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________________ भूमिखण्ड ] . शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्यका वर्णन तथा रानी सुदेवाके पुण्यसे उसका दार . २७१ ................. ...................... कन्याका सारा वृत्तान्त उन्होंने कह सुनाया । उसे सुनकर कुटुम्बके लोगोंने मुझे त्याग दिया। मैं तो अपनी महाराज सत्यकेतुको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सवारी लाज-हया खो चुकी थी, शीघ्र ही वहाँसे चल दी। किन्तु और वस्त्र आदि देकर कुछ लोगोंके साथ पुत्रीको कहीं भी मुझे ठहरनेके लिये स्थान और सुख नहीं मथुरामें उसके पतिके घर भेज दिया। मिलता था। लोग मुझे देखते ही 'यह कुलटा आयी !' धर्मात्मा राजा उग्रसेन पद्मावतीको आयो देख बहुत कहकर दुत्कारने लगते थे। .. प्रसन्न हुए। वे रानीसे बार-बार कहने लगे-'सुन्दरी ! कुल और मानसे वञ्चित होकर घूमती-फिरती मैं मैं तुम्हारे बिना जीवन धारण नहीं कर सकता। प्रिये ! प्रान्तसे बाहर निकल गयी और गुर्जर देश (गुजरात तुम अपने गुण, शील, भक्ति, सत्य और पातिव्रत्य आदि प्रान्त) के सौराष्ट्र (प्रभास) नामक पुण्यतीर्थमें जा सद्गुणोंसे मुझे अत्यन्त प्रिय लगती हो।' अपनी प्यारी पहुंची, जहाँ भगवान् शिव (सोमनाथ) का मन्दिर है। भार्या पद्मावतीसे यों कहकर नृपश्रेष्ठ महाराज उग्रसेन मन्दिरके पास ही वनस्थल नामसे विख्यात एक नगर था, उसके साथ विहार करने लगे। सब लोगोंको भय जिसकी उस समय बड़ी उन्नति थी। मैं भूखसे अत्यन्त पहुँचानेवाला उसका भयंकर गर्भ दिन-दिन बढ़ने लगा। पीड़ित थी, इसलिये खपरा लेकर भीख माँगने चली। किन्तु उस गर्भका कारण केवल पद्मावती ही जानती थी। परन्तु सब लोग मुझसे घृणा करते थे। 'यह पापिनी अपने उदरमें बढ़ते हुए उस गर्भक विषयमें पद्मावतीको आयी [भगाओ इसे]' यों कहकर कोई भी मुझे भिक्षा दिन-रात चिन्ता बनी रहती थी। दस वर्षतक वह गर्भ नहीं देता था। इस प्रकार दुःखमय जीवन व्यतीत करती बढ़ता ही गया। तत्पश्चात् उसका जन्म हुआ। वहीं मैं बड़े भारी रोगसे पीड़ित हो गयी। उस नगरमें महान् तेजस्वी और महाबली कंस था, जिसके भयसे घूमते-घूमते मैंने एक बड़ा सुन्दर घर देखा, जहाँ वैदिक तीनों लोकोंके निवासी थर्रा उठे थे तथा जो भगवान् पाठशाला थी। वह घर अनेक ब्राह्मणोंसे भरा था और श्रीकृष्णके हाथसे मारा जाकर मोक्षको प्राप्त हुआ। वहाँ सब ओर वेदमन्त्रोंकी ध्वनि हो रही थी। लक्ष्मीसे स्वामिन् ! ऐसी घटना भविष्यमें संघटित होनेवाली है, युक्त और आनन्दसे परिपूर्ण उस रमणीय गृहमें मैंने यह मैंने सुन रखा है। मैंने आपसे जो कुछ कहा है, वह समस्त पुराणोंका निश्चित मत है। इस प्रकार पिताके घरमें रहनेवाली कन्या बिगड़ जाती है। अतः कन्याको घरमें रखनेका मोह नहीं करना चाहिये। यह सुदेवा बड़ी दुष्टा और महापापिनी है। अतः इसका परित्याग करके आप निश्चिन्त हो जाइये। शूकरी कहती है-माताकी यह बात-यह उत्तम सलाह सुनकर मेरे पिता द्विजश्रेष्ठ वसुदत्तने मुझे त्याग देनेका ही निश्चय किया। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा-'दुष्टे ! कुलमें कलङ्क लगानेवाली दुराचारिणी ! तेरे ही अन्यायसे परम बुद्धिमान् शिवशर्मा चले गये। जहाँ तेरे स्वामी रहते हैं, वहीं तू भी चली जा; अथवा जो स्थान तुझे अच्छा लगे, वहीं जा, जैसा जीमें आये, वैसा कर ।' महारानीजी ! यों कहकर पिता-माता और
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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