SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ • अयस्व ह्रषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण न करना।' द्वारपाल आज्ञाके अनुसार जाकर दोनों यथावत् सम्पादन किया है। अब मैं [प्रतिमास्थापन, कुमारोंको बुला ले आये। श्रीरघुनाथजी अपने प्रियबन्धु देवालय-निर्माण आदि] पूर्त-धर्मका अनुष्ठान करूँगा। भरत और लक्ष्मणको देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें वीरो! मेरा कान्यकुब्ज देशमें जाकर भगवान् वामनकी छातीसे लगाकर बोले-मैने ब्राह्मणके शुभ कार्यका प्रतिष्ठा करनेका विचार है।' श्रीरामका लङ्का, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गङ्गातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मर्षे! श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मण मेरे बाहरी प्राण हो । मेरे मनमें इस समय सबसे कान्यकुब्ज देशमें भगवान् श्रीवामनकी प्रतिष्ठा किस बड़ी चिन्ता यह है कि विभीषण देवताओंके साथ कैसा प्रकार की, उन्हें श्रीवामनजीका विग्रह कहाँ प्राप्त बर्ताव करते हैं; क्योंकि देवताओंके हितके लिये ही मैंने हुआ-इन सब बातोंका विस्तारके साथ वर्णन रावणका वध किया था। इसलिये वत्स ! जहाँ विभीषण कीजिये। भगवन् ! श्रीरामचन्द्रजीके कीर्तनसे सम्बन्ध हैं, वहाँ मैं जाना चाहता हूँ। लङ्कापुरीको देखकर रखनेवाली कथा बड़ी ही मधुर, पावन तथा मनोरम होती राक्षसराजको उनके कर्तव्यका उपदेश करूँगा।' है। आपने जो यह कथा सुनायी है, उससे मेरे हृदय और भगवान् श्रीरामके ऐसा कहनेपर हाथ जोड़कर खड़े कानोंको बड़ा सुख मिला है। सारा संसार भगवान् हुए भरतने कहा-'मैं भी आपके साथ चलूंगा।' श्रीरामको प्रेम और अनुरागसे देखता है; वे बड़े ही धर्मज्ञ श्रीरघुनाथजी बोले-'महाबाहो ! अवश्य चलो।' फिर थे। वे जब पृथ्वीका राज्य करते थे, उस समय सभी वे लक्ष्मणसे बोले-'वीर ! तुम नगरमें रहकर हम वृक्ष फल और रससे भरे रहते थे। पृथ्वी बिना जोते ही दोनोंके लौटनेतक इसकी रक्षा करना।' लक्ष्मणको इस अन्न देती थी। उन महात्माका इस भूमण्डलपर कोई शत्रु प्रकार आदेश देकर कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले नहीं था। अतः मुनिवर ! मैं उन भगवान् श्रीरामचन्द्रजी- श्रीरामचन्द्रजीने पुष्पक विमानका स्मरण किया । का सारा चरित्र सुनना चाहता हूँ। पुलस्त्यजी बोले-महाराज ! धर्मके मार्गपर स्थित रहनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने कुछ कालके पश्चात् जो महत्वपूर्ण कार्य किया, उसे एकाग्र मनसे सुनो। एक दिन श्रीरघुनाथजी मन-ही-मन इस बातका विचार करने लगे कि 'राक्षस-कुलोत्पन्न राजा विभीषण लङ्कामें रहकर सदा ही राज्य करते रहें-उसमें किसी प्रकारकी विघ्न-बाधा न पड़े, इसके लिये क्या उपाय हो सकता है। मुझे चलकर उन्हें हितकी बात बतानी चाहिये, जिससे उनका राज्य सदा कायम रहे।' अमित तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार विचार कर रहे थे, उसी समय भरतजी वहाँ आये और श्रीरामको विचारमग्न देख यों बोले-'देव ! आप क्या सोच रहे हैं? यदि कोई गुप्त बात न हो तो मुझे बतानेकी कृपा करें।' श्रीरघुनाथजीने कहा-'मेरी कोई भी बात तुमसे छिपानेयोग्य नहीं है। तुम और महायशस्वी STITUTIMERA TOULTURE PAN
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy