SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 631
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरखण्ड ] • जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमी के व्रत तथा विभिन्न प्रकारके दान आदिकी महिमा . ६३१ जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा नारदजी बोले-देवदेव ! जगदीश्वर ! भक्तोंको अपने उत्तम विमानपर आरूढ़ हुए आकाशमार्गसे जाते अभयदान देनेवाले महादेव ! मुझपर कृपा करके कोई समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुपर उनकी दृष्टि पड़ी। उस श्रेष्ठ दूसरा व्रत यताइये। शैलपर ज्ञानयोग-परायण ब्रह्मर्षि सनत्कुमार दिखायी महादेवजीने कहा-पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामक पड़े, जो सुवर्णमयी शिलाके ऊपर विराजमान थे। उन्हें एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं। उनपर संतुष्ट होकर देखकर राजा अपना विस्मय पूछनेके लिये उतर पड़े। ब्रह्माजीने उन्हें एक सुन्दर पुरी प्रदान की, जो समस्त उन्होंने पास जा हर्षमें भरकर मुनिके चरणोमे मस्तक कामनाओंको पूर्ण करनेवाली थी। उसमें रहकर राजा झुकाया । ब्रहार्षिने भी राजाका अभिनन्दन किया। फिर हरिचन्द्र सात द्वीपोंसे युक्त वसुन्धराका धर्मपूर्वक पालन सुखपूर्वक बैठकर राजाने मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमारजीसे करते थे। प्रजाको वे औरस पुत्रकी भांति मानते थे। पूछा-'भगवन् ! मुझे जो यह सम्पत्ति प्राप्त हुई है, राजाके पास धन-धान्यकी अधिकता थी। उन्हें नाती- मानवलोकमें प्रायः दुर्लभ है। ऐसी सम्पत्ति किस कर्मसे पोतोकी भी कमी न थी। अपने उत्तम राज्यका पालन प्राप्त होती है ? मैं पूर्वजन्ममें कौन था? ये सब बातें करते हुए राजाको एक दिन बड़ा विस्मय हुआ। वे यथार्थरूपसे बतलाइये।' सोचने लगे-'आजके पहले कभी किसीको ऐसा राज्य सनत्कुमारजी बोले-राजन् ! सुनो-तुम नही मिला था। मेरे सिवा दूसरे मनुष्योंने ऐसे विमानपर पूर्वजन्ममें सत्यवादी, पवित्र एवं उत्तम वैश्य थे। तुमने सवारी नहीं की होगी। यह मेरे किस कर्मका फल है, अपना काम-धाम छोड़ दिया था, इसलिये बन्धुजिससे मैं देवराज इन्द्रके समान सुखी हूँ?' बान्धवोंने तुम्हारा परित्याग कर दिया। तुम्हारे पास राजाओंमें श्रेष्ठ हरिश्चन्द्र इस प्रकार सोच-विचारकर जीविकाका कोई साधन नहीं रह गया था; इसलिये तुम स्वजनोको छोड़कर चल दिये। स्त्रीने ही तुम्हारा साथ दिया। एक समय तुम दोनों किसी घने जङ्गलमे जा पहुंचे। वहाँ एक पोखरेमें कमल खिले हुए थे। उन्हें देखकर तुम दोनोंके मनमें यह विचार उठा कि हम यहाँसे कमल ले लें। कमल लेकर तुम दोनों एक-एक पग भूमि लांघते हए शुभ एवं पुण्यमयी वाराणसी पुरीमें पहुंचे। वहाँ तुमलोग कमल बेचने लगे किन्तु कोई भी उन्हें खरीदता नहीं था। वहीं खड़े-खड़े तुम्हारे कानोमे बाजेकी आवाज सुनायी पड़ी। फिर तुम उसी ओर चल दिये। वहाँ काशीके विख्यात राजा इन्द्रधुम्रकी | सती-साध्वी कन्या चन्द्रावतीने, जो बड़ी सौभाग्यशालिनी थी, जयन्ती नामक जन्माष्टमीका शुभकारक व्रत किया था। उस स्थानपर तुम बड़े हर्षके साथ गये। वहाँ पहुंचनेपर तुम्हारा चित्त संतुष्ट हो गया। तुमने वहाँ भगवान्के पूजनका विधान देखा। कलशके ऊपर श्रीहरिकी स्थापना करके उनकी पूजा हो रही थी। विशेष
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy