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________________ सृष्टिखण्ड ] • पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका शिवजीके साथ विवाह . १३९ भी पार्वतीदेवीका पिनाकधारी भगवान् शङ्करके साथ तुम धन्य हो, जिसकी गुफामें लोकनाथ भगवान् शङ्कर शान्तिपूर्वक ध्यान लगाये बैठे रहते हैं।' पुलस्त्यजी कहते हैं-देवर्षि नारदकी यह बात समाप्त होनेपर गिरिराज हिमालयकी रानी मेना मुनिका दर्शन करनेकी इच्छासे उस भवनमें आयीं। वे लज्जा और प्रेमके भारसे झकी हुई थीं। उनके पीछे-पीछे उनकी कन्या भी आ रही थी। देवर्षि नारद तेजकी राशि जान पड़ते थे, उन्हें देखकर शैलपत्नीने प्रणाम किया। उस समय उनका मुख अञ्चलसे ढका था और कमलके समान शोभा पानेवाले दोनों हाथ जुड़े हुए थे। अमिततेजस्वी देवर्षिने महाभागा मेनाको देखकर अपने अमृतमय आशीर्वादोंसे उन्हें प्रसन्न किया। उस समय गिरिराजकुमारी उमा अद्भुत रूपवाले नारद मुनिकी ओर चकित चित्तसे देख रही थी। देवर्षिने नेहमयी वाणीमें कहा-'बेटी! यहाँ आओ।' उनके इस प्रकार बुलानेपर उमा पिताके गलेमें बाँहें डालकर उनकी गोदमें बैठ गयी। तब उसकी माताने कहा-'बेटी ! देवर्षिको संयोग हो, उसके लिये हमारे पक्षके सब लोगोंको शीघ्र प्रणाम करो।' उमाने ऐसा ही किया। उसके प्रणाम कर उद्योग करना चाहिये। लेनेपर माताने कौतूहलवश पुत्रीके शारीरिक लक्षणोंको इन्द्रसे उनका सारा कार्य समझ लेनेके पश्चात् जाननेके लिये अपनी सखीके मुँहसे धीरसे कहलायानारदजीने उनसे विदा ली और शीघ्र ही गिरिराज 'मुने ! इस कन्याके सौभाग्यसूचक चिह्नोंको देखनेकी हिमालयके भवनके लिये प्रस्थान किया। गिरिराजके कृपा करें।' मेनाकी सखीसे प्रेरित होकर महाभाग द्वारपर, जो विचित्र बेतकी लताओंसे हरा-भरा था, मुनिवर नारदजी मुसकराते हुए बोले-'भद्रे ! इस पहुँचनेपर हिमवान्ने पहले ही बाहर निकलकर मुनिको कन्याके पतिका जन्म नहीं हुआ है, यह लक्षणोंसे रहित प्रणाम किया। उनका भवन पृथ्वीका भूषण था। उसमें है। इसका एक हाथ सदा उत्तान (सीधा) रहेगा। इसके प्रवेश करके अनुपम कान्तिवाले मुनिवर नारदजी एक चरण व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त हैं; किन्तु उनकी कान्ति बहुमूल्य आसनपर विराजमान हुए। फिर हिमवान्ने उन्हें बड़ी सुन्दर होगी। यही इसका भविष्यफल है।' यथायोग्य अर्घ्य, पाद्य आदि निवेदन किया और बड़ी नारदजीकी यह बात सुनकर हिमवान् भयसे घबरा मधुर वाणीमें नारदजीके तपकी कुशल पूछी। उस समय उठे, उनका धैर्य जाता रहा, वे आँसू बहाते हुए गद्द गिरिराजका मुखकमल प्रफुल्लित हो रहा था । मुनिने भी कण्ठसे बोले-'अत्यन्त दोषोंसे भरे हुए संसारकी गति गिरिराजकी कुशल पूछते हुए कहा-'पर्वतराज! दुर्विज्ञेय है-उसका ज्ञान होना कठिन है। शास्त्रकारोंने तुम्हारा कलेवर अद्भुत है। तुम्हारा स्थान धर्मानुष्ठानके शास्त्रोंमें पुत्रको नरकसे त्राण देनेवाला बनाकर सदा लिये बहुत ही उपयोगी है। तुम्हारी कन्दराओंका विस्तार पुत्रप्राप्तिकी ही प्रशंसा की है; किन्तु यह बात प्राणियोंको विशाल है। इन कन्दराओंमें अनेकों पावन एवं तपस्वी मोहमें डालनेके लिये है। क्योंकि स्वीके बिना किसी मुनियोंने आश्रय ले तुम्हें पवित्र बनाया है। गिरिराज ! जीवकी सृष्टि हो ही नहीं सकती। परन्तु स्त्री-जाति
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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