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________________ १०८ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण ................. जो दूसरोंके लिये मनसे भी अगम्य हैं, महर्षि भृगुने शवेन्दुकुन्दधवल वृषभप्रवीरहिमालय पर्वतके निकुञ्जमें होमका धुआँ पीकर कठोर मारुह्य यः क्षितिधरेन्द्रसुतानुयातः । तपस्याके द्वारा जिनकी आराधना की थी तथा जिन यात्यम्बरे हिमविभूतिविभूषिताङ्गमहात्माने भृगुको [उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर] स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि । सञ्जीवनी विद्या प्रदान की, उन शरणदाता भगवान् जो अपने श्रीविग्रहको हिम और भस्मसे विभूषित श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। करके शङ्ख, चन्द्रमा और कुन्दके समान श्वेत वर्णवाले नानाविधैर्गजबिडालसमानवक्त्रै वृषभ-श्रेष्ठ नन्दीपर सवार होकर गिरिराजकिशोरी उमाके दक्षाध्वरप्रमथनैलिभिर्गणौधैः । साथ आकाशमें विचरते हैं, उन शरणदाता भगवान् योऽभ्यतेऽमरगणैच सलोकपालै श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ शान्तं मुनि यमनियोगपरायणं तैहाथी और बिल्ली आदिकी-सी मुखाकृतिवाले भीमर्यमस्य पुरुयैः प्रतिनीयमानम्। तथा दक्ष-यज्ञका विनाश करनेवाले नाना प्रकारके भक्त्या नतं स्तुतिपरं प्रसभं ररक्ष महाबली गणोंद्वारा जिनकी निरन्तर पूजा होती रहती है . तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ तथा लोकपालोसहित देवगण भी जिनकी आराधना यमराजकी आज्ञाके पालनमें लगे रहनेपर भी जिन्हें किया करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं वे भयङ्कर यमदूत पकड़कर लिये जा रहे थे तथा जो शरण लेता हूँ। भक्तिसे नम्र होकर स्तुति कर रहे थे, उन शान्त मुनिकी क्रीडार्थमेव भगवान् भुवनानि सप्त जिन्होंने बलपूर्वक यमदूतोंसे रक्षा की, उन शरणदाता नानानदीविहगपादपमण्डितानि । भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। ___सब्रह्मकानि व्यसृजत् सुकृताहितानि । - यः सव्यपाणिकमलाग्रनखेन देव... तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ स्तत् पञ्चमं प्रसभमेव पुरः सुराणाम् । जिन भगवान्ने अपनी क्रीडाके लिये ही अनेकों ब्राह्यं शिरस्तरुणपद्मनिभं चकर्त नदियों, पक्षियों और वृक्षोंसे सुशोभित एवं ब्रह्माजीसे तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ अधिष्ठित सातों भुवनोंकी रचना की है तथा जिन्होंने जिन्होंने समस्त देवताओंके सामने ही ब्रह्माजीके उस सम्पूर्ण लोकोंको अपने पुण्यपर ही प्रतिष्ठित किया है, पाँचवें मस्तकको, जो नवीन कमलके समान शोभा पा रहा उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। था, अपने बायें हाथके नखसे बलपूर्वक काट डाला था, यस्याखिलं जगदिदं वशवर्ति नित्यं . उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। योऽष्टाभिरेव तनुभिर्भुवनानि भुङ्क्ते। यस्य प्रणम्य चरणौ वरदस्य भक्त्या यः कारणं सुमहतामपि कारणानां स्तुत्वा च वाग्भिरमलाभिरतन्द्रिताभिः । तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ दीप्तैस्तमांसि नुदते स्वकरैर्विवस्वायह सम्पूर्ण विश्व सदा ही जिनकी आज्ञाके अधीन स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।। है, जो [जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, जिन वरदायक भगवान्के चरणोंमें भक्तिपूर्वक वायु और प्रकृति–इन] आठ विग्रहोंसे समस्त प्रणाम करके तथा आलस्यरहित निर्मल वाणीके द्वारा लोकोंका उपभोग करते हैं तथा जो बड़े-से-बड़े जिनकी स्तुति करके सूर्यदेव अपनी उद्दीप्त किरणोंसे कारण-तत्वोंके भी महाकारण हैं, उन शरणदाता भगवान् जगत्का अन्धकार दूर करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ। श्रीशङ्करकी मैं शरण लेता हूँ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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