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________________ १४८ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण दिये। तत्पश्चात् वे सब पृथ्वीपर घुटने टेककर बैठ गये दिखायी देती हैं, श्रीविग्रहकी कान्ति नूतन एवं निर्मल और स्तोत्र पढ़कर वरदायक देवता षडाननकी स्तुति कमलदलके समान मनोरम जान पड़ती है। आप करने लगे। स्तुति पूर्ण होनेके पश्चात् कुमारने कहा- दैत्यवंशके लिये दुःसह दावानलके समान है। प्रभो! "देवताओ! आपलोग शान्त होकर बताइये, मैं आपकी विशाख ! आपकी जय हो। तीनों लोकोंके शोकको कौन-सी इच्छा पूरी करूँ? यदि आपके मनमें शमन करनेवाले सात दिनकी अवस्थाके बालक ! चिरकालसे कोई असाध्य कार्य करनेकी भी इच्छा हो आपकी जय हो। सम्पूर्ण विश्वकी रक्षाका भार वहन तो कहिये।' करनेवाले दैत्यविनाशक स्कन्द ! आपकी जय हो। देवता बोले-कुमार ! तारक नामसे प्रसिद्ध एक देववन्दियोंद्वारा उच्चारित यह विजयघोष सुनकर दैत्योंका राजा है, जो सम्पूर्ण देवकुलका अन्त कर रहा तारकासुरको ब्रह्माजीके वचनका स्मरण हो आया। है। वह बलवान्, अजेय, तीखे स्वभाववाला, दुराचारी बालकके हाथसे वध होनेकी बात याद करके वह और अत्यन्त क्रोधी है। सबका नाश करनेवाला और धर्मविध्वंसी दैत्य शोकाकुल हृदयसे अपने महलके दुर्दमनीय है। अतः आप उस दैत्यका वध कीजिये । यही बाहर निकला। उस समय बहुत-से वीर उसके पीछेएक कार्य शेष रह गया है, जो हमलोगोंको बहुत ही पीछे चल रहे थे। कालनेमि आदि दैत्य भी थर्रा उठे। भयभीत कर रहा है। उनका हृदय भयभीत हो गया। वे अपनी-अपनी सेनामें देवताओंके यों कहनेपर कुमारने 'तथास्तु' कहकर खड़े होकर व्यग्रताके कारण चकित हो रहे थे। उनकी आज्ञा स्वीकार की और जगत्के लिये कण्टकरूप तारकासुरने कुमारको सामने देखकर कहा-'बालक! तारकासुरका वध करनेके लिये वे देवताओंके पीछे-पीछे तू क्यों युद्ध करना चाहता है? जा, गेंद लेकर खेल। चले। उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। तेरे ऊपर जो यह महान् युद्धकी विभीषिका लादी गयी तदनन्तर कुमारका आश्रय मिल जानेके कारण इन्द्रने है, यह तेरे साथ बड़ा अन्याय किया गया है। तू अभी दानवराज तारकके पास अपना दूत भेजा। वहाँ जाकर निरा बच्चा है, इसीलिये तेरी बुद्धि इतनी अल्प समझ दूतने उस भयानक आकृतिवाले दैत्यसे निर्भयतापूर्वक रखनेवाली है।' कहा-'तारकासुर ! देवराज इन्द्रने तुम्हें यह कहलाया कुमार बोले-तारक ! सुनो, यहाँ [अधिक है कि देवता तुमसे युद्ध करने आ रहे हैं, तुम अपनी बुद्धि लेकर] शास्त्रार्थ नहीं करना है। भयंकर संग्राममें शक्तिभर प्राण बचानेकी चेष्टा करो।' यों कहकर जब दूत शस्त्रोंके द्वारा ही अर्थकी सिद्धि होती है [बुद्धिके द्वारा चला गया, तब दानवने सोचा, हो-न-हो, इन्द्रको कोई नहीं] । तुम मुझे शिशु समझकर मेरी अवहेलना न आश्रय अवश्य मिल गया है, अन्यथा वे ऐसी बात नहीं करो। साँपका नन्हा-सा बच्चा भी मौतका कष्ट देनेवाला कह सकते थे।' इन्द्र मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं। होता है। [प्रभातकालके] बाल-सूर्यकी ओर देखना भी वह सोचने लगा, 'ऐसा कौन अपूर्व योद्धा होगा, जिसे कठिन होता है। इसी प्रकार में बालक होनेपर भी दुर्जय मैंने अबतक परास्त नहीं किया है।' तारकासुर इसी हूँ-मुझे परास्त करना कठिन है। दैत्य ! क्या थोड़े चिन्तामें व्याकुल हो रहा था, इतनेमें ही उसे सिद्ध- अक्षरोवाले मन्त्रमें अद्भुत शक्ति नहीं देखी जाती? वन्दियोंके द्वारा गाया जाता हुआ किसीका यशोगान कुमारकी यह बात समाप्त होते ही दैत्यने उनके सुनायी पड़ा, जो हृदयको दुःखद प्रतीत होता था, जिसके ऊपर मुद्रका प्रहार किया। परन्तु उन्होंने अमोघ अक्षर कड़वे जान पड़ते थे। तेजवाले चक्रके द्वारा उस भयंकर अखको नष्ट कर वन्दीगण कह रहे थे-महासेन ! आपकी जय दिया। तब दैत्यराजने लोहेका भिन्दिपाल चलाया, किन्तु हो। आपके मस्तककी चञ्चल शिखाएँ बड़ी सुन्दर कार्तिकेयने उसको अपने हाथसे पकड़ लिया। इसके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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