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________________ ६६२ - अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पापुराण करता था। भगवान् श्रीविष्णुको भक्तिमें उसका हार्दिक गङ्गाजीमें नान करके आये थे। धष्टबुद्धि शोकके भारसे अनुराग था। वह सदा शान्त रहता था। उसके पाँच पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिन्यके पास गया और हाथ जोड़ पुत्र थे-सुमना, द्युतिमान्, मेधावी, सुकृत तथा सामने खड़ा होकर बोला-'ब्रह्मन् ! द्विजश्रेष्ठ ! मुझपर धृष्टबुद्धि। धृष्टबुद्धि पाँचवाँ था। वह सदा बड़े-बड़े दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्यके पापोंमें ही संलग्न रहता था। जुए आदि दुर्व्यसनोंमें प्रभावसे मेरी मुक्ति हो।' उसकी बड़ी आसक्ति थी। वह वेश्याओंसे मिलनेके कौण्डिन्य बोले-वैशाखके शुक्लपक्षमे मोहिनी लिये लालायित रहता था। उसकी बुद्धि न तो नामसे प्रसिद्ध एकादशीका व्रत करो। मोहिनीको उपवास देवताओंके पूजनमें लगती थी और न पितरों तथा करनेपर प्राणियोंके अनेक जन्मोंके किये हुए मेरुपर्वतब्राह्मणोंके सत्कारमें। वह दुष्टात्मा अन्यायके मार्गपर जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। .. चलकर पिताका धन बरबाद किया करता था। एक दिन वसिष्ठजी कहते हैं-श्रीरामचन्द्र ! मुनिका यह वह वेश्याके गलेमें बाँह डाले चौराहेपर घूमता देखा वचन सुनकर धृष्टबुद्धिका चित्त प्रसन्न हो गया। उसने गया। तब पिताने उसे घरसे निकाल दिया तथा बन्धु- कौण्डिन्यके उपदेशसे विधिपूर्वक मोहिनी एकादशीका बान्धवोंने भी उसका परित्याग कर दिया। अब वह व्रत किया। नृपश्रेष्ठ ! इस व्रतके करनेसे वह निष्पाप हो दिन-रात दुःख और शोकमें डूबा तथा कष्ट-पर-कष्ट गया और दिव्य देह धारणकर गरुड़पर आरूढ़ हो सब उठाता हुआ इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन किसी प्रकारके उपद्रवोंसे रहित श्रीविष्णुधामको चला गया। पुण्यके उदय होनेसे वह महर्षि कौण्डिन्यके आश्रमपर जा इस प्रकार यह मोहिनीका व्रत बहुत उत्तम है। इसके पहुंचा। वैशाखका महीना था। तपोधन कौण्डिन्य पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। ज्येष्ठ मासकी 'अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य युधिष्ठिरने पूछा-जनार्दन ! ज्येष्ठके कृष्णपक्षमें वह क्षत्रियोचित धर्मसे भ्रष्ट होनेके कारण घोर नरकमें किस नामकी एकादशी होती है ? मैं उसका माहात्म्य पड़ता है। जो शिष्य विद्या प्राप्त करके स्वयं ही गुरुको सुनना चाहता हूँ। उसे बतानेकी कृपा कीजिये। निन्दा करता है, वह भी महापातकोसे युक्त होकर भयङ्कर भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! तुमने सम्पूर्ण नरकमें गिरता है। किन्तु अपरा एकादशीके सेवनसे ऐसे लोकोंके हितके लिये बहुत उत्तम बात पूछी है । राजेन्द्र ! मनुष्य भी सद्गतिको प्राप्त होते हैं। इस एकादशीका नाम 'अपरा' है। यह बहुत पुण्य प्रदान माघमें जब सूर्य मकर राशिपर स्थित हो, उस करनेवाली और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है। समय प्रयागमें स्नान करनेवाले मनुष्योंको जो पुण्य होता ब्रह्महत्यासे दबा हुआ, गोत्रकी हत्या करनेवाला, गर्भस्थ है, काशीमें शिवरात्रिका व्रत करनेसे जो पुण्य प्राप्त होता बालकको मारनेवाला, परनिन्दक तथा परस्त्रीलम्पट पुरुष है, गया पिण्डदान करके पितरोंको तृप्ति प्रदान भी अपरा एकादशीके सेवनसे निश्चय ही पापरहित हो करनेवाला पुरुष जिस पुण्यका भागी होता है, बृहस्पतिके जाता है। जो झूठी गवाही देता, माप-तोलमें धोखा देता, सिंहराशिपर स्थित होनेपर गोदावरीमें स्रान करनेवाला बिना जाने ही नक्षत्रोंकी गणना करता और कूटनीतिसे मानव जिस फलको प्राप्त करता है, बदरिकाश्रमकी आयुर्वेदका ज्ञाता बनकर वैद्यका काम करता है-ये यात्राके समय भगवान् केदारके दर्शनसे तथा सब नरकमें निवास करनेवाले प्राणी हैं। परन्तु अपरा बदरीतीर्थके सेवनसे जो पुण्य-फल उपलब्ध होता है एकादशीके सेवनसे ये भी पापरहित हो जाते हैं। यदि तथा सूर्यग्रहणके समय कुरुक्षेत्रमें दक्षिणासहित यज्ञ क्षत्रिय क्षात्रधर्मका परित्याग करके युद्धसे भागता है, तो करके हाथी, घोड़ा और सुवर्ण-दान करनेसे जिस
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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