SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सृष्टिखण्ड ] . मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामका पुष्करमें पिताका श्राद्ध करना • ********.................................................................................................................................................................................** जटाजूटमें बाँधकर अपनी प्रियतमा गङ्गाजीको मस्तकपर धारण करते हैं, जिन्होंने गिरिराजकुमारी उमाको अपना आधा शरीर दे दिया है; उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। योऽयं सकृद्विमलचारुविलोलतोयां गङ्गां महोर्मिविषमां गगनात् पतन्तीम् । मूर्ध्नाऽऽददे त्रजमिव प्रतिलोलपुष्पां तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ आकाशसे गिरती हुई गङ्गाको, जो स्वच्छ, सुन्दर एवं चञ्चल जलराशिसे युक्त तथा ऊँची-ऊँची लहरोंसे उल्लसित होनेके कारण भयङ्कर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलोंसे सुशोभित मालाकी भाँति सहसा अपने मस्तकपर धारण कर लिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। कैलासशैलशिखरं प्रतिकम्प्यमानं यः कैलासशृङ्गसदृशेन पादपद्मपरिवादनमादधान स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ कैलास पर्वतके शिखरके समान ऊँचे शरीरवाले दशमुख रावणके द्वारा हिलायी जाती हुई कैलास गिरिकी चोटीको जिन्होंने अपने चरणकमलोंसे ताल देकर स्थिर कर दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। येनासकृद् दितिसुताः समरे निरस्ता विद्याधरोरगगणाश्च वरैः समप्राः । संयोजिता मुनिवराः फलमूलभक्षा स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ जिन्होंने अनेकों बार दैत्योंको युद्धमें परास्त किया है और विद्याधर, नागगण तथा फल मूलका आहार करनेवाले सम्पूर्ण मुनिवरोंको उत्तम वर दिये हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। दग्ध्वाध्वरं च नयने च तथा भगस्य पूष्णस्तथा दशनपङ्क्तिमपातयच्च । तस्तम्भ यः कुलिशयुक्तमहेन्द्रहस्तं तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ दशाननेन । १०७ जिन्होंने दक्षका यज्ञ भस्म करके भग देवताकी आँखें फोड़ डालीं और पूषाके सारे दाँत गिरा दिये तथा वज्रसहित देवराज इन्द्रके हाथको भी स्तम्भित कर दिया - जडवत् निश्चेष्ट बना दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। एनस्कृतोऽपि विषयेष्वपि सक्तभावा ज्ञानान्वयश्रुतगुणैरपि नैव युक्ताः । यं संश्रिताः सुखभुजः पुरुषा भवन्ति तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ जो पापकर्ममें निरत और विषयासक्त हैं, जिनमें उत्तम ज्ञान, उत्तम कुल, उत्तम शास्त्र ज्ञान और उत्तम गुणोंका भी अभाव है - ऐसे पुरुष भी जिनकी शरण में जानेसे सुखी हो जाते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। अप्रिसूतिरविकोटिसमानतेजाः संत्रासनं विबुधदानवसत्तमानाम् । यः कालकूटमपिबत् समुदीर्णवेगं तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ जो तेजमें करोड़ों चन्द्रमाओं और सूर्यके समान हैं; जिन्होंने बड़े-बड़े देवताओं तथा दानवोंका भी दिल दहला देनेवाले कालकूट नामक भयङ्कर विषका पान कर लिया था, उन प्रचण्ड वेगशाली शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुतां च सषण्मुखानां योऽदाद् वरांश्च बहुशो भगवान् महेशः । नन्दिं च मृत्युवदनात् पुनरुज्जहार तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ जिन भगवान् महेश्वरने कार्त्तिकेयके सहित ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र तथा मरुद्रणोंको अनेकों बार वर दिये हैं तथा नन्दीका मृत्युके मुखसे उद्धार किया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। आराधितः सुतपसा हिमवन्निकुञ्जे धूम्रव्रतेन मनसापि सञ्जीवनीं समददाद् भृगवे महात्मा तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ परैरगम्यः ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy