्रानके फलको नहीं बेच गौओंकी प्रतिदिन सेवा करता और पाखण्डी लोगोंसे दूर सका। एक दिन जिद्धाकी लोलुपताके कारण दूसरेके रहता था। ब्रह्मन् ! किसी भी प्राणीसे मन, वाणी और घरपर खूब गलेतक हँसकर मिठाई खा ली। इससे क्रियाद्वारा ईर्ष्या किये बिना ही जो जीविका चलायी जाती अजीर्ण हो गया। अजीर्णसे अतिसारकी बीमारी हुई और है, वही परम धर्म है। मैं ऐसी ही जीविकासे जीवन- उससे मेरी मृत्यु हो गयी। केवल माघनानके प्रभावसे मैं निर्वाह करता था।
एक मन्वन्तरतक स्वर्गमें देवराज इन्द्रके पास रहा और इस प्रकार धर्मके मार्गसे चलकर मैंने एक करोड़ पुण्यकी समाप्ति हो जानेपर हाथीकी योनिमें उत्पन्न हुआ।
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उत्तरखण्ड]
• मग पुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका द्वार . ...................................................... जो लोग धर्म बेचते हैं, वे हाथी ही होते हैं। विप्रवर ! भगवन् ! अत्यन्त घोर और अग्निके समान तेजस्वी इस समय आपने हाथीकी योनिसे भी मेरा उद्धार कर कालरूप मृत्यु तथा बहुत-से रोग आपके पास सेवामें दिया। मुझे स्वर्गकी प्राप्ति होनेके लिये आपने पुण्यदान उपस्थित रहते हैं। आपको नमस्कार है। किया है। मुनीश्वर ! मैं कृतार्थ हो गया, कृतार्थ हो गया, आप भयानक मारी और अत्यन्त भयङ्कर महामारीके कृतार्थ हो गया। आपको नमस्कार है, नमस्कार है, साथ रहते हैं । पापिष्ठोंके लिये आपका ऐसा ही स्वरूप है। नमस्कार है।
आपको बारम्बार नमस्कार है। __यों कहकर वह स्वर्गको चला गया। सच है, वास्तवमें तो आपका मुख खिले हुए कमलके सत्पुरुषोंका सङ्ग उत्तम गति प्रदान करनेवाला होता है। समान प्रसन्नतासे पूर्ण है। आपके नेत्रोंमें करुणा भरी है। इस प्रकार महानुभाव मृगशृङ्ग वैश्यको हाथीकी योनिसे आप पितृस्वरूप है। आपको नमस्कार है। आपके केश मुक्त करके स्वयं गलेतक पानीमें खड़े हो सूर्यनन्दन अत्यन्त कोमल हैं और नेत्र भौहोंकी रेखासे सुशोभित यमराजकी स्तुति करने लगे
है। मुखके ऊपर मूंछे बड़ी सुन्दर जान पड़ती हैं। पके _ ॐ यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, हुए बिम्बफलके समान लाल ओठ आपकी शोभा बढ़ाते सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दन, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, हैं। आप दो भुजाओंसे युक्त, सुवर्णके समान कान्तिमान् चित्र और चित्रगुप्त-इन चौदह नामोंसे पुकारे जानेवाले और सदा प्रसत्र रहनेवाले हैं। आपको नमस्कार है। भगवान् यमराजको नमस्कार है।
आप सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित, रत्नमय जिनका मुख दाढ़ोंके कारण विकराल प्रतीत होता सिंहासनपर विराजमान, श्वेत माला और श्वेत वस्त्र धारण है और टेढ़ी भौहोंसे युक्त आँखें क्रूरतापूर्ण जान पड़ती हैं, करनेवाले तथा श्वेत छत्रसे सुशोभित हैं। आपके दोनों जिनके शरीरमें ऊपरकी ओर उठे हुए बड़े-बड़े रोम है ओर दो दिव्य नारियाँ खड़ी होकर हाथोंमें सुन्दर चैवर तथा ओठ भी बहुत लम्बे दिखायी देते हैं, ऐसे आप लिये डुला रही हैं। आपको नमस्कार है। यमराजको नमस्कार है।
गलेके रत्नमय हारसे आप बड़े सुन्दर जान पड़ते आपके अनेक भुजाएँ हैं, अनन्त नख हैं तथा हैं। रत्नमय कुण्डल आपके कानोंकी शोभा बढ़ाते हैं। कलगिरिके समान काला शरीर और भयङ्कर रूप है। आपके हार और भुजवंद भी रत्नके ही है तथा आपके आपको नमस्कार है।
किरीटमें नाना प्रकारके रत्न जड़े हुए हैं। आपकी भगवन् ! आपका वेष बड़ा भयानक है। आप कृपादृष्टि सीमाका अतिक्रमण कर जाती है। आप पापियोंको भय देते, कालदण्डसे धमकाते और सब मित्रभावसे सबको देखते हैं। सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ प्रकारके अस्त्र-शस्त्र धारण करते हैं। बहुत बड़ा भैंसा आपको समृद्धिशाली बनाती हैं। आप सौभाग्यके परम आपका वाहन है। आपके नेत्र दहकते हुए अंगारोंके आश्रय हैं तथा धर्म और अधर्मके ज्ञान में निपुण सभासद् समान जान पड़ते हैं। आप महान् है। मेरु पर्वतके आपकी उपासना करते हैं। आपको नमस्कार है। समान आपका विशाल रूप है। आप लाल माला और संयमनीपुरीकी सभामें शुभ्र रूपवाले धर्म, शुभवस्त्र धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। लक्षण सत्य, चन्द्रमाके समान मनोहर रूपधारी शम,
कल्पान्तके मेघोंकी भांति जिनकी गम्भीर गर्जना दूधके समान उज्ज्वल दम तथा वर्णाश्रमजनित विशुद्ध और प्रलयकालीन वायुके समान प्रचण्ड वेग है, जो आचार आपके पास मूर्तिमान् होकर सेवामें उपस्थित समुद्रको भी पी जाते, सम्पूर्ण जगत्को ग्रास बना लेते, रहते हैं; आपको नमस्कार है। पर्वतोंको भी चबा जाते और मुखसे आग उगलते हैं, उन आप साधुओंपर सदा नेह रखते, वाणीसे उनमें भगवान् यमराजको नमस्कार है।
प्राणोंका सञ्चार करते, वचनोंसे सन्तोष देते और गुणोंसे
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• अर्जयस्व वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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उन्हें सर्वस्व समर्पण करते हैं। सज्जन पुरुषोंपर सदा भौहोके कारण आपका मुख वक्र जान पड़ता है। आपके सन्तुष्ट रहनेवाले आप धर्मराजको बारम्बार नमस्कार है। शरीरका रंग उस समय नीला हो जाता है तथा आप
जो सबके काल होते हुए भी शुभकर्म करनेवाले अपने निर्दयी दूतोके द्वारा शास्त्रोक्त नियमोंका उल्लङ्घन पुरुषोंपर कृपा करते हैं, जो पुण्यात्माओंके हितैषी, करनेवाले पापियोंको खूब कड़ाईके साथ धमकाते हैं। सत्पुरुषोंके संगी, संयमनीपुरीके स्वामी, धर्मात्मा तथा आपको सर्वदा नमस्कार है। धर्मका अनुष्ठान करनेवालोंके प्रिय हैं, उन धर्मराजको जिन्होंने पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान किया है तथा जो नमस्कार है।
सदा ही अपने कर्मोक पालनमें संलग्न रहे हैं, ऐसे जिसकी पीठपर लटके हुए घण्टोंकी ध्वनिसे सारो लोगोंको दूरसे ही विमानपर आते देख आप दोनों हाथ दिशाएँ गूंज उठती है तथा जो ऊँचे-ऊँचे सींगों और जोड़े आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हैं। आपके नेत्र फुकारोंके कारण अत्यन्त भीषण प्रतीत होता है, ऐसे कमलके समान विशाल हैं तथा आप माता संज्ञाके महान् भैसेपर जो विराजमान रहते हैं तथा जिनकी आठ सुयोग्य पुत्र हैं। आपको मेरा प्रणाम है। बड़ी-बड़ी भुजाएँ क्रमशः नाराच, शक्ति, मुसल, खग, जो सम्पूर्ण विश्वसे उत्कृष्ट, निर्मल, विद्वान्, जगत्के गदा, त्रिशूल, पाश और अङ्कशसे सुशोभित है, उन पालक, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवके प्रिय, सबके शुभाशुभ भगवान् यमराजको प्रणाम है।
कोंक उत्तम साक्षी तथा समस्त संसारको शरण देनेवाले __जो चौदह सत्पुरुषोंके साथ बैठकर जीवोंके हैं, उन भगवान् यमको नमस्कार है। शुभाशुभ कर्मोका भलीभांति विचार करते हैं, साक्षियों- वसिष्ठजी कहते हैं-इस प्रकार स्तुति करके द्वारा अनुमोदन कराकर उन्हें दण्ड देते हैं तथा सम्पूर्ण मृगशृङ्गने उदारता और करुणाके भण्डार तथा दक्षिण विश्वको शान्त रखते हैं, उन दक्षिण दिशाके स्वामी दिशाके स्वामी भगवान् यमका ध्यान करते हुए उन्हें शान्तस्वरूप यमराजको नमस्कार है।
साष्टाङ्ग प्रणाम किया। इससे भगवान् यमको बड़ी जो कल्याणस्वरूप, भयहारी, शौच-संतोष आदि प्रसत्रता हुई। वे महान् तेजस्वी रूप धारण किये मुनिके नियमोंमें स्थित मनुष्योंके नेत्रोंको प्रिय लगनेवाले, सामने प्रकट हुए। उस समय उनका मुखकमल सावर्णि, शनैश्चर और वैवस्वत मनु-इन तीनोंकी प्रसत्रतासे खिला हुआ था और किरीट, हार, केयूर तथा माताके सौतेले पुत्र, विवस्वान् (सूर्यदेव) के आत्मज मणिमय कुण्डल धारण करनेवाले अनेक सेवक चारों तथा सदाचारी मनुष्योंको वर देनेवाले हैं, उन भगवान् ओरसे उनकी सेवामें उपस्थित थे। यमको नमस्कार है।
यमराजने कहा-मुने ! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे भगवन् ! जब आपके दूत पापी जीवोंको दृढ़ता- बहुत सन्तुष्ट हूँ और तुम्हें वर देनेके लिये यहाँ आया हूँ। पूर्वक बाँधकर आपके सामने उपस्थित करते हैं, तब तुम मुझसे मनोवाञ्छित वर माँगो । मैं तुम्हें अभीष्ट वस्तु आप उन्हें यह आदेश देते हैं कि 'इन पापियोंको अनेक प्रदान करूंगा। घोर नरकोंमें गिराकर छेद डालो, टुकड़े-टुकड़े कर दो, उनकी बात सुनकर मुनीश्वर मृगशङ्ग उठकर खड़ जला दो, सुखा डालो, पीस दो।' इस प्रकारकी बातें हो गये। यमराजको सामने उपस्थित देख उन्हें बड़ा कहते हुए यमुनाजीके ज्येष्ठ भ्राता आप यमराजको मेरा विस्मय हुआ। उनके नेत्र प्रसत्रतासे खिल उठे। प्रणाम है।
कृतान्तको पाकर उन्होंने अपनेको सफलमनोरथ समझा जब आप अन्तकरूप धारण करते हैं, उस समय और हाथ जोड़कर कहा-'भगवन् ! इन कन्याओंको आपके गोलाकार नेत्र किनारे-किनारेसे लाल दिखायी प्राणदान दीजिये। मैं आपसे बारम्बार यही याचना करता देते हैं। आप भीमरूप होकर भय प्रदान करते हैं। टेढ़ी हूँ।' मुनिका कथन सुनकर धर्मराजने अदृश्यरूपसे उन
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उत्तरखण्ड
• यमलोकसे लौटी हुई कन्याओके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन •
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ब्राह्मण-कन्याओंको उनके शरीरमें भेज दिया। फिर तो अन्तर्धान हो गये। इधर ब्राह्मण भी यमराजसे वर पाकर सोकर उठे हुएकी भाँति वे कन्याएँ उठ खड़ी हुई। अपनी बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमको लौटे । जो मानव बालिकाओको सचेत होते देख माताओंको बड़ा हर्ष प्रतिदिन यमराजकी इस स्तुतिका पाठ करेगा, उसे कभी हुआ। कन्याएँ पहलेकी ही भांति अपना-अपना वस्त्र यम-यातना नहीं भोगनी पड़ेगी, उसके ऊपर यमराज पहनकर माताओंको बुला उनके साथ अपने घर गयीं। प्रसन्न होंगे, उसकी सन्ततिका कभी अपमृत्युसे पराभव न
वसिष्ठजी कहते हैं-इस प्रकार विप्रवर होगा, उसे इस लोक और परलोकमें भी लक्ष्मीकी प्राप्ति मृगङ्गको वरदान दे यम देवता अपने पार्षदोंके साथ होगी तथा उसे कभी रोगोंका शिकार नहीं होना पड़ेगा।
यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
राजा दिलीपने पूछा-मुने! यमलोकसे लोगोंके सैकड़ों, हजारों विचित्र-विचित्र विमान वहाँ लौटकर आयी हुई उन साध्वी कन्याओंने अपनी माताओं शोभा पाते हैं। इन पुण्यात्मा जीवोंको विमानपर बैठकर और बन्धुओंसे वहाँका वृत्तान्त कैसा बतलाया? आते देख सूर्यनन्दन यम अपने आसनसे उठकर खड़े हो पापियोंकी यातना और पुण्यात्माओंकी गतिके सम्बन्धमे जाते हैं और अपने पार्षदोंके साथ जाकर उन सबको क्या कहा? मैं पुण्य और पापके शुभ और अशुभ अगवानी करते हैं। फिर स्वागतपूर्वक आसन दे, फलोको विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। पाद्य-अर्घ्य आदि निवेदन कर प्रिय वचनोंमें कहते हैं
वसिष्ठजी बोले-राजन् ! कन्याओने अपनी 'आपलोग अपने आत्माका कल्याण करनेवाले महात्मा माताओं और बन्धुओंसे पुण्य-पापके शुभाशुभ फलोंके हैं, अतएव धन्य हैं; क्योंकि आपने दिव्य सुखकी प्राप्तिके विषयमें जो कुछ कहा था, वह ज्यों-का-त्यों तुम्हें लिये पुण्यका उपार्जन किया है। अतः आप इस बतलाता हूँ।
विमानपर बैठकर स्वर्गको जाइये। स्वर्गलोककी कहीं कन्याओंने कहा-माताओ ! यमलोक बड़ा ही तुलना नहीं है, वह सब प्रकारके दिव्य भोगोसे परिपूर्ण घोर और भय उत्पन्न करनेवाला है। वहाँ सर्वदा चारों है।' इस प्रकार उनकी अनुमति ले पुण्यात्मा पुरुष प्रकारके जीवोंको विवश होकर जाना पड़ता है। गर्भमें स्वर्गलोकमें जाते हैं। रहनेवाले अथवा जन्म लेनेवाले शिशु, बालक, तरुण, माताओ ! तथा बन्धुजन ! अब हम वहाँक पापी अधेड़, बूढ़े, स्त्री, पुरुष और नपुंसक-सभी तरहके जीवोंके कष्टका वर्णन करती हैं, आप सब लोग धैर्य जीवोंको वहाँ जाना होता है। वहाँ चित्रगुप्त आदि धारण करके सुनें। जो क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाले और समदर्शी एवं मध्यस्थ सत्पुरुष मिलकर देहधारियोंके दान न देनेवाले पापी जीव है, वे वहाँ यमराजके घरमें शुभ और अशुभ फलका विचार करते हैं। इस लोकमें अत्यन्त भयंकर दक्षिणमार्गसे जाते हैं। यमराजका नगर जो शुभ कर्म करनेवाले, कोमलहृदय तथा दयालु पुरुष अनेक रूपोंमें स्थित है, उसका विस्तार चारों ओरसे हैं, वे सौम्य मार्गसे यमलोकमें जाते हैं। नाना प्रकारके छियासी हजार योजन समझना चाहिये। पुण्यकर्म दान और व्रतोंमें संलग्न रहनेवाले स्त्री-पुरुषोंसे सूर्यनन्दन करनेवाले पुरुषोंको वह बहुत निकट-सा जान पड़ता है, यमकी नगरी भरी है। माघस्रान करनेवाले लोग वहाँ किन्तु भयंकर मार्गसे जानेवाले पापी जीवोंके लिये वह विशेषरूपसे शोभित होते हैं। धर्मराज उनका अधिक अत्यन्त दूर है। वह मार्ग कहीं तो तीखे काँटोंसे भरा सम्मान करते हैं। वहां उनके लिये सब प्रकारकी होता है और कहीं रेत एवं कंकड़ोंसे । कहीं पत्थरोके ऐसे भोगसामग्री सुलभ होती है । माघस्नानमें मन लगानेवाले टुकड़े बिछे होते हैं, जिनका किनारा छुरोको धारके समान
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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . ...
[संक्षिप्त पद्मपुराण
तीखा होता है। कहीं बहुत दूरतक कीचड़-ही-कीचड़ और सब प्रकारके दुःखोका आश्रय है। ऐसे ही मार्गसे भरी रहती है। कहीं घातक अङ्कर उगे होते है और यमकी आज्ञाका पालन करनेवाले अत्यन्त भयङ्कर कहीं-कहीं लोहेकी सुईके समान नुकीले कुशोसे सारा यमदूतोंद्वारा समस्त पाप-परायण मूढ़ जीव बलपूर्वक मार्ग ढका होता है। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं बीच लाये जाते हैं। रास्तेमें वृक्षोंसे भरे हुए पर्वत होते हैं, जो किनारेपर भारी वे एकाकी, पराधीन तथा मित्र और बन्धुजल-प्रपातके कारण अत्यन्त दुर्गम जान पड़ते हैं। कहीं बान्धवोंसे रहित होते हैं। अपने कर्मोके लिये बारम्बार रास्तेपर दहकते हुए अंगारे बिछे रहते हैं। ऐसे मार्गसे शोक करते और रोते हैं। उनका आकार प्रेत-जैसा होता पापी जीवोंको दुःखित होकर जाना पड़ता है। कहीं है। उनके शरीरपर वस्त्र नहीं रहता। कण्ठ, ओठ और ऊँचे-नीचे गड्ढे, कहीं फिसला देनेवाले चिकने देले, तालू सूखे होते हैं। वे शरीरसे दुर्बल और भयभीत होते कहीं खूब तपी हई बालू और कहीं तीखी कीलोंसे वह हैं तथा क्षधाकी आगसे जलते रहते हैं। बलोन्मत्त मार्ग व्याप्त रहता है। कहीं-कहीं अनेक शाखाओंमें फैले यमदूत किन्हीं-किन्हीं पापी मनुष्योंको चित सुलाकर हुए सैकड़ों वन और दुःखदायी अन्धकार हैं, जहाँ कोई उनके पैरोंमें साँकल बाँध देते हैं और उन्हें घसीटते हुए सहारा देनेवाला भी नहीं रहता । कहीं तपे हुए लोहेके खींचते हैं। कितने ही दूसरे जीव ललाटमें अङ्कश चुभाये काटेदार वृक्ष, कहीं दावानल, कहीं तपी हुई शिला और जानेके कारण क्लेश भोगते हैं। कितनोंकी यौह पीठको कहीं हिमसे वह मार्ग आच्छादित रहता है। कहीं ऐसी ओर घुमाकर बांध दी जाती और उनके हाथोंमें कील बालू भरी रहती है, जिसमें चलनेवाला जीव कण्ठतक ठोक दी जाती हैसाथ ही पैरोंमें बेड़ी भी पड़ी होती है। भैंस जाता है और बालू कानके पासतक आ जाती है। इस दशामें भूखका कष्ट सहन करते हुए उन्हें जाना कहीं गरम जल और कहीं कंडोंकी आगसे यमलोकका पड़ता है। कुछ दूसरे जीवोंके गलेमें रस्सी बाँधकर उन्हें मार्ग व्याप्त रहता है । कहीं धूल मिली हुई प्रचण्ड वायुका पशुओंकी भाँति घसीटा जाता है और वे अत्यन्त दुःख बवंडर उठता है और कहीं बड़े-बड़े पत्थरोंको वर्षा होती उठाते रहते हैं। कितने ही दुष्ट मनुष्योंकी जिह्वामें रस्सी है। उन सबकी पीड़ा सहते हए पापी जीव यमलोकमें बाँधकर उन्हें खींचा जाता है। किन्हींकी कमरमें भी रस्सी जाते हैं। रेतको भारी वृष्टि से सारा अङ्ग भर जानेके बांधी जाती और उन्हें गरदनियाँ देकर इधर-उधर ढकेला कारण पापी जीव रोते है। महान् मेघोंकी भयङ्कर जाता है। यमदूत किन्हींकी नाक बाँधकर खींचते हैं और गर्जनासे वे बारम्बार थर्रा उठते हैं। कहीं तीखे अस्त्र- किन्हींके गाल तथा ओठ छेदकर उनमें रस्सी डाल देते शस्त्रोंकी वर्षा होती है, जिससे उनके सारे शरीरमें घाव और उन्हें खींचकर ले जाते हैं। तपे हुए सींकचोंसे कितने हो जाते हैं। तत्पश्चात् उनके ऊपर नमक मिले हुए ही पापियोंके पेट छिदे होते हैं। कुछ लोगोंके कानों और पानीको मोटी धाराएँ बरसायी जाती है। इस प्रकार कष्ट ठोढ़ियोंमें छेद करके उनमें रस्सी डालकर खींचा जाता सहन करते हुए उन्हें जाना पड़ता है। कहीं अत्यन्त ठंडी, है। किन्हींके पैरों और हाथोंके अग्रभाग काट लिये जाते कहीं रूखी और कहीं कठोर वायुका सब ओरसे आघात हैं। किन्हींक कण्ठ, ओठ और तालुओंमें छेद कर दिया सहते हुए पापी जीव सूखते और रोते हैं। इस प्रकार वह जाता है। किन्हीं-किन्हींक अण्डकोश कट जाते हैं और मार्ग बड़ा ही भयङ्कर है। वहाँ राहखर्च नहीं मिलता। कुछ लोगोंके समस्त अङ्गोंकी सन्धियाँ काट दी जाती हैं। कोई सहारा देनेवाला नहीं रहता। वह सब ओरसे दुर्गम किन्हींको भालोसे छेदा जाता है, कुछ याणोंसे घायल
और निर्जन है। वहाँ और कोई मार्ग आकर नहीं मिला किये जाते हैं और कुछ लोगोंको मुद्रों तथा लोहेके है। वह बहुत बड़ा और आश्रयरहित है। वहाँ इंडोसे बारम्बार पीटा जाता है और वे निराश्रय होकर अन्धकार-ही-अन्धकार भरा रहता है। वह महान् कष्टप्रद चीखते-चिल्लाते हुए इधर-उधर भागा करते हैं।
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उत्तरखण्ड ]
. यमलोकसे लौटी हुई कन्याओके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोका वर्णन .
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प्रज्वलित अग्निके समान कान्तिवाले भाँति-भांतिके बलपूर्वक अन्यायसे जो तुमने प्रजाजनोंको दण्ड दिया भयङ्कर आरों और भिन्दिपालोंसे उन्हें विदीर्ण किया जाता है, इस समय उसका फल भोगो। कहाँ है वह राज्य है और वे पापी जीव पीब तथा रक्त बहाते हुए घावसे और कहाँ गयी वह रानी, जिसके लिये तुमने पापकर्म पीड़ित होते और कीड़ोंसे डंसे जाते हैं। इस प्रकार उन्हें किया था? अब तो सबको छोड़कर तुम अकेले ही विवश करके यमलोकमें ले जाया जाता है। वे भूख- यहाँ खड़े हो। यहाँ वह बल नहीं दिखायी देता, जिससे प्याससे पीड़ित होकर अन्न और जल माँगते हैं, धूपसे तुमने प्रजाओका विध्वंस किया। इस समय यमदूतोंकी बचनेको छायाके लिये प्रार्थना करते हैं और शीतसे मार पड़नेपर कैसा लग रहा है?' इस तरह नाना व्यथित होकर तापनेके लिये अग्नि मांगते हैं। जिन्होंने प्रकारके वचनोंद्वारा यमराजके उलाहना देनेपर वे उक्त वस्तुओका दान नहीं किया होता, वे उस पाथेयरहित राजा अपने-अपने कर्मोको सोचते हुए चुपचाप खड़े रह पथपर इसी प्रकार कष्ट सहते हुए यात्रा करते हैं। इस जाते हैं। प्रकार अत्यन्त दुःखमय मार्गसे चलकर जब वे प्रेत- इस प्रकार राजाओसे धर्मकी बात कहकर धर्मराज लोकमें पहुँचते हैं, तब दूत उन्हें यमराजके आगे उनके पापपङ्ककी शुद्धिके लिये अपने दूतोंसे इस प्रकार उपस्थित करते हैं। उस समय वे पापी जीव यमराजको कहते हैं-'ओ चण्ड ! ओ महाचण्ड !! तुम इन भयानक रूपमें देखते हैं। वहाँ असंख्यों भयानक राजाओंको पकड़कर ले जाओ और क्रमशः नरककी यमदूत, जो काजलके समान काले, महान् वीर और आगमें डालकर इन्हें पापोंसे शुद्ध करो।' तब वे दूत अत्यन्त क्रूर होते हैं, हाथोंमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र शीघ्र ही उठकर राजाओंके पैर पकड़ लेते हैं और उन्हें लिये मौजूद रहते है। ऐसे ही परिवारके साथ बैठे हुए बड़े वेगसे आकाशमें घुमाकर ऊपर फेंकते हैं। तत्पश्चात् यमराज तथा चित्रगुप्तको पापी जीव अत्यन्त भयङ्कर उन्हें पूरा बल लगाकर तपायी हुई शिलापर बड़े वेगसे रूपमें देखते हैं।
पटकते हैं, मानो किसी महान् वृक्षपर वनसे प्रहार करते उस समय भगवान् यमराज और चित्रगुप्त उन हों। शिलापर गिरनेसे उनका शरीर चूर-चूर हो जाता है, पापियोंको धर्मयुक्त वाक्योंसे समझाते हुए बड़े रक्तके स्रोत बहने लगते हैं और जीव अचेत एवं निश्चेष्ट जोर-जोरसे फटकारते हैं। वे कहते है-ओ खोटे कर्म हो जाता है। तदनन्तर वायुका स्पर्श होनेपर वह करनेवाले पापियो ! तुमने दूसरोके धन हड़प लिये हैं धीरे-धीरे फिर साँस लेने लगता है। उसके बाद पापकी
और सुन्दर रूपके घमंडमें आकर परायी खियोंके साथ शुद्धिके लिये उसे नरकके समुद्र में डाल दिया जाता है। व्यभिचार किया है। मनुष्य अपने-आप जो कुछ कर्म इस पृथ्वीके नीचे नरककी अट्ठाईस कोटियाँ है। वे करता है, उसे स्वयं ही भोगता है; फिर तुमने अपने ही सातवें तलके अन्तमें भयङ्कर अन्धकारके भीतर स्थित भोगनेके लिये पापकर्म क्यों किया? और अब अपने हैं। उनमें पहली कोटिका नाम घोरा है। उसके नीचे कौकी आगमें जलकर इस समय तुमलोग संतप्त क्यों सुघोराकी स्थिति है। तीसरी अतिघोरा, चौथी महाघोरा हो रहे हो? भोगो अपने उन कर्मोको। इसमें दूसरे और पाँचवीं कोटि घोररूपा है। छठीका नाम तरलतारा, किसीका दोष नहीं है। ये राजालोग भी अपने भयंकर सातवींका भयानका, आठवींका कालरात्रि और नवींका कर्मोसे प्रेरित हो मेरे पास आये हैं; इन्हें अपनी खोटी भयोत्कटा है। उसके नीचे दसवीं कोटि चण्डा है। उसके बुद्धि और बलका बड़ा घमंड था। अरे, ओ दुराचारी भी नीचे महाचण्डा है। बारहवींका नाम चण्डकोलाहला राजाओ! तुमलोग प्रजाका सर्वनाश करनेवाले हो। है। उसके बाद प्रचण्डा, नरनायिका, कराला, विकराला अरे, थोड़े समयतक रहनेवाले राज्यके लिये तुमने और वना है। [तीन अन्य नरकोंके साथ] वज्राकी पाप क्यों किया? राज्यके लोभमें पड़कर मोहवश बीसवीं संख्या है। इनके सिवा त्रिकोणा, पञ्चकोणा,
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अर्चयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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सुदीर्घा, परिवर्तुला, सप्तभौमा, अष्टभौमा, दीप्ता और माया- ये आठ और हैं। इस प्रकार नरककी कुल अट्ठाईस कोटियाँ बतायी गयी हैं।
उपर्युक्त कोटियोंमेंसे प्रत्येकके पाँच-पाँच नायक हैं। उनके नाम सुनो। उनमें पहला रौरव है, जहाँ देहधारी जीव रोते हैं। दूसरा महारौरव हैं, जिसकी पीड़ाओंसे बड़े-बड़े जीव भी रो देते हैं। तीसरा तम, चौथा शीत और पाँचवाँ उष्ण है। ये प्रथम कोटिके पाँच नायक माने गये हैं। इनके सिवा सुघोर, सुतम, तीक्ष्ण, पद्म, सञ्जीवन, शठ, महामाय, अतिलोम, सुभीम, कटङ्कट तीव्रवेग, कराल, विकराल, प्रकम्पन, महापद्म, सुचक्र, कालसूत्र, प्रतर्दन, सूचीमुख, सुनेमि, खादक, सुप्रदीपक, कुम्भीपाक, सुपाक, अतिदारुणकूप, अङ्गारराशि, भवन, अस्क्पूयहद, विरामय, तुण्डशकुनि, महासंवर्तक, ऋतु, तप्तजतु, पङ्कलेप, पूतिमांस, द्रव, त्रपु उच्छ्वास, निरुच्छ्वास, सुदीर्घ, कूटशाल्मलि दुरिष्ट, सुमहानाद, प्रभाव, सुप्रभावन, ऋक्ष, मेष, वृष, शल्य, सिंहानन व्याघ्रानन, मृगानन, सूकरानन, श्वानन, महिषानन, वृकानन, मेषवरानन, ग्राह, कुम्भीर, नक्र, सर्प, कूर्म, वायस, गृध, उलूक, जलूका, शार्दूल, कपि, कर्कट, गण्ड, पूतिवक्त्र, रक्ताक्ष, पूतिमृत्तिक, कणाधूम, तुषात्रि, कृमिनिचय, अमेय, अप्रतिष्ठ, रुधिरान्न, वभोजन, लालाभक्ष, आत्मभक्ष, सर्वभक्ष, सुदारुण, सङ्कष्ट, सुविलास, सुकट, संकट, कट, पुरीष, कटाह, कष्टदायिनी वैतरणी नदी, सुतप्त लोहशङ्कु, अयः शङ्कु, प्रपूरण, घोर, असितालवन, अस्थिभङ्ग, प्रपीड़क नीलयन्त्र, अतसीयन्त्र, इक्षुयन्त्र, कूट, अंशप्रमर्दन, महाचूर्णी, सुचूर्णी, तप्तलोहमयी शिला, क्षुरधाराभपर्वत, मलपर्वत, मूत्रकूप, विष्ठाकूप, अन्धकूप, पूयकूप, शातन, मुसलोलूखल, यन्त्रशिला, शकटलाङ्गल, तालपत्रासिवन, महामशकमण्डप, सम्मोहन, अतिभङ्ग, तप्तशूल, अयोगुड, बहुदुःख, महादुःख, कश्मल, शमल, हालाहल, विरूप, भीमरूप, भीषण, एकपाद द्विपाद, तीव्र तथा अवीचि यह अवीचि अन्तिम नरक है। इस प्रकार ये क्रमशः पाँच-पाँचके अट्ठाईस समुदाय
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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माने गये हैं। एक-एक समुदाय एक-एक कोटिका नायक है।
रौरवसे लेकर अवीचितक कुल एक सौ चालीस नरक माने गये हैं। इन सबमें पापी मनुष्य अपने-अपने कर्मोंक अनुसार डाले जाते हैं और जबतक भाँतिभौतिकी यातनाओंद्वारा उनके कर्मोंका भोग समाप्त नहीं हो जाता, तबतक वे उसीमें पड़े रहते हैं। जैसे सुवर्ण आदि धातु जबतक उनकी मैल न जल जाय तबतक आगमें तपाये जाते हैं, उसी प्रकार पापी पुरुष पापक्षय होनेतक नरकोंकी आगमें शुद्ध किये जाते हैं। इस प्रकार फ्रेश सहकर जब ये प्रायः शुद्ध हो जाते हैं, तब शेष कर्मो के अनुसार पुनः इस पृथ्वीपर आकर जन्म ग्रहण करते हैं। तृण और झाड़ी आदिके भेदसे नाना प्रकारके स्थावर होकर वहाँके दुःख भोगनेके पश्चात् पापी जीव कीड़ोंकी योनिमें जन्म लेते हैं। फिर कीटयोनिसे निकलकर क्रमशः पक्षी होते हैं। पक्षीरूपसे कष्ट भोगकर मृगयोनिमें उत्पन्न होते हैं वहाँके दुःख भोगकर अन्य पशुयोनिमें जन्म लेते हैं। फिर क्रमशः गोयोनिमें आकर मरनेके पश्चात् मनुष्य होते हैं।
माताओ ! हमने यमलोकमें इतना ही देखा है। वहाँ पापीको बड़ी भयानक यातनाएँ होती हैं। वहाँ ऐसे-ऐसे नरक हैं, जो न कभी देखे गये थे और न कभी सुने ही गये थे। वह सब हमलोग न तो जान सकती हैं और न देख ही सकती हैं।
माताएँ बोलीं- बस, बस, इतना ही बहुत हुआ। अब रहने दो। इन नरक यातनाओंको सुनकर हमारे सारे अङ्ग शिथिल हो गये हैं। हृदयमें भय छा गया है। बारम्बार उनकी याद आ जानेसे हमारा मन सुध-बुध खो बैठता है। आन्तरिक भयके उद्रेकसे हमलोगोंके शरीरमें रोमाञ्च हो आया है।
कन्याओंने कहा- माताओ ! इस परम पवित्र भारतवर्षमें जो हमें जन्म मिला है, यह अत्यन्त दुर्लभ है। इसमें भी हजार-हजार जन्म लेनेके बाद पुण्यराशिके सञ्चयसे कदाचित् कभी जीव मनुष्ययोनिमें जन्म पाता है: परन्तु जो माघस्नानमें तत्पर रहनेवाले हैं, उनके लिये कुछ
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उत्तरखण्ड ] .
. यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन .
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भी दुर्लभ नहीं है। उन्हें यहाँ ही परम मोक्ष मिल जाता यमलोकका दर्शन नहीं करते। है और पर्याप्त भोगसामग्री भी सुलभ होती है। बान्धवो ! यदि तुमलोग संसार-बन्धनसे छुटकारा भारतवर्षको कर्मभूमि कहा गया है। अन्य जितनी पाना चाहते हो तो सच्चिदानन्दस्वरूप परमदेव भूमियाँ है, वे भोगभूमि मानी जाती हैं। यहाँ यति तपस्या श्रीनारायणकी आराधना करो। यह चराचर जगत्
और याजक यज्ञ करते है तथा यहीं पारलौकिक सुखके आपलोगोंकी भावना-संकल्पसे ही निर्मित है, इसे लिये श्रद्धापूर्वक दान दिये जाते हैं। कितने ही धन्य पुरुष बिजलीकी तरह चञ्चल-क्षणभङ्गर समझकर यही माघस्रान करते तथा तपस्या करके अपने कर्मोक श्रीजनार्दनका पूजन करो। अहंकार विद्युत्को रेखाके अनुसार ब्रह्मा, इन्द्र, देवता और मरुद्गणोंका पद प्राप्त समान व्यर्थ है, इसे कभी पास न आने दो। शरीर मृत्युसे करते हैं। यह भारतवर्ष सभी देशोंसे श्रेष्ठ माना गया है; जुड़ा हुआ है, जीवन भी चञ्चल है, धन राजा आदिसे क्योंकि यहीं मनुष्य धर्म तथा स्वर्ग और मोक्षको सिद्धि प्राप्त होनेवाली बाधाओंसे परिपूर्ण है तथा सम्पत्तियाँ कर सकते है। इस पवित्र भारतदेशमें क्षणभङ्गर मानव- क्षणभङ्गर हैं। माताओ ! क्या तुम नहीं जानतीं, आधी जीवनको पाकर जो अपने आत्माका कल्याण नहीं आयु तो नींदमें चली जाती है? कुछ आयु भोजन करता, उसने अपने-आपको ठग लिया। मनुष्योंमें भी आदिमें समाप्त हो जाती है। कुछ बालकपनमें, कुछ अत्यन्त दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर जो अपना कल्याण बुढ़ापेमें और कुछ विषय-भोगोंके सेवनमें ही बीत जाती नहीं करता, उससे बढ़कर मूर्ख कौन होगा। कितने ही है; फिर कितनी आयु लेकर तुम धर्म करोगी। बचपन कालके बाद जीव अत्यन्त दुर्लभ मानवजीवन प्राप्त और बुढ़ापेमें तो भगवान्के पूजनका अवसर नहीं प्राप्त करता है; इसे पाकर ऐसा करना चाहिये, जिससे कभी होता; अतः इसी अवस्थामें अहङ्कारशून्य होकर धर्म नरकमें न जाना पड़े। देवतालोग भी यह अभिलाषा करो। संसाररूपी भयङ्कर गड्डेमें गिरकर नष्ट न हो करते हैं कि हमलोग कब भारतवर्ष में जन्म लेकर जाओ। यह शरीर मृत्युका घर है तथा आपत्तियोंका माघ मासमें प्रातःकाल किसी नदी या सरोवरके जलमें सर्वश्रेष्ठ स्थान है; इतना ही नहीं, यह रोगोंका भी गोते लगायेंगे। देवता यह गीत गाते हैं कि जो लोग निवासस्थान है और मल आदिसे भी अत्यन्त दूषित देवत्वके पश्चात् स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्तिके मार्गभूत रहता है। माताओ ! फिर किसलिये इसे स्थिर समझकर भारतवर्षके भूभागमें मनुष्य-जन्म धारण करते हैं, वे तुम पाप करती हो। यह संसार निःसार है और नाना धन्य हैं। हम नहीं जानते कि स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाले प्रकारके दुःखोंसे भरा है। इसपर विश्वास नहीं करना अपने पुण्यकर्मके क्षीण होनेपर किस देशमे हमें पुनः देह चाहिये; क्योंकि एक दिन तुम्हारा निश्चय ही नाश धारण करना पड़ेगा। जो भारतवर्षमें जन्म लेकर सब होनेवाला है। बान्धवो! तुम सब लोग सुनो। हम इन्द्रियोंसे युक्त है-किसी भी इन्द्रियसे हीन नहीं हैं, वे बिलकुल सही बात बता रही है। शरीरका नाश ही मनुष्य धन्य हैं; अतः माताओ! तुम भय मत करो, बिलकुल निकट है; अतः श्रीजनार्दनका पूजन अवश्य भय मत करो। आदरपूर्वक धर्मका अनुष्ठान करो। करना चाहिये। सदा ही श्रीविष्णुकी आराधना करते जिनके पास दानरूपी राहखर्च होता है, वे यमलोकके रहो। यह मानव-जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। बन्धुओ! मार्गपर सुखसे जाते हैं; अन्यथा उस पाथेयरहित पथपर स्थावर आदि योनियोंमें अरबों-खरबों बार भटकनेके जीवको केश भोगना पड़ता है। ऐसा जानकर मनुष्य बाद किसी तरह मनुष्यका शरीर प्राप्त होता है। मनुष्य पुण्य करे और पाप छोड़ दे। पुण्यसे देवत्वकी प्राप्ति होती होनेपर भी देवताओंके पूजन और दानमें मन लगना तो है और अधर्मसे नरकमें गिरना पड़ता है। जो किश्चित् भी और भी कठिन है। माताओ ! योगबुद्धि सबसे दुर्लभ देवेश्वर भगवान् श्रीहरिकी शरणमें गये हैं, वे भयङ्कर है। जो दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर सदा ही श्रीहरिका
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• अयस्वाषीकेशी यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पयपुराण
पूजन नहीं करता, वह आप ही अपना विनाश करता है। क्या लेना है? इसलिये तुमलोग भय छोड़कर उससे बढ़कर मूर्ख कौन होगा? तुमलोग दम्भका श्रीकेशवकी आराधना करो। शालग्रामशिलाका निर्मल आचरण छोड़कर चक्रसुदर्शनधारी भगवान् विष्णुकी एवं शुद्ध चरणामृत पीओ तथा भगवान् विष्णुके दिनपूजा करो। हमलोग बारम्बार भुजाएँ उठाकर तुम्हारे एकादशीको उपवास किया करो। हितकी बात कहती हैं। सर्वथा भक्तिपूर्वक भगवान् जब सूर्य मकर-राशिपर स्थित हों, उस समय विष्णुका पूजन करना चाहिये और मनुष्योंके साथ प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करो; साथ ही पतिकी सेवामें ईर्ष्याका भाव छोड़ देना चाहिये। सबके धारण करनेवाले लगी रहो। नरकका भय तो तुम्हें दूरसे ही छोड़ देना जगदीश्वर भगवान् अच्युतकी आराधना किये विना चाहिये; क्योंकि सब पापोंका नाश करनेवाली परम पवित्र संसार-सागरमें डूबे हुए तुम सब लोग कैस पार एकादशी तिथि प्रत्येक पक्षमें आती है। फिर तुम्हें जाओगे? माताओ! अधिक कहनेकी क्या नरकसे भय क्यों हो रहा है? घरसे बाहरके जलमें स्नान आवश्यकता? हमारी यह बात सुनो-जो प्रतिदिन करनेसे पुण्य प्रदान करनेवाला माघ मास भी प्रतिवर्ष तन्मय होकर भगवान् गोविन्दके गुणोंका गान तथा आया करता है। फिर तुम्हें नरकसे भय क्यों होता है। नामोंका सङ्कीर्तन सुनते हैं, उन्हें वेदोंसे, तपस्यासे, वसिष्ठजी कहते हैं-राजन् ! वे कन्याएँ अपनी शास्त्रोक्त दक्षिणावाले यज्ञोंसे, पुत्र और स्त्रियोंसे, माताओंसे इस प्रकार कहकर पुनः माघस्रान, उपवास संसारके कृत्योंसे तथा घर, खेत और बन्धु-बान्धवोंसे आदि व्रत, धर्म तथा दान करने लगीं।
महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
। वसिष्ठजी कहते है-राजन् ! माघस्रान और ब्राह्मण कहाँके रहनेवाले थे? वे कैसे यमलोकमें आये उपवास आदि महान् पुण्य करनेवाले मनुष्य इसी प्रकार और किस प्रकार उन्होंने नरकसे पापियोंका उद्धार दिव्य लोकोंमें जाते-आते रहते हैं। पुण्य ही सर्वत्र किया? आने-जानेमें कारण है। पूर्वकालमें विप्रवर पुष्कर भी वसिष्ठजी बोले-राजन् ! मैं महात्मा पुष्करके यमलोकमें गये थे और वहाँ बहुत-से नारकीय जीवोंको चरित्रका वर्णन करता हूँ। वह सब पापोंका नाश नरकसे निकालकर फिर यहीं आ पूर्ववत् अपने घरमें करनेवाला है। तुम सावधान होकर सुनो। बुद्धिमान् रहने लगे। त्रेतायुगमें जब भगवान् श्रीरामचन्द्रजी राज्य पुष्कर नन्दिग्रामके निवासी थे। वे सदा अपने धर्मके करते थे, तभी एक समय किसी ब्राह्मणका पुत्र मरकर अनुष्ठानमें लगे रहनेवाले और सब प्राणियोंके हितैषी यमलोकमें गया और पुनः वह जी उठा। क्या यह बात थे। सदा माघनान और स्वाध्यायमें तत्पर रहते तथा तुमने नहीं सुनी है? देवकीनन्दन श्रीकृष्णने अपने गुरु समयपर अनन्य भावसे श्रीविष्णुकी आराधना किया सान्दीपनिके पुत्रको, जिसे बहुत दिन पहले ही ग्राहने करते थे। महायोगी पुष्कर अपने कुटुम्बके साथ रहते अपना ग्रास बना लिया था, पुनः यमलोकसे ले आकर और नित्य अग्निहोत्र करते थे। राजन्, वे अप्रमेय ! हरे ! गुरुको अर्पण किया था। इसी प्रकार और भी कई मनुष्य विष्णो! कृष्ण ! दामोदार ! अच्युत ! गोविन्द ! यमलोकसे लौट आये है। इस विषयमें सन्देह नहीं अनन्त ! देवेश्वर ! इत्यादि रूपसे केवल भगवत्रामोंका करना चाहिये। अच्छा बताओ, अब और क्या सुनना कीर्तन करते थे। महामते ! देवताका आराधन छोड़कर चाहते हो?
और किसी काममें उन ब्राह्मण देवताका मन स्वप्नमें भी दिलीपने पूछा-मुने । पुष्कर नामक श्रेष्ठ नहीं लगता था। एक दिन सूर्यनन्दन यमराजने अपने
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उत्तरखण्ड]
. महात्मा पुष्करके द्वारा नरक में पड़े हुए जीवोंका हार .
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भयङ्कर दूतोंको आज्ञा दी–‘जाओ, नन्दिप्राम-निवासी नरकके जीवोंने कहा-विप्रवर ! हमने पुष्कर नामक ब्राह्मणको यहाँ पकड़ ले आओ।' यह पृथ्वीपर कोई पुण्य नहीं किया था। इसीसे इस यातनामें आदेश सुनकर और यमराजके बताये हुए पुष्करको न पड़कर जलते और बहुत कष्ट उठाते हैं। हमने परायी पहचानकर वे इन महात्मा पुष्करको ही यमलोकमें पकड़ स्त्रियोंसे अनुराग किया, दूसरोंके धन चुराये, अन्य लाये। ब्राह्मण पुष्करको आते देख यमराज मन-ही-मन जीवोंकी हिंसा की, बिना अपराध ही दूसरोंपर लाञ्छन भयभीत हो गये और आसनसे उठकर खड़े हो गये। लगाये, ब्राह्मणोंकी निन्दा की और जिनके भरणफिर मुनिको आसनपर बिठाकर उन्होंने दूतोंको पोषणका भार अपने ऊपर था, उनके भोजन किये बिना फटकारा-'तुमलोगोंने यह क्या किया? मैंने तो दूसरे ही हम सबसे पहले भोजन कर लेते थे। इन्हीं सब पुष्करको लानेके लिये कहा था। तुमलोगोंके कितने पापोंके कारण हमलोग इस नरकाग्निमें दग्ध हो रहे हैं। पापपूर्ण विचार हैं। भला, इन सब धर्मोके ज्ञाता, प्यासी गौएँ जब जलकी ओर दौड़ती हुई जाती, तो हम विशेषतः भगवान् विष्णुके भक्त, सदा माघस्रान सदा उनके पानी पीनेमें विघ्न डाल दिया करते थे। करनेवाले और उपवास-परायण महात्मा पुरुषको यहाँ गौओंको कभी खिलाते-पिलाते नहीं थे, तो भी उनका मेरे समीप क्यों ले आये?'
दूध दुहकर पेट पालने में लगे रहते थे। याचकोको दान दूतोंको इस प्रकार डाँट बताकर प्रेतराज यमने देनेमें लगे हुए धार्मिक पुरुषोंके कार्यमें रोड़े अटकाया पुष्करसे कहा-'ब्रह्मन् ! तुम्हारे पुत्र और स्त्री आदि करते थे। अपनी खियोको त्याग दिया था। व्रतसे भ्रष्ट सब बान्धव बहुत व्याकुल होकर रो रहे हैं; अतः तुम हो गये थे। दूसरेके अनमें ही सदा रुचि रखते थे। भी अभी जाओ।' तब पुष्करने यमसे कहा- पर्वोपर भी स्त्रियोंके साथ रमण करते थे। ब्राह्मणोंको 'भगवन् ! जहाँ पापी पुरुष यातनामय शरीर धारण करके देनेकी प्रतिज्ञा करके भी लोभवश उन्हें दान नहीं दिया। कष्ट भोगते हैं, उन सब नरकोंको मैं देखना चाहता हूँ। हम धरोहर हड़प लेते थे, मित्रोंसे द्रोह करते तथा झूठी यह सुनकर सूर्यकुमार यमने पुष्करको सैकड़ों और गवाही देते रहते थे। इन्हीं सब पापोंके कारण आज हम हजारों नरक दिखलाये। पुष्करने देखा, पापी जीव दग्ध हो रहे हैं। नरको पड़कर बड़ा कष्ट भोगते हैं। कोई शूलीपर चढ़े पुष्करने कहा-क्या आपलोगोंने भगवान् हैं, किन्हींको व्याघ्र खा रहा है, जिससे वे अत्यन दुःखित जनार्दनका एक बार भी पूजन नहीं किया? इसीसे आप हैं। कोई तपी हुई बालूपर जल रहे हैं। किन्हींको कीड़े ऐसी भयानक दशाको पहुँचे है। जिन्होंने समस्त लोकोके खा रहे हैं। कोई जलते हुए घड़ेमें डाल दिये गये हैं। स्वामी भगवान् पुरुषोत्तमका पूजन किया है, उन कोई कीड़ोंसे पीड़ित हैं। कोई असिपत्रवनमें दौड़ रहे है, मनुष्योंका मोक्षतक हो सकता हैफिर पापक्षयकी तो जिससे उनके अङ्ग छिन्न-भिन्न हो रहे है। किन्हींको वात ही क्या है ? प्रायः आपलोगोंने श्रीपुरुषोत्तमके
आरोंसे चीरा जा रहा है। कोई कुल्हाड़ोंसे काटे जाते हैं। चरणोंमें मस्तक नहीं झुकाया है। इसीसे आपको इस किन्हींको खारी कीचड़में कष्ट भोगना पड़ता है। अत्यन्त भयङ्कर नरककी प्राप्ति हुई है। अब यहाँ किन्हींको सूई चुभो-चुभोकर गिराया जाता है और कोई हाहाकार करनेसे क्या लाभ? निरन्तर भगवान् श्रीहरिका सर्दीसे पीड़ित हो रहे हैं। उनको तथा अन्य जीवोंको स्मरण कीजिये। वे श्रीविष्णु समस्त पापोंका नाश नरकमें पड़कर यातना भोगते देख पुष्करको बड़ा दुःख करनेवाले हैं। मैं भी यहाँ जगदीश्वरके नामोंका कीर्तन हुआ। वे उनसे बोले-'क्या आपलोगोंने पूर्वजन्ममें करता हूँ। वे नाम निश्चय ही आपका कल्याण करेंगे। कोई पुण्य नहीं किया था, जिससे यहाँ यातनामें पड़कर नरकके जीवोंने कहा-ब्रह्मन् ! हमारा आप सदा दुःख भोगते है?'
अन्तःकरण अपवित्र है। हम अपने पापसे सन्तप्त है।
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
ऐसे समय में आपके शरीरको छूकर बहनेवाली वायु हमें परम आनन्द प्रदान करती है। धर्मात्मन्! आप कुछ देरतक यहाँ ठहरिये, जिससे हम दुःखी जीवोंको क्षणभर भी तो सुख मिल सके। ब्रह्मन् ! आपके दर्शनसे भी हमें बड़ा सन्तोष होता है। अहो ! हम पापी जीवोंपर भी आपकी कितनी दया है।
यमराजने कहा - धर्मके ज्ञाता पुष्कर! तुमने नरक देख लिये। अब जाओ। तुम्हारी पत्नी दुःख और शोकमें डूबकर रो रही है।
रक्षा कीजिये ।
पुष्करके द्वारा उच्चारित भगवान् के नाम सुनकर वहाँ नरकमें पड़े हुए सभी पापी तत्काल उससे छुटकारा पा गये। वे सब बड़ी प्रसन्नताके साथ पुष्करसे बोले'ब्रह्मन्! हम नरकसे मुक्त हो गये। इससे संसारमें आपकी अनुपम कीर्तिका विस्तार हो।' यमराजको भी इस घटनासे बड़ा विस्मय हुआ। वे पुष्करके पास जा प्रसन्नचित्त होकर वरदानके द्वारा उन्हें सन्तुष्ट करने लगे। वे बोले – 'धर्मात्मन् ! तुम पृथ्वीपर जाकर सदा वहीं रहो। तुम्हें और तुम्हारे सुहृदोंको भी मुझसे कोई भय नहीं है जो मनुष्य तुम्हारे माहात्यका प्रतिदिन स्मरण करेगा, उसे मेरी कृपासे अपमृत्युका भय नहीं होगा।'
वसिष्ठजी कहते हैं— यमराजके यों कहनेपर पुष्कर पृथ्वीपर लौट आये और यहाँ पूर्ववत् स्वस्थ हो भगवान् मधुसूदनकी पूजा करते हुए रहने लगे। राजन् ! मेरेद्वारा कहे हुए महात्मा पुष्करके इस माहात्म्यको जो सुनता है, उसके सारे पापोंका नाश हो जाता है। भगवान् विष्णुका नाम-कीर्तन करनेसे जिस प्रकार नरकसे भी छुटकारा मिल जाता है, वह प्रसङ्ग मैंने तुम्हें सुना दिया। आदिपुरुष परमात्माके नामोंकी थोड़ी-सी भी स्मृति सञ्चित पापोंकी राशिका तत्काल नाश कर देती हैं, यह बात प्रत्यक्ष देखी गयी है। फिर उन जनार्दनके नामोंका भलीभाँति कीर्तन करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति होगी, इसके लिये तो कहना ही क्या है।* ⭑ मृगशृङ्गका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
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पुष्कर बोले- भगवन्! जबतक इन दुःखी जीवोंकी आवाज कानोंमें पड़ती है, तबतक कैसे जाऊँ जानेपर भी वहाँ मुझे क्या सुख मिलेगा ? आपके किंकरोंको मार खाकर जो आगके ढेरमें गिर रहे हैं, उन नारकीय जीवोंको यह दिन रातकी पुकार सुनिये। कितने ही जीवोंके मुखसे निकली हुई यह ध्वनि सुनायी देती है— 'हाय ! मुझे बचाओ, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।' समस्त भूतोंके आत्मा और सबके ईश्वर सर्वव्यापी श्रीहरिकी मैं नित्य आराधना करता हूँ। इस सत्यके प्रभावसे नारकीय जीव तत्काल मुक्त हो जायें। भगवान् विष्णु सबमें स्थित हैं और सब कुछ भगवान् विष्णुमें स्थित है। इस सत्यसे नारकीय जीवोंका तुरंत केशसे छुटकारा हो जाय हे कृष्ण ! हे अच्युत ! हे जगन्नाथ ! हे हरे ! हे विष्णो! हे जनार्दन ! यहाँ नरकके भीतर यातनामें पड़े हुए इन सब जीवोंकी
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
राजा दिलीप बोले—मुने! मेरे प्रश्नोंके उत्तरमें आपने बड़ी विचित्र बात सुनायी। अब संसारके हितके लिये महात्मा मृगशृङ्गके शेष चरित्रका वर्णन कीजिये क्योंकि उनके समान संतपुरुष स्पर्श, बातचीत और दर्शन करनेसे तथा शरणमें जानेसे सारे पापोंका नाश कर डालते हैं।
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वसिष्ठजी कहते हैं— राजन् ! ब्रह्मचारी मृगशृङ्गने गुरुकुलमें रहकर सम्पूर्ण वेदों और दर्शनोंका यथावत् अध्ययन किया। फिर गुरुकी बतायी हुई दक्षिणा दे, समावर्तनकी विधि पूरी करके शुद्ध चित्त होनेपर उन्हें गुरुने घर जानेकी आज्ञा दी। घर आनेपर कुत्स मुनिके उस पुत्रको उचभ्यने अपनी पुत्री देनेका विचार किया
* स्वल्पापि नामस्मृतिरादिपुंसः क्षयं करोत्याहितपापराशेः । प्रत्यक्षतः किं पुनरत्र दृष्टं संकीर्तिते नानि जनार्दनस्य ॥ २२९ ॥ ८३)
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उत्तरखण्ड ]
- मृगङ्गका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ-आश्रमका धर्म .
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तथा मुनीश्वर मृगशृङ्गने भी पहले जिसे मन-ही-मन वरण बलपूर्वक कन्याको हर लाना राक्षस विवाह है। किया था, उस उचथ्य-पुत्री सुवृत्ताके साथ विवाह सत्पुरुषोंने इसकी निन्दा की है। छलपूर्वक कन्याका करनेकी इच्छा की। इसके बाद उन्होंने महर्षि अपहरण करके किये जानेवाले विवाहको पैशाच कहते वेदव्यासजीकी आज्ञासे सुवृत्ता तथा उसकी हैं। यह बहुत ही घृणित है। समान वर्णकी कन्याओके तीनों सखियों-कमला, विमला और सुरसाका साथ विवाहकालमें उनका हाथ अपने हाथमें लेना पाणिग्रहण किया।
चाहिये, यही विधि है। धर्मानुकूल विवाहोंसे सौ वर्षतक श्रुति कहती है-'ब्राह्मणोंके लिये ब्राह्म विवाह जीवित रहनेवाली धार्मिक सन्तान उत्पन्न होती है तथा सबसे उत्तम है।' इसलिये मुनिने उन चारों कन्याओंको अधर्ममय विवाहोंसे जिनकी उत्पत्ति होती है, वे ब्राह्म विवाहकी ही रीतिसे ग्रहण किया । इस प्रकार विवाह भाग्यहीन, निर्धन और थोड़ी आयुवाले होते हैं; अतः हो जानेपर मुनिवर वत्सने समस्त ऋषियोंको मस्तक ब्राह्मणोंके लिये ब्राह्म विवाह ही श्रेष्ठ है। झुकाया तथा वे मुनीश्वर भी वर-वधूको आशीर्वाद दे इस प्रकार मुनीश्वर मृगशृङ्ग विधिपूर्वक विवाह उनसे पूछकर अपनी-अपनी कुटीमें चले गये। करके वेदोक्त मार्गसे भलीभाँति गार्हस्थ्य-धर्मका पालन
राजा दिलीपने पूछा-गुरुदेव वसिष्ठजी ! चारों करने लगे। उनकी गृहस्थीके समान दूसरे किसीकी वोंक विवाह कितने प्रकारके माने गये हैं? यह बात गृहस्थी न कभी हुई है, न होगी। सुवृत्ता, कमला, यदि गोपनीय न हो तो मुझे भी बताइये।
विमला और सुरसा-ये चारों पलियाँ पातिव्रत्य धर्ममें वसिष्ठजी बोले-राजन् ! सुनो, मैं क्रमशः तत्पर हो सदा पतिकी सेवामें लगी रहती थीं। उनके तुमसे सभी विवाहोंका वर्णन करता हूँ। विवाह आठ सतीत्वकी कहीं तुलना नहीं थी। इस प्रकार वे धर्मात्मा प्रकारके हैं—ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, मुनि उन धर्मपलियोंके साथ रहकर भलीभाँति धर्मका गान्धर्व, राक्षस और पैशाच । जहाँ वरको बुलाकर वस्त्र अनुष्ठान करने लगे।
और आभूषणोंसे विभूषित कन्याका [विधिपूर्वक] दान राजा दिलीपने पूछा-मुनिवर ! पतिव्रताका किया जाता है, वह ब्राह्म विवाह कहलाता है। ऐसे क्या लक्षण है? तथा गृहस्थ-आश्रमका भी क्या लक्षण विवाहसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार है? मैं इस बातको जानना चाहता हूँ। कृपया बताइये। करता है। यज्ञ करनेके लिये ऋत्विजको जो कन्या दो वसिष्ठजी बोले-राजन् ! सुनो, मैं जाती है, वह दैव विवाह है। उससे उत्पन्न होनेवाला पुत्र गृहस्थाश्रमका लक्षण बतलाता हूँ। सदाचारका पालन चौदह पीढ़ियोंका उद्धार करता है। वरसे दो बैल लेकर करनेवाला पुरुष दोनों लोक जीत लेता है। ब्राह्म मुहूर्तमें जो कन्याका दान किया जाता है, वह आर्ष विवाह है। शयनसे उठकर पहले धर्म और अर्थका चिन्तन करे। उससे उत्पन्न हुआ पुत्र छः पीढ़ियोंका उद्धार करता है। फिर अर्थोपार्जनमें होनेवाले शारीरिक क्लेशपर विचार 'दोनों एक साथ रहकर धर्मका आचरण करें' यों कहकर करके मन-ही-मन परमेश्वरका स्मरण करे। धनुषसे जो किसी मांगनेवाले पुरुषको कन्या दी जाती है, वह छूटनेपर एक बाण जितनी दूततक जाता है, उतनी दूरकी प्राजापत्य विवाह कहलाता है। उससे उत्पन्न हुआ पुत्र भूमि लाँधकर घरसे दूर नैर्ऋत्य कोणकी ओर जाय और भी छ: पीढ़ियोंका उद्धार करता है। ये चार विवाह वहाँ मल-मूत्रका त्याग करे। दिनको और सन्ध्याके ब्राह्मणोंके लिये धर्मानुकूल माने गये हैं। जहाँ धनसे समय कानपर जनेऊ चढ़ाकर उत्तरकी ओर मुँह करके कन्याको खरीदकर विवाह किया जाता है, वह आसुर शौचके लिये बैठना चाहिये और रात्रिमें दक्षिण दिशाकी विवाह है। वर और कन्यामें परस्पर मैत्रीके कारण जो ओर मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। विवाह-सम्बन्ध स्थापित होता है, उसका नाम गान्धर्व है। मलत्यागके समय भूमिको तिनकेसे हैक दे और अपने
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• अर्चयस्व वीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त परापुराण
मस्तकपर वस्त्र डालकर यत्नपूर्वक मौन रहे । न तो थूके करे। फिर उठकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे। विज्ञ और न ऊपरको साँस ही खींचे। शौचके स्थानपर ब्राह्मणको उत्तरीय वस्त्र (चादर) सदा ही धारण किये अधिक देरतक न रुके। मलकी ओर दृष्टिपात न करे। रहना चाहिये। आचमनके बाद भस्मके द्वारा ललाटमें अपने शिश्रको हाथसे पकड़े हुए उठे और अन्यत्र जाकर त्रिपुण्ड्र धारण करे अथवा गोपीचन्दन घिसकर आलस्यरहित हो गुदा और लिङ्गको अच्छी तरह धो ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगाये। तदनन्तर सन्ध्यावन्दन आरम्भ डाले। किनारेकी मिट्टी लेकर उससे इस प्रकार अङ्गोंकी करके प्राणायाम करे। 'आपो हि ठा.' आदि तीन शुद्धि करे, जिससे मलकी दुर्गन्ध और लेप दूर हो जाय। ऋचाओसे कुशोदकद्वारा मार्जन करे। पूर्वोक्त किसी पवित्र तीर्थमें शौचकी क्रिया (गुदा आदि घोना) ऋचाओंमेसे एक-एकका प्रणवसहित उधारण करके न करे; यदि करना हो तो किसी पात्रमें जल निकालकर जल सींचे। फिर 'सूर्यश्च०' इत्यादि मन्त्रके द्वारा उससे अलग जाकर शौच-कर्म करे । लिङ्गमें एक बार, अभिमन्त्रित जलका आचमन करे। तत्पश्चात् दोनों गुदामें पांच बार तथा यायें हाथमें दस बार मिट्टी लगाये। हाथोंमें जल लेकर उसे गायत्रीसे अभिमन्त्रित करे और दोनों पैरोंमें पाँच-पाँच बार मिट्टी लगाकर धोये। इस सूर्यकी ओर मुंह करके खड़ा हो तीन बार ऊपरको वह प्रकार शौच करके मिट्टी और जलसे हाथ-पैर धोकर जल फेके। इस प्रकार सूर्यको अर्घ्यदान करना चाहिये। चोटी बाँध ले और दो बार आचमन करे। आचमनके प्रातःकालकी सन्ध्या जब तारे दिखायी देते हों, उसी समय हाथ घुटनोंके भीतर होना चाहिये । पवित्र स्थानमें समय विधिपूर्वक आरम्भ करे और जबतक सूर्यका उत्तर या पूरबकी ओर मुँह करके हाथमें पवित्री धारण दर्शन न हो जाय, तबतक गायत्री मन्त्रका जप करता किये आचमन करना चाहिये। इससे पवित्री जूठी नहीं रहे। इसके बाद सविता-देवता-सम्बन्धी पापहारी होती। यदि पवित्री पहने हुए ही भोजन कर ले तो वह मन्त्रोंद्वारा हाथ जोड़कर सूर्योपस्थान करे । सन्ध्याकालमें अवश्य जूठी हो जाती है। उसको त्याग देना चाहिये। गुरुके चरणोंको तथा भूमिदेवीको प्रणाम करे । जो द्विज
तदनन्तर उठकर दोनों नेत्र धो डाले और दत्तधावन श्रद्धा और विधिके साथ प्रतिदिन सन्ध्योपासन करता है, (दातुन) करे। उस समय निम्नाङ्कितं मन्चका उच्चारण उसे तीनों लोकोंमें कुछ भी अप्राप्य नहीं । सध्या समाप्त करना चाहिये
होनेपर आलस्य छोड़कर होम करे । कोई भी दिन खाली आयुर्वलं यशो वर्षः प्रजाः पशुवसूनि च। न जाने दे। प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करे। ब्रह्मप्रज्ञा च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥ यह दिनके प्रथम भागका कृत्य बतलाया गया।
(२३३ । १७) दूसरे भागमें वेदोका स्वाध्याय किया जाता है । समिधा, वनस्पते ! आप हमें आयु, बल, यश, तेज, फूल और कुश आदिके संग्रहका भी यही समय है। सन्तान, पशु, धन, वेदाध्ययनकी बुद्धि तथा धारणाशक्ति दिनके तीसरे भागमें न्यायपूर्वक कुछ धनका उपार्जन प्रदान करें।
करे। शरीरको केश दिये बिना दैवेच्छासे जो उपलब्ध हो इस मन्त्रका पाठ करके दातुन करे । दातुन काँटेदार सके, उतनेका ही अर्जन करे। ब्राह्मणके छ: कोमसे या दूधवाले वृक्षकी होनी चाहिये। उसकी लंबाई बारह तीन कर्म उसकी जीविकाके साधन है। यज्ञ कराना, वेद अंगुलकी हो और उसमें कोई छेद न हो। मोटाई भी पढ़ाना और शुद्ध आचरणवाले यजमानसे दान लेनाकनिष्ठिका अंगुलीके बराबर होनी चाहिये। रविवारको ये ही उसकी आजीविकाके तीन कर्म है। दिनके चौथे दातुन निषिद्ध है, उस दिन बारह कुल्लोंसे मुखकी शुद्धि भागमें पुनः स्रान करे। [प्रातःकाल सन्ध्या-वन्दनके होती है। तत्पश्चात् आचमन करके शुद्ध हो विधिपूर्वक पश्चात्] कुशके आसनपर बैठे और दोनों हाथोंमें कुश प्रातःस्नान करे। नानके बाद देवता और पितरोंका तर्पण ले अञ्जलि बाँधकर ब्रह्मयज्ञकी पूर्तिके लिये यथाशक्ति
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उत्तरखण्ड ]
स्वाध्याय करे। उस समय ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेदके मन्त्रोंका जप करना चाहिये। फिर देवता, ऋषि और पितरोंका तर्पण करे। देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर रखे, ऋषि तर्पणके समय उसे गलेमें मालाकी भाँति कर ले और पितृ तर्पणमें जनेऊको दायें कंधेपर रखे। उन्हें क्रमशः देवतीर्थ, प्रजापतितीर्थ और पितृतीर्थसे ही जल देना चाहिये। इसके बाद सम्पूर्ण भूतोंको जल दे। [ मध्याह्नकालमें] 'आपो हि ष्ठा' इस मन्त्रसे अपने मस्तकको सींचकर 'आपः पुनन्तु' इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित किये हुए जलका आचमन करे। तत्पश्चात् दोनों हाथोंसे जल लेकर गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए सूर्यको एक बार अर्घ्य दे। उसके बाद गायत्रीका जप करे। गायत्री मन्त्रद्वारा यथाशक्ति सूर्यका उपस्थान करके उनकी प्रदक्षिणा और नमस्कारके पश्चात् आसनपर बैठे और जलके देवताओंको नमस्कार करके एकाग्रचित्त हो घरको जाय।
मृगशृङ्गका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
इस प्रकार जप यज्ञके अनन्तर देवताओंकी पूजा करे। ब्राह्मणको सूर्य, दुर्गा, श्रीविष्णु, गणेश तथा शिव-इन पाँच देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। उसके बाद पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे। फिर भूतबलि काकबलि और कुकुरबलि आदि देते हुए निम्नाङ्कित मन्त्रका पाठ करे
देवा
प्रेताः
मनुष्याः
पशवो
सिद्धाश्च
पिशाचा उरगा: ये चान्नमिच्छन्ति
वयांसि
यक्षोरगदैत्यसङ्घाः ।
समस्ता
दत्तम् । ( २३३ | ४३)
'देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, नाग, दैत्य, प्रेत, पिशाच और सब प्रकारके सर्प जो मुझसे अत्र लेनेकी इच्छा रखते हों, वे यहाँ आकर मेरे दिये हुए अत्रको ग्रहण करें।'
मयात्र
यों कहकर सब प्राणियोंके लिये पृथक् पृथक् बलि दे । तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके प्रसन्नचित्त होकर द्वारपर बैठे और बड़ी श्रद्धाके साथ किसी
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अतिथिके आनेकी प्रतीक्षा करे। गोदोहनकालतक प्रतीक्षा करनेके बाद यदि भाग्यवश कोई अतिथि आ जाय तो यथाशक्ति अत्र और जल देकर देवताकी भाँति उसकी भक्तिपूर्वक पूजा करे। संन्यासी और ब्रह्मचारीको विधिपूर्वक सब व्यञ्जनोंसे युक्त रसोईमेंसे, जो अभी उपयोगमें न लायी गयी हो, अत्र निकालकर भिक्षा दे। संन्यासी और ब्रह्मचारी – ये दोनों ही बनी हुई रसोईके स्वामी - प्रधान अधिकारी हैं। संन्यासीके हाथमें पहले जल दे, फिर अन्न दे; उसके बाद पुनः जल दे। ऐसा करनेसे वह भिक्षाका अन्न, मेरुके समान और जल समुद्रके तुल्य फल देनेवाला होता है। जो मनुष्य संन्यासीको सत्कारपूर्वक भिक्षा देता है, उसे गोदानके समान पुण्य होता है—ऐसा भगवान् यमका कथन है। माता, पिता, गुरु, बन्धु, गर्भिणी स्त्री, वृद्ध, बालक और आये हुए अतिथि जब भोजन कर लें, उसके बाद घरका मालिक गृहस्थ पुरुष लिपे पुते पवित्र स्थानमें हाथ-पैर धोकर बैठे और पूर्वाभिमुख होकर भोजन करे। भोजन करते समय वाणीको संयममें रखकर मौन रहे। दोनों हाथ दोनों पैर और मुख-इन पाँचोंको धोकर ही भोजन करना चाहिये। भोजनका पात्र उत्तम और शुद्ध होना चाहिये। अत्रकी निन्दा न करते हुए भोजन करना उचित है। एक वस्त्र धारण करके अथवा फूटे हुए पात्रमें भोजन न करे। जो शुद्ध कॉसके बरतनमें अकेला ही भोजन करता है, उसकी आयु, बुद्धि, यश और बलइन चारोंकी वृद्धि होती है। घी, अन्न तथा सभी प्रकारके व्यञ्जन करछुलसे ही परोसने चाहिये - हाथसे नहीं। भोजनमेंसे पहले कुछ अत्र निकालकर धर्मराज तथा चित्रगुप्तको बलि दे। फिर सम्पूर्ण भूतोंके लिये अन्न देते हुए इस मन्त्रका उच्चारण करे
यत्र
क्वचनसंस्थानां
भूतानां
तृप्तयेऽक्षय्यमिदमस्तु
क्षुत्तृष्णोपहतात्मनाम् ।
यथासुखम् ॥
(२३३ । ५६)
'जहाँ कहीं भी रहकर भूख-प्याससे पीड़ित हुए प्राणियोंकी तृप्तिके लिये यह अत्र और जल प्रस्तुत है; यह उनके लिये सुखपूर्वक अक्षय तृप्तिका साधन हो ।'
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• अत्रयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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___ भोजनमें मन लगाकर पहले मधुर रस ग्रहण करे, 'सूर्यश्च मा मन्युश्च' इत्यादि मन्त्रके द्वारा आचमन करे। बीचमें नमकीन और खट्टी वस्तुएँ खाय । उसके बाद सायंसन्ध्या पश्चिमाभिमुख बैठकर मौन तथा एकाग्रकड़वे और तिक्त पदार्थोको ग्रहण करे। पहले रसदार चित्त हो रुद्राक्षको माला ले तारोंके उदय होनेतक प्रणव चीजें खाय, बीचमें गरिष्ठ अन्न भोजन करे और अन्तमें और व्याहतियोसहित गायत्री-मन्त्रका जप करे। फिर पुनः द्रव पदार्थ ग्रहण करे। इससे मनुष्य कभी बल और वरुण-देवतासम्बन्धिनी ऋचाओंसे सूर्योपस्थान करके आरोग्यसे हीन नहीं होता। संन्यासीको आठ ग्रास, प्रदक्षिणा करते हुए प्रत्येक दिशा और दिक्पालको वनवासीको सोलह ग्रास और गृहस्थको बत्तीस ग्रास पृथक्-पृथक् नमस्कार करे। इस प्रकार सायंकालकी भोजन करने चाहिये। ब्रह्मचारीके लिये प्रासोंकी कोई सन्ध्योपासना करके अग्निहोत्र करनेके पश्चात् कुटुम्बके नियत संख्या नहीं है। द्विजको उचित है कि वह शास्त्र- अन्य लोगोंके साथ भोजन करे । भोजनकी मात्रा अधिक विरुद्ध भक्ष्य-भोज्यादि पदार्थोंका सेवन न करे। सूखे नहीं होनी चाहिये। भोजनके कुछ काल बाद शयन करे।
और वासी अन्नको भोजन करनेके योग्य नहीं बतलाया सायंकाल और प्रातःकालमें भी बलिवैश्वदेव करना गया है। भोजनके पश्चात् शास्त्रोक्त विधिसे आचमन चाहिये। स्वयं भोजन न करना हो तो भी बलिवैश्वदेवका करके एकाग्रचित्त हो हाथ और मुंहकी शुद्धि करे । मिट्टी अनुष्ठान सदा ही करे; अन्यथा पापका भागी होना पड़ता और जलसे खूब मल-मलकर धोये। तदनन्तर कुल्ला है। यदि घरपर कोई अतिथि आ जाय तो गृहस्थ पुरुष करके दाँतोंके भीतरी भागका- उनकी सन्धियोंका अपनी शक्तिके अनुसार उसका यथोचित सत्कार करे। [तिनके आदिकी सहायतासे) शोधन करे। फिर रातमें भोजनके पश्चात् हाथ-पैर आदि धोकर गृहस्थ आचमन करके पात्रको हटा दे और कुछ भीगे हुए मनुष्य कोमल शय्यापर सोनेके लिये जाय। शय्यापर हाथसे मुख तथा नासिकाका स्पर्श करे। हथेलीसे तकियेका होना आवश्यक है। अपने घरमें सोना हो तो नाभिका स्पर्श करे । तत्पश्चात् शुद्ध एवं शान्तचित्त होकर पूर्व दिशाकी ओर सिरहाना करे और ससुरालमें सोना हो आसनपर बैठे और अपने इष्टदेवका स्मरण करे । उसके तो दक्षिण दिशाकी ओर । परदेशमें गया हुआ मनुष्य बाद पुनः आचमन करके ताम्बूल भक्षण करे। भोजन पश्चिम दिशाकी ओर सिर करके सोये। उत्तरकी ओर करके बैठा हुआ पुरुष विश्रामके बाद कुछ देरतक सिरहाना करके कभी नहीं सोना चाहिये। सोनेके पहले ब्रह्मका चिन्तन करे। दिनके छठे और सातवें भागको रात्रिसूक्तका जप और सुखपूर्वक शयन करनेवाले सन्मार्ग आदिके अविरुद्ध उत्तम शास्त्र आदिके द्वारा देवताओंका स्मरण करे। फिर एकाग्रचित्त होकर मनोरञ्जन और इतिहास-पुराणोंका पाठ करके व्यतीत अविनाशी भगवान् विष्णुको नमस्कार करके रात्रिमें करे। आठवें भागमें जीविकाके कार्यमें संलग्न रहे। शयन करे । अगस्त्य, माधव, महाबली मुचुकुन्द, कपिल उसके बाद पुनः बाह्य-सन्ध्या-सायं-सन्ध्याका समय तथा आस्तीक मुनि-ये पाँचों सुखपूर्वक शयन हो जाता है।
करनेवाले हैं। माङ्गलिक वस्तुओंसे भरे हुए जलपूर्ण जब सूर्य अस्ताचलके शिखरपर पहुँच जायें, तब कलशको सिरहानेको ओर रखकर वरुण-देवता-सम्बन्धी हाथ-पैर धोकर हाथमें कुश ले एकाग्रचित्त हो वैदिक मन्त्रोंसे अपनी रक्षा करके सोये। ऋतुकालमें सायंकालीन सन्ध्योपासना करे। सूर्यके रहते-रहते ही पत्नीके साथ समागम करे। सदा अपनी स्त्रीसे हो पश्चिम सन्ध्या प्रारम्भ करे। उस समय सूर्यका आधा अनुराग रखे। पत्नीके स्वीकार करनेपर रतिको इच्छासे मण्डल ही अस्त होना चाहिये। प्राणायाम करके उसके पास जाय । पर्वके दिन उसका स्पर्श न करे। जल-देवता-सम्बन्धी म-त्रोंसे मार्जन करे। सायंकालमें रात्रिके पहले और पिछले प्रहरको वेदाभ्यासमें व्यतीत 'अप्रिक्ष मा मन्युक्ष' इत्यादि मनके द्वारा और सबेरे करे और बीचके दोनों प्रहरोंमें शयन करे। ऐसा
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उत्तरखण्ड ]
. पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन .
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करनेवाला पुरुष ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। ऊपर जो वेदोक्त सदाचारसे युक्त यह गृहस्थ-आश्रमका लक्षण कुछ बतलाया गया, वह सारा कर्म गृहस्थको प्रतिदिन मैंने तुम्हे संक्षेपसे बताया है। अब पतिव्रताओंके करना चाहिये। यही गृहस्थाश्रमका लक्षण है। सम्पूर्ण लक्षण सुनो।
पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
वसिष्ठजी कहते है-राजन् ! मैं सतियोंके उतम परपुरुषकी भी कभी इच्छा नहीं करती, उसे महासती व्रतका वर्णन करता हूँ, सुनो । पति कुरूप हो या दुराचारी, जानना चाहिये। पराया पुरुष देवता, मनुष्य अथवा अच्छे स्वभावका हो या बुरे स्वभावका, रोगी, पिशाच, गन्धर्व कोई भी क्यों न हो, वह सती स्त्रियोंको प्रिय नहीं क्रोधी, बूढ़ा, चालाक, अंधा, बहरा, भयंकर स्वभावका, होता। पत्नीको कभी भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, दखि, कंजूस, घृणित, कायर, धूर्त अथवा परस्त्रीलम्पट जो पतिको अप्रिय जान पड़े। जो पतिके भोजन कर हो क्यों न हो, सती-साध्वी स्त्रीके लिये वाणी, शरीर और लेनेपर भोजन करती, उनके दुःखी होनेपर दुःखित होती, क्रियाद्वारा देवताकी भांति पूजनीय है। स्त्रीको कभी पतिके आनन्दमें ही आनन्द मानती, उनके परदेश चले किसी प्रकार भी अपने स्वामीके साथ अनुचित बर्ताव जानेपर मलिन वस्त्र धारण करती, पतिके सो जानेपर नहीं करना चाहिये । स्त्री बालिका हो या युवती अथवा सोती और पहले ही जग जाती, पतिकी मृत्यु हो जानेपर वृद्धा ही क्यों न हो, उसे अपने घरपर भी कोई काम उनके शरीरके साथ ही चितामें जल जाती और दूसरे स्वतन्त्रतासे नहीं करना चाहिये। अहंकार और पुरुषको कभी भी अपने मनमें स्थान नहीं देती, उस काम-क्रोधका सदा ही परित्याग करके केवल अपने स्त्रीको पतिव्रता जानना चाहिये। पतिका ही मनोरञ्जन करना उचित है, दूसरे पुरुषका पतिव्रता स्त्रीको अपने सास-ससुर तथा पतिमें नहीं। परपुरुषोंके कामभावसे देखनेपर, प्रिय लगनेवाले विशेष भक्ति रखनी चाहिये; वह धर्मके कार्यमें सदा वचनोंद्वारा प्रलोभनमें डालनेपर अथवा जनसमूहमें पतिके अनुकूल रहे, धन खर्च करने में संयमसे काम ले, दूसरोके शरीरसे छू जानेपर भी जिसके मनमें कोई विकार सम्भोगकालमें संकोच न रखे और अपने शरीरको सदा नहीं होता तथा जो परपुरुषद्वारा धनका लोभ दिखाकर पवित्र बनाये रखे। पतिकी मङ्गल-कामना करे, उनसे लुभायी जानेपर भी मन, वाणी, शरीर और क्रियासे कभी सदा प्रिय वचन बोले, माङ्गलिक कार्यमें संलग्न रहे, पराये पुरुषका सेवन नहीं करती, वही सती है। वह घरको सजाती रहे और घरकी प्रत्येक वस्तुको प्रतिदिन सम्पूर्ण लोकोंकी शोभा है। सती स्त्री दूतके मुखसे साफ-सुथरी रखनेकी चेष्टा करे। खेतसे, वनसे अथवा प्रार्थना करनेपर, बलपूर्वक पकड़ी जानेपर भी दूसरे गाँवसे लौटकर जब पतिदेव घरपर आवे तो उठकर पुरुषका सेवन नहीं करती। जो पराये पुरुषोंके देखनेपर उनका स्वागत करे। आसन और जल देकर अभिनन्दन भी स्वयं उनकी ओर नहीं देखती, हँसनेपर भी नहीं करे। वर्तन और अत्र साफ रखे। समयपर भोजन हंसती तथा औरोंके बोलनेपर भी स्वयं उनसे नहीं बनाकर दे। संयमसे रहे। अनाजको छिपाकर रखे। बोलती, वह उत्तम लक्षणोंवाली स्त्री साध्वी- पतिव्रता घरको झाड़-बुहारकर स्वच्छ बनाये रखे। गुरुजन, पुत्र, है। रूप और यौवनसे सम्पन्न तथा संगीतकी कलामें मित्र, भाई-बन्धु, काम करनेवाले सेवक, अपने निपुण सती-साध्वी स्त्री अपने-ही-जैसे योग्य पुरुषको आश्रयमें रहनेवाले भृत्य, दास-दासी, अतिथिदेखकर भी कभी मनमें विकार नहीं लाती। जो सुन्दर, अभ्यागत, संन्यासी तथा ब्रह्मचारी लोगोंको आसन और तरुण, रमणीय और कामिनियोंको प्रिय लगनेवाले भोजन देने, सम्मान करने और प्रिय वचन बोलनेमे तत्पर
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अस्त हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
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रहे। मुख्य गृहिणीको सदा ही समय-समयपर उपर्युक्त व्यक्तियोंकी यथोचित सेवाके कार्यमें दक्ष होना चाहिये। पति घरका खर्च चलानेके लिये अपनी पत्नीके हाथमें जो द्रव्य दे, उससे घरकी सारी आवश्यकता पूर्ण करके पत्नी अपनी बुद्धिके द्वारा उसमें से कुछ बचा ले। पतिने दान करनेके लिये जो धन दिया हो, उसमेंसे लोभवश कुछ बचाकर न रखे। स्वामीकी आज्ञा लिये बिना अपने बन्धुओंको धन न दे। दूसरे पुरुषसे वार्तालाप, असन्तोष, पराये कार्योंकी चर्चा, अधिक हँसी, अधिक रोष और क्रोध उत्पन्न होनेके अवसरका सर्वथा त्याग करे। पतिदेव जो-जो पदार्थ न खाये, न पीयें और न मुँहमें डालें, वह सब पतिव्रता स्त्रीको भी छोड़ देना चाहिये। स्वामी परदेशमें हों तो स्त्रीके लिये तेल लगाकर नहाना, शरीरमें उबटन लगाना, दाँतोंमें मंजन लगाकर धोना, केशोंको सँवारना, उत्तम पदार्थ भोजन करना, अधिक समयतक कहीं बैठना, नये-नये वस्त्रोंको पहनना और शृङ्गार करना निषिद्ध है। राजन् ! त्रेतासे लेकर प्रत्येक युगमें स्त्रियोको प्रतिमास ऋतुधर्म होता है। उस समय पहले दिन चाण्डाल जातिकी स्त्रीके समान पत्नीका स्पर्श वर्जित है। दूसरे दिन वह ब्राह्मणकी हत्या करनेवाली स्त्रीके तुल्य अपवित्र मानी गयी है। तीसरे दिन उसे धोबिनके तुल्य बताया गया है। चौथे दिन स्नान करके वह शुद्ध होती है। रजस्वला स्त्री स्नान, शौच जलसे होनेवाली शुद्धि, गाना, रोना, हँसना, यात्रा करना, अङ्गराग लगाना, उबटन लगाना, दिनमें सोना, दाँतन करना, मन या वाणीके द्वारा भी मैथुन करना तथा देवताओंका पूजन और नमस्कार करना छोड़ दे। पुरुषको भी चाहिये कि वह रजस्वला स्त्रीसे स्पर्श और वार्तालाप न करे तथा पूर्ण प्रयत्न करके उसके वस्त्रोंका भी संयोग न होने दे।
रजस्वला स्त्री स्नान करनेके पश्चात् पराये पुरुषकी ओर दृष्टि न डाले। सर्वप्रथम वह सूर्यदेवका दर्शन करे। उसके बाद अपने अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ब्रह्मकूर्च - पञ्चगव्यका अथवा केवल दूधका पान करे। साध्वी स्त्री नियमपूर्वक शास्त्रोक्त विधिके अनुसार
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
जीवन व्यतीत करे। आभूषणोंसे विभूषित होकर परम पवित्र भावसे स्वामीके प्रिय तथा हित साधनमें संलग्न रहे। यदि स्त्री गर्भवती हो तो उसे नीचे लिखे हुए नियमोंसे रहना चाहिये। वह आत्मरक्षापूर्वक सुन्दर आभूषण धारण करके वास्तुपूजनमें तत्पर रहे। उसके मुखपर प्रसन्नता छायी रहे। बुरे आचार-विचारकी स्त्रियोंसे बातचीत न करे। सूपकी हवासे बचकर रहे। जिसके बच्चे हो होकर मर जाते हों अथवा जो वन्ध्या हो, ऐसी स्त्रीके साथ संसर्ग न करे। गर्भिणी स्त्री दूसरेके घरका भोजन न करे। मनमें घृणा पैदा करनेवाली कोई वस्तु न देखे। डरावनी कथा न सुने। भारी और अत्यन्त गरम भोजन न करे। पहलेका किया हुआ भोजन जबतक अच्छी तरह पच न जाय, दुबारा भोजन न करे। इस विधिसे रहनेपर साध्वी स्त्री उत्तम पुत्र प्राप्त करती है; अन्यथा या तो गर्भ गिर जाता है, या उसका निरोध हो जाता है। पतिदेव जब किसी कार्यवश घरके भीतर प्रवेश करें, तो पतिव्रता स्त्री अङ्गराग आदिसे युक्त हो शुद्ध हृदयसे उनके पास जाय तरुणी, सुन्दरी, पुत्रवती, ज्येष्ठा अथवा कनिष्ठा – कोई भी क्यों न हो, परोक्षमें या सामने अपनी किसी सौतकी गुणहीन होनेपर भी निन्दा न करे। मनमें राग-द्वेषजनित मत्सरता रहनेपर भी सौतोंको परस्पर एक दूसरीका अप्रिय नहीं करना चाहिये। स्त्री पराये पुरुषके नामोंका गान और पराये पुरुषके गुणोंका वर्णन न करे। पतिसे दूर न रहे। सदा अपने स्वामीके समीप ही निवास करे। निर्दिष्ट भूभागमें बैठकर सदा प्रियतमकी ओर ही मुख किये रहे। स्वच्छन्दतापूर्वक चारों दिशाओंकी ओर दृष्टि न डाले । पराये पुरुषका अवलोकन न करे। केवल पतिके मुखकमलको ही हाव भावसे देखे पतिदेव यदि कोई कथा करते हों तो स्त्री उसे बड़े आदरके साथ सुने । पति बातचीत करते हों तो स्वयं दूसरेसे बात न करे। यदि स्वामी बुलायें तो शीघ्र ही उनके पास चली जाय। पतिदेव उत्साहपूर्वक गीत गाते हों तो प्रसन्नचित्त होकर सुने अपने प्रियतमके नृत्य करते समय उन्हें हर्षभरे नेत्रोंसे देखे । पतिको शास्त्र आदिमें चतुरता, विद्या और
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उत्तरखण्ड ]
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पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन •
कलामें प्रवीणता दिखलाते देख पत्नी आनन्दमें निमग्न हो जाय। पतिके समीप उद्वेग और व्यग्रतापूर्ण हृदय लेकर न ठहरे। उनके साथ प्रेमशून्य कलह न करे। स्वामी कलह करनेके योग्य नहीं हैं—ऐसा जानकर स्त्री कभी अपने लिये अपने भाईके लिये या अपनी सौतके लिये क्रोधमें आकर उनसे कलह न करे। फटकारने, निन्दा करने और अत्यन्त ताड़ना देनेके कारण व्यथित होनेपर भी पत्नी अपने प्रियतमको भय छोड़कर गले लगाये स्त्री जोर-जोरसे विलाप न करे, दूसरे लोगोंको न पुकारे और अपने घरसे बाहर न भागे। पतिसे कोई विरक्ति सूचक वचन न कहे। सती स्त्री उत्सव आदिके समय यदि भाई-बन्धुओंके घर जाना चाहे, तो पतिकी आज्ञा लेकर किसी अध्यक्षके संरक्षणमें रहकर जाय वहाँ अधिक कालतक निवास न करे। शीघ्र ही अपने घर लौट आये। यदि पति कहींकी यात्रा करते हो तो उस समय मङ्गलसूचक वचन बोले 'न जाइये' कहकर पतिको न तो रोके और न यात्राके समय रोये ही।
पतिके परदेश जानेपर स्त्री कभी अङ्गराग न लगाये केवल जीवन निर्वाहके लिये प्रतिदिन कोई उत्तम कार्य करे। यदि स्वामी जीविकाका प्रबन्ध करके परदेशमें जायँ तो उनकी निश्चित की हुई जीविकासे ही गृहिणीको जीवन निर्वाह करना चाहिये। पतिके न रहनेपर स्त्री सास-ससुर के समीप ही शयन करे, और किसीके नहीं। वह प्रतिदिन प्रयत्न करके पतिके कुशल- समाचारका पता लगाती रहे। स्वामीकी कुशल जाननेके लिये दूत भेजे तथा प्रसिद्ध देवताओंसे याचना करे। इस प्रकार जिसके पति परदेश गये हों, उस पतिव्रता स्त्रीको ऐसे ही नियमोंका पालन करना चाहिये। वह अपने अङ्गको न धोये। मैले कपड़े पहनकर रहे। बेंदी और अंजन न लगाये गन्ध
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और मालाका भी त्याग करे। नख और केशोंका शृङ्गार न करे। दाँतोंको न धोये। प्रोषितभर्तृका स्त्रीके लिये पान चबाना और आलस्यके वशीभूत होना बड़ी निन्दाकी बात है। अधिक आलस्य करना, सदा नींद लेना, सर्वदा कलहमें रुचि रखना, जोर-जोरसे हँसना, दूसरोंसे हैंसीपरिहास करना, पराये पुरुषोंकी चेष्टाका चिन्तन करना, इच्छानुसार घूमना, पर-पुरुषके शरीरको दबाना, एक वस्त्र पहनकर बाहर घूमना, निर्लज्जताका बर्ताव करना और बिना किसी आवश्यकताके व्यर्थ ही दूसरेके घर जाना – ये सब युवती स्त्रीके लिये पाप बताये गये हैं, जो पतिको दुःख देनेवाले होते हैं।
सती स्त्री घरके सब कार्य पूर्ण करके शरीरमें हल्दीकी उबटन लगाये। फिर शुद्ध जलसे सब अङ्गको धोकर सुन्दर शृङ्गार करे। उसके बाद अपने मुखकमलको प्रसन्न करके प्रियतमके समीप जाय। मन, वाणी और शरीरको संयममें रखनेवाली नारी ऐसे बर्तावसे इस लोकमें उत्तम कीर्ति पाती और परलोकमें पतिका सायुज्य प्राप्त करती है। देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकोंमें पतिके समान दूसरा कोई देवता नहीं है। जब पतिदेवता सन्तुष्ट होते हैं, तो इच्छानुसार सम्पूर्ण भोगोंकी प्राप्ति कराते हैं और कुपित होनेपर सब कुछ हर लेते हैं। सन्तान, नाना प्रकारके भोग, शय्या, आसन, अद्भुत वस्त्र, माला, गन्ध, स्वर्गलोक तथा भाँति-भाँतिकी कीर्ति – ये सब पतिसे ही प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार मुनिवर मृगशृङ्ग धर्म, नय, नीति एवं गुणों में सबसे श्रेष्ठ सुवृत्ता आदि चारों पलियोंके साथ चिरकालतक अतिरात्र और वाजपेय आदि यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहे। वे नियमपूर्वक संसारी सुख भोगते थे, तथापि उनका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल था।
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अर्चयस्व वीकेश यदीच्छसि परं पदम्.
[संक्षिप्त परापुराण
मृगङ्गके पुत्र मकण्डु मुनिकी काशी-यात्रा, काशी-माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
वसिष्ठजी कहते हैं-इस प्रकार गृहस्थाश्रममें हुई। पिताने अपने सभी पुत्रोंसे पर्याप्त दक्षिणावाले निवास करते हुए महामुनि मृगशृङ्गकी पत्नी सुवृत्ताने यज्ञोंका अनुष्ठान करवाया। वे सभी पुत्र सेवा-शुश्रूषामें समयानुसार एक पुत्रको जन्म दिया। इसके द्वारा पितृ- संलग्न हो प्रतिदिन पिताका प्रिय करते थे। उत्तम ऋणसे छुटकारा पाकर मुनिश्रेष्ठ मृगङ्गने अपनेको लक्षणोंवाली पुत्रवधुओं, वेदोंके पारगामी कल्याणमय कृतार्थ माना और विधिपूर्वक नवजात शिशुका जातकर्म- पुत्रों तथा उत्तम गुणोंवाली धर्मपत्रियोंसे सेवित हो संस्कार किया। वे परम बुद्धिमान् मुनि तीनों कालकी मृगशृङ्ग मुनि गृहस्थधर्मका पालन करने लगे। सुमति, बातें जानते थे; अतः उन्होंने पुत्रके भावी कर्मके अनुसार उत्तम तथा महात्मा सुव्रतको भी पृथक्-पृथक् अनेक पुत्र उसका मृकण्डु नाम रखा। उसके शरीरमें मृगगण निर्भय हुए, जो वेदोंके पारगामी विद्वान्'थे। माघ मास आनेपर होकर कण्डूयन करते थे- अपना शरीर खुजलाते या मुनिवर मृगशृङ्ग अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रवधुओं, पुत्रों रगड़ते थे। इसीलिये पिताने उसका नाम मृकण्डु रख तथा पौत्रोंके साथ प्रातःकाल स्नान करते थे। वे एक दिया। मृकण्डु मुनि उत्तम कुलमें उत्पन्न होकर समस्त माघ भी कभी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। माघ आनेपर गुणोंके भंडार बन गये थे। उनका शरीर प्रज्वलित स्नान, दान, शिवकी पूजा, व्रत और नियम-ये गृहस्थअग्निके समान तेजस्वी था। पिताके द्वारा उपनयन- आश्रमके भूषण हैं। यह सोचकर वे द्विजश्रेष्ठ प्रत्येक संस्कार हो जानेपर वे ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे। माघमें प्रातःस्रान किया करते थे। इस प्रकार सांसारिक उन्होंने पिताके पास रहकर सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन सुख-सौभाग्यका अनुभव करके उन महामुनिने अपनी किया। तत्पश्चात् गुरु (पिता) की आज्ञा ले द्वितीय धर्मपत्नियोंका भार पुत्रोंको सौंप दिया और गार्हपत्य आश्रमको स्वीकार किया। मुद्गल मुनिकी कन्या अनिको अपने आत्मामें स्थापित कर लिया। फिर पुत्रके मरुद्वतीके साथ मुकण्डु मुनिका विवाह हुआ। तदनन्तर पुत्रका मुख देख और अपने शरीरको अत्यन्त जराग्रस्त मृगशृङ्ग मुनिकी दूसरी पत्नी कमलाने भी एक उत्तम पुत्र जानकर तपोनिधि मृगशङ्गने तपस्या करनेके लिये उत्पत्र किया। वह सदाचार, वेदाध्ययन, विद्या और तपोवनको प्रस्थान किया। वहाँ पत्ते चबाने, छोटे-छोटे विनयमें सबसे उत्तम निकला; इसलिये उसका नाम तालाबोंमें जल पीने, संसारसे उद्विग्न होने तथा रेतीली उत्तम रखा गया। पिताके उपनयन-संस्कार कर देनेपर भूमिमें निवास करनेके कारण वे मृगोंके समान धर्मका उत्तम मुनिने भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके पालन करने लगे। मृगोंके झंडमें चिरकालतक विचरण विधिपूर्वक विवाह किया। कमनीय केशकलाप और करनेके पश्चात् उन्होंने ब्रह्मलोक प्राप्त कर लिया। वहाँ मनोहर रूपसे युक्त, कमलके समान विशाल नेत्र तथा चार मुखोंवाले ब्रह्माजीने उनका अभिनन्दन किया। कल्याणमय स्वभाववाली कण्व मुनिकी कन्या कुशाको मुनिवर मृगङ्ग दिव्य सिंहासनपर विराजमान हुए और उन्होंने पत्रीरूपमें ग्रहण किया। विमलाने भी सुमति अपने द्वारा उपार्जित उपमारहित अक्षय लोकोंका सुख नामसे विख्यात पुत्रको जन्म दिया। सुमति भी सम्पूर्ण भोगने लगे। तदनन्तर एक समय प्रलयकालके बाद वेदोंका अध्ययन करके गृहस्थ हुए । उनकी स्त्रीका नाम श्वेतवाराहकल्पमें वे पुनः ब्रह्माजीके पुत्ररूपसे उत्पन्न सत्या था। तत्पश्चात् सुरसाके गर्भसे भी एक पुत्रका जन्म हुए। उस समय उनका नाम ऋभु हुआ और उन्होंने हुआ, जिसका नाम सुव्रत था। सुरसाकुमार सुव्रतने भी निदाघको कल्याणका उपदेश दिया। सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन समाप्त करके द्वितीय आश्रममें शौल और सदाचारसे सम्पन्न उनकी चारों पत्रियाँ प्रवेश किया। पृथुकी पुत्री प्रियंवदा सुव्रतकी धर्मपत्नी पुत्रोंके आश्रयमें रहकर कुछ दिनोंतक कठोर व्रतका
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उत्तरखण्ड ] • मृगमनके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी-यात्रा, काशी-माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति •
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पालन करती रहीं। तत्पश्चात् जोवनके अन्तिम भागमें प्राप्ति ही योग है, यह काशीको प्राप्ति ही तप है, यह बुढ़ापेके कारण उनके बाल सफेद हो गये। उनकी कमर काशीकी प्राप्ति ही दान है और यह काशीकी प्राप्ति ही झुक गयो। मुँहमें एक-ही-दो दाँत रह गये तथा शिवकी पूजा है। यह काशीकी प्राप्ति ही यज्ञ, यह इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ प्रायः नष्ट हो गयीं। मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुके काशीकी प्राप्ति ही कर्म, यह काशीकी प्राप्ति ही स्वर्ग और मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई । उन्होंने माताओंकी वैसी यह काशौकी प्राप्ति ही सुख है। काशीमें निवास अवस्था देख मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया-'मैं करनेवाले मनुष्योंके लिये काम, क्रोध, मद, लोभ, माताओंको साथ ले स्त्रीसहित भगवान् शङ्करकी अहङ्कार, मात्सर्य, अज्ञान, कर्म, जडता, भय, काल, राजधानीमें जाऊँगा, जहाँ वे मुमूर्षु पुरुषोंके कानोंमें बुढ़ापा, रजोगुण और विघ्न-बाधा क्या चीज है? ये तारक-मन्त्रका उपदेश दिया करते हैं। ऐसा निश्चय उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। करके उन्होंने काशीपुरीकी ओर प्रस्थान किया। वे मार्गमे अपनी माताओका मार्गजनित कष्ट दूर करनेके काशीकी महिमाका इस प्रकार बखान करने लगे। लिये इस प्रकारकी बातें करते हुए मकण्डु मुनि धीरे-धीरे
मृकण्डु बोले-जो माता, पिता और अपने चलकर माताओसहित काशीपुरीमें जा पहुंचे। वहां उन बन्धुओं द्वारा त्याग दिये गये हैं, जिनकी संसारमें कहीं भी मुनिने बिना विलम्ब किये सबसे पहले मणिकर्णिकाके गति नहीं है, उनके लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है । जो जलमें विधिपूर्वक वस्त्रसहित स्नान किया। तत्पश्चात् जरावस्थासे ग्रस्त और नाना प्रकारके रोगोंसे व्याकुल हैं, सन्ध्या आदि शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करके पवित्र हो जिनके ऊपर दिन-रात पग-पगपर विपत्तियोंका आक्रमण उन्होंने चन्दन और कुशमिश्रित जलसे सम्पूर्ण देवताओं होता है, जो कर्मोके बन्धनमें आबद्ध और संसारसे और ऋषियोंका तर्पण किया। फिर अमृतके समान तिरस्कृत हैं, जिन्हें राशि-राशि पापोने दबा रखा है, स्वादिष्ठ पकवान, शक्कर मिली हुई खीर तथा गोरससे जो दरिद्रतासे परास्त, योगसे भ्रष्ट तथा तपस्या और सम्पूर्ण तीर्थ-निवासियोको पृथक्-पृथक् तृप्त करके दानसे वर्जित हैं, जिनके लिये कहीं भी गति नहीं है, उनके अन्नदान, धान्यदान, गन्ध, चन्दन, कपूर, पान और लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है। जिन्हें भाई-बन्धुओंके सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा दीनों एवं अनाथोंका सत्कार बीच पग-पगपर मानहानि उठानी पड़ती हो, उनको किया। उसके बाद भक्तिपूर्वक दुण्डिराज गणेशके एकमात्र भगवान् शिवका आनन्दकानन-काशीपुरी ही शरीरमें घी और सिन्दूरका लेप किया और पाँच लड्डू आनन्द प्रदान करनेवाला है। आनन्दकानन काशीमें चढ़ाकर आत्मीयजनोंको विघ्न-बाधाओंके आक्रमणसे निवास करनेवाले दुष्ट पुरुषोंको भी भगवान् शङ्करके बचाते हुए अन्तःक्षेत्रमें प्रवेश किया। वहाँ समस्त अनुग्रहसे आनन्दजनित सुखकी प्राप्ति होती है। काशीमें आवरण-देवताओंकी यथाशक्ति पूजा की। तदनन्तर विश्वनाथरूपी आगकी आँचसे सारे कर्ममय बीज भुन महामना मृकण्डुने भगवान् विश्वनाथको नमस्कार और जाते हैं; अतः वह काशीतीर्थ जिनकी कहीं भी गति नहीं उनकी स्तुति करके माताओंके साथ विधिपूर्वक है, ऐसे पुरुषोंको भी उत्तम गति प्रदान करनेवाला है। क्षेत्रोपवास किया। विश्वनाथजीके समीप उन्होंने जागकर वहाँ संसाररूपी सर्पसे इंसे हुए जीवोंको अपने दोनों रात बितायी और निर्मल प्रभात होनेपर एकाग्रचित्त हो हाथोंसे पकड़कर भगवान् शङ्कर उनके कानों में तारक मणिकर्णिकाके जलमें नान किया। सारा अनुष्ठान पूरा ब्रह्मका उपदेश देते हैं। कपिलदेवजीके बताये हुए करके नियमोंका पालन करते हुए पवित्र हो वेदयोगानुष्ठानसे, सांख्यसे तथा व्रतोंके द्वारा भी मनुष्योंको वेदाङ्गोंके पारगामी महात्मा ब्राह्मणोंके साथ अपने जिस गतिकी प्राप्ति नहीं होती, उसे यह मोक्षभूमि नामसे एक शिवलिङ्गकी स्थापना की, जो सब प्रकारको काशीपुरी अनायास ही प्रदान करती है। यह काशीकी सिद्धियोंको देनेवाला है। उनकी चारों माताओंने भी
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
अपने-अपने नामसे एक-एक शिवलिङ्ग स्थापित किया। पूजित शिवलिङ्ग है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य फिर वे सभी लिङ्ग दर्शनमात्रसे मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। जन्म नहीं लेता। ढुण्डिराज गणेशके आगे मृकण्ड्वीश्वर शिवका दर्शन इस प्रकार शिवलिङ्गोंकी स्थापना करके वे सब करनेसे सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं और काशीका निवास लोग एक वर्षतक काशीमें ठहरे रहे। बारम्बार उस भी सफल होता है। उस शिवलिङ्गके आगे सुवृत्ताद्वारा विचित्र एवं पवित्र क्षेत्रका दर्शन करनेसे उन्हें तृप्ति नहीं स्थापित सुवृत्तेश्वर नामक शिवलिङ्ग है। उसके दर्शनसे होती थी। मृकण्डु मुनि एक वर्षतक प्रतिदिन तीर्थयात्रा मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता तथा करते रहे, किन्तु वहकि सम्पूर्ण तीर्थोका पार न पा सके; वह सदाचारी होता है। सुवृत्तेश्वरसे पूर्वदिशाकी ओर क्योंकि काशीपुरीमें पग-पगपर तीर्थ हैं। एक दिन कमलाद्वारा स्थापित उत्तम शिवलिङ्ग है, जिसके मृकण्डु मुनिकी माताएँ, जो पूर्ण ज्ञानसे सम्पन्न थीं, दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता मणिकर्णिकाके जलमें दोपहरको सान करके है। दुण्डिराज गणेशकी देहलीके पास विमलाद्वारा शिवमन्दिरकी प्रदक्षिणा करने लगी। इससे परिश्रमके स्थापित विमलेश्वरका स्थान है। उस लिङ्गके दर्शनसे कारण उन्हें थकावट आ गयी और वे सब-की-सब निर्मल ज्ञानकी प्राप्ति होती है। विमलेश्वरसे ईशानकोणमें मरणासन्न होकर वहीं गिर पड़ीं। उस समय परम दयालु सुरसाद्वारा स्थापित सुरसेश्वर नामक शिवलिङ्ग है। उसके काशीपति भगवान् शिव बड़े वेगसे वहाँ आये और दर्शनसे मनुष्य देवताओंका साम्राज्य प्राप्त करके काशीमें अपने हाथोंसे स्नेहपूर्वक उन सबके मस्तक पकड़कर आकर मुक्त होगा। मणिकर्णिकासे पश्चिम मरुद्वतीद्वारा एक ही साथ कानों में प्रणव-मन्त्रका उच्चारण किया।
मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व-प्राप्ति तथा
_ मृत्युञ्जय-स्तोत्रका वर्णन वसिष्ठजी कहते हैं-राजन् ! महामना मृकण्डु वसिष्ठजीने कहा-राजन् ! सुनो, मैं मुनिने विधिपूर्वक माताओंके औदैहिक संस्कार करके मार्कण्डेयजीके जन्मका वृत्तान्त बतलाता हूँ। महामुनि दीर्घकालतक काशीमें ही निवास किया। भगवान् मृकण्डुके कोई सन्तान नहीं थी; अतः उन्होंने अपनी शङ्करके प्रसादसे उनकी धर्मपत्नी मरुद्वतीके गर्भसे एक पत्नीके साथ तपस्या और नियमोंका पालन करते हुए महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी मार्कण्डेयके नामसे भगवान् शङ्करको सन्तुष्ट किया। सन्तुष्ट होनेपर प्रसिद्धि हुई । श्रीमान् मार्कण्डेय मुनिने तपस्यासे भगवान् पिनाकधारी शिवने पत्नीसहित मुनिसे कहा- 'मुने ! शिवको आराधना करके उनसे दीर्घायु पाकर अपनी मुझसे कोई वर माँगो' तब मुनिने यह वर माँगाआँखोंसे अनेकों बार प्रलयका दृश्य देखा। परमेश्वर ! आप मेरे स्तवनसे सन्तुष्ट हैं; इसलिये मैं
दिलीपने पूछा-मुनिवर ! आपने पहले यह आपसे एक पुत्र चाहता हूँ। महेश्वर ! मुझे अबतक कोई बात बतायी थी कि मृकण्डु मुनिके मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई। सन्तान नहीं हुई, फिर भगवान् शिवके प्रसादसे उन्होंने भगवान् शङ्कर बोले-मुने ! क्या तुम उत्तम किस प्रकार पुत्र प्राप्त किया ? तथा वह पुत्र शङ्करजीके गुणोंसे होन चिरओवी पुत्र चाहते हो या केवल सोलह प्रसादसे कैसे दीर्घायु हुआ? इन सब बातोंको मैं वर्षकी आयुवाला एक ही गुणवान् एवं सर्वज्ञ पुत्र पानेकी विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। आप बतानेकी इच्छा रखते हो? कृपा करें।
उनके इस प्रकार पूछनेपर धर्मात्मा मृकण्डुने
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उत्तरखण्ड ]
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• मार्कण्डेयजीका जन्म, अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युञ्जय स्तोत्रका वर्णन ●
कहा- 'जगदीश्वर ! मैं गुणहीन पुत्र नहीं चाहता। उसकी आयु छोटी ही क्यों न हो, वह सर्वज्ञ होना चाहिये।'
भगवान् शङ्कर बोले- अच्छा, तो तुम्हें सोलह वर्षकी आयुवाला एक पुत्र प्राप्त होगा, जो परम धार्मिक, सर्वज्ञ, गुणवान्, लोकमें यशस्वी और ज्ञानका समुद्र होगा।
ऐसा कहकर भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये और मुनिवर मृकण्डु इच्छानुसार वरदान पाकर प्रसन्न हो अपने आश्रममें लौट आये। उनकी पत्नी मरुद्वती बहुत दिनोंके बाद गर्भवती हुई। मुनिने विधिपूर्वक गर्भाधान संस्कार किया था । तदनन्तर गर्भस्थ बालकमें चेष्टा उत्पन्न होनेसे पहले पुरुषकी वृद्धिके लिये उन्होंने किसी शुभ दिनको गृह्यसूत्रोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार अच्छे ढंगसे पुंसवन संस्कार किया। जब आठवाँ मास आया, तब संस्कार कर्मो के ज्ञाता उन मुनीश्वरने गर्भके रूपकी समृद्धि और सुखपूर्वक सन्तानकी उत्पत्ति होनेके लिये सीमन्तोन्नयन संस्कार किया। समय आनेपर मरुद्वतीके गर्भसे सूर्यके समान तेजस्वी पुत्रका जन्म हुआ। उस समय देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं, सम्पूर्ण दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं और सब ओरसे प्राणियोंको तृप्त करने वाली कल्याणमयी वाणी सुनायी देने लगी। बालककी शान्तिके लिये वेदव्यास आदि मुनि भी मृकण्डुके आश्रमपर पधारे। साक्षात् महामुनि वेदव्यासने बालकका जातकर्म संस्कार कराया। तत्पश्चात् ग्यारहवें दिन मुनिने नामकरण संस्कार किया। उसके बाद नाना प्रकारके वेदोक्त मन्त्रों और आशीर्वादोंसे अभिनन्दन करके मुनियोंने बालककी रक्षाका शास्त्रीय उपाय किया। फिर मृकण्डु मुनिके द्वारा पूजित हो वे सब लोग लौट गये।
उस समय नगर और प्रान्तके लोग हर्षमें भरकर आपसमें कहते थे— 'अहो! इस बालकका अद्भुत रूप है! अद्भुत तेज है ! और समस्त अङ्गका लक्षण भी अद्भुत है। मरुद्वतीके सौभाग्यसे साक्षात् भगवान् शङ्कर ही इस बालकके रूपमें प्रकट हुए हैं, यह कितने आश्चर्यकी बात है। चौथे महीनेमें पिताने पुत्रको घरसे
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बाहर निकाला। छठे महीनेमें उसका अत्रप्राशन कराया। फिर ढाई वर्षकी अवस्थामे चूडाकर्म करके श्रवण नक्षत्रमें कर्णवेध किया। तदनन्तर कर्मक ज्ञाता मुकण्डु मुनिने बालकके ब्रह्मतेजकी वृद्धिके लिये पाँचवे वर्षकी अवस्थामें उसे यज्ञोपवीत दे दिया। फिर उपाकर्म करके विद्वान् मुनिने बालकको वेद पढ़ाया। उसने अङ्ग, उपाङ्ग, पद तथा क्रमसहित सम्पूर्ण वेदोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया। वह बालक बड़ा शक्तिशाली था। गुरु तो उसके साक्षीमात्र थे। उसने विनय आदि गुणोंको प्रकट करते हुए गुरुमुखसे समस्त विद्याओंको ग्रहण किया। वह भिक्षाके अन्नसे जीवन निर्वाह करता हुआ प्रतिदिन माता-पिताकी सेवामें संलग्न रहता था, बुद्धिमान् मार्कण्डेयकी आयुका सोलहवाँ वर्ष प्रारम्भ होनेपर मृकण्डु मुनिका हृदय शोकसे कातर हो उठा। उनकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें व्याकुलता छा गयी। वे दीनतापूर्वक विलाप करने लगे। मार्कण्डेयने पिताको अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करते देख पूछा-तात! आपके शोकमोहका क्या कारण है ?' मार्कण्डेयके मधुर वचन सुनकर मृकण्डुने अपने शोकका युक्तियुक्त कारण बताया।
मृकण्ड बोले- बेटा! पिनाकधारी भगवान् शङ्करने तुम्हें सोलह वर्षकी ही आयु दी है। उसकी समाप्तिका समय अब आ पहुँचा है; इसीलिये मुझे शोक हो रहा है।
पिताका यह कथन सुनकर मार्कण्डेयने कहा'पिताजी! आप मेरे लिये कदापि शोक न कीजिये। मैं ऐसा यत्न करूँगा, जिससे अमर हो जाऊँ महादेवजी सबको मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करनेवाले और कल्याणस्वरूप हैं। वे मृत्युको जीतनेवाले, विकराल नेत्रधारी, सर्वज्ञ, सत्पुरुषोंको सब कुछ देनेवाले, कालके भी काल, महाकालरूप और कालकूट विषको भक्षण करनेवाले हैं। मैं उन्हींकी आराधना करके अमरत्व प्राप्त करूँगा।' पुत्रकी यह बात सुनकर माता-पिताको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने सारा शोक छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'बेटा! तुमने हम दोनोंका शोक नष्ट करनेके लिये भगवान् मृत्युञ्जयकी आराधनारूप महान् उपायका
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पापुराण
प्रतिपादन किया है। तात ! तुम उन्हींकी शरणमें जाओ। उद्यत हुए, उसी समय मृत्युको साथ लिये काल उन्हें उनसे बढ़कर दूसरा कोई भी हितैषी नहीं है। जो बात लेनेके लिये आ पहुंचा। उसके गोलाकार नेत्र किनारेकी मनकी कल्पनामें भी नहीं आ सकती, उसे भी भगवान् ओरसे लाल-लाल दिखायी दे रहे थे। साँप और बिच्छू शङ्कर सिद्ध कर देते हैं। वे कालका भी संहार करनेवाले ही उसके रोम थे। बड़ी-बड़ी दाढोंके कारण उसका मुख है। बेटा ! क्या तुमने नहीं सुना है, पूर्वकालमें अत्यन्त विकराल जान पड़ता था। वह काजलके समान कालपाशसे बंधे हुए श्वेतकेतुकी महादेवजीने किस प्रकार काला था। समीप आकर कालने उनके गले में फंदा रक्षा की? उन्होंने ही समुद्रमन्थनसे प्रकट हुए डाल दिया। गलेमें बहुत बड़ा फंदा लग जानेपर प्रलयकालीन अग्रिके समान भयङ्कर हालाहल विषका मार्कण्डेयजीने कहा-'महामते काल! मैं जबतक पान करके तीनों लोकोंको बचाया था। जिसने तीनों जगदीश्वर शिवके मृत्युञ्जय नामक महास्तोत्रका पाठ पूरा लोकोंकी सम्पत्ति हड़प ली थी, उस महान् अभिमानी न कर लें, तबतक मेरी प्रतीक्षा करो। मैं शिवजीकी स्तुति जलंधरको अपने चरणोंकी अङ्गष्टरेखासे प्रकट हुए किये बिना कहीं नहीं जाता। भोजन और शयनतक नहीं चक्रद्वारा मौतके घाट उतार दिया था। ये वही भगवान् करता। यह मेरा निश्चित व्रत है। संसारमें जीवन, स्त्री, धूर्जीट है, जिन्होंने श्रीविष्णुको वाण बनाकर एक ही राज्य तथा सुख भी मुझे उतना प्रिय नहीं है, जितना कि बाणके प्रहारसे उत्पन्न हुई आगकी लपटोंसे दैत्योंके तीनों यह शिवजीका स्तोत्र है। यदि मैंने इस विषयमें कोई पुरोको फूंक झला था। अन्धकासुर तीनों लोकोंका ऐश्वर्य असत्य बात न कही हो तो इस सत्यके प्रभावसे भगवान् पाकर विवेकशून्य हो गया था, किन्तु उसे भी महेश्वर सदा मुझपर प्रसन्न रहें।' महादेवजीने अपने त्रिशूलकी नोकपर रखकर दस हजार यह सुनकर कालने मार्कण्डेयजीसे हँसते-हँसते वर्षोंतक सूर्यको किरणोंमें सुखाया। केवल दृष्टि कहा-'ब्रह्मन् ! मालूम होता है तुमने पूर्वकालसे डालनेमात्रसे तीनों लोकोंको जीत लेनेवाले प्रबल निश्चित को हुई बड़े-बूढ़ोंकी यह बात नहीं सुनी है जो कामदेवको उन्होंने ब्रह्मा आदि देवताओंके देखते-देखते मूढ़बुद्धि मानव आयुके प्रथम भागमें ही धर्मका अनुष्ठान जलाकर भस्म कर डाला-अनङ्गकी पदवीको पहुँचा नहीं करता, वह वृद्ध होनेपर साथियोंसे बिछुड़े हुए दिया। भगवान् शिव ब्रह्मा आदि देवताओंके एकमात्र राहीकी भाँति पश्चात्ताप करता है। आठ महीनोंमें ऐसा कर्ता, मेघरूपी वृषभपर सवारी करनेवाले, अपनी उपाय कर लेना चाहिये, जिससे वर्षाकालके चार महीने महिमासे कभी च्युत न होनेवाले, सम्पूर्ण विश्वके आश्रय सुखसे बीतें। दिनमें ही वह काम पूरा कर ले, जिससे और जगत्की रक्षाके लिये दिव्य मणि हैं। बेटा ! तुम रातमें सुखसे रहे। पहली अवस्थामें ही ऐसा कार्य कर उन्हींकी शरणमें जाओ।'...........:
ले, जिससे बुढ़ापे में सुखसे रहे। जीवनभर ऐसा कार्य इस प्रकार माता-पिताकी आज्ञा पाकर मार्कण्डेयजी करता रहे, जिससे मरनेके बाद सुख हो। जो कार्य कल दक्षिण-समुद्रके तटपर चले गये और वहाँ विधिपूर्वक करना हो, उसे आज ही कर ले। जिसे अपराहमें करना अपने ही नामसे एक शिवलिङ्ग स्थापित किया। तीनों हो, उसे पूर्वाहमे ही कर डाले। काल इस बातकी समय स्रान करके वे भगवान् शिवको पूजा करते और प्रतीक्षा नहीं करता कि इस पुरुषका काम पूरा हुआ है पूजाके अन्तमें स्तोत्र पढ़कर नृत्य करते थे। उस स्तोत्रसे या नहीं। यह कार्य कर लिया, यह करना है और इस एक ही दिनमें भगवान् शङ्कर सन्तुष्ट हो गये। कार्यका कुछ अंश हो गया है तथा कुछ बाकी है-इस मार्कण्डेयजीने बड़ी भक्तिके साथ उनका पूजन किया। प्रकारको इच्छाएँ करते हुए पुरुषको काल सहसा आकर जिस दिन उनकी आयु समाप्त होनेवाली थी, उस दिन दबोच लेता है। जिसका काल नहीं आया है, वह सैकड़ों शिवजीकी पूजामें संलग्न हो वे ज्यों ही स्तुति करनेको बाणोंसे बिंध जानेपर भी नहीं मरता तथा जिसका काल
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उत्तरखण्ड ]
. मार्कण्डेयजीका जन्म, अमरत्व-प्राप्ति तथा मृत्युनय-स्तोत्रका वर्णन .
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आ पहुँचा है, वह कुशके अग्रभागसे छू जानेपर भी किया। उसी समय परमेश्वर शिव उस लिङ्गसे सहसा जीवित नहीं रहता। मैं हजारों चक्रवर्ती राजाओं और प्रकट हो गये। उनको अवस्था, उनका रूप-सब कुछ सैकड़ों इन्द्रोंको भी अपना ग्रास बना चुका हूँ। अतः इस अवर्णनीय था। मस्तकपर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा पा विषयमें तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।' रहा था। हुंकार भरकर मेघके समान प्रचण्ड गर्जना करते
जिसका प्रयास कभी विफल नहीं होता, उस हुए उन्होंने तुरंत ही मृत्युकी छातीमें लात मारी। मृत्युदेव कालके उपर्युक्त वचन सुनकर शिवजीकी स्तुतिमें तत्पर उनके चरण-प्रहारसे भयभीत हो दूर जा पड़े। भयंकर रहनेवाले मार्कण्डेयजीने कहा-'काल ! भगवान् आकारवाले कालको दूर पड़ा देख मार्कण्डेयजीने पुनः शिवकी स्तुतिमें लगे रहनेवाले पुरुषोंके कार्यमें जो लोग उस स्तोत्रसे भगवान् शङ्करका स्तवन कियाविघ्र डालते हैं, वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये मैं कैलासके शिखरपर जिनका निवासगृह है, जिन्होंने तुम्हें मना करता हूँ। जैसे राजाके सिपाहियोंपर राजा ही मेरुगिरिका घनुष, नागराज वासुकिकी प्रत्यच्चा और शासन कर सकता है, दूसरा कोई नहीं, उसी प्रकार भगवान् विष्णुको अग्निमय बाण बनाकर तत्काल ही शिवजीके भक्तोंका परमेश्वर शिव ही शासन कर सकते दैत्योंके तीनों पुरोको दग्ध कर डाला था, सम्पूर्ण देवता हैं। भगवान् शङ्करके सेवक पर्वतोंको भी विदीर्ण कर जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, उन भगवान् चन्द्रडालते है, समुद्रोंको भी पी जाते हैं तथा पृथ्वी और शेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? अन्तरिक्षको भी हिला देते हैं। इतना ही नहीं, वे ब्रह्मा मन्दार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और और इन्द्रको भी तिनकेके समान समझते हैं। भला हरिचन्दन-इन पांच दिव्य वृक्षोंके पुष्पोंसे सुगन्धित उनके लिये कौन-सा कार्य दुष्कर है ! भगवान् शिवके युगल चरण-कमल जिनकी शोभा बढ़ाते है, जिन्होंने भक्तोंपर मृत्यु, ब्रह्मा, यमराज, यमदूत तथा दूसरे कोई अपने ललाटवर्ती नेत्रसे प्रकट हुई आगकी ज्वालामें भी अपना प्रभुत्व नहीं स्थापित कर सकते । काल ! क्या कामदेवके शरीरको भस्म कर डाला था, जिनका तुमने मनीषो पुरुषोंका यह वचन नहीं सुना है कि श्रीविग्रह सदा भस्मसे विभूषित रहता है, जो शिवभक्त मनुष्योंपर कहीं भी आपत्ति नहीं आती। ब्रह्मा भव-सबकी उत्पत्तिके कारण होते हुए भी भवआदि सम्पूर्ण देवता क्रुद्ध हो जायें, तो भी वे उन्हें संसारके नाशक हैं तथा जिनका कभी विनाश नहीं होता, मारनेकी शक्ति नहीं रखते।'
उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मार्कण्डेयजीके इस प्रकार फटकारनेपर भगवान् मेरा क्या करेगा? काल आँखें फाड़-फाड़कर उनकी ओर देखने लगे, मानो जो मतवाले गजराजके मुख्य चर्मकी चादर ओढ़े तीनों लोकोंको निगल जायेंगे। वे क्रोधमें भरकर परम मनोहर जान पड़ते हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके बोले-'ओ दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! गङ्गाजीमें जितने बालूके चरण-कमलोकी पूजा करते हैं तथा जो देवताओं और कण हैं, उतने ब्रह्माओंका इस कालने संहार कर डाला सिद्धोंकी नदी गङ्गाको तरङ्गोंसे भीगी हुई शीतल जटा है। इस विषयमें बहुत कहनेकी क्या आवश्यकता । मेरा धारण करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता बल और पराक्रम देखो, मैं तुम्हें अपना ग्रास बनाता हूँ हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? तुम इस समय जिनके दास बने बैठे हो, वे महादेव गेंडल मारे हुए सर्पराज जिनके कानोंमें कुण्डलका मुझसे तुम्हारी रक्षा करें तो सही।'
काम देते हैं, जो वृषभपर सवारी करते हैं, नारद आदि वसिष्ठजी कहते हैं-राजन् ! जैसे राहु मुनीश्वर जिनके वैभवकी स्तुति करते हैं, जो समस्त चन्द्रमाको ग्रस लेता है, उसी प्रकार गर्जना करते हुए भुवनोंके स्वामी, अन्धकासुरका नाश करनेवाले, कालने महामुनि मार्कण्डेयको हठपूर्वक प्रसना आरम्भ आश्रितजनोंके लिये कल्पवृक्षके समान और यमराजको संध्यपु. ३०
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• अर्जयस्व हुवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
भी शान्त करनेवाले हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा?
कर लेगी? । । जो यक्षराज कुबेरके सखा, भग देवताकी आँख - जिनके गलेमें काला दाग है, जो कलामूर्ति, फोड़नेवाले और सोंके आभूषण धारण करनेवाले हैं, कालाग्रिस्वरूप और कालके नाशक हैं, उन भगवान् जिनके श्रीविग्रहके सुन्दर वामभागको गिरिराजकिशोरी शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा उमाने सुशोभित कर रखा है, कालकूट विष पीनेके क्या कर लेगी? कारण जिनका कण्ठभाग नीले रंगका दिखायी देता है, जिनका कण्ठ नील और नेत्र विकराल होते हुए भी जो एक हाथमें फरसा और दूसरेमें मृग लिये रहते हैं, उन जो अत्यन्त निर्मल और उपद्रवरहित है, उन भगवान् भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या करेगा?
क्या कर लेगी? - जो जन्म-मरणके रोगसे अस्त पुरुषोंके लिये जो वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम
औषधरूप हैं, समस्त आपत्तियोंका निवारण और धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर दक्ष-यज्ञका विनाश करनेवाले हैं, सत्त्व आदि तीनों गुण प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? जिनके स्वरूप हैं, जो तीन नेत्र धारण करते, भोग और जो देवताओंके भी आराध्यदेव, जगत्के स्वामी मोक्षरूपी फल देते तथा सम्पूर्ण पापराशिका संहार करते और देवताओंपर भी शासन करनेवाले हैं, जिनकी है, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज ध्वजापर वृषभका चिह्न बना हुआ है, उन भगवान् मेरा क्या करेगा?
. शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा के जो भक्तोंपर दया करनेवाले हैं, अपनी पूजा क्या कर लेगी? करनेवाले मनुष्यों के लिये अक्षय निधि होते हुए भी जो जो अनन्त, अविकारी, शान्त, रुद्राक्षमालाधारी स्वयं दिगम्बर रहते हैं, जो सब भूतोंके स्वामी, परात्पर, और सबके दुःखोंका हरण करनेवाले हैं, उन भगवान् अप्रमेय और उपमारहित हैं, पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा और चन्द्रमाके द्वारा जिनका श्रीविग्रह सुरक्षित है, उन क्या कर लेगी? . भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा जो परमानन्दस्वरूप, नित्य एवं कैवल्यपदक्या करेगा?
मोक्षकी प्राप्तिके कारण है, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक - जो ब्रह्मारूपसे सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करते, फिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? विष्णुरूपसे सबके पालनमें संलग्न रहते और अन्तमें सारे जो स्वर्ग और मोक्षके दाता तथा सृष्टि, पालन और प्रपञ्चका संहार करते हैं, सम्पूर्ण लोकोंमें जिनका निवास संहारके कर्ता हैं, उन भगवान् शिवको मै मस्तक है तथा जो गणेशजीके पार्षदोंसे घिरकर दिन-रात भाँति- झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? भाँतिके खेल किया करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी वसिष्ठजी कहते हैं-मार्कण्डेयजीके द्वारा किये मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? हुए इस स्तोत्रका जो भगवान् शङ्करके समीप पाठ करेगा,
रु अर्थात् दुःखको दूर करनेके कारण जिन्हें रुद्र उसे मृत्युसे भय नहीं होगा-यह मैं सत्य-सत्य कहता कहते हैं, जो जीवरूपी पशुओका पालन करनेसे हूँ। बुद्धिमान् मार्कण्डेयके इस प्रकार स्तुति करनेपर पशुपति, स्थिर होनेसे स्थाणु, गलेमें नीला चिह्न धारण महादेवजीने उन्हें अनेक कल्पोतककी असीम आयु करनेसे नीलकण्ठ और भगवती उमाके स्वामी होनेसे प्रदान की। इस प्रकार देवाधिदेव महादेवजीके प्रसादसे उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं अमरत्व पाकर महातेजस्वी मार्कण्डेयने बहुत-से प्रलयके
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उत्तरखण्ड ]
. माघ-सानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम .
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दृश्य देखे हैं। वरदान पानेके अनन्तर महामुनि इस पृथ्वीपर विचरने लगे। यमराज भी भगवान् शङ्करकी मार्कण्डेयने पुनः अपने आश्रममें लौटकर माता-पिताको स्तुति करके अपने लोकमें चले गये। राजन् ! मृगङ्ग प्रणाम किया। फिर उन्होंने भी पुत्रका अभिनन्दन किया। मुनि सदा माघस्नान किया करते थे। उसीके माहात्म्यसे उसके बाद मार्कण्डेयजी तीर्थयात्रामें प्रवृत्त होकर सदा उनकी सन्तान इस प्रकार सौभाग्यशालिनी हुई।
माघ-नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
राजा दिलीपने पूछा-मुने! आप तीर्थ है, वह पितरोंके लिये तृप्तिदायक और हितकर है। इक्ष्वाकुवंशके गुरु और महात्मा हैं। आपको नमस्कार ये भूमिपर विराजमान तीर्थ हैं, जिनका मैंने तुमसे वर्णन है। माघस्नानमें संलग्न रहनेवाले पुरुषोंके लिये किया है। राजन् ! अब मानस तीर्थ बतलाता हूँ, सुनो। कौन-कौनसे मुख्य तीर्थ है? उनका विस्तारके साथ उनमें भलीभांति स्रान करनेसे मनुष्य परम गतिको प्राप्त वर्णन कीजिये। मैं सुनना चाहता हूँ।
होता है। सत्यतीर्थ, क्षमातीर्थ, इन्द्रिय-निग्रहतीर्थ, वसिष्ठजीने कहा-राजन् ! माघ मास आनेपर सर्वभूतदयातीर्थ, आर्जव (सरलता)-तीर्थ, दानतीर्थ, वस्तीसे बाहर जहाँ-कहीं भी जल हो, उसे सब ऋषियोंने दम (मनोनिग्रह)-तीर्थ, सन्तोषतीर्थ, ब्रह्मचर्यतीर्थ, गङ्गाजलके समान बतलाया है; तथापि मैं तुमसे नियमतीर्थ, मन्त्र-जपतीर्थ, प्रियभाषणतीर्थ, ज्ञानतीर्थ, विशेषतः माघस्रानके लिये मुख्य-मुख्य तीथोंका वर्णन धैर्यतीर्थ, अहिंसातीर्थ, आत्मतीर्थ, ध्यानतीर्थ और करता हूँ। पहला है-तीर्थराज प्रयाग। वह बहुत शिवस्मरण-तीर्थ-ये सभी मानस तीर्थ हैं। मनकी विख्यात तीर्थ है। प्रयाग सब तीर्थोंमें कामनाकी पूर्ति शुद्धि सब तीर्थोसे उत्तम तीर्थ है। शरीरसे जलमें डुबकी करनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों लगा लेना ही सान नहीं कहलाता । जिसने मन और पुरुषार्थोको देनेवाला है। उसके सिवा नैमिषारण्य, इन्द्रियोंके संयममें स्नान किया है, वास्तवमें उसीका स्नान कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, उज्जैन, सरयू, यमुना, द्वारका, सफल है; क्योंकि वह पवित्र एवं स्नेहयुक्त चित्तवाला अमरावती, सरस्वती और समुद्रका सङ्गम, गङ्गा-सागर- माना गया है।* संगम, काशी, त्र्यम्बक तीर्थ, सप्त-गोदावरीका तट, जो लोभी, चुगलखोर, क्रूर, दम्भी और विषयकालार, प्रभास, बदरिकाश्रम, महालय, ओंकार क्षेत्र, लोलुप है, वह सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करके भी पापी और पुरुषोत्तम क्षेत्र-जगन्नाथपुरी, गोकर्ण, भृगुकर्ण, मलिन ही बना रहता है; केवल शरीरकी मैल छुड़ानेसे भृगुतुङ्ग, पुष्कर, तुङ्गभद्रा, कावेरी, कृष्णा-वेणी, नर्मदा, मनुष्य निर्मल नहीं होता, मनकी मैल धुलनेपर ही वह सुवर्णमुखरी तथा वेगवती नदी-ये सभी माघ मासमें अत्यन्त निर्मल होता है। जलचर जीव जलमें ही जन्म स्रान करनेवालोंके लिये मुख्य तीर्थ है। गया नामक जो लेते और उसीमें मर जाते है किन्तु इससे वे स्वर्गमें नहीं
सय तीर्थक्षमा तीर्थ तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः॥ सर्वभूतदया तीर्थ तीर्थमार्जवमेव च । दानं तीर्थ दमस्तीर्थ संतोषस्तीर्थमेव च॥ ब्रह्मचर्य पर तीर्थ नियमस्तीर्थमुच्यते । मन्त्राणां तु जपस्तीर्थ तीर्थ तु प्रियवादिता ।। ज्ञान तीर्थ भृतिस्तीर्थमहिंसा तीर्थमेव च । आत्मतीर्थ ध्यानतीर्थ पुनस्तीर्थ शिवस्मृतिः ॥ . तीर्थानामुत्तमं तीर्थ विशुद्धिर्मनसः पुनः । न जलापुलदेहस्य सानमित्यभिधीयते ॥ स सातो यो दमनातः शुचिस्निग्धमना मतः।
(२३७ । १२-१७)
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· अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
जाते, क्योंकि उनके मनकी मैल नहीं धुली रहती। विषयोंमें जो अत्यन्त आसक्ति होती है, उसीको मानसिक मल कहते हैं। विषयोंकी ओरसे वैराग्य हो जाना ही मनकी निर्मलता है। दान, यज्ञ, तपस्या, बाहर भीतरकी शुद्धि और शास्त्र - ज्ञान भी तीर्थ ही हैं। यदि अन्तःकरणका भाव निर्मल हो तो ये सब के सब तीर्थ ही हैं। जिसने इन्द्रिय समुदायको काबू कर लिया है, वह मनुष्य जहाँ-जहाँ निवास करता है, वहीं वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ प्रस्तुत हैं। जो ज्ञानसे पवित्र, ध्यानरूपी जलसे परिपूर्ण और राग द्वेषरूपी मलको धो देनेवाला है, ऐसे मानस तीर्थमें जो स्नान करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। राजन्! यह मैंने तुम्हें मानस तीर्थका लक्षण बतलाया है।
अब भूतलके तीर्थोकी पवित्रताका कारण सुनो। जैसे शरीरके कुछ भाग परम पवित्र माने गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वीके भी कुछ स्थान अत्यन्त पुण्यमय माने जाते हैं। भूमिके अद्भुत प्रभाव, जलकी शक्ति और मुनियोंके अनुग्रहपूर्वक निवाससे तीर्थोको पवित्र बताया गया है; इसलिये भौम और मानस सभी तीर्थोंमें जो नित्य स्नान करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है । प्रचुर दक्षिणावाले अनिष्टोम आदि यज्ञोंसे यजन करके भी मनुष्य उस फलको नहीं पाता, जो उसे तीर्थोंमें जानेसे प्राप्त होता है। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर और मन भलीभाँति काबू में हों तथा जो विद्या, तप और कीर्तिसे सम्पन्न हो, वह तीर्थके फलका भागी होता है जो प्रतिग्रहसे निवृत्त जिस किसी वस्तुसे भी संतुष्ट रहनेवाला और अहङ्कारसे मुक्त है, वह तीर्थके फलका भागी होता है। श्रद्धापूर्वक एकाग्रचित्त हो तीर्थोकी यात्रा करनेवाला धीर पुरुष कृतन हो तो भी शुद्ध हो जाता है; फिर जो शुद्ध कर्म करता है, उसकी तो बात ही क्या है ? वह मनुष्य पशु-पक्षियोंकी योनिमें नहीं पड़ता, बुरे देशमें जन्म नहीं लेता, दुःखका भागी नहीं होता, स्वर्गलोकमें जाता और मोक्षका उपाय भी प्राप्त कर लेता है। अश्रद्धालु, पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और केवल युक्तिवादका सहारा लेनेवाला - ये पाँच प्रकारके मनुष्य
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
तीर्थफलके भागी नहीं होते। जो शास्त्रोक्त तीर्थोंमें विधिपूर्वक विचरते और सब प्रकारके द्वन्द्वोंको सहन करते हैं, वे धीर मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं। तीर्थमें अर्घ्य और आवाहनके बिना ही श्राद्ध करना चाहिये । वह श्राद्धके योग्य काल हो या न हो, तीर्थमें बिना विलम्ब किये श्राद्ध और तर्पण करना उचित है; उसमें विघ्न नहीं डालना चाहिये। अन्य कार्यके प्रसङ्गसे भी तीर्थमें पहुँच जानेपर स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे तीर्थयात्राका नहीं, परन्तु तीर्थस्नानका फल अवश्य प्राप्त होता है। तीर्थमें नहानेसे पापी मनुष्योंके पापकी शान्ति होती है। जिनका हृदय शुद्ध है, उन मनुष्योंको तीर्थ शास्त्रोक्त फल प्रदान करनेवाला होता है। जो दूसरेके लिये तीर्थयात्रा करता है, वह भी उसके पुण्यका सोलहवाँ अंश प्राप्त कर लेता है। कुशकी प्रतिमा बनाकर तीर्थके जलमें उसे स्नान करावे। जिसके उद्देश्यसे उस प्रतिमाको स्नान कराया जाता है, वह पुरुष तीर्थस्नानके पुण्यका आठवाँ भाग प्राप्त करता है। तीर्थमें जाकर उपवास करना और सिरके बालोंका मुण्डन कराना चाहिये। मुण्डनसे मस्तकके पाप नष्ट हो जाते हैं। जिस दिन तीर्थमें पहुँचे, उसके पहले दिन उपवास करे और दूसरे दिन श्राद्ध एवं दान करे। तीर्थके प्रसङ्गमें मैने श्राद्धको भी तीर्थ बतलाया है। यह स्वर्गका साधन तो है ही, मोक्षप्राप्तिका भी उपाय है।
इस प्रकार नियमका आश्रय ले माघ मासमें व्रत ग्रहण करना चाहिये और उस समय ऐसी ही तीर्थयात्रा करनी चाहिये। माघ मासमें स्नान करनेवाला पुरुष सब जगह कुछ-न-कुछ दान अवश्य करे। बेर, केला और आँवलेका फल, सेरभर घी, सेरभर तिल, पान, एक आढक (सोलह सेर) चावल, कुम्हड़ा और खिचड़ीये नौ वस्तुएँ प्रतिदिन ब्राह्मणोंको दान करनी चाहिये। जिस किसी प्रकार हो सके, माघ मासको व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये। किञ्चित् सूर्योदय होते-होते माघस्नान करना चाहिये तथा माघ स्नान करनेवाले पुरुषको यथाशक्ति शौच-सन्तोष आदि नियमोंका पालन करना चाहिये। विशेषतः ब्राह्मणों और साधु-संन्यासियोंको पकवान
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उत्तरखण्ड ] . माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति .
............................................. भोजन कराना चाहिये। जाड़ेका कष्ट दूर करनेके लिये प्राप्तिके लिये भगवान् माधवकी पूजा करे । माघ मासमें बोझ-के-बोझ सूखे काठ दान करे। रूईभरा अंगा, डुबकी लगानेसे सारे दोष नष्ट हो जाते हैं और अनेकों शय्या, गद्दा, यज्ञोपवीत, लाल वस्त्र, रूईदार रजाई, जन्मोंके उपार्जित सम्पूर्ण महापाप तत्काल विलीन हो जायफल, लौंग, बहुत-से पान, विचित्र-विचित्र जाते हैं। यह माघस्नान ही मङ्गलका साधन है, यही कम्बल, हवासे बचानेवाले गृह, मुलायम जूते और वास्तवमें धनका उपार्जन है तथा यही इस जीवनका फल सुगन्धित उबटन दान करे। माषनानपूर्वक घी, कम्बल, है। भला, माघस्नान, मनुष्योंका कौन-कौन-सा कार्य पूजनसामग्री, काला अगर, धूप, मोटी बत्तीवाले दीप नहीं सिद्ध करता? वह पुत्र, मित्र, कलत्र, राज्य, स्वर्ग और भाँति-भांतिके नैवेधसे माघनानजनित फलकी तथा मोक्षका भी देनेवाला है।
माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
वसिष्ठजी कहते है-राजन् ! सुनो, मैं तुमसे किया करते थे; उन्होंने चाण्डाल आदिसे भी दान लिया, सुव्रतके चरित्रका वर्णन करता हूँ। यह शुभ प्रसङ्ग कन्या बेची तथा गौ, तिल, चावल, रस और तेलका भी श्रोताओंके समस्त पापोंको तत्काल हर लेनेवाला है। विक्रय किया। वे दूसरोंके लिये तीर्थमें जाते, दक्षिणा नर्मदाके रमणीय तटपर एक बहुत बड़ा अग्रहार- लेकर देवताको पूजा करते, वेतन लेकर पढ़ाते और ब्राह्मणोंको दानमें मिला हुआ गाँव था। वह लोगोंमें दूसरोंके घर खाते थे; इतना ही नहीं, वे नमक, पानी, अकलङ्क नामसे विख्यात था, उसमें वेदोंके ज्ञाता और दूध, दही और पक्वान भी बेचा करते थे। इस तरह धर्मात्मा ब्राह्मण निवास करते थे। वह धन-धान्यसे भरा अनेक उपायोंसे उन्होंने यलपूर्वक धन कमाया। धनके था और वेदोंके गम्भीर घोषसे सम्पूर्ण दिशाओंको पीछे उन्होंने नित्य-नैमित्तिक कर्मतक छोड़ दिया था। न मुखरित किये रहता था। उस गाँवमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, खाते थे, न दान करते थे। हमेशा अपना धन गिनते जो सुव्रतके नामसे विख्यात थे। उन्होंने सम्पूर्ण वेदोंका रहते थे कि कब कितना जमा हुआ। इस प्रकार उन्होंने अध्ययन किया था। वेदार्थके वे अच्छे ज्ञाता थे, एक लाख स्वर्णमुद्राएँ उपार्जित कर ली। धनोपार्जनमें धर्मशास्त्रोंके अर्थका भी पूर्ण ज्ञान रखते थे, पुराणोंकी लगे-लगे ही वृद्धावस्था आ गयी और सारा शरीर जर्जर व्याख्या करनेमें वे बड़े कुशल थे। वेदाङ्गोंका अभ्यास हो गया। कालके प्रभावसे समस्त इन्द्रियाँ शिथिल हो करके उन्होंने तर्कशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, गजविद्या, गयीं। अब वे उठने और कहीं आने-जानेमें असमर्थ हो अश्वविद्या, चौसठ कलाएँ, मन्त्रशास्त्र, सांख्यशास्त्र तथा गये। धनोपार्जनका काम बंद हो जानेसे स्त्रीसहित योगशास्त्रका भी अध्ययन किया था। वे अनेक देशोंकी ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी हुए। इस प्रकार चिन्ता लिपियाँ और नाना प्रकारकी भाषाएँ जानते थे। यह सब करते-करते जब उनका चित्त बहुत व्याकुल हो गया, कुछ उन्होंने धन कमानेके लिये ही सीखा था तथा तब उनके मनमें सहसा विवेकका प्रादुर्भाव हुआ। लोभसे मोहित होनेके कारण अपने भित्र-भित्र गुरुओंको सुव्रत अपने-आप कहने लगे-मैंने नौच गुरुदक्षिणा भी नहीं दी थी। उपायोंके जानकार तो थे ही, प्रतिग्रहसे, नहीं बेचने योग्य वस्तुओंके बेचनेसे तथा उन्होंने उक्त उपायोंसे बहुत-कुछ धनका उपार्जन किया। तपस्या आदिका भी विक्रय करनेसे यह धन जमा किया उनके मनमें बड़ा लोभ था; इसलिये वे अन्यायसे भी है फिर भी मुझे शान्ति नहीं मिली। मेरी तृष्णा अत्यन्त धन कमाया करते थे। जो वस्तु बेचनेके योग्य नहीं है, दुस्सह है। यह मेरु पर्वतके समान असंख्य सुवर्ण उसको भी बेचते और जंगलकी वस्तुओंका भी विक्रय पानेकी अभिलाषा रखती है। अहो ! मेरा मन महान्
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• अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
कष्टदायक और सम्पूर्ण क्लेशोंका कारण है। सब सन्ध्योपासना नहीं की। अगर्भ (ध्यानरहित) या सगर्भ कामनाओंको पाकर भी यह फिर दूसरी-दूसरी नवीन (ध्यानसहित) प्राणायाम भी नहीं किया। तीन बार जल कामनाओंको प्राप्त करना चाहता है। बूढ़े होनेपर सिरके पीकर और दो बार ओठ पोंछकर भलीभाँति आचमन बाल पक जाते हैं, दाँत टूट जाते हैं, आँख और कानोंकी नहीं किया। उतावली छोड़कर और हाथमें कुशकी शक्ति भी क्षीण हो जाती है; किन्तु एक तृष्णा ही ऐसी पवित्री लेकर मैंने कभी गायत्रीमन्त्रका वाचिक, उपांशु है, जो उस समय भी नित्य तरुण होती जाती है। जिसके अथवा मानस जप भी नहीं किया। जीवोका बन्धन मनमें कष्टदायिनी आशा मौजूद है, वह विद्वान् होकर भी । छुड़ानेवाले महादेवजीकी आराधना नहीं की। जो मन्त्र अज्ञानी है, अशान्त है, क्रोधी है और बुद्धिमान् होकर भी पढ़कर अथवा बिना मन्त्रके ही शिवलिङ्गके ऊपर एक अत्यन्त मूर्ख है। आशा मनुष्योंको नष्ट करनेवाली है, पत्ता या फूल डाल देता है, उसकी करोड़ों पीढ़ियोका उसे अनिके समान जानना चाहिये; अतः जो विद्वान् उद्धार हो जाता है; किन्तु मैंने कभी ऐसा नहीं किया। सनातन पदको प्राप्त करना चाहता हो, वह आशाका सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाले भगवान् विष्णुको कभी परित्याग कर दे। बल, तेज, यश, विद्या, सम्मान, सन्तुष्ट नहीं किया। पाँच प्रकारकी हत्याओंके पाप शास्त्रज्ञान तथा उत्तम कुलमें जन्म-इन सबको आशा शान्त करनेवाले पञ्चयज्ञोंका अनुष्ठान नहीं किया। शीघ्र ही नष्ट कर देती है। मैंने भी इसी प्रकार बहुत क्लेश स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाले अतिथिके सत्कारसे भी उठाकर यह धन कमाया है। वृद्धावस्थाने मेरे शरीरको वञ्चित रहा। संन्यासीका सत्कार करके उसे अन्नकी भी गला दिया और सारा बल भी हर लिया। अबसे मैं भिक्षा नहीं दी। ब्रह्मचारीको विधिपूर्वक अतिथिके योग्य श्रद्धापूर्वक परलोक सुधारनेके लिये प्रयत्न करूँगा। भोजन नहीं दिया।
ऐसा निश्चय करके ब्राह्मण देवता जब धर्मके 'मैंने ब्राह्मणोंको भाँति-भांतिके सुन्दर एवं महीन मार्गपर चलनेके लिये उत्सुक हुए, उसी दिन रातमें कुछ वस्त्र नहीं अर्पण किये। सब पापोंका नाश करनेके लिये चोर उनके घरमें घुस आये। आधी रातका समय था; प्रज्वलित अनिमें घीसे भीगे हुए मन्त्रपूत तिलोंका हवन आततायी चोरोंने ब्राह्मणको खूब कसकर बाँध दिया नहीं किया। श्रीसूक्त, पावमानी ऋचा, मण्डल ब्राह्मण, और सारा धन लेकर चंपत हुए। चोरोंके द्वारा धन छिन पुरुषसूक्त और परमपवित्र शतरुद्रिय मन्त्रका जप नहीं जानेपर ब्राह्मण अत्यन्त दारुण विलाप करने किया। पीपलके वृक्षका सेवन नहीं किया। अर्कलगा—'हाय ! मेरा धन कमाना धर्म, भोग अथवा त्रयोदशीका व्रत त्याग दिया। वह भी यदि रातको मोक्ष-किसी भी काममें नहीं आया। न तो मैंने उसे अथवा शुक्रवारके दिन पड़े, तो तत्काल सब पापोंको भोगा और न दान ही किया। फिर किसलिये धनका हरनेवाली है; किन्तु मैंने उसकी भी उपेक्षा कर दी। ठंदी उपार्जन किया? हाय ! हाय ! मैंने अपने आत्माको छायावाले सघन वृक्षका पौधा नहीं लगाया। सुन्दर धोखेमें डालकर यह क्या किया? सब जगहसे दान शय्या और मुलायम गद्देका दान नहीं किया। पंखा, लिया और मदिरातकका विक्रय किया। पहले तो एक छतरी, पान तथा मुखको सुगन्धित करनेवाली और कोई ही गौका प्रतिग्रह नहीं लेना चाहिये। यदि एकको ले वस्तु भी ब्राह्मणको दान नहीं दी। नित्य श्राद्ध, भूतबलि लिया तो दूसरीका प्रतिग्रह लेना कदापि उचित नहीं है। तथा अतिथि-पूजा भी नहीं की। उपर्युक्त उत्तम उस गौको भी यदि बेच दिया जाय तो वह सात वस्तुओंका जो लोग दान करते हैं, वे पुण्यके भागी पीढ़ियोंको दग्ध कर देती है। इस बातको जानते हुए भी मनुष्य यमलोकमें यमराजको, यमदूतोंको और मैंने लोभवश ऐसे-ऐसे पाप किये हैं। धन कमानेके यमलोककी यातनाओंको नहीं देखते; किन्तु मैंने यह भी जोशमें मैंने एक दिन भी एकाग्रचित्त होकर अच्छी तरह नहीं किया। गौओंको ग्रास नहीं दिया। उनके शरीरको
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उत्तरखण्ड
• सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन •
कभी नहीं खुजलाया, कीचड़में फंसी हुई गौको, जो कहा थागोलोकमें सुख देनेवाली होती है, मैंने कभी नहीं माघे निमन्नाः सलिले सुशीतेसा निकाला । याचकोको उनकी मुंहमांगी वस्तुएँ देकर कभी
विमुक्तपापाखिदिवं प्रयान्ति ॥ सन्तुष्ट नहीं किया। भगवान् विष्णुको पूजाके लिये कभी
(२३८1७८) तुलसीका वृक्ष नहीं लगाया। शालग्रामशिलाके तीर्थभूत माघ मासमें शीतल जलके भीतर डुबकी लगानेचरणामृतको न तो कभी पीया और न मस्तकपर ही वाले मनुष्य पापमुक्त हो स्वर्गलोकमें जाते हैं।' चढ़ाया। एक भी पुण्यमयी एकादशी तिथिको उपवास पुराणमेसे मैंने इस श्लोकको सुना है। यह बहुत ही नहीं किया। शिवलोक प्रदान करनेवाली शिवरात्रिका भी प्रामाणिक है; अतः इसके अनुसार मुझे माघका स्रान व्रत नहीं किया। वेद, शास्त्र, धन, स्त्री, पुत्र, खेत और करना ही चाहिये। अटारी आदि वस्तुएँ इस लोकसे जाते समय मेरे साथ मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके सुव्रतने अपने नहीं जायेंगी। अब तो मैं बिलकुल असमर्थ हो गया; मनको सुस्थिर किया और नौ दिनोंतक नर्मदाके जलमें अतः कोई उद्योग भी नहीं कर सकूँगा । क्या करूँ, कहाँ माघ मासका नान किया। उसके बाद स्नान करनेकी भी जाऊँ। हाय ! मुझपर बड़ा भारी कष्ट आ पड़ा । मेरे पास शक्ति नहीं रह गयी। वे दसवें दिन किसी तरह परलोकका राहखर्च भी नहीं है।' या नर्मदाजीमें गये और विधिपूर्वक स्नान करके तटपर
- इस प्रकार व्याकुलचित्त होकर सुव्रतने मन-ही-मन आये। उस समय शीतसे पीड़ित होकर उन्होंने प्राण विचार किया-'अहो ! मेरी समझमें आ गया, आ त्याग दिया। उसी समय मेरुगिरिके समान तेजस्वी गया, आ गया। मैं धन कमानेके लिये उत्तम देश विमान आया और माघस्रानके प्रभावसे सुव्रत उसपर काश्मीरको जा रहा था। मार्गमें भागीरथी गङ्गाके तटपर आरूढ़ हो स्वर्गलोकको चले गये। वहाँ एक मन्वन्तरमुझे कुछ ब्राह्मण दिखायी दिये, जो वेदोंके पारगामी तक निवास करके वे पुनः इस पृथ्वीपर ब्राह्मण हुए। विद्वान् थे। वे प्रातःकाल माघस्नान करके बैठे थे। वहाँ फिर प्रयागमें माघस्रान करके उन्होंने ब्रह्मलोक किसी पौराणिक विद्वान्ने उस समय यह आधा श्लोक प्राप्त किया।
सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
- राजा दिलीपने पूछा-भगवन् ! आपने महाभाग ! यह हमें बताइये, हमारे ऊपर कृपा कीजिये।' वर्णाश्रमधर्म तथा नित्य-नैमित्तिक कोसहित सम्पूर्ण नारदजीने कहा-महर्षियो! पूर्वकालमें धर्मोका वर्णन किया। अब मैं सनातन मोक्ष-मार्गका सनकादि योगियोंने एकान्तमें बैठे हुए ब्रह्माजीसे परम वर्णन सुनना चाहता हूँ। आप उसे सुनानेकी कृपा करें। दुर्लभ मोक्ष-मार्गके विषयमें प्रश्न किया। सम्पूर्ण मन्त्रों कौन-सा ऐसा मन्त्र है, जो संसाररूपी तब ब्रह्माजीने कहा-सम्पूर्ण योगीजन परम रोगको एकमात्र औषध हो? सब देवताओमें कौन मोक्ष उत्तम मोक्ष-मार्गका वर्णन सुनें । बड़े सौभाग्यकी बात है प्रदान करनेवाला श्रेष्ठ देवता है ? यह सब बताइये। कि आज मैं इस अद्भुत रहस्यका वर्णन करूंगा। समस्त
- वसिष्ठजी बोले-राजन् ! प्राचीन कालकी बात देवता और तपस्वी ऋषि भी इस रहस्यको नहीं जानते। है-यज्ञ और दानमें लगे रहनेवाले सम्पूर्ण महर्षियोंने सृष्टिके आदिमें अविनाशी भगवान् नारायण मुझपर ब्रह्माजीके पुत्र मुनिश्रेष्ठ नारदजीसे प्रश्न किया- प्रसन्न हुए। उस समय मैंने उन पुराणपुरुषोत्तमसे 'भगवन् ! हम किस मन्त्रसे परमपदको प्राप्त होंगे? पूछा-'भगवन् ! किस मन्त्रसे मनुष्योंका इस संसारसे
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
उद्धार होगा ? इसको यथार्थरूपसे बतलाइये। इससे सब लोगों का हित होगा। कौन सा ऐसा मन्त्र है, जो बिना पुरश्चरणके ही एक बार उच्चारण करनेमात्र से मनुष्योंको परमपद प्रदान करता है।'
श्रीभगवान् बोले- महाभाग ! तुम सब लोकोंके हितैषी हो। तुमने यह बहुत उत्तम बात पूछी है। अतः मैं तुम्हें वह रहस्य बतलाता हूँ, जिसके द्वारा मनुष्य मुझे प्राप्त कर सकते हैं। लक्ष्मी और नारायण—ये दो मन्त्ररत्न शरणागतजनोंकी रक्षा करते हैं। सब मन्त्रोंकी अपेक्षा ये हैं। एक बार स्मरण करनेमात्रसे ये परमपद शुभकारक प्रदान करते हैं। लक्ष्मीनारायण मन्त्र सब फलोंको देनेवाला है। जो मेरा भक्त नहीं है, वह इस मन्त्रको पानेका अधिकारी नहीं है। उसे यत्नपूर्वक दूर रखना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र तथा इतर जातिके मनुष्य भी यदि मेरे भक्त हों तो वे सभी इस मन्त्रको पानेके अधिकारी हैं। जो शरणमें आये हो, मेरे सिवा दूसरेका सेवन न करते हों तथा अन्य किसी साधनका आश्रय न लेते हों - ऐसे लोगोंको इस उत्तम मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। यह सबको शरण देनेवाला मन्त्र है। एक बार उच्चारण करनेपर भी यह आर्त्त प्राणियोंको शीघ्र फल प्रदान करनेवाला है। आर्त्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी अथवा ज्ञानी — जो कोई भी एक बार मेरी शरणमें आ जाता है, उसे उक्त मन्त्रका पूरा फल मिलता है। जो भक्तिहीन, अभिमानी, नास्तिक, कृतघ्न एवं श्रद्धारहित हो, सुननेकी इच्छा न रखता हो तथा एक वर्षतक साथ न रह चुका हो ऐसे मनुष्यको इस मन्त्रका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो काम-क्रोधसे मुक्त और दम्भ-लोभसे रहित हो तथा अनन्य भक्तियोगके द्वारा मेरी सेवा करता हो, उसे विधिपूर्वक इस उत्तम मन्त्र - रत्नका उपदेश करना उचित है।
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मेरी आराधना करना, मुझमें समस्त कर्मोंका अर्पण करना, अनन्यभावसे मेरी शरणमें आना, मुझे सब कर्मोंका फल अत्यन्त विश्वासपूर्वक समर्पित कर देना, मेरे सिवा और किसी साधनपर भरोसा न रखना तथा
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
अपने लिये किसी वस्तुका संग्रह न करना – ये सब शरणागत भक्तके नियम हैं। ऐसे गुणोंसे युक्त पुरुषको इस उत्तम मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। उक्त मन्त्रका मैं सर्वव्यापी सनातन नारायण ही ऋषि हूँ। लक्ष्मीके साथ मैं ही इसका देवता भी हूँ अर्थात् वात्सल्य रसके समुद्र, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर, श्रीमान्, सुशील, सुभग, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, निरन्तर पूर्णकाम, सर्वव्यापक, सबके बन्धु और कृपामयी सुधाके सागर लक्ष्मीसहित मैं नारायण ही इसका देवता हूँ। अतः मेरी अनुगामिनी लक्ष्मीदेवीके साथ मुझ विश्वरूपी भगवान्का ध्यान करना चाहिये। अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके पवित्र हो उक्त मन्त्ररत्नद्वारा गन्ध-पुष्प आदि निवेदन करके शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले दिव्यरूपधारी मुझ विष्णुका मेरे वामाङ्कमें विराजमान लक्ष्मीसहित पूजन करे। प्रजापते ! इस प्रकार एक बार पूजा करनेपर भी मैं सन्तुष्ट हो जाता हूँ। ब्रह्माजीने कहा - नाथ! आपने इस उत्तम रहस्यका भलीभाँति वर्णन किया तथा मन्त्ररत्नके
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प्रभावको भी बतलाया, जो मनुष्योंको सब प्रकारकी सिद्धिका प्रदान करनेवाला है। आप सम्पूर्ण लोकोंके पिता, माता, गुरु, स्वामी, सखा, भ्राता, गति, शरण और सुहृद हैं। देवेश्वर! मैं तो आपका दास, शिष्य तथा सुहृद् हूँ। अतः दयासिन्धो ! मुझे अपनेसे अभित्र बना लीजिये। सर्वज्ञ ! अब आप इस समय सब लोगोंके हितकी इच्छासे उत्तम विधिके साथ मन्त्ररत्नकी दीक्षाका तत्त्वतः वर्णन कीजिये ।
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श्रीभगवान् बोले- वत्स ! सुनो- मैं मन्त्रदीक्षाकी उत्तम विधि बतलाता हूँ। मेरे आश्रयकी सिद्धिके लिये पहले आचार्यकी शरण ले आचार्य ऐसे होने चाहिये जो वैदिक ज्ञानसे सम्पन्न, मेरे भक्त, द्वेषरहित, मन्त्रके ज्ञाता, मन्त्रके भक्त, मन्त्रकी शरण लेनेवाले, पवित्र, ब्रह्मविद्याके विशेषज्ञ, मेरे भजनके सिवा और किसी साधनका सहारा न लेनेवाले, अन्य किसीके नियन्त्रणमें न रहनेवाले, ब्राह्मण, वीतराग, क्रोध लोभसे शून्य, सदाचारकी शिक्षा देनेवाले, मुमुक्षु
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उत्तरखण्ड]
. भगवान् विष्णुकी महिमा तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण •
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तथा परमार्थवेत्ता हो। ऐसे गुणोंसे युक्त पुरुषको ही और नारदजीको भी उक्त मन्त्रका उपदेश दिया। तत्पश्चात् आचार्य कहा गया है। जो आचारकी शिक्षा दे, उसीका नैमिषारण्यवासी शौनकादि महर्षियोंको नारदजीने इस नाम आचार्य है। जो आचार्यके अधीन हो, उनके मन्त्रका उपदेश दिया, जो शरणागतोंकी रक्षा करता है। अनुशासनमें मन लगाये और आज्ञापालनमें स्थिरचित्त राजन् ! महर्षि भी इस गुह्यतम मन्त्रको नहीं जानते। हो, उसे ही साधु पुरुषोंने शिष्य कहा है। ऐसे लक्षणोंसे लक्ष्मी और नारायण-ये दोनों मन्त्र परम रहस्यमय है। युक्त सर्वगुणसम्पन्न शिष्यको विधिपूर्वक उत्तम इन दोनोंसे श्रेष्ठ दूसरा कोई मन्त्र नहीं है। इन दोनोंसे श्रेष्ठ मन्त्ररत्रका उपदेश करे । द्वादशीको, श्रवण नक्षत्रमें या धर्म सम्पूर्ण लोकोंमें कोई नहीं है। ब्रह्माजीने पूर्वकालमें वैष्णवके बताये हुए किसी भी समयमें उत्तम आचार्यकी तीन बार सत्यकी प्रतिज्ञा करके कहा था-'मनुष्योंको प्राप्ति होनेपर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
मुक्ति प्रदान करनेके लिये भगवान् नारायणसे बढ़कर वसिष्ठजी कहते हैं-इस प्रकार मन्त्ररत्नका दूसरा कोई देवता नहीं है। उनकी सेवा ही सम्पूर्ण उपदेश पाकर तीनों लोकोंके सामने ब्रह्माजीने मुझको शुभाशुभ कर्मोका मूलोच्छेद करनेवाला मोक्ष है।'
भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके
स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
राजा दिलीपने कहा-भगवन् ! हरिभक्तिमयी श्रीमहादेवजीने कहा-सब लोकोका हित सुधासे पूर्ण आपके वचनोंको सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं चाहनेवाली महादेवी ! तुम्हें साधुवाद । तुम जो भगवान् होती-अधिकाधिक सुननेकी इच्छा बढ़ती जाती है। लक्ष्मीपतिके उत्तम माहात्म्यके विषयमें प्रश्न करती हो, अतः इस विषयमें जितनी बातें हों, सब बताइये। यह बहुत ही उत्तम है। पार्वती ! तुम धन्य हो, पुण्यात्मा मुनिश्रेष्ठ ! इस भयानक संसाररूपी वनमें आध्यात्मिक हो और भगवान् विष्णुकी भक्त हो। तुम्हारा कल्याण हो, आदि तीनों तापोंके दावानलकी महाज्वालासे सन्तप्त हुए मैं तुम्हारे शील, रूप और गुणोंसे सदा ही सन्तुष्ट रहता मनुष्योंके लिये श्रीहरिभक्तिमयी सुधाके समुद्रको हूँ। गिरिजे ! मैं उत्तम भगवद्भक्ति, भगवान् विष्णुके छोड़कर दूसरा कौन-सा आश्रय हो सकता है? स्वरूप तथा उनके मन्त्रोंके विधानका वर्णन करता हूँ महामुने! मुनिजन जिनकी सदा उपासना करते हैं, सुनो । भगवान् नारायण ही परमार्थतत्त्व हैं। वे ही विष्णु, परमात्माकी भक्तिके उन विभिन्न रूपोंको इस समय वासुदेव, सनातन, परमात्मा, परब्रह्म, परम ज्योति, विस्तारके साथ बतलाइये।
परात्पर, अच्युत, पुरुष, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर, वसिष्ठजीने कहा-राजेन्द्र ! तुम्हारा प्रश्न बहुत नित्य, सर्वगत, स्थाणु, रुद्र, साक्षी, प्रजापति, यज्ञ, उत्तम है। यह मनुष्योंको संसार-सागरके पार साक्षात्, यज्ञपति, ब्रह्मणस्पति, हिरण्यगर्भ, सविता, उतारनेवाला है। भगवान् विष्णुकी भक्ति नित्य सुख लोककर्ता, लोकपालक और विभु आदि नामोंसे पुकारे देनेवाली है। प्राचीन कालमें कैलास पर्वतके शिखरपर जाते हैं। वे भगवान् विष्णु 'अ' अक्षरके वाच्य, भगवती पार्वतीजीने लोकपूजित भगवान् शङ्करसे इसी लक्ष्मीसे सम्पन्न, लीलाके स्वामी तथा सबके प्रभु हैं। महान् प्रश्रको पूछा था।
अन्नसे जिसकी उत्पत्ति होती है, उस जीव-समुदायके पार्वतीजी बोली-देवदेव! त्रिपुरासुरको तथा अमृतत्व (मोक्ष) के भी स्वामी हैं। वे विश्वात्मा मारनेवाले महादेव ! सुरेश्वर ! मुझे विष्णुभक्तिका उपदेश सहस्रों मस्तकवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रो कीजिये, जो सब प्राणियोंको मुक्ति देनेवाली है। पैरवाले हैं। उनका कभी अत्त नहीं होता। इसलिये वे
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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
या
[संक्षिप्त पापुराण
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अनन्त कहलाते हैं। लक्ष्मीके पति होनेसे श्रीपति नाम नारायण ही हैं। 'छन्द' दैवी गायत्री है। प्रणवको इसका धारण करते हैं। योगिजन उनमें रमण करते हैं, इसलिये 'बीज' कहा गया है। भगवान्से कभी विलग न होनेउनका नाम राम है। वे समस्त गुणोंको धारण करते हैं, वाली भगवती लक्ष्मीको ही विद्वान् पुरुष इस मन्त्रको तथापि निर्गुण हैं। महान् हैं। वे समस्त लोकोंके ईश्वर, 'शक्ति' कहते हैं। इस मन्त्रका पहला पद 'ॐ', दूसरा श्रीमान्, सर्वज्ञ तथा सब ओर मुखवाले हैं। पार्वती ! उन पद 'नमः'और तीसरा पद 'नारायणाय' है। इस प्रकार लोकप्रधान जगदीश्वर भगवान् वासुदेवके माहात्म्यका यह तीन पदोंका मन्त्र बतलाया गया है। प्रणवमें तीन जितना मुझसे हो सकेगा, वर्णन करता हूँ। वास्तवमें तो अक्षर हैं-अकार, उकार तथा मकार । प्रणवको तीनों मैं, ब्रह्माजी तथा सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उसका पूरा वेदोंका स्वरूप बतलाया गया है। यह ब्रह्मका निवासवर्णन नहीं कर सकते। सम्पूर्ण उपनिषदोंमें भगवान्की स्थान है। अकारसे भगवान् विष्णुका और उकारसे महिमाका ही प्रतिपादन है तथा वेदान्तमें उन्हींको भगवती लक्ष्मीका प्रतिपादन होता है। मकारसे उन परमार्थ-तत्त्व निश्चित किया गया है।
दोनोंके दासभूत जीवात्माका कथन है, जो पचीसवाँ अब मैं भगवान्की उपासनाके पृथक्-पृथक् भेद तत्त्व है। बतलाता हूँ, सुनो। भगवान्का अर्चन, उनके मन्त्रोंका किसी-किसीके मतमें उकार अवधारणवाची है। जप, स्वरूपका ध्यान, नामोंका स्मरण, कीर्तन, श्रवण, इस पक्षमें भी श्रीतत्त्वका प्रतिपादन उकारके ही द्वारा वन्दन, चरण-सेवन, चरणोदक-सेवन, उनका प्रसाद किया जाता है। जैसे सूर्यकी प्रभा सूर्यसे कभी अलग ग्रहण करना, भगवद्भक्तोंकी सेवा, द्वादशीव्रतका पालन नहीं होती, उसी प्रकार भगवती लक्ष्मी श्रीविष्णुसे नित्य तथा तुलसीका वृक्ष लगाना-यह सब देवाधिदेव संयुक्त रहती हैं। अकारसे जिनका बोध कराया जाता है, भगवान् विष्णुकी भक्ति है, जो भव-बन्धनसे छुटकारा वे लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु कारणके भी कारण हैं। दिलानेवाली है। सम्पूर्ण देवताओंके तथा मेरे लिये भी सम्पूर्ण जीवात्माओके प्रधान अङ्गी है। जगत्के बीज है पुरुषोत्तम श्रीहरि ही पूजनीय हैं। ब्राह्मणोंके लिये तो वे और परमपुरुष हैं। वे ही जगत्के कर्ता, पालक, ईश्वर विशेषरूपसे पूज्य हैं। अतः ब्राह्मणोंको उचित है कि वे और लोकके बन्धु-बान्धव है। तथा उनकी मनोरमा पत्नी प्रतिदिन विधिपूर्वक श्रीहरिका पूजन करें।
लक्ष्मी सम्पूर्ण जगत्की माता, अधीश्वरी और आधार. श्रेष्ठ द्विजको अष्टाक्षर मन्त्रका अभ्यास करना शक्ति हैं। वे नित्य हैं और श्रीविष्णुसे कभी विलग नहीं चाहिये। प्रणवको मिलाकर ही वह मन्त्र अष्टाक्षर कहा होतीं। उकारसे उन्हींके तत्वका बोध कराया जाता है। गया है। मन्त्र है-'ॐ नमो नारायणाय' । इस प्रकार मकारसे इन दोनोंके दास जीवात्माका कथन है, जिसे इस मन्त्रको अष्टाक्षर जानना चाहिये। यह सब विद्वान् पुरुष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। यह ज्ञानका आश्रय और मनोरथोंकी सिद्धि और सब दुःखोंका नाश करनेवाला ज्ञानरूपी गुणसे युक्त है। इसे चित्त और प्रकृतिसे परे है। इसे सर्वम-त्रस्वरूप और शुभकारक माना गया है। माना गया है। यह अजन्मा, निर्विकार, एकरूप, स्वरूपका इस मन्त्रके 'ऋषि' और 'देवता' लक्ष्मीपति भगवान् भागी, अणु, नित्य, अव्यापक, चिदानन्द-स्वरूप 'अहं'
१-'दैव्येकम्' इस पिङ्गल-सूत्रके अनुसार एक अक्षरका अथवा आठ अक्षरोंके एक पदका सन्द 'दैवी गायत्री' है। पहली व्याख्याके अनुसार 'प्रणव' को और दूसरी व्याख्याके अनुसार अष्टाक्षर मन्त्रको 'दैवी गायत्री छन्दके अन्तर्गत माना गया है। इस 'दैवी गायत्री' को एकाक्षरा' या 'एकपदा' गायत्री भी कहते हैं। चौबीस अक्षरोकी तो जो प्रसिद्ध गायत्री है, वह आठ-आठ अक्षरोंके तीन पादोंसे युक्त होनेके कारण 'त्रिपदा गायत्री' कहलाती है।
२-दस इन्द्रियाँ, पाँच भूत, पाँच इन्द्रियोंके विषय, मन, अहंकार, महतत्व और प्रकृति-ये चौवीस तत्त्व है; इनका साक्षी चेतन पचीसवाँ तत्त्व है।
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उत्तरखण्ड]
• भगवान् विष्णुकी महिमा तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण .
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पदका अर्थ, अविनाशी, क्षेत्र (शरीर) का अधिष्ठाता, उनका दास बना रहूँ।' इस भावसे स्वेच्छापूर्वक अपने भिन्न-भिन्न रूप धारण करनेवाला, सनातन, जलाने, आत्माको ईश्वरकी सेवामें लगाना चाहिये। इस प्रकार काटने, गलाने और सुखानेमे न आनेवाला तथा मनके द्वारा अहंता, ममताका त्याग करना उचित है। अविनाशी है। ऐसे गुणोंसे युक्त जो जीवात्मा है, वह देहमें जो अहंबुद्धि होती है, वही संसार-बन्धनका मूल सदा परमात्माका अङ्गभूत है। वह केवल श्रीहरिका ही कारण है। वही कोक बन्धनमें डालती है। अतः विद्वान् दास है और किसीका नहीं। इस प्रकार मध्यम अक्षर पुरुष अहङ्कारको त्याग दे।* उकारके द्वारा जीवके दासभावका ही अवधारण पार्वती ! अब मैं 'नारायण' शब्दकी व्याख्या करता (निश्चय) किया जाता है। इस तरह प्रणवका अर्थ हूँ। शुभे ! नर अर्थात् जीवोंके समुदायको नार कहते हैं। जानना चाहिये। प्रणवका अर्थ स्पष्ट हो जानेपर शेष उन 'नार' शब्दवाच्य जीवोंके अयन-गति अर्थात् मन्त्रके द्वारा परमात्माके दासभूत जीवकी परतन्त्रता ही आश्रय परम पुरुष श्रीविष्णु हैं। अतः वे नारायण सिद्ध होती है। वह कभी स्वतन्त्र नहीं होता। अतः कहलाते हैं। अथवा नार यानी जीव उन भगवान्के अपनी स्वतन्त्रताके महान् अहङ्कारको मनसे दूर कर देना अयन-निवासस्थान है। इसलिये भी उन्हें नारायण चाहिये। अहङ्कार-बुद्धिसे जो कर्म किया जाता है, कहा जाता है। जड़-चेतनरूप जितना भी जगत् देखा या उसका भी निषेध है।
- सुना जाता है, उसको पूर्णरूपसे व्याप्त करके भगवान् 'मनस्'-मन शब्दमें जो मकार है, वह नित्य विराजमान हैं। इसलिये उनका नाम नारायण हैं। अहङ्कारका वाचक है और नकार उसका निषेध करने- जो कल्पके अन्तमें सम्पूर्ण जगत्को अपना ग्रास बनाकर वाला है। अतः मनसे ही जीवके लिये अहङ्कार- अपने ही भीतर धारण करते हैं और सृष्टिके त्यागकी प्रेरणा मिलती है। अहङ्कारसे युक्त मनुष्यको आरम्भकालमें पुनः सबकी सृष्टि करते हैं, वे भगवान् तनिक भी सुख नहीं मिलता। जिसका चित्त अहङ्कारसे नारायण कहे गये हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत् नार मोहित है, वह घोर अन्धकारसे पूर्ण नरकमें गिरता है। कहलाता है। उसको जिनका संग नित्य प्राप्त है अथवा इसलिये मनके द्वारा क्षेत्रज्ञकी स्वतन्त्रताका निषेध किया उसे जिनके द्वारा उत्तम गति प्राप्त होती है, उन्हें नारायण गया है। वह भगवान्के अधीन है। भगवान्के अधीन कहते हैं। जलसे फेनकी भांति जिनसे सम्पूर्ण लोक ही उसका जीवन है। अत: चेतन जीवात्मा किसी उत्पन्न होते और पुनः जिनमें लीन हो जाते हैं, उन साधनका स्वतन्त्र कर्ता नहीं है। ईश्वरके संकल्पसे ही भगवानको नारायण कहा गया है। जो अविनाशी पद, सम्पूर्ण चराचर जगत् अपने-अपने व्यापारमें लगा है। नित्यस्वरूप तथा नित्यप्राप्त भोगोंसे सम्पन्न हैं, साथ ही अतः जीव अपने सामर्थ्यपर निर्भर रहना छोड़ दे। जो सम्पूर्ण जगत्का शासन करनेवाले हैं, उन भगवान्का ईश्वरके सामर्थ्य से उसके लिये कुछ भी अलभ्य नहीं है। नाम नारायण है। दिव्य, एक, सनातन और अपनी अपना सारा भार भगवान् लक्ष्मीपतिको सौंपकर उनकी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि ही नारायण आराधनाके ही कर्म करे। 'श्रीहरि परमात्मा हैं। मैं सदा कहलाते हैं। द्रष्टा और दृश्य, श्रोता और श्रोतव्य, स्पर्श
• यहाँ मूलमें 'मनस्' शब्दका पाठ होनेसे मनका ही उल्लेख किया गया है किन्तु प्रकरण देखनेसे मालूम होता है, 'मनस्' की जगह 'नमस्' पाठ होना चाहिये। यहाँ अष्टाक्षर मन्चकी व्याख्या चल रही है मबका स्वरूप है-'ॐ नमो नारायणाय। इसमें ॐकारको व्याख्या विस्तारके साथ की गयी है। इसके बाद 'नमस् की व्याख्याका प्रसङ्ग है, जिसे शायद भूलसे मनस् लिखा गया है। इसके आगे 'नारायणाय' पदकी व्याख्या मिलती है। अतः यहाँ 'मनम् के मकार-कारसे जो भाव लिया गया है, वह 'नमः' के नकार-मारका भाव है-ऐसा समझना चाहिये।
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. अयस्त हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण
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करनेवाला और स्पृश्य, ध्याता और ध्येय, वक्ता और समस्त हव्य-कव्योंका भोग लगाते हैं। वे ही इस लोकमें वाच्य तथा ज्ञाता और ज्ञेय-जो कुछ भी जड़-चेतनमय अविनाशी श्रीहरि एवं ईश्वर कहलाते है। उनके निकट जगत् है, वह सब लक्ष्मीपति श्रीहरि हैं, जिन्हें नारायण आनेसे समस्त राक्षस, असुर और भूत तत्काल भाग कहा गया है। वे सहसों मस्तकवाले, अन्तर्यामी पुरुष, जाते हैं। जो विराटप धारण करके अपनी विभूतिसे सहस्रों नेत्रोंसे युक्त तथा सहस्रों चरणोंवाले हैं। भूत और तीनों लोकोंको तृप्त करते हैं, वे पापको हरनेवाले वर्तमान-सब कुछ नारायण श्रीहरि ही है। अन्नसे श्रीजनार्दन ही परमेश्वर हैं। जब पुरुषरूपी हविके द्वारा जिसकी उत्पत्ति होती है, उस प्राणिसमुदाय तथा देवताओंने यज्ञ किया, तब उस यज्ञसे नीचे-ऊपर दोनों अमृतत्व-मोक्षके भी स्वामी वे ही हैं। वे ही विराट् ओर दाँत रखनेवाले जीव उत्पत्र हुए। सबको होमनेवाले पुरुष हैं। वे अन्तर्यामी पुरुष ही श्रीविष्णु, वासुदेव, उस यज्ञसे ही ऋग्वेद और सामवेदकी उत्पत्ति हुई। अच्युत, हरि, हिरण्मय, भगवान्, अमृत, शाश्वत तथा उसीसे घोड़े, गौ और पुरुष आदि उत्पन्न हुए। उस शिव आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत्के सर्वयज्ञमय पुरुष श्रीहरिके शरीरसे स्थावर-जङ्गमरूप पालक और सब लोकोंपर शासन करनेवाले ईश्वर है। वे समस्त जगत्की उत्पत्ति हुई। उनके मुख, बाह, ऊरु और हिरण्मय अण्डको उत्पन्न करनेके कारण हिरण्यगर्भ और चरणोंसे क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण उत्पन्न हुए। सबको जन्म देनेके कारण सविता है। उनकी महिमाका भगवान्के पैरोंसे पृथ्वी और मस्तकसे आकाशका अन्त नहीं है, इसलिये वे अनन्त कहलाते हैं। वे महान् प्रादुर्भाव हुआ। उनके मनसे चन्द्रमा, नेत्रोंसे सूर्य, मुखसे ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेके कारण महेश्वर हैं। उन्हींका नाम अग्नि, सिरसे धुलोक, प्राणसे सदा चलनेवाले वायु, भगवान् (षविध ऐश्वर्यसे युक्त) और पुरुष है। नाभिसे आकाश तथा सम्पूर्ण चराचर जगत्की उत्पत्ति 'वासुदेव' शब्द बिना किसी उपाधिके सर्वात्माका बोधक हुई। सब कुछ श्रीविष्णुसे ही प्रकट हुआ है, इसलिये वे है। उन्हींको ईश्वर, भगवान् विष्णु, परमात्मा, संसारके सर्वव्यापी नारायण सर्वमय कहलाते हैं। इस प्रकार सुहृद्, चराचर प्राणियोंके एकमात्र शासक और सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करके श्रीहरि पुनः उसका संहार यतियोंकी परमगति कहते हैं। जिन्हें वेदके आदिमें स्वर करते हैं-ठीक उसी तरह, जैसे मकड़ी अपनेसे प्रकट कहा गया है, जो वेदान्तमें भी प्रतिष्ठित हैं तथा जो हुए तत्तुओंको पुनः अपने में ही लीन कर लेती है। ब्रह्मा, प्रकृतिलीन पुरुषसे भी परे हैं, वे ही महेश्वर कहलाते हैं। इन्द्र, रुद्र, वरुण और यम-सभी देवताओंको अपने प्रणवका जो अकार है, वह श्रीविष्णु ही हैं और जो विष्णु वशमें करके उनका संहार करते हैं; इसलिये भगवान्को हैं, वे ही नारायण हरि हैं। उन्हींको नित्यपुरुष, परमात्मा हरि कहा जाता है। जब सारा जगत् प्रलयके समय
और महेश्वर कहते हैं। मुनियोंने उन्हें ही ईश्वर नाम दिया एकार्णवमें निमग्न हो जाता है, उस समय वे सनातन है। इसलिये भगवान् वासुदेवमें उपाधिशून्य 'ईश्वर' पुरुष श्रीहरि संसारको अपने उदरमें स्थापित करके स्वयं शब्दको प्रतिष्ठा है। सनातन वेदवादियोंने उन्हें आत्पेश्वर मायामय वटवृक्षके पत्रपर शयन करते हैं। कल्पके कहा है। इसलिये वासुदेवमें महेश्वरत्वको भी प्रतिष्ठा है। आरम्भमें एकमात्र सर्वव्यापी एवं अविनाशी भगवान् वे त्रिपाद् विभूति तथा लीलाके भी अधीश्वर है । जो श्री, नारायण ही थे। उस समय न ब्रह्मा थे, न रुद्र । न देवता भू तथा लीला देवीके स्वामी हैं, उन्हींको अच्युत कहा थे, न महर्षि । ये पृथ्वी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, गया है। इसलिये वासुदेवमें सर्वेश्वर शब्दकी भी प्रतिष्ठा लोक तथा महत्तत्त्वसे आवृत ब्रह्माण्ड भी नहीं थे। है। जो यज्ञके ईश्वर, यज्ञस्वरूप, यज्ञके भोक्ता, यज्ञ श्रीहरिने समस्त जगत्का संहार करके सृष्टिकालमें पुनः करनेवाले, विभु, यज्ञरक्षक और यज्ञपुरुष हैं, वे भगवान् उसकी सृष्टि की; इसलिये उन्हें नारायण कहा गया है। ही परमेश्वर कहलाते हैं। वे ही यज्ञके अधीश्वर होकर पार्वती ! 'नारायणाय' इस चतुर्थ्यन्त पदसे जीवके
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उत्तरखण्ड ]
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• श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियों का वर्णन
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श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
दासभावका प्रतिपादन होता है। ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण समझकर पीछे मन्त्रका प्रयोग करना चाहिये। मन्त्रार्थको जगत् भगवान्का दास ही है। पहले इस अर्थको न जाननेसे सिद्धि नहीं प्राप्त होती ।
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पार्वतीजी बोलीं- देवेश्वर ! आप मन्त्रोंके अर्थ और पदोंकी महिमाको विस्तारके साथ बतलाइये। साथ ही ईश्वरके स्वरूप, गुण, विभूति, श्रीविष्णुके परम धाम तथा व्यूह भेदोंका भी यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये ।
महादेवजीने कहा-देवि ! सुनो-मैं परमात्माके स्वरूप, विभूति, गुण तथा अवस्थाओंका वर्णन करता हूँ। भगवान्के हाथ, पैर और नेत्र सम्पूर्ण विश्व व्याप्त हैं। समस्त भुवन और श्रेष्ठ धाम भगवान्में ही स्थित हैं। वे महर्षियोंका मन अपनेमें स्थिर करके विराजमान हैं। उनका स्वरूप विशाल एवं व्यापक है। वे लक्ष्मीके पति और पुरुषोत्तम हैं। उनका लावण्य करोड़ों कामदेवोंके समान है। वे नित्य तरुण किशोरविग्रह धारण करके जगदीश्वरी भगवती लक्ष्मीजीके साथ परमपद — वैकुण्ठधाममें विराजते हैं। वह परम धाम ही परमव्योम कहलाता है। परमव्योम ऐश्वर्यका उपभोग करनेके लिये है और यह सम्पूर्ण जगत् लीला करनेके लिये। इस प्रकार भोगभूमि और क्रीड़ाभूमिके रूपमें श्रीविष्णुकी दो विभूतियाँ स्थित हैं। जब वे लीलाका उपसंहार करते हैं, तब भोगभूमिमें उनकी नित्य स्थिति होती है। भोग और लीला दोनोंको वे अपनी शक्तिसे ही धारण करते हैं। भोगभूमि या परमधाम त्रिपाद - विभूतिसे व्याप्त है। अर्थात् भगवद्विभूतिके तीन अंशोंमें उसकी स्थिति है और इस लोकमें जो कुछ भी है, वह भगवान्की पाद विभूतिके अन्तर्गत है। परमात्माकी त्रिपाद विभूति नित्य और पाद विभूति अनित्य है। परमधाममें भगवान्का जो शुभ विग्रह विराजमान है, वह नित्य है। वह कभी अपनी महिमासे च्युत नहीं होता, उसे सनातन एवं दिव्य माना गया है। वह सदा तरुणावस्थासे सुशोभित रहता है। वहाँ भगवान्को भगवती श्रीदेवी और भूदेवीके साथ नित्य संभोग प्राप्त है। जगन्माता
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लक्ष्मी भी नित्यरूपा हैं। वे श्रीविष्णुसे कभी पृथक् नहीं होतीं। जैसे भगवान् विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं, उसी प्रकार भगवती लक्ष्मी भी हैं। पार्वती ! श्रीविष्णुपत्नी रमा सम्पूर्ण जगत्की अधीश्वरी और नित्य कल्याणमयी हैं। उनके भी हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक और मुख सब ओर व्याप्त हैं। वे भगवान् नारायणकी शक्ति, सम्पूर्ण जगत्की माता और सबको आश्रय प्रदान करनेवाली हैं। स्थावरजङ्गमरूप सारा जगत् उनके कृपा-कटाक्षपर ही निर्भर है। विश्वका पालन और संहार उनके नेत्रोंके खुलने और बंद होनेसे ही हुआ करते हैं। वे महालक्ष्मी सबकी आदिभूता, त्रिगुणमयी और परमेश्वरी हैं। व्यक्त और अव्यक्त भेदसे उनके दो रूप हैं। वे उन दोनों रूपोंसे सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित हैं। जल आदि रसके रूपसे वे ही लीलामय देह धारण करके प्रकट होती हैं। लक्ष्मीरूपमें आकर वे धन प्रदान करनेकी अधिकारिणी होती हैं। ऐसे स्वरूपवाली लक्ष्मीदेवी श्रीहरिके आश्रयमें रहती हैं। सम्पूर्ण वेद तथा उनके द्वारा जाननेयोग्य जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब श्रीलक्ष्मीके ही स्वरूप हैं। स्त्रीरूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब लक्ष्मीका ही विग्रह कहलाता है। स्त्रियोंमें जो सौन्दर्य, शील, सदाचार और सौभाग्य स्थित है, वह सब लक्ष्मीका ही रूप है। पार्वती भगवती लक्ष्मी समस्त स्त्रियोंकी शिरोमणि हैं, जिनकी कृपा कटाक्षके पड़नेमात्रसे ब्रह्मा, शिव, देवराज इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, कुबेर, यमराज तथा अग्निदेव प्रचुर ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं।
उनके नाम इस प्रकार है-लक्ष्मी, श्री, कमला, विद्या, माता, विष्णुप्रिया सती, पद्मालया पद्महस्ता, पद्माक्षी पद्मसुन्दरी, भूतेश्वरी, नित्या, सत्या, सर्वगता, शुभा, विष्णुपत्नी, महादेवी, क्षीरोदतनया (क्षीरसागरकी कन्या), रमा, अनन्तलोकनाभि (अनन्त लोकोंकी
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.. अचयस्व पीकेशं यदीकासि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पद्मपुराण
उत्पत्तिका केन्द्रस्थान), भू, लीला, सर्वसुखप्रदा, करनेवाले है। उन श्रीविष्णुको नमस्कार है। मैं सम्पूर्ण रुक्मिणी, सर्ववेदवती, सरस्वती, गौरी, शान्ति, स्वाहा, देश-काल आदि अवस्थाओंमें पूर्णरूपसे भगवान्का स्वधा, रति, नारायणवरारोहा, (श्रीविष्णुकी सुन्दरी पत्नी) दासत्व स्वीकार करता हूँ। इस प्रकार स्वरूपका विचार तथा विष्णोर्नित्यानुपायिनी (सदा श्रीविष्णुके समीप करके सिद्धिप्राप्त पुरुष अनायास ही दासभावको प्राप्त कर रहनेवाली)। जो प्रातःकाल उठकर इन सम्पूर्ण नामोंका लेता है। यही पूर्वोक्त मन्त्रका अर्थ है। इसको जानकर पाठ करता है, उसे बहुत बड़ी सम्पत्ति तथा विशुद्ध भगवान्में भलीभाँति भक्ति करनी चाहिये। यह चराचर धन-धान्यकी प्राप्ति होती है।
जगत् भगवान्का दास ही है। श्रीनारायण इस जगत्के -हिरण्यवर्णा हरिणी : सुवर्णरजतस्रजाम्। स्वामी, प्रभु, ईश्वर, भ्राता, माता, पिता, बन्धु, निवास,
चन्द्रां हिरपमयीं लक्ष्मी विष्णोरनपगामिनीम्॥ शरण और गति है। भगवान् लक्ष्मीपति कल्याणमय गन्धद्धारां दुराधा नित्यपुष्टा करीषिणीम्। गुणोंसे युक्त और समस्त कामनाओंका फल प्रदान ईश्वरी सर्वभूताना तामिहोपवये श्रियम्॥ करनेवाले है। वे ही जगदीश्वर शालोमे निर्गुण कहे गये .
(२५५।२८-२९) हैं। 'निर्गुण' शब्दसे यही बताया गया है कि भगवान् 'जिनके श्रीअङ्गोंका रङ्ग सुवर्णके समान सुन्दर एवं प्रकृतिजन्य हेय गुणोंसे रहित हैं। जहाँ वेदान्तवाक्योंद्वारा गौर है, जो सोने-चाँदीके हारोंसे सुशोभित और सबको प्रपञ्चका मिथ्यात्व बताया गया है और यह कहा गया है आह्लादित करनेवाली है, भगवान् श्रीविष्णुसे जिनका कि यह सारा दृश्यमान जगत् अनित्य है, वहाँ भी कभी वियोग नहीं होता, जो स्वर्णमयो कान्ति धारण ब्रह्माण्डके प्राकृत रूपको ही नर बताया गया है। करती हैं, उत्तम लक्षणोंसे विभूषित होनेके कारण जिनका प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले रूपोंकी ही अनित्यताका नाम लक्ष्मी है, जो सब प्रकारको सुगन्धोंका द्वार हैं, प्रतिपादन किया गया है। जिनको परास्त करना कठिन है, जो सदा सब अङ्गोंसे महादेवि ! इस कथनका तात्पर्य यह है कि लीलापुष्ट रहती हैं, गायके सूखे गोबरमें जिनका निवास है विहारी देवदेव श्रीहरिकी लीलाके लिये ही प्रकृतिकी तथा जो समस्त प्राणियोंकी अधीश्वरी हैं, उन भगवती उत्पत्ति हुई है। चौदह भुवन, सात समुद्र, सात द्वीप, चार श्रीदेवीका मैं यहाँ आवाहन करता हूँ।'
प्रकारके प्राणी तथा ऊँचे-ऊँचे पर्वतोंसे भरा हुआ यह .. ऋग्वेदमें कहे हुए इस मन्त्रके द्वारा स्तुति करनेपर रमणीय ब्रह्माण्ड प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ है। यह उत्तरोत्तर महेश्वरी लक्ष्मीने शिव आदि सभी देवताओंको सब महान् दस आवरणोंसे घिरा हुआ है। कला-काष्ठा आदि प्रकारका ऐश्वर्य और सुख प्रदान किया था। श्रीविष्णुपत्नी भेदसे जो कालचक्र चल रहा है, उसीके द्वारा संसारकी लक्ष्मी सनातन देवता हैं। वे ही इस जगत्का शासन सृष्टि, पालन और संहार आदि कार्य होते हैं। एक सहस्र करती हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत्की स्थिति उन्हकि चतुर्युग व्यतीत होनेपर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीका एक कृपा-कटाक्षपर निर्भर है। अग्निमें रहनेवाली प्रभाकी दिन पूरा होता है। इतने ही बड़े दिनसे सौ वर्षोंकी उनकी भाँति भगवती लक्ष्मी जिनके वक्षःस्थलमें निवास करती आयु मानी गयी है। ब्रह्माजीकी आयु समाप्त होनेपर हैं, वे भगवान् विष्णु सबके ईश्वर, परम शोभा-सम्पन्न, सबका संहार हो जाता है। ब्रह्माण्डके समस्त लोक अक्षर एवं अविनाशी पुरुष है; वे श्रीनारायण वात्सल्य- कालाग्निसे दग्ध हो जाते हैं। सर्वात्मा श्रीविष्णुको गुणके समुद्र हैं। सबके स्वामी, सुशील, सुभग, सर्वज्ञ, प्रकृतिमें उनका लय हो जाता है। ब्रह्माण्ड और सर्वशक्तिमान्, नित्य पूर्णकाम, स्वभावतः सबके सुहृद्, आवरणके समस्त भूत प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं। सम्पूर्ण सुखी, दयासुधाके सागर; समस्त देहधारियोंके आश्रय, जगत्का आधार प्रकृति है और प्रकृतिके आधार स्वर्ग और मोक्षका सुख देनेवाले और भक्तोंपर दया श्रीहरि । प्रकृतिके द्वारा ही भगवान् सदा जगत्की सृष्टि
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, थाम एवं विभूतियोंका वर्णन •
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और संहार करते हैं। देवाधिदेव श्रीविष्णुने लीलाके लिये कारण अत्यन्त अद्भुत, रमणीय, नित्य तथा आनन्दका जगन्मयी मायाकी सृष्टि की है। वही अविद्या, प्रकृति, सागर है। श्रीविष्णुका वह परमपद ऐसे ही गुणोंसे युक्त माया और महाविद्या कहाती है। सृष्टि, पालन और है। उसे सूर्य, चन्द्रमा तथा अनिदेव नहीं प्रकाशित संहारका कारण भी वही है। वह सदा रहनेवाली है। करते-वह अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है। जहाँ योगनिद्रा और महामाया भी उसीके नाम हैं। प्रकृति जाकर जीव फिर कभी नहीं लौटते, वही श्रीहरिका परम सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणोंसे युक्त है। उसे धाम है। श्रीविष्णुका वह परमधाम नित्य, शाश्वत एवं अव्यक्त और प्रधान भी कहते हैं। वह लीलाविहारी अच्युत है। सौ करोड़ कल्पोंमें भी उसका वर्णन नहीं श्रीकृष्णकी क्रीड़ास्थली है। संसारकी उत्पत्ति और प्रलय किया जा सकता। मैं, ब्रह्मा तथा श्रेष्ठ मुनि श्रीहरिके उस सदा उसीसे होते हैं। प्रकृतिके स्थान असंख्य हैं, जो घोर पदका वर्णन नहीं कर सकते । जहाँ अपनी महिमासे कभी अन्धकारसे पूर्ण हैं। प्रकृतिसे ऊपरकी सीमामें विरजा च्युत न होनेवाले साक्षात् परमेश्वर श्रीविष्णु विराजमान हैं, नामकी नदी है; किन्तु नीचेकी ओर उस सनातनी उसकी महिमाको वे स्वयं ही जानते हैं। जो अविनाशी पद प्रकृतिकी कोई सीमा नहीं है। उसने स्थूल, सूक्ष्म आदि है, जिसकी महिमाका वेदोंमें गूढरूपसे वर्णन है तथा अवस्थाओंके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है। जिसमें सम्पूर्ण देवता और लोक स्थित हैं उसे जो नहीं प्रकृति के विकाससे सृष्टि और संकोचावस्थासे प्रलय होते जानता, वह केवल ऋचाओंका पाठ करके क्या करेगा। हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण भूत प्रकृतिके ही अन्तर्गत हैं। यह जो उसे जानते हैं, वे ही ज्ञानी पुरुष समभावसे स्थित होते जो महान् शून्य (आकाश) है, वह सब भी प्रकृतिके ही हैं। श्रीविष्णुके उस परम पदको ज्ञानी पुरुष सदा देखते भीतर है। इस तरह प्राकृतरूप ब्रह्माण्ड अथवा हैं। वह अक्षर, शाश्वत, नित्य एवं सर्वत्र व्याप्त है। पादविभूतिके स्वरूपका अच्छी तरह वर्णन किया गया। कल्याणकारी नामसे युक्त भगवान् विष्णुके उस
गिरिराजकुमारी ! अब त्रिपाट्-विभूतिके स्वरूपका परमधाम-गोलोकमें बड़े सींगोवाली गौएँ रहती है तथा वर्णन सुनो। प्रकृति एवं परम व्योमके बीचमे विरजा वहाँकी प्रजा बड़े सुखसे रहा करती है। गौओं तथा नामकी नदी है। वह कल्याणमयी सरिता वेदाङ्गोंके पीनेयोग्य सुखदायक पदार्थोंसे उस परम धामकी बड़ी स्वेदजनित जलसे प्रवाहित होती है। उसके दूसरे पारमें शोभा होती है। वह सूर्यके समान प्रकाशमान, परम व्योम है, जिसमें त्रिपाद्-विभूतिमय सनातन, अमृत, अन्धकारसे परे, ज्योतिर्मय एवं अच्युत- अविनाशी पद शाश्वत, नित्य एवं अनन्त परम धाम है। वह शुद्ध, है। श्रीविष्णुके उस परम धामको ही मोक्ष कहते हैं। वहाँ सत्त्वमय, दिव्य, अक्षर एवं परब्रहाका धाम है। उसका जीव बन्धनसे मुक्त होकर अपने लिये सुखकर पदको प्राप्त तेज अनेक कोटि सूर्य तथा अग्नियोंके समान है। वह होते हैं। वहाँ जानेपर जीव पुनः इस लोकमें नही लौटते; धाम अविनाशी, सर्ववेदमय, शुद्ध, सब प्रकारके प्रलयसे इसलिये उसे मोक्ष कहा गया है। मोक्ष, परमपद, अमृत, रहित, परिमाणशून्य, कभी जीर्ण न होनेवाला, नित्य, विष्णुमन्दिर, अक्षर, परमधाम, वैकुण्ठ, शाश्वतपद, जाग्रत्, स्वन आदि अवस्थाओंसे रहित, हिरण्यमय, नित्यधाम, परमव्योम, सर्वोत्कृष्ट पद तथा सनातन मोक्षपद, ब्रह्मानन्दमय, सुखसे परिपूर्ण, न्यूनता- पद-ये अविनाशी परम धामके पर्यायवाची शब्द हैं। अधिकता तथा आदि-अन्तसे शून्य, शुभ, तेजस्वी होनेके अब उस त्रिपाविभूतिके स्वरूपका वर्णन कऊँगा।
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• अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • MUITA
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती ! त्रिपाद्विभूतिके असंख्य लोक बतलाये गये हैं। वे सब के सब शुद्ध सत्त्वमय, ब्रह्मानन्दमय, सुखसे परिपूर्ण, नित्य, निर्विकार, हेय गुणोंसे रहित, हिरण्मय, शुद्ध, कोटि सूर्य के समान प्रकाशमान, वेदमय, दिव्य तथा काम क्रोध आदिसे रहित हैं। भगवान् नारायणके चरणकमलोंकी भक्तिमें ही रस लेनेवाले पुरुष उनमें निवास करते हैं। वहाँ निरन्तर सामगानकी सुखदायिनी ध्वनि होती रहती है। वे सभी लोक उपनिषद्-स्वरूप वेदमय तेजसे युक्त तथा वेदस्वरूप स्त्री-पुरुषोंसे भरे हैं। वेदके ही रससे भरे हुए सरोवर उनकी शोभा बढ़ाते हैं। श्रुति, स्मृति और पुराण आदि भी उन लोकोंके स्वरूप हैं। उनमें दिव्य वृक्ष भी सुशोभित होते हैं। उनके विश्व विख्यात स्वरूपका पूरा-पूरा वर्णन मुझसे नहीं हो सकता । विरजा और परम व्योमके बीचका जो स्थान है, उसका नाम केवल है। वही अव्यक्त ब्रह्मके उपासकोंके उपभोगमें आता है। वह आत्मानन्दका सुख प्रदान करनेवाला है। उस स्थानको केवल, परमपद, निःश्रेयस, निर्वाण, कैवल्य और मोक्ष कहते हैं। जो महात्मा भगवान् लक्ष्मीपतिके चरणोंकी भक्ति और सेवाके रसका उपभोग करके पुष्ट हुए हैं, वे महान् सौभाग्यशाली भगवच्चरण-सेवक पुरुष श्रीविष्णुके परम धाममें जाते हैं, जो ब्रह्मानन्द प्रदान करनेवाला है।
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उसका नाम है वैकुण्ठधाम। वह अनेक जनपदोंसे व्याप्त है। श्रीहरि उसीमें निवास करते हैं। वह रत्नमय प्राकारों, विमानों तथा मणिमय महलोंसे सुशोभित है। उस धामके मध्यभागमें दिव्य नगरी है, जो अयोध्या कहलाती है तथा जो चहारदीवारियों और ऊँचे दरवाजोंसे घिरी है। उनमें मणियों तथा सुवर्णोंके चित्र बने हैं। उस अयोध्यापुरीके चार दरवाजे हैं तथा ऊँचे-ऊँचे गोपुर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। चण्ड आदि द्वारपाल और कुमुद आदि दिक्पाल उसकी रक्षामें रहते
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वैकुण्ठधाममें भगवान्की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्की स्तुति तथा भगवान् के द्वारा सृष्टि रचना
हैं। पूर्वके दरवाजेपर चण्ड और प्रचण्ड, दक्षिण-द्वारपर भद्र और सुभद्र, पश्चिम द्वारपर जय और विजय तथा उत्तरके दरवाजेपर धाता और विधाता नामक द्वारपाल रहते हैं। कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, वामन, शङ्कुकर्ण, सर्वनिद्र, सुमुख और सुप्रतिष्ठित — ये उस नगरीके दिक्पाल बताये गये हैं। पार्वती ! उस पुरीमें कोटि-कोटि अधिके समान तेजोमय गृहोंकी पङ्क्तियाँ शोभा पाती हैं। उनमें तरुण अवस्थावाले दिव्य नर-नारी निवास करते हैं। पुरीके मध्यभागमें भगवान्का मनोहर अन्तःपुर है, जो मणियोंके प्राकारसे युक्त और सुन्दर गोपुरसे सुशोभित है। उसमें भी अनेक अच्छे-अच्छे गृह, विमान और प्रासाद हैं। दिव्य अप्सराएँ और स्त्रियाँ सब ओरसे उस अन्तःपुरकी शोभा बढ़ाती हैं। उसके बीचमें एक दिव्य मण्डप है, जो राजाका खास स्थान है; उसमें बड़े-बड़े उत्सव होते रहते हैं। वह मण्डप रलोका बना है तथा उसमें मानिकके हजारों खम्भे लगे हैं। वह दिव्य मोतियोंसे व्याप्त है तथा साम-गानसे सुशोभित रहता है। मण्डपके मध्यभागमें एक रमणीय सिंहासन है, जो सर्ववेदस्वरूप और शुभ है। वेदमय धर्मादि देवता उस सिंहासनको सदा घेरे रहते हैं। धर्म, ज्ञान, ऐश्वर्य और वैराग्य तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामदेव तथा अथर्ववेद भी मूर्तिमान् होकर उस सिंहासनके चारों ओर खड़े रहते हैं। शक्ति, आधारशक्ति, चिच्छक्ति, सदाशिवा शक्ति तथा धर्मादि देवताओंकी शक्तियाँ भी वहाँ उपस्थित रहती हैं। सिंहासनके मध्यभागमें अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा निवास करते हैं। कूर्म (कच्छप), नागराज (अनन्त या वासुकि), तीनों वेदोंके स्वामी, गरुड़, छन्द और सम्पूर्ण मन्त्र - ये उसमें पीठरूप धारण करके रहते हैं। वह पीठ सब अक्षरोंसे युक्त है। उसे दिव्य योगपीठ कहते हैं। उसके मध्यभागमें अष्टदलकमल है, जो उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिमान् है। उसके बीचमें सावित्री नामकी कर्णिका है, जिसमें देवताओंके स्वामी
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उत्तरखण्ड ]
. वैकुण्ठधाममें भगवानकी स्थितिका वर्णन तथा भगवान के द्वारा सृष्टि-रचना .
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परम पुरुष भगवान् विष्णु भगवती लक्ष्मीजीके साथ करनेवाला है। वे सौन्दर्यकी निधि और अपनी महिमासे विराजमान होते है।
कभी च्युत न होनेवाले हैं। उनके सर्वाङ्गमें दिव्य भगवान्का श्रीविग्रह नीलकमलके समान श्याम चन्दनका अनुलेप किया हुआ है। वे दिव्य मालाओंसे तथा कोटि सूर्योक समान प्रकाशमान है। वे तरुण विभूषित हैं। उनके ऊपरकी दोनों भुजाओंमें शङ्ख और कुमार-से जान पड़ते हैं। सारा शरीर चिकना है और चक्र हैं तथा नीचेकी भुजाओंमें वरद और अभयकी प्रत्येक अवयव कोमल। खिले हुए लाल कमल-जैसे मुद्राएँ हैं। हाथ तथा पैर अत्यन्त मृदुल प्रतीत होते है। नेत्र भगवान्के वामाङ्कमें महेश्वरी भगवती महालक्ष्मी विकसित कमलके समान जान पड़ते हैं। ललाटका निम्न विराजमान हैं। उनका श्रीअङ्ग सुवर्णके समान कान्तिमान् भाग दो सुन्दर भूलताओंसे अङ्कित है। सुन्दर नासिका, तथा गौर है। सोने और चाँदीके हार उनकी शोभा बढ़ाते मनोहर कपोल, शोभायुक्त मुखकमल, मोतीके दाने-जैसे हैं। वे समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है। उनकी अवस्था दाँत और मन्द मुसकानकी छविसे युक्त मूंगे-जैसे ऐसी है, मानो शरीरमें यौवनका आरम्भ हो रहा है। लाल-लाल ओठ हैं। मुखमण्डल पूर्ण चन्द्रमाकी शोभा कानोंमें रत्नोंके कुण्डल और मस्तकपर काली-काली धारण करता है। कमल-जैसे मुखपर मनोहर हास्यकी धुंघराली अलके शोभा पाती है। दिव्य चन्दनसे चर्चित छटा छायी रहती है। कानोंमें तरुण सूर्यकी भाँति अङ्गोका दिव्य पुष्पोंसे शृङ्गार हुआ है। केशोंमें मन्दार, चमकीले कुण्डल उनकी शोभा बढ़ाते हैं। मस्तक केतकी और चमेलीके फूल गुंथे हुए हैं। सुन्दर भौंहें, चिकनी, काली और धुंघराली अलकोंसे सुशोभित है। मनोहर नासिका और शोभायमान कटिभाग हैं। पूर्ण भगवानके बाल मुंथे हुए हैं, जिनमें पारिजात और चन्द्रमाके समान मनोहर मुख-कमलपर मन्द मुसकानकी मन्दारके पुष्प शोभा पाते हैं। गलेमें कौस्तुभमणि शोभा छटा छा रही है। बाल रविके समान चमकीले कुण्डल दे रही है, जो प्रातःकाल उगते हुए सूर्यकी कान्ति धारण कानोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं। तपाये हुए सुवर्णक समान करती है। भांति-भांतिके हार और सुवर्णकी मालाओंसे शरीरकी कान्ति और आभूषण हैं। चार हाथ है, जो राङ्ग-जैसी ग्रीवा बड़ी सुन्दर जान पड़ती है। सिंहके सुवर्णमय कमलोंसे विभूषित है। भांति-भांतिके विचित्र कंधोंके समान ऊँचे और मोटे कंधे शोभा दे रहे हैं। रत्रोंसे युक्त सुवर्णमय कमलोकी माला, हार, केयूर, कड़े मोटी और गोलाकार चार भुजाओसे भगवान्का श्रीअङ्ग और अंगूठियोंसे श्रीदेवी सुशोभित हैं। उनके दो हाथों में बड़ा सुन्दर जान पड़ता है। सबमें अंगूठी, कड़े और दो कमल और शेष दो हाथोंमें मातुलुङ्ग (बिजौरा) और भुजबंद है, जो शोभावृद्धिके कारण हो रहे हैं। उनका जाम्बूनद (धतूरा) शोभा पा रहे हैं। इस प्रकार कभी विशाल वक्षःस्थल करोड़ों बालसूर्योक समान तेजोमय विलग न होनेवाली महालक्ष्मीके साथ महेश्वर भगवान् कौस्तुभ आदि सुन्दर आभूषणोंसे देदीप्यमान है। वे विष्णु सनातन परम व्योममें सानन्द विराजमान रहते हैं। वनमालासे विभूषित है। नाभिका वह कमल, जो उनके दोनों पार्श्वमें भूदेवी और लीलादेवी बैठी रहती हैं। ब्रह्माजीकी जन्मभूमि है, श्रीअगोंकी शोभा बढ़ा रहा है। आठों दिशाओंमें अष्टदल कमलके एक-एक दलपर शरीरपर मुलायम पीताम्बर सुशोभित है, जो बाल रविकी क्रमशः विमला आदि शक्तियाँ सुशोभित होती है। उनके प्रभाके समान जान पड़ता है। दोनों चरणोंमें सुन्दर कड़े नाम ये हैं-विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, विराज रहे हैं, जो नाना प्रकारके रत्नोंसे जड़े होनेके कारण प्रही, सत्या तथा ईशाना। ये सब परमात्मा श्रीहरिकी अत्यन्त विचित्र प्रतीत होते हैं। नखोकी श्रेणियाँ पटरानियाँ हैं, जो सब प्रकारके सुन्दर लक्षणोंसे सम्पन्न चाँदनीयुक्त चन्द्रमाके समान उद्भासित हो रही हैं। हैं। ये अपने हाथोंमें चन्द्रमाके समान श्वेत वर्णके दिव्य भगवान्का लावण्य कोटि-कोटि कन्दर्पोका दर्प दलन चैवर लेकर उनके द्वारा सेवा करती हुई अपने पति
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९३२ अर्चवस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पञ्चपुराण memenessmeenasammetreenatrenamesternmenternama श्रीहरिको आनन्दित करती हैं। इनके सिवा दिव्य आश्रयभूता महामायाने हाथ जोड़कर प्रकृतिके साथ अप्सराएँ तथा पाँच सौ युवती स्त्रियाँ भगवानके उनकी भाँति-भाँतिसे स्तुति करके कहा-केशव ! इन अन्तःपुरमें निवास करती हैं, जो सब प्रकारके जीवोंके लिये लोक और शरीर प्रदान कीजिये। सर्वज्ञ ! आभूषणोंसे विभूषित, कोटि अग्मियोंके समान तेजस्विनी, आप पूर्वकल्पोंकी भाँति अपनी लीलामयी विभूतियोंका समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा चन्द्रमुखी है। उन विस्तार कीजिये। जड़-चेतनमय सम्पूर्ण चराचर जगत् सबके हाथोंमें कमलके पुष्प शोभा पाते हैं। उन सबसे अज्ञान अवस्थामें पड़ा है। आप लीला-विस्तारके लिये घिरे हुए महाराज परम पुरुष श्रीहरिकी बड़ी शोभा होती इसपर दृष्टिपात कीजिये। परमेश्वर ! मेरे तथा प्रकृतिके है। अनन्त (शेषनाग), गरुड़ तथा सेनानी आदि देवेश्वरो, साथ जगत्की सृष्टि कीजिये। धर्म-अधर्म, सुखअन्यान्य पार्षदों तथा नित्यमुक्त भक्तोंसे सेवित हो रमा- दुःख-सबका संसारमें प्रवेश कराके आप मुझे अपनी सहित परम पुरुष श्रीविष्णु भोग और ऐश्वर्यके द्वारा सदा आज्ञामें रखकर शीघ्र ही लीला आरम्भ कीजिये।। आनन्दमग्न रहते हैं। इस प्रकार वैकुण्ठधामके अधिपति श्रीमहादेवजी कहते है-मायादेवीके इस प्रकार भगवान् नारायण अपने परम पदमें रमण करते हैं। कहनेपर परमेश्वरने उसके भीतर जगत्की सृष्टि आरम्भ - पार्वती ! अब मैं भगवान्के भिन्न-भिन्न व्यूहों और की। जो प्रकृतिसे परे पुरुष कहलाते हैं, वे अच्युत लोकोंका वर्णन करता हूँ। वैकुण्ठधामके पूर्वभागमें भगवान् विष्णु ही प्रकृति में प्रविष्ट हुए। ब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेवका मन्दिर है। अग्निकोणमें लक्ष्मीका लोक श्रीहरिने प्रकृतिसे महत्तत्वको उत्पन्न किया, जो सब है। दक्षिण-दिशामें श्रीसंकर्षणका भवन है। नैर्ऋत्य- भूतोंका आदि कारण है। महत्से अहंकारका जन्म हुआ। कोणमें सरस्वतीदेवीका लोक है। पश्चिम-दिशामें यह अहंकार सत्यादि गुणोंके भेदसे तीन प्रकारका हैश्रीप्रद्युम्रका मन्दिर है। वायव्यकोणमें रतिका लोक है। सात्त्विक, राजस और तामस । विश्वभावन परमात्माने उन उत्तर-दिशामें श्रीअनिरुद्धका स्थान है और ईशानकोणमें गुणोंसे अर्थात् तामस अहंकारसे तन्मात्राओंको उत्पन्न शान्तिलोक है। भगवान्के परम धामको सूर्य, चन्द्रमा किया। तन्मात्राओंसे आकाश आदि पञ्चमहाभूत प्रकट और अग्नि नहीं प्रकाशित करते । कठोर व्रतोंका पालन हुए, जिनमें क्रमशः एक-एक गुण अधिक है। आकाशसे करनेवाले योगिजन वहाँ जाकर फिर इस संसारमें नहीं वायु, वायुसे अग्नि, अग्रिसे जल और जलसे पृथ्वीका लौटते। जो दो नामोंके एक मन्त्र (लक्ष्मीनारायण) के प्रादुर्भाव हुआ। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये जपमें लगे रहते हैं, वे निश्चय ही उस अविनाशी पदको ही क्रमशः आकाश आदि पशभूतोंके प्रधान गुण हैं। प्राप्त होते हैं। मनुष्य अनन्य भक्तिके साथ उक्त मन्त्रका महाप्रभु श्रीहरिने उत्तरोत्तर भूतोंमें अधिक गुण देख उन जप करके उस सनातन दिव्य धामको अनायास ही प्राप्त सबको लेकर एकमें मिला दिया। तथा सबके मेलसे कर लेते है। उनके लिये वह पद जैसा सुगम होता है, महान् विश्वब्रह्माण्डकी सृष्टि की । उसीमें पुरुषोत्तमने चौदह वैसा वेदोंके अध्ययन, यज्ञ, दान, शुभवत, तपस्या, भुवन तथा ब्रह्मादि देवताओंको उत्पत्र किया। पार्वती ! उपवास तथा अन्य साधनोंसे भी नहीं होता। त्रिपाद्- दैव, तिर्यक्, मानव और स्थावर-यह चार प्रकारका विभूतिमें जहाँ भगवान् परमेश्वर भगवती लक्ष्मीजीके महासर्ग रचा गया। इन चारों सगों अथवा योनियों में जीव साथ सदा आनन्दका अनुभव करते हैं, वहाँ संसारकी अपने-अपने कोंक अनुसार जन्म लेते हैं।
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देवसर्ग तथा भगवानके चतुर्दूहका वर्णन पार्वतीजीने कहा-भगवन् ! परम उत्तम भगवान्के अवतारोंकी कथा भी विस्तृत रूपसे कहिये। देवसर्गका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये। साथ ही श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! सृष्टिको इच्छा
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उतरखण]
• देवसर्ग तथा भगवानके चतुहका वर्णन .
