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________________ ૨૨૮ . . अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण . . .. . . . . . . . इस प्रकार बालकोंके साथ खेलमें सम्मिलित उन भगवान्के सुयशका मैं सुमधुर रससे युक्त संगीत होकर वह प्रतिदिन खेलता तथा मधुर अक्षर और उत्तम एवं ताल-लयके साथ गान करता हूँ। मैं अखिल रागसे युक्त गीतोंद्वारा श्रीकृष्णका गुणगान किया करता भुवनके स्वामी भगवान् श्रीविष्णुका ध्यान करता हूँ, जो था। उसके गीत-ताल, लय, उत्तम स्वर और मूर्च्छनासे इस लोकमें दुःखरूपी अन्धकारका नाश करनेके लिये युक्त होते थे। सुव्रत कहता-'सम्पूर्ण देवता सदा चन्द्रमाके समान है। जो अज्ञानमय तिमिरका ध्वंस भगवान् श्रीमुरारिका ध्यान करते हैं। जिनके श्रीअङ्गोंके करनेके लिये साक्षात् सूर्यके तुल्य हैं तथा आनन्दके भीतर सम्पूर्ण जगत् स्थित है, जो योगके स्वामी, पापोंका अखण्ड मूल और महिमासे सुशोभित हैं, जो अमृतमय नाश करनेवाले और शरणागतोके रक्षक हैं, उन भगवान् आनन्दसे परिपूर्ण, समस्त कलाओंके आधार तथा श्रीमधुसूदनका मैं भजन करता हूँ।* जो सम्पूर्ण जगत्के गीतके कौशल हैं, उन श्रीभगवानका मैं अनन्य अनुरागसे भीतर सदा जागते और व्याप्त रहते हैं, जिनमें समस्त गान करता हूँ। जो उत्तम योगके साधनोंसे युक्त हैं, गुणवानोंका निवास है तथा जो सब दोषोंसे रहित हैं, उन जिनकी दृष्टि परमार्थकी ओर लगी रहती है, जो सम्पूर्ण परमेश्वरका चिन्तन करके मैं सदा उनके युगल चरणोंमें चराचर जगत्को एक साथ देखते रहते हैं तथा पापी मस्तक झुकाता हूँ। जो गुणोंके अधिष्ठान हैं, जिनके लोगोंको जिनके स्वरूपका दर्शन नहीं होता, उन एकमात्र पराक्रमका अन्त नहीं है, वेदान्तज्ञानसे विशुद्ध बुद्धिवाले भगवान् श्रीकेशवकी मैं सदाके लिये शरण लेता हूँ।' पुरुष जिनका सदा स्तवन किया करते हैं, इस अपार, इस प्रकार सुमनाका पुत्र सुव्रत दोनों हाथोंसे ताली अनन्त और दुर्गम संसारसागरसे पार होनेके लिये जो बजाकर ताल देते हुए श्रीकृष्णके सुयशका गान करता नौकाके समान हैं, उन सर्वस्वरूप भगवान् श्रीनारायणकी और बालकोंके साथ सदा प्रसन्न रहता था। प्रतिदिन मैं शरण लेता हूँ। मैं श्रीभगवान्के उन निर्मल युगल बालस्वभावके अनुसार खेलता और भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंको प्रणाम करता हूँ, जो योगीश्वरोंके हृदयमें निवास ध्यानमें लगा रहता था। अपने सुलक्षण पुत्र सुव्रतको करते हैं, जिनका शुद्ध एवं पूर्ण प्रभाव सदा और सर्वत्र खेलते देख माता सुमना कहती-बेटा ! आ, कुछ विख्यात है। देव ! मैं दीन हैं, आप अशुभके भयसे मेरी भोजन कर ले; तुझे भूख सता रही होगी।' यह सुनकर रक्षा कीजिये। संसारका पालन करनेके लिये जिन्होंने वह बुद्धिमान् बालक सुमनाको उत्तर देता-'माँ ! धर्मको अङ्गीकार किया है, जो सत्यसे युक्त, सम्पूर्ण भगवान्का ध्यान महान् अमृतके तुल्य है, मैं उसीसे तृप्त लोकोंके गुरु, देवताओंके स्वामी, लक्ष्मीजीके एकमात्र रहता हूँ-मुझे भूख नहीं सताती।' भोजनके आसनपर निवासस्थान, सर्वस्वरूप और सम्पूर्ण विश्वके आराध्य हैं; बैठकर जब वह अपने सामने मिष्टान्न परोसा हुआ पश्यत्येवं यदत्येवं जगन्नाथं जनार्दनम् । स ध्यायते तमेकं हि विश्वनाथ महेश्वरम् ॥ तृणे काष्ठे च पाषाणे शुष्के सादें ही केशवम् । पश्यत्येवं स धर्मात्मा गोविन्दं कमलेक्षणम् ॥ आकाशे भूमिमध्ये तु पर्वतेषु बनेषु च ।जले स्थले च पाषाणे जोवेषु च महामतिः ॥ नृसिह पश्यते विप्रः सुवतः सुमनासुतः। . (२० । ११-१५) * ध्यायन्ति देवाः सततं मुरारि यस्याङ्गमध्ये सकलं निविष्टम् । योगेश्वर पापविनाशनं च भजे शरण्य मधुसूदनाख्यम्।। (२०१७) नारायणं गुणनिधानमनन्तवीर्य वेदान्तशुद्धमतयः प्रपठन्ति नित्यम् । संसारसागरमपारमनन्तदुर्गमुत्तारणार्थमखिलं शरणं प्रपद्ये ॥ योगीन्द्रमानससरोवरराजहंस शुद्ध प्रभावमखिलं सततं हि यस्य । तस्यैव पादयुगलं हमलं नमामि दीनस्थ मेऽशुभभयात् कुरु देव रक्षाम् । (२० । १९-२०)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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