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________________ ८७४ १ . अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .. [संक्षिप्त पयपुराण . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . . .. .........rrrrrrrr.. . . पूर्वजन्मकी स्मृति प्रदान करनेवाला दुर्लभ ज्ञान तुम नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंका भलीभांति प्राप्त होगा। अनुष्ठान करते हो। फिर भी तुम्हारा शरीर सूखा क्यों यह सुनकर विप्रवर शिवशर्माने पूर्वजन्मकी स्मृति जा रहा है? यदि कोई गोपनीय बात न हो, तो मुझे प्राप्त करनेके लिये भगवान् श्रीहरि, श्रीगङ्गाजी एवं अवश्य बताओ।' अयोध्या आदि सात पुरियोंका स्मरण करके और वैश्यने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! आपसे छिपानेयोग्य भगवान् गोविन्दमें चित्त लगाकर निगमोद्बोध तीर्थमें कौन-सी बात हो सकती है? आपकी कृपासे मुझे सब बार-बार डुबकियाँ लगाकर नान किया। उसके बाद प्रकारका सुख है। दुःख केवल एक ही बातका है कि सन्ध्या-तर्पण किया। तदनन्तर सूर्यको सादर अर्घ्य देकर बुढ़ापा आ जानेपर भी अबतक मेरे कोई पुत्र नहीं हुआ। विविध उपचारोंसे भगवान् विष्णुका पूजन किया। इस आप कृपा करके ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मैं भी तरह नित्यकर्म पूरा करके वे सुखपूर्वक बैठे और अपने पुत्रवान् हो सकूँ। आप जैसे महात्माओके लिये इस सुयोग्य पुत्र विष्णुशर्मासे बोले। पृथ्वीपर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। शिवशर्माने कहा-विष्णुशर्मन् ! यहाँ स्नान वैश्यश्रेष्ठ शरभके ये वचन सुनकर परोक्षज्ञानी करनेसे मुझे भी पहलेके जन्म-कर्मोका स्मरण हो आया देवलजीने आँखें बंद कर मनको स्थिर करके क्षणभर है। महाभाग ! मैं उन्हें तुम्हारे सामने कहता हैं, सुनो। ध्यान किया और मेरे पिताको सन्तानकी प्राप्ति होने में जो पूर्वजन्ममें मैं धनवान् वैश्यके कुलमें उत्पन्न हुआ था। रुकावट थी, उसका कारण जानकर उन्हें पुरानी बातोकी मेरे पिताका नाम शरभ था। वे कान्यकुब्जपुरमें निवास याद दिलाते हुए कहा-"वैश्य ! पहले की बात है, एक करते थे। वहाँ व्यापारके द्वारा उन्होंने बहुत धन कमायाः दिन तुम्हारी धर्मपत्नीने अपने मनमें जो कामना की थी, परन्तु रात-दिन उन्हें यही चिन्ता घेरे रहती थी कि पुत्रके उसे बतलाता हूँ सुनो। इसने पार्वतीजीसे प्रार्थना बिना मेरी सञ्चित को हुई यह सारी धनराशि व्यर्थ ही है। की-'शिवप्रिया गौरीदेवी ! यदि मैं गर्भवती हो जाऊँ इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए वैश्यके घर एक दिन परोक्ष तो तुम्हें षड्रस भोजनसे सन्तुष्ट करूंगी।' इस प्रार्थनाके विषयोंका ज्ञान रखनेवाले मुनिवर देवलजी पधारे। उन्हें बाद उसी महीने में तुम्हारी पत्नीके गर्भ रह गया। तय आया देख मेरे पिता आसनसे उठकर खड़े हो गये। सखियोंके अनुरोधसे तुम्हारी पतिव्रता पत्नीने तुम्हारे पास उन्होंने पाय और अर्घ्य देकर मुनिको प्रणाम किया, उत्तम आकर विनयपूर्वक कहा-'नाथ! मैं सम्पूर्ण आसनपर बैठाया और सम्मानपूर्वक कुशलप्रश्न पूछते कामनाओंको देनेवाली पार्वती देवीको पूजा करना चाहती हुए कहा-'मुनिश्रेष्ठ ! आपका इस पृथ्वीपर विचरना हूँ, क्योंकि उन्हींकी कृपासे इस समय मेरा मनोरथ पूर्ण हम-जैसे गृहस्थोंको सुख देनेके लिये ही होता है; हुआ है। अन्यथा यदि आप कृपा करके स्वतः न पधारें, तो घरकी "वैश्यप्रवर ! अपनी पत्नीके ये शुभ वचन सुनकर चिन्तामें डूबे हुए मनुष्योको आप-जैसे महात्माका दर्शन तुम बहुत प्रसन्न हुए और तुमने मधु, अन्न, द्राक्षा और कहाँ हो सकता है? जिनकी बुद्धि भगवान्को गन्ध आदि सब सामग्रियोंको मैंगवाकर अपनी पत्रीके चरण-रजके चिन्तनमें लगी हुई है, उन्हें कहीं भी कोई हवाले कर दिया। तब तुम्हारी पत्नीने सखियोंको बुलाकर कामना नहीं हो सकती । तथापि यहाँ आपके पधारनेका कहा-'सहेलियो ! पूजनकी सारी सामग्री मैने मैंगा ली क्या कारण है? यह शीघ्र बतानेकी कृपा करें। है। यह सब लेकर तुमलोग मन्दिरमें जाओ और _वैश्यके ऐसा कहनेपर देवल मुनिने उनके विधिवत् पूजा करके देवीको सन्तुष्ट करो। हमारे कुलमें मनोभावको जाननेके लिये पूछा-'वैश्यप्रवर ! तुमने गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं निकलती; इसलिये मैं नहीं धर्मपूर्वक बहुत धनका सञ्चय कर लिया है और उसीसे चल सकूँगी। तुम्हीं लोग देवीकी पूजाके लिये जाओ।' ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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