________________
900
• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् -
१६० निश्चलश्रीदः - स्थिर सम्पत्ति प्रदान करनेवाले, १६१ विष्णुः - सर्वत्र व्यापक १६२ क्षीराब्धिमन्दिर:- क्षीरसागरको अपना निवासस्थान बनाने वाले ॥ १४३ ॥ कौस्तुभोद्भासितोरस्को माधवो जगदार्तिहा । श्रीवत्सवक्षा निःसीमकल्याणगुणभाजनम् ।। १४४ ।। १६३ कौस्तुभोद्भासितोरस्कः - कौस्तुभ मणिकी प्रभासे उद्भासित हृदयवाले, १६४ माधवःजगन्माता लक्ष्मीके स्वामी अथवा मधुवंशमें प्रादुर्भूत भगवान् श्रीकृष्ण, १६५ जगदार्तिहा —समस्त संसारकी पीड़ा दूर करनेवाले, १६६ श्रीवत्सवक्षा:वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न धारण करनेवाले, १६७ निःसीमकल्याणगुणभाजनम् — सीमारहित कल्याण
-
भगवान् ॥ १४६ ॥ सर्वामोघोद्यमो
म गुणोंके आधार ॥ १४४ ।। पीताम्बरो जगन्नाथो जगत्त्राता जगत्पिता । जगद्वन्धुर्जगत्स्रष्टा जगद्धाता जगन्निधिः ॥ १४५ ॥ १६८ पीताम्बरः -पीत वस्त्रधारी, १६९ जगन्नाथः - जगत्के स्वामी, १७० जगत्त्रातासम्पूर्ण विश्वके रक्षक, १७१ जगत्पिता–समस्त संसारके जन्मदाता १७२ जगद्बन्धुः - बन्धुकी भाँति जगत्के जीवोंकी सहायता करनेवाले, १७३ जगत्स्रष्टा - जगत् की सृष्टि करनेवाले ब्रह्मारूप १७४ जगद्धाता — अखिल विश्वका धारण-पोषण करनेवाले विष्णुरूप, १७५ जगन्निधिः - प्रलयके समय सम्पूर्ण जगत्को बीजरूपमें धारण करनेवाले ॥ १४५ ॥ जगदेकस्फुरद्वीय नाहंवादी जगन्मयः । सर्वाश्चर्यमयः सर्वसिद्धार्थः सर्वरञ्जितः ।। १४६ ।।
-
१७६ जगदेकस्फुरद्वीर्यः – संसारमें एकमात्र विख्यात पराक्रमी, १७७ नाहंवादी– अहङ्काररहित, १७८ जगन्मयः - विश्वरूप १७९ सर्वाश्चर्यमयः - जिनका सब कुछ आश्चर्यमय है — ऐसे अथवा सम्पूर्ण आश्चयसे युक्त, १८० सर्वसिद्धार्थः - पूर्णकाम होनेके कारण जिनके सभी प्रयोजन सदा सिद्ध हैं ऐसे परमेश्वर, १८१ सर्वरञ्जितः - देवता, दानव और मानव आदि सभी प्राणी जिन्हें रिझानेकी चेष्टामें लगे रहते हैं ऐसे
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
ब्रह्मरुद्राद्युत्कृष्टचेतनः ।
शम्भोः पितामहो ब्रह्मपिता शक्राद्यधीश्वरः ।। १४७ ।। १८२ सर्वामोघोद्यमः - जिनके सम्पूर्ण उद्योग सफल होते हैं, कभी व्यर्थ नहीं जाते - ऐसे भगवान् विष्णु, १८३ ब्रह्मरुद्राद्युत्कृष्टचेतनः ब्रह्मा और रुद्र आदिसे उत्कृष्ट चेतनावाले, १८४ शम्भोः पितामहःशङ्करजीके पिता भगवान् ब्रह्माको भी जन्म देनेवाले श्रीविष्णु, १८५ ब्रह्मपिता ब्रह्माजीको उत्पन्न करनेवाले, १८६ शक्राद्यधीश्वरः -इन्द्र आदि
देवताओंके स्वामी ॥ १४७ ॥
-
*******
सर्वदेवमूर्तिरनुत्तमः ।
सर्वदेवप्रियः सर्वदेवैकशरणं
सर्वदेवैकदेवता ॥ १४८ ॥
१८७ सर्वदेवप्रियः - सम्पूर्ण देवताओंके प्रिय, १८८ सर्वदेवमूर्तिः:- समस्त देवस्वरूप, ९८९ अनुत्तमः - जिनसे उत्तम दूसरा कोई नहीं है, सर्वश्रेष्ठ, १९० सर्वदेवैकशरणम् – समस्त देवताओंके एकमात्र आश्रय, १९१ सर्वदेवैकदेवता - सम्पूर्ण देवताओंके एकमात्र आराध्य देव ।। १४८ ।। यज्ञभुग्यज्ञफलदो यज्ञेशो यज्ञभावनः । यज्ञत्राता यज्ञपुमान्वनमाली द्विजप्रियः ॥ १४९ ॥
-
१९२ यज्ञभुक् — समस्त यज्ञोंके भोक्ता, १९३ यज्ञफलदः - सम्पूर्ण यशोका फल देनेवाले, १९४ यज्ञेशः – यज्ञोंके स्वामी, १९५ यज्ञभावनः- - अपनी वेदमयी वाणीके द्वारा यज्ञोंको प्रकट करनेवाले, १९६ यज्ञत्राता - यज्ञविरोधी असुरोंका वध करके यज्ञोंकी रक्षा करनेवाले, १९७ यज्ञपुमान्– यज्ञपुरुष, यज्ञाधिष्ठाता देवता, १९८ वनमाली - परम मनोहर वनमाला धारण करनेवाले १९९ द्विजप्रियः - ब्राह्मणोंके प्रेमी और प्रियतम ।। १४९ ।। द्विजैकमानदो
विप्रकुलदेवोऽसुरान्तकः ।
—
सर्वदुष्टान्तकृत्सर्वसज्जनानन्यपालकः
।। १५० ।। २०० द्विजैकमानदः - ब्राह्मणोंको एकमात्र सम्मान देनेवाले, २०१ विप्रकुलदेवः - ब्राह्मणवंशको अपना आराध्यदेव माननेवाले, २०२