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________________ • अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् . [संक्षिप्त पापुराण करना चाहिये। परन्तु यदि कोई व्रत करनेवाला पुरुष होकर भी उसका उद्यापन करनेमें समर्थ न हो, उसे संकटमें पड़ जाय या दुर्गम वनमें स्थित हो अथवा चाहिये कि अपने व्रतकी पर्तिके लिये यथाशक्ति रोगोंसे पीड़ित हो तो उसे इस कल्याणमय ब्राह्मणोंको भोजन कराये। ब्राह्मण इस पृथ्वीपर कार्तिक-व्रतका अनुष्ठान कैसे करना चाहिये? अव्यक्तरूप श्रीविष्णुके व्यक्त स्वरूप हैं। उनके सन्तुष्ट __सूतजीने कहा-महर्षियो! ऐसे मनुष्यको होनेपर भगवान् सदा सन्तुष्ट होते हैं, इसमें तनिक भी भगवान् विष्णु अथवा शिवके मन्दिरमें केवल जागरण संदेह नहीं है । जो स्वयं दीपदान करने में असमर्थ हो, वह करना चाहिये। विष्णु और शिवके मन्दिर न मिलें तो दूसरोंका दीप जलाये अथवा हवा आदिसे उन दीपोंको किसी भी मन्दिरमें वह जागरण कर सकता है। यदि कोई यत्नपूर्वक रक्षा करे। तुलसी-वृक्षके अभावमें वैष्णव दुर्गम वनमें स्थित हो अथवा आपत्तिमें फंस जाय तो वह ब्राह्मणका पूजन करे; क्योंकि भगवान् विष्णु अपने अश्वत्थ वृक्षकी जड़के पास अथवा तुलसीके वृक्षोंके भक्तोंके हृदयमें सदा ही विराजमान रहते हैं। अथवा सब बीच बैठकर जागरण करे। जो पुरुष भगवान् विष्णुके साधनोंके अभावमें व्रत करनेवाला पुरुष व्रतकी पूर्तिके समीप बैठकर श्रीविष्णुके नाम तथा चरित्रोका गान करता लिये ब्राह्मणों, गौओं तथा पीपल और वटके वृक्षोंकी है, उसे सहस्त्र गो-दानोंका फल मिलता है। बाजा सेवा करे। बजानेवाला पुरुष वाजपेय यज्ञका फल पाता है और ऋषियोंने पूछा-सूतजी ! आपने पीपल और भगवानके पास नृत्य करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण तीर्थोंमें वटको गौ तथा ब्राह्मणके समान कैसे बता दिया? वे स्रान करनेका फल प्राप्त करता है। जो उक्त नियमोंका दोनों अन्य सब वृक्षोकी अपेक्षा अधिक पूज्य क्यों पालन करनेवाले मनुष्योंको धन देता है, उसे यह सब माने गये? । पुण्य प्राप्त होता है। उक्त नियमोंका पालन करनेवाले सूतजी बोले-महर्षियो! पीपलके रूपमें पुरुषोंके दर्शन और नाम सुननेसे भी उनके पुण्यका छठा साक्षात् भगवान् विष्णु ही विराजते हैं। इसी प्रकार वट अंश प्राप्त होता है। जो आपत्तिमें फंस जानेके कारण भगवान् शङ्करका और पलाश ब्रह्माजीका स्वरूप है। इन नहानेके लिये जल न पा सके अथवा जो रोगी होनेके तीनोंका दर्शन, पूजन और सेवन पापहारी माना गया है। कारण स्नान न कर सके, वह भगवान् विष्णुका नाम दुःख, आपत्ति, व्याधि और दुष्टोंके नाशमें भी उसको लेकर मार्जन कर ले। जो कार्तिक-व्रतके पालनमें प्रवृत्त कारण बताया गया है। कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करने योग्य नियम सत्यभामाने कहा-प्रभो ! कार्तिक मास सब सूतजीने कहा-मुनिश्रेष्ठ शौनकजी ! पूर्वकालमें मासोंमें श्रेष्ठ माना गया है। मैंने उसके माहात्म्यको कार्तिकेयजीके पूछनेपर महादेवजीने जिसका वर्णन किया विस्तारपूर्वक नहीं सुना । कृपया उसौका वर्णन कीजिये। था, उसको आप श्रवण कीजिये। भगवान् श्रीकृष्ण बोले-सत्यभामे ! तुमने कार्तिकेयजी बोले-पिताजी ! आप वक्ताओंमें बड़ी उत्तम बात पूछी है। पूर्वकालमें महात्मा सूतने श्रेष्ठ हैं। मुझे कार्तिक मासके स्रानको विधि बताइये, जिससे शौनक मुनिसे आदरपूर्वक कार्तिक-व्रतका वर्णन किया मनुष्य दुःखरूपी समुद्रसे पार हो जाते हैं। साथ ही तीर्थके था। वही प्रसङ्ग मैं तुम्हें सुनाता हूँ। जलका माहात्म्य और माघस्रानका फल भी बताइये।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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