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________________ ५२० • अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण करके मोहित हो गयी, उन्हें देखकर पृथ्वीपर दूसरी कौन उन्मत्त प्राणी अपने वचनरूपी दोषके कारण ही बन्धनमें स्त्री है, जो मोहित न हो । उनका बल और पराक्रम महान् पड़ता है। यदि हम इस पर्वतके ऊपर बैठकर वार्तालाप है। वे अत्यन्त मोहक रूप धारण करनेवाले हैं। मैं न करते होते तो हमारे लिये यह बन्धन कैसे प्राप्त होता। श्रीरामका कहाँतक वर्णन करूँ। वे सब प्रकारके इसलिये मौन ही रहना चाहिये।' इतना कहकर पक्षी पुनः ऐश्वर्यमय गुणोंसे युक्त है। परम मनोहर रूप धारण बोला-'सुन्दरी ! मैं अपनी इस भार्याके बिना जीवित करनेवाली वे जानकीदेवी धन्य हैं, जो श्रीरघुनाथजीके नहीं रह सकता, इसलिये इसे छोड़ दो। सीता ! तुम साथ हजारों वर्षातक प्रसन्नतापूर्वक विहार करेंगी। परन्तु बड़ी अच्छी हो [मेरी प्रार्थना मान लो]।' इस तरह नाना सुन्दरी ! तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है, जो इतनी प्रकारकी बाते कहकर उसने समझाया, किन्तु सीताने चतुरता और आदरके साथ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका उसकी पत्नीको नहीं छोड़ा, तब उसकी भार्याने क्रोध और कीर्तन सुननेके लिये प्रश्न कर रही हो।' दुःखसे आकुल होकर जानकीको शाप दिया- 'अरी ! पक्षियोंकी ये बातें सुनकर जनककुमारी सीता अपने जिस प्रकार तू मुझे इस समय अपने पतिसे विलग कर जन्मकी ललित एवं मनोहर चर्चा करती हुई बोलीं- रही है, वैसे ही तुझे स्वयं भी गर्भिणीकी अवस्थामें "जिसे तुमलोग जानकी कह रहे हो, वह जनककी पुत्री मैं श्रीरामसे अलग होना पड़ेगा।' यों कहकर पतिही हूँ। मेरे मनको लुभानेवाले श्रीराम जब यहाँ आकर वियोगके शोकसे उसके प्राण निकल गये। उसने मुझे स्वीकार करेंगे, तभी मैं तुम दोनोंको छोईंगी, अन्यथा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण तथा पुनः-पुनः राम-नामका नहीं; क्योंकि तुमने अपने वचनोंसे मेरे मनमें लोभ उत्पन्न उच्चारण करते हुए प्राण त्याग किया था, इसलिये उसे ले कर दिया है। अब तुम इच्छानुसार खेल करते हुए मेरे जानेके लिये एक सुन्दर विमान आया और वह पक्षिणी घरमें सुखसे रहो और मीठे-मीठे पदार्थ भोजन करो।' यह उसपर बैठकर भगवान्के धामको चली गयी। सुनकर सुग्गीने जानकोसे कहा-'साध्वी ! हम वनके भार्याकी मृत्यु हो जानेपर पक्षी शोकसे आतुर पक्षी हैं, पेड़ोंपर रहते हैं और सर्वत्र विचरा करते हैं। हमें होकर बोला-'मैं मनुष्योंसे भरी हुई श्रीरामकी नगरी तुम्हारे घरमें सुख नहीं मिलेगा। मैं गर्भिणी हूँ, अपने अयोध्याम जन्म लूँगा तथा मेरे ही वाक्यसे उद्वेगमें स्थानपर जाकर बच्चे पैदा करूंगी। उसके बाद फिर तुम्हारे पड़कर इसे पतिके वियोगका भारी दुःख उठाना पड़ेगा।' यहाँ आ जाऊँगी। उसके ऐसा कहनेपर भी सीताने उसे यह कहकर वह चला गया। क्रोध और सीताजीका न छोड़ा। तब उसके पतिने विनीत वाणीमें उत्कण्ठित अपमान करनेके कारण उसका धोबीको योनिमें जन्म होकर कहा-'सीता ! मेरी सुन्दरी भार्याको छोड़ दो। हुआ। जो बड़े लोगोंकी बुराई करते हुए क्रोधपूर्वक इसे क्यों रख रही हो । शोभने ! यह गर्भिणी है, सदा मेरे अपने प्राणोंका परित्याग करता है, वह द्विजोंमें श्रेष्ठ ही मनमें बसी रहती है। जब यह बच्चोंको जन्म दे लेगी, तब क्यों न हो, मरनेके बाद नीच-योनिमें उत्पन्न होता है। इसे लेकर फिर तुम्हारे पास आ जाऊँगा।' तोतेके ऐसा यही बात उस तोतेके लिये भी हुई। उस धोबीके कहनेपर जानकीने कहा-'महामते ! तुम आरामसे जा कथनसे ही सीताजी निन्दित हुई और उन्हें पतिसे वियुक्त सकते हो, मगर तुम्हारी यह भार्या मेरा प्रिय करनेवाली होना पड़ा। धोबीके रूपमें उत्पन्न हुए उस तोतेका शाप है। मैं इसे अपने पास बड़े सुखसे रखूगी।' ही सीताका पतिसे विछोह कराने में कारण हुआ और यह सुनकर पक्षी दुःखी हो गया। उसने करुणायुक्त इसीसे वे वनमें गयीं। विप्रवर ! विदेहनन्दिनी सीताके वाणीमें कहा-'योगीलोग जो बात कहते हैं, वह सत्य सम्बन्धमे तुमने जो बात पूछी थी वह कह दी। अब फिर ही है-किसीसे कुछ न कहे, मौन होकर रहे, नहीं तो आगेका वृत्तान्त कहता हूँ, सुनो।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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