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रखनेवाले भगवान् मधुसूदनने योगनिद्राको प्राप्त होकर पशुओंको प्रकट किया। भगवान्के मुखसे ब्राह्मण, दोनों मायाके साथ चिरकालतक रमण किया। उससे भुजाओंसे क्षत्रिय, जाँघोंसे वैश्य तथा दोनों चरणोंसे शूद्र कालात्माको जन्म दिया, जो कला, काष्ठा, मुहूर्त, पक्ष जातिको उत्पत्ति हुई।
और मास आदिके रूपमें उपलब्ध होता है। उस समय इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करके देवेश्वर श्रीहरिका नाभिकमल, जो सम्पूर्ण जगत्का बीज और श्रीकृष्णने उसे अचेतन रूपमें स्थित देख स्वयं ही परम तेजस्वी था, मुकुलाकार हो विकसित होने लगा। विश्वरूपसे उसके भीतर प्रवेश किया। श्रीहरिकी शक्तिके उसीसे परम बुद्धिमान् ब्रह्माजी प्रकट हुए। उनके मनमें विना संसार हिल-डुल नहीं सकता। इसलिये सनातन रजोगुणकी प्रेरणासे सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई। तब श्रीविष्णु ही सम्पूर्ण जगत्के प्राण हैं। वे ही अव्यक्त उन्होंने योगनिद्रामें सोये हुए परमेश्वरका स्तवन किया। रूपमें स्थित होनेपर परमात्मा कहलाते हैं। वे षड्विध
ब्रह्माजीके स्तवन करनेपर समस्त इन्द्रियोंके स्वामी ऐश्वर्यसे परिपूर्ण सनातन वासुदेव हैं। वे अपने तीन परमेश्वर श्रीविष्णु योगनिद्रासे उठ गये। योगनिद्राको गुणोंसे चार स्वरूपोंमें स्थित होकर जगतकी सृष्टि करते काबूम करके उन्होंने जगत्की सृष्टि आरम्भ की। हैं। प्रधुम्ररूपधारी भगवान् सब ऐवयोंसे युक्त हैं। वे जगत्के स्वामी श्रीअच्युतने पहले एक क्षणतक कुछ ब्रह्मा, प्रजापति, काल तथा जीव-सबके अन्तर्यामी विचार किया। विचारके पश्चात् उन्होंने सम्पूर्ण जगत्की होकर सृष्टिका कार्य भलीभाँति सिद्ध करते हैं। महात्मा सृष्टि की। उस समय सब लोकोंसे युक्त सुवर्णमय वासुदेवने उन्हें इतिहाससहित सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्रदान अण्डको, सात द्वीप, सात समुद्र और पर्वतोसहित किया है। लोकपितामह ब्रह्माजी प्रद्युम्नके ही अंशभागी पृथ्वीको तथा एक अण्डकटाहको भी भगवान्ने अपने हैं। वे संसारकी सृष्टि और पालन भी करते हैं। भगवान् नाभिकमलसे उत्पन्न किया। तत्पश्चात् उस अण्डमें श्रीहरि अनिरुद्ध शक्ति और तेजसे सम्पन्न है। वे मनुओं, स्वयं ही स्थित हुए। तदनन्तर नारायणने अपने मनसे राजाओं, काल तथा जीवके अन्तर्यामी होकर सबका इच्छानुसार ध्यान किया। ध्यानके अन्तमें उनके ललाटसे पालन करते हैं। संकर्षण महाविष्णुरूप हैं। उनमें विद्या पसीनेकी बूंद प्रकट हुई। वह बूंद बुदबुदेके आकारमें और बल दोनों हैं। वे सम्पूर्ण भूतोंके काल, रुद्र और परिणत हो तत्क्षण पृथ्वीपर गिर पड़ी। पार्वती ! उसी यमके अन्तर्यामी होकर जगत्का संहार करते हैं। मत्स्य, बुदबुदेसे में उत्पन्न हूँ। उस समय रुद्राक्षकी माला और कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, त्रिशूल हाथमें लेकर जटामय मुकुटसे अलंकृत हो मैंने बुद्ध और कल्कि-ये दस भगवान् विष्णुके अवतार है। विनयपूर्वक देवेश्वर श्रीविष्णुसे पूछा-'मेरे लिये क्या, पार्वती ! श्रीहरिकी उस अवस्थाका वर्णन सुनो। आज्ञा है। तब भगवान् नारायणने प्रसन्नतापूर्वक मुझसे परमश्रेष्ठ वैकुण्ठलोक, विष्णुलोक, श्वेतद्वीप और कहा-'रुद्र ! तुम संसारका भयंकर संहार करनेवाले क्षीरसागर-ये चार व्यूह महर्षियोंद्वारा बताये गये हैं। होओगे।' इस प्रकार मैं भयंकर आकृतिमे जगत्का वैकुण्ठलोक जलके घेरेमें है। वह कारणरूप और शुभ संहार करनेके लिये ही भगवान् नारायणके श्रीअङ्गसे है। उसका तेज कोटि अग्नियोंके समान उद्दीप्त रहता है। उत्पन्न हुआ। जनार्दनने मुझे संहारके कार्यमें नियुक्त वह सम्पूर्ण धर्मोंसे युक्त और अविनाशी है। परमधामका करके पुनः अपने नेत्रोंसे अन्धकार दूर करनेवाले चन्द्रमा जैसा लक्षण बताया गया है, वैसा ही उसका भी है। नाना
और सूर्यको उत्पन्न किया। फिर कानोंसे वायु और प्रकारके रलोंसे उदासित वैकुण्ठनगर चण्ड आदि दिशाओको, मुखकमलसे इन्द्र और अनिको, नासिकाके द्वारपालो और कुमुद आदि दिक्पालोसे सुरक्षित है। छिद्रोंसे वरुण और मित्रको, भुजाओंसे साध्य और भाँति-भाँतिकी मणियोंसे बने हुए दिव्य गृहोंकी मरुद्रणोंसहित सम्पूर्ण देवताओंको, रोमकूपोंसे वन और पङ्क्तियोंसे वह नगर घिरा हुआ है। उसकी चौड़ाई ओषधियोंको तथा त्वचासे पर्वत, समुद्र और गाय आदि पचपन योजन तथा लंबाई एक हजार योजन है। करोड़ों
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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
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ऊँचे-ऊँचे महल उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वह नगर तरुण सुवर्णमय पीठ है, जिसे आधारशक्ति आदिने धारण कर अवस्थावाले दिव्य स्त्री-पुरुषोंसे सुशोभित है। वहाँकी रखा है तथा जो भांति-भांतिके रत्नोंका बना हुआ एवं स्त्रियाँ और पुरुष समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायौ अलौकिक है। उसमें अनेकों रंग जान पड़ते हैं। पीठपर देते हैं। स्त्रियोंका रूप भगवती लक्ष्मीके समान होता है अष्टदल कमल है, जिसपर मन्त्रोंके अक्षर और पद और पुरुषोंका भगवान् विष्णुके समान । वे सब प्रकार अङ्कित है। उसकी सुरम्य कर्णिकामें लक्ष्मी-बीजका शुभ आभूषणोंसे विभूषित होते हैं तथा भक्तिजनित मनोरम अक्षर अङ्कित है। उसमें कमलके आसनपर दिव्यविग्रह आहादसे सदा आनन्दमन रहते हैं। उनका भगवान् भगवान् श्रीनारायण विराजमान है, जो अरबों-खरबों विष्णुके साथ अविच्छिन सम्बन्ध बना रहता है। वे सदा बालसूर्योके समान कान्ति धारण करते हैं। उनके दाहिने उनके समान ही सुख भोगते हैं। जहाँ कहींसे भी श्रीहरिके पार्श्वमें सुवर्णके समान कान्तिमती जगन्माता श्रीलक्ष्मी लोकमें प्रविष्ट हुए शुद्ध अन्तःकरणवाले मानव फिर विराजती हैं, जो समस्त शुध-लक्षणोंसे सम्पत्र और संसारमें जन्म नहीं लेते। मनीषी पुरुष भगवान् विष्णुके दिव्य मालाओंसे सुशोभित है। उनके हाथोंमें सुवर्णपात्र, दास-भावको ही मोक्ष कहते हैं। उनकी दासताका नाम मातुलुङ्ग और सुवर्णमय कमल शोभा पाते हैं। बन्धन नहीं है। भगवान्के भक्त तो सब प्रकारके बन्धनोंसे भगवान्के वामभागमें भूदेवी विराजमान हैं, जिनकी मुक्त और रोग-शोकसे रहित होते हैं। ब्रह्मलोकतकके कान्ति नील कमल-दलके समान श्याम है। वे नाना प्राणी पुनः संसारमें आकर जन्म लेते, कोंक बन्धनमें प्रकारके आभूषणों और विचित्र वस्त्रोंसे विभूषित है। पड़ते और दुःखी तथा भयभीत होते हैं। पार्वती ! उन उनके ऊपरके हाथोंमें दो लाल कमल हैं और नीचेके दो लोकोंमें जो फल मिलता है, वह बड़ा आयाससाध्य होता हाथोंमें उन्होंने दो धान्यपात्र धारण कर रखे हैं। विमला है। वहाँका सुख-भोग विषमिश्रित मधुर अन्नके समान आदि शक्तियाँ दिव्य चैवर लेकर कमलके आठों दलोंमें है। जब पुण्यकर्मीका क्षय हो जाता है, तब मनुष्योंको स्थित हो भगवान्की सेवा करती हैं। वे सभी समस्त स्वर्गमें स्थित देख देवता कुपित हो उठते हैं और उसे शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है। भगवान् श्रीहरि उन सबके संसारके कर्मबन्धनमें डाल देते हैं; इसलिये स्वर्गका सुख बीचमें विराजते हैं। उनके हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और बड़े फेशसे सिद्ध होता है। वह अनित्य, कुटिल और पद्म शोभा पाते हैं। भगवान् केयूर, अङ्गद और हार दुःखमिश्रित होता है; इसलिये योगी पुरुष उसका परित्याग आदि दिव्य आभूषणोंसे विभूषित है। उनके कानोंमें कर दे। भगवान् विष्णु सब दुःखोकी राशिका नाश उदयकालीन सूर्यके समान तेजोमय कुण्डल झिलमिला करनेवाले हैं; अतः सदा उनका स्मरण करना चाहिये। रहे हैं। पूर्वोक्त देवता उन परमेश्वरकी सेवामें सदा भगवानका नाम लेनेमात्रसे मनुष्य परमपदको प्राप्त होते संलग्न रहते हैं। इस प्रकार नित्य वैकुण्ठधाममें भगवान् हैं। इसलिये पार्वती ! विद्वान् पुरुष सदा भगवान् विष्णुके सब भोगोंसे सम्पन्न हो नित्य विराजमान रहते है। वह लोकको पानेकी इच्छा करे। भगवान् दयाके सागर हैं; परम रमणीय लोक अष्टाक्षर-मन्त्रका जप करनेवाले अतः अनन्य भक्तिके साथ उनका भजन करना चाहिये। सिद्ध मनीषी पुरुषों तथा श्रीविष्णु भक्तोंको प्राप्त वे सर्वज्ञ और गुणवान् हैं। निःसन्देह सबकी रक्षा करते होता है। पार्वती ! इस प्रकार मैंने तुमसे प्रथम व्यूहका हैं। जो परम कल्याणकारक और सुखमय अष्टाक्षर वर्णन किया। मन्त्रका जप करता है, वह सब कामनाओंको पूर्ण इसी प्रकार वैष्णवलोक, श्वेतद्वीप और क्षीरसागरकरनेवाले वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है।
निवासी द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ व्यूहका वर्णन करके वहाँ भगवान् श्रीहरि सहस्रों सूर्योकी किरणोंसे श्रीशिवजीने कहा-'पार्वती ! अब और क्या सुनना सुशोभित दिव्य विमानपर विराजमान रहते हैं। उस चाहती हो? देवि ! भगवान् पुरुषोत्तममें तुम्हारी भक्ति विमानमें मणियोंके खंभे शोभा पाते हैं। उसमें एक है। इसलिये तुम धन्य और कृतार्थ हो।
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उत्तरखण्ड ]
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• मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा
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मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा - समुद्र मन्थनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
पार्वतीजीने कहा- महेश्वर ! अब मुझसे भगवान् के वैभव - मत्स्य, कूर्म आदि अवतारोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ।
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श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! एकाग्रचित्त होकर सुनो। मैं श्रीहरिके वैभव – मत्स्य, कूर्म आदि अवतारोंका वर्णन करता हूँ। जैसे एक दीपकसे दूसरे अनेक दीपक जला लिये जाते हैं, उसी प्रकार एक परमेश्वरके अनेक अवतार होते हैं। उन अवतारोंके परावस्थ, व्यूह और विभव आदि अनेक भेद हैं। भगवान् विष्णुके अनेक शुभ अवतार बताये गये हैं; ब्रह्माजीने भृगु, मरीचि, अत्रि, दक्ष, कर्दम, पुलस्त्य, पुलह, अङ्गिरा तथा क्रतु — इन नौ प्रजापतियोंको उत्पन्न किया। इनमें मरीचिने कश्यपको जन्म दिया। कश्यपके चार स्त्रियाँ थीं— अदिति, दिति, कद्रू और विनता। अदितिसे देवताओंका जन्म हुआ। दितिने तमोगुणी पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो महान् असुर हुए। उनके नाम इस प्रकार हैं-मकर, हयग्रीव, महाबली हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु जम्भ और मय आदि। मकर बड़ा बलवान् था । उसने ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीको मोहित करके उनसे सम्पूर्ण वेद ले लिये। इस प्रकार श्रुतियोंका अपहरण करके वह महासागरमें घुस गया। फिर तो सारा संसार धर्मसे शून्य हो गया। वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होने लगी। स्वाध्याय वषट्कार और वर्णाश्रम धर्मका लोप हो गया। तब ब्रह्माजीने सम्पूर्ण देवताओंके साथ क्षीरसागरपर भगवान्की शरणमें जाकर मकर दैत्यके द्वारा अपहरण किये हुए वेदोंका उद्धार करनेके लिये उनका स्तवन किया।
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श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी परमेश्वर श्रीविष्णु मत्स्यरूप धारण करके महासागरमें प्रविष्ट हुए। उन्होंने उस अत्यन्त भयंकर मकर नामक दैत्यको थूथुनके अग्रभागसे विदीर्ण करके मार डाला
और अङ्ग- उपाङ्गसहित सम्पूर्ण वेदोंको लाकर ब्रह्माजीको समर्पित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मत्स्यावतारके द्वारा सम्पूर्ण देवताओंकी रक्षा की। वेदोंको लाकर श्रीहरिने तीनों लोकोंका भय दूर किया, धर्मकी प्राप्ति करायी और देवताओं तथा सिद्धों के मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये।
प्रिये ! अब मैं श्रीविष्णुके कूर्मावतार सम्बन्धी विश्ववन्दित वैभवका वर्णन करूंगा। महर्षि अत्रिके पुत्र दुर्वासा बड़े ही तेजस्वी मुनि हुए। वे महान् तपस्वी, अत्यन्त क्रोधी तथा सम्पूर्ण लोकोंको क्षोभमें डालनेवाले हैं। एक समयकी बात है—वे देवराज इन्द्रसे मिलनेके लिये स्वर्गलोकमें गये। उस समय इन्द्र ऐरावत हाथीपर आरूढ़ हो सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित होकर कहीं जानेके लिये उद्यत थे। उन्हें देखकर महातपस्वी दुर्वासाका मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने विनीत भावसे देवराजको एक पारिजातकी माला भेंट की। देवराजने उसे लेकर हाथीके मस्तकपर डाल दिया और स्वयं नन्दनवनकी ओर चल दिये हाथी मदसे उन्मत्त हो रहा था। उसने सूँड़से उस मालाको उतार लिया और मसलते हुए तोड़कर जमीनपर फेंक दिया। इससे दुर्वासाजीको क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देते हुए कहा- 'देवराज! तुम त्रिभुवनकी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न होनेके कारण मेरा अपमान करते हो। इसलिये तीनों लोकोंकी लक्ष्मी नष्ट हो जायगी। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।'
दुर्वासाके इस प्रकार शाप देनेपर इन्द्र पुनः अपने नगरको लौट गये। तत्पश्चात् जगन्माता लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयीं। ब्रह्मा आदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, दैत्य, दानव, नाग, मनुष्य, राक्षस, पशु, पक्षी तथा कीट आदि जगत्के समस्त चराचर प्राणी दरिद्रताके मारे दुःख भोगने लगे सब लोगोंने भूख-प्याससे पीड़ित होकर ब्रह्माजीके पास जाकर कहा— 'भगवन् ! तीनों लोक भूख-प्यास से पीड़ित हैं। आप सब लोकोंके स्वामी और रक्षक हैं।
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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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ब्रह्माजी बोले- देवता, दैत्य, गन्धर्व और मनुष्य आदि प्राणियो! सुनो। इन्द्रके अनाचारसे ही यह सारा संकट उपस्थित हुआ है। उन्होंने अपने बर्तावसे महात्मा दुर्वासाको कुपित कर दिया है। उन्होंक क्रोधसे आज तीनों लोकोंका नाश हो रहा है। जिनकी कृपा कटाक्षसे सब लोक सुखी होते हैं, वे जगन्माता महालक्ष्मी अन्तर्धान हो गयी हैं। जबतक वे अपनी कृपादृष्टिसे नहीं देखेंगी, तबतक सब लोग दुःखी ही रहेंगे। इसलिये हम सब लोग चलकर क्षीरसागरमें विराजमान सनातनदेव भगवान् नारायणकी आराधना करें। उनके प्रसन्न होनेपर ही सम्पूर्ण जगत्का कल्याण होगा।
ऐसा निश्चय करके ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओं और भृगु आदि महर्षियोंके साथ क्षीरसागरपर गये और विधिपूर्वक पुरुषसूक्तके द्वारा उनकी आराधना करने लगे। उन्होंने अनन्यचित्त होकर अष्टाक्षर मन्त्रका जप और पुरुषसूक्तका पाठ करके परमेश्वरका ध्यान करते हुए उनके लिये हवन किया तथा दिव्य स्तोत्रोंसे स्तवन और विधिवत् नमस्कार किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान्ने सब देवताओंको दर्शन दिया और कृपापूर्वक कहा— 'देवगण! मैं वर देना चाहता हूँ, तुमलोग इच्छानुसार वर माँगो' यह सुनकर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता हाथ जोड़कर बोले- 'भगवन् ! दुर्वासा मुनिके शापसे तीनों लोक सम्पत्तिहीन हो गये हैं। पुरुषोत्तम । इसीलिये हम आपकी शरणमें आये हैं।'
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीभगवान् बोले – देवताओ ! अत्रिकुमार दुर्वासा मुनिके शापसे भगवती लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयी हैं। अतः तुमलोग मन्दराचल पर्वतको उखाड़कर क्षीरसमुद्रमें रखो और उसे मथानी बना नागराज वासुकिको रस्सीकी जगह उसमें लपेट दो। फिर दैत्य, गन्धर्व और दानवोंके साथ मिलकर समुद्रका मन्थन करो । तत्पश्चात् जगत्की रक्षाके लिये लक्ष्मी प्रकट होंगी। उनकी कृपादृष्टि पड़ते ही तुमलोग महान् सौभाग्यशाली हो जाओगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं
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अतः हम आपकी शरणमें आये हैं। देवेश! आप है मैं ही कूर्मरूपसे मन्दराचलको अपनी पीठकर धारण हमारी रक्षा करें।' करूँगा । तथा मैं ही सम्पूर्ण देवताओंमें प्रवेश करके अपनी शक्तिसे उन्हें बलिष्ठ बनाऊँगा ।
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भगवान् के ऐसा कहनेपर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता उन्हें साधुवाद देने लगे। उनकी स्तुति सुनते हुए भगवान् अच्युत वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और महाबली दानव आदिने मन्दराचल पर्वतको उखाड़कर क्षीरसागरमें डाला। इसी समय अमितपराक्रमी भूतभावन भगवान् नारायणने कछुएके रूपमें प्रकट होकर उस पर्वतको अपनी पीठपर धारण किया तथा एक हाथसे उन सर्वव्यापी अविनाशी प्रभुने उसके शिखरको भी पकड़ रखा था। तदनन्तर देवता और असुर मन्दराचल पर्वतमें नागराज वासुकिको लपेटकर क्षीरसागरका मन्थन करने लगे। जिस समय महाबली देवता लक्ष्मीको प्रकट करनेके लिये क्षीरसागरको मथने लगे, उस समय सम्पूर्ण महर्षि उपवास करके मन और इन्द्रियोंके संयमपूर्वक श्रीसूक्त और विष्णुसहस्रनामका पाठ करने लगे। शुद्ध एकादशी तिथिको समुद्रका मन्थन आरम्भ हुआ। उस समय लक्ष्मीके प्रादुर्भावकी अभिलाषा रखते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों और मुनिवरोंने भगवान् लक्ष्मीनारायणका ध्यान और पूजन किया। उस मुहूर्तमें सबसे पहले कालकूट नामक महाभयंकर विष प्रकट हुआ, जो बहुत बड़े पिण्डके रूपमें था। वह प्रलयकालीन अनिके समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था उसे देखते ही सम्पूर्ण देवता और दानव भयसे व्याकुल हो भाग चले। उन्हें भयसे पीडित हो भागते देख मैंने उन सबको रोककर कहा- 'देवताओ ! इस विषसे भय न करो। इस कालकूट नामक महान् विषको मैं अभी अपना आहार बना लूँगा।' मेरी बात सुनकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता मेरे चरणों में पड़ गये और 'साधु-साधु' कहकर मेरी स्तुति करने लगे। उधर मेघके समान काले रंगवाले उस महाभयानक विषको प्रकट हुआ देख मैंने एकाग्रचित्तसे अपने हृदयमें सर्वदुःखहारी भगवान् नारायणका ध्यान किया और उनके तीन नामरूपी महामन्त्रका भक्तिपूर्वक जप करते हुए उस
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. मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा .
atternmenternmenternet.nnnnn............ भयंकर विषको पी लिया। सर्वव्यापी श्रीविष्णुके तीन प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित एक स्त्री प्रकट हुई, जिसे नामोंके प्रभावसे उस लोकसंहारकारी विषको मैंने गरुड़ने अपनी पत्नी बनाया। इसके बाद दिव्य अप्सराएँ अनायास ही पचा लिया। अच्युत, अनन्त और और महातेजस्वी गन्धर्व उत्पन्न हुए, जो अत्यन्त रूपवान् गोविन्द-ये ही श्रीहरिके तीन नाम हैं। जो एकाग्रचित्त और सूर्य, चन्द्रमा तथा अनिके समान तेजस्वी थी। हो इनके आदिमें प्रणव और अन्तमें नमः जोड़कर (ॐ तत्पश्चात् ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा नामक अश्व, धन्वन्तरि अच्युताय नमः, ॐ अनन्ताय नमः तथा ॐ गोविन्दाय वैद्य, पारिजात वृक्ष और सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण नमः इस रूपमें) भक्तिपूर्वक जप करता है, उसे विष, करनेवाली सुरभि गौका प्रादुर्भाव हुआ। इन सबको रोग और अग्निसे होनेवाली मृत्युका महान् भय नहीं प्राप्त देवराज इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ ग्रहण किया। इसके होता। जो इस तीन नामरूपी महामन्त्रका एकाग्रता- बाद द्वादशीको प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर सम्पूर्ण पूर्वक जप करता है, उसे काल और मृत्युसे भी भय नहीं लोकोंकी अधीश्वरी कल्याणमयी भगवती महालक्ष्मी होता; फिर दूसरोंसे भय होनेकी तो बात ही क्या है।* प्रकट हुई। उन्हें देखकर सब देवताओंको बड़ा हर्ष देवि ! इस प्रकार मैंने तीन नामोके ही प्रभावसे विषका हुआ। देवलोकमें दुन्दुभियाँ बजने लगी, वनदेवियाँ पान किया था। मा
- फूलोंकी वृष्टि करने लगी, गन्धर्वराज गाने और अप्सराएँ तत्पश्चात् समुद्र-मन्थन करनेपर लक्ष्मीजीकी बड़ी नाचने लगीं। शीतल एवं पवित्र हवा चलने लगी। बहन दरिद्रा देवी प्रकट हुई। वे लाल वस्त्र पहने थीं। सूर्यको प्रभा निर्मल हो गयी। बुझी हुई अग्नियाँ जल उन्होंने देवताओंसे पूछा-'मेरे लिये क्या आज्ञा है।' उठी और सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रसन्नता छा गयी। तब देवताओंने उनसे कहा-'जिनके घरमें प्रतिदिन तदनन्तर क्षीरसागरसे शीतल एवं अमृतमयी कलह होता हो, वहीं हम तुम्हें रहनेके लिये स्थान देते किरणोंसे युक्त चन्द्रमा प्रकट हुए, जो माता लक्ष्मीके हैं। तुम अमङ्गलको साथ लेकर उन्हीं घरोंमें जा बसो। भाई और सबको सुख देनेवाले हैं। वे नक्षत्रोंके स्वामी जहाँ कठोर भाषण किया जाता हो, जहाँके रहनेवाले और सम्पूर्ण जगत्के मामा हैं। इसके बाद श्रीहरिकी सदा झूठ बोलते हों तथा जो मलिन अन्तःकरणवाले पत्नी तुलसीदेवी प्रकट हुई, जो परम पवित्र और सम्पूर्ण पापी सन्ध्याके समय सोते हों, उन्हींक घरमें दुःख और विश्वको पावन बनानेवाली है। जगन्माता तुलसीका दरिद्रता प्रदान करती हुई तुम नित्य निवास करो। प्रादुर्भाव श्रीहरिकी पूजाके लिये ही हुआ है। तत्पश्चात् महादेवि ! जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य पैर धोये बिना ही सब देवता प्रसन्नचित्त होकर मन्दराचलपर्वतको आचमन करता है, उस पापपरायण मानवकी ही तुम यथास्थान रख आये और सफल मनोरथ हो माता सेवा करो।'
लक्ष्मीके पास जा सहस्रनामसे स्तुति करके श्रीसूक्तका - कलहप्रिया दरिद्रा देवीको इस प्रकार आदेश देकर जप करने लगे। तब भगवती लक्ष्मीने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण देवताओंने एकाप्रचित्त हो पुनः क्षीरसागरका सम्पूर्ण देवताओसे कहा-'देववरो! तुम्हारा कल्याण मन्थन आरम्भ किया। तब सुन्दर नेत्रोंवाली वारुणी हो। मैं तुम्हें वर देना चाहती हूँ। मुझसे मनोवाञ्छित देवी प्रकट हुई, जिसे नागराज अनन्तने ग्रहण किया। वर माँगो।' तदनन्तर समस्त शुभलक्षणोंसे सुशोभित और सब देवता बोले-सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान्
- अच्युतानन्त गोविन्द इति नामत्रयं हरेः । यो जफेअयतो भक्त्या प्रणवाद्यं नमोऽत्तकम् ॥ तस्य मृत्युभयं नास्ति विषरोगाग्रिज महत्। नामत्रय महामन्त्र जपेद्यः प्रयतात्मवान्॥ कालमृत्युभयं चापि तस्य नास्ति किमन्यतः ।
(२६० । १९–२१)
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. अर्थयस्व वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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विष्णुकी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी! आप हमलोगोंपर प्रसन्न हों और श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें सदा निवास करें। कभी भगवान् से अलग न हों तथा तीनों लोकोंका भी कभी परित्याग न करें। देवि! यही हमारे लिये श्रेष्ठ वर है। जगन्माता ! आपको नमस्कार है। हम आपसे यही चाहते हैं।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
देवताओंके ऐसा कहनेपर श्रीनारायणकी प्रियतमा लोकमाता महेश्वरी लक्ष्मीने 'एवमस्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तदनन्तर क्षीरसागरपर भगवान् नारायण और ब्रह्माजी भी प्रकट हुए। देवताओंने जनार्दनको नमस्कार करके उनका स्तवन किया और प्रसन्नवदन हो, हाथ जोड़कर कहा-' - 'सर्वेश्वर ! आप अपनी प्रियतमा और महारानी लक्ष्मीदेवीको, जो कभी आपसे अलग होनेवाली नहीं है, जगत्की रक्षाके लिये ग्रहण कीजिये।' ऐसा कहकर ब्रह्मा आदि देवता और मुनियोंने नाना प्रकारके रत्नोंसे बने हुए बालसूर्यके समान तेजस्वी दिव्य पीठपर भगवान् विष्णु और भगवती लक्ष्मीको बिठाया तथा नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाते हुए उन्होंने दिव्य वस्त्र, दिव्य माला, रत्नमय आभूषण एवं अप्राकृत दिव्य फलोंसे उन दोनोंका पूजन किया। क्षीरसागरसे जो कोमल दलोंवाली तुलसीदेवी प्रकट हुई थीं, उनके द्वारा उन्होंने लक्ष्मीजीके युगल चरणोंका अर्चन किया। फिर तीन बार प्रदक्षिणा और बारंबार नमस्कार करके दिव्य स्तोत्रोंसे स्तुति की। इससे सर्वदेवेश्वर भगवान् श्रीहरिने लक्ष्मीसहित प्रसन्न होकर देवताओंको मनोवाञ्छित वरदान दिया। तबसे देवता और मनुष्य आदि प्राणी बहुत प्रसन्न रहने लगे। उनके यहाँ धन-धान्यकी प्रचुर वृद्धि हुई और वे नीरोग होकर अत्यन्त सुखका अनुभव करने लगे।
इसके बाद लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये समस्त महामुनियों और देवताओंसे कहा - ' -'मुनियो और महाबली
देवताओ! तुम सब लोग सुनो — एकादशी तिथि परम पुण्यमयी है। वह सब उपद्रवोंको शान्त करनेवाली है। तुमलोगोंने लक्ष्मीका दर्शन पानेके लिये इस तिथिको उपवास किया है; इसलिये यह द्वादशी तिथि मुझे सदा प्रिय होगी। आजसे जो लोग एकादशीको उपवास करके द्वादशीको प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर बड़ी श्रद्धा के साथ लक्ष्मी और तुलसीके साथ मेरा पूजन करेंगे, वे सब बन्धनोंसे मुक्त होकर मेरे परम पदको प्राप्त होंगे।'
ऐसा कहकर सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए लक्ष्मीजीके निवासस्थान क्षीरसागरमें चले गये। वहाँ सूर्यके समान तेजोमय विमानपर शेषनागकी शय्याके ऊपर विशाललोचना भगवती रमाके साथ रहने लगे। वे देवताओंको दर्शन देनेके लिये सदा ही वहाँ निवास करते हैं। तदनन्तर सब देवता कच्छपरूपधारी सनातन भगवान्का भक्तिपूर्वक पूजन करके प्रसन्नचित हो उनकी स्तुति करने लगे। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बोले- 'देवेश्वरो। तुम्हारे मनमें जैसी इच्छा हो, वैसा वर माँगो ।'
देवता बोले-महाबली देवेश्वर ! आप शेषनाग और दिग्गजोंकी सहायताके लिये सात द्वीपोंवाली इस पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण कीजिये ।
देवताओंकी प्रार्थना सुनकर विश्वभावन भगवान्ने बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- -'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) । तबसे उन्होंने सातों द्वीपोंसहित पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण किया। तदनन्तर महर्षियोंसहित देवता, गन्धर्व, दैत्य, दानव तथा मानव भगवान्की आज्ञा ले अपने-अपने लोकको चले गये। तबसे ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, मनुष्य योगी तथा मुनिश्रेष्ठ भगवान्की आज्ञा मानकर बड़ी भक्तिके साथ एकादशी तिथिको उपवास और द्वादशी तिथिको भगवान्का पूजन करने लगे ।
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• नसिंहावतार एवं प्रहादजीकी कथा .
नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
महादेवजी कहते हैं-पार्वती! दितिसे इस पृथ्वीको उखाड़ लिया और सिरपर रखकर रसातलमें कश्यपजीके दो महाबली पुत्र हुए थे, जिनका नाम चला गया। यह देख सम्पूर्ण देवता भयसे पीडित हो हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष था। वे दोनों महापराक्रमी हाहाकार करने लगे और रोग-शोकसे रहित भगवान्
और सम्पूर्ण दैत्योंके स्वामी थे। उनके दैत्य-योनिमें नारायणको शरणमें गये। उस अद्भुत वृत्तान्तको जानकर आनेका कारण इस प्रकार है। वे पूर्वजन्ममें जय-विजय विश्वरूपधारी जनार्दनने वाराहरूप धारण किया। उस नामक श्रीहरिके पार्षद थे और श्वेतद्वीपमें द्वारपालका समय उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें और विशाल भुजाएँ थीं। काम करते थे। एक समय सनकादि योगीश्वर भगवान्का उन परमेश्वरने अपनी एक दाढ़से उस दैत्यपर आघात दर्शन करनेके लिये उत्सुक हो श्वेतद्वीपमें आये। किया। इससे उसका विशाल शरीर कुचल गया और महाबली जय-विजयने उन्हें बीच में ही रोक दिया। इससे वह अधम दैत्य तुरंत ही मर गया । पृथ्वीको रसातलमें सनकादिने उन्हें शाप दे दिया-'द्वारपालो ! तुम दोनों पड़ी देख भगवान् वाराहने उसे अपनी दाढ़पर उठा लिया भगवान्के इस घामका परित्याग करके भूलोकमें चले और उसे पहलेकी भाँति शेषनागके ऊपर स्थापित करके जाओ।' इस प्रकार शाप देकर वे मुनीश्वर वहीं ठहर स्वयं कच्छपरूपसे उसके आधार बन गये। गये। भगवानको यह बात मालूम हो गयी और उन्होंने वाराहरूपधारी महाविष्णुको वहाँ देखकर सम्पूर्ण देवता सनकादि महात्माओं तथा दोनों द्वारपालोंको भी बुलाया। और मुनि भक्तिसे मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करने निकट आनेपर भूतभावन भगवान्ने जय-विजयसे लगे। स्तुतिके पश्चात् उन्होंने गन्ध, पुष्प आदिसे कहा-'द्वारपालो ! तुमलोगोंने महात्माओका अपराध श्रीहरिका पूजन किया। तब भगवान्ने उन सबको किया है। अतः तुम इस शापका उल्लङ्घन नहीं कर मनोवाञ्छित वरदान दिया। इसके बाद वे महर्षियोंके सकते। तुम यहाँसे जाकर या तो सात जन्मोंतक मेरे मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वहीं अन्तर्धान हो गये। पापहीन भक्त होकर रहो या तीन जन्मोंतक मेरे प्रति अपने भाई हिरण्याक्षको मारा गया जान महादैत्य शत्रुभाव रखते हुए समय व्यतीत करो।'
हिरण्यकशिपु मेरुगिरिके पास जा मेरा ध्यान करते हुए यह सुनकर जय-विजयने कहा-मानद ! हम तपस्या करने लगा। पार्वती ! उस महाबली दैत्यने एक अधिक समयतक आपसे अलग पृथ्वीपर रहनेमें हजार दिव्य वर्षातक केवल वायु पीकर जीवन-निर्वाह असमर्थ है। इसलिये केवल तीन जन्मोतक ही शत्रुभाव किया और 'ॐ नमः शिवाय' इस पञ्चाक्षर मन्त्रका धारण करके रहेंगे।
जप करते हए वह सदा मेरा पूजन करता रहा। तब मैंने ऐसा कहकर वे दोनों महाबली द्वारपाल कश्यपके प्रसन्न होकर उस महान् असुरसे कहा-'दितिनन्दन ! वीर्यसे दितिके गर्भमें आये और महापराक्रमी असुर तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो।' होकर प्रकट हुए। उनमें बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु था तब वह मुझे प्रसन्न जानकर बोला-'भगवन् ! देवता,
और छोटेका हिरण्याक्ष । वे दोनों सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग, हुए। उन्हें अपने बल और पराक्रमपर बड़ा अभिमान सिद्ध, महात्मा, यक्ष, विद्याधर और कित्ररोसे, समस्त था। हिरण्याक्ष मदसे उन्मत्त रहता था। उसका शरीर रोगोंसे, सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे तथा सम्पूर्ण कितना बड़ा था या हो सकता था इसके लिये कोई महर्षियोंसे भी मेरी मृत्यु न हो सके-यह वरदान निश्चित मापदण्ड नहीं था। उसने अपनी हजारों दीजिये।' 'एवमस्तु' कहकर मैंने उसे वरदान दे दिया। भुजाओंसे पर्वत, समुद्र, द्वीप और सम्पूर्ण प्राणियोसहित मुझसे महान् वर पाकर वह महाबली दैत्य इन्द्र और
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• अर्चयस्व हपीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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देवताओंको जीत करके तीनों लोकोंका सम्राट् बन बैठा। ब्राहाणाधम ! मेरे शत्रुको यह स्तुति, जो कदापि उसने बलपूर्वक समस्त यज्ञ-भागोंपर अधिकार जमा सुननेयोग्य नहीं है, आज मेरे ही आगे इस बालकने भी लिया। देवताओंको कोई रक्षक न मिला। वे उससे सुना दी। यह सब तेरा ही प्रसाद है। इतना कहते-कहते परास्त हो गये। गन्धर्व, देवता और दानव-सभी दैत्यराज हिरण्यकशिपु क्रोधके मारे अपनी सुध-बुध खो उसके किङ्कर हो गये। यक्ष, नाग और सिद्ध-सभी बैठा और चारों ओर देखकर दैत्योंसे बोला-'अरे | इस उसके अधीन रहने लगे। उस महावली दैत्यराजने राजा ब्राह्मणको मार डालो।' आज्ञा पाते ही क्रोधमें भरे हुए उत्तानपादकी पुत्री कल्याणीके साथ विधिपूर्वक विवाह राक्षस आ पहुँचे और उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके गलेमें रस्सी किया। उसके गर्भसे महातेजस्वी प्रह्लादका जन्म हुआ, लगाकर उन्हें बाँधने लगे। ब्राह्मणोंके प्रेमी प्रह्लाद अपने जो आगे चलकर दैत्योंके राजा हुए। वे गर्भमें रहते गुरुको बँधते देख पितासे बोले-'तात ! यह गुरुजीने समय भी सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी श्रीहरिमें अनुराग रखते नहीं सिखाया है। मुझे तो देवाधिदेव भगवान् विष्णुकी ही थे। सब अवस्थाओं और समस्त कार्योंमें मन, वाणी, कृपासे ऐसी शिक्षा मिली है। दूसरा कोई गुरु मुझे उपदेश शरीर और क्रियाद्वारा वे देवताओंके स्वामी सनातन नहीं देता। मेरे लिये तो श्रीहरि ही प्रेरक हैं। सुनने, मनन भगवान् पद्मनाभके सिवा दूसरे किसीको नहीं जानते थे। करने, बोलने तथा देखनेवाले सर्वव्यापी ईश्वर केवल उनकी बुद्धि बड़ी निर्मल थी। समयानुसार उपनयन- श्रीविष्णु ही हैं। वे ही अविनाशी कर्ता हैं और वे ही सब संस्कार हो जानेपर वे गुरुकुलमें अध्ययन करने लगे। प्राणियोंपर नियन्त्रण करनेवाले हैं। अतः प्रभो ! मेरे गुरु सम्पूर्ण वेदों और नाना प्रकारके शास्त्रोंका अध्ययन इन ब्राह्मणदेवताका कोई अपराध नहीं है। इन्हें बन्धनसे करके वे प्रह्लाद किसी समय अपने गुरुके साथ घरपर मुक्त कर देना चाहिये। आये। उन्होंने पिताके पास जाकर बड़ी विनयके साथ पुत्रकी यह बात सुनकर हिरण्यकशिपुने ब्राह्मणका उनके चरणोंमें प्रणाम किया। हिरण्यकशिपुने उत्तम बन्धन खुलवा दिया और स्वयं बड़े विस्मयमें पड़कर लक्षणोंसे युक्त पुत्रको चरणोंमें पड़ा देख भुजाओंसे प्रहादसे कहा-'बेटा ! तुम ब्राह्मणोंके झूठे बहकावेमें उठाकर छातीसे लगा लिया और गोदमें बिठाकर आकर क्यों भ्रममें पड़ रहे हो? कौन विष्णु है ? कैसा कहा-'बेटा प्रहाद ! तुमने दीर्घकालतक गुरुकुलमें उसका रूप है और कहाँ वह निवास करता है ? संसारमें निवास किया है। वहाँ गुरुजीने जो तुम्हें जानने योग्य मैं हो ईश्वर हूँ। मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी माना गया तत्त्व बतलाया हो, वह मुझसे कहो।'
हूँ। विष्णु तो हमारे कुलका शत्रु है। उसे छोड़ो और मेरी पिताके इस प्रकार पूछनेपर जन्मसे ही वैष्णव ही पूजा करो। अथवा लोकगुरु भगवान् शंकरको प्रह्लादने बड़ी प्रसन्नताके साथ पापनाशक वचन कहा- आराधना करो, जो देवताओंके अध्यक्ष, सम्पूर्ण ऐश्वर्य "पिताजी ! जो सम्पूर्ण उपनिषदोंके प्रतिपाद्य तत्त्व, प्रदान करनेवाले और परम कल्याणमय है। ललाटमें
अन्तर्यामी पुरुष और ईश्वर हैं, उन सर्वव्यापी भगवान् भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करके पाशुपत-मार्गसे दैत्यपूजित विष्णुको नमस्कार करके मैं आपसे कुछ निवेदन करता महादेवजीकी पूजामें संलग्न रहो।' हूँ।' प्रह्लादके मुखसे इस प्रकार विष्णुकी स्तुति सुनकर पुरोहितोंने कहा-ठीक ऐसी ही बात है। दैत्यराज हिरण्यकशिपुको बड़ा विस्मय हुआ। उसने महाभाग ! प्रहाद ! तुम पिताकी बात मानो। अपने कुपित होकर गुरुसे पूछा- 'खोटी बुद्धिवाले ब्राह्मण ! कुलके शत्रु विष्णुको छोड़ो और त्रिनेत्रधारी महादेवजीकी तूने मेरे पुत्रको क्या सिखा दिया । मेरा पुत्र और इस प्रकार पूजा करो। महादेवजीसे बढ़कर सब कुछ देनेवाला विष्णुकी स्तुति करे-तूने ऐसी शिक्षा क्यों दी? यह दूसरा कोई देवता नहीं है। उन्हींकी कृपासे आज तुम्हारे मूर्खतापूर्ण न करनेयोग्य कार्य ब्राह्मणोंके ही योग्य है। पिता भी ईश्वरपदपर प्रतिष्ठित हैं।
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उत्तरखण्डत
• नृसिंहावतार एवं प्रहादजीको कथा •
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प्रहाद बोले-अहो ! भगवान्की कैसी महिमा श्रीविष्णुके उस परम पदको प्राप्त कर लँगा। है, जिनको मायासे सारा जगत् मोहित हो रहा है ! कितने प्रह्लादको ये बातें सुनकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त आश्चर्यकी बात है कि वेदान्तके विद्वान् और सब लोकोंमें क्रोध भरकर द्वितीय अग्निकी भाँति जल उठा और चारों पूजित ब्राह्मण भी मदोन्मत्त होकर चपलतावश ऐसी बातें ओर देखकर दैत्योंसे बोला-'अरे ! यह प्रह्लाद बड़ा कहते हैं। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि नारायण ही परब्रह्म पापी है। यह शत्रुको पूजामें लगा है। मैं आज्ञा देता हैं। नारायण ही परमतत्त्व हैं, नारायण ही सर्वश्रेष्ठ ध्याता है- इसे भयंकर शस्त्रोंसे मार डालो। जिसके बलपर
और नारायण ही सर्वोत्तम ध्यान हैं। सम्पूर्ण जगत्की यह 'श्रीहरि ही रक्षक हैं' ऐसा कहता है, उसे आज ही गति भी वे ही हैं। वे सनातन, शिव, अच्युत, जगत्के देखना है। उस हरिका रक्षा-कार्य कितना सफल हैघाता, विधाता और नित्य वासुदेव हैं। परम पुरुष यह अभी मालूम हो जायगा।' नारायण ही यह सम्पूर्ण विश्व है और वे ही इस विश्वको दैत्यराजकी यह आज्ञा पाते ही दैत्य हथियार जीवन प्रदान करते हैं। उनका श्रीअङ्ग सुवर्णके समान उठाकर महात्मा प्रह्लादको मार डालनेके लिये उन्हें चारों कान्तिमान् है। वे नित्य देवता हैं। उनके नेत्र कमलके ओरसे घेरकर खड़े हो गये। इधर प्रह्लाद भी अपने समान हैं। वे श्री, भू और लीला-इन तीनों देवियोंके हृदय-कमलमें श्रीविष्णुका ध्यान करते हुए अष्टाक्षरस्वामी हैं। उनकी आकृति सुन्दर और सौम्य है तथा मन्त्रका जप करने लगे और दूसरे पर्वतकी भाँति अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है। उन्होंने ही सम्पूर्ण अविचलभावसे खड़े रहे। दैत्यवीर चारों ओरसे उनके देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मा और महादेवजीको उत्पन्न किया ऊपर शूल, तोमर और शक्तियोंसे प्रहार करने लगे। है। ब्रह्मा और महादेवजी उन्हकि आज्ञानुसार चलते हैं। परन्तु श्रीहरिका स्मरण करनेके कारण प्रह्लादका शरीर उन्हींक भयसे वायु सदा गतिशील रहती है। उन्हकि उस समय भगवान्के प्रभावसे दुर्धर्ष वज्रके समान हो डरसे सूर्यदेव ठीक समयपर उदित होते हैं। और उन्हींके गया। देवद्रोहियोंके बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र प्रह्लादके भयसे अनि, इन्द्र तथा मृत्यु देवता सदा दौड़ लगाते शरीरसे टकराकर टूट जाते और कमलके पत्तोंके समान रहते हैं। सृष्टिके आदिमें एकमात्र नित्य देवता भगवान् छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वीपर गिर जाते थे। दैत्य उनके नारायण ही थे। उस समय न ब्रह्मा थे और न अङ्गमें छोटा-सा भी घाव करनेमें समर्थ न हो सके। तब महादेवजी, न चन्द्रमा थे न सूर्य, न आकाश था न विस्मयसे नीचा मुँह किये वे सभी योद्धा दैत्यराजके पास पृथ्वी । नक्षत्र और देवता भी उस समय प्रकट नहीं हुए जा चुपचाप खड़े हो गये। अपने महात्मा पुत्रको इस थे। विद्वान् पुरुष सदा ही भगवान् विष्णुके उस प्रकार तनिक भी चोट पहुंचती न देख दैत्यराज परमधामका साक्षात्कार करते हैं। परम योगी महात्मा हिरण्यकशिपुको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने क्रोधसे सनकादि भी जिन भगवान् विष्णुका ध्यान करते हैं, व्याकुल होकर वासुकि आदि बड़े-बड़े विषैले ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि देवता भी जिनकी और भयंकर सोको आज्ञा दी कि 'इस प्रहादको आराधनामें लगे रहते हैं, जिनकी पत्नी भगवती लक्ष्मीकी काट खाओ।' कृपा-कटाक्षपूर्ण आधी दृष्टि पड़नेपर ही ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, राजाका यह आदेश पाकर अत्यन्त भयंकर और वरुण, यम, चन्द्रमा और कुबेर आदि देवता हर्षसे फूल महायली नाग, जिनके मुखोंसे आगकी लपटें निकल रही उठते हैं, जिनके नामोंका स्मरण करनेमात्रसे पापियोंकी थीं, प्रह्लादको काट खानेकी चेष्टा करने लगे; किन्तु उनके भी तत्काल मुक्ति हो जाती है, वे भगवान् लक्ष्मीपति ही शरीरमें दाँत लगाते ही वे सर्प विषोंसे हाथ धो बैठे। देवताओंकी भी सदा रक्षा करते हैं। मैं लक्ष्मीसहित उन उनके दाँत भी टूट गये तथा हजारों गरुड़ प्रकट होकर परमेश्वरका ही सदा पूजन करूँगा। तथा अनायास ही उनके शरीरको छिन्न-भिन्न करने लगे। इससे व्याकुल
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• अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
होकर मुखसे रक्त वमन करते हुए सभी सर्प इधर-उधर लिये अवध्य हो गया है। मुझे परास्त करना किसी भी भाग गये। बड़े-बड़े सर्पोकी ऐसी दुर्दशा देख प्राणीके लिये कठिन है। यदि विष्णु मुझे अपने बल और दैत्यराजका क्रोध और भी बढ़ गया। अब उसने पराक्रमसे जीत लें तो ईश्वरका पद प्राप्त कर सकते हैं। मतवाले दिग्गजोंको प्रह्लादपर आक्रमण करनेकी आज्ञा पिताको यह बात सुनकर प्रहादको बड़ा विस्मय दी। राजाज्ञासे प्रेरित होकर मदोन्मत्त दिग्गज प्रहादको हुआ। उन्होंने दैत्यराजके सामने श्रीहरिके प्रभावका वर्णन चारों ओरसे घेरकर अपने विशाल और मोटे दाँतोंसे करते हुए कहा-'पिताजी ! योगी पुरुष भक्तिके बलसे उनपर प्रहार करने लगे। किन्तु उनके शरीरसे टक्कर लेते उनका सर्वत्र दर्शन करते हैं। भक्तिके विना वे कहीं भी ही दिग्गजोंके दाँत जड़-मूलसहित टूटकर पृथ्वीपर गिर दिखायी नहीं देते। रोष और मत्सर आदिके द्वारा श्रीहरिका पड़े। अब वे बिना दाँतोंके हो गये। इससे उन्हें बड़ी दर्शन होना असम्भव है । देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य तथा पीड़ा हुई और वे सब ओर भाग गये। बड़े-बड़े स्थावर समस्त छोटे-बड़े प्राणियोंमें वे व्याप्त हो रहे हैं।' गजराजोंको इस प्रकार भागते देख दैत्यराजके क्रोधकी प्रह्लादके ये वचन सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपुने सीमा न रही। उसने बहुत बड़ी चिता जलाकर उसमें क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके उन्हें डाँटते हुए अपने बेटेको डाल दिया। जलमें शयन करनेवाले कहा- 'यदि विष्णु सर्वव्यापी और परम पुरुष है तो इस भगवान् विष्णुके प्रियतम प्रह्लादको धीरभावसे बैठे देख विषयमें अधिक प्रलाप करनेकी आवश्यकता नहीं है। भयंकर लपटोंवाले अग्निदेवने उन्हें नहीं जलाया। उनकी इसपर विश्वास करनेके लिये कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित ज्वाला शान्त हो गयी। अपने बालकको आगमें भी करो।' ऐसा कहकर दैत्यने सहसा अपने महलके जलते न देख दैत्यपतिके आश्चर्यको सीमा न रही। उसने खंभेको हाथसे ठोंका और प्रहादसे फिर कहा-'यदि पुत्रको अत्यन्त भयंकर विष दे दिया, जो सब प्राणियोंके विष्णु सर्वत्र व्यापक है तो उसे तुम इस खंभेमें प्राण हर लेनेवाला था। किन्तु भगवान् विष्णुके प्रभावसे दिखाओ। अन्यथा झूठी बातें बनानेके कारण तुम्हारा प्रह्लादके लिये विष भी अमृत हो गया। भगवान्को वध कर डालूंगा।' अर्पण करके उनके अमृतस्वरूप प्रसादको हो वे खाया यों कहकर दैत्यराजने सहसा तलवार खोंच लो करते थे। इस प्रकार राजा हिरण्यकशिपुने अपने पुत्रके और क्रोधपूर्वक प्रह्लादको मार डालनेके लिये उनकी वधके लिये बड़े भयंकर और निर्दयतापूर्ण उपाय किये छातीपर प्रहार करना चाहा। उसी समय खंभेके भीतरसे किन्तु प्रह्लादको सर्वथा अवध्य देखकर वह विस्मयसे बड़े जोरकी आवाज सुनायी पड़ी, मानो वनकी गर्जनाके व्याकुल हो उठा और बोला।
साथ आसमान फट पड़ा हो । उस महान् शब्दसे दैत्योंके हिरण्यकशिपुने कहा-प्रह्लाद ! तुमने मेरे कान बहरे हो गये। वे जड़से कटे हुए वृक्षोंकी भाँति सामने विष्णुकी श्रेष्ठताका भलीभाँति वर्णन किया है। वे पृथ्वीपर गिर पड़े। उनपर आतङ्क छा गया। उन्हें ऐसा सब भूतोंमें व्यापक होनेके कारण विष्णु कहलाते हैं। जो जान पड़ा, मानो अभी तीनों लोकोंका प्रलय हो जायगा। सर्वव्यापी देवता हैं, वे ही परमेश्वर हैं। अतः तुम मुझे तदनन्तर उस खंभेसे महान् तेजस्वी श्रीहरि विशालकाय विष्णुको सर्वव्यापकताको प्रत्यक्ष दिखाओ। उनके सिंहकी आकृति धारण किये निकले। निकलते ही ऐश्वर्य, शक्ति, तेज, ज्ञान, वीर्य, बल, उत्तम रूप, गुण उन्होंने प्रलयकालीन मेघोंके समान महाभयंकर गर्जना और विभूतियोंको अच्छी तरह देख लें, तब मैं विष्णुको की। वे अनेक कोटि सूर्य और अग्नियोंके समान तेजसे देवता मान सकता हूँ। इस समय संसारमें तथा सम्पन्न थे। उनका मुँह तो सिंहके समान था और शरीर देवताओंमें भी मेरे बलको समानता करनेवाला कोई भी मनुष्यके समान। दाढोंके कारण मुख बड़ा विकराल नहीं है। भगवान् शंकरके वरदानसे मैं सब प्राणियोंके दिखायी देता था। लपलपाती हुई जीभ उनके उद्धत
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• नृसिंहावतार एवं प्रहादजीकी कथा •
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भावको सूचना दे रही थी। उनके बालोंसे आगकी लपटें राजकुमार प्रह्लादके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बह चले। निकल रही थीं। क्रोधसे जलती हुई अँगारे-जैसी उनका सर्वाङ्ग अश्रुजलसे अभिषिक्त होने लगा और वे लाल-लाल आँखें अलातचक्रके समान घूम रही थीं। बारम्बार श्रीहरिके चरणोंमें प्रणाम करने लगे। हजारों बड़ी-बड़ी भुजाओंमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र दैत्यराज हिरण्यकशिपु सिंहको सामने आया देख लिये भगवान् नरसिंह अनेक शाखावाले वृक्षोंसे युक्त क्रोधवश युद्धके लिये तैयार हो गया। वह मृत्युके मेरुपर्वतके समान जान पड़ते थे। उनके अङ्गोंमें दिव्य अधीन हो रहा था। इसलिये हाथमें तलवार लेकर मालाएँ, दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण शोभा पाते थे। भगवान नृसिंहकी ओर दौड़ा। इसी बीचमें महाबली दैत्य भगवान् नरसिंह सम्पूर्ण दानवोंका संहार करनेके लिये भी होशमें आ गये और वे अपने-अपने आयुध लेकर वहाँ खड़े हुए। भयानक आकृतिवाले महाबली बड़ी उतावलीके साथ श्रीहरिपर प्रहार करने लगे। नरसिंहको उपस्थित देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी दैत्योंकी उस सेनाको देखकर भगवान् नरसिंहने अपनी आँखोकी बरौनियाँ जल उठीं। उसका सारा शरीर अयालसे निकलती हुई लपटोंके द्वारा उसे जलाकर भस्म व्याकुल हो गया। और वह अपनेको संभाल न सकनेके कर दिया । समस्त दानव उनकी जटाको आगसे जलकर कारण पृथ्वीपर गिर पड़ा।
राखकी ढेर हो गये। प्रहाद और उनके अनुचरोंको उस समय प्रह्लादने भगवान् जनार्दनको नरसिंहको छोड़कर दैत्यसेनामें कोई भी नहीं बचा। यह देख आकृतिमें उपस्थित देख जय-जयकार करते हुए उनके दैत्यराजने क्रोधमें भरकर तलवार खींच ली और भगवान् चरणोंमें मस्तक झुकाया और उन महात्माके अद्भुत नरसिंहपर धावा किया; किन्तु भगवान्ने एक ही हाथसे अङ्गोपर दृष्टिपात किया। उनकी गर्दनके बालों में कितने तलवारसहित दैत्यराजको पकड़ लिया और जैसे आँधी ही लोक, समुद्र, द्वीप, देवता, गन्धर्व, मनुष्य और हजारों वृक्षकी शाखाको गिरा देती है, उसी प्रकार उसे पृथ्वीपर अण्डज प्राणी दिखायी देते थे। दोनों नेत्रोंमें सूर्य और दे मारा । पृथ्वीपर पड़े हुए उस विशालकाय दैत्यको चन्द्रमा आदि तथा कानोंमें अश्विनीकुमार और सम्पूर्ण भगवान् नरसिंहने फिर पकड़ा और अपनी गोदमें रखकर दिशा एवं विदिशाएँ थीं। ललाटमें ब्रह्मा और महादेव, उसके मुखकी ओर दृष्टिपात किया। उसमें श्रीविष्णुकी नासिकामें आकाश और वायु, मुखके भीतर इन्द्र और निन्दा तथा वैष्णवभक्तसे द्वेष करनेका जो पाप था, वह अग्नि, जिलामें सरस्वती, दाढ़ोंपर सिंह, व्याघ्र, शरभ और भगवान्के स्पर्शमात्रसे ही जलकर भस्म हो गया। बड़े-बड़े साँपोका दर्शन होता था। कण्ठमें मेरुगिरि, तत्पश्चात् भगवान् नृसिंहने दैत्यराजके उस विशाल कंधोंमें महान् पर्वत, भुजाओंमें देवता, मनुष्य और शरीरको वज्रके समान कठोर और तीखे नखोसे विदीर्ण पशु-पक्षी, नाभिमें अन्तरिक्ष और दोनों पैरोंमें पृथ्वी थी। कर डाला। इससे दैत्यराजका अन्तःकरण निर्मल हो रोमावलियोंमें ओषधियाँ, नखोंमें सम्पूर्ण विश्व और गया। उसने साक्षात् भगवानका मुख देखते हुए प्राणोंका निःश्वासोंमें साङ्गोपाङ्ग वेद थे। उनके सम्पूर्ण अङ्गोमें परित्याग किया। इसलिये वह कृतकृत्य हो गया। महान् आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, गन्धर्व तथा नृसिंहरूपधारी श्रीहरिने अपने तीखे नखोंसे उसकी देहके अप्सराएँ दृष्टिगोचर होती थीं। इस प्रकार उन सैकड़ों टुकड़े करके उसकी लम्बी आत बाहर निकाल परमात्माकी विभूतियाँ दिखायी दे रही थीं। उनका लीं और उन्हें अपने गलेमें डाल लिया। वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्न, कौस्तुभमणि और वनमालासे तदनन्तर, सम्पूर्ण देवता और तपस्वी मुनि ब्रह्मा विभूषित था। वे शङ्ख, चक्र, गदा, खड्ग और शार्ङ्गधनुष तथा महादेवजीको आगे करके धीरे-धीरे भगवान्की आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न थे। सम्पूर्ण उपनिषदोंके स्तुति करनेके लिये आये। उस समय सब ओर अर्थभूत भगवान् श्रीविष्णुको उपस्थित देख दैत्य- मुखवाले भगवान् नृसिंह क्रोधाग्निसे प्रज्वलित हो रहे
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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
थे। इसलिये सब देवता और मुनि भयभीत हो गये। इतनी चमक थी, मानो करोड़ों चपलाएँ चमक रही हों। उन्होंने भगवानको प्रसन्न करनेके लिये जगन्माता नाना प्रकारके रत्ननिर्मित दिव्य केयूर और कड़ोंसे भगवती लक्ष्मीका चित्तन किया, जो सबका धारण- विभूषित भुजाओंद्वारा वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शाखा पोषण करनेवाली, सबकी अधीश्वरी, सुवर्णमय कान्तिसे और फलोंसे युक्त कल्पवृक्ष सुशोभित हो। कोमल, सुशोभित होनेवाली तथा सब प्रकारके उपद्रवोंका नाश दिव्य तथा जपाकुसुमके समान लाल रंगवाले चार करनेवाली हैं। उन्होंने भक्तिपूर्वक देवीसूक्तका जप करते हाथोसे परमेश्वर श्रीहरिकी बड़ी शोभा हो रही थी। उनकी हुए श्रीविष्णुको शक्ति अनिन्द्यसुन्दरी नारायणीको ऊपरवाली दो भुजाओंमें शत और चक्र थे तथा शेष दो नमस्कार किया। देवताओंके स्मरण करनेपर सनातन हाथोंमें वरदान और अभयकी मुद्राएँ शोभा पाती थीं। देवता भगवती लक्ष्मी वहाँ प्रकट हुई। देवाधिदेव भगवान्का वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्न, कौस्तुभमणि तथा श्रीविष्णुकी वल्लभा महालक्ष्मीका दर्शन करके सम्पूर्ण वनमालासे विभूषित था। कानोंमें उदयकालीन देवता बहुत प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर बोले- दिनकरकी-सी दीप्तिवाले दो कुण्डल जगमगा रहे थे। 'देवि ! अपने प्रियतमको प्रसन्न करो। तुम्हारे स्वामी हार, केयर और कड़े आदि आभूषण भिन्न-भिन्न अङ्गोंकी जिस प्रकार भी तीनों लोकोंको अभय दान दें, वही सुषमा बढ़ा रहे थे। वामाङ्गमें भगवती लक्ष्मीजीको साथ उपाय करो।'
ले भगवान् नृसिंह बड़ी शोभा पाने लगे। देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवती लक्ष्मी सहसा उस समय लक्ष्मी और नृसिंहको एक साथ देख अपने प्रियतम भगवान् जनार्दनके पास गयीं और देवता और महर्षि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उनके चरणोंमें पड़कर नमस्कार करके बोली-'प्राणनाथ ! नेत्रोंसे आनन्दाश्रुकी धारा बह चली, जिससे उनका शरीर प्रसन्न होइये।' अपनी प्यारी महारानीको उपस्थित देख भीगने लगा। वे आनन्दसमुद्र में निमग्न होकर बारम्बार सर्वेश्वर श्रीहरिने राक्षस-शरीरके प्रति उत्पन्न क्रोधको भगवान्को नमस्कार करने लगे। उन्होंने अमृतसे भरे हुए तत्काल त्याग दिया और कृपारूपी अमृतसे सरस दृष्टिके रत्नमय कलशोंद्वारा सनातन भगवान्का अभिषेक करके द्वारा देखा। उस समय उनके कृपापूर्ण दृष्टिपातसे संतुष्ट वस्त्र, आभूषण, गन्ध, दिव्य पुष्प तथा मनोरम धूप होकर जय-जयकार करते हुए उच्च स्वरसे स्तुति और अर्पण करके उनका पूजन किया और दिव्य स्तोत्रोंसे नमस्कार करनेवाले लोगोंमें आनन्द और उल्लास छा स्तुति करके बार-बार उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। गया। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवता हर्षमान हो जगदीश्वर इससे प्रसन्न होकर भगवान् लक्ष्मीपतिने उन देवताओंको श्रीविष्णुको नमस्कार करके हाथ जोड़कर बोले- मनोवाञ्छित वरदान दिया। तत्पश्चात् सबके स्वामी 'भगवन् ! अनेक भुजाओं और चरणोंसे युक्त आपके भक्तवत्सल श्रीहरिने देवताओंको साथ ले प्रह्लादको सब इस अद्भुत रूप और तीनों लोकोंमें व्याप्त दुःसह तेजको दैत्योंका राजा बनाया। प्रह्लादको आश्वासन दे
ओर देखने और आपके समीप ठहरनेमें हम सभी देवता देवताओंद्वारा उनका अभिषेक कराकर उन्हें अभीष्ट असमर्थ हो रहे हैं।
वरदान और अनन्य भक्ति प्रदान की। इसके बाद देवताओंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर देवेश्वर भगवान के ऊपर फूलोंकी वर्षा हुई और वे देवगणोंसे श्रीविष्णुने उस अत्यन्त भयानक तेजको समेट लिया अपनी स्तुति सुनते हुए वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर और सुखपूर्वक दर्शन करनेयोग्य हो गये। उस समय सब देवता अपने-अपने स्थानको चले गये और उनका प्रकाश शरत्कालके करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रसन्नतापूर्वक यज्ञभागका उपभोग करने लगे। तबसे प्रतीत होता था। कमलके समान विशाल नेत्र शोभा पा उनका आतङ्क दूर हो गया। उस महादैत्यके मारे जानेसे रहे थे। जटापुञ्जसे सुधाकी वृष्टि हो रही थी। उसमें सबको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर विष्णुभक्त प्रह्लाद
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उत्तरखण्ड
.वामन-अवतारके वैधतका वर्णन .
धर्मपूर्वक राज्य करने लगे। वह उत्तम राज्य उन्हें प्रतिदिन इस प्रह्लाद-चरित्रको सुनते हैं, वे सब पापोंसे भगवान्के प्रसादसे ही उपलब्ध हुआ था। उन्होंने अनेक मुक्त हो परम गतिको प्राप्त होते हैं। पार्वती ! इस प्रकार यज्ञ-दान आदिके द्वारा नरसिंहजीका पूजन किया और मैंने तुम्हें श्रीहरिके नृसिंहावतारका वैभव बतलाया है। समय आनेपर वे श्रीहरिके सनातन धामको प्राप्त हुए। जो अंब शेष अवतारोंके वैभवका क्रमशः वर्णन सुनो।
वामन अवतारके वैभवका वर्णन
श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! प्रह्लादके उन्होंने अदितिके साथ प्रणाम करके भगवान्की विरोचन नामक पुत्र हुआ। विरोचनसे महाबाहु बलिका स्तुति की। जन्म हुआ। बलि धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, तब भगवान् बोले-विप्रवर ! तुम्हारा कल्याण नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरिके प्रियतम भक्त हो। तुमने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की है। इससे मैं थे। वे महान् बलवान् थे। उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण बहुत सन्तुष्ट हूँ। तुम कोई वर माँगो। मैं तुम्हारा मनोरथ देवताओं और मरुद्रणोंको जीतकर तीनों लोकोंको अपने पूर्ण करूंगा। अधीन कर लिया था। इस प्रकार वे समस्त त्रिलोकीका कश्यपजीने कहा-देवेश्वर ! दैत्यराज बलिने राज्य करते थे। उनके शासन-कालमें पृथ्वी बिना जोते तीनों लोकोंको बलपूर्वक जीत लिया है। आप मेरे पुत्र ही पके धान पैदा करती थी और खेतीमें बहुत अधिक होकर देवताओंका हित कीजिये। जिस किसी उपायसे अन्नकी उपज होती थी। सभी गौएँ पूरा दूध देती और भी मायापूर्वक बलिको परास्त करके मेरे पुत्र इन्द्रको सम्पूर्ण वृक्ष फल-फूलोंसे लदे रहते थे। सब मनुष्य त्रिलोकीका राज्य प्रदान कीजिये। पापोंसे दूर हो अपने-अपने धर्ममें लगे रहते, थे। कश्यपजीके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णुने किसीको किसी प्रकारको चिन्ता नहीं थी। सब लोग सदा 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की और भगवान् हषीकेशकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहीं दैत्यराज बलि धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे। इन्द्र अन्तर्धान हो गये। इसी समय महात्मा कश्यपके आदि देवता दासभावसे उनकी सेवामें खड़े रहते थे। संयोगसे देवी अदितिके गर्भमें भूतभावन भगवानका बलिको अपने बलका अभिमान था। वे तीनों लोकोंका शुभागमन हुआ। तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतनेके बाद ऐश्वर्य भोग रहे थे।
अदितिने वामनरूपधारी भगवान् विष्णुको जन्म दिया। - इधर महर्षि कश्यप अपने पुत्र इन्द्रको राज्यसे वे ब्रह्मचारीका वेष धारण किये हुए थे। सम्पूर्ण वेदाङ्गोंमें वञ्चित देख उनके हितकी इच्छासे श्रीहरिको प्रसत्र उन्हींका तत्त्व दृष्टिगोचर होता है। वे मेखला, मृगचर्म करनेके लिये पत्नीसहित तपस्या करने लगे। धर्मात्मा और दण्ड आदि चिह्नोंसे उपलक्षित हो रहे थे। इन्द्र कश्यपने अपनी भार्या अदितिके साथ पयोव्रतका आदि सम्पूर्ण देवता उनका दर्शन करके महर्षियोंके साथ अनुष्ठान किया और उसमें देवताओंके स्वामी भगवान् उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान्ने प्रसन्न होकर उन जनार्दनका पूजन किया। उसके बाद भी एक सहल श्रेष्ठ देवताओंसे कहा-'देवगण ! बताइये, इस समय वर्षातक वे श्रीहरिकी आराधनामें संलग्न रहे। तब मुझे क्या करना है?' सनातन देवता भगवान् विष्णु भगवती लक्ष्मीकै साथ देवता बोले-मधुसूदन ! इस समय राजा उनके सामने प्रकट हुए। जगदीश्वर श्रीहरिको सामने देख बलिका यज्ञ हो रहा है। अतः ऐसे अवसरपर वह कुछ द्विजश्रेष्ठ कश्यपका हृदय आनन्दमें मग्न हो गया। देनेसे इन्कार नहीं कर सकता। प्रभो ! आप दैत्यराजसे
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___• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
तीनों लोक माँगकर इन्द्रको देनेकी कृपा करें। साथ ब्राह्मणके दोनों चरण पखारे और हाथमें जल लेकर
देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवान् वामन यज्ञ- विधिपूर्वक भूमिदानका संकल्प किया। दान दे, नमस्कार शालामें महर्षियोंके साथ बैठे हुए राजा बलिके पास करके दक्षिणारूपसे धन दिया और प्रसन्न होकर कहाआये। ब्रह्मचारीको आया देख दैत्यराज सहसा उठकर 'ब्रह्मन् ! आज आपको भूमिदान देकर मैं अपनेको धन्य खड़े हो गये और मुसकराते हुए बोले-'अभ्यागत सदा और कृतकृत्य मानता हूँ। आप अपने इच्छानुसार इस विष्णुका ही स्वरूप है। अतः आप साक्षात् विष्णु ही पृथ्वीको ग्रहण कीजिये।' यहाँ पधारे हैं।' ऐसा कहकर उन्होंने ब्रह्मचारीको फूलोंके तब भगवान् विष्णुने दैत्यराज बलिसे कहाआसनपर बिठाकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया और 'राजन् ! मैं तुम्हारे सामने ही अब पृथ्वीको नापता हूँ।' चरणोंमें गिरकर प्रणाम करके गद्गद वाणीमें कहा- ऐसा कहकर परमेश्वरने वामन ब्रह्मचारीका रूप त्याग 'विप्रवर ! आपका पूजन करके आज मैं धन्य और दिया और विराट रूप धारण करके इस पृथ्वीको ले कृतार्थ हो गया। मेरा जीवन सफल है। कहिये मैं लिया। समुद्र, पर्वत, द्वीप, देवता, असुर और आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूं? द्विजश्रेष्ठ ! आप मनुष्योंसहित इस पृथ्वीका विस्तार पचास कोटि योजन जिस वस्तुको पानेके उद्देश्यसे मेरे पास पधारे हैं, उसे है। किन्तु उसे भगवान् मधुसूदनने एक ही पैरसे नाप शीघ्र बताइये। मैं अवश्य दूंगा।' का लिया। फिर दैत्यराजसे कहा-'राजन् ! अब क्या
वामनजी बोले-महाराज ! मुझे तीन पग भूमि करूँ ?' भगवान्का वह विराट् रूप महान् तेजस्वी था दे दीजिये; क्योंकि भूमिदान सब दानोंमें श्रेष्ठ है। जो और महात्मा ऋषियों तथा देवताओंके हितके लिये प्रकट भूमिका दान करता और जो उस दानको ग्रहण करता है, हुआ था। मैं तथा ब्रह्माजी भी उसे नहीं देख सकते थे। वे दोनों ही पुण्यात्मा है। वे दोनों अवश्य ही स्वर्गगामी भगवान्का वह पग सारी पृथ्वीको लाँधकर सौ योजनतक होते हैं। अतः आप मुझे तीन पग भूमिका दान कीजिये। आगे बढ़ गया। उस समय सनातन भगवान्ने दैत्यराज
यह सुनकर राजा बलिने प्रसत्रतापूर्वक कहा- बलिको दिव्यचक्षु प्रदान किया और उन्हें अपने 'बहुत अच्छा। तत्पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भूमिदानका स्वरूपका दर्शन कराया। भगवान्के विश्वरूपका दर्शन विचार किया । दैत्यराजको ऐसा करते देख उनके पुरोहित करके दैत्यराज बलिके हर्षकी सीमा न रही। उनके नेत्रोंमें शुक्राचार्यजी बोले-'राजन् ! ये साक्षात् परमेश्वर विष्णु आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने भगवान्को हैं। देवताओंकी प्रार्थनासे यहाँ पधारे हैं और तुम्हें नमस्कार करके स्तोत्रोद्वारा उनकी स्तुति की और चकमेमें डालकर सारी पृथ्वी हड़प लेना चाहते हैं। अतः प्रसन्नचित्तसे गद्गदवाणीमें कहा- 'परमेश्वर ! आपका इन महात्माको पृथ्वीका दान न देना। मेरे कहनेसे कोई दर्शन करके मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया। आप इन और ही वस्तु इन्हें दान करो, भूमि न दो।' तीनों ही लोकोंको ग्रहण कीजिये।
यह सुनकर राजा बलि हंस पड़े और धैर्यपूर्वक प तय सर्वेश्वर विष्णुने अपने द्वितीय पगको ऊपरकी गुरुसे बोले-'ब्रह्मन् ! मैंने सारा पुण्य भगवान् ओर फैलाया । वह नक्षत्र, ग्रह और देवलोकको लाँघता वासुदेवकी प्रसन्नताके ही लिये किया है। अतः यदि हुआ ब्रह्मलोकके अन्ततक पहुँच गया; किन्तु फिर भी पूरा स्वयं विष्णु ही यहाँ पधारे हैं, तब तो आज मैं धन्य हो न पड़ा । उस समय पितामह ब्रह्माने देवाधिदेव भगवान्के गया। उनके लिये तो आज मुझे यह परम सुखमय चक्र-कमलादि चिह्नोंसे अङ्कित चरणको देख हर्षयुक्त जीवनतक दे डालने में संकोच न होगा। अतः इन चित्तसे अपनेको धन्य माना और अपने कमण्डलुके ब्राह्मणदेवताको आज मैं तीनों लोकोंका भी निश्चय ही जलसे भक्तिपूर्वक उस चरणको घोया। श्रीविष्णुके दान कर दूंगा।' ऐसा कहकर राजा बलिने बड़ी भक्तिके प्रभावसे वह चरणोदक अक्षय हो गया। वह तीर्थभूत
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.परशरामावतारकी कथा
निर्मल जल मेरुपर्वतके शिखरपर गिरा और जगतको कल्याणमयी वैष्णवी गङ्गाका जल उन दोनों महानुभावोंक पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओमे बह चला । वे चारो लिये प्रसन्नतापूर्वक दान किया। महर्षि गौतम जिस धाराएँ क्रमशः सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्राके गङ्गाको ले गये, वे गौतमी (गोदावरी) कही गयी हैं नामसे प्रसिद्ध हुई। मेरुके दक्षिण ओर जो धारा चली, और राजा भगीरथने जिनको भूमिपर उतारा, वे भागीरथी उसका नाम अलकनन्दा हुआ। वह तीन धाराओमे गङ्गाके नामसे प्रसिद्ध हुई। यह मैंने प्रसङ्गवश तुमसे विभक्त होनेके कारण त्रिपथगा और त्रिस्नोता कहलायी। गङ्गाजीके प्रादुर्भावकी उत्तम कथा सुनायी है। तदनन्तर वह लोकपावनी गङ्गा तीन नामोंसे प्रसिद्ध हुई। ऊपर- भक्तवत्सल भगवान् नारायणने दैत्यराज बलिको स्वर्गलोकमें मन्दाकिनी, नीचे-पाताललोकमें भोगवती रसातलका उत्तम लोक प्रदान किया और उन्हें सब तथा मध्य अर्थात् मर्त्यलोकमें वेगवती गङ्गा कहलाने दानवों, नागों तथा जल-जन्तुओंका कल्पभरके लिये लगी। ये गङ्गा मनुष्योंको पवित्र करनेके लिये प्रकट हुई राजा बना दिया। इस प्रकार कश्यपनन्दन वामनका वेष है। इनका स्वरूप कल्याणमय है। पार्वती ! जब गङ्गा धारण करके अविनाशी भगवान् विष्णुने बलिसे तीनों मेरुपर्वतसे नीचे गिर रही थीं, उस समय मैंने अपनेको लोक लेकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रको दे दिया। तब पवित्र करनेके लिये उन्हें मस्तकपर धारण कर लिया। जो देवता, गन्धर्व तथा परम तेजस्वी ऋषियोंने दिव्य स्तोत्रोंसे श्रीविष्णुचरणोसे निकली हुई गङ्गाका पावन जल अपने भगवान्का स्तवन और पूजन किया। तत्पश्चात् अपना मस्तकपर धारण करेगा अथवा उनके जलका पान करेगा, विराट रूप समेटकर भगवान् अच्युत वहीं अन्तर्धान हो वह निःसन्देह सम्पूर्ण जगत्का पूज्य होगा। गये। इस तरह प्रभावशाली श्रीविष्णुने इन्द्रकी रक्षा की
। तदनन्तर राजा भगीरथ और महातपस्वी गौतमने और इन्द्रने उनकी कृपासे तीनों लोकोंका महान् ऐश्वर्य तपस्याके द्वारा मेरी पूजा करके गङ्गाजीके लिये मुझसे प्राप्त किया। शुभे! यह मैंने तुमसे वामन अवतारके याचना की। तब मैंने सम्पूर्ण विश्वका हित करनेके लिये वैभवका वर्णन किया है।
- परशुरामावतारकी कथा
श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! भृगुवंशमें रेणुककी सुन्दरी कन्या रेणुकाके साथ विधिपूर्वक विवाह द्विजवर जमदग्नि अच्छे महात्मा हो गये हैं। वे सम्पूर्ण किया। तत्पश्चात् परम धार्मिक जमदग्निने पुत्रको वेद-वेदाङ्गोंके पारगामी विद्वान् और महान् तपस्वी थे। कामनासे पुत्रेष्टि नामक यज्ञ किया और उस यज्ञके द्वारा धर्मात्मा जमदग्निने इन्द्रको प्रसन्न करनेके लिये गङ्गाके देवराज इन्द्रको सन्तुष्ट किया । सन्तुष्ट होनेपर शचीपति किनारे एक हजार वर्षातक भारी तपस्या की। इससे इन्द्रने जमदग्निको एक महावाहु, महातेजस्वी और प्रसन्न होकर देवराज इन्द्रने कहा-'विप्रवर ! तुम्हारे महाबलवान् पुत्र होनेका वरदान दिया। समय आनेपर मनमें जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार वर मांगो। विप्रवर जमदग्निने रेणुकाके गर्भसे एक महापराक्रमी और
जमदग्नि बोले-देव! मुझे सदा सब बलवान् पुत्र उत्पत्र किया, जो भगवान् विष्णुके अंशके कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सुरभि गौ प्रदान कीजिये। अंशसे प्रकट हुआ था। उसमें सब प्रकारके शुभ लक्षण
तब देवराज इन्द्रने प्रसत्रतापूर्वक उन्हें सब मौजूद थे। पितामह भृगुने आकर उस महापराक्रमी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सुरभि गौ प्रदान की। पुत्रका नामकरण-संस्कार किया और बड़ी प्रसन्नताके सुरभिको पाकर महातपस्वी जमदग्नि दूसरे इन्द्रको भांति साथ उसका नाम 'राम' रखा। जमदग्निका पुत्र होनेके महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न होकर रहने लगे। उन्होंने राजा कारण वह जामदग्न्य भी कहलाया। भार्गववंशी बालक संध्या ३१
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
राम धीरे-धीरे बड़े हुए। उपनयन संस्कारके पश्चात् कहा- 'मैं तुम्हें अपनी उत्तम शक्ति प्रदान करता हूँ। उन्होंने सब विद्याओंमें प्रवीणता प्राप्त कर ली। तदनन्तर मेरी शक्तिसे आविष्ट होकर तुम पृथ्वीका भार उतारने विप्रवर राम शालग्राम पर्वतके शिखरपर तपस्या करनेके और देवताओका हित करनेके लिये दुष्ट राजाओंका वध लिये गये। वहाँ उन्हें परमतेजस्वी ब्रह्मर्षि कश्यपजीका करो। इस समय पृथ्वीपर बहुत-से मदोन्मत्त राजा एकत्र दर्शन हुआ। रामने बड़े हर्षके साथ उनका पूजन किया। हो रहे हैं। उन्हें मारकर समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी अपने तब उन्होंने रामको विधिपूर्वक अविनाशी वैष्णव मन्त्रका अधिकारमें कर लो और महान् पराक्रमसे सम्पन्न हो उपदेश दिया। महात्मा कश्यपसे मन्त्रका उपदेश पाकर धर्मपूर्वक इसका पालन करो। फिर समय आनेपर मेरी राम विधिपूर्वक लक्ष्मीपति श्रीविष्णुकी आराधना करने ही कपासे मेरे परमपदको प्राप्त होओगे। भगवान् लगे। उन्होंने दिन-रात षडक्षर महामन्त्रका जप करते हुए विष्णके अन्तर्धान होनेपर राम भी तुरंत अपने पिताके सर्वव्यापी कमलनयन श्रीहरिके ध्यानपूर्वक अनेक वर्षों- आश्रमको लौट गये। वहाँ जब उन्होंने अपने पिताको तक तपस्या की। महातपस्वी ब्रह्मर्षि जमदनि जितेन्द्रिय मारा गया देखा तो वे क्रोधसे मचित हो गये और इस एवं मौनभावसे तप करते हुए गङ्गाके सुन्दर तटपर
पृथ्वीको क्षत्रियविहीन करनेकी इच्छासे हैहयराजके निवास करते थे। उहोंने यज्ञ, दान आदि महान् धर्मोका
का नगरमें जा पहुँचे। वहाँ राजाको ललकारकर महायुद्धमे विधिपूर्वक अनुष्ठान किया। इन्द्रकी दी हुई गौके प्रसादसे
प्रवृत्त हुए और उसकी सेनाका संहार करके अन्तमें उनके पास सब सम्पत्तियाँ भरी-पूरी रहती थीं।
उन्होंने उसको भी मार डाला। एक समयकी बात है-हैहयराज अर्जुन सब
इस प्रकार सहस्रबाहु अर्जुनका वध करनेके राष्ट्रोंको जीतकर अपनी सारी सेनाके साथ जमदग्नि
अनन्तर प्रतापी परशुरामजीने कुपित होकर सम्पूर्ण मुनिके आश्रमपर आये। राजाने महाभाग मुनिवरका दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया, उनकी कुशल पूछी और
राजाओंका संहार कर डाला। केवल राजा इक्ष्वाकुके उन्हें भाँति-भांतिके वस्त्र तथा आभूषण दान किये।
महान् कुलपर उन्होंने हाथ नहीं उठाया। एक तो वह मुनिने भी अपने घरपर आये हुए राजाका मधुपर्ककी
नानाका कुल था, दूसरे माता रेणुकाने इक्ष्वाकुवंशी विधिसे प्रेमपूर्वक सत्कार किया तथा शक्तिशालिनी
क्षत्रियोंको मारनेकी मनाही कर दी थी। इसलिये उक्त सुरभि गौके प्रभावसे सेनासहित राजाको उत्तम भोजन वंशकी उन्होंने रक्षा की। दिया। राजाको उस गौकी शक्ति देखकर बड़ा कौतुहल इस प्रकार क्षत्रियोंका संहार करनेके पश्चात् प्रतापी हुआ और उन्होंने महर्षि जमदग्निसे उस गौको माँगा। परशुरामजीने अश्वमेध नामक महायज्ञका विधिवत्
जमदग्नि मुनिके अस्वीकार करनेपर हैहयराजने उस अनुष्ठान किया और उसमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सात सबला गौको बलपूर्वक ले लिया। तब महाभागा द्वीपोंसहित पृथ्वी दान कर दी। तदनन्तर वे भगवान् नरसबलाने क्रोधमें भरकर अपने सींगोंसे राजाके सब नारायणके आश्रममें तपस्या करनेके लिये चले गये। सैनिकोंको मार डाला। तदनन्तर स्वयं अन्तर्धान होकर पार्वती ! यह मैंने तुमसे परशुरामजीके चरित्रका वर्णन क्षणभरमें इन्द्रके पास जा पहुँची। इधर अपनी सेनाका किया है। वे भगवान् विष्णुकी शक्तिके आवेशावतार थे। विनाश देखकर राजा अर्जुन क्रोधसे पागल हो उठा। इसीलिये शक्तिके आवेशसे उन्होंने जो कुछ किया, उसकी उसने मुक्कोंसे मार-मारकर मुनि जमदग्निका वध कर उपासना नहीं करनी चाहिये । भगवद्भक्त महात्माओं तथा डाला और लौटकर अपने नगरमें प्रवेश किया। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके लिये भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्णके
उधर रामने देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुकी आराधना अवतार ही उपासना करनेयोग्य हैं; क्योंकि वे अपने करके उन्हें प्रसन्न किया। भगवान्ने अपने परशु, वैष्णव ईश्वरीय गुणोंसे परिपूर्ण हैं और उपासना करनेपर महाधनुष और अनेक दिव्यास्त्र प्रदान करके उनसे मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीरामावतारकी कथा-जन्मका प्रसङ्ग .
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श्रीरामावतारकी कथा-जन्यका प्रसङ्ग श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! पूर्वकालकी महामुनि विश्रवाके साथ रमण किया; अतः समयके बात है, स्वायम्भुव मनु शुभ एवं निर्मल तीर्थ नैमिषारण्यमें दोषसे उसके गर्भसे दो तमोगुणी पुत्र उत्पन्न हुए, जो बहुत गोमती नदीके तटपर द्वादशाक्षर महामन्त्रका जप करते ही बलवान् थे। संसारमें वे रावण और कुम्भकर्णके थे। उन्होंने एक हजार वर्षातक लक्ष्मीपति भगवान् नामसे विख्यात हुए। केकशीके गर्भसे एक शूर्पणखा श्रीहरिका पूजन किया। तब भगवान्ने प्रकट होकर नामकी कन्या भी हुई, जिसका मुख बड़ा ही विकराल कहा-'राजन् ! मुझसे वर मांगो।' तव स्वायम्भुव मनुने था। कुछ कालके पश्चात् उससे विभीषणका जन्म हुआ, बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा-'अच्युत ! देवेश्वर ! आप जो सुशील, भगवद्भक्त, सत्यवादी, धर्मात्मा और परम तीन जन्मोंतक मेरे पुत्र हों। मैं पुत्रभावसे आप पवित्र थे। पुरुषोत्तमका भजन करना चाहता हूँ।' उनके ऐसा रावण और कुम्भकर्ण हिमालय पर्वतपर अत्यन्त कहनेपर भगवान् लक्ष्मीपति बोले-'नृपश्रेष्ठ ! तुम्हारे कठोर तपस्याके द्वारा मेरी आराधना करने लगे। रावण मनमें जो अभिलाषा है, वह अवश्य पूर्ण होगी। तुम्हारा बड़ा दुष्टात्मा था। उसने बड़ा कठोर कर्म करके अपने पुत्र होने में मुझे भी बड़ी प्रसन्नता है । जगत्के पालन तथा मस्तकरूपी कमलोंसे मेरी पूजा की। तब मैंने प्रसत्रचित्त धर्मकी रक्षाका प्रयोजन उपस्थित होनेपर भित्र-भिन्न होकर उससे कहा-'बेटा ! तुम्हारे मनमें जो कुछ हो, समयमें तुम्हारे जन्म लेनेके पश्चात् मैं भी तुम्हारे यहाँ उसके अनुसार वर माँगो। तब वह दुष्टात्मा बोलाअवतार लूँगा। अनघ ! साधु पुरुषोंकी रक्षा, पापियोंका 'देव ! मैं सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पाना चाहता हूँ। अतः विनाश और धर्मकी स्थापना करनेके लिये मैं प्रत्येक आप मुझे देवता, दानव और राक्षसोके द्वारा भी अवध्य युगमें अवतार लेता हूँ।'* ..
कर दीजिये।' पार्वती ! मैंने उसके कथनानुसार वरदान इस प्रकार स्वायम्भुव मनुको वरदान दे श्रीहरि वहीं दे दिया । वरदान पाकर उस महापराक्रमी राक्षसको बड़ा अत्तर्धान हो गये। उन स्वायम्भुव मनुका पहला जन्म गर्व हो गया। वह देवता, दानव और मनुष्य तीनों रघुकुलमें हुआ। वहाँ वे राजा दशरथके नामसे प्रसिद्ध लोकोंके प्राणियोंको पीड़ा देने लगा। उसके सताये हुए हुए। दूसरी बार वे वृष्णिवंशमें वसुदेवरूपसे प्रकट हुए। ब्रह्मा आदि देवता भयसे आतुर हो भगवान् फिर जब कलियुगके एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो लक्ष्मीपतिकी शरणमें गये। सनातन प्रभुने देवताओंके जायेंगे तो सम्भल नामक गाँवमें वे हरिगुप्त ब्राह्मणके कष्ट और उसके दूर होनेके उपायको भलीभाँति जानकर रूपमें उत्पत्र होंगे। उनकी पत्नी भी प्रत्येक जन्ममें उनके ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओंसे कहा-'देवगण ! मैं साथ रहीं। अब मैं पहले श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रका वर्णन रघुकुलमें राजा दशरथके यहाँ अवतार धारण करूँगा करता हूँ, जिसके स्मरणमात्रसे पापियोंकी भी मुक्ति हो और दुरात्मा रावणको बन्धु-बान्धवोंसहित मार डालूंगा। जाती है। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य दूसरा मानवशरीर धारण करके मैं देवताओंके इस कण्टकको जन्म धारण करनेपर महाबली कुम्भकर्ण और रावण हुए। उखाड़ फेंकूँगा। ब्रह्माजीके शापसे तुमलोग भी गन्धवों मुनिवर पुलस्त्यके विश्रवा नामक एक धार्मिक पुत्र हुए. और अप्सराओसहित वानर-योनिमें उत्पन्न हो मेरी जिनकी पत्नी राक्षसराज सुमालीकी कन्या थी। उसकी सहायता करो।' माताका नाम सुकेशी था। उसका नाम केकशी था। देवाधिदेव श्रीविष्णुके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता केकशी दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाली थी; किन्तु इस पृथ्वीपर वानररूपमें प्रकट हुए। उधर सूर्यवंशमें एक दिन कामवेगकी अधिकतासे सन्ध्याके समय उसने वैवस्वत मनुके पुत्र राजा इक्ष्वाकु हुए. जो समस्त
* परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
(२६९।७)
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. अर्जयस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
राजाओंमें श्रेष्ठ, महाबलवान् और सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ वर देनेके लिये आया हूँ।' सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी थे। उन्हींकी कुल-परम्परामें महातेजस्वी तथा बलवान् भगवान् विष्णुका दर्शन पाकर राजा दशरथ आनन्दमग्न राजा दशरथ हुए, जो महाराज अजके पुत्र, सत्यवादी, हो गये। उन्होंने पत्नीके साथ प्रसत्रचित्तसे भगवानके सुशील एवं पवित्र आचार-विचारवाले थे। उन्होंने अपने चरणोंमें प्रणाम किया और हर्षगद्गद वाणीमें कहापराक्रमसे समस्त भूमण्डलका पालन किया और सब 'भगवन् ! आप मेरे पुत्रभावको प्राप्त हों।' तब भगवान्ने राजाओंको अपने-अपने राज्यपर स्थापित किया। प्रसन्न होकर राजासे कहा-'नृपश्रेष्ठ ! मैं देवलोकका कोशलनरेशके एक सर्वाङ्गसुन्दरी कन्या थी, जिसका हित, साधुपुरुषोकी रक्षा, राक्षसोका वध, लोगोंको मुक्ति नाम कौसल्या था। राजा दशरथने उसीके साथ विवाह प्रदान और धर्मकी स्थापना करनेके लिये तुम्हारे यहाँ किया। तदनन्तर मगधराजकुमारी सुमित्रा उनको द्वितीय अवतार लूंगा।' पत्नी हुई। केकयनरेशकी कन्या कैकेयी, जिसके नेत्र ऐसा कहकर श्रीहरिने' सोनेके पात्रमें रखा हुआ कमलदलके समान विशाल थे, महाराज दशरथकी दिव्य खीर, जो लक्ष्मीजीके हाथमें मौजूद था, राजाको तीसरी भार्या हुई। इन तीनों धर्मपत्नियोंके साथ दिया और स्वयं वहाँसे अन्तर्धान हो गये । राजा दशरथने धर्मपरायण होकर राजा दशरथ पृथ्वीका पालन करने वहाँ बड़ी रानी कौसल्या और छोटी रानी कैकेयीको लगे। अयोध्या नामकी नगरी, जो सरयूके तौरपर बसी उपस्थित देख इन्हीं दोनोंमें उस दिव्य खीरको वाँट दिया। हुई है, महाराजकी राजधानी थी। वह सब प्रकारके इतनेहीमें मझली रानी सुमित्रा भी पुत्रकी कामनासे रत्रोंसे भरी-पूरी और धन-धान्यसे सम्पन्न थी। वह राजाके समीप आयीं । उन्हें देख कौसल्या और कैकेयीने सोनेकी चहारदीवारीसे घिरी हुई और ऊँचे-ऊँचे गोपुरों तुरंत ही अपने-अपने खोरमेंसे आधा-आधा निकालकर (नगरद्वारों) से सुशोभित थी। धर्मात्मा राजा दशरथ उनको दे दिया। उस दिव्य खीरको खाकर तीनों ही अनेक मुनिवरों और अपने पुरोहित महात्मा वसिष्ठजीके रानियाँ गर्भवती हुई। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो साथ उस पुरीमें निवास करते थे। उन्होंने वहाँ अकण्टक रही थी। उन्हें कई बार सपनेमें शङ्ख, चक्र और गदा राज्य किया। वहाँ भगवान् पुरुषोत्तम अवतार धारण लिये तथा पीताम्बर पहने देवेश्वर भगवान् विष्णु दर्शन करनेवाले थे, अतएव वह पवित्र नगरी अयोध्या दिया करते थे। तदनन्तर समयानुसार जब चैतका कहलायी। परमात्माके उस नगरका नाम भी परम मनोरम मधुमास आया तो शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको कल्याणमय है। जहाँ भगवान् विष्णु विराजते हैं, वही पुनर्वसु नक्षत्रमें दोपहरके समय रानी कौसल्याने पुत्रको स्थान परमपद हो जाता है। वहाँ सब कोका बन्धन जन्म दिया। उस समय उत्तम लग्न था और सभी ग्रह काटनेवाला मोक्ष सुलभ होता है।
शुभ स्थानोंमें स्थित थे। कौसल्याके पुत्ररूपमें सम्पूर्ण . राजा दशरथने समस्त भूमण्डलका पालन करते हुए लोकोंके स्वामी साक्षात् श्रीहरि ही अवतीर्ण हुए थे, जो पुत्रकामनासे वैष्णव-यागके द्वारा श्रीहरिका यजन किया। योगियोंके ध्येय, सनातन प्रभु, सम्पूर्ण उपनिषदोंके सबको वर देनेवाले सर्वव्यापक लक्ष्मीपति भगवान् प्रतिपाद्य तत्त्व, अनन्त, संसारकी सृष्टि, रक्षा और विष्णु उक्त यज्ञद्वारा राजा दशरथसे पूजित होनेपर वहाँ प्रलयके हेतु. रोग-शोकसे रहित, सब प्राणियोंको शरण अग्रिकुण्डमें प्रकट हुए । जाम्बूनदके समान उनकी श्याम देनेवाले और सर्वभूतस्वरूप परमेश्वर हैं। जगदीश्वरका कान्ति थी। वे हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा लिये हुए अवतार होते ही आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियां बजने थे। उनके शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहा था। वाम लगीं। श्रेष्ठ देवताओने फूल बरसाये। प्रजापति आदि अङ्कमें भगवती लक्ष्मीजीके साथ वहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हुए देवगण विमानपर बैठकर मुनियोंके साथ हर्षगद्गद हो भक्तवत्सल परमेश्वर राजा दशरथसे बोले-'राजन् ! मैं स्तुति करने लगे।
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उत्तरखण्ड ]
. श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म तथा राम आदिका विवाह .
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श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी
यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
तत्पश्चात् राजा दशरथने बड़ी प्रसन्नताके साथ कानोंमें सम्पूर्ण दिशाएँ, नेत्रोंमें अग्नि और सूर्य तथा पुरोहित वसिष्ठजीके द्वारा बालकका जातकर्म-संस्कार नासिकामे महान् वेगशाली वायुदेव विराजमान थे। कराया। भगवान् वसिष्ठने उस समय बालकका बड़ा पार्वती ! सम्पूर्ण उपनिषदोंके तात्पर्यभूत भगवान्को सुन्दर नाम रखा। वे बोले-'ये महाप्रभु कमलमें देखकर रानी कौसल्या भयभीत हो गयीं और बारम्बार निवास करनेवाली श्रीदेवीके साथ रमण करनेवाले हैं, प्रणाम करके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाती हुई हाथ इसलिये इनका परम प्राचीन स्वतःसिद्ध नाम 'श्रीराम' जोड़कर बोलीं- 'देवदेवेश्वर! प्रभो! आपको होगा। यह नाम भगवान् विष्णुके सहस्र नामोंके समान पुत्ररूपमें पाकर मैं धन्य हो गयी। जगत्राथ ! अब है तथा मनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। चैत मास मुझपर प्रसन्न होइये और मेरे भीतर पुत्रस्नेहको श्रीविष्णुका मास है। इसमें प्रकट होनेके कारण यह जाग्रत् कीजिये। विष्णु भी कहलायेंगे।*
माताके ऐसा कहनेपर सर्वव्यापक श्रीहरि मायासे इस प्रकार नाम रखकर महर्षि वसिष्ठने नाना मानवभाव तथा शिशुभावको प्राप्त होकर रुदन करने प्रकारकी स्तुतियोंसे भगवान्का स्तवन किया और लगे। फिर तो देवी कौसल्याने आनन्दमग्न होकर उत्तम बालकके मङ्गलके लिये सहस्रनामका पाठ करके वे उस लक्षणोंवाले अपने पुत्रको छतीसे लगा लिया और परम पवित्र राजभवनसे बाहर निकले। राजा दशरथने उसके मुखमें स्तन डाल दिया। संसारका भरण-पोषण श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रसन्नतापूर्वक बहुत धन दिया तथा करनेवाले सनातन देवता महाप्रभु श्रीहरि बालकरूपसे धर्मपूर्वक दस हजार गौएँ दान की। इतना ही नहीं, उन माताकी गोदमें लेटकर उनका स्तन पान करने लगे। वह रघुकुलश्रेष्ठ राजाने श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये एक दिन बड़ा ही सुन्दर रमणीय और मनुष्योंकी समस्त लाख गाँव दान किये और दिव्य वख, दिव्य आभूषण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला था। नगर और प्रान्तके तथा असंख्य धन देकर ब्राह्मणोंको तृप्त किया। महारानी सब मनुष्योंने बड़ी प्रसत्रताके साथ उस दिन भगवान्का कौसल्याने जब अपने पुत्र श्रीरामकी ओर दृष्टिपात किया जन्मोत्सव मनाया। तदनन्तर कैकेयीके गर्भसे भरतका तो उनके श्रीचरणों और करकमलोमे शङ्ख, चक्र, गदा, जन्म हुआ। वे पाञ्चजन्य शङ्खके अंशसे प्रकट हुए थे। पद्म, ध्वजा और वन आदि चिह्न दिखायी दिये। इसके बाद महाभागा सुमित्राने उत्तम लक्षणोंवाले वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न, कौस्तुभमणि और लक्ष्मणको तथा देवशत्रुओको सन्ताप देनेवाले शत्रुधको वनमाला सुशोभित थी। उनके श्रीअङ्गमें देवता, असुर जन्म दिया। शत्रुपक्षके वीरोका संहार करनेवाले
और मनुष्योसहित सम्पूर्ण जगत् दृष्टिगोचर हुआ। श्रीलक्ष्मण भगवान् अनन्तके अंशसे और अमित मुसकराते हुए मुखके भीतर चौदहों भुवन दिखायी देते पराक्रमी शत्रुघ्न सुदर्शनके अंशसे प्रकट हुए थे। वैवस्वत थे। उनके निःश्वासमें इतिहाससहित सम्पूर्ण वेद, जाँघोंमें मनुके वंशमें जन्म लेनेवाले वे सभी बालक क्रमशः बड़े द्वीप, समुद्र और पर्वत, नाभिमें ब्रह्मा तथा महादेवजी, हुए। फिर महातेजस्वी महर्षि वसिष्ठने सबका विधिपूर्वक
* श्रियः कमलवासिन्या रमणोऽयं महाप्रभुः । तस्माच्छीराम इत्यस्य नाम सिद्ध पुरातनम् ॥ सहस्रनाम्रा श्रीशस्य तुल्यं मुक्तिप्रदं नृणाम् । विष्णुमासि समुत्पश्ये विष्णुरित्यभिधीयते ॥ (२६९।७४-७५)
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. अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . .
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
संस्कार किया। तदनन्तर सबने वेद-शास्त्रोंका अध्ययन मेरे यज्ञमें पूर्ण सफलता मिलेगी।' मुनिवर विश्वामित्रकी किया। सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्वज्ञ होकर वे धनुर्वेदके भी यह बात सुनकर सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ राजा दशरथने प्रतिष्ठित विद्वान् हुए। श्रीराम आदि चारों भाई बड़े ही लक्ष्मणसहित श्रीरामको मुनिको सेवामें समर्पित कर उदार और लोगोका हर्ष बढ़ानेवाले थे। उनमें श्रीराम दिया। महातपस्वी विश्वामित्र उन दोनों रघुवंशी कुमारोंको और लक्ष्मणको जोड़ी एक साथ रहती थी और भरत साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमपर गये। तथा शत्रुनकी जोड़ी एक साथ।
श्रीरामचन्द्रजीके जानेसे देवताओंको बड़ा हर्ष हुआ। भगवान्के अवतार लेनेके पश्चात् जगदीश्वरी उन्होंने भगवानके ऊपर फूल बरसाये और उनकी स्तुति भगवती लक्ष्मी राजा जनकके भवनमें अवतीर्ण हुई। की। उसी समय महाबली गरुड़ सब प्राणियोंसे अदृश्य जिस समय राजा जनक किसी शुभक्षेत्रमें यज्ञके लिये होकर वहाँ आये और उन दोनों भाइयोंको दो दिव्य धनुष हलसे भूमि जोत रहे थे, उसी समय सीता (हलके तथा अक्षय बाणोंवाले दो तूणीर आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र अग्रभाग) से एक सुन्दरी कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात् देकर चले गये। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई लक्ष्मी ही थी। उस वेदमयी कन्याको देख मिथिलापति महापराक्रमी वीर थे। तपोवनमें पहुँचनेपर महात्मा राजा जनकने गोदमें उठा लिया और अपनी पुत्री मानकर कौशिकने विशाल वनके भीतर उन्हें एक भयङ्कर उसका पालन-पोषण किया। इस प्रकार जगदीश्वरको राक्षसीको दिखलाया, जिसका नाम ताड़का था। वह वल्लभा देवेश्वरी लक्ष्मी सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये सुन्द नामक राक्षसकी स्त्री थी। मुनिकी प्रेरणासे उन राजा जनकके मनोहर भवनमें पल रही थीं। दोनोंने दिव्य धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा ताड़काको मार
इसी समय विश्वविख्यात महामुनि विश्वामित्रने डाला। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा मारी जानेपर वह भयङ्कर गङ्गाजीके सुन्दर तटपर परम पुण्यमय सिद्धाश्रममें एक राक्षसी अपने भयानक रूपको छोड़कर दिव्यरूपमें प्रकट उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। जब यज्ञ होने लगा तो हुई। उसका शरीर तेजसे उद्दीप्त हो रहा था तथा वह सब रावणके अधीन रहनेवाले कितने ही निशाचर उसमें विघ्न आभरणोंसे विभूषित दिखायी देती थी। राक्षस-योनिसे डालने लगे। इससे विश्वामित्र मुनिको बड़ी चिन्ता हुई। छूटकर श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करनेके पश्चात् वह तब उन धर्मात्मा मुनिने लोकहितके लिये रघुकुलमें श्रीविष्णुलोकको चली गयी। प्रकट हुए श्रीहरिको वहाँ ले आनेका विचार किया। फिर ताड़काको मारकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीने तो वे रघुवंशी क्षत्रियोंद्वारा सुरक्षित रमणीय नगरी महात्मा लक्ष्मणके साथ विश्वामित्रके शुभ आश्रममें अयोध्यामें गये और वहाँ राजा दशरथसे मिले। कौशिक प्रवेश किया। उस समय समस्त मुनि बड़े प्रसन्न हुए। मुनिको उपस्थित देख राजा दशरथ हाथ जोड़कर खड़े हो वे आगे बढ़कर श्रीरामचन्द्रजीको ले गये और उत्तम गये तथा उन्होंने अपने पुत्रोंके साथ मुनिवर विश्वामित्रके आसनपर बिठाकर सबने अर्घ्य आदिके द्वारा उनका चरणोंमें मस्तक झुकाया और बड़े हर्षके साथ कहा- पूजन किया। द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने विधिपूर्वक यज्ञकी 'मुने ! आज आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। दीक्षा ले मुनियोंके साथ उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। उस तत्पश्चात् उन्हें उत्तम आसनपर बिठाकर राजाने महायज्ञका प्रारम्भ होते ही मारीच नामक राक्षस अपने विधिपूर्वक सत्कार किया और पुनः प्रणाम करके भाई सुबाहुके साथ उसमें विघ्र डालनेके लिये उपस्थित पूछा-'महर्षे ! मेरे लिये क्या आज्ञा है?' हुआ। उन भयङ्कर राक्षसोंको देखकर विपक्षी वीरोंका
तब महातपस्वी विश्वामित्र अत्यन्त प्रसन्न होकर संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने राक्षसराज सुबाहुको बोले-'राजन् ! आप मेरे यज्ञकी रक्षाके लिये एक ही बाणसे मौतके घाट उतार दिया और महान् श्रीरामचन्द्रजीको मुझे दे दीजिये। इनके समीप रहनेसे पवनास्त्रका प्रयोग करके मारीच नामक निशाचरको
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उत्तरखण्ड ]
• श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म तथा राम आदिका विवाह •
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समुद्रके तटपर इस प्रकार फेंक दिया, जैसे हवा सूखे सत्कार किया और मधुपर्क आदिकी विधिसे सम्पूर्ण पत्तेको उड़ा ले जाती है। श्रीरामचन्द्रजीके इस महान् महर्षियोंका भी पूजन किया। तत्पश्चात् यज्ञ समाप्त पराक्रमको देखकर राक्षसश्रेष्ठ मारीचने हथियार फेंक होनेपर कमलनयन श्रीरामने शङ्करजीके दिव्य धनुषको दिया और एक महान् आश्रममें वह तपस्या करनेके लिये भङ्ग करके जनककिशोरी सीताको जीत लिया। उस चला गया। महान् यज्ञके समाप्त होनेके बाद महातेजस्वी पराक्रमरूपी महान् शुल्कसे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर विश्वामित्रने प्रसन्नचित्तसे श्रीरघुनाथजीका पूजन किया। वे मिथिलानरेशने सीताको श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें देनेका मस्तकपर काकपक्ष धारण किये हुए थे। उनके शरीरका निश्चय कर लिया। वर्ण नील कमलदलके समान श्याम था तथा नेत्र तत्पश्चात् राजा जनकने महाराज दशरथके पास दूत कमलदलके समान विशाल थे। मुनिश्रेष्ठ कौशिकने उन्हें भेजा। धर्मात्मा राजा दशरथ अपने दोनों पुत्र भरत और छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूंघा और स्तवन किया। शत्रुघ्रको साथ लेकर वसिष्ठ, वामदेव आदि महर्षियों
इसी बीचमें मिथिलाके सम्राट् राजा जनकने श्रेष्ठ और सेनाके साथ मिथिलामें आये और जनकके सुन्दर ब्राह्मणों के द्वारा वाजपेय यज्ञ आरम्भ किया। विश्वामित्र भवनमें उन्होंने जनवासा किया। फिर शुभ समयमें आदि सब महर्षि उस यज्ञको देखनेके लिये गये। उनके मिथिलानरेशने श्रीरामका सीताके साथ और लक्ष्मणका साथ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण भी थे। मार्गमें उर्मिलाके साथ विवाह कर दिया। उनके भाई महात्मा श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका स्पर्श हो जानेसे कुशध्वजके दो सुन्दरी कन्याएँ थीं, जो माण्डवी और बहुत बड़ी शिलाके रूपमें पड़ी हुई गौतमपत्नी अहल्या श्रुतकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध थीं। वे दोनों सभी शुभ शुद्ध हो गयी। पूर्वकालमें वह अपने स्वामी गौतमके लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उनमेंसे माण्डवीके साथ भरतका शापसे पत्थर हो गयो थी; किन्तु श्रीरघुनाथजीके और श्रुतकीर्तिके साथ शत्रुघ्नका विवाह किया। इस चरणोंका स्पर्श होनेसे शुद्ध हो वह शुभ गतिको प्राप्त प्रकार वैवाहिक उत्सव समाप्त होनेपर महाबली राजा हुई। तदनन्तर दोनों रघुकुमारोंके साथ मिथिला नगरीमें दशरथ मिथिलानरेशसे पूजित हो दहेजका सामान ले पहुंचकर सभी मुनिवरोंका मन प्रसन्न हो गया। महाबली पुत्रों, पुत्रवधुओं, सेवकों, अश्व-गज आदि सैनिकों तथा राजा जनकने महान् सौभाग्यशाली महर्षियोंको आया नगर और प्रान्तके लोगोंके साथ अयोध्याको प्रस्थित देख आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम और पूजन किया। कमलके हुए। मार्गमे महापराक्रमी तथा परम प्रतापी परशुरामजी समान विशाल नेत्रोंवाले, नील कमलदलके समान मिले, जो हाथमें फरसा लेकर क्रोधमें भरे हुए सिंहकी श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, कोमलाङ्ग, कोटि कन्दपोंक भांति खड़े थे। वे क्षत्रियोंके लिये कालरूप थे और सौन्दर्यको मात करनेवाले, समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न श्रीरामचन्द्रजीके पास युद्धकी इच्छासे आ रहे थे। तथा सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित रघुवंशनाथ रघुनाथजीको सामने पाकर परशुरामजीने इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीको देखकर मिथिलानरेश जनकके मनमें कहा–'महाबाहु श्रीराम ! मेरी बात सुनो। मैं युद्धमें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दशरथनन्दन श्रीरामको परमेश्वरका बहुत-से महापराक्रमी राजाओंका वध करके ब्राह्मणोंको ही स्वरूप समझा और अपनेको धन्य मानते हुए उनका भूमिदान दे तपस्या करनेके लिये चला गया था; किन्तु पूजन किया। राजाके मनमें श्रीरामचन्द्रजीको अपनी कन्या तुम्हारे वीर्य और बलकी ख्याति सुनकर यहाँ तुमसे युद्ध देनेका विचार उत्पन्न हुआ। ये दोनों कुमार रघुकुलमें करनेके लिये आया है। यद्यपि इक्ष्वाकुर्वशके वे क्षत्रिय उत्पत्र हुए हैं। इस प्रकार दोनों भाइयोंका परिचय पाकर जो मेरे नानाके कुलमें उत्पन्न हुए हैं, मेरे वध्य नहीं हैं; राजाने उत्तम वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा धर्मपूर्वक उनका तथापि किसी भी क्षत्रियका बल और पराक्रम सुनकर
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अर्थयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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मेरे लिये उसका सहन करना असम्भव है; इसलिये उदार रघुवंशी वीर! तुम मुझे युद्धका अवसर दो। सुना है, तुमने शङ्करजीके दुर्धर्ष धनुषको तोड़ डाला है। यह वैष्णव धनुष भी उसीके समान शत्रुओंका संहार करनेवाला है। तुम अपने पराक्रमसे इसकी प्रत्यचा चढ़ा दो तो मैं तुमसे हार मान लूँगा अथवा यदि मुझे देखकर तुम्हारे मनमें भय समा गया हो तो मुझ बलवान्के आगे अपने हथियार नीचे डाल दो और मेरी शरणमें आ जाओ।'
परशुरामजीके ऐसा कहनेपर परम प्रतापी श्रीरामचन्द्रजीने वह धनुष ले लिया। साथ ही उनसे अपनी वैष्णवी शक्तिको भी खींच लिया। शक्तिसे वियोग होते ही पराक्रमी परशुराम कर्मभ्रष्ट ब्राह्मणकी भाँति वीर्य और तेजसे हीन हो गये। उन्हें तेजोहीन देखकर समस्त क्षत्रिय साधु-साधु कहते हुए बारम्बार श्रीरामचन्द्रजीकी सराहना करने लगे। रघुनाथजीने उस महान् धनुषको हाथमें लेकर अनायास ही उसकी प्रत्यचा चढ़ा दी और बाणका सन्धान करके विस्मयमें पड़े हुए परशुरामजी से पूछा - 'ब्रह्मन् ! इस श्रेष्ठ बाणसे आपका
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
कौन-सा कार्य करूँ ? आपके दोनों लोकोंका नाश कर दूँ या आपके पुण्योंद्वारा उपार्जित स्वर्गलोकका ही अन्त कर डालूँ ?'
उस भयङ्कर बाणको देखकर परशुरामजीको यह मालूम हो गया कि ये साक्षात् परमात्मा है। ऐसा जानकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने लोकरक्षक श्रीरघुनाथजीको नमस्कार करके अपने सौ यशोद्वारा उपार्जित स्वर्गलोक और अपने अस्त्र-शस्त्र उनकी सेवामें समर्पित कर दिये। तब महातेजस्वी रघुनाथजीने महामुनि परशुरामजीको प्रणाम किया तथा पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय आदिके द्वारा उनकी विधिपूर्वक पूजा की। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा पूजित होकर महातपस्वी परशुरामजी भगवान् नर-नारायणके रमणीय आश्रम में तपस्या करनेके लिये चले गये। तत्पश्चात् महाराज दशरथने पुत्रों और बहुओंके साथ उत्तम मुहूर्तमें अपनी पुरी अयोध्याके भीतर प्रवेश किया। श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्र चारों भाई अपनी-अपनी पत्नीके साथ प्रसन्नचित्त होकर रहने लगे। धर्मात्मा श्रीरघुनाथजीने सीताके साथ बारह वर्षोंतक विहार किया । ⭑ श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्यामें आनेतकका प्रसङ्ग
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श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती ! इसी समय उस समय मन्त्रियोंने भरतको राज्यपर बिठानेकी चेष्टा
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राजा दशरथने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको प्रेमवश युवराज- पदपर अभिषिक्त करना चाहा; किन्तु उनकी छोटी रानी कैकेयीने, जिसे पहले वरदान दिया जा चुका था, महाराजसे दो वर माँगे — भरतका राज्याभिषेक और रामका चौदह वर्षोंके लिये वनवास राजा दशरथने सत्य वचनमें बँधे होनेके कारण अपने पुत्र श्रीरामको राज्यसे निर्वासित कर दिया। उस समय राजा मारे दुःखके अचेत हो गये तथा रामचन्द्रजीने पिताके वचनोंकी रक्षा करनेके लिये धर्म समझकर राज्यको त्याग दिया और लक्ष्मण तथा सीताके साथ वे वनको चले गये। वहाँ जानेका उद्देश्य था रावणका वध करना । इधर राजा दशरथ पुत्रवियोगसे शोकग्रस्त हो मर गये।
की, किन्तु धर्मात्मा भरतने राज्य लेनेसे इनकार कर दिया। उन्होंने उत्तम भ्रातृ-प्रेमका परिचय देते हुए वनमें आकर श्रीरामसे राज्य ग्रहण करनेके लिये प्रार्थना की; किन्तु पिताकी आज्ञाका पालन करनेके कारण रघुनाथजीने राज्य लेनेकी इच्छा नहीं की। उन्होंने भरतके अनुरोध करनेपर उन्हें अपनी चरणपादुकाएँ दे दीं। भरतने भी भक्तिपूर्वक उन्हें स्वीकार किया और उन पादुकाओंको ही राजसिंहासनपर स्थापित करके गन्धपुष्प आदिसे वे प्रतिदिन उनका पूजन करने लगे। महात्मा रघुनाथजीके लौटनेतकके लिये भरतजी तपस्या करते हुए वहाँ रहने लगे तथा समस्त पुरवासी भी तबतकके लिये भाँति-भाँति के व्रतोंका पालन करने लगे ।
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उत्तरखण्ड ]
.श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्यामें आनेतकका प्रसङ्ग
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श्रीरघुनाथजी चित्रकूट पर्वतपर भरद्वाज मुनिके उसकी रक्षा की। दयानिधि श्रीरघुनाथजीने कौएसे उत्तम आश्रमके निकट मन्दाकिनीके किनारे लक्ष्मीस्वरूपा कहा—'काक ! डरो मत, मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ। विदेह राजकुमारी सीताके साथ रहने लगे। एक दिन अब तुम सुखपूर्वक अपने स्थानको जाओ।' तब वह महामना श्रीराम जानकीजीको गोदमें मस्तक रखकर सो कौआ श्रीराम और सीताको बारंबार प्रणाम करके रहे थे। इतनेहीमें इन्द्रका पुत्र जयन्त कौएके रूपमें वहाँ श्रीरघुनाथजीके द्वारा सुरक्षित हो शीघ्र ही स्वर्गलोकको आकर विचरने लगा। वह जानकोजीको देखकर उनकी चला गया। फिर श्रीरामचन्द्रजी सीता और लक्ष्मणके ओर झपटा और अपने तीखे पंजोंसे उसने उनके स्तनपर साथ महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए चित्रकूट आघात किया। उस कौएको देखकर श्रीरामने एक कुश पर्वतपर रहने लगे। हाथमें लिया और उसे ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके कुछ कालके पश्चात् एक दिन श्रीरघुनाथजी अत्रिउसकी ओर फेंका। वह तृण प्रज्वलित अग्निके समान मुनिके विशाल आश्रमपर गये। उन्हें आया देख मुनिश्रेष्ठ अत्यन्त भयङ्कर हो गया। उससे आगकी लपटें निकलने धर्मात्मा अत्रिने बड़ी प्रसन्नताके साथ आगे जाकर उनकी लगी। उसे अपनी ओर आता देख वह कौआ कातर अगवानी की और सीतासहित श्रीरामचन्द्रजीको सुन्दर स्वरमें कांव-काँव करता हुआ भाग चला। श्रीरामका आसनपर विराजमान करके उन्हें प्रेमपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, छोड़ा हुआ वह भयङ्कर अस्त्र कौएका पीछा करने लगा। आचमनीय, भाँति-भाँतिके वस्त्र, मधुपर्क और आभूषण कौआ भयसे पीड़ित हो तीनों लोकोंमें घूमता फिरा । वह आदि समर्पण किये। मुनिकी पत्नी अनसूया देवीने भी जहाँ-जहाँ शरण लेनेके लिये जाता, वहीं-वहीं वह प्रसत्रतापूर्वक सीताको परम उत्तम दिव्य वस्त्र और भयानक अस्त्र तुरंत पहुँच जाता था । उस कौएको देखकर चमकीले आभूषण भेंट किये। फिर दिव्य अन्न, पान रुद्र आदि समस्त देवता, दानव और मनीषी मुनि यही और भक्ष्य-भोज्य आदिके द्वारा मुनिने तीनोंको भोजन उत्तर देते थे कि 'हमलोग तुम्हारी रक्षा करने में असमर्थ कराया। मुनिके द्वारा पराभक्तिसे पूजित होकर हैं।' इसी समय तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् ब्रह्माने लक्ष्मणसहित श्रीराम वहाँ बड़ी प्रसन्नताके साथ एक कहा-'कौआ ! तू भगवान् श्रीरामकी ही शरणमें जा। दिन रहे। सबेरै उठकर उन्होंने महामुनिसे विदा माँगी वे करुणाके सागर और सबके रक्षक हैं। उनमें क्षमा और उन्हें प्रणाम करके वे जानेको तैयार हुए। मुनिने करनेकी शक्ति है । वे बड़े ही दयालु हैं। शरणमें आये हुए आज्ञा दे दी। तब कमलनयन श्रीराम महर्षियोंसे भरे हुए जीवोकी रक्षा करते हैं। वे ही समस्त प्राणियोंके ईश्वर हैं। दण्डक वनमें गये। वहाँ अत्यन्त भयंकर विराध नामक सुशीलता आदि गुणोंसे सम्पत्र है और समस्त राक्षस निवास करता था। उसे मारकर वे शरभङ्ग मुनिके जीवसमुदायके रक्षक, पिता, माता, सखा और सुहृद् हैं। उत्तम आश्रमपर गये। शरभङ्गने श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन उन देवेश्वर श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें जा, उनके सिवा किया। इससे तत्काल पापमुक्त होकर वे ब्रह्मलोकको और कहीं भी तेरे लिये शरण नहीं है।'
चले गये। तत्पश्चात् श्रीरघुनाथजी क्रमशः सुतीक्ष्ण, ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वह कौआ भयसे व्याकुल अगस्त्य तथा अगस्त्यके भाईके आश्रमपर गये। उन हो सहसा श्रीरघुनाथजीकी शरणमें आकर पृथ्वीपर गिर सबने उनका भलीभाँति सत्कार किया। इसके बाद वे पड़ा । कौएको प्राणसङ्कटमें पड़ा देख जानकीजीने बड़ी गोदावरीके उत्तम तटपर जा पञ्चवटीमें रहने लगे। वहाँ विनयके साथ अपने स्वामीसे कहा-'नाथ ! इसे उन्होंने दीर्घकालतक बड़े सुखसे निवास किया। धर्मका बचाइये, बचाइये।' कौआ सामने धरतीपर पड़ा था। अनुष्ठान करनेवाले तपस्वी मुनिवर वहाँ जाकर अपने सीताने उसके मस्तकको भगवान् श्रीरामके चरणोंमें लगा स्वामी राजीवलोचन श्रीरामका पूजन किया करते थे। उन दिया। तब करणारूपी अमृतके सागर भगवान् श्रीरामने मुनियोंने राक्षसोंसे प्राप्त होनेवाले अपने भयकी भी कौएको अपने हाथसे उठाया और दयासे द्रवित होकर भगवानको सूचना दी। भगवान्ने उन्हें सान्त्वना देकर संप पु-३२
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९५६ • अवयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण ....................... . .. .... ...................... अभयकी दक्षिणा दी। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा सत्कार वह राक्षसी भयभीत हो रोती हुई शीघ्र ही खर नामक पाकर सब मुनि अपने-अपने आश्रममें चले आये। निशाचरके घर गयी और वहाँ उसने श्रीरामकी सारी पशवटीमें रहते हुए श्रीरामके तेरह वर्ष व्यतीत हो गये। करतूत कह सुनायी। यह सुनकर खर कई हजार राक्षसों
एक समय भयंकर रूप धारण करनेवाली दुर्घर्ष और दूषण तथा त्रिशिराको साथ ले शत्रुसूदन राक्षसी शूर्पणखाने, जो रावणकी बहिन थी, पञ्चवटीमें श्रीरामचन्द्रजीसे युद्ध करनेके लिये आया; किन्तु प्रवेश किया। वहाँ कोटि कन्दर्पके समान मनोहर श्रीरामने उस भयानक वनमें काल और अन्तकके समान कान्तिवाले श्रीरघुनाथजीको देखकर वह राक्षसी प्राणान्तकारी बाणोंद्वारा उन विशालकाय राक्षसोंका कामदेवके बाणसे पीड़ित हो गयी और उनके पास अनायास ही संहार कर डाला। विषैले साँपोंके समान जाकर बोली-'तुम कौन हो, जो इस दण्डकारण्यके तीखे सायकोंद्वारा उन्होंने युद्धमें खर, त्रिशिरा और भीतर तपस्वीके वेषमे रहते हो? तपस्वियोंके लिये तो महाबली दूषणको भी मार गिराया। इस प्रकार इस वनमें आना बहुत ही कठिन है। तुम किसलिये यहाँ दण्डकारण्यवासी समस्त राक्षसोंका वध करके आये हो? ये सब बाते शीघ्र ही सच-सच बताओ। श्रीरामचन्द्रजी देवताओद्वारा पूजित हुए और महर्षि भी झूठ न बोलना?' उसके इस प्रकार पूछनेपर श्रीराम- उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् भगवान् श्रीराम सीता चन्द्रजीने हैसकर कहा-'मैं राजा दशरथका पुत्र हूँ। और लक्ष्मणके साथ दण्डकारण्यमें रहने लगे। मेरा नाम राम है। वे मेरे छोटे भाई धनुर्धर लक्ष्मण है। शूर्पणखासे राक्षसोंके मारे जानेका समाचार सुनकर ये मेरी पत्नी सीता हैं। इन्हें मिथिलानरेश जनककी प्यारी रावण क्रोधसे मूर्छित हो उठा और दुरात्मा मारीचको पुत्री समझो। मैं पिताके आदेशका पालन करनेके लिये साथ लेकर जनस्थानमें आया। पञ्चवटीमें पहुंचकर इस वनमें आया हूँ। हम तीनों महर्षियोंका हित करनेकी दशशीश रावणने मारोचको मायामय मृगके रूप में रामके इच्छासे इस महान् वनमें विचरते हैं। सुन्दरी ! तुम आश्रमपर भेजा। वह राक्षस अपने पीछे आते हुए दोनों मेरे आश्रमपर किसलिये आयी हो? तुम कौन हो दशरथकुमारोंको आश्रमसे दूर हटा ले गया। इसी बीचमें
और किसके कुलमे उत्पन्न हुई हो? ये सारी बातें रावणने अपने वधकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सच-सच बताओ।'
सीताजीको हर लिया। राक्षसी बोली-मैं मुनिवर विश्रवाकी पुत्री और सीताजीको हरौ जाती हुई देख गधोंके राजा रावणकी बहिन हूँ। मेरा नाम शूर्पणखा है। मैं तीनों महाबली जटायुने श्रीरामचन्द्रजीके प्रति स्नेह होनेके लोकोंमें विख्यात हूँ। मेरे भाईन यह दण्डकारण्य मुझे दे कारण उस राक्षसके साथ युद्ध किया। किन्तु शत्रुविजयी दिया है। मैं इस महान् वनमें ऋषि-महर्षियोंको खाती हुई रावणने अपने बाहुबलसे जटायुको मार गिराया और विचरती रहती हूँ। तुम एक श्रेष्ठ राजा जान पड़ते हो। राक्षसोंसे घिरी हुई लङ्कापुरीमें प्रवेश किया। वहाँ तुम्हें देखकर मैं कामदेवके बाणोंसे पीड़ित हो रही हूँ और अशोकवाटिकामें सीताको रखा और श्रीरामचन्द्रजीके तुम्हारे साथ बेखटके रमण करनेके लिये यहाँ आयी हूँ। बाणोंसे मृत्युकी अभिलाषा रखकर वह अपने महलमें नृपश्रेष्ठ ! तुम मेरे पति हो जाओ। मैं तुम्हारी इस सती चला गया। इधर श्रीरामचन्द्रजी मृगरूपधारी मारीच सीताको अभी खा जाऊँगी।
नामक राक्षसको मारकर भाई लक्ष्मणके साथ जब पुनः ऐसा कहकर वह राक्षसी सीताको खा जानेके लिये आश्रममें आये, तब उन्हें सीता नहीं दिखायी दी। उद्यत हुई। यह देख श्रीरामचन्द्रजीने तलवार उठाकर सीताको कोई राक्षस हर ले गया, यह जानकर उसके नाक-कान काट लिये।* तब विकराल मुखवाली दशरथनन्दन श्रीरामको बहुत शोक हुआ और वे सन्तप्त
* इत्युक्त्वा राक्षसी सीतां ग्रसितुं वीक्ष्य चोद्यताम् । श्रीरामः खड्गमुद्यम्य नासाकों प्रचिच्छिदे । (२६९ । २४४)
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उत्तरखण्ड]
• श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या आनेतकका प्रसङ्ग.
होकर विलाप करने लगे। वनमें घूम-घूमकर उन्होंने गये। वहाँ पम्पा सरोवरके तटपर हनुमान् नामक वानरसे सीताकी खोज आरम्भ की। उसी समय मार्गमें महाबली उनकी भेंट हुई। हनुमानजीके कहनेसे उन्होंने सुग्रीवके जटायु पृथ्वीपर पड़े दिखायी दिये। उनके पैर और पंख साथ मित्रता की और सुग्रीवके अनुरोधसे वानरराज कट गये थे तथा सारा अङ्ग लहू-लुहान हो रहा था। बालिको मारकर सुग्रीवको ही उसके राज्यपर अभिषिक्त उनको इस अवस्था देख श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा कर दिया। तत्पश्चात् जानकीजीका पता लगानेके लिये विस्मय हुआ। उन्होंने पूछा-'अहो ! किसने तुम्हारा वानरराज सुग्रीवने हनुमान् आदि वानर-वीरोंको भेजा। वध किया है?'
पवननन्दन हनुमान्जीने समुद्रको लाँधकर लङ्का नगरीमें जटायुने श्रीरामचन्द्रजीको देखकर धीरे-धीरे प्रवेश किया और दृढ़तापूर्वक पातिव्रत्यका पालन कहा- 'रघुनन्दन ! आपकी पत्नीको महाबली रावणने करनेवाली सीताजीको देखा। वे उपवास करनेके कारण हर लिया है, उसी राक्षसके हाथसे मैं युद्धमें मारा गया दुर्बल, दीन और अत्यन्त शोकग्रस्त थीं। उनके शरीरपर हूँ।' इतना कहकर जटायुने प्राण त्याग दिया। श्रीरामने मैल जम गयी थी तथा वे मलिन वस्त्र पहने हुए थीं। वैदिक विधिसे उनका दाह-संस्कार किया और उन्हें उन्हें श्रीरामचन्द्रजीकी दी हुई पहचान देकर हनुमान्जीने अपना सनातन धाम प्रदान किया; जो योगियोंको ही प्राप्त उनसे भगवान्का समाचार निवेदन किया। फिर होने योग्य है। श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे गीधको भी विदेहराजकुमारीको भलीभाँति आश्वासन दे उन्होंने उस परमपदकी प्राप्ति हुई। उन पक्षिराजको श्रीहरिका सारूप्य सुन्दर उद्यानको नष्ट कर डाला। तदनन्तर दरवाजेका मोक्ष मिला । तदनन्तर माल्यवान् पर्वतपर जाकर मातङ्ग खम्भा उखाड़कर उससे हनुमान्जीने वनकी रक्षा करनेमुनिके आश्रमपर वे महाभागा धर्म-परायणा शवरीसे वाले सेवकों, पाँच सेनापतियों, सात मन्त्रिकुमारों तथा मिले। वह भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थी। उसने श्रीराम- रावणके एक पुत्रको मार डाला। इसके बाद रावणके लक्ष्मणको आते देख आगे बढ़कर उनका स्वागत किया दूसरे पुत्र मेघनादके द्वारा वे स्वेच्छासे बैंध गये। फिर
और प्रणाम करके आश्रममें कुशके आसनपर उन्हें राक्षसराज रावणसे मिलकर हनुमान्जीने उससे वार्तालाप बिठाया। फिर चरण धोकर वनके सुगन्धित फूलोंसे किया और अपनी पूंछमें लगायी हुई आगसे समूची भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया। उस समय शबरीका लङ्कापुरीको दग्ध कर डाला । फिर सीताजीके दिये हुए हृदय आनन्दमन हो रहा था। वह दृढ़तापूर्वक उत्तम चिह्नको लेकर वे लौट आये और कमलनयन व्रतका पालन करनेवाली थी। उसने दोनों रघु-कुमारोंको श्रीरामचन्द्रजीसे मिलकर सारा हाल बताते हुए सुगन्धित एवं मधुर फल-मूल निवेदन किये। उन बोले-'मैंने सीताजीका दर्शन किया है।' फलोंको भोग लगाकर भगवान्ने शबरीको मोक्ष प्रदान इसके बाद सुग्रीवसहित श्रीरामचन्द्रजी बहुत-से किया। पम्पा सरोवरकी ओर जाते समय उन्होंने मार्गमें वानरोंके साथ समुद्रके तटपर गये। वहाँ जाकर उन्होंने भयानक रूपधारी कबन्ध नामक राक्षसका वध किया। अपनी सेनाका पड़ाव डाल दिया। रावणके एक छोटे उसको मारकर महापराक्रमी श्रीरामने उसे जला दिया, भाई थे, जो विभीषणके नामसे प्रसिद्ध थे। वे धर्मात्मा, इससे वह स्वर्गलोकमें चला गया। इसके बाद महाबली सत्यप्रतिज्ञ और महान् भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थे। श्रीरघुनाथजीने शबरीतीर्थको अपने शार्ङ्गधनुषको कोटिसे श्रीरामचन्द्रजीको आया जान विभीषण अपने बड़े भाई गङ्गा और गयाके समान पवित्र बना दिया। यह महान् रावणको, राज्यको तथा पुत्र और स्त्रीको भी छोड़कर भगवद्भक्तोंका तीर्थ है, इसका जल जिसके उदरमें उनकी शरणमें चले गये। हनुमान्जीके कहनेसे पड़ेगा, उसका शरीर सम्पूर्ण जगत्के लिये वन्दनीय हो श्रीरामचन्द्रजीने विभीषणको अपनाया। और उन्हें जायगा। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।' ___ अभयदान देकर राक्षसोंके राज्यपर अभिषिक्त किया।
ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी ऋष्यमूक पर्वतपर तत्पश्चात् समुद्रको पार करनेकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रजी
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स्वहृषीकेश यदीच्छसिप
[ संक्षिप्त पयपुराण
उसकी शरणमें गये, किन्तु प्रार्थना करनेपर भी उसकी अङ्ग बिंध गये और वह भयभीत होकर रणभूमिसे गति-विधिमें कोई अन्तर होता न देख महाबली श्रीरामने लङ्कामे भाग गया। उसे सारा संसार श्रीराममय दिखायी शार्ङ्गधनुष हाथमें लिया और बाणसमूहोंकी वर्षा करके देता था; अतः वह खिन्न होकर घरमें घुस गया । इसके समुद्रको सुखा दिया। तब सरिताओंके स्वामी समुद्रने याद हनुमानजी श्रेष्ठ ओषधियोंसे युक्त महान् पर्वत उठा करुणासागर भगवान्को शरणमें जा उनका विधिवत् ले आये। इससे लक्ष्मणजीको तुरंत ही चेत हो गया। पूजन किया। इससे श्रीरघुनाथजीने वारुणास्त्रका प्रयोग उधर रावणने विजयकी इच्छासे होम करना आरम्भ करके पुनः सागरको जलसे भर दिया। फिर समुद्रके ही किया; किन्तु बड़े-बड़े वानरोंने जाकर शत्रुके उस कहनेसे उन्होंने उसपर वानरोंके लाये हुए पर्वतोंके द्वारा अभिचारात्मक यज्ञका विध्वंस कर दिया। तब रावण पुल बैंधवाया। उसीसे सेनासहित लङ्कापुरीमें जाकर पुनः श्रीरामचन्द्रजीसे युद्ध करनेके लिये निकला। उस अपनी बहुत बड़ी सेनाको ठहराया । उसके बाद वानरों समय वह दिव्य रथपर बैठा था और यहुत-से राक्षस और राक्षसोंमें सूब युद्ध हुआ।
उसके साथ थे। यह देख इन्द्रने भी अपने दिव्य अधोसे तदनन्तर रावणके पुत्र महाबली इन्द्रजित् नामक जुते हुए सारथिसहित दिव्य रथको श्रीरामचन्द्रजीके लिये राक्षसने नागपाशसे श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयोंको भेजा। मातलिके लाये हुए उस रथपर बैठकर बाँध लिया। उस समय गरुड़ने आकर उन्हें उन अस्त्रोके श्रीरघुनाथजी देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए बन्धनसे मुक्त किया। महाबली वानरोंके द्वारा बहुत-से राक्षसके साथ युद्ध करने लगे। तदनन्तर श्रीराम और राक्षस मारे गये। रावणका छोटा भाई कुम्भकर्ण बड़ा रावणमें भयंकर शस्त्रास्त्रोद्वारा सात दिन और सात बलवान् वीर था । उसको श्रीरामने युद्ध में अग्निशिखाके रातोंतक घोर युद्ध हुआ। सब देवता विमानोंपर बैठकर समान तेजस्वी बाणोंसे मौतके घाट उतार दिया। तब उस महायुद्धको देख रहे थे। इन्द्रजित्को बड़ा क्रोध हुआ और उसने ब्रहास्त्रके द्वारा रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने अनेको बार रावणके वानरोको मार गिराया। उस समय हनुमानजी श्रेष्ठ मस्तक काटे, किन्तु मेरे (महादेवजीके) वरदानसे उसके
ओषधियोंसे युक्त पर्वतको उठा ले आये। उसको छूकर फिर नये-नये मस्तक निकल आते थे। तब श्रीरघुनाथजीने बहनेवाली वायुके स्पर्शसे सभी वानर जी उठे। तब परम उस दुरात्माका वध करनेके लिये महाभयंकर और उदार लक्ष्मणने अपने तीखे बाणोंसे जैसे इन्द्रने कालानिके समान तेजस्वी ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। वृत्रासुरको मारा था, उसी प्रकार इन्द्रजित्को मार श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ वह अस्त्र रावणको छाती गिराया। अब स्वयं रावण ही संग्राममें श्रीरामचन्द्रजीके छेदकर घरतीको चीरता हुआ रसातलमें चला गया। साथ युद्ध करने के लिये निकला । उसके साथ चतुरङ्गिणी वहाँ सर्पोने उस बाणका पूजन किया। वह महाराक्षस सेना और महाबली मन्त्री भी थे। फिर तो वानरों और प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिरा और मर गया। इससे राक्षसोम तथा लक्ष्मणसहित श्रीराम और रावणमें भयङ्कर सम्पूर्ण देवताओंका हृदय हर्षसे भर गया। वे सम्पूर्ण युद्ध छिड़ गया। उस समय राक्षसराज रावणने शक्तिका जगत्के गुरु महात्मा श्रीरामपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। प्रहार करके लक्ष्मणको रणभूमिमें गिरा दिया। इससे गन्धर्वराज गाने और अप्सराएँ नाचने लगीं। पवित्र वायु महातेजस्वी रघुनाथजी, जो राक्षसोंके काल थे, कुपित हो चलने लगी और सूर्यकी प्रभा स्वच्छ हो गयी। मुनि, उठे और काल एवं मृत्युके समान तीखे बाणोंसे सिद्ध, देवता, गन्धर्व और किन्नर भगवान्की स्तुति करने राक्षस-वीरोंका संहार करने लगे। उन्होंने कालदण्डके लगे। श्रीरघुनाथजीने लङ्काके राज्यपर विभीषणको समान सहस्रों तेजस्वी बाण मारकर राक्षसराज रावणको अभिषिक्त करके अपनेको कृतार्थ-सा माना और इस ढक दिया। श्रीरघुनाथजीके बाणोंसे उस निशाचरके सारे प्रकार कहा-'विभीषण ! जबतक सूर्य, चन्द्रमा और
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उत्तरखण्ड]
• श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्यामें आनेतकका प्रसङ्ग •
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पृथ्वी रहेगी तथा जबतक यहाँ मेरी कथाका प्रचार रहेगा, बिना विलम्ब किये ग्रहण कीजिये।' अग्निदेवके इस तबतक तुम्हारा राज्य कायम रहेगा। महाबल ! यहाँ कथनसे रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामने प्रसन्नताके साथ सीताको राज्य करके तुम पुनः अपने पुत्र, पौत्र तथा गणोंके साथ स्वीकार किया। फिर सब देवता भगवान्का पूजन करने योगियोंको प्राप्त होने योग्य मेरे सनातन दिव्य धाममें लगे। उस युद्धमें जो-जो श्रेष्ठ वानर राक्षसोंके हाथसे पहुँच जाओगे।
मारे गये थे, वे ब्रह्माजीके वरसे शीघ्र ही जी उठे। ___ इस प्रकार विभीषणको वरदान दे महाबली तत्पश्चात् राक्षसराज विभीषणने सूर्यके समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजोने मिथिलेशकुमारी सीताको पास पुष्पकविमानको, जिसे रावणने कुवेरसे छीन लिया था, बुलवाया। यद्यपि वे सर्वथा पवित्र थीं, तो भी श्रीरामने श्रीरघुनाथजीको भेट किया। साथ ही बहुत-से वस्त्र और भरी सभामें उनके प्रति बहुत-से निन्दित वचन कहे। आभूषण भी दिये। विभीषणसे पूजित होकर परम प्रतापी पतिके द्वारा निन्दित होनेपर सती-साध्वी सीता अग्नि श्रीरामचन्द्रजी अपनी धर्मपत्नी विदेहकुमारी सीताके साथ प्रज्वलित करके उसमें प्रवेश करने लगी। माता उस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हुए । इसके बाद शूरवीर भाई जानकीको अग्निमें प्रवेश करते देख शिव और ब्रह्मा लक्ष्मण, वानर और भालुओंके समुदायसहित वानरराज आदि सभी देवता भयसे व्याकुल हो उठे और सुग्रीव तथा महाबली राक्षसोंसहित शूरवीर विभीषण भी श्रीरघुनाथजीके पास आ हाथ जोड़कर बोले-'महाबाहु. उसपर सवार हुए। वानर, भालू और राक्षस-सबके श्रीराम ! आप अत्यन्त पराक्रमी हैं। हमारी बात सुनें। साथ सवार हो श्रीरामचन्द्रजी श्रेष्ठ देवताओंके द्वारा सीताजी अत्यन्त निर्मल हैं, साध्वी हैं और कभी भी अपनी स्तुति सुनते हुए अयोध्याकी ओर प्रस्थित हुए। आपसे विलग होनेवाली नहीं हैं। जैसे सूर्य अपनी भरद्वाज मुनिके आश्रमपर जाकर सत्यपराक्रमी श्रीरामने प्रभाको नहीं छोड़ सकते, उसी प्रकार आपके द्वारा भी हनुमान्जीको भरतके पास भेजा। वे निषादोंके गाँव ये त्यागने योग्य नहीं हैं। ये सम्पूर्ण जगत्को माता और (शृङ्गवेरपुर) में जाकर श्रीविष्णु भक्त गुहसे मिले और सबको आश्रय देनेवाली हैं; संसारका कल्याण करनेके उनसे श्रीरामचन्द्रजीके आनेका समाचार कहकर लिये ही ये भूतलपर प्रकट हुई हैं। रावण और कुम्भकर्ण नन्दिग्रामको चले गये। वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई पहले आपके ही भक्त थे, वे सनकादिकोंके शापसे इस भरतसे मिलकर उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीके शुभागमनका पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। उन्हींकी मुक्तिके लिये ये समाचार कह सुनाया। हनुमान्जीके द्वारा श्रीरघुनाथजीके विदेहराजकुमारी दण्डकारण्यमें हरी गयौं। इन्हींको शुभागमनकी बात सुनकर भाई तथा सुहृदोंके साथ निमित्त बनाकर वे दोनों श्रेष्ठ राक्षस आपके हाथसे मारे भरतजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वायुनन्दन हनुमानजी गये हैं। अब इस राक्षसयोनिसे मुक्त होकर पुत्र, पौत्रों पुनः श्रीरामचन्द्रजीके पास लौट आये और भरतका और सेवकोंसहित स्वर्गमें गये हैं। अतः सदा शुद्ध समाचार उनसे कह सुनाया। आचरणवाली सती-साध्वी सौताको शीघ्र ही ग्रहण तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने अपने छोटे भाई लक्ष्मण कौजिये। ठीक उसी तरह जैसे पूर्वकालमें आपने समुद्रसे और सीताके साथ तपस्वी भरद्वाज मुनिको प्रणाम किया। निकलनेपर लक्ष्मीरूपमें इन्हें ग्रहण किया था। फिर मुनिने भी पकवान, फल, मूल, वस्त्र और आभूषण
इसी समय लोकसाक्षी अग्रिदेव सीताको लेकर आदिके द्वारा भाईसहित श्रीरामका स्वागत-सत्कार प्रकट हुए। उन्होंने देवताओंके समीप ही श्रीजानकोजीको किया। उनसे सम्मानित होकर श्रीरघुनाथजीने उन्हें श्रीरामजीको सेवामें अर्पण कर दिया और कहा- प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले पुनः लक्ष्मणसहित 'प्रभो ! सीता सर्वथा निष्कलङ्क और शुद्ध आचरणवाली पुष्पकविमानपर आरूढ़ हो सुहृदोसहित नन्दिग्राममें हैं। यह बात मैं सत्य-सत्य निवेदन करता हूँ। आप इन्हें आये। उस समय कैकेयीनन्दन भरतने भाई शत्रुघ्न,
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• अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
मन्त्रियों, नगरके मुख्य-मुख्य व्यक्तियों तथा सेनासहित स्तुति कर रहे थे। फिर भरत, सुग्रीव, शत्रुन, विभीषण, अनेक राजाओंको साथ ले प्रसन्नतापूर्वक आगे आकर अङ्गद, सुषेण, जाम्बवान्, हनुमान, नील, नल, सुभग, बड़े भाईकी अगवानी की। रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीके शरभ, गन्धमादन, अन्यान्य कपि, निषादराज गुह, निकट पहुँचकर भरतने अनुयायियोंसहित उन्हें प्रणाम महापराक्रमी राक्षस और महाबली राजा भी बहुत-से किया। फिर शत्रुओंको ताप देनेवाले श्रीरघुनाथजीने घोड़े, 'हाथी और रथोंपर आरूढ़ हुए। उस समय नाना विमानसे उतरकर भरत और शत्रुघ्नको छातीसे लगाया। प्रकारके माङ्गलिक बाजे बजने लगे तथा नाना प्रकारके तत्पश्चात् पुरोहित वसिष्ठजी, माताओं, बड़े-बूढ़ों तथा स्तोत्रोंका गान होने लगा। इस प्रकार वानर, भालू, बन्धु-बान्धवोंको महातेजस्वी श्रीरामने सीता और राक्षस, निषाद और मानव सैनिकोंके साथ महातेजस्वी लक्ष्मणके साथ प्रणाम किया। इसके बाद भरतजीने श्रीरघुनाथजीने अपने अविनाशी नगर साकेतधाम विभीषण, सुप्रीव, जाम्बवान, अङ्गद, हनुमान् और (अयोध्या) में प्रवेश किया। मार्गमें उस राजनगरीकी सुषेणको गले लगाया। वहाँ भाइयों और अनुचरोसहित शोभा देखते हुए श्रीरघुनाथजीको बारंबार अपने पिता भगवान्ने माङ्गलिक स्रान करके दिव्य माला और दिव्य महाराज दशरथकी याद आने लगी। तत्पश्चात् सुग्रीव, वस्त्र धारण किये, फिर दिव्य चन्दन लगाया। इसके बाद हनुमान् और विभीषण आदि भगवद्भक्तोंके पावन वे सीता और लक्ष्मणके साथ सुमन्त्र नामक सारथिसे चरणोंके पड़नेसे पवित्र हुए राजमहलमें उन्होंने सञ्चालित दिव्य रथपर बैठे। उस समय देवगण उनको प्रवेश किया।
श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसन
श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! तदनन्तर पुष्पोंसे श्रीसीतादेवीके साथ श्रीरघुनाथजीका शृङ्गार किसी पवित्र दिनको शुभ लग्नमें मङ्गलमय भगवान् किया। उस समय लक्ष्मणने दिव्य छत्र और चैवर धारण श्रीरामका राज्याभिषेक करनेके लिये लोगोंने माङ्गलिक किये। भरत और शत्रुघ्न भगवानके दोनों बगलमें खड़े उत्सव मनाना आरम्भ किया । वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, होकर ताड़के पंखोंसे हवा करने लगे। राक्षसराज कश्यप, मार्कण्डेय, मौद्गल्य, पर्वत और नारद-ये विभीषणने सामनेसे दर्पण दिखाया। वानरराज सुग्रीव महर्षि जप और होम करके राजशिरोमणि श्रीरघुनाथजीका भरा हुआ कलश लेकर खड़े हुए। महातेजस्वी शुभ अभिषेक करने लगे। नाना रत्नोंसे निर्मित दिव्य जाम्बवान्ने मनोहर फूलोंकी माला पहनायो । बालिकुमार सुवर्णमय पीढ़ेपर सीतासहित भगवान् श्रीरामको अङ्गदने श्रीहरिको कपूर मिला हुआ पान अर्पण किया। बिठाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि सोने और हनुमानजीने दिव्य दीपक दिखाया। सुषेणने सुन्दर झंडा रत्नोंके कलशोंमें रखे हुए सब तीर्थोके शुद्ध एवं मन्त्रपूत फहराया। सब मन्त्री महात्मा श्रीरामको चारों ओरसे जलसे, जिसमें पवित्र माङ्गलिक वस्तुएँ, दूर्वादल, घेरकर उनकी सेवामें खड़े हुए। मन्त्रियोंके नाम इस तुलसीदल, फूल और चन्दन आदि पड़े थे, उनका प्रकार थे-सृष्टि, जयन्त, विजय, सौराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, मङ्गलमय अभिषेक करने और चारों वेदोंके वैष्णव अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र । नाना जनपदोंके स्वामी सूक्तोंको पढ़ने लगे। उस शुभ लग्नके समय आकाशमें नरश्रेष्ठ नृपतिगण, पुरवासी, वैदिक विद्वान् तथा बड़े-बूढ़े देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजती थीं। चारों ओरसे फूलोंकी सज्जन भी महाराजकी सेवामें उपस्थित थे। वानर, वर्षा होती थी। वेदोंके पारगामी मुनियोंने दिव्य वस्त्र, भालू, मन्त्री, राजा, राक्षस, श्रेष्ठ द्विज तथा सेवकोंसे घिरे दिव्य आभूषण, दिव्य गन्ध और नाना प्रकारके दिव्य हुए महाराज श्रीराम साकेतधाम (अयोध्या) में इस
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उत्तरखण्ड ]
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श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसङ्ग •
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प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु देवताओंसे घिरे होनेपर परव्योम (वैकुण्ठधाम) में सुशोभित होते हैं। देवी सीताके साथ श्रीरघुनाथजीको राज्यपर अभिषिक्त होते देख विमानोंपर बैठे हुए देवताओंका हृदय आनन्दसे भर गया। गन्धर्व और अप्सराओंके समुदाय जय-जयकार करते हुए स्तुति करने लगे। वसिष्ठ आदि महर्षियोंद्वारा अभिषेक हो जानेपर श्रीरामचन्द्रजी सीतादेवीके साथ उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे लक्ष्मीजीके साथ भगवान् विष्णु शोभा पाते हैं। सीताजी अत्यन्त विनीत भावसे श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंकी सेवा किया करती थीं।
राज्याभिषेक हो जानेके पश्चात् सम्पूर्ण दिशाओंका पालन करते हुए श्रीरामचन्द्रजीने विदेहनन्दिनी सीताके साथ एक हजार वर्षोंतक मनोरम राजभोगोंका उपभोग किया। इस बीचमें अन्तःपुरकी स्त्रियाँ, नगर निवासी तथा प्रान्तके लोग छिपे तौरपर सीताजीकी निन्दा करने लगे। निन्दाका विषय यही था कि वे कुछ कालतक राक्षसके घरमें निवास कर चुकी थीं। शत्रुओंका संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी लोकापवादके कारण मानव भावका प्रदर्शन करते हुए उन्होंने राजकुमारी सीताको गर्भवतीको अवस्थामें वाल्मीकि मुनिके आश्रमके पास गङ्गातटपर महान् वनके भीतर छुड़वा दिया। महातेजस्विनी जानकी गर्भका कष्ट सहन करती हुई मुनिके आश्रम में रहने लगीं। उनका मन सदा स्वामीके चिन्तनमें ही लगा रहता था। मुनिपत्रियोंसे सत्कृत और महर्षि वाल्मीकिद्वारा सुरक्षित होकर उन्होंने आश्रममें ही दो पुत्र उत्पन्न किये, जो कुश और लवके नामसे प्रसिद्ध हुए। मुनिने ही उनके संस्कार किये और वहीं पलकर वे दोनों बड़े हुए।
उधर श्रीरामचन्द्रजी यम-नियमादि गुणोंसे सम्पन्न हो सब प्रकारके भोगोंका परित्याग करके भाइयोंके साथ पृथ्वीका पालन करने लगे। वे सदा आदि अन्तसे रहित, सर्वव्यापी श्रीहरिका पूजन करते हुए ब्रह्मचर्यपरायण हो प्रतिदिन पृथ्वीका शासन करते थे। धर्मात्मा शत्रुघ्र लवणासुरको मारकर अपने दो पुत्रोंके साथ देवनिर्मित
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मथुरापुरीके राज्यका पालन करने लगे। भरतने सिंधु नदीके दोनों तटोंपर अधिकार जमाये हुए गन्धवका संहार करके उस देशमें अपने दोनों महाबली पुत्रोंको स्थापित कर दिया। इसी प्रकार लक्ष्मणने मद्रदेशमें जाकर मद्रोंका वध किया और अपने दो महापराक्रमी पुत्रोंको वहाँके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् अयोध्यामें आकर वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवा करने लगे। श्रीरघुनाथजीने एक तपस्वी शूद्रको मारकर मृत्युको प्राप्त हुए एक ब्राह्मणवालकको जीवन प्रदान किया। तत्पश्चात् नैमिषारण्यमें गोमतीके तटपर श्रीरघुनाथजीने सुवर्णमयी जानकीकी प्रतिमाके साथ बैठकर अश्वमेघ यज्ञ किया। वहाँ भारी जनसमाज एकत्रित था। उन्होंने बहुत से यज्ञ किये।
इसी समय महातपस्वी वाल्मीकिजी सीताको साथ लेकर वहाँ आये और श्रीरघुनाथजीसे इस प्रकार बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले श्रीराम ! मिथिलेशकुमारी सीता सर्वथा निष्पाप हैं। ये अत्यन्त निर्मल और सती- साध्वी स्त्री हैं। जैसे प्रभा सूर्यसे पृथक् नहीं होती, उसी प्रकार ये भी कभी आपसे अलग नहीं होतीं। आप भी पापके सम्पर्कसे रहित हैं; फिर आपने इनका त्याग कैसे किया ?'
श्रीराम बोले- ब्रह्मन् ! मैं जानता हूँ, आपके कथनानुसार जानकी सर्वथा निष्पाप हैं। बात यह है कि सती-साध्वी सीताको दण्डकारण्यमें रावणने हर लिया था। मैंने उस दुष्टको युद्धमें मार डाला। उसके बाद सीताने अग्निमें प्रवेश करके जब अपनेको शुद्ध प्रमाणित कर दिया, तब मैं धर्मतः इन्हें लेकर पुनः अयोध्यामें आया। यहाँ आनेपर इनके प्रति नगरनिवासियोंमें महान् अपवाद फैला। यद्यपि ये तब भी सदाचारिणी ही थीं, तो भी लोकापवादके कारण मैंने इन्हें आपके निकट छोड़ दिया। अतः अब केवल मेरे ही चिन्तनमें संलग्न रहनेवाली सीताको उचित है कि ये लोगोंके सन्तोषके लिये राजाओं और महर्षियोंके सामने अपनी शुद्धताका विश्वास दिलावें ।
मुनियों और राजाओंकी सभामें श्रीरामचन्द्रजीके
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अर्चयस्य इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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ऐसा कहनेपर सती सीताने उनके प्रति अपना अनन्य प्रेम दिखलानेके लिये सब लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाला प्रमाण उपस्थित किया। ये हाथ जोड़कर सबके सामने उस भरी सभा में बोलीं- यदि मैं श्रीरघुनाथजीके सिवा अन्य किसी पुरुषका मनसे चिन्तन भी न करती होऊँ तो हे पृथ्वीदेवी! तुम मुझे अपने अङ्कमें स्थान दो। यदि मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीकी हो पूजा करती होऊँ तो हे माता पृथिवी! तुम मुझे अपने अङ्कमें स्थान दो।'
माता जानकीको परमधाममें चलनेके लिये उद्यत जान पक्षिराज गरुड़ अपनी पीठपर रत्नमय सिंहासन लिये रसातलसे प्रकट हुए। इसी समय पृथ्वीदेवी भी प्रत्यक्षरूपसे प्रकट हुई। उन्होंने मिथिलेशकुमारी सीताको दोनों हाथोंसे उठा लिया और स्वागतपूर्वक अभिनन्दन करके उन्हें सिंहासनपर बिठाया। सीता देवीको सिंहासनपर बैठी देख देवगण धारावाहिकरूपसे उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे तथा दिव्य अप्सराओंने उनका पूजन किया। फिर वे सनातनी देवी गरुड़पर आरूढ़ हो पृथ्वीके ही मार्गसे परम धामको चली गयीं। जगदीश्वरी सीता पूर्वभागमें दासीगणोंसे घिरकर योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य सनातन परम धाममें स्थित हुई। सीताको रसातलमें प्रवेश करते देख सब मनुष्य साधुवाद देते हुए उच्चस्वरसे कहने लगे — 'वास्तवमें ये सीतादेवी परम साध्वी हैं।'
सीताके अन्तर्धान हो जानेसे श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा शोक हुआ। वे अपने दोनों पुत्रोंको लेकर मुनियों और राजाओंके साथ अयोध्यामें आये। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उत्तम व्रतका पालन करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीकी माताएँ कालधर्मको प्राप्त हो पतिके समीप स्वर्गलोकमें चली गयीं। कठोर व्रतका पालन करनेवाले श्रीरघुनाथजीने ग्यारह हजार वर्षोंतक धर्मपूर्वक राज्यका पालन किया। एक दिन काल तपस्वीका वेष धारण करके श्रीराम चन्द्रजीके भवनमें आया और इस प्रकार बोला'महाभाग श्रीराम ! मुझे ब्रह्माजीने भेजा है। रघुश्रेष्ठ ! मैं उनका सन्देश कहता हूँ, आप सुनें। मेरी और आपकी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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बातचीत हम ही दोनोंतक सीमित रहनी चाहिये; इस बीचमें जो यहाँ प्रवेश करे, वह वधके योग्य होगा।'
ऐसा ही होगा, यह प्रतिज्ञा करके श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणको दरवाजेपर पहरा देनेके लिये बिठा दिया और स्वयं कालके साथ वार्तालाप करने लगे। उस समय कालने कहा- "श्रीराम ! मेरे आनेका जो कारण है, उसे आप सुने। देवताओंने आपसे कहा था कि 'आप रावण और कुम्भकर्णको मार ग्यारह हजार वर्षोंतक मनुष्यलोकमें निवास करें। उनके ऐसा कहनेपर आप इस भूतलपर अवतीर्ण हुए थे। वह समय अब पूरा हो गया है; अतः अब आप परमधामको पधारें, जिससे सब देवता आपसे सनाथ हों।" महाबाहु श्रीरामने 'एवमस्तु' कहकर कालका अनुरोध स्वीकार किया।
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उन दोनोंमें अभी बातचीत हो ही रही थी कि महातपस्वी दुर्वासामुनि राजद्वारपर आ पहुँचे और लक्ष्मणसे बोले – 'राजकुमार ! तुम शीघ्र जाकर रघुनाथजीको मेरे आनेकी सूचना दो।' यह सुनकर लक्ष्मणने कहा – 'ब्रह्मन् ! इस समय महाराजके समीप जानेकी आज्ञा नहीं है। लक्ष्मणकी बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाको बड़ा क्रोध हुआ। वे बोले- 'यदि तुम श्रीरामचन्द्रजीसे नहीं मिलाओगे तो शाप दे दूँगा।' लक्ष्मणजीने शापके भयसे श्रीरामचन्द्रजीको महर्षि दुर्वासाके आगमन की सूचना दे दी। तब सब भूतोंको भय देनेवाले कालदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। महाराज श्रीरामने दुर्वासाके आनेपर उनका विधिवत् पूजन किया। उधर रघुश्रेष्ठ लक्ष्मणने अपने बड़े भाईकी प्रतिज्ञाको याद करके सरयूके जलमें स्थित हो अपने साक्षात् स्वरूपमें प्रवेश किया। उस समय उनके मस्तकपर सहस्त्रों फन शोभा पाने लगे। उनके श्री अङ्गोंकी कान्ति कोटि चन्द्रमाओंके समान जान पड़ती थी। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण किये दिव्य चन्दनके अनुलेपसे सुशोभित हो रहे थे। सहस्रों नाग कन्याओंसे घिरे हुए भगवान् अनन्त दिव्य विमानपर बैठकर परमधामको चले गये ।
लक्ष्मणके
परमधामगमनका हाल जानकर
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उत्तरखण्ड
.श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसङ्ग.
श्रीरघुनाथजीने भी इस लोकसे जानेका विचार किया। हाथोंमें कुश लिये अनासक्तभावसे · चले। उन्होंने अपने पुत्र वीरवर कुशको कुशावतीमें और लवको श्रीरामचन्द्रजीके दक्षिण भागमें कमल हाथमें लिये द्वारवतीमें धर्मपूर्वक अपने-अपने राज्यपर स्थापित श्रीदेवी उपस्थित हो गयीं और वामभागमें भूदेवी किया। उस समय भगवान् श्रीरामके अभिप्रायको साथ-साथ चलने लगीं। वेद, वेदाङ्ग, पुराण, इतिहास, जानकर समस्त वानर और महाबली राक्षस अयोध्यामें ॐकार, वषट्कार, लोकको पवित्र करनेवाली सावित्री आ गये। विभीषण, सुग्रीव, जाम्बवान्, पवनकुमार तथा धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र-सभी पुरुष-विग्रह हनुमान्, नील, नल, सुषेण और निषादराज गुह भी आ धारण करके वहाँ उपस्थित हो गये। भरत, शत्रुघ्न तथा पहुंचे। महामना शत्रुघ्र भी अपने वीर पुत्रोंको राज्यपर समस्त पुरवासी भी अपनी स्त्री, पुत्र तथा सेवकोंसहित अभिषिक्त करके श्रीरामपालित अयोध्यानगरीमें आये। भगवान्के साथ-साथ चले। मन्त्री, भृत्यवर्ग, किङ्कर, वे सभी महात्मा श्रीरामको प्रणाम करके हाथ जोड़कर वैदिक, वानरगण, भालु तथा राजा सुग्रीव-इन सबने कहने लगे-'रघुश्रेष्ठ ! आप परमधाममें पधारनेको स्त्री और पुत्रोंके साथ परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीका उद्यत है—यह जानकर हम सब लोग आपके साथ अनुसरण किया। इतना ही नहीं, समीपवर्ती पशु, पक्षी चलनेको आये हैं। प्रभो ! आपके बिना हम क्षणभर भी तथा समस्त स्थावर-जङ्गम प्राणी भी महात्मा जीवित रहने में समर्थ नहीं हैं; अतः हम भी साथ ही रघुनाथजीके साथ गये। उस समय श्रीरामचन्द्रजीको जो चलेंगे।' उनके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने 'बहुत भी देख लेते, वे ही उनके साथ लग जाते थे। उनमेंसे अच्छा' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तत्पश्चात् कोई भी पीछे नहीं लौटता था। उन्होंने राक्षसराज विभीषणसे कहा-'तुम धर्मपूर्वक तदनन्तर अयोध्यासे तीन योजन दूर जाकर, जहाँ राज्यका पालन करो। मेरी प्रतिज्ञा व्यर्थ न होने दो। नदीका प्रवाह पच्छिमकी ओर था, भगवान्ने जबतक चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी कायम हैं, तबतक अनुयायियोंसहित पुण्यसलिला सरयूमें प्रवेश किया। प्रसत्रतापूर्वक राज्य भोगो। फिर योग्य समय आनेपर मेरे उस समय पितामह ब्रह्माजी सब देवताओं और परमपदको प्राप्त होओगे।'
ऋषियोंके साथ आकर रघुनाथजीकी स्तुति करते हुए . ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने इक्ष्वाकुकुलके देवता बोले-'श्रीविष्णो ! आइये । आपका कल्याण हो । बड़े श्रीरङ्गशायी सनातन भगवान् विष्णुके अर्चाविग्रहको सौभाग्यकी बात है जो आप यहाँ पधारे हैं। मानद ! विभीषणके लिये समर्पित किया। इसके बाद शत्रुसूदन अब आप अपने देवोपम भाइयोंके साथ अपने वैष्णव श्रीरघुनाथजीने हनुमानजीसे कहा-'वानरेश्वर ! संसारमें स्वरूपमें प्रवेश कौजिये। वही आपका सनातन रूप है। जबतक मेरी कथाका प्रचार रहे, तबतक तुम इस देव ! आप ही सम्पूर्ण विश्वकी गति है। कोई भी आपके पृथ्वीपर सुखसे रहो। फिर समयानुसार मुझे प्राप्त स्वरूपको वास्तवमें नहीं जानते। आप अचिन्त्य, होओगे।' हनुमानजीसे ऐसा कहकर वे जाम्बवानसे महात्मा, अविनाशी और सबके आश्रय हैं। भगवन् ! बोले-'पुरुषश्रेष्ठ ! द्वापर युग आनेपर मैं पुनः पृथ्वीका आप आइये। उस समय भगवान् श्रीरामने अपने भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतार लूंगा और तुम्हारे स्वरूपमें प्रवेश किया। भरत और शत्रुघ्न क्रमशः शङ्ख साथ युद्ध करूँगा। [अतः तुम यहीं रहो।' और चक्रके अंश थे। वे दोनों महात्मा दिव्य तेजसे
उपर्युक्त व्यक्तियोंसे ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने सम्पन्न हो अपने तेजमें मिल गये। तब शङ्ख, चक्र, गदा अन्य सभी वानरों और भालुओंसे कहा-'तुम सब और पद्म धारण किये हुए चतुर्भुज भगवान् विष्णुके लोग मेरे साथ चलो।' तदनन्तर ब्रह्मचर्यका पालन रूपमें स्थित हो श्रीरामचन्द्रजी श्री और भू देवियोंके साथ करनेवाले भगवान् श्रीराम श्वेत वस्त्र पहनकर दोनों विमानपर आरूढ़ हुए। वहाँ दिव्य कल्पवृक्षके मूल
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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
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भागमें सुन्दर सिंहासनपर भगवान् विराजमान हुए। उस समय सब देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। श्रीरामचन्द्रजीके पीछे जो वानर, भालु और मनुष्य आये थे, उन्होंने सरयूके जलका स्पर्श करते ही सुखपूर्वक प्राण त्याग दिये और श्रीरघुनाथजीकी कृपासे सबने दिव्य रूप धारण कर लिया। उनके अङ्गोंमें दिव्य हार और दिव्य वस्त्र शोभा पा रहे थे। वे दिव्य मङ्गलमय कान्तिसे सम्पन्न थे । असंख्य देहधारियोंसे घिरे हुए राजीवलोचन भगवान् श्रीराम उस विमानपर आरूढ़ हुए। उस समय देवता, सिद्ध, मुनि और महात्माओंसे पूजित होकर वे
अपने दिव्य, अविनाशी एवं सनातन धाममें चले गये। पार्वती! जो मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रके एक या आधे श्लोकको पढ़ता अथवा सुनता या भक्तिपूर्वक स्मरण करता है, वह कोटि जन्मोंके उपार्जित ज्ञाताज्ञात पापसे मुक्त हो स्त्री, पुत्र एवं बन्धु बान्धवोंके साथ योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य विष्णुलोकमें अनायास ही चला जाता है। देवि! यह मैंने तुमसे श्रीरामचन्द्रजीके महान् चरित्रका वर्णन किया है। तुम्हारी प्रेरणासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीकी लीलाओंके कीर्तनका शुभ अवसर प्राप्त हुआ, इससे मैं अपनेको धन्य मानता हूँ। ★ श्रीकृष्णावतारकी कथा - व्रजकी लीलाओंका प्रसङ्ग
पार्वतीजीने कहा - महेश्वर ! आपने श्रीरघुनाथजीके उत्तम चरित्रका अच्छी तरह वर्णन किया। देवेश्वर! आपके प्रसादसे इस उत्तम कथाको श्रवण करके मैं धन्य हो गयी। अब मुझे भगवान् वासुदेवके महान् चरित्रोंको सुननेकी इच्छा हो रही है, कृपया कहिये ।
श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! सबके हृदयमें निवास करनेवाले परमात्मा श्रीकृष्णकी लीलाएँ मनुष्योंको मनोवाञ्छित फल देनेवाली हैं। मैं उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। यदुवंशमें वसुदेव नामक श्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न हुए, जो देवमीढके पुत्र और सब धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने मथुरामें उग्रसेनकी पुत्री * देवकीसे विधिपूर्वक विवाह किया, जो देवाङ्गनाओंके समान सुन्दरी थी। उग्रसेनके एक कंस नामक पुत्र था, जो महाबलवान् और शूरवीर था जब वधू और वर रथपर बैठकर विदा होने लगे, उस समय कंस स्नेहवश सारथि बनकर उनका रथ हाँकने लगा। इसी समय गम्भीर स्वरमें आकाशवाणी सुनायी पड़ी. - 'कंस ! इस देवकीका आठवाँ बालक तुम्हारे प्राण लेगा ।'
यह सुनकर कंस अपनी बहिनको मार डालनेके
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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लिये तैयार हो गया। उसे क्रोधमें भरा देख बुद्धिमान् वसुदेवजीने कहा- 'राजन्! यह तुम्हारी बहिन है, तुम्हें धर्मतः इसका वध नहीं करना चाहिये। इसके गर्भसे जो बालक उत्पन्न हों, उन्हींको मार डालना।' 'अच्छा, ऐसा ही हो' यो कहकर कंसने वसुदेव और देवकीको अपने सुन्दर महलमें ही रोक लिया और उनके लिये सब प्रकारके सुखभोगकी व्यवस्था कर दी। पार्वती ! इसी बीचमें समस्त लोकोंको धारण करनेवाली पृथ्वी भारी भारसे पीड़ित होकर सहसा लोकनाथ ब्रह्माजीके पास गयी और गम्भीर वाणीमें बोली- 'प्रभो! अब मुझमें इन लोकोंको धारण करनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। मेरे ऊपर पाप कर्म करनेवाले राक्षस निवास करते हैं। वे बड़े बलवान् हैं, अतः सम्पूर्ण जगत् के धर्मोका विध्वंस करते हैं। पापसे मोहित हुए समस्त मानव इस समय अधर्मपरायण हो रहे हैं। इस संसारमें अब थोड़ा-सा भी धर्म कहीं दिखायी नहीं देता। देव! मैं सत्य -: - शौचयुक्त धर्मके ही बलसे टिकी हुई थी। अतः अधर्मपरायण विश्वको धारण करनेमें मैं असमर्थ हो रही हूँ।'
यों कहकर पृथ्वी वहीं अन्तर्धान हो गयी। तदनन्तर ब्रह्मा और शिव आदि समस्त देवता तथा महातपस्वी
* अन्य पुराणोंमें देवकीको उग्रसेनके भाई देवककी पुत्री बताया गया है। कल्पभेदसे ऐसा होना सम्भव है।
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उत्तरखण्ड]
• श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसङ्ग .
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मुनि क्षीरसागरके उत्तर तटपर जगदीश्वर श्रीविष्णुके पास दिया। गर्भका संकर्षण करने (खींचने) से उस गये और नाना प्रकारके स्तोत्रोद्वारा उनकी स्तुति करने बालकका जन्म हुआ, इसलिये वह संकर्षण नामसे लगे। इससे प्रसन्न होकर भगवान्ने समस्त देवताओं प्रसिद्ध हुआ। भादोंके' कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथिको
और मुनिवरोंसे कहा-'देवगण ! तुम सब लोग यहाँ रोहिणी नक्षत्रमें शुभ लग्नका उदय होनेपर रोहिणी देवीने किसलिये आये हो ?' तब पितामह ब्रह्माजीने देवाधिदेव भगवान् संकर्षणको जन्म दिया। तत्पश्चात् साक्षात् जनार्दनसे कहा-'देवदेव ! जगन्नाथ ! पृथ्वी भारी भगवान् श्रीहरि देवकीके गर्भमें आये। आठवें गर्भसे भारसे पीडित है। इस समय संसारमें बहुत-से दुर्द्धर्ष युक्त देवकीको देखकर कंस बहुत भयभीत हुआ। उस राक्षस उत्पन्न हो गये हैं। जरासन्ध, कंस, प्रलम्ब और समय समस्त देवताओंके मनमें उल्लास छा रहा था। वे धेनुक आदि दुरात्मा सब लोगोंको सता रहे हैं; अतः विमानपर बैठे हुए आकाशसे ही देवकी देवीकी स्तुति आप इस पृथ्वीका भार उतारनेकी कृपा करें।' किया करते थे। तदनन्तर दसवाँ महीना आनेपर
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण जगत्का पालन श्रावणमासकी कृष्णा अष्टमीको आधी रातके समय करनेवाले अविनाशी भगवान् हषीकेशने कहा- श्रीहरिका अवतार हुआ। वसुदेवके पुत्र होनेसे वे 'देवताओ ! मैं मनुष्यलोकके भीतर यदुकुलमें अवतार सनातन भगवान् वासुदेव कहलाये। लेकर पृथ्वीका भार हटाऊँगा।' यह सुनकर सब देवता सम्पूर्ण जगत्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्णको देखकर भगवान् जनार्दनको नमस्कार करके अपने-अपने लोकमें वसुदेवजी हाथ जोड़ नमस्कार करके उन जगन्मय जा उन परमेश्वरका ही चिन्तन करने लगे। तत्पश्चात् प्रभुकी स्तुति करने लगे-'जगन्नाथ ! आप भक्तोंकी परमेश्वर श्रीहरिने भगवती मायासे कहा-'देवि! इच्छा पूर्ण करनेके लिये साक्षात् कल्पवृक्ष है। प्रभो ! रसातलसे हिरण्याक्षके छः पुत्रोंको ले आओ और आप स्वयं मेरे यहाँ प्रकट हुए, मैं कितना भाग्यवान् हूँ। क्रमशः वसुदेव-पत्नी देवकीके गर्भमें स्थापित करो। अहो ! आज धरणीधर भगवान् इस घरतीके ऊपर मेरे सातवाँ गर्भ अनन्त (शेषनाग) का अंश होगा, उसे भी पुत्ररूपसे अवतीर्ण हुए हैं। पुरुषोत्तम ! आपके इस खींचकर तुम देवकीकी सौत रोहिणीके उदरमें स्थापित अद्भुत ईश्वरीय रूपको देखकर महाबली एवं पापाचारी कर देना। तदनन्तर देवकीके आठवें गर्भ में मेरा अंश दानव सहन नहीं कर सकेंगे।' वसुदेवजीके इस प्रकार प्रकट होगा। तुम नन्दगोपकी पत्नी यशोदाके गर्भसे स्तुति और प्रार्थना करनेपर सनातन पुरुष भगवान् उत्पन्न होना। इससे इन्द्र आदि देवता तुम्हारी पद्मनाभने अपने चतुर्भुज रूपको तिरोहित कर लिया पूजा करेंगे।'
और मानवरूप धारण करके वे दो भुजाओसे ही शोभा 'बहुत अच्छा' कहकर महाभागा मायाने क्रमशः पाने लगे। उस भवनमें पहरा देनेवाले जो दानव रहते थे, हिरण्याक्षके पुत्रोंको ला-लाकर देवकीके गर्भमें स्थापित वे सब भगवान्की मायासे मोहित और तमोगुणसे किया। महाबली कंसने पैदा होते ही उन बालकोंको मार आच्छादित हो सो गये। इसी समय मौका पाकर डाला। फिर भगवत्प्रेरणावश सातवाँ गर्भ अनन्तके भगवान्के आज्ञानुसार वसुदेवजी भगवानको गोदमें ले अंशसे प्रकट हुआ। वह गर्भ जब बढ़कर कुछ पुष्ट तुरंत ही नगरसे बाहर निकल गये। उस समय सब हुआ तो मायादेवीने उसे रोहिणीके उदरमें स्थापित कर देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। मेघ पानी बरसाने लगे,
१-२-यहाँ महीनोंका नाम शुरूपक्षसे मासका आरम्भ मानकर दिया गया है। जहाँ कृष्णपक्षसे महीनोंका आरम्भ होता है, वहाँ भादोंका कृष्णपक्ष कुआरका कृष्णपक्ष होगा और सावनका कृष्णपक्ष भादोका कृष्णपक्ष होगा। अतः बलदेवजीकी जन्माष्टमी आश्विन कृष्णपक्षमें मनानी चाहिये और भगवान् श्रीकृष्णकी जन्माष्टमी भादोंके कृष्णपक्षमें।
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• अर्जयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
यह देख महाबली नागराज शेष भक्तिवश अपने हजारों उनकी बात सुनकर वे अविनाशी धरणीधर यहाँ कहीं फनोसे भगवानके ऊपर छाया करके पीछे-पीछे चलने मनुष्यरूपमें उत्पन्न हुए हैं। अतः आज इच्छानुसार रूप लगे। उनके चरणोका स्पर्श होते ही नगरद्वारके किवाड़ धारण करनेवाले तुम सभी राक्षस जाओ और जिन खुल गये। वहाँके रक्षक नींदमें बेसुध थे। तीन प्रवाहसे बालकोंमें कुछ बलकी अधिकता जान पड़े, उन्हें बहनेवाली भरी हुई यमुना भी महात्मा वसुदेवजीके बेखटके मार डालो।' ऐसी आज्ञा देकर कसने वसुदेव प्रवेश करनेपर घट गयो। उसमें घुटनेतक ही जल रह और देवकीको आश्वासन दे उन्हें बन्धनसे मुक्त कर दिया गया। यमुनाके पार हो वसुदेवजीने उसके तटपर ही और स्वयं अपने महलमें चला गया। तत्पश्चात् स्थित व्रजमें प्रवेश किया।
वसुदेवजी नन्दके उत्तम व्रजम गये। नन्दरायजीने उनका उधर नन्दगोपको पलीके गर्भसे गायोंके व्रजमें ही भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। वहाँ अपने पुत्रको एक कन्या उत्पन्न हुई। किन्तु यशोदा मायासे मोहित एवं देखकर वसुदेवजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने तमोगुणसे आच्छादित हो गाढ़ी नोंदमें सो गयी थी। नन्दरानी यशोदासे कहा- 'देवि ! रोहिणींके पेटसे पैदा वसुदेवजीने उनको शय्यापर भगवान्को सुला दिया और हुए मेरे इस पुत्र (बलराम) को भी तुम अपना ही पुत्र उनकी कन्याको लेकर वे मथुरामें चले आये। वहाँ मानकर इसकी रक्षा करना । यह कंसके डरसे यहाँ लाया पत्रीके हाथमें कन्याको देकर वे निश्चिन्त हो गये। गया है।' दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाली देवकीकी शय्यापर जाते ही वह कन्या बालभावसे रोने नन्दपत्रीने 'बहुत अच्छा' कहकर वसुदेवजीकी आज्ञा लगी। वालकको आवाज सुनकर पहरेदार जाग उठे। शिरोधार्य को और दोनों पुत्रोंको पाकर वे बड़ी प्रसन्नताके उन्होंने कंसको देवकीके प्रसव होनेका समाचार दे दिया। साथ उनका पालन करने लगी। इस प्रकार नन्दगोपके कस तुरंत ही आ पहुँचा और बालिकाको लेकर उसने घर अपने दोनों पुत्रोंको रखकर वसुदेवजी निश्चिन्त हो एक पस्थरपर पटक दिया। किन्तु वह कन्या उसके गये और तुरंत ही मथुरापुरीको चले गये। तदनन्तर हाथसे छूटनेपर तुरंत ही आकाशमें जा खड़ी हुई। वह वसुदेवजीकी प्रेरणासे किसी शुभ दिनको गर्गजी कंसके सिरमें लात मारकर ऊपर गयी और आठ नन्दगोषके व्रजमें गये । वहाँके निवासियोंने उनकी बड़ी भुजावाली देवीके रूपमें दर्शन दे उससे बोली-'ओ आवभगत की। फिर उन्होंने गोकुलमें वसुदेवके दोनों मूर्ख ! मुझे पत्थरपर पटकनेसे क्या हुआ ? जो तुम्हारा पुत्रोंके विधिपूर्वक जातकर्म और नामकरण-संस्कार वध करनेवाले हैं, उनका जन्म तो हो गया । जो सम्पूर्ण कराये। बड़े बालकके नाम उन्होंने सङ्कर्षण, रौहिणेय, जगत्की सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाले हैं, वे बलभद्र, महाबल और राम आदि रखे तथा छोटेके भगवान् इस संसारमें अवतार ले चुके हैं, वे ही तुम्हारे श्रीधर, श्रीकर, श्रीकृष्ण, अनन्त, जगत्पति, वासुदेव और प्राण लेंगे।
हषीकेश आदि नाम रखे। 'लोगोंमें ये दोनों बालक इतना कहकर देवीने सहसा अपने तेजसे सम्पूर्ण क्रमशः राम और कृष्णके नामसे विख्यात होंगे। आकाशको आलोकमय कर दिया और वह देवताओं ऐसा कहकर द्विजश्रेष्ठ गर्गने पितरों और देवताओका तथा गन्धर्वोके मुखसे अपनी स्तुति सुनती हुई पूजन किया और स्वयं भी ग्वालोंसे पूजित होकर मथुरामें हिमालयपर्वतपर चली गयी। देवीकी बात सुनकर लौट आये। कसका हृदय उद्विग्न हो उठा। उसने भयसे पीड़ित हो एक दिनकी बात है, बालकोकी हत्या करनेवाली प्रलम्ब आदि दानववीरोंको बुलाकर कहा-'वीरो! पूतना कंसके भेजनेसे रातमें नन्दके घर आयी। उसने हमलोगोंके भयसे समस्त देवताओने क्षीरसागरपर जाकर अपने स्तनों में विष लगा रखा था। अमित तेजस्वी विष्णुसे राक्षसोंके संहारके विषयमें बहुत कुछ कहा है। श्रीकृष्णके मुखमें वही स्तन देकर वह उन्हें दूध पिलाने
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उत्तरखण्ड
• श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसङ्ग •
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लगी। भगवान् श्रीकृष्णने उस राक्षसोको पहचान लिया इससे यशोदाको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने श्रीकृष्णकी और उसके स्तनोंको खूब दबाकर उसे प्राणोसहित पीना कमरमें रस्सी लपेटकर उन्हें ऊखलमें बाँध दिया और आरम्भ किया। अब तो वह मतवाली राक्षसी छटपटाने स्वयं गोरस बेचने चली गयीं। समस्त पृथ्वीको धारण लगी। उसके स्नायुबन्धन टूट गये। वह काँपती हुई गिरी करनेवाले श्रीकृष्ण ऊखलमें बँधे-ही-वैधे उसे खींचते और जोर-जोरसे चिग्घाड़ती हुई मर गयी। उसके हुए दो अर्जुन वृक्षोंके बीचसे निकले। गोविन्दने चीत्कारसे सारा आकाश-मण्डल गूंज उठा। उसे ऊखलके धक्केसे ही उन दोनों वृक्षोंको गिरा दिया। उनके पृथ्वीपर पड़ी देख समस्त गोप थर्रा उठे। श्रीकृष्णको तने टूट गये और वे बड़े जोरसे तड़तड़ शब्द करते हुए राक्षसीके विशाल वक्षःस्थलपर खेलते देख गोपगण पृथ्वीपर गिर पड़े। उनके गिरनेकी भारी आवाजसे उद्विग्न हो उठे और तुरंत ही दौड़कर उन्होंने बालकको बड़े-बूढ़े गोप वहाँ आ पहुंचे। यह घटना देखकर उन्हें गोदमें उठा लिया। उस समय नन्दगोपने पास आकर बड़ा आश्चर्य हुआ। यशोदाजी भी बहुत डर गयौं और पुत्रको अङ्कमें ले लिया और राक्षसके भयसे रक्षा श्रीकृष्णके बन्धन खोलकर आश्चर्यमग्न हो उन महात्माको करनेके लिये गायके गोबरसे और बालसे बालकके अपने स्तनोंका दूध पिलाने लगीं। माताने जगदीश्वर मस्तकको झाड़ा। फिर भगवान्के नाम लेकर श्रीकृष्णके श्रीकृष्णके उदरको दाम अर्थात् रस्सीसे बाँध दिया था; सब अङ्गोंका मार्जन किया। इसके बाद उस भयानक अतः सभी महापुरुषोंने उनका नाम दामोदर रख दिया। राक्षसीको गौओंके व्रजसे बाहर करके डरे हुए ग्वालोंकी वे दोनों यमलार्जुन वृक्ष भगवान्के पार्षद हो गये। सहायतासे उसका दाह किया।
तय नन्द आदि वृद्ध गोप वहाँ बड़े-बड़े उत्पात होते एक दिन भगवान् श्रीहरि किसी छकड़ेके नीचे सोये जानकर दूसरे स्थानको चले गये। विशाल वृन्दावनमें हुए थे और दोनों पैर फेंक-फेंककर रो रहे थे। उनके यमुनाके मनोहर तटपर उन्होंने स्थान बनाया। वह प्रदेश पैरका धक्का लगनेसे छकड़ा ही उलट गया। उसपर जो गौओं और गोपियोंके लिये बड़ा ही रमणीय था। वर्तन-भाँड़े रखे हुए थे, वे सब टूट-फूट गये। गोप और महाबली राम और श्रीकृष्ण वहीं रहकर बढ़ने लगे। गोपियाँ इतने बड़े छकड़ेको सहसा उलटकर गिरा देख अब वे बछड़ोंके चरवाहोको साथ लेकर सदा बछड़े बड़े विस्मयमें पड़ी और 'यह क्या हो गया? ऐसा चराने लगे। बछड़ोंके बीचमें श्रीकृष्णको देखकर बक कहती हुई शङ्कित हो उठी। उस समय विस्मित हुई नामक महान् असुर वहाँ आया और वगलेका रूप यशोदाने शीघ्र ही अपने बालकको गोदमें उठा लिया। धारण कर उन्हें मारनेका उद्योग करने लगा। उसे देखकर वे दोनों यदुवंशी बालक माताके स्तनपानसे पुष्ट होकर भगवान् वासुदेवने भी खिलवाड़में ही एक देला उठा थोड़े ही समयमें बड़े हो गये और घुटनों तथा हाथोंके लिया और उसके पंखोंमें दे मारा । ढेला लगते ही वह बलसे चलने लगे। उन दिनों एक मायावी राक्षस मुर्गेका महान् असुर प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तदनन्तर रूप धारण किये वहाँ पृथ्वीपर विचरता रहता था। वह कुछ दिनोंके बाद एक दिन बछड़े चरानेवाले राम और श्रीकृष्णको मारनेकी ताकमें लगा था। भगवान् श्रीकृष्ण वनमें किसी यज्ञवृक्षकी छायामें पल्लव श्रीकृष्णने उसे पहचान लिया और एक ही तमाचेमें बिछाकर सो गये। इसी बीचमें ब्रह्माजी देवताओंके साथ उसका काम तमाम कर दिया। मार पड़नेपर वह पृथ्वीपर भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये आये। किन्तु गिरा और मर गया। मरते समय उसने अपने उन्हें सोते देख बछड़ों और ग्वाल-बालोको चुराकर राक्षसस्वरूपको ही धारण किया था।
स्वर्गलोकमें चले गये। जागनेपर जब उन्होंने बछड़ों और तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण समूचे व्रजमें विचरने ग्वाल-बालोंको नहीं देखा तो 'वे कहाँ चले गये?' लगे। वे गोपियोंके यहाँसे माखन चुरा लिया करते थे। इसका विचार किया; फिर यह जानकर कि यह सारी
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
करतूत ब्रह्माजीकी ही है, उन सनातन प्रभुने वैसे ही बालक और बछड़े बना लिये वही रंग और वही रूप, कुछ भी अन्तर नहीं था। शामको जब वे लौटकर व्रजमें गये तो गौओं और माताओंने अपने-अपने बछड़ों और बालकों को पाकर उनके साथ पूर्ववत् बर्ताव किया। इस प्रकार एक वर्षका समय व्यतीत हो गया। तब प्रजापतिने उन बछड़ों और बालकोंको पुनः ले जाकर भगवान्को समर्पित किया और हाथ जोड़ विनीतभावसे प्रणाम करके भयभीत होकर कहा- -'नाथ! मैंने इन बछड़ोंका अपहरण करके आपका महान् अपराध किया है। शरणागतवत्सल ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ। मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये। यो कहकर पुनः श्रीहरिके चरणोंमें बारंबार प्रणाम किया और बछड़ोंको उन्हें सौंपकर पुनः अपने लोकमें चले गये। महातपस्वी ब्रह्माजी भगवान्के उस बालरूपको हृदयमें धारण करके देवताओंको साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ पधारे।
इसके बाद श्रीकृष्ण बछड़ोंके साथ नन्दके गोकुलमें चले गये। इसके कुछ दिनोंके पश्चात् यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ग्वालोंको साथ लेकर यमुनाके कुण्डमें गये। वहाँ बड़ा विषैला और बलवान् नागराज कालिय रहता था। उसके हजार फन थे; किन्तु भगवान् ने अपने एक ही पैरसे उसके हजारों फर्नोको कुचल डाला और जब वह प्राणसङ्कटमें पड़ गया तो होशमें आनेपर उसने भगवान्की शरण ली। उसका सारा विष तो निकल ही गया था, शरणमें आनेपर भगवान्ने उसकी रक्षा की। वह गरुड़के भयसे इस कुण्डमें आकर रहता था; इसलिये भगवान्ने उसके मस्तकपर अपने चरणचिह्न स्थापित करके उसको कालिन्दीके कुण्डसे निकाल दिया। उसने अपने स्त्री-पुत्रोंके साथ तुरंत ही उस कुण्डको छोड़ दिया और भगवान् गोविन्दको नमस्कार करके अन्यत्रकी राह ली। उसके किनारेके जो वृक्ष कालियके विषसे दग्ध हो गये थे, वे श्रीकृष्णको कृपादृष्टि पड़ते ही फलने-फूलने लगे ।
तत्पश्चात् समयानुसार भगवान्ने कुमारावस्थामें पदार्पण किया। अब वे सर्वदेवमय प्रभु गौओंकी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
चरवाही करने लगे। वे अपने समान अवस्थावाले ग्वालोंको साथ ले मनोहर वृन्दावनमें बलरामजी के साथ विचरा करते थे। वहाँ एक अत्यन्त भयानक असुर था, जो अजगर साँपके रूपमें रहा करता था। वह विशालकाय दैत्य मेरुपर्वतके समान भारी था; परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने उसको भी मौतके नाट उतार दिया। इसके बाद वे धेनुकासुरके वनमें गये, जो ताड़के वृक्षोंसे बहुत सघन प्रतीत होता था। उसके भीतर धेनुक नामक एक पर्वताकार दानव रहता था। जिसको परास्त करना बहुत ही कठिन था। वह सदा गदहेके रूपमें रहा करता था। भगवान्ने उसके दोनों पैर पकड़कर ऊपर फेंक दिया और एक ताड़के वृक्षसे उसको मार डाला। फिर तो वनमें वे ग्वाले खेलते फिरे। उस वनसे निकलनेपर वे तुरंत ही भाण्डीर वटके पास आ गये और बलराम तथा श्रीकृष्णके साथ बालोचित खेल खेलने लगे। उस समय प्रलम्ब नामक राक्षस गोपका रूप धारण करके वहाँ आया और बलरामजीको अपनी पीठपर चढ़ा आकाशकी ओर उड़ चला। तब बलरामजीने उसे राक्षस समझकर बड़े रोषके साथ मुक्केसे मस्तकपर मारा; उस प्रहारसे राक्षसका शरीर तिलमिला उठा और वह अपने वास्तविक रूपमें आकर बड़े भयंकर स्वरमें चीत्कार करने लगा। उसका मस्तक और शरीर फट गया और वह खूनसे लथपथ हो पृथ्वीपर गिरकर मर गया। इसके बाद एक दिन सन्ध्याकालमें अरिष्ट नामक दैत्य बैलका आकार धारण किये व्रजमें आया और श्रीकृष्णको मारनेके लिये बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। उसे देख समस्त गोप भयसे पीडित हो इधर-उधर भाग गये। श्रीकृष्णने उस भयंकर दैत्यको आया देख एक ताड़का वृक्ष उखाड़ लिया और उसके दोनों सींगोंके बीच दे मारा। उसके सींग टूट गये और मस्तक फट गया। वह रक्त वमन करता हुआ बड़े वेगसे गिरा और जोर-जोर से चीत्कार करके मर गया। इस तरह उस महाकाय दैत्यको मारकर भगवान्ने ग्वालबालोंको बुलाया और फिर सब लोग वहीं निवास करने लगे।
तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद केशी नामक महान्
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उत्तरखण्ड ]
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• भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक.
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असुर घोड़ेका रूप धारण किये व्रजमें आया। वह भी श्रीकृष्णको मारनेके ही उद्देश्यसे चला था। गौओके रमणीय व्रजमें पहुँचकर वह जोर-जोरसे हिनहिनाने लगा। उसकी आवाज तीनों लोकोंमें गूँज उठी। देवता भयभीत हो गये। उन्हें प्रलयकालका-सा सन्देह होने लगा । व्रजके रहनेवाले समस्त गोप अचेत हो गये। गोपियाँ भी व्याकुल हो उठीं। फिर होशमें आनेपर सब लोग चारों ओर भाग चले। गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गयीं और 'बचाओ, बचाओ' की रट लगाने लगीं । भक्तवत्सल भगवान्ने आश्वासन देते हुए कहा - 'डरो मत, डरो मत। फिर उन्होंने तुरंत ही उस दैत्यके मस्तकपर एक मुक्का जड़ दिया। मार पड़ते ही दैत्यके सारे दाँत गिर गये और आँखें बाहर निकल आयीं। वह बड़े जोर-जोरसे चिल्लाने लगा। केशी सहसा पृथ्वीपर गिरा और उसके प्राणपखेरू उड़ गये। केशीको मारा गया देख आकाशमें खड़े हुए देवता साधु-साधु कहने और फूलोंकी वर्षा करने लगे। इस प्रकार शैशवकालमें श्रीहरिने बड़े-बड़े बलाभिमानी दैत्योंका वध किया। वे बलरामजीके साथ व्रजमें सदा प्रसन्न रहा करते थे। उन दिनों वृन्दावनकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। फलों और फूलोंके कारण उसकी बड़ी शोभा होती थी। भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ मुरलीकी मधुर तान छेड़ते हुए निवास करते थे। एक समय शरत्काल आनेपर नन्द आदि गोपने इन्द्रकी पूजाका महान् उत्सव आरम्भ किया; किन्तु भगवान् गोविन्दने -★
महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! तदनन्तर एक दिन मुनिश्रेष्ठ नारदजी मथुरामें कंसके पास गये। राजा कंसने उनका यथावत् सत्कार किया और उन्हें सुन्दर आसनपर बिठाया। नारदजीने कंससे भगवान् विष्णुकी सारी चेष्टाएँ कहीं। देवताओंका उद्योग करना, भगवान् केशवका अवतार लेना, वसुदेवका अपने पुत्रको व्रजमें रख आना, राक्षसोंका मारा जाना, नागराज कालियका
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इन्द्रयज्ञके उत्सवको बंद करके गिरिराज गोवर्धनके पूजनका उत्सव कराया। इससे इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने नन्द गोपके व्रजमें लगातार सात रातोंतक बड़ी भारी वर्षा की। तब भगवान् जनार्दनने गिरिराज गोवर्धनको उखाड़ लिया और गोप, गोपियों तथा गौओंकी रक्षाके लिये उसे अनायास ही उनकी भाँति धारण कर लिया। पर्वतकी छायाके नीचे आकर गोप और गोपियाँ बड़े सुखसे रहने लगीं, मानो वे किसी महलके भीतर बैठी हों। यह देख सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रको बड़ा भय हुआ। उन्होंने बड़ी घबराहटके साथ उस वर्षाको बंद कराया और स्वयं वे नन्दके व्रजमें गये । वर्षा बंद होनेपर भगवान् श्रीकृष्णने उस महापर्वतको पहलेकी भाँति यथास्थान रख दिया। नन्द आदि बड़े-बूढ़े गोप गोविन्दकी सराहना करते हुए बहुत विस्मित हुए। इतनेमें ही इन्द्रने आकर भगवान् मधुसूदनको प्रणाम किया और हाथ जोड़ हर्षगद्गद वाणीमें उनको स्तुति की। स्तुतिके पश्चात् सब देवताओंके स्वामी इन्द्रने अमृतमय जलसे भगवान् गोविन्दका अभिषेक किया और दिव्य वस्त्र तथा दिव्य आभूषणोंसे उनकी पूजा की। इसके बाद वे स्वर्गलोकमें गये। उस समय बड़े-बूढ़े गोपों और गोपियोंने भी इन्द्रका दर्शन किया तथा इन्द्रसे सम्मानित होनेपर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार महापराक्रमी बलराम और श्रीकृष्ण नन्दके रमणीय व्रजमें रहकर गौओं और बछड़ोंका पालन करने लगे।
भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
यमुनाके कुण्डसे बाहर निकाला जाना, गोवर्धन धारण करना और इन्द्रका भगवान् से मिलना आदि सभी मुख्य-मुख्य घटनाओंको उन्होंने कंससे निवेदन किया। यह सब सुनकर राक्षस कंसने नारदजीका बड़ा आदर किया। उसके बाद वे ब्रह्मलोकमें चल गये। इधर कंसके मनमें बड़ा उद्वेग हुआ। वह मन्त्रियोंके साथ बैठकर मृत्युसे बचनेके विषयमें परामर्श करने लगा ।
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• अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त परापुराण
उसके मन्त्रियोंमे अक्रूर सबसे अधिक बुद्धिमान् और गौरवर्णवाले नीलाम्बरधारी बलरामजीपर पड़ी, जो धर्मानुरागी थे। महाबली दानवराज कसने अक्रूरको मोतियोंकी मालासे विभूषित होकर शरत्कालके पूर्ण आज्ञा दी।
चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे। अक्रूरजीने उनको भी कंस बोला-यदुश्रेष्ठ ! इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता प्रणाम किया। दोनों वीर बलराम और श्रीकृष्णने भी बड़े मेरे भयसे पीड़ित हो श्रीविष्णुको शरणमें गये थे। हर्षके साथ उठकर यदुश्रेष्ठ अक्रूरका पूजन किया और भूतभावन भगवान् मधुसूदन उन देवताओंको अभयदान उनको साथ लेकर वे दोनों भाई घरपर आये। यदुश्रेष्ठ दे मुझे मारनेके लिये देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए हैं। अक्रूरको आया देख महातेजस्वी नन्दगोपने निकट जाकर वसुदेव भी ऐसा दुष्टात्मा है कि मुझे धोखा देकर रातमें उन्हें श्रेष्ठ आसनपर बिठाया और बड़ी प्रसन्नताके साथ वह अपने पुत्रको दुरात्मा नन्दके घरमें रख आया। वह विधिपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, वस्त्र तथा दिव्य आभूषण आदि बालक बचपनसे ही ऐसा दुर्धर्ष है कि बड़े-बड़े असुर निवेदन करके भक्तिभावसे उनका पूजन किया। अक्कूरजीने उसके हाथसे मारे गये। यदि ऐसी ही उसकी प्रगति रही भी बलराम, श्रीकृष्ण, नन्दजी तथा यशोदाको वस्त्र और तो एक दिन वह मुझे भी मारनेके लिये तैयार हो आभूषण भेट किये। फिर कुशल पूछकर शान्तभावसे वे जायगा। इसमें सन्देह नहीं कि व्रजमें उसे इन्द्र आदि कुशके आसनपर विराजमान हुए। तत्पश्चात् राजकार्यके देवता तथा समस्त असुर भी नहीं मार सकते; अतः मुझे विषयमें प्रश्न होनेपर बुद्धिमान् अक्रूरने इस प्रकार कहना उसको यहाँ बुलवाकर किसी विशेष उपायसे ही मारना आरम्भ किया। चाहिये। मतवाले हाथी, बड़े-बड़े पहलवान तथा श्रेष्ठ, अक्रूर बोले-नन्दरायजी ! ये महातेजस्वी घोड़े आदिसे उसका वध कराना चाहिये। जिस-किसी श्रीकृष्ण साक्षात् अविनाशी भगवान् नारायण हैं। उपायसे सम्भव हो, उसे यहीं बुलाकर मारा जा सकता देवताओंका हित, साधु पुरुषोंको रक्षा, पृथ्वीके भारका है, अन्यत्र नहीं। इसलिये तुम गौओंके व्रजमें नाश, धर्मकी स्थापना तथा कंस आदि सम्पूर्ण दैत्योंका जाकर बलराम, श्रीकृष्ण तथा नन्द आदि सम्पूर्ण नाश करनेके लिये इनका अवतार हुआ है। उक्त कार्योंके ग्वालोको धनुष-यज्ञका मेला देखनेके बहाने यहाँ लिये समस्त देवताओं तथा महात्मा मुनियोंने इनसे बुला ले आओ।'
प्रार्थना की थी। उसीके अनुसार ये वर्षाकालमें आधी 'बहुत अच्छा' कहकर परम पराक्रमी यदुश्रेष्ठ रातके समय देवकीके गर्भसे प्रकट हुए। उस समय अक्रूर रथपर आरूढ़ हुए और भगवान् श्रीकृष्णके वसुदेवजीने कंसके भयसे रातमें ही अपने पुत्र भगवान् दर्शनके लिये उत्सुक होकर गौओंके रमणीय व्रजमें श्रीहरिको तुम्हारे घरमें पहुँचा दिया। उसी समय गये। अक्रूरजी महान् भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने यशस्विनी यशोदाको भी मायाके अंशसे एक सुन्दरी अत्यन्त विनीत भावसे गौओंके बीचमें खड़े हुए भगवान् कन्या उत्पन्न हुई थी। उसीने सम्पूर्ण व्रजको नोंदमे बेसुध श्रीकृष्णका दर्शन किया। गोप-कन्याओंसे घिरे हुए कर दिया था। यशोदाजी भी मूर्छितावस्थामें पड़ी थीं। श्रीहरिको देखकर अक्रूरजीका सारा शरीर रोमाशित हो वसुदेवजीने श्रीकृष्णको तो यशोदाको शव्यापर सुला उठा। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये। उन्होंने दिया और स्वयं उस कन्याको लेकर वे मथुराकी ओर रथसे उतरकर श्रीकृष्णको प्रणाम किया। वे बड़े हर्षके चल दिये। कन्याको देवकीकी शय्यापर रखकर ये साथ भगवान् गोपालके समीप गये और वज्र तथा चक्र प्रसवघरसे याहर निकल गये। देवकीकी शय्यापर सोयी आदि चिह्नोंसे सुशोभित लाल कमलसदृश उनके मनोहर हुई कन्या शीघ्र ही रोने लगी। उसका जन्म सुनकर चरणोंमें मस्तक रखकर उन्होंने बारंबार नमस्कार किया। दानव कंस सहसा आ पहुँचा और उसने कन्याको लेकर तत्पश्चात् उनकी दृष्टि कैलासशिखरके समान घुमाते हुए पत्थरपर पटक दिया। परन्तु वह कन्या
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उत्तरखण्ड ]
• भगवान् श्रीकृष्णको मथुरा-यात्रा, कंसवम और उग्रसेनका राज्याभिषेक .
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आकाशमे उड़ गयी और आठ भुजाओंसे युक्त हो पृथ्वीको रक्षा करूंगा। अतः आपलोग शोक छोड़कर गम्भीर वाणीमें कंससे रोषपूर्वक बोली-'ओ नीच मथुरापुरीको चलिये। श्रीहरिके ऐसा कहनेपर नन्द आदि दानव ! जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो सम्पूर्ण गोपोंने बारंबार छातीसे लगाकर उनका मस्तक संघा। देवताओंके ईश्वर और पुरुषोत्तम हैं, वे तुम्हारा वध उन महात्माके अलौकिक कर्मोंपर विचार करके तथा करनेके लिये व्रजमें जन्म ले चुके हैं।' यो कहकर अक्रूरजीकी बातोंको सुनकर उन सबकी चिन्ता दूर हो महामाया हिमालय पर्वतपर चली गयी। तभीसे वह गयी। तत्पश्चात् यशोदाने अक्रूरको दही, दूध, घी दुष्टात्मा भयसे उद्विग्न हो गया और महात्मा श्रीकृष्णको आदिसे युक्त भांति-भांतिके पवित्र, स्वादिष्ट, मधुर और मारनेके लिये एक-एक करके दानवोंको भेजने लगा। रुचिकर पकान परोसकर भोजन कराया। उनके साथ बालक होनेपर भी बुद्धिमान् श्रीकृष्णने खेल-खेलमें ही बलराम, श्रीकृष्ण, नन्द आदि श्रेष्ठ गोप, अनेकों सुहद, सब दानवोंको मौतके घाट उतार दिया है। इन परमेश्वरने बालक और वृद्ध भी थे। यशोदाजीके दिये हुए अनेक अद्भुत कर्म किये हैं। गोवर्धन-धारण, नागराज रुचिवर्धक उत्तम अत्रको यादवश्रेष्ठ अक्रूरजीने बड़े कालियका निर्वासन, इन्द्रसे समागम और सम्पूर्ण प्रेमसे खाया। भोजन करानेके पश्चात् नन्दरानीने जल राक्षसोंका संहार आदि सारे कर्म श्रीकृष्णके ही किये हुए देकर आचमन कराया और अन्तमें कपूरसहित पानका हैं; यह बात नारदजीके मुंहसे सुनकर कंस अत्यन्त बौड़ा दिया। फिर सूर्यास्त होनेपर अक्रूरजीने भयसे व्याकुल हो उठा है। महाबाहु बलराम और सन्ध्योपासना की। उसके बाद बलराम और श्रीकृष्णके श्रीकृष्ण बड़े दुर्धर्ष वीर हैं; इसलिये इन दोनोंको वहीं साथ खीर खाकर वे उन्हींके साथ शयन करनेके लिये बुलाकर वह बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंसे कुचलवा गये। दीपकके प्रकाशसे सुशोभित श्रेष्ठ एवं रमणीय डालना चाहता है अथवा पहलवानोंको भिड़ाकर इन्हें भवनमें विचित्र पलंग बिछा था। स्वच्छ सुन्दर मार डालनेको उद्यत है। श्रीकृष्णको बुला लानेके लिये बिछावनपर भांति-भांतिके फूल उसकी शोभा बढ़ा रहे ही उसने मुझे यहाँ भेजा है। यही सब उस दुष्ट दानवको थे। उस पलंगपर भगवान् श्रीकृष्ण सोते थे, मानो चेष्टा है, जिसे मैंने बता दिया। अब आप समस्त शेषनागकी शय्यापर श्रीनारायण शयन करते हो। व्रजवासी दही-घी आदि लेकर कल सबेरे धनुषयज्ञका भगवान्को शयन करते देख सहसा अक्रूरके नेत्रोंमें उत्सव देखनेके लिये मथुरामें चले। बलराम-श्रीकृष्ण आनन्दके आँसू छलक पड़े। उनका सारा शरीर पुलकित और समस्त गोपोंको राजाके पास चलना है। वहाँ निश्चय हो उठा। उन्होंने तमोगुणी निद्राको त्याग दिया। वे ही कंस श्रीकृष्णके हाथसे मारा जायगा; अतः आपलोग भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ तो थे ही, अपने परम कल्याणका राजाको आज्ञासे निर्भय होकर वहाँ चलिये। विचार करके भगवान्के चरण दबाने लगे। उस समय _ इतना कहकर बुद्धिमान् अक्रूर चुप हो गये। उनकी वे मन-ही-मन सोच रहे थे-'इसीमें मेरे जीवनकी बातें बड़ी ही भयङ्कर और रोंगटे खड़े कर देनेवाली थीं। सफलता है। यही जीवन वास्तवमें उत्तम जीवन है। यही उन्हें सुनकर नन्द आदि समस्त बड़े-बूढ़े गोप भयसे धर्म तथा यही सर्वश्रेष्ठ मोक्षसुख है। शिव और ब्रह्मा व्याकुल हो दुःखके महान् समुद्र में डूब गये। उस समय आदि देवता, सनकादि मुनीश्वर तथा वसिष्ठ आदि महर्षि कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने उन सबको आश्वासन जिनका दर्शन करना तो दूर रहा, मनसे स्मरण भी नहीं देकर कहा-'आपलोग भय न करें। मैं दुरात्मा कसका कर पाते, वे ही भगवान् लक्ष्मीपतिके दोनों चरण इस विनाश करनेके लिये भैया बलरामजी तथा आपलोगोंके समय मुझे प्राप्त हुए हैं। अहो ! मेरा कितना सौभाग्य साथ मथुरा चलूँगा। वहाँ दानवराज दुरात्मा कंसको और है? ये दोनों चरण शरत्कालके खिले हुए कमलकी उसके साथ रहनेवाले समस्त राक्षसोंको मारकर इस भाँति सुन्दर हैं। भगवती लक्ष्मी अपने कोमल एवं संपन्युः ३३
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. अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[संक्षिप्त पयपुराण
चिकने हाथोंसे इनकी सेवा करती हैं। ये चरण परम मन्त्रका जप आरम्भ किया। उस समय उन्हें श्रीवलराम उत्तम सुखस्वरूप हैं। इस प्रकार भगवान्की सेवा में लगे तथा श्रीकृष्ण दोनों ही जलके भीतर दिखायी दिये। उन्हें हुए अक्रूरजीकी वह रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। देखकर अक्रूरजौको बड़ा विस्मय हुआ। तब उन्होंने उस समय वे ब्रह्मानन्दका अनुभव कर रहे थे। तदनन्तर उठकर रथकी ओर देखा; किन्तु वहाँ भी वे दोनों निर्मल प्रभात होनेपर देवगण आकाशमें खड़े हो महाबली वीर बैठे दृष्टिगोचर हुए। तब पुनः जलमें भगवानकी स्तुति करने लगे। तब भगवान् शयनसे उठे। डुबकी लगाकर वे युगल-मन्त्रका जप करने लगे। उस उठकर विधिपूर्वक आचमन किया। फिर परम बुद्धिमान् समय उन्हें क्षीरसागरमें शेषनागको शय्यापर बैठे हुए बलरामजीके साथ जाकर माताके चरणोंमें नमस्कार लक्ष्मीसहित श्रीहरिका दर्शन हुआ। सनकादि मुनि किया और मथुरा जानेको इच्छा प्रकट की। यशोदाजी उनकी स्तुति कर रहे थे और सम्पूर्ण देवता सेवामें खड़े दुःख और हर्षमें डूबी हुई थीं। उन्होंने दोनों पुत्रोंको थे। इस प्रकार सर्वव्यापी ईश्वरको देखकर यदुश्रेष्ठ उठाकर बड़े प्रेमके साथ छातीसे लगा लिया। उस समय अक्रूरने उनका स्तवन किया। स्तुति करनेके पश्चात् उनके आँसुओंको धारा बह रही थी। उन्होंने दोनों सुगन्धित कमल-पुष्पोंसे भगवान्का पूजन किया और महावीर पुत्रोको आशीर्वाद दिया और बार-बार हृदयसे अपनेको कृतकृत्य मानते हुए वे यमुनाजलसे बलराम लगाकर विदा किया। अक्रूरने भी हाथ जोड़कर' और श्रीकृष्णके समीप आये। वहाँ आकर अक्रूरजीने यशोदाजीके चरणोंमे प्रणाम किया और कहा- उन दोनों भाइयोंको भी प्रणाम किया। भगवान् श्रीकृष्णने 'महाभागे ! अब मैं जाऊँगा। मुझपर कृपा करो। ये उन्हें आश्चर्यमग्न और विनीतभावसे खड़ा देख-पूछामहाबाहु श्रीकृष्ण महाबली कंसको मारकर सम्पूर्ण 'कहिये अक्रूरजी ! आपने जलमें कौन-सी आश्चर्यकी जगत्के राजा होंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। बात देखी है?' यह सुनकर अक्रूरजीने महातेजस्वी अतः देवि ! तुम शोक छोड़कर सुखी होओ। श्रीकृष्णसे कहा-'प्रभो! आप सर्वत्र व्यापक हैं!
ऐसा कहकर अक्रूरजी नन्दरानीसे विदा ले बलराम आपकी महिमासे क्या आचर्यकी बात हो सकती है। और श्रीकृष्णके साथ उत्तम रथपर आरूढ़ हुए और तीव्र हषीकेश ! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीका तो स्वरूप है।' गतिसे मथुराकी ओर चले। उनके पीछे नन्द आदि इस प्रकार स्तुति करके जगदीश्वर गोविन्दको प्रणाम कर बड़े-बूढ़े गोप भांति-भाँतिके फल तथा बहुत-से दही-घी अक्रूरजी उन दोनों भाइयोंके साथ पुनः दिव्य रथपर आदि लेकर गये। श्रीहरिको रथपर बैठकर ब्रजसे जाते आरूढ़ हो तुरंत ही देवनिर्मित मथुरापुरीमें जा पहुंचे। देख समस्त गोपाङ्गनाएँ भी उनके पीछे-पीछे चलीं। वहाँ नगरद्वारपर बलराम और श्रीकृष्णको बिठाकर वे उनका हृदय शोकसे सन्तप्त हो रहा था। वे 'हा कृष्ण ! अन्तःपुरमें गये और राजा कंससे उनके आगमनका हा कृष्ण ! हा गोविन्द !' कहकर बारंबार रोती और समाचार सुनाकर उसके द्वारा सम्मानित हो पुनः अपने विलाप करती थीं। श्रीहरिने उन सबको समझा-बुझाकर घरको चले गये। लौटाया। उनके नेत्रोंमें आँसू भरे हुए थे। वे दीन भावसे । तदनन्तर सन्ध्याके समय महाबली बलराम और रोती हुए खड़ी रहीं। इसके बाद अक्रूरजीने अपने दिव्य श्रीकृष्ण एक-दूसरेका हाथ पकड़े मथुरापुरीके भीतर रथको अजसे मथुराकी ओर बढ़ाया। शीघ्र ही यमुनाके गये। वे दोनों राजमार्गसे जा रहे थे। इतनेहीमे उनकी पार होकर उन्होंने रथको किनारे खड़ा कर दिया और दृष्टि कपड़ा रंगनेवाले एक रैंगरेजपर पड़ी, जो दिव्य वस्त्र स्वयं उससे उतरकर वे स्नान तथा अन्य आवश्यक कृत्य लिये राजभवनकी ओर जा रहा था। बलरामसहित परम करनेकी तैयारी करने लगे। भक्तप्रवर अक्रूरने यमुनाके पराक्रमी श्रीकृष्णने उन वस्त्रोको अपने लिये माँगा; किन्तु उत्तम जलमें जाकर डुबकी लगायी और अघमर्षण रंगरेजने वे वस्त्र उन्हें नहीं दिये। इतना ही नहीं, उसने
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उत्तरखण्ड ]
• भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उप्रसेनका राज्याभिषेक .
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सड़कपर खड़े होकर उन्हें बहुत-से कटुवचन भी कर दिया और सब ओर बड़े-बड़े बलोन्मत्त पहलवान सुनाये। तब महाबली श्रीकृष्णने रैंगरेजके मुँहपर एक बिठा दिये। यह सब कुछ जानते हुए भी भगवान् तमाचा जड़ दिया। फिर तो वह मुँहसे रक्त वमन करता श्रीकृष्ण परम बुद्धिमान् बलरामजी तथा अपने अनुयायी हुआ मार्गमें ही मर गया। बलराम और श्रीकृष्णने अपने बाल-बालोंके साथ रातभर उस यज्ञशालामें ही ठहरे बन्धु-बान्धव ग्वाल-बालोंके साथ उन सुन्दर वस्त्रोंको रहे। रात बीतनेपर जब निर्मल प्रभात आया तो बलराम यथायोग्य धारण किया। फिर वे मालीके घरपर गये। और श्रीकृष्ण दोनों वीर शय्यासे उठकर स्नान आदिसे उसने उन्हें देखते ही नमस्कार किया और दिव्य सुगन्धित निवृत्त हुए। फिर भोजन करके वस्त्र और आभूषणोंसे पुष्पोंसे प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजा की। तब उन दोनों विभूषित हो युद्धके लिये उत्सुक होकर वे उस यादव-वीरोंने मालीको मनोवाञ्छित वरदान दिया। अब यज्ञशालासे चले; मानो दो सिंह किसी बड़ी गुफासे बाहर वे गलीकी राहसे घूमने लगे। सामनेसे एक सुन्दर निकले हो। राजमहलके दरवाजेपर कुवलयापीड़ हाथी मुखवाली युवती आती दिखायी दी, जो हाथमें चन्दनका खड़ा था, जो हिमालय पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता पात्र लिये हुए थी। वह स्त्री कुब्जा थी। उन दोनों था। वही कंसकी विजयाभिलाषाको बढ़ानेवाला था। भाइयोंने उससे चन्दन माँगा । कुब्जाने मुसकराते हुए उन्हें उसने ऐरावतके भी दाँत खट्टे कर दिये थे। उस महाकाय उत्तम चन्दन प्रदान किया। चन्दन लेकर उन्होंने और मतवाले गजराजको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण इच्छानुसार अपने शरीरमें लगाया और कुब्जाको परम सिंहकी भाँति उछल पड़े और अपने हाथसे उसकी सूंड मनोहर रूप देकर वे आगेके मार्गपर बढ़ गये। नगरकी पकड़कर वे लीलापूर्वक उसे घुमाने लगे। घुमातेस्त्रियाँ सुन्दर मुखवाले उन दोनों सुन्दर कुमारोंको घुमाते ही भगवान् धरणीधरने उसे धरतीपर पटक दिया। प्रेमपूर्वक निहारती थीं। इस प्रकार वे अपने हाथीका सारा अङ्ग चूर-चूर हो गया और वह डरावनी अनुयायियोसहित यज्ञशाला में पहुँचे। वहाँ दिव्य धनुष आवाजमें चिग्घाड़ता हुआ मर गया । इस प्रकार हाधीको रखा था। उसकी पूजा की गयी थी। भगवान् मधुसूदनने मारकर बलराम और श्रीकृष्णने उसके दोनों दाँत उखाड़ देखते ही उस धनुषको उठा लिया और खेल-खेल में ही लिये और पहलवानोंसे युद्ध करनेके लिये वे रंगभूमिमें उसे तोड़ डाला। धनुष टूटनेको आवाज सुनकर कंस पहुँचे। वहाँ जितने दानव थे, वे सब गोविन्दका पराक्रम अत्यन्त व्याकुल हो उठा और उसने चाणूर आदि देख भयभीत हो भाग खड़े हुए। तब कसके भवनमे मुख्य-मुख्य मल्लोंको बुलाकर मन्त्रियोंकी सलाह ले प्रवेश करके वे महाबली वीर युद्धके लिये उत्कण्ठित हो चाणूरसे कहा-'देखो, सब दैत्योंका विनाश करनेवाले हाथोके दाँत घुमाने लगे। वहाँ उन महात्माओंने कंसके बलराम और श्रीकृष्ण आ पहुंचे हैं। कल सबेरे दो मल्ल चाणूर और मुष्टिकको उपस्थित देखा । कंस भी मल्लयुद्ध करके इन दोनोंको बेखटके मार डालो। इन महाबली बलराम और गोविन्दको देखकर भयभीत हो दोनोको अपने बलपर बड़ा घमण्ड है। मतवाले उठा तथा अपने प्रधान मल्ल चाणूरसे बोला-'वीर ! हाथियोंको भिड़ाकर अथवा बड़े-बड़े पहलवानोंको इस समय तुम इन ग्वाल-बालोंको अवश्य मार डालो। लगाकर जिस किसी उपायसे भी हो सके इन दोनोंको मैं तुम्हें अपना आधा राज्य बाँटकर दे दूंगा। यत्नपूर्वक मार डालना चाहिये।
। उस समय उन दोनों मल्लोको भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार आदेश देकर राजा कस भाई और अभेद्य कवचसे युक्त और दूसरे मेरुपर्वतके समान मन्नियोंके साथ शीघ्र ही सुन्दर राजभवनकी छतपर चढ़ विशालकाय दिखायी दिये । कंसकी दृष्टि में प्रलयकालीन गया। नीचे रहनेमें उसे भय लग रहा था। सम्पूर्ण अग्नि-से जान पड़े। स्त्रियोंको साक्षात् कामदेव प्रतीत दरवाजों और मार्गोपर उसने मतवाले हाथियोको नियुक्त हुए। माता-पिताने उन्हें नन्हें शिशुके रूपमें ही देखा।
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• अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
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[संक्षिप्त पयपुराण
देवताओकी दृष्टि में वे साक्षात् श्रीहरि थे और ग्वाल-बाल कंसके ऊँचे महलपर चढ़ गये। फिर भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें अपना प्यारा सखा ही समझते थे। इस प्रकार उन कंसके मस्तकमें थप्पड़ मारकर उसे छतसे नीचे गिरा सर्वव्यापक भगवान् विष्णुको वहाँक लोगोंने अपने- दिया। पृथ्वीपर गिरते ही उसका सारा अङ्ग छिन्न-भिन्न अपने भावोंके अनुसार अनेक रूपोंमें देखा। वसुदेव, हो गया और वह प्राणोंसे हाथ धो बैठा। फिर श्रेष्ठ अक्रूर और परम बुद्धिमान् नन्द दूसरे कोठेपर चढ़कर ब्राह्मणोंके द्वारा कंसका औज़दैहिक संस्कार कराया। वहाँका महान् युद्ध देख रहे थे। देवकी अन्तःपुरकी श्रीकृष्णके द्वारा कंसके मारे जानेपर महाबली त्रियोंके साथ बैठकर बेटेका मुँह निहार रही थीं। उस बलरामजीने भी कंसके छोटे भाई सुनामाको मुक्केसे ही समय उनके नेत्रोमे आँसू भर आये थे।
मार डाला और उसे उठाकर धरतीपर फेंक दिया। स्त्रियोंने उन्हें बहुत समझाया और आश्वासन दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलरामजी भाईसहित तब वे किसी दूसरे भवनमें चली गयौं । तदनन्तर विमान- दुरात्मा कंसको मारकर अपने माता-पिताके समीप आये पर बैठे हुए देवता आकाशमें जय-जयकार करते हुए और बड़ी भक्तिके साथ उन्होंने उनके चरणोंमें प्रणाम कमलनयन भगवान् अच्युतकी स्तुति करने लगे। वे जोर- किया। देवकी और वसुदेवने बड़े प्रेमसे उन दोनोंको जोरसे कहते थे—'भगवन् ! कंसका वध कीजिये।' बारबार छातीसे लगाया और पुत्र-नेहसे द्रवित हो उनका
. इसी समय रंगभूमिमें तुरही आदि बाजे बज उठे। मस्तक सूंघा । देवकीके दोनों स्तनोंसे उनके ऊपर दूधको कंसके दोनों महामल्लों और महाबली श्रीकृष्ण एवं वृष्टि होने लगी। तत्पश्चात् बलराम और श्रीकृष्ण माताबलराममे भिड़त हो गयी। चाणूरके साथ भगवान् पिताको आश्वासन दे बाहर आये। इसी समय आकाशमे श्रीकृष्ण और मुष्टिकके साथ बलरामजी भिड़ गये। देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। देवेश्वरगण फूलोंकी नीलगिरि तथा श्वेतगिरिके समान कात्तिवाले दोनों वर्षा करने लगे। तथा मरुद्रणोंके साथ श्रीजनार्दनको महात्मा मल्लयुद्धकी रीति-नीतिके अनुसार लड़ने लगे। नमस्कार और उनकी स्तुति करके हर्षमान हो अपने-अपने वे एक दूसरेको कभी मुक्कोसे मारते और कभी ताल लोकको चले गये। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने ठोकते थे। उनमे बड़ा भयंकर संग्राम हुआ, जो बलरामजीके साथ जाकर नन्दरायजी तथा अन्य बड़े-बूढ़े देवताओंको भी भयभीत कर देनेवाला था। भगवान् गोपोंको नमस्कार किया। धर्मात्मा नन्दने बड़े नेहसे उन श्रीकृष्णने चाणूरके साथ बहुत देरतक खेल करके उसके दोनोंको गले लगा लिया। फिर भगवान् जनार्दनने उन शरीरको रगड़ डाला और फिर लौलापूर्वक पृथ्वीपर दे सबको बहुत-से रत्न और धन भेट किये । नाना प्रकारके मारा। देवताओं और दानवोंको भी दुःख देनेवाला वह वस्त्र, आभूषण तथा प्रचुर धन-धान्य देकर उन सबका महामल्ल बहुत रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर गिरा और पूजन किया। इस प्रकार श्रीकृष्णके विदा करनेपर नन्द मर गया। इसी प्रकार पराक्रमी बलरामजी भी मुष्टिकके आदि गोप हर्ष और शोकमें डूबे हुए वहाँसे व्रजमे लौट साथ देरतक लड़ते रहे। अन्तमें उन्होंने उसकी छातीमें गये। इसके बाद बलराम और श्रीकृष्णने अपने नाना कई मुक्के जड़ दिये। इससे उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो उग्रसेनजीके पास जाकर उन्हें बन्धनसे मुक्त किया और गयीं और सायु-बन्धन टूट गया। फिर तो वह भी बारंबार सान्त्वना दे मथुराके राज्यपर उनका अभिषेक कर प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा । उन दोनों भाइयोंका दिया। अक्रूर आदि जितने श्रेष्ठ यदुवंशी थे, उन सबको यह पराक्रम देख बाकी सारे पहलवान भाग गये। यह राज्यमें विशेष पदपर स्थापित किया और उग्रसेनको राजा देखकर कसको बड़ा भय हुआ। वह वेदनासे व्याकुल बनाकर परम धर्मात्मा भगवान् वासुदेव धर्मपूर्वक इस हो उठा। इसी बीचमें दुर्धर्ष वीर बलराम और श्रीकृष्ण पृथ्वीका पालन करने लगे।
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उत्तरखण्ड ] .
. जरासन्धकी पराजय, कालयवनका वय और मुचुकुन्दकी मुक्ति .
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जरासन्धकी पराजय, द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
महादेवजी कहते हैं-पार्वती ! तदनन्तर ओर प्रस्थित हुए।* परम पराक्रमी बलदेवजीने भी वसुदेवजीने अपने दोनों पुत्रोका वेदोक्त विधिसे उपनयन मूसल और हल हाथमें ले द्वितीय रुद्रकी भांति संस्कार किया। उसमें गर्गजीने आचार्यका काम किया जरासन्धकी सेनाका संहार आरम्भ किया । दारुकने बड़ी था। विष्णुभक्त विद्वानोंने नहलाने आदिके द्वारा महाबली शीघ्रताके साथ रथको रणभूमिकी ओर बढ़ाया। मानो बलराम और श्रीकृष्णका संस्कारकार्य सम्पन्न किया। तृण, गुल्म और लताओंसे आच्छादित वनमें वायु तत्पश्चात् उन दोनों भाइयोंने गुरुवर सान्दीपनिके घर प्रज्वलित अग्रिको बढ़ा रही हो। जाकर उन महात्माको नमस्कार किया और उनसे वेद- उस समय जरासन्धके सैनिकोंने गदा, परिघ, शक्ति शास्त्रोंका अध्ययन करके गुरुदक्षिणाके रूपमें उनके मरे और मुहरोंके द्वारा उस रथको आच्छादित कर दिया, हुए पुत्रको लाकर दिया। इसके बाद उन महात्मा गुरुसे किन्तु बहुत-से तिनकों और सूखे काठोंको जैसे अत्यन्त आशीर्वाद ले उन्हें प्रणाम करके दोनों भाई मथुरापुरीमें प्रज्वलित अनि अपनी लपटोंसे शीघ्र ही भस्म कर चले आये। इधर श्रीकृष्णके द्वारा दुर्धर्ष वीर कंसके मारे डालती है, उसी प्रकार श्रीहरिने अपने चक्रसे उन सभी जानेका समाचार सुनकर उसके श्वशुर महाबली अस्त्र-शस्त्रोंको लीलापूर्वक काट डाला । तत्पश्चात् उन्होंने जरासन्धने श्रीकृष्णको मारनेके लिये अनेक अक्षौहिणी शार्ङ्ग धनुष हाथमें लिया और उससे छूटे हुए अक्षय एवं सेनाओंके साथ आकर मथुरापुरीको घेर लिया। तीखे बाणोंके द्वारा सारी सेनाका संहार कर डाला । इसमें महापराक्रमी बलराम और श्रीकृष्णाने नगरसे बाहर उनको कुछ भी आयास नहीं जान पड़ा। इस प्रकार निकलकर हाथी-घोड़ोंसे भरी हुई उस विशाल सेनाको क्षणभरमें ही शत्रुकी सारी सेनाका विनाश करके यदुश्रेष्ठ देखा। तब भगवान् वासुदेवने अपने पूर्वकालीन सनातन भगवान् मधुसूदनने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया, सारथिका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही सारथि जिसकी आवाज प्रलयकालीन वज्रकी भीषण गर्जनाको दारुक सुग्रीवपुष्पक नामक महान् रथ लिये आ पहुँचा। भी मात करती थी। शङ्खनाद सुनते ही शत्रुपक्षके उसमें दिव्य एवं सनातन अश्व जुते हुए थे। उस रथमें महाबली योद्धाओंके हृदय विदीर्ण हो गये। वे शङ्ख, चक्र, गदा आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र मौजूद थे। घोड़े-हाथियोंके साथ ही गिरकर प्राणोंसे हाथ धो बैठे। ध्वजाके ऊपर गरुड़चिह्नसे चिह्नित एवं फहराती हुई इस प्रकार रथ, हाथी और घोड़ेसहित सम्पूर्ण सेनाका पताका उस देवदुर्जय रथकी शोभा बढ़ा रही थी। केवल भगवान् श्रीकृष्णने ही सफाया कर डाला । अब श्रीहरिके सारथिने भूतलपर आकर भगवान् गोविन्दको उस सेनामें कोई वीर जीवित न बचा। तब सम्पूर्ण देवता प्रणाम किया और आयुधों तथा अश्वोसहित वह सुन्दर प्रसत्रचित्त होकर भगवानके ऊपर फूल बरसाने और उन्हें रथ सेवामें समर्पित कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण बड़े साधुवाद देने लगे। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार हर्षके साथ उस महान् रथके समीप आये और अपने बड़े उतारकर देवताओंके मुंहसे स्तुति सुनते हुए भगवान् भाई बलरामजीके साथ उसपर सवार हुए। उस समय धरणीधरकी उस युद्धके मुहानेपर बड़ी शोभा हुई । अपनी मरुदण उनकी स्तुति कर रहे थे। भगवान्ने चतुर्भुजरूप सेनाको मारी गयी देख खोटी बुद्धिवाला पराक्रमी वीर धारण करके हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और तलवार ले जरासन्ध तुरंत ही बलरामजीके साथ लोहा लेनेके लिये ली और मस्तकपर किरीट धारण किया। दोनों कानोंमें आया । वे दोनों ही वीर युद्धसे पीछे हटनेवाले नहीं थे। कुण्डल तथा गलेमें वनमाला धारण करके वे संग्रामकी उनमें बड़ा भयङ्कर संग्राम हुआ। बलरामजीने हल
* चतुर्भुजवपुर्भूत्वा
चक्रगदासिभृत् । किरीटी कुण्डली सम्बी समामाभिमुखं ययौ ॥ (२७३ । १४)
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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
उठाकर उससे जरासन्धके सारथिसहित रथको चौपट कर डाला और महाबली जरासन्धको भी पकड़कर वे मूसल उठा उसे मार डालने को तैयार हो गये। जैसे सिंह महान् गजराजको दबोच ले, उसी प्रकार बलरामजीने नृपश्रेष्ठ जरासन्धको प्राणसंकटकी अवस्थामें डाल दिया। यह देख भगवान् श्रीकृष्णने अपने बड़े भाई बलरामजीसे कहा- 'भैया ! इसका वध न कीजिये।' इस प्रकार महामति धर्मात्मा श्रीकृष्णने जरासन्धको छुड़वा दिया। श्रीकृष्णके कहनेसे अविनाशी वोर संकर्षणने शत्रुको छोड़ दिया। इसके बाद वे दोनों भाई रथपर बैठकर मथुरापुरीमें लौट आये।
उधर जरासन्ध महापराक्रमी कालयवनके यहाँ गया। कालयवनके पास बहुत बड़ी सेना थी। वहाँ पहुँचकर उसने वसुदेवके दोनों पुत्रोंके पराक्रमका वर्णन किया। दानवोंका वध, कंसका मारा जाना, अनेक अक्षौहिणी सेनाका संहार तथा अपनी पराजय आदि श्रीकृष्णके सारे चरित्रोंका हाल कह सुनाया। यह सब सुनकर कालयवनको बड़ा क्रोध हुआ और उसने महान् बली एवं पराक्रमी म्लेच्छोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ मथुरापर आक्रमण किया । मगधराजके महाबली सैनिक भी उसकी सहायता के लिये आये थे। जरासन्धको साथ लेकर महान् अभिमानी कालयवन बड़ी तेजीके साथ चला। उसकी विशाल सेनासे अनेक जनपदोंकी भूमि आच्छादित हो गयी थी। उस बलवान् वीरने मथुराको चारों ओरसे घेरकर अपनी महासेनाका पड़ाव डाल दिया। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने पुरवासियोंके कुशलक्षेमका विचार करके सबके रहनेके लिये समुद्रसे भूमि माँगी। समुद्रने उन्हें तीस योजन विस्तृत भूमि दी। तब श्रीकृष्णने वहीं द्वारका नामकी सुन्दर पुरी बनवायी, जो अपनी शोभासे इन्द्रकी अमरावतीपुरीको मात करती थी। भगवान् जनार्दनने मथुरामें सोये हुए पुरवासियोंको उसी अवस्थामें उठाकर रातभरमें ही द्वारका पहुँचा दिया। सबेरे जागनेपर उन्होंने स्त्री- पुत्रोंसहित अपनेको सोनेके महलोंमें बैठा पाया। इससे उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा। प्रचुर धन-धान्य और दिव्य वस्त्र- आभूषणोंसे भरे हुए सुन्दर गृह, जहाँ
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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भयका नाम भी नहीं था, पाकर सम्पूर्ण यादव बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ रहने लगे। जैसे स्वर्गमें देवता सुखी रहते हैं, उसी प्रकार द्वारकापुरीमें वहाँके सभी निवासी अत्यन्त प्रसन्न थे। मथुरावासियोंको द्वारकामें पहुँचानेके बाद महाबली बलराम और श्रीकृष्ण कालयवनसे युद्ध करनेके लिये मथुरासे बाहर निकले। एक ओर महारथी बलरामजीने हल और मूसल लेकर बड़े रोषके साथ यवनोंकी विशाल सेनाका संहार आरम्भ किया तथा दूसरी ओर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने शार्ङ्गधनुष लेकर उससे छूटे हुए अग्निशिखाके सदृश तेजस्वी बाणोंद्वारा म्लेच्छोंकी सम्पूर्ण विशाल वाहिनीको भस्म कर डाला। महाबली कालयवनने अपनी सेनाको मारी गयी देख भगवान् वासुदेवके साथ गदायुद्ध आरम्भ किया। भगवान् श्रीकृष्ण भी बहुत देरतक यवनोंका संहार करके युद्धसे विमुख होकर भागे। कालयवनने 'ठहरो ठहरों' की पुकार लगाते हुए बड़े वेगसे उनका पीछा किया। परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण शीघ्र ही एक पर्वतकी कन्दरामें घुस गये। वहाँ महामुनि राजा मुचुकुन्द सोये थे। भगवान् श्रीकृष्ण, जहाँ कालयवनकी दृष्टि न पड़ सके, ऐसे स्थानमें खड़े हो गये। कालयवन भी महान् धीर-वीर था। वह हाथमें गदा लिये श्रीकृष्णको मारनेके लिये उस कन्दरामें घुसा। उसमें सोये हुए महामुनि राजा मुचुकुन्दको श्रीकृष्ण समझकर उसने लात मारी। इससे उनकी नींद खुल गयी और उन्होंने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके हुंकार किया। उनके हुंकार शब्दसे तथा उनकी रोषभरी दृष्टि पड़नेसे कालयवन प्राणहीन हो जलकर भस्म हो गया। तत्पश्चात् राजर्षि मुचुकुन्दने अपने सामने खड़े हुए भगवान् श्रीकृष्णको 'देखा। अमित तेजस्वी भगवान्पर दृष्टि पड़ते ही वे सहसा उठकर खड़े हो गये और बोले— 'मेरा अहोभाग्य, अहोभाग्य, जो प्रभुका दर्शन मिला।' इतना कहते-कहते उनके सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया और नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने जय-जयकार करके भगवान्को बारंबार प्रणाम किया और स्तवन करते हुए कहा- 'परमेश्वर! आपके दर्शनसे मैं धन्य और
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उत्तरखण्ड ]
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सुधर्मा सभाकी प्राप्ति तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह -
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कृतकृत्य हो गया। आज मेरा जन्म और जीवन- दोनों सफल हो गये!' इस प्रकार स्तुति करके उन्होंने गोविन्दको पुनः बारंबार प्रणाम किया। इससे सन्तुष्ट होकर भगवान्ने महामुनि मुचुकुन्दसे कहा, 'राजर्षे! तुम मनोवाञ्छित वर माँगो' तब मुचुकुन्दने भगवान्से
पुनरावृत्तिरहित मोक्षके लिये प्रार्थना की। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें अपना सनातन दिव्यलोक प्रदान किया। परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दने मानवरूपका परित्याग करके परमात्मा श्रीहरिके समान रूप धारण कर लिया और गरुड़पर आरूढ़ हो वे सनातन धाममें चले गये । ★
सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
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महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! बुद्धिमान् मुचुकुन्दके द्वारा कालयवनका वध करानेके पश्चात् उन्हें मुक्तिका वरदान दे भगवान् यदुनन्दन गुफासे बाहर निकले। कालयवनको मारा गया सुनकर दुर्बुद्धि जरासन्ध अपनी सेनाके साथ बलराम और श्रीकृष्णके साथ युद्ध करने लगा। भगवान् श्रीकृष्णने उस दुरात्माकी प्रायः सारी सेनाका संहार कर डाला। मगधराज मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। बहुत देरके बाद जब उसे कुछ चेत । हुआ तो उसके सारे अङ्गोंमें व्याकुलता छा रही थी। वह भयसे आतुर था। अब मगधराज जरासन्ध बलरामजीके साथ युद्ध करनेका साहस न कर सका। उसने महाबली बलराम और श्रीकृष्णको अजेय समझा और मरनेसे बची हुई सेनाको साथ ले तुरंत ही वह अपनी राजधानीको भाग गया। अब उसने बलराम और श्रीकृष्णका विरोध छोड़ दिया। तदनन्तर वसुदेवजीके दोनों पुत्र अपनी सेनाके साथ द्वारका चले गये। वहाँ इन्द्रने वायुदेवताको भेजा और विश्वकर्माकी बनायी हुई सुधर्मा नामक देवसभाको प्रेमपूर्वक श्रीकृष्णको भेंट कर दिया। वह सभा हरि और वैदूर्यमणिकी बनी हुई थी। चन्द्राकार सिंहासनसे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। नाना प्रकारके रत्नोंसे जटित सुवर्णमय दिव्य छत्रोंसे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उस रमणीय सभाको पाकर उग्रसेन आदि यदुवंशी वैदिक विद्वानोंके साथ उसमें बैठकर स्वर्ग-सभामें बैठे हुए देवताओंकी भाँति आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न रैवत नामक एक राजा थे। उनके रेवती नामवाली एक कन्या थी, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी ।
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उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपनी कन्याका विवाह बलरामजीके साथ कर दिया। बलरामजीने वैदिक विधिके अनुसार रेवतीका पाणिग्रहण किया।
विदर्भ देशमें भीष्मक नामक एक धर्मात्मा राजा रहते थे। उनके रुक्मी आदि कई पुत्र हुए। उन सबसे छोटी एक कन्या भी हुई, जो बहुत ही सुन्दरी थी। उस कन्याका नाम रुक्मिणी था। वह भगवती लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसमें सभी शुभ लक्षण मौजूद थे। श्रीरामावतारके समय जो सीतारूपमें प्रकट हुई थीं, वे ही भगवती लक्ष्मी श्रीकृष्णावतारके समय रुक्मिणीके रूपमें अवतीर्ण हुई। पूर्वकालमें जो हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य हुए थे, वे ही द्वापर आनेपर पुनः शिशुपाल और दन्तवक्त्रके नामसे उत्पन्न हुए थे। उन दोनोंका जन्म चैद्यवंशमें हुआ था। दोनों ही बड़े बलवान् और पराक्रमी थे। राजकुमार रुक्मी अपनी बहिन रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था; किन्तु सुन्दर मुखवाली रुक्मिणी शिशुपालको अपना पति नहीं बनाना चाहती थी। बचपनसे ही उसका भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनुराग था। श्रीकृष्णको ही पति बनानेके उद्देश्यसे वह देवताओंका पूजन और भाँति-भाँति के दान किया करती थी। वह अपने सनातन स्वामी पुरुषोत्तमका ध्यान करती हुई कठोर व्रतमें संलग्न हो पिताके घरमें निवास करती थी। विदर्भराज भीष्मक अपने पुत्र रुक्मीके साथ मिलकर शिशुपालसे कन्याका विवाह करनेकी तैयारी करने लगे ।
तब रुक्मिणीने भगवान् श्रीकृष्णको पति बनानेके उद्देश्यसे अपने पुरोहितके पुत्रको तुरंत ही द्वारकापुरीमें
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अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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भेजा। ब्राह्मणदेवता द्वारकामें पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी से मिले। उन दोनोंने उनका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया। ब्राह्मणने एकान्तमें बैठकर उन दोनों भाइयोंसे रुक्मिणीका सारा संदेश कह सुनाया। उसे सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सम्पूर्ण अस्त्रशस्त्रोंसे परिपूर्ण आकाशगामी रथपर ब्राह्मणके साथ बैठे। महात्मा दारुकने उस रथको तीव्र गतिसे हाँका अतः वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ शीघ्र ही विदर्भनगरमें जा पहुँचे। बुद्धिमान् शिशुपालके विवाहको देखनेके लिये सब राष्ट्रोंसे जरासन्ध आदि राजा आये थे। विवाहके दिन रुक्मिणी सोनेके आभूषणोंसे विभूषित हो दुर्गाजीकी पूजा करनेके लिये सखियोंके साथ नगरसे बाहर निकली। वह सन्ध्याका समय था। देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उसी समय वहाँ पहुँचे । बलवान् तो थे ही, उन्होंने रथपर बैठी हुई रुक्मिणीको सहसा उठाकर अपने रथपर बिठा लिया और द्वारकाकी ओर चल दिये। यह देख जरासन्ध आदि राजा क्रोधमें भरकर राजकुमार रुक्मीको साथ ले युद्धके लिये उपस्थित हुए। उन्होंने चतुरङ्गिणी सेनाके साथ श्रीहरिका पीछा किया।
तव महाबाहु बलभद्रजी उस उत्तम रथसे कूद पड़े उन्होंने हल और मूसल लेकर युद्धमें शत्रुओंका संहार आरम्भ किया। कितने ही रथों, घोड़ों, बड़े-बड़े गजराजों तथा पैदल सैनिकोंको भी हल और मूसलकी मारसे कुचल डाला। जैसे वज्रके आघातसे पर्वत विदीर्ण हो जाते हैं, उसी प्रकार उनके हल और मूसल गिरनेसे रथोंकी पङ्क्तियाँ चूर-चूर हो गयीं और बड़े-बड़े हाथी भी धरतीपर ढेर हो गये। हाथियोंके मस्तक फट जाते और वे रक्त वमन करते हुए प्राणोंसे हाथ धो बैठते थे। इस प्रकार बलरामजीने क्षणभरमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंसहित सारी सेनाका सफाया कर दिया। राजाओंके पाँव उखड़ गये। वे सब-के-सब भयसे पीड़ित हो भाग चले। उधर रुक्मी क्रोधमें भरकर श्रीकृष्णके साथ लोहा ले रहा था। उसने धनुष उठाकर खाणोंके समूहले श्रीकृष्णको बींधना आरम्भ किया। तब गोविन्दने हँसकर लीलापूर्वक अपना शार्ङ्गधनुष हाथमें उठाया और एक
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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ही बाणसे रुक्मीके अश्व, सारथि, रथ और ध्वजापताकाको भी काट गिराया। रथ नष्ट हो जानेपर वह तलवार खींचकर पृथ्वीपर खड़ा हो गया। यह देख श्रीकृष्णने एक बाणसे उसकी तलवारको भी काट डाला। तब उसने श्रीकृष्णकी छातीमें मुक्केसे प्रहार किया। श्रीकृष्णने बलपूर्वक उसे पकड़कर रथमें बाँध दिया और हँसते-हँसते तीखा छुरा ले रुक्मीके सिरको मूड़कर उसे बन्धनसे मुक्त कर दिया। इस अपमानके कारण उसको बड़ा शोक हुआ। वह चोट स्वाये हुए साँपकी भाँति लंबी साँस लेने लगा। लज्जाके कारण उसने विदर्भ नगरीमें पाँव नहीं रखा। वहीं गाँव बसाकर वह रहने लगा ।
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण बलराम, रुक्मिणी और दारुकके साथ उस दिव्य रथपर आरूढ़ हो तुरंत अपनी पुरीको चले गये। द्वारकामें प्रवेश करके देवकीनन्दन श्रीकृष्णने शुभ दिन और शुभ लग्नमें सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित राजकुमारी रुक्मिणीका वेदोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। उस विवाहके समय आकाशमें देवता लोग दुन्दुभि बजाते और फूलोंकी वर्षा करते थे। वसुदेव, उग्रसेन, यदुश्रेष्ठ अक्रूर, महातेजस्वी बलभद्र तथा और भी जो-जो श्रेष्ठ यादव थे उन सबने बड़े उत्साहके साथ श्रीकृष्ण और रुक्मिणीका सुखमय विवाहोत्सव मनाया। उसमें ग्वालों और ग्वालबालोंके साथ नन्दगोप भी पधारे थे तथा वस्त्राभूषणोंसे विभूषित बहुत-सी गोपाङ्गनाओंके साथ स्वयं यशोदाजी भी आयी थीं। वसुदेव, देवकी, रेवती, रोहिणी देवी तथा अन्यान्य नगर युवतियोंने मिलकर बड़े हर्षके साथ विवाहके सारे कार्य सम्पन्न किये। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियोंसहित देवकीने बड़ी प्रसन्नताके साथ विधिपूर्वक देव पूजनका कार्य सम्पन्न किया। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने विवाहोत्सवसे सम्बन्ध रखनेवाला सारा शास्त्रीय कार्य पूर्ण किया। सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे पूजित करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया। आये हुए राजा, नन्द आदि गोप तथा यशोदा आदि स्त्रियोंका भी स्वर्ण-रत्त्र आदिके बहुत-से आभूषणों एवं वस्त्रोंद्वारा यथावत् सत्कार किया गया। इस प्रकार
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उत्तरखण्ड ] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तक-कथा, नरकासुर वध तथा पारिजातहरण
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प्रसन्न हुए।
उन नूतन दम्पति श्रीकृष्ण और रुक्मिणीने ग्रन्थिबन्धनपूर्वक एक साथ अग्निदेवको प्रणाम किया। वेदोंके ज्ञाता श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने आशीर्वादके द्वारा उनका अभिनन्दन किया। उस समय विवाहकी वेदीपर बैठे हुए वर और वधूकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्नीसहित श्रीकृष्णने ब्राह्मणों, राजाओं और बड़े भाई बलरामजीको प्रणाम किया। इस प्रकार समस्त वैवाहिक कार्य सम्पन्न
उस वैवाहिक महोत्सवमें सम्मानित होकर वे सभी बड़े करके भगवान् श्रीकृष्णने विवाहोत्सवमें पधारे हुए समस्त राजाओंको विदा किया। उनसे सम्मानित एवं विदा होकर श्रेष्ठ राजा तथा महात्मा ब्राह्मण अपने-अपने निवासस्थानको चले गये। इसके बाद धर्मात्मा भगवान् देवकीनन्दन रुक्मिणी देवीके साथ दिव्य अट्टालिकामें बड़े सुखसे रहने लगे। मुनि और देवता उनकी स्तुति किया करते थे। उस शोभामयी द्वारकापुरीमें सनातन भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन सन्तुष्टचित्त होकर सदा आनन्दमय रहते थे।
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★ भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
महादेवजी कहते हैं— पार्वती ! सत्राजित्के एक यशस्विनी कन्या थी, जो भूदेवीके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसका नाम था (सत्या) सत्यभामा । सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्णकी दूसरी पत्नी थीं। तीसरी पत्नी सूर्यकन्या कालिन्दी थीं, जो लीलादेवीके अंशसे प्रकट हुई थीं विन्दानुविन्दकी पुत्री मित्रविन्दाको स्वयंवरसे ले आकर भगवान् श्रीकृष्णने उसके साथ विवाह किया। वहाँ सात महाबली बैलोंको, जिनका दमन करना बहुत ही कठिन था, भगवान्ने एक ही रस्सीसे नाथ दिया और इस प्रकार पराक्रमरूपी शुल्क देकर उसका पाणिग्रहण किया। राजा सत्राजित् के पास स्यमन्तक नामक एक बहुमूल्य मणि थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई महात्मा प्रसेनको दे रखा था। एक दिन भगवान् मधुसूदनने वह श्रेष्ठ मणि प्रसेनसे माँगी। उस समय प्रसेनने बड़ी धृष्टताके साथ उत्तर दिया- 'यह मणि प्रतिदिन आठ भार सुवर्ण देती है; अतः इसे मैं किसीको नहीं दे सकता।' प्रसेनका अभिप्राय समझकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो रहे।
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एक दिनकी बात है, भगवान् श्रीकृष्ण प्रसेन आदि समस्त महाबली यादवोंके साथ शिकार खेलनेके लिये बड़े भारी वनमें गये। प्रसेन अकेले ही उस घोर वनमें बहुत दूरतक चले गये। वहाँ एक सिंहने उन्हें मारकर वह मणि ले ली। फिर उस सिंहको महाबली जाम्बवान्ने मार डाला और उस मणिको लेकर वे शीघ्र ही अपनी
गुफामें चले गये। उस गुफामें दिव्य स्त्रियाँ निवास करती थीं। उस दिन सूर्यास्त हो जानेपर भगवान् वासुदेव अपने अनुचरोंके साथ चले मार्गमें उन्होंने चतुर्थीक चन्द्रमाको देख लिया। उसके बाद अपने नगरमें प्रवेश किया। तदनन्तर समस्त पुरवासी श्रीकृष्णके विषयमें एकदूसरेसे कहने लगे- 'जान पड़ता है, गोविन्दने प्रसेनको वनमें ही मारकर बेखटके मणि ले ली है। उसके बाद ये द्वारकामें आये हैं।' द्वारकावासियोंकी यह बात जब भगवान्के कानोंमें पड़ी तो वे मूर्खलोगोंके द्वारा उठाये हुए अपवादके भयसे पुनः कुछ यदुवंशियोंको साथ ले गहन वनमें गये। वहाँ सिंहद्वारा मारे हुए प्रसेनकी लाश पड़ी थी, जिसे भगवान्ने सबको दिखाया। इस प्रकार प्रसेनकी हत्याके झूठे कलङ्कको मिटाकर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी सेनाको वहीं ठहरा दिया तथा हाथमें शार्ङ्गधनुष और गदा लिये वे अकेले ही गहन वनमें घुस गये। वहाँ एक बहुत बड़ी गुफा देखकर श्रीकृष्णने निर्भय होकर उसमें प्रवेश किया। उस गुफाके भीतर एक स्वच्छ भवन था, जो नाना प्रकारकी श्रेष्ठ मणियोंसे जगमगा रहा था। वहाँ एक घायने जाम्बवान् के पुत्रको पालनेमें सुलाकर उसके ऊपरी भागमें मणिको बाँधकर लटका दिया था और पालनेको धीरे-धीरे लीलापूर्वक डुलाती हुई वह लोरियाँ गा रही थी । गाते-गाते वह निम्म्राङ्कित श्लोकका उच्चारण कर रही थी—
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अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः । सुकुमारक मा रोदीस्तव होष स्यमन्तकः ॥ (२७६ । १९) 'प्रसेनको सिंहने मारा और सिंह जाम्बवान्के हाथसे मारा गया है। सुन्दर कुमार रोओ मत। यह स्यमन्तकमणि तुम्हारी ही है।'
यह सुनकर प्रतापी वासुदेवने शङ्ख बजाया। वह महान् शङ्खनाद सुनकर जाम्बवान् बाहर निकले। फिर उन दोनोंमें लगातार दस राततक भयंकर युद्ध हुआ। दोनों एक-दूसरेको वज्रके समान मुकोंसे मारते थे। वह युद्ध समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला था । श्रीकृष्णके बलकी वृद्धि और अपने बलका हास देखकर जाम्बवान्को भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके कहे हुए पूर्वकालके वचनोंका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे-ये ही मेरे स्वामी श्रीराम हैं, जो धर्मकी रक्षाके लिये पुनः इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। मेरे नाथ मेरा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं। ऐसा सोचकर ऋक्षराजने युद्ध बंद कर दिया और हाथ जोड़कर विस्मयसे पूछा- आप कौन हैं? कैसे यहाँ पधारे हैं ?' तब भगवान् श्रीकृष्णने गम्भीर वाणीमें कहा- 'मैं वसुदेवका पुत्र हूँ। मेरा नाम वासुदेव है। तुम मेरी स्यमन्तक नामक मणि हर ले आये हो। उसे शीघ्र लौटा दो, नहीं तो अभी मारे जाओगे।' यह सुनकर जाम्बवान्को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान्को प्रणाम किया और विनीत भावसे कहा - 'प्रभो! आपके दर्शनसे मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। देवकीनन्दन ! पहले अवतारसे ही मैं आपका दास हूँ। गोविन्द ! पूर्वकालमें जो मैंने युद्धकी अभिलाषा की थी, उसीको आज आपने पूर्ण किया है। जगन्नाथ ! करुणाकर! मैंने मोहवश अपने स्वामीके साथ जो यह युद्ध किया है, उसे आप क्षमा करें।'
ऐसा कहकर जाम्बवान् पैरोंमें पड़ गये और बारंबार नमस्कार करके उन्होंने भगवान्को रत्नमय सिंहासनपर विनयपूर्वक बिठाया। फिर शरत्कालके कमलसदृश सुन्दर एवं कोमल चरणोंको उत्तम जलसे पखारकर
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मधुपर्ककी विधिसे उन यदुश्रेष्ठका पूजन किया। दिव्य वस्त्र और आभूषण भेंट किये। इस प्रकार विधिवत् पूजा करके अमित तेजस्वी भगवान्को अपनी जाम्बवती नापवाली लावण्यमयी कन्या पत्नीरूपसे दान कर दी । साथ ही अन्यान्य श्रेष्ठ मणियोसहित स्यमन्तकमणि भी दहेजमें दे दी। विपक्षी वीरोंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने वहीं प्रसन्नतापूर्वक जाम्बवतीसे विवाह किया। और जाम्बवान्को उत्तम मोक्ष प्रदान किया। फिर जाम्बवतीको साथ ले गुफासे बाहर निकलकर वे द्वारकापुरीको गये। वहाँ पहुँचकर यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णने सत्राजित्को स्यमन्तकमणि दे दी और सत्राजित्ने उसे अपनी कन्या सत्यभामाको दे दिया। भादोंके शुक्लपक्षमें चतुर्थीको चन्द्रमाका दर्शन करनेसे झूठा कलङ्क लगता है अतः उस दिन चन्द्रमाको नहीं देखना चाहिये । यदि कदाचित् उस तिथिको चन्द्रमाका दर्शन हो जाय तो इस स्यमन्तकमणिकी कथा सुननेपर मनुष्य मिथ्या कलङ्कसे छूट जाता है। मद्रराजकी तीन कन्याएँ थींसुलक्ष्मणा, नामजिती और सुशीला इन तीनोंने स्वयंवरमें भगवान् श्रीकृष्णका वरण किया और एक ही दिन भगवान्ने उन तीनोंके साथ विवाह किया। इस महात्मा श्रीकृष्णके रुक्मिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, जाम्बवती, नानजिती, सुलक्ष्मणा और सुशीला – ये आठ पटरानियाँ थीं।
प्रकार
नरकासुर नामक एक महान् पराक्रमी राक्षस था, जो भूमिसे उत्पन्न हुआ था। उसने देवराज इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओंको युद्धमें जीतकर देवमाता अदितिके दो तेजस्वी कुण्डल छीन लिये थे। साथ ही देवताओंके भाँति-भाँतिके रत्न, इन्द्रका ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कुबेरके मणिमाणिक्य आदि तथा पद्मनिधि नामक शङ्ख भी ले लिये थे। वह आकाशमें विचरण करनेवाला था और आकाशमें ही नगर बनाकर उसके भीतर निवास करता था। एक दिन सम्पूर्ण देवता उसके भयसे पीड़ित हो शचीपति इन्द्रको आगे करके अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी शरण में गये। श्रीकृष्णने भी नरकासुरकी सारी चेष्टाएँ सुनकर
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उत्तरखण्ड ]
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भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तक-कथा, नरकासुर-वंध तथा पारिजातहरण.
डाला,
देवताओंको अभयदान दे विनतानन्दन गरुड़का स्मरण किया। सर्वदेववन्दित महाबली गरुड़ उसी समय भगवान् के सामने हाथ जोड़े उपस्थित हो गये। भगवान् सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए उस राक्षसके नगरमें गये। जैसे आकाशमें सूर्यका मण्डल देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार उसका नगर भी उद्भासित हो रहा था। उसमें दिव्य आभूषण धारण किये बहुत-से राक्षस निवास करते थे। वह नगर देवताओंके लिये भी दुर्भेद्य था। भगवान् ने उसके कई आवरण देख चक्रसे उन्हें काट ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देते हैं। आवरण कट जानेपर समस्त राक्षस शूल उठाये सैकड़ों और हजारोंके झुंड बनाकर युद्धके लिये चले । विजयकी अभिलाषा रखनेवाले निशाचर तोमर, भिन्दिपाल और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णपर प्रहार करने लगे। तब भगवान् श्रीकृष्णने भी शार्ङ्गधनुष लेकर उनके दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंको काट डाला" तथा अनिके समान तेजस्वी बाणोंसे उन सबका संहार आरम्भ किया। इस प्रकार समस्त राक्षस मारे जाकर पृथ्वीपर गिर पड़े। सम्पूर्ण दानवोंका वध करके कमलनयन भगवान् पुरुषोत्तमने पाञ्चजन्य नामक महान् शङ्ख बजाया ।
शङ्खनाद सुनकर पराक्रमी दैत्य नरकासुर दिव्य रथपर आरूढ़ हो भगवान्से युद्ध करनेके लिये आया उन दोनोंमें अत्यन्त भयङ्कर घमासान युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। वे दोनों बरसते हुए मेघोंकी भाँति हजारों बाणोंकी झड़ी लगा रहे थे। इसी बीचमें सनातन भगवान् वासुदेवने अर्द्धचन्द्राकार बाणसे उस राक्षसका धनुष काट दिया और उसकी छातीपर महान् दिव्यास्त्रका प्रहार किया। उससे हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण वह महान् असुर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब भूमिकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीकृष्ण उस राक्षसके समीप गये और बोले— 'तुम कोई वर माँगो' यह सुनकर राक्षसने गरुड़पर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णसे कहा'सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी श्रीकृष्ण ! मुझे वरदानकी कोई
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आवश्यकता नहीं। फिर भी दूसरे लोगोंके हितके लिये आपसे एक उत्तम वर माँगता हूँ। मधुसूदन । जो मनुष्य मेरी मृत्युके दिन माङ्गलिक स्नान करें, उन्हें कभी नरककी प्राप्ति न हो।'
'एवमस्तु' कहकर भगवान्ने उसे वह वर दे दिया। नरकासुरने ब्रह्मा और शिव आदि देवताओंद्वारा पूजित, वज्र एवं वैदूर्यमणिसे बने हुए नूपुरोंसे सुशोभित तथा शरत्कालके खिले हुए कमलसदृश कोमल भगवच्चरणका दर्शन करते हुए अपने प्राणोंका परित्याग किया और श्रीहरिका सारूप्य प्राप्त कर लिया। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और महर्षि आनन्दमग्न हो भगवान्के ऊपर फूलोंकी वर्षा और स्तुति करने लगे। इसके बाद कमलनयन श्रीकृष्णने नरकासुरके नगरमें प्रवेश किया और उसने बलपूर्वक जो देवताओंका धन लूट लिया था, वह सब उन्हें वापस कर दिया। देवमाता अदितिके दोनों कुण्डल, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी और दीप्तिमान् मणिमय पर्वत — ये सारी वस्तुएँ भगवान्ने इन्द्रको दे दीं। बलवान् नरकासुरने समस्त राजाओंको जीतकर सभी राष्ट्रोंसे जो सोलह हजार कन्याओंका अपहरण किया था, वे सब की सब उसके अन्तः पुरमें कैद थीं। सैकड़ों कामदेवकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले महापराक्रमी श्रीकृष्णको देखकर उन सबने उन्हें अपना पति बना लिया। तब अनन्त रूप धारण करनेवाले भगवान् गोविन्दने एक ही लग्नमें उन सबका पाणिग्रहण किया। नरकासुरके सभी पुत्र पृथ्वीदेवीको आगे करके भगवान् गोविन्दकी शरणमें गये। तब दयानिधान भगवान्ने उन सबकी रक्षा की और पृथ्वीके वचनोका आदर करते हुए उन्हें नरकासुरके राज्यपर स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् उन सभी सुन्दरी स्त्रियोंको इन्द्रके विमानपर बिठाकर देवदूतोंके साथ द्वारकामें भेज दिया। इसके बाद सत्यभामाके साथ गरुड़पर आरूढ़ हो भगवान् श्रीकृष्ण देवमाताका दर्शन करनेके लिये स्वर्गलोकमें गये। अमरावतीपुरीमें पहुँचकर महाबली श्रीकृष्ण पत्नीसहित गरुड़से उतरे और देवताओंकी वन्दनीया माता अदितिके चरणोंमें उन्होंने प्रणाम किया।
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• अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भगवान् श्रीकृष्णके चक्र और गरुड़जीके पंखोंकी मारसे देवता परास्त हो गये और इन्द्र भयभीत होकर गजराज ऐरावतसे नीचे उतर पड़े तथा गद्गद वाणीसे भगवान्की स्तुति करके बोले – 'श्रीकृष्ण ! यह पारिजात देवताओंके उपभोगमें आने योग्य है। पूर्वकालमें आपने ही इसे देवताओंके लिये दिया था। अब यह मनुष्यलोकमें कैसे रह सकेगा ?' तब भगवान्ने इन्द्रसे कहा-' - 'देवराज ! तुम्हारे घरमें शचीने सत्यभामाका अपमान किया है। उन्होंने इनको पारिजातके फूल न देकर स्वयं ही उन्हें अपने मस्तकमें धारण किया है। इसलिये मैंने पारिजातका अपहरण किया है। मैंने सत्यभामासे प्रतिज्ञा की है कि मैं तुम्हारे घरमें पारिजातका वृक्ष लगा दूंगा; अतः आज यह पारिजात तुम्हें नहीं मिल सकता। मैं मनुष्योंके हितके लिये उसे भूतलपर ले जाऊँगा । सत्यभामा क्रोधमें भरकर इन्द्राणीके घरसे चली जबतक मैं वहाँ रहूँगा, मेरे भवनमें पारिजात भी रहेगा। आय और अपने स्वामीके पास आकर बोलीं- मेरे परमधाम पधारनेपर तुम अपनी इच्छाके अनुसार इसे यदुश्रेष्ठ ! उस शचीको पारिजातके फूलोंपर बड़ा घमंड ले लेना । इन्द्रने भगवान्को नमस्कार करके कहाहै। उसने मुझे दिये बिना ही सब फूल अपने ही केशोंमें 'अच्छा, ऐसा ही हो' यों कहकर वे देवताओंके साथ धारण कर लिये हैं।' सत्यभामाकी यह बात सुनकर अपनी पुरीमें लौट गये और भगवान् श्रीकृष्ण महाबली वासुदेवने पारिजातका पेड़ उखाड़ लिया और सत्यभामादेवीके साथ गरुड़पर बैठकर द्वारकापुरीमें चले उसे गरुड़की पीठपर रखकर वे सत्यभामाके साथ आये। उस समय मुनिगण उनकी स्तुति करते थे। द्वारकापुरीकी ओर चल दिये। यह देख देवराज इन्द्रको सर्वव्यापी भगवान् श्रीहरि सत्यभामाके निकट देववृक्ष बड़ा क्रोध हुआ। और वे देवताओंको साथ लेकर पारिजातकी स्थापना करके समस्त भार्याओंके साथ भगवान् जनार्दनपर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे, मानो विहार करने लगे। विश्वरूपधारी मधुसूदन रात्रिमें इन मेघ किसी महान् पर्वतपर जलकी बूँदें बरसा रहे हो। सभी पत्नियोंके घरोंमें रहकर उन्हें सुख प्रदान करते थे। -★ अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
पुत्रवत्सला माताने भगवान्को दोनों हाथोंसे पकड़कर छातीसे लगा लिया और एक श्रेष्ठ आसनपर बिठाकर उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान्का पूजन किया। तत्पश्चात् आदित्य, वसु, रुद्र और इन्द्र आदि देवताओंने भी परमेश्वरका यथायोग्य पूजन किया। उस समय यशस्विनी सत्यभामा शचीके महलमें गयीं। वहाँ इन्द्राणीने उन्हें सुखमय आसनपर बिठाकर उनका भलीभांति पूजन किया। उसी समय सेवकोंने इन्द्रकी प्रेरणासे पारिजातके सुन्दर फूल ले जाकर शचीदेवीको भेंट दिये। सुन्दरी शचीने उन फूलोंको लेकर अपने काले एवं चिकने केशोंमें गूँथ लिया और सत्यभामाकी अवहेलना कर दी। उन्होंने सोचा- 'ये फूल देवताओंके योग्य हैं और सत्यभामा मानुषी हैं, अतः ये इन फूलोंकी अधिकारिणी नहीं हैं।' ऐसा विचार करके उन्होंने वे फूल सत्यभामाको नहीं दिये।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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श्रीकृष्णके रुक्मिणीके गर्भसे प्रद्युम्न उत्पन्न हुए, जो कामदेवके अंशसे प्रकट हुए थे। वे बड़े बलवान् थे। उन्होंने शम्बरासुरका वध किया था। उनके रुक्मीकी पुत्रीके गर्भसे अनिरुद्धका जन्म हुआ। अनिरुद्धने भी बाणासुरकी कन्या ऊषाके साथ विवाह किया। उस विवाहको कथा इस प्रकार है— एक दिन ऊषाने स्वप्रमें
महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! भगवान् एक नील कमल दलके समान श्यामसुन्दर तरुण पुरुषको देखा। ऊषाने स्वप्रमें ही उस पुरुषके साथ प्रेमालाप किया और जागनेपर उसे सामने न देख वह पागल सी हो उठी तथा यह कहती हुई कि 'तुम मुझे अकेली छोड़ कहाँ चले गये ?' वह भाँति-भाँति से विलाप करने लगी। ऊषाकी एक चित्रलेखा नामकी सखी थी। उसने उसकी ऐसी अवस्था देखकर पूछा
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उत्तरखण्ड
. अनिरुद्धका अखाके साथ विवाह .
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'सखी ! क्या कारण है कि तुम्हारा मन विक्षिप्त-सा हो सेवकोको मारा गया देख दैत्यराज बाणासुरको रहा है ?' ऊषाने स्वप्नमें मिले हुए पतिके विषयकी सारी अनिरुद्धके विषयमें बड़ा कौतूहल हुआ। इतनेमें ही बातें सच-सच बता दी।
देवर्षि नारदने आकर बताया कि ये श्रीकृष्णके पौत्र चित्रलेखाने सम्पूर्ण देवताओं और श्रेष्ठ मनुष्योंके अनिरुद्ध हैं। यह सुनकर धनुष ले वह स्वयं ही चित्र वस्त्रपर अङ्कित करके ऊषाको दिखलाये। अनिरुद्धको पकड़नेके लिये उनके समीप आया। हजार यदुकुलमें जो श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्युम और अनिरुद्ध भुजाओंसे युक्त दैत्यराजको युद्धके लिये आते देख आदि सुन्दर पुरुष थे, उनके चित्र भी उसने ऊषाके अनिरुद्धने भी एक परिघ घुमाकर बाणासुरके ऊपर सामने प्रस्तुत किये। ऊषाने उनमेंसे श्रीकृष्णको उससे फेंका; किन्तु उसने बाण मारकर उस परिघको काट मिलता-जुलता पाया। अतः उन्हींकी परम्परामें उनके दिया। तत्पश्चात् सर्पास्त्रसे अनिरुद्धको अच्छी तरह होनेका अनुमान करके उसने उधर ही दृष्टिपात किया। बाँधकर दैत्यराजने उन्हें अन्तःपुरमें ही कैद कर लिया। श्रीकृष्णके बाद प्रद्युम्न और प्रधुम्रके बाद अनिरुद्धको इधर देवर्षि नारदके मुखसे यह सारा समाचार देखकर वह सहसा बोल उठी-'यही है, यही है ऐसा ज्यों-का-त्यों जानकर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलदेवजी, कहकर उसने अनिरुद्धके चित्रको हृदयसे लगा लिया। प्रद्युम्न तथा अपनी सेनाके साथ पक्षिराज गरुड़पर तव चित्रलेखा दैत्योंकी बहुत-सी मायाविनी स्त्रियोंको आरूढ़ हो बाणासुरके बाहुबलका उच्छेद करनेके लिये साथ ले द्वारकामें गयी और रातके समय अन्तःपुरमें आ पहुँचे। पूर्वकालमें बलिपुत्र बाणासुरने भगवान् सोये हुए अनिरुद्धको मायासे मोहित करके बाणासुरके शङ्करकी आराधना की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान् महलमें लाकर ऊषाकी शय्यापर सुला दिया। जागनेपर शङ्करने उसे वर माँगनेको कहा । तब उसने महेश्वरसे यही अनिरुद्धने अपनेको अत्यन्त रमणीय और स्वच्छ वर माँगा था कि 'आप मेरे नगर-द्वारपर सदा रक्षाके पलंगपर सोया हुआ पाया। पास ही समस्त शुभ लिये मौजूद रहें और जो शत्रुओंकी सेना आवे, उसका लक्षणोंसे सम्पन्न विचित्र आभूषण, वस्त्र, गन्ध और संहार करें।' 'तथास्तु' कहकर भगवान् शंकरने उसकी माला आदिसे अलङ्कत तथा सुवर्णके समान रंग और प्रार्थना स्वीकार की तथा वे अपने पुत्र और पार्षदोंके सुन्दर केशोवाली ऊषा बैठी हुई थी। तदनन्तर ऊषाकी साथ अस्त्र-शस्त्र लिये उसके नगर-द्वारपर सदा प्रसन्नतासे अनिरुद्ध उसके साथ रहने लगे। विराजमान रहने लगे। उस समय जब भगवान् श्रीकृष्ण
इस प्रकार लगातार एक मासतक अनिरुद्ध ऊषाके यादवोंकी बहुत बड़ी सेनाको साथ लेकर वहाँ आये तो साथ महलमें रहे। एक दिन अन्तःपुरमें रहनेवाली कुछ उन्हें देखकर भगवान् शंकर भी वृषभपर आरूढ़ हो सब बूढ़ी स्त्रियोंने उन्हें देख लिया और राजा बाणासुरको प्रकारके अस्त्र-शव लिये अपने पुत्र और पार्षदोंसहित इसकी सूचना दे दी। यह समाचार सुनते ही राजाको युद्धके लिये निकले । वे हाथीका चमड़ा पहने, कपाल आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। उसने अत्यन्त विस्मित धारण किये, सब अङ्गोंमें विभूति रमाये और प्रज्वलित होकर अपने सेवकोंको भेजा और यह आदेश दिया कि सपोका आभूषण पहने शोभा पा रहे थे। उनका श्रीअङ्ग 'उसे यहीं पकड़ लाओ।' सेवक राजाके महलपर चढ़ पिङ्गल वर्णका था। उनके तीन नेत्र थे। वे अपने हाथमें गये और राजकुमारीके शयनागारमें सोये हुए अनिरुद्धको त्रिशूल लिये हुए थे। उन्होंने सम्पूर्ण भूतगणोंका संगठन पकड़नेके लिये आगे बढ़े। अपनेको पकड़नेके लिये कर रखा था। वे समस्त प्राणियोंके लिये भयदायक आते देख अनिरुद्धने खिलवाड़में ही महलका एक प्रतीत होते थे। उनका तेज प्रलयकालीन अग्निके समान खम्भा उखाड़ लिया और उसीसे मार-मारकर दो ही जान पड़ता था। वे अपने दोनों पुत्रों और समस्त घड़ीमें उन सबका कचूमर निकाल डाला। अपने पार्षदोंके साथ उपस्थित थे। त्रिपुरका नाश करनेवाले उन
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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भगवान् भूतनाथको सामना करनेके लिये आया देख भगवान् श्रीकृष्णने सेनाको तो बहुत दूर पीछे ही ठहरा दिया और स्वयं बलभद्र एवं प्रद्युम्नसहित निकट आकर वे हँसते-हँसते भगवान् शङ्करजीके साथ युद्ध करने लगे। उन दोनोंमें घोर युद्ध हुआ। पिनाक और शार्ङ्गधनुषसे छूटे हुए बाण प्रलयानिके समान भयंकर जान पड़ते थे। बलरामजी गणेशजीके साथ और प्रद्युम्र कार्तिकेयजीके साथ भिड़ गये। दोनों पक्षोंके योद्धा महान् पराक्रमी और सिंहके समान उत्कट बलवाले थे। गणेशजीने अपने दाँतसे बलरामजीकी छातीमें प्रहार किया, तब बलरामजीने मूसल उठाकर उनके दाँतपर दे मारा। मूसलकी मार पड़ते ही गणेशजीका दाँत टूट गया और वे चूहेपर चढ़कर रणभूमिसे भाग खड़े हुए। तभीसे टूटे हुए दाँतवाले गणेशजी इस लोकमें तथा देवता, दानव और गन्धर्वकि यहाँ 'एकदन्त के नामसे प्रसिद्ध हुए। कार्तिकेयजी प्रद्युम्रके साथ युद्ध कर रहे थे। हल धारण करनेवाले बलरामजीने मूसलकी मारसे शिवगणोंको युद्धभूमिसे भगा दिया।
भगवान् शिव श्रीकृष्णसे बहुत देरतक युद्ध करते रहे। इसके बाद उन्होंने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके अपने बाणपर अत्यन्त प्रज्वलित तापज्वरका आधान किया और उसे भगवान् श्रीकृष्णपर छोड़ दिया; किन्तु श्रीकृष्ण शीतज्वरसे उस अस्त्रका निवारण कर दिया। इस प्रकार श्रीहरि और हरके छोड़े हुए वे दोनों ज्वर उन्होंकी आज्ञासे मनुष्यलोकमें चले गये। जो मानव श्रीहरि और शङ्करके युद्धका वृत्तान्त सुनते हैं, वे ज्वरसे
महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! काशीका राजा पौण्ड्रकवासुदेव काशीपुरीके भीतर एकान्त स्थानमें बैठकर बारह वर्षोंतक बिना कुछ खाये पिये मेरी आराधनायें संलग्न हो पञ्चाक्षर मन्त्रका जप करता रहा। उस समय वह अपने नेत्ररूपी कमलसे मेरी पूजा करता था। तब मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उससे वर माँगनेके
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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मुक्त होकर नीरोग हो जाते हैं।
इसके बाद दैत्यराज बाणासुर रथपर सवार हो भगवान् श्रीकृष्णके साथ युद्ध करनेके लिये आया; किन्तु भगवान्ने अपने चक्रसे उसकी भुजाएँ काट डालीं। यह देख भगवान् शङ्करने कहा- 'प्रभो ! यह बाणासुर राजा बलिका पुत्र है। मैंने इसे अमरत्वका वरदान दिया है। यदुश्रेष्ठ ! आप मेरे उस वरदानकी रक्षा करें और इस बलिकुमारके अपराधोंको क्षमा कर दें।' 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने चक्रको समेट लिया और प्राणोंके सङ्कटमें पड़े हुए बाणासुरको छोड़ दिया। उसको छुड़ाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले भगवान् शङ्कर वृषभपर सवार हो कैलासपर चले गये। फिर बाणासुरने महाबली बलराम और श्रीकृष्णको नमस्कार किया और उन दोनोंके साथ नगरमें जाकर अनिरुद्धको बन्धनसे मुक्त कर दिया। तत्पश्चात् उसने दिव्य वस्त्राभूषणोंसे पूजा करके कृष्णपौत्र अनिरुद्धको अपनी कन्या ऊषाका दान कर दिया। अनिरुद्धका विधिपूर्वक विवाह हो जानेके पश्चात् बाणासुरने प्रद्युम्नसहित बलराम और श्रीकृष्णका भी पूजन किया। फिर भगवान् जनार्दन ऊषा और अनिरुद्धको एक दिव्य रथपर बिठाकर द्वारकाकी ओर प्रस्थित हुए। बलराम, प्रद्युम्र और सेनाके साथ श्रीहरिने अपनी रमणीय पुरीमें प्रवेश किया। वहाँ अनिरुद्ध अनेक रत्नोंद्वारा निर्मित मनोहर भवनमें बाणपुत्री ऊषाके साथ भाँति-भाँति के भोगोंका उपभोग करते हुए निरन्तर प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे ।
⭑
पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको
ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
लिये कहा। वह बोला- 'मुझे वासुदेवके समान रूप प्रदान कीजिये।' यह सुनकर मैंने उसे शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मसहित चार भुजाएँ, कमलदलके समान विशाल नेत्र किरीट, मणिमय कुण्डल, पीत वस्त्र तथा कौस्तुभमणि आदि चिह्न प्रदान किये। अब वह अपनेको वासुदेव बताकर सब लोगोंको मोहमें डालने लगा । एक
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उत्तरखण्ड ]
• पौण्डक आदिका वध, सुदामाको ऐश्वर्य-प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार .
दिन अभिमान और बलसे उन्मत्त हुए काशिराजके पास जरासन्धकी पुरीमें गये और वहाँ ब्राह्मणका वेष धारण देवर्षि नारदने आकर कहा-'मूढ़ ! वसुदेवनन्दन करके उन सबने राजाके अन्तःपुरमें प्रवेश किया। उन्हें श्रीकृष्णपर विजय पाये बिना तू वासुदेव नहीं हो सकता।' देखकर जरासन्धने साष्टाङ्ग प्रणाम किया और योग्य इतना सुनते ही वह उसी समय श्रीकृष्णको जीतनेके लिये आसनोंपर बिठाकर मधुपर्ककी विधिसे उनका पूजन गरुड़पताकासे युक्त रथपर आरूढ़ हो चारो अङ्गोंसे युक्त करके कहा-'द्विजवरो! मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ। अक्षौहिणी सेनाके साथ यात्रा करके द्वारकामें जा पहुँचा। आपलोग किस लिये मेरे समीप पधारे हैं ? उसे बताये। वहाँ नगरद्वारपर सुवर्णमय रथमें बैठे हुए पौण्ड्क ने मैं आपलोगोंको सब कुछ दूंगा।' तब उनमेंसे भगवान् श्रीकृष्णके पास दूत भेजा और यह सन्देश दिया कि 'मैं श्रीकृष्णने हंसकर कहा- 'राजन् ! हम क्रमशः वासुदेव हूँ तथा युद्धके लिये यहाँ आया हूँ। मुझपर श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन हैं तथा युद्धके लिये विजय पाये बिना तुम वासुदेव नहीं कहला सकते। तुम्हारे पास आये हैं। हममें से किसी एकको द्वन्द्र-युद्धके उसका सन्देश सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़पर आरूढ़ लिये स्वीकार करो।' 'बहुत अच्छा' कहकर उसने उनकी हुए और पौण्ड्रकसे युद्ध करनेके लिये नगरद्वारपर आये। बात मान ली और द्वन्द्र-युद्धके लिये भीमसेनका वरण वहाँ उन्होंने अक्षौहिणी सेनाके साथ रथपर बैठे हुए शङ्क, किया। फिर तो भीमसेन और जरासन्ध अत्यन्त चक्र, गदा और पा धारण करनेवाले पौण्ड्कको देखा। भयंकर मल्लयुद्ध हुआ, जो लगातार सत्ताईस दिनोंतक फिर तो शाधनुष हाथमे ले प्रलयाग्निके समान तेजस्वी चलता रहा। उसके बाद श्रीकृष्णके संकेतसे भीमसेनने वाणोंसे रथ, हाथी, घोड़े और पैदलसहित उसकी बहुत उसके शरीरको चीर डाला और दो टुकड़े करके उसे बड़ी अक्षौहिणी सेनाको भगवान्ने दो ही घड़ीमें भस्म कर पृथ्वीपर गिरा दिया। इस प्रकार पाण्डुनन्दन भौमके द्वारा झला । एक वाणसे उसके हाथोंमें चिपके हुए शङ्ख, चक्र जरासन्धका वध कराकर उसके कैद किये हुए और गदा आदि शस्त्रोंको भी लीलापूर्वक काट दिया। राजाओंको भी भगवान्ने मुक्त किया। वे राजा भगवान् फिर पवित्र सुदर्शनचक्रसे उसके किरीट-कुण्डलयुक्त मधुसूदनको प्रणाम और उनकी स्तुति करके उनके द्वारा मस्तकको काटकर उन्होंने काशीके अन्तःपुरमें गिरा सुरक्षित हो अपने-अपने देशोंको चले गये। दिया। उस मस्तकको देखकर समस्त काशीनिवासी बहुत तदनन्तर भगवान् वासुदेवने भीमसेन और अर्जुनके विस्मित हुए।
साथ इन्द्रप्रस्थमें जाकर महाराज युधिष्ठिरसे राजसूय उधर मगधराज जरासन्ध कंसवधके पश्चात् नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कराया। यज्ञ समाप्त यादवोंसे द्वेषभाव रखते हुए ही उन्हें सदा पीड़ा दिया होनेपर युधिष्ठिरने भीष्मजीकी अनुमतिसे अग्रपूजाका करता था। इससे दुःखित होकर यादवोंने श्रीकृष्णसे अधिकार श्रीकृष्णको ही दिया-सर्वप्रथम उन्हींकी पूजा उसकी चेष्टाएँ बतलायीं। तब भगवान् श्रीकृष्णने की। उस समय शिशुपालने श्रीकृष्णके प्रति बहुत-से भीमसेन और अर्जुनको बुलाकर परामर्श किया-'इस आक्षेपयुक्त वचन कहे। तब श्रीकृष्णने सुदर्शनचक्रके जरासन्धने महादेवजीकी आराधना की है; अतः उनकी द्वारा उसका मस्तक काट डाला। वह तीन जन्मोंकी कृपासे यह शस्त्रोद्वारा नहीं मारा जा सकता। किन्तु समाप्तिके बाद उस समय श्रीहरिके सारूप्यको प्राप्त किसी-न-किसी प्रकार इसका वध करना आवश्यक हुआ। शिशुपालको मारा गया सुनकर दन्तवका है।' फिर कुछ सोचकर भगवान्ने भीमसेनसे कहा- श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये मथुरा में गया। यह सुनकर 'तुम उसके साथ मल्लयुद्ध करो।' भीमसेनने ऐसा श्रीकृष्ण भी मथुरामें ही उससे युद्ध करनेके लिये गये। करनेकी प्रतिज्ञा की। तब सम्पूर्ण चराचर जगत्के वहाँ मथुरापुरीके दरवाजेपर यमुनाके किनारे उन दोनोंमें वन्दनीय भगवान् वासुदेव भीम और अर्जुनको साथ ले दिन-रात युद्ध होता रहा । अन्तमें श्रीकृष्णने दन्तवापर
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. अर्धग्रस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
गदासे प्रहार किया। उसकी चोट खाकर वज्रसे विदीर्ण बाँधकर भगवान् वासुदेवसे मिलनेके लिये परम मनोहर हुए पर्वतकी भाँति उसका सारा शरीर चूर-चूर हो गया द्वारका नगरीमें आया और रुक्मिणीके अन्तःपुरके और वह प्राणहीन होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ा। दरवाजेपर जा क्षणभर चुपचाप खड़ा रहा । इतने में उसके दन्तवका भी योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य नित्यानन्दमय ऊपर श्रीकृष्णकी दृष्टि पड़ी, उन्होंने ब्राह्मणको आया जान सुखसे परिपूर्ण सनातन परमपदरूप भगवत्सायुज्यको आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और प्रणाम करके प्राप्त हुआ। इस प्रकार जय और विजय सनकादिके हाथ पकड़कर महलके भीतर ले जा उसे सुन्दर शापके व्याजसे केवल भगवान्को लीलामें सहयोग आसनपर बिठाया। वह बेचारा भयसे काँप रहा था। देनेके लिये संसारमें तीन बार उत्पन्न हुए और तीनों ही किन्तु भगवान्ने रुक्मिणीके हाथमें रखे हुए सुवर्णमय जन्मोंमें भगवान्के ही हाथसे उनकी मृत्यु हुई । इस तरह कलशके जलसे स्वयं ही उसके दोनों चरण धोकर तीन जन्मोंकी समाप्ति होनेपर वे पुनः मोक्षको प्राप्त हुए। मधुपर्कद्वारा उसका पूजन किया। फिर अमृतके समान " दन्तवक्त्रका वध करनेके पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण मधुर अन्न-पान आदिसे ब्राह्मणको तृप्त करके उसके यमुनाके पार हो नन्दके वजमें गये और पहलेके पुराने चिथड़ेमे बँधे हुए चावलोको लेकर भगवान्ने पिता-माता नन्द और यशोदाको प्रणाम करके उन्होंने उन हंसते-हँसते उनका भोग लगाया। उन्होंने ज्यों ही उन दोनोको आश्वासन दिया। फिर नन्द और यशोदाने भी चावलोंको मुँहमें डाला, त्यों ही ब्राह्मणको प्रचुर धन, नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए भगवानको हृदयसे लगाया। धान्य, वस्त्र एवं आभूषणोंसे युक्त महान् ऐश्वर्य प्राप्त हो तत्पश्चात् श्रीकृष्णने वहाँके समस्त बड़े-बूढ़े गोपोंको गया। किन्तु उस समय भगवान्से खाली हाथ विदा प्रणाम करके आश्वासन दिया और बहुमूल्य रत्न, वस्त्र होकर उसने अपने मनमें इस बातका विचार किया कि तथा आभूषण आदि देकर ब्रजके समस्त निवासियोंको 'इन्होंने मुझे कुछ नहीं दिया।' निवासस्थानमें पहुँचनेपर सन्तुष्ट किया। वहाँ रहनेवाले नन्दगोप आदि सब लोग जब उसने अपने लिये धन-धान्यसे सम्पन्न गृह देखा तो तथा पशु-पक्षी और मृग आदि भी भगवान्की कृपासे उसे निश्चय हो गया कि यह सब श्रीहरिकी कृपासे ही स्त्री-पुत्रोंसहित दिव्यरूप धारण करके विमानपर बैठे प्राप्त हुआ है। ब्राह्मणने प्रसन्नचित्त होकर दिव्य वस्त्र एवं और परम वैकुण्ठधामको चले गये। इस प्रकार समस्त आभूषण आदिके द्वारा पत्नीके साथ समस्त कामनाओंका व्रजवासियोंको अपना निरामय पद प्रदान करके भगवान् उपभोग किया और श्रीहरिकी प्रसन्नताके लिये नाना श्रीकृष्ण शोभामयी द्वारकापुरीमें आये, उस समय प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्हींक प्रसादसे वह आकाशमें स्थित देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे। परमधामको प्राप्त हुआ।
द्वारकामें वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न, धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधनने छलपूर्वक जुआ खेलकर अनिरुद्ध और अक्रूर आदि यादव सदा भगवान् उसीके व्याजसे पाण्डवोका सारा राज्य हड़प लिया था श्रीकृष्णका पूजन किया करते थे। वे विश्वरूपधारी और उन्हें अपने राज्यसे निर्वासित कर दिया था। इससे भगवान् भांति-भाँतिके दिव्य रत्नोद्वारा निर्मित मनोहर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपनी गृहोंमें कल्पवृक्षके फूलोंसे सजी हुई स्वच्छ एवं कोमल पत्नी द्रौपदीके साथ महान् वनमें जाकर वहाँ बारह शय्याओंपर सोलह हजार आठ रानियोंके साथ प्रतिदिन वर्षांतक रहे। फिर एक सालतक उन्हें अज्ञातवास करना आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों श्रीकृष्ण और पड़ा। अन्तमें सब मत्स्यदेशके राजा विराटके भवनमें बलरामजीका बालसखा एवं सहपाठी एक ब्राह्मण था, एकत्रित हुए और भगवान् श्रीकृष्णको सहायताले जो अत्यन्त दरिद्रतासे पीड़ित रहता था। एक दिन वह धृतराष्ट्र-पुत्रोंके साथ युद्ध करनेको आये। अनेक देशोंसे भोखमें मिला हुआ मुट्ठीभर चावल पुराने चिथड़ेमें आये हुए राजाओंके साथ परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें जुटे
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पौण्ड्रक आदिका वध, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार •
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हुए पाण्डवों और धृतराष्ट्र-पुत्रोंमें बहुत बड़ा संग्राम हुआ, जो देवताओंके लिये भी भयंकर था। उसमें श्रीकृष्णने अर्जुनके सारथिका काम किया और अपनी शक्ति अर्जुनमें स्थापित करके उनके द्वारा ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओंसहित दुर्योधन, भीष्म, द्रोण तथा अन्यान्य राजाओंका वध कराकर उन्होंने पाण्डवोंको अपने राज्यपर स्थापित कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार उतारकर भगवान्ने द्वारकापुरीमें प्रवेश किया।
गया
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तदनन्तर कुछ कालके बाद एक वैदिक ब्राह्मण अपने मरे हुए पाँच वर्षके बालकको लेकर द्वारकामें राजाके द्वारपर रखकर बहुत विलाप करने लगा। उसने श्रीकृष्णके प्रति बहुत आक्षेपयुक्त वचन कहे। श्रीकृष्ण उस आक्षेपको सुनकर भी चुप रहे। ब्राह्मण कहता - 'मेरे पाँच पुत्र पहले मर चुके हैं। यह छठा पुत्र है। यदि श्रीकृष्ण मेरे इस पुत्रको जीवित नहीं करेंगे तो मैं इस राजद्वारपर प्राण दे दूंगा।' इसी समय अर्जुन भगवान् श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये द्वारकामें आये। वहाँ उन्होंने पुत्रशोकसे विलाप करते हुए ब्राह्मणको देखा उसका पाँच वर्षका बालक कालके मुखमें चला गया है, यह देखकर अर्जुनको बड़ी दया आयी। उन्होंने ब्राह्मणको अभयदान देकर प्रतिज्ञा की— 'मैं तुम्हारे पुत्रको जीवित कर दूंगा।' उनसे आश्वासन पाकर ब्राह्मण प्रसन्न हो गया। उन्होंने मन्त्र पढ़कर अनेक सञ्जीवनास्त्रोंका प्रयोग किया; किन्तु वह बालक जीवित न हुआ। इससे अपनी प्रतिशा झूठी होती देख अर्जुनको बड़ा शोक हुआ और उन्होंने उस ब्राह्मणके साथ ही प्राण त्याग देनेका विचार किया। यह सब जानकर भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुरसे बाहर निकले और उस वैदिक ब्राह्मणसे बोले - 'मैं तुम्हारे सभी पुत्रोंको ला दूंगा।' ऐसा कहकर उसे आश्वासन दे अर्जुनसहित गरुड़पर आरूढ़ हो वे विष्णुलोकमें गये। वहाँ दिव्य मणिमय मण्डपमें श्रीलक्ष्मीदेवीके साथ बैठे हुए भगवान् नारायणको देखकर श्रीकृष्ण और अर्जुनने उन्हें नमस्कार किया। भगवान्ने उन दोनोंको अपनी भुजाओंमें कस लिया और पूछा—'तुम दोनों किस लिये आये हो ?'
श्रीकृष्णने कहा- 'भगवन्! मुझे वैदिक ब्राह्मणके पुत्रोंको दे दीजिये।' तब भगवान् नारायणने वैसी ही अवस्थामें स्थित अपने लोकमें विद्यमान ब्राह्मणपुत्रोंको श्रीकृष्णके हाथमें सौंप दिया। श्रीकृष्ण भी उन्हें गरुड़के कंधेपर बिठाकर प्रसन्नतापूर्वक अर्जुनसहित स्वयं भी गरुड़पर सवार हुए और आकाशमें देवताओंके मुँहसे अपनी स्तुति सुनते हुए द्वारकापुरीमें आये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ब्राह्मणके छः पुत्र उन्हें समर्पित कर दिये तब वह अत्यन्त हर्षमें भरकर श्रीकृष्णको अभ्युदयकारक आशीर्वाद देने लगा। अर्जुनकी भी प्रतिज्ञा सफल हुई; इसलिये उनको भी बड़ा हर्ष था। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करके महाराज युधिष्ठिरद्वारा पालित अपनी पुरीकी राह ली।
श्रीकृष्णके सोलह हजार रानियोंके गर्भसे कुल अयुत सहस्र (एक करोड़) पुत्र उत्पन्न हुए थे। इस विषयमें कहते हैं— 'श्रीकृष्णके एक करोड़ आठ सौ पुत्र थे। उन सबमें रुक्मिणीनन्दन प्रद्युन ही बड़े थे, असंख्य यदुवंशियोंसे यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी थी ।
एक दिन समस्त यादवकुमार घूमनेके लिये नर्मदातटपर गये। वहाँ महर्षि कण्व तपस्या कर रहे थे। यादवकुमारोंने जाम्बवतीके पुत्र साम्बको स्त्रीके वेषमें सजाकर उसके पेटमें एक लोहेका मूसल बाँध दिया। फिर धीरे-धीरे ऋषिके समीप आकर सबने नमस्कार किया और स्त्रीरूपधारी साम्बको आगे खड़ा करके पूछा—'मुने! बताइये इस स्त्रीके गर्भमें कन्या है या पुत्र ?' मुनिने मन-ही-मन सब बात जानकर क्रोधपूर्वक कहा- -'अरे! तुम सब लोग इसी मूसलसे मारे जाओगे।' यह सुनकर सबका हृदय उद्विग्न हो उठा। उन्होंने श्रीकृष्णके पास आकर महर्षिकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। श्रीकृष्णने उस लोहेके मूसलको चूर्ण करके कुण्डमें डलवा दिया। उस चूर्णसे वज्रके समान कठोर बड़े-बड़े सरकंडे उग आये। मूसलके चूर्ण होनेसे एक लोहा बच गया था, जो कनिष्ठिका अंगुलीके बराबर था। उसको एक मत्स्य निगल गया। उस मत्स्यको निषादने पकड़ा और उसके पेटसे उस मूसलावशेष
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अक्षयत्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
लोहेको निकालकर बाणके आगेका फल बनवा लिया। कुछ दिनोंके बाद समस्त यादव परस्पर आक्षेपयुक्त वचन कहते हुए उन सरकंडोंद्वारा एक दूसरेसे लड़कर नष्ट हो गये । भगवान् श्रीकृष्ण युद्धसे श्रान्त होकर कल्पवृक्षकी छायामें सो रहे थे। उसी समय वह निषाद धनुष-बाण लेकर शिकार खेलनेके लिये आया। भगवान् श्रीकृष्णके सिवा समस्त यादव युद्धमें काम आये थे, वे सभी मरनेके पश्चात् अपने-अपने देवस्वरूपमें मिल गये। इस प्रकार मूसलद्वारा सबका संहार करके अकेले भगवान् श्रीकृष्ण अनेक लताओंसे व्याप्त महान् कल्पवृक्षकी छायामें लेटे हुए अपने चतुर्व्यूहगत वासुदेवस्वरूपका चिन्तन कर रहे थे। वे घुटनेपर अपना एक पैर रखे मानव लोकका त्याग करनेको उद्यत थे। उसी समय मृगयासे जीविका चलानेवाले उस निषादने कालके प्रभावसे चक्र, वज्र, ध्वजा और अङ्कुरा आदि चिह्नोंसे अङ्कित भगवान्के अत्यन्त लाल तलवेको (मृग जानकर) लक्ष्य करके बींध डाला। उसके बाद उसने भगवान् श्रीकृष्णको पहचाना। फिर तो महान् भयसे पीड़ित हो वह थर-थर काँपने लगा और दोनों हाथ जोड़कर बोला- 'नाथ ! मुझसे बड़ा अपराध हुआ, क्षमा करें।' यों कहकर वह भगवान्के चरणोंमें पड़ गया।
निषादको इस अवस्थामें देख भगवान् श्रीकृष्णने अपने अमृतमय हाथोंसे उठाया और यह कहकर कि 'तुमने कोई अपराध नहीं किया है। उसे आश्वासन दिया। इसके बाद उसे योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य पुनरावृत्तिरहित सनातन विष्णुलोक प्रदान किया। फिर तो वह स्त्री और पुत्रोंसहित मानव शरीरका त्याग करके दिव्य विमानपर बैठा तथा सहस्रों सूर्योके समान प्रकाशमान हिरण्मय वासुदेव नामक विष्णुधामको चला गया। इसी समय दारुक रथ लेकर भगवान् श्रीकृष्णके समीप आये। भगवान्ने कहा-' - 'मेरे स्वरूपभूत अर्जुनको यहाँ बुला ले आओ।' आज्ञा पाकर दारुक मनके समान वेगशाली रथपर आरूढ़ हो तुरंत ही अर्जुनके समीप जा पहुँचे। अर्जुन उस रथपर बैठकर आये और भगवान्को प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले,
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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'मेरे लिये क्या आज्ञा है ?' भगवान् श्रीकृष्णने कहा 'मैं परमधामको जाऊँगा। तुम द्वारका जाकर वहाँसे रुक्मिणी आदि आठ पटरानियोंको यहाँ ले आकर मेरे शरीरके साथ भेजो।' अर्जुन दारुकके साथ द्वारकापुरीको गये। इधर भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्के सृष्टि, पालन और संहारके हेतुभूत, सम्पूर्ण क्षेत्रोंके ज्ञाता, अन्तर्यामी, योगियोंद्वारा ध्यान करनेके योग्य, अपने वासुदेवात्मक स्वरूपको धारण करके गरुड़पर आरूढ़ हो महर्षियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए परमधामको चले गये। अर्जुनने द्वारकामें वसुदेव और उग्रसेनसे तथा रुक्मिणी आदि पटरानियोंसे सारा हाल कह सुनाया। यह सुनकर श्रीकृष्णमें अनुराग रखनेवाले समस्त पुरवासी पुरुष और अन्तःपुरकी स्त्रियाँ द्वारकापुरी छोड़कर बाहर निकल आयीं तथा वसुदेव, उग्रसेन और अर्जुनके साथ शीघ्र ही श्रीहरिके समीप आयीं, वहाँ पहुँचकर आठों रानियाँ श्रीकृष्णके स्वरूपमें मिल गयीं। वसुदेव, उग्रसेन और अक्रूर आदि सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादव अपना-अपना शरीर त्यागकर सनातन वासुदवको प्राप्त हुए। रेवती देवीने बलरामजीके शरीरको अङ्कमे लेकर चिताकी अग्रिमें प्रवेश किया और दिव्य विमानपर बैठकर वे अपने स्वामीके निवासस्थान दिव्य सङ्कर्षण लोकमें चली गयीं। इसी प्रकार रुक्मीकी पुत्री प्रधुनके साथ, ऊषा अनिरुद्धके साथ तथा यदुकुलकी अन्य स्त्रियाँ अपने-अपने पतियोंके शरीरके साथ अप्रिप्रवेश कर गयीं। उन सबका और्ध्वदैहिक कर्म अर्जुनने ही सम्पन्न किया। उस समय दारुक भी दिव्य अश्वोंसे जुते हुए सुग्रीव नामक दिव्य रथपर आरूढ़ हो परमधामको चले गये। पारिजात वृक्ष और देवताओंकी सुधर्मा सभा-ये दोनों इन्द्रलोकमें पहुँच गये। तत्पश्चात् द्वारकापुरी समुद्रमें डूब गयी! अर्जुन भी यह कहते हुए कि 'अब मेरा भाग्य नष्ट हो गया' सायंकालीन सूर्यकी भाँति तेजोहीन होकर अपनी पुरीमें चले आये।
इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंके हितके लिये तथा पृथ्वीके समस्त भारका नाश करनेके लिये भगवान्ने यदुकुलमें अवतार लिया और सम्पूर्ण राक्षसों तथा
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गारखण्ड ] ...
• श्रीविष्णु-पूजनकी विधि तथा वैष्णवोषित आधारका वर्णन •
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पृथ्वीके महान् भारका नाश करके नन्दके व्रज, मथुरा ध्यान करता है, वह विजयी होता है। इस विषयमें बहुत और द्वारकामें रहनेवाले समस्त चराचर प्राणियोंको कहनेकी क्या आवश्यकता, जो सब कामनाओंका फल कालधर्मसे मुक्त किया। फिर उन्हें. अपने शाश्वत, प्राप्त करना चाहता हो, वह विद्वान् मनुष्य 'श्रीकृष्णाय योगिगम्य, हिरण्मय, रम्य एवं परमैश्वर्यमय पदमें स्थापित नमः' इस मन्त्रका उच्चारण करता रहे। 'सबको अपनी करके वे परमधाममें दिव्य पटरानियों आदिसे सेवित हो ओर खींचनेवाले कृष्ण, सबके हृदयमें निवास करनेवाले सानन्द निवास करने लगे।.
वासुदेव, पाप-तापको हरनेवाले श्रीहरि, परमात्मा तथा पार्वती ! यह भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त अद्भुत प्रणतजनोंका लेश दूर करनेवाले भगवान् योविन्दको चरित्र सब प्रकारके उत्तम फल प्रदान करनेवाला है। मैंने बारम्बार नमस्कार है। * जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस इसे संक्षेपमें ही कहा है। जो वासुदेवके इस चरित्रका मन्त्रका जप करता है, वह सब पापोसे मुक्त हो श्रीहरिके समीप पाठ, श्रवण अथवा चिन्तन करता है, श्रीविष्णुलोकको जाता है। भगवान् जनार्दन सम्पूर्ण वह भगवान्के परमपदको प्राप्त होता है। महापातक देवताओके ईश्वर है। वे समस्त लोकोंकी रक्षा करनेके अथवा उपपातकसे युक्त मनुष्य भी बालकृष्णके लिये ही भिन्न-भिन्न अवस्थाओको ग्रहण करते चरित्रको सुनकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। द्वारकामें हैं। वे ही किसी विशेष उद्देश्यकी सिद्धिके लिये विराजमान रुक्मिणीसहित श्रीहरिका स्मरण करके मनुष्य बुद्धरूपमें अवतीर्ण होते है। कलियुगके अन्तमें एक निश्चय ही पापरहित हो महान् ऐश्वर्यरूप परमधामको ब्राह्मणके घरमें अवतीर्ण हो भगवान् जनार्दन समस्त प्राप्त होता है। जो संग्राममें, दुर्गम सङ्कटमें तथा शत्रुओंसे म्लेच्छोंका संहार करेंगे। ये सब जगदीश्वरको घिर जानेपर सब देवताओंके नेता भगवान् विष्णुका वैभवावस्थाएँ हैं।
श्रीविष्णु-पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
पार्वतीजीने कहा-भगवन् ! आपने श्रीहरिकी लकड़ो अथवा लोहा आदिसे श्रीहरिकी आकृति बनाकर वैभवावस्थाका पूरा-पूरा वर्णन किया। इसमें भगवान् श्रुति, स्मृति तथा आगममें बतायी हुई विधिके अनुसार श्रीराम और श्रीकृष्णका चरित्र बड़ा ही विस्मयजनक है। जो भगवान्को स्थापना होती है, वह 'स्थापित विग्रह' है अहो ! भगवान् श्रीराम और परमात्मा श्रीकृष्णकी लीला तथा जहाँ भगवान् अपने-आप प्रकट हुए हों, वह 'स्वयं कितनी अद्भुत है? देवेश्वर ! मैं तो इस कथाको सौ व्यक्त विग्रह' कहलाता है। भगवान्का विग्रह स्वयं कल्पोतक सुनती रहूँ तो भी मेरा मन कभी इससे तृप्त व्यक्त हो या स्थापित, उसका पूजन अवश्य करना नहीं होगा। अब मैं इस समय भगवान् विष्णुके उत्तम चाहिये। देवताओं और महर्षियोंके पूजनके लिये माहात्म्य और पूजन विधिका श्रवण करना चाहती हूँ। जगत्के स्वामी सनातन भगवान् विष्णु स्वयं ही
श्रीमहादेवजीने कहा-देवि! मैं परमात्मा प्रत्यक्षरूपसे उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। जिसका श्रीहरिके स्थापन और पूजनका वर्णन करता हैं, सुनो। भगवान्के जिस विग्रहमें मन लगता है, उसके लिये वे भगवान्का विग्रह दो प्रकारका बताया गया है-एक तो उसी रूपमें भूतलपर प्रकट होते है; अतः उसी रूपमें 'स्थापित' और दूसरा 'स्वयं व्यक्त ।' पत्थर, मिट्टी, भगवानका सदा पूजन करना चाहिये और उसीमें सदा
* किमत्र , बहुनोक्तेन सर्वकामफलस्पृहः । कृष्णाय नम इत्येवं मन्त्रमुखारयेत् बुधः । .. कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतकेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ (२७१ । १०६-१०७)
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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीलसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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अनुरक्त रहना चाहिये। पार्वती ! श्रीरङ्ग क्षेत्रमें शयन भगवत्प्राप्तिके सिवा और किसी फलके साधक नहीं है, करनेवाले भगवान् विष्णुका विधिपूर्वक पूजन करना जो वेदवेत्ता, ब्रह्मतत्त्वज्ञ, वीतराग, मुमुक्षु गुरुभक्त, चाहिये। काशीपुरीमें पापहारी भगवान् माधव मेरे भी प्रसन्नात्मा, साधु, ब्राह्मण अथवा इतर मनुष्य है, उन पूजनीय हैं। जिस-जिस रमणीय भवनमें सनातन भगवान् सबको सदा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। बुद्धिमान् स्वयं व्यक्त होते हैं, वहाँ-वहाँ जाकर मैं आनन्दका पुरुषको चाहिये कि वह वेद और स्मृतियोंमें बताये हुए अनुभव किया करता हूँ। भगवान्का दर्शन हो जानेपर वे उत्तम सदाचारका सदा पालन करे। उनमें बताये हए मनोवाञ्छित वरदान देते हैं। इस पृथ्वीपर प्रतिमा कोका कभी उल्लङ्गन न करे । शम (मनोनिग्रह), दम अज्ञानीजनोंको भी सदा भगवान्का सानिध्य प्राप्त होता (इन्द्रियसंयम), तप (धर्मके लिये क्लेशसहन एवं रहता है। परम पुण्यमय जम्बूद्वीप और उसमें भी तितिक्षा), शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), सत्य भारतवर्षके भीतर प्रतिमा भगवान् विष्णु सदा सन्निहित (मन, वाणी और क्रियाद्वारा सत्यका पालन), मांस न रहते हैं: अतः मुनियों तथा देवताओंने भारतवर्षमें ही तप, खाना, चोरी न करना और किसी भी जीवकी हिंसा न यज्ञ और क्रिया आदिके द्वारा सदा श्रीविष्णुका सेवन
वष्णुका संवन करना-यह सबके लिये धर्मका साधन है।*
_ किया है। इन्द्रद्युमसरोवर, कूर्मस्थान, सिंहाचल,
रातके अन्तमें उठकर विधिपूर्वक आचमन करे। करवीरक, काशी, प्रयाग, सौम्य, शालग्रामार्चन, द्वारका,
फिर गुरुजनोंको नमस्कार करके मन-ही-मन भगवान् नैमिषारण्य, बदरिकाश्रम, कृतशौचतीर्थ, पुण्डरीकतीर्थ,
विष्णुका स्मरण करे। मौन हो पवित्रभावसे भक्तिपूर्वक दण्डकवन, मथुरा, वेङ्कटाचल, श्वेताद्रि, गरुडाचल,
सहस्रनामका पाठ करे। तत्पश्चात् गाँवसे बाहर जाकर काशी, अनन्तशयन, श्रीरङ्ग, भैरवगिरि, नारायणाचल,
विधिपूर्वक मल-मूत्रका त्याग करे। फिर उचित रूपसे वाराहतीर्थ और वामनाश्रम-इन सब स्थानोंमें भगवान् श्रीहरि स्वयं व्यक्त हुए हैं; अतः उपर्युक्त स्थान सम्पूर्ण
शरीरकी शुद्धि करके कुल्ला करे और शुद्ध एवं पवित्र कामनाओं तथा फलोको देनेवाले हैं। इनमें श्रीजनार्दन
हो दन्तधावन करके विधिपूर्वक स्नान करे । तुलसीके स्वयं ही सन्निहित होते हैं। ऐसे ही स्थानोंमें जो भगवान्का
मूलभागकी मिट्टी और तुलसीदल लेकर मूलमन्त्रसे' विग्रह है, उसे मुनिजन 'स्वयं व्यक्त' कहते हैं। महान्
और गायत्रीमन्त्रसे अभिमन्त्रित करके मन्त्रसे ही उसको भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ पुरुष यदि विधिपूर्वक भगवानकी सम्पूर्ण शरीरमें लगावे। फिर अघमर्षण करके स्रान स्थापना करके मन्त्रके द्वारा उनका सानिध्य प्राप्त करे। गङ्गाजी भगवान्के चरणोंसे प्रकट हुई हैं। अतः करावे तो उस स्थापनाका विशेष महत्त्व है। गाँवोमे उनके निर्मल जलमें गोता लगाकर अघमर्षण-सूक्तका अथवा घरोंमें जो ऐसे विग्रह हो, उनमें भगवानका पूजन जप करे। फिर आचमन करके पुरुषसूक्तके मन्त्रोंसे करना चाहिये । सत्पुरुषोंने घरपर शालग्रामशिलाकी पूजा क्रमशः मार्जन करे। पुनः जलमें डुबकी लगाकर उत्तम बतायी है।
अट्ठाईस या एक सौ आठ बार मूलमन्त्रका जप करे। 1. पार्वती ! भगवान्की मानसिक पूजाका सबके लिये इसके बाद वैष्णव-पुरुष उक्त मन्त्रसे ही जलको समानरूपसे विधान है, अतः अपने-अपने अधिकारके अभिमन्त्रित करके उससे आचमन करे। तदनन्तर अनुसार सबको जगदीश्वरकी पूजा करनी चाहिये। जो देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे । फिर वस्त्र भगवान्के सिवा दूसरे किसी देवताके भक्त नहीं है; निचोड़ ले। उसके बाद आचमन करके धौतवस्त्र पहने।
* शमो दमस्तपः शौच सत्यमामिषवर्जनम् । अस्तेयमेवाहिसा च सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥ (२८० । ३९) १-ॐ नमो नारायणाय' यह अष्टाक्षर मन्त्र ही मूलमन्त्र है।
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उत्तरखण]
. श्रीविष्णु-पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन .
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वैष्णव पुरुष निर्मल एवं रमणीय मृत्तिका ले उसे मन्त्रसे साथ तुलसीदल मिला हो। इसके बाद उक्त दोनों ही अभिमन्त्रित करके ललाट आदिमे लगावे। आलस्य प्रकारके मन्त्रोंसे प्रत्युपचार अर्पण करे। सुगन्धित तेलसे छोड़कर परिगणित अङ्गोंमे ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करे । उसके भगवानको अभ्यङ्ग लगावे । कस्तूरी और चन्दनसे उनके बाद विधिपूर्वक सन्ध्योपासना करके गायत्रीका जप करे। श्रीअङ्गमें उबटन लगावे। फिर मन्त्रका पाठ करते हुए तदनन्तर मनको संयममें रखकर घर जाय और पैर धो सुगन्धित जलसे भगवान्को स्नान करावे। तत्पश्चात् मौनभावसे आचमन करके एकाग्रचित्त हो पूजा- दिव्य वस्त्र और आभूषणोंसे विधिपूर्वक भगवानका मण्डपमें प्रवेश करे।
ङ्गार करे। फिर उन्हें मधुपर्क दे तथा भक्तिके साथ एक सुन्दर सिंहासनको फूलोंसे सजाकर भगवान् सुगन्धित चन्दन और सौरभयुक्त सुन्दर पुष्प निवेदन लक्ष्मीनारायणको विराजमान करे। फिर गन्ध, पुष्प और करे। इसके बाद दशाङ्ग या अष्टाङ्ग धूप, मनोहर दीप अक्षत आदिके द्वारा विधिपूर्वक भगवानका पूजन और भाँति-भाँतिके नैवेद्य भेंट करे। नैवेद्यमें खीर और आरम्भ करे। विग्रह स्थापित, स्वयं-व्यक्त अथवा मालपूआ भी होने चाहिये। नैवेद्यके अन्तमें आचमन शालग्रामशिला-कोई भी क्यों न हो, श्रुति, स्मृति और कराकर भक्तियुक्त हृदयसे कर्पूर-मिश्रित ताम्बूल निवेदित आगमोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार उसका पूजन करे। फिर घीकी बत्तियोंसे आरती करके भगवानको करना उचित है। वैष्णव पुरुष शुद्धचित्त हो गुरुके फूलोंकी माला पहनावे । तदनन्तर समीप जा विनीतउपदेशके अनुसार भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुका यथायोग्य भावसे प्रणाम करके उत्तम स्तोत्रोंद्वारा भगवान्का स्तवन पूजन करे। वेदों तथा ब्राह्मणग्रन्थों में बतायी हुई पूजा करे। फिर उन्हें गरुड़के अङ्कमें शयन कराकर मङ्गलार्घ्य 'श्रौत' कहलाती है। वासिष्ठी पद्धतिके अनुसार को निवेदन करे। उसके बाद पवित्र नामोंका कीर्तन करके जानेवाली पूजाको 'स्मात' कहते हैं। तथा पाश्चरात्रमें होम करे। भगवानको भोग लगाये हुए नैवेद्यसे जो शेष बताया हुआ विधान 'आगम' कहलाता है। भगवान् बचे, उसीसे अग्निमें हवन करे । प्रत्येक आहुतिके साथ विष्णुकी आराधना बहुत ही उत्तम कर्म है। इस क्रियाका पुरुषसूक्त अथवा मङ्गलमय श्रीसूक्तकी एक-एक कभी लोप नहीं करना चाहिये। आवाहन, आसन, ऋचाका पाठ करे। वेदोक्त विधिसे स्थापित अग्निमें अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय, खानीय, वस्त्र, यज्ञोपवीत, घृतमिश्रित हविष्यके द्वारा उपर्युक्त मन्त्ररत्नका एक सौ गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल एवं आठ या अट्ठाईस बार जप करके हवन करना चाहिये नमस्कार आदि उपचारोंके द्वारा अपनी शक्तिके अनुसार और हवनकालमें यज्ञस्वरूप महाविष्णुका ध्यान भी प्रसन्नतापूर्वक श्रीविष्णुको आराधना करे।* करना चाहिये। पुरुषसूक्तकी प्रत्येक ऋचा तथा मूलमन्त्र-इन दोनोंहीसे शुद्ध जाम्बूनद नामक सुवर्णके समान जिनका वैष्णव पुरुष षोडशोपचार समर्पण करे। पुनः प्रत्युपचार श्याम वर्ण है, जो शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले अर्पण करके पुष्पाञ्जलि दे। वैष्णवको चाहिये कि वह है, जिनमें अङ्ग-उपाङ्गोसहित सम्पूर्ण वेद-वेदान्तोंका ज्ञान मुद्राद्वारा भगवान जगन्नाथका आवाहन करे। फिर फूल भरा हुआ है तथा जो श्रीदेवीके साथ सुशोभित हो रहे
और मुद्रासे ही आसन दे। इसी प्रकार क्रमशः पाध, हैं, उस भगवान्का ध्यान करके होम करना चाहिये। अर्ध्य, आचमन और स्रानके लिये भित्र-भिन्न पात्रोंमें मन्त्रद्वारा होम करनेके पश्चात् नामोंका उच्चारण करके निर्मल जल समर्पित करे। उस जलमें माङ्गलिक द्रव्योंके एक-एकके लिये एक-एक आहुति देनी चाहिये।
• आवाहनासनाधैिर्गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ।धूपैर्दीपेच नैवेद्यस्ताम्बूलाधनमस्कृतैः ॥
कुर्यादाराधनं विष्णोर्यथाशक्ति मुद्दान्वितः। (२८० । ५७-५८)
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. अर्थयस्व हवीकेश यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्यपुराण
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भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ पुरुष भगवान्के 'नित्य भक्तों के विष्णु विराजमान हैं, जो कोटि चन्द्रमाओंके समान उद्देश्यसे उनके नाम ले-लेकर आहुति दे। पहले क्रमशः प्रकाशमान हो रहे हैं। उनके चार भुजाएँ, सुन्दर श्रीअङ्ग भूदेवी, लीलादेवी और विमला आदि शक्तियाँ होमकी तथा हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा है। पद्य-पत्रके समान अधिकारिणी हैं। फिर अनन्त, गरुड आदि, तदनन्तर विशाल नेत्र शोभा पा रहे हैं। वे समस्त शुभ लक्षणोसे वासुदेव आदि, तत्पश्चात् शक्ति आदि, इनके बाद केशव सम्पन्न दिखायी देते हैं। उनके हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न आदि विग्रह, संकर्षण आदि व्यूह, मत्स्य-कूर्म आदि है, वहीं कौस्तुभमणिका प्रकाश छा रहा है। भगवान् पीत अवतार, चक्र आदि आयुध, कुमुद आदि देवता, चन्द्र वस्त्र, विचित्र आभूषण, दिव्य शृङ्गार, दिव्य चन्दन, आदि देव, इन्द्र आदि लोकपाल तथा धर्म आदि देवता दिव्य पुष्प, कोमल तुलसीदल और वनमालासे विभूषित क्रमशः होमके अधिकारी हैं। इन सबका हवन और हैं। कोटि-कोटि बालसूर्यके सदृश उनकी सुन्दर कान्ति विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये। इस प्रकार है। उनके श्रीविग्रहसे सटकर बैठी हुई श्रीदेवी भी सब भगवद्भक्त पुरुष नित्य-पूजनकी विधिमें प्रतिदिन प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देती हैं। एकाग्रचित्त हो हवन करे। इस हवनका नाम इस प्रकार ध्यान करते हुए एकाग्रचित्त एवं शुद्ध हो 'वैकुण्ठहोम' है।
अष्टाक्षरमन्त्रका एक हजार या एक सौ बार यथाशक्ति गृहमें पूजा करनेपर उस घरके दरवाजेपर जप करे। फिर भक्तिपूर्वक मानसिक पूजा करके विराम पञ्चयज्ञकी विधिसे बलि अर्पण करे, फिर आचमन कर करे। उस समय जो भगवद्भक्त पुरुष वहाँ पधारे हो, उन्हें ले। तत्पश्चात् कुशके आसनपर काला मृगचर्म बिछाकर अन्न-जल आदिसे सन्तुष्ट करे और जब वे जाने लगे तो उस शुद्ध आसनके ऊपर बैठे। मृगचर्म अपने-आप मरे उनके पीछे-पीछे थोड़ी दूर जाकर विदा करे । देवताओं हुए मृगका होना चाहिये। पद्मासनसे बैठकर पहले तथा पितरोंका विधिपूर्वक पूजन एवं तर्पण करे और भूतशुद्धि करे, फिर जितेन्द्रिय पुरुष मन्त्रपाठपूर्वक तीन अतिथि एवं भृत्यवोंका यथावत् सत्कार करके सबके बार प्राणायाम कर ले । तदनन्तर मन-ही-मन यह भावना अन्तमें वह और उसकी पत्नी भोजन करे। यक्ष, राक्षस करे कि 'मेरे हृदय-कमलका मुख ऊपरकी ओर है और और भूतोंका पूजन सदा त्याग दे। जो श्रेष्ठ विप्र उनका वह विज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशसे विकसित हो रहा है।' पूजन करता है, वह निश्चय ही चाण्डाल हो जाता है। इसके बाद श्रेष्ठ वैष्णव पुरुष उस कमलकी वेदत्रयीमयी ब्रह्मराक्षस, वेताल, यक्ष तथा भूतोंका पूजन मनुष्योंके कर्णिका क्रमशः अग्निबिम्ब, सूर्यबिम्ब और लिये महाघोर कुम्भीपाक नामक नरककी प्राप्ति चन्द्रबिम्बका चिन्तन करे। उन बिम्बोंके ऊपर नाना करानेवाला है। यक्ष और भूत आदिके पूजनसे कोटि प्रकारके रलोद्वारा निर्मित पीठकी भावना करे। इसके जन्मोंके किये हुए यज्ञ, दान और शुभ कर्म आदि पुण्य ऊपर बालरविके सदृश कान्तिमान् अष्टविध ऐश्वर्यरूप तत्काल नष्ट हो जाते है।* जो यक्षों, पिशाचों तथा अष्टदलकमलका चिन्तन करे। प्रत्येक दल अष्टाक्षर तमोगुणी देवताओंको निवेदित किया हुआ अन्न खाता मन्त्रके एक-एक अक्षरके रूपमें हो। फिर ऐसी भावना है, वह पीब और रक्त भोजन करनेवाला होता है। जो करे कि उस अष्टदल-कमलमें श्रीदेवीके साथ भगवान् स्त्री, यक्ष, पिशाच, सर्प और राक्षसोंकी पूजा करती है,
* यक्षराक्षसभूतानामचनं वर्जयेत् सदा । यो महान् कुरुते विप्रः स चाण्डालो भवेद् ध्रुवम् ॥
ब्रह्मराक्षसवेतालयक्षभूतार्चनं नृणाम्। कुम्भीपाकमहापोरनरकप्राप्तिसाधनम्॥ कोटिजन्यकृतं पुष्य यज्ञदान क्रियादिकम् । सद्यः सर्व लय याति यक्षभूतादिपूजनात् ।
(२८०.९४, ९६-९७)
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उत्तरखण्ड ]
श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन.
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वह नीचे मुँह किये घोर कालसूत्र नामक नरकमें गिरती है। * अतः यक्ष आदि तामस देवताओंकी पूजा त्याग देनी चाहिये।
तथा
नैमित्तिक और काम्य । इसी प्रकार मुनियोंने शानके भेदोंका भी वर्णन किया है— कृत्याकृत्यविवेक ज्ञान, परलोकचिन्तन-ज्ञान, विष्णुप्राप्तिसाधन- ज्ञान विष्णुस्वरूप-ज्ञान- -ये चार प्रकारके ज्ञान हैं। पार्वती । नैमित्तिक कृत्यमें भगवान्का विशेषरूपसे विधिवत् पूजन करना चाहिये। कार्तिकमासमें प्रतिदिन चमेलीके फूलोंसे श्रीहरिकी पूजा करे, उन्हें अखण्ड दीप दे तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करे। फिर कार्तिकके अन्तमें ब्राह्मणोंको भोजन करावे, इससे वह श्रीहरिके सायुज्यको प्राप्त होता है। पौषमासमें सूर्योदयके पहले उठकर लगातार एक मासतक उत्पल तथा श्याम श्वेत कनेर पुष्पोंसे भगवान् विष्णुका पूजन करे। तत्पश्चात् यथाशक्ति धूप, दीप और नैवेद्य निवेदन करे। मासकी समाप्ति होनेपर श्रेष्ठ भगवद्भक्तोंको भोजन करावे। ऐसा करनेसे मनुष्य निश्चय ही एक हजार अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करता है। माघमासमें सूर्योदयके समय विशेषतः नदीके जलमें स्नान करके उत्पल (कमल) के पुष्पोंसे माधवकी पूजा करनी चाहिये और उन्हें भक्तिपूर्वक घृतमिश्रित दिव्य खीरका भोग लगाना चाहिये। चैत्रमासमें वकुल (मौलसिरी) और चम्पाके फूलोंसे भगवान्की पूजा करके गुड़मिश्रित अन्नका भोग लगावे तदनन्तर मासकी समाप्ति होनेपर एकाग्रचित्त हो वैष्णव ब्राह्मणोंको भोजन करावे। ऐसा करनेसे प्रतिदिन एक हजार वर्षोंकी पूजाका पुण्य प्राप्त होता है। वैशाखमासमें शतपत्र' और महोत्पलके' पुष्पोंसे विधिवत् भगवान्का पूजन करके उन्हें दही, अन्न और फलके साथ गुड़ और जल भक्तिपूर्वक निवेदन करे। इससे लक्ष्मीसहित जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। ज्येष्ठमासमें श्वेत कमल, गुलाब, कुमुद और उत्पलके पुष्पोंसे भगवान् हृषीकेशका पूजन करके उन्हें आमके फलोंके साथ अन्न भोग लगावे ।
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कर्म तीन प्रकारका माना गया है— नित्य, भक्तिपूर्वक ऐसा करनेसे मनुष्यको कोटि गोदानका फल
वैष्णव पुरुष विश्ववन्द्य भगवान् नारायणका पूजन करके उनके चारों ओर विराजमान देवताओंका पूजन करे । भगवान्को भोग लगाये हुए अनमेंसे निकालकर उसीसे उनके लिये बलि निवेदन करे। भगवत्प्रसादसे ही उनके निमित्त होम भी करे। देवताओंके लिये भी भगवत् प्रसादस्वरूप हविष्यका ही हवन करे। पितरोंको ही प्रसाद अर्पण करे; इससे वह सब फल प्राप्त करता है। प्राणियोंको पीड़ा देना विद्वानोंकी दृष्टिमें नरकका कारण है। पार्वती ! मनुष्य दूसरोंकी वस्तुको जो बिना दिये ही ले लेता है, वह भी नरकका कारण है। अगम्या (परायी) स्त्रीके साथ संभोग, दूसरोंके धनका अपहरण तथा अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करनेसे तत्काल नरककी प्राप्ति होती है जो अपनी विवाहिता पत्नीको छोड़कर दूसरी स्त्रीके साथ संभोग करता है, उसका वह कर्म 'अगम्यागमन' कहलाता है, जो तत्काल नरककी प्राप्तिका कारण है। पतित, पाखण्डी और पापी मनुष्योंके संसर्गसे मनुष्य अवश्य नरकमें पड़ता है। उनसे सम्पर्क रखनेवालेका भी संसर्ग छोड़ देना चाहिये। एकान्ती पुरुष महापातकयुक्त ग्रामको छोड़ दे और परमैकान्ती मनुष्य वैसे देशका भी परित्याग कर दे। अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुसार कर्म, ज्ञान और भक्ति आदिका साधन वैष्णव साधन माना गया है। जो भगवान्की आज्ञाके अनुसार कर्म, ज्ञान आदिका अनुष्ठान करता है, वह वासुदेवपरायण ब्राह्मण 'एकान्ती' कहलाता है। वैष्णव पुरुष निषिद्ध कर्मको मन-बुद्धिसे भी त्याग दे। एकान्ती पुरुष अपने धर्मकी निन्दा करनेवाले शास्त्रको मनसे भी त्याग दे और परम एकान्ती भक्त हेय बुद्धिसे उसका परित्याग करे।
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* या नारी पूजयेद् यक्षान् पिशाचोरगराक्षसान् । सा याति नरकं घोरं कालसूत्रमधोमुखी ॥ (२८० | १०१) १-२ कमलके भेद |
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• अर्जयस्व सबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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[संक्षिप्त पद्मपुराण
प्राप्त होता है। फिर मासके अन्तमें वैष्णवोंको भोजन करनेसे वह अपनी करोड़ो पीढ़ियोंका उद्धार करके करानेसे सबका फल अनन्त हो जाता है। आषाढ़मासमें वैष्णवपद (वैकुण्ठधाम) को प्राप्त होता है। श्रेष्ठ वैष्णव देवदेवेश्वर लक्ष्मीपतिकी प्रतिदिन श्रीपुष्पोंसे पूजा करे यदि सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा भगवान्का यजन करनेमें
और उन्हें खीरका भोग लगाये। फिर मासकी समाप्ति असमर्थ हो तो केवल वैष्णव अनुवाकोंद्वारा लगातार होनेपर उत्तम भगवद्भक्त ब्राह्मणोंको भोजन करावे । ऐसा सात राततक प्रतिदिन एक सहस्र पुष्पाञ्जलि समर्पण करे करनेसे वैष्णव पुरुष साठ हजार वर्षोंकी पूजाका फल और हविष्यसे हवन करके भगवान्का यजन करे। पाता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। श्रावणमासमें विद्वान् पुरुष विशेषतः श्रेष्ठ भगवद्भक्तोंका पूजन करे। नागकेसर और केवड़ेसे भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी पूजा यज्ञान्तमें अपने वैभवके अनुसार अवभृथस्नानका उत्सव करनेसे मनुष्यका फिर इस लोकमें जन्म नहीं होता । उस करे। अवभृथस्नान भी उसे वैष्णव अनुवाकोंद्वारा ही समय भक्तिके साथ घी और शक्कर मिले हुए पूएका करना चाहिये। विधिपूर्वक स्नान करके एक सुन्दर पात्रमें नैवेद्य निवेदन करे और श्रेष्ठ भगवद्भक्त ब्राह्मणोंको आचार्यके चरणोंको भक्तिपूर्वक पखारे । फिर गन्ध, पुष्प, भोजन करावे। भादोंमें कुन्द और कटसरैयाके फूलोंसे वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा पूजा करे । यथाशक्ति पूजा करके खीर भोग लगावे। आश्विनमें नीलकमलसे ताम्बूल और फूलोंसे सत्कार करे और अन्न-पान आदिसे मधुसूदनकी पूजा करे और भक्तिके साथ उन्हें खीर-पूआ भोजन कराकर बारम्बार प्रणाम करे । जाते समय गाँवकी निवेदन करे। इसी प्रकार कार्तिकमे कोमल सीमातक पहुंचाने जाय और वहाँ प्रणाम करके उन्हें तुलसीदलोंके द्वारा भक्तिपूर्वक अच्युतका पूजन करनेसे विदा करे। उनका सायुज्य प्राप्त होता है। दूध, घी और शकरकी इस प्रकार जीवनभर आलस्य छोड़कर भगवान् बनी हुई मिठाई, खीर और मालपूआ-इन्हें भक्तिपूर्वक और उनके भक्तोंका विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये। एक-एक करके भगवान्को निवेदन करे। समस्त आराधनाओंमें श्रीविष्णुको आराधना सबसे श्रेष्ठ
अमावास्या तिथि, शनिवार, वैष्णवनक्षत्र है। उससे भी उनके भक्तोकी पूजा करनी अधिक श्रेष्ठ (श्रवण), सूर्यसंक्रान्ति, व्यतीपात, चन्द्रग्रहण और है। जो भगवान् गोविन्दकी पूजा करके उनके भक्तोका सूर्यग्रहणके अवसरपर अपनी शक्तिके अनुसार भगवान् पूजन नहीं करता, उसे भगवद्भक्त नहीं जानना चाहिये। विष्णुका विशेषरूपसे पूजन करे। श्रेष्ठ द्विजको उचित है वह केवल दम्भी है। अतः सर्वथा प्रयल करके कि गुरुके उत्क्रमणके दिन तथा श्रीहरिके अवतारोंके श्रीविष्णुभक्तोंका पूजन करना चाहिये। उनके पूजनसे जन्य-नक्षत्रोंमें अपनी शक्तिके अनुसार वैष्णव-याग मनुष्य समस्त दुःखराशिके पार हो जाता है। पार्वती ! करे। उसमें वेदमन्त्रोंका उच्चारण करके प्रत्येक ऋचाके इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीविष्णुकी श्रेष्ठ आराधना, साथ भगवानको पुष्पाञ्जलि समर्पण करे। यथाशक्ति नित्य-नैमित्तिक कृत्य तथा भगवद्धक्तोको पूजाका वैष्णव ब्राह्मणोंको भोजन करावे और दक्षिणा दे। ऐसा वर्णन किया है।
श्रीराम-नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
पार्वतीजीने कहा-नाथ ! आपने उत्तम प्रसादसे धन्य और कृतकृत्य हो गयी। अब मैं भी वैष्णवधर्मका भलीभांति वर्णन किया। वास्तवमें सनातन देव श्रीहरिका पूजन करूंगी। परमात्मा श्रीविष्णुका स्वरूप गोपनीयसे भी अत्यन्त महादेवजी बोले-देवि ! बहुत अच्छा, बहुत गोपनीय है। सर्वदेववन्दित महेश्वर ! मैं आपके अच्छा ! तुम सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी भगवान्
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उत्तरखण्ड ]
.श्रीराम-नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य .
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लक्ष्मीपतिका पूजन अवश्य करो। भद्रे ! मैं तुम-जैसी सहस्रनामोंमें भी श्रीरामके एक सौ आठ नामोंकी वैष्णवी पत्नीको पाकर अपनेको कृतकृत्य मानता हूँ। प्रधानता अधिक है। श्रीविष्णुका एक-एक नाम ही सब
वसिष्ठजी कहते हैं-तदनन्तर वामदेवजीके वेदोंसे अधिक माना गया है। वैसे ही एक हजार नामोंके उपदेशानुसार पार्वतीजी प्रतिदिन श्रीविष्णुसहस्रनामका समान अकेला श्रीराम-नाम माना गया है। पार्वती ! जो पाठ करनेके पश्चात् भोजन करने लगी। एक दिन परम सम्पूर्ण मन्त्रों और समस्त वेदोंका जप करता है, उसकी मनोहर कैलासशिखरपर भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना अपेक्षा कोटिगुना पुण्य केवल राम-नामसे उपलब्ध होता करके भगवान् शङ्करने पार्वतीदेवीको अपने साथ भोजन है। शुभे! अव श्रीरामके उन मुख्य नामोंका वर्णन करनेके लिये बुलाया । तब पार्वतीदेवीने कहा—'प्रभो ! सुनो, जिनका महर्षियोंने गान किया है। १ ॐ मैं श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ करनेके पश्चात् भोजन श्रीरामः-जिनमें योगीजन रमण करते हैं, ऐसे करूँगी, तबतक आप भोजन कर लें।' यह सुनकर सच्चिदानन्दघनस्वरूप श्रीराम अथवा सीता-सहित राम । महादेवजीने हँसते हुए कहा–'पार्वती ! तुम धन्य हो, २ रामचन्द्रः-चन्द्रमाके समान आनन्ददायी एवं पुण्यात्मा हो; क्योंकि भगवान् विष्णुमें तुम्हारी भक्ति है। मनोहर राम। ३ रामभद्रः-कल्याणमय राम। ४ देवि ! भाग्यके बिना श्रीविष्णु-भक्तिका प्राप्त होना बहुत शाश्वत:-सनातन भगवान्। ५ राजीवलोचन:कठिन है। सुमुखि ! मैं तो 'राम ! राम ! राम !' इस कमलके समान नेत्रोंवाले। ६ श्रीमान् प्रकार जप करते हुए परम मनोहर श्रीराम-नाममें ही राजेन्द्रः-श्रीसम्पत्र राजाओंके भी राजा, चक्रवती निरन्तर रमण किया करता हूँ। राम-नाम सम्पूर्ण सम्राट्। ७ रघुपुङ्गवः-रघुकुलमें सर्वश्रेष्ठ। ८ सहस्रनामके समान है। पार्वती ! रकारादि जितने नाम जानकीवल्लभः-जनककिशोरी सीताके प्रियतम । ९ हैं, उन्हें सुनकर रामनामकी आशङ्कासे मेरा मन प्रसन्न हो जैत्रः-विजयशील। १० जितामित्रः-शत्रुओंको जाता है।* अतः महादेवि ! तुम राम-नामका उच्चारण जीतनेवाले। ११ जनार्दनः-सम्पूर्ण मनुष्योंद्वारा करके इस समय मेरे साथ भोजन करो।'
याचना करने योग्य। १२ विश्वामित्रप्रियःयह सुनकर पार्वतीजीने राम-नामका उच्चारण करके विश्वामित्रजीके प्रियतम । १३ दान्तः-जितेन्द्रिय । १४ भगवान् शङ्करके साथ बैठकर भोजन किया। इसके बाद शरण्यत्राणतत्परः- शरणागतोंकी रक्षामें संलग्न। उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर पूछा-'देवेश्वर ! आपने १५ बालिप्रमथन:-बालि नामक वानरको राम-नामको सम्पूर्ण सहस्रनामके तुल्य बतलाया है। यह मारनेवाले। १६ वाग्मी-अच्छे वक्ता। १७ सुनकर राम-नाममें मेरी बड़ी भक्ति हो गयी है; अतः सत्यवाक्- सत्यवादी। १८ सत्यविक्रमःभगवान् श्रीरामके यदि और भी नाम हों तो बताइये।' सत्य-पराक्रमी। १९ सत्यव्रतः-सत्यका दृढ़तापूर्वक
महादेवजी बोले-पार्वती! सुनो, मैं पालन करनेवाले। २० व्रतफल:- सम्पूर्ण व्रतोंके श्रीरामचन्द्रजीके नामोंका वर्णन करता हूँ। लौकिक और प्राप्त होने योग्य फलस्वरूप। २१ सदा वैदिक जितने भी शब्द है, वे सब श्रीरामचन्द्रजीके ही हनुमदाश्रयः- निरन्तर हनुमान्जीके आश्रय अथवा नाम हैं। किन्तु सहस्रनाम उन सबमें अधिक है और उन हनुमान्जीके हृदयकमलमें सदा निवास करनेवाले।
* राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ।
रकारादीनि नामानि पृण्वतो मम पार्वति । मनः प्रसन्नतां याति रामनामाभिशङ्कया । (२८१ । २१-२२) + विष्णोरेकैकनामैव सर्ववेदाधिक मतम् । तादृङ्नामसहस्राणि रामनाम समं मतम् ।। जपतः सर्वमन्त्रांच सर्वदाश्च पार्वति । तस्मात् कोटिगुणं पुण्यं रामनानैव लभ्यते ॥ (२८१ । २७-२८)
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- • अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
२२ कौसलेयः-कौसल्याजीके पुत्र । २३ सबके गुरु। ५१ ऋक्षवानरसंघाती-वानर और खरध्वंसी-खर नामक राक्षसका नाश करनेवाले। भालुओंकी सेनाका संगठन करनेवाले। ५२ चित्रकूट२४ विराघवध-पण्डितः-विराध नामक दैत्यका समाश्रयः- वनवासके समय चित्रकूटपर्वतपर निवास वध करनेमें कुशल। २५ विभीषणपरित्राता- करनेवाले। ५३ जयन्तत्राणवरदः-जयन्तके प्राणोंकी विभीषणके रक्षक । २६ दशग्रीवशिरोहरः-दशशीश रक्षा करके उसे वर देनेवाले। ५४ सुमित्रापुत्ररावणके मस्तक काटनेवाले। २७ सप्ततालप्रभेत्ता- सेवितः- सुमित्रानन्दन लक्ष्मणके द्वारा सेवित । ५५ सात तालवक्षोको एक ही बाणसे बींध डालनेवाले। २८ सर्वदेवाधिदेवः-सम्पूर्ण देवताओके भी अधिदेवता । हरकोदण्ड-खण्डनः-जनकपुरमें शिवजीके धनुषको ५६ मृतवानरजीवन:-मरे हुए वानरोंको जीवित तोड़नेवाले। २९ जामदग्न्यमहादर्पदलन:- करनेवाले। ५७ मायामारीचहन्ता-मायामय मृगका परशुरामजीके महान् अभिमानको चूर्ण करनेवाले। ३० रूप धारण करके आये हुए मारीच नामक राक्षसका वध ताडकान्तकृत्- ताड़का नामवाली राक्षसीका वध करनेवाले। ५८ महाभाग:-महान् सौभाग्यशाली। करनेवाले। ३१ वेदान्तपारः-वेदान्तके पारङ्गत ५९ महाभुजः-बड़ी-बड़ी बाँहोंवाले। ६० विद्वान् अथवा वेदात्तसे भी अतीत । ३२ वेदात्मा- सर्वदेवस्तुतः-सम्पूर्ण देवता जिनको स्तुति करते हैं, वेदस्वरूप। ३३ भवबन्यैकमेषजः-संसारबन्धनसे ऐसे। ६१ सौम्यः-शान्तस्वभाव। ६२ मुक्त करनेके लिये एकमात्र औषधरूप। ३४ ब्रह्मण्य:-ब्राह्मणोके हितैषी। ६३ दूषणत्रिशिरोऽरि:-दूषण और त्रिशिरा नामक मुनिसत्तमः-मुनियोंमें श्रेष्ठ । ६४ महायोगीराक्षसोंके शत्रु। ३५ त्रिमूर्तिः-ब्रह्मा, विष्णु और सम्पूर्ण योगोंके अधिष्ठान होनेके कारण महान् योगी। शिव-तीन रूप धारण करनेवाले। ३६ त्रिगुण:- ६५ महोदार:-परम उदार। ६६ सुग्रीवस्थिरत्रिगुणस्वरूप अथवा तीनों गुणोंके आश्रय। ३७ राज्यदः-सुग्रीवको स्थिर राज्य प्रदान करनेवाले। ६७ त्रयी-तीन वेदस्वरूप। ३८ त्रिविक्रमः-वामन सर्वपुण्याधिकफल:-समस्त पुण्योंके उत्कृष्ट अवतारमें तीन पगोसे समस्त त्रिलोकीको नाप लेनेवाले। फलरूप। ६८ स्मृतसाधनाशनः-स्मरण करने३९ त्रिलोकात्मा-तीनों लोकोंके आत्मा। ४० मात्रसे ही सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाले। ६९ पुण्यचारित्रकीर्तन:-जिनकी लीलाओंका कीर्तन आदिपुरुषः-ब्रह्माजीको भी उत्पन्न करनेके कारण परम पवित्र है, ऐसे। ४१ त्रिलोकरक्षकः-तीनों सबके आदिभूत अन्तर्यामी परमात्मा। ७० लोकोकी रक्षा करनेवाले। ४२ धन्वी-धनुष धारण महापुरुषः- समस्त पुरुषोंमें महान्। ७१ परमः करनेवाले । ४३ दण्डकारण्यवासकृत्-दण्डकारण्यमें पुरुषः-सर्वोत्कृष्ट पुरुष । ७२ पुण्योदयः-पुण्यको निवास करनेवाले। ४४ अहल्यापावन:-अहल्याको प्रकट करनेवाले। ७३ महासार:-सर्वश्रेष्ठ सारभूत पवित्र करनेवाले। ४५ पितृभक्तः-पिताके भक्त। परमात्मा। ७४ पुराणपुरुषोत्तमः-पुराणप्रसिद्ध ४६ वरप्रदः-वर देनेवाले। ४७ जितेन्द्रियः- क्षर-अक्षर पुरुषोंसे श्रेष्ठ लीलापुरुषोत्तम। ७५ इन्द्रियोंको काबूमें रखनेवाले। ४८ जितक्रोधः- स्मितवक्त्रः-जिनके मुखपर सदा मुसकानकी छटा क्रोधको जीतनेवाले। ४९ जितलोभः-लोभको छायी रहती है, ऐसे। ७६ मितभाषी-कम वृत्तिको परास्त करनेवाले। ५० जगद्गुरुः-अपने बोलनेवाले। ७७ पूर्वभाषी-पूर्ववक्ता। ७८ आदर्श चरित्रोंसे सम्पूर्ण जगत्को शिक्षा देनेके कारण राघवः-रघुकुलमें अवतीर्ण। ७९ अनन्तगुण
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उत्तरखण्ड ]
• श्रीराम-नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य .
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गम्भीरः-अनन्त कल्याणमय गुणोंसे युक्त एवं गम्भीर। सर्वोत्कृष्ट, सर्वव्यापी एवं सर्वाधिष्ठान परमेश्वर । ९९ ८० धीरोदात्तगुणोत्तरः*-धीरोदात्त नायकके सच्चिदानन्दविग्रहः- सत्, चित् और आनन्द ही लोकोत्तर गुणोंसे युक्त। ८१ मायामानुषचारित्र:- जिनके स्वरूपका निर्देश करानेवाला है, ऐसे परमात्मा अपनी मायाका आश्रय लेकर मनुष्योंकी-सी लीलाएँ अथवा सच्चिदानन्दमयदिव्यविग्रह। १०० पर करनेवाले। ८२ महादेवाभिपूजितः-भगवान् ज्योति:-परम प्रकाशमय, परम ज्ञानमय । १०१ परं शङ्करके द्वारा निरन्तर पूजित। ८३ सेतुकृत्-समुद्रपर धाम-सर्वोत्कृष्ट तेज अथवा साकेतधामस्वरूप। पुल बाँधनेवाले। ८४ जितवारीशः-समुद्रको १०२ पराकाश:-त्रिपाद विभूतिमें स्थित परमव्योम जीतनेवाले। ८५ सर्वतीर्थमय:-सर्वतीर्थस्वरूप। नामक वैकुण्ठधामरूप, महाकाशस्वरूप ब्रह्म । १०३ ८६ हरि:-पाप-तापको हरनेवाले। ८७ परात्परः-पर- इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदिसे भी परे श्यामाङ्गः-श्याम विग्रहवाले। ८८ सुन्दरः-परम परमेश्वर । १०४ परेशः-सर्वोत्कृष्ट शासक । १०५ मनोहर । ८९ शूरः-अनुपम शौर्यसे सम्पत्र वीर । ९० पारगः-सबको पार लगानेवाले अथवा मायामय पीतवासा:- पीताम्बरधारी। ९१ धनुर्धरः-धनुष जगत्की सीमासे बाहर रहनेवाले। १०६ पारःधारण करनेवाले। ९२ सर्वयज्ञाथिप:-सम्पूर्ण सबसे परे विद्यमान अथवा भवसागरसे पार जानेकी यज्ञोंके स्वामी। ९३ यज्ञः-यज्ञस्वरूप। ९४ इच्छा रखनेवाले प्राणियोंके प्राप्तव्य परमात्मा। १०७ जरामरणवर्जित:-बुढ़ापा और मृत्युसे रहित। ९५ सर्वभूतात्मकः-सर्वभूतस्वरूप। १०८ शिव:शिवलिङ्गप्रतिष्ठाता-रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्गकी परम कल्याणमय-ये श्रीरामचन्द्रजीके एक सौ आठ स्थापना करनेवाले। ९६ सर्वाधगणवर्जितः-समस्त नाम हैं। देवि ! ये नाम गोपनीयसे भी गोपनीय है; पाप-राशिसे रहित। ९७ परमात्मा-परमश्रेष्ठ, किन्तु स्नेहवश मैंने इन्हें तुम्हारे सामने प्रकाशित नित्यशुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव। ९८ परं ब्रह्म- किया है।*
* कहीं-कहीं 'श्रीरो दान्तगुणोत्तरः' पाठ मिलता है, यह छपाईकी भूल जान पड़ती है। यदि ऐसा ही पाठ माने तो ऐसा अर्थ करना चाहिये-'धौर एवं जितेन्द्रिय पुरुषके श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त। 1 ॐ श्रीरामो रामचन्द्र रामभद्रा शाश्वतः । राजीवलोचनः श्रीमान् राजेन्द्रो रघुपुङ्गवः ।। जानकीवल्लभो जैत्रो जितामित्रो जनार्दनः । विश्वामित्रप्रियो दान्तः शरण्यत्राणतत्परः ।। बालिप्रमथनो वाग्मी सत्यवाक् सल्यविक्रमः । सत्यवतो व्रतफल; सदा हनुमदाश्रयः ॥ कौसलेयः खरध्वंसी विराघवधपण्डितः। विभीषणपरित्राता दशग्रीवशिरोहरः॥ सप्ततालप्रभेत्ता च हरकोदण्डखण्डनः । जामदग्न्यमहादर्पदलनसताडकान्तकृत् ॥ वेदान्तपारो वेदात्मा भवबन्धैकभेषजः । दूषणत्रिशिरोऽरिक्ष विभूतिविगुणत्रयी। त्रिविक्रमविलोकात्मा पुण्यचारित्रकीर्तनः । त्रिलोकरक्षको धन्धी दण्डकारण्ययासकृत् ।। अहल्यापावनश्चैव पितृभक्तो वरप्रदः । जितेन्द्रियो जितक्रोधो जितलोभो जगद्गुरुः ॥ ऋक्षवानरसंघाती चित्रकूटसमाश्रयः । जयन्तत्राणवरदः सुमित्रापुत्रसेवितः ॥ सर्वदेवाधिदेव
मृतवानरजीवनः । मायामारीचहन्ता च महाभागो . महाभुजः ॥ सर्वदेवस्तुतः सौम्यो ब्रह्मण्यो मुनिसत्तमः । महायोगी महोदारः सुग्रीवस्थिरराज्यदः ।। सर्वपुण्याधिकफलः स्मृतसाधनाशनः । आदिपुरुषो महापुरुषः परमः पुरुषस्तथा।। .. पुण्योदयो महासारः पुराणपुरुषोत्तमः । स्मितवक्रो मितभाषी पूर्वभाषी च राघवः ।। अनन्तगुणगम्भीरो धीरोदात्तगुणोत्तरः । मायामानुषचारित्रो महादेवाभिपूजितः ॥ सेतुकृजितवारीशः सर्वतीर्थमयो हरिः । श्यामागः सुन्दरः शूरः पीतवासा धनुर्धरः ॥ सर्वयज्ञाधिपो यज्ञो जरामरणवर्जितः । शिवलिङ्गप्रतिष्ठाता सर्वाचगणवर्जितः ॥
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__. अर्चयस्व हुपीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
जो भक्तियुक्त चित्तसे इन नामोंका पाठ या श्रवण वेदानुमोदित माहात्म्यका वर्णन किया है। यह परम करता है, वह सौ कोटि कल्पोंमें किये हुए समस्त पापोंसे कल्याणकारक है। मुक्त हो जाता है। पार्वती ! इन नामोंका भक्तिभावसे वसिष्ठजी कहते हैं-भगवान् शङ्करके द्वारा कहे पाठ करनेवाले मनुष्योंके लिये जल भी स्थल हो जाते हुए परमात्मा श्रीरामचन्द्रजीके माहात्म्यको सुनकर पार्वती है, शत्रु मित्र बन जाते हैं, राजा दास हो जाते हैं, जलती देवी 'रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे । रघुनाथाय हुई आग शान्त हो जाती है, समस्त प्राणी अनुकूल हो नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥' इस मन्त्रका ही जाते हैं, चशल लक्ष्मी भी स्थिर हो जाती है, ग्रह अनुग्रह सदा-सब अवस्थाओंमें जप करती हुई कैलासमें करने लगते हैं तथा समस्त उपद्रव शान्त हो जाते हैं। जो अपने पतिके साथ सुखपूर्वक रहने लगी। राजा भक्तिपूर्वक इन नामोंका पाठ करता है, तीनों लोकके दिलीप ! यह मैंने तुमसे परम गोपनीय विषयका वर्णन प्राणी उसके वशमें हो जाते हैं तथा वह मनमें जो-जो किया है। जो भक्तियुक्त हृदयसे इस प्रसङ्गका पाठ या कामना करता है, वह सब इन नामोंके कीर्तनसे पा लेता श्रवण करता है, वह सबका वन्दनीय, सब तत्त्वोंका है। जो दूर्वादलके समान श्यामसुन्दर कमलनयन, ज्ञाता और महान् भगवद्भक्त होता है। इतना ही नहीं, वह पीताम्बरधारी भगवान् श्रीरामका इन दिव्य नामोंसे समस्त कॉक बन्धनसे मुक्त हो परमपदको प्राप्त कर स्तवन करते हैं, वे मनुष्य कभी संसार-बन्धनमें नहीं लेता है। राजन् ! तुम इस संसारमें धन्य हो; क्योंकि पड़ते। राम, रामभद्र, रामचन्द्र, वेधा, रघुनाथ, नाथ तुम्हारे ही कुलमें पुराणपुरुषोत्तम श्रीहरि सब लोकोंका एवं सीतापतिको नमस्कार है।* देवि ! केवल इस हित करनेके लिये दशरथनन्दनके रूपमें अवतार लेंगे। मन्त्रका भी जो दिन-रात जप करता है, वह सब पापोंसे अतः इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय देवताओंके लिये भी मुक्त हो श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है। इस पूजनीय होते हैं; क्योंकि उनके कुलमें राजीवलोचन प्रकार मैंने तुम्हारे प्रेमवश भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके भगवान् श्रीरामका अवतार होता है।
त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार
वसिष्ठजी कहते है-पूर्वकालकी बात तत्त्वका अनुसन्धान करनेके लिये परस्पर बोलेहै-स्वायम्भुव मनु परम उत्तम एवं दीर्घकालतक चालू 'वेदवेत्ता ब्राह्मणोंके लिये कौन देवता सर्वश्रेष्ठ एवं पूज्य रहनेवाले यज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये मुनियोंके साथ है? ब्रह्मा, विष्णु और शिवमेंसे किसकी अधिक स्तुति मन्दराचल पर्वतपर गये। उस यज्ञमें कठोर व्रतोंका हुई है ? किसका चरणोदक सेवन करनेयोग्य है? पालन करनेवाले, अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता, बालसूर्य एवं किसको भोग लगाया हुआ प्रसाद परम पावन है ? कौन अग्निके समान तेजस्वी, समस्त वेदोंके विद्वान् तथा सब अविनाशी, परमधामस्वरूप एवं सनातन परमात्मा है? धर्मकि अनुष्ठानमें तत्पर रहनेवाले मुनि पधारे थे। वह किसके प्रसाद और चरणोदक पितरोंको तृप्ति प्रदान महायज्ञ जब आरम्भ हुआ तो पापरहित मुनि, देवता- करनेवाले होते है?'
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परमात्मा पर ब्रह्म सचिदानन्दविग्रहः । पर ज्योतिः परं धाम पराकाशः परात्परः ॥ . परेशः पारगः पारः सर्वभूतात्मकः शिवः । इति श्रीरामचन्द्रस्य नानामष्टोत्तर शतम्। गुह्याद्रुह्यतरं देवि व स्नेहात् प्रकीर्तितम्॥
(२८१ । ३०-४८) रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ (२८१।५५)
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उत्तरखण्ड]
. त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा प्रन्थका उपसंहार .
. वहाँ बैठे हुए महर्षियोंमें इस विषयपर महान् चुपचाप वे उनके सामने खड़े रहे। किन्तु ब्रह्माजीने उन वाद-विवाद हुआ। किन्हीं महर्षियोंने केवल रुद्रको मुनिश्रेष्ठको आया हुआ देखकर भी उनका कुछ सत्कार सर्वश्रेष्ठ बतलाया। कोई कहने लगे-ब्रह्माजी ही नहीं किया। उनसे प्रिय वचनतक नहीं कहा। उस समय पूजनीय हैं। कुछ लोगोंने कहा- सूर्य ही सब जीवोंके ब्रह्माजी कमलके आसनपर महान् ऐश्वर्यके साथ बैठे हुए पूजनीय है तथा कुछ दूसरे ब्राह्मणोंने अपनी सम्मति इस थे। तब महातेजस्वी महर्षिने लोक-पितामह ब्रह्मासे प्रकार प्रकट की-आदि-अन्तसे रहित भगवान् विष्णु कहा-'आप महान् रजोगुणसे युक्त होकर मेरी ही परमेश्वर हैं। वे ही सब देवताओंमें श्रेष्ठ एवं पूजन अवहेलना कर रहे हैं, इसलिये आजसे समस्त संसारके करनेके योग्य हैं। इस प्रकार विवाद करते हुए महर्षियोंसे लिये आप अपूज्य हो जायेंगे।' स्वायम्भुव मनुने कहा-'वे जो शुद्ध-सत्वमय, लोकपूजित महात्मा ब्रह्माजीको ऐसा शाप देकर कल्याणमय गुणोंसे युक्त, कमलके समान नेत्रोंवाले, महर्षि भृगु सहसा क्षीरसागरके उत्तर तटपर श्रीविष्णुके श्रीदेवीके स्वामी भगवान् पुरुषोत्तम हैं-एकमात्र वे ही लोकमें गये। वहाँ जो महात्मा पुरुष रहते थे, उन्होंने वेदवेत्ता ब्राह्मणोंद्वारा पूजित है।'
भृगुजीका यथायोग्य सत्कार किया। उस लोकमें कहीं मनुकी यह बात सुनकर सब महर्षियोंने हाथ भी उनके लिये रोक-टोक नहीं हुई। वे भगवान्के जोड़कर तपोनिधि भृगुजीसे कहा-'सुव्रत ! आप ही अन्तःपुरमें बेधड़क चले गये। वहाँ उन्होंने सूर्यके समान हमलोगोंका सन्देह दूर करनेमें समर्थ हैं। आप ब्रह्मा, तेजस्वी विमल विमानमें शेषनागकी शय्यापर सोये हुए विष्णु तथा महादेव-तीनों देवताओंके पास जाइये।' भगवान् लक्ष्मीपतिको देखा । लक्ष्मी अपने करकमलोंसे उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ भृगु तुरंत ही कैलास भगवान्के दोनों चरणोंकी सेवा कर रही थीं। उन्हें पर्वतपर गये। भगवान् शङ्करके गृहद्वारपर पहुंचकर देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगु अकारण कुपित हो उठे और उन्होंने देखा-महाभयंकर रूपवाले नन्दी हाथमें त्रिशूल उन्होंने भगवान्के शोभायमान वक्षःस्थलपर अपने बायें लिये खड़े हैं। भृगुजीने उनसे कहा-'मेरा नाम भृगु है, चरणसे प्रहार किया। भगवान् तुरंत उठ बैठे और मैं ब्राह्मण हूँ और देवश्रेष्ठ महादेवजीका दर्शन करनेके प्रसन्नतापूर्वक बोले-'आज मैं धन्य हो गया।' ऐसा लिये यहाँ आया हूँ। आप भगवान् शङ्करको शीघ्र ही मेरे कहकर वे हर्षके साथ अपने दो हाथोंसे महर्षिके चरण आनेकी सूचना दें।' यह सुनकर समस्त शिवगणोंके दबाने लगे। धीरे-धीरे चरण दबाकर उन्होंने मधुर स्वामी नन्दीने उन अमिततेजस्वी महर्षिसे कठोर वाणीमें वाणीमें कहा-'ब्रह्मर्षे ! आज मैं धन्य और कृतकृत्य कहा-'अरे ! इस समय भगवान्के पास तुम नहीं हो गया। मेरे शरीरमें आपके चरणोंका स्पर्श होनेसे पहुँच सकते। अभी भगवान् शङ्कर देवीके साथ मेरा बड़ा मङ्गल होगा। जो समस्त सम्पत्तिकी प्राप्तिके क्रीडाभवनमें हैं। यदि जीवित रहना चाहते हो तो लौट कारण तथा अपार संसारसागरसे पार होनेके लिये सेतुके जाओ, लौट जाओ।'
समान हैं, वे ब्राह्मणोंकी चरण-धूलियाँ मुझे सदा पवित्र तब भृगुने कुपित होकर कहा- 'ये रुद्र तमोगुणसे करती रहें।' युक्त होकर अपने द्वारपर आये हुए मुझ ब्राह्मणको नहीं ऐसा कहकर भगवान् जनार्दनने लक्ष्मीदेवीके साथ जानते हैं। इसलिये इन्हें दिया हुआ अन्न, जल, फूल, सहसा उठकर दिव्य माला और चन्दन आदिके द्वारा हविष्य तथा निर्माल्य-सब कुछ अभक्ष्य हो जायगा।' भक्तिपूर्वक भृगुजीका पूजन किया। उनको इस रूपमें इस प्रकार भगवान् शिवको शाप देकर भृगु ब्रह्मलोकमें देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगुजीके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर गये। वहाँ ब्रह्माजी सब देवताओंके साथ बैठे हुए थे। आये। उन्होंने आसनसे उठकर करुणासागर भगवान्को उन्हें देख भृगुजीने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा-'अहो !
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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीहरिका कितना मनोहर रूप है, कैसी शान्ति है, कैसा वासुदेव एवं अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले ज्ञान है, कितनी दया है, कैसी निर्मल क्षमा और कितना श्रीहरि ब्राह्मणोंके हितकारक है। भगवान् नृसिंह तथा पावन सत्त्वगुण है। भगवन् ! आप गुणोंके समुद्र हैं। अविनाशी नारायण भी ब्राह्मणोपर कृपा करनेवाले हैं। आपमें ही स्वाभाविक रूपसे कल्याणमय सत्त्वगुणका श्रीधर, श्रीश, गोविन्द एवं वामन आदि नामोंसे प्रसिद्ध निवास है। आप ही ब्राह्मणोंके हितैषी, शरणागतोंके भगवान् श्रीहरि ब्राह्मणोंपर नेह रखते हैं। यज्ञवाराहरक्षक और पुरुषोत्तम है। आपका चरणोदक पितरों, रूपधारी पुरुषोत्तम भगवान् केशव ब्राह्मणोका कल्याण देवताओं तथा सम्पूर्ण ब्राह्मणोंके लिये सेव्य है। यह करनेवाले है। रघुकुलभूषण राजीवलोचन श्रीरामचन्द्रजी पापोंका नाशक और मुक्तिका दाता है। भगवन् ! भी ब्राह्मणोंके सुहद् हैं। भगवान् पद्मनाभ तथा दामोदर आपहीका भोग लगा हुआ प्रसाद देवता, पितर और (श्रीकृष्ण) भी ब्राह्मणोंका हित चाहनेवाले हैं। माधव, ब्राह्मण-सबके सेवन करनेयोग्य है। इसलिये यज्ञपुरुष एवं भगवान् त्रिविक्रम भी ब्राह्मणहितैषी है। ब्राह्मणको उचित है कि वह प्रतिदिन आप सनातन पीताम्बरधारी हृषीकेश श्रीजनार्दन ब्राह्मणोंके हितकारी पुरुषका पूजन करके आपका चरणोदक ले और आपके हैं। शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले ब्राह्मणहितैषी देवता भोग लगाये हुए प्रसादस्वरूप अन्नका भोजन करे। श्रीवासुदेवको नमस्कार है। कमलके समान नेत्रोंवाले प्रभो ! जो आपको निवेदित किये हुए अन्नका हवन या लक्ष्मीपति श्रीनारायणको नमस्कार है। ब्राह्मणहितैषी दान करता है, वह देवताओ और पितरोको तृप्त करता देवता सर्वव्यापी वासुदेवको नमस्कार है। कल्याणमय तथा अक्षय फलका भागी होता है। अतः आप ही गुणोंसे परिपूर्ण, सृष्टि, पालन और संहारके कारणरूप ब्राह्मणोंके पूजनीय हैं।
आप परमात्माको नमस्कार है। ब्राह्मणोंके हितैषी देवता आप सम्पूर्ण देवताओंमें ब्राह्मणत्वको प्राप्त हों; प्रधुम्न, अनिरुद्ध तथा सङ्कर्षणको नमस्कार है। क्योंकि आप ब्राह्मणोंके पूज्य और शुद्ध सत्त्वगुणसे शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले ब्रह्मण्यदेव सम्पन्न हैं। ब्राह्मणलोग सदा आप पुरुषोत्तमका ही भजन भगवान् विष्णुको नमस्कार है । कमलके समान नेत्रोवाले करते हैं। जो आपका पूजन करते हैं, वे ही विप्र श्रीरघुनाथजीको बारम्बार नमस्कार है। प्रभो ! सम्पूर्ण वास्तवमें ब्राह्मण हैं, दूसरे नहीं। इस विषयमें सन्देहके देवता और ऋषि आपको मायासे मोहित होनेके कारण लिये स्थान नहीं है। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणोंके सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी आप परमात्माको नहीं जानते। हितैषी हैं। श्रीमधुसूदन ब्राह्मणोंके हितचिन्तक हैं। भगवन् ! सम्पूर्ण वेदोंके विद्वान् भी आपके तत्त्वको नहीं श्रीपुण्डरीकाक्ष ब्राह्मणोंके प्रेमी हैं। अविनाशी भगवान् जानते।* भगवन् ! मैं महर्षियोंके भेजनेपर आपके पास विष्णु ब्राह्मणहितैषी है। सचिदानन्दस्वरूप भगवान् आया हूँ। आपके शील और गुणोंका ज्ञान प्राप्त करनेके
* सर्वेषामेव देवानां ब्राह्मणत्वमवामुहि । त्वामेव हि सदा विप्रा भजन्ति पुरुषोत्तमम् ॥
ब्राह्मणास्ते बभूवुस्तु नान्यास्तत्र न संशयः । ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः ।। - ब्रह्मण्यः पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरव्ययः । ब्रह्मण्यो भगवान्कृष्णो वासुदेवोऽच्युतो हरिः ।। ---ब्रह्मण्यो नारसिंहा- स्यात्तथा नारायणोऽव्ययः । ब्राह्मण्यः श्रीधरः-श्रीशो मोविन्दो वामनस्तथा ।। .... .. ब्रह्मण्यो यज्ञवाराहः केशवः पुरुषोत्तमः । ब्राह्मण्यो राघवः श्रीमानामा, राजीवलोचनः॥ .. ।
ब्रह्मण्यः पद्मनाभश्च तथा दामोदरः प्रभुः । ब्रह्मण्यो माधवो यज्ञस्तथा त्रिविक्रमः प्रभुः॥ . . . ब्रह्मण्यश्च हृषीकेशः पीतवासा जनार्दनः । नमो ब्रह्मण्यदेवाय वासुदेवाय शाहिणे॥ नारायणाय श्रीशाय पुण्डरीकेक्षणाय च नमो ब्रह्मण्यदेवाय वासुदेवाय विष्णवे ॥ कल्याणगुणपूर्णाय नमस्ते परमात्मने । नमो ब्राण्यदेवाय सर्गस्थित्यन्तहेतवे।
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________________ उत्तरखण्ड ] - त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा प्रन्थका उपसंहार . 1001 ..... लिये ही मैंने आपकी छातीपर पैर रखा है। गोविन्द ! वसिष्ठजी कहते है-भगुजीके ऐसा कहनेपर कृपानिधे! मेरे इस अपराधको क्षमा करें।' समस्त निष्पाप महर्षियोंने उन्हें नमस्कार किया और उन्हींसे ऐसा कहकर महर्षि भृगुने बारम्बार भगवान्के मन्त्रकी दीक्षा ले भगवान् विष्णुका पूजन किया / राजन् / चरणोंमें प्रणाम किया। भगवान्के धाममें रहनेवाले दिव्य ये सब बातें मैंने प्रसङ्गवश तुम्हें बतलायी हैं। भगवान् महर्षियोंने भृगुजीका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। श्रीरामचन्द्रजी सब देवताओंमें पावन एवं पुरुषोत्तम हैं। वहाँसे प्रसन्नचित्त होकर वे यज्ञमें महर्षियोंके पास लौट अतः यदि तुम परम पदको प्राप्त करना चाहते हो तो उन आये। उन्हें आया देख महर्षियोंने उठकर नमस्कार किया श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें जाओ। राजन् ! यह समस्त और विधिपूर्वक उनकी पूजा की। तत्पश्चात् मुनिश्रेष्ठ पुराण वेदके तुल्य है। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें साक्षात् भृगुने उन महर्षियोंसे सब बाते बतायौं / उन्होंने कहा- ब्रह्माजीने इसका उपदेश किया था। जो प्रतिदिन 'ब्रह्माजीमें रजोगुणका आधिक्य है और रुद्रमें एकाग्रचित्त हो इसका श्रवण अथवा पाठ करता है, उसकी तमोगुणका। केवल भगवान् विष्णु शुद्ध सत्त्वमय हैं। वे भगवान् लक्ष्मीपतिमें अनन्य भक्ति होती है। वह विद्याथीं कल्याणमय गुणोंके सागर, नारायण, परब्रह्म तथा हो तो विद्या, धर्मार्थी हो तो धर्म, मोक्षार्थी हो तो मोक्ष और सम्पूर्ण ब्राह्मणोंके देवता हैं। वे ही विप्रोंके लिये पूजनीय कामार्थी हो तो सुख पाता है। द्वादशी तिथिको, श्रवण हैं। उनके स्मरणमात्रसे पापियोंकी भी मुक्ति हो जाती है। नक्षत्रमें, सूर्य और चन्द्रमाके ग्रहणके अवसरपर, उनका चरणोदक तथा भोग लगाया हुआ प्रसाद समस्त अमावास्या तथा पूर्णिमाको इसका भक्तिपूर्वक पाठ करना मनुष्यों और विशेषतः ब्राह्मणोंके सेवन करनेयोग्य, चाहिये। जो एकाग्रचित्त हो प्रतिदिन इसके आधे या परमपावन तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। चौथाई श्लोकका भी पाठ करता है वह निश्चय ही एक भगवान् विष्णुको निवेदन किये हुए हविष्यका ही हजार अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। इस प्रकार यह परम देवताओंके लिये हवन करे और वही पितरोंको भी दे। गुह्म पद्मपुराण कहा गया / यदि परम पदकी प्राप्ति चाहते वह सब अक्षय होता है। अतः द्विजवरो ! तुम आलस्य हो तो सदा भगवान् हषीकेशकी आराधना करो। छोड़कर जीवनभर भगवान् विष्णुका पूजन करो। वे ही सूतजी कहते हैं-अपने गुरु वसिष्ठजीके ऐसा परम धाम हैं और वे ही सत्य ज्योति / अष्टाक्षरमन्त्रके कहनेपर नृपश्रेष्ठ राजा दिलीपने उनको प्रणाम किया और द्वारा विधिपूर्वक पुरुषोत्तमका पूजन और उनके प्रसादका यथायोग्य पूजा करके उनसे विधिपूर्वक विष्णुमन्त्रकी सेवन करना चाहिये। श्रीविष्णु ही सब यज्ञोंके भोक्ता दीक्षा ली। फिर आलस्यरहित हो उन्होंने जीवनभर परमेश्वर हैं—ऐसा जानकर उन्हींके उद्देश्यसे सदा हवन, श्रीहषीकेशकी आराधना करके समयानुसार योगियोंको दान और जप करे। प्राप्त होनेयोग्य सनातन विष्णुधामको प्राप्त कर लिया। उत्तरखण्ड सम्पूर्ण श्रीपद्मपुराण समाप्त प्रद्युमायाविरुद्धाय तथा संकर्षणाय च नमो ___ ब्रह्मण्यदेवाय सर्वदेवस्वरूपिणे॥ वाराहवपुषे नित्यं त्रयीनाथाय ते नमः / नमो ब्रह्मण्यदेवाय नागपर्यशायिने / राजीवदलनेत्राय राघवाय नमो नमः | मायया मोहिताः सर्वे देवाच इचयस्तव / / न जानन्ति महात्मानं सर्वलोकेश्वर प्रभो / त्वां न जानन्ति भगवन्सर्ववेदविदोऽपि हि / / (28270-82)