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________________ स्वर्गखण्ड ] • ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम काला मृगचर्म धारण किये मुनिवेषमें रहे, भिक्षाका अत्र ग्रहण करे और गुरुका मुँह जोहते हुए सदा उनके हितमें संलग्न रहे। ब्रह्माजीने पूर्वकालमें यज्ञोपवीत बनानेके लिये ही कपास उत्पन्न किया था ब्राह्मणोंके लिये तीन आवृत्ति करके बनाया हुआ यज्ञोपवीत शुद्ध माना गया है। द्विजको सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहना चाहिये। अपनी शिखाको सदा बाँधे रखना चाहिये। इसके विपरीत बिना यज्ञोपवीत पहने और बिना शिखा बाँधे जो कर्म किया जाता है, वह विधिपूर्वक किया हुआ नहीं माना जाता । वस्त्र रूई जैसा सफेद हो या गेरुआ । फटा न हो, तभी उसे ओढ़ना चाहिये तथा वही पहननेके योग्य माना गया है। इनमें भी श्वेत वस्त्र अत्यन्त उत्तम है। उससे भी उत्तम और शुभ आच्छादन काला मृगचर्म माना गया है। जनेऊ गलेमें डालकर दाहिना हाथ उसके ऊपर कर ले और बायीं बाँह [ अथवा कंधे] पर उसे रखे तो वह 'उपवीत' कहलाता है। यज्ञोपवीतको सदा इसी तरह रखना चाहिये। कण्ठमें मालाकी भाँति पहना हुआ जनेऊ 'निवीत' कहा गया है। ब्राह्मणो! बाय बाँह बाहर निकालकर दाहिनी बाँह या कंधेपर रखे हुए जनेऊको 'प्राचीनावीत' (अपसव्य) कहते हैं। इसका पितृ कार्य (श्राद्ध-तर्पण आदि) में उपयोग करना चाहिये। हवनगृहमें, गोशालामें, होम और जपके समय, स्वाध्यायमें भोजनकालमें, ब्राह्मणोंके समीप रहनेपर, गुरुजनों तथा दोनों कालकी संध्याकी उपासनाके समय तथा साधु पुरुषोंसे मिलने पर सदा उपवीतके ढंगसे ही जनेऊ पहनना ********** ३७९ चाहिये – यही सनातन विधि है। ब्राह्मणके लिये तीन आवृत्ति की हुई मूँजकी ही मेखला बनानी चाहिये। पूँज न मिलनेपर कुशसे भी मेखला बनानेका विधान है। मेखलामें गाँठ एक या तीन होनी चाहिये। द्विज बाँस अथवा पलाशका दण्ड धारण करे। दण्ड उसके पैरसे लेकर सिरके केशतक लंबा होना चाहिये। अथवा किसी भी यज्ञोपयोगी वृक्षका दण्ड, जो सुन्दर और छिद्र आदिसे रहित हो, वह धारण कर सकता है। द्विज सबेरे और सायंकालमें एकाग्रचित्त होकर संध्योपासन करे। जो काम, लोभ, भय अथवा मोहवश संध्योपासन त्याग देता है, वह गिर जाता है। संध्या करनेके पश्चात् द्विज प्रसन्नचित्त होकर सायंकाल और प्रातःकालमें अग्निहोत्र करे। फिर दुबारा स्नान करके देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। इसके बाद पत्र, पुष्प, फल, जौ और जल आदिसे देवताओंकी पूजा करे। प्रतिदिन आयु और आरोग्यकी सिद्धिके लिये तन्द्रा और आलस्य आदिका परित्याग करके 'मैं अमुक हूँ। और आपको प्रणाम करता हूँ' इस प्रकार अपने नाम, गोत्र आदिका परिचय देते हुए धर्मतः अपनेसे बड़े पुरुषोंको विधिपूर्वक प्रणाम करे और इस प्रकार गुरुजनोंको नमस्कार करनेका स्वभाव बना ले। नमस्कार करनेवाले ब्राह्मणको बदलेमें 'आयुष्मान् भव सौम्य !' कहना चाहिये तथा उसके नामके अन्तमें लुताकारका उच्चारण करना चाहिये। यदि नाम हलन्त हो, तो अन्तिम हल्के आदिका अक्षर प्लुत बोलना चाहिये। * जो * पाणिनिने भी 'प्रत्यभिवादेऽशूद्रे' (८ । २ । ८३ ) – इस सूत्रके द्वारा इस नियमका उल्लेख किया है। इसके अनुसार आशीर्वाद वाक्यके 'टि' को 'भुत' स्वरसे बोला जाता है। किन्तु उस वाक्य के अन्तमें प्रणाम करनेवालेका नाम या 'सौम्य' आदि पद ही प्रयुक्त होते हैं। यदि नाम स्वरान्त हो तो अन्तिम अक्षरको ही 'टि' संज्ञा प्राप्त होगी और यदि हलन्त हुआ तो अन्तिम अक्षरके पूर्ववर्ती स्वरको 'टि' माना जायगा; उसीका लुत उच्चारण होगा। हस्वका उच्चारण एक मात्राका, दीर्घका दो मात्राका और भुतका तीन मात्राका होता है। अतः ह्रस्वके उच्चारणमें जितना समय लगता है, उससे तिगुने समयमें श्रुतका ठीक उच्चारण होता है। यह नियम ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य तीनों वर्णोंक पुरुषोंके लिये लागू होता है। यदि प्रणाम करनेवाला शूद्र या स्त्री हो तो उसे आशीर्वाद देते समय उसके नामका अन्तिम अक्षर त नहीं बोला जाता प्रणाम वाक्य इस प्रकार होना चाहिये – 'अमुक गोत्रः अमुकशर्मा (वर्माहं गुप्तोऽहं वा) भवन्तमभिवादये। आशीर्वाद वाक्य ऐसा होना चाहिये- 'आयुष्मान् भव सौम्य ३ आयुष्मानेधीन्द्रशर्म ३ न, आयुष्मानेधीन्द्रवर्म ३ न् अथवा आयुष्मानेधीन्द्रगुप्त ३, इत्यादि। जो इस प्रकार आशीर्वाद देना जानता हो उसीको उक्त विधिसे नाम गोत्रादिका उच्चारण करके प्रणाम करना चाहिये; जो न जाने, उससे 'अयमहं प्रणमामि' आदि साधारण वाक्य बोलना चाहिये।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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