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________________ उत्तरखण्ड] . श्रीमद्भगवदीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य . ८१५ तोतेसे पूछा। तब उस तोतेने अपने पूर्वजन्मका स्मरण इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीताके प्रथम करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया। शुक बोला-पूर्वजन्ममें मैं विद्वान् होकर भी विद्वत्ताके अभिमानसे मोहित रहता था। मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान् विद्वानोंके प्रति भी ईर्ष्या-भाव रखने लगा। फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकोंमें भटकता फिरा। उसके बाद इस लोकमें आया। सद्गुरुकी अत्यन्त निन्दा करनेके कारण तोतेके कुलमें मेरा जन्म हुआ । पापी होनेके कारण छोटी अवस्थामे ही मेरा माता-पितासे वियोग हो गया। एक दिन मैं ग्रीष्म ऋतुमें तपे हुए मार्गपर पड़ा था। वहाँसे कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओंके आश्रयमें आश्रमके भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया। वहीं मुझे पढ़ाया गया। ऋषियोंके बालक बड़े आदरके साथ गीताके प्रथम अध्यायकी आवृत्ति करते थे। उन्हींसे सुनकर मैं भी बारम्बार पाठ करने लगा। इसी बीचमें एक चोरी करनेवाले बहेलियेने मुझे वहाँसे चुरा : लिया। तत्पश्चात् इस देवीने मुझे खरीद लिया। यही मेरा अध्यायके माहात्म्यको प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर वृत्तान्त है, जिसे मैंने आपलोगोंसे बता दिया । पूर्वकालमें अपने-अपने घरपर गौताका अभ्यास करने लगे। फिर मैंने इस प्रथम अध्यायका अभ्यास किया था, जिससे मैंने ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये। इसलिये जो अपने पापको दूर किया है। फिर उसीसे इस वेश्याका भी गीताके प्रथम अध्यायको पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसीके पुण्यसे ये द्विजश्रेष्ठ करता है, उसे इस भवसागरको पार करनेमें कोई कठिनाई सुशर्मा भी पापमुक्त हुए हैं। नहीं होती। __ श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य श्रीभगवान् कहते हैं-लक्ष्मी! प्रथम उन धर्मात्मा ब्राह्मणको कभी सदा रहनेवाली शान्ति न अध्यायके माहात्म्यका उत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना मिली। वे परम कल्याणमय तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करनेकी दिया। अव अन्य अध्यायोंके माहात्म्य श्रवण करो। इच्छासे प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियोंके द्वारा सत्यदक्षिण-दिशामें वेदवेत्ता ब्राह्मणोंके पुरन्दरपुर नामक सङ्कल्पवाले तपस्वियोंकी सेवा करने लगे। इस प्रकार नगरमें श्रीमान् देवशर्मा नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहते शुभ आचरण करते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया। थे। वे अतिथियोंके पूजक, स्वाध्यायशील, वेद-शास्त्रोके तदनन्तर एक दिन पृथ्वीपर उनके समक्ष एक त्यागी विशेषज्ञ, यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले और तपस्वियोंके महात्मा प्रकट हुए। वे पूर्ण अनुभवी, आकाङ्क्षारहित, सदा ही प्रिय थे। उन्होंने उत्तम द्रव्योंके द्वारा अग्निमें नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि रखनेवाले तथा शान्तचित्त हवन करके दीर्घकालतक देवताओंको तृप्त किया, किन्तु थे। निरन्तर परमात्माके चिन्तनमें संलग्न हो वे सदा
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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