SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 626
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२६ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण . . . . . . . मन्दिरमें भी उसकी व्यवस्था करता है, वह मानव यज्ञोंका जो फल बताया गया है, उसे वह मनुष्य भी राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता हैं। प्राप्त कर लेता है; जो देवताके आगे महाभारतका पाठ इतिहासपुराणके ग्रन्थोंका बाँचना पुण्यदायक है। ऐसा करता है। अतः सब प्रकारका प्रयत्न करके भगवान् करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कामनाओको प्राप्त कर लेता है विष्णुके मन्दिरमें इतिहासपुराणके ग्रन्थोंका पाठ करना तथा अन्तमें सूर्यलोकका भेदन करके ब्रह्मलोकको चाहिये। वह शुभकारक होता है। विष्णु तथा अन्य चला जाता है। वहाँ सौ कल्पोंतक रहनेके पश्चात् इस देवताओंके लिये दूसरा कोई साधन इतना प्रीतिकारक पृथ्वीपर जन्म ले राजा होता है। एक हजार अश्वमेध नहीं है। मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा महादेवजी कहते हैं-नारद ! इस विषयमें विज्ञ साथ नाना प्रकारकी स्तुतियोंद्वारा मेरा सत्कार किया। पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। यह इतिहास तत्पश्चात् मुझे सुखमय आसनपर बैठने के लिये कहा। अत्यन्त पुरातन, पुण्यदायक सब पापोंको हरनेवाला तथा बैठनेपर मैंने वहाँ एक अद्भुत बात देखी। एक पुरुष शुभकारक है। देवर्षे ! ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारने लोक- सोनेके विमानपर बैठकर वहाँ आया। उसे देखकर पितामह ब्रह्माजीको नमस्कार करके मुझे यह उपाख्यान धर्मराज बड़े वेगसे आसनसे उठ खड़े हुए और सुनाया था। आगन्तुकका दाहिना हाथ पकड़कर उन्होंने अर्घ्य सनत्कुमार बोले-एक दिन मैं धर्मराजसे आदिके द्वारा उसका पूर्ण सत्कार किया। तत्पश्चात् वे मिलने गया था। वहां उन्होंने बड़ी प्रसन्नता और भक्तिके उससे इस प्रकार बोले। धर्मने कहा-धर्मके द्रष्टा महापुरुष ! तुम्हारा स्वागत है ! मैं तुम्हारे दर्शनसे बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे पास बैठो और मुझे कुछ ज्ञानको यातें सुनाओ। इसके बाद उस धाममें जाना, जहाँ श्रीब्रह्माजी विराजमान है। सनत्कुमार कहते हैं-धर्मराजके इतना कहते ही एक दूसरा पुरुष उत्तम विमानपर बैठा हुआ वहाँ आ पहुँचा। धर्मराजने विनीत भावसे उसका भी विमानपर ही पूजन किया तथा जिस प्रकार पहले आये हुए मनुष्यसे सान्त्वनापूर्वक वार्तालाप किया था, उसी प्रकार इस नवागन्तुकके साथ भी किया। यह देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ। मैंने धर्मसे पूछा-'इन्होंने कौन-सा ऐसा कर्म किया है, जिसके ऊपर आप अधिक संतुष्ट हुए हैं? इन दोनोंके द्वारा ऐसा कौन-सा कर्म बन गया है, जिसका इतना उत्तम पुण्य है? आप सर्वज्ञ हैं, अतः बताइये किस कर्मके प्रभावसे इन्हें दिव्य फलकी प्राप्ति हुई है?' मेरी बात सुनकर धर्मराजने कहा-'इन
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy