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________________ १०६ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण इसका सारा कारण मुझे शीघ्र बताओ।' वे दोनों भाई चले और पुष्कर क्षेत्रकी सीमा सीता बोलीं-नाथ ! मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे मर्यादा-पर्वतके पास जा पहुँचे। वहाँ देवताओंके स्वामी [बताती हूँ.] सुनिये। आपके द्वारा नामोच्चारण होते ही पिनाकधारी देवदेव महादेवजीका स्थान था। वे वहाँ स्वर्गीय महाराज यहाँ आकर उपस्थित हो गये। उनके अजगन्धके नामसे प्रसिद्ध थे। श्रीरामचन्द्रजीने वहाँ साथ उन्हीक समान रूप-रेखावाले दो पुरुष और आये जाकर त्रिनेत्रधारी भगवान् उमानाथको साष्टाङ्ग प्रणाम थे, जो सब प्रकारके आभूषण धारण किये हुए थे। वे किया। उनके दर्शनसे श्रीरघुनाथजीके श्रीविग्रहमें रोमाश तीनों ही ब्राह्मणोंके शरीरसे सटे हुए थे। रघुनन्दन ! हो आया। वे सात्त्विक भावमें स्थित हो गये। उन्होंने ब्राह्मणोंके अङ्गोंमें मुझे पितरोंके दर्शन हुए। उन्हें देखकर देवेश्वर भगवान् श्रीशिवको ही जगत्का कारण समझा मैं लज्जाके मारे आपके पाससे हट गयी। इसीलिये और विनम्रभावसे स्थित हो उनकी स्तुति करने लगे। आपने अकेले ही ब्राह्मणोंको भोजन कराया और श्रीरामचन्द्रजी बोलेविधिपूर्वक श्राद्धकी क्रिया भी सम्पन्न की। भला, मैं कृत्स्त्रस्य योऽस्य जगतः सचराचरस्य स्वर्गीय महाराजके सामने कैसे खड़ी होती। यह आपसे कर्ता कृतस्य च तथा सुखदुःखहेतुः। मैंने सच्ची बात बतायी है। ___संहारहेतुरपि यः पुनरन्तकाले पुलस्त्यजी कहते हैं-यह सुनकर श्रीरघुनाथजी तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि । बहुत प्रसन्न हुए और प्रिय वचन बोलनेवाली प्रियतमा जो चराचर प्राणियोंसहित इस सम्पूर्ण जगत्को सीताको बड़े आदरके साथ हृदयसे लगा लिया। उत्पन्न करनेवाले हैं, उत्पन्न हुए जगत्के सुख-दुःखमें तत्पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण दोनों वीरोने भोजन किया। एकमात्र कारण हैं तथा अन्तकालमें जो पुनः इस विश्वके उनके बाद जानकीजीने स्वयं भी भोजन किया। इस संहारमें भी कारण बनते हैं, उन शरणदाता भगवान् प्रकार दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण तथा सीताने वह श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। रात वहीं बितायी। दूसरे दिन सूर्योदय होनेपर सबने यं योगिनो विगतमोहतमोरजस्का जानेका निश्चय किया। श्रीरामचन्द्रजी पश्चिमकी ओर चले भक्त्यैकतानमनसो विनिवृत्तकामाः । और एक कोस चलकर ज्येष्ठ पुष्करके पास जा पहुंचे। ध्यायन्ति निश्चलधियोऽमितदिव्यभावं श्रीरघुनाथजी ज्यों ही जाकर पुष्करके पूर्वमें खड़े हुए, त्यों तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ही उन्हें देवदूतके कहे हुए ये वचन सुनायी दिये- जिनके हृदयसे मोह, तमोगुण और रजोगुण दूर हो 'रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो। यह तीर्थ अत्यन्त गये हैं, भक्तिके प्रभावसे जिनका चित्त भगवानके ध्यानमें दुर्लभ है। वीरवर ! इस स्थानपर कुछ कालतक निवास लीन हो रहा है, जिनकी सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत्त हो चुकी कीजिये; क्योंकि आपको देवताओंका कार्य सिद्ध है और जिनकी बुद्धि स्थिर हो गयी है, ऐसे योगी पुरुष करना-देवशत्रुओंका वध करना है।' यह सुनकर अपरिमेय दिव्यभावसे सम्पन्न जिन भगवान् शिवका श्रीरामचन्द्रजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई, उन्होंने निरन्तर ध्यान करते रहते हैं, उन शरणदाता भगवान् लक्ष्मणसे कहा- 'सुमित्रानन्दन ! देवाधिदेव ब्रह्माजीने श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हैं। हमलोगोंपर अनुग्रह किया है। अतः मैं यहाँ आश्रम यश्चेन्दुखण्डममलं विलसन्मयूखं बनाकर एक मासतक रहना तथा शरीरकी शुद्धि बद्ध्वा सदा प्रियतमां शिरसा बिभर्ति । करनेवाले उत्तम व्रतका आचरण करना चाहता हूँ।' यश्चार्द्धदेहमददाद् गिरिराजपुत्र्यै लक्ष्मणने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी बातका तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ अनुमोदन किया। तत्पश्चात् वहाँ अपना व्रत पूर्ण करके जो सुन्दर किरणोंसे युक्त निर्मल चन्द्रमाकी कलाको
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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