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________________ . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण - ७४ मायापतिः-मायाके स्वामी, ७५ योग- प्रकाशित होनेवाले, ९७ स्वयम्प्रभुः-दूसरेकी पति:-योगपालक, योगेश्वर, ७६ कैवल्यपतिः- सामर्थ्यकी अपेक्षासे रहित, स्वयं समर्थ, २८ मोक्ष प्रदान करनेका अधिकार रखनेवाले, मुक्तिके सर्वोपायः-सर्वसाधनरूप, ९९ उदासीन:स्वामी, ७७ आत्मभूः-स्वतः प्रकट होनेवाले, रागद्वेषसे ऊपर उठे हुए. पक्षपातरहित, १०० स्वयम्भू, ७८ जन्ममृत्युजरातीतः-जन्म, मरण और प्रणवः-ओंकाररूप शब्दब्रह्म, १०१ सर्वतः वृद्धावस्था आदि शरीरके धर्मोंसे रहित, ७९ समः-सब ओर समान दृष्टि रखनेवाले ॥१३५ ॥ कालातीत:-कालके वशमें न आनेवाले, ८० सर्वानवद्यो दुष्पाप्यस्तुरीयस्तमसः परः । भवातिग:-भवबन्धनसे अतीत ॥ १३२ ।। कूटस्थः सर्वसंश्लिष्टो वाङ्मनोगोचरातिगः ॥ १३६ ॥ पूर्णः सत्यः शुद्धबुद्धस्वरूपो नित्यचिन्मयः। १०२ सर्वानवद्यः-सबकी प्रशंसाके पात्र, योगप्रियो योगगम्यो भवबन्धैकमोचकः ॥ १३३ ॥ सबके द्वारा स्तुल्य, १०३ दुष्प्राप्यः-अनन्य चित्तसे - ८१ पूर्ण:-समस्त ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य और भजन न करनेवालोंके लिये दुर्लभ, १०४ तुरीयःगुणोंसे परिपूर्ण, ८२ सत्यः-भूत, भविष्य और जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओंसे वर्तमान- तीनों कालोंमें सदा समानरूपसे रहनेवाले, अतीत चतुर्थावस्थास्वरूप, १०५ तमसः परःसत्यस्वरूप, ८३ शुद्धबुद्धस्वरूपः-स्वाभाविक शुद्ध तमोगुण एवं अज्ञानसे परे, १०६ कूटस्थ:-निहाईकी और ज्ञानसे सम्पत्र, प्रकृतिके संसर्गसे रहित बोधस्वरूप भांति अविचलरूपसे स्थिर रहनेवाला निर्विकार आत्मा, परमात्मा, ८४ नित्यचिन्मयः-नित्य चैतन्यस्वरूप, १०७ सर्वसंश्लिष्टः-सर्वत्र व्यापक होनेके कारण ८५ योगप्रिय:-चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगके सबसे संयुक्त, १०८ वाङ्मनोगोचरातिगः-वाणी प्रेमी, ८६ योगगम्यः-ध्यान अथवा समाधिके द्वारा और मनकी पहुँचसे बाहर ।। १३६ ॥ अनुभवमें आनेयोग्य, ८७ भवबन्धैकमोचक:- संकर्षण: सर्वहरः कालः सर्वभयंकरः । संसार-बन्धनसे एकमात्र छुड़ानेवाले ॥ १३३ ॥ अनुल्लयश्चित्रगतिर्महारुद्रो दुरासदः ॥ १३७ ।। पुराणपुरुषः प्रत्यक्चैतन्यः पुरुषोत्तमः। १०९ संकर्षण:-कालरूपसे सबको अपनी वेदान्तवेद्यो दुर्जेयस्तापत्रयविवर्जितः ।। १३४ ॥ ओर खींचनेवाले, चतुर्दूहमें सङ्कर्षणरूप, शेषावतार ८८ पुराणपुरुषः-ब्रह्मा आदि पुरुषोंकी अपेक्षा बलराम, ११० सर्वहर:-प्रलयकालमें सबका संहार भी प्राचीन, आदि पुरुष, ८९ प्रत्यक्कैतन्यः- करनेवाले, १११ काल:-युग, वर्ष, मास, पक्ष आदि अन्तर्यामी चेतन, ९० पुरुषोत्तमः-क्षर और अक्षर रूपसे सम्पूर्ण विश्वको अपना ग्रास बनानेवाले, कालपुरुषोंसे श्रेष्ठ, ९१ वेदान्तवेद्यः-उपनिषदोंके द्वारा पदवाच्य यमराज, ११२ सर्वभयंकरः-मृत्युरूपसे जाननेयोग्य, ९२ दुज्ञेयः-कठिनतासे अनुभवमें सबको भय पहुंचानेवाले, ११३ अनुल्लङ्घ्यःआनेवाले, ९३ तापत्रयविवर्जितः-आध्यात्मिक, काल आदि भी जिनकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं कर आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों तापोंसे सकते, ऐसे सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर, ११४ रहित ॥ १३४॥ चित्रगतिः-विचित्र लीलाएँ करनेवाले लोलापुरुषोत्तम ब्रह्मविद्याश्रयोऽनघः स्वप्रकाशः स्वयम्प्रभुः । अथवा विचित्र गतिसे चलनेवाले, ११५ महारुद्रःसर्वोपाय उदासीनः प्रणवः सर्वतः समः ॥ १३५॥ महान् दुःखोंको दूर भगानेवाले, ग्यारह रुद्रोंकी अपेक्षा ____९४ ब्रह्मविद्याश्रयः-ब्रह्मविद्याके आश्रय, भी महान् महेश्वररूप, ११६ दुरासदः-बड़े-बड़े उसके द्वारा जाननेमे आनेवाले ब्रह्म, ९५ अनघ:- दानवोंके लिये भी जिनका सामना करना कठिन है, ऐसे पापरहित, शुद्ध, ९६ स्वप्रकाश:-अपने ही प्रकाशसे दुर्धर्ष वीर ।। १३७॥
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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