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________________ स्वर्गखण्ड ] • ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म . ___३८३ द्विज तीन बार जो जलका आचमन करता है, मूत्रका त्याग करना चाहिये। किसी पेड़की छायामें, उससे ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी तृप्त होते हैं-ऐसा कुएँके पास, नदीके किनारे, गोशाला, देवमन्दिर तथा हमारे सुननेमें आया है। मुखका परिमार्जन करनेसे गङ्गा जलमें, रास्तेपर, राखपर, अग्निमें तथा शमशान-भूमिमें और यमुनाको तृप्ति होती है। दोनों नेत्रोंके स्पर्शसे सूर्य भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये। गोबरपर, और चन्द्रमा प्रसन्न होते हैं। नासिकाके दोनों छिद्रोंका काठपर, बहुत बड़े वृक्षपर तथा हरी-भरी घासमें भी स्पर्श करनेसे अश्विनीकुमारोंकी तथा कानोंके स्पर्शसे मल-मूत्र करना निषिद्ध है। खड़े होकर तथा नग्न होकर वायु और अग्निकी तृप्ति होती है। हृदयके स्पर्शसे सम्पूर्ण भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये । पर्वतमण्डलमें, देवता प्रसन्न होते हैं और मस्तकके स्पर्शसे वह अद्वितीय पुराने देवालयमें, बाँबीपर तथा किसी भी गड्डेमें मलपुरुष (अन्तर्यामी) प्रसन्न होता है। मधुपर्क, सोमरस, मूत्रका त्याग वर्जित है। चलते-चलते भी पाखाना और पान, फल, मूल तथा गन्ना-इन सबके खाने-पीनेमें पेशाब नहीं करना चाहिये। भूसी, कोयले तथा ठीकरेपर, मनुजीने दोष नहीं बताया है-उससे मुँह जूठा नहीं खेतमें, बिलमें, तीर्थमें, चौराहेपर अथवा सड़कपर, होता। अन्न खाने या जल पीनेके लिये प्रवृत्त होनेवाले बगीचेमें, जलके निकट, ऊसर भूमिमें तथा नगरके मनुष्यके हाथमें यदि कोई वस्तु हो तो उसे पृथ्वीपर भीतर-इन सभी स्थानोंमें मल-मूत्रका त्याग मना है। रखकर आचमनके पश्चात् उसपर भी जल छिड़क देना खड़ाऊँ या जूता पहनकर, छाता लगाकर, चाहिये। जिस-जिस वस्तुको हाथमें लिये हुए मनुष्य अन्तरिक्षमें, स्त्री, गुरु, ब्राह्मण, गौ, देवता, देवालय तथा अपना मुँह जूठा करता है, उसे यदि पृथ्वीपर न रखे तो जलकी ओर मुँह करके, नक्षत्रों तथा ग्रहोंको देखते हुए वह स्वयं भी अशुद्ध ही रह जाता है । वस्त्र आदिके विषयमें अथवा उनकी ओर मुँह करके तथा सूर्य, चन्द्रमा और विकल्प है-उसे पृथ्वीपर रखा भी जा सकता है और अग्निकी ओर दृष्टि करके भी कभी मल-मूत्रका त्याग नहीं भी। उसका स्पर्श करके आचमन करना चाहिये। नहीं करना चाहिये। शौच आदि होनेके पश्चात् कहीं रातके समय जंगलमें चोर और व्याघोंसे भरे हुए रास्तेपर किनारेसे लेप और दुर्गन्धको मिटानेवाली मिट्टी लेकर चलनेवाला पुरुष द्रव्य हाथमें लिये हुए भी मल-मूत्रका आलस्यरहित हो विशुद्ध एवं बाहर निकाले हुए जलसे त्याग करके दूषित नहीं होता। यदि दिनमें शौच जाना हो हाथ आदिकी शुद्धि करे। ब्राह्मणको उचित है कि वह तो जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ाकर उत्तराभिमुख हो रेत मिली हुई अथवा कीचड़की मिट्टी न ले। रास्तेसे, मल-मूत्रका त्याग करे। यदि रात्रिमें जाना पड़े तो ऊसर भूमिसे तथा दूसरोंके शौचसे बची हुई मिट्टीको भी दक्खिनकी ओर मुँह करके बैठना चाहिये। पृथ्वीको काममें न ले। देवमन्दिरसे, कुएँसे, घरकी दीवारसे और लकड़ी, पत्ते, मिट्टी, ढेले अथवा घाससे ढककर तथा जलसे भी मिट्टी न ले। तदनन्तर, हाथ-पैर धोकर अपने मस्तकको भी वस्त्रसे आच्छादित करके मल- प्रतिदिन पूर्वोक्त विधिसे आचमन करना चाहिये । ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म , व्यासजी कहते हैं-महर्षियो ! इस प्रकार दण्ड, आज्ञा दें, तब उनके सामने बैठे। गुरुकी बातका श्रवण मेखला, मृगचर्म आदिसे युक्त तथा शौचाचारसे सम्पन्न और गुरुके साथ वार्तालाप-ये दोनों कार्य लेटे-लेटे न ब्रह्मचारी गुरुके मुँहकी ओर देखता रहे और जब वे करे और भोजन करते समय भी न करे। उस समय न बुलायें तभी उनके पास जाकर अध्ययन करे। सदा हाथ तो खड़ा रहे और न दूसरी ओर मुख ही फेरे। गुरुके जोड़े रहे, सदाचारी और संयमी बने । जब गुरु बैठनेकी समीप शिष्यकी शय्या और आसन सदा नीचे रहने
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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