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________________ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण आपका उपदेश ही कारण है। बचपनमें आपने एक बार निकला। उसे ही भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट उपदेश दिया था, जिसे मैंने अच्छी तरह अपने हृदयमें धारण कर लिया था। वह उपदेश इस प्रकार था—'शत्रु भी यदि घरपर आ जाय तो उसके लिये कोई वस्तु अदेय नहीं है-उसे कुछ भी देनेसे इनकार नहीं करना चाहिये।'* गुरुदेव ! यही सोचकर मैंने इन्द्रके लिये स्वर्गका राज्य और वामनजीके लिये अपने प्राणतक दे डालनेका निश्चय कर लिया है। जिस दानके देने में कुछ भी कष्ट नहीं होता, ऐसा दान तो संसारमें सभी लोग देते हैं। - यह सुनकर गुरुजीने लज्जासे अपना मुँह नीचा कर लिया। तब बाष्कलिने इन्द्रसे कहा-'देव ! आपके माँगनेपर मैं सारी पृथ्वी दे सकता हूँ, यदि इन्हें तीन ही पग भूमि देनी पड़ी तो यह मेरे लिये लज्जाकी बात होगी।' , इन्द्रने कहा-दानवराज ! तुम्हारा कहना सत्य है, किन्तु इन ब्राह्मणदेवताने मुझसे तीन ही पग भूमिकी याचना की है। इनको इतनी ही भूमिकी आवश्यकता है। मैंने भी इन्हींके लिये तुमसे याचना की है। अतः इन्हें होनेवाली वैष्णवी नदी गङ्गा कहते हैं। गङ्गाजी अनेक यही वर प्रदान करो। कारणवश भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई हैं। बाष्कलिने कहा-देवराज ! आप वामनको मेरी उनके द्वारा चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकी व्याप्त ओरसे तीन पग भूमि दे दीजिये और आप भी है। तत्पश्चात् भगवान् श्रीवामनने बाष्कलिसे कहाचिरकालतक वहाँ सुखसे निवास कीजिये। 'मेरे तीन पग पूर्ण करो।' बाष्कलिने कहा- 'भगवन् ! पुलस्त्यजी कहते हैं-यह कहकर बाष्कलिने आपने पूर्वकालमें जितनी बड़ी पृथ्वी बनायी थी, उसमेंसे हाथमें जल ले 'साक्षात् श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों' ऐसा मैंने कुछ भी छिपाया नहीं है। पृथ्वी छोटी है और आप कहते हुए वामनजीको तीन पग भूमि दे दी। दानवराजके महान् हैं। मुझमें सृष्टि उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं है। दान करते ही श्रीहरिने वामनरूप त्याग दिया और [जिससे कि दूसरी पृथ्वी बनाकर आपके तीन पग पूर्ण देवताओंका हित करनेकी इच्छासे सम्पूर्ण लोकोंको नाप करूँ] । देव ! आप-जैसे प्रभुओंकी इच्छा-शक्ति ही लिया। वे यज्ञ-पर्वतपर पहुँचकर उत्तरकी ओर मुँह मनोवाञ्छित कार्य करनेमें समर्थ होती है।' करके खड़े हो गये। उस समय दानवलोक भगवानके, सत्यवादी बाष्कलिको निरुत्तर जानकर भगवान् बायें चरणके नीचे आ गया। तब जगदीश्वरने पहला पग श्रीविष्णु बोले- 'दानवराज ! बोलो, मैं तुम्हारी सूर्यलोकमें रखा और दूसरा धुवलोकमें। फिर अद्भुत कौन-सी इच्छा पूर्ण करूँ? तुम्हारा दिया हुआ कर्म करनेवाले भगवान्ने तीसरे पगसे ब्रह्माण्डपर संकल्पका जल मेरे हाथमें आया है, इसलिये तुम वर आघात किया। उनके अँगूठेके अग्रभागसे लगकर पानेके योग्य हो। वरदानके उत्तम पात्र हो। तुम्हें जिस ब्रह्माण्ड-कटाह फूट गया, जिससे बहुत-सा जल बाहर वस्तुकी इच्छा हो, माँगो; मैं उसे दूंगा।' * शत्रावपि गृहायाते नात्यदेय तु किंचन । (२५ । १७१)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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