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________________ ૩૭૮ + अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त परापुराण जिह्वां लब्ध्वापि लोकेऽस्मिन् कृष्णनाम जपेन हि ॥ ३३ ॥ अधिक पावन तीर्थ कहा गया है। लक्वापि मुक्तिसोपानं हेलयैव च्यवन्ति ते। सर्वेषां खलु तीर्थानां नानपानावगाहनैः । जो इस लोकमें जीभ पाकर भी श्रीकृष्णनामका जप यत्फलं लभते मर्त्यस्तत्फलं कृष्णसेवनात् ॥३६॥ नहीं करते, वे मोक्षतक पहुँचनेके लिये सीढ़ी पाकर भी सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्रान करने, उनका जल पीने और अवहेलनावश नीचे गिरते हैं। उनमें गोता लगानेसे मनुष्य जिस फलको पाता है, वह तस्माद्यनेन वै विष्णुं कर्मयोगेन मानवः ॥ ३४ ॥ कर्मयोगार्चितो विष्णुः प्रसीदत्येव नान्यथा। श्रीकृष्णके सेवनसे प्राप्त हो जाता है। तीर्थादप्यधिक तीर्थ विष्णोर्भजनमच्यते ॥ ३५॥ यजन्ते कर्मयोगेन धन्या एव नरा हरिम् । इसलिये मनुष्यको उचित है कि वह कर्मयोगके तस्माद्यजध्वं मुनयः कृष्णं परममङ्गलम् ।। ३७ ॥ द्वारा भगवान् विष्णुकी यत्नपूर्वक आराधना करे। भाग्यवान् मनुष्य ही कर्मयोगके द्वारा श्रीहरिका कर्मयोगसे पूजित होनेपर ही भगवान् विष्णु प्रसन्न होते पूजन करते हैं। अतः मुनियो ! आपलोग परम मङ्गलमय है, अन्यथा नहीं। भगवान् विष्णुका भजन तीर्थोंसे भी श्रीकृष्णकी आराधना करें। ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! कर्मयोग कैसे किया श्रवण करो। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह अपने जाता है, जिसके द्वारा आराधना करनेपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं? महाभाग ! आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; अतः हमें यह बात बताइये। जिसके द्वारा मुमुक्षु पुरुष सबके ईश्वर भगवान् श्रीहरिकी आराधना कर सकें, वह समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाला धर्म क्या वस्तु है? उसका वर्णन कीजिये। उसके श्रवणकी इच्छासे ये ब्राह्मणलोग आपके सामने बैठे है। सूतजी बोले-महर्षियो ! पूर्वकालमें अग्निके समान तेजस्वी ऋषियोंने सत्यवतीके पुत्र व्यासजीसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा था, उसे आपलोग सुनिये। व्यासजीने कहा-ऋषियो! मैं सनातन कर्मयोगका वर्णन करूँगा, तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। कर्मयोग ब्राह्मणोंको अक्षय फल प्रदान करनेवाला है। पहलेकी बात है, प्रजापति मनुने श्रोता बनकर बैठे हए ऋषियोंके समक्ष ब्राह्मणोंके लाभ के लिये वेदप्रसिद्ध र सम्पूर्ण विषयोका उपदेश किया था। वह उपदेश सम्पूर्ण गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार गर्भ या जन्मसे पापोंको हरनेवाला, पवित्र और मुनि-समुदायद्वारा सेवित आठवें वर्षमें उपनयन होनेके पश्चात् वेदोंका अध्ययन है; मैं उसीका वर्णन करता हूँ, तुमलोग एकाग्रचित्त होकर आरम्भ करे। दण्ड, मेखला, यज्ञोपवीत और हिंसारहित
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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