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________________ • अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण पुरुष अश्वमेध यज्ञकी अपेक्षा दसगुना अधिक बतलाते निवास करता है, उन दोनोंका फल एक-सा ही होता है। है। पुष्करारण्यमें जाकर जो एक ब्राह्मणको भी भोजन पुष्करमें निवास दुर्लभ है, पुष्करमें तपस्याका सुयोग कराता है, उसके उस अनसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको पूर्ण मिलना कठिन है। पुष्करमें दान देनेका सौभाग्य भी तृप्तिपूर्वक भोजन करानेका फल होता है तथा उस मुश्किलसे प्राप्त होता है तथा वहाँकी यात्राका सुयोग भी पुण्यकर्मके प्रभावसे वह इहलोक और परलोकमें भी दुर्लभ है।* वेदवेत्ता ब्राह्मण ज्येष्ठ पुष्करमें जाकर मान आनन्द मनाता है। [अन्न न हो तो] शाक, मूल अथवा करनेसे मोक्षका भागी होता है और श्राद्धसे वह पितरोंको फल-जिससे वह स्वयं जीवन-निर्वाह करता हो, तार देता है। जो ब्राह्मण वहाँ जाकर नाममात्रके लिये भी वही-दोष-दृष्टिका परित्याग करके श्रद्धापूर्वक सन्ध्योपासन करता है, उसे बारह वर्षोंतक सन्ध्योपासन ब्राह्मणको अर्पण करे। उसीके दानसे मनुष्य अश्वमेध करनेका फल प्राप्त हो जाता है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने यज्ञका फल प्राप्त करता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य स्वयं ही यह बात कही थी। जो अकेले भी कभी पुष्कर अथवा शूद्र-सभी इस तीर्थमें स्रान-दानादि पुण्यके तीर्थमें चला जाय, उसको चाहिये कि झारीमें पुष्करका अधिकारी है। ब्रह्माजीका पुष्कर नामक सरोवर परम जल लेकर क्रमशः सन्ध्या-वन्दन कर ले, ऐसा करनेसे पवित्र तीर्थ है। वह वानप्रस्थियों, सिद्धों तथा मुनियोंको भी उसे बारह वर्षातक निरन्तर सन्ध्योपासन करनेका भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। परम पावन सरस्वती नदी फल प्राप्त हो जाता है। जो पत्नीको पास बिठाकर दक्षिण पुष्करसे ही महासागरकी ओर गयी है। वहाँ महायोगी दिशाकी ओर मुँह करके गायत्री मन्त्रका जप करते हुए आदिदेव मधुसूदन सदा निवास करते हैं। वे वहाँ तर्पण करता है, उसके उस तर्पणद्वारा बारह वर्षोंतक आदिवराहके नामसे प्रसिद्ध हैं तथा सम्पूर्ण देवता उनकी पितरोंको पूर्ण तृप्ति बनी रहती है। फिर पिण्डदानपूर्वक पूजा करते रहते हैं। विशेषतः कार्तिककी पूर्णिमाको जो श्राद्ध करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। इसीलिये पुष्कर तीर्थकी यात्रा करता है, वह अक्षय फलका भागी विद्वान् पुरुष यह सोचकर स्त्रीके साथ विवाह करते हैं कि होता है-ऐसा मैंने सुना है। हम तीर्थमें जाकर श्रद्धापूर्वक पिण्डदान करेंगे। जो ऐसा , कुरुनन्दन ! जो सायंकाल और सबेरे हाथ जोड़कर करते हैं, उनके पुत्र, धन, धान्य और सन्तानका कभी तीनों पुष्करोंका स्मरण करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें उच्छेद नहीं होता-यह निःसन्दिग्ध बात है। आचमन करनेका फल प्राप्त होता है। स्त्री हो या पुरुष, राजन् ! अब मैं तुमसे इस तीर्थके आश्रमोंका पुष्करमें स्नान करनेमात्रसे उसके जन्मभरका सारा पाप वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। महर्षि नष्ट हो जाता है। जैसे सम्पूर्ण देवताओंमें ब्रह्माजी श्रेष्ठ अगस्त्यने इस तीर्थमें अपना आश्रम बनाया है, जो है, उसी प्रकार सब तीर्थोंमें पुष्कर ही आदि तीर्थ बताया देवताओंके आश्रमकी समानता करता है। पूर्वकालमें गया है। जो पुष्करमें संयम और पवित्रताके साथ दस यहाँ सप्तर्षियोंका भी आश्रम था। ब्रह्मर्षियों और मनुओंने वर्षातक निवास करता हुआ ब्रह्माजीका दर्शन करता है, भी यहाँ आश्रम बनाया था। यज्ञ-पर्वतके किनारे यहाँ वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें नागोंको रमणीय पुरी भी है। महाराज! मैं महामना ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोतक अग्निहोत्र अगस्त्यजीके प्रभावका संक्षेपसे वर्णन करता हैं, ध्यान करता है और कार्तिककी एक ही पूर्णिमाको पुष्करमें देकर सुनो। पहलेकी बात है-सत्ययुगमें कालकेय - *पुष्करे दुष्करो वासः पुष्करे दुष्करं तपः ॥ पुष्को दुष्कर दान गर्नु चैव सुदुष्करम्॥ (१९।४५-४६)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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