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________________ -२७२ . अर्जयस्व हुपीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ... [संक्षिप्त पापुराण प्रवेश किया। वह सब ओरसे मङ्गलमय प्रतीत होता आ गयी। मैं ऐसी पापिनी थी कि पतिसे कभी मीठे था। मेरे पति शिवशर्माका ही वह घर था। मैं दुःखसे वचनतक नहीं बोली । उलटे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके विपरीत पीड़ित होकर बोली-'भिक्षा दीजिये।' द्विजश्रेष्ठ बुरे काँका ही आचरण करती रही। इस प्रकार चिन्ता शिवशर्माने भिक्षाका शब्द सुना । उनको एक भार्या थी, करते-करते मेरा हृदय फट गया और प्राण शरीर छोड़कर जो साक्षात् लक्ष्मीके समान रूपवती थी। उसका मुख चल बसे। बड़ा ही सुन्दर था। वह मङ्गला नामसे प्रसिद्ध थी। परम तदनन्तर यमराजके दूत आये और मुझे साँकलके बुद्धिमान् धर्मात्मा शिवशनि मन्द-मन्द मुसकराती हुई दृढ़ बन्धनमें बाँधकर यमपुरीको ले चले। मार्गमें जब मैं अपनी पत्नी मङ्गलासे कहा-'प्रिये ! वह देखो-एक अत्यन्त दुःखी होकर रोती तब वे मुझे मुगदरोंसे पीटते दुबली-पतली स्त्री आयी है, जो भिक्षाके लिये द्वारपर और दुर्गम मार्गसे ले जाकर कष्ट पहुँचाते थे। बीचखड़ी है; इसे घरमें बुलाकर भोजन दो।' मुझे आयी जान मङ्गलाका हृदय अत्यन्त करुणासे भर आया। उसने मुझ दीन-दुर्बल भिक्षुकीको मिष्टान्न भोजन कराया। मैं अपने पतिको पहचान गयी थी, उन्हें देखकर लज्जासे मेरा मस्तक झुक गया। परम सुन्दरी मङ्गलाने मेरे इस भावको लक्ष्य किया और स्वामीसे पूछा-'प्राणनाथ ! यह कौन है. जो आपको देखकर लजा रही है? मुझपर कृपा करके इसका यथार्थ परिचय दीजिये।' । शिवशर्माने कहा-प्रिये ! यह विप्रवर वसुदत्तकी कन्या है। बेचारी इस समय भिक्षुकीके रूपमें यहाँ आयी है। इसका नाम सुदेवा है। यह मेरी कल्याणमयी भार्या है, जो मुझे सदा ही प्रिय रही है। किसी विशेष कारणसे यह अपना देश छोड़कर आज यहाँ आयी है, ऐसा समझकर तुम्हें इसका अच्छे ढंगसे स्वागत-सत्कार करना चाहिये। यदि तुम मेरा भलीभाँति बीचमे मुझे फटकारें भी सुनाते जाते थे। उन्होंने मुझे प्रिय करना चाहती हो तो इसके आदरभावमें कमी यमराजके सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। महात्मा न करना। , यमराजने बड़ी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे मेरी ओर देखा और मुझे पतिकी बात सुनकर मङ्गलमयी मङ्गला बहुत प्रसन्न अँगारोंकी ढेरीमें फेंकवा दिया। उसके बाद मैं कई हुई। उसने अपने ही हाथों मुझे स्रान कराकर उत्तम वस्त्र नरकोंमें डाली गयी। मैंने अपने स्वामीके साथ धोखा पहननेको दिया और स्वयं भोजन बनाकर खिलाने- किया था, इसलिये एक लोहेका पुरुष बनाकर उसे पिलाने लगी। रानीजी ! अपने स्वामीके द्वारा इतना आगसे तपाया गया और वह मेरी छातीपर सुला दिया सम्मान पाकर मुझे अपार दुःख हुआ। मेरे हृदयमें गया। नरककी प्रचण्ड आगमें तपायी जानेपर मैं नाना पश्चात्तापकी तीव्र अग्नि प्रज्वलित हो उठी। मैंने मङ्गलाके प्रकारको पीड़ाओंसे अत्यन्त कष्ट पाने लगी। किये हुए सम्मान और अपने दुष्कर्मकी ओर देखा; इससे असिपत्र-वनमें पड़कर मेरा सारा शरीर छिन्न-भिन्न हो मनमें दुःसह चिन्ता हुई, यहाँतक कि प्राण जानेकी नौबत गया। फिर मैं पीब, रक्त और विष्ठामें डाली गयी।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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