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________________ १४० . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .. [संक्षिप्त पद्मपुराण स्वभावसे ही दीन एवं दयनीय है। शास्त्रोंमें यह महान् रहता है। किन्तु महादेवजी अचल और स्थिर है। वे जात फलदायक वचन अनेकों बार निःसन्देहरूपसे दुहराया नहीं, जनक हैं-पुत्र नहीं, पिता हैं। उनपर बुढ़ापेका गया है कि शुभलक्षणोंसे सम्पन्न सुशीला कन्या दस आक्रमण नहीं होता। वे जगत्के स्वामी और आधिपुत्रोंके समान है। किन्तु आपने मेरी कन्याके शरीरमें व्याधिसे रहित हैं। इसके सिवा जो मैंने तुम्हारी कन्याको केवल दोषोंका ही संग्रह बताया है। ओह ! यह सुनकर लक्षणोंसे रहित बताया है, उस वाक्यका ठीक-ठीक मुझपर मोह छा गया है, मैं सूख गया हूँ, मुझे बड़ी भारी विचारपूर्ण तात्पर्य सुनो। शरीरके अवयवोंमें जो चिह्न या ग्लानि और विषाद हो रहा है। मुने ! मुझपर अनुग्रह रेखाएँ होती हैं, वे सीमित आयु, धन और सौभाग्यको करके इस कन्यासम्बन्धी दुःखका निवारण कीजिये। व्यक्त करनेवाली होती है; परन्तु जो अनन्त और अप्रमेय देवर्षे ! आपने कहा है कि इसके पतिका जन्म ही नहीं है, उसके अमित सौभाग्यको सूचित करनेवाला कोई हुआ है।' यह ऐसा दुर्भाग्य है, जिसकी कहीं तुलना नहीं चिह्न या लक्षण शरीरमें नहीं होता। महामते ! इसीसे मैंने है। यह अपार और दुःसह दुःख है। हाथों और पैरोंमें बतलाया है कि इसके शरीरमें कोई लक्षण नहीं है। इसके जो रेखाएं बनी होती हैं, वे मनुष्य अथवा देवजातिके अतिरिक्त जो यह कहा गया है कि इसका एक हाथ सदा लोगोंको शुभ और अशुभ फलकी सूचना देनेवाली हैं; उत्तान रहेगा, उसका आशय यह है-वर देनेवाला हाथ सो आपने इसे लक्षणहीन बताया है। साथ ही यह भी उत्तान होता है। देवीका यह हाथ वरद मुद्रासे युक्त होगा। कहा है कि इसका एक हाथ सदा उत्तान रहेगा।' परन्तु यह देवता, असुर और मुनियोंके समुदायको वर देनेवाली उत्तान हाथ तो सदा याचकोंका ही होता है-वे ही होगी तथा जो मैंने इसके चरणोंको उत्तम कान्ति और सबके सामने हाथ फैलाकर माँगते देखे जाते है। जिनके व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त बताया है, उसकी व्याख्या भी शुभका उदय हुआ है, जो धन्य तथा दानशील हैं, उनका मेरे मुंहसे सुनो-'गिरिश्रेष्ठ ! इस कन्याके चरण हाथ उत्तान नहीं देखा जाता । आपने इसकी उत्तम कान्ति कमलके समान अरुण रंगके हैं। इनपर नखोंकी उज्ज्वल बतानेके साथ ही यह भी कहा है कि इसके चरण कान्ति पड़नेसे स्वच्छता (श्वेत कान्ति) आ गयी है। व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त है; अतः मुने ! उस चिह्नसे भी देवता और असुर जब इसे प्रणाम करेंगे, तब उनके मुझे कल्याणकी आशा नहीं जान पड़ती।' ..... किरीटमें जड़ी हुई मणियोंकी कान्ति इसके चरणोंमें . नारदजी बोले-गिरिराज ! तुम तो अपार हर्षके प्रतिबिम्बित होगी। उस समय ये चरण अपना स्वाभाविक स्थानमें दुःखकी बात कर रहे हो। अब मेरी यह बात रंग छोड़कर विचित्र रंगके दिखायी देंगे। उनके इस सुनो। मैंने पहले जो कुछ कहा था, वह रहस्यपूर्ण था। परिवर्तन और विचित्रताको ही व्यभिचार कहा गया है इस समय उसका स्पष्टीकरण करता हूँ, एकाग्रचित्त [अतः तुम्हें कोई विपरीत आशङ्का नहीं करनी चाहिये] । होकर श्रवण करो। हिमाचल ! मैंने जो कहा था कि इस महीधर ! यह जगत्का भरण-पोषण करनेवाले वृषभदेवीके पतिका जन्म नहीं हुआ है, सो ठीक ही है। इसके ध्वज महादेवजीकी पत्नी है। यह सम्पूर्ण लोकोंकी जननी पति महादेवजी हैं। उनका वास्तवमें जन्म नहीं हुआ तथा भूतोंको उत्पन्न करनेवाली है। इसकी कान्ति परम है-वे अजन्मा है। भूत, भविष्य और वर्तमान जगत्की पवित्र है। यह साक्षात् शिवा है और तुम्हारे कुलको उत्पत्तिके कारण वे ही हैं। वे सबको शरण देनेवाले एवं पवित्र करनेके लिये ही इसने तुम्हारी पत्रीके गर्भसे जन्म शासक, सनातन, कल्याणकारी और परमेश्वर हैं। यह लिया है। अतः जिस प्रकार यह शीघ्र ही पिनाकधारी ब्रह्माण्ड उन्हींक संकल्पसे उत्पन्न हुआ है। ब्रह्माजीसे भगवान् शङ्करका संयोग प्राप्त करे, उसी उपायका तुम्हें लेकर स्थावरपर्यन्त जो यह संसार है, वह जन्म, मृत्यु विधिपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये। ऐसा करनेसे आदिके दुःखसे पीड़ित होकर निरन्तर परिवर्तित होता देवताओंका एक महान् कार्य सिद्ध होगा।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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