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पातालखण्ड ] - सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी मूळ; वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म +
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सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रनकी भी मूच्र्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोडना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
शेषजी कहते हैं-मुने ! भरतको मूर्छित देख मू» आदिका दारुण दृश्य कैसे दिखायी दे रहा है ? श्रीरघुनाथजीको बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने द्वारपालसे इसका सब कारण मुझे शीघ्र बताइये।' कहा-'शत्रुघ्नको शीघ्र मेरे पास बुला लाओ।' आज्ञा उनके ऐसा कहनेपर महाराज श्रीरामने लक्ष्मणको पाकर वह क्षणभरमें शत्रुघ्रको बुला लाया। आते ही वह सारा दुःखमय वृत्तान्त आरम्भसे ही कह सुनाया। उन्होंने भरतको अचेत और श्रीरघुनाथजीको दुःखी देखा; सीताके परित्यागसे सम्बन्ध रखनेवाली बात सुनकर वे इससे उन्हें भी बड़ा दुःख हुआ और वे श्रीरामचन्द्रजीको बारम्बार उच्छ्वास खींचते हुए सन्न हो गये। उन्हें कुछ प्रणाम करके बोले-'आर्य ! यह कैसा दारुण दृश्य भी उत्तर देते न देख श्रीरामचन्द्रजी शोकसे पीड़ित होकर है?' तब श्रीरामने धोबीके मुखसे निकला हुआ वह बोले-'मैं अपयशसे कलङ्कित हो इस पृथ्वीपर रहकर लोकनिन्दित वचन कह सुनाया तथा जानकीको क्या करूंगा। मेरे बुद्धिमान् भ्राता सदा मेरी आज्ञाका त्यागनेका विचार भी प्रकट किया।
पालन करते थे, किन्तु इस समय दुर्भाग्यवश वे भी मेरे तब शत्रुघ्नने कहा-स्वामिन् ! आप प्रतिकूल बातें करते हैं। कहाँ जाऊँ? कैसे करूं? जानकोजीके प्रति यह कैसी कठोर बात कह रहे हैं! पृथ्वीके सभी राजा मेरी हंसी उड़ायेंगे। श्रीरामको ऐसी भगवान् सूर्यका उदय सारे संसारको प्रकाश पहुँचानेके बातें करते देख लक्ष्मणने आँसू रोककर व्यथित स्वरमें लिये होता है; किन्तु उल्लुओंको वे पसंद नहीं आते, कहा-'स्वामिन् ! विषाद न कीजिये। मैं अभी उस इससे जगत्की क्या हानि होती है? इसलिये आप भी घोबीको बुलाकर पूछता है, संसारकी सभी स्त्रियोंमें श्रेष्ठ सीताको स्वीकार करें, उनका त्याग न करें; क्योंकि वे जानकीजीको निन्दा उसने कैसे की है? आपके राज्यमें सती-साध्वी स्त्री हैं। आप कृपा करके मेरो यह बात किसी छोटे-से-छोटे मनुष्यको भी बलपूर्वक कष्ट नहीं मान लीजिये।
पहुँचाया जाता । अतः उसके मन में जिस तरह प्रतीति हो, महात्मा शत्रुघ्नकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी जैसे वह संतुष्ट रहे, वैसा ही उसके साथ बर्ताव कीजिये बारम्बार वही (सीताके त्यागकी) बात दुहराने लगे, जो [परंतु एक बार उससे पूछना आवश्यक है। एक बार भरतसे कह चुके थे। भाईको वह कठोर बात जनककुमारी सीता मनसे अथवा वाणीसे भी आपके सुनते ही शत्रुघ्न दुःखके अगाध जलमें डूब गये और सिवा दूसरेको नहीं जानती; अतः उन्हें तो आप स्वीकार जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर ही करें, उनका त्याग न करें। मेरे ऊपर कृपा करके मेरी पड़े। भाई शत्रुघ्नको भी अचेत होकर गिरा देख बात माने।' श्रीरामचन्द्रजीको बहुत दुःख हुआ और वे द्वारपालसे ऐसा कहते हुए लक्ष्मणसे श्रीरामने शोकातुर होकर बोले-'जाओ, लक्ष्मणको मेरे पास बुला लाओ।' कहा-'भाई ! मैं जानता हूँ सीता निष्पाप है; तो भी द्वारपालने लक्ष्मणजीके महलमें जाकर उनसे इस प्रकार लोकापवादके कारण उसका त्याग करूँगा । लोकापवादसे निवेदन किया-'स्वामिन् ! श्रीरघुनाथजी आपको याद निन्दित हो जानेपर मैं अपने शरीरको भी त्याग सकता हूँ; कर रहे है। श्रीरामका आदेश सुनकर वे शीघ्र उनके फिर घर, पुत्र, मित्र तथा उत्तम वैभव आदि दूसरी-दूसरी पास गये। वहाँ भरत और शत्रुघ्नको मूर्छित तथा वस्तुओंकी तो बात ही क्या है। इस समय धोबीको श्रीरामचन्द्रजीको दुःखसे व्याकुल देखकर लक्ष्मण भी बुलाकर पूछनेकी आवश्यकता नहीं है। समय आनेपर दुःखी हो गये। वे श्रीरघुनाथजीसे बोले-'राजन् ! यह सब कुछ अपने-आप हो जायगा; लोगोंके चित्तमें