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________________ . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . व [संक्षिप्त पद्मपुराण प्रशंसनीय माहात्म्य अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला और वह ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके चला गया। उसने पापोको धो डालनेवाला है। माधव-मासका यह माहात्म्य भूतलपर प्रतिवर्ष स्वयं तो वैशाख-स्रानकी विधिका भगवान् माधवको अत्यन्त प्रिय है। राजा महीरथका पालन किया ही, दूसरोंसे भी कराया। यह ब्राह्मण और चरित्र और हम दोनोंका मनोरम संवाद सुनने, पढ़ने तथा यमका संवाद मैंने आपलोगोंसे वैशाख मासके पुण्यमय विधिपूर्वक अनुमोदन करनेसे मनुष्यको भगवान्की भक्ति स्रानके प्रसङ्गमें सुनाया है। जो एकचित्त होकर वैशाख प्राप्त होती है, जिससे समस्त क्लेशोंका नाश हो जाता है। मासके माहात्यका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे सूतजी कहते हैं-धर्मराजकी यह बात सुनकर मुक्त होकर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। भगवान श्रीकृष्णका ध्यान ऋषि बोले–महाप्राज्ञ सूतजी ! आपका हृदय स्थविष्ठमखिलतुभिः सततसेवितं कामदं । अत्यन्त करुणापूर्ण है; आपने कृपा करके ही पापनाशक तदन्तरपि कल्पकाध्रिपमुदचितं चिन्तयेत् ।। वैशाख-माहात्म्यका वर्णन किया है। अब इस समय हम उस वनके भीतर भी एक कल्पवृक्षका चिन्तन करे, भक्तगणोंके प्रिय परमात्मा श्रीकृष्णका ध्यान सुनना जो बहुत ही मोटा और ऊँचा है, जिसके नये-नये पल्लव चाहते हैं, जो भवसागरसे तारनेवाला है। मुंगेके समान लाल है, पत्ते मरकत मणिके सदृश नीले हैं, सूतजीने कहा-मुनियो ! वृन्दावनमें विचरने- कलिकाएँ मोतीके प्रभा-पुञ्जकी भाँति शोभा पा रही हैं वाले जगदात्मा श्रीकृष्णके, जो गौओं, बालों और और नाना प्रकारके फल पद्यराग मणिके समान जान पड़ते गोपियोंके प्राण हैं, ध्यानका वर्णन आप सब लोग हैं। समस्त ऋतुएँ सदा ही उस वृक्षकी सेवामें रहती है सुने। द्विजवरो ! एक समय महर्षि गौतमने देवर्षि तथा वह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। नारदजीसे यही बात पूछी थी। नारदजीने उनसे जिस सुहेमशिखरानले उदितभानुवद्धासुरापापनाशक ध्यानका वर्णन किया था, वही मैं आप- ममोऽस्य कनकस्थलीममृतशीकरासारिणः । लोगोंको बताता हूँ। प्रदीप्तमणिकुट्टिमा कुसुमरेणुपुझोज्ज्वला -- नारदजी कहते है स्मरेत्पुनरतन्द्रितो विगतषट्तरङ्गां बुधः ।। सुमनप्रकरसौरभोदलितमाध्विकाशुल्लस फिर आलस्यरहित हो विद्वान् पुरुष धारावाहिकरूपसे सुशाखिनवपल्लवप्रकरननशोभायुतम् । अमृतकी बूंदें बरसानेवाले उस कल्पवृक्षके नीचे सुवर्णमयी प्रफुल्लनवमञ्जरीललितवल्लरीवेष्टितं वेदीकी भावना करे, जो मेरु गिरिपर उगे हुए सूर्यकी भाँति स्मरेत सततं शिवं सितमतिः सुवृन्दावनम् ॥ प्रभासे उद्भासित हो रही है, जिसका फर्श जगमगाती हुई । ध्यान करनेवाले मनुष्यको सदा शुद्धचित्त होकर मणियोंसे बना है, जो फूलोंके पराग-पुञ्जसे कुछ धवल पहले उस परम कल्याणमय सुन्दर वृन्दावनका चिन्तन वर्णको हो गया है तथा जहाँ क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और करना चाहिये, जो फूलोंके समुदाय, मनोहर सुगन्ध और जरा-मृत्यु-ये छः ऊर्मियाँ नहीं पहुँचने पाती। बहते हुए मकरन्द आदिसे सुशोभित सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंके तलकुट्टिमनिविष्टमहिष्ठयोगनूतन पल्लवोंसे झुका हुआ शोभा पा रहा है तथा खिलो पीठेऽष्टपत्रमरुण कमलं विचिन्त्य । हुई नवल मञ्जरियों और ललित लताओसे आवृत है। उद्यद्विरोचनसरोचिरमुष्य मध्ये प्रवालनवपल्लवं मरकतच्छदं मौक्तिक संचिन्तयेत् सुखनिविष्टमयो मुकुन्दम् ।। प्रभाप्रकरकोरकं कमलरागनानाफलम्। उस रत्नमय फर्शपर रखे हुए एक विशाल योग
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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