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उत्तरखण्ड ]
. नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन .
मलप्रकृतिरानन्दः प्रद्युम्नो विश्वमोहनः। सञ्चालन करनेवाले ॥ १४० ॥ . महामायो विश्ववीज परशक्तिः सुखैकभूः ।। १३८॥ क्षेत्रज्ञः प्रकृतिस्वामी पुरुषो विश्वसूत्रधक। 1 31 ११७ मूलप्रकृतिः-सम्पूर्ण विश्वके महाकारण- अन्तर्यामी विधामान्तःसाक्षी निर्गुण ईश्वरः ॥ १४१॥ स्वरूप, ११८ आनन्दः-सब ओरसे सुख प्रदान
१३९ क्षेत्रज्ञः-सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीरों) में स्थित करनेवाले, आनन्दस्वरूप, ११९ प्रद्युम्नः-महान् होकर उनका ज्ञान रखनेवाले, १४० प्रकृतिस्वामीबलवाले कामदेव, चतु हमें प्रद्युम्नस्वरूप, १२० जगतकी कारणभूता प्रकृतिके स्वामी, १४१ पुरुषःविश्वमोहनः- अपने अलााकक रूपलावण्यस सम्पूर्ण समस्त शरीरोंमें शयन करनेवाले अन्तर्यामी, १४२ विश्वको मोहित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, १२१
विश्वसूत्रभृक्-संसाररूपी नाटकके सूत्रधार, १४३ महामायः-मायावियोंपर भी माया डालनेवाले महान्
अन्तर्यामी-अन्तःकरणमें विराजमान परमेश्वर, १४४ मायावी, १२२ विश्वबीजम्-जगत्की उत्पत्तिके विधामा-भ:-भुवः स्वःरूप तीन धामवाले, आदि कारण, १२३ परशक्तिः-महान् सामर्थ्यशाली, त्रिलोकीमें व्याप्त. १४५ अन्तःसाक्षी-अन्तःकरणके १२४ सुखैकभूः-सुखके एकमात्र उत्पत्ति
द्रष्टा, १४६ निर्गुण:-गुणातीत, १४७ स्थान ॥ १३८॥
ईश्वरः-सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न ।। १४१॥ सर्वकाम्योऽनन्तलीलः सर्वभूतवशंकरः।
.. योगिगम्यः पद्मनाभः शेषशायी श्रियः पतिः । अनिरुद्धः सर्वजीवो हृषीकेशो मनःपतिः ।। १३९ ।।
श्रीशिवोपास्यपादाब्जो नित्यश्रीः श्रीनिकेतनः ।। १४२ ।। १२५ सर्वकाम्यः-सबकी कामनाके विषय, १२६ अनन्तलील:-जिनकी लीलाओंका अन्त नहीं
१४८ योगिगम्य:-योगियोंके अनुभव है-ऐसे भगवान्, १२७ सर्वभूतवशंकरः-सम्पर्ण आनेवाले, १४९ पद्मनाभः-अपनी नाभिसे कमल प्राणियोंको अपने वशमें करनेवाले, १२८ अनिरुद्धः- प्रकट करनेवाले, १५० शेषशायी-शेषनागकी संग्राममें जिनकी गतिको कोई रोक नहीं सकता-ऐसे शय्यापर शयन करनेवाले, १५१ श्रियःपति:पराक्रमी, शूरवीर, चतु हमें अनिरुद्धस्वरूप, १२९
लक्ष्मीके स्वामी, १५२ श्रीशिवोपास्यपादाब्जःसर्वजीवः-सबको जीवन प्रदान करनेवाले, सबके
पार्वतीसहित भगवान् शिव जिनके चरणकमलोकी आत्मा, १३० हषीकेशः-इन्द्रियोंके स्वामी, १३१ उपासना करते हैं, वे भगवान् विष्णु, १५३ नित्यश्री:मनःपतिः-मनके स्वामी, हृदयेश्वर ।। १३९ ।।
कभी विलग न होनेवाली लक्ष्मीकी शोभासे युक्त, १५४ निरुपाधिप्रियो हंसोऽक्षरः सर्वनियोजकः।
श्रीनिकेतन:-भगवती लक्ष्मीके हृदय-मन्दिरमें
निवास करनेवाले ॥ १४२ ॥ ब्रह्मप्राणेश्वरः सर्वभूतभृद् देहनायकः ॥ १४०॥
१३२- निरूपाधिप्रियः-जिनकी बुद्धिसे नित्यवक्षःस्थलस्थश्रीः श्रीनिधिः श्रीधरो हरिः। उपाधिकृत भेदभ्रम दूर हो गये है, उन ज्ञानी परमहंसोके वश्यश्रीनिश्चलश्रीदो विष्णुः क्षीराब्धिमन्दिरः ॥ १४३ ॥ भी प्रियतम, १३३ हंसः-हंसरूप धारण करके १५५ नित्यवक्षःस्थलस्थश्री:-जिनके सनकादिकोंको उपदेश करनेवाले, १३४ अक्षर:- वक्षःस्थलमें लक्ष्मी सदा निवास करती हैं ऐसे कभी नष्ट न होनेवाले, आत्मा, १३५ सर्वनियोजक:- भगवान् विष्णु, १५६ श्रीनिधिः-शोभाके भण्डार, सबको विभिन्न कर्मों में लगानेवाले, सबके प्रेरक, सबके सब प्रकारको सम्पत्तियोके आधार, १५७ श्रीधरःस्वामी, १३६ ब्रह्मप्राणेश्वर:-ब्रह्माजीके प्राणोंके जगज्जननी श्रीको हृदयमें धारण करनेवाले, १५८ स्वामी, १३७ सर्वभूतभृत्-सम्पूर्ण भूतोंका भरण- हरिः-पापहारी, भक्तोंका मन हर लेनेवाले-१५९ पोषण करनेवाले, १३८ देहनायक:- शरीरका वश्यश्रीः-लक्ष्मीको सदा अपने वश में रखनेवाले,
